" स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना : SVHS-2.5 "
द्वितीय अध्याय : समस्या और समाधान ?
[गीता (2.54) - 'मृग जल' भ्रम से स्थितप्रज्ञ 'मनुष्य' का निर्माण !]
5.
"समस्या का समाधान "
समाज में समस्याएँ रहती ही हैं, फिर कई समस्यायें (अविद्या आदि) सभी समाज में एक ही प्रकार की होती हैं। प्रत्येक समाज इन समस्याओं का समाधान करने का प्रयास करता है किन्तु, उन प्रयासों के बीच नई -नई समस्यायें भी उत्पन्न होती रहती हैं; इसीलिए समाज में
समस्याओं का कभी अंत नहीं होता।
समस्यायों को हल करने के दो तरीके हैं- एक उपचारात्मक 'curative' तथा दूसरा निरोधात्मक (preventive)। हम यह कहावत को जानते हैं-' Prevention is better than cure'(रोकथाम का तरीका इलाज से बेहतर है।) तात्पर्य यह कि व्याधि हो जाने के बाद उसका उपचार करने की अपेक्षा समस्यायों का निरोध करना उत्तम है। किन्तु, समाज की विविध जटिलताओं के कारण रोगनिरोध का उपाय कठिन हो जाता है। इसलिये असंख्य समस्यायों से पीड़ित समाज को अक्सर उनके उपचार (curative treatment) में ही व्यस्त रहना पड़ता है। प्राचीनकाल से अबतक जितने भी सामाज-सेवी संगठन बने हैं, वे सभी मूख्य रूप से समस्यायों की रोकथाम के उद्देश्य से ही बने हैं। फिर भी जो समस्यायें रोकथाम रूपी सरकफन्दों (noose) से फिसलकर प्रकट हो ही जाती हैं, उनके उपचार के लिये समाज को ताकत (राष्ट्रशक्ति -सेना, पुलिस, कानून) का सहारा लेना पड़ता है।
वैश्विक गाँव (Global Village) में तब्दील होते विश्व में विभिन्न कारणों से विशेषकर बेमेल आदर्शों के अप्रतिबन्धित प्रवेश के कारण सामाजिक संस्थाएं कमजोर हो गयी हैं। सामाजिक संगठनों के प्रभावकारी न रहने पर रोकथाम के उपाय (Preventive action) जब कमजोर पड़ जाते हैं तब मुख्यतः राजनितिक उपायों के द्वारा समस्याओं को हल करने का प्रयास चलने लगता है। फिर विभिन्न देशों में समस्याओं
को अलग-अलग ढंग से देखा जाता है तथा राज-नैतिक पृष्ठभूमि में परिवर्तन के साथ ही - 'उपचारात्मक या रोगनिवारक विधि' में भी परिवर्तन हो जाता है।
इसके अतिरिक्त असंख्य जटिल समस्याओं वाले देश का नेतृत्व करना या किसी सामाजिक या प्रशासनिक व्यवस्था को सुन्दर रूप में संचालित करना भी सरल नहीं है। असंख्य जटिल समस्याओं के कारण सत्ताधीशों को इन जटिल समस्यायों की गहराई में जाने का पर्याप्त समय भी नहीं मिल पाता है। एक ओर जहाँ मूल कारणों को चिन्हित कर पाना कठिन होता है, वहीँ दूसरी ओर जब कोई समस्या अत्यधिक भड़क उठती हैं तो उस समस्या के निराकरण के लिए 'तात्कालिक उपाय ' के रूप में किसी न किसी उपचारात्मक विधि को लागू करना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है। राजनितिक उपाय से समस्याओं को हल करने का प्रयास हिमशैल के ऊपरी छोटे से हिस्से (Tip of the iceberg ) को स्पर्श करने के समान है। इसमें मूल समस्या ज्यों की त्यों पड़ी रह जाती है क्योंकि राजनीतक दल जन समर्थन के माध्यम से सत्ता बचाये रखने पर अधिक ध्यान देते हैं, तथा सच नहीं कह पाते इसलिए मनुष्यों के चारित्रिक गुणों पर्याप्त सम्मान नहीं मिल पाता। किन्तु मनुष्यों के चारित्रिक गुणों के भीतर ही समस्या का समाधान निहित है। अतः उपचार और रोकथाम के उपायों का मिलन स्थल भी यही हैं। क्योंकि जहाँ एक अवगुण समस्या की उत्पत्ति का कारण है, वहीं एक सदगुण समस्या का समाधान करने
में सक्षम है। चारित्रिक गुणों की बुनियाद पर मनुष्यों की
गुणवत्ता में परिवर्तन लाना ही समस्या का सम्पूर्ण उपचार है। दूसरे ढंग से विचार करने पर यही एकमात्र रोकथाम का उपाय भी है। जिस समाज की समस्याओं के मूल कारण घोर स्वार्थी मनुष्य (पशुमानव) हो, वहाँ स्वार्थ-हीन मनुष्यों (देव-मानव ) का निर्माण करना ही रोकथाम का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। किन्तु यह
कार्य बाहरी दबाव, कड़ा कानून या पार्लियामेन्ट में बिल पास कर नहीं किया जा सकता।
स्वामीजी ने तो बार बार कहा है, कि 'निःस्वार्थी मनुष्यों का निर्माण पार्लियामेन्ट से कानून पास करवा कर नहीं किया जा सकता है।' और निःस्वार्थी, निष्कपट, देश-भक्त, 'चरित्रवान मनुष्यों ' का
निर्माण किये बिना समाज की यथार्थ उन्नति नहीं हो सकती है। इसी विषय पर स्वामीजी के समकालीन पाश्चात्य मनीषी जॉर्ज बर्नार्ड शॉ (George Bernard Shaw) के विचारों का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा। वैसे तो वे आयु में स्वामीजी से बड़े थे, किन्तु उनकी विचारधारा में परिपक्वता स्वामीजी के जीवन-काल के पश्चात् ही आ सकी थी। श्री शॉ के विषय में ए.सि. वार्ड (A. C. Ward) लिखते हैं- " अपने प्रारम्भिक जीवन में, किसी कट्टर साम्यवादी की तरह श्री शॉ भी यह विश्वास करते थे कि, धनिकों के ऐश्वर्य को कम कर के गरीबों को उपर उठाने का प्रयत्न करना सभ्य समाज के लिये अनिवार्य है। और इसके लिये पार्लियामेन्ट में कानून पास करवाकर साम्यवाद को स्थापित करना प्राथमिक कार्य है।" हालाँकि उन्होंने मानव समाज के कल्याण और आनन्द में वृद्धि करने के उपाय
के रूप में साम्यवाद का ही प्रचार किया था। किन्तु बाद में (उम्र बढ़ने पर अर्थात) अनुभव अधिक हो जाने पर पार्लियामेन्ट से कानून पास करवा कर 'साम्यवाद' स्थापित करने का उनका विचार बदल गया था। तथा अपने अनुभव के आधार पर बर्नार्ड शॉ ने कहा था " समाज की
उन्नति के लिये प्राथमिक आवश्यकता अच्छे कानून की नहीं बल्कि अच्छे मनुष्यों की है। ऐसे स्त्री-पुरुषों का निर्माण करना होगा जो जीवन में नैतिकता को धारण करने वाले चरित्रवान हों। कुछ ईमानदार लोग कहीं-कहीं से अच्छे-अच्छे कानूनों का संकलन कर एक अच्छा संविधान तो बना सकते हैं किन्तु यह अच्छे कानूनों का पोथा स्वतः ही किसी अच्छे
समाज की गारन्टी नहीं दे सकता।" क्या बर्नार्ड शॉ के ये विचार स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा की प्रतिध्वनि प्रतीत नहीं होते?
हमारे देश में -- आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, शैक्षणिक, नैतिक, सामुदायिक-विकास से सम्बन्धित, जातिगत और भाषाई (Ethnic and linguistic) आदि अनगिनत समस्याएँ हैं। किन्तु हमें पहले यह विचार करना पड़ेगा कि समाज के इन समस्यायों की जड़ कहाँ है? समाज
बनता किस चीज से है ? क्या मैदान,पर्वत, गाँव, शहर,भवन, या विभिन्न संगठन, प्रतिष्ठान, संवैधानिक सभा-समितियों, पुलिस, सरकार, आदि के द्वारा समाज का निर्माण
होता है? या फिर सबों के विकास और प्रगति को ध्यान में रखकर पारस्परिक सहयोग के साथ प्रकृति तथा मनुष्यों के द्वारा निर्मित समस्त उत्पादों तथा संस्थाओं को उपयोग
में लाकर सुख-शांति से मिलजुलकर रहने वाले मनुष्यों से बनता है ? यह स्पष्ट है कि मनुष्य ही समाज
का केन्द्र है, तथा सभी योजनायें उसी को ध्यान में रख कर बनाई जाती हैं ।
मनुष्य अपने को पूर्ण
विकसित करने के लिये निरंतर संघर्ष कर रहा है उससे भूलें भी होती हैं, अनुभव से शिक्षा भी प्राप्त करता है, फिर अपना पूर्ण विकास करने के संघर्ष में जुट
जाता है। इस प्रकार यह समाज मनुष्य के पूर्ण-आत्मविकास करने के लिए संघर्ष का स्थान है या एक व्यायामशाला है। समाज में स्थापित विभिन्न चारित्रिक-मूल्यों के ताने-बाने (টানা ও পোড়েন) के अनुसार ही मनुष्यों में क्रिया - प्रतिक्रिया होती दिखाई देती हैं। इन समस्त शक्तियों के ताने-बाने, मूल्यों के गिरने- उठने या संतुलन में रखने की कुँजी भी व्यष्टि मनुष्य के नियन्त्रण में ही रहती हैं। जबकि उपरी तौर पर यह दिखता है कि नैतिकता विभिन्न सरकारी संस्थाओं के माध्यम से (ed,cbi या पुलिस के डण्डे से ) ही लागू की जा सकती हैं। इससे इस भ्रान्त धारणा की सृष्टि हो जाती है कि समाज में नैतिक शक्तियों को नियंत्रित करने का सामर्थ्य जनसाधारण के पास नहीं होती। समाज के आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक,
या अन्य किसी भी समस्या का मूल उसमें वास करने वाले मनुष्यों के भीतर ही ढूँढ़ा जाना चाहिए। क्योंकि समस्या चाहे कोई भी हो अन्ततः उसके मूल में कोई न कोई मनुष्य ही होगा। और उसी में सुधार या दण्ड के माध्यम से उस समस्या का समाधान होगा। मनुष्य को सुधारने अथवा दण्डित करने के अतिरिक्त सामाजिक समस्याओं के समाधान का अन्य कोई पथ है ही नहीं।
यहाँ, एक विषय पर विशेष रूप से चिन्तन करने की आवश्यकता है। ठीक है कि हमने यह स्वीकार कर लिया कि किसी भी समस्या का समाधान के लिये अन्ततोगत्वा किसी न किसी मनुष्य को ही सुधारना होगा या दण्डित करना होगा; किन्तु प्रश्न है कि मनुष्य को सुधारने या दण्डित करने का कार्य करेगा कौन ? इसका उत्तरदायित्व किसके उपर होगा, सरकार, सामाजिक
संगठन या वृहत्तर समाज ? थोड़ी गहराई से विचार करने पर यह आसानी से समझ
जायेंगे कि किसी भी प्रकार की संस्था के पीछे मनुष्य की
कल्पनाशक्ति (Imagination), तर्कशक्ति (Rationality) और संकल्पशक्ति (willpower) ही कार्य करती है। तथा थोड़ी और अधिक गहराई
से चिंतन-मनन करने पर हम यह भी समझ सकेंगे कि अंततः मनुष्य को किसी दूसरे
के साथ नहीं बल्कि स्वयं के साथ ही संघर्ष करना होगा।
मनुष्य का स्वयं के साथ संघर्ष करने का क्या अर्थ है ? इसका अर्थ है कि हमें अपने शरीर के साथ नहीं बल्कि मन के साथ संघर्ष करना होगा। क्योंकि मानव- मन ही वह आधार है जो समस्त समस्याओं का समाधान में सक्षम चारित्रिक-गुणों को उत्पन्न करता है।
इसीलिये मन का शुद्धिकरण इस प्रकार
करना होगा जिससे वह' संकल्प-शक्ति' या इच्छाशक्ति के प्रवाह एवं
अभिव्यक्ति को फलदायी बनाने तथा उन्हें अपने पूर्ण-नियन्त्रण में
रखने में समर्थ हो सके। इसका अर्थ यह हुआ कि समस्या का समाधान करने के लिए, मन को प्रशिक्षित करने का उपयुक्त तरीका सीखकर, उसका उचित तरीके से मुकाबला करना होगा। [प्रार्थना करना होगा
हमको मन की शक्ति देना मन विजय करें, दूसरों को जय के पहले खुद को जय करें !] इस
प्रकार निष्कर्ष यह निकला कि 'मन' को वशीभूत करने की शिक्षा ही समाज की समस्त समस्याओं के समाधान का सर्वोत्तम उपाय है !
यदि हम मन को वशीभूत करने को ही समस्त समस्याओं के समाधान का अन्तिम उपाय स्वीकार कर लें तो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि समस्या को हल करने के लिये केवल 'उपचारात्मक -विधि ' (Curative method) को अपनाने से भी कोई विशेष लाभ नहीं हो सकता है। क्योंकि दण्डात्मक कार्यवाई का भय हमारे कुसंस्कारों को थोड़ी देर के लिये दबा तो सकता
है अथवा उन कुसंस्कारों के हानिकारक प्रभाव में थोड़ी कमी तो ला सकता है किन्तु , भविष्य में पुनः वह समस्या उत्पन्न ही न होगी इसकी गारंटी नहीं दे सकता। इसलिये समस्याओं का समाधान करने के दूसरे तरीके 'रोकथाम पद्धति' - अर्थात मनुष्य के मन को प्रशिक्षित करने वाली शिक्षा के
माध्यम से समस्यायों को हल करने के उपर विस्तार से चर्चा करना आवश्यक है।
यह प्रश्न उठ सकता है कि क्या सभी प्रकार के मनुष्यों को मन को वशीभूत करने की शिक्षा दी जा सकती है ? उत्तर है- हाँ ! लेकिन यदि किसी के मन का स्वाभाव एक
बार गठित हो गया हो तथा आदतें चित्त की गहराई तक प्रविष्ट हो चुकी हों तो वैसे मन को वश में लाना (अर्थात स्थितप्रज्ञ मनुष्य # बनना ) असम्भव न होने से भी कठिन अवश्य है। इसीलिये व्यस्क हो जाने के बाद मन में परिवर्तन लाने की चेष्टा की अपेक्षा किशोर मन को ही गठित करने का प्रयास अपेक्षाकृत सरल एवं अधिक फलदायी होता है। अतः किशोर मन को इस प्रकार प्रशिक्षित तथा गठित करना होगा ताकि वह समस्यायों को उत्पन्न
करने वाले चारित्रिक-दोषों या अवगुणों को अपनाये ही नहीं, और विवेक-प्रयोग द्वारा उन्हें धारण करने से ही इंकार कर दे।
अतएव हमारे नीतिनिर्धारकों को इस ओर (3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण की ओर) सतर्क दृष्टि रखनी होगी जिससे समाज का प्रत्येक व्यक्ति (छुरे की धार जैसी) तीक्ष्णतर विवेक-प्रयोगशक्ति, व्यापक उदार दृष्टिकोण, एवं परिष्कृत संकल्पशक्ति-(मैं यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं एक चरित्रवान मनुष्य बनूंगा ! इत्यादि समस्त सकारात्मक चारित्रिक गुणों से विभूषित होकर (संकल्पसूत्र को प्रतिदिन दो बार लिखते-करते हुए) समाज के भीतर बार-बार उत्पन्न होने वाली समस्यायों के समाधान करने में समर्थ एक योग्य और उपयुक्त चरित्र का अधिकारी मनुष्य बन सके।
और
चूँकि अन्ततोगत्वा इंटरैक्शन तो मनुष्य को मनुष्य के साथ ही करना पड़ता है, अतएव आज के तरुण को ही भविष्य के व्यस्क मनुष्य के साथ बातचीत या अंतःक्रिया (interaction) करनी पड़ेगी। आज के तरुणों को यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिये कि चाहे समस्याओं का सामना करना हो अथवा किसी नई समस्या को उत्पन्न होने
से रोकना हो, दोनों परिस्थितियों में स्वयं को 'यथार्थ मनुष्य' के रूप में यानि चरित्रवान मनुष्य (स्थितप्रज्ञ मनुष्य) के रूप में गढ़ लेना सबसे पहला आवश्यक कार्य है।अतएव तरुणों को आत्मविकास की पद्धति को समझाने, सिखाने या प्रशिक्षण देने में समाज के अन्य लोगों की सहायता का सवाल, भी स्वाभाविक रूप से उठ खड़ा होता है। [विशेषरूप से "Be and Make ' चरैवेति,चरैवेति' -वेदान्त लीडरशिप, अर्थात 3H विकास के 5 अभ्यास को सिखाने में सक्षम 'विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर CINC प्रशिक्षण परम्परा" में स्वयं प्रशिक्षित शिक्षकों /नेताओं के की सहायता का सवाल स्वाभाविक रूप से उठ खड़ा होता है।] क्योंकि युवाओं को सम्पूर्ण मानव (यथार्थ मनुष्य या स्थितप्रज्ञ मनुष्य) में परिणत करने के लिये, [यानि '3H ' की दृष्टि से तीनों अवयव में उन्नत, बुद्धत्व-प्राप्त मनुष्य बनने और ] शिक्षा संस्थानों द्वारा (बड़ोदा यूनिवर्सिटी के Department of Social Work द्वारा) किया जाने वाला केवल मस्तिष्क का विकास (Head का विकास या बुद्धिबल विकास) ही यथेष्ट नहीं है। इसीलिए शिक्षा-संस्थानो के बाहर किन्तु 'संगठित -सामाजिक प्रयास' (Outside educational institutions but through 'organized social efforts') के द्वारा मनुष्य की हृदयवत्ता (Heartiness-या सौहार्द, आत्मबल ) को विकसित करने के साथ साथ कर्मशक्ति (Hand-बाहुबल ) को भी विकसित करना अत्यंत आवश्यक है।
जो मनुष्य स्वयं को केवल जैविक अवश्यकताओं (Biological needs)
को पूरा करने तक ही सीमाबद्ध कर लेता है, जिसको आहार-निद्रा-भय-और
प्रजनन करने के अतिरिक्त अन्य किसी उत्कृष्ट वस्तु पाने की आवश्यकता अनुभव नहीं होती, जिसके जीवन का लक्ष्य केवल इन्द्रिय विषयों का भोग करना और दूसरों को लूट कर या छीन कर भी अपना
स्वार्थ पूरा कर लेना ही हो, तो वह व्यक्ति मनुष्य का ढाँचा रहने से भी पशु के समान ही है। और समस्त
समस्यायों की जड़ भी यहीं पर है। केवल वास्तविक शिक्षा ही मनुष्य को पशुत्व की दिशा में गिरने से रोक कर मनुष्यत्व प्राप्ति की दिशा में मोड़ने का सामर्थ्य रखती है। किन्तु आज हमलोग
अपनी संतानों को, बचपन से ही उपयुक्त शिक्षा देने तथा उनको यथार्थ मनुष्य (स्थितप्रज्ञ समस्यायों मनुष्य) बनाने
की तरफ ध्यान नहीं दे रहे हैं। फलस्वरूप वे लोग अनायास उग आये कटीली झाड़ियों [कैक्ट्स या पर्थेनियम ग्रास] की तरह हो जाते हैं तब उनके काँटों
की चुभन से समाज का आम आदमी क्षत-विक्षत होता रहता है।
इनसे पीड़ित होकर हम अचानक किसी दिन सुबह उठकर किसी मैदान (रामलीला मैदान या जन्तर-मन्तर,शाहीन बाग के रोड को जाम कर) में किसी बैनर तले एकत्र होकर तेजी से सभी
समस्याओं के समाधान कर देने की योजना बना लेते हैं और एक विशाल आयोजन करते हैं। बहुत जोर-शोर से उसका प्रचार होता है। लोग सोचने लगते हैं कि अब सभी लंबित समस्याओं का समाधान होने ही वाला है। और वे समस्यायों के अंत के विषय में पढ़ने के लिए अगली सुबह अख़बार की प्रतीक्षा करने लगते हैं। किन्तु, जब उसमें समस्याओं के समाधान के विषय में कुछ नहीं मिलता तब वे एकबार फिर निराशा के गर्त में गिर जाते हैं। इसी प्रकार का गड़बड़झाला लम्बे समय से चला आ रहा है, और तब तक चलता रहेगा, जब तक हमलोग यह नहीं जान
लेंगे कि 'पुनर्निर्माण के कार्य' का प्रारंभ करना कहाँ से है ? यह कार्य हमें जड़ से ही करना होगा, जड़ों को सींचना होगा, उसकी
देख-रेख करनी होगी। तभी तो जब पौधा बड़ा होगा तो हमें उसका फल प्राप्त
होगा। स्वामी विवेकानन्द
कहते हैं, " पुनर्निर्माण करने के लिये हमें समस्या के भीतर, उसकी जड़ तक
पहुँचना होता है। इसी को मैं आमूल सुधार कहता हूँ। मेरी चिकित्सा-पद्धति यह
है कि रोग को केवल दबाकर न रखा जाय, बल्कि उसे जड़ से नष्ट कर दिया जाय।
तथाकथित समाज-सुधार के कार्यों में हाथ मत डालना, क्योंकि आध्यात्मिक सुधार
के बिना कोई भी सुधार सम्भव नहीं है। " ( रामकृष्ण मठ नागपुर से प्रकाशित पुस्तक - 'भारत ओर उसकी समस्याएँ ' पृष्ठ ३७ )
हमलोगों को अपना सारा ध्यान तरुणों के उपर केन्द्रित रखना होगा।
उसको उपयुक्त तरीके से शरीर, मन और ह्रदय को विकसित करने का प्रशिक्षण देकर 'योग्य मनुष्य' के रूप में उनका निर्माण करना होगा। फिर जब वे लोग (स्थितप्रज्ञ लोग) सामाजिक जीवन के सभी
क्षेत्रों में प्रबन्धन और नेतृत्व की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर ले लेंगे,
केवल तभी हमारी सभी समस्याओं का समाधान हो सकेगा, उसके पहले नहीं। इस 'स्थितप्रज्ञ-मनुष्यनिर्माणकारी आन्दोलन ' को सम्पूर्ण भारतवर्ष में फैला देने के लिए हमें परस्पर मिलजुल कर (परस्पर भावयन्तः) आपस में एकजूट होकर काम करना होगा, इसके लिए बहुत धैर्य की आवश्यकता होगी। हो सकता है यह सन्जीवनी बूटी किसी किसी को अरुचिकर, बेस्वाद, नीरस लगे, किन्तु स्वामीजी के अनुसार भारत की समस्त समस्यायों की रामबाण-औषधि, इस स्थितप्रज्ञ- मनुष्यनिर्माणकारी शिक्षा/धर्म को भारत माता की प्रत्येक संतान (हिन्दू हो या मुसलमान) के पास पहुँचा देना ही है। इस कार्य के साथ प्रत्येक अंग्रेजी पढ़े लिखे तरुण
को जोड़ने का प्रयास करना होगा। अभी हमें अपनी उर्जा व्यर्थ के राजनितिक , सामाजिक आंदोलनों में नष्ट नहीं करना होगा। क्योंकि जब तक सच्चे मनुष्यों का (स्थितप्रज्ञ मनुष्यों) का निर्माण नहीं कर लिया जाता तबतक किसी भी परिवर्तन
की आशा करना व्यर्थ है।
अभी हमलोगों का एक मात्र लक्ष्य है-' मनुष्य बनो
और मनुष्य बनाओ !' बाकी सबकुछ अपने आप ही ठीक हो जायेगा। कोई नया दल या नया
कानून पार्लियामेन्ट से पास करवाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। किन्तु जो लोग उपचारात्मक विधि ( क़ानूनी दण्ड ) से परिवर्तन लाने के प्रति आग्रही हैं उनकी भी निंदा मत करो। वे
लोग अपने तरीके से अथक प्रयास करें, वे भी समस्या को हल करने की चेष्टा
पूरे जी-जान से करें। किन्तु तुम अपने पथ पर चलते रहो। दूसरों को भी अपने
मार्ग पर लाने की चेष्टा में समय मत बर्बाद करो। यदि स्थितप्रज्ञ मनुष्य ' बनो और बनाओ ' की सतयुग स्थापनकारी पद्धति की महत्ता को तुमने स्वयं समझ लिया है तो कार्य में लग जाओ। एकबार
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " To do good and to be good -is whole of religion." अर्थात, अच्छा मनुष्य बनो, और अच्छे कार्य करो- इतना
ही धर्म है। क्या तुम इस धर्म को ग्रहण कर सकोगे ? यदि युवा शक्ति इस धर्म
को ग्रहण करले, तो दुनिया बदल जाएगी। स्वार्थी लोग इस सरल सत्य को
समझना ही नहीं चाहेंगे, वे तुम्हारी हँसी उड़ायेंगे। किन्तु तुम अपने पथ को
नहीं छोड़ना। स्वार्थी मनुष्य ऐसा मानते हैं कि- ' यह दुनिया उनके भोग
के लिये बनी है, और दुर्बल मनुष्य तो सबल मनुष्यों के द्वारा शोषित होने के लिये
ही बने हैं, और ताकत से ही न्याय होता है। (जिसके हाथ में होगी लाठी भैंस
वही कब तक ले जायेगा ?') किन्तु, तुम्हारे लिए वैसा नहीं होगा। तुम्हारा सिद्धान्त
होगा- " मैं जगत की सेवा करने के लिये आया हूँ, सबल मनुष्य दुर्बल को उपर
उठायेंगे और न्याय ही शक्ति है। " यह बाद वाला मार्ग ही श्रेय का
मार्ग है। यह मार्ग ही दूसरों की सहायता करने वाला मार्ग है। इस पथ से चलने वाला पथिक ही यथार्थ शक्तिमान होता है, उसका रक्षा-कवच सुंदर चरित्र होता है।
इस
मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने के लिये बहुत अधिक धन-बल बहुत बड़े भवन या बड़ा विद्यालय बनाने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम अपने देश
से प्यार करते हो, अपने शरीर,मन एवं हृदय की उन्नति के द्वारा अन्य पाँच लोगों के विकास की सम्भावना में भी विश्वास करते हो तो दूसरों को भी उन्नति करने का यह पथ दिखला दो। नाम-यश के प्रलोभन में मत
फंसो, अपने संकल्प पर दृढ रहो। छात्र-जीवन
में तुम्हारे लिये सर्वोत्तम त्याग होगा अपनी उर्जा को चरित्र-गठन के
अतिरिक्त अन्य सभी चीजों से समेट लेना, उसका दुरूपयोग नहीं करना। ऐसा करने से तुम बौद्धिक शक्ति, ह्रदयवत्ता तथा कर्म-क्षमता से सम्पन्न पूर्ण मनुष्य (स्थितप्रज्ञ मनुष्य) के रूप में विकसित हो सकते हो। अपने शरीर को बलवान और ओजपूर्ण बनाओ, अपनी बुद्धि को तीक्ष्ण (Penetrating) बनाओ,
तथा अपने हृदय को प्रसारित कर उसे उदार बना लो।
जहाँ कहीं भी
तरुणों का दल एकत्रित होता हो- किसी कमरे में, किसी वृक्ष के नीचे, मैदान में, गाँव-शहर कहीं भी वहीँ 'मन को स्थितप्रज्ञ बनने और बनाने के लिए प्रशिक्षित करने वाली शिक्षा का प्रचार-प्रसार' करने वाले
केन्द्र खोलने का प्रयास करते रहो। उन केन्द्रों में व्यायाम के द्वारा शरीर को पूष्ट बनाने, पाठचक्र और सामूहिक चर्चा के द्वारा मन को पूष्ट बनाने, स्वामीजी के मानव सेवा के सम्बन्ध में दिए गए उनके उपदेशों को वास्तविक जीवन में उतार कर ह्रदय को प्रसारित करने का प्रयास निरंतर करते रहो। मनन और प्रार्थना इस विकास के दो आवश्यक अंग होंगे। ग्राम- जिला- राज्य, राष्ट्र, हर स्तर के युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लेने से बहुत लाभ होता
है। शिविर में संगठित प्रयास,सामूहिक निवास और देश के विभिन्न राज्यों से आये हुए तरुणों
के साथ मिल-जुल कर रहने के फलस्वरूप युवाओं में परमत सहिष्णुता, सहयोगात्मक मनोभाव,
एकात्मबोध, एवं राष्ट्रीय एकता का भाव आदि सद्गुण स्वतः उत्पन्न हो जाते हैं । शिविर में समस्त आवश्यक प्रशिक्षण को प्राप्त करने वाला कर्तव्यपरायण, देशप्रेमी, स्वार्थहीन, त्यागी,
मानवताबोध सम्पन्न, सेवापरायण एवं उदार दृष्टिकोण सम्पन्न नागरिक में रूपान्तरित हो जाता है।
जब असीम साहस, जबर्दस्त आशावाद एवं अविरत प्रयास से ऐसे कई चरित्रवान (स्थितप्रज्ञ) युवक तैयार हो जायेंगे जो क्रमशः सामाजिक
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र; यथा शिक्षा संस्थानों, अस्पतालों, कृषि क्षेत्र, रक्षा विभाग, उद्द्योग और व्यापार, सरकारी दफ्तर, विभिन्न राजनैतिक दलों में प्रविष्ट हो जायेंगे तब राष्ट्र के जीवन में समस्यायों का जो ढेर लगा हुआ है वह सब उनके आने के साथ ही समाप्त हो जायेगा।
किन्तु, हमारा उद्देश्य स्वयं कोई शिक्षा-संस्थान, अस्पताल, अद्द्योगिक प्रतिष्ठान, या राजनैतिक पार्टी खड़ा करना नहीं है। क्योंकि देश
में इन सब का आभाव नहीं है। परन्तु, इस प्रकार के समस्त प्रतिष्ठानों
में ईमानदार कार्यकर्ताओं का घोर आभाव है। इस कमी को दूर करना ही
महामण्डल सबसे आवश्यक कार्य समझता है, और इतना कर ही वह
खुश है। राजनीती के माध्यम से इन सब पर कब्जा कर लेने का हमारा कोई इरादा नहीं है।
स्वामी विवेकानन्द का युवाओं से आग्रह है- " इसीलिये पहले 'मनुष्य' उत्पन्न करो! " यही है उनके इस आह्वान की मूल भावना। किन्तु, हमलोगों ने आभी तक स्वामीजी के सत्योपदेश पर
कोई ध्यान नहीं दिया है। अगर सुना भी है तो कभी यह समझने की चेष्टा नहीं
की है कि उन्होंने " Be and Make " का आह्वान क्यों किया था? उनके
इसी छोटे से सत्योपदेश के भीतर ही 'क्रान्तिकारी परिवर्तन ' का बीज निहित
है !
सत्ता के नशे में चूर रहने की प्रवृत्ति को त्यागकर, अपने क्षुद्र
स्वार्थों को विसर्जित कर स्वामीजी के नाम के आगे '
हिन्दू-सन्यासी ' का तमगा लगाकर उन्हें भी 'sectarian' (कट्टरपंथी) बनाने की साजिश/ कोशिश छोड़, आइये, हमलोग इस योजना (स्थितप्रज्ञ-मनुष्यनिर्माणकारी योजना) को पूरा करने के लिए युद्ध स्तर पर कार्य प्रारंभ करें और इस " मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन " को सारे देश में फैला दें !
=====================
>>># गीता में अर्जुन उवाच : स्थितप्रज्ञ क्या है?
धार्मिक ग्रंथों में मिथ्या जगत (संसार) को मृगतृष्णा कहा गया है जिसका अर्थ हिरण द्वारा देखा जाने वाला 'मृग जल' है। रेगिस्तान की गर्म रेत पर जब सूर्य की किरण का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है और उस हिरण को जल का भ्रम हो जाता है। वह धीरे-धीरे जल की ओर भागता है, वह मृगजल वहां से दूसरे स्थान पर रहती है और आगे दिखाई देती है। हिरन अपनी मंदबुद्धि के कारण यह जान नहीं पाता कि वह भ्रम के पीछे भाग रहा है। अभागा हिरण मृगजल का पीछा करते हुए भागता रहता है, और रेगिस्तान की तप्ती रेत पर थककर मर जाता है। इसी प्रकार दैवी शक्ति (प्राकृत शक्ति) माया भी सुख का भ्रम पैदा करती है और हम अपनी इन्द्रियों की तृप्ति की आशा में इन्द्रियग्राह्य सुखों के पीछे भागते रहते हैं।
जो व्यक्ति अपने को शरीर मानता है वह मायिक पदार्थों में आनंद को खोजता है तथा जो अपने को आत्मा मानता है वह भगवान में आनंद को खोजता है। कुछ लोग पूर्णतया अध्यात्मवाद को महत्व देते हैं, तथा कुछ लोग पूर्णतया भौतिकवाद को महत्व देते हैं । दोनों वाद-वादी अपने सिद्धान्त को ही सत्य मानते हैं, अतः अध्यात्मवाद तथा भौतिकवाद में अनादिकाल से विवाद चला आ रहा है। परंतु वास्तव में दोनों ही आवश्यक हैं, क्योंकि भौतिकवाद (अपरा विद्या) एवं अध्यात्मवाद (परा विद्या) दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । गरुड़ पुराण कहता है -
चक्रधरोऽपि सुरत्वं सुरत्वलाभे सकलसुरपतित्वम्।
भवितुं सुरपतिरूवंगितत्वं तथापि न निवर्तते तृष्णा।।
(गरुड़ पुराण-2.12.14)"संपूर्ण पृथ्वी का राजा, देवता का पद चाहता है । देवता, स्वर्ग के राजा इंद्र का पद चाहते हैं । इंद्र भी ब्रह्मा का पद प्राप्त कर ब्रह्मलोक का स्वामी बनना चाहता है । अतः कामनाओं का कोई अंत नही।"
'माया के खेल को महसूस किए बिना' स्थितप्रज्ञ होना संभव नहीं है। यानि 'C' या माया = देश, काल, निमित्त में होकर आने के कारण ही ब्रह्म (A) ही जगत या 'C' के रूप में भास रहा है , या एक ईश्वर ही अनेक बन गया है ! एक ब्रह्म ही मरीज, नर्स , डॉक्टर, मेहतर, मरीज का पति, पिता, बहु ,बेटा बनकर अपना -अपना रोल कर रहा है .... इस बात को अपने अनुभव से समझे बिना, इस बात को अपने अनुभव से जाने बिना स्थितप्रज्ञ होना संभव नहीं है।
एक अभिनेता जब तक अपनी भूमिका में (राजा या भिखारी की भूमिका अथवा डॉक्टर और मरीज की भूमिका) नहीं डूबता उसका अभिनय जीवंत नहीं दिखाई देता। इसके बावजूद भी वह संयत रहता है क्योंकि वह जानता है कि उसकी भूमिका वास्तविक नहीं है। एक नजरिए से यह स्थितप्रज्ञ अवस्था की झलकी है। अर्जुन उवाच :
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।2.54।।
अर्जुन उवाच-अर्जुन ने कहा; समाधिस्थस्य-दिव्य चेतना में स्थित मनुष्य का; केशव-केशी राक्षस का दमन करने वाले, श्रीकृष्ण; स्थितधी:-प्रबुद्ध व्यक्ति; किम्-क्या; प्रभाषेत बोलता है; किम्-कैसे; आसीत-बैठता है; व्रजेत-चलता है; किम्-कैसे।
।।2.54।। अर्जुन ने कहा -- हे केशव समाधि में स्थित ( = दिव्य चेतना में लीन) स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य के क्या लक्षण है। वह सिद्ध पुरुष कैसे बोलता है? कैसे बैठता है और कैसे चलता है?
स्थितप्रज्ञस्य (स्थिर बुद्धियुक्त मनुष्य) और समाधिस्थस्य (दिव्य चेतना में स्थित) की उपाधि प्रबुद्ध व्यक्ति (=बुद्धत्व प्राप्त पुरुष) को दी जाती है। श्रीकृष्ण से पूर्ण योग की अवस्था या समाधि के विषय पर उपदेश सुनकर अर्जुन स्वाभाविक प्रश्न पूछता है। अर्जुन किसी बुद्धत्वप्राप्त व्यक्ति को उसके मन पर कितना अधिकार होता है , मन उसके वश में रहता है , या वह मन का गुलाम रहता है , वह भगवान (योग-गुरु श्रीकृष्ण) से स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के मन की प्रकृति के संबंध में जानना चाहता है। इसके अतिरिक्त वह यह भी जानना चाहता है कि दिव्य चेतना में स्थित मनुष्य की मानसिकता उसके स्वभाव में कैसे प्रकट होती है।
इस श्लोक से आरम्भ करते हुए अर्जुन श्रीकृष्ण से सोलह प्रश्न पूछता है। जिसके प्रतिउत्तर में श्रीकृष्ण कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, राजयोग इत्यादि के संबंध मे गूढ़ रहस्य प्रकट करते हैं।
इस प्रकरण में स्थितप्रज्ञ का अर्थ है वह पुरुष जिसे आत्मा का अपरोक्ष अनुभव हुआ हो। और उसके फलस्वरूप जिसकी विवेक बुद्धि स्थिर हो गयी हो । वरना, समाधि आदि शब्दों के प्रचलित अर्थ से तो कोई यही समझेगा कि योगी पुरुष आत्मानुभूति में अपने ही एकान्त में रमा रहता है। प्रचलित वर्णनों के अनुसार नये जिज्ञासु साधक की कल्पना होती है कि ज्ञानी पुरुष इस व्यावहारिक जगत् के योग्य नहीं रह जाता।
ऐसी धारणाओं वाले से घृणा और कूटिनीति के युग में पला अर्जुन इस ज्ञान को स्वीकार करने के पूर्व ज्ञानी पुरुष के लक्षणों को जानना चाहता था। स्थितप्रज्ञ के लक्षणों को पूर्णत समझने की उसकी अत्यन्त उत्सुकता स्पष्ट झलकती है जब वह कुछ अनावश्यक सा यह प्रश्न पूछता है कि वह पुरुष कैसे बोलता है कैसे बैठता है आदि। उन्माद की अवस्था से बाहर आये अर्जुन का ऐसा प्रश्न उचित ही है। श्लोक की पहली पंक्ति में स्थितप्रज्ञ के आन्तरिक स्वभाव के विषय में प्रश्न है तो दूसरी पंक्ति में वाह्य जगत् में उसके व्यवहार को जानने की जिज्ञासा है। भगवान श्री-उवाच-परमात्मा श्रीकृष्ण ने कहा;
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।2.55।।
।।2.55।। प्रजाहति-परित्याग करता है; यदा-जब; कामन्-स्वार्थयुक्त; सर्वानिश्चिंत; पार्थ-पृथपुत्र, अर्जुन; मनः-गतान-मन की; आत्मनि-आत्मा की; ईव-एकमात्र; आत्मना-शुद्ध मन से; तुष्टः-संतुष्ट, स्थितप्रज्ञाः-स्थिर बुद्धि युक्त; तादा-उस समय, तब; उच्यात–कहा जाता है।
श्री भगवान् ने कहा -- हे पार्थ, जिस समय पुरुष मन में स्थित सब स्वार्थपरता की कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है? उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।।
>>> भक्ति (दिव्य प्रेम) और ऐषणा का विवेक : (ठाकुर-माँ -स्वामीजी में अनुरक्ति) और ऐषणा (तृष्णा से वैराग) का विवेक : जैसे पत्थर गुरुत्वाकर्षण की शक्ति के कारण ही पृथ्वी पर गिरता है। उसी प्रकार हमारी आत्मा अनंत सुखों के सागर भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस देव का अंश है, इसलिए वह स्वाभाविक रूप से अन्तर्निहित आनंद को प्राप्त करना चाहती है। जब (देहाध्यासी अहं नहीं) आत्मा' ठाकुर देव से एकत्व (अर्थात सच्चिदानन्द का दासत्व ) का रस लेने का प्रयास करती हैं तब इसे 'दिव्य प्रेम' कहा जाता है। लेकिन अपने यथार्थस्वरूप की अज्ञानता के कारण वह स्वंय को वह (M/F) शरीर मान लेता है और इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले शरीर के सुखों का भोग करना चाहता है, तब उसे तृष्णा कहते हैं।
अभिप्राय यह कि पुत्र धन और लोक (तीनों ऐषणाओं में आसक्ति) की समस्त तृष्णाओंको त्याग देने वाला संन्यासी ही आत्माराम आत्मक्रीड और स्थितप्रज्ञ है।
जीवन में हो रहे बदलावों पर इंसान अपनी समझ उस अभिनेता की तरह बना लें जिसमें उसे निर्देशक की आज्ञा का पालन करते हुए सुख और दुख को जीना है, अपनी भूमिका से न्याय करते हुए भी कथा के उस पात्र की असत्यता के प्रति सावधान बने रहना है।यही ब्रह्मज्ञान है जिसके बिना स्थितप्रज्ञ होना असंभव है। संकीर्ण दृष्टि (ह्रदय या स्वार्थी व्यक्ति) वाला इंसान कभी स्थितप्रज्ञ नहीं हो सकता। दादा के अनुसार उपचारात्मक (curative) और रोगनिरोधक ( preventive) उपायों का मिलन बिंदु है - 'पूर्ण-हृदयवान मनुष्य बनो और बनाओ!'
>>>CINC -'प्रत्यक्षं किं प्रमाणं - त्वेमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि। तुम ही प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। अतः तुम्हींको मैं प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूँगा। महामण्डल की स्थितप्रज्ञ मनुष्य निर्माण की Be and Make परम्परा में प्रशिक्षित किसी जीवनमुक्त शिक्षक से यह सुनकर अपने भीतर आने वाले परिवर्तन का अनुभव करने के लिए महामण्डल शिविर में भाग लेने की परीक्षा प्रार्थनीय है।
[Heart-whole man/ The Heart First man :The heart is the "home of the personal life," and hence a man is designated, according to his heart, wise (1 Kings 3:12, etc.), pure (Psalm 24:4; Matthew 5:8, etc.), upright and righteous (Genesis 20:5, 6; Psalm 11:2; 78:72), pious and good (Luke 8:15), etc.] वे कहते हैं, " जब आपके पास ऐसे मनुष्य होंगे, जो अपना सब कुछ देश के लिये होम कर देने के लिये तैयार हों, भीतर तक एकदम सच्चे, जब ऐसे मनुष्य उठेंगे, तो भारत प्रत्येक अर्थ में महान हो जायेगा. भारत तभी जागेगा, जब विशाल ह्रदयवाले सैकड़ों स्त्री-पुरुष भोग-विलास और सुख के सभी इच्छाओं को विसर्जित कर मन,वचन तथा कर्म से उन करोड़ों भारतियों के कल्याण हेतु सचेष्ट होंगे, जो निरन्तर निर्धनता एवं अज्ञान के अगाध सागर में डूबते जा रहे हैं. जो सच्चे हृदय से भारत के कल्याण का व्रत ले सकें तथा उसे ही अपना एकमात्र कर्तव्य समझें-ऐसे युवकों के बीच कार्य करते रहो. उन्हें जाग्रत करो, संगठित करो, तथा उनमें त्याग का मन्त्र फूँक दो. यह कार्य पूर्णतया भारतीय युवकों पर ही निर्भर है। इस समय मुझे चाहिये, जोरदार प्रचारकों (महामण्डल में प्रशिक्षित नेताओं) का एक दल. " (' भारत और उसकी समस्याएँ '-पृष्ठ ३१)}
गीता में अर्जुन द्वारा भगवान से श्रीकृष्ण से पूछे गए सोलह प्रश्न निम्नवर्णित हैं-
1. "स्थितप्रज्ञ मनुष्य (दिव्य चेतना में स्थित मनुष्य) के क्या लक्षण हैं।" (श्लोक 2.54)
2. “यदि तुम ज्ञान को सकाम कर्मों से श्रेष्ठ मानते हो तब मुझे इस घोर युद्ध में क्यों धकेलना ___चाहते हो।" (श्लोक 3.1)
3. "मनुष्य न चाहकर भी पापकर्मों मे क्यों प्रवृत्त होना चाहता है? क्या उसे बलपूर्वक पापमयी कर्मों में लगाया जाता है।" (श्लोक 3.36)
4. "आपका जन्म विवस्वान से बहुत काल पश्चात हुआ था, तब फिर मैं यह कैसे समझू कि आपने उसे इस ज्ञान का उपदेश दिया था।" (श्लोक 4.4)
5. "पहले आप कर्मों का परित्याग करने की अनुशंसा करते हो और फिर पुनः आप निष्ठापूर्वक श्रद्धाभक्ति के साथ कर्म करने की प्रशंसा करते हो। कृपया मुझे निश्चयपूर्वक समझाने की कृपा करें कि इन दोनों में से क्या लाभकारी है।" (श्लोक 5.1)
6. "हे कृष्ण। मन चंचल, अशांत, शक्तिशाली और हठी है। मुझे प्रतीत होता है कि वायु की अपेक्षा इसे नियंत्रित करना अत्यंत कठिन है।" (श्लोक 6.33)
7. "उस असफल योगी का भाग्य क्या है जो प्रारम्भ में श्रद्धापूर्वक भक्तिमार्ग पर चलता है तथा बाद में जिसका मन भगवान से हटकर अनियंत्रित दुर्वासनाओं में लिप्त हो जाता है और वह क्यों अपने जीवन में सिद्धि प्राप्त नहीं कर पाता।" (श्लोक 6.37)
8. "ब्रह्म क्या है और कर्म क्या है? अधिभूत क्या है और अधिदेव कौन है? अधियज्ञ क्या है और यह शरीर में कैसे रहता है? मन को भक्ति में स्थिर रखने वाले योगी मृत्यु के समय आपको कैसे पा लेते हैं।" (श्लोक 8.1-2)
9. "कृपया मुझे अपने दिव्य वैभवों के संबंध में विस्तारपूर्वक समझाएँ जिसके द्वारा आप समस्त संसार में व्याप्त हैं।" (श्लोक 10.16) ।
10. "हे परम पुरुषोत्तम! मेरी इच्छा है कि मैं आपका विश्वरूप देखू!" (श्लोक 11.3)
11. "आप, जो समस्त सृष्टि से पहले थे, मैं जानना चाहता हूँ कि आप कौन हैं, आपकी प्रकृति ___ और प्रयोजन मेरे लिए रहस्य हैं।" (श्लोक 11.31)
12. "जो आपकी साकार रूप में भक्ति करते हैं या जो अव्यक्त निर्गुण निर्विशेष ब्रह्म के रूप में __ आपकी पूजा करते हैं, इन दोनों में से किसको योग में पूर्ण माना जाए।" (श्लोक 12.1)
13. "मैं प्रकृति और पुरुष (भोक्ता) के बारे में जानना चाहता हूँ। कर्म क्षेत्र क्या है और कर्म -क्षेत्र का ज्ञाता कौन है? ज्ञान क्या है और ज्ञान का विषय क्या है।" (श्लोक 13.1)
14. "उस पुरुष के क्या लक्षण हैं जो प्रकृति के तीन गुणों से परे हो चुका है। हे भगवान!उसका आचरण क्या है। वह गुणों के बंधन को कैसे पार कर जाता है।" (श्लोक 14.21)
15. "उन लोगों की स्थिति क्या है जो शास्त्रों के विधि-विधानों की अवहेलना करते हैं किन्तु अपनी इच्छा से श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं।" (श्लोक 17.1)
16. "मैं संन्यास का प्रयोजन जानना चाहता हूँ, यह त्याग या कर्म के फलों का परित्याग करने से कैसे भिन्न है।" (श्लोक 18.1)
=========================
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें