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शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

" आशुतोष मुखोपाध्याय तथा सर जॉन वूड्रोफ ~ तन्त्र साधना " 'जीवन नदी के हर मोड़ पर [10]'

     (पृष्ठ -20) उसके पहले आशुतोष मुखोपाध्याय के साथ भी उनकी गहरी घनिष्टता थी, बहुत अच्छा परिचय था। आशुतोष मुखोपाध्याय के पौत्र चित्त तोष मुखोपाध्याय ( कलकाता हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश थे) ने हमलोगों के महामण्डल के एक ' All India Camp ' का उद्घाटन किया था जो पांशकूड़ा में हुआ था। उनको वहाँ पहुँचने में आधे मिनट की देरी हो गयी थी, इसलिए वे महामण्डल ध्वज (flag ) को फहराने से वंचित रह गये थे। किसी अन्य संगठन में ऐसी-'समयानुवार्तिता ' और ' नियमानुवार्तिता ' का पालन होता है या नहीं, यह तो हम नहीं जानते, किन्तु महामण्डल में इसका पालन होता है, उसे सभी देख पा रहे हैं।  
      मेरे पितामह के साथ आशुतोष मुखोपाध्याय का अत्यन्त घनिष्ट सम्बन्ध था इसलिये वे प्रायः मेरे घर आया करते थे, और पितामह के साथ उनकी लम्बी अवधि तक बातें होती रहती थीं। कोर्ट से वापस लौटते हुए वे पितामह के लिये भीम नाग के यहाँ से सन्देश भी लेते हुए आते थे। वे मेरे पितामह से दीक्षा (तंत्र-दीक्षा) भी लेना चाहते थे। एक बार दीक्षा के विषय में दोनों के बीच बात चली तो आशुतोष मुखोपाध्याय ने कहा था-"अगर कभी किसी से दीक्षा लूँगा तो आप से ही लूँगा। "
किन्तु यह संभव नहीं हो पाया था। क्योंकि डुमराओं महाराज के किसी मुक़दमे में पैरवी के सिलसिले में, वे एक बार पटना (बिहार) गये थे, वहीँ ६० साल की उम्र में उनका देहान्त हो गया था। इसीलिये पितामह से दीक्षा लेने की उनकी अभिलाषा अधूरी ही रह गई थी।  
    उस समय के एक और उल्लेखनीय व्यक्ति थे - " सर जॉन वूड्रोफ।" वे कलकाता हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश थे। पितामह से भी उनका परिचय था। उन दोनों के बीच की कड़ी थी-' तंत्र-विद्या'। जिस प्रकार मैक्समूलर ने भारतवर्ष के ' वेद ' को विश्व के समक्ष पुनः नये रूप में स्थापित किया था, ठीक उसी प्रकार सर जॉन वूड्रोफ ने भी ' तंत्र ' को नये रूप में लोगों के बीच लाने की चेष्टा की थी। तंत्र के सम्बन्ध में उनका अध्यन और अनुसन्धान असाधारण था, उन्होंने तंत्र के ऊपर पुस्तक भी लिखी थी, तथा वे स्वयं तान्त्रिक साधना भी किया करते थे। इसी कारण से पितामह के साथ उनका अच्छा परिचय भी हो गया था। {सर जॉन वूड्रोफ ने तंत्र को पुनः नये शीरे से अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों प्रदान करने वाली परा विद्या (Metaphysics) या 'श्री विद्या' के रूप में स्थापित करने की चेष्टा की थी !} 
        आन्दुल में जो राजबाड़ी है, जिसको आन्दुल राजा का महल के नाम से जाना जाता है। वह मित्र वंश के राजाओं का निवासस्थान रहा है। उनका वह निवासस्थान अति प्राचीन है, अतः उस महल में अनेकों प्राचीन पुस्तकें भी संग्रहित थीं। सर जॉन वूड्रोफ को किसी ने इसकी सूचना दी तो यह सोच कर कि वहाँ तंत्र के ऊपर पुरानी -पुरानी पुस्तकें या पाण्डुलिपियाँ भी देखने को मिल सकती हैं। वे एक दिन आन्दुल राजबाड़ी चले आये।  
        वे राजबाड़ी में जैसे ही पहुँचे राज परिवार के कई लोग पितामह के पास आकर बोले -" मास्टर मोशाय जी सर, घर पर कलकाता हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश -' सर जॉन वूड्रोफ ' आये हैं। समस्या यह है कि उनके साथ बातचीत कौन करेगा ? इसलिए ऐसा आग्रह कर वे लोग हेडमास्टर मोशाय को अपने घर ले गये। 
सर जॉन वूड्रोफ के साथ मेरे पितामह का चित्र हमलोगों के खड़दह वाले घर में अब भी लगा हुआ है। मैंने उसे देखा है। परिचय होने पर उन्होंने पितामह को अपने घर पर आमंत्रित किया था। प्रायः ही पितामह उनके घर पर उनसे मिलने के लिये जाया करते थे। सर जॉन वूड्रोफ अपने घर पर गेरुआ चादर ओढ़ते थे, और पछुआ खोंस कर धोती पहनते थे।  

Sir John Woodroffe in Hindu attire  
at The Konark Sun Temple of Orissa, India.

वे जब घर पर होते तो उनके गले में यज्ञोपवित (जनेऊ) रहता था, और खुले वदन पर एक चादर लपेटे रहते थे! जबकि वे एक अंग्रेज साहेब थे, कलकाता हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस थे! तंत्र-विद्या को लेकर मेरे पितामह की बातचीत उनके साथ होती रहती थी। उस चर्चा के क्रम में सर जॉन वूड्रोफ कई पुस्तकों का उल्लेख किया करते थे। एक दिन वे कहते हैं -अमुक , अमुक पुस्तक में 64 प्रकार के तंत्रों की बात कही गयी है।   
इस पर पितामह ने उन्हें बताया कि - " 64 प्रकार के तंत्र नहीं होते, तंत्र-विद्या में तीन क्रान्ता का जिक्र है, और प्रत्येक क्रान्ता में 64 प्रकार के ग्रन्थ होते हैं। इस प्रकार तंत्र शास्त्र के अन्तर्गत, 64  का तीन गुना - अर्थात कुल 192 ग्रन्थ हुए, इसके अलावा तंत्र के ऊपर और भी न जाने कितने ग्रन्थ हैं। आखिर तंत्र के इतने सारे ग्रंथों में से आपने कितने ग्रंथों का अध्यन किया होगा ? 
पितामह ने एक दिन शिव-पार्वती संवाद (आगम-निगम) के विषय पर चर्चा करते हुए उनसे कहा की भगवान शिव ने स्वयं अपने मुख से कहा है ~ " सप्तकोटि महाग्रंथः मम वक्रात विनिश्रीताः"  अर्थात भगवान शिव माता पार्वती से कह रहे हैं कि मेरे मुख से ' सप्तकोटि महाग्रंथ ' - अर्थात सात कड़ोड़ महाग्रंथ निसृत हुए हैं। तो बताइये आपने इनमे से कितने ग्रंथो का अध्यन किया है-सर जॉन ? 
      पुनः पितामह ने कहा कि हो सकता है कि सप्तकोटि ग्रन्थ कि संख्या - " May not be literally true. " अर्थात बढ़ा-चढ़ा कर बताई गयी हो ? इस पर सर जॉन वूड्रोफ ने कहा कि " No,no, when Sadashiva says so, it must be literally true." इस प्रकार यह समझा जा सकता है कि उन दिनों चारों ओर कैसी हवा बह रही थी ! (तात्पर्य यह कि , गुरु-शिष्य परम्परा के अनुसार साधना किये बिना केवल अध्यन करने से तंत्र-विद्या का फल-जीवनमुक्ति प्राप्त नहीं होती।)  
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{ तन्त्र साधना शब्द शास्त्र के अनुसार तन्त्र शब्द ‘तन’ धातु से बना है जिसका अर्थ है विस्तार। शैव सिद्धान्त’ के ‘कायिक आगम’ में इसका अर्थ किया गया है, ‘वह शास्त्र जिसके द्वारा ज्ञान का विस्तार किया जाता है- " तन्यते विस्तार्यते ज्ञानम् अनेन्, इति तन्त्रम्।’’ 

तन्त्र की निरुक्ति ‘तन्’ (विस्तार करना) और ‘त्रै’ (रक्षा  करना), इन दोनों धातुओं के योग से सिद्ध होती है। इसका तात्पर्य यह है कि तन्त्र अपने समग्र अर्थ में ज्ञान का विस्तार करने के साथ उस पर आचरण करने वालों का त्राण भी करता है। तन्त्र-शास्त्र का एक नाम आगम शास्त्र भी है। इसके विषय में कहा गया है-आगमात् शिववक्त्रात् गतं च गिरिजा मुखम्। सम्मतं वासुदेवेन आगमः इति कथ्यते।।

वाचस्पति मिश्र ने योग भाष्य की तत्व वैशारदी व्याख्या में ‘आगम’ शब्द का अर्थ करते हुए लिखा है कि जिससे अभ्युदय (लौकिक कल्याण) और निःश्रेयस (मोक्ष) के उपाय बुद्धि में आते हैं, वह ‘आगम’ कहलाता है। 

शास्त्रों के एक अन्य स्वरूप को ‘निगम’ कहा जाता है। इसमें वेद, पुराण, उपनिषद आदि आते हैं। इसमें ज्ञान, कर्म और उपासना आदि के विषय में बताया गया है। इसीलिए वेद-शास्त्रों को निगम कहते हैं। 

उस स्वरूप को व्यवहार आचरण और व्यवहार में उतारने वाले उपायों का रूप जो शास्त्र बतलाता है, उसे ‘आगम’ कहते हैं। तन्त्र के सभी ग्रन्थ शिव और पार्वती के संवाद के अन्तर्गत ही प्रकट हैं। देवी पार्वती प्रश्न करती हैं और शिव उनका उत्तर देते हुए एक-एक विधि का उपदेश करते हैं।

अधिकांश प्रश्न समस्या प्रधान ही हैं। सिद्धान्त के सम्बन्ध में भी कोई प्रश्न पूछा गया हो तो भी शिव उसका उत्तर कुछ शब्दों में देने के उपरान्त विधि का ही वर्णन करते हैं। आगम शास्त्र के अनुसार- " करना ही जानना है " और कोई जानना ज्ञान की परिभाषा में नहीं आता। जब तक कुछ किया नहीं जाता साधना में प्रवेश नहीं  होता, तब तक कोई उत्तर या समाधान नहीं है।

---साभार तन्त्र साधना से सिद्धि केदारनाथ मिश्र}

सम्पूर्ण सृष्टि में जो आकर्षण व प्रेम है उसकी मूल विद्या ही छिन्नमस्ता है, शास्त्रों में देवी को ही प्राणतोषिनी कहा गया है। देवी की कृपा से साधक मानवीय सीमाओं को पार कर देवत्व प्राप्त कर लेता है। देवी के भक्त को मृत्यु भय नहीं रहता वो इच्छानुसार जन्म ले सकता है। तन्त्र किसी भी काम के करने का एक तरिका हे। उदाहरण के लिए राजतन्त्र लिजिये। राजतन्त्र, राज+तन्त्र से बना हुआ शब्द है । राजतन्त्र का बृहद अर्थ हे जो व्यवस्था राजा चलाते हे और राजनीति इसका अंग है।  
और तन्त्र वह साधन है जिसकी सहायता से आप ध्यान में जा सकते हैं । भगवान शिव सभी तन्त्र का जनक हे। तन्त्र दर्शनों में प्रयोगात्मक पक्ष ज्यादा है। जब तक साधक का एक निश्चित स्तर न आ जाये उसे बाह्यगत पूजा /साधना का सहारा लेना ही पड़ता है। और जब कुण्डलिनी और चक्र जागरण की एक एक उच्चावस्था आ जाती हैं तब साधक अंतर्पूजा विधान या साधना के लिए उपयुक्त हो जाता हैं।  
 इस पथ मे बढते रहने से ..उसके पशु भाव क्षीण होता जाता हैं और वीर भाव मे प्रवेश होता हैं। और जीवन में इतनी भी उच्चता या  श्रेष्ठता प्राप्त करना कोई साधारण बात नही हैं। तन्त्र वीर लोगों के लिए हे क्योंकि ईश्वर की उपासना वीर और दिव्य (या सन्तान भाव) दो भाव से किया जा सकता हे।
 नागा-वीर  – प्रारम्भिक दीक्षा के बाद व्यक्ति को लज्जा निवारण अर्थ वस्त्रों का त्याग कराया जाता है। इस स्तर पर व्यक्ति के तीन पाश-लज्जा-घृणा-भय से मुक्ति होती है। श्मसान ही एक ऐसा स्थान है जिसके चौखट कों पार करने पर व्यक्ति के मन में भले ही थोड़ी देर के लिए ही क्यों ना हो विरक्ति, मोह विमुख, आसक्ति मुक्त और वासना रहित विचारों का आडोलन होता ही है।  शमशान में व्यक्ति कभी कामुक नहीं हो सकता ना ही ऐसे विचार मन में आ सकते है। 
 जो श्मशान  एक विशिष्ट अवधि सम्पन्न तथा विशिष्ट संख्या में चीता ज्वलन संस्कार के आकड़े को पार कर चुके होते है, वे महाश्मशान (crematorium) कहलाते है। ...  जैसे काशी, बकरेश्वर, कामाख्या, उज्जैन आदि स्थानों पर जो स्मशान स्थित हे वे महाशमशान कहलाते है.. वहां पर प्राण ऊर्जा का प्रभाव अत्यंत तीव्र है.. वहा का औरामंडल बहुत ही शक्ति संपन्न और दिव्य होता है यही कारण हे की बहुत सी साधनाओ के लिए स्मशान भूमि का महत्व है। 
     कैसे समझे की साधना-मार्ग पर हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं या नहीं ? ..... साधना काल के अतिरिक्त भी मन खुश प्रसन्न रहे, एक गहरी निश्चितता का अनुभव हो,  आपकी बातों का प्रभाव सामने वाले पर कहीं जयादा असरदायक हो, आप अपने मित्र वर्ग मे और अधिक प्रिय हो जाए,  आपके चेहरे का तेज बढ़ने लगे, सौम्यता और शालीनता स्वत ही आपके व्यवहार मे परिलक्षित होने लगे। तब समझ सकते हैं कि आप सही दिशा में जा रहे हैं। 
निर्विकल्प समाधी का त्याग करके जो, वापस चेतना की सामान्य भूमि पर लौट आते हैं, ईश्वर-कोटि या अवतारी होते हैं;  वे हमेशा मुस्कुराते हैं। एक स्मित मुस्कान उनके  मुख पर हमेशा देखी जा सकती हैं। स्मित हास्य सदैव उनके मनोहर मुख मंडल मे रहता हैं वे अट्टहास नही करते।   सभी ने जगतगुरु श्रीरामकृष्णदेव के दिव्य मुख मंडल मे हमेशा छाई रहने वाली वह स्मित मुस्कान देखी ही हैं ! भला उसकी मिसाल दूसरी कहाँ ?   
अन्न मय कोष इसमें जीव रहता हैं इस शरीर का निर्माण मे अन्न की प्रमुख विशेषता हैं। जैसे ही साधक अपने आसन पर बैठता हैं और मंत्र जप करना शुरू करते ही साधक के अंतर्मन मे देव-असुर संग्राम चलने लगता है। प्रयास लगातार करता रहे तो धीरे धीरे यह कोष शुद्ध होने लगता हैं और आगे के लिए मार्ग खुलता जाता हैं। मंत्र की अपनी एक शक्ति हैं और उसके लगातार उच्चरण से भले ही सिद्धि जैसा बाह्य्गत कुछ न दिखता हो पर अंतर मन मे स्वतः महत परिवर्तन होता रहता है । 
प्राण मय कोष हैं।  यह वायु पर आधारित होता हैं क्योंकि वायु चंचल होती हैं।  अतः ऐसे साधक का या इस अवस्था मे ...मन साधना मे जल्दी लगता हैं और हटता भी जल्दी हैं। मनोमय कोष मन का बहुत बडी भूमिका हैं। मानो सारा साधना जगत का एक बहुत बड़ा आधार हैं ये मन, जो एक पल मे आपको स्वर्ग की उचाई तो अगले पल मे नर्क की गहराई भी दिखा सकता हैं। यह मानसिकता की हमेशा सुन्दर और लुभावने अनुभव होंगे यह कोई आवश्यक नही हैं, क्योंकि चित्त में। जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों के जो  मैल पड़े हैं, उनको हटाये जाने पर, कई तरह के अनुभव आ सकते  हैं। कई कई बार तो व्यक्ति को अपना ही रूप देख कर स्वयं पर आश्चर्य होता है। 
 स्वामी विवेकानंद जी ने अपने गुरू भाई स्वामी अद्भुतानद जी के बारे मे लिखा हैं की निरक्षर लाटू सद्गुरु कृपा से हनुमान की भांति एक छलांग लगा कर वहां सीधे ही पहुच गया, जहाँ पर पहुँचने के लिए हम लोगों को ज्ञान अज्ञान के कितने नदी नाले पार करने पड़े थे । 
      षड्चक्र भेदन की साधना :साधक को भी वास्तविकता का कुछ अनुभव भी हो, कहते हैं की जो ह्रदय कमल होता हैं उसका मुंह अब ऊपर की ओर होने लगता हैं चूँकि अब परिवर्तन का समय हैं तो जैसे जैसे कमल का मुंह ऊपर उठेगा, मानो शेषनाग हिल रहा हैं और साधक के सारे करम होने लगते हैं मतलब जो हो सो कम हैं । 
यह समय बहुत ही कठिन होता हैं एक साधक के लिए ..कहते हैं इस अवस्था से पार सिर्फ गुरू कृपा ही करा सकती हैं।  मन मे जो देव असुर संग्राम होता हैं उसका कोई जबाब ही नही।  जो साधक होता हैं वह वास्तव मे द्वैत अवस्था की बात होती हैं।  और जो सिद्ध होते हैं या सिद्धावस्था हैं वह तो अद्वैत अवस्था की बात हैं।  मतलब हमें द्वित से अद्वैत अवस्था तक की यात्रा जल्दी से जल्दी पूरी करनी हैं खुद ब खुद मंत्र जप चलने लगता हैं और ध्यान भी लगने लगता हैं। 
सर जॉन वूड्रोफ जैसे प्रख्यात तःन्त्र विद्वानों ने अपनी अनेक कृतियों मे जिस विद्वता का परिचय दिया हैं वह सराहनीय हैं और दाँतों तले अंगुली दवा लेने वला भी। ...... की किस तरह एक विदेशी व्यक्ति जो कलकत्ता मे न्यायाधिश पद को सुशोभीत कर रहा हो तंत्र जगत मे इतनी विशेषज्ञता कैसे प्राप्त कर सका?  
उसके ज्ञान की सभी ने प्रशंशा की है, उस व्यक्ति ने तो कितने उच्च पद पर कितनी जिम्मेदारी का काम करते हुये कैसे यह सब किया ? महाविद्याए सिद्ध की और केवल सिद्धांत रूप मे ही नही बल्कि सीधे प्रयोगिक रूप मे तंत्र को समझा, जाना और जिया भी। उन्होंने अपनी कृतियों मे वाममार्ग की अनेको भ्रांतियां जो हमें घृणा युक्त लगती हैं, या जिन पदार्थ का नाम भी घृणास्पद है, उसका भी दिव्यतम रूप समझाया है।  
और बताया की किस तरह अनेको महापुरुषों के माध्यम से यह मार्ग भी कितनी उच्चता लिए हुये रहा है ! कुछ बहुत ही उच्च आदर्श,और उच्च चरित्र वाले व्यक्तियों को, जिनकी मन मे स्त्री पुरुष का भाव मिट गया हो..उनके लिए ही यह मार्ग था। और अन्य सभी सामान्य जनों के लिए ,इस  मार्ग पर चलना ..आज के समय मे ठीक नही हैं। बल्कि कई कई गुणा पतन का रास्ता भी खोलने के सामान हैं। आज की परिस्थिति और अनेको दूरसंचार माध्यम के कारण स्वाभाविक सा हैं की विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण कुछ बहुत ज्यादा होता जा रहा हैं, सारे बंधन शिथिल हो गए हैं । इसलिये किसी भी मार्ग के साधक को अपने चरित्र और अपने स्वाभिमान और आत्मसम्मान पर कभी भी ...कोई भी समझोता नही करना चाहिये।
.हर हाल मे इन सबका पर ध्यान रखना होगा, चरित्र की रक्षा हर हाल मे हर कीमत पर करना चाहिये । आप अपने दिल दिमाग का उपयोग करें .और हर निर्णय वह छोटा हो या बड़ा हो उसमे स्व विवेक का उपयोग करें, तभी इस मार्ग पे आपकी यात्रा और भी सफलता दायक होगी। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि दूसरों के अनुभव से जो लाभ उठाता हैं वही श्रेष्ठ हैं, अन्यथा स्वयं हर चीज को अपने से अनुभव करने पर तो सारा जीवन ही नष्ट हो जायेगा। 
सफल आध्यात्मिक जीवन के लिए 'एक गुरू- एक मंत्र- एक साधना' ही सर्वोपरि है। गुरू साक्षात् पार ब्रह्म  हैं, ध्यान रहे  " गुरु को ब्रह्म नही पार ब्रह्म कहा गया है " संशय एक शिष्य के लिए घातक होता हैं और शिष्य नष्ट हो जाता हैं और श्रद्धावान लभते ज्ञान।
एक भक्त ने श्रीरामकृष्ण से कहा, " महाराज  मेरा ध्यान नही लगता हैं , मन भटकते रहता हैं .यही मेरी समस्या है यह सुन कर ठाकुर का श्री मुख बहुत प्रसन्नता से खिल उठा , उन्होंने बहुत ही स्नेह से कहा-  " आश्चर्य हैं कि आज के  समय मे भी यह किसी की समस्या है, और वह उसके लिए वह परेशां हैं। जबकि यहाँ तो सिर्फ अपनी परिवार और अपनी भौतिक समस्या के लिए ही लोग आते हैं ,मैं बहुत खुश हूँ .कि तुमने यह बात रखी। और सदगुरुदेव जी ने पास मे रखी हुयी गुलाब की कुछ पंखुडिया उठाई और मेरे सिर पर डालते गए और कुछ मंत्र का उच्चरण करते गए, मैं तो अपने होश मे ही नही रहा कि क्या हो रहा हैं .जब थोडा चैतन्य हुआ तो देखा वह मुस्कुरा रहे हैं और उन्होंने बहुत ही करूणा से कहा कि जा अब से यह समस्या नही रहेगी ,स्वत ही गंभीर ध्यान तेरा लगने लगेगा ."
“ध्यान मूलं गुरू पदम”
ध्यान रहे एक बार स्वामी विवेकानंद जी की किसी बात पर नाराज़ होकर परमहंसजी ने उन्हें जाने को कह दिया पर .उसके बाद भी स्वामीजी रोज आते और दूर बैठे रहते ..एक दिन परमहंसजी ने कहा तू यहाँ आता अब क्यों हैं .स्वामीजी ने कहा ..मैं तो बस आपको निहारने ही आता हूँ। और एक शिष्य अपने सदगुरुदेव को निहारते निहारते कहाँ से कहाँ पहुच गया ........ तो क्या सदगुरुदेव जी की करूणा को हम ...समझ सकते हैं . 
राम कृष्ण परमहंस जी ने एक बार बस थोडा सा निर्विकल्प समाधि अनुभव करा कर स्वामी विवेकानंद जी को कभी भी उसका फिर से कुछ घन्टे तक के लिए दुबारा अनुभव नही कराया ,उन्होने कह दिया था की कहीं नरेंद्र को अपने सत्य स्वरुप का जरा भी भान लग गया तो उसका शरीर गिर जायेगा मतलब नष्ट हो जायेगा .वह इस शरीर मे पल भर नही रुकेगा ..और जिस दिन उसे पता चल गया की वह हैं कौन ..वस् वह फिर नही रुकेगा ..... इसलिए स्वामी जी के सारे गुरू भाई उनके स्वरुप के बारे मे उनसे गंभीर बात कभी नही करते थे .
       किसी भी देवता की उपासना मे पूर्ण सफलता तभी पाई जा सकती हैं जब साधक और देवता एक हो जाये। यह बात समझा तो जा सकता हैं, पर सम्भव कैसे हो ? इस लिए दो तरीके के पूजा या साधना के विधान हैं पहला तो बाह्य जगत में और दूसरा अन्तर्जगत में। जब तक साधक का एक निश्चित स्तर न आ जाये उसे बाह्य्गत पूजा /साधना का सहारा लेना ही पड़ता हैं। जिस प्रकार गौमाता के सारे शरीर मे दूध होने पर भी दूधउसके स्तनों के माध्यम से क्षरित होता हैं। ठीक उसी प्रकार परमात्मा की शक्ति सर्वत्र व्याप्त होने पर भी वह प्रतिमा के माध्यम से प्रगट होती हैं।  और जब कुण्डलिनी और चक्र जागरण की एक एक उच्चावस्था आ जाती हैं तब साधक अंतर्पूजा विधान या साधना के लिए उपयुक्त हो जाता हैं।  
       और जब इसी तरह इस पथ मे बढते रहने से ..उसके पशु भाव क्षीण होता जाता हैं और वीर भाव मे प्रवेश होता हैं ..और इतना होना  भी जीवन की उच्चता हैं श्रेष्ठता है, यह कोई साधारण बात नही हैं .पर जब हम लगातार उच्च उच्च साधना करते जाते हैं तो हमें पता ही नही चलता और हम एक दिन उस अवस्था मे आ जाते हैं जिसे दिव्य भाव (सन्तान भाव) की अवस्था कहा जाता हैं।  और इस दिव्य भाव मे देवता और साधक या इष्ट और साधक का भेद ही मिट जाता हैं ,और यहाँ सिद्धि हैं। 
       ...और यहाँ सिद्धि से भी आगे की अवस्था ..संभव हैं ...क्योंकि जीवन का अर्थ तो तभी हैं जब साधक इष्ट मे कोई अंतर ही न रहे दोनों एक आत्म हो जाए।  जो साधक होता हैं वह वास्तव मे द्वैत अवस्था की बात होती हैं ..और जो सिद्ध होते हैं या सिद्धावस्था हैं वह तो अद्वैत अवस्था की बात हैं।   मतलब हमें द्वित से अद्वैत अवस्था तक की यात्रा जल्दी से जल्दी पूरी करनी हैं। पर क्यों ? जब तक साधक समाधी की अवस्था मे न आ जाये तब तक उस पर पूर्ण रूप से विश्वास नही किया जा सकता की वह .इस साधना मार्ग मे ..हमेशा आगे बढता रहेगाक्योंकि पतन की संभावनाए तो हर समय रहती हैं। ]
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" The Tantra "
There is probably no body of traditional literature that has suffered such widespread criticism, from Western and Eastern  scholars alike, as the Tantras, due mainly to their esoteric character. which made it impossible for scholars to obtain adequate information of their true content. The ban on their investigation was finally re- moved by the fruitful labours of the late Sir John Woodroffe, the first to defend the outraged Tantras, and now the field of Tantrik literature can be intelligently investigated. 
For a correct and complete understanding of Indian culture, it is imperative that this body of traditional literature is properly understood; therefore, a brief  out-line of their position in the history of Hindu thought will be helpful. 
The word Tantra is derived from the root tan, "to spread," and the agential suffix tra, "to save," meaning that knowledge which is "spread to save." It is a generic term under which a whole culture of a certain epoch of Indian history found expression. According to their own definition, Tantra denotes that body of religious scriptures 
(Sastra) which is stated to have been revealed by Siva as a specific scripture for the fourth and present age (Kali Yuga). They are without authorship, for they are revealed by divine inspiration to rsis (sages) who record them for the benefit of men living during this age.   
A Tantra is generally cast in the form of a dialogue between Siva, the deification of the Ultimate Principle, and his female consort, Parvati, the active aspect of the Ultimate Principle. When Parvati asks the questions and Siva answers them, the treatise is called an Agama, that which has come down; when Siva asks the questions and Parvati answers them, the treatise is called a Nigama. The Tantras are said to be the truest exegesis of the Vedas, and their origin is certainly as ancient as those of some of the classical Upanisads. 
The Tantras not only issued from the same source as did the Upanisads, but it is said that they have been as widespread in India. According to tradition, India had been divided into three regions called Krantas, These Krantas were Visnukranta, Rathakranta, and Asvakranta. 
    Visnukranta extended from the Vindhya Mountain in Cattala (Chittagong), thus including Bengal; Rathakranta, from the same mountain to Mahacma (Tibet), including Nepal; and Asvakranta, from the same mountain to "the great ocean," apparently including the rest of India. Sixty-four Tantras had been assigned to each region, and all of them could be classified according to the three interpretations of philosophy, Abheda, Bedha, and Bhedabheda, that is, non-dualism, dualism, and dualism and non-dualism. 
A Tantra is said to consist of seven marks or topics: (i) creation, (2) destruction of the universe, (3) worship, (4) spiritual exercises (Yoga), (5) rituals and ceremonies, (6) six actions, and (7) meditation. 
They were the encyclopedias of knowledge of their time, for they dealt with all subjects from the creation of the universe to the regulation of society, and they have always been the repository of esoteric spiritual beliefs and practices, especially the spiritual science of Yoga.
The Tantras are commonly called Agama, and these are divided into three main groups according to which deity is worshipped: Siva, Sakti, or Visnu. Together they form the three principal divisions of modern Hinduism, namely Saivism, Saktism, and Vaisnavism. All of them have their seeds of origin in the hoary antiquity of time, and they have passed through many transitions according to the in- terpretations of their many leaders.
OSMANIA UNIVERSITY LIBRARY Call No.U9 9/B25H, Accession No. 27998 Author Bernard T, PH. D, Title Hindu philo sophy ,)  
 
Sir John Woodroffe :
Early life : Born on December 15, 1865 as the eldest son of James Tisdall Woodroffe, Advocate-General of Bengal and his wife Florence, he was educated at Woburn Park School and University College, Oxford, where he graduated in jurisprudence and the Bachelor of Civil Law Examination In 1890, He moved to India and enrolled as an advocate in Calcutta High Court. 
He was soon made a Fellow of the Calcutta University and appointed Law Professor there. He was appointed Standing Counsel to the Government of India in 1902 and two years later was raised to the High Court Bench.
After serving for eighteen years in the bench, he became Chief Justice of the Calcutta High Court in 1915. After retiring to England he became Reader in Indian Law at the University of Oxford, and finally moved to France in his retirement, where he died in 1936.
 Sanskrit Studies Alongside his judicial duties he studied Sanskrit and Hindu philosophy and was especially interested in the esoteric Hindu Tantric Shakti system. He translated some twenty original Sanskrit texts, and under his pseudonym Arthur Avalon. He published and lectured prolifically on Indian philosophy and a wide range of Yoga and Tantra topics.
As TMP Mahadevan wrote in the foreword to Woodroffe's Garland of Letters: "By editing the original Sanskrit texts, as also by publishing essays on the different aspects of Shaktism, he showed that the religion and worship had a profound philosophy behind it, and that there was nothing irrational or obscurantist about the technique of worship it recommends.
Serpent Power and Garland of Letters 
Brow Chakra vision from Woodroffe's Serpent Power 1918
Woodroffe's The Serpent Power – The Secrets of Tantric and Shaktic Yoga, is the source of many modern Western adaptions of Kundalini yoga practice.       

Sir Ashutosh Mukhopadhyay :-

Ashutosh Mukhopadhyay , perhaps the most emphatic figure of Indian education, was a man of great personality, high self-respect, courage and towering administrative ability. Born on 29th June, 1894 at Bowbazar, Kolkata, Ashutosh Mukherjee was brought up in an atmosphere of science and literature.
Throughout his educational career got opportunity to mingle with other stalwarts of Bengal, such as, Vidyasagar, Prafulla Chandra Roy, Bhupendra Nath Bose and so on. In 1885, he completed his M.A. degree with major in Mathematics and in 1886 M.Sc in physical science. In the same year he received the coveted Premchand Roychand scholarship.
He became a Doctor in Law in 1894 and appointed as Tagore Law Professor in 1898 and became a judge of the Kolkata High court in 1904 & retired in 1923, officiating for a few months as Chief Justice of Bengal in 1920. He was knighted in 1911.
Ashutosh Mukhopadhyay believed that to unbound the society from racism and discrimination of the British rule it was necessary to spread the light of knowledge from grass root to higher level of education. Thus he resolved to create a modern university out of his Alma Mater, the Calcutta University and in 1906 he was appointed Vice Chancellor.
He believed in the acceptance of Western cultural values, but not at the cost of his own dignity and torchbearer of a new outlook, which was totally Indian yet entirely free from conservatism. This great son of Bengal passed away on May 25th, 1924 in Patna.

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