" स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना : SVHS-2.4 "
द्वितीय अध्याय : समस्या और समाधान:
(उदारणार्थ : ग्राम जानीबिगहा< गया, बिहार >की समस्या एवं समाधान)
[ For example, problem and solution of
Janibigha village, Gaya, Bihar))
4.
"जीवन पंछी का पिंजड़ा "
पहले 'रोचक-कथायें' नामक एक पुस्तक में 'जीवन-पंछी ' की कहानी
पढ़ाई जाती थी। जब कोई राजकुमार उस पंछी को मार डालता तो उस कथा के अनुसार राक्षस का जीवन भी चला जाता था। हमारे राष्ट्र का जीवन पंछी, 'प्राण-पखेरू' कहाँ वास करता है ? भारत का जीवन-पंछी, गाँव की झोपड़ियों में वास करता है। किन्तु वह झोपड़ी अब उसको अपना प्रिय निवास स्थान नहीं लगती। क्योंकि उसकी झोपड़ी अब
एक खास किस्म का पिंजड़ा बन चुकी है, उस झोपड़ी में अपने को वह पराधीन बंधा हुआ महसूस कर रहा है।
कोई- कोई, अब झोपड़ी से बाहर
निकल आया है, उस पिंजड़े में नहीं है,फिर भी वह मुक्त नहीं हो सका है। क्योंकि उसकी झोपड़ी कूसंस्कारों के झंझावात, आग या बाढ़ में नष्ट हो हो गयी है। अब वह झोपड़ी से निकल कर पेंड़
के नीचे रह रहा है, फिर भी वह मुक्त नहीं है। पिंजड़े में बन्द किसी पंछी के पंख टूट जाने या रुग्न हो जाने पर जब उसका मालिक उस पंछी
को उसके पिंजड़े से बाहर छोड़ देता है, तब भी वह पंछी उड़ नहीं पाता, वहीं पर बैठकर हांफता रहता है। क्योंकि वर्षों तक पिंजड़े
में बंद रहने व उड़ने का अभ्यास नहीं रहने से अब वह उड़ना भी भूल चुका होता है। हमारे गाँवों में बसने वाले अधिकांश ग्रामीण भाइयों की अवस्था आज ऐसी ही हो गयी है।
स्वामी विवेकानन्द का हृदय इन्हीं बेबस-लाचार भाइयों के लिए रो उठा
था। उनकी आँखों ने इन्हीं ग्रामीणों की दुर्दशा को देखकर बहुत अश्रु बहाये थे। उन्होंने
ही सबसे पहले यह आविष्कार किया था कि भारत का राष्ट्रिय जीवन (प्राण) गरीबों की
झोपड़ियों में ही स्पन्दित हो रहा है। उनके इसी सन्देश को प्रतिध्वनित
करते हुए महात्मा गाँधी ने भी कहा था- " गाँवों में भारत का प्राण है,यथार्थ
भारत तो गाँवों में ही बसता है ! " किन्तु भारतवर्ष का वही जीवन-पन्छी
(प्राण-पखेरू ) आज भी पिंजड़े में कैद है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था-" सोचकर देखो बात क्या है। वे जो लोग किसान हैं, वे कोरी, जुलाहे (बुनकर लोग) जो भारत के
नगण्य मनुष्य हैं, विजाती-विजित और स्वजाति-निन्दित छोटी छोटी जातियाँ हैं,
वही लगातार चुपचाप काम करती जा रही हैं, और अपने परिश्रम का फल भी नहीं पा रही हैं। (८/१८९)
यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि भारत सरकार इनलोगों के लिए निर्धारित न्यूनतम
मजदूरी दर में वृद्धि करने के लिये कानून बनाने जा रही है। उन खेतिहर
मजदूरों को, जो वंशगत रूप से अपने मालिकों की जमीनों को जोतते आ रहे हैं,
उनको ही उस जमीन पर खेती करने का अधिकार देने के लिये, राज्य सरकारें
बँटाई-दाऱी कानून को संशोधित करके नया कानून बनाने जा रही हैं। हृदयहीन स्वार्थान्ध सूदखोर साहूकारों के कमर-तोड़ ऋण के बोझ से जर्जरित गरीबों को बचाने के लिये
कानून बनाय गए हैं। विवाह में दहेज़-प्रथा बन्द करने के लिये कानून बनाये
गये हैं। किन्तु सरकारी समीक्षात्मक
रिपोर्टों में ही कहा गया है कि अधिकांश किसानों और खेतिहर मजदूरों को इन
कानूनों के बारे में कुछ पता नहीं है। वे लोग तो यह भी नहीं जानते कि वर्तमान
कानून के अनुसार खेतिहर मजदूरों से आठ घन्टे से अधिक देरी तक काम नहीं
लिया जा सकता है। वे लोग आज भी बारह से तेरह घन्टे तक काम करने को बाध्य हैं। इतना ही नहीं, निर्धारित न्यूनतम मजदूरी दर से आधे से भी कम दर पर
इनको मजदूरी दी जाती है। बावजूद इसके इन्हें पूरे वर्ष भर में छः महीने का
भी काम नहीं मिलता है। आजादी के इतने साल बाद भी उनके पिंजड़े को क्यों नहीं टूटना चाहिए ? भूमि
हीनों के लिये सरकारी गैर-मजरुआ जमीन से जमीन दिए जाने कि व्यवस्था रहने पर
भी क्यों अभी तक अनेकों गरीब इससे वंचित हैं ? बैंकों के द्वारा किसानों
को हल-बैल खरीदने, घर बनाने, खेती करने के लिये जितने
प्रकार के ऋण देने तथा ऋण-माफ़ी और अन्य दूसरी सुविधाओं को देने के लिये भारत सरकार ने जितने कानून बनाये हैं, उनके बारे में अधिकांश मजदूर-किसानों को क्यों कुछ पता ही नहीं
है? क्योंकि लाभुकों तथा ऋण-दाताओं के बीच बहुत से स्वार्थी बिचौलिए पैदा
हो गये हैं, जो उनके हक को लूट लेते हैं। भारत सरकार के कृषि-मन्त्रालय के
परामर्श दाता समीति ने हाल में ही इन सब असुविधाओं के लिये भ्रष्ट
प्रशासनिक अधिकारीयों तथा बेईमान सामाजिक कार्यकर्ताओं की मिलीभगत से
गरीब-अनपढ़ किसानों, मजदूरों को उनका हक नहीं मिलने की बात को स्वीकार भी
किया है।
हमारे कृषक भाइयों को कोई शिक्षा नहीं मिली है। उन गरीब देश-वासियों के प्रति किसी के
हृदय में सच्ची सहानुभूति भी नहीं है। वे भला इन कानूनों के विषय में जानें भी तो कैसे ? भूख की ज्वाला के सामने ईमानदारी से अपना हक माँगने की बुद्धि हार मान लेती है इसीलिए उनको सेठ-साहूकारों के सामने हाथ पसारना ही
पड़ता है। ऋण एवं भारी सूद के बोझ से किसान लोग जर्जरित हो गये हैं, ऋण
नहीं लौटा पाने के कारण उनको बिना कोई मजदूरी लिये उन सूदखोरों के यहाँ
बन्धुआ मजदूर बनना पड़ता है, या बेगार खटना पड़ता है। बड़े किसान अपने हक
के रूप में प्राप्य मजदूरी को थोडा बहुत कोड़ी-गण्डा करके गिन भी लेते
हैं, किन्तु छोटे किसानों को दोनों शाम भोजन नहीं मिलता, उन लोगों को अक्सर भूखे पेट सोना भी पड़ता
है, शिक्षा नहीं मिलती। परेशान होकर लाखों किसान आत्महत्या तक कर रहे हैं। अभी हाल में ही कैग रिपोर्ट में आया है -कर्ज की बोझ से दबे आत्महत्या करने वाले किसनों के कर्ज-माफ़ी के सात हजार कारोड़ भी बन्दर-बाँट में खप गये ? शर्म नहीं आती?
दक्षिण भारत के निलगिरी क्षेत्र में देखा गया है, अनेकों परिवार ऐसे हैं,
जो वंशानुगत तरीके से बेगार खटते-खटते बड़े बड़े जमींदारों के गुलाम बन
चुके हैं। उनको अपने हाथों में गुलामी की निशानी तौर पर आज भी लोहे का कड़ा पहनना पड़ता है। किन्तु फिर भी वे लोग कभी अपने मालिक से बेईमानी नहीं करते। वे बड़े भोलेपन से कहते हैं, पितामह का ऋण है न, इसी जीवन में परिश्रम से
काम करके इसे चूका देना होगा। कितने वर्षों पूर्व स्वामीजी ने कहा था- " वे भूल गये हैं, वे यह होश ही खो चुके हैं, कि वे भी मनुष्य हैं। फल स्वरुप वे लोग
आत्मश्रद्धा रहित खरीदे गये गुलाम की श्रेणी में परिणत हो गए हैं। " (1/402)
>>>सबसे बड़ा राष्ट्रीय पाप एवं भारत को पुनरुज्जीवित करने का उपाय :
स्वामी विवेकानन्द खेद व्यक्त करते हुए कहते हैं, "हमारा सबसे बड़ा राष्ट्रीय पाप जनसमुदाय की उपेक्षा है, हम कितनी ही
राजनीती बरतें, उससे उस समय तक कोई लाभ नहीं होगा, जब तक कि भारत का
जनसमुदाय एक बार फिर सुशिक्षित, सुपोषित और सुपलित नहीं होता। यदि हम भारत को पुनर्जीवित करना चाहते
हैं, तो हमें उनके लिये काम करना होगा। आपके सामने है जनसमुदाय को उसका अधिकार देने कि समस्या।
आपके पास संसार का महानतम धर्म है और आप जनसमुदाय को सारहीन और निरर्थक
बातों पर पालते हैं। आपके पास चिरन्तन बहती हुई निर्झरनी है, और आप उन्हें गन्दी नाली का पानी पिलाते हैं? (४/२६०-६१)"
कोलकाता के टेंगरा नामक स्थान में आम जनता को गंदे नाले
का पानी पिलाने का समाचार तो पेपर में भी छपा था। स्वामीजी ने कहा था- " जीवन-संग्राम में सदा लगे रहने के कारण शूद्र लोगों में अभी तक ज्ञान का
विकास नहीं हुआ है। ये लोग अभी तक मानव-बुद्धि द्वारा परिचालित यन्त्र की
तरह एक ही भाव से काम करते आये हैं, (ठेला में फूल लाकर , शाल ओढ़े रातदिन कैम्प में माला बनाते रहते हैं।) और चतुर व्यक्ति (?) इनके
परिश्रम तथा कार्य का सार (लागत-मूल्य?) तक निचोड़ लेते रहते हैं। उन्हें कौन
प्रकाश देगा, कौन उन्हें द्वार द्वार शिक्षा देने के लिये घूमेगा ? (६/१०७)"
स्वामीजी कहते हैं, " ये ही तुम्हारे इश्वर हैं, ये ही तुम्हारे इष्ट बनें।
निरन्तर इन्हीं के लिये सोचो, इन्हीं के लिये काम करो, इनकी सेवा करो।मैं
उसीको महात्मा कहता हूँ, जिसका हृदय गरीबों के लिये द्रवीभूत होता है,
अन्यथा वह दुरात्मा है। आओ, हमलोग अपनी इच्छा-शक्ति को एक्य भाव से उनकी
भलाई के लिये निरन्तर प्रार्थना में लगायें। हम अनजान, बिना सहानुभूति के,
बिना मातमपुर्सी के, बिना सफल हुए मर जायेंगे,परन्तु हमारा एक भी विचार
नष्ट नहीं होगा। वह कभी न कभी फल लायेगा.जब तक करोड़ो लोग भूखे और अशिक्षित
रहेंगे, तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को देशद्रोही समझूंगा, जो उनके
खर्चे पर शिक्षित हुआ है, परन्तु जो उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता ! वे
लोग जिन्होंने गरीबों को कुचलकर धन पैदा किया है और अब ठाट-बाट से अकड़कर
चलते हैं, उन बीस करोड़ देशवासियों के लिये जो इस समय भूखे और असभ्य बने
हुए हैं, कुछ नहीं करते, तो वे घृणा के पात्र हैं। " (३/३४५)
कुछ दिनों पूर्व किसी मन्त्री ने कहा था, भारतवर्ष में इस समय 30 करोड़
मनुष्य गरीबी की सीमा रेखा के नीचे वास करते हैं। ऐसी अवस्था में कोई हमें भी कहीं देशद्रोही की
भूमिका में नहीं रख दे, इसके लिए क्या हमें सतर्क नहीं हो जाना चाहिए ? स्वामीजी का आह्वान था- " तुम लोगों का अब
काम है प्रान्त प्रान्त में, गाँव गाँव जाकर देश के लोगों को समझा देना कि
अब आलस्य से बैठे रहने से काम न चलेगा। शिक्षा-विहीन, धर्म-विहीन वर्तमान
अवनति की बात उन्हें समझाकर कहो- ' भाई, सब उठो, जागो, और कितने दिन सोओगे ?
उसके बाद उनलोगों को स्वयं अपनी अपनी लौकिक अवस्था में उन्नति करने का
उपाय बतला देना होगा। तुम सरल भाषा में उन्हें व्यापार, वाणिज्य, कृषि, आदि
गृहस्थ-जीवन के अत्यावश्यक विषयों का उपदेश दो। नहीं तो तुम्हारे लिखने
पढने को धिक्कार -और तुम्हारे वेद-वेदान्त पढने को भी धिक्कार."(६/१२९) भारत वर्ष में भी स्वामीजी द्वारा निर्देशित बहुत सी योजनाओं को कार्यान्वित करने का प्रयास चल रहा है। किन्तु उन योजनाओं को कार्यान्वित करने में जो मनुष्य लगे
हुए हैं, उनका चरित्र-गठन नहीं हो सका है, इसलिये वे योजनायें उचित तरीके
से फलदायी नहीं हो पा रही हैं। (स्वामीजी द्वारा निर्देशित) जन -चेतना जाग्रत करने का उत्तरदायित्व - तुम युवाओं को ही ग्रहण करना होगा, केवल
राजनितिक दलों के उपर छोड़ देने से- क्या कभी उसका यथोचित फल पाया जा सकता
है ?
यह कार्य तब और भी कठिन हो जाता है,
जब भ्रष्टचरित्र लोग भी राजनितिक दल में सम्मिलित हो जाते हैं और सरकारी
योजनाओं को क्रियान्वित करने के कार्य में कूद पड़ते हैं। चरित्रवान तथा देश-प्रेमी मनुष्यों का निर्माण करने की
कोई व्यवस्था सरकारी या सामाजिक स्तर पर नहीं रहने के कारण, जो-जिस क्षेत्र में कार्यरत हैं उनके लिये अपने निजी लोभ या दलगत स्वार्थ से उपर उठकर, केवल जनकल्याण के
लिये कार्य करना कठिन हो जाताहै। क्योंकि विदेशों से ऊँची डिग्री प्राप्त, (पी चिदंबरम, डॉक्टर मनमोहन सिंह, केजरीवाल जैसे कट्टर ईमानदार ?) किन्तु आध्यात्मिक शिक्षा से अनभिज्ञ व्यक्ति ही हमारे देश में उच्च पदों पर आसीन होकर देश के लिये योजनायें बनाने और क्रियान्वित करने के कार्य में नियुक्त किये जाते हैं।
इसीलिये प्रौद्योगिकी शिक्षा ( technological education, तकनीकी शिक्षा ) या विभिन्न क्षेत्रों में डिग्री देने वाली शिक्षा-व्यवस्था से बिल्कुल भिन्न आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करने वाली शिक्षा, जिससे मनुष्य सहानुभूति, एकात्मता, त्याग-क्षमता, सेवापरायणता आदि चारित्रिक गुणों से विभूषित हो उठता है, प्रचलित शिक्षा के साथ-साथ तैत्तरीय उपनिषद में वर्णित वह दीर्घ 'ई' मात्रा वाली 'शीक्षा' # भी देनी होगी। [ # उसी शिक्षा को 'एक नया युवा आंदोलन' शीर्षक महामण्डल पुस्तिका में 'ॐ ' के अर्थ को जानकर "Be and Make : CINC- प्रशिक्षण परम्परा में 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण " कहा गया है; जिस शिक्षा को में 'दीर्घ ई' की मात्रा लगाकर 'सतयुग स्थापित करने वाली 'शीक्षा' पद्धति' कहा है। ]
ये सभी चारित्रिक गुण यदि
सरकारी योजनाओं को क्रियान्वित करने में नियुक्त नेताओं, अफसरों या व्यापारियों में नहीं हों तो चाहे कोई भी
जन-कल्याण की योजना क्यों न हो, वह बीच रास्ते में ही पाईप लाइन से चू जाने या बिलकुल रुक जाने को बाध्य है। पचास करोड़ की जनसंख्या वाले ग्रामीण मनुष्यों के लोक-कल्याण के कार्य को गैर सरकारी
प्रयास से कभी सम्पन्न नहीं किया जा सकता है। इसमें सरकारी मशीनरी का प्रयोग जरुरी हो जाता है। किन्तु सरकारी प्रयास में सबसे बड़ी कमी है, प्रशासनिक मनुष्यों में आध्यात्मिक शिक्षा का घोर अभाव । प्रशासनिक व्यवस्था में शामिल व्यक्तियों के चरित्र में - "ब्रह्म (A) ही माया (C) से होकर आने के कारण जगत रूप में भास रहा है !" अथवा "एक ही अनेक बन गया है !" या 'यह सबकुछ ब्रह्म ही है।'['सर्वं खल्विदं ब्रह्म' छान्दोग्य उपनिषद] वाली -वेदान्तिक दृष्टि के अभाव में सहानुभूति, स्वार्थहीनता,
लोभ-शून्यता, त्याग का मनोभाव तथा सेवाभाव आदि चारित्रिक गुणों का नितान्त आभाव रहता है। अध्यात्मिक शिक्षा का अर्थ जंगल में या पहाड़ की कन्दराओं
में बैठकर तपस्या करना नहीं है; या बीच बीच में किसी धर्म-स्थान में जाकर मत्था टेकना भी नहीं है।
देशवासियों के साथ अपने हृदय को जोड़े बिना, केवल धन के बल पर अंधे कर्म-काण्ड के माध्यम से पुण्य संचय की चेष्टा
को धर्म नहीं कहते हैं।
अध्यात्मिक शिक्षा का अर्थ है- ' हृदय को विस्तृत करना।' उसके फलस्वरूप मनुष्य स्वार्थ-बोध के उपर उठ जाता है। व्यष्टि अहं की सीमा से उपर उठकर परिवार और परिवार से उपर उठकर समाज के प्रति सहानुभूतिशील,दायित्वशील बन जाता है। यह दायित्वबोध और सहानुभूति ही उसको लोक-कल्याण के कार्यों के लिए उत्साहित करती है। किन्तु यह शिक्षा-प्रणाली जब तक
प्रभावी ढंग से लागु नहीं की जाएगी, तब तक देश के यथार्थ उन्नति होने की
कोई सम्भावना नहीं है। यह बात हमारे नीतिनिर्धारकों को समझना होगा। जब तक ऐसी शिक्षा के लिए कोई सार्वजनिक व्यवस्था नहीं
हो जाती तब तक किसी गैर-सरकारी प्रयास (अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ) से जुड़े रहकर इसी कार्य में लगे रहना देश की सर्वांगीण उन्नति के लिये आवश्यक है। और उसीके फलस्वरूप राष्ट्रीय जीवन पंछी पिंजड़े में कैद न रहकर
स्वाधीन पंखों से उड़ान भरते हुए मुक्ति का स्वाद भी प्राप्त कर सकता है।
इसी कार्य को आज भारत के युवाओं का एकमात्र कार्य बनाने की आवश्यकता है।
(यह प्रबंध 1996 ई० में विवेक-जीवन में प्रकाशित हुआ था.)
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>>> लौकिक शिक्षा के साथ साथ हृदय को विस्तृत करने वाली शिक्षा -का वितरण और प्रसार : अर्थात ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (आदि 4 महावाक्यों का वितरण और प्रसार !) : " जीवन में मेरी एक मात्र अभिलाषा यही है कि एक ऐसे चक्र का प्रवर्तन कर दूँ, जो उच्च एवं श्रेष्ठ विचारों को सबके द्वारों तक पहुंचा दे और फिर स्त्री-पुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर लें। याद रखो कि राष्ट्र झोपड़ी में बसा हुआ है; परन्तु हाय ! उन लोगों के लिये कभी किसी ने कुछ किया नहीं. क्या तुम जनसमुदाय की उन्नति कर सकते हो ? क्या तुम उनका खोया हुआ व्यक्तित्व, बिना उनकी स्वाभाविक आध्यात्मिक वृत्ति को नष्ट किये, उन्हें वापस दिला सकते हो ? क्या समता, स्वतंत्रता. कार्य-कौशल, पौरुष में तुम पाश्चात्यों के भी गुरु बन सकते हो ? यह काम करना है और हम इसे करेंगे ही. "
एक मनुष्य निर्माणकारी ' केन्द्रीय प्रशिक्षण संस्थान ' (या शिक्षायतन 'Academy) स्थापित करके, साधारण लोगों के उन्नति के उपाय 'Be and Make ' का प्रचार करना होगा। तथा इस प्रशिक्षण-संस्थान (अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ) में प्रशिक्षित प्रचारकों को गरीबों की झोपड़ियों में जाकर उनमें लौकिक शिक्षा (मानसिक एकाग्रता ) एवं अध्यात्मिक शिक्षा (हृदय का विस्तार) का उपाय वितरण करना होगा।' पहाड़ यदि मुहम्मद के पास न आ सके, तो मुहम्मद ही पहाड़ के पास जायेगा।' मेरा विचार है कि भारत और भारत के बाहर मनुष्य-जाती में जिन उदार भावों का विकास हुआ है, उनकी शिक्षा गरीब से गरीब और हीन से हीन व्यक्ति को दी जाय, और फिर उन्हें स्वयं विचार करने का अवसर दिया जाय। जात-पाँत रहनी चाहिये या नहीं, महिलाओं को पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी चाहिये या नहीं, मुझे इनसे कोई वास्ता नहीं। ' विचार और कार्य की स्वतंत्रता ही जीवन, उन्नति, और कुशल-क्षेम का एकमेव साधन है।'
(२/३२०-३३८)
>>> ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (छान्दोग्य उपनिषद) :
हज़ारों बरस पहले की बात है। हमारे देश के किसी विशाल वन में ऋषि अपने संन्यासी शिष्यों से कह रहे हैं, आओ अब हम ब्रह्म के बारे में जानें। ‘ब्रह्म और आत्मा’ के संबंध पर वह शिष्यों को कोई गहरी बात बता रहे हैं। शिष्य उनसे बीच-बीच में सवाल कर रहे हैं। वे सवाल इस तरह के हैं- आत्मा कौन है? ब्रह्म क्या है? जगत क्या है ? माया क्या है? इन चारों का आपस में क्या रिश्ता है?
ऋषि शास्त्रों के अनुसार इन सवालों के जवाब खोजने के लिए शिष्यों को प्रेरित करते हैं। सूत्र देते हुए एक वाक्य कहते हैं, जिस पर उनकी शिष्य मंडली को हैरानी होती है। वह वाक्य है, अहं ब्रह्मास्मि! ऋषि इस सूत्रवाक्य को महावाक्य कहते हैं। आइए इस महावाक्य को समझें।
>>>'अस्मि का अर्थ' : "अहं ब्रह्मास्मि में " 'अहं' का अर्थ मनुष्य की आत्मा है। (देहाध्यास जन्य M/F पन वाला मैं पन नहीं !) ब्रह्म का अर्थ किसी मूरत में निवास करने वाले देव से नहीं, सर्वव्यापी चेतना से बताया गया है। 'अस्मि का अर्थ' ब्रह्म और आत्मा दोनों के एकाकार हो जाने से है। इसका उल्लेख पहली बार बृहदारण्यक उपनिषद में आता है। ‘सबसे पहले केवल ब्रह्म ही था। फिर वह सर्वरूप हो गया। देवता, ऋषि, मानव जिसने भी उसका ज्ञान प्राप्त किया, वह ब्रह्म स्वरूप हो गया। जो भी यह मानता है कि ‘मैं ब्रह्म हूं’ वह सर्वरूप हो जाता है।’ अद्वैत वेदांत में चार महावाक्य आते हैं। प्रज्ञानं ब्रह्म, तत्वमसि, अयं आत्म्ब्रह्म और अहं ब्रह्मास्मि। अहं ब्रह्मास्मि इन चारों में सबसे सूक्ष्म है। यह निर्देशात्मक ना होकर हमारे अनुभव के लिए है। शंकराचार्य द्वारा दक्षिण में स्थापित वेदांत मठ का भी यह आधार वाक्य है।
>>>वेदान्त के चार महावाक्य :
1. प्रज्ञानं ब्रह्म - “यह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है”- Consciousness is Brahman!(ऋग्वेद का ऐतरेय उपनिषद् के अध्याय 3 खण्ड 1 मन्त्र 3)
2. अहम् ब्रह्मास्मि-“मैं ब्रह्म हूॅे”-I am brahman. (यजुर्वेद का वृहदारण्यक उपनिषद् के अध्याय 1 ब्राह्मण 4 मन्त्र 10)
3. तत्त्वमसि-“वह ब्रह्म तु है”-Thou art That. (सामवेद का छान्दोग्य उपनिषद् के अध्याय 6 खण्ड 8 मन्त्र 7)
4. अयमात्मा ब्रह्म-“यह आत्मा ब्रह्म है”-This self is Brahman. (अथर्ववेद का माण्डूक्य उपनिषद् के प्रथम खण्ड 1-2)”
ब्रह्म शब्द 'बृह' धातु से बना है, जिसका अर्थ है बढ़ना या फैलना। ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ - छान्दोग्य उपनिषद में आए इस सूत्र का अर्थ है सारा जगत ब्रह्म है। ब्रह्म जगत का कारण है, उसी में जगत उत्पन्न होता है और उसी में लीन होता है। ब्रह्म उसी तरह आत्मा में है, जिस तरह नमक को पानी में घोल देने पर नमक और पानी में भेद नहीं किया जा सकता। ‘ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति’ मुण्डकोपनिषद् भी यही कहता है। यानी जो ब्रह्म को जान लेता है, वह ब्रह्म हो जाता है।
यहां सवाल उठता है कि यदि सभी आत्मा ब्रह्म है, तो जितने जीव हैं उतने ब्रह्म होंगे। और यदि ऐसा होगा तो अद्वैत के मूल सिद्धांत पर ही सवाल खड़ा हो जाएगा। बृहदारण्यक उपनिषद में इस शंका का समाधान करते हुए ऋषि कहते हैं - "द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च मर्त्यं चामृतं च स्थितं च यच्च सच्च त्यं च॥‘ब्रह्म के दो स्वरूप हैं। या यूं कहें की वह दो रूपों से ज़ाहिर होता है - एक व्यक्त, जो मरणधर्मा है, जड़ है, स्थिर है और दूसरा वह जो अव्यक्त है, अमर्त्य है, अमृत है, सतत गतिमान है। लेकिन दोनों का मूल तत्व एक ही है।
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