परिच्छेद-108
*दक्षिणेश्वर में भक्तों के संग में
(१)
[ (1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 108 ]
🙏भक्ति योग🙏
श्रीरामकृष्ण कमरे में छोटे तखत पर समाधिमग्न बैठे हुए हैं । सब भक्त जमीन पर बैठे हुए टकटकी लगाये उन्हें देख रहे हैं । महिमाचरण, रामदत्त, मनोमोहन, नवाई चैतन्य, नरेन्द्र, मास्टर आदि कितने ही लोग बैठे हुए हैं । आज दोलयात्रा (अबीर की होली) होती है, फाल्गुन पूर्णिमा, महाप्रभु (अवतार) श्रीचैतन्यदेव का जन्मदिन है । रविवार, 1 मार्च 1885 ई. ।
भक्तगण एकटक देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण की समाधि छूटी । इस समय भी भाव पूर्ण मात्रा में है । श्रीरामकृष्ण महिमाचरण से कह रहे हैं - "बाबू, हरिभक्ति की कोई कथा – ”
महिमाचरण -
"आराधितो यदि हरिस्तपसा ततः किम् ।
नाराधितो यदि हरिस्तपसा ततः किम् ॥
अन्तर्बहिर्यदि हरिस्तपसा ततः किम् ।
नान्तर्बहियदि हरिस्तपसा ततः किम् ॥
विरम विरम ब्रह्मन् किं तपस्यासु वत्स ।
व्रज व्रज द्विज शीघ्र शंकरं ज्ञानसिन्धुम् ॥
लभ लभ हरिभक्तिं वैष्णवोक्तां सुपक्वाम् ॥
भवनिगड निबन्धच्छेदनीं कर्तरीं च ॥
“'नारद-पंचरात्र' में है कि नारद जब तपस्या कर रहे थे, उस समय यह दैववाणी हुई - 'यदि हरि की आराधना की जाय तो फिर तपस्या की क्या आवश्यकता ? और यदि हरि की आराधना न की जाय तो भी तपस्या की क्या आवश्यकता ? अन्दर बाहर यदि हरि ही हो तो फिर तपस्या का क्या प्रयोजन ? और अन्दर -बाहर यदि हरि न हों तो भी तपस्या का क्या प्रयोजन ? अतएव हे ब्रह्मन्, तपस्या से विरत होओ । वत्स, तपस्या की क्या आवश्यकता है ? हे द्विज, शीघ्र ही ज्ञानसिन्धु शंकर के पास जाओ । वैष्णवों ने जिस हरिभक्ति की महिमा गायी है उस सुपक्व भक्ति का लाभ करो । इस भक्तिरूपी कटार से भवबंधन कट जायेंगे ।"
श्रीरामकृष्ण - जीवकोटि और ईश्वरकोटि, दो हैं । जीवकोटि की भक्ति वैधी भक्ति है - इतने उपचार से पूजा की जायेगी, इतना जप और इतना पुरश्चरण किया जायेगा । इस वैधी भक्ति के बाद है ज्ञान । इसके बाद है लय । इस लय के बाद फिर जीव नहीं लौटता ।
"ईश्वरकोटि की और बात है - जैसे अनुलोम और विलोम । 'नेति नेति' करके वह छत पर पहुँचकर जब देखता है, कि छत जिन चीजों की - चूना, सुरखी और ईंटों की - बनी हुई है – सीढ़ी भी उन्हीं चीजों की बनी हुई है, तब वह चाहे तो छत में रह जाय, चाहे चढ़ना-उतरना जारी रखे । वह दोनों ही कर सकता है ।
"शुकदेव समाधिस्थ थे । निर्विकल्प समाधि - जड़ समाधि हो गयी थी । भगवान् ने नारद को भेजा - परीक्षित् को भागवत सुनाना था । उधर नारद ने देखा कि शुकदेव जड़ की तरह बाह्य चेतना से रहित बैठे हुए हैं । तब नारद वीणा बजाते हुए चार श्लोकों में श्रीभगवान् के रूप का वर्णन गाने लगे । जब वे पहला श्लोक गा रहे थे, तब शुकदेव को रोमांच हुआ । क्रमश: आँसू बहने लगे । भीतर - हृदय में चिन्मयस्वरूप के दर्शन होने लगे । जड़ समाधि के पश्चात् फिर रूप के दर्शन भी हुए । शुकदेव ईश्वरकोटि के थे ।
"हनुमान ने साकार और निराकार दोनों के दर्शन कर लेने के पश्चात् श्रीराम की मूर्ति पर अपनी निष्ठा रखी थी । चिद्घन आनन्द की मूर्ति वही श्रीराम मूर्ति है ।
"प्रह्लाद कभी तो 'सोऽहम्' देखते थे और कभी दासभाव में रहते थे । भक्ति न लें तो क्या लेकर रहें ? इसीलिए सेव्य और सेवक का भाव लेना पड़ता है, - तुम प्रभु हो, मैं दास - यह भाव हरि-रसास्वादन के लिए । रस-रसिक का यह भाव है - हे ईश्वर, तुम रस हो, मैं रसिक हूँ ।
‘भक्ति के मैं' में, 'विद्या के मैं' में तथा 'बालक के मैं' में दोष नहीं । शंकराचार्य ने विद्या का 'मैं' रखा था - लोकशिक्षा के लिए । बालक के 'मैं' में दृढ़ता नहीं है । बालक गुणातीत है - वह किसी गुण के वश नहीं । अभी अभी वह गुस्सा हो गया । थोड़ी देर में कहीं कुछ नहीं । देखते ही देखते उसने खेलने के लिए घरौंदा बनाया, फिर तुरन्त ही उसे भूल भी गया । अभी तो खेलनेवाले साथियों को वह प्यार कर रहा है, फिर कुछ दिनों के लिए अगर उन्हें न देखा तो सब भूल भी गया । बालक सत्त्व, रज और तम किसी गुण के वश नहीं है ।
“तुम भगवान् हो, मैं भक्त हूँ, यह भक्तों का भाव है, - यह 'मैं' 'भक्ति का मैं' है । लोग 'भक्ति का मैं' क्यों रखते हैं ? इसका कुछ अर्थ है । 'मैं' मिटने का तो है ही नहीं, तो फिर वह पड़ा रहे - 'दास का मैं', 'भक्त का मैं' होकर । "लाख विचार करो, पर 'मैं’ नहीं जाता ।
'मैं' मानो कुम्भ स्वरूप है, और ब्रह्म है समुद्र, चारों ओर जल राशि । कुम्भ के भीतर भी जल है, बाहर भी जल । पर कुम्भ तो है ही । यही 'भक्त के मैं' का स्वरूप है । जब तक कुम्भ है, तब तक 'मैं' और 'तुम' है; तुम भगवान् हो, मैं भक्त हूँ, तुम प्रभु हो, मैं दास हूँ; यह भी है । विचार चाहे लाख करो, परन्तु इसे छोड़ने का उपाय नहीं । कुम्भ अगर न रहे, तो और बात है ।"
[ (1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 108 ]
(२)
🙏 नरेन्द्र के प्रति संन्यास का उपदेश 🙏
नरेन्द्र आये और उन्होंने प्रणाम करके आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र से बातचीत कर रहे हैं । बातचीत करते हुए जमीन पर आकर बैठे । जमीन पर चटाई बिछी हुई है । अब कमरा भी आदमियों से भर गया । भक्तगण भी हैं और बाहर के आदमी भी आये हुए हैं ।
श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र से) - तेरी तबीयत अच्छी है न ? सुना है, तू गिरीश घोष के यहाँ प्राय: जाया करता है ?
नरेन्द्र - जी हाँ, कभी कभी जाया करता हूँ ।
इधर कुछ महीनों से श्रीरामकृष्ण के पास गिरीश आया-जाया करते हैं । श्रीरामकृष्ण कहते हैं, गिरीश का विश्वास इतना जबरदस्त है कि पकड़ में नहीं आता । उन्हें जैसा विश्वास है, वैसा ही अनुराग भी है । घर में सदा ही श्रीरामकृष्ण के चिन्तन में मस्त रहा करते हैं। नरेन्द्र प्राय: उनके वहाँ जाते हैं । हरिपद, देवेन्द्र तथा और भी कई भक्त प्रायः उनके यहाँ जाया करते हैं । गिरीश उनके साथ श्रीरामकृष्ण की ही चर्चा किया करते हैं । गिरीश संसारी है; इधर श्रीरामकृष्ण देखते हैं, नरेन्द्र संसार में न रहेंगे, - वे कामिनी-कांचन त्यागी होंगे; अतएव नरेन्द्र से कह रहे हैं –
"तू गिरीश घोष के यहाँ क्या बहुत जाया करता है ? "परन्तु लहसुन के कटोरे को चाहे जितना धोओ, कुछ न कुछ बू तो रहेगी ही । लड़के शुद्ध आधार हैं; कामिनी और कांचन का स्पर्श अभी उन्होंने नहीं किया । बहुत दिनों तक कामिनी और कांचन का उपभोग करने पर लहसुन की तरह बू आने लगती है ।
"जैसे कौए का काटा हुआ आम । देवता पर चढ़ ही नहीं सकता, अपने खाने में भी सन्देह है । जैसे नयी हण्डी और दही जमायी हण्डी - दही जमायी हण्डी में दूध रखते हुए डर लगता है । अक्सर दूध खराब हो जाता है ।
"गिरीश जैसे गृहस्थ एक दूसरी श्रेणी के हैं । वे योग भी चाहते हैं और भोग भी । जैसा भाव रावण का था - नागकन्याओं और देवकन्याओं को हथियाना चाहता था, उधर राम की प्राप्ति की भी आशा रखता था ।
"असुर लोग अनेक प्रकार के भोग भी करते हैं और नारायण के पाने की भी इच्छा रखते हैं ।
नरेन्द्र - गिरीश घोष ने पहले का संग छोड़ दिया है ।
श्रीरामकृष्ण - बूढ़ा बैल बधिया बनाया गया है । मैंने बर्दवान में देखा था, एक बधिया एक गाय के पीछे लगा हुआ था । देखकर मैंने पूछा, 'यह कैसा ? - यह तो बधिया है !' तब गाड़ीवान ने कहा, 'महाराज, बड़ा हो जाने पर यह बधिया किया गया था । इसीलिए पहले के संस्कार नहीं गये ।'
"एक जगह अनेक संन्यासी बैठे हुए थे । उधर से एक औरत निकली । सब के सब ईश्वर-चिन्तन कर रहे थे । उनमें से एक ने जरा नजर तिरछी करके उसे देख लिया । तीन लड़के हो जाने के बाद उसने संन्यास लिया था ।
"एक कटोरे में अगर लहसुन पीसकर घोल दिया जाय, तो क्या लहसुन की बू जाती है ? इमली के पेड में क्या कभी आम फलते हैं ? अगर वैसा विभूती का बल किसी को हो तो यह हो सकता है - वह इमली में भी आम लगा देता है । परन्तु क्या वैसी विभूती सभी के पास रहती है ?
"संसारी आदमियों को अवसर कहाँ ? एक ने एक भागवतपाठी पण्डित चाहा था । उसके मित्र ने कहा, 'एक बड़ा अच्छा भागवती पण्डित है, परन्तु कुछ अड़चन है । वह यह कि उसे खुद अपने घर की खेती का काम संभालना पड़ता है, उसके चार हल चलते हैं और आठ बैल हैं । सदा उसे अपने काम की देखरेख करनी पड़ती है; इसलिए अवकाश नहीं है । जिसे पण्डित की जरूरत थी, उसने कहा, 'मुझे इस तरह के भागवती पण्डित की जरूरत नहीं है, जिसे अवकाश ही न हो। हल और बैल वाले भागवती पण्डित की तलाश मैं नहीं करता, मैं तो ऐसा पण्डित चाहता हूँ जो मुझे भागवत सुना सके ।'
"एक राजा प्रतिदिन भागवत सुनता था, पाठ समाप्त करके पण्डितजी रोज कहते थे, 'महाराज, आप समझे ?' राजा भी रोज कहता, 'पहले तुम खुद समझो ।’ पण्डित घर जाकर रोज सोचता था, 'राजा ऐसी बात क्यों कहता है कि पहले तुम खुद समझो ?" वह पण्डित भजन-पूजन भी करता था, क्रमशः उसे होश (चैतन्य) हुआ । तब उसने देखा, ईश्वर का पादपद्म ही सार वस्तु है और सब मिथ्या । संसार से विरक्त होकर वह निकल गया । एक आदमी को उसने राजा के पास इतना कहने के लिए भेज दिया कि 'राजा, अब वह समझ गया है ।'
"परन्तु क्या मैं इन्हें घृणा करता हूँ ? नहीं, मैं उन्हें ब्रह्मज्ञान की दृष्टि से देखता हूँ । वे ही सब कुछ हुए हैं - सब नारायण हैं । सब योनियों को मातृयोनि मानता -हूँ, तब वेश्या और सती लक्ष्मी में कोई भेद नहीं दीख पड़ता ।
"क्या कहूँ , देखता हूँ, सब के सब मटर की दाल के ग्राहक हैं । कामिनी और कांचन नहीं छोड़ना चाहते । आदमी स्त्रियों के रूप पर मुग्ध हो जाते हैं, रुपये और ऐश्वर्य देखकर सब कुछ भूल जाते हैं, परन्तु यह नहीं जानते कि ईश्वर के रूप का दर्शन करने पर ब्रह्मपद भी तुच्छ हो जाता है ।
"रावण से किसी ने कहा था, तुम इतने रूप बदलकर तो सीता के पास जाते हो; परन्तु श्रीरामचन्द्र का रूप क्यों नहीं धारण करते ? रावण ने कहा, 'राम का रूप हृदय में एक बार भी देख लेने पर रम्भा और तिलोत्तमा चिता की खाक जान पड़ती हैं । ब्रह्मपद भी तुच्छ हो जाता है - पराई स्त्री की तो बात ही दूर रही ।'
"सब के सब मटर की दाल के ग्राहक हैं । शुद्ध आधार के हुए बिना ईश्वर पर शुद्धा भक्ति नहीं होती - एक लक्ष्य नहीं रहता, कितनी ही ओर मन दौड़ता फिरता है ।
(मनोमोहन से) - “तुम गुस्सा करो और चाहे जो करो, राखाल से मैंने कहा, तू अगर ईश्वर के लिए गंगा में डूबकर मर जाय, तो यह बात मैं सुन लूँगा; परन्तु तू किसी की गुलामी करता है, ऐसी बात न सुनूँ ।
"नेपाल से एक लड़की आयी थी । इसराज बजाकर उसने बहुत अच्छा गाया । भजन गाती थी । किसी ने पूछा, 'क्या तुम्हारा विवाह हो गया है ? उसने कहा, 'अब और किसकी दासी बनूँ ? - एक ईश्वर की दासी हूँ ।'
"कामिनी और कांचन के भीतर रहकर कैसे कोई सिद्ध हो ? वहाँ अनासक्त होना बहुत ही मुश्किल है । एक ओर बीबी का गुलाम, दूसरी ओर रुपये का गुलाम, तीसरी ओर मालिक का गुलाम - उनकी नौकरी बजानी पड़ती है ।
"एक फकीर जंगल में कुटी बनाकर रहता था । तब अकबर शाह दिल्ली के बादशाह थे । फकीर के पास बहुत से आदमी आयाजाया करते थे । अतिथि-सत्कार की उसे बड़ी इच्छा हुई । एक दिन उसने सोचा, 'बिना रुपये-पैसे के अतिथि सत्कार कैसे हो सकता है ? इसलिए एक बार अकबर शाह के दरबार में चलूँ ।' साधु-फकीर के लिए सब जगह द्वार खुला रहता है । जब फकीर वहाँ पहुँचा, तब अकबर शाह नमाज पढ़ रहे थे । फकीर मसजिद में उसी जगह पर जाकर बैठ गया । उसने सुना कि नमाज पूरी करके अकबर शाह खुदा से कह रहे थे, 'ऐ खुदा, मुझे तू दौलत मन्द कर खुश रख तथा और भी इसी तरह की कितनी ही इच्छाएँ पूरी करने के लिए खुदा से दुआएँ माँगते थे ।
उसी समय फकीर ने वहाँ से उठ जाना चाहा । अकबर शाह ने बैठने के लिए इशारा किया। नमाज पूरी करके बादशाह ने आकर पूछा, 'आप बैठे थे, फिर चले कैसे ?' फकीर ने कहा, "यह शाहंशाह के सुनने लायक बात नहीं है, मैं जाता हूँ ।'बादशाह के जिद करने पर फकीर ने कहा, 'मेरे यहाँ बहुत से आदमी आया करते हैं, इसीलिए मैं कुछ रुपये माँगने आया था ।' अकबर ने पूछा, 'तो आप चले क्यों जा रहे हैं ?' फकीर ने कहा, 'मैंने देखा, तुम भी दौलत के कंगाल हो, और सोचा कि यह भी फकीर ही है, फकीर से क्या माँगू ? माँगना ही है तो खुदा से ही माँगूँगा ।”
नरेन्द्र - गिरीश घोष इस समय बस ऐसी ही चिन्ताएँ (आध्यात्मिक चिंतन)करते हैं ।
श्रीरामकृष्ण - यह तो बहुत ही अच्छा है, परन्तु इतनी गालियाँ क्यों दिया करता है ? मेरी वह अवस्था नहीं है । जब बिजली गिरती है, तब भारी चीजें उतनी नहीं हिलती, परन्तु झरोखे की झंझरियाँ हिल जाती है । मेरी वह अवस्था नहीं है । सतोगुण की अवस्था में शोर-गुल नहीं सहा जाता । हृदय इसीलिए चला गया, - माँ ने उसे नहीं रखा । पिछले दिनों में बड़ी बढ़ा-चढ़ी करने लगा था । मुझे गालियाँ देता था, हल्ला मचाता था ।
(नरेन्द्र के प्रति ) "गिरीश घोष जो कुछ कहता है, वह तेरे साथ कहीं कुछ मिला भी ?"
नरेन्द्र - मैंने कुछ कहा नहीं, वे ही कहा करते हैं उनका विश्वास है कि आप अवतार हैं । मैंने कुछ कहा नहीं ।
श्रीरामकृष्ण - परन्तु खूब विश्वास है, देखा है न ?
भक्तगण एकदृष्टि से देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण नीचे ही चटाई पर बैठे हैं । पास मास्टर है, सामने नरेन्द्र, चारों ओर भक्तमण्डली ।
श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुप रहकर प्रेमपूर्ण दृष्टि से नरेन्द्र को देख रहे हैं ।
कुछ देर बाद नरेन्द्र से कहा, "भैया, कामिनी और कांचन के बिना छूटे कुछ न होगा ।" कहते ही कहते श्रीरामकृष्ण भावमग्न हो गये । करुणा से भरी हुई सस्नेह दृष्टि है । साथ ही भाव में मस्त होकर गाने लगे –
(भावार्थ) - "बात करते हुए भी मुझे भय होता है, और कुछ नहीं बोलता तो भी भय होता है । मेरे हृदय में यह सन्देह है कि कहीं तुम्हारे जैसे धन को मैं खो न बैठूँ । हम जो मन्त्र जानते हैं, वही मंत्र तुझे देंगे । फिर तो तेरा मन तेरे पास है ही । हम लोग जिस मन्त्र के बल से विपत्तियों से त्राण पाते हैं, उसी मन्त्र से दूसरों को भी उत्तीर्ण कर देते हैं ।"
श्रीरामकृष्ण को जैसे भय हो रहा हो कि नरेन्द्र किसी दूसरे का हो गया । नरेन्द्र आँखों में आँसू भरे हुए देख रहे हैं ।
बाहर के एक भक्त श्रीरामकृष्ण के दर्शन के लिए आये हुए थे । वे भी पास बैठे हुए सब कुछ देख-सुन रहे थे ।
भक्त - महाराज, कामिनी और कांचन का अगर त्याग ही करना है तो गृहस्थ फिर कहाँ जाय ?
श्रीरामकृष्ण - तुम गृहस्थी करो न ! हम लोगों के बीच में एक ऐसी ही बात हो गयी ।
महिमाचरण चुपचाप बैठे हुए हैं ।
श्रीरामकृष्ण (महिमा से) - बढ़ जाओ, और भी आगे बढ़ जाओ । चन्दन की लकड़ी मिलेगी; और भी आगे बढ़ जाओ, चाँदी की खान मिलेगी; और भी आगे बढ़ जाओ, सोने की खान पाओगे; और भी आगे बढ़ो तो हीरे और मणि मिलेंगे; बढ़े जाओ ।
महिमा – पर जी खींचता रहता है, आगे बढ़ने देता ही नहीं ।
श्रीरामकृष्ण (हँसकर) – क्यों लगाम काट दो । उनके नाम के प्रभाव से काट डालो । उनके नाम के प्रभाव से कालपाश भी छिन्न हो जाता है ।
पिता के निधन के बाद से संसार में नरेन्द्र को बड़ा कष्ट हो रहा है । उन पर कई आफतें गुजर चुकीं । बीच-बीच में श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण कहते हैं, "तू चिकित्सक तो नहीं बना ?
-"शतमारी भवेद्वैद्यः सहस्रमारी चिकित्सकः ।" (सब हँसते हैं ।)
श्रीरामकृष्ण का शायद यह अर्थ है कि नरेन्द्र इतनी ही उम्र में बहुत-कुछ देख चुका - सुख और दुःख के साथ उसका बहुत परिचय हो चुका ।
नरेन्द्र जरा मुस्कराकर रह गये ।
[(1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-108]
(३)
🙏 गृहस्थों के प्रति अभयदान 🙏
नवाई चैतन्य गा रहे हैं । भक्तगण बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए हैं । एकाएक उठे । कमरे के बाहर गये । भक्त सब बैठे ही रहे । गाना हो रहा है ।
मास्टर श्रीरामकृष्ण के साथ-साथ गये । श्रीरामकृष्ण पक्के आँगन से होकर कालीमन्दिर की ओर जा रहे हैं । पहले श्रीराधाकान्त के मन्दिर में गये । भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया । उन्हें प्रणाम करते हुए देख मास्टर ने भी प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण के सामनेवाली थाली में अबीर रखा हुआ था । आज होली है, श्रीरामकृष्ण भूले नहीं । थाली से अबीर लेकर श्रीश्री राधाश्यामजी पर चढ़ाया । फिर उन्हें प्रणाम किया ।
अब कालीमन्दिर जा रहे हैं । पहले सातों सीढ़ियों पर चढ़कर चबूतरे पर खड़े हुए, माता को प्रणाम किया, फिर मन्दिर में गये । माता पर अबीर चढ़ाया । प्रणाम करके कालीमन्दिर से लौट रहे हैं । कालीमन्दिर के सामने चबूतरे पर खड़े होकर मास्टर से उन्होंने कहा, "बाबूराम को तुम क्यों नहीं ले आये ?"
श्रीरामकृष्ण फिर आँगन से कमरे की ओर जा रहे हैं । साथ में मास्टर हैं तथा और एक जन अबीर की थाली हाथ में लिये हुए आ रहे हैं । कमरे में आकर श्रीरामकृष्ण ने सब चित्रों पर अबीर चढ़ाया – दो-एक चित्रों को छोड़कर, - उनमें एक उनका अपना चित्र था और दूसरी येशु की तसबीर । अब आप बरामदे में आये । कमरे में प्रवेश करते समय बरामदे का जो भाग आता है, वहीं नरेन्द्र बैठे हुए हैं । किसी-किसी भक्त के साथ उनकी बातचीत हो रही है । श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र पर अबीर छोड़ा । आप कमरे में प्रवेश कर रहे हैं, मास्टर भी साथ जा रहे हैं, आपने मास्टर पर भी अबीर छोड़ा । कमरे में जितने भक्त थे, सब पर आपने अबीर डाला । सब के सब प्रणाम करने लगे ।
दिन का पिछला पहर हो चला । भक्तगण इधर-उधर घूमने लगे । श्रीरामकृष्ण मास्टर से धीरे-धीरे बातचीत करने लगे । पास कोई नहीं है । बालक-भक्तों की बात कह रहे हैं । कह रहे हैं, "अच्छा, सब तो कहते है कि ध्यान खूब होता है, परन्तु पल्टू का ध्यान क्यों नहीं होता ?
"नरेन्द्र के बारे में तुम्हारी क्या राय है ? बड़ा सरल है; परन्तु उस पर संसार की बड़ी बड़ी आफतें गुजर चुकी हैं, इसीलिए कुछ दबा हुआ है । यह भाव रहेगा भी नहीं ।"
श्रीरामकृष्ण रह-रहकर बरामदे में चले जाते हैं । नरेन्द्र एक वेदान्तवादी से विचार कर रहे हैं ।
क्रमशः भक्तगण फिर इकट्ठे हो रहे हैं । महिमाचरण से अब स्तव पाठ करने के लिए कहा गया। वे महानिर्वाण-तन्त्र के तृतीय उल्लास में लिखी हुई ब्रह्म की स्तुति कह रहे हैं –
“हृदयकमलमध्ये निर्विशेषं निरीहं
हरिहरविधिवेद्यं योगिभिर्ध्यानगम्यम् ।
जननमरणभीतिभ्रंशिसच्चित्स्वरूपं
सकलभुवनबीजं ब्रह्मचैतन्यमीडे ॥"
और भी दो एक स्तुतियाँ कहकर महिमाचरण श्रीशंकराचार्य की रची हुई स्तुति कह रहे हैं । उसमें संसार-कूप और संसार-गहनता की बात है । महिमाचरण स्वयं संसारी भक्त हैं ।
श्रीशिवनामावल्यष्टकम्
" हे चन्द्रचूड मदनान्तक शूलपाणे
स्थाणो गिरीश गिरिजेश महेश शम्भो ।
भूतेश भीतभयसूदन मामनाथं
संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ १॥
हे पार्वतीहृदयवल्लभ चन्द्रमौले
भूताधिप प्रमथनाथ गिरीशजाप ।
हे वामदेव भव रुद्र पिनाकपाणे,
संसार-दुःखगहनाज्जगदीश रक्ष....."✅
श्रीरामकृष्ण (महिमा से) -श्रीरामकृष्ण (महिमा से) - संसार कूप है, संसार गहन है यह सब क्यों कहते हो ? पहले-पहल इस तरह कहा जाता है । उन्हें पकड़ने पर फिर क्या भय है ? तब यह संसार मौज की कुटिया हो जाता है । मैं खाता-पीता हूँ और आनन्द करता हूँ ।...’
"भय क्या है ? उन्हें पकड़ो । यदि संसार काँटों का जंगल है, तो क्या हुआ ? जूते पहन लो और काँटों को पार कर जाओ । भय क्या है ? जो पाला छू लेता है, क्या वह भी कभी चोर हो सकता है ?
“राजा जनक दो तलवारें चलाते थे । एक ज्ञान की और दूसरी कर्म की । पक्के खिलाड़ी को किसी का डर नहीं रहता ।"
इसी तरह की ईश्वरी बातें हो रही हैं । श्रीरामकृष्ण अपनी छोटी चारपाई पर बैठे हुए हैं । चारपाई की बगल में मास्टर बैठे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - उसने जैसा कहा, उसी ने उसे खींच रखा है ।
श्रीरामकृष्ण महिमाचरण की बातें कह रहे हैं । नवाई चैतन्य तथा अन्य भक्त फिर गाने लगे । अब श्रीरामकृष्ण उनमें मिल गये और भावमग्न होकर संकीर्तन की मण्डली में नृत्य करने लगे । कीर्तन हो जाने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा, "यही इतना काम हुआ और सब मिथ्या था । प्रेम और भक्ति, यही वस्तु है और सब अवस्तु ।"
[(1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-108]
(४)
*गुह्य बातें*
दिन का पिछला पहर हो गया । श्रीरामकृष्ण पंचवटी गये हुए हैं । मास्टर से विनोद की बातें पूछते हैं । विनोद मास्टर के स्कूल में पढ़ते हैं । ईश्वर का चिन्तन करते हुए कभी-कभी विनोद को भावावेश हो जाता है । इसीलिए श्रीरामकृष्ण उन्हें प्यार करते हैं ।
अब श्रीरामकृष्ण मास्टर से बातचीत करते हुए कमरे की ओर लौट रहे हैं । बकुलतल्ले के घाट के पास आकर उन्होंने कहा, “अच्छा, यह जो कोई कोई (मुझे) अवतार कहते हैं, इस पर तुम्हारा क्या विचार है ?"
बातचीत करते हुए श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में आ गये । चट्टी उतारकर उसी छोटे तखत पर बैठ गये । तखत के पूर्व की ओर एक पाँवपोश रखा हुआ है । मास्टर उसी पर बैठे हुए बातचीत कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण ने वही बात फिर पूछी । दूसरे भक्त कुछ दूर बैठे हुए हैं । ये सब बातें उनकी समझ में नहीं आयीं ।
श्रीरामकृष्ण - तुम क्या कहते हो ?
मास्टर - जी, मुझे भी यही जान पड़ता है, जैसे चैतन्यदेव थे ।
श्रीरामकृष्ण - पूर्ण या अंश या कला ? - तौल कहो न ।
मास्टर - जी, तौल मेरी समझ में नहीं आती । इतना कह सकता हूँ, भगवान् की शक्ति अवतीर्ण हुई है । वे तो आप में हैं ही ।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, चैतन्यदेव ने शक्ति के लिए प्रार्थना की थी ।
श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुप रहे । फिर कहा, "परन्तु वे षट्भुज हुए थे ।"
मास्टर सोच रहे हैं, चैतन्यदेव को षड्भुज रूप में उनके भक्तों ने देखा था जरूर, परन्तु श्रीरामकृष्ण ने किस उद्देश्य से इसका उल्लेख किया ?
भक्तगण पास ही कमरे में बैठे हुए हैं । नरेन्द्र विचार कर रहे हैं । राम (दत्त) बीमारी से उठकर ही आये हैं, वे भी नरेन्द्र के साथ घोर तर्क कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण देख रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - मुझे ये सब विचार अच्छे नहीं लगते । (राम से) बन्द करो - एक तो तुम बीमार थे । अच्छा, धीरे-धीरे (मास्टर से) मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता । मैं रोता था और कहता था, 'माँ, एक कहता है - ऐसा नहीं, ऐसा है; दूसरा कुछ और बतलाता है । सत्य क्या है, तू मुझे बतला दे ।'
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