'Be and Make ' आन्दोलन से 'अद्वैत आश्रम', मायावती का सम्बन्ध
अद्वैत आश्रम, की स्थापना : अद्वैत आश्रम, मायावती, हिमालय रामकृष्ण मठ और मिशन की एक शाखा आश्रम और प्रकाशन विभाग है जो भारत के उत्तराखण्ड राज्य के चम्पावत जिले में मायावती नामक स्थान पर स्थित है। यह स्थान टनकपुर रेलवे स्टेशन से 88 कि.मी. तथा काठगोदाम रेलवे स्टेशन से 167 कि.मी. दूर चम्पावत जिले के अंतर्गत लोहाघाट नामक स्थान से उत्तर पश्चिम जंगल में 9 किमी पर है। देवदार, चीड़, बांज व बुरांश की सघन वनराजि के बीच अदभुत नैसर्गिक सौन्दर्य के मध्य मणि के समान यह आश्रम आगंतुकों को निर्मल शान्ति प्रदान करता है। यह आश्रम रामकृष्ण मिशन के अंग्रेजी और हिन्दी पुस्तकों का एक प्रमुख प्रकाशक हैं । प्रकाशन विभाग का कार्यालय, 5 न० डेही एण्टाली रोड, कोलकाता में स्थित हैं।
स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से उनके शिष्य स्वामी स्वरूपानन्द और अंग्रेज शिष्य कैप्टन जे एच सेवियर और उनकी पत्नी श्रीमती सी ई सेवियर ने मिलकर 19 मार्च 1899 में इसकी स्थापना की थी। सन् 1901 में कैप्टन जे एच सेवियर के देहांत का समाचार जानकर स्वामी विवेकानंद श्रीमती सेवियर को सांत्वना देने के निमित्त मायावती आये थे। तब वे इस आश्रम में 3 से 18 जनवरी तक रहे। कैप्टेन की मृत्यु के पंद्रह वर्ष बाद तक श्रीमती सेवियर आश्रम में सेवाकार्य करती रहीं। स्वामी विवेकानंद की इच्छानुसार मायावती आश्रम में कोई मंदिर या मूर्ति नहीं है, इसलिए यहाँ सनातनी परम्परा-नुरूप किसी प्रतीक की पूजा नहीं होती । यहां हर एकादशी के दिन सांयकाल में रामनाम संकीर्तन होता है।
1903 में यहाँ एक धर्मार्थ अस्पताल (Charitable Hospital) की स्थापना की गई, जिसमें गरीबों की निशुल्क चिकित्सा की जाती है। यहाँ की गौशाला में अच्छी नस्ल की स्वस्थ गायें हैं। आश्रम में 1901 में स्थापित एक छोटा पुस्तकालय भी है, जिसमें अध्यात्म व् दर्शन सहित अनेक विषयों से सम्बद्ध पुस्तकें संकलित हैं। आश्रम से लगभग दो सौ मीटर दूर एक छोटी अतिथिशाला भी है, जहां बाहर से आने वाले साधकों के ठहरने की व्यवस्था है।
" दूसरी बार इंग्लैण्ड में आकर स्वामी जी ने कैप्टन जे एच सेवियर तथा श्रीमती सेवियर को शिष्य रूप में ग्रहण किया। धर्मप्राण सेवियर दम्पति उनके भारतीय कार्य के लिए आत्मोसर्ग करने के लिए तैयार हो गए। श्रीमती सेवियर शिष्या बनकर भी स्वामीजी की मातृस्थानीया थीं। स्वामीजी उन्हें 'माँ' कहकर पुकारते थे। मित्रों के साथ लंदन से यात्रा कर जेनेवा शहर पहुँचे। स्विट्जरलैंड के सरोवर द्वारा सुशोभित मनोरम पर्वतों में भ्रमण करते हुए स्वामी जी के मन में पररिव्राजक जीवन की स्मृतियाँ जाग उठीं। हिमालय की सुन्दरता का वर्णन करते हुए स्वामीजी बोले , " मैं चाहता हूँ हिमालय में एक मठ स्थापित कर शेष जीवन ध्यान और तपस्या में बिता दूँ। इस मठ में मेरे भारतीय और पाश्चात्य शिष्यगण रहेंगे। मैं यहाँ उन्हें महामण्डल कर्मी [अर्थात Be and Make 'वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित आध्यात्मिक शिक्षक] के रूप में प्रशिक्षित कर दूँगा। पहले दल के शिष्यगण पाश्चत्य देशों में आध्यात्मिक शिक्षकों के निर्माण कार्य में संलग्न होंगे और दूसरा दल भारत की उन्नति के लिए -[' Be and Make लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन' में प्रशिक्षित आध्यात्मिक शिक्षकों (अर्थात पैगम्बरों, नेताओं या जीवनमुक्त शिक्षकों) का निर्माण करने में आत्मोसर्ग करेगा। " आल्प्स पर्वत के शिखर पर बैठे स्वामीजी ने शिष्यों के साथ जो चर्चा की थी, वह बाद में ईश्वर की कृपा से 'अद्वैत आश्रम' मायावती , के नाम से स्थापित हुई। " (वि०चरित १७५)
स्वामी जी का लंदन लौटने का विचार जानकर श्री डॉयसन भी कुछ दिन और उनका सत्संग लाभ करने के ख्याल से उनके साथ लंदन तक चलने को तैयार हो गए। जून के महीने के आखिर में विवेकानंद जी ने सारदानंद को अमरीका भेज दिया। लंदन का काम देखने के लिए भारत से अभेदानंद जी आकर सहायता करने लगे। वे अभेदानंद जी को सारा कार्य (अद्वैतवाद का प्रचार -प्रसार करना ?) समझाने की शिक्षा समझाने लगे थे। अक्तूबर-नवंबर के महीने में स्वामी जी ने अद्वैतवाद के सिद्वांतों के ऊपर कुछ प्रचार किया। अमरीका और इंग्लैंड में प्रचार कार्य की समुचित व्यवस्था देखकर स्वामी जी भारत लौटने की तैयारी करने लगे। इसकी खबर जब श्रीमती ओलीबुल को मिली, तो उन्होंने पत्र के जरिए स्वामी जी से निवेदन किया कि वह भारतीय कार्यों के लिए~धन देने को तैयार हैं। [अर्थात जब स्वामी विवेकानन्द ने मद्रास, कलकत्ता और हिमालय में आवासीय विद्यालय (अद्वैत आश्रम) की स्थापना करके वेदान्त धर्म का प्रचार करके ही कार्य की शुरुआत करना उचित समझा। तब श्रीमती ओलीबुल "श्रीरामकृष्ण - विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' - में प्रशिक्षित निवृत्ति मार्ग के संन्यासियों (दीक्षा देने में सक्षम आध्यात्मिक शिक्षकों निवृत्ति मार्ग के पैगम्बर स्वामी स्वरूपानन्द) का निर्माण करने के उद्देश्य से बेलुड़ ,कोलकाता और मद्रास में एक-एक स्थायी मठ का निर्माण करने, तथा भगवान बुद्ध और ईसा जैसे प्रबल इच्छाशक्ति सम्पन्न महापुरुष बनो और बनाओ का प्रशिक्षण देने में समर्थ प्रवृत्ति मार्ग के पैगम्बर या जीवनमुक्त आध्यात्मिक शिक्षक "C-IN-C नवनीदा " (पूर्व जन्म के कैप्टन जे एच सेवियर) जैसे मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण करने के उद्देश्य से हिमालय में (स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा - "Be and Make -Leadership Training Centers.)"मनुष्य बनो और बनाओ नेतृत्व प्रशिक्षण -प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना करने हेतु धन देने को तैयार हो गयीं।] उन्होंने रामकृष्ण मठ , बेलुड़, कोलकाता में रहने वाले निवृत्ति मार्गी संन्यासियों के लिए एक स्थायी मठ के निर्माण की योजना में विशेष रूप से सहयोग देने की इच्छा व्यक्त की। इस पत्र को पढ़कर स्वामी जी संतुष्ट हुए। स्वामी विवेकानन्द ने मद्रास, कलकत्ता और हिमालय में - "मनुष्य बनो और बनाओ नेतृत्व प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना करके ही "Be and Make -Leadership Training Centers ' में कार्य का प्रारम्भ करना उचित समझा। श्रीमती बुल के उत्तर में उन्होंने लिख दिया कि भारत जाकर विस्तारपूर्वक लिखूंगा। इस समय मुझे काम के लिए धन की आवश्यकता नहीं है। इंग्लैंड में रह रहे शिष्यों व स्वामी जी के दोस्तों ने जब जाना कि स्वामी जी दिसंबर में स्वदेश लौट रहे हैं, तो विदाई समारोह करने का आयोजन किया।
मृणालिनी बसु को लिखित पत्र 23 दिसम्बर 1898 (हिन्दी खण्ड- 7) महामण्डल के स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा में नेता विवेकानन्द कहते हैं - " मैं कहता हूँ - मुक्त करो; जितना हो सके उतने लोगों के बन्धन खोल दो। जो स्वयं भिखमंगा है, उसके त्याग का क्या महत्व है ? जिसमें इन्द्रिय-बल ही नहीं हो (sense of smell, test or touch नहीं हो?), उसके इन्द्रिय -संयम का क्या मूल्य है ? जब तुम समाज और देश के कल्याण की कामना से अपने इन्द्रिय-सुखों की कामना को त्याग सकोगे, तब तुम भगवान बुद्ध जाओगे , तब तुम मुक्त हो जाओगे, परन्तु वह दिन दूर है। " ७/३६०
[I say, liberate, undo the shackles of people as much as you can. What glory is there in the renunciation of an eternal beggar? What virtue is there in the sense control of one devoid of sense power? When you would be able to sacrifice all desire for happiness for the sake of society, then you would be the Buddha, then you would be free: that is far off." - OUR PRESENT SOCIAL PROBLEMS /Volume 4/ page -488/]
कैप्टेन की मृत्यु के पंद्रह वर्ष बाद तक श्रीमती सेवियर आश्रम में सेवाकार्य करती रहीं। उनके विषय में स्वामी जी ने एक पत्र में लिखा है - " श्रीमती सेवियर नारियों में एक रत्न हैं , ऐसी गुणवती और दयालु। केवल सेवियर दम्पति ऐसे अंग्रेज हैं, जो भारतवासियों से घृणा नहीं करते, स्टर्डी की भी गिनती इनमें नहीं है। मिस्टर और मिसेज सेवियर दो ही व्यक्ति हैं, जो अभिमान पूर्वक हमें उत्साह दिलाने नहीं आये थे। " ६/३६१
हमलोग जानते हैं कि 'Harvard University ' अमेरिका के ' Massachusetts ' मैसाचुसैट्स शहर के कैंब्रिज में स्थित एक निजी विश्वविद्यालय है। और 25 मार्च, 1896 को स्वामी विवेकानन्द ने इसी हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के 'स्नातक दर्शन परिषद' (Graduate Philosophical Society) के समक्ष 'वेदान्त दर्शन' के ऊपर एक अत्यंत सारगर्भित भाषण दिया था। [ स्वामी विवेकानन्द द्वारा 25 मार्च, 1896 को 'वेदान्त दर्शन ' पर दिया गया वह प्रसिद्द व्याख्यान विवेकानन्द साहित्य खण्ड 9 के पृष्ठ 63-67 में दिया गया है।]
अपने भाषण में विवेकानन्द ने कहा था - " पाश्चात्य वासियों में बहुत थोड़े से लोग ही अपने मन को नियंत्रित करने का सामर्थ्य रखते हैं। इसीलिए, वेस्टर्नर्स को सच्चा अद्वैतवादी अर्थात " विनम्र और सुसंस्कृत मनुष्य " बनने में अभी बहुत समय लगेगा। 'Westerners will take a lot of time to be polite and cultured Man .'
पूर्व और पश्चिम के लोगों की मानसिकता के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा था कि पश्चिम के देश अपने शक्ति के मद से मतवाले हैं, इसलिये अपने आक्रमक स्वाभाव के कारण वे पूर्वी देशों के ' निष्कपटता की संस्कृति' (culture of sincerity) साथ तालमेल बनाकर नहीं चल सकते।
विवेकानन्द ने यह भी कहा था कि प्राच्य सभ्यता (Oriental civilization ) पाश्चात्य (Occidental civilization ) की तुलना में बहुत अधिक प्राचीन है, इसीलिए पूर्वी सभ्यता में सभी प्राणियों में 'मनुष्य मात्र की श्रेष्ठता ' पर सर्वाधिक जोर दिया जाता है; जबकि मानवोचित सौहार्दपूर्ण व्यवहार के मामले में पाश्चात्य सभ्यता, प्राच्य सभ्यता की तुलना में अधिक क्रूर है।"
स्वामी विवेकानन्द को इस विख्यात भाषण के बाद विश्वविद्यालय के अधिकारीयों ने उन्हें हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में 'Oriental Philosophy ' (प्राच्य दर्शन) के विभाग -अध्यक्ष का पद देना चाहा था। किन्तु उन्होंने इस प्रस्ताव को विनम्रता पूर्वक अस्वीकार कर दिया था।
बाद में यूनिवर्सिटी के अधिकारीयों ने 'Vedanta Philosophy -- An Address Before the Graduate Philosophical Society ' शीर्षक देकर विवेकानन्द के सम्पूर्ण भाषण को एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित भी किया था।
स्वामी विवेकानन्द जब 'वेदान्त दर्शन' पर व्याख्यान दे रहे थे, तब उस सभाकक्ष में सेवियर-दम्पत्ति भी उपस्थित थे। 'सेवीयर दम्पति' सच्चे सत्यार्थी थे -दोनों इस परिवर्तनशील जगत (सापेक्षिक सत्य) के पीछे स्थित अपरिवर्तनशील शाश्वत सत्य (निरपेक्ष सत्य) का साक्षात्कार करने के परम् आग्रही थे। किन्तु चर्च के धर्म-प्रचारक केवल कुछ रिचुअल्स का पालन करने एवं चर्च के कन्फ़ेशन रूम (चर्चिनिटी) में जाने की सलाह देने तक सीमित थे, अतः उन दोनों की सत्यानुसन्धान की आकांक्षा को शांत नहीं कर पा रहे थे।
जब उन्होंने स्वामीजी के 'वेदान्त-दर्शन ' पर दिए भाषण को सुना तब उन्हें अनुभव हुआ मानो अब तक वे इसी सत्य की खोज में भटक रहे थे। अद्वैत दर्शन की इतनी सुंदर और प्रांजल व्याख्या उन्होंने पहली बार सुनी थी। स्वामीजी द्वारा प्रस्तुत किए गए अद्वैत-दर्शन के विचार ने उन्हें विशेष रूप से आकर्षित किया। स्वामीजी ने सेवियर दंपत्ति को भारत आकर सत्य का साक्षात्कार स्वयं करने का निमंत्रण दिया। सेवियर दंपत्ति ऐसा अवसर खोना नहीं चाहते थे। उन्होंने स्वामीजी का शिष्यत्व स्वीकार किया और समर्पित भाव से उनके साथ भारत चले आए।
सेवियर दंपत्ति के भारत आने पर स्वामीजी ने उन्हें अद्वैत-साधना के लिए हिमालय में एक आश्रम स्थापित करने का अति महत्त्वपूर्ण कार्य सौंप दिया। इस कार्य में उनकी सहायता के लिए, स्वामी जी के 25 वर्षीय युवा शिष्य 'अजय हरि बनर्जी' (स्वामी स्वरूपानन्द 1871- 1906) आगे आये। मात्र 34 वर्ष की आयु में इनका देहांत हो गया था।
सेवियर दंपत्ति और स्वामी स्वरूपानन्द ने आश्रम के लिए उपयुक्त जगह का चुनाव करने के लिए अथक दौड़-भाग की। इसी खोज में वे समुद्र तल से 1,940 मीटर ऊंचाई पर, अल्मोड़ा से 50 मील पूर्व की ओर स्थित मायावती टी एस्टेट जा पहुंचे। हिममंडित हिमालय के दृश्य, यहाँ के घने जंगल, खासकर नंदा देवी, नंदकोट एवं त्रिशूल शिखर हिमालय का अद्भुत नजारा प्रस्तुत करता है। यह सब कुल मिलाकर ऐसा था जैसा स्वामीजी ने अद्वैत आश्रम के लिए कल्पना की थी।
मायावती में आज जहाँ अद्वैत आश्रम है, वह स्थान पहले चाय का बाग था। आश्रम और आस-पास का वातावरण सचमुच बहुत सुंदर है। देवदार के घने पेड़ों के बीच बसा हुआ आश्रम बिलकुल एकांत स्थान में है। यहाँ तक कि आश्रम की 3-4 किमी की परिधि में कोई दुकान, बाजार या छोटा-मोटा गाँव भी नहीं है।
निकटतम कस्बा लोहाघाट है, जो कि लगभग 10 किमी दूर है। लोहाघाट से यहाँ आने वाली सड़क आगे कहीं नहीं जाती। इसलिए वाहनों की भी आवा-जाही नहीं होती। अद्वैत आश्रम आज के समय में भी आबादी से बिलकुल दूर एकांत में है, आस-पास आश्रम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। इस नीरवता को कुछ भंग करता है तो बस पक्षियों का कलरव, जो यहाँ की शांति को निरंतर रसमय बनाए रखता है। इसी जगह का चुनाव हो गया और सेवियर दंपत्ति ने यह विशाल पहाड़ी भू-भाग खरीद लिया।
जिन आदर्शों (Be and Make) के अनुरूप इस आश्रम की स्थापना की गयी थी, एक शताब्दी से अधिक का समय बीत जाने पर भी आश्रम के वातावरण में इन आदर्शों की जीवंत अनुभूति की जा सकती है। मायावती को ‘अद्वैत का राज्य’ कहा जा सकता है।
‘प्रबुद्ध भारत’ का कार्यालय भी अल्मोड़ा से यहीं ले आया गया। यह अद्वैत -आश्रम भारत तथा विदेशों के ' Truth-researchers ' या सत्य-शोधकों को विशेष रूप से आकर्षित करता है, खासकर महामण्डल के उन भाइयों को जो " स्वामी विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर वेदान्त नेतृत्व-प्रशिक्षण ' Be and Make C -In C रैंक' परम्परा" में प्रशिक्षित होते हैं।
आश्रम आगंतुकों के अनुरोध पर उन्हें रहने की सुविधा प्रदान करता है तथा यहां एक छोटा पुस्तकालय एवं संग्रहालय भी है। आश्रम परिसर में प्रमुख भवन जिसमें कार्यालय, एक प्रार्थना भवन, रसोईघर तथा भोजन कक्ष निचले तल में स्थित है एवं संयासियों का आवास दूसरी मंजिल पर है। तथा यहीं पुस्तकालय भवन एवं अस्पताल आदि भी हैं।
अद्वैत आश्रम की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि यह है कि यह रामकृष्ण मिशन के एक प्रमुख प्रकाशन केंद्र के रूप में विकसित हुआ है। यहाँ पर पुस्तकों का सम्पादन किया जाता है और कलकत्ता स्थित अद्वैत आश्रम का प्रकाशन केंद्र इन्हें प्रकाशित करता है।
आश्रम से 4 कि.मी. की दूरी पर घने जंगलों में स्थित 'धर्मघर' वह स्थान है जहां स्वामीजी ने ध्यान के लिए एक कुटिया बनवाने की इच्छा प्रकट की थी। किन्तु जाते समय एक मार्गदर्शक का साथ होना उचित है।आज यहाँ पर एक कुटिया है, जिसमें बैठकर इस निर्जन में ध्यान किया जा सकता है।
यहाँ तक जाने वाली 2.5 किमी की एक पगडंडी जंगल के बीच से जाती है, जिसके दोनों ओर तरह-तरह के फूलों और फलों के पेड़ हैं। वहाँ की मिट्टी, आकाश, अदभुत-अदभुत पेड़ के पत्ते हैं, जिन पर रंग-बिरंगे फूल, सुंदर-सुन्दर फल लगे रहते हैं! एक छोटी सी पहाड़ी पर चढ़ने के बाद, धीरे-धीरे पगडण्डी नीचे घाटी की ओर चली जाती है। नीचे घाटी का वन भी सघन और सुंदर है। आश्रम से नीचे की ओर घाटी में जाने पर सारदा नदी है।
नवनी दा के प्रथम दर्शन का सौभाग्य मुझे 53 वर्षों पूर्व 1987 में " विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर 'Be and Make' वेदान्त नेतृत्व -प्रशिक्षण परम्परा" में आयोजित महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर, बेलघड़िया, कोलकाता में प्राप्त हुआ था। 26 दिसम्बर 1987 को प्रातः जब झण्डोत्तलन से शिविर का प्रारम्भ हुआ तो मैंने क्रीम कलर का शिल्क कुर्ता, लालपाढ़ की धोती, कन्धे पर चादर और में सामने 'C -IN -C ' का बैज लगाये आचार्य नवनिदा को आते हुए देखा । उनके आगे-आगे सफेद मिलिट्री ड्रेस में 'Dy C -in -C' field का बैज लगाए दीपकदा (श्री दीपक मुखर्जी) चल रहे थे, और नवनीदा के पीछे विभिन्न रैंक का विभिन्न रैंक के बैज लगाए सुबह में 'hurry up, hurry up' (जल्दी करो, जल्दी करो) - की कड़क आवाज में जगाने वाले तपनदा आदि 4 अन्य युवा कैम्प-ऑफिसर्स मिल्ट्री डिसिप्लिन के साथ उनको एस्कॉर्ट कर रहे थे।
मैं उनके प्रथम दर्शन से बहुत प्रभावित हुआ, क्योंकि महामण्डल ही एक मात्र ऐसा युवा संगठन है, जहाँ " Be and Make वेदान्त परम्परा में लीडरशिप की ट्रेनिंग" देने वाले मुख्य शिक्षक/ नेता को इंडियन आर्मी की तरह 'C-IN -C ' और "Dy C -in -C ' का चपरास-रैंक क्रमवार रूप से दिया जाता है। महामण्डल द्वारा आयोजित युवा-प्रशिक्षण शिविर में नवनीदा के द्वारा प्रथम बार आविष्कृत की गयी यह प्रणाली यह सिद्ध करती है, कि नवनीदा अपने पूर्वजन्म में वही कैप्टन सेवियर थे जिनका अंतिम संस्कार, उनकी इच्छा के अनुसार अल्मोड़ा के निकट मायावती आश्रम के निकट बहने वाली शारदा नदी के तट पर वैदिक ब्राह्मणों की तरह किया गया था।
श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग के अध्यन से पता चलता है कि स्वंय माँ काली ने ही प्रथम युवा नेता श्रीरामकृष्ण देव को " Be and Make- वेदान्त परम्परा में 'C-IN-C का प्रथम चपरास- 'तुम भावमुख अवस्था में रहो "-- कहकर सौंपा था। क्योंकि सर्वप्रथम उन्होंने ही 'समस्त प्राणियों के एकत्व' को अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं-बोध में रूपान्तरित करके, अपने अनुभव से जाना था।
तत्पश्चात 'काशीपुर उद्यान बाटी' में आयोजित प्रथम युवा-प्रशिक्षण शिविर में भगवान श्रीरामकृष्णदेव ने 'नरेन् शिक्षा देगा जब घर और बाहर नवजागरण का आह्वान करेगा !' -" जय राधे ! नरेन् शिक्खा देबे जखन घरे बाइरे डाक देबे-जय राधे !" लिख कर और इसके नीचे एक ' विशाल नेत्र युक्त नेता की आवक्ष छवि' बनाकर उसके पीछे एक धावित मयूर का चित्र बना कर, माँ काली से प्राप्त " C-IN-C " का वही चपरास स्वामी विवेकानन्द को सौंप दिया था। इस चपरास हस्तांतरण का आध्यात्मिक अर्थ 'जय राधे-परम्परा में प्रशिक्षित ' कोई 'would be Leader ' ही समझ सकता है।
क्योंकि नवनीदा ही इस 'NEW YOUTH MOVEMENT' के 'जय राधे Be and Make C-In-C' परम्परा' में चपरास प्राप्त नेतृत्व प्रशिक्षण परंपरा में प्रशिक्षित "प्रथम सी-इन-सी" [Leadership Training tradition में प्रशिक्षित प्रथम नेता (Leader) या "First C-In-C" थे। किन्तु हमलोग उनको कभी 'नेताजी' नहीं कहते थे, उनको सभी लोग, बच्चे-बूढ़े सभी 'नवनीदा' कहते थे। आज भी इस 'कोन्नगर महामण्डल भवन' में आने पर ऐसा अनुभव होता है, मानो हम किसी 'संगठन' के भवन में नहीं, बल्कि अपने 'दादा' (बड़े भईया) के घर में आये हैं।
एक बार जब मैं दादा के कहने पर ' Los Angeles' के रामकृष्ण मिशन में 'विवेक-अंजन ' पत्रिका देने के लिए गया था, तब वहां के मिनिस्टर - संन्यासी से बोला कि मै महामण्डल से आया हूँ। तो महामण्डल का नाम सुनने के साथ ही उन्होंने मुझे गले लगाते हुए कहा था -'ओ, नवनी बाबू' के यहाँ से आये हो !! और उस दिन वहाँ के अमेरकी भक्तों के सामने उन्होंने 40 मिनट तक केवल महामण्डल के विषय में प्रवचन दिया था।
क्यों ऐसा होता है ? क्योंकि 'जय राधे विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर जय राधे' वेदान्त परम्परा में प्रशिक्षित नवनीदा भी प्रेम-स्वरूप थे - 'LOVE PERSONIFIED' बन चुके थे। इसलिए 'उन्हें अपना और दूसरों का ईश्वरत्व कभी भूलता ही नहीं था। ' ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।' अर्थात जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है ।' उनके लिए यह केवल मुख से कहने भर की बात नहीं थी, वे सचमुच ऐसा महसूस भी करते थे, और जब किसी की ओर भी देखते भी थे, तो यही देखते थे कि उसकी अंतर्न्हित दिव्यता कैसे शीघ्रता से अभिव्यक्त हो जाय ! [एक कैम्प में कुत्ते के छोटे छोटे दो पिल्लों के सिर पर प्रेम से हाथ घुमा दिया था ; पूरे कैम्प तक वे उनके कमरे के पास घूमते रहे थे।]
महामण्डल के सभी कर्मियों के लिये नवनीदा ही आकर्षण के मुख्य केन्द्र वे ही थे। 'नवनीदा और महामण्डल' - शब्द मानो समानार्थक शब्द बन गए थे। ' तीनि यदि कारो दिके ताकिये शुधू हाशतेन, (तांर ओई सरल शिशुर मत हासि), ता होलेई येन समस्त कष्ट दूर हये येत। ' अर्थात वे किसी की तरफ देखकर केवल हँस देते थे (उनकी वह शिशु, बच्चे जैसी हँसी), तो उतने भर से ही मानो समस्त कष्ट दूर हो जाते थे। उनकी डांट में - " Are you a Beast? মনে রাখবে তুমি একজন শিক্ষক !" भी आशीर्वाद छिपा होता था। सुनने वाले को यही लगता था कि मैं उनके निर्देशानुसार चलने से अपने जीवन को 'एक शिक्षक' के रूप में अवश्य गढ़ सकूँगा क्योंकि मैं कोई पशु नहीं हूँ, मनुष्य हूँ ! इसीलिये आज भी SPTC में भाग लेने के लिये जब 'कोन्नगर के महामण्डल भवन' में आता हूँ, तो स्नान करने के तुरन्त बाद सबसे पहले मैं उनके कमरे में जाकर उन्हें प्रणाम करता हूँ।
बहुत दिनों बाद जब वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में मुझे भी नवनीदा के बगल वाले कमरे में महामण्डल के वरिष्ठ दादा लोग (बासु दा, रनेन दा, बीरेन दा) के साथ ठहरने का अवसर मिला। तब एक दिन हँसी करते हुए रनेनदा ने दादा से कहा था कि आप अपने पूर्व जन्म में जरूर आपके नाना- श्री महिमाचरण चक्रवर्ती रहे होंगे, जिनके घर में आपका जन्म हुआ था और जो ठाकुर के युवा भक्तों पर अपना प्रभाव डालने के लिये अपने गुरु का नाम डमरूवललभ आदि बताया करते थे।
शरीर में रहते समय, नवनीदा का जो एक साधनालब्ध प्रभामण्डल या AURA था, जो सभी को अपनी तरफ आकर्षित करता था, और महामण्डल आन्दोलन द्वारा 50 वर्षों तक की गयी साधना के बाद वह ' AURA' या प्रभामण्डल क्या अब समाप्त हो गया है ? मेरा मत है कि ऐसा नहीं हुआ है, और भविष्य में भी वैसा होने की सम्भावना नहीं है। यदि 'दादा' के जाने के बाद महामण्डल का AURA समाप्त हो गया होता तो महामण्डल द्वारा आयोजित इस 158 वें परिचालक /शिक्षक-प्रशिक्षण शिविर, SPTC कैम्प में इतनी दूर- दूर से 200 युवा भाग लेने के लिए नहीं आये होते !
"स्वामी जी ने शिक्षित, अंग्रेजी पढ़े-लिखे, मेधावी युवाओं के बीच काम करने के लिए कहा है। उनके बीच काम करने के लिए , उनलोग जिस भाषा को समझते हैं, उसी भाषा में बात करने की आवश्यकता है। जीवन में सफलता पाने के लिए भी जिन गुणों की आवश्यकता होती है, महामण्डल की शिक्षा में वे सब गुण प्राप्त किये जा सकते हैं। ये बातें यदि उन्हें समझा दी जाएँ, तभी वे लोग महामण्डल आंदोलन से जुड़ने के लिए आग्रही हो सकते हैं।
किन्तु शिक्षित और मेधावी लड़कों के पास महामण्डल भावधारा को रखने के लिए केवल महामण्डल और रामकृष्ण-विवेकानन्द साहित्य का ज्ञान ही यथेष्ट नहीं है। इतिहास, विज्ञान, राजनीति, समाजनीति, अर्थनीति इत्यादि विषयों तथा वर्तमान में देश-विदेश में हो रही समसामयिक विभिन्न घटनाओं की जानकारी रखने के साथ साथ 'मौन रहकर भी दूसरों में प्रेम संचारित करने की क्षमता' रहना आवश्यक है। लीडरशिप पर नवनीदा द्वारा लिखित पुस्तिका पृष्ठ 16 में ये सभी बातें कहीं गयी हैं। किन्तु नवनीदा के बाद के समय में, हम जैसे महामण्डल कर्मियों में नेतृत्व के गुणों का जो भीषण अभाव देखा जा रहा है। इस अभाव को दूर करने का उपाय है दादा की आत्मकथा 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' पुस्तक में वर्णित 'अद्वैत आश्रम' मायावती, अल्मोड़ा के साथ उनके सम्बन्ध को समझना।
मैंने एक बार नवनीदा से पूछा था - 'आपने विवाह क्यों नहीं किया ?' तब उन्होंने कहा था - " I tried to visualize my marriage scene- I was dressed as a groom, but while I tried to put my foot into the shoes, suddenly I pulled it out and cancelled the marriage." -अर्थात मैंने अपने शादी के दृश्य की कल्पना करने की कोशिश की- मुझे एक दूल्हे के रूप में तैयार किया गया था, लेकिन जब मैंने अपने पैरों को जूते में डालने की कोशिश की, तो अचानक मैंने इसे खींच लिया और शादी को रद्द कर दिया।" ....नहीं समझे ? "Which of you can jump out of you own bodies ? Which of you can jump out of your own minds ?" त्याग और सेवा सम्बन्धी मेरी उच्चतम कल्पना अभी कहाँ तक पहुँच सकती है ? वहीं तक, जहाँ तक मेरे देह-मन की सीमा है। "अपनी भौतिक सीमाओं को लाँघ सकता है ? अपनी मानसिक चहारदीवारी को कौन पार कर सकता है ? [हमारे जैसे साधारण मनुष्य त्याग और सेवा के विषय में अपने कर्तव्य की कल्पना या धारणा एवं पूर्वजन्म में प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में लौटे जीवन्मुक्त शिक्षक के त्याग और सेवा के विषय में कर्तव्य के अन्तर को अभी कैसे समझ सकते है ?]
आत्मनिरीक्षण प्रणाली के अनुसार आत्मसमीक्षा करने पर मैंने पाया था कि ' Bh-tpt-chkrbti स्मृति -वृत्ति' में आसक्ति ही मेरी मुख्य बाधा है, जो मुझे निरन्तर आत्मनिर्भर नहीं रहने देती, इस आसक्ति का त्याग कैसे करूँ ? 2016 में आयोजित जमशेदपुर इंटरस्टेट कैम्प में मैं मन ही मन अभी 'Bh-वृत्ति ' के विषय में सोंच ही रहा था कि, प्रणवदा के सामने एक हितैषी बड़े भाई की तरह झिड़की देते हुए उन्होंने कहा था- प्रवृत्ति मार्ग का पालन करते हुए शास्त्र-विरुद्ध या 'निषिद्ध -कर्म' तो केवल पशु करते हैं, मनुष्य नहीं ! " Are You a Beast? --'मने करबे तुमि एक जन शीक्खक ! ' उस कैम्प में दिया गया वह आदेश ही दादा अन्तिम आदेश सिद्ध हुआ।
यह महान (C-IN-C) नवनीदा जैसे शिक्षक/नेता ही इस पृथ्वी पर जीवंत ईश्वरस्वरूप हैं, इनके अतिरिक्त हम और किनकी उपासना करें ? वे आदेश देते हैं, ईश्वर के दूत होते हैं, हमारा कार्य है उनके आदेशों -"मने करबे तुमि एक जन शिक्खक !" को ग्रहण करना और उनका अनुसरण करना!
नवनीदा की आत्मसंस्मरणात्मक पुस्तक 'जीवन-नदी के हर मोड़ पर' का प्रथम मूल बंगला संस्करण दिसम्बर 2009 में हुआ था। मैंने उसका हिन्दी अनुवाद 2010 में ही कर दिया था किन्तु कतिपय कारणों से उसका हिन्दी प्रकाशन दिसम्बर 2015 में हो सका। जब मैंने कैम्प में उनको वह पुस्तक दी तो बड़े खुश हुए, लेकिन कहा क्या इसको वहाँ के लोग (हिन्दीभाषी) पसन्द करेंगे ? और बात आयी-गयी हो गयी। किन्तु जब 26 सितम्बर 2016 को अचानक शरीर छोड़ कर चले गये, तब मैंने अपने ही द्वारा अनुदित पुस्तक को पुनः ध्यानपूर्वक पढ़ना शुरू किया। और वहाँ यह देख कर आश्चर्यचकित रह गया कि हमलोगों के नवनीदा ही अपने पूर्वजन्म में प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में लौटे हुए स्वामी विवेकानन्द के शिष्य कैप्टन सेवियर थे। और क्या इसीलिए उन्होंने इस जन्म में प्रवृत्ति धर्म या 'विवाह -संस्कार' को नहीं अपनाया था ?
इस पुस्तक को पढ़ने के बाद मुझे यह भी समझ में आया कि महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय (नवनीदा) को स्वामीजी के " भावी पंक्तिबद्ध सैनिकों " को प्रशिक्षित करने का लिखित चपरास ' C-IN-C ' का रैंक {जीवनमुक्त शिक्षक या नेता होने की पहचान} उनको पूर्व जन्म में ही 'अद्वैत आश्रम, मायावती के 'Prospectus' के रूप में स्वामी विवेकानन्द के द्वारा प्राप्त हो गया था। क्योंकि अपने पूर्वजन्म में ही उन्होंने 'भावमुख अवस्था' को प्राप्त कर लिया था। अर्थात अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं-बोध में रूपान्तरित कर लिया था। इसलिये उनकी दृष्टि ज्ञानमयी हो चुकी थी, और वे जगत को ब्रह्ममय देखने में समर्थ थे। अतः जगत के प्रति उनका दृष्टिकोण भी बदल चुका था अतः उन्हें सर्वत्र अलग ही दृश्य (लीला) का दर्शन होता था।
'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय की आत्मकथा-(बंगला में प्रकाशित मूल पुस्तक -"জীবন নদীর বাঁকে বাঁকে"