परिच्छेद- ११६
श्रीरामकृष्ण तथा अहंकार का त्याग
(१)
🔱🙏श्रीरामकृष्ण की ज्ञान तथा भक्ति की अवस्था🔱🙏
श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर में उसी परिचित कमरे में विश्राम कर रहे हैं । आज शनिवार है, १३ जून १८८५, जेठ की शुक्ला प्रतिपदा; जेठ की संक्रान्ति । दिन के तीन बजे होंगे । श्रीरामकृष्ण भोजन के बाद तखत पर जरा विश्राम कर रहे हैं । एक पण्डितजी जमीन पर चटाई पर बैठे हुए हैं । शोक से विह्वल एक ब्राह्मणी कमरे के उत्तर तरफवाले दरवाजे के पास खड़ी हुई है । किशोरी भी हैं । मास्टर ने आकर प्रणाम किया । साथ में द्विज आदि हैं । अखिलबाबू के पड़ोसी भी बैठे हुए हैं । उनके साथ आसाम का एक लड़का अभी पहले-पहल आया हुआ है ।
श्रीरामकृष्ण कुछ अस्वस्थ हैं । गले में गिलटी पड़ गयी है, कुछ जुकाम भी हो गया है । उनकी गले की बीमारी बस यहीं से शुरू होती है । अधिक गरमी पड़ने के कारण मास्टर का भी शरीर अस्वस्थ रहता है । श्रीरामकृष्ण के दर्शन के लिए वे इधर लगातार दक्षिणेश्वर नहीं आ सके ।
श्रीरामकृष्ण - यह लो तुम तो आ गये । तुमने जो बेल भेजा था वह बड़ा अच्छा था । तुम कैसे हो ?
मास्टर - जी, पहले से अब कुछ अच्छा हूँ ।
श्रीरामकृष्ण - बड़ी गरमी पड़ रही है । कुछ कुछ बर्फ खाया करो । "गरमी से मुझे भी बड़ा कष्ट हो रहा है । गरमी में कुलफी बर्फ - यह सब बहुत खाया गया । इसीलिए गले में गिलटी पड़ गयी है । गले से बड़ी बदबू निकल रही है ।
"माँ से मैंने कहा, अच्छा कर दो, अब कुलफी बर्फ न खाऊँगा ।
"इसके बाद यह भी कहा है कि बर्फ न खाऊँगा । "
माँ से जब कह दिया है कि अब न खाऊँगा तो खाना अवश्य ही न होगा । परन्तु एकाएक भूल भी ऐसी हो जाती है ।
एक बार मैंने कहा था कि मैं रविवार को मछली नहीं खाऊंगा; लेकिन एक रविवार को मैं भूल गया और मछली खा ली। लेकिन मैं होशपूर्वक (जानते हुए) अपने वचन से मैं पीछे नहीं हट सकता। उस दिन गडुआ लेकर एक आदमी को झाऊतल्ले की ओर आने के लिए मैंने कहा । उस समय वह जंगल गया था, इसलिए एक दूसरा आदमी ले आया । मैंने जंगल से आकर देखा, एक दूसरा ही आदमी गडुआ लिए हुए खड़ा था । अब क्या करूँ ? हाथ में मिट्टी लगाये खड़ा रहा जब तक उसी ने आकर पानी नहीं दिया ।
"माता के पादपद्मों में फूल चढ़ाकर जब मैं सब कुछ त्याग करने लगा तब कहा, 'माँ, यह लो अपनी शुचिता और यह लो अशुचिता; यह लो अपना धर्म और यह लो अधर्म; यह लो अपना पाप और यह लो पुण्य; यह लो अपना भला और यह लो बुरा, - मुझे शुद्धा भक्ति दो ।' परन्तु यह लो अपना सत्य और यह अपना असत्य, यह मैं नहीं कह सका !"
एक भक्त बर्फ ले आये हैं । श्रीरामकृष्ण बार बार मास्टर से पूछ रहे हैं 'क्यों जी, क्या खा लूँ ?’
मास्टर ने विनयपूर्वक कहा, 'तो आप माँ की आज्ञा बिना लिये न खाइये ।' श्रीरामकृष्ण ने अन्त में बर्फ नहीं खायी ।
”श्रीरामकृष्ण - शुचिता और अशुचिता का विचार भक्त के लिए है, ज्ञानी के लिए नहीं । विजय की सास ने कहा, 'मेरा क्या हुआ ? अब भी तो मैं सब की जूठन नहीं खा सकती ।' मैंने कहा, सब की जूठन खाने ही से ज्ञान होता है ? कुत्ते जो पाते हैं वही खा लेते हैं, इसलिए क्या कुत्ते को बड़ा ज्ञानी कहें ?
(मास्टर से) "मैं पाच तरह की तरकारियाँ इसलिए खाया करता हूँ कि सब तरह की रुचि रहे - कहीं एक ही ढर्रे में पड़ गया तो इन्हें (भक्तों को) छोड़ न देना पड़े ।
"केशव सेन से मैंने कहा, 'और भी बढ़कर अगर बातचीत की जायेगी तो तुम्हारा यह दल फिर न रह जायेगा । ज्ञान की अवस्था में दल-बल सब स्वप्नवत् मिथ्या हैं ।'
"एक बार मैंने मछली खाना भी छोड़ दिया था। शुरू-शुरू में थोड़ी परेशानी महसूस हुई, बाद में कुछ परेशानी नहीं रही। पक्षी का घोंसला अगर कोई जला देता है, तो वह उड़ता फिरता है, आकाश में आश्रय लेता है । किसी व्यक्ति को जब सचमुच यह अनुभव होता है कि शरीर और संसार है ही नहीं -उस समय उसकी आत्मा समाधि को प्राप्त हो जाती है।
"पहले मेरी ज्ञानी की अवस्था थी । आदमी अच्छे नहीं लगते थे । हाटखोला में एक ज्ञानी है अथवा अमुक स्थान पर एक भक्त है, इस तरह की बात मैं सुनता था; फिर कुछ दिन में सुनता, वह तो गुजर गया । इसीलिए आदमी अच्छे नहीं लगते थे । फिर उन्होंने (जगदम्बा ने) मन को उतारा, भक्ति और भक्तों में मन को लगा दिया ।"
मास्टर अवाक् हैं । श्रीरामकृष्ण की अवस्थाओं के बदलने की बातें सुन रहे हैं । अब श्रीरामकृष्ण यह बतला रहे हैं कि ईश्वर आदमी होकर क्यों अवतार लेते हैं ।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - भगवान मनुष्य-रूप में क्यों अवतार लेते हैं, जानते हो ? नरदेह के भीतर उनकी बातें सुनने को मिलती हैं । इसके भीतर उनका विलास है, इसके भीतर वे रसास्वादन करते हैं ।
"और अन्य सब भक्तों में उनका थोड़ा-थोड़ा सा प्रकाश हैं । जैसे किसी चीज को खूब चूसने पर कुछ रस मिलता है, अथवा फूल को चूसने पर कुछ मधु । (मास्टर से) तुम यह बात समझे ?"
मास्टर - जी हाँ, मैं खूब समझा।
श्रीरामकृष्ण द्विज के साथ बातचीत कर रहे हैं । द्विज की उम्र १५-१६ साल की है । उनके पिता ने अपना दूसरा विवाह किया है । द्विज प्राय: मास्टर के साथ आया करते हैं । श्रीरामकृष्ण उन पर स्नेह करते हैं । द्विज कह रहे हैं कि उनके पिता उन्हें दक्षिणेश्वर नहीं आने देते ।
श्रीरामकृष्ण (द्विज से) - क्या तेरे भाई भी मुझे अवज्ञा की दृष्टि से देखते हैं ?
द्विज चुप हैं ।
मास्टर - संसार की कुछ ठोकरें खाने पर जिनमें कुछ अवज्ञा है भी वह भी दूर हो जायेगी ।
श्रीरामकृष्ण - विमाता हैं, धक्के तो मिलते ही होंगे ।
सब कुछ देर चुप रहे ।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - पूर्ण के साथ इसे तुम मिला क्यों नहीं देते ?
मास्टर - जी हाँ, मिला दूँगा । (द्विज से) पानीहाटी जाना ।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, इसीलिए मैं सबसे कहा करता हूँ - इसे भेज देना, उसे भेज देना । (मास्टर से) तुम जाओगे या नहीं ?
श्रीरामकृष्ण पानीहाटी के महोत्सव में जायेंगे । इसीलिए भक्तों से वहाँ जाने की बात कह रहे हैं ।
मास्टर - जी हाँ, इच्छा तो है ।
श्रीरामकृष्ण - बड़ी नाव किराये से ले ली जायेगी । वह डाँवाडोल न होगी । गिरीश घोष क्या नहीं जायेगा ?
श्रीरामकृष्ण एक दृष्टि से द्विज को देख रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - अच्छा इतने लड़के हैं, उनमें यही आता है - यह क्यों ? (म की देखकर) तुम कहो कि तुम क्या सोचते हो ? - पहले का कुछ जरूर रहा होगा ।
मास्टर - जी हाँ, बेशक !
श्रीरामकृष्ण - संस्कार (जन्मजात प्रवृत्ति)। गतजन्म में कर्म किया हुआ है । अन्तिम जन्म में मनुष्य निष्कपट होता है। अन्तिम जन्म में पागलपन का भाव रहता है ।
"परन्तु है यह उनकी इच्छा । उनकी 'हाँ' से संसार के कुछ काम होते हैं और उनकी 'ना' से होनहार भी बन्द हो जाता है । इसीलिए तो आदमी को आशीर्वाद नहीं देना चाहिए ।"मनुष्य की इच्छा से कुछ नहीं होता । उन्हीं की इच्छा से 'होता' 'जाता' है।
"उस दिन मैं कप्तान के यहाँ गया था । देखा, रास्ते से कुछ लड़के जा रहे थे । वे सब एक खास तरह के थे । एक लड़के को मैंने देखा, उन्नीस या बीस साल की उम्र रही होगी, बाल सँवारे हुए था, सीटी बजाता हुआ चला जा रहा था । कोई 'नगेन्द्र - क्षीरोद' कहता हुआ चल रहा था । देखा, कोई तमोगुण में पड़ा हुआ है, बाँसुरी बजा रहा है, उसी के कारण कुछ अहंकार हो गया है ।
(द्विज से) जिसे ज्ञान हो गया है, उसे निन्दा की क्या परवाह है ? उसकी बुद्धि कूटस्थ है - लौहार की निहाई जैसे, उस पर कितनी ही चोट पड़ चुकी, परन्तु उसका कहीं कुछ नहीं बिगड़ा ।
"मैंने (अमुक के) बाप को देखा, रास्ते से चला जा रहा था ।"
मास्टर - बड़ा सरल आदमी है ।
श्रीरामकृष्ण - परन्तु आँखें लाल रहती हैं ।
श्रीरामकृष्ण कप्तान के यहाँ गये हुए थे । वहीं की बातें कर रहे हैं । जो लड़के श्रीरामकृष्ण के पास आते हैं, कप्तान ने उनकी निन्दा की थी । हाजरा महाशय ने कप्तान के पास उनकी निन्दा की होगी ।
श्रीरामकृष्ण - कप्तान से बातें हो रही थीं । मैंने कहा, पुरुष और प्रकृति के सिवा और कुछ भी नहीं है । नारद ने कहा था, 'हे राम, जितने पुरुष देखते हो सब में तुम्हारा अंश है, और जितनी स्त्रियाँ देखते हो सब में सीता का अंश है ।’
"कप्तान को बड़ी प्रसन्नता हुई । उसने कहा, ‘आप ही को यथार्थ बोध हुआ है । सब पुरुष राम के अंश से हुए अतएव राम हैं और सब स्त्रियाँ सीता के अंश से हुई अतएव सीता हैं । फिर थोड़ी ही देर में वह लड़कों की निन्दा करने लगा ।
कहा, 'वे लोग अंग्रेजी पढ़ते हैं, जो पाते हैं वहीं खाते हैं, - वे लोग आपके पास सर्वदा जाते हैं, यह अच्छा नहीं । इससे आप पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है । हाजरा ही एक सच्चा आदमी है । लड़को को अपने पास अधिक आने-जाने न दिया कीजिये । पहले तो मैंने कहा, 'आते हैं - मैं क्या कहूँ?’
"फिर मैंने उसे खूब सुनाया । उसकी लड़की हँसने लगी । मैंने कहा, 'जिसमें विषय-बुद्धि है, उससे ईश्वर बहुत दूर हैं । विषय-बुद्धि अगर न रही तो ईश्वर उस आदमी की मुट्ठी में हैं - बहुत निकट हैं ।'
कप्तान ने राखाल की बात पर कहा, 'वह सब के यहाँ खाता है । हाजरा से उसने सुना होगा।' तब मैंने कहा, 'कोई चाहे लाख जप-तप करे, यदि उसमें विषय-बुद्धि है तो कहीं कुछ न होगा, और शूकर-मांस खाने पर भी अगर किसी का मन ईश्वर पर है तो वह मनुष्य धन्य है । क्रमशः ईश्वर की प्राप्ति उसे होगी ही । हाजरा इतना जप-तप करता है परन्तु भीतर दलाली करने की फिक्र में रहता है ।
"तब कप्तान ने कहा, 'हाँ, यह बात तो ठीक है ।' मैंने कहा, 'अभी अभी तो तुमने कहा, - सब पुरुष राम के अंश से हुए अतएव राम हैं, और सब स्त्रियाँ सीता के अंश से हुई अतएव सीता हैं, इस तरह कहकर अब ऐसी बात कह रहे हो ?
"कप्तान ने कहा, 'हाँ ठीक है - मगर आप भी तो सब को प्यार नहीं करते ।’
मैंने कहा, " शास्त्रों के अनुसार 'आपो नारायण' - अर्थात पानी भगवान है। परन्तु कोई जल पिया जाता है, किसी से बरतन धोये जाते हैं, कोई शौच के काम आता है । यह जो तुम्हारी 'स्त्री' और 'बेटी' बैठी हुई हैं, लेकिन मैं देख रहा हूँ, ये साक्षात् आनन्दमयी हैं ।’ कप्तान कहने लगा, ‘हाँ हाँ, यह ठीक है ।' तब मेरे पैर पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाने लगा ।"
यह कहकर श्रीरामकृष्ण हँसने लगे । अब श्रीरामकृष्ण कप्तान के गुणों की बात कह रहे हैं ।श्रीरामकृष्ण - कप्तान में बहुत से गुण हैं । रोज नित्य-कर्म करता है, स्वयं देवता की पूजा करता है। नहाते समय कितने ही मन्त्र जपा करता है । कप्तान एक बहुत बड़ा कर्मी है । पूजा, जप, आरती, पाठ, ये सब नित्यकर्म हमेशा किया करता है ।
“फिर मैं कप्तान को सुनाने लगा । मैंने कहा, ‘पढ़कर ही तुमने सब मिट्टी में मिलाया, अब हरगिज न पढ़ना ।’
"मेरी अवस्था के सम्बन्ध में कप्तान ने कहा, 'यह आसमान में चक्कर मारनेवाला भाव है ।' जीवात्मा और परमात्मा, जीवात्मा एक पक्षी है और परमात्मा आकाश – चिदाकाश । कप्तान कहता है, 'तुम्हारा जीवात्मा चिदाकाश में उड़ जाता है, इसीलिए समाधि होती है । (हँसकर) कप्तान ने बंगालियों की निन्दा की । कहा, 'बंगाली बेवकूफ हैं । पास ही मणि है और उन लोगों ने न पहचाना !’
“कप्तान का बाप बड़ा भक्त था । अंग्रेजों की फौज में सूबेदार था, एक हाथ से शिव की पूजा करता था और दूसरे से बन्दूक चलाता था ।
(मास्टर से) "परन्तु बात यह है कि विषय के कामों में दिन-रात फँसा रहता है । जब जाता हूँ, देखता हूँ, बीबी और बच्चे घेरे रहते हैं । और कभी कभी हिसाब की बही भी लोग ले आते हैं । परन्तु कभी कभी ईश्वर की ओर भी मन जाता है ।
जैसे सन्निपात का रोगी, विकार-ग्रस्त बना ही रहता है परन्तु कभी जब होश में आता है, तब ‘पानी पिऊँगा, पानी पिऊँगा' कहकर चिल्ला उठता है । पर उसे जब तक पानी दो तब तक वह फिर बेहोश हो जाता है । इसीलिए मैंने उससे कहा, तुम कर्मकाण्डी हो । कप्तान ने कहा, 'जी, मुझे तो पूजा आदि के करने में ही आनन्द आता है । सांसारी गृहस्थों के लिए कर्म के सिवा और उपाय भी नहीं है ।'
"मैंने कहा, 'तो क्या सदा ही कर्म (औपचारिक कर्म-काण्ड) करते रहना होगा ? मधुमक्खी तभी तक भन्भन् करती है जब तक वह फूल पर नहीं बैठ जाती । मधु पीते समय भन्भन् करना छूट जाता है ।' कप्तान ने कहा, 'आपकी तरह हम लोग पूजा और कर्म छोड़ थोड़े ही सकते हैं ?' परन्तु उसकी बात कुछ ठीक नहीं रहती । कभी तो कहता है, 'यह सब जड़ है' और कभी कहता है, 'सब चैतन्य है ।' पर मैं कहता हूँ, 'जड़ कहाँ हैं ? सभी कुछ तो चैतन्य है ।’ ”
श्रीरामकृष्ण मास्टर से पूर्ण की बात पूछने लगे ।
श्रीरामकृष्ण - पूर्ण को एक बार और देख लूँ तो मेरी व्याकुलता कम हो जाय । कितना चतुर है ! - मेरी ओर आकर्षण भी खूब है ।
"वह कहता है, 'आपको देखने के लिए मेरे हृदय में भी न जाने कैसा हुआ करता है ।'
(मास्टर से) "तुम्हारे स्कूल से उसके घरवालों ने उसे निकाल लिया, इससे तुम्हारे ऊपर कुछ बात तो न आयेगी ?"
मास्टर - अगर वे (विद्यासागर-स्कूल के संस्थापक) कहें – ‘तुम्हारे चलते उसको स्कूल से निकाल लेना पड़ा’ - तो मेरे पास भी कुछ जवाब है।
श्रीरामकृष्ण - क्या कहोगे ?
MASTER: "What will you say?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — কি বলবে?
मास्टर - यही कहूँगा कि साधुओं के साथ ईश्वर-चिन्ता होती है, यह कोई बुरा कर्म नहीं, और आप लोगों ने जो पुस्तक पढ़ाने के लिए दी है, उसी में है - ईश्वर को हृदय खोलकर प्यार करना चाहिए। (श्रीरामकृष्ण हँसने लगे)
श्रीरामकृष्ण - कप्तान के यहाँ छोटे नरेन्द्र को मैंने बुलाया । पूछा, 'तेरा घर कहाँ है ? चल चलें ।' उसने कहा, 'चलिये ।' परन्तु डरता हुआ साथ जा रहा था कि कहीं बाप को खबर न लग जाय । (सब हँसते हैं)
(अखिलबाबू के पड़ोसी से) "क्यों जी, तुम बहुत दिनों से नहीं आये, सात-आठ महीने तो हुए होंगे?"
पड़ोसी - जी, एक साल हुआ होगा ।
श्रीरामकृष्ण - तुम्हारे साथ एक और आते थे ।
पड़ोसी - जी हाँ, नीलमणिबाबू ।
श्रीरामकृष्ण - वे सब क्यों नहीं आते ? - एक बार उनसे आने के लिए कहना - उनसे मुलाकात करा देना । (पड़ोसी के साथ के बच्चे को देखकर) यह बच्चा कौन है ?
पड़ोसी - यह आसाम का है ।
श्रीरामकृष्ण - आसाम कहाँ है ? किस ओर है ?
द्विज आशुतोष की बात करने लगे । कहा, 'आशुतोष के पिता उसका विवाह करनेवाले हैं, परन्तु उसकी इच्छा नहीं है ।'
श्रीरामकृष्ण - देखो तो, उसकी इच्छा नहीं है और बलपूर्वक उसका विवाह किया जाता है ।
श्रीरामकृष्ण एक भक्त से बड़े भाई पर भक्ति करने के लिए कह रहे हैं । कहा - बड़ा भाई पिता से समान होता है, उसका बड़ा सम्मान करना चाहिए ।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
(२)
🔱🙏श्रीरामकृष्ण तथा श्रीराधिका-तत्त्व। जन्ममृत्यु-तत्त्व 🙏
पण्डितजी बैठे हुए हैं । वे उत्तर प्रदेश के हैं ।
श्रीरामकृष्ण (हँसकर, मास्टर से) - भागवत (वेदान्त भाष्य) के ये बड़े अच्छे पण्डित हैं ।' मास्टर और भक्तगण एकदृष्टि से पण्डितजी को देख रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (पण्डितजी से) - क्यों जी, 'योगमाया' क्या है ? पण्डितजी ने योगमाया की एक तरह की व्याख्या की ।
श्रीरामकृष्ण - 'राधिका' को योगमाया क्यों नहीं कहते ?
पण्डितजी ने इस प्रश्न का उत्तर भी एक खास तरह का दिया ।
तब श्रीरामकृष्ण ने कहा - "राधिका विशुद्ध सत्त्व की थीं - वे प्रेममयी थीं। योगमाया के भीतर तीनों गुण हैं, सत्त्व, रज और तम; परन्तु राधिका के भीतर शुद्ध सत्त्व के सिवाय और कुछ न था । (मास्टर से) नरेन्द्र अब श्रीमती को बहुत मानता है । वह कहता है, 'सच्चिदानन्द को प्यार करने की शिक्षा अगर किसी को लेनी है तो राधिका से लेनी चाहिए ।’
"सच्चिदानन्द ने स्वयं ही अपना रसास्वादन करने के लिए राधिका की सृष्टि की थी । राधिका सच्चिदानन्द कृष्ण के अंग से निकली थीं । 'आधार' सच्चिदानन्द कृष्ण ही हैं और श्रीमती के रूप में स्वयं ही 'आधेय' हैं - अपना रसास्वादन करने के लिए अर्थात् सच्चिदानन्द को प्यार करके आनन्द-सम्भोग करने के लिए ।
"इसीलिए वैष्णवों के ग्रन्थ में है, राधा ने जन्मग्रहण के बाद आँखें नहीं खोली थीं । यह भाव था कि इन आँखो से और किसे देखूँ ! राधिका को देखने के लिए यशोदा जब कृष्ण को गोद में लेकर गयी थीं, तब उन्होंने कृष्ण को देखने के लिए आँखें खोली थीं । कृष्ण ने क्रीड़ा के बहाने राधिका की आँखों पर हाथ फेरा था । (नये आये हुए आसाम के लड़के से) तूने देखा है, छोटा-सा बच्चा दूसरों की आँखों पर हाथ फेरता है ?"
पण्डितजी बिदा होने लगे ।
पण्डितजी - मैं घर जाऊँगा ।
श्रीरामकृष्ण (सस्नेह) - कुछ प्राप्त हुआ ?
पण्डितजी - भाव गिरा हुआ है - रोजगार नहीं चलता ।
कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके पण्डितजी बिदा हुए ।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - देखो, विषयी लोगों और बच्चों में कितना अन्तर है । यह पण्डित दिन-रात रुपया-रुपया कर रहा है । पेट के लिए कलकत्ता आया हुआ है । नहीं तो घर के आदमियों को भोजन नहीं मिलता । इसीलिए इसके-उसके दरवाजे दौड़ना पड़ता है । मन को एकाग्र करके ईश्वर की चिन्ता कब करे ? परन्तु लड़कों में कामिनी और कांचन नहीं है । इच्छा करने से ही ये ईश्वर पर मन लगा सकते हैं ।
"लड़के विषयी मनुष्यों का संग पसन्द भी नहीं करते । राखाल कहता था, 'विषयी आदमी को आते हुए देखकर भय होता है ।’"मुझे जब पहले-पहल यह अवस्था हुई तब विषयी आदमी को आते हुए देखकर कमरे का दरवाजा बन्द कर लेता था ।
"कामारपुकुर में श्रीराम मल्लिक को इतना मैं प्यार करता था, परन्तु जब वह यहाँ आया तब उसे छू भी न सका ।
श्रीराम से बचपन में बड़ा मेल था । दिनरात हम दोनों एक साथ रहते थे । एक साथ सोते थे । तब सोलह-सत्रह साल की उम्र थी । लोग कहते थे, इनमें से अगर एक औरत होता तो साथ ही विवाह भी हो जाता । उसके घर में हम दोनों खेलते थे । उस समय की सब बातें याद आ रही हैं । उनके सम्बन्धी पालकी पर चढ़कर आया करते थे, कहार 'हिजोड़ा हिजोड़ा' कहा करते थे ।
"श्रीराम को देखने के लिए कितने ही बार मैंने बुला भेजा । अब चानक में उसने दूकान खोली है । उस दिन आया था, यहाँ दो दिन रहा था ।
'श्रीराम ने कहा, 'मेरे तो लड़के-बाले नहीं हुए, भतीजे को पालकर आदमी कर रहा था कि वह भी गुजर गया ।' कहते ही कहते श्रीराम ने लम्बी साँस छोड़ी, आँखों में पानी भर आया । भतीजे के लिए दुःख करने लगा ।
"फिर उसने कहा, 'लड़का नहीं हुआ था, इसलिए स्त्री का पूरा प्यार उसी भतीजे पर पड़ा था । अब वह शोक से अधीर हो रही है । मैं उसे बहुत समझाता हूँ, पगली, अब शोक करने से क्या होगा ? तू वाराणसी जायेगी ?’"अपनी स्त्री को वह पागल कहता था । भतीजे के लिए दुःख करने से वह एकदम dilute हो गया (गल गया) ।
"मैं उसे छू नहीं सका । देखा, उसमें कोई माद्दा (तत्त्व) नहीं है ।"
श्रीरामकृष्ण शोक के सम्बन्ध में यही सब बातें कह रहे हैं । इधर कमरे के उत्तर ओरवाले दरवाजे के पास वह शोक-विह्वल ब्राह्मणी खड़ी हुई है । ब्राह्मणी विधवा है । उसके एक मात्र लड़की थी । उसका विवाह बहुत बड़े घराने में हुआ था । उस लड़की के पति राजा की उपाधि पाये हुए हैं ।कलकते में रहते हैं, जमींदार हैं । लड़की जब अपने मायके आती थी, तब साथ सशस्त्र सिपाही (Z-श्रेणी की सरकारी सुरक्षा मिली हुई थी liveried footmen) पालकी के आगे-पीछे लगे हुए आते थे । माता की छाती उस समय गज भर की हो जाती थी । वह एकलौती लड़की, कुछ दिन हुए, गुजर गयी है ।
ब्राह्मणी खड़ी हुई भतीजे के वियोग से राम मल्लिक की क्या दशा थी, सुन रही थी । कई दिनों से वह लगातार बागबाजार से पागल की तरह श्रीरामकृष्ण के पास दौड़ी हुई आती थी, इसलिए कि अगर कोई उपाय हो जाय - अगर वे इस दुर्जेय शोक के निराकरण की कोई व्यवस्था कर दें। श्रीरामकृष्ण फिर बातचीत करने लगे -
(ब्राह्मणी और भक्तों से) “एक आदमी यहाँ आया था । कुछ देर बैठने के बाद कहा, 'जाऊँ, जरा बच्चे का चाँदमुख भी देखूँ ?’
"तब मुझसे नहीं रहा गया । मैंने कहा, 'क्या कहा रे, उठ यहाँ से, ईश्वर के चाँदमुख से बढ़कर बच्चे का चाँदमुख ?’
(मास्टर से) "बात यह है कि ईश्वर (जादूगर) ही सत्य है और सब अनित्य जीव-जगत्, घर-द्वार, लड़के-बच्चे, यह सब बाजीगर का इन्द्रजाल है । बाजीगर डण्डे से ढोल पीटता है और कहता है, 'देख तमाशा मेरा - तू देख तमाशा मेरा ।' .... आबरा का डाबरा-छू ! बस, घड़े का ढक्कन खोला नहीं कि कुछ पक्षी उसमें से निकलकर आकाश में उड़ गये । परन्तु बाजीगर ही सत्य है और सब अनित्य - अभी है, थोड़ी देर में गायब ।
"कैलास में शिव बैठे हुए थे । पास ही नन्दी थे । उसी समय एक बहुत भयानक शब्द हुआ । नन्दी ने पूछा, 'भगवन्, यह कैसी आवाज है ?’ शिव ने कहा, "रावण पैदा हुआ है, यह उसी की आवाज है । कुछ देर बाद फिर एक आवाज आयी । नन्दी ने पूछा, ‘यह कैसी आवाज है ?’ शिव ने हँसकर कहा, 'यह रावण मारा गया ।' जन्म और मृत्यु, यह सब इन्द्रजाल-सा है । अभी है, अभी गायब ! ईश्वर ही सत्य हैं और सब अनित्य । पानी ही सत्य है, पानी के बुलबुले अभी हैं, अभी नहीं - बुलबुले पानी में ही मिल जाते हैं, - जिस जल से उनकी उत्पत्ति होती है, उसी जल में अन्त में वे लीन भी हो जाते हैं ।
"ईश्वर महासमुद्र हैं, जीव बुलबुले; उसी में पैदा होते हैं, उसी में लीन हो जाते हैं । लड़के-बच्चे एक बड़े बुलबुले के साथ मिले हुए कई छोटे छोटे बुलबुले हैं ।
“ईश्वर ही सत्य है । उन पर कैसे भक्ति हो ? उन्हें किस तरह प्राप्त किया जाय, इस समय यही चेष्टा करो । शोक करने से क्या होगा ?"
सब चुप हैं । ब्राह्मणी ने कहा, 'तो अब मैं जाऊँ ?’
श्रीरामकृष्ण (ब्राह्मणी से, सस्नेह) - तुम इस समय जाओगी ? धूप बहुत तेज है, क्यों इन लोगों के साथ गाड़ी पर जाना ।
आज जेठ की संक्रान्ति है । दिन के तीन-चार बजे का समय होगा । गरमी बड़े जोर की पड़ रही है । एक भक्त श्रीरामकृष्ण के लिए चन्दन का एक नया पंखा लाये हैं । श्रीरामकृष्ण पंखा पाकर बड़े प्रसन्न हुए, कहा, "वाह-वाह । ॐ तत् सत् काली !'' यह कहकर पहले देवताओं को पंखा झलने लगे । फिर मास्टर से कह रहे हैं, "देखो, कैसी हवा आती है !’ मास्टर भी प्रसन्न होकर देख रहे हैं ।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
(३)
*दास 'मैं' । अवतारवाद*
बच्चों को साथ लेकर कप्तान आये हैं । श्रीरामकृष्ण ने किशोरी से कहा, इन्हें सब दिखा लाओ - ठाकुरबाड़ी आदि । श्रीरामकृष्ण कप्तान से बातचीत कर रहे हैं । मास्टर, द्विज आदि भक्त जमीन पर बैठे हुए हैं । दमदम के मास्टर भी आये हैं । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर उत्तर की ओर मुँह किये बैठे हैं । कप्तान से उन्होंने तखत के एक ओर अपने सामने बैठने के लिए कहा ।
श्रीरामकृष्ण - इन लोगों से तुम्हारी बातें कह रहा था । तुममें कितनी भक्ति है, कितनी पूजा करते हो, कितने प्रकार से आरती करते हो, यह सब बतला रहा था ।
कप्तान (लज्जित होकर) - मैं क्या पूजा और आरती करूँगा ? मैं क्या हूँ ?
श्रीरामकृष्ण - जो 'मैं' कामिनी (lust) और कांचन (lucre) में पड़ा हुआ (आसक्त) है, उसी 'मैं' में दोष है । मैं ईश्वर का दास हूँ, इस 'मैं' में दोष नहीं । और बालक का 'मैं' - बालक किसी गुण के वश नहीं है; अभी लड़ाई कर रहा है, देखते-देखते, मेल हो गया । कितने ही यत्न से अभी अभी खेलने का घरौंदा बनाया, फिर बात की बात में उसे बिगाड़ डाला !
दास 'मैं' और बच्चे के 'मैं' में दोष नहीं है । यह 'मैं' 'मैं' में नहीं गिना जाता, जैसे मिश्री मिठाई में नहीं गिनी जाती - दूसरी मिठाई से बीमारी फैलती है, परन्तु मिश्री अम्लनाश करती है - जैसे ओंकार की गणना शब्दों में नहीं है ।
"इस अहं से ही सच्चिदानन्द को प्यार किया जाता है।अहं जाने का है ही नहीं - इसीलिए दास 'मैं' और भक्त का 'मैं' है । नहीं तो आदमी क्या लेकर रहे ? गोपियों का प्रेम कितना गहरा था ! (कप्तान से) तुम गोपियों की बात कुछ कहो - तुम इतना भागवत पढ़ते हो ।"
कप्तान - श्रीकृष्ण वृन्दावन में थे, कोई ऐश्वर्य नहीं था, तो भी गोपियाँ उन्हें प्राणों से अधिक प्यार करती थीं । इसीलिए श्रीकृष्ण ने कहा था, 'मैं कैसे उनका ऋण शोध करूँगा, जिन गोपियों ने मुझे सब कुछ समर्पित कर दिया है - देह, मन, चित्त (आत्मा) ?'
श्रीरामकृष्ण को भावावेश हो रहा है । 'गोविन्द, गोविन्द, गोविन्द' कहकर भावाविष्ट हो रहे हैं । प्रायः ब्राह्यज्ञान-शून्य हैं । कप्तान विस्मयावेश में 'धन्य है, धन्य है' कह रहे हैं ।
कप्तान तथा अन्य भक्तगण श्रीरामकृष्ण की यह अद्भुत प्रेमावस्था देख रहे हैं । जब तक वे प्राकृत दशा में न आ जायँ, तब तक वे चुपचाप एकदृष्टि से देख रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - इसके बाद ?
कप्तान - वे योगियों के लिए भी अगम्य हैं, 'योगिभिरगम्यम्' । आपकी तरह योगियों के लिए भी अगम्य हैं, गोपियों के लिए गम्य हैं । योगियों ने वर्षों तक योग-साधना करके जिन्हें नहीं पाया, गोपियों ने अनायास ही उन्हें प्राप्त कर लिया ।
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - गोपियों के पास भोजन-पान, हँसना-रोना, क्रीड़ा कौतुक, यह सब हो चुका ।
एक भक्त ने कहा, 'श्रीयुत बंकिम ने कृष्ण-चरित्र लिखा है ।'
श्रीरामकृष्ण - बंकिम कृष्ण को मानता है, श्रीमती को नहीं मानता ।
कप्तान - वे शायद श्रीकृष्ण-लीला नहीं मानते ।
श्रीरामकृष्ण - सुना, वह कहता है, काम आदि की जरूरत है !
दमदम के मास्टर - 'नवजीवन' में बंकिम ने लिखा है, धर्म की आवश्यकता शारीरिक , मानसिक और अध्यात्मिक प्रवृत्तियों की स्फूर्ति के लिये है।
कप्तान - 'कामादि की आवश्यकता है' - यह कहते हैं, फिर भी लीला नहीं मानते ! ईश्वर मनुष्य के रूप में वृन्दावन में आये थे, पर राधा और कृष्ण की लीला हुई थी यह नहीं मानते ?
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - ये सब बातें संवाद-पत्रों में नहीं हैं, फिर किस तरह मान ली जायँ ?
"एक ने अपने मित्र से आकर कहा, 'देखो जी, कल उस मुहल्ले से मैं जा रहा था, उसी समय देखा, वह मकान भरभराकर गिर गया ।' मित्र ने कहा, 'जरा ठहरो, अखबार देखूँ ।' घर के भरभराकर गिरने की बात अखबार में तो कहीं कुछ न थी । तब उस आदमी ने कहा, 'क्यों जी अखबार में तो कहीं कुछ नहीं लिखा । तुम्हारा कहना सच नहीं दिखता ।' उस आदमी ने कहा, 'मैं स्वयं देखकर आ रहा हूँ ।' उसने कहा, 'यह हो सकता है, परन्तु अखबार में यह बात नहीं लिखी, इसलिए लाचार होकर मुझे इस पर विश्वास नहीं आता ।'
ईश्वर आदमी होकर लीला करते हैं, यह बात कैसे वे लोग मानेंगे ? यह बात उनकी अंग्रेजी शिक्षा के घेरे में नहीं जो है ! पूर्ण अवतार का समझाना बहुत मुश्किल है, क्यों जी ? साढ़े तीन हाथ के भीतर अनन्त का समा जाना ?"
कप्तान - 'कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्' कहते समय पूर्ण और अंश इस तरह कहना पड़ता है ।
श्रीरामकृष्ण - पूर्ण और अंश, जैसे अग्नि और उसका स्फुलिंग । अवतार भक्तों के लिए हैं - ज्ञानी के लिए नहीं । अध्यात्मरामायण में है, 'हे राम ! तुम्हीं व्याप्य हो, तुम्हीं व्यापक हो' - 'वाच्यवाचकभेदेन त्वमेव परमेश्वर ।’
कप्तान – वाच्य-वाचक अर्थात् व्याप्य-व्यापक।
श्रीरामकृष्ण - व्यापक अर्थात जैसे एक छोटासा रूप - जैसे अवतार आदमी का रूप धारण करते हैं ।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
(४)
🔱🙏अहंकार ही विनाश का कारण तथा ईश्वर-लाभ में विघ्न है🔱🙏
सब बैठे हुए हैं । कप्तान और भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण बातचीत कर रहे हैं । इसी समय ब्राह्मसमाज के जयगोपाल सेन और त्रैलोक्य आये, प्रणाम करके उन्होंने आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण हँसते हुए त्रैलोक्य की ओर देखकर बातचीत कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - अहंकार है, इसीलिए तो ईश्वर के दर्शन नहीं होते । ईश्वर के घर के दरवाजे के रास्ते में अहंकाररूपी ठूँठ पड़ा हुआ है । इस ठूँठ के उस पार गये बिना कमरे में प्रवेश नहीं किया जा सकता ।
“एक आदमी प्रेतसिद्ध हो गया था । सिद्ध होकर उसने पुकारा नहीं कि भूत आ गया । आकर कहा, 'बतलाओ, कौनसा काम करना होगा ? अगर नहीं कह सकोगे तो तुम्हारी गरदन मरोड़ दूँगा ।' उस आदमी ने, जितने काम थे, एक एक करके सब करा लिये । फिर उसे कोई नया काम ही नहीं सूझता था । प्रेत ने कहा, 'अब तुम्हारी गरदन मरोड़ता हूँ ।' उसने कहा, 'जरा ठहरो, अभी आया ।'
इतना कहकर वह अपने गुरु के पास गया और उनसे कहा, 'महाराज, मैं बड़ी विपत्ति में हूँ, और सब हाल कह सुनाया । तब गुरु ने कहा, 'तू एक काम कर, उसे एक छल्लेदार बाल सीधा करने के लिए दे ।' प्रेत दिन-रात वही काम करने लगा । पर छल्लेदार बाल भी कभी सीधा होता है ? ज्यों का त्यों टेढ़ा बना रहा ।
इसी तरह अहंकार भी देखते ही देखते गया और देखते ही देखते फिर आ गया ।"अहंकार का त्याग हुए बिना ईश्वर की कृपा नहीं होती ।
"जिस मकान में कोई काम-काज (ब्राह्मण-भोजन, विवाह आदि) रहता है तो जब तक भण्डार में कोई भण्डारी बना रहता है, तब तक मालिक का चक्कर उधर नहीं लगता । पर जब भण्डारी स्वयं भण्डार छोड़कर चला जाता है, तब मालिक उस भण्डार-घर में ताला लगा देता है और उसका इन्तजाम खुद करने लगता है ।
"ईश्वर मानो बच्चे का वली - बच्चा अपनी जायदाद खुद नहीं सम्हाल सकता । राजा उसका भार लेते हैं । अहंकार (कच्चा मैं) के गये बिना ईश्वर भार नहीं लेते ।
"वैकुण्ठ में श्रीलक्ष्मी और नारायण बैठे हुए थे । एकाएक नारायण उठकर खड़े हो गये । श्रीलक्ष्मी चरणसेवा कर रही थीं । उन्होंने पूछा, 'महाराज, कहाँ चले ?' नारायण ने कहा, "मेरा एक भक्त बड़ी विपत्ति में पड़ गया है, उसकी रक्षा के लिए जा रहा हूँ ।' यह कहकर नारायण चले गये । परन्तु उसी समय फिर आ गये । लक्ष्मी ने पूछा, 'भगवन्, इतनी जल्दी कैसे आ गये ?'
नारायण ने हँसकर कहा, 'प्रेम से विह्वल वह भक्त रास्ते से चला जा रहा था । रास्ते में धोबियों ने सूखने के लिए कपड़े फैलाये थे । वह भक्त उन कपड़ों के ऊपर से जा रहा था, यह देखकर लाठी लेकर धोबी लोग मारने के लिए चले, इसीलिए मैं गया था ।' श्रीलक्ष्मी ने पूछा, 'तो इतनी जल्दी फिर कैसे आ गये ?' नारायण ने हँसते हुए कहा, 'जाकर मैंने देखा, उस भक्त ने धोबियों को मारने के लिए खुद ही पत्थर उठा लिया है । (सब हँसते हैं) इसीलिए मैं फिर नहीं गया ।’
"केशव सेन से मैंने कहा था, 'अहं' का त्याग करना होगा । इस पर केशव ने कहा, "तो महाराज, दल फिर कैसे रह सकता है ?’
"मैंने कहा, यह तुम्हारी कैसी बुद्धि है, - तुम 'कच्चे मैं' का त्याग करो, - जो 'मैं' कामिनी और कांचन की ओर ले जाता है । परन्तु मैं 'पक्के मैं' - 'भक्त के मैं' - 'दास के मैं' का त्याग करने के लिए नहीं कहता । मैं ईश्वर का दास हूँ, - ईश्वर की सन्तान हूँ, इसका नाम है 'पक्का मैं’ । इसमें कोई दोष नहीं ।"
त्रैलोक्य - अहंकार का जाना बहुत कठिन है । लोग सोचते हैं, अहंकार मुझमें नहीं है ।
श्रीरामकृष्ण - कहीं अहंकार न हो जाय, इसलिए गौरी 'मैं' का प्रयोग ही नहीं करता था - 'ये' कहता था ! मैं भी उसकी देखा देखी 'ये' कहने लगा, 'मैंने खाया है' यह न कहकर कहता था, 'इसने खाया है ।’ यह देखकर एक दिन मथुरबाबू ने कहा, 'यह क्या है बाबा - तुम ऐसा क्यों कहते हो ? यह सब उन लोगों को कहने दो, उनमें अहंकार है । तुम्हारे कुछ अहंकार थोड़े ही है, तुम्हें इस तरह बोलने की कोई जरूरत नहीं ।’
"केशव से मैंने कहा, 'मैं' जाने का तो है ही नहीं, अतएव उसे दासभाव से पड़ा रहने दो - जैसे दास पड़ा रहता है । प्रह्लाद/(हनुमान ?) दो भावों से रहते थे । कभी 'सोऽहम्' का अनुभव करते थे - तुम्हीं 'मैं’ हो - मैं ही 'तुम' हूँ । फिर जब अहं-बुद्धि आती थी, तब देखते थे, मैं दास हूँ - तुम प्रभु हो । एक बार पक्का सोऽहम् अगर हो गया, तो फिर दासभाव से रहना आसान हो जाता है - मैं तुम्हारा दास हूँ इस भाव से ।
(कप्तान से) "ब्रह्मज्ञान होने पर कुछ लक्षणों से समझ में आ जाता है । श्रीमद्भागवत में ज्ञानी की चार अवस्थाओं की बातें लिखी हैं - पहली बालवत्, दूसरी जड़वत्, तीसरी उन्मत्तवत्, चौथी पिशाचवत् । पाँच साल के लड़के जैसी अवस्था हो जाती है । फिर कभी वह पागल की तरह व्यवहार करता है ।
“कभी जड़ की तरह रहता है । इस अवस्था में वह कर्म नहीं कर सकता, कर्म छूट जाते हैं । परन्तु अगर कहो कि जनक आदि ने तो कर्म किया था, तो असल बात यह है कि उस समय के आदमी कर्मचारियों पर भार देकर निश्चिन्त रहते थे, और उस समय के आदमी भी बड़े विश्वासी होते थे ।"
श्रीरामकृष्ण कर्मत्याग की बातें करने लगे और जिनको ऐसा लगता हो कि अभी उन्हें कुछ कर्तव्यों का पालन करना अनिवार्य है , उन्हें अनासक्त होकर कर्म करने का उपदेश देने लगे ।
श्रीरामकृष्ण - ज्ञान के होने पर मनुष्य अधिक कर्म नहीं कर सकता ।
त्रैलोक्य – क्यों ? पवहारी बाबा इतने महान योगी हैं, परन्तु फिरभी लोगों के झगड़े और विवादों का फैसला कर दिया करते हैं - यहाँ तक कि मुकदमे का भी फैसला कर देते हैं ।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, यह ठीक है, दुर्गाचरण डाक्टर इतना शराबी तो है, परन्तु काम के समय उसके होश दुरुस्त ही रहते हैं - चिकित्सा के समय किसी तरह की भूल नहीं होने पाती । भक्ति प्राप्त करके कर्म किया जाय तो कोई दोष नहीं होता । परन्तु है यह बड़ी कठिन बात, बड़ी तपस्या चाहिए।
"ईश्वर ही सब कुछ कर रहे हैं, हमलोग उनके यन्त्र हैं ! कालीमन्दिर के सामने सिक्ख लोग कह रहे थे, 'ईश्वर दयामय हैं ।' मैंने पूछा, 'दया किन पर करते हैं ?
"सिक्खों ने कहा, 'महाराज, हम सब पर उनकी दया है ।'
"मैंने कहा, 'यदि सब उनके ही बच्चे हैं तो अपने बच्चों पर फिर दया कैसी ? वे अपने लड़कों की देखरेख कर रहे हैं, वे नहीं देखेंगे तो क्या अड़ोसी-पड़ोसी आकर देखेंगे ?' अच्छा देखो, जो लोग ईश्वर को दयामय कहते हैं वे यह नहीं समझते कि वे किसी दूसरे के लड़के नहीं, ईश्वर की ही सन्तान हैं ।"
कप्तान - जी हाँ, ठीक है, पर वे ईश्वर को अपना नहीं मानते ।
श्रीरामकृष्ण - तो क्या हम ईश्वर को दयामय न कहें ? अवश्य कहना चाहिए जब तक हम साधना की अवस्था में हैं । उन्हें प्राप्त कर लेने पर अपने माँ-बाप पर जो भाव रहता है, वही उन पर भी हो जाता है । जब तक ईश्वर-लाभ नहीं होता, तब तक जान पड़ता है, हम बहुत दूर के आदमी हैं, दूसरे के बच्चे हैं ।
"साधना की अवस्था में उनसे सब कुछ कहना चाहिए । हाजरा ने एक दिन नरेन्द्र से कहा था, 'ईश्वर अनन्त हैं । उनका ऐश्वर्य अनन्त है । वे क्या कभी सन्देश और केले खाने लगेंगे ? या गाना सुनेंगे ? यह सब मन की भूल है ।'
"सुनते ही नरेन्द्र मानो दस हाथ धँस गया । तब मैंने हाजरा से कहा, 'तुम कैसे पाजी हो ? अगर बाल-भक्तों से ऐसी बात कहोगे तो वे ठहरेंगे कहाँ ?’ भक्ति के जाने पर आदमी फिर क्या लेकर रहे ? उनका ऐश्वर्य अनन्त हैं, फिर भी वे भक्ताधीन हैं, बड़े आदमी का दरवान बाबुओं की सभा में एक ओर खड़ा हुआ है, हाथ में एक चीज है - कपड़े से ढकी हुई, वह बड़े संकोच भाव से खड़ा हुआ है ।
बाबू ने पूछा, 'क्यों दरवान, तुम्हारे हाथ में यह क्या है ?' दरवान ने संकोच के साथ एक शरीफा निकालकर बाबू के सामने रखा - उसकी इच्छा थी कि बाबू उसे खायँ । दरवान का भक्तिभाव देखकर बाबू ने शरीफा बड़े आदर के साथ ले लिया और कहा, 'वाह ! बड़ा अच्छा शरीफा है । तुम कहाँ से इतना कष्ट करके इसे लाये ?'
"वे भक्ताधीन हैं । दुर्योधन ने इतनी खातिर की और कहा, 'महाराज, यहीं जलपान कीजिये ।' परन्तु श्रीठाकुरजी विदुर की कुटी पर चले गये । वे भक्तवत्सल हैं, विदुर का शाकान्न बड़े प्रेम से अमृत समझकर खाया ।
"पूर्ण ज्ञानी का एक लक्षण और है, - पिशाचवत् - न खाने पीने का विचार है, न शुचिता, न अशुचिता का । पूर्ण ज्ञानी और पूर्ण मूर्ख, दोनों के बाहरी लक्षण एक ही तरह के हैं । पूर्ण ज्ञानी को देखो, गंगा नहाकर कभी मन्त्र जपता ही नहीं, ठाकुर-पूजा करते समय सब फूल एक साथ ठाकुरजी के पैरों पर चढ़ा दिये और चला आया, कोई तन्त्र मन्त्र नहीं जपा ।
"जितने दिन संसार में भोग करने की इच्छा रहती है, उतने दिनों तक मनुष्य कर्मों का त्याग नहीं कर सकता । जब तक भोग की आशा है, तब तक कर्म हैं ।
"एक पक्षी जहाज के मस्तूल पर अन्यमनस्क बैठा था । जहाज गंगागर्भ में था । धीरे-धीरे महासमुद्र में आ गया तब पक्षी को होश आया, उसने चारों ओर देखा, कहीं भी किनारा दिखलायी नहीं पड़ता था । तब किनारे की खोज करने के लिए वह उत्तर की ओर उड़ा । बहुत दूर जाकर थक गया । फिर भी किनारा उसे नहीं मिला । तब क्या करे, लौटकर फिर मस्तूल पर आकर बैठा । कुछ देर के बाद, वह पक्षी फिर उड़ा, इस बार पूर्व की ओर गया । उस तरफ भी उसे कहीं छोर न मिला । चारों ओर समुद्र ही समुद्र था । तब बहुत ही थककर फिर जहाज के मस्तूल पर आ बैठा । फिर कुछ विश्राम करके दक्षिण ओर गया, पश्चिम ओर गया । पर उसने देखा कि कहीं ओर-छोर ही नहीं है । तब लौटकर वह फिर उसी मस्तूल पर बैठ गया । इसके बाद फिर नहीं उड़ा । निश्चेष्ट होकर बैठा रहा । तब मन में किसी प्रकार की चंचलता या अशान्ति नहीं रही । निश्चिन्त हो गया, फिर कोई चेष्टा भी नहीं रही ।"
कप्तान – वाह ! कैसा दृष्टान्त है !
श्रीरामकृष्ण - संसारी आदमी सुख के लिए जब चारों ओर भटके फिरते हैं, और नहीं पाते, तो अन्त में थक जाते हैं । जब कामिनी और कांचन पर आसक्त होकर केवल दुःख ही दुःख उनके हाथ लगता है, तभी उनमें वैराग्य आता है - तभी त्याग का भाव पैदा होता है । बहुतेरे ऐसे भी हैं जो बिना भोग किये त्याग नहीं कर सकते ।
कुटीचक और बहूदक, ये दो होते हैं । साधकों में भी बहुतेरे ऐसे हैं, जो अनेक तीर्थों की यात्रा किया करते हैं । एक जगह पर स्थिर होकर नहीं बैठ सकते । बहुत से तीर्थों का उदक अर्थात् पानी पीते है । जब घूमते हुए उनका क्षोभ मिट जाता है तब किसी एक जगह कुटी बनाकर स्थिर हो जाते हैं और निश्चिन्त तथा चेष्टाशून्य (free from worry and effort) होकर परमात्मा का चिन्तन किया करते हैं ।
"परन्तु संसार में कोई भोग भी क्या करेगा ? - कामिनी और कांचन का भोग ? वह तो क्षणिक आनन्द है । अभी है, अभी नहीं ।
"जगत मानो काले बादलों से भरे आकाश जैसा है, प्राय: मेघ छाये रहते हैं, वर्षा लगी हुई है; सूर्य नहीं दीख पड़ता । दुःख का भाग ही अधिक है । कामिनी-कांचनरूपी काले बादल सूर्य को देखने नहीं देता ।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
(५)
🔱🙏उपाय - व्याकुलता। त्याग 🔱🙏
“कोई कोई मुझसे पूछते हैं, 'महाराज, ईश्वर ने क्यों इस तरह के संसार की सृष्टि की ? हम लोगों के लिए क्या कोई उपाय नहीं हैं ?'
"मैं कहता हूँ, उपाय है क्यों नहीं ? उनकी शरण में जाओ और व्याकुल होकर प्रार्थना करो, ताकि अनुकूल वायु चलने लगे, जिससे शुभ योग आ जायँ । व्याकुल होकर पुकारोगे तो वे अवश्य सुनेंगे।
"एक के लड़के का अब-तब हो रहा था । वह आदमी व्याकुल होकर इधर-उधर उपाय पूछता फिरता था । एक ने कहा, 'तुम अगर एक उपाय कर सको तो लड़का अच्छा हो जायेगा । अगर स्वाति नक्षत्र का पानी मुर्दे की खोपड़ी पर गिरे और उसी में रुक जाय, फिर अगर एक मेंढक उस पानी को पीने के लिए बढ़े और साँप उसे खदेड़े, खदेड़कर पकड़ते समय मेंढक उछलकर उस खोपड़ी को पार कर जाय और साँप का विष उसी खोपड़ी में गिर जाय, और वह विषैला पानी अगर रोगी को थोड़ासा पिला सको, तो वह अच्छा हो सकता है ।'वह आदमी उसी समय स्वाति नक्षत्र में उस दवा की तलाश के लिए निकला । उसी समय पानी बरसना भी शुरू हो गया । तब वह व्याकुल होकर ईश्वर से कहने लगा, 'भगवन्, अब मुर्दे की खोपड़ी (पंचमुण्डी) भी कहीं से ला दो ।' खोजते हुए उसे मुर्दे की खोपड़ी भी मिल गयी । उसमें स्वाति नक्षत्र का पानी भी पड़ा हुआ था ।
तब वह प्रार्थना करके कहने लगा, 'जय हो तुम्हारी भगवन्, अब और जो कुछ रह गया है वह भी सब जुटा दो - मेंढक (चतुष्पद) और साँप (निष्पद)।' उसकी जैसी व्याकुलता थी, वैसी ही शीघ्रता से सब सामान इकट्ठे होते गये । देखते ही देखते एक साँप मेंढक का पीछा करते हुए आने लगा । और काटते समय उसका विष भी उसी खोपड़ी में गिर गया ।
"ईश्वर (माँ जगदम्बा) की शरण में जाकर, उन्हें व्याकुल होकर पुकारने पर वे उस पुकार पर अवश्य ही ध्यान देंगे, - सब सुयोग वे स्वयं जुटा देंगे ।"
कप्तान - कैसा सुन्दर दृष्टान्त है ।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, वे स्वयं सब सुयोग जुटा देते हैं । कभी ऐसा भी होता है कि विवाह नहीं हुआ, सब मन ईश्वर पर चला गया । कभी यह होता है कि भाई रोजगार करते हैं, या एक लड़का तैयार हो जाता है, तो फिर उस व्यक्ति को स्वयं संसार का काम नहीं सम्हालना पड़ता, तब वह अनायास ही सोलहों आना मन ईश्वर को समर्पित कर सकता है ।
परन्तु बात यह है कि कामिनी और कांचन का त्याग हुए बिना कहीं कुछ नहीं होता । त्याग होने पर ही अज्ञान और अविद्या का नाश होता है । आतशी शीशे पर सूर्य की किरणों के पड़ने पर कितनी चीजें जल जाती है, परन्तु कमरे के भीतर छाया है, वहाँ आतशी शीशे के ले जाने पर यह बात नहीं होती । घर छोड़कर बाहर निकलकर खड़े होना चाहिए ।
" परन्तु ज्ञान-लाभ के बाद कोई कोई संसार में रहते भी हैं । वे घर और बाहर दोनों देखते हैं । ज्ञान का प्रकाश संसार पर पड़ता है, इसीलिए वे भला-बुरा, नित्य-अनित्य, सब उसके प्रकाश में देख सकते हैं ।
“जो अज्ञानी हैं, ईश्वर को नहीं मानते और संसार में रहते हैं उनका रहना मिट्टी के घरों में ही रहने के समान है । क्षीण प्रकाश से वे घर का भीतरी हिस्सा ही देखते हैं । परन्तु जिन्होंने ज्ञान-लाभ कर लिया है, ईश्वर को जान लिया है, और फिर संसार में रहते हैं, वे मानो शीशे के मकान में रहते हैं। वे घर के भीतर भी देखते हैं और बाहर भी । ज्ञान-सूर्य का प्रकाश घर के भीतर खूब प्रवेश करता है । वह आदमी घर के भीतर की चीजें बहुत ही स्पष्ट देखता है - कौनसी चीज अच्छी है, कौन बुरी; क्या नित्य है और क्या अनित्य, यह सब वह स्पष्ट रीति से देख लेता है ।
"ईश्वर ही कर्ता हैं, और सब उनके यन्त्र की तरह हैं ।
"इसीलिए ज्ञानी के लिए भी अहंकार करने की जगह नहीं है ।
जिसने शिव-महिम्न स्तव लिखा था, उसे अहंकार हो गया था । शिव के नन्दी बैल ने जब दाँत दिखलाये तब उसका अहंकार गया था । उसने देखा, एक एक दाँत उसके स्तव का एक एक मन्त्र था । इसका अर्थ क्या है, जानते हो ? ये सब मन्त्र अनादिकाल से हैं, तुमने इनका आविष्कार (खोजा) मात्र किया है।
"गुरुआई करना अच्छा नहीं । ईश्वर का आदेश पाये बिना कोई आचार्य नहीं हो सकता । जो स्वयं कहता है, मैं गुरु हूँ, उसकी बुद्धि में नीचता है । तराजू तुमने देखा है न ? जिधर हलका होता है, उधर ही का पलड़ा उठ जाता है । जो आदमी खुद ऊँचा होना चाहता है, वह हलका है । सभी गुरु बनना चाहते हैं ! - शिष्य कहीं खोजने पर भी नहीं मिलता ।"
त्रैलोक्य छोटे तखत के उत्तर ओर बैठे हुए हैं । त्रैलोक्य गाना गायेंगे । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, 'वाह ! तुम्हारा गाना कितना सुन्दर होता है !' त्रैलोक्य तानपूरा लेकर गा रहे हैं –
तुझसे हमने दिल को लगाया, जो कुछ है सो तू ही है ।
एक तुझको अपना पाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
सबके मकां दिल का मकीं तू, कौन सा दिल है जिसमें नहीं तू ।
हरेक दिल में तू ही समाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
क्या मलायक क्या इन्सान, क्या हिन्दू क्या मुसलमान ।
जैसे चाहा तूने बनाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
काबा में क्या, देवालय में क्या, तेरी परस्तिश होगी सब जाँ ।
आगे तेरे सिर सबने झुकाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
अर्श से लेकर फर्श जमीं तक और जमीं से अर्श वरी तक ।
जहाँ मैं देखा तू ही नजर आया जो कुछ है सो तू ही है ।।
सोचा समझा देखा-भाला, तुम जैसा कोई न ढूंढ़ निकाला ।
अब ये समझ में ' जफर ' के आया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
गाना -
तुमि सर्वस्व आमार (हे नाथ !) प्राणाधार सारातसार।
नाही तोमा बीने केह त्रिभुवने बोलीबार आपनार ।।
नाथ तुमि सर्वस्व आमार, प्राणाधार सारातसार।
तुमि सुख शान्ति सहाय सम्बल , सम्पद ऐश्वर्य ज्ञान बुद्धिबल,
तुमि वासगृह , आरामेर स्थल,आत्मीय बन्धु परिवार।।
तुमि इहकाल, तुमि परित्राण, तुमि परकाल, तुमि स्वर्गधाम ,
तुमि शास्त्रविधि, गुरु कल्पतरु, अनन्त सुखेर आधार।
तुमि हे उपाय, तुमि हे उद्देश्य, तुमि स्रष्टा पाता, तुमि हे उपास्य ,
दण्डदाता पिता, स्नेहमयी माता , भवार्णवे कर्णधार।।
तुम मेरे सर्वस्व हो - प्राणाधार हो - सार वस्तु के सार भाग हो ।
गाना सुनकर श्रीरामकृष्ण भाव में मग्न हो रहे हैं । कह रहे हैं - 'वाह ! तुम्हीं सब कुछ हो – वाह!!'
गाना समाप्त हो गया । छः बज गये । श्रीरामकृष्ण हाथ-मुँह धोने के लिए झाऊतल्ले की ओर जा रहे हैं । साथ में मास्टर हैं ।
श्रीरामकृष्ण हँस-हँसकर बातें करते हुए जा रहे हैं । एकाएक मास्टर से पूछा, "क्यों जी, तुम लोगों ने खाया नहीं ? और उन लोगों ने भी नहीं खाया ?" वे सभी भक्तों कुछ कुछ प्रसाद ग्रहण करवाने के लिए उत्सुक हो रहे थे ।
आज सन्ध्या के बाद श्रीरामकृष्ण ने कलकत्ता जाने का सोचा है । झाऊतल्ले से लौटते समय मास्टर से कह रहे हैं – ‘परन्तु किसकी गाड़ी में जाऊँ ?'
शाम हो गयी । श्रीरामकृष्ण के कमरे में दिया जलाया गया और धूना दिया जा रहा है । कालीमन्दिर में सब जगह दिये जल गये । शहनाई बज रही है । मन्दिरों में आरती होगी ।
तखत पर बैठे हुए श्रीरामकृष्ण नाम-कीर्तन करके मां का ध्यान कर रहे हैं । आरती हो गयी । कुछ देर बाद कमरे में श्रीरामकृष्ण इधर-उधर टहल रहे हैं । बीच-बीच में भक्तों के साथ बातचीत कर रहे हैं, और कलकत्ता जाने के लिए मास्टर से परामर्श कर रहे हैं ।
इतने में ही नरेन्द्र आये । साथ शरद तथा और भी दो-लड़के थे । उन लोगों ने आते ही भूमिष्ठ हो श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।
नरेन्द्र को देखकर श्रीरामकृष्ण का स्नेह उमड़ चला । जिस तरह छोटे बच्चे को प्यार किया जाता है, श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र के मुख पर हाथ फेरकर उसी तरह प्यार करने लगे । स्नेहपूर्ण स्वरों में कहा - तू आ गया ?
कमरे के भीतर श्रीरामकृष्ण पश्चिम की ओर (गंगा की ओर) मुँह करके खड़े हुए हैं । नरेन्द्र तथा अन्य लड़के श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके पूर्व की ओर मुँह करके उनके सामने वार्तालाप कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण मास्टर की ओर मुँह फेरकर कह रहे हैं, "नरेन्द्र आया है तो अब कैसे जाना होगा ? आदमी भेजकर उसे बुला लिया है । अब कैसे जाना होगा ? तुम क्या कहते हो ?"
मास्टर - जैसी आपकी आज्ञा, चाहे तो आज रहने दिया जाय ।
श्रीरामकृष्ण - अच्छा, कल चला जायेगा नाव से या गाड़ी से । (दूसरे भक्तों से) तुम आज जाओ - रात हो गयी है ।
भक्त एक एक करके प्रणाम कर बिदा हुए ।
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