योगासनों (मूलबन्ध,मुद्रा आदि) के प्रशिक्षक 'आयरनमैन' -नीलमणिदा !
आज भारत के पहल पर यू.एन.ओ द्वारा प्रतिवर्ष २१ जून को 'अंतर्राष्ट्रीय योगदिवस' के रूप में मनाया जा रहा है। ' रामकृष्ण मूभमेन्ट ' या रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा का यह अंग जिसका नाम अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल है; यह युवासंगठन अपने वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में विद्यार्थियों को विगत ५१ वर्षों से चार योगों- कर्मयोग,ज्ञानयोग,भक्तियोग और राजयोग का व्यावहारिक प्रशिक्षण द्वारा चरित्र-निर्माण एवं जीवन-गठन का प्रशिक्षण देता चला आ रहा है।यह संस्था केवल युवाओं के लिये है. इसका संस्था का गठन केवल इसी उद्देश्य को ध्यान में रख कर किया गया है कि हमारे युवा भाई कहीं विपथगामी न हो जाएँ, वे लोग सूपथ पर रहें, अच्छे पथ पर रहें, ताकि उनका जीवन सुन्दर ढंग से गठित हो और वे देश-मातृका की सेवा में अपना तन मन धन न्योछावर कर के अपने जीवन को सार्थक कर सकें !
यह कार्य अपने आप में बहुत पुनीत कार्य है. यह एक ऐसा कार्य है, जिससे जुड़ने वाले को- " ठाकुर की ईच्छा, माँ का आशीर्वाद एवं स्वामीजी की उत्साह के द्वारा सहज में ही आनन्द प्राप्त हो सकता है." इस कार्य को करने में क्या आनन्द मिलता है, इसका वर्णन करने में वाणी असमर्थ हो जाती है. देश को अपनी माँ समझ कर, बिल्कुल अपनी माँ के जैसा प्यार नहीं करने से- देश वासियों को अपना परम-आत्मीय जानते हुए बिकुल अपने परिवार जैसा प्रेम नहीं करने से, उनके लिये अपने जीवन की शक्ति को थोड़ा भी खर्च नहीं करने से, यह जीवन यूँ ही व्यर्थ में नष्ट हो जायेगा.
इसी प्रकार जो कार्य प्रारम्भ हो गया था वह चलता रहा, किन्तु अद्वैत आश्रम के सन्यासियों द्वारा कार्य समाप्त कर लिये जाने के बाद, फिर बचे हुए समय में वहीं पर बैठ कर किसी संस्था का कार्य ज्यादा दिनों तक चल पाना सम्भव नहीं था. इसी कारण इसी के नजदीक ' ऐन्टाली ' में एक जगह देख लिया गया. इसकी खोज करने के लिये भी मेरे साथ केवल जयराम महाराज ( वर्तमान में रामकृष्ण मठ मिशन के वाईस प्रेसिडेन्ट ) ही मेरे साथ बाहर निकले.
बाहर निकल कर इधर उधर खोजते खोजते ' शम्भुबाबू लेन ' में एक छोटा सा कमरा पाया जा सका, किन्तु कहना पड़ता है कि दो कमरे प्राप्त हुए. एक घर में घुसने पर थोड़ा सा जगह, जिसके दाहिनी ओर तथा बायीं ओर दोनों ओर दो कमरे जो इतने छोटे थे कि उसका माप बताना भी बहुत कठिन है. याद पड़ता है कि शायद आठ फुट बाय छौ फुट माप का कमरा रहा होगा. दो तरफ दो कमरे वाला (2BHK फ़्लैट ) भाड़ा में लिया गया. वहीं पर बैठ कर कार्य चलने लगा. एक-दो वर्ष बीत जाने का बाद यह आवश्यक लगने लगा था कि महामण्डल का एक अपना मुखपत्र भी होना चाहिये. तब ' विवेक-जीवन ' के नाम से एक पत्रिका निकाली जाय यह निर्णय लिया गया. पहला जो अंक निकला उसमे आठ पन्ने थे.
आज भी आठ पन्नों कि ही पत्रिका छपती है. इसका प्रतिवर्ष दो विशेषांक भी - जनवरी और जुलाई में निकाले जाते हैं.ये विशेषांक बड़े होते हैं.महामण्डल के इस मुखपत्र में महामण्डल की जितनी शाखाओं में काम चल रहा था, उन की खबरें, कुछ निबन्ध, आदि रहते थे. बाद में यह पत्रिका दो भाषाओँ में (अंग्रेजी और बंगला में) निकलने लगी.
आज भी आठ पन्नों कि ही पत्रिका छपती है. इसका प्रतिवर्ष दो विशेषांक भी - जनवरी और जुलाई में निकाले जाते हैं.ये विशेषांक बड़े होते हैं.महामण्डल के इस मुखपत्र में महामण्डल की जितनी शाखाओं में काम चल रहा था, उन की खबरें, कुछ निबन्ध, आदि रहते थे. बाद में यह पत्रिका दो भाषाओँ में (अंग्रेजी और बंगला में) निकलने लगी.
इसको छापने के लिये एक छोटे से प्रेस की व्यवस्था भी करनी पड़ी. उसके लिये सम्पादकीय लेख आदि अंग्रेजी और बंगला में लिखना, कम्पोज होने के बाद उसका प्रूफ देखना फिर पत्रिका के छप जाने पर उसको उसी नये भाड़े वाले मकान को 'सिटी ऑफिस ' (उसी शम्भूबाबू लेन के कमरे में ) ले आना. हमलोग उसीको सिटी ऑफिस कहते थे.क्योंकि हमलोगों के महामण्डल में सारे दिन केवल महामण्डल का ही काम करने वाले { ' पूर्णकालिक ' य़ा ' जीवनदानी ' } कार्यकर्ताओं का कोई कांसेप्ट नहीं है.
( महामण्डल के सदस्य वैसे गृहस्थ लोग होते हैं जो सारा दिन अपना पारिवारिक जिम्मेदारी निभाने के बाद केवल खाली बचे समय में ही महामण्डल का काम करते हैं.) सारे दिन केवल महामण्डल का ही कार्य करते हों ऐसा कोई सदस्य पहले भी नहीं था आज भी नहीं है, ( प्रमोद दा को छोड़ कर ? )अतः महामण्डल कोई ऐसा स्थाई पता तो होना जरुरी था जहाँ किसी भी समय डाक, चिट्ठी य़ा मनीआर्डर जो भी कुछ आये उसको रिसीव करने के लिये कोई तो हमेशा उपलब्ध रहना चाहिये. इसके लिये खड़दा वाले घर ' भुवन-भवन ' के सिवा यह सुविधा अन्य किसी जगह पर उपलब्ध नहीं था इसीलिये प्रारम्भ से ही खड़दा के घर( नवनीदा का पैत्रिक निवास स्थान ) ' भुवन-भवन ' में महामण्डल का रजिस्टर्ड ऑफिस बनाया गया था.
और जो बाद में (शम्भूबाबू लेन में ) भाड़े का नया मकान लिया गया वह हमलोगों का पहला ' सिटी- ऑफिस ' था. संस्था को रजिस्टर्ड करने के लिये एक नियमावली बनाने की आवश्यकता सामने आयी जिसको कंस्टीच्यूशन (Constitution) कहा जाता है. तब इसी तरह के और भी पाँच दस संस्थाओं का कंस्टीच्यूशन कैसे है, उसे देख सुन कर एवं इस विषय पर उपलब्ध कानून की पुस्तकों का अध्यन करने के बाद बहुत सोंच-विचार करके महामण्डल का एक Constitution लिखना पड़ा. फिर इस संस्था को सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट (Societies Registration Act) के अनुसार पंजीकृत करवाया गया.
इस प्रकार ' सिटी-ऑफिस ' से सारे कार्य चलने लगे. महामण्डल की द्विभाषी सम्वाद पत्रिका ' विवेक - जीवन ' प्रकाशित होने लगी. उस समय याद पड़ता है कि शम्भू बाबू लेन के ऑफिस में मात्र दो-चार लोग ही आया करते थे. उनमे से एक व्यक्ति आगे चल कर सन्यासी हो गये थे. वे अद्वैतआश्रम में एकाउन्ट्स का काम देखा करते थे, और भी कई संस्थाओं में हिसाब-किताब देखने का काम करते थे. उन्होंने कई वर्षों तक महामण्डल का एकाउन्ट्स भी देखा था.
और जो बाद में (शम्भूबाबू लेन में ) भाड़े का नया मकान लिया गया वह हमलोगों का पहला ' सिटी- ऑफिस ' था. संस्था को रजिस्टर्ड करने के लिये एक नियमावली बनाने की आवश्यकता सामने आयी जिसको कंस्टीच्यूशन (Constitution) कहा जाता है. तब इसी तरह के और भी पाँच दस संस्थाओं का कंस्टीच्यूशन कैसे है, उसे देख सुन कर एवं इस विषय पर उपलब्ध कानून की पुस्तकों का अध्यन करने के बाद बहुत सोंच-विचार करके महामण्डल का एक Constitution लिखना पड़ा. फिर इस संस्था को सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट (Societies Registration Act) के अनुसार पंजीकृत करवाया गया.
इस प्रकार ' सिटी-ऑफिस ' से सारे कार्य चलने लगे. महामण्डल की द्विभाषी सम्वाद पत्रिका ' विवेक - जीवन ' प्रकाशित होने लगी. उस समय याद पड़ता है कि शम्भू बाबू लेन के ऑफिस में मात्र दो-चार लोग ही आया करते थे. उनमे से एक व्यक्ति आगे चल कर सन्यासी हो गये थे. वे अद्वैतआश्रम में एकाउन्ट्स का काम देखा करते थे, और भी कई संस्थाओं में हिसाब-किताब देखने का काम करते थे. उन्होंने कई वर्षों तक महामण्डल का एकाउन्ट्स भी देखा था.
उन दिनों ' विवेक-जीवन ' को मोड़ना, उसके ऊपर रैपर लगाना, पता लिखना और टिकट चिपकाना फिर दूसरे दिन उन सब को निकट के किसी पोस्ट ऑफिस में छोड़ आना ये सभी कार्य मूख्य रूप से हम तीन व्यक्तियों को ही करना पड़ता था, एक थे श्री चण्डीचरण दास, (जिनको हमलोग चण्डीदा कहते थे), उनके साथ वीरेन (वीरेन्द्र कुमार चक्रवर्ती ) एवं मैं. उसके बाद कन्सेशनल रेट में पत्रिका को पोस्ट करने की सुविधा पाने के लिये ' विवेक-जीवन ' को आवेदन भेजकर दिल्ली से 'न्यूज़पेपर रजिस्ट्रेशन' करवाया गया. वहाँ से नम्बर मिल जाने के बाद उसको प्रकाशित होने पर महीने के पहले पखवाड़े में एक विशेष पोस्ट ऑफिस में ही छोड़ देना पड़ता था.
बहुत पहले से ही जो ' आयरन मैन ' के नाम से विख्यात थे श्री नीलमणि दास वे प्रथम अवस्था से ही जब अद्वैत आश्रम में मीटिंग चल रहा था, तो एकदिन वे सीधा बिल्कुल मीटिंग के स्थान पर ही आकर उपस्थित हो गये. उनको जब नीचे पूछा गया कि आप कहाँ जा रहे हैं ? तब उन्होंने कहा कि मैंने सुना है कि यहाँ पर स्वामी विवेकानन्द को आदर्श मान कर कुछ कार्यक्रम चल रहा है, मेरे कानों तक ऐसी खबर पहुंची है. ' हाँ, हाँ, आपने बिल्कुल ठीक सुना है, एक मीटिंग चल रही है .' वे बोले मैं भी वहीं जाना चाहूँगा. आप क्या वहाँ जा कर कुछ बोलना चाहते हैं ? ' नहीं नहीं विवेकानन्द को लेकर कहीं कुछ अच्छा कार्यक्रम चलेगा और उसमे मैं अपना योगदान नहीं दूंगा- यह हो नहीं सकता है.' वे उस मीटिंग में आकर बैठे एवं उस दिन से लेकर जितने दिनों तक जीवित थे महामण्डल के साथ जुड़े हुए थे. महामण्डल के अखिल भारतीय शिविर में तथा अन्य स्थानों के शिविर में भी बहुत से शिविर में जाकर शिविरार्थियों को फिजिकल ट्रेनिंग सिखाये हैं, व्यायाम सिखाये हैं.महामण्डल के एक भाईस प्रेसिडेन्ट के पद पर आसीन रहते हुए शारीरिक विकास के प्रशिक्षण की जिम्मेदारी को जब तक उनके शरीर में शक्ति थी बहुत सुन्दर ढंग से निभाए हैं.
उनके पुत्र स्वपन दास हैं, वे भी चाहे कहीं भी All India कैम्प क्यों ना होता हो, वहाँ जाते हैं, और सबों को व्यायाम सिखाने, योगासन आदि सिखाने का कार्य करते हैं. महामण्डल के स्थापना के समय से ही यह चला आ रहा है. यह एक बहुत अच्छी चीज है. महामण्डल कार्यों के एक अंग के साथ ' नीलमणि दा ' एवं उनके सुपुत्र आज तक जुड़े हुए हैं, और शारीरिक प्रशिक्षण के उत्तरदायित्व को निभाते आ रहे हैं यह सचमुच एक अति प्रशंसनीय विषय तो है ही, बड़े हर्ष की बात भी है.शरीर गठन, शरीर को स्वस्थ और निरोग बनाये रखना यह भी तो महामण्डल के कार्य- मनुष्य निर्माण का एक महत्वपूर्ण अंग है. स्वामीजी ने भी कहा है- शरीर और मन की देखभाल करनी है. तो शरीर को स्वस्थ और निरोग रखने में इन लोगों का अवदान महामण्डल में बहुत स्मरणीय है.
इसके बाद ये केन्द्र बढ़ते बढ़ते विभिन्न स्थानों में स्थापित हुए. बहुत से राज्यस्तरीय शिविर भी होने लगे. इसके बाद हुआ कि जहाँ जहाँ हमारे केन्द्र हैं, वहाँ पर स्थानीय शिविर होना चाहिये. तब जिलास्तरीय शिविर हुआ, कभी कभी कई जिलों को मिलाकर आंचलिक शिविर हुआ जैसे ' उत्तर बंगाल आंचलिक शिविर ' होता है. उसी प्रकार दक्षिणी बंगाल आंचलिक शिविर भी होता है. आजकल वर्धमान, पुरुलिया, बाँकुड़ा, मेदिनीपुर, इन सभी जिलों को मिला कर आंचलिक शिविर हो रहा है. इन सभी केन्द्रों में बहुत अच्छी तरह कार्य चल रहा है, एवं प्रत्येक स्थान पर चाहे एक दिन के लिये भी हो कम से कम एक शिविर जरुर होता है. इन शिविरों में भाग लेने से होता यह है कि नये नये लड़के लोग आकर उसमे भाग लेते हैं, थोड़ा सा सुन कर भी जिनके भीतर अधिक उत्साह होता है, य़ा जो अच्छी तरह से इसे ग्रहन करते हैं, वे इस नित्य करनीय अभ्यासों को अपने आचरण में उतारना आरम्भ कर देते हैं. और वही लोग थोड़े बड़े हो जाने पर अच्छे कर्मी बन जाते हैं.
इसी तरह काम चलते चलते एक शिशु- विभाग भी गठित हो गया. इस विषय में एक ही महामण्डल कर्मी बहुत दक्ष थे. वह स्वयं ही कई स्थानों में छोटे छोटे बालकों का दल बना कर शाम के समय में खेल-कूद कराता था. उसने कहा कि इसी तरह महामण्डल में करने से अच्छा होगा. इस प्रकार एक शिशु-विभाग गठित हो गया. उसका नाम रखा गया- 'विवेक-वाहिनी '. यह भी बहुत जगह बना है. ऐसा भी हुआ कि कहीं कहीं तो एक सौ, डेढ़ सौ शिशु लोग भी आते हैं. उनलोगों को संध्या के समय में खेल-कूद, गाना, कहानी सुनाना, कहानी के माध्यम से उनके मन में सदगुणों को अर्जित करने के लिये उत्साहित किया जाता है.
इस प्रकार जिन लोगों ने बहुत कम उम्र में शिशु विभाग में योग दिया था, वे जब थोड़े बड़े हो गये तो महामण्डल के स्थानीय केन्द्र के सदस्य बन जाते हैं. वही लोग शिशु-विभाग के संचालक भी बन जाते हैं. यह एक अत्यन्त ही सराहनीय कार्य बन चुका है. जिसको बिल्कुल बचपन से ही सत्संग में रहना कहते हैं. अत्यन्त छोटी उम्र से ही जीवन गठन आरम्भ कर लेने के फलस्वरूप उनके जीवन में अच्छे भाव गहराई से बैठ जाते हैं. उनलोग अपने जीवन में कम से कम ठाकुर-माँ- स्वामीजी को तो अपने आदर्श के रूप में यथा सम्भव लेने कि चेष्टा करते हैं. और उनका जीवन सुन्दर पुष्प के जैसा प्रस्फुटित हो उठता है.
तत्पाश्चात एक के बाद एक करके महामण्डल की पुस्तिकाएँ भी प्रकाशित होने लगीं. इसके बाद उन पुस्तिकाओं का विभिन्न भाषाओँ में अनुवाद किया गया. अंग्रेजी और बंगला में पुस्तकें लिखी गयीं. कई पुस्कों को बंगला से अंग्रेजी में अनुवाद किया गया. जब यह कार्य (आन्दोलन ) धीरे धीरे फैलने लगा, तो उन सभी नये नये स्थानों में इसके केन्द्र को स्थापित होते देखने पर आज स्वयं हमलोगों को भी आश्चर्य होता है. क्योंकि किसी भी स्थान पर एक भी नया केन्द्र हमलोग खुद से चेष्टा कर कर के स्थापित किये हों ऐसा नहीं है. महामण्डल के स्थापित होने के समय से ही प्रत्येक वर्ष हमलोग एक कैम्प अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित करते हैं, इसको हमलोग अक्सर Annual Camp कहते हैं.
हमलोग भारतवर्ष के विभिन्न यूनिवर्सिटी में, जाने पहचाने कालेजों में, महामण्डल के वरिष्ठ सदस्यों का जहाँ के प्राध्यापकों से किसी न किसी प्रकार का परिचय हो उनसे सम्पर्क करके उनलोगों के पास ' युवा प्रशिक्षण शिविर ' में भाग लेने का आवेदन पत्र और शिविर की नियमावली आदि भिजवाने लगे. उन सबको देख सुन कर पश्चिम बंगाल के बाहर के राज्यों के कई विभिन क्षेत्रों से बहुत से युवा (शिविरार्थी ) लोग आने लगे.एवं उन शिविरार्थियों की संख्या क्रमशः बढ़ते बढ़ते हजार को पर कर गयी, एग्यारह सौ, साढ़े एग्यारह सौ, गत वर्ष (२००९ के वार्षिक शिविर में ) तेरह सौ से भी अधिक शिवारार्थी आये थे.
किन्तु वार्षिक शिविर में (भारत के अत्यन्त दूर दराज के क्षेत्रों से ) सभी तो आ नहीं सकते हैं. इसी लिये इस वार्षिक शिविर को भी भारत के अन्य राज्यों में आयोजित करना बहुत जरुरी है. किन्तु जिन जिन स्थानों में महामण्डल की शाखाएं स्थापित हो चुकी थीं, उन राज्यों के कर्मी लोग ' राज्य स्तरीय शिविर ' आयोजित करने के लिये उद्योगी हुए और हमलोगों से अनुमति मांगे, हमलोगों ने भी उनको अपने ही राज्य में ' युवा प्रशिक्षण शिविर ' आयोजित करने के लिये प्रोत्साहित किया. इस प्रकार राज्य स्तरीय शिविर का आयोजन होने लगा. जिस प्रकार बिहार राज्य स्तरीय शिविर, उडिषा राज्य स्तरीय कैम्प होने लगे, इसी प्रकार अन्यान्य राज्यों में भी कैम्प होने लगे.
उन राज्य स्तरीय कैम्पों में राज्य के विभिन्न जिलों से युवा लोग आने लगे, वहाँ पर जिन लोगों ने सुना वे अपने अपने क्षेत्र में वापस लौट कर स्वतः आग्रही हो कर अपने अपने स्थानों में केन्द्र आरम्भ किये. इसी प्रकार करते करते इस समय तो महामण्डल के अनेकों केन्द्र खुल गये हैं.इस समय विभिन्न राज्यों में महामण्डल की कुल २८० शाखाएं हैं. किन्तु महामण्डल की शाखायें खोलने का एक नियम शुरू से ही चलता आ रहा है, वह यही है कि जिस स्थान पर भी नया केन्द्र खुलेगा वहाँ पहले वे लोग एक पाठचक्र गठित करके कार्य आरम्भ करेंगे.
पाठचक्र में उन्हीं विषयों को पढ़ कर उस पर चर्चा किया जाता है, जिन विषयों को प्रशिक्षण शिविर में सिखाया जाता है, उनको सुनकर और सीख कर नित्य करनीय पाँच अभ्यास ( व्यायाम, मनः संयोग, स्वाध्याय, विवेक-प्रयोग, और आत्ममूल्यांकन आदि ) का अभ्यास करने के लिये पाठचक्र के प्रत्येक सदस्य को उत्साहित किया जाता है. जैसे सुबह उठ कर थोड़ी देर तक व्यायाम करना है, कुछ समय के लिये मनः संयोग का अभ्यास करना है. सारे दिन से लेकर रात्रि में सोने के पहले तक जब कभी समय मिले स्वामीजी की पुस्तकों को महामण्डल की पुस्तिकाओं का अध्यन करना है, यदि संध्या के समय किया जाय तो अच्छा है, यदि समय नहीं मिले तो रात में सोने के पहले फिर एक बार मनः संयोग का अभ्यास करना है, मन में कुछ भी सोंचने, बोलने य़ा करने के पहले श्रेय-प्रेय का विवेक करना है, फिर दूसरों में दोष देखने की वृत्ति को छोड़ कर अपने ही भीतर विद्यमान गुण-दोषों का मूल्यांकन करके साप्ताहिक मानांक बैठना - आदि कार्य चलने लगे. बहुत पहले से ही जो ' आयरन मैन ' के नाम से विख्यात थे श्री नीलमणि दास वे प्रथम अवस्था से ही जब अद्वैत आश्रम में मीटिंग चल रहा था, तो एकदिन वे सीधा बिल्कुल मीटिंग के स्थान पर ही आकर उपस्थित हो गये. उनको जब नीचे पूछा गया कि आप कहाँ जा रहे हैं ? तब उन्होंने कहा कि मैंने सुना है कि यहाँ पर स्वामी विवेकानन्द को आदर्श मान कर कुछ कार्यक्रम चल रहा है, मेरे कानों तक ऐसी खबर पहुंची है. ' हाँ, हाँ, आपने बिल्कुल ठीक सुना है, एक मीटिंग चल रही है .' वे बोले मैं भी वहीं जाना चाहूँगा. आप क्या वहाँ जा कर कुछ बोलना चाहते हैं ? ' नहीं नहीं विवेकानन्द को लेकर कहीं कुछ अच्छा कार्यक्रम चलेगा और उसमे मैं अपना योगदान नहीं दूंगा- यह हो नहीं सकता है.' वे उस मीटिंग में आकर बैठे एवं उस दिन से लेकर जितने दिनों तक जीवित थे महामण्डल के साथ जुड़े हुए थे. महामण्डल के अखिल भारतीय शिविर में तथा अन्य स्थानों के शिविर में भी बहुत से शिविर में जाकर शिविरार्थियों को फिजिकल ट्रेनिंग सिखाये हैं, व्यायाम सिखाये हैं.महामण्डल के एक भाईस प्रेसिडेन्ट के पद पर आसीन रहते हुए शारीरिक विकास के प्रशिक्षण की जिम्मेदारी को जब तक उनके शरीर में शक्ति थी बहुत सुन्दर ढंग से निभाए हैं.
उनके पुत्र स्वपन दास हैं, वे भी चाहे कहीं भी All India कैम्प क्यों ना होता हो, वहाँ जाते हैं, और सबों को व्यायाम सिखाने, योगासन आदि सिखाने का कार्य करते हैं. महामण्डल के स्थापना के समय से ही यह चला आ रहा है. यह एक बहुत अच्छी चीज है. महामण्डल कार्यों के एक अंग के साथ ' नीलमणि दा ' एवं उनके सुपुत्र आज तक जुड़े हुए हैं, और शारीरिक प्रशिक्षण के उत्तरदायित्व को निभाते आ रहे हैं यह सचमुच एक अति प्रशंसनीय विषय तो है ही, बड़े हर्ष की बात भी है.शरीर गठन, शरीर को स्वस्थ और निरोग बनाये रखना यह भी तो महामण्डल के कार्य- मनुष्य निर्माण का एक महत्वपूर्ण अंग है. स्वामीजी ने भी कहा है- शरीर और मन की देखभाल करनी है. तो शरीर को स्वस्थ और निरोग रखने में इन लोगों का अवदान महामण्डल में बहुत स्मरणीय है.
इसके बाद ये केन्द्र बढ़ते बढ़ते विभिन्न स्थानों में स्थापित हुए. बहुत से राज्यस्तरीय शिविर भी होने लगे. इसके बाद हुआ कि जहाँ जहाँ हमारे केन्द्र हैं, वहाँ पर स्थानीय शिविर होना चाहिये. तब जिलास्तरीय शिविर हुआ, कभी कभी कई जिलों को मिलाकर आंचलिक शिविर हुआ जैसे ' उत्तर बंगाल आंचलिक शिविर ' होता है. उसी प्रकार दक्षिणी बंगाल आंचलिक शिविर भी होता है. आजकल वर्धमान, पुरुलिया, बाँकुड़ा, मेदिनीपुर, इन सभी जिलों को मिला कर आंचलिक शिविर हो रहा है. इन सभी केन्द्रों में बहुत अच्छी तरह कार्य चल रहा है, एवं प्रत्येक स्थान पर चाहे एक दिन के लिये भी हो कम से कम एक शिविर जरुर होता है. इन शिविरों में भाग लेने से होता यह है कि नये नये लड़के लोग आकर उसमे भाग लेते हैं, थोड़ा सा सुन कर भी जिनके भीतर अधिक उत्साह होता है, य़ा जो अच्छी तरह से इसे ग्रहन करते हैं, वे इस नित्य करनीय अभ्यासों को अपने आचरण में उतारना आरम्भ कर देते हैं. और वही लोग थोड़े बड़े हो जाने पर अच्छे कर्मी बन जाते हैं.
इसी तरह काम चलते चलते एक शिशु- विभाग भी गठित हो गया. इस विषय में एक ही महामण्डल कर्मी बहुत दक्ष थे. वह स्वयं ही कई स्थानों में छोटे छोटे बालकों का दल बना कर शाम के समय में खेल-कूद कराता था. उसने कहा कि इसी तरह महामण्डल में करने से अच्छा होगा. इस प्रकार एक शिशु-विभाग गठित हो गया. उसका नाम रखा गया- 'विवेक-वाहिनी '. यह भी बहुत जगह बना है. ऐसा भी हुआ कि कहीं कहीं तो एक सौ, डेढ़ सौ शिशु लोग भी आते हैं. उनलोगों को संध्या के समय में खेल-कूद, गाना, कहानी सुनाना, कहानी के माध्यम से उनके मन में सदगुणों को अर्जित करने के लिये उत्साहित किया जाता है.
इस प्रकार जिन लोगों ने बहुत कम उम्र में शिशु विभाग में योग दिया था, वे जब थोड़े बड़े हो गये तो महामण्डल के स्थानीय केन्द्र के सदस्य बन जाते हैं. वही लोग शिशु-विभाग के संचालक भी बन जाते हैं. यह एक अत्यन्त ही सराहनीय कार्य बन चुका है. जिसको बिल्कुल बचपन से ही सत्संग में रहना कहते हैं. अत्यन्त छोटी उम्र से ही जीवन गठन आरम्भ कर लेने के फलस्वरूप उनके जीवन में अच्छे भाव गहराई से बैठ जाते हैं. उनलोग अपने जीवन में कम से कम ठाकुर-माँ- स्वामीजी को तो अपने आदर्श के रूप में यथा सम्भव लेने कि चेष्टा करते हैं. और उनका जीवन सुन्दर पुष्प के जैसा प्रस्फुटित हो उठता है.