परिच्छेद- ११६
श्रीरामकृष्ण की ज्ञान तथा भक्ति की अवस्था
(१)
🔱🙏श्रीरामकृष्ण तथा अहंकार का त्याग🔱🙏
श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर में उसी परिचित कमरे में विश्राम कर रहे हैं । आज शनिवार है, १३ जून १८८५, जेठ की शुक्ला प्रतिपदा; जेठ की संक्रान्ति । दिन के तीन बजे होंगे । श्रीरामकृष्ण भोजन के बाद तखत पर जरा विश्राम कर रहे हैं । एक पण्डितजी जमीन पर चटाई पर बैठे हुए हैं । शोक से विह्वल एक ब्राह्मणी कमरे के उत्तर तरफवाले दरवाजे के पास खड़ी हुई है । किशोरी भी हैं । मास्टर ने आकर प्रणाम किया । साथ में द्विज आदि हैं । अखिलबाबू के पड़ोसी भी बैठे हुए हैं । उनके साथ आसाम का एक लड़का अभी पहले-पहल आया हुआ है ।
About three o'clock in the afternoon Sri Ramakrishna was resting in his room after the midday meal. A pundit was sitting on a mat on the floor. Near the north door of the room stood a brahmin woman who had recently lost her only daughter and was stricken with grief. Kishori, too, was in the room. M. arrived and saluted the Master. He was accompanied by Dwija and a few other devotees.
শ্রীরামকৃষ্ণ দক্ষিণেশ্বরে কালীমন্দিরে সেই পূর্বপরিচিত ঘরে বিশ্রাম করিতেছেন। আজ শনিবার, ১৩ই জুন, ১৮৮৫, (৩২শে জৈষ্ঠ, ১২৯২) জৈষ্ঠ শুক্লা প্রতিপদ, জ্যৈষ্ঠ মাসের সংক্রান্তি। বেলা তিনটা। ঠাকুর খাওয়া-দাওয়ার পর ছোট খাটটিতে একটু বিশ্রাম করিতেছেন। পণ্ডিতজী মেঝের উপর মাদুরে বসিয়া আছেন। একটি শোকাতুরা ব্রাহ্মণী ঘরের উত্তরের দরজার পাশে দাঁড়াইয়া আছেন। কিশোরীও আছেন। মাস্টার আসিয়া প্রণাম করিলেন। সঙ্গে দ্বিজ ইত্যাদি। অখিলবাবুর প্রতিবেশীও বসিয়া আছেন। তাঁহার সঙ্গে একটি আসামী ছোকরা।
श्रीरामकृष्ण कुछ अस्वस्थ हैं । गले में गिलटी पड़ गयी है, कुछ जुकाम भी हो गया है । उनकी गले की बीमारी बस यहीं से शुरू होती है । अधिक गरमी पड़ने के कारण मास्टर का भी शरीर अस्वस्थ रहता है । श्रीरामकृष्ण के दर्शन के लिए वे इधर लगातार दक्षिणेश्वर नहीं आ सके ।
Sri Ramakrishna was not well. He had been suffering from an inflamed throat. These were the hot days of summer. M. was not keeping well either, and of late he had not been able to visit Sri Ramakrishna frequently.
ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ একটু অসুস্থ আছেন। গলায় বিচি হইয়া সর্দির ভাব। গলার অসুখের এই প্রথম সূত্রপাত। বড় গরম পড়াতে মাস্টারেরও শরীর অসুস্থ। ঠাকুরকে সর্বদা দর্শন করিতে দক্ষিণেশ্বরে আসিতে পারেন নাই।
श्रीरामकृष्ण - यह लो तुम तो आ गये । तुमने जो बेल भेजा था वह बड़ा अच्छा था । तुम कैसे हो ?
MASTER (to M.): "How are you? It is nice to see you. The bel-fruit you sent me was very good."
শ্রীরামকৃষ্ণ — এই যে তুমি এসেছ। বেশ বেলটি। তুমি কেমন আছ?
मास्टर - जी, पहले से अब कुछ अच्छा हूँ ।
M: "I am slightly better now, sir."
মাস্টার — আজ্ঞা, আগেকার চেয়ে একটু ভাল আছি।
श्रीरामकृष्ण - बड़ी गरमी पड़ रही है । कुछ कुछ बर्फ खाया करो । "गरमी से मुझे भी बड़ा कष्ट हो रहा है । गरमी में कुलफी बर्फ - यह सब बहुत खाया गया । इसीलिए गले में गिलटी पड़ गयी है । गले से बड़ी बदबू निकल रही है ।
MASTER: "It is very hot. Take a little ice now and then. I have been feeling the heat very much myself; so I ate a great deal of ice-cream. That is why I have this sore throat. The saliva smells very bad.
শ্রীরামকৃষ্ণ — বড় গরম পড়েছে। একটু একটু বরফ খেও। আমারও বাপু বড় গরম পড়ে কষ্ট হয়েছে। গরমেতে কুলপি বরফ — এই সব বেশি খাওয়া হয়েছিল। তাই গলায় বিচি হয়েছে। গয়ারে এমন বিশ্রী গন্ধ দেখি নাই।
"माँ से मैंने कहा, अच्छा कर दो, अब कुलफी बर्फ न खाऊँगा ।"इसके बाद यह भी कहा है कि बर्फ न खाऊँगा । "माँ से जब कह दिया है कि अब न खाऊँगा तो खाना अवश्य ही न होगा । परन्तु एकाएक भूल भी ऐसी हो जाती है ।
"I have said to the Divine Mother: 'Mother, make me well. I shall not eat ice-cream any more.' Next I said to Her that I wouldn't eat ice either. Since I have given my word to the Mother, I shall certainly not eat these things. But sometimes I become forgetful.
“মাকে বলেছি, মা! ভাল করে দাও, আর কুলপি খাব না।“তারপর আবার বলেছি, বরফও খাব না। মাকে যেকালে বলছি ‘খাব না’ আর খাওয়া হবে না। তবে এমন হঠাৎ ভুল হয়ে যায়।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🌼सत्य-मिथ्या विवेक माँ जगदम्बा की कृपा 🌼
🔱🙏श्री रामकृष्ण देव की सत्यनिष्ठा 🔱🙏
[শ্রীরামকৃষ্ণ ও সত্যকথা — তাঁহার জ্ঞানী ও ভক্তের অবস্থা ]
एक बार मैंने कहा था कि मैं रविवार को मछली नहीं खाऊंगा; लेकिन एक रविवार को मैं भूल गया और मछली खा ली। लेकिन मैं होशपूर्वक (जानते हुए) अपने वचन से मैं पीछे नहीं हट सकता। उस दिन गडुआ लेकर एक आदमी को झाऊतल्ले की ओर आने के लिए मैंने कहा । उस समय वह जंगल गया था, इसलिए एक दूसरा आदमी ले आया । मैंने जंगल से आकर देखा, एक दूसरा ही आदमी गडुआ लिए हुए खड़ा था । अब क्या करूँ ? हाथ में मिट्टी लगाये खड़ा रहा जब तक उसी ने आकर पानी नहीं दिया ।
Once I said that I wouldn't eat fish on Sundays; but one Sunday I forgot and ate fish. But I cannot consciously go back on my word. The other day I asked a devotee to bring my water-jug to the pine-grove. As he had to go elsewhere, another man brought the jug. But I couldn't use that water. I was helpless. I waited there until the first man brought water for me.
“মাকে যেকালে বলছি ‘খাব না’ আর খাওয়া হবে না। তবে এমন হঠাৎ ভুল হয়ে যায়। বলেছিলাম, রবিবারে মাছ খাব না। এখন একদিন ভুলে খেয়ে ফেলেছি।“কিন্তু জেনে-শুনে হবার জো নাই। সেদিন গাড়ু নিয়ে একজনকে ঝাউতলার দিকে আসতে বললুম। এখন সে বাহ্যে গিছল, তাই আর-একজন নিয়ে এসেছিল। আমি বাহ্যে করে এসে দেখি যে, আর-একজন গাড়ু নিয়ে দাঁড়িয়ে আছে। সে গাড়ুর জল নিতে পারলুম না। কি করি? মাটি দিয়ে দাঁড়িয়ে রইলুম — যতক্ষণ না সে এসে জল দিলে।
"माता के पादपद्मों में फूल चढ़ाकर जब मैं सब कुछ त्याग करने लगा तब कहा, 'माँ, यह लो अपनी शुचिता और यह लो अशुचिता; यह लो अपना धर्म और यह लो अधर्म; यह लो अपना पाप और यह लो पुण्य; यह लो अपना भला और यह लो बुरा, - मुझे शुद्धा भक्ति दो ।' परन्तु यह लो अपना सत्य और यह अपना असत्य, यह मैं नहीं कह सका !"
"When I renounced everything with an offering of flowers at the Lotus Feet of the Mother, I said: 'Here, Mother, take Thy holiness, take Thy unholiness. Here, Mother, take Thy dharma, take Thy adharma. Here, Mother, take Thy sin, take Thy virtue. Here, Mother, take Thy good, take Thy evil. And give me only pure bhakti.' But I could not say, 'Here, Mother, take Thy truth, take Thy falsehood.'"
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏ज्ञानी और भक्त की अवस्था में श्रीरामकृष्ण 🔱🙏
कुत्ता सभी का जूठन खाता है तो क्या उसे ज्ञानी कहेंगे?
एक भक्त बर्फ ले आये हैं । श्रीरामकृष्ण बार बार मास्टर से पूछ रहे हैं 'क्यों जी, क्या खा लूँ ?’
A devotee had brought some ice. Again and again the Master asked M., "Shall I eat it?"
একজন ভক্ত বরফ আনিয়াছিলেন। ঠাকুর পুনঃপুনঃ মাস্টারকে জিজ্ঞাসা করিতেছেন, “হাঁগা খাব কি?”
मास्टर ने विनयपूर्वक कहा, 'तो आप माँ की आज्ञा बिना लिये न खाइये ।' श्रीरामकृष्ण ने अन्त में बर्फ नहीं खायी ।
M. said humbly, "Please don't eat it without consulting the Mother." Sri Ramakrishna could not take-the ice.
মাস্টার বিনীতভাবে বলিতেছেন, “আজ্ঞা, তবে মার সঙ্গে পরামর্শ না করে খাবেন না।
”श्रीरामकृष्ण - शुचिता और अशुचिता का विचार भक्त के लिए है, ज्ञानी के लिए नहीं । विजय की सास ने कहा, 'मेरा क्या हुआ ? अब भी तो मैं सब की जूठन नहीं खा सकती ।' मैंने कहा, सब की जूठन खाने ही से ज्ञान होता है ? कुत्ते जो पाते हैं वही खा लेते हैं, इसलिए क्या कुत्ते को बड़ा ज्ञानी कहें ?
MASTER: "It is the bhakta, and not the jnani, who discriminates between holiness and unholiness. Vijay's mother-in-law said to me: 'How little I have achieved of my spiritual ideal! I cannot take food from everybody.' I said to her: 'Is eating everybody's food a sign of jnana? A dog eats anything and everything. Does that make it a jnani?'
শ্রীরামকৃষ্ণ — শুচি-অশুচি — এটি ভক্তি ভক্তের পক্ষে। জ্ঞানীর পক্ষে নয়। বিজয়ের শাশুড়ী বললে, ‘কই আমার কি হয়েছে? এখনও সকলের খেতে পারি না!’ আমি বললাম, ‘সকলের খেলেই কি জ্ঞান হয়? কুকুর যা তা খায়, তাই বলে কি কুকুর জ্ঞানী?’
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏त्रिगुणातीतावस्था में आत्मा समाधि को प्राप्त होती है 🔱🙏
(मास्टर से) "मैं पाच तरह की तरकारियाँ इसलिए खाया करता हूँ कि सब तरह की रुचि रहे - कहीं एक ही ढर्रे में पड़ गया तो इन्हें (भक्तों को) छोड़ न देना पड़े ।
(To M.) "Why do I eat a variety of dishes? In order not to become monotonous. Otherwise I should have to renounce the devotees.
(মাস্টারের প্রতি) — “আমি পাঁচ ব্যান্নন দিয়ে খাই কেন? পাছে একঘেয়ে হলে এদের (ভক্তদের) ছেড়ে দিতে হয়।
"केशव सेन से मैंने कहा, 'और भी बढ़कर अगर बातचीत की जायेगी तो तुम्हारा यह दल फिर न रह जायेगा । ज्ञान की अवस्था में दल-बल सब स्वप्नवत् मिथ्या हैं ।'
"I said to Keshab: 'If I instruct you from a 'still higher' standpoint, then you won't be able to preserve your organization. In the state of jnana organizations and things, like that become unreal, like a dream.'
(মাস্টারের প্রতি) — “আমি পাঁচ ব্যান্নন দিয়ে খাই কেন? পাছে একঘেয়ে হলে এদের (ভক্তদের) ছেড়ে দিতে হয়।“কেশব সেনকে বললাম, আরও এগিয়ে কথা বললে তোমার দলটল থাকে না!“জ্ঞানীর অবস্থায় দলটল মিথ্যা — স্বপ্নবৎ।...
"एक बार मैंने मछली खाना भी छोड़ दिया था। शुरू-शुरू में थोड़ी परेशानी महसूस हुई, बाद में कुछ परेशानी नहीं रही। पक्षी का घोंसला अगर कोई जला देता है, तो वह उड़ता फिरता है, आकाश में आश्रय लेता है । किसी व्यक्ति को जब सचमुच यह अनुभव होता है कि शरीर और संसार है ही नहीं -उस समय उसकी आत्मा (अहं नहीं) समाधि को प्राप्त हो जाती है।
[जिस समय कोई व्यक्ति वास्तव में यह महसूस करता है शरीर और संसार असत्य है, उसी क्षण उसकी आत्मा समाधि को प्राप्त हो जाती है।]
"One time I gave up fish. At first I suffered from it; afterwards it didn't bother me much. If someone burns up a bird's nest, the bird flies about; it takes shelter in the sky. If a man truly realizes that the body and the world are unreal, then his soul attains samadhi.
“মাছ ছেড়ে দিলাম। প্রথম প্রথম কষ্ট হত, পরে তত কষ্ট হত না। পাখির বাসা যদি কেউ পুড়িয়ে দেয়, সে উড়ে উড়ে বেড়ায়; আকাশ আশ্রয় করে। দেহ, জগৎ — যদি ঠিক মিথ্যা বোধ হয়, তাহলে আত্মা সমাধিস্থ হয়।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
[देश-काल-निमित्त को लाँघ जाने के बाद आत्मा को समाधि प्राप्त होती है]
सोऽहं बोध के बाद
🔱🙏माँ कृपा करके मन को ज्ञानी की अवस्था से भक्त की अवस्था(नेता) में रखती हैं🔱🙏
"पहले मेरी ज्ञानी की अवस्था थी । आदमी अच्छे नहीं लगते थे । हाटखोला में एक ज्ञानी है अथवा अमुक स्थान पर एक भक्त है, इस तरह की बात मैं सुनता था; फिर कुछ दिन में सुनता, वह तो गुजर गया । इसीलिए आदमी अच्छे नहीं लगते थे । फिर उन्होंने (जगदम्बा ने) मन को उतारा, भक्ति और भक्तों (लीडरशिप) में मन को लगा दिया ।"
"Formerly I had the state of mind of a jnani: I couldn't enjoy the company of men. I would hear that a jnani or a bhakta lived at a certain place; then, a few days later, I would learn that he was dead. Everything seemed to me impermanent; so I couldn't enjoy people's company. Later the Mother brought my mind down to a lower plane; She so changed my mind that I could enjoy love of God and His devotees."
“আগে ওই জ্ঞানীর অবস্থা ছিল। লোক ভাল লাগত না। হাটখোলায় অমুক একটি জ্ঞানী আছে, কি একটি ভক্ত আছে, এই শুনলাম; আবার কিছুদিন পরে শুনলাম, ওই সে মরে গেছে! তাই আর লোক ভাল লাগত না। তারপর তিনি (মা) মনকে নামালেন, ভক্তি-ভক্ততে মন রাখিয়ে দিলেন।”
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏नेतृत्व की उत्पत्ति🔱🙏
[अवतार या नरलीला का गूढ़ अर्थ ]
Genesis of Leadership
[He tastes divine bliss through a human body.]
मास्टर अवाक् हैं । श्रीरामकृष्ण की अवस्थाओं के बदलने की बातें सुन रहे हैं । अब श्रीरामकृष्ण यह बतला रहे हैं कि ईश्वर आदमी होकर क्यों अवतार लेते हैं ।
Next the Master began to talk about Divine Incarnation.
মাস্টার অবাক্, ঠাকুরের অবস্থা পরিবর্তনের বিষয় শুনিতেছেন। এইবার ঈশ্বর মানুষ হয়ে কেন অবতার হন, তাই ঠাকুর বলিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - भगवान मनुष्य-रूप में क्यों अवतार लेते हैं, जानते हो ? नरदेह के भीतर उनकी बातें सुनने को मिलती हैं । इसके भीतर उनका विलास है, इसके भीतर वे रसास्वादन ^*करते हैं ।
{रसास्वादन ^*: श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - भगवान मनुष्य-रूप में क्यों अवतार लेते हैं, जानते हो ? नरदेह के भीतर उनकी बातें सुनने को मिलती हैं । इसके भीतर उनका विलास है, वह इसके माध्यम से वे लीला (खेल) करते हैं। मनुष्य-शरीर के माध्यम से वे (नेता) दिव्यानन्द का (100 % निःस्वार्थपरता या जीवनमुक्ति का) रसास्वादन करते हैं ।}
MASTER (to M.): "Do you know why God incarnates Himself as a man? It is because through a human body one can hear His words. He sports through it. He tastes divine bliss through a human body.
"और अन्य सब भक्तों में उनका थोड़ा-थोड़ा सा प्रकाश हैं । जैसे किसी चीज को खूब चूसने पर कुछ रस मिलता है, अथवा फूल को चूसने पर कुछ मधु । (मास्टर से) तुम यह बात समझे ?"
{लेकिन अपने अन्य भक्तों के माध्यम से भगवान स्वयं का एक छोटा सा अंश ही प्रकट करते हैं। सामान्य भक्त उस केतारी के समान है जिसे बहुत चूसने के बाद थोड़ा रस मिलता है - या किसी फूल की तरह है , जिसे बहुत चूसने के बाद आपको शहद की एक बूंद मिलती है। (एम से) क्या तुम इसे समझते हो भाई ?"}
But through His other devotees God manifests only a small part of Himself. A devotee is like something you get a little juice from after much sucking — like a flower you get a drop of honey from after much sucking. (To M.) Do you understand this?"
“আর সব ভক্তদের ভিতর তাঁরই একটু একটু প্রকাশ! যেমন জিনিস অনেক চুষতে চুষতে একটু রস, ফুল চুষতে চুষতে একটু মধু। (মাস্টারের প্রতি) তুমি এটা বুঝেছ?”
मास्टर - जी हाँ, मैं खूब समझा ।
M: "Yes, sir. Very well."
মাস্টার — আজ্ঞা হাঁ, বেশ বুঝেছি।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🙏संसार से धक्के खाने के बाद ही ठाकुर को अवज्ञा से देखने की दृष्टि समाप्त🙏
किशोर अवस्था के द्विज और पूर्वजन्मों के संस्कार
श्रीरामकृष्ण द्विज के साथ बातचीत कर रहे हैं । द्विज की उम्र १५-१६ साल की है । उनके पिता ने अपना दूसरा विवाह किया है । द्विज प्राय: मास्टर के साथ आया करते हैं । श्रीरामकृष्ण उन पर स्नेह करते हैं । द्विज कह रहे हैं कि उनके पिता उन्हें दक्षिणेश्वर नहीं आने देते ।
Sri Ramakrishna began to talk to Dwija, who was about sixteen years old. His father had married a second time. Dwija often accompanied M. to Dakshineswar, and Sri Ramakrishna was fond of him. The boy said that his father opposed his coming to Dakshineswar.
ঠাকুর দ্বিজর সহিত কথা কহিতেছেন। দ্বিজর বয়স ১৫।১৬, বাপ দ্বিতীয় পক্ষে বিবাহ করিয়াছেন। দ্বিজ প্রায় মাস্টারের সঙ্গে আসেন। ঠাকুর তাঁহাকে স্নেহ করেন। দ্বিজ বলিতেছিলেন, বাবা তাঁকে দক্ষিণেশ্বরে আসিতে দেন না।
श्रीरामकृष्ण (द्विज से) - क्या तेरे भाई भी मुझे अवज्ञा की दृष्टि से देखते हैं ?
MASTER: "And your brothers too? Do they speak slightingly of me?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (দ্বিজর প্রতি) — তোর ভাইরাও? আমাকে কি অবজ্ঞা করে?
द्विज चुप हैं ।
Dwija did not answer.
দ্বিজ চুপ করিয়া আছেন।
मास्टर - संसार की कुछ ठोकरें खाने पर जिनमें कुछ अवज्ञा है भी वह भी दूर हो जायेगी ।
M. (to the Master): "Those who speak slightingly of you will be cured of it after getting a few more blows from the world."
মাস্টার — সংসারের আর দু-চার ঠোক্কর খেলে যাদের একটু-আধটু যা অবজ্ঞা আছে, চলে যাবে।
श्रीरामकृष्ण - विमाता हैं, धक्के तो मिलते ही होंगे ।
MASTER (referring to Dwija's brothers): "They live with their step-mother. So they are getting blows."
শ্রীরামকৃষ্ণ — বিমাতা আছে, ঘা (blow) তো খাচ্ছে।
सब कुछ देर चुप रहे ।
সকলে একটু চুপ করিয়া আছেন।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - पूर्ण के साथ इसे तुम मिला क्यों नहीं देते ?
MASTER (to M.): "Introduce Dwija to Purna some time."
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — একে (দ্বিজকে) পূর্ণর সঙ্গে দেখা করিয়ে দিও না।
मास्टर - जी हाँ, मिला दूँगा । (द्विज से) पानीहाटी जाना ।
M: "Yes, I shall. (To Dwija) Go to Panihati.
"মাস্টার — যে আজ্ঞা। (দ্বিজর প্রতি) — পেনেটিতে যেও।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, इसीलिए मैं सबसे कहा करता हूँ - इसे भेज देना, उसे भेज देना । (मास्टर से) तुम जाओगे या नहीं ?
MASTER: "I am asking everyone to send people to Panihati. (To M.) Won't you go?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, তাই সব্বাইকে বলছি — একে পাঠিয়ে দিও; ওকে পাঠিয়ে দিও। (মাস্টারের প্রতি) তুমি যাবে না?
श्रीरामकृष्ण पानीहाटी के महोत्सव में जायेंगे । इसीलिए भक्तों से वहाँ जाने की बात कह रहे हैं ।
Sri Ramakrishna intended to visit the religious festival at Panihati; so he was asking the devotees to go too.
ঠাকুর পেনেটির মহোৎসবে যাইবেন। তাই ভক্তদের সেখানে যাবার কথা বলিতেছেন।
मास्टर - जी हाँ, इच्छा तो है ।
M: "Yes, sir, I want to go."
মাস্টার — আজ্ঞা, ইচ্ছা আছে।
श्रीरामकृष्ण - बड़ी नाव किराये से ले ली जायेगी । वह डाँवाडोल न होगी । गिरीश घोष क्या नहीं जायेगा ?
MASTER: "We shall engage a big boat; then it won't toss about. Will Girish Ghosh be there?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — বড় নৌকা হবে, টলটল করবে না। গিরিশ ঘোষ যাবে না?
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116]
🔱🙏साधुसंग जैसी अच्छी प्रवृत्तियाँ पिछले जन्म से विरासत में मिलती हैं🔱🙏
[Good Tendencies Are Inherited From Previous Birth. ]
श्रीरामकृष्ण एक दृष्टि से द्विज को देख रहे हैं ।
[श्री रामकृष्ण एकटक होकर द्विज की ओर देख रहे हैं।]
Sri Ramakrishna looked steadily at Dwija.
ঠাকুর দ্বিজকে একদৃষ্টে দেখিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण - अच्छा इतने लड़के हैं, उनमें यही आता है - यह क्यों ? (म की देखकर) तुम कहो कि तुम क्या सोचते हो ? - पहले का कुछ जरूर रहा होगा ।
[ठाकुरदेव - "अच्छा, शहर में इतने सारे युवा हैं; उनमें यही लड़का यहाँ क्यों आता है? (म. से) मुझे बताओ कि तुम क्या सोचते हो। निश्चित रूप से उसे अपने पिछले जन्म से कुछ अच्छी प्रवृत्तियाँ विरासत में मिली हैं।"]
MASTER: "Well, there are so many youngsters in the city; why does this boy come here? (To M.) Tell me what you think. Certainly he has inherited some good tendencies from his previous birth."
শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা এত ছোকরা আছে, এই বা আসে কেন? তুমি বল, অবশ্য আগেকার কিছু ছিল!
मास्टर - जी हाँ, बेशक !
M: "Undoubtedly, sir."
মাস্টার — আজ্ঞা হাঁ।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🙏C-IN-C नवनीदा (कैप्टन सेवियर) को युवा-प्रशिक्षण का चपरास पूर्वजन्म से प्राप्त था🙏
[Nabani da (Captain Sevier) was a Born Leader]
श्रीरामकृष्ण - संस्कार (जन्मजात प्रवृत्ति)। गतजन्म में कर्म किया हुआ है । अन्तिम जन्म में मनुष्य निष्कपट होता है। अन्तिम जन्म में पागलपन का भाव रहता है ।
[मास्टर: "जन्मजात प्रवृत्ति जैसी कोई चीज अवश्य होती है। जब मनुष्य अपने पिछले जन्मों में कई अच्छे कर्म करता है, तो अंतिम जन्म में वह निष्कपट हो जाता है। अंतिम जन्म में वह कुछ हद तक पागल की तरह काम करता है।]
MASTER: "There is such a thing as inborn tendencies. When a man has performed many good actions in his previous births, in the final birth he becomes guileless. In the final birth he acts somewhat like a madcap.
শ্রীরামকৃষ্ণ — সংস্কার। আগের জন্মে কর্ম করা আছে। সরল হয়ে শেষ জন্মে। শেষ জন্মে খ্যাপাটে ভাব থাকে।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏किन्तु जन्मजात नेता को भी माँ सारदा की इच्छा का अनुसरण करना होगा🔱🙏
[But even a born leader has to follow Mahavidya Sarda's will]
ऐसा क्यों है कि कोई मनुष्य दूसरे को आशीर्वाद नहीं देता?
[माँ सारदा (ठाकुर) की इच्छा से कोई होनहार Bh-आन्दुल घटित होता है या अदृश्य हो जाता है]
[माँ तारा अपने पुत्र की मनोकामनाओं (पंचमुण्डी ऐषणाओं) को जानती हैं !!!!]
माँ सारदा की 'हाँ ' और 'ना' से > "अनन्त ब्रह्माण्ड प्रकट और अदृश्य होता रहता है !
[‘হাঁ’ ‘না’ “Everlasting Yea — Everlasting Nay”]
"परन्तु है यह उनकी इच्छा । उनकी 'हाँ' से संसार के कुछ काम होते हैं और उनकी 'ना' से होनहार भी बन्द हो जाता है । इसीलिए तो आदमी को आशीर्वाद नहीं देना चाहिए ।"मनुष्य की इच्छा से कुछ नहीं होता । उन्हीं की इच्छा से 'होता' 'जाता' है।
["सच कहूँ तो, सब कुछ भगवान की इच्छा से होता' या जाता' है। जब वे 'हाँ' कहते हैं, तो सब कुछ हो जाता है (अनन्त ब्रह्माण्ड प्रकट हो जाता है) , और जब वे 'ना' कहते हैं, तो सब कुछ रुक जाता है। (लोटा-ब्रह्म, थाली ब्रह्म हो जाता है ! हेदुआ पार्क में सबकुछ ठहर जाता है,या क्षणमात्र में अनन्त ब्रह्माण्ड अदृश्य हो जाता है !) क्या जादू है !! लेकिन जादू सत्य नहीं है -जादूगर ही सत्य है ! 40 साल के बाद ......आटाचक्की खोजने Bh का आना ,वहाँ होटल बनना ? पातिपुकुर ?.....खरदह से कैम्प ? ]
"To tell you the truth, everything happens by God's will. When He says 'Yea', everything comes to pass, and when He says 'Nay', everything comes to a standstill.
“তবে কি জানো? — তাঁর ইচ্ছা। তঁর ‘হাঁ’তে জগতের সব হচ্চে; তঁর ‘না’তে হওয়া বন্ধ হচ্চে। মানুষের আশীর্বাদ করতে নাই কেন? “মানুষের ইচ্ছায় কিছু হয় না, তাঁরই ইচ্ছাতে হয় — যায়!
"Why is it that one man should not bless another? Because nothing can happen by man's will: things come to pass or disappear by God's will.
"उस दिन मैं कप्तान के यहाँ गया था । देखा, रास्ते से कुछ लड़के जा रहे थे । वे सब एक खास तरह के थे । एक लड़के को मैंने देखा, उन्नीस या बीस साल की उम्र रही होगी, बाल सँवारे हुए था, सीटी बजाता हुआ चला जा रहा था । कोई 'नगेन्द्र - क्षीरोद' कहता हुआ चल रहा था । देखा, कोई तमोगुण में पड़ा हुआ है, बाँसुरी बजा रहा है, उसी के कारण कुछ अहंकार हो गया है ।
"The other day I went to Captain's house. I saw some young boys going along the road. They belong to a different class. I saw one of them, about nineteen or twenty years old, with his hair parted on the side. He was whistling as he walked along. Someone was walking saying 'Nagendra - Kshirod'. ( क्षीरसमुद्र, क्षीरोद नंदन = चंद्रमा )"I see some immersed in the thickest tamas. They play the flute and are proud of it.
“সেদিন কাপ্তেনের ওখানে গেলাম। রাস্তা দিয়ে ছোকরারা যাচ্ছে দেখলাম। তারা একরকমের। একটা ছোকরাকে দেখলাম, উনিশ-কুড়ি বছর বয়স, বাঁকা সিঁতে কাটা, শিস দিতে দিতে যাচ্ছে! কেউ যাচ্ছে বলতে বলতে, ‘নগেন্দ্র! ক্ষীরোদ!’ “কেউ দেখি ঘোর তমো; — বাঁশী বাজাচ্ছে, — তাতেই একটু অহংকার হয়েছে।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏देश-काल से परे ब्रह्म को जान लेने से बुद्धि कूटस्थ हो जाती है🔱🙏
(द्विज से) जिसे ज्ञान हो गया है, उसे निन्दा की क्या परवाह है ? उसकी बुद्धि कूटस्थ है - लौहार की निहाई जैसे, उस पर कितनी ही चोट पड़ चुकी, परन्तु उसका कहीं कुछ नहीं बिगड़ा ।
[जैसे मोदीजी पर अदाणी की आलोचना का कोई परवाह नहीं पड़ता।)
(To Dwija) "Why should a man of Knowledge be afraid of criticism? His understanding is as immovable as the anvil in a blacksmith's shop. Blows from the hammer fall continually on the anvil but cannot affect it in the least.
(দ্বিজর প্রতি) যার জ্ঞান হয়েছে, তার নিন্দার ভয় কি? তার কূটস্থ বুদ্ধি — কামারের নেয়াই, তার উপর কত হাতুড়ির ঘা পড়েছে, কিছুতেই কিছু হয় না।
"मैंने (अमुक के) बाप को देखा, रास्ते से चला जा रहा था ।"
"I saw X —'s father going along the street."
“আমি (অমুকের) বাপকে দেখলাম রাস্তা দিয়ে যাচ্চে।”
मास्टर - बड़ा सरल (अकृत्रिम) आदमी है ।
M; "He is a very artless man."
মাস্টার — লোকটি বেশ সরল।
श्रीरामकृष्ण - परन्तु आँखें लाल रहती हैं । (जैसे सूर्योदय के पहले -उषा काल में जब आसमान लाल हो जाता है।)
MASTER: "But he has red eyes."
শ্রীরামকৃষ্ণ — কিন্তু চোখ রাঙা।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
कप्तान का चरित्र और श्री रामकृष्ण - पुरुष-प्रकृति योग
[কাপ্তেনের চরিত্র ও শ্রীরামকৃষ্ণ — পুরুষ-প্রকৃতি যোগ ]
श्रीरामकृष्ण कप्तान के यहाँ गये हुए थे । वहीं की बातें कर रहे हैं । जो लड़के श्रीरामकृष्ण के पास आते हैं, कप्तान ने उनकी निन्दा की थी । हाजरा महाशय ने कप्तान के पास उनकी निन्दा की होगी ।
[जैसे महामण्डल पाठचक्र में जाने वालों की निन्दा (38 साल से चरित्रनिर्माण नहीं हुआ) कुछ जलनखोर लोग करते हैं ?]
Sri Ramakrishna told the devotees about his visit to Captain's house. Captain had criticized the young men who visited the Master. Perhaps Hazra had poisoned his mind.
ঠাকুর কাপ্তেনের বাড়ি গিয়াছিলেন — সেই গল্প করিতেছেন। যে-সব ছেলেরা ঠাকুরের কাছে আসে, কাপ্তেন তাহাদের নিন্দা করিয়াছিলেন। হাজরামহাশয়ের কাছে বোধ হয় তাহাদের নিন্দা শুনিয়াছিলেন।
श्रीरामकृष्ण - कप्तान से बातें हो रही थीं । मैंने कहा, पुरुष और प्रकृति के सिवा और कुछ भी नहीं है । नारद ने कहा था, 'हे राम, जितने पुरुष देखते हो सब में तुम्हारा अंश है, और जितनी स्त्रियाँ देखते हो सब में सीता का अंश है ।’
MASTER: "I was talking to Captain. I said: 'Nothing exists except Purusha and Prakriti. Narada said to Rama, "O Rama, all the men You see are parts of Yourself, and all the women are parts of Sita."'
শ্রীরামকৃষ্ণ — কাপ্তেনের সঙ্গে কথা হচ্ছিল। আমি বললাম পুরুষ আর প্রকৃতি ছাড়া আর কিছুই নাই। নারদ বলেছিলেন, হে রাম, যত পুরুষ দেখতে পাও, সব তোমার অংশ; আর যত স্ত্রী দেখতে পাও, সব সীতার অংশ।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏हर देश में तूँ , हर भेष में तूँ - अतएव abi-निन्दा किये बिना भी सचेत रहो🔱🙏
"कप्तान को बड़ी प्रसन्नता हुई । उसने कहा, ‘आप ही को यथार्थ बोध हुआ है । सब पुरुष राम के अंश से हुए अतएव राम हैं और सब स्त्रियाँ सीता के अंश से हुई अतएव सीता हैं । फिर थोड़ी ही देर में वह लड़कों की निन्दा करने लगा ।
"Captain was highly pleased. He said: 'You alone have the right perception. All men are really Rama, being parts of Rama; all women are really Sita, being parts of Sita.' "Immediately after saying this he began to criticize the young devotees.
“কাপ্তেন খুব খুশি। বললে, ‘আপনারই ঠিক বোধ হয়েছে, সব পুরুষ রামের অংশে রাম, সব স্ত্রী সীতার অংশে সীতা!’“এই কথা এই বললে, আবার তারই পর ছোকরাদের নিন্দা আরম্ভ করলে!
कहा, 'वे लोग अंग्रेजी पढ़ते हैं, जो पाते हैं वहीं खाते हैं, - वे लोग आपके पास सर्वदा जाते हैं, यह अच्छा नहीं । इससे आप पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है । हाजरा ही एक सच्चा आदमी है । लड़को को अपने पास अधिक आने-जाने न दिया कीजिये । पहले तो मैंने कहा, 'आते हैं - मैं क्या कहूँ?’ "फिर मैंने उसे खूब सुनाया । उसकी लड़की हँसने लगी ।
He said: 'They study English books and don't discriminate about their food. It is not good that they should visit you frequently. It may do you harm. Hazra is a real man, a grand fellow. Don't allow those young people to visit you so much.' At first I said, 'What can I do if they come?' Then I gave him some mortal blows. His daughter laughed.
বলে, ‘ওরা ইংরাজী পড়ে, — যা তা খায়, ওরা তোমার কাছে সর্বদা যায়, — সে ভাল নয়। ওতে তোমার খারাপ হতে পারে। হাজরা যা একটি লোক, খুব লোক। ওদের অত যেতে দেবেন না।’ আমি প্রথমে বললাম, যায় তা কি করি? “তারপর প্যাণ (প্রাণ) থেঁতলে দিলাম। ওর মেয়ে হাসতে লাগল।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏'नीचे की दुनिया' के प्रति आसक्ति खत्म तो ईश्वर बहुत निकट🔱🙏
मैंने कहा, 'जिसमें विषय-बुद्धि है, उससे ईश्वर बहुत दूर हैं । विषय-बुद्धि (worldliness beneath -नीचे की दुनिया के प्रति आसक्ति ) अगर न रही तो ईश्वर उस आदमी की मुट्ठी में हैं - बहुत निकट हैं ।'
I said to him: 'God is far, far away from the worldly-minded. But God is very near the man — nay, within a distance, of three cubits — whose mind is free from worldliness.'
বললাম, যে লোকের বিষয়বুদ্ধি আছে, সে লোক থেকে ঈশ্বর অনেক দূর। বিষয়বুদ্ধি যদি না থাকে, সে ব্যক্তির তিনি হাতের ভিতর — অতি নিকটে।
कप्तान ने राखाल की बात पर कहा, 'वह सब के यहाँ खाता है । हाजरा से उसने सुना होगा।' तब मैंने कहा, 'कोई चाहे लाख जप-तप करे, यदि उसमें विषय-बुद्धि है तो कहीं कुछ न होगा, और शूकर-मांस खाने पर भी अगर किसी का मन ईश्वर पर है तो वह मनुष्य धन्य है । क्रमशः ईश्वर की प्राप्ति उसे होगी ही । हाजरा इतना जप-तप करता है परन्तु भीतर दलाली करने की फिक्र में रहता है ।
Speaking of Rakhal, Captain said, 'He eats with all sorts of people.' Perhaps he had heard it from Hazra. Thereupon I said to him: 'A man may practise intense austerity and japa, but he won't achieve anything if his mind dwells on the world. But blessed is the man who keeps his mind on God even though he eats pork. He will certainly realize God in due time. Hazra, with all his austerity and japa, doesn't allow an opportunity to slip by for earning money as a broker.'
“কাপ্তেন রাখালের কথায় বলে যে, ও সকলের বাড়িতে খায়। বুঝি হাজরার কাছে শুনেছে। তযন বললাম, লোকে হাজার তপজপ করুক, যদি বিষয়বুদ্ধি থাকে, তাহলে কিছুই হবে না; আর শূকর মাংস খেয়ে যদি ঈশ্বরে মন থাকে, সে ব্যক্তি ধন্য! তার ক্রমে ঈশ্বরলাভ হবেই। হাজরা এত তপজপ করে, কিন্তু ওর মধ্যে দালালি করবে — এই চেষ্টায় থাকে।
"तब कप्तान ने कहा, 'हाँ, यह बात तो ठीक है ।' मैंने कहा, 'अभी अभी तो तुमने कहा, - सब पुरुष राम के अंश से हुए अतएव राम हैं, और सब स्त्रियाँ सीता के अंश से हुई अतएव सीता हैं, इस तरह कहकर अब ऐसी बात कह रहे हो ?
"'Yes, yes!' said Captain. 'You are right.' I said to him further, 'A few minutes ago you said that all men were parts of Rama and all women parts of Sita, and now you are talking like this!'
“তখন কাপ্তেন বলে, হাঁ, তা ও বাৎ ঠিক হ্যায়। তারপরে আমি বললাম, এই তুমি বললে, সব পুরুষ রামের অংশে রাম, সব স্ত্রী সীতার অংশে সীতা, আবার এখন এমন কথা বলছ!
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏सभी के साथ एक समान प्यार करना व्यावहारिक नहीं है🔱🙏
"कप्तान ने कहा, 'हाँ ठीक है - मगर आप भी तो सब को प्यार नहीं करते ।’
"Captain said: 'Yes, that's true. But you don't love everybody.'
“কাপ্তেন বললে, তা তো, কিন্তু তুমি সকলকে তো ভালবাস না!
मैंने कहा, " शास्त्रों के अनुसार 'आपो नारायण' - अर्थात पानी भगवान है। परन्तु कोई जल पिया जाता है, किसी से बरतन धोये जाते हैं, कोई शौच के काम आता है । यह जो तुम्हारी 'स्त्री' और 'बेटी' बैठी हुई हैं, लेकिन मैं देख रहा हूँ, ये साक्षात् आनन्दमयी हैं ।’ कप्तान कहने लगा, ‘हाँ हाँ, यह ठीक है ।' तब मेरे पैर पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाने लगा ।"
"I said: 'According to the scriptures, water is God. We see water everywhere. But some water we drink, some we bathe in, and some we use for washing dirty things. Here sit your wife and daughter. I see them as embodiments of the Blessed Mother.'
“আমি বললাম, ‘আপো নারায়ণঃ’ সবই জল, কিন্তু কোনও জল খাওয়া যায়, কোনটিতে নাওয়া যায়, কোনও জলে শৌচ করে যায়। এই যে তোমার মাগ মেয়ে বসে আছে, আমি দেখছি সাক্ষাৎ আনন্দময়ী! কাপ্তেন তখন বলতে লাগল, ‘হাঁ, হাঁ, ও ঠিক হ্যায়’! তখন আবার আমার পায়ে ধরতে যায়।”
[(13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏राम भजा सो जीता...आन देव की पूजा कीन्ही, हरि (गुरु) से रहा अतिता🔱🙏
यह कहकर श्रीरामकृष्ण हँसने लगे । अब श्रीरामकृष्ण कप्तान के गुणों की बात कह रहे हैं ।श्रीरामकृष्ण - कप्तान में बहुत से गुण हैं । रोज नित्य-कर्म करता है, स्वयं देवता की पूजा करता है। नहाते समय कितने ही मन्त्र जपा करता है । कप्तान एक बहुत बड़ा कर्मी है । पूजा, जप, आरती, पाठ, ये सब नित्यकर्म हमेशा किया करता है ।
After speaking thus, Sri Ramakrishna laughed. Then he began to tell of Captain's many virtues.MASTER: "Captain has many virtues. Every day he attends, to his devotions. He himself performs the worship of the Family Deity. How many mantras he recites while bathing the image! He is a great ritualist. He performs his daily devotions, such as worship, japa, arati, recital of the scriptures, and chanting of hymns.
এই বলিয়া ঠাকুর হাসিতে লাগিলেন। এইবার ঠাকুর কাপ্তেনের কত গুণ, তাহা বলিতেছেন।শ্রীরামকৃষ্ণ — কাপ্তেনের অনেক গুণ। রোজ নিত্যকর্ম, — নিজে ঠাকুর পূজা, — স্নানের মন্ত্রই কত! কাপ্তেন খুব একজন কর্মী, — পূজা জপ, আরতি, পাঠ, স্তব এ-সব নিত্যকর্ম করে।
“फिर मैं कप्तान को सुनाने लगा । मैंने कहा, ‘पढ़कर ही तुमने सब मिट्टी में मिलाया, अब हरगिज न पढ़ना ।’
"I scolded Captain and said: 'Too much reading has spoiled you. Don't read any more.'
“আমি কাপ্তেনকে বকতে লাগলাম; বললাম, তুমি পড়েই সব খারাপ করেছ। আর পোড়ো না!
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏भक्त कप्तान की दृष्टि में श्रीरामकृष्ण की अवस्था🔱🙏
[ কাপ্তেন ও ঠাকুরের অবস্থা ]
"मेरी अवस्था के सम्बन्ध में कप्तान ने कहा, 'यह आसमान में चक्कर मारनेवाला भाव है ।' जीवात्मा और परमात्मा, जीवात्मा एक पक्षी है और परमात्मा आकाश – चिदाकाश । कप्तान कहता है, 'तुम्हारा जीवात्मा चिदाकाश में उड़ जाता है, इसीलिए समाधि होती है ।
"About my own spiritual state Captain said, 'Your soul, like a bird, is ready to fly.' There are two entities: jivatma, the embodied soul, and Paramatma, the Supreme Soul. The embodied soul is the bird. The Supreme Soul is like the akasa; it is the Chidakasa, the akasa of Consciousness. Captain said: 'Your embodied soul flies into the akasa of Consciousness. Thus you go into samadhi.'
“আমার অবস্থা কাপ্তেন বললে, উড্ডীয়মান ভাব। জীবাত্মা আর পরমাত্মা; জীবাত্মা যেন একটা পাখি, আর পরমাত্মা যেন আকাশ — চিদাকাশ। কাপ্তেন বললে, ‘তোমার জীবাত্মা চিদাকাশে উড়ে যায়, — তাই সমাধি’;
(हँसकर) कप्तान ने बंगालियों की निन्दा की । कहा, 'बंगाली बेवकूफ हैं । पास ही मणि है और उन लोगों ने न पहचाना !’
(Smiling) "He criticized the Bengalis. He said: The Bengalis are fools. They have a gem (Sri Ramakrishna.) near them, but they cannot recognize it.'
(সহাস্যে) কাপ্তেন বাঙালীদের নিন্দা করলে। বললে, বাঙালীরা নির্বোধ! কাছে মাণিক রয়েছে চিনলে না!”
“कप्तान का बाप बड़ा भक्त था । अंग्रेजों की फौज में सूबेदार था, एक हाथ से शिव की पूजा करता था और दूसरे से बन्दूक चलाता था ।
"Captain's father was a great devotee. He was a subeder in the English army. Even on the battle-field he would perform his worship at the proper time. With one hand he would worship Siva and with the other he would wield his gun and sword.
“কাপ্তেনের বাপ খুব ভক্ত ছিল। ইংরেজের ফৌজে সুবাদারের কাজ করত। যুদ্ধক্ষেত্রে পূজার সময়ে পূজা করত, — একহাতে শিবপূজা, একহাতে তরবার-বন্দুক!
(मास्टर से) "परन्तु बात यह है कि विषय के कामों में दिन-रात फँसा रहता है । जब जाता हूँ, देखता हूँ, बीबी और बच्चे घेरे रहते हैं । और कभी कभी हिसाब की बही भी लोग ले आते हैं । परन्तु कभी कभी ईश्वर की ओर भी मन जाता है ।
(To M.) "But Captain is engaged in worldly duties day and night. Whenever I go to his house I see him surrounded by his wife and children. Besides, his men bring him their account books now and then. But at times his mind dwells on God also.
(মাস্টারের প্রতি) “তবে কি জানো, রাতদিন বিষয়কর্ম! মাগছেলে ঘিরে রয়েছে, যখনই যাই দেখি! আবার লোকজন হিসাবের খাতা মাঝে মাঝে আনে। এক-একবার ঈশ্বরেও মন যায়।
जैसे सन्निपात का रोगी, विकार-ग्रस्त बना ही रहता है परन्तु कभी जब होश में आता है, तब ‘पानी पिऊँगा, पानी पिऊँगा' कहकर चिल्ला उठता है । पर उसे जब तक पानी दो तब तक वह फिर बेहोश हो जाता है । इसीलिए मैंने उससे कहा, तुम कर्मकाण्डी हो । कप्तान ने कहा, 'जी, मुझे तो पूजा आदि के करने में ही आनन्द आता है । सांसारी गृहस्थों के लिए कर्म के सिवा और उपाय भी नहीं है ।'
It is like the case of a typhoid patient who is always in a delirium. Now and then he gets a flash of consciousness and cries out: 'I want a drink of water! I want a drink of water!' But while you are giving him the water, he becomes unconscious again and is not aware of anything. I said to Captain, 'You are a ritualist.' He said: 'Yes, I feel very happy while performing worship and things like that. Worldly people have no other way.'
যেমন বিকারের রোগী; বিকারের ঘোর লেগেই আছে, এক-একবার চটকা ভাঙে! তখন ‘জল খাব’ ‘জল খাব’ বলে চেঁচিয়ে উঠে; আবার জল দিতে দিতে অজ্ঞান হয়ে খায়, — কোন হুঁশ থাকে না! আমি তাই ওকে বললাম, — তুমি কর্মী। কাপ্তেন বললে, ‘আজ্ঞা, আমার পূজা এই সব করতে আনন্দ হয় — জীবের কর্ম বই আর উপায় নাই।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏यहाँ जड़ कुछ भी नहीं है - सब कुछ चैतन्य है!🔱🙏
"आत्मा एव सर्वाणि भूतानि अभूत्" - तत्र एकत्वम् अनुपश्यतः कः मोहः कः शोकः॥
(জড় আবার কি? সবই চৈতন্য!)
"मैंने कहा, 'तो क्या सदा ही कर्म (औपचारिक कर्म-काण्ड) करते रहना होगा ? मधुमक्खी तभी तक भन्भन् करती है जब तक वह फूल पर नहीं बैठ जाती । मधु पीते समय भन्भन् करना छूट जाता है ।' कप्तान ने कहा, 'आपकी तरह हम लोग पूजा और कर्म छोड़ थोड़े ही सकते हैं ?' परन्तु उसकी बात कुछ ठीक नहीं रहती । कभी तो कहता है, 'यह सब जड़ है' और कभी कहता है, 'सब चैतन्य है ।' पर मैं कहता हूँ, 'जड़ कहाँ हैं ? सभी कुछ तो चैतन्य है ।’ ”
[आत्मा से अन्य/भिन्न कुछ भी नहीं है ---"ईशावास्योपनिषद्" के मंत्र ७ में कहा गया है- "यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद् विजानतः। तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥७॥"(यस्मिन् विजानतः आत्मा एव सर्वाणि भूतानि अभूत्। तत्र एकत्वम् अनुपश्यतः कः मोहः कः शोकः॥)हिन्दी में भावार्थ --पूर्ण ज्ञान, विज्ञान से सम्पन्न होने के कारण जिस मनुष्य के अन्दर यह परमोच्च चेतना जाग गयी है कि स्वयम्भू आत्मसत्ता ही स्वयं सभी भूत, सभी सत्ताएं या सम्भूतियां बना है, उस मनुष्य में फिर मोह कैसे होगा, शोक कहां से होगा जो सर्वत्र एकता का अनुभव करता है।]
"I said to him: 'But must one perform formal worship for ever? How long does a bee buzz about? As long as it hasn't lighted on a flower. While sipping honey it doesn't buzz.' 'But', he said, 'can we, like you, give up worship and other rituals?' Yet he doesn't always say the same thing. Sometimes he says that all this is inert, sometimes that all this is conscious. I say: 'What do you mean by inert? Everything is Chaitanya, Consciousness.'"
“আমি বললাম, কিন্তু কর্ম কি চিরকাল করতে হবে? মৌমাছি ভনভন কতক্ষণ করে? যতক্ষণ না ফুলে বসে। মধুপানের সময় ভনভনানি চলে যায়। কাপ্তেন বললে, ‘আপনার মতো আমরা কি পূজা আর আর কর্ম ত্যাগ করতে পারি?’ তার কিন্তু কথার ঠিক নাই, — কখনও বলে, ‘এ-সব জড়।’ কখনও বলে, ‘এ-সব চৈতন্য।’ আমি বলি, জড় আবার কি? সবই চৈতন্য!”
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏चरित्रवान मनुष्य बनने के लिए वर्ष में कुछ दिन निर्जनवास जरुरी है🔱🙏
'I too feel a strange sensation in my heart for you.'
[পূর্ণ ও মাস্টার — জোর করে বিবাহ ও শ্রীরামকৃষ্ণ ]
श्रीरामकृष्ण मास्टर से पूर्ण की बात पूछने लगे ।
Sri Ramakrishna asked M. about Purna.
পূর্ণর কথা ঠাকুর মাস্টারকে জিজ্ঞাসা করিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण - पूर्ण को एक बार और देख लूँ तो मेरी व्याकुलता कम हो जाय । कितना चतुर है ! - मेरी ओर आकर्षण भी खूब है ।"वह कहता है, 'आपको देखने के लिए मेरे हृदय में भी न जाने कैसा हुआ करता है ।' (मास्टर से) "तुम्हारे स्कूल से उसके घरवालों ने उसे निकाल लिया, इससे तुम्हारे ऊपर कुछ बात (बदनामी) तो न आयेगी ?"
[ ^* श्री पूर्णचंद्र घोष (1871 - 1913) — का जन्म सिमुलिया, कोलकाता में हुआ था। ठाकुर देव से प्रथम दर्शन मार्च 1885 ई. में हुआ। श्रीश्रीठाकुर ने अपने गृहस्थ भक्तों में उन्हें ईश्वरकोटि के रूप पहचाना था। मास्टर महाशय की सलाह पर वे बहुत कम उम्र में दक्षिणेश्वर में ठाकुर के संपर्क में आए थे । उनके पिता रॉय बहादुर दीनाथ घोष - उच्च श्रेणी के सरकारी कर्मचारी थे । ठाकुर देव ने पूर्ण को जब सुविधा हो अपने पास आने की छूट दी थी। श्री श्री ठाकुर ने कहा था कि पूर्ण चंद्र का जन्म 'विष्णु' ( नेता) के अंश से हुआ था, और उनके आने से उस श्रेणी के भक्तों का आगमन पूरा हो गया था। उपरी तौर पर वे सरकारी कर्मचारी थे, लेकिन भीतर से निरंतर ठाकुर की विचारधारा के प्रचार-प्रसार में लगे रहते थे। स्वामीजी के प्रति उनका गहरा लगाव था। स्वामीजी की भक्त मैडम काल्वे जब कलकत्ता आईं तो उन्होंने विवेकानंद सोसाइटी की ओर से के सोसाइटी के सचिव के रूप में उनका स्वागत किया था । 42 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।]
MASTER: "If I see Purna once more, then my longing for him will diminish. How intelligent he is! His mind is much drawn to me. He says, 'I too feel a strange sensation in my heart for you.' (To M.) They have taken him away from your school. Will that harm you?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — পূর্ণকে আর-একবার দেখলে আমার ব্যাকুলতা একটু কম পড়বে! — কি চতুর! — আমার উপর খুব টান; সে বলে, আমারও বুক কেমন করে আপনাকে দেখবার জন্য। (মাস্টারের প্রতি) তোমার স্কুল থেকে ওকে ছাড়িয়ে নিয়েছে, তাতে তোমার কি কিছু ক্ষতি হবে?
मास्टर - अगर वे (विद्यासागर-स्कूल के संस्थापक) कहें – ‘तुम्हारे चलते उसको स्कूल से निकाल लेना पड़ा’ - तो मेरे पास भी उन्हें देने के लिए एक स्पष्टीकरण है।"
M: "If Vidyasagar (The founder of the school.) tells me that Purna's relatives have taken him away from the school on my account, I have an explanation to give him."
মাস্টার — যদি তাঁরা (বিদ্যাসাগর) — বলেন, তোমার জন্য ওকে স্কুল থেকে ছাড়িয়ে নিলে, — তাহলে আমার জবাব দিবার পথ আছে।
श्रीरामकृष्ण - क्या कहोगे ?
MASTER: "What will you say?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — কি বলবে?
मास्टर - यही कहूँगा कि साधुओं के साथ ईश्वर-चिन्ता होती है, यह कोई बुरा कर्म नहीं, और आप लोगों ने जो पुस्तक पढ़ाने के लिए दी है, उसी में है - ईश्वर को हृदय खोलकर प्यार करना चाहिए। (श्रीरामकृष्ण हँसने लगे)
M: "I shall say that one thinks of God in holy company. That is by no means bad. Further, I shall tell him that the text-books prescribed by the school authorities say that one should love God with all one's soul." (The Master laughs.)
মাস্টার — এই কথা বলব, সাধুসঙ্গে ঈশ্বরচিন্তা হয়, সে আর মন্দ কাজ নয়; আর আপনারা যে বই পড়াতে দিয়েছেন, তাতেই আছে — ঈশ্বরকে প্রাণের সহিত ভালবাসবে।(ঠাকুর হাসিতেছেন।)
श्रीरामकृष्ण - कप्तान के यहाँ छोटे नरेन्द्र को मैंने बुलाया । पूछा, 'तेरा घर कहाँ है ? चल चलें ।' उसने कहा, 'चलिये ।' परन्तु डरता हुआ साथ जा रहा था कि कहीं बाप को खबर न लग जाय । (सब हँसते हैं)
MASTER: "At Captain's house I sent for the younger Naren. I said to him: Where is your house? I want to see it.' 'Please do come', he said. But he became nervous as we were going there, lest his father should know about it" (All laugh.)
শ্রীরামকৃষ্ণ — কাপ্তেনের বাড়িতে ছোট নরেনকে ডাকলুম। বললাম, তোর বাড়িটা কোথায়? চল যাই। — সে বললে, ‘আসুন’। কিন্তু ভয়ে ভয়ে চলতে লাগল সঙ্গে, — পাছে বাপ জানতে পারে! (সকলের হাস্য)
(अखिलबाबू के पड़ोसी से) "क्यों जी, तुम बहुत दिनों से नहीं आये, सात-आठ महीने तो हुए होंगे?"
(To a visitor) "You haven't been here for a long time — about seven or eight months."
(অখিলবাবুর প্রতিবেশীকে) — “হ্যাঁগা, তুমি অনেক কাল আস নাই। সাত-আট মাস হবে।”
पड़ोसी - जी, एक साल हुआ होगा ।
VISITOR: "About a year, sir."
প্রতিবেশী — আজ্ঞা, একবৎসর হবে।
श्रीरामकृष्ण - तुम्हारे साथ एक और आते थे ।
MASTER: "Another gentleman used to come with you."
শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমার সঙ্গে আর-একটি আসতেন।
पड़ोसी - जी हाँ, नीलमणिबाबू ।
VISITOR: "Yes, sir. Nilmani Babu."
প্রতিবেশী — আজ্ঞা হাঁ, নীলমণিবাবু।
श्रीरामकृष्ण - वे सब क्यों नहीं आते ? - एक बार उनसे आने के लिए कहना - उनसे मुलाकात करा देना । (पड़ोसी के साथ के बच्चे को देखकर) यह बच्चा कौन है ?
MASTER: "Why doesn't he come any more? Ask him to come some time. I want to see him. Who is this boy with you?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — তিনি কেন আসেন না? — একবার তাঁকে আসতে বলো, তাঁর সঙ্গে দেখা করিয়ে দিও। (প্রতিবেশীর সঙ্গী বালক দৃষ্টে) — এ-ছেলেটি কে?
पड़ोसी - यह आसाम का है ।
VISITOR: "He comes from Assam."
প্রতিবেশী — এ-ছেলেটির বাড়ি আসামে।
श्रीरामकृष्ण - आसाम कहाँ है ? किस ओर है ?
MASTER: "Where is Assam? In which direction?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — আসাম কোথা? কোন্ দিকে?
द्विज आशुतोष की बात करने लगे । कहा, 'आशुतोष के पिता उसका विवाह करनेवाले हैं, परन्तु उसकी इच्छा नहीं है ।'
Dwija spoke to the Master about Ashu. Ashu's father was arranging for his marriage, but Ashu had no wish to marry.
দ্বিজ আশুর কথা বলিতেছেন। আশুর বাবা তার বিবাহ দিবেন। আশুর ইচ্ছা নাই।
श्रीरामकृष्ण - देखो तो, उसकी इच्छा नहीं है और बलपूर्वक उसका विवाह किया जाता है ।
[श्री रामकृष्ण के भक्त आशुतोष बंदोपाध्याय (बनर्जी) आगरपाड़ा के रहने वाले थे। वे 22 साल की उम्र में पहली बार ठाकुर से मिले थे। दक्षिणेश्वर जाकर वे एकान्त में ठाकुर से अपने मनोभाव व्यक्त करते थे। आशुतोष अपने प्रौढ़ावस्था में मास्टर महाशय से मिलने जाते थे और ठाकुर के साथ उनकी बातों पर चर्चा करते थे। ठाकुर के मन की विज्ञानी अवस्था से आशुतोष विशेष रूप से प्रभावित हुए थे। और धीरे-धीरे उन्होंने पूरी तरह से श्री रामकृष्ण के चरणों में आत्मसमर्पण कर दिया।]
MASTER: "See, he doesn't want to marry. They are forcing him."
শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখ দেখ, তার ইচ্ছা নাই, জোর করে বিবাহ দিচ্ছে।
श्रीरामकृष्ण एक भक्त से बड़े भाई पर भक्ति करने के लिए कह रहे हैं । कहा - बड़ा भाई पिता से समान होता है, उसका बड़ा सम्मान करना चाहिए ।
Sri Ramakrishna said to a devotee that he should show respect to his elder brother. He said: "The elder brother is like one's father. Respect him."
ঠাকুর একটি ভক্তকে জ্যেষ্ঠভ্রাতাকে ভক্তি করিতে বলিতেছেন, — “জ্যেষ্ঠ-ভাই, পিতা সম, খুব মানবি।”
(२)
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏योगमाया तत्व (सत्त्व, रज और तम) तथा श्रीराधिका-तत्त्व (विशुद्ध सत्व) ।🔱🙏 जन्ममृत्यु-तत्त्व 🙏
पण्डितजी बैठे हुए हैं । वे उत्तर प्रदेश के हैं ।
A pundit was sitting with the devotees. He came from upper India.
পণ্ডিতজী বসিয়া আছেন, তিনি উত্তর-পশ্চিমাঞ্চলের লোক।
श्रीरामकृष्ण (हँसकर, मास्टर से) - भागवत (वेदान्त भाष्य) के ये बड़े अच्छे पण्डित हैं ।' मास्टर और भक्तगण एकदृष्टि से पण्डितजी को देख रहे हैं ।
MASTER (smiling, to M.): "The pundit is a great student of the Bhagavata." M. and the devotees looked at the pundit.
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে, মাস্টারের প্রতি) — খুব ভাগবতের পণ্ডিত। মাস্টার ও ভক্তেরা পণ্ডিতজীকে একদৃষ্টে দেখিতেছেন।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏ठाकुर का ज्ञानवर्धक प्रश्न- राधिका को योगमाया क्यों नहीं कहते है ?🔱🙏
[Thakur's enlightening question]
श्रीरामकृष्ण (पण्डितजी से) - क्यों जी, 'योगमाया' क्या है ? पण्डितजी ने योगमाया की एक तरह की व्याख्या की ।
MASTER (to the pundit): "Well, sir, what is Yogamaya?"The pundit gave some sort of explanation.
শ্রীরামকৃষ্ণ (পণ্ডিতের প্রতি) — আচ্ছা জী! যোগমায়া কি? পণ্ডিতজী যোগমায়ার একরকম ব্যাখ্যা করিলেন।
श्रीरामकृष्ण - 'राधिका' को योगमाया क्यों नहीं कहते ?
MASTER: "Why isn't Radhika called Yogamaya?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — রাধিকাকে কেন যোগমায়া বলে না?
पण्डितजी ने इस प्रश्न का उत्तर भी एक खास तरह का दिया ।
The pundit also answered this question after a fashion.
পণ্ডিতজী এই প্রশণের উত্তর একরকম দিলেন।
तब श्रीरामकृष्ण ने कहा - "राधिका विशुद्ध सत्त्व की थीं - वे प्रेममयी (embodiment of LOVE) थीं। योगमाया के भीतर तीनों गुण हैं, सत्त्व, रज और तम; परन्तु राधिका के भीतर शुद्ध सत्त्व के सिवाय और कुछ न था ।
MASTER: "Radhika is full of unmixed sattva, the embodiment of prema. Yogamaya contains all the three gunas — sattva, rajas, and tamas; but Radhika has nothing but pure sattva.
তখন ঠাকুর নিজেই বলিতেছেন, রাধিকা বিশুদ্ধসত্ত্ব, প্রেমময়ী! যোগমায়ার ভিতরে তিনগুণই আছে — সত্ত্ব রজঃ তমঃ। শ্রীমতীর ভিতর বিশুদ্ধসত্ত্ব বই আর কিছুই নাই।
(मास्टर से) नरेन्द्र अब श्रीमती को बहुत मानता है । वह कहता है, 'सच्चिदानन्द को प्यार करने की शिक्षा अगर किसी को लेनी है तो राधिका से लेनी चाहिए ।’
(To M.) "Narendra now respects Radhika very much. He says that if anyone wants to know how to love Satchidananda, he can learn it from her.
(মাস্টারের প্রতি) নরেন্দ্র এখন শ্রীমতীকে খুব মানে, সে বলে, সচ্চিদানন্দকে যদি ভালবাসতে শিখতে হয় তো রাধিকার কাছে শেখা যায়।
"सच्चिदानन्द ने स्वयं ही अपना रसास्वादन करने के लिए राधिका की सृष्टि की थी । राधिका सच्चिदानन्द कृष्ण के अंग से निकली थीं । 'आधार' सच्चिदानन्द कृष्ण ही हैं और श्रीमती के रूप में स्वयं ही 'आधेय' हैं - अपना रसास्वादन करने के लिए अर्थात् सच्चिदानन्द को प्यार करके आनन्द-सम्भोग करने के लिए ।
"Satchidananda wanted to taste divine bliss for Itself. That is why It created Radhika. She was created from the person of Satchidananda Krishna. Satchidananda Krishna is the 'container', and He Himself, in the form of Radhika, is the 'contained'. He manifested Himself in that way in order to taste His own bliss, that is to say, in order to experience divine bliss by loving Satchidananda.
“সচ্চিদানন্দ নিজে রসাস্বাদন করতে রাধিকার সৃষ্টি করেছেন। সচ্চিদানন্দকৃষ্ণের অঙ্গ থেকে রাধা বেরিয়েছেন। সচ্চিদানন্দকৃষ্ণই ‘আধার’ আর নিজেই শ্রীমতীরূপে ‘আধেয়’, — নিজের রস আস্বাদন করতে — অর্থাৎ সচ্চিদানন্দকে ভালবেসে আনন্দ সম্ভোগ করতে।
"इसीलिए वैष्णवों के ग्रन्थ में है, राधा ने जन्मग्रहण के बाद आँखें नहीं खोली थीं । यह भाव था कि इन आँखो से और किसे देखूँ ! राधिका को देखने के लिए यशोदा जब कृष्ण को गोद में लेकर गयी थीं, तब उन्होंने कृष्ण को देखने के लिए आँखें खोली थीं । कृष्ण ने क्रीड़ा के बहाने राधिका की आँखों पर हाथ फेरा था । (नये आये हुए आसाम के लड़के से) तूने देखा है, छोटा-सा बच्चा दूसरों की आँखों पर हाथ फेरता है ?"
"Therefore it is written in the Vaishnava books that after her birth Radhika did not open her eyes. The idea is that she did not wish to see any human being. Yasoda came with Krishna in her arms to see Radhika. Only then did she open her eyes, to behold Krishna. In a playful mood Krishna touched her eyes. (To the Assamese boy) Haven't you seen this? Small children touch others' eyes with their hands."
“তাই বৈষ্ণবদের গ্রন্থে আছে, রাধা জন্মগ্রহণ করে চোখ খুলেন নাই; অর্থাৎ এই ভাব যে — এ-চক্ষে আর কাকে দেখব? রাধিকাকে দেখতে যশোদা যখন কৃষ্ণকে কোলে করে গেলেন, তখন কৃষ্ণকে দেখবার জন্য রাধা চোখ খুললেন। কৃষ্ণ খেলার ছলে রাধার চক্ষে হাত দিছলেন। (আসামী বালকের প্রতি) একি দেখেছ, ছোট ছেলে চোখে হাত দেয়?”
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏गृहस्थ विषयी (KP) नेता और शुद्ध आत्मा अनासक्त नेता के बीच अंतर🔱🙏
[সংসারী ব্যক্তি ও শুদ্ধাত্মা ছোকরার প্রভেদ ]
पण्डितजी बिदा होने लगे ।
The pundit was about to take leave of Sri Ramakrishna.
পণ্ডিতজী ঠাকুরের কাছে বিদায় লইতেছেন।
पण्डितजी - मैं घर जाऊँगा ।
PUNDIT : "I must go home."
পণ্ডিত — আমি বাড়ি যাচ্ছি।
श्रीरामकृष्ण (सस्नेह) - कुछ प्राप्त हुआ ?
MASTER (tenderly): "Have you earned anything?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (সস্নেহে) — কিছু হাতে হয়েছে।
पण्डितजी - भाव गिरा हुआ है - रोजगार नहीं चलता ।
PUNDIT: "The market is very dull. I've earned nothing."
পণ্ডিত — বাজার বড় মন্দা হ্যায়। রোজগার নেহি! —
कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके पण्डितजी बिदा हुए ।
A few minutes later he saluted the Master and departed.
পণ্ডিতজী কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুরকে প্রণাম করিয়া বিদায় লইলেন।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - देखो, विषयी लोगों और बच्चों में कितना अन्तर है । यह पण्डित दिन-रात रुपया-रुपया कर रहा है । पेट के लिए कलकत्ता आया हुआ है । नहीं तो घर के आदमियों को भोजन नहीं मिलता । इसीलिए इसके-उसके दरवाजे दौड़ना पड़ता है । मन को एकाग्र करके ईश्वर की चिन्ता कब करे ? परन्तु लड़कों में कामिनी और कांचन नहीं है । इच्छा करने से ही ये ईश्वर पर मन लगा सकते हैं ।
MASTER (to M.): "You see how great the difference is between worldly people and the youngsters? This pundit has been worrying about money day and night. He has come to Calcutta to earn money; otherwise his people at home will have nothing to eat. So he has to knock at different doors. When will he concentrate his mind on God? But the youngsters are untouched by 'woman and gold'; hence they can direct their mind to God whenever they desire.
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — দেখো, — বিষয়ী আর ছোকরাদের কত তফাত। এই পণ্ডিত রাতদিন টাকা টাকা করছে! কলকাতায় এসেছে, পেটের জন্য, — তা না হলে বাড়ির সেগুলির পেট চলে না। তাই এর দ্বারে ওর দ্বারে যেতে হয়! মন একাগ্র করে ঈশ্বরচিন্তা করবে কখন? কিন্তু ছোকরাদের ভিতর কামিনী-কাঞ্চন নাই। ইচ্ছা করলেই ঈশ্বরেতে মন দিতে পারে।
"लड़के विषयी मनुष्यों का संग पसन्द भी नहीं करते । राखाल कहता था, 'विषयी आदमी को आते हुए देखकर भय होता है ।’"मुझे जब पहले-पहल यह अवस्था हुई तब विषयी आदमी को आते हुए देखकर कमरे का दरवाजा बन्द कर लेता था ।
"The youngsters do not enjoy worldly people's company. Rakhal used to say, 'I feel nervous at the sight of the worldly-minded.' When I was first beginning to have spiritual experiences, I used to shut the doors of my room when I saw worldly people coming.
“ছোকরারা বিষয়ীর সঙ্গ ভালবাসবে না। রাখাল মাঝে মাঝে বলত, বিষয়ী লোক আসতে দেখলে ভয় হয়।“আমার যখন প্রথম এই অবস্থা হল, তখন বিষয়ী লোক আসতে দেখলে ঘরের দরজা বন্ধ করতাম।”
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏एकलौते बेटा-बेटी की मृत्यु (इहलोक त्याग) के लिए शोक और श्री रामकृष्ण🔱🙏
[পুত্র-কন্যা বিয়োগ জন্য শোক ও শ্রীরামকৃষ্ণ ]
"कामारपुकुर में श्रीराम मल्लिक को इतना मैं प्यार करता था, परन्तु जब वह यहाँ आया तब उसे छू भी न सका ।
"As a boy, at Kamarpukur, I loved Ram Mallick (KP) dearly. But afterwards, when he came here, I couldn't even touch him."
“দেশে শ্রীরাম মল্লিককে অত ভালবাসতাম, কিন্তু এখানে যখন এলো তখন ছুঁতে পারলাম না।
श्रीराम से बचपन में बड़ा मेल था । दिनरात हम दोनों एक साथ रहते थे । एक साथ सोते थे । तब सोलह-सत्रह साल की उम्र थी । लोग कहते थे, इनमें से अगर एक औरत होता तो साथ ही विवाह भी हो जाता । उसके घर में हम दोनों खेलते थे । उस समय की सब बातें याद आ रही हैं । उनके सम्बन्धी पालकी पर चढ़कर आया करते थे, कहार 'हिजोड़ा हिजोड़ा' कहा करते थे ।
Ram Mallick and I were great friends during our boyhood. We were together day and night; we slept together. At that time I was sixteen or seventeen years old. People used to say, 'If one of them were a woman they would marry each other.' Both of us used to play at his house. I remember those days very well. His relatives used to come riding in palanquins.
“শ্রীরামের সঙ্গে ছেলেবেলায় খুব প্রণয় ছিল। রাতদিন একসঙ্গে থাকতাম। একসঙ্গে শুয়ে থাকতাম। তখন ষোল-সতের বৎসর বয়স। লোকে বলত, এদের ভিতর একজন মেয়েমানুষ হলে দুজনের বিয়ে হত। তাদের বাড়িতে দুজনে খেলা করতাম, তখনকার সব কথা মনে পড়ছে। তাদের কুটুম্বেরা পালকি চড়ে আসত, বেয়ারগুলো ‘হিঞ্জোড়া হিঞ্জোড়া’ বলতে থাকত।
"श्रीराम को देखने के लिए कितने ही बार मैंने बुला भेजा । अब चानक में उसने दूकान खोली है । उस दिन आया था, यहाँ दो दिन रहा था ।'श्रीराम ने कहा, 'मेरे तो लड़के-बाले नहीं हुए, भतीजे को पालकर आदमी कर रहा था कि वह भी गुजर गया ।' कहते ही कहते श्रीराम ने लम्बी साँस छोड़ी, आँखों में पानी भर आया । भतीजे के लिए दुःख करने लगा ।
Now he has a shop at Chanak. I sent for him many a time; he came here the other day and spent two days. Ram said he had no children; he brought up his nephew, but the boy died. He told me this with a sigh; his eyes were filled with tears; he was grief-stricken for his nephew.
“শ্রীরামকে দেখব বলে কতবার লোক পাঠিয়েছি; এখন চানকে দোকান করেছে! সেদিন এসেছিল, দুদিন এখানে ছিল।“শ্রীরাম বললে, ছেলেপিলে হয় নাই। ভাইপোটিকে মানুষ করেছিলাম। সেটি মরে গেছে। বলতে বলতে শ্রীরাম দীর্ঘনিশ্বাস ফেললে, চক্ষে জল এল, ভাইপোর জন্য খুব শোক হয়েছে।
"फिर उसने कहा, 'लड़का नहीं हुआ था, इसलिए स्त्री का पूरा प्यार उसी भतीजे पर पड़ा था । अब वह शोक से अधीर हो रही है । मैं उसे बहुत समझाता हूँ, पगली, अब शोक करने से क्या होगा ? तू वाराणसी जायेगी ?’"अपनी स्त्री को वह पागल कहता था । भतीजे के लिए दुःख करने से वह एकदम dilute हो गया (गल गया) । "मैं उसे छू नहीं सका । देखा, उसमें कोई माद्दा (तत्त्व) नहीं है ।"
He said further that since they had no children of their own, all his wife's affection had been turned to the nephew. She was completely overwhelmed with grief. Ram said to her: 'You are crazy. What will you gain by grieving? Do you want to go to Benares?' You see, he called his wife crazy. Grief for the boy totally 'diluted' him. I found he had no stuff in him. I couldn't touch him."
“আবার বললে, ছেলে হয় নাই বলে স্ত্রীর যত স্নেহ ওই ভাইপোর উপর পড়েছিল; এখন সে শোকে অধীর হয়েছে। আমি তাকে বলি, ক্ষেপী! আর শোক করলে কি হবে? তুই কাশী যাবি?“বলে ‘ক্ষেপী’ — একেবারে ডাইলিউট (dilute) হয়ে গেছে! তাকে ছুঁতে পারলাম না। দেখলাম তাতে আর কিছু নাই।”
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏 क्या नेता (CINC नवनीदा, मृत्युरूप माँ काली ) का 'चाँद सा मुखड़ा' के सामने
अपने पुत्र के 'चाँद से मुखड़े ' को वरीयता दी जा सकती है ? 🔱🙏
[तबे रे शाला ! उठ एखान थेके। ईश्वरेर चाँदमुख चैये छेलेर चाँदमुख ?]
Do you prefer your son's "moon-face" to God's "moon-face"!
আপনি কি ঈশ্বরের "চাঁদের মুখ" থেকে আপনার ছেলের "চাঁদের মুখ" পছন্দ করেন!
श्रीरामकृष्ण शोक के सम्बन्ध में यही सब बातें कह रहे हैं । इधर कमरे के उत्तर ओरवाले दरवाजे के पास वह शोक-विह्वल ब्राह्मणी खड़ी हुई है । ब्राह्मणी विधवा है । उसके एक मात्र लड़की थी । उसका विवाह बहुत बड़े घराने में हुआ था । उस लड़की के पति राजा की उपाधि पाये हुए हैं ।कलकते में रहते हैं, जमींदार हैं । लड़की जब अपने मायके आती थी, तब साथ सशस्त्र सिपाही (Z-श्रेणी की सरकारी सुरक्षा मिली हुई थी liveried footmen) पालकी के आगे-पीछे लगे हुए आते थे । माता की छाती उस समय गज भर की हो जाती थी । वह एकलौती लड़की, कुछ दिन हुए, गुजर गयी है ।
The brahmin lady still stood near the north door. She was a widow. Her only daughter had been married to a very aristocratic man, a landlord in Calcutta with the title of Raja. Whenever the daughter visited her she was escorted by liveried footmen. Then the mother's heart swelled with pride. Just a few days ago the daughter had died, and now she was beside herself with sorrow.
ঠাকুর শোক সম্বন্ধে এই সকল কথা বলিতেছেন, এদিকে ঘরের উত্তরের দরজার কাছে সেই শোকাতুরা ব্রাহ্মণিটি দাঁড়াইয়া আছেন। ব্রাহ্মণী বিধবা। তার একমাত্র কন্যার খুব বড় ঘরে বিবাহ হইয়াছিল। মেয়েটির স্বামী রাজা উপাধিধারী, — কলিকাতানিবাসী, — জমিদার। মেয়েটি যখন বাপের বাড়ি আসিতেন, তখন সঙ্গে সেপাই-শান্ত্রী আসিত, — মায়ের বুক যেন দশ হাত হইত। সেই একমাত্র কন্যা কয়দিন হইল ইহলোক ত্যাগ করিয়া গিয়াছে!
ब्राह्मणी खड़ी हुई भतीजे के वियोग से राम मल्लिक की क्या दशा थी, सुन रही थी । कई दिनों से वह लगातार बागबाजार से पागल की तरह श्रीरामकृष्ण के पास दौड़ी हुई आती थी, इसलिए कि अगर कोई उपाय हो जाय - अगर वे इस दुर्जेय शोक के निराकरण की कोई व्यवस्था कर दें। श्रीरामकृष्ण फिर बातचीत करने लगे -
The brahmin lady listened to the account of Ram Mallick's grief for his nephew. For the last few days she had been running to the Master from her home at Baghbazar like an insane person. She was eager to know whether Sri Ramakrishna could suggest any remedy for her unquenchable grief. Sri Ramakrishna resumed the conversation.
ব্রাহ্মণী দাঁড়াইয়া ভাইপোর বিয়োগ জন্য শ্রীরাম মল্লিকের শোকের কথা শুনিলেন। তিনি কয়দিন ধরিয়া বাগবাজার হইতে পাগলের ন্যায় ছুটে ছুটে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণকে দর্শন করিতে আসিতেছেন, যদি কোনও উপায় হয়; যদি তিনি এই দুর্জয় শোক নিবারণের কোনও ব্যবস্থা করিতে পারেন। ঠাকুর আবার কথা কহিতেছেন —
(ब्राह्मणी और भक्तों से) “एक आदमी यहाँ आया था । कुछ देर बैठने के बाद कहा, 'जाऊँ, जरा बच्चे का चाँदमुख भी देखूँ ?’ "तब मुझसे नहीं रहा गया । मैंने कहा, 'क्या कहा रे, उठ यहाँ से, ईश्वर के चाँदमुख से बढ़कर बच्चे का चाँदमुख ?’
MASTER: "A man came here the other day. He sat a few minutes and then said, 'Let me go and see the "moon-face" of my child.' I couldn't control myself and said: 'So you prefer your son's "moon-face" to God's "moon-face"! Get out, you fool!'
শ্রীরামকৃষ্ণ (ব্রাহ্মণী ও ভক্তদের প্রতি) — একজন এসেছিল। খানিকক্ষণ বসে বলছে, ‘যাই একবার ছেলের চাঁদমুখটি দেখিগে।’ “আমি আর থাকতে পারলাম না। বললাম, তবে রে শালা! ওঠ্ এখান থেকে। ঈশ্বরের চাঁদমুখের চেয়ে ছেলের চাঁদমুখ?”
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
[जन्म -मृत्यु तत्व : जादूगर का इन्द्रजाल]
[Birth and death : magician's trick]
[জন্মমৃত্যুতত্ত্ব — বাজিকরের ভেলকি ]
🔱🙏ब्रह्म (The Absolute) सत्य जगत (नाम-रूप The Manifestation) मिथ्या🔱🙏
बाजीकर काठी दिए बाजना बाजाछे आर बोलचे -"लाग्, लाग् लाग् ! लाग् भेलकी लाग् !"
The Magician alone is real and his magic unreal.
বাজিকরই সত্য, আর সব অনিত্য!
🔱🙏बाजीकरई सत्य , आर सब अनित्य ! एई आचे, एई नाई ! 🔱🙏
(मास्टर से) "बात यह है कि ईश्वर (जादूगर) ही सत्य है और सब अनित्य जीव-जगत्, घर-द्वार, लड़के-बच्चे, यह सब बाजीगर का इन्द्रजाल है । बाजीगर डण्डे से ढोल पीटता है और कहता है, 'देख तमाशा मेरा - तू देख तमाशा मेरा ।' .... आबरा का डाबरा-छू ! बस, घड़े का ढक्कन खोला नहीं कि कुछ पक्षी उसमें से निकलकर आकाश में उड़ गये । परन्तु बाजीगर ही सत्य है और सब अनित्य - अभी है, थोड़ी देर में गायब ।
(To M.) "The truth is that God alone is real and all else unreal. Men, universe, house, children — all these are like the magic of the magician. The magician strikes his wand and says: 'Come delusion! Come confusion!' Then he says to the audience, 'Open the lid of the pot; see the birds fly into the sky,' But the magician alone is real and his magic unreal. The unreal exists tor a second and then vanishes.
(মাস্টারের প্রতি) — “কি জানো, ঈশ্বরই সত্য আর সব অনিত্য! জীব, জগৎ, বাড়ি-ঘর-দ্বার, ছেলেপিলে, এ-সব বাজিকরের ভেলকি! বাজিকর কাঠি দিয়ে বাজনা বাজাচ্ছে, আর বলছে, লাগ লাগ লাগ! ঢাকা খুলে দেখ, কতকগুলি পাখি আকাশে উড়ে গেল। কিন্তু বাজিকরই সত্য, আর সব অনিত্য! এই আছে, এই নাই!
"कैलास में शिव बैठे हुए थे । पास ही नन्दी थे । उसी समय एक बहुत भयानक शब्द हुआ । नन्दी ने पूछा, 'भगवन्, यह कैसी आवाज है ?’ शिव ने कहा, "रावण पैदा हुआ है, यह उसी की आवाज है । कुछ देर बाद फिर एक आवाज आयी । नन्दी ने पूछा, ‘यह कैसी आवाज है ?’ शिव ने हँसकर कहा, 'यह रावण मारा गया ।' जन्म और मृत्यु, यह सब इन्द्रजाल-सा है । अभी है, अभी गायब ! ईश्वर ही सत्य हैं और सब अनित्य । पानी ही सत्य है, पानी के बुलबुले अभी हैं, अभी नहीं - बुलबुले पानी में ही मिल जाते हैं, - जिस जल से उनकी उत्पत्ति होती है, उसी जल में अन्त में वे लीन भी हो जाते हैं ।
"Siva was seated in Kailas. His companion Nandi was near Him. Suddenly a terrific noise arose. 'Revered Sir,' asked Nandi, 'what does that mean?' Siva said: 'Ravana is born. That is its meaning.' A few moments later another terrific noise was heard. 'Now what is this noise?' Nandi asked. Siva said with a smile, 'Now Ravana is dead.' Birth and death are like magic: you see the magic for a second and then it disappears. God alone is real and all else unreal. Water alone is real; its bubbles appear and disappear. They disappear into the very water from which they rise.
“কৈলাসে শিব বসে আছেন, নন্দী কাছে আছেন। এমন সময় একটা ভারী শব্দ হল। নন্দী জিজ্ঞাসা করলে, ঠাকুর! এ কিসের শব্দ হল? শিব বললেন, ‘রাবণ জন্মগ্রহণ করলে, তাই শব্দ।’ খানিক পরে আবার একটি ভয়ানক শব্দ হল। নন্দী জিজ্ঞাসা করলে — ‘এবার কিসের শব্দ?’ শিব হেসে বললেন, ‘এবার রাবণ বধ হল!’ জন্মমৃত্যু — এ-সব ভেলকির মতো! এই আছে এই নাই! ঈশ্বরই সত্য আর সব অনিত্য। জলই সত্য, জলের ভুড়ভুড়ি, এই আছে, এই নাই; ভুড়ভুড়ি জলে মিশে যায়, — যে জলে উৎপত্তি সেই জলেই লয়।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
*एकल परिवार -संयुक्त परिवार, दोनों अनित्य हैं*
लड़के-बच्चे मानो एक-दो बड़े बुलबुले से जुड़े 3 या 5 बुलबुले ?
ईश्वर ही सत्य हैं , उनपर भक्ति कैसे हो ?
🔱🙏🔱🙏
"ईश्वर महासमुद्र हैं, जीव बुलबुले; उसी में पैदा होते हैं, उसी में लीन हो जाते हैं । लड़के-बच्चे एक बड़े बुलबुले के साथ मिले हुए कई छोटे छोटे बुलबुले हैं ।
"God is like an ocean, and living beings are its bubbles. They are born there and they die there. Children are like the few small bubbles around a big one.
“ঈশ্বর যেন মহাসমুদ্র, জীবেরা যেন ভুড়ভুড়ি; তাঁতেই জন্ম, তাঁতেই লয়।“ছেলেমেয়ে, — যেমন একটা বড় ভুড়ভুড়ির সঙ্গে পাঁচটা ছটা ছোট ভুড়ভুড়ি।
“ईश्वर ही सत्य है । उन पर कैसे भक्ति हो ? उन्हें किस तरह प्राप्त किया जाय, इस समय यही चेष्टा करो । शोक करने से क्या होगा ?"
"God alone is real. Make an effort to cultivate love for Him and find out the means to realize Him. What will you gain by grieving?"
“ঈশ্বরই সত্য। তাঁর উপরে কিরূপে ভক্তি হয়, তাঁকে কেমন করে লাভ করা যায়, এখন এই চেষ্টা করো। শোক করে কি হবে?”
सब चुप हैं । ब्राह्मणी ने कहा, 'तो अब मैं जाऊँ ?’
All sat in silence. The brahmin lady said, "May I go home now?"
সকলে চুপ করিয়া আছেন। ব্রাহ্মণী বলিলেন, ‘তবে আমি আসি।’
श्रीरामकृष्ण (ब्राह्मणी से, सस्नेह) - तुम इस समय जाओगी ? धूप बहुत तेज है, क्यों इन लोगों के साथ गाड़ी पर जाना ।
The Master said to her tenderly: "Do you want to go now? It is very hot. Why now? You can go later in a carriage with the devotees."
শ্রীরামকৃষ্ণ (ব্রাহ্মণীর প্রতি সস্নেহে) — তুমি এখন যাবে? বড় ধুপ! — কেন, এদের সঙ্গে গাড়ি করে যাবে।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏ॐ तत् सत् (C-IN-C) काली !🔱🙏
“ईश्वर (मार्गदर्शक नेता) ही सत्य है । उन पर कैसे भक्ति हो ?
[Om Tat Sat! Kali! काली नवनीदा का चाँद सा मुखड़ा का स्मरण )]
आज जेठ की संक्रान्ति है । दिन के तीन-चार बजे का समय होगा । गरमी बड़े जोर की पड़ रही है । एक भक्त श्रीरामकृष्ण के लिए चन्दन का एक नया पंखा लाये हैं । श्रीरामकृष्ण पंखा पाकर बड़े प्रसन्न हुए, कहा, "वाह-वाह । ॐ तत् सत् काली !'' यह कहकर पहले देवताओं को पंखा झलने लगे । फिर मास्टर से कह रहे हैं, "देखो, कैसी हवा आती है !’ मास्टर भी प्रसन्न होकर देख रहे हैं ।
Because the day was so hot, a devotee gave the Master a new fan made of sandal-wood. He was very much pleased and said: "Good! Good! Om Tat Sat! Kali!" First he fanned the pictures of the gods and goddesses, and then he fanned himself. He said to M.: "See! Feel the breeze!" M. was highly pleased.
আজ জৈষ্ঠ মাসের সংক্রান্তি, বেলা প্রায় তিনটা-চারটা। ভারী গ্রীষ্ম। একটি ভক্ত ঠাকুরকে একখানি নূতন চন্দনের পাখা আনিয়া দিলেন। ঠাকুর পাখা পাইয়া আনন্দিত হইলেন ও বলিলেন, “বা! বা!” “ওঁ তৎসৎ! কালী!” এই বলিয়া প্রথমেই ঠাকুরদের হাওয়া করিতেছেন। তাহার পরে মাস্টারকে বলিতেছেন, “দেখ, দেখ, কেমন হাওয়া।” মাস্টারও আনন্দিত হইয়া দেখিতেছেন।
(३)
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
*दास 'मैं' । अवतारवाद*
बच्चों को साथ लेकर कप्तान आये हैं । श्रीरामकृष्ण ने किशोरी से कहा, इन्हें सब दिखा लाओ - ठाकुरबाड़ी आदि । श्रीरामकृष्ण कप्तान से बातचीत कर रहे हैं । मास्टर, द्विज आदि भक्त जमीन पर बैठे हुए हैं । दमदम के मास्टर भी आये हैं । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर उत्तर की ओर मुँह किये बैठे हैं । कप्तान से उन्होंने तखत के एक ओर अपने सामने बैठने के लिए कहा ।
Captain arrived with his children. Sri Ramakrishna said to Kishori, "Please show the temples to the children." He began to talk to Captain. M., Dwija, and the other devotees were sitting on the floor. Sri Ramakrishna was sitting on the small couch, facing the north. He asked Captain to sit in front of him on the same couch.
কাপ্তেন ছেলেদের সঙ্গে করিয়া আসিয়াছেন,ঠাকুর কিশোরীকে বলিলেন, “এদের সব দেখিয়ে এস তো, — ঠাকুরবাড়ি!”ঠাকুর কাপ্তেনের সহিত কথা কহিতেছেন। মাস্টার, দ্বিজ ইত্যাদি ভক্তেরা মেঝেতে বসিয়া আছেন। দমদমার মাস্টারও আসিয়াছেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ছোট খাটটিতে উত্তরাস্য হইয়া বসিয়া আছেন। তিনি কাপ্তেনকে ছোট খাটটির এক পার্শ্বে তাঁহার সম্মুখে বসিতে বলিলেন।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏परिपक्व-मैं या दास-मैं, कालीदास मैं, नवनीदास मैं ! 🔱🙏
[পাকা-আমি বা দাস-আমি ]
श्रीरामकृष्ण - इन लोगों से तुम्हारी बातें कह रहा था । तुममें कितनी भक्ति है, कितनी पूजा करते हो, कितने प्रकार से आरती करते हो, यह सब बतला रहा था ।
MASTER: "I was telling the devotees about you — your devotion, worship, and arati."
শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমার কথা এদের বলছিলাম, — কত ভক্ত, কত পূজা, কত রকম আরতি!
कप्तान (लज्जित होकर) - मैं क्या पूजा और आरती करूँगा ? मैं क्या हूँ ?
CAPTAIN (bashfully): "What do I know of worship and arati? How insignificant I am!"
কাপ্তেন (সলজ্জভাবে) — আমি কি পূজা আরতি করব? আমি কি?
श्रीरामकृष्ण - जो 'मैं' कामिनी (lust) और कांचन (lucre) में पड़ा हुआ (आसक्त) है, उसी 'मैं' में दोष है । मैं ईश्वर का दास हूँ, इस 'मैं' में दोष नहीं । और बालक का 'मैं' - बालक किसी गुण के वश नहीं है; अभी लड़ाई कर रहा है, देखते-देखते, मेल हो गया । कितने ही यत्न से अभी अभी खेलने का घरौंदा बनाया, फिर बात की बात में उसे बिगाड़ डाला !
MASTER: "Only the ego that is attached to 'woman and gold' is harmful. But the ego that feels it is the servant of God does no harm to anybody. Neither does the ego of a child, which is not under the control of any guna. One moment children quarrel, and the next moment they are on friendly terms. One moment they build their toy houses with great care, and immediately afterwards they knock them down.
শ্রীরামকৃষ্ণ — যে ‘আমি’ কামিনী-কাঞ্চনে আসক্ত, সেই আমিতেই দোষ। আমি ঈশ্বরের দাস, এ আমিতে দোষ নাই। আর বালকের আমি, — বালক কোনও গুণের বশ নয়। এই ঝগড়া করছে, আবার ভাব! এই খেলাঘর করলে কত যত্ন করে, আবার তৎক্ষণাৎ ভেঙে ফেললে!
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🙏जिस मैं से माँ काली (नवनीदा) को प्यार किया जाता है, उसे 'मैं' में नहीं गिना जाता🔱🙏
दास 'मैं' और बच्चे के 'मैं' में दोष नहीं है । यह 'मैं' 'मैं' में नहीं गिना जाता, जैसे मिश्री मिठाई में नहीं गिनी जाती - दूसरी मिठाई से बीमारी फैलती है, परन्तु मिश्री अम्लनाश करती है - जैसे ओंकार की गणना शब्दों में नहीं है । "इस अहं से ही सच्चिदानन्द (काली) को प्यार किया जाता है।
There is no harm in the 'I-consciousness' that makes one feel oneself to be a child of God or His servant. This ego is really no ego at all. It is like sugar candy, which is not like other sweets. Other sweets make one ill; but sugar candy relieves acidity. Or take the case of Om. It is unlike other sounds. "With this kind of ego one is able to love Satchidananda.
দাস আমি — বালকের আমি, এতে কোনও দোষ নাই। এ আমি আমির মধ্যে নয়, যেমন মিছরি মিষ্টের মধ্যে নয়। অন্য মিষ্টতে অসুখ করে, কিন্তু মিছরিতে বরং অমলনাশ হয়। আর যেমন ওঁকার শব্দের মধ্যে নয়।“এই অহং দিয়ে সচ্চিদানন্দকে ভালবাসা যায়।
अहं जाने का है ही नहीं - इसीलिए दास 'मैं' और भक्त का 'मैं' है । नहीं तो आदमी क्या लेकर रहे ? गोपियों का प्रेम कितना गहरा था ! (कप्तान से) तुम गोपियों की बात कुछ कहो - तुम इतना भागवत पढ़ते हो ।"
It is impossible to get rid of the ego. Therefore it should be made to feel that it is the devotee of God, His servant. Otherwise, how can one live? How intense was the love of the gopis for Sri Krishna! (To Captain) Please tell us something about the gopis. You read the Bhagavata so much."
অহং তো যাবে না — তাই ‘দাস আমি’, ‘ভক্তের আমি’। তা না হলে মানুষ কি লয়ে থাকে। গোপীদের কি ভালবাসা! (কাপ্তেনের প্রতি) তুমি গোপীদের কথা কিছু বল। তুমি অত ভাগবত পড়।”
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏देह,मन और चित्त (आत्मा) से अवतार को प्रेम करना🔱🙏
कप्तान - श्रीकृष्ण वृन्दावन में थे, कोई ऐश्वर्य नहीं था, तो भी गोपियाँ उन्हें प्राणों से अधिक प्यार करती थीं । इसीलिए श्रीकृष्ण ने कहा था, 'मैं कैसे उनका ऋण शोध करूँगा, जिन गोपियों ने मुझे सब कुछ समर्पित कर दिया है - देह, मन, चित्त (आत्मा) ?'
CAPTAIN: "When Sri Krishna lived at Vrindavan, without any of His royal splendour, even then the gopis loved Him more than their own souls. Therefore Sri Krishna said, 'How shall I be able to pay off my debt to the gopis, who surrendered to me their all — their '3H' - bodies, minds, and souls?'"
কাপ্তেন — যখন শ্রীকৃষ্ণ বৃন্দাবনে আছেন, কোন ঐশ্বর্য নাই, তখনও গোপীরা তাঁকে প্রাণাপেক্ষা ভালবেসেছিলেন। তাই কৃষ্ণ বলেছিলেন, আমি তাদের ঋণ কেমন করে শুধবো? যে গোপীরা আমার প্রতি সব সমর্পণ করেছে, — দেহ, — মন, — চিত্ত (आत्मा)।
श्रीरामकृष्ण को भावावेश हो रहा है । 'गोविन्द, गोविन्द, गोविन्द' कहकर भावाविष्ट हो रहे हैं । प्रायः ब्राह्यज्ञान-शून्य हैं । कप्तान विस्मयावेश में 'धन्य है, धन्य है' कह रहे हैं ।
Captain's words awakened intense love for Krishna in the Master's mind. He exclaimed, "Govinda! Govinda! Govinda!" and was about to go into an ecstatic mood. Captain was amazed and said: "How blessed he is! How blessed he is!"
শ্রীরামকৃষ্ণ ভাবে বিভোর হইতেছেন। ‘গোবিন্দ!’ ‘গোবিন্দ!’ ‘গোবিন্দ!’ এই কথা বলিতে বলিতে আবিষ্ট হইতেছেন! প্রায় বাহ্যশূন্য। কাপ্তেন সবিসময়ে বলিতেছেন, ‘ধন্য!’ ‘ধন্য!’
कप्तान तथा अन्य भक्तगण श्रीरामकृष्ण की यह अद्भुत प्रेमावस्था देख रहे हैं । जब तक वे प्राकृत दशा में न आ जायँ, तब तक वे चुपचाप एकदृष्टि से देख रहे हैं ।
Captain and the devotees watched this love-ecstasy of Sri Ramakrishna. They sat quietly gazing at him, awaiting his return to the consciousness of the world.
श्रीरामकृष्ण - इसके बाद ?
MASTER: "Tell us more."
শ্রীরামকৃষ্ণ — তারপর?
कप्तान - वे योगियों के लिए भी अगम्य हैं, 'योगिभिरगम्यम्' । आपकी तरह योगियों के लिए भी अगम्य हैं, गोपियों के लिए गम्य हैं । योगियों ने वर्षों तक योग-साधना करके जिन्हें नहीं पाया, गोपियों ने अनायास ही उन्हें प्राप्त कर लिया ।
CAPTAIN: "Sri Krishna is unattainable by the yogis, by yogis like you; but He can be attained by lovers like the gopis. How many years did the yogis practise yoga for His vision! Yet they did not succeed. But the gopis realized Him with such ease!"
কাপ্তেন — তিনি যোগীদিগের অগম্য — ‘যোগিভিরগম্যম্’ — আপনার ন্যায় যোগীদের অগম্য; কিন্তু গোপীদিগের গম্য। যোগীরা কত বৎসর যোগ করে যাঁকে পায় নাই; কিন্তু গোপীরা অনায়াসে তাঁকে পেয়েছে।
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - गोपियों के पास भोजन-पान, हँसना-रोना, क्रीड़ा कौतुक, यह सब हो चुका ।
MASTER (smiling): "Yes, He ate from the. hands of the gopis, wept for them, played with them, and made many demands on them."
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — গোপীদের কাছে খাওয়া, খেলা, কাঁদা, আব্দার করা, এ-সব হয়েছে।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏श्री बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय और श्रीकृष्ण-लीला🔱🙏
श्रीकृष्ण-लीला (अवतार -धर्म)
का उद्देश्य मनुष्य के तीन मौलिक संकाय (3H) की क्षमता को
अभिव्यक्त करने का उदाहरण प्रस्तुत करना है!
[শ্রীযুক্ত বঙ্কিম ও শ্রীকৃষ্ণ-চরিত্র — অবতারবাদ ]
एक भक्त ने कहा, 'श्रीयुत बंकिम ने कृष्ण-चरित्र लिखा है ।'
A DEVOTEE: "Bankim has written a life of Krishna."
একজন ভক্ত বলিলেন, ‘শ্রীযুক্ত বঙ্কিম কৃষ্ণ-চরিত্র লিখেছেন।’
श्रीरामकृष्ण - बंकिम कृष्ण को मानता है, श्रीमती को नहीं मानता ।
MASTER: "He accepts Krishna but not Radhika."
শ্রীরামকৃষ্ণ — বঙ্কিম শ্রীকৃষ্ণ মানে, শ্রীমতী মানে না।
कप्तान - वे शायद श्रीकृष्ण-लीला नहीं मानते ।
CAPTAIN: "I see he doesn't accept Krishna's lila with the gopis."
কাপ্তেন — বুঝি লীলা মানেন না?
श्रीरामकृष्ण - सुना, वह कहता है, काम (Lust and Lucre) आदि की जरूरत है !
MASTER: "I also hear that Bankim says that one needs passions such as lust."
শ্রীরামকৃষ্ণ — আবার বলে নাকি কামাদি — এ-সব দরকার।
दमदम के मास्टर - 'नवजीवन' (बंकिम द्वारा प्रकाशित पत्रिका) में बंकिम ने लिखा है, कि धर्म का उद्देश्य मनुष्य के तीन मौलिक संकाय [faculty of 3H : उच्च शिक्षा से संबंधित विश्वविद्यालय का कोई विभाग, जैसे- कला संकाय] शारीरिक (Hand) , मानसिक (Head) और अध्यात्मिक (Heart) क्षमता को अभिव्यक्त करना है ।
A DEVOTEE: "He has written in his magazine that the purpose of religion is to give expression to our various faculties: physical, mental, and spiritual."
দমদম মাস্টার — 'নবজীবনে' বঙ্কিম লিখেছেন — ধর্মের প্রয়োজন এই যে, শারীরিক, মনাসিক, আধ্যাত্মিক প্রভৃতি সব বৃত্তির স্ফূর্তি হয়।
कप्तान - 'कामादि की आवश्यकता है' - यह कहते हैं, फिर भी लीला नहीं मानते ! ईश्वर मनुष्य के रूप में वृन्दावन में आये थे, पर राधा और कृष्ण की लीला हुई थी यह नहीं मानते ?
[कप्तान: "मेरी समझ से बंकिम का यह मानना है कि साधारण मनुष्यों के लिए तो वासना आदि (कामिनी-कांचन अदि) आवश्यक हैं; लेकिन उन्हें यह विश्वास नहीं है कि श्री कृष्ण भी जगत में साधारण मनुष्यों की तरह ही अपने प्रिय खेलकूद (His sportive pleasure-क्रिकेट खेलना आदि ) का आनन्द ले सकते हैं; और अवतार लेकर (मानवशरीर धारण करके) वृन्दावन में राधिका और गोपियों के साथ प्रेम-लीला का खेल खेल सकते हैं !!
CAPTAIN: "I see. He believes that lust and so forth are necessary. But he doesn't believe that Sri Krishna could enjoy His sportive pleasure in the world, that God could incarnate Himself in a human form and sport in Vrindavan with Radha and the gopis."
কাপ্তেন — ‘কামাদি দরকার’, তবে লীলা মানেন না। ঈশ্বর মানুষ হয়ে বৃন্দাবনে এসেছিলেন, রাধাকৃষ্ণলীলা, তা মানেন না?
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - ये सब बातें संवाद-पत्रों में नहीं हैं, फिर किस तरह मान ली जायँ ?
MASTER (smiling): "But these things are not written in the newspaper. How could he believe them?
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — ও-সব কথা যে খবরের কাগজে নাই, কেমন করে মানা যায়!
"एक ने अपने मित्र से आकर कहा, 'देखो जी, कल उस मुहल्ले से मैं जा रहा था, उसी समय देखा, वह मकान भरभराकर गिर गया ।' मित्र ने कहा, 'जरा ठहरो, अखबार देखूँ ।' घर के भरभराकर गिरने की बात अखबार में तो कहीं कुछ न थी । तब उस आदमी ने कहा, 'क्यों जी अखबार में तो कहीं कुछ नहीं लिखा । तुम्हारा कहना सच नहीं दिखता ।' उस आदमी ने कहा, 'मैं स्वयं देखकर आ रहा हूँ ।' उसने कहा, 'यह हो सकता है, परन्तु अखबार में यह बात नहीं लिखी, इसलिए लाचार होकर मुझे इस पर विश्वास नहीं आता ।'
["A man said to his friend, 'Yesterday, as I was passing through a certain part of the city, I saw a house fall with a crash.' 'Wait', said the friend. 'Let me look it up in the newspaper.' But this incident wasn't mentioned in the paper. Thereupon the man said, 'But the paper doesn't mention it.' His friend replied, 'I saw it with my own eyes.' 'Be that as it may,' said the man, 'I can't believe it as long as it isn't in the paper.'
“একজন তার বন্ধুকে এসে বললে, ‘ওহে! কাল ও-পাড়া দিয়ে যাচ্ছি, এমন সময় দেখলাম, সে-বাড়িটা হুড়মুড় করে পড়ে গেল।’ বন্ধু বললে, দাঁড়াও হে, একবার খবরের কাগজখানা দেখি। এখন বাড়ি হুড়মুড় করে পড়ার কথা খবরের কাগজে কিছুই নাই। তখন সে ব্যক্তি বললে, ‘কই খবরের কাগজে তো কিছুই নাই। — ও-সব কাজের কথা নয়।’ সে লোকটা বললে, ‘আমি যে দেখে এলাম।’ ও বললে, ‘তা হোক্ যেকালে খবরের কাগজে নাই, সেকালে ও-কথা বিশ্বাস করলুম না।’
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116]
🔱🙏अनन्त (100% निःस्वार्थपरता) का साढ़ेतीन हाथ के भीतर समा जाना🔱🙏
(पूर्ण ब्रह्म- के प्रेममय अवतार की आत्मानुभूति और पाण्डित्य के बीच अंतर)
[পূর্ণব্রহ্মের অবতার — শুধু পাণ্ডিত্য ও প্রত্যক্ষের প্রভেদ —
Mere booklearning and Realisation]
ईश्वर आदमी होकर लीला करते हैं, यह बात कैसे वे लोग मानेंगे ? यह बात उनकी अंग्रेजी शिक्षा के घेरे में नहीं जो है ! पूर्ण अवतार का समझाना बहुत मुश्किल है, क्यों जी ? साढ़े तीन हाथ के भीतर अनन्त का समा जाना ?"
["बंकिम जैसा पाश्चात्य शिक्षा में पढ़ा व्यक्ति (जो ईश्वर को केवल निर्गुण-निराकार मानता है), भला यह कैसे विश्वास कर सकता है कि भगवान मनुष्य के रूप में लीला करते हैं? पाश्चात्य शिक्षा में तो इस बात का कहीं उल्लेख नहीं है। नास्तिक (सगुण ईश्वर में अविश्वासी) लोगों को यह समझाना बहुत कठिन है कि अविनाशी पूर्ण ईश्वर नश्वर मानव शरीर कैसे और क्यों धारण करता है? क्यों जी, क्या यह सच नहीं है ? साढ़े तीन हाथ के शरीर में अनन्त अपने को कैसे अभिव्यक्त कर सकता है ?
"How can Bankim believe that God sports about as a man? He doesn't get it from his English education. It is very hard to explain how God fully incarnates Himself as man. Isn't that so? The manifestation of Infinity in this human body only three and a half cubits tall!"
ঈশ্বর মানুষ হয়ে লীলা করেন, এ-কথা কেমন করে বিশ্বাস করবে? এ-কথা যে ওদের ইংরাজী লেখাপড়ার ভিতর নাই! পূর্ণ অবতার বোঝানো বড় শক্ত, কি বল? চৌদ্দ পোয়ার ভিতর অনন্ত আসা!”
कप्तान - 'कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्' कहते समय पूर्ण और अंश इस तरह कहना पड़ता है ।
[कप्तान: "कृष्ण स्वयं भगवान (100 % निःस्वार्थपर) हैं। उनका वर्णन करते समय हमें 'संपूर्ण निःस्वार्थपर' और 'अंश' (50 % मनुष्य 0 % निःस्वार्थपरता =पशु नारायण) जैसे शब्द कहने पड़ते हैं।"
CAPTAIN: "Krishna is God Himself. In describing Him we have to use such terms as 'whole' and 'part'."
কাপ্তেন — ‘কৃষ্ণ ভগবান্ স্বয়ম্।’ বলবার সময় পূর্ণ ও অংশ বলতে হয়।
श्रीरामकृष्ण - पूर्ण और अंश, जैसे अग्नि और उसका स्फुलिंग । अवतार भक्तों के लिए हैं - ज्ञानी के लिए नहीं । अध्यात्मरामायण ^* में है, 'हे राम ! तुम्हीं व्याप्य हो, तुम्हीं व्यापक ^* हो' - 'वाच्यवाचकभेदेन त्वमेव परमेश्वर ।’
(व्यापक ^* वस्तु ॐ, Ek Onkaar, Pervading Spirit-समस्त जड़-चेतन में व्याप्त आधारभूत ''सत्ता''।-Consciousness ,ॐ -known as Akal.देश-कालातीत वस्तु (ब्रह्म) that is formless and timeless, it is also almost difficult to know but not impossible.)
MASTER: "Whole and part are like fire and its sparks. An Incarnation of God is for the sake of the bhaktas and not of the jnanis. It is said in the Adhyatma Ramayana that Rama alone is both the Pervading Spirit and everything pervaded. 'You are the Supreme Lord distinguished as the vachaka, the signifying symbol, and the vachya, the object signified.'"
শ্রীরামকৃষ্ণ — পূর্ণ ও অংশ, — যেমন অগ্নি ও তার স্ফুলিঙ্গ। অবতার ভক্তের জন্য, — জ্ঞানীর জন্য নয়। অধ্যাত্মরামায়ণে আছে — হে রাম! তুমিই ব্যাপ্য, তুমিই ব্যাপক, ‘বাচ্যবাচকভেদেন ত্বমেব পরমেশ্বর।’
श्रीरामकृष्ण - व्यापक अर्थात जैसे एक छोटासा रूप - जैसे अवतार आदमी का रूप धारण करते हैं ।
[जैसे 100 % निःस्वार्थपरता का प्रतीक चिन्ह है- वज्र का निशान, 'signifying symbol' (mark of 100 % Unselfishness) is Vajra, thunderbolt !) वैसे ही अवतार किसी मनुष्य के रूप को धारण करते हैं (पूर्ण निःस्वार्थपरता के प्रतीक श्रीराम, श्री कृष्ण, बुद्ध, ईसा, चैतन्यदेव, श्रीरामकृष्ण, माँ सारदा, स्वामी विवेकानन्द,..... नवनीदा के रूप को धारण करते हैं।]
कप्तान – वाच्य-वाचक अर्थात् व्याप्य-व्यापक (शब्द 'ॐ' -अर्थ 100 % निःस्वार्थपरता) ।
CAPTAIN: "The 'signifying symbol' (वाचक-प्रतीक चिन्ह-वज्र का निशान) means the pervader, and the 'object signified' means the thing pervaded."
কাপ্তেন — ‘বাচ্যবাচক’ অর্থাৎ ব্যাপ্য-ব্যাপক।
[रामकृष्ण मठ लखनऊ के अध्यक्ष स्वामी मुक्तिनाथानंद ने बताया कि ज्ञानीगण समाधि के माध्यम से परमात्मा की अखण्ड सच्चिदानन्द रूप ब्रह्म की उपलब्धि करते हुए स्वयं आनंद स्वरूप (ब्रह्म) बन जाते हैं। उनके लिए भगवान की वह अनंत घनमूर्ति ही पसंद है।
लेकिन भक्त भगवान को एक सीमित रूप में (अपनी प्रेममयी माँ तारा , प्रेममय गुरु या नेता नवनीदा के रूप में) प्रत्यक्ष करने के लिए आग्रही रहते हैं। और भक्तगण की मनोकामना पूर्ण करने के लिए , उनकी प्रार्थना पूर्ण करने के लिए वही जन्मरहित भगवान अपना ऐश्वर्य समेटकर साकार विग्रह (श्रीरामकृष्ण, माँ सारदा, स्वामीजी , ... प्रेममय नेता नवनीदा) का रूप धारण करते हैं। अवतार भक्तों के लिए है- ज्ञानी के लिए नहीं। यही बात यहाँ श्री रामकृष्ण उनके भक्तगणों के बीच समझा रहे हैं ।
उन्होंने कहा, यद्यपि भगवान अनंत हैं, लेकिन वही अनंत भगवान जब मनुष्य का रूप धारण करते हैं तब उसमें उनकी पूर्णता (100 % निःस्वार्थपरता) खंडित नहीं होती है। इस पर उनके एक भक्त कप्तान ने कहा-" श्रीमद्भागवतम् में कहा गया है भगवान श्रीकृष्ण पूर्ण रूप से ईश्वर ही हैं- 'कृष्णस्तु भगवान स्वयम्' ; लेकिन यह कहते समय पूर्ण और अंश इस तरह समझना पड़ता है।"
श्री रामकृष्णदेव पुनः इसको आगे स्पष्ट करने के लिए कहते हैं, "पूर्ण और अंश, जैसे अग्नि और उसका स्फुलिंग। अध्यात्मरामायण में है, 'हे राम! तुम्हीं व्याप्त हो, तुम्हीं व्यापक हो'- वाच्यवाचकभेदेन त्वमेव परमेश्वर।'
कप्तान ने कहा,"वाच्य-वाचक अर्थात वयाप्य-व्यापक। "
श्री रामकृष्ण ने कहा "व्यापक अर्थात जैसे एक छोटा सा रूप- जैसे अवतार आदमी का रूप धारण करते हैं।"
जिस वस्तु में कोई दूसरी वस्तु प्रवेश कर जाए तो पहली वाली वस्तु को व्याप्य वस्तु कहते हैं जबकि दूसरी वस्तु जो पहली वस्तु में प्रवेश करती है उसे व्यापक वस्तु कहते हैं। उदाहरण के लिए, पानी में चीनी घुल जाती है तो पानी में व्याप्य का गुण है और चीनी पानी में व्यापक है। ठीक यही बात आत्मा और परमात्मा के बारे में भी कहा जाता है। आत्मा व्याप्य है जबकि परमात्मा व्यापक है। कहने का अर्थ यह है कि परमात्मा आत्मा में प्रवेश कर जाता है और उसमें व्याप्त होता है। वस्तुतः परमात्मा सर्वाधिक सूक्ष्म होने से किसी भी पदार्थ में व्याप्त कर सकता है इसलिए परमात्मा को सर्व व्यापक कहा जाता है। [इसीलिए कबीर ने गाया था - 'मोहे सुन सुन आवे हासी पानी में मीन प्यासी,आतम ज्ञान बिना नर भटके कोई मथुरा कोई काशी।' ब्रह्माण्ड में रहकर कोई ब्रह्म खोजे? यही हँसने की बात है !! ]
स्वामी मुक्तिनाथानंद ने कहा तर्कशास्त्र में कहा गया है, व्यापकपत्तमधिकदेशवृतत्ति त्वं। व्याप्यत्वमल्पदेशवृत्तित्वम्।। (तर्क कौमुदी या न्यायकोश 8:3:0) अर्थात इस जगत जो कि परिव्याप्त करते हुए विराजमान हैं वो जगत में सर्वत्र विराजमान हैं एवं जगत की बाहर भी है । वो व्याप्त रूप से जगत में है एवं व्यापक रूप से सर्वत्र विराजमान है एवं वह समग्र जगत को परिव्याप्त करते हुए भी अपने मनुष्य के हृदय गुहा में भी पूर्णरूपेण विराजमान है।
मनुष्य के भौतिक शरीर में 'आत्मा' की स्थिति क्या है ? आत्मा के इस प्रसंग को छान्दोग्य उपनिषद में गुरु-शिष्य परम्परा के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है, और हृदय तथा आकाश की तुलना की गयी है। गुरु अपने शिष्यों से कहता है कि मानव-हृदय में अत्यन्त सूक्ष्म रूप से 'ब्रह्म' विद्यमान रहता है। 'स वा एष आत्मा हृदि तस्यैतदेव निरूक्त्ँ हृद्ययमिति तस्माद्धदथमहरहर्वा एवंवित्स्वर्ग लोकमेति॥3/3॥'
3. The Self resides in the heart. The word hṛdayam is derived thus: hṛdi + ayam—‘it is in the heart.’ Therefore the heart is called hṛdayam. One who knows thus goes daily to the heavenly world [i.e., in his dreamless sleep he is one with Brahman.
अर्थात् वह आत्मा हृदय में ही स्थित है। 'हृदय' का अर्थ है 'हृदि अयम्'- वह हृदय में है। यही आत्मा की व्युत्पत्ति है। इस प्रकार जो व्यक्ति आत्मतत्त्व को हृदय में जानता है, वह प्रतिदिन स्वर्गलोक में ही गमन करता है।
वास्तव में जितना बड़ा यह आकाश है, उतना ही बड़ा और विस्तृत यह चिदाकाश हृदय भी है। इस हृदय में अत्यन्त सूक्ष्म रूप में 'आत्मा' निवास करता है। यह शरीर समय के साथ-साथ जर्जर होता चला है और एक दिन वृद्ध होकर मृत्यु का ग्रास बन जाता है। इसीलिए शरीर को नश्वर कहा गया है, परन्तु इस शरीर में जो 'आत्मा' विद्यमान है, वह कभी नहीं मरता। वह न तो जर्जर होता है, न वृद्ध होता है और न मरता है।
छान्दोग्योपनिषद (8:1:3) मे कहा गया है- "यावान्वा अयमाकाशस्तावानेषोऽन्तर्हृदय अकाश उभे अस्मिन्द्यावापृथिवी अन्तरेव समाहिते उभावग्निश्च वायुश्च सूर्याचन्द्रमसावुभौ विद्युन्नक्षत्राणि यच्चास्येहास्ति यच्च नास्ति सर्वं तदस्मिन्समाहितमिति ॥ ८.१.३ ॥
3. [The teacher replies:] ‘The space in the heart is as big as the space outside. Heaven and earth are both within it, so also fire and air, the sun and the moon, lightning and the stars. Everything exists within that space in the embodied self—whatever it has or does not have’.
अर्थात बर्हिआकाश जितना बड़ा है, हमारे हृदय के भीतर अंतर आकाश भी उतना ही बड़ा है। अगर हमारे हृदय का आकाश छोटा होता तो उसमें ईश्वर अपने समग्र ऐश्वर्य लेकर विराज नहीं कर सकते। ईश्वर अपने ऐश्वर्य को समेटकर हमारे हृदय में इसलिए विराज करते हैं ताकि हम प्यार के माध्यम से उनको प्राप्त कर सकें। अर्थात भगवान भक्तों को प्रार्थना को पूर्ण करने के लिए भक्त के हृदय मंदिर में खुद आकर विराज करते हैं, ताकि हम भगवान को प्राप्त कर सकें।
स्वामी मुक्तिनाथानंद ने बताया कि यद्यपि हम अपने ससीम मन , बुद्धि के माध्यम से अनन्त ईश्वर के विराट रूप को समझ नहीं सकते, लेकिन वही भगवान जब छोटा सा आकार धारण करके हमारे पहुँच के भीतर हृदय मंदिर में अवस्थान करते हैं मन को एकाग्र करके प्रार्थना करने से, अनुचिंतन करने से, वह अनुभूति के भीतर उपलब्ध होते है एवं हम इस जीवन में भगवान को प्रत्यक्ष करते हुए जीवन सफल कर सकते हैं। ]
[अध्यात्मरामायण ^* सर्वप्रथम श्री राम की कथा भगवान श्री शंकर ने माता पार्वती जी को सुनाया था। उस कथा को एक कौवे ने भी सुन लिया। उसी कौवे का पुनर्जन्म काकभुशुण्डि के रूप में हुआ। काकभुशुण्डि को पूर्वजन्म में भगवान शंकर के मुख से सुनी वह राम कथा पूरी की पूरी याद थी। उन्होने यह कथा अपने शिष्यों सुनाया। इस प्रकार राम कथा का प्रचार प्रसार हुआ। भगवान श्री शंकर के मुख से निकली श्रीराम की यह पवित्र कथा अध्यात्म रामायण के नाम से विख्यात है। अहल्योवाचः ।
ओंकारवाच्यस्त्वं राम वाचामविषयः पुमान् ।
वाच्यवाचकभेदेन भवानेव जगन्मयः ॥ ११॥
हे_राम ! आप ओंकार के वाच्य हैं तथा आप ही वाणी के अगोचर परम पुरुष हैं। हे प्रभो! वाच्य-वाचक ( शब्द-अर्थ ) भेद से आप ही सम्पूर्ण जगत्-रूप हैं॥५३॥
(ॐ) या ओंकार का नामांतर प्रणव है। यह ईश्वर (माँ काली) का वाचक है। इस एक शब्द को ब्रह्मांड का सार माना जाता है। ईश्वर के साथ ओंकार का वाच्य-वाचक-भाव संबंध नित्य है, सांकेतिक नहीं। संकेत नित्य या स्वाभाविक संबंध को प्रकट करता है। सृष्टि के आदि में सर्वप्रथम ओंकाररूपी प्रणव का ही स्फुरण होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी ओंकार को एकाक्षर ब्रह्म कहा है। ठाकुरदेव ने ब्रह्म और शक्ति को अभेद कहा है ! ]
(४)
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏*अहंकार ही विनाश का कारण तथा ईश्वर-लाभ में विघ्न है*🔱🙏
অহংকারই বিনাশের কারণ ও ঈশ্বরলাভের বিঘ্ন
सब बैठे हुए हैं । कप्तान और भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण बातचीत कर रहे हैं । इसी समय ब्राह्मसमाज के जयगोपाल सेन और त्रैलोक्य आये, प्रणाम करके उन्होंने आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण हँसते हुए त्रैलोक्य की ओर देखकर बातचीत कर रहे हैं ।
[जयगोपाल सेन -श्री रामकृष्ण के ब्रह्मसमाजी भक्त । 1875 ई. में श्री रामकृष्ण ने केशव सेन से बेलघरिया (8 बीटी रोड) में उनके गार्डन हाउस में मुलाकात की थी ।]
Sri Ramakrishna was talking thus to Captain and the devotees when Jaygopal Sen and Trailokya of the Brahmo Samaj arrived. They saluted the Master and sat down. Sri Ramakrishna looked at Trailokya with a smile and continued the conversation.
সকলে বসিয়া আছেন। কাপ্তেন ও ভক্তদের সহিত ঠাকুর কথা কহিতেছেন। এমন সময় ব্রাহ্মসমাজের জয়গোপাল সেন ও ত্রৈলোক্য আসিয়া প্রণাম করিয়া আসন গ্রহণ করিলেন। ঠাকুর সহাস্যে ত্রৈলোক্যের দিকে তাকাইয়া কথা কহিতেছেন।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏माँ की कृपा से अहंकार का अतिक्रमण हुए बिना स्वरुप का दर्शन असम्भव🔱🙏
श्रीरामकृष्ण - अहंकार है, इसीलिए तो ईश्वर के दर्शन नहीं होते । ईश्वर के घर के दरवाजे के रास्ते में अहंकाररूपी ठूँठ पड़ा हुआ है । इस ठूँठ के उस पार गये बिना कमरे में प्रवेश नहीं किया जा सकता ।
MASTER: "It is on account of the ego that one is not able to see God. In front of the door of God's mansion lies the stump of ego. One cannot enter the mansion without jumping over the stump.
শ্রীরামকৃষ্ণ — অহংকার আছে বলে ঈশ্বরদর্শন হয় না। ঈশ্বরের বাড়ির দরজার সামনে এই অহংকাররূপ গাছের গুঁড়ি পড়ে আছে। এই গুঁড়ি উল্লঙ্ঘন না করলে তাঁর ঘরে প্রবেশ করা যায় না।
“एक आदमी प्रेतसिद्ध हो गया था । सिद्ध होकर उसने पुकारा नहीं कि भूत आ गया । आकर कहा, 'बतलाओ, कौनसा काम करना होगा ? अगर नहीं कह सकोगे तो तुम्हारी गरदन मरोड़ दूँगा ।' उस आदमी ने, जितने काम थे, एक एक करके सब करा लिये । फिर उसे कोई नया काम ही नहीं सूझता था । प्रेत ने कहा, 'अब तुम्हारी गरदन मरोड़ता हूँ ।' उसने कहा, 'जरा ठहरो, अभी आया ।'
"There was once a man who had acquired the power to tame ghosts. One day, at his summons, a ghost appeared. The ghost said: 'Now tell me what you want me to do. The moment you cannot give me any work I shall break your neck.' The man had many things to accomplish, and he had the ghost do them all, one by one. At last he could find nothing more for the ghost to do. 'Now', said the ghost, 'I am going to break your neck.' 'Wait a minute', said the man. 'I shall return presently.'
“একজন ভূতসিদ্ধ হয়েছিল। সিদ্ধ হয়ে যাই ডেকেছে, অমনি ভূতটি এসেছে। এসে বললে, ‘কি কাজ করতে হবে বল। কাজ যাই দিতে পারবে না, অমনি তোমার ঘাড় ভাঙব।’ সে ব্যক্তি যত কাজ দরকার ছিল, সব ক্রমে ক্রমে করিয়ে নিল। তারপর আর কাজ পায় না। ভূতটি বললে, ‘এইবার তোমার ঘাড় ভাঙি?’ সে বললে, ‘একটু দাঁড়াও, আমি আসছি’।
इतना कहकर वह अपने गुरु के पास गया और उनसे कहा, 'महाराज, मैं बड़ी विपत्ति में हूँ, और सब हाल कह सुनाया । तब गुरु ने कहा, 'तू एक काम कर, उसे एक छल्लेदार बाल सीधा करने के लिए दे ।' प्रेत दिन-रात वही काम करने लगा । पर छल्लेदार बाल भी कभी सीधा होता है ? ज्यों का त्यों टेढ़ा बना रहा ।
He ran to his teacher (नेता, गुरु) and said: 'Revered sir, I am in great danger. This is my trouble.' And he told his teacher his trouble and asked, 'What shall I do now?' The teacher said: 'Do this. Tell the ghost to straighten this kinky hair.' The ghost devoted itself day and night to straightening the hair. But how could it make a kinky hair straight? The hair remained kinky.
এই বলে গুরুদেবের কাছে গিয়ে বললে, ‘মহাশয়! ভারী বিপদে পড়েছি, এই এই বিবরণ, এখন কি করি?’ গুরু তখন বললেন, তুই এক কর্ম কর, তাকে এই চুলগাছটি সোজা করতে বল। ভূতটি দিনরাত ওই করতে লাগল। চুল কি সোজা হয়? যেমন বাঁকা, তেমনি রহিল!
इसी तरह अहंकार भी देखते ही देखते गया और देखते ही देखते फिर आ गया ।"अहंकार का त्याग हुए बिना ईश्वर की कृपा नहीं होती ।
"Likewise, the ego seems to vanish this moment, but it reappears the next. Unless one renounces the ego, one does not receive the grace of God.
অহংকারও এই যায়, আবার আসে।“অহংকার ত্যাগ না করলে ঈশ্বরের কৃপা হয় না।
"जिस मकान में कोई काम-काज (ब्राह्मण-भोजन, विवाह आदि) रहता है तो जब तक भण्डार में कोई भण्डारी बना रहता है, तब तक मालिक का चक्कर उधर नहीं लगता । पर जब भण्डारी स्वयं भण्डार छोड़कर चला जाता है, तब मालिक उस भण्डार-घर में ताला लगा देता है और उसका इन्तजाम खुद करने लगता है ।
"Suppose there is a feast in a house and the master of the house puts a man in charge of the stores. As long as the man remains in the store-room, the master doesn't go there; but when of his own will he renounces the store-room and goes away, then the master locks it and takes charge of it himself.
“কর্মের বাড়িতে যদি একজনকে ভাঁড়ারী করা যায়, যতক্ষণ ভাঁড়ারে সে থাকে ততক্ষণ কর্তা আসে না। যখন সে নিজে ইচ্ছা করে ভাঁড়ার ছেড়ে চলে যায়, তখনই কর্তা ঘরে চাবি দেয় ও নিজে ভাঁড়ারের বন্দোবস্ত করে।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏कर्तापन का अहंकार गए बिना ईश्वर (SV) हमारी जिम्मेदारी नहीं लेते🔱🙏
"ईश्वर मानो बच्चे का वली (trustee-संगरक्षक,executor-निष्पादक) - बच्चा अपनी जायदाद खुद नहीं सम्हाल सकता । राजा उसका भार लेते हैं । अहंकार के गये बिना ईश्वर भार नहीं लेते ।
"A guardian/trustee/executor is appointed only for a minor. A boy cannot safeguard his property; therefore the king assumes responsibility for him. God does not take over our responsibilities unless we renounce our ego.
“নাবালকেরই অছি। ছেলেমানুষ নিজে বিষয় রক্ষা করতে পারে না, রাজা ভার লন। অহংকার ত্যাগ না করলে ঈশ্বর ভার লন না।
"वैकुण्ठ में श्रीलक्ष्मी और नारायण बैठे हुए थे । एकाएक नारायण उठकर खड़े हो गये । श्रीलक्ष्मी चरणसेवा कर रही थीं । उन्होंने पूछा, 'महाराज, कहाँ चले ?' नारायण ने कहा, "मेरा एक भक्त बड़ी विपत्ति में पड़ गया है, उसकी रक्षा के लिए जा रहा हूँ ।' यह कहकर नारायण चले गये । परन्तु उसी समय फिर आ गये । लक्ष्मी ने पूछा, 'भगवन्, इतनी जल्दी कैसे आ गये ?'
"Once Lakshmi and Narayana were seated in Vaikuntha, when Narayana suddenly stood up. Lakshmi had been stroking His feet. She said, 'Lord, where are You going?' Narayana answered: 'One of My devotees is in great danger. I must save him.' With these words He went out. But He came back immediately. Lakshmi said, 'Lord, why have You returned so soon?'
বৈকুণ্ঠে লক্ষ্মীনারায়ণ বসে আছেন, হঠাৎ নারায়ণ উঠে দাঁড়ালেন। লক্ষ্মী পদসেবা করছিলেন; বললেন, ‘ঠাকুর কোথা যাও?’ নারায়ণ বললেন, ‘আমার একটি ভক্ত বড় বিপদে পড়েছে তাই তাকে রক্ষা করতে যাচ্ছি!’ এই বলে নারায়ণ বেরিয়ে গেলেন। কিন্তু তৎক্ষণাৎ আবার ফিরলেন। লক্ষ্মী বললেন, ‘ঠাকুর এত শীঘ্র ফিরলে যে?’
नारायण ने हँसकर कहा, 'प्रेम से विह्वल ' [Mother's Child, मातृ निर्भर बच्चा] वह भक्त रास्ते से चला जा रहा था । रास्ते में धोबियों ने सूखने के लिए कपड़े फैलाये थे । वह भक्त उन कपड़ों के ऊपर से जा रहा था, यह देखकर लाठी लेकर धोबी लोग मारने के लिए चले, इसीलिए मैं गया था ।' श्रीलक्ष्मी ने पूछा, 'तो इतनी जल्दी फिर कैसे आ गये ?' नारायण ने हँसते हुए कहा, 'जाकर मैंने देखा, उस भक्त ने धोबियों को मारने के लिए खुद ही पत्थर उठा लिया है । (सब हँसते हैं) इसीलिए मैं फिर नहीं गया ।’
Narayana smiled and said: 'The devotee was going along the road overwhelmed with love for Me. Some washermen were drying clothes on the grass, and the devotee walked over the clothes. At this the washermen chased him and were going to beat him with their sticks. So I ran out to protect him.' 'But why have You come back?' asked Lakshmi. Narayana laughed and said: 'I saw the devotee himself picking up a brick to throw at them. (All laugh.) So I came back.'
নারায়ণ হেসে বললেন, ‘ভক্তটি প্রেমে বিহ্বল হয়ে পথে চলে যাচ্ছিল, ধোপারা কাপড় শুকাতে দিছল, ভক্তটি মাড়িয়ে যাচ্ছিল। দেখে ধোপারা লাঠি লয়ে তাকে মারতে যাচ্ছিল। তাই আমি তাকে রক্ষা করতে গিয়েছিলাম’। লক্ষ্মী আবার বললেন, ‘ফিরে এলেন কেন?’ নারায়ণ হাসতে হাসতে বললেন, ‘সে ভক্তটি নিজে ধোপাদের মারবার জন্য ইট তুলেছে দেখলাম। (সকলের হাস্য) তাই আর আমি গেলাম না’।”
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
*ब्रह्मसमाज के केशव और गौरी*
🔱🙏 'सोऽहम्' अवस्था प्राप्त करने के बाद दासोऽहं बनकर रहो 🔱🙏
क्योंकि "तत्वमसि "- अर्थात जो आपके लिए दूसरा है, वस्तुत: वही आप हैं।
[পূর্বকথা — কেশব ও গৌরী — সোঽহম্ অবস্থার পর দাসভাব ]
“Tatvamasi” – That which is the other for you, is actually you.
"केशव सेन से मैंने कहा था, 'अहं' का त्याग करना होगा । इस पर केशव ने कहा, "तो महाराज, दल फिर कैसे रह सकता है ?’
"I said to Keshab, 'You must renounce your ego.' Keshab replied, 'If I do, how can I keep my organization together?'
“কেশব সেনকে বলেছিলাম, ‘অহং ত্যাগ করতে হবে।’ তাতে কেশব বললে, — তাহলে মহাশয় দল কেমন করে থাকে?
"मैंने कहा, यह तुम्हारी कैसी बुद्धि है, - तुम 'कच्चे मैं' का त्याग करो, - जो 'मैं' कामिनी और कांचन की ओर ले जाता है । परन्तु मैं 'पक्के मैं' - 'भक्त के मैं' - 'दास के मैं' का त्याग करने के लिए नहीं कहता । मैं ईश्वर का दास हूँ, - ईश्वर की सन्तान हूँ, इसका नाम है 'पक्का मैं’ । इसमें कोई दोष नहीं ।"
[मैं प्रेममय ठाकुर-माँ की सन्तान हूँ और स्वामीजी-नवनीदा का अनुज हूँ ! इसका नाम है पक्का मैं (सर्वव्यापी विराट अहं) इस अहं में दोष नहीं है ! लेकिन इस बात पर विश्वास करने में इतनी देर क्यों लगनी चाहिए ?]
"I said to him: 'How slow you are to understand! I am not asking you to renounce the "ripe ego", the ego that makes a man feel he is a servant of God or His devotee. Give up the "unripe ego", the ego that creates attachment to "woman and gold". The ego that makes a man feel he is God's servant. His child, is the "ripe ego". It doesn't harm one.'"
“আমি বললাম, ‘তোমার এ কি বুদ্ধি! — তুমি কাঁচা-আমি ত্যাগ কর, — যে আমিতে কামিনী-কাঞ্চনে আসক্ত করে, কিন্তু পাকা-আমি, দাস-আমি, ভক্তের আমি, — ত্যাগ করতে বলছি না। আমি ঈশ্বরের দাস, আমি ঈশ্বরের সন্তান, — এর নাম পাকা-আমি। এতে কোনও দোষ নাই’।”
त्रैलोक्य - अहंकार का जाना बहुत कठिन है । लोग सोचते हैं, अहंकार मुझमें नहीं है ।
TRAILOKYA: "It is very difficult to get rid of the ego. People only think they are free from it."
ত্রৈলোক্য — অহংকার যাওয়া বড় শক্ত। লোকে মনে করে, বুঝি গেছে।
श्रीरामकृष्ण - कहीं अहंकार न हो जाय, इसलिए गौरी ^* 'मैं' का प्रयोग ही नहीं करता था - 'ये' कहता था ! मैं भी उसकी देखा देखी 'ये' कहने लगा, 'मैंने खाया है' यह न कहकर कहता था, 'इसने खाया है ।’ यह देखकर एक दिन मथुरबाबू ने कहा, 'यह क्या है बाबा - तुम ऐसा क्यों कहते हो ? यह सब उन लोगों को कहने दो, उनमें अहंकार है । तुम्हारे कुछ अहंकार थोड़े ही है, तुम्हें इस तरह बोलने की कोई जरूरत नहीं ।’
[गौरी ^* : गौरी पंडित (गौरीकांत भट्टाचार्य) बांकुड़ा जिले के इंदास गांव के निवासी थे । वे एक वीराचारी तांत्रिक साधक थे, उनके कुछ सिद्धियाँ भी प्राप्त थीं। श्रीरामकृष्ण देव से उनकी पहली मुलाकात 1865 ई. में दक्षिणेश्वर में हुई थी। मथुराबाबू ने शास्त्रसम्मत प्रमाण के आधार पर श्री श्री ठाकुर की आध्यात्मिक अवस्था का निर्धारण करने के लिए दक्षिणेश्वर में शास्त्रज्ञ पण्डितों की एक सभा आयोजित की थी । इस अवसर पर (1870 ई. में ) गौरी पंडित ने ठाकुरदेव को अवतारों का मूल उत्स कहकर घोषित किया था । श्रीश्रीठाकुर के सान्निध्य में रहते हुए पाण्डित्य, सिद्धाई आदि के प्रदर्शन से उनके मन का मोह भंग हो गया था, और दिन-ब-दिन ईश्वर के चरणकमलों का अनुरागी बन गया था। और क्रमशः वे ठाकुर के भाव से मोहित होकर उनके प्रति पूर्ण अनुरागी भक्त बन गए थे। एक बार उन्होंने प्रसन्न मुख से श्रीश्रीठाकुर को विदा किया और हमेशा के लिए घर से विदा हो गए। ठाकुर देव के दिव्य-सत्संग को प्राप्त करके उन्हें संसार से तीव्र वैराग्य हो गया था। एक दिन सजल नयनों से ठाकुर से विदाई लेकर हमेशा के लिए अपने घर का त्याग कर दिया। बाद में काफी तलाश करने के बाद भी गौरी पंडित कहाँ चले गए इसका कुछ पता नहीं चला।]
MASTER: "Gauri would not refer to himself as 'I' lest he should feel egotistic. He would say 'this' instead. I followed his example and would refer to myself as 'this' instead of 'I'. Instead of saying, 'I have eaten,' I would say, 'This has eaten.' Mathur noticed it and said one day: 'What is this, revered father? Why should you talk that way? Let them talk that way. They have their egotism. You are free from it; you don't have to talk like them.'
শ্রীরামকৃষ্ণ — পাছে অহংকার হয় বলে গৌরী ‘আমি’ বলত না — বলত ‘ইনি’। আমিও তার দেখাদেখি বলতাম ‘ইনি’; ‘আমি খেয়েছি,’ না বলে, বলতাম ‘ইনি খেয়েছেন।’ সেজোবাবু তাই দেখে একদিন বললে, ‘সে কি বাবা, তুমি ও-সব কেন বলবে? ও-সব ওরা বলুক, ওদের অহংকার আছে। তোমার তো আর অহংকার নাই। তোমার ও-সব বলার কিছু দরকার নাই।’
"केशव से मैंने कहा, 'मैं' जाने का तो है ही नहीं, अतएव उसे दासभाव से पड़ा रहने दो - जैसे दास पड़ा रहता है । प्रह्लाद/(हनुमान ?) दो भावों से रहते थे । कभी 'सोऽहम्' का अनुभव करते थे - तुम्हीं 'मैं’ हो - मैं ही 'तुम' हूँ । फिर जब अहं-बुद्धि आती थी, तब देखते थे, मैं दास हूँ - तुम प्रभु हो । एक बार पक्का सोऽहम् अगर हो गया, तो फिर दासभाव से रहना आसान हो जाता है - मैं तुम्हारा दास हूँ इस भाव से ।
"I said to Keshab, 'Since the ego cannot be given up, let it remain as the servant, the servant of God.' Prahlada had two moods. Sometimes he would feel that he was God. In that mood he would say, Thou art verily I, and I am verily Thou.' But when he was conscious of his ego, he felt that God was the Master and he was His servant. After a man is firmly established in the ideal of 'I am He', he can live as God's servant. He may then think of himself as the servant of God.
“কেশবকে বললাম, ‘আমি’টা তো যাবে না, অতএব সে দাসভাবে থাক; — যেমন দাস। প্রহ্লাদ দুই ভাবে থাকতেন, কখনও বোধ করতেন ‘তুমিই আমি’ ‘আমিই তুমি’ — সোঽহম্। আবার যখন অহং বুদ্ধি আসত, তখন দেখতেন, আমি দাস তুমি প্রভু! একবার পাকা ‘সোঽহম্’ হলে পরে, তারপর দাসভাবে থাকা। যেমন আমি দাস।”
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏ब्रह्मज्ञान के लक्षण - भक्त का मैं - कर्म का त्याग🔱🙏
[ব্রহ্মজ্ঞানের লক্ষণ — ভক্তের আমি — কর্মত্যাগ ]
(कप्तान से) "ब्रह्मज्ञान होने पर कुछ लक्षणों से समझ में आ जाता है । श्रीमद्भागवत में ज्ञानी की चार अवस्थाओं की बातें लिखी हैं - पहली बालवत्, दूसरी जड़वत्, तीसरी उन्मत्तवत्, चौथी पिशाचवत् । पाँच साल के लड़के जैसी अवस्था हो जाती है । फिर कभी वह पागल की तरह व्यवहार करता है ।
(To Captain) "When a man attains the Knowledge of Brahman he shows certain characteristics. The Bhagavata describes four of them: the state of a child, of an inert thing, of a madman, and of a ghoul. Sometimes the knower of Brahman acts like a five-year-old child. Sometimes he acts like a madman.
(কাপ্তেনের প্রতি) — “ব্রহ্মজ্ঞান হলে কতকগুলি লক্ষণে বুঝা যায়। শ্রীমদ্ভাগবতে জ্ঞানীর চারটি অবস্থার কথা আছে — (১) বালকবৎ, (২) জড়বৎ, (৩) উন্মাদবৎ, (৪) পিশাচবৎ। পাঁচ বছরের বালকের অবস্থা হয়। আবার কখনও পাগলের মতন ব্যবহার করে।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏Amphibian नेता अपने कर्मचारियों या छोटे भाई पर भार देकर निश्चिन्त रहते हैं🔱🙏
“कभी जड़ की तरह रहता है । इस अवस्था में वह कर्म नहीं कर सकता, कर्म छूट जाते हैं । परन्तु अगर कहो कि (राजर्षि?) जनक आदि ने तो कर्म किया था, तो असल बात यह है कि उस समय के आदमी कर्मचारियों पर (या छोटे भाई पर) भार देकर निश्चिन्त रहते थे, और उस समय के आदमी भी (छोटे भाई भी) बड़े विश्वासी होते थे ।"
(To Captain) "When a man attains the Knowledge of Brahman he shows certain characteristics. The Bhagavata describes four of them: the state of a child, of an inert thing, of a madman, and of a ghoul. Sometimes the knower of Brahman acts like a five-year-old child. Sometimes he acts like a madman.
“কখনও জড়ের ন্যায় থাকে। এ অবস্থায় কর্ম করতে পারে না, কর্মত্যাগ হয়। তবে যদি বল জনকাদি কর্ম করেছিলেন; তা কি জানো, তখনকার লোক কর্মচারীদের উপর ভার দিয়ে নিশ্চিত হত। আর তখনকার লোকও খুব বিশ্বাসী ছিল।”
श्रीरामकृष्ण कर्मत्याग की बातें करने लगे और जिनको ऐसा लगता हो कि अभी उन्हें कुछ कर्तव्यों का पालन करना अनिवार्य है , उन्हें अनासक्त होकर कर्म करने का उपदेश देने लगे ।
Sri Ramakrishna began to speak about the renunciation of action. But he also said that those who felt they must do their duties should do them in a detached spirit.
শ্রীরামকৃষ্ণ কর্মত্যাগের কথা বলিতেছেন, আবার যাহাদের কর্মে আসক্তি আছে, তাহাদের অনাসক্ত হয়ে কর্ম করতে বলছেন।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🙏पवहारी बाबा भक्ति से प्राप्त सन्तोष धन के बल पर partition suit भी जीत सकते है🙏
श्रीरामकृष्ण - ज्ञान के होने पर मनुष्य अधिक कर्म नहीं कर सकता ।
MASTER: "After attaining Knowledge one cannot do much work."
শ্রীরামকৃষ্ণ — জ্ঞান হলে বেশি কর্ম করতে পারে না।
त्रैलोक्य – क्यों ? पवहारी बाबा इतने महान योगी हैं, परन्तु फिरभी लोगों के झगड़े और विवादों का फैसला कर दिया करते हैं - यहाँ तक कि मुकदमे का भी फैसला कर देते हैं ।
TRAILOKYA: "Why so, sir? Pavhari Baba was a great yogi and yet he reconciled people's quarrels, even lawsuits (partition suit etc)"
ত্রৈলোক্য — কেন? পওহারি বাবা এমন যোগী কিন্তু লোকের ঝগড়া-বিবাদ মিটিয়ে দেন, — এমন কি মোকদ্দমা নিষ্পত্তি করেন।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, यह ठीक है, दुर्गाचरण डाक्टर इतना शराबी तो है, परन्तु काम के समय उसके होश दुरुस्त ही रहते हैं - चिकित्सा के समय किसी तरह की भूल नहीं होने पाती । भक्ति प्राप्त करके कर्म किया जाय तो कोई दोष नहीं होता । परन्तु है यह बड़ी कठिन बात, बड़ी तपस्या ^* चाहिए।
[तपस्या ^*इस ब्रह्मवाक्य (पवहारी बाबा =माँ की सीख)- "सन्तोष के डार में मेवा फरे ला") पर अडिग विश्वास होना चाहिए।]
MASTER: "Yes, yes. That's true. Dr. Durgacharan was a great drunkard. He used to drink twenty-four hours a day. But he was precise in his actions; he did not make any mistake in treating his patients. There is no harm in doing work after the attainment of bhakti. But it is very hard. One needs intense tapasya.
শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, হাঁ, — তা বটে। দুর্গাচরণ ডাক্তার এতো মাতাল, চব্বিশ ঘন্টা মদ খেয়ে থাকত, কিন্তু কাজের বেলা ঠিক, — চিকিৎসা করবার সময় কোনরূপ ভুল হবে না। ভক্তিলাভ করে কর্ম করলে দোষ নাই। কিন্তু বড় কঠিন, খুব তপস্যা চাই!
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
*आमरा कि परेर छेले ? आमरा मायेर छेले*
🔱🙏हम भगवान श्रीरामकृष्ण और माँ सारदा के बच्चे हैं और किसी और के नहीं !🔱🙏
[We are the children of Lord Sri Ramakrishna and Mother Sarada and no one else!
আমরা কি পরের ছেলে? আমরা মায়ের ছেলে !
"ईश्वर ही सब कुछ कर रहे हैं, हमलोग उनके यन्त्र हैं ! कालीमन्दिर के सामने सिक्ख लोग कह रहे थे, 'ईश्वर दयामय हैं ।' मैंने पूछा, 'दया किन पर करते हैं ?
"It is God who does everything. We are His instruments. Some Sikhs said to me in front of the Kali temple, 'God is compassionate.' I said, 'To whom is He compassionate?'
“ঈশ্বরই সব করছেন, আমরা যন্ত্রস্বরূপ। কালীঘরের সামনে শিখরা বলেছিল, ‘ঈশ্বর দয়াময়’। আমি বললাম, দয়া কাদের উপর?
"सिक्खों ने कहा, 'महाराज, हम सब पर उनकी दया है ।'
"मैंने कहा, 'यदि सब उनके ही बच्चे हैं तो अपने बच्चों पर फिर दया कैसी ? वे अपने लड़कों की देखरेख कर रहे हैं, वे नहीं देखेंगे तो क्या अड़ोसी-पड़ोसी आकर देखेंगे ?' अच्छा देखो, जो लोग ईश्वर को दयामय कहते हैं वे यह नहीं समझते कि वे किसी दूसरे के लड़के नहीं, ईश्वर की ही सन्तान हैं ।"
'Why, revered sir, to all of us', said the Sikhs. I said: 'We are His children. Does compassion to one's own children mean much? A father/Mother must look after his/her children; or do you expect the people of the neighbourhood to bring them up?' Well, won't those who say that God is compassionate ever understand that we are God's children and not someone else's?"
कप्तान - जी हाँ, ठीक है, पर वे ईश्वर को अपना नहीं मानते ।
CAPTAIN: "You are right. They don't regard God as their own."
কাপ্তেন — আজ্ঞা হাঁ, আপনার বলে বোধ থাকে না।
[CAPTAIN : C-IN-C >> We do not always remember that Sri Ramakrishna, Mother Sarada Devi are not our step-parents, they are our own parents! जी हाँ, आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं , किन्तु हमें हर समय यह स्मरण नहीं रहता कि श्रीरामकृष्ण, श्रीश्रीमाँ सारदा देवी हमारे सौतेले माँ-बाप नहीं, अपने माँ -बाप हैं! लेकिन मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि स्वामी जी मुझ जैसे नालायक को भी बिल्कुल अपने छोटे भाई 'महेन्द्रनाथ दत्त' की तरह प्यार करते हैं; इसीलिए मेरी हजारों भूलों को क्षमा कर देते हैं और अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण - श्रीश्री माँ (गुरुदेव या नवनीदा) के पास भेजकर, वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा-'Be and Make' में निःस्वार्थी मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा देते हैं!]
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
[भक्त और पूजा अनुष्ठान - भगवान भक्तवत्सल हैं - पूर्णज्ञानी]
[ভক্ত ও পূজাদি — ঈশ্বর ভক্তবৎসল — পূর্ণজ্ঞানী ]
🔱🙏ईश्वर लाभ (सोऽहं बोध) के बाद स्वामीजी परम् कृपालु बड़े भाई प्रतीत होते हैं !🔱🙏
श्रीरामकृष्ण - तो क्या हम ईश्वर को (ठाकुर-माँ - स्वामी विवेकानन्द को) दयामय न कहें ? अवश्य कहना चाहिए जब तक हम साधना की अवस्था में हैं । उन्हें प्राप्त कर लेने पर अपने माँ-बाप पर जो भाव रहता है, वही उन पर भी हो जाता है । जब तक ईश्वर-लाभ नहीं होता, तब तक जान पड़ता है, हम बहुत दूर के आदमी हैं, दूसरे के बच्चे हैं ।
MASTER: "Should we not, then, address God as compassionate? Of course we should, as long as we practise sadhana. After realizing God, one rightly feels that God is our Father or Mother. As long as we have not realized God, we feel that we are far away from Him, children of someone else.
শ্রীরামকৃষ্ণ — তবে কি দয়াময় বলবে না? যতক্ষণ সাধনার অবস্থা, ততক্ষণ বলবে। তাঁকে লাভ হলে তবে ঠিক আপনার বাপ কি আপনার মা বলে বোধ হয়। যতক্ষণ না ঈশ্বরলাভ হয় ততক্ষণ বোধ হয় — আমরা সব দূরের লোক, পরের ছেলে।
"साधना की अवस्था में उनसे सब कुछ कहना चाहिए । हाजरा ने एक दिन नरेन्द्र से कहा था, 'ईश्वर अनन्त हैं । उनका ऐश्वर्य अनन्त है । वे क्या कभी सन्देश और केले खाने लगेंगे ? या गाना सुनेंगे ? यह सब मन की भूल है ।'
"During the stage of sadhana one should describe God by all His attributes. One day Hazra said to Narendra: 'God is Infinity. Infinite is His splendour. Do you think He will accept your offerings of sweets and bananas or listen to your music? This is a mistaken notion of yours.'
“সাধনাবস্থায় তাঁকে সবই বলতে হয়। হাজরা নরেন্দ্রকে একদিন বলেছিল, ‘ঈশ্বর অনন্ত তাঁর ঐশ্বর্য অনন্ত। তিনি কি আর সন্দেশ কলা খাবেন? না গান শুনবেন? ও-সব মনের ভুল।’
"सुनते ही नरेन्द्र मानो दस हाथ धँस गया । तब मैंने हाजरा से कहा, 'तुम कैसे पाजी हो ? अगर बाल-भक्तों से ऐसी बात कहोगे तो वे ठहरेंगे कहाँ ?’ भक्ति के जाने पर आदमी फिर क्या लेकर रहे ? उनका ऐश्वर्य अनन्त हैं, फिर भी वे भक्ताधीन हैं, बड़े आदमी का दरवान बाबुओं की सभा में एक ओर खड़ा हुआ है, हाथ में एक चीज है - कपड़े से ढकी हुई, वह बड़े संकोच भाव से खड़ा हुआ है ।
Narendra at once sank ten fathoms. So I said to Hazra, 'You villain! Where will these youngsters be if you talk to them like that?' How can a man live if he gives up devotion? No doubt God has infinite splendour; yet He is under the control of His devotees. A rich man's gate-keeper comes to the parlour where his master is seated with his friends. He stands on one side of the room. In his hand he has something covered with a cloth. He is very hesitant.
“নরেন্দ্র অমনি দশ হাত নেবে গেল। তখন হাজরাকে বললাম, তুমি কি পাজী! ওদের অমন কথা বললে ওরা দাঁড়ায় কোথা? ভক্তি গেলে মানুষ কি লয়ে থাকে? তাঁর আনন্ত ঐশ্বর্য, তবুও তিনি ভক্তাধীন! বড় মানুষের দ্বারবান এসে বাবুর সভায় একধারে দাঁড়িয়া আছে। হাতে কি একটি জিনিস আছে, কাপড়ে ঢাকা! অতি সঙ্কোচভাব!
बाबू ने पूछा, 'क्यों दरवान, तुम्हारे हाथ में यह क्या है ?' दरवान ने संकोच के साथ एक शरीफा निकालकर बाबू के सामने रखा - उसकी इच्छा थी कि बाबू उसे खायँ । दरवान का भक्तिभाव देखकर बाबू ने शरीफा बड़े आदर के साथ ले लिया और कहा, 'वाह ! बड़ा अच्छा शरीफा है । तुम कहाँ से इतना कष्ट करके इसे लाये ?'
The master asks him, 'Well, gate-keeper, what have you in your hand?' Very hesitantly the servant takes out a custard-apple from under the cover, places it in front of his master, and says, 'Sir, it is my desire that you should eat this.' The Master is impressed by his servant's devotion. With great love he takes the fruit in his hand and says: 'Ah! This is a very nice custard-apple. Where did you pick it? You must have taken a great deal of trouble to get it.'
বাবু জিজ্ঞাসা করলেন, কি দ্বারবান, হাতে কি আছে? দ্বারবান সঙ্কোচভাবে একটি আতা বার করে বাবুর সম্মুখে রাখলে — ইচ্ছা বাবু ওটি খাবেন। বাবু দ্বারবানের ভক্তিভাব দেখে আতাটি খুব আদর করে নিলেন, আর বললেন, আহা বেশ আতা! তুমি এটি কোথা থেকে কষ্ট করে আনলে?
"वे भक्ताधीन हैं । दुर्योधन ने इतनी खातिर की और कहा, 'महाराज, यहीं जलपान कीजिये ।' परन्तु श्रीठाकुरजी विदुर की कुटी पर चले गये । वे भक्तवत्सल हैं, विदुर का शाकान्न बड़े प्रेम से अमृत समझकर खाया ।
"God is under the control of His devotees. King Duryodhana was very attentive to Krishna and said to Him, 'Please have your meal here.' But the Lord went to Vidura's hut. He is very fond of His devotees. He ate Vidura's simple rice and greens as if they were celestial food.
“তিনি ভক্তাধীন! দুর্যোধন অত যত্ন দেখালে, আর বললে, এখানে খাওয়া-দাওয়া করুন; ঠাকুর (শ্রীকৃষ্ণ) কিন্তু বিদুরের কুটিরে গেলেন। তিনি ভক্তবৎসল, বিদুরের শাকান্ন সুধার ন্যায় খেলেন!
"पूर्ण ज्ञानी का एक लक्षण और है, - पिशाचवत् - न खाने पीने का विचार है, न शुचिता, न अशुचिता का ।
"Sometimes a perfect jnani behaves like a ghoul. He does not discriminate about food and drink, holiness and unholiness.
“পূর্ণজ্ঞানীর আর-একটি লক্ষণ — ‘পিশাচবৎ’! খাওয়া-দাওয়ার বিচার নাই — শুচি-অশুচির বিচার নাই!
पूर्ण ज्ञानी और पूर्ण मूर्ख, दोनों के बाहरी लक्षण एक ही तरह के हैं । पूर्ण ज्ञानी को देखो, गंगा नहाकर कभी मन्त्र जपता ही नहीं, ठाकुर-पूजा करते समय सब फूल एक साथ ठाकुरजी के पैरों पर चढ़ा दिये और चला आया, कोई तन्त्र मन्त्र नहीं जपा ।
A perfect knower of God and a perfect idiot have the same outer signs. A perfect jnani perhaps does not utter the mantras while bathing in the Ganges. While worshipping God, perhaps he offers all the flowers together at His feet. He doesn't utter the mantras, nor does he observe the rituals.
পূর্ণজ্ঞানী ও পূর্ণমূর্খ, দুইজনেরই বাহিরের লক্ষণ একরকম। পূর্ণজ্ঞানী হয়তো গঙ্গাস্নানে মন্ত্রপাঠ করলে না, ঠাকুরপূজা করবার সময় ফুলগুলি হয়তো একসঙ্গে ঠাকুরের চরণে দিয়ে চলে এল, কোনও তন্ত্র-মন্ত্র নাই!”
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
* कर्म कब तक करना है ? जब तक भक्ति नहीं भोग की इच्छा बनी हुई है !*
[কর্মী ও ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ — কর্ম কতক্ষণ? ]
"जितने दिन संसार में भोग करने की इच्छा रहती है, उतने दिनों तक मनुष्य कर्मों का त्याग नहीं कर सकता । जब तक भोग की आशा है, तब तक कर्म हैं ।
"A man cannot renounce action as long as he desires worldly enjoyment. As long as one cherishes a desire for enjoyment, one performs action.
“যতদিন সংসারে ভোগ করবার ইচ্ছা থাকে, ততদিন কর্মত্যাগ করতে পারে না। যতক্ষণ ভোগের আশা ততক্ষণ কর্ম।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏अनन्य भक्ति (कुटीचक) का सुन्दर चित्रण : मेरो मन अनत कहां सुख पावै।🔱🙏
Where can my mind find infinite happiness?
"एक पक्षी जहाज के मस्तूल पर अन्यमनस्क ( absent-mindedly) बैठा था । जहाज गंगागर्भ में था । धीरे-धीरे महासमुद्र में आ गया तब पक्षी को होश आया, उसने चारों ओर देखा, कहीं भी किनारा दिखलायी नहीं पड़ता था । तब किनारे की खोज करने के लिए वह उत्तर की ओर उड़ा । बहुत दूर जाकर थक गया । फिर भी किनारा उसे नहीं मिला । तब क्या करे, लौटकर फिर मस्तूल पर आकर बैठा । कुछ देर के बाद, वह पक्षी फिर उड़ा, इस बार पूर्व की ओर गया । उस तरफ भी उसे कहीं छोर न मिला । चारों ओर समुद्र ही समुद्र था । तब बहुत ही थककर फिर जहाज के मस्तूल पर आ बैठा ।
"A bird sat absent-mindedly on the mast of a ship anchored in the Ganges. Slowly the ship sailed out into the ocean. When the bird came to its senses, it could find no shore in any direction. It flew toward the north hoping to reach land; it went very far and grew very tired but could find no shore. What could it do? It returned to the ship and sat on the mast. After a long while the bird flew away again, this time toward the east. It couldn't find land in that direction either; everywhere it saw nothing but limitless ocean. Very tired, it again returned to the ship and sat on the mast.
“একটি পাখি জাহাজের মাস্তুলে অন্যমনস্ক হয়ে বসে ছিল। জাহাজ গঙ্গার ভিতর ছিল, ক্রমে মহাসমুদ্রে এসে পড়ল। তখন পাখির চটকা ভাঙলো, সে দেখলে চতুর্দিকে কূল কিনারা নাই। তখন ড্যাঙায় ফিরে যাবার জন্য উত্তরদিকে উড়ে গেল। অনেক দূর গিয়ে শ্রান্ত হয়ে গেল, তবু কূল-কিনারা দেখতে পেলে না। তখন কি করে, ফিরে এসে মাস্তুলে আবার বসল।
फिर कुछ विश्राम करके दक्षिण ओर गया, पश्चिम ओर गया । पर उसने देखा कि कहीं ओर-छोर ही नहीं है । तब लौटकर वह फिर उसी मस्तूल पर बैठ गया । इसके बाद फिर नहीं उड़ा । निश्चेष्ट होकर बैठा रहा । तब मन में किसी प्रकार की चंचलता या अशान्ति नहीं रही । निश्चिन्त हो गया, फिर कोई चेष्टा भी नहीं रही ।"
[ भक्त कवि सूरदास जी कहते हैं -
मेरो मन अनत कहां सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै॥
कमलनैन कौ छांड़ि महातम और देव को ध्यावै।
परमगंग कों छांड़ि पियासो दुर्मति कूप खनावै॥
जिन मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्यों करील-फल खावै।
सूरदास, प्रभु कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावै॥
शब्दार्थ :- अनत =अन्यत्र। सचु =सुख, शान्ति। कमलनैन = श्रीकृष्ण। दुर्मति= मूर्ख खनावै = खोदता है। करील -नीम की तरह फल । छेरी =बकरी।
भावार्थ :- यहां भक्त की भगवान् के प्रति अनन्यता की ऊंची अवस्था दिखाई गई है। जीवात्मा परमात्मा की अंश-स्वरूपा है। उसका विश्रान्ति-स्थल परमात्मा ही है , अन्यत्र उसे सच्ची सुख-शान्ति मिलने की नहीं। प्रभु को छोड़कर जो इधर-उधर सुख खोजता है, वह मूढ़ है। कमल-रसास्वादी भ्रमर भला करील का कड़वा फल चखेगा ? कामधेनु छोड़कर बकरी को कौन मूर्ख दुहेगा ?
पूर्व काल में लोग धन-संपदा को आवश्यक मानते थे, लेकिन उसे ही सब कुछ मान के नहीं बैठ जाते थे । लोगों के लिए ज्ञानार्जन, अध्यात्म, दर्शन, धार्मिक कृत्य समाज सेवा और सांस्कृतिक कार्य आदि का भी महत्त्व होता था । किंतु आज हम ऐसे युग में प्रवेश कर चुके हैं जहां जीवन का सर्वप्रथम लक्ष्य – और कभी-कभी एकमेव लक्ष्य – धनोपार्जन रह गया है । रातदिन यह चिंता बनी रहती है कि कैसे अधिकाधिक धन-संपदा जुटायी जाये । आज का मानव जीवन प्रतिस्पर्धात्मक बन चुका है । उसकी लालसा रहती है कि वह संपदा के मामले में अपने रिश्तेदारों, मित्र-परिचितों, पड़ोसियों, एवं सहकर्मियों आदि से आगे निकल जाये । धन-संपदा मानव समाज में सदा से ही महत्त्वपूर्ण रहे हैं, किंतु ‘अति सर्वत्र वर्जितम्’ ! पद्मपुराण में कहा है कि – 'लोभ: पापस्य बीजं।'
लोभ पाप का कारण है !
लोभ: पापस्य बीजं हि मोहो मूलं च तस्य हि ।
असत्यं तस्य वै स्कन्धो माया शाखासु विस्तरः ॥
पाप एक वृक्ष के समान है । लोभ उसका बीज है, मोह इसकी जड़ें हैं, असत्य उसका तना है, माया उसकी शाखाओं का विस्तार है ।]
Very tired, it again returned to the ship and sat on the mast. After resting a long while, the bird went toward the south, and then toward the west. When it found no sign of land in any direction, it came back and settled down on the mast. It did not leave the mast again, but sat there without making any further effort. It no longer felt restless or worried. Because it was free from worry, it made no further effort."
“অনেকক্ষণ পরে পাখিটা আবার উড়ে গেল — এবার পূর্বদিকে গেল। সেদিকে কিছুই দেখতে পেলে না, চারিদিকে কেবল অকূল পাথার! তখন ভারী পরিশ্রান্ত হয়ে আবার জাহাজে ফিরে এসে মাস্তুলের উপর বসল, আর উঠল না। নিশ্চেষ্ট হয়ে বসে রইল। তখন মনে আর কোনও ব্যস্তভাব বা অশান্তি রইল না। নিশ্চিন্ত হয়েছে আর কোনোও চেষ্টাও নাই।”
कप्तान – वाह ! कैसा दृष्टान्त है !
CAPTAIN: "Ah, what an illustration!"
কাপ্তেন — আহা কেয়া দৃষ্টান্ত!
श्रीरामकृष्ण - संसारी आदमी सुख के लिए जब चारों ओर भटके फिरते हैं, और नहीं पाते, तो अन्त में थक जाते हैं । जब कामिनी और कांचन पर आसक्त होकर केवल दुःख ही दुःख उनके हाथ लगता है, तभी उनमें वैराग्य आता है - तभी त्याग का भाव पैदा होता है । बहुतेरे ऐसे भी हैं जो बिना भोग किये त्याग नहीं कर सकते ।
MASTER: "Worldly people wander about to the four quarters of the earth for the sake of happiness. They don't find it anywhere; they only become tired and weary. When through their attachment to 'woman and gold' they only suffer misery, they feel an urge toward dispassion and renunciation. Most people cannot renounce 'woman and gold' without first enjoying it.
শ্রীরামকৃষ্ণ — সংসারী লোকেরা যখন সুখের জন্য চারিদিকে ঘুরে ঘুরে বেড়ায়, আর পায় না, আর শেষে পরিশ্রান্ত হয়; যখন কামিনী-কাঞ্চনে আসক্ত হয়ে কেবল দুঃখ পায়, তখনই বৈরাগ্য আসে, ত্যাগ আসে। ভোগ না করলে ত্যাগ অনেকের হয় না।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116
🙏बहूदक को माँ की कृपा से कुटीचक-अवस्था (निश्चिन्त तथा चेष्टाशून्य) प्राप्त होती है🙏
कुटीचक और बहूदक, ये दो होते हैं । साधकों में भी बहुतेरे ऐसे हैं, जो अनेक तीर्थों की यात्रा किया करते हैं । एक जगह पर स्थिर होकर नहीं बैठ सकते । बहुत से तीर्थों का उदक अर्थात् पानी पीते है । जब घूमते हुए उनका क्षोभ मिट जाता है तब किसी एक जगह कुटी बनाकर स्थिर हो जाते हैं और निश्चिन्त तथा चेष्टाशून्य (free from worry and effort) होकर परमात्मा का चिन्तन किया करते हैं ।
There are two sorts of people: those who stay in one place and those who go about to many places. There are some sadhakas who visit many sacred places. They cannot settle down in one spot; they must drink the water of many holy places. Thus roaming about, they satisfy their unfulfilled desires. And at last they build a hut in one place and settle down there. Then, free from worry and effort, they meditate on God.
কুটিচক আর বহুদক। সাধকের ভিতরও কেয় কেয় অনেক তীর্থে ঘোরে। এক জায়গায় স্থির হয়ে বসতে পারে না; অনেক তীর্থের উদক — কিনা জল খায়! যখন ঘুরে ঘুরে ক্ষোভ মিটে জায়, তখন এক জায়গায় কুটির বেঁধে বসে। আর নিশ্চিন্ত ও চেষ্টাশূন্য হয়ে ভগবানকে চিন্তা করে।
"परन्तु संसार में कोई भोग भी क्या करेगा ? - कामिनी और कांचन का भोग ? वह तो क्षणिक आनन्द है । अभी है, अभी नहीं ।
"But what is there to enjoy in the world? 'Woman and gold'? That is only a momentary pleasure. One moment it exists and the next moment it disappears.
“কিন্তু কি ভোগ সংসারে করবে? কামিনী-কাঞ্চন ভোগ? সে তো ক্ষণিক আনন্দ এই আছে, এই নাই!
"जगत मानो काले बादलों से भरे आकाश जैसा है, प्राय: मेघ छाये रहते हैं, वर्षा लगी हुई है; सूर्य नहीं दीख पड़ता । दुःख का भाग ही अधिक है । कामिनी-कांचनरूपी काले बादल सूर्य को देखने नहीं देता ।
"The world is like an overcast sky that steadily pours down rain: the face of the sun is seldom seen. There is mostly suffering in the world. On account of the cloud of 'woman and gold' one cannot see the sun.
“প্রায় মেঘ ও বর্ষা লেগেই আছে, সূর্য দেখা যায় না! দুঃখের ভাগই বেশি! আর কামিনী-কাঞ্চন-মেঘ সূর্যকে দেখতে দেয় না।
(५)
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏उपाय (Remedy): "व्याकुलता से अनुकूल वायु और शुभ योग" के लिए प्रार्थना🔱🙏
“कोई कोई मुझसे पूछते हैं, 'महाराज, ईश्वर ने क्यों इस तरह के संसार की सृष्टि की ? हम लोगों के लिए क्या कोई उपाय नहीं हैं ?'
Some people ask me: 'Sir, why has God created such a world? Is there no way out for us?'
“কেউ কেউ আমাকে জিজ্ঞাসা করে, ‘মহাশয়, ঈশ্বর কেন এমন সংসার করলেন? আমাদের কি কোনও উপায় নাই’?”
"मैं कहता हूँ, उपाय है क्यों नहीं ? उनकी शरण में जाओ और व्याकुल होकर प्रार्थना करो, ताकि अनुकूल वायु चलने लगे, जिससे शुभ योग आ जायँ । व्याकुल होकर पुकारोगे तो वे अवश्य सुनेंगे।
I say to them: 'Why shouldn't there be a way out? Take shelter with God and pray to Him with a yearning heart for a favourable wind, that you may have things in your favour. If you call on Him with yearning. He will surely listen to you.'
“আমি বলি, উপায় থাকবে না কেন? তাঁর শরণাগত হও, আর ব্যাকুল হয়ে প্রার্থনা কর, যাতে অনুকূল হাওয়া বয়, — যাতে শুভযোগ ঘটে। ব্যাকুল হয়ে ডাকলে তিনি শুনবেনই শুনবেন।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
भववैद्य श्रीरामकृष्ण देव की भवरोग की दवा : तिहरी कूद "hop-step-and-jump !"
The Remedy :पूर्वाग्रह-रोधी दवा (The anti-seizure medicine):
The frog must hop away!
बेंग खोपड़ी को कूद कर पार कर जाये-बेंग टी पालिये जाबे
(देश-काल-निमित्त का अतिक्रमण करने की प्रार्थना)
🔱🙏माँ जगदम्बा की कृपा से स्वाति नक्षत्र का पानी मुर्दे की खोपड़ी पर गिरना तय है🔱🙏
(1987 बेलघड़िया कैम्प में स्वाति नक्षत्र का पानी खोपड़ी में गिरने का शुभ योग प्राप्त हुआ)
"एक के लड़के का अब-तब हो रहा था । वह आदमी व्याकुल होकर इधर-उधर उपाय पूछता फिरता था । एक ने कहा, 'तुम अगर एक उपाय कर सको तो लड़का अच्छा हो जायेगा । अगर स्वाति नक्षत्र का पानी मुर्दे की खोपड़ी पर गिरे और उसी में रुक जाय, फिर अगर एक मेंढक उस पानी को पीने के लिए बढ़े और साँप उसे खदेड़े, खदेड़कर पकड़ते समय मेंढक उछलकर उस खोपड़ी को पार कर जाय और साँप का विष उसी खोपड़ी में गिर जाय, और वह विषैला पानी अगर रोगी को थोड़ासा पिला सको, तो वह अच्छा हो सकता है ।'
"A man had a son who was on the point of death. In a frenzy he asked remedies of different people. One of them said: 'Here is a remedy: First it must rain when the star Svati is in the ascendant; then some of the rain must fall into a skull; then a frog must come there to drink the water, and a snake must chase it; and when the snake is about to bite the frog, the frog must hop away and the poison must fall into the skull. You should give the patient a little of the poison and rain-water from the skull.'
“একজনের ছেলেটি যায় যায় হয়েছিল। সে ব্যক্তি ব্যাকুল হয়ে এর কাছে ওর কাছে উপায় জিজ্ঞাসা করে বেড়াচ্ছে। একজন বললে, তুমি যদি এইটি যোগাড় করতে পারো তো ভাল হয়, — স্বাতী নক্ষত্রের জল পড়বে মড়ার মাথার খুলির উপর। সেই জল একটি ব্যাঙ খেতে যাবে। সেই ব্যাঙকে একটি সাপে তাড়া করবে। ব্যাঙকে কামরাতে গিয়ে সাপের বিষ ওই মড়ার মাথার খুলিতে পড়বে, আর সেই ব্যাঙটি পালিয়ে যাবে। সেই বিষজল একটু লয়ে রোগীকে খাওয়াতে হবে।
वह आदमी उसी समय स्वाति नक्षत्र में उस दवा की तलाश के लिए निकला । उसी समय पानी बरसना भी शुरू हो गया । तब वह व्याकुल होकर ईश्वर से कहने लगा, 'भगवन्, अब मुर्दे की खोपड़ी (पंचमुण्डी) भी कहीं से ला दो ।' खोजते हुए उसे मुर्दे की खोपड़ी भी मिल गयी । उसमें स्वाति नक्षत्र का पानी भी पड़ा हुआ था ।
The father set out eagerly to find the medicine when the star Svati was in the sky. It started raining. Fervently he said to God, 'O Lord, please get a skull for me.' Searching here and there, he at last found a skull with rain-water in it.
“লোকটি অমনি ব্যাকুল হয়ে সেই ঔষধ খুঁজতে স্বাতী নক্ষত্রে বেরুল! এমন সময়ে বৃষ্টি হচ্ছে। তখন ব্যাকুল হয়ে ঈশ্বরকে বলছে, ঠাকুর! এইবার মরার মাথা জুটিয়ে দাও। খুঁজতে খুঁজতে দেখে, একটি মরার খুলি, তাতে স্বাতী নক্ষত্রের জল পড়েছে;
तब वह प्रार्थना करके कहने लगा, 'जय हो तुम्हारी भगवन्, अब और जो कुछ रह गया है वह भी सब जुटा दो - मेंढक (चतुष्पद) और साँप (निष्पद)।' उसकी जैसी व्याकुलता थी, वैसी ही शीघ्रता से सब सामान इकट्ठे होते गये । देखते ही देखते एक साँप मेंढक का पीछा करते हुए आने लगा । और काटते समय उसका विष भी उसी खोपड़ी में गिर गया ।
[मांडूक्य उपनिषद कहता है- अयमात्मा ब्रह्म। सोअयमात्मा चतुष्पाद। अयमात्मा ब्रह्म महावाक्य है और चतुस्पाद यानी विश्व,तेजस्, प्राज्ञ, तुरीय।]
Again he prayed to God, saying, 'O Lord, I beseech Thee, please help me find the frog and the snake.' Since he had great longing, he got the frog and the snake also. In the twinkling of an eye he saw a snake chasing a frog, and as it was about to bite the frog, its poison fell into the skull.
তখন সে আবার প্রার্থনা করে বলতে লাগল, দোহাই ঠাকুর! এইবার আর কটি জুটিয়া দাও — ব্যাঙ ও সাপ! তার যেমন ব্যাকুলতা তেমনি সব জুটে গেল। দেখতে দেখতে একটি সাপ ব্যাঙকে তাড়া করে আসছে, আর কামড়াতে গিয়ে তার বিষ, ওই খুলির ভিতর পড়ে গেল।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏माँ के व्याकुल होय डाकले, तीनि सुनबेनई सुनबेन🔱🙏
তাঁকে ব্যাকুল হয়ে ডাকলে, তিনি শুনবেনই শুনবেন
[(Brave) Who dares misery love, And hug the form of Death,
Dance in destruction's dance, To him the Mother comes.
साहसी, जो चाहता है-दुःख, मिल जाना मरण से,
नाश की गति नाचता है,माँ उसी के पास आयी ।]
"ईश्वर (माँ जगदम्बा) की शरण में जाकर, उन्हें व्याकुल होकर पुकारने पर वे उस पुकार पर अवश्य ही ध्यान देंगे, - सब सुयोग वे स्वयं जुटा देंगे ।"
"If one takes shelter with God and prays to Him with great longing, God will surely listen; He will certainly make everything favourable."
“ঈশ্বরের শরণাগত হয়ে, তাঁকে ব্যাকুল হয়ে ডাকলে, তিনি শুনবেনই শুনবেন — সব সুযোগ করে দেবেন।”
कप्तान - कैसा सुन्दर दृष्टान्त है ।
CAPTAIN: "What an apt illustration!" (कप्तान: "क्या उपयुक्त उदाहरण है!")
কাপ্তেন — কেয়া দৃষ্টান্ত!
श्रीरामकृष्ण - हाँ, वे स्वयं सब सुयोग जुटा देते हैं । कभी ऐसा भी होता है कि विवाह नहीं हुआ, सब मन ईश्वर पर चला गया । कभी यह होता है कि भाई रोजगार करते हैं, या एक लड़का तैयार हो जाता है, तो फिर उस व्यक्ति को स्वयं संसार का काम नहीं सम्हालना पड़ता, तब वह अनायास ही सोलहों आना मन ईश्वर (100 % निःस्वार्थपरता) को समर्पित कर सकता है ।
MASTER: "Yes, God makes everything favourable. Perhaps the aspirant doesn't marry. Thus he is able to devote his whole attention to God. Or perhaps his brothers earn the family's livelihood. Or perhaps a son takes on the responsibilities of the family. Then the aspirant will not have to bother about the world; he can give one hundred per cent of his mind to God (100 % Unselfishness) .
শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, তিনি সুযোগ করে দেন। হয়তো, — বিয়ে হল না, সব মন ঈশ্বরকে দিতে পারলে, হয়তো ভায়েরা রোজগার করতে লাগল বা একটি ছেলে মানুষ হয়ে গেল, তাহলে তোমায় আর সংসার দেখতে হল না। তখন তুমি অনায়াসে ষোল আনা মন ঈশ্বরকে দিতে পার।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏आतशी शीशे का प्रयोग करने के लिये कमरे से बाहर निकलना होगा🔱🙏
परन्तु बात यह है कि कामिनी और कांचन ^* का त्याग हुए बिना कहीं कुछ नहीं होता । त्याग होने पर ही अज्ञान और अविद्या का नाश होता है । आतशी शीशे पर सूर्य की किरणों के पड़ने पर कितनी चीजें जल जाती है, परन्तु कमरे के भीतर छाया है, वहाँ आतशी शीशे के ले जाने पर यह बात नहीं होती । घर छोड़कर बाहर निकलकर खड़े होना चाहिए ।
But one cannot succeed unless one renounces 'woman and gold'. Only by renunciation is ignorance destroyed. The sun's rays, falling on a lens, burn many objects. But if a room is dark inside, you cannot get that result. You must come out of the room to use the lens.
তবে কামিনী-কাঞ্চন ত্যাগ না হলে হবে না। ত্যাগ হলে তবে অজ্ঞান অবিদ্যা নাশ হয়।আতস কাঁচের উপর সূর্যের কিরণ পড়লে কত জিনিস পুড়ে যায়। কিন্তু ঘরের ভিতর ছায়া, সেখানে আতস কাঁচ লয়ে গেলে ওটি হয় না। ঘর ত্যাগ করে বাহিরে এসে দাঁড়াতে হয়।
[कामिनी और कंचन ^* का अभिप्राय : जिस समय श्री रामकृष्ण परमहंस देव को दिव्य-ज्ञान हुआ उसी समय उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि सब वस्तुओं का सार ईश्वर ही है और उसी को पाने का प्रयत्न करना चाहिए। इसके पश्चात उन्होंने इस भावना को दढ करने का अभ्यास करना आरंभ किया। उन्होंने एक हाथ में रुपया और दूसरे में मिट्टी का ढेला लिया और मन को संबोधन करके कहने लगे :“हे मन, तू इसको रुपया कहता है, और इसको मिट्टी। रुपया चाँदी का गोल टुकड़ा है जिस पर एक ओर रानी (विक्टोरिया) की तस्वीर छपी है। यह जड़ पदार्थ है। रुपया से चावल, कपड़ा, घर, हाथी, घोड़ा आदि पदार्थ प्राप्त हो सकते हैं, दस-बीस मनुष्यों को भोजन कराया जा सकता है, तीर्थ-यात्रा, देवता और संतों की सेवा की जा सकती है। पर रुपये के द्वारा सच्चिदानंद की प्राप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि इसके रहते हुए अहंकार सर्वथा नष्ट नहीं हो सकता और न मन आसक्तिहीन हो सकता है। देवता और साधु की सेवा आदि धर्म-कार्य किए जा सकने पर भी यह मन में रजोगुण और तमोगुण ही उत्पन्न करता है और इस दशा में सच्चिदानंद की प्राप्ति नहीं हो सकती।”
मिट्टी को देखकर वे कहते: “कांचन से मिट्टी व जमीन (मिट्टी) खरीदी जा सकती है। लेकिन यह भी जड़ पदार्थ है, पर इससे अन्न उत्पन्न होता है जिससे मनुष्य के शरीर की रक्षा होती है। मिट्टी के द्वारा ही घर बनाया जाता है, देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी बनाई जा सकती हैं। द्रव्य के द्वारा जो कार्य होते हैं वे मिट्टी द्वारा भी हो सकते हैं। दोनों एक ही श्रेणी के जड़ पदार्थ हैं और दोनों का परिणाम एक ही तरह का होता है। अरे मन! तू इन दोनों पदार्थों को लेकर तृप्त होगा अथवा सच्चिदानंद को प्राप्त करने का प्रयत्न करेगा।”
इस प्रकार कहकर उन्होंने नेत्र बंद कर लिए और ‘रुपया-मिट्टी’ ‘मिट्टी-रुपया ’ इस प्रकार की ध्वनि करने लगे। अंत में उन्होंने रुपया और मिट्टी दोनों को गंगाजी में फेंक दिया। इस प्रकार बारबार अभ्यास करके उन्होंने अपने मन को धातु (रुपया) के प्रति इतना विरक्त बना लिया कि किसी धातु के छूने से बड़ा कष्ट जान पड़ता था। इसी प्रकार उन्होंने स्त्री-सुख के संबंध में विचार किया कि उसकी वासना किसी भी प्रकार से क्यों न रखी जाए, उससे मस्तिष्क और मन दुर्बल ही होते हैं। और परमात्म-चिंतन में बाधा पड़ती है। माना कि उसे लोग सुख के लिए ग्रहण करते हैं, पर वह सुख क्षणिक ही रहेगा ,कभी स्थाई नहीं होगा और परिणाम हानिकारक ही होगा।
[साभार /https://life2health.org/2021/11/26/]
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🙏ईश्वरलाभ के बाद राजर्षि जनक जैसा भक्त गृहस्थ-जीवन में भी रह सकता है🙏
[ঈশ্বরলাভের পর সংসার — জনকাদির ]
" परन्तु ज्ञान-लाभ के बाद कोई कोई संसार में रहते भी हैं । वे घर और बाहर दोनों देखते हैं । ज्ञान का प्रकाश संसार पर पड़ता है, इसीलिए वे भला-बुरा, नित्य-अनित्य, सब उसके प्रकाश में देख सकते हैं ।
[>>> Amphibian (tadpole , जैसे मेढक का डिंभकीट): उभयचर (जलथल-चर) प्राणी है। उसी प्रकार ईश्वरलाभ, ज्ञान-लाभ के बाद, या दुम झड़ जाने के बाद (सोऽहं बोध के बाद) कोई- कोई संसार में रहते भी हैं। वे कमरे के भीतर और बाहर दोनों ओर ब्रह्म या आत्मा को ही देख सकते हैं । ज्ञान (सोऽहं बोध) का प्रकाश संसार (देह और मन) पर पड़ता है, इसीलिए उसके प्रकाश में वे हृदय या आत्मा को देह-मन से पृथक देखते हुए भला-बुरा, नित्य-अनित्य, सब देख सकते हैं! वे जानते हैं कि देश-काल -निमित्त (माया-C) से होकर आने के कारण ब्रह्म (A-The Absolute पूर्ण,नित्य) ही जगत (B-Manifestation) के रूप में भास रहा है। दुम रहित मेढ़क (राजर्षि जनक) पानी में (ब्रह्म) और जमीन (जगत) पर दोनों जगह (नित्य और लीला दोनों भूमिका में) रह सकता है। (केशवसेन ने भी कोशिश की थी किन्तु उनकी दुम नहीं झड़ी थी, अर्थात माँ की कृपा से निर्विकल्प समाधि का अनुभव उन्हें नहीं हुआ था। )]
But some people live in the world even after attaining jnana. They see both what is inside and what is outside the room. The light of God illumines the world. Therefore with that light they can discriminate between good and bad, permanent and impermanent.
“তবে জ্ঞানলাভের পর কেউ সংসারে থাকে। তারা ঘর-বার দুইই দেখতে পায়। জ্ঞানের আলো সংসারের ভিতর পড়ে, তাই তারা ভাল, মন্দ, নিত্য, অনিত্য, — এ-সব সে আলোতে দেখতে পায়।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏जिनका कच्चा मैं पक्का मैं में रूपान्तरित नहीं हुआ वे मिट्टी के मकान में हैं🔱🙏
(जिनका व्यष्टि अहं माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपान्तरित नहीं हुआ है)
“जो अज्ञानी हैं, ईश्वर को नहीं मानते और संसार में रहते हैं उनका रहना मिट्टी के घरों में ही रहने के समान है । क्षीण प्रकाश से वे घर का भीतरी हिस्सा ही देखते हैं । परन्तु जिन्होंने ज्ञान-लाभ कर लिया है, ईश्वर को जान लिया है, और फिर (सोऽहं बोध के बाद) संसार में रहते हैं, वे मानो शीशे के मकान में रहते हैं। वे घर के भीतर भी देखते हैं और बाहर भी । ज्ञान-सूर्य का प्रकाश घर के भीतर खूब प्रवेश करता है । वह आदमी घर के भीतर की चीजें बहुत ही स्पष्ट देखता है - कौनसी चीज अच्छी है, कौन बुरी; क्या नित्य है और क्या अनित्य, यह सब वह स्पष्ट रीति से देख लेता है ।
The ignorant, who lead a worldly life without knowing God, are like people living in a house with mud walls. With the help of a dim light they can see the inside of the house but nothing more. But those who live in the world after having attained Knowledge and realized God, are like people living in a glass house. They see the inside of the room and also all that is outside. The light from the sun of Knowledge enters strongly into the room. They perceive everything inside the room very clearly. They know what is good and what is bad, what is permanent and what is impermanent.
“যারা অজ্ঞান, ঈশ্বরকে মানে না, অথচ সংসারে আছে, তারা যেন মাটির ঘরের ভিতর বাস করে। ক্ষীণ আলোতে শুধু ঘরের ভিতরটি দেখতে পায়! কিন্তু যারা জ্ঞানলাভ করেছে, ঈশ্বরকে জেনেছে, তারপর সংসারে আছে, তারা যেন সার্সীর ঘরের ভিতর বাস করে। ঘরের ভিতরও দেখতে পায়, ঘরের বাহিরের জিনিসও দেখতে পায়। জ্ঞান-সূর্যের আলো ঘরের ভিতরে খুব প্রবেশ করে। সে ব্যক্তি ঘরের ভিতরের জিনিস খুব স্পষ্টরূপে দেখতে পায়, — কোন্টি ভাল, কোন্টি মন্দ, কোন্টি নিত্য, কোন্টি অনিত্য।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏जगत माँ जगदम्बा का राज्य है, यहाँ हम सभी उनकी कृपा पर निर्भर हैं🔱🙏
[गुरुत्वाकर्षण (gravitation) पदार्थो में एक दूसरे की ओर आकर्षित होने की प्रवृति है। न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का नियम बनाया नहीं खोजा था, नियम अनादि काल से कार्य कर रहा था। अतएव जैसे वैज्ञानिकों को अहंकार नहीं करना चाहिए, वैसे ही ऋषियों ने चार महावाक्यों को बनाया नहीं केवल खोजा था, इसलिए उपनिषदों में उनके रचयिता के नाम नहीं होते। ]
"ईश्वर ही कर्ता हैं, और सब उनके यन्त्र की तरह हैं ।
"God alone is the Doer, and we are all His instruments.
“ঈশ্বরই কর্তা আর সব তাঁর যন্ত্রস্বরূপ।
"इसीलिए ज्ञानी के लिए भी अहंकार करने की जगह नहीं है ।
Therefore it is impossible even for a jnani to be egotistic.
“তাই জ্ঞানীরও অহংকার করবার জো নাই।
जिसने शिव-महिम्न स्तव ^* (पुष्पदन्त गन्धर्व) लिखा था, उसे अहंकार हो गया था । शिव के नन्दी बैल ने जब दाँत दिखलाये तब उसका अहंकार गया था । उसने देखा, एक एक दाँत उसके स्तव का एक एक मन्त्र था । इसका अर्थ क्या है, जानते हो ? ये सब मन्त्र अनादिकाल से हैं, तुमने इनका आविष्कार (खोजा) मात्र किया है।
[गंधर्वराज पुष्पदंत इंद्र की सभा के गायक थे, इन्हें भारतीय संगीतज्ञ के रूप में जाना जाता हैं।एक बार पुष्पदंत ने अपनी रचना प्रसिद्ध शिवमहिम्नस्तोेत्र, शिवजी को सुनाई, शिव की प्रसन्नता से पुष्पदंत को अपनी मौलिक रचना पर गर्व हुआ। तब शिव ने अपने वाहन नन्दी से मुँह खोलने को कहा, पुष्पदंत ने देखा कि महिम्न के सभी श्लोक नन्दी के दांतों पर लिखे हुए हैं।]
The writer of a hymn to Siva felt proud of his achievement; but his pride was dashed to pieces when Siva's bull bared his teeth. He saw that each tooth was a word of the hymn. Do you understand the meaning of this? These words had existed from the beginningless past. The writer had only discovered them.
মহিম্নস্তব যে লিখেছিল, তার অহংকার হয়েছিল। শিবের ষাড় যখন দাঁত বার করে দেখালে, তখন তার অহংকার চূর্ণ হয়ে গেল। দেখলে, এক-একটি দাঁত এক-এক মন্ত্র। তার মানে কি জানো? এ-সব মন্ত্র অনাদিকাল ছিল। তুমি কেবল উদ্ধার করলে।
[नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च।
यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च।।
(केनोपनिषद 2/2)
'मैं तत्त्व को भली भाँति जान गया हूँ - ऐसा मैं नहीं मानता और न ऐसा ही मानता हूँ कि मैं तत्त्व को नहीं जानता; क्योंकि जानता भी हूँ। मैं तत्त्व को जानता हूँ अथवा नहीं जानता हूँ- ऐसा सन्देह भी नहीं है। हममें से जो कोई भी उस तत्त्व को जानता है, वही मेरे उक्त वचन के तात्पर्य को जानता है।'
यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः ।
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् ॥२.३॥
(यथा पूर्वोक्त)
(यस्य अमतम् तस्य मतम्, मतम् यस्य न वेद सः अ-विज्ञातम् विजानताम् विज्ञातम् अ-विजानताम् ।)
परब्रह्म के ज्ञान का जिसका मत अव्यक्त है वही वस्तुतः जानता है। जो जान लेने का मत व्यक्त करता है वह वस्तुतः जानता नहीं है। जानने का अभिमान रखने वालों के लिए ब्रह्म जाना हुआ नहीं है और जो जानने का दावा नहीं करता वही उसे जानता है।
सब भगवत् कृपा है !]
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
🔱🙏चपरास (Command from God) पाये बिना कोई आचार्य नहीं हो सकता🔱🙏
"गुरुआई करना अच्छा नहीं । ईश्वर का आदेश पाये बिना कोई आचार्य नहीं हो सकता । जो स्वयं कहता है, मैं गुरु ^ (भारी-heavy) हूँ, उसकी बुद्धि में नीचता है । तराजू तुमने देखा है न ? जिधर हलका होता है, उधर ही का पलड़ा उठ जाता है । जो आदमी खुद ऊँचा होना चाहता है, वह हलका है । सभी गुरु बनना चाहते हैं ! - शिष्य कहीं खोजने पर भी नहीं मिलता ।"
[^ जो व्यक्ति सचमुच आध्यात्मिक रूप में दूसरों से ऊंचा है (अर्थात जिसको सोऽहं बोध हो चुका है), वह अपने आप को गुरु नहीं मानता। दासोऽहं समझता है।
'He who is spiritually higher than others does not consider himself a guru.'
तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति अपने आप को "गुरु" अर्थात "भारी" मानता है, वह "भारी" होता है और तराजू के भारी पलड़े की तरह नीचे चला जाता है।
^The meaning is that if a man thinks of himself as "guru" he is "heavy" and goes down, like the heavier pan of a balance.)]
"It is not good to be a guru by profession. One cannot be a teacher without a command from God. He who says he is a guru is a man of mean intelligence. Haven't you seen a balance? The lighter side goes higher. He who is spiritually higher than others does not consider himself a guru.5 Everyone wants to be a teacher, but a disciple is hard to find."
“গুরুগিরি করা ভাল নয়। ঈশ্বরের আদেশ না পেলে আচার্য হওয়া যায় না। যে নিজে বলে, ‘আমি গুরু’ সে হীনবুদ্ধি। দাঁড়িপাল্লা দেখ নাই? হালকা দিকটা উঁচু হয়, যে ব্যক্তি নিজে উঁচু হয়, সে হালকা। সকলেই গুরু হতে যায়! — শিষ্য পাওয়া যায় না!”
त्रैलोक्य छोटे तखत के उत्तर ओर बैठे हुए हैं । त्रैलोक्य गाना गायेंगे । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, 'वाह ! तुम्हारा गाना कितना सुन्दर होता है !'
ত্রৈলোক্য ছোট খাটটির উত্তরে ধারে মেঝেতে বসিয়াছিলেন। ত্রৈলোক্য গান গাইবেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ বলিতেছেন, “আহা! তোমার কি গান!” ত্রৈলোক্য তানপুরা লইয়া গান করিতেছেন —
त्रैलोक्य तानपूरा लेकर गा रहे हैं –
अब ये समझ में जफ़र के आया - "तत् त्वम् असि !"
(गजल-कहरवा )
तुझसे हमने दिल को लगाया, जो कुछ है सो तू ही है ।
एक तुझको अपना पाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
सबके मकां दिल का मकीं तू, कौन सा दिल है जिसमें नहीं तू ।
हरेक दिल में तू ही समाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
क्या मलायक क्या इन्सान, क्या हिन्दू क्या मुसलमान ।
जैसे चाहा तूने बनाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
काबा में क्या, देवालय में क्या, तेरी परस्तिश होगी सब जाँ ।
आगे तेरे सिर सबने झुकाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
अर्श से लेकर फर्श जमीं तक और जमीं से अर्श वरी तक ।
जहाँ मैं देखा तू ही नजर आया जो कुछ है सो तू ही है ।।
सोचा समझा देखा-भाला, तुम जैसा कोई न ढूंढ़ निकाला ।
अब ये समझ में ' जफर ' के आया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
[अब ये समझ में जफ़र के आया - "तत् त्वम् असि !"]
I have joined my heart to Thee: all that exists art Thou; Thee only have I found, for Thou art all that exists. O Lord, Beloved of my heart! Thou art the Home of all; Where indeed is the heart in which Thou dost not dwell?
Thou hast entered every heart: all that exists art Thou. Whether sage or fool, whether Hindu or Mussalmān, Thou makest them as Thou wilt: all that exists art Thou.
Thy presence is everywhere, whether in heaven or in Kaabā; Before Thee all must bow, for Thou art all that exists. From earth below to the highest heaven, from heaven to deepest earth,
I see Thee wherever I look: all that exists art Thou. Pondering, I have understood; I have seen it beyond a doubt; I find not a single thing that may be compared to Thee. To Jāfar it has been revealed that Thou art all that exists ! तत् त्वम् असि-------
हर देश में तू, हर भेष में तू,
तेरे नाम अनेक तू एक ही है,
तेरे नाम अनेक तू एक ही है ।
तेरी रंगभूमि, यह विश्व भरा,
सब खेल में, मेल में तू ही तो है ॥
सागर से उठा बादल बनके,
बादल से फटा जल हो करके ।
फिर नहर बना नदियाँ गहरी,
तेरे भिन्न प्रकार, तू एक ही है ॥
हर देश में तू, हर भेष में तू,
तेरे नाम अनेक तू एक ही है,
तेरे नाम अनेक तू एक ही है ।
चींटी से भी अणु-परमाणु बना,
सब जीव-जगत् का रूप लिया ।
कहीं पर्वत-वृक्ष विशाल बना,
सौंदर्य तेरा, तू एक ही है ॥
हर देश में तू, हर भेष में तू,
तेरे नाम अनेक तू एक ही है,
तेरे नाम अनेक तू एक ही है ।
यह दिव्य दिखाया है जिसने,
वह है गुरुदेव की पूर्ण दया ।
तुकड़या कहे कोई न और दिखा,
बस मैं अरु तू सब एकही है ॥
हर देश में तू, हर भेष में तू,
तेरे नाम अनेक तू एक ही है,
तेरे नाम अनेक तू एक ही है ।
तेरी रंगभूमि, यह विश्व भरा,
सब खेल में, मेल में तू ही तो है ॥
*******
गाना -
तुमि सर्वस्व आमार (हे नाथ !) प्राणाधार सारातसार।
नाही तोमा बीने केह त्रिभुवने बोलीबार आपनार ।।
नाथ तुमि सर्वस्व आमार, प्राणाधार सारातसार।
तुमि सुख शान्ति सहाय सम्बल , सम्पद ऐश्वर्य ज्ञान बुद्धिबल,
तुमि वासगृह , आरामेर स्थल,आत्मीय बन्धु परिवार।।
तुमि इहकाल, तुमि परित्राण, तुमि परकाल, तुमि स्वर्गधाम ,
तुमि शास्त्रविधि, गुरु कल्पतरु, अनन्त सुखेर आधार।
तुमि हे उपाय, तुमि हे उद्देश्य, तुमि स्रष्टा पाता, तुमि हे उपास्य ,
दण्डदाता पिता, स्नेहमयी माता , भवार्णवे कर्णधार।।
গান —
তুমি সর্বস্ব আমার (হে নাথ!) প্রাণাধার সারাৎসার।
নাহি তোমা বিনে কেহ ত্রিভুবনে, বলিবার আপনার॥
নাথ তুমি সর্বস্ব আমার, প্রাণাধার সারাৎসার।
তুমি সুখ শান্তি সহায় সম্বল, সম্পদ ঐশ্বর্য জ্ঞান বুদ্ধিবল,
তুমি বাসগৃহ, আরামের স্থল, আত্মীয় বন্ধু পরিবার॥
তুমি ইহকাল, তুমি পরিত্রাণ, তুমি পরকাল, তুমি স্বর্গধাম,
তুমি শাস্ত্রবিধি, গুরু কল্পতরু, অনন্ত সুখের আধার।
তুমি হে উপায়, তুমি হে উদ্দেশ্য, তুমি স্রষ্টা পাতা, তুমি হে উপাস্য,
দণ্ডদাতা পিতা, স্নেহময়ী মাতা, ভবার্ণবে কর্ণধার॥
_____ গগনচন্দ্র হোম
He sang again:
Thou art my All in All, O Lord! — the Life of my life, the Essence of essence;In the three worlds I have none else but Thee to call my own.
Thou art my peace, my joy, my hope; Thou my support, my wealth, my glory; Thou art my wisdom and my strength. Thou art my home, my place of rest; my dearest friend, my next of kin; My present and my future, Thou; my heaven and my salvation.
Thou art my scriptures, my commandments; Thou art my ever gracious Guru; Thou the Spring of my boundless bliss. Thou art the Way, and Thou the Goal; Thou the Adorable One, O Lord!
Thou art the Mother tender-hearted; Thou the chastising Father; Thou the Creator and Protector; Thou the Helmsman who dost steer My craft across the sea of life.
तुम मेरे सर्वस्व हो - प्राणाधार हो - सार वस्तु के सार भाग हो । तीनों लोकों में मेरे पास तेरे सिवा और कोई नहीं है जिसे मैं अपना कह सकूँ। तू मेरी शांति, मेरा आनंद, मेरी आशा है; तू मेरा सहारा, मेरा धन, मेरा वैभव, तू ही मेरी बुद्धि और मेरा बल है। तू मेरा घर है, मेरा विश्राम स्थल है; मेरे सब से प्रिय मित्र, मेरे निकट संबंधी; मेरा वर्तमान और मेरा भविष्य, तू; मेरा स्वर्ग और मेरा उद्धार। तू मेरे शास्त्र, मेरी आज्ञाएँ हैं; तुम मेरे सदा कृपालु गुरु हो; तुम मेरे असीम आनंद के वसंत हो। आप ही मार्ग है, और आप ही लक्ष्य है; आप आराध्य हैं, हे ठाकुर ! आप ही कोमल हृदय वाली माता हैं; और आप ही दंड देने वाले पिता है ! आप जन्मदाता है और आप ही पालक हैं ; आप मेरी जीवन-नौका को माया-समुद्र के उस पार (ब्रह्म) तक ले जाने वाले कर्णधार (गुरु) बने हैं।"
गाना सुनकर श्रीरामकृष्ण भाव में मग्न हो रहे हैं । कह रहे हैं - 'वाह ! तुम्हीं सब कुछ हो – वाह!!'
While Sri Ramakrishna listened to the songs he was overwhelmed with emotion. Again and again he said: "Ah, Thou art all! Ah me! Ah me!"
গান শুনিয়া ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ভাবে বিভোর হইতেছেন। আর বলিতেছেন, “আহা! তুমিই সব! আহা! আহা!”
गाना समाप्त हो गया । छः बज गये । श्रीरामकृष्ण हाथ-मुँह धोने के लिए झाऊतल्ले की ओर जा रहे हैं । साथ में मास्टर हैं ।
The music was over. It was six o'clock in the evening. Sri Ramakrishna went to the pine-grove, M. accompanying him.
গান সমাপ্ত হইল। ছয়টা বাজিয়া গিয়াছে। ঠাকুর মুখ ধুইতে ঝাউতালর দিকে যাইতেছেন। সঙ্গে মাস্টার।
श्रीरामकृष्ण हँस-हँसकर बातें करते हुए जा रहे हैं । एकाएक मास्टर से पूछा, "क्यों जी, तुम लोगों ने खाया नहीं ? और उन लोगों ने भी नहीं खाया ?" वे सभी भक्तों कुछ कुछ प्रसाद ग्रहण करवाने के लिए उत्सुक हो रहे थे ।
Sri Ramakrishna was laughing and talking. Suddenly he said to M.: "Why haven't you eaten any refreshments? Why haven't the others eaten either?" He was eager for the devotees to take some refreshments.
ঠাকুর হাসিতে হাসিতে গল্প করিতে করিতে যাইতেছেন। মাস্টারকে হঠাৎ বলিলেন, “কই তোমরা খেলে না? আর ওরা খেলে না?” ঠাকুর ভক্তদের প্রসাদ দিবার জন্য ব্যস্ত হইয়াছেন।
[ (13 जून,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-116 ]
*नरेंद्र और श्री रामकृष्ण *
[নরেন্দ্র ও ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ]
आज सन्ध्या के बाद श्रीरामकृष्ण ने कलकत्ता जाने का सोचा है । झाऊतल्ले से लौटते समय मास्टर से कह रहे हैं – ‘परन्तु किसकी गाड़ी में जाऊँ ?'
Sri Ramakrishna was to go to Calcutta in the evening. While returning from the pine-grove he said to M., "I don't know who will take me to Calcutta in his carriage."
আজ সন্ধ্যার পর ঠাকুরের কলিকাতায় যাইবার কথা আছে। ঝাউতলা থেকে ফিরিবার সময় মাস্টারকে বলিতেছেন, — “তাই তো কার গাড়িতে যাই?”
शाम हो गयी । श्रीरामकृष्ण के कमरे में दिया जलाया गया और धूना दिया जा रहा है । कालीमन्दिर में सब जगह दिये जल गये । शहनाई बज रही है । मन्दिरों में आरती होगी ।
It was evening. A lamp was lighted in Sri Ramakrishna's room and incense was burnt. Lamps also were lighted in the different temples and buildings. The orchestra was playing in the nahabat. Soon the evening service would begin in the temples.
সন্ধ্যা হইয়াছে। ঠাকুরের ঘরে প্রদীপ জ্বালা হইল ও ধুনা দেওয়া হইতেছে। ঠাকুরবাড়িতে সব স্থানে ফরাশ আলো জ্বালিয়া দিল! রোশনচৌকি বাজিতেছে। এবার দ্বাদশ শিব মন্দিরে, বিষ্ণুঘরে ও কালীঘরে আরতি হইবে।
तखत पर बैठे हुए श्रीरामकृष्ण नाम-कीर्तन करके मां का ध्यान कर रहे हैं । आरती हो गयी । कुछ देर बाद कमरे में श्रीरामकृष्ण इधर-उधर टहल रहे हैं । बीच-बीच में भक्तों के साथ बातचीत कर रहे हैं, और कलकत्ता जाने के लिए मास्टर से परामर्श कर रहे हैं ।
Sri Ramakrishna sat on the small couch. After chanting the names of the different deities, he meditated on the Divine Mother. The evening service was over. Sri Ramakrishna paced the room, now and then talking to the devotees. He also consulted M. about his going to Calcutta.
ছোট খাটটিতে বসিয়া ঠাকুরদের নাম কীর্তনান্তর ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ মার ধ্যান করিতেছেন। আরতি হইয়া গেল। কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুর এদিক-ওদিক পায়চারি করিতেছেন ও ভক্তদের সঙ্গে মাঝে মাঝে কথা কহিতেছেন। আর কলিকাতায় যাইবার জন্য মাস্টারের সঙ্গে পরামর্শ করিতেছেন।
इतने में ही नरेन्द्र आये । साथ शरद तथा और भी दो-लड़के थे । उन लोगों ने आते ही भूमिष्ठ हो श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।
Presently Narendra arrived. He was accompanied by Sarat and one or two other young devotees. They all saluted the Master.'
এমন সময়ে নরেন্দ্র আসিয়া উপস্থিত। সঙ্গে শরৎ ও আরও দুই-একটি ছোকরা। তাঁহারা আসিয়া ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিলেন।
नरेन्द्र को देखकर श्रीरामकृष्ण का स्नेह उमड़ चला । जिस तरह छोटे बच्चे को प्यार किया जाता है, श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र के मुख पर हाथ फेरकर उसी तरह प्यार करने लगे । स्नेहपूर्ण स्वरों में कहा - तू आ गया ?
At the sight of Narendra Sri Ramakrishna's love overflowed. He tenderly touched Narendra's chin as one touches a baby's to show one's love. He said in a loving voice, "Ah, you have come!"
নরেন্দ্রকে দেখিয়া ঠাকুরের স্নেহ উথলিয়া পড়িল। যেমন কচি ছেলেকে আদর করে, ঠাকুর নরেন্দ্রের মুখে হাত দিয়া আদর করিতে লাগিলেন ও স্নেহপূর্ণ স্বরে বলিলেন, “তুমি এসেছ!”
कमरे के भीतर श्रीरामकृष्ण पश्चिम की ओर (गंगा की ओर) मुँह करके खड़े हुए हैं । नरेन्द्र तथा अन्य लड़के श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके पूर्व की ओर मुँह करके उनके सामने वार्तालाप कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण मास्टर की ओर मुँह फेरकर कह रहे हैं, "नरेन्द्र आया है तो अब कैसे जाना होगा ? आदमी भेजकर उसे बुला लिया है । अब कैसे जाना होगा ? तुम क्या कहते हो ?"
The Master was standing in his room, facing the Ganges. Narendra and his young friends were talking to him, facing the east. The Master turned toward M. and said: "Narendra has come. How can I go to Calcutta now? I sent for Narendra. How can I go now? What do you think?"
ঘরের মধ্যে পশ্চিমাস্য হইয়া ঠাকুর দাঁড়াইয়া আছেন। নরেন্দ্র ও আর কয়টি ছোকরা ঠাকুরকে প্রণাম করিয়া পূর্বাস্য হইয়া তাঁহার সম্মুখে কথা কহিতেছেন। ঠাকুর মাস্টারের দিকে মুখ ফিরাইয়া বলিতেছেন, “নরেন্দ্র এসেছে, আর যাওয়া যায়? লোক দিয়ে নরেন্দ্রকে ডেকে পাঠয়েছিলাম; আর যাওয়া যায়? কি বল?”
मास्टर - जैसी आपकी आज्ञा, चाहे तो आज रहने दिया जाय ।
M: "As you wish, sir. Let us put it off today."
মাস্টার — যে আজ্ঞা, আজ তবে থাক্।
श्रीरामकृष्ण - अच्छा, कल चला जायेगा नाव से या गाड़ी से । (दूसरे भक्तों से) तुम आज जाओ - रात हो गयी है ।
MASTER: "All right. We shall go tomorrow, either by boat or by carriage. (To the other devotees) It is late. Go home now."
শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা কাল যাব, হয় নৌকায় নয় গাড়িতে। (অন্যান্য ভক্তদের প্রতি) তোমরা তবে এস আজ, রাত হল।
भक्त एक एक करके प्रणाम कर बिदा हुए ।
One by one the devotees saluted him and departed.
ভক্তেরা সকলে একে এক প্রণাম করিয়া বিদায় গ্রহণ করিলেন।
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Annexure-1
🔱🙏श्रीरामकृष्ण वचनामृत क्यों पढ़ना चाहिये ?🔱🙏
Why should one read Sri Ramakrishna Vachanamrit?
।। কেন "কথামৃত" পড়বেন ।।
हमारे युग में "श्रीरामकृष्ण वचनामृत " (बंगला में कथामृत) सभी शास्त्रों का सार है। अतः जो लोग गृहस्थ जीवन में हैं (अर्थात प्रवृत्ति मार्गी हैं) उन्हें अविलम्ब "श्रीरामकृष्ण वचनामृत" की शरण में आना चाहिए । अन्य शास्त्रों को पढ़ें या न पढ़ें, किन्तु "वचनामृत" हर किसी को पढ़ना चाहिए।
इसके भीतर आपलोग गीता देखेंगे, पुराण देखेंगे, बाईबिल, कुरान, चैतन्य चरितामृत भी पाएंगे। इसके भीतर, रामायण, महाभारत, वेद-उपनिषद क्या नहीं है ! इसके अतिरिक्त इसके भीतर कई अद्भुत रोचक और ज्ञानवर्धक कहानियाँ, गीत, भजन और गजल भी हैं। बंगला, हिन्दी, उर्दू , अंग्रेजी आदि विभिन्न भाषाओँ में कही कई सूफी -सन्तों के प्रसिद्द वचन और प्रार्थनायें भी इसमें आपको मिल जाएँगी।
श्रीरामकृष्णदेव ईश्वर (माँ काली) को कितने प्रकार से पुकारते थे, अहा ! भिन्न-भिन्न नामों से उन्हें पुकार कर कितना आनन्द पाते थे। कितने प्रकार के गीत गाते थे। वे सभी गीत और गजलें वचनामृत में संग्रहित हैं। कई प्रकार की पूजा-पद्धति और उनके भजन इसमें दी गयीं हैं।
श्री रामकृष्णदेव किसी विशेष पंथ-सम्प्रदाय के कठोर नियमों में बँधे नहीं रहते थे। और ऐसा होना भी चाहिए।
[" श्रीरामकृष्ण और माँ सारदा देवी ही आधुनिक युग में ईश्वर (माँ काली) के अवतार वरिष्ठ हैं" इसका ज्ञान देने वाले स्वामी विवेकानन्द मेरे अपने बड़े भाई हैं। जिन्होंने 12 जनवरी 1985 को मेरा हाथ पकड़ कर भारत की प्राचीन "गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा" में खींच लिया। और मुझ जैसे अपात्र को 23 मई 1987 को मेरे गुरुदेव श्रीमद स्वामी भूतेशानन्द जी महाराज से अवतार वरिष्ठ का नाम -जप और ध्यान करने की पद्धति सीखने का अवसर दिया। इतना ही नहीं स्वामी जी ने मुझे 25 दिसम्बर 1987 को बेलघड़िया कैम्प भेजकर 'Be and Make' आंदोलन या निःस्वार्थी मनुष्य बनो और बनाओ आन्दोलन का लीडरशिप ट्रेनिंग का मर्म समझा दिया कि, विष्णु-सहस्रनाम में भगवान विष्णु का एक नाम नेता क्यों है? अतः मैं ठाकुरदेव को अपने पिता, माँ सारदा को अपनी माता और स्वामी विवेकानन्द को और मेरे मार्गदर्शक नेता Friend-philosopher and guide, C-IN-C नवनीदा को भी अपने बड़े भाई, माँ, बाप -के जैसा ही प्यार करूँगा। क्योंकि उन्होंने मुझे यम-नियम और आसन-प्रत्याहार-धारणा के अभ्यास या मनःसंयोग द्वारा 'Be and Make' स्वामी विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में निःस्वार्थी मनुष्य बनो और बनाओ आन्दोलन के लीडरशिप ट्रेनिंग के 5 अभ्यास में प्रशिक्षित किया। तथा यह समझाया कि - 'सोऽहं' का अनुभव तुम्हें नहीं आत्मा को हुआ था , और उस परमानन्द को छोड़ कर दुबारा शरीर में तुम अपनी इच्छा से ही आये होंगे, माँ ने तुमको जबरन नहीं भेजा है ! अतएव स्वामीजी की मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना ही तुम्हारे जीवन का उद्देश्य है, फिर तुम्हें किसी विशेष सम्प्रदाय के पूजा -पद्धति (sectarian attachment) में अपने को सीमित क्यों करना चाहिए ? "You should believe in Christ, not in churchianity!" तुम्हें ईसा मसीह ( born-again, पुनर्जन्म) में विश्वास करना चाहिये चर्चियनिटी में नहीं। Social service is not the aim of life, it is the way to become a Whole hearted Man ! 'समाज-सेवा जीवन का उद्देश्य नहीं पूर्णहृदय मनुष्य बनने का उपाय है। " তার মধ্যে আবার ধরাবাঁধা নিয়ম কেন?" फिर इसके लिए केवल अन्नदान, वस्त्र-दान, भाषण-प्रतियोगिता में ही क्यों बंधा रहूँगा ? यदि आप किसी सम्प्रदाय -विशेष के नियमों का पालन करना चाहते हों तो आप करते रहिये; किन्तु निष्प्राण नियमों का पालन करना कोई बड़ी बात नहीं है। "संसार के धर्म प्राणहीन उपहास की वस्तु हो गए हैं, संसार चाहता है चरित्र ! [प्रेममय नवनीदा ने स्वप्न में दिखाया था विशाखापत्तनम के निकट सिम्हाचल पर्वत पर स्थापित भगवान नृसिंह मन्दिर में अत्यंत उग्र स्वरूप में दिखाई देते हैं लेकिन भक्तों के लिए विशेष रूप से उदार और दयावान हैं। पुराण-कथा है, प्रह्लाद नास्तिक राजा हिरण्यकश्यप के यहां जन्म लेता है, और फिर हिरण्यकश्यप अपनी नास्तिकता सिद्ध करने के लिए प्रह्लाद को नदी में डुबोता है, पहाड़ से गिरवाता है, और अन्त में अपनी बहन होलिका से पूर्णिमा के दिन जलवाता है। और आश्चर्य तो यही है कि वह सभी जगह बच जाता है, और प्रभु के गुणगान गाता है। दादा कहते थे भगवान नृसिंह के भक्त प्रह्लाद जैसा चरित्र-निर्माण? नृसिंह जयंती का दिन (गुरुवार, 04 मई 2023) बहुत खास है। वैशाख महीने के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को नृसिंह जयंती का व्रत किया जाता है। इस दिन भगवान विष्णु ने भक्त प्रह्लाद को बचाने के लिए भगवान नृसिंह का सिंहावतार ^* लिया था। ! महत्वपूर्ण बात यह है कि आप कितनी ईमानदारी से परमेश्वर (अवतार वरिष्ठ) से प्रेम करते हैं। ईश्वर (ठाकुर-माँ -स्वामीजी) हमसे केवल प्रेम चाहते हैं, और कुछ नहीं।
[নিয়ম আপনারা মানতে চান মানুন; কিন্তু নিষ্প্রাণ নিয়ম মানাটা বড় কথা নয় । বড় কথা কতটা আন্তরিক ভাবে আপনি ভগবান কে ভালবাসেন। ভগবান ভালবাসা চান, আর কিছু চান না। Follow the rules you want to follow; But following lifeless rules is not a big deal. The important thing is how sincerely you love God. God wants love, nothing else.]
साधारण गृहस्थ (प्रवृत्तिमार्गी लोग) ऐसा कभी नहीं सोचते। वे 'धन-सम्पदा और वासना' (Lust and Lucre) को ही मनुष्य जीवन का एकमात्र परुषार्थ हैं। और गर्व से कहते हैं - हमलोग तो साधारण गृहस्थ हैं, कोई संन्यासी थोड़े ही हैं - हमारे लिए तो निजी स्वार्थ को पूर्ण करने वाले कर्म ही पूजा हैं। क्योंकि " हम लोग बद्ध जीव' हैं, और वासना-धनदौलत के लोभी हैं! हमलोग अनासक्त बन ही नहीं सकते।" --छिः ! अपने को लोभी या पापी समझना ही पाप है, आप तो ईश्वर की सन्तान हैं, आपको कोई भी 'लोभ' लम्बे समय तक पाप में बद्ध या कामिनी-कांचन में आसक्त नहीं रख सकता।) आप तो चिरकाल से मुक्त आत्मा हैं, इस भ्रम को झटक कर दूर फेंक दीजिये कि आप केवल जड़ शरीर और मन के गुलाम हैं। आप जड़ के दास नहीं हैं, जड़ (देह-मन) ही आपका (आत्मा का) दास है।" और "वचनामृत " आपके समक्ष इसी सत्य को उद्घाटित कर देगा। सिंह -शावक होकर भी अपने को भेंड़ समझने- (अर्थात अविनाशी आत्मा होकर भी, अपने को नश्वर-देह-मन समझकर में, में करने या मृत्यु भय से डरने) के भ्रम से आपको भ्रममुक्त होने का पथ दिखला देगा ! আর "কথামৃত " আপনাদের সেই সত্য জানিয়ে দেবে।" इस पुस्तक के जिस किसी पृष्ठ को आपकी उँगलियाँ खोलेंगी, वहां लिखे ऐसे शब्द मिलेंगे, जिसकी तुलना नहीं की जा सकती, जो मुर्दा पौधों में भी अमृत के समान जान डालने हराभरा बना देने में सक्षम हैं। भगवान श्री रामकृष्णदेव इस युग में लोगों का हाथ पकड़कर उन्हें भगवान के पास ले जाने के लिए अवतरित हुए थे। "শ্রীরামকৃষ্ণ এই যুগে এসেছিলেন মানুষকে হাতে ধরে টেনে ভগবানের কাছে পৌঁছে দিতে।" श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा और स्वामीजी के अवतरण के बाद उनके भक्तों को, अब ईश्वरलाभ के लिए -(अर्थात 'सोऽहं बोध' के बाद भक्त बनकर संसार या गृहस्थ जीवन में रहने के लिए) अब मार्ग की खोज में भटकने की आवश्यकता नहीं है। वे स्वयं हमारा हाथ पकड़ कर लक्ष्य तक (अपने सच्चिदानन्द स्वरूप में) पहुँचा देंगे।
इसलिए ईश्वर को (माँ काली के अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण, को) अपना समझकर, उन्हें पुकारिये, उनसे प्रेम कीजिये। उन्हें अपना बना लीजिये। डरिये मत, पीछे मत हटिये। मन में कभी ऐसा मत सोचिये कि श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में मनुष्य बनने और बनाने का मार्ग कठिन है, मुझसे इस मार्ग पर चलना सम्भव नहीं होगा। सिर्फ उन्हें पुकारते रहिये, उनसे प्रेम कीजिये, उन्हें अपना बना लीजिये।यदि आप दीक्षा लेने के इच्छुक हैं, और जप-ध्यान कर सकते हों तब अच्छा है। मंत्र-तन्त्र सीखने की आवश्यकता भी नहीं है। लेकिन समस्त साधनाओं का सार है उनसे प्रेम करना। ठाकुर-माँ -स्वामीजी के साथ प्रेम करने से बढ़कर और कोई साधना नहीं है। अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण के प्रति प्रेम से यदि हमारा हृदय भर उठता है, तब वह मानो चुम्बक जैसा काम करने लगता है , और उन्हें अपनी ओर खींच लेता है। भक्त ठाकुरदेव को (भगवान को) अपनी ओर खींच रहा है, और उधर प्रेममय ठाकुर देव भी भक्त को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। भक्त और भगवान का यह सम्बन्ध (प्रह्लाद और नृसिंह देव-ठाकुर और माँ काली, माँ -बेटे का यह सम्बन्ध) मानो चिरकाल से चला आ रहा है। ভালবাসা যেন চুম্বক। ভক্ত ভগবানকে টানছে, আকর্ষণ করছে, আবার ভগবান ভক্তকে আকর্ষণ করছেন। ভক্ত-ভগবানের সম্পর্কে -----এ যেন চিরকালের। प्रेममय भगवान श्री रामकृष्णदेव अपने वचनामृत के माध्यम से हमारा इस प्रकार -जगत (Time, space and causation) को transcend करके (अतिक्रमण कर के) लक्ष्य (ब्रह्म) मार्गदर्शन कर रहे हैं। एक शब्द में कहें तो "वचनामृत" आद्वितीय है। इसी शास्त्र को सम्बल बनाकर आप अमृततत्व प्राप्त करने (ससीम नाम-रूप के मिथ्या अहं से ऊपर उठकर असीम ब्रह्मत्व प्राप्त करने) के पथ पर आगे बढ़ते रहें ----यही मेरी प्रार्थना है। এককথায় "কথামৃত " অতুলনীয়" এই শাস্ত্র সম্বল করে আপনারা অমৃতত্বলাভের পথে এগিয়ে চলুন-------এই আমার প্রার্থনা।
--- स्वामी लोकेश्वरानंद
আমাদের এই যুগে "কথামৃত" হলো সমস্ত শাস্ত্রের সার। তাই যারা সংসারে আছেন তারা "কথামৃত"কে আশ্রয় করুন। অন্য শাস্ত্র পড়ুন আর নাই পড়ুন, "কথামৃত" পড়ুন। সবাই পড়ুন।
এর মধ্যে আপনারা গীতা পাবেন, পুরাণ পাবেন, বাইবেল,কোরাণ,চৈতন্যচরিতামৃত পাবেন। কি নেই এতে। তাছাড়াওএর মধ্যে অনেক অদ্ভুত অদ্ভুত উক্তি আছে। কোথায় কোন ফকির কী গান গেয়েছেন। তার একটি কি দুটি লাইন রয়েছে এর মধ্যে। গান মানে প্রার্থনা। ------কত রকমের প্রার্থনা ! কত ভাষার প্রার্থনা।
শ্রীরামকৃষ্ণদেব ভগবান কে যে কতরকমভাবে ডাকতেন, আহা!কতভাবে যে ডেকে আনন্দ পেতেন। কতরকমের গান যে তিনি গাইতেন। এই সব গান কথামৃতে সঞ্চিত আছে। কত রকমের গান, কত রকমের পূজা পদ্ধতি।
শ্রীরামকৃষ্ণদেব কোন ধরাবাঁধা নিয়মের মধ্যে থাকতেন না।
ঠিক কথা। ঈশ্বর আমার প্রিয়জন , আমি আমার প্রিয়জনকে আমার মতো করে ভালবাসব। তার মধ্যে আবার ধরাবাঁধা নিয়ম কেন? নিয়ম আপনারা মানতে চান মানুন; কিন্তু নিষ্প্রাণ নিয়ম মানাটা বড় কথা নয় । বড় কথা কতটা আন্তরিক ভাবে আপনি ভগবান কে ভালবাসেন। ভগবান ভালবাসা চান, আর কিছু চান না।
যারা সংসারে আছেন তাঁরা কখন এরকম ভাবেন না। আমরা বদ্ধ জীব। ছিঃ ! কোন দুঃখে বদ্ধ, কখনো বদ্ধ নন আপনারা।মুক্ত, চিরকালের জন্য মুক্ত। আর "কথামৃত " আপনাদের সেই সত্য জানিয়ে দেবে। পথ দেখিয়ে দেবে। এই গ্রন্থটির যেখানেই হাত দেন সেখানেই এমন সব কথা আছে যা অমৃত। যার তুলনা হয়না। শ্রীরামকৃষ্ণ এই যুগে এসেছিলেন মানুষকে হাতে ধরে টেনে ভগবানের কাছে পৌঁছে দিতে। ভগবান লাভের জন্যে এখন আর পথ হাতড়াতে হবে না। স্বয়ং তিনি হাত ধরে লক্ষে পৌঁছে দেবেন।
তাই বলছি ভগবানকে ডাকুন, ভালবাসুন। তাঁকে আপন করে নিন। ভয় পাবেন না। পিছিয়ে যাবেন না। এ পথ কঠিন, পারব না----একথা একেবারে ভাববেন না। তাঁকে ডাকুন, ভালবাসুন, আপনার করে নিন। মন্ত্র তন্ত্র দরকার নেই। পারলে ভালো, যদি ইচ্ছা হয়। কিন্তু সার কথা তাঁকে ভালবাসা। ভালবাসার চেয়ে বড় আর কিছু নেই। ভালবাসা যেন চুম্বক। ভক্ত ভগবানকে টানছে, আকর্ষণ করছে, আবার ভগবান ভক্তকে আকর্ষণ করছেন। ভক্ত-ভগবানের সম্পর্কে -----এ যেন চিরকালের। কথামৃতের মধ্যে দিয়ে শ্রীরামকৃষ্ণ এইভাবে আমাদের পথ দেখিয়ে দিচ্ছেন। এককথায় "কথামৃত " অতুলনীয়" এই শাস্ত্র সম্বল করে আপনারা অমৃতত্বলাভের পথে এগিয়ে চলুন-------এই আমার প্রার্থনা।
--- স্বামী লোকেশ্বরানন্দ
Annexure-2
अहंकार (=time-space-causation )का अतिक्रमण :
यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय।
तथा विद्वान् नामरूपाद् विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥
[यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रे अस्तम् गच्छ्नति नामरूपे विहाय ।
तथा विद्वान् नामरूपात् विमुक्तः परात् परम् पुरुषम् उपैति दिव्यम्।।]
स यो ह वै तत् परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्याब्रह्मवित् कुले भवति।
तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहाग्रन्थिभ्यो विमुक्तोऽमृतो भवति ॥
सः यः ह वै तत् परमम् ब्रह्म वेद ब्रह्म एव भवति अस्य कुले अब्रह्मवित् न भवति।
तरति सः शोकम् पाप्मानम् तरति गुहाग्रन्थिभ्यः विमुक्तः अमृतः भवति।।
(मुण्डकोपनिषद-3, खण्ड-2, मन्त्र-8,9)
जिस प्रकार प्रवाहित होती हुई नदियां अपने धाम, समुद्र में पहुँच जाती हैं, और अपने नाम तथा रूप को छोड़ देती हैं, उसी प्रकार विद्वान (ब्रह्मविद) नाम तथा रूप से मुक्त होकर 'परात्पर' 'परम दिव्यपुरुष' को प्राप्त हो जाता है। वस्तुतः जो (व्यक्ति-आत्मा) उस 'परम ब्रह्म' को जानता है वह स्वयं 'ब्रह्म' बन जाता है ! उसके कुल में 'ब्रह्म' को न मानने वाला पैदा नहीं होता। वह शोक से पार हो जाता है, वह पापों से तर जाता है, वह हृद्गुहा की ग्रंथियों से मुक्त होकर अमर हो जाता है।
व्याख्या : जैसे निरंतर बहती हुई नदियां समुद्र में समाहित हो विलीन हो अपने नाम और रूप का त्याग कर समुद्र के नाम को अंगीकार कर लेती है,और स्वयं समुद्र के नाम रूप को ही अपनी पहचान स्वीकार कर लेती है। वैसे ही सिद्ध ज्ञानी जन अपने शरीर में अन्तःस्थित आत्मा में परम पिता परमेश्वर का अवलोकन कर (आत्मदर्शन अर्थात आत्मा में परमात्मा सच्चिदानन्द के दर्शन कर) स्वयं को अपने नाम और रूप के साथ परमात्मा में विलीन कर लेते है। और अपने नाम रूप से मुक्त होकर परात्पर दिव्य पुरुषत्व (परम पुरुष परमेश्वर) को प्राप्त हो जाते है अर्थात जो मनुष्य परमात्मा के अंश रुपी जीवांश आत्मा से आत्म साक्षात्कार कर परमात्मा के दर्शन कर लेता है वह परम ब्रम्ह परमात्मा को जान लेता है तथा स्वयं भी ब्रम्ह हो जाता है वह सभी लोभ मोह और शोक से मुक्त हो जाता है वह समस्त हृदय ग्रंथियों के बंधन से विमुक्त हो पाप पुण्य के भाव से पार होकर अमरत्व को प्राप्त कर लेता है ऐसा मनुष्य स्वयं के साथ साथ अपने कुल का भी उद्धार कर देता है।
🔱🙏Annexure-3.
।।शिव महिम्न स्तोत्रम्।।
श्रावण मास में भोलेनाथ शंकर की सादगी का वर्णन करने से शिव प्रसन्न होते हैं। शिव के इस महिम्न स्तोत्रम् में शिव के दिव्य स्वरूप एवं उनकी सादगी का वर्णन है। इस महिम्न स्तोत्र के पीछे अनूठी और सुंदर कथा प्रचलित है।
एक समय में चित्ररथ नाम का राजा था। वो परम शिव भक्त था। उसने एक अद्भुत सुंदर बाग का निर्माण करवाया। जिसमें विभिन्न प्रकार के पुष्प लगे थे। प्रत्येक दिन राजा उन पुष्पों से शिव जी की पूजा करते थे।
फिर एक दिन पुष्पदंत नामक गन्धर्व उस राजा के उद्यान की तरफ से जा रहे थे। उद्यान की सुंदरता ने उसे आकृष्ट कर लिया। मोहित पुष्पदंत ने बाग के पुष्पों को चुरा लिया। अगले दिन चित्ररथ को पूजा हेतु पुष्प प्राप्त नहीं हुए। बाग के सौंदर्य से मुग्ध पुष्पदंत प्रत्येक दिन पुष्प की चोरी करने लगा। इस रहस्य को सुलझाने के राजा के प्रत्येक प्रयास विफल रहे। पुष्पदंत अपनी दिव्य शक्तियों के कारण अदृश्य बना रहे।
राजा चित्ररथ ने एक अनोखा समाधान निकाला। उन्होंने शिव को अर्पित पुष्प एवं विल्व पत्र बाग में बिछा दिया। राजा के उपाय से अनजान पुष्पदंत ने उन पुष्पों को अपने पैरो से कुचल दिया। इससे पुष्पदंत की दिव्य शक्तिओं का क्षय हो गया।
पुष्पदंत स्वयं भी शिव भक्त था। अपनी गलती का बोध होने पर उसने इस परम स्तोत्र के रचना की जिससे प्रसन्न हो महादेव ने उसकी भूल को क्षमा कर पुष्पदंत के दिव्य स्वरूप को पुनः प्रदान किया।
शिवभक्त श्री गंधर्वराज पुष्पदंत द्वारा अगाध प्रेमभाव से ओतप्रोत यह शिवस्तोत्र भगवान शिव को बहुत प्रिय है।
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यज्ञसदृशी,
स्तुतिर्ब्रह्मादीना मपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः।
अथावाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामधि गृणन्,
ममाप्येषः स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः ॥१॥
अर्थ — हे प्रभु ! बड़े—बड़े पंडित और योगीजन आपकी महिमा को नहीं जान पाये तो मैं तो एक साधारण बालक हूँ, मेरी क्या गिनती ? लेकिन क्या आपके महिमा को पूर्णतया जाने बिना आपकी स्तुति नहीं हो सकती? मैं ये नहीं मानता क्योंकि यदि ये सत्य है तो फिर ब्रह्मा की स्तुति भी व्यर्थ कहलायेगी । मैं तो ऐसा मानता हूँ कि सबको अपनी मति के अनुसार स्तुति करने का अधिकार है । इसलिए हे भोलेनाथ ! आप कृपया मेरे हृदय के भाव को देखें और मेरी स्तुति को स्वीकार करें ।
अतीतः पंथानं तव च महिमा वाड् मनसयो,
रतद्व्यावृत्यायं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ॥२॥
अर्थ — हे प्रभु ! आप मन और वाणी से परे हैं इसलिए वाणी से आपकी महिमा का वर्णन कर पाना असंभव है। यही कारण है की वेद आपकी महिमा का वर्णन करते हुए ‘नेति नेति’ (मतलब ये नहि, ये भी नहि) कहकर रुक जाते हैं । आपकी महिमा और आपके स्वरूप को पूर्णतया जान पाना असंभव है न, इसीलिए जब आप साकार रूप में प्रकट होते हो तो भक्त आपके स्वरूप का वर्णन करते नहीं थकते । ये आपके प्रति प्यार और पूज्यभाव का परिणाम है।
मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवत,
स्तव ब्रह्मन्किं वा गपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् ।
मम त्वेतां वाणी गुणकथनपुण्येन भवतः,
पुनामीत्यर्थेस्मिन् पुरमथनबुद्धिर्व्यवसिता ॥३॥
अर्थ — हे त्रिपुरानाशक प्रभु, आपने अमृतमय वेदों की उत्पत्ति की है । इसलिए जब देवों के गुरु, बृहस्पति आपकी स्तुति करते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं होता । मैं भी अपनी मति के अनुसार आपके गुणानुवाद करने का प्रयास कर रहा हूँ। मैं मानता हूँ कि इससे आपको कोई आश्चर्य नहीं होगा, मगर मेरी वाणी इससे अधिक पवित्र और लाभान्वित अवश्य होगी।
तवैश्चर्ये यत्तद् जगदुदयरक्षाप्रलयकृत,
त्रयी वस्तु व्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासु तनुषु ।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं,
विहंतुं व्योक्रोशीं विदधत इहै के जडधियः ॥४॥
अर्थ — हे प्रभु, आप इस सृष्टि के सृजनहार हैं, पालनहार हैं और विसर्जनकार भी हैं । इस प्रकार आपके तीन स्वरूप हैं – ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा आप में तीन गुण है – सत्व, रज और तम । वेदों में इनके बारे में कहा गया है फिर भी अज्ञानी लोग आपके बारे में व्यर्थ की बातें करते रहते हैं । ऐसा करने से भले उन्हें संतुष्टि मिलती हो, मगर वास्त्विकता से वो मुँह नहीं मोड़ सकते।
किमिहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ॥
अतकर्यैश्वर्येत्वय्यनवसरदुःस्थो हतधियः ।
कुतर्कोडयंकांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः ॥५॥
अर्थ — हे प्रभु, मूर्ख लोग प्राय: तर्क करते रहते हैं कि ये सृष्टि की रचना कैसे हुई, किसकी इच्छा से हुई, किन तत्वों से उसे बनाया गया आदि । किंतु उनका उद्देश्य लोगों में भ्रांति पैदा करने के अलावा कुछ नहीं । सच पूछो तो इन सभी प्रश्नों के उत्तर आपकी दिव्य शक्ति से जुड़े हैं और मेरी सीमित शक्ति से उसे कह पाना असंभव है।
अजन्मानो लोकाः किमवयवंवतोडपि जगता ।
मधिष्ठातारं किं भवविधिरनादत्य भवति ॥
अनीशो वा कुर्याद भुवनजनने कः परिकरो ।
यतो मंदास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ॥६॥
अर्थ — हे प्रभु, आपके बिना ये सब लोक (सप्त लोक – भू: , भुव: – स्व: मह: जन: तप: सत्यं) का निर्माण क्या संभव है ? इस जगत का कोई रचयिता न हो, क्या ऐसा सम्भव है ? आपके सिवा इस सृष्टि का निर्माण कौन कर सकता है ? आपके अस्तित्व के बारे केवल मूर्ख लोगों को ही शंका हो सकती है ।
त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति,
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।
रुचीनां वैचित्र्या दजुकुटिलनानापथजुषां ।
नृणामेको गम्य स्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥७॥
अर्थ — हे प्रभु ! आपको पाने के लिए अनगिनत मार्ग हैं – सांख्य मार्ग, वैष्णव मार्ग, शैव मार्ग, वेद मार्ग आदि । लोग अपनी रुचि के अनुसार किसी एक मार्ग को पसंद करते है । किंतु जिस प्र्कार ये सभी मार्ग, जैसे अलग अलग नदियों का पानी बहकर समंदर में जाकर मिलता है उसी तरह ही, आप तक पहुँचते हैं | सचमुच, आप इतने सुगम हैं कि किसी भी मार्ग का अनुसरण करने से आपकी प्राप्ति हो सकती है।
महोक्षः खड्वांगं परशुरजिनं भस्म फणिनः,
कपालं चेतीय त्तव वरद तंत्रोपकरणम् ।।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भव भ्रूप्रणिहितां,
नहि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ॥८॥
अर्थ — हे प्रभु, आपने केवल एक दृष्टिपात से देवगण को सर्व भोग-सुख से संपन्न कर दिया, किंतु अपने लिए क्या छोडा? मात्र बैल, व्याघ्रचर्म, शरीर पर भस्म तथा हाथ में खप्पर (खोपड़ी) ! इससे ये फलित होता है कि जो आत्मानंद में लीन रहता है वो संसार के भोगपदार्थो में नहीं फँसता ।
ध्रुवं कश्चित्सर्वं सकलमपरस्त्वद्धृवमिदं,
परो ध्रोव्याध्रोव्ये जगति गदति व्यस्तविषये ।
समस्तेडप्येतस्मि न्पुरमथन तैर्विस्मित इव,
स्तुवंजिह्वेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ॥९॥
अर्थ — भगवन, कोई कहता है कि ये जगत सत्य है, तो कोई कहता है ये असत्य और अनित्य है । लोग जो भी कहें, आपके भक्त तो आपको हमेंशा सत्य मानते हैं और आपकी भक्ति में आनंद पाते है । मैं भी उनका समर्थन करता हूँ, चाहे किसी को मेरा ऐसा कहना अधिक लगे, मुझे उसकी परवाह नहीं ।
तवैश्वर्यं यत्ना द्यदुपरि विरिंचिर्हरिरधः,
परिच्छेतुं याता वनलमनलस्कंधवपुषः ।
ततो भक्तिश्रद्धा भरगुरुगृणद्भ्यां गिरिश यत्,
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिने फलति ॥१०॥
अर्थ — हे प्रभु ! जब ब्रह्मा और विष्णु के बीच विवाद हुआ की दोनों में से कौन महान है, तब आपने उनकी परीक्षा करने के लिए अग्निस्तंभ का रूप लिया । ब्रह्मा और विष्णु – दोनों ने स्तंभ को अलग अलग छोर से नापने का प्रयास किया किंतु वे असफल रहे। अंतत: अपनी हार मानकर उन्होंने आपकी स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर आपने अपना मूल रूप प्रकट किया । सचमुच, यदि कोई सच्चे मन से आपकी स्तुति करे और आप प्रकट न हों ऐसा संंभव ही नहीं है।
अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं,
दशास्यो यद्बाहू नभृन रणकंडुपरवशान् ।
शिरःपद्मश्रेणी रचितचरणांभोरुहबलेः,
स्थिरायास्त्वद्भक्ते स्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम् ॥११॥
अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं,
दशास्यो यद्बाहू नभृन रणकंडुपरवशान् ।
शिरःपद्मश्रेणी रचितचरणांभोरुहबलेः,
स्थिरायास्त्वद्भक्ते स्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम् ॥११॥
अर्थ — हे त्रिपुरानाशक ! आपके परम भक्त रावण ने पद्म की जगह अपने नौ मस्तक आपकी पूजा में समर्पित कर दिये । जब वो अपना दसवाँ मस्तक काटकर अर्पण करने जा रहा था तब आपने प्रकट होकर उसको वरदान दिया । इसी वरदान से ही उसकी भुजाओं में अटूट बल प्रकट हुआ और वो तीनो लोक में शत्रुओं पर विजय पाने में समर्थ रहा। ये सब आपकी दृढ भक्ति का ही नतीजा है ।
अमुष्य त्वत्सेवा समधिगतसारं भुजवनं,
बलात्कैलासेडपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः ।
अलभ्यापाताले डप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि,
प्रतिष्ठा प्रत्वय्या सीध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः ॥१२॥
अर्थ — आपकी परम भक्ति से रावण अतुलित बल का स्वामी बन बैठा किंंतु इससे उसने क्या करना चाहा ? आपकी पूजा के लिए हर रोज कैलाश जाने का श्रम बचाने के लिए कैलाश को उठाकर लंका ले जाना चाहा । जब कैलाश उठाने के लिए रावण ने अपनी भूजाओं को फैलाया तब माता पार्वती भयभीत हो उठीं । उन्हें भयमुक्त करने के लिए आपने सिर्फ अपने पैर का अंगूठा हिलाया तो रावण जाकर पाताल में गिरा और वहाँ भी उसे स्थान नहीं मिला । सचमुच, जब कोई आदमी अनधिकृत बल या संपत्ति का स्वामी बन जाता है तो उसका उपभोग करने में विवेक खो देता है।
यदद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सती,
मधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयस्त्रिभुवनः ।
न तच्चित्रं तस्मिंन्वरिवसितरि त्वच्चरणयो,
र्न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ॥१३॥
अर्थ — हे प्रभु ! बाण जैसा साधारण राक्षस भी त्रिभुवन का स्वामी और देवराज इन्द्र से ज्यादा ऐश्वर्यवान बन गया । लेकिन इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं है क्योंकि वो आपका परम भक्त था । जो मनुष्य आपके चरण में श्रद्धा,भक्तिपूर्वक शीश रखता है उसकी उन्नति और समृद्धि निश्चित है।
अकाण्डब्रह्माण्डक्षयचकितदेवासुरकृपा,
विधेयस्यासीद्यस्त्रिनयविषं संहृतवतः ।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो,
विकारोडपि श्लाध्यो भुवनभयभंगव्यसनिनः ॥१४॥
अर्थ — हे प्रभु ! जब समुद्रमंथन हुआ तब अन्य मूल्यवान रत्नों के साथ महाभयानक विष भी निकला, जिससे समग्र सृष्टि का विनाश हो सकता था । आपने बड़ी कृपा करके उस विष का पान किया । विषपान करने से आपका कंठ नीला हो गया और आप नीलकंठ कहलाये । परंतु हे प्रभु, क्या ये आपको कुरुप बनाता है ? कदापि नहीं, ये तो आपकी शोभा को ओर बढाता है । जो व्यक्ति ओरों के दुःख दूर करता है उसमें अगर कोई विकार भी हो तो वो पूजापात्र बन जाता है।
असिद्धार्था नैव कवचिदपि सदेवासुरनरे,
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः ।
स पश्यन्नीश त्वामितरसरुरसाधारणमभूत्,
स्मरः स्मर्तव्यात्मा नहि वशिषु पथ्यः परिभवः ॥१५॥
अर्थ — हे प्रभु, जब आप समाधि में लीन थे तब (तारकासुर को मारने के लिए आपके द्वारा कोई पुत्र हो ऐसा सोचकर) देवों ने आपकी समाधि भंग करने के लिए कामदेव को भेजा । यूँ तो कामदेव के बाण मनुष्य हो या देवता – सब के लिए अमोघ सिद्ध होते हैं मगर आपने तो कामदेव को ही अपने तीसरे नेत्र से भस्मीभूत कर दिया । सचमुच, किसी संयमी मनुष्य का अपमान करने से अच्छा फल नहीं मिलता।
मही पादाधाताद् व्रजति सहसा संशयपदं,
पदं विष्णोर्भ्राम्यद्भुजपरिघरुग्णग्रहगणम् ।
मुहुद्यौंर्दोस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडिततटा,
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ॥१६॥
अर्थ — जब विश्व की रक्षा के लिये आपने तांडव नृत्य करना प्रारंभ किया तब समग्र सृष्टि भय के मारे कांप उठी। आपके पदप्रहार से पृथ्वी को लगा कि उसका अंत समीप है, आपकी जटा से स्वर्ग में विपदा आ पड़ी और आपकी भुजाओं के बल से वैकुंठ में खलबली मच गई । हे प्रभु ! सचमुच आपका बल अतिशय कष्टप्रद है।
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदष्टः शिरसि ते ।
जगद् द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमि,
त्यनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः ॥१७॥
अर्थ — गंगा नदी जब मंदाकिनी के नाम से स्वर्ग से उतरती है तब नभोमंडल में चमकते हुए सितारों के कारन से उसका प्रवाह अत्यंत आकर्षक दिखाई देता है, मगर आपके शिर पर सिमट जाने के बाद तो वह एक बिंदु समान दिखाई पडती है । बाद में जब गंगाजी आपकी जटा से निकलती हैं और भूमि पर बहने लगती हैं तब बड़े बड़े द्वीपों का निर्माण करती हैं । इससे पता चलता है कि आपका शरीर कितना दिव्य और महिमावान है ।
रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो
रथाडगे चन्द्रार्की रथचरणपाणिः शर इति ।
दिधक्षोस्ते कोडयं त्रिपुरतृणमाडम्बरविधिर्
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः ॥१८॥
अर्थ — हे प्रभु ! आप जब (तारकासुर के पुत्रों द्वारा रचित) तीन नगरों का विध्वंश करने निकले तब आपने पृथ्वी का रथ बनाया, ब्रह्माजी को रथी किया, सूर्य और चंद्र दो पहिये किये, मेरु पर्वत का धनुष्य बनाया और विष्णुजी का बाण लिया किंतु इन सब की आपको क्या आवश्यकता थी ? (अर्थात् आप स्वयं इतने महान हैं कि आपको किसी का साथ लेने की जरूरत नहीं थी ।) आपने तो केवल (अपने नियंत्रण में रही) शक्तियों के साथ खेल किया था, लीला की थी।
यदिकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम् ।
गतो भकत्युरेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषा
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम् ॥१९॥
अर्थ — हे प्रभु ! हजार पद्मों (कमल) से आपकी पूजा करने का विष्णुजी का नियम था । एक बार विष्णुजी की परीक्षा करने के लिए आपने एक पद्म गायब कर दिया । तब विष्णुजी ने पद्म के बजाय अपना एक नेत्र आपके चरणों में अर्पित किया। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर आपने विष्णुजी को सुदर्शन चक्र प्रदान किया । हे प्रभु, आप तीनों लोक (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल) की रक्षा के लिए सदैव जाग्रत रहते हो ।
क्रतौ सुप्ते जाग्रत्त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां,
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते ।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदानप्रतिभुवं
श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा दटपरिकरः कर्मसु जनः ॥२०॥
अर्थ — हे प्रभु ! यज्ञ की समाप्ति होने पर आप यज्ञकर्ता को उसका फल देते हो । आपकी उपासना और श्रद्धा बिना किया गया कोई कर्म फलदायक नहीं होता । यही वजह है कि वेदों मे श्रद्धा रखकर और आपको फलदाता मानकर हरकोई अपने कार्यो का शुभारंभ करते हैं।
क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृता,
मृषीणामार्विज्यं शरणद सदस्याः सुरगणाः ।
क्रतुभ्रषस्त्वत्तः क्रतुफलविधानव्यसनिनो।
ध्रुवं कर्तुः श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखाः ॥२१॥
अर्थ — हे प्रभु, आप यज्ञकर्ता को हमेशा फल देते हो । मगर दक्ष प्रजापति का यज्ञ, जिसमें बड़े ऋषिमुनि यज्ञकर्ता थे और जिसे देखने के लिए कई देवता पधारे थे, उसे आपने नष्ट कर दिया, क्यूँकि उसमें आपका सम्मान नहीं किया गया। सचमुच, भक्ति के बिना किये गये यज्ञ किसी भी यज्ञकर्ता के लिए हानिकारक सिद्ध होते हैं।
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं
गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा ।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतंममुं
त्रसन्तं तेडद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः ॥२२॥
अर्थ — एक बार प्रजापिता ब्रह्मा को अपनी पुत्री पर मोह हुआ। जब उसने मृगिनी का रूप धारण किया तो ब्रह्माजी ने मृग का रूप लिया । उस समय हे प्रभु! आपने हाथ में धनुष्यबाण लेकर शिकारी का रूप लिया और ब्रह्मा को मार भगाया । ब्रह्माजी नभोमंडल में अदृश्य अवश्य हुए मगर आज तक आपसे डरते रहते हैं।
स्वलावण्याशंसाधृतधनुषमह्नाय तृणवत्
पुरः प्लुष्टं दष्टवा पुरमथन पुष्पायुधमपि ।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत देहार्धघटना
दवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः ॥२३॥
अर्थ — हे त्रिपुरानाशक ! जब कामदेव ने आपकी तपश्चर्या में बाधा डालनी चाहि और आपके मन में पार्वती के प्रति मोह उत्पन्न करने की कोशिश की, तब आपने कामदेव को तृणवत् भस्म कर दिया । अगर तत्पश्चात् भी पार्वती ये समझती हैं कि आप उन पर मुग्ध हैं क्योंकि आपके शरीर का आधा हिस्सा उनका है, तो ये उनका भ्रम होगा । सच पूछो तो हर युवती अपनी सुंदरता पे मुग्ध होती है।
स्मशानेष्वाक्रीडा स्महर पिशाचाः सहचरा
श्चिताभस्मालेपः स्तगपि नृकरोटीपरिकरः ।
अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
तथाडपि स्मर्तृणां वरद परमं मंगलमसि ॥२४॥
अर्थ — हे प्रभु ! आप शमशानवासी हैं, भूत-प्रेत आपके मित्र हैं, आपके शरीर पर भस्म का लेपन है और खोपडीयों की माला आपके गले में सुहाती है । अगर बाह्य रूप से देखा जाय तो आप में कुछ मंगल या शुभ नहीं दिखाई पडता, मगर जो मनुष्य आपका स्मरण करते हैं, उसका आप सदैव शुभ और मंगल करते हैं।
मनः प्रत्यक्चित्ते सविधमवधायात्तमरुतः
प्रहष्यद्रोमाणः प्रमदसलिलोत्संगितदशः ।
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्ज्यामृतमये
दद्यत्यंतस्तत्त्वं क्रिमपि यमिनस्तत्किल भवान् ॥२५॥
अर्थ — हे प्रभु ! आपको पाने के लिए योगी क्या—क्या नहीं करते ? बस्ती से दूर, एकांत में आसन जमाकर, शास्त्रों में बताई गई विधि के अनुसार प्राण की गति को नियंत्रित करने की कठिन साधना करते हैं और उसमें सफल होने पर हर्षाश्रु बहाते है । सचमुच, सभी प्रकार की साधना का अंतिम लक्ष्य आपको पाना ही है।
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह
स्त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च ।
परिच्छिन्नामेवं त्वयिपरिणता बिभ्रतु गिरं
न विद्मस्तत्तत्वं वयमिह तु यत्त्वं न भवसि ॥२६॥
अर्थ — हे प्रभु ! आप के बारे में कहा जाता है कि आप सूर्य हो, चंद्र हो, पंच तत्व यानि पृथ्वी, आकाश, जल, अग्नि और वायु भी आप ही हो । परंतु यह सोच भी संकुचित और सीमित है । क्यूँकि सच पूछो तो ऐसा क्या है जो आप नहीं हो ? मतलब कि आप ही सबकुछ हो।
त्रयीं तिस्त्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथोत्रीनपिसुरा
नकाराद्यैर्वर्ण स्त्रिभिरभिदधत्तीर्ण विकृतिः ।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः
समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् ॥२७॥
अर्थ — ॐ शब्द अ, उ और म से बनता है । ये तीन शब्द तीन लोक — स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल; तीन देव — ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा तीन अवस्था — स्वप्न, जागृति और सुषुप्ति के द्योतक हैं । लेकिन जब पूरी तरह से ॐ कार का ध्वनि निकलता है तो ये आपके तुरिय पद (तीनों से पर) को अभिव्यक्त करता है।
भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहां
स्तथां भीमशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ।
अमुष्मिन्प्रत्येकं प्रवितरति देव श्रुतिरपि
प्रियायास्मै धाम्ने प्रणिहितनमस्योडस्मि भवते ॥२८॥
अर्थ — हे प्रभो ! वेद में आपके ये आठ नाम कहे गये हैं – भव, शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम और इशान। आपके इन सभी नामों को मैं भावपूर्वक नमस्कार करता हूं।
नमो नेदिष्ठाय प्रियदवदविष्ठाय च नमो
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः ।
नमोवर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठा च नमः
नमः सर्वस्मै ते तदिदमितिशर्वाय च नमः ॥२९॥
अर्थ — हे एकांतप्रिय प्रभु ! आप सब से दूर हैं फिर भी सब के पास हैं । हे कामदेव को भस्म करनेवाले प्रभु ! आप अति सूक्ष्म हैं फिर भी विराट हैं। हे तीन नेत्रोंवाले प्रभु ! आप वृद्ध हैं और युवा भी हैं । हे महादेव ! आप सब में है फिर भी सब से पर हैं। आपको मेरा प्रणाम है।
बहलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः
प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नमो नमः ।
जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ॥३०॥
अर्थ — हे प्रभु, रजोगुण को धारण करके आप जगत की उत्पत्ति करते हो, आपके उस ब्रह्मा स्वरूप को मेरा प्रणाम है। तमोगुण को धारण करके आप जगत का संहार करते हो, आपके उस रुद्र स्वरूप को मेरा नमस्कार है । सत्वगुण धारण करके आप लोगों के सुख के लिए कार्य करते हो, आपके उस विष्णु स्वरूप को मेरा वंदन हो । और इन तीनों गुणों से पर आपका त्रिगुणातीत स्वरूप है, आपके उस शिव स्वरूप को मेरा नमस्कार है।
कृशपरिणति चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं क्व च तव
गुणसीमोल्लंधिनी शश्वद्रद्धिः इति चकितममन्दीकृत्य
मां भक्तिराधाद् वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम् ॥३१॥
अर्थ — हे वरदाता ! मेरा मन शोक, मोह और दुःख से संतप्त तथा क्लेश से भरा पड़ा है । मैं दुविधा में हूँ कि ऐसे भ्रमित मन से मैं आपके दिव्य और अपरंपार महिमा का गान कैसे कर पाउँगा ? फिर भी आपके प्रति मेरे मन में जो भाव और भक्ति है उसे अभिव्यक्त किये बिना मैं नहीं रह सकता । अतः ये स्तुति की माला आपके चरणों में अर्पित करता हूँ।
असितगिरिसमंस्यात् कज्जलं सिंधुपात्रे
सुरतरुवरशाखा लेखिनी पत्रमुर्वि ।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणाना मीश पारं न याति ॥३२॥
अर्थ — अगर समंदर का पात्र बनाया जाय, उसमें काले पर्वत की स्याही डाली जाय, कल्पवृक्ष के पेड की शाखा को कलम बनाकर और पृथ्वी का कागज़ बनाकर स्वयं मा शारदा दिनरात आपके गुणों का वर्णन करें फिर भी हे प्रभु ! आपके गुणों को – पूर्णतया वर्णन करना कठिन है ।
असुरसुरमुनीन्द्ररर्चितस्येन्दुमौले
ग्रंथितगुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य ।
सकलगणवरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानो
रुचिरमलधुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार ॥३३॥
अर्थ — हे प्रभु, आप सुर, असुर और मुनियों के पूजनीय हैं, आपने मस्तक पर चंद्र को धारण किया है, और आप सभी गुणों से पर हैं। आपके एसे दिव्य महिमा से प्रभावित होकर मैं, पुष्पंदत गंधर्व, आपकी स्तुति करता हूँ ।
अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्
पठति परमभक्त्या शुद्धचित्तः पुमान्यः ।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाडत्र
प्रचुरतरधनायुः पुत्रवान्कीर्तिमांश्च ॥३४॥
अर्थ — पवित्र और भक्तिभावपूर्ण हृदय से यदि कोई मनुष्य इस स्तोत्र का नित्य पाठ करेगा, तो वो पृथ्वीलोक में अपनी इच्छा के अनुसार धन, पुत्र, आयुष्य और कीर्ति को प्राप्त करेगा। इतना ही नहीं, देहत्याग के पश्चात् वो शिवलोक में गति पाकर शिवतुल्य शांति का अनुभव करेगा । शिवमहिम्न स्तोत्र के पठन से उसकी सभी लौकिक व पारलौकिक कामनाएँ पूर्ण होगीं।
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः ।
अघोरान्नापरो मंत्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् ॥३५॥
अर्थ — शिव से अधिक कृपालु कोई देव नहीं है, और शिवमहिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ ना कोई स्तुति है । भगवान शंकर के नाम से अधिक महिमावान ना कोई मंत्र है और ना ही गुरु से बढकर कोई पूजनीय तत्व।
दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः ।
महिम्नस्तवपाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥३६॥
अर्थ — शिवमहिमा स्तोत्र का पाठ करने से जो फल मिलता है वो दीक्षा या दान देने से, तप करने से, तीर्थाटन करने से, शास्त्रों का ज्ञान पाने से तथा यज्ञ करने से कहीं अधिक है ।
कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराजः
शिशुशशिधरमौलेर्देव देवस्य दासः ।
स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्
स्तवनमिदमकार्षीद दिव्यदिव्यं महिम्नः ॥३७॥
अर्थ — पुष्पंदत गंधवराज था और भगवान शंकर, जो अपने मस्तक पर चंद्र को धारण करते हैं उनका, परम भक्त था। किंतु भगवान शिव के क्रोध की वजह से वह अपने स्थान से च्युत हुआ । महादेव को प्रसन्न करने के लिए उसने इस महिम्नस्तोत्र की रचना की है।
सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमोक्षैकहेतुं
पठति यदि मनुष्यः प्रांजलिर्नान्यचेताः ।
व्रजति शिवसमीपं किन्नरैः स्तूयमानः
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् ॥३८॥
अर्थ — जो कोई मनुष्य अपने दोनों हाथों को जोड़कर, भक्तिभावपूर्ण, इस स्तोत्र का पठन करेगा, तो वह स्वर्ग-मुक्ति देनेवाले, देवता और मुनिओं के पूज्य तथा किन्नरों के प्रिय ऐसे भगवान शंकर के पास अवश्य जायेगा । पुष्पदंत द्वारा रचित यह स्तोत्र अमोघ और निश्चित फल देनेवाला है।
आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गंधर्वभाषितम् ।
अनौपम्यं मनोहारिशिवमीश्वरवर्णनम् ॥३९॥
अर्थ — पुष्पदंत गांधर्व द्वारा रचित, भगवान शिव के गुणानुवाद से भरा, मनमोहक, अनुपम और पुण्यप्रदायक स्तोत्र यहाँ पर संपूर्ण होता है।
इत्येषा वाडमयी पूजा श्रीमच्छंकरपादयोः ।
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः ॥४०॥
अर्थ — हे प्रभु ! वाणी के माध्यम से की गई मेरी यह पूजा आपके चरणकमलों में सादर अर्पित है। कृपया इसको स्वीकार करें और आपकी प्रसन्नता मुझ पर बनाये रखें ।
तव तत्त्वं न जानामि कीद्शोडसि महेश्वर ।
याद्सोडसि महादेव ताद्शाय नमो नमः ॥४१॥
अर्थ — हे प्रभु! हे महेश्वर! मैं आपका सही स्वरूप नहीं पहचानता, लेकिन आपका जो भी स्वरूप है, मैं आपको प्रणाम करता हूँ।
एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोके महीयते ॥४२॥
अर्थ — यदि कोई मनुष्य यह स्तोत्र का (प्रतिदिन) केवल एक, दो या तीन बार भी पठन करेगा तो वह पवित्र और सर्व प्रकार के पाप से विमुक्त होकर शिवलोक में सुख और समृद्धि का अधिकारी होगा।
श्री पुष्पदंतमुखपंकजनिर्गतेन
स्तोत्रंण किल्बिहरेण हरप्रियेण ।
कंठस्थितेन पठितेन समाहितेन
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ॥४३॥
अर्थ — जो भी मनुष्य पुष्पदंत के मुखपंकज से उदित, पाप का नाश करनेवाली, भगवान शंकर की इस अतिप्रिय स्तुति का पठन करेगा, गान करेगा या उसे सिर्फ अपने स्थान में रखेगा, तो भोलेनाथ शिव उन पर अवश्य प्रसन्न होंगे।
॥इति Shree Shiv Mahimna Stotra॥
[साभार /https://jagurukta.com/shiv-mahimna-stotra/]
🔱🙏Annexure-4.
KALI THE MOTHER
(Poem written by Swami Vivekananda)
The stars are blotted out,
The clouds are covering clouds.
It is darkness vibrant, sonant.
In the roaring, whirling wind
Are the souls of a million lunatics
Just loosed from the prison-house,
Wrenching trees by the roots,
Sweeping all from the path.
The sea has joined the fray,
And swirled up mountain-waves,
To reach the pitchy sky.
The flash of lurid light
Reveals on every side
A thousand, thousand shades
Of Death begrimed and black-
Scattering plagues and sorrows,
Dancing mad with joy,
Come, Mother, come!
For terror is Thy name,
Death is in thy breath,
And every shaking step
Destoys a world for e'er.
Thou Time, the All-destroyer!
Come, O Mother, come!
Who dares misery love,
And hug the form of Death,
Dance in destruction's dance
To him the Mother comes.
- Swami Vivekananda
'काली माता'
(स्वामीजी की अँग्रेज़ी कविता, 'Kali the Mother' का अनुवाद)
छिप गये तारे गगन के,
बादलों पर चढ़े बादल,
काँपकर गहरा अंधेरा,
गरजते तूफान में, शत
लक्ष पागल प्राण छूटे
जल्द कारागार से--द्रुम
जड़ समेत उखाड़कर, हर
बला पथ की साफ़ करके ।
शोर से आ मिला सागर,
शिखर लहरों के पलटते
उठ रहे हैं कृष्ण नभ का
स्पर्श करने के लिए द्रुत,
किरण जैसे अमंगल की
हर तरफ से खोलती है
मृत्यु-छायाएँ सहस्रों,
देहवाली घनी काली ।
आधिन्याधि बिखेग्ती, ऐ
नाचती पागल हुलसकर
आ, जननि, आ जननि, आ, आ!
नाम है आतंक तेरा,
मृत्यु-तेरे श्वास में है,
चरण उठकर सर्वदा को
विश्व एक मिटा रहा है,
समय तू है, सर्वनाशिनि,
आ, जननि, आ, जननि, आ, आ!
साहसी, जो चाहता है
दुःख, मिल जाना मरण से,
नाश की गति नाचता है,
माँ उसीके पास आयी ।
- स्वामी विवेकानन्द
"तत्वमसि "- अर्थात जो आपके लिए दूसरा है, वस्तुत: वही आप हैं।
🔱🙏Annexure-5.
>>दर्शनशास्त्र क्या है ? शब्दकल्पद्रुप के अनुसार, ”दृश्यते यथार्थतत्वम अनेन इति। यथार्थ तत्व अर्थात ईश्वर या परम ब्रह्म के ज्ञान को प्राप्त करने के लिए जिन ग्रंथों में पथ सुझाया गया है, वह दर्शन है। न्यायकोश के अनुसार, ”तत्वज्ञानसाधनं शास्त्रम। तत्व ज्ञान को प्राप्त करने का साधन ही दर्शन है। वेदवाक्य है, ”तत्वमसि अर्थात तत त्वम असि या वही तू है। जो आपके लिए दूसरा है, वस्तुत: वही आप हैं।
ऋग्वेद के समय से ही भारतीय दर्शन की दो धाराएं हैं। एक प्रज्ञा-आधारित और दूसरी तर्क-आधारित। उपनिषद काल में इन दोनों धाराओं का संगम पाया जाता है। भारतीय वैदिक दर्शन शास्त्र में 6 मुख्य सूत्र और उनके प्रणेता इस प्रकार माने जाते हैं।
1.न्याय सूत्र : महर्षि गौतम
2.वैशेषिक दर्शन : ऋषि कणाद
3.सांख्य दर्शन : भगवान कपिल
4.योग सूत्र : ऋषि पतंजलि
5.पूर्व मीमांसा : जैमिनी ऋषि
6.उत्तर मीमांसा या ब्रह्मसूत्र या वेदांत दर्शन : भगवान वेदव्यास
ये 6 दर्शन शास्त्र दो-दो के जोड़े में तीन वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं। न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग एवं मीमांसा-वेदांत।
A.[ न्याय सूत्र एवं वैशेषिक दर्शन में सृष्टि का मूल कारण अणुओं का मिश्रण माना गया है। उन्होंने अणुओं से निर्मित तत्वों, उनकी विशेषताएं तथा उनके अंतर्संबंध की व्याख्या प्रस्तुत की है।]
B. [ सांख्य दर्शन में ब्रह्म द्वारा माया से उत्पन्न संसार एवं उससे परे दिव्यता के बारे में व्याख्या की गयी है । इसमें समझाया गया कि संपूर्ण संसार माया से उत्पन्न है और उससे मोह न कर, उससे परे दिव्यता प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि वही परमानंद का स्रोत है।]
[ योग सूत्र में अज्ञान, अहंकार, मोह, घृणा और मृत्युभय से मन को दूर रखकर सुख प्राप्त करने तथा प्राण ऊर्जा के माध्यम से मन एवं काया को शुद्ध रखकर मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग बताया गया है। ]
C. [पूर्व मीमांसा में मनन-चिंतन के माध्यम से वेदों की उचित व्याख्या की गयी है। यह ईश्वर प्राप्ति पर प्रकाश नहीं डालता परंतु धर्म पथ के माध्यम से जीवन में सुख पाने का मार्ग बताता है।]
उत्तर मीमांसा (वेदांत या ब्रह्मसूत्र) में यह गुप्त रहस्य उदघाटित किया गया है कि ब्रह्म ही पूर्ण है, दिव्य है और सत, चित्त व आनंद है। वह कृपालु है अत: माया का बंधन छोड़कर उसे सदैव स्मरण रखिए, प्रेम करिए और समर्पणभाव रखिए। उसकी कृपा का अनुभव कर सदैव पूर्ण परमानंद में रहिए। यही इन 6 दर्शन शास्त्रों का सार है।
कणाद और उनके बाद के वैशेषिक दर्शनवेत्ता आधुनिक विज्ञान के परमाणु सिद्धांत से भिन्न मत रखते थे। उनका दावा था कि अणुओं की कार्यप्रणाली परम ब्रह्म की इच्छा से नियंत्रित होती है। अत: उनके अनुसार हर प्रकार के अणुओं का संलयन एवं विखंडन एक जैसी क्रिया न करके कभी कभी अपवादस्वरूप क्रिया भी कर सकता है। यह अणुवाद या परमाणु विज्ञान का आस्तिकवादी स्वरूप था।
[नित्य व अनित्य विवेक : जो अस्तित्व में है परंतु उसका कोई कारण नहीं है, उसे नित्य माना जाता है। जब हम अनित्य की बात करते हैं तो भी हम नित्य का अस्तित्व तो स्वीकार करते ही हैं। अत: अनित्य अविद्या अर्थात अज्ञान है।
वैशेषिक दर्शन के अनुसार जगत या सृष्टि की वे समस्त वस्तुएं जिनका अस्तित्व है, जिनका बोध हो सकता है, और जिन्हें पदार्थ की संज्ञा दी जा सकती है, उन्हें 6 वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। द्रव्य, गुण, कर्म (सक्रियता), सामान्य, विशेष तथा समवाय (अंतर्निहित)। ये 6 स्वतंत्र वास्तविकताएं अवबोध द्वारा अनुभव की जा सकती हैं।
प्रथम तीन वर्गों को अर्थ (जिसका बोध किया जा सकता है) माना जाता है। इनके अस्तित्व का वास्तव में अनुभव किया जा सकता है। अंतिम तीन वर्गों को बुध्यापेक्षम (बुद्धि से निर्णीत) माना जाता है। ये तार्किक वर्ग हैं।
आत्मा के संपर्क में आने पर हाथ का संचालन होता है, हाथ के संपर्क से मूसल को उठाया जा सकता है, मूसल से ओखली में मारा जा सकता है। परंतु ओखली में मारना हाथ के संपर्क के कारण नहीं बल्कि मूसल के कारण, इसी प्रकार मूसल को उठाना आत्मा के कारण नहीं, बल्कि हाथ के कारण है। हाथ से न उठाने पर भी मूसल गुरूत्व के कारण यदि ओखली में गिरती है तो भी ओखली में मार करेगी।
भारतीय दर्शन में मूल तत्व सत, रजस एवं तमस माने गए हैं। जगत में समस्त जड़ एवं चेतन इन्हीं तत्वों से परिणत होकर बने हैं। सत को प्रीतिरूप अर्थात दूसरे को अपनी ओर आकृष्ट करने वाला, रजस को अप्रीतिरूप अर्थात दूर हटने की प्रवृतित, अपकर्शित करने वाला और तमस को विषादरूप अर्थात न प्रीतिरूप और न ही अप्रीतिरूप अर्थात उदासीन माना गया है। आधुनिक विज्ञान एवं भारतीय दर्शन में कितनी समानता है। आधुनिक विज्ञान समस्त विश्व का उपादान कारण प्रोटान, इलैक्ट्रान तथा न्यूट्रान नामक तीन प्रकार के तत्वों को मानता है। प्रोटान स्थिर, धनावेषी अर्थात आकर्षण शक्ति का पुंज है जबकि इसके विपरीत इलैक्ट्रान चर यानी अस्थिर, ऋणावेषी अर्थात अपकर्शण-स्वरूप है। तीसरे तत्व न्यूट्रान में ये दोनों लक्षण नहीं होते और स्थिर व अनावेषी होता है अर्थात उदासीन होता है। अत: प्रोटान सत का, इलैक्ट्रान रजस का एवं न्यूट्रान तमस का प्रतीक हुआ।
पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि।।1.1.5।।
1 . भूमि या पृथ्वी 2. जल 3. तेज या अग्नि 4. वायु 5. आकाश 6. काल या समय 7. दिक् या अंतरिक्ष 8. आत्मा और 9. मन।
(प्रथम सात द्रव्य से ही भौतिक संसार की रचना होती है। शेष दो अभौतिक हैं। महर्षि महेश योगी ने इन्हें उल्टे क्रम में रखा है- मूल से यौगिक की ओर। इससे सृष्टि के सृजन को समझने में सुविधा होती है।)
प्रथम 5 को भूत कहा जाता है क्योंकि इन द्रव्यों में कुछ विशिष्ट गुण होते हैं अत: बाहय इन्द्रियों में से किसी भी एक द्वारा इनके अस्तित्व का अनुभव किया जा सकता है। जबकि शेष अभौतिक हैं। पंच भूतों में से भी प्रथम चार पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु परमाणु से निर्मित होते हैं जबकि आकाश अपरमाण्विक व अनंत माना गया है। दिक् और काल को अनंत तथा शाश्वत माना गया है। जिस प्रकार तीनों तत्वों में उपस्थित विभिन्न संख्या अथवा मात्रा में मिश्रण से पदार्थ बनता है उसी प्रकार इनके न्यूनाधिक गुणों के समिमश्रण से चार युग का निर्माण होता है।
[साभार https://www.pravakta.com/vaisheshik-philosophy-of-sage-kanad/
>>>वृत्तियाँ क्या हैं? प्रत्येक मनुष्य में मूलतः तीन वृत्तियाँ होती हैं। इन वृत्तियों के अनुसार ही, समग्र रूप से, मनुष्य का व्यवहार होता है। सतोगुणी, रजोगुणी एवं तमोगुणी। मनुष्य में जो वृत्ति प्रधान होती है उसी के अनुरूप उस का खानपान एवं व्यवहार होता है। क्योंकि यह वृत्तियाँ, सत्व, रजस और तमस गुणों से प्रभावित होती है। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि राजस तथा तामस वृत्तियों को दबाने तथा सात्विक वृत्तियों के उत्थान से , मन को एकाग्र करने (ध्यान) में सहायता मिलती है, जिससे व्यक्ति स्थायी स्वास्थ्य, सच्चा उच्च ज्ञान एवं आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर सकता है। वैदिक धर्म शास्त्रों के अनुसार केवल एक समर्थ सिद्ध गुरू (नेता -CINC नवनीदा) ही परमार्थवाद संबंधी उद्देश्य वाले साधक को योग में दीक्षित करके उसकी वृत्तियों में धनात्मक परिवर्तन ला सकता है।
चुकी सतोगुण एक संतुलनकारी शक्ति है जो सत्य ज्ञान की मार्गदर्शक है, बडे स्तर पर इसकी अभिवृद्धि सम्पूर्ण मानवता का रूपान्तरण कर उसे लडाई-झगडों से मुक्त कर सकती है, तथा विश्व में शान्ति एवं एकता ला सकती है। इसी प्रकार निरन्तर नाम जप व मनःसंयोग के विधिवत अभ्यास (जन्य ध्यान-समाधि) से वृत्ति परिवर्तन व बुरी आदतों का छूटना या वृत्ति परिवर्तन (अहंकार को दासोअहं बना लेने से चरित्र-निर्माण) भी होता है। मनःसंयोग का अभ्यास और निरन्तर नाम- जप के कारण सबसे पहले तमोगुणी (तामसिक) वृत्तियाँ दबकर कमजोर पड जाती हैं। फिर बाकी दोनों वृत्तियाँ प्राकृतिक रूप से स्वतंत्र होने के कारण क्रमिक रूप से विकसित होती जाती हैं। ज्यों-ज्यों मनुष्य की वृत्ति बदलती जाती है दबने वाली वृत्ति के सभी गुणधर्म स्वतः ही समाप्त होते जाते हैं। वृत्ति बदलने से उस वृत्ति के खानपान से मनुष्य को आन्तरिक घृणा हो जाती है। कुछ दिनों में प्रकृति (माँ काली) उन्हें इतना शक्तिशाली बना देती है कि फिर से तमोगुणी वृत्तियाँ पुनः स्थापित नहीं हो पाती हैं। अन्ततः मनुष्य की सतोगुणी प्रधानवृत्ति (दासोअहं) हो जाती है। इसलिये बिना किसी कष्ट के सभी प्रकार की बुरी आदतें अपने आप छूट जाती हैं। इस संबंध में स्वामी विवेकानन्द जी ने अमेरिका में कहा था “कि मनुष्य उन वस्तुओं को नहीं छोडता वे वस्तुऐं उसे छोडकर चली जाती हैं।” यह परिवर्तन सम्पूर्ण मानव जाति में समान रूप से होना सम्भव है, क्योंकि इसमें जाति भेद एवं धर्म परिवर्तन जैसी कोई समस्या नहीं है। मनःसंयोग का अभ्यास करने वाला किसी भी जाति या धर्म का साधक स्वयं के धर्म में रहता हुआ इस योग (मनःसंयोग) की साधना कर सकता है। मोक्ष का अर्थ है मनुष्य अपने जीवनकाल में ही पूर्णता (100 % निःस्वार्थपरता) प्राप्त कर ले, इस (भ्रममुक्त अवस्था, मिथ्या -अहंमुक्त) अवस्था में पहुँचने पर; साधक पूर्ण शान्ति अनुभव करता है। उसे किसी प्रकार का शारीरिक एवं मानसिक कष्ट नहीं रहता है। अष्टावक्रगीता में कहा गया है -
अहं कर्तेत्यहंमान महाकृष्णाहिदंशितः।
नाहं कर्तेति विश्वासामृतं पीत्वा सुखी भव॥८॥
अन्वय:- (हे शिष्य ! ) अहम् कर्ता इति अहंमानमहाकृष्णाहिंदंशितः ( त्वम् ) अहं कर्ता न इति विश्वासामृतम् पीत्वा सुखी भव ॥८॥
यहां तक संसार-बंधन हेतु का वर्णन किया अब अनर्थ के हेतु का वर्णन करते हुए अनर्थ की निवृत्ति और परमानंद के उपाय का वर्णन करते हैं। मैं कर्ता हूं' इस प्रकार अहंकाररूप महाकाल सर्प से तू काटा हुआ है इस कारण मैं कर्ता नहीं हूं इस प्रकार विश्वासरूप अमृत पीकर सुखी हो । आत्माभिमानरूप सर्प के विष से ज्ञानरहित और जर्जरीभूत हआ है, यह बंधन जितने दिनों तक रहेगा तब तक किसी प्रकार सुख की प्राप्ति नहीं होगी; जिस दिन यह जानेगा कि, मैं देहादि कोई वस्तु नहीं हूं, मैं निर्लिप्त हूं उस दिन किसी प्रकार का मोह स्पर्श नहीं कर सकेगा ॥८॥
शान्ति की तलाश इस युग का मानव (रूस-यूक्रेन) भौतिक विज्ञान से (atom bomb से ) शान्ति चाहता है परन्तु विज्ञान ज्यों-ज्यों विकसित होता जा रहा है, वैसे-वैसे शान्ति दूर भाग रही है और अशान्ति तेज गति से बढती जा रही है। क्योंकि शान्ति का सम्बन्ध अन्तरात्मा से है, अतः विश्व में पूर्ण शान्ति मात्र वैदिक मनोविज्ञान के सिद्धान्तों (मनःसंयोग द्वारा मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माण-कारी शिक्षा) पर ही स्थापित हो सकती है। अन्य कोई पथ है ही नहीं। भारतीय योग दर्शन में वर्णित “मनःसंयोग ” या राजयोग से विश्व शान्ति के रास्ते की सभी रुकावटों का समाधान सम्भव है।
🔱🙏Annexure-6.
🌸🌸अध्यात्मरामायण/ बालकाण्ड/ पंचम_सर्ग/🌸🌸
अहल्योवाच--
अयं हि विश्वोद्भवसंयमाना-
मेक: स्वमायागुणबिम्बितो यः।
विरियंचिविष्ण्वीश्वरनाम भेदान्
धते स्वतन्त्र: परिपूर्ण आत्मा॥५०॥
जो_अकेले_ही संसार की उत्पत्ति, स्थिति और नाश के लिये अपनी माया के गुणों का आश्रय कर ब्रह्मा, विष्णु और महादेव नामक विभिन्न रूप धारण करते हैं वे स्वतन्त्र और परिपूर्ण आत्मा आप ही हैं॥५०॥
नमोऽस्तु_ते_राम_तवांग्घ्रिपंकजं
श्रिया धृतं वक्षसि लालितं प्रियात्।
आक्रान्तमेकेन_जगत्त्रयं____पुरा
ध्येयं मुनीन्द्रैरभिमानवर्जितै:॥५१॥
हे_राम ! आपके जिन चरण-कमलों को श्रीलक्ष्मी जी अपने वक्ष:स्थलपर रखकर बड़े प्रेम से लाड़ लड़ाती हैं। जिन्होंने_पूर्वकाल में ( बलि-बन्धनके समय ) एक_ही_पगमें_सम्पूर्ण_त्रिलोकी माप ली थी तथा अभिमान-हीन मुनिजन जिनका निरन्तर ध्यान किया करते हैं उन आपके चरण-कमलों को मैं नमस्कार करती हूँ॥५१॥
जगतामादिभूतस्त्वं जगत्वं जगदाश्रय:।
सर्वभूतेष्वसंयुक्त #एको_भाति_भवान्परः॥५२॥
हे_प्रभो ! आप ही जगत् के आदिकारण, आप ही जगत्-रूप और आप ही उसके आश्रय हैं, तथापि आप #समस्त_प्राणियोंसे_पृथक्_हैं और अद्वितीय परब्रह्मरूपसे प्रकाशमान हैं॥५२॥
ओंकारवाच्यस्त्वं_राम वाचामविषय: पुमान् ।
वाच्यवाचकभेदेन भवानेव जगन्मय:॥५३॥
हे_राम ! आप ओंकार के वाच्य हैं तथा आप ही वाणी के अगोचर परम पुरुष हैं। हे प्रभो! वाच्य-वाचक ( शब्द-अर्थ ) भेदसे आप ही सम्पूर्ण जगत्-रूप हैं॥५३॥
कार्यकारणकर्तृत्वफलसाधनभेदत: ।
एको विभासि_राम त्वं मायया बहुरुपया॥५४॥
#हे_राम ! आप अकेले ही बहु-रूपमयी मायाके आश्रयसे कार्य, कारण, कर्तृत्व, फल, और साधनाके भेदसे #अनेक_रूपोंमें भासमान हो रहे हैं॥५४॥
त्वन्मायामोहिततधियस्त्वां न जानन्ति तत्वत:।
मानुषं त्वाभिमन्यन्ते मायिनं परमेश्वरम् ॥५५॥
आपकी_माया से जिनकी बुद्धि मोहित हो रही है वे लोग आपका वास्तविक रूप नहीं जान सकते। आप मायापति परमेश्वर को वे मूढ़जन साधारण मनुष्य समझते हैं॥५५॥
आकाशवत्वं सर्वत्र बहिरन्तर्गतोऽमल:।
असंगोह्यचलो नित्य: शुद्धो बुद्ध: सदव्यय:॥५६॥
आप_आकाश के समान बाहर-भीतर सब ओर विराजमान, निर्मल, असंग, अचल, नित्य, शुद्ध, बुद्ध, सत्यस्वरूप और अव्यय हैं॥५६॥
योषिन्मूढ़ाहमज्ञा ते तत्वं_जाने_कथं_विभो।
तस्माते शतशो राम नमस्कुर्यामनन्यधी:॥५७॥
हे_विभो ! मैं मूढ़ और अज्ञानी_स्त्री_जाति भला आपके तत्वको क्या जानूँ ? अत: हे राम ! मैं #अनन्यभावसे आपको सैकड़ों बार केवल_नमस्कार_ही_करती_हूँ॥५७॥
देव_मे_यत्र_कुत्रापि_स्थिताया_अपि_सर्वदा।
#त्वत्पादकमले_सक़्ताभक्तिरेव_सदास्तु_मे ॥५८॥
हे_देव ! मैं जहाँ-कहीं भी रहूँ वहीं सर्वदा आपके_चरणकमलोंमें मेरी आसक्तिपूर्ण_भक्ति बनी रहे ॥५८॥
नमस्ते पुरुषाध्यक्ष नमस्ते भक्तवत्सल।
नमस्तेऽस्तु हृषीकेश नारायण नमोऽस्तु ते॥५९॥
#हे_पुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है; हे भक्तवत्सल ! आपको नमस्कार है; हे हृषीकेश ! आपको नमस्कार है; हे नारायण ! आपको बारम्बार नमस्कार है॥५९॥
भवभयहरमेकं भानुकोटिप्रकाशं
करधृतशरचापं कालमेघावभासम्।
कनकरुचिरवस्त्रं रत्नवत्कुण्डलाढयं,
कमलविशदनेत्रं सानुजं राममीडे॥६०॥
जो संसार के एक मात्र भय दूर करने वाले हैं, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान हैं, कर- कमलों में धनुष और बाण धारण किये हैं, श्याम मेघ के समान आभा वाले हैं, सुवर्ण के समान पीत वस्त्र धारण किये हैं, रत्न-जटित कुण्डलों से सुशोभित हैं तथा जिनके कमल-दल के समान अति सुन्दर विशाल नेत्र हैं, भाई लक्ष्मणसहित उन श्रीरघुनाथजी की मैं स्तुति करती हूँ॥६०॥
इस प्रकार सम्मुख खड़े हुए साक्षात् परमपुरुष श्रीरघुनाथजी की स्तुति, परिक्रमा और वन्दना कर वह उनकी आज्ञा ले शीघ्र ही अपने पति के पास चली गयी॥६१॥
🚩🚩जो पुरुष अहल्याके किये हुए इस स्त्रोत को भक्ति पूर्वक पढ़ता है वह समस्त पापों से मुक्त होकर पर-ब्रह्मपद को प्राप्त कर लेता है। जो वंध्या स्त्री भी श्रीरामचन्द्र जी को हृदय में धारणकर पुत्र की कामना से इसका भक्ति पूर्वक पाठ करे तो एक वर्ष में ही उसे श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त हो सकता है तथा श्रीरामचन्द्रजी की कृपा से उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।ब्राह्मण का वध करने वाला, गुरु-स्त्री से भोग करनेवाला, चोर, मद्यप, माता-पिता और भाई की हिंसा करनेवाला तथा निरन्तर भोगासक्त रहने वाला पुरुष भी यदि अपने हृदय में विराजमान श्रीरघुनाथजी का भक्ति पूर्वक नित्य स्मरण करता है और उनका ध्यान करते हुए इस स्तोत्र का पाठ करता है तो मुक्त हो जाता है; फिर स्वधर्म-परायण पुरुषोंकी तो बात ही क्या है ?॥६५॥
🔱🙏Annexure-7.
कबीर भजन : (पुरुषोत्तम दास जलोटा )
राम भजा सो जीता जग में,
राम भजा सो जीता ।
हाथ सुमिरनी, पेट कतरनी,
पढ़त भागवत गीता ।
रसया सुद्ध किया नहीं बौरे,
कहत सुनत दिन बीता रे।
राम भजा सो जीता जग में ...
आन देव की पूजा कीन्ही,
हरि (गुरु) से रहा अतिता।
धन जौबन सब यहीं रहेगा,
अंत समय चल रीता।
राम भजा सो जीता जग में ...
[बावरिया ने बावर (विशालाक्षी नदी का भँवर) डारी, मोहजाल सब कीता, कहें कबीर काल धरि खइहैं जैसे मृग को चीता ]
बाँवरिया ने बावर डारी ,
मोह जाल सब कीता ।
कहन 'कबीर' काल धरि खइहैं ,
जैसे मृग कौ चीता रे।
राम भजा सो जीता जग में ...
सोऽकामयत। बहु स्यां प्रजायेय ...। ‘काम’ परमात्मा सत्ता की इच्छा शक्ति है और यह इच्छा अपने पूर्ण स्वातन्त्र्य से विश्व के प्रकाशन का कारण है। यह इच्छा ही है जिसके द्वारा चिदात्मा देव अन्तःस्थित इस विश्व को बाहर प्रकाशित कर देता है। काम प्रथम बीज था- रेतः प्रथमं ' 27 जो तप की महिमा से गर्भवान् होकर विश्व की सृष्टि करता है। यह ‘रेतः’ वह सारभूत तेज है जो उत्पत्ति के लिए स्वयं में स्वयं को धारण करता है।28
तन्त्रागम में काल-दृष्टि से जगत् की सृष्टि (उन्मीलन, उन्मेष) और संहार (निमीलन, निमेष) को एक नित्य क्रम कहा गया है जो निरन्तर चल रहा है। दिने दिने सृजत्येवं संहरेच्च दिनक्षये।51दिन इसे प्रकट कर देता हे, रात्रि इसे समेट लेती है।भगवान् कहते हैं- दिन के आगमन पर सब उस अव्यक्त से व्यक्त होते हैं और रात्रि के आगमन पर सब उस अव्यक्त में प्रलीन हो जाते हैं। इनमें विश्व-सृष्टि के रहस्य एवं प्रकार को दृष्टान्तों से प्रकट करने का प्रयत्न किया गया है। पहला दृष्टान्त है-जिस प्रकार मकड़ी जाले को रचती एवं ग्रसती है, अर्थात् अपने ही शरीर के तन्तुओं को बाहर फैलाती और उन्हें अपने में समेट लेती है।
🔱🙏Annexure-8.
>>>नारायण एक बहुविकल्पी शब्द है। इस एक नाम में सृष्टि का सम्पूर्ण सार छिपा हुआ है। इसीलिए शास्त्रों में अधिकांश स्थानों पर विष्णु भगवान को 'नारायण' नाम से संबोधित किया गया है। महाभारत के अनुसार परमात्मा या आत्मा का नाम ‘नर’ है। परमात्मा से सबसे पहले उत्पन्न होने के कारण आकाशादि को ‘नार’ कहते हैं। यह सर्वत्र व्याप्त है तथा सबकी उत्पत्ति का कारण भी है, अतः परमात्मा का नाम नारायण हुआ। नारायण हिन्दू धर्म में मान्य भगवान श्रीविष्णु के हज़ारों नामों में से एक नाम है। इस नाम का धार्मिक रूप से बड़ा महत्त्व है।
['आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः। अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः॥'
नार = जल , आपः = जल। नारायण = नार + अयन । अर्थात् "सृष्टिपूर्व ‘नार’ नामक जल ही ‘नर’ ( स्वयंभू पुरुष ) का आश्रय था। इसीलिए वह नारायण है।"
"नार अर्थात् जीव समूह को प्रेरित करने वाला या जीव समूह में प्रविष्ट हुआ परमात्मा नारायण है। अथवा सब कुछ जिसमें प्रविष्ट हो, ऐसा जो जगत का आधार है, वह नारायण है।"
[नारायणः, पुं,विष्णुः, विष्णुर्नारायणः कृष्णो वैकुण्ठो विष्टरश्रवाः। दामोदरो हृषीकेशः केशवो माधवः स्वभूः॥ (नारा जलं अयनं स्थानं यस्य । अय गतौ + भावे ल्युट् । सर्म्वे गत्यर्थाः प्राप्त्य- र्थाश्च इति नियमात् नारस्य ज्ञानस्य मुक्तेर्वा अयनं प्राप्तिर्यस्मात् इति वा । “नराणां समूहो नारं तत्रायनं स्थानं यस्य नारायणः रेफात् परनकारस्य णत्वविधानात् सर्व्वप्राणिबुद्धि- गुहानिवासाच्छुद्धचैतन्यमित्यर्थः ।” इति शङ्कर- विजये नवमप्रकरणम् ।) विष्णुः ।
पौराणिक ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर यही बात कही गई है कि सृष्टि का आरम्भ जल तत्व से हुआ है उसमें ही पितृत्व व मातृत्व है। यहाँ नर को परमब्रह्म माना गया है अर्थात सृष्टि को उत्पन्न करने वाला नर ( पुरुष)। 'नार' अर्थात स्वयंभु परमब्रह्म की अन्तर्निहित विराट योनि यानी मातृतत्व। नारायण (नरसूनव- नरपुत्र या नारपुत्र)। सृष्टि निर्माण जल से हुआ है यह सर्वव्यापी परिकल्पना वैश्विक है।
वेद, उपनिषद्, पुराण, स्मृति आदि ग्रन्थों में सृष्टि एवं सृष्टिक्रम का तात्विक एवं दार्शनिक विवेचन तथा उसके प्रथम एवं उत्तरोत्तर प्रादुर्भावों पर विशद विवरण प्राप्त होता है। कथन-उपकथन, वार्ता, संवाद, जिज्ञासा एवं प्रत्युत्तर के रूप में इस पर विस्तार से विचार हुआ है। दृश्य-जगत् के आविर्भाव के पूर्व जल था- ‘आप’, इसे ‘श्रुति’ और ‘स्मृति’ दोनों ने स्वीकार किया है।
किं स्विद्वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः।
मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तद्यदध्यतिष्ठभ्दुवनानि धारयन्।।
(ऋग्वेद,10. 81. 4॥)
(किं स्वित्) कौन ही (वनम्) वन है (कः-उ) और कौन ही (सः-वृक्षः) वह वृक्ष (आस) है (यतः) जिससे (द्यावापृथिवी) द्युलोक पृथिवीलोक-द्यावापृथिवीमय जगत् को (निस्-ततक्षुः) नियम से तक्षक-बढ़ई की भाँति परमात्मा गढ़ता है-करता है (मनीषिण:) हे प्रज्ञावाले-बुद्धिमान् विद्वानों ! तुम (मनसा पृच्छत) मन से पूछो-विचारो (इत्-उ) अवश्य ही (तत्-यत्) वह जो (भुवनानि धारयन्) लोक-लोकान्तरों को धारण करता हुआ (अध्यतिष्ठत्) उनके ऊपर अधिष्ठित है ॥४॥
भावार्थ - तक्षक-बढ़ई का रूपक देकर विचार किया गया है। वह कौन-सा वन था, वह कौन-सा वृक्ष, जिससे ये द्यावा-पृथिवी निर्मित हुए? हे ऋषियों, अपने मन में विचार करो, इस द्यावपृथिवीमय जगत् का उपादानकारण क्या है ? और इसमें वर्तमान लोक-लोकान्तरों का धारण करनेवाला, इन भुवनों का कर्त्ता निमित्तकारण कौन है, यह विचारना चाहिए ॥४॥
>>>सृष्टि- 'एक' का अनेकत्व है। उसने (एक ने) चाहा, मैं बहुत हो जाऊँ।1सृष्टि के आरम्भ में जो एक और अवर्ण (अरूप) था, वह अपनी शक्ति के योग से अनेक प्रकारों और अनेक रूपों को धारण करता है।2‘आत्मा’ (Heart) ही कृमि, कीट, पशु-पक्षी, मानव (3H) हो जाता है। यह ‘एक’ आत्मा ही है जो अन्तहीन नानाविविधता (Head and Hand) में स्वयं को अभिव्यक्त कर रहा है।6त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी।त्वं जीर्णो दण्डेन वंचसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः।।18लिंग और वय के भेद में वह है- अभेद रूप से। ‘तुम स्त्री हो, तुम पुरुष हो, कुमार और कुमारी भी तुम ही हो। तुम ही वह वृद्ध हो, जो लाठी की टेक से चलता है।’ इन आत्मीय वचनों के उपरान्त उपनिषद् में पुनः वही एक निष्कर्ष है या सर्वोच्च सत्य का स्वीकार कि तुम ही उत्पन्न होने पर अनेक रूप ‘विश्वतोमुख’ हो जाते हो या जब तुम उत्पन्न होते हो तो यह विश्व तुम्हारी अनेकरूपता से भर जाता है। यह पूर्णत्व (100 % निःस्वार्थपरता) ही उस ‘एक’ और इस ‘अनेक’ का अन्तरतम सत्य है।
भुवनानि विश्वा-लोकाः ' -आत्मा में ही सारे लोक हैं।1ये लोक... यह सब यह आत्मा ही है।2इस संसाररूपी अश्वत्थ-वृक्ष का मूल ऊपर की ओर और शाखाएँ नीचे की ओर हैं। यह सनातन है।6पुराणों में चैदह भुवनों का वर्णन भी है और सामान्य रूप से भी इनका कथन किया जाता है। पृथ्वी- ‘भूः’ के ऊपर छह लोक हैं- भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक और सत्यलोक- अर्थात् भूसहित सात लोक। पृथ्वी से नीचे सात लोक हैं- पाताल, रसातल, महातल, तलातल, सुतल, वितल और अतल। इस प्रकार सत्यलोक से लेकर अतल तक चैदह भुवनों की गणना पूरी होती है।
>>>आत्मा ही ‘परम लोक’ है। यह ही मनुष्य की परम गति, परम सम्पदा, परम आनन्द है- एषोऽस्य परमो लोक ...।44 यह मन है- उसकी संकल्प-विकल्पात्मक गति जो चेतना की परम स्थिति को अनेक लोक-स्तरों में विभक्त कर देती है। इसलिए एक विशेष चेतना-स्तर के रूप में मनोलोक का कथन है- मनो हि लोकः45 तथा चित्त से उपचित हुए लोकों का कथन है- चित्तान् वै स लोकान्।46 जब मनुष्य की चेतना विकास को प्राप्त होती है, तब वह क्रमशः उत्तरोत्तर गति करता हुआ उर्ध्व तथा ऊर्ध्वतर लोकों में संचरण करता है- ‘उपरि उपरि लोकेषु चरति।’55 वस्तुतः चेतना जब तक आत्मा या ब्रह्मलोक तक नहीं पहुँचती, तब तक उसके अन्दर संसार-वृक्ष जीवित रहता है- जन्म-मृत्यु का क्रम, आवागमन, पुनरावर्तन बना रहता है।
यह पृथिवी, यह मनुष्य लोक है - यहाँ द्वैत है, द्वन्द्व है। यहाँ केवल प्रकाश या केवल अन्धकार नहीं है। यहाँ केवल पुण्य या केवल पाप नहीं है- इसमें दोनों सन्निहित हैं- उभाभ्यामेव मनुष्यलोकम्' 78इसीलिए यहाँ सम्भावनाएँ हैं। यहाँ परिवर्तन की किसी भी ऊर्ध्वता को अधिगत किया जा सकता है। रूपान्तर के किसी भी आयाम पर सक्रिय अन्वेषण और लक्ष्य को सिद्ध किया जा सकता है। मनुष्य की भाँति ही पृथिवी भी संक्रमणशील है। निरन्तर परिवर्तन के अन्दर गतिशील। पर मनुष्य इस पार्थिव धरा पर अमरत्व का आकांक्षी है और वह इसे चरितार्थ भी करता है। यही वह स्थल है, जहाँ दिव्यता को प्रतिष्ठित होना है। मनुष्य अपने रूपान्तर द्वारा इस पृथिवी पर रूपान्तर घटित कर सकता है। ‘भारतीय विचारणा में विकास पृथिवी पर है और यदि देवता भी अपने देवत्व से परे जाना चाहते हैं और मोक्ष के आकांक्षी हैं तो इस प्रयोजन के लिए उन्हें पृथिवी पर उतरना होगा।’82
🔱🙏Annexure-9.
>>>यह है हमारी पवित्र भूमि भारत माता, जिसकी महत्ता के गीत देवताओं ने इन शब्दों में गाए हैं:
गायन्ति देवाः किल गीतकानि , धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे ।
स्वर्गापवर्गास्पद् मार्गभूते , भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ॥
-विष्णुपुराण 2/3/24
[गायन्ति = गाते हैं। देवाः = देवतागण। किल = निश्चित ही। गीतकानि = गीतों को। भारतभूमि-भागे = भारत के भू-भाग पर। स्वर्गापवर्गास्पद-हेतुभूते = स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त कराने में साधनस्वरूप। भवन्ति = होते हैं। भूयः = फिर से। पुरुषाः = रूप में। सुरत्वात् = देवत्व का उपभोग करने के पश्चात्।।]
देवगण भी निरंतर यही गान करते हैं कि – जिन्होंने स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) के मार्ग पर स्थित भारतवर्ष में जन्म लिया है, वे पुरुष हम देवताओं की अपेक्षा भी अधिक धन्य (बड़भागी) हैं। (देवगण इस प्रकार गीत गाते हैं कि हम देवताओं से भी वे लोग धन्य हैं, जो स्वर्ग और अपवर्ग के लिए साधनभूत भारतभूमि में उत्पन्न हुए हैं। अर्थात देवता भी स्वर्ग में यह गान करते हैं --- धन्य हैं वे लोग जो भारत-भूमि के किसी भाग में उत्पन्न हुवे। वह भूमि स्वर्ग से बढ़कर है क्योंकि वहां स्वर्ग के अतिरिक्त अपवर्ग (मोक्ष) की साधना की जा सकती हैं। स्वर्ग में देवत्व भोग लेने के बाद देव मोक्ष की साधना के लिए कर्मभूमि भारत में फिर जन्म लेते हैं। स्वर्ग की कल्पना तो संसार के अनेक देशों में हुयी है। परन्तु मोक्ष की कल्पना भरतीय दर्शन की अपनी विशेषता है। सांसारिक सुखों से ऊपर उठकर स्वर्ग का सुख है , जिसकी ओर सब धर्म इंगित करते हैं। लेकिन भारत का धर्म ऐसा है जो उस सुख का भी त्याग करके मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग दिखता है। )
>>>अपवर्ग किसे कहते हैं (What is ApaVarg)? शब्द अपवर्ग (Salvation) का शाब्दिक अर्थ है 'मोक्ष' या मुक्ति। इस अवस्था को कैवल्य, निर्वाण आदि नामों से भी जाना जाता है। कवर्ग (कण्ठ से उच्चारित स्वर -Guttural voice) = क ख ग घ ङ। चवर्ग (तालु , तालव्य Palatal) = च छ ज झ ञ। टवर्ग (मूर्द्धा-Cerebral) = ट ठ ड ढ ण। तवर्ग (दन्त- Dental) = त थ द ध न। पवर्ग (ओष्ठ-Labial) = प फ ब भ म। अपवर्ग = अ + पवर्ग = जो पवर्ग नहीं है।लेकिन यहाँ पर 'अपवर्ग' के केवल शाब्दिक अर्थ को जान लेने से ही संतुष्टि नहीं मिलती। पवर्ग शब्द में “प फ ब भ म” का क्या अर्थ है ? प = पाप,फ = फल, ब = बन्धन, भ = भय, म = मृत्यु, अपवर्ग ऐसी अवस्था है, जिसमें पाप, फल, बन्धन, भय और मरण नहीं होता। अपवर्ग का गूढ़ अर्थ है -प्रवृत्ति-मार्ग से होकर निवृत्ति में स्थित हो जाने का सुख। जहाँ पतन, फल आशा, बंधन, भय, मृत्यु नहीं है, वही अपवर्ग सुख है, जो माँ जगदम्बा की कृपा का फल है। अर्थात निवृत्ति ही अपवर्ग है, यानि दुःख की उत्पत्ति के कारण का अभाव ही आत्यंतिक दु:खनिवृत्ति है।
न्याय दर्शन में बारहवाँ प्रमेय अपवर्ग है। दु:ख की आत्यन्तिक निवृत्ति ही अपवर्ग है। सुषुप्तिकाल में तथा प्रलय आदि में जो दु:ख की सामयिक निवृत्ति होती है, वह आत्यन्तिक दु:खनिवृत्ति नहीं है। जिस दु:ख की निवृत्ति के बाद पुन: कदापि जन्म नहीं हो अर्थात् दु:खोत्पत्ति के कारण का अभाव ही आत्यन्तिक दु:खनिवृत्ति है। इस अपवर्ग की प्राप्ति के उपाय न्यायदर्शन के द्वितीय सूत्र में वर्णित हैं। तत्त्वज्ञान के उदय से मिथ्याज्ञान नष्ट हो जाता है और मिथ्याज्ञान के अभाव में रागद्वेषात्मिका प्रवृत्ति नहीं होती है। प्रवृत्ति के अभाव में इस संसार में किसी का जन्म नहीं होता है और जब जन्म ही नहीं होगा तो दु:खों का भोग वहाँ कैसे किसको होगा। इस तरह तत्त्वज्ञान की प्रक्रिया से अपवर्ग का लाभ होता है।
यहाँ इसके उपसंहार में इतना कहना आवश्यक है कि इन बारह प्रमेयों में हेय और उपादेय का भी विचार किया गया है। शरीर आदि दु:खपर्यन्त दश प्रमेय हेय अर्थात् त्याज्य हैं। प्रथम और अन्तिम अर्थात् आत्मा और अपवर्ग उपादेय (ग्रहण करने योग्य) हैं। आत्मा का न तो उच्छेद संभव है और न तो उसका उच्छेद किसी का काम्य हो सकता है। अतएव वह उपादेय है। अपवर्ग तो आत्मा का परम तथा चरम लक्ष्य है, क्योंकि वही चिरस्थायी होता है, वह तो उपादेय है ही। दु:ख स्वभाव से ही अप्रिय होने से अवश्य हेय है।
मुमुक्षुओं के लिए इस प्रमेय पदार्थ का ज्ञान आवश्यक है। प्रकृष्ट - सर्वश्रेष्ठ, मेय-ज्ञेय= प्रमेय बारह प्रकार के यहाँ हे गये हैं[1]:-आत्मा- पहला प्रमेय है आत्मा,, जिसके इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दु:ख, और ज्ञान अनुमापक हेतु हैं।[2] शरीर- दूसरा प्रमेय शरीर है। आत्मा के प्रयत्न से जो क्रिया होती है उसका नाम है चेष्टा। इस चेष्टा का आश्रय शरीर होता है। इन्द्रिय- तीसरा प्रमेय इन्द्रिय है। यद्यपि छठां प्रमेय मनस भी इन्द्रिय है। तथापि मनस के विषय में विशेष ज्ञान के लिए यहाँ उसका पृथक् उल्लेख किया गया है। अर्थ- चौथा प्रमेय का नाम अर्थ है यह इन्द्रिय का अर्थ होता है। क्रमश: पाँच इन्द्रियों से ग्रहण करने योग्य पाँच विशेष गुण - गन्ध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द को इन्द्रियार्थ कहते हैं।[3]बुद्धि- पाँचवाँ प्रमेय बुद्धि है। ‘बुद्धयते येनेति बुद्धि:’ जिसके द्वारा ज्ञान होता है- इस अर्थ में निष्पन्न ‘बुद्धि’ शब्द यद्यपि जीव के अन्त:करण अथवा मनस का वाचक है।मन- छठा प्रमेय मनस है। जीव के सुख तथा दु:ख आदि के मानस-प्रत्यक्ष का कारण अन्तरिन्द्रिय मनस है।प्रवृत्ति- सातवाँ प्रमेय है प्रवृत्ति । मनुष्यों के शुभाशुभ कर्म[4] प्रवृत्ति पद से लिये जाते हैं।दोष- आठवाँ प्रमेय है दोष। जीवात्मा के राग, द्वेष और मोह इन तीनों को दोष कहते हैं।[5]प्रेत्यभाव- नवम प्रमेय है प्रेत्यभाव। इसका अर्थ होता है मरण के बाद जन्म।[6]फल- दसवाँ प्रमेय है फल। इसके दो प्रकार हैं- मुख्य और गौण।दु:ख- ग्यारहवाँ प्रमेय है दु:ख। दु:ख क्या है- इसके ज्ञान के बिना अपवर्ग-प्राप्ति का अधिकार ही नहीं बनता है।अपवर्ग- बारहवाँ प्रमेय अपवर्ग है। दु:ख की आत्यन्तिक निवृत्ति ही अपवर्ग है।[7]भाष्यकार ने वैशेषिक शास्त्र के पदार्थों को भी यहाँ प्रमेय में समाविष्ट किया है। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय आदि भी प्रमेय कहे गये हैं। इन पदार्थों के भेद-प्रभेद चूँकि असंख्य हैं, अतएव नैय्यायिकों को अनियत प्रमेयवादी कहा गया है। न्यायमत में प्रमेय अनन्त हैं, किन्तु उन प्रमेयों में आत्मा आदि उपर्युक्त बारह प्रमेयों का तत्त्वसाक्षात्कार सकल पदार्थविषयक मिथ्याज्ञान की निवृत्ति के द्वारा मुक्ति का साक्षात्कार होता है। अतएव इन्हें प्रमेय अर्थात् उत्कृष्ट ज्ञेय कहा गया है।
देवतागण हमेशा यही गीत गाते हैं कि स्वर्ग और मोक्ष को प्रदान करने वाले मार्ग पर स्थित भारत के लोग धन्य हैं । ( क्योंकि ) देवता भी जब पुनः मनुष्य योनि में जन्म लेते हैं तो यहीं जन्मते हैं । सनातन काल से मंत्रद्रष्टा, सत्यद्रष्टा ऋषि भारत-भूमि पर समय-समय पर आगमन करते रहे हैं, इसीलिए देवता भी इस भारतभूमि पर जन्म लेने को लालायित रहते हैं। क्योंकि इस अनन्त ‘कर्मभूमि’ में जन्म लेकर मनुष्य समस्त कर्मों को भगवद्-अर्पण करके, पवित्र होकर परमात्म तत्त्व में लय प्राप्त करते हैं। ‘मनुष्य केवल शरीर, प्राण और मन नहीं है, वह एक आत्मा है, जो स्वर्ग में नहीं, अपितु इस भूलोक में दिव्य सिद्धि (चरितार्थता-जीवनमुक्ति का आनन्द लेने ) के लिए अवतरित हुई है।-86 मनुष्य रूप में ‘यह आत्मा इसलिए इस पार्थिव भूमण्डल में अवतरित हुई है कि निम्न प्रकृति स्वयं को रूपान्तरित कर उच्च प्रकृति का रूप ले सके।’87साभार https://www.therazafoundation.org/sarshati-amarta-bharatee]
इस सांस्कृतिक मातृभूमि का भौतिक रूप विष्णु पुराण में इस प्रकार वर्णित है--
उत्तरम् यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षम् तद भारतम् नाम भारती यत्र सन्ततिः।।
[विष्णु पुराण 2.3.1]
अर्थात् समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो वर्ष स्थित है, उसका नाम भारत है और उसकी संतति को भारती कहते हैं।
पूर्व के समुद्र अर्थात बंगाल की खाड़ी एवं पश्चिम के रत्नाकर अरब-सागर के मिलन-स्थल के पास कुमारी अंतरीप है , जिसे कन्याकुमारी कहते हैं। वहां तप करती हुयी कुमारी पार्वती का मन्दिर है, जो अहर्निश उत्तर में कैलास पर ध्यानमग्न बैठे शिव की तपस्या कर रही है। देश की एकता की चेतन-प्राणधारा का इससे सुंदर रूप क्या हो सकता है ? इस देश का भरत नाम कैसे पड़ा , इस पर विचार करना है। महाभारत के आदि पर्व में कहा गया है कि भरत राजा के नाम से देश को भारत, प्रजाओं को भारती कहा गया। हस्तिनापुर के मुख्य राजवंश को भरत राजवंश और उसके राजाओं को भारत कहने लगे। प्राचीन काल से लेकर आज तक हर देश के एकीकरण में इसी भावना ने कार्य किया कि किस राजा ने सारा देश जीतकर उसे आदर्श शासन-व्यवस्था दी। जितने भरत ने अश्वमेध यज्ञ किए, उतने किसी दूसरे चक्रवर्ती ने नहीं किए और वे उस समय तक ज्ञात देश के हर भाग में किये। ये यज्ञ भी भारत के एक होने की कल्पना को मूर्त रूप देने में बड़े सहायक थे। ' अभिज्ञानशाकुंतलम' के अंक 7 के अंतिम श्लोक में कालिदास ने लिखा है कि इसी भरत के नाम से हमारा यह देश ' भारतवर्ष ' के नाम से प्रसिद्ध हुवा।
मनुस्मृति के अनुसार—
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥
(मनुस्मृति 2.20)
अर्थात् इस प्रदेश में जन्मे अग्रजमाओं (ब्राह्मणों) से पृथिवी के सभी मानव अपने-अपने लिए चरित्र की शिक्षा प्राप्त करते हैं।
आदिकाल से लेकर वर्तमान काल तक ऋषियों, मुनियों , महापुरुषों ने अपने तपोबल से इस भारत भूमि को सींचा है। यह ऋषियों का सातत्य और महापुरुषों की तपस्या का ही परिणाम है कि अनेक आक्रमण होने के पश्चात भी आक्रमणकारी कभी भी भारत को वैचारिक रूप से खण्डित नहीं कर सके। अखण्ड सनातन संस्कृति का विचार जैसे- 'वसुधैव कुटुंबकम', 'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया:', 'सत्यमेव जयते', 'तत्त्वमसि', 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' आदि महावाक्य प्राचीन काल से वर्तमान काल तक प्रत्येक भारतवासी के मानस में निरंतर गतिशील हैं और यह प्रवाह आगे भी इसी प्रकार बना रहेगा।
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥4॥
भावार्थ
हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हुए) उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव (क्षण) मात्र के सत्संग से होता है॥4॥
किसी नारी को अमुक की 'औरत', 'पत्नी' अथवा अमुक की ‘मिसेज’ कहकर पुकारना पाश्चात्य रीति है। भारतीय संस्कृति में किसी महिला को पुकारने की सम्मानपूर्ण रीति यह है कि उसे उसके ज्येष्ठ पुत्र या पुत्री के नाम से पुकारा जाए। जब किसी स्त्री के एक से अधिक पुत्र-पुत्री होते हैं, तब हम उसे उसकी ज्येष्ठ संतान पुत्र/पुत्री (अहेहे, सुशीलवा के मईया ) के नाम से अथवा सबसे अधिक ख्यातिप्राप्त संतान के नाम से पुकारते हैं। जैसे हम कहा करते हैं, ‘वह रामू की माँ है।’ यही बात हमारी मातृ-भूमि भारत के नाम के विषय में भी लागू होती है। वास्तव में ‘भारत’ नाम ही निर्देश करता है कि यह हमारी माँ है।
इस देश का भरत नाम कैसे पड़ा , इस पर विचार करना है। महाभारत के आदि पर्व में कहा गया है कि भरत राजा के नाम से देश को भारत, प्रजाओं को भारती कहा गया। हस्तिनापुर के मुख्य राजवंश को भरत राजवंश और उसके राजाओं को भारत कहने लगे। प्राचीन काल से लेकर आज तक हर देश के एकीकरण में इसी भावना ने कार्य किया कि किस राजा ने सारा देश जीतकर उसे आदर्श शासन-व्यवस्था दी। जितने भरत ने अश्वमेध यज्ञ किए, उतने किसी दूसरे चक्रवर्ती ने नहीं किए और वे उस समय तक ज्ञात देश के हर भाग में किये। ये यज्ञ भी भारत के एक होने की कल्पना को मूर्त रूप देने में बड़े सहायक थे। ' अभिज्ञानशाकुंतलम' के अंक 7 के अंतिम श्लोक में कालिदास ने लिखा है कि इसी भरत के नाम से हमारा यह देश ' भारतवर्ष ' के नाम से प्रसिद्ध हुवा। भरत ख्यातिप्राप्त थे, इसलिए यह भूमि उनकी माता कही गई।
>>>भारत के बारे में विभिन्न महापुरुषों के वचन :
— अमरीकी इतिहासकार विल्ल डुरान्ट (Will Durant), " भारत हमारी संपूर्ण (मानव) जाति की जननी है तथा संस्कृत यूरोप के सभी भाषाओं की जननी है : भारतमाता हमारे दर्शनशास्त्र की जननी है , अरबॊं के रास्ते हमारे अधिकांश गणित की जननी है , बुद्ध के रास्ते ईसाइयत आदर्शों की जननी है , ग्रामीण समाज के रास्ते स्व-शासन और लोकतंत्र की जननी है । अनेक प्रकार से भारत माता हम सबकी माता है ।"
अमेरिका में चीन के भूतपूर्व राजदूत — हू शिह कहते हैं, "भारत अपनी सीमा के पार एक भी सैनिक भेजे बिना चीन को जीत लिया और लगभग बीस शताब्दियों तक उस पर सांस्कृतिक रूप से राज किया ।"
स्वामी विवेकानन्द जैसे ऋषियों के माध्यम से सम्पूर्ण मानवजाति को अपवर्ग का ज्ञान देने वाली माँ सारदा हैं ! उन्हीं की शिक्षाओं से प्रेरित होकर स्वामी विवेकानन्द ने भारत भूमि को पुण्यभूमि कहा था क्योंकि उन्होंने जगन्माता, आदिशक्ति ! महामाया! महादुर्गा! को दिव्य जननी-माँ सारदा के जीवन्त मूर्तरूप में आविष्कृत कर प्रत्यक्ष किया और कहा था -अहो! यही हमारी तेजस्विनी मातृभूमि ही माँ सारदा के रूप में आविर्भूत होकर सम्पूर्ण मानवजाति की माँ बनी है। इस तरह स्वामीजी ने भारतवासियों को माँ सारदा और श्रीरामकृष्ण को अपने प्रत्यक्ष माता-पिता के रूप में दर्शन-पूजन का हमें अवसर प्रदान किया है। -यह भूमि, जिसका वंदन स्वतंत्रता के उद्घोषक कवि बंकिमचंद्र ने अपने अमर गीत ‘वन्दे मातरम्’ में किया है। जिसने सहस्रों युवा हृदयों को स्फूर्त कर स्वतंत्रता की प्राप्ति हेतु आनंदपूर्वक फाँसी के तख्ते पर चढ़ने की प्रेरणा दी- ' यह भूमि जो अनंत काल से हमारी प्यारी पावन भारत माता है, जिसका नाम मात्र हमारे हृदयों को शुद्ध सात्विक भक्ति की लहरों से आपूर्ण कर देता है।-
'त्वं हि दुर्गा दश प्रहरण धारिणी’
वन्दे मातरम्- हे माते, मैं तुम्हें वंदन करता हूं ।
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
शस्यशामलां मातरम् ।
शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीं
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीं
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीं
सुखदां वरदां मातरम् ।। १ ।। वन्दे मातरम् ।
जलसमृध्द तथा धनधान्यसमृध्द दक्षिण के मलय पर्वत के ऊपर से आनेवाली वायुलहरों से शीतल होनेवाली तथा विपुल खेती के कारण श्यामलवर्ण बनी हुई, हे माता ! चमकती चांदनियों के कारण यहांपर रातें उत्साहभरी होती हैं, फूलों से भरे हुए पौधों के कारण यह भूमि वस्त्र परिधान किए समान शोभनीय प्रतित होती है । हे माता, आप निरंतर प्रसन्न रहनेवाली तथा मधुर बोलनेवाली, वरदायिनी, सुखप्रदायिनी हैं !
कोटि-कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले,
कोटि-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,
अबला केन मा एत बले ।
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं
रिपुदलवारिणीं मातरम् ।। २ ।। वन्दे मातरम् ।
तीस करोड मुखों से (अब 140 करोड़ मुखों से) निकल रही भयानक गरजनाएं तथा साठ करोड हाथों में चमकदार तलवारें होते हुए, हे माते आपको अबला कहने की धृष्टता कौन करेगा? वास्तव में माते, आप में सामर्थ्य हैं । शत्रुसैन्यों के आक्रमणों को मुंह-तोड जवाब देकर हम संतानों का रक्षण करनेवाली हे माता, मैं आपको प्रणाम करता हूं ।
तुमि विद्या, तुमि धर्म
तुमि हृदि, तुमि मर्म
त्वं हि प्राणा: शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गडि मन्दिरे-मन्दिरे
मातरम् ।। ३ ।। वन्दे मातरम् ।
आपसे ही हमारा ज्ञान, चरित्र तथा धर्म है । आपही हमारा हृदय तथा चैतन्य हैं । हमारे प्राणों में भी आप ही हैं । हमारी कलाईयोंमें (मुठ्ठी में) शक्ति तथा अंत:करण में काली माता भी आपही हैं । मंदिरों में हम जिन मूर्तियों की प्रतिष्ठापना करते हैं, वे सभी आप के ही रूप हैं ।
त्वं हि दुर्गा दश प्रहरण धारिणी,
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्
नमामि कमलां अमलां अतुलां सुजलां सुफलां मातरम् ।। ४ ।।
वन्दे मातरम् ।
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषितां
धरणीं भरणीं मातरम् ।। ५ ।।
वन्दे मातरम् ।
अपने दस हाथों में दस शस्त्र धारण करनेवाली शत्रुसंहारिणी दुर्गा भी आप तथा कमलपुष्पों से भरे सरोवर में विहार करनेवाली कमलकोमल लक्ष्मी भी आपही हैं । विद्यादायिनी सरस्वती भी आप ही हैं । आपको हमारा प्रणाम है । माते, मैं आपको वंदन करता हूं । ऐश्वर्यदायिनी, पुण्यप्रद तथा पावन, पवित्र जलप्रवाहों से तथा अमृतमय फलों से समृद्ध माता आपकी महानता अतुलनीय है, उसे कोई सीमा ही नहीं हैं । हे माते, हे जननी हमारा तुम्हें प्रणाम है ।
– बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय
यह भूमि, जिसकी पूजा हमारे सभी संत-महात्माओं ने मातृभूमि, धर्मभूमि, कर्मभूमि एवं पुण्यभूमि के रूप में की। यह वास्तव में वेद-भूमि और मोक्षभूमि है।-यह भूमि, जिसकी स्तुति हमारे कवि गुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने रचनाकाल: सन 1930 में गाया था -
" अयि! भुवन मन मोहनी
निर्मल सूर्य करोज्ज्वल धरणी
जनक-जननी-जननी।।
अयि...
अयि! नील सिंधु जल धौत चरण तल
अनिल विकंपित श्यामल अंचल
अंबर चुंबित भाल हिमाचल
अयि! शुभ्र तुषार किरीटिनी।।
अयि...
प्रथम प्रभात उदय तव गगने,
प्रथम साम रव तव तपोवने।
प्रथम प्रचारित तव नव भुवने,
कत वेद काव्य काहिनी।।
अयि...
चिर कल्याणमयी तुमि मां धन्य,
देश-विदेश वितरिछ अन्न
जाह्नवी, यमुना विगलित करुणा
पुन्य पीयूष स्तन्य पायिनी।।
अयि...
🔱🙏Annexure-9.
>>>माया और योग माया : भारत के तत्त्वचिन्तक ऋषियों ने वैज्ञानिक विचार पद्धति से इसका वर्णन किया है कि किस प्रकार सनातन पूर्ण पुरुष प्रकृति की जड़ उपाधियों के संयोग से इस नानाविध सृष्टि के रूप में व्यक्त हुआ है। यदि एक बार मनुष्य प्रकृति और पुरुष या जड़ और चेतन का भेद स्पष्ट रूप से समझ ले तो वह यह भी सरलता से समझ सकेगा कि जड़ उपाधियों के साथ आत्मा का तादात्म्य ही उसके सब दुखों का कारण है। स्वाभाविक ही इस मिथ्या तादात्म्य की निवृत्ति होने पर वह स्वयं अपने स्वरूप को पहचान सकता है जो पूर्ण आनन्दस्वरूप है। आत्मा और अनात्मा के परस्पर तादात्म्य से जीव उत्पन्न होता है।
यही संसारी दुःखी जीव जब " गुरु-शिष्य परम्परा या 'Be and Make वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन " में श्रद्धा और विवेक का प्रयोग करना सीखकर, अपने आत्मसाक्षात्कार के अनुभव से या आत्मानात्म- विवेक से यह समझ पाता है कि वह तो वास्तव में जड़ प्रकृति का अधिष्ठान अविनाशी चैतन्य पुरुष है, नश्वर जीव नहीं, स्वयं ब्रह्म है।
वैदिक काल के महान् मनीषियों ने जगत् की उत्पत्ति पर सूक्ष्म विचार करके यह बताया है कि जगत् जड़ पदार्थ (प्रकृति) और चेतनतत्त्व (पुरुष) के संयोग से उत्पन्न होता है। उनके अनुसार पुरुष की अध्यक्षता में जड़ प्रकृति से बनी शरीरादि उपाधियाँ चैतन्ययुक्त होकर समस्त व्यवहार करने में सक्षम होती हैं। अर्जुन को जड़ और चेतन का भेद स्पष्ट करने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण प्रथम प्रकृति के आठ भागों को बताते हैं जिसे यहाँ अष्टधा प्रकृति कहा गया है। इस विवेक से प्रत्येक व्यक्ति अपने शुद्ध और दिव्य स्वरूप को पहचान सकता है। आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी वे पंचमहाभूत तथा मन बुद्धि और अहंकार यह है अष्टधा प्रकृति जो परम सत्य के अज्ञान के कारण उस पर अध्यस्त (कल्पित) है। गीता ७.४
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।7.4।।
"पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, (पंच महाभूत) तथा मन, बुद्धि और अहंकार - ऎसे यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो मेरी (भगवान की) जड़ स्वरूप अपरा माया है। "
यहाँ मन से उसके कारणभूत अहंकार का ग्रहण किया गया है तथा बुद्धि अर्थात् अहंकार का कारण महत्तत्त्व अर्थात् अविद्यायुक्त अव्यक्त मूलप्रकृति है। जैसे विषयुक्त अन्न भी विष ही कहा जाता है वैसे ही अहंकार और वासना से युक्त अव्यक्त मूलप्रकृति भी अहंकार नाम से कही जाती है क्योंकि अहंकार सबका प्रवर्तक है। संसार में अहंकार में ही सब की प्रवृत्ति का बीज देखा गया है। इस प्रकार यह उपर्युक्त प्रकृति अर्थात् मुझ ईश्वर की माया शक्ति आठ प्रकार से भिन्न है विभाग को प्राप्त हुई है।
व्यष्टि (एक जीव) में स्थूल पंचमहाभूत का रूप है स्थूल शरीर तथा उनके सूक्ष्म भाव का रूप पंच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं जिनके द्वारा मनुष्य बाह्य जगत् का अनुभव करता है। ज्ञानेन्द्रियाँ ही वे कारण हैं जिनके द्वारा विषयों की संवेदनाएं मन तक पहुँचती हैं। इन प्राप्त संवेदनाओं का वर्गीकरण तथा उनका ज्ञान और निश्चय करना बुद्धि का कार्य है। इन्द्रियों द्वारा विषय ग्रहण मन के द्वारा उनका एकत्रीकरण तथा बुद्धि के द्वारा उनका निश्चय इन तीनों स्तरों पर एक अहं वृत्ति सदा बनी रहती है जिसे अहंकार कहते हैं। ये जड़ उपाधियाँ हैं जो चैतन्य का स्पर्श पाकर चेतनवत् व्यवहार करने में समर्थ होती हैं।
हमारा मन-बुद्धि माया का बना है, इसलिए हमारे विचार भी माया के अंतर्गत होते है। बहुत संक्षेप में माया के बारे में कहें तो हर वो चीज जो हम सुनते है, स्पर्श करते है, सोचते है, बोलते है, देखते है, सब माया है। यह संसार माया का है और इस संसार में स्वर्ग, नर्क और पृथ्वीलोक हैं।अर्थात स्वर्गलोक, नर्कलोक और पृथ्वीलोक माया के बने है। गुण माया को प्रकृति माया भी कहते है। गीता७.१४
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।7.14।।
"मेरी (भगवान की) यह गुणमयी दैवी माया बड़ी दुरत्यय है अर्थात् इससे पार पाना बड़ा कठिन है। जो केवल मेरे ही शरण है, तो ये माया चली जाएगीं।" गुण माया यह भगवान की शक्ति हैं, यह भगवान की शक्ति पाकर अपना काम करती हैं। तो क्योंकि हम जीव (आत्मा) की शक्ति वाले है, हमारी शक्ति भगवान की शक्ति से काम है इसलिए माया को हम नहीं हटा सकतें। इसलिए हमे केवल मे भगवान के शरण में जाना होगा। जो साधक मेरी शरण में आते हैं वे माया को तर जाते हैं। शरण से तात्पर्य भगवान् के स्वरूप को पहचान कर तत्स्वरूप बन जाना है। एकाग्र चित्त होकर आत्मस्वरूप (मूर्त आदर्श श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द, नवनीदा या किसी अवतार) का ध्यान करना यह साक्षात् साधन है और ध्यान के लिए आवश्यक योग्यता प्राप्त करने के उपाय भी पहले बताये गये हैं।
'अविद्या माया' व्यष्टि (एक व्यक्ति) में कार्य कर रही माया को ही 'अविद्या माया' कहते हैं। एक वाक्य में कहें तो व्यष्टि माया जड़ है। जैसे एक कुल्हाड़ी। कुल्हाड़ी अपने आप कुछ नहीं कर सकती। वैसे ही माया अपने आप कुछ नहीं कर सकती। जब लकड़हारा उस कुल्हाड़ी को उठा कर तने पर प्रहार करता है। तब वह कुल्हाड़ी लकड़ी काटती है। वैसे ही माया भगवान की शक्ति पाकर काम करती हैं। इस का अर्थ है, अविद्या माया वहीं होगी जहां भगवान नहीं होंगे। वेद शास्त्र कहते हैं कि यह संसार माया से बना है। और वेद शास्त्र यह भी कहते है कि संसार भगवान से बना है। तो इन दोनों में कौन सी बात सही है? दोनों बातें सही है। यह संसार भगवान और माया दोनों के मिलन से बना है। यह माया के अंदर भगवान व्याप्त हुए है। तुलसीदस कहते है "घट-घट व्यापक राम" अर्थात राम एक एक कण में व्यापक/व्याप्त है; अर्थात राम माया के एक एक कण में व्यापक है। अर्थात भगवान माया के साथ रहते हैं, माया के एक-एक कण में रहते हैं। भगवान माया में व्याप्त है। अविद्या माया (व्यष्टि माया) की दो प्रकार की शक्ति होती हैं!
१. तमोगुण माया की आवरण शक्ति - यह शक्ति जीव (आत्मा) का अपना स्वरूप भुला देती है। हम आत्मा है यह भुला दिया और देहाध्यास करा दिया।
२. रजोगुण माया की विक्षेप शक्ति - माया ने संसार (कामिनी -कांचन और नामयश ) में आसक्ति करा दी। अर्थात माया ने संसार में हमारे मन को लगा दिया। हम M/F हैं यह पक्का विश्वास करा दिया। यह जीव-माया को अपरा या अविद्या माया भी कहते हैं। इस माया का प्रभाव हमारे मन पर होता है, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष एवं भय यह योग माया के कारण हम लोगों पर हावी हैं। काम का अर्थ है- पुत्रैषणा अर्थात स्त्री अथवा पुरुष संभोग की चाह, वित्तैषणा अर्थात धन कमाने की चाह, लोकैषणा यानी यश कमाने की चाह और क्रोध, लोभ, मोह आदि।
जो कुछ भी दिखाई दे रहा है वह कुछ भी अपनी जगह पर स्थिर नहीं है हर पल हर क्षण वह परिवर्तनशील है। तो सत्य कैसे हो सकता है ऐसे लोग जीवन भर माया के वशीभूत होकर दुख पाते हैं और अंत में सर धुन धुन कर पछताते हैं।
* बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥4॥
भावार्थ:-बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनता से मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,॥4॥
* सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताई।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ ॥43॥
भावार्थ:-वह परलोक में दुःख पाता है, सिर पीट-पीटकर पछताता है तथा (अपना दोष न समझकर) काल पर, कर्म पर और ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है॥43॥
* एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥1॥
भावार्थ:-हे भाई! इस शरीर के प्राप्त होने का फल विषयभोग नहीं है (इस जगत् के भोगों की तो बात ही क्या) स्वर्ग का भोग भी बहुत थोड़ा है और अंत में दुःख देने वाला है। अतः जो लोग मनुष्य शरीर पाकर विषयों में मन लगा देते हैं, वे मूर्ख अमृत को बदलकर विष ले लेते हैं॥1॥
जो कुछ भी नेत्रों से दिखाई दे रहा है (कामिनी -कांचन) वह सब असत्य है सत्य से परे है यह संसार ही माया है। माया में व्यक्ति इतना आसक्त हो गया है की माया को व्यक्ति स्वयं छोड़ना नहीं चाह रहा और कहता है कि छूटता नहीं। जबकि वह स्वयं इसको पकड़े हुए हैं ना कि माया व्यक्ति को पकड़े हैं। बंदर के शिकारी बंदर को पकड़ने के लिए छोटे मुंह का मटका आधा जमीन में गाड़ देते हैं और आधा चने से भर देते हैं। बंदर अधिक चने को पाने की लालच में जब मुट्ठी भर कर हाथ निकालता है तो मटके का मुंह छोटा होने के कारण हाथ बाहर नहीं निकलता। और सोचता है कि किसी ने हम को पकड़ लिया यही हाल आज व्यक्ति का है।
[>>> ‘योगमाया’ : भगवान की अचिन्त्य शक्ति का नाम ‘योगमाया’ या ‘महामाया’ है । ‘अचिन्त्य’ का अर्थ होता है अचिंतनीय (unthinkable) । भगवान की लीला के लिए पहले से ही मंच, पात्र आदि तैयार कर देना, संसारी जीवों के सामने भगवान की भगवत्ता को छुपा कर रखना आदि काम योगमाया ही करती हैं । जैसे श्री कृष्ण के जन्म के समय सब कारागार के सिपाही सो गए। ताले खुल गए अपने आप। यमुना ने मार्ग दे दिया। ये सब असंभव कार्य है। (जैसे सूर्य का उगना, फूल का खिलना) इसलिए ये कार्य योग-माया से हुआ है। पौराणिक धर्म ग्रंथों और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार 'योगमाया' देवी शक्ति हैं। भगवान श्रीकृष्ण योग योगेश्वर हैं तो भगवती योगमाया हैं। इनकी साधना भुक्ति (स्वर्ग) और मुक्ति (अपवर्ग) दोनों ही प्रदान करने वाली है। इसी योगमाया के प्रभाव से समस्त जगत् आवृत्त है। जगत् में जो भी कुछ दिख रहा है, वह सब योगमाया की ही माया है। ये भगवान की अंतरंग शक्ति है। भगवान के सारे काम योग माया से होते है। आप जितने भी लीला पढ़ते है। ये सारे लीला योग माया के द्वारा होते है। जब भी कभी असम्भव काम लीला में भगवान करे तो समझना योग-माया से यह काम हुआ है।
कथा के अनुसार देवकी के सप्तम गर्भ को योगमाया ने ही संकर्षण कर रोहिणी के गर्भ में पहुँचाया था, जिससे बलराम का जन्म हुआ था। योगमाया ने यशोदा के गर्भ से जन्म लिया था। इनके जन्म के समय यशोदा गहरी निद्रा में थीं और उन्होंने इस बालिका को देखा नहीं था। कारागार में देवकी के आठवें पुत्र के जन्म लेने के उपरांत वसुदेव ने उसे नन्द के यहाँ यशोदा के पास लिटा दिया, जिससे बाद में आँख खुलने पर यशोदा ने बालिका के स्थान पर पुत्र को ही पाया। वसुदेव बालिका को लेकर मथुरा वापस आ गये और जब कंस ने उस बालिका को मारना चाहा तो वह हाथ से छूट कर आकाशवाणी करती हुई (माँ बिंध्यवासिनी 'बंदी मईया' बिंध्याचल पर्वत पर) चली गई।
भगवान जब मनुष्य के रूप में अवतरित होते हैं तब जैसे बहुरूपिया किसी दूसरे स्वांग में लोगों के सामने आता है, उस समय अपना असली रूप छिपा लेता है; वैसे ही भगवान [या समाधि से लौटे हुए नवनीदा को पूर्वजन्म में कैप्टन सेवियर थे याद रहता है। ] अपनी योगमाया को चारों ओर फैलाकर स्वयं उसमें छिपे रहते हैं । साधारण मनुष्यों की दृष्टि उस माया के परदे से पार नहीं जा सकती; इसलिए अधिकांश लोग उन्हें अपने जैसा ही साधारण मनुष्य मानते हैं । गीता (७।२५) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘मैं सबके सामने प्रकाशित क्यों नहीं होता, लोग मुझे पहचानते क्यों नहीं ? क्योंकि मैं योगमाया से अपने को ढका रखता हूँ ।’
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।7.25।।
[अपनी योगमाया से आवृत्त मैं सबको प्रत्यक्ष नहीं होता हूँ। यह मोहित लोक (मनुष्य) मुझ जन्मरहित, अविनाशी को नहीं जानता है।। आचार्य शंकर अपने भाष्य में उनका वह अज्ञान किस कारण से है सो बतलाते हैं- तीनों गुणों (जस्ता,ताम्बा, टीन के बने जर्मनसिल्वर) के मिश्रण का नाम योग है और वही माया है। उस योगमाया से आच्छादित हुआ मैं समस्त प्राणि-समुदाय के लिये प्रकट नहीं रहता हूँ। अभिप्राय यह कि किन्हीं-किन्हीं भक्तों के लिये ही मैं प्रकट होता हूँ। इसलिये यह मूढ़ जगत् ( प्राणिसमुदाय ) मुझ जन्मरहित अविनाशी परमात्मा को नहीं जानता।
योगमाया से मोहित यह जगत् मुझ अव्यय स्वरूप को नहीं जानता। मानो नाम और रूप की इस सृष्टि ने आत्मा को आवृत्त कर दिया है। यह आवरण उसी प्रकार का है जैसे प्रेत स्तम्भ को मृगमरीचिका रेत को और तरंगे समुद्र को आच्छादित कर देती हैं।
जब कोई जिज्ञासु सत्यार्थी (साधक) वेदान्त प्रतिपादित सिद्धांतों (4 -महावाक्यों) का अध्ययन करता है तो स्वाभाविक ही उसके मन में यह प्रश्न उठता है कि -मुझ में और मेरे स्वरूप के मध्य कौन सा आवरण पड़ा हुआ है ? भगवान् कहते हैं यह मोहित जगत् मुझ अजन्मा अविनाशी को नहीं जानता है क्योंकि उनके लिए मैं त्रिगुणात्मिका योगमाया से आच्छादित रहता हूँ।
>>>व्यष्टि (एक व्यक्ति) में कार्य कर रही माया ही अविद्या माया है। जब वेदान्त के प्रारम्भिक विद्यार्थी 'माया' को एक बाह्य-वस्तु के रूप में समझने का प्रयत्न करते हैं तब उसे समझने में अत्यन्त कठिनाई होती है। परन्तु जब वे आध्यात्मिक-दृष्टि से विचार करते हैं अर्थात् अपने ही अन्तकरण में माया किस प्रकार कार्य करती है ? ऐसा विचार करते हैं तो माया का सिद्धांत स्पष्ट हो जाता है। माया किसी प्रिज्म के समान ऐसी उपाधि है जिसके माध्यम से अवर्ण अद्वैत स्वरूप तत्त्व जब व्यक्त होता है, तब सप्तरंगी प्रकाश के समान वह नानाविधि सृष्टि के रूप में प्रतीत होता है। व्यष्टि (एक व्यक्ति) में कार्य कर रही माया को ही अविद्या कहते हैं। ऋषियों ने इस अविद्या का जो कि जीव के सब दुखों का कारण है। ऋषियों ने माया सूक्ष्म अध्ययन किया और यह उद्घाटित किया कि यह तीन गुणों से युक्त है जो मनुष्य को प्रभावित करते हैं।
ये तीन गुण हैं सत्त्व रज और तम जो एक prism का सा काम करते हैं और जिनके माध्यम से हमें इस बहुविधि सृष्टि का अनुभव होता है। रजोगुण का कार्य है विक्षेप और तमोगुण का कार्य बुद्धि पर पड़ा आवरण है। त्रिगुणों के विकारों से मोहित और भ्रान्त (hypnotized) पुरुष को आत्मा का साक्षात् ज्ञान (आत्मसाक्षात्कार) नहीं होता। उस आत्मज्ञान के लिए गुरु-शिष्य परम्परा [स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर 'Be and Make' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित और C-IN-C का चपरास प्राप्त आचार्य नवनीदा] के उपदेश तथा स्वयं की (मनःसंयोग की) साधना की आवश्यकता होती है।
जैसे किसी ग्रामीण अनपढ़ व्यक्ति को बिजली के बल्ब में Electricity का अभाव प्रतीत होता है, क्योंकि वह अव्यक्त होती है। उस Electricity के प्रवाह को प्रत्यक्ष अनुभव करने के लिए-विद्युत शक्ति का सैद्धान्तिक ज्ञान 'theoretical knowledge of electric power' तथा प्रत्यक्ष और सुरक्षित प्रयोग के लिए किसी 'electric tester' की अपेक्षा होती है। एक बार विद्युत शक्ति के गुणधर्म का ज्ञान हो जाने पर यदि वह मनुष्य उसी बल्ब में प्रकाश देखे तो उसे अव्यक्त विद्युत का ज्ञान तत्काल हो जाता है। इसी प्रकार गुरु-शिष्य परम्परा में अष्टांगयोग (मनःसंयोग) के प्रशिक्षण और विधिवत अभ्यास [आत्मसंयम (यम-नियम) और आसन, प्रत्याहार-धारणा के श्रवण मनन और निदिध्यासन] के द्वारा जब साधक का चंचल मन प्रशान्त हो जाता है, तब आवरण और विक्षेप के अभाव में वह मुझ अजन्मा अविनाशी स्वरूप को पहचान लेता है। अज्ञानी जीव विषय-उपभोगों (नीचे की दुनिया -कामिनी और कांचन) में नित्य सुख की खोज तभी तक करता है जब तक आवरण और विक्षेप की निवृत्ति नहीं हो जाती। कामाग्नि में सुलगते, दरिद्रता की निराशा में जकड़े धन-सम्पत्ति के असन्तोष से कुचले और मृत्यु (आत्मनाश-प्रलय ) के भय से व्याकुल उन्मत्त और संत्तप्त मन (अहं) में समता (साम्यभाव) और एकाग्रता कदापि नहीं हो सकती, कि वह क्षणभर के लिए भी आत्मा का शुद्ध स्वरूप अनुभव कर सके।
विद्वानों ने योगमाया के अनेक अर्थ किए हैं । जैसे—भगवान से बिछड़े हुए संसारी जीवों का भगवान के साथ योग कराने, मिलाने के लिए भगवान के हृदय में जो कृपा है, वह योगमाया है । योगमाया है मुरली नाद । योगमाया श्रीराधारानी हैं ??? व्रज में योगमाया ‘मां कात्यायनी’ के नाम से जानी जाती हैं । व्रज में श्रीधाम वृन्दावन में श्रीराधा बाग स्थित केशवाश्रम में विराजमान मां कात्यायनी श्रीकृष्ण की कृपाशक्ति का ही नाम है । मनुष्य को यदि सौभाग्य, शोभा, सम्पत्ति की कामना हो तो उसे महामाया मां कात्यायनी का दर्शन, सेवा, पूजन, प्रणाम और भजन करना चाहिए । योगमाया मां कात्यायनी ने सभी के मनोरथ पूर्ण किए हैं । व्रज गोपियों ने मां कात्यायनी से अपना अभीष्ट वर मांगा—
कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि ।
नन्दगोपसुतं देवी पतिं मे कुरु ते नम: ।। (श्रीमद्भागवत, १०-२२-४)
अर्थात्—हे कात्यायनि ! हे महामाये ! हे महायोगिनि ! हे अधीश्वरि ! हे देवि ! नन्दगोपकुमार श्रीकृष्णचन्द्र को हमारा पति बना दीजिए । हम श्रद्धापूर्वक आपको प्रणाम करती हैं ।
[साभार https://bhagavatam.in/#gsc.tab=0]
दु:ख संतप्त मनुष्य का श्रीकृष्ण से अटूट सम्बन्ध कराने में जिनकी कृपा-शक्ति परम आवश्यक है, उन्हीं मां कात्यायनी का आश्रय लेकर मनुष्य परमात्मा श्रीकृष्ण की अविचल भक्ति प्राप्त कर सकता है और जन्म-जन्मान्तरों के कर्म-बंधनों को काटकर भगवान श्रीकृष्ण को प्राप्त कर सकता है ।
भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी योगेश्वर श्रीकृष्ण के प्राकट्य के साथ-साथ उनकी योग शक्ति योगमाया के प्राकट्य का भी दिन है। लीला पुरुषोत्तम की समस्त लीलाएं जन कल्याण के लिए होती हैं और आद्यशक्ति योगमाया उन लीलाओं का संपादन करती हैं। देवी योगमाया का अवतार श्री कृष्ण के अवतार के साथ ही होता है. देवकी के गर्भ में आने से पूर्व ही भगवान कृष्ण, योगमाया से कहते हैं- हे देवी जब मैं वसुदेव-देवकी के पुत्र के रूप में जन्म लूंगा, उस समय आप भी नंद-यशोदा की पुत्री के रूप में जन्म लेना। ” कहा जाता है कि देवी योगमाया का जन्म, भगवान कृष्ण से पहले हुआ था. ऐसे में वे उनकी बड़ी बहन थीं।
महारास प्रसंग के समय रास पंचाध्यायी के प्रथम श्लोक में श्री शुकदेव जी कहते हैं- “योगमायामुपाश्रिता” अर्थात योगमाया का ही आश्रय ग्रहण कर भगवान श्रीकृष्ण ने महारास की इच्छा की। यही देवी योगमाया लोक में भद्रकाली, दुर्गा, वैष्णवी, कुमुदा, चंडिका, कृष्णा, वृंदा, विजया, माधवी, कन्या, माया, नारायणी, अंबिका, शारदा इत्यादि नामों से विख्यात हुईं। आज अनेक स्थानों पर इनकी पूजा की जाती है।]
🔱🙏Annexure-10.
>>>त्रिगुण और राधा : त्रिगुणात्म शक्ति -सत् रज तम। नाम से हम परिचित ही है पर रहस्य से नहीं ...सत, रज, तम का उद्देश्य स्वरुपतः हमारे निवृति हेतु ही होता है ... वरन् ईश्वर निर्गुणात्मक ही पुर्ण है। सीता माँ लक्ष्मी स्वरुप है पर सात्विक और निर्गुण दोनों है। नील सरस्वति और महाविद्यायें - सत रज तम तीनों के अनुरुप प्रभावी होती है। किसी भी स्वरुप में आप आरधना करें आराध्या की परन्तु समता का भाव हो ... श्रेष्ठता का नहीं। आद्यशक्ति का कोई भी स्वरुप हो। है प्रकृति हेतु। जीवन हेतु।राधा प्रेमियों में सद्भाव ना हो और तांत्रिक में हो तो वो तांत्रिक ही श्रेष्ठ है। अत: वैचारिक बंधे नहीं खुलें। नमन करने मात्र से आपका प्रेम नहीं चला जाता। वरन् आप अन्यत्र प्रेम के हेतु विकारों से सुरक्षा का आवरण चाह सकते है ... राधा स्वयं विनम्रता की पराकाष्ठा से परे है। स्वामी विवेकानन्द जैसे से सौम्य काली भक्त भी हुये है। राधा प्रेमियों में सजीव सौम्यता-विनम्रता आवश्यक है। तीनों गुणों का जीवंत छुट जाना ही राधा का हो पाना है। चाह रही तो तीन में से कोई एक पथ है आपका राधा के पथ में चाह है ही नहीं।
>>>महाकाली तामसिक शक्ति: बनी है हमारे रक्षण के लिए । तामसिक विकारों के लिये महाकाली की शरण आवश्यक है। तामसिक विकार ना हो यें सहज नहीं। शरीर में ही सत रज तम व्याप्त है। अहंकार - द्वेष - क्रोध तमोगुणी है। आप सात्विक हो सकते है कह सकते है तमोगुण स्वरुप को नमन ना ही करुं परन्तु निर्विकल्प आद्यशक्ति जिसका मूल स्वरुप निराकार प्रकृति ही है वह तामसिक हुई है तो जगत्-हेतु। अपनी ही सन्तान का संहार करना माँ के लिए सहज सम्भव नहीं, इसके लिए माँ को तामसिक होना ही होगा। माँ का अपने ही पुत्र पर दण्ड स्वरुप हाथ उठाने में जो शक्ति निहित है उसका ही भीष्म रुप काली है।
>>>महालक्ष्मी राजसिक शक्ति : है हमारे प्रसार-विकास विस्तार को। जब तक शरीर में विष्टा है तमोगुण है। जब तक रक्त है रजोगुण है। यही रजोगुण शुद्ध होकर विर्य होगा। जब तक कामना है काम है चाह है संकल्प है रजोत्मक ही वृति है सात्विक नहीं। यहाँ महामाया महालक्ष्मी का ही स्वरुप है वहीं भक्ति स्वरुपा है। प्रसारण- व्याप्त का जो भी कार्य है इनका है। माँ बनने पर अपने ही शरीर में पुत्र के लिये पोषण की व्यवस्था यानी दुध में लक्ष्मी शक्ति निहित है। प्रकृति भी स्वयं को पोषित कर जीवन हेतु पोषण तैयार करती है। भौतिकता का निर्वहन यहीं से होता है। रक्त की उपादयत्ता जितनी है वही रज गुण की। रक्त बिन रहा जा सकता तो रजोगुण बिन भी ...
>>>सात्विक शक्ति : महा सरस्वति सात्विक शक्ति है। सात्विकता , धर्म-परायणता ,नैतिकता , सतो गुण है। भक्ति सात्विकता से ही शुरु होती है। ज्ञान और कला भी सात्विकता से ही शुरू होकर तमो गुण तक या निर्गुण तक जाती है। विद्या तत्व सत गुण के निहित है। संतों में महापुरुषों में सतगुण प्रधानता होती ही है ...केवल कृपा से ही सत गुण निर्गुण हो सकता है।
माँ काली आद्यशक्ति का निर्गुणात्मक स्वरुप है। राधा उपासको में भी निर्गुण भाव होना जरुरी है। ना कोई आसक्ति , ना विकार सात्विकता मिल जाती है निर्गुणता नहीं। राधा कहने का नहीं जीने का विषय है। प्रकृति के महाकरुणत्व का साकार स्वरुप है राधा। बिन करुणा प्रकृति असहज है ,करुणा हटा दि जाये तो उत्पत्ति कैसे होगी। पुरुष से अप्राकृत महा मिलन के उपरान्त प्रकृति में घटी करुणा को जीवंत देखे। माँ में करुणा होती है अपनी सृष्टि हेतु ... राधानुरागियों में हंगामा होना भी असहज सा है ...
उन्हें भीतर राधा तत्व को सजीव कर कृष्ण सुख का ही अंगीकार करना आना चाहिये। जहाँ आनन्द की भी कामना हो वहाँ सत गुण ही होगा ... निर्गुण नहीं। राधा का अनुसरण और दर्शन अलग विषय है। राधा तो लीलाओं में अपने सुख को चाह ही नहीं रही। ... कृष्ण सुख केवल। यहीं भाव प्रेमियों में हो जीवन भर ...आत्मा का राधात्व कर करुणा में बह कर
केवल कृष्ण-सुख | अर्थात् ईश्वर सुख यहाँ आप सुख भी अनुभुत किये तो वो आपका हुआ | कृष्ण हेतु फल आसक्ति का त्याग। निकुंज में युगल राधाकृष्ण निर्गुण भाव से ही है ...कार्य ,क्रिया ,उपादान राधा जी के भाव नहीं वहाँ सब हो कर नहीं हो रहा ... केवल ब्रह्म रस ले रहे है। ब्रह्म के रस में ही अगर राधा हँसी हो तो राधा हँसेगी पर केवल कृष्ण हेतु। अपने हेतु नहीं। यहीं करुणा है ...करुणा आपको ईश्वर से जोडती है। ... उनकी कामना उनकी चाह करुणा से आपको ज्ञात हो जायेगी। वहाँ लेश मात्र आपका सुख नहीं होगा। प्रेमियों में केवल करुणा हो ... महा करुणा। द्वेष भी नहीं। परन्तु राधा सब कहते है समझते नहीं। . ... जब तक राधा समझ आने लगती है ,तब तक बडी देर हो जाती है। राधा को समझने से पहले सत रज तम को समझे फिर त्रिगुणों से ऊपर उठ जायें। ... सात्विकता से भी वही राधा है ...सोने की , लोहे की ,चांदी की जंजीर हो। जंजीर बंधन ही है ...स्वर्ण है या लोहा ? धातुओं में ना उलझे ... मुक्त होना फिर ब्रह्म यानी कृष्ण सुख को जीवंत करना ही राधा है। भौतिक दुखड़े कहने के लिये बहुत द्वार है यहाँ आत्मा को सजीव कर प्रकृति के मर्म को समझ ब्रह्म की सिद्धि का निर्वहन मात्र करना है। प्रकृति में ध्यान लगायें गुणातीत तत्व समझ आयेगा फिर राधा पद चरण में समर्पित हो जायें।
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ।।14.6।।
इन (तीनों) में, सत्त्वगुण निर्मल होने के कारण प्रकाशक और निर्विकार है। प्रकाशशील और उपद्रवरहित है ( तो भी ) वह बाँधता है। वह (वह जीव को) सुख और ज्ञान की आसक्ति से बांध देता है।। हे निष्पाप अर्जुन ! अर्थात् व्यसनदोष -- रहित अर्जुन सुख की भाँति ही ज्ञान आदि के सङ्ग को भी ( बन्धन करनेवाला ) समझना चाहिये।
निर्मल होने से सत्त्वगुण प्रकाशमय है, अर्थात आत्मचैतन्य को प्रतिबिंबित करने वाला है। जिस प्रकार जल स्वत शुद्ध होता है; परन्तु अन्य मिश्रणों से अशुद्ध बन जाता है। उसी प्रकार सत्त्वगुण भी स्वत निर्मल होने से प्रकाशक अर्थात् आत्मचैतन्य को स्पष्ट प्रतिबिम्बित करने वाला है। उसमें न रजोगुण का विक्षेप (कामिनी -कांचन में आसक्ति) है न तमोगुण का घोर अज्ञान (देहाध्यास का आवरण) इसीलिए सतोगुण लंगर (anchor) नहीं है। आत्मस्वरूप का अज्ञान तथा उससे उत्पन्न अहंकार (मिथ्या नाम-रूप को मैं समझना) और देहाध्यास जन्य -'स्वार्थ' ही मूल दोष हैं, जिनसे अन्य अनर्थों की उत्पत्ति होती है। ये दोष रजोगुण और तमोगुण से ही उत्पन्न होते हैं। इसलिये यहाँ कहा गया है कि सत्त्वगुण स्वतः इन दोषों से रहित है। यद्यपि सत्त्वगुण निर्मल है तथापि वह भी बन्धनकारक होता है। सत्त्वगुण सुख और ज्ञान की आसक्ति से जीव को बांधता है अपने आनन्दस्वरूप (भगवान श्रीरामकृष्ण) को न जानकर जीव (M/F) सदैव विषयों में (शिवलिंग और मातृयोनि में) ही सुख की खोज करता रहता है। यह अज्ञान तमोगुण का लक्षण है तथा विषयों (कामिनी-कांचन) में सुख की कल्पना और विक्षेप (मन का बहिर्मुखी होना) रजोगुण का लक्षण है। प्रयत्नों के फलस्वरूप जब कभी इष्ट विषय की प्राप्ति होती है, तब क्षण भर के लिये विक्षेपों की शान्ति हो जाती है। मन की उस शान्त अवस्था में आत्मा का आनन्द अभिव्यक्त होता है। परन्तु जीव यही समझता है कि वह सुख उसे विषय से प्राप्त हुआ है; और मन की उस सुख वृत्ति के साथ तादात्म्य करके कहता है, मैं सुखी हूँ।
सत्त्वगुण प्रधान बुद्धि स्वभावतः स्थिर होती है। इसलिये उसमें चैतन्य का प्रकाश स्पष्टरूप से प्रतिबिम्बित होता है। इस प्रतिबिम्बित प्रकाश को ही हम बुद्धि का प्रकाश कहते हैं। जिसके द्वारा हमें विषयों का ज्ञान होता है। यही कारण है कि इस गुण के न्यूनाधिक्य के कारण ही सभी व्यक्तियों की बौद्धिक क्षमता एक समान नहीं होती। जब मनुष्य को सूक्ष्मतर सुख या ज्ञान का अनुभव हो जाता है, तब उसका मन उसी में इतना अधिक आसक्त होकर रमता है कि उसका ध्यान सूक्ष्मतम वस्तु (श्रीरामकृष्ण वचनामृत) की ओर सहसा आकर्षित ही नहीं होता। यह सत्त्वगुण का बन्धन है। यह स्वर्ण की शृंखला है, परन्तु है तो शृंखला ही। एक बार जब कोई व्यक्ति रचनात्मक चिन्तन तथा सदाचार और ज्ञान [Be and Make] वेदान्त के द्वारा अनुप्राणित जीवन के सात्त्विक आनन्द का अनुभव कर लेता है, तब उसमें वह इतना आसक्त हो जाता है कि फिर उसके लिये वह अपने सर्वस्व का भी त्याग करने के लिये तत्पर रहता है।
विज्ञान को अपना जीवन समर्पित किये हुये प्रयोगशाला में कार्यरत निकोला टेस्ला जैसा एक सच्चा वैज्ञानिक, क्षुधा और व्याधि से दुर्बल अपनी चित्रशाला में चित्रांकन कर रहा कोई चित्रकार, समाज द्वारा बहिष्कृत सार्वजनिक उद्यानों में रहकर अपनी कल्पनाओं, भावों और शब्दों के ही आनन्द में निमग्न एक कविगुरु रवीन्द्रनाथ । क्रूर उत्पीड़न को सहने वाले देशभक्त वीरसावरकर , दीर्घकाल तक देश निष्कासन का जीवन जीने वाले राजनीतिज्ञ जेपी। मृत्यु का आलिंगन करने वाले पर्वतारोही ये सब उदाहरण ऐसे पुरुषों के हैं, जिन्हें सात्त्विक आनन्द का अनुभव होता है और जो उसी में आसक्त हो जाते हैं। जैसे स्थूल बुद्धि के लोग कामिनी -कांचन (वासना और धन) तथा अन्य भौतिक वस्तुओं (नामयश) के परिग्रह में आसक्त रहते हैं।
>>>राधा तत्त्व : *श्रीकृष्ण की ह्लादिनी शक्ति*
जोइ राधा सोई कृष्ण हैं,इनमें भेद न मान!
इक हैं ह्लादिनी शक्ति अरू,शक्तिमान इक जान!!
भावार्थ:- श्री राधा ही का अपर अभिन्न स्वरूप श्रीकृष्ण हैं एवं श्रीकृष्ण का ही अपर स्वरूप श्रीराधा हैं। क्योंकि राधा शक्ति हैं एवं श्रीकृष्ण शक्तिमान् हैं। एक बार श्री राधा जी ने लीला में श्रीकृष्ण से पूछा कि मै तुम्हारे वियोग में कैसे जीवित रह सकूंगी। तबश्रीकृष्ण ने कहा था कि वियोग तो दो तत्वों मे होता है। मुझ से वियुक्त तो प्राकृत जगत भी नही हो सकता। फिर हमारा तुम्हारा सम्बन्ध तो ऐसा है जैसे दूध में श्वेतिमा। भला दूध की सफेदी कभी दूध से पृथक हो सकती है? पुनः कहा कि जैसे आग में दाहकता।अर्थात आग से कभी दाहकता प्रथक नही हो सकती। इसी प्रकार पृथ्वी से गंध, जल से शीतलता कभी वियुक्त हो सकती है ? ठीक उसी प्रकार हम दोनों एक थे। एक हैं।एक रहेंगे।
" शास्त्रों के अनुसार 'आपो नारायण' - अर्थात पानी भगवान है। परन्तु कोई जल पिया जाता है, किसी से बरतन धोये जाते हैं, कोई शौच के काम आता है । यह जो तुम्हारी 'स्त्री' और 'बेटी' बैठी हुई हैं, लकिन मैं देख रहा हूँ ये साक्षात् माँ जगदम्बा कामरूप कामाख्या की अभिव्यक्ति हैं ! 'कामरूप' का अर्थ ही है 'इच्छानुसार रूप धारण कर लेना' और विश्वास है कि असम की नारियाँ चाहे जिसको अपनी इच्छा के अनुकूल रूप में बदल देती थीं। इनकी अराधना करने से व्यक्ति को चारो पुरुषार्थो की प्राप्ति अर्थात धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति सहजता से हो जाती है। सती स्वरूपिणी आद्यशक्ति महाभैरवी कामाख्या तीर्थ विश्व का सर्वोच्च कौमारी तीर्थ भी माना जाता है। इसीलिए इस शक्तिपीठ में कौमारी-पूजा अनुष्ठान का भी अत्यन्त महत्व है। यद्यपि आद्य-शक्ति की प्रतीक सभी कुल व वर्ण की कौमारियाँ होती हैं। किसी जाति का भेद नहीं होता है। इस क्षेत्र में आद्य-शक्ति कामाख्या कौमारी रूप में सदा विराजमान हैं। इस क्षेत्र में सभी वर्ण व जातियों की कौमारियां वंदनीय हैं, पूजनीय हैं। वर्ण-जाति का भेद करने पर साधक की सिद्धियां नष्ट हो जाती हैं।
आद्यशक्ति के अम्बूवाची पर्व का महत्व है। पौराणिक सत्य है कि अम्बूवाची पर्व के दौरान माँ भगवती रजस्वला होती हैं और मां भगवती की गर्भ गृह स्थित महामुद्रा (योनि-तीर्थ) से निरंतर तीन दिनों तक जल-प्रवाह के स्थान से रक्त प्रवाहित होता है। यह अपने आप में, इस कलिकाल में एक अद्भुत आश्चर्य का विलक्षण नजारा है। कामाख्या तंत्र के अनुसार -
योनि मात्र शरीराय कुंजवासिनि कामदा।
रजोस्वला महातेजा कामाक्षी ध्येताम सदा॥
शरणागतदिनार्त परित्राण परायणे ।
सर्वस्याति हरे देवि नारायणि नमोस्तु ते ।। सती स्वरूपिणी आद्यशक्ति महाभैरवी कामाख्या तीर्थ विश्व का सर्वोच्च कौमारी तीर्थ भी माना जाता है। इसीलिए इस शक्तिपीठ में कौमारी-पूजा अनुष्ठान का भी अत्यन्त महत्व है। यद्यपि आद्य-शक्ति की प्रतीक सभी कुल व वर्ण की कौमारियाँ होती हैं। किसी जाति का भेद नहीं होता है। इस क्षेत्र में आद्य-शक्ति कामाख्या कौमारी रूप में सदा विराजमान हैं। इस क्षेत्र में सभी वर्ण व जातियों की कौमारियां वंदनीय हैं, पूजनीय हैं। वर्ण-जाति का भेद करने पर साधक की सिद्धियां नष्ट हो जाती हैं। )
>>>योगी और अन्वेषक (The Yogi and the Inventor) : स्वामी विवेकानंद और निकोला टेस्ला की मित्रता !
विवेकानंद रचनावली, वॉल्यूम – फ़ाइव में इस पत्र का ज़िक्र है. विवेकानंद लिखते हैं,“मिस्टर टेस्ला सोचते हैं कि वे मैथ्स की इक्वेशन से शक्ति और पदार्थ का ऊर्जा में ट्रांसफ़ॉर्मेशन साबित कर सकते हैं. मैं अगले हफ्ते उनसे मिलकर उनका यह नया गणितीय प्रयोग देखना चाहता हूं.”इसी पत्र में वो आगे कहते हैं कि टेस्ला का यह प्रयोग वेदांत की साइंटिफिक रूट्स को साबित कर देगा. जिसके मुताबिक़ यह पूरा विश्व अनंत ऊर्जा का ही रूपांतरण है. दोनों के बीच ठीक-ठीक क्या बात हुई. ये किसी जगह पर दर्ज़ नहीं है. लेकिन बाद में टेस्ला के लेखन और रिसर्च पर इस मुलाक़ात का प्रभाव दिखता है. 1907 में टेस्ला ने ‘मैन्स ग्रेटेस्ट अचीवमेंट’ ('Man's Greatest Achievement'.) शीर्षक के साथ एक लेख लिखा. इसमें उन्होंने ‘आकाश’ और ‘प्राण’ जैसे संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया है. टेस्ला लिखते हैं, 'All substances are basically derived from the same element. And this element has no beginning. This is spread all over the sky. And this element is influenced by life-giving prana or creative energy.‘ अर्थात सभी पदार्थ मूल रूप से एक ही तत्व से निकले हैं. और इस तत्व की कोई शुरुआत नहीं है. सम्पूर्ण आकाश में यही फैला हुआ है. और ये तत्व जीवन देने वाले प्राण या रचनात्मक ऊर्जा से प्रभावित होता है’
हालांकि टेस्ला पदार्थ और ऊर्जा के संबंध को स्थापित करने में कामयाब नहीं हो पाए थे. लेकिन वेदांत दर्शन के प्रभाव के चलते इस पर उनका पक्का भरोसा था. बाद में वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन ने पदार्थ-ऊर्जा संबंध समीकरण को साबित किया था. 1897 में भारत लौटकर स्वामी विवेकानंद के लेक्चर्स में भी टेस्ला का ज़िक्र मिलता है. एक जगह वो कहते हैं,“वर्तमान के कुछ सबसे बुद्धिमान वैज्ञानिकों ने वेदांत के विज्ञान सम्मत होने को स्वीकार किया है. इनमें से एक को मैं निजी तौर पर जानता हूं. यह व्यक्ति दिन रात अपनी लैब में ही लगा रहता है. इसके पास खाने का वक्त भी नहीं है. लेकिन मेरे द्वारा दिए गए वेदांत के लेक्चर को अटेंड करने के लिए वो घंटों खड़ा रह सकता है. उसके अनुसार ये इतने विज्ञान सम्मत हैं कि विज्ञान आज जिन निष्कर्षों पर पहुंच रहा है. ये उनसे पूरी तरह मेल खाते हैं ”
स्वामी विवेकानंद के अमेरिका प्रवास में फ्रांसीसी गायिका एमा कल्वे (Emma Calvé) का भी जिक्र मिलता है। वे Memoirs of European Travel में एमा का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि वे आज की तारीख में फ्रांस की बेहतरीन ओपेरा सिंगर हैं। वहीं एमा की आत्मकथा में भी विवेकानंद का जिक्र मिलता है। जानिए, कौन थीं एमा और कैसे हुई आध्यात्मिक गुरू विवेकानंद से उनकी मुलाकात।
एमा के पूर्वज दक्षिणी फ्रांस के पहाड़ों पर रहा करते. रूथेनियन जनजाति के ये लोग मुश्किल हालातों में रहने और गुजर-बसर करने के आदी थे. यही वजह है कि रोमन आक्रमण के दौरान इसी जनजाति के बारे में रोमन मिलिट्री जनरल Julius Caesar ने कहा था कि ये एक बहादुर जाति है जो हर हालात में जी सकती है और जीत भी सकती है. इसी जिजीविषा का प्रमाण एमा ने भी दिया. बेहद मुफलिसी में बीते बचपन और निजी जिंदगी में उथलपुथल के बाद भी एमा पश्चिमी कला जगत का चमकीला तारा रहीं.
एमा को सबसे पहली लोकप्रियता मिली Carmen से. चार हिस्सों के इस ओपरा को फ्रेंच कंपोजर Georges Bizet ने कंपोज किया था. साल 1893 के दिसंबर में न्यूयॉर्क में स्टेज पर इसे पेश करने के बाद एमा को इंटरनेशनल स्तर पर ख्याति मिली. ये भी माना जाता है कि एमा को ख्याति महज उनकी आवाज की वजह से नहीं मिली, बल्कि गाने का उनका कामुक अंदाज भी इसकी बड़ी वजह रहा.
हालांकि तमाम क्रिटिक्स के बावजूद एमा को बेहतरीन Carmen माना जाता रहा और उन्होंने दुनिया के तमाम बड़े ओपरा हाउसेस में अपनी कला का प्रदर्शन किया. कामयाबी के इसी दौर में एमा की दिलचस्पी पैरानॉर्मल (paranormal-जिसका उत्तर विज्ञान नहीं दे सकता) चीजों में होने लगीं. ये रुचि इस हद तक बढ़ी कि एमा उस वक्त इन चीजों पर लिखने वाले फ्रेंच लेखक हेनरी एंटोनी जूल्स‑बोइस ( Jules Bois) द्वारा लिखित पुस्तक 'Satanism and Magic' से भी जुड़ गईं. कुछ वक्त बाद दोनों अलग हो गए. In 1903 he wrote of occultism (जादूटोना) , spiritism (आध्यात्मवाद) and theosophy (ब्रह्मविद्या) in The Invisible World.] . कुछ का मानना है कि वे 1894 में उनसे शिकागो में मिलीं. वहीं कईयों के अनुसार 1899 में ये मुलाकात हुई. वर्ष जो भी रहा हो लेकिन दोनों का मिलना बेहद दुखद हालातों में हुआ. उसी वक्त शिकागो में हुई एक आग दुर्घटना में एमा अपनी इकलौती बेटी खो चुकी थीं. हादसे के बाद उनकी हालात इतनी बिगड़ चुकी थी कि उन्होंने 4 बार खुदकुशी की कोशिश की. आखिरकार एक मित्र की सलाह पर वे स्वामी जी मिलने पहुंचीं.
अपनी आत्मकथा में एमा जिक्र करती हैं कि जब वे भीतर पहुंची स्वामी जी केसरिया कपड़ों में ध्यान की मुद्रा में थे. उन्होंने एमा की तरफ न देखकर फर्श पर देखते हुए बात की और उनकी जिंदगी के ऐसे पहलुओं पर भी बोल सके, जिनके बारे में एमा ने अपने करीबी दोस्तों को भी कुछ नहीं बताया था. इस मुलाकात के बाद से एमा स्वामी जी की भक्त बन गईं. स्वामी विवेकानंद ने अपराधबोध से ग्रस्त एमा को आध्यात्मिक संबल दिया और कर्मपथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा दी. एमा ने खुदकुशी का इरादा छोड़ दिया और गायन के क्षेत्र में दोबारा लौट आईं.
पैट्रिक गेडेस तब जाने-माने समाजशास्त्री और बायलॉजिस्ट थे. गेडेस खुद भी विवेकानंद से मिल चुके थे. दोनों की मुलाक़ात साल 1900 में पेरिस में हुई थी. गेडेस की एक आंख में कुछ दिक़्क़त थी. जिसके चलते वो हमेशा परेशान रहते थे. जब इस बारे में उन्होंने विवेकानंद को बताया तो विवेकानंद ने जवाब दिया,“Professor, be mind-minded, not eye (I)-minded.” यानी “प्रोफ़ेसर, मन पर ही (मन को एकाग्र रखिये) ध्यान दीजिए, आंख या अहम पर नहीं.” गेडेस विवेकानंद से बहुत प्रभावित थे. इसलिए सिस्टर निवेदिता के कहने पर उन्होंने रिसर्च इंस्टिट्यूट के लिए सरकार में पैरवी की. साल 1902 में स्वामी विवेकानंद की मृत्यु हो गई. 1904 में जमशेदजी भी चल बसे. लेकिन इसके बाद भी सिस्टर निवेदिता रिसर्च इंस्टिट्यूट के लिए लगातार कोशिश करती रहीं. आख़िरकार साल 1907 में सरकार ने इस प्रस्ताव को हरी झंडी दी. सरकार चाहती थी इंस्टिट्यूट बॉम्बे में खुले. लेकिन टाटा ने 1898 में ही मैसूर में ज़मीन हासिल कर ली थी. मैसूर के महाराजा कृष्णाजी वाडियार इंस्टिट्यूट के लिए 372 एकड़ ज़मीन देने को तैयार हो गए थे. जिसके बाद 1909 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बैंगलौर अस्तित्व में आया. और आने वाले सालों में भारत का प्रीमियर शिक्षा संस्थान बना.
>>>Power of spirit: 'आत्मा की शक्ति' या ऊर्जा (Energy: The Power of Conscience, विवेक प्रयोग की शक्ति) मानव जीवन में कर्म की महत्वपूर्ण भूमिका मानी गई है।आत्मा है ऊर्जा शक्ति - जीवात्मा में आत्मा ऊर्जा शक्ति रूपी पावर हाउस है। इससे जीवात्मा का शरीर कार्य करता दिखाई देता है। बिलकुल वैसे ही जैसे ऊर्जा से चलते उपकरण देखे जा सकते हैं। आत्मा वह शक्ति है जो न पाप करती है और न पुण्य। जीव अर्थात सूक्ष्म। जीव जो द्रव्य है, जो सत्व, रज तम का सूक्ष्म रूप है। वह ही पाप और पुण्य का प्रतीक है। जब आत्मा का इस जीव से मिलती है, तभी वह जीवात्मा कहलाती है। जीव आत्मा को जन्म और मृत्यु के लिए ग्रहण करता है। परमात्मा अनंत ऊर्जा शक्ति है, तो आत्मा सीमित ऊर्जा शक्ति है। उन्होंने कहा कि परमात्मा, जीव व प्रकृति तीनों अनादि है। जीव और प्रकृति का कभी नाश नहीं होता है। यह द्रव्य और ऊर्जा का ही रूपांतरण हैं।
ये कर्म मानव की विवेक शक्ति से ही संचालित होते हैं। सांसारिक जीवन में सामान्यजन जब अपने विवेक रूपी धर्म के विरुद्ध कार्य करता है तो उसके आत्मा का पतन होता है। गलती के बाद जब मन धिक्कारता है तो आत्मग्लानि भी होती है। आत्मा की कोई अद्भुत शक्ति और वजन तो है ही कि जब शरीर में आत्मा रहती है तो व्यक्ति पानी मे डूब जाता है और आत्मा निकल जाने के बाद पार्थिव शरीर डूबने के बजाय तैरता है। इस आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि हर व्यक्ति के जीवन में वैचारिक और मानसिक धरातल पर जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है। व्यक्ति को इस चक्र से छुटकारा पाने के लिए अपने विवेक और आत्मबल को खूब मजबूत बनाना चाहिए। उसी से आत्मा और शरीर के साथ समग्र व्यक्तित्व को शक्ति मिलेगी।
व्यक्ति का मन मति रूपी जननी के गर्भ में जाता है तो कुछ दिनों तक वह व्यक्ति आंतरिक पश्चाताप करता है, परंतु यह पश्चाताप ज्यादा दिन नहीं टिक पाता तो फिर गलतियों को दोहरा बैठता है। अपमान, दुत्कार, स्वाभिमान गिरवी रखकर मिली उपलब्धि व्यक्ति को भीतर ही भीतर खोखला और कमजोर करती है। मति की गति सकारात्मक है तो जीवन आनंदमय रहता है। वहीं विवेक नष्ट पर जो कदम उठते हैं वे अपमान और श्मशान की ओर ही ले जाते हैं।सांसारिक जीवन में सामान्यजन जब विवेक विरुद्ध कार्य करता है तो उसकी आत्मा का होता है पतन। अपमान दुत्कार स्वाभिमान गिरवी रखकर मिली उपलब्धि व्यक्ति को भीतर ही भीतर खोखला और कमजोर करती है। मति की गति सकारात्मक है तो जीवन आनंदमय रहता है। विवेक नष्ट पर जो कदम उठते हैं वे अपमान और श्मशान की ओर ही ले जाते हैं। महाभारत युद्ध के दौरान विवेक रूपी कृष्ण पंच ज्ञानेंद्रियों के स्वरूप पांडवों की रक्षा करते हैं। इसीलिए निंदनीय कर्म रूपी कौरव पांडवों के आगे घुटने टेकते हैं। व्यक्ति की मति ही व्यक्ति के जीवन गति को निर्धारित करती है। अब तो वैज्ञानिकों ने भी मान लिया है कि जैसा अन्न होगा वैसा ही मन होगा और फिर उसी अनुरूप जीवन होगा। यहां अन्न का आशय खाद्य पदार्थ से न होकर सद्विचार और सात्विक चिंतन से लिया जाना चाहिए, क्योंकि व्यक्ति के जीवन पर उसके रहन-सहन, चिंतन-मनन और परिवेश आदि का पूरा प्रभाव पड़ता है।
O*******पंचमुण्डी*******O
🔱🙏Annexure-11.
>>तन्त्र महाविज्ञान (गायत्री महाविज्ञान) : तन्त्र के संग महाविज्ञान का जुड़ना अर्थात् विज्ञानों में उत्कृष्ट। ‘सद्ज्ञान’ व ‘सत्कर्म’ के समन्वित क्रम से ‘सरसता’ उत्पन्न होती है। Theory & Practical दोनों को साथ लेकर चलने से अनुभव रूपी संपदा ‘विवेक’ उत्पन्न होता है। विवेक ‘मोक्ष’ (सिंह शावक के भ्रम-मुक्ति Dhypnotization) का तो अविवेक ‘बंधन’ (स्वयं को अविनाशी आत्मा नहीं नश्वर शरीर होने के सम्मोहन (Hypnotization) का मूल है। सत्य को विवेक के कसौटी पर कसा जाता है।
>>>‘आत्मीयता‘ (intimacy-अपनापन, या समता 'equanimity' समभाव ) विकसित करने हेतु सर्वप्रथम ‘भाव संवेदना’ (आज्ञा चक्र) का जागरण करना होता है। आज्ञा चक्र जगा हो तो मूलाधार स्थिति शक्ति पतनोन्मुखी नहीं होती।
>>>स्मरण रहे ‘दुष्प्रवृत्ति’ खत्म करनी होती है ना की दुष्प्रवृत्ति के धारक को। उदाहरणार्थ डाकू रत्नाकर ,महर्षि वाल्मीकि में रूपांतरित होते रहे हैं। कामान्ध, संत तुलसीदास व सूरदास में रूपांतरित होते रहे हैं। ऊर्जा (Energy -प्राण) का कभी क्षय नहीं होता है। अतः रूपांतरण से ही बात बनती है। आसक्ति का (स्वार्थपरता, लोभ, मोह व अहंकार आदि इसी Energy -प्राण शक्ति की अभिव्यक्तियाँ हैं इनका) रूपांतरण अनासक्ति (आत्मीयता, समता intimacy, equanimity विकसित करने) में करने से बात बनती है। [केवल भक्त -नेता, गुरु, अवतार पैगम्बर आदि को अपने स्वरुप का स्मरण निरंतर बना रहता है इसलिए उन्हें यह बात समझ में आती है की क्यों ‘दुष्प्रवृत्ति’ को (viciousness-दुराचारता या depravity) खत्म करनी होती है ना की दुष्प्रवृत्ति के धारक (दुराचारी) को। ]
>>>‘दक्षिणाचार‘ को पार करने के बाद ‘वामाचार’ में प्रवेश होता है। (वामाचार में प्रवेश करने की पात्रता प्राप्त होती है।) इसमें दिन में ब्रह्मचर्य का पालन, रात्रि में पंचतत्वों से भगवती की पूजा, और चक्रानुष्ठान करके मंत्र जप आदि सम्मिलित हैं। इसे अत्यंत गुप्त माना जाता है।
>>>वाममार्ग ‘जितेन्द्रिय’ के लिए ही प्रशस्त है, इन्द्रिय लोलुप (sensual greedy) के लिए वाममार्ग में गति असंभव है। लोलुप नरक व्रजेत। – लोलुप नरक को जाता है।
>>>जो पर द्रव्य के लिए अंधा है, पर स्त्री के लिए नपुंसक है, पर निंदा के लिए गुंगा है और जो इन्द्रियों को सदा वश में रखता है ऐसा ब्राह्मण ही वाममार्ग का अधिकारी होता है। (मेरू तन्त्र)
>>>‘तन्त्र‘ अत्यंत गहन है अतः उनका ‘भाव’ भी गुप्त है। वाममार्ग का अधिकारी वही हो सकता है जो वेद शास्त्र का तत्त्वज्ञानी है। बुद्धिमान साधक गूढ़ तन्तार्थ भाव का मंथन करके उनका उद्धार कर सके। इसके अतिरिक्त दूसरे दुःख के ही भागी होंगे। (भावचुड़ामणि)
>>>सर्वोत्तम और सर्वसिद्धिदायक शिवोक्त मार्ग ‘जितेंद्रिय’ हेतु सुलभ है। अनेकों जन्म ग्रहण करने के बाद यह लोलुप के लिए सुलभ नहीं है। (पुरश्चर्यार्ण्व)
>>>वामाचार का अर्थ ‘व्यभिचार’ नहीं प्रत्युत् ‘प्रतिकूलाचार’ है। अब तक साधक दक्षिणाचार तक की साधना में 4 आचारों की साधना कर संसार में सोते रहे थे। अब वामाचार में सांसारिक बन्धनों को खोलना पड़ता है। इसलिए इसे प्रतिकूलाचार या वामाचार भी कहते हैं।
>>>युगाचार में प्रज्ञावान योगी का नाम वाम है। वाम उत्तम मार्ग है ना की भ्रष्ट पथ की ओर ले जाने वाला, जैसा की लोकमानस में भावनाएं व्याप्त हैं।
>>>‘वाम–मार्ग‘ में ‘जितेन्द्रियता’ की अनिवार्यता होने की वजह से यह अन्य मार्गों की अपेक्षा कठिन है।
>>>प्रथम आश्रम ‘ब्रह्मचर्य’ में वीर्य (Energy या प्राण) का रक्षण, संवर्धन व परिष्करण के बाद ‘साधु पुत्र जनयः’ ओजस्वी, तेजस्वी व वर्चस्वी संतति उत्पन्न करने का आदेश है।
>>>‘पश्वाचार‘ (वेदाचार + वैष्णवाचार + शैवाचार + दक्षिणाचार = पशु भाव) अर्थात् ‘अनुकुलता’ में परिपक्व अर्थात् ‘जितेन्द्रिय’ (अनासक्त/ लोभ, मोह व अहंकार मुक्त) होने के पश्चात ‘वामाचार’ अर्थात् ‘प्रतिकूलाचार’ (वीर भाव) में प्रवेश मिलता है।
>>>पंच मकार – मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा व मैथुन हैं। यह शब्द रूपक अलंकार में प्रयुक्त हैं। इनके बाजारू अर्थ को ना लेकर विशिष्ट ज्ञान/ तत्त्व ज्ञान को तत्त्वदर्शी के भांति देखें। तन्त्र महाविज्ञान भाव-भक्ति प्रधान हैं।
१. मद्य – मद्य/ मदिरा का प्रयोग का अर्थ दारू/ शराब से नहीं है प्रत्युत् सहस्रार रस से है। अनुकल्प में गुड़ व अदरक के रस के मिश्रण के रूप में लें।
२. मांस – मांस भक्षण का अर्थ मांस खाने से नहीं है प्रत्युत् स्व इन्द्रियो को अंतर्मुखी करने से है।
कठोपनिषद में यमाचार्य, नचिकेता से –
यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि।
ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि॥
(प्राज्ञः वाक् मनसी यच्चेत् तत् ज्ञाने आत्मनि यच्छेत् ज्ञानं महति आत्मनि नियच्छेत् तत् शान्ते आत्मनि यच्छेत् ॥ कठोपनिषद् १.3.१३) अर्थात् प्रज्ञावान् व्यक्ति (विवेकशील मनुष्य) वाक् को मन में विलीन करे यानि वाणी को मन में नियन्त्रित रखे। मन को ज्ञानात्मा (द्रष्टामन या साक्षी बुद्धि) में लय करे। ज्ञानात्मा (साक्षी बुद्धि) को महत् में विलीन करे और महत्तत्व को उस शान्त आत्मा में लीन करे॥१३॥
"The discriminating man should merge the (organ of) speech into the mind; he should merge that (mind) into the intelligent self; he should merge the intelligent self into the Great Soul (महत्) ; he should merge the Great Soul (महत्तत्व) into the peaceful Self."
साभार: स्वामी गंभीरानंद
३. मीन – यहां मीन (मत्स्य) का अर्थ मछली नहीं प्रत्युत् इड़ा-पिंगला (गंगा – यमुना/ सद्ज्ञान – सत्कर्म) स्वर के प्रवाह से है। जब साधक, इड़ा -पिंगला को संतुलित कर ‘सुषुम्ना स्वर’ (अनासक्त/ आत्मीयता/ भक्ति/ सरसता) में जीते हैं, यह मत्स्य भक्षण है।
४. मुद्रा – मुद्रा का अर्थ धन नहीं प्रत्युत् साधना (मन की खेती यानि साम्यभाव और अनासक्ति की खेती-Cultivation of mind) में प्रयुक्त विभिन्न posture से है। मुद्रा वे हैं जो देवताओं को प्रसन्न करती हैं। गायत्री की 24 मुद्रायें हैं। हस्तमुद्रायें व यौगिक मुद्रायें हैं। 10 यौगिक मुद्रा में खेचरी मुद्रा, महामुद्रा, शक्तिचालिनी आदि का अभ्यास रूचि पूर्वक किया जा सकता है।
>>>मन की खेती (साम्यभाव और अनासक्ति की खेती-Cultivation of mind) : हम जो बटोरते हैं वही बांटते हैं और जो बांटते हैं वही अभिवर्धन संग लौटकर आता है। अनासक्त कर्म/ आत्मीयता की खेती करें।
"What we collect from the world, that we distribute , and what we distribute comes back with growth. Cultivate detached action/intimacy."
‘वित्त’ (धन) की सार्थकता सदुपयोगिता में है। औरों के हित जो जीता है, औरों के हित जो मरता है। केवल वही जीता है जो दूसरों के हित जीता है ,उसका हर आंसु (अश्रुबून्द) रामायण, प्रत्येक कर्म ही गीता है। शेष तो मृत से भी ज्यादा अधम हैं। "
"One who lives for the good of others, dies for the good of others." One who lives for the good of others, dies for the good of others. He only lives who lives for others, rest are more dead than alive".
५. मैथुन – मैथुन से तात्पर्य मूलाधार चक्र स्थित ‘शक्ति’ और सहस्रार चक्र स्थित ‘शिव’ के मिलन से है। शिव-शक्ति का समागम ‘मैथुन’ है।
>>>गायत्री पंचकोशी साधक, कुण्डलिनी जागरण साधना में उपरोक्त विवेचित पंच मकार का प्रयोग विवेक युक्त मन से कर सकते हैं।
प्रश्नोत्तरी सेशन :
तत्सवितुर्वरेण्यं – जब दृष्टिकोण में ‘ब्रह्म’ का अवतरण हो जाता है तब यह समझ में आ जाता है की nothing is useless or worthless. Aim is to get infinity.
अवधूत दर्शन – अ (अविनाशी) + व (वरेण्यं) + धू (धूत संसार बन्धनं) + त (तत्त्वमसि)।
प्रतिकूलता में अनुकूलता को आत्मसात कराना ‘वामाचार’ का उद्देश्य है।
‘खजुराहो‘ के मंदिर विश्व के धरोहर (world heritage) में चिन्हित है। खजुराहो को गुरूदेव के दृष्टिकोण अर्थात् ऋषि चिंतन परम्परा (स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा 'Be and Make ' में देखने हेतु ‘आध्यात्मिक काम विज्ञान’ का अध्ययन किया जा सकता है।
पशु रूप में इन्द्रियों को लें। इन्द्रियों को अंतर्मुखी अर्थात् वाक् को मन में विलीन करें और यह यात्रा क्रमशः आत्म-भाव जाग्रत अर्थात् आत्म – परमात्म साक्षात्कार @ अद्वैत तक अनवरत चलती रहे @ चरैवेति चरैवेति।
‘अन्नमय कोश‘ (Physical Body) अन्न के रस से बना है @ अन्नो वै प्राणः। इन्द्रिय शक्ति इसकी विशेषता है। संतुलित आहार में ऋतभोक् (seasonal diet), मितभोक् (balanced diet) व हितभोक् (nutritious diet) का ध्यान रखें एवं विहार में सुरूचिपूर्ण योगाभ्यास, अध्ययन व अनुशासन जीवन क्रम में शामिल करें।
अन्न के अतिरिक्त सद्ज्ञान, सत्कर्म व भक्ति अर्थात् उपासना, साधना व अराधना से पंचकोश @ पांचों शरीर का पोषण, संवर्धन व परिष्करण होता है।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
[साभार -https://icdesworld.org/tantra-mahavigyan-5-vamachar/]
कौलमत मुख्यतया दो भागों में विभक्त है–पूर्वकौल और उत्तरकौल। पूर्वकौल समायाचारी साधना मार्ग है और उत्तरकौल है वामाचारी साधनामार्ग। दोनों मार्गों में शक्ति की प्रतीक ‘योनि’ की पूजा है।
कौलमतावलम्बियों का कहना है –‘योनिपूजा बिना पूजा कृतमप्यकृतं भवेत्।’ अर्थात्–योनिपूजा के बिना की गयी कोई भी पूजा, पूजा ही नहीं है।
लेकिन पूर्वकौल मतावलम्बी और अनुयायी श्रीयंत्र योनि की पूजा करते हैं। उत्तरकौल के मत के अनुयायी प्रत्यक्ष योनि के उपासक होते हैं। दोनों मार्ग की साधना का आधार ‘पञ्चमकार’ है। पहले में वह प्रतीक रूप में है और दूसरे में है प्रत्यक्ष रूप में।
वामाचारी साधनामार्ग अत्यन्त कठिन है और दुरूह है। इस पर चलना सभी के वश की बात नहीं है। ‘वामा’ का अर्थ है–स्त्री। इस मार्ग की जितनी भी साधनाएं हैं, सबका आधार है स्त्री। इसलिए इसे ‘वामाचार’ की संज्ञा दी गयी है।
साधना की दृष्टि से स्त्री के साथ जो आचरण किया जाता है, वह है–‘वामाचार’। इसी लिये कहा गया है–‘वामा $$चारः परमगहनो योगिनामप्यगम्य:।’ यह मार्ग स्पष्ट रूप से कहता है –‘सर्वधर्मान् परित्यज्योनिपूजारतो भवेत्।’
स्त्री कोई भी जाति या धर्म की हो, वह योगतांत्रिक दीक्षा से साधक की साधना के योग्य हो जाती है–‘दीक्षामात्रेण शुद्ध्यन्ति स्त्रियः सर्वत्र कर्मणि।’
जब तक साधक के मन में पाप या पुण्य के भाव का अस्तित्व है, तब तक वह पशु की श्रेणी में है। ऐसे ही अज्ञानरूपी पशु को ज्ञानरूपी खड्ग से मारकर मांस भक्षण करना मांसाहार के सामान है। कुलार्णव तंत्र में कहा गया है–
पुण्यापुण्ये पशुम् हत्वा ज्ञानखड्गेन योगवित्।
परे शिवे ! नयेच्चितं पलाशी स निगद्यते।।
मनसा चेन्द्रियगणं संयोज्यात्मनि योगवित्।
मांसाशी भवेद देवि ! शेषा: स्यु: प्राषिहिंसकः।।
अर्थात्–हे देवि ! ज्ञानरूपी खड्ग के द्वारा पुण्य और पापरूूपी पशुओं का हनन करने वाला और अपने मन को पर(ब्रह्म) में लीन करने वाला साधक ही वास्तव में मांसाहारी है। केवल वही योग के ज्ञाता साधक मांसाहारी कहे जा सकते हैं जो सभी इंद्रियों का मन के द्वारा संयोजन करके आत्मा में उन्हें प्रविष्ट करा देते हैं।
[साभार https://www.dharmdhara.com/panch-makaar/]
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12 March 2023 -
Executive Committee meeting -12 March 2023 -at 2 pm
1.Anindya Basu -anipg4@gmail.com
2.ranenmukherji43@gmail.com
3.singhbijay50@gmail.com
4.abvymcityoffice@gmail.com
5.dipaksarkar9411@gmail.com
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9.deyjagdish483@gmail.com
10.samirkumar dasgupta.samrik.dasgupta1958@gmail.com
11.sengupta.arunav@gmail.com
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14.Tapan Kumar Garai.tapangarai@gmail.com
15.prasantac123@gmail.com
16.ajaypandey.1973@gmail.com
17.soumenbhttacharjya@gmail.com
dated 5 Mar 2023, 18.20
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1.Arunabha Sengupta.sengupta.arunabh@gmail.com
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6.amitdutta.abvym@gmail.com
7.tapanramrajatalavym@gmaill.com
8.deyjagdish483@gmail.com
9.samrik.dasgupta1958@gmail.com
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ABVYM:
1.Soumen Bhattacharya <soumenbhattacharjya@gmail.com>, 2.Alok Das <aloke.das@gmail.com>, 3.Aravinda Dutta <arabindadatta.cvym@gmail.com>, 4.Jugal Pradhan <jpvymindia@gmail.com>, 5.Tapan Kumar Garai <tapangarai@gmail.com>, 6.Samir Kumar Dasgupta <samirk.dasgupta1958@gmail.com>, 7.Ranajit Kishore Mahanti <mahanti1959@gmail.com>, 8.North Bengal Monitoring Committee <nbmcabvym@gmail.com>, 9.Gangadharpur VYM <gangadharpurvym1996@gmail.com>, 10.subrata kumar Paul <skpbrp@gmail.com>, 11.Lowa VYM <lowavym@gmail.com>, 12.Tapan Prasad Chatterjee <tapanramrajatalavym@gmail.com>, 13.Kishorenagar VYP <kamalkantisit@gmail.com>, 14.Roychak VYM <rvym91@gmail.com>, 15.Sthirpara VYM <abvymsthirparabranch@gmail.com> 16. Kunjapur Samatberia VYM <sukumarsamanta69@gmail.com>, 17. ANINDYA BASU <anijpg4@gmail.com>, 18.Nitai Maity <nitaimaity95@gmail.com>, 19.Amit Dutta <amitdutta.abvym@gmail.com>, 20.Basudeb Chattopadhyay <bc2670ec@gmail.com>, 21.Dipak Kumar Sarkar <dipaksarkar9411@gmail.com>, 22.Prabal Mahanti <mahantipk@gmail.com>, 23.Arunabha Sengupta <sengupta.arunav@gmail.com>, 24.Bijoy Singh <singhbijay50@gmail.com>, 25.Somnath Bagchi <bagchisomnath2013@gmail.com>, 26. Jagadish Dey <deyjagadish483@gmail.com>, 27.Alekh Samal <alekhsamal.vnc@gmail.com>, 28.ranenmukherji43@gmail.com | |||
date: | Feb 27, 2023, 8:09 PM | ||
subject: | Notice For Extra Ordinary General Meeting to be held on 12-03-2023 ====== |