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शनिवार, 26 अक्तूबर 2019

'निवृत्तिस्तु महाफला'

श्री शंकराचार्य के पूर्व ही प्रचलित हुए वैदिक धर्म के अनुसार दो मार्ग हैं। इन्हीं दो मार्गों को गीता में संन्यास  और कर्मयोग कहा है। श्री शंकराचार्य स्वयं निवृत्ति-मार्गी या संन्यासी थे; किन्तु उन्होंने अपने गीता भाष्य के आरंभ में ही वैदिक धर्म के दो भेद – प्रवृत्ति और निवृत्ति बतलाए हैं।- प्रवृत्ति लक्ष्णो योगः ज्ञानं सन्यास लक्षणम्। अर्थात एक मार्ग यह है कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर सब कर्मों का संन्यास अर्थात त्याग कर दे; और दूसरा यह कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी सब कर्मों को न छोड़े, उनको जन्म भर ऐसी युक्ति के साथ करता रहे कि उनके पाप–पुण्य की बाधा न होने पाए।  यदि सभी मनुष्यों के उपर एक ही मार्ग को -केवल निवृत्ति मार्ग को अपनाने बाध्यता थोप दी जाये तो वैसा करना ठीक नहीं होगा। मनु महाराज  (मनुस्मृतिः५.५६) कहते हैं- विवाह करो, थोड़ा खा पहन लो; किन्तु यह सदा स्मरण रहे कि - निवृत्तिस्तु महाफला। यदि सभी मनुष्यों के उपर एक ही मार्ग को -केवल निवृत्ति मार्ग को अपनाने बाध्यता थोप दी जाये तो वैसा करना ठीक नहीं होगा। इसीलिये श्रुति या शास्त्र प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति तक आने में बाधा नहीं देते। 
'ब्रह्म' शब्द की व्युत्पत्ति बृ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है बढ़ना व फैलना (क्रमशः अधिकाधिक निःस्वार्थपर बनते जाना) ।  ['बृहत्तमत्वात् ब्रह्म' (That which is Supremely great,And the following story of Janka and Shuka is a fine illustration of non-attached work.)अर्थात्, जो बृहत्तम है, वही ब्रह्म है।] अत: जो बढ़ता व फैलता हो उसे ब्रह्म कहते हैं। ब्रह्म ही संसार के रूप में बढ़ता और फैलता है, अतः जगत के आधार के रूप में ब्रह्म का अस्तित्व होता है, इसलिए ब्रह्म सर्वव्यापी कहा जाता है। यह युक्ति तात्विक कहलाती है।'ब्रह्म' एक ऐसी अवधारणा है जिसका भारतीय दर्शन में सर्वाधिक उपयोग किया जाता है। हमारे जैसे साधारण मनुष्यों के लिए 'ब्रह्म' महज एक शब्‍द मात्र है, जिसे हमलोग अपने साधारण गृहस्थ जीवन जीने के लिय जरा भी उपयोगी नहीं मानते हैं। किन्तु श्रीमद्भागवत में कहा गया है - 'ब्रह्मावलोकधिषणं पुरुषं विधाय मुदमाप देवः॥ ९.२८॥  जैसे किसी कलाकार की सुन्दर रचना को देखकर कोई यदि प्रसंशा करने वाला नहीं हो तो शिल्प-कार को उतना आनन्द नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्मा जी को भी-स्थावर,जंगम,उड़ने वाले, डंक मारने वाले हर तरह के जीवों की रचना कर लेने के बाद भी उतना आनन्द नहीं हो रहा था।  तब सबसे अन्त में उन्होंने मनुष्य को बनाया जो उनकी सुन्दर सृष्टि को देखकर केवल प्रसंशा ही नहीं कर सकता था, बल्कि वह मन की एकाग्रता शक्ति को विकसित करके अपने बनाने वाले ब्रह्म (सृष्टिकर्ता, ईश्वर या माँ जगदम्बा) को भी जान लेने में भी समर्थ था। इसी से मिलती-जुलती कथा बाइबिल और कुरान में भी है कि जब ब्रह्माजी (अल्ला या गॉड) ने मनुष्य को बिल्कुल अपने स्वरुप में गढ़ा ,तब वे मनुष्य को देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए। और सभी देवदूतों (फरिस्तों) को बुलवा भेजा तथा उनको आदेश दिया कि तुम सबलोग मनुष्य के सामने सिर झुकाओ-इसको नमस्कार करो ! सभी फरिस्तों ने मनुष्य के सामने अपने सिर को झुकाया, केवल एक फरिस्ता जिसका नाम इब्लीस था, उसने अपना सर नहीं झुकाया तो उसको भगवान ने कहा -दूर हटो शैतान! और वह शैतान बन गया। इस रूपक के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार मे मनुष्य-जन्म ही अन्य सब प्राणियों की अपेक्षा, यहाँ तक देवताओं की अपेक्षा भी श्रेष्ठ है।
एकाग्र मन मानो एक प्रदीप है जिसके द्वारा आत्मा का स्वरूप (ब्रह्म को) स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।" ७/७२  " यह ब्रह्म आत्मा में है, सृष्टि में नहीं अतः सृष्टि को निरुद्ध करके ही हम ब्रह्म को जान सकते हैं। जब हम अपने विषय में सोचते हैं, तो देह के विषय में सोचते हैं, और जब ईश्वर के विषय में सोचते हैं, तो उसकी कल्पना भी देहधारी के रूप में ही करते हैं। हमारा कर्तव्य है -'चित्त की वृत्तियों का निरोध'-ताकि आत्मा प्रकट हो जाये! इसकी साधना देह से ही आरम्भ होती है। प्राणायाम शरीर को प्रशिक्षित करता है, तथा उसको समन्वित कर देता है। प्राणायाम का लक्ष्य ध्यान तथा एकाग्रता की प्राप्ति है। यदि तुम एक क्षण के लिये भी पूर्णतया निश्चल हो सको, तो तुम लक्ष्य तक पहुँच गये। इसके बाद भी बुद्धि कार्य करती रहेगी, परन्तु वह पुरानी बुद्धि नहीं रह जायगी। तुम अपने को -उसी रूप में जान लोगे -जो वास्तव में तुम हो -अर्थात अपनी यथार्थ आत्मा। एक क्षण के लिए भी अपनी चित्तवृत्ति का निरोध कर लो, तब तुम्हारे यथार्थ स्वरूप की सत्यता तुम्हारे हृदय में झलक उठेगी; तब मुक्ति हस्तगत हो जाती है और इसके बाद बन्धन नहीं रहता। इस सिद्धान्त से यह प्रमाणित होता है कि काल के एक क्षण को जान लेने से समग्र काल का ज्ञान हो जाता है ! (जिस प्रकार मिट्टी के एक ढेले को जान लेने से ) क्योंकि समग्र काल एक क्षण का ही त्वरित अनुक्रमण है। एक पर अधिकार कर लो -एक क्षण को पूर्णतया जान लो -और मुक्ति मिल जायेगी!"[धर्म का प्रमाण -२/२५६ ]  
 क्योंकि पशु-पक्षी आदि निम्नतर सृष्टि तो आध्यात्मिक साधना (महामण्डल द्वारा निर्देशित विवेक-प्रयोग आदि 5 अभ्यास) कर ही नहीं सकते, इसलिए वे ब्रह्म या आत्मा आदि उच्च तत्वों की धारणा नहीं कर सकते। उधर देवतागण  भी देवेन्द्र बन जाने की ऐषणा के कारण मनुष्य जन्म लिए बिना "निवृत्ति अस्तु महाफला की धारणा" नहीं कर सकते।  इसलिए देवता गण भी मनुष्य जन्म प्राप्त किये बिना देवता भी भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड (100% unselfish /thunderbolt /पूर्णतः निःस्वार्थी) नहीं बन सकते। 
" राजा प्रतर्दन ने देवराज इन्द्र से यह वर माँगा कि -आप मानव के लिए जो सबसे अधिक कल्याणकारी समझते हैं, वही वर मुझे दें ! इस पर इन्द्र ने उसे उपदेश दिया -मां विजानीहि ! --मुझे जानो । मुझे कहने का अर्थ क्या कोई देवता, प्राण, जीव या ब्रह्म होगा ? हमें क्या समझना चाहिये ? उपनिषद में ऋषि वामदेव ने ब्रह्मज्ञान लाभ करने के बाद कहा था - 'मैं मनु हुआ हूँ, मैं सूर्य हुआ हूँ !' इन्द्र ने भी इसी प्रकार शास्त्रोक्त रीति से ब्रह्मज्ञान को प्राप्त करके कहा था -मां विजानीहि (मुझे जानो) यहाँ पर 'मैं ' और 'ब्रह्म' एक ही बात है।  किन्तु श्री ठाकुर स्वयं अपने सम्बन्ध में कहते थे -"मैं केवल ब्रह्मज्ञ पुरुष ही नहीं हूँ, मैं अवतार हूँ !' यदि श्री ठाकुर की बातों विश्वास करना है, तो उन्हें अवतार कहकर मानना होगा, नहीं तो ढोंगी कहना होगा। किन्तु उन्होंने स्वामी जी से अपने अंतिम समय में कहा था - 'जो राम, जो कृष्ण, वही अब रामोकृष्णो ; तेरे वेदान्त की दृष्टि से नहीं। " स्वामी जी में अपार दया थी, वे हम लोगों से सन्देह छोड़ देने को नहीं कहते थे, चट से किसी बात पर विश्वास कर लेने के लिए उन्होंने कभी नहीं कहा। वे तो कहते थे , " इस अदभुत रामकृष्ण-चरित्र की तुम अपनी बुद्धि से जहाँ तक हो सके, आलोचना करो, इसका अध्यन करो -मैं तो इसका एक लक्षांश भी समझ न पाया। उनको समझने की जितनी चेष्टा करोगे, उतना ही सुख पाओगे, उतना ही उनमें डूब जाओगे । " १०/ ३६१

जीवन क्या है? इसको परिभाषित करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-" एक अन्तर्निहित शक्ति अपने को अभिव्यक्त करना चाह रही है; किन्तु बाहरी परिवेश तथा परिस्थितियाँ मानो उसको दबाये रखना चाहती हैं। उन समस्त परिवेश के दबाव का अतिक्रम करके आत्मविकास करने और अन्तर्निहित दिव्यता (प्राणऊर्जा के त्रिगुण ?)  को प्रस्फुटित करने का नाम ही जीवन है।" सभी लोग कहते हैं कि युवा-समस्या (युथ प्रॉब्लम) के अस्तित्व का उन्हें पता है, किन्तु बहुत थोड़े से लोग ही इस समस्या के मूल कारण को समझते हैं; और इसके समाधान का उपाय ढूँढ़ पाना तो अधिकांश लोगो की बुद्धि से परे की बात है। युवा जीवन की समस्या का मूल कारण तो जीवनी-शक्ति (वाइटल फ़ोर्स या प्राण उर्जा) ही है। और युवावस्था में जीवन -अर्थात प्राण-ऊर्जा का आवेग (Momentum) सर्वाधिक रहता है। इसीलिये युवाकाल में बाधाएँ भी अधिक आती हैं। प्राण-उर्जा की अभिव्यक्ति में आने वाली बाधा को ही समस्या कहते हैं। इसलिये युवाजीवन की समस्या यदि सर्वाधिक ध्यान आकर्षित करे, तो इसमें आश्चर्य क्या है ? युवाकाल की प्राणउर्जा का प्राचुर्य युवाओं को स्वाभाविक रूप से विशिष्टता प्रदान करता है, किन्तु उसका गुस्सा या भावावेश देखकर, समाज आतंकित हो जाता है। इसीलिये समाज के सभी लोग चाहते हैं कि युवा समस्या का समाधान जल्द से जल्द होना चाहिये। 
'जीवन' का अर्थ है- अन्तर्निहित शक्ति (प्राण-ऊर्जा) को प्रस्फुटित और विकसित करना ! हमने देखा है कि जीवन को विकसित करने के मार्ग में आने वाली बाधाओं को ही युवा समस्या कहते हैं, इसलिये समस्या की खोज या अनुसन्धान भी प्रस्फुटन और विकास की शर्त को ध्यान में रखते हुए करना होगा। अथर्ववेद की १९ वें खंड के ६७ वें सूक्त में एक ऋषि प्रार्थना करते हैं -  जीवेम  शरदः शतम्॥   हम सौ शरद ऋतु तक जीयें यानि हम सौ वर्ष तक जीयें !  पश्येम शरदः शतम् ॥   इसका अर्थ है हम सौ शरदों को देखें अर्थात सौ वर्षों तक हमारी नेत्र इन्द्रिय स्वस्थ रहे!-  बुध्येम शरदः शतम् ॥    सौ वर्ष तक हमारी बुद्धि सक्षम बनी रहे अर्थात मानसिक तौर पर सौ वर्षों तक स्वस्थ रहें।  रोहेम शरदः शतम् ॥  सौ वर्षों तक हमारी वृद्धि होती रहे अर्थात हम सौ वर्षों तक उन्नति को प्राप्त करते रहे।  पूषेम शरदः शतम् ।।५।। सौ वर्षों तक हम पुष्टि प्राप्त करते रहें, हमें अच्छा भोजन मिलता रहे।अवश्य ही सौ वर्षों की आयु सबको नहीं मिलती होगी। इसीलिए ऋषि प्रार्थना करते हैं - हमें पूर्ण स्वास्थ्य के साथ सौ वर्ष का जीवन मिले, और यदि हो सके तो सक्षम एवं सक्रिय इंद्रियों के साथ जीवन उसके आगे भी चलता रहे ।  इसीलिए सौ वर्ष की आयु को एक मानक के रूप में देखते हुए उसे चार बराबर आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास) में भी वैदिक चिंतकों ने बांटा होगा।
" अद्वैत दर्शन के अनुसार विश्व में केवल एक ही वस्तु सत्य है, और वह है ब्रह्म। ब्रह्म से भिन्न समस्त वस्तुऐं मिथ्या हैं (अनरीयल-मैनिफेस्टेड एंड मैन्युफैक्चर्ड आउट ऑफ़ ब्रह्मण), ब्रह्म ही उन्हें माया के योग से बनाता एवं अभिव्यक्त करता है। 'टू रीच बैक टु दैट ब्रह्मण इज ऑवर गोल' उस ब्रह्म की पुनः प्राप्ति ही हमारा लक्ष्य है। 'वी आर,ईच वन ऑफ़ अस, दैट ब्रह्मण, दैट रियलिटी, प्लस दिस माया' -हममें से प्रत्येक व्यक्ति वही ब्रह्म है, वही परम् सत्य है -किन्तु माया से संयुक्त (हिप्नोटाइज्ड) है। अगर हम इस माया अथवा अज्ञान से मुक्त हो सकें (५ अभ्यासों के द्वारा स्वयं को डीहिप्नोटाइज्ड कर सकें) तो हम अपने स्वरूप को पहचान लेंगे! इस वेदान्त दर्शन के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति तीन तत्वों से बना है- "दी बॉडी, दी इंटरनल ऑर्गन ऑर दी माइंड," देह, अन्तरिन्द्रिय अथवा मन, और आत्मा, जो इन सबके पीछे है। शरीर आत्मा का बाहरी शेल (आवरण या छिलका) है, और मन भीतरी। यह आत्मा ही वस्तुतः द्रष्टा (पर्सीवर) और भोक्ता (रियल एन्जॉयर) है, तथा शरीर (रथ) में बैठी बैठी मन (बुद्धि) के द्वारा शरीर को संचालित करती रहती है। " २/२१६ ] 
केवल उन्हीं वस्तुओं का विस्तार सीमित होता है, जिसका कोई रूप होता है। जिसका कोई रूप ही नहीं उसके विस्तार की क्या सीमा ? इसलिए अद्वैत वेदान्त के अनुसार आत्मा -जो मुझमें, तुम में , सबमें है, सर्वव्यापक है। किन्तु आत्मा शरीर और मन के माध्यम से ही कार्य करती है। अतः जहाँ शरीर और मन है, वहीँ उसका कार्य दृष्टिगोचर होता है।" २/२१६      
 स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " वर्तमान युग का हिन्दू युवक, सनातन धर्म के अनेक पंथों की भूल-भुलैयों में भटका हुआ है। अपने भ्रमात्मक पुवाग्रहों से ग्रस्त रहने और धर्म के मर्म को नहीं समझने के कारण, उन पाश्चात्य देशों से - जिन्होंने निरी भौतिकता के सिवाय कभी और कुछ नहीं जाना, आध्यात्मिक सत्य का अवैज्ञानिक पैमान उधार लेकर अँधेरे में टटोलता हुआ, अपने पूर्वजों के धर्म को समझने का व्यर्थ कष्ट उठाता है। किन्तु अन्त में उस खोज को बिल्कुल त्याग देता है और या तो वह निपट अज्ञेय-वादी बन जाता है,या अपनी धार्मिक प्रवृत्ति की प्रेरणाओं के कारण पशुजीवन बिताने में असमर्थ होकर किसी आधे-अधूरे बाबा या धूर्त को अवतार या ईश्वर का संदेश-वाहक कहकर पूजने लगता है, और -परियन्ति मूढ़ा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः को चरितार्थ करता है। केवल वे युवा ही बच पाते हैं, जिनकी आध्यात्मिक प्रकृति सद्गुरु (नेता-गुरु/C-in-C) के संजीवनी स्पर्श से जाग्रत हो जाती है।"  
इसी कठिनाई को देखते हुए श्रीठाकुर-माँ सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द के आशीर्वाद से 50 वर्ष पूर्व गृहस्थ युवाओं के लिये एक ऐसे युवा संगठन का आविर्भाव हुआ जिसका एकमात्र उद्देश्य है 'चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा' का प्रचार-प्रसार करने में समर्थ शिक्षक जैसे मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण करना। इसके द्वारा आयोजित 'छः दिवसीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' में भाग लेकर और इस संगठन के सभी सदस्यों के अनुशासित जीवन और आचरण को देखकर ही जाना जा सकता है कि 'महाप्राण का स्पर्श' किस-किस कार्यकर्ताओं को प्राप्त हुआ होगा ?   
गुरु और पारस में - इतना अन्तर जान। 
वह लोहा कंचन करे ,गुरु करे आप सामान। 
गुरु और पारस के अंतर को सभी ज्ञानी पुरुष जनते हैं। पारस मणी के विषय जग विख्यात है कि उसके स्पर्श से लोहा सोने का बन जाता है। किन्तु नेता-गुरु इतने महान हैं कि वे अपने गुण-ज्ञान मे ढालकर - योग्य शिष्य को अपने जैसा ही महान गुरु-नेता बनने ओर बनाने में सक्षम 'चपरास-प्राप्त गुरु-नेता' बना लेते हैं।
" मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता है" - हमारा वर्तमान हमारे सम्पूर्ण अतीत का परिणाम है। यहाँ जो कुछ भी अशुभ दीखता है, उसके कारण तो हम ही हैं। आज जितने कष्ट देखने को मिलते हैं, उन सबके मूल में वे पाप (बुरे कर्म) हैं, जिन्हें मनुष्य ने अतीत में किया है। ईश्वर पर दोष नहीं लगाया जा सकता। 'हम जो बोते हैं, वही काटते हैं ' -कबीर ने कहा है, "रोपा पेड़ बबूल का तो 'अमवा' कहाँ से होय ? " २/२०६ 
नवनीदा सदैव कहते थे- " वीर हो, 'धीर' बनो !"अर्थात तुमने 'वीरभाव' या प्रवृत्ति मार्ग का चयन किया है, किन्तु अब गृहस्थ जीवन के समस्त कर्तव्यों का धर्मपूर्वक पालन करते हुए धीरभाव (साम्यावस्था) में प्रतिष्ठित होने के लिए,  निरन्तर इस 'Be and Make'  आन्दोलन के साथ जुड़े रहो। कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी -ऐसे ही मुक्त हो जाओगे। जिन महापुरुषों के प्रशान्त चित्त-सरोवर में  प्रलोभनीय आकर्षण (कामिनी -कांचन) रहने पर भी  कोई विकार (प्रलोभन का तरंग) उत्पन्न नहीं होता हो, वे ही धीर पुरुष हैं। उसी व्यक्ति को, देवाधिदेव महादेव की उपाधि अथवा राजर्षि (C-in- Cबैज) प्राप्त होती है ! 'विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर पुरी अद्वैत वेदान्त Be and Make लीडरशिप ट्रेनिंग' में प्रशिक्षित, व्यक्तियों में से जो 'Available Best' या सर्वश्रेष्ठ धीर व्यक्ति, ब्रह्मविद, ब्रह्मविदतर, ब्रह्मविदतम व्यक्ति  उपलब्ध हो, उन्हीं में  किसी एक को धीरपुरुष 'C-in-C ' या चपरास प्राप्त नेता/जीवनमुक्त शिक्षक का बैज  दिया जा सकता है।  'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा (गुरु-शिष्य परम्परा) के लीडरशिप ट्रेनिंग में प्रशिक्षित, जगदम्बा माँ काली से चपरास-प्राप्त नेता-गुरु की कृपा प्राप्त नहीं हो जाती तब तक युवा अज्ञान रुपी अंधकार मे भटकता हुआ मायारूपी सांसारिक बन्धनों मे जकड़ा रहता है। अर्थात स्वयं को हिप्नोटाइज्ड अवस्था में केवल मरणधर्मा शरीर मात्र समझता रहता है। बिना इस युवा संगठन के " छः दिवसीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर" में भाग लिये  सत्य एवम् असत्य का ज्ञान नही हो सकता  उचित और अनुचित के भेद का ज्ञान नहीं होता फिर मोक्ष कैसे प्राप्त होगा ? अतः इस नेता-गुरु रूपी युवा संगठन कि शरण मे जाओ। 
" विवेकानन्द कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा"  में भावी शिक्षक (धीरपुरुष -राजर्षि)  बनने और बनाने की पद्धति पर आधारित युवा प्रशिक्षण शिविर-7th to 9th September, 2018 तक विशाखा पत्तनम महामण्डल द्वारा आयोजित हुआ था।  [6th INTERSTATE YOUTH TRAINING CAMP OF THE MAHAMANDAL was organised at R.K.Mission High School, Maharanipet from 7th to 9th September, 2018 by Visakhapatnam Vivekananda Yuva Mahamandal!]
महाभारत युद्ध के समय कौरवों और पांडवों ने अपने मित्र राजाओं को अपनी अपनी ओर से  युद्ध करने के लिए निमंत्रण पत्र भेजा : शुभ विजया , यथा-योग्य नमस्कार /प्रणाम स्वीकार करेंगे। 28 अक्टूबर 2018 को विजया दसमी के शुभ-अवसर पर 'ईस्ट कोलकाता  (E.C.etc ) द्वारा विजया सम्मिलनी कार्यक्रम संध्या 6 बजे आयोजित किया जायेगा। उसमें आपकी सबन्धु-बान्धव उपस्थिति प्रार्थित है। -सचिव, (E.C.etc ) इसमें जिन सदस्यों के नाम थे उनमें से कोई भी 100 % अच्छा (भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड) व्यक्ति  कोई नहीं दीखता ! [ दक्षिणेश्वर की माँ काली , ठाकुर श्रीरामकृष्ण देव वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण -परम्परा में प्रशिक्षित माँ श्री सारदा देवी, स्वामी विवेकानन्द, 5th नवनीदा के बाद कोई उनके जैसा 100 % भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड व्यक्ति (धीरमहापुरुष) सैंकड़ों होंगे ? किन्तु मुझे कोई नहीं दीखता !]  
 इसलिए अब धीरपुरुष  बनने और बनाने की आवश्यकता है। इस धीर भाव को प्राप्त करने लिए पहले अपने जीवन का सिंहावलोकन करने की चेष्टा करेंगे  ! गीता (3:42) में श्री भगवान ने कहा है - 'इन्द्रियाणि पराणि आहुः  इन्द्रियेभ्यः परम् मनः।  मनसः तु परा बुद्धिः यः बुद्धेः परतः तु सः।'  -पण्डित लोग (ब्रह्मज्ञानी लोग) इन्द्रियों को स्थूल शरीर से 'पर' अर्थात श्रेष्ठ, सबल, प्रकाशक व्यापक तथा सूक्ष्म कहते हैं। इन्द्रियों की अपेक्षा मन श्रेष्ठतर है, मन से श्रेष्ठ बुद्धि है, जो बुद्धि (व्यष्टि अहं की बुद्धि में अवस्थित काम) से भी परे है, वही आत्मा है। औऱ औऱ जो बुद्धि से भी पर है वह (काम) है। यह काम (desire ) अत्यन्त बलवान है,क्योंकि बुद्धि की विवेक-शक्ति को को हर लेती है। इस तरह बुद्धिसे पर(काम) को जानकर अपने द्वारा अपने-आप को वश में करके हे महाबाहो तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल।
 [ मृणालिनी बसु को लिखित पत्र 23 दिसम्बर 1898 हिन्दी खण्ड 7/ महामण्डल के लीडरशिप ट्रेनिंग में नेता को यही प्रशिक्षण दिया जाता है कि  " मुक्त करो ! लोगों के बन्धन खोल दो।"/ OUR PRESENT SOCIAL PROBLEMS /Volume 4/ page -488/ " I say, liberate, undo the shackles of people as much as you can. What glory is there in the renunciation of an eternal beggar? What virtue is there in the sense control of one devoid of sense-power?When you would be able to sacrifice all desire for happiness for the sake of society, then you would be the Buddha, then you would be free: that is far off."]
'क्षात्रवीर्य' और 'ब्रह्मतेज' से सम्पन्न गृहस्थ नेता /पैगम्बर / राजर्षियों /जीवनमुक्त शिक्षकों का निर्माण: हमारे वैदिक ऋषिओं ने " ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य " अर्थात व्यक्तिगत पूर्णता (ब्रह्म तेज) तथा सामाजिक कार्यक्षमता (क्षात्रवीर्य) का बहुत गुणगान किया है। Dynamic goodness of manliness. (डाइनैमिक गुड्नेस ऑफ़ मैनलीनेस') नवनी दा के अनुसार 'क्षात्रवीर्य' वह स्वतः स्फूर्त पौरुष है जो समाज में सदाचार की शक्ति को स्थापित करने में सक्षम हो। अथवा  'क्षात्रवीर्य' यौवन की वह स्वतः स्फूर्त ऊर्जा  (तरुणाई) जो  'बी ऐंड मेक' आंदोलन को भारत के प्रत्येक राज्य में प्रसारित करने में सक्षम हो। तथा 'ब्रह्मतेज' है-   ब्रह्मतेज का अर्थ है -वह तेज जो ब्रह्मदृष्टि से उत्पन्न होती है। अर्थात सभी एक (ईश्वर) है, इस साम्य दृष्टि से जो तेज या शक्ति उत्पन्न होती है, उसे ब्रह्मतेज कहते हैं। All loving intelligence of saintliness. 'ऑल लविंग इंटेलिजेंस ऑफ़ सेंटलिनेस'- - माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट ह्रदय का अहं-बोध, वह सन्तसुलभ सर्व प्रेमी प्रज्ञा, जो ब्रह्म को जानकर साम्यभाव (अचिन्त्य भेदा-भेद) में स्थित होने से प्राप्त होती हो।  वह 'तेज' या ज्ञामनमयी -दृष्टि  जो पवित्र साम्यभाव में अवस्थित होने से प्राप्त होती है,या 'कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं' की समझ से उत्पन्न होती है; और जो मनुष्य को 'दया नहीं शिव ज्ञान से जीव सेवा' करने को अनुप्रेरित करती है, उसे ब्रह्मतेज कहते हैं।  जिस किसी व्यक्ति को समदर्शन की उपलब्धि हो जाती है, जो मनुष्य समदर्शी (even-minded) बन जाता है, या साम्यभाव में स्थित हो जाता है, उसका भय सम्पूर्ण रूप से समाप्त हो जाता है। 
 जिस व्यक्ति  के मन में सबों के प्रति एकत्व का भाव या साम्यभाव  अर्थात अपनेपन का बोध रहता है, समदृष्टि रहती है, उसी को योगी कहते हैं। इस विषय के महत्व पर गीता के अन्तिम श्लोक (१८. ७८) में कहा गया है-यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।18.78।। -बहुत कहने से क्या ... समस्त योग-समाधि और उनके बीज उन्हीं भगवान् योगेश्वर से उत्पन्न हुए हैं । जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव -धनुष धारी अर्जुन हैं, वहाँ ही श्री (prosperity) , विजय (victory)  विभूति (happiness) और अचल नीति ( firm policy) है -- ऐसा मेरा मत है।

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