मेरे बारे में

गुरुवार, 3 जनवरी 2013

" सामाजिक आदर्श एवं स्वामी विवेकानन्द " [ $$@$$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [57] (9.समाज और सेवा),

मनुष्य को ब्राह्मणत्व में उन्नत करना सबसे बड़ी समाज-सेवा !
[समाज गतिशील है और समय के साथ परिवर्तन अवश्यंभावी है। यह संभव है कि परिवर्तन की रफ्तार कभी धीमी और कभी तीव्र हो, लेकिन परिवर्तन समाज में चलने वाली एक अनवरत प्रक्रिया है। ‘उद्विकास’ (Evolution) शब्द का प्रयोग सबसे पहले जीवविज्ञान के क्षेत्र में चार्ल्स डार्विन ने किया था। विकास की एक निश्चित दिशा होती है, पर उद्विकास की कोई निश्चित दिशा नहीं होती है। उद्विकास की प्रक्रिया धीरे-धीरे निश्चित स्तरों से गुजरती हुई पूरी होती है। परिवर्तन जब अच्छाई की दिशा में होता है तो उसे हम प्रगति (Progress) कहते हैं। प्रगति सामाजिक परिवर्तन की एक निश्चित दिशा को दर्शाता है। प्रगति में समाज-कल्याण और सामूहिक-हित की भावना छिपी होती है। वे ही परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन कहे जाते हैं जिनका प्रभाव समस्त समाज में अनुभव किया जाता है। सामाजिक पुनरुत्थान के समय में परिवर्तन की गति बहुत तीव्र होती है। ]
सामाजिक परिवर्तन करने से क्या होता है ? तथा समाज में वांछित आधारभूत परिवर्तन (Fundamental changes) कैसे लाया जा सकता है ? समाज में आधारभूत परिवर्तन लाने के लिये जो लोग एक आदर्श समाज का निर्माण करना चाहते हों या 'समाज -निर्माता' बनना चाहते हों; सर्वप्रथम तो उनके जीवन में ही परिवर्तन लाना होगा। हमलोगों को पहले अपनी मानसिकता में विकास लाना होगा, उन्नत मानसिकता अर्जित करनी होगी। हमलोगों का जो वास्तविक स्वरूप है उसका परिचय प्राप्त करना होगा। अर्थात मनुष्य-मात्र के भीतर जो देवत्व (Divinity) पहले से ही विद्यमान है, उसको विकसित करना होगा तथा उस ब्रह्मत्व (Perfection या पूर्णता) को अपने व्यवहार में, अपने दैनंदिन  विचार-आचार के द्वारा प्रकाशित (अभिव्यक्त) करना होगा।
किन्तु हमलोग यदि मोहनिद्रा (देहाध्यास) में सोये रहेंगे, तो हमारी वास्तविक सत्ता भी सोयी रहेगी। अतः हमलोगों को इस प्रकार आलस्य में न पड़े रहकर निःस्वार्थ कर्म (BE AND MAKE ) के माध्यम से अपने अन्तर्निहित देवत्व को विकसित करने के प्रयत्न में जुट जाना चाहिये। क्योंकि कर्म या विचार-आचार के माध्यम से ही, मनुष्य की वास्तविक सत्ता अभिव्यक्त होती है, और मनुष्य होने का गौरव प्रकट होता है। किन्तु हम यदि केवल धन-उपार्जन करने की चेष्टा में ही लगे रहें, और केवल आर्थिक-उन्नति के हवाई किले बनाते रहने में ही खोये रहें, तो हमलोगों की सत्ता (अस्तित्व) में अन्तर्निहित समस्त सद्गुण सुप्तावस्था में पड़े रह जायेंगे, जिसके फलस्वरूप हमलोगों (के 3H ) का संतुलित विकास (Well-Proportioned) नहीं हो सकेगा।
इसके लिये मनुष्यों को उसकी अन्तर्निहित पूर्णता का सन्देश (Gospel, सुसमाचार या धर्म-शिक्षा) सुनाना होगा, तथा उस पूर्णता को विकसित करने के लिये प्रत्येक कार्य का उचित तरीका निर्धारित करना होगा। धर्म-शिक्षा का मुख्य लक्ष्य यही है। इसीलिये हमें अपने महान शास्त्रों में सन्निहित शास्वत सत्य के सिद्धान्तों को भारत के गाँव-गाँव तक पहुंचा देना होगा। किन्तु यह कार्य संस्कृत कुछ कड़े-कड़े श्लोकों को उद्धृत करने या तात्विक सिद्धान्तों की दुरूह व्याख्या करने से नहीं हो सकता है। हमें अपने दैनन्दिन सामाजिक जीवन की त्रुटियों तथा झूठ-कपट के बीच उन शास्वत सिद्धान्तों को स्थापित करके ही इस कार्य को चलते रहना होगा। ब्राह्मण एवं ब्राह्मणेत्तर समस्त मनुष्य इस सत्य-प्राप्ति के प्रभावी मार्गों का अनुसरण करने के अधिकारी हैं। इस कार्यक्रम में भाग लेने का एक-समान अधिकार सभी मनुष्यों का है। "Be and Make " के मूल मन्त्र में दीक्षित होने का अधिकार हर जाति-धर्म-भाषा या रंग-रूप के मनुष्यों का समान रूप से है।
  मन्त्र का अर्थ है, जिसका मनन करने से त्राण या मुक्ति प्राप्त होती है। अतः मन्त्र को मुक्ति का उत्स (आदि कारण) या आदर्श वाक्य (motto) भी कह सकते हैं। फिर मुक्ति चाहे आर्थिक हो या सामाजिक हो या बुद्धि की हो, और वह चाहे जिस उपाय से हो, जो मुख्य बात है वह है- आत्मिक मुक्ति। उस आत्मिक मुक्ति को प्राप्त करने का जो मन्त्र है, उसे समस्त मनुष्यों के भीतर प्रविष्ट करा देना होगा, ताकि मनुष्य मात्र के भीतर जो निश्चल अव्यक्त शक्ति है, वह दावानल की तरह प्रज्ज्वलित होकर सांसारिक कल्याण के निष्पादन में समर्पित हो सके। आज जितने भी तथाकथित नीच, उपेक्षित मनुष्य हैं, या जितने भी बहिष्कृत और जातिच्युत (outcast) मनुष्य हैं, सबों को इस मन्त्र में दीक्षित करके ब्रह्मणत्व में प्रतिष्ठित करना होगा। धर्म को केवल बौद्धिक क्षेत्र में आबद्ध न रखकर, उसको व्यक्तिगत जीवन और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में व्यवहार करना होगा। धर्म को देशव्यापी करना होगा, उसे सर्वत्र फैला देना होगा।
स्वामी विवेकानन्द यह चाहते थे कि मनुष्य अपने जीवन के प्रत्येक कर्म को धार्मिकता के साथ ही निष्पादित करना सीखे। तथा उसे यह भी ज्ञात होना चाहिये कि कर्म,भक्ति, ज्ञान आदि साधना के जितने भी मार्ग हैं, वे परस्पर भिन्न नहीं हैं, जीवन की निरन्तरता के साथ साथ ये मार्ग भी अभिन्न हैं, परस्पर जुड़े हुए हैं। ब्यापार, खेती-बाड़ी आदि जीवन की सामान्य आवश्यकताओं के सभी क्षेत्र के लिये स्वामीजी के विचार बिल्कुल स्पष्ट थे। वे कहते हैं, मनुष्य को निरन्तर अपनी वास्तविक सत्ता के प्रति सचेत रहते हुए तथा अपने स्वरुप को बनाये रखते हुए अपने समस्त दैनन्दिन कर्मों को निष्पादित करने का कौशल सीखना होगा। अपने प्रत्येक कार्य के लक्ष्य के विषय में वह पहले से सचेत रहेगा। इस कौशल को सीखने के लिये अपरा-विद्या के साथ ही साथ परा-विद्या का अभ्यास भी करना होगा। केवल धन उपार्जन एवं सांसारिक सुख-भोग अर्जित कराने वाली परा-विद्या का अभ्यास मनुष्य को अहं-केन्द्रित (या मगरूर) बना देती है। और वैसे संकुचित हृदय वाला मनुष्य देशव्यापी कल्याण की चिंता नहीं कर पाता है।
धर्म की मुख्य बात आत्मा की अनुभूति करना है- Religion is Realization. जो धर्म अनुभव-निरपेक्ष हैं,वे मनुष्य को मोक्ष के मार्ग पर संचालित न करके उन्हें और अधिक दिग्भ्रमित कर देते हैं। इसीलिये जाति और धर्म के आधार पर कोई भेद-भाव किये बिना आम-जनता में शिक्षा का प्रचार=प्रसार करना होगा। किन्तु वह शिक्षा हर समय विद्यालयों में या पुस्तकों की सहायता से देनी संभव नहीं है, उस शिक्षा को मौखिक रूप से भी देनी होगी। तथा शिक्षा की ज्योति से जब हृदय आलोकित हो जायेगी , मनुष्य में अन्तर्निहित दिव्यता के विकसित होने से ही  मनुष्य आत्मसंयम करने के लिये अनुप्रेरित हो सकेगा।
समस्त मनुष्यों को ब्राह्मणत्व में विकसित करना ही भारतवर्ष का सामाजिक आदर्श है। ब्राह्मण का यह मॉडल विकास का सबसे अच्छा आदर्श या सर्वश्रेष्ठ सांचा है। ब्राह्मण रूपी वह सर्वश्रेष्ठ पैमाना क्या है? ब्राह्मण होने का अर्थ है, पूर्णतया लालच रहित तथा स्वार्थ-रहित मनुष्य बन जाना। वे अपने लिये कुछ नहीं चाहते, लेकिन  सत्ता का अनुसन्धान करते हुए ज्ञान का अभ्यास करके बुद्धि तथा हृदय की उत्कृष्टता को प्राप्त कर स्वयं को विकसित करते हैं। वे स्वयं सत्ता की अनुभूति के भीतर महान आनन्द में प्रतिष्ठित रहते हैं। उनको कुछ पाने की इच्छा नहीं होती, उनके जीवन में अपने लिये कोई कर्तव्य बाकी नहीं रह जाता। फिर भी उस अनुभूत सत्य एवं शक्ति प्राप्त करके किसी जड़ वस्तु की तरह चुप होकर बैठे नहीं रहते। वे धैर्य के साथ समस्त मनुष्यों का कल्याण करने में लगे रहते हैं। वे समस्त मनुष्यों को विकसित करने में अपने को नियोजित कर देते हैं, तथा स्वयं के द्वारा अर्जित सत्ता-ज्ञान को सबों के भीतर संचारित कर देते हैं। यही है सच्चे ब्राह्मण का आदर्श तथा यही है सर्वोत्कृष्ट सामाजिक मनुष्य का रोल-मॉडल या सांचा।
यदि हमलोग केवल आर्थिक विकास के लिये प्रयासरत रहें, तो हमारे समाज के समस्त मनुष्यों को उस सर्वोत्कृष्ट आदर्श में विकसित करना संभव नहीं होगा। एक स्तर पर आमजनता को सांसारिक दुःख है, इसीलिये हम यदि केवल उनके सुख, सम्पत्ति, भोग, इन्द्रिय आदि के तुष्टिकरण में सहायता करते रहें, तो उनके भीतर की सत्ता क्रमशः विनष्ट हो जाएगी तथा हमलोगों के महान आदर्श की बली चढ़ जाएगी। इसीलिये प्रारंभ से ही लोक-विद्या के साथ साथ आध्यात्मिकता का सन्देश, अग्निम्न्त्र, देशव्यापी विकास एवं उद्धार के लिये प्रचार करना भी जरुरी है।
वेद-उपनिषद के जिन तात्विक सिद्धान्तों और विचारों में उस मुक्ति की प्रेरणा छुपी है, उसे समाज में सबसे अछूत माने जाने वाले मनुष्यों को भी सुनाना पड़ेगा। सभी मनुष्यों को उस अग्निम्न्त्र की परिधि के भीतर प्रविष्ट करा देना होगा, ताकि उनकी विचारधारा एवं क्रियाकालाप उसके द्वारा प्रभावित हो सके। यदि यह करना संभव हो सका तो,  जीवन के एक नये मार्ग का द्वार उद्घाटित हो जायेगा। वही मार्ग जो सभी मनुष्यों में कर्म-क्षेत्र में संग्राम करने के लिये एक उत्साह और उमंग भर देगा। कर्म के द्वारा ही जीवन-मुक्त हुआ जा सकता है। सभी प्रकार के कर्म करने से आत्म-ग्लानि-मुक्त हुआ जा सकता है। हमलोगों में जो कापुरुषता, दुर्बलता, निष्क्रियता का भाव घर कर चूका है, वह सब दूर हो जायेगा। क्योंकि उस समय हमलोग जो कुछ भी करेंगे, उन समस्त कार्यों की प्रेरणा होगी केवल दूसरों का कल्याण। दूसरों के कल्याण के लिये कर्म करते हुए ही मनुष्य परस्पर में अन्तरंग हो सकते हैं। स्वामीजी इसी प्रकार देश को विकसित करना चाहते थे।
-------------------------------------

गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

' नारी जाति की उन्नति के विषय में स्वामीजी के विचार'( मनःसंयोग का प्रशिक्षण ही शिक्षा की आन्तरिक वस्तु है)$@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [56] (9.समाज और सेवा),

 मनःसंयोग का प्रशिक्षण ही शिक्षा की आन्तरिक वस्तु है 
समग्र मानव-जाती की यथार्थ उन्नति करना ही स्वामी विवेकानन्द के जीवन-कर्म का लक्ष्य  था। उनके इस जीवन-कर्म का निर्धारण श्रीरामकृष्ण के आदेश से हुआ था। सच्चाई तो यह है कि स्वामी विवेकानन्द ने श्रीरामकृष्ण द्वारा निर्धारित कार्यों को पूरा करने के लिए ही शरीर धारण किया था। इसीलिये पहले से अगोचर किसी नामालूम महान कार्य को अंजाम तक पहुँचाने के लिए, नरेन्द्रनाथ के सांसारिक जीवन में अप्रत्याशित ढंग से तीव्र परिवर्तन घटित होने लगे थे। यह देखा गया कि नित्यसिद्ध नरेन्द्रनाथ श्रीरामकृष्ण के सानिध्य में आने के बाद ब्रह्मज्ञान के अधिकारी बन गये। जबकि उनको अपने लिये मुक्ति प्राप्त करने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता था। फिरभी सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों की यथार्थ मुक्ति के लिये श्रीरामकृष्ण द्वारा दिशानिर्देश प्राप्त होने के बाद ही, वे समस्त सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो सके थे, और अपने कर्म-जीवन का प्रारंभ किया था।
श्री रामकृष्ण के शरीर त्याग देने के बाद परिव्राजक विवेकानन्द के  नेत्रों के समक्ष -भारतवर्ष की शरीर और आत्मा का समस्त ज्ञान प्रकट हो गया था। उनको यह अनुभूति प्राप्त हुई कि सम्पूर्ण पृथ्वी के मनुष्यों के कल्याण के लिये सर्वप्रथम भारतवर्ष की उन्नति करना सबसे आवश्यक है। उन्होंने यह भी समझ लिया कि विश्व का कल्याण करने के लिये भारत को हर क्षेत्र में प्रगति करनी होगी, और एक उन्नत राष्ट्र के रूप में उठ खड़े होना होगा।
उन्होंने देखा कि भारत की प्रमुख समस्या दरिद्रता है; और उनको यह भी अनुभूति हुई कि केवल सच्ची शिक्षा ही इस समस्या के समाधान की कुँजी है। उन्होंने घोषणा किया- भारतवर्ष का अर्थ है, भारत के चाण्डाल से लेकर समस्त सामान्य दरिद्र-मूर्ख भारतवासी ! सबसे पहले उनको शिक्षित करना होगा। उनको भूख की समस्या से मुक्त करना होगा, तथा उन्नत अवस्था को स्थायी बनाने के लिये,शिक्षा साथ ही साथ उनको संस्कृति भी देनी होगी।
भारत को उन्नत बनाने के लिये स्वामीजी ने दो प्रमुख आवश्यकताओं की ओर हमारे ध्यान को आकृष्ट किया था- जनसाधारण की उन्नति और नारीजाति की उन्नति। क्योंकि कुछ शिक्षित और दौलतमन्द व्यक्तियों से देश नहीं बनता,बल्कि राष्ट्र तो गाँव की झोपड़ियों में ही बसता है। उसी प्रकार किसी भी राष्ट्र की यथार्थ उन्नति स्त्रीजाति की उन्नति के बिना संभव नहीं हो सकती है। स्वामीजी की इस धारणा की बुनियाद बहुत गहरी है, उन्होंने स्त्रीजाति के प्रति सहानुभूति-सूचक कुछ शब्द इसलिये नहीं कहे थे, कि उनके उदार विचारों के लिये लोगो की प्रशंसा प्राप्त हो सकेगी।
स्वामीजी की कार्य-पद्धति का वैशिष्ट, जो  विश्व के अन्य किसी समाज-सुधारक में खोजने से भी प्राप्त नहीं होती, वह है -" मनुष्य के समस्त विकास और उन्नति का प्रावधान उसके अन्तर्निहित ब्रह्मत्व (सत्ता) को जाग्रत कराने के माध्यम से कराना। " वे कहते हैं- " प्रत्येक मनुष्य में दिव्यता अन्तर्निहित है। कोई स्त्री या परुष चाहे जितना भी नीच से नीच चरित्र वाला भी क्यों न हो, उनका अन्तर्निहित देवत्व कभी विनष्ट नहीं होता है। वह केवल यह नहीं जनता कि इस देवत्व को अभिव्यक्त को अभिव्यक्त कैसे किया जासकता है ? अभी वह केवल अपने सत्य-स्वरूप को उद्घाटित करने की प्रतीक्षा में है।" प्रत्येक मनुष्य में अंतर्निहित उस सत्ता को, सुप्त देवत्व (divinity) को जाग्रत करना होगा, एवं दिव्यता को अभिव्यक्त करने की पद्धति का नाम है- मनः संयोग या मन की एकाग्रता का अभ्यास करना।
इसीलिये कहते हैं, " पहले स्त्रियों को उपर उठाना होगा, तथा mass-को (जनसाधारण को ) जाग्रत करना होगा, केवल तभी देश का कल्याण हो सकता है।" वे अपना संक्षोभ व्यक्त करते हुए कहते हैं- " सैंकड़ो शताब्दियों के पाशविक अत्याचार के परिणाम स्वरूप उनके शोक,ताप, गरीबी और पाप की जिस करुण ध्वनी से भारत आकाश व्याकुल हो गया है, उसके बाद भी उनके जीवन के बारे में हवाई किले गढने में कमी नहीं हुई। उसी सैंकड़ो युग से मानसिक, नैतिक और शारीरिक अत्याचार को सहते हुए भगवान की प्रतिमास्वरूप स्त्रियों को हमने बच्चा पैदा करने की मशीन बना दिया है, उनके जीवन को विषपूर्ण बना डाला है। यह बात उनको सपने भी याद नहीं आती है। " अपने हृदय में उस पीड़ा का अनुभव करते हुए कहते हैं, " जो देश, जो जाति स्त्रियों की पूजा नहीं करती, वह देश वह जाति कभी बड़ी नहीं बन सकी है, और कभी बन भी नहीं सकती है। तुम्हारी जाति का जो ऐसा अधोपतन हुआ है, उसका मुख्य कारण है, इन शक्तिमुर्तियों की अवमानना करना। जिस घर में स्त्रियों का सम्मान नहीं है, जहाँ स्त्रियाँ खुश नहीं रहतीं, उस परिवार और देश की उन्नति कभी संभव नहीं है। इसीलिए इनलोगों को ही पहले उपर उठाना होगा। " केवल इतना जान लेने से नहीं होगा, कि स्वामीजी ने स्त्रियों के विषय क्या कहा है? मन को एकाग्र करके उनके प्रत्येक शब्द को सुनना होगा, और उसके मर्म को हृदय की धड़कनों में मिलाकर समझना होगा। स्वामीजी कहते हैं, " क्या तुम अपनी स्त्रियों की उन्नति कर सकते हो? तभी उन्नति की आशा है, नहीं तो पशु-जन्म नहीं मिटेगा। "
स्वामीजी ने स्त्रीजाति के प्रति केवल सहानुभूति या श्रद्धा ही प्रकट नहीं किया है,  बल्कि उनको उन्नत करने के लिये हमारा क्या कर्तव्य होना चाहिये, उसका दिशानिर्देश भी दिया है- " स्त्रीजाति की उन्नति के सम्बन्ध में हमारा अधिकार केवल उनको शिक्षा देने तक है। स्त्रियों को ऐसी योग्यता अर्जित करनी होगी कि वे अपनी समस्याओं का निदान स्वयं खोज सके। उनके लिये इससे अधिक कोई कुछ नहीं कर सकता, और उनके मामलों में हस्तक्षेप करने की चेष्टा भी नहीं करनी चाहिये। तथा अन्यान्य देशो की स्त्रियों के समान हमारे देश की स्त्रियाँ भी योग्यता प्राप्त करने में समर्थ हैं। " आगे कहते हैं, " समस्याएं तो अनेक हैं, और वे बड़ी गम्भीर समस्याएं हैं। किन्तु ऐसी कोई समस्या नहीं है, जिसे 'शिक्षा ' - मन्त्र के बल पर हल नहीं किया जा सकता हो। " स्त्रीजाति की सर्वंगीन विकास के लिये स्वामीजी ने स्त्रियों को उपयुक्त शिक्षा देने पर ही जोर दिया है। कहते हैं,
 " किन्तु यथार्थ शिक्षा क्या है, इसकी समझ अभी तक हमलोगों को नहीं हुई है। " शिक्षा के सम्बन्ध स्वामीजी का सन्देश है- " शिक्षा का अर्थ कुछ शब्दों को सीख लेना ही नहीं है, हमारी कुछ वृत्तियों -शक्ति समूह के विकास को ही शिक्षा कहा जा सकता है, अथवा कहा जा सकता है कि शिक्षा के द्वारा मनुष्य को इस प्रकार गठित करना, उसकी इच्छा स्द्विषयों में धावित हो, एवं सफल हो। इसीप्रकार से शिक्षिता होने पर भारत का कल्याण करने में समर्थ निर्भीक महीयसी स्त्रियों का उदय होगा। वे लोग संघमित्रा, लीलावती, अहल्या बाई, और मीराबाई के चरणों का अनुसरण करने में समर्थ होंगी। वे लोग पवित्र, स्वार्थ शून्य, धीर होंगी। भगवान के श्रीचरणों के स्पर्श से जो वीर्य प्राप्त होता है, वे उसी वीर्य को प्राप्त करेंगी, इसीलिए वीर सन्तानों को जन्म देने योग्य माताएं बनेगी। "
व्यवहारिक शिक्षा की शिक्षा धारणा के बिना ही शिक्षा का विस्तार करने विषय में स्वामीजी कहते हैं, " हमलोगों के देश में नारियों को आधुनिका नारियों के सांचे में ढालने चेष्टा चल रही है, उसमें यदि स्त्री-चरित्र के आदर्श से भ्रष्ट करने की चेष्टा की गयी तो वैसी चेष्टा विफल सिद्ध होगी। और प्रतिदिन हम उसका दृष्टान्त देख रहे हैं। भारतीय महिलाओं को सीता के चरण चिन्हों का अनुसरण करते हुए अपने विकास की चेष्टा करनी होगी। भारतीय नारी की उन्नति का यही एकमात्र पथ है। " इसी प्रसंग में स्वामीजी अन्यत्र कहते हैं, " स्त्रियों को आधुनिक विज्ञान की शिक्षा अवश्य दी जानी चाहिए, किन्तु प्राचीन आध्यात्मिकता और धर्म को तिलांजली देकर नहीं। जो शिक्षा भविष्य में प्रत्येक स्त्री को एकही साथ भारत के अतीत युग के नारीवर्ग के श्रेष्ठ गुणों या महत्व को विकसित करने में सहायता करने में समर्थ होगी, वही आदर्श शिक्षा होगी। "
स्वामीजी कहते हैं, शिक्षा की धारणा का उदय हमलोगों में अभी तक उत्पन्न नहीं हुआ है। यह बात शायद आज भी सत्य है। जीवन,धर्म, शिक्षा, सभ्यता, उन्नति, प्रगति -इन शब्दों का व्यवहार आजकल हमलोग निरन्तर करते रहते हैं, किन्तु इन शब्दों का मर्म हमलोग अच्छी तरह समझते हों ऐसी बात नहीं है। हमलोगों के समाज की वर्तमान अवस्था को देखकर ही समझा जा सकता है। स्वामीजी कहते हैं, " मैं सभी क्षेत्र में धर्म को शिक्षा की  सार वस्तु के रूप में ग्रहण करता हूँ, किन्तु इतना स्मरण रखियेगा कि मैं अपने या किसी दुसरे के धर्म सम्बन्धी समझ को ही 'धर्म' नहीं कहता हूँ। " इसका क्या कारण है ? इसका कारण है कि भारत में प्राचीन समय से ही नारी जीवन के गठन में धर्म का प्रभाव महत्वपूर्ण रहा है।
 जिस मार्ग पर चलने से समस्त अति उत्कृष्ट गुण जीवन में आ जाते हों, उसी का नाम है-धर्म।  इसीलिये स्वामीजी कहते हैं, कि धर्म के सम्बन्ध में किसी की समझ क्या है, उसकी बात वे नहीं कर रहे हैं। जो वास्तव में धर्म है, उसकी शिक्षा का मूल उपादान बनाना होगा। धर्म ही जीवन का आधार है, वह मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन को धारण, वृद्धि और रक्षा करता है। धर्म को नष्ट करने से जीवन नष्ट हो जाता है, और धर्म को प्रयोग करने से जीवन पूष्ट होता है। जिस वस्तु में यह गुण है, उसी को धर्म कहते हैं। धर्म का अर्थ किसी का अपना ख़याल/समझ या कुछ विशेष आचार-अनुष्ठान मात्र नहीं है। धर्म वह वस्तु है, जो मन की अनियंत्रित कामना-वासना को, शरीर में केवल इन्द्रिय-सुख भोग करने की प्रवृत्ति, प्रकृति के प्रलोभन को जीत लेने का सामर्थ्य प्रदान करता हैं। मनुष्य को उसकी अन्तर्निहित सत्ता को अभिव्यक्त करने में सहायता करता है, स्वार्थपर बुद्धि को सीमित बनाता है, परोपकार की प्रवृत्ति को प्रधानता देने की सदिच्छा प्रदान करती है, जीवन का पूर्ण विकास, पूर्ण उपयोग, और पवित्रता की आकांक्षा प्रदान करती है। जो चेष्टा , जो प्रणाली (मनःसंयोग) इस प्राप्ति को संभव बनाती है, उसीका नाम है धर्म। इसीलिये स्वामीजी धर्म (मनःसंयोग) को " शिक्षा की आन्तरिक वस्तु " समझते हैं। इसीलिये स्वामीजी की धारणा है, " जनसाधारण में तथा नारियों में शिक्षा का विस्तार नहीं होने से कुछ भी भला नहीं होने वाला है। " इससे ही हमलोगों को यह समझ लेना चाहिये कि यथार्थ शिक्षा - जिसका मूल उपादान है वह धर्म जिसकी संक्षेप में विवेचना उपर की गयी है, उस शिक्षा का विस्तार नहीं होने से , " देश का कोई भला नहीं होने वाला है। " विद्यालयों की संख्या में वृद्धि करने से, शिक्षकों की संख्या में वृद्धि करने से, छात्रों की संख्या, पास होने वालों का प्रतिशत, शिक्षा के उपर बजट में कितना धन आवंटित किया गया है, उसके परिमाण मात्र पर यथार्थ शिक्षा का विस्तार नहीं है। 
धर्म की जो मुख्य  विशिष्टता है- देह और मन का नियंत्रण, उसके बिना कोई भी शिक्षा सार्थक नहीं हो सकती है। इसीलिये स्वामीजी कहते हैं, " जिस प्रकार लडकों को 30 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण करनी होगी, उसी प्रकार लड़कियों को भी विद्या अर्जित करनी होगी। " किन्तु हमलोग क्या कर रहे हैं ? 
" हमारे देश की महिलाएं विद्या-बुद्धि अर्जित करें, यह मैं जरुर चाहता हूँ। किन्तु पवित्रता को खोकर यदि उस विद्या को अर्जित करने की बात हो, तो वैसी शिक्षा नहीं दी जानी चाहिये। तुमलोग यह जानते हो, उसके लिये मैं तुमलोगों की प्रशंसा करता हूँ।  किन्तु जिस प्रकार तुमलोग बुराई को फूलों से ढँक कर, उसको अच्छा कहते हो, उसे मैं पसन्द नहीं करता हूँ। "  
स्वामीजी की विचारधारा में स्त्रीशिक्षा का वैशिष्ट क्या है ? प्रारंभ से ही उनके भीतर उन भावों को प्रविष्ट कराकर उनका चरित्र इस प्रकार से गढ़ना होगा कि -चाहे शिक्षा पूर्ण करने के बाद वे विवाह करें, या कुमारी रहें, सभी अवस्थाओं में सतीत्व की रक्षा करते हुए अपने प्राण न्योछावर करने में उनको थोडा भी दुःख या डर नहीं हो।  किसी एक आदर्श की रक्षा के के लिये प्राणों को उत्सर्ग कर देना क्या कम बड़ी वीरता है ? " धर्म, शिल्प विज्ञान, गृह विज्ञान, रसोई बनाना, सिलाई-कढ़ाई, शरीर-विज्ञान, इन सब का स्थूल मर्म ही लड़कियों को सिखाना उचित है। " आगे कहते हैं, " किन्तु केवल पूजा-पद्धति सिखाने से ही नहीं होगा। सभी विषयों के प्रति उनकी नजरें खोल देनी चाहिये। छात्राओं के समक्ष सर्वदा आदर्श नारीचरित्रों को रखकर उच्च त्याग के व्रत में उनके भीतर प्रेम उत्पन्न कराना होगा। सीता, सावित्री, दमयंती, लीलावती, खना, मीरा- इनकी जीवन-चरित्र को लड़कियों को समझाकर उनको अपना जीवन उन्हीं के सांचे में ढाल कर गठित करना होगा।" 
जैसी शिक्षा दी जा रही है, उससे कुछ नहीं होगा। स्वामीजी स्पष्ट रूप में कहते हैं, " किन्तु जैसी शिक्षा दी जा रही है, उस प्रकार की नहीं। सकारात्मक शिक्षा देनी होगी। केवल पुस्तक रटने वाली शिक्षा से बात नहीं बनेगी। जिससे चरित्र निर्मित हो, मानसिक शक्ति बढ़े, बुद्धि विकसित हो, मनुष्य स्वयं अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे , इस प्रकार की शिक्षा मिलनी चाहिए। " " ऐसी शिक्षा प्राप्त करके महिलायें स्वयं अपनी समस्या का समाधान कर सकेंग। ' 
राष्ट्रीय उन्नति और नारी उन्नति के विषय में केवल कुछ बातें करना नहीं, जिससे यथार्थ कार्य हो सके, इसके लिये  उनकी योजना थी- " इसीलिये मैं चाहता हूँ कि कुछ ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारणी का निर्माण करूँगा। ब्रह्मचारियों को बाद में संन्यास लेकर देश-देशान्तर के गाँव गाँव में घूमकर जनसाधारण के बीच शिक्षा का विस्तार करने की चेष्टा करनी होगी। और ब्रह्मचारणीयाँ नारियों के बीच शिक्षा का विस्तार करेंगी। तभी तो देश का कल्याण होगा, भारत का कल्याण होगा। " 
पहले उद्देश्य के लिये उन्होंने इसीबीच गंगा के पश्चमी किनारे पर नारियों क एक मठ स्थापित किया था। सीता, सावित्री, दमयन्ती, गार्गी के आदर्श के उदाहरण को बहुत प्रशंसा पूर्वक करने के बाद भी, वे जानते थे कि वर्तमान युग की भारतीय नारियों को श्री श्री माँ सारदा देवी को आदर्श स्वीकार करके ही, अपनी उन्नति करनी होगी। इसीलिये उन्होंने कहा था, " माँ को केन्द्र में रखकर गंगा के पूर्वी किनारे पर स्त्रियों के लिये एक मठ को स्थापित करना होगा। जिस प्रकार यह मठ (बेलूड़ में ) ब्रह्मचारी साधू (सन्त) बनेंगे, गंगा के उसपार भी उसी प्रकार ब्रह्मचारीणी साध्वीयाँ निर्मित होंगी।" भविष्य के भारत के निर्माता युगाचर्य के मुख से निसृत वाणी आज श्री सारदा मठ में साकार हो रही है। 
उन्होंने और भी कहा था, " जो लडकियाँ सदा कौमार्य-व्रत ग्रहण करेंगी, वे ही समय आने पर मठ की अध्यापिका और सन्देश-वाहिका बनकर गाँव गाँव, नगर नगर में केन्द्र स्थापित करके, नारियों में शिक्षा का प्रसारण  करेंगी। चरित्रवती, धर्म-भावापन्न इस प्रकार की धर्म (मनः संयोग) सिखाने वाली अध्यापिकाओं के द्वारा देश में यथार्थ स्त्री-शिक्षा का संचरण होगा। धर्म-परायणता , त्याग और आत्मसंयम यहाँ पढ़ने वाली छात्राओं का आभूषण होगा; और सेवाधर्म उनके जीवन का व्रत होगा। इस प्रकार का आदर्श जीवन देखकर कौन उनका सम्मान नहीं करेगा ? कौन उनके उपर अविश्वास कर सकेगा ? तुम्हारे देश में सीता, सावित्री, गार्गी का फिर से आविर्भाव होगा। "  
स्वामीजी का यह सपना धीरे धीरे साकार हो रहा है। बहुत से स्थानों में इस मठ के केन्द्र स्थापित हो रहे हैं। इनकी सहायता से श्री श्री माँ सारदा देवी को नारी-शक्ति का आदर्श मान कर यथार्थ शिक्षा को अपने अपने जीवन में अर्जित करने और सर्वत्र संचारित करने से समाज में नये प्राणों का संचार होगा। भारत फिर से उठ खड़ा होगा। मनुष्य समाज का यथार्थ कल्याण होगा। 

बुधवार, 19 दिसंबर 2012

'जन-साधारण की उन्नति और स्वामी विवेकानन्द' (भारत गाँवों में बसता है ) [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [55] (9.समाज और सेवा),

भारतवर्ष का कल्याण ही विश्व का कल्याण है !  
स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा का एक विशेष पहलु है। वे जितना भी जगत की विकास की बातें क्यों न करते हों, समस्त बातों को कहते समय उनकी दृष्टि उस गरीब मनुष्य पर ही टिकी रहती थी। उनको उपर उठाना होगा, उनको सुखी करना होगा। स्वामीजी यह मानते थे कि जनसाधारण को उपर उठाने का अर्थ है, भारतवर्ष को उपर उठाना; और भारतवर्ष के उत्कर्ष का अर्थ है, सम्पूर्ण विश्व का कल्याण। स्वामीजी ने जो भी चिन्तन किया, कहा और किया सबकुछ इसीके लिये था।
उनका समग्र उच्च चिन्तन-उनका राजयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, वेदान्त, मायातत्व - सम्पूर्ण भावाभिव्यक्ति के केन्द्र-बिंदु में थी भारत की आम-जनता। वे जानते थे कि समष्टि की मुक्ति हुए बिना व्यक्ति की मुक्ति भी नहीं हो सकती है। जो लोग नीचे गिरे हुए हैं, उनको उपर उठाना होगा; उनके लिये सभी प्रकार की मुक्ति, स्वाधीनता का अवसर प्रदान करना होगा। जो प्रजा झोपड़ियों में निवास कर रही है, जो लोग गांवों में रहते हैं, वही है यथार्थ भारतवर्ष ! वे कहते थे-" भारत तो गांवों में ही बसता है। " जब उनकी उन्नति संभव होगी, तभी विश्व सभ्यता का अभ्युदय संभव होगा।
समग्र विवेकानन्द -साहित्य का, उनके विचार-विश्लेषण का मुख्य स्वर है- व्यक्ति मनुष्य द्वारा अपना मूल्य  आविष्कृत कर लेने, स्वयं अपने रहस्य का उद्भेदन करने के माध्यम से समष्टि के साथ उसके (व्यष्टि के)   सम्पर्क-सूत्र को ढूँढ़ निकालने, या व्यष्टि और समष्टि के बीच संबन्ध की कड़ी को ढूँढ़ निकालने में ही, सम्पूर्ण मानवता के यथार्थ कल्याण का बीज छुपा हुआ है ! मनुष्य जब अपने स्वरुप का अन्वेषण कर लेता है, अपने सच्चे स्वरूप को पहचान लेता है, तब उसको यह अनुभूति होती है कि -समष्टि के बिना तो व्यष्टि का अस्तित्व ही असम्भव है ! उस एकात्मबोध या अनन्त समष्टि के साथ सहानुभूति-सम्पन्न होकर, उसके सुख में सुख और उसके दुःख में दुःख का अनुभव करते हुए धीरे धीरे आगे बढना- जीवन की सच्ची उन्नति, दिव्यता की सच्ची अभिव्यक्ति इसी प्रकार होती है, इसीको मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ना कहते हैं।
स्वामी विवेकानन्द कहते है- " अपने यथार्थ स्वरुप का अनुसन्धान करना ही मनुष्य का भाग्य है। " स्वयं देख लेने के बाद हो, या दूसरों की सहायता से हो- मनुष्य को आत्मसुखी, आत्म-सन्तुष्ट (Self-satisfied) बनना ही होगा। उपर उपर में निरर्थक वस्तु या कचरा चाहे जितना भी क्यों न जम गया हो, उसके नीचे प्रेम-स्वरूप का निःस्वार्थ समाजिक-जीवन का प्राण-स्पन्दन (Life pulse) चलता ही रहता है। इस सत्य (विविधता में एकता ) को अस्वीकार करके, यदि मनुष्य केवल अपने निजी स्वार्थ को पूर्ण करना ही जीवन का उद्देश्य समझ ले, और उसी के पीछे दौड़ता रहे, तो उसके फलस्वरूप मृत्यु अवश्यम्भावी है। 
इस प्रकार विकास का तात्पर्य है जीवनबोध में- प्रगति, प्रेम का विस्तार, शान्ति का अभ्युदय। एक व्यक्ति दूसरे से प्रेम करना चाहेगा। अपनी जरूरतों और निधियों को दूसरों के साथ मिलाना चाहेगा। इसीलिये मूल सत्य (अद्वैत) में विश्वासी होकर, भारतवर्ष के उत्कर्ष की कामना करने वाले सभी भारतवासी भोग के नहीं, संन्यास के आदर्श का ही वरण करेंगे। वे सांसारिक ऐश्वर्य का संग्रह करने के बदले महात्याग के आदर्श को सामने रखकर नये भारत के उत्कर्ष को साकार कर दिखायेंगे। संन्यासी के प्राण-धारण का उद्देश्य परम सत्य की अनुभूति की वासना को पूर्ण करना होता है, इसीलिये संन्यासी की एकमात्र इच्छा -अर्थप्राप्ति की नहीं, परमार्थ की होती है। और वह परमार्थ है अपने आचरण के द्वारा प्रेम और निःस्वार्थपरता को अभिव्यक्त करना। व्यवहारिक जीवन में अन्य अभावों के बीच रहकर भी मनुष्यत्व प्राप्त करने के लिये जितने भी गुण होने चाहिये, उनको अपने आचरण में प्रस्फुटित कर लेना ही सम्पूर्ण भारतवर्ष का एकमात्र लक्ष्य होना चाहिये।
स्वामी विवेकानन्द के मतानुसार किसी देश का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि उस देश के मनुष्य क्या करते हैं, और कितना करते हैं-इसके उपर। मनुष्य जिस प्रकार अपने व्यक्तिगत कार्यों/कर्म के द्वारा अपने व्यक्तिगत भाग्य का निर्माण करता है, उसी प्रकार समस्त देशवासियों के सामूहिक कार्यों के (Collective work) के द्वारा उस देश की सम्पूर्ण जाती या राष्ट्र का भग्य भी निर्मित होता है। फिर जिस प्रकार इच्छा के द्वारा ही कर्म साधित होता है; इसीलिये इच्छाशक्ति की फुर्ती (alacrity) और उसकी गति को अपने नियंत्रण में रखने के ज्ञान का महत्व की भी सीमा नहीं है।
 भारतवर्ष के जो ग्रामीण मनुष्य हैं, जो आम गरीब लोग हैं, उनकी इच्छाशक्ति के प्रवाह की गति किस दिशा में है ? त्याग के आदर्श को ही सच्चे अर्थ में अभिव्यक्त करने की दिशा में है। भारत की विशाल ग्रामीण जनसंख्या के भीतर जो राष्ट्र जीवित है, उसके भीतर भी उत्तराधिकारी के रूप में प्राप्त स्वाभाविक विचारधारा में आज भी त्याग का भाव ही जीवित है। किन्तु विजातीय विरोधी भावों के कुछ स्वार्थान्ध भोगी मनुष्यों  के आसुरी प्रवृत्ति के अवास्तविक प्राबल्य (Apparent dominance) के प्रभाव में आकर त्याग के आदर्श में श्रद्धावान मनुष्य भी अपने भीतर आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास के आभाव का अनुभव कर रहे हैं। और जो त्याग के भाव के साथ प्रगति करना चाहते हैं, उनके लिये बाधाएं उत्पन्न हो जाती हैं।स्वामीजी कहते हैं, केवल इनको पेटभर सत्तू खाने को भी मिल जाये तो वे, अपनी आन्तरिक महाशक्ति को अभिव्यक्त कर सकते हैं। इनके लिये दो शाम के भोजन की व्यवस्था करनी होगी। इनके विश्वास को, इनके त्याग के आदर्श को प्रतिष्ठा देनी होगी, उनसे प्रेम करना होगा, सबसे पहले इनको इनका अधिकार लौटा देना होगा। अपने स्वार्थ के लिये उनको अशिक्षित और आत्मश्रद्धा रहित बनाने के समस्त कूचेष्टाओं को विसर्जित कर देना होगा। सुविधाभोगी, मतलबी, स्वार्थी मनुष्यों का जो समूह केवल संचय की मनोवृत्ति लेकर जीते हैं, जो केवल दैहिक भोग को ही जीवन का आदर्श समझते हैं, और उसीके साथ साथ जनसधारण की उन्नति के लिये कानून बनाने की बातें भी करते रहते हैं, उनके विषय में सावधान कराते हुए स्वामीजी कहते हैं- " वे गलतफहमी में जी रहे हैं, वे नहीं जानते हैं कि पहले से ही हमारे देश के सामाजिक जीवन का आदर्श त्याग रहा है, वर्तमान में भी वही है, और भविष्य में भी चाहे कोई आशा करे या नहीं, त्याग ही भारत का आदर्श बना रहगा। क्योंकि मनुष्य के व्यष्टि और समष्टि जीवन में त्याग ही एकमात्र ऐसी नीति है, जिसका पालन करने से हम मनुष्य बने रहते हैं, और हमारा राष्ट्र आजतक जीवित है। 
श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने के साथ ही साथ इस नीति की वास्तविकता पुनर्प्रतिष्ठित हुई है। स्वामीजी ने कहा है कि गरीबों को उपर उठाने के लिये ही श्रीरामकृष्ण ने शरीर धारण किया था। श्रीरामकृष्ण को देखने, उनके जीवन का परिचय प्राप्त करने से यह जाना जा सकता है कि त्यागी-चरित्र की शक्ति सामने अन्य सभी प्रकार की शक्तियाँ पीली पड़ जाती हैं। सच्चा मनुष्यत्व क्या चीज है, चरित्र-गठन किसे कहते हैं, जीवन को सुन्दर, सम्मानजनक बनाने वाले अवश्य पालनीय निर्णयात्मक गुणों की आवश्यकता कहाँ होती है- इत्यादि बातों को सामान्य मनुष्य समझना सीख जायेगा, और उसके फलस्वरूप उसका अपना जीवन भी उन्नत हो जायेगा। सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन में उत्कर्ष लाने के लिये इसके सिवा अन्य कोई दूसरा उपाय नहीं है।  
आज जिस बात की आवश्यकता है, एक ओर तो जैसे सामान्य मनुष्यों को भी आत्मबोध की अदम्य उर्जा का श्रोत का पता देना, और दूसरी ओर व्यवहारिक जीवन की जरूरतों को स्वीकार करके उनकी समस्त इच्छाशक्ति और क्रियाशक्ति का एकीकरण करना। संघबद्ध जीवन की अनुभूति के मूल में जो एकत्व विश्वास और आध्यात्मिकता में आस्था की जरूरत होती है, उसी को अर्जित करने के लिये स्वामीजी चरित्र-गठन की पद्धति आत्म-मूल्यांकन तालिका के उपर इतना जोर देते थे। 
बड़ी बड़ी योजनाओं की आवश्यकता नहीं है, अभी जिस कार्य को करना आवश्यक है वह है- अपने जीवन को (त्याग के साँचे में ढाल कर ) आदर्शरूप में गढ़ कर, इन गरीब मनुष्यों के पास एकात्मता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करना। कोई किसी से छोटा नहीं है, जीवन की संभावना के विषय में सभी मनुष्यों की मौलिक महिमा एक ही स्थान पर है, वह यही है कि अवसर मिलने और बाधा हट जाने (प्रतिबन्धक कर्म समाप्त हो जाने ) के बाद प्रत्येक व्यक्ति अपनी अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त कर सकता है। मनुष्य के रूप में जीने और बड़ा बनने के लिये जो जीवन-संघर्ष चल रहा है, वह अपने अपने क्षेत्र में सबों के लिये महान है। व्यवहारिक जीवन में आजीविका पाने के लिये संघर्ष, मानसिक,आध्यात्मिक अपूर्णता को दूर करने के लिये संघर्ष - इसी प्रकार का भाग्य (प्रारब्ध) लेकर सभी मनुष्य को जीवनयात्रा पूर्ण करनी होती है। जीवन का यही नियम है। इस कुदरती कानून के प्रति श्रद्धा रखनी ही पड़ती है, और इसीलिये हमलोगों के जीवन की सफलता या सार्थकता आपसी फूट, पारिवारिक अलगाव में नहीं है, ऐक्यब्द्ध शक्ति के आविष्कार करने और उसके कुशल प्रयोग में है। श्रीरामकृष्ण-स्वामी विवेकानन्द के जीवन और सन्देश की गहरी-विवेचना (अनुध्यान) करने से यही सत्य प्रकट होता है।
       

मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

' विवेकानन्द और समाज' " एकमात्र भारत माता को ही अपनी आराध्या मानो ! [$@$स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [54] (9.समाज और सेवा),

विवेकानन्द 'काल-वैशाखी' के तूफान थे ! 
ऐसा तकाज़ा बहुत थोड़े से लोगों के मन जगता है, कि समाज की अवस्था के विषय में या देश की अवस्था के विषय में, हमलोगों को भी कुछ  सोचना चाहिये, और उस विषय में कुछ करने की क्षमता भी रहनी चाहिये।  समाज में जो कुछ हो रहा है, उसके विषय में आमतौर से हमलोगों की मानसिकता रहती है-
' गाँव-समाज का अच्छा-बुरा सोचने के लिये मेरे पास समय नहीं है। '  किन्तु ' अच्छा-बुरा सोचने का समय मेरे पास नहीं है ' की मानसिकता के साथ समय बिता देने से वर्तमान अवस्था और अधिक नहीं बिगड़ेगी, ऐसी कोई निश्चितता नहीं है। 
जब कभी कोई बेहद दुःखद घटना घट जाती है, तब जरुर हमलोग हल्ला मचाते हैं कि हमलोग को अब कुछ न कुछ करना ही होगा, एक आन्दोलन, कोई बलवा, कुछ श्लोगन आदि सामूहिक रूप में करना होगा। किन्तु इस बात के उपर हमलोग कोई विचार नहीं करते हैं कि हमलोगों का नैतिक रूप से जो अधोपतन हो रहा है, इस नैतिक अधोपतन को बन्द करना अनिवार्य है। इस दिशा में कोई प्रयास नहीं करने से, समाज इतना अधोपतित हो जायेगा कि राष्ट्र के रूप में उठ खड़े होने का कोई उपाय ही नहीं बचेगा।
वर्तमान समाज की जो भी दुरावस्था है, उन सबका मूल कारण है-नैतिक अधोपतन। इस बात पर चिन्तन करने तथा समझने वाले लोग, बिल्कुल नहीं है, ऐसी बात नहीं है, किन्तु वैसे लोगों की संख्या बहुत कम है। हमलोग केवल इतना ही समझते हैं, कि मुझे अपने प्राणों की रक्षा हर हाल में करनी चाहिये। यदि किसी डूबते हुए व्यक्ति को कोई आम आदमी भी यह परामर्श दे, कि तुमको अपने प्राण बचाने के लिये इस सुखी घास के छोटे से तिनके को पकड़ लेना चाहिये, तो वह डूबता हुआ व्यक्ति बिना अधिक सोचे-विचारे किये ही उस तिनके को पकड़ लेता है। यह बिल्कुल स्वभाविक बात है, इसमें अस्वाभाविक कुछ भी नहीं है। किन्तु हमलोगों को उससे थोड़ा अधिक विचार करना चाहिये। क्योंकि देश की वर्तमान अवस्था जैसी है, उससे क्या परिणाम भविष्य में देश को भुगतना पड़ेगा, किसी राजनैतिक महात्मा का अनुसरण करते करते देश जिस रास्ते पर चल निकला है, उसका क्या परिणाम होगा ?  उसको किस दिशा में परिवर्तित करने से भविष्य अच्छा बन सकता है, या नहीं बन सकता है ? इन सब बातों पर चिन्तन करने की आवश्यकता है।
जिस प्रकार कृत्रिम उपग्रह ऐपल को अन्तरिक्ष में भेजने के पहले बहुत दिनों तक उसके उपर कार्य किया गया था। उसके बाद भी उसमें कुछ कमी रह ही गयी थी, जिसके कारण उसको अपनी जिस पूर्व-निर्धारित कक्षा में घूमना चाहिये था, बिल्कुल उसी रूप में नहीं पाया गया। एक दूसरा अन्तरिक्ष-यान भेजकर उसको दुरुस्त करने की चेष्टा करनी पड़ी थी। हमलोगों के समाज में भी ठीक वैसा ही हो रहा है। समाज को जिस दिशा में ले जाने से  या जिस परिक्रमा-पथ में चलने पर कल्याण होगा, वैसे पथ से चलाने में बिल्कुल अक्षम हो रहे हैं। जिस पथ पर वह मनमाने तरीके से चल रहा है, उसी प्रकार चलते रहने का फल अच्छा ही होगा, इस बात को निश्चय के साथ नहीं कहा जा सकता है। जब यह दिखाई दे रहा हो कि समाज बुराई की दिशा में आगे बढ़ रहा है और उसका परिणाम बुरा ही हो सकता है, तब सोच-विचार कर समाज के परिक्रमा-पथ को निर्धारित करना चाहिये और उसको उसी पथ पर चालित रखने के उपर चिन्तन-मनन करने की आवश्यकता है।
देश की वर्तमान परिस्थिति के कारणों के उपर विचार करना ,तथा उन विचारों को प्रबुद्ध लोगों, विशेष तौर से युवाओं के मन में संचारित करा देना हमलोगों का कर्तव्य है। ताकि युवा लोग देश का भविष्य अच्छी तरह से निर्माण करने के लिये जो करना आवश्यक हो, उसके लिये प्रयासरत हो जाएँ। किन्तु अधिकांश लोग इस विषय में सोचने के लिये भी किसी उत्साह का अनुभव नहीं करते हैं। हमारे देश-वासियों में जितनी भी कमियाँ हैं, स्वामी विवेकानन्द ने उनमें से जिस कमी को विशेष रूप से लक्ष्य किया था, वह यही है कि हमलोगों में आत्मविश्वास नहीं है। हमारे बहुत से देशवासियों ने निजी रूप से अभी अपना आत्मविश्वास खोया है, किन्तु राष्ट्र के रूप में तो हजारों वर्ष पूर्व ही हमने अपना आत्मविश्वास खो दिया था। केवल आत्मविश्वास ही नहीं खोया था, बल्कि इसी कारण दूसरों से घृणा करना भी सीख गये थे ! तथा (आत्मविश्वास खो देने के कारण ) अपने प्रति भी एक प्रकार की घृणा का भाव का पोषण भी करते आ रहे हैं-मानो हम कुछ भी नहीं हैं। जिस समय से हमने दूसरों को म्लेक्ष कहकर उनसे घृणा करना शुरू कर दिया था, उसी समय से हमारे देश का पतन होना शुरू हो गया था। अब वह इतना गिर चुका है कि वहाँ से उठने का कोई उपाय भी नजर नहीं आ रहा है।
 इसीलिये हमलोग कहते हैं, युवाओं को देश की वर्तमान अवस्था के उपर विचार करना चाहिये, तथा उसका सुन्दर भविष्य का निर्माण कैसे हो सकता है, उसका कोई उपाय ढूंढ़ निकालना चाहिये। फिर उस उपाय को व्यवहारिक रूप देने के लिये श्रम करना भी आवश्यक है, इसलिये इसी कार्य में अध्यवसाय के साथ लगे रहना भी उचित होगा। हमलोग अभी 'Be and Make ' को लेकर जितनी बातें कहते हैं, उसे सुनकर बहुत से बुद्धिजीवियों को ऐसा लगता है, मानो हमलोग कोई खयाली पुलाव पका रहे हैं, जो कभी संभव नहीं है। किन्तु अन्य प्रकार की जितनी धारणायें, परियोजनाएं, पद्धति, उपाय जो लोग कहते या सुनते रहते हैं, उन सबको बिना कुछ सोचे-विचारे ही ग्रहण कर लेने की एक प्रवृत्ति हममें रहती है। मानो यह सब कर देने (केजरीवाल-आन्ना हजारे, लोकपाल ला देने, कांग्रेस हटा देने आदि आदि) से रातों-रात समस्त समस्याओं का समाधान हो जाने वाला है।
ऐसी प्रवृत्ति क्यों हो जाती हैं ? इस बात को थोडा विचार करने से ही समझा जा सकता है, किन्तु हमलोग उस पर विचार नहीं करते हैं। हमलोगों में यथा-स्थिति बनाये रखने या उदासीन बने रहने के प्रति एक स्वाभाविक आसक्ति रहती है। हमलोग अक्सर कहते रहते हैं कि यथा पूर्व स्थिति में रहना या ' status quo ' बनाये रखना ठीक नहीं है, किन्तु सच्चाई यह है कि हमलोग इतने जड़-भावापन्न हो गये हैं, ' status quo ' के साथ इतने अधिक जड़ित हो गये हैं, कि अब हम इस विषय पर विचार भी करने को तैयार नहीं हैं।
आत्म-विश्लेषण तो हम बिल्कुल नहीं करते हैं ! (अर्थात हम आत्मा हैं या शरीर हैं ? इस बात पर कोई विचार नहीं करते हैं) किन्तु हम अपने को घोर विश्वासी कहते हैं, कोई भी व्यक्ति अविश्वासी नहीं है। परन्तु हममें से हर व्यक्ति का विश्वास अलग अलग है, और किसी का भी विश्वास तर्क के उपर आधारित नहीं है। तर्क की कसौटी पर कसने के बाद कोई विश्वास नहीं करता है, अकस्मात मैं किसी के उपर विश्वास करने लगता हूँ, वे अन्य किसी पर विश्वास करते हैं, इसी प्रकार बहुत से लोग अचानक अलग अलग विश्वास करने लगते हैं। कोई भी व्यक्ति तुलनात्मक विश्लेषण करने के बाद विश्वास नहीं करता है। और इसीकारण हमलोग जिस पर विश्वास करते हैं, या कर रहे हैं, अंधों के समान समझ लेते हैं कि उसी प्रकार चलते रहने से देश का कल्याण हो जायेगा।
उदाहरण के लिये-स्वाधीनता प्राप्त होने के पूर्व लगभग सभीलोग इस बात परएकमत हो गये थे कि, " जब हमारा देश राजनैतिक रूप से स्वाधीन हो जायेगा, तो देश का कल्याण होगा।" इसके साथ ही साथ यह भी मान लिया गया था कि जब हम राजनैतिक रूप से स्वतंत्र हो जायेंगे तो तभी हम अपने अपने दलों को भी अच्छी तरह से गठित कर सकेंगे। (अर्थात अच्छे अच्छे कार्यकर्ताओं को जमा करेंगे करेंगे ) फिर  उसके बाद यदि देश में यदि देश में प्रजातंत्र (democracy) भी स्थापित कर सकेंगे, तो देश का हर प्रकार से मंगल करना संभव हो जायेगा।  हम सभी करोड़ो भारतियों ने आँखें मूंद कर,स्वयंसिद्ध रूप से इन बातों को ग्रहण कर लिया था। किन्तु हमने इस बात के उपर थोड़ा भी विचार नहीं किया कि क्या केवल प्रजातान्त्रिक व्यवस्था अपना लेने से ही सचमुच देश का कल्याण  होना संभव है ? उस समय शायद किसी भारतीय के मन में भी यह विचार नहीं उठा था कि केवल सरकार को बदल कर कोई देशी सरकार आ जाने, तथा प्रजातंत्र की स्थापना हो जाने, मात्र से ही देश का कल्याण नहीं हो सकता है ! स्वाधीनता प्राप्त हो जाने के बाद कुछ वैसे लोग जिनके पास सत्ता की कुर्सी तक पहुँचने का मौका था, उनलोगों ने सोचा-' बहुत दिनों से कष्ट झेल रहा था, अभी तो अवसर मिला है। ' अब आराम किया जायेगा, सुख भोगा जायेगा और सत्ता का लाभ उठाकर जमीन-जायदाद का अम्बार खड़ा किया जायेगा। हममें से अधिकांश लोगों ने बिना सोचे-विचारे इसी ढर्रे को स्वीकार कर लिया है-और इसीको अँधविश्वास कहते हैं। तर्क पूर्वक विचार करना हमने सीखा ही नहीं है।
 मैं जितनी भी कोशिश करता हूँ कि स्वामी विवेकानन्द के नाम को उद्दृत नहीं करूँगा, उतनी अधिक उनकी बातें आँखों के सामने कौंध उठती हैं। उनकी बातें इसी कारण सामने आ जाती हैं कि, इस व्यक्ति ने देश के हर क्षेत्र की समस्याओं के उपर गहराई से विचार किया है, तथा बहुत सोच-विचार करने के बाद कहा है- " एकमात्र भारत माता को ही अपनी आराध्या मानो ! केवल उनकी ही पूजा करो। उनको जाग्रत करो, केवल तभी स्वाधीनता प्राप्त हो सकेगी। " फिर इसके साथ ही साथ कहते हैं, " स्वाधीनता यदि प्राप्त प्राप्त हो भी जाएगी, तो उससे तुमको क्या लाभ होगा? तुम क्या स्वाधीनता को सुरक्षित रख सकोगे ? तुम क्या देश की सच्ची उन्नति कर सकोगे ? नहीं कर सकोगे; क्यों ? इसीलिये कि तुम्हारे देश में मनुष्य नहीं हैं। " हालाँकि उनकी ये बातें सुनने में बहुत कड़वी लगती हैं। किन्तु इस बात को उन्होंने कितने दिनों पहले ही कहा है। ' तुमलोग मनुष्य निर्माण करने की चेष्टा करो ! मनुष्य ही यदि नहीं होंगे, तो स्वाधीन हो जाने के बाद भी तुम कुछ कर नहीं पाओगे।' -किन्तु स्वामी विवेकानन्द के आह्वान को कौन सुनने वाला है ?
देश में ऐसे कितने लोग हैं, जिन्होंने स्वामी विवेकानन्द के नाम को सुना हो ? हो सकता है, इस समय बहुत से लोग उनके नाम को जान गये हों, किन्तु हमलोगों की दृष्टि में उनका चेहरा (परिचय) कैसा है ? हम उनका केवल इतना ही परिचय जानते हैं कि -दक्षिणेश्वर में (गदाई नामक ) एक पुजारी ब्राह्मण थे, वहाँ कोई तांत्रिक स्त्री आई और उनको दीक्षा दी, उसके बाद उनका नाम बदल कर 'रामकृष्ण' हो गया और -'परमहँस' की पदवी प्राप्त हो गयी। और एक युवक नरेन् था, जो ब्रह्म-समाज में जाया करता था, और भी कितनी जगहों पर जाता रहता था। उसके बाद एक बार उसका परिवार घोर गरीबी में घिर गया था। उसके बाद अकस्मात एक दिन वह युवक उस पगले ब्राह्मण पुजारी के पल्ले पड़ गया था। वे शायद कुछ जादू-टोना भी जानते थे। पता नहीं किस प्रकार उस युवक को अमेरिका भेज दिये। और अमेरिका जाकर वहाँ की धर्म महासभा में वे सिर पर एक बहुत बड़ी पगड़ी बांधे हुए थे और 'हिन्दू-धर्म ' के उपर बहुत लम्बा भाषण दिए थे,और उनके भाषण के बाद, वहाँ के लोगों ने बहुत देर तक तालियाँ बजाई थीं। आमतौर से स्वामी विवेकानन्द के बारे में हमलोग इतना ही जानते हैं।
बहुत पढ़े-लिखे, कॉलेज के अधिकांश प्रोफेसर लोग भी, स्वामीजी के बारे में बहुत कम ही जानते हैं। फिर जो तथाकथित अशिक्षित लोग हैं, उनमें से भी अधिकांश लोग उनको एक मानव-प्रेमी व्यक्ति समझकर उनके प्रति विशेष श्रद्धा रखते हैं। वे यह भी जानते हैं कि स्वामीजी से बहुत कुछ प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु हमारे देश के जो तथाकथित शिक्षित (केजरीवाल-अन्ना ह्जारे टाइप लोग या सीधे-साधे संघी ) लोग हैं, वे स्वामीजी के जीवन और उनकी विचार-धारा के बारे बहुत कम ज्ञान रखते हैं। वैसे लोग कभी कभी पूछते हैं, (रानाडे द्वारा  लिखित पुस्तक 'उत्तिष्ठत-जाग्रत' में जो लिखा है, उससे अधिक) उनकी जानकारी किस पुस्तक को पढ़ने से होगी, जरा आप ही बताइए तो ?
 एक बार किसी I.A.S. (प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ) ने किसी से सुनकर, हिन्दी में प्रकाशित विवेकानन्द साहित्य 10 खण्डों में से 5 वें खण्ड में वर्णित स्वामीजी द्वारा  ' कोलम्बो से अल्मोड़ा ' तक दिये गये भाषणों को पढ़ना शुरू किया। पढ़ते पढ़ते उनकी आँखें एक स्थान पर पड़ी -जहाँ स्वामीजी ने कहा है, " ...बहुत हुआ तो कलर्की (किरानीगिरी) का ही दूसरा नाम डेपुटीगिरी करना-यही तुमलोगों के जीवन का उद्देश्य है ? " इतना पढ़ते ही उनकी (सिविल सेवा में प्रशासनिक अधिकारी - जो लालू जैसे नेताओं के बच्चे का जूता बाँधते  हैं ) सारी भक्ति धुआँ हो गयी। किसी विधान-सभा के सदस्य ने एकबार स्वामीजी की जीवनी और उपदेशों की संकलित एक छोटी सी पुस्तिका " स्वामी विवेकानन्द का राष्ट्र को आह्वान " को पढ़ने के बाद आश्चर्यचकित होकर कहा था, " ये सब बातों को स्वामीजी ने कहा है ! मुझे तो यह पता भी नहीं था। "
हमलोगों ने यदि स्वामीजी की बातों पर थोड़ा भी ध्यान दिया होता, तो हमारे देश की प्रगति बहुत सुगम हो जाती। हमलोग जिस रास्ते से जा रहे हैं, वह सही रास्ता नहीं है, इसका कितना प्रमाण (कॉमन वेल्थ,2G, कोल गेट के बाद भी ) और चाहिये ? विगत 65 वर्षों से हमलोग राजनैतिक रूप में स्वतंत्र हैं। हमलोगों ने देश को उन्नत राष्ट्र बनाने के जितने भी बड़े बड़े दावे किये थे, वे सभी बहुत ठीक नहीं साबित हुए- क्या इसे सिद्ध  के लिये अभी और अधिक प्रमाण की जरुरत है ?
हाँ, बहुत से लोग ऐसे भी हैं, जो कहते हैं- ' जो हो रहा है, सब अच्छा हो रहा है। ' क्योंकि वे लोग अपने दलगत स्वार्थ या व्यक्तिगत स्वार्थ को सिद्ध करने के उद्देश्य से यथार्थ सत्य के प्रति अपनी आँखे मुन्दे रखना चाहते हैं। सरकारी योजनाओं की वास्तविक सच्चाई क्या है, उसको जानते हुए भी वे अनजान बने रहते हैं, क्योंकि इसीसे उनका अपना उल्लू सीधा होता है। वे दावा करते हैं कि भारतवर्ष  काफी उन्नति हुई है। किन्तु कैसी उन्नति हुई है, उसका अनुभव हमें हड्डी-हड्डी तक में हो रहा है। जिस देश में करोड़ो मनुष्यों को दो जून की रोटी भी नहीं नसीब होती, वहाँ उन्नति के लिये पहले घर-घर में रंगीन टी.वी. पहुंचाए बिना देश की प्रगति नहीं हो रही है। जैसा स्वामीजी कहते थे, भाषण बहुत दे चूका, अब और भाषण नहीं चाहिये-क्या कोई ऐसे महापुरुष हैं, जो देश की साधारण जनता के कल्याण की चिन्ता करते हैं ? क्या कोई युवा वैसा है ? यदि कुछ लोग भी हों, तो कृपा करके आगे आइये। हमलोग इतने निर्दयी बन चुके हैं कि अब हमलोगों में से किसी में भी मनुष्यों का कल्याण कैसे होगा, इस बात पर विचार करने का भी साहस नहीं है। हम केवल अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के बारे में सोचते हैं, या बहुत हुआ तो उसको पूर्ण करने के लिये दलगत स्वार्थ की बात सोचते हैं। यही तो आज हमारे देश की अवस्था है।
और हम जैसे कुछ लोग, जो स्वयं को एक विचारक की श्रेणी में रखते हैं, हमलोग न जाने कितने ही बेकार के तत्वों के उपर बहस करने में उलझे रहते हैं। जैसा ठाकुर कहानी कहते थे, ' एक आदमी आम के बगीचे में पहुंचकर गिनती करने लगा, कितने पेड़ है; उसमें भी कितने किस्म के आम के पेड़ हैं, कहाँ से उस आम की कलम को लाया गया था ? यही सब जानते जानते धुप में अपना सिर गर्म कर लेते हैं। और एक दूसरा व्यक्ति आता है, वह सीधा माली के पास जाकर यह जान लेता है, कि अच्छी जाति के आम का पेड़ कौन सा है ? और उस पेड़ के कुछ आम को खाकर तृप्त हो जाता है।'
उसी प्रकार हमलोगों के लिये भी यह जान लेना आवश्यक है कि सम्पूर्ण देश का कल्याण करने के लिये सबसे पहले क्या करना  अच्छा होगा ? फिर उसे समझ लेने के बाद उसे कार्य में उतारने के प्रयास में लग जाना चाहिए। सबसे पहले हमें अपने भीतर, यह जानने की उत्कंठा, ललक या जोश (ardor) को जगाना आवश्यक है- कि देश का कल्याण क्या करने से हो सकता है ?  हमलोग स्वयं इस बात पर गहराई से विचार करेंगे, और स्वयं हमलोग ही उसका उपाय भी खोज निकालेंगे। दूसरे लोग इस बारे में क्या सोचते, नहीं सोचते हैं,उससे हमें कुछ लेना-देना नहीं है। हमलोगों का आत्मविश्वास इतना घट चूका है, कि हमलोगों में स्वयं इस विषय में विचार करने की क्षमता भी नहीं है; हमारा कल्याण कैसे होगा, इसके लिये विदेशों से विचार भी उधार लेने पड़ते हैं। और यही सब करते करते देश का सर्वनाश हो गया है। यद्दपि हमलोग खाद्यान्न उत्पादन में स्वनिर्भर हो गये है, किन्तु अब भी खाद्यान्न का आयात होता है, दूसरी ओर विडम्बना यह है कि हमलोग खाद्यान्न का निर्यात भी कर रहे हैं। इसके बावजूद लाखो टन अनाज खुले में रखे होने के कारण हर साल सड़ जाते हैं। यही तो है हमारे देश की अवस्था। (क्या हो गया है हमलोगों के नीतिनिर्धारक लोगों को ? क्या हम मनुष्य हैं ?) 
ऐसा क्यों हो रहा है ? इसका कारण यही कि स्वामीजी के परामर्श पर हमलोगों ने थोडा भी ध्यान नहीं दिया है। उन्होंने देश की भलाई के लिये जो भी उपाय सुझाये थे, हमने उनको सुना ही नहीं है। क्योंकि हमलोगों ने स्वामी विवेकानन्द के उपर ' हिन्दुधर्म के प्रवक्ता ' का लेबल लगाकर उनको अलग कर दिया है, और एक ' धर्मनिरपेक्ष -राष्ट्र ' का निर्माण करने का झांसा देकर भारत के नागरिकों को अपना वोट-बैंक बना लिया है।  स्वामीजी भले ही हिन्दू-धर्म के एक महान प्रवक्ता रहे हों, किन्तु (इस धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र में उन जैसे भगवा-धारी सन्त की  क्या आवश्यकता है ? ) हमलोगों को उनकी आवश्यकता नहीं है।
 हमलोगों को (किसी भगवा-धारी सन्त की नहीं बल्कि किसी नकली ) धर्म निरपेक्ष राजनैतिक महात्माओं  (कंग्रेसिया साधू सन्त बिनोबा .... आदि ) की आवश्यकता है। और उनके बताये सिद्धान्तों पर चलते चलते आज हम कहाँ पहुँच चुके हैं, (यहाँ से किधर जाना है, 2014 में किसके युवराज के या अर्थशास्त्रीजी के या 2G के- नेतृत्व में चुनाव होगा ?) यह अभी कुछ तय नहीं है।
हमलोग स्वामीजी को तो बिलकुल नहीं जानते हैं, किन्तु जो उनको जानते थे, उनके मुख से सुना जाता है कि उन्होंने ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया था। किन्तु वे निर्विकल्प समाधि में ही डूबे नहीं रहना चाहते थे। अपनी अधिकांश यात्रा उन्होंने देश भर में पैदल घूम कर पूरी की थी। इस दौरान हर श्रेणी के मनुष्यों के साथ रहकर उनके दुःख-कष्टों को समझा था, किसी भी मनुष्य को दुःख क्यों होता है ? किस प्रकार उनके दुःख को दूर किया जा सकता है ? यह सब उन्होंने खोज निकाला था। हमलोग जब बुद्धदेव के बारे में सुनते हैं कि मनुष्य के दुःख को देखकर वे उसको दूर करने का उपाय खोजने के लिये उन्होंने गया में बोधिवृक्ष ने नीचे बैठकर कठोर तपस्या किया था, तो हमलोगों को यह सब मनगढ़ंत कहानी भी प्रतीत हो सकती है। किन्तु स्वामीजी ने ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया था, किन्तु उस समाधि के आनन्द का भी उन्होने त्याग कर दिया था-इस बात को जब हमलोग उनके मुख से सुनते हैं, जिन्होंने स्वामीजी को देखा था और स्वयं भी ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया था, तो हमलोग इस बात पर अवश्य विश्वास कर सकते हैं।
 क्यों विश्वास कर सकते हैं-इसको भी देखा जाय। जिन बड़े बड़े वैज्ञानिकों के आविष्कारों के विषय में हमलोग जानते हैं, और विश्वास करते हैं, उनके प्रत्येक खोज को हमलोगों ने स्वयं प्रयोगशाला में सिद्ध करके नहीं देखा है, किन्तु विश्वास करते हैं। उसी प्रकार जो लोग उस सर्वोच्च ज्ञान के अधिकारी हैं, उनकी बातों पर भी हमलोग विश्वास कर सकते हैं। हमलोग इस बात को भी जानते हैं कि वही ब्रह्मज्ञानी विवेकानन्द अपने देश भारतवर्ष से इतना प्यार करते थे कि यहाँ के वासियों की दुर्दशा के बारे में सोच-सोच कर अकेले में अश्रु वर्षित करके रोते थे। किन्तु क्या आज भारतवर्ष में एक भी ऐसे नेता हैं, जो मनुष्य के दुःख से कातर होकर अकेले में (भाषण के मंच पर खड़े होकर नहीं ) अश्रुवर्षा करते हैं ? केवल मंच पर चढ़ कर भाषण देते समय नेताओं को घड़ियाली आंसू बहाते हमलोग देख सकते हैं।
वही ब्रह्मज्ञानी विवेकानन्द कितने दिनों पहले कहे थे- " विदेशों में जाकर मैं तुम्हारे वोट, बैलेट, पार्लियामेन्ट आदि समस्त व्यवस्थाओं को नजदीक से देख आया हूँ, हे रामचन्दर ! इसमें आँख में धूल झोंकने के सिवा और कुछ नहीं रखा है। सभी देशों का एक ही हाल है, दस-पाँच चालाक लोग जिस दिशा में देश को चलाना चाहते हैं, उसी दिशा में भेड़ों की झुण्ड के समान (भेंडिया धसान ) सभी लोग बह जाते हैं। " उन्होंने कहा था, " तुमलोग यदि देश को सचमुच प्यार करते हो, देश का यदि निर्माण करना चाहते हो, तो उसके लिये जो मूल कार्य है-' जन-शिक्षा ' (आमजनता को मनः संयोग सिखाने वाली शिक्षा का प्रचार प्रसार करने वाले शिक्षा-क्रांति के अग्रदूतों का निर्माण करने ) पर ध्यान दो। " 
आजकल हमलोग कई रटे-रटाये शब्दों को दुहराते रहते हैं, किन्तु उसके उपर गहराई से सोच-विचार नहीं करते है । वेदान्त का अर्थ ही होता है-साम्यवाद ! भारतवर्ष ने जिस सर्वोत्कृष्ट महान अध्यात्मिक सत्य का आविष्कार किया है, वह है साम्य ! अपने जिस अध्यात्मिक ज्ञान के उपर भारतवर्ष प्राचीन काल से ही गर्व करता आ रहा है, उसपर गर्व करना भारतवर्ष के लिये सर्वथा उचित है। किन्तु बीच में जब (हजार वर्षों की गुलामी के कारण) भारत-वासियों ने अपने पुरखों ऋषि-मुनियों के उपर गर्व करना छोड़ दिया था, उसीके कारण भारतवर्ष का ऐसा अधोपतन दिखाई दे रहा है। ऋषि-मुनियों की सन्तानें पशु की अवस्था में डूबती जा रही हैं (यहाँ भी लिविंग रिलेशन और ...को कुछ मूर्ख अपना रहे हैं !)
स्वामी विवेकानन्द ने पाश्चात्य देशों को चेतावनी देते हुए कहा था, " तुमलोग यदि अपने जीवन में आध्यात्मिकता को नहीं अपनाओगे, तो मात्र अगले पचास वर्षों के भीतर ही तुमलोगों का सामूहिक विनाश की कागार तक पहुँच जाओगे। " उनकी इस भविष्यवाणी को स्वामीजी के देहावसान के केवल 12 वर्ष बाद प्रथम विश्व-युद्ध, और द्वित्य विश्व युद्ध के रूप में, हमलोगों ने सत्य होते देखा जिससे धरती पर कितना विध्वंश हुआ था। आज भी पचास हजार के लगभग परमाणु बम जमा हैं, जिसका 90 % भाग केवल रूस और अमेरिका के हाथों में है। I. C. B. M. (इन्टर कॉन्टिनेंटल बैलेस्टिक मिसाइल) की मारक क्षमता के बारे में हम लोग जानते हैं। इसके अलावा भी रूस और अमेरिका के पास जितने घातक हथियार हैं, उससे अमेरिका, रूस को कितनी ही बार विनष्ट किया जा सकता है। क्योंकि अमेरिका या रूस में से किसी ने भी अभी तक आध्यात्मिकता को ग्रहण नहीं किया है। और स्वामीजी ने उसी समय कह दिया था कि अभी उनको आध्यात्मिकता ग्रहण करने में बहुत देर लगने वाला है।
 उन्होंने उन्हीं की धरती पर खड़े होकर कहा था, कि तुम्हारे यहाँ एक भी सच्चा क्रिश्चियन नहीं है। एक मात्र प्रभु ईसा मसीह ही क्रिश्चियन थे, तुम लोगों में दूसरा कोई व्यक्ति क्रिश्चियन नहीं है। तुम्हारे देश में धर्म के नाम पर जो चल रहा है, वह आध्यात्मिकता नहीं है। केवल कुछ आचार अनुष्ठान को पालन करना ही आध्यात्मिकता नहीं है। आध्यात्मिकता इससे उच्चतर वस्तु है। कार्ल मार्क्स ने कहा था, धर्म सामान्य मनुष्य के लिये विशेष प्रकार के अफीम जैसा है। और हमलोग भी स्वयं को आधुनिक सिद्ध करने के लिये मार्क्स की बात का समर्थन करने लगते हैं। किन्तु धर्म का अर्थ कुछ और ही है। धर्म का अर्थ है-चरित्र ! मनुष्य को धार्मिक होना चाहिये-इसका तात्पर्य क्या है ? मनुष्य को हर हाल में चरित्रवान होना चाहिये-तभी उसको मनुष्य कहा जा सकता है। चरित्रवान होने का अर्थ क्या है ? उसकी स्वार्थपरता कम हो जाएगी, और आदर्श होगा क्रमशः पूर्ण निःस्वार्थी बन जाना। 
सम्पूर्ण रूप से निःस्वार्थ हो जाने की बात पर चिन्तन करने से हमलोगों का शरीर सिहर उठता है। किन्तु पूर्ण रूप से निःस्वार्थ हुए बिना मनुष्य का सर्वांगीन मंगल कभी नहीं हो सकता है। और यह शिक्षा आध्यात्मिकता के सिवा और कोई दे ही नहीं सकता है। किन्तु अपने देश में हम इसका ठीक उल्टा हाल देख रहे हैं। कोई भी आवश्यकता होते ही हमलोग उसका उपाय खोजने विदेश चले जाते हैं। किन्तु हर समस्या का समाधान हमलोगों के भीतर ही है, पर हमलोग उसे खोज कर नहीं देखते या खोजना ही नहीं चाहते। हमलोग क्या कर रहे हैं ? हमलोग कुछ अरबी भाषा की कहनियों को पढ़ रहे हैं, और अपनी पीठ थपथपा रहे हैं कि हमतो बड़े यथार्थवादी हैं।
जबकि हमलोग बिल्कुल यथार्थवादी नहीं हैं, यदि हम सचमुच यथार्थवादी होते-तो ब्रह्मज्ञान को आँचल में बांध कर मनुष्य का कल्याण करने के लिये निकल पड़ते। स्वामीजी ने यही उपदेश दिया था कि अपना सबकुछ न्योछावर करके भी कैसे मनुष्य का कल्याण हो सकता है, क्या उपाय करने से मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है, यही उपाय बताना मेरे जीवन का उद्देश्य है। स्वामीजी केवल पगड़ी बांध कर भाषण देने के लिये ही नहीं आये थे।
 किसी पाश्चात्य साहित्यकार ने कहा था कि स्वामी विवेकानन्द 'काल-वैशाखी ' (Northwester ) के तूफान थे; जिन्होंने मात्र कुछ ही वर्षों के प्रवास में पाश्चात्य देशों की भ्रांत-धारणा को तोड़-मरोड़ कर  तहस-नहस कर दिया था। और उनके गुरुभाई स्वामी अभेदानन्द दीर्घ 25 वर्षों तक श्रावण मास की झड़ी बनकर हमारे देश की आध्यात्मिकता का प्रचार उनके देश में करके उनको शिक्षा दे आये थे। इसका परिणाम है स्वामी अभेदानन्द की पुस्तक- India and Her People. जो उनके भाषणों का संकलन है। एक बार उस देश में एकदम नाईनटी के स्पीड में झड़ाझड़ भाषण देते हुए उन्होंने भारतवर्ष के लोगों का जीवन-मूल्य, उनकी आर्थिक अवस्था की बात, उनके दुःख-दुर्दशा आदि की बातों को उनके सामने रखा था। वह सब सुनकर वहाँ के लोग आगबगुला हो गये थे, क्योंकि वे लोग स्वतंत्रता के पुजारी होते हैं।
स्वामीजी ने भी कई बार उनके स्वतंत्रता-प्रेमी होने की बात का उल्लेख किया है। विशेष रूप से 4 जुलाई के प्रति अपनी कविता में स्वाधीनता का उल्लेख करके उन्होंने चाह था कि इसीके माध्यम से वे समग्र भारतवर्ष की आँखों को खोल देंगे। इस कार्य को करने जिम्मेदारी उनको श्रीरामकृष्ण ने सौंपी थी। वे केवल ' पगले ठाकुर ' नहीं थे। उन्होंने तो सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों के समस्त प्रकार के कल्याण के मार्ग खोज निकाला था। जो लोग समाज की नजरों में पतित हैं, जो लोग भूख से मर रहे हैं, जिनके पास समाज के सामने खड़े होकर अपना परिचय देने लायक कुछ भी नहीं है, वैसे समस्त मनुष्यों को उन्होंने अपने कलेजे से लगा लिया था। सबों के कल्याण का मार्ग बतला देते हैं, और उसे प्राप्त करने की व्यवस्था कर गये हैं। जो लोग अध्यात्मिक पथ से जाना चाह रहे हों, उनकी सहायता जितनी तत्परता से करते हैं, उसी तत्परता के साथ जो भूखे-नंगे हैं, उनको भी  सहायता का दान कर रहे हैं। इसीलिये तो श्रीरामकृष्ण अवतार है, समस्त मानवता के रक्षक और परित्राता हैं। 
भारतवर्ष की उन्नति हमलोगों के द्वारा ही होगी, हमारे देश के अध्यात्मिक सिद्धान्तों के द्वारा होगी, हमारे ही उद्द्य्म से होगी, हमलोगों के कर्मकुशलता से, हमलोगों के प्रेम और निःस्वार्थपरता के द्वारा ही होगी। और इसे करने के लिये हमलोगों को श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द के चरणों में बैठना ही पड़ेगा, और उनको इस विषय के गुरु के रूप में स्वीकार करना पड़ेगा। यह किये बिना दूसरा कोई उपाय नहीं है। विगत 65 वर्षों में हमने बहुत अधिक गलतियाँ की हैं। तथा वर्तमान में जैसी राजनीती चल रही है, वैसे ही चलती रहें, तो आगे भी भूलें होती रहेंगी। (तथाकथित राजनैतिक महात्मा के बताये गये मार्ग पर चलते हुए देश की आज जो दुर्दशा हो रही है, उसमें कोई सुधार होने की सम्भावना नहीं है।)
किन्तु उनके बताये रास्ते पर चलने से भारतवर्ष की उन्नति संभव है। क्योंकि केवल राजनैतिक और आर्थिक मुक्ति के द्वारा देश को उन्नत नहीं किया जा सकता है, देश को महान बनाने के लिये आध्यात्मिकता चाहिये।  हमलोग देख सकते हैं कि पाश्चात्य देश राजनैतिक और आर्थिक रूप से बेहद उन्नत हो चुके हैं, किन्तु उनके हृदय में कितनी कुण्ठा और हताशा भरी हुई है। केवल आध्यात्मिकता के द्वारा ही उनको शान्ति प्राप्त हो सकती है, और यह आध्यात्मिकता उनको प्राच्य से ही प्राप्त करनी होगी। मनुष्य के जीवन और समाज के लिये धर्म की कोई आवश्यकता है या नहीं? धर्म का कोई प्रभाव मनुष्य के जीवन के उपर पड़ता है कि नहीं ? इन दिनों चीन में धर्म के इन्हीं पहलुओं के उपर अनुसंधान चल रहा है। वहाँ के एक नेता ने कहा है कि नैतिक उन्नति हुए बिना आर्थिक उन्नति संभव नहीं है।
आज विश्व के मानवता की रक्षा और कल्याण करना चाहते हों, तो भारतवर्ष और सम्पूर्ण विश्व को साम्य (आत्मा की एकता)  की दिशा में अग्रसर कराना होगा। और यह करने के लिये राजनैतिक साम्यवाद
 (Communism) के सहारे बन्दुक की नोक पर, धन-रंग-जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव को कभी समाप्त नहीं किया जा सकता है, इसके लिये ' वेदान्त के सत्य '- एकम् सत् विप्रा: बहुदा वदन्ति("Truth is One, though the Sages know it as Many.") को सुनना पड़ेगा, मनन करना होगा, और निदिध्यासन का तरीका भी सीखना होगा। ऋगवेद और अथर्ववेद में इसी साम्य के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है- " देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते "- समस्त हवि, जो भी अर्पन किया जाय, उन समस्त चढ़ावे को एकत्र करके, समस्त देवताओं के बीच समान रूप से वितरित किया जाये, ताकि आपस में कोई मतभेद नहीं हो। गीता, उपनिषद, भागवत तथा अन्य समस्त शास्त्रों में साम्य के इसी उपदेश को विभिन्न शब्दों में दिया गया है।
(संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते॥
समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सहचित्तमेषाम्।
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि॥
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनोः यथा वः सुसहासति॥)
 वर्तमान युग में स्वामी विवेकानन्द ने ही पहली बार उपनिषदों में छुपे साम्य के इस उपदेश को ढूँढ़ कर, विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया था। उनके पहले किसी भारतीय विद्वान् के मुख से साम्य की महत्ता के उपर प्रकाश नहीं डाला गया था। उनहोंने कहा था, " मैं एक समाजवादी हूँ।" ऐसा इसलिये नहीं कहते थे कि समाजवाद कोई सर्वांग-सुन्दर मतवाद है, बल्कि ' काना मामा का रहना, मामा नहीं होने से अच्छा है! ' इसी आधार पर अपने को वे एक समाजवादी मानते थे। क्योंकि सभी मनुष्यों के जीवन में परिवर्तन होना अच्छा होता है। जो लोग हमेशा से सुखी जीवन बिताते आ रहे हैं, उनको कुछ दिनों तक दुःख का स्वाद मिलना उचित है; और जो लोग हमेशा से केवल दुःख ही भोगते आ रहे हैं, उनको थोड़े दिनों तक सुख का स्वाद मिलना आवश्यक है। और चुकि समाजवाद ऐसा परिवर्तन लाने का दावा करता है, इसीलिये वे इस प्रयास को अच्छा मानते थे। उन्होंने कहा था कि गली के कुत्तों को भी एक दिन अवसर मिलना चाहिये।
 किन्तु हमलोग विगत 65 वर्षों तक राजनैतिक समाजवाद को ढोते रहने से भी इसे संभव नहीं कर सके हैं। और हमलोग कभी इसे कर भी नहीं सकेंगे, क्योंकि हमलोग ऐसा (सच्चे समाजवादी व्यवस्था को स्थापित करना )चाहते ही नहीं हैं। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में अनुशासन हीनता (और भ्रष्टाचार ) को हमने ही बढ़ावा दिया है। देश का सच्चा हित क्या करने से होगा, इस विषय पर हमलोग कभी गहराई से विचार ही नहीं करते हैं। हमलोग केवल अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की चिन्ता करते हैं, या बहुत हुआ तो (मेरा स्वार्थ हमेशा पूर्ण होता रहे, इसके लिए सत्ता पाने के उद्देश्य से) दलगत स्वार्थ की चिंता भी करते हैं। और इसका जैसा फल हमें मिलना चाहिए था, वैसा ही मिल भी रहा है।
देश को उन्नत करने के लिये हमें क्या करना होगा ? हमलोगों में अनुशासन की भावना को संस्कार-बद्ध करना होगा, सत्य को प्यार करना होगा। अपने देशवासियों को प्यार करना होगा, स्वयं को निःस्वार्थी बनाना होगा, अपने चरित्र में सेवापरायणता के गुण को धारण करना होगा। किन्तु इसके विपरीत यदि हमलोग केवल अपने व्यक्तिगत कल्याण की चिन्ता करें, तो जो होना चाहिए वही हो रहा है, और आगे भी होता रहेगा। स्वामीजीने समाजवाद को अच्छा केवल इसीलिये बताया था, कि अभीतक कार्लमार्क्स के अतिरिक्त अन्य और किसी तथाकथित राजनैतिक महात्मा ने जाती-धर्म-रंगरूप-अर्थ के आधार पर भेदभाव को मिटाने की चेष्टा नहीं की थी। किन्तु इस समाजवाद की बुनियाद वेदान्त के उपर प्रतिष्ठित करना आवश्यक होगा। वेदान्तिक बुनियाद को छोड़ कर हमलोग भारतवर्ष की उन्नति करने में कभी सफल नहीं होंगे।
भारतवर्ष में सम्पूर्ण परिवर्तन हमलोग नहीं ला सके हैं, इसका क्या कारण है ? इसका एकमात्र कारण यही है कि हमलोगों में वेदान्तिक दृष्टि नहीं है, जिसके आधार पर सभी प्रकार के विशेषाधिकार को समाप्त करके, सभी नागरिकों को समानरूप में देखने की बात कही गयी है। जब तक हमलोगों में वेदान्तिक-दृष्टि नहीं आ जाती, तबतक देश में साम्य स्थापित नहीं हो जाता (उंच-नीच,जाती-धर्म का भेदभाव समाप्त नहीं हो जाता) तब तक देश में समग्र सुधार (Overall improvement) की आशा नहीं करनी चाहिये। स्वामीजी ने अन्य किसी सिद्धान्त का प्रचार नहीं किया था। उन्होंने अपने जीवन का होम करके दिखा दिया था,तथा उनके गुरु श्रीरामकृष्ण के जीवन में भी यही साम्य देखा जा सकता है; कि साम्य के सिवा उन्नति और प्रगति अन्य कोई रास्ता नहीं है। हमलोगों के देश में हजारो-हजार वर्ष की जो आध्यात्मिकता रही है, उसके सर्वोच्च शिखर पर जिस महासाम्य को रखा गया है, विशेष रूप से श्रीरामकृष्ण के जीवन में उस साम्य की अभिव्यक्ति देखि जा सकती है। ठाकुर के जीवन में तो कई उदहारण हैं, यहाँ एक-दो उदहारण के द्वारा इस विषय को और स्पष्ट किया जा सकता है। 
एक बार श्रीरामकृष्ण मथुरबाबु के साथ तीर्थ भ्रमण के लिये गये थे।देवघर के पास भूख से मरनासन्न दरिद्र लोगों को देखकर श्रीरामकृष्ण (पहली बार भारत में सत्याग्रह का प्रारंभ ? ) ने उनको छोड़ कर वहाँ से जाने को मना कर दिया था- और मथुर बाबु उनलोगों को भरपेट भोजन कराने, एक माथा तेल देने और एक जोड़ी कपड़ा देने के लिये विवश हो गये थे। श्रीरामकृष्ण देव के साम्यभाव में स्थित होने का प्रमाण एक दूसरे उदहारण में भी देखा जा सकता है, जब  एकबार दक्षिणेश्वर में नाव के उपर किसी बलवान मांझी ने एक दुर्बल मांझी के पीठ पर बहुत जोर का थप्पड़ मारा था। उसका पाँच उँगलियों के दाग श्रीरामकृष्ण की पीठ पर उग आये थे, और वे पीड़ा से चिल्ला उठे थे। और एकबार दक्षिणेश्वर में ही एक व्यक्ति घास के उपर से चला जा रहा था। ठाकुर अपनी छाती पर हाथ रखकर चीख पड़े थे। उनको ऐसा प्रतीत हो रहा था,  मानो कोई उनके सीने को कुचल कर चला गया हो। इसको कहते हैं जीवन में साम्य को प्रतिष्ठित कर लेना। (टाका -माटी, गिरीश-नटी बिनोदनी को शरण देना .....आदि अदि।)
हमलोगों को भी अपने भीतर ऐसा ही साम्य लाना होगा, ऐसी ही उदार दृष्टि रखनी होगी, जहाँ अपने-पराये का बोध तक मिट जायेगा। मन में ऐसी भावना रखनी होगी कि यदि अपना सबकुछ भी चला जाता हो, तो भी कोई हानी नहीं होगी, किन्तु देश का कल्याण अवश्य होना चाहिये। इसी प्रकार की साम्य भावना से भरपूर युवको के एक दल का निर्माण किया जा सके, तभी देश का कल्याण संभव हो सकता है। स्वामी विवेकानन्द द्वारा रचित-'स्वदेश-मन्त्र ' का हमलोगों को सही अर्थ समझना होगा। समस्त देश-वासियों को हमें अपने भाई के रूप देखना होगा, तथा उस प्रेम को अपने आचरण और व्यवहार में अभिव्यक्त करना होगा। तभी देश की वास्तविक उन्नति संभव है। अन्य कोई भी योजना बना लेने से नहीं होगा। स्वामीजी का युवाओं के प्रति यही आह्वान है कि सहानुभूतिशील, देश-प्रेमी, निःस्वार्थी मनुष्यों का निर्माण करो, जो लोग दूसरों के कल्याण के लिये अपना सबकुछ न्योछावर कर देने को प्रस्तुत रहेंगे। केवल इसी प्रकार देश को महान बनाया जा सकता है, और सम्पूर्ण देश का कल्याण हो सकता है। 
गीता में कहा गया है- जिसका मन साम्य में प्रतिष्ठित हो चूका है, वह जगत को भी जीत सकता है। 
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥
भावार्थ :  जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही स्थित हैं॥19॥ 
जिस साम्य को हम श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द के जीवन में देखते हैं, उसी साम्य को हमें उनसे अपने मूलधन के रूप में प्राप्त कर लेना चाहिये। इसके लिए हमें उनके चरणों में बैठना होगा, उनको गुरु मान कर उनकी शिक्षाओं को ग्रहण करना होगा। वे कहते है- निःस्वार्थपर, देश-प्रेमी, निर्भीक मनुष्यों का निर्माण करो, जो अपना जीवन देकर भी विश्वास (आत्मविश्वास) कर सकता हो, तथा इस विश्वास को अपने आचरण के द्वारा अभिव्यक्त करने में सक्षम हो; -तो वैसे युवाओं के लिए सभी देशवासी भाई बन जाते हैं, देश की मिटटी उनका स्वर्ग बन जाता है, देश का कल्याण ही उनको अपना कल्याण प्रतीत होता है। इसी प्रकार के जीवन-मुक्त युवाओं का दल जब देश में सर्वत्र फ़ैल जायेंगे, तभी देश का सच्चा कल्याण संभव होगा। वे लोग जो कुछ भी कार्य करेंगे उसी से देश का कल्याण होगा। नान्यः पन्थाः।  
======

             

शनिवार, 15 दिसंबर 2012

' मनः संयोग क्यों ?' (मनःसंयोग की प्रक्रिया ) [$@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [53](8.मनुष्य का मन)

 ' मनःसंयोग' से अधिक लाभकारी अन्य कोई विद्या में नहीं है !
( यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः)
मनःसंयोग एक ऐसी तकनीक है जिसके बिना कोई भी कार्य करना संभव नहीं होता। कोई भी शिक्षा पूर्ण नहीं होती। अपने जीवन के लक्ष्य को भी हम प्राप्त नहीं कर सकते। इसीलिये मनःसंयोग की पद्धति को सीख लेना हममें से प्रत्येक के लिये अत्यन्त आवश्यक है। किन्तु मनः संयोग का अभ्यास करने के पहले- मन का स्वरुप कैसा है, मन का स्वभाव, मन का  आचार-व्यवहार आदि विषयों के विषय में जान लेना हमलोगों के लिये अत्यन्त आवश्यक है।
सामान्य रूप से मन ही हमलोगों को सभी प्रकार के कर्मों को करने के लिये प्रेरित करता है,  विषय-वस्तु द्वारा आकृष्ट करके, सुख का लोभ दिखाता है और उनके पीछे भागने के लिये बाध्य  कर देता है। यह मन ही है, जो पूर्व में भोगे गये सुखस्मृति का वहन करता है, और  पुनः पुनः उसी सुख का आस्वादन करने की तरफ हमें ले जाता है। मन हमलोगों को अपना गुलाम बनाकर, हमारे उपर प्रभुत्व या मालिकाना हक - जमाने की चेष्टा करता है। जिसके फलस्वरूप हमलोग स्वयं को, ( अपनी महिमा को ) ही भूल जाते हैं। यदि हम अपने जीवन-स्तर को उन्नत करना चाहते हों, मनुष्य-जीवन धारण करने को सार्थक बनाना चाहते हों, जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने की अदम्य इच्छा हो- तो इस अत्यन्त प्रभावशाली मन को अपने वश में, या अपने नियंत्रण में रखना अत्यंत आवश्यक है ।
हमलोगों की समस्त इन्द्रियों - बाह्य इन्द्रिय तथा अन्तः इन्द्रिय से लेकर, स्मृति, कल्पना, विचार,  निर्णय, अच्छा लगना, प्रेरणा, संकल्प आदि - इन समस्त क्रियाओं का उद्गम-स्थान यह मन ही है। किन्तु वह अत्यन्त चंचल है। स्वामी विवेकानन्द से हमलोगों ने सुना है कि मन का स्वभाव अत्यन्त चंचल है। [ मनो मर्कटो मदीरो उन्मत्तः वृश्चिको दंशितः पश्चात् भूत आरुढ़ो '] फिर  विभिन्न प्रकार की कामना -वासना (व्यक्तिवाद एवं स्वार्थपरता )  मन की स्वाभाविक चंचलता को असाधारण रूप चंचल बना देती है। 

व्यक्तिवादी सोच एवं स्वार्थपरता (Individualist thinking and selfishness) ही हमलोगों की स्वाभाविक कमजोरी या दोष है। इसीके कारण हम को स्वयं को दूसरों से अलग समझने के भ्रम में पड़ जाते हैं ! यह आत्म-केन्द्रिकता और स्वार्थपरता हमें व्यक्तिगत सुख पाने के प्रति अधिक प्रलोभित करती है। इसीलिये दूसरों के सुख को देखकर हमलोग ईर्ष्या करने लगते हैं। उसी ईर्ष्या का डंक हमारे चंचल मन को और अधिक चंचल कर देता है। फिर उस चंचल मन पर जब अहंकार का भूत सवार हो जाता है, तो उस अहं का हाई इलेक्ट्रिक वोल्टेज (उच्च विद्युत-विभव)  हमलोगों के मन को उन्मादी (सनकी) बना देता है। इस प्रकार के  'उन्मत्त-स्वभाव' मन का दमन करना अत्यन्त कठिन है। किन्तु इसके साथ साथ यह बात भी हमें ठीक से समझ लेनी चाहिये कि - ' कठिन होने से भी मन को वश में लाना असंभव नहीं है।'
 [मनःसंयोग की प्रक्रिया : १. लाभ क्या होगा ?/ २. मन का स्वभाव कैसा ? गीता ६. ३४ / ३. मन का दमन कठिन है, जानकर भी हताश न होना, उपाय जानना अभ्यास -वैराग्य,गीता ६.३५ /४. उसमें भी कठिनाई हो तो अभ्यास योग गीता १२.९ की विधि से या मनःसंयोग का अभ्यास । ]
मनःसंयोग का प्रथम चरण: सर्वप्रथम हमलोगों यह स्पष्ट रूप से जान लेना होगा कि यदि अपने जीवन में सफलता अर्जित करनी हो, यदि जीवन को सार्थक करना हो, या जीवन-लक्ष्य को ( या चार पुरुषार्थों में से किसी पुरुषार्थ को ) प्राप्त करना हो, - उसमें सबसे प्रमुख भूमिका मन की ही होती है। वशीभूत मन की सहायता से जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलता अर्जित की जा सकती है। 
दूसरा चरण: मन के स्वाभाव को जानना होगा, मन का गठन किन उपादानों से हुआ है,इसे समझना होगा, स्वाभाव से चंचल मन व्यक्तिवादी सोच और स्वार्थपरता या अत्यधिक लालची होने से 'मदीरो उन्मत्तः वृश्चिको दंशितः पश्चात् भूत आरुढ़ो ' जितना वेरी हाई वोल्टेज वाला अहंकारी और उन्मत्त बन जाता है। मन की अतिरिक्त चंचलता के कारण को जान लिया। दूसरे चरण में मन का दमन करना, उसे वशीभूत करना क्यों अत्यन्त कठिन है; यह सब जान लिया । किन्तु यह सब जानकर भी हताश होने से काम नहीं चलेगा। क्योंकि जब मन की दुर्दमनीयता से हताश होकर गीता ६.३४ में अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं - 
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।
क्योंकि हे कृष्ण मन बड़ा ही चञ्चल प्रमथनशील दृढ़ (इन्द्रियों को मथ देने वाला जिद्दी) और बलवान् है। उसका निग्रह करना मैं वायु को मुट्ठी में पकड़ने की तरह अत्यन्त कठिन मानता हूँ। 
तीसरा चरण:  श्रद्धा, साहस निर्भीकता, निःस्वार्थपरता, त्याग और सेवा केवल इन पाँच भावों को जीवन में धारण कर लेने से मन को पूरी तरह से जीत कर उसका प्रभु बना जा सकता है ! अर्जुन को भी दुर्दान्त मन को वशीभूत करने की तकनीक बताते हुए भगवान श्रीकृष्ण गीता ६. ३५ में कहते है, पहले तो तुम हताश मत होओ ! - मन कोई डॉन नहीं है ! " मन को पकड़ना मुश्किल तो है, किन्तु नामुकिन नहीं !   
 असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌ । 
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
श्रीभगवान् बोले हे महाबाहो यह मन बड़ा चञ्चल है और इसका निग्रह करना भी बड़ा कठिन है यह तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक है। परन्तु हे कुन्तीनन्दन अभ्यास और वैराग्यके द्वारा इसका निग्रह किया जाता है।  
चौथा चरण : मनःसंयोग का अभ्यास इसी अभ्यास योग या ' BE AND MAKE ' को स्पष्ट करते हुए गीता १२.९ में कहते हैं -
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।
 
यदि इस प्रकार यानी जैसे मैंने बतलाया है उस प्रकार तू मुझमें चित्तको अचल स्थापित नहीं कर सकता? तो फिर हे धनंजय तू अभ्यासयोगके द्वारा -- चित्तको सभी इन्द्रिय विषयों से खींचकर, एक अवलम्बनमें (प्रत्याहार और धारणा : मन को अंतर्मुखी बनाकर हृदय में विद्यमान अपने इष्टदेव में बारम्बार एकाग्र करने) लगानेका नाम अभ्यास है! उससे युक्त जो समाधानरूप योग है? ऐसे अभ्यासयोगके द्वारा -- मुझ -- विश्वरूप परमेश्वरको प्राप्त करनेकी इच्छा कर। (गीता अध्याय 12 श्लोक 9 की टिप्पणी में इसका विस्तार देखना चाहिए।)
ये भगवान के वचन हैं कि -' मन को वश में लाना, उसको अपने नियंत्रण में रखना बिल्कुल संभव है।' उनके इस वचन के उपर पूर्ण विश्वास करके, इस बोध से, दृढ़ आत्मविश्वास से भरपूर अटल संकल्प लेकर, लगभग असम्भव से लगने वाले इस कार्य को, हममे से प्रत्येक को इसी जीवन में संभव कर दिखाना होगा।

यदि हमलोग इस विषय में विफल हो जायेंगे, ' सर्वोत्कृष्ट लाभ '-वंचित रह जायेंगे, तो हमलोगों का मनुष्य-जीवन धारण करना ही व्यर्थ हो जायेगा। अधिकांश मनुष्य इस मानव-शरीर को सर्वश्रेष्ठ योनि और मनुष्य-जीवन को महा-मूल्यवान जीवन क्यों कहा जाता है, इस बात से परिचित नहीं हैं। त्रय-दुर्लभं के महत्व को नहीं जानते हैं। इसीलिये हमारे इस महमूल्यवान जीवन का अधिकांश हिस्सा व्यर्थ के कार्यों में ही क्षय हो जाता है। जीवन में मिलने वाली प्रत्येक असफलता का मूल कारण केवल एक है- मन के उपर संयम या निन्त्रण का आभाव। 
हमलोगों में से अधिकांश व्यक्ति बचपन में या किशोरावस्था में मन के यथार्थ स्वरूप को, उसके गठन के उपादान, उसके  स्वभाव (मन की दशा या ' temperament ') को नहीं जानते हैं।  मन की अनन्त शक्ति या मन की चंचलता के विषय में नहीं जानते हैं, उसको नियंत्रण में लाने या वशीभूत करने की क्या आवश्यकता  है? इन सब बातों  को समझ ही नहीं पाते हैं।  मन को वश में करने के लिये जैसा आत्मविश्वास होना चाहिये, वैसा आत्मविश्वास और आत्मश्रद्धा ही नहीं है। मन को वश करूँगा-ऐसा कोई संकल्प नहीं है, इसके लिये प्रयास भी नहीं करते हैं, या कभी करते भी हैं, तो अध्यवसाय पूर्वक नहीं करते हैं, जिसके फलस्वरूप हमलोगों का जीवन असफल हो जाता है।
हमलोगों यह बात अच्छी तरह से समझ में आ जानी चाहिये कि, भले हम विद्वान् नहीं हों, धनवान नहीं हों, भोग-ऐश्वर्य के अधिकारी भी नहीं हों, तो भी हमारा जीवन विफल नहीं होगा, किन्तु यदि हम अपने मन के उपर नियंत्रण नहीं स्थापित कर सके, तो हमलोगों का जीवन अवश्य विफल हो जायेगा। किन्तु केवल इसी एक मात्र कौशल को-मनःसंयोग के तकनीक को सीख लेने से हमलोगों का जीवन सार्थक हो जायेगा। किन्तु यह सब जान लेने के बाद भी बहुत से मनुष्यों में जीवन को सार्थक बनानेवाली, जीवन- लक्ष्य तक पहुंचा देने वाली, मनः संयोग के पद्धति को सीख लेने की जैसी तड़प होनी चाहिये, वैसी तड़प नहीं होती। हमलोग कई तरह के कार्य कर सकते हैं, अपने अनगिनत स्वार्थों को पूर्ण कर सकते हैं, किन्तु यह नहीं जानते कि,
चाहे स्वार्थ-सिद्धि चाहते हों या परोपकार करना चाहते हों- यदि पहले मन को ही हम वशीभूत नहीं कर सकें तो अन्ततो गत्वा कुछ भी सार्थक नहीं होगा। इतना ही नहीं, हमारा जीवन भी मनः संयोग सीखे बिना अन्य किस उपाय से सार्थक नहीं हो सकता है। 
यदि हमलोग भी अपने अन्तर्निहित ब्रह्मत्व के प्रति, नचिकेता के सामान या स्वामी विवेकानन्द के समान श्रद्धावान, आत्मविश्वासी और दृढ़-निश्चयी  (confident) हों,अपनी सनातन संस्कृति और विचारधारा के प्रति पूर्ण आस्था रखते हों, तो हमलोगों में हमलोगों में ऐसा आत्मविश्वास रखना होगा कि किसी भी कार्य को आरम्भ करने के पहले, किसी भी प्रकार के विषय पर अपना विचार और शक्ति को नियोजित करने के पहले, विवेक-प्रयोग द्वारा इस मन के उपर नियंत्रण रखने की साधना को कठोर परिश्रम, प्रयत्न, अध्यवसाय के साथ करते रहेंगे। 
यह कार्य अत्यन्त कठिन है। किन्तु इस कार्य की उपेक्षा करने से, आलस्य करने से, प्रयत्न में कमी रहने से , एक-मुखीनता या निष्ठा में थोड़ी भी कमी रहने से, (अपने क्षुद्र-मैं के घेरे का जीवन) व्यक्तिवाद और निजीस्वार्थ के भोग और ऐश्वर्य की लालसा को पूर्ण करने की चेष्टा हो या परोपकार, समाज या मनुष्यों की सेवा करनी हो, सारे उद्द्म भी पूर्ण रूप से विफल हो जाएँगी। यदि हमलोग केवल इसी एक विषय को भी सीख सकें, तो हमलोगों का परवर्ती जीवन, अभी जैसा है, अवश्य उससे कई गुना अधिक उन्नत बन जायेगा। किन्तु इस विषय को यदि नहीं सीखें, नहीं जानें, इस विषय के महत्व के प्रति यदि हमारी दृष्टि आकृष्ट नहीं हो सके, इस विषय को जान लेने की प्रेरणा यदि हमारे मन में नहीं उठे, तो चाहे किसी भी विषय की बात हम क्यों न सोचें, या किसी भी योजना के क्रियान्वन की पद्धति को आविष्कृत करने की चेष्टा क्यों न करें, वे सब तो विफल होंगी ही, हमारे जीवन में भी सार्थकता आने की कोई सम्भावना नहीं होगी। 
यदि हमलोग वर्तमान जन्म में, अर्थात जिस शरीर में रहते हुए हमारा यह जीवन चल रहा है, उस एक सम्पूर्ण जीवन में - भले ही हम देशोद्धार न कर सकें,  भले ही हम परोपकार नहीं कर सकें, भले ही हम अपने व्यक्तिगत जीवन में आत्म-केन्द्रिक सुखभोग, सम्पत्ति-ऐश्वर्य नहीं अर्जित कर सकें, तो इन नाकामीयों के बावजूद कुछ आने-जाने वाला नहीं है। किन्तु यदि इसी शरीर में रहते रहते मनः संयोग का अभ्यास करके उसको पूरी तरह से वश में ला सकें तो, हमारा यही जीवन अवश्य सार्थक हो जायेगा। फिर इसके बाद जो जीवन मिलने वाला होगा (अवश्य हम यदि पुनर्जन्म में विश्वास करते हों तब ),उस जीवन में हमलोग अवश्य अधिकाधिक कार्यों को सफलता पूर्वक सम्पन्न कर लेंगे। (अर्थात भविष्य में यदि कोई व्यक्ति देशोद्धार और परोपकार का कार्य करना चाहता हो तो उसे पहले इसी जीवन में मन के ऊपर विजय प्राप्त कर लेना होगा। )
स्वामी विवेकानन्द के बारे में हमलोग चर्चा करते हैं, सुनते हैं, पढ़ते हैं,और  ऐसा मानते हैं कि हम उनको जानते हैं। किन्तु यदि ध्यान से देखें तो समझ में आयेगा कि मनः संयोग के बारे में अबतक जितनी बातें हुई हैं, वे सब विवेकानन्द की ही बातें हैं। हमलोग यदि मनः संयोग नहीं सीखें, तो न अपना और न देश का कोई लाभ होगा। इसलिये भारत का निर्माण करना चाहते हों,तो मनः संयोग के कौशल को सीखना हमारा प्रथम कर्तव्य है। प्रथम कर्तव्य की ही उपेक्षा कर दें, और लोगों को दिखाने के लिये बड़ी बड़ी योजनाओं की घोषणा करते रहने से कोई लाभ नहीं होगा।

पहले जमाने में किसी कमजोर छत्र को भी दो क्लास पास करके उन्नित करने (promoted) का रिवाज था, या ऐसा भी था की जिसने परीक्षा में अच्छा रिजल्ट नहीं क्या हो, किन्तु अनुग्रह-अंक देकर उसको अगली कक्षा में प्रोन्नत कर दिया जाता था, किन्तु वैसा करने से छात्र का कुछ भला नहीं होता था, बल्कि उनका अकल्याण अवश्य होता था। क्योंकि उनकी बुनियाद तो कच्ची ही रह जाती थी। ठीक उसी प्रकार हमलोगों के जीवन की बुनियाद कच्ची रह जाएगी, यदि हम पहले अपने मन को नियंत्रण में रखना न सीख कर, अपने जीवन में सुख-संपदा अर्जित करने की चेष्टा करें।  या कहें कि जगत का उद्धार कर रहा हूँ, वह सब विफल हो जायेगा-यही स्वामी विवेकानंद की शिक्षा है। स्वामी विवेकानन्द के विभिन्न संदेशों को सुनकर हम कितना भी दावा करें, कि उनको समझा है, उनका कार्य कर रहा हूँ, कहकर अपनी पीठ कितनी भी थपथपा ली जाय, किन्तु यदि मनः संयोग का अभ्यास नहीं करते हों, तो यह हमारी बुद्धि की अल्पता का ही परिचायक होगा।
 यदि यह सोचकर कि मनःसंयोग को समझना और समझाना तो बड़ा कठिन है, इस विषय को छोड़ कर  स्वामीजी के प्रथम आदेश को ही उपेक्षित कर, स्वामीजी की अन्य आसानी से समझ में आ जाने वाली संदेशों की विवेचना करके यह सोचे कि हमने उनको जान लिया है, तो यह बहुत बड़ी भूल होगी। ध्यान रहे कि महामण्डल में आ जाने के बाद भी हमसे वह भूल नहीं हो।

======
[यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
भावार्थ :  (चित्त वृत्तियों के रुक जाने के बाद-)परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उसे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मा प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थित योगी बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता॥22॥] 

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

' संसारी और संन्यासी' (दोनों को आवागमन से संन्यास लेना होगा ) [ $@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [52] (8.मनुष्य का मन),

 संसारी की अपेक्षा संन्यासी  बड़ा है।
संसारी (गृहस्थ) का अर्थ गाड़ी-बंगला नहीं, संसारी माने स्त्री-पुत्र के साथ रहना भी नहीं, या जो मांस-मछली खाता हो- वह भी नहीं । शास्त्रों के अनुसार संसार का सही अर्थ है- आना और जाना, या जन्म-मृत्यु। जन्म और मृत्यु के इसी चक्र का नाम है-संसार।  ' संसार ' एक तात्विक शब्द है; जिसका तात्पर्य है- जन्म-मृत्यु के बाद पुनः जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म की एक श्रृंखला में अवस्थान करना ।
संन्यास का अर्थ है, सम्यक रूप से त्याग कर देना। ' न्यास ' शब्द का अर्थ होता है-त्याग। सम -का अर्थ है, सम्पूर्ण रूप से त्याग। किसका त्याग करना है ? उसी बन्धन का त्याग करना है, जिसके कारण मनुष्य संसार में बन्ध जाता है। यदि संसार का सही अर्थ में प्रयोग करें, तो संसार को त्याग देने का अर्थ 'जन्म-मृत्यु' को त्याग देना भी कहा जा सकता है। संसार-बन्धन में रहने का अर्थ है, जन्म-मृत्यु के चक्र से बाहर नहीं निकल पाने वाली अवस्था में रहना। और संन्यास का अर्थ है, सब कुछ का त्याग कर देना। जब हम  सब कुछ का त्याग करते चले जायेंगे, तो अन्त में क्या देखेंगे ? यही कि, सबकुछ का त्याग करने का अर्थ ही हुआ, कामनाओं को त्याग देना। क्योंकि सारे बन्धन कामनाओं के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं। 

कामना से जो वस्तु अभी मेरे पास नहीं है, उसे पाने की इच्छा होती है। उसको 'योग' कहते हैं। और जो है, उसको सुरक्षित रखने की इच्छा भी होती है। उसको 'क्षेम' कहते हैं। और जो कुछ हमारा है, उसको भोगने की इच्छा होती है, इसीको भोग कहा जा सकता है। जैसे ही हम किसी वस्तु का भोग करते हैं, उससे एक प्रकार का सुख उत्पन्न होता है, और जिस वस्तु से कभी सुख मिला हो उस वस्तु की एक स्मृति रह जाती है। सभी प्रकार के सुख क्षणस्थायी ही होते हैं; - जैसे ही सुख का अन्त हो गया, उसके बाद उस वस्तु में सुख का अनुभव नहीं हो रहा है, उस अवस्था में सुख-विशेष की स्मृति ही जमा पूंजी रहती है। मैंने जिस प्रकार के सुख का अनुभव किया था, वह सुख तो हाथ से निकल गया है, किन्तु उसकी स्मृति बनी हुई है। किसी सुख-विशेष की स्मृति जैसे ही उपर उठेगी, उसी समय उसका भोग करने की वासना भी जाग्रत हो जाएगी। विचार उठेगा- अभी तो था, किन्तु भोग करने की क्षमता से वह सुख बाहर निकल गया है, फिरभी उसीको पाना चाहिये इसलिये उसके पीछे दौड़ते रहो। जो पा लिया है, उसको सुरक्षित रखने की चेष्टा भी करनी होगी। जो सुरक्षित है, उसको भोग करने की चेष्टा करूँगा। जिसे भोगा उससे सुख उतपन्न हुआ , पुनः सुखास्मृति संचित हो गयी , किन्तु वह सुख हाथ से बाहर निकल जायेगा। यही करते करते वर्तमान जीवन की अतृप्त वासनाओं का पहाड़ लेकर यह शरीर छूट गया। 
शरीर तो समाप्त हो गया, किन्तु मन का अन्त नहीं होता है, मन वैसा ही रहता है। कैसे बना रहता है, इसको स्पष्ट रूप से समझाया नहीं जा सकता है। किन्तु शरीर छूटने के बाद भी मन रहता है ! मन किसको कहेंगे ? मन एक प्रकार की क्रिया है, मन का अस्तित्व उसकी क्रिया में रहता है। जब तक क्रिया हो रही है, तब तक मन बना रहता है। उसकी क्रिया बन्द हो गयी का अर्थ हुआ मन भी समाप्त हो गया।
एक स्थान पर स्वामीजी कहते हैं, मैं क्या हूँ ? वस्तु-समुद्र में एक तरंग/भँवर मात्र तो हूँ मैं ! आइन्सटाइन कहते हैं, वस्तु या पदार्थ क्या है -वे शून्य की एक वक्रता मात्र हैं। यदि यह सत्य हो, तो संसार के सभी पदार्थ भी शून्य हो जाते हैं। तो फिर वस्तु या पदार्थ वास्तव में क्या है ? यह शून्य ही मानो मुड़-सिकुड़ कर कुछ है, ऐसा प्रतीत हो रहा है। अनेक वस्तुओं को हमलोग इसी रूप में देख रहे हैं। मानलो एक पारदर्शी कागज का आवरण है, या महीन  सा कोई भी आवरण है, जो लगभग रंगहीन हो,जिसे रखने पर हठात कोई नहीं कह सकता कि वहां कुछ है। किन्तु यदि उसीको थोड़ा मोड़-सिकोड़ कर रख दिया जाय, तो हमारी दृष्टि पहले वहीं जाएगी। आइन्सटाइन भी यही कह रहे हैं, कि शून्य ही मानो मुड़-सिकुड़ कर आखों से दिख रहा है। वही शून्य जिसे देखा नहीं जा सकता, किसी स्थान पर मुड़-सिकुड़ गया है, इसीलिये वहाँ किसी वस्तु या पदार्थ के होने का भ्रम हो रहा है।
स्वामीजी कहते हैं- हमलोग क्या हैं ? (प्राण) वस्तु-समुद्र में एक भँवर-विशेष ही तो हैं। मानलो किसी बर्तन में जल रखा हुआ है, जो बिल्कुल ही स्वच्छ है, और जल जितना ही शुद्ध होगा, वह उतना ही रंगहीन और पारदर्शी होगा। तथा रंगहीन वस्तु को देखना संभव नहीं होता है। जल यदि बिल्कुल स्वच्छ (তরতরে ) या शीशे के जितना पारदर्शी हो, तो जल है कि नहीं- यह भी समझ में नहीं आता। यदि किसी वर्तन में पूरा भर कर (টোইটেম্বুর) जल रखा हो, तो कई बार  सन्देह होता है, पानी है भी या नहीं ? कहीं खाली तो नहीं है ? थोड़ा ठीक से देखने पर या उसमें थोड़ा कम्पन होने से समझ में आता है, कि हाँ जल तो है। मानलो किसी बर्तन को जल से पूरा भर दिया गया है। अचानक देखने पर लगता है, जल है? या नहीं है ? किन्तु जल जब थोड़ा कम हो जाता है, तब महसूस होता है कि हाँ जल तो है।
 उसी प्रकार हमलोग भी वस्तु-समुद्र में तरंग मात्र हैं। हमलोगों की नदियों का जल बहुत स्वच्छ नहीं होता किन्तु मानलो किसी नदी का जल एकदम स्वच्छ और पारदर्शी है, और उस नदी का जल समान वेग से बहता जा रहा हो, तो नदी की सतह समझ में नहीं आती है। किन्तु जल में तरंग उठने से, जल की परत समझ में आती है। और यदि उसमें कोई भँवर या घुर्नी भी बन रही हो, तो नजरें उसी स्थान पर अधिक जाती हैं। स्वामीजी कहते हैं, वास्तव में हमलोग पकड़ में न आने वाले खाली-स्थान मात्र हैं, किन्तु भ्रम होता है कि हम हैं। यथार्थ रूप में हमलोग एक भँवर मात्र हैं।
 उसी प्रकार मन भी कुछ नहीं है, कोई वस्तु नहीं है, किन्तु एक प्रकार की क्रिया-विशेष मात्र है। तर्क, इच्छा , संकल्प, निर्णय इत्यादि मन की ही क्रियाएं हैं। इन सब क्रियाओं के होने से ही प्रतीत होता है कि कोई एक वस्तु है, जो ये सब क्रियायें करता है। जैसे किसी शान्त निस्तरंग जल का अस्तित्व भी समझ में नहीं आता, किन्तु उसमें कही भँवर रहने से, उसका अस्तित्व आसानी से समझा जा सकता है। उसी प्रकार मन भी एक न-होने जैसी वस्तु ही है, किन्तु जब वहाँ पर कोई स्पन्दन होता है, लहर के जैसा कुछ उत्पन्न होता है- उसी लहर को तात्विक भाषा में वृत्ति या विक्षेप कहा जाता है; और तब यह समझ में आता है, कि मन जैसी कोई चीज है।
जहाँ कही कोई प्राणी है, वहाँ पर मन भी अवश्य है। किन्तु मन कहाँ अवस्थित है, यह बताया नहीं जा सकता है। फिर भी जन्म के समय से ही मन अवश्य रहता है। और मृत्यु होने से भी मन समाप्त नहीं हो जाता है, सूक्ष्म रूप में बना रहता है। मन का अस्तित्व मृत्यु के बाद भी कैसे बना रहता है ? इस बात को समझाया नहीं जा सकता है। मन में जो विभिन प्रकार की क्रियायें- संकल्प,विकल्प या वृत्ति या अच्छा-बुरा का विवेक या निर्णय इत्यादि निरन्तर चलती रहती हैं, कभी रूकती नहीं हैं। जिस समय शरीर क्रिया करना बिल्कुल बन्द कर देता है, जिस अवस्था को हमलोग मृत्यु कहते हैं, उस समय मन की क्रियायें उपरी तौर से स्थगित हो जाती हैं, किन्तु नष्ट नहीं होतीं। मृत्यु के समय व्यक्ति का मन जिस अवस्था में था, उसी अवस्था से वह दुबारा एक शरीर प्राप्त करता है, जो शरीर- शरीर की क्रियायें करने में सक्षम हो, उसके साथ संयुक्त होकर, वह अपनी अतृप्त वासनाओं  को संतुष्ट करने की चेष्टा करता है। इसीका नाम है संसार। यदि ऐसी बात है, तो संसार का बीज कहाँ है ? मन के अन्दर ! संन्यास का क्या अर्थ है ? यही, कि इस बीज से कामना-वासना को दूर करना होगा। क्योंकि मन में जो बीज है, उससे जो बंधन होता है, उसीके फलस्वरूप जन्म-मृत्यु का जो नियम है-उससे होकर गुजरना ही पड़ता है। इसलिये यदि इस मूल कारण-बीज में से ही समस्त प्रकार की कामना- वासना को यदि किसी समय में दूर कर दिया जाय, तो उसी क्षण मुक्ति प्राप्त हो जाएगी। ऐसा करने में समर्थ हो जाने पर ह्मलोगों को फिर से जन्म-मृत्यु की यन्त्रणा का भोग नहीं करना पड़ेगा। इस प्रकार यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि संसारी की अपेक्षा संन्यासी  बड़ा है।
अब प्रश्न है कि छोटे -बड़े की धारणा रहने से क्या होता है ? स्वाभाविक रूप से जो अच्छा है, हमलोग उसी पाने की दिशा में आगे बढ़ते हैं। हमलोगों के गले में फन्दा डाल दिया गया है, हड़-बड़ी में इस फन्दे को खोलने की जितनी भी चेष्टा करेंगे, वह फन्दा उतना ही कसकर बैठ जायेगा। इसीलिये हम सभी लोगों को इस प्रकार प्रयत्न करना होगा कि हमलोग उस कड़े गाँठ को ढीला कर सकें।
इसलिये हमें ऐसा नहीं समझना चाहिये कि संसारी अर्थात गृहस्थ-जीवन में भोग करना है, और संन्यासी को त्याग करना है। लगभग सभी मनुष्य संसार में ही हैं, तथा सबों को - गृही हो या संन्यासी सही अर्थ में दोनों को ही संसार के बाहर (आवागमन के चक्र से बाहर ) जाकर बिल्कुल सच्चे अर्थों में संन्यास -प्राप्त करना होगा। यही समस्त मनुष्यों का चरम लक्ष्य है, तथा इसके उपर समस्त मनुष्यों का समान अधिकार भी है। इस बात को समझ लेना सबी के कल्याण-प्रद है। नहीं समझे तो, संसार में चक्कर लगाने की सजा भोगनी ही होगी।