[(26 सितम्बर, 1883) परिच्छेद ~ 55, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
[साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद) साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ]
*परिच्छेद ५५*
(१)
*कलियुग माँ भवतारिणी के मन्दिर जाना ईश्वर-कृपा है *
आज बुधवार है; भाद्रपद की कृष्णा दशमी, 26 सितम्बर,1883 ई. । बुधवार को भक्तों का समागम कम होता है, क्योंकि सब अपने काम में लगे रहते हैं । प्रायः रविवार को समय मिलने पर भक्तगण श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने आते हैं । मास्टर को स्कूल से आज डेढ़ बजे छुट्टी मिल गयी है । तीन बजे वे दक्षिणेश्वर कालीमंदिर में श्रीरामकृष्ण के पास पहुँचे । इस समय श्रीरामकृष्ण के पास प्रायः राखाल और लाटू रहते हैं । आज दो घण्टे पहले किशोरी आए हुए हैं । कमरे के भीतर श्रीरामकृष्ण छोटे तख्त पर बैठे हुए हैं । मास्टर ने आकर भूमिष्ठ हो प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण ने कुशल-प्रश्न पूछकर नरेंद्र की बात चलायी ।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - क्यों जी, क्या नरेन्द्र से भेंट हुई थी ? (सहास्य) नरेन्द्र ने कहा है, ‘वे अब भी कालीमन्दिर जाया करते हैं; जब ठीक ज्ञान हो जाएगा तब फिर वे कालीमन्दिर में नहीं जाएँगे ।’
“कभी कभी वह यहाँ आता है, इसलिये उसके घरवाले बहुत नाराज हैं । उस दिन यहाँ गाड़ी पर चढ़कर आया था । गाड़ी का किराया सुरेन्द्र ने दिया था । इस पर नरेन्द्र की बुआ सुरेन्द्र के यहाँ लड़ने गयी थी।”
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — হ্যাঁগা, নরেন্দ্রের সঙ্গে দেখা হয়েছিল? (সহাস্যে) নরেন্দ্র বলেছে, উনি এখনও কালীঘরে যান; ঠিক হয়ে যাবে, তখন আর কালীঘরে যাবেন না।“এখানে মাঝে মাঝে আসে বলে বাড়ির লোকেরা বড় ব্যাজার। সেদিন এখানে এসেছিল, গাড়ি করে। সুরেন্দ্র গাড়িভাড়া দিছল। তাই নরেন্দ্রের পিসী সুরেন্দ্রের বাড়ি গিয়ে ঝগড়া করতে গিছল।”
MASTER (to M.): "Have you seen Narendra lately? (With a smile) He said of me: 'He still goes to the Kali temple. But he will not when he truly understands.' His people are very much dissatisfied with him because he comes here now and then. The other day he came here in a hired carriage, and Surendra paid for it. Narendra's aunt almost had a row with Surendra about it."
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र की बात कहते हुए उठे । बातचीत करते हुए उत्तर-पूर्ववाले बरामदे में जाकर खड़े हुए । वहाँ हाजरा, राखाल आदि भक्तगण हैं । तीसरे पहर का समय है ।
श्रीरामकृष्ण- वाह, तुम तो आज खूब आ गए ! क्यों, स्कूल नहीं है क्या ?
मास्टर- आज डेढ़ बजे छुट्टी हो गयी थी ।
श्रीरामकृष्ण- इतनी जल्दी क्यों ?
मास्टर- विद्यासागर स्कूल देखने गए थे । स्कूल विद्यासागर का है, इसीलिए उनके आने पर लड़कों को आनन्द मनाने के लिए छुट्टी दी जाती है ।
*विद्यासागर और सत्यनिष्ठा *
*सत्यनिष्ठ रहने (चरित्र के गुणों को अर्जित करने) से ही ईश्वर मिलते हैं *
(God is found only by having integrity. God is found only by being honest.)
श्रीरामकृष्ण- विद्यासागर अपने वचन का पालन क्यों नहीं करता ? सन्त तुलसीदास ने कहा है -
“सत्यवचन- अधीनता, परस्त्री मातृसमान ।
ऐसेहु हरि न मिलै, तो तुलसी झूठ जबान ॥
सत्य बोलता रहे और परायी स्त्री को माता जाने, इन दो बातों से अगर राम न मिलें, तो तुलसीदास कहते हैं, मेरी बातों को झूठ समझो । सत्यनिष्ठ रहने से ही ईश्वर मिलते हैं । विद्यासागर ने उस दिन कहा था 'यहाँ आऊँगा', परन्तु फिर न आया ।”
{শ্রীরামকৃষ্ণ — বিদ্যাসাগর সত্যকথা কয় না কেন?“সত্যবচন, পরস্ত্রী মাতৃসমান। এই সে হরি না মিলে তুলসী ঝুটজবান।” সত্যতে থাকলে তবে ভগবানকে পাওয়া যায়। বিদ্যাসাগর সেদিন বললে, এখানে আসবে, কিন্তু এল না।
"Why doesn't Vidyasagar keep his word? 'If one who holds to truth and looks on woman as his mother does not realize God, then Tulsi is a liar.' If a man holds to truth he will certainly realize God. The other day Vidyasagar said he would come here and visit me. But he hasn't kept his word.
* पण्डित (Scholar-पुरोहित ) और संत (Prophet -नेता) में अंतर *
*"सर्वं विष्णुमयं जगत् " ~सच्चिदानन्द सागर से आया हुआ मण्डूक और कूपमण्डूक *
श्रीरामकृष्ण - “पण्डित (Scholar ) और साधु (Prophet,मार्गदर्शक नेता /पैगम्बर) में बड़ा अन्तर है । जो केवल पण्डित (विद्वान्-पुरोहित) है, उसका मन 'कामिनी-कांचन' पर है । सन्त का मन श्रीभगवान् के पादपद्मों में रहता है । पण्डित कहता कुछ है और करता कुछ है । साधु की बात जाने दो । जिनका मन ईश्वर के चरणारविन्दों में लगा रहता है, उनके कर्म और उनकी बातें और ही होती हैं । काशी में मैंने एक नानकपन्थी लड़का साधु देखा था । उसकी आयु तुम्हारे इतनी होगी । मुझे ‘प्रेमी साधु’ कहता था । काशी में उनका मठ है ।
एक दिन मुझे वहाँ न्यौता देकर ले गया । महन्त (PR) को देखा जैसे एक गृहिणी (housewife (Pda)। उससे मैंने पूछा, ‘उपाय क्या है ?’ उसने कहा, ‘कलियुग में नारदीय भक्ति चाहिये ।’ पाठ कर रहा था, पाठ में समाप्त होने पर कहा- ‘जले विष्णुः स्थले विष्णुर्विष्णुः पर्वतमस्तके । सर्वं विष्णुमयं जगत् ।’ सब के अन्त में कहा, ‘शान्तिः ! शान्तिः ! प्रशान्तिः !’
[जल में विष्णु, स्थल ( भूमि ) में विष्णु, पर्वत के मस्तक अर्थात् चोटी पर विष्णु, ज्वालासमूह अर्थात् अग्नि में विष्णु का निवास है । यह पूरा जगत अर्थात् संसार विष्णु से युक्त ( परिपूर्ण ) है । हमारा नारायण, हमारा भगवान, हमारा खुदा एकदेशीय नहीं है, हमारा भगवान कोई एक-कालीय नहीं है, हमारा परमात्मा एक ही आकृति में बँधा हुआ नहीं है। हमारा भगवान वह है। तुम्हारा और पूरे विश्व का वास्तविक में तो वही भगवान है। विष्णु की सर्वत्र विद्यमानता है !
मत (मजहब , संप्रदाय) मति के होते हैं। मत- मजहब मति से बनते हैं। दुनिया के सारे मत-मजहब -सम्प्रदाय जहाँ से प्रकाश पाते हैं वह परमात्मा ही वास्तव में सत्य है। जैसे, सागर से पानी वाष्पीभूत होकर आकाश में जाता है, बादल बनकर बरसता है, झरने होकर, छोटी बड़ी नदियाँ होकर बहता है, सरोवर होकर लहराता है। भूमि में उतरकर कूप में जाता है। पृथ्वी पर जो भी जलस्थान हैं वे सब सागर के ही प्रसाद हैं। सागर का एक मेढक दैवयोग से किसी कुएँ में पहुँचा। कुएँ का मेढक, कूपमण्डूक से पूछता हैः“तुम कहाँ से आये हो ?”“मैं विशाल सागर से आया हूँ।““सागर कितना बड़ा है ?”“बहुत बड़ा…. बहुत बड़ा….।““कितना बड़ा ?”“बहुत बड़ा।“कुएँ के मेढक ने छलाँग मारी… पूछाः
“इतना बड़ा ?”“नहीं…. इससे तो बहुत बड़ा।“कूपमण्डूक ने दूसरी बड़ी छलाँग, फिर तीसरी…. चौथी… पाँचवीं छलाँग लगाते हुए पूछा। सागर का मेंढक बोलता हैः“नहीं, नहीं भाई ! सागर तो इससे कई गुना बड़ा है। कूप और सागर की तुलना ही नहीं हो सकती।“आखिर कूपमण्डूक ने साँस फुलाकर अपनी पूरी ताकत से लम्बे में लम्बी छलाँग लगाई, एक छोर से दूसरे छोर तक। अहंकार में आकर कहने लगाः“इससे बड़ा तो तुम्हारा सागर हो भी नहीं सकता है।“तब सागर का मेढक बोलता हैः “भाई! तुम्हारे सारे कुएँ उस सागर के प्रसादमात्र हैं।“
इसी प्रकार तुम्हारे सारे मत, पंथ, मजहबरूपी कूप, जिनमें तुम छलाँगे मार-मारकर बड़प्पन की डींग हाँक रहे हो, वे सारे के सारे मजहब, मत, पंथ उस (देश-कालातीत सच्चिदानन्द समुद्र) सच्चिदानंदघन परमात्मा (Iceberg) के ही प्रसाद हैं। सब चिदघन चैतन्य का ही विवर्त है। जब सृष्टि नहीं बनी थी तब भी जो था, सृष्टि है और मत, मजहब कई आये और कई गये, कई बने, कई बदले, कई बिगड़े फिर भी जो सदा एकरस है वह सच्चिदानंद परमात्मा सबसे महान है, सबसे श्रेष्ठ है, सनातन सत्य "Existence-consciousness-bliss'-सच्चिदानन्द है।
मजहब पीर-पैगम्बरों ने बनाये हैं। पीर-पैगम्बरों को और मत-मतांतर बनाने वालों को जिस परमात्मा ने बनाया है। परमात्मा की जिस शक्ति जगतजननी जगदम्बा ने ईसा -मूसा -राम- जन्म दिया है; उस जन्मदेनेवाली जगन्माता ( माँ काली-दुर्गा -जगधात्री देवी-गॉड -अल्ला -राम जिस नाम से भी पुकारो ) की हम उपासना करेंगे। जो हमारे बाप का बाप है, दादाओं का दादा है, हमारे पूर्वजों का भी जो पूर्वज है, जिसमें से हमारे सब पूर्वज आये और लीन हो गये, प्राणिमात्र को सत्ता, स्फूर्ति, चेतना देने में जो संकोच नहीं करता उस निःसंकोच नारायण का हम ध्यान करते हैं।]
[“পণ্ডিত আর সাধু অনেক তফাত। শুধু পণ্ডিত যে, তার কামিনী-কাঞ্চনে মন আছে। সাধুর মন হরিপাদপদ্মে। পণ্ডিত বলে এক, আর করে এক। সাধুর কথা ছেড়ে দাও। যাদের হরিপাদপদ্মে মন তাদের কাজ, কথা সব আলাদা। কাশীতে নানকপন্থী ছোকরা সাধু দেখেছিলাম। তার উমের তোমার মতো। আমায় বলত ‘প্রেমী সাধু’ কাশীতে তাদের মঠ আছে; একদিন আমায় সেখানে নিমন্ত্রণ করে লয়ে গেল। মোহন্তকে দেখলুম, যেন একটি গিন্নী। তাকে জিজ্ঞাসা করলুম, ‘উপায় কি?’ সে বললে, কলিযুগে নারদীয় ভক্তি। পাঠ কচ্ছিল। পাঠ শেষ হলে বলতে লাগল — ‘জলে বিষ্ণুঃ স্থলে বিষ্ণুঃ বিষ্ণুঃ পর্বতমস্তকে। সর্বং বিষ্ণুময়ং জগৎ।’ সব শেষে বললে, শান্তিঃ শান্তিঃ প্রশান্তিঃ।”
"There is a big difference between a scholar and a holy man. The mind of a mere scholar is fixed on 'woman and gold', but the sadhu's mind is on the Lotus Feet of Hari. A scholar says one thing and does another. But it is quite a different matter with a sadhu. The words and actions of a man who has given his mind to the Lotus Feet of God are altogether different. In Benares I saw a young sannyasi who belonged to the sect of Nanak. He was the same age as you. He used to refer to me as the 'loving monk'. His sect has a monastery in Benares. I was invited there one day. I found that the mohant (PR) was like a housewife (Pda) . I asked him, 'What is the way?' 'For the Kaliyuga,' he said, 'the path of devotion as enjoined by Narada.' He was reading a book. When the reading was over, he recited: 'Vishnu is in water, Vishnu is on land, Vishnu is on the mountain top; the whole world is pervaded by Vishnu.' ^ At the end he said, 'Peace! Peace! Abiding Peace!'
*कलियुग में नारदीय भक्ति की शिक्षा देने वाला ही युगनायक (नेता ) है *
*कलियुग में वेदमत नहीं~ ‘उपाय है नारदीय भक्ति’ *
“एक दिन उसने गीतापाठ किया । हठ और दृढ़ता (so strict about his monastic rules)भी ऐसी कि विषयी आदमियों की ओर होकर न पढ़ता था । मेरी ओर होकर उसने पढ़ा । मथुरबाबू भी थे । उनकी ओर पीठ फेरकर पढ़ने लगा । उसी नानकपन्थी साधु ने कहा था, ‘उपाय है नारदीय भक्ति’ ।”
{“একদিন গীতা পাঠ করলে। তা এমনি আঁট, বিষয়ী লোকের দিকে চেয়ে পড়বে না! আমার দিকে চেয়ে পড়লে। সেজোবাবু ছিল। সেজোবাবুর দিকে পেছন ফিরে পড়তে লাগল। সেই নানকপন্থী সাধুটি বলেছিল, উপায়, ‘নারদীয় ভক্তি’।”
"One day he was reading the Gita. He was so strict about his monastic rules that he would not read a holy book looking at a worldly man. So he turned his face toward me and his back on Mathur, who was also present. It was this holy man who told me of Narada's path of devotion as suited to the people of the Kaliyuga."
*गायत्री ब्रह्ममन्त्र है , 'पुरश्चरण' तन्त्रोक्त (शाक्त) मत से भी होता है *
मास्टर- वे साधु क्या वेदान्तवादी नहीं हैं ?
[মাস্টার — ও-সাধুরা কি বেদান্তবাদী নয়?
M: "Are not sadhus of his class followers of the Vedanta?"
श्रीरामकृष्ण- हाँ, वे लोग वेदान्तवादी हैं, परन्तु भक्तिमार्ग भी मानते हैं । बात यह है कि अब कलिकाल में वेदमत नहीं चलता । एक ने कहा था, ‘मैं गायत्री का पुरश्चरण करूँगा ।’ मैंने कहा, ‘क्यों ? – कलि के लिए तो तन्त्रोक्त मत है । क्या तन्त्रोक्त मत से पुरश्चरण ^* नहीं होता ?’
[শ্রীরামকৃষ্ণ — হ্যাঁ, ওরা বেদান্তবাদী কিন্তু ভক্তিমার্গও মানে। কি জানো, এখন কলিযুগে বেদমত চলে না। একজন বলেছিল, গায়ত্রীর পুরশ্চরণ করব। আমি বললুম, কেন? কলিতে তন্ত্রোক্ত মত। তন্ত্রমতে কি পুরশ্চরণ হয় না?
"Yes, they are. But they also accept the path of devotion. The fact is that in the Kaliyuga one cannot wholly follow the path laid down in the Vedas. Once a man said to me that he would perform the purascharana of the Gayatri. I said: 'Why don't you do that according to the Tantra? In the Kaliyuga the discipline of Tantra is very efficacious.'
[पुरश्चरण ^* तांत्रिक साधनों में मंत्र जप का विशेष विधान है। किसी भी मंत्रसिद्धि के लिए जो प्रक्रिया की जाती है, उसे पुरश्चरण कहते हैं। इसके पांच भाग इस प्रकार हैं : जप, हवन, तर्पण, मार्जन तथा ब्राह्मण-भोजन। प्रत्येक मंत्र के लिए एक संख्या निर्धारित होती है। उस संख्या में जप करने से मंत्र सिद्ध हो जाता है। पुरश्चरण आरंभ करने से पहले विधिवत दीक्षा लेनी चाहिए।]
* 12 साल नौकरी के बाद,पेंशन खाने वाला मनुष्य दास बन जाता है*
“वैदिक कर्म बड़ा कठिन है । तिस पर फिर दासत्व करना । ऐसा भी लिखा है कि बारह साल या इसी तरह कुछ दिन दासता * करते रहने पर [*foreign rule, या सरकारी घूस खाने वाली नौकरी?] मनुष्य दास ही बन जाता है । इतने दिनों तक जिनकी दासता की, उन्हीं की सत्ता उसमें आ जाती है । उनका रज, तम, जीव-हिंसा, विलास, ये सब आ जाते हैं-उनकी सेवा करते हुए । केवल दासता ही नहीं, ऊपर से पेन्शन भी खाता है!
[“বৈদিক কর্ম বড় কঠিন। তাতে আবার দাসত্ব। এমনি আছে যে, বার বছর না কত ওইরকম দাসত্ব করলে তাই হয়ে যায়। যাদের অতদিন দাসত্ব করলে, তাদের সত্তা পেয়ে যায়! তাদের রজঃ, তমোগুণ, জীব-হিংসা, বিলাস — এই সব এসে পড়ে, তাদের সেবা করতে করতে। শুধু দাসত্ব নয়, আবার পেনশন খায়।]
"It is extremely difficult to perform the rites enjoined in the Vedas. Further, at the present time people lead the life of slaves.4 It is said that those who serve others for twelve years or so become slaves. They acquire the traits of those they serve. While serving their masters they acquire the rajas, the tamas, the spirit of violence, the love of luxury, and the other traits of their masters. Not only do they serve their masters, but they also enjoy a pension after their term of service is over.
“एक वेदान्ती साधु आया था । मेघ देखकर नाचता था । आँधी और पानी देखकर उसे बड़ा आनन्द मिलता था । उसके ध्यान के समय अगर कोई उसके पास जाता था तो वह बहुत नाराज होता था । एक दिन मैं गया । जाने पर वह बहुत ही उकताया । वह सदा विचार करता था, ‘ब्रह्म सत्य हैं, संसार मिथ्या।’
माया के कारण अनेक रूप दिखायी दे रहे हैं, इसी विचार से वह अपने हाथ में रौशनी की झाड़-फानूस से एक प्रिज्म (prism) लिए फिरता था । झाड़फानूस (chandelier-शैन्डलीर) के प्रिज्म से देखो तो प्रकाश के कितने ही रंग (7 रंग) दीख पड़ते हैं, परन्तु वास्तव में रंग कोई भी नहीं है । उसी तरह ब्रह्म के सिवाय और कुछ भी नहीं हैं, परन्तु माया और अहंकार के कारण अनेक रूप दिखायी दे रहे हैं । किसी चीज को वह एक बार से अधिक न देखता था, जिससे कहीं माया न लग जाय आसक्ति न हो जाय । नहाते समय पक्षी को उड़ते हुए देखकर वह विचार करता था । हम दोनों एक साथ जंगल जाते थे ।
उसने जब यह सुना कि तालाब मुसलमानों का है तब उसमें से जल नहीं लिया । हलधारी ने उससे व्याकरण के प्रश्न किए; वह व्याकरण जानता था । व्यंजनवर्णों की बात हुई । तीन दिन यहाँ ठहरा था । एक दिन गंगाजी के किनारे पर शहनाई की आवाज सुनकर उसने कहा, जिसे ब्रह्मदर्शन होता है उसे इस तरह की आवाज सुनकर समाधि हो जाती है ।”
[“একটি বেদান্তবাদী সাধু এসেছিল। মেঘ দেখে নাচত, ঝড়বৃষ্টিতে খুব আনন্দ। ধ্যানের সময় কেউ কাছে গেলে বড় চটে যেত। আমি একদিন গিছলুম। যাওয়াতে ভারী বিরক্ত। সর্বদাই বিচার করত, ‘ব্রহ্ম সত্য, জগৎ মিথ্যা।’ মায়াতে নানারূপ দেখাচ্ছে, তাই ঝাড়ের কলম লয়ে বেড়াত। ঝাড়ের কলম দিয়ে দেখলে নানা রঙ দেখা যায়; — বস্তুতঃ কোন রঙ নাই। তেমনি বস্তুতঃ ব্রহ্ম বই আর কিছু নাই, কিন্তু মায়াতে, অহংকারেতে নানা বস্তু দেখাচ্ছে। পাছে মায়া হয়, আসক্তি হয়, তাই কোন জিনিস একবার বই আর দেখবে না। স্নানের সময় পাখি উড়ছে দেখে বিচার করত। দুজনে বাহ্যে যেতুম। মুসলমানের পুকুর শুনে আর জল নিলে না। হলধারী আবার ব্যাকরণ জিজ্ঞাসা কল্লে, ব্যাকরণ জানে। ব্যঞ্জনবর্ণের কথা হল। তিনদিন এখানে ছিল। একদিন পোস্তার ধারে সানায়ের শব্দ শুনে বললে, যার ব্রহ্মদর্শন হয়, তার ওই শব্দ শুনে সমাধি হয়।”
"Once a Vedantic monk came here. He used to dance at the sight of a cloud. He would go into an ecstasy of joy over a rain-storm. He would get very angry if anyone went near him when he meditated. One day I came to him while he was meditating, and that made him very cross. He discriminated constantly, 'Brahman alone is real and the world is illusory.' Since the appearance of diversity is due to maya, he walked about with a prism from a chandelier in his hand. One sees different colours through the prism; in reality there is no such thing as colour. Likewise, nothing exists, in reality, except Brahman. But there is an appearance of the manifold because of maya, egoism. He would not look at an object more than once, lest he should be deluded by maya and attachment. He would discriminate, while taking his bath, at the sight of birds flying in the sky. He knew grammar. He stayed here for three days. One day he heard the sound of a flute near the embankment and said that a man who had realized Brahman would go into samadhi at such a sound."
(२)
*जादूगर ही सत्य है , उसका जादू नहीं*
श्रीरामकृष्ण साधुओं (मार्गदर्शक नेता,C-IN-C ) की बात कहते हुए परमहंस की अवस्था बतलाने लगे। वही बालक की-सी चाल । मुँह पर हँसी जैसे एकदम फूट-फुटकर निकल रही है । कमर में कपड़ा नहीं, दिगम्बर; आँखें आनन्दसागर में तैरती हुई । श्रीरामकृष्ण फिर छोटे तख्त पर जा बैठे, फिर वही मन को मुग्ध कर देनेवाली बातें होने लगी ।
[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ সাধুদিগের কথা কহিতে কহিতে পরমহংসের অবস্থা দেখাইতে লাগিলেন। সেই বালকের ন্যায় চলন! মুখে এক-একবার হাসি যেন ফাটিয়া পড়িতেছে! কোমরে কাপড় নাই, দিগম্বর, চক্ষু আনন্দে ভাসিতেছে! ঠাকুর ছোট খাটটিতে আবার বসিলেন। আবার সেই মনোমুগ্ধকারী কথা।
While talking about the monk, the Master showed his devotees the manners and movements of a paramahamsa: the gait of a child, face beaming with laughter, eyes swimming in joy, and body completely naked. Then he again took his seat on the small couch and poured out his soul-enthralling words.
श्रीरामकृष्ण (मणि से)- मैंने न्यांगटा (तोतापुरी) से वेदान्त सुना था । ‘ब्रह्म सत्य है, संसार मिथ्या है ।’ बाजीगर आकर कितने ही तमाशे दिखाता है, आम के पौधे में आम भी लग जाता है । परन्तु है यह सब तमाशा । तमाशा दिखानेवाला बाजीगर ही सत्य है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — ন্যাংটার কাছে বেদান্ত শুনেছিলাম। “ব্রহ্ম সত্য, জগৎ মিথ্যা।” বাজিকর এসে কত কত বাজি করে; আমের চারা, আম পর্যন্ত হল। কিন্তু এ-সব বাজি। বাজিকরই সত্য।
MASTER (to M.): "I learnt Vedanta from Nangta: 'Brahman alone is real; the world is illusory.' The magician performs his magic. He produces a mango-tree which even bears mangoes. But this is all sleight of hand. The magician alone is real."
*जिस मन से मैं आकाश को नहीं समझता , उस मन की सम्मोहित अवस्था *
मणि- जीवन जैसे एक लम्बी नींद (मोहनिद्रा) है ! इतना ही समझता हूँ कि सब ठीक ठीक नहीं देख रहा हूँ । जिस मन से मैं आकाश को नहीं समझता, उसी मन से संसार को देख रहा हूँ न ? अतएव देखना किस तरह से ठीक होगा ?
[মণি — জীবনটা যেন একটা লম্বা ঘুম! এইটি বোঝা যাচ্ছে সব ঠিক দেখছি না। যে মনে আকাশ বুঝতে পারি না, সেই মন নিয়েই তো জগৎ দেখছি; অতএব কেমন করে ঠিক দেখা হবে?
M: "It seems that the whole of life is a long sleep. This much I understand, that we are not seeing things rightly. We perceive the world with a mind by which we cannot comprehend even the nature of the sky. So how can our perceptions be correct?"]
श्रीरामकृष्ण- एक तरह और है । आकाश को हम लोग ठीक नहीं देख रहे, जान पड़ता है वह जमीन से मिला हुआ है । अतएव आदमी सत्य कैसे देखे ? भीतर विकार (चित्त-भ्रम की अवस्था-Hypnotized अवस्था ) जो है ।
{ঠাকুর — আর একরকম আছে। আকাশকে আমরা ঠিক দেখছি না; বোধ হয়, যেন মাটিতে লোটাচ্ছে। তেমনি কেমন করে মানুষ ঠিক দেখবে? ভিতরে বিকার।
MASTER: "There is another way of looking at it. We do not see the sky rightly. It looks as if the sky were touching the ground at the horizon. How can a man see correctly? His mind is delirious, like the mind of a typhoid patient."
श्रीरामकृष्ण मधुर कंठ से गाने लगे -
ए कि विकार शंकरी, कृपा-चरणतरी पेले धन्वन्तरि !
अनित्य गौरव होलो अंगदाह,‘आमार आमार’ ए कि होलो पाप मोह;
(ताय) धनजन-तृष्णा ना होय विरह, किशे जीवन धोरि।।
अनित्य आलाप, कि पाप प्रलाप, सतत सर्वमंगले;
माया- काकनिद्रा ताहे दाशरथीर नयन यूगले;
हिंसारुप ताई शे उदरे कृमि, मिछे काजे भ्रमि, शेई होय भ्रमि ,
रोगे बाँचि कि ना बाँचि त्वन्नामे अरुचि, दिवा शर्वरि।।
এ কি বিকার শঙ্করী, কৃপা-চরণতরী পেলে ধন্বন্তরি!
অনিত্য গৌরব হল অঙ্গদাহ, আমার আমার একি হল পাপ মোহ;
(তায়) ধনজনতৃষ্ণা না হয় বিরহ, কিসে জীবন ধরি ৷৷
অনিত্য আলাপ, কি পাপ প্রলাপ, সতত সর্বমঙ্গলে;
মায়া-কাকনিদ্রা তাহে দাশরথির নয়নযুগলে;
হিংসারূপ তাহে সে উদরে কৃমি, মিছে কাজে ভ্রমি, সেই হয় ভ্রমি,
রোগে বাঁচি কি না বাঁচি ত্বন্নামে অরুচি দিবা শর্বরী ৷৷
*चित्तभ्रम का रोग (Hypnotized अवस्था) माँ काली -कृपा की औषधि से ही दूर होगा*
[काबुल एयरपोर्ट पर फिदायिनी हमला-(26.8.2021) कोई नहीं जानता कि तालिबानी अफगानिस्तान में मुसलमान -मुसलमानों को ही क्यों मार रहे हैं ? No one knows what they quarrel about]
(भावार्थ)- “हे शंकरि यह कैसा विकार है ? तुम्हारी कृपा-औषधि मिलने पर ही यह दूर होगा.....”
[What a delirious fever is this that I suffer from! O Mother, Thy grace is my only cure. . . .
“सचमुच यह विकार (जादू से हिप्नोटाईज़ेड अवस्था) या चित्तभ्रम की अवस्था (State of Delirium) तो है ही । देखो न, संसारी जीव आपस में लड़ते हैं, परन्तु जिस आधार पर लड़ते हैं वह बेजड़ है । लड़ाई भी कैसी ! तेरा यह हो, तेरा वह हो । कितनी चिल्लाहट और गालीगलौज !”
[“বিকার বইকি। দেখ না, সংসারীরা কোঁদল করে। কি লয়ে যে কোঁদল করে তার ঠিক নাই। কোঁদল কেমন! তোর অমুক হোক, তোর অমুক করি। কত চেঁচামেচি, কত গালাগাল!”
Continuing, the Master said: "Truly it is a state of delirium. Just see how worldly men quarrel among themselves. No one knows what they quarrel about. Oh, how they quarrel! 'May such and such a thing befall you!' How much shouting! How much abuse!"
[गृहस्थ जीवन में निरवच्छिन्न आनन्द (unbroken bliss) — संसार मजार कुटी]
मणि- मैंने किशोरी से कहा था, छूँछे सन्दूक में है कुछ नहीं नहीं, परन्तु आदमी खींचातानी कर रहे हैं, रूपये हैं, यह समझकर ।
“अच्छा, यह देह ही तो कुल अनर्थों का कारण है । यही सब देखकर ज्ञानी (नेंगटा , माँ के भक्त नहीं थे!) सोचते हैं, इस शरीर रूपी गिलाफ को छोड़ें तो जी बचे ।”
[মণি — কিশোরীকে বলেছিলাম, খালি বাক্সের ভিতর কিছু নাই — অথচ দুইজনে টানাটানি করছে — টাকা আছে বলে!“আচ্ছা, দেহটাই তো যত অনর্থের কারণ। ওই সব দেখে জ্ঞানীরা ভাবে খোলস ছাড়লে বাঁচি।” [ঠাকুর কালীঘরে যাইতেছেন।]
M: "I said to Kishori: "The box is empty; there is nothing inside. But two men pull at it from either side, thinking the box contains money.' Well, the body alone is the cause of all this mischief, isn't it? The jnanis see all this and say to themselves, 'What a relief one feels when this pillow-case of the body drops off.'"M: "I said to Kishori: "The box is empty; there is nothing inside. But two men pull at it from either side, thinking the box contains money.' Well, the body alone is the cause of all this mischief, isn't it? The jnanis (तोतापुरी) see all this and say to themselves, 'What a relief one feels when this pillow-case of the body drops off.'
श्रीरामकृष्ण- क्यों ? यदि इस संसार को धोखे की टट्टी कहा है, तो वहीँ इसे आनन्द की हवेली भी तो कहा गया है ! देह रही भी तो क्या ? मनुष्य चाहे तो इस संसार को वह आनन्द की हवेली में रूपान्तरि भी कर सकता है ।
[ঠাকুর — কেন? “এই সংসার ধোঁকার টাটি,” আবার “মজার কুটি”ও বলেছে। দেহ থাকলেই বা। “সংসার মজার কুটি” তো হতে পারে।
MASTER: "Why should you say such things? This world may be a framework of illusion', but it is also said that it is a 'mansion of mirth'. Let the body remain. One can also turn this world into a mansion of mirth."
मणि- निरवच्छिन्न आनन्द ^ यहाँ कहाँ है ?
[ মণি — নিরবচ্ছিন্ন আনন্দ কোথায়?
M: "But where is unbroken bliss in this world?"
श्रीरामकृष्ण- हाँ, यह ठीक है ।
श्रीरामकृष्ण कालीमन्दिर के सामने आए । माता को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया । मणि ने भी प्रणाम किया। श्रीरामकृष्ण कालीमन्दिर के सामने चबूतरे पर बिना किसी आसन के कालीमाता की ओर मुँह किए बैठे हुए हैं । केवल लाल धारीदार धोती पहने हैं । उसका कुछ हिस्सा पीठ पर पड़ा है और कुछ कन्धे पर । पीछे नाटमन्दिर का एक स्तम्भ है । पास ही मणि बैठे हैं ।
[ঠাকুর — হাঁ, তা বটে। ঠাকুর কালীঘরের সম্মুখে আসিয়াছেন। মাকে ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিলেন। মণিও প্রণাম করিলেন। ঠাকুর কালীঘরের সম্মুখে নিচের চাতালের উপর নিরাসনে মা-কালীকে সম্মুখ করিয়া বসিয়াছেন। পরনে কেবল লাল-পেড়ে কাপড়খানি, তার খানিকটা পিঠে ও কাঁধে। পশ্চাদ্দেশে নাটমন্দিরের একটি স্তম্ভ। কাছে মণি বসিয়া আছেন।
MASTER: "Yes, where is it?" Sri Ramakrishna stood in front of the shrine of Kali and prostrated himself before the Divine Mother. M. followed him. Then the Master sat on the lower floor in front of the shrine room, facing the blissful image, and leaned against a pillar of the natmandir. He wore a red-bordered cloth, part of which was on his shoulder and back. M. sat by his side.
*क्या यह मानव-शरीर केवल प्रारब्ध कर्मों का भोग करने के लिए मिला है ?*
मणि- यही अगर हुआ तो देहधारण की फिर क्या आवश्यकता है ? देख तो यह रहा हूँ कि कुछ कर्मों का भोग करने के लिए ही देह धारण करना होता है । वह क्या कर रहा है वही जाने । बीच में हम लोग पिस रहे हैं ।
[মণি — তাই যদি হল, তাহলে দেহধারণের কি দরকার? এ তো দেখছি কতকগুলো কর্মভোগ করবার জন্য দেহ। কি করছে কে জানে! মাঝে আমরা মারা যাই।
M: "Since there is no unbroken happiness in the world, why should one assume a body at all? I know that the body is meant only to reap the results of past action. But who knows what sort of action it is performing now? The unfortunate part is that we are being crushed."
श्रीरामकृष्ण- मटर का बीज अगर विष्ठा पर पड़ जाए तो भी मटर का ही पौधा निकलता है ।
(ঠাকুর — ছোলা বিষ্ঠকুড়ে পড়লেও ছোলাগাছই হয়।
"If a pea falls into filth, it grows into a pea-plant none the less."
मणि- फिर भी अष्ट-बन्धन तो हैं ही ।
মণি — তাহলেও অষ্টবন্ধন তো আছে?
*सच्चिदानन्द ही गुरु (पैगम्बर वरिष्ठ CINC) उनकी कृपा से ही मुक्ति*
श्रीरामकृष्ण- अष्ट बन्धन नहीं, अष्टपाश हैं तो इससे क्या ? उनकी कृपा दृष्टि होने पर एक क्षण में अष्टपाश छूट सकते हैं, किस तरह कि हजार साल के अँधेरे कमरे में दीपक ले जाने पर एक क्षण में अँधेरा दूर हो जाता है, थोड़ा थोड़ा करके नहीं जाता ।
बाजीगर का एक खेल तुमने देखा है? कितनी ही गाँठ लगी रस्सी का एक छोर वह एक जगह बाँध देता है और दूसरा छोर अपने हाथ से पकड़े रहता है । उसने रस्सी को हिलाया नहीं कि सब ग्रन्थियाँ एक साथ खुल गयीं । परन्तु दूसरा आदमी चाहे लाख उपाय करे, उसे खोल नहीं सकता । श्रीगुरु की कृपा से सब ग्रन्थियाँ एक क्षण में ही खुल जाती हैं ।
[ঠাকুর — অষ্টবন্ধন নয়, অষ্টপাশ। তা থাকলেই বা। তাঁর কৃপা হলে এক মুহূর্তে অষ্টপাশ চলে যেতে পারে। কিরকম জানো, যেমন হাজার বৎসরের অন্ধকার ঘর, আলো লয়ে এলে একক্ষণে অন্ধকার পালিয়ে যায়! একটু একটু করে যায় না! ভেলকিবাজি করে, দেখেছ? অনেক গেরো দেওয়া দড়ি একধার একটা জায়গায় বাঁধে, আর-একধার নিজের হাতে ধরে; ধরে দড়িটাকে দুই-একবার নাড়া দেয়। নাড়াও দেওয়া, আর সব গেরো খুলেও যাওয়া। কিন্তু অন্য লোকে সেই গেরো প্রাণপণ চেষ্টা করেও খুলতে পারে নাই। গুরুর কৃপা হলে সব গেরো এক মুহুর্তে খুলে যায়।
MASTER: "They are not eight bonds, but eight fetters. But what if they are? These fetters fall off in a moment, by the grace of God. Do you know what it is like? Suppose a room has been kept dark a thousand years. The moment a man brings a light into it, the darkness vanishes. Not little by little. Haven't you seen the magician's feat? He takes a string with many knots, and ties one end to something, keeping the other in his hand. Then he shakes the string once or twice, and immediately all the knots come undone. But another man cannot untie the knots however he may try. All the knots of ignorance come undone in the twinkling of an eye, through the guru's grace.
[^ " ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति" - ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही हो जाता है। (मुण्डक उप ० ३।२।९) *जगतरूपी धोखे की टट्टी को निरवच्छिन्न आनन्द (unbroken bliss) की हवेली में रूपान्तरित करो *To attain Eternal Bliss (unbroken bliss). It is necessary for the householder to take Mahamandals 'Be & Make Leadership Training' गृहस्थ भक्त को अखण्ड आनन्द (निरवच्छिन्न आनन्द) प्राप्त करने के लिए 'बी एंड मेक लीडरशिप ट्रेनिंग' लेना जरूरी है। क्योंकि ...... सामान्य मानव चेतना सिर्फ इंन्द्रियों द्वारा जानी जाने वाली चीजों को ही देख सकती है। उससे परे नहीं देख सकती है। इन्द्रियातीत सत्य , या आध्यात्मिक चेतनाबोध होने पर सबसे पहले चेतनाबोध का परिवर्तन होता है। तब व्यक्ति को अनुभव होता है वह देह नहीं अथवा मन नहीं है, अपितु आत्मा है। यह लिख देना या कह देना आसान है, लेकिन इसका प्रत्यक्ष अनुभव अभी मुझे भी नहीं है। खैर, इसके बाद चेतना का विस्तार होता है। तब हमें अनुभव होता है कि हम सर्वव्यापी परमात्मा के अंश हैं। इसके और आगे बढ़ने पर अनुभव होता है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्ता है ।शंकराचार्य विवेकचूणामणि में ऐसे सौभाग्यशाली व्यक्ति के बारे में कहते हैं कि -जिसकी प्रज्ञा स्थिर है, जिसका आनन्द निरवच्छिन्न है, जिसके लिए जगत् प्रपन्च विस्मृत हो गया है, वह जीवन- मुक्त कहलाता है। उसकी बुद्धि ब्रह्म में लगी रहती है।इस विश्व के गुण और दोषयुक्त विषयों में जो सब जगह ब्रह्म के दर्शन करता है, वह जीव मुक्त कहलाता है। इस शरीर को चाहें सज्जन लोग सम्मानित करें या फिर दुर्जन लोग अपमानित करें, दोनों ही स्थियों में जो समभाव से बना रहता है, वह जीव मुक्त है। जिस प्रकार नदियों के जल से समुद्र के पानी में विक्रियां नहीं होती है, वैसे ही दूसरों द्वारा दिए गए विषयों से उसके चित्त में कोई चंचलता नहीं पैदा होती है, वह जीव मुक्त कहलाता है।शुभ और अशुभ सभी तरह के सांसारिक चिंतनों के प्रति उदासीन ये लोग अतिचेतनावस्था में विलीन हो जाते हैं। माँ सारदा की कृपा से इनमें से कुछ सिद्ध पुरुष करुणा रूप बनकर, लोकशिक्षा के लिए मानव जाति के आचार्यों/ नेता के रूप में संसार में लौट आते हैं।]
* केशवसेन के चरित्र में परिवर्तन का कारण जगतगुरु श्री रामकृष्ण *
“अच्छा, केशव सेन इतना बदल कैसे गया ? – बताओ तो । परन्तु यहाँ खूब आता था । यहीं से नमस्कार करना सीखा था । एक दिन मैंने कहा, साधुओं को इस तरह से नमस्कार नहीं करना चाहिए। एक दिन ईशान के साथ मैं गाड़ी पर कलकत्ता जा रहा था । उसने मुझसे केशव सेन की सब बातें सुनीं। हरीश अच्छा कहता है- यहाँ से सब चेक पास करा लेने होंगे, तब बैंक में रुपये मिलेंगे ।”
[“আচ্ছা, কেশব সেন এত বদলাল কেন, বল দেখি? এখানে কিন্তু খুব আসত। এখান থেকে নমস্কার করতে শিখলে। একদিন বললুম, সাধুদের ওরকম করে নমস্কার করতে নাই। একদিন ঈশানের সঙ্গে কলকাতায় গাড়ি করে যাচ্ছিলুম। সে কেশব সেনের সব কথা শুনলে। হরিশ বেশ বলে, এখান থেকে সব চেক পাশ করে নিতে হবে; তবে ব্যাঙ্কে টাকা পাওয়া যাবে।” (ঠাকুরের হাস্য)
"Well, can you tell me why Keshab Sen has changed so much lately? He used to come here very often. He learnt here how to bow low before a holy man. One day I told him that one should not salute a holy man as he had been doing. Harish says rightly: 'All the cheques must be approved here. Only then will they be cashed in the bank.'" (Laughter.)
मणि निर्वाक रहकर सब बातें सुन रहे हैं । अब वे समझ पा रहे हैं कि , गुरु के रूप में सच्चिदानन्द (जगतगुरु श्रीरामकृष्ण) स्वयं चेक पास करते हैं ...
[মণি অবাক্ হইয়া এই সকল কথা শুনিতেছেন। বুঝিলেন, গুরুরূপে সচ্চিদানন্দ চেক পাশ করেন।
M. listened to these words breathlessly. He began to realize that Satchidananda, in the form of the guru, passes the "cheque".
*मैं केवल इतना जानता हूँ , कि मैं कुछ नहीं जानता !*
श्रीरामकृष्ण- विचार न करना । उन्हें कौन जान सकता है ? न्यांगटा कहता था, मैंने सुन रखा है, उन्हीं के एक अंश से यह ब्रह्माण्ड बना है ।
“हाजरा में बड़ी विचारबुद्धि है । वह हिसाब करता है, इतने में संसार हुआ और इतना बाकी रह गया ! [(1/4) से ब्रह्माण्ड बना (3/4) ब्रह्माण्ड से परे है !] उसका हिसाब सुनकर मेरा माथा ठनकने लगता है । मैं जानता हूँ, मैं कुछ नहीं जानता । कभी तो उन्हें अच्छा सोचता हूँ और कभी उन्हें बुरा मानता हूँ । उनको मैं क्या समझूँगा ?”
[ঠাকুর — বিচার করো না। তাঁকে জানতে কে পারবে? ন্যাংটা বলত শুনে রেখেছি, তাঁরই এক অংশে এই ব্রহ্মাণ্ড। “হাজরার বড় বিচারবুদ্ধি। সে হিসাব করে, এতখানিতে জগৎ হল, এতখানি বাকি রইল। তার হিসাব শুনে আমার মাথা টনটন করে। আমি জানি, আমি কিছুই জানি না। কখনও তাঁকে ভাবি ভাল, আবার কখনও ভাবি মন্দ। তাঁর আমি কি বুঝব?”
"Do not reason. Who can ever know God? I have heard it from Nangta, once for all, that this whole universe is only a fragment of Brahman."Hazra is given to too much calculation. He says, 'This much of God has become the universe and this much is the balance.' My head aches at his calculations. I know that I know nothing. Sometimes I think of God as good, and sometimes as bad. What can I know of Him?"
मणि- जी हाँ, क्या कोई उन्हें समझ सकता है ? जिसकी जैसी बुद्धि है, उतनी ही से वह सोचता है, मैं सब कुछ समझ गया । आप जैसा कहते हैं, एक चींटी चीनी के पहाड़ के पास गयी थी, उसका जब एक दाने से पेट भर गया तब उसने कहा, अब की बार आऊँगी तो पूरे पहाड़ ही उठाकर अपने बिल में ले जाऊँगी !
মণি — আজ্ঞা হাঁ, তাঁকে কি বুঝা যায়? যার যেমন বুদ্ধি সেইটুকু নিয়ে মনে করে, আমি সবটা বুঝে ফেলেছি। আপনি যেমন বলেন, একটা পিঁপড়ে চিনির পাহাড়ের কাছে গিছল, তার একদানায় পেট ভরল বলে মনে করে — এইবারে পাহাড়টা বাসায় নিয়ে যাব।
M: "It is true, sir. Can anyone ever know God? Each thinks, with his little bit of intelligence, that he has understood all of God. As you say, an ant went to a sugar hill and, finding that one grain of sugar filled its stomach, thought that the next time it would take the entire hill into its hole."
*क्या ईश्वर को जाना जा सकता है ? उपाय शरणागति। *
श्रीरामकृष्ण - उन्हें कौन जान सकता है ? मैं जानने की चेष्टा भी नहीं करता। मैं केवल माँ कहकर पुकारता हूँ। माँ चाहे जो करें। उनकी इच्छा होगी तो साझाएंगी और इच्छा न होगी तो न समझाएंगी। इससे क्या है ?
मेरा स्वभाव बिल्ली के बच्चे की तरह है। बिल्ली का बच्चा केवल 'मिऊँ मिऊँ ' करके पुकारता है। इसके बाद उसकी माँ जहाँ रखती है , वहीँ रहता है। कभी कूड़े पर रखती है , कभी बाबूसाहब के बिस्तरे पर। छोटा बच्चा बस माँ को ही चाहता है।
माता का कितना ऐश्वर्य है , वह नहीं जानता। जानना भी नहीं चाहता। वह जानता है , मेरी माँ है ! मुझे क्या चिंता है ? नौकरानी का लड़का /लड़की भी जानते हैं - मेरी माँ हैं। बाबू के लड़के के साथ अगर लड़ाई हो जाती है तो वह कहता /कहती है - " मैं अपनी माँ से कह दूँगा /दूंगी। मेरे माँ हैं कि नहीं ? " मेरा भी संतान भाव है।
[ঠাকুর — তাঁকে কে জানবে? আমি জানবার চেষ্টাও করি না! আমি কেবল মা বলে ডাকি! মা যা করেন। তাঁর ইচ্ছা হয় জানাবেন, না ইচ্ছা হয়, নাই বা জানাবেন। আমার বিড়ালছাঁর স্বভাব। বিড়ালছাঁ কেবল মিউ মিউ করে ডাকে। তারপর মা যেখানে রাখে — কখনও হেঁসেলে রাখছে, কখনও বাবুদের বিছানায়। ছোটছেলে মাকে চায়। মার কত ঐশ্বর্য সে জানে না! জানতে চায়ও না। সে জানে, আমার মা আছে, আমার ভাবনা কি? চাকরানীর ছেলেও জানে, আমার মা আছে। বাবুর ছেলের সঙ্গে যদি ঝগড়া হয়, তা বলে, “আমি মাকে বলে দেব! আমার মা আছে!” আমারও সন্তানভাব।
MASTER: "Who can ever know God? I don't even try. I only call on Him as Mother. Let Mother do whatever She likes. I shall know Her if it is Her will; but I shall be happy to remain ignorant if She wills otherwise. My nature is that of a kitten. It only cries, 'Mew, mew!' The rest it leaves to its mother. The mother cat puts the kitten sometimes in the kitchen and sometimes on the master's bed. The young child wants only his mother. He doesn't know how wealthy his mother is, and he doesn't even want to know. He knows only, 'I have a mother; why should I worry?' Even the child of the maidservant knows that he has a mother. If he quarrels with the son of the master, he says: 'I shall tell my mother. I have a mother.' My attitude, too, is that of a child."
श्रीरामकृष्ण अकस्मात अपने को दिखाकर , अपनी छाती में हाथ लगाकर , मणि से कहते हैं - " अच्छा, इसमें कुछ है - तुम क्या कहते हो ? "
[হঠাৎ ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ আপনাকে দেখাইয়া নিজের বুকে হাত দিয়া মণিকে বলিতেছেন, “আচ্ছা এতে কিছু আছে; তুমি কি বল।
”Suddenly Sri Ramakrishna caught M.'s attention and said, touching his own chest: "Well, there must be something here. Isn't that so?"
मणि निर्वाक होकर श्रीरामकृष्ण को देख रहे हैं। शायद सोच रहे हैं - श्रीरामकृष्ण के हृदय में साक्षात् जगन्माता है। क्या जीवों के कल्याण के लिए माँ स्वयं देह धारण कर आयी हुई हैं ?
[তিনি আবাক্ হইয়া ঠাকুরকে দেখিতেছেন। বুঝি ভাবিতেছেন, ঠাকুরের হৃদয়মধ্যে কি সাক্ষাৎ মা আছেন! মা কি দেহধারণ করে এসেছেন? জীবের মঙ্গলের জন্য।
M. looked wonderingly at the Master. He said to himself; "Does the Mother Herself dwell in the Master's heart? Is it the Divine Mother who has assumed this human body for the welfare of (India and) humanity ?"
*काली-प्रतिमा में जगन्माता के दर्शन- कर्तव्य बुद्धि*
श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर में कालीमंदिर के सामने चबूतरे पर बैठे हैं। काली प्रतिमा में जगन्माता के दर्शन कर रहे हैं। (জগন্মাতাকে কালী-প্রতিমামধ্যে দর্শন করিতেছেন। ) पास ही मास्टर आदि भक्तगण बैठे हैं।
थोड़ी देर पहले श्रीरामकृष्ण ने कहा है , " ईश्वर के सम्बन्ध में अनुमान आदि लगाना व्यर्थ है। उनका ऐश्वर्य अनंत है। बेचारा मनुष्य क्या प्रकट कर सकेगा ! एक चींटी ने चीनी के पहाड़ के पास जाकर चीनी का एक कण खाया। उसका पेट भर गया। तब वह सोचने लगी , 'अब की बार आऊँगी तो पूरे पहाड़ को अपने बिल में उठा ले जाउंगी ! " [अब की बार -? 14 अप्रैल, 1992 के बाद ?]
“उन्हें क्या समझा जा सकता है ? इसीलिए मेरा बिल्ली के बच्चे का-सा भाव है । माँ जहाँ भी रख दे, मैं कुछ नहीं जानता । छोटे बच्चे नहीं जानते, माँ का कितना ऐश्वर्य है !”
[“তাঁকে কি বোঝা যায়। তাই আমার বিড়ালের ছানার ভাব, মা যেখানে রেখে দেয়। আমি কিছু জানি না। ছোট ছেলে মার কত ঐশ্বর্য তা জানে না।”
श्रीरामकृष्ण कालीमन्दिर के चबूतरे पर बैठे स्तुति कर रहे हैं, - ओ माँ ! (उमा) ओ माँ (उमा) ओंकार-रूपिणि ! माँ ! ये लोग कितना सब वर्णन करते हैं, माँ ! – कुछ समझ नहीं सकता ! कुछ नहीं जानता हूँ, माँ ! शरणागत! शरणागत ! केवल यही करो माँ ! जिससे तुम्हारे श्रीचरणकमलों में शुद्धा भक्ति हो ! अब और अपनी भुवनमोहिनी माया में मोहित न करो माँ ! शरणागत ! शरणागत !”
[ শ্রীরামকৃষ্ণ ৺কালীমন্দিরের চাতালে বসিয়া স্তব করিতেছেন, “ওমা! ওমা! ওঁকার-রূপিণী! মা! এরা কত কি বলে মা — কিছু বুঝিতে পারি না! কিছু জানি না মা! — শরণাগত! শরণাগত! কেবল এই করো যেন তোমার শ্রীপাদপদ্মে শুদ্ধাভক্তি হয় মা! আর যেন তোমার ভুবনমোহিনী মায়ায় মুগ্ধ করো না, মা! শরণাগত! শরণাগত!”
Sri Ramakrishna was praying to the Divine Mother: "O Mother! O Embodiment of Om! Mother, how many things people say about Thee! But I don't understand any of them. I don't know anything, Mother. I have taken refuge at Thy feet. I have sought protection in Thee. O Mother, I pray only that I may have pure love for Thy Lotus Feet, love that seeks no return. And Mother, do not delude me with Thy world-bewitching maya. I seek Thy protection. I have taken refuge in Thee."
मन्दिर में आरती हो गयी । श्रीरामकृष्ण कमरे में छोटे तख्त पर बैठे हैं । महेन्द्र जमीन पर बैठे हैं ।
[ঠাকুরবাড়ির আরতি হইয়া গেল, শ্রীরামকৃষ্ণ ঘরে ছোট খাটটিতে বসিয়া আছেন। মহেন্দ্র মেঝেতে বসিয়া আছেন।
The evening worship in the temples was over. Sri Ramakrishna was again seated in his room with M.]
महेन्द्र पहले-पहल श्री केशव सेन के ब्राह्मसमाज में हमेशा जाया करते थे। श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने के बाद फिर वहाँ नहीं जाते है । श्रीरामकृष्ण सदा जगन्माता के साथ वार्तालाप करते हैं यह देखकर वे बड़े विस्मित हुए हैं और उनकी सर्वधर्मसमन्वय की बात सुनकर तथा ईश्वर के लिए उनकी व्याकुलता को देखकर वे मुग्ध हो गए हैं ।
[মহেন্দ্র পূর্বে পূর্বে শ্রীযুক্ত কেশব সেনের ব্রাহ্মসমাজে সর্বদা যাইতেন। ঠাকুরকে দর্শনাবধি আর তিনি সেখানে যান না। শ্রীরামকৃষ্ণ সর্বদা জগন্মাতার সহিত কথা কন; তাহা দেখিয়া তিনি অবাক্ হইয়াছেন। আর তাঁহার সর্বধর্ম-সমন্বয় কথা শুনিয়া ও ঈশ্বরের জন্য ব্যাকুলতা দেখিয়া তিনি মুগ্ধ হইয়াছেন।
*भक्त के लिए माँ जगदम्बा अवतार देह धारण करती हैं *
महेन्द्र लगभग दो वर्ष से श्रीरामकृष्ण के पास आया-जाया करते हैं और उनका दर्शन तथा कृपा प्राप्त कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण उन्हें तथा अन्य भक्तों से सदा ही कहते हैं, “ईश्वर निराकार और फिर साकार भी हैं । भक्त के लिए वे देह धारण करते हैं ।”
जो लोग निराकारवादी हैं उनसे वे कहते हैं, “तुम्हारा जो विश्वास है उसे ही रखो । परन्तु यह जान लेना कि उनके लिए सभी कुछ सम्भव है । साकार और निराकार ही क्या, वे और भी बहुत कुछ बन सकते हैं ।”
[মহেন্দ্র ঠাকুরের কাছে প্রায় দুই বৎসর যাতায়াত করিতেছেন ও তাঁহার দর্শন ও কৃপালাভ করিতেছেন। ঠাকুর তাঁহাকে ও অন্যান্য ভক্তদের সর্বদাই বলেন, ঈশ্বর নিরাকার আবার সাকার; ভক্তের জন্য রূপধারণ করেন। যারা নিরাকারবাদী তাদের তিনি বলেন, তোমাদের যা বিশ্বাস তাই রাখবে, কিন্তু এটি জানবে যে, তাঁর সবই সম্ভব; সাকার নিরাকার; আর কত কি তিনি হতে পারেন।
M. had been visiting the Master for the past two years and had received his grace and blessings. He had been told that God was both with form and without form, that He assumed forms for the sake of His devotees. To the worshipper of the formless God, the Master said: "Hold to your conviction, but remember that all is possible with God. He has form, and again. He is formless. He can be many things more."
श्रीरामकृष्ण (महेन्द्र के प्रति)- तुमने तो एक को पकड़ लिया है – निराकार !
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মহেন্দ্রের প্রতি) — তুমি একটা তো ধরেছ — নিরাকার?
MASTER (to M.): "You have accepted an ideal, that of God without form — isn't that so?"
महेन्द्र – जी हाँ, परन्तु जैसा कि आप कहते हैं, सभी सम्भव है । साकार भी सम्भव है ।
[মহেন্দ্র —আজ্ঞে হাঁ, তবে আপনি যেমন বলেন, সবই সম্ভব; সাকারও সম্ভব।
M: "Yes, sir. But I also believe what you say — that all is possible with God. It is quite possible for God to have forms."
श्रीरामकृष्ण- बहुत अच्छा, और यह भी जानो कि वे चैतन्य रूप में चराचर विश्व में व्याप्त हैं ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — বেশ; আর জেনো তিনি চৈতন্যরূপর চরাচর বিশ্বে ব্যাপ্ত হয়ে রয়েছেন।
MASTER; "Good. Remember further that, as Consciousness, He pervades the entire universe of the living and non-living."
महेन्द्र- मैं समझता हूँ कि चेतन (conscious beings) के भी चेतयिता (consciousness)हैं ।
[মহেন্দ্র — আমি ভাবি, তিনি চেতনেরও চেতয়িতা।
M: "I think of Him as the consciousness in conscious beings."
श्रीरामकृष्ण- अब उसी भाव में रहो । खींचतान करके भाव बदलने की आवश्यकता नहीं है । धीरे धीरे जान सकोगे कि वह चेतनता उन्हीं की चेतनता है । वे ही चैतन्यस्वरूप हैं ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — এখন ওইভাবেই থাক; টেনে-টুনে ভাব বদলে দরকার নাই। ক্রমে জানতে পারবে যে, ওই চৈতন্য তাঁরই চৈতন্য। তিনি চৈতন্যস্বরূপ।
MASTER: "Stick to that ideal now. There is no need of tearing down and changing one's attitude. You will gradually come to realize that the consciousness in conscious beings is the Consciousness of God. He alone is Consciousness.
“अच्छा, तुम्हारा धन-दौलत पर मोह है ?”
[“আচ্ছা, তোমার টাকা ঐশ্বর্য এতে টান আছে?”
"Let me ask you one thing. Do you feel attracted to money and treasures?"
महेंद्र- जी नहीं ! परन्तु हाँ, इतना अवश्य सोचता हूँ कि निश्चिन्त होने के लिए –निश्चिन्त होकर भगवान् का चिन्तन करने के लिए धन की आवश्यकता होती है ।
[মহেন্দ্র — না, তবে নিশ্চিন্ত হবার জন্য — নিশ্চিন্ত হয়ে ভগবানচিন্তা করবার জন্য।
M: "No, sir. But I think of earning money in order to be free from anxiety, to be able to think of God without worry."
श्रीरामकृष्ण- वह तो होगी ही !
[শ্রীরামকৃষ্ণ — তা হবে বইকি।
MASTER: "Oh, that's perfectly natural."
महेन्द्र- क्या यह लोभ है ? मैं तो ऐसा नहीं समझता ।
[মহেন্দ্র — লোভ, না।M: "Is it greed? I don't think so."
श्रीरामकृष्ण- हाँ, ठीक है । नहीं तो तुम्हारे बच्चों को कौन देखेगा ?
“यदि तुम्हें ‘मैं अकर्ता हूँ’ यह ज्ञान हो जाए तो फिर तुम्हारे लड़कों का क्या होगा ?”
[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, তা বটে, তাহলে তোমার ছেলেদের কে দেখবে?“তোমার যদি অকর্তা জ্ঞান হয়, তাহলে ছেলেদের উপায় কি হবে?”
MASTER: "You are right. Otherwise, who will look after your children? What will become of them if you feel that you are not the doer?"
महेन्द्र- सुना है, कर्तव्य का बोध रहते ज्ञान नहीं होता । कर्तव्य मानो प्रखर सूर्य है ।
[মহেন্দ্র — শুনেছি, কর্তব্য থাকতে জ্ঞান হয় না। কর্তব্য মার্তণ্ড।
M: "I have heard that one cannot attain Knowledge as long as one has the consciousness of duty. Duty is like the scorching sun."
श्रीरामकृष्ण- अभी उसी भाव में रहो । इसके बाद जब यह कर्तव्यबुद्धि स्वयं ही चली जाएगी तब फिर दूसरी बात है । सभी थोड़ी देर चुप रहे ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — এখন ওইভাবে থাক; তারপর যখন আপনি সেই কর্তব্যবোধ যাবে তখন আলাদা কথা।সকলেই কিয়ৎকাল চুপ করিয়া রহিলেন।
MASTER: "Keep your present attitude. It will be different when the consciousness of duty drops away of itself."They remained silent a few minutes.
महेन्द्र- केवल थोड़ा ही ज्ञानलाभ (अधुराज्ञान) होने से तो संसार और भी कष्टप्रद है । यह तो ऐसा होता है मानो होश सहित मृत्यु । जैसे-हैजा !
[মহেন্দ্র — কতক জ্ঞানের পর সংসার! সে সজ্ঞানে মৃত্যু — ওলাউঠা!
M: "To enter the world after attaining partial knowledge! Why, it is like dying in full consciousness, as in cholera!"
श्रीरामकृष्ण- राम ! राम !
MASTER: "Oh, Ram! Ram!"
सम्भवतः इस कथन से महेन्द्र का तात्पर्य यह है कि मृत्यु के समय होश रहने पर अत्यधिक यन्त्रणा का अनुभव होता है, जैसे हैजे में होता है । थोड़े ज्ञानवाले का सांसारिक जीवन बड़ा दुःखमय होता है; क्योंकि वह यह समझ गया है कि संसार भ्रमात्मक है । अविद्या का संसार मानो दावाग्नि के सदृश है । सम्भव इसीलिए श्रीरामकृष्ण ‘राम ! राम !’ कह रहे हैं !
[মৃত্যু সময় জ্ঞান থাকলে খুব যন্ত্রণাবোধ হয়; যেমন কলেরাতে হয়। এই কথা বুঝি মহেন্দ্র বলছেন। অবিদ্যার সংসার দাবানল তুল্য — তাই বুঝি ঠাকুর “রাম! রাম!” বলিতেছেন।
The idea in M.'s mind was that just as a cholera patient feels excruciating pain at the time of death, because of retaining consciousness, so also a jnani with partial knowledge must feel extremely miserable leading the life of the world, which he knows to be illusory.
महेन्द्र- और दूसरी श्रेणी के लोग, जो पूर्ण अज्ञानी हैं, वे मानो मियादी बुखार से पीड़ित हैं । वे मृत्यु के समय बेहोश हो जाते हैं और इससे उन्हें मृत्यु की यन्त्रणा का अनुभव नहीं होता ।
[মহেন্দ্র — অন্যলোক তবু বিকারের রোগী, অজ্ঞান হয়ে যায়; মৃত্যুযন্ত্রণা বোধ থাকে না।
M: "People who are completely ignorant are like typhoid patients, who remain unconscious at the time of death and so do not feel the pain."
श्रीरामकृष्ण- देखो न, धन रहने से भी क्या ! जयगोपाल सेन कितने धनी हैं, परन्तु हैं दुःखी, लड़के उन्हें उतना नहीं मानते ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখ না, টাকা থাকলেই বা কি হবে! জয়গোপাল সেন, অত টাকা আছে কিন্তু দুঃখ করে, ছেলেরা তেমন মানে না।
MASTER: "Tell me, what does one attain through money? Jaygopal Sen is such a wealthy man; but he complains that his children don't obey him."
महेन्द्र- संसार में क्या केवल निर्धनता ही दुःख है ? अतिरिक्त छः रिपु भी हैं और फिर उनके ऊपर रोग-शोक ।
[মহেন্দ্র — সংসারে কি শুধু দারিদ্রই দুঃখ? এদিকে ছয় রিপু, তারপর রোগ-শোক।
M: "Is poverty the only painful thing in the world? There are the six passions besides. Then disease and grief."
श्रीरामकृष्ण- फिर मान-मर्यादा, लोकमान्य बनने की इच्छा ।
“अच्छा, मेरा क्या भाव है ?”
[শ্রীরামকৃষ্ণ — আবার মান-সম্ভ্রম। লোকমান্য হবার ইচ্ছা।
MASTER: "And also name and fame, the desire to win people's recognition. Well, what do you think my attitude is?"
महेन्द्र- नींद खुल जाने पर मनुष्य का जी भाव होता है वही । उसे स्वयं का होश आ जाता है । ईश्वर के साथ सदा योग है ।
[মহেন্দ্র — ঘুম ভাঙলে মানুষের যা, যা — হবার তাই। ঈশ্বরের সঙ্গে সদা যোগ।
M: "It is like that of a man just awakened from sleep. He becomes aware of himself. You are always united with God."
*गुरु /नेता का दर्शन स्वप्न में भी होता है*
श्रीरामकृष्ण- तुम मुझे स्वप्न में देखते हो ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি আমায় স্বপ্নে দেখ?
MASTER: "Do you ever dream of me?"
महेन्द्र- हाँ, कई बार !
श्रीरामकृष्ण- कैसा ? कुछ उपदेश देते देखते हो ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ — কিরূপ? কিছু উপদেশ দিতে দেখ?
MASTER: "How? Did you dream of me as giving you instruction?"
महेन्द्र चुप रह गए ।
श्रीरामकृष्ण- जब जब मैं तुम्हें शिक्षा देता दिखायी दूँ तो यही समझो कि स्वयं सच्चिदानन्द ही यह कार्य कर रहे हैं ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — যদি দেখ আমাকে শিক্ষা দিতে, তবে জানবে সে সচ্চিদানন্দ।
MASTER: "If you ever see me instructing you, then know that it is Satchidananda Himself that does so."
इसके बाद महेन्द्र ने स्वप्न में जो कुछ देखा था सभी कह सुनाया । श्रीरामकृष्ण ने मन लगाकर सभी सुना ।
[মহেন্দ্র অতঃপর স্বপ্নে যাহা যাহা দেখিয়াছিলেন, তাহা সমস্ত বর্ণনা করিলেন। শ্রীরামকৃষ্ণ মনোযোগ দিয়া সমস্ত শুনিলেন।
\M. related his dream experiences to Sri Ramakrishna, who listened to them attentively.
श्रीरामकृष्ण (महेन्द्र के प्रति)- यह सब बहुत अच्छा है । तुम और तर्क-विचार न लाओ ! तुम लोग शाक्त (You are a follower of Sakti.) हो ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মহেন্দ্রের প্রতি) — এ খুব ভাল! তুমি আর বিচার এনো না। তোমরা শাক্ত।
MASTER (to M.): "That is very good. Don't reason any more. You are a follower of Sakti."
========================