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गुरुवार, 13 मई 2021

$$$$$$परिच्छेद ~ 31, [(22 अप्रैल 1883) परिच्छेद ~ 31, श्रीरामकृष्ण वचनामृत] *Water and Ice*सच्चिदानन्द ही गुरु है * *पैगम्बर वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण तथा ब्राह्म पुरोहित बेचाराम* * मनुष्य का भारत में जन्म - वेदान्त और ब्रह्मतत्त्व का प्रचार-प्रसार करने के लिए ही होता *हांसिते खेलिते आसिनी ए जगते, कोरिते होबे मोदेर मायेर-ई -साधना।

परिच्छेद ~ 31 [ श्रीरामकृष्ण वचनामृत (22अप्रैल 1883)] 

[*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत {श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ]

  परिच्छेद ~ ३१ 

*सींती के ब्राह्मसमाज में ब्राह्मभक्तों के साथ*

(१) 

[परिच्छेद ~ 31,(22अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

*गृहस्थ जीवन में मुक्ति का उपाय; रो-रो कर माँ दुर्गा को पुकारो  * 
श्रीरामकृष्ण ने (Benimadhav Pal's garden house at Sinthi) श्री वेणी पाल के सींती के बगीचे में शुभागमन किया है । आज सींती के ब्राह्मसमाज का छःमाही महोत्सव (semi-annual festival of the Brahmo Samaj.) है । रविवार, चैत्र पूर्णिमा, 22 अप्रैल 1883 । तीसरे प्रहर का समय । अनेक ब्राह्मभक्त उपस्थित है । भक्तगण श्रीरामकृष्ण को घेरकर दक्षिण के बरामदे में आ बैठे । सायंकाल के बाद आदिसमाज के आचार्य श्री बेचाराम उपासना करेंगे । ब्राह्मभक्तगण बीच बीच में श्रीरामकृष्ण से प्रश्न कर रहे हैं । 
ब्राह्मभक्त- महाराज, मुक्ति का उपाय क्या है ? 
श्रीरामकृष्ण- उपाय अनुराग, अर्थात् उनसे प्रेम करना, और प्रार्थना । 
[শ্রীরামকৃষ্ণ — উপায় অনুরাগ, অর্থাৎ তাঁকে ভালবাসা। আর প্রার্থনা।
"Attachment to God, or, in other words, love for Him. And secondly, prayer."
ब्राह्मभक्त- अनुराग या प्रार्थना ? 
श्रीरामकृष्ण- अनुराग पहले, फिर प्रार्थना । 
 ব্রাহ্মভক্ত — অনুরাগ না প্রার্থনা।
 "Which one is the way — love or prayer?"
श्रीरामकृष्ण सुर के साथ गाना गाने लगे- 'डाक देखि मन डाकार मोतो , केमोन श्यामा थाकते पारे'.....  
[“ডাক দেখি মন ডাকার মতো, কেমন শ্যামা থাকতে পারে..... ”
 जिसका भावार्थ यह है, - ‘हे मन, जैसे कोई बच्चा अपनी माँ को नहीं देखने पर रो-रो कर पुकारता है , वैसे ही तूँ भी तो पुकार कर देख; देखता हूँ श्यामा माँ कैसे दूर रहती है !   
—Cry to your Mother Syama with a real cry, O mind! And how can She hold Herself from you? How can Syama stay away? . . .

फिर बोले- “और सदा ही उनका नामगुणगान, कीर्तन और प्रार्थना करनी चाहिए । पुराने लोटे को रोज माँजना होगा, एक बार माँजने से क्या होगा? और विवेक-वैराग्य तथा संसार अनित्य है यह बुद्धि चाहिए।” 
{“আর সর্বদাই তাঁর নামগুণগান-কীর্তন, প্রার্থনা করতে হয়। পুরাতন ঘটি রোজ মাজতে হবে, একবার মাজলে কি হবে? আর বিবেক, বৈরাগ্য, সংসার অনিত্য, এই বোধ।”
"And one must always chant the name and glories of God and pray to Him. An old metal pot must be scrubbed even day. What is the use of cleaning it only once? Further, one must practise discrimination and renunciation; one must be conscious of the unreality of the world.")  
[परिच्छेद ~ 31,(22अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 
*क्या सभी गृहस्थ नेता (लोकशिक्षक) संसार त्याग करेंगे ?*
ब्राह्मभक्त- संसार छोड़ना क्या अच्छा है ?
[ব্রাহ্ম ভক্ত — সংসার ত্যাগ কি ভাল?
"Is it good to renounce the world?"
श्रीरामकृष्ण- सभी के लिए संसारत्याग ठीक नहीं । जिनके भोग का अन्त नहीं हुआ, उनसे संसारत्याग नहीं होता । रत्ती भर शराब से क्या मस्ती आती है ? 
[শ্রীরামকৃষ্ণ — সকলের পক্ষে সংসারত্যাগ নয়। যাদের ভোগান্ত হয় নাই তাদের পক্ষে সংসারত্যাগ নয়। দুআনা মদে কি মাতাল হয়? 
"Not for all. Those who have not yet come to the end of their enjoyments should not renounce the world. Can one get drunk on two annas' worth of wine?"
ब्राह्मभक्त- तो फिर वे लोग क्या संसार करेंगे ? 
[ব্রাহ্মভক্ত — তারা তবে সংসার করবে?  
"Then should they lead a worldly life?"
श्रीरामकृष्ण- हाँ, वे लोग निष्काम कर्म  की करने की चेष्टा करें । (Be and Make -आंदोलन के कर्मी बनने और बनाने की चेष्टा करें। * ) हाथ में तेल मलकर कटहल छीलें । धनियों के घर में दासियाँ सब काम करती हैं, परन्तु मन रहता है अपने निज के घर में; इसी का नाम निष्काम कर्म है ।* इसी के नाम है मन से त्याग । तुम लोग मन से त्याग करो । संन्यासी बाहर का त्याग और मन का त्याग दोनों ही करे। 
{ শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, তারা নিষ্কামকর্ম করবার চেষ্টা করবে। হাতে তেল মেখে কাঁঠাল ভাঙবে। বড় মানুষের বাড়ির দাসী সব কর্ম করে, কিন্তু দেশে মন পড়ে থাকে; এরই নাম নিষ্কামকর্ম।১ এরই নাম মনে ত্যাগ। তোমরা মনে ত্যাগ করবে। সন্ন্যাসী বাহিরের ত্যাগ আবার মনে ত্যাগ দুইই করবে।
"Yes, they should try to perform their duties in a detached way. Before you break the jack-fruit open, rub your hands with oil, so that the sticky milk will not smear them. The maidservant in a rich man's house performs all her duties, but her mind dwells on her home in the country. This is an example of doing duty in a detached way. You should renounce the world only in mind. But a sannyasi should renounce the world both inwardly and outwardly."

{*कर्मण्ये्वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । -गीता, २/४७, यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासियत् । 
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥ - गीता, ९/२७)  हे कौन्तेय ! तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब तुम मुझे अर्पण करो। ]

[ब्राह्मभक्त और भोगों का अन्त  - विद्या रूपिनी पत्नी के लक्षण - वैराग्य  कब होता है]

[परिच्छेद ~ 31,(22अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

* भोगों का अन्त (तीनो ऐषणाओं का अन्त)  हुए बिना त्याग नहीं होता *

ब्राह्मभक्त- भोग के अन्त का क्या अर्थ है? 
[ব্রাহ্মভক্ত — ভোগান্ত কিরূপ?
"What is the meaning of the 'end of enjoyments'?"
श्रीरामकृष्ण- कामिनी-कांचन भोग है । जिस कमरे में इमली का आचार और पानी की सुराही है, उस कमरे में यदि सन्निपात का रोगी (typhoid patient) रहे, तो मुश्किल ही है । रुपया, पैसा, मान, इज्जत, शारीरिक सुख ये सब भोग एक बार न हो जाने पर, - भोग का अन्त न होने पर, - ईश्वर के लिए सभी को व्याकुलता नहीं होती । 
[শ্রীরামকৃষ্ণ — কামিনী-কাঞ্চন ভোগ। যে ঘরে আচার তেঁতুল আর জলের জালা, সে ঘরে বিকারের রোগী থাকলে মুশকিল! টাকা-কড়ি, মান-সম্ভ্রম, দেহসুখ এই সব ভোগ একবার না হয়ে গেলে — ভোগান্ত না হলে — সকলের ইশ্বরের জন্য ব্যাকুলতা আসে না।
 "I mean the enjoyment of 'woman and gold'. It is risky to put a typhoid patient in a room where pitchers of water and jugs of pickled tamarind are kept. Most people don't feel any longing for God unless they have once passed through the experience of wealth, name, fame, creature comforts, and the like, that is to say, unless they have seen through these enjoyments.]
  [परिच्छेद ~ 31,(22अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

*विद्या रूपिनी पत्नी के लक्षण - 5 विषय की आसक्ति प्राणघातक * 

ब्राह्मभक्त- स्त्री-जाति खराब है या हम खराब है? 
[ব্রাহ্মভক্ত — স্ত্রীজাতি খারাপ, না আমরা খারাপ?
"Who is really bad, man or woman?"
श्रीरामकृष्ण- विद्यारुपिणी स्त्री भी है, और फिर अविद्यारुपिणी स्त्री भी है । विद्यारुपिणी स्त्री भगवान् की ओर ले जाती है और अविद्यारूपिणी स्त्री ईश्वर को भुला देती है, संसार में डूबा देती है । 

[ শ্রীরামকৃষ্ণ — বিদ্যারূপিণী স্ত্রীও আছে, আবার অবিদ্যারূপিণী স্ত্রীও আছে। বিদ্যারূপিণী স্ত্রী ভগবানের দিকে লয়ে যায়, আর অবিদ্যারূপিণী ঈশ্বরকে ভুলিয়ে দেয়, সংসারে ডুবিয়ে দেয়।
"As there are women endowed with vidyasakti, so also there are women with avidyasakti. A woman endowed with spiritual attributes leads a man to God, but a woman who is the embodiment of delusion (Bh)  makes him forget God and drowns him in the ocean of worldliness.
“उनकी महामाया से यह जगत्-संसार हुआ है । इस माया के भीतर विद्यामाया और अविद्यामाया दोनों ही हैं । विद्यामाया का आश्रय लेने पर साधुसंग की इच्छा, ज्ञान, भक्ति, प्रेम, वैराग्य ये सब होते हैं । पंचभूत तथा इन्द्रियों के भोग के विषय अर्थात् रूप (form)-रस-गन्ध-स्पर्श( touch)-शब्द, यह सब अविद्यामाया है । यह ईश्वर को भुला देती है ।” 

“তাঁর মহামায়াতে এই জগৎসংসার। এই মায়ার ভিতর বিদ্যা-মায়া অবিদ্যা-মায়া দুই-ই আছে। বিদ্যা-মায়া আশ্রয় করলে সাধুসঙ্গ, জ্ঞান, ভক্তি, প্রেম, বৈরাগ্য — এই সব হয়। অবিদ্যা-মায়া — পঞ্চভূত আর ইন্দ্রিয়ের বিষয় — রূপ, রস, গন্ধ, স্পর্শ, শব্দ; যত ইন্দ্রিয়ের ভোগের জিনিস; এরা ঈশ্বরকে ভুলিয়ে দেয়।”
"This universe is created by the Mahamaya  (The inscrutable (अनिर्वचनीय) Power of Illusion. of God.)  Mahamaya contains both vidyamaya, the illusion of knowledge, and avidyamaya, the illusion of ignorance. Through the help of vidyamaya one cultivates such virtues as the caste for holy company, knowledge, devotion, love, and renunciation. Avidyamaya consists of the five elements and the objects of the five senses — form, Flavour, smell, touch, and sound. These make one forget God."

  [परिच्छेद ~ 31,(22अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

*छिलका (अविद्यामाया )  रहने से ही आम (विद्यामाया) बढ़ता है और पकता है *

ब्राह्मभक्तअविद्या यदि अज्ञान पैदा करती है तो उन्होंने अविद्या को पैदा क्यों किया? 
[ব্রাহ্মভক্ত — অবিদ্যাতে যদি অজ্ঞান করে, তবে তিনি অবিদ্যা করেছেন কেন?
"If the power of avidya is the cause of ignorance, then why has God created it?"
श्रीरामकृष्ण- उनकी लीला । अन्धकार न रहने पर प्रकाश की महिमा समझी नहीं जा सकती । दुःख ने रहने पर सुख समझा नहीं जा सकता । बुराई का ज्ञान रहने पर ही भलाई का ज्ञान होता है । 
[শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁর লীলা, অন্ধকার না থাকলে আলোর মহিমা বোঝা ঝায় না। দুঃখ না থাকলে সুখ বোঝা যায় না। ‘মন্দ’ জ্ঞান থাকলে তবে ‘ভাল’ জ্ঞান হয়।
 "That is His play. The glory of light cannot be appreciated without darkness. Happiness cannot be understood without misery. Knowledge edge of good is possible because of knowledge of evil.
फिर आम पर छिलका है इसीलिए आम बढ़ता है और पकता है । आम जब तैयार हो जाता है उस समय छिलका फेंक देना पड़ता है । मायारूपी छिलका रहने पर ही धीरे धीरे ब्रह्मज्ञान होता है । विद्यामाया, अविद्यामाया, आम के छिलके की तरह हैं । दोनों ही आवश्यक हैं !” 

“আবার আছে খোসাটি আছে বলে তবে আমটি বাড়ে ও পাকে। আমটি তয়ের হয়ে গেলে তবে খোসা ফেলে দিতে হয়! মায়ারূপ ছালটি থাকলে তবেই ক্রমে ব্রহ্মজ্ঞান হয়। বিদ্যা-মায়া, অবিদ্যা-মায়া আমের খোসার ন্যায়; দুই-ই দরকার।”
"Further, the mango grows and ripens on account of the covering skin, You throw away the skin when the mango is fully ripe and ready to be eaten. It is possible for a man to attain gradually to the Knowledge of Brahman because of the covering skin of maya. Maya in its aspects of vidya and avidya may be likened to the skin of the mango. Both are necessary."
*माँ दुर्गा की मूर्ति पूजा से भक्ति *
ब्राह्मभक्त- अच्छा, साकार पूजा, मिट्टी से बनायी देवमूर्ति की पूजा-ये सब क्या ठीक हैं? 
[ব্রাহ্মভক্ত — আচ্ছা, সাকারপূজা, মাটিতে গড়া ঠাকুরপূজা — এ-সব কি ভাল?২
BRAHMO: "Sir, is it good to worship God with form, an image of the Deity made of clay?"
श्रीरामकृष्ण- तुम लोग साकार नहीं मानते हो, अच्छी बात है । तुम्हारे लिए मूर्ति नहीं भाव मुख्य है । तुम लोग आकर्षण मात्र को लो, जैसे श्रीकृष्ण पर राधा का आकर्षण, प्रेम । साकारवादी जिस प्रकार माँ काली, माँ दुर्गा की पूजा करते हैं, ‘माँ, माँ, कहकर पुकारते हैं, कितना प्यार करते हैं, तुम लोग इसी भाव को लो, मूर्ति को न भी मानो तो कोई बात नहीं है । 
{শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমরা সাকার মান না, তা বেশ; তোমাদের পক্ষে মূর্তি নয়, ভাব। তোমরা টানটুকু নেবে, যেমন কৃষ্ণের উপর রাধার টান, ভালবাসা। সাকারবাদীরা যেমন মা-কালী, মা-দুর্গার পূজা করে, ‘মা’ ‘মা’ বলে কত ডাকে কত ভালবাসে — সেই ভাবটিকে তোমরা লবে, মূর্তি না-ই বা মানলে।
 "You do not accept God with form. That is all right. The image is not meant for you. For you it is good to deepen your feeling toward your own Ideal. From the worshippers of the Personal God you should learn their yearning — for instance, Sri Krishna's attraction for Radha. You should learn from the worshippers of the Personal God their love for their Chosen Ideal. When the believers in the Personal God worship the images of Kali and Durga, with what feeling they cry from the depths of their souls, 'Mother! O Mother!' How much they love the Deity! You should accept that feeling. You don't have to accept the image."
  [परिच्छेद ~ 31,(22अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

* वैराग्य  कब होता है ?*
 
ब्राह्मभक्त- वैराग्य (या अनासक्ति) कैसे होता है? और सभी को क्यों नहीं होता? 
ব্রাহ্মভক্ত — বৈরাগ্য কি করে হয়? আর সকলের হয় না কেন?
"How does one cultivate the spirit of dispassion? Why don't all attain it?"

श्रीरामकृष्ण- भोग  की शान्ति हुए बिना वैराग्य (spirit of dispassion) नहीं होता । छोटे बच्चे को खाना और खिलौना देकर अच्छी तरह से भुलाया जा सकता है, परन्तु जब खाना हो गया और खिलौने के साथ खेल भी समाप्त हो गया तब वह कहता है, ‘माँ के पास जाऊँगा ।’ माँ के पास न ले जाने पर खिलौना पटक देता है और चिल्लाकर रोता है । 
{শ্রীরামকৃষ্ণ — ভোগের শান্তি না হলে বৈরাগ্য হয় না। ছোট ছেলেকে খাবার আর পুতুল দিয়ে বেশ ভুলানো যায়। কিন্তু যখন খাওয়া হয়ে গেল, আর পুতুল নিয়ে খেলা হয়ে গেল, তখন “মা যাব” বলে। মার কাছে নিয়ে না গেলে পুতুল ছুঁড়ে ফেলে দেয়, আর চিৎকার করে কাঁদে।
"Dispassion is not possible unless there is satiety through enjoyment. You can easily cajole a small child with candies or toys. But after eating the candies and finishing its play, it cries, "I want to go to my mother.' Unless you take the child to its mother, it will throw away the toy and scream at the top of its voice."

  [परिच्छेद ~ 31,(22अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 
*सच्चिदानन्द ही गुरु है * 

*गुरु रूप में कोई व्यक्ति तुम्हारे अन्दर आध्यात्मिक चेतना जाग्रत कर दे , तो जान लेना वही ईश्वर है !*

ब्राह्मभक्तगण गुरुवाद के  विरोधी हैं (गुरु -शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा के विरोधी हैं) । इसीलिए ब्राह्मभक्त इस सम्बन्ध में चर्चा कर रहे हैं । 
{ব্রাহ্মভক্তেরা গুরুবাদের বিরোধী। তাই ব্রাহ্মভক্তটি এ-সম্বন্ধে কথা কহিতেছেন।
The members of the Brahmo Samaj are opposed to the traditional guru system of orthodox Hinduism. Therefore the Brahmo devotee asked the Master about it.

ब्राह्मभक्त- महाराज, गुरु (मार्गदर्शक नेता) न होने पर क्या ज्ञान न होगा ? 
{ব্রাহ্মভক্ত — মহাশয়, গুরু না হলে কি জ্ঞান হবে না?
 "Is spiritual knowledge ^ इन्द्रियातीत सत्य का ज्ञान   impossible without a guru?" 

श्रीरामकृष्ण- सच्चिदानन्द ही गुरु हैं । यदि कोई मनुष्य गुरु के रूप में तुम्हारा अन्दर आध्यात्मिक चेतना जागृत कर दे तो जानो कि ईश्वर ने ही तुम पर कृपा करने के लिए उस रूप को धारण किया है । गुरु मानो सखा हैं ।[ यदि कोई व्यक्ति गुरु के रूप में तुम्हारे अंदर आध्यात्मिक चेतना जगा देता है, तो निश्चित रूप से जान लेना कि वह निरपेक्ष ईश्वर (परम् सत्य) ही है; जिसने तुम्हारा कल्याण करने के लिए उस मानव रूप को धारण किया है।
If a man in the form of a guru awakens spiritual consciousness in you, then know for certain that it is God the Absolute who has assumed that human form for your sake.] नवनीदा जैसा 'नेता', C-IN-C' मानो सखा हैं !] हाथ पकड़कर ले जाते हैं । भगवान् का दर्शन होने पर फिर गुरु-शिष्य का ज्ञान नहीं रह जाता । ‘वह बड़ा कठिन स्थान है, वहाँ पर गुरु-शिष्यों में साक्षात्कार नहीं होता ।’ इसीलिए जनक ने शुकदेव से कहा था, ‘यदि ब्रह्मज्ञान चाहते हो तो पहले दक्षिणा दो;’ क्योंकि ब्रह्मज्ञान हो जाने पर गुरु-शिष्यों में भेदबुद्धि नहीं रहेगी । जब तक ईश्वर का दर्शन नहीं होता, तभी तक गुरु-शिष्य का सम्बन्ध रहता है ।
{শ্রীরামকৃষ্ণ — সচ্চিদানন্দই গুরু; যদি মানুষ গুরুরূপে চৈতন্য করে তো জানবে যে, সচ্চিদানন্দই ওই রূপ ধারণ করেছেন। গুরু যেমন সেথো; হাত ধরে নিয়ে যান। ভগবানদর্শন হলে আর গুরুশিষ্য বোধ থাকে না। ‘সে বড় কঠিন ঠাঁই, গুরুশিষ্যে দেখা নাই!’ তাই জনক শুকদেবকে বললেন, ‘যদি ব্রহ্মজ্ঞান চাও আগে দক্ষিণা দাও।’ কেননা, ব্রহ্মজ্ঞান হলে আর শিষ্য ভেদবুদ্ধি থাকবে না। যতক্ষণ ঈশ্বরদর্শন না হয়, ততদিনই গুরুশিষ্য সম্বন্ধ।
 "Satchidananda alone is the Guru. If a man in the form of a guru awakens spiritual consciousness in you, then know for certain that it is God the Absolute who has assumed that human form for your sake. The guru is like a companion who leads you by the hand. After the realization of God, one loses the distinction between the guru and the disciple. 'That creates a very difficult situation; there the guru (मन) and the disciple do not see each other.'1 It was for this reason that Janaka said to Sukadeva, 'Give me first my teacher's fee if you want me to initiate you into the Knowledge of Brahman.' For the distinction between the teacher and the disciple ceases to exist after the disciple attains to Brahman. The relationship between them remains as long as the disciple does not see God."

  [परिच्छेद ~ 31,(22अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

*ईश्वरलाभ के बाद संध्यादि कर्मों का त्याग-पेन्शन *

थोड़ी देर में सन्ध्या हुई । ब्राह्मभक्तों में से कोई कोई श्रीरामकृष्ण से कह रहे हैं, “शायद अब आपको सन्ध्या करनी होगी ।” 
[ক্রমে সন্ধ্যা হইল। ব্রাহ্মভক্তেরা কেহ কেহ ঠাকুরকে বলিতেছেন, “আপনার বোধহয় এখন সন্ধ্যা করতে হবে।”
It was dusk. Some of the Brahmo devotees said to the Master, "Perhaps it is time for your evening devotions."
श्रीरामकृष्ण- नहीं, ऐसा कुछ नहीं । यह सब पहले-पहल एक एक बार कर लेना पड़ता है । उसके बाद फिर अर्ध्यपात्र या नियम (आनुष्ठानिक पूजा-कर्मकाण्ड ) आदि की आवश्यकता नहीं रहती ।
{ শ্রীরামকৃষ্ণ — না, সেরকম নয়। ও-সব প্রথম প্রথম এক-একবার করে নিতে হয়। তারপর আর কোশাকুশি বা নিয়মাদি দরকার হয় না।
"No, it isn't exactly that. One should pass through these disciplines in the beginning. Later one doesn't need the rituals of formal worship or to follow the injunctions."

(२) 

  [परिच्छेद ~ 31,(22अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

*पैगम्बर वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण तथा ब्राह्म पुरोहित बेचाराम*

 * मनुष्य का भारत में जन्म - वेदान्त और ब्रह्मतत्त्व का प्रचार-प्रसार करने के लिए ही  होता 
सन्ध्या के बाद आदि-समाज के ब्राह्म पुरोहित श्री बेचाराम (आचार्य) ने वेदी पर बैठकर उपासना की । बीच बीच में ब्राह्मसंगीत और उपनिषद् का पाठ होने लगा ।
[সন্ধ্যার পর আদিসমাজের আচার্য শ্রীযুক্ত বেচারাম বেদীতে বসিয়া উপাসনা করিলেন। মাঝেমাঝে ব্রহ্মসঙ্গীত ও উপনিষদ্‌ হইতে পাঠ হইতে লাগিল। উপাসনান্তে শ্রীরামকৃষ্ণের সঙ্গে বসিয়া আচার্য অনেক আলাপ করিতেছেন।
After dusk the preacher of the Brahmo Samaj conducted the service from the pulpit. The service was interspersed with recitations from the Upanishads and the singing of Brahmo songs......[ perhaps like this song of Mukunda Das ^* (Bengali: মুকুন্দদাস; 22 February 1878 - 18 May 1934)] 👇
 


हांसिते खेलिते आसिनी ए जगते,
कोरिते होबे मोदेर मायेरई साधना। 
देखाते होबे आजि , जगतवासी सबे,
          एखोनो भारतेर जाय नि रे चेतना।।      

गभीर ॐकारे हुँकारी दे रे डाक -
शिहरि उठूक विश्व , मेदिनीटा फेटे जाक !
आमादेर जन्मभूमि , देवतार लीलाभूमि ,
देवगण आसूक नेमे पूर्ण होउक वासना ।।

सार्थक होबे तबे, ए जनम साबाकार,
छेलेर गौरवेर होबे गर्विनी माँ आमार। 
जगत लूटिबे पाय, घुचे जाबे जोतो दाय ,
मिटे जाबे मुकुन्देर चिरदिनेर वासना।।   
   

‘হাসিতে খেলিতে আসিনি এ জগতে
করিতে হবে মোদের মায়েরই সাধনা,
দেখাতে হবে আজি, জগতবাসী সবে
এখনো ভারতের যায় নি রে চেতনা।”

গভীর ওঁঙ্কারে হুঙ্কারী দে রে ডাক—
 শিহরি উঠুক বিশ্ব, মেদিনীটা ফেটে যাক !
আমাদের জন্মভূমি, দেবতার লীলাভূমি,
 দেবগণ আসুক নেমে পূর্ণ হউক কামনা |

সার্থক হবে তবে এ জনম সবাকার, 
ছেলের গৌরবের হয়ে গরবিনী মা আমার || 
 জগৎ লুটিবে পায় ঘুচে  যত দায়,
মিটে যাবে মুকুন্দের চিরদিনের বাসনা।।  

(চারণকবি মুকুন্দ দাস ^ ) } 
उपासना के बाद श्रीरामकृष्ण के साथ बैठकर आचार्यजी अनेक प्रकार के वार्तालाप कर रहे हैं । 
श्रीरामकृष्ण- अच्छा, निराकार भी सत्य है और साकार भी सत्य है । आपका क्या मत है ? 
[শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা, নিরাকারও সত্য আর সাকারও সত্য; আপনি কি বল? 
"Well, it seems to me that both the formless Deity and God with form are real. What do you say?"
पुरोहित बेचाराम (आचार्य)- जी महाशय , मैं निराकार की तुलना  electric current (बिजली का प्रवाह) से करता हूँ; जिन्हें आँखों से देखा नहीं जाता, परन्तु अनुभव किया जाता है ।  
[আচার্য — আজ্ঞা, নিরাকার যেমন Electric Current (তড়িৎ-প্রবাহ) চক্ষে দেখা যায় না, কিন্তু অনুভব করা যায়।
PREACHER: "Sir, I compare the formless God to the electric current, which is not seen with the eyes but can be felt."
पैगम्बर वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण- हाँ, दोनों ही सत्य हैं । साकार (ईश्वर) -निराकार (ब्रह्म) दोनों सत्य हैं । केवल निराकार कहना कैसा है जानते हो ? जैसे शहनाई में सात छेद रहते हुए भी एक व्यक्ति केवल ‘पों’ करता रहता है, परन्तु दूसरे को देखो, कितनी ही रागरागिनियाँ बजाता है उसी प्रकार देखो, साकारवादी ईश्वर का कितने भावों से आस्वाद लेता है । शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य, मधुर-अनेक भावों से । 
[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, দুই সত্য। শুধু নিরাকার বলা কিরূপ জানো? যেমন রোশনচৌকির একজন পোঁ ধরে থাকে — তার বাঁশির সাত ফোকর সত্ত্বেও। কিন্তু আর-একজন দেখ কত রাগ-রাগিণী বাজায়! সেরূপ সাকারবাদীরা দেখ ঈশ্বরকে কতভাবে সম্ভোগ  করে! শান্ত, দাস্য, সখ্য, বাৎসল্য, মধুর — নানাভাবে।
"Yes, both are true. God with form is as real as God without form. Do you know what describing God as being formless only is like? It is like a man's playing only a monotone on his flute, though it has seven holes. But on the same instrument another man plays different melodies. Likewise, in how many ways the believers in a Personal God enjoy Him! They enjoy Him through many different attitudes: the serene attitude, the attitude of a servant, a friend, a mother, a husband, or a lover.
“असली बात क्या है जानते हो? किसी भी प्रकार से अमृत के कुण्ड* (Nectar of Immortality इन्द्रियातीत सत्य ?) में गिरना है। चाहे स्तव करके गिरो अथवा कोई धक्का दे दे और तुम कुण्ड में गिर पड़ो । परिणाम एक ही होगा । दोनों ही अमर होंगे। 
[“কি জানো, অমৃতকুণ্ডে কোনও রকমে পড়া। তা স্তব করেই হোক অথবা কেউ ধাক্কা মেরেছে আর তুমি কুণ্ডে পড়ে গেছ, একই ফল। দুই জনেই অমর হবে!১
"You see, the thing is somehow or other to get into the Lake of the Nectar of Immortality. Suppose one person gets into It by propitiating the Deity with hymns and worship, and you are pushed into It. The result will be the same. Both of you will certainly become immortal.

{*अमृतकुण्ड :मनोमयः प्राणशरीरनेता प्रतिष्ठितोऽन्ने हृदयं सन्निधाय। तद्‌ विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीरा आनन्दरूपम् अमृतं यद् विभाति । (मुण्डक उपनिषद् -२/२/८) ब्रह्म एव इदम् अमृतम्, पुरस्ताद् ब्रह्म, पक्ष्चाद् ब्रह्म, दक्षिणतश्चोत्तरेण, अधक्ष्चोर्ध्वं च प्रसृतं ब्रह्म । - मुण्डक उपनिषद् २/२/११) 

-अर्थात  वह आत्मा मनोमय है, लेकिन प्राण एवं शरीर का नेता (leader of the life and the body-(शुद्ध आत्मा ) है, जिसने जड़तत्त्व (अन्न) में हृदय को स्थापित कर दिया है, जो स्वयं जड़तत्त्व (अन्न) में सुप्रतिष्ठित है। उसे जानने से ज्ञानीजन (धीर पुरुष) अपने चारों ओर 'उस' (शुद्ध आत्मतत्त्व) का दर्शन करते हैं जिसकी ज्योति सर्वत्र भासित होती है, जो 'आनन्दरूप' एवं अमृत-स्वरूप है। यह जगत भी (सब कुछ) आनन्दरूप अमृतस्वरूप 'ब्रह्म' ही है, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं; 'ब्रह्म' ही हमारे सम्मुख है, 'ब्रह्म' ही पश्चात् है, हमारे दक्षिण में भी हमारे उत्तर में भी, हमारे नीचे तथा हमारे ऊपर भी, यह सर्वत्र व्याप्त है। यह सम्पूर्ण अद्भुत विश्व केवल 'आनन्दमय ब्रह्म' ही है।]
“ब्राह्मों के लिए जल और बरफ की उपमा ठीक है । सच्चिदानन्द मानो अनन्त जलराशि हैं । महासागर का जल ठण्डे देश में स्थान स्थान पर जिस प्रकार बर्फ का आकर धारण कर लेता हैं, उसी प्रकार भक्तिरूपी ठण्ड से वे सच्चिदानन्द भक्त के लिए साकार रूप धारण करते हैं । ऋषियों ने उस अतीन्द्रिय, चिन्मय रूप का दर्शन किया था और उनके साथ वार्तालाप किया था । भक्त के प्रेम के शरीर-भागवती तनु# द्वारा इस चिन्मय रूप का दर्शन होता है । 
{“ব্রাহ্মদের পক্ষে জল বরফ উপমা ঠিক। সচ্চিদানন্দ যেন অনন্ত জলরাশি। মহাসাগরের জল, ঠান্ডা দেশে স্থানে স্থানে যেমন বরফের আকার ধারণ করে, সেইরূপ ভক্তি হিমে সেই সচ্চিদানন্দ (সগুণ ব্রহ্ম) ভক্তের জন্য সাকার রূপ ধারণ করেন। ঋষিরা সেই অতীন্দ্রিয় চিন্ময় রূপ দর্শন করেছিলেন, আবার তাঁর সঙ্গে কথা কয়েছিলেন। ভক্তের প্রেমের শরীর,২ ‘ভাগবতীতনু’ দ্বারা সেই চিন্ময় রূপ দর্শন হয়।
"I give the Brahmos the illustration of water and ice. Satchidananda is like an endless expanse of water. The water of the great ocean in cold regions freezes into blocks of ice. Similarly, through the cooling influence of divine love, Satchidananda assumes forms for the sake of the bhaktas. The rishis had the vision of the supersensuous Spirit-form and talked with It. But devotees acquire a 'love body', and with its help they see the Spirit-form of the Absolute.] 
नारद ने कहा था – “मुझे शुद्धा, सर्वमयी, भागवती तनु प्राप्त हो गयी ।” #प्रयुज्यमाने मयि तां शुद्धां भागवतीं तनुम् । आरब्धकर्मनिर्वाणों न्यपतत् पांचभौतिक ॥ - श्रीमद्भागवत् १/६/२९) 
[When I was awarded a pure transcendental body as an associate of Bhagavān, my material body made of the five elements fell away because the karma that had set it in motion came to an end.हे व्यासजी ! इस प्रकार भगवान् की कृपा से मेरा हृदय शुद्ध हो गया, आसक्ति मिट गयी और मैं श्री (राम ?)कृष्ण-परायण हो गया। कुछ समय बाद, जैसे एकाएक बिजली कौंध जाती है, वैसे ही अपने समय आने पर मेरी मृत्यु आ गयी।   मुझे शुद्ध भगवत्पार्षद-शरीर प्राप्त होने का अवसर आने पर प्रारब्धकर्म समाप्त हो जाने के कारण पांचभौतिक शरीर नष्ट हो गया।] 

“फिर है ब्रह्म ‘अवाङ्मनसगोचरम् ।’ # ज्ञानरूपी सूर्य के ताप से साकार बर्फ गल जाती है; ब्रह्मज्ञान के बाद, निर्विकल्प समाधि के बाद फिर वही अनन्त, वाक्य-मन के अतीत, अरूप, निराकार (आनन्दमय) ब्रह्म ।
{“আবার আছে, ব্রহ্ম অবাঙ্মনসোগোচর। জ্ঞানসূর্যের তাপে সাকার বরফ গলে যায়। ব্রহ্মজ্ঞানের পর, নির্বিকল্পসমাধির পর, আবার সেই অনন্ত, বাক্যমনের অতীত, অরূপ নিরাকার ব্রহ্ম!
"It is also said in the Vedas that Brahman is beyond mind and words. The heat of the sun of Knowledge melts the ice-like form of the Personal God. On attaining the Knowledge of Brahman and communing with It in nirvikalpa samadhi, one realizes Brahman, the Infinite, without form or shape and beyond mind and words.
पैगम्बर वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण-  “उसका स्वरूप मुख से नहीं कहा जाता, चुप हो जाना पड़ता है । 'Who can explain the Infinite in words ? However high a bird may soar, there are regions higher still.' 'मुख से कहकर अनन्त को कौन समझाएगा?  पक्षी जितना ही ऊपर उठता है, उसके ऊपर और भी है । आप क्या कहते हैं ?”
“ব্রহ্মের স্বরূপ মুখে বলা যায় না, চুপ হয়ে যায়। অনন্তকে কে মুখে বোঝাবে! পাখি যত উপরে উঠে, তার উপর আরও আছে, আপনি কি বল?”
"The nature of Brahman cannot be described. About It one remains silent. Who can explain the Infinite in words? However high a bird may soar, there are regions higher still. What do you say?"
[अवाङ्मनसगोचरम् # – इस विशेषण के द्वारा ब्रह्म को अविज्ञेय तथा अकथनीय कहा गया है । ​अर्थात यह आत्मतत्व पंचेन्द्रियों के माध्यम से होनेवाला प्रत्यक्षज्ञान का विषय नहीं है।  वह केवल अनुभव का विषय है । केवल योगविद्या तथा सद्गुरु  के उपदेश # (प्रशिक्षण) से उसका साक्षात्कार किया जा सकता है ।  केवल योगविद्या तथा सद्गुरु (नवनीदा जैसे नेता- 'CINC')  के उपदेश से # यानि  "मनःसंयोग युवा प्रशिक्षण शिविर " से उसका साक्षात्कार किया जा सकता है । /अर्थात Be and Make  Leadership Training द्वारा गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में अनुभव किया जाता है। 
ब्राह्म पुरोहित बेचाराम (आचार्य) - जी हाँ, वेदान्त में इसी प्रकार की बातें हैं ।

  [परिच्छेद ~ 31,(22अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

*शुद्ध आत्मा > निर्गुण ब्रह्म '‘अवाङ्मनसगोचरम्’' * 

पैगम्बर वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण- नमक का पुतला समुद्र नापने गया था । लौटकर फिर उसने खबर न दी । एक मत में है, शुकदेव आदि ने दर्शन-स्पर्शन किया था, डुबकी नहीं लगायी थी । 
[শ্রীরামকৃষ্ণ — লবণপুত্তলিকা সাগর মাপতে গিছিল, ফিরে এসে আর খবর দিলে না। এক মতে আছে শুকদেবাদি দর্শন-স্পর্শন করেছিল, ডুব দেয় নাই।  
"Once a salt doll went to the ocean to measure its depth. But it could not come back to give a report. According to one school of thought, sages like Sukadeva saw and touched the Ocean of Brahman, but did not plunge into It.
“मैंने विद्यासागर से कहा था, ‘सब चीजें उच्छिष्ट हो गयी है, परन्तु ब्रह्म उच्छिष्ट नहीं हुआ ।* अर्थात् ब्रह्म क्या है, कोई मुँह से कह नहीं सका । मुख से बोलने से ही चीज उच्छिष्ट हो जाती है ।’ विद्यासागर विद्वान हैं, यह सुनकर बहुत खुश हुए । 
[“আমি বিদ্যাসগরকে বলেছিলাম, সব জিনিস এঁটো হয়ে গেছে, কিন্তু ব্রহ্ম উচ্ছিষ্ট হয় নাই।৩ অর্থাৎ ব্রহ্ম কি, কেউ মুখে বলতে পারে নাই। মুখে বললেই জিনিসটা এঁটো হয়। বিদ্যাসাগর পণ্ডিত, শুনে ভারী খুশি।
"Once I said to Vidyasagar, 'Everything else but Brahman has been polluted, as it were, like food touched by the tongue.' In other words, no one has been able to describe what Brahman is. A thing once uttered by the tongue becomes polluted. Vidyasagar, great pundit though he was, was highly pleased with my remarks.

[*अचिन्त्यम् अव्यपदेश्यम् अद्वैतम् * ..... प्रपञ्चोपशमम् शान्तं शिवम् अद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते विवेकिनः । सः आत्मा सः विज्ञेयः ॥ (माण्डुक्य उपनिषद् , ७)  वह जो 'अचिन्त्य' है, 'अनिर्देश्य' है,और जो 'अद्वैत' है,-- 'जिसमें'  समस्त प्रपञ्चात्मक जगत् का विलय हो जाता है, जो 'पूर्ण शान्त' है, जो 'शिवम्' है-मंगलकारी है, 'उसे' ही चतुर्थ (पाद-तुरीयावस्था) माना जाता है; वही' है 'आत्मा', एकमात्र 'वही' 'विज्ञेय' (जानने योग्य तत्त्व) है।]

“सुना है, केदार के उस तरफ बर्फ से ढका पहाड़ है । [ 'near Kedar' (A high peak--कैलाश पर्वत ? in the Himalayas, which is a place of pilgrimage for the Hindus.)  अधिक ऊँचाई पर उठने से फिर लौटना नहीं होता । जो लोग यह जानने के लिए गए हैं कि अधिक ऊँचाई पर क्या है तथा वहाँ जाने पर कैसी स्थिति होती है, उन्होंने फिर लौटकर खबर नहीं दी । 
[“কেদারের ওদিকে শুনেছি বরফে ঢাকা পাহাড় আছে। বেশি উচ্চে উঠলে আর ফিরতে হয় না। যারা বেশি উচ্চেতে কি আছে, গেলে কিরূপ অবস্থা হয় — এ-সব জানতে গিয়েছে, তারা ফিরে এসে, আর খবর দেয় নাই।
“তাঁকে দর্শন হলে মানুষ আনন্দে বিহ্বল হয়ে যায়, চুপ৪ হয়ে যায়। খবর কে দেবে? বুঝাবে কে?
"It is said that there are places near Kedar (A high peak in the Himalayas, which is a place of pilgrimage for the Hindus.) that are covered with eternal snow; he who climbs too high cannot come back. Those who have tried to find out what there is in the higher regions, or what one feels there, have not come back to tell us about it."After having the vision of God man is overpowered with bliss. He becomes silent. Who will speak? Who will explain?

पैगम्बर वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण - “सात फाटकों से परे राजा है । प्रत्येक पर एक एक महा ऐश्वर्यवान पुरुष बैठे हैं । प्रत्येक फाटक में शिष्य पूछ रहा है, ‘क्या यही राजा है ?’ गुरु भी कह रहे हैं, ‘नहीं; नेति नेति ।’ सातवें फाटक पे जाकर जो कुछ देखा, एकदम अवाक् रह गए ! आनन्द से विव्हल हो गए । फिर यह पूछना न पड़ा कि क्या यही राजा है ? देखते ही सब सन्देह मिट गये ।# 

[“সাত দেউড়ির পর রাজা। প্রত্যেক দেউড়িতে এক-একজন মহা ঐশ্বর্যবান পুরুষ বসে আছেন। প্রত্যেক দেউড়িতেই শিষ্য জিজ্ঞাসা করছে, এই কি রাজা? গুরুও বলছেন, না; নেতি নেতি। সপ্তম দেউড়িতে গিয়ে যা দেখলে, একেবারে অবাক!৫ আনন্দে বিহ্বল। আর জিজ্ঞাসা করতে হল না ‘এই কি রাজা?’ দেখেই সব সংশয় চলে গেল।”
"The king lives beyond seven gates. At each gate sits a man endowed with great power and glory. At each gate the visitor asks, 'Is this the king?' The gate-keeper answers, 'No. Not this, not this.' The visitor passes through the seventh gate and becomes overpowered with joy. He is speechless. This time he doesn't have to ask, 'Is this the king?' The mere sight of him removes all doubts."
(#यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह । - तैत्तिरीय उपनिषद् २/९/१)
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ब्राह्म पुरोहित बेचाराम (आचार्य)- जी हाँ, वेदान्त में इसी प्रकार सब लिखा है । 

আচার্য — আজ্ঞে হাঁ, বেদান্তে এইরূপই সব আছে।

PREACHER: "Yes, sir, it is so described in Vedanta."
पैगम्बर वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण -- जब वे सृष्टि, स्थिति, प्रलय करते हैं, तब हम उन्हें सगुण ब्रह्म, आद्याशक्ति (भगवान-Godhead) कहते हैं । जब वे तीनों गुणों से अतीत हैं, तब उन्हें निर्गुण ब्रह्म, वाक्य-मन के अतीत परब्रह्म (Supreme Brahman ) कहा जाता है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — যখন তিনি সৃষ্টি, স্থিতি, প্রলয় করেন তখন তাঁকে সগুণ ব্রহ্ম, আদ্যাশক্তি বলি। যখন তিনি তিন গুণের অতীত তখন তাঁকে নির্গুণ ব্রহ্ম, বাক্য-মনের অতীত বলা যায়; পরব্রহ্ম।
 "When the Godhead is thought of as creating, preserving, and destroying. It is known as the Personal God, Saguna Brahman, or the Primal Energy, Adyasakti. Again, when It is thought of as beyond the three gunas, then It is called the Attributeless Reality, Nirguna Brahman, beyond speech and thought; this is the Supreme Brahman, Parabrahman.

  [परिच्छेद ~ 31,(22अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

*त्रिगुणातीत न होने पर ब्रह्मज्ञान नहीं होता* 
पैगम्बर वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण --“मनुष्य उनकी माया में पड़कर अपने स्वरूप को भूल जाता है । इस बात को भूल जाता है कि वह अपने पिता के अनन्त ऐश्वर्य का अधिकारी है । उनकी माया त्रिगुणमयी है । ये तीनों ही गुण डाकू हैं । सब कुछ हर लेते हैं, हमारे स्वरूप को भुला देते हैं । सत्त्व, रज, तम तीन गुण हैं। इनमें से केवल सत्त्वगुण ही ईश्वर का रस्ता बताता है; परन्तु ईश्वर के पास सत्त्वगुण भी नहीं ले जा सकता ।
[“মানুষ তাঁর মায়াতে পড়ে স্ব-স্বরূপকে ভুলে যায়। সে যে বাপের অনন্ত ঐশ্বর্যের অধিকারী তা ভুলে যায়। তাঁর মায়া ত্রিগুণময়ী। এই তিনগুণই ডাকাত, সর্বস্ব হরণ করে; স্ব-স্বরূপকে ভুলিয়ে দেয়। সত্ত্ব, রজঃ, তমঃ — তিন গুণ। এদের মধ্যে সত্ত্বগুণই ঈশ্বরের পথ দেখিয়ে দেয়। কিন্তু ঈশ্বরের কাছে সত্ত্বগুণও নিয়ে যেতে পারে না।
"Under the spell of God's maya man forgets his true nature. He forgets that he is heir to the infinite glories of his Father. This divine maya is made up of three gunas. And all three are robbers; for they rob man of all his treasures and make him forget his true nature. The three gunas are sattva, rajas, and tamas. Of these, sattva alone points the way to God. But even sattva cannot take a man to God.
एक कहानी सुनो -  “एक धनी जंगल के बीच में से जा रहा था । ऐसे समय तीन डाकुओं ने आकर उसे घेर लिये और उसका सब कुछ छीन लिया । सब कुछ छीनकर एक डाकू ने कहा, ‘अब इसे रखकर क्या करोगे ! इसे मार डालो ।’ ऐसा कहकर वह उसे काटने गया । दूसरा डाकू बोला, ‘जान से मत मारो; हाथ-पैर बाँधकर इसे यहीं पर छोड़ दिया जाय, तो फिर यह पुलिस को खबर नहीं दे सकेगा ।’ यह कहकर उसे बाँधकर डाकू लोग वहीँ छोड़कर चले गए ।
[“একজন ধনী বনপথ দিয়ে যাচ্ছিল। এমন সময় তিনজন ডাকাত এসে তাকে ঘিরে ফেলল ও তার সর্বস্ব হরণ করলে। সব কেড়ে-কুড়ে নিয়ে একজন ডাকাত বললে, ‘আর একে রেখে কি হবে? একে মেরে ফেল’ — এই বলে তাকে কাটতে এল। দ্বিতীয় ডাকাত বললে, ‘মেরে ফেলে কাজ নেই, একে আষ্টে-পিষ্টে বেঁধে এইখানেই ফেলে রেখে যাওয়া যাক। তাহলে পুলিসকে খবর দিতে পারবে না।’ এই বলে ওকে বেঁধে রেখে ডাকাতরা চলে গেল।
"Let me tell you a story. Once a rich man was passing through a forest, when three robbers surrounded him and robbed him of all his wealth. After snatching all his possessions from him, one of the robbers said: 'What's the good of keeping the man alive? Kill him.' Saying this, he was about to strike their victim with his sword, when the second robber interrupted and said: 'There's no use in killing him. Let us bind him fast and leave him here. Then he won't be able to tell the police.' Accordingly the robbers tied him with a rope, left him, and went away.
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“थोड़ी देर के बाद तीसरा डाकू लौट आया । आकर बोला, ‘खेद है; तुमको बहुत कष्ट हुआ? मैं तुम्हारे बन्धन खोले देता हूँ ।’ बन्धन खोलने के बाद उस व्यक्ति को साथ लेकर डाकू रास्ता दिखाता हुआ चलने लगा । सरकारी रास्ते के पास आकर उसने कहा, ‘इस रास्ते से चले जाओ; अब तुम सहज ही अपने घर जा सकोगे ।’ उस व्यक्ति ने कहा, ‘यह क्या महाशय? आप भी चलिए ! आपने मेरा कितना उपकार किया ! हमारे घर पर चलने से हम कितने आनन्दित होंगे ! डाकू ने कहा, ‘नहीं, मेरे वहाँ जाने पर छुटकारे का उपाय नहीं, पुलिस पकड़ लेगी ।’ यह कहकर रास्ता बताकर वह लौट गया ।”
[খানিকক্ষণ পরে তৃতীয় ডাকাতটি ফিরে এল। এসে বললে, ‘আহা তোমার বড় লেগেছে, না? আমি তোমার বন্ধন খুলে দিচ্ছি।’ বন্ধন খুলবার পর লোকটিকে সঙ্গে করে নিয়ে ডাকাত পথ দেখিয়ে দেখিয়ে চলতে লাগল।"  সরকারী রাস্তার কাছে এসে বললে, ‘এই পথ ধরে যাও, এখন তুমি অনায়াসে নিজের বাড়িতে যেতে পারবে।’ লোকটি বললে, ‘সে কি মহাশয়, আপনিও চলুন; আপনি আমার কত উপকার করলেন। আমাদের বাড়িতে গেলে আমরা কত আনন্দিত হব।’ ডাকাতটি বললে, ‘না, আমার ওখানে যাবার জো নাই, পুলিশে ধরবে।’ এই বলে সে পথ দেখিয়ে দিয়ে চলে গেল।
After a while the third robber returned to the rich man and said: 'Ah! You're badly hurt, aren't you? Come, I'm going to release you.' The third robber set the man free and led him out of the forest. When they came near the highway, the robber said, 'Follow this road and you will reach home easily.' 'But you must come with me too', said the man. 'You have done so much for me. We shall all be happy to see you at our home.' 'No,' said the robber, 'it is not possible for me to go there. The police will arrest me.' So saying, he left the rich man after pointing out his way.
*त्रिगुणातीतं*  
पैगम्बर वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण --"पहला डाकू तमोगुण है, जिसने कहा था, ‘इसे रखकर क्या करोगे, मार डालो ।’ तमोगुण से विनाश होता है । दूसरा डाकू रजोगुण है; रजोगुण से मनुष्य संसार में आबद्ध होता है; अनेकानेक कार्यों में जकड़ जाता है । रजोगुण ईश्वर को भुला देता है । सत्त्वगुण ही केवल ईश्वर का रस्ता बताता है । दया, धर्म, भक्ति यह सब सत्त्वगुण से उत्पन्न होते हैं सत्त्वगुण मानो अन्तिम सीढ़ी है। उसके बाद ही है छत। मनुष्य का धाम है परब्रह्म ।  त्रिगुणातीत न होने पर ब्रह्मज्ञान नहीं होता  
[जब तक कोई व्यक्ति माँ काली की कृपा से  तीनों गुणों का अतिक्रमण नहीं कर लेता (देश-काल निमित्त से भी transcend-बढ़कर -बृहद नहीं हो जाता) उसे ब्रह्मज्ञान नहीं होता !]    
[“প্রথম ডাকাতটি তমোগুণ, যে বলেছিল, ‘একে রেখে আর কি হবে, মেরে ফেল।’ তমোগুণে বিনাশ হয়। দ্বিতীয় ডাকাতটি রজোগুণ; রজোগুণে মানুষ সংসারে বদ্ধ হয়, নানা কাজ জড়ায়। রজোগুণ ঈশ্বরকে ভুলিয়ে দেয়। সত্ত্বগুণ যেন সিঁড়ির শেষ ধাপ। তারপরেই ছাদ। মানুষের স্বধাম হচ্ছে পরব্রহ্ম। ত্রিগুনাতীত না হলে ব্রহ্মজ্ঞান হয় না।”
"Now, the first robber, who said: 'What's the good of keeping the man alive? Kill him', is tamas. It destroys. The second robber is rajas, which binds a man to the world and entangles him in a variety of activities. Rajas makes him forget God. Sattva alone shows the way to God. It produces virtues like compassion, righteousness, and devotion. Again, sattva is like the last step of the stairs. Next to it is the roof. The Supreme Brahman is man's own abode. One cannot attain the Knowledge of Brahman unless one transcends the three gunas."

  [परिच्छेद ~ 31,(22अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

*पुरोहित और पैगम्बर का फर्क - तोमरा जाहाज आमरा जेले डिंगी *

ब्राह्म पुरोहित बेचाराम (आचार्य)- अच्छा हुआ, ये सब बड़ी अच्छी बातें हुईं ।
আচার্য — বেশ সব কথা হল।
PREACHER: "You have given us a fine talk, sir."
पैगम्बर वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण  (हँसते हुए)- भक्त का स्वभाव क्या है, जानते हो ? मैं कहूँ, तुम सुनो; तुम कहो, मैं सुनूँ । You are a preacher and teach so many people! You are a steamship, and I am a mere fishing-boat."तुम लोग आचार्य हो, कितने लोगों को शिक्षा दे रहे हो । तुम लोग जहाज हो, हम तो हैं मछली पकड़ने में उपयोग की जाने वाली मछुओं की छोटी सी नैया (boat used to catch fish )। (सभी हँस पड़े ।)
[শ্রীরামকৃষ্ণ — (সহাস্যে) — ভক্তের স্বভাব কি জানো? আমি বলি তুমি শুন, তুমি বল আমি শুনি! তোমরা আচার্য, কত লোককে শিক্ষা দিচ্ছ। তোমরা জাহাজ, আমরা জেলেডিঙি। (সকলের হাস্য)
(with a smile): "Do you know the nature of devotees? When one devotee meets another, he says, 'Let me speak and you listen; and when you speak I shall listen.' You are a preacher and teach so many people! You are a steamship, and I am a mere fishing-boat." (All laugh.)
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Mukunda Das (Bengali: মুকুন্দদাস; 22 February 1878 - 18 May 1934) was a Bengali poet, ballad singer, composer and patriot, who contributed to the spread of Swadeshi movement in rural Bengal.
In 1905, Ashwini Kumar Dutta gave an inspiring speech at the Barisal Town Hall, against the proposed Partition of Bengal. Stressing on the need to spread the message far and wide, he wished that message from the leaders could be carried to the villages through dramas and plays. Mukunda Das was deeply moved by Ashwini Kumar Dutta's speech. He resolved to fulfil the wish of the great patriot. Within three months he composed his masterpiece 'Matripuja'. The primary theme of his drama was patriotism and freedom movement. The goal of the freedom movement was to free Bharat Mata from the yoke of British imperialism. The children of Bharat Mata would lay down their lives to attain freedom. He raised a Swadeshi theatre group to stage plays across the villages of Bengal. In 1908, he was arrested and imprisoned for three years on charges of sedition. In 1921, Mohandas Gandhi gave the call of Non-Cooperation Movement. Mukunda Das joined the movement with his proven repertoire of drama. Around 1923 the movement was called off and Mukunda Das settled with his group in Kolkata. 'Matripuja' was banned by the government at that time. After the ban, he was restricted to singing only. He along with his group performed only musical shows. His health deteriorated. On 17 May 1934, he returned late from a performance and died in his sleep.
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बुधवार, 12 मई 2021

$$ परिच्छेद ~ 30, [(15 अप्रैल 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] *Ma Kali ~ All-pervasive Energy/Power * *मनुष्य बनने (सूत का नम्बर पहचानने) के लिए सत्संग, गुरु-गृहवास की अनिवार्यता**ज्ञान (भेंड़त्व से भ्रममुक्त) के लिए महावाक्य के प्रति अटूट श्रद्धा चाहिए तर्क नहीं* *ताकिया ठेसान दिया बोसा !~ पद-पैसे का अहंकार छोड़ना बड़ा कठिन है *

  परिच्छेद ~ ३०,(15 अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत{श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ ]

 परिच्छेद ~ ३०  

सुरेन्द्र के मकान पर अन्नपूर्णा पूजा (चैती दुर्गा पूजा ?) के उत्सव में 

(१)

*तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना-मैं रथ हूँ , तुम रथी हो !

सुरेन्द्र के घर के आँगन में श्रीरामकृष्ण सभा को आलोकित कर बैठे हुए हैं । शाम के छः बजे होंगे । आँगन से पूर्व की ओर, दालान के भीतर, देवीप्रतिमा प्रतिष्ठित है । माता के पादपद्मों में जवा और बिल्वपत्र तथा गले में फूलों की माला शोभायमान् है । माता दालान को आलोकित करके बैठी हुई हैं ।

आज माँ अन्नपूर्णा देवी की पूजा है । चैत्र शुक्ला अष्टमी, 15 अप्रैल 1883 , दिन रविवार । सुरेन्द्र माता की पूजा कर रहे हैं, इसीलिए निमन्त्रण देकर श्रीरामकृष्ण को ले आए हैं । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ आये हैं । आते ही उन्होंने दालान पर चढ़कर देवी के दर्शन किए । फिर प्रणाम करके खड़े होकर देवी की ओर देखते हुए उँगलियों पर मूलमंत्र जपने लगे । भक्तगण दर्शन और प्रणाम करके पास ही खड़े हैं।

श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ आँगन में आए । आँगन में दरी पर साफ चद्दर बिछी है । उस पर कुछ तकिये रखे हुए हैं । एक ओर मृदंग-करताल लेकर कुछ वैष्णव बैठे हुए हैं; संकीर्तन होगा । भक्तगण श्रीरामकृष्ण को घेरकर बैठ गए । 

लोग श्रीरामकृष्ण को एक तकिये के पास ले जाकर बैठाने लगे; परन्तु वे तकिया हटाकर बैठे ।

 [  परिच्छेद ~ ३०,(15 अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

*ताकिया ठेसान दिया बसा !~  पद-पैसे का अहंकार छोड़ना बड़ा कठिन है * 

श्रीरामकृष्ण (भक्तों से)-  तकिये के सहारे बैठना ? जानते हो न अहंकार  छोड़ना बड़ा कठिन है ! अभी विचार कर रहे हो कि मेरे में अहंकार कुछ भी नहीं है, परन्तु फिर न जाने कहाँ से आ जाता है ।

“बकरा काट डाला गया, फिर भी उसके अंग हिल रहे हैं ।

“स्वप्न में डर गए हो; आँखें खुल गयीं, बिलकुल सचेत हो गए, फिर भी छाती धड़क रही है । अभिमान ठीक ऐसा ही है । हटा देने पर भी न जाने कहाँ से आ जाता है ! बस आदमी मुँह फुलाकर कहने लगता है, 'मेरा' (डिप्टी मजिस्ट्रेट का !) आदर नहीं किया ।

{তাকিয়া ঠেসান দিয়া বসা! কি জানো, অভিমান ত্যাগ করা বড় কঠিন। এই বিচার কচ্ছ, অভিমান কিছু নয়। আবার কোথা থেকে এসে পড়ে!“ছাগলকে কেটে ফেলা গেছে, তবু অঙ্গ-প্রত্যঙ্গ নড়ছে।“স্বপ্নে ভয় দেখেছ; ঘুম ভেঙে গেল, বেশ জেগে উঠলে তবু বুক দুড়দুড় করে। অভিমান ঠিক সেইরকম। তাড়িয়ে দিলেও আবার কোথা থেকে এসে পড়ে! অমনি মুখ ভার করে বলে, আমায় খাতির কল্লে না।

”You see, it is very difficult to give up vanity. You may discriminate, saving that the ego is nothing at all; but still it comes, nobody knows from where. A goat's legs jerk for a few moments even after its head has been cut off. Or perhaps you are frightened in a dream; you shake off sleep and are wide awake, but still you feel your heart palpitating. Egotism is exactly like that. You may drive it away, but still it appears from somewhere. Then you look sullen and say: 'What! I have not been shown proper respect!'

केदार- ‘तृणादपि सुनीचेन तरोरिव सहिष्णुना ।’

[तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना। अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥(चैतन्य महाप्रभु रचित- शिक्षाष्टक -३)स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक क्षुद्र मानकर, वृक्ष के समान सहनशील होकर, मिथ्या मान की कामना न करके दुसरो को सदैव मान देकर हमें सदा ही श्री हरिनाम कीर्तन (सेवा) विनम्र भाव से करना चाहिए।]  

श्रीरामकृष्ण- मैं भक्तों की रेणु की रेणु हूँ ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি ভক্তের রেণুর রেণু।"As for me, I consider myself as a speck of the dust of the devotee's feet."

वैद्यनाथ आए हैं । वैद्यनाथ विद्वान् हैं । कलकत्ता के हाइकोर्ट के वकील हैं । वे श्रीरामकृष्ण को हाथ जोड़कर प्रणाम करके एक ओर बैठ गए ।

  [  परिच्छेद ~ ३०,(15 अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

*स्वतंत्र इच्छा या ईश्वर की इच्छा ? ~~ Free will or God's Will *

[ क्या वास्तव में हम,  जो हमें पसंद है वह करने के लिए स्वतंत्र हैं,?]

सुरेन्द्र- ये आपसे कुछ पूछना चाहते हैं, इसीलिए आए हैं ।

श्रीरामकृष्ण (वैद्यनाथ से)- जो कुछ देख रहे हो, सभी उनकी शक्ति है । उनकी शक्ति के बिना कोई कुछ भी नहीं कर सकता । परन्तु एक बात है । उनकी शक्ति सब जगह बराबर नहीं है । विद्यासागर ने कहा था, ‘परमात्मा ने क्या किसी को अधिक शक्ति दी है? मैंने कहा, ‘शक्ति अगर अधिक न देते तो  हम लोग तुम्हें देखने क्यों आते? तुम्हारे दो सींग थोड़े ही हैं ! अन्त में यही ठहरा कि विभुरूप ^(All-pervasive Energy/Power -प्रेम के रूप में ) में  सर्वभूतों में ईश्वर हैं, केवल शक्ति का भेद है । 

{শ্রীরামকৃষ্ণ (বৈদ্যনাথের প্রতি) — যা কিছু দেখছ, সবই তাঁর শক্তি। তাঁর শক্তি ব্যতিরেকে কারু কিছু করবার জো নাই। তবে একটি কথা আছে, তাঁর শক্তি সব স্থানে সমান নয়। বিদ্যাসাগর বলেছিল, “ঈশ্বর কি কারুকে বেশি শক্তি দিয়েছেন?” আমি বললুম, শক্তি কমবেশি যদি না দিয়ে থাকেন, তোমায় আমরা দেখতে এসেছি কেন? তোমার কি দুটো শিঙ বেরিয়েছে? তবে দাঁড়ালো যে, ঈশ্বর বিভূরূপে সর্বভূতে আছেন, কেবল শক্তিবিশেষ।

 "All that you see is the manifestation of God's Power. No one can do anything without this Power. But you must remember that there is not an equal manifestation of God's Power in all things. Vidyasagar once asked me whether God endowed some with greater power than others. I said to him; 'If there are no greater and lesser manifestations of His Power, then why have we taken the trouble to visit you? Have you grown two horns?' So it stands to reason that God exists in all beings as the All-pervasive Power ^ but the manifestations of His Power are different in different beings." 

[^  All-pervasive Energy/Power ~LOVE : आनन्दमयी माँ काली के प्रेमपूर्ण मातृहृदय का 'सर्वव्यापी विराट अहं' , ही  'व्यष्टि अहं' का सीमित प्रेम बनकर सर्वभूतों में लेलायमान है ! लेकिन उस प्रेम-शक्ति के प्रस्फुटन (manifestations) में तारतम्य है !]     

वैद्यनाथ- महाराज ! मुझे एक सन्देह है । यह जो Free Will अर्थात् स्वाधीन इच्छा की बात होती है, - कहते हैं कि हम इच्छा करें तो अच्छा काम भी कर सकते हैं और बुरा भी, - क्या यह सच है? क्या हम सचमुच स्वाधीन हैं? [क्या हम वास्तव में,  हमें जो पसंद है - वह करने के लिए स्वतंत्र हैं?] 

{বৈদ্যনাথ — মহাশয়! একটি সন্দেহ আমার আছে। এই যে বলে Free Will অর্থাৎ স্বাধীন ইচ্ছা — মনে কল্লে ভাল কাজও কত্তে পারি, মন্দ কাজও কত্তে পারি, এটি কি সত্য? সত্য সত্যই কি আমরা স্বাধীন?

 "Sir, I have a doubt. People speak of free will. They say that a man can do either good or evil according to his will. Is it true? Are we really free to do whatever we like?"] 

  [  परिच्छेद ~ ३०,(15 अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

*सब कुछ ईश्वर (जगतजननी) की इच्छा के अधीन है !* 

श्रीरामकृष्ण- सभी ईश्वर के अधीन है । उन्हीं की लीला है । उन्होंने अनेक वस्तुओं की सृष्टि की है, - छोटी-बड़ी, भली-बुरी, मजबूत-कमजोर । अच्छे आदमी, बुरे आदमी । यह सब उन्हीं की माया है – उन्हीं का खेल है । देखो न, बगीचे के सब पेड़ बराबर नहीं होते ।

“जब तक ईश्वर नहीं मिलते, तब तक जान पड़ता है, हम स्वाधीन हैं । यह भ्रम वे ही रख देते हैं, नहीं तो पाप की वृद्धि होती, पाप से कोई न डरता, न पाप की सजा मिलती ।

“जिन्होंने ईश्वर को पा लिया है, उनका भाव जानते हो क्या है? मैं यन्त्र हूँ, तुम यन्त्री हो; मैं गृह हूँ, तुम गृही; मैं रथ हूँ, तुम रथी; जैसा चलाते हो, वैसा ही चलता हूँ जैसा कहाते हो, वैसा ही कहता हूँ ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ — সকলই ঈশ্বরাধীন। তাঁরই লীলা। তিনি নানা জিনিস করেছেন। ছোট, বড়, বলবান, দুর্বল, ভাল, মন্দ। ভাললোক; মন্দলোক। এ-সব তাঁর মায়া, খেলা। এই দেখ না, বাগানের সব গাছ কিছু সমান হয় না।“যতক্ষণ ঈশ্বরকে লাভ না হয়, ততক্ষণ মনে হয় আমরা স্বাধীন। এ-ভ্রম তিনিই রেখে দেন, তা না হলে পাপের বৃদ্ধি হত। পাপকে ভয় হত না। পাপের শাস্তি হত না।“যিনি ঈশ্বরলাভ করেছেন, তাঁর ভাব কি জানো? আমি যন্ত্র, তুমি যন্ত্রী; আমি ঘর, তুমি ঘরণী; আমি রথ, তুমি রথী; যেমন চালাও, তেমনি চলি। যেমন বলাও, তেমনি বলি।”

 "Everything depends on the will of God. The world is His play. He has created all these different things — great and small, strong and weak, good and bad, virtuous and vicious. This is all His maya, His sport. You must have observed that all the trees in a garden are not of the same kind. "As long as a man has not realized God, he thinks he is free. It is God Himself who keeps this error in man. Otherwise sin would have multiplied. Man would not have been afraid of sin, and there would have been no punishment for it. "But do you know the attitude of one who has realized God? He feels: 'I am the machine, and Thou, O Lord, art the Operator. I am the house and Thou art the Indweller. I am the chariot and Thou art the Driver. I move as Thou movest me; I speak as Thou makest me speak.' 

 [  परिच्छेद ~ ३०,(15 अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

*ज्ञान (भेंड़त्व से भ्रममुक्त) के लिए महावाक्य के प्रति अटूट श्रद्धा चाहिए तर्क नहीं*  

 श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय :।  

            'ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।। गीता 4.39।।

[जो श्रद्धावान् ,  तत्पर (भक्त) (जो गुरुवाक्य या महावाक्य सुनकर तर्क-कुतर्क नहीं करता, मनःसंयोग की साधना में जुट जाता है।) , और जितेन्द्रिय पुरुष हो , वैसा मनुष्य ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान को प्राप्त करके (वह ब्रह्मविद मनुष्य) शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है। मनःसंयोग का अभ्यास किये  बिना श्रद्धा और ज्ञान में दृढ़ता आनी कठिन है। मन और इन्द्रियां ही हमें विषयों की ओर आकर्षित करके खींच ले जाती हैं। श्री शंकराचार्य के अनुसार श्रद्धा वह - आस्तिक्यबुद्धि है जिसके द्वारा मनुष्य शास्त्र एवं आचार्य द्वारा दिये गये उपदेश (महावाक्य ^  - 'तत्वमसि' )  से तत्त्व का यथावत् ज्ञान प्राप्त कर सकता है 'तत्वमसि' ^ - "वह ब्रह्म तू है" ( छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७- सामवेद ) यह महावाक्य उद्घोष करते हैं कि मनुष्य देह, इंद्रिय और मन का संघटन मात्र नहीं है, बल्कि वह सुख-दुख, जन्म-मरण से परे आनन्दस्वरूप (दिव्यस्वरूप) है, आत्मस्वरूप है। आत्मभाव से मनुष्य जगत का द्रष्टा भी है और दृश्य भी।  

 [  परिच्छेद ~ ३०,(15 अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

*श्रद्धावान (faithful) की आध्यात्मिक उन्नति होती है, तार्किक (logical) की नहीं *

श्रीरामकृष्ण (वैद्यनाथ के प्रति)- “तर्क करना अच्छा नहीं । आप क्या कहते हैं?” 

[শ্রীরামকৃষ্ণ (বৈদ্যনাথের প্রতি) তর্ক করা ভাল নয়; আপনি কি বল?

(To Vaidyanath): "It is not good to argue. Isn't that so?"

वैद्यनाथ- जी हाँ, तर्क करने का स्वभाव ज्ञान होने पर नष्ट हो जाता है ।

{ "Yes, sir. The desire to argue disappears when a man attains wisdom."

  [  परिच्छेद ~ ३०,(15 अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

*मनुष्य बनने (सूत का नम्बर पहचानने) के लिए सत्संग,  गुरु-गृहवास की अनिवार्यता*

श्रीरामकृष्ण- Thank you ! तोमार होबे ! तुम पाओगे (You will make spiritual progress.) । ईश्वर की बात कोई कहता है, तो लोगों को विश्वास नहीं होता । यदि कोई महापुरुष कहें, मैंने ईश्वर को देखा है, तो कोई उस महापुरुष की बात ग्रहण नहीं करता । लोग सोचते हैं, इसने अगर ईश्वर को देखा है तो हमें भी दिखाए तो जानें परन्तु नाड़ी देखना कोई एक दिन में थोड़े ही सीख लेता है ! वैद्य के पीछे महीनों घूमना पड़ता है । तभी वह कह सकता है, कौन कफ की नाड़ी है, कौन पित्त की है और कौन वात की है । नाड़ी देखना जिनका पेशा है (जो भव-वैद्य हैं, जैसे नवनीदा ) , उनका संग करना चाहिए । (सब हँसते हैं ।) 

{শ্রীরামকৃষ্ণ — Thank you (সকলের হাস্য)। তোমার হবে! ঈশ্বরের কথা যদি কেউ বলে, লোকে বিশ্বাস করে না। যদি কোন মহাপুরুষ বলেন, আমি ঈশ্বরকে দেখেছি তবুও সাধারণ লোকে সেই মহাপুরুষের কথা লয় না। লোকে মনে করে, ও যদি ঈশ্বর দেখেছে, আমাদের দেখিয়ে দিগ্‌। কিন্তু একদিনে কি নাড়ী দেখতে শেখা যায়? বৈদ্যের সঙ্গে অনেকদিন ধরে ঘুরতে হয়; তখন কোন্‌টা কফের কোন্‌টা বায়ূর কোন্‌টা পিত্তের নাড়ী বলা যেতে পারে। যাদের নাড়ী দেখা ব্যবসা, তাদের সঙ্গ করতে হয়। (সকলের হাস্য)

"You will make spiritual progress. People don't trust a man when he. speaks about God. Even if a great soul affirms that he has seen God, still the average person will not accept his words. He says to himself, 'If this man has really seen God, then let him show Him to me.' But can a man learn to feel a person's pulse in one day? He must go about with a physician for many days; only then can he distinguish the different pulses. He must be in the company of those with whom the examination of the pulse has become a regular profession.

“क्या सभी पहचान सकते हैं कि यह अमुक नम्बर का सूत है ? सूत का व्यवसाय करो, जो लोग व्यवसाय करते हैं, उनकी दुकान में कुछ दिन रहो, तो कौन चालीस नम्बर का सूत है, कौन इकतालीस नम्बर का, तुरन्त कह सकोगे ।”

{“অমুক নম্বরের সুতা, যে-সে কি চিনতে পারে? সুতোর ব্যবসা করো, যারা ব্যবসা করে, তাদের দোকানে কিছুদিন থাক, তবে কোন্‌টা চল্লিশ নম্বর, কোন্‌টা একচল্লিশ নম্বরের সুতা ঝাঁ করে বলতে পারবে।”

"Can anyone and everyone pick out a yarn of a particular count '3H' ? If you are in that trade, you can distinguish in a moment a forty-count thread from a forty-one."}

  [  परिच्छेद ~ ३०,(15 अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

* खोल -मृदंग की थाप सुनकर श्रीराधा की कृष्ण-भक्ति का स्मरण और समाधि *

अब संकीर्तन होगा । मृदंग बजाया जा रहा है । गोष्ठ मृदंग बजा रहा है । अभी गाना शुरू नहीं हुआ । मृदंग का मधुर वाद्य गौरांगमण्डल और उनके नामसंकीर्तन की याद दिलाकर मन को उद्दीप्त करता है। श्रीरामकृष्ण भाव में मग्न हो रहे हैं । रह-रहकर मृदंगवादक पर दृष्टि डालकर कह रहे हैं- “अहा ! मुझे रोमांच हो रहा है !”

[মাঝেমাঝে খুলির দিকে দৃষ্টি নিক্ষেপ করিয়া বলিতেছেন, “আ মরি! আ মরি! আমার রোমাঞ্চ হচ্ছে।

”Now and then he looked at the drummer and said, "Ah! Ah! My hair is all standing on end."]

गवैयों ने पूछा, “कैसा पद गाएँ?” श्रीरामकृष्ण ने विनीत भाव से कहा, “जरा गौरांग के कीर्तन गाओ ।”

कीर्तन आरम्भ हो गया । पहले गौर-चन्द्रिका होगी, फिर दूसरे गाने ।

कीर्तन में गौरांग के रूप का वर्णन हो रहा है । कीर्तन-गवैये अन्तरों में चुन-चुनकर अच्छे पद जोड़ते हुए गा रहे हैं – “सखि, मैंने पूर्णचन्द्र देखा”, “न ह्लास है – न मृगांक”, “हृदय को आलोकित करता है ।”

गवैयों ने फिर गाया- “कोटि चन्द्र के अमृत से उसका मुख धुला हुआ है ।” ("His face is bathed with the essence of a million moons.")

श्रीरामकृष्ण यह सुनते ही सुनते समाधिमग्न हो गए ।

गाना होता ही रहा । कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण की समाधि छूटी । वे भाव में मग्न होकर एकाएक उठकर खड़े हो गए तथा प्रेमोन्मत्त गोपिकाओं की तरह श्रीकृष्ण के रूप का वर्णन करते हुए कीर्तन-गवैयों के साथ साथ गाने लगे – 

" सखी ! रुपेर दोष , ना मनेर दोष ? "

आन हेरिते, श्याममय - हेरि त्रिभुवन ! 

(আন্‌ হেরিতে শ্যামময় হেরি ত্রিভুবন!)

सखि ! रूप का दोष है या मन का ?” “दूसरों को देखती हुई तीनों लोक में श्याम ही श्याम देखती हूँ!  

श्रीरामकृष्ण नाचते हुए गा रहे हैं । भक्तगण निर्वाक् होकर देख रहे हैं । गवैये फिर गा रहे हैं, - गोपिका की उक्ति – “बंसी री ! तू अब न बज । क्या तुझे नींद भी नहीं आती?” 

इसमें पद जोड़कर गा रहे हैं – “और नींद आए भी कैसे !” “सेज तो करपल्लव है न?” _ “श्रीमुख के अमृत का पान करती है” _  “तिस पर उँगलियाँ सेवा करती हैं ।”

श्रीरामकृष्ण ने आसन ग्रहण किया । कीर्तन होता रहा । श्रीमती राधा की उक्ति गायी जाने लगी । वे कहती हैं – “दृष्टि, श्रवण और प्राण की शक्ति तो चली गयी – सभी इन्द्रियों ने उत्तर दे दिया, तो मैं ही अकेली क्यों रह गयी ?”

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ আসন পুনর্বার গ্রহণ করিয়াছেন। কীর্তন চলিতে লাগিল। শ্রীমতী বলছেন, চক্ষু গেল, শ্রবণ গেল, ঘ্রাণ গেল, ইন্দ্রিয় সকলে চলে গেল, — (আমি একেলা কেন বা রলাম গো)।

The Master sat down. The music went on. They sang, assuming the mood of Radha: "My eyes are blinded. My ears are deaf. I have lost the power of smell. All my senses are paralysed. But, alas, why am I left alone?"

अन्त में श्रीराधा-कृष्ण दोनों के एक दूसरे से मिलन का कीर्तन होने लगा-“राधिकाजी श्रीकृष्ण को पहनाने के लिए माला गूँथ ही रही थी कि अचानक श्रीकृष्ण उनके सामने आकर खड़े हो गए ।”

निधूवने श्यामविनोदिनी भोर। 

दूहार रुपेर नाहिक उपमा प्रेमेर नाहिर ओर।।

हिरण किरण आध वरण आध नील- मणि ज्योति:। 

आध गले वन-माला विराजित, आध गले गजमति।। 

आध श्रवणे मकर- कुण्डल आध रतन छबि। 

आध कपाले चाँदेर उदय आध कपाले रबि।।

आध शिरे शोभे मयूर शीखण्ड आध शिरे दोले वेणी। 

कर-कमल कोरे झलमल, फणि उगारबे मणि ॥

युगल-मिलन के संगीत का आशय यह है-

“कुंजवान में श्याम-विनोदिनी राधिका कृष्ण के भावावेश में विभोर हो रही है । दोनों में से न तो किसी के रूप की उपमा हो सकती है और न किसी के प्रेम की ही सीमा है । आधे में सुनहली किरणों की छटा है और आधे में नीलकान्त मणि की ज्योति । गले के आधे हिस्से में वन के फूलों की माला है और आधे में गज-मुक्ता । कानों के अर्धभाग में मकरकुण्डल हैं औए अर्धभाग में रत्नों की छबि । अर्धललाट में चन्द्रोदय हो रहा है । और आधे में सूर्योदय । मस्तक के अर्धभाग में मयूरशिखण्ड शोभा पा रहा है और आधे में वेणी । कनककमल झिलमिला रहे हैं, फणी मानो मणि उगल रहा है ।” 

[Finally the musicians sang of the union of Radha and Krishna: Radha and Krishna are joined at last in the Nidhu Grove of Vrindavan; Incomparable their beauty, and limitless their love! The one half shines like yellow gold, the other like bluest sapphire; Round the neck, on one side, a wild-flower garland hangs, And, on the other, there swings a necklace of precious gems. A ring of gold adorns one ear, a ring of shell the other; Half of the brow is bright as the blazing midday sun, The other softly gleams with the glow of the rising moon. Upon one half of the head a graceful peacock feather stands, and, from the other half, there hangs a braid of hair.

कीर्तन बन्द हुआ । श्रीरामकृष्ण ‘भागवत, भक्त, भगवान्’ इस मन्त्र का बार बार उच्चारण करते हुए भूमिष्ठ हो प्रणाम कर रहे हैं । चारों ओर के भक्तों को उद्देश्य करके प्रणाम कर रहे हैं और संकीर्तन-भूमि की धूलि लेकर अपने मस्तक पर रख रहे हैं ।

{কীর্তন থামিল। ঠাকুর, ‘ভগবত-ভক্ত-ভগবান’ এই মন্ত্র উচ্চারণ করিয়া বারবার ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিতেছেন। চতুর্দিকে ভক্তদের উদ্দেশ করিয়া প্রণাম করিতেছেন ও সংকীর্তনভূমির ধূলি গ্রহণ করিয়া মস্তকে দিতেছেন।

As the music came to a close the Master said, "Bhagavata — Bhakta — Bhagavan", and bowed low to the devotees seated on all sides. He touched with his forehead the ground made holy by the singing of the sacred music.

(३) 

  [  परिच्छेद ~ ३०,(15 अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

*आनन्दमयी दुर्गा माँ में क्या साकार -निराकार (formless Reality) के दर्शन नहीं होते?

रात के साढ़े नौ बजे का समय होगा । अन्नपूर्णा देवी दालान को आलोकित कर रही है । सामने श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ खड़े हुए हैं । सुरेन्द्र, राखाल, केदार, मास्टर, राम, मनोमोहन तथा और भी अनेक भक्त हैं । उन लोगों ने श्रीरामकृष्ण के साथ ही प्रसाद पाया है । सुरेन्द्र ने सब को तृप्तिपूर्वक भोजन कराया है । अब श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर लौटनेवाले हैं । भक्तजन भी अपने अपने घर जाएँगे । सब लोग दालान में आकर इकट्ठे हुए हैं ।  

सुरेन्द्र- (श्रीरामकृष्ण से)- परन्तु आज मातृवन्दना का एक भी गाना नहीं हुआ । 

श्रीरामकृष्ण (देवीप्रतिमा की ओर उँगली उठाकर)- अहा ! दालान की कैसी शोभा हुई है ! माँ मानो अपनी दिव्य छटा छिटककर बैठी हुई हैं । इस रूप के दर्शन करने पर कितना आनन्द होता है ! भोग की इच्छा, शोक, ये सब भाग जाते हैं । परन्तु क्या निराकार के दर्शन नहीं होते? नहीं, होते हैं । हाँ, जरा भी विषय-बुद्धि के रहते नहीं होते । ऋषियों ने सर्वस्वत्याग करके ‘अखण्ड-सच्चिदानन्द’ में मन लगाया था ।  

{ শ্রীরামকৃষ্ণ (ঠাকুরের প্রতিমা দেখাইয়া) — আহা, কেমন দালানের শোভা হয়েছে। মা যেন আলো করে বসে আছেন। এরূপ দর্শন কল্লে কত আনন্দ হয়। ভোগের ইচ্ছা, শোক — এ-সব পালিয়ে যায়। তবে নিরাকার কি দর্শন হয় না — তা নয়। বিষয়বুদ্ধি একটুও থাকলে হবে না; ঋষিরা সর্বত্যাগ করে অখণ্ড সচ্চিদানন্দের চিন্তা করেছিলেন।

"Ah! Look at the beauty of the hall. The light of the Divine Mother seems to have lighted the whole place. Such a sight fills the heart with joy. Grief and desire for pleasure disappear. But can one not see God as formless Reality? Of course one can. But not if one has the slightest trace of worldliness. The rishis of olden times renounced everything and then contemplated Satchidananda, the Indivisible Brahman.

“आजकल ब्रह्मज्ञानी उन्हें ‘अचल-धन’ कहकर गाते हैं, - मुझे अलोना लगता है । (It sounds very dry to me.) जो लोग गाते हैं, वे मानो कोई मधुर रस नहीं पाते । शीरे पर ही भूले रहे, तो मिश्री की खोज करने की इच्छा नहीं हो सकती । 

{[ “ইদানীং ব্রহ্মজ্ঞানীরা ‘অচল ঘন’ বলে গান গায়, — আমার আলুনী লাগে। যারা গান গায়, যেন মিষ্টরস পায় না। চিটেগুড়ের পানা দিয়ে ভুলে থাকলে, মিছরীর পানার সন্ধান কত্তে ইচ্ছা হয় না।

"The Brahmajnanis of modern times (A reference to the members of the Brahmo Samaj.) sing of God as 'immutable, homogeneous'. It sounds very dry to me. It seems as if the singers themselves don't enjoy the sweetness of God's Bliss, One doesn't want a refreshing drink made with sugar candy if one is satisfied with mere coarse treacle.

“तुम लोग देखते हो – माता जी की छवि मूर्ति में ,बाहर कैसे सुन्दर दर्शन हो रहे हैं, और आनन्द भी कितना मिलता है । जो लोग निराकार निराकार करते रहते हैं ,अंत में कुछ नहीं पाते, उनके न है बाहर और न है भीतर ।” 

{“তোমরা দেখ, কেমন বাহিরে দর্শন কচ্ছ আর আনন্দ পাচ্ছ। যারা নিরাকার নিরাকার করে কিছু পায় না, তাদের না আছে বাহিরে না আছে ভিতরে।”

"Just see how happy you are, looking at this image of the Deity. But those who always cry after the formless Reality do not get anything. They realize nothing either inside or outside."

श्रीरामकृष्ण माता का नाम लेकर इस भाव का गीत गा रहे हैं,

माँ गो आनंदमयी होये आमाय निरानंद कोरो ना। 


ओ दुटी चरण बिने आमार मन, अन्य किछु आर जाने ना।। 

तपन -तनय, आमाय मंद कय, कि दोष ता तो जानी ना। 

भवानी बोलिये, भबे जाबो चले, मने छिलो एई वासना, 

अकूलपाथारे डूबाबे आमारे, स्वपने ओ ता जानि ना।।

अहर्निशि श्रीदूर्गानामे भासि, तोबु दुखराशि गेलो ना। 

एबार जोदि मोरी, ओ हरसुंदरी, (तोर) दूर्गानाम केहु आर लोबे ना।।

গো আনন্দময়ী হয়ে আমায় নিরানন্দ কর না।

ও দুটি চরণ বিনা আমার মন, অন্য কিছু আর জানে না ৷৷

তপন-তনয়, আমায় মন্দ কয়, কি দোষে তাতো জানি না।

ভবানী বলিয়ে, ভবে যাব চলে, মনে ছিল এই বাসনা,

অকূলপাথরে ডুবাবে আমারে, স্বপনেও তা জানি না ৷৷

অহরহর্নিশি শ্রীদুর্গানামে ভাসি, তবু দুখরাশি গেল না।

এবার যদি মরি, ও হরসুন্দরী, (তোর) দুর্গানাম কেউ আর লবে না ৷৷-

“माँ, आनन्दमयी होकर मुझे निरानन्द न करना । मेरा मन तुम्हारे उन दोनों चरणों के सिवा और कुछ नहीं जानता । मैं नहीं जानता, धर्मराज मुझे किस दोष से दोषी बतला रहे हैं । मेरे मन में यह वासना थी कि तुम्हारा नाम लेता हुआ मैं भवसागर से तर जाऊँगा । मुझे स्वप्न में भी नहीं मालुम था कि तुम मुझे असीम सागर में डुबा दोगी । दिनरात मैं दुर्गानाम जप रहा हूँ, किन्तु फिर भी मेरी दुःखराशि दूर न हुई । परन्तु हे हरसुन्दरी, यदि इस बार भी मैं मरा तो यह निश्चय है कि संसार में फिर तुम्हारा नाम कोई न लेगा ।” 

[O Mother, ever blissful as Thou art, Do not deprive Thy worthless child of bliss! My mind knows nothing but Thy Lotus Feet. The King of Death scowls at me terribly; Tell me, Mother, what shall I say to him? It was my heart's desire to sail my boat Across the ocean of this mortal life,O Durga, with Thy name upon my lips. I never dreamt that Thou wouldst drown me here In the dark waters of this shoreless sea. Both day and night I swim among its waves,Chanting Thy saving name; yet even soThere is no end, O Mother, to my grief. If I am drowned this time, in such a plight, No one will ever chant Thy name again.

श्रीरामकृष्ण फिर गाने लगे : 

बोलो रे बोलो श्रीदूर्गानाम। (ओरे आमार आमार मन रे)।।  

दूर्गा दूर्गा दूर्गा बोले पथे चोले जाय। 

शूलहस्ते शूलपाणि रक्षा कोरेन ताय।।

तुमि दिबा, तुमि संध्या, तुमि शे यामिनी। 

कखोनो पुरुष होओ मा, कखोनो कामिनी।।

तुमि बोलो छाड़ो  छाड़ो आमि ना छाड़ीबो।  

बाजन नूपूर होये मा चरणे बाजिबो।। 

(जय दूर्गा जय दूर्गा बोले)

शंकरी होईये मा गो गगने उड़िबे । 

मीन होये रोबो जले नखे तुले लबे।। 

नखाघाते ब्रह्ममयी जखोन जाबे मोर परानी, 

कृपा लोरे दिओ रांगा चरण दूखानि। 

गीत इस आशय का है-  “मेरे मन ! दुर्गानाम जपो । जो दुर्गानाम जपता हुआ रास्ते में चला जाता है, शूलपाणि शूल लेकर उसकी रक्षा करते हैं । तुम दिवा हो, तुम सन्ध्या हो, तुम्ही रात्रि हो; कभी तो तुम पुरुष का रूप धारण करती हो, कभी कामिनी बन जाती हो । तुम तो कहती हो कि मुझे छोड़ दो, परन्तु मैं तुम्हें कदापि न छोडूंगा, - मैं तुम्हारे चरणों में नूपुर होकर बजता रहूँगा, - जय दुर्गा, श्रीदुर्गा कहता हुआ ! माँ, जब शंकरी (शंखचील ^ ) होकर तुम आकाश में उड़ती रहोगी तब मैं मीन बनकर पानी में रहूँगा तुम अपने नखों पर मुझे उठा लेना । हे ब्रह्ममयी, नखों के आघात से यदि मेरे प्राण निकल जायें, तो कृपा करके अपने अरुण चरणों का स्पर्श मुझे करा देना ।” 

[शंकरी (शंखचील ^ )^हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार एक समय में माँ दुर्गा ने पतंग के समान पक्षी (शंखचील माँ विंध्यवासिनी देवी)  का रूप धारण किया था।

[Repeat, O mind, my Mother Durga's hallowed name. Whoever treads the path, repeating "Durga! Durga!",Siva Himself protects with His almighty trident. Thou art the day, O Mother! Thou art the dusk and the night .Sometimes Thou are man, and so metimes woman art Thou. Thou mayest even say to me: "Step aside! Go away!" Yet I shall cling to Thee, O Durga! Unto Thy feet As Thine anklets I shall cling, making their tinkling sound. Mother, when as the Kite3 ( (Thou soarest in the sky, There, in the water beneath, as a minnow I shall be swimming; Upon me Thou wilt pounce, and pierce me through with Thy claws. Thus, when the breath of life forsakes me in Thy grip, Do not deny me the shelter of Thy Lotus Feet!

श्रीरामकृष्ण ने देवी को फिर प्रणाम किया । अब सीढ़ियों से उतरते समय पुकार कर कह रहे हैं – “ओ रा – जू – हैं?” (ओ राखाल ! जूते सब हैं, या भूल गए ?) 

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ আবার প্রতিমার সম্মুখে প্রণাম করিলেন। এইবার সিঁড়িতে নামিবার সময় ডাকিয়া বলিতেছেন, “ও রা-জু-আ”? (ও রাখাল, জুতো সব আছে, না হারিয়ে গেছে?)

श्रीरामकृष्ण गाड़ी पर चढ़े । सुरेन्द्र ने प्रणाम किया । दूसरे भक्तों ने भी प्रणाम किया । चाँदनी अभी भी रास्ते पर पड़ रही है । श्रीरामकृष्ण की गाड़ी दक्षिणेश्वर की ओर चल दी । 

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The Universal Mother : जगतजननी माँ दुर्गा :  ^ जो आत्मसाक्षात्कार के बाद माँ काली के द्वारा  फिर से शरीर में वापस भेज दिया गया है- वह जानता है कि -I am the chariot and Thou art the Driver.

 (देखें  /https://parvati.world/blog/the-universal-mother/

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