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शनिवार, 27 मार्च 2021

🔆🙏 ??????परिच्छेद ~6,[( 2 अप्रैल 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-6 ] 🔆🙏 गृहस्थी की भूलभुलैया में फंस जाने पर उससे बाहर निकलना कठिन क्यों है ?🔆🙏 संसार की भूलभुलैया से निकलने का उपाय-साधु/नेता संग और प्रार्थना🔆🙏 संसार मानो विशालाक्षी नदी का भँवर है 🔆🙏नवनीदा (C-IN-C) के सानिध्य में रहने से क्या उपकार होता है ?🔆🙏माँ सारदा और ठाकुर अपने माँ बाप हैं, उनसे जबरदस्ती प्रार्थना मनवानी होगी🔆🙏पाप की जिम्मेदारी और कर्मफल 🔆🙏संसार में भी ईश्वरप्राप्ति होती हैं । सभी की मुक्ति होगी ।🔆🙏मानवजाति का मार्गदर्शक नेता कौन हो सकता है ? जिनका दास मैं हो !🔆🙏 ‘कमलकुटीर’ (Lily Cottage) में श्रीरामकृष्ण और श्री केशव सेन 🔆🙏 ब्रह्मसमाजी केशवसेन की हिन्दू धर्म में घरवापसी🔆🙏

परिच्छेद ~ ६ 

(1)

[( 2 अप्रैल 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🔆🙏 गृहस्थी की भूलभुलैया में फंस जाने पर उससे बाहर निकलना कठिन क्यों है ?🔆🙏 

श्रीरामकृष्ण ने आज कलकत्ते में शुभागमन किया है । श्रीयुत प्राणकृष्ण मुखोपाध्याय के शामपुकुर-वाले मकान के दुमँजले पर बैठक-घर में भक्तों के साथ बैठे हैं । अभी अभी भक्तों के साथ बैठकर प्रसाद पा चुके हैं । आज 2 अप्रैल, रविवार 1882 ई., चैत्र शुक्ला चतुर्दशी है । इस समय दिन के एक-दो बजे होंगे । कप्तान [कर्नल विश्वनाथ उपाध्याय, कलकत्ता में नेपाल-सरकार के राजदूत और श्रीरामकृष्ण देव के गृही भक्त। ] उसी मुहल्ले में रहते हैं श्रीरामकृष्ण की इच्छा है कि इस मकान में विश्राम करने के बाद कप्तान के घर होकर उनसे मिलकर, ‘कमलकुटीर’ (Lily Cottage) नामक मकान में श्री केशव सेन को देखने जाएँ । प्राणकृष्ण बैठक-घर में बैठे हैं । राम, मनोहर, केदार, सुरेन्द्र, गिरीन्द्र (सुरेन्द्र के भाई), राखाल, बलराम, मास्टर आदि भक्तगण उपस्थित है।

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ কলিকাতায় আজ শুভাগমন করিয়াছেন। শ্রীযুক্ত প্রাণকৃষ্ণ মুখোপাধ্যায়ের শ্যামপুকুর বাটীর দ্বিতলায় বৈঠকখানাঘরে ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। এইমাত্র ভক্তসঙ্গে বসিয়া প্রসাদ পাইয়াছেন। আজ ২রা এপ্রিল, রবিবার, ১৮৮২ খ্রী:, ২১শে চৈত্র, ১২৮৮, শুক্লা চর্তুদশী; এখন বেলা ১/২টা হইবে। কাপ্তেন ওই পাড়াতেই থাকেন; ঠাকুরের ইচ্ছা এ-বাড়িতে বিশ্রামের পর কাপ্তেনের বাড়ি হইয়া, তাঁহাকে দর্শন করিয়া ‘কমলকুটির’ নামক বাড়িতে শ্রীযুক্ত কেশব সেনকে দর্শন করিতে যাইবেন। প্রাণকৃষ্ণের বৈঠকখানায় বসিয়া আছেন; রাম, মনোমহন, কেদার, সুরেন্দ্র, গিরীন্দ্র, (সুরেন্দ্রের ভ্রাতা), রাখাল, বলরাম, মাস্টার প্রভৃতি ভক্তেরা উপস্থিত। 

Today Sri Ramakrishna has come to Calcutta. He is sitting with devotees in the parlour on the first floor of Prankrishna Mukherji’s Shyampukur house, having just eaten a meal with the devotees. It is Sunday, 2 April 1882, the 14th day of the bright fortnight of Chaitra, the time between 1 and 2 in the afternoon. Captain lives in the same neighborhood and Thakur wants to go to his house after resting at Prankrishna’s. Then he wants to visit Keshab Sen in his house called the Lily Cottage., Prankrishna is sitting in his parlour. Ram, Manomohan, Kedar, Surendra, Girindra (Surendra’s brother), Rakhal, Balaram, M. and other devotees are present.

 मुहल्ले के कुछ सज्जन तथा अन्य दूसरे निमंत्रित व्यक्ति भी आए हैं । श्रीरामकृष्ण क्या कहते हैं-यह सुनने के लिए सभी उत्सुक होकर बैठे हैं ।

পাড়ার বাবুরা ও অন্যান্য নিমন্ত্রিত ব্যক্তিরাও আছেন, ঠাকুর কি বলেন — শুনিবার জন্য সকলেই উৎসুক হইয়া আছেন।

 A number of neighbours and other friends of Prankrishna had been invited to meet Sri Ramakrishna. They were all eager to hear his words.

श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, “ ईश्वर और उनका ऐश्वर्य । यह जगत उनका ऐश्वर्य है । परन्तु ऐश्वर्य देखकर ही सब लोग भूल जाते हैं, जिनका ऐश्वर्य है उनकी खोज नहीं करते । कामिनी-कांचन का भोग मारने सभी जाते हैं । परन्तु उसमें दुःख और अशान्ति ही अधिक है । संसार मानो विशालाक्षी नदी का भँवर है । नाव भँवर में पड़ने पर फिर उसका बचना कठिन है । गुखरू काँटे की तरह एक छूटता है तो दूसरा जकड़ जाता है । भूलभुलैया (labyrinth-लैबरिन्थ) में एक बार घुसने पर, उससे बाहर निकलना कठिन हो जाता है । गृहस्थ जीवन में रहते हुए मनुष्य भयाकुल (scared) हो कभी कभी मानो हिम्मत हारने लगता है ।” 

[ঠাকুর বলিতেছেন, ঈশ্বর ও তাঁহার ঐশ্বর্য। এই জগৎ তাঁর ঐশ্বর্য।“কিন্তু ঐশ্বর্য দেখেই সকলে ভুলে যায়, যাঁর ঐশ্বর্য তাঁকে খোঁজে না। কামিনী-কাঞ্চন ভোগ করতে সকলে যায়; কিন্তু দুঃখ, অশান্তিই বেশি। সংসার যেন বিশালাক্ষীর দ, নৌকা দহে একবার পড়লে আর রক্ষা নাই। সেঁকুল কাঁটার মতো এক ছাড়ে তো আর একটি জড়ায়। গোলকধান্দায় একবার ঢুকলে বেরুনো মুশকিল। মানুষ যেন ঝলসা পোড়া হয়ে যায়।”

Thakur: “God and His glory. This world is certainly His glory. But seeing His splendour and glory, people forget everything else. They don’t look for Him who is the master of all these riches. Everybody wants to enjoy ‘lust and gold’ – but there are more problems than enjoyment. The world is like a whirlpool of Vishalakshi  (A stream near Sri Ramakrishna's birth-place.) . Once a boat is caught in it, nothing can save it. Or it’s like a thorny bush. You pull yourself out of one thorn and get entangled with another. Once you enter a labyrinth, it’s difficult to find the way out of it. A man becomes scorched in the world of lust and gold.”

एक भक्त- महाराज, तो उपाय?
[একজন ভক্ত — এখন উপায়?
A DEVOTEE: "Then what is the way, sir?"

[( 2 अप्रैल 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🔆🙏 संसार की भूलभुलैया से निकलने का उपाय-साधु/नेता संग और प्रार्थना🔆🙏

[উপায় — সাধুসঙ্গ আর প্রার্থনা ] 

'The way: holy company and prayer'
       
श्रीरामकृष्ण- उपाय-साधुसंग और प्रार्थना । वैद्य के पास गये बिना रोग ठीक नहीं होता । साधुसंग एक ही दिन करने से कुछ नहीं होता । सदा ही आवश्यक है । रोग लगा ही है । फिर वैद्य के पास बिना रहे नाड़ी ज्ञान नहीं होता । साथ साथ घूमना पड़ता है, तब समझ में आता है कि कौन कफ की नाड़ी है और कौन पित्त की नाड़ी ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — উপায়: সাধুসঙ্গ আর প্রার্থনা। “বৈদ্যের কাছে না গেলে রোগ ভাল হয় না। সাধুসঙ্গ একদিন করলে হয় না, সর্বদাই দরকার; রোগ লেগেই আছে। আবার বৈদ্যের কাছে না থাকলে নাড়ীজ্ঞান হয় না, সঙ্গে সঙ্গে ঘুরতে হয়। তবে কোন্‌টি কফের নাড়ী, কোন্‌টি পিত্তের নাড়ী বোঝা যায়।”

Sri Ramakrishna: “There is a way: holy company and prayer.“Unless you go to a doctor, you can’t be cured. One day of holy company is not enough. It is always necessary, because the disease is chronic. Without going to a doctor, you don’t know how to diagnose the problem. You have to be with the doctor, here there and everywhere. Only then can you understand if it is phlegm or bile.”

[( 2 अप्रैल 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
 
🔆🙏नवनीदा (C-IN-C) के सानिध्य में रहने से क्या उपकार होता है ?🔆🙏 

भक्तसाधुसंग से क्या उपकार होता है ?

[ভক্ত — সাধুসঙ্গে কি উপকার হয়?
The Devotee: “How is holy company useful?”

श्रीरामकृष्ण- ईश्वर पर अनुराग होता है । उनसे प्रेम होता है । व्याकुलता न आने से कुछ भी नहीं होता है । साधुसंग करते करते ईश्वर के लिए प्राण व्याकुल होता है-जिस प्रकार घर में कोई अस्वस्थ होने पर मन सदा ही चिन्तित रहता है, और यदि किसी की नौकरी छूट जाती है तो वह जिस प्रकार आफिस आफिस में घूमता रहता है, व्याकुल होता रहता है, उसी प्रकार । यदि किसी आफिस में उसे जवाब मिलता है कि कोई काम नहीं है तो फिर दूसरे दिन आकर पूछता है, ‘क्या आज कोई जगह खाली हुई है?’

[ শ্রীরামকৃষ্ণ — ঈশ্বরে অনুরাগ হয়। তাঁর উপর ভালবাসা হয়। ব্যাকুলতা না এলে কিছুই হয় না। সাধুসঙ্গ করতে করতে ঈশ্বরের জন্য প্রাণ ব্যাকুল হয়। যেমন বাড়িতে কারুর অসুখ হলে সর্বদাই মন ব্যাকুল হয়ে থাকে, কিসে রোগী ভাল হয়। আবার কারুর যদি কর্ম যায়, সে ব্যক্তি যেমন আফিসে আফিসে ঘুরে ঘুরে বেড়ায়, ব্যাকুল হতে হয়, সেইরূপ। যদি কোন আফিসে বলে কর্ম খালি নেই, আবার তার পরদিন এসে জিজ্ঞাসা করে, আজ কি কোন কর্ম খালি হয়েছে?
Sri Ramakrishna: “Association with the holy develops fondness for God, it generates love for Him. Unless you can develop yearning for God, you won’t achieve anything. By keeping the company of holy people, the heart becomes restless for God. It’s like feeling constantly worried when somebody at home is ill, worrying how the patient can be cured. This yearning should be like a person out of work who is running around from one office to another in the search of a job. If he’s told there’s no vacancy in the office, he goes again the next day to ask if one has occurred.

 
[( 2 अप्रैल 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆🙏माँ सारदा और ठाकुर अपने माँ बाप हैं, उनसे जबरदस्ती प्रार्थना मनवानी होगी🔆🙏   
 
“एक और उपाय है- व्याकुल होकर प्रार्थना करना । ईश्वर अपने हैं, उनसे कहना पड़ता है, ‘तुम कैसे हो, दर्शन दो-दर्शन देना ही होगा-तुमने मुझे पैदा क्यों किया? सिक्खों ने कहा था, ‘ईश्वर दयामय है ।’ मैंने उनसे कहा था, ‘दयामय क्यों कहूँ? उन्होंने हमें पैदा किया है, यदि वे ऐसा करें जिससे हमारा मंगल हो, तो इसमें आश्चर्य क्या है? माँ-बाप बच्चों का पालन करेंगे ही, इसमें फिर दया की क्या बात है? यह तो करना ही होगा ।’  इसीलिए उन पर जबरदस्ती करके उनसे प्रार्थना स्वीकार करानी होगी ।

[“আর একটি উপায় আছে — ব্যাকুল হয়ে প্রার্থনা। তিনি যে আপনার লোক, তাঁকে বলতে হয়, তুমি কেমন, দেখা দাও — দেখা দিতেই হবে — তুমি আমাকে সৃষ্টি করেছ কেন? শিখরা বলেছিল, ‘ঈশ্বর দয়াময়’; আমি তাঁদের বলেছিলাম, দয়াময় কেন বলব? তিনি আমাদের সৃষ্টি করেছেন, যাতে আমাদের মঙ্গল হয়, তা যদি করেন সে কি আর আশ্চর্য! মা-বাপ ছেলেকে পালন করবে, সে আবার দয়া কি? সে তো করতেই হবে, তাই তাঁকে জোর করে প্রার্থনা করতে হয়।
“There is another way: praying with a sincere heart. He is your own. You have to say to Him, ‘Please reveal yourself to me, grant me Your vision. Why have you given birth to me?’ Sikh devotees said to me that God is kind. I said to them, ‘Why should I call Him kind? He has created us. What wonder is there that He is kind to us?’ What kindness is there in parents’ bringing up their children? He has to do it, so we should make demands on Him. He is our own father, our own mother. If the son wants his inheritance and begins to fast for it, his parents release it three years early. Again, when a boy entreats his mother for money, ‘Mother, I fall at your feet. Please give me money,’ the mother has to comply with his wishes. Seeing his insistence, she tosses a few coins at him.
 Therefore we should force our demands on God. 

वे हमारी माँ, और हमारे बाप जो हैं । लड़का यदि खाना-पीना छोड़ दे तो माँ-बाप उसके बालिग होने के तीन वर्ष पहले ही उसका हिस्सा उसे दे देते हैं । फिर जब लड़का पैसे माँगता और बार बार कहता है, ‘माँ, तेरे पैरों पड़ता हूँ, मुझे दो पैसे दे दे’ तो माँ हैरान होकर उसकी व्याकुलता देख पैसा फेंक ही देती है ।

 [তিনি যে আপনার মা, আপনার বাপ! ছেলে যদি খাওয়া ত্যাগ করে, বাপ-মা তিন বৎসর আগেই হিস্যা ফেলে দেয়। আবার যখন ছেলে পয়সা চায়, আর পুনঃপুনঃ বলে, ‘মা, তোর দুটি পায়ে পড়ি, আমাকে দুটি পয়সা দে’, তখন মা ব্যাজার হয়ে তার ব্যাকুলতা দেখে পয়সা ফেলে দেয়।
 He is our Father and Mother, isn't He? If the son demands his patrimony and gives up food and drink in order to enforce his demand, then the parents hand his share over to him three years before the legal time. Or when the child demands some pice from his mother, and says over and over again: 'Mother, give me a couple of pice. I beg you on my knees!' — then the mother, seeing his earnestness, and unable to bear it any more, tosses the money to him. 

[( 2 अप्रैल 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆🙏साधु (गुरु,नेता) -संग करने से `विवेक-प्रयोग ' रूपी अंकुश प्राप्त होता है🔆🙏   
        
“साधुसंग करने पर एक और उपकार होता है,- सत् और असत् (मिथ्या) का विचार । सत् नित्य पदार्थ अर्थात् ईश्वर, असत् अर्थात् अनित्य । असत् पथ पर मन जाते ही विचार करना पड़ता है । 
 हाथी जब दूसरों के केले के पेड़ खाने के लिए सूँड बढ़ाता है तो उसी समय महावत उसे अंकुश मारता है ।”
 [मिथ्या होने कारण नश्वर/दूसरों की या पड़ोसी की - 'कामिनी -कांचन ' में लालच या आसक्ति के पथ पर मन जाते ही उस चंचल/लालची हाथी जैसे मन पर उसी समय`विवेक-प्रयोग ' रूपी अंकुश मारना चाहिए ! ] 
[“সাধুসঙ্গ করলে আর একটি উপকার হয়। সদসৎ বিচার। সৎ — নিত্য পদার্থ অর্থাৎ ঈশ্বর। অসৎ অর্থাৎ অনিত্য। অসৎপথে মন গেলেই বিচার করতে হয়। হাতি পরের কলাগাছ খেতে শুঁড় বাড়ালে সেই সময় মাহুত ডাঙস মারে।”
“There is another benefit of holy company: only the thought of what is Real comes to mind – what is Real, what is eternal, that is, God. What is unreal is transitory: the mind should discriminate. No sooner does an elephant raise its trunk to eat the plantain tree of a stranger but the mahout goads it.”

[( 2 अप्रैल 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆🙏शिव-संकल्प रहित और षडरिपुओं के वशीभूत मन और कर्मफल 🔆🙏 

पड़ोसी- महाराज, पाप बुद्धि क्यों होती है? 

[প্রতিবেশী — মহাশয়, পাপবুদ্ধি কেন হয়?
A NEIGHBOUR: "Why does a man have sinful tendencies?"

श्रीरामकृष्ण- उनके जगत् में सभी प्रकार है । साधु लोग भी उन्होंने बनाए हैं, दुष्ट लोगों को भी उन्होंने ही बनाया है । सद्बुद्धि भी वे ही देते हैं और असद् बुद्धि भी ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁর জগতে সকলরকম আছে। সাধু লোকও তিনি করেছেন, দুষ্ট লোকও তিনি করেছেন, সদ্‌বুদ্ধি তিনিই দেন, অসদ্‌বুদ্ধিও তিনিই দেন।
Sri Ramakrishna: “There are all kinds of people in this world. He has created good people and He has also created the wicked. It is He who gives good as well as bad tendencies.”
 
पड़ोसी- क्या पाप करने पर हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है?

[প্রতিবেশী — তবে পাপ করলে আমাদের কোন দায়িত্ব নাই?
NEIGHBOUR: "In that case we aren't responsible for our sinful actions, are we?"

श्रीरामकृष्ण- ईश्वर का नियम है कि पाप करने पर उसका फल भोगना पड़ेगा । मिर्च खाने पर क्या तीखा न लगेगा? सेजो बाबू  ने अपनी जवानी में बहुत-कुछ किया था, (मथुर बाबु, ^ रानी रसमनी के दामाद, और श्री रामकृष्ण के एक महान भक्त एवं रसददार। इसलिए मरते समय उन्हें अनेक प्रकार के रोग हुए कम उम्र में इतना पता नहीं चलता । कालीबाड़ी में भोजन पकाने के लिए सुन्दरवन की गीली लकड़ी रहती है । वह गीली लकड़ी पहले-पहले अच्छी जलती है । उस समय मालुम भी नहीं होता कि इसके अन्दर जल है । लकड़ी का जलना समाप्त होते समय सारा जल पीछे की ओर आ जाता है और फैंच-फैंच करके चूल्हे की आग बुझा देता है । इसीलिए षडरिपु (काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मात्सर्य) से खूब सावधान रहना चाहिए । देखो न, हनुमान ने क्रोध में लंका जला दी थी । अन्त में ख्याल आया, अशोकवन में सीता हैं । तब सटपटाने लगे कि कहीं सीताजी को कुछ न हो जाय । 
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ঈশ্বরের নিয়ম যে, পাপ করলে তার ফল পেতে হবে। লঙ্কা খেলে, তার ঝাল লাগবে না? সেজোবাবু বয়সকালে অনেকরকম করেছিল, তাই মৃত্যুর সময় নানারকম অসুখ হল। কম বয়সে এত টের পাওয়া যায় না। কালীবাড়িতে ভোগ রাঁধবার অনেক সুঁদরী কাঠ থাকে। ভিজে কাঠ প্রথমটা বেশ জ্বলে যায়, তখন ভিতরে যে জল আছে, টের পাওয়া যায় না। কাঠটা পোড়া শেষ হলে যত জল পেছনে ঠেলে আসে ও ফ্যাঁচফোঁচ করে উনুন নিভিয়ে দেয়। তাই কাম, ক্রোধ, লোভ — এ-সব থেকে সাবধান হতে হয়। দেখ না, হনুমান ক্রোধ করে লঙ্কা দগ্ধ করেছিল, শেষে মনে পড়ল, অশোকবনে সীতা আছেন, তখন ছটফট করতে লাগল, পাছে সীতার কিছু হয়।

Sri Ramakrishna: “It’s God’s law that you have to bear the consequence of sin. Won’t chili be hot if you eat it? Mathur Babu did a lot of bad things in his youth. That’s why he suffered from a number of diseases before he died. You don’t notice early on. There’s a lot of wood fuel for cooking in the Kali temple. The wet wood burns nicely in the beginning and you don’t notice water in it. But when the wood is burnt, all the water collects and it puts out the fire in the oven. That’s why you should beware of lust, anger, greed and so on. Just see how Hanuman burnt Lanka in anger. Later, he realized that Sita was in the Ashoka grove. Then he was frantic that she might come to harm.”

पड़ोसी- तो ईश्वर ने दुष्ट लोगों को बनाया ही क्यों ? 

[প্রতিবেশী — তবে ঈশ্বর দুষ্ট লোক করলেন কেন?
NEIGHBOUR: "Why has God created wicked people?"

श्रीरामकृष्ण- उनकी इच्छा, उनकी लीला । उनकी माया में विद्या भी है, अविद्या भी । अन्धकार की भी आवश्यकता है । अन्धकार रहने पर प्रकाश की महिमा और भी अधिक प्रकट होती है । काम, क्रोध, लोभादि खराब चीज तो अवश्य हैं, परन्तु उन्होंने ये दिये क्यों? दिये महान् व्यक्तियों को तैयार करने के लिए। मनुष्य इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने से महान् होता है । जितेन्द्रिय क्या नहीं कर सकता? उनकी कृपा से उसे ईश्वरप्राप्ति तक हो सकती है । फिर दूसरी ओर देखो, काम से उनकी सृष्टि की लीला चल रही है । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁর ইচ্ছা, তাঁর লীলা। তাঁর মায়াতে বিদ্যাও আছে, অবিদ্যাও আছে। অন্ধকারেরও প্রয়োজন আছে, অন্ধকার থাকলে আলোর আরও মহিমা প্রকাশ হয়। কাম, ক্রোধ, লোভ খারাপ জিনিস বটে, তবে তিনি দিয়েছেন কেন? মহৎ লোক তয়ের করবেন বলে। ইন্দ্রিয় জয় করলে মহৎ হয়। জিতেন্দ্রিয় কি না করতে পারে? ঈশ্বরলাভ পর্যন্ত তাঁর কৃপায় করতে পারে। আবার অন্যদিকে দেখ, কাম থেকে তাঁর সৃষ্টি-লীলা চলছে।
Sri Ramakrishna: “It is His will, His sport. Both knowledge and ignorance are in His maya. Darkness is necessary to show the glory of light. If lust, anger and greed are bad, why has he made them? Because he wants to create saintly people. A person becomes high-minded when his senses are subdued. What is impossible for a person who has overcome his senses? By His grace, he can even realize God. And look at it from this point of view. It’s through desire (lust) that His creation continues.

 दुष्ट लोगों की भी आवश्यकता है । एक गाँव के लोग बहुत उद्दण्ड हो गए थे । उस समय वहाँ गोलोक चौधरी को भेज दिया गया । उसके नाम से लोग काँपने लगे-इतना कठोर शासन था उसका । अतएव अच्छे-बुरे सभी तरह के लोग चाहिए । सीताजी बोलीं- ‘राम, अयोध्या में यदि सभी सुन्दर महल होते तो कैसा अच्छा होता ! मैं देख रही हूँ अनेक मकान टूट गए हैं, कुछ पुराने हो गए हैं ।’ श्रीराम बोले, ‘सीता, यदि सभी मकान सुन्दर हों तो मिस्त्री लोग क्या करेंगे?’ (सभी हँस पड़े ।) ईश्वर ने सभी प्रकार के पदार्थ बनाए हैं-अच्छे पेड़, विषैले पेड़ और व्यर्थ के पौधे भी । जानवरों में भले-बुरे सभी हैं-बाघ, शेर, साँप-सभी हैं ।”

[“দুষ্ট লোকেরও দরকার আছে। একটি তালুকের প্রজারা বড়ই দুর্দান্ত হয়েছিল। তখন গোলক চৌধুরিকে পাঠিয়ে দেওয়া হল। তার নামে প্রজারা কাঁপতে লাগল — এত কঠোর শাসন। সবই দরকার। সীতা বললেন, রাম! অযোধ্যায় সব অট্টালিকা হত তো বেশ হত, অনেক বাড়ি দেখছি ভাঙা, পুরানো। রাম বললেন, সীতা! সব বাড়ি সুন্দর থাকলে মিস্ত্রীরা কি করবে? (সকলের হাস্য) ঈশ্বর সবরকম করেছেন — ভাল গাছ, বিষ গাছ, আবার আগাছাও করেছেন। জানোয়ারদের ভিতর ভাল-মন্দ সব আছে — বাঘ, সিংহ, সাপ সব আছে।”
“Wicked people are needed too. When the tenants of a landlord rebelled the landlord sent Golok Choudhury. He was so cruel that the tenants trembled at his name. Everything is necessary. Sita said, ‘Rama, if there were only palatial buildings in Ayodhya, it would be so nice, but I see so many old shanties.’ Rama replied, ‘Sita, if all the houses were well built, what would the masons do?’ (All laugh.) God has created everything – good trees, poisonous trees, even weeds. Among animals also, there are good and bad – tigers, lions, snakes, all these and more.”

 
[( 2 अप्रैल 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆🙏संसार  में भी ईश्वरप्राप्ति होती हैं । सभी की मुक्ति होगी ।🔆🙏 

[সংসারেও ঈশ্বরলাভ হয় — সকলেরই মুক্তি হবে ]

[It is possible to realize God even in household life – 
everybody will attain liberation]

पड़ोसी- महाराज, गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए क्या कभी भगवान् को प्राप्त किया जा सकता है?

[প্রতিবেশী — মহাশয়, সংসারে থেকে কি ভগবানকে পাওয়া যায়?

The Neighbour: “Sir, is it possible to attain God while living a householder’s life?”

श्रीरामकृष्ण- अवश्य किया जा सकता है । परन्तु जैसा कहा, साधुसंग और सदा प्रार्थना करनी पड़ती है। उनके पास रोना चाहिए । मन का सभी मैल धुल जाने पर उनका दर्शन होता है, मन मानो मिट्टी से लिपटी हुई एक लोहे की सुई है-ईश्वर हैं चुम्बक । मिट्टी रहते चुम्बक के साथ संयोग नहीं होता । रोते रोते सुई की मिट्टी धुल जाती है । सुई की मिट्टी अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, पापबुद्धि विषयबुद्धि आदि । मिट्टी धुल जाने पर सुई को चुम्बक खींच लेगा अर्थात् ईश्वरदर्शन होगा । चित्तशुद्धि होने पर ही उनकी प्राप्ति होती है । ज्वर चढ़ा है, शरीर मानो भुन रहा है, इसमें कुनैन से क्या काम होगा

[শ্রীরামকৃষ্ণ — অবশ্য পাওয়া যায়। তবে যা বললুম, সাধুসঙ্গ আর সর্বদা প্রার্থনা করতে হয়। তাঁর কাছে কাঁদতে হয়। মনের ময়লাগুলো ধুয়ে গেলে তাঁর দর্শন হয়। মনটি যেন মাটি-মাখানো লোহার ছুঁচ — ঈশ্বর চুম্বক পাথর, মাটি না গেলে চুম্বক পাথরের সঙ্গে যোগ হয় না। কাঁদতে কাঁদতে ছুঁচের মাটি ধুয়ে যায়; ছুঁচের মাটি অর্থাৎ কাম, ক্রোধ, লোভ, পাপবুদ্ধি, বিষয়বুদ্ধি। মাটি ধুয়ে গেলেই ছুঁচকে চুম্বক পাথরে টেনে লবে — অর্থাৎ ঈশ্বরদর্শন হবে। চিত্তশুদ্ধি হলে তবে তাঁকে লাভ হয়। জ্বর হয়েছে, দেহেতে রস অনেক রয়েছে তাতে কুইনাইনে কি কাজ হবে। 
Sri Ramakrishna: “Certainly you can. But, as I said earlier, you have to keep the company of holy people and constantly pray to Him. You have to weep before Him. When the mind is washed of all impurities, God is seen. The mind is like a needle covered with mud – God is a magnet. Until all the dirt is cleaned off, it cannot join the magnet. When you weep, all the dirt of the needle is washed off. The dirt of the needle is lust, anger, greed, bad tendencies and worldly calculation. As soon as the dirt is washed off, the magnet will pull the needle to itself. In other words, you will have the vision of God. When the mind is purified, a person attains God. Say a person has a fever – a lot of poison in the body is causing the illness – how can quinine help in such a condition?

 “संसार में ईश्वरलाभ होगा क्यों नहीं? वही साधुसंग, रो-रोकर प्रार्थना, बीच बीच में निर्जनवास; चारों ओर कटघरा लगाए बिना रास्ते के पौधों को गाय-बकरियाँ खा जाती है ।” 
[সংসারে হবে না কেন? ওই সাধুসঙ্গ, কেঁদে কেঁদে প্রার্থনা, মাঝে মাঝে নির্জনে বাস; একটু বেড়া না দিলে ফুটপাথের চারাগাছ, ছাগল গরুতে খেয়ে ফেলে।
“Why isn’t it possible to realize Him while living as a householder? The same thing – keep the company of the holy, weep and pray to Him, and live in solitude now and then. If plants on a roadside aren’t fenced, cows and goats will eat them up.”

 पड़ोसी- तो फिर जो लोग संसार में हैं उनकी भी मुक्ति होगी ? 

[প্রতিবেশী — যারা সংসারে আছে, তাহলে তাদেরও হবে?
The Neighbour: “So people who lead a householder’s life can also realize God?”

श्रीरामकृष्ण- सभी की मुक्ति होगी । गुरु के उपदेश के अनुसार चलना पड़ता है, टेढ़े रास्ते से जाने पर फिर सीधे रास्ते पे आने में कष्ट होगा । मुक्ति बहुत देर में होती है । शायद इस जन्म में न भी हो । फिर सम्भव है अनेक जन्मों के पश्चात् हो । जनक आदि ने संसार में भी कर्म किया था। ईश्वर को सिर पर रखकर काम करते थे । नाचनेवाली जिस प्रकार सिर पर बर्तन रखकर नाचती है। और पश्चिम की औरतों को नहीं देखा, सिर पर जल का घड़ा लेकर हँस-हँसकर बातें करती हुई जाती हैं

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সকলেরই মুক্তি হবে। তবে গুরুর উপদেশ অনুসারে চলতে হয়। বাঁকাপথে গেলে ফিরে আসতে কষ্ট হবে। মুক্তি অনেক দেরিতে হয়। হয়তো এ-জন্মেও হল না, আবার হয়তো অনেক জন্মের পর হল। জনকাদি সংসারেও কর্ম করেছিলেন। ঈশ্বরকে মাথায় রেখে কাজ করতেন। নৃত্যকী যেমন মাথায় বাসন করে নাচে। আর পশ্চিমের মেয়েদের দেখ নাই? মাথায় জলের ঘড়া, হাসতে হাসতে কথা কইতে কইতে যাচ্ছে।
Sri Ramakrishna: “Everybody will attain liberation. However, a person should follow the instructions of his religious preceptor (गुरु /नेता) . If you take a crooked path, it will be difficult to return. Then liberation will take a long time. It’s possible that you won’t attain it in this life, it may take more births. Janaka and others lived and worked as householders – they worked, keeping God on their minds – the same way a dancing girl dances with a pot on her head. And think of the western (Indian) women. They walk along talking and laughing while they’re carrying water pots on their heads.”

[( 2 अप्रैल 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆🙏मानवजाति का मार्गदर्शक नेता कौन हो सकता है ? जिनका दास मैं हो !🔆🙏 

पड़ोसी- आपने गुरुपदेश के बारे में बताया, पर गुरु कैसे प्राप्त करूँ?

[প্রতিবেশী — গুরুর উপদেশ বললেন। গুরু কেমন করে পাব?
The Neighbour: “You said that you should follow the instructions of the religious teacher. But how can we find a religious teacher?”

श्रीरामकृष्ण- हर एक गुरु (नेता) नहीं हो सकता । कीमती शहतीर पानी में स्वयं भी बहता हुआ चला जाता है और अनेक जीव-जन्तु भी उस पर चढ़कर जा सकते हैं । पर मामूली लकड़ी पर चढ़ने से लकड़ी भी डूब जाती है और जो चढ़ता है वह भी डूब जाता है । इसलिए ईश्वर युग युग में लोकशिक्षा के लिए गुरु-रूप में स्वयं अवतीर्ण होते हैं । सच्चिदानन्द ही गुरु हैं

[শ্রীরামকৃষ্ণ — যে-সে লোক গুরু হতে পারে না। বাহাদুরী কাঠ নিজেও ভেসে চলে যায়, অনেক জীবজন্তুও চড়ে যেতে পারে। হাবাতে কাঠের উপর চড়লে, কাঠও ডুবে যায়, যে চড়ে সেও ডুবে যায়। তাই ঈশ্বর যুগে যুগে লোকশিক্ষার জন্য নিজে গুরুরূপে অবতীর্ণ হন। সচ্চিদানন্দই গুরু।
Sri Ramakrishna: “Not just any kind of person can be a guru. A big log[3] floats and can carry a number of birds and animals on it. But if someone climbs on a light piece of wood, it not only sinks, but drowns whoever is on it. That’s why God incarnates in every age as a guru. Sat-chit-ananda himself is the guru.
         
“ज्ञान किसे कहते हैं; और मैं कौन हूँ? ‘ईश्वर ही कर्ता (नेता ) हैं और सब अकर्ता’ इसी का नाम ज्ञान है। मैं अकर्ता, उनके हाथ का यत्र हूँ । इसीलिए मैं कहता हूँ, माँ, तुम यंत्री हो, मैं यन्त्र हूँ; तुम घरवाली हो, मैं घर हूँ; मैं गाड़ी हूँ, तुम इंजीनियर हो । जैसा चलाती हो वैसा चलता हूँ, जैसा कराती हो वैसा करता हूँ, जैसा बुलवाती हो, वैसा बोलता हूँ; नाहं, नाहं, तू है तू (सच्चिदानन्द ही गुरु/नेता) है।”

[“জ্ঞান কাকে বলে; আর আমি কে? ঈশ্বরই কর্তা আর সব অকর্তা — এর নাম জ্ঞান। আমি অকর্তা। তাঁর হাতের যন্ত্র। তাই আমি বলি, মা, তুমি যন্ত্রী, আমি যন্ত্র; তুমি ঘরণী, আমি ঘর; তুমি ইঞ্জিনিয়ার; যেমন চালাও, তেমনি চলি; যেমন করাও, তেমনি করি; যেমন বলাও, তেমনি বলি; নাহং নাহং তুঁহু তুঁহু।”
“What is knowledge and who am I? God alone is the doer and everything else is only an instrument – this is called jnana, or spiritual knowledge. I am not a doer, I am only an instrument in His hands. That’s why I say to the Divine Mother: Mother, You are the operator, I am an instrument; You are the resident, I am the house; You are the driver, I am the carriage. I move at Your will; I do what You make me do. I speak only as You make me speak. Not I, not I, only You, only You.”

(2 )

[( 2 अप्रैल 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆🙏 ‘कमलकुटीर’ (Lily Cottage) में श्रीरामकृष्ण और श्री केशव सेन 🔆🙏

[কমলকুটিরে শ্রীরামকৃষ্ণ ও শ্রীযুক্ত কেশব সেন
[Sri Ramakrishna and Keshab Sen at the Lily Cottage]

श्रीरामकृष्ण कप्तान के घर होकर श्रीयुत केशव सेन के ‘कमलकुटीर’ नामक मकान पर आए हैं । साथ हैं राम, मनोमोहन, सुरेन्द्र, मास्टर आदि अनेक भक्त लोग । सब दुमँजले के हाल में बैठे हैं । श्री प्रताप मजुमदार, श्री त्रैलोक्य आदि ब्राह्मभक्त भी उपस्थित हैं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ কাপ্তেনের বাটী হইয়া শ্রীযুক্ত কেশব সেনের ‘কমলকুটির’ নামক বাটীতে আসিয়াছেন। সঙ্গে রাম, মনোমোহন, সুরেন্দ্র, মাস্টার প্রভৃতি অনেকগুলি ভক্ত। সকলে দ্বিতল হলঘরে উপবেশন করিয়াছেন। শ্রীযুক্ত প্রতাপ মজুমদার, শ্রীযুক্ত ত্রৈলোক্য প্রভৃতি ব্রাহ্মভক্তগণও উপস্থিত আছেন।
From Captain’s home, Thakur goes to Keshab Sen’s house, the Lily Cottage. Many devotees are with him, including Ram, Manomohan, Surendra, and M. They are all seated in the hall on the second story. Pratap Majumdar, Trailokya and other devotees are also present.

 श्रीरामकृष्ण केशव को बहुत प्यार करते हैं । जिन दिनों बेलघर (बेलघड़िया)  के बगीचे में वे शिष्यों के साथ साधन-भजन कर रहे थे तब, अर्थात् 1875 ई. के माघोत्सव के बाद कुछ दिनों के अन्दर ही, एक दिन श्रीरामकृष्ण ने बगीचे में जाकर उनके साथ साक्षात्कार किया था । साथ था उनका भानजा हृदयराम । 

[ঠাকুর শ্রীযুক্ত কেশবকে বড় ভালবাসেন। যখন বেলঘরের বাগানে সশিষ্য তিনি সাধন-ভজন করিতেছিলেন, অর্থাৎ ১৮৭৫ খ্রীষ্টাব্দে মাঘোৎসবের পর — কিছুদিনের মধ্যে ঠাকুর একদিন বাগানে গিয়া তাঁহার সহিত দেখা করিয়াছিলেন। সঙ্গে ভাগিনেয় হৃদয়রাম।
Thakur has great affection for Keshab Sen. It was when Keshab was practicing spiritual disciplines with his disciples in Belgharia – in 1875 after the festival of Magha – Thakur went to the garden to meet him. He was accompanied by Hriday, his nephew.

बेलघर (बेलघड़िया)   के इस बगीचे में उन्होंने केशव से कहा था, “ तुम्हारी दुम झड़ गयी है, अर्थात् तुम सब कुछ छोड़कर संसार के बाहर भी रह सकते हो और फिर संसार (गृहस्थ जीवन)  में भी रह सकते हो । जिस प्रकार मेंढक के बच्चे की दुम झड़ जाने पर वह पानी में भी रह सकता है और फिर जमीन पर भी ।” इसके बाद दक्षिणेश्वर में, कमलकुटीर में, ब्राह्मसमाज आदि स्थानों में अनेक बार श्रीरामकृष्ण ने वार्तालाप के सिलसिले में उन्हें उपदेश दिया था । अनेक पन्थों से (चार योग मार्ग) तथा अनेक धर्मों द्वारा ईश्वर-प्राप्ति हो सकती है ।

[ বেলঘরের এই বাগানে তাঁহাকে বলেছিলেন, তোমারই ল্যাজ খসেছে, অর্থাৎ তুমি সব ত্যাগ করে সংসারের বাহিরেও থাকতে পার আবার সংসারেও থাকতে পার; যেমন বেঙাচির ল্যাজ খসলে জলেও থাকতে পারে, আবার ডাঙাতেও থাকতে পারে। পরে দক্ষিণেশ্বরে, কমলকুটিরে, ব্রাহ্মসমাজ ইত্যাদি স্থানে অনেকবার ঠাকুর কথাচ্ছলে তাঁহাকে উপদেশ দিয়াছিলেন, “নানা পথ দিয়া, নানা ধর্মের ভিতর দিয়া ঈশ্বরলাভ হতে পারে।
 It was in this Belgharia garden that Thakur said to Keshab, “You have cast off your tail. In other words, after renouncing everything you are able to live inside or outside the household – like a tadpole that’s lost its tail and can live both in water and on land.” He advised Keshab on many occasions later at Dakshineswar, the Lily Cottage, Brahmo Samaj and other places: God can be realized by different paths and by different religions.

बीच बीच में निर्जन में साधन-भजन करके भक्तिलाभ करते हुए संसार (गृहस्थ जीवन) में रहा जा सकता है । राजर्षि (राजा + ऋषि) जनक आदि ब्रह्मज्ञान प्राप्त करके संसार में (अर्थात गृहस्थ जीवन में) रहे थे । व्याकुल होकर उन्हें पुकारना पड़ता है तब वे दर्शन देते हैं । तुम लोग जो कुछ करते हो, निराकार (अमूर्त) का साधन, वह बहुत अच्छा है ।” 

[ মাঝে মাঝে নির্জনে সাধন-ভজন করে ভক্তিলাভ করে সংসারে থাকা যায়; জনকাদি ব্রহ্মজ্ঞানলাভ করে সংসারে ছিলেন; ব্যাকুল হয়ে তাঁকে ডাকতে হয়, তবে দেখা দেন; তোমরা যা কর, নিরাকার সাধন, সে খুব ভাল। 
 A person can live in the world after practicing spiritual disciplines in solitude and developing love for God. Janaka and others lived a worldly life after attaining the knowledge of Brahman. You must call on Him with a heart full of yearning, only then will He grant His vision. Worship God without form; this is very good.
  
“ब्रह्मज्ञान होने पर ठीक अनुभव करोगे कि ईश्वर सत्य है और सब अनित्य; ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है । सनातन हिन्दू धर्म में साकार (मूर्त) निराकार (अमूर्त)  दोनों ही माने गए हैं । अनेक भावों से ईश्वर की पूजा होती है। शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य, मधुर । शहनाई बजाते समय एक आदमी केवल पोंऽऽ ही बजाता है, परन्तु उसके बाजे में सात छेद रहते हैं । और दूसरा व्यक्ति, जिसके बाजे में सात छेद हैं, वह अनेक राग-रागिनियाँ बजाता है ।”

ব্রহ্মজ্ঞান হলে ঠিক বোধ করবে — ঈশ্বর সত্য আর সব অনিত্য; ব্রহ্ম সত্য, জগৎ মিথ্যা। সনাতন হিন্দুধর্মে সাকার নিরাকার দুই মানে; নানাভাবে ঈশ্বরের পূজা করে — শান্ত, দাস্য, সখ্য, বাৎসল্য, মধুর। রোশনচৌকিওয়ালারা একজন শুধু পোঁ ধরে বাজায় অথচ তার বাঁশীর সাত ফোকর আছে; কিন্তু আর একজন তারও সাত ফোকর আছে, সে নানা রাগরাগিণী বাজায়।
 Attaining the knowledge of Brahman, you will have the correct understanding that God is real and all else is transitory. Brahman is real, the world unreal. The Eternal Religion[4] believes both in God with form and God without form; God is worshipped with different attitudes – the attitude of peacefulness, as servant, as friend, as parent, and as one’s beloved. During a symphony of sanai and other instruments[5] a musician plays one single note though he has seven holes in his pipe – while at the same time there is another musician who also has seven holes in his flute but plays different notes.

 “तुम लोग (भारत के 1000 वर्षों से गुलाम रहने के कारण आर्यसमाजी और ब्रह्मसमाजी लोग)  साकार (मूर्ति-पूजा) को नहीं मानते इसमें कोई हानि नहीं; निराकार (अमूर्त ब्रह्म) में निष्ठा रहने से भी हो सकता है। परन्तु साकारवादियों (मूर्तिपूजकों के)  के केवल प्रेम के आकर्षण को लेना । माँ कहकर उन्हें (ब्रह्म -सच्चिदानन्द के अवतार को) पुकारने से भक्तिप्रेम और भी बढ़ जायगा । कभी दास्य, कभी सख्य, कभी वात्सल्य, कभी मधुर भाव । ‘कोई कामना नहीं है, उन्हें प्यार करता हूँ’, यह बहुत अच्छा भाव है । इसका नाम है अहेतुक भक्ति । रुपया-पैसा, मान-इज्जत कुछ भी नहीं चाहता हूँ, चाहता हीं केवल तुम्हारे चरण-कमलों में भक्ति ।” 

[“তোমরা সাকার মানো না, তাতে কিছু ক্ষতি নাই; নিরাকারের নিষ্ঠা থাকলেই হল। তবে সাকারবাদীদের টানটুকু নেবে। মা বলে তাঁকে ডাকলে ভক্তি-প্রেম আরও বাড়বে। কখন দাস্য, কখন বাৎসল্য, কখন মধুর ভাব। কোন কামনা নাই তাঁকে ভালবাসি, এটি বেশ। এর নাম অহেতুকী ভক্তি 
“You don’t believe in God with form. There is no harm in that. It’s enough to have single-minded devotion to the formless God. Even so, you should cultivate the longing that the believers in God with form have. When you call upon Him as Mother, your love and devotion increase. At one time you may have the attitude of a servant, at another of a friend, then of a parent, again as one’s beloved. I have no desire, I only love Him. It’s a nice attitude. It’s called motiveless devotion.[6] I have asked for nothing – not money, not fame, nor respect. All I ask for is love and devotion to Your lotus feet. 

 “वेद, पुराण और  तन्त्र में एक ईश्वर ही की बात है, और उनकी लीला की बात है । ज्ञान भक्ति दोनों ही हैं । संसार में दासी की तरह रहो । दासी सब काम करती है, पर उसका मन रहता है अपने घर में । मालिक के बच्चे को पालती-पोसती है; कहती है ‘मेरा हरि, मेरा राम ।’ परन्तु खूब जानती है, लड़का उसका नहीं है । तुम लोग जो निर्जन में साधना (वार्षिकोत्सव में या वार्षिक कैम्प में साधना) करते हो बहुत अच्छी है । उनकी कृपा होगी । जनक राजा ने निर्जन में कितनी साधना की थी । निर्जन में साधना करने पर ही तो संसार में (अर्थात गृहस्थ जीवन में) निर्लिप्त होना सम्भव है ।” 

[ বেদ, পুরাণ, তন্ত্রে এক ঈশ্বরেরই কথা আছে ও তাঁহার লীলার কথা; জ্ঞান ভক্তি দুইই আছে। সংসারে দাসীর মতো থাকবে; দাসী সব কাজ করে, কিন্তু দেশে মন পড়ে আছে। মনিবের ছেলেদের মানুষ করে; বলে, ‘আমার হরি’ ‘আমার রাম’ কিন্তু জানে, ছেলে আমার নয়। তোমরা যে নির্জনে সাধন করছ, এ খুব ভাল, তাঁর কৃপা হবে। জনক রাজা নির্জনে কত সাধন করেছিলেন, সাধন করলে তবে তো সংসারে নির্লিপ্ত হওয়া যায়।
[The Vedas, the Puranas and the Tantras talk of only one God and of His sport. This attitude contains both spiritual knowledge and love of God. You should live in the world like a maidservant. A maid attends to all the household work, but her mind is tied to her native village. She brings up the children of her master. She even addresses them as ‘My Hari’, ‘My Rama,’ but she knows they’re not hers. It’s necessary to practice spiritual disciplines in solitude. You will receive His grace. How many spiritual disciplines King Janaka practiced! It is only by practicing spiritual disciplines that a person can live unattached in the world.

 “तुम लोग भाषण देते हो, सभी के उपकार के लिए; परन्तु ईश्वर को प्राप्त करने के बाद तथा उनके दर्शन प्राप्त कर चुकने के बाद ही भाषण देने से उपकार होता है । उनका आदेश (चपरास या बिल्ला) न  पाकर दूसरों को शिक्षा देने से उपकार नहीं होता । ईश्वर को प्राप्त किए बिना उनका आदेश (चपरास-बिल्ला) नहीं मिलता । ईश्वर के प्राप्त होने का लक्षण है- मनुष्य बालक की तरह, जड़ की तरह, उन्मादवाले की तरह, पिशाच की तरह हो जाता है; जैसे शुकदेव आदि । चैतन्यदेव कभी बालक की तरह, कभी उन्मत्त की तरह नृत्य करते थे । हँसते थे, रोते थे, नाचते थे, गाते थे । पुरीधाम में जब थे तब चैतन्यदेव बहुधा जड़ समाधि में ही रहते थे ।” 

[“তোমরা বক্তৃতা দাও সকলের উপকারের জন্য, কিন্তু ঈশ্বরদর্শন করে বক্তৃতা দিলে উপকার হয়। তাঁর আদেশ না পেয়ে লোকশিক্ষা দিলে উপকার হয় না। ঈশ্বরলাভ না করলে তাঁর আদেশ পাওয়া যায় না। ঈশ্বরলাভ যে হয়েছে, তার লক্ষণ আছে। বালকবৎ, জড়বৎ, উন্মাদবৎ, পিশাচবৎ হয়ে যায়; যেমন শুকদেবাদি। চৈতন্যদেব কখন বালকবৎ, কখন উন্মাদের ন্যায় নৃত্য করিতেন। হাসে, কাঁদে, নাচে, গায়। পুরীধামে যখন ছিলেন, তখন অনেক সময় জড় সমাধিতে থাকতেন।”
“You deliver lectures for the good of all. But good ensues to others only if you have realized God, have had His vision. Without His command, advice has no effect. And unless you’ve realized God, you don’t receive His command. The signs of God-realization are that the person becomes like a child, like an inanimate object, like a crazy person, a demon – like Sukadeva and others. Chaitanya Deva used to dance, sometimes like a child, at other times like a madman – he would laugh, then weep, then dance and then sing. While living in holy Puri, he remained in jada samadhi (like an inanimate object) for a long time.”
         
[( 2 अप्रैल 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆🙏श्री केशव की हिन्दू धर्म पर उत्तरोत्तर अधिकाधिक श्रद्धा🔆🙏 

[ब्रह्मसमाजी निराकारवादी केशवसेन की हिन्दू धर्म में घरवापसी]

[শ্রীযুক্ত কেশবের হিন্দুধর্মের উপর উত্তরোত্তর শ্রদ্ধা ]

[Keshab gradually develops reverence for Hinduism]

इस प्रकार अनेक स्थानों में श्रीरामकृष्ण ने वार्तालाप के सिलसिले में श्री केशवचन्द्र सेन को अनेक प्रकार के उपदेश दिए थे । केशवसेन ने 28 मार्च 1875 ई. के रविवार वाले ‘मिरर’ (Indian Mirror ) समाचार पत्र में बेलघर (बेलघड़िया) में श्रीरामकृष्ण के प्रथम दर्शन के बाद का पूरा विवरण लिखा था।
[এইরূপ নানাস্থানে শ্রীযুক্ত কেশবচন্দ্র সেনকে শ্রীরামকৃষ্ণ কথাচ্ছলে নানা উপদেশ দিয়াছিলেন। বেলঘরের বাগানে প্রথম দর্শনের পর কেশব ২৮শে মার্চ, ১৮৭৫ রবিবার ‘মিরার’ সংবাদপত্রে লিখিয়াছিলেন,১
Sri Ramakrishna instructed Keshab Sen during casual conversations in different places. Keshab Sen mentioned meeting him in Belgharia for the first time in the Sunday edition of the Indian Mirror, 28 March, 1875.[7]
 
१८७६ ई. के जनवरी में फिर माघोत्सव आया । उन्होंने टाउनहाल में भाषण दिया । विषय था- ब्राह्म धर्म और हमारा अनुभव(Our Faith and Experiences) इसमें भी उन्होंने हिन्दू धर्म की सुन्दरता के सम्बन्ध में अनेक बातें कही थीं २. ।

[১৮৭৬ জানুয়ারি আবার মাঘোৎসব আসিল, তিনি টাউন হলে বক্তৃতা দিলেন; বিষয় — ব্রাহ্মধর্ম ও আমরা কি শিখিয়াছি — (‘Our Faith and Experiences’) — তাহাতেও হিন্দুধর্মের সৌন্দর্যের কথা অনেক বলিয়াছেন।২
The Magha festival again fell in January in 1876. The title of Keshab Sen’s lecture in the Town hall was: “Brahmo Religion and What We Have learnt From it (Our Faith and Experiences).” In the discourse, he mentioned a great deal about the beauty of the Hindu Religion.[8]

श्रीरामकृष्ण उन पर जैसा स्नेह रखते थे, केशव की भी उनके प्रति वैसी ही भक्ति थी । प्रायः प्रति वर्ष ब्राह्मोत्सव के समय तथा अन्य समय भी केशव दक्षिणेश्वर में जाते थे और उन्हें कमलकुटीर में ले आते थे । कभी कभी अकेले कमलकुटीर के दूसरे मँजले पर उपासनागृह में उन्हें परम अन्तरंग मानते हुए भक्ति के साथ ले जाते तथा एकान्त में ईश्वर की पूजा करते और आनन्द मनाते थे ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ তাঁহাকে যেমন ভালবাসিয়াছিলেন, কেশবও তাঁহাকে তদ্রূপ ভক্তি করিতেন। প্রায় প্রতি বৎসর ব্রাহ্মোৎসবের সময়েও কেশব দক্ষিণেশ্বরে যাইতেন ও তাঁহাকে কমলকুটিরে লইয়া আসিতেন। কখন কখন একাকী কমলকুটিরের দ্বিতলস্থ উপাসনাকক্ষে পরম অন্তরঙ্গজ্ঞানে ভক্তিভরে লইয়া যাইতেন ও একান্তে ঈশ্বরের পূজা ও আনন্দ করিতেন।
If Sri Ramakrishna loved Keshab Sen, the latter showed love and devotion to him no less. Almost every year during the Brahmo festival and on other occasions Keshab would go to Dakshineswar to bring him to the Lily Cottage. Sometimes he would take him alone, as one of his very own, with great love and devotion to the worship room on the first floor. He would worship God in seclusion there.

१८७९ ई. के भाद्रोत्सव के समय केशव श्रीरामकृष्ण को फिर निमन्त्रण देकर बेलघर के तपोवन में ले गए थे-१५ सितम्बर सोमवार और फिर २१ सितम्बर को कमलकुटीर के उत्सव में सम्मिलित होने के लिए ले गए । इस समय श्रीरामकृष्ण के समाधिस्थ होने पर ब्राह्मभक्तों के साथ उनका फोटो लिया गया । श्रीरामकृष्ण खड़े खड़े समाधिस्थ थे । हृदय उन्हें पकड़कर खड़ा था । २२ अक्टूबर को महाष्टमी-नवमी के दिन केशव ने दक्षिणेश्वर में जाकर उनका दर्शन किया । 

[১৮৭৯ ভাদ্রোৎসবের সময় আবার কেশব শ্রীরামকৃষ্ণকে নিমন্ত্রণ করিয়া বেলঘরের তপোবনে লইয়া যান। ১৫ই সেপ্টেম্বর সোমবার (৩১শে ভাদ্র, ১২৮৬, কৃষ্ণা চর্তুদশী)। আবার ২১শে সেপ্টেম্বর কমলকুটিরে উৎসবে যোগদান করিতে লইয়া যান। এই সময় শ্রীরামকৃষ্ণ সমাধিস্থ হইলে ব্রাহ্মভক্তসঙ্গে তাঁহার ফোটো লওয়া হয়। ঠাকুর দণ্ডায়মান, সমাধিস্থ। হৃদয় ধরিয়া আছেন। ২২শে অক্টোবর (৬ই কার্তিক, ১২৮৬, বুধবার), মহাষ্টমী — নবমীর দিন কেশব দক্ষিণেশ্বরে গিয়া তাঁহাকে দর্শন করিলেন।
Keshab invited and brought him to the Bhadra festival in 1879 and again in the tapovan of Belgharia. Again, he brought him to the festival at the Lily Cottage on 21st September. It was on this day that he was photographed with the Brahmo devotees while in samadhi. In this photograph Thakur is standing in samadhi, held by Hriday. On 22nd October, the 6th day of Kartik, the festival of Mahalakshmi, on the 9th day of the lunar month, Keshab went to see him in Dakshineswar.

२९ अक्टूबर १८७९ बुधवार को शरद पूर्णिमा के दिन के एक बजे के समय केशव फिर भक्तों के साथ दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने गए थे । स्टीमर के साथ सजी-सजायी एक बड़ी नौका, छः अन्य नौकाएँ, और दो छोटी नावें भी थीं । करीब अस्सी भक्तगण थे, साथ में झण्डा, फूल-पत्ते, मृदंग-करताल, भेरी भी थे । हृदय अभ्यर्थना करके केशव को स्टीमर से उतार लाया-गाना गाते गाते । गाने का मर्म इस प्रकार है- ‘सुरधुनी के तट पर कौन हरि का नाम लेता है, सम्भवतः प्रेम देनेवाले निताई आए हैं ।’ 

[১৮৭৯, ২৯শে অক্টোবর বুধবার (১৩ই কার্তিক, ১২৮৬), কোজাগর পূর্ণিমায় বেলা ১টার সময় কেশব আবার ভক্তসঙ্গে শ্রীরামকৃষ্ণকে দক্ষিণেশ্বরে দর্শন করিতে যান। স্টীমারের সঙ্গে একখানি বজরা, ছয়খানি নৌকা, দুইখানি ডিঙ্গি, প্রায় ৮০ জন ভক্ত। সঙ্গে পতাকা পুষ্পপল্লব খোল করতাল ভেরী। হৃদয় অভ্যর্থনা করিয়া কেশবকে স্টীমার হইতে আনেন — গান গাইতে গাইতে “সুরধুনীর তীরে হরি বলে কে, বুঝি প্রেমাদতা নিতাই এসেছে!”

ब्राह्मभक्तगण भी पंचवटी से कीर्तन करते करते उनके साथ आने लगे, ‘सच्चिदानन्दविग्रहरुपानन्दघन ।’उनके बीच में थे श्रीरामकृष्ण-बीच बीच में समाधिमग्न हो रहे थे । इस दिन सन्ध्या के बाद गंगाजी के घाट पर पूर्णचन्द्र के प्रकाश में केशव ने उपासना की थी । 
 
[ব্রাহ্মভক্তগণও পঞ্চবটী হইতে কীর্তন করিতে করিতে তাঁহার সঙ্গে আসিতে লাগিলেন: “সচ্চিদানন্দ বিগ্রহ রূপানন্দ ঘন!” তাহাদের মধ্যে ঠাকুর মাঝে মাঝে সমাধিস্থ। এই দিনে সন্ধ্যার পর বাঁধাঘাটে পূর্ণচন্দ্রের আলোকে কেশব উপাসনা করিয়াছিলেন।
On 29 October, 1879, Wednesday, 13th day of Kartik, 1286 (B.Y.), at one in the afternoon on the day of Kojagar Purnima, Keshab went again with some devotees to Dakshineswar to visit Sri Ramakrishna. Along with his steamer, there were a barge, six boats and two small boats with about eighty devotees. They carried their pennant, flowers and leaves, and musical instruments such as khol, kartal and berry. Hriday welcomed Keshab and brought him from the steamer singing, “Who is chanting the name of Hari on the bank of the Ganges? It seems to be Nitai who is coming, inebriated with ecstatic love.” The Brahmo devotees also accompanied them, singing kirtan from the Panchavati: “The image of Existence-Knowledge-Bliss Absolute, beauty and bliss in body.” Thakur goes into samadhi every now and then in their midst. On this day Keshab carried out the divine service after twilight in the light of the full moon on the Bandhaghat.

उपासना के बाद श्रीरामकृष्ण कहने लगे, तुम सब बोलो, ‘ब्रह्म-आत्मा-भगवान्’, ‘ब्रह्म-माया-जीव-जगत’, ‘भागवत-भक्त-भगवान्’ । केशव आदि ब्राह्मभक्तगण उस चन्द्रकिरण में भागीरथी के तट पर एक स्वर से श्रीरामकृष्ण के साथ साथ उन सब मन्त्रों का भक्ति के साथ उच्चारण करने लगे । श्रीरामकृष्ण फिर जब बोले, “बोलो, ‘गुरु-कृष्ण-वैष्णव’, तो केशव ने आनन्द से हँसते हँसते कहा, “महाराज, इस समय इतनी दूर नहीं । यदि हम ‘गुरु-कृष्ण-वैष्णव’ कहें तो लोग हमें कट्टरपन्थी कहेंगे !” श्रीरामकृष्ण भी हँसने लगे और बोले, “अच्छा, तुम(ब्राह्म) लोग जहाँ तक कह सको उतना ही कहो ।” 

উপাসনার পর ঠাকুর বলিতেছেন, তোমরা বল “ব্রহ্ম আত্মা ভগবান” “ব্রহ্ম মায়া জীব জগৎ” “ভগবত ভক্ত ভগবান”। কেশবাদি ব্রাহ্মভক্তগণ সেই চন্দ্রালোকে ভাগীরথীতীরে সমস্বরে শ্রীরামকৃষ্ণের সঙ্গে সঙ্গে ওই সকল মন্ত্র ভক্তিভরে উচ্চারণ করিতে লাগিলেন। শ্রীরামকৃষ্ণ আবার যখন বলিলেন, বল “গুরু কৃষ্ণ বৈষ্ণব”। তখন কেশব আনন্দে হাসিতে হাসিতে বলিতেছেন, মহাশয়, এখন অতদূর নয়; “গুরু কৃষ্ণ বৈষ্ণব” আমরা যদি বলি লোকে বলিবে ‘গোঁড়া’! শ্রীরামকৃষ্ণও হাসিতে লাগিলেন ও বলিলেন, বেশ তোমরা (ব্রাহ্মরা) যতদূর পার তাহাই বল।
After the service Thakur had said, “Please say, ‘Brahman-Atman-Bhagavan. Brahman-maya-jiva-jagat. Bhagavata-Bhakta-Bhagavan.’ (Brahman, Atman and Bhagavan are one. Brahman, His maya, the world and the embodied beings are all He. God, His devotee and his word are one).”The Brahmo devotees and Keshab repeated these mantras with Sri Ramakrishna in the moonlight on the bank of the Ganges, their hearts full of love for God. And when Sri Ramakrishna said, “Now repeat Guru-Krishna-Vaishnava (the Guru, Krishna and the worshipper are one and the same),” Keshab smiled and said, “Sir, not that far yet. If we say, Guru-Krishna-Vaishnava, people will call us too orthodox.” Sri Ramakrishna also laughed and said, “Yes indeed, you people should only go as far as you can.”

[मूर्तिपूजक श्री रामकृष्ण के सानिध्य और प्रशिक्षण द्वारा में निराकारवादी ब्रह्मसमाजी केशवसेन की  मूर्तिपूजा में आधारित हिन्दू धर्म पर श्रद्धा में उत्तरोत्तर अधिकाधिक  विकास हुआ।  ]
 
*यदि ईश्वर निराकार है, तो हमें मूर्ति की आवश्यकता क्यों है ?* 

`मूर्ति पूजा ' भारत में आविष्कृत के सबसे बड़े विज्ञानों में से एक- वैज्ञानिक प्रयोग है। आप 'क ' से कबूतर  पढ़ते हैं, तो आपका उद्देश्य- कबूतर को जानने का नहीं होता, वरन 'क ' को जानने का होता है। जोर है कबूतर पर। परंतु उद्देश्य है 'क'  के विराट उपयोग पर। ठीक उसी तरह 'मूर्त' को जानकर ही आप 'अमूर्त'  तक पहुंच सकते हैं। मूर्त को ही मूर्ति कहते हैं। मूर्ति पूजा का यही उद्देश्य है। अमूर्त को जानने के लिये ही मूर्ति पूजा की जाती है।

किस मूर्ति की पूजा की जा रही है? पशुमानव (जिनमे 0 % निःस्वार्थपरता है) की नहीं, वरन उन अवतारों , पैगम्बरों, मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं, या गुरुओं, या जीवनमुक्त शिक्षकों,या उस देवमानव की मूर्ति या चित्रों की जिनके भीतर स्वयं भगवान (अर्थात 100 % निःस्वार्थपरता) प्रकट हुए है, उनकी मूर्ति की।  जिन्हें अपने सच्चे स्वरुप की प्राप्ति हुई है, अन्तर्निहित दिव्यता (निःस्वार्थपरता)  को संपूर्ण रूपसे (100 %) उन्होंने प्रकाशित किया था।  इसलिए यदि आप मूर्ति को नमन करते हैं, तो यह प्रत्यक्ष भगवान तक पहुंचता है। इन मूर्तियों की पूजा करने के माध्यम से साधकों में वीतरागता (कामिनी-कांचन से अनासक्त होने) के बीज बोए जाते हैं ।

मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ कहे गए हैं- धर्म, अर्थ , काम और मोक्ष । इनमें से अंतिम पुरुषार्थ - मोक्ष प्राप्त ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। चार प्रकार के मनुष्य भी कहे गए हैं - बद्ध , मुमुक्षु , मुक्त और नित्यमुक्त।  जहाँ कायम ज्ञाता-द्रष्टा की अवस्था है, अकर्तापद में जो स्थित हैं वे नित्यमुक्त (100 % निःस्वार्थपर) हैं । इनका जन्म केवल शिक्षा देने के लिए ही होता है।  इस अवस्था तक पहुँचने के लिए हमें भगवान की मूर्ति (युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द के चित्र या मूर्ति) की पूजा करनी होगी। अर्थात उनके ऊपर अपने को एकाग्र करने का अभ्यास करना सीखना होगा। 

इस दुनिया में कई तरह के देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं। हर मूर्ति की पूजा अपने स्थान पर सही है। प्रत्येक के व्यक्तिगत आध्यात्मिक विकास के आधार पर, हर कोई एक विशेष देवता की पूजा करने का विकल्प चुनता है, चाहे वह देवी जगदम्बा हो या भगवान गणेश, भगवान हनुमान, भगवान राम, भगवान कृष्ण, भगवान महावीर, भगवान शिव, जीसस या अल्लाह, आदि हो, तदनुसार आध्यात्मिक विकास के पंथ में उनकी प्रगति होती रहती है। आध्यात्मिक विकास के अंतिम चरण में, वह केवलज्ञानी प्रभु (वीतराग भगवान श्रीरामकृष्ण ) की पूजा करता है जिसका अंतिम परिणाम मोक्ष है।

आइए मूर्ति पूजा के पीछे के रहस्य पर चर्चा करें: भारतीय हिंदू वैदिक परंपरा में, भगवान की दो रूपों में पूजा की जाती है। एक निराकार (निराकार) और दूसरा साकार (रूप सहित)। निराकार भगवान का एक रूप है जो हमें दिखाई नहीं देता। निराकार शाश्वत है। यह तीनों काल में समान रहेगा।
Let’s discuss the secret behind Idol Worship : In the Indian Hindu Vedic tradition, God is worshiped in two forms. One is Nirakar (formless), and the second is Sakar (with form).  Nirakar is a form of God that is not visible to us. Nirakar is eternal. It will remain the same in all three worlds.
साकार रूप भगवान का वह रूप है, जो हमें दिखाई देता है। वह रूप कुछ समय बाद बदल भी  सकता है। कोई भी साकार रूप तीनों लोकों में एक समान रह भी सकता है और नहीं भी रह रहता है । साकार में कुछ भी नियम तय नहीं है। साकार का रूप बदला जा सकता है, लेकिन निराकार का रूप नहीं बदलेगा। तमाम असमानताओं के बावजूद हमारी वैदिक परंपरा में दोनों की पूजा की जाती है।
Sakar is a form of God that is visible to us. It can be changed in some time. Sakar does not remain the same in all three worlds. Nothing is fixed in Sakar. Form Sakar can be changed, but form Nirakar will not change. Despite all the dissimilarities, both are worshiped in our Vedic tradition.  
 बृहदारनायक उपनिषद के एक श्लोक में कहा गया है:

" द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च मर्त्यं चामृतं च, 
स्थितं च यच्च सच्च त्यच्च॥– 

(बृहदारण्यकोपनिषद्-2.3.1) 

अर्थ-  'द्वे वाव  ब्रह्मणः रूपे ' ब्रह्म के दो स्वरूप होते हैं – पंच भूतों के दो ही रूप हैं। ( मूर्तं च अमूर्तं  च) मूर्त- मतलब -स्थूल  और सूक्ष्म।  (मर्त्यं च अमृतम् च) मरने वाला व न मरने वाला (स्थितम् च यत् च) ठहरा हुआ और चलने वाला (सत् च त्यत् च) व्यक्त और अव्यक्त।

[That means God has two forms; Dead and Nectar (मृत और अमृत) , Constant and Variable (शाश्वत और नश्वर), Sat and Tyat. 

व्याख्या- 'ब्रह्म' शब्द अनेकार्थक है। 'ब्रह्म' शब्द यहाँ पंचभूत समुदाय के लिए प्रयुक्त हुआ है।  पंचभूत समुदाय के दो रूप हैं एक मूर्त , दूसरा अमूर्त -दोनों के विशेषण इस प्रकार हैं- (१) मूर्त -मरने वाला, ठहरा हुआ और व्यक्त अमूर्त -न मरने वाला, चलने वाला और अव्यक्त।

Verily, there are two forms of Brahman: gross and subtle, mortal and immortal, limited and unlimited, definite and indefinite.

-अर्थात भगवान के दो रूप हैं; मृत और अमृत, स्थिर और परिवर्तनशील, सत् (तीनों काल में रहने वाला) और त्यत् (tyat)। [त्यत् (tyat)=त्यजति संसर्गमिति/ एक शरीर का परित्याग करने के लिए त्यागना] 

"हरि ॐ" शब्द रूप दोनों स्वरूपों की स्मृति है "हरि" सगुन रूप विष्णु हैं तो "ॐ" निराकार ब्रह्म हैं। सृष्टि के आरम्भ से  'ऊँ, तत् सत्' ऐसा यह ब्रह्म का त्रिविध निर्देश (नाम) कहा गया है। ' ॐ '  शब्द उस आत्मतत्त्व का प्रतीक है जो अजन्मा, अविनाशी, सर्व उपाधियों के अतीत और शरीरादि उपाधियों का अधिष्ठान है। किसी व्यक्ति को निर्देश (तत् = वह) करने के लिये उसका नाम कहते हैं।  'तत् ' शब्द परब्रह्म का सूचक है। उपनिषदों के प्रसिद्ध महावाक्य 'तत्त्वमसि ' में तत् उस परम सत्य को इंगित करता है,  जो सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और लय का स्थान है। अर्थात् जगत्कारण ब्रह्म तत् शब्द के द्वारा इंगित किया गया है। सत् का अर्थ त्रिकाल अबाधित सत्ता। यह सत्स्वरूप सर्वत्र व्याप्त है। इस प्रकार, ॐ  तत्सत् इन तीन शब्दों के द्वारा विश्वातीत , विश्वकारण और विश्व व्यापक परमात्मा का स्मरण करना ही उसके साथ तादात्म्य करना है। ईश्वर स्मरण से हमारे कर्म शुद्ध हो जाते हैं। इसीलिए ब्राह्मणों द्वारा इन तीनों शब्दों का प्रयोग यज्ञ करते समय  वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करके ब्रह्म को संतुष्ट करने के लिये किया जाता है। 

[".....  बहु स्याम् प्रजायेय - इति सः अकामयत।सः तपः तप्त्वा इदं सर्वम् असृजत - यत् इदं किंच। तत् स्पृष्ट्वा तत् एव अनुप्राविशत्। तत् अनुप्रविश्य सत् च त्यत् च अभवत् सः निरुक्तं च अनिरुक्तं च निलयनं च अनिलयनं च विज्ञानं च अविज्ञानं च सत्यं च अनृतं च अभवत् । यत् इदं किं च सत्यम् अभवत् तत् सत्यम् इति आचक्षते।" ---(तैत्तिरीयोपनिषद्/ ब्रह्मानन्दवल्ली/6.1) 

तैत्तिरीयोपनिषद के ब्रह्मानन्दवल्ली का यह छठा अनुवाक है। इस अनुवाक में 'आनन्दमय कोश' की व्याख्या की गयी है। ब्रह्म को 'सत्य' स्वीकार करने वाले सन्त कहलाते हैं। विज्ञानमय शरीर का 'आत्मा' ही आनन्दमय शरीर का भी 'आत्मा' है। परमात्मा अनेक रूपों में अपने आपको प्रकट करता है। उसने जगत् की रचना की और उसी में प्रविष्ट हो गया। वह वर्ण्य और अवर्ण्य से परे हो गया। किसी ने उसे 'निराकार' रूप माना, तो किसी ने 'साकार' रूप। अपनी-अपनी कल्पनाएं होने लगीं। वह आश्रय-रूप और आश्रयविहीन हो गया, चैतन्य और जड़ हो गया। वह सत्य रूप होते हुए भी मिथ्या-रूप हो गया। परन्तु विद्वानों का कहना है कि जो कुछ भी अनुभव में आता है, वही 'सत्य' है, परब्रह्म है, परमेश्वर है।
[साभार bhartdiscovery.org]
" 'परमात्म तत्त्व' ने आदिकाल में कामना की ''मैं अपनी प्रजा के जन्म के हेतु बहुरूप हो जाऊँ।" अतः 'उसने' 'स्वयं' को पूर्णतया चिन्तन में एकाग्र किया, तथा 'अपने' चिन्तन की शक्ति से, अपने तप से 'उसने' इस समस्त विश्व की सृष्टि की, हाँ, जो कुछ भी विद्यमान है, उसको रचा। और फिर जब 'उसने' यह रच डाला तो जो 'उसने' रचा उसी में 'वह ' प्रवेश कर गया।  तथा प्रविष्ट होकर यहाँ जो 'है' (सत्) बन गया वहाँ 'सम्भाव्य' (त्यच्) बन गया।  'वह' 'निरुक्त' (निर्वचनीय) तथा 'अनिरुक्त' (अनिर्वचनीय) बन गया; 'वह' 'निलयन' अर्थात् आवासभूत तत्त्व तथा 'अनिलयन' अर्थात् आवासरहित तत्त्व बन गया; वही 'ज्ञान' बन गया तथा 'वही' 'अज्ञान' बन गया; 'वही' 'सत्य' बन गया तथा 'वही' अनृतं अर्थात् असत्य बन गया। सम्पूर्ण सत्य 'वही' बन गया, जो कुछ भी यहाँ विद्यमान है वह सब कुछ 'वही' बन गया। इसीलिए 'उसके' विषय में कहा जाता है कि 'वह' 'सत्य-स्वरूप' है। 

इसलिए श्रीरामकृष्ण कहते हैं - [मुसलमानो के 'अल्ला हू अकबर'  कहने जैसा] , “बोलो, ‘गुरु-कृष्ण-वैष्णव’,  ‘भागवत-भक्त-भगवान्’,  ‘ब्रह्म-आत्मा-भगवान्’, ‘ब्रह्म-माया-जीव-जगत’, - नित्य भी सत्य है और लीला भी सत्य है ! इसलिए " अनेकता में एकता- भारत की विशेषता ! " ]

कुछ दिन बाद १३ नवम्बर १८७९ ई. को कालीपूजा के बाद राम, मनोमोहन और गोपाल मित्र ने दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का प्रथम दर्शन किया । 

কিছুদিন পরে ১৩ই নভেম্বর (২৮শে কার্তিক), ১৮৭৯ ৺কালীপূজার পরে রাম, মনোমোহন, গোপাল মিত্র দক্ষিণেশ্বরে শ্রীরামকৃষ্ণকে প্রথম দর্শন করেন।
Some days later after the worship of Kali, on 13 November 1879 on 28th Kartik, Ram, Manomohan and Gopal Mitra met Sri Ramakrishna in Dakshineswar for the first time.

१८८० ई. में एक दिन ग्रीष्मकाल में राम और मनोमोहन कमलकुटीर में केशव के साथ साक्षात्कार करने आए थे । उनकी यह जानने की प्रबल इच्छा हुई कि केशवबाबू की श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में क्या राय है । उन्होंने केशवबाबू से जब यह प्रश्न किया तो उन्होंने उत्तर दिया, “दक्षिणेश्वर के परमहंस साधारण व्यक्ति नहीं हैं, इस समय पृथ्वी भर में इतना महान् व्यक्ति दूसरा कोई नहीं है । वे इतने सुन्दर, इतने असाधारण व्यक्ति हैं कि उन्हें बड़ी सावधानी के साथ रखना चाहिए । देखभाल न करने पर उनका शरीर अधिक टिक नहीं सकेगा । इस प्रकार की सुन्दर मूल्यवान् वस्तु को काँच की आलमारी में रखना चाहिए ।” 

[১৮৮০ খ্রীষ্টাব্দে একদিন গ্রীষ্মমকালে রাম ও মনোমোহন কমলকুটিরে কেশবের সহিত দেখা করিতে আসিয়াছিলেন। তাঁহাদের ভারী জানিতে ইচ্ছা, কেশববাবু ঠাকুরকে কিরূপ মনে করেন। তাঁহারা বলিয়াছেন, কেশববাবুকে জিজ্ঞাসা করাতে বলিলেন, “দক্ষিণেশ্বরের পরমহংস সামান্য নহেন, এক্ষণে পৃথিবীর মধ্যে এত বড় লোক কেহ নাই। ইনি এত সুন্দর, এত সাধারণ ব্যক্তি, ইঁহাকে অতি সাবধানে সন্তর্পণে রাখতে হয়; অযত্ন করলে এঁর দেহ থাকবে না; যেমন সুন্দর মূল্যবান জিনিস গ্লাসকেসে রাখতে হয়।”৩
One summer day in 1880 Ram and Manomohan came to the Lily Cottage to see Keshab. They were very interested to know what Keshab thought of Sri Ramakrishna. They said that when asked, Keshab told them, “The Paramahamsa of Dakshineswar is no ordinary man. There is no one as great as he on earth. He is so beautiful, so extraordinary, he must be preserved with the greatest care. If this is not done he will not survive – he must be preserved the way a beautiful and valuable article is kept in a glass case.[9]”

इसके कुछ दिनों बाद १८८१ ई. के माघोत्सव के समय पर जनवरी के महीने में केशव श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने के लिए दक्षिणेश्वर में गए थे । उस समय वहाँ पर राम, मनोमोहन, जयगोपाल सेन आदि अनेक व्यक्ति उपस्थित थे ।

ইহার কিছুদিন পরে ১৮৮১ মাঘোৎসবের সময় জানুয়ারি মাসে কেশব শ্রীরামকৃষ্ণকে দর্শন করিতে দক্ষিণেশ্বরে যান। তখন রাম, মনোমহন, জয়গোপাল সেন প্রভৃতি অনেকে উপস্থিত ছিলেন।
A few days later, during the festival of Magha, in January, 1881, Keshab Sen went to see Sri Ramakrishna at Dakshineswar. Ram, Manomohan, Jaygopal Sen and many others were there.

१५ जुलाई १८८१ ई. को केशव फिर श्रीरामकृष्ण को दक्षिणेश्वर से स्टीमर में ले गए ।
[১৮০৩ শক, ১লা শ্রাবণ (কৃষ্ণা চতুর্থী, ১২৮৮), শুক্রবার, ১৫ই জুলাই, ১৮৮১, কেশব আবার শ্রীরামকৃষ্ণকে দক্ষিণেশ্বর হইতে স্টীমারে তুলিয়া লন।
On Friday, 15 July 1881, the first day of Shravana, 1288 (B.Y.), 1803 Shaka Samvat, Keshab again took Sri Ramakrishna on a steamer from Dakshineswar.
 
इसके कुछ दिनों बाद १८८१ ई. के माघोत्सव के समय पर जनवरी के महीने में केशव श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने के लिए दक्षिणेश्वर में गए थे । उस समय वहाँ पर राम, मनोमोहन, जयगोपाल सेन आदि अनेक व्यक्ति उपस्थित थे ।
१८८१ ई. के नवम्बर मास में मनोमोहन के मकान पर जिस समय श्रीरामकृष्ण का शुभागमन तथा उत्सव हुआ था । उस समय आमन्त्रित होकर केशव उत्सव में सम्मिलित हुए थे । श्री त्रैलोक्य आदि ने भजन गया था । 

১৮৮১ নভেম্বর মাসে মনোমোহনের বাটীতে যখন ঠাকুর শুভাগমন করেন ও উৎসব হয়, তখনও কেশব নিমন্ত্রিত হইয়া উৎসবে জোগদান করেন। শ্রীযুক্ত ত্রৈলোক্য প্রভৃতি গান করিয়াছিলেন।
In 1881, when Thakur visited Manomohan and they celebrated the occasion, Keshab was also invited. He took part in the festivity. Trailokya and others sang.

१८८१ ई. के दिसम्बर मास में श्रीरामकृष्ण आमन्त्रित होकर राजेन्द्र मित्र के मकान पर गए थे । श्री केशव भी गए । यह मकान ठनठननिया के बेचू चटर्जी स्ट्रीट में है । राजेन्द्र थे राम तथा मनोमोहन के मौसा । राम, मनोमोहन, ब्राह्मभक्त राजमोहन तथा राजेन्द्र ने केशव को समाचार देकर निमन्त्रित किया था । 
[১৮৮১ ডিসেম্বর মাসে রাজেন্দ্র মিত্রের বাটীতে শ্রীরামকৃষ্ণ নিমন্ত্রিত হইয়া যান। শ্রীযুক্ত কেশবও গিয়াছিলেন। বাটীটি ঠন্‌ঠনে বেচু চাটুজ্যের স্ট্রীটে। রাজেন্দ্র রাম ও মনোমোহনের মেসোমহাশয়। রাম, মনোমোহন, ব্রাহ্মভক্ত রাজমোহন, রাজেন্দ্র, কেশবকেও সংবাদ দেন ও নিমন্ত্রণ করেন।
Sri Ramakrishna went by invitation to the house of Rajendra Mitra in December, 1881. Keshab was also there. This house is situated on Becchu Chatterji Street in Thanthania. Rajendra, Ram and Manomohan’s uncle were also there. Ram, Manomohan, the Brahmo devotee Raja Mohan and Rajendra sent word to Keshab and invited him.

केशव को जिस समय समाचार दिया गया उस समय वे भाई अघोरनाथ के शोक में अशौच अवस्था में थे। प्रचारक भाई अघोर ने 8 दिसंबर बृहस्पतिवार को लखनऊ में देहत्याग किया था। सभी ने अनुमान किया कि केशव न आ सकेंगे। समाचार पाकर केशव बोले " यह कैसे ! परमहंस महाशय आयेंगे और मैं न जाऊँ ? अवश्य जाऊँगा ! अशौच में हूँ इसलिए मैं अलग स्थान पर बैठकर खाऊँगा। " 

[কেশবকে যখন সংবাদ দেওয়া হয়, তখন তিনি ভাই অঘোরনাথের শোকে অশৌচ গ্রহণ করিয়াছিলেন। প্রচারক ভাই অঘোর ২৪শে অগ্রহায়ণ, ৮ই ডিসেম্বর বৃহস্পতিবারে লক্ষ্ণৌ নগরে দেহত্যাগ করেন। সকলে মনে করিলেন, কেশব বুঝি আসিতে পারিবেন না। কেশব সংবাদ পাইয়া বলিলেন, “সে কি! পরমহংস মহাশয় আসিবেন আর আমি যাইব না। অবশ্য যাইব। অশৌচ তাই আমি আলাদা জায়গায় খাব।”
When Keshab received the message, he was mourning the death of his brother Aghornath. Brother Aghor, the preacher, breathed his last in Lucknow on Thursday, 8 December, the 24th day of Agrahayana. Everybody thought that Keshab would not be able to make it. However, when he received the message, Keshab said, “How is it possible? The Paramahamsa is coming and I shall not be able to see him! I will certainly go. Since I am in mourning I will sit separately for my meal.”
 
मनोमोहन की माता परम् भक्तिमति श्यामासुन्दरी देवी ने श्रीरामकृष्ण को भोजन परोसा था।राम भोजन के समय पास खड़े थे। जिस दिन राजेंद्र के घर पर श्रीरामकृष्ण ने शुभागमन किया उस दिन तीसरे पहर सुरेन्द्र ने उन्हें चिनाबाजार में ले जाकर उनका फोटो उतरवाया था। श्रीरामकृष्ण खड़े खड़े समाधि मग्न थे। 

[মনোমোহনের মাতাঠাকুরানী পরম ভক্তিমতী ৺শ্যামাসুন্দরী দেবী ঠাকুরকে পরিবেশন করিয়াছিলেন। রাম খাবার সময় দাঁড়াইয়াছিলেন। যেদিন রাজেন্দ্রের বাটীতে শ্রীরামকৃষ্ণ শুভাগমন করেন, সেইদিন অপরাহ্নে সুরেন্দ্র তাঁহাকে লইয়া চীনাবাজারে তাঁহার ফোটোগ্রাফ লইয়াছিলেন। ঠাকুর দণ্ডায়মান সমাধিস্থ।
The mother of Manomohan, Shyamsundari Devi, a great devotee, had served the meal for Thakur. Ram was there. The day Sri Ramakrishna graced Rajendra’s house with this visit, Surendra took him to the Chinna Bazaar in the afternoon and had him photographed. Thakur was standing in samadhi.

उत्स्व के दिन महेन्द्र गोस्वामी ने भागवत कथा की। 
[উৎসবের দিবসে মহেন্দ্র গোস্বামী ভাগবত পাঠ করিলেন।
On the day of this festival, Mahendra Goswami read out from the Bhagavata.

जनवरी 1882 ई। माघोत्सव के उपलक्ष्य में शिमुलिया ब्राह्मसमाज के उत्सव में ज्ञान चौधरी के मकान पर श्रीरामकृष्ण और केशव दोनों आमन्त्रित होकर उपस्थित थे। आँगन में कीर्तन हुआ। इसी स्थान में [ ज्ञान चौधरी के मकान पर] श्रीरामकृष्ण ने पहले-पहल नरेन्द्र का गाना सुना और उन्हें दक्षिणेश्वर आने के लिए कहा। 

১৮৮২ জানুয়ারি মাঘোৎসবের সময় সিমুলিয়া ব্রাহ্মসমাজের উৎসব হয়। জ্ঞান চৌধুরির বাটীতে, দালানে ও উঠানে উপাসনা ও কীর্তন হয়। শ্রীরামকৃষ্ণ ও কেশব নিমন্ত্রিত হইয়া উপস্থিত ছিলেন। এই স্থানে নরেন্দ্রের গান ঠাকুর প্রথমে শুনেন ও তাঁহাকে দক্ষিণেশ্বরে যাইতে বলেন। 
The festival was celebrated in the Shimulia Brahmo Samaj on the day of Maghotsava in January, 1882. The service and kirtan were performed in the open space and courtyard of Jnana Chaudhury’s house. Both Sri Ramakrishna and Keshab had been invited. It was here that Thakur heard Narendra sing for the first time and asked him to visit Dakshineswar.

23 फरवरी 1882 ई ० को केशव ने दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण का फिर से दर्शन किया। उनके साथ थे अमेरिकन पादरी जोसेफ कुक तथा कुमारी पिगॉट भी थीं । ब्राह्म भक्तों के साथ केशव ने श्रीरामकृष्ण को स्टीमर पर बैठाया। कुक साहब ने श्रीरामकृष्ण की समाधि देखी थी। उस समय श्री नागेन्द्र उसी जहाज में उपस्थित थे। उनके मुख से समस्त वार्ता सुन 10 -15 दिन के अन्दर मास्टर ने दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का प्रथम दर्शन किया। उसके तीन मास बाद - अप्रैल मास में - श्रीरामकृष्ण कमलकुटीर में केशव को देखने आये।  उसी का थोड़ा सा विवरण निम्नलिखित परिच्छेद में दिया गया है। 

[১৮৮২ খ্রীষ্টাব্দে ২৩শে ফেব্রুয়ারি, ১২ই ফাল্গুন বৃহস্পতিবার কেশব শ্রীরামকৃষ্ণকে দক্ষিণেশ্বরে ভক্তসঙ্গে আবার দর্শন করিতে আসেন। সঙ্গে জোসেফ কুক্‌, আমেরিকান পাদরী মিস পিগট। ব্রাহ্মভক্তগণসহ কেশব ঠাকুরকে স্টীমারে তুলিয়া লইলেন। কুক্‌ সাহেব শ্রীরামকৃষ্ণের সমাধি অবস্থা দেখিলেন। শ্রীযুক্ত নগেন্দ্র এই জাহাজে উপস্থিত ছিলেন। তাঁহার মুখে সমস্ত শুনিয়া মাস্টার দশ-পনেরো দিনের মধ্যে দক্ষিণেশ্বরে শ্রীরামকৃষ্ণকে প্রথম দর্শন করেন। তিন মাস পরে এপ্রিল মাসে শ্রীরামকৃষ্ণ কমলকুটিরে কেশবকে দেখিতে আসেন। তাহারই একটু বিবরণ এই পরিচ্ছেদে দেওয়া হইল।
On Thursday, 23 February, 1882, 12th day of Falgun, Keshab, accompanied by his devotees, visited Sri Ramakrishna again at Dakshineswar. Miss Pigot and Joseph Cook, the American clergyman, were with them. Keshab took Sri Ramakrishna for a cruise with the Brahmo devotees. Mr. Cook saw Sri Ramakrishna in samadhi. Nagendra was also in the boat. Hearing about Thakur from him, M. met Sri Ramakrishna in Dakshineswar for the first time within the next three days.Two months later, in April, Sri Ramakrishna went to see Keshab at the Lily Cottage. A short account of this visit has been given in this section.


[( 2 अप्रैल 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-6 ] 

🔆🙏श्रीरामकृष्ण का केशव के प्रति स्नेह। जगन्माता के पास नारियल-शक्कर की मन्नत।🔆🙏

[শ্রীরামকৃষ্ণের কেশবের প্রতি স্নেহ — জগন্মাতার কাছে ডাব-চিনি মানা ]

Sri Ramakrishna’s affection for Keshab; he vows to 
offer a green coconut and sugar to the Mother of the Universe] 
 
आज कमलकुटीर के उसी बैठक-घर में श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बैठे हैं।  2 अप्रैल 1882 ई ० रविवार दिन के 5 बजे का समय। केशव भीतर के कमरे में थे। उन्हें समाचार दिया गया। कमीज पहनकर और चद्दर ओढ़कर उन्होंने आकर प्रणाम किया।  उनके भक्त मित्र कालीनाथ बसु रुग्ण हैं , वे उन्हें देखने जा रहे हैं। श्रीरामकृष्ण आये हैं , इसलिए केशव नहीं जा सके।  

श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं , " तुम्हें बहुत काम रहता है , फिर अख़बार में भी लिखना पड़ता है , वहाँ (दक्षिणेश्वर ) में जाने का अवसर नहीं रहता। इसलिए मैं ही तुम्हें देखने आ गया हूँ। तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है , यह जानकर नारियल -शक्कर की मन्नत मानी थी। माँ से कहा - " माँ , यदि केशव को कुछ हो जाये तो फिर कलकत्ता जाकर किसके साथ बात करूँगा ? "  

[আজ কমলকুটিরে সেই বৈঠকখানাঘরে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ভক্তসঙ্গে উপবিষ্ট। ২রা এপ্রিল, ১৮৮২, বেলা ৫টা। কেশব ভিতরের ঘরে ছিলেন, তাঁহাকে সংবাদ দেওয়া হইল। তিনি জামা-চাদর পরিয়া আসিয়া প্রণাম করিলেন। তাঁহার ভক্তবন্ধু কালীনাথ বসু পীড়িত, তাঁহাকে দেখিতে যাইতেছেন। ঠাকুর আসিয়াছেন, কেশবের আর যাওয়া হইল না। ঠাকুর বলিতেছেন, তোমার অনেক কাজ, আবার খপরের কাগজে লিখতে হয়; সেখানে (দক্ষিণেশ্বরে) যাবার অবসর নাই; তাই আমিই তোমায় দেখতে এসেছি। তোমার অসুখ শুনে ঢাব-চিনি মেনেছিলুম; মাকে বললুম, “মা! কেশবের যদি কিছু হয়, তাহলে কলিকাতায় গেলে কার সঙ্গে কথা কইব।”
Today Sri Ramakrishna is sitting in the parlour of the Lily Cottage with the devotees – Sunday, 2 April 1882, 21st Chaitra, 1288 (B.Y.), 5 p.m. A message is sent to Keshab who is in an inside room. He dresses himself in a shirt and cloth and comes to salute Sri Ramakrishna. He was going to see his friend, Kalinath Basu, who was ill. But he cannot go since Sri Ramakrishna has arrived. Thakur says, “You’re a very busy man. Besides, you have to write for a newspaper. You don’t have time to come to Dakshineswar, so I’ve come here to see you. Because of your illness I vowed to offer green coconut and sugar to the Divine Mother. I said, ‘Mother, if anything happens to Keshab, whom shall I talk to in Calcutta?’”

 श्री प्रताप आदि  ब्राह्मभक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण वार्तालाप कर रहे हैं। पास ही मास्टर को बैठे देखकर वे केशव से कहते हैं , " वे वहाँ पर (दक्षिणेश्वर में) क्यों नहीं जाते हैं , पूछो तो ! इतना ये कहते हैं कि स्त्री-बच्चों पर मन नहीं है।  " एक मास कुछ अधिक समय हुआ , मास्टर श्रीरामकृष्ण के पास आया -जाया करते हैं।  बाद में जाने में कुछ दिनों का विलम्ब हुआ। इसीलिए श्रीरामकृष्ण इस प्रकार कह रहे हैं। उन्होंने कह दिया था , 'आने में देरी होने पर मुझे पत्र देना। ' 

[শ্রীযুক্ত প্রতাপাদি ব্রাহ্মভক্তদের সহিত শ্রীরামকৃষ্ণ অনেক কথা কহিতেছেন। কাছে মাস্টার বসিয়া আছেন দেখিয়া তিনি কেশবকে বলিতেছেন, “ইনি কেন ওখানে (দক্ষিণেশ্বরে) যান না; জিজ্ঞাসা করত গা; এত ইনি বলেন, ‘মাগছেলেদের উপর মন নাই’!” মাস্টার সবে এক মাস ঠাকুরের কাছে যাতায়াত করিতেছেন। শেষে যাইতে কয়দিন বিলম্ব হইয়াছে তাই ঠাকুর এইরূপ কথা বলিতেছেন। ঠাকুর বলিয়া দিয়াছিলেন, আসতে দেরি হলে আমায় পত্র দেবে।
Sri Ramakrishna has a long conversation with Pratap and other Brahmo devotees. Noticing M. sitting close by, he [Thakur] says to Keshab, “Why doesn’t he come to Dakshineswar? Ask him, my dear. He’s said many times that his mind is not attached to his wife and children.” It has only been a month and a few days that M. has started to visit Sri Ramakrishna. For the last few days, he has not done so. That’s why Thakur is saying this. Thakur had told him that if his visit was delayed, he should write him a letter.

 ब्राह्म भक्तगण श्री समाध्यायी को दिखाकर श्रीरामकृष्ण से कह रहे हैं , "आप विद्वान् हैं। वेद-शास्त्र आदि का आपने अच्छा अध्यन किया है। " श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं , " हाँ , इनकी आँखों में से इनका भीतरी भाग दिखायी दे रहा है। ठीक जैसे खिड़की की काँच से घर के भीतर की चीजें दिखाई देती हैं।"

[ব্রাহ্মভক্তেরা শ্রীযুক্ত সামাধ্যায়ীকে দেখাইয়া ঠাকুরকে বলিতেছেন, ইনি পণ্ডিত, বেদাদি শাস্ত্র বেশ পড়িয়াছেন। ঠাকুর বলিতেছেন, হাঁ, এঁর চক্ষু দিয়া এঁর ভিতরটি দেখা যাচ্ছে, যেমন সার্সীর দরজার ভিতর দিয়া ঘরের ভিতরকার জিনিস দেখা যায়।
Introducing Samadhyayi, the Brahmo devotees say to Thakur, “He is a learned man, well-versed in the Vedas and other holy books.” Thakur says, “Yes, I can see inside him by looking through his eyes, just as the inside of a room is visible through a glass door.”

श्री त्रैलोक्य गाना गाया। गाना हो रहा है।  इतने में ही सन्ध्या का दिया जलाया गया। गाना सुनते सुनते श्रीरामकृष्ण एकाएक खड़े हो गए , और 'माँ ' का नाम लेते लेते समाधिमग्न हो गए। कुछ स्वस्थ होकर स्वयं ही नृत्य करते करते गाना गाने लगे - 

सुरापान कोरी ना आमि सूधा खाई जय काली बोले,  
मन मातले माताल कोरे, मद मातले माताल बोले।  

गुरुदत्त गुड़ लोये, प्रवृत्ती ताय मशला दिये; 
ज्ञान शुंडीते , चोंयाय भांटी पान कोरे मोर मन- माताले। 

मूलमंत्र यंत्र भरा, शोधन कोरी बोले तारा;  
प्रसाद बोले एमोन सूरा खेले चतुर्वर्ग मेले।   

 जिसका आशय इस प्रकार है : - " मैं सुरापान नहीं करता , 'जय काली ' कहता हुआ सुधा पान करता हूँ। वह सुधा मुझे इतना मतवाला बना देती है कि लोग मुझे नशाखोर (शराबी) कहते हैं ! गुरूजी का दिया हुआ गुड़ लेकर उसमें प्रवृत्ति का मसाला मिलाकर ज्ञानरूपी कलार उससे शराब बनाता है और मेरा मतवाला मन उसे मूलमन्त्ररूपी बोतल में से पीता है। पीने के पहले 'तारा ' कहकर उसे शुद्ध कर लेता हूँ। 'रामप्रसाद ' कहता है कि ऐसा शराब पीने पर 'धार, अर्थ , काम और मोक्ष ' रूपी चार फलों की प्राप्ति होती है। 

[শ্রীযুক্ত ত্রৈলোক্য গান গাইতেছেন। গান গাইতে গাইতে সন্ধ্যার বাতি জ্বালা হইল, গান চলিতে লাগিল। গান শুনিতে শুনিতে ঠাকুর হঠাৎ দণ্ডায়মান — আর মার নাম করিতে করিতে সমাধিস্থ। কিঞ্চিৎ প্রকৃতিস্থ হইয়া নিজেই নৃত্য করিতে করিতে গান ধরিলেন:

 সুরা পান করি না আমি সুধা খাই জয় কালী বলে,
মন-মাতালে মাতাল করে মদ-মাতালে মাতাল বলে।

গুরুদত্ত গুড় লয়ে, প্রবৃত্তি তায় মশলা দিয়ে;
জ্ঞান শুঁড়িতে চোঁয়ায় ভাঁটী পান করে মোর মন-মাতালে।
মূল মন্ত্র যন্ত্রভরা, শোধন করি বলে তারা;
প্রসাদ বলে এমন সুরা খেলে চতুর্বর্গ মেলে।
Trailokya sings. Evening lamps are lighted while he sings. The singing continues. Listening to the song, Thakur suddenly stands up and, chanting the name of the Divine Mother, goes into samadhi.Returning somewhat to normal consciousness, he begins to dance and sing to himself: "I drink no ordinary wine, but the nectar of everlasting bliss, as I repeat “Jai Kali – to Kali, victory!” Seeing me drunk on this wine of the mind, by drunkards am I taken for a drunk. But my mind is drunk on drops of wine by knowledge[10] distilled from the molasses of the mantra, the guru’s gift, and by the ferment of my own determination. Filled full with the Mother’s nectar is the vessel of this body, which I purify by uttering Tara’s name. Drink of this wine, says Prasad, and the four fruits of life shall be yours.[11]

श्री रामकृष्ण श्री केशव को स्नेहपूर्ण नेत्रों से देख रहे हैं , मानो अपने निजी हैं। और मानो भयभीत हो रहे कि कहीं केशव किसी दूसरे के अर्थात संसार के न बन जाएँ। उनकी ओर तकते हुए श्रीरामकृष्ण ने फिर गाना प्रारम्भ किया - 

कथा बोलते डराई ; ना बोलले ओ डराई। 
मनेर संदेह होय ; पाछे तोमा धने हाराई।।    

आमरा जानि जे मन -तोर ; दिलाम तोरे सेई मन्तोर। 
एमन मन तोर ; जे मन्त्रे बिपदेते तरी तराई।। 

जिसका भावार्थ इस प्रकार का है - ' बात करने से भी डरती हूँ , न करने से भी डरती हूँ। हे राधे, मन में सन्देह होता है कि कहीं तुम जैसी निधि को गँवा न बैठूँ। हम तुम्हें वह मन्त्र बतलाती हैं जिससे हम विपत्ति से पार हो गयी हैं और जो लोगों को भी विपत्ति से पार कर देता है। अब तुम्हारी जैसी इच्छा। " 
अर्थात सब कुछ छोड़ भगवान को पुकारो , वे ही सत्य हैं और सब अनित्य है। उन्हें प्राप्त किये बिना कुछ भी न होगा -यही महामन्त्र है। 

[শ্রীযুক্ত কেশবকে ঠাকুর স্নেহপূর্ণ নয়নে দেখিতেছেন। যেন কত আপনার লোক; আর যেন ভয় করিতেছেন, কেশব পাছে অন্য কারু, অর্থাৎ সংসারে হয়েন! তাঁহার দিকে তাকাইয়া আবার গান ধরিলেন: 
কথা বলতে ডরাই; না বললেও ডরাই ৷
মনের সন্দ হয়; পাছে তোমা ধনে হারাই হারাই ৷৷
আমরা জানি যে মন-তোর; দিলাম তোরে সেই মন্তোর ৷
এমন মন তোর; যে মন্ত্রে বিপদেতে তরী তরাই ৷৷
“আমরা জানি যে মন-তোর; দিলাম তোরে সেই মন্তোর; এখন মন তোর।” অর্থাৎ সব ত্যাগ করে ভগবানকে ডাক, — তিনিই সত্য, আর সব অনিত্য; তাঁকে না লাভ করলে কিছুই হল না! এই মহামন্ত্র।’

Thakur looks at Keshab with eyes full of affection, as if he is his very own, fearing that he may lose him; in other words, he might become entangled in worldly life. He looks at him and sings:" Afraid am I to speak the word to you; equally afraid am I not to speak it.The fear that arises in my mind is that I may lose you, yes, be robbed of you, my wealth, my treasure! Knowing well your mind, we shall teach you the mantra (holy name) that is to bring you to the Beloved.Now ready yourself to receive that mantra which enabled us on many occasions to steer the ship safely to land.“
Knowing well your mind, we shall teach you the mantra (holy name) that is to bring you to the Beloved.’ In other words, call on God, renouncing all else. Only God is Real, all else is ephemeral. If you haven’t attained Him, nothing has been achieved. This is the great secret.”

फिर बैठकर भक्तों के साथ वार्तालाप कर रहे हैं। 
[আবার উপবেশন করিয়া ভক্তদের সঙ্গে কথা কহিতেছেন।
Thakur sits down again and talks to the devotees.

 उनके लिए जलपान की तैयारी हो रही है। हाल के एक कोने में एक ब्राह्म भक्त पियानो बजा रहे हैं। श्रीरामकृष्ण प्रसन्नवदन हो बालक की तरह पियानो के पास खड़े होकर देख रहे हैं। थोड़ी देर बाद उन्हें अंतःपुर में ले जाया गया , - वहाँ वे जलपान करेंगे और महिलायें उन्हें प्रणाम करेंगी। 

[তাঁহাকে জল খাওয়াইবার জন্য উদ্‌যোগ হইতেছে। হলঘরের একপাশে একটি ব্রাহ্মভক্ত পিয়ানো বাজাইতেছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ হাস্যবদন, বালকের ন্যায় পিয়ানোর কাছে গিয়া দাঁড়াইয়া দেখিতেছেন। একটু পরেই অন্তঃপুরে তাঁহাকে লইয়া যাওয়া হইল। জল খাইবেন। আর মেয়েরাও প্রণাম করিবেন।
They prepare to serve him refreshments. A Brahmo devotee is playing the piano on one side of the hall. Sri Ramakrishna smiles and goes to stand near the piano. Like a child, he looks at it. After awhile, he is taken to the inner apartments for refreshments. The ladies will salute him there.
श्रीरामकृष्ण का जलपान समाप्त हुआ।  अब वे गाड़ी में बैठे। ब्राह्म भक्तगण सभी गाड़ी के पास खड़े हैं। कमलकुटीर से गाड़ी दक्षिणेश्वर की ओर चली। 

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের জলসেবা হইল। এইবারে তিনি গাড়িতে উঠিলেন। ব্রাহ্মভক্তেরা সকলেই গাড়ির কাছে দাঁড়াইয়া আছেন। কমলকুটির হইতে গাড়ি দক্ষিণেশ্বর মন্দিরাভিমুখে যাত্রা করিল।
 After refreshments he boards a carriage. All the Brahmo devotees stand near the carriage. It leaves Lily Cottage for the Dakshineswar Temple.
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We met not long ago Paramhansa of Dakshineshwar, and were charmed by the depth, penetration and simplicity of his spirit . The never-ceasing metaphors and analogiess in which he indulged, are most of them as apt as they are beautiful. The characteristics of his mind are the very opposite to those of Pandit Dayananda Sarasvati, the former being so gentle, tender and contemplative as the latter is sturdy, masculine and polemical. Hinduism must have in it a deep source of beauty, truth and goodness to inspire such men as these. – (Sunday Mirror, 28th March1875)

 “हमने थोड़े दिन हुए बेलघड़िया के बगीचे में दक्षिणेश्वर के परमहंस श्रीरामकृष्ण का  दर्शन किया है। तथा उनकी गम्भीरता, अन्तर्दृष्टि, बालस्वभाव देख हम मुग्ध हुए हैं । वे शान्तस्वभाव तथा कोमल प्रकृति के हैं और देखने से ऐसे लगते हैं मानो वे सदा योग में ही रहते हों । इस समय हमारा ऐसा अनुमान हो रहा है कि हिन्दू धर्म के गम्भीरतम स्थलों (चारो योगमार्गों में `मूर्ति पूजा'  का अनुसन्धान करने पर कितनी सुन्दरता, सत्यता तथा साधुता देखने को मिल सकती है! यदि ऐसा न होता तो श्री रामकृष्ण परमहंस की तरह इश्वरी भाव (माँ काली के भाव ) में भावित योगी पुरुष देखने में कैसे आते ?”  ऐसे महापुरुषों को प्रेरित करने के लिए हिंदू धर्म में सुंदरता, सच्चाई और अच्छाई का कोई गहरा स्रोत (मूर्ति -पूजा) अवश्य होना चाहिए।
 
{^  “If the ancient Vedic Aryan is gratefully honoured today for having taught us the deep truth of the Nirakar or the bodiless spirit, the same loyal homage is due to the later Puranic Hindu for having taught us religious feelings in all their breadth and depth.”
“In the days of the Vedas and the Vedanta, India was all Communion (Yoga). In the days of the Puranas India was all Emotion (Bhakti). The highest and the best feelings of religion have been cultivated under the guardianship of specific divinities.”-‘Our Faith and Experinces’ –Lecture delivered in January 1877)}
"श्री रामकृष्ण देव की मानसिक गठन (जगत को देखने के प्रति उनके दृष्टिकोण) की विशेषताएँ पण्डित दयानन्द सरस्वती (आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द) के बिल्कुल विपरीत हैं ! श्रीरामकृष्ण की भावधारा  जहाँ अत्यन्त विनम्र , दयालु और समन्वयकारी (co-ordinative) या चिंतनशील (contemplative) है , वहीं दूसरी ओर स्वामी दयानन्द की विचारधारा दबंग (sturdy),मर्दाना (masculine) और विवादात्मक (polemical) है। "     

 " यदि वैदिक युग के प्राचीन आर्य संस्कृति को आज हमलोग निराकार या अमूर्त आत्मा (bodiless spirit) के गहरे सत्य (deep truth- इन्द्रियातीत या परम् सत्य) की शिक्षा देने के लिए, कृतज्ञभाव से सम्मानित करते हैं, तो उसका श्रेय हमें वैदिक युग के बाद में विकसित पौराणिक हिन्दू या मूर्तिपूजक हिन्दू समाज को देना होगा। क्योंकि विभिन्न देवी-देवताओं को एक ही परम् सत्य की विभिन्न अभिव्यक्ति बतलाकर, हिन्दुओं ने ही हमें धर्म को उसके व्यापक दृष्टिकोण में देखना सिखाया है ! "
"वेदों और उपनिषदों के युग में (Upanishad era), भारत में पूर्ण साम्यभाव (अनेकता में एकता का भाव) स्थापित था। पौराणिक युग में (In the days of the Puranas) भारत में भक्तियोग (Emotion) प्रमुख था। किन्तु धर्म की सर्वोच्च और सर्वश्रेष्ठ भावनाओं का विकास भारत में  विशिष्ट देवताओं ( राम, कृष्ण , बुद्ध  चैतन्यदेव, श्री रामकृष्ण आदि देवों  या अवतारों ) के संरक्षण में ही हुआ है।"           

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गुरुवार, 25 मार्च 2021

🔆🙏परिच्छेद ~ 5 , [( 11 मार्च 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत-5 ] 🔆🙏 राखाल की पहली भाव-अवस्था (ecstasy)- ‘शान्त हो, शान्त हो।’🔆🙏माँ, ईसाई लोग गिर्जाघरों में तुम्हें कैसे पुकारते हैं ? सर्वधर्मसमन्वय🔆🙏ईश्वर के साथ एकत्व का आनंद ही असली नशा है🔆🙏मनुष्य जीवन का उद्देश्य है माँ काली के अवतार से प्यार करना🔆🙏 "Ka"..."Kanai"* कहाँ हो रे भाई कन्हैया !*


परिच्छेद ५

*बलराम के मकान पर श्रीरामकृष्ण तथा प्रेमानन्द में नृत्य*

(१)

[( 11 मार्च 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत-5 ]

🔆🙏 राखाल की पहली भाव-अवस्था (ecstasy)- ‘शान्त हो, शान्त हो।’🔆🙏

रात के आठ-मौ बजे का समय होगा- होली (दोलयात्रा) के सात दिन बाद ^। राम, मनोमोहन, राखाल, नृत्यगोपाल आदि भक्तगण श्रीरामकृष्ण को घेरकर खड़े हैं । सभी लोग हरिनाम का संकीर्तन करते करते तन्मय हो गए हैं । कुछ भक्तों की भावावस्था हुई है । भावावस्था में नृत्यगोपाल का वक्षःस्थल लाल हो गया है ।
[दोल यात्रा के 7 दिन बाद की तिथि रही होगी। क्योंकि गुप्ता प्रेस कलैण्डर के अनुसार उस वर्ष का होली (दोल यात्रा)  4 मार्च को थी । श्रीम ने इस अध्याय में यह भी उल्लेख किया है कि 11 मार्च 1882 ई को श्री रामकृष्ण बलराम- मंदिर में आए थे। ]

[রাত্রি ৮টা-৯টা হইবে। ৺দোলযাত্রা। রাম, মনোমোহন, রাখাল, নিত্যগোপাল প্রভৃতি ভক্তগণ তাঁহাকে ঘেরিয়া রহিয়াছেন। সকলেই হরিনাম সংকীর্তন করিতে করিতে মত্ত হইয়াছেন। কয়েকটি ভক্তের ভাবাবস্থা হইয়াছে। নিত্যগোপালের ভাবাবস্থায় বক্ষঃস্থল রক্তিমবর্ণ হইয়াছে। 
(১ দোলযাত্রার ৭ দিন পরে হইবে। কারণ গুপ্ত প্রেস পঞ্জিকা মতে ওই বৎসর দোলযাত্রা ৪ঠা মার্চ ছিল। শ্রীমও এই পরিচ্ছেদে উল্লেখ করিয়াছেন, ১১ই মার্চ, ১৮৮২, শ্রীরামকৃষ্ণ বলরাম-মন্দিরে আসিয়াছিলেন। — প্র:)
ABOUT EIGHT O'CLOCK in the morning Sri Ramakrishna went as planned to Balaram Bose's house in Calcutta. It was the day of the Dola-yatra. Ram, Manomohan, Rakhal, (A beloved disciple of the Master, later known as Swami Brahmananda.) Nityagopal, and other devotees were with him. M., too, came, as bidden by the Master.

सब के बैठने पर मास्टर ने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया । श्री म ने देखा राखाल सोए हैं, भावमग्न, बाह्यज्ञान विहीन । और श्रीरामकृष्ण उनकी छाती पर हाथ रखकर कह रहे हैं- ‘शान्त हो, शान्त हो।’ राखाल  की यह प्रथम बार की भावावस्था थी । वे [श्री रामकृष्ण के प्रिय शिष्य राखाल, जिन्हें बाद में स्वामी ब्रह्मानन्द  के नाम से जाना गया।]  कलकत्ते में अपने पिता के साथ रहते हैं, बीच बीच में श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने आ जाते हैं । इसके पूर्व उन्होंने श्यामपुकुर में विद्यासागर महाशय के स्कूल में कुछ दिन अध्ययन किया था ।

[সকলে উপবেশন করিলে মাস্টার ঠাকুরকে প্রণাম করিলেন। দেখিলেন, রাখাল শুইয়া আছেন, ভাবাবিষ্ট ও বাহ্যজ্ঞানশূন্য। ঠাকুর তাঁহার বুকে হাত দিয়া “শান্ত হও” “শান্ত হও” বলিতেছেন। রাখালের এই প্রথম ভাবাবস্থা। তিনি কলিকাতার বাসাতে পিত্রালয়ে থাকেন, মাঝে মাঝে ঠাকুরকে দর্শন করিতে যান। এই সময়ে শ্যামপুকুর বিদ্যাসাগর মহাশয়ের স্কুলে কয়েক দিন পড়িয়াছিলেন।
The devotees and the Master sang and danced in a state of divine fervour. Several of them were in an ecstatic mood. Nityagopal's chest glowed with the upsurge of emotion, and Rakhal lay on the floor in ecstasy, completely unconscious of the world. The Master put his hand on Rakhal's chest and said: "Peace. Be quiet." This was Rakhal's first experience of ecstasy. He lived with his father in Calcutta and now and then visited the Master at Dakshineswar. About this time he had studied a short while in Vidyasagar's school at Syampukur.

श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से दक्षिणेश्वर में कहा था, ‘मैं कलकत्ते में बलराम के घर जाऊँगा, तुम भी आना ।’ इसीलिये वे उनका दर्शन करने आए हैं । फाल्गुन कृष्णा सप्तमी, शनिवार, 11 मार्च 1882 ई. । श्रीयुत बलराम श्रीरामकृष्ण को निमत्रण देकर लाए हैं ।

[ঠাকুর মাস্টারকে দক্ষিণেশ্বরে বলিয়াছিলেন, “আমি কলিকাতায় বলরামের বাড়িতে যাব, তুমি আসিও।” তাই তিনি তাঁহাকে দর্শন করিতে আসিয়াছেন। (২৮শে ফাল্গুন, ১২৮৮, কৃষ্ণা ষষ্ঠী); ১১ই মার্চ, শনিবার ১৮৮২ খ্রীষ্টাব্দ, শ্রীযুক্ত বলরাম ঠাকুরকে নিমন্ত্রণ করিয়া আনিয়াছেন।

अब भक्तगण बरामदे में बैठे प्रसाद पा रहे हैं । दासवत् बलराम खड़े हैं । देखने से समझा नहीं जाता कि वे इस मकान के मालिक हैं । मास्टर श्रीरामकृष्ण के पास कुछ दिनों से आने लगे हैं । उनका अभी तक भक्तों के साथ परिचय नहीं हुआ है। केवल दक्षिणेश्वर में नरेन्द्र के साथ परिचय हुआ था ।
[এইবার ভক্তেরা বারান্দায় বসিয়া প্রসাদ পাইতেছেন। দাসের ন্যায় বলরাম দাঁড়াইয়া আছেন, দেখিলে বোধ হয় না, তিনি এই বাড়ির কর্তা।মাস্টার এই নূতন আসিতেছেন। এখনও ভক্তদের সঙ্গে আলাপ হয় নাই। কেবল দক্ষিণেশ্বরে নরেন্দ্রের সঙ্গে আলাপ হইয়াছিল।
When the music was over, the devotees sat down for their meal. Balaram stood there humbly, like a servant. Nobody would have taken him for the master of the house. M. was still a stranger to the devotees, having met only Narendra at Dakshineswar.


(२)

[( 11 मार्च 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत-5 ] 

🔆🙏माँ, ईसाई लोग गिर्जाघरों में तुम्हें कैसे पुकारते हैं ? सर्वधर्मसमन्वय🔆🙏

कुछ दिनों बाद श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर में शिव-मन्दिर की सीढ़ी पर भावाविष्ट होकर बैठे हैं । दिन के चार-पाँच बजे का समय होगा । मास्टर भी पास ही बैठे हैं ।थोड़ी देर पहले श्रीरामकृष्ण, उनके कमरे में फर्श पर जो बिस्तर बिछाया गया है, उस पर विश्राम कर रहे थे । अभी उनकी सेवा के लिए सदैव उनके पास (P.A.के ड्यूटी में )  कोई नहीं रहता था । हृदय के चले जाने के बाद से उनको कष्ट हो रहा है । 
कलकत्ते से मास्टर के आने पर वे उनके साथ बात करते करते श्रीराधाकान्त के मन्दिर के सामनेवाले शिव-मन्दिर की सीढ़ी पर आकर बैठे । मन्दिर देखते ही वे एकाएक भावाविष्ट हो गए हैं ।

[কয়েকদিন পরে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ দক্ষিণেশ্বরে শিবমন্দিরে সিঁড়ির উপর ভাবাবিষ্ট হইয়া বসিয়া আছেন। বেলা ৪টা-৫টা হইবে। মাস্টার কাছে বসিয়া আছেন। কিয়ৎক্ষণ পূর্বে ঠাকুর নিজের ঘরে মেঝের উপর বিছানা পাতা — তাহাতে বিশ্রাম করিতেছিলেন। এখনও ঠাকুরের সেবার জন্য কাছে কেহ থাকেন না। হৃদয় যাওয়ার পর ঠাকুরের কষ্ট হইতেছে। কলিকাতা হইতে মাস্টার আসিলে তিনি তাঁহার সঙ্গে কথা কহিতে কহিতে, শ্রীশ্রীরাধাকান্তের মন্দিরের সম্মুখস্থ শিবমন্দিরের সিঁড়িতে আসিয়া বসিয়াছিলেন। কিন্তু মন্দির দৃষ্টে হঠাৎ ভাবাবিষ্ট হইয়াছেন।

A few days later M. visited the Master at Dakshineswar. It was between four and five o'clock in the afternoon. The Master and he were sitting on the steps of the Siva temples. Looking at the temple of Radhakanta, across the courtyard, the Master went into an ecstatic mood. Since his nephew Hriday's dismissal from the temple, Sri Ramakrishna had been living without an attendant. On account of his frequent spiritual moods he could hardly take care of himself. The lack of an attendant caused him great inconvenience.
     
वे जगन्माता (माँ काली से अर्थात अपनेआप ) के साथ बातचीत कर रहे हैं, “माँ, सभी कहते हैं, मेरी घड़ी ठीक चल रही है । ईसाई, हिन्दू, मुसलमान सभी कहते हैं मेरा धर्म ठीक है, परन्तु माँ, किसी की भी तो घड़ी ठीक नहीं चल रही है। तुम्हें ठीक-ठीक कौन समझ सकेगा, परन्तु व्याकुल होकर पुकारने पर, तुम्हारी कृपा होने पर सभी पथों से तुम्हारे पास पहुँचा जा सकता है । माँ, ईसाई लोग गिर्जाघरों में तुम्हें कैसे पुकारते हैं, एक बार दिखा देना । परन्तु माँ, भीतर जाने पर लोग क्या कहेंगे? यदि कुछ गड़बड़ हो जाय तो? फिर लोग कालीमन्दिर में यदि न जाने दें तो फिर गिर्जाघर के दरवाजे के पास से दिखा देना ।

[ঠাকুর জগন্মাতার সঙ্গে কথা কহিতেছেন। বলিতেছেন, “মা, সব্বাই বলছে, আমার ঘড়ি ঠিক চলছে। খ্রীষ্টান, ব্রহ্মজ্ঞানী, হিন্দু, মুসলমান — সকলেই বলে, আমার ধর্ম ঠিক, কিন্তু মা, কারুর ঘড়ি তো ঠিক চলছে না। তোমাকে ঠিক কে বুঝতে পারবে। তবে ব্যাকুল হয়ে ডাকলে তোমার কৃপা হলে সব পথ দিয়ে তোমার কাছে পৌঁছানো যায়। মা, খ্রীষ্টানরা গির্জাতে তোমাকে কি করে ডাকে, একবার দেখিও! কিন্তু মা, ভিতরে গেলে লোকে কি বলবে? যদি কিছু হাঙ্গামা হয়? আবার কালীঘরে যদি ঢুকতে না দেয়? তবে গির্জার দোরগোড়া থেকে দেখিও।”
Sri Ramakrishna was talking to Kali, the Divine Mother of the Universe. He said: "Mother, everyone says, 'My watch alone is right.' The Christians, the Brahmos, the Hindus, the Mussalmans, all say, 'My religion alone is true.' But, Mother, the fact is that nobody's watch is right. Who can truly understand Thee? But if a man prays to Thee with a warning heart, he can reach Thee, through Thy grace, by any path. Mother, show me sometime how the Christians pray to Thee in their churches. But Mother, what will people say if I go in? Suppose they make a fuss! Suppose they don't allow me to enter the Kali temple again! Well then, show me the Christian worship from the door of the church."} 


(3)

[( 11 मार्च 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत-5 ] 

🔆🙏ईश्वर के साथ एकत्व का आनंद ही असली नशा है🔆🙏

 [The bliss of communion with God is the true wine]  

एक दूसरे दिन श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में छोटी खाट पर बैठे हैं। आनन्दमयी मूर्ति हैं। श्री कालीकृष्ण ^  के साथ मास्टर आ पहुंचे। (^ कालीकृष्ण भट्टाचार्य -परवर्तीकाल में आप विद्यासागर कालेज में संस्कृत भाषा तथा साहित्य के प्रधान अध्यापक हुए थे।)  कालीकृष्ण जानते न थे कि उनके मित्र उन्हें कहाँ ला रहे हैं। मित्र ने कहा था , कलार की दुकान पर जाओगे तो मेरे साथ आओ। वहाँ पर एक मटकी शराब है। मास्टर ने अपने मित्र से जो कुछ कहा था ,प्रणाम करने के बाद श्रीरामकृष्ण को सब कह सुनाया। वे सभी हँसने लगे।

[আর এক দিন ঠাকুর নিজের ঘরে ছোট খাটটির উপর বসিয়া আছেন, আনন্দময় মূর্তি — হাস্যবদন। শ্রীযুক্ত কালীকৃষ্ণের৩ সঙ্গে মাস্টার আসিয়া উপস্থিত।কালীকৃষ্ণ জানিতেন না, তাঁহাকে তাঁহার বন্ধু কোথায় লইয়া আসিতেছেন। বন্ধু বলিয়াছিলেন, “শুঁড়ির দোকানে যাবে তো আমার সঙ্গে এস; সেখানে এক জালা মদ আছে।” মাস্টার আসিয়া বন্ধুকে যাহা বলিয়াছিলেন, প্রনামান্তর ঠাকুরকে সমস্ত নিবেগন করিলেন। ঠাকুরও হাসিতে লাগিলেন।
Another day the Master was seated on the small couch in his room, with his usual beaming countenance. M. arrived with Kalikrishna, who did not know where his friend M. was taking him. He had only been told: "If you want to see a grog-shop, then come with me. You will see a huge jar of wine there." M. related this to Sri Ramakrishna, who laughed about it.

[( 11 मार्च 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत-5 ]
 
🔆🙏मनुष्य जीवन का उद्देश्य है माँ काली के अवतार से प्यार करना🔆🙏  

वे बोले , " भजनानन्द , ब्रह्मानंद , यह आनन्द ही सुरा है , प्रेम की सुरा। मानवजीवन का उद्देश्य है ईश्वर से प्रेम , ईश्वर से प्यार करना। भक्ति ही सार है। ज्ञान-विचार करके ईश्वर को जानना बहुत ही कठिन है।
{ঠাকুর বলিলেন, “ভজানন্দ, ব্রহ্মানন্দ, এই আনন্দই সুরা; প্রেমের সুরা। মানবজীবনের উদ্দেশ্য ঈশ্বরে প্রেম, ঈশ্বরকে ভালবাসা। ভক্তিই সার, জ্ঞানবিচার করে ঈশ্বরকে জানা বড়ই কঠিন।”
 "The bliss of worship and communion with God is the true wine, the wine of ecstatic love. The goal of human life is to love God. Bhakti is the one essential thing. To know God through jnana and reasoning is extremely difficult."

এই বলিয়া ঠাকুর গান গাহিতে লাগিলেন:

কে জানে কালী কেমন, ষড় দর্শনে না পায় দরশন।
কালী পদ্মবনে হংস-সনে, হংসীরূপে করে রমণ।
মূলাধারে সহস্রারে সদা যোগী করে মনন| 

আত্মারামের আত্মা কালী প্রমাণ প্রণবের মতন,
সে যে ঘটে ঘটে বিরাজ করে ইচ্ছাময়ীর ইচ্ছা যেমন।

কালীর উদরে ব্রহ্মাণ্ড ভাণ্ড প্রকাণ্ড তা বুঝ কেমন,
যেমন শিব বুঝেছেন কালীর মর্ম, অন্য কেবা জানে তেমন।

প্রসাদ ভাষে, লোকে হাসে, সন্তরণে সিন্ধু-তরণ,
আমার মন বুঝেছে, প্রাণ বুঝে না; ধরবে শশী হয়ে বামন।


 
यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाना गाने लगे-  
“के जाने मन काली केमन, षड्दर्शने ना पाय दर्शन।  
मूलाधारे सहस्रारे सदा योगी करे मनन।।

काली पद्मबने हंस-सने, हंसिरुपे करे रमन।  
आत्मारामेर आत्मा काली प्रमाण प्रणवेर मतन।। 
 
तिनि घटे घटे बिराज करेन, इच्छामयी इच्छा जेमन। 
मायेर उदरे ब्रह्माण्ड भाण्ड, प्रकाण्ड ता जानो केमन।।  

महाकाल जेनेछेन कालीर मर्म, अन्य केबा जाने तेमन।    
प्रसाद भाषे लोके हासे, संतरणे सिन्धु-तरण।।  
आमार मन बुझेछे प्राण बुझे ना धरबे शशि होय बामन।। 
 जिसका आशय इस प्रकार है - 
      " कौन जाने काली कैसी है ? षड्दर्शन उन्हें देख नहीं सकते। इच्छामयी वे अपनी इच्छा के अनुसार घट घट में विराजमान हैं। यह विराट ब्रह्माण्ड रूपी भाण्ड जो  काली उदर में है उसे कैसे समझा सकते हो ? शिव ने काली का मर्म जैसा समझा वैसा दूसरा कौन जानता है ? योगी सदा सहस्रार , मूलाधार में मनन करते हैं। काली पद्मवन में हंस के साथ हंसी के रूप में रमण करती है। 'प्रसाद' कहता है , लोग हँसते हैं। मेरा मन समझता है ; पर प्राण नहीं समझता -वामन होकर चन्द्रमा पकड़ना चाहता है। ' 
[Who is there that can understand what Mother Kali is? Even the six darsanas are powerless to reveal Her. . . .} 

श्रीरामकृष्ण फिर कहते हैं , " ईश्वर से प्रेम करना ही जीवन का उद्देश्य है। जिस प्रकार वृंदावन में गोपगोपीगण , राखालगण श्रीकृष्ण को प्यार करते थे। जब श्री कृष्ण मथुरा चले गए , राखालगण उनके विरह में रो -रो कर घूमते थे। " 

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ আবার বলিতেছেন, ঈশ্বরকে ভালবাসা — এইটি জীবনের উদ্দেশ্য; যেমন বৃন্দাবনে গোপ-গোপীরা, রাখালরা শ্রীকৃষ্ণকে ভালবাসত। যখন শ্রীকৃষ্ণ মথুরায় গেলেন, রাখালেরা তাঁর বিরহে কেঁদে কেঁদে বেড়াত।
The Master said, again: "The one goal of life is to cultivate love for God, the love that the milkmaids, the milkmen, and the cowherd boys of Vrindavan felt for Krishna. When Krishna went away to Mathura, the cowherds roamed about weeping bitterly because of their separation from Him."] 

इतना कहकर वे ऊपर की ओर ताकते हुए गाना गाने लगे - 

देखे एलाम एक नवीन राखाल, नवीन तरुर डाल धोरे। 
नवीन वत्स कोले कोरे,  बोले, कोथा रे भाई कानाई। 
 
आबार, 'का' बोइ कानाई बेरोय ना रे, 
बोले, कोथा रे भाई,  
आर नयन- जले भेशे जाय 

(भावार्थ) " एक नए राखाल को देख आया जो नए पेड़ की टहनी पकड़े छोटे बछड़े को गोद में लिये कह रहा है - , " कहाँ हो रे भाई कन्हैया ! फिर 'क ' कहकर ही रह जाता है , पूरा कन्हैया मुंह से नहीं निकलता। कह रहा है , ' कहाँ हो रे भाई ' और आँखों से आँसू की धाराएं निकल रही हैं।  " 

[এই বলিয়া ঠাকুর ঊর্ধ্বদৃষ্টি হইয়া গান গাহিতেছেন:
দেখে এলাম এক নবীন রাখাল,
নবীন তরুর ডাল ধরে,
নবীন বৎস কোলে করে,
বলে, কোথা রে ভাই কানাই।
আবার, কা বই কানাই বেরোয় না রে,
বলে কোথা রে ভাই,
আর নয়ন-জলে ভেসে যায়।
Saying this the Master sang, with his eyes turned upward:Just now I saw a youthful cowherd, With a young calf in his arms;There he stood, by one hand holding, The branch of a young tree."Where are You, Brother Kanai?" he cried;But "Kanai" scarcely could he utter;"Ka" .was as much as he could say.He cried, "Where are You, Brother?"And his eyes were filled with tears.
श्री रामकृष्ण का प्रेम भरा गाना सुनकर मास्टर की आँखों में आंसू भर आये।  

[ঠাকুরের প্রেমমাখা গান শুনিয়া মাস্টারের চক্ষুতে জল আসিয়াছে।
When M. heard this song of the Master's, laden with love, his eyes were moist with tears.

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बुधवार, 24 मार्च 2021

🔆🙏ॐपरिच्छेद ~ 4, [( 6 मार्च 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत-4 ] * चतुर्थ दर्शन *🔆🙏अफीमची मोर ने भूमिष्ट होकर प्रणाम करना सीखा 🔆🙏 हनुमान केवल राम को ही चाहते हैं, मन्दोदरी फल के लालच में नहीं फंसते🔆🙏 वचन के पालन में दुविधा हो तो कहना है -“हाँ, कोशिश करूँगा।” 🔆🙏 Leader is full of spirit within *🔆🙏नेता पूँछ पर हाथ पड़ते ही कूद पड़ता है, हमेशा उत्साह (आत्मा) से भरा होता है🔆🙏तुम जिस श्रीरामकृष्ण के प्रति आकर्षित हो, उन्हें क्या समझते हो ?🔆🙏श्रीरामकृष्ण हैं आत्माराम', सिंह, तटस्थ (Neutral) ! 🔆🙏


*परिच्छेद~४*

* चतुर्थ दर्शन *

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः । 
यस्मिन् स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥ 
(गीता, ६।२२)
[ जिस लाभ की प्राप्ति होने पर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके मानने में भी नहीं आता और जिसमें स्थित होने पर वह बड़े भारी दु:ख से भी विचलित नहीं होता है।
जिस आत्मप्राप्ति रूप लाभ को प्राप्त होकर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ है ऐसा नहीं मानता।  दूसरे लाभ को स्मरण भी नहीं करता। एवं जिस आत्मतत्त्व में स्थित हुआ योगी शस्त्राघात आदि बड़े भारी दुःखों द्वारा भी विचलित नहीं किया जा सकता।] 


4, [( 6 मार्च 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत-4 ]

🔆🙏अफीमची मोर ने भूमिष्ट होकर प्रणाम करना सीखा 🔆🙏 
        
उसके दूसरे दिन (6 मार्च) भी छुट्टी थी । दिन के तीन बजे मास्टर फिर आए । श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में बैठे हैं । फर्श पर चटाई बिछी है । नरेन्द्र, भवनाथ तथा और भी दो एक लोग बैठे हैं । सभी अभी युवा हैं, उम्र उन्नीस-बीस के लगभग होगी । प्रफुल्लमुख श्रीरामकृष्ण तखत पर बैठे हुए छात्रों से सानन्द वार्तालाप कर रहे हैं ।    

[তাহার পরদিনও ছুটি ছিল। বেলা তিনটার সময় মাস্টার আবার আসিয়া উপস্থিত। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ সেই পূর্বপরিচিত ঘরে বসিয়া আছেন। মেঝেতে মাদুর পাতা। সেখানে নরেন্দ্র, ভবনাথ, আরও দুই-একজন বসিয়া আছেন। কয়টিই ছোকরা, উনিশ-কুড়ি বৎসর বয়স। ঠাকুর সহাস্যবদন, ছোট তক্তপোশের উপর বসিয়া আছেন, আর ছোকরাদের সহিত আনন্দে কথাবার্তা কহিতেছেন।
The next day, too, was a holiday for M. He arrived at Dakshineswar at three o'clock in the afternoon. Sri Ramakrishna was in his room; Narendra, Bhavanath, and a few other devotees were sitting on a mat spread on the floor. They were all young men of nineteen or twenty. Seated on the small couch, Sri Ramakrishna was talking with them and smiling.

मास्टर को कमरे में घुसते देख श्रीरामकृष्ण ने हँसते हुए कहा, “यह देखो, फिर आया ।” सब हँसने लगे। मास्टर ने भूमिष्ठ हो प्रणाम करके आसन ग्रहण किया । पहले वे खड़े- खड़े हाथ जोड़कर प्रणाम करते थे-जैसा अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग करते हैं । पर आज उन्होंने भूमिष्ठ होकर प्रणाम करना सीखा मास्टर ने आसन ग्रहण किया , तब श्रीरामकृष्ण नरेन्द्रादि युवा शिष्यों की ओर देखकर वे क्यों हँसे थे उसका कारण बतलाने के एक कहानी कहे -

[মাস্টার ঘরে প্রবেশ করিতেছেন দেখিয়াই ঠাকুর উচ্চহাস্য করিয়া ছোকরাদের বলিয়া উঠিলেন, “ওই রে আবার এসেছে!” — বলিয়াই হাস্য। সকলে হাসিতে লাগিল। মাস্টার আসিয়া ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিয়া বসিলেন। — আগে হাতজোড় করিয়া দাঁড়াইয়া প্রণাম করিতেন — ইংরেজী পড়া লোকেরা যেমন করে। কিন্তু আজ তিনি ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিতে শিখিয়াছেন। তিনি আসন গ্রহণ করিলে, শ্রীরামকৃষ্ণ কেন হাসিতেছিলেন, তাহাই নরেন্দ্রাদি ভক্তদের বুঝাইয়া দিতেছেন
No sooner had M. entered the room than the Master laughed aloud and said to the boys, "There! He has come again." They all joined in the laughter. M. bowed low before him and took a seat. Before this he had saluted the Master with folded hands, like one with an English education. But that day he learnt to fall down at his feet in orthodox Hindu fashion.Presently the Master explained the cause of his laughter to the devotees.

श्रीरामकृष्ण नरेन्द्रादि भक्तों से कहने लगे, “देखो, एक मोर को किसी ने चार बजे अफीम खिला दी । दूसरे दिन से वह अफीमची मोर ठीक चार बजे आ जाता था ! यह भी अपने समय पर आया है ।” सब लोग हँसने लगे ।   

[“দেখ, একটা ময়ূরকে বেলা চারটার সময় আফিম খাইয়ে দিচ্ছিল। তার পরদিন ঠিক চারটার সময় ময়ূরটা উপস্থিত — আফিমের মৌতাত ধরেছিল — ঠিক সময়ে আফিম খেতে এসেছে!” (সকলের হাস্য)
He said: "A man once fed a peacock with a pill of opium at four o'clock in the afternoon. The next day, exactly at that time, the peacock came back. It had felt the intoxication of the drug and returned just in time to have another dose." (All laugh.) 

मास्टर सोचने लगे, ये ठीक तो कहते हैं । घर जाता हूँ, पर मन दिन-रात यहीं पड़ा रहता है । कब जाऊँ, कब उन्हें देखूँ इसी विचार में रहता हूँ । यहाँ मानो कोई खींच ले आता है ! इच्छा होने पर भी दूसरी जगह जा नहीं पाता, यहीं आना पड़ता है । इधर श्रीरामकृष्ण लड़कों से हँसी-मजाक करने लगे । मालुम होता था कि वे सब मानो एक ही उम्र के हैं । हँसी की लहरें उठने लगीं । मानो आनन्द की हाट लगी हो। 

[মাস্টার মনে মনে ভাবিতেছেন, “ইনি ঠিক কথাই বলিতেছেন। বাড়িতে যাই কিন্তু দিবানিশি ইঁহার দিকে মন পড়িয়া থাকে — কখন দেখিব, কখন দেখিব। এখানে কে যেন টেনে আনলে! মনে করলে অন্য জায়গায় যাবার জো নাই, এখানে আসতেই হবে!” এইরূপ ভাবিতেছেন, ঠাকুর এদিকে ছোকরাগুলির সহিত অনেক ফষ্টিনাষ্টি করিতে লাগিলেন যেন তারা সমবয়স্ক। হাসীর লহরী উঠিতে লাগিল। যেন আনন্দের হাট বসিয়াছে।
M. thought this a very apt illustration. Even at home he had been unable to banish the thought of Sri Ramakrishna for a moment. His mind was constantly at Dakshineswar and he had counted the minutes until he should go again.

मास्टर यह अद्भुत चरित्र देखते हुए सोचते हैं कि पिछले दिन क्या इन्हीं को समाधि और अपूर्व प्रेमानन्द में मग्न देखा था? क्या ये वे ही मनुष्य हैं, जो आज प्राकृत मनुष्य जैसा व्यवहार कर रहे हैं? क्या इन्हीं ने मुझे पहले दिन उपदेश देते हुए धिक्कारा था? इन्हीं ने मुझे ‘तुम ज्ञानी हो ’ कहा था? इन्हीं ने साकार और निराकार दोनों सत्य हैं, कहा था? इन्हीं ने मुझे कहा था कि ईश्वर ही सत्य हैं और सब अनित्य? इन्हीं ने मुझे संसार में दासी की भाँति रहने का उपदेश दिया था?

[মাস্টার অবাক্‌ হইয়া এই অদ্ভুত চরিত্র দেখিতেছেন। ভাবিতেছেন, ইঁহারই কি পূর্বদিনে সমাধি ও অদৃষ্টপূর্ব প্রেমানন্দ দেখিয়াছিলাম? সেই ব্যক্তি কি আজ প্রাকৃত লোকের ন্যায় ব্যবহার করিতেছেন? ইনিই কি আমায় প্রথম দিনে উপদেশ দিবার সময় তিরস্কার করিয়াছিলেন? ইনিই কি আমায় “তুমি কি জ্ঞানী” বলেছিলেন? ইনিই কি সাকার-নিরাকার দুই সত্য বলেছিলেন? ইনিই কি আমায় বলেছিলেন যে, ঈশ্বরই সত্য আর সংসারের সমস্তই অনিত্য? ইনিই কি আমায় সংসারে দাসীর মতো থাকতে বলেছিলেন?
In the mean time the Master was having great fun with the boys, treating them as if they were his most intimate friends. Peals of side-splitting laughter filled the room, as if it were a mart of joy. The whole thing was a revelation to M. He thought: "Didn't I see him only yesterday intoxicated with God? Wasn't he swimming then in the Ocean of Divine Love — a sight I had never seen before? And today the same person is behaving like an ordinary man! Wasn't it he who scolded me on the first day of my coming here? Didn't he admonish me, saying, 'And you are a man of knowledge!'? Wasn't it he who said to me that God with form is as true as God without form? Didn't he tell me that God alone is real and all else illusory? Wasn't it he who advised me to live in the world unattached, like a maidservant in a rich man's house?"

     
श्रीरामकृष्ण आनन्द कर रहे हैं और बीच बीच में मास्टर को देख रहे हैं । मास्टर को सविस्मय बैठे हुए देखकर उन्होंने रामलाल से कहा- “इसकी उम्र कुछ ज्यादा हो गयी है न, इसी से कुछ गम्भीर है । ये सब हँस रहे हैं; पर यह चुपचाप बैठा है ।” मास्टर की उम्र उस समय सत्ताईस साल की होगी । 

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ আনন্দ করিতেছেন ও মাস্টারকে এক-একবার দেখিতেছেন। দেখিলেন, তিনি অবাক্‌ হইয়া বসিয়া আছেন। তখন রামলালকে সম্বোধন করিয়া বলিলেন, “দেখ্‌, এর একটু উমের বেশি কিনা, তাই একটু গম্ভীর। এরা এত হাসিখুশি করছে, কিন্তু এ চুপ করে বসে আছে।” মাস্টারের বয়স তখন সাতাশ বৎসর হইবে।
Sri Ramakrishna was having great fun with the young devotees; now and then he glanced at M. He noticed that M. sat in silence. The Master said to Ramlal (PA) : "You see, he is a little advanced in years, and therefore somewhat serious. He sits quiet while the youngsters are making merry." M. was then about twenty-eight years old.] 

4, [( 6 मार्च 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत-4 ]

🔆🙏 हनुमान केवल राम को ही चाहते हैं, मन्दोदरी फल के लालच में नहीं फंसते🔆🙏   
       
बात ही बात में परम भक्त हनुमान की बात चली । हनुमान का एक चित्र श्रीरामकृष्ण के कमरे की दिवार पर टँगा था । श्रीरामकृष्ण ने कहा, “देखो तो, हनुमान का भाव कैसा है ! धन, मान, शरीरसुख कुछ भी नहीं चाहते हैं केवल भगवान् को चाहते हैं । जब स्फटिक-स्तम्भ के भीतर से ब्रह्मास्त्र ^ निकालकर भागे, तब मन्दोदरी नाना प्रकार के फल लेकर लोभ दिखाने लगी । उसने सोचा कि फल के लोभ से उतरकर शायद ये ब्रह्मास्त्र फेंक दें, पर हनुमान इस भुलावे में कब पड़ने लगे?

[কথা কহিতে কহিতে পরম ভক্ত হনুমানের কথা উঠিল। হনুমানের পট একখানি ঠাকুরের ঘরের দেওয়ালে ছিল। ঠাকুর বলিলেন, “দেখ, হনুমানের কি ভাব! ধন, মান, দেহসুখ কিছুই চায় না; কেবল ভগবানকে চায়! যখন স্ফটিকস্তম্ভ থেকে ব্রহ্মাস্ত্র নিয়ে পালাচ্ছে তখন মন্দোদরী অনেকরকম ফল নিয়ে লোভ দেখাতে লাগল। ভাবলে ফলের লোভে নেমে এসে অস্ত্রটা যদি ফেলে দেয়; কিন্তু হনুমান ভুলবার ছেলে নয়; 
The conversation drifted to Hanuman, whose picture hung on the wall in the Master's room.

 इसी भाव का एक गीत श्रीरामकृष्ण गा रहे हैं-

 [गीत - 'श्रीराम कल्पतरु']

आमार की फलेर अभाव। 
पेयेछि जे फल , जनम सफल।। 
 
मोक्ष -फलेर वृक्ष राम हृदये। 
श्रीराम कल्पतरु मूले बोसे रोइ ।।   
जखन जे फल वांछा सेइ फल प्राप्त होइ।
 
फलेर कथा कोइ , (धनी गो), ओ फल ग्राहक नई ;   
जाबो तोदेर प्रतिफल जे दिये।।  

उन्होंने कहा-मुझे फलों का अभाव नहीं है । मुझे जो फल मिला है, उससे मेरा जन्म सफल हो गया है । मेरे हृदय में मोक्षफल के वृक्ष श्रीरामचन्द्रजी हैं । श्रीराम-कल्पतरु के नीचे बैठा रहता हूँ; जब जिस फल की इच्छा होती है, वही फल खाता हूँ । फल के बारे में कहता हूँ कि तेरा फल मैं नहीं चाहता हूँ । तू मुझे फल न दिखा, मैं इसका प्रतिफल दे जाऊँगा ।” 

সে বললে:  [গীত – ‘শ্রীরামকল্পতরু’ ]
আমার কি ফলের অভাব ৷
পেয়েছি যে ফল, জনম সফল,
মোক্ষ-ফলের বৃক্ষ রাম হৃদয়ে ৷৷
শ্রীরামকল্পতরুমূলে বসে রই —
যখন যে ফল বাঞ্ছা সেই ফল প্রাপ্ত হই ।
ফলের কথা কই, (ধনি গো), ও ফল গ্রাহক নই;
যাব তোদের প্রতিফল যে দিয়ে ৷৷



In reply to her persuasions he sang this song: " Am I in need of fruit? I have the Fruit that makes this life, Fruitful indeed. Within my heart The Tree of Rama grows,Bearing salvation for its fruit.Under the Wish-fulfilling Tree, Of Rama do I sit at ease,Plucking whatever fruit I will.But if you speak of fruit —No beggar, I, for common fruit.Behold, I go,Leaving a bitter fruit for you."

{स्फटिक-स्तम्भ के भीतर से ब्रह्मास्त्र निकालकर भागे  ^उपरोक्त गाने में मन्दोदरी-हनुमान संवाद का जो प्रसंग उद्धरित किया गया है , उसे बाल्मीकि रामायण से लिया गया है। रावण को यह वरदान मिला था कि उसकी मृत्यु केवल एक खास बाण (celestial weapon -ब्रह्मास्त्र)  से हो सकती थी। उस बाण को रावण के महल में एक स्फटिक स्तंभ में छिपा कर रखा दिया गया था। और उस खास बाण की जानकरी रावण के सिवा सिर्फ मंदोदरी को ही थी। एक दिन हनुमान जी एक साधारण वानर के वेश में महल में आए और मंदोदरी से इस बाण का पता लगाकर उस खम्भे को तोड़ दिया। और उस बाण को लेकर भागने लगेजिससे राम को रावण का वध करने में सफलता मिलेजब वे उस विशेष बाण को लेकर वे भाग रहे थे तब रावण की पत्नी मंदोदरी उन्हें फल दिखा-दिखा कर प्रलोभन देने लगी, ताकि वे वह उस दिव्य अस्त्र को वापस फेंक दें। लेकिन हनुमान जी ने शीघ्र ही अपना रूप धारण कर लिया और उपरोक्त गीत को गाने लगे। 
^The story referred to here is told in the Ramayana. Ravana had received a boon as a result of which he could be killed only by a particular celestial weapon. This weapon was concealed in a crystal pillar in his palace. One day Hanuman, in the guise of an ordinary monkey, came to the palace and broke the pillar. As he was running away with the weapon, he was tempted with fruit by Mandodari, Ravana's wife, so that he might give back the weapon. He soon assumed his own form and sang the song given in the text. 

फिर वही समाधि; देह निश्चल, नेत्र स्थिर । बैठे हैं, जैसी मूर्ति फोटोग्राफ में देखने को मिलती है । भक्तगण अभी इतना हँस रहे थे अब सब एक दृष्टि से श्रीरामकृष्ण की इस अद्भुत अवस्था का दर्शन करने लगे । मास्टर दूसरी बार यह समाधि-अवस्था देख रहे थे । 

[ঠাকুর এই গান গাহিতেছেন। আবার সেই ‘সমাধি’! আবার নিস্পন্দ দেহ, স্তিমিত লোচন, দেহ স্থির! বসিয়া আছেন — ফটোগ্রাফে যেরূপ ছবি দেখা যায়। ভক্তেরা এইমাত্র এত হাসিখুশি করিতেছিলেন, এখন সকলেই একদৃষ্টি হইয়া ঠাকুরের সেই অদ্ভুত অবস্থা নিরীক্ষণ করিতেছেন।
As Sri Ramakrishna was singing the song he went into samadhi. Again the half-closed eyes and motionless body that one sees in his photograph. Just a minute before, the devotees had been making merry in his company. Now all eyes were riveted on him. Thus for the second time M. saw the Master in samadhi.
  
बड़ी देर बाद अवस्था का परिवर्तन हो रहा है । देह शिथिल हो गयी, मुख सहास्य हो गया, इन्द्रियाँ फिर अपना अपना काम करने लगीं । नेत्रों से आनन्दाश्रु बहाते हुए ‘राम राम’ उच्चारण कर रहे हैं। मास्टर सोचने लगे, क्या ये ही महापुरुष लड़कों के साथ दिल्लगी कर रहे थे? तब तो यह जान पड़ता था कि मानो पाँच वर्ष के बालक हैं । 

[ সমাধি অবস্থা মাস্টার এই দ্বিতীয়বার দর্শন করিলেন। অনেকক্ষণ পরে ওই অবস্থার পরিবর্তন হইতেছে। দেহ শিথিল হইল। মুখ সহাস্য হইল। ইন্দ্রিয়গণ আবার নিজের নিজের কার্য করিতেছে। চক্ষের কোণ দিয়া আনন্দাশ্রু বিসর্জন করিতে করিতে ঠাকুর ‘রাম রাম’, এই নাম উচ্চারণ করিতেছেন। মাস্টার ভাবিতে লাগিলেন, এই মহাপুরুষই কি ছেলেদের সঙ্গে ফচকিমি করিতেছিলেন? তখন যেন পাঁচ বছরের বালক!
After a long time the Master came back to ordinary consciousness. His face lighted up with a smile, and his body relaxed; his senses began to function in a normal way. He shed tears of joy as he repeated the holy name of Rama. M. wondered whether this very saint was the person who a few minutes earlier had been behaving like a child of five.
  
श्रीरामकृष्ण प्रकृतिस्थ होकर फिर प्राकृत मनुष्यों जैसा व्यवहार कर रहे हैं । मास्टर और नरेन्द्र से कहने लगे कि तुम दोनों अंग्रेजी में बातचीत करो, मैं सुनूँगा । यह सुनकर मास्टर और नरेन्द्र हँस रहे हैं। दोनों परस्पर कुछ बातचीत करने लगे, पर बँगला में । 

[ঠাকুর পূর্ববৎ প্রকৃতিস্থ হইয়া আবার প্রাকৃত লোকের ন্যায় ব্যবহার করিতেছেন। মাস্টারকে ও নরেন্দ্রকে সম্বোধন করিয়া বলিলেন, “তোমরা দুজনে ইংরেজীতে কথা কও ও বিচার কর আমি শুনব।”
The Master said to Narendra and M., "I should like to hear you speak and argue in English." They both laughed. But they continued to talk in their mother tongue.
    
 श्रीरामकृष्ण के सामने मास्टर का तर्क करना सम्भव न था; क्योंकि तर्क का तो घर उन्होंने बन्द कर दिया है । अतएव मास्टर अब तर्क कैसे कर सकते हैं । श्रीरामकृष्ण ने फिर कहा, पर मास्टर के मुँह से अंग्रेजी तर्क न निकला

[মাস্টার ও নরেন্দ্র উভয়ে এই কথা শুনিয়া হাসিতেছেন। দুজনে কিছু কিছু আলাপ করিতে লাগিলেন, কিন্তু বাংলাতে। ঠাকুরের সামনে মাস্টারের বিচার আর সম্ভব নয়। তাঁহার তর্কের ঘর ঠাকুরের কৃপায় একরকম বন্ধ। আর কিরূপে তর্ক-বিচার করিবেন? ঠাকুর আর একবার জিদ করিলেন, কিন্তু ইংরেজিতে তর্ক করা হইল না।

It was impossible for M. to argue any more before the Master. Though Sri Ramakrishna insisted, they did not talk in English.

(2)

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं, त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता, सनातनस्त्वं पुरुषो मतो में ॥  
(गीता, ११।१८) 

 आप (माँ काली के अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) ही जानने योग्य (वेदितव्यम्) परम अक्षर हैं; आप ही इस विश्व के परम आश्रय (निधान) हैं! आप ही शाश्वत धर्म के रक्षक हैं और आप ही सनातन पुरुष हैं, ऐसा मेरा मत है। 
।।11.18।।इसीलिये अर्थात् आपकी योग-शक्ति को देखकर ही मैं अनुमान करता हूँ --, आप मुमुक्षु पुरुषोंद्वारा जाननेयोग्य परमअक्षर अर्थात् जिसका कभी नाश न हो ऐसे परमब्रह्म परमात्मा हैं। आप ही इस समस्त जगत्के परम उत्तम निधान हैं -- जिसमें कोई वस्तु रक्खी जाय उसे निधान कहते हैं, सो आप इस संसारके परम आश्रय हैं। इसके सिवा आप अविनाशी हैं अर्थात् आपका कभी नाश नहीं होता? इसलिये आप नाशरहित हैं और सनातनधर्मके रक्षक हैं अर्थात् जो सदासे है? ऐसे नित्यधर्मके आप रक्षक हैं और आप ही सनातन परमपुरुष हैं -- यह मेरा मत है। 
          इसका अभिप्राय यह है कि हमारे जीवन की पहेली का समाधान इस सनातन पुरुष [देह निश्चल, नेत्र स्थिर ~  समाधि में बैठे पुरुष ] की प्राप्ति में ही है; न कि बाह्य जगत् के विषयों में। यह पुरुष  [देह निश्चल, नेत्र स्थिर ~  समाधि में बैठे पुरुष - जैसी मूर्ति ठाकुर देव के फोटोग्राफ में देखने को मिलती है] ही विश्व का अधिष्ठान है , जो विश्वरूप को धारण कर सकता है ! जिसको अर्जुन विस्मय भरी दृष्टि से देख रहा है।} 

[( 6 मार्च 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत-4 ] 

🔆🙏वचन के पालन में दुविधा हो तो कहना है -“हाँ, कोशिश करूँगा।” 🔆🙏

पाँच बजे हैं । भक्त लोग अपने अपने घर चले गए । सिर्फ मास्टर और नरेन्द्र रह गए । नरेन्द्र मुँह-हाथ धोने के लिए गए । मास्टर भी बगीचे में इधर-उधर घूमते रहे । थोड़ी देर बाद कोठी की बगल से ‘हँस तालाब’ की ओर आते हुए उन्होंने देखा कि तालाब की दक्षिण तरफवाली सीढ़ी के चबूतरे पर श्रीरामकृष्ण खड़े हैं और नरेन्द्र भी हाथ में गडुआ लिए खड़े हैं । श्रीरामकृष्ण कहते हैं, “देख, और जरा ज्यादा आया-जाया करना-तूने हाल ही में आना शुरू किया है न? पहली जान-पहचान के बाद सभी लोग कुछ ज्यादा आया करते हैं, जैसे नया पति । (नरेन्द्र और मास्टर हँसे।) क्यों, आएगा न?” नरेन्द्र ब्राह्मसमाजी लड़के हैं,-हमेशा अपने वचन का पालन करते हैं,  अतः हँसते हुए कहा, “हाँ, कोशिश करूँगा ।”

[পাঁচটা বাজিয়াছে। ভক্ত কয়টি যে যার বাড়িতে চলিয়া গেলেন। কেবল মাস্টার ও নরেন্দ্র রহিলেন। নরেন্দ্র গাড়ু লইয়া হাঁসপুকুরের ও ঝাউতলার দিকে মুখ ধুইতে গেলেন। মাস্টার ঠাকুরবাড়ির এদিক-ওদিক পায়চারি করিতেছেন: কিয়ৎক্ষণ পরে কুঠির কাছ দিয়া হাঁসপুকুরের দিকে আসিতে লাগিলেন। দেখিলেন, পুকুরের দক্ষিণদিকের সিঁড়ির চাতালের উপর শ্রীরামকৃষ্ণ দাঁড়াইয়া, নরেন্দ্র গাড়ু হাতে করিয়া মুখ ধুইয়া দাঁড়াইয়া আছেন। ঠাকুর বলিতেছেন, “দেখ্‌, আর একটু বেশি বেশি আসবি। সবে নূতন আসছিস কিনা! প্রথম আলাপের পর নূতন সকলেই ঘন ঘন আসে, যেমন — নূতন পতি (নরেন্দ্র ও মাস্টারের হাস্য)। কেমন আসবি তো?” নরেন্দ্র ব্রাহ্মসমাজের ছেলে, হাসিতে হাসিতে বলিলেন, “হাঁ, চেষ্টা করব।”
At five o'clock in the afternoon all the devotees except Narendra and M. took leave of the Master. As M. was walking in the temple garden, he suddenly came upon the Master talking to Narendra on the bank of the goose-pond. Sri Ramakrishna said to Narendra: "Look here. Come a little more often. You are a new-comer. On first, acquaintance people visit each other quite often, as is the case with a lover and his sweetheart. (Narendra and M. laugh.) So please come, won't you?" Narendra, a member of the Brahmo Samaj, was very particular about his promises. He said with a smile, "Yes, sir, I shall try."

      [( 6 मार्च 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत-4 ] 

🔆🙏नेता  पूँछ पर हाथ पड़ते ही कूद पड़ता है, हमेशा उत्साह (आत्मा) से भरा होता है🔆🙏

  [Leader is full of spirit within.]

फिर सभी कोठी की राह से श्रीरामकृष्ण के कमरे की ओर आने लगे । कोठी के पास श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा, “देखो, किसान बाजार से बैल खरीदते हैं । वे जानते हैं कि कौन सा बैल अच्छा है और कौन सा बुरा । वे पूँछ के नीचे हाथ लगाकर परखते हैं । कोई कोई बैल पूँछ पर हाथ लगाने से लेट जाते हैं । वे ऐसे बैल नहीं खरीदते । पर जो बैल पूँछ पर हाथ रखते ही बड़ी तेजी से कूद पड़ता है, उसी बैल को वे चुन लेते हैं। नरेन्द्र इसी बैल की जाति का है । भीतर खूब तेज है ।” यह कहकर श्रीरामकृष्ण मुस्कराने लगे । “फिर कोई कोई ऐसे होते हैं कि मानो उनमें जान ही नहीं है-न जोर है, न दृढ़ता

[সকলে কুঠির পথ দিয়া ঠাকুরের ঘরে আসিতেছেন। কুঠির কাছে মাস্টারকে ঠাকুর বলিলেন, “দেখ্‌, চাষারা হাটে গরু কিনতে যায়; তারা ভাল গরু, মন্দ গরু বেশ চেনে। ল্যাজের নিচে হাত দিয়ে দেখে। কোনও গরু ল্যাজে হাত দিলে শুয়ে পড়ে, সে গরু কেনে না। যে গরু ল্যাজে হাত দিলে তিড়িং-মিড়িং করে লাফিয়ে উঠে সেই গরুকেই পছন্দ করে। নরেন্দ্র সেই গরুর জাত; ভিতরে খুব তেজ!” এই বলিয়া ঠাকুর হাসিতেছেন। “আবার কেউ কেউ লোক আছে, যেন চিঁড়ের ফলার, আঁট নাই, জোর নাই, ভ্যাৎ ভ্যাৎ করছে।”
As they were returning to the Master's room, Sri Ramakrishna said to M.: "When peasants go to market to buy bullocks for their ploughs, they can easily tell the good from the bad by touching their tails. On being touched there, some meekly lie down on the ground. The peasants recognize that these are without mettle and so reject them. They select only those bullocks that frisk about and show spirit when their tails are touched. Narendra is like a bullock of this latter class. He is full of spirit within."The Master smiled as he said this, and continued: "There are some people who have no grit whatever. They are like flattened rice soaked in milk — soft and mushy. No inner strength!"
 
सन्ध्या हुई । श्रीरामकृष्ण ईश्वर-चिन्तन (प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास) करने लगे । उन्होंने मास्टर से कहा, “तुम जाकर नरेन्द्र से बातचीत करो, और फिर मुझे बताना कि वह कैसा लड़का है ।

[সন্ধ্যা হইল। ঠাকুর ঈশ্বরচিন্তা করিতেছেন; মাস্টারকে বলিলেন, “তুমি নরেন্দ্রের সঙ্গে আলাপ করগে, আমায় বলবে কিরকম ছেলে।”
It was dusk. The Master was meditating on God. He said to M.: "Go and talk to Narendra. Then tell me what you think of him."
   
आरती हो चुकी । मास्टर ने बड़ी देर में नरेन्द्र को चाँदनी के पश्चिम की तरफ पाया । आपस में बातचीत होने लगी । नरेन्द्र ने कहा कि मैं साधारण ब्राह्मसमाजी हूँ, कालेज में पढ़ता हूँ, इत्यादि ।

[আরতি হইয়া গেল। মাস্টার অনেকক্ষণ পরে চাঁদনির পশ্চিম ধারে নরেন্দ্রকে দেখিতে পাইলেন। পরস্পর আলাপ হইতে লাগিল। নরেন্দ্র বলিলেন, আমি সাধারণ ব্রাহ্মসমাজের। কলেজে পড়িতেছি ইত্যাদি।
Evening worship was over in the temples. M. met Narendra on the bank of the Ganges and they began to converse. Narendra told M. about his studying in college, his being a member of the Brahmo Samaj, and so on.

      [( 6 मार्च 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत-4 ]
 
🔆🙏श्रीरामकृष्ण हैं आत्माराम', सिंह, तटस्थ (Neutral) ! 🔆🙏 

[আমার কয় আনা জ্ঞান হয়েছে?”
श्री रामकृष्ण को ईश्वर (अल्ला) का ज्ञान कितने आने हुआ है ?
 How many annas of knowledge of God have I?] 

रात हो गयी । अब मास्टर घर जाएँगे, पर जाने को जी नहीं चाहता; इसलिये नरेन्द्र से बिदा होकर वे फिर श्रीरामकृष्ण को ढूँढ़ने लगे । उनका गीत सुनकर मास्टर मुग्ध हो गए हैं । जी चाहता है कि फिर उनके श्रीमुख से गीत सुनें । ढूँढ़ते हुए देखा कि कालीमाता के मन्दिर के सामने जो नाट्यमण्डप है, उसी में श्रीरामकृष्ण अकेले टहल रहे हैं । मन्दिर में मूर्ति के दोनों तरफ दीपक जल रहे थे । विस्तृत नाट्यमण्डप में एक लालटेन जल रही थी । रोशनी धीमी थी । प्रकाश और अँधेरे का मिश्रण-सा दीख पड़ता था ।   

[রাত হইয়াছে — মাস্টার এইবার বিদায় গ্রহণ করিবেন। কিন্তু যাইতে আর পারিতেছেন না। তাই নরেন্দ্রের নিকট হইতে আসিয়া ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণকে খুঁজিতে লাগিলেন। তাঁহার গান শুনিয়া হৃদয়, মন মুগ্ধ হইয়াছে; বড় সাধ যে, আবার তাঁর শ্রীমুখে গান শুনিতে পান। খুঁজিতে খুঁজিতে দেখিলেন, মা-কালীর মন্দিরের সম্মুখে নাটমন্দিরের মধ্যে একাকী ঠাকুর পাদচারণ করিতেছেন। মার মন্দিরে মার দুইপার্শ্বে আলো জ্বলিতেছিল। বৃহৎ নাটমন্দিরে একটি আলো জ্বলিতেছে, ক্ষীণ আলোক। আলো ও অন্ধকার মিশ্রিত হইলে যেরূপ হয়, সেইরূপ নাটমন্দিরে দেখাইতেছিল।
It was now late in the evening and time for M.'s departure; but he felt reluctant to go and instead went in search of Sri Ramakrishna. He had been fascinated by the Master's singing and wanted to hear more. At last he found the Master pacing alone in the natmandir in front of the Kali temple. A lamp was burning in the temple on either side of the image of the Divine Mother. The single lamp in the spacious natmandir blended light and darkness into a kind of mystic twilight, in which the figure of the Master could be dimly seen.
    
मास्टर श्रीरामकृष्ण का गीत सुनकर मुग्ध हो गए हैं, जैसे साँप मन्त्रमुग्ध हो जाता है । अब बड़े संकोच से उन्होंने श्रीरामकृष्णदेव से पूछा, “क्या आज फिर गाना होगा?” श्रीरामकृष्ण ने जरा सोचकर कहा, “नहीं, आज अब न होगा ।” यह कहते ही मानो उन्हें फिर याद आयी और उन्होंने कहा, “हाँ, एक काम करना । मैं कलकत्ते में बलराम के घर जाऊँगा, तुम भी आना, वहाँ गाना होगा ।”मास्टर- आपकी जैसी आज्ञा ।

[মাস্টার ঠাকুরের গান শুনিয়া আত্মহারা হইয়াছেন। যেন মন্ত্রমুগ্ধ সর্প। এক্ষণে সঙ্কুচিতভাবে ঠাকুরকে জিজ্ঞাসা করিলেন, “আজ আর কি গান হবে?” ঠাকুর চিন্তা করিয়া বলিলেন, “না, আজ আর গান হবে না” এই বলিয়া কি যেন মনে পড়িল, অমনি বলিলেন, “তবে এক কর্ম করো। আমি বলরামের বাড়ি কলিকাতায় যাব, তুমি যেও, সেখানে গান হবে।” মাস্টার — যে আজ্ঞা।

M. had been enchanted by the Master's sweet music. With some hesitation he asked him whether there would be any more singing that evening. "No, not tonight", said Sri Ramakrishna after a little reflection. Then, as if remembering something, he added: "But I'm going soon to Balaram Bose's house in Calcutta. Come there and you'll hear me sing." M. agreed to go.

श्रीरामकृष्ण- तुम जानते हो बलराम बसु को ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি জান? বলরাম বসু?
MASTER: "Do you know Balaram Bose?"

मास्टर- जी नहीं ।

[মাস্টার — আজ্ঞা না।
M: "No, sir. I don't."

श्रीरामकृष्ण- बलराम बसु-बोसपाड़ा में उनका घर है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — বলরাম বসু। বোসপাড়ায় বাড়ি।
MASTER: "He lives in Bosepara."

मास्टर- जी मैं पूछ लूँगा ।

[মাস্টার — যে আজ্ঞা, আমি জিজ্ঞাসা করব।
M: "Well, sir, I shall find him."

श्रीरामकृष्ण (मास्टर के साथ टहलते हुए)- अच्छा, तुमसे के एक बात पूछता हूँ- मुझे तुम क्या समझते हो ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের সঙ্গে নাটমন্দিরে বেড়াইতে বেড়াইতে) — আচ্ছা, তোমায় একটা কথা জিজ্ঞাসা করি, আমাকে তোমার কি বোধ হয়?
As Sri Ramakrishna walked up and down the hall with M., he said to him: "Let me ask you something. What do you think of me?"

मास्टर चुप रहे श्रीरामकृष्ण ने फिर से पूछ, “तुम्हें क्या मालुम होता है? मुझे ईश्वर का ज्ञान कितने आने हुआ है?”

[মাস্টার চুপ করিয়া আছেন। ঠাকুর আবার বলিতেছেন,“তোমার কি বোধ হয়? আমার কয় আনা জ্ঞান হয়েছে?”
M. remained silent. Again Sri Ramakrishna asked: "What do you think of me? How many annas of knowledge of God have I?"
   
मास्टर- ‘आने’ की बात तो मैं नहीं जानता पर ऐसा ज्ञान, या प्रेमभक्ति, या विश्वास, या वैराग्य, या उदार भाव मैंने और कहीं कभी नहीं देखा । श्रीरामकृष्ण हँसने लगे ।

[মাস্টার – ‘আনা’ এ-কথা বুঝতে পারছি না; তবে এরূপ জ্ঞান বা প্রেমভক্তি বা বিশ্বাস বা বৈরাগ্য বা উদার ভাব কখন কোথাও দেখি নাই। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ হাসিতে লাগিলেন।

M: "I don't understand what you mean by 'annas'. But of this I am sure: I have never before seen such knowledge, ecstatic love, faith in God, renunciation, and catholicity anywhere."The Master laughed.

इस बातचीत के बाद मास्टर प्रणाम करके विदा हुए । फाटक तक जाकर फिर कुछ याद आयी, उल्टे पाँव लौटकर फिर श्रीरामकृष्णदेव के पास नाट्यमण्डप में हाजिर हुए ।  उस धीमी रोशनी में श्रीरामकृष्ण अकेले टहल रहे थे-निःसंग-जैसे सिंह वन में अकेला अपनी मौज में फिरता रहता है । `आत्माराम', सिंह और किसी की अपेक्षा नहीं करता, अकेले घूमना पसंद करता है । तटस्थ (Neutral)!

[এরূপ কথাবার্তার পর মাস্টার প্রণাম করিয়া বিদায় গ্রহণ করিলেন।সদর ফটক পর্যন্ত আসিয়া আবার কি মনে পড়িল, অমনি ফিরিলেন। আবার নাটমন্দিরে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের কাছে আসিয়া উপস্থিত। ঠাকুর সেই ক্ষীনালোকমধ্যে একাকী পাদচারণ করিতেছেন। একাকী — নিঃসঙ্গ। পশুরাজ যেন অরণ্যমধ্যে আপন মনে একাকী বিচরণ করিতেছেন! আত্মারাম; সিংহ একলা থাকতে, একলা বেড়াতে ভালবাসে! অনপেক্ষ!

M. bowed low before him and took his leave. He had gone as far as the main gate of the temple garden when he suddenly remembered something and came back to Sri Ramakrishna, who was still in the natmandir. In the dim light the Master, all alone, was pacing the hall, rejoicing in the Self — as the lion lives and roams alone in the forest.

विस्मित होकर मास्टर उन महापुरुष को देखने लगे ।

[অবাক্‌ হইয়া মাস্টার আবার সেই মহাপুরুষদর্শন করিতেছেন।
In silent wonder M. surveyed that great soul.

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से)- क्यों जी, फिर क्यों लौटे ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — আবার যে ফিরে এলে?
MASTER (to M.): "What makes you come back?"

मास्टर- जी, वे अमीर आदमी होंगे-शायद मुझे भीतर न आने दें-इसीलिये सोच रहा हूँ कि वहाँ न जाऊँगा, यहीं आकर आपसे मिलूँगा ।

[মাস্টার — আজ্ঞা, বোধ হয় বড়-মানুষের বাড়ি — যেতে দিবে কি না; তাই যাব না ভাবছি। এইখানে এসেই আপনার সঙ্গে দেখা করব।
M: "Perhaps the house you asked me to go to belongs to a rich man. They may not let me in. I think I had better not go. I would rather meet you here."

श्रीरामकृष्ण- नहीं जी, तुम मेरा नाम लेना । कहना कि मैं उनके पास जाऊँगा, बस कोई भी तुम्हें मेरे पास ले आएगा ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — না গো, তা কেন? তুমি আমার নাম করবে। বলবে তাঁর কাছে যাব, তাহলেই কেউ আমার কাছে নিয়ে আসবে।
MASTER: "Oh, no! Why should you think that? Just mention my name. Say that you want to see me; then someone will take you to me."

“जैसी आपकी आज्ञा”- कहकर मास्टर ने फिर प्रणाम किया और वहाँ से विदा हुए ।

[মাস্টার “যে আজ্ঞা” বলিয়া আবার প্রণাম করিয়া বিদায় লইলেন।
M. nodded his assent and, after saluting the Master, took his leave.

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