आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥
हे कौन्तेय अग्नि के समान जिसको घी के द्वारा तृप्त करना कठिन है, विवेकियों के नित्य वैरी इस काम (desire) के द्वारा मनुष्य का ज्ञान (wisdom-औचित्यबोध या विवेक) आवृत है - अर्थात ढका हुआ है।
ज्ञानी पहले से ही जानता है कि इस काम (desires) के कारण ही मैं अनर्थों में नियुक्त किया गया हूँ। इसके कारण वह सदा दुखी भी होता है। इसलिये यह काम ज्ञानी का ही नित्य वैरी है मूर्ख का नहीं। क्योंकि वह मूर्ख तो तृष्णा के समय उसको (काम को) मित्र के समान समझता है। फिर जब उसका परिणामरूप दुःख प्राप्त होता है तब समझता है कि तृष्णा के द्वारा मैं दुखी किया गया हूँ पहले नहीं जानता था। इसलिये यह काम ज्ञानी का ही नित्य वैरी है। कैसे काम के द्वारा ( ज्ञान आच्छादित है इस पर कहते हैं) कामना इच्छा ही जिसका स्वरूप है जो अति कष्टसे पूर्ण होता है, तथा जो अनल है भोगों से कभी भी तृप्त नहीं होता ऐसे कामना रूप वैरी द्वारा (ज्ञान आच्छादित है )।
5.WISDOM. The question then is how to gain the wisdom. अब प्रश्न उठता है कि इस विवेक (WISDOM-औचित्यबोध) को प्राप्त कैसे किया जाय ? इसके उत्तर में हमारे शास्त्र कहते हैं कि चुँकि यह विवेक (ज्ञान या औचित्यबोध) तो हमारे भीतर (हृदय में ही) सन्निहित है, विवेक (wisdom या औचित्य-बोध) तो हमारा वास्तविक स्वभाव (true nature) ही है; यह हमारा वास्तविक स्वभाव है, किन्तु अज्ञान (माया) के कारण काम (कामिनी -कांचन के प्रति सम्मोहन infatuation) ने उसको ढांक रखा है। अतः इसे प्राप्त करने के लिए हमें कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है। हमें केवल उस अज्ञान (माया-काम) को दूर हटाना है, जिसने इस विवेक (ज्ञान) को ढँक रखा है। [ Scriptures say that since wisdom is inherent in us as our very nature we need not do anything to gain it. We only have to get rid of the ignorance that is covering the wisdom.]
इस प्रकार हम देख सकते हैं, आनन्द और अभय का स्रोत बाह्य जगत के परिवर्तनशील इसलिए नश्वर वस्तुओं (कामिनी -कांचन) के भीतर खोजना व्यर्थ है। एक मात्र अपरिवर्तनशील और अविनाशी वस्तु हमारे भीतर हृदय में अवस्थित आत्मा है। इसका स्वरुप ही परम् -आनन्दमय (supreme bliss) है। इसके विषय में बृहदारण्यकोपनिषद (बृ. उ. ४ । ३ । ३२) में कहा गया है -" एषोऽस्य परम आनन्द एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति।" - (अस्य एषः परमः आनन्दः) इसका यह सर्वोत्कृष्ट आनन्द है (एतस्य एव आनन्दस्य मात्रां) इसी आनन्द के एक छींटे को ले कर (अन्यानि भूतानि उपजीवन्ति) अन्य समस्त प्राणी जीते हैं। [व्याख्या-यह विवरण अन्तिम तुरीय अवस्था (चतुर्थ) का है। याज्ञवल्क्य जनक को उपदेश देते हुए कहते हैं कि इस अन्तिम अवस्था में एक मात्र ब्रह्म, जो समुद्र के समान अथाह, सर्वसाक्षी और अद्वैत है, आत्मा का लोक-आश्रयस्थान होता है। यही जीव का अन्तिम ध्येय, परमगति और परमलोक है और इसी को जीव का सर्वोत्कृष्ट आनन्द प्राप्त कर लेना कहा और माना जाता है। इसी उपर्युक्त आनन्द के एक अंश से समस्त प्राणी जीवित और आनन्दित रहते हैं।
इसलिये यदि हमलोग स्थायी शान्ति, अभय और आनन्द चाहते हों, तो हमें अपने मन (awareness, या चेतना) को बाह्य विषयों से खींचकर अपने हृदय में विद्यमान आत्मा पर (स्वामी विवेकानन्द की छवि पर) धारण करने (प्रत्याहार और धारणा) की विद्या सीखनी होगी। [ So if we want peace, security and happiness we should learn to shift our focus from the body-mind complex to the Self that is inside us.]
महर्षि वेदव्यास ने वेदों की संहिता की थी-चार भागों में बाँटा था, उनहोंने उपनिषदों के सार को संकलित करके ब्रह्मसूत्र की रचना की थी, महाभारत के इतिहास की रचना की थी, १८ पुराणों की रचना की थी, किन्तु उन्होंने किसी एकमात्र शास्त्र पर भाष्य लिखा था, तो वह है -पतंजली का योगसूत्र। महर्षि पतञ्जलि के योग सूत्र पर प्रथम प्रमाणिक व्याख्या “व्यास भाष्य” के रूप में प्राप्त होती है। व्यास भाष्य से तात्पर्य है- व्यास के द्वारा महर्षि पतञ्जलि के योग सूत्र पर दी गयी व्याख्या। पतंजलि योग-सूत्र ॥1.12॥ में योग को इस प्रकार परिभाषित किया गया है- "योगः चित्तवृत्तिनिरोधः।" इस योग -सूत्र पर लिखे भाष्य में व्यासदेव ने विवेक-श्रोत को उद्घाटित करने का एक बहुत सरल उपाय बताते हुए लिखा है - " चित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च। या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा। संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा।तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिली क्रियते। विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयते - इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः।" "
- यहाँ विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयते " पढने से ऐसा प्रतीत होता है, मानो व्यासदेव 5000 साल पहले ही जान चुके थे, कि एक दिन (१२ जनवरी १८६३) को वे स्वयं ही स्वामी विवेकानन्द के रूप में एक सुदर्शन महापुरुष धरती पर आविर्भूत होंगे; तब उनके मूर्त सुदर्शन रूप पर मन को धारण करने से ही ' विवेक-स्रोत ' उदघाटित हो जायेगा ! स्वामी विवेकानन्द के नाम-रूप पर मन को धारण करने के साथ ही साथ चरित्र के समस्त गुणों का ध्यान भी हो जाता है। वे २४ गुणों के मूर्तमान रूप हैं- उनका चित्र युवाओं का सर्वाधिक प्रिय और पसन्दीदा चित्र है- इसलिए उनके अनुकर्णीय चरित्र तथा उपदेशों को हमारा मन आसानी से चिन्तन कर सकता है। इसीलिये तो भारत सरकार ने भी उनके जन्म-दिन ' १२ जनवरी ' को ' राष्ट्रीय युवा दिवस ' घोषित किया है। क्योंकि युवा आदर्श
स्वामी विवेकानन्द ही 'विवेक-प्रयोग शक्ति ' के मूर्तमान रूप हैं,तथा प्रत्येक मनुष्य के हृदय में विद्यमान अन्तर्यामी गुरु हैं ! [ क्या इसे महज एक संयोग कहेंगे कि आदिगुरु शंकराचार्य ने भी पातंजलि योगसूत्र पर भाष्य नहीं लिखा था। व्यासदेव के बाद स्वयं स्वामी विवेकानन्द ने ही पातंजलि योगसूत्र पर अंग्रेजी में भाष्य लिखा था।]
उपरोक्त सूत्र के भाष्य में व्यासदेव कहते हैं, चित्त-नदी के प्रवाह के मानो दो भाग हैं, उसकी एक धारा कल्याण की दिशा में प्रवाहित होती है, दूसरी धारा पाप की दिशा में प्रवाहित होती है। कौन सी धारा कल्याण की दिशा में प्रवाहित होती है ? किस प्रवाह को हम कल्याणकारी कहेंगे ? या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा ।- व्यासदेव कहते हैं, जो हमें 'कैवल्य-प्राप्ति' (विभिन्नता में एकत्व की अनुभूति करने) की दिशा में ले जाएगी, और जो धारा ' विवेक-विषय-निम्ना ' होगी। जिस मन की चिन्तन धारा, या चित्त का प्रवाह विवेक की तली के उपर से बहेगी वही कल्याणवहा धारा है।
तब, उस उभयतो दिशा में प्रवाहित रहने वाले मन (चित्तनदी) के प्रवाह को कल्याणवहा कैसे किया जाये ? यदि उसके प्रवाह की धारा की तली या फर्श विवेक की बनी हुई हो, तो उस चिन्तन प्रवाह को हम कैवल्य के पथ में अपने स्वरुप को जानने के दिशा में ले जा सकते हैं। संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा। यदि हम उसका विपरीत करें, अर्थात अविवेक के उपर से यदि चिन्तन धारा को बहने दिया जाये तो वह धारा कैवल्य की और न जाकर संसार की ओर बहने लगेगी, जो हमारे बंधन का कारण होगा, उसी ओर ले जाएगी। चित्त की इसी धारा का नाम है-पापवहा धारा ।
इस नीचे की ओर ले जाने वाली पापवहा धारा की मोड़ को घुमा देने, या उर्ध्वमुखी कर देने के लिए हमें फिर क्या करना होगा ? तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते -- व्यासदेव कहते हैं, हमें निषिद्ध कर्मों या शास्त्र विरुद्ध कर्मों के प्रति आसक्ति के त्याग का मनोभाव बनाकर, या वैराज्ञ का फाटक लगाकर पापवहा चिन्तन प्रवाह को रुद्ध कर देना होगा। और विवेकदर्शन का अभ्यास (स्वामी विवेकानन्द की छवि या मूर्ति पर) प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास (अर्थात विवेक-प्रयोग) द्वारा कल्याणवहा स्रोत को उद्घाटित करना होगा। जिस प्रकार डैम का फाटक गिरा कर, नदी की धारा को रोक दिया जाता है, उसी प्रकार पाप की चिन्तन धारा को भी वैराज्ञ के मनोभावरूपी फाटक से बन्द कर दो।
जो विषय हमारे मन को बार बार इधर उधर भटकाते हैं, उनसे वितृष्णा होना वशीकार वैराग्य है। अभ्यास से स्थिर मन को यदि विषय खींचते रहेंगे तो दृढ़भूमि भी स्थिर नहीं रहेगी। वैराग्य से अभ्यास दृढ़ होता है और अभ्यास से वैराग्य। दोनों ही एक दूसरे पर आश्रित रहते हुये साथ साथ चलते हैं। एक प्रकार से देखा तो अभ्यास और वैराग्य मन के ही धर्म हैं। जिस पर हमें राग होता है उस पर मन बार बार सयत्न स्थित हो जाता है, उसका अभ्यास होने लगता है। इसी प्रकार जब मन उस भोग से उकता जाता है तो उस वस्तु या विषय के प्रति मन में वैराग्य हो जाता है। अभ्यास और वैराग्य का यह क्रम चक्रीय होता है और उसी चक्र में बार बार घूमता रहता है। योग वृत्तियों का निरोध है, न कि भोग के भँवर मे बार बार डूबना। मन के अन्दर ये दोनों गुण सदा विद्यमान हैं, बस किसका अभ्यास करना है और किससे वैराग्य करना है, यह दिशा योग ही देता है। व्यास भाष्य के निर्देशानुसार विवेक-दर्शन अभ्यासेन के जिनका विवेक जाग्रत हो जाता है, उनमे बहुत विलक्षणता, अलौकिकता आ जाती है।
'विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत्र उद्धाट्यते' और जो स्वतः कल्याण की दिशा में बहने वाली चिन्तन धारा है, उसको विवेक-प्रयोग के अभ्यास द्वारा खोल दो, चित्त की चिन्तन धारा को विवेक की तली से ही प्रवाहित होने दो। जिस व्यक्ति का चित्त इस प्रकार कल्याण मुखी हो जाता है, उसी मनुष्य को भगवान विजय, विवेक और विभूति (ऐश्वर्य) प्रदान करते हैं !
सन्त तुलसीदास ने श्रीरामचरित मानस में लंकाकाण्ड का फलश्रुति देते हुए कहा है —
समर विजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान।
बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान॥121 क॥
भावार्थ--जो सुजान लोग श्री रघुवीर की समर विजय संबंधी लीला को सुनते हैं, उनको भगवान नित्य विजय, विवेक और विभूति (ऐश्वर्य) देते हैं॥।121 (क)॥ --जो सुजान अर्थात चतुर लोग भगवान् श्रीरामजी के समर विजय अर्थात् श्रीराम-रावण युद्ध विजय चरित्र को सुनते हैं और सुनेंगे, उन्हें भगवान् श्रीराम निरन्तर विजय, विवेक और विभूति प्रदान करते रहेंगे।
तीन वस्तुएँ प्राप्त होती हैं—विजय, विवेक और विभूति, परन्तु किसको? एक शब्द जोड़ दिया गया है कि जो ‘सुजान’ हैं। ‘रामायण’ का पाठ और श्रवण तो बहुधा अनेक लोग करते ही रहते हैं, परंतु गोस्वामीजी ने जो ‘सुजान’ शब्द जोड़ दिया, यह बड़े महत्त्व का है। कहने वाला भी सुजान हो और सुनने वाला भी सुजान हो, यह गोस्वामीजी की शर्त है। ये चीजें उन्हीं को प्राप्त होती हैं, जो सुजान होते हैं। यहां सुजान का तात्पर्य है सद्कर्म करने वाला, सदाचरण का पालन करने वाला।
विजय और विभूति के मध्य है --विवेक। यदि जीवन में सफल होना, अपने मनुष्य जीवन को सार्थक करना हमारा लक्ष्य है, तो हमें इस बात को समझना होगा कि जीवन में सफलता प्राप्त कैसे होती है, तथा उस सफलता को स्थाई बनाकर जीवन को सार्थक कैसे किया जाता है ? यदि जीवन में प्राप्त सफलता (मृत्यु पर विजय) को स्थायित्व में बदलना है, तो हमें गणेश जैसी बुद्धि की आवश्यकता पड़ेगी। विवेक के देवता गणेश जी इसलिए प्रथम पूज्य हैं। क्योंकि भगवान गणेश की आराधना करने वाला (अर्थात विवेकदर्शन का अभ्यास करने वाला) चाहे -जीवन के किसी भी क्षेत्र (चार पुरुषार्थ के किसी एक में ?) सक्रीय हो, वह प्रथम पूज्य बन जायेगा। क्योंकि विवेक के देवता गणेश के बिना पूज्यता स्थायी रूप से बनी हुई नहीं रह सकती। इसीलिये विजय और विभूति (ऐश्वर्य) के बीच में विवेक को स्थान दिया गया है। विवेक के अभाव में न तो हम विजय को सम्भाल सकेंगे और न ही ऐश्वर्य को। दोनों के सम्यक सदुपयोग के लिए निरंतर विवेक-प्रयोग करते रहना आवश्यक है।
दीपावली में विद्या की देवी सरस्वती और धन की देवी लक्ष्मी के बीच में विवेक के देवता श्री गणेश जी बैठे हैं, तो अंधकार में भी प्रकाश सम्भव है। साधक के जीवन में चाहे कोई सा भी युग चल रहा हो, हर युग में विभूति -ऐश्वर्य पाने वालों की कमी नहीं है , त्रेता युग में रावण के पास ऐश्वर्य था पर विवेक नहीं था। द्वापर में दुर्योधन के पास ऐश्वर्य था-विवेक नहीं था। सतयुग में हिरण्यकशिपु के पास ऐश्वर्य था किन्तु विवेक नहीं था। विवेक के अभाव में विजयी होने का वरदान पाकर भी वे सभी पराजित हुए। क्योंकि विजय मिलना तो पुरुषार्थ से सम्भव है, पर ठहरना सत्संग (पाठचक्र और कैम्प) से ही सम्भव है।
विजय पर्व का उत्सव तो एक-दो दिन का होता है, पर यथार्थ में मानव के संपूर्ण जीवन में इन तीनों की परीक्षा पल-पल होती है।रावण अति ज्ञानवान था और इसी कारण वह दशीश वाला दशानन कहलाया , मगर ज्ञान का अंहकार ही ज्ञान के सामने अंधकार उत्पन्न कर देता हे और व्यक्ति विवेक-भ्रष्ट हो जाता हे । यही रावण के साथ भी हुआ और जब वह महा पापी के रूप में राम के हाथों मारा गया , तब से वही दिन दसहरा के रूप में जनता द्वारा मनाया जाता हे ..जिस दिन दसशीश धारी हारा वह दिन दसहरा ....अश्विन (क्वार) मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को इसका आयोजन होता है।
विजयदशमी का वास्तविक अर्थ यह है कि भगवान् श्रीराम की रावण पर जो विजय हुई उसे हम किस दृष्टि से देखें ? विजयपर्व या दशहरा हिन्दुओं के वर्ष की तीन अत्यन्त शुभ तिथियों में से एक है, अन्य दो हैं चैत्र शुक्ल की एवं कार्तिक शुक्ल की प्रतिपदा। इसी दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं, शस्त्र-पूजा की जाती है। प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे। इस दिन जगह-जगह मेले लगते हैं। रामलीला का आयोजन होता है। रावण का विशाल पुतला बनाकर उसे जलाया जाता है। लंका के राजा रावण पर अयोध्या के राजा राम के विजय की भावना व्यक्ति और राष्ट्र को उल्लास और उमंग के वातावरण से सराबोर कर देती है। विजयदशमी का एक ही कारण है और वह है राम की विजय। इसीलिए इसे विजय पर्व के नाम से जाना जाता है। दशहरा अथवा विजयदशमी भगवान राम की विजय के रूप में मनाया जाए अथवा दुर्गा पूजा के रूप में, दोनों ही रूपों में यह शक्ति-पूजा का पर्व है।
देवताओं कें मन में भी श्रीराम के ईश्वरत्व का ज्ञान सदा नहीं होता, क्योंकि श्रीराम की मनुष्य-लीला को देखकर वे उनके ईश्वरत्व को भूल जाते हैं। माता सीता के वियोग में भगवान श्रीराम को रोता देखकर माता पार्वती भी उनके ईश्वरत्व को भूल गयी थी। श्रीराम की रावण पर विजय का तात्पर्य क्या है ? विवाह का उत्सव तो एक-दो दिनों के लिए ही होता है, परन्तु उसकी परीक्षा तो सारे जीवन में होती है। विवाह के मण्डप में जो प्रेरणा पर-वधू को प्राप्त होता है, यदि उसका समुचित निर्वाह और पालन होता है तब तो विवाहोत्सव की सार्थकता है और यदि केवल बाजे बजा करके, गीत गा करके, स्वादिष्ट व्यंजनों का भोग लगा करके हम विवाह का आनन्द लें तो यह आनन्द तो क्षणिक ही होगा। मनुष्य मात्र का संपूर्ण जीवन ही संग्राम का प्रतिरूप है। वस्तुतः यही सत्य है।
श्री दुर्गा सप्तशती (११/६) में कहा गया है -
विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः, स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्, का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्ति।।
सभी विद्याएं देवी आपके ही विभिन्न स्वरुप हैं, संसार की सभी स्त्रियाँ आपकी ही मूर्ती हैं | यह सब (संसार) आपसे ही भरा (व्याप्त) हुआ है, (तो फिर) आपकी क्या स्तुति क्या हो सकती है, (आप तो) स्तुति से परात्पर हैं | ''स्त्रियः समस्तास्तव देवि भेदः'' के चलते पारण और नारियल प्रसाद के साथ-साथ कन्या पूजन अनिवार्य कहा गया है। 'सकला जगत्सु' के आधार पर ये सभी नौ कन्यायें माता जगदंबा का ही रूप और प्रतीक मानी जाती है। शक्ति को मर्यादित रूप से प्रयोग करते हुए सत्य और धर्म के पथ पर अग्रसर व्यक्ति अवश्य ही विजयी होता है। अधर्म व अनीति में शक्ति प्रयोग कभी सफल नहीं हो सकता। विवेक-प्रयोग शक्ति से सम्पन्न मनुष्य भी यदि अनीति, अधर्म से संयुक्त हो, उसका आचरण और चरित्र अमर्यादित और लोककल्याण हेतु न हो तो व्यर्थ होती है, पराजित होती है।] भारतीय संस्कृति (श्रुति परम्परा ) श्रेय (निवृत्ति) और प्रेय (प्रवृत्ति) को साथ लेकर चलती है, और जीवन के परम् लक्ष्य (चौथा पुरुषार्थ -मोक्ष) को प्राप्त कर लेती है। श्रीमद्भागवत ( 5/1/17 ) में ब्रह्मा जी प्रियव्रत को उनकी पात्रता के अनुसार प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आने का उपदेश देते हुए कहा है -------
भयं प्रमत्तस्य वनेष्वपि स्याद् यतः स आस्ते सहषट्सपत्नः।
जितेन्द्रियस्यात्मरतेर्बुधस्य गृहाश्रमः किं नु करोत्यवद्यम्।
--- बेटा प्रियव्रत जो असावधान हैं, जिनकी इंद्रिय अपने वश में नहीं रहती है। वे यदि वन में भी रहते हैं तो उनका पतन हो जाता है और उन्हें पतन का सदा डर रहता है। परंतु जिन्होंने निषिद्ध कर्मों का त्याग कर दिया है, अर्थात शास्त्र के विरुद्ध आचरण करना बिल्कुल छोड़ दिया है; और अपने इंद्रियों को अपने वश में कर लिया है ऐसे आत्म ज्ञानी पुरुष का गृहस्थ आश्रम क्या बिगाड़ सकता है। प्रियव्रत तुमने तो पहले से ही भगवान श्रीहरि (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव) के चरण रूपी किले का आश्रय ले रखा है। जिससे तुम्हारे इंद्रिय रूपी शत्रु तुम्हारे वश में है। इसलिए तुम संसार में रहते हुए भी भगवान के दिए हुए भोगों को भोगो, और फिर जब इच्छा हो जाए तब आत्म स्वरूप में स्थित हो जाना। जब ब्रह्माजी ने इस प्रकार समझाया तो प्रियव्रत ने उनकी बात मान ली और देवर्षि नारद की आज्ञा से प्रजापति विश्वकर्मा की पुत्री बर्हष्मती से विवाह कर लिया। जिससे उनके दस पुत्र तथा एक कन्या हुई।
तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता ।(श्रीमद्भा॰ ११ । २० । ९) ‘ तभी तक कर्म कराना चाहिए, जब तक कर्ममय जगत और उससे प्राप्त होने वाले स्वार्गादि सुखों से वैराग्य न हो जाय अथवा जब तक मेरी लीला-कथा के श्रवण कीर्तन में श्रद्धा न हो जाय।।) ’ परन्तु परमात्मा में स्थित होते हुए भी संसार में राग-दवेष के कारण मनुष्य परमात्मा में स्थित नहीं है, प्रत्युत संसार में स्थित है। वे परमात्मा में स्थित तभी होंगे, जब उनके मन में राग-दवेष मिट जायँगे। जब तक मन में राग-दवेष रहेंगे, तब तक भले ही चारों वेद और छ: शास्त्र पढ़ लो, पर मुक्ति नहीं होगी। राग-द्वेष को हटाने के लिये क्या करें ? इसके लिये भगवान् कहते हैं -इसलिए गीता (३ । ५) के अनुसार कर्मों का स्वरूप से त्याग करना असम्भव है‒'न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।‘कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृतिके परवश हुए सब प्राणियों से प्रकृतिजन्य गुण कर्म करवा लेते हैं ।’ जिसकी संसार में ही आसक्ति है, जो संसार को मुख्य मानते हैं, उनके लिये कर्मयोग मुख्य हैं। अपने-अपने वर्ण-आश्रम के अनुसार निष्कामभाव से अर्थात केवल दूसरों के हित के लिये कर्तव्य-कर्म करना कर्मयोग है। सकामभाव से कर्म करने से जड़ता आती है पर निष्काम भाव में चेतनता रहती है। निष्कामभाव होने के कारण कर्मयोगी जड़-अंश से ऊँचा उठ जता है। अगर निष्कामभाव नहीं हो कर्म होंगे, कर्मयोग नहीं होगा। कर्मों से मनुष्य बँधता हैं। ‘कर्मणा बध्यते जन्तु:’| मनुष्य में जितना-जितना निष्कामभाव आता हैं, उतना-उतना वह संसार से ऊँचा उठता है और जितना-जितना सकामभाव आता है, उतना-उतना वह संसार में बँधता है। निष्कामभाव होने से मनुष्य में राग-दवेष, हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वों का नाश हो जाता है और समता आ जाती है। ज्ञानयोग में अपने विवेक को महत्त्व देने से साधक की बुद्धि समता में स्थिर हो जाती है, या साम्य भाव में स्थित हो जाती है। और कर्मयोग में निष्कामभाव से अपने कर्तव्य का पालन (Be and Make) आंदोलन में लगे रहने से भी साम्य भाव की प्राप्ति होती है, तब मनुष्य शरीर के साथ तादाम्य करना छोड़ देता है ।
(गीता २/४८) में कहा है - समत्वं योग उच्यते।।2.48।।समता आने से योग हो जाता है; क्योंकि योग नाम समता का ही है। निष्कामभाव आने से चेतनता की मुख्यता और जड़ता की गोणता हो जाती हैं। गीता 5/19 में आया है -
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।
जिनका अन्तःकरण समता में अर्थात् सब भूतों के अन्तर्गत ब्रह्मरूप समभाव में स्थित यानी निश्चल हो गया है; उन समदर्शी पण्डितों ने यहाँ जीवितावस्था में ही सर्ग को यानी जन्म को जीत लिया है। अर्थात् उसे अपने अधीन कर लिया है। क्योंकि ब्रह्म निर्दोष (और सम ) है। यद्यपि मूर्ख लोगों को दोषयुक्त चाण्डालादि में उनके दोषों के कारण आत्मा दोषयुक्त सा प्रतीत होता है तो भी वास्तव में वह ( आत्मा ) उनके दोषों से निर्लिप्त ही है। चेतन आत्मा निर्गुण होनेके कारण अपने गुण के भेद से भी भिन्न नहीं है। अतः ( यह सिद्ध हुआ कि ) ब्रह्म सम है और एक ही है। इसलिये वे समदर्शी पुरुष ब्रह्म में ही स्थित हैं इसी कारण उनको दोष की गन्ध भी स्पर्श नहीं कर पाती क्योंकि उनमें से देहादि संघात को आत्मा रूप से देखने का अभिमान जाता रहा है।। जिनका मन साम्यावस्था में स्थित हो गया, उन लोगों ने संसार को जीत लिया अर्थात वे जन्म-मरण से ऊँचे उठ गये। ब्रह्म निर्दोष और सम है और उनका अन्त:करण भी निर्दोष और सम हो गया, इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित हो गये।
इसलिए महामण्डल शिविर में आकर मनःसंयोग का प्रशिक्षण लेना होगा। इस ज्ञान को ब्रह्म विद्या, आत्म विद्या और अध्यात्म विद्या के रूप में जाना जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण गीता ९/२ में इसे सर्वश्रेष्ठ विज्ञान (the king of sciences, sovereign science) या 'राज-विद्या', "राजगुह्यम्" (kingly secret), पवित्रम् इदम् उत्तमम् प्रत्यक्षावगमम् (realisable by direct, intuitional knowledge) धर्म्यम् (according to righteousness) सुसुखम् (very easy) कर्तुम् ( to perform) तथा अव्ययम् (imperishable) कहते हैं -
" राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।9.2।।"
यह ज्ञान राजविद्या (विद्याओं का राजा) और राजगुह्य (सब गुह्यों अर्थात् रहस्यों का राजा), एवं यह बड़ा पवित्र और उत्तम भी है। अर्थात् सम्पूर्ण पवित्र करने वालों को भी पवित्र करने वाला यह ब्रह्म-ज्ञान सबसे उत्कृष्ट है। जो अनेक सहस्र जन्मों में इकट्ठे हुए पुण्य-पापादि कर्मों को क्षण मात्र में मूल-सहित जला कर भस्म कर देता है, अतः उसकी पवित्रता का क्या कहना ? साथ ही यह ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव में आने वाला है। यह धर्ममय है, अविनाशी है, और करने में बहुत सुगम है। और यह ज्ञान अव्यय है; अर्थात् कर्मों की भाँति फलनाश के द्वारा इसका नाश नहीं होता। अतः यह आत्मज्ञान श्रद्धा करने योग्य है।
मृत्यु के देवता यम (कठोपनिषद १/२/६) में कहते हैं -भोगासक्त व्यक्ति (हिप्नोटाइज्ड व्यक्ति) कभी दूरदर्शी (विवेकी) नहीं होता -
न साम्परायः प्रतिभाति बालं प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे।। KU(1-2-6)
[(वित्तमोहेन) भोग के समस्त साधनों के मोह से मोहित (मूढम्-hypnotized व्यक्ति) मोहजाल में फंसे हुए (प्रमाद्यन्तम्) कल्याण-मार्ग से प्रमाद करने वाले (बालम् ) अज्ञानी पुरुष को (साम्परायः) परलोक का साधन परमार्थ विचार (न, प्रतिभाति) अच्छा नहीं लगता है। और (अयम्, लोकः) यह प्रत्यक्ष दीखने वाला भौतिक सुख ही है, इससे (परः) दूसरा अर्थात् मरणोत्तर का लोक=सुख (न, अस्ति) नहीं है। (इति) इस ्रप्रकार (मानी) मिथ्याभिमान करनेवाला पुरुष (पुनः पुनः) बार-बार जन्म-मरण के चक्र में आकर (मे) मुझ यम= मृत्यु के देवता या न्यायाधीश की (वशम्) कर्मानुसार फलव्यवस्था को (आपद्यते) प्राप्त होता है।]
दिव्यामृतः संसार के प्रपंच में फँसा हुआ अविवेकी मनुष्य समझता है कि यह प्रत्यक्ष दीखने वाला लोक ही सब कुछ है तथा इससे परे कहीं कुछ नहीं है। धन के मोह से मोहित अज्ञानी मनुष्य की दूरदृष्टि नहीं होती। वह प्रमाद (गंभीर चिन्तन,स्वाध्याय तथा यम-नियम आदि का पालन न करना) के कारण इस जगत्प्रपंचमें ऐसा फँसा रहता है, कि उसे इससे परे कुछ नहीं सूझता। वह सोचता है कि यह संसार ही सत्य है और इस के क्षणभंगुर सुख-भोगों से बढ़कर कुछ भी नहीं है। ऐसा मानने वाला मनुष्य अभिमानग्रस्त होता है तथा अपने गुरु के ज्ञानमय उपदेश को नहीं सुनता। [Such people are blinded by ignorance and come within his grip repeatedly.]
अध्यात्म विद्या (ब्रह्मविद्या) का अर्थ है - शरीर, मन, बुद्धि और जीवात्मा (अहं -कच्चा मैं) से परे की अवस्था को जानने की शिक्षा (जिसे तैत्तरीय उपनिषद में शीक्षा कहा गया है ?) । अर्थात मन बुद्धि की पहुँच से बाहर की अवस्था को परा अवस्था या या आध्यात्म कहा गया है। इस इन्द्रियातीत अध्यात्म भाव या परा अवस्था में अवस्थित होने पर ही मूल तत्व का बोध होता है। इस प्रकार अध्यात्म का सम्बन्ध मूल तत्व से है। इस मूल तत्व को भारतीय वैदिक चिन्तन परम्परा (श्रुति परम्परा) में 'ब्रह्म' कहा गया है। इसे व्यवहार में ज्ञान कहते हैं, परन्तु 'ज्ञान' इन्द्रियों के माध्यम से होता है, और 'बोध' आत्मा से होता है। ज्ञान और बोध में इतना सूक्षम अन्तर हम समझ सकते सकते हैं। इसलिए फिजिक्स (Physics) से परे की बात, अर्थात आध्यात्मिक दर्शन आदि को वैज्ञानिक लोग मेटाफिजिक्स (Metaphysics) तत्त्वमीमांसा या अध्यात्म विज्ञान कहते हैं। 'मेटा' का अर्थ 'से परे की'- इन्द्रियातीत या इन्द्रियों की पहुँच से बाहर ।
वास्तविक आध्यात्मिक ज्ञान अर्थात् तत्वज्ञान क्या है ? विज्ञान ने पदार्थ का अन्वेषण के बाद यह समझ लिया है कि वास्तव में पदार्थ (Matter) ऊर्जा (Energy) का ही घनीभूत रूप है। समस्त भौतिक विश्व में पदार्थ से ऊर्जा और उर्जा से पदार्थ में-transformation या रूपांतरण का कार्य (खेल) अनादि काल से चलता आ रहा है। पदार्थ और उर्जा दोनों से परे सर्वव्यापी चेतना (pure -consciousness) या साक्षी चेतना (witness consciousness) है। समस्त नाम और रूप में ,एक ही परम चेतना (जगत-साक्षिणी witness consciousness) व्याप्त है इसे ही उपनिषदों में ब्रह्म कहा गया है। इस चरम अवस्था की अनुभूति को ही -आत्मसाक्षाकार या आध्यात्मिक भाव कहा जाता है। ऐसी त्रिगुणमय सृष्टि के भेदन से ध्यान मग्न साधक जीव (सत्यार्थी) की,अपने ही चैतन्य स्वरूप में ही स्थिति हो जाती है। यहाँ वह सत्यार्थी अपने यथार्थ स्वरुप को (या परम् सत्य को) जान जाता है; - ऐसा नहीं कहा जा सकता। क्योंकि जिस आत्म तत्व से यह सब कुछ जाना जाता है उस आत्म तत्व को किस के माध्यम से जानें? अर्थात किसी से नहीं ! येनेदं सर्वं विजानाति , तं (तम् आत्मानं ) केन विजानीयात (बृहत आरण्यक.२/४ ) यही वास्तविक आध्यात्मिक ज्ञान या तत्व ज्ञान है।
किन्तु आधुनिक भौतिक विज्ञानी भी अब अध्यात्म की तरफ बढ़ रहे हैं। तो इसके पीछे कारण यही है कि विज्ञान पहले पदार्थ के अलावा अज्ञात अध्यात्म को मेटा फिजिक्स मानता था। फिर विज्ञान में ताप, ऊर्जा , चुम्बकत्व आदि क्षेत्र शामिल हुए, तत्पश्चात अणु-परमाणु और इनमे अन्तस्थ अनन्त ऊर्जा को मान्यता तब प्राप्त हुई जब आइन्स्टीन ने सिद्धांत के रूप में E=mc square सूत्र दिया। उसके बाद विज्ञान का अन्वेषण पदार्थ से आगे बढ़ कर ऊर्जा तक पहुँच गया। और अब यह सर्व व्यापी चेतना (pure consciousness) की बात करने लगा है, जो किसी अध्यात्म ज्ञानी को ध्यान साधना से प्राप्त होती है।
क्वांटम भौतिकी (quantum physics) के वैज्ञानिक मैक्स प्लांक कहते हैं - " मैं चेतना (Pure Consciousness) को ही आधारभूत (तत्व-ब्रह्म) मानता हूँ, तथा पदार्थ को चेतना से उद्भूत मानता हूँ। हम इस चेतना से परे नहीं जा सकते। प्रत्येक ऐसी वस्तु जिसकी हम चर्चा करते हैं (अर्थात नाम, और प्रत्येक ऐसी वास्तु जिसका हम अस्तित्व मानते हैं (अर्थात रूप) सभी नाम और रूप के पीछे चेतना (Infinite-existence-consciousness-bliss)को ही मानना होगा।"
[ I regard consciousness as fundamental, I regard matter as derivative from consciousness.We cannot get behind consciousness.Every thing that we talk about,any thing that we regard existing, postulates consciousness. (as quoted in The Observer 25January 1929 ]
मुण्डक उपनिषद (प्रथम मुण्डक ,खण्ड १,छन्द ३-४-५ ) में इसको परा विद्या (higher vidya-उच्चतर विद्या) कहा गया है। यह श्रुति कहती है -'परा विद्या ' की तुलना में वेद-आदि भी तुच्छ हैं। शौनक ऋषि,जो एक बड़े विश्वविध्यालय या ऋषिकुल के अधिष्ठाता थे, उस समय के शिष्टाचार के अनुसार हाथ में समिधा (यज्ञ के लिए पवित्र लकड़ी ) लेकर महर्षि अंगिरा के निकट गए और प्रश्न किया कि , वह परम तत्व क्या है जिसके जान लेने से यह सब कुछ जाना जा सकता है ? तब अंगिरा ने उत्तर दिया : " द्वे विद्ये वेदितव्ये ….परा च एव अपरा च …तत्र अपरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो अथर्व वेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषम इति "(उपरोक्त का छंद ५ ).यहाँ ध्यान देने की बात है कि अंगिरा ने ऋग्वेद,यजुर्वेद सामवेद अथर्व वेद को (अर्थात पुस्तकीय ज्ञान को) अपरा विद्या कहा।
आगे इसी छन्द में वह कहते हैं : 'अथ परा यया तत अक्षरम अधिगम्यते।' यहाँ अपरा विद्या से तात्पर्य ऐसे ज्ञान क्षेत्र से है जो दूसरों के अनुभव से प्राप्त हुए हैं। इसलिए वेदों को अपर कोटि की विद्या कह दिया जो बहुतों को अच्छा नहीं लगेगा। पर कारण स्पष्ट है कि वेद के चार महावाक्य ऋषि की अनुभूति तो हैं, पर दूसरे के ऐसी अनुभूति परतः प्रमाण concept हुई। इसी लिए वह आगे कहते हैं कि 'परा विद्या' से अक्षर अविनाशी तत्व अर्थात का ब्रह्म बोध किया जाता है। अविद्या, विद्या का विलोम शब्द है। भारतीय धर्मों में 'अविद्या' का अर्थ है- अज्ञान, गलत धारणा। उपनिषदों में 'अविद्या' का बार-बार प्रयोग हुआ है।ब्रह्म ज्ञान से इतर ज्ञान को भी अविद्या कहा गया है। आजकल जिसे विज्ञान कहा जाता है, उसे भी अविद्या कहा गया है। ऐसा नहीं है कि भारतीय दर्शन में सर्वत्र अविद्या को हीन ही बताया गया हो। कहीं-कहीं उसे विद्या का पूरक भी माना गया है। उदाहरण के लिए —ईशा वास्य उपनिषद मन्त्र ११ में इसी अपरा को 'अविद्या' और परा को 'विद्या' कहा गया है।
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते॥
[अन्वय - यः विद्यां च अविद्यां च तत् उभयं सह वेद अविद्यया मृर्युं तीर्त्वा विद्यया अमृतम् अश्नुते ॥] जो व्यक्ति तत् को इस रूप में जानता है कि-- वह एक साथ विद्या और अविद्या दोनों है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से [अमृतत्त्व (देवतात्मभाव = देवत्व)] अमरता का आस्वादन करता है। “विद्ययाऽमृतमश्नुते” इस वेद के वचनानुसार -विद्या से अमृत की प्राप्ति होती है। विद्या= यथार्थज्ञान से मृत्यु—दुःख-बन्धन से छूटकर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है, किन्तु जो अविद्या-ग्रस्त होने से बालक है, अविवेकी है, विषय-भोगों को ही सब कुछ समझता है। और मरण के पश्चात् पाप-पुण्य के फलों पर भी कोई विश्वास नहीं करता, ऐसा नास्तिक पुरुष परमात्मा की न्याय-व्यवस्था के वशीभूत होकर विभिन्न योनियों में आवागमन करता रहता है । ईशोपनिषद् का निर्देश है कि इन १. विद्या और २. अविद्या में उपेक्षा किसी की भी नहीं की जा सकती । अविद्या अर्थात विविध सांसारिक ज्ञान-विज्ञान से संसार की विविध बाधाओं को जीतना चाहिए ( गृहस्थ लोगों को रोजी-रोटी कमाने का इंतजाम अवश्य करना चाहिए) और साथ ही साथ 'विद्या' से अमृत पान भी करना चाहिए- अविद्या मृत्युं तीर्त्वा ,विद्यया अमृतं अश्नुते। जो लोग किसी एक को जरूरत से ज्यादा महत्व देते हैं, वे जीवन के असंतुलन में भटक जाते हैं । जो संतुलित जीवन जीना चाहें, लौकिक और पारलौकिक दोनों जीवन धाराओं का लाभ उठाना चाहें, वे विद्या और अविद्या दोनों को जानें और उनका संतुलित उपयोग करें । अविद्या उसे (उस Science and Technology को ) कहा गया है, जो हमारे जीवन की नश्वर विभूतियों (शरीर, पद, प्रतिष्ठा, साधनों) आदि के विकास और उपयोग की कुशलता विकसित करती है । हमारे उक्त घटक (2H -शरीर और मन) भले ही जड़ और नश्वर हैं, किन्तु प्रत्यक्ष जीवन के रहते उनके महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता । परमार्थ आदि के लिए भी उनका सहारा तो लेना ही पड़ता है । कहा भी गया है कि ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् ‘ अर्थात् धर्म-परमार्थ साधने के लिए भी शरीर ही पहला साधन बनता है । इसलिए उक्त विषयक कुशलता को, अविद्या को भी जानने-समझने, अपनाने की जरूरत है । विद्या उसे कहा गया है, जो हमारे जीवन की अविनाशी विभूतियों, आध्यात्मिक क्षमताओं के विकास और उपयोग की कुशलता विकसित करती है । अविद्या आश्रित विभूतियों का सदुपयोग भी इसी विद्या के द्वारा संभव होता है । विद्या की उपेक्षा होने से शरीर, साधन आदि की शक्तियाँ अनियंत्रित, उच्छृंखल होकर तमाम अनिष्ट पैदा करने लगती हैं ।
आदि शंकराचार्य (मुंडकोपनिषद्, 1-1-4) के भाष्य में कहते हैं - ' अपरा हि विद्याविद्या सा निराकर्तव्या। तद्विषये हि विदिते न किञ्चित्तत्त्वतो विदितं स्यादिति।' --अर्थात अपरा विद्या तो अविद्या (अज्ञान -इग्नोरेंस) ही है; अत: उसका निराकरण किया जाना चाहिये। क्योंकि केवल अविद्या को जानने से परम् सत्य का बोध नहीं होता। भगवान श्रीकृष्ण गीता 6 /22 में कहते हैं -
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।
और जिस आत्म-साक्षात्कार रूपी लाभ को प्राप्त होकर उससे अधिक अन्य कुछ भी लाभ है, ऐसा नहीं मानता। तथा दूसरे प्रकार के लाभ (कामिनी-कांचन आदि) का स्मरण भी नहीं करता। एवं जिस आत्मतत्त्व में स्थित हुआ योगी शस्त्राघात आदि बड़े भारी दुःखों द्वारा भी विचलित नहीं किया जा सकता।
आत्मबोध (wisdom-औचित्यबोध) प्राप्त करने की विद्या में प्रशिक्षित शिक्षकों का महत्व इतना अधिक है (मनःसंयोग का प्रशिक्षण देने में समर्थ शिक्षकों की महिमा इतनी अधिक है) कि श्रीकृष्ण गीता (10 /32 ) में कहते हैं - "अध्यात्मविद्या विद्यानाम् " - मैं समस्त विद्याओं में मैं अध्यात्मविद्या हूँ !
इसके भाष्य में शंकराचार्य कहते हैं - समस्त विद्याओंमें जो कि मोक्ष देने वाली होने के कारण प्रधान है' वह अध्यात्मविद्या मैं हूँ। 'अध्यात्मविद्या विद्यानां मोक्षार्थत्वात् प्रधानं अस्मि'-'It is the chief among all knowledges, because it leads to mokSha' समस्त विद्याओं में, 'मनःसंयोग का प्रशिक्षण' जो कि मोक्ष देने वाली (de-hypnotized करने में सक्षम) होने के कारण प्रधान है, वह अध्यात्मविद्या मैं हूँ।
यह मनःसंयोग की विद्या (प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास) के प्रशिक्षण द्वारा 'व्यष्टि अहं' को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी 'विराट अहं' में रूपान्तरित करने की विद्या) इतनी उत्कृष्ट (exalted-असाधारण) है कि इस विद्या को माँ जगदम्बा का स्वरूप ही माना जाता है। और इसीलिए श्री लक्ष्मी तथा श्री ललिता (श्री श्री माँ सारदा देवी) का एक नाम तो 'विद्या' ही है।
सद्गुरु की प्राप्ति करना अनिवार्य है या वैकल्पिक है ? (acceptance of a sadguru very much essential or optional?) –शास्त्रों में कहा गया है कि इस 'अध्यात्म-विद्या ' (wisdom-औचित्य-बोध या विवेक) को कोई व्यक्ति केवल पुस्तकीय ज्ञान द्वारा या स्वयं प्रयास करके प्राप्त नहीं कर सकता। वैसा करने से शंका बची ही रहती है, और यह मिथ्याबोध (misunderstanding -गलतफहमी) हो सकती है कि मैं (अहं) जानता हूँ कि ब्रह्म क्या है ? [ मनुष्य निर्माण में मुख्य विषय है जीव और ब्रह्म का ऐक्यं। यहां ऐक्यं का अर्थ योग या मिलना या union/merger आदि नहीं है क्योंकि मिलना तो उसका होता है जो अलग हों। यहां ऐक्य से तात्पर्य है कि जीव और ब्रह्म दोनों ही अखण्ड एकरस शुद्ध चैतन्य हैं। जीव और ब्रह्म दो वस्तु नहीं हैं यह एक ही वस्तु के दो नाम हैं। "तरति शोकम् आत्मवित् (छां उ ७।१।३) इत्यादिश्रुतेः "ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति " (मुण्ड उ ३।२।९)]
हमारी श्रुति परम्परा कहती है कि - इस विद्या को गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा [स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा - Be and Make'] में प्रशिक्षित श्री गुरुदेव (या नवनीदा) के चरणों में बैठकर ही सीखना होगा। --"आचार्यादेव विद्या विदिता साधिष्ठं प्रापयति" (छान्दो.उप.४।९।३). -अर्थात आचार्य देव से जानी हुई विद्या ही प्रतिष्ठित होती है। तत्त्वज्ञान प्राप्त करने की यही विधि है। आँख से शालिग्राम को देखेंगे, तो कोई बतावेगा कि भावना करो कि ये भगवान हैं। शिवलिंग देखेंगे तो कोई बतावेगा कि भावना करो कि ये भगवान हैं। जब तक भावना करनी पड़ती है, तब तक भगवान का दर्शन नहीं हुआ। इसलिए ‘आचार्यवान् पुरुषो वेद।’ उपनिषद् का कहना है कि जिसके गुरु हैं, जिसके आचार्य हैं, वही इस परमेश्वर को जान सकता है। क्योंकि जो वस्तु इन्द्रियों से दिखायी नहीं पड़ती है, अनुभव में नहीं आती है, उसका अनुमान भी नहीं हो सकता। जब हम पहले आग और धुँआ दोनों को अपनी आँखों से एक जगह देख लेते हैं, तब कहीं भी धूँआ देखकर आग का अनुमान कर सकते हैं। परन्तु जब तक धुँएँ और अग्नि के सम्बन्ध का ज्ञान नहीं है, तब तक अनुमान नहीं हो सकता। तो जो परमात्मा का स्वरूप हमारे लिए अभी अज्ञात है, उसका ज्ञान केवल उपदेश से ही हो सकता है। सुरति -वाक्य से ही उसका ज्ञान हो सकता है। जब कोई अनुभवी पुरुष (ब्रह्मविद पुरुष) वेद-शास्त्र के वचन से या अनुभव के वचन से उसको समझावेगा, तभी हम उसको जान सकते हैं। जिसने परमात्मा को पहचाना है उस पुरुष की वाणी, उसका उपदेश ही आपको परमात्मा का ज्ञान करा सकता है। इसलिए ‘आचार्यद्धयैव विद्या विदिता साधिष्ठं प्रापयतीति’--ब्रह्मविद आचार्य से जानी हुई जो विद्या है, वही परमात्मा का साक्षात्कार करा सकती है। कोई छोटा-मोटा आदमी यदि इसका उपदेश करे तो तत्त्वज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि यह बड़ा सूक्ष्म है। इसलिए आचार्य की उपासना इसमें आवश्यक है।
मुण्डकोपनिषद् (१.२.१२ ) कहता है “तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् । समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ।। “ अर्थात् “उस परब्रह्म के विज्ञानार्थ (उसकी अपरोक्षानुभूति – बाह्य व अन्तः साक्षात्कारात्मक रूप से प्राप्त करने के लिये) वह (साधक) हाथ में यज्ञीय समिधा लिये (विनम्र व पवित्र भाव से) श्रोत्रिय तथा ब्रह्मनिष्ठ गुरुदेव के निकट जाये। तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु की शरण में ही जाय, उनको घर में रखकर वेदान्त का टयूशन नहीं लिया जाता, उसमें तो गुरु जी पैसे पर खरीदे जायेंगे। गुरु जी छोटे हो जायेंगे और शिष्य जी बड़े दिखेंगे। (श्रीमद्भगवद्गीता ४.३४ में भी यही उल्ल्लिखित है –
“तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्नानिस्तत्त्वदर्शिनः।।
तभी यह विद्या फलदायी होगी! इसकी व्याख्या करते हुए आचार्य शंकर ने मुण्डक (१.२.१२) ' तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्' पर लिखे अपने मुण्डक भाष्यमें सत्यार्थीयों को (भावी शिक्षकों को) चेतावनी दी है- कि 'शास्त्रज्ञोऽपि स्वातंत्र्येण ब्रह्मज्ञानान्वेषणं नैव कुर्यात्।" --यद्यपि अधिकार प्राप्त हो चुका है और वेद का विधिवत् अध्ययन किया है तथापि प्रमाता अपने आप ब्रह्मज्ञान का अन्वेषण स्वयं नहीं कर सकता है, अतः उसे श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाना चाहिये। शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् भी शिष्य को ब्रह्मज्ञान की, मनमानी खोज नहीं करनी चाहिए। चाहे जितना महान पण्डित हो चाहे जितना बड़ा धनी हो ,साधना चतुष्टय (विवेक. वैराग्य -शमादिषट्क- संपत्ति और मुमुक्षत्व) संपन्न मुमुक्ष साधक को किसी सद्गुरुओं की परम्परा में प्रशिक्षित नेता के पास अवश्य जाना चाहिए। [The striver should approach a guru. Sri Sankaracharya in explaining this statement says that the implication is that even one proficient in scriptural studies should not try to do the inquiry by himself.]
6. THE GURU. The next question that arises as a corollary is who is a guru?
अब प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि गुरु कौन हैं ? उनकी योग्यतायें क्या हैं ? यदि कोई व्यक्ति शास्त्रों के प्रामाणिक ज्ञाता हों, तो क्या यह गुरु होने के लिए पर्याप्त है ? शास्त्रों में इन प्रश्नों के उत्तर विस्तार से दिए गए हैं। किसी सत्यार्थी या आध्यात्मिक जिज्ञासु के लिए, इन महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर जानना अनिवार्य है, क्योंकि वह यदि किसी गलत हाथों में पड़ गया, तो कुमार्ग पर भी भटक सकता है, और अपना समय, प्रयत्न और शायद धन भी बर्बाद कर सकता है।
आइए, अब हम अपने शास्त्रों और आचार्यों द्वारा कहे गए श्रुति परम्परा में प्रशिक्षित किसी सद्गुरु (मार्गदर्शक नेता या जीवन्मुक्त शिक्षक) की विशेषताओं को जानने की चेष्टा करते हैं। आदिगुरु शंकराचार्य ने 'प्रश्नोत्तर रत्नमालिका' में इस प्रकार समझाया है - भगवन् ! उपादेयम् किम् ? गुरुवचनम् । -अर्थात हे भगवन ग्रहण करने योग्य क्या है ? श्री गुरुदेव के वचन ! अपि च हेयम् किम्? और त्यागने योग्य क्या है ? गृहस्थों के लिए जिसे निषिद्ध कर्म (Unapproved deeds.अकार्यम्) या शस्त्रविरोधी कर्म कहा गया हो, उन कर्मों को त्यागे बिना ब्रह्मज्ञान नहीं हो सकता ! कः गुरुः ? -अर्थात कौन गुरु है? ---सततम् शिष्यहिताय उद्यतः अधिगततत्वः ॥ जिसने तत्वों का ज्ञान अर्जित कर लिया हो और शिष्य के हित के लिए निरंतर ही प्रयत्नशील रहता है। असली गुरु वह होता है, जिसके मन में शिष्य के कल्याण की इच्छा हो और शिष्य वह होता है, जिसमे गुरु कि भक्ति हो – को वा गुरुर्यो हि हितोपदेष्टा/ शिष्यस्तु को यो गुरुभक्त एव । (प्रश्नोतरी ७) अगर गुरु पहुँचा हुआ हो और शिष्य सच्चे हृदय से आज्ञा-पालन करने वाला हो; तो शिष्य का उद्धार होने में संदेह नहीं है ।
मुण्डक उपनिषद (१/२/ १२) में संक्षेप में कहा गया है, "श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्।" -अर्थात ‘कर्मसे प्राप्त किये जाने वाले लोकों की परीक्षा करके ब्राह्मण वैराग्य को प्राप्त हो जाय, विवेक, वैराग्य से मुमुक्षा (de-hypnotized) की आकांक्षा जाग्रत हो जाने के बाद, यह समझ ले कि किये जाने वाले कर्मों से परमात्म तत्त्व नहीं मिल सकता । वह उस ब्रह्मज्ञान को प्राप्त करने के लिये हाथ में समिधा लेकर श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाय ।’
वह गुरु (नेता या जीवन्मुक्त शिक्षक) कैसा होना चाहिये ? शिक्षक होना चाहिए वैसा जिसने स्वयं भी अपने गुरु की चरणों में बैठकर [नवनी दा जैसा जिसने अपने पूर्व जन्म में - " स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा" में (या 'C-in-C Be and Make' परम्परा नेता वरिष्ठ बनने और बनाने का] प्रशिक्षण प्राप्त करके अपने सभी सन्देहों को दूर कर लिया हो, और फिर अपने ब्रह्मस्वरूप (साम्यभाव में) दृढ़ता के साथ प्रतिष्ठित हो चुके हों। उनका ज्ञान कभी कम्पायमान (shaky) नहीं होता, और इसीलिए वह अपने शिष्य (भावी C-in-C) को भी उसी स्पष्टता (निर्भीकता) के साथ उस ज्ञान को हस्तान्तरित (convey) करने में समर्थ होते हैं! मृत्यु के देवता यम (कठोपनिषद् - १/२/८) में कहते हैं कि जो शिक्षक /नेता [C-in-C] योग्य नहीं है, वह हीन है और उसका शिक्षण कभी प्रभावी नहीं होगा-
न नरेणावरेण प्रोक्त एष सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः ।
अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र नास्ति अणीयान् ह्यतर्क्यमणुप्रमाणात् ॥
[ शब्दार्थ: अवरेण नरेण प्रोक्तः = अवर (अल्पज्ञ, तुच्छ) मनुष्य से कहे जाने पर; बहुधा चिन्त्यमानः = बहुत प्रकार से चिन्तन किए जाने पर (भी); एष = यह आत्मा, यह आत्मतत्त्व; न सुविज्ञेय: =सुविज्ञेय (भली प्रकार से जानने के योग्य) नहीं है; अनन्यप्रोक्ते = किसी अन्य आत्मज्ञानी के द्वारा न बताये जाने पर; अत्र = यहाँ,इस विषय में; गतिः न अस्ति = पहुँच नहीं है; हि = क्योंकि, अणुप्रमाणात् = अणु के प्रमाण से भी; अणीयान् = छोटा अर्थात् अधिक सूक्ष्म; अतर्क्यम् = तर्क या कल्पना से भी परे।]यम कहते हैं कि अपूर्ण व्यक्ति [unaccomplished -जिसने अपने गुरु से हस्तारण या चपरास द्वारा स्वयं अभय पद (C-in-C) प्राप्त नहीं किया हो ] के द्वारा कहे (बतलाये) जाने पर, (और उनके अनुसार) बहुत प्रकार से चिन्तन करने पर भी, यह आत्मतत्त्व (आसानी से) समझ में नहीं आता। किसी अन्य ज्ञानी पुरुष के द्वारा उपदेश न किये जाने पर इस विषय में (मनुष्य का) प्रवेश नहीं होता, क्योंकि यह (विषय) अणु-प्रमाण (सूक्ष्म) से भी अधिक सूक्ष्म है, (इसलिए) तर्क से परे (अतीत) है। जो भी योग्य नहीं है वह हीन है और उसका शिक्षण प्रभावी नहीं होगा।
'जीवन्मुक्त', 'महान्तं' या असाधारण 'Exalted 'शिक्षक की परिभाषा: What is meant by 'महान्तं' - Exalted'? श्री शंकराचार्य अपनी विवेक-चूड़ामणि ग्रन्थ में दो स्थानों पर किसी समर्थ गुरु की योग्यता को दर्शाया है। एक स्थान पर (वि० चू० -8) कहते हैं - सन्तं 'महान्तं' समुपेत्य देशिकं तेनोपदिष्टार्थसमाहितात्मा ||८|| - इसलिए विद्वान सम्पूर्ण बाह्य भोगों की इच्छा त्याग कर सन्त शिरोमणि [ C-in-C] और गुरुदेव की शरण में जाते हैं उनके उपदेश किये हुए विषय में समाहित होकर मुक्ति के लिए प्रयत्न करे। श्रीमद्भागवत के पंचम स्कंध (ऋषभजी का अपने पुत्रों को उपदेश देना और स्वयं अवधूतवृत्ति ग्रहण करना) में भगवान ऋषभदेव ने राज्य का त्याग करने के पहले अपने पुत्रों को उपदेश देते समय, 'महान्तं' -असाधारण (exalted) या 'C-in-C' को परिभाषित करते हुए कहा है -
महान्तस्ते समचित्ताः प्रशान्ता विमन्यवः सुहृदः साधवो ये। ( 5/5/2 ) महान पुरुष वे ही हैं , जिनका चित्त समता से युक्त है जो परम शांत हैं , क्रोधादि से रहित हैं और सब के परम हितैषी हैं। विवेक चूडामणि में (श्लोक ३३) शंकराचार्य यथार्थ गुरु की योग्यताएँ इस प्रकार बताते हैं -
श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतो यो ब्रह्मवित्तमः।
ब्रह्मण्युपरतः शान्तो निरिन्धन इवानलः।
[श्रुतियों के ज्ञान से जो युक्त हों, पाप रहित हों, कामना शून्य हों, श्रेष्ठ ब्रह्मनिष्ठ हों, ईंधन रहित अग्नि की भांति शान्त हों, अकारण दयालु हों और शरण में आये हुए सज्जनों के हितैषी हों, उन सद्गुरु की सेवा करके, उनसे विनम्रतापूर्वक अभ्यर्थना करके, उनके प्रसन्न होने पर अपना ज्ञातव्य (प्रश्न) पूछना चाहिये।]
7.मनुष्य जीवन में गुरु/मार्गदर्शक नेता का महत्व (IMPORTANCE OF THE GURU.): मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य, और अंतिम पुरुषार्थ है- मुक्ति (liberation-भ्रममुक्त अवस्था,De-hypnotized अवस्था) को प्राप्त हो जाना। इस अवस्था की प्राप्ति अपने विषय में गलत समझ जिसे अज्ञान (जैसे सिंह शिशु का स्वयं को भेंड़ समझना या माया) कहते हैं, उस अज्ञान को दूर करने से होती है। जब यह अज्ञान दूर हो जाता है, तब हमारे भीतर सोया हुआ ब्रह्म-रूपी सिंह जाग उठता है, और मृत्यु का भय सदा के लिए चला जाता है। क्योंकि अविद्या (अज्ञान) के हटते ही, आत्मसाक्षात्कार हो जाता है, और आत्मा अपने अनुभव से जान लेती है, कि वह इस क्षुद्र नश्वर शरीर (अहं -मन) में ही बद्ध नहीं है, बल्कि अविनाशी, सर्वव्यापी विराट ब्रह्म या जगत साक्षिणी है। और तब हमारी आत्मा भ्रममुक्त या 'De-hypnotized' होकर अपनी महिमा में प्रकाशित होने लगती है। [The summum bonum of human life is liberation.
This is got by removal of wrong understanding about ourselves (known as ajnanam). When tha ajnanam is removed our Self shines in all its glory].
ब्रह्मविद या ब्रह्म को जानने वाली आत्मा (ज्ञाता) ब्रह्म हो जाती है, ' जानत तुम्हीं तुम्ह होइ जाई'- इसलिए वह आत्मा 'जन्म-मृत्यु' के चक्र से छूट कर, सभी प्रकार की दुःखों से मुक्त (जीवन्मुक्त) हो जाती है। हमने देखा है कि भ्रममुक्त होने की पद्धति - 'राजविद्या' (जीवनमुक्त शिक्षक बनने और बनाने की पद्धति-मनःसंयोग) सीखने की प्रक्रिया में किसी योग्य गुरु/ C-in-C नेतावरिष्ठ के मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। इस प्रकार गुरु ( विवाहित होकर भी प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में पहुँचे, मनःसंयोग का प्रशिक्षण देने में सक्षम महामण्डल नेता) की भूमिका निभाना इतना महत्वपूर्ण है , कि उसको शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। [दादा कहते थे युवाओं को मनःसंयोग का प्रशिक्षण केवल गृहस्थ नेता ही दे सकते हैं, संन्यासी नहीं।]
हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि हर व्यक्ति को इसी जीवन में गुरु (स्वामी विवेकानन्द) की कृपा प्राप्त नहीं होती। शास्त्र कहते हैं, मनुष्य का शरीर बड़े भाग से मिलता है, तथा 'विवेक-प्रधान' होने से इसे देवताओं के शरीर से भी मूल्यवान कहा गया है। क्योंकि केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जो विवेक-प्रयोग करके अपने जीवन लक्ष्यों को निर्धारित कर सकता है, तथा चार पुरुषार्थ को अपने स्वाभाविक रूप से प्राप्त धर्म (प्रवृत्ति-निवृत्ति) के अनुसार दीर्घकालिक योजना और अल्पकालिक योजना आवश्यकतानुसार बनाकर ,बुद्धिमानी के साथ काम करके उन्हें प्राप्त भी कर सकता है।
पशु तो अपनी जन्मजात प्रवृत्ति (
instinct) के द्वारा संचालित होकर, आहार,निद्रा, भय और मैथुन में ही अटके रहते हैं। वे अपने विवेकपूर्वक अपने जीवन-लक्ष्य का निर्धारण नहीं कर सकते। इस प्रकार हम देखते हैं, कि एकमात्र मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जो देवदुर्लभ मनुष्य जीवन के मूल्य को समझकर, इसके अन्तिम लक्ष्य -मुक्ति को पाने का प्रयास कर सकता है। यदि महामूल्यवान मनुष्य जीवन के इस महत्वपूर्ण बिन्दु को हम नहीं समझ सके, और इस जीवन को भी यदि भौतिक सुखों की खोज में (कामिनी-कांचन के चक्कर में) ही व्यर्थ होने दिया तो --इससे बड़ी मूर्खता और क्या होगी ? (क्योंकि हमने पहले ही देखा है कि सारे भौतिक सुख तो नश्वर या क्षणभंगुर (ephemeral) हैं !)
ऐसे सुख पाने की कामना जिनसे इन्द्रियों को ख़ुशी/तृप्ति मिलती हो, तो पशु लोग करते हैं। इसलिए यदि कोई मनुष्य होकर भी आजीवन अपने को अर्थ और काम (कामिनी -कांचन) की प्राप्ति में व्यस्त रखता है, तो वह खुद को पशु के स्तर पर गिरा लेता है, और अपने बहुमूल्य मानवजीवन को नष्ट कर लेता है। भगवान ऋषभ देव ने अपने पुत्रों को (भागवत-5/5/1) अपनी सलाह में इस बात पर जोर दिया था-
नायं देहो देहभाजां नृलोके कष्टान् कामानर्हते विड्भुजां ये।
तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्धयेद् यस्माद् ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम्॥“
हे पुत्रो! इस मनुष्य योनि को प्राप्त करके भी इन्द्रियसुख के लिए (कामिनी-कांचन के लिए) अधिक श्रम करना व्यर्थ है। ऐसा सुख तो सूकरों को भी प्राप्य है। इसकी अपेक्षा तुम्हें इस जीवन में तप करना चाहिए, जिससे तुम्हारा जीवन पवित्र हो जाय और तुम असीम दिव्यसुख प्राप्त कर सको।”अतः जो यथार्थ योगी या दिव्य ज्ञानी हैं वे इन्द्रियसुखों की ओर आकृष्ट नहीं होते क्योंकि ये निरन्तर भवरोग के कारण हैं। वो भौतिकसुख के प्रति जितना ही आसक्त होता है, उसे उतने ही अधिक भौतिक दुख मिलते हैं।
श्रीऋषभदेवजीने कहा—पुत्रो ! इस मृत्युलोक में यह मनुष्य-शरीर दु:खमय विषयभोग प्राप्त करने के लिये ही नहीं है। ये भोग तो विष्ठाभोजी सूकर-कूकरादि को भी मिलते ही हैं। इस शरीर से दिव्य तप ही करना चाहिये, जिससे अन्त:करण शुद्ध हो; क्योंकि इसीसे अनन्त ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है ॥ १ ॥ शास्त्रों ने महापुरुषों की सेवा को मुक्ति का और स्त्री-संगी कामियों के सङ्ग को नरक का द्वार बताया है। महापुरुष वे ही हैं जो समानचित्त, परमशान्त, क्रोधहीन, सबके हितचिन्तक और सदाचार-सम्पन्न हों ॥ २ ॥ अथवा मुझ परमात्मा के प्रेम के ही जो एकमात्र पुरुषार्थ मानते हों, केवल विषयों की ही चर्चा करने वाले लोगों में तथा स्त्री, पुत्र और धन आदि सामग्रियों से सम्पन्न घरोंमें जिनकी अरुचि हो और जो लौकिक कार्यों में केवल शरीर-निर्वाह के लिये ही प्रवृत्त होते हों ॥ ३ ॥ मनुष्य अवश्य प्रमादवश कुकर्म करने लगता है, उसकी वह प्रवृत्ति इन्द्रियोंको तृप्त करनेके लिये ही होती है। मैं इसे अच्छा नहीं समझता, क्योंकि इसीके कारण आत्माको यह असत् और दु:खदायक शरीर प्राप्त होता है ॥ ४ ॥]आचार्य शंकर ने विवेक चूड़ामणि में कहा है -
दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम्।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरूषसंश्रय:॥
यह तीन दुर्लभ हैं और देवताओं की कृपा से ही मिलते हैं - मनुष्य जन्म, मोक्ष की इच्छा और महापुरुषों का साथ॥ तथा सामान्य भाषा मे कहे तो , मनुष्य जन्म, मुक्ति की इच्छा तथा महापुरूषों के साथ गुरुगृह में गुरु के साथ वास- यह तीन चीजें परमेश्वरकी कृपापर निर्भर रहते है । यही बात मृत्यु के देवता यम भी अपने शिष्य नचिकेता से कहते हैं -
श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः
शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धा
आश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः॥
(कठोपनिषद् १/२/७)
जो बहुतों को तो सुनने के लिए भी प्राप्त होने योग्य नहीं है, जिसे बहुत से सुनकर भी नहीं समझते उस आत्मतत्त्व का निरूपण करने वाला भी आश्चर्यरूप है, उसको प्राप्त करने वाला भी कोई निपुण पुरुष ही होता है। तथा कुशल आचार्य द्वारा उपदेश किया हुआ ज्ञाता भी आश्चर्यरूप है। भोगासक्त आलसी प्रमादी व्यक्तियों को तो आत्मा-परमात्मा सम्बन्धी ब्रह्मज्ञान सुनने को भी नहीं मिलता । संयोगवश किसी-किसी जिज्ञासु को विधिवत्-यथार्थरूप में, योग्य गुरु से यह ज्ञान कहीं पढ़ने-सुनने को मिल भी जावे तो, अविद्या से मलिन चित्त वाले व्यक्ति को सुनने पर भी समझ में नही आता । यदि किञ्चित् समझ में भी आ जावे तो इस सूक्ष्म ज्ञान को वह अपने जीवन व्यवहार में क्रियान्वित नहीं कर पाता । इस ब्रह्मविद्या का उपदेष्टा तथा इस विद्या से सुशिक्षित होकर, अपने जीवन को कृतकृत्य करने वाला आश्चर्य रूप कोई विरला ही व्यक्ति होता है।
किसी विषय में हमें जिससे ज्ञानरूपी प्रकाश मिलें हमारा अज्ञान्धाकार दूर हो, उस विषय में वह हमारा गुरु है । जैसे हम किसी से मार्ग पूछते है और वह हमें मार्ग बताता है तो मार्ग बताने वाला हमारा गुरु हो गया, हम चाहे उसको गुरु माने या न माने । उससे सम्बन्ध जोड़ने की जरूरत भी नहीं है । विवाहके समय ब्राह्मण कन्या का सम्बम्ध वर के साथ करा देता है, तो उनका उम्र भरके लिये पति–पत्नीका सम्बन्ध जुड़ जाता है। वही स्त्री पतिव्रता हो जाती है । फिर उनको कभी उस ब्राह्मण की याद ही नहीं आती; और उसको याद करने का विधान भी शास्त्रों में कहीं नहीं आता है।
ऐसे ही गुरु ने जब हमारा सम्बन्ध भगवान् के साथ जोड़ दिया, तो गुरु का काम हो गया । तात्पर्य यह है कि गुरु (विवेकानन्द )का काम मनुष्य को भगवान् (श्रीरामकृष्ण देव) के सन्मुख करना है । मनुष्य को अपने सन्मुख करना, अपने साथ सम्बन्ध जोड़ना गुरु का काम नहीं है । इसी तरह हमारा काम भी भगवान् (श्रीरामकृष्ण देव) और माँ सारदा देवी का पुत्र बनना है, और गुरु/नेता (विवेकानन्द या नवनीदा ) को अपना बड़ा भाई मानना चाहिए। भगवान् (ठाकुर -माँ -स्वामी जी) के साथ तो हमारा सम्बन्ध सदा से और स्वतः–स्वाभाविक है; क्योंकि हम भगवान् के सन्तान अंश है–‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः’ (गीता १५।७ ), ‘ईश्वर अंस जीव अबिनासी’ (मानस, उत्तर॰ ११७/१) । गुरु (नवनीदा) उस भूले हुए सम्बन्ध की याद कराता है, कोई नया सम्बन्ध नहीं जोड़ता । शिष्य को जब तत्त्व-ज्ञान हो जाता है , तब उसके मार्ग-दर्शक नेता का नाम ‘गुरु’ होता है । शिष्य को ज्ञान होने से पहले वह गुरु होता ही नहीं । इसलिये श्री स्कन्द पुराण में शिव-पार्वती संवाद के अन्तर्गत श्री गुरु महिमा का जो बखान है, उसी श्री गुरुगीता में कहा गया है -
गुकारश्चान्धकारो हि रुकारस्तेज उच्यते।
अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः।।
‘गु’ शब्द का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और ‘रु’ शब्द का अर्थ है प्रकाश (ज्ञान)। अज्ञान को नष्ट करनेवाल जो ब्रह्मरूप प्रकाश है वह गुरु है। इसमें कोई संशय नहीं है। (33)
गुरु के विषय में एक दोहा बहुत प्रसिद्ध है –
गुरु गोविन्द दोउ खड़े, किनके लागूँ पाय ।
बलिहारी गुरुदेव की, गोविन्द दियो बताय ॥
गोविन्द को बता दिया, सामने लाकर खड़ा कर दिया, तब गुरु की बलिहारी होती है । गोविन्द को तो बताया नहीं और गुरु बन गये–यह कोरी ठगाई है ! केवल गुरु बन जाने से गुरुपना सिद्ध नहीं होता । इसलिये अकेले खड़े गुरु की महिमा नहीं है । महिमा उस गुरु की है, जिसके साथ गोविन्द भी खड़े है–‘गुरु गोविन्द दोउ [विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर दोनों] खड़े’ अर्थात् जिसने अपने शिष्य को (भावी गुरु को ?) भगवान् की प्राप्ति करा दी है ।
गुकारश्चान्धकारस्तु रुकारस्तन्निरोधकृत्।
अन्धकारविनाशित्वात् गुरुरित्यभिधीयते ||
‘गु’ कार अंधकार है और उसको दूर करनेवाल ‘रु’ कार है। अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट करने के कारण ही गुरु कहलाते हैं। (34)
गुकारः प्रथमो वर्णो मायादि गुणभासकः।
रुकारोऽस्ति परं ब्रह्म मायाभ्रान्तिविमोचकम्।।
गुरु शब्द का प्रथम अक्षर 'गु' माया आदि गुणों का प्रकाशक है. और दूसरा अक्षर 'रु' -कार माया की भ्रान्ति से मुक्ति देने वाला परब्रह्म है | (36)
गुकारं च गुणातीतं रुकारं रुपवर्जितम् |
गुणातीतमरूपं च यो दद्यात् स गुरुः स्मृतः ||
गुरु शब्द का गु अक्षर गुणातीत अर्थ का बोधक है और रु अक्षर रूपरहित स्थिति का बोधक है | ये दोनों (गुणातीत और रूपातीत) स्थितियाँ जो देते हैं उनको गुरु कहते हैं | (45)
अत्रिनेत्रः शिवः साक्षात् द्विबाहुश्च हरिः स्मृतः।
योऽचतुर्वदनो ब्रह्मा श्रीगुरुः कथितः प्रिये ||
हे प्रिये ! गुरु ही त्रिनेत्ररहित (दो नेत्र वाले) साक्षात् शिव हैं, दो हाथ वाले भगवान विष्णु हैं और एक मुखवाले ब्रह्माजी हैं। (46)
गुरवो बहवः सन्ति शिष्यवित्तापहारकाः |
तमेकं दुर्लभं मन्ये शिष्यह्यत्तापहारकम् ||
शिष्य के धन को अपहरण करनेवाले गुरु तो बहुत हैं लेकिन शिष्य के हृदय का संताप हरनेवाला एक गुरु भी दुर्लभ है ऐसा मैं मानता हूँ | (160)
गुरवो निर्मलाः शान्ताः साधवो मितभाषिणः |
कामक्रोधविनिर्मुक्ताः सदाचारा जितेन्द्रियाः ||
गुरु निर्मल, शांत, साधु स्वभाव के, मितभाषी, काम-क्रोध से अत्यंत रहित, सदाचारी और जितेन्द्रिय होते हैं। (162)
अनित्यमिति निर्दिश्य संसारे संकटालयम् |
वैराग्यपथदर्शी यः स गुरुर्विहितः प्रिये ||
हे प्रिये ! संसार अनित्य और दुःखों का घर है ऐसा समझाकर जो गुरु वैराग्य का मार्ग बताते हैं वे विहित गुरु कहलाते हैं | (168)
यस्य दर्शनमात्रेण मनसः स्यात् प्रसन्नता |
स्वयं भूयात् धृतिश्शान्तिः स भवेत् परमो गुरुः ||
जिनके दर्शनमात्र से मन प्रसन्न होता है, अपने आप धैर्य और शांति आ जाती है वे परम गुरु हैं | (181)]
तैत्तिरीय उपनिषद की आज्ञा है कि - 'आचार्य देवो भव' अपने नेता / जीवनमुक्त शिक्षक को भगवान के रूप में श्रद्धा करनी कर चाहिए।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
गुरु शिष्य को उसके यथार्थ स्वरूप का (शरीरी का) ज्ञान देता है, इस प्रकार वह उसके भीतर एक नये मनुष्य का निर्माण करता है। और प्रक्रिया में वह सृष्टि के निर्माता ब्रह्मा की भूमिका में होता है। प्रशिक्षण के समय शिष्य के हाथों को पकड़े रहता है, और उसकी प्रगति पर नजर रखता है। और उसकी देखभाल इस प्रकार करता है, मानो कोई मादा पक्षी अपने नवजात चूजों का ध्यान रखती है। इस गुरु पालनकर्ता विष्णु की भूमिका निभाते हैं। गुरु शिष्य की अज्ञानता (देहाध्यास या पशुता) को नष्ट कर देते हैं, और इसके साथ ही शिष्य की मानी हुई, मनःकल्पित क्षुद्रता और दुःख भी नष्ट हो जाता है। इस प्रकार गुरु शिव जी के समान हैं। इस प्रकार तीनों भूमिका एक साथ निभाने में समर्थ गुरु साक्षात् परब्रह्म परमेश्वर (जगतजननी जगदम्बा ही हैं !
अब हम गुरु अष्टक के वास्तविक छंदों का अध्ययन करेंगे -
॥ गुर्वष्टकम् ॥
गुरु अष्टक : श्री गुरु स्तोत्र
शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं, यशश्चारु चित्रं धनं मेरु तुल्यम्।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥1॥
यदि शरीर रूपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तरित हो, मेरु पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ?
कलत्रं धनं पुत्र पौत्रादिसर्वं, गृहो बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम्।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥2॥
सुन्दरी पत्नी, धन, पुत्र-पौत्र, घर एवं स्वजन आदि प्रारब्ध से सर्व सुलभ हों, किंतु गुरु के श्री चरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इस प्रारब्ध-सुख से क्या लाभ?
षड़ंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या, कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥3॥
वेद एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हों, जिनमें सुन्दर काव्य निर्माण की प्रतिभा हो, किंतु उनका मन यदि गुरु केश्री चरणों के प्रति आसक्त न हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?
विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः, सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥4॥
जिन्हें विदेशों में समादर मिलता हो, अपने देश में जिनका नित्य जय-जयकार से स्वागत किया जाता हो और जो सदाचार पालन में भी अनन्य स्थान रखता हो, यदि उनका भी मन गुरु के श्री चरणों के प्रति आसक्त न हो तो सदगुणों से क्या लाभ?
क्षमामण्डले भूपभूपलबृब्दैः, सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम्।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥5॥
जिन महानुभाव के चरण कमल पृथ्वी मण्डल के राजा-महाराजाओं से नित्य पूजित रहा करते हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्री चरणों के प्रति आसक्त न हो तो इस सदभाग्य से क्या लाभ?
यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात्,जगद्वस्तु सर्वं करे यत्प्रसादात्।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥6॥
दानवृत्ति के प्रताप से जिनकी कीर्ति दिगदिगांतरों में व्याप्त हो, अति उदार गुरु की सहज कृपादृष्टि से जिन्हें संसार के सारे सुख-एश्वर्य हस्तगत हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणोंमें आसक्तभाव न रखता हो तो इन सारे एशवर्यों से क्या लाभ?
न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ, न कन्तामुखे नैव वित्तेषु चित्तम्।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥7॥
जिनका मन भोग, योग, अश्व, राज्य, स्त्री-सुख और धनोभोग से कभी विचलित न हुआ हो, फिर भी गुरु के श्री चरणों के प्रति आसक्त न बन पाया हो तो मन की इस अटलता से क्या लाभ?
अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये, न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्ध्ये।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥8॥
जिनका मन वन या अपने विशाल भवन में, अपने कार्य या शरीर में तथा अमूल्य भण्डार में आसक्त न हो, पर गुरु केश्रीचरणों में भी वह मन आसक्त न हो पाये तो इन सारीअनासक्त्तियों का क्या लाभ?
गुरोरष्टकं यः पठेत्पुरायदेही, यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही।
लमेद्वाच्छिताथं पदं ब्रह्मसंज्ञं,गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम्॥9॥
जो यति, राजा, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ इस गुरु अष्टक का पठन-पाठन करता है और जिसका मन गुरु के वचन में आसक्त है, वह पुण्यशाली शरीरधारी अपने इच्छितार्थ एवंब्रह्मपद इन दोनों को संप्राप्त कर लेता है यह निश्चित है।
माता-जननी, पहला गुरु, पिता दूसरा गुरु तथा तीसरा गुरु वह व्यक्ति [C-in-C नवनीदा] है जो एक अनघड़ बालक को समाज के योग्य बनता है। **गुरु बनने से पहले गुरु के जीवन में भी कई उतार-चढ़ाव आये होंगे, अनेक अनुकूलताएं-प्रतिकूलताएं आयी होंगी, उनको सहते हुए भी वे साधना में रत रहे, ‘स्व’ में स्थित रहे, समता में स्थित रहे।
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन भगवान विष्णु के अवतार वेद व्यासजी का जन्म हुआ था। इन्होंने महाभारत आदि कई महान ग्रंथों की रचना की। इस दिन गुरु की पूजा कर सम्मान करने की परंपरा प्रचलित है। हिंदू धर्म में गुरु को भगवान से भी श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि गुरु ही अपने शिष्यों को सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है तथा जीवन की कठिनाइयों का सामना करने के लिए तैयार करता है इसलिए यह कहा गया है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ।
गुरु पूर्णिमा अर्थात सद्गुरु के पूजन का पर्व। गुरु की पूजा, गुरु का आदर किसी व्यक्ति की पूजा नहीं है अपितु गुरु के देह के अंदर जो विदेही आत्मा है, परब्रह्म परमात्मा है उसका आदर है, ज्ञान का आदर है, ज्ञान का पूजन है, ब्रह्म-ज्ञान का पूजन है। इस दिन सभी लोग अपने-अपने गुरु की पूजा कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि गुरु की कृपा के बिना कहीं भी सफलता नहीं मिलती।
गुर बिनु घोरु अंधारु, गुरू बिनु समझ न आवै।
गुर बिनु सुरति न सिधि, गुरू बिनु मुकति न पावै॥
श्री गुरु राम दास जी कहते हैं कि गुरु के बिना घोर अंधेरा है। गुरु के बिना हमें सत्य की समझ नहीं आ सकती है और न ही चित्त को स्थिर कर किसी प्राप्ति को ही सिद्ध कर सकते हैं, न ही मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है। मनुष्य का जीवन अंधकार से ग्रस्त है और गुरु की प्राप्ति के बिना असहाय है।
भाई रे गुर बिनु गिआनु न होइ।
पूछहु ब्रहमे नारदै बेद बिआसै कोइ॥
श्री गुरु नानक देव जी [गुरवाणी 59 ] कहते हैं कि ब्रह्मा, नारद, वेद व्यास किसी से भी पूछ लो गुरु के बिना कल्याण नहीं, ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। इस लिए हमें भी चाहिए हम भी ऐसे पूर्ण गुरु की खोज करें, जो हमारी दिव्य चक्षु को खोल के हमें दीक्षा के समय परमात्मा का दर्शन करवा दे। उस के बाद ही भक्ति की शुरुआत होती है। तब ही हमारा जीवन सफल हो सकता है। ʹश्रीरामचरित मानसʹ में आता हैः
गुरु बिन भाव निधि तरइ न कोई।
जो बिरिंच संकर सम होई॥
"गुरु के बिना कोई भवसागर नहीं तर सकता, चाहे वह सृष्टि करने वाले ब्रह्माजी और सृष्टि का संहार करने वाले शंकरजी के समान ही क्यों न हो!"सदगुरु का अर्थ शिक्षक या आचार्य नहीं है। शिक्षक अथवा आचार्य हमें थोड़ा-बहुत ऐहिक ज्ञान देते हैं लेकिन सदगुरु तो हमें निजस्वरूप का ज्ञान दे देते हैं। जिस ज्ञान की प्राप्ति के बाद मोह उत्पन्न न हो, दुःख का प्रभाव न पड़े और परब्रह्म की प्राप्ति हो जाय ऐसा ज्ञान गुरुकृपा से ही मिलता है। उसे प्राप्त करने की भूख जगानी चाहिए। इसीलिये कहा गया हैः
गुरु गोबिन्द दोउ खड़े, काके लागु पाँव।
बलिहारी गुरु आपने,जिस गोबिन्द दियो बताय।।
जब श्रीराम,श्रीकृष्ण, श्री चैतन्य आदि अवतार धरा पर आये, तब उन्होंने भी गुरु विश्वामित्र, वसिष्ठजी तथा सांदीपनी मुनि,जैसे ब्रह्मनिष्ठ संतों की शरण में जाकर मानवमात्र को सदगुरु महिमा का महान संदेश प्रदान किया। और जब अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव धरती पर आये तो श्रुति -परम्परा की रक्षा करने लिए उन्होंने भी श्रीमद तोतापुरी से अद्वैत वेदान्त की दीक्षा प्राप्त की। स्वामी विवेकानन्द तथा नवनीदा जैसे नेता धरती पर आये तब उन्होंने भी Be and Make वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षण प्राप्त किया।
अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव से कौन बड़ा, तिन्ह ने भी गुरु कीन्ह।
जो तीन लोक के हैं धनी, वे भी गुरु आगे आधीन।।
हमें, --अर्थात महामण्डल के भावी शिक्षकों को [would be Leaders of The Mahamandal] भी " स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर -Be and Make- वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" प्रशिक्षित जीवन्मुक्त शिक्षक बनने और बनाने की परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए महामण्डल के संस्थापक नवनीदा (आचार्य श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय) के श्रीचरणों में बैठना होगा।
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[ आचार्य शंकर द्वारा रचित 'गुरु अष्टकम' पर आचार्य एन.बालासुब्रमण्यम द्वारा की गयी व्याख्या का हिन्दी भावानुवाद।साभार:https://sanskritdocuments.org/doc_deities_misc/guru8mean.html?] साभार
https://hi.quora.com/वास्तविक-आध्यात्मिक-ज्ञान/ ]