परिच्छेद 139 ~
🙋श्रीरामकृष्ण का भक्तों के प्रति प्रेम🙋
(१)
[(22 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
राखाल, शशि आदि भक्तों के संग में
काशीपुर के बगीचे में शाम को राखाल, शशि और मास्टर टहल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण बीमार हैं, बगीचे में चिकित्सा कराने के लिए आये हुए हैं । वे ऊपर के कमरे में हैं । भक्तगण उनकी सेवा कर रहे हैं । आज बृहस्पतिवार है, 22 अप्रैल, 1886।
मास्टर - वे तो तीनों गुणों से परे एक बालक हैं ।
शशि और राखाल - श्रीरामकृष्ण ने वैसा ही कहा है ।
राखाल - जैसे एक ऊँची मीनार । वहाँ बैठने पर सब समाचार मिलता रहता है, सब कुछ देख सकते हैं, परन्तु वहाँ कोई पहुँच नहीं सकता ।
मास्टर - उन्होंने कहा है, 'इस अवस्था में सदा ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं ।' विषयरूपी रस के न रहने के कारण सूखी लकड़ी आग जल्दी पकड़ती है ।
शशि - बुद्धि में कितने भेद हैं, यह वे चारु को बतला रहे थे । जिस बुद्धि से ईश्वर की प्राप्ति होती है, वही बुद्धि ठीक है । जिस बुद्धि से रुपया मिलता है, घर बनता है, डिप्टी मैजिस्ट्रेट या वकील होता है, वह बुद्धि नाममात्र की है । वह पतले दही की तरह है, जिसमें पानी का भाग अधिक है । उसमें सिर्फ चिउड़ा भीग सकता है । वह जमे दही की तरह अच्छा दही नहीं है । जिस बुद्धि से ईश्वर की प्राप्ति होती है, वही बुद्धि जमे दही की तरह उत्कृष्ट कहलाती है ।
मास्टर – अहा ! कैसी सुन्दर बात है !
शशि - काली तपस्वी ने श्रीरामकृष्ण से कहा था, “आनन्द से क्या होगा ? आनन्द तो भीलों के भी है । जंगली लोग भी 'हो हो' करके नाचते और गाते हैं ।"
राखाल - उन्होंने (श्रीरामकृष्ण ने) कहा, 'यह क्या ? ब्रह्मानन्द और विषयानन्द क्या एक हैं ? जीव विषयानन्द लेकर है । सम्पूर्ण विषयासक्ति के बिना गये ब्रह्मानन्द कभी मिल नहीं सकता । एक ओर रुपये और इन्द्रिय-सुख का आनन्द है और दूसरी ओर है ईश्वर-प्राप्ति का आनन्द । क्या ये दो कभी समान हो सकते हैं ? ऋषियों ने इस ब्रह्मानन्द का भोग किया था ।'
मास्टर - काली इस समय बुद्धदेव की चिन्ता करते हैं न; इसलिए आनन्द के उस पार की बातें कह रहे हैं ।
राखाल - श्रीरामकृष्ण के पास भी बुद्धदेव की बातचीत काली ने उठायी थी । श्रीरामकृष्णदेव ने कहा, 'बुद्धदेव अवतार-पुरुष हैं । उनके साथ किसी की क्या तुलना ? बड़े घर की बड़ी बातें ।' काली ने कहा था, 'ईश्वर की शक्ति ही तो सब कुछ है । उसी शक्ति से ईश्वर का आनन्द मिलता है, और उसी से विषय का भी ।'
मास्टर - फिर उन्होंने क्या कहा ?
राखाल - उन्होंने (श्रीरामकृष्ण ने) कहा 'ऐसा कैसे हो सकता है? -- सन्तानोत्पत्ति करने की शक्ति और ईश्वर-प्राप्ति की शक्ति दोनों क्या एक है ?’
बगीचे के दुमँजले कमरे में भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं । शरीर अधिकाधिक अस्वस्थ होता जा रहा है । आज फिर डाक्टर महेन्द्र सरकार और डाक्टर राजेन्द्र दत्त देखने के लिए आये हैं । कमरे में राखाल, नरेन्द्र, शशि, मास्टर, सुरेन्द्र, भवनाथ तथा अन्य बहुतसे भक्त बैठे हैं ।
बगीचा पाकपाड़ा के बाबुओं का है । किराये से है, ६०-६५ रुपये देने पड़ते हैं । भक्तों में जो कम उम्र के हैं, वे बगीचे में ही रहते हैं । दिन-रात श्रीरामकृष्ण की सेवा वहीं किया करते हैं । गृही भक्त भी बीचबीच में आते हैं और उनकी सेवा किया करते हैं । वहीं रहकर श्रीरामकृष्ण की सेवा करने की इच्छा उन्हें भी है, परन्तु अपने-अपने कार्य में लगे रहने के कारण सदा वहाँ रहकर वे उनकी सेवा नहीं कर सकते । बगीचे का खर्च चलाने के लिए अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार वे आर्थिक सहायता देते हैं । अधिकांश खर्च सुरेन्द्र ही देते हैं । उन्हीं के नाम से किराये पर बगीचे की लिखा-पढ़ी हुई है। एक रसोइया और दासी, ये दो नौकर भी सदा वहीं रहते हैं ।
श्रीरामकृष्ण तथा कामिनी-कांचन
श्रीरामकृष्ण - (डाक्टर सरकार आदि से) - बड़ा खर्च हो रहा है ।
डाक्टर - (भक्तों की ओर इशारा करके) - ये सब लोग तैयार भी तो हैं । बगीचे का सम्पूर्ण खर्च देते हुए भी इन्हें कोई कष्ट नहीं है । (श्रीरामकृष्ण से) अब देखो, कांचन की आवश्यकता आ पड़ी।
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - बोल ना ?
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को उत्तर देने की आज्ञा दे रहे हैं । नरेन्द्र चुप हैं । डाक्टर फिर बातचीत कर रहे हैं ।
डाक्टर - कांचन चाहिए । और फिर कामिनी भी चाहिए ।
राजेन्द्र डाक्टर - इनकी स्त्री इनके लिए खाना पका दिया करती हैं ।
डाक्टर सरकार - (श्रीरामकृष्ण से) – देखा ?
श्रीरामकृष्ण - ( जरा मुस्कराकर) - है लेकिन बड़ा झंझट ।
डाक्टर सरकार - झंझट न रहती, तो सब लोग परमहंस हो गये होते ।
श्रीरामकृष्ण - स्त्री छू जाती है, तो तबीयत अस्वस्थ हो जाती है ! और जिस जगह छू जाती है, वहाँ बड़ी देर तक सींगी मछली के काँटे के चुभ जाने के समान पीड़ा होती रहती है ।
डाक्टर - यह विश्वास तो होता है, परन्तु अपनी ओर से देखता हूँ तो कामिनी और कांचन के बिना काम ही नहीं चलता ।
श्रीरामकृष्ण - रुपया हाथ में लेता हूँ तो हाथ टेढ़ा हो जाता है - साँस रुक जाती है । रुपये से अगर कोई विद्या का संसार चला सके, ईश्वर और साधुओं की सेवा कर सके, तो उसमें दोष नहीं रह जाता ।
"स्त्री लेकर माया का संसार करने से मनुष्य ईश्वर को भूल जाता है । जो संसार की माँ हैं, उन्हीं ने इस माया का रूप - स्त्री का रूप धारण किया है । इसका यथार्थ ज्ञान हो जाने पर फिर माया के संसार पर जी नहीं लगता । सब स्त्रियों पर मातृज्ञान के होने पर मनुष्य विद्या का संसार कर सकता है । ईश्वर के दर्शन हुए बिना स्त्री क्या वस्तु है ; यह समझ में नहीं आता ।"
होमियोपैथिक दवा का सेवन करके श्रीरामकृष्ण कुछ दिनों से जरा अच्छे रहते हैं । राजेन्द्र - अच्छे होकर आपको स्वयं होमियोपैथिक डाक्टरी करनी चाहिए, नहीं तो फिर इस मानव-जीवन का क्या उपयोग होगा ? (सब हँसते हैं ।)
नरेन्द्र - जो मोची का काम करता है, वह कहता है कि इस संसार में चमड़े से बढ़कर और कोई चीज नहीं है ! (सब हँसे) कुछ देर बाद दोनों डाक्टर चले गये ।
(२)
[(22 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
*श्रीरामकृष्ण की उच्च अवस्था*
श्रीरामकृष्ण मास्टर से बातचीत कर रहे हैं । कामिनी के सम्बन्ध में अपनी अवस्था बतला रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - ये लोग कहते हैं, कामिनी और कांचन के बिना चल नहीं सकता । मेरी क्या अवस्था है, यह ये लोग नहीं जानते ।
"स्त्रियों की देह में हाथ लग जाता है तो ऐंठ जाता है, वहाँ पीड़ा होने लगती है । “यदि आत्मीयता के विचार से किसी के पास जाकर बातचीत करने लगता हूँ तो बीच में एक न जाने किस तरह का पर्दा-सा पड़ा रहता है; उसके उस तरफ जाया ही नहीं जाता ।
कमरे में अकेला बैठा हुआ हूँ, ऐसे समय अगर कोई स्त्री आये तो एकदम बालक की-सी अवस्था हो जाती है और उसे माता की दृष्टि से देखता हूँ ।"
मास्टर निर्वाक् होकर श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हुए ये सब बातें सुन हैं | कुछ दूर भवनाथ के साथ नरेन्द्र बातचीत कर रहे हैं । भवनाथ ने विवाह किया है, अब नौकरी की खोज में हैं । काशीपुर के बगीचे में श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए अधिक नहीं आ सकते । श्रीरामकृष्ण भवनाथ के लिए बड़ी चिन्ता किया करते हैं । कारण, भवनाथ संसार में फँस गये हैं । भवनाथ की उम्र २३-२४ वर्ष की होगी ।
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - उसे खूब हिम्मत बँधाते रहना ।
नरेन्द्र और भवनाथ श्रीरामकृष्ण की ओर देखकर मुस्कराने लगे । श्रीरामकृष्ण इशारा करके फिर भवनाथ से कह रहे हैं - "खूब वीर बनो । घूँघट के भीतर अपनी स्त्री के आँसू देखकर अपने को भूल न जाना । ओह ! औरतें कितना रोती हैं ! - वे तो नाक छिनकने में भी रोती हैं!(नरेन्द्र, भवनाथ और मास्टर हँसते हैं ।)
"ईश्वर में मन को अटल भाव से स्थापित रखना । वीर वह है, जो स्त्री के साथ रहने पर भी उससे प्रसंग नहीं करता । स्त्री के साथ केवल ईश्वरीय बातें करते रहना ।"
कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण फिर इशारा करके भवनाथ से कह रहे हैं - “आज यहीं भोजन करना ।"
भवनाथ - जी, बहुत अच्छा । आप मेरी चिन्ता बिलकुल न कीजिये ।
सुरेन्द्र आकर बैठे । महीना वैशाख का है । भक्तगण सन्ध्या के बाद रोज श्रीरामकृष्ण को मालाएँ पहनाया करते हैं । सुरेन्द्र चुपचाप बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण ने प्रसन होकर उन्हें दो मालाएँ दीं । सुरेन्द्र ने प्रणाम करके मालाओं को पहले सिर पर धारण किया, फिर गले में डाल लिया ।
सब लोग चुपचाप बैठे हुए श्रीरामकृष्ण को देख रहे हैं । सुरेन्द्र उन्हें प्रणाम करके खड़े हो गये । वे चलनेवाले हैं । जाते समय भवनाथ को बुलाकर उन्होंने कहा, 'खस की टट्टी लगा देना ।'
(३)
[(22 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
*श्रीरामकृष्ण तथा हीरानन्द*
श्रीरामकृष्ण ऊपरवाले कमरे में बैठे हैं । सामने हीरानन्द, मास्टर तथा दो-एक भक्त और हैं । हीरानन्द के साथ दो-एक मित्र भी आये हैं । हीरानन्द सिन्ध में रहते हैं । कलकत्ते के कॉलेज में अध्ययन समाप्त करके देश चले गये थे, अब तक वहीं थे । श्रीरामकृष्ण की बीमारी का समाचार पाकर उन्हें देखने के लिए आये हैं । सिन्ध देश कलकत्ते से कोई बाईस सौ मील होगा । हीरानन्द को देखने के लिए श्रीरामकृष्ण भी उत्सुक रहते थे ।
[1883 में कलकत्ता में अपनी कॉलेज की शिक्षा पूरी करने के बाद, वे सिंध लौट आए थे और दो अख़बारों, सिंध टाइम्स और सिंध सुधार के संपादन का कार्यभार संभाला था। कलकत्ता में पढ़ाई के दौरान वे अक्सर केशव चंद्र सेन से मिलने जाते थे और उन्हें करीब से जानते थे।]
श्रीरामकृष्ण हीरानन्द की ओर उँगली उठाकर मास्टर को इशारा कर रहे हैं । मानो कह रहे हैं - 'यह बड़ा अच्छा लड़का है ।'
श्रीरामकृष्ण - क्या तुमसे परिचय है ?
मास्टर - जी हाँ, है ।
श्रीरामकृष्ण - (हीरानन्द और मास्टर से) - तुम लोग जरा बातचीत करो, मैं सुनूँ ।
मास्टर को चुप रहते हुए देखकर श्रीरामकृष्ण ने पूछा - "क्या नरेन्द्र है ? उसे बुला लाओ ।"
नरेन्द्र ऊपर श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे ।
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र और हीरानन्द से) - तुम दोनों जरा बातचीत तो करो ।
हीरानन्द चुप हैं । बड़ी देर तक टाल-मटोल करके उन्होंने बातचीत करना आरम्भ किया ।
हीरानन्द - (नरेन्द्र से) - अच्छा, भक्त को दुःख क्यों मिलता है ?
हीरानन्द की बातें बड़ी ही मधुर हैं । जिन-जिन लोगों ने उनकी बातें सुनीं, उन सब को यह जान पड़ा कि इनका हृदय प्रेम से भरा है ।
नरेन्द्र - इस संसार का प्रबन्ध देखकर यह जान पड़ता है कि इसकी रचना किसी शैतान ने की है । मैं इससे अच्छे संसार की सृष्टि कर सकता था ।
हीरानन्द - दुःख के बिना क्या कभी सुख का अनुभव होता है ?
नरेन्द्र - मैं यह नहीं कहता कि संसार की सृष्टि किस उपादान से की जाय, किन्तु मेरा मतलब यह है कि संसार का अभी जो प्रबन्ध दीख पड़ रहा है, वह अच्छा नहीं ।
"परन्तु एक बात पर विश्वास करने पर सब निपटारा हो जायगा । - सब ईश्वर हैं, यह विश्वास किया जाय तो उलझन सुलझ जायेगी । ईश्वर ही सब कुछ कर रहे हैं ।"
हीरानन्द - यह कहना सहज है ।
नरेन्द्र मधुर स्वर से निर्वाणषट्क कह रहे हैं –
ॐ मनोबुद्ध्ययहंकारचित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिव्हे न च घ्राणनेत्रे ।
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥१॥
न च प्राणसंज्ञो न वै पंचवायुर्न वा सप्तधातुर्न वा पंचकोषः ।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायुश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥२॥
न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः ।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥३॥
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं न मन्त्रो न तीर्थो न वेदा न यज्ञाः ।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ताश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥४॥
न मृत्युर्न शंका न मे जातिभेदः । पिता नैव में नैव माता न जन्म ।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥५॥
अहं निर्विकल्पो निराकाररूपो विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम् ।
न चासंगतं नैव मुक्तिर्न मेयश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥६॥
हीरानन्द – वाह !
श्रीरामकृष्ण ने हीरानन्द को इसका उत्तर देने के लिए कहा ।
हीरानन्द - एक कोने से घर को देखना जैसा है, वैसा ही घर के बीच में रहकर भी देखना है । 'हे ईश्वर ! मैं तुम्हारा दास हूँ' - इससे भी ईश्वर का अनुभव होता है और 'मैं वही हूँ, सोऽहम्' - इससे भी ईश्वर का अनुभव होता है । एक द्वार से भी कमरे में जाया जाता है और अनेक द्वारों से भी जाया जाता है । सब लोग चुप हैं ।
हीरानन्द ने नरेन्द्र से गाने के लिए अनुरोध किया । नरेन्द्र कौपीनपंचक गा रहे हैं –
वेदान्तवाक्येषु सदा रमन्तो भिक्षान्नमात्रेण च तुष्टिमन्तः ।
अशोकमन्तः करणे चरन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥१॥
मूलं तरोः केवलमाश्रयन्तः पाणिद्वयं भोक्तुममन्त्रयन्तः ।
कन्यामिव श्रीमपि कुत्सयन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥२॥
स्वानन्दभावे परितुष्टिमन्तः सुशान्तसर्वेन्द्रियवृत्तिमन्तः ।
अहर्निशं ब्रह्मणि ये रमन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥३॥
श्रीरामकृष्ण ने ज्योंही सुना - 'अहर्निशं ब्रह्मणि ये रमन्तः' कि धीरे धीरे कहने लगे - 'अहा !' और इशारा करके बतलाने लगे कि यही योगियों का लक्षण है ।
नरेन्द्र कौपीनपंचक समाप्त करने लगे –
देहादिभावं परिवर्तयन्तः स्वात्मानमात्मन्यवलोकयन्तः ।
नान्तं न मध्यं न बहिः स्मरन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥४॥
ब्रह्माक्षरं पावनमुच्चरन्तः ब्रह्माहमस्मीति विभावयन्तः ।
भिक्षाशिनो दिक्षु परिभ्रमन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥५॥
नरेन्द्र फिर गा रहे हैं - “परिपूर्णमानन्दम् ।
अंगविहीनं स्मर जगन्निधानम् ।
श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्वाचो ह वाचम् ।
वागतीतं प्राणस्य प्राणं परं वरेण्यम् ।"
नरेन्द्र ने एक गाना और गाया । इस गाने में कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार की हैं ~
तुझसे हमने दिल को लगाया, जो कुछ है सो तू ही है ।
एक तुझको अपना पाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
सबके मकां दिल का मकीं तू, कौन सा दिल है जिसमें नहीं तू ।
हरेक दिल में तू ही समाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
क्या मलायक क्या इन्सान, क्या हिन्दू क्या मुसलमान ।
जैसे चाहा तूने बनाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
काबा में क्या, देवालय में क्या, तेरी परस्तिश होगी सब जाँ ।
आगे तेरे सिर सबने झुकाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
अर्श से लेकर फर्श जमीं तक और जमीं से अर्श वरी तक ।
जहाँ मैं देखा तू ही नजर आया जो कुछ है सो तू ही है ।।
सोचा समझा देखा-भाला, तुम जैसा कोई न ढूंढ़ निकाला ।
अब ये समझ में ' जफर ' के आया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
"हरएक के दिल में' यह सुनकर श्रीरामकृष्ण इशारा करके कह रहे हैं कि वे हरएक के हृदय में हैं, वे अन्तर्यामी हैं । ‘जहाँ देखा नजर तू ही आया’ यह सुनकर हीरानन्द नरेन्द्र से कह रहे हैं, “सब तू ही है, अब 'तुम तुम' हो रहा है । मैं नहीं, तुम ।
नरेन्द्र - तुम मुझे एक दो, मैं तुम्हें एक लाख दूँगा । (अर्थात्, एक के मिलने पर आगे शून्य रखकर एक लाख कर दूगा ।) तुम ही मैं, मैं ही तुम, मेरे सिवा और कोई नहीं है ।
यह कहकर नरेन्द्र अष्टावक्रसंहिता से कुछ श्लोकों की आवृत्ति करने लगे । सब लोग चुपचाप बैठे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (हीरानन्द से, नरेन्द्र की ओर संकेत करके) - मानो म्यान से तलवार निकालकर घूम रहा है ।
(मास्टर से, हीरानन्द की ओर संकेत करके) "कितना शान्त है ! सँपेरे के पास विषधर साँप जैसे फन फैलाकर चुपचाप पड़ा हो !"
(४)
[(22 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
🕊गुह्य कथा🕊
श्रीरामकृष्ण अर्न्तर्मुख हैं । पास ही हीरानन्द और मास्टर बैठे हैं । कमरे में सन्नाटा छाया हुआ है । श्रीरामकृष्ण की देह में घोर पीड़ा हो रही है । भक्तगण जब एक-एक बार देखते हैं, तब उनका हृदय विदीर्ण हो जाता है । परन्तु श्रीरामकृष्ण ने सब को दूसरी बातों में डालकर उधर से मन हटा रखा है । बैठे हुए हैं, श्रीमुख से प्रसन्नता टपक रही है ।
भक्तों ने फूल और माला लाकर समर्पण किया है। फूल लेकर कभी सिर पर चढ़ाते हैं, कभी हृदय से लगाते हैं, जैसे पाँच वर्ष का बालक फूल लेकर क्रीड़ा कर रहा हो । जब ईश्वरी भाव का आवेश होता है, तब श्रीरामकृष्ण कहा करते हैं कि शरीर में महावायु ऊर्ध्वगामी हो रही है । महावायु के चढ़ने पर ईश्वरानुभव होता है । यह बात सदा वे कहा करते हैं । अब श्रीरामकृष्ण मास्टर से बातचीत कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - वायु कब चढ़ गयी, मुझे मालूम भी नहीं हुआ । “इस समय बालकभाव है, इसीलिए फूल लेकर इस तरह किया करता हूँ । क्या देख रहा हूँ, जानते हो ? शरीर मानो बाँस की कमानियों का बनाया हुआ है और ऊपर से कपड़ा लपेट दिया गया है । वही मानो हिल रहा है । भीतर कोई है इसीलिए हिल रहा है ।”
“जैसे बिना बीज और गूदे का कद्दू । भीतर कामादि आसक्तियाँ नहीं हैं, सब साफ है । और –”श्रीरामकृष्ण को बातचीत करते हुए कष्ट हो रहा है । बहुत ही दुर्बल हो गये हैं । वे क्या कहने जा रहे हैं इसका अनुमान लगाकर मास्टर शीघ्र ही कह उठे - “और भीतर आप ईश्वर को देख रहे हैं ।”
श्रीरामकृष्ण - भीतर बाहर दोनों जगह देख रहा हूँ - अखण्ड सच्चिदानन्द । सच्चिदानन्द इस शरीर का आश्रय लेकर इसके भीतर भी हैं और बाहर भी । यही मैं देख रहा हूँ ।
मास्टर और हीरानन्द यह ब्रह्मदर्शन की बात सुन रहे हैं । कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण उनकी ओर सस्नेह दृष्टि करके बातचीत करने लगे ।
[(22 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
श्रीरामकृष्ण तथा योगावस्था। अखण्ड दर्शन।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर और हीरानन्द से) - तुम लोग आत्मीय जान पड़ते हो । कोई दूसरे नहीं मालूम पड़ते । "
सब को देख रहा हूँ, एक-एक गिलाफ - के अन्दर रहकर सिर हिला रहे हैं ।“
" देख रहा हूँ, जब उनसे मन का संयोग हो जाता है तब कष्ट एक ओर पड़ा रहता है ।
"इस समय केवल यही देख रहा हूँ कि अखण्ड सच्चिदानन्द ही इस त्वचा से ढका हुआ है और इसी में एक ओर यह गले का घाव पड़ा रहता है ।"
श्रीरामकृष्ण चुप हो रहे । कुछ देर बाद फिर कहने लगे - “जड़ की सत्ता को चेतन समझ लिया जाता है और चेतन की सत्ता को जड़ । इसीलिए शरीर में रोग होने पर मनुष्य कहता है, 'मैं बीमार हूँ ।' ”
श्रीरामकृष्ण - कष्ट तो देह का है ।
श्रीरामकृष्ण शायद कुछ और कहें इसलिए दोनों प्रतीक्षा कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण – समझे ?
मास्टर धीरे धीरे हीरानन्द से कुछ कह रहे हैं । मास्टर – लोक-शिक्षा के लिए । उदाहरण सामने है कि इतने कष्ट के भीतर भी मन का संयोग सोलहों आने ईश्वर से हो रहा है ।
हीरानन्द - हाँ, जैसे ईशू को सूली देना । परन्तु रहस्य की बात तो यह है कि इन्हें इतना कष्ट क्यों मिला ?
मास्टर - ये जैसा कहते हैं - माता की इच्छा । यहाँ उनकी ऐसी ही लीला हो रही है ।
ये दोनों आपस में धीरे धीरे बातचीत कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण इशारा करके हीरानन्द से पूछ रहे हैं । हीरानन्द इशारा समझ नहीं सके । इसलिए श्रीरामकृष्ण फिर इशारा करके पूछ रहे हैं, 'वह क्या कहता है ?'
हीरानन्द - ये कहते हैं कि आपकी बीमारी लोक-शिक्षा के लिए है ।
श्रीरामकृष्ण - यह बात अनुमान की ही तो है ।
(मास्टर और हीरानन्द से) "अवस्था बदल रही है । सोच रहा हूँ, सब के लिए न कहूँ कि चैतन्य हो। कलिकाल में पाप अधिक है, वह सब पाप आ जाता है ।"
मास्टर (हीरानन्द से) - समय को बिना देखे हुए ये ऐसी बात न कहेंगे । जिसके लिए चैतन्य होने का समय आया है, उसे ही कहेंगे ।
(५)
[(23 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
प्रवृत्ति या निवृत्ति ? हीरानन्द के प्रति उपदेश।
हीरानन्द श्रीरामकृष्ण के पैरों पर हाथ फेर रहे हैं । पास ही मास्टर बैठे हैं । लाटू तथा अन्य दो-एक भक्त कमरे में आते-जाते हैं । आज शुक्रवार, 23 अप्रैल, 1886 है। दिन के 12-1 बजे का समय होगा । हीरानन्द ने आज यहीं भोजन किया है । श्रीरामकृष्ण की बड़ी इच्छा थी कि हीरानन्द यहीं रहें ।
हीरानन्द श्रीरामकृष्ण के पैरों पर हाथ फेरते हुए उनसे वार्तालाप कर रहे हैं । वैसी ही मधुर बातें, मुख हास्य और प्रसन्नता से भरा हुआ, - जैसे बालक को समझा रहे हों । श्रीरामकृष्ण अस्वस्थ हैं, डाक्टर सदा ही उन्हें देख रहे हैं ।
हीरानन्द - आप इतना सोचते क्यों हैं ? डाक्टर पर विश्वास करके निश्चिन्त हो जाइये । आप बालक तो हैं ही ।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - डाक्टर पर विश्वास कैसे होगा ? सरकार (डाक्टर) ने कहा है, बिमारी अच्छी न होगी ।
हीरानन्द - तो इतनी चिन्ता क्यों करते हैं ? जो कुछ होना है, होगा ।
मास्टर - (हीरानन्द से, एकान्त में) - ये अपने लिए कुछ नहीं सोच रहे हैं । इनकी शरीर-रक्षा भक्तों के लिए है ।
गर्मी जोरों की हो रही है । और फिर दोपहर का समय । खस की टट्टी लगायी गयी है । हीरानन्द उठकर टट्टी ठीक कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण देख रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (हीरानन्द से) - तो पाजामा भेज देना ।
हीरानन्द ने कहा है कि उसके देश (सिन्ध) का पाजामा पहनकर श्रीरामकृष्ण को आराम होगा । इसीलिए श्रीरामकृष्ण उन्हें पाजामा भेज देने की याद दिला रहे हैं ।
हीरानन्द का भोजन ठीक नहीं हुआ । चावल अच्छी तरह पके नहीं थे । श्रीरामकृष्ण को सुनकर बड़ा दुःख हुआ । बार बार उनसे जलपान करने के लिए कह रहे हैं । इतना कष्ट है कि बोल भी नहीं सकते, परन्तु फिर भी बार बार पूछ रहे हैं ।फिर लाटू से पूछ रहे हैं, 'क्या तुम लोगों को भी वही चावल दिया गया था ?'
श्रीरामकृष्ण कमर में कपड़ा नहीं सम्हाल सकते । प्रायः बालक की तरह दिगम्बर होकर ही रहते हैं । हीरानन्द के साथ दो ब्राह्म भक्त आये हुए हैं; इसीलिए एक-आध बार श्रीरामकृष्ण धोती को कमर की ओर खींच रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (हीरानन्द से) - धोती के खुल जाने पर क्या तुम लोग असभ्य कहते हो ?
हीरानन्द - आपको इससे क्या ? आप तो बालक हैं ।
श्रीरामकृष्ण (एक ब्राह्म भक्त प्रियनाथ की ओर उँगली उठाकर) - वे ऐसा कहते हैं ।
हीरानन्द अब बिदा होंगे । दो-एक रोज कलकत्ते में रहकर वे फिर सिन्ध देश जायेंगे । वे वहीं काम करते हैं । दो अखबारों के सम्पादक हैं । १८८४ ई. से लगातार चार साल तक उन्होंने सम्पादन कार्य किया था । उनके पत्रों के नाम थे - सिन्ध टाइम्स (Sindh Times) और सिन्ध-सुधार (Sindh Sudhar ) । हीरानन्द ने १८८३ ई. में बी. ए. की उपाधि प्राप्त की थी ।
श्रीरामकृष्ण - (हीरानन्द से) - वहाँ न जाओ तो ?
हीरानन्द (सहास्य) - वहाँ और कोई मेरा काम करनेवाला नहीं है । मुझे तो वहाँ नौकरी करनी पड़ती है ।
श्रीरामकृष्ण - क्या वेतन पाते हो ?
हीरानन्द - इन सब कामों में वेतन कम है ।
श्रीरामकृष्ण – कितना ?
हीरानन्द हँस रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - यहीं रहो न ।
हीरानन्द चुप हैं ।
श्रीरामकृष्ण - काम करके क्या होगा ?
हीरानन्द चुप हैं ।
थोड़ी देर और बातचीत करके हीरानन्द बिदा हुए ।
श्रीरामकृष्ण - कब आओगे ?
हीरानन्द - परसों सोमवार को देश जाऊँगा । सोमवार को सुबह आकर दर्शन करूँगा ।
(६)
[(23 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
*मास्टर, नरेन्द्र आदि के संग में*
मास्टर श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हुए हैं । हीरानन्द को गये अभी कुछ ही समय हुआ होगा ।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - बहुत अच्छा है, न ?
मास्टर - जी हाँ, स्वभाव बड़ा मधुर है ।
श्रीरामकृष्ण - उसने बतलाया २२ सौ मील - इतनी दूर से देखने आया है !
मास्टर - जी हाँ, बिना अधिक प्रेम के ऐसी बात नहीं होती ।
श्रीरामकृष्ण - मेरी बड़ी इच्छा है कि मुझे भी उस देश में कोई ले जाय ।
मास्टर - जाते हुए बड़ा कष्ट होगा, चार-पाँच दिन तक रेल पर बैठे रहना होगा ।
श्रीरामकृष्ण - तीन पास कर चुका है । (युनिवर्सिटी की तीन उपाधियाँ हैं ।)
मास्टर - जी हाँ ।
श्रीरामकृष्ण कुछ शान्त हैं, विश्राम करेंगे । श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - खिड़की की झंझरियों को खोल दो और चटाई बिछा दो ।मास्टर पंखा झल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण को नींद आ रही है ।
श्रीरामकृष्ण - (जरा सोकर, मास्टर से) - क्या मेरी आँख लगी थी ?
मास्टर - जी हाँ, कुछ लगी थी ।
नरेन्द्र, शरद, और मास्टर नीचे हॉल (Hall) के पूर्व ओर बातचीत कर रहे हैं ।
नरेन्द्र - कितने आश्चर्य की बात है ! इतने साल तक पढ़ने पर भी विद्या नहीं होती ! फिर किस तरह लोग कहते हैं कि 'मैंने दोन-तीन दिन साधना की; अब क्या, अब ईश्वर मिलेंगे !' ईश्वर-प्राप्ति क्या इतनी सीधी है ? (शरद से) तुझे शान्ति मिली है, मास्टर महाशय को भी शान्ति मिली है, परन्तु मुझे अभी तक शान्ति नहीं मिली ।
(७)
[(23 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
*केदार, सुरेन्द्र आदि भक्तों के संग में*
दिन का पिछला पहर है । ऊपरवाले हॉल में कई भक्त बैठे हुए हैं । नरेन्द्र, शरद, शशि, लाटू, नित्यगोपाल, गिरीश, राम, मास्टर और सुरेश आदि अनेक भक्त बैठे हुए हैं ।
केदार आये । बहुत दिनों के बाद वे श्रीरामकृष्ण को देखने आये हैं । वे अपने ऑफिस के कार्य के सम्बन्ध में ढाके में थे । वहाँ से श्रीरामकृष्ण की बीमारी का हाल पाकर आये हैं ।
केदार ने कमरे में प्रवेश करके श्रीरामकृष्ण की पदधूलि पहले अपने सिर पर धारण की, फिर आनन्दपूर्वक उसे औरों को भी देने लगे । भक्तगण नतमस्तक होकर उसे ग्रहण कर रहे हैं । केदार शरद को भी देने के लिए बढ़े, परन्तु उन्होंने स्वयं श्रीरामकृष्ण की धूलि लेकर मस्तक पर धारण की । यह देखकर मास्टर हँसने लगे । उनकी ओर देखकर श्रीरामकृष्ण भी हँसे ।
भक्तगण चुपचाप बैठे हुए हैं । इधर श्रीरामकृष्ण के भावावेश के पूर्वलक्षण प्रकट हो रहे हैं । रह-रहकर साँस छोड़ते हुए मानो वे भाव को दबाने की चेष्टा कर रहे हैं । अन्त में गिरीष घोष के साथ तर्क करने के लिए केदार के प्रति इशारा करने लगे । गिरीश अपने कान ऐंठ कर कह रहे हैं, "महाराज, कान पकड़ा । पहले मैं नहीं जानता था कि आप कौन हैं । उस समय जो मैंने तर्क किया, वह और बात थी ।" (श्रीरामकृष्ण हँसते हैं)
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र की और उँगली उठाकर इशारा करते हुए केदार से कह रहे हैं - "इसने सर्वस्व का त्याग कर दिया है । (भक्तों से) केदार ने नरेन्द्र से कहा था, 'अभी चाहे तर्क करो और विचार करो, परन्तु अन्त में ईश्वर का नाम लेकर धूलि में लोटना होगा ।' (नरेन्द्र से) केदार के पैरों को धूलि लो ।"
केदार - (नरेन्द्र से) - उनके पैरों की धूलि लो, इसी से हो जायगा ।
सुरेन्द्र भक्तों के पीछे बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण ने जरा मुस्कराकर उनकी ओर देखा । केदार से कह रहे हैं, “अहा ! कैसा स्वभाव है !” केदार श्रीरामकृष्ण का इशारा समझकर सुरेन्द्र की ओर बढ़कर बैठे ।
सुरेन्द्र जरा अभिमानी हैं । भक्तों में से कुछ लोग बगीचे के खर्च के लिए बाहर के भक्तों के पास से अर्थ-संग्रह करने गये थे । इस पर सुरेन्द्र को बड़ा दुःख है । बगीचे का अधिकतर खर्च सुरेन्द्र ही देते हैं ।
सुरेन्द्र - (केदार से) - इतने साधुओं के बीच मैं क्या बैठूँ ! और कोई कोई (नरेन्द्र) तो कुछ दिन हुए, संन्यासी बनकर बुद्ध-गया गये हुए थे, - बड़े बड़े साधुओं के दर्शन करने ।
श्रीरामकृष्ण सुरेन्द्र को शान्त कर रहे हैं । कह रहे हैं, "हाँ, वे अभी बच्चे हैं, अच्छी तरह समझ नहीं सकते ।"
सुरेन्द्र - (केदार से) - क्या गुरुदेव जानते नहीं, किसका क्या भाव है ? वे रुपये से नहीं, वे तो भाव लेकर सन्तुष्ट होते हैं ।
श्रीरामकृष्ण सिर हिलाकर सुरेन्द्र की बात का समर्थन कर रहे हैं । 'भाव लेकर सन्तुष्ट होते हैं' इस कथन को सुनकर केदार भी प्रसन्न हुए ।
भक्तों ने मिठाइयाँ लाकर श्रीरामकृष्ण के सामने रखीं । उनमें से एक छोटासा टुकड़ा ग्रहण करके श्रीरामकृष्ण ने सुरेन्द्र के हाथ में प्रसाद की थाली दी और कहा, 'दूसरे भक्तों को भी प्रसाद दे दो ।' सुरेन्द्र नीचे गये । प्रसाद नीचे ही दिया जायगा ।
श्रीरामकृष्ण (केदार से) - तुम समझा देना । जाओ बकझक करने की मनाही कर देना ।
मणि पंखा झल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण ने पूछा, 'क्या तुम नहीं खाओगे ?' उन्होंने प्रसाद पाने के लिए नीचे मणि को भी भेज दिया ।
सन्ध्या हो रही है । गिरीश और श्री 'म' (मास्टर) तालाब के किनारे टहल रहे हैं ।
गिरीश - क्यों जी, सुना है, तुमने श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में कुछ लिखा है ?
[# श्री रामकृष्ण की मृत्यु के बाद एम. ने श्रीरामकृष्ण के साथ अपनी बातचीत के नोट्स पाँच खंडों में प्रकाशित किए। द गॉस्पेल ऑफ श्री रामकृष्ण (^The Gospel of Sri Ramakrishna) श्री रामकृष्ण का सुसमाचार) मूल बंगाली से इन पुस्तकों का अंग्रेजी अनुवाद है।]
श्री 'म' - किसने कहा आपसे ?
गिरीश - मैंने सुना है । क्या मुझे दोगे - पढ़ने के लिए ?
श्री 'म' - नहीं, जब तक मैं यह न समझ लूँ कि किसी को देना उचित है, मैं न दूँगा । वह मैंने अपने लिए लिखा है, किसी दूसरे के लिए नहीं ।
गिरीश - क्या बोलते हो ?
'श्री 'म' - जब मेरा देहान्त हो जायगा तब पाओगे ।
“श्रीरामकृष्ण - अहेतुक कृपासिन्धु”
सन्ध्या होने पर श्रीरामकृष्ण के कमरे में दीपक जलाये गये । ब्राह्मभक्त श्रीयुत अमृत बसु उन्हें देखने के लिए आये हैं । श्रीरामकृष्ण उन्हें देखने के लिए पहले ही से उत्सुक थे । मास्टर तथा दो चार भक्त और बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण के सामने केले के पत्ते में बेला और जुही की मालाएँ रखी हुई हैं । कमरे में सन्नाटा छाया है । एक महायोगी मानो चुपचाप योगयुक्त होकर बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण एक-एक बार मालाओं को उठा रहे हैं । जैसे गले में डालना चाहते हो ।
अमृत - (सस्नेह) - क्या मालाएँ पहना दूँ ?
मालाएँ पहन लेने पर श्रीरामकृष्ण अमृत से बड़ी देर तक बातचीत करते रहे । अमृत अब चलनेवाले हैं ।
श्रीरामकृष्ण - तुम फिर आना ।
अमृत - जी, आने की तो बड़ी इच्छा है । बड़ी दूर से आना पड़ता है, इसलिए हमेशा मैं नहीं आ सकता ।
श्रीरामकृष्ण - तुम आना, यहाँ से बग्घी का किराया ले लिया करना ।
अमृत के लिए श्रीरामकृष्ण का यह अकारण स्नेह देखकर भक्तगण आश्चर्यचकित हो गये ।
दूसरे दिन शनिवार हैं, २४ अप्रैल । श्री 'म' अपनी स्त्री तथा सात साल के लड़के को लेकर श्रीरामकृष्ण के पास आये हैं । एक साल हुआ, उनके एक आठ वर्ष के लड़के का देहान्त हो गया है । उनकी स्त्री तभी से पागल की तरह हो गयी है । इसीलिए श्रीरामकृष्ण कभी कभी उसे आने के लिए कहते हैं ।
रात को श्रीमाताजी ऊपरवाले कमरे में श्रीरामकृष्ण को भोजन कराने के लिए आयी । श्री 'म' की स्त्री उनके साथ साथ दीपक लेकर गयी ।
भोजन करते हुए श्रीरामकृष्ण उससे घर-गृहस्थी की बातें पूछने लगे । फिर उन्होंने कुछ दिन श्रीमाताजी के पास आकर रहने के लिए कहा, इसलिए कि इससे उसका शोक बहुत-कुछ घट जायगा । उसके एक छोटी लड़की थी । श्रीमाताजी उसे मानमयी कहकर पुकारती थीं । श्रीरामकृष्ण ने उसे भी ले आने के लिए कहा ।
श्रीरामकृष्ण के भोजन के पश्चात् श्री 'म' की स्त्री ने उस जगह को साफ कर दिया । श्रीरामकृष्ण के साथ कुछ देर तक बातचीत हो जाने के बाद श्रीमाताजी जब नीचे के कमरे में गयीं, तब श्री 'म' की स्त्री भी उन्हें प्रणाम करके नीचे चली आयी।
रात के नौ बजे का समय हुआ । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ उसी कमरे में बैठे हैं । गले में फूलों की माला पड़ी हुई है । श्री 'म' पंखा झल रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण गले से माला हाथ में लेकर अपने-आप कुछ कह रहे हैं । उसके पश्चात् प्रसन्न होकर उन्होंने श्री 'म' को वह माला दे दी ।
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