" पण्डित भूतनाथ सप्ततीर्थ "
हमलोगों के स्कूल के जिन असाधारण शिक्षक महोदय की बात कह रहा था उनमे से और भी कई शिक्षक अद्भुत थे| अपने स्कूल के जिन शिक्षक महोदय से चार वर्षों तक संस्कृत पढ़ा हूँ, वे न केवल एक भारत विख्यात पण्डित मात्र थे, अपितु पृथ्वी के जिस किसी भी देश में जो कोई भी संस्कृत भाषा का गहराई से अध्यन किये होंगे, उनका नाम न जानते हों ऐसा कोई भी संस्कृतज्ञ मिलना कठिन है|
उनका नाम था पण्डित भूतनाथ सप्ततीर्थ, किन्तु भूतनाथ सप्ततीर्थ भी इसी स्कूल के और इसी हेडमास्टरमशाई के छात्र थे| उस दृष्टि से देखने पर हम सभी लोग ' सतीर्थ ' (सहपाठी ) कहे जा सकते हैं| किन्तु इनसे पढने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है | किन्तु उनके पिताजी भी इसी स्कूल के हेडपण्डित थे, और एक बार उनके दर्शन करने का सौभाग्य भी मुझे प्राप्त हुआ था|
बहुत दिनों पहले की बात है, जब हमलोग स्कूल में नाम भी नहीं लिखाये थे, पता नहीं किस कारण से - यह तय हुआ था एक दिन स्कूल के सभी शिक्षकों को पितामह की तरफ से स्कूल में ही भोजन करवाया जायेगा|
और मेरे घर में माँ या काकीमाँ से किसी ने (ठीक से याद नहीं ) पितामह से कहा था - " एदेर एकटू निये जाबेन ना, नातीरा स्कूलटा देखबे ना एकबार ? " ( इनलोगों साथ में नहीं ले जाइएगा , आपके पौत्र लोग क्या एकबार भी स्कूल नहीं देखेंगे ?)
और मेरे घर में माँ या काकीमाँ से किसी ने (ठीक से याद नहीं ) पितामह से कहा था - " एदेर एकटू निये जाबेन ना, नातीरा स्कूलटा देखबे ना एकबार ? " ( इनलोगों साथ में नहीं ले जाइएगा , आपके पौत्र लोग क्या एकबार भी स्कूल नहीं देखेंगे ?)
पितामह के साथ हमलोग भी उस दिन स्कूल गये थे, और उसी दिन हमलोगों ने पहली बार आन्दुल (मौड़ी) स्कूल को भी देखा था| उसको संक्षेप में ' आन्दुल स्कूल ' कहा जाता है, किन्तु अभी उसका बदल कर ' महियाड़ी कुन्डू चौधूरी इंस्टीटिउशन ' हो गया है|
पहले उसका नाम था " Andul H.C.E. School " - वहाँ जाकर देखता हूँ कि स्कूल के सारे शिक्षक महोदय जमा थे| और उन्ही के साथ ' हेड पण्डित मशाई ' - अर्थात भूतनाथ पण्डितमशाई के पिता " क्षेत्र मोहन चट्टोपाध्याय " भी बिराजमान थे|
मुझसे किसी ने कहा - " पण्डितमशाईके एकटा संस्कृत श्लोक शोनाउ " ( पंडितजी महोदय को जरा एक संस्कृत का श्लोक तो सुना दो !) मैं उस समय बच्चा ही था, ठीक से याद नहीं कितने बरस का रहा होऊंगा, शायद ५ या ६ वर्ष का रहा होऊंगा| उस समय मैंने [भट्टिकाव्यम् (रावणवधम्) - भट्टिः रचित प्रकीर्ण-काण्डः] से ' तपोवन वर्णन ' का जो श्लोक सुनाया था- वह इस प्रकार था :
अथा ऽऽलुलोके हुत-धूम-केतु- शिखाऽञ्जन-स्निग्ध-समृद्ध-शाखम्।
तपोवनं प्राध्ययनाऽभिभूत- समुच्चरच्-चारु-पतक्त्रि-शिञ्जम्।।
जैसे ही मैंने सुनाया, उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर खींच लिया और अपनी गोद में बिठा कर कहने लगे -
" वाः, वाः ! एतटुकू छेले, तोमार एमन सुन्दर उच्चारण, एमन सुन्दर संस्कृत तूमि बलते परो, तोमार ' वाकसिद्धि ' हबे ! "
-अर्थात " अरे वाह, इतना छोटा लड़का हो, और तुम्हारा उच्चारण इतना सुन्दर है, तुम इतना परिष्कृत संस्कृत बोल सकते हो, तुम्हें तो ' वाकसिद्धि ' प्राप्त होगी !"
जब वे यह कह रहे थे, तो उनका चेहरा किसी प्राचीन ऋषि-मुनि जैसे एक अतिसुन्दर सौम्य भाव से दीप्त लग रहा था| उनकी यह बात मुझे अच्छी लगी, कि उन्होंने ' वाकसिद्धि ' होने का अच्छा आशीर्वाद दिया है !
किन्तु बाद में जब इसका अर्थ समझ में आया, तब समझा कि - यह ' वाकसिद्धि ' तो बहुत खतरनाक चीज है, तब समझा कि यह बहुत मुश्किल में डाल देगा| इसीलिये मझे अपनी " वाणी का संयम " और अधिक गंभीरता से करना पड़ा है| ' वाकसिद्धि '- प्राप्त व्यक्ति के मुख से जो भी शब्द निकलेगा वह सिद्ध हो जायेगा! बहुत कठिन परिस्थिति में डालने जैसी बात थी ! जो हो, मेरे पिताजी और काका आदि उन्ही से शिक्षा प्राप्त की थी|
मेरे पिताजी इन पण्डितमशाई के बारे में हँसते-हँसते प्रायः एक घटना सुनाया करते थे | पण्डितमशाई से थोड़ी शरारत करते हुए एक दिन क्लास में पूछा - ' पण्डितमशाई, रसगोल्लार संस्कृत की हबे ? '
' ( पण्डित महोदय रसगुल्ला को संस्कृत में क्या कहेंगे?) ' उन्होंने तुरन्त कहा- ' क्यों, इसमें क्या कठिनाई है, ' रस-गोलकम ' कहेंगे और क्या? ' और कहने के बाद पिताजी खूब जोर से हो हो करके हँस पड़ते थे| यह घटना वे हमलोगों को कई बार सुनाया करते थे| किन्तु हमलोग भूतनाथ पण्डितमशाई से संस्कृत पढ़े हैं| वे बड़े ही सुन्दर ढंग से संस्कृत पढाया करते थे| वे पढ़ाने के क्रम में - किसी न किसी ग्रन्थ से, यहाँ से कभी वहाँ से कोई न कोई श्लोक कोट कर दिया करते थे| एक दिन पता नहीं क्या पढ़ाते हुए बोले -
' याञ्चा मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा॥'
मेघदूत पूर्वमेघ 06 ॥
- अर्थात अधम लोगों से कुछ मांगने पर प्राप्त भी होता है तो उससे आनन्द नहीं होता, लेकिन उत्तम लोगों से कुछ मांगने पर यदि न मिले तो भी आनन्द होता है |गुणवान व्यक्ति से की गई याचना निष्फ़ल होने पर भी वरणीय है, किन्तु गुणहीन व्यक्ति से की गई याचना सफ़ल होने पर भी वरणीय नहीं है।
इसीलिये वे जो कुछ भी पढ़ा रहे होते थे, उसे मैं बिल्कुल मूग्ध भाव से उनके चेहरे की ओर देखता हुआ ध्यान पूर्वक सुनता रहता था, और जो भी कुछ सुनता वह उसी समय पूरा का पूरा याद भी हो जाता था| यह श्लोक १९४३ में उनके मुख से सुना था, किन्तु अब भी ऐसा महसूस होता है मानो मैं पण्डितमशाई के मुख से ही सुन रहा हूँ और (उनके ही मुख से ) बोल रहा हूँ|
मैंने प्रश्न किया- ' पण्डितमशाई, एई श्लोकटा कोथाय आछे ? '
( पण्डित महोदय यह श्लोक किस ग्रन्थ का है?)उन्होंने कहा- ' यही श्लोक तो ? यह श्लोक महाकवि कालिदास कृत " मेघदूत " में आया है |' और कुछ भी प्रश्न करने का साहस नहीं हुआ |
मैंने प्रश्न किया- ' पण्डितमशाई, एई श्लोकटा कोथाय आछे ? '
( पण्डित महोदय यह श्लोक किस ग्रन्थ का है?)उन्होंने कहा- ' यही श्लोक तो ? यह श्लोक महाकवि कालिदास कृत " मेघदूत " में आया है |' और कुछ भी प्रश्न करने का साहस नहीं हुआ |
संध्या के समय भी हमलोग स्कूल में ही रहते थे, पितामह भी स्कूल में ही रहते थे| उसी स्कूल के एक कमरे में, मैं और दादा ( बड़े भैया ) रहते थे| शाम के समय, जब स्कूल में कोई नहीं होता था- तो स्कूल में ही कई आलमारियाँ थीं उनमे विभिन विषयों की अनेकों पुस्तकें संग्रहित थीं उनको बाहर से ही देखा करता था| उन्हीं आलमारियों में से मैंने पहले ही देख कर चिन्हित कर रखा था कि " कालिदास ग्रंथावली " किस स्थान पर रखी है|
शाम के वक्त जब देखा कि स्कूल में कोई कहीं नहीं था, तो उस आलमारी को खोल कर कालिदास ग्रंथावली को बाहर निकाला, फिर ' मेघदूत ' को खोज लिया| अरे वाः यही वह प्रसिद्ध ग्रन्थ
' मेघदूत ' है ! अब यह पता लगाना था कि यह श्लोक मेघदूत में कहाँ पर लिखा है, देखता हूँ कि यह तो मेघदूत का प्रथम श्लोक ही है|
" आषाढ़स्य प्रथम दिवसे ....." इत्यादि कहते हुए चतुर्थ पंक्ति -
में ही लिखा था,
" जातं वंशे भुवनविदिते पुष्करावर्तकानां
जानामि त्वां प्रक्रतिपुरुषं कामरूपं मघोन: ।
तेनार्थित्वं त्वयि विधिवशाद्दूरबन्धुर्गतोऽहं
याच्ञा मोघा वरमघिगुणे नाधमे लब्धकामा ॥६॥
( कालिदास का ‘मेघदूत’ यद्यपि छोटा-सा काव्य-ग्रन्थ है किन्तु इसके माध्यम से प्रेमी के विरह का जो वर्णन उन्होंने किया है उसका उदाहरण अन्यत्र मिलना असंभव है। आषाढ़ और श्रावण का प्रेम और रति के प्रसंग में बड़ा महत्त्व माना गया है। न केवल संस्कृत में अपितु कालान्तर में उर्दू कवियों ने भी इस पर अपनी लेखनी चलायी है।
कालिदास ने जब आषाढ़ के प्रथम दिन आकाश पर मेघ उमड़ते देखे तो उनकी कल्पना ने उड़ान भरकर उनसे यक्ष और मेघ के माध्यम से विरह-व्यथा का वर्णन करने के लिए ‘मेघदूत’ की रचना करवा डाली। उनका विरही यक्ष अपनी प्रियतमा के लिए छटपटाने लगा और फिर उसने सोचा कि शाप के कारण तत्काल अल्कापुरी लौटना तो उसके लिए सम्भव नहीं है। इसलिए क्यों न संदेश भेज दिया जाए। कहीं ऐसा न हो कि बादलों को देखकर उनकी प्रिया उसके विरह में प्राण दे दे। और कालिदास की यह कल्पना उनकी अनन्य कृति बन गयी।}
इसी प्रकार पण्डितमशाई के मुख से सुन-सुन कर कितने ही श्लोक आदि कंटस्थ हो गये थे| उसके बाद मैंने पूछा पण्डितमशाई, ' मेघदूत ' का यह प्रथम श्लोक किस " छन्द " में लिखा गया है ? उन्होंने कहा, यह है " मन्दाक्रान्ता छन्द !" उसके बाद उन्होंने पुनः कुछ श्लोक - का उच्चारण किया| मैंने प्रश्न किया आपने जो इतना बड़ा छन्द कहा - वह कौन सा छन्द हुआ ?
उन्होंने कहा इससे भी बड़े बड़े छन्द होते हैं | मैंने पूछा उस छन्द को क्या कहते हैं, पण्डितमशाई ? उन्होंने कहा- " स्रंग्धरा छन्द मस्त बड़ " ( स्रंग्धरा छन्द काफी लम्बे होते हैं) | वे कैसे होते हैं पण्डितमशाई? और जब धारा प्रवाह सुनाने लगे, तो मैं आवक होकर सुनता ही रह गया था!
१९४३ ई में - जब मैं क्लास सेवेन में पढता था, उस समय एक बार सुना था| किन्तु उनके मुख से निसृत ' श्लोक के आवृत्ति के माधुर्य की महिमा ' ऐसी सौन्दर्यपूर्ण थी कि आज मैं ८० के उम्र के आस-पास आने पर भी, आज भी अपनी स्मृति से सुना सकता हूँ| यादास्त के अनुसार ही लिख रहा हूँ-
स्वस्ति श्रीभोजराजन् त्वमखिलभुवने धार्मिकः सत्यवक्ता
पित्रा ते सङ्गृहीता नवनवतिमिता रत्नकोट्यो मदीयाः |
तास्त्वं देहीति राजन् सकलबुधजनैर्ज्ञायते सत्यमेतद्
तास्त्वं देहीति राजन् सकलबुधजनैर्ज्ञायते सत्यमेतद्
नो वा जानन्ति यत्तन्मम कृतिमपि नो देहि लक्षं ततो मे ||
इसी छन्द को " स्रंग्धरा छन्द " कहते हैं| मैं तो आश्चर्य चकित रह गया ! पण्डितमशाई ने कहा- ' सुनने में भी कितना कर्ण प्रिय है न ? " आमि बललाम, ' पण्डितमशाई, एटार अर्थ कि ?' " (' मैंने कहा पण्डित जी महाराज - इसका अर्थ क्या हुआ ?) उन्होंने कहा- " एटार अर्थ ? एटार अर्थ खूब मजार|
" ( इसका अर्थ भी बहुत मजेदार है !)"
इसका अर्थ यह है- ' एक बार राजा की अनुमति से भोजराज के मंत्री ने घोषणा करवा दिया कि, इस राज्य के निवासियों, तथा आस-पास के राज्यों के निवासियों को यह सूचित किया जाता है कि जो कोई भी संस्कृत पण्डित राजदरबार में उपस्थित होकर, राजा की स्तुति में ' तत्क्षण '- उसी समय, एक मौलिक श्लोक की रचना कर राजा को सुना देंगे, उनको राजा की ओर से एक लक्ष्य स्वर्ण मुद्राएँ दान में दे दी जाएँगी!'
राजभोज की घोषणा को सुनकर विभिन्न स्थानों के पण्डितगण राजसभा में पहुँचते हैं| राजसभा में पहुँच कर वहीँ बैठे बैठे उनकी स्तुति में रचना लिख लिख कर सुना रहे हैं | किन्तु मंत्री ने यह जांचने की व्यवस्था भी करवा रखा था कि, वह रचना किसी दूसरे की लिखी हुई रचना तो नहीं है? मंत्री हरेक रचना के बाद अपने दरबारियों से पूछते - ' यह स्तुति उन्होंने अभी-अभी ही लिखा है न ? आप लोगों ने इस तरह का श्लोक पहले तो नहीं सुना था? '
तब एक व्यक्ति उठकर बोले - ' मैंने सुना है |'
' आपने यह सुना है यह श्लोक ? उसको सुना सकिएगा ?' ' हाँ बोल सकूँगा, और उन्होंने जो कहा था उसे कह सुनाया '|
' और भी किसी ने सुना है ?' फिर से एक-दो लोग कहते हैं, ' हाँ मैंने भी यह श्लोक पहले सुन रखा है, यह रचना इनकी अपनी रचना नहीं है |' यह सुनते ही सभा में शोर-गुल मचने लगता, और एक के बाद एक करके सारे पण्डित छंटते चले गये| तब मंत्री ने खड़े होकर कहा- " मालूम पड़ता है हमलोगों के राज्य में या पडोसी राज्यों में ऐसा एक भी पण्डित नहीं है जो यहाँ बैठ कर मौलिक रचना करने में सक्षम हो |"तब एक व्यक्ति उठ कर बोले- ' मैं प्रयास कर देख सकता हूँ '| मंत्री ने कहा- ' कहिये, कहिये '| वे कहने लगे -
स्वस्ति श्रीभोजराजन् त्वमखिलभुवने धार्मिकः सत्यवक्ता
पित्रा ते सङ्गृहीता नवनवतिमिता रत्नकोट्यो मदीयाः |
तास्त्वं देहीति राजन् सकलबुधजनैर्ज्ञायते सत्यमेतद्
नो वा जानन्ति यत्तन्मम कृतिमपि नो देहि लक्षं ततो मे ||
पित्रा ते सङ्गृहीता नवनवतिमिता रत्नकोट्यो मदीयाः |
तास्त्वं देहीति राजन् सकलबुधजनैर्ज्ञायते सत्यमेतद्
नो वा जानन्ति यत्तन्मम कृतिमपि नो देहि लक्षं ततो मे ||
अर्थात हे त्रिभुवन-विजयी श्रीभोजराज, आप बड़े धार्मिक और सत्यवादी हैं- मैं आपकी स्तुति करता हूँ,
आपके पिताजी ने ९९ लाख स्वर्ण मुद्राएँ मुझसे उधार में ली थीं, यह बात बिल्कुल सत्य है, और इस बात को यहाँ उपस्थित सारे विद्वान् दरबारी लोग जानते हैं! यह सुनकर दरबारी लोग कहने लगे- ' नहीं नहीं - यह बात हममे से किसी ने नहीं सुना है, कोई नहीं जानता है, कोई नहीं जानता है |'
" जब कोई नहीं जानता - तो इसी से यह सिद्ध हो जाता है कि इस श्लोक को मैंने अभी अभी रचना किया है, यह मेरी तातक्षणिक रचना -मौलिक रचना है ! अतः घोषणा के अनुसार एक लक्ष्य स्वर्ण मुद्राएँ मुझे ही मिलनी चाहिये!"
" नो चेत जानन्ति केचित नवकृतमिति तत - देहि लक्षं ततो में | "
ओह कितना अच्छा जीवन बीता है, ( काव्यशास्त्र विनोदेन कालोगच्छतिधीम ताम ) कितने आनन्दपूर्ण दिन गुजरे हैं !
कितने ही उज्जवल-चरित्र शिक्षकों के सानिध्य और साहचर्य में रहने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है, उनकी वाणी का माधुर्य और छात्रों के प्रति उनका प्रेम अतुलनीय था! उनका स्नेह अनायास छात्रों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता था, उनकी तुलना जब अभी के शिक्षकों से करता हूँ तो लगता है आज के युग की शिक्षा का स्तर कितना नीचे उतर आया है ! मेरे
जो संस्कृत के ' पण्डितमशाई ' थे उनमे भी सबकुछ इसी प्रकार का था| जिस समय 'हेडमास्टरमशाई' के रिटायर करने का उम्र हुआ, (उस समय अवकाशप्राप्त करने
की उम्र-सीमा कितनी थी-यह मुझे ठीक से पता नहीं) उस समय प्रशासन का सारा
कार्य भी स्कूल से ही चलता था, ये सब ' एजुकेसन बोर्ड ' आदि कुछ भी न था |
उस समय समस्त स्कूल भी कलकाता यूनिवर्सिटी के ही अनर्तगत आते थे|
जो हो, स्कूल से ही यूनिवर्सिटी को पत्र भेजा गया कि, हेड मास्टर मशाई के रिटायर करने कि आयु हो चुकी है| यूनिवर्सिटी
से स्कूल को चिट्ठी भेजा गया कि, जितने दिन उनमे कर्म करने क्षमता रहेगी,
उतने दिनों तक वे ही रहेंगे- " There should not be any replacement ."
उस समय तो आज के जैसा (शिक्षा विभाग में ले-दे के ट्रांसफर पोस्टिंग) नहीं था| इसीलिये सबकुछ पूर्ववत चलता रहा|
जब बंगाल प्रान्त पर ' पाल-वंश ' के राजाओं का शासन था, उस समय ' रामपाल '
नामके एक राजा हुए थे जिन्होंने ५२ वर्षों तक बंगाल प्रान्त के ऊपर शासन
किया था| और इधर मैंने अपने पितामह को देखा है, ५२ वर्ष के बाद रिटायर किये
थे!
स्काटिश
चर्च कॉलेज में, अपने ही स्कूल में छात्र रहे जिन व्यक्तियों ने मुझे
पढाया था, उनमे से गणित पढ़ाते थे, जब बाद में वे अमेरिका से वापस लौटे
तबसे उनकी कुछ खबर नहीं है| बहुत दिनों बाद पता चला कि वे हिमालय पर चले
गये थे, और ऋषिकेश से भी ऊँचे स्थान पर रहने वाले सन्यासी से वेदान्त की
शिक्षा पायी थी|
किसी विशेष कारण से हमलोगों के स्कूल के एक प्राक्तन छात्र- प्रभाष चट्टोपाध्याय की याद आ रही है| उसके जीवन का पथ गतानुगतिक (पुराने ढर्रे का अनुसरण करने वाला) नहीं था! उनके माता-पिता दोनों स्वामी विरजानन्द महाराज के कृपाप्राप्त शिष्य थे|उनके बड़े चाचा संसार को त्याग कर सन्यासी हो गये थे|
वे बी.ए. पास करके एम्.ए.क्लास में नाम लिखवाने के बाद भी पढ़ नहीं सके, परिवार की सहायता करने के लिये चार्टेड अकौन्टेंसी की प्राथमिक परीक्षा पास करने के बाद ही खड़कपुर IIT -में Accounts Officer के पद पर नियुक्त हो गये|
प्रायः अपने घर में या दक्षिणेश्वर जाकर गंभीर ध्यान में मग्न रहते थे| माँ के अनुरोध पर उनके देहत्याग होजाने के बाद परिवार त्याग कर सन्यास के मार्ग पर चले गये थे| ऋषिकेश के कैलाश-आश्रम में पहुंचकर हरिहर तीर्थजी का शिष्यत्व ग्रहण किये और कई वर्षों तक कठोर तपस्या में डूबे रहे| गिरी महाराज के ' वेदान्त रत्नाकर ' नामक संस्कृत ग्रन्थ को बंगला में अनुवाद करके अद्वैत वेदान्त के सम्बन्ध में अपनी धारणा व्यक्त किये थे|
वे बी.ए. पास करके एम्.ए.क्लास में नाम लिखवाने के बाद भी पढ़ नहीं सके, परिवार की सहायता करने के लिये चार्टेड अकौन्टेंसी की प्राथमिक परीक्षा पास करने के बाद ही खड़कपुर IIT -में Accounts Officer के पद पर नियुक्त हो गये|
प्रायः अपने घर में या दक्षिणेश्वर जाकर गंभीर ध्यान में मग्न रहते थे| माँ के अनुरोध पर उनके देहत्याग होजाने के बाद परिवार त्याग कर सन्यास के मार्ग पर चले गये थे| ऋषिकेश के कैलाश-आश्रम में पहुंचकर हरिहर तीर्थजी का शिष्यत्व ग्रहण किये और कई वर्षों तक कठोर तपस्या में डूबे रहे| गिरी महाराज के ' वेदान्त रत्नाकर ' नामक संस्कृत ग्रन्थ को बंगला में अनुवाद करके अद्वैत वेदान्त के सम्बन्ध में अपनी धारणा व्यक्त किये थे|
उसी तरह स्कूल के एक अन्य सहपाठी- ' विरिंची चक्रवर्ती ' का
भी स्मरण आता है, वह भी गृहत्याग कर के सन्यासी हो गया था|पर बाद में उसका
कोई समाचार न मिल सका|कितने लोगों के बारे में बताऊँ? हेडमास्टरमशाई
अर्थात पितामह जहाँ एक ओर आन्दुल स्कूल में अध्यापन कर रहे थे वहीँ उनका
एक अन्य साधक -जीवन भी था................