मेरे बारे में

शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

🕊🏹"स्वामीजी का भाव " 🕊🏹 [ प्रथम अध्याय -1.3 : स्वामी विवेकानन्द- "व्यक्ति और मन " (Person and Mind) ] 🕊🏹"स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-1.3 ]

[ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना ]

[ प्रथम अध्याय -1.3 ] 

[स्वामी विवेकानन्द-  "व्यक्ति और मन " (Person and Mind) ]
 
3. 

"स्वामीजी का भाव " 

      'अनुसरण ही सच्चा स्मरण '- पिछले निबन्ध में इसकी चर्चा करते समय हमलोगों ने देखा था कि स्वामी विवेकानन्द को स्मरण करना तभी सार्थक होगा जब हम उनके मूल भावों को समझने, एवं अनुसरण करने की चेष्टा करेंगे भले ही वह परिमाण में कितना ही छोटा क्यों न हो।  मनुष्य को यथार्थ मनुष्य के रूप में गठित करना ही स्वामी जी की शिक्षा का मूल भाव था। इस बात की चर्चा  हमने पिछले लेख में की थी । यह बहुत बड़ा कार्य है, पर छोटे पैमाने पर ही सही इस अनुसरण अनुसरण कार्य को करना ही होगा। यही एकमात्र रास्ता है।    
        इतनी बड़ी दुनिया, इतने बड़े-बड़े समाज, असंख्य लोगों की अनगिनत समस्यायें,असंख्य मतवादों पर आधारित अनगिनत आन्दोलन ! इतने सबकुछ के बीच खड़े होकर सबकुछ को अपने मतानुसार व्यवस्थित करने का स्वप्न देखना भी बड़े कलेजे की बात है। किन्तु, इस तरीके से कार्य को आगे बढ़ाने की व्यावहारिक सम्भावना बहुत कम ही दिखाई देती है। यदि हममें से प्रत्येक व्यक्ति 'यथार्थ' मनुष्य बनने की चेष्टा करे एवं दूसरों को भी यथार्थ मनुष्य बनने में सहायता पहुँचा सके तभी बड़े-बड़े कार्य हो सकते हैं। स्वामीजी ने इसी पथ का अनुसरण कर आगे बढ़ने का परामर्श हमें कई रूपों में दिया है। स्वामी विवेकानन्द रूपी जीवन संगित का मुख्य आलाप (वादी -स्वर) था "स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो!" उन्होंने कहा था - " मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है मनुष्य को उसके दिव्य स्वरूप (Divinity) का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बतलाना। यदि इस आदर्श का अनुसरण किया जायेगा एवं जितने परिमाण इसे कार्यरूप दिया जायेगा,  उसी परिमाण में समाज का चेहरा भी बदलता जायेगा। यही है समाज की आध्यात्मिक क्रान्ति। 
       प्रत्येक जीव की प्रारंभिक चेष्टा प्राणरक्षा की होती है, यह सभी प्राणियों में सहजात प्रवृत्ति के रूप में विद्यमान रहती है। अकेले -अकेले प्रयत्न करने से सभी क्षेत्रों में सफलता नहीं मिल सकती - इसी अनुभव के आधार पर मनुष्यों ने समाज रचना की। " प्राण राखिते सदाई प्राणान्त"प्राण (साँस) को रोके रखने से प्राण निकल जाते हैं- इस सत्य को स्वीकार करने के बावजूद भी इसी के लिए कितने प्रयत्न किये जाते हैं। इसीलिए समाज को अधिक उपयोगी बनाने के लिए कितनी ही परियोजनायें चलाई जाती हैं और समय- समय पर विप्लव (क्रान्ति) की आवश्यकता पड़ती रहती है। 
    विप्लव शब्द 'प्लु' धातु से बना है। सम्पूर्ण समाज को किसी विचारधारा से आप्लावित कर देना ही विप्लव का मूल अर्थ है। जो सबकुछ को बहा कर ले जाय, उसे प्लावन कहते हैं, विप्लव नहीं कहते। यदि प्राणों की रक्षा करना सभी प्राणियों का प्राथमिक कार्य है तो प्राणों को विकसित करना- श्रेष्ठ जीव का महत कार्य है। साधारण जीवों के लिए जिसे सहज प्रवृत्ति कहते हैं, मनुष्य के लिए उसे महत प्रवृत्ति कहते हैं। जीव (मनुष्य) को पूर्णरूपेण विकसित करना एक आध्यात्मिक विषय है, और उसको विकसित करने की चेष्टा ही आध्यात्मिकता। इसी को समाज में संचारित कर देना आध्यात्मिक विप्लव है। सबकुछ को सैलाब के प्रवाह में प्रवाहित होने से रोक कर, पूर्ण रूप से विकसित कर लेना ही इस क्रान्ति का उद्देश्य होता है। और जितने भी तरीकों से समाज में परिवर्तन लाने की कोशिश की जाय -सब एक पक्षीय ही होंगे। हम खाद्यान्न उत्पादन, वस्तु उत्पादन, यातायात, शिक्षा , जमीन -मकान, न जाने किन-किन चीजों के लिए क्रान्तियाँ किया करते रहते हैं। किन्तु, इन सारी चीजों के पीछे इनके नियामक - मनुष्य की जो अन्तर्निहित सत्ता है, जिसके पूर्ण विकास होने से मनुष्य सर्वशक्तिमान हो उठता है एवं सभी समस्यायों का (मृत्यु का भी) समाधान कर सकता है, उसी जीवनदायिनी भावना से सबको भावित करने वाले आध्यात्मिक विप्लव की हम उपेक्षा कर देते हैं। किन्तु, वास्तव में यह मनुष्य के विकास की क्रान्ति को दबा देना है तथा उसके विकास की राह में रोड़ा उत्पन्न करना है, इस बात पर हम एकबार भी विचार नहीं करते हैं। 
             स्वामीजी कहते थे - मैं छोटे-छोटे परिवर्तन या समाज-सुधार में विश्वास नहीं करता। मैं आमूल-चूल परिवर्तन लाना चाहता हूँ। इसी विचार, इसी भाव से समाज के सभी स्तरों के मनुष्यों को आप्लावित कर देना ही वेदान्तिक या आध्यात्मिक विप्लव है। कवि रामप्रसाद का गीत है - 'मूल धोरे टान देबार' (जड़ से ही खींचने की जरूरत है।)  स्वामी विवेकानन्द उसी जड़ को पकड़ कर खींचना चाहते थे। जड़ से खींचने से जराजीर्ण प्राचीन दुराग्रह, निरर्थक चीजें आप ही झड़कर अलग हो जाएँगी। एवं उस जड़ से निकल पड़ेंगी नई डालियाँ, नये पल्ल्व , नवीन पुष्प। वृक्ष के ऊपर जल डालने से उसके पत्तियों को चमकाया जा सकता है, किन्तु उसकी जड़ों में रस का संचार नहीं किया जा सकता। इसीलिए जड़ में पानी सींचना पड़ता है, ताकि जड़ वृक्ष को मिट्टी से जकड़े रखे। मिट्टी से पानी खींचकर तनों और पत्तियों तक पहुंचाता रहे एवं उन्हें जीवित रखे।  केवल जीवित ही नहीं रखे , बल्कि वृद्धि भी करता रहे तथा फल-फूल से सजाता रहे।              
      मनुष्य जीवन रूपी वृक्ष को सींचने की बात कहकर ही स्वामीजी रुक नहीं गये थे, बल्कि  उसे पूर्ण रूप से सार्थक करने का रास्ता भी बतलाया था। इन सभी बातों को हमें धीरे- धीरे जानना होगा, उनपर गहराई से चिन्तन करना होगा, फिर उन भावों को अपने जीवन में एवं समाज के जीवन में रूपान्तरित करने का प्रयास भी करना होगा। स्वामी विवेकानंद ने कहा है, मैं बीज के स्वाभाविक विकास पर विश्वास करता हूँ। जिस बीज में जीवन है, जो सजीव है वह विकसित होकर स्वयं वृक्ष में परिवर्तित होता है बाहर से कोई चीज भीतर भर डालकर उसे ग्रहण नहीं करवाया जा सकता है। आज का जीव-विज्ञान जैव-कोशिकाओं के मूल को जानने की कोशिश कर रहा है। जीन (Gene) की खोज कर मनुष्य उसके रूप, प्रकृति में परिवर्तन कराकर जीवधारी की शरीर में आमूल परिवर्तन लाने पर शोध कर रहा है। इसे ही वैज्ञानिक पद्धति कहते हैं। स्वामीजी ने वर्षों पहले समाज के 'जीन' का आविष्कार कर लिया था, एवं उसके अध्यन और संवर्धन का उपदेश दिया था। [अजय +सुदीप का अनुवाद ?}
        समाज के मूल में मनुष्य है, इसीलिये एक-एक करके सभी मनुष्यों को दोषरहित मनुष्य में परिवर्तित होने पर ही समाज परिवर्तित हो पायेगा। एकमात्र आध्यात्मिक विप्लव ही इस कार्य में सक्षम है। यदि हम मानव समाज को पशु समाज में तब्दील होते देखना नहीं चाहते हैं तो हमें इस बात को अभी ही समझ लेना चाहिए। अभी हम अंधे के समान जिस रास्ते पर चल रहे हैं -उससे हमलोग दुर्भाग्य को टाल नहीं सकते। विपत्ति की गंभीरता को हमें अभी ही समझ लेना होगा।  बाघ अथवा सिंह मनुष्य की तुलना में अधिक शक्तिशाली होता है, किन्तु वह तो पशु की शक्ति है, ऐसी पाशविक शक्ति को बढ़ाने से मनुष्य की प्रगति नहीं हो सकती, बल्कि और पीछे जाना पड़ सकता है। मनुष्य की यथार्थ शक्ति है -उसका मनुष्यत्व- इस बात को पूरी मानव जाति को बतलाना होगा। 'मनुष्यत्व' धारण करने वाला मनुष्य किसी को हानि पहुँचाकर, दूसरों के सिर को कलम कर अपने उदरपूर्ति में लगे नहीं रह सकता है। वह तो दूसरों का कल्याण करते हुए स्वयं को कल्याण के मार्ग में अग्रसर रखता है। यही विचारणीय आदर्श एवं सर्वोच्च भाव है- और यही स्वामी जी का भाव भी है।   
=========== ========
(My ideal indeed can be put into a few words and that is: to preach unto mankind their divinity, and how to make it manifest in every movement of life.) 
 

     

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

🕊🏹अनुसरण ही सच्चा स्मरण 🕊🏹 [ प्रथम अध्याय -1.2 : "व्यक्ति और मन " (Person and Mind) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना ": SVHS-1.2 ]


2.

🕊अनुसरण ही सच्चा स्मरण🕊 

      153 वर्ष पूर्व 12 जनवरी 1863 ई० (28 पौष, 1259 बंगाब्द) को स्वामी विवेकानन्द का जन्म हुआ था।  मात्र 39 वर्ष के जीवनकाल में ही किसी आँधी के सदृश पूरी दुनिया को झकझोर देने के बाद 4 जुलाई 1902 ई ० को उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया था।        
           जब वे जीवित थे तब हमने उनके विचारों का विरोध किया था, उनकी निन्दा की थी, उनके उपर झूठे आरोप लगाये थे, फिर हमने उनको प्यार भी किया था, प्रशंसा की थी, स्वागत में तोरण-द्वार सजाये थे, उनके रथ को घोड़ों के बजाय मनुष्यों ने खींची थी, धन्यवाद कहा था, उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त की थी, पूजा अर्पित की थी। उनके चले जाने के 114 वर्ष बाद (2016 ई ० में), उनके आविर्भाव को स्मरण कर हम नाना प्रकार से उनके प्रति श्रद्धा अर्पित करते हैं। परन्तु , आज हमारे जीवन में जो संधि बेला उपस्थित हुआ है वह हमें यह सोचने पर विवश करता है कि हम जिस प्रकार यह सब आयोजन कर रहे हैं, वह ठीक भी है या नहीं? बिल्कुल ठीक नहीं है। यदि सबकुछ ठीक होता तो हम यह अवश्य सोचते कि उनके संदेशों एवं परामर्शों को देख-सुन या समझ- बूझकर  आगे बढ़ना श्रेयष्कर है। किन्तु , ऐसा नहीं है। वास्तव में हमने उनके प्रति जो विरोध एवं उत्साह दिखलाई थी, वे एक हद तक हमारे मन की संकीर्णता व जड़ता एवं अतिशय भावुकता के परिणामस्वरूप थे। वस्तुतः हमारे क्रिया-कलापों के पीछे कोई सुविचारती आदर्श या उद्देश्य नहीं था। हम सोच-विचार कर निर्णय नहीं ले पाते कि जिस आदर्श को ग्रहण कर रहे हैं या अस्वीकार ग्रहण कर रहे हैं उसका आन्तरिक मूल्य कितना है
        विवेक-विचार कर के दृढ़ निर्णय लेना सबसे अच्छा होता है। बिना विवेक-विचार किये एक समूह (गुट) बनाकर किसी व्यक्ति की विशेष पूजा करने में जुट जाते हैं अथवा इसके उलटा उसका अनादर या वहिष्कार करने लगते हैं। इसलिये व्यक्ति-विशेष या आदर्श-विशेष के प्रति खूब सोच-विचार कर देखना चाहिए कि कौन सा आदर्श सही है।  इसके उपरान्त ही इसे ग्रहण अथवा अस्वीकार करना उचित है। इस प्रकार किसी आदर्श को अस्वीकार करने से भी कोई हानि नहीं होगी। फिर ग्रहण किये गए व्यक्तित्व आदर्श के प्रति पूरी आस्था के साथ समर्पित होना होगा तथा उस आदर्श को कार्यरूप देने में लग जाना होगा। क्योंकि केवल आदर्श का चयन कर लेने से ही  सबकुछ नहीं हो जायेगा। 
      स्वामी विवेकानन्द या अन्य किसी के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का तबतक कोई मूल्य नहीं है जब तक हम उस भाव या आदर्श को निष्ठापूर्वक ग्रहण नहीं कर लेते और उन भावों को अपने जीवन एवं समाज में रूपायित करने का प्रयास नहीं करते। आजकल तो हाल यह है कि जिनका अधिकांश लोग विरोध करते हैं, 'स्मृति-सभा ' में उनको भी कुछ लोग श्रद्धा सुमन चढ़ा आते हैं। इस प्रकार एक के बाद एक शतवार्षिकी समारोहों को आयोजित होता देखकर यह आश्चर्य भी होता है कि इतने सारे 'स्मरणीय' लोग सौ वर्ष पूर्व के आसपास भारत में आविर्भूत हुए थे ! 
       हमलोग वर्ष दर वर्ष जितने लोगों को स्मरण करते हैं, उनके विचारों को अपने जीवन में कितना रूपायित कर पाते हैं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम उनके विचारों को कितनी आन्तरिकता से ग्रहण करते हैं। यदि हम स्वामी विवेकानन्द का स्मरण करना चाहते हों तो हमें उनका अनुसरण करने की चेष्टा करनी होगी नहीं तो उनकी स्मरण सभा का कोई महत्व नहीं रहेगा , सभा निरर्थक हो जाएगी।  इसलिए प्रश्न उठता है कि उनका स्मरण किस प्रकार किया जाय ? इसके लिए यह जानना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है कि उनकी शिक्षाओं का मूलभाव (वादी स्वर) क्या था ? 
              हमें ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य को यथार्थ मनुष्य में विकसित करना या मनुष्य को सच्चे मनुष्य में रूपान्तरित कर देना ही- उनकी समस्त शिक्षाओं का मूलभाव है !  इस मूल भाव को मानव जीवन के समस्त क्षेत्रों में रूपायित किया जा सकता है और समाज के सभी स्तरों पर यह कार्य सम्भव है। इस भाव का प्रचार-प्रसार देश-काल की सीमा रेखा के परे भी सम्भव है, क्योंकि मनुष्य की सत्ता सभी देशों और सभी युगों में लगभग एक सी ही रहती है। यद्यपि इसकी अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न देशों अथवा कालों में भिन्न-भिन्न हो सकती है इसलिए किसी  प्रकार की संकीर्णता या किसी वर्ण विशेष के आदर्शों की सीमाओं के भीतर इसे सीमित नहीं रखा जा सकता है।   
               स्वामी जी सभी देशों के सभी मनुष्यों को उनकी पूर्णता -प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होने में सहायता करना चाहते थे। जिन मनुष्यों में संभावनाओं को अभिव्यक्ति कम हुई है उन पर उनकी दृष्टि विशेष रूप से आकृष्ट हुई थी। जो लोग मूर्ख हैं, दरिद्र हैं, उपेक्षित और पददलित हैं, उनके प्रति स्वामी जी की वेदना सबसे अधिक है।
                  किन्तु, इस के साथ ही उन्होंने आनेवाली पीढ़ी के लोगों से एक अपूर्व अनुरोध भी किया था।उन्होंने कहा था- गरीबों को प्रकाश दो किन्तु धनीकों को और अधिक प्रकाश दो; क्योंकि वे और अधिक अंधकार में गिरे हुए हैं। अशिक्षितों को प्रकाश दो, किन्तु शिक्षितों को और अधिक प्रकाश दो क्योंकि इस समय विद्या का (डिग्री और उच्चजाति का) घमण्ड बहुत बढ़ गया है। जो लोग धन के घमण्ड में, विद्या के घमण्ड में चूर हैं, वे भी कम करुणा के पात्र नहीं हैं।  क्योंकि वे समाज के उपेक्षित लोगों की सेवा का अवसर पाने के बावजूद भी इस दुर्लभ जीवन का सदुपयोग नहीं करते। जो गरीबों के शोषण से अर्जित धन को खर्च कर शिक्षित हुए हैं, किन्तु पढ़-लिखकर उनके बारे में सोचते तक नहीं हैं, स्वामी जी ने उन्हें देशद्रोही कहा था। उन्होंने कहा था जब तक देश का एक कुत्ता भी भूखा है, उसको रोटी देना ही मेरा धर्म है। 
                 इसीलिये आज हमारे लिये यह जान लेना अत्यन्त आवश्यक है कि वास्तव में उनके आने का उद्देश्य क्या था ? वे हमें कितने अच्छे लगते हैं, इसी को लेकर बैठे रहना भावुकता का लक्षण है। ऐसा नहीं करके हमें यह समझने की कोशिश करनी चाहिये कि वे अपने क्रमानुयायियों 
से क्या अपेक्षा रखते होंगे ? उनके गेरुआ वस्त्र और प्रशान्त मुखमण्डल को देख भावुकता से ओतप्रोत हुए बिना यह उपलब्धि करनी होगी कि गैरिक वस्त्र अनन्त जीवन के संग्राम का प्रतीक है! उनको स्मरण करना तभी सार्थक होगा जब हमलोग उनके मूल भावों को समझने की चेष्टा करें, और फिर इन भावों का अनुसरण भी करें भले ही परिमाण में ये भाव  कितने ही छोटे क्यों न हों। 
हमलोगों ने समाज एवं मनुष्य की उन्नति के प्रेरणा श्रोत की दृष्टि से अभी तक व्यापक रूप से स्वामी विवेकानन्द को समझने की कोशिश ही नहीं की है, उनका अनुसरण करना तो बहुत दूर की बात है। आज स्वामीजी को स्मरण करते समय हमें इन बातों को नहीं भूलना चाहिए। 
======================
       

बुधवार, 18 जुलाई 2012

🏹"अतीत या भावी युग के नायक ?"🏹 ["स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " (प्रथम अध्याय ) : स्वामी विवेकानन्द~"व्यक्ति और मन " [ (SVHS-1.1) : (Swami Vivekananda ~ Person and Mind) ]

  " स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना "

लेखक ~ श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय  

हिन्दी अनुवादक का मन्तव्य :  
        स्वामी जी ने कहा था श्रीरामकृष्ण की जन्मतिथि से सत्ययुग का प्रारम्भ हो चुका है।  'विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर पुस्तकालय' (सह युवा चरित्र-निर्माणकारी संस्था) जो 14 जनवरी, 1985 को स्वामी विवेकानन्द की साक्षात् प्रेरणा से बेलाटांड़ दुर्गा मण्डप झुमरीतिलैया, कोडरमा, जिला हजारीबाग, तत्कालीन बिहार में स्थापित हुआ था ; वही युवा चरित्र-निर्माणकारी संगठन-अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव और माँ श्री सारदा देवी के आशीर्वाद से 'विवेकानन्द युवा महामण्डल' में रूपान्तरित होकर 14 जनवरी 2024 को अभ्रक नगरी (mica city) नाम से प्रसिद्ध झुमरीतिलैया, जिला कोडरमा, झारखण्ड  के झण्डा चौक पर स्थापित हो गया।  

        मेरा प्रथम वार्षिक शिविर बेलघड़िया में 1987 में आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर से हुए था। उसी शिविर मैंने इस पुस्तक के सहित महामण्डल द्वारा प्रकाशित समस्त बंगला-अंग्रेजी पुस्तकों का दो-दो सेट खरीद लिया था। किन्तु बंगला पढ़ना बिल्कुल नहीं जानता था। महामण्डल द्वारा 1987 में बेलघड़ीया में आयोजित 20 वां वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर, मेरे लिए महामण्डल का प्रथम कैम्प था। वह शिविर मेरे लिए  प्रवृत्ति मार्ग के सप्तर्षियों में से एक, विवेक-वाहिनी के संस्थापक सचिव C-IN-C श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय'  नवनीदा को साक्षात् देखने और "सत्ययुग स्थापित करने की पद्धति" से परिचित होने का पहला अवसर था।        उस शिविर से लौटने के बाद 12 जनवरी 1988 को ही 'झुमरीतिलैया विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर ' का विलय 'झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल ' में कर दिया गया था । और महामण्डल का बिहार राज्य स्तरीय प्रथम तीन दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर, सी. एच. हाई स्कूल में 27 से 29 मई 1988 को आयोजित हुआ। जिसमें महामण्डल के केन्द्रीय समीति के सभी सदस्यों का (केवल अध्यक्ष अमियो दा को छोड़कर) झुमरीतिलैया में पदार्पण हुआ। उस शिविर के बाद से ही जितनी आवश्यक पुस्तकें थीं उनका हिन्दी अनुवाद करने लगा, क्योंकि मेरे मित्र मण्डली में कुछ बंगाली भी थे। उनकी सहायता से बंगला पढ़ना और बंगला बोलना सीखने लगा। 1988 के वार्षिक शिविर से ही मुझे शिविर में दिए गए बंगला-अंग्रेजी भाषणों को सुनकर तुरन्त उसका हिन्दी सारांश बोलने का उत्तरदायित्व नवनीदा ने मेरे ऊपर सौंपा था। 

अनुवादक : 

श्री विजय कुमार सिंह


प्रकाशक का निवेदन 

        अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के संस्थापक श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय द्वारा बंगाली भाषा में लिखित ग्रन्थ ~ "स्वामी विवेकानन्द ओ आमादेर सम्भावना " का हिन्दी अनुवाद तथा हिन्दी पुस्तिका के रूप में "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना (भाग -1)" शीर्षक के साथ उसका प्रथम हिन्दी संस्करण 25 दिसम्बर, 2016 को प्रकाशित हुआ था। 
   
       यह बड़े हर्ष की बात है कि झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल के हिन्दी प्रकाशन विभाग ने उपरोक्त पुस्तक के हिन्दी अनुवाद में - जुलाई, 2012 में बंगाली भाषा में प्रकाशित ग्रंथ "স্বামী বিবেকানন্দ ও আমাদের সম্ভাবনা" के 10 अध्यायों में विभक्त समस्त लेखों के संशोधित और परिमार्जित अनुवाद को झुमरीतिलैया शाखा से प्रकाशित महामण्डल की मासिक हिन्दी संवाद पत्रिका " विवेक अंजन " में क्रमवार ढंग से पुनः छापने का निर्णय लिया है। करोना महामारी आदि विभिन्न कारणों से महामण्डल की हिन्दी संवाद पत्रिका 'विवेक अंजन ' का प्रकाशन बंद हो गया था , जिसे सितम्बर, 2024 से नियमित रूप में प्रकाशित करने का संकल्प लिया गया है।      

यद्यपि इस पुस्तक का चतुर्थ बंगला संस्करण 4 जुलाई 2012 को प्रकाशित हो चुका है , तथापि हिन्दी में यह पुस्तक अनुपलब्ध रहने के कारण हिन्दी पाठक इस पुस्तक का लाभ लेने से अबतक वंचित थे। 
        उल्लेखनीय है कि महामण्डल द्वारा प्रकाशित समस्त बंगला एवं अंग्रेजी साहित्य एवं व्याख्यानों का हिन्दी अनुवाद इस पुस्तक के अनुवादक द्वारा वर्षों से किया जा रहा है , और अधिकांश पुस्तकों को हिन्दी में प्रकाशित भी किया जा चुका है। यह बंगला पुस्तक मोटी थी, इसलिए इसका छपाई व्यय बहुत अधिक आता, यही सोचकर इसका प्रकाशन संभव नहीं हो पा रहा था। 
          किन्तु, अनुवादक जब इस पुस्तक का अनुवाद कर रहे थे तब इसमें समाहित लेखों को पढ़ने के बाद यह महसूस किये कि इस पुस्तक में मानवजाति और पूरे समाज की उन्नति के लिए अमूल्य सामग्री है, जिसे शीध्रता से प्रकाशित करने की आवश्यकता है। इस महती आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए 'झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल के हिन्दी प्रकाशन विभाग' ने इसे पुनः प्रकाशित करने का निर्णय लिया है। 
         किन्तु पुस्तक की मोटाई और आर्थिक अभाव को देखते हुए इसे प्रकाशित करना सम्भव नहीं हो पा रहा था, अतएव महामण्डल के केन्द्रीय कार्यालय से अनुमति लेकर इसे खण्डों में प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया ताकि यह आसानी से छपता रहे और छात्र-छात्राओं को भी कम मूल्य पर प्राप्त होता रहे। 
      "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना (भाग -1)"  ग्रन्थ के प्रथम अध्याय का शीर्षक होगा -" स्वामी विवेकानन्द ~ व्यक्ति और मन " (Swami Vivekananda ~ The Person and his Mind) शीर्षक इस अध्याय में कुल नौ लेखों को समावेशित किया गया है। इसी प्रकार आगे के लेखों को अलग -अलग अध्यायों के शीर्षक के अनुसार विभाजित कर क्रमशः प्रकाशित किया जायेगा। प्रथम बंगला संस्करण के कुछ लेखों को इसके चतुर्थ संस्करण से हटा दिए गए थे, उन्हें यहाँ पुनः यथास्थान समाहित किया जा रहा है। 

'विवेक-अंजन', (महामण्डल की मासिक संवाद पत्रिका) सितम्बर -2024 :
मूल्य :  एक प्रति - 6 रु , वार्षिक -वार्षिक -60 रु। 

Editor: Bijay Kumar Singh. Assistant Editors : Ramchandra Mishra & Ajay Pandeya
  
Publication Office :

4th Floor, Hariom Press.  

Jhumri Telaiya, Koderma (Jharkhand)

Phone : Ajay, Ramchandra, Sudeep   
  
 Publisher :

 Sri Bijay Kumar Singh

Vice President,  

Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal 

6/1A , Justice Manmatha Mukherjee Row,

Kolkata, India -700009

Phone - 9386699949 
E-mail : singhbijay50@gmail.com
=========

अक्टूबर 1984 में बंगाली भाषा में प्रकाशित : 'स्वामी विवेकानन्द ओ आमादेर सम्भावना' के  प्रथम प्रकाश के समय प्रकाशक का -

निवेदन    

      मानव-समाज के समक्ष कुछ न कुछ समस्या हर देश और हर युग में रहती है। कभी -कभी तो समस्यायें राष्ट्रीय संकट का रूप धारण कर लेती हैं। इन दिनों अधिकांश लोग मानने लगे हैं कि हमारा देश भारी संकट के दौर से गुजर रहा है। गरीबी, अशिक्षा,अनैतिकता और आम जनता के प्रति सच्ची सहानुभूति का अभाव, दूसरों को हानी पहुँचाकर भी अपना स्वार्थ पूरा करने का निर्लज्ज प्रयास, तथा मानवीय मूल्यों एवं आत्मविश्वास का घोर आभाव देखकर बहुत से लोगो को पीड़ा  होती है। किन्तु, इसके लिए दूसरों पर दोषारोपण कर निश्चिन्त हो जाते हैं। 
     हम लोग इस सच्चाई से ऑंखें मूंदे रहते हैं कि मनुष्य की आन्तरिक शक्ति और संभावनाओं को विकसित कर ही अवस्था में परिवर्तन लाया जा सकता है। मनुष्य के अन्तर्निहित दिव्यता के विकास की कोई सीमा नहीं है, तथा उन दिव्य सम्भावनाओं के विकास की भी कोई सीमा नहीं है। रचनात्मक विचार तथा कठोर परिश्रम की सहायता से इस संभावना को  प्रकाशित एवं विकसित कर ही हम समाज में परिवर्तन ला सकते हैं। 
     असाधारण हृदयवत्ता, मानव-प्रेम और उच्च मनीषा के अधिकारी स्वामी विवेकानन्द ने मानव समाज विशेषतः भारत के जन-जीवन के असीम दुःख-दैन्य के मूल कारण को समझा था एवं उसे मिटाने का उपाय भी बताया था। युवाओं की समस्यायों को देखकर समस्त विचारशील व्यक्तियों का ह्रदय व्यथित होता ही है। किन्तु स्वामी विवेकानन्द ने युवा जीवन में ही सम्पूर्ण समाज की सम्यक उन्नति के बीज को निहित पाया था तथा युवा समाज के सर्वांगीण उन्नति के सपने को साकार करने के उद्देश्य से उन्होंने समस्त युवाओं को अपनी-अपनी सम्भावनाओं को प्रस्फुटित करने आह्वान किया था।
        इस पुस्तक में संकलित निबंधों का उद्देश्य स्वामी विवेकानन्द के इसी आह्वान को आमजन तक विशेष कर युवाओं के समक्ष सरल भाषा में प्रस्तुत करना है। महामण्डल विगत 56 वर्षों से विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से यही करता चला आ रहा है। इसकी मासिक द्विभाषी पत्रिका "विवेक-जीवन" भी विगत 54 वर्षों से प्रकाशित होती आ रही है। इस संकलन के अधिकांश लेख ' विवेक-जीवन ' के विभिन्न अंकों में सम्पादकीय के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं। किन्तु सभी लेख ही प्रकाशित हुई हों ऐसा नहीं हैं। इनमें से कई शिविर की कक्षाओं में दिए गए व्याख्यान भी हैं जिन्हें बाद में सम्पादकीय के रूप में प्रकाशित किया गया है। इसीलिये यह संभव है कि सम्पूर्ण पुस्तक में भाषा और भाव की अभिव्यक्ति में कहीं कहीं अंतर दिखाई दे, और कहीं- कहीं एक ही विषय का दुबारा उल्लेख भी दिखे
    इधर बहुत दिनों से कुछ पाठक और महामंडल के शुभचिंतक ' विवेक-जीवन ' के सम्पादकीय लेखों को संकलित कर प्रकाशित करने का अनुरोध कर रहे थे। किन्तु, धन के अभाव में यह  संभव नहीं हो पा रहा था। यह समस्या अब भी रहने के बावजूद इसे प्रकाशित किया जा रहा है। इस पुस्तक की बिक्री से प्राप्त राशि का व्यय महामण्डल के कार्यों में ही किया जायेगा। आगे चल कर धन की सुविधा होने पर अंग्रेजी सम्पादकीय लेखों को भी संकलित कर प्रकाशित करने का प्रयास किया जायेगा   
    विवेक-जीवन के सम्पादकीय लेखों के आलावा कुछ अन्य रचनाएँ भी आलोच्य विषय की  व्याख्या में सहायक सिद्ध होंगी -अतएव इसमें उन्हें भी समावेशित कर लिया गया है। जैसे- ' स्वामी विवेकानन्द एवं युवा समाज ' तथा ' राष्ट्रिय एकता एवं स्वामी विवेकानन्द ' ये दो लेख रामकृष्ण मिशन सारदा-पीठ की वार्षिक स्मारिका 'सारदा' में प्रकशित हो चुके हैं। ' युवा समस्या और स्वामी विवेकानन्द ' लेख बलराम मन्दिर में श्री श्री ठाकुर के पदार्पण की  शतवार्षिकी समारोह के अवसर पर प्रकाशित स्मारिका में मुद्रित हुआ था। इन तीनो लेखों के पुनर्मुद्रण की अनुमति देने के लिये हम रामकृष्ण मिशन सारदापीठ एवं बलराम मन्दिर के अध्यक्ष महोदय के प्रति आभार प्रकट करते हैं। 'काँथी रामकृष्ण मिशन आश्रम ' द्वारा आयोजित युवा सम्मेलन के अवसर पर उनके अनुरोध पर लिखित लेख- ' नारि-जाती की उन्नति के संदर्भ  में स्वामी विवेकानन्द के विचार ' को भी इसमें सम्मिलित किया गया है। ' स्वामी विवेकानन्द और आज के हमलोग ' कई वर्ष पूर्व दिए गये व्याख्यान से लिया गया है । ये दोनों लेख पहले कहीं प्रकाशित नहीं हुए हैं।
 यदि इस संकलन में प्रकशित निबन्धों के अध्यन से थोड़े भी युवा विवेकानन्द के भाव को ग्रहण करने की प्रेरणा प्राप्त कर सकें तो हमारा परिश्रम सार्थक हो जाये। 

प्रकाशक 

प्रथम बंगला संस्करण : अक्टूबर, 1984


============== 

बंगाली भाषा में प्रकाशित चतुर्थ संस्करण की भूमिका 

    पूर्व में प्रकाशित समस्त संस्करणों के समाप्त हो जाने के बाद, आठ नये निबन्धों को जोड़ कर तथा कुछ लेखों को हटाकर पुनः नये परिष्कृत कलेवर में इस ग्रन्थ का चतुर्थ संस्करण प्रकाशित हो रहा है। इस ग्रन्थ में स्वामीजी का दो नया चित्र भी इसमें डाला गया है, जिसमें से एक चित्र अमेरिका स्थित 'वेदान्ता सोसायटी ऑफ़ सेंट लुईस ' के अध्यक्ष स्वामी चेतनानन्द के सौजन्य से प्राप्त हुआ है। स्वामी विवेकानन्द के सार्धशततम जन्म जयन्ती के अवसर पर महामण्डल प्रकाशन द्वारा प्रस्तावित प्रकाशन में से एक ग्रन्थ यह है। 
      भारत के राष्ट्रियकृत बैंकों में से एक 'यूनियन बैंक ऑफ़ इंडिया ' के प्राधिकारी वर्ग ने इस ग्रन्थ को प्रकाशित करने में विशेष रूप से आर्थिक सहायता प्रदान की है। उनके प्रति, विशेष रूप से यूनियन बैंक के चेयरमैन श्री देवब्रत सरकार के प्रति हम अपनी विनम्र आंतरिक कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। एवं सर्वश्री अमित कुमार दत्त, भूपेन्द्र चन्द्र भट्टाचार्य, अरुणाभ सेनगुप्त, तथा विश्वनाथ पाल आदि ने भी इस ग्रन्थ के प्रकाशन में कई तरह से सहायता पहुँचाई है। ग्रन्थ की रूपसज्जा श्री सुकेश मण्डल के सौजन्य से हुई है। श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा-स्वामीजी का आशीर्वाद सबों के उपर वर्षित हो, यही प्रार्थना है।
 
  आर्थिक सहायता मिलने से भी इस संवर्धित संस्करण के कलेवर में वृद्धि तथा अन्य प्रासंगिक व्यय में अत्यधिक होने से न चाहते हुए भी ग्रन्थ के मूल्य में थोड़ी सी वृद्धि करनी पड़ी है। आशा करते हैं, इस विशेष संस्करण को सुधि पाठक वृन्द स्वीकार करेंगे, तथा स्वामीजी के सार्धशततम जन्म जयंती में साक्षात् भाग लेने के आनन्द का उपभोग करेंगे। -प्रकाशक

Publisher 

Shri Ranen Mukherjee,

Convener, Special Publications Sub-Committee,

Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal

'Bhuvan- Bhavan', Po : Balaram Dharmasopan
Khardah, North Twenty Four Parganas 7000116
West Bengal

4 जुलाई 2012  
==================  

स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना 
 
 प्रथम अध्याय 

 स्वामी विवेकानन्द : व्यक्ति और मन ]

[Swami Vivekananda :Person and Mind]

(1) 

🏹🔱🕊 अतीत या भावी युग के नायक 🏹🔱🕊

     स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यानों में प्रयुक्त कई शब्दों के अर्थ, सामान्यतः प्रचलित अर्थों से इतने भिन्न हैं कि हम प्रायः इनका अर्थ लगा बैठते हैं। दरअसल विवेकानन्द को पढ़ने एवं उनकी शिक्षाओं को गहराई से समझने की हमने अबतक कोशिश
 ही नहीं की है, इसलिए हम उन्हें एक धार्मिक भय ( religious awe) के रूप में देखते हैं, तथा उन्हें भी अपने देश के केवल महान धार्मिक सन्त समझकर उनके प्रति एक भयमिश्रित आदर का भाव पाल लेते हैं। इसी कारण हम उन्हें ठीक से समझ नहीं पाते हैं, और यह भययुक्त आदर का भाव उनके प्रति सच्ची श्रद्धा में परिणत नहीं हो पाता। तथा उनका अनुसरण करने की बात तो 
हम सोच भी नहीं पाते। उनके व्याख्यानों में आसानी से समझ में नहीं आने वाले बहुत से शब्दों को सुनकर हम उन्हें एक सामान्य प्राचीन धर्म प्रवक्ता समझ बैठते हैं। क्योंकि जिस समय उनका आना हुआ था उस समय से हम बहुत आगे निकल चुके हैं। अब तो हम चाँद पर पाँव रखने का गर्व करने वाले मनुष्य बन चुके हैं
       समय के साथ-साथ हम भी प्रवाहित हो रहे हैं। हम समय के साथ कदम मिलाकर चलना चाहते हैं। क्योंकि समय के साथ चलने वालों को ही आधुनिक कहा जाता है नहीं तो पुरातनपंथी समझा जाता है।  समय के साथ नहीं चल पाने के दो कारण हो सकते हैं - एक समय से पीछे रह जाना और दूसरा समय से आगे निकल जाना। इन दोनों अवस्थाओं में वर्तमान के साथ कदम नहीं मिल सकते। जब समय के साथ कदम नहीं मिलते तब उसे पुरातन-पंथी समझते हुए हम अपने को अत्यन्त प्रगतिवादी मान बैठते हैं। किन्तु जो समय के साथ नहीं चलते वे समय से आगे हो सकते हैं या पीछे भी हो सकते हैं।  
      स्वामी जी उस समूह के एक व्यक्ति थे, जिनके कदम समय से आगे रहते हैं वे अतीत के बजाय भविष्य के मनुष्य थे।  यहाँ तक कि वर्तमान को देखने के लिए भी उन्हें पीछे मुड़कर देखना पड़ता था।  विवेकानंद समय से आगे की बात सोचने वाले युवा- दल के नेता थे। वे तो अतीत के विपरीत भविष्यद्रष्टा थे ! यहाँ तक कि वर्तमान को देखने के लिए उन्हें पीछे मुड़कर देखना पड़ता था। इसलिए वे तत्कालीन भारत के आलस्य एवं जड़ता आदि सैकड़ों कारणों से वे पीड़ा का अनुभव करते थे। 
    जिस युग में वे आविर्भूत हुए थे, उस समय हमारे देश में पश्चिमी आधुनिकता का सैलाब आया हुआ था और हमारा नव शिक्षित समुदाय उस सैलाब में डूब-उतरा रहा था। उस समय स्वामी विवेकानन्द ने घोषणा की थी कि वे उन अनाड़ी आधुनिकों में से नहीं हैं जो ईश्वर को भी तड़ित के  परिणाम विशेष जैसा प्रमाणित करने की चेष्टा करते। वे ऐसे अत्याधुनिक व्यक्ति थे जो एक ही  दृष्टि में दिगंत तक विस्तृत अतीत से वर्तमान एवं उससे आगे भविष्य को भी इन्द्रधनुष के समान स्पष्ट रूप से देखने  में समर्थ थे। 
      नव आधुनिकों की तरह वे जो कुछ भी प्राचीन है उसे त्याग देने के पक्षधर नहीं थे। उन्होंने कहा था कि वर्जन (Exclusion) शब्द उनके शब्दकोश में नहीं है। उन्होंने गौरवमयी अतीत से प्रेरणा लेकर वर्तमान के शिशु को अपने  पैरों पर खड़े होने तथा भविष्य को और भी अधिक महानता से गढ़ने की साधना में वीरतापूर्वक कदम आगे बढ़ाने का  आह्वान किया था।
     उन्होंने कामना का त्याग करने को कहा था। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि सबको  कामनाहीन, निरुत्साही और निश्चेष्ट हो जाना चाहिए। बल्कि कामना के दास होने से बचना चाहिए। [निवृत्ति अस्तु महाफला] उन्होंने विश्वधर्म  के इतिहास का अध्यन करके यह जान लिया था कि केवल इसी देश में धर्म, अर्थ और कामना को सुसमन्वित अभ्यास (3'P') के द्वारा फलोपयोगी बनाया गया था ! अन्तिम पुरुषार्थ - 'मोक्ष' को सबके लिए अनिवार्य नहीं किया गया था। क्योंकि मनुष्यों में इहलोक और परलोक के सुख भोगों के प्रति स्वाभाविक लालसा रहती है। धर्म को समझने के क्रम में कई बार उन्होंने यहाँ तक कहा है कि पाश्चात्य के लोगों में धर्म के प्रति अधिक आग्रह है। क्योंकि हमलोगों ने अभी तक उनके समान भोग सामग्रियों का उपभोग करके उसकी निस्सारता का अनुभव किया ही नहीं है। बिना भोग किये योग में प्रवृत्त होने के लिए अपनी बड़ाई हाँकने प्रवृत्ति की उन्होंने 'ढोंग' कहकर घोर निंदा की है।  यह तो सात्विकता के आवरण में लिपटी हुई घोर तामसिकता है !  
    स्वामीजी गुणों के क्रम विकास में [क्षात्र वीर्य और ब्रह्मतेज में] विश्वास रखते थे। वे जिस प्रकार तमोगुण का परित्याग करते हुए रजोगुण के प्रकाश में सतोगुण में लीन शान्ति  का आश्रय ग्रहण करने के पक्षधर थे, ठीक उसी प्रकार सामाजिक जीवन में शूद्रों की एकता, वैश्यों का आदान-प्रदान, क्षत्रियों के शौर्य एवं उनकी  वीरता की उपलब्धी कर लेने के पश्चात साधना के द्वारा ब्रह्मतेज प्राप्त करने के मार्ग में सबको अग्रसर होने की प्रेरणा देते थे।   
      दरिद्रता, अशिक्षा और अज्ञानता के अंधकार को अतीत की गहरी खाई में फेंककर मनुष्य में अन्तर्निहित शाश्वत दिव्यता (inherent divinity) को उद्घाटित करा देना ही उनके कर्मयोग  का रहस्य है। वे केवल हमें इतना स्मरण करा देना चाहते थे कि- " सैंकड़ों ब्रह्मा और इन्द्र 'बुद्धत्व' पाये हुए नर-देवों के चरणों पर लोट जाने के लिए परस्पर प्रतिस्पर्धा करते हैं। तथा इस बुद्धत्व-प्राप्ति की अवस्था पर मनुष्य मात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। " ( वर्तमान भारत 9/204) 
      इस भविष्यद्रष्टा, वीर-योद्धा के समक्ष आधुनिकता की राग अलापना तो  नवजात शिशु का क्रंदन मात्र है। इसलिए प्रश्न यह उठता है कि स्वामीजी अतीत के नायक थे या भविष्य के ? 

===========

>>>'बुद्धत्व-प्राप्ति' की अवस्था - "... सैंकड़ों ब्रह्मा और इन्द्र बुद्धत्व पाये हुए नर-देवों के चरणों पर लोट जाने के लिए परस्पर प्रतिस्पर्धा करते हैं। तथा इस बुद्धत्व-प्राप्ति की अवस्था पर मनुष्य मात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है।"

[With the deluge which swept the land at the advent of Buddhism, the priestly power fell into decay and the royal power was in the ascendant.....बौद्ध विप्लव के साथ साथ पुरोहित-शक्ति का ह्रास और राजसी शक्ति का विकास हुआ। आधुनिक हिन्दू धर्म और राजपूत आदि जातियों का अभ्युत्थान हुआ।  इस समय समाज के नेता वशिष्ठ , विश्वामित्र आदि नहीं रहे। वरन चन्द्रगुप्त मौर्य , सम्राट अशोक आदि हुए।  इसी युग के अन्त में   The state of being a Buddha is superior to the heavenly positions of many a Brahmâ or an Indrawho vie with each other in offering their worship at the feet of the Buddha, the God-man!  And to this Buddhahood, every man has the privilege to attain; it is open to all even in this life." MODERN INDIA/Volume 4,page -443/-

 🏹(तड़ित# 'अनाड़ी आधुनिक' समूह की भौतिक विज्ञानी -"निकोला टेस्ला" जैसे (আহাম্মক)   नहीं थे,जो ईश्वर को तड़ित पर दृष्टि गड़ाकर खोजते थे, बल्कि स्वामीजी ऋषि और वैज्ञानिक दोनों में सामंजस्य करना चाहते थे।)
 
 🏹#  'पंचभूतेर फांदे ब्रह्म पड़े कांदे अवस्था या 'भेंड़त्व की अवस्था' को देखने के लिए, करुणावश उन्हें (सच्चिदानन्द अवस्था) से पीछे मुड़कर देखना पड़ता था अर्थात 'सिंहावलोकन' करना पड़ता था। युवाओं की सुस्ती, धीमी गति, और इस गति,जीवन - लक्ष्य की अनिश्चित्ता को देखने से उन्हें बड़ा कष्ट होता था। 

=================



  









शनिवार, 14 जुलाई 2012

महामण्डल समाचार

महामण्डल समाचार 
16 फरवरी2012, कल्याणी विश्वविद्यालय (प0बंगाल) : विश्वविद्यालय के छात्रावास में रहने वाले छात्रों के प्रयास से स्वामी विवेकानन्द की वार्षिक जन्म-जयन्ती के अवसर पर विवेकानन्द सभागार में ' चर्चा-मंच ' का आयोजन हुआ। सभा का उद्घाटन कल्याणी विश्वविद्यालय के उप-कुलपति (Vice-chancellor) प्राध्यापक आलोक कुमार वंद्योपाध्याय ने किया। इस सभा में स्वामी विवेकानन्द की विचार-धारा के प्रसंग पर बेलुड़ मठ के वरिष्ठ सन्यासी श्रीमत स्वामी स्वतंत्रानन्द एवं अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के सचिव श्रीवीरेन्द्र कुमार चक्रवर्ती ने चर्चा किया। महामण्डल के कल्याणी केन्द्र द्वारा सभा-प्रांगन में एक बुक-स्टाल की व्यवस्था की गयी थी।
26 मार्च 2012, वर्धमान विश्वविद्यालय के अरविन्द छात्रावास के छात्रों ने स्वामीजी की वार्षिक जन्म-जयंती  के उपलक्ष्य पर अपने होस्टल के विशेष-कक्ष में एक सभा का आयोजन किया। इस अवसर पर महामण्डल के भाई श्रीतपन गोड़ाई एवं श्रीअरुणाभ सेनगुप्त ने - ' विद्यार्थी-जीवन में मनःसंयोग की प्रयोजनीयता ' 
तथा ' स्वामीजी की शिक्षा की प्रासंगिकता ' के विषय में चर्चा किया। सभा में लगभग 67 छात्र उपस्थित थे। सभा के बाद उनलोगों ने ' प्रश्नोत्तर कार्यक्रम ' में भी हिस्सा लिया। तथा महामंडल के वर्धमान केन्द्र द्वारा लगाये गये बुक-स्टाल से उनहोंने प्रासंगिक पुस्तकों को खरीदा।
22 जनवरी 2012, नदिया जिला के नवद्वीप विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा एक दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया गया। इस शिविर में 290 छात्रों ने हिस्सा लिया। शिविर का सायं-कालीन सत्र सबों के लिए खुला था। इस सम्मेलन में ' राष्ट्र-निर्माण में महामण्डल की भूमिका ' के विषय पर अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के सचिव श्रीवीरेन्द्र कुमार चक्रवर्ती ने अपने विचार रखे। वर्तमान समय में स्वामी विवेकानन्द की प्रासंगिकता के विषय पर रामकृष्ण मिशन शिक्षण मन्दिर, बेलुड़ मठ के सन्यासी श्रीमत स्वामी गोकुलेशानन्द ने चर्चा किया। प्राध्यापक पार्थ सेनगुप्त ने संगीत प्रस्तुत किया।
23 दिसम्बर 2011, झारखण्ड राज्य के पूर्वी सिंहभूम जिले के पाथरी विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा विगत कई वर्षों से निष्ठा पूर्वक महामण्डल कार्य संचालित किया जा रहा है। विगत 23 दिसम्बर को पाथरी केन्द्र द्वारा एक दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया गया। 12 जनवरी 2012 को स्वामी विवेकानन्द के जन्म-दिवस के अवसर पर प्रभातफेरी एवं आम-सभा का आयोजन किया गया। इस केन्द्र द्वारा साप्ताहिक पाठ-चक्र एवं शिशु-विभाग भी अच्छे ढंग से चलाया जा रहा है।
पूर्वी मेदिनीपुर जिले के खड़ीगेड़ीया विवेकानन्द युवा महामण्डल से संवाद :
यहाँ के केंद्र द्वारा साप्ताहिक पाठ-चक्र, दातव्य होमिओपैथी चिकित्साकेन्द्र एवं ' विवेकानन्द शिशु शिक्षा निकेतन ' के नाम से एक नर्सरी स्कुल नियमित रूप से संचालित हो रहा है। इस स्कुल में 266 बच्चे पढ़ रहे हैं। नैतिकता मूलक कहानी सुनाना, गाने, कविता, खेल-कूद के साथ साथ पढ़ने लिखने की व्यवस्था की गयी है। शिशु के सर्वांगीन विकास पर विशेष नजर राखी जाती है।
पश्चिम मेदिनीपुर के हासिमपुर विवेकानन्द युवा महामण्डल से संवाद : 
यहाँ किशोर एवं युवाओं के लिये अलग-अलग दो पाठ -चक्र, एवं शिशु-विभाग ' विवेक-वाहिनी ' का संचालन पूर्ण निष्ठां के साथ चलाया जा रहा है। इस केन्द्र द्वारा संचालित ' दातव्य चिकित्सा-केन्द्र ' में एलोपैथिक एवं होमियोपैथिक विभाग के अलावा नेत्र-रोग एवं दन्त चिकित्सा की व्यवस्था भी की गयी है। पिछले वर्ष 8 गाँवों के 113 गरीब लोगो को नये कपड़े दिए गये। 12 जनवरी को स्वामीजी के जन्म दिवस पर- शोभायात्रा,विभिन्न प्रतियोगिता, जन-सभा का आयोजन किया गया। इस दिन 16 गरीबों को कम्बल दिया गया। 5 फरवरी को आयोजित जन-सभा में मेदिनीपुर रामकृष्ण मिशन केन्द्र के सन्यासी श्रीमत स्वामी सुनिष्ठानन्द एवं महामण्डल कर्मियों ने स्वामीजी के जीवन और सन्देश पर चर्चा किये। यहीं के सूतछाड़ा विवेकानन्द युवा पाठ -चक्र द्वारा 12 फरवरी को एक दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर का आयोजन हुआ, जिसमे 161 छत्रों ने हिस्सा लिया। 

शनिवार, 7 जुलाई 2012

' सच्चा व्यक्तित्व:नर रूप में नारायण '

द्वैत ज्ञान बिल्कुल मिथ्या है !
(स्वामी विवेकानन्द )
 " हमें अपने इस सृष्टि की व्याख्या स्मरण रखनी चाहिये। हमारा यह जगत क्या है ? यह हमारे ज्ञान के स्तर पर प्रक्षिप्त अनन्त सत्ता मात्र है। अनन्त का केवल कुछ अंश हमारे ज्ञान के स्तर पर प्रक्षिप्त हुआ है, जिसे हमलोग अपना जगत कहते हैं।  
अनन्त का जो भाग हम अपने इस ज्ञान के भीतर से अनुभव करते हैं, जो मानो देश-काल-निमित्त रूप चक्र के भीतर पड़ा है, वह अनायास हमें बोधगम्य हो जाता है।
किन्तु धर्म का वह अंश जो अनन्त को जानने की चेष्टा करता है, वह हमारे लिए सर्वथा नवीन है; इसीलिए उसके चिन्तन से मस्तिष्क में नयी लीक तैयार होती रहती है, जिससे सारा शरीर-मन ही मानो उलट-पलट जाता है।
इन विघ्न-बाधाओं को यथासम्भव कम करने के लिए ही ऋषि पतंजली ने ' अष्टांग सूत्र ' का आविष्कार किया है, ताकि हम उनमें से ऐसी किसी एक साधन-प्रणाली को चुनकर अपना लें, जो हमारे लिये सर्वथा उपयोगी हो।" [1/141]
" देश का अर्थ है -प्राण को शरीर के किसी अंश-विशेष में आबद्ध रखना। समय का अर्थ है-प्राण को किस स्थान में कितने समय तक रखना होगा, इस बात का ज्ञान; और संख्या का अर्थ है-यह जान लेना कि कितनी बार ऐसा करना होगा। " [विवेकानन्द साहित्य खण्ड1/पृष्ठ संख्या 183]
" यह कहना कि - ' आत्मा नामक शक्ति शरीर के भौतिक परमाणुओं के विभिन्न संघातों से उत्पन्न होता है, उतना ही हास्यास्पद है, जितना कोई बैल के आगे गाड़ी जोतने का प्रयास करे तो होगा। " ये संघात कैसे उत्पन्न हुए ? (किस शक्ति ने ' हिग्स बोसोन ' को उत्पन्न कर दिया ?) यह सिद्ध किया जा सकता है कि ठोसपन, कठोरता आदि जो सब जड़ वस्तु ' क्षिति ' के गुण हैं, वे गति के परिणाम हैं। तरल या वाष्पीय अवस्था (वायुपुन्ज ) में यदि अत्यधिक गति उत्पन्न कर दी जाये जैसे तूफान में, तो वह ठोस सा हो जाता है और अपने आघात से ठोस पदार्थों को तोड़ या काट सकता है।
From Snowflakes to CERN The Hunt for the Higgs Boson by Nicholas Mee (Author, Higgs Force)
[Ice is so familiar to us that we just accept the sudden and dramatic metamorphosis of water as it cools below its freezing point. A liquid that we can dive into is spontaneously transformed into a hard rock-like material that we would crack our skull on. 
 John Locke used the following anecdote to express just how surprising this transformation really is: “A Dutch ambassador, who entertaining the king of Siam with the particularities of Holland, which he was inquisitive after, amongst other things told him that the water in his country would sometimes, in cold weather, be so hard that men walked upon it,and that it would bear an elephant, if he were there. To which the king replied,Hitherto I have believed the strange things you have told me, because I look upon you as a sober fair man, but now I am sure you lie.”
in the 1930s the Russian theoretical physicist Lev Landau recognised that they share common features. He realised that in each case, the transformation of the material is accompanied by a loss of symmetry, and this insight was the first step towards building a mathematical model of phase transitions. Landau’s theory represents one of the most important insights in the whole of 20th-century physics.]
 जिस किसी वस्तु की आकृति है, वह परमाणुओं की एक संहति मात्र है, अतेव उसको चलाने के लिये इससे भिन्न कोई अन्य वस्तु चाहिए। यह ' अन्य कोई वस्तु ' ही संस्कृत भाषा में आत्मा के नाम से संबोधित हुई है।
यह आत्मा ही कारण शरीर में से मानो स्थूल शरीर पर काम कर रही है। जो हमारे मन, बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर आदि को चला रही है, इसी शक्ति की अभिव्यक्ति को शारीरिक आकृति वाला एक ऐसा ज्योतिर्मय पदार्थ (कारण शरीर =हिग्स बोसोन?) माना गया है, जो इस शरीर के नष्ट हो जाने पर भी बचा रहता है।
 काल का आरम्भ मन से होता है-देश भी मन के अंतर्गत है। काल के बिना कार्य-कारण वाद नहीं रह सकता। क्रम विकास की भावना के बिना कार्य-कारणवाद नहीं रह सकता। अतेव देश-काल-निमित्त (कार्य-कारणवाद) मन के अंतर्गत हैं, और यह आत्मा मन से अतीत और निराकार होने के कारण, देश-काल-निमित्त के परे है। और जब वह देश-काल-निमित्त के अतीत है, तो अवश्य अनन्त होगी। और अनन्त कभी दो नहीं हो सकता। अतेव यह जो अनेक आत्माओं की धारणा है- तुम्हारी एक आत्मा, मेरी दूसरी आत्मा -यह सत्य नहीं है। अतेव मनुष्य का सच्चा स्वरूप एक ही है, वह अनन्त और सर्वव्यापी है, और यह प्रतिभासिक जीव मनुष्य के इस वास्तविक स्वरुप का एक सीमाबद्ध भाव मात्र है।
मेरा यथार्थ स्वरूप - आत्मा, कार्य-कारण कार्य-कारण या देश-काल से अतीत होने के कारण अवश्य मुक्तस्वभाव है। यह प्रतिभासिक जीव यह (बिकेसिंह नामक) प्रतिबिम्ब देश-काल-निमित्त के द्वारा सीमाबद्ध होने के कारण प्रतीत होता है,मानो वह बद्ध हो गया है, पर वास्तव में वह भी बद्ध नहीं है। " [2/8-11]

" वास्तव में ' मैं ' अथवा 'तुम ' कुछ नहीं है-सब एक ही है। चाहे कहो-' सभी मैं हूँ ', या कहो ' सभी तुम हो '।यह द्वैत ज्ञान बिल्कुल मिथ्या है, और सारा जगत इसी द्वैत ज्ञान का परिणाम है। जब विवेक के उदय होने पर मनुष्य देखता है, कि दो वस्तुएँ नहीं हैं, एक ही वस्तु है, तब उसे यह बोध होता है कि वह स्वयं यह अनन्त ब्रह्माण्ड स्वरुप है। इस माया, या अज्ञान या नाम-रूप, या यूरोपीय भाषा में इस देश-काल-निमित्त के कारण यह एक अनन्त सत्ता इस वैचित्र्यमय जगत के रूप में दिख पड़ती है।" [2/30-31]
" वाह्य जगत के बारे में कितना भी ज्ञान क्यों न हो जाये, पर उससे सृष्टि रहस्य का भेद नहीं खुल सकता। क्योंकि मन देश-काल और निमित्त की चहारदीवारी के बाहर नहीं जा सकता। जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपनी सत्ता को नहीं लाँघ सकता, उसी प्रकार देश और काल के नियम ने जो सीमा खड़ी कर दी है, उसका अतिक्रमण करने की क्षमता किसी में नहीं है। ..क्योंकि इसकी चेष्टा करते ही, हमें अज्ञान या नाम-रूप या देश-काल-निमित्त की सत्ता स्वीकार करनी होगी।[2/45]
" बुढ़ापा आता है, सुनहले स्वप्न हवा में उड़ जाते हैं; और मनुष्य निराशावादी हो जाता है। प्रकृति के थपेड़े खाकर हम भी इसी तरह दिशाहीन व्यक्ति की भाँति जीवन भर एक छोर से दूसरे छोर तक दौड़ते रहते है। इस सम्बन्ध में मुझे बुद्ध की जीवनी ' ललितविस्तर ' का एक प्रसिद्द गीत याद आता है। वर्णन इस प्रकार है--बुद्ध ने मनुष्य-जाति का परित्राता होकर जन्म लिया, किन्तु जब राजप्रसाद की विलासिता में वे अपने को भूल गये, तब उनको जगाने के लिये देवदूतों ने एक गीत गया, जिसका मर्मार्थ इस प्रकार है-' हम एक प्रवाह में बहते चले जा रहे हैं, हम निरंतर परिवर्तित हो रहे हैं, कहीं निवृत्ति नहीं है, कहीं विराम नहीं है।' [2/45-47]
" जो ब्रह्म अनन्त है, जो असीम है, वह सीमित कैसे हुआ ? A ही C से होकर गुजरने के कारण B के रूप में प्रतीत हो रही है।
[A]The Absolute या [क] ब्रह्म  
। 
 [C] या                 [ग]
Time                      देश 
Space                      काल 
            Causation                निमित्त         
--------------------------------------------
[B] The Universe    [ख] जगत 
---------------------------------------------------
उपरोक्त चित्र में [क] ब्रह्म है और [ख] है जगत। ब्रह्म ही जगत हो गया है। यह ब्रह्म [क] देश--काल -निमित्त [ग] में से होकर आने से जगत [ख] बन गया है। हमलोग इस देश-काल -निमित्त रूपी काँच में से ब्रह्म को देख रहे हैं, और इस प्रकार नीचे की ओर से देखने पर ब्रह्म हमें जगत के रूप में दीखता है। जहाँ ब्रह्म है,वहाँ देश--काल-निमित्त नहीं है। काल वहाँ रह नहीं सकता, क्योंकि वहाँ न मन है, न विचार। अतः [C] या [ग] के उपर किसी प्रकार की इच्छा नहीं रह सकती।
  1. { प्रातिभासिक (सर्प) - जो हमारे साधारण भ्रम की स्थिति में आभासित होता है और रस्सी के ज्ञान के बाधित होता है।
  2. व्यावहारिक (जगत) - जो मिथ्या तो है परन्तु, जब तक ब्रह्म का ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक सत्य प्रतीत होता है, और ज्ञान हो जाने पर बाधित हो जाता है।
  3. ब्रह्म - जिसे पारमार्थिक कहा जाता है। इसका कभी भी ज्ञान नहीं होता है। यह नित्य है। ब्रह्मज्ञान होने से जगत का बोध हो जाता है और मुक्ति प्राप्त हो जाती है। 
जीव वास्तव में ब्रह्म ही है, दूसरा कुछ नहीं, शरीर धारण के कारण वह भिन्न प्रतीत होता है। शरीर तीन प्रकार का होता है- स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर। अनादि प्रवाह के अधीन होकर कर्मफल को भोगने के लिए शरीर धारण करना पड़ता है। कर्म अविद्या के कारण होते हैं। अत: शरीर धारण अविद्या के ही कारण है। इसे ही बंधन कहते हैं। अविद्या के कारण कर्तृत्वाभिमान और भोक्तृत्वाभिमान पैदा होता है, जो आत्मा में स्वभावत: नहीं होता। जब कर्तृत्वाभिमान और भोक्तृत्वाभिमान से युक्त होता है, तब आत्मा जीव कहलाता है। मुक्त होने पर जीव ब्रह्म से एककारता प्राप्त करता है या उसका अनुभव करता है। 
जाग्रत अवस्था में स्थूल शरीर, स्वप्न में सूक्ष्म शरीर और सुषुप्ति में कारण शरीर रहता है। सुषुप्ति में चेतना भी रहती है, परन्तु विषयों का ज्ञान न होने के कारण जान पड़ता है कि सुषुप्ति में चेतना नहीं रहती। यदि सुषुप्ति में चेतना न होती तो जागने पर कैसे हम कहते कि सुखपूर्वक सोया? वहाँ चेतना साक्षीरूप या शुद्ध चैतन्य रूप है। परन्तु सुषुप्ति में अज्ञान रहता है। इसी से शुद्ध चेतना के रहते हुए भी सुषुप्ति मुक्ति से भिन्न है- मुक्ति की अवस्था में अज्ञान का नाश हो जाता है। शुद्ध चैतन्य रूप होने के कारण ही कहा गया है कि आत्मा एक है और ब्रह्मस्वरूप है। चेतना का विभाजन नहीं हो सकता है।}
निमित्त क्या है ?
हमने प्रश्न किया सेव टूट कर निचे क्यों गिरा ? यह प्रश्न केवल तभी किया जा सकता है, जब यह मान लिया जाय कि बिना कारण के कुछ भी घटित नहीं होता।...जब हम प्रश्न करते हैं, कि यह घटना क्यों हुई, तब हम यह मान लेते हैं कि सभी वस्तुओं का सभी घटनाओं का एक ' क्यों ' रहता ही है। इस पूर्ववर्तिता और परवर्तिता के अनुक्रम को ही निमित्त अथवा ' कार्य-कारणवाद ' कहते हैं। This is called the law of causation .इस प्रश्न में यह विश्वास भी निहित है कि जगत का कोई भी पदार्थ स्वतंत्र नहीं है, प्रत्येक पदार्थ पर उससे उसके बाहर स्थित अन्य कोई भी पदार्थ कार्य कर सकता है।Interdependence is law of the whole universe. अन्योन्याश्रयता या परस्पर सापेक्षता समस्त विश्व का नियम है। 
किन्तु जब हम पूछते हैं, " ब्रह्म पर किसने कार्य किया ?" तो हम कितनी बड़ी भूल करते हैं। यह प्रश्न करने का अर्थ है कि ब्रह्म भी अन्य किसी के अधीन है-वह निरपेक्ष ब्रह्मसत्ता भी अन्य किसी के द्वारा बद्ध है। ब्रह्म अथवा ' निरपेक्ष सत्ता ' या The Absolute शब्द [ॐ ]में देश-काल-निमित्त है ही नहीं, क्योकि वह एकमेवाद्वितीय है। अपनी सत्ता का जो स्वयं ही आधार है, उसका कोई कारण हो ही नहीं सकता। वह स्वयंभू है ! " [2/85-87]     
" यहाँ कहा जा रहा है, वह अनन्त ब्रह्म [A] देश-काल-निमित्त की समष्टि अर्थात माया [C] के आवरण में से नाना रूपों में प्रकाशित हो रहा है। किन्तु माया (नाम-रूप) की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। किन्तु यह बिल्कुल असत (अस्तित्व शून्य) भी नहीं है। दूसरे, कुछ समय बाद ये बिल्कुल अन्तर्धान भी हो जाते हैं। इसलिये [B] या जगत सत्य नहीं है, असत भी नहीं है-मिथ्या है। [2/90-91]
" नियम के सर्वव्यापी होने का क्या अर्थ है ? हमारा जगत अनन्त सत्ता का वह अंश है जो
 ' स्पेस-टाइम-काजैलिटी ' द्वारा सीमाबद्ध है। इससे यह निश्चित है कि नियम केवल इस सीमाबद्ध जगत में ही संभव है, इसके परे कोई नियम संभव नहीं। "[3/69]
" इस मनः कल्पित जगत में चिरकाल तक रहने की आशा करना और स्वर्ग जाने की अभिलाषा करना कैसी नासमझी है ! स्वर्ग हमारे इस परिचित जगत की पुनरावृत्ति ही तो है। हमारा इतना पतन हो चूका है कि हम अपनी वर्तमान अवस्था से अधिक उच्च और कुछ कल्पना ही नहीं कर सकते; हमलोग अपने अनन्त स्वरुप को भूल चुके है, और हमारी सारी भावनायें क्षुद्र सुख, दुःख और ईर्ष्या द्वेष आदि ही में निबद्ध हैं। क्योंकि हमलोग इस सान्त जगत को ही अनन्त मान लेते हैं; और केवल इतना ही नहीं, इस मुर्खता को किसी भी प्रकार छोड़ना नहीं चाहते हैं।हम इस जीवन की प्यास (अभिनिवेश) या तृष्णा से, जिसे बौद्ध तन्हा या तिस्सा कहते हैं, इतने आसक्त हैं कि उसीमें चिपके रहना चाहते हैं। जब तक हम जीवन के प्रति इस तृष्णा को नहीं छोड़ते, इन क्षण भंगुर सान्त विषयों के प्रति अपनी प्रबल आसक्ति का त्याग नहीं करते, तब तक इस जगत के अतीत उस असीम मुक्ति की एक झलक भी पाने की आशा करना व्यर्थ है। उस पूर्ण साम्यावस्था का लाभ, ईसाई जिसे ' बुद्धि से अतीत शान्ति ' कहते हैं, इस छोटे से जगत से अपनी आसक्ति हटा लेने पर ही हो सकती है। " [3/70-71]
क्योंकि  " जिस रूप में हम इस जगत को जानते या सोचते हैं, उसकी सत्ता ही नहीं है; अपरिवर्तनीय परिवर्तित नहीं हुआ है। यह सारा विश्व आभास मात्र है, सत्य नहीं है। ईश्वर में किंचित भी परिवर्तन नहीं हुआ है। तथा वह लेशमात्र विश्व नहीं बना है। देश-काल -निमित्त के माध्यम से देखने के लिए विवश होने के कारण हम ईश्वर को विश्ववत देखते हैं।..यदि मैं परिवर्तित होता हूँ, तो वाह्य जगत परिवर्तित हो जाता है।" [9//96]
" जब तुम अपने सच्चे स्वरुप को भूल गये और प्रकृति या देश-काल तथा निमित्त के बंधन में पड़ गये। जब से तुमने विचार करना आरम्भ किया, तभी से काल का उद्भव हुआ। जब तुमको शरीर मिला, तब देश (आकाश) का प्रादुर्भाव हुआ, जब तुम सीमाबद्ध हुए, तब निमित्त आरम्भ हुआ। हमारी ससीमता (' मैं '-बोध को सच समझना) और अपने को स्त्री या पुरुष शरीर मान कर शादी विवाह करना या सन्यासी बनना - सब खेल है। केवल विनोदार्थ। कोई वस्तु तुमको बाँधती नहीं, कोई तुमको बाध्य नहीं करता। तुम कभी बन्धे ही नहीं थे, हमलोग स्वयं अपने ही द्वारा रचित नाटक में अपना अपना अभिनय कर रहे हैं। " [9/140]
" कुछ लोग अपने व्यक्तित्व के लोप के भय से त्रस्त रहते हैं। यदि शूकर को अपना शूकरत्व खोकर ब्रह्मत्व प्राप्त हो जाय, तो क्या यह श्रेयस्कर नहीं ? हाँ, है। परन्तु बेचारा शूकर उस अवस्था में यह सोच नहीं पाता।
कौन सा व्यक्तित्व मेरा अपना है ? 
जब मैं शिशु था और पैर के अंगूठे को निगल जाने की चेष्टा करता था ? क्या अपने उस व्यक्तित्व को खोकर मुझे शोक करना चाहिये ? पचास वर्ष बाद मैं अपनी इस वर्तमान अवस्था पर दृष्टि पात कर इस पर ठीक उसी प्रकार हँसुगा, जिस प्रकार आज शैशव अवस्था पर हँसता हूँ। इनमें से किस व्यक्तित्व को मैं रखूँगा ?
हमें इस व्यक्तित्व का अर्थ समझना होगा। 
 हमलोग एक ओर जहाँ अपने व्यक्तित्व की रक्षा करने का प्रयत्न करते हैं, वहीँ दूसरी ओर अपने व्यक्तित्व को उत्सर्ग करने की उत्कट इच्छा भी रखते हैं। माँ निकृष्ट भोजन भी कर लेगी, लेकिन बच्चों को अच्छा से अच्छा भोजन देगी। इस प्रकार जिन्हें हम प्यार करते हैं, उनके लिए मर मिटने को तैयार रहते हैं। ..मानव का व्यक्तित्व क्या है ? टाम ब्राउन नहीं, वरन नर रूप में नारायण ।
वही सच्चा व्यक्तित्व है। मनुष्य जितना उसके समीप पहुँचता है, उतना ही वह अपने मिथ्या व्यक्तित्व को त्याग देता है। जितना ही वह अपने लिये संग्रह और लाभ के लिए प्रयत्न करता है, उतना ही उसका अहं से कड़ा व्यक्तित्व होता है। जितनी ही कम वह अपनी चिंता करता है, उतना ही अधिक वह जीवन--काल में अपने व्यक्तित्व का उत्सर्ग कर देता है। ....उतना ही अधिक वह व्यक्तित्व-धारी हो जाता है ! यह एक ऐसा रहस्य है, जिसे दुनिया नहीं समझती। 
व्यक्तित्व का अर्थ है--ध्येय तक पहुंचना। इस समय तुम पुरुष या स्त्री हो।क्या तुम रुक सकते हो ? तुम सदैव परिवर्तित(M/F/M/F/.........M) होते रहोगे। जब तक तुम पवित्र तथा पूर्ण (शुद्ध चेतना) नहीं हो जाओगे, तब तक तुम रुक नहीं सकते।जिस मनुष्य का सुख (उसके) बाहर है, वह बाह्य वस्तु के चले जाने के बाद दुखी होता है। यदि मेरे सारे सुख मेरी आत्मा में हैं, तो वे सुख मुझे निरंतर मिलते रहेंगे, क्योंकि आत्मा से वियोग कभी हो नहीं सकता। ....माता, पिता, बच्चे, पत्नी, शरीर, धन, --आत्मा के अतिरिक्त हर वस्तु मुझे बिछुड़ सकती है। पर आत्मा नित्य आनन्द स्वरुप है ! आत्मा में ही सारी इच्छायें विद्यमान हैं। यह वह व्यक्तित्व है, जो कभी परिवर्तित नहीं होता और पूर्ण है।" [9/140-142]
 " अनन्त तो अविभाज्य है, उसका अंश कैसे हो सकता है ? पूर्ण वस्तु कदापि विभक्त नहीं हो सकती। प्रत्येक आत्मा यथार्थ में ब्रह्म का अंश नहीं है, वास्तव में वह अनन्त ब्रह्मस्वरुप है। तब इतनी आत्मायें किस प्रकार आयीं ? लाख लाख जलकणों पर सूर्य का प्रतिबिम्ब पड़ कर लाख लाख सूर्य के समान दिखायी पड़ रहा है।" [8/68]
" विज्ञातारमरे केन विजानीयात '- बृहदार0 - ज्ञाता को किस प्रकार जाना जायेगा ? ज्ञाता अपने को कभी नहीं जान सकता। मैं सबकुछ देखता हूँ, किन्तु अपने को नहीं देख पाता। वह आत्मा जो ज्ञाता है, और सबका प्रभु है, समस्त सृष्टि का कारण है, किन्तु अपने प्रतिबिम्ब के अतिरिक्त अपने को देख अथवा जान सकना उसके लिए असम्भव है। तुम दर्पण के अतिरिक्त अपना मुँह देख नहीं पाते। इसी प्रकार आत्मा भी प्रतिबिम्बित हुए बिना अपना स्वरुप नहीं देख पाती।
इसलिए यह समग्र ब्रह्माण्ड ही आत्मा का स्वयं को जानने और देखने का यत्नस्वरूप है। जीविसार (Protoplasm ) में उसका प्रथम प्रतिबिम्ब प्रकाशित होता है, उसके पश्चात् उदभिद, पशु आदि उत्तरोत्तर उत्कृष्ट प्रतिबिम्बक प्राप्त होते होते अन्त में सर्वोत्कृष्ट प्रतिबिम्ब प्रदान करने वाला माध्यम -मनुष्य प्राप्त होता है।" [8/68-69]
" मैं ही अपनी स्तुति कर रहा हूँ, मैं ही अपनी निंदा कर रहा हूँ। मैं अपने ही कारण कष्ट पा रहा हूँ और अपनी ही इच्छा से सुखी हूँ। मैं स्वाधीन हूँ। ज्ञानी महा साहसी और निर्भीक होता है। समग्र ब्रह्माण्ड नष्ट क्यों न हो जाय, वह हँसकर कहता है, उसका कभी अस्तित्व ही नहीं था, वह केवल माया और भ्रम मात्र है।
 इसी प्रकार वह
' क्व गतं केन वा नीतं कुत्र लीनमिदं जगत। '
अपनी आँखों के सामने जगत ब्रह्माण्ड को वास्तव में अन्तर्हित होते देखता है, और आश्चर्यचकित होकर प्रश्न करता है- ' यह जगत ('मैं''-बोध ) कहाँ था ? और कहाँ विलीन हो गया ?
 (विवेकचूड़ा मणि /485 ) [8/73]
" जल और तरंग में कोई भेद नहीं है। कार्य कारण का ही दूसरा एक रूप मात्र है। कार्य जब भ्रम है, तब उसका कारण भी अवश्य भ्रम होगा। यह भ्रम किसने उत्पन्न किया ? अवश्य एक भ्रम ने। भ्रम का अनादित्व स्वीकार करने से क्या तुम्हारा अद्वैतवाद खण्डित नहीं होता ? ...भ्रम को कभी सत्ता नहीं कहा जा सकता। तुम जीवन में हजारो  स्वप्न देखते हो; किन्तु वे सब तुम्हारे जीवन के अंशरूप नहीं है। स्वप्न आता है और चला जाता है। उसका कोई अस्तित्व नहीं है। भ्रम को सत्ता कहना केवल एक वितंडा है। अतेव जगत में नित्यमुक्त और नित्यानन्द स्वरुप एकमात्र सत्ता है, और वही तुम हो। अद्वैतवादियों का यही चरम निर्णय है। " [875]
" माया के भीतर जहाँ तक यह देश--काल -निमित्त का यह नियम विद्यमान है, वहाँ तक स्वाधीनता अथवा मुक्ति नहीं है और उपासना की विविध पद्धतियाँ इस माया के अंतर्गत हैं। ईश्वर से लेकर क्षुद्रतम जीव तक, घास की पत्ती से लेकर ब्रह्मा तक, उसी एक माया का राजत्व है।
 जिस व्यक्ति को ईश्वर-धारणा भ्रमात्मक लगती है,उसको अपनी देह और मन की धारणा भी भ्रमात्मक लगना उचित है। जब ईश्वर उड़ जाता है, तब देह और मन भी उड़ जाता है और जब दोनों का ही लोप होता है, तब वही जो यथार्थ सत्ता है, वह चिरकाल के लिए रह जाती है। ' वहाँ आँखें नहीं जा सकतीं, वाणी नहीं जा सकती, मन भी नहीं। हम उसे देख नहीं पाते और जान भी नहीं पाते।' " [8/76]
 " सभी प्रकार का भौतिक जीवन, चाहे वह व्यक्त ' शरीर ' हो अथवा अव्यक्त ' मन '-  नियम से आबद्ध है।कुछ पूर्व घटित कार्यों के अनुसार ही कुछ परवर्ती कार्य होते हैं। प्रत्येक पूर्ववर्ती का अपना अनुवर्ती होता है। एक प्रकार की मानसिक अवस्था दूसरी पुर्वावस्था के परिणाम स्वरूप उसके बाद ही आती है, यदि नियम की यह क्रिया मन में होती है, तो मन भी कारणता के नियम में आबद्ध है, और इसलिये इच्छा स्वतंत्र नहीं है।
 हम काल में सोचते हैं, हमारे विचार काल में आबद्ध हैं; जो कुछ है, उन सबका अस्तित्व देश और काल में है। जहाँ का सबकुछ कारणता के नियम से आबद्ध है।
 इस तरह जिन्हें हम जड़ पदार्थ और मन कहते हैं, वे दोनों एक ही वस्तु हैं। अन्तर केवल स्पन्दन की मात्र में है। अत्यल्प गति से स्पन्दनशील मन को जड़ पदार्थ कहा जाता है, जब स्पंदन की मात्र का क्रम अधिक होता है तो उसे मन के रूप में जाना जाता है।
मन भी जो उच्च स्पंदनशील जड़ वस्तु है, उसी नियम में आबद्ध है। मन जड़ पदार्थ बन जाता है, और फिर क्रमानुसार जड़ पदार्थ मन बन जाता है। [E= Mc2]यह केवल स्पंदन की बात है।
इस्पात का एक छड़ लो और उस पर ( LHC- लार्ज हेड्रोन कोलाइडर में डाल कर ) इतनी पर्याप्त शक्ति से आघात करो, जिससे उसमें कम्पन आरम्भ हो जाय। तब क्या घटित होगा ? 
 यदि ऐसा किसी अँधेरे कमरे में किया जाय ( जैसे जेनेवा स्थित सर्न प्रयोगशाला में पृथ्वी के निचे 27 की0मी लम्बी सुरंग में पाइप डाल कर किया गया है ) तो जिस पहली चीज का तुमको अनुभव होगा, वह होगी ध्वनी, भन-भन्नाहट की ध्वनी। शक्ति की मात्र को और बढ़ा दो, (126 गीगा इलेक्ट्रॉन वोल्ट) तो इस्पात का छड़ प्रकाशमान हो उठेगा तथा उसे और भी अधिक बढ़ाओ, तो इस्पात बिलकुल लुप्त हो जायेगा -(पहले हिग्स बोसोन बन जायेगा) फिर वह मन बन जायेगा।
एक अन्य दृष्टान्त लो- यदि मैं 10 दिनों तक निराहार रहूँ, तो मेरे विचार करने की शक्ति क्षीण होती चली जायेगी, ..और शायद अपना नाम भी न जान .सकूँगा। तब मैं थोड़ी रोटी खा लूँ, तो कुछ ही क्षणों में सोचने लगूंगा। मेरी मन की शक्ति लौट आएगी। रोटी मन बन गयी। इसी प्रकार मन अपने स्पंदन की मात्रा कम कर देता है और शरीर में अपने को अभिव्यक्त करता है, तो जड़ पदार्थ बन जाता है। 
तुम किसी ऐसे अंडे की कल्पना नहीं कर सकते जिसे किसी मुर्गी ने न दिया हो, और न किसी मुर्गी की कल्पना कर सकते हो, जो अंडे से न पैदा हुई हो। ..मनुष्य में स्वतंत्र कर्ता मन नहीं है, क्योंकि वह तो नियम में आबद्ध है। वहाँ स्वतंत्रता नहीं है।
 मनुष्य मन नहीं है, वह आत्मा है। आत्मा नित्य मुक्त है, किन्तु मन अपनी ही क्षणिक तरंगों से तद्रूपता स्थापित कर आत्मा को अपने से ओझल कर देता है। और देश-काल तथा निमित्त की भूलभुलैया - माया में खो जाता है। " [9/162-164]
" वेदान्त का मत कभी भी यह मत नहीं रहा कि इन्द्रियग्राह्य तथा अतीन्द्रिय - ये दो जगत हैं। उसका कहना है कि जगत केवल एक है। इन्द्रियों के द्वारा देखे जाने से वही प्रपंचमय और अनित्य भासता है। किन्तु वास्तव में वह सर्वदा अपरिवर्तनशील और नित्य ही है। "
...जैसे मान लो, किसी को रस्सी से सर्प का भ्रम हो गया। जब तक उसे सर्प का बोध है, तब तक उसे रस्सी दिखेगी ही नहीं- वह तो उसे सर्प ही समझता रहेगा। फिर यदि कोई उसको टॉर्च जला कर दिखा दे कि वह सर्प नहीं रस्सी है, तो फिर वह रस्सी में सर्प कभी नहीं देख सकेगा। -उसे केवल रस्सी ही दिखेगी। वह या तो रस्सी है, या सर्प ही; किन्तु दोनों का बोध एक साथ कभी नहीं होगा। "
[9/170]
" बौद्ध लोग इन्द्रियग्राह्य प्रपंचमय जगत के अतिरिक्त और कुछ नहीं मानते। इस प्रपंचमय जगत में ही कामना है। कामना ही इन सबकी सृष्टि कर रही है। किन्तु ' इच्छा ' एक परिणाम है, एक यौगीक पदार्थ है-'मौलिक ' नहीं। अतः यह सिद्धान्त कि जगत की उत्पत्ति इच्छा से हुई है, असम्भव है। क्या तुमने किसी बही उत्तेजना के बिना कभी इच्छा का अनुभव किया है ? ...स्नायविक उत्तेजना के बिना -कभी इच्छा या कामना का उदय नहीं होता। 
' इच्छा ' मस्तिष्क की एक प्रकार की प्रक्रिया है, जिसे सांख्य के दार्शनिक ' बुद्धि ' कहते हैं। इस प्रतिक्रिया के पहले किसी क्रिया का होना जरुरी है। यदि बही जगत न हो, तो इच्छा भी नहीं हो सकती। इच्छा को कौन उत्पन्न करता है ? इच्छा तो जगत की सह्वर्तिनी है। जिस शक्ति ने जगत की सृष्टि की, उसी ने इच्छा का भी सर्जन किया है।इच्छा स्वयं प्रपंचमय है-- सापेक्ष है, वह निरपेक्ष नहीं हो सकती। कोई ऐसी वस्तु है जो इच्छा नहीं है, परन्तु उसके रूप में अभिव्यक्त हो रही है। इच्छा देश, काल और निमित्त के अंतर्गत है। तब वह निरपेक्ष कैसे हो सकती है ? यदि कोई इच्छा प्रकट करे तो उसकी यह क्रिया समय के अंदर ही संभव है--समय के बाहर नहीं।
यदि हम अपने समस्त विचारों का उपशमन कर सकें--अपनी समस्त चित्तवृत्ति शान्त कर सकें, तो हम जान जायेंगे कि हम विचार से परे हैं। हम ' नेति-नेति ' के द्वारा इस अनुभव पर पहुँचते हैं। 
जब ' नेति--नेति ' कहकर समस्त प्रपंच का त्याग कर दिया जाता है, तब जो कुछ बच रहता है वही ' वह ' है। उसका वर्णन नहीं किया जा सकता, उसे प्रकट नहीं किया जा सकता, क्योंकि प्रकटीकरण पुनः इच्छा हो जाएगी।" [9/172-174] 
" जब प्रलय होता है, तब जगत की क्या अवस्था होती है? वह उस समय भी विद्यमान रहता है। तथापि सूक्ष्मरूप में; अथवा, जैसा सांख्य दर्शन कहता है, कारणावस्था में रहता है। देश-काल-निमित्त से वह मुक्त नहीं होता, किन्तु वे अत्यन्त सूक्ष्म और लघु रूप में रहते हैं। [4/194]
{ नासदीय सूक्त ऋग्वेद के 10 वें मंडल कर 129 वां सूक्त है. इसका सम्बन्ध ब्रह्माण्ड विज्ञान और ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ है। माना जाता है की यह सूक्त ब्रह्माण्ड के निर्माण के बारे में काफी सटीक तथ्य बताता है. इसी कारण दुनिया में काफी प्रसिद्ध हुआ है.यह सूक्त मुख्य रूप से इस तथ्य पर आधारित है कि ब्रह्मांड की रचना कैसे हुई होगी.
सृष्टि-उत्पत्ति सूक्त
नासदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत् ।
किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ॥१॥
अन्वय- तदानीम् असत् न आसीत् सत् नो आसीत्; रजः न आसीत्; व्योम नोयत् परः अवरीवः, कुह कस्य शर्मन् गहनं गभीरम्।असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था. सत्= भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः=स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल लोक नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था, और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह आवरण करने वाला तत्त्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था। उस समय गहन= कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा
 धुँध क्या था ?
अर्थ- उस समय अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में -' जब सत भी नहीं था,असत भी नहीं था, तम के द्वारा तम घिरा था, तब क्या था ?


न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः ।
अनीदवातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥२॥
और इसका उत्तर दिया गयाहै, ' तब वह निस्पन्द अवस्था में था।' अनीत अवातम का अर्थ है, ' बिना स्पन्दन के अस्तित्ववान था।' अर्थात इस प्राण की सत्ता तब भी थी, किन्तु उसमें कोई गति नहीं थी; स्पन्दन का विराम हो चूका था।
तब एक विशाल विराम के उपरान्त जब कल्प का आरम्भ होता है, तब वह आनीदवातं (निस्पन्द परमाणु) स्पन्दन आरम्भ कर देता है। प्राण आकाश को आघात पर आघात प्रदान करता है। परमाणु घनीभूत होते हैं, और उनके संघटन की इस प्रक्रिया में विभिन्न तत्व बन जाते हैं।
प्राण के बार बार आघात के द्वारा आकाश से वायु अथवा स्पन्दन उत्पन्न होता है,यह वायु स्पन्दित होती है। और जब ये स्पन्दन अधिकाधिक तीव्र हो जाते हैं, तो पहले घर्षण एवं बाद में ताप या तेज की उत्पत्ति होती है। तब यह ताप तरल भाव धारण करता है, उसे अप कहते हैं। अंत में यह तरल पदार्थ आकर (क्षिति)प्राप्त करता है। 
पहले हमें आकाश और गति (वायु) प्राप्त हुई, उसके पश्चात् ताप उत्पन्न होता है, फिर वह तरल हो जाता है, तब घनीभूत होकर कठोर स्थूल जड़ पदार्थ -क्षिति का आकार धारण करता है; इसके बाद ठीक विलोम क्रम में यह प्रत्यावर्तन करता है। [ब्रह्माण्ड विज्ञान 4/194]
अन्वय-तर्हि मृत्युः नासीत् न अमृतम्, रात्र्याः अह्नः प्रकेतः नासीत् तत् अनीत अवातम, स्वधया एकम् ह तस्मात् अन्यत् किञ्चन न आस न परः।
'अर्थ उस प्रलय कालिक समय में मृत्यु नहीं थी और अमृत = मृत्यु का अभाव भी नहीं था। रात्री और दिन का ज्ञान भी नहीं था उस समय वह ब्रह्म तत्व ही केवल प्राण युक्त, क्रिया से शून्य और माया के साथ जुड़ा हुआ एक रूप में विद्यमान था, उस माया सहित ब्रह्म से कुछ भी नहीं था और उस से परे भी कुछ नहीं था।
को आद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥६॥
अन्वय-कः अद्धा वेद कः इह प्रवोचत् इयं विसृष्टिः कुतः कुतः आजाता , देवा अस्य विसर्जन अर्वाक् अथ कः वेद यतः आ बभूव ।
अर्थ - कौन इस बात को वास्तविक रूप से जानता है और कौन इस लोक में सृष्टि के उत्पन्न होने के विवरण को बता सकता है कि यह विविध प्रकार की सृष्टि किस उपादान कारण से और किस निमित्त कारण से सब ओर से उत्पन्न हुयी। देवता भी इस विविध प्रकार की सृष्टि उत्पन्न होने से बाद के हैं अतः ये देवगण भी अपने से पहले की बात के विषय में नहीं बता सकते इसलिए कौन मनुष्य जानता है जिस कारण यह सारा संसार उत्पन्न हुआ।


इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥७॥
अन्वय- इयं विसृष्टिः यतः आबभूव यदि वा दधे यदि वा न। अस्य यः अध्यक्ष परमे व्यामन् अंग सा वेद यदि न वेद।
अर्थ – यह विविध प्रकार की सृष्टि जिस प्रकार के उपादान और निमित्त कारण से उत्पन्न हुयी इस का मुख्या कारण है ईश्वर के द्वारा इसे धारण करना। इसके अतिरिक्त अन्य कोई धारण नहीं कर सकता। इस सृष्टि का जो स्वामी ईश्वर है, अपने प्रकाश या आनंद स्वरुप में प्रतिष्ठित है। हे प्रिय श्रोताओं ! वह आनंद स्वरुप परमात्मा ही इस विषय को जानता है उस के अतिरिक्त (इस सृष्टि उत्पत्ति तत्व को) कोई नहीं जानता है।}
  " तब, व्यवहारिक धर्म क्या है ?
इस लोक और परलोक की, सब वस्तुओं को एक लक्ष्य -'मुक्ति की प्राप्ति ' के लिए प्रयोग करो। प्रत्येक सुख--भोग, आमोद की एक एक रत्ती का मूल्य अनन्त हृदय और मस्तिष्क के सम्मिलित व्यय द्वारा चुकाया जाता है। इस संसार में शुभ और अशुभ की समष्टि को देखो। क्या वह बदला ? शुभ अशुभ को सन्तुलित करता है। किन्तु अलग खड़ा होनेवाला व्यक्ति इस दिव्य लीला को देखता रहता है।
कुछ रोते हैं और दूसरे हँसते हैं। अपनी बारी आने पर ये रोयेंगे और दूसरे हँसेंगे। हम क्या करसकते हैं? "[3/174]
 " जब भावावस्था को प्राप्त होकर कोई ब्रह्मानन्द में डूब जाता है, या समाधिस्थ हो जाता है, तब उसका द्वैत-भाव नष्ट हो जाता है, तब भक्त और भगवान एक हो जाते हैं। फिर समाधि से उठने के बाद,वह अद्वैतमार्गी भक्त कैसे ध्यान करता है ? - ' परमेश्वर और मैं एक हूँ '- इस अद्वैतभाव का ध्यान करता है। जब तक हम मायापाश से मुक्त नहीं होते, तब तक द्वैत का भाव अवश्य बना रहेगा। देश-काल-निमित्त या नाम-रूप ही माया है। जब कोई इस माया से मुक्त हो जाता है, तो उसे जीव-ब्रह्म की एकता का अनुभव हो जाता है-तब न द्वैत होता है न अद्वैत-उसके लिए सब एक हो जाता है।
ज्ञानी और भक्त में केवल साधना की प्राथमिक अवस्था में ही अंतर होता है--एक परमेश्वर को अपने से बाहर देखता है और दूसरा अपने हृदय में।  
श्रीरामकृष्ण देव कहा करते थे कि भक्ति की एक और अवस्था है, जिसे परा-भक्ति कहते हैं--वह मुक्त होने पर, अद्वैत--भाव की प्राप्ति हो जाने पर परमेश्वर के प्रेम में विभोर हो जाना। ...मुक्ति प्राप्त होने के बाद भक्ति की क्या आवश्यकता है ?  
इसका केवल यही उत्तर है कि जो मुक्त है, जो स्वतंत्र है, वह सब नियमों से परे है। उसके विषय में यह प्रश्न ही नहीं उठता कि उसने ऐसा ही क्यों किया और वैसा क्यों नहीं किया। मुक्त हो जाने पर भी भक्ति के माधुर्य का रसास्वादन करने के लिए कुछ लोग उसको अपनाये रहते हैं। " [8/ 272-73]
" जगत में केवल एक आत्मा है, एक सत्ता है; जब उसका कुछ अंश मानो इस देश-काल-निमित्त के जाल में पड़ता है, तब यह विभिन्न रूप ग्रहण करती है। उस जाल को सिंह विक्रम से काट कर निकल जाओ-और देखो, सभी एक है। समग्र विश्व आत्मा में एक है और यह आत्मा ही ब्रह्म है। " [4/218]