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Friday, December 14, 2012

' संसार और संन्यास' (সংসার ও সন্ন্যাস) (दोनों को आवागमन से संन्यास लेना होगा ) [ $@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [52] (8.मनुष्य का मन),

 'संसार और संन्यास' 

       शास्त्रों के अनुसार 'संसार' का सही अर्थ है- आना और जाना, या जन्म-मृत्यु। जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म के इसी चक्र का नाम है-संसार। संसार का अर्थ गाड़ी-बंगला नहीं, संसार माने स्त्री भी नहीं, जो मांस-मछली खाता हो- वह भी नहीं । ' संसार ' एक तात्विक शब्द है; जिसका तात्पर्य है- जन्म-मृत्यु के बाद पुनः जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म की एक श्रृंखला में अवस्थान करना ।
      'संन्यास' का अर्थ है, सम्यक रूप से त्याग कर देना। ' न्यास ' शब्द का अर्थ होता है-त्याग। सम -का अर्थ है, सम्पूर्ण रूप से त्याग। किसका त्याग करना है ? उसी बन्धन का त्याग करना है, जिसके कारण मनुष्य संसार में बन्ध जाता है। यदि संसार का सही अर्थ में प्रयोग करें, तो संसार को त्याग देने का अर्थ 'जन्म-मृत्यु' को त्याग देना भी कहा जा सकता है। संसार-बन्धन में रहने का अर्थ है, जन्म-मृत्यु के चक्र से बाहर नहीं निकल पाने वाली अवस्था में रहना। और संन्यास का अर्थ है, सब कुछ का त्याग कर देना। जब हम  सब कुछ का त्याग करते चले जायेंगे, तो अन्त में क्या देखेंगे ? यही कि, सबकुछ का त्याग देने का अर्थ हुआ, कामना को ही त्याग देना। क्योंकि कामना करने से ही सब कुछ आता है। कामना से जो वस्तु अभी मेरे पास नहीं है, उसे पाने की इच्छा मन में उठती है। उसको 'योग' कहते हैं। फिर जो कुछ है, उसको सुरक्षित रखने की इच्छा भी होती है। उसको 'क्षेम' कहते हैं। और जो कुछ है, उसका भोग करने की इच्छा होती है। इसको भोग-वासना भी कहा जा सकता है। जैसे ही हम किसी इन्द्रिय-विषय (रूप-रस-स्पर्श-गंध-शब्द आदि) का भोग करते हैं, उससे एक विशेष सुख उत्पन्न होता है, और जैसे ही किसी विषय का सुख अनुभव हुआ, उसकी एक छाप चित्त पर पड़ जाएगी और (कार्बन-कॉपी की तरह) उसकी एक स्मृति शेष रह जाएगी। 
सभी प्रकार के सुख क्षणिक ही होते हैं; जैसे ही सुख-भोग समाप्त हो गया, उसके बाद देखते हैं उस वस्तु में सुख का अनुभव नहीं हो रहा है, उस अवस्था में सुख-विशेष की स्मृति ही जमा पूंजी रहती है। मैंने जिस प्रकार के सुख का अनुभव (जैसे रसगुल्ला में सुख का अनुभव) किया था, वह सुख तो हाथ से निकल गया है, किन्तु उसकी स्मृति बनी हुई है। उस सुख-विशेष की स्मृति पुनः जैसे ही उपर उठेगी, उसी समय उसका भोग करने की इच्छा (वासना) भी जाग्रत हो जाएगी।  विचार उठेगा- अभी तो था, किन्तु अब पहुँच से बाहर  निकल गया है, उसीको फिर से पाना होगा, इसलिये उसके पीछे दौड़ते रहो। जैसे ही वह वस्तु प्राप्त हुई - उसको सुरक्षित रखने की चेष्टा भी करनी होगी। जो पदार्थ सुरक्षित है, उसको भोग करने की चेष्टा होगी । जैसे ही भोगा उससे सुख का अनुभव हुआ। फिर सुखास्मृति, वह क्षणिक सुख फिर हाथ से निकल गया। यही करते करते वर्तमान जीवन की अतृप्त इच्छाओं, वासनाओं का पहाड़ छाती पर लिए यह शरीर छूट गया। शरीर तो समाप्त हो गया, किन्तु मन (अहं) का अन्त नहीं होता है, मन वैसा ही रहता है। कैसे बना रहता है, इसको स्पष्ट रूप से समझाया नहीं जा सकता है। किन्तु शरीर छूटने के बाद भी मन रहता है ! मन किसको कहेंगे ? मन एक प्रकार की क्रिया है, मन का अस्तित्व उसकी क्रिया में रहता है। जब तक क्रिया हो रही है, तब तक मन बना रहता है। मन का काम जैसे ही रुका, (चित्त-वृत्तियों का जैसे ही निरोध हो गया), उसकी क्रिया बन्द हो गयी मन भी समाप्त हो गया।
एक स्थान पर स्वामीजी ने कहा है,  " मैं क्या हूँ ? इस अनंत जड़-समुद्र में एक भँवर मात्र तो हूँ मैं ! [-अर्थात" इस मेज से वास्तव में मेरा कोई भेद नहीं। यह मेज अनंत जड़राशि का मानो एक बिंदु है और मैं उसीका एक दूसरा बिंदु। प्रत्येक साकार वस्तु (नाम-रूप) इस अनंत जड़-समुद्र ( infinite ocean of matter) में मानो एक भँवर (whirlpool ) है। कोई भी भँवर सारे समय एकरूप नहीं रहते।" (प्राण, राजयोग १/६२) There is no real difference between the table and me; the table is one point in the mass of matter, and I another point. Each form represents, as it were, one whirlpool in the infinite ocean of matter, of which not one is constant.] विज्ञान की दृष्टि से यदि पूछा जाये कि - साकार वस्तु या पदार्थ क्या है ? तो आइन्स्टाइन का उत्तर होगा - साकार वस्तुएं और पदार्थ मूल रूप से शून्य की वक्रता हैं। (आइंस्टीन ने सामान्य सापेक्षता में यह सिद्धान्त प्रस्तुत किया कि गुरुत्वाकर्षण कोई शक्ति नहीं है , बल्कि अंतरिक्ष और समय में वक्रता का परिणाम है।) तब तो दृष्टिगोचर सभी पदार्थ भी शून्य हो जाते हैं। तो फिर साकार वस्तु या पदार्थ वास्तव में क्या है ? यह शून्य ही मानो मुड़-सिकुड़ कर कुछ है, ऐसा प्रतीत हो रहा है। 'अनेक'  वस्तुओं को हमलोग इसी रूप में देख रहे हैं। मानलो एक पारदर्शी कागज का आवरण है, या महीन  सा कोई भी आवरण है, जो लगभग रंगहीन हो, जिसे रखने पर हठात कोई नहीं कह सकता कि वहां कुछ है। किन्तु यदि उसीको थोड़ा मोड़-सिकोड़ कर रख दिया जाय, तो हमारी दृष्टि पहले वहीं जाएगी। आइन्सटाइन भी यही कह रहे हैं, कि शून्य ही मानो मुड़-सिकुड़ कर आखों से दिख रहा है। वही शून्य जिसे देखा नहीं जा सकता, किसी स्थान पर मुड़-सिकुड़ गया है, इसीलिये वहाँ किसी वस्तु या पदार्थ के होने का भ्रम हो रहा है।
स्वामीजी कहते हैं- " हमलोग क्या हैं; प्रत्येक साकार वस्तु  इस अनन्त जड़-समुद्र में मानो एक भँवर-विशेष (नाम-रूप) हैं।" मानलो किसी नदी में बिल्कुल स्वच्छ जल है, एक दम पारदर्शी है तो वहाँ जल है कि नहीं- यह भी समझ में नहीं आता। किसी शीशे के जार में यदि स्वच्छ झील का पानी (টইটম্বুর জল) रखा हो, तो कई बार  सन्देह होता है, पानी है भी या नहीं ? कहीं खाली तो नहीं है ? थोड़ा ठीक से देखने या उसमें थोड़ा तरंग उठने से समझ में आता है, कि हाँ जल तो है। मानलो किसी जार को उसके कोर तक लबालब भर दिया गया हो। अचानक देखने पर लगता है, जल है, या नहीं है ? किन्तु जल की सतह जब कोर से थोड़ी कम हो जाती है, तब महसूस होता है कि हाँ जल तो है। स्वामीजी कह रहे हैं - " इसी प्रकार, हमलोग इस अनंत जड़-समुद्र में एक भँवर मात्र हैं।" हमलोगों की नदियों का जल बहुत स्वच्छ नहीं होता किन्तु मानलो किसी नदी का जल एकदम स्वच्छ और पारदर्शी है, और उस नदी का जल समान वेग से बहता जा रहा हो, तो पानी की सतह समझ में नहीं आती । किन्तु जल में लहर या तरंग उठते ही, जल की सतह (Water surface) समझमें आने लगती है। जल की उस सतह पर यदि कोई भँवर या घुर्नी (Whirlpool) भी बन रही हो, तो नजरें उसी स्थान पर अधिक जाती हैं। स्वामीजी कहते हैं -'मेरा शरीर,तुम्हारा शरीर नामक कोई वस्तु वास्तव में नहीं है।' जिसको हम अपना शरीर कहते हैं -वह वास्तव में खाली (empty) है, किन्तु भ्रम होता है कि हम शरीर (M/F) हैं। लेकिन यथार्थ रूप में हमलोग एक भँवर मात्र हैं। उसी प्रकार विचारजगत या मन भी कुछ नहीं है। वास्तव में मन नामक कोई वस्तु नहीं है, किन्तु एक प्रकार की क्रिया-विशेष मात्र है। तर्क, इच्छा, संकल्प, निर्णय इत्यादि मन की ही क्रियाएं हैं। इन सब क्रियाओं के होने से ही प्रतीत होता है कि - 'मन' जैसा कुछ है जो ये सब क्रियायें करता है। जैसे किसी शान्त निस्तरंग जल का अस्तित्व भी समझ में नहीं आता, किन्तु उसमें कही भँवर (Whirlpool) रहने से, उसका अस्तित्व आसानी से समझा जा सकता है। उसी प्रकार मन भी एक न-होने जैसी वस्तु ही है, किन्तु जब वहाँ पर कोई कम्पन होता है, लहर या तरंग के जैसा कुछ उत्पन्न होता है- उसी को तात्विक भाषा में 'वृत्ति' या 'विक्षेप' कहा जाता है; और तब यह समझ में आता है, कि मन जैसी कोई चीज है।
[स्वामी जी के शब्दों में - " मानलो किसी वेगवती नदी में लाखों भँवर (Whirlpool) हैं, प्रत्येक भँवर में प्रतिक्षण नई जलराशि आती है , कुछ देर घूमती है और फिर दूसरी ओर चली जाती है। उसके स्थान में एक नई जलराशि आ जाती है।.... मेरा शरीर , तुम्हारा शरीर नामक कोई वस्तु वास्तव में नहीं है। वैसा कहना केवल मूर्ख की बात है। है केवल एक अखण्ड जड़राशि। उसीके किसी बिन्दु का नाम है चंद्र, किसी का सूर्य, किसी का मनुष्य ...तो कोई खनिज पदार्थ।" मनोजगत के बारे में भी ठीक यही बात है - जो अपने मन में अत्यंत सूक्ष्म कम्पन उत्पन्न कर सकते हैं , वे देखते हैं कि सारा जगत सूक्ष्मातिसूक्ष्म कम्पनों की समष्टि मात्र है।]            
जहाँ कही कोई प्राणी है, वहाँ पर मन भी अवश्य है। किन्तु मन कहाँ अवस्थित है, यह बताया नहीं जा सकता है। फिर भी जन्म के समय से ही मन अवश्य रहता है। और मृत्यु होने से भी मन समाप्त नहीं हो जाता है, सूक्ष्म रूप में बना रहता है। मन का अस्तित्व मृत्यु के बाद भी कैसे बना रहता है ? इस बात को समझाया नहीं जा सकता है। मन में जो विभिन प्रकार की क्रियायें- संकल्प,विकल्प या वृत्ति या अच्छा-बुरा का विवेक या निर्णय इत्यादि निरन्तर चलती रहती हैं, कभी रूकती नहीं हैं। जिस समय शरीर क्रिया करना बिल्कुल बन्द कर देता है, जिस अवस्था को हमलोग मृत्यु कहते हैं, उस समय मन की क्रियायें उपरी तौर से स्थगित हो जाती हैं, किन्तु नष्ट नहीं होतीं। 
      मृत्यु के समय व्यक्ति का मन जिस अवस्था में था, उसी अवस्था से वह दुबारा एक शरीर प्राप्त करता है, जो शरीर- शरीर की क्रियायें करने में सक्षम हो, उसके साथ संयुक्त होकर, वह अपनी अतृप्त वासनाओं  को संतुष्ट करने की चेष्टा करता है। इसीका नाम है संसार। यदि ऐसी बात है, तो संसार का बीज कहाँ है ? मन के अन्दर !
     संन्यास का क्या अर्थ है ? यही, कि इस बीज से कामना-वासना को दूर करना होगा। क्योंकि मन में जो बीज है, उससे जो बंधन होता है, उसीके फलस्वरूप जन्म-मृत्यु का जो नियम है-उससे होकर गुजरना ही पड़ता है। इसलिये यदि इस मूल कारण-बीज में से ही समस्त प्रकार की कामना- वासना को यदि किसी समय में दूर कर दिया जाय, तो उसी क्षण मुक्ति प्राप्त हो जाएगी। ऐसा करने में समर्थ हो जाने पर ह्मलोगों को फिर से जन्म-मृत्यु की यन्त्रणा का भोग नहीं करना पड़ेगा। इस प्रकार यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि संसारी की अपेक्षा संन्यासी  बड़ा है।
अब प्रश्न है कि छोटे -बड़े की धारणा रहने से क्या होता है ? स्वाभाविक रूप से जो अच्छा है, हमलोग उसी पाने की दिशा में आगे बढ़ते हैं। हमलोगों के गले में फन्दा डाल दिया गया है, हड़-बड़ी में इस फन्दे को खोलने की जितनी भी चेष्टा करेंगे, वह फन्दा उतना ही कसकर बैठ जायेगा। इसीलिये हम सभी लोगों को इस प्रकार प्रयत्न करना होगा कि हमलोग उस कड़े गाँठ को ढीला कर सकें।
इसलिये हमें ऐसा नहीं समझना चाहिये कि संसारी अर्थात गृहस्थ-जीवन में भोग करना है, और संन्यासी को त्याग करना है। लगभग सभी मनुष्य संसार में ही हैं, तथा सबों को - गृही हो या संन्यासी सही अर्थ में दोनों को ही संसार के बाहर (आवागमन के चक्र से बाहर ) जाकर बिल्कुल सच्चे अर्थों में संन्यास -प्राप्त करना होगा। यही समस्त मनुष्यों का चरम लक्ष्य है, तथा इसके उपर समस्त मनुष्यों का समान अधिकार भी है। इस बात को समझ लेना सबी के कल्याण-प्रद है। नहीं समझे तो, संसार में चक्कर लगाने की सजा भोगनी ही होगी।
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