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गुरुवार, 27 फ़रवरी 2020

श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के पत्र : (37-38) संयुक्ताक्षर को पढ़ना सीखो!"To protect Bhava a ittle acting is necessary "

ॐ ॐ ॐ 
[37] 

Bhuban Bhavan,
P.O. Balaram Dharma Sopan.
Khardah, North 24-Parganas (W.B)
Pin Code 743121
21 February 1993

कल्याणीय विजय, 

                       कैम्प से लेकर अभी तक विश्राम नहीं मिला। 10 दिनों से मैं सुन्दरबन में था। वहाँ ठाकुर जी का उत्सव मनाया जा रहा था। फिर 24 को बाहर जाने वाला हूँ। इस बार मैदान में [कोलकाता के शहीद मीनार मैदान में] मुझको ही हिन्दी में बोलना पड़ा।   

                     इसी दौरान रजत, जितेन्द्र सिंह, जानीबिगहा , फुलवरिया आदि की चिट्ठियाँ प्राप्त हुईं। झुमरी तिलैया में स्वामी जी की जयन्ती अच्छी तरह से मनाई गयी, जानकर हर्ष हुआ। इस आयोजन में अपने को पीछे रख लिए हो यह एक ओर से तो अच्छा है, लेकिन अब भी तुम्हारा सहयोग पूरी तरह से बना रहना चाहिये, और यदि कहीं जरूरत दिखे तो स्वयं आगे बढ़कर बुद्धि देना या करना भी चाहिये। 

                  तुम लोगों ने महामण्डल का जो ऑफिस लिया था, वहाँ पाठचक्र किस कारण से नहीं चल रहा है ? अमुक...... के घर पर होता है, सो अच्छा है। लेकिन अब, जबकि तुम चुप हो गए हो, तब भी तुम्हारे अहंकार पर उसका आक्रमण क्यों बन्द नहीं होता है? आत्मविश्लेषण का अर्थ तो एक-दूसरे पर आरोप करना नहीं है। परन्तु खुद अपना दोष-गुण का विचार करना है। 

                 जब तक किसी व्यक्ति का चरित्र सुन्दर रूप से गठित नहीं हो जाता , तब तक उसकी ईर्ष्या नहीं जायेगी। जब कोई व्यक्ति इन्सान बन जाता है (चरित्रवान मनुष्य बन जाता है) तब वह दूसरों के छोटे से गुण को भी बड़ा बनाकर देखना सीख जाता है, और किसी के अवगुण को देखने वाली दृष्टि भी उसमें नहीं होती है। तुमने बहुत ही अच्छा आश्वासन उन्हें दिया है। अब वैसा करना भी चाहिए। 

          यह witness रहने वाली बात, कहाँ से तुम्हारे सर में घुस गयी (प्रविष्ट हो गयी) ? ठाकुर जी को witness मानो और तुम उनकी कठपुतली की तरह काम करते रहो। आध्यात्मिक उन्नति होने के साथ साथ तो रस भी बढ़ता रहता है, नीरस क्यों हो जाओगे ? तुमने स्वामी जी की वह बात अवश्य सुनी होगी  -

 " सब से रसिये सब से बसिये सब का लीजिये नाम। 

              हाँ जी हाँ जी करते रहिये बैठिये अपने ठाम ॥”** 

- सभी के साथ आनन्द करो, सभी के साथ रहो, सभी का नाम लो, दूसरों की बातों में हाँ- हाँ करते रहो, किन्तु अपना भाव कभी मत छोड़ो । "A little acting is necessary to protect ones own BHAVA" अपने भाव को सुरक्षित रखने के लिये मनुष्य को थोड़ा अभिनय (लीला ) करना अनिवार्य होता है ! { अर्थात अपनी भावमुख अवस्था को सुरक्षित बनाये रखने के लिये के लिये मनुष्य को किसी नाम-रूप वाले किसी भी औरंगजेब के सामने थोड़ा अभिनय करना आवश्यक होता है।} क्योंकि यह दुनिया  जड़ और चेतन से मिलकर बनाई गयी है।
           जड़ (Matter) में भी सार-वस्तु (Pure consciousness) को देख लेना 'मनीषा' कही जाती है। इसीसे ज्ञान उत्पन्न होता है। अगर जड़ बिल्कुल नहीं रहता, तो ज्ञान (विवेकज ज्ञान) होना भी कभी सम्भव नहीं होता। ज्ञानी (ब्रह्मविदतर) के द्वारा जड़  की उपेक्षा करना सम्भव नहीं होता। ठाकुर जी और स्वामी जी ने अपने जीवन में कभी वैसा नहीं किया है।
             [रामायण भी इसी तत्व पर, इसी दृष्टि पर खडी की गयी है। राम की बाललीला (बाल अभिनय) - राम आँगन में खेल रहे हैं- एक कौआ पास आता है – राम उसे धीरे से पकड़ना चाहते हैं – कौआ पीछे फुदक जाता है – अंत में राम थक जाते हैं’ उनको एक युक्ति सूझती है- मिठाई का एक टुकड़ा ले कर आगे बढाते हैं- कौआ कुछ नज़दीक आता है- प्रभु राम ईश्वर का दर्शन करते हैं। राम और कौए की यह पहचान मानो परमात्मा से परमात्मा की पहचान हो।]
             जो भी मनुष्य जगत में दृष्टिगोचर हो रहे हैं, सभी इसी ग्रह (Planet-पृथ्वी) पर जन्म लिए हैं, इसलिए सभी मनुष्य जड़त्व को त्यागकर प्रकाश स्वरुप बन सकते हैं। लेकिन, यह पतंजलि के योगसूत्र का विषय नहीं है। यह तो वेद और उपनिषद का विषय है। 
            और वास्तव में वेद में है- " नमो नमः स्तेनानां पतये नमो नमः नमः पुंजिष्ठेभ्यो, नमो निषादेभ्यः ब्रह्म दाशा ब्रह्म दासा ब्रह्मैवेमे कितवाः।"  (यजुर्वेद 16/20) अर्थात  उन डाकुओं के सरदारों को नमस्कारǃ उन क्रूरों को‚ उन हिंसकों को नमस्कारǃ ये ठग‚ ये दुष्ट‚ ये चोर‚ सब ब्रह्म ही हैं। इन सबको नमस्कारǃ’
     
             इसका अर्थ क्या? इसका अर्थ यह कि सरल अक्षर तो सीख गये‚ अब कठिन अक्षरों को भी सीखो। पहले स्थूल फिर सूक्ष्म, पहले सरल अक्षर फिर मिश्र यानि संयुक्ताक्षर को पढ़ना सीखो। [ इस प्रकार सर्वत्र भगवान् को देखें , उसका साक्षात्कार करें, अहर्निश अभ्यास करके सारे विश्व को आत्मरूप देखना सीखें !] 
                तुम्हें यह बात सदैव याद रखनी चाहिए कि -"एतद्ब्रह्मवनं चैव ब्रह्माचरति नित्यशः।।" (शंकर भाष्य :गीता 15/1)  यह जो संसार रूपी जंगल है, यहाँ सदैव ब्रह्म ही विचरण कर रहे हैं। तो तुम किसी व्यक्ति को कैसे जड़ या अजीब कह सकोगे ?
         
            'क्रोध ***' के विषय पर एक लेख 'विवेक-जीवन' के शायद नवम्बर अंक के बंगला सम्पादकीय में प्रकाशित हुआ था। उसे पढ़ो और उसपर विचार करो। देखो क्रोध रहने से क्या क्या हो जाता है ! रामायण में सीता जी ने इस क्रोध के विषय में क्या कहा है। तुम बहुत ठीक हो, थोड़ा समझने में कभी कभी गड़-बड़ी हो जाती है। शान्त होकर इसी विषय पर चिंतन करने से सब ठीक हो जायेगा। (जगत को ब्रह्म समझकर इसके साथ व्यवहार करते समय कभी कभी थोड़ी गड़बड़ी हो जाती है।)
             
          [पंचेन्द्रियों के माध्यम से यह सब भूतों का आजीव्य* सनातन ब्रह्मवृक्ष दृष्टिगोचर हो रहा है, यही ब्रह्मवन है इसीमें ब्रह्म सदा रहता है। ऐसे ऊपर मूल और नीचे शाखा वाले इस मायामय संसारवृक्ष को-  अर्थात् महत्तत्त्व, अहंकार, तन्मात्रादि,  शाखा की भाँति जिसके नीचे हैं, ऐसे इस नीचे की ओर शाखावाले और कल तक भी न रहनेवाले इस क्षणभङ्गुर अश्वत्थ वृक्षको अव्यय कहते हैं। यह मायामय संसार अनादि कालसे चला आ रहा है। ऐसे इसी ब्रह्मवृक्ष का ज्ञानरूप श्रेष्ठ खड्ग द्वारा छेदन-भेदन करके और आत्मा में प्रीतिलाभ करके फिर वहाँ से नहीं लौटता इत्यादि। - गोपियों का जहां-जहां मन जाता था- पान में, पत्ते में, झाड़ियों में, फूलों में, लताओं में, तुलसी के पौधों में – सब जगह भगवान् कृष्ण को देखती थीं। जहाँ पर भी मन जाय वहीँ पर वही दिखते थे ।]
                जिनको नीच जाती कहते हैं, वैसा निर्बोध लोग ही कहते हैं ; वे भी सचमुच ब्रह्म ही हैं।  महामण्डल में तो अभी तुम पहले की अपेक्षा कम समय ही दे रहे हो। फिर यह कहना कि इसके कारण business में घाटे में चल रहा है - कैसे सही हो सकता है ? ठाकुर जी ने 'धर्म-व्याध' की जो कथा सुनाई थी, उसको यदि सदा स्मरण में रखोगे , तो देखोगे कैसे अद्वैत वेदान्त को लेकर संसार में चलना सम्भव होता 
            हाँ, यह ठीक है कि प्रारब्ध को थोड़ा भोग कर ही क्षय करना पड़ता है; किन्तु यदि सही तरिके से विवेक-प्रयोग करके सही काम किया जाय तो इसको बहुत हद तक कम करना भी सम्भव है। यह बिल्कुल सच है कि -" हम जैसा चाहें वैसा भाग्य बना सकते हैं ! "
           
        तुम जड़ कैसे बन जाओगे ? थोड़े ही तुम कोई जड़ पदार्थ हो ? तुम वास्तव में चैतन्य ही हो, इसे जान लेने के लिए ही तुम इस जन्म को (14.4. 92 के बाद फिर से ?) प्राप्त किये हो। इस बात को (सत्य को) कभी सन्देह के अँधेरे में नहीं डालना।
     
             पुरुषार्थ जब ईश्वर की कृपा के साथ संयुक्त हो जाता है, तब सबसे ज्यादा फलदायी बनता है। यथार्थ पुरुषार्थ ईश्वर की कृपा के विरुद्ध नहीं है। बल्कि उनकी कृपा को खींचता है। क्योंकि असल में ईश्वर की शक्ति ही पुरुषार्थ के रूप में हमें सभी कार्यों में सफलता प्रदान करती है। पुरुषार्थ और ईश्वर-कृपा दो चीजें नहीं हैं। वास्तव में दोनों एक ही सिक्के के दो पहलु हैं ! 
           
  तुम्हारा कल्याण हो !  मेरी हिन्दी से समझ लिए न ? 
तुम्हारा 

नवनीदा 

P.L.S. Give your full address in all your letters to help me in sending the reply immediately, as soon as written otherwise searching the address takes time. N.M. 
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Registered Office:
Bhuban Bhavan
P.O. Balaram Dharma Sopan
Khardah, North 24-Parganas (W.B)
Pin Code 743121
5 March 1993
 Reference No : VYM/92-93/ 852

My dear Vijay, 
                             Just a few days back I replied at length to your long four-page letter in Hindi. Then I received together two inland letters from you dated 27.2.93 - one in continuation of other. In my last letter I have tried to cover all the points you have made. Only today I received a letter from XYZ...... dated 25 February and have straight away sent a reply to him. Please enquire  if he receives my reply.
                       I note that you have completed translation of 'The World of Youth' . In this letter you have repeated some of the points of the last letter.
              
                      Why do you expect all to understand equally ? I have seen few people who understand Swamiji in the right spirit. It is quite natural that everyone will not understand him properly, nor the ideas of the Mahamandal .   
                  
                     In this imperfect world we have to work with imperfect things and individuals. For, that is the work : try to make ourselves perfect. If you get everyone understanding things properly and every work going on smoothly without any any hurdles , then really there will remain very little need of any work ; for in that case we shall be living  in a perfect world. Why don't you see this simple fact ?  
                  If at the study circle others think that you do not allow them to speak, why do not concede and speak only when you are asked to do so ? It is quite natural that others will not spare time to copy your translation putting forward different pleas.  
                  How can you hold your annual general meeting on 28th March? It is a matter of common sense.The annual report up to 31st March and also the accounts up to the date. So, the annual general meeting can be held only after 31st March .Why do not go through the rules and regulations and the four-page printed instructions in these matters
               It seems nobody cares to go through them while working for the units. Your present Secretary (?) has also sent a report. But it is also defective in many ways. There is no date, there is no signature in one report, there is no address of the unit anywhere in the reports. Giving the address on the envelope is no good. All these are mentioned clearly in the circulars, but nobody cares to read them. 
                    
                     Some people should be dull headed. If the dull headed people want to continue in the Mahamandal  how can you throw them out , you cannot expect everybody equally understand also . 
                        
             Everybody will not take your advice and read the booklets, but you should go on requesting them in a pleasant manner year after year through they do not heed. This is the way of working for good cause
            
                It seems , you talk in the vein of an extremist . There is one thing called the middle path or the "Path of least resistance" . The same is the prescription of Buddha and Swami Vivekananda. Try to follow them and not follow your own judgment all the time. 

                  ' Either you should take the Whole charge or you should be expelled from the organization' --is not a sound proposal. This is what I am calling extremism. Always do not take the harshest decision. You have to take everyone along and see that others also like to take you along them. Unless you can do it, you are not working in the proper line. 
                    
                    You should be very cautious about losing temper and hurling angry words out of your mouth. You have to do it any cost. Otherwise your understanding will be of no use .
                     
                     It is no wonder that everyone would like 'Kathamrita Path', bhajan , and Puja . That is what people want. If you do it more frequently, you will get a large number of people. But none of them will stay for the work of the Mahamandal. I have seen enough of such people for a long time. 
             
             Threatening boys to collect funds , saying that if they fail , somebody would resign , is not all a good policy. That is why Satish could utilize the situation to ask XYZ...... to resign and not withdraw his resignation. 

                 Keeping your ego suppressed , broadening your heart sufficiently with sincere love for everyone , and with proper understanding of Swamiji's ideas, if you work; nothing will impede your march. Whenever you fail , try to find the defect in your decision or utterance or action. 
                  
        And if you are sincere, you will be able to find it and when you remove it, everything will be smooth. Don't try to put into practice  lofty ideals of Vedanta or thoughts of big Shastras. That is where you are creating confusion in your mind. Take simple advice of Swamiji and go on working. You will find there is no trouble.  
                 Keep big ideas in the pigeon-hole for some time, Make some progress with simple ideas and then try to grasp the bigger ones . 

        When you find something that is not good, you should certainly bring it to the notice of others. But that you should do politely and explaining the danger it would bring. That should not be done in a harsh way.
   
                You need not work like Lord Krishna .That is big thing. Try to work as a good worker

         Nobody should try to fight hard to gain confidence of other people. One should work hard for the cause and if his work is sincere , naturally confidence of other people will arise . 
          
         Let people cut jokes , but one should not do anything that will be a handle, which others can catch, and make fun of him. Here, it seems , both you and XYZ.... are committing mistakes
           
                     With love and good wishes 
Yours affectionately

 Nabaniharan Mukhopadhyay
Sri Vijay Singh
Tara Plastics
Post Box No. 62
Jhumritelaiya.
Hazaribag -825 409
Bihar. 
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  'क्रोध ***
श्री सीता माता के द्वारा 'भगवान् श्री राम को उपदेश ——
               श्रीसीताजी को छोड़कर अन्य कोई दूसरा भगवान् को सम्पूर्णतः नहीं जानता! कोई एक तो चाहिए हीं जिससे जीव-जगत भगवान् को जान सके और प्राप्त कर सके।  अतः करुणासिन्धु भगवान् के तरफ से जीव-जगत के (कल्याण और भगवत्प्राप्ति के) लिए ममतामयी करुणामयी श्रीसीताजी पुरुषकार (प्रथम आचार्य) हैं, अर्थात् परम स्वतन्त्र भगवान् की प्राप्ति कराने वाली हैं! 
        ‘षू प्रेरणे’ धातुसे ‘सुवति इति सीता’ अर्थात् जो सत्प्रेरणा देती हैं उनका नाम ‘सीता’ है। पुरुषकार होने से श्रीसीताजी भगवान् (श्रीराम) और जीव दोनों को उपदेश देती हैं, सत्प्रेरणा देती हैं! ईश्वर को जीव (पर दया) के लिए उपदेश करती हैं, और जीव को भगवान् (की शरणागति लेने) के लिए उपदेश करती हैं, और दोनों को एक दूसरे से बाँधती हैं। भला भगवान् को धर्म का उपदेश करने में कौन समर्थ है?
          राक्षसों के आतंक से ऋषि-मुनियों ने भगवान् की शरण ली, और भगवान् को राक्षसों द्वारा मारे और खाए गए ऋषि-मुनियों के कंकाल के पहाड़ दिखाएँ। "निशाचरों से मारे जाते हम ऋषि-मुनियों की रक्षा कीजिये हे नाथ, हम आपकी शरण में आए हैं" - ऐसा कहकर उपस्थित ऋषि-मुनियों के समूह ने प्रभु की शरणागति करी और प्रार्थना किया। 
            तब करुणासागर भगवान् ने दंडकारण्य के राक्षसों का वध करने का प्रण कर लिया, प्रभु की इस प्रतिज्ञा से सीताजी का हृदय व्याकुल हो उठा! सीताजी ने प्रभु से कहा "हे नाथ! आप धनुष लेकर बिना किसी वैर और अपराध के दंडकारण्यवासी राक्षसों को न मारें, आपके धनुष उठाने का इतना हीं प्रयोजन है (हो) कि आप संकट में पड़े प्राणियों की रक्षा करें! वस्तुतः आपको धर्म का उपदेश करने में कौन समर्थ है? आपको जो अच्छा लगे, आप वैसा हीं करें! (धर्मम् च वक्तुम् तव कः समर्थः? यत् रोचते तत् कुरु माचिरेण! - श्रीवाल्मीकि रामायण ३.९.३३)
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किन्तु गृहस्थाश्रम में रहकर इस प्रकार यथार्थ परहित के लिए कर्म करना अत्यन्त कठिन है, एक प्रकार से इसे असम्भव ही समझना। (माँ काली पर विश्वासी बनना आसान नहीं ?) समस्त हिन्दू शास्त्रों में उस विषय में जनक राजा का ही एक नाम हैं, परन्तु तुम लोग अब (शास्त्रविरोधी या निषिद्ध कर्मों से विरत हुए बिना) प्रतिवर्ष बच्चों को जन्म देकर घर घर में विदेह 'जनक ' बनना चाहते हो ! ठाकुर देव कहते थे - 
'जनक राजा महातेजा, तार कीशेर छीलो त्रुटि; 
एदिक् ओ दिक् दू-दिक् रेखे (दैव और पुरुषार्थ), 
खेये छीलो दुधेर बाटी! ' 
शिष्य - महाराज, आप ऐसी कृपा कीजिये जिससे आत्मानुभूति की प्राप्ति इसी शरीर में हो जाये। 

स्वामी जी - भय क्या है ? मन में अनन्यता आने पर , मैं निश्चित रूप से कहता हूँ, इस जन्म में ही आत्मानुभूति हो जाएगी। परन्तु पुरुषकार चाहिये !  (मनुष्यत्व का उन्मेषक किसी पूज्य नवनीदा जैसे मार्गदर्शक नेता को अपना बना लेना चाहिए !) 
उद्यमेनैव हि सिध्यन्ति,
कार्याणि न मनोरथै।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य,
प्रविशन्ति मृगाः॥
प्रयत्न करने से ही कार्य पूर्ण होते हैं, केवल इच्छा करने से नहीं, सोते हुए शेर के मुख में मृग स्वयं प्रवेश नहीं करते हैं।
यथा हि एकेन चक्रेण
न रथस्य गतिर्भवेत्।
एवं पुरूषकारेण विना
दैवं न सिध्यति॥

जिस प्रकार एक पहिये वाले रथ की गति संभव नहीं है, उसी प्रकार पुरुषार्थ के बिना केवल भाग्य से कार्य सिद्ध नहीं होते हैं। 
                 पुरुषकार क्या है , जानता है ? आत्मज्ञान प्राप्त करके ही रहूँगा; इसमें जो बाधा-विपत्ति सामने आयेगी, उस पर अवश्य विजय प्राप्त करूँगा -इस प्रकार के दृढ़ संकल्प का नाम ही पुरुषकार है। माँ, बाप, भाई, मित्र, स्त्री, पुत्र मरते हैं मरें , यह देह रहे तो रहे, न रहे तो न सही , मैं किसी भी तरह से पीछे नहीं देखूँगा। जब तक आत्मदर्शन नहीं होता , तब तक इस प्रकार सभी विषयों की उपेक्षा कर, एक मन से अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर होने की चेष्टा करने का नाम है पुरूषकार!
                 नहीं तो दूसरे पुरुषकार (आहार ,निद्रा, भय , मैथुन) तो पशु -पक्षी भी कर रहे हैं। मनुष्य ने 'विवेक-बुद्धि सम्पन्न यह मानव-शरीर' केवल उसी आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए प्राप्त किया है। संसार में अधिकांश लोग जिस रास्ते से जा रहे हैं, क्या तू भी उसी स्रोत में बहकर चला जायेगा ? तो फिर तेरे पुरुषकार (मनुष्यत्व-उन्मेष) का मूल्य क्या है ?
                 सब लोग तो मरने बैठे हैं, पर तू तो मृत्यु को जीतने आया है ! महावीर की तरह अग्रसर हो जा। किसीकी परवाह न कर। कितने दिनों के लिए है यह शरीर ? कितने दिनों के लिए हैं ये सुख-दुःख ? यदि मानव शरीर को ही प्राप्त किया है तो भीतर की आत्मा को जगा, और बोल -मैंने मृत्यु के भय को जीत लिया है, मैंने अभयपद प्राप्त कर लिया है। बोल - मैं वही सर्वव्यापी विराट आत्मा (माँ जगदम्बा का अहं बोध) हूँ, जिसमें मेरा पहले वाला क्षुद्र 'अहं भाव' डूब गया है। 
            इसी तरह पहले तू सिद्ध (जीवन्मुक्त शिक्षक/प्रशिक्षित नेता) बन जा। उसके बाद जितने दिन यह देह रहे , उतने दिन दूसरों को यह महवीर्यप्रद अभय वाणी सुना- " तत्त्वमसि , उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान निबोधत ! ('तू वही है', 'उठो, जागो और लक्ष्य (विवेकज-आनन्द) प्राप्त करने तक रुको नहीं !)
                यह होने पर तब जानूँगा कि तू वास्तव में  'विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर Be and Make वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित एक सच्चा  'पूर्वी बंगाली' (नेता/भ्रममुक्त शिक्षक) है !    6/179]  
courtesy: http://vivek-anjan.blogspot.com/2018/11/8.html/शुक्रवार, 9 नवंबर 2018/ ['एक युवा आन्दोलन' -निबन्ध शंख्या- 8 / मूल बंगला पुस्तक 'स्वामी विवेकानन्द ओ आमादेर सम्भावना' निबन्ध संख्या -9 -' স্বামী বিবেকানন্দের চিন্তাধারা !"             
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सोमवार, 24 फ़रवरी 2020

श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के पत्र : (33-36)'Started Study Circle in Phulwaria'

[33]
(Postcard)
19 August 1992
My dear Saudip,  
                            Received your report dated 9.8.92 , Glad to know about work going in Jhumri Telaiya, Janibigha and Phulwariya. 
                          There is nothing special till you (....write...?) Hope participation at the State-Level youth training camp will be good.  
     Love to you all, 
Yours Affectionately

Nabaniharan Mukhopadhyay 

P.S. In the letter head it is not wise to format the name in contraction, such as J.T.V.Y. Mahamandal. It carries no meaning.  
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[34]
3/10/91
प्रिय जितेन्द्र , 
                        तुम्हारा २४ / ९/९१ का पत्र हमें मिला। इस से फुलवरिया में पाठचक्र की शुरुआत की खबर जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई। यह भी बहुत आनन्द की बात है कि वहाँ के शिक्षक लोग भी इसमें सहायता कर रहे हैं। वहाँ का रिपोर्ट नियमित रूप से भेजने का प्रयास करना। 
                      झुमरीतिलैया में काम की गति अच्छी है, सुनकर ख़ुशी हुई है। नया कैसेट जो बंगला में है, उसका हिन्दी अनुवाद हमें मिलने से वैसा हिन्दी में भी बनाया जा सकता है। 
            
        सबको मेरा प्यार देना - 
श्रीनवनीहरण मुखोपाध्याय 
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[35]
1/11 /91 
कल्याणीय जितेन्द्र , 
                        25 /10 के खत के साथ सदस्यता आवेदन पत्र की कॉपी मिली है। बुकस्टाल और दूसरे कामों का खबर पाकर ख़ुशी हुई। 
               " आदर्श और उद्देश्य " का कैसेट बंगला में हुआ है, उसका हिन्दी कैम्प के पहले करना चाहता हूँ। विजय को लिखा था उसका हिन्दी अनुवाद के लिए , हो सकता है क्या ? "एकटी युव आन्दोलन ' पुस्तिका से चुने हुए शब्द उसमें हैं। 
       
                कुशल चाहता हूँ -
नवनीहरण मुखोपाध्याय 
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[36] 
8.12.92 
My dear Vijay, 
                         Hope everything is fine there . It has been a long time that we have not heard anything from you. You must be preparing for the All India Camp .            The stock of Hindi version of 'Leadership' has come down. Please bring with you 100-200 copies of the book. Janibigha boy wrote recently. But no other information from others. 
              I am little better now. Hope to meet you ... at the camp. With love and blessing.
Yours Affectionately
Nabanida 
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श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के पत्र : (31-32):मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी, के आसाँ हो गईं। "Bless you.... your Tolerance should never fall"

[31]
Registered Office:
Bhuban Bhavan
P.O. Balaram Dharma Sopan
Khardah, North 24-Parganas (W.B)
Pin Code 743121
1 August 1992
Reference No: VYM/92-93/251 

My dear Bijoy, 
                            I was very glad to receive your joyful letter of 25th July. I am very very glad to know all you have informed .I never judge somebody through somebody else's eyes. So, Fulwariya is flowering and ABC .... has plunged in. 
                 I have seen ABC...... always very sincere who understands the Mahamandal's ideas. Difficulty arises only in personal relation. That is where in an organization the organizers have to be very cautious, preventing any misunderstanding to crop up. 
           If we are always loving , communicate clearly , do not suspect anybody , give everyone sufficient opportunity to work, there is no reason why people fall back. Anyway , without much of my handling except a few letters to him in the meantime , the episode has come to a happy end. So, in his last letter he has stated that most probably we will be meeting at the State-level camp. Tell him that we must all meet at the State-level camp.
             Now , XYZ......  has been sending Showers of letters and in the last one he has made a little amend by saying that he does not want to dissociate himself from the Mahamandal, but he could not stand the behavior of some of the members of the Mahamandal. 
              He is going to Jhumritilaiya on 7th August for his examination. On the last occasion I told you to write letters to him renewing your love for him. If you have not already done, I think you should meet him there and let him understand that you are all there to help him and to encourage him in all possible ways. 
                 Due to various relaxations in industrial and business rules , it is claimed by the government that both industry and businesses are flourishing like any thing. I do not know , there may be pockets of crises in business. You are in business and certainly you know better. 
           In business it is always accepted that a risk content is there, because there may be some rise and fall. So, you have to overcome such unusual periods [Lalu Raj] with calm resolution. I am sure doing that you will continue to work for the Mahamandal as you have been doing so long
               After the OTC, from the 20th itself I started having fever and was completely laid up from the 22nd till yesterday with high fever. Only today I had remission . So, for about two weeks I am stuck up at home


With love and all good wishes    
Yours affectionately

Nabaniharan Mukhopadhyay 

Sri Bijay Singh
Tara Plastics
Post Box No.62
Jhumritelaiya- 825 409 
Dist . Hazaribag 
Bihar. 
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[32]
Registered Office:
Bhuban Bhavan
P.O. Balaram Dharma Sopan
Khardah, North 24-Parganas (W.B)
Pin Code 743121
23 August 1992

       स्नेहास्पद विजय,
                                    तुम्हारा  दीर्घ पत्र हमें मिला। बारह दिनों तक कठिन बुखार रहने के कारण बहुत ही कमजोर हो गया हूँ। पच्चीस वर्षों में ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं लगातार एक महीने तक 'शहर कार्यालय ' नहीं जा पाया हूँ। आठ-दस दिनों से अपराह्न से सन्ध्या तक टेबल-चेयर पर बैठ कर थोड़ा काम कर पा रहा हूँ। अब थोड़ी ताकत आ रही है।    
                              अमुक..... ने तुम्हें परीक्षा से गुजरने का जो सुअवसर कर दिया उसे भी तुम ठाकुर जी का आशीर्वाद मान लिए हो , यह सुनकर मुझे बहुत ही प्रसन्नता हुई। घटनाचक्र के सम्बन्ध में प्रमोद के द्वारा जो जानकारी मुझे मिली वह शून्य से ज्यादा नहीं मिली। राज्य-स्तरीय शिविर के कार्यकारिणी समिति में रहना तुम अस्वीकार कर रहे हो, इतना ही उसने बताया। मैं कोई चिन्ता नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि मुझे विश्वास है कि तुमलोगों से कोई भी बेठीक काम करना अब सम्भव नहीं होगा।  
                   
                तुम्हारी सहिष्णुता दिनों दिन बढ़ रही है - यह तो खूब अच्छा है। अमुक  के मौखिक कथन को भी तुम्हारी चिट्ठी से सुन लिया। पिछले शिविर के समय rally के बाद उसको जो कुछ तुमने कहा , उस तरह की बातें मेरे पास रहकर जो काम करते हैं, उनको हजार गुना सुनना पड़ता है। किसी किसी को इसके कारण यदि थोड़ा गुस्सा भी आता है, तो वे ऐसा मान लेते हैं कि ये बातें काम को अच्छे से बनाने के लिए ही कहा जाता है। ऐसा कहने के पीछे किसी को अपमानित करने का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। 
                 यद्यपि मुझे अभी तक यह नहीं पता कि तुमने अमुक ...को क्या कहा था, तथापि कहूँगा कि हर समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि, कहने/ झिड़की के पीछे मेरा उद्देश्य चाहे जो भी हो, जिनको कह रहा हूँ, वे क्या सोच सकते हैं, उसको किस ढंग से लेंगे - इस पर ध्यान रखते हुए ही कुछ भी कहना उचित माना जाता है। प्रेम से काम लेना और करना ही सही है। " यदि 'तुम' राजपूत ('पुत्र- आमी') है, तो 'मैं' क्या 'राजा' ('पिता-आमी') नहीं ?" लेकिन अपने को चाहे (व्यष्टि अहं या समष्टि अहं) जो कुछ भी सोंचते हो, वह होते हुए भी, अपनी जबान के ऊपर संयम हर समय हर समय रहना ही चाहिए। 
          
           क्या स्वामी जी भी बहुत बार, हमलोगों से मामूली सी गलती हो जाने पर , बहुत 'तेज' से नहीं डांट दिया करते थे ?...?....?  लेकिन कारण ....  को कौन देखना चाहता है ?.... ? कर्मियों को, यदि काम करना सीखना हो तो यह समझना चाहिए कि ये बातें केवल सही ढंग से काम करने के लिए ही कही गयी हैं। तुम बहुत ठीक बताये हो कि सहिष्णुता छोड़ देना ही, जड़ का दास बनना है। और अगर इसी के लिए आशीर्वाद चाहते हो, तो आशीर्वाद करता हूँ कि चाहे जैसी भी परिस्थिति क्यों न हो, तुम्हारी सहिष्णुता कभी न गिर पड़े ! तुम अब, जो सब कुछ सुनकर भी अपनी गलती के लिए क्षमा माँगने में सक्षम हो गए हो, यह तुम्हारी सबसे बड़ी विजय ! 
                 
       जैसा कहा, ठीक है कि तुम महामण्डल को अपनी जायदाद नहीं समझते हो, लेकिन यह बात दूसरों को समझाने का दायित्व भी तुम्हारा ही है। किन्तु यहाँ एक बात  सभी कर्मियों को समझना जरुरी है कि, हर कर्मी को महामण्डल की चीज अपनी चीज (सम्पत्ति ) है, यही समझना पहला काम है। यदि हमलोग ऐसा नहीं सोचेंगे तो महामण्डल के किसी वस्तु से प्रेम नहीं होगा। और बिना प्रेम से किया हुआ कोई भी काम ठीक से नहीं बनता है। 
           शायद समझते हो, मैं क्या कहना चाहता हूँ ? अगर मैं महामण्डल को  मेरी चीज (?) नहीं समझता हूँ , तो उसकी रक्षा और उन्नति मुझसे कैसे हो पायेगी ? जैसे तुम महामण्डल को अपना समझते हो, सबको बताओ कि महामण्डल की भलाई के लिए  सब कोई इसे अपनी सम्पत्ति के रूप में ग्रहण कर सकें। 
             तुमने यह सही कहा कि जिसकी गलती हो, उसे केवल उसी के सामने कहना चाहिए, सभी के सामने या दूसरों के पास नहीं। पाठचक्र में कुछ दिनों के लिए तुम बोलना छोड़ दो। देखो इसका क्या फल होता है ? 
                   'गमप' ने और भी दो-तीन पत्र देहली से लिखा था। सभी का उत्तर झुमरीतिलैया के पते पर भेज चुका हूँ। शायद उसे मिल चुका होगा। 'गमप'  के बारे में तुमने जो कहा वो ठीक है। उसके ऊपर अभी 'अमुक'  का अधिक प्रभाव पड़ना अच्छा नहीं होगा। 'गमप' को और भी कुछ दिनों तक दवाई खाना अच्छा होगा। मैं बताता हूँ। यदि सम्भव हो तो उसके पिताजी से कहना। उसी से आत्मविश्वास भी चला आएगा। उसके साथ तुम्हारा सरल प्रेम का व्यवहार होना चाहिए। ज्यादा जटिल या गूढ़ विषयों पर अधिक बातचीत नहीं करके केवल उत्साह की बातें कहनी अच्छी होगी। घर में बुलाकर वार्तालाप करना ठीक होगा। तुम्हारी पत्नी ने उसको जो बातें बतलाई वो बिल्कुल ठीक हैं। 
                  हमलोगों के लिये केवल स्वामी जी का काम ठीक से करने के लिये पागल बन जाना ही सही रास्ता है, अन्य किसी दुनियावी चीज को पाने के लिए नहीं। तुमने लिखा - " मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी, के  आसाँ हो गईं। **"--- तो फिर अब चिन्ता की बात ही क्या है ? आशा है कि राज्य-स्तरीय शिविर में हमलोगों के बीच इस पर आगे और विमर्श होगी। प्रमोद को कहकर वहाँ जी.....  को कुछ class लेने का व्यवस्था करने का प्रयास करो। तुम अब स्वयं इस विषय पर उससे कुछ मत बोलना। भीतर की दृष्टि (अन्तर्दृष्टि ) ऑंसू के बीच से ही आती (खुलती) है।  
 आशीर्वाद !
इसकी प्राप्ति सूचना भेजा करो ! 
शुभाकांक्षी 

नवनीदा 
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** रंज से ख़ूगर हुआ इन्सां, तो मिट जाता है रंज,
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी, के आसाँ हो गईं। 
(रंज = कष्ट, दुःख, आघात, पीड़ा), (ख़ूगर = अभ्यस्त, आदी)
यूं ही गर रोता रहा ग़ालिब, तो अय अहल-ए-जहाँ,
देखना इन बस्तियों को तुम, के वीराँ हो गईं। 
(अहल-ए-जहाँ = दुनियावालों), (वीराँ = वीरान, निर्जन, उजाड़)
-मिर्ज़ा ग़ालिब
[ स्वामी जी कहते हैं - " मैं किसी द --राजा पर पूरा भरोसा नहीं रखता। वे राजपूत तो हैं नहीं- राजपूत अपने प्राण दे सकते हैं , किन्तु अपने वचन से कभी विमुख नहीं होते। अस्तु, 'जब तक जीना, तब तक सीखना ' --अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है। " 21 फरवरी, 1893 को आलासिंगा को लिखित पत्र]  
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रविवार, 23 फ़रवरी 2020

'Good boxers avoid blows from touching' श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के पत्र : (29-30)

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Bhuban Bhavan
P.O. Balaram Dharma Sopan
Khardah, North 24-Parganas (W.B)
Pin Code 743121
21 May 1992 
My dear Bijay, 
                          I have received both the letters from you dated 3.5.92 one official and the other personal .Not being well disposed. I did not move out during the first three months of the year, but from April there is flood of programmes and I have been continually moving . So, there is a little delay in replying to your letters which I got on my return from a tour of North Bengal. 
                    
                     I came to know about your accident and also got your news over telephone. Do you think it was possible that you would die ? No. So, I am not at all surprised to know that you were saved miraculously. It was not a 'miracle, as it does not happen'- Swamiji said. It was merely a matter of course. 
                
                    Certainly I would like to here from you about the incident personally when we meet. Certainly you have things to do and you will do them. So, even if you want, you will not be allowed to leave the field. 
                     
            I will hear from you also the incident in the camp where certain remarks by some campers hurt your sentiments. Don't take such encounters seriously. It is better to forget such things. Because, pondering on things like that engages  the mind and takes it away from things you should concentrate upon. 
                  
         Of course when we meet , remember to tell me the details so that I can advise you something. Blows always come from the world and we have to be good boxers and avoid all the blows from touching us. I will try to tell you something on the Discipleship of Ajoy when we meet. 
             
              I am glad that the small difficulties you were facing from your family have now gone away and all are cooperating .
                           
               I have got the report on the new committee etc. In the report it was stated that J..... had resigned from the Secretaryship and also from membership and that is why I asked your Secretary to let me know the reason. Instead of doing that he asked J.......  to explain. So, J....  wrote a letter to me in a mystic language and that does not actually explain the situation . 
        
              I think that he never resigned from the membership of the unit. It seems to be corroborated from what he has written . He seems to be very much with the movement and sincerely desires to do as much as possible on his part.  
                       
                It is very good that you are happy with the new committee and with the new spirit with which the work is being carried on with the Study Circle being held twice a week and many new faces are getting interest in the quiz.
              
               The report on the activities , I think , you should submit in English so that others working here can prepare the reports suitably for 'Vivek-Jivan' . All are not conversant with Hindi. 
              
                    It is good that 15 to 35 youths are attending .The way in which you are placing the questions is very good. You, Satish , and others should exert yours life much more to see that you can bring about a real change and inspire the youths to take up the ideas of Swami Vivekananda. I am happy to learn that Kevatji is taking good interest, but I don't think I will be able to write him separately     
                        
                I note that Rajat has gone to Delhi for studies, but left four of his like to work in the unit. Why don't you ask Rajat to attend the study circle in Delhi, if possible? I don't know where he resides ? The study circle is held in the house of Sri Ramdhan Das, Z-17 House Khas, New Delhi -16. It sits every Sunday in the afternoon .I don't know the exact time. He can meet Mr. Das any day and know the details.  
             
            Pramod attended the OTC and we could know why you could not come. Pramod again came to Calcutta yesterday and will be with us at the Midnapur District -level Camp 22nd to 24 th of May. 
           
            About a visit to Jhumritelaiya , I will take a decision only when you send a concrete proposal. 
                 
               Glad to know that the parents of R......  came to you and they intended to read Swami Vivekananda. 

With love and blessings for a long and active life in Swamiji's service.




Yours affectionately
   Nabaniharan Mukhopadhyay 

                                                                                
Sri Bijoy Singh 
Tara Plastics 
Post Box No. 62
Jhumritelaiya- 825 409 
Koderma , E.R ( Bihar) 
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                                                                                          Registered Office:
Bhuban Bhavan
P.O. Balaram Dharma Sopan
Khardah, North 24-Parganas (W.B)
Pin Code 743121
30 June 1992
 Reference No : VYM/92-93/ 190

My dear Bijay, 
                          I was glad to receive a detailed report about the new study circle started at Janibigha in Gaya district. I have replied with as much details as possible . But you have to keep contact with them and see that they get the proper guidance. 
                         It seems from their report that they are very sincere and have in the meantime understood in essence the message of Swami Vivekananda.
                        Orientation of Swamiji's message as it obtaining in the Mahamandal plan should be made clear to them. They are a hundred kilometers off. So, it may be difficult for them to come to Jhumritelaiya often. 
           I think , at intervals you may visit their study circle and encourage them suitably. I expect , they will attend the State-level camp in a large number. 
          
With love 
   Yours affectionately 
 Nabaniharan Mukhopadhyay 

P.S. Hope you have received the notice for OTC to be held on 18-19 July at Andul-Mouri.  
        N.M.
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