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मंगलवार, 31 मार्च 2020

$$$ नवनी दा और " अल्मोड़ा का आकर्षण" : महामण्डल के 'Be and Make ' आन्दोलन से 'अद्वैत आश्रम', मायावती, हिमालय, का सम्बन्ध क्या है ?

       'Be and Make ' आन्दोलन से 'अद्वैत आश्रम', मायावती का सम्बन्ध

अद्वैत आश्रम, की स्थापना : अद्वैत आश्रम, मायावती, हिमालय रामकृष्ण मठ और मिशन की एक शाखा आश्रम और प्रकाशन विभाग है जो भारत के उत्तराखण्ड राज्य के चम्पावत जिले में मायावती नामक स्थान पर स्थित है।  यह स्थान टनकपुर रेलवे स्टेशन से 88 कि.मी. तथा काठगोदाम रेलवे स्टेशन से 167 कि.मी. दूर चम्पावत जिले के अंतर्गत लोहाघाट नामक स्थान से उत्तर पश्चिम जंगल में 9 किमी पर है।  देवदार, चीड़, बांज व बुरांश की सघन वनराजि के बीच अदभुत नैसर्गिक सौन्दर्य के मध्य मणि के समान यह आश्रम आगंतुकों को निर्मल शान्ति प्रदान करता है। यह आश्रम रामकृष्ण मिशन के अंग्रेजी और हिन्दी पुस्तकों का एक प्रमुख प्रकाशक हैं । प्रकाशन विभाग का कार्यालय, 5 न० डेही एण्टाली रोड, कोलकाता में स्थित हैं। 
        स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से उनके शिष्य स्वामी स्वरूपानन्द और अंग्रेज शिष्य कैप्टन जे एच सेवियर और उनकी पत्नी श्रीमती सी ई सेवियर ने मिलकर 19 मार्च 1899 में इसकी स्थापना की थी। सन् 1901 में कैप्टन जे एच सेवियर के देहांत का समाचार जानकर स्वामी विवेकानंद श्रीमती सेवियर को सांत्वना देने के निमित्त मायावती आये थे। तब वे इस आश्रम में 3 से 18  जनवरी तक रहे। कैप्टेन की मृत्यु के पंद्रह वर्ष बाद तक श्रीमती सेवियर आश्रम में सेवाकार्य करती रहीं। स्वामी विवेकानंद की इच्छानुसार मायावती आश्रम में कोई मंदिर या मूर्ति नहीं है, इसलिए यहाँ सनातनी परम्परा-नुरूप किसी प्रतीक की पूजा नहीं होती । यहां हर एकादशी के दिन सांयकाल में रामनाम संकीर्तन होता है
      1903 में यहाँ एक धर्मार्थ अस्पताल (Charitable Hospital) की स्थापना की गई, जिसमें गरीबों की निशुल्क चिकित्सा की जाती है। यहाँ की गौशाला में अच्छी नस्ल की स्वस्थ गायें हैं। आश्रम में 1901 में स्थापित एक छोटा पुस्तकालय भी है, जिसमें अध्यात्म व् दर्शन सहित अनेक विषयों से सम्बद्ध पुस्तकें संकलित हैं। आश्रम से लगभग दो सौ मीटर दूर एक छोटी अतिथिशाला भी है, जहां बाहर से आने वाले साधकों के ठहरने की व्यवस्था है।
       " दूसरी बार इंग्लैण्ड में आकर स्वामी जी ने कैप्टन जे एच सेवियर तथा श्रीमती सेवियर को शिष्य रूप में ग्रहण किया। धर्मप्राण सेवियर दम्पति उनके भारतीय कार्य के लिए आत्मोसर्ग करने के लिए तैयार हो गए। श्रीमती सेवियर शिष्या बनकर भी स्वामीजी की मातृस्थानीया थीं। स्वामीजी उन्हें 'माँ' कहकर पुकारते थे। मित्रों के साथ लंदन से यात्रा कर जेनेवा शहर पहुँचे। स्विट्जरलैंड के सरोवर द्वारा सुशोभित मनोरम पर्वतों में भ्रमण करते हुए स्वामी जी के मन में पररिव्राजक जीवन की स्मृतियाँ जाग उठीं। हिमालय की सुन्दरता का वर्णन करते हुए स्वामीजी बोले , " मैं चाहता हूँ हिमालय में एक मठ स्थापित कर शेष जीवन ध्यान और तपस्या में बिता दूँ।   इस मठ में मेरे भारतीय और पाश्चात्य शिष्यगण रहेंगे। मैं यहाँ उन्हें महामण्डल कर्मी [अर्थात  Be and Make 'वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित आध्यात्मिक शिक्षक]  के रूप में प्रशिक्षित कर दूँगा। पहले दल के शिष्यगण पाश्चत्य देशों में आध्यात्मिक शिक्षकों के निर्माण कार्य में संलग्न होंगे और दूसरा दल भारत की उन्नति के लिए -[' Be and Make लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन' में  प्रशिक्षित आध्यात्मिक शिक्षकों (अर्थात पैगम्बरों, नेताओं या जीवनमुक्त शिक्षकों) का निर्माण करने में आत्मोसर्ग करेगा। " आल्प्स पर्वत के शिखर पर बैठे स्वामीजी ने शिष्यों के साथ जो चर्चा की थी, वह बाद में ईश्वर की कृपा से 'अद्वैत आश्रम' मायावती , के नाम से स्थापित हुई। " (वि०चरित १७५)
          
     स्वामी जी का लंदन लौटने का विचार जानकर श्री डॉयसन भी कुछ दिन और उनका सत्संग लाभ करने के ख्याल से उनके साथ लंदन तक चलने को तैयार हो गए। जून के महीने के आखिर में विवेकानंद जी ने सारदानंद को अमरीका भेज दिया। लंदन का काम देखने के लिए भारत से अभेदानंद जी आकर सहायता करने लगे। वे अभेदानंद जी को सारा कार्य (अद्वैतवाद का प्रचार -प्रसार करना ?)  समझाने की शिक्षा समझाने लगे थे। अक्तूबर-नवंबर के महीने में स्वामी जी ने अद्वैतवाद के सिद्वांतों के ऊपर कुछ प्रचार किया। अमरीका और इंग्लैंड में प्रचार कार्य की समुचित व्यवस्था देखकर स्वामी जी भारत लौटने की तैयारी करने लगे। इसकी खबर जब श्रीमती ओलीबुल को मिली, तो उन्होंने पत्र के जरिए स्वामी जी से निवेदन किया कि वह भारतीय कार्यों के लिए~धन देने को तैयार हैं। [अर्थात जब  स्वामी विवेकानन्द ने मद्रास, कलकत्ता और हिमालय में आवासीय विद्यालय (अद्वैत आश्रम) की स्थापना करके वेदान्त धर्म का प्रचार करके ही कार्य की शुरुआत करना उचित समझा। तब श्रीमती ओलीबुल "श्रीरामकृष्ण - विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' - में प्रशिक्षित निवृत्ति मार्ग के संन्यासियों (दीक्षा देने में सक्षम आध्यात्मिक शिक्षकों निवृत्ति मार्ग के पैगम्बर स्वामी स्वरूपानन्द) का निर्माण करने के उद्देश्य से बेलुड़ ,कोलकाता और मद्रास में एक-एक स्थायी मठ का निर्माण करने, तथा भगवान बुद्ध और ईसा जैसे प्रबल इच्छाशक्ति सम्पन्न महापुरुष बनो और बनाओ का प्रशिक्षण देने में समर्थ  प्रवृत्ति मार्ग के पैगम्बर या जीवनमुक्त आध्यात्मिक शिक्षक "C-IN-C नवनीदा " (पूर्व जन्म के कैप्टन जे एच सेवियर) जैसे मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण करने के उद्देश्य से हिमालय में  (स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा - "Be and Make -Leadership Training Centers.)"मनुष्य बनो और बनाओ नेतृत्व प्रशिक्षण  -प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना  करने हेतु धन देने को तैयार हो गयीं।] उन्होंने रामकृष्ण मठ , बेलुड़, कोलकाता में रहने वाले निवृत्ति मार्गी संन्यासियों के लिए एक स्थायी मठ के निर्माण की योजना में विशेष रूप से सहयोग देने की इच्छा व्यक्त की। इस पत्र को पढ़कर स्वामी जी संतुष्ट हुए। स्वामी विवेकानन्द ने मद्रास, कलकत्ता और हिमालय में -  "मनुष्य बनो और बनाओ नेतृत्व प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना करके ही  "Be and Make -Leadership Training Centers ' में कार्य का प्रारम्भ करना उचित समझा। श्रीमती बुल के उत्तर में उन्होंने लिख दिया कि भारत जाकर विस्तारपूर्वक लिखूंगा।  इस समय मुझे काम के लिए धन की आवश्यकता नहीं है।  इंग्लैंड में रह रहे शिष्यों व स्वामी जी के दोस्तों ने जब जाना कि स्वामी जी दिसंबर में स्वदेश लौट रहे हैं, तो विदाई समारोह करने का आयोजन किया। 
 
   मृणालिनी बसु को लिखित पत्र 23 दिसम्बर 1898 (हिन्दी खण्ड- 7) महामण्डल के स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा में नेता विवेकानन्द कहते हैं - " मैं कहता हूँ - मुक्त करो; जितना हो सके उतने लोगों के बन्धन खोल दो। जो स्वयं भिखमंगा है, उसके त्याग का क्या महत्व है ? जिसमें इन्द्रिय-बल ही नहीं हो (sense of smell, test or touch नहीं हो?), उसके इन्द्रिय -संयम का क्या मूल्य है ? जब तुम समाज और देश के कल्याण की कामना से अपने इन्द्रिय-सुखों की कामना को त्याग सकोगे, तब तुम भगवान बुद्ध जाओगे , तब तुम मुक्त हो जाओगे, परन्तु वह दिन दूर है। " ७/३६०  
 [I say, liberate, undo the shackles of people as much as you can. What glory is there in the renunciation of an eternal beggar? What virtue is there in the sense control of one devoid of sense power? When you would be able to sacrifice all desire for happiness for the sake of society, then you would be the Buddha, then you would be free: that is far off." - OUR PRESENT SOCIAL PROBLEMS /Volume 4/ page -488/]

         कैप्टन सेवियर के देहांत का समाचार जानकर स्वामी विवेकानन्द  श्रीमती सेवियर को सांत्वना देने के निमित्त मायावती आये थे।  आश्रम में स्वामी विवेकानंद का पदार्पण 3 जनवरी 1901 को हुआ था। तब स्वामी जी काठगोदाम से वाया देवीधुरा होते हुए लगभग 173 किमी की दुर्गम पैदल यात्रा कर अपने अनुयायियों के साथ मायावती पहुंचे थे। तब वे इस आश्रम में 3 से 18 जनवरी तक रहे। दो सप्ताह के प्रवास के दौरान स्वामी जी ने यहां ध्यान एंव वेदांत की रसधारा प्रवाहित करते हुए इस आश्रम को अद्वैत भाव से जोड़ा। तभी से यह आश्रम एक तीर्थ के रूप में विख्यात हो गया। 
                  कैप्टेन की मृत्यु के पंद्रह वर्ष बाद तक श्रीमती सेवियर आश्रम में सेवाकार्य करती रहीं। उनके विषय में स्वामी जी ने एक पत्र में लिखा है - " श्रीमती सेवियर नारियों में एक रत्न हैं , ऐसी गुणवती और दयालु। केवल सेवियर दम्पति ऐसे अंग्रेज हैं, जो भारतवासियों से घृणा नहीं करते, स्टर्डी की भी गिनती इनमें नहीं है। मिस्टर और मिसेज सेवियर दो ही व्यक्ति हैं, जो अभिमान पूर्वक हमें उत्साह दिलाने नहीं आये थे। " ६/३६१  
         हमलोग जानते हैं कि 'Harvard University ' अमेरिका के ' Massachusetts ' मैसाचुसैट्स शहर के कैंब्रिज में स्थित एक निजी विश्वविद्यालय है। और 25 मार्च, 1896 को स्वामी विवेकानन्द ने इसी हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के 'स्नातक दर्शन परिषद' (Graduate Philosophical Society) के समक्ष 'वेदान्त दर्शन' के ऊपर एक अत्यंत सारगर्भित भाषण दिया था। [ स्वामी विवेकानन्द द्वारा 25 मार्च, 1896 को 'वेदान्त दर्शन ' पर दिया गया वह प्रसिद्द व्याख्यान  विवेकानन्द साहित्य खण्ड 9 के पृष्ठ 63-67 में दिया गया है।]
           अपने भाषण में विवेकानन्द ने कहा था - " पाश्चात्य वासियों में बहुत थोड़े से लोग ही अपने मन को नियंत्रित करने का सामर्थ्य रखते हैं। इसीलिए, वेस्टर्नर्स को सच्चा अद्वैतवादी अर्थात " विनम्र और सुसंस्कृत मनुष्य " बनने में अभी बहुत समय लगेगा। 'Westerners will take a lot of time to be  polite and cultured Man .' 
            पूर्व और पश्चिम के लोगों की मानसिकता के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा था कि पश्चिम के देश अपने  शक्ति के मद से मतवाले हैं, इसलिये अपने आक्रमक स्वाभाव के कारण वे पूर्वी देशों के ' निष्कपटता की संस्कृति' (culture of sincerity) साथ तालमेल बनाकर नहीं चल सकते।
       विवेकानन्द  ने यह भी कहा था कि प्राच्य सभ्यता (Oriental civilization ) पाश्चात्य  (Occidental civilization ) की तुलना में बहुत अधिक प्राचीन है, इसीलिए पूर्वी  सभ्यता में सभी प्राणियों में 'मनुष्य मात्र की श्रेष्ठता ' पर सर्वाधिक जोर दिया जाता है; जबकि  मानवोचित सौहार्दपूर्ण व्यवहार के मामले में  पाश्चात्य सभ्यता,  प्राच्य  सभ्यता की तुलना में अधिक क्रूर है।"
            स्वामी विवेकानन्द को इस विख्यात भाषण के बाद विश्वविद्यालय के अधिकारीयों ने उन्हें हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में 'Oriental Philosophy ' (प्राच्य दर्शन) के विभाग -अध्यक्ष का  पद देना चाहा था। किन्तु उन्होंने इस प्रस्ताव को विनम्रता पूर्वक अस्वीकार कर दिया था।  
             बाद में यूनिवर्सिटी के अधिकारीयों ने 'Vedanta Philosophy -- An Address Before the Graduate Philosophical Society ' शीर्षक देकर विवेकानन्द के सम्पूर्ण भाषण को एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित भी किया था।
              स्वामी विवेकानन्द  जब 'वेदान्त दर्शन' पर व्याख्यान दे रहे थे, तब उस सभाकक्ष में सेवियर-दम्पत्ति भी उपस्थित थे। 'सेवीयर दम्पति' सच्चे सत्यार्थी थे -दोनों इस परिवर्तनशील जगत (सापेक्षिक सत्य)  के पीछे स्थित अपरिवर्तनशील शाश्वत सत्य (निरपेक्ष सत्य) का साक्षात्कार करने के परम् आग्रही थे। किन्तु चर्च के धर्म-प्रचारक केवल  कुछ रिचुअल्स का पालन करने एवं चर्च के कन्फ़ेशन रूम  (चर्चिनिटी) में जाने की सलाह देने तक सीमित थे, अतः उन दोनों की सत्यानुसन्धान की आकांक्षा को शांत नहीं कर पा रहे थे। 
              जब उन्होंने स्वामीजी के 'वेदान्त-दर्शन ' पर दिए भाषण को सुना तब उन्हें अनुभव हुआ मानो अब तक वे इसी सत्य की खोज में भटक रहे थे। अद्वैत दर्शन की इतनी सुंदर और प्रांजल व्याख्या उन्होंने पहली बार सुनी थी। स्वामीजी द्वारा प्रस्तुत किए गए अद्वैत-दर्शन के विचार ने उन्हें विशेष रूप से आकर्षित किया। स्वामीजी ने सेवियर दंपत्ति को भारत आकर सत्य का साक्षात्कार स्वयं करने का निमंत्रण दिया। सेवियर दंपत्ति ऐसा अवसर खोना नहीं चाहते थे।  उन्होंने स्वामीजी का शिष्यत्व स्वीकार किया और समर्पित भाव से उनके साथ भारत चले आए।
          सेवियर दंपत्ति के भारत आने पर स्वामीजी ने उन्हें अद्वैत-साधना के लिए हिमालय में एक आश्रम स्थापित करने का अति महत्त्वपूर्ण कार्य सौंप दिया। इस कार्य में उनकी सहायता के लिए, स्वामी जी के 25  वर्षीय युवा शिष्य 'अजय हरि बनर्जी' (स्वामी स्वरूपानन्द 1871- 1906) आगे आये। मात्र 34 वर्ष की आयु में इनका देहांत हो गया था। 
            सेवियर दंपत्ति और स्वामी स्वरूपानन्द ने आश्रम के लिए उपयुक्त जगह का चुनाव करने के लिए अथक दौड़-भाग की। इसी खोज में वे समुद्र तल से 1,940 मीटर ऊंचाई पर, अल्मोड़ा से 50 मील पूर्व की ओर स्थित मायावती टी एस्टेट जा पहुंचे। हिममंडित हिमालय के दृश्य, यहाँ के घने जंगल, खासकर नंदा देवी, नंदकोट एवं त्रिशूल शिखर हिमालय का अद्भुत नजारा प्रस्तुत करता है।  यह सब कुल मिलाकर ऐसा था जैसा स्वामीजी ने अद्वैत आश्रम के लिए कल्पना की थी। 
          मायावती में आज जहाँ अद्वैत आश्रम है, वह स्थान पहले चाय का बाग था। आश्रम और आस-पास का वातावरण सचमुच बहुत सुंदर है। देवदार के घने पेड़ों के बीच बसा हुआ आश्रम बिलकुल एकांत स्थान में है। यहाँ तक कि आश्रम की 3-4 किमी की परिधि में कोई दुकान, बाजार या छोटा-मोटा गाँव भी नहीं है। 
           निकटतम कस्बा लोहाघाट है, जो कि लगभग 10 किमी दूर है। लोहाघाट से यहाँ आने वाली सड़क आगे कहीं नहीं जाती। इसलिए वाहनों की भी आवा-जाही नहीं होती। अद्वैत आश्रम आज के समय में भी आबादी से बिलकुल दूर एकांत में है, आस-पास आश्रम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। इस नीरवता को कुछ भंग करता है तो बस पक्षियों का कलरव, जो यहाँ की शांति को निरंतर रसमय बनाए रखता है। इसी जगह का चुनाव हो गया और सेवियर दंपत्ति ने यह विशाल पहाड़ी भू-भाग खरीद लिया। 
             जिन आदर्शों (Be and Make) के अनुरूप इस आश्रम की स्थापना की गयी थी, एक शताब्दी से अधिक का समय बीत जाने पर भी आश्रम के वातावरण में इन आदर्शों की जीवंत अनुभूति की जा सकती है।  मायावती को ‘अद्वैत का राज्य’ कहा जा सकता है।
               ‘प्रबुद्ध भारत’ का कार्यालय भी अल्मोड़ा से यहीं ले आया गया। यह अद्वैत -आश्रम भारत तथा विदेशों के ' Truth-researchers ' या सत्य-शोधकों को विशेष रूप से आकर्षित करता है, खासकर महामण्डल के उन भाइयों को जो " स्वामी  विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर वेदान्त नेतृत्व-प्रशिक्षण ' Be and Make C -In C रैंक' परम्परा" में प्रशिक्षित होते हैं।  
           आश्रम आगंतुकों के अनुरोध पर उन्हें रहने की सुविधा प्रदान करता है तथा यहां एक छोटा पुस्तकालय एवं संग्रहालय भी है। आश्रम परिसर में प्रमुख भवन जिसमें कार्यालय, एक प्रार्थना भवन, रसोईघर तथा भोजन कक्ष निचले तल में स्थित है एवं संयासियों का आवास दूसरी मंजिल पर है। तथा यहीं पुस्तकालय भवन एवं अस्पताल आदि भी हैं। 
         अद्वैत आश्रम की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि यह है कि यह रामकृष्ण मिशन के एक प्रमुख प्रकाशन केंद्र के रूप में विकसित हुआ है।  यहाँ पर पुस्तकों का सम्पादन किया जाता है और कलकत्ता स्थित अद्वैत आश्रम का प्रकाशन केंद्र इन्हें प्रकाशित करता है।
            आश्रम से 4 कि.मी. की दूरी पर घने जंगलों में स्थित 'धर्मघर' वह स्थान है जहां स्वामीजी ने ध्यान के लिए एक कुटिया बनवाने की इच्छा प्रकट की थी। किन्तु जाते समय एक मार्गदर्शक का साथ होना उचित है।आज यहाँ पर एक कुटिया है, जिसमें बैठकर इस निर्जन में ध्यान किया जा सकता है। 
                 यहाँ तक जाने वाली 2.5 किमी की एक पगडंडी जंगल के बीच से जाती है, जिसके दोनों ओर तरह-तरह के फूलों और फलों के पेड़ हैं। वहाँ की मिट्टी, आकाश, अदभुत-अदभुत पेड़ के पत्ते हैं, जिन पर रंग-बिरंगे फूल, सुंदर-सुन्दर फल लगे रहते हैं! एक छोटी सी पहाड़ी पर चढ़ने के बाद, धीरे-धीरे पगडण्डी नीचे घाटी की ओर चली जाती है। नीचे घाटी का वन भी सघन और सुंदर है। आश्रम से नीचे की ओर घाटी में जाने पर सारदा नदी है।
             नवनी दा के प्रथम दर्शन का सौभाग्य मुझे  53 वर्षों पूर्व  1987 में " विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर 'Be and Make' वेदान्त नेतृत्व -प्रशिक्षण परम्परा"  में आयोजित महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर, बेलघड़िया, कोलकाता में प्राप्त हुआ था।  26 दिसम्बर 1987 को प्रातः जब झण्डोत्तलन से शिविर का प्रारम्भ हुआ तो मैंने क्रीम कलर का शिल्क कुर्ता, लालपाढ़ की धोती, कन्धे पर चादर और में सामने 'C -IN -C ' का बैज लगाये आचार्य नवनिदा को आते हुए देखा । उनके आगे-आगे सफेद मिलिट्री ड्रेस में 'Dy C -in -C' field का बैज लगाए दीपकदा (श्री दीपक मुखर्जी) चल रहे थे, और नवनीदा के पीछे विभिन्न रैंक का  विभिन्न रैंक के बैज लगाए सुबह में 'hurry up,  hurry up' (जल्दी करो, जल्दी करो) - की कड़क आवाज में जगाने वाले तपनदा आदि 4 अन्य युवा कैम्प-ऑफिसर्स मिल्ट्री डिसिप्लिन के साथ उनको एस्कॉर्ट कर रहे थे। 
        मैं उनके प्रथम दर्शन से बहुत प्रभावित हुआ, क्योंकि महामण्डल ही एक मात्र ऐसा युवा संगठन है, जहाँ " Be and Make वेदान्त परम्परा में लीडरशिप की ट्रेनिंग"  देने वाले मुख्य शिक्षक/ नेता को इंडियन आर्मी की तरह 'C-IN -C ' और "Dy C -in -C ' का चपरास-रैंक क्रमवार रूप से  दिया जाता है। महामण्डल द्वारा आयोजित युवा-प्रशिक्षण शिविर में नवनीदा के द्वारा प्रथम बार आविष्कृत की गयी यह प्रणाली यह सिद्ध करती है, कि नवनीदा अपने पूर्वजन्म में वही कैप्टन सेवियर थे जिनका अंतिम संस्कार, उनकी इच्छा के अनुसार अल्मोड़ा के निकट मायावती आश्रम के निकट बहने वाली शारदा नदी के तट पर वैदिक ब्राह्मणों की तरह किया गया था।  
           श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग के अध्यन से पता चलता है कि स्वंय माँ काली ने ही  प्रथम युवा नेता श्रीरामकृष्ण देव को " Be and Make-  वेदान्त परम्परा में 'C-IN-C  का प्रथम चपरास- 'तुम भावमुख अवस्था में रहो "-- कहकर सौंपा था।  क्योंकि सर्वप्रथम उन्होंने ही 'समस्त प्राणियों के एकत्व' को अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं-बोध में रूपान्तरित करके, अपने अनुभव से जाना था। 
          तत्पश्चात 'काशीपुर उद्यान बाटी' में आयोजित प्रथम युवा-प्रशिक्षण शिविर में भगवान श्रीरामकृष्णदेव ने  'नरेन् शिक्षा देगा जब घर और बाहर नवजागरण का आह्वान करेगा !' -" जय राधे ! नरेन् शिक्खा देबे जखन घरे बाइरे डाक देबे-जय राधे !" लिख कर और इसके नीचे एक ' विशाल नेत्र युक्त नेता की आवक्ष छवि' बनाकर उसके पीछे एक धावित मयूर का चित्र बना कर, माँ काली से प्राप्त  " C-IN-C " का वही चपरास स्वामी विवेकानन्द को सौंप  दिया था। इस चपरास हस्तांतरण का आध्यात्मिक अर्थ 'जय राधे-परम्परा में प्रशिक्षित ' कोई 'would be Leader ' ही समझ सकता है।
                 क्योंकि नवनीदा ही इस 'NEW YOUTH MOVEMENT' के 'जय राधे Be and Make C-In-C' परम्परा' में चपरास प्राप्त नेतृत्व प्रशिक्षण परंपरा में प्रशिक्षित "प्रथम सी-इन-सी" [Leadership Training tradition में प्रशिक्षित प्रथम नेता (Leader) या "First C-In-C" थे।  किन्तु हमलोग उनको कभी 'नेताजी' नहीं कहते थे, उनको सभी लोग, बच्चे-बूढ़े सभी 'नवनीदा' कहते थे। आज भी इस 'कोन्नगर महामण्डल भवन' में आने पर ऐसा अनुभव होता है, मानो हम किसी 'संगठन' के भवन में नहीं, बल्कि अपने 'दादा' (बड़े भईया) के घर में आये हैं।  
         एक बार जब मैं दादा के कहने पर ' Los Angeles' के रामकृष्ण मिशन में 'विवेक-अंजन ' पत्रिका देने के लिए गया था,  तब वहां के मिनिस्टर - संन्यासी से बोला कि मै महामण्डल से आया हूँ।  तो महामण्डल का नाम सुनने के साथ ही उन्होंने मुझे गले लगाते हुए कहा था -'ओ, नवनी बाबू' के यहाँ से आये हो !! और उस दिन वहाँ के अमेरकी भक्तों के सामने उन्होंने  40 मिनट तक केवल महामण्डल के विषय में प्रवचन दिया था। 
               क्यों ऐसा होता है ? क्योंकि 'जय राधे विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर जय राधे' वेदान्त परम्परा में प्रशिक्षित नवनीदा भी प्रेम-स्वरूप थे - 'LOVE PERSONIFIED' बन चुके थे। इसलिए 'उन्हें अपना और दूसरों का ईश्वरत्व कभी भूलता ही नहीं था।  ' ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।' अर्थात जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है ।'  उनके लिए यह केवल मुख से कहने भर की बात नहीं थी, वे सचमुच ऐसा महसूस भी करते थे, और जब किसी की ओर भी देखते भी थे, तो यही देखते थे कि उसकी अंतर्न्हित दिव्यता कैसे  शीघ्रता से अभिव्यक्त हो जाय ! [एक कैम्प में कुत्ते के छोटे छोटे दो पिल्लों के सिर पर प्रेम से हाथ घुमा दिया था ; पूरे कैम्प तक वे उनके कमरे के पास घूमते रहे थे।]
            महामण्डल के सभी कर्मियों के लिये नवनीदा ही आकर्षण के मुख्य केन्द्र वे ही थे। 'नवनीदा और महामण्डल' - शब्द मानो समानार्थक शब्द बन गए थे। ' तीनि यदि कारो दिके ताकिये शुधू हाशतेन, (तांर ओई सरल शिशुर मत हासि), ता होलेई  येन समस्त कष्ट दूर हये येत। ' अर्थात वे किसी की तरफ देखकर केवल हँस देते थे (उनकी वह शिशु, बच्चे जैसी हँसी), तो उतने भर से ही मानो समस्त कष्ट दूर हो जाते थे। उनकी डांट में - " Are you a Beast? মনে রাখবে তুমি একজন শিক্ষক !" भी आशीर्वाद छिपा होता था। सुनने वाले को यही लगता था कि मैं उनके निर्देशानुसार चलने से अपने जीवन को 'एक शिक्षक' के रूप में अवश्य गढ़ सकूँगा क्योंकि मैं कोई पशु नहीं हूँ, मनुष्य हूँ ! इसीलिये आज भी SPTC में भाग लेने के लिये जब 'कोन्नगर के महामण्डल भवन' में आता हूँ, तो  स्नान करने के तुरन्त बाद सबसे पहले मैं उनके कमरे में जाकर उन्हें प्रणाम करता हूँ। 
            बहुत दिनों बाद जब वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में मुझे भी नवनीदा के बगल वाले कमरे में महामण्डल के वरिष्ठ दादा लोग (बासु दा, रनेन दा, बीरेन दा) के साथ ठहरने का अवसर मिला। तब  एक दिन हँसी करते हुए रनेनदा ने दादा से कहा था कि आप अपने पूर्व जन्म में जरूर आपके नाना- श्री महिमाचरण चक्रवर्ती रहे होंगे, जिनके घर में आपका जन्म हुआ था और जो ठाकुर के युवा भक्तों पर अपना प्रभाव डालने के लिये अपने गुरु का नाम डमरूवललभ आदि बताया करते थे।  
             शरीर में रहते समय, नवनीदा का जो एक साधनालब्ध प्रभामण्डल या AURA था, जो सभी को अपनी तरफ आकर्षित करता था, और महामण्डल आन्दोलन द्वारा 50  वर्षों तक की गयी साधना के बाद वह ' AURA' या प्रभामण्डल क्या अब समाप्त हो गया है ? मेरा मत है कि ऐसा नहीं हुआ है, और भविष्य में भी वैसा होने की सम्भावना नहीं है। यदि 'दादा' के जाने के बाद महामण्डल का AURA समाप्त हो गया होता तो महामण्डल द्वारा आयोजित इस 158 वें परिचालक /शिक्षक-प्रशिक्षण शिविर, SPTC कैम्प में इतनी दूर- दूर से 200 युवा भाग लेने के लिए नहीं आये होते ! 
            "स्वामी जी ने शिक्षित, अंग्रेजी पढ़े-लिखे, मेधावी युवाओं के बीच काम करने के लिए कहा है। उनके बीच काम करने के लिए , उनलोग जिस भाषा को समझते हैं, उसी भाषा में बात करने की आवश्यकता है। जीवन में सफलता पाने के लिए भी जिन गुणों की आवश्यकता होती है, महामण्डल की शिक्षा में वे सब गुण प्राप्त किये जा सकते हैं। ये बातें यदि उन्हें समझा दी जाएँ, तभी वे लोग  महामण्डल आंदोलन से जुड़ने के लिए आग्रही हो सकते हैं।
        किन्तु शिक्षित और मेधावी लड़कों के पास महामण्डल भावधारा को रखने के लिए केवल महामण्डल और रामकृष्ण-विवेकानन्द साहित्य का ज्ञान ही यथेष्ट नहीं है। इतिहास, विज्ञान, राजनीति, समाजनीति, अर्थनीति इत्यादि विषयों तथा वर्तमान में देश-विदेश में हो रही समसामयिक विभिन्न घटनाओं  की जानकारी रखने के साथ साथ 'मौन रहकर भी दूसरों में प्रेम संचारित करने की क्षमता' रहना आवश्यक है। लीडरशिप पर नवनीदा द्वारा लिखित पुस्तिका पृष्ठ 16 में ये सभी बातें कहीं गयी हैं। किन्तु नवनीदा के बाद के समय में, हम जैसे महामण्डल कर्मियों में नेतृत्व के गुणों का जो भीषण अभाव देखा जा रहा है। इस अभाव को    दूर करने का उपाय है दादा की आत्मकथा 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' पुस्तक में वर्णित 'अद्वैत आश्रम' मायावती, अल्मोड़ा के साथ उनके सम्बन्ध को समझना।  

             मैंने एक बार नवनीदा से पूछा था - 'आपने विवाह क्यों नहीं किया ?' तब उन्होंने कहा था - " I tried to visualize my marriage scene- I was dressed as a groom, but while I tried to put my foot into the shoes, suddenly I pulled it out and cancelled the marriage."  -अर्थात मैंने अपने शादी के दृश्य की कल्पना करने की कोशिश की- मुझे एक दूल्हे के रूप  में तैयार किया गया था, लेकिन जब मैंने अपने पैरों को जूते में डालने की कोशिश की, तो अचानक मैंने इसे खींच लिया और शादी को रद्द कर दिया।" ....नहीं समझे ? "Which of you can jump out of you own bodies ? Which of you can jump out of your own minds ?" त्याग और सेवा  सम्बन्धी मेरी उच्चतम कल्पना अभी कहाँ तक पहुँच सकती है ? वहीं तक, जहाँ तक मेरे  देह-मन की सीमा है। "अपनी भौतिक सीमाओं को लाँघ सकता है ? अपनी मानसिक चहारदीवारी को कौन पार कर सकता है ?  [हमारे जैसे साधारण मनुष्य त्याग और सेवा  के विषय में अपने कर्तव्य की कल्पना या धारणा एवं पूर्वजन्म में प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में लौटे जीवन्मुक्त शिक्षक  के त्याग  और सेवा के विषय में कर्तव्य के अन्तर को अभी कैसे समझ सकते है ?] 
             आत्मनिरीक्षण प्रणाली के अनुसार आत्मसमीक्षा करने पर मैंने पाया था कि ' Bh-tpt-chkrbti स्मृति  -वृत्ति' में आसक्ति ही मेरी मुख्य बाधा है, जो मुझे निरन्तर आत्मनिर्भर नहीं रहने देती, इस आसक्ति का त्याग कैसे करूँ ? 2016 में आयोजित जमशेदपुर इंटरस्टेट कैम्प में मैं मन ही मन अभी 'Bh-वृत्ति ' के विषय में सोंच ही रहा था कि, प्रणवदा के सामने एक हितैषी बड़े भाई की तरह झिड़की देते हुए उन्होंने कहा था-  प्रवृत्ति मार्ग का पालन करते हुए शास्त्र-विरुद्ध या  'निषिद्ध -कर्म' तो केवल पशु करते हैं, मनुष्य नहीं ! " Are You a Beast? --'मने करबे तुमि एक जन शीक्खक ! ' उस कैम्प में दिया गया वह आदेश ही दादा अन्तिम आदेश सिद्ध हुआ।
                 यह महान (C-IN-C) नवनीदा जैसे शिक्षक/नेता ही इस पृथ्वी पर जीवंत ईश्वरस्वरूप हैं, इनके अतिरिक्त हम और किनकी उपासना करें ? वे आदेश देते हैं, ईश्वर के दूत होते हैं, हमारा कार्य है उनके आदेशों -"मने करबे तुमि एक जन शिक्खक !" को ग्रहण करना और उनका अनुसरण करना! 
          नवनीदा की आत्मसंस्मरणात्मक पुस्तक 'जीवन-नदी के हर मोड़ पर' का प्रथम मूल बंगला संस्करण दिसम्बर 2009 में हुआ था। मैंने उसका हिन्दी अनुवाद 2010 में ही कर दिया था किन्तु कतिपय कारणों से उसका हिन्दी प्रकाशन दिसम्बर 2015 में हो सका। जब मैंने कैम्प में उनको वह पुस्तक दी तो बड़े खुश हुए, लेकिन कहा क्या इसको वहाँ के लोग (हिन्दीभाषी) पसन्द करेंगे ? और बात आयी-गयी हो गयी। किन्तु जब 26 सितम्बर 2016 को अचानक शरीर छोड़ कर चले गये, तब मैंने अपने ही द्वारा अनुदित पुस्तक को पुनः ध्यानपूर्वक पढ़ना शुरू किया। और वहाँ यह देख कर आश्चर्यचकित रह गया कि  हमलोगों के नवनीदा ही अपने पूर्वजन्म में प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में लौटे हुए स्वामी विवेकानन्द के शिष्य कैप्टन सेवियर थे। और क्या इसीलिए उन्होंने इस जन्म में प्रवृत्ति धर्म या 'विवाह -संस्कार' को नहीं अपनाया था ?  
             इस पुस्तक को पढ़ने के बाद मुझे यह भी समझ में आया कि महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय (नवनीदा) को स्वामीजी के " भावी पंक्तिबद्ध सैनिकों " को प्रशिक्षित करने का लिखित चपरास  ' C-IN-C ' का रैंक {जीवनमुक्त शिक्षक या नेता होने की पहचान} उनको पूर्व जन्म में ही 'अद्वैत आश्रम, मायावती के 'Prospectus' के रूप में स्वामी विवेकानन्द के द्वारा प्राप्त हो गया था। क्योंकि अपने पूर्वजन्म में ही उन्होंने 'भावमुख अवस्था' को प्राप्त कर लिया था। अर्थात अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं-बोध में रूपान्तरित कर लिया था। इसलिये उनकी दृष्टि ज्ञानमयी हो चुकी थी, और वे जगत को ब्रह्ममय देखने में समर्थ थे। अतः जगत के प्रति उनका दृष्टिकोण भी बदल चुका था अतः उन्हें सर्वत्र अलग ही दृश्य (लीला) का दर्शन होता था। 
'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय की आत्मकथा-(बंगला में प्रकाशित मूल पुस्तक -"জীবন নদীর বাঁকে বাঁকে" পৃষ্ঠ,২৯-৩০का हिन्दी अनुवाद  'जीवन-नदी के हर मोड़ पर' में प्रकाशित दो निबन्धों -'दर्शन बनाम फिलॉसफी' (निबन्ध-17) और 'अल्मोड़ा यात्रा' (निबन्ध-56) में नवनी दा ने अपने पूर्वजन्म का दो बार उल्लेख किया है। अद्वैत आश्रम, मायावती में जहाँ पर कैप्टन सेवियर की स्मृति फलक लगी हुई है, उस स्थान का जीवंत दृश्य और 'समाधि स्थल' का उल्लेख- प्रकार पृष्ठ 40 पर किया गया है।  
            कैप्टन सेवियर का दाह-संस्कार जिस नदी के किनारे हुआ था, उस घटना  का विवरण तथा अद्वैत आश्रम, मायावती की परिचय -पत्रिका (Prospectus) को पढ़ने तथा दीर्घ दिनों तक नवनीदा के सानिध्य में रहने का सौभाग्य प्राप्त करने के बाद;  प्रत्येक  श्रद्धालु महामण्डल कर्मी, या गंभीर पाठक के स्मृति-पटल में उन निबंधों मे वर्णित घटनाओं का दृश्य स्पष्टता से कौंध उठना स्वाभिविक है !! अपने पूर्वजन्म की स्मृति का उल्लेख नवनीदा इस प्रकार करते हैं -- " যাই হোক, I had small pox ডিসেম্বরের শেষের দিকে, ১লা জানুয়ারী আমি আর উঠতে পারছি না।)  
    "......  कॉलेज में थर्ड ईयर समाप्त हो गया। दिसम्बर का महिना था, परन्तु उस समय तक ठंढ के दिनों में भी कभी गर्म कपड़े, ऊनि कुर्ता या स्वेटर आदि पहनने की मेरी आदत नहीं थी। इसलिए कभी पहना ही नहीं था। मैं दिनभर ऑफिस में रहता था, शाम को क्लास करता था। एक दिन मुझे कुण्डू सर ने (केमिस्ट्री के प्रोफ़ेसर प्रियनाथ कुन्डू) टोका;  तथा चेहरे को थोड़ा गंभीर करते हुए कहा- " तुम गर्म कपड़े नहीं पहनते हो ? तुमको Pox हो सकता है।"  
           पॉक्स एक बहुत ही खराब बीमारी है। इसको 'चिकेन पॉक्स' या 'स्माल पॉक्स' कहना उचित होगा। बहरहाल जो भी हो, दिसम्बर के अन्त में -'I had small pox ' मुझे स्माल पॉक्स हो ही गया। पहली जनवरी (वर्ष ?) के दिन मैं बिस्तर से उठ नहीं पा रहा था, ऑफिस जाने में भी असमर्थ था। किसी प्रकार ऑफिस आकर वेतन लिया। किन्तु, जब घर लौटा तो शरीर में भीषण यंत्रणा हो रही थी, छत पर धूप में एक दरी बिछा कर लेट गया।  
                    मैं 1 जनवरी को ही अचेत हो गया था । उसके बाद .... क्या हुआ, कितने दिनों तक अचेत (या निर्विकल्प समाधि ?) अवस्था  में था- कुछ पता नहीं। हठात ऐसा लगा मानो मेरे कानों में जो ध्वनी आ रही है, वह मेरी जानी-पहचानी है। ऐसा लगा कि आज नेताजी का जन्मदिन है और उसी उपलक्ष्य में कोई शोभा-यात्रा जा रही है। मुझे लगा मैं उन नारों से (..... नेताजी अमर रहें जैसी ?) पूर्ण परिचित हूँ। मैं  अपने गले से आवाज निकालने की चेष्टा करता हूँ -'नेताजी अमर रहें' कहना चाहता हूँ; किन्तु कह नहीं पा रहा हूँ।  अरे अरे, यह क्या हुआ, क्या हुआ?  मुझे ऐसा लग रहा था ... मानो मैं हाथ उठाकर कहना चाहता हूँ -'मैं अभी जिन्दा हूँ !' किन्तु, गले से आवाज नहीं निकल पा रही थी - और इस तरह अचेत अवस्था में ही 23 दिन बीत गये थे! (मतलब निर्विकल्प समाधि से व्युत्थान 23 जनवरी को ?) 
                 ठाकुरदेव कहते थे जीवकोटि का मनुष्य 21 दिनों तक निर्विकल्प समाधि में रह सकता है, उसके बाद उसका शरीर सूखे पत्ते की तरह झड़ जाता है; पूज्य दादा 22 वें दिन पुनः अपने शरीर में लौट आये ! तो क्या दादा 'ईश्वर कोटि' के मनुष्य, जिन्हें पुनर्जन्म लेने के बाद भी अपना पूर्वजन्म याद रहता है- नहीं थे ? 
                 दादा आगे कहते हैं ..... " इस बीच मेरा जितना समय बीत गया था वह सब मुझे स्वप्न के समान अनुभव होता था।  .... इसी क्रम में मैंने एक बार देखा कि मैं मर गया हूँ, और मुझे सजा-धजा कर बहुत से लोग ले जा रहे हैं। सभी बहुत उदास हैं, और मैं भी वह सब कुछ देख पा रहा हूँ। ... कितनी दूर ले जा रहे हैं ये लोग ? वहाँ के जमीन की मिट्टी, आकाश, पेड़-पौधे सभी अलग प्रकार के हैं ! अदभुत-अदभुत पेड़ के पत्ते हैं, जिन पर रंग-बिरंगे फूल, सुंदर-सुन्दर फल लगे हुए हैं! ऊँची चढ़ाई -सुन्दर वृक्ष, सुंदर-सुन्दर फूल जिन्हें मैं पहचानता भी नहीं ! एक छोटी सी पगडंडी से होकर पहाड़ी पर चढ़ने के बाद, मुझे धीरे-धीरे ढलान की ओर ले जा रहे हैं। बहुत दूर... बहुत दूर। फिर उस छोटी सी पहाड़ी को पार करने के बाद मुझे धीरे से नीचे रख दिया गया। चिता सजाई गयी। उसके ऊपर शरीर को रख दिया गया, चिता में अग्नि प्रदान की गयी, मेरा शरीर जलकर राख में परिणत हो गया। 
                  कई वर्षों बाद जब मैं अद्वैत आश्रम, मायावती, अल्मोड़ा, हिमालय  गया हुआ था; तब उस स्वप्न में देखे गए ठीक उसी दृश्य के समान वहाँ का दृश्य भी दिखाई दिया मायावती में जहाँ पर कैप्टन सेवियर की स्मृति फलक लगी हुई है (या समाधि-स्थल है) वहाँ की मिट्टी, वहाँ के वृक्ष, जिस प्रकार के पत्ते, फल-फूल आदि लगे हुए हैं, तथा थोड़ी सी चढ़ाई चढ़ने के बाद ढलान में उतरने पर जो समतल भूमि है -ऐसा लगा उस दिन स्वप्न में मैंने ठीक इसी जगह को देखा था !  
                     "जिस समय  आन्दुल स्कूल में मैं आठवीं कक्षा का छात्र था, उस समय हमारे स्कूल में मौड़ी ग्राम के एक सज्जन भी आया-जाया करते थे।  वे हर समय गेरुआ रंग का कुर्ता और सफ़ेद धोती पहना करते थे।  उन्होंने विवाह नहीं किया था, वे हमेशा संगीत की सेवा तथा साधना में ही लगे रहते थे। वे (आन्दुल काली कीर्तन समाज के संस्थापक महेन्द्रनाथ भट्टाचार्य उर्फ़ 'प्रेमिक महाराज') अत्यन्त ही सज्जन व्यक्ति थे। 
         हमलोग अपने घर से दूर आन्दुल स्कूल की बिल्डिंग में ही रह कर पढाई कर रहे थे। इसलिए वे बीच-बीच में आकर हमलोगों का हाल-चाल पूछ लिया करते थे। कैसे हो, क्या कर रहे हो? इत्यादि पूछा करते थे। हठात एक दिन उन्होंने मुझसे प्रश्न किया-'तुम्हें  कौन सी 'Philosophy ' अच्छी लगती है ?' उस समय मैं आठवीं कक्षा (Class eight) में ही पढ़ता था, किन्तु तब मैंने जो उत्तर दिया था वह मुझे इस समय भी याद है।  मैंने कहा था - 'I have my own philosophy ! ' अर्थात 'दर्शन' के विषय में मेरी बिल्कुल अपनी और स्पष्ट धारणा है ! क्योंकि भारत में 'दर्शन' प्राप्त करने का तात्पर्य बालक ध्रुव द्वारा श्रीहरि का दर्शन करने को अर्थात आत्म-साक्षात्कार या (इन्द्रियातीत निरपेक्ष सत्य का दर्शन) को ही दर्शन कहा जाता है। जबकि पाश्चात्य देशों में ताउम्र अंधरे में टटोलते रहने का नाम ही 'philosophy ' है!       इसीलिये मैं दूसरों की --पाश्चात्य दार्शनिकों 'कांट या हेगल' की फिलॉसफी को लेकर अधिक माथापच्ची नहीं करता। 
             अभी कुछ समय पहले ही मुझे वह पत्र प्राप्त हुआ है जिसे घर से बाहर रहकर नौकरी करते हुए मैंने अपने पिताजी को अंग्रेजी में लिखा था। पुराने फाइलों को ढूंढते समय मुझे हठात वह पत्र मिल गया था। ढेर - सारे कागज -पत्र आदि तो नष्ट हो चुके हैं, किन्तु यह चिट्ठी अभी भी बची हुई है। उस पत्र में अपने ही द्वारा लिखित एक sentence को पढ़कर मैं आश्चर्यचकित हो गया। मैंने लिखा था - "I know that I was not (re?) Born for nothing!"  (क्या मिन्टू दा, बेलेघाटा के पास वह पत्र अभी भी है ?) अभी भी हमेशा यही अनुभव  होता रहता है कि -  " यह शरीर दूसरे का है!"
             एक दिन स्वामी अनन्यानन्दजी ने मुझसे कहा था - " Take care of your body. "( अपने शरीर का ध्यान रखो)  मैंने उत्तर दिया था कि -'Maharaj,  This body is not mine. this is dedicated to Thakur, Maa and Swamiji. What do I care about this body ?' - अर्थात महाराज, यह शरीर मेरा नहीं है। यह शरीर-'ठाकुर-माँ और स्वामीजी' को समर्पित है। इस शरीर की मुझे क्या परवाह ?'  जहाँ पर इसका अन्त होना है, हो ! इसको चाहे गिद्ध नोच खायें, य़ा अग्नि में जला डाला जाय, य़ा जल में फेंक दिया जाय, जो भी होना है, हो जाये! 'What did I care about this body? What is this? It's nothing.' अर्थात यह जड़ शरीर है ही क्या ?  इस नश्वर शरीर की चिन्ता मैं कयों करूँ,यह (Organic Chemistry के अनुसार '9 सेर राख' और ठाकुर के वचनामृत के अनुसार '9 सेर बैगन' सिवा) और कुछ भी नहीं है। [अर्थात इस देवदुर्लभ मानव शरीर रूपी 'कोहिनूर' हीरे कीमत कोई भोगी नहीं समझ सकता , इसकी कीमत तो कोई 'जौहरी' अर्थात विश्व के महान शिक्षक ही समझते हैं] 
           जब मैं Govt Service में था उस समय एक बहुत बड़े officer (उच्च पदाधिकारी) ने अक्समात मुझसे पूछ लिया -- 'What is your opinion about Western Philosophy? - अर्थात पाश्चात्य दर्शन के सम्बन्ध आपका क्या विचार है ? तब मैंने उत्तर दिया था - "The Western Philosophy is just crawling on its four legs." - अर्थात पाश्चात्य दर्शन तो अभी केवल चार पैरों पर रेंग रहा है ! [ 'योग' मार्ग-या 5 अभ्यास के प्रशिक्षण-पद्धति से अभी तक अनभिज्ञ है।] बचपन से ही मुझमें (नवनी दा में) ऐसी धारणा थी कि ठाकुर (श्रीरामकृष्ण देव) के अद्वैत दर्शन पर  दिए गए उपदेशों के रहस्य को  -माँ सारदा देवी ने जिस सरल ग्रामीण भाषा में उद्घाटित किया है, तथा इसी विषय पर -स्वामीजी का जो वेदान्त दर्शन है, उसके निकट भी दूसरा कौन दर्शन पहुँच सकता है ? "  
             अपने पूर्वजन्म का दूसरी बार उल्लेख नवनीदा अपनी आत्मकथा 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' के 'अल्मोड़ा यात्रा ' निबन्ध के पृष्ठ 183 (और बंगला पुस्तक 'जीवन नदीर बाँके बाँके-' জীবন নদীর বাঁকে বাঁকে -পৃষ্ঠ ১১৮ ) पर किया है, जब महामण्डल के लिये एक पानागढ़ से एक 2nd hand Jeep तो खरीद लिया गया था, किन्तु ड्राइवर को हर महीने वेतन देकर रखने की क्षमता नहीं थी। तब नवनीदा को ही गाड़ी चलाकर बंगाल के आंचलिक शिविरों तथा विभिन्न महामण्डल केन्द्रों द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में जाना पड़ता था। 
               " ...হতে হতে একটা কথা উঠল যে , .... इस प्रकार होते होते जो चीजें सामने आयीं, उनमें से एक यह थी कि हमलोगों को रूपये-पैसे की कमी तो बनी ही रहती है, चन्दे के रूप में कहीं से अधिक धन तो प्राप्त नहीं होता है। अतः हमलोग अन्य प्रदेशों में भी, इसके लिए प्रयास कर सकते हैं। हमारे संगठन के एक भाई (रनेन दा ?), जिन्होंने यहाँ से अल्मोड़ा यात्रा पर निकलने की पहल की थी; उन्होंने कहा कि- 'मेरा एक और संघ के साथ परिचय है, कई स्थानों पर उनलोगों के केन्द्र हैं। उसके संघ-प्रमुख से मेरी बात हुई है, उन्होंने कहा है कि आपलोग जिन-जिन शहरों में रुकते हुए जायेंगे यदि उसकी सूचि हमें भेज दें, तो रात्रि-विश्राम के लिये उन शहरों में आपलोगों के ठहरने की व्यवस्था मैं कर दे सकता हूँ।' तदानुसार जाने की व्यवस्था हुई, और हमलोग उसी पानागढ़ से खरीदे हुए जीप को लेकर 'अल्मोड़ा -यात्रा' पर निकल पड़े। हम कई लोग एक साथ थे। [कौन-कौन थे ?] जहाँ -जहाँ से भी थोड़ा-बहुत चन्दा मिलने की सम्भावना थी, जिन -जिन लोगों के यहाँ हम रुकते थे उनसे ही पूछ-पूछ कर एक जगह से दूसरी जगह पर चन्दा एकत्रित करने की चेष्टा करते हुए आगे बढ़ते चले गए। कुछ-कुछ प्राप्त भी होने लगा। इस प्रकार हमलोग अल्मोड़ा पहुँच गये।"
             इसी प्रसंग में चर्चा करते हुए नवनीदा ने एकबार मुझे बताया था कि 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र पाञ्चजन्य के संपादक तरुण विजय ' के घर पर वे ठहरे थे और उनकी माताजी ने उन्हें भोजन बना कर खिलाया था। तरुण विजय का  पुश्तैनी आवास देहरादून के घोसी गली में है। उनकी माता के निधन के बाद से भवन खाली पड़ा हुआ है। तरुण विजय (जन्म 2 मार्च 1956) उत्तराखंड से पूर्व राज्यसभा सदस्य और आरएसएस के वरिष्ठ नेता जो भारतीय राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत पत्रकार एवं चिन्तक माने जाते हैं, वे महामण्डल द्वारा आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग भी ले चुके हैं। उन्होंने अपने करियर की शुरूआत ब्लिट्ज़ अखबार से की थी। तरुण विजय को चीन में सम्मानित किया गया।  चीन के इंस्टीट्यूट ऑफ साउथ एशियन स्टडीज की ओर से सिचुआन यूनिवर्सिटी में भारत-चीन के सदियों पुराने संबंधों पर भी विस्तृत चर्चा की। उन्होंने कहा कि जिस तरह से भारत में चीनी यात्रियों के बारे में पढ़ाया जाता है उसी तरह चीन में भी उन भारतीय संतों की जानकारी दी जानी चाहिए जिन्होंने चीन में बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार किया।बाद में कुछ सालों तक फ्रीलांसिंग करने के बाद वह आरएसएस से जुड़े और उसके प्रचारक के तौर पर दादरा और नगर हवेली में आदिवासियों के बीच काम किया।तरुण विजय नई दिल्ली में रहते हैं। फिलहाल वे डॉ॰ श्यामाप्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन के डायरेक्टर के पद पर हैं।तरुण विजय शौकिया फोटोग्राफर भी हैं और हिमालय उन्हें भी बहुत लुभाता है
         ".... আলমোড়া ছেড়ে মায়াবতী আশ্রমে যাবার আগের ঘটনা : अल्मोड़ा से निकलकर मायावती आश्रम पहुँचने से पहले की घटना है; मैदानी समतल भू-भाग समाप्त करके जब एक बार पहाड़ की चढ़ाई शुरू हुई तो गाड़ी बस एक पहाड़ के बाद दूसरे पहाड़ को पार करते हुए क्रमागत रूप से ऊपर की ओर ही बढ़ती चली गई। काफी देर तक सफ़र करने के बाद भी रास्ते में कोई बस्ती, दुकान, मकान नहीं दिखाई दे रहा था, किन्तु बहुत आगे जाने पर एक चाय की दुकान दिख गई। 
                 हमलोगों ने विचार किया कि थोड़ा रुककर चाय पी लिया जाय। वह दुकान एक मोड़ के किनारे पर थी और मोड़ के पास थोड़ी जगह भी थी जहाँ गाड़ी को पार्क किया जा सकता था। वहीं पर गाड़ी को खड़ा कर हमलोगों ने चाय पिया , चाय पीने के बाद गाड़ी में आकर बैठ गये। लेकिन जब इंजन को स्टार्ट किया तो बार-बार चाभी घुमाने पर भी गाड़ी स्टार्ट नहीं हो रही थी। हमलोगों के साथ एक ऐसे व्यक्ति थे जो इंजन के जानकार थे (कौन थे ?), उनको देखने के लिए कहा गया। बोनट खोलकर थोड़ी देर तक निरीक्षण-परीक्षण करने के बाद उन्होंने कहा - ' इसमें जो समस्या आई है, उसे किसी भी तरह अभी ठीक नहीं किया जा सकता। गाड़ी के गीयर का पिनियन बदलना होगा, वह किसी कारण से काम नहीं कर रहा है, खराब हो गया है। '  
               यहाँ तो मोटर-पार्ट्स का कोई दुकान भी नहीं है। यहाँ से डेढ़ -दो सौ मील दूर 'टनकपुर' यानि 'पिथौड़ागढ़' तक जाने के बाद हो सकता है, कि वह विशेष पार्ट्स मिल जाय। लेकिन हमारा जीप तो डिस्पोजल जीप है, इसलिए वहाँ भी इसके पार्ट्स मिल ही जायेंगे -इसकी कोई गारंटी नहीं है। एक समस्या और है, उस पार्ट्स को बदलने के लिये जीप के गियर बॉक्स को उतार कर नीचे रखना होगा। उसके लिए बांस की जरूरत होगी और बाँस यहाँ मिलेगा कहाँ ? हमलोगों ने देखा कि अब तक तो बहुत देर हो चुकी है। इस समय वहां से कहीं भी जाना इस समय सम्भव नहीं था, उस समय कुछ भी करने का उपाय नहीं था। 
            बहुत संकोच के साथ उस चाय दुकान वाले से पूछा कि क्या यहाँ पर रात में ठहरा जा सकता है? वह बोला आपलोग यहाँ कैसे रह पाएंगे ? मेरी दुकान कोई दुमंजिला मकान तो है नहीं। यही बस बांस-बल्ली से ऊपर एक छाउनी (barrack) जैसा बना हुआ है। আমাদের এখানে একটা মই দিয়ে উঠতে হয়, हमलोगों को एक सीढ़ी से उसी मचान पर चढ़कर सोना पड़ता है। वहाँ पर थोड़ा पुआल रखा हुआ है, इसी सीढ़ी से ऊपर चढ़कर यदि आपलोग भी सोना चाहें, तो सो सकते हैं।" 
 " हमें कोई आपत्ति नहीं है। किन्तु, भोजन का क्या होगा ? हमारे पास खाना बनाने का कोई साधन तो है नहीं। केवल एक-दो पॉकेट बिस्कुट है। तुम्हारे पास क्या आंटा है ?" 
           " हाँ आंटा तो है। " --"और क्या है, चीनी है ? " हाँ, चीनी भी है। "----- " क्या तुम कुछ रोटियाँ बना दे सकते हो ?" ----" यदि आपलोग कहेंगे , तो बना दूँगा। " उसने जब रोटी बना दी तो हमलोगों ने उसे खाकर जितना सम्भव था, पेट भरकर पानी पी लिया। खा-पीकर उसी सीढ़ी से मचान पर चढ़कर किसी प्रकार रात बिताई। अगले दिन सुबह में -वह पुर्जा कैसे प्राप्त होगा --यही चर्चा चल रही थी। 
            हमलोग जब नीचे उतरे तो मन में विचार आया कि अच्छा, एक बार देख लिया जाय कि सुबह में गाड़ी की क्या अवस्था है ? सुबह में जब इंजन को स्टार्ट किया तो स्टार्ट हो गया, गियर भी लगने लगा, गाड़ी आगे-पीछे भी हुई। बैक करने पर गाड़ी पीछे से आकर सामने सड़क पर खड़ी भी हो गयी। यह देखकर सभी आश्चर्यचकित रह गये कि यह क्या हुआ ? यह चमत्कार कैसे हुआ ? 
           बहुत देर के बाद यह बात समझ में आई कि कल हमलोग जब लगातार चढ़ाई चढ़ रहे थे, उसके कारण तेल कहीं से लीक होकर गियर बॉक्स में प्रविष्ट हो गया था और पुर्जे को ज्यादा गीला कर दिया था, जिसके कारण वह पुर्जा काम नहीं कर रहा था। इसलिए वह समस्या हुई थी। सारी रात गाड़ी खड़ी रही, जिसके कारण तेल सूख गया होगा, जिसके कारण वह सुबह में फिर से काम करने लगी। जो हो, संकट खत्म हो गया था, हमलोग मायावती जा रहे थे ! 
           मायावती तक आराम से आ गये। वहाँ पर हम सभी के लिये रहने की व्यवस्था थी। घूम-फिर कर आस-पास के सभी उल्लेखनीय स्थानों को देख आया। स्वामीजी के लिये जहाँ 'ध्यानघर' बना था, उस स्थान पर बैठकर ध्यान करते समय, वहाँ की निस्तब्धता से लगता था , मानो जगत का अस्तित्व ही न हो। Smallpox (शीतला, बड़ी माता, वसन्तरोग या चेचक ?) से आक्रान्त रहते समय जो देखा था कि " मैं मर गया हूँ, जाते जाते जिस स्थान पर मेरे शरीर को रखकर उसका दाहसंस्कार किया गया था, उस स्थल को, अर्थात कैप्टन सेवियर के समाधि -स्थल को भी देखा। ( বসন্তরোগর সময় আমার যা দেখা ছিল --মারা গেছি , যাবার পর যেখানে দাহ হয়েছিল শরীর, সেই সেভিয়ারের সমাধির জায়গাটা দেখলাম।) 
              उस समय अद्वैत आश्रम, मायावती, अल्मोड़ा, हिमालय के प्रेसिडेन्ट (अध्यक्ष) थे स्वामी बुद्धानन्द [वही जो दादा के गाईड थे ? স্বামী বুধানন্দ ?], वहाँ से लौटते उन्होंने हमलोगों से कहा -" नवनी बाबू, आप एक काम कर सकेंगे ? मैंने कहा, कहिये महाराज। तो महाराज ने कहा कि एड्ड नामक एक अमेरिकन भक्त आया हुआ है ...उनको भी अपने साथ जीप में ले जाकर जहाँ मैदानी भू-भाग मिले इनको उतार दीजियेगा, ये वहाँ से खुद चले जायेंगे। मैंने कहा -'हाँ, महाराज निश्चित ही सही जगह पर उतार दूंगा। 
            वे अमेरकी भक्त आगे की सीट पर मेरे दाहिनी ओर आकर बैठ गए। [क्योंकि पानागढ़ से खरीदी हुई जीप में  steering wheel बायीं तरफ ही होती है। मेरा पहला जीप भी पानागढ़ डिस्पोजल जीप ही था] परन्तु वे इतने विशालकाय थे कि उधर के सीट की तल्ली थोड़ी दब गई थी। वहाँ से कितने सुन्दर दृश्यों का अवलोकन करते हुए हमलोग धीरे धीरे नीचे उतर आये। उतरते - उतरते काफी रात्रि हो चुकी थी, एक ऐसे जगह में आ पहुँचे जहाँ एक भी दुकान-मकान खुला हुआ नही दिख रहा था, और बहुत खोजने से भी ठहरने की कोई जगह नहीं मिली। अब, क्या किया जाय ? तब हमलोगों की दृष्टि भैंस के एक तबेले पर जा पड़ी।  वहाँ बहुत सी भैसे थीं। और जो लोग उन भैंसो को रखते थे, उनके बैठने के लिये खटिया-चौकी कुछ रखा था। दुकान सभी बन्द हो चुके थे। एक दुकान के भीतर बत्ती जाल रही थी।  उसकी दुकान से कुछ मिठाई खरीद कर लाये और सबों ने मिल-बाँट कर खा लिया।  एड्ड साहब को भी खिलाया गया. खाने के बाद उसी भैसे के तबेले के सामने थोड़ी खाली जगह थी, वहीं पर खटिया आदि डाल कर किसी प्रकार रात्रि बीता दी गयी।  पर एड्ड साहब इतने लम्बे थे कि उनका सिर खटिया से बाहर हो रहा था। 
              दूसरे दिन सुबह होने पर वहाँ से हमलोगों ने आगे की यात्रा शुरू की।  फिर से मीलों दुरी तक सड़क पार करने के बाद, एक जगह पर चाय की दुकान दिखी, तो हमलोगों के मन में भी चाय पीने तथा कुछ नाश्ता करने की ईच्छा जाग्रत हुई। किन्तु मि० एड्ड ने कहा, "  महाराज ने तो मुझ को बताया है कि बाहर की कोई चीज खाना नहीं है।' पर हमलोगों ने सोचा अब यहाँ से कितने मील दूर जाने पर कोई अच्छा सा होटल मिलेगा, यह निश्चित नहीं है। मैंने उनको समझाते हुए कहा, ' देखिये, पहली बात तो यह है कि वह जिस मिट्टी के कप में चाय दे रहा है उसमे किसी virus (विषाणु) आदि के रहने की सम्भावना नहीं है, उन लोगों ने उसको अच्छी तरह से धो भी दिया है।  उसके बाद यह चाय भी खौलते हुए पानी में बनाया गया है, इसीलिये उसमें यदि virus आदि होंगे भी, तो वे सभी मर ही गए होंगे।  बात मानिये , हमलोग तो चाय पी ही रहे हैं, आप भी थोड़ी चाय पी कर देखिये।  तब वह मिट्टी के प्याली में एक प्याली चाय पी कर बोलते हैं - " और पिऊंगा, थोड़ी चाय और पिऊंगा।  " उसने दो-तीन प्याली चाय पी।
                          दुकानदार उस समय पकौड़े तल  रहा था।  हमलोग तो पकौड़े खाएँगे ही, सुबह से कुछ खाया भी नहीं था।  हमलोगों ने पकौड़े खाए।  उसने पूछा - " What is that ?" मैंने कहा वह यहाँ का " Oil cake "है। यदि इसे  एकबार मुँह में डाल लिये तो फिर मांग मांग कर खाइयेगा।  " Is it so ? " यह कहकर उनको एक पकौड़ा दिया गया।  वे  उसे खाने के बाद बहुत खुश हुए  और फिर और दो-चार पकौड़ा खा लिया।  खा-पीकर फिर हमलोगों के साथ चलने लगे।  इसी प्रकार काफी दूर तक आने के बाद, उसको एक ऐसे स्थान पर लाकर उतार दिया गया जहाँ से वे  अपनी आगे की यात्रा को अकेले ही पूरी कर सकते थे।  वे चले गए।  बहुत दिनों बाद महाराज ने कहा था कि एड्ड ने पत्र में लिखा था कि " मेरा उनलोगों ने बहुत ख्याल रखा था।  किन्तु एक दिन रात्रि के समय, We had to pass a night in a stable. " तो महाराज बोले कि इसके उत्तर में मैंने लिखा था, " But this is wonderful , Was not Jesus Christ born in a stable ? " इस प्रकार से महाराज ने एड्ड का हौसला बढाया था।
    ऐसी कितनी ही घटनायें हैं। कुछ चन्दा भी एकत्र हो गया, किन्तु इसके साथ ही साथ हमलोगों ने 'अद्वैत आश्रम,' मायावती का दर्शन भी कर लिया।  फिर वहाँ से लौटते समय हमलोग रामकृष्ण मिशन के अल्मोड़ा आश्रम भी गये थे। उस समय जो संन्यासी सुन्दरबन के मनसाद्वीप में पोस्टेड थे, वे ही तब वहाँ के प्रमुख थे।  कितने ही वर्षों के बाद उनसे भेंट हुआ। वहाँ पर उन्होंने मुझे एक काम सौंप दिया। उन्होंने कहा - " बहुतों से पहले भी कह चुका हूँ, किसी ने किया। 'वशी सेन की स्त्री' (पत्नी) ने अल्मोड़ा के ऊपर एक छोटा सा संस्मरणात्मक निबन्ध लिखा था, जो मेरे पास वैसे ही पड़ा हुआ है।  क्या उस निबन्ध के साथ अल्मोड़ा के बारे में स्वामीजी से सम्बन्धित तथ्यों को एकत्र करके आप एक पुस्तिका लिख सकते हैं ? 
               मैंने कहा- " महाराज यह तो मेरा परम सौभाग्य होगा कि मैं उन सभी स्थानों का दर्शन कर लूँगा जहाँ- जहाँ स्वामीजी गये थे। "  तब एक सन्यासी महाराज मुझे अपने साथ लेकर उन सभी स्थानों का दर्शन करवा दिए। पर मैं यह भी अनुभव कर रहा था कि उन स्थानों पर वे मुझे प्रायः अकेला छोड़ कर, स्वयं थोड़ी देर के लिये किनारे हो जाते थे। 
             मैंने उन सभी स्थानों पर बैठ कर स्वामीजी का ध्यान करने की चेष्टा की थी। एवं जिस स्थान पर दो नदियाँ आकर मील गयीं हैं, वहाँ पर जिस विशाल वृक्ष के नीचे बैठ कर स्वामीजी ने ध्यान किया था और जहाँ कहा था- " आमार जीवनेर एकटा मस्त समस्या आमि महाधामे फेले दिये गेलुम ! " (आज मेरे जीवन की एक बहुत गूढ़ समस्या का समाधान इस महा धाम में प्राप्त हो गया है !) वहाँ बैठकर ध्यान करने से  मेरा (नवनीदा का) ह्रदय भी महा आनन्द से भर गया था। ह्रदय में एक अदभुत सिहरन सा हुआ था 
              इसी तरह अन्य कई महत्वपूर्ण तथ्यों का संग्रह कर के " अल्मोड़ार आकर्षण " नाम से एक छोटी सी पुस्तिका की सामग्री तैयार हुई। किन्तु, तब मैंने कहा- " महाराज यहाँ पर बैठ कर तो मैं लिख नहीं पाउँगा।  मैंने समस्त तथ्यों को एकत्र कर लिया है।  मैं घर जाकर लिखूंगा और आपको भिजवा दूंगा।"  आने का बाद जब लिखना हो गया तो उनको सूचित कर दिया।  उन्होंने कहा - " यहाँ पर बंगला भाषा में उस पुस्तिका को छपवाने में असुविधा होगी।  आप क्या उसको छपवा कर भी भेज सकते हैं ? " तब उस  पुस्तक को महामण्डल  द्वारा छपवा कर उसकी कुछ हजार प्रतियाँ हमलोगों ने अल्मोड़ा भिजवा दी थीं।  
                उसके बाद उन्होंने कहा " अच्छा यह तो बंगला भाषा में है, अंग्रेजी में जो कुछ थोड़ी बहुत जानकारी उपलब्ध भी है तो उसमे कितने ही तथ्य नहीं हैं।  क्या इस पुस्तिका को हिन्दी में  छपाया  जा सकता है ? यहाँ के अधिकांश लोग तो बंगला पढना ही नहीं जानते हैं। " उसके बाद उसी पुस्तिका को [झुमरीतिलैया से]  हिन्दी में अनुवादित कर अल्मोड़ा भिजवा दिया था। इस प्रकार थोड़ा-बहुत श्रीरामकृष्ण-देव, माँ सारदा देवी की तो सेवा हुई ही , वहाँ आने वाले भक्तों की सेवा भी हुई, आश्रम की सेवा करने का सौभाग्य भी मुझे प्राप्त हुआ।
           [ झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल के द्वारा ' अल्मोड़ा का आकर्षण '- नामक हिन्दी महामण्डल पुस्तिका के प्रथम संस्करण का मुद्रण कैथोलिक प्रेस, पुरुलिया रोड, राँची से 14 अप्रैल 1997 को करवाया गया था; और उसके प्रकाशक थे महामण्डल के तात्कालीन उपाध्यक्ष श्री तनुलाल पाल। क्योंकि उस समय तक 'हरिओम प्रेस' झुमरीतिलैया (वर्तमान मुद्रक) के साथ महामण्डल का सम्पर्क नहीं था। ]   
                अब मुझे बार -बार कहीं जाने की जाने की ईच्छा नहीं होती है।  किन्तु,  एक जगह जाने से वहाँ से दूर एक पहाड़ के शिखर पर दंडायमान एक वृक्ष को लगातार टकटकी लगाकर देखने की ईच्छा होती थी।  वह वृक्ष स्वामीजी के समय में भी  था।  ऐसा लगता था मानो कोई जीवित प्राणी ऊपर खड़ा है।  बहुत दिनों तक उस (अद्वैत?) आश्रम के लाइब्रेरी कक्ष में मेरे रहने की व्यवस्था की गयी थी।  रात्रि के समय में उस कक्ष के बाहर निकाल कर मैं चुपचाप बैठे हुए उस वृक्ष को ही देखता रहता था। 
                दूसरे दिन सुबह में महाराज को मालूम हुआ तो उन्होंने कहा, " आप रात्रि वेला में बाहर बैठे हुए थे ? " मैंने कहा- " महाराज, वहाँ से सामने का दृश्य ऐसा दिखता है जहाँ बैठते ही स्वामीजी का जीवन, उनकी  बातें याद आने लगती हैं, क्या किया जाये ? " " नहीं, नहीं, वैसे बाहर नहीं  बैठियेगा, यहाँ पर कभी कभी बाघ भी घूमता है। " मैंने कहा, " बाघ सामने आ जायेगा तो क्या होगा? अधिक से अधिक खा जायेगा,  किन्तु,  उस  विहंगम दृश्य को तो छोड़ा नहीं जा सकता ! इसी तरह की अन्य प्रकार की जानकारियाँ इस जीवन में मिली हैं। कुछ -कुछ सेवा करने का सूयोग भी कितने ही तरीके से कितने स्थानों पर प्राप्त हुआ है। " (जीवन नदी के हर मोड़ पर - हिन्दी पृष्ठ 188/बंगला 118 -122)
               अद्वैत आश्रम का उद्घाटन समारोह 19 मार्च, 1899 को हुआ, जो कि हिन्दू कैलेंडर के अनुसार उस वर्ष अद्वैतस्वरुप श्री रामकृष्ण परमहंसदेव की जन्मतिथि - 'फाल्गुन शुक्ल द्वित्या' थी ! और स्वामी जी का विश्वास था कि " श्रीरामकृष्ण की जन्मतिथि से ही सत्ययुग का प्रारम्भ हो चुका है !"  
                   इस अवसर पर  स्वामी विवेकानन्द ने  'अद्वैत आश्रम' मायावती, अल्मोड़ा, हिमालय के संचालन के संबंध में एक 'प्रोस्पेक्ट्स' ( उद्देश्य और कार्यक्रम पुस्तिका) में सम्मिलित किये जाने के लिये जो दिशानिर्देश स्वामी स्वरूपानन्द को  स्वामी जी ने मार्च, 1899 को लिखित पत्र में लिख भेजी थीं, वह वि ० सा० खण्ड 9 के 318 वें पृष्ठ पर 'अद्वैत आश्रम, हिमालय ' शीर्षक से वर्णित हैं [अंग्रेजी में Volume 5, Writings: Prose and Poems/ 
THE ADVAITA ASHRAMA, HIMALAYAS.]  
उपरोक्त  पत्र में बिन्दुवार ढंग से अद्वैत-दर्शन को जिन गहन भावपूर्ण शब्दों में समझाया गया है, उसका उल्लेख करना यहाँ आवश्यक जान पड़ता है: 
  
CXXXIV

[The Complete Works of Swami Vivekananda/Volume 9/Letters - Fifth Series]
To Swami Swarupananda, editor of Prabuddha Bharata, Mayavati.
 
[March 1899]

MY DEAR S [WARUPANANDA],

                                         I have no objection whether Mrs. Sevier's name goes on top or mine or anybody else's; the prospectus ought to go in the name of the Seviers, mustering my name also if necessary. I send you a few lines for your consideration in the prospectus. The rest are all right.
                   I will soon send the draft deed.
V.  
" प्रिय एस (स्वरूपानन्द)
                   मुझे कोई आपत्ति नहीं है कि आश्रम  के  'Prospectus ' (या उद्देश्य और कार्यक्रम  पुस्तिका) में शीर्ष स्थान पर श्रीमती सेवियर का नाम हो या मेरा,  या किसी अन्य का; किन्तु  प्रेषक के जगह पर सेवियर दंपत्ति का ही नाम रहना चाहिए।  यदि आवश्यक लगे तो  मेरा नाम भी दे सकते हो।
            मैं तुम्हें अद्वैत आश्रम, मायावती के 'प्रॉस्पेक्टस' ( उद्देश्य और कार्यक्रम पुस्तिका)  में छापने के लिए तुम्हारे विचारार्थ कुछ पंक्तियां भेज रहा हूं। बाकी ठीक हैं। मैं जल्द ही ड्राफ्ट डीड भेजूंगा। प्रॉस्पेक्टस में छापने के लिए कुछ दिशानिर्देश इस प्रकार होंगे:
वि०  
(These lines there sent in a letter, March, 1899, by Swami ji , for embodying in the prospectus of the Advaita Ashrama, Mayavati, Almora, Himalayas.) 
          1. " In Whom is the Universe, Who is in the Universe, Who is the Universe; in Whom is the Soul, Who is in the Soul, Who is the Soul of Man; knowing Him —and therefore the Universe—as our Self, alone extinguishes all fear, brings an end to misery and leads to Infinite Freedom. 
           2. " Wherever there has been expansion in love or progress in well-being, of individuals or numbers, it has been through the perception, realisation, and the practicalisation of the Eternal Truth—the oneness of all beings.  
            3."Dependence is misery. Independence is happiness." The Advaita is the only system which gives unto man complete possession of himself, takes off all dependence and its associated superstitions, thus making us brave to suffer, brave to do, and in the long run attain to Absolute Freedom.
             4." Hitherto it has not been possible to preach this Noble Truth entirely free from the settings of dualistic weakness; this alone, we are convinced, explains why it has not been more operative and useful to mankind at large.
              5. " To give this one truth a freer and fuller scope in elevating the lives of individuals and leavening the mass of mankind, we start this Advaita Ashrama on the Himalayan heights, the land of its first expiration.
              6. "Here it is hoped to keep Advaita free from all superstitions and weakening contaminations. Here will be taught and practiced nothing but the Doctrine of Unity, pure and simple; and though in entire sympathy with all other systems, this Ashrama is dedicated to Advaita and Advaita alone." 

       [दादा से प्राप्त शिक्षानुरूप] उपरोक्त अंग्रेजी निर्देशों का हिन्दी भावानुवाद
               1. " In Whom is the Universe, Who is in the Universe, Who is the Universe; in Whom is the Soul, Who is in the Soul, Who is the Soul of Man; knowing Him —and therefore the Universe—as our Self, alone extinguishes all fear, brings an end to misery and leads to Infinite Freedom. 
                    प्रोस्पेक्ट्स की उपरोक्त पंक्तियाँ  ब्र० सू० १.१.२ ॥ जन्माद्यस्य यतः ॥ की गहन व्याख्या { यतो ह वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति,यत्प्रयन्ति, अभिसंविशन्ति, तद् विजिज्ञासस्व तद् ब्रह्म इति। तैत्तिरीय.२.२.१/यतः इति कारणस्य निर्देशः। यस्मात् कारणात् जगतः जन्म भवति, स्थितिः भवति, यत्र च जगतः लयः भवति, तद् ब्रह्म इति सूत्रार्थः।}  प्रतीत होती हैं।
        ब्रह्म शब्द 'बृह' धातु से बना है जिसका अर्थ बढ़ना, फैलना, व्यास या विस्तृत -बृहद होना। ब्रह्म परम तत्व है। वह जगत्कारण है। अर्थात  ब्रह्म वह तत्व है जिससे सारा विश्व उत्पन्न होता है, जिसमें वह अंत में लीन हो जाता है और जिसमें वह जीवित रहता है। जिससे सब कुछ निकला, जिसमें सब कुछ स्थित है और जिसमें सब कुछ लीन हो जाता है; उसी शुद्ध चैतन्य (Pure consciousness या माँ पार्वती जगदम्बा ) से उत्पन्न होकर भी हम उनसे प्रेम क्यों नहीं कर पाते ?  
         इस अति-दुर्लभ मनुष्य-जीवन को सार्थक नहीं बनाकर, क्या केवल, ' आहार-निद्रा-भय-मैथुन ' करके पशुओं की तरह मर जाना मनुष्य को शोभा देता है ? भगवान श्री रामकृष्ण देव ने कहा है - " जड़ की रे ? सब चैतन्य ! तोमादेर चैतन्य होक !"-अर्थात यहाँ जड़ कहकर कुछ नहीं है, सब कुछ चैतन्य है ! तुम लोगों को चैतन्य की प्राप्ति हो! और इसी अद्वैत तत्व को व्यावहारिक बनाते हुए माँ श्री श्री सारदा देवी कहती हैं -  " जगत के आपनार कोरे निते शिखो, केऊ पर नेई मा जगत तोमार ! "  अर्थात 'जगत में कोई पराया नहीं है, बेटी जगत को अपना बना लेना सीखो! ' ये दोनों उक्तियाँ विस्मय-बोधक हैं, इन आश्चर्य उक्तियों में छिपे आश्चर्य-जनक सत्य 'अभेद-दृष्टि' (ज्ञानमयी -दृष्टि, भगवनमयी दृष्टि) की उपलब्धि होने पर ही जगत भगवानमय (सियाराम मय) दिखता है, और निःस्वार्थ प्रेम सेवा-धर्म में परिणत हो जाता है।
           यह जो जड़ - चेतनात्मक जगत सर्वसाधारण के देखने , सुनने और अनुभव में आ रहा है , जिसकी अद्भुत रचना के किसी एक अंश पर भी विचार करने से बड़े से बड़े वैज्ञानिकों को आश्चर्यचकित होना पड़ता है, वह भी आत्मा ही हैं ।  परंतु वही परमात्मा  (आत्मा या ब्रह्म)  सगुण भगवान श्री रामकृष्ण देव) रूप में भी अनन्त गुणों से सुशोभित है, ऐसा वर्णन स्वयं भगवती श्रुतियां कर रही है ―  || परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ||  - श्वेताश्वेतरोपनिषद ६/८ इसलिए वे (आत्मा या ब्रह्म) प्रकृति-माया के गुणों से रहित होने के कारण 'निर्गुण' तथा स्वाभाविक ज्ञान, बल, क्रिया, वात्सल्य, करुणा, कृपा आदि अनन्त गुणों के आश्रय होने के कारण 'सगुण' (माँ काली-या ठाकुर) भी है। 
              जैसे भक्त भगवान के दर्शनों के लिए लालायित रहता है, उनसे मिलने जाता है। उसी प्रकार भगवान भी भक्तों  के दर्शन हेतु जाते है। जैसे, भक्त ध्रुव जी के दर्शनों के लिए भगवान श्रीकृष्ण मधुवन जाते है:-मधोर्वनं भृत्यदिदृक्षया गतः ― श्रीमद्भागवत महापुराण ४/९/१
              भगवान श्री रामकृष्णदेव एवं माँ सारदा देवी का भक्त कोई साधारण मनुष्य नहीं होता, इसीलिये उनके ठहरने के लिये कामारपुकुर और जयराम बाटी में सेवाश्रम बनाया गया है। जैसे भक्त भगवान् की भक्ति करता है उसी तरह भगवान भी अपने भक्तों की भक्ति करते है। शास्त्रों में उन्हें भक्तों की भक्ति करने वाला बताया गया है :- भगवान भक्तभक्तिमान् ― श्रीमद्भागवत महापुराण १०/८६/५९ इसलिए वेदवाक्य है कि -"एकम् सत् विप्राः बहुधा वदन्ति"- अर्थात एक ही सत्य तत्व भगवान (अविनाशी आत्मा या ब्रह्म) को विद्वान विभिन्न प्रकार से कहते है। "  (इसीलिए नवनीदा भी अपने भक्त दीप्येनदू जाना ..... आदि के दर्शन हेतु उनके ग्राम अयोध्यापुरी ग्राम, कांथी, मिदनापुर,बंगाल जाते थे ?) ऐसे भगवान को ही आत्मा, परमात्मा, परब्रह्म, परमेश्वर, श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीरामकृष्णदेव ,माँ सारदा देवी, स्वामी विवेकानन्द, श्रीनारायण या....श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय आदि भिन्न भिन्न नामों से पुकारा जाता है। 
              एक बार इंटरस्टेट कैम्प में दादा के बगल में बैठकर पूछे गए प्रश्नों का उत्तर मैं दे रहा था; स्कूल के एक विद्यार्थी ने प्रश्न किया - 'स्पष्ट करें कि आत्मा क्या है ?' हठात मुझे इसका कोई उत्तर नहीं सुझा ! मैंने दादा की ओर देखा, तब उन्होंने तुरन्त धीरे से हिंट किया बताओ- " जन्माद्यस्य यतः !" अतः अद्वैत आश्रम, मायावती के 'प्रॉस्पेक्टस' ( उद्देश्य और कार्यक्रम पुस्तिका) के प्रथम निर्देश का अनुवाद होना चाहिये -
               1. सम्पूर्ण ब्रह्मांड जिसके (माँ जगदम्बा के)  उदर में है, जो स्वयं ब्रह्मांड में जीव-जगत रूप से व्यक्त है, जो स्वयं विश्वरूप है। जिसके भीतर आत्मा का निवास है, जो स्वयं आत्मा के भीतर है, अर्थात जो प्रत्येक मनुष्य की आत्मा हैं; उनको (श्रीरामकृष्ण देव को) जान लेने से तथा उनके माध्यम से सम्पूर्ण जगत को ही - अपनी आत्मा के रूप में जान लेने से; हमारे सारे भय सदा के लिए समाप्त हो जाते हैं, समस्त दुखों का अंत हो जाता है! और वह अनुभूति ही हमें अनन्त स्वतंत्रता अर्थात 'आत्मनिर्भरता' [डीहिप्नोटाइज्ड अवस्था-'प्रवृत्ति (भेंड़त्व) से होकर निवृत्ति (सिंहत्व) में स्थित रहने] की ओर अग्रसर करा देती है।  
              2. " Wherever there has been expansion in love or progress in well-being, of individuals or numbers, it has been through the perception, realisation, and the practicalisation of the Eternal Truth—the oneness of all beings. 
              Prospectus के निर्देश 2 का हिन्दी अनुवाद हुआ -- " जिस किसी व्यक्ति या संगठन में ' Expansion in Love ' व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपान्तरित करने की क्षमता  या अपने -पराये का भेदभाव किये बिना 'निःस्वार्थ -प्रेम' करने की क्षमता में वृद्धि हुई है - या हृदय का विस्तार हुआ है; तो वह इस शाश्वत सत्य (Eternal Truth)-  " एकम् सत् विप्राः बहुधा वदन्ति" धरती ही परिवार है (वसुधा एव कुटुम्बकम्)  -The Oneness of all beings ' अर्थात 'समस्त प्राणी का एकत्व' के ज्ञान (perception) और अनुभव (realisation) के 'practicalisation'- प्रयोगात्मक रूप देने में प्रशिक्षित और 'जय राधे Be and Make C-In-C' परम्परा में चपरास प्राप्त नवनीदा जैसे आचार्य/ शिक्षक या नेता द्वारा आयोजित "युवा नेतृत्व-प्रशिक्षण शिविर " के माध्यम से ही हुई है।             
          अल्मोड़ा से 15 June, 1897 को स्वामी अखण्डानन्द को लिखित पत्र में स्वामी जी ने कहा था -   "हृदय और केवल हृदय ही विजय प्राप्त कर सकता है, मस्तिष्क नहीं। प्रेम से अलौकिक शक्ति मिलती है, प्रेम से भक्ति उत्पन्न होती है, प्रेम ही ज्ञान देता है, प्रेम ही मुक्ति की ओर ले जाता है। वस्तुतः यही उपासना है-मानव शरीर में स्थित ईश्वर की उपासना ! नेदं यदिदमुपासते  --'वह' (witness consciousness) जिसके द्वारा मन (reflected  consciousness) स्वयं मनन का विषय बन जाता है, 'उसे' ही तुम 'ब्रह्म' जानो, न कि इसे जिसकी मनुष्य यहां उपासना करते हैं। (केनोपनिषद् 1. 5) लोगों को यह देखने दो कि हमारे प्रभु (श्री रामकृष्ण) के चरणों के स्पर्श से मनुष्य को देवत्व प्राप्त होता है या नहीं!  जीवनमुक्ति इसीका नाम है , जब अहंकार और स्वार्थ का चिन्ह भी नहीं रहता। " ६/३३५    
             अल्मोड़ा से 30 May, 1897 लिखित एक पत्र में स्वामी जी कहते हैं - " मैं एक निर्गुण पूर्ण ब्रह्म को देखता हूँ, और कुछ कुछ समझता भी हूँ। और इने -गिने व्यक्तियों (संगठनों) में मैं उस ब्रह्म का विशेष आविर्भाव भी देखता हूँ; यदि वे ही व्यक्ति ईश्वर के नाम से पुकारे जायें तो मैं इस विचार को ग्रहण कर सकता हूँ परन्तु बौद्धिक सिद्धान्तों द्वारा परिकल्पित विधाता (चमत्कारी साईं बाबाओं) आदि की ओर मन आकर्षित नहीं होता।
              ऐसा ही एक ईश्वर मैंने अपने जीवन में देखा है और उनके आदेशों का पालन करने के लिये ही मैं जीवित हूँ। उपनिषद और गीता सच्चे शास्त्र हैं, और राम, कृष्ण , बुद्ध , चैतन्य , नानक,कबीर आदि सच्चे अवतार हैं; क्योंकि उनका हृदय आकाश के समान विशाल थे-और इन सबमें श्रेष्ठ हैं रामकृष्ण। रामानुज , शंकर इत्यादि संकीर्ण हृदयवाले केवल पण्डित मालूम होते हैं। वह प्रेम कहाँ है , वह हृदय जो दूसरों का दुःख देखकर द्रवित हो ?
              प्रश्न उठता है -  क्या अहंभाव (M/F) का अल्पांश भी रहने से कोई शिक्षक/नेता  प्रवृत्ति धर्म से होकर निवृत्ति धर्म में स्थित हो सकता है ?  अर्थात अहंभाव का अल्पांश भी रहने से कोई व्यक्ति कभी 'भेंड़त्व' के भ्रम से डीहिप्नोटाइज्ड होकर 'सिंहत्व' में  कभी स्थित हो सकता है ? 
           इसी विषय को स्पष्ट करते हुए स्वामी जी कहते हैं - " क्या अहंभाव का अल्पांश भी रहने से भी भ्रममुक्त हुआ जा सकता है ? जाति -भाव सबसे अधिक भेद उत्पन्न करनेवाला और माया का मूल है। पुरोहितों की लिखी हुई पुस्तकों में ही जातिगत भेदभाव जैसे पागल विचार पाये जाते हैं, ईश्वर द्वारा प्रकट की हुई पुस्तकों (गीता और उपनिषदों) में नहीं। अपने पूर्वजों के कार्य का फल पुरोहितों को भोगने दो, मैं तो भगवान की वाणी का अनुसरण करूँगा , क्योंकि उसी में मेरा कल्याण है। निःस्वार्थ सेवा ही धर्म है, और बाह्य-आचार अनुष्ठान आदि केवल पागलपन है; यहाँ तक कि अपनी मुक्ति की अभिलाषा करना भी अनुचित है। मुक्ति केवल उसके लिये है जो दूसरों के सर्वस्व त्याग देता है -(निर्विकल्पसमाधि के महान आनन्द को भी त्याग देता है !)" ६ /३२७ 
             " निःसन्देह गीता हिन्दुओं की बाइबिल बन चुकी है और वह इसके सर्वथा योग्य भी है। परन्तु 5000 वर्ष बीतते -बीतते श्री कृष्ण का व्यक्तित्व काल्पनिक कथाओं से इतना ढंक गया है, कि उनके जीवन से जीवनदायिनी स्फूर्ति प्राप्त करना आज असम्भव सा जान पड़ता है। दूसरे , वर्तमान युग में नयी विचार- प्रणाली (प्रशिक्षण -पद्धति) और नवीन जीवन (जीवनमुक्त शिक्षक) की आवश्यकता है। " ६/३२८
      वर्तमान युग में नयी प्रशिक्षण-पद्धति और  " विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर वेदान्त Be and Make 'C-In-C' नेतृत्व-प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित और 'जय राधे चपरास प्राप्त' नवनीदा जैसे शिक्षक/नेता के नेतृत्व में  नवीन जीवन्मुक्त शिक्षकों का निर्माण  करने के उद्देश्य से ही महामण्डल को अविर्भूत होना पड़ा है। किन्तु सभी लोग (गृही और संन्यासी) महामण्डल के 'उद्देश्य और कार्यपद्धति ' को क्यों नहीं समझ पाते हैं ? महामण्डल के 'अद्वैत-Be and Make आन्दोलन' को समझने की 'Precondition ' या पूर्वशर्त क्या है ? इसका उत्तर देते हुए  कठोपनिषद (1.2.24) में कहा गया है -
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः ।
नाशान्तमानसो वाऽपि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥ 
[शंकर भाष्य - न दुश्चरितात् = प्रतिषिद्धाच्छ्रुति-स्मृत्यविहितात्पाप-कर्मणः अविरतः = अनुपरतः । नापि इन्द्रिय-लौल्यात् अशान्तः = अनुपरतः । न अपि असमाहितः = अनेकाग्रमनाः=  विक्षिप्त-चित्तः । समाहित-चित्तोऽपि सन्समाधान-फलार्थित्वात् नापि अशान्तमानसः = व्यापृत-चित्तो वा । प्रज्ञानेन = ब्रह्मविज्ञानेन एनं = प्रकृतमात्मानम् आप्नुयात् । यस्तु दुश्चरिताद्विरत इन्द्रिय-लौल्याच्च, समाहित-चित्तः समाधान-फलादप्युपशान्त-मानसश्चाचार्यवान् प्रज्ञानेन एनं यथोक्तमात्मानं प्राप्नोतीत्यर्थः ॥ १.२.२४॥]  
अर्थात इस इन्द्रियातीत 'आत्म-तत्व' को केवल पुस्तकों (सदग्रन्थों-गीता, उपनिषद आदि) को पढ़कर  ही नहीं जाना जा सकता, जब तक कि कोई व्यक्ति पर्याप्त मात्रा में व्यर्थ के आचार -व्यवहार और विचार करने की निस्सारता को समझकर, बुरे चरित्र से बिल्कुल अविरत नहीं हो जाता, या प्रवृत्ति मार्ग की निस्सारता को समझकर निवृत्ति मार्ग में वापस नहीं आ जाता।  क्योंकि जिसकी इन्द्रियों में सतोगुण की प्रधानता (sattva-predominance) नहीं है, ये मन- बुद्धि, चित्त-अहंकार जिसके आधीन नहीं हैं, जिसका मन शांत और स्थिर नहीं हुआ है, वह आत्मा के ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकता। 
[This ātman cannot be attained simply through learning scripture if, to a sufficient degree, one has not withdrawn from unhelpful (kliṣṭa) conduct and thoughts, has no clarity (sattva-predominance) of the senses, has no steadiness of mind, and has no peace of mind. steadiness = और हमने आदम से पहले ही, वचन (covenant =प्रतिज्ञा पत्र) ले लिया था कि वह उस 'निषिद्ध वृक्ष के फल' को नहीं खायेगा, किन्तु वह भूल गया और अपने इरादे पर दृढ़ (steady) न रह सका। ] 
           यहाँ आचार्य यम, सत्यार्थी नचिकेता को यह समझा रहे हैं कि वेदान्त को समझने का अधिकारी कौन नहीं है ? वे कहते हैं - कि केवल साधारण बुद्धि या युक्ति-तर्क (Common Logic) के बल पर, नित्य परिवर्तनशील होने के कारण जड़ शरीर और मन (2-H) को नश्वर, और अपरिवर्तन-शील होने के कारण आत्मा (3rd'H' ) को अविनाशी समझ लेने से भी , हम उस इन्द्रियातीत 'सत्य' की अनुभूति तब तक नहीं कर सकते; जब तक कि हम निषिद्ध कर्मों से या शास्त्र-विरुद्ध कर्मों से विरत नहीं हो जाते।
        'जीवन्मुक्त शिक्षक बनने और बनाने की अनिवार्यता' को स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानन्द अपने  'विश्व के महान शिक्षक' नामक भाषण (वि० साहित्य ख ०७) में कहते हैं - 
          " हम किसी तात्विक ज्ञान [Be and Make] को केवल तभी समझ पाते हैं, जब वह हमे किसी व्यक्ति विशेष के माध्यम से प्राप्त होता है। किसी सूक्ष्म तत्व की धारणा में हम तभी समर्थ होते हैं, जब वह किसी पुरुषविशेष [नवनीदा] में साकार रूप धारण कर लेता है। केवल दृष्टान्त की सहायता से ही हम उपदेशों को समझ पाते हैं। काश! ईश्वरेच्छा से हम सब इतने उन्नत होते कि हमें तत्वविशेष [Be and Make ] की धारणा करने में जीवंत दृष्टान्तों एवं आदर्श पुरुषों (जीवनमुक्त  शिक्षकों) की आवश्यकता न पड़ती। किन्तु हम उतने उन्नत नहीं हैं।  और इसलिये किसी 'व्यक्तिविशेष की अर्चना' करने के लिये हम विवश हैं, तथा यह हितकारी भी है। " 
'गीता' 2 /23 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - 
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।
।।2.23।। इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और न अग्नि इसे जला सकती है ; जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।
           सूक्ष्म वस्तु (अदृष्ट-अगोचर वस्तु) को सदैव स्थूल (दृष्ट-गोचर) वस्तुओं के उदाहरणों के माध्यम से ही समझा जा सकता है। केवल परिभाषा देने से वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म वस्तु अज्ञात ही रहेगी। यह तो सर्वविदित है कि प्रकृति के नाश के साधनों - शस्त्र, अथवा अग्नि, जल और वायु आदि के द्वारा स्थूल वस्तु  (दृष्ट-गोचर) वस्तुओं का नाश करना संभव है। लेकिन इनमें से किसी भी साधन के द्वारा सूक्ष्मातिसूक्ष्म आत्मा का नाश नहीं किया जा सकता। 
             सिद्धान्त (doctrine) यह है कि  -'स्थूल साधन अपने से सूक्ष्म वस्तु का नाश नहीं कर सकता।' यहाँ भी भगवान् श्रीकृष्ण अविकारी नित्य आत्मतत्त्व का परिचय अर्जुन को और आमजनों के लिए परिचित नित्य परिवर्तनशील जगत् के उदाहरण द्वारा समझाते हैं। शस्त्र इस आत्मा को काट नहीं सकते, क्योंकि यह सर्वविदित है कि एक कुल्हाड़ी से वृक्ष आदि को काटा जा सकता है, परन्तु उसके द्वारा जल, अग्नि, वायु या आकाश को किसी प्रकार की चोट नहीं पहुँचायी जा सकती। इसलिये स्वाभाविक ही है कि 'सूक्ष्मतम तत्त्व आत्मा' - जो कि  आकाश से भी सूक्ष्म है का नाश शस्त्रों से नहीं हो सकता
         और यदि ' प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है'- तो फिर महाभारत जैसा युद्ध लड़ने की आवश्यकता ही क्या थी? अथवा 'वर्तमान-भारत ' में 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन' के द्वारा 'महान-भारत' की रचना करने के लिए " विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर 'Be and Make' अद्वैत नेतृत्व-प्रशिक्षण परम्परा ' में प्रशिक्षित नेता नवनीदा के नेतृत्व में 'महामण्डल ' के आविर्भूत होने की क्या अनिवार्यता थी ?   
           अपने जीवन को ही एक-एक अनुकरणीय आदर्श शिक्षक/नेता के उदाहरण स्वरुप गढ़ते हुए  'महाभारत' की रचना का आन्दोलन चलाना या प्रयास करना, प्रत्येक युवा के लिये  इसी लिए आवश्यक है -- कि 'वही आत्मा जो सम्भावित परमात्मा ' है, जब शरीर का आवरण ओढ़ लेती है, 'same very divine soul when takes a cover of human body ' -- तब वह जन्म-जन्मान्तर से बार- बार किये गए अभ्यासों या कर्मों के कारण 'अच्छे और बुरे' गुणों को भी चरित्र में धारण कर लेती है। 
                 सनातन वेदान्त परम्परा या 'गुरु-शिष्य परंपरा' मे जब एक बालक उपनयन के बाद शिक्षा के लिए गुरु के पास जाता है , और उसकी जिज्ञासा होती है तो गुरु से पूंछता है -- " अथातो ब्रह्म जिज्ञासा", अर्थात गुरुवार मुझे ब्रह्म को जानने के बारे मे जिज्ञासा है।  तो गुरु उसको विद्याअध्ययन, तप, शील या चरित्र के गुण -दोष  और धर्म की शिक्षा देते हैं।  लेकिन धर्म पालन का अभ्यास (महामण्डल द्वारा निर्देशित 5 अभ्यास) कर लेने के बाद एक दिन शिष्य जब पुनः कहता है कि - " गुरुवर अब तो मेरे जिज्ञासा शांत करो !"
              तब गुरु/नेता नवनीदा  प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्म के अधिकारी भेद को समझाकर - एक दिन कहते हैं -- चाहे तुम किसी भी मार्ग के अधिकारी साधक क्यों न हो, फिर भी - " तत्वमसि" अर्थात वह ब्रह्म तुम्हीं हो ! यानि  जिस परमसत्य की खोज मे तुम जिज्ञासु और आतुर हो (मुमुक्षु हो) वो तुम्हारे भीतर ही है।  और फिर 'प्रवृत्ति मार्ग' के अधिकारी साधकों के लिये,  अधिकारी भेद का ध्यान रखते हुए उस 'अद्वै' तत्व तक पहुँचने के वैज्ञानिक मार्ग  - "अष्टांग योग के केवल 5 अंगों का प्रशिक्षण" देते हैं। और फिर जब " विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर 'Be and Make' अद्वैत नेतृत्व-प्रशिक्षण परम्परा ' कोई प्रशिक्षित महामण्डल कर्मी, लीडरशिप ट्रेनी बिल्कुल निःस्वार्थ होकर (तीनो एषणाओं को त्याग कर)  महामण्डल आन्दोलन को सम्पूर्ण भारत में फ़ैलाने के लिए स्वयं आगे बढ़ कर 'इंटरस्टेट मॉनिटरिंग'  करने में जुटा रहता है, वह निश्चित रूप से जगत के सत, असत  और मिथ्या का ज्ञान प्राप्त  कर समदर्शी ब्रह्मत्व को प्राप्त कर लेता है। अर्थात अब उसमें 'M/F अहं ' का अल्पांश भी नहीं रहता। ईश्वर की कृपा से वह महामण्डल कर्मी जब अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं बोध में रूपान्तरित करने में समर्थ हो जाता है; तब  एक समय वह स्वतः उद्घोष कर उठता है कि "अब - अहं ब्रह्मास्मि!
              स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - "हमारे देश में सबसे अधिक आदर और सम्मान एक शिक्षक को मिलता है, तथा उनके प्रति हमारी ऐसी श्रद्धा रहती है कि शिक्षक मानो साक्षात् ईश्वर ही हैं ! जितनी श्रद्धा हमें अपने शिक्षकों  (जीवन्मुक्त शिक्षक या मार्गदर्शक नेता) के प्रति रहती है; उतनी श्रद्धा हमें अपने माता-पिता के लिए भी नहीं होती। माता-पिता हमें केवल जन्म देते हैं,किन्तु शिक्षक (नेता) हमें अपने जीवन में वेदान्त का अभ्यास सिखाकर मोक्ष का मार्ग दिखाते हैं। "
         " शिक्षक (आचार्य, मानवजाति का मार्गदर्शक नेता) होने की अपेक्षा जीवन्मुक्त होना सरल है। क्योंकि जीवन्मुक्त संसार को स्वप्नवत मानता है और उससे कोई वास्ता नहीं रखता। किन्तु आचार्य को यह ज्ञान होने पर भी कि जगत स्वप्नवत है, उसमें रहना और कार्य करना पड़ता है। आचार्य को मानो स्वप्न और जाग्रत, इन दोनों अवस्थाओं के बीच खड़ा होना पड़ता है। उसे यह ज्ञान रखना ही पड़ता है कि जगत सत्य है, अन्यथा वह शिक्षा क्योंकर देगा ? फिर, यदि उसे स्वयं ही यह अनुभूति न हुई हो कि जगत स्वप्नवत है ; तो उसमे और एक साधारण आदमी में अन्तर ही क्या -और वह शिक्षा भी क्या दे सकेगा ? " ३/२६१  
             इसलिये चाहे कोई प्रवृत्ति धर्म का पालन करने वाला शिक्षक हो, या निवृत्ति धर्म का पालन करने संन्यासी हो, उन्हें स्वयं 'C-IN-C ' अर्थात एक सच्चरित्र देह-मन वाला नेता- 'a good virtuous soul-body '' बने रहने के लिए, किसी न किसी अनगढ़े चरित्र वाले युवा  'an ill virtuous soul-body' का चयन करके, उसको एक भावी शिक्षक (would be leader) के रूप प्रशिक्षित करने के कार्य में  निरंतर संलग्न रहना आवश्यक है।  ताकि उसे स्वयं स्वामी विवेकानन्द की 'कुत्तों की घुंघराले पूंछ' (Dogs curly Tail) वाली कहानी  का स्मरण सदैव बना रहे, नहीं तो वह भी तीन एषणाओं की माया में फंस कर, 'विवेकज-ज्ञान' की भ्रममुक्त (d-hypnotized) अवस्था को भूल जायेगा और फिर से सिंह-शिशु से भेंड-शिशु  में परिणत हो जायेगा। किन्तु जिस विवेकानन्द जैसे शिक्षक को ' Be and Make -वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा' में अपने गुरु से शिक्षा देने का चपरास प्राप्त हो जाता है, उन्हें पुनः पथभ्रष्ट होने का भय नहीं होता, इसलिए वे हमें निरंतर मुक्ति का मार्ग दिखलाने में समर्थ हो जाते हैं। अर्थात चपरास प्राप्त शिक्षक ही 'सिंह-शावक' को अपना स्वरुप पहचान कर 'भेंड़ होने के भ्रम से मुक्त', जागृत या डी-हिप्नोटाइज्ड (awakened-प्रबुद्ध) हो उठने का मार्ग दिखलाने में समर्थ हैं !
          नवनीदा कहते थे कि - पशु (कीट) और प्रभु (ईसा) में विरोध नहीं विकास है। दुर्जन को भी सज्जन में रूपान्तरित किया जा सकता है।  मनुष्य के विकार भी शक्तियाँ हैं, जो अवतारवरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्णदेव के स्मरण और प्रभु में समर्पण से रूपान्तरित हो जाती हैं। इन्द्रिय सुखों का भोग दुःख लाता है, अतः जो मनुष्य प्रज्ञावान है, (बुधः) आत्मबोध को प्राप्त है ; बुद्धिमान है, तो वह उनमें लिप्त नहीं होगा। आज जो मनुष्य में पशु जैसा दिखता है, वही अन्तः प्रकृति और वाह्य प्रकृति को वशीभूत करने की पद्धति -'मनःसंयोग ' का अभ्यास करके अपनी अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त कर सकता है। मन के बहिर्मुखी दिशा को अन्तर्मुखी करने या दिशा परिवर्तित होने से ही वह दिव्यता को उपलब्ध हो जाता है।  प्रत्येक जीवन का आध्यात्मिक सच यही है कि इसमें जो अभी अदिव्य (पशुत्व) दिखता है, वह भी बीज रूप में दिव्य ही है। अपने दृष्टिकोण में यदि आध्यात्मिकता आ सके तो पता चलता है कि वस्तुतः अदिव्य एवं अपवित्र कुछ भी नहीं है। सभी कुछ यहाँ दिव्य है।  भेद केवल उस दिव्यता की अभिव्यक्ति के हैं। भगवान् श्रीरामकृष्ण देव का स्मरण और भगवान् में समर्पण होने से कुछ भी घृणा, द्वेष एवं वैर योग्य नहीं रह जाता। सच तो यह है कि जो एक छोर पर पशु है, वही दूसरे छोर पर प्रभु है। 
                  " मनुष्य के मन में स्वार्थीपन जितना बढ़ता है, मनुष्य उतना ही निष्ठुर-निर्मम हो जाता है। लोभ एवं लालच के कंटकों से विधकर उसका संवेदना स्रोत थम जाता है। कामनाओं का कीचड़ उसके अंतस् को गँदला करता है। कामनाओं की अधिकता ही उसे कुकर्म, कुसंस्कार एवं कुप्रवृत्ति की जंजीरों से जकड़ती है। इस सबसे उबरना तो तभी होता है, जब भक्ति का अंत:स्रोत फूटे। भक्ति से होती है भावों की निर्मलता और तभी गिरती हैं कामनाएँ और निरुद्ध होती हैं-- कुप्रवृत्तियाँ। "

              स्वामी जी के गुरु भाई स्वामी प्रेमानन्द जी ने एक बार कहा था - 'Before becoming a Monk, one should become a gentleman' - अर्थात संन्यासी बनने से पहले (निवृत्ति मार्ग के आध्यात्मिक शिक्षक या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनने से पहले) किसी व्यक्ति को सज्जन मनुष्य (gentleman) बनना चाहिये। 'उनका यह निर्देश प्रवृत्ति या निवृत्ति सभी मार्गों के वुड बी लीडर्स या भावी आध्यात्मिक शिक्षकों पर लागू होता है। आचार्य शंकर ने ईश्वर के इस 'जगत-संचालन कानून' को एक सूत्र  में इस प्रकार कहा है - 
दुर्जन: सज्जनो भूयात, सज्जन: शांतिमाप्नुयात्। 
शान्तो मुच्येत बंधेम्यो, मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्॥ 
 दूर्जन लोग पहले सज्जन बन जाएँ, क्योंकि जो सज्जन हैं, वे ही शान्ति प्राप्त कर सकते  हैं। फिर जो शान्त हो चुके हैं वे समस्त बन्धनों से मुक्त हो जायेंगे। जो स्वयं मुक्त हो चुके हों, वे दूसरों को मुक्त करने की चेष्टा  करते हैं। 
          मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- सज्जन और दुर्जन। जन का अर्थ होता है-मनुष्य। सज्जन माने जो मनुष्य दूर्जन नहीं है।  बोलचाल की भाषा में ' सज्जनता ' कहने से हमलोग भद्रता समझते हैं।  किन्तु यथार्थ भद्रता तभी आती है, जब मनुष्य वास्तव में 'अच्छा' (अविनाशी) या 'ब्रह्म' के साथ अपने (आत्मा के) अद्वैत  को जानकर स्वयं अच्छा ('ब्रह्मविद') बन जाता है, उसे ही सूजन,सज्जन  या चरित्रवान मनुष्य कहा जाता है। जिनके परोपकारी व्यवहार से 'सू-जन' होने का परिचय मिलता है उसी को सज्जन कहते हैं। 
         जबकि दूर्जन लोग कभी किसी का उपकार नहीं करना चाहते, फिर भी भावी नेता/आध्यात्मिक शिक्षक के लिये दूर्जनों से भी घृणा करना ठीक नहीं है। हमें उसके अज्ञान की गाँठ (Knot of Ignorance) काट देने की विद्या (५ अभ्यास) सीखनी होगी, उसके बुद्धि के भ्रम को मिटाकर (डीहिप्नोटाइज्ड) करके उसके बुद्धि का बन्धन (देहाध्यास, नाम-रूप, शरीर-मन के साथ तादात्म्य) खोल देना होगा तब वह भी सज्जन बन जायेगा। 
          महामण्डल के  'Be and Make अद्वैत-आन्दोलन' द्वारा निर्देशित 5 अभ्यास आजीवन चलना चाहिए-  ' This should be the practice of life' -क्योंकि यह देवदुर्लभ मानव-शरीर हमें इसलिए नहीं मिला है कि हम 'दुश्चरित्र' मनुष्यों की दुष्टता को बर्दास्त करते रहें, और उनकी संगति में पड़कर  अपने को भी एक सम्मोहित (Hypnotized) भेंड़ (subjugated) बना डालें । 'जीवित मनुष्य का लक्षण यही है कि, वह केवल दूसरों के कल्याण के लिए ही जीता है ; जो केवल अपने लिए जीता है, वह तो मृत से भी अधम है ' --ऐसा स्वामी जी कहते थे। आज जो 'अनेकता में एकता' का बोध रखने वाले नेताओं / शिक्षक बन चुके हैं उन्हें  भावी पीढ़ी में "एकम सत विप्रा बहुधा वदंती" के सार्वभौमिक विधान (Universal Law) का प्रचार-प्रसार करने के लिए 'विवेक-प्रयोग' सहित 5 अभ्यास का प्रशिक्षण देना चाहिए। भगवान ने कहा है - 'तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।'  मनुष्य को किसी भी हालत में प्राप्त कर्तव्य का त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उत्साह और तत्परतापूर्वक अपने -अपने कर्तव्य अर्थात 'प्रवृत्ति-निवृत्ति धर्म' का पालन करते हुए  'Be and Make अद्वैत-आन्दोलन' द्वारा निर्देशित '5 अभ्यास के आन्दोलन से जुड़े रहना चाहिए।
         किन्तु स्वामी विवेकानन्द जब परिव्राजक के रूप भारत परिक्रमा करने के बाद पाश्चात्य देशों में गए तो उन्हें यह अनुभव हुआ कि जगत में  प्रवृत्ति मार्ग के अधिकारी साधारण मनुष्यों की संख्या सर्वाधिक है। और मन को वश में करने की शिक्षा का यदि गृहत्यागी संन्यासी लोग देंगे, तो साधारण जनता  यही समझेगी  कि, मन को वश में करने के लिए या मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण लेने के लिये हमें भी संन्यास लेना होगा। जबकि मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण तो विद्यार्थी अवस्था में लेना आवश्यक है। 

              इसीलिये स्वामी विवेकानन्द  'Be and Make अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' या 'निवृत्ति अस्तु महाफला लीडरशिप ट्रेनिंग' में प्रशिक्षित करके ' अरण्यों में अध्यन किये जाने वाले अद्वैत वेदान्त को घर-घर तक पहुँचा देने के लिए' गृहस्थ जीवन के अधिकारी प्रवृत्तिमार्ग के अधिकारी युवाओं को, प्रवृत्ति मार्ग के आध्यात्मिक शिक्षक- प्रवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक कैप्टन जेम्स हेनरी सेवियर को अमेरिका से अपने साथ लाये थे। 

           और इसीकारण श्री रामकृष्णदेव एवं स्वामी विवेकानन्द के आशीर्वाद से तथा श्रीमाँ सारदादेवी की इच्छा से अखिल भारत विवेकानन्द युवा महमामण्डल के संस्थापक तथा तीसरे महान शिक्षक- ताजगी और प्रेम के मूर्तरूप- 'Sweetness and Love Personified',  श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के नेतृत्व (लीडरशिप) में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल को, पूरे भारत के युवाओं में मनुष्यनिर्माण तथा चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा प्रचार-प्रसार करने के लिये, 1967 में आविर्भूत होना पड़ा। दादा कहते थे, " महामण्डल का कार्य और 5 अभ्यास निष्ठापूर्वक करते रहो, मुक्त हो जाओगे, अन्य कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी। " 

          [ The only way to World Peace :  Practicalization of  perception and realisation of the Eternal Truth—the oneness of all beings :   Propagating 'Man-making and character-building Education ' -as  propagated by Swami Vivekananda - or  "Be and Make " is the only Universal Religion - which can bring world peace. ]
         "इन दिव्य पुरुषों में जितना आत्मविश्वास होता है, उतना अन्य किसी को भी नहीं। अपने में श्रद्धा अटल होती है। वे अन्धकार में नहीं टटोलते, उनके उपदेशों में (उस परम्-सत्य के) प्रत्यक्ष-दर्शन का बल होता है ! जब वे बोलते हैं, तो एक एक शब्द सीधे हृदय में प्रवेश करता है, वह बम के समान फूट पड़ता है और सुननेवाले पर अपना असीम प्रभाव जमा लेता है। साम्यभाव में प्रतिष्ठित आध्यात्मिक शिक्षकों/ नेताओं  के मुख से निकली बातों में बहुत बल होता है। क्योंकि वे लोग स्वयं जो देखते हैं, उपलब्धी कर चुके होते हैं; वही बात कहते हैं। केवल अनुमान के आधार पर, या दूसरों से सुनकर, या पुस्तकों को पढ़ कर वे कुछ नहीं कहते हैं। इसीलिए उनकी बातों में इतनी शक्ति आ जाती है। उनकी बातें सीधा श्रोताओं के हृदय को स्पर्श करती हैं, और वहाँ अपनी एक छाप छोड़ जाती हैं।
Such intense faith is unique, and we cannot understand it.  When they speak, each word is direct; it bursts like a bomb-shell. What is in the word, unless it has the Power behind? किन्तु यहाँ तो मूल भित्ति ही ग़ायब है- अर्थात अपने में  ही श्रद्धा या विश्वास नहीं है। जिसे स्वयं पर विश्वास नहीं है, उससे अन्य तत्वों  में विश्वास रखने की आशा कैसे की जा सकती है ? एक क्षण मैं सोचता हूँ कि मेरा अस्तित्व है [मैं अजर- अमर अविनाशी आत्मा हूँ !] और कुछ भी मुझे नष्ट नहीं कर सकता। किन्तु दूसरे ही क्षण मैं मृत्यु भय से काँपने लगता हूँ।  इसका कारण ? कारण यही है कि हमारा आत्मविश्वास मर गया है, हमारी नैतिकता [moral backbone = Character) की रीढ़ टूट गयी है; हम चरित्र-भ्रष्ट हो गए हैं !  
          " ईसा से जब लोगों ने पूछा, " प्रभु, हमें परम पिता परमेश्वर के दर्शन कराइये," तो ईसा ने कहा -"जिसने मुझे देख लिया है, उसने उस परम पिता को भी देख लिया है। " ये ही संसार के महान विचारक और मनीषी होते हैं, ये ही दुनिया के पैगम्बर , जीवन-दर्शन के सन्देश-वाहक ऋषि और ईश्वर के अवतार कहलाते हैं। कुछ व्यक्तियों की धारणा है कि दुनिया में केवल एक ही ईश्वर के अवतार या एक ही पैगम्बर हो सकता है, किन्तु यह धारणा सत्य नहीं है।"       
           केवल इन दो शब्दों - "Be and Make" में क्या है, यदि इस उपदेश के पीछे वक्ता की प्रचण्ड शक्ति (अर्थात चरित्र) न हो ? क्या तुम्हारे पास देने के लिये कुछ है ? यही पहला और मुख्य प्रश्न है। यदि है, तो दो। शब्द तो केवल तुम्हारी देन को लोगों तक पहुँचा देंगे। शब्द तो केवल माध्यम हैं। कभी कभी हम देखते हैं कि मौन रहकर भी एक व्यक्ति दूसरे में भाव संचारित कर देता है। दक्षिणामूर्ति स्त्रोत्र में कहा है :

 'आश्चर्य ! इस वट वृक्ष के नीचे युवक गुरु और वृद्ध शिष्य आसीन हैं। मौन ही गुरु का शास्त्र व्याख्यान है और उसीसे शिष्यों की शंकायें नष्ट होती जा रही हैं। " ('नेतृत्व का अर्थ एवं गुण'- पृष्ठ 16 )

          इस प्रकार वे कभी कभी कुछ न कहकर भी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक सत्य का संचार कर जाते हैं। वे देने के लिये ही आविर्भूत होते हैं। वे आदेश देते हैं, ईश्वर के दूत होते हैं, हमारा कार्य होता है-उनके आदेशों को शिरोधार्य करना। क्या ईसा मसीह ने भावी शिक्षकों को आज्ञा नहीं दी है,अतएव तुम जाओ और दुनिया की सभी जातियों को उस सब पर चलना सिखाओ , जिसका आदेश मैंने तुम्हें दिया है। " [अर्थात तुम 'इंटरस्टेट मॉनिटरिंग कमिटी' के सचिव बनो और निष्काम भाव से  "Go ye therefore, and teach all nations....]  

      ...  यह महान शिक्षक ही इस पृथ्वी पर जीवन्त ईश्वरस्वरूप है। इनके अतिरिक्त हम और किनकी उपासना करे ?... मेरे जैसा व्यक्ति, जो किसी चोर का पीछा कर, उसे पकड़कर कारावास की यातनायें सहने के लिये बाध्य करता है -वह दया की क्या कल्पना -क्या धारणा कर सकेगा ? क्षमा-दया संबन्धी मेरी उच्चतम कल्पना कहाँ तक पहुँच सकती है ?... अपनी भौतिक सीमाओं को कौन लाँघ सकता है ? अपनी मानसिक चहारदीवारी को कौन पार कर सकता है ? ईश्वरीय प्रेम के बारे में (माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट हृदय के प्रेम-पूर्ण मैं -बोध के बारे में) हमारी धारणा और क्या हो सकती है ? "  (विश्व के महान शिक्षक -७.१८२) 

           ये दो शब्द -" Be and Make " तो विवेकानन्द साहित्य खण्ड 9 में बहुत पहले से था किन्तु 1967 के बाद ही प्रचलन में क्यों आया ? क्योंकि इन शब्दों के वक्ता - 'पूज्य दादा' के नैतिकता की रीढ़ टूटी हुई न थी ! बंगला भाषा में कुछ ऐसे सार्वभौमिक शब्द हैं, जिनका उच्चारण जब बंगाल से बाहर रहने वाले लोग करते हैं, तो उनकी आँखों के सामने भी उनका वही रूप प्रकट हो जाता है! जैसे -'ठाकुर' =श्रीरामकृष्णदेव, 'श्री माँ' या सिर्फ 'माँ' = श्रीश्री माँ सारदादेवी,'स्वामीजी'= स्वामी विवेकानन्द, 'नेताजी' = सुभाषचन्द्र बोस और 'दादा' बोलने से ? किनका रूप?....नवनीदा का ही रूप आँखों के सामने प्रकट हो जाता है ? ?

             इसलिये ईसा की उपरोक्त उक्ति को प्रतिध्वनित करते हुए कहा जा सकता है कि  जिसने  नवनी दा ( जैसे 'C -IN -C ' अर्थात Friend-philosopher and guide) को देख लिया है, उसने स्वामी विवेकानन्द को (या ठाकुर -माँ को) भी देख लिया है!" नवनी दा यह कहकर कि ' I bow down my head to the would be leaders of India.'  अथवा मौन रहकर भी 'would be leaders ' में अपने भाव को (तत्वमसि- स्मरण रखना कि तुम भी एक प्रशिक्षित शिक्षक/नेता हो के भाव को) संचारित कर देते थे। 
                 यह महान (C-IN-C) नवनीदा जैसे शिक्षक/नेता ही इस पृथ्वी पर जीवंत ईश्वरस्वरूप हैं, इनके अतिरिक्त हम और किनकी उपासना करें ? वे आदेश देते हैं, ईश्वर के दूत होते हैं, हमारा कार्य है उनके आदेशों -"मने करबे तुमि एक जन शिक्खक !" को ग्रहण करना और उनका अनुसरण करना !

             और हमलोग अपने अनुभव से जानते हैं कि युवा-महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय द्वारा विगत 53 वर्षों से आयोजित होने वाला युवा प्रशिक्षण शिविर  'समस्त प्राणियों  एकत्व' -The Oneness of all beings ' -- धरती ही परिवार है (वसुधा एव कुटुम्बकम्), या "एकम् सत् विप्राः बहुधा वदन्ति" - इस अद्वैत के ज्ञान (perception) और अनुभूति (realization) का  " स्वामी  विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर वेदान्त नेतृत्व-प्रशिक्षण ' Be and Make C -In C' रैंक परम्परा" में प्रयोगा-त्मक रूप है या 'practicalization' है !
                      3."Dependence is misery. Independence is happiness." The Advaita is the only system which gives unto man complete possession of himself, takes off all dependence and its associated superstitions, thus making us brave to suffer, brave to do, and in the long run attain to Absolute Freedom.
                  3. पराधीनता दैन्य है। स्वाधीनता सुख है। (अर्थात मन और इन्द्रियों की गुलामी में रहना ही दैन्य या भेंड़त्व है) । ( सिंहत्व में अवस्थिति अर्थात  प्रवृत्तिधर्म से होकर निवृत्ति में स्थित रहना या  साक्षी चेतना 'witness consciousness' की अनुभूति  सुख है।)   अर्थात शरीर और मन के जाल (आवरण) में फँसे रहना दुर्भाग्य (misery) है, और सिंहविक्रम से (5 अभ्यास से) इस जाल को काटकर आत्मनिर्भर हो जाना परम् सौभाग्य (happiness) है!'
                अद्वैत ही एकमात्र दर्शन है, जो मनुष्य को अपनी पूर्ण उपलब्धि कराता है - अपना स्वामी बना देता है। 'Be and Make अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' उस दर्शन का एक मात्र प्रयोगात्मक रूप है, जो शिक्षार्थियों को  समस्त पराधीनता और उससे सम्बन्धित अन्धविश्वास (भेंडत्व) को उतार फेंकती  है।  और इस प्रकार हमें  'Brave to Suffer' दुःख -कष्ट झेलने में वीर , कर्म करने में वीर बना देती  है, और अन्ततः  'Absolute Freedom.' परम् मुक्ति तक लाभ करा देती है। 
          ['अद्वैत' के अवतार 'ठाकुरदेव' पर मनःसंयोग का अभ्यास, या नवनीदा प्रतिपादित और व्यासदेव समर्थित 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास ही वह एकमात्र साधन-प्रणाली है, जो मनुष्य को स्वयं पर  पूर्ण अधिकार प्रदान करती है।  जो मनुष्य को सम्पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर (आध्यात्मिक) बना देती है! उसकी समस्त पराधीनता और इससे संबंधित कुसंस्कार,देहाध्यास आदि मिथ्या-भ्रम को दूर हटाकर डीहिप्नोटाइज्ड कर देती है ! ]
                  4." Hitherto it has not been possible to preach this Noble Truth entirely free from the settings of dualistic weakness; this alone, we are convinced, explains why it has not been more operative and useful to mankind at large.
           इस अद्वैत दर्शन को समस्त प्रकार की द्वैतवादी-दुर्बलताओं से मुक्त कर देने में असफल रहने के कारण ही,  इस महान सत्य  (Noble Truth) कि -'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है' - का प्रचार-प्रसार करना 'Hitherto' अभी तक सम्भव नहीं हो सका है। हमारा यह दृढ निश्चय है कि यही वह एकमात्र कारण है, जिसके चलते यह ['गुरु-शिष्य अद्वैत शिक्षक- प्रशिक्षण प्रणाली'] सम्पूर्ण मानवजाति के लिये जितना अधिक कार्यकारी और उपयोगी होनी चाहिए थी, उतनी नहीं हो सकी है। 
          अद्वैत ज्ञान को व्यावहारिक रूप देने की पद्धति भारत में नहीं है, 'there is not a bit of practicality.'  इसी बात को स्पष्ट करते हुए स्वामी जी ने 6th April, 1897 को श्रीमती सरला घोषाल को लिखित पत्र में कहा है - " We have brains, but no hands. We have the doctrine of Vedanta, but we have not the power to reduce it into practice. In our books there is the doctrine of universal equality, but in work we make great distinctions." 
             हमारे पास अद्वैत का सिद्धान्त है (doctrine of Vedanta) और वह  सिद्धान्त (doctrine) कहता है कि  कोई भी स्थूल साधन- 'कोबिड 19' वायरस जैसा मारक विषाणु' भी अपने से सूक्ष्म वस्तु आत्मा या 'pure consciousness'  का नाश नहीं कर सकता। लेकिन इस सिद्धान्त को कार्य रूप में परिणत करने की क्षमता नहीं है। हमारे पास 'H' (head) या मन को विकसित करने की पद्धति मनःसंयोग तो है, किन्तु दूसरा 'H' (hand) या शरीर व्यायाम नहीं करने के कारण दुर्बल हो गया है। नियमित व्यायाम और पौष्टिक आहार न लेने के कारण हमारा शरीर और मन [2H-hand, head] दुर्बल हो गया है। इसीलिये हृदय [3rdH-heart] को, (pure consciousness) को विकसित करने के लिये हमलोग प्रति वर्ष, प्रत्येक जिले में 'Be and Make अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में महामण्डल युवा प्रशिक्षण शिविर को आयोजित नहीं कर पाते है।  हमारे ग्रन्थों में  'doctrine of universal equality' - 'वसुधैव कुटुम्बकम्' (वसुधा एव कुटुम्बकम् --यह वाक्य भारतीय संसद के प्रवेश कक्ष में भी अंकित है।) - 'धरती ही परिवार है' का सिद्धान्त तो है, किन्तु कार्यों में महाभेद वृत्ति है। (हमलोग आजादी के 70 वर्ष बाद भी ब्राह्मण -अब्राह्मण, दलित-स्वर्ण के नाम पर पॉलिटिक्स करते हैं। ) 
        " Yet it is only through the present state of things that it is possible to proceed to work. There is no other way. Every one has the power to judge of good end evil, but he is the hero who undaunted by the waves of Samsâra — which is full of errors, delusions, and miseries — with one hand wipes the tears, and with the other, unshaken, shows the path of deliverance. " 
          " फिर भी प्रस्तुत अवस्था में ही हमें आगे बढ़ते चलना है, एक गाँव से दूसरे गाँव में महामण्डल का केन्द्र खोलते रहने का प्रयास करते रहना है; दूसरा कोई उपाय नहीं। भले-बुरे, श्रेय-प्रेय, शाश्वत -नश्वर के निर्णय करने की शक्ति [विवेक-प्रयोग या विवेक-दर्शन की शक्ति ] सब में है, किन्तु वीर तो वही है जो 'मोहग्रस्त (hypnotized) संसार -तरंगों के दुःखपूर्ण आघात से अविचल रहकर एक हाथ से ऑंसू पोंछता है और दूसरे अकम्पित हाथ से भारत के 'उद्धार का मार्ग -Be and Make' प्रदर्शित करता है। 
        " India will awake again if anyone could love with all his heart the people of the country." मैंने जापान में सुना है कि वहाँ के लड़कियों में यह विश्वास है कि यदि उनकी गुड़ियों को हृदय से प्यार किया जाय तो वे जीवित हो उठेंगी। जापानी बालिका अपनी गुड़िया कभी नहीं तोड़ती। मेरा भी विश्वास है कि यदि हतश्री, अभागे, निर्बुद्धि, पददलित , चिर काल से खाली पेट (ever-starved), झगड़ालू और ईर्ष्यालु (envious) भारतवासियों को भी कोई 'नवनीदा जैसा शिक्षक' यदि हृदय से प्यार करने लगे तो भारत पुनः जाग्रत हो जायेगा।  
          स्वामी जी ने कहा है ,"संसार के धर्म प्राणहीन उपहास की वस्तु बन गये हैं। आज संसार जो चाहता है वह है चरित्र। आज ऐसे लोग (आध्यात्मिक शिक्षक /नेता)  चाहिए जिनका जीवन स्वार्थहीन ज्वलंत प्रेम का उदाहरण हो। उस प्रेम से कहा गया हर शब्द वज्रवत् प्रभावी होगा। "
           वैदिक धर्म के अनुसार चरित्र-निर्माण के दो मार्ग –  'प्रवृत्ति लक्ष्णो योगः , ज्ञानं सन्यासलक्षणम्। 'अर्थात योग का अर्थ प्रवृत्ति–मार्ग और ज्ञान का अर्थ सन्यास या निवृत्ति–मार्ग है। स्वयं को और ईश्वर को  (इन्द्रियातीत सत्य को) जानने या पहचान लेने के ये ही दो धर्म -प्रवृत्ति और निवृत्ति हैं ! ये दोनों ही धर्म अपने अपने स्थान में महत्वपूर्ण तथा गौरवशाली हैं।  साथ ही यह भी ठीक है कि यदि प्राच्य को भौतिक-समृद्धि लाने के लिए मशीन बनाने के सम्बन्ध में सीखना हो,तो वह पाश्चात्य के पास ही बैठकर सीखे। परन्तु यदि पाश्चत्य को मानसिक शांति पाने के लिए ईश्वर, आत्मा तथा वेदान्त के रहस्यों को जानने की आवश्यकता हो तो उसे प्राच्य के पास बैठकर सीखना होगा। वर्तमान सामंजस्य इन दोनों आदर्शों का समन्वय तथा मिश्रण रूप होगा। श्री शंकराचार्य स्वयं निवृत्ति-मार्गी या संन्यासी थे; किन्तु उन्होंने अपने गीता भाष्य के आरंभ में ही कहा है कि वेदों में दो प्रकार के धर्मों का उल्लेख है, एक है प्रवृत्ति का धर्म और दूसरा है निवृत्ति का धर्म।
          एक किनारे पर भोग है, तो दूसरे किनारे पर त्याग है। केन्द्रापसारी बल (Centrifugal force) और केंद्राभिसरि बल (centripetal force)| दो प्रकार के बलों के प्रभाव से यह विश्व, समाज स्थितावस्था में बना रहता है, या यथापूर्व स्थिति (status quo) बनाये रखता है। ये दोनों हैं, इसीलिये मनुष्यों का समाज अपना संतुलन (Equilibrium) बनाये रखता है। जैसे हवाई जहाज अपने दोनों पंखों पर भारसंतुलन बना कर उड़ान भरता रहता है। उसी प्रकार धर्म के भी दो पक्ष हैं- 'भोग और त्याग ', इन दोनों की सहायता से मानव-समाज साम्यावस्था में रहता है।
            जब कभी इस सामंजस्य में असन्तुलन आने के कारण  धर्म लुप्त होने लगता है और अधर्म का अभ्युत्थान होता है, धर्म अर्थात चरित्र का पतन हो जाने के कारण मानव समाज और देश को भयंकर परिणाम भुगतना पड़ता है। देश की सामाजिक व्यव्स्थाएँ अस्तव्यस्त हो जाती हैं, जिसके फलस्वरूप देश में हिंसा,चोरी, लूट-पाट, कत्ल, झूट, छल, कपट आदि का आतंक छा जाता है। जिससे मानव जीवन अशान्त और दुखमय हो जाता है, तब उसके निवारण हेतु माँ जगदम्बा की इच्छा से, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद, आधुनिक युग में श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द, जैसे अवतारों (या नवनीदा जैसे लोकशिक्षकों) का आविर्भाव होता है
              स्वामीजी कहते हैं - " मन इन्द्रियों की ओर मानो चक्रवत् अग्रसर हो रहा है,....  'सर्कलिंग फॉरवर्ड ' उसे फिर पीछे लौटाना होगा। प्रवृत्ति-मार्ग का त्याग कर उसे फिर निवृत्ति-मार्ग का आश्रय ग्रहण करना होगा। यही भारतीय आदर्श है। किन्तु कुछ भोग भोगे बिना इस आदर्श तक मनुष्य नहीं पहुँच सकता। बच्चों को त्याग की शिक्षा नहीं दी जा सकती। संसार की असारता समझने के लिये उन्हें पहले कुछ भोग भोगना पड़ेगा, तभी वे वैराग्य धारण करने में समर्थ होंगे। हमारे शास्त्रों में इन लोगों के लिये यथेष्ट व्यवस्था है। दुःख का विषय है कि परवर्ती काल में समाज के प्रत्येक मनुष्य को संन्यासी के नियमों में आबद्ध करने की चेष्टा की गयी-यह एक भारी भूल हुई। भारत में जो दुःख और दरिद्रता दिखाई पड़ती है, उनमें से बहुतों का कारण यही भूल है। गरीब लोगों के जीवन को इतने कड़े धार्मिक एवं नैतिक बन्धनों में जकड़ दिया गया है जिनसे उनका कोई लाभ नहीं है। हैन्ड्स ऑफ ! उन्हें भी संसार का थोड़ा आनन्द लेने दीजिये। आप देखेंगे कि वे क्रमशः उन्नत होते जाते हैं और बिना किसी विशेष प्रयत्न के उनके हृदय में आप ही आप त्याग का उद्रेक होगा।"(५/४६)
        इसीलिए हमारे श्रुति और शास्त्र प्रवृत्तिमार्ग से होते हुए भी, क्रमशः 'निवृत्ति अस्तु महाफला ' का स्वयं अनुभव करते हुए आध्यात्मिक शिक्षक/लीडर बनने और बनाने में बाधा नहीं देते। उपनिषदों में ' द्वासुपर्णा सयुजा शखाया ' की कथा से जो उदहारण दिया गया वह राजकुमार सिद्धार्थ गौतम के प्रवृत्ति से होते हुए निवृत्ति मार्ग के महान आध्यात्मिक शिक्षक 'गौतम बुद्ध' बन जाने को सिद्ध करती है। मनु महाराज तो यहाँ तक कहते हैं -
 न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने ।
                       प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ।। (मनुस्मृतिः५.५६)  
 'प्रवृत्तिरेषा भूतानाम्। 'अर्थात भोग की प्रवृत्ति केवल मनुष्य के लिए ही नहीं, किन्तु प्राणीमात्र के लिए स्वाभाविक हैं –  मनुष्यों में यह गुण (धर्म या भूत वैशिष्ट) प्रकृति प्रदत्त हैं। इसलिए  विवाह करो, थोड़ा खा पहन लो; किन्तु यह सदा स्मरण रहे कि -इनसे निवृत्ति लेना अधिक श्रेष्ठ है।  क्योंकि निवृत्ति ही सबसे बड़ा फल है- निवृत्तिस्तु महाफला। अर्थात मनुष्यों के लिये निवृत्ति(भ्रममुक्त,डीहिप्नोटाइज्ड,मोक्ष) ही सबसे बड़ा और अंतिम पुरुषार्थ है।                          
     [We have been slaves for ever, i.e. it has never been given to the masses of India to express the inner light which is their inheritance.]
              प्रवृत्ति धर्म को ठीक से नहीं समझ पाने के कारण ही हमलोग सदा से पराधीन रहे हैं;  i.e.=अर्थात जन्मजन्मानतर से अपने ही मन-इन्द्रियों के गुलाम रहें हैं !  इसीलिए  थोड़ा भोग करने के बाद राजा जनक के जैसा प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में लौटने की तकनीक भूल गए हैं। और अधिकांश मनुष्य  शास्त्र-विरुद्ध या निषिद्ध कर्म करने से विरत  नहीं हो पा रहे हैं। इसलिये भारत के अधिकांश नागरिक जो प्रवृत्ति धर्म के अधिकारी हैं, उनको कभी 'अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करने की व्यावहारिक पद्धति ' Be and Make ' ---जो उसे उत्तराधिकार (inheritance) के रूप में अपने जीवन्मुक्त शिक्षक /नेता (नवनीदा) से प्राप्त होनी चाहिये थी, उसका प्रचार-प्रसार नहीं होने दिया गया। स्वार्थी पुरोहितों ने उसको अपने वंश में या 'holier-than-thou' निवृत्ति धर्म को प्रवृत्ति धर्म से श्रेष्ठ समझकर तोंद फुलाये मठ के संन्यासियों ने अपने चेलों के लिए सुरक्षित कर दिया
                     THE EDUCATION THAT INDIA NEEDS:(Written to Shrimati Saralâ Ghosal, B.A., Editor, Bhârati, from Darjeeling, 24th April, 1897 )
" what to say of self-reliance. The faith in one's own Self, which is the basis of Vedânta, has not yet been even slightly carried into practice." 
        "भारत के प्रवृत्ति मार्ग के अधिकारी युवाओं को 4 महावाक्यों को सुनाकर और मन को वश में करने की पद्धति -'मनःसंयोग' को सिखाकर उन्हें आत्मनिर्भर बना देने की बात तो दूर रही, अभी तक उनमें थोड़ी सी आत्मश्रद्धा - जो वेदान्त की नींव है; भी जाग्रत नहीं करायी जा सकी। 
 " If this be true, then it is a vain attempt to do any great work by means of public discussion. "There is no chance of a headache where there is no head" — where is the public? " 
             "जनता में चर्चा या सार्वजनिक वाद-विवाद के द्वारा किसी बड़े काम को सिद्ध करने की चेष्टा करना वृथा है। 'जब सिर ही नहीं तो सिर में दर्द कैसा ?' जनता कहाँ है ?" ६/३१०
                  दादा के कुछ दिखावटी भक्त, जो अपने ' पास्ट बैड हैबिट्स' का त्याग करने में असमर्थ हो जाते हैं, और अपने चरित्र को एक महामण्डल कर्मी या जीवन्मुक्त शिक्षक/ नेता के रूप में गठित नहीं  कर पाते हैं, वे  एक वॉट्सऐप-ग्रुप बना कर व्यर्थ की चर्चा में अपना और दूसरों का समय बर्बाद करते हैं। या "Covid-19 lock-down " के दिनों में- 'Video Conferencing' के द्वारा साप्ताहिक  पाठचक्र आयोजित करने का प्रस्ताव देते हैं। 'मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माण' जैसे महत्वपूर्ण विषय पर जनता में चर्चा (public discussion)  करने का प्रस्ताव  बिल्कुल अव्यवहारिक है। क्योंकि चर्चा में शामिल सभी व्यक्ति का मानसिक विकास एक समान नहीं होता।  वे महावाक्यों के अर्थ का अनर्थ भी समझ सकते हैं। उदाहरण के लिए हम देख सकते हैं की शार्क सम्मेलन में पाकिस्तान ने कोविड -19 से बचाव पर कोई चर्चा न कर कश्मीर का ही मुद्दा उठाया  था। 'जब सिर ही नहीं तो सिर में दर्द कैसा ? जनता कहाँ है ? -अर्थात प्रवृत्ति और निवृत्ति में सामंजस्य स्थापित करने में समर्थ लोकशिक्षक 'दादा' के सच्चे भक्त कहाँ हैं ?
                   दिखावटी भक्त ऐसा सोंचते हैं कि मन को जीतने के लिए या साम्यभाव में स्थित रहने के लिए प्रत्येक वुड बी लीडर/ शिक्षक के लिये, मुँह लटकाये रखना अनिवार्य है। किन्तु केवल बाहरी भेष धारण कर लेने या शरीर पर राख मल लेने से ही भीतर की तृष्णा समाप्त नहीं हो जाती। (जिसका उदहारण हमलोग आये दिन न्यूज में पढ़ते, टीवी में देखते  रहते हैं।)  इसी बात से सावधान करते हुए आचार्य अष्टावक्र जी महाराज कहते हैं-
निवृत्तिरपि मूढस्य प्रवृत्तिः उपजायते।
   प्रवृत्तिरपि धीरस्य, निवृत्तिफलदायिनि॥ 
मूढ़मती लोगों (Hypnotized) के लिये अर्थात  जो स्वयं को केवल शरीर-मन समझते हैं, उनके लिये निवृत्ति भी प्रवृत्ति को ही उत्पन्न करने वाली होती है। तथा उसी प्रकार आत्म-ज्ञानी, धीमान या बुद्दिमानों के लिये कर्म (प्रवृत्ति-आध्यात्मिक शिक्षक का निःस्वार्थ कर्म) ही उन्हें निवृत्ति का फल प्रदान करता है।  
श्रीरामकृष्णदेव कहते थे - 
जनक राजा महातेजा तार किसे छीलो त्रुटि।
एदिक्-ओदिक् दू-दिक् रेखे खेये छीलो दुधेर बाटी
।  

 श्रीरामकृष्ण द्वारा 'वेदान्त लीडरशिप-ट्रेनिंग ट्रेडिशन' में प्रशिक्षित युवा-नेता नरेन्द्रनाथ ने वुड बी लीडर्स या भावी आध्यात्मिक शिक्षकों को विश्व-कल्याण के उसी ईश्वरीय विधान 'त्याग और आध्यात्मिकता' (व्यष्टि अहं को आध्यात्मिक अहं' में रूपान्तरित करने के कानून) का का उपदेश दिया है। क्यों कि कोई नेता/शिक्षक यदि स्वयं निषिद्ध-कर्मों (इन्द्रिय-भोगों) में रत है तो वह दूसरों को त्याग और आध्यात्मिकता का उपदेश नहीं दे सकता है। स्वयं इन्द्रिय-भोगों में रत रहते हुए जगत का कल्याण नहीं किया जा सकता है। 
                 'दादा कहते थे -यदि तुम निःस्वार्थभाव से महामण्डल आंदोलन में जुड़े रहो, तो अन्य कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी, मनुष्य बनने और बनाने का प्रयास करते करते तुम स्वयं मुक्त हो जाओगे !' हितोपदेश में कहा गया है - निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम् || - 'आत्माराम की मंजूषा' [जो अभी धर्मेन्द्र सिंह के पूजा घर रखी है!] की कृपा से जिस सद गृहस्थ के हृदय से सांसारिक भोगों की लालसा, राग, आसक्ति समाप्त हो जाती है, उनका घर ही तपोवन बन जाता है।   
             " अब उपाय है -शिक्षा का प्रसार। पहले आत्मज्ञान !" प्रत्येक जीवात्मा में अनन्त शक्ति अव्यक्त भाव से निहित है; चींटी से लेकर ऊँचे से ऊँचे सिद्ध पुरुष [नवनीदा] तक सभी में वह आत्मा विराजमान है, अन्तर केवल उसके प्रत्यक्षीकरण के भेद में है। " वरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत्। "(पातंजल योग सूत्र कैवल्यपाद ४।३)  किसान जैसे खेतों की मेंड़ तोड़ देता है और एक खेत का पानी दूसरे खेत में चला जाता है , वैसे ही आत्मा भी आवरण टूटते ही प्रकट हो जाती है । उपयुक्त अवसर और उपयुक्त देश-काल मिलते ही उस शक्ति का विकास हो जाता है। परन्तु चाहे विकास हो, चाहे न हो, वह शक्ति प्रत्येक जीव में -ब्रह्मा से लेकर घास तक में - विद्यमान हैं ! इस शक्ति को, सर्वत्र  घर घर जाकर जगाना होगा । " वैसी शक्ति पूजा महामण्डल के आलावा और कहाँ हो रही है ? 
           यह हुई पहली बात। दूसरी बात यह कि इसके साथ साथ टेक्निकल शिक्षा भी देनी होगी, जिससे वे थोड़ा भोग करके प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में लौट सकें। जिस प्रकार पुरुषों के लिए केन्द्र हैं, उसी प्रकार स्त्रियों के लिए भी खोलना आवश्यक है। आधुनिक विज्ञान ने (कोरोना वायरस ने) ईसाई/तब्लीगी जमात आदि धर्मों की भित्ति बिल्कुल चूर -चूर कर दी है।  यूरोप और अमेरिका आशाभरी दृष्टि से भारत की ओर ताक रहे हैं। 'this is the time for philanthropy, this is the time to occupy the hostile strongholds.' परोपकार का, शत्रु के किले पर अधिकार जमाने का यही समय है।  
                5. " To give this one truth a freer and fuller scope in elevating the lives of individuals and leavening the mass of mankind, we start this Advaita Ashrama on the Himalayan heights, the land of its first expiration. " 
                  वह महान सत्य (तत्त्वमसि) जो हमें सभी भ्रमों या सीमाओं से मुक्त कर देता है, उस महान सत्य को प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में पूर्णतया प्रकाशित करके 'यथार्थ मनुष्य' बनने 'BE' का सुयोग देकर, व्यक्ति जीवन को आत्मनिर्भर और 'AND' इस प्रकार सम्पूर्ण मानव-समाज उन्नततर बनाने 'MAKE'के लिये- हिमालय के शिखर पर,'The Land of its First Expiration.' जहाँ यह सत्य (अद्वैत दर्शन 'अयं आत्माब्रह्म ' प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है।) पहलीबार आविष्कृत हुआ था, हम इस 'अद्वैत-आश्रम' की स्थापना कर रहे हैं।
                6. "Here it is hoped to keep Advaita free from all superstitions and weakening contaminations. Here will be taught and practiced nothing but the Doctrine of Unity, pure and simple; and though in entire sympathy with all other systems, this Ashrama is dedicated to Advaita and Advaita alone."
               " यह आशा की जाती है कि यहाँ का अद्वैत भाव समस्त प्रकार के पूर्वाग्रह से ( जाति, धर्म, भाषा,स्त्री-पुरुष, अथवा प्रवृत्ति या निवृत्ति मार्ग के योग्य साधकों के प्रति prejudice-पक्षपात से ) एवं आत्मश्रद्धा को मलीन करने वाले संदूषित क्रियाकलापों से मुक्त रहेगा। 
           अन्य समस्त मतवादों तथा अन्य समस्त अवतारों के प्रति पूर्ण सहानुभूति तथा आदर का भाव रखते हुए, यहाँ  शुद्ध और सरल 'अनेकता में एकता' ( Doctrine of Unity) के सिद्धांत का ही अभ्यास किया जायेगा तथा प्रशिक्षण दिया जायेगा। इसके अतिरिक्त (3H निर्माण के 5 अभ्यासों के अतिरिक्त) यहाँ और न कुछ सिखाया जायेगा, न व्यवहार में लाया जायेगा। क्योंकि मायावती स्थित यह आश्रम, एकमात्र अद्वैत और केवल अद्वैत-सिद्धान्त को ही समर्पित है ! 
[  इसे ‘अद्वैत आश्रम का ब्रौचर’ या 'उद्देश्य और कार्यक्रम पुस्तिका' भी माना जाता है। मायावती स्थित यह 'अद्वैत आश्रम'  एकमात्र 'अद्वैत-तत्व श्रीरामकृष्ण' द्वारा प्रदत्त अद्वैतसिद्धान्त - ' दया नहीं, शिव ज्ञान से जीव सेवा' को समर्पित है !  महामण्डल के उद्देश्य और कार्यक्रम को भी ठीक इसी अद्वैत आश्रम, मायावती, अल्मोड़ा हिमालय के प्रोस्पेक्ट्स के आधार पर बनाया गया है। ]
             स्वामीजी के 'अद्वैत -आश्रम' के स्वप्न को साकार करने वाले कैप्टन सेवियर आश्रम की स्थापना के बाद अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सके। 28 अक्तूबर, 1900 को उनका देहावसान हुआ और 'उनकी अर्थी को फूल मालाओं से ढँक दिया गया था, ब्राह्मण लोग अर्थी को कन्धा पर उठाकर ले जा रहे थे और ब्राह्मण कुमार लोग वेदों का जप करते हुए साथ साथ चल रहे थे।' कैप्टन जेम्स हेनरी सेवियर का उनकी इच्छानुसार आश्रम के नीचे घाटी में बहने वाली सारदा नदी के किनारे अंतिम संस्कार पूर्ण हिन्दू परम्परा में किया गया। 
             कैप्टन सेवियर की मृत्यु के समय स्वामी विवेकानन्द अपने दूसरे विदेश प्रवास पर थे। उनको अपने समर्पित शिष्य कैप्टन सेवियर के गुजर जाने का पूर्वाभास (प्रिमोनीशन premonition) हो गया। स्वामीजी अपने विदेश-प्रवास को समय से पहले समाप्त कर,श्रीमती सेवियर को सांत्वना देने के लिए अद्वैत आश्रम आए। सन 1901 ई. के प्रारम्भ में 3 जनवरी से 18 जनवरी तक वे यहाँ रहे। यह स्वामीजी की अद्वैत आश्रम, मायावती, अल्मोड़ा, हिमालय की पहली और अंतिम यात्रा थी। 
          महामण्डल आंदोलन को गहराई और विस्तार से समझने के लिए, महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय तथा 'अद्वैत आश्रम', मायावती, अल्मोड़ा, हिमालय के बीच परस्पर क्या संबंध है, इसको भी समझना होगा। क्योंकि 'महामण्डल आन्दोलन' स्वामी विवेकानन्द, गीता एवं उपनिषदों द्वारा दी गयी शिक्षाओं पर आधारित है। या यूँ कहें कि महामण्डल आंदोलन स्वामी विवेकानन्द द्वारा कथित महावाक्य -"Be and Make" अद्वैत आश्रम, मायावती, अल्मोड़ा, हिमालय की 'परिचय -पत्रिका' (Prospectus) मे वर्णित  वेदान्त के सिद्धान्तों का प्रयोगात्मक रूप है। 
      
" तुम क्यों डरते हो ? क्या दानव की मृत्यु इतनी शीघ्र हो सकती है ? अभी तो केवल सांध्य दीप ही जलाया गया है, और अभी तो सारी रात गायन-वादन करना है। " ६/३२३ 
           " मैं एक सुन्दर बाग में रहता हूँ , जो अल्मोड़े से कुछ दूर उत्तर में है। हिमालय के हिम-शिखर मेरे सामने हैं, जो सूर्य के प्रकाश में रजत-राशि के समान आभासित होते हैं , और हृदय को आनंदित करते हैं। यह बाग अल्मोड़े  के एक व्यापारी का है, बाग कई मील तक पहाड़ों और वनों को स्पर्श करता है। परसों रात में एक बाघ यहाँ आ धमका और बाग में रखी भेंड़-बकरियों की झुण्ड से एक बकरा उठा ले गया। .... उसे बढ़िया भोजन मिल गया --शायद हफ्तों बाद। इससे उसका खूब भला हो। " ६ /३३२,३३० /
        " जब मैं तुम्हें पत्र लिख रहा हूँ, इस वक्त मेरे सम्मुख विशाल बर्फीली चोटियों की लम्बी लम्बी कतारें खड़ी दिखाई पड़ रही हैं, जो अपराह्न की तापोज्ज्वलता परावर्तित कर रही हैं। यहाँ से नाक की सीध में वे लगभग 20 मील दूर हैं, और चक्करदार पहाड़ी मार्ग से जाने पर वे 40 मील दूर पड़ेंगी।  
          " मैं चाहता हूँ कि मुझे न कोई प्यार करने वाला होता , और बाल्यावस्था में ही अनाथ होता। मेरे जीवन की सबसे महान विपत्ति मेरे अपने लोग ही रहे हैं, मेरे भाई-बहन एवं माँ आदि सम्बन्धी जन व्यक्ति की प्रगति में अवरोध की तरह हैं , और क्या यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि लोग फिर भी वैवाहिक सम्बन्धों के द्वारा नये सम्बन्धियों की खोज करते रहेंगे ? जो एकाकी है, वह सुखी है।  सबका समान मंगल करो , लेकिन किसी से 'प्यार मत करो' ! " ६/३५८         
            मिस मेरी हेल को 28 April, 1897 को लिखित पत्र में स्वामी जी ने कहा है - 'On metaphysical lines no nation on earth can hold a candle to the Hindus' अध्यात्म-विद्या के सम्बन्ध में पृथ्वी का कोई भी राष्ट्र हिन्दुओं का मार्गदर्शन नहीं कर सकता। पश्चमी राष्ट्र वैज्ञानिक संस्कृति में चाहे कितने ही उन्नत क्यों न हों, तत्वज्ञान (परमसत्य का ज्ञान)  और आध्यात्मिक शिक्षा (गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा) में वे निरे बालक ही हैं। भौतिक विज्ञान (Material science) केवल लौकिक समृद्धि  दे सकता है, परन्तु अध्यात्म विज्ञान (spiritual science) शाश्वत जीवन (अमृतत्व) प्रदान करता है। " ६/३१६     
'It seems, however advanced the Western nations are in scientific culture, they are mere babies in metaphysical and spiritual education. Material science can only give worldly prosperity, whilst spiritual science is for eternal life.'   
                19 मार्च 1897 को दार्जलिंग से संस्कृत में लिखित एक पत्र में स्वामी जी अपने शिष्य श्री शरच्चन्द्र को लिखते हैं --"तुम्हारे हृदय में मुमुक्षुत्व के प्रति जो उत्कण्ठा है, वह तुम्हारे पत्र से भी व्यक्त होती है, मैंने उसे पहले ही अनुभव कर लिया है। यह मुमुक्षुत्व ही क्रमशः नित्यस्वरूप ब्रह्म में एकाग्रता की शक्ति प्रदान करता है। एकाग्रता के सिवा मुक्ति- लाभ करने का और कोई दूसरा मार्ग नहीं हैं। 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि'-अर्थात  'श्रेय-प्राप्ति (श्रेय-प्रेय विवेक) में अनेक विघ्न हैं। वीरों के लिये मुक्ति करतलगत है, कापुरुषों के लिये नहीं। हे वीरों, कटिबद्ध हो, तुम्हारे सामने हिप्नोटाइज्ड कर देने वाले मोहरूपी शत्रु-समूह उपस्थित है। महामोह के ग्राह से ग्रस्त लोगों या 'भेंड़त्व से हिप्नोटाइज्ड लोगों ' की ओर दृष्टिपात करो, हाय उनके हृदयवेधक करुणापूर्ण आर्तनाद को सुनो। हे वीरों, बद्धों को पाशमुक्त करने के लिये , दरिद्रों के कष्टों को कम करने के लिए आगे बढ़ो। बढ़ते जाओ, ' अभिरभिरिति घोषयति वेदान्त डिण्डिम:'--सुनो, हमारा वेदान्त-दुन्दुभि बजाकर निडर 'अभीः बनने और बनाने' की कैसी उद्घोषणा कर रहा है ! यह दुन्दुभि घोष समस्त जगत के मनुष्यों की हृदय-ग्रंथियों को विदीर्ण करने में समर्थ हो ! "   
            इन्हीं को अल्मोड़ा से 3 July, 1897 को लिखित पत्र में कहते हैं - "न धनेन न प्रजया"- 'न धन से, न सन्तान से वरन केवल त्याग से ही अमरत्व प्राप्त हो सकता है। यहाँ 'त्याग ' शब्द से वैराग्य का संकेत (प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में लौटने का संकेत) किया गया है। वैराग्यवान मनुष्य 'आत्मा' शब्द का अर्थ व्यक्तिगत 'मैं' न समझकर , उस सर्वव्यापी ईश्वर को समझता है, जो अन्तःकरण में अंतर्नियामक होकर सब जीवों में वास कर रहा है। जब जीव को जीव समझकर सेवा की जाती है, तब वह दया है, प्रेम नहीं। परन्तु जब उसको भी अपनी आत्मा समझकर सेवा की जाती है, तब वह प्रेम कहलाता है। हमलोग अद्वैतवादी हैं। हमारे लिये जीव को ईश्वर से पृथक समझना ही बन्धन का कारण है। इसलिए हमारा मूल तत्व प्रेम होना चाहिये, न कि दया। " ६/३४०         
महामण्डल के संस्थापक सचिव, श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय ने झुमरीतिलैया शाखा के सचिव को 'अल्मोड़ा का आकर्षण ' से संबंधित दो पत्र लिखे थे - पत्र संख्या 51, 16 January 1996  को एवं पत्र संख्या 52, 18 March 1996 को। 
[51]
My dear Bijay,
                               Hope everything is fine there and you are all doing well. I did not get time and will get little time to go through the whole book 'चरित्र -निर्माण' That you have nicely completed.
                        Now there is difficulty is the font of type , with my eye-sight it is difficult to read the letters so pressed closely. However , I was just turning over the last few pages. Patanjali is included in Mental Concentartion. Did I disscussed in detail so much in connection with Character Building ? Of course there is relation between Mental Concentration and Character Building.
                 However, I would point out some little mistakes . Page 39, line 5 -
" सम्पूर्ण विश्व के साथ एकत्वबोध" होना , यह पातंजलि योग की बात नहीं है; वह कहा गया था वेदान्त से , स्वामीजी के भाव से। "
                  Page 40, line 4 : " इस विज्ञान को पतंजलि योग सूत्र कहते हैं" -ऐसा लिखना ठीक नहीं है।  होना चाहिये था--- " इस विज्ञान को योग या राजयोग कहते हैं। इसका मूल शास्त्र है पतंजलि योगसूत्र नामक ग्रन्थ। इस योग को अष्टांग -योग कहते हैं , क्योंकि इसकी पद्धति में आठ अंग होते हैं। "
               Did you take a copy of the new booklet in Bengali from the camp this time - " अलमोड़ार आकर्षण " ? If you have,  read it . You may see if it can be translated in Hindi ?
                    With love and blessings 
Yours affectionately
 
नवनीदा  
[52] 
  My dear Bijay,
                             Your letter has just come. Rajat wrote at least a dozen letters, I replied to each one, but some on the way perhaps got lost. I do not think I got any from Jitendra.
                   Are XXX relatives really depriving them of their property and troubling him in various way? That is what he wrote .Whatever XXX has been saying or doing , he says or does so,  under the spell of his mental stress. His lack of common sense or outbursts of anger is due to his mental stress. It is not so much necessary that he takes a lot of interest in the study circle or the library. If he does so willingly for his own good it is all right.
                You or any particular person cannot be held responsible for XXX troubles . It is very wrong to suggest so. Nobody can lose his head under under influence of somebody else .
            There who suggest so, do not know anything about  psychic diseases. They should desist from doing so, if they really want XXX's welfare . Nobody is competent of declare him mad or sane. Are they psychologists ? Try to help him by any Service-job and counseling treatment as far as you can. A Service-job  for him is very much necessary. The next depends on Thakur's Kripa .
                   It is good that your daughter's marriage was nicely solemnized. So, in samsara there will always be trouble and anxiety . If you know my trouble you will be astonished. But I do not want to burden your mind with details.
              You are right. The artist who painted the pictures for our exhibition in the camp (this year), was thoroughly guided about theme and details of every picture by me. I visited all the spots at Almora (Advaita Ashram: Mayavati) and researched about the details minutely before writing the booklet. That was done only being earnestly requested by the monks there.
            Atman, though bliss itself cannot enjoy the Ananda unless it gives up its non-duality and takes birth just for that. But without Maya the world cannot be conjured up and duality does not take form.
            In time and space 'Ananda' gets mixed up with 'sufferings'. मनीषा or buddhi can reject suffering and take only Ananda. That is possible only by man. Suffering is not intentionally dumped on man, it comes in the process of creation.
          But without creation Atman cannot enjoy bliss , This is Maya. Where there is 'KNOWING' there is no 'suffering' . Therefore, it not like Hot Ice. If you say some body has had 'Knowledge' , yet he is suffering that will be Hot Ice ie. something like a castle in the air.

         With love
Nabanida.


[received on 25.3.96]   
  
           जब  मैं 'बेलघड़िया' में आयोजित अपने प्रथम महामण्डल शिविर 25 -12 -1987 से लेकर, 'जमशेदपुर' में आयोजित अगस्त 2016 तक अर्थात  29 वर्षों तक उनके निकट सानिध्य में रहते हुए उनकी शिक्षाओं के आलोक मेंउपरोक्त पत्र में उल्लेखित दादा के कथन एवं स्वामी जी के विचारों की मूल धारा ** को  विश्लेषण करके समझने की चेष्टा करता हूँ, तो पाता हूँ कि ऐसा स्वामी विवेकानन्द द्वारा 'प्रवृत्ति मार्ग' और 'निवृत्ति-मार्ग ' के अधिकारी व्यक्तियों के लिये दिये गये अलग-अलग उपदेशों को एक साथ दोनों पर थोप देने की भूल ही है।   
               'प्रवृत्ति और निवृत्ति '  ये दोनों विचार-धारायें परस्पर विरोधी नहीं हैं, बल्कि एक -दूसरे की पूरक हैं। किन्तु इस बात को ठीक ठीक समझने वाले लोग ज्यादा नहीं होते हैं ? क्योंकि महामण्डल के कुछ वरिष्ठ भाई लोग भी 'प्रवृति और निवृत्ति' दोनों धर्म हैं, अपने लिये असाध्य समझकर इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते हैं। इसलिये वे निवृत्ति मार्गी 'मंत्र-दीक्षा' देने में समर्थ संन्यासियों की तुलना केवल 'मनःसंयोग' एवं चरित्र-गठन का प्रशिक्षण देने में समर्थ महामण्डल-घराना में प्रशिक्षित शिक्षकों / नेताओं को भी 'विवेकज-ज्ञान' प्राप्त होना या राजर्षियों के सामान जीवनमुक्त होना असम्भव समझते हैं। और विशेषकर किसी हिन्दी भाषी के लिए तो बिल्कुल असम्भव समझते हैं।
           नवनीदा -[श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय] का मानना था कि - 'निवृत्तिमार्ग के अधिकारी' व्यक्तियों के लिये स्वामी विवेकानन्द के उपदेशों की मूल धारा का स्रोत 'श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द 'Be and Make' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में स्थापित एवं ' रामकृष्ण-मठ और मिशन' में सन्निहित है। एवं 'प्रवृत्तिमार्ग के अधिकारी' व्यक्तियों के लिये स्वामी जी के उपदेशों की मूल धारा का स्रोत " विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर 'Be and Make वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा " में स्थापित एवं 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' में सन्निहित है।
              श्री रामकृष्णदेव ने एक स्थान में कहा है - " जिन्हें आत्मचैतन्य का ज्ञान हुआ है वे ही ऐसा जान पाते हैं कि एकमात्र ईश्वर [परमात्मा, अल्ला या माँ जगदम्बा] ही सत्य हैं, अन्य सब कुछ असत और अनित्य है। वे जानते हैं कि मैं इन कर्मों का कर्ता नहीं हूँ; मैं तो ईश्वर का दास हूँ। मैं यंत्र हूँ और वे यंत्री हैं। वे जैसा कराते हैं, वैसा करता हूँ। जैसा कहलाते हैं, वैसा कहता हूँ। जैसा चलाते हैं वैसा चलता हूँ। .... ईश्वर के बिना जाने ऐसी अवस्था नहीं होती। ईश्वर के प्रति उनका इतना अधिक प्रेम होता है, कि वे जो कुछ करते हैं [अर्जुन के जैसा महाभारत युद्ध भी] सभी शुभ कर्म होता है। जनक आदि राजाओं ने गुरु-शिष्य परम्परा में 5 अभ्यासों की साधना करके सिद्धिलाभ किया था और तब वे जीवनमुक्त [भ्रममुक्त] होकर संसार में रहे थे। "         
           और अन्य किसी समय में जब राजा लोग स्वयं 'यम-नियम-आसन -प्रत्याहार -धारणा' का पालन करने में असमर्थ हो जाते हैं, तब यह योग केवल संन्यासियों के मठों या अरण्यों के आश्रमों में सीमित होकर, अनुपयोगी सा बनकर निरर्थक हो जाता है।  तब अध्यात्म का स्वर्ण युग समाप्त होकर भोगप्रधान आसुरी जीवन का अन्धा युग प्रारम्भ होता है। महाभारत काल का उचित मूल्यांकन करते हुए श्रीकृष्ण भगवान् ठीक ही कहते हैं कि दीर्घकाल के अन्तराल से वह योग यहाँ नष्ट हो गया है।  
             यह देखकर कि इन्द्रिय संयम से रहित दुर्बल व्यक्तियों के [टीवी पर दिखने वाले  XYZ जैसे प्रवृत्ति मार्गी ढोंगी-गुरुओं के] हाथों में जाकर यह योग नष्टप्राय हो गया, जिसके बिना जीवन का परम् पुरुषार्थ- 'मोक्ष' (भ्रममुक्ति) की अवस्था को प्राप्त नहीं किया जा सकता। 
            किन्तु आसुरी भौतिकवाद से ग्रस्त काल में भी 'प्रवृत्ति मार्ग के अनुयायिओं की'  वह पीढ़ी अपने ही चरित्र के अवगुणों से पीड़ित होने के लिये उपेक्षित नहीं छोड़ दी जाती है। क्योंकि उस समय [1967 में] बंगाल में कोई महान् गुरु या महामण्डल के जैसा कोई आध्यात्मिक संगठन अध्यात्म क्षितिज पर अवश्य अवतीर्ण होता है। और श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के नेतृत्व में 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' का आविर्भाव होता है, जो  'मनुष्य -निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' के द्वारा तत्कालीन पीढ़ी को चरित्र-निर्माण करने के लिए प्रेरणा साहस उत्साह  और आवश्यक नेतृत्व-प्रशिक्षण  प्रदान करके,  दुख पूर्ण पगडंडी से बाहर निकालकर सांस्कृतिक पुनरुत्थान के राजमार्ग पर ले आता है। 
                 किन्तु पूज्य नवनीदा चाहते थे कि मनःसंयोग और जीवन-गठन (अर्थात राजयोग) का प्रशिक्षण भी महामण्डल -घराना में प्रशिक्षित (Be and Make' लीडरशिप में प्रशिक्षित) कोई 'would be Leader' ही दे। इसलिये जब महामण्डल के कुछ वरिष्ठ भाइयों ने 'महामण्डल का गोल्डेन जुबली कैम्प' बेलुड़ मठ में करने का निर्णय लिया, तब उन्होंने उसका विरोध करते हुए कहा था - " मैं इस बार 25 दिसम्बर से प्रारम्भ होने वाले वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' जाऊँगा ही नहीं। और अपने वचन पर अटल रहते हुए उन्होंने  26 सितम्बर 2016 को अपने नश्वर शरीर का त्याग कर दिया
           स्वामी जी कहते थे - " Education without Spirituality is incomplete. " अर्थात आध्यात्म के बिना शिक्षा असम्पूर्ण है!  'आध्यात्मिक शिक्षक' ही मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेता हैं! अतः महामण्डल के सभी कर्मियों को दादा का आदेश -" मने राखबे तुमि एक जन শিক্ষক ! " सदैव  याद रखना चाहिए। क्योंकि  'निवृत्ति अस्तु महाफला' में  प्रशिक्षित गृहस्थ आध्यात्मिक शिक्षकों/नेताओं  का जीवनगठन किये बिना स्वामी विवेकानन्द की जागरण वाणी -'उठो-जागो! ' BE AND MAKE"- सुनाकर भी प्रवृत्ति मार्ग के अधिकारी युवाओं की मोहनिद्रा भंग नहीं की जा सकती। इसीलिये दादा कहते थे, महामण्डल आंदोलन से जुड़ने से पहले सभी कर्मियों को यह समझ लेना चाहिए कि यह महामण्डल आन्दोलन गीता एवं उपनिषद की शिक्षाओं पर आधारित है। 
                छान्दोग्य उपनिषद् में बड़े सुन्दर ढंग से कहा गया है -- " तेन उभौ कुरुतो यश्च एतद् एवं वेद यश् च न वेद। नाना तु विद्या चाविद्या च यदेव विद्यया करोति, श्रद्धयोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरं भवतीति'.... ॥ कोई कह सकता है कि ॐ  के रहस्य को जाने वाला  और दूसरा ॐ  के रहस्य को नहीं जानने वाला अगर यज्ञ करे तो उसमे समान फल मिलेंगे।  लेकिन नहीं, ऐसा नहीं है। [ॐ के] ज्ञान होने से और ज्ञान नहीं होने से फल भिन्न होते हैं। ॐ  के ज्ञान, श्रधा और देवतों की साधना से बहुत अधिक उत्तम फल प्राप्त होते हैं।   यही ॐ की विस्तृत व्याख्या है।
            "ईशा उपनिषद, मंत्र ११ में कहा गया है - विद्या और अविद्या मे सामंजस्य रखते हुए, हमे विद्या से अमृत प्राप्ति करनी चाहिए। विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ।।[यः तद् उभयं विद्यां च अविद्यां च सह वेद, सः अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यया अमृतम् अश्नुते । "वही कार्य अधिक फलोत्पादक (efficient या प्रभावशाली) होता है, या उसी कार्य में सफलता मिलने की सम्भावना अधिक होती है, जिस कार्य को इस जगत के विषय में पर्याप्त समझ, (अर्थात माँ जगदम्बा ही जगत बन गयीं हैं ! ) श्रद्धा, विश्वास और सत्य-निष्ठा तथा रिक्वायर्ड नो-हाउ, (दृष्टि को ज्ञानमयी बनाकर जगत को 'ब्रह्ममय' अनुभव करने की तकनीकी जानकारी) के साथ प्रारम्भ किया जाता है।] 
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                  [The route from Delhi-Kathgodam is plain, Kathgodam to Almora is mountain drive. From Almora,  drove to Mayawati. started at 6am and reached Mayawati at 1pm.The complete route from Almora to Mayawati, is from one mountain to another, ascend and then descend.Drive from Mayawati-Tanakpur-Kathgodam-Delhi should again take 10-11 hours or so. Maywati to Tanakpur is mountain drive and then to Kathgodam is a plain road.At Mayawati though, the temperature was cold. I guess 4-5 degrees at night. Early morning and late evening was cold as well. We were wearing thermal and sweatshrts and jackets. Advaita Ashrama, P.O. Mayavati, Via Lohaghat, Dt. Champawat, Uttarakhand 262524, India. Phone : 05965-234233/ Email : mayavati@advaitaashrama.org,mayavatiashrama@gmail.com, awakened@rediffmail.com/]
[ Courtesy -https://aahwan.wordpress.com/tag/swami-vivekanand-and-uttarakhand/] बाद में देखें महामण्डल ब्लॉग /मंगलवार, 17 जुलाई 2018/ महामण्डल आन्दोलन से 'अद्वैत आश्रम', मायावती, हिमालय, का सम्बन्ध क्या है ?क्या श्री रामकृष्णदेव को अवतार वरिष्ठ कहना उचित है? और  रविवार, 24 फ़रवरी 2019/मनःसंयोग-3 [28 -12 -2018 : मनःसंयोग : तीसरा सत्र] 
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भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक संस्कृति है; और इस संस्कृति के विकसित होने में  हिमालय की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण रही है।  हिमालय ने भारत को बहुत कुछ दिया है …. हम ऋणी हैं देव स्थान हिमालय के।  यहाँ के कण-कण में जीवन-दर्शन दिखता है।  चाहे वे हिमाच्छादित उच्च शिखर हों  या हिमालय के सर्पीले मार्ग, लम्बे-लम्बे वृक्ष हों, या कठोर शिलाएं हों, घाटियों की दुर्गमता हो, या वहाँ के जीवन की कठिनाइयाँ हों, वहाँ का सूर्योदय हो …. या सूर्यास्त हो ….वहाँ का सब कुछ भारतीय दर्शन की दिव्यता से ओतप्रोत दिखता है। हिमालय दुनिया भर के आध्यात्मिक जिज्ञासुओं के लिये एक अति महत्वपूर्ण गंतव्य रहा है।
            युवा भारत को उपनिषदों की वाणी - 'एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति' ,  'ईशा वास्यमिदं सर्वं यद्किन्चित जगत्याम् जगत्',  'उत्तिष्ठत जाग्रत' -उठो, जागो, और सत्यद्रष्टा  श्रेष्ठ पुरुषों के सानिध्य में रहकर ज्ञान प्राप्त करो,विद्वान् मनीषी जनों का कहना है कि ज्ञान प्राप्ति का मार्ग उसी प्रकार दुर्गम है जिस प्रकार छुरे के पैना किये गये धार पर चलना।',  सुना-सुना कर-- जागृति का सन्देश देने वाले युवाओं के गुरु (आदर्श -Role Model ) स्वामी विवेकानन्द का सम्बन्ध अल्मोड़ा, हिमालय से बहुत निकट का रहा है।  वे हमेशा से ही हिमालय क्षेत्र में रहना पसंद करते थे। 
          हिमालय को महिमामण्डित  करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने एक बार कहा था कि, ‘महान हिमालय प्र‍कृति के काफी समीप है…यहां अनेक देवी-देवताओं का निवास है… हिमालय…देवभूमि है’, हिमालय ने मुझे सदा ही अपनी ओर आकर्षित किया है।  “ये पहाड़ आध्यात्मिक स्पंदन से जीवंत व सजीव हैं। अनेक ऋषि मुनियों और जाने अनजाने साधू सन्यासियों ने इन पहाड़ों  को अपना घर बनाया और इन जगहों को अपनी ऊर्जा से प्रदीप्त किया। हिमालय निश्चित ही सभी आध्यात्मिक जिज्ञासुओ के लिये एक आह्लादकारी अनुभव है।” ।  स्वामी विवेकानन्द हिमालय की इस आध्यात्मिक भूमिका के हमेशा ही प्रशंसक रहे।
        कुमाऊँ की पहाड़ियों में बसा हुआ, अल्मोड़ा एक पहाड़ी नगर है।  चारों तरफ हरे-भरे जंगलों का सौन्दर्य अपने आप में एक विशेष आकर्षण पैदा करता है। अल्मोड़ा खुबसूरत मनोरम स्थान है, वसन्त ॠतु में अल्मोड़ा की छवि दर्शनीय हो जाती है।  प्राचनी युग से ही अल्मोड़ा का धार्मिक भौगोलिक और ऐतिहासिक महत्व कई दिशाओं में अग्रणीय रहा है । सांस्कृतिक दृष्टि से भी अल्मोड़ा सम्स्त कुमाऊँ अंचल का प्रतिनिधित्व करता रहा है ।
          एक पत्र में निवेदिता को लिखा था -" अल्मोड़ा, हिमालय से मैं पुनः तुम्हें एक पत्र लिखूँगा , गर्म मैदानी इलाकों की अपेक्षा वहाँ के ऊँचे हिमशिखरों के सम्मुख मेरे विचार स्पष्ट एवं स्नायु अधिक शान्त होंगे। मिस मूलर इसी बीच अल्मोड़ा पहुँच चुकी हैं। मि. तथा मिसेज सेवियर शिमला पहुँच रहे हैं, अब तक वे दार्जलिंग में थे। "६/३२०
            अल्मोड़ा के दिव्य ऊँचे पर्वतों को देख कर ही उनका मन मस्तिष्क भारत के भविष्य की सुखद कल्पनाओं और योजनाओं से भर गया था। ( 'ब्रह्मविद मनुष्य -निर्माण' और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा -Be and Make के प्रचार-प्रसार' की योजनाओं से भर गया था।) उन्होंने प्रार्थना की थी कि उनके जीवन के आखिरी पल इन्ही पर्वतों के बीच, देवताओं के सानिध्य में बीते।   ' अल्मोड़ा का आकर्षण' हिमालय के प्रति स्वामी विवेकानन्द के उसी अद्भुत आकर्षण और प्यार को  प्रदर्शित करता है। 
             अल्मोड़ा नगर से स्वामी विवेकानन्द का सम्बन्ध तब का है, जब वे केवल नरेन्द्रनाथ थे, तब वे विश्वप्रसिद्ध नहीं हुए थे, उनकी विश्व ख्याति नहीं हुई थी।  वर्ष 1890 में एक साधारण परिव्राजक संन्यासी की तरह विवेकानन्द अपने गुरू भाई अखण्डानन्द को साथ लेकर भिक्षाटन करते, पेड़ों की छाया में विश्राम करते, कल की चिंता से बेपरवा- बेखबर,  नैनीताल पहुंचे।  नैनीताल में प्रसन्न भट्टाचार्य के घर पर छह दिन रूककर वे पहली बार अल्मोड़ा की तरफ़ चल पड़े।  अल्मोड़ा पहुँचकर वे कई दिनों तक खजांची मोहल्ला में स्व ० बद्रीश शाह के मेहमान बनकर भी रहे।             
               अल्मोड़ा का कसारदेवी मंदिर स्वामी जी की साधना स्थली रही है। अपने यह मुख्य नगर से आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर से हिमालय की ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियों के दर्शन होते हैं। कसार देवी का मंदिर दुर्गा का मंदिर है। कहते हैं कि इस मंदिर की स्थापना ईसा के दो वर्ष पहले हो चुकी थी। इस मंदिर का बहुत अधिक धार्मिक महत्व है। अल्मोड़ा प्रवास के दौरान स्वामी जी कसारदेवी मंदिर की गुफा में ध्यान और साधना करते थे। देवलधार और स्याहीदेवी भी उनके प्रिय स्थल थे। उन्होने यहां कई दिनों तक एक शिला पर बैठ कर साधना की।
                        स्वामी विवेकानन्द की जीवनी ‘युगनायक विवेकानन्द’ के अनुसार, उनकी पहली हिमालय यात्रा का उद्देश्य था 'भारत के प्राचीन आध्यात्मिक ज्ञान या आत्मज्ञान को आधुनिक ढंग से उपयोगी बनाकर कार्यरूप देने का उपाय प्राप्त करना था। स्वामी विवेकानन्द भारतवासियों की वर्तमान दुर्दशा को दूर करने का उपाय खोजने के लिये कितने व्यग्र थे ,उसका उल्लेख करते हुए  'विवेकानन्द चरित' के जीवनीकार श्री सत्येन्द्रनाथ मजूमदार ने लिखा है -" जितने ही दिन बीतते जाते हैं , उतना ही मानो अधिक स्पष्ट रूप से समझ रहा हूँ कि सनातन धर्म के लुप्त गौरव को फिर से स्थापित करना ही, श्रीरामकृष्ण (और महामण्डल?) के आविर्भूत होने का उद्देश्य है भारत को फिर से धर्म की वैद्युतिक शक्ति द्वारा संजीवित करना है, इसकी आध्यात्मिकता के द्वारा समस्त जगत को जीतना ही है, परन्तु उपाय क्या है ? उपाय क्या है ?
            ... एक ओर है वेदान्तदर्शन,  ध्यान-धारणा , योग-समाधि, (अष्टांग योग की पद्धति) जिसे  इह-लोक के भोगों से पूर्णतया मुँह मोड़ लेने में सक्षम निवृत्ति धर्म के अधिकारी मुट्ठी भर संन्यासियों ने अरण्यों और मठों की चहारदीवारी तक ही सीमित बना दिया है। और दूसरी ओर है भारत का विशाल जनसमुदाय जो प्रवृत्ति धर्म का अधिकारी है, अर्थात थोड़ा भोग कर लेने और उसकी निस्सारता को समझ लेने के बाद ही स्वतः निवृत्ति धर्म का पालन करने का अधिकारी है। अतः प्रवृत्ति धर्म (कर्मयोग) के अधिकारी अधिकांश भारवासियों वासियों को 'अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में मनःसंयोग का प्रशिक्षण' देने के लिये किसी प्रवृत्ति धर्म के अधिकारी - व्यक्ति (कैप्टन सेवियर) को ढूंढ़ कर उसे राजर्षि (राजा +ऋषि) के रूप में प्रशिक्षित करना ही होगा।  
           क्योंकि ऊपर से विपरीत प्रतीत होने वाले इन दो भावों - "प्रवृत्ति और निवृत्ति" इन दो धर्मों में यदि हम सामंजस्य स्थापित न कर सके , तो श्रीरामकृष्ण (नवनीदा) के शिष्य रूप से अपना परिचय देने का हमें  क्या अधिकार है ? यदि हम समग्र भारतवासियों को एक अखण्ड जाति में परिणत करना चाहते हैं, तो हमें इन दो भावों - प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्मों को एक दूसरे का विरोधी समझने के गहरे भिदे कुसंस्कारों के विरुद्ध खड़े होकर यह प्रचार करना होगा कि धर्म की साधना (5 अभ्यास) में तथा सामाजिक सुखसुविधा की प्राप्ति में प्रत्येक मनुष्य का समान अधिकार है। यह ठीक है कि यह अद्वैत भावधारा लोगों को सहज ही ग्राह्य न होगी, काम उतना सरल नहीं है , पर श्री रामकृष्ण (नवनीदा) तो हमें इसी कठिन व्रत में दीक्षित कर गये हैं।
          ... भारतवर्ष अपने राष्ट्रीय जीवन के जुड़वां  आदर्श " त्याग और सेवा" से बहुत दूर हट गया है , तथा इस समय उसके सामने  कोई सार्वजनिक आदर्श (प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों धर्मों के अधिकारी मनुष्यों के लिए कोई सर्वमान्य आदर्श- 'Universal ideal - नवनीदा') जैसा मानवजाति का मार्गदर्शक नेता भी नहीं दिखता;  जिसके जीवन से प्रेरणा लेकर प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों धर्मों का समन्वय का सूत्र - " Be and Make " का प्रचार-प्रसार सम्पूर्ण भारत में किया जा सके।
         किन्तु ऐसे ही सर्वमान्य आदर्श शिक्षकों (प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों धर्मों के अधिकारी मनुष्यों का चयन कर ब्रह्मविद शिक्षकों) मानवजाति के भावी मार्गदर्शक नेताओं के निर्माण का कार्य नरेन्द्रनाथ को सौंपते हुए श्री रामकृष्णदेव ने उनसे एक दिन कहा ही था - " तेरी निर्विकल्प समाधि अभी ताले में बंद करके रख दी गयी है; काम समाप्त होने पर ही मिलेगी। " इसी निर्देश के बाद स्वामीजी ने भी अपनी अन्तर्निहित शक्ति को  पहचान  लिया था, कि यदि मन में ठान लें तो  'एकाग्रता' की शक्ति के द्वारा वे कोई भी लक्ष्य प्राप्त करने में समर्थ थे। 
             1890 में जब वे बेलूर मठ से हिमालय की कठिन यात्रा के लिए निकले, तव काशी आकर उन्होंने प्रमददास बाबू का आतिथ्य ग्रहण किया। उस समय उन्हें हिमालय आकर्षित कर रहा था। अतएव वे अधिक दिन काशी में न रहे। विदा लेने से पूर्व वे प्रमददास बाबू से कह गए - " जब मैं लौटूँगा तो समाज के ऊपर बम की तरह फूट पडूँगा और समाज मेरे पीछे चलेगा। " विवेकानन्द चरित 99 / 
            [अर्थात मैं तब तक नहीं लौटूंगा जब तक मुझे वह सिद्धि प्राप्त नहीं हो जाती जिसके स्पर्श मात्र से मानव को परिवर्तित किया जा सके; अर्थात पशुमानव को मनुष्य में, और मनुष्य को देवता (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य) में रूपान्तरित किया जा सके ।  तब समाज के ऊपर मेरी शिक्षाओं का प्रभाव - इस तरह पड़ेगा कि सारा समाज स्वयं मेरा अनुसरण करेगा, मेरे पीछे पीछे चलेगा।] 
     तदुपरान्त, देवभूमि हिमालय में प्रचीन ऋषियों का अनुसरण करते हुए, तपश्चर्या एवं योग-साधना के साथ-साथ अपने आध्यात्म ज्ञान को प्रयोगात्मक रूप देने की खोज में निकल पड़े। हिमालय की हिमाच्छादित शुभ्र चोटियाँ उन्हें अपनी ओर निरंतर आकृष्ट कर रही थीं। कोई अज्ञात शक्ति- 'अल्मोड़ा का आकर्षण' ही  उन्हें अपनी ओर खींच रही थी।
             कदाचित तुरियानन्द की तरह स्वामी विवेकानन्द को भी द्रोण की नगरी देहरादून की दैवीशक्ति अपनी ओर आकृष्ट कर रही थी । अल्मोड़ा से आते समय स्वामी विवेकानन्द को जब उनके तप के बारे में पता चला तव वे देहरादून आये। बदरीनाथ धाम से लौटते वक्त स्वामी जी द्रोणनगरी देहरादून पहली बार 13 अक्टूबर 1890 को आए। दून आकर स्वामी विवेकानन्द  दूनघाटी के शांत, वातावरण से बहुत ही अभिभूत हुए। देहरादून के  राजपुर में प्राचीन बावड़ी शिव मंदिर के नीचे गुफा है। यही वह स्थल है, जहाँ पर एक कुटिया में स्वामी जी के गुरु भाई स्वामी तुरीयानन्द तप कर रहे थे।  अम्बिका देवी मंदिर से वापसी में नीचे उतरते हुए तुरियानन्द को ऊपर आते देख स्वामी जी को आश्चर्य मिश्रित सुखानुभूति हुयी। यहाँ वे अपने गुरुभाई स्वामी तुरीयानन्द से  मिले। प्राकृतिक सोते, धरती के गर्भ से फूटती जल की पावन धारा और शांत वातावरण उन्हें वहीं रुकने के लिए विवश करने लगी। बावड़ी के सुरम्य वातावरण में स्वामी विवेकानन्द का मन रम गया। वे यहीं तुरियानन्द जी के कक्ष में रहे और 13 दिन तक तप किया ।  यह कमरा और स्थल लोगों की श्रद्धा का केंद्र है। देहरादून में स्वामी जी की मुलाकात अपने स्कूल के मित्र ह्रदय बाबु से हुई। हुई ह्रदय बाबु ईसाई धर्म स्वीकार कर लिए थे और वे यहाँ एक स्कूल में शिक्षक थे।
          'काकड़ीघाट तीर्थ': अल्मोड़ा के निकट स्थित काकड़ी घाट युगों युगों से ऋषियों की तपोभूमि रही है। काकड़ी घाट का प्राचनी महत्व है। यहाँ पर एक पुराना शिव मन्दिर है। जब पर्वतीय अंचल में मोटर मार्ग नहीं थे तो बद्रीनाथ जाने के लिए यहीं से पैदल मार्ग कर्णप्रयाग के लिए जाता था। आज भी कई धार्मिक यात्री इसी मार्ग से पैदल चलकर बद्रीनाथ-केदारनाथ की यात्रा करने जाते हैं। काकड़ी घाट के नजदीक ही कोसी नदी पर एक पुल (bridge) बना हुआ है। उस पुल को पार करते ही मोटर-मार्ग पहाड़ी की चोटी की ओर बढ़ने लगता है। यही पर्वतीय मार्ग-ऐतिहासिक नगरी अल्मोड़ा की ओर जाता है। विवेकानन्द  की जीवनी ‘युगनायक विवेकानन्द’ के अनुसार, हल्द्वानी-अल्मोड़ा मार्ग पर काकड़ी घाट के पास पीपल के एक वृक्ष के नीचे ही एक दिन स्वामी विवेकानन्द को 'आत्मसिद्धि एवं आत्मज्ञान की प्राप्ति'  हुई थी । 
      उस 'आत्मसिद्धि' प्राप्त होने की घटना का वर्णन 'अल्मोड़ा का आकर्षण '- नामक महामण्डल की हिन्दी पुस्तिका के पृष्ठ संख्या ५ पर  इस प्रकार दिया हुआ है-  " अल्मोड़ा यात्रा के कुछ दिनों बाद स्वामी जी और स्वामी अखंडानन्द जी ने ज्ञान की प्राप्ति के पथ पर पुनः अपनी पदयात्रा आरम्भ की। ...यात्रा के तीसरे दिन वे दोनो काकड़ी घाट पहुंचे, … और यहाँ उनलोगों ने एक झरने के किनारे पानी की चक्की के समीप रात्रि विश्राम के लिए एक मनोरम स्थान को ढूंढ़ निकाला।
               प्रातः स्नान के बाद जब आगे बढ़े तो देखा एक स्थान पर पगडण्डी के निकट से ही कोशी (कौशिकी) नदी बहती हुई चल रही थी। असंख्य छोटे-बड़े आकर के रोड़े-पत्थरों के ऊपर से होकर बहती हुई इस नदी को पैदल ही चलकर पार किया जा सकता था। थोड़ा आगे बढ़ने पर, स्वामी जी की दृष्टि उस   स्थान पर पड़ी , जहाँ दूसरी ओर से सरोता नदी आकर कौशिकी का आलिंगन कर रही थी। दोनों के संगम-स्थली पर एक त्रिभुजाकार भूखण्ड उभर आया था। उसी भूखण्ड के बीच में एक विशाल पीपल का वृक्ष भी खड़ा था। वहाँ का समस्त वातावरण दिव्य आनन्द से भरा हुआ था।  स्वामीजी वहाँ रुककर खड़े हो गये, और स्वामी अखंडानन्दजी से कहा- " भाई, देखते हो यह स्थान तो ध्यान करने के लिये अत्यन्त उपयुक्त है!"
                   उन दोनों ने उसी कोशी नदी में स्नान किया और “ प्रकृति के अनुपम सौंदर्य और विधाता की अनुपम रचना के आगे श्रद्धानत हो वे काकड़ीघाट में स्थित विशाल पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान करने बैठ गये। ऐसा लग रहा था मानो पर्वत पुत्री, भारत जननी, माता पार्वती ने उनको अपनी गोद में बैठा रखा हो।  चित्त की कामनाएँ गिरने लगीं, सेवा-वृत्ति उभरने लगे। हिमालय के हिमशिखर मौन में डूब गए। एक गहन नीरव निस्स्पंदता वहाँ व्याप्त हो गई। जब अन्तर-बाह्य पवित्रता हो तो भाव समाधि बड़ी सहज होती है। वह अत्यंत पवित्र क्षण था। कुछ ही क्षणों के भीतर स्वामीजी गंभीर ध्यान में लीन हो गये,  उनका पूरा शरीर निस्पंद हो गया था।  यह बड़ी अद्भुत स्थिति थी। कितनी देर रही यह अवस्था कौन जाने? हाँ, जब समाधि से सब उठे तो स्वामी विवेकानन्द ने हिमालय के शुभ्र शिखरों को देख कर अपने गुरुभाई अखण्डानन्द से कहा …. देखो गंगाधर (अखण्डानंद) इस वृक्ष के नीचे एक अत्यंत शुभ मुहुर्त बीत गया है। " आज मेरी एक दीर्घकालीन जिज्ञाषा का समाधान प्राप्त हो गया। " यहीं ध्यान की अवस्था में सत्य का ज्ञान हुआ, अणु-परमाणु का अनुभव हुआ, मैने जान लिया कि समष्टि और व्यष्टि (विश्व बृह्माण्ड व अणु बृह्माण्ड) दोनो एक ही नियम से परिचालित होते हैं।" आनन्दविभोर होकर अखण्डानन्द स्वामी विवेकानन्द की ओर एक टक होकर देखते रहे। स्वामी अखण्डानन्द के पास रखी हुई एक नोट बुक में स्वामीजी ने उस दिन की अनुभूति की बात लिख छोड़ी। यह पंक्तियां उन्होने बांग्ला में ही लिखी।--” आमार जीवनेर एकटा मस्त समस्या आमि महाधामे फेले दिये गेलुम ! ” 
            स्वामी विवेकानन्द ने उन पंक्तियों में लिखा है, "आज मेरे जीवन की एक बहुत गूढ़ समस्या का समाधान इस महा धाम में प्राप्त हो गया ! 'शब्द' के बिना विचार करना असम्भव है। अतएव सृष्टि के आदि में शब्द- ब्रह्म था। समूचा ब्रह्माण्ड एक ॐ कार में समाया है। जिस प्रकार व्यष्टि जीवात्मा एक चेतन शरीर द्वारा आवृत्त है, उसी प्रकार विश्वात्मा भी चेतनामयी प्रकृति या दृश्य जगत में स्थित है। " जो पिण्ड में स्थित है, वही इस ब्रह्माण्ड के पीछे भी अवस्थित है !" अणुविश्व और वृहत-विश्व (ब्रह्माण्ड) दोनों के पीछे एक ही सत्ता (माँ जगदम्बा) विराजमान है। 
          इसी अद्वैत दर्शन के आधार पर उन्होंने  लोगों को बताया कि –  कि  जीवात्मा (व्यष्टि अहं) जिस प्रकार जीव के शरीर के भीतर ही अवस्थित होकर उसे चला रही है, विश्वात्मा ( माँ जगदम्बा के मातृहृदय का सर्वव्यापी विराट 'अहं'-मैं बोध !) भी उसी प्रकार इस सृष्टि के भीतर ही अवस्थित होकर इसको चला रही है ! विश्वात्मा का यह युगल रूप अनादि है। अतएव हम लोग जो कुछ देखते हैं या अनुभव करते हैं। सभी की संरचना साकार और निराकार के सम्मिलन से हुई है।  शिवा (काली) शिव का आलिंगन कर रही है। यह कोई कल्पना नही है। 
           इसी एक (प्रकृति) के द्वारा दूसरे (आत्मा) का यह आलिंगन मानो शब्द और अर्थ के सम्बंध की भांति है। वे दोनो अभिन्न हैं और केवल मानसिक विश्लेषण (मनीषा) के द्वारा ही उन दोनो को या 'संयुक्ताक्षर' को पृथक किया जा सकता है। शब्द ( ' नाम '-  परा, मध्यमा, पश्यन्ति और वैखरी ) और उसके अर्थ के समान ही ब्रह्म के ये दोनों रूप ( निराकार और साकार ) सनातन हैं !  अतः हमलोग जिस जगत को देख रहे हैं वह शाश्वत निराकार एवं शाश्वत साकार की मिलीजुली अभिव्यक्ति है ! "  स्वामी विवेकानन्द ने लिखा है," मनुष्य की महानता उसकी उन सत्प्रवत्तियों को चरितार्थ करने में है, जिनसे दूसरों को प्रकाश मिले।  'Be and Make ' -स्वयं 'मनुष्य' बनो और दूसरों को मनुष्य (महापुरुष) बनने में सहायता करो !' यही प्रज्ञान बाद में शिकागो एड्रेस का आधार बना
          अल्मोड़ा के निकट जिस स्थल पर बैठ कर ध्यान करने स्वामीजी को साकार और निराकार ब्रह्म के बारे में जिज्ञाषा का समाधान प्राप्त हो गया था, उस स्थल का नाम है - काँकड़ी घाट। आज भी काकड़ीघाट नामक स्थान पर वह पीपल का पेड़ उपस्थित है। यह 'काकड़ीघाट तीर्थ'  कोसी नदी के तट पर अल्मोड़ा के मार्ग में खैरना से आगे स्थित है।  यह स्थल अल्मोड़ा से २३ किलोमीटर दूर स्थित है।                
               अल्मोड़ा का सूफ़ी मुस्लिम फकीर: 1890 में अल्मोड़ा की पहली यात्रा के समय एक दिन करबला के कब्रिस्तान के पास स्वामी विवेकानन्द भूख, प्यास से निढ़ाल होकर अचेत हो गए थे। कब्रिस्तान में रहने वाले एक मुस्लिम फकीर जुल्फिकार अली ने उनकी प्राणरक्षा की थी। शिकागो यात्रा के बाद जब स्वामी जी पुनः 1897 में अल्मोड़ा आये, तब तक वे विश्व प्रसिद्ध हो चुके थे। अल्मोड़ा में स्वामी जी का सार्वजनिक अभिनन्दन किया गया था। नगर में स्वामी जी के स्वागत में लोगों ने पलक पांवड़े बिछा दिए थे। उन्होंने अपने स्वागत के लिए आई भीड़ में भी उस मुस्लिम फकीर को पहचान लिया और कहा कि इस व्यक्ति ने ही उनकी प्राण रक्षा की थी। 
                 विवेकानन्द मेमोरियल रेस्ट हॉउस : अल्मोड़ा  पुनःआगमन की अविस्मरणीय घटना को चिरस्थायी बनाने के लिए सार्वजनिक अभिनन्दन सभा स्थान पर विवेकानंद कृषि संस्थान के विश्राम कक्ष की स्थापना की गई। इस विवेकानन्द मेमोरियल विश्राम कक्ष की स्थापना 1971 में की गई। स्वामी विवेकानन्द मेमोरियल स्मारक में प्रसि़द्ध अमेरिकी चित्रकार अर्ल ब्रूस्टर द्वारा निर्मित चित्र की प्रतिकृति लगायी गयी जिसमें घ्यानावस्था में स्वामी जी के चित्र के पीछे कैलाश पर्वत तथा मानसरोवर झील का अंकन था । स्वामी जी के विचारों को हिन्दी, उर्दू तथा अंग्रेजी में अंकित किया गया। ये विचार सेवा, कार्य, धर्म, आदर्श, एकता, आस्था, स्वतंत्रता, चरित्र तथा सत्य के विषय में स्वामी जी के चिंतन को दर्शाते है।
              शारदा आश्रम:  अल्मोड़ा में स्वामी जी के तपस्या स्थल कसारदेवी पर्वत श्रंखला में शंकराचार्य द्वारा शारदा के नाम पर "शारदा मन्दिर " की स्थापना की गयी है। इस शारदा मन्दिर में स्थापित देवी प्रतिमा के एक हाथ किताब है, इससे पहली नजर में यह सरस्वती की मूर्ति ही मान ली जाती है लेकिन इसके उसके दूसरे हाथ में बर्तन और एक तोता भी है, जो कि गृहस्थ और ऐंद्रिक जीवन के प्रतीक हैं।  इससे शंकराचार्य द्वारा भौतिक सुखों की पुष्टि करने का संकेत भी मिलता है।  दूसरे शब्दों में तंत्र की पुष्टि।  श्रीयंत्र, जो देवी का ज्यामितीय चिन्ह है, से उनका संबंध भी इसकी पुष्टि करता है।  शंकराचार्य द्वारा स्थापित यह देवी - शारदा - उभय भारती से प्रेरित हैं या लगातार बुद्धिमत्ता की बातें करती रहने वाली उनकी मां से यह केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। यहाँ एक आश्रम भी है, जिसका उद्देश्य क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति में सुधार करना तथा आध्यात्मिक रूप से सशक्त बनाना है। 
           शिकागो में 1893 में दिये गये ऐतिहासिक भाषण के बाद ही स्वामी जी का स्वप्न बन गया था कि भारत वर्ष को यदि उन्नत राष्ट्र बनाना है तो यहाँ के प्रत्येक युवा  को 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी' शिक्षा के द्वारा आध्यात्मिक रूप से जाग्रत मनुष्य 'बनने और बनाने' का प्रशिक्षण देना होगा। इसलिए उन्होंने अपनी हर भूमिका के बाद अगली भूमिका के लिए अपने 'आचार्य व्यक्तित्व' को और अधिक प्रखर और परिष्कृत बनाया। जो उनके आध्यात्मिक विचार भाषणों संभाषणों के माध्यम से प्रगट होता रहा है। स्वामी जी के भाषणों का संग्रह ‘ कोलम्बो से अल्मोड़ा तक ’ नाम से प्रकाशित हुआ है।

    स्वामी जी ने हिन्दी में अपना पहला भाषण राजकीय इण्टर कालेज अल्मोड़ा में दिया था। 11 मई 1897 को अल्मोड़ा खजांची बाजार में (100 वर्ष पूर्व?) उन्होंने जन समूह को संबोधित किया। इस स्थान पर तब पांच हजार लोग एकत्र हो गए थे। अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण देव ने एक बार स्वामीजी के विषय में कहा था - "बाह्य ज्ञान का लोप हो जाने पर उस दिन मैंने नरेन्द्र से कई प्रश्न किये थे ---वह कौन है, कहाँ से आया है, क्यों आया है (जन्मग्रहण किया है), कितने दिनों तक यहाँ (पृथ्वी पर) रहेगा, इत्यादि इत्यादि। उसने भी उस अवस्था में अपने अन्तर में प्रविष्ट होकर सब प्रश्नों का ठीक ठीक उत्तर दिया था। .... इससे मैं जान गया कि जिस दिन वह (नरेन्द्र) जान जायेगा कि वह कौन है , उस दिन वह इस लोक में नहीं रहेगा। दृढ़ संकल्प की सहायता से समाधियोग के द्वारा वह उसी समय शरीर छोड़कर चला जायेगा। नरेन्द्र ध्यानसिद्ध महापुरुष है - निवृत्ति मार्ग के सात प्राचीन ऋषियों में से एक है ! " (श्रीरामकृष्णलीला प्रसंग, तृतीय खंड, पृष्ठ ७९-८०)
       नवनी दा कहते थे , बाह्य आकाश में जो सप्तर्षि मण्डली दिखाई देती है, वो प्रवृत्ति मार्ग के सप्तऋषि हैं, किन्तु स्वामी विवेकानन्द तो निवृत्ति मार्ग के सात ऋषियों में एक थे, जिन्हें ठाकुर देव अपने साथ लेकर आये थे।  
             जिस प्रकार यह सत्य है कि निवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक स्वामी विवेकानन्द भारत के नव निर्माण की " ईश्वरीय योजना -Be and Make" को मूर्तरूप देने के लिए धरती पर अवतरित हुए थे,  उसी प्रकार यह भी सच है कि  उनके कार्य में सहायता करने के लिए उनके साथ आत्मीय जुड़ाव अनुभव करने वाले ' कैप्टन सेवियर', 'सिस्टर निवेदिता' जैसे कुछ प्रवृत्ति मार्ग के ऋषि भी आये थे। 
        1893 में शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में सनातन वैदिक धर्म व भारतीय संस्कृति की अमिट छाप- छोड़ने के बाद, नरेन्द्र नाथ 1897 में जब स्वामी विवेकानन्द के नाम से विश्वप्रसिद्ध होकर दूसरी बार अल्मोड़ा आए। तब उनकी योजना में उनकी सहायता करने के लिए, उनके साथ आत्मीय जुड़ाव रखने वाले प्रवृत्ति मार्ग के पश्चिम के बहुत से भावी ऋषि /शिक्षक/ नेता लोग भी थे। कैप्टन सेवियर, सिस्टर निवेदिता आदि इन्हीं में से एक थे। स्वामी विवेकानन्द के दूसरी बार अल्मोड़ा  पहुँचने पर उनका भव्य स्वागत हुआ। पूरे नगर को सजाया गया था और लोधिया से एक सुसज्जित घोड़े में उन्हें नगर के स्वागत सभा भवन तक लाया गया।                    
           [ विवेकानन्द  के दुबारा अल्मोड़ा आगमन की इसी पृष्ठभूमि में हिंदी के छायावादी सुकुमार कवि सुमित्रानंदन ने कविता लिखी थी: ‘माँ! अल्मोड़े में आए थे, जब राजर्षि विवेकानन्द ,तब मग में मखमल बिछवाया, दीपावलि की विपुल अमन्द। बिना पाँवड़े पथ में क्या वे जननि! नहीं चल सकते हैं? दीपावली क्यों की? क्या वे माँ! मंद दृष्टि कुछ रखते हैं? "कृष्ण! स्वामी जी तो दुर्गम मग में चलते हैं निर्भय,दिव्य दृष्टि हैं, कितने ही पथ, पार कर चुके कंटकमय,वह मखमल तो भक्तिभाव थे, फैले जनता के मन के, स्वामीजी तो प्रभावान हैं, वे प्रदीप थे पूजन के।” ]      
 उस अवसर पर वहाँ की जनता ने स्वामी जी को जो मानपत्र भेंट किया था, उसके कुछ अंश इस प्रकार हैं : 
            "हमें यह सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि यहाँ हिमालय की गोद में आपका विचार एक मठ स्थापित करने का है। और हमारी ईश्वर से प्रार्थना है कि आपका यह उद्देश्य सफल हो। शंकराचार्य ने भी अपनी आध्यात्मिक दिग्विजय के पश्चात भारत के प्राचीन हिन्दू धर्म के रक्षणार्थ हिमालय में बदरिकाश्रम में एक मठ स्थापित किया था। इसी प्रकार यदि आपकी भी इच्छा पूर्ण हो जाय तो उससे भारतवर्ष का बड़ा हित होगा। इस मठ के स्थापित हो जाने से हम कुमाऊं निवासियों को बड़ा आध्यात्मिक लाभ होगा। और फिर हम इस बात का प्रयत्न करेंगे कि हमारा प्राचीन धर्म-'योग' हमारे बीच में से धीरे-धीरे लुप्त न हो जाये। आदिकाल से ही भारत का यह प्रदेश तपस्या की भूमि रहा है। भारतवर्ष के बड़े-बड़े ऋषियों ने अपना समय इसी स्थान पर तपस्या तथा साधना में बिताया है, परन्तु वह तो अब पुरानी बात हो गयी और हमें पूर्ण विश्वास है कि यहाँ मठ की स्थापना करके आप हमें पुनः उसका अनुभव करा देंगे। यही वह पुण्यभूमि है जो भरतवर्ष भर में पवित्र मानी जाती थी। तथा यही सच्चे धर्म ,कर्म , साधना तथा सत्य-प्राप्ति का क्षेत्र था, यद्यपि आज समय के प्रवाह में वे सब बातें नष्ट होती जा रही हैं। और हमें विश्वास है कि आपके शुभ प्रयत्नों द्वारा यह प्रदेश फिर प्राचीन धार्मिक क्षेत्र में परिणत हो जायेगा।" 5-243/   
            अल्मोड़ा के 'इंग्लिश क्लब' में स्वामी जी ने  जो भाषण अंग्रेजी में दिया था उस सभा के अध्यक्ष थे  'गुरखा रेजीमेन्ट' के कर्नल पुलि (Colonel Pulley) और  उस भाषण का विषय था - " वैदिक शिक्षा पद्धति में सिद्धान्त और व्यवहार का प्रशिक्षण।" (Vedic Teaching in Theory and Practice )  स्वामी जी ने पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली से तुलना करते हुए उस भाषण में बतलाया कि यह पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली 'आत्मा' तथा मौलिक महत्व के रहस्यों का समाधान [solution of vital and religious mysteries] बाह्य जगत (outside world) में ढूँढ़ने की चेष्टा करती है।  जबकि प्राच्य शिक्षा प्रणाली इन सब बातों का समाधान बाह्य प्रकृति (nature outside) न पाकर उसे अपनी अन्तरात्मा (inquiry within) में ही ढूँढ निकालने की चेष्टा करती है। उन्होंने दावा किया कि 'आत्मनिरीक्षण पद्धति' (introspective method ) को खोज निकालने का गौरव केवल उनके देश को ही है, और यह 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' भारतवर्ष के सनातन वैदिक धर्म की अपनी चीज तथा विशेषता है। उसी जाति ने मानव-समाज को आध्यात्मिकता का अमूल्य खजाना भी दिया है, जो उसी 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण प्रणाली' का फल है। 
           उन्होंने घोषणा किया कि उनके देश ने आध्यात्मिकता के जिस अमूल्य खजाने को  पूरी ईमानदारी के साथ विश्वमानवता को  वितरित किया है , उस अमूल्य खजाने का खोजकर्ता  होना ही उनके राष्ट्र की विशेषता है। और उन्होंने दावा किया कि यह आध्यात्मिकता रूपी अमूल्य निधि केवल उनके पूर्वजों द्वारा आविष्कृत -"अन्तरावलोकन प्रणाली"  (introspective method) का परिणाम एवं  महिमा है।  
[He justly claimed for his nation the glory of being the discoverers of the introspective method peculiar to themselves, and of having given to humanity the priceless treasures of spirituality which are the result of that method alone.] 

           उन्होंने दावा किया कि इसी 'आत्मनिरीक्षण प्रणाली' से " मन का अध्ययन" करना ही सबसे श्रेष्ठ विज्ञान है जिसके ऊपर भारत और ग्रीस के ऋषियों ने अपना ध्यान केंद्रित किया था। संसार के जितने भी धर्म हैं, वे सभी इसी अन्तस्थ मनुष्य ( inner human being - या कारण शरीर) के अध्यन के परिणाम हैं। इसी अंतर्निरीक्षणवाद (introspectionism)  के द्वारा हम एकत्व के सूत्र को खोजने का प्रयास करते हैं।  तथा इस धर्म -विज्ञान (science of religion) में जो चार महावाक्य (वैज्ञानिक सिद्धान्त) दिये गए हैं वे सामान्य और शक्तिशाली रूप से प्रत्येक मनुष्य पर लागु होते हैं ! इन महावाक्यों में हम एकता को खोजने के लिए इस प्रवृत्ति का सबसे साहसिक और सबसे जोरदार अभिव्यक्ति पाते हैं।
           ["The study of the mind was, above all, the science to which the sages of India and Greece had directed their attention. All religions are the outcome of the study of the inner human being. Here we find the attempt at finding the unity, and in the science of religion, as taking its stand upon general and massive propositions, we find the boldest and the most vigorous manifestation of this tendency at finding the unity."
From Swamiji’s article in the February 1895 issue of the New York Medical Times. Complete Works, 9. 286.]
            स्वभावतः इस विषय पर चर्चा के बाद, जो किसी भी हिन्दू को अत्यन्त प्रिय है, स्वामी जी जब आत्मा तथा परमात्मा (ईश्वर) के सम्बन्ध की चर्चा करने लगे, और यह दर्शाने लगे कि आत्मा परमात्मा से एक रूप हो जाने के लिए कितनी लालायित रहती है, तथा अन्त में किस प्रकार वह किस प्रकार ईश्वर (माँ जगदम्बा) के साथ एकरूप हो जाती है ! फिर एक आध्यात्मिक गुरु (गुरु-शिष्य परम्परा में प्रशिक्षित एवं चपरास प्राप्त) होने के नाते उस समय मानो वे मानो आध्यात्मिकता के शिखर पर ही पहुँच गए थे। और कुछ समय के लिए सचमुच ऐसा भास होने लगा कि 'वक्ता, उसके शब्द तथा श्रोता' सभी उनके भाव में अभिभूत हो गए थे। ऐसा कुछ भान नहीं रह गया कि 'मैं ' या 'तू ' अथवा 'मेरा ' या 'तेरा ' भी कोई चीज है। जो श्रोता (कैम्पर्स) उस समय उनके भाषण को सुन रहे थे , कुछ समय के लिए अपने अलग-अलग अस्तित्व को भूल गए। तथा उस महान गुरु के श्री मुख से निकले हुए आध्यात्मिक शब्दों के प्रचण्ड तेज में एकरूप हो गयीं, वे सब मानो मंत्रमुग्ध से रह गए। " 5-247  
                जिन लोगों को नवनीदा के मनःसंयोग क्लास या लीडरशिप क्लास को सुनने का अवसर दीर्घकाल तक मिलता रहा है, उन्हें इस प्रकार के कई अवसरों का भी स्मरण हो जायेगा , जब वे वास्तव में जिज्ञासु तथा ध्यानमग्न श्रोताओं के सम्मुख भाषण देने वाले वक्ता नहीं रह जाते थे, श्रोताओं के सब प्रकार भेद-भाव तथा नाम-रूप का अहं सब नष्ट हो जाते थे, तथा वह केवल सर्वव्यापी विराट आत्मतत्व ही रह जाते थे, जिसमें श्रोता , वक्ता तथा उच्चारित शब्द बस एकरूप होकर रह जाते थे।      


 स्वामी विवेकानन्द ने अपने संबोधन में कहा था :
          ‘हिमालय भारत की जननी श्री पार्वती की जन्म भूमि है। यह हमारे पूर्वजों के स्वप्न का प्रदेश है।  यह वही पवित्र स्थान है जहां भारतवर्ष  का प्रत्येक सच्चा धर्मपिपासु व्यक्ति अपने जीवन-काल के अन्तिम दिन व्यतीत करना चाहता है। ... यह वही भूमि है जहां निवास करने की कल्पना मैं अपने बाल्यकाल से ही कर रहा हूं। परन्तु उपयुक्त समय के न आने से, तथा मेरे सामने बहुत से कार्य होने होने के कारण मुझे इस पवित्र स्थान में रहने का अवसर नहीं मिला।
            .... यहाँ आते समय जैसे जैसे गिरिराज की एक चोटी के बाद दूसरी चोटी मेरी दृष्टि के सामने आती गयी , मेरी समस्त कल्पनाओं और कार्य-योजनाओं के विषय में केवल बातचीत करने के बजाय अभी तक क्या कार्य हुआ है, तथा भविष्य में क्या कार्य होगा ?  मेरा मन एकदम उसी शाश्वत भाव 'वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ' की ओर खींच गया जिसकी शिक्षा हमें गिरिराज हिमालय सदैव से देता रहा है। जो इस स्थान के वातावरण में भी प्रतिध्वनित रहा है , तथा जिसका निनाद मैं आज भी यहाँ की कलकलवाहिनी सरिताओं में सुनता हूँ, और वह भाव है - त्याग ! [प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में लौटना ही धर्म है!]
               ' गिरिराज हिमालय वैराग्य और त्याग के प्रतिक हैं, तथा वह सर्वोच्च शिक्षा , जो हम मानवता को सदैव देते रहेंगे --'त्याग ही है।' जिस प्रकार हमारे पूर्वज अपने जीवन के अन्तकाल में इस हिमालय पर खिंचे हुए चले आते थे, उसी प्रकार भविष्य में पृथ्वी भर की शक्तिशाली आत्मायें इस गिरिराज की ओर आकर्षित होकर चली आयेंगी। यह उस समय होगा जब भिन्न -भिन्न सम्प्रदायों के आपस के झगड़े आगे याद भी नहीं किये जायेंगे, जब धार्मिक रूढ़ियों सम्बंधित वैमनस्य नष्ट हो जायेगा, जब हमारे और तुम्हारे धर्म सम्बन्धी झगड़े बिल्कुल दूर हो जायेंगे तथा जब मनुष्य मात्र यह समझ लेगा कि 'कि केवल एक ही चिरन्तन धर्म है, और वह है - " स्वयं में परमेश्वर की अनुभूति" और शेष जो कुछ है वह सब व्यर्थ है। यह जानकर अनेक व्यग्र आत्मायें यहाँ आयेंगी कि ' यह संसार धोखे की टट्टी है' यहाँ सबकुछ मिथ्या है, और यदि कुछ सत्य है, तो वह है 'ईश्वर की भक्ति', केवल ईश्वर की उपासनायें। 
            मेरे मन में इस समय हिमालय में 'सार्वभौमिक-धर्म शिक्षा' के लिए एक केंद्र स्थापित करने का विचार है। और संभवत: मैं आप लोगों को भली भांति यह समझाने में समर्थ हुआ हूं कि ' मैंने अन्य स्थानों की तुलना में इसी स्थान को 'विश्वधर्म की शिक्षा' का प्रचार-प्रसार करने के प्रधान केन्द्र के रूप में' --क्यों चुना है।’    
           उन्होंने आगे कहा कि " इन पहाड़ों के साथ हमारी जाति की श्रेष्ठतम स्मृतियां जुड़ी हुई हैं। यदि भारत के धार्मिक इतिहास से इस हिमालय को पृथक कर दिया जाए तो शेष बहुत कम रह पायेगा। अतएव हिमालय पर एक केंद्र - अवश्य होना चाहिए। यह केंद्र केवल कर्म प्रधान न होगा, बल्कि शान्ति का होगा, ध्यान-धारणा (मनःसंयोग) का प्रशिक्षण देने के लिये होगा। और मुझे आशा है कि एक न एक दिन ऐसा अवश्य होगा।  5-245/
             ईश्वर एक है, सर्वव्यापी है : " जब स्वामी जी के अल्मोड़े में ठहरने की अवधि समाप्त हो रही थी, उस समय उनके वहाँ के मित्रों ने उनसे प्रार्थना की कि आप एक भाषण कृपया हिन्दी में दें। स्वामी जी ने उनकी प्रार्थना पर विचार कर उन्हें अपनी स्वीकृति दे दी। हिन्दी भाषा में व्याख्यान देने का उनका पहला अवसर था। पहले स्वामी जी ने धीरे धीरे बोलना शुरू किया , किन्तु शीघ्र ही वे धाराप्रवाह ढंग से बोलने लगे, मानो उनके मुख से उपयुक्त शब्द तथा वाक्य निकलते जाते थे। इस भाषण के पहले भारत में केवल संस्कृत में ही आध्यात्मिक भाषण देने की परम्परा थी। उनके व्याख्यान में हिन्दी के अधिकृत प्रयोग से यह भी सिद्ध हो गया कि 'भाषण-कला ' की दिशा में हिन्दी भाषा में भाषण-कला की स्वप्नातीत सम्भावनायें हैं। " 5-246 
          अपना व्याख्यान देते हुए स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि किसी व्यक्ति के रास्ते या विचार अलग हो सकते है, लेकिन विभिन्न धर्मो को मानने वाले लोगों का लक्ष्य एक ही होता है – सर्वव्यापी ईश्वर से एकाकार। इसलिए दो समुदायों या समूहों में आपस की लड़ाई व्यर्थ है। स्वामी जी ने देशवासियों से धर्म-संप्रदाय संबंधी मतभेदों को भुलाकर देश हित के लिए अपने प्राण न्योछावर करने का उपदेश दिया। स्वामी जी के भाषणों का संग्रह कोलम्बो से अल्मोड़ा तक  नाम से प्रकाशित हुआ है।" 
         स्वामी जी ने अपने गुरुभाई स्वामी रामकृष्णानन्द जी को अल्मोड़ा में दिये प्रथम हिन्दी भाषण का उल्लेख करते हुए, 29 जुलाई, 1897 को लिखित पत्र में कहा था -" परसों मैं यहाँ से रवाना हो रहा हूँ.... कल यहाँ पर अंग्रेज लोगों के बीच एक व्याख्यान हुआ था, उससे सब लोग अत्यन्त आनन्दित हुए हैं। किन्तु उससे एक दिन पहले हिन्दी में मेरा जो भाषण हुआ, उससे मैं स्वयं अत्यन्त आनन्दित हूँ ! -मुझे पहले ऐसी धारणा नहीं थी कि 'मैं कभी हिन्दी भी वक्तृता दे सकूँगा।
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" जब ह्रदय में पीड़ा उठती है, जब शोक की आँधी चारों ओर से घेर लेती है , जब मालूम होता है कि प्रकाश फिर कभी न होगा , जब आशा और साहस का प्रायः लोप हो जाता है, तब इस भयंकर आध्यात्मिक तूफान में ब्रह्म की अन्तर्ज्योति चमक उठती है। वैभव की गोद में पला हुआ, फूलों में पोसा हुआ , जिसने कभी एक आँसू भी नहीं बहाया, क्या ऐसा व्यक्ति कभी बड़ा हुआ है ? उसका अन्तर्निहित ब्रह्मभाव कभी व्यक्त हुआ है ? रोने से नेत्रों में निर्मलता आती है और अन्तर्दृष्टि प्राप्त होती है। उस समय भेद की दृष्टि - मनुष्य, पशु, वृक्ष आदि धीरे धीरे लोप होने लगते हैं और सब स्थानों में और सब वस्तुओं में अनन्त ब्रह्म की अनुभूति होने लगती है। तब -
 
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।

न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम्।।13.29।।

सर्वत्र ही [शुभ और अशुभ -दोनों में] ईश्वर को समभाव से उपस्थित देखकर वह आत्मा को आत्मा से हानि न पहुँचाकर परमगति को प्राप्त करता है। 
     वेदान्त हमें जगत् से पलायन नहीं सिखाता बल्कि वह इस दृश्यमान जगत् का पुनर्मूल्यांकन करने का उपदेश देता है। सामान्यत जगत् की ओर देखने की हमारी दृष्टि हमारे प्रिय विचारों एवं भावनाओं से रंजित होती है। स्पष्ट है कि उस स्थिति में हम जगत् को यथार्थ रूप में नहीं देखते।'
        इस अज्ञान की दृष्टि का त्यागकर ज्ञान की दृष्टि से विश्व को देखने का अर्थ वर्तमान काल के सुस्त और उदास दुखी कुरूप जगत् में ही पूर्णता और आनन्द दिव्यता और पवित्रता का दर्शन करना है। उपाधियों के साथ तादात्म्य करके जीवभाव (M/F भाव ) को प्राप्त आत्मा जब देखता है तब उसे नानाविध सृष्टि दिखाई देती है। भ्रान्तिजनित यह जगत् कभी उसे खिसियाते और नृत्य करते हुए तो कभी चीखते और हुंकारते हुए प्रतीत होता है। इन सब दुःखपूर्ण परिवर्तनों के मध्य ही पारमार्थिक सत्य स्वरूप को पहचानने से ही सभी विक्षेपों अर्थहीन लक्ष्यों और परिश्रमों की समाप्ति हो सकती है।  क्योंकि वह परमेश्वर ही सर्वत्र समान रूप से स्थित देखता है। ज्ञान के अपने इस अनुभव के कारण फिर ज्ञानी पुरुष को कोई दुख अथवा भय नहीं होता।  मिथ्या प्रेत के अधिष्ठान स्तम्भ को पहचान लेने पर पूर्व का भय और दुख समाप्त हो जाता है।
जिस पुरुष ने सर्वत्र रमण कर रहे परमात्मा का दर्शन कर लिया है उसका मन कभी भी अपनी दुष्ट छाया से परमात्मा के वैभव को आच्छादित नहीं कर सकता। इससे वह परम गति को प्राप्त होता है आत्म-अज्ञान तथा तज्जनित मिथ्या-ज्ञान के कारण हमारे शुद्ध आत्मस्वरूप पर आवरण पड़ा रहता है। इस अविद्या के कारण मनुष्य न केवल अपने स्वरूप को नहीं जानता वरन् स्वरूप से सर्वथा भिन्न देहादि अनात्म उपाधियों को ही अपना स्वरूप मान लेता है। परिणामत उसका व्यवहार अनुचित और जीवन का लक्ष्य अधिकाधिक विषयोपभोग के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। इस लक्ष्य को पाने के लिये वह ऐसे हीन कर्म करता है जो स्वयं के लिये और समाज के लिये भी दुखकारक और हानिकारक होते हैं। वह किसी भी स्थान पर परमात्मा की महानता और कीर्ति का दर्शन नहीं कर सकता। परन्तु जब वह विवेक वैराग्यादि साधनों से सम्पन्न होकर आत्मबोध प्राप्त करता है तब अज्ञानसहित मिथ्याज्ञान की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है और वह परम गति को प्राप्त होता है। 

'निवृत्तिस्तु महाफला' -अर्थात बुरी आदतें छोड़ना महाफलदायी है ! 

श्री शंकराचार्य के पूर्व ही प्रचलित हुए वैदिक धर्म के अनुसार दो मार्ग हैं। इन्हीं दो मार्गों को गीता में संन्यास  और कर्मयोग कहा है। श्री शंकराचार्य स्वयं निवृत्ति-मार्गी या संन्यासी थे; किन्तु उन्होंने अपने गीता भाष्य के आरंभ में ही वैदिक धर्म के दो भेद – प्रवृत्ति और निवृत्ति बतलाए हैं।- प्रवृत्ति लक्ष्णो योगः ज्ञानं सन्यास लक्षणम्। अर्थात एक मार्ग यह है कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर सब कर्मों का संन्यास अर्थात त्याग कर दे; और दूसरा यह कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी सब कर्मों को न छोड़े, उनको जन्म भर ऐसी युक्ति के साथ करता रहे कि उनके पाप–पुण्य की बाधा न होने पाए।  यदि सभी मनुष्यों के उपर एक ही मार्ग को -केवल निवृत्ति मार्ग को अपनाने बाध्यता थोप दी जाये तो वैसा करना ठीक नहीं होगा। मनु महाराज कहते हैं- 

न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने ।

    प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ॥  

 (मनुस्मृतिः५.५६) 

मांस, मदिरा और मैथुन मनुष्य की प्रवृत्ति है और इसमें कोई दोष नहीं है। मगर इससे निवृत्ति महाफलदायी है। विवाह करो, थोड़ा खा पहन लो; किन्तु यह सदा स्मरण रहे कि - निवृत्तिस्तु महाफला। सदा स्मरण रहे - बुरी आदतें छोड़ना महाफलदायी है ! यदि सभी मनुष्यों के उपर एक ही मार्ग को -केवल निवृत्ति मार्ग को अपनाने बाध्यता थोप दी जाये तो वैसा करना ठीक नहीं होगा। इसीलिये श्रुति या शास्त्र प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति तक आने में बाधा नहीं देते। 

 स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " वर्तमान युग का हिन्दू युवक, सनातन धर्म के अनेक पंथों की भूल-भुलैयों में भटका हुआ है। अपने भ्रमात्मक पुवाग्रहों से ग्रस्त रहने और धर्म के मर्म को नहीं समझने के कारण, उन पाश्चात्य देशों से - जिन्होंने निरी भौतिकता के सिवाय कभी और कुछ नहीं जाना, आध्यात्मिक सत्य का अवैज्ञानिक पैमान उधार लेकर अँधेरे में टटोलता हुआ, अपने पूर्वजों के धर्म को समझने का व्यर्थ कष्ट उठाता है। किन्तु अन्त में उस खोज को बिल्कुल त्याग देता है और या तो वह निपट अज्ञेय-वादी बन जाता है,या अपनी धार्मिक प्रवृत्ति की प्रेरणाओं के कारण पशुजीवन बिताने में असमर्थ होकर किसी आधे-अधूरे बाबा या धूर्त को अवतार या ईश्वर का संदेश-वाहक कहकर पूजने लगता है, और -परियन्ति मूढ़ा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः को चरितार्थ करता है। केवल वे युवा ही बच पाते हैं, जिनकी आध्यात्मिक प्रकृति सद्गुरु (नेता-गुरु/C-in-C) के संजीवनी स्पर्श से जाग्रत हो जाती है।"  
        इसी कठिनाई को देखते हुए श्री रामकृष्ण देव की इच्छा से, माँ सारदा देवी के आशीर्वाद से और स्वामी विवेकानन्द के प्रेरणा  से 57 वर्ष पूर्व- 1967 में  प्रवृत्ति मार्ग के अधिकारी युवाओं के लिये एक ऐसे युवा संगठन का आविर्भाव हुआ जिसका एकमात्र उद्देश्य है 'चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा' का प्रचार-प्रसार करने में समर्थ शिक्षक जैसे मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण करना है ।  'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा (गुरु-शिष्य परम्परा) के लीडरशिप ट्रेनिंग में प्रशिक्षित, जगदम्बा माँ काली से चपरास-प्राप्त नेता-गुरु की कृपा प्राप्त नहीं हो जाती तब तक युवा अज्ञान रुपी अंधकार मे भटकता हुआ मायारूपी सांसारिक बन्धनों मे जकड़ा रहता है। अर्थात स्वयं को हिप्नोटाइज्ड अवस्था में केवल मरणधर्मा शरीर मात्र समझता रहता है। बिना इस युवा संगठन के " छः दिवसीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर" में भाग लिये  सत्य एवम् असत्य का ज्ञान नही हो सकता  उचित और अनुचित के भेद का ज्ञान नहीं होता फिर मोक्ष कैसे प्राप्त होगा ? अतः इस नेता-गुरु रूपी अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल संगठन कि शरण मे जाओ। इसके द्वारा आयोजित 'छः दिवसीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' में भाग लेकर और इस संगठन के सभी सदस्यों के अनुशासित जीवन और आचरण को देखकर ही जाना जा सकता है कि 'महाप्राण का स्पर्श' किस-किस कार्यकर्ता को प्राप्त हुआ होगा 
गुरु और पारस में - इतना अन्तर जान। 
वह लोहा कंचन करे ,गुरु करे आप सामान। 
गुरु और पारस के अंतर को सभी ज्ञानी पुरुष जनते हैं। पारस मणी के विषय जग विख्यात है कि उसके स्पर्श से लोहा सोने का बन जाता है। किन्तु नेता-गुरु इतने महान हैं कि वे अपने गुण-ज्ञान मे ढालकर - योग्य शिष्य को अपने जैसा ही महान गुरु-नेता बनने ओर बनाने में सक्षम 'चपरास-प्राप्त गुरु-नेता' बना लेते हैं। 
   नवनीदा सदैव कहते थे- " वीर हो, 'धीर' बनो !"अर्थात तुमने पशुभाव, वीरभाव और दिव्यभाव में से 'वीरभाव' का चयन किया है, किन्तु अब गृहस्थ जीवन के समस्त कर्तव्यों का धर्मपूर्वक पालन करते हुए धीरभाव (साम्यावस्था) में प्रतिष्ठित होने के लिए,  निरन्तर इस 'Be and Make'  आन्दोलन के साथ जुड़े रहो। पंच 'म'-कार आदि कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी -ऐसे ही मुक्त हो जाओगे। जिन महापुरुषों के प्रशान्त चित्त-सरोवर में  प्रलोभनीय आकर्षण (कामिनी -कांचन) रहने पर भी  कोई विकार (प्रलोभन का तरंग) उत्पन्न नहीं होता हो, वे ही धीर पुरुष हैं। 
       उसी प्रकार के धीर अर्थात समदर्शी व्यक्ति को, देवाधिदेव महादेव की उपाधि अथवा राजर्षि (C-in- Cबैज) प्राप्त होती है ! 'विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर पुरी अद्वैत वेदान्त Be and Make लीडरशिप ट्रेनिंग' में प्रशिक्षित, व्यक्तियों में से जो 'Available Best' या सर्वश्रेष्ठ धीर व्यक्ति, ब्रह्मविद, ब्रह्मविदतर, ब्रह्मविदतम व्यक्ति  उपलब्ध हो, उन्हीं में  किसी एक को धीरपुरुष 'C-in-C ' या चपरास प्राप्त नेता/जीवनमुक्त शिक्षक का बैज  दिया जा सकता है। 
      " मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता है" - हमारा वर्तमान हमारे सम्पूर्ण अतीत का परिणाम है। यहाँ जो कुछ भी अशुभ दीखता है, उसके कारण तो हम ही हैं। आज जितने कष्ट देखने को मिलते हैं, उन सबके मूल में वे पाप (बुरे कर्म) हैं, जिन्हें मनुष्य ने अतीत में किया है। ईश्वर पर दोष नहीं लगाया जा सकता। 'हम जो बोते हैं, वही काटते हैं ' -कबीर ने कहा है, "रोपा पेड़ बबूल का तो 'अमवा' कहाँ से होय ? " २/२०६ 
[The 6th INTERSTATE YOUTH TRAINING CAMP OF THE MAHAMANDAL was organized at R.K. Mission High School, Maharanipet from 7th to 9th September 2018 by Visakhapatnam Vivekananda Yuva Mahamandal!]
 " विवेकानन्द कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा"  में भावी शिक्षक (धीरपुरुष -राजर्षि)  बनने और बनाने की पद्धति पर आधारित छठा अन्तर्राज्जीय युवा प्रशिक्षण शिविर-
7th to 9th September, 2018 तक विशाखा पत्तनम विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा आयोजित हुआ था।
7th अन्तर्राज्जीय युवा प्रशिक्षण शिविर झुमरीतिलैया में आयोजित हुआ - यहीं से हिन्दी भाषी महामण्डल के बल पर वीरेन दा को महामण्डल सेक्रेटरी बनवाया ! जिनको हिंदी बोलना ही नहीं आता। अभी महामण्डल का सचिव केवल वही हो सकता है जो तीनों भाषा बोल सकता हो जिसका अपना जीवन गठन भी हुआ हो।  महाभारत युद्ध के समय कौरवों और पांडवों ने अपने मित्र राजाओं को अपनी अपनी ओर से  युद्ध करने के लिए जिस प्रकार का निमंत्रण पत्र भेजा था, ठीक वैसा ही प्रयास - दो ध्रुव कैम्प में चल रहा है। एक उदाहरण -  
     " शुभ विजया , यथा-योग्य नमस्कार /प्रणाम स्वीकार करेंगे। 28 अक्टूबर 2018 को विजया दसमी के शुभ-अवसर पर 'ईस्ट कोलकाता  (E.C.etc ) द्वारा विजया सम्मिलनी कार्यक्रम संध्या 6 बजे आयोजित किया जायेगा। उसमें आपकी सबन्धु-बान्धव उपस्थिति प्रार्थित है। -सचिव, (E.C.etc ) इसमें जिन सदस्यों के नाम थे उनमें से कोई भी 100 % निःस्वार्थी (भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड) व्यक्ति  कोई नहीं दीखता ! [ दक्षिणेश्वर की माँ काली , ठाकुर श्रीरामकृष्ण देव वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण -परम्परा में प्रशिक्षित माँ श्री सारदा देवी, स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर - नवनीदा के बाद कोई उनके जैसा 100 % भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड व्यक्ति (धीरमहापुरुष) सैंकड़ों होंगे ? किन्तु मुझे कोई नहीं दीखता !] 
 इसलिए अब धीरपुरुष  बनने और बनाने की आवश्यकता है। इस धीर भाव को प्राप्त करने लिए पहले अपने जीवन/ और दादा के बाद महामण्डल के नेताओं के जीवन का सिंहावलोकन करने की चेष्टा करेंगे  !

'बृहत्तमत्वात् ब्रह्म' - अर्थात्, जो बृहत्तम है, वही ब्रह्म है। 'ब्रह्म' एक ऐसी अवधारणा है जिसका भारतीय दर्शन में सर्वाधिक उपयोग किया जाता है। हमारे जैसे साधारण मनुष्यों के लिए 'ब्रह्म' महज एक शब्‍द मात्र है, जिसे हमलोग अपने साधारण गृहस्थ जीवन जीने के लिय जरा भी उपयोगी नहीं मानते हैं। किन्तु श्रीमद्भागवत में कहा गया है - 'ब्रह्मावलोकधिषणं पुरुषं विधाय मुदमाप देवः॥ ९.२८॥  जैसे किसी कलाकार की सुन्दर रचना को देखकर कोई यदि प्रसंशा करने वाला नहीं हो तो शिल्प-कार को उतना आनन्द नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्मा जी को भी-स्थावर,जंगम,उड़ने वाले, डंक मारने वाले हर तरह के जीवों की रचना कर लेने के बाद भी उतना आनन्द नहीं हो रहा था।  तब सबसे अन्त में उन्होंने मनुष्य को बनाया जो उनकी सुन्दर सृष्टि को देखकर केवल प्रसंशा ही नहीं कर सकता था, बल्कि वह मन की एकाग्रता शक्ति को विकसित करके अपने बनाने वाले ब्रह्म (सृष्टिकर्ता, ईश्वर या माँ जगदम्बा) को भी जान लेने में भी समर्थ था। इसी से मिलती-जुलती कथा बाइबिल और कुरान में भी है कि जब ब्रह्माजी (अल्ला या गॉड) ने मनुष्य को बिल्कुल अपने स्वरुप में गढ़ा ,तब वे मनुष्य को देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए। और सभी देवदूतों (फरिस्तों) को बुलवा भेजा तथा उनको आदेश दिया कि तुम सबलोग मनुष्य के सामने सिर झुकाओ-इसको नमस्कार करो ! सभी फरिस्तों ने मनुष्य के सामने अपने सिर को झुकाया, केवल एक फरिस्ता जिसका नाम इब्लीस था, उसने अपना सर नहीं झुकाया तो उसको भगवान ने कहा -दूर हटो शैतान! और वह शैतान बन गया। इस रूपक के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार मे मनुष्य-जन्म ही अन्य सब प्राणियों की अपेक्षा, यहाँ तक देवताओं की अपेक्षा भी श्रेष्ठ है।
" राजा प्रतर्दन ने देवराज इन्द्र से यह वर माँगा कि -आप मानव के लिए जो सबसे अधिक कल्याणकारी समझते हैं, वही वर मुझे दें ! इस पर इन्द्र ने उसे उपदेश दिया -मां विजानीहि ! --मुझे जानो । मुझे कहने का अर्थ हमें क्या समझना चाहिये, 'मुझे' का अर्थ क्या कोई देवता, प्राण, जीव या ब्रह्म होगा ? उपनिषद में ऋषि वामदेव ने ब्रह्मज्ञान लाभ करने के बाद कहा था - 'मैं मनु हुआ हूँ, मैं सूर्य हुआ हूँ !' इन्द्र ने भी इसी प्रकार शास्त्रोक्त रीति से ब्रह्मज्ञान को प्राप्त करके कहा था -मां विजानीहि (मुझे जानो) यहाँ पर 'मैं ' और 'ब्रह्म' एक ही बात है।  
      किन्तु श्री रामकृष्ण देव स्वयं अपने सम्बन्ध में कहते थे -"मैं केवल ब्रह्मज्ञ पुरुष ही नहीं हूँ, मैं अवतार हूँ !' यदि श्री ठाकुर की बातों विश्वास करना है, तो उन्हें अवतार कहकर मानना होगा, नहीं तो ढोंगी कहना होगा। किन्तु उन्होंने स्वामी जी से अपने अंतिम समय में कहा था - 'जो राम, जो कृष्ण, वही अब रामोकृष्णो ; तेरे वेदान्त की दृष्टि से नहीं। " स्वामी जी में अपार दया थी, वे हम लोगों से सन्देह छोड़ देने को नहीं कहते थे, चट से किसी बात पर विश्वास कर लेने के लिए उन्होंने कभी नहीं कहा।  
    स्वामी विवेकानन्द तो कहते थे , " इस अदभुत रामकृष्ण-चरित्र (CINC नवनीदा चरित्र) की तुम अपनी बुद्धि से जहाँ तक हो सके, आलोचना करो, इसका अध्यन करो -मैं तो इसका एक लक्षांश भी समझ न पाया। उनको समझने की जितनी चेष्टा करोगे, उतना ही सुख पाओगे, उतना ही उनमें डूब जाओगे । " १०/ ३६१
      " अद्वैत दर्शन के अनुसार विश्व में केवल एक ही वस्तु सत्य है, और वह है ब्रह्म। ब्रह्म से भिन्न समस्त वस्तुऐं मिथ्या हैं।  ब्रह्म ही उन्हें माया के योग से बनाता एवं अभिव्यक्त करता है। उस ब्रह्म की पुनः प्राप्ति ही हमारा लक्ष्य है। हममें से प्रत्येक व्यक्ति वही ब्रह्म है, वही परम् सत्य है -किन्तु माया से संयुक्त (हिप्नोटाइज्ड) है। अगर हम इस माया अथवा अज्ञान से मुक्त हो सकें (५ अभ्यासों के द्वारा स्वयं को डीहिप्नोटाइज्ड कर सकें) तो हम अपने स्वरूप को पहचान लेंगे! इस वेदान्त दर्शन के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति तीन तत्वों से बना है- "दी बॉडी, दी इंटरनल ऑर्गन ऑर दी माइंड," देह, अन्तरिन्द्रिय अथवा मन, और आत्मा, जो इन सबके पीछे है। शरीर आत्मा का बाहरी शेल (आवरण या छिलका) है, और मन भीतरी। यह आत्मा ही वस्तुतः द्रष्टा (पर्सीवर) और भोक्ता (रियल एन्जॉयर) है, तथा शरीर (रथ) में बैठी बैठी मन (बुद्धि) के द्वारा शरीर को संचालित करती रहती है। " २/२१६ ] 
        " केवल उन्हीं वस्तुओं का विस्तार सीमित होता है, जिसका कोई रूप होता है। जिसका कोई रूप ही नहीं उसके विस्तार की क्या सीमा ? इसलिए अद्वैत वेदान्त के अनुसार आत्मा -जो मुझमें, तुम में , सबमें है, सर्वव्यापक है। किन्तु आत्मा शरीर और मन के माध्यम से ही कार्य करती है। अतः जहाँ शरीर और मन है, वहीँ उसका कार्य दृष्टिगोचर होता है।२/२१६ ]    

      जीवन क्या है? इसको परिभाषित करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-" एक अन्तर्निहित शक्ति अपने को अभिव्यक्त करना चाह रही है; किन्तु बाहरी परिवेश तथा परिस्थितियाँ मानो उसको दबाये रखना चाहती हैं। उन समस्त परिवेश के दबाव का अतिक्रम करके आत्मविकास करने और अन्तर्निहित दिव्यता (आत्मा या प्राणऊर्जा ) को प्रस्फुटित करने का नाम ही जीवन है।" सभी लोग कहते हैं कि युवा-समस्या (युथ प्रॉब्लम) के अस्तित्व का उन्हें पता है, किन्तु बहुत थोड़े से लोग ही इस समस्या के मूल कारण को समझते हैं; और इसके समाधान का उपाय ढूँढ़ पाना तो अधिकांश लोगो की बुद्धि से परे की बात है। युवा जीवन की समस्या का मूल कारण तो जीवनी-शक्ति (वाइटल फ़ोर्स या प्राण उर्जा) ही है। 'जीवन' का अर्थ है- अन्तर्निहित शक्ति (प्राण-ऊर्जा) को प्रस्फुटित और विकसित करना ! हमने देखा है कि जीवन को विकसित करने के मार्ग में आने वाली बाधाओं को ही युवा समस्या कहते हैं, इसलिये समस्या की खोज या अनुसन्धान भी प्रस्फुटन और विकास की शर्त को ध्यान में रखते हुए करना होगा। 
       अथर्ववेद की १९ वें खंड के ६७ वें सूक्त में एक ऋषि प्रार्थना करते हैं -  

" जीवेम  शरदः शतम्॥  पश्येम शरदः शतम् ॥  
बुध्येम शरदः शतम् ॥  रोहेम शरदः शतम् ॥  
पूषेम शरदः शतम् ।।५।। 

--अर्थात  हम सौ शरद ऋतु तक जीयें यानि हम सौ वर्ष तक जीयें !  इसका अर्थ है हम सौ शरदों को देखें अर्थात सौ वर्षों तक हमारी नेत्र इन्द्रिय स्वस्थ रहे!-  सौ वर्ष तक हमारी बुद्धि सक्षम बनी रहे अर्थात मानसिक तौर पर सौ वर्षों तक स्वस्थ रहें।   सौ वर्षों तक हमारी वृद्धि होती रहे अर्थात हम सौ वर्षों तक उन्नति को प्राप्त करते रहे।  सौ वर्षों तक हम पुष्टि प्राप्त करते रहें, हमें अच्छा भोजन मिलता रहे। अवश्य ही सौ वर्षों की आयु सबको नहीं मिलती होगी। इसीलिए ऋषि प्रार्थना करते हैं - हमें पूर्ण स्वास्थ्य के साथ सौ वर्ष का जीवन मिले, और यदि हो सके तो सक्षम एवं सक्रिय इंद्रियों के साथ जीवन उसके आगे भी चलता रहे ।  इसीलिए सौ वर्ष की आयु को एक मानक के रूप में देखते हुए उसे चार बराबर आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास) में भी वैदिक चिंतकों ने बांटा होगा।

      और युवावस्था में जीवन -अर्थात प्राण-ऊर्जा का आवेग (Momentum) सर्वाधिक रहता है। इसीलिये युवाकाल में बाधाएँ भी अधिक आती हैं। प्राण-उर्जा की अभिव्यक्ति में आने वाली बाधा को ही समस्या कहते हैं। इसलिये युवाजीवन की समस्या यदि सर्वाधिक ध्यान आकर्षित करे, तो इसमें आश्चर्य क्या है ? युवाकाल की प्राणउर्जा का प्राचुर्य युवाओं को स्वाभाविक रूप से विशिष्टता प्रदान करता है, किन्तु उसका गुस्सा या भावावेश देखकर, समाज आतंकित हो जाता है। इसीलिये समाज के सभी लोग चाहते हैं कि युवा समस्या का समाधान जल्द से जल्द होना चाहिये। 
 'ब्रह्म' शब्द की व्युत्पत्ति बृ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है - विस्तार करना बढ़ना व फैलना (क्रमशः अधिकाधिक निःस्वार्थपर बनते जाना) । अत: जो बढ़ता व फैलता हो उसे ब्रह्म कहते हैं। ब्रह्म ही संसार के रूप में बढ़ता और फैलता है, अतः जगत के आधार के रूप में ब्रह्म का अस्तित्व होता है, इसलिए ब्रह्म सर्वव्यापी कहा जाता है। यह युक्ति तात्विक कहलाती है।
क्योंकि पशु-पक्षी आदि निम्नतर सृष्टि तो आध्यात्मिक साधना (महामण्डल द्वारा निर्देशित विवेक-प्रयोग आदि 5 अभ्यास) कर ही नहीं सकते, इसलिए वे ब्रह्म या आत्मा आदि उच्च तत्वों की धारणा नहीं कर सकते। उधर देवतागण  भी देवेन्द्र बन जाने की ऐषणा के कारण मनुष्य जन्म लिए बिना "निवृत्ति अस्तु महाफला की धारणा" नहीं कर सकते।  इसलिए मनुष्य जन्म प्राप्त किये बिना देवता गण भी भी वज्र के जैसा पूर्णतः निःस्वार्थी (100% unselfish /thunderbolt)  भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड  नहीं बन सकते। 
       "एकाग्र मन मानो एक प्रदीप है जिसके द्वारा आत्मा का स्वरूप (ब्रह्म को) स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।" ७/७२   यह ब्रह्म आत्मा में है, सृष्टि में नहीं। अतः सृष्टि को निरुद्ध करके ही हम ब्रह्म को जान सकते हैं। जब हम अपने विषय में सोचते हैं, तो देह के विषय में सोचते हैं, और जब ईश्वर के विषय में सोचते हैं, तो उसकी कल्पना भी देहधारी के रूप में ही करते हैं। हमारा कर्तव्य है -'चित्त की वृत्तियों का निरोध'-ताकि आत्मा प्रकट हो जाये!  इसकी साधना देह से ही आरम्भ होती है। प्राणायाम शरीर को प्रशिक्षित करता है, तथा उसको समन्वित कर देता है। प्राणायाम का लक्ष्य ध्यान तथा एकाग्रता की प्राप्ति है। यदि तुम एक क्षण के लिये भी पूर्णतया निश्चल हो सको, तो तुम लक्ष्य तक पहुँच गये। इसके बाद भी बुद्धि कार्य करती रहेगी, परन्तु वह पुरानी बुद्धि नहीं रह जायगी। तुम अपने को -उसी रूप में जान लोगे -जो वास्तव में तुम हो -अर्थात अपनी यथार्थ आत्मा। 
    एक क्षण के लिए भी अपनी चित्तवृत्ति का निरोध कर लो, तब तुम्हारे यथार्थ स्वरूप की सत्यता तुम्हारे हृदय में झलक उठेगी; तब मुक्ति हस्तगत हो जाती है और इसके बाद बन्धन नहीं रहता। इस सिद्धान्त से यह प्रमाणित होता है कि काल के एक क्षण को जान लेने से समग्र काल का ज्ञान हो जाता है ! (जिस प्रकार मिट्टी के एक ढेले को जान लेने से ) क्योंकि समग्र काल एक क्षण का ही त्वरित अनुक्रमण है। एक पर अधिकार कर लो -एक क्षण को पूर्णतया जान लो -और मुक्ति मिल जायेगी!" [धर्म का प्रमाण -२/२५६ ]  

(That which is Supremely great, And the following story of Janka and Shuka is a fine illustration of non-attached work. ]        

इस तथ्य को समझने के लिए हमें श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय द्वारा लिखित महामण्डल पुस्तिका 'अलमोड़ा का आकर्षण' एवं उनकी आत्मकथा 'जीवननदी के हर मोड़ पर' का गहराई से अध्यन करना पड़ेगा। 
           क्योंकि महामण्डल पुस्तिका ''A New Youth Movement' के प्रथम पृष्ठ पर ही दादा ने स्पष्ट कर दिया है की यह 'महामण्डल आंदोलन' गीता एवं उपनिषदों पर आधारित आंदोलन है। क्योंकि भगवान ने राजर्षियों (राजा -ऋषि) को ही सबसे पहले योग का ज्ञान दिया था। गीता ।।4.1।। श्रीभगवान् ने कहा ---
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवान अहं अव्ययम्। 
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।4.1।। 
 --मैंने इस अविनाशी योग को विवस्वान् (सूर्य देवता) से कहा (सिखाया);  विवस्वान् ने मनु से कहा;  मनु ने इक्ष्वाकु से कहा।।  
                     इस योग का फल अविनाशी है इसलिये यह अव्यय है। क्योंकि इस 'राज योग' का मोक्षरूप फल, de-hypnotaized हो जाने वाला फल  कभी नष्ट नहीं होता। [अविनाशी आत्मा को अविनाशी परमात्मा से मिलाने का फल प्रदान करने वाले योग को अव्यय या नित्य कहते हैं।] जैसे हम विद्युत् को नित्य (अव्यय) कह सकते हैं, क्योंकि उसके (विद्युत् या गुरुत्वाकर्षण का नियम) प्रथम बार आविष्कृत होने के पूर्व भी वह थी; और यदि हमें उसका विस्मरण भी हो जाता है तब भी विद्युत् शक्ति का अस्तित्व बना रहेगा।  इसी प्रकार हमारे नहीं जानने से दिव्य चैतन्य स्वरूप आत्मा का नाश नहीं होता। इस अविनाशी आत्मा का ज्ञान वास्तव में अव्यय है।
            आधुनिक विज्ञान भी यह स्वीकार करता है कि विश्व का निर्माण सूर्य के साथ प्रारम्भ होना चाहिये। शक्ति के स्रोत के रूप में सर्वप्रथम सूर्य की उत्पत्ति हुई और उसकी उत्पत्ति के साथ ही यह महान् आत्मज्ञान विश्व को दिया गया। वेदों का विषय आत्मानुभूति होने के कारण वाणी उसका वर्णन करने में सर्वथा असमर्थ है। 
          उस सूर्य ने इस  योग (भ्रममुक्त कर देने वाले योग) को अपने पुत्र मनु से कहा और मनु ने इसका उपदेश सबसे पहले राजा बनने वाले इक्ष्वाकु को दिया जो सूर्यवंश के पूर्वज थे। सूर्य से उत्पन्न होने के कारण उनके वंश का नाम सूर्यवंश है। इस वंश के राजाओं ने दीर्घकाल तक अयोध्या पर शासन किया। इस मनु के 18 वीं पीढ़ी के पुरुष थे श्रीरामचन्द्र।
            कोई भी गम्भीर अनुभव शब्दों के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता।  [ 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ! 'तत्वमसि -अर्थात यह आत्मा ही परमात्मा है' के विवेकज -ज्ञान' को शब्दों के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। ] अतः स्वयं की बुद्धि से ही शास्त्रों का अध्ययन करने से उनका सम्यक् ज्ञान तो दूर रहा विपरीत ज्ञान होने की ही सम्भावना अधिक रहती है। इसलिये भारत में यह प्राचीन परम्परा रही है कि अध्यात्म ज्ञान के उपदेश को आत्मानुभव में स्थित गुरु के मुख से 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' से ही श्रवण किया जाता रहा  है।   इस श्लोक में- 'पूर्वकाल के सूर्य, मनु, इक्ष्वाकु आदि ब्रह्मविद्या के विद्यार्थियों- का [राजा +ऋषियों] का परिचय' कराया गया है
         स्वस्वरूप की स्मृति से स्फूर्त होकर भगवान् घोषणा करते हैं कि उन्होंने ही सृष्टि के प्रारम्भ में इस ज्ञान का उपदेश सूर्य देवता (विवस्वान्) को दिया था। विवस्वान् ने अपने पुत्र मनु को कहा , जो भारत के प्राचीन स्मृतिकार हुए और जिन्होंने मानवजाति को यह ज्ञान सिखाया। श्रीभगवान् बोले जगत्-प्रतिपालक क्षत्रियों में बल स्थापन करने के लिये मैंने प्रवृत्तिधर्म-रूप और निवृत्तिधर्म-रूप इस योग को पहले सृष्टि के आदिकाल में सूर्य से कहा था (क्योंकि) उस योगबल से युक्त हुए क्षत्रिय ब्रह्मत्व की रक्षा करने में समर्थ होते हैं।  तथा ब्राह्मण और क्षत्रियों का पालन ठीक तरह हो जाने पर ये दोनों सब जगत् का  पालन अनायास कर सकते हैं
                केवल अपने जीवन से दृष्टान्त प्रस्तुत करने वाले शिक्षकों के माध्यम से ही हम वेदान्त को अर्थात वेद के गहरे रहस्यों को, उनके उपदेशों को समझ पाते हैं। उन महान शिक्षकों में परम् सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) का दर्शन करने की क्षमता होती है -और इसके साथ ही साथ उस सत्य को दूसरों को दिखाने का सामर्थ्य भी होता है। उनमें प्रचण्ड आत्मविश्वास भरा होता है, अपने में श्रद्धा अटल होती है। विश्व के कल्याण के लिए अब तक जितने भी महान शिक्षक (अवतार, नेता ) हुए हैं, उनका जीवन-कार्य प्रारम्भ से ही निश्चित रहा है। वे अन्धकार में नहीं टटोलते, उनके उपदेशों में (उस परम्-सत्य के) प्रत्यक्ष-दर्शन का बल होता है ! जब वे बोलते हैं, तो एक एक शब्द सीधे हृदय में प्रवेश करता है, वह बम के समान फूट पड़ता है और सुननेवाले पर अपना असीम प्रभाव जमा लेता है। ये ही संसार के महान विचारक एवं मनीषी होते हैं, ये ही मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, पैगम्बर वेदान्त दर्शन के सन्देश-वाहक ऋषि और ईश्वर के अवतार (माँ जगदम्बा से 'C -in -C' का चपरास-प्राप्त पुत्र) कहलाते हैं। 
भगवान श्रीकृष्ण गीता 4.2  में कहते हैं -

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।
इस प्रकार परम्परा से प्राप्त हुये इस योग को राजर्षियों (राजा +ऋषि)  ने जाना, (परन्तु) हे परन्तप ! वह योग बहुत काल (के अन्तराल) से यहाँ (इस लोक में) नष्टप्राय हो गया।। 
        प्रवृत्ति मार्गी राजा होकर भी जो लोग गुरु-शिष्य परम्परा में 'निवृत्ति अस्तु महाफला ' समझकर अपने जीवन में 'यम और नियम ' धारण कर सुबह-शाम 'आसन' में बैठकर 'प्रत्याहार और धारणा' का अभ्यास  करते थे वे ऋषि तुल्य बन जाते थे; उनको राजर्षि कहते हैं। जैसे राजा जनक थे। वे ज्ञानी होकर भी निष्काम कर्म  करते थे। अतः जो लोग ज्ञानी और कर्मी हैं, वे ही इस योग को जान सकते हैं। इस प्रकार कोई भी मनुष्य चाहे वह प्रवृत्ति-धर्म का पालन करता हो, या निवृत्ति-धर्म का - 'वेदोक्त चार महावाक्यों' का अनुभूति जन्य ज्ञान या 'विवेकज -ज्ञान ' प्राप्त होने से मुक्त हो जाता है और पाप-पुण्य से परे चला जाता है। [अर्थात भ्रममुक्त हो जाता है -भेंड़त्व के भ्रम से मुक्त होकर सदा के लिए सिंहत्व में स्थित हो जाता है।]
             श्री रामकृष्णदेव ने एक स्थान में कहा है - " जिन्हें आत्मचैतन्य का ज्ञान हुआ है वे ही ऐसा जान पाते हैं कि एकमात्र ईश्वर [परमात्मा, अल्ला या माँ जगदम्बा] ही सत्य हैं, अन्य सब कुछ असत और अनित्य है। वे जानते हैं कि मैं इन कर्मों का कर्ता नहीं हूँ; मैं तो ईश्वर का दास हूँ। मैं यंत्र हूँ और वे यंत्री हैं। वे जैसा कराते हैं, वैसा करता हूँ। जैसा कहलाते हैं, वैसा कहता हूँ। जैसा चलाते हैं वैसा चलता हूँ। .... ईश्वर के बिना जाने ऐसी अवस्था नहीं होती। ईश्वर के प्रति उनका इतना अधिक प्रेम होता है, कि वे जो कुछ करते हैं [अर्जुन के जैसा महाभारत युद्ध भी] सभी शुभ कर्म होता है। जनक आदि राजाओं ने गुरु-शिष्य परम्परा में 5 अभ्यासों की साधना करके सिद्धिलाभ किया था और तब वे जीवनमुक्त [भ्रममुक्त] होकर संसार में रहे थे। "          
            और अन्य किसी समय में जब राजर्षि लोग स्वयं 'यम-नियम-आसन -प्रत्याहार -धारणा' का पालन करने में असमर्थ हो जाते हैं, तब यह योग केवल संन्यासियों के मठों या अरण्यों के आश्रमों में सीमित होकर, अनुपयोगी सा बनकर निरर्थक हो जाता है।  तब अध्यात्म का स्वर्ण युग समाप्त होकर भोगप्रधान आसुरी जीवन का अन्धा युग प्रारम्भ होता है। महाभारत काल का उचित मूल्यांकन करते हुए श्रीकृष्ण भगवान् ठीक ही कहते हैं कि दीर्घकाल के अन्तराल से वह योग यहाँ नष्ट हो गया है।  
           वेदों में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों धर्म के अनुयायियों के लिए ब्रह्मविद्या, योग  या राजयोग  का ज्ञान सूर्य-वंश परम्परा में राजर्षियों को ज्ञान दिया जाता था। इसलिए उनके शासनकाल में यह ज्ञान मानव मात्र की सेवा के लिये उपलब्ध होता है।  किन्तु आसुरी भौतिकवाद से ग्रस्त काल में भी  वह पीढ़ी अपने ही चरित्र के अवगुणों से पीड़ित होने के लिये उपेक्षित नहीं छोड़ दी जाती है। उस समय कोई न कोई महान् गुरु या महामण्डल के जैसा कोई आध्यात्मिक संगठन अध्यात्म क्षितिज पर अवश्य अवतीर्ण होता है। और 1967 में बंगाल में श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के नेतृत्व में 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' का आविर्भाव होता है, जो  'मनुष्य -निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' के द्वारा तत्कालीन पीढ़ी को चरित्र-निर्माण करने के लिए प्रेरणा साहस उत्साह  और आवश्यक नेतृत्व-प्रशिक्षण  प्रदान करके,  दुख पूर्ण पगडंडी से बाहर निकालकर सांस्कृतिक पुनरुत्थान के राजमार्ग पर ले आता है।  
             इसीलिये महामण्डल आंदोलन को गहराई से और विस्तार में समझने का प्रयास करना, वैसा ही है प्रतीत होता है, जैसा ठाकुर की कथा में एक 'नमक के पुतले द्वारा समुन्द्र की गहराई नापने की चेष्टा' करना प्रतीत होता है। महामण्डल आन्दोलन की गहराई को समझने के लिये, हमें पहले प्रथम आध्यात्मिक शिक्षक, " श्री रामकृष्ण- विवेकानन्द 'Be and Make' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" के मर्म को समझना होगा।  क्योंकि 'आध्यात्मिक शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' प्रशिक्षित और चपरास -प्राप्त शिक्षक ही मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेता बन सकते हैं, और बना सकते हैं !" क्योंकि हम स्वयं किसी सूक्ष्म तत्व (या "Be and Make" महावाक्यों) की धारणा करने में तभी समर्थ होते हैं, जब वह किसी व्यक्तिविशेष के भीतर सगुण-साकार रूप धारण कर लेता है।       
             किन्तु प्रवृत्ति मार्ग के अधिंकाश लोकशिक्षक (राजर्षि) काल के प्रवाह में यह बात भूल गए थे कि प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आ जाने से ही 'मनुष्य' की महिमा प्रकट होती है। इसलिए भागवत में कहा गया है - ब्रह्म (इन्द्रियातीत सत्य) को जान लेने में केवल 'मनुष्य' ही समर्थ है--यह देखकर ब्रह्मा जी को बहुत आनन्द हुआ ! " सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयाऽऽत्मशक्त्या, वृक्षान् सरीसृप पशून् खगदंशमत्स्यान् । तैस्तैरतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ।  ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः ॥ २८ ॥ "
             यह देखकर कि संकल्प और आत्मसंयम से रहित दुर्बल व्यक्तियों के [ढोंगी-गुरुओं के] हाथों में जाकर यह 'योग' (आत्मनिरीक्षण प्रणाली) नष्टप्राय हो गया है, जिसके बिना जीवन का परम् पुरुषार्थ- 'मोक्ष' (भ्रममुक्ति) की अवस्था को प्राप्त नहीं किया जा सकता। अन्तस्थ ब्रह्म का अवलोकन करने के महत्व पर प्रकाश डालते हुए, भगवान आगे गीता 4/3 में कहते हैं -  
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।
" उसी पुरातन योग को आज मैंने (नवनीदा के नेतृत्व में महामण्डल ने)  तुम्हें कहा (सिखाया) क्योंकि तुम मेरे (नवनीदा के) भक्त और मित्र हो। यह उत्तम रहस्य है।"
           गुरु/नेता से प्राप्त होने वाले प्रेम और स्वातंत्र्य मित्रता और आपसी समझ के वातावरण में ही शिष्य का मन और बुद्धि, अर्थात चरित्र-कमल विकसित होकर खिल उठते हैं। भावी नेता (राजा+ऋषि) बन कर आत्मानुभव का ज्ञान दूसरों को बिना-भेद किये प्रदान करने के लिए आवश्यक गुणों को अर्जुन में देखकर ही श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन्होंने इस योग का ज्ञान उसे दिया। 
              अजितेन्द्रिय और दुर्बल शिक्षकों /नेताओं  के हाथ में पड़कर यह योग नष्ट हो गया है यह देखकर और साथ ही लोगों को पुरुषार्थ (धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष) रहित हुए देखकर; और यह सोचकर कि तू मेरा भक्त और मित्र है, ढोंगी -कपटी नहीं है।  अब मैंने (नवनीदा ने)  वही यह पुराना योग जो मुझे 'विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त 'Be and Make' नेतृत्व -प्रशिक्षण परम्परा' में  राजयोग या मनःसंयोग सहित 5 अभ्यास का प्रशिक्षण अलमोड़ा, मायावती में मुझे (नवनीदा को ) प्राप्त हुआ था- तुझसे कहा है, क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है। 
             यहाँ इस ज्ञान को रहस्य कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि कोई व्यक्ति कितना ही बुद्धिमान् क्यों न हो फिर भी  किसी अनुभवी पुरुष के उपदेश  [ नवनीदा जैसे नेता] के बिना वह आत्मा के अस्तित्व का कभी आभास भी नहीं पा सकता। समस्त बुद्धि वृत्तियों को प्रकाशित करने वाली आत्मा स्वयं बुद्धि (चित्त-मन-बुद्धि और अहंकार)  के परे होती है। इसलिये मनुष्य की बुद्धि ( विवेक-प्रयोग सार्मथ्य) कभी भी नित्य अविकारी आत्मा (witness consciousness) को विषय रूप में नहीं जान सकती।  यही कारण है कि सत्य के विज्ञान को यहाँ उत्तम रहस्य कहा गया है।
           शिष्य के प्रति स्नेह भाव होने पर ही कोई गुरु (नवनीदा जैसा शिक्षक) उत्साह और कुशलता पूर्वक उपदेश दे सकता है। श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच ऐसा ही सम्बन्ध था और भगवान् को यह विश्वास था, कि उनके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का वह भावी शिक्षक (would be Leader) अवश्य अनुसरण करेगा। अतः महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में गुरु/नेता (C-In-C) और शिष्य (कैम्पर्स) के बीच इस प्रकार की व्यापारिक व्यवस्था बिल्कुल नहीं होती, कि तुम मुझे अलग से चढ़ावा दो या पोस्ट दो तब मैं तुमको 5 अभ्यास का प्रशिक्षण दूँगा।  
         गीता के चौथे अध्याय के प्रारम्भिक श्लोक में घटनाओं के काल के विषयों में स्पष्ट विरोधाभास है। श्रीकृष्ण ने कहा कि उन्होंने सृष्टि के प्रारम्भ में इस योग को विवस्वान् (सूर्य) को सिखाया। अर्जुन के लिये स्वाभाविक था कि वह श्रीकृष्ण को देवकी के पुत्र और गोकुल के मुरलीधर कृष्ण के रूप में ही जाने। श्रीकृष्ण की निश्चित जन्म तिथि थी और वे अर्जुन के ही समकालीन थे। इस दृष्टि से उनका सूर्य के प्रति उपदेश करना असंभव था क्योंकि सम्पूर्ण ग्रहों की सृष्टि के पूर्व सूर्य का अस्तित्व सिद्ध है। गीतोपदेष्टा भगवान् श्रीकृष्ण को कोई साधारण मनुष्य न समझ ले इसलिये व्यासजी भगवान् के ही मुख से घोषणा करवाते हैं कि--[ठाकुर के मुख से - 'जो राम जो कृष्ण वही रामकृष्ण']-
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।4.5।।
।।4.5।। श्रीभगवान् ने कहा -- हे अर्जुन ! मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म हो चुके हैं, (परन्तु) हे परन्तप ! उन सब को मैं जानता हूँ और तुम नहीं जानते।। 
           किसी एक भी प्राणी का जन्म केवल संयोग ही नहीं है। डार्विन के विकास के सिद्धान्त के अनुसार भी प्रत्येक व्यक्ति जगत में विकास की सीढी पर उन्नति करने के फलस्वरूप आया है। प्रत्येक देहधारी का जीवन उस जीव के दीर्घ आत्मचरित्र को दर्शाता है। असंख्य और विभिन्न प्रकार के शरीरों में वास करने के पश्चात् ही जीव वर्तमान विकसित स्थिति को प्राप्त करता हुआ है। प्रत्येक नवीन देह में जीव को पूर्व जन्मों का विस्मरण हो जाता है किन्तु वह पूर्व जन्मों में अर्जित वासनाओं से युक्त रहता है। 
           अनेक विदेशियों को [विशेषकर  जे.एन. यू. के वामपंथियों को]  हिन्दू दर्शन का यह प्रकरण और हिन्दुओं का अवतारवाद में विश्वास अत्यन्त भ्रामक प्रतीत हो सकता है। किन्तु इसी अध्याय में आगे श्रीकृष्ण बतायेंगे कि  उन्हें कभी भी अपने दिव्य स्वरूप का विस्मरण नहीं होता। और वे हर युग में स्वेच्छा और पूर्ण स्वातन्त्र्य से उपाधियों को धारण करके मनुष्यों के मध्य रहते हुए कार्य करते हैं जो उनकी दृष्टि से लीलामात्र है। 
              हमें भगवान् श्रीकृष्ण की  स्थिति एक साधारण जीव के समान नहीं समझनी चाहिये। वे अपनी सर्वज्ञता के कारण अर्जुन (भावी शिक्षक) के  और स्वयं के (मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं के) अतीत को जानते हैं, अतः उन्होंने  कहा मैं उन सबको जानता हूँ और तुम नहीं जानते।
            अर्जुन पूछता है - आपके लिये धर्म-अधर्म के अभाव में जन्म की क्या आवश्यकता है ? आपका जन्म कैसे सम्भव है ? इसका उत्तर है -----।।4.6।। यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप हूँ और भूतमात्र का ईश्वर हूँ (तथापि) अपनी प्रकृति को अपने अधीन रखकर (अधिष्ठाय) मैं अपनी माया से जन्म लेता हूँ।          
            परमेश्वर अपनी निर्बाध स्वतन्त्रता और पूर्ण स्वेच्छा से एक विशिष्ट देह [श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के शरीर] को धारण करके जगत् में उस काल की सम्मोहित पीढ़ी (Hypnotized generation) का मार्गदर्शन करने आते हैं। अज्ञानी (कैम्पर्स) के समान देहादि के बन्धन में रहना [नस्सी सूँघना] उनके लिये वास्तविकता न होकर एक नाटक की भूमिका के समान है। र्मत्य जीव- अर्थात साधारण मनुष्य अविद्या का [पास्ट बैड हैबिट्स का] शिकार बनता है जबकि ईश्वर स्व-माया के स्वामी बने रहते हैं। 
              श्रीरामकृष्ण देव ने दक्षिणेश्वर में केदार चटर्जी आदि भक्तों के सामने अवतार तत्व के सम्बन्ध में कहा था - " .... अमुक भी [वेदान्ती] ऋषियों की तरह है। ऋषियों ने श्रीरामचन्द्र से कहा - 'हे रामचन्द्र , हम जानते हैं कि तुम दशरथ के लड़के हो। भरद्वाज ऋषि भले ही तुम्हारी पूजा अवतार रूप से करें, पर हमलोग तो अखण्ड सच्चिदानन्द को चाहते हैं। ' इस बात को सुनकर रामचन्द्र हँसकर चले गए। ऋषि लोग ज्ञानी थे, इस कारण वे अखण्ड सच्चिदानन्द को चाहते थे। भक्त लोग भक्ति का स्वाद लेने के लिये 'अवतार' को चाहते हैं। ' ... कुछ भक्त सोचते हैं -कैसा आश्चर्य है ! वेद जिसे अखण्ड सच्चिदानन्द और मन -वाणी के अगोचर कहते हैं, वह हमारे सामने मनुष्य रूप में -'नवनीदा' के रूप में कैसे आया है ? 
                इसीलिए नवनीदा भी लीडरशिप क्लास में कहते थे विष्णुसहस्रनाम में भगवान विष्णु का एक नाम 'नेता' है। क्योंकि उन्हें यह याद था कि पूर्व जन्म में वे ही प्रवृत्ति मार्ग के ऋषि कैप्टन सेवियर थे। ... 
[पतंजलि योग सूत्र -  2.39 में भी कहा गया है - " अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथंतासंबोधः॥२.३९॥  " अपरिग्रहस्थैर्ये – अपरिग्रह की स्थित में स्थिरता आने पर, जन्मकथान्तासंबोधः – पूर्वजन्मादि की कथाओं (बातों / रहस्यों) ज्ञान हो जाता है। व्यासभाष्यम् : अस्य भवति । कोऽहमासं ? कथमहमासं ? किं स्विदिदं ? कथं स्विदिदं ? के वा भविष्यामः ? कथं वा भविष्यामः ? इत्येवमस्य पूर्वान्तपरान्तमध्येष्वात्मभावजिज्ञासा स्वरूपेणोपावर्तते । एता यमस्थैर्ये सिद्धयः॥३९॥ ]
            अपरिग्रह के स्थिर होने पर जन्म जन्मान्तरों का बोध हो जाता है ???..... पहले तो यह समझ नहीं आया पर जब अपरिग्रह के सिद्धान्त को आत्मा को केन्द्रबिन्दु बना कर लगाया तो आत्मा की दृष्टि से तो यह शरीर, मन, इन्द्रियाँ, विषय आदि सभी परिग्रह हैं। पतंजलि अपरिग्रह की सिद्धि बताते हैं।अपरिग्रह का सिद्धान्त स्वार्थ के ऊपर परमार्थ को रखने का है, शरीर के ऊपर अध्यात्म को रखने का है। जब यह विवेक आ जायेगा कि आत्मा और शरीर अलग अलग हैं और शरीर को विषयों से पोषित करना श्रम को व्यर्थ करना है तो वह परवैराग्य होता है। यह जीवन युगों युगों से चला आ रहा है और आगे भी चलता ही रहेगा। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, यह पांच यम हैं। यही पांच महाव्रत हैं, जितना अधिक तुम इनका पालन करते हो उतना अधिक इनका प्रभाव होने लगता है।
                इनको उस रूप में स्वीकार भर कर लेने से अपने स्वरूप को जाना जा सकता है और यह भी समझा जा सकता है कि सदियों से हम यह शारीरिक आवरण ओढ़ते आये हैं। यह सबका भान हट जाने से अपनी जन्म जन्मान्तरों की यात्रा स्पष्ट दिखायी पड़ेगी।
          अपरिग्रह, संचय न करने का सीधा अर्थ है, अपने ऊपर विश्वास होना, अपने सामर्थ्य पर विश्वास होना और अपने स्वयं के स्वरुप का ज्ञान। एक चीन की कहावत है, जो तुम बांटते हो वह बढ़ता है, जो तुम फैलाते जाते हो, वह तुम्हारे पास और अधिक हो जाता है और जो तुम पकड़ कर रखते हो वह तुम खो ही बैठते हो। जितना तुम सबके लिए बिखेरते हो उतना वो तुम्हारे पास बढ़ता जाता है। यदि तुम अभी बहुत दुखी हो तो जरूरतमंदों को कुछ दान करो, तुम पाओगे कि तुम्हारी चेतना में एक बदलाव आता है। कभी कभी जब तुम कुछ लोगों से कुछ उपहार ग्रहण करते हो तब तुम दुखी हो जाते हो। ऐसे वस्तुओं का संचय नहीं करना, स्वीकार नहीं करना अपरिग्रह है। परिग्रह है हमेशा लेते ही रहना, कौन मुझे क्या दे सकता है, यह देखते रहना परिग्रह है। जब भी तुम लोगों को कुछ देते हो, तब तुम्हें कुछ न कुछ मिलता है, कुछ दुआएं मिलती ही हैं। तुम कभी  यह प्रयोग कर के देखो, कुछ दिनों के लिए [कोबिड -19 लॉकडाउन के 21 दिनों तक?] किसी से कुछ भी ग्रहण मत करो, तुम पाओगे कि तुम्हारी चेतना [Awareness] में एक बदलाव आ जाता है। समाज में ऐसा पूरी तरह संभव नहीं है परन्तु कुछ लोग इसका अति अभ्यास भी करते हैं। तुम्हें अति नहीं करनी है पर यह जागरूकता बनाये रखनी है।  
              स्वामी विवेकानन्द इस 'राजयोग विज्ञान' को भलीभांति समझते थे। तभी उन्होंने कहा था - 'kneel down and give' भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति में यही नियम था कि यदि कोई तुम्हारा उपहार या दान स्वीकार कर लेता है तो देने वाले दाता को कृतज्ञ होना चाहिए, " हे भाई, हम धन्य हुए कि आपने मेरे उपहार को  स्वीकार किया।" जब भी कोई भी ज्ञानी, सन्यासी या बुद्धपुरुष आपके यहाँ का कुछ अन्न, जल, फल, दान स्वीकार करते हैं, तब उनके इस स्वीकार करने के लिए जो धन्यभागी होने का भाव है उसको व्यक्त करने के लिए इस सबके उपरान्त और कुछ देते हैं उसे ही दक्षिणा कहा जाता है। देने वाले को धन्यभागी होना चाहिए, क्योंकि उस दान दक्षिणा के साथ कुछ भूतकाल के कर्म और उनके संस्कार भी चले जाते हैं।
                 जो लोग मृत्यु भय से बहुत डरे हुए होते हैं वही बड़े कंजूस होते हैं, जिन्हें अपने सामर्थ्य का भी कुछ अता-पता नहीं होता है। जो बड़े स्वार्थी और कंजूस होते हैं वही अधिक संचय करते हैं। जब तुम संचय नहीं करते हो तब तुम्हें पिछले जन्मों का और अलग अलग प्रजातियों का भी ज्ञान मिलने लगता है। तुम्हारे भीतर के संवाद में स्पष्टता आती है। जब कोई व्यक्ति केवल यही रट लगा के बैठा हो कि 'मुझे और चाहिए, मुझे और चाहिए' तब तुम देखोगे कि वह भयग्रस्त होता है और जीवन की अनंतता से अनभिज्ञ रहता है।  लोग बस इकठ्ठा करते जाते हैं और फिर मर जाते हैं। अच्छा इसका अर्थ यह नहीं समझना कि तुम्हें धन की बचत नहीं करनी चाहिए।
         
 किन्तु हमें सदैव यह याद रखना चाहिये कि सामान्य विवाहित गृहस्थों के लिए यह अवस्था- 'प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में स्थित हो जाने की अवस्था ' अत्यन्त ही दुर्लभ अवस्था है। अतः 1967 में महामण्डल आंदोलन के नेता के रूप में पहले-पहल एक अविवाहित शिक्षक [C-IN-C] ही चाहिए था, इसलिए 'नवनीदा'-- जो अपने पूर्वजन्म में प्रवृत्ति मार्ग के ऋषि - कैप्टन सेवियर थे, ने विवाह नहीं किया था।  
             कैप्टन सेवियर  5 वर्षों तक भारत में ब्रिटिश इंडियन आर्मी के अफसर भी रह चुके थे। हमलोग जानते हैं कि भारतीय सेना के रैंकों को पश्चिमी देशों के रैंकों के साथ मेल खाते हुए बनाया गया है। 26 जनवरी 1950  के बाद, जब भारत एक गणतंत्र बन गया, भारत के राष्ट्रपति 'C-IN -C ' कमांडर-इन-चीफ बनाये गए।  

 " विवाहित जीवन के उच्च आदर्श के प्रति अवश्य ही स्वामीजी की कभी अश्रद्धा नहीं थी। तथापि विवाह और संतान पैदा करना मानव का परम कर्त्तव्य है, ऐसा स्वामी विवेकानन्द कभी नहीं मानते थे। खासतौर पर जिन्होंने कोई ऊंचा काम करने का संकल्प (Be and Make 'वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में धर्म -संस्थापन करने या  मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने का संकल्प) लिया हो,उनके लिए तो विवाह सिर्फ आवश्यक चीज है, ऐसा ही वह सोचते थे। उनका कहना था कि मनुष्य को गृहस्थ व संन्यास दोनों आश्रमों की आवश्यकता है। वे समझते थे कि समाज में गार्हस्थ्य व संन्यास के बीच में समन्वय स्थापित करने में सक्षम आदर्श गृही शिक्षक और आदर्श संन्यासी शिक्षक दोनों की आवश्यकता है। 'मोक्ष पर केवल संन्यासियों का ही एकाधिकार नहीं होता'; लेकिन जो लोग (बिना जीवनगठन किये) विदेह राजर्षि जनक का उदाहरण देकर वैसा बनने की कोशिश करते है, वे कुछ संतानों के जनक बनकर ही रह जाते हैं। 
       ऐसा प्रतीत होता है कि विवाह जैसे इनके ऊपर केवल पितृ ऋण ही है जिससे ये मुक्त हो जाना चाहते हैं। यद्यपि सभी आश्रम गृहस्थ आश्रम पर आधारित हैं, लेकिन फिर भी इस समय उनकी इतनी जरूरत नहीं है। यह विवाह -परम्परा एक प्रकार से बंधन बन गया है, वह युवकों को पशु बनाए दे रहा है। मुझे ऐसे युवक चाहिए जो इंद्रियोें की क्षुद्र मांग से ऊपर उठ गए हों। जिनकी पेशियां लोहे की और स्नायु इस्पात तो हों और उनके शरीर के अंदर वज्र जैसा बल पौरुष मौजूद हो। भारत के निवृत्ति मार्गी कुछ उच्च शिक्षित युवा यदि एक साथ ब्रह्मतेज और क्षात्रबल (क्षात्रवीर्य) धारण करने वाले हों, तभी बहुत बड़ी संख्या में स्वामी विवेकानन्द की-'Be and Make -Leadership Training'  "मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने में समर्थ~ 'क्षात्रवीर्य' और 'ब्रह्मतेज' से सम्पन्न प्रवृत्ति मार्ग के राजा जनक जैसे राजर्षियों, जीवनमुक्त शिक्षकों, पैगम्बरों, महामण्डल कर्मियों (मार्गदर्शक नेताओं) का निर्माण  हो सकता है, वरना कुछ नहीं हो सकता
       हमारे वैदिक ऋषिओं ने " ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य " अर्थात व्यक्तिगत पूर्णता (ब्रह्म तेज) तथा सामाजिक कार्यक्षमता (क्षात्रवीर्य) का बहुत गुणगान किया है। Dynamic goodness of manliness. (डाइनैमिक गुड्नेस ऑफ़ मैनलीनेस') नवनी दा के अनुसार 'क्षात्रवीर्य' वह स्वतः स्फूर्त पौरुष है जो समाज में सदाचार की शक्ति को स्थापित करने में सक्षम हो। अथवा  'क्षात्रवीर्य' यौवन की वह स्वतः स्फूर्त ऊर्जा  (तरुणाई) है जो  'बी ऐंड मेक' आंदोलन को भारत के प्रत्येक राज्य में प्रसारित करने में सक्षम हो। 
तथा 'ब्रह्मतेज' का अर्थ है -वह तेज जो ब्रह्मदृष्टि से उत्पन्न होती है। अर्थात सभी एक (ईश्वर) है, इस साम्य दृष्टि से जो तेज या शक्ति उत्पन्न होती है, उसे ब्रह्मतेज कहते हैं। All loving intelligence of saintliness. 'ऑल लविंग इंटेलिजेंस ऑफ़ सेंटलिनेस'- - माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट ह्रदय का अहं-बोध, वह सन्तसुलभ सर्व प्रेमी प्रज्ञा, जो ब्रह्म को जानकर साम्यभाव (अचिन्त्य भेदा-भेद) में स्थित होने से प्राप्त होती हो। वह 'तेज' या ज्ञामनमयी -दृष्टि  जो पवित्र साम्यभाव में अवस्थित होने से प्राप्त होती है,या 'कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं' की समझ से उत्पन्न होती है; और जो मनुष्य को 'दया नहीं शिव ज्ञान से जीव सेवा' करने को अनुप्रेरित करती है, उसे ब्रह्मतेज कहते हैं।   जिस किसी व्यक्ति को समदर्शन की उपलब्धि हो जाती है, जो मनुष्य समदर्शी (even-minded) बन जाता है, या साम्यभाव में स्थित हो जाता है, उसका भय सम्पूर्ण रूप से समाप्त हो जाता है।  जिस व्यक्ति  के मन में सबों के प्रति एकत्व का भाव या साम्यभाव  अर्थात अपनेपन का बोध रहता है, समदृष्टि रहती है, उसी को योगी कहते हैं। इस विषय के महत्व पर गीता के अन्तिम श्लोक (१८. ७८) में कहा गया है-

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः। 

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।18.78।। 

 जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव -धनुष धारी अर्जुन हैं, वहाँ ही श्री (prosperity) , विजय (victory)  विभूति (Expansion -विस्तार) और अचल नीति  है (firm policy) -- ऐसा मेरा मत है।
सात सौ एक श्लोकों वाली श्रीमद्भगवद्गीता का यह अन्तिम श्लोक है। इस श्लोक में संजय केवल अपने विश्वास और व्यक्तिगत मत को ही तो प्रदर्शित कर रहा है; जिसे गीता के पाठक स्वीकार करे ही, ऐसी कोई आवश्यकता नहीं है।इस श्लोक का गम्भीर आशय है जिसमें अकाट्य सत्य का प्रतिपादन किया गया है।
     योगेश्वर श्रीकृष्ण सम्पूर्ण गीता में श्रीकृष्ण चैतन्य स्वरूप आत्मा के ही प्रतीक हैं। यह आत्मतत्त्व ही वह अधिष्ठान (पर्दा) है , जिस पर विश्व की घटनाओं का खेल (फिल्म चल रहा है) हो रहा है।  गीता में उपदिष्ट विविध प्रकार की योग विधियों में किसी भी विधि से अपने हृदय में उपस्थित उस आत्मतत्त्व का साक्षात्कार किया जा सकता है। धनुर्धारी पार्थ इस ग्रन्थ में पृथापुत्र अर्जुन एक भ्रमित (hypnotized-सिंहशावक) परिच्छिन्न असंख्य दोषों से युक्त जीव का प्रतीक है। जब वह अपने प्रयत्न और उपलब्धि के साधनों (धनुष बाण) का परित्याग करके शक्तिहीन आलस्य और प्रमाद में बैठ जाता है।  तो निसन्देह वह किसी प्रकार की सफलता या समृद्धि की आशा नहीं कर सकता। परन्तु जब वह धनुष् धारण करके अपने कार्य में तत्पर हो जाता है तब हम उसमें धनुर्धारी पार्थ के दर्शन करते हैं , जो सभी चुनौतियों का सामना करने के लिए तत्पर है।
          इस प्रकार योगेश्वर श्रीकृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन के इस चित्र से आदर्श जीवन पद्धति का रूपक पूर्ण हो जाता है। आध्यात्मिक ज्ञान और शक्ति से सम्पन्न कोई भी पुरुष जब अपने कार्यक्षेत्र में प्रयत्नशील हो जाता है,  तो कोई भी शक्ति उसे सफलता से वंचित नहीं रख सकती। संक्षेप में गीता का यह मत है कि आध्यात्मिकता को (व्यावहारिक वेदान्त को)  अपने व्यावहारिक जीवन में जिया जा सकता है।  और अध्यात्म का वास्तविक ज्ञान जीवन संघर्ष में रत मनुष्य के लिए अमूल्य सम्पदा है।
           आज समाज में सर्वत्र एक दुर्व्यवस्था और अशांति फैली हुई दृष्टिगोचर हो रही है। वैज्ञानिक उपलब्धियों और प्राकृतिक शक्तियों पर विजय प्राप्त कर लेने पर भी आज का मानव जीवन की आक्रामक घटनाओं के समक्ष दीनहीन और असहाय हो गया है। इसका एकमात्र कारण यह है कि उसके हृदय का योगेश्वर उपेक्षित रहा है। मनुष्य की उन्नति का मार्ग है लौकिक सार्मथ्य और आध्यात्मिक ज्ञान का सुखद मिलन। यही गीता में उपदिष्ट मार्ग है। मनुष्य के सुखद जीवन के विषय में श्री वेद व्यास जी की यही कल्पना है। केवल भौतिक उन्नति से जीवन में गति और सम्पत्ति तो आ सकती है, परन्तु मन में शांति नहीं। आन्तरिक शांति रहित समृद्धि एक निर्मम और घोर अनर्थ है, परन्तु यह श्लोक दूसरे अतिरेक को भी स्वीकार नहीं करता है। कुरुक्षेत्र के समरांगण में युद्ध के लिए तत्पर धनुर्धारी अर्जुन के बिना योगेश्वर श्रीकृष्ण कुछ नहीं कर सकते थे। केवल आध्यात्मिकता की अन्तर्मुखी प्रवृत्ति से हमारा भौतिक जीवन गतिशील और शक्तिशाली नहीं हो सकता। 
         सम्पूर्ण गीता में व्याप्त यह (परा और अपरा विद्या का यह) समाञ्जस्य का यह सिद्धांत ही  मनुष्य के चिरस्थायी सुख का  एक मार्ग है। संजय इसी मत की पुष्टि करते हुए कहता है कि जिस समाज या राष्ट्र के लोग संगठित होकर कार्य करने विपत्तियों को सहने और लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तत्पर हैं (धनुर्धारी अर्जुन) और इसी के साथ ये लोग अपने हृदय में स्थित आत्मतत्त्व के प्रति जागरूक हैं (योगेश्वर श्रीकृष्ण) तो ऐसे राष्ट्र में समृद्धि विजय भूति (विस्तार) और दृढ़ नीति होना स्वाभाविक और निश्चित है। 
         समृद्धि, विजय, विभूति (Expansion- ह्रदय का विस्तार) और दृढ़ नीति (firm policy) का उल्लिखित क्रम भी तर्कसिद्ध है। विश्व इतिहास के समस्त विद्यार्थियों की इसकी युक्तियुक्तता स्पष्ट दिखाई देती है। अर्वाचीन काल और राजनीति के सन्दर्भ में हम यह जानते हैं कि किसी एक विवेकपूर्ण दृढ़ राजनीति के अभाव में कोई भी सरकार राष्ट्र को प्रगति के मार्ग पर आगे नहीं बढ़ा सकती। दृढ़ नीति के द्वारा ही राष्ट्र की प्रसुप्त क्षमताओं का विस्तार सम्भव होता है।और केवल तभी परस्पर सहयोग और बन्धुत्व की भावना से किसी प्रकार की उपलब्धि प्राप्त की जा सकती है। 
          दृढ़ नीति (firm policy) और क्षमताओं (ह्रदय के) विस्तार के साथ विजय कोई दूर नहीं रह जाती। और इन तीनों की उपस्थिति में राष्ट्र का समृद्धशाली होना निश्चित ही है। आधुनिक राजनीति के सिद्धांतों में भी इससे अधिक स्वस्थ सिद्धांत हमें देखने को नहीं मिलता है।अत यह स्पष्ट हो जाता है कि यह केवल संजय का ही व्यक्तिगत मत नहीं है वरन् सभी आत्म-संयमी तत्त्वचिन्तकों का भी यह दृढ़ निश्चय है
        गीता के अनेक व्याख्याकार हमारा ध्यान गीता के प्रारम्भिक श्लोक के प्रथम शब्द धर्म तथा इस अन्तिम श्लोक के अन्तिम शब्द मम की ओर आकर्षित करते हैं। इन दो शब्दों के मध्य सात सौ श्लोकों के सनातन सौन्दर्य की यह माला धारण की गई है। अत इन व्याख्याकारों का यह मत है कि गीता का प्रतिपाद्य विषय है मम धर्म अर्थात् मेरा धर्म मम धर्म से तात्पर्य मनुष्य के तात्विक स्वरूप और उसके लौकिक कर्तव्यों से है। जब इन दोनों का गरिमामय समन्वय किसी एक पुरुष में हो जाता है, तब उसका जीवन आदर्श बन जाता है। इसलिए गीता के अध्येताओं को चाहिए कि उनका जीवन आत्मज्ञान, प्रेमपूर्ण जनसेवा एवं त्याग के समन्वय से युक्त हो। यही आदर्श जीवन है
    बीवी-बच्चों की फिक्र में ये लोग क्या कर सकते हैं? विवाह की बलिवेदी पर कितने ही तरुणों की हत्या हो रही है। [वैसे ही -क्यों "निवृत्ति अस्तु महाफला" ? को समझे बिना, संन्यास आश्रम के लिए निवृत्तिमार्ग के अनाधिकारी युवाओं को जबरन  संन्यासी बना देने से -क्या 'मनुष्य ' बनाने के बजाय /संन्यासी बनाने की ज़िद की बलिवेदी पर कुछ महान भावी मार्गदर्शक नेताओं की बली नहीं चढ़ाई जा रही है ? ] 
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