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Wednesday, August 8, 2012

"समस्या का समाधान " (সমস্যার সমাধান) [ "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-2.5] (आत्मचिंतन और प्रार्थना मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा के दो आवश्यक अंग होंगे ! )

5.
 "समस्या को सुलझाना " 

समाज में समस्याएँ रहती ही हैं, फिर कई समस्यायें (अज्ञान-अविद्याआदि) सभी समाज में एक ही प्रकार की होती हैं। प्रत्येक समाज वर्तमान समस्याओं (current problem) का समाधान करने का प्रयास करता है किन्तु, उन प्रयासों के बीच नई-नई समस्यायें भी उत्पन्न होती रहती हैं;  इसीलिए समाज में समस्याओं का कभी अंत नहीं होता। फिर समस्यायों को हल करने के दो तरीके होते हैं- एक उपचारात्मक (curative) तथा दूसरा निरोधात्मक (preventive)हम इस कहावत को जानते हैं-' Prevention is better than cure' रोक-थाम का तरीका इलाज से बेहतर है तात्पर्य यह कि व्याधि  हो जाने के बाद उसका उपचार करने की अपेक्षा समस्यायों का निरोध करना उत्तम है। किन्तु, समाज की विविध जटिलताओं के कारण रोगनिरोध का उपाय कठिन हो जाता है। इसलिये असंख्य समस्यायों से पीड़ित समाज को अक्सर उनके उपचारात्मक उपचार (curative treatment) में ही व्यस्त रहना पड़ता है। प्राचीनकाल से अबतक जितने भी सामाज-सेवी संगठन बने हैं, वे सभी मूख्य रूप से समस्यायों की रोकथाम (preventive treatment)  के उद्देश्य से ही बने हैं। फिर भी जब समस्यायें रोकथाम रूपी सरकफन्दों (noose) से फिसलकर प्रकट हो ही जाती हैं, तब उनके उपचार के लिये समाज को ताकत (राष्ट्रशक्ति -सेना, पुलिस, कानून) का सहारा लेना पड़ता है। 
                 वैश्विक गाँव (Global Village) में तब्दील होते-  विश्व में विभिन्न कारणों से विशेषकर बेमेल आदर्शों के अप्रतिबन्धित प्रवेश के कारण सामाजिक संस्थाएं कमजोर हो गयी हैं।सामाजिक संगठनों के प्रभावकारी न रहने पर रोकथाम के उपाय (Preventive action) जब कमजोर पड़ जाते हैं तब मुख्यतः राजनितिक उपायों के द्वारा समस्याओं को हल करने का प्रयास चलने लगता है। फिर विभिन्न देशों में समस्याओं को अलग-अलग ढंग से देखा जाता है तथा राज-नैतिक पृष्ठभूमि में परिवर्तन के साथ ही - 'उपचारात्मक या रोगनिवारक विधि' के चयन में भी परिवर्तन हो जाता है। इसके अतिरिक्त असंख्य जटिल समस्याओं वाले देश का नेतृत्व करना या किसी सामाजिक या प्रशासनिक व्यवस्था को सुन्दर रूप में संचालित करना भी सरल नहीं है। असंख्य जटिल समस्याओं के कारण सत्ताधीशों को इन जटिल समस्यायों की गहराई में जाने का पर्याप्त समय भी नहीं मिल पाता है। एक ओर जहाँ मूल कारणों को चिन्हित कर पाना कठिन होता है, वहीँ दूसरी ओर जब कोई समस्या अत्यधिक भड़क उठती हैं तो उस समस्या के निराकरण के लिए 'तात्कालिक उपाय ' के रूप में  किसी न किसी उपचारात्मक विधि को लागू करना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है। राजनितिक उपाय से समस्याओं को हल करने का प्रयास हिमशैल के ऊपरी छोटे से हिस्से (Tip of the iceberg ) को स्पर्श करने के समान है। 
     इसमें मूल समस्या ज्यों की त्यों पड़ी रह जाती है क्योंकि राजनीतक दल जन समर्थन के माध्यम से सत्ता बचाये रखने पर अधिक ध्यान देते हैं, तथा सच नहीं कह पाते इसलिए मनुष्यों के चारित्रिक गुणों  पर्याप्त सम्मान नहीं मिल पाता। किन्तु मनुष्यों के चारित्रिक गुणों के भीतर ही समस्या का समाधान निहित है। अतः उपचार और रोकथाम के उपायों का मिलन स्थल भी यही हैं। क्योंकि जहाँ एक अवगुण समस्या की उत्पत्ति का कारण है, वहीं एक सदगुण समस्या का समाधान करने में सक्षम है। चारित्रिक गुणों की बुनियाद पर मनुष्यों की गुणवत्ता में परिवर्तन लाना ही समस्या का सम्पूर्ण उपचार है।  दूसरे ढंग से विचार करने पर यही एकमात्र रोकथाम का उपाय भी है। जिस समाज की समस्याओं के मूल कारण घोर स्वार्थी मनुष्य (पशुमानव)  हो, वहाँ स्वार्थ-हीन मनुष्यों (देव-मानव ) का निर्माण करना ही  रोकथाम का स्थाई एवं सर्वश्रेष्ठ उपाय है। किन्तु यह कार्य बाहरी दबाव, कड़ा कानून  या पार्लियामेन्ट में बिल पास कर नहीं किया जा सकता। 
          स्वामीजी ने तो बार बार कहा है, कि 'निःस्वार्थी मनुष्यों का निर्माण  पार्लियामेन्ट से कानून पास करवा कर नहीं किया जा सकता है; और निःस्वार्थी, निष्कपट, देश-भक्त, 'चरित्रवान मनुष्यों' का निर्माण किये बिना समाज की यथार्थ उन्नति नहीं हो सकती है।' इसी विषय पर स्वामी विवेकानन्द के समकालीन पाश्चात्य मनीषी जॉर्ज बर्नार्ड शॉ [George Bernard Shaw-(1856–1950)] के विचारों का यहाँ उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा। वैसे तो वे आयु में स्वामीजी से बड़े थे, किन्तु उनकी विचारधारा में परिपक्वता स्वामीजी के जीवन-काल के पश्चात् ही आ सकी थी। श्री बर्नार्ड शॉ के विषय में ए.सि. वार्ड (A. C.Ward) लिखते हैं- " अपने प्रारम्भिक जीवन में, किसी कट्टर साम्यवादी की तरह श्री शॉ भी यह विश्वास करते थे कि, धनिकों के ऐश्वर्य को कम कर के गरीबों को उपर उठाने का प्रयत्न करना सभ्य समाज के लिये अनिवार्य है। और इसके लिये पार्लियामेन्ट में कानून पास करवाकर साम्यवाद को स्थापित करना प्राथमिक कार्य है।" हालाँकि उन्होंने मानव समाज के कल्याण और आनन्द में वृद्धि करने के उपाय के रूप में साम्यवाद का ही प्रचार किया था। किन्तु बाद में (उम्र बढ़ने पर अर्थात) अनुभव अधिक हो जाने पर पार्लियामेन्ट से कानून पास करवा कर 'साम्यवाद' स्थापित करने का उनका विचार बदल गया था। तथा अपने अनुभव के आधार पर बर्नार्ड शॉ ने कहा था " समाज की उन्नति के लिये प्राथमिक आवश्यकता अच्छे कानून की नहीं बल्कि अच्छे मनुष्यों की है। ऐसे स्त्री-पुरुषों का निर्माण करना होगा जो अपने जीवन में नैतिकता को धारण करने वाले चरित्रवान मनुष्य हों। कुछ सच्चे ईमानदार मनुष्य कहीं-कहीं से अच्छे-अच्छे  कानूनों का संकलन कर एक अच्छा संविधान तो बना सकते हैं किन्तु यह अच्छे कानूनों का पोथा स्वतः ही किसी अच्छे समाज की गारन्टी नहीं दे सकता।" क्या बर्नार्ड शॉ के ये विचार स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा की प्रतिध्वनि प्रतीत नहीं होते? 
       हमारे देश में -- आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, शैक्षणिक, नैतिक, सामुदायिक-विकास से सम्बन्धित, जातिगत और भाषाई (Ethnic and linguistic) आदि अनगिनत  समस्याएँ हैं। किन्तु हमें पहले यह विचार करना पड़ेगा कि समाज के इन समस्यायों की जड़ कहाँ है? समाज बनता किस चीज से है, यानि समाज का 'ताना -बाना' क्या है ? क्या मैदान, पर्वत, गाँव, शहर,भवन, या विभिन्न संगठन, प्रतिष्ठान, संवैधानिक सभा-समितियों, पुलिस, सरकार, आदि के द्वारा समाज का निर्माण  होता है? या फिर सबों के विकास और प्रगति को ध्यान में रखकर पारस्परिक सहयोग के साथ प्रकृति तथा मनुष्यों के द्वारा निर्मित समस्त उत्पादों तथा संस्थाओं को उपयोग में लाकर सुख-शांति से मिल-जुलकर रहने वाले मनुष्यों से बनता है ? यह स्पष्ट है कि 'मनुष्य' ही समाज का केन्द्र बिन्दु है, तथा सभी योजनायें उसी को ध्यान में रख कर बनाई जाती हैं । वह मनुष्य अपने को पूर्ण रूप से विकसित करने के लिये निरंतर संघर्ष कर रहा है, उससे भूलें भी होती हैं, अनुभव से शिक्षा भी प्राप्त करता है, और फिर से अपना पूर्ण विकास करने के संघर्ष में जुट जाता है। इस प्रकार यह समाज मनुष्य के पूर्ण-आत्मविकास करने के लिए संघर्ष का स्थान है या एक व्यायामशाला है समाज में स्थापित विभिन्न चारित्रिक-मूल्यों के ताने-बाने (টানা ও পোড়েন) के अनुसार ही मनुष्यों में क्रिया - प्रतिक्रिया होती दिखाई देती हैं। इन समस्त शक्तियों, जीवन मूल्यों का ताना और बाना, उनके गिरने- उठने या संतुलन में रखने की कुँजी भी अन्ततोगत्वा मनुष्य के नियन्त्रण में ही रहती हैं। जबकि उपरी तौर पर यह दिखता है कि नैतिकता विभिन्न सरकारी संस्थाओं के माध्यम से (ED,CBI या पुलिस के डण्डे से ) ही लागू की जा सकती हैं। एवं इसके फलस्वरूप यह गलत धारणा (misconception) बन जाती है कि समाज में नैतिक शक्तियों को नियंत्रित करने का सामर्थ्य जनसाधारण के पास नहीं, बल्कि सरकारी तंत्र में रहती है। 
     इसीलिए समाज के आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, या अन्य किसी भी समस्या का मूल उसमें वास करने वाले मनुष्यों के भीतर ही ढूँढ़ा जाना चाहिए। क्योंकि समस्या चाहे कोई भी हो अन्ततः उसके मूल में कोई न कोई मनुष्य ही होगा। और उसी में सुधार  या दण्ड के माध्यम से उस समस्या का समाधान होगा। मनुष्य को सुधारने अथवा दण्डित करने के अतिरिक्त सामाजिक समस्याओं के समाधान का अन्य कोई पथ है ही नहीं। 
                यहाँ, एक विषय पर विशेष रूप से चिन्तन करने की आवश्यकता है। ठीक है कि हमने यह स्वीकार कर लिया कि किसी भी समस्या का समाधान के लिये अन्ततोगत्वा किसी न किसी मनुष्य को ही सुधारना होगा या दण्डित करना होगा; किन्तु प्रश्न है कि मनुष्य को सुधारने या  दण्डित करने का कार्य करेगा कौन ? इसका उत्तरदायित्व किसके उपर होगा, सरकार, सामाजिक संगठन या वृहत्तर समाज के ऊपर? थोड़ी गहराई से विचार करने पर यह आसानी से समझ जायेंगे कि किसी भी प्रकार की संस्था [सरकार, सामाजिक संस्था, समाज]  के पीछे मनुष्य की कल्पना, विवेक-क्षमता (Rationality) और इच्छा (Desire) ही कार्य करती है।  तथा थोड़ी और अधिक गहराई से चिंतन-मनन  करने पर हम यह भी समझ सकेंगे कि अपनी इच्छाओं को लक्ष्योन्मुखी रखने के लिए अंततः मनुष्य को किसी दूसरे के साथ नहीं, बल्कि  स्वयं के साथ ही संघर्ष करना होगा। 
            अब मनुष्य का स्वयं के साथ संघर्ष करने का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि हमें अपने शरीर के साथ नहीं बल्कि मन के साथ संघर्ष करना होगा। क्योंकि मानव- मन ही वह आधार है जो समस्त समस्याओं का समाधान में सक्षम चारित्रिक-गुणों को उत्पन्न करता है।   
इसीलिये उसके मन का संशोधन इस प्रकार करना होगा जिससे वह अपनी 'इच्छाओं के प्रवाह एवं विकास को फलदायक बना देने के लिए' उन्हें अपने पूर्ण-नियन्त्रण में रखने में (अर्थात ऐषणाओं से खींचकर आत्मावलोकन करने में) समर्थ हो सके। इसका अर्थ यह हुआ कि चंचल और बहिर्मुखी मन को अन्तर्मुखी करके आत्मावलोकन के लिए शिक्षित बना देने देने में  उपयुक्त तरीके से बर्ताव करना होगा या बालक के समान समझाते हुए उसके साथ चर्चा करना होगा। इस प्रकार निष्कर्ष यह निकला कि 'मन' को वशीभूत करने की शिक्षा ही समाज की समस्त समस्याओं को हल करने का सर्वोत्तम उपाय है ! स्वामी जी ने शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहा था - " शिक्षा क्या है ? क्या वह पुस्तक-विद्या है ? नहीं ! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं, यह भी नहीं ! जिस संयम के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है , वही है शिक्षा!" [अर्थात जो प्रशिक्षण मन को ये दिल माँगे मोर या पर्देके पीछे क्या है ? से खींचकर आत्मावलोकन के लिए, 'योगः चित्त वृत्ति निरोधः' के अभ्यास के लिए बाध्य कर सकता है। वही है शिक्षा!" [शीक्षा?]     
      यदि हम मन को शिक्षित कर देने, उसको अपने नियंत्रण में रखने की पद्धति  को ही समस्त समस्याओं के समाधान की अन्तिम पद्धति (final methodological) स्वीकार कर लें तो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि समस्या को हल करने में 'उपचारात्मक -विधि ' (Curative method) विशेष फलदायक नहीं है। क्योंकि दण्डात्मक कार्यवाई का भय हमारे कुसंस्कारों को थोड़ी देर के लिये दबा तो सकता है अथवा समाज के ऊपर उन कुसंस्कारों के हानिकारक प्रभाव में थोड़ी कमी तो ला सकता है किन्तु , भविष्य में पुनः वह समस्या उत्पन्न ही न होगी इसकी गारंटी नहीं दे सकता। इसलिये समस्याओं का समाधान करने के दूसरे तरीके -'preventive approach' निवारक दृष्टिकोण- अर्थात मनुष्य के मन में उठने वाली इच्छाओं को प्रशिक्षित करने वाली शिक्षा के माध्यम से समस्यायों को हल करने के उपर और विस्तार से चर्चा करना आवश्यक है। 
            यह प्रश्न उठ सकता है कि क्या सभी प्रकार के मनुष्यों को मन को वशीभूत करने की शिक्षा दी जा सकती है ? उत्तर है- हाँ ! लेकिन यदि किसी के मन का स्वाभाव एक बार गठित हो गया हो तथा इच्छायें (ऐषणाएँ) यदि चित्त की गहराई तक प्रविष्ट हो चुकी हों तो वैसे मन को वश में लाना असम्भव न होने से भी कठिन अवश्य है। इसीलिये व्यस्क हो जाने के बाद मन में परिवर्तन लाने की चेष्टा की अपेक्षा युवा मन (Young mind) को ही गठित करने का प्रयास अपेक्षाकृत सरल एवं अधिकतर फलदायक होता है। अतः सजग दृष्टि रखते हुए युवा मन को इस प्रकार प्रशिक्षित तथा गठित करना होगा ताकि वह समाज में समस्यायों को उत्पन्न करने वाले चारित्रिक-दोषों या अवगुणों को अपनाये ही नहीं; और तीक्ष्ण विवेक-क्षमता और मजबूत इच्छाशक्ति के द्वारा उन्हें धारण करने से ही इंकार कर दे, और केवल सकारात्मक चारित्रिक गुणों का अधिकारी बने। 

और चूँकि अन्ततोगत्वा पारस्परिक क्रिया (interaction) तो मनुष्य को मनुष्य के साथ ही करना पड़ता है, अतएव आज के युवा को ही भविष्य के व्यस्क मनुष्य के साथ उपचारत्मक-निरोधात्मक  बर्ताव करना होगा। इसलिए आज के तरुणों को यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिये कि चाहे समस्याओं का सामना करना हो अथवा किसी नई समस्या को उत्पन्न होने से रोकना हो, दोनों परिस्थितियों में स्वयं को 'यथार्थ मनुष्य' (आत्मविद मनुष्य) के रूप में गढ़ लेना सबसे पहला आवश्यक कार्य है। अतएव युवाओं को आत्मविकास की पद्धति [3H विकास के 5 अभ्यास को सिखाने में सक्षमआत्मविद मनुष्य बनो और बनाओ की पद्धति-"Be and Make" एवं  चरैवेति,चरैवेति' -वेदान्त लीडरशिप पद्धति] को समझाने, सिखाने या प्रशिक्षण देने में समर्थ समाज के अन्य लोगों की सहायता का सवाल, भी स्वाभाविक रूप से उठ खड़ा होता है। 
       युवाओं को पूर्णत्व-प्राप्त मनुष्य (ब्रह्मविद-मनुष्य, शिक्षक या नेता) में परिणत करने के लिए,परीक्षा में पास करने वाले शिक्षण संस्थानों (यूनिवर्सिटी के Department of Social Work) के माध्यम से केवल दिमागी कसरत करवाना, या मस्तिष्क (Head) का व्यायाम करवाना ही पर्याप्त नहीं होगा। उनको परीक्षा पास करने वाले शिक्षण-संस्थाओं के बाहर ह्रदय (Heart) का विस्तार और कर्म करने की शक्ति (Hand) को विकसित करने का प्रशिक्षण भी देना होगा।  जिस व्यक्ति ने स्वयं को केवल जैविक अवश्यकताओं को पूरा करने तक ही सीमाबद्ध कर लिया हो, जिसे भोजन- शयन और वंशविस्तार करनेके अतिरिक्त अन्य किसी उत्कृष्ट वस्तु पाने की आवश्यकता अनुभव नहीं होती, जिसके जीवन का लक्ष्य केवल इन्द्रिय विषयों का भोग करना और दूसरों से छीन कर भी अपना स्वार्थ पूरा कर लेना हो, तो वह व्यक्ति मनुष्य का ढाँचा रहने से भी पशु के समान ही है। 
  समस्त समस्यायों की जड़ भी यहीं पर है। परीक्षा में पास करने वाली शिक्षा नहीं , केवल सच्ची शिक्षा (true education) ही मनुष्य को पशुत्व की दिशा में गिरने से रोक कर मनुष्यत्व प्राप्ति की दिशा में मोड़ने का सामर्थ्य रखती है। [ सच्ची शिक्षा - मन और ह्रदय में अंतर करने की शिक्षा नहीं मिलने से 'ये दिल माँगे मोर ?'  और पर्दे के पीछे क्या है ? जानने की इच्छा के बदले ब्रह्मत्व या आत्मावलोकन की इच्छा जाग्रत करने वाली शिक्षा!] किन्तु आज हमलोग अपनी संतानों को, बचपन से ही  उपयुक्त शिक्षा देने तथा उनको यथार्थ मनुष्य (पूर्णत्वप्राप्त मनुष्य) बनाने की तरफ ध्यान नहीं दे रहे हैं। फलस्वरूप वे लोग अनायास उग आये कटीली झाड़ियों [कैक्ट्स या पर्थेनियम ग्रास] की तरह बड़े हो जाते हैं तब उनके काँटों की चुभन से समाज का आम आदमी क्षत-विक्षत होता रहता है।   

         यदा-कदा (occasionally) इनसे पीड़ित होकर हम अचानक किसी दिन सुबह उठकर किसी मैदान (रामलीला मैदान या जन्तर-मन्तर) में किसी बैनर तले एकत्र होकर तेजी से सभी समस्याओं के समाधान कर देने की योजना  बना लेते हैं और  एक विशाल आयोजन करते हैं। बहुत जोर-शोर से उसका प्रचार होता है। साधारण जनता सोचने लगती है , उनके इस प्रयत्न का फल उसको ही मिलने वाला है।  अब सभी लंबित समस्याओं का समाधान होने ही वाला है। और वे समस्यायों के अंत के विषय में पढ़ने के लिए अगली सुबह अख़बार की प्रतीक्षा करने लगते हैं। किन्तु, जब उसमें समस्याओं के समाधान के विषय में कुछ नहीं मिलता तब वे एकबार फिर निराशा के गर्त में गिर जाते हैं। इसी प्रकार का गड़बड़झाला  लम्बे समय से चला आ रहा है, और तब तक चलता रहेगा, जब तक हमलोग यह नहीं जान लेंगे कि 'पुनर्निर्माण के कार्य' का प्रारंभ करना कहाँ से  है ?
    इस कार्य का प्रारम्भ हमें जड़ से ही करना होगा, जड़ों को सींचना होगा, उसकी देख-रेख करनी होगी। तभी तो जब पौधा बड़ा होगा तो हमें उसका फल प्राप्त होगा। हमलोगों को अपना सारा ध्यान युवाओं के उपर केन्द्रित रखना होगा। उसको उपयुक्त तरीके से शरीर, मन और ह्रदय को विकसित करने का प्रशिक्षण देकर 'योग्य मनुष्य'  के रूप में उनका निर्माण करना होगा। फिर जब वे लोग सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रबन्धन और नेतृत्व की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर ले लेंगे, केवल तभी हमारी सभी समस्याओं का समाधान हो सकेगा, उसके पहले नहीं। इस मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा -Be and Make' को सम्पूर्ण भारतवर्ष में फैला देने के लिए हमें परस्पर मिलजुल कर (परस्पर भावयन्तः) आपस में एकजूट होकर काम करना होगा, इसके लिए बहुत धैर्य की आवश्यकता होगी। हो सकता है यह सन्जीवनी बूटी किसी किसी को अरुचिकर, बेस्वाद, नीरस भी लगे, किन्तु स्वामीजी के अनुसार भारत की समस्त समस्यायों की रामबाण-औषधि एकमात्र यही है। 
 स्वामी विवेकानन्द की इस मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा (धर्म) को भारत माता की प्रत्येक संतान (हिन्दू हो या मुसलमान) के पास पहुँचा देना होगा। प्रत्येक अंग्रेजी पढ़े -लिखे युवा  को इस मनुष्य-निर्माण आंदोलन के साथ जोड़ने का प्रयास करना होगा। अभी हमें अपनी उर्जा को व्यर्थ के कर्मकाण्डों में, बाह्य सामाजिक सेवा, बाह्य सामाजिक सुधार, बड़ा बदलाव [गाँधी -नेहरू (1947-बाहु का कटना), जेपी -लालू की सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन (1974) या अन्ना -केजरी की भ्र्ष्टाचार विरोधी आंदोलन (2011) के जरिये] सत्ता की कुर्सी हासिल करने वाले आंदोलनों में नष्ट नहीं करना होगा। क्योंकि जब तक (पर्याप्त संख्या में) सच्चे मनुष्यों (पूर्णत्व प्राप्त मनुष्यों, आत्मविद शिक्षकों,नेताओं) का निर्माण नहीं कर लिया जाता तब तक किसी भी परिवर्तन की आशा करना व्यर्थ है। 
      अभी हमलोगों का एक मात्र लक्ष्य है- 'मनुष्य बनो और मनुष्य बनाओ !' बाकी सबकुछ अपने आप हो जायेगा।  किन्तु जो लोग उपचारात्मक विधि ( क़ानूनी दण्ड ) से परिवर्तन लाने के प्रति आग्रही हैं उनकी निंदा मत करो। वे लोग अपने तरीके से अथक प्रयास करें, वे भी समस्या को हल करने की चेष्टा पूरे जी-जान से करें। किन्तु तुम अपने पथ पर चलते रहो। दूसरों को भी अपने मार्ग पर लाने की चेष्टा में समय मत बर्बाद करो। यदि पूर्णत्व-प्राप्त मनुष्य बनने और बनाने की पद्धति को (सतयुग स्थापनकारी पद्धति को)तुमने स्वयं समझ लिया है तो कार्य में लग जाओ। एकबार स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " भला बनना तथा भलाई करना - इसमें ही समग्र धर्म निहित है। " (To do good and to be good -is whole of religion.) क्या तुम इस धर्म को ग्रहण कर सकोगे ? यदि युवा शक्ति  इस धर्म को ग्रहण करले, तो दुनिया बदल जाएगी। स्वार्थी लोग इस सरल सत्य को समझना ही नहीं चाहेंगे, वे तुम्हारी हँसी उड़ायेंगे। किन्तु तुम अपने पथ पर चलते रहो। स्वार्थी मनुष्य ऐसा मानते हैं कि- ' यह दुनिया उनके भोग के लिये बनी है, और दुर्बल मनुष्य तो सबल मनुष्यों के द्वारा शोषित होने के लिये ही बने हैं, और ताकत से ही न्याय होता है। (जिसके हाथ में होगी लाठी भैंस वही कब तक ले जायेगा ?') किन्तु, तुम्हारे लिए वैसा नहीं होगा। तुम्हारा सिद्धान्त होगा- " मैं जगत की सेवा करने के लिये आया हूँ, सबल मनुष्य दुर्बल को उपर उठायेंगे और न्याय ही शक्ति है। " यह बाद वाला मार्ग ही श्रेय का मार्ग है। यह मार्ग ही दूसरों की सहायता करने वाला मार्ग है। इस पथ से चलने वाले पथिक ही यथार्थ शक्तिमान होते हैं, तथा सुंदर चरित्र ही उनका रक्षा-कवच होता है।
      इस मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने के लिये बहुत अधिक धन-बल बहुत बड़े भवन या बड़ा विद्यालय बनाने की आवश्यकता नहीं है।  यदि तुम अपने देश से प्यार करते हो, अपने शरीर, मन एवं हृदय की उन्नति के द्वारा अन्य पाँच लोगों के विकास की सम्भावना में भी विश्वास करते हो तो दूसरों को भी उन्नति करने का यह पथ दिखला दो। नाम-यश के प्रलोभन में मत फंसो, अपने संकल्प पर दृढ रहो- इतना होने से ही सबकुछ हो जायेगा। छात्र-जीवन में तुम्हारे लिये सर्वोत्तम त्याग होगा अपनी उर्जा को चरित्र-गठन के अतिरिक्त अन्य सभी चीजों से समेट लेना, उसका दुरूपयोग नहीं करना। ऐसा करने से तुम बौद्धिक शक्ति, ह्रदयवत्ता तथा कर्म-क्षमता से सम्पन्न पूर्णत्वप्राप्त मनुष्य के रूप में विकसित हो सकते हो। अपने शरीर को बलवान और ओजपूर्ण बनाओ, अपनी बुद्धि को तीक्ष्ण (Penetrating) बनाओ, तथा अपने हृदय को प्रसारित कर उसे उदार बना लो। 
        जहाँ कहीं भी युवाओं का समूह एकत्रित होता हो- किसी कमरे में, किसी वृक्ष के नीचे, मैदान में, गाँव-शहर कहीं भी वहीँ व्यायाम के द्वारा शरीर को पूष्ट बनाने, पाठचक्र और सामूहिक चर्चा के द्वारा मन को पूष्ट बनाने, स्वामीजी के मानव सेवा के सम्बन्ध में दिए गए उनके उपदेशों को वास्तविक जीवन में उतार कर ह्रदय को प्रसारित करने का प्रयास निरंतर करते रहो। 
[जो व्यक्ति अपने को केवल शरीर (M/F) मानता है वह इन्द्रिय विषयों (मायिक पदार्थों) में आनंद को खोजता है तथा जो अपने को आत्मा मानता है वह भगवान (परमात्मा-इष्टदेव) में आनंद को खोजता है। इसीलिए। .....
आत्मावलोकन (Contemplation-मनन,आत्मचिंतन) और प्रार्थना इस मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा के दो आवश्यक अंग होंगे ग्राम- जिला- राज्य, राष्ट्र, हर स्तर के युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लेने से बहुत लाभ होता है। शिविर में संगठित प्रयास,सामूहिक निवास और देश के विभिन्न राज्यों से आये हुए युवाओं के साथ मिल-जुल कर रहने के फलस्वरूप युवाओं में परमत सहिष्णुता, सहयोगात्मक मनोभाव, अन्तर्निहित दिव्यता पर आधारित एकात्मबोध (Oneness), एवं राष्ट्रीय एकता का भाव आदि सद्गुण स्वतः उत्पन्न हो जाते हैं । शिविर में समस्त आवश्यक प्रशिक्षण को प्राप्त करने वाला कर्तव्यपरायण, देशप्रेमी, स्वार्थहीन, त्यागी, मानवताबोध सम्पन्न, सेवापरायण एवं उदार दृष्टिकोण सम्पन्न एक प्रबुद्ध नागरिक में रूपान्तरित हो जाता है। 
        जब असीम साहस, जबर्दस्त आशावाद  एवं अविरत प्रयास से ऐसे कई चरित्रवान (आत्मविद) युवक तैयार हो जायेंगे जो क्रमशः सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र; यथा शिक्षा संस्थानों, अस्पतालों, कृषि क्षेत्र, रक्षा विभाग, उद्द्योग और व्यापार, सरकारी दफ्तर, विभिन्न राजनैतिक दलों में प्रविष्ट हो जायेंगे तब राष्ट्र के जीवन में समस्यायों का जो ढेर लगा हुआ है वह सब उनके आने  के साथ ही समाप्त हो जायेगा।
          किन्तु, हमारा उद्देश्य स्वयं कोई शिक्षा-संस्थान, अस्पताल, अद्द्योगिक प्रतिष्ठान, या राजनैतिक पार्टी खड़ा करना नहीं है। क्योंकि देश में इन सब का आभाव नहीं है। परन्तु, इस प्रकार के समस्त प्रतिष्ठानों में ईमानदार कार्यकर्ताओं का घोर आभाव है। इस कमी को दूर करना ही महामण्डल सबसे आवश्यक कार्य समझता है, और इतना कर ही वह खुश है। राजनीती के माध्यम से इन सब पर कब्जा कर लेने का हमारा  कोई इरादा नहीं है।
               स्वामी विवेकानन्द का युवाओं से आग्रह है- " इसीलिये पहले 'मनुष्य' उत्पन्न करो! "  यही है उनके इस आह्वान की मूल भावना। किन्तु,  हमलोगों ने आभी तक स्वामीजी के सत्योपदेश पर कोई ध्यान नहीं दिया है। अगर सुना भी है तो कभी यह समझने की चेष्टा नहीं की है कि उन्होंने " Be and Make " का आह्वान क्यों किया था? उनके इसी छोटे से सत्योपदेश के भीतर ही 'क्रान्तिकारी परिवर्तन ' का बीज निहित है !
       सत्ता के नशे में चूर रहने की प्रवृत्ति  को त्यागकर, अपने क्षुद्र स्वार्थों को विसर्जित कर स्वामीजी के नाम के आगे ' हिन्दू-सन्यासी ' का तमगा  लगाकर उन्हें भी 'sectarian' (कट्टरपंथी) बनाने की साजिश/ कोशिश छोड़, आइये, हमलोग इस योजना (मनुष्यनिर्माणकारी योजना) को पूरा करने के लिए युद्ध स्तर पर कार्य  प्रारंभ करें और इस " मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन " को सारे देश में फैला दें ! 
 
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स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " मैं ' सुधार नहीं कहता , अपितु कहता हूँ -'बढ़े चलो।' कोई वस्तु इतनी बुरी नहीं है कि उसका सुधार या पुनर्निर्माण करना पड़े। अनुकूलन क्षमता (Adaptability) ही जीवन का एकमात्र रहस्य है - उसे विकसित करनेवाला अंतर्निहित तत्व है। बाह्य शक्तियों द्वारा आत्मा को दमित करने की चेष्टा के विरुद्ध आत्मा के प्रयास का परिणाम ही अनुकूलन या समायोजन है। जो अपना सर्वोत्तम अनुकूलन कर लेता है , वह सर्वाधिक दीर्घजीवी होता है। यदि मैं उपदेश न भी दूँ , तो भी समाज परिवर्तित हो रहा है, वह परिवर्तित अवश्य होगा। " (विविध प्रसंग-११६)     

पुनर्निर्माण करने के लिये हमें समस्या के भीतर, उसकी जड़ तक पहुँचना होता है। इसी को मैं आमूल सुधार कहता हूँ। मेरी चिकित्सा-पद्धति यह है कि रोग को केवल दबाकर न रखा जाय, बल्कि उसे जड़ से नष्ट कर दिया जाय। तथाकथित समाज-सुधार के कार्यों में हाथ मत डालना, क्योंकि आध्यात्मिक सुधार के बिना कोई भी सुधार सम्भव नहीं है।  " ( रामकृष्ण मठ नागपुर से प्रकाशित पुस्तक - 'भारत ओर उसकी समस्याएँ ' पृष्ठ ३७ )  
 " जब आपके पास ऐसे मनुष्य होंगे, जो अपना सब कुछ देश के लिये होम कर देने के लिये तैयार हों, भीतर तक एकदम सच्चे, जब ऐसे मनुष्य उठेंगे, तो भारत प्रत्येक अर्थ में महान हो जायेगा. भारत तभी जागेगा, जब विशाल ह्रदयवाले सैकड़ों स्त्री-पुरुष भोग-विलास और सुख के सभी इच्छाओं को विसर्जित कर मन,वचन तथा कर्म से उन करोड़ों भारतियों के कल्याण हेतु सचेष्ट होंगे, जो निरन्तर निर्धनता एवं अज्ञान के अगाध सागर में डूबते जा रहे हैं. जो सच्चे हृदय से भारत के कल्याण का व्रत ले सकें तथा उसे ही अपना एकमात्र कर्तव्य समझें-ऐसे युवकों के बीच कार्य करते रहो. उन्हें जाग्रत करो, संगठित करो, तथा उनमें त्याग का मन्त्र फूँक दो. यह कार्य पूर्णतया भारतीय युवकों पर ही निर्भर है। इस समय मुझे चाहिये, जोरदार प्रचारकों (महामण्डल में प्रशिक्षित नेताओं) का एक दल. " (' भारत और उसकी समस्याएँ '-पृष्ठ ३१)}

>>># गीता में अर्जुन उवाच : स्थितप्रज्ञ क्या है?  
धार्मिक ग्रंथों में मिथ्या जगत (संसार) को मृगतृष्णा कहा गया है जिसका अर्थ हिरण द्वारा देखा जाने वाला 'मृग जल' है। रेगिस्तान की गर्म रेत पर जब सूर्य की किरण का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है और उस हिरण को जल का भ्रम हो जाता है।  वह धीरे-धीरे जल की ओर भागता है, वह मृगजल वहां से दूसरे स्थान पर रहती है और आगे दिखाई देती है। हिरन अपनी मंदबुद्धि के कारण यह जान नहीं पाता कि वह भ्रम के पीछे भाग रहा है। अभागा हिरण मृगजल का पीछा करते हुए भागता रहता है, और रेगिस्तान की तप्ती रेत पर थककर मर जाता है। इसी प्रकार दैवी शक्ति (प्राकृत शक्ति)  माया भी सुख का भ्रम पैदा करती है और हम अपनी इन्द्रियों की तृप्ति की आशा में इन्द्रियग्राह्य  सुखों के पीछे भागते रहते हैं।  
जो व्यक्ति अपने को शरीर मानता है वह मायिक पदार्थों में आनंद को खोजता है तथा जो अपने को आत्मा मानता है वह भगवान में आनंद को खोजता है कुछ लोग पूर्णतया अध्यात्मवाद को महत्व देते हैं, तथा कुछ लोग पूर्णतया भौतिकवाद को महत्व देते हैं । दोनों वाद-वादी अपने सिद्धान्त को ही सत्य​ मानते हैं, अतः अध्यात्मवाद तथा भौतिकवाद में अनादिकाल से विवाद चला आ रहा है। परंतु वास्तव में दोनों ही आवश्यक  हैं, क्योंकि भौतिकवाद (अपरा विद्या)  एवं अध्यात्मवाद (परा विद्या) दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । गरुड़ पुराण  कहता है -
चक्रधरोऽपि सुरत्वं सुरत्वलाभे सकलसुरपतित्वम्। 
भवितुं सुरपतिरूवंगितत्वं तथापि न निवर्तते तृष्णा।।
(गरुड़ पुराण-2.12.14)"संपूर्ण पृथ्वी का राजा, देवता का पद चाहता है । देवता, स्वर्ग के राजा इंद्र का पद चाहते हैं । इंद्र भी ब्रह्मा का पद प्राप्त कर ब्रह्मलोक का स्वामी बनना चाहता है । अतः कामनाओं का कोई अंत नही।"
'माया के खेल को महसूस किए बिना'  स्थितप्रज्ञ होना‌ संभव नहीं है। 
एक अभिनेता जब तक अपनी भूमिका में (राजा या भिखारी की भूमिका अथवा डॉक्टर और मरीज की भूमिका) नहीं डूबता उसका अभिनय जीवंत नहीं दिखाई देता। इसके बावजूद भी वह संयत रहता है क्योंकि वह जानता है कि उसकी भूमिका वास्तविक नहीं है। एक नजरिए से यह स्थितप्रज्ञ अवस्था की झलकी है। अर्जुन उवाच : 

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।2.54।।

अर्जुन उवाच-अर्जुन ने कहा; समाधिस्थस्य-दिव्य चेतना में स्थित मनुष्य का; केशव-केशी राक्षस का दमन करने वाले, श्रीकृष्ण; स्थितधी:-प्रबुद्ध व्यक्ति; किम्-क्या; प्रभाषेत बोलता है; किम्-कैसे; आसीत-बैठता है; व्रजेत-चलता है; किम्-कैसे।
।।2.54।। अर्जुन ने कहा -- हे केशव समाधि में स्थित ( = दिव्य चेतना में लीन) स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य के क्या लक्षण है।  वह सिद्ध पुरुष कैसे बोलता है? कैसे बैठता है और कैसे चलता है?
स्थितप्रज्ञस्य (स्थिर बुद्धियुक्त मनुष्य) और समाधिस्थस्य (दिव्य चेतना में स्थित) की उपाधि प्रबुद्ध व्यक्ति (=बुद्धत्व प्राप्त पुरुष) को दी जाती है। श्रीकृष्ण से पूर्ण योग की अवस्था या समाधि के विषय पर उपदेश सुनकर अर्जुन स्वाभाविक प्रश्न पूछता है। अर्जुन किसी बुद्धत्वप्राप्त व्यक्ति को उसके  मन पर कितना अधिकार होता है , मन उसके वश में रहता है , या वह मन का गुलाम रहता है , वह भगवान (योग-गुरु श्रीकृष्ण) से स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के मन की प्रकृति के संबंध में जानना चाहता है। इसके अतिरिक्त वह यह भी जानना चाहता है कि दिव्य चेतना में स्थित मनुष्य की मानसिकता उसके स्वभाव में कैसे प्रकट होती है
 इस श्लोक से आरम्भ करते हुए अर्जुन श्रीकृष्ण से सोलह प्रश्न पूछता है। जिसके प्रतिउत्तर में श्रीकृष्ण कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, राजयोग इत्यादि के संबंध मे गूढ़ रहस्य प्रकट करते हैं।
इस प्रकरण में स्थितप्रज्ञ का अर्थ है वह पुरुष जिसे आत्मा का अपरोक्ष अनुभव हुआ हो। और उसके फलस्वरूप जिसकी विवेक बुद्धि स्थिर हो गयी हो । वरना,  समाधि आदि शब्दों के प्रचलित अर्थ से तो कोई यही समझेगा कि योगी पुरुष आत्मानुभूति में अपने ही एकान्त में रमा रहता है। प्रचलित वर्णनों के अनुसार नये जिज्ञासु साधक की कल्पना होती है कि ज्ञानी पुरुष इस व्यावहारिक जगत् के योग्य नहीं रह जाता। 
ऐसी धारणाओं वाले से घृणा और कूटिनीति के युग में पला अर्जुन इस ज्ञान को स्वीकार करने के पूर्व ज्ञानी पुरुष के लक्षणों को जानना चाहता था। स्थितप्रज्ञ के लक्षणों को पूर्णत समझने की उसकी अत्यन्त उत्सुकता स्पष्ट झलकती है जब वह कुछ अनावश्यक सा यह प्रश्न पूछता है कि वह पुरुष कैसे बोलता है कैसे बैठता है आदि। उन्माद की अवस्था से बाहर आये अर्जुन का ऐसा प्रश्न उचित ही है। श्लोक की पहली पंक्ति में स्थितप्रज्ञ के आन्तरिक स्वभाव के विषय में प्रश्न है तो दूसरी पंक्ति में वाह्य जगत् में उसके व्यवहार को जानने की जिज्ञासा है।  भगवान श्री-उवाच-परमात्मा श्रीकृष्ण ने कहा; 

प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।2.55।।

।।2.55।। प्रजाहति-परित्याग करता है; यदा-जब; कामन्-स्वार्थयुक्त; सर्वानिश्चिंत; पार्थ-पृथपुत्र, अर्जुन; मनः-गतान-मन की; आत्मनि-आत्मा की; ईव-एकमात्र; आत्मना-शुद्ध मन से; तुष्टः-संतुष्ट, स्थितप्रज्ञाः-स्थिर बुद्धि युक्त; तादा-उस समय, तब; उच्यात–कहा जाता है।

 श्री भगवान् ने कहा -- हे पार्थ, जिस समय पुरुष मन में स्थित सब स्वार्थपरता की कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है? उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।।
 >>> भक्ति (दिव्य प्रेम) और ऐषणा का विवेक : (ठाकुर-माँ -स्वामीजी में अनुरक्ति)  और ऐषणा (तृष्णा से वैराग) का विवेक :  जैसे पत्थर गुरुत्वाकर्षण की शक्ति के कारण ही पृथ्वी पर गिरता है। उसी प्रकार  हमारी आत्मा अनंत सुखों के सागर भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस देव का अंश है, इसलिए वह स्वाभाविक रूप से अन्तर्निहित आनंद को प्राप्त करना चाहती है। जब (देहाध्यासी अहं नहीं) आत्मा' ठाकुर देव से एकत्व (अर्थात सच्चिदानन्द का दासत्व ) का रस लेने का प्रयास करती हैं तब इसे 'दिव्य प्रेम' कहा जाता है। लेकिन अपने यथार्थस्वरूप  की अज्ञानता के कारण वह स्वंय को वह (M/F) शरीर मान लेता है और इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले शरीर के सुखों का भोग करना चाहता है, तब उसे तृष्णा कहते हैं।
अभिप्राय यह कि पुत्र धन और लोक (तीनों ऐषणाओं में आसक्ति) की समस्त तृष्णाओंको त्याग देने वाला संन्यासी ही आत्माराम आत्मक्रीड और स्थितप्रज्ञ है। 
जीवन में हो रहे बदलावों पर इंसान अपनी समझ उस अभिनेता की तरह बना लें जिसमें उसे निर्देशक की आज्ञा का पालन करते हुए सुख और दुख को जीना है, अपनी भूमिका से न्याय करते हुए भी कथा के उस पात्र की असत्यता के प्रति सावधान बने रहना है।यही ब्रह्मज्ञान है जिसके बिना स्थितप्रज्ञ होना असंभव है। संकीर्ण दृष्टि (ह्रदय या स्वार्थी व्यक्ति)  वाला इंसान कभी स्थितप्रज्ञ नहीं हो सकता। दादा के अनुसार उपचारात्मक (curative) और रोगनिरोधक  ( preventive) उपायों का मिलन  बिंदु है - 'पूर्ण-हृदयवान मनुष्य बनो और बनाओ!'

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Sunday, August 5, 2012

"जीवन पंछी का पिंजड़ा " (জীবন পাখির পিঞ্জর) [ द्वितीय अध्याय -2.4 : समस्या और समाधान : (उदारणार्थ : ग्राम जानीबिगहा< गया, बिहार >की समस्या एवं समाधान) (Problem and Solution : of Janibigha Village, Gaya. Bihar) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-2.4]

4.
 
"जीवन पंछी का पिंजड़ा " 
 
      पहले 'रोचक-कथायें' नामक एक पुस्तक में 'जीवन-पंछी ' की कहानी पढ़ाई जाती थी। जब कोई राजकुमार उस पंछी को मार डालता तो उस कथा के अनुसार राक्षस का जीवन भी चला जाता था। हमारे राष्ट्र का जीवन पंछी, 'प्राण-पखेरू' कहाँ वास करता है ? भारत का जीवन-पंछी, गाँव की झोपड़ियों में वास करता है। किन्तु वह झोपड़ी अब उसको अपना प्रिय निवास स्थान नहीं लगती। क्योंकि उसकी झोपड़ी अब एक खास किस्म का पिंजड़ा बन चुकी है, उस झोपड़ी में अपने को वह पराधीन बंधा हुआ महसूस कर रहा है। कोई- कोई, अब  झोपड़ी से बाहर निकल आया है, उस पिंजड़े  में नहीं है,फिर भी वह मुक्त नहीं हो सका है। क्योंकि उसकी झोपड़ी कूसंस्कारों के झंझावात, आग या बाढ़ में नष्ट हो हो गयी है। अब वह झोपड़ी से निकल कर पेंड़ के नीचे रह रहा है, फिर भी वह मुक्त नहीं है। पिंजड़े में बन्द  किसी पंछी के पंख टूट जाने या रुग्न हो जाने पर जब उसका मालिक उस पंछी को उसके पिंजड़े से बाहर छोड़ देता है, तब भी वह पंछी उड़ नहीं पाता, वहीं पर बैठकर हांफता रहता है। क्योंकि वर्षों तक पिंजड़े में बंद रहने व उड़ने का अभ्यास नहीं रहने से अब वह उड़ना भी भूल चुका होता है। हमारे गाँवों में बसने वाले अधिकांश ग्रामीण भाइयों की अवस्था आज ऐसी ही हो गयी है।
           स्वामी विवेकानन्द का हृदय इन्हीं बेबस-लाचार भाइयों के लिए रो उठा था। उनकी आँखों ने इन्हीं ग्रामीणों की दुर्दशा को देखकर बहुत अश्रु बहाये थे। उन्होंने ही सबसे पहले यह आविष्कार किया था कि भारत का राष्ट्रिय जीवन (प्राण) गरीबों की झोपड़ियों में ही स्पन्दित हो रहा है। उनके इसी सन्देश को प्रतिध्वनित करते हुए महात्मा गाँधी ने भी कहा था- 'गाँवों में भारत का प्राण है,यथार्थ भारत तो गाँवों में ही बसता है!' किन्तु भारतवर्ष का वह जीवन-पन्छी (प्राण-पखेरू) आज भी पिंजड़े में ही कैद है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था-" सोचकर देखो बात क्या हैवे जो लोग किसान हैं, वे कोरी, जुलाहे (बुनकर लोग) जो भारत के नगण्य मनुष्य हैं, विजाती-विजित और स्वजाति-निन्दित छोटी छोटी जातियाँ हैं, वही लगातार चुपचाप काम करती जा रही हैं, और अपने परिश्रम का फल भी नहीं पा रही हैं।" (यूरोप यात्रा के संस्मरण -८/१८९) यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि भारत सरकार इनलोगों के लिए निर्धारित न्यूनतम मजदूरी दर में वृद्धि करने के लिये कानून बनाने जा रही है। उन खेतिहर मजदूरों को, जो वंशगत रूप से अपने मालिकों की जमीनों को जोतते आ रहे हैं, उनको ही उस जमीन पर खेती करने का अधिकार देने के लिये, राज्य सरकारें बँटाई-दाऱी कानून को संशोधित करके नया कानून बनाने जा रही हैं। हृदयहीन स्वार्थान्ध सूदखोर साहूकारों के कमर-तोड़ ऋण के बोझ से जर्जरित गरीबों को बचाने के लिये कानून बनाय गए हैं। विवाह में दहेज़-प्रथा बन्द करने के लिये कानून बनाये गये हैं। किन्तु सरकारी समीक्षात्मक रिपोर्टों में ही कहा गया है कि अधिकांश किसानों और खेतिहर मजदूरों को इन कानूनों के बारे में कुछ पता नहीं है। 
     वे लोग तो यह भी नहीं जानते कि वर्तमान कानून के अनुसार खेतिहर मजदूरों से आठ घन्टे से अधिक देरी तक काम नहीं लिया जा सकता है। वे लोग आज भी बारह से तेरह घन्टे तक काम करने को बाध्य हैं। इतना ही नहीं, निर्धारित न्यूनतम मजदूरी दर से आधे से भी कम दर पर इनको मजदूरी दी जाती है। बावजूद इसके इन्हें पूरे वर्ष भर में छः महीने का भी काम नहीं मिलता है। आजादी के इतने साल बाद भी उनके पिंजड़े को क्यों नहीं टूटना चाहिए ? भूमि हीनों के लिये सरकारी गैर-मजरुआ जमीन से जमीन दिए जाने कि व्यवस्था रहने पर भी क्यों अभी तक अनेकों गरीब इससे वंचित हैं ? बैंकों के द्वारा किसानों को हल-बैल खरीदने, घर बनाने, खेती करने के लिये जितने प्रकार के ऋण देने तथा  ऋण-माफ़ी और अन्य दूसरी सुविधाओं को देने के लिये भारत सरकार ने जितने कानून बनाये हैं, उनके बारे में अधिकांश मजदूर-किसानों को क्यों कुछ पता ही नहीं है? क्योंकि लाभुकों तथा ऋण-दाताओं के बीच बहुत से स्वार्थी बिचौलिए पैदा हो गये हैं, जो उनके हक को लूट लेते हैं। भारत सरकार के कृषि-मन्त्रालय के परामर्श दाता समीति ने हाल में ही इन सब असुविधाओं के लिये भ्रष्ट प्रशासनिक अधिकारीयों तथा बेईमान सामाजिक कार्यकर्ताओं की मिलीभगत से गरीब-अनपढ़ किसानों, मजदूरों को उनका हक नहीं मिलने की बात को स्वीकार भी किया है।
             हमारे कृषक-मजदूर भाइयों को कोई शिक्षा नहीं मिली है। उन गरीब देश-वासियों के प्रति किसी के हृदय में सच्ची सहानुभूति भी नहीं है। वे भला इन कानूनों के विषय में जानें भी तो कैसे ? भूख की ज्वाला के सामने ईमानदारी से अपना हक माँगने की बुद्धि हार मान लेती है इसीलिए उनको सेठ-साहूकारों के सामने हाथ फैलाना ही पड़ता है। ऋण एवं भारी सूद के बोझ से किसान लोग जर्जरित हो गये हैं, ऋण नहीं लौटा पाने के कारण उनको बिना कोई मजदूरी लिये उन सूदखोरों के यहाँ बन्धुआ मजदूर बनना पड़ता है, या बेगार खटना पड़ता है। बड़े किसान अपने हक के रूप में प्राप्य मजदूरी  को थोडा बहुत कोड़ी-गण्डा करके गिन भी लेते हैं, किन्तु छोटे किसानों को दोनों शाम भोजन नहीं मिलता, उन लोगों को अक्सर भूखे पेट सोना भी पड़ता है, शिक्षा नहीं मिलती। दक्षिण भारत के निलगिरी क्षेत्र में देखा गया है, अनेकों परिवार ऐसे हैं, जो वंशानुगत तरीके से बेगार खटते-खटते बड़े बड़े जमींदारों के गुलाम बन चुके हैं। उनको अपने हाथों में गुलामी की निशानी तौर पर आज भी लोहे का कड़ा पहनना पड़ता है। किन्तु फिर भी वे लोग कभी अपने मालिक से बेईमानी नहीं करते।  वे बड़े भोलेपन से कहते हैं, पितामह का ऋण है न, इसी जीवन में परिश्रम से काम करके इसे चूका देना होगा। कितने वर्षों पूर्व स्वामीजी ने कहा था- " वे भूल गये हैं, वे यह होश ही खो चुके हैं, कि वे भी मनुष्य हैं। फल स्वरुप वे लोग आत्मश्रद्धा रहित खरीदे गये गुलाम की श्रेणी में परिणत हो गए हैं। " (1/402)
     स्वामी विवेकानन्द खेद व्यक्त करते हुए कहा था, "आपके पास संसार का महानतम धर्म है और आप जनसमुदाय को सारहीन और निरर्थक बातों पर पालते हैं। आपके पास चिरन्तन बहती हुई निर्झरनी है, और आप उन्हें गन्दी नाली का पानी पिलाते हैं? (४/२६०-६१)" कोलकाता के टेंगरा नामक स्थान में आम जनता को गंदे नाले का पानी पिलाने का समाचार तो पेपर में भी छपा था। स्वामीजी ने कहा था- " जीवन-संग्राम में सदा लगे रहने के कारण शूद्र लोगों में अभी तक ज्ञान का विकास नहीं हुआ है। ये लोग अभी तक मानव-बुद्धि द्वारा परिचालित यन्त्र-मानव (robot) की तरह एक ही भाव से काम करते आ रहे हैं,और चतुर शिक्षित व्यक्ति इनके परिश्रम तथा कार्य का सार (लागत-मूल्य?) तक निचोड़ लेते रहते हैं। उन्हें कौन प्रकाश देगा, कौन उन्हें द्वार द्वार शिक्षा देने के लिये घूमेगा ? (६/१०७)"
        स्वामीजी ने कहा था, " ये ही तुम्हारे इश्वर हैं, ये ही तुम्हारे इष्ट बनें। निरन्तर इन्हीं के लिये सोचो, इन्हीं के लिये काम करो, इनकी सेवा करो। मैं उसीको महात्मा कहता हूँ, जिसका हृदय गरीबों के लिये द्रवीभूत होता है, अन्यथा वह दुरात्मा है। आओ, हमलोग अपनी इच्छा-शक्ति को एक्य भाव से उनकी भलाई के लिये निरन्तर प्रार्थना में लगायें। हम अनजान, बिना सहानुभूति के, बिना मातमपुर्सी के, बिना सफल हुए मर जायेंगे,परन्तु हमारा एक भी विचार नष्ट नहीं होगा। वह कभी न कभी फल लायेगा.जब तक करोड़ो लोग भूखे और अशिक्षित रहेंगे, तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को देशद्रोही समझूंगा, जो उनके खर्चे पर शिक्षित हुआ है, परन्तु जो उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता ! वे लोग जिन्होंने गरीबों को कुचलकर धन पैदा किया है और अब ठाट-बाट से अकड़कर चलते हैं, उन बीस करोड़ देशवासियों के लिये जो इस समय भूखे और असभ्य बने हुए हैं, कुछ नहीं करते, तो वे घृणा के पात्र हैं। " (३/३४५)
       कुछ दिनों पूर्व किसी मन्त्री ने कहा था, भारतवर्ष में इस समय बीस करोड़ मनुष्य गरीबी की सीमा रेखा के नीचे वास करते हैं। ऐसी अवस्था में कोई हमें भी कहीं देशद्रोही की भूमिका में नहीं रख दे, इसके लिए क्या हमें सतर्क नहीं हो जाना चाहिए ? स्वामीजी का आह्वान था- " तुम लोगों का अब काम है प्रान्त प्रान्त में, गाँव गाँव जाकर देश के लोगों को समझा देना कि अब आलस्य से बैठे रहने से काम न चलेगा। शिक्षा-विहीन, धर्म-विहीन वर्तमान अवनति की बात उन्हें समझाकर कहो- ' भाई, सब उठो, जागो, और कितने दिन सोओगे ?'  उसके बाद उनलोगों को स्वयं अपनी अपनी लौकिक अवस्था में उन्नति करने का उपाय बतला देना होगा। तुम सरल भाषा में उन्हें व्यापार, वाणिज्य, कृषि, आदि गृहस्थ-जीवन के अत्यावश्यक विषयों का उपदेश दो। नहीं तो तुम्हारे लिखने पढने को धिक्कार -और तुम्हारे वेद-वेदान्त पढने को भी धिक्कार."(६/१२९)
[Remember that the nation lives in the cottage. But, alas! nobody ever did anything for them."] " याद रखो कि राष्ट्र झोपड़ी में बसा हुआ है; परन्तु शोक ! उनलोगों के लिए कभी किसीने कुछ नहीं किया। हमारे आधुनिक सुधारक विधवाओं के पुनः विवाह करवाने में व्यस्त हैं। ...... परन्तु राष्ट्र की उन्नति उसकी विधवाओं को मिले पति की संख्या पर निर्भर नहीं, वरन 'आम जनता की अवस्था पर निर्भर है। क्या तुम जनता की उन्नति कर सकते हो ? क्या उनका खोया हुआ व्यक्तित्व, बिना उनकी स्वाभाविक आध्यात्मिकता को नष्ट किये वापस दिला सकते हो ? यह करना है और हम इसे करेंगे ही।" (२/३२१) 
" Do not forget our plan of a Central College, and the starting from it to all directions in India. My whole ambition in life is to set in motion a machinery which will bring noble ideas to the door of everybody, and then let men and women settle their own fate. There is no harm in preaching the idea of elevating the masses by means of a Central College, and bringing education as well as religion to the door of the poor by means of missionaries trained in this college." [Letter to (His disciples in Madras) on 24th January, 1894.] 
" एक केन्द्रीय महाविद्यालय (ABVYM) एवं उससे भारत की चारों दिशाओं में शाखायें स्थापित करने की हमारी योजना को न भूलना। .....जीवन में मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि ऐसे चक्र का प्रवर्तन कर दूँ , जो उच्च एवं श्रेष्ठ विचारों (वेदों के चार महावाक्यों) को सबके द्वारों तक पहुँचा दे, और फिर स्त्री-पुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर लें। एक केन्द्रीय महाविद्यालय  खोलकर जनसाधारण की उन्नति के विचारों का प्रचार करने में कोई हर्ज नहीं। इस महाविद्यालय के ['Be and Make' लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा में] प्रशिक्षित प्रचारकों द्वारा गरीबों की कुटियों में जाकर, उनमें शिक्षा एवं धर्म का प्रचार करना होगा" (पत्रावली 24 जनवरी, 1894/२ /३२०-२२)       
 अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र की तरह भारत वर्ष में भी सरकारी स्तर पर स्वामीजी द्वारा निर्देशित बहुत सी योजनाओं को कार्यान्वित करने का प्रयास चल रहा है। किन्तु उन योजनाओं को कार्यान्वित करने में जो मनुष्य लगे हुए हैं, उनका चरित्र-गठन नहीं हो सका है, इसलिये वे योजनायें उचित तरीके से फलदायी नहीं हो पा रही हैं। जनता जनार्दन को जागृत करने का उत्तरदायित्व केवल राजनितिक दलों के उपर छोड़ देने से उसका यथोचित फल कभी नहीं पाया जा सकता। क्योंकि  निजी लोभ या दलगत स्वार्थ से उपर उठकर, जो जिस किसी क्षेत्र में कार्यरत हैं वहीं रहकर निःस्वार्थ भाव से जन-कल्याण करना कठिन कार्य है।  यह कार्य तब और भी कठिन हो जाता है, जब वैयक्तिक चरित्र निर्माण के लिए कोई सामाजिक व्यवस्था नहीं रहने के कारण, भ्रष्टचरित्र लोग राजनितिक दल में सम्मिलित हो जाते हैं और सरकारी योजनाओं को क्रियान्वित करने के कार्य में कूद पड़ते हैं। धर्मनिरपेक्ष शिक्षा (secular education) प्राप्त किन्तु आध्यात्मिक शिक्षा (spiritual teachings)से अनभिज्ञ व्यक्ति ही हमारे देश में उच्च पदों पर आसीन होकर देश के लिये योजनायें बनाने और क्रियान्वित करने के कार्य में नियुक्त किये जाते हैं। इसीलिये तकनीकी शिक्षा के अलावा जो मानवमात्र में अंतर्निहित दिव्यता, आध्यात्मिकता या ऐक्यबोध (Inherent Divinity and Oneness) पर आधारित जो सहानुभूति, त्याग-क्षमता, सेवापरायणता आदि चारित्रिक गुण जीवन में आते हैं, उनके नहीं रहने से जनसाधारण की उन्नति का संकल्प अधूरा ही रह जायेगा। पचास करोड़ ग्रामीण लोगों की विशाल जनसंख्या की सांसारिक उन्नति का कार्य गैर सरकारी प्रयास द्वारा (NGO द्वारा) कभी सम्पन्न नहीं किया जा सकता है। इसमें सरकारी मशीनरी का प्रयोग जरुरी हो जाता है। किन्तु सरकारी प्रयास में सबसे बड़ी कमी है,सरकारी तंत्र में कार्यरत लोगों में आध्यात्मिक शिक्षा का नितान्त अभाव; जिसके फलस्वरूप उनमें सहानुभूति, स्वार्थहीनता, लोभ-शून्यता, त्याग का मनोभाव तथा सेवापरायणता आदि चारित्रिक गुणों का नितान्त आभाव रहता है।अध्यात्मिक शिक्षा का अर्थ ही जंगल में या पहाड़ की कन्दराओं में बैठकर तपस्या करना नहीं है; या बीच बीच में किसी धर्म-स्थान में जाकर मत्था टेकना भी नहीं है। देशवासियों के साथ अपने हृदय को जोड़े बिना, केवल धन के बल पर अंधे कर्म-काण्ड के माध्यम से पुण्य संचय की चेष्टा को भी धर्म नहीं कहते हैं। अध्यात्मिक शिक्षा का अर्थ है- ' हृदय को विस्तृत करना।' उसके फलस्वरूप मनुष्य स्वार्थ-बोध के उपर उठ जाता है। मनुष्य व्यष्टि अहं की सीमा से उपर उठकर परिवार के प्रति और परिवार से उपर उठकर समाज के प्रति सहानुभूतिशील, दायित्वशील बन जायेगा। यह दायित्वबोध और सहानुभूति ही उसको लोक-कल्याण के कार्यों के लिए उत्साहित करेगी। किन्तु यह शिक्षा-प्रणाली जब तक प्रभावी ढंग से लागु नहीं की जाएगी, तब तक देश के यथार्थ उन्नति होने की कोई सम्भावना नहीं है। यह बात हमारे नीतिनिर्धारकों को समझना होगा। जब तक ऐसी शिक्षा के लिए सरकारी स्तर पर कोई सार्वजनिक व्यवस्था नहीं हो जाती तब तक किसी गैर-सरकारी प्रयास (केन्द्रीय महाविद्यालय ABVYM) से जुड़े रहकर इसी कार्य (मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के पचार-प्रसार) में लगे रहना देश की सर्वांगीण उन्नति के लिये एक महान कार्य है। ऐसा करने से ही सार्व-जनिक कल्याण का कार्य सार्वभौमिक बन सकता है। और उसीके फलस्वरूप राष्ट्रीय जीवन पंछी पिंजड़े में कैद न रहकर स्वाधीन पंखों से उड़ान भरते हुए मुक्ति का स्वाद भी प्राप्त कर सकता है। इसी कार्य को  आज भारत के युवाओं का एकमात्र कार्य बनाने की आवश्यकता है।  
(यह प्रबंध 1996 ई० में विवेक-जीवन में प्रकाशित हुआ था.)
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>>> लौकिक शिक्षा के साथ साथ हृदय को विस्तृत करने वाली शिक्षा -का वितरण और प्रसार : अर्थात  ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (आदि 4 महावाक्यों का वितरण और प्रसार !) " जीवन में मेरी एक मात्र अभिलाषा यही है कि एक ऐसे चक्र का प्रवर्तन कर दूँ, जो उच्च एवं श्रेष्ठ विचारों को सबके द्वारों तक पहुंचा दे और फिर स्त्री-पुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर लें। याद रखो कि राष्ट्र झोपड़ी में बसा हुआ है; परन्तु हाय ! उन लोगों के लिये कभी किसी ने कुछ किया नहीं. क्या तुम जनसमुदाय की उन्नति कर सकते हो ? क्या तुम उनका खोया हुआ व्यक्तित्व, बिना उनकी स्वाभाविक आध्यात्मिक वृत्ति को नष्ट किये, उन्हें वापस दिला सकते हो ? क्या समता, स्वतंत्रता. कार्य-कौशल, पौरुष में तुम पाश्चात्यों के भी गुरु बन सकते हो ? यह काम करना है और हम इसे करेंगे ही. " 
एक मनुष्य निर्माणकारी ' केन्द्रीय प्रशिक्षण संस्थान ' (या शिक्षायतन 'Academy) स्थापित करके, साधारण लोगों के उन्नति के उपाय 'Be and Make ' का प्रचार करना होगा। तथा इस प्रशिक्षण-संस्थान (अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ) में प्रशिक्षित प्रचारकों को गरीबों की झोपड़ियों में जाकर उनमें लौकिक शिक्षा (मानसिक एकाग्रता ) एवं अध्यात्मिक शिक्षा (हृदय का विस्तार) का उपाय वितरण करना होगा।' पहाड़ यदि मुहम्मद के पास न आ सके, तो मुहम्मद ही पहाड़ के पास जायेगा।' मेरा विचार है कि भारत और भारत के बाहर मनुष्य-जाती में जिन उदार भावों का विकास हुआ है, उनकी शिक्षा गरीब से गरीब और हीन से हीन व्यक्ति को दी जाय, और फिर उन्हें स्वयं विचार करने का अवसर दिया जाय। जात-पाँत रहनी चाहिये या नहीं, महिलाओं को पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी चाहिये या नहीं, मुझे इनसे कोई वास्ता नहीं। ' विचार और कार्य की स्वतंत्रता ही जीवन, उन्नति, और कुशल-क्षेम का एकमेव साधन है। (२/३२०-३३८) 

>>> ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (छान्दोग्य उपनिषद) :
      हज़ारों बरस पहले की बात है। हमारे देश के किसी विशाल वन में ऋषि अपने संन्यासी शिष्यों से कह रहे हैं, आओ अब हम ब्रह्म के बारे में जानें। ‘ब्रह्म और आत्मा’ के संबंध पर वह शिष्यों को कोई गहरी बात बता रहे हैं। शिष्य उनसे बीच-बीच में सवाल कर रहे हैं। वे सवाल इस तरह के हैं- आत्मा कौन है? ब्रह्म क्या है? जगत क्या है ? माया क्या है? इन चारों का आपस में क्या रिश्ता है?
    ऋषि शास्त्रों के अनुसार इन सवालों के जवाब खोजने के लिए शिष्यों को प्रेरित करते हैं। सूत्र देते हुए एक वाक्य कहते हैं, जिस पर उनकी शिष्य मंडली को हैरानी होती है। वह वाक्य है, अहं ब्रह्मास्मि! ऋषि इस सूत्रवाक्य को महावाक्य कहते हैं। आइए इस महावाक्य को समझें।

 >>>'अस्मि का अर्थ' : "अहं ब्रह्मास्मि में " 'अहं' का अर्थ मनुष्य की आत्मा है। (देहाध्यास जन्य M/F पन वाला मैं पन नहीं !) ब्रह्म का अर्थ किसी मूरत में निवास करने वाले देव से नहीं, सर्वव्यापी चेतना से बताया गया है। 'अस्मि का अर्थ' ब्रह्म और आत्मा दोनों के एकाकार हो जाने से है। इसका उल्लेख पहली बार बृहदारण्यक उपनिषद में आता है। ‘सबसे पहले केवल ब्रह्म ही था। फिर वह सर्वरूप हो गया। देवता, ऋषि, मानव जिसने भी उसका ज्ञान प्राप्त किया, वह ब्रह्म स्वरूप हो गया। जो भी यह मानता है कि ‘मैं ब्रह्म हूं’ वह सर्वरूप हो जाता है।’ अद्वैत वेदांत में चार महावाक्य आते हैं। प्रज्ञानं ब्रह्म, तत्वमसि, अयं आत्म्ब्रह्म और अहं ब्रह्मास्मि। अहं ब्रह्मास्मि इन चारों में सबसे सूक्ष्म है। यह निर्देशात्मक ना होकर हमारे अनुभव के लिए है। शंकराचार्य द्वारा दक्षिण में स्थापित वेदांत मठ का भी यह आधार वाक्य है।
>>>वेदान्त के चार महावाक्य : 
1. प्रज्ञानं ब्रह्म - “यह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है”- Consciousness is Brahman!(ऋग्वेद का ऐतरेय उपनिषद्  के अध्याय 3 खण्ड 1 मन्त्र 3) 
2. अहम् ब्रह्मास्मि-“मैं ब्रह्म हूॅे”-I am brahman. (यजुर्वेद का वृहदारण्यक उपनिषद् के अध्याय 1 ब्राह्मण 4 मन्त्र 10)
3. तत्त्वमसि-“वह ब्रह्म तु है”-Thou art That.  (सामवेद का छान्दोग्य उपनिषद् के अध्याय 6 खण्ड 8 मन्त्र 7)
4. अयमात्मा ब्रह्म-“यह आत्मा ब्रह्म है”-This self is Brahman. (अथर्ववेद का माण्डूक्य उपनिषद् के प्रथम खण्ड 1-2)” 

  ब्रह्म शब्द 'बृह' धातु से बना है, जिसका अर्थ है बढ़ना या फैलना। ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ - छान्दोग्य उपनिषद में आए इस सूत्र का अर्थ है सारा जगत ब्रह्म है। ब्रह्म जगत का कारण है, उसी में जगत उत्पन्न होता है और उसी में लीन होता है। ब्रह्म उसी तरह आत्मा में है, जिस तरह नमक को पानी में घोल देने पर नमक और पानी में भेद नहीं किया जा सकता। ‘ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति’ मुण्डकोपनिषद् भी यही कहता है। यानी जो ब्रह्म को जान लेता है, वह ब्रह्म हो जाता है।
     यहां सवाल उठता है कि यदि सभी आत्मा ब्रह्म है, तो जितने जीव हैं उतने ब्रह्म होंगे। और यदि ऐसा होगा तो अद्वैत के मूल सिद्धांत पर ही सवाल खड़ा हो जाएगा। बृहदारण्यक उपनिषद में इस शंका का समाधान करते हुए ऋषि कहते हैं - "द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च मर्त्यं चामृतं च स्थितं च यच्च सच्च त्यं च॥‘ब्रह्म के दो स्वरूप हैं। या यूं कहें की वह दो रूपों से ज़ाहिर होता है - एक व्यक्त, जो मरणधर्मा है, जड़ है, स्थिर है और दूसरा वह जो अव्यक्त है, अमर्त्य है, अमृत है, सतत गतिमान है। लेकिन दोनों का मूल तत्व एक ही है।

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