" " न कृतः शीलविलयः : अपने चरित्र को कभी नष्ट न होने देना"
भारत की प्राचीन 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में 'मनुष्य निर्माण और चरित्र गठन' का प्रशिक्षण देने के कौशल को विवेकानन्द ने अपने गुरु श्रीरामकृष्ण (ठाकुर) से ही सीखा था ! कोई साधारण मनुष्य एक ' चरित्रवान- मनुष्य ' के रूप में कैसे रूपान्तरित हो जाता है ? इस कौशल को महाभारत में बड़े ही सुन्दर ढंग से समझा कर बताया गया है ! मनुष्य जो कुछ भी विचार करता है, जो भी कुछ बोलता है, जो कुछ भी करता है उसकी एक छाप (कार्बन कॉपी की तरह ) उसके मन (चित्त) पर पड़ जाती है.
सदैव सद्चिन्तन करते रहने से, सदवचन कहते रहने से, सदैव सद्कर्म करते रहने से - मनुष्य के मन की गहराई (य़ा चित्त) में एकत्रित इन समस्त छापों के समुच्य (agglomeration य़ा ढेर) को ही मनुष्य का चरित्र कहते हैं. इसीलिये स्वामीजी ने कहा है की हमलोगों को सदैव सत-चिन्तन करने ,सत-वचन बोलने और केवल सत-कर्म करते रहने का बार बार अभ्यास करते रहना चाहिये.इस प्रकार बार बार सत-कर्म ही करते रहने से, निरन्तर सत-चिन्तन और सत-वचन कहने का अभ्यास करते करते हमें उसकी आदत पड़ जाती है. आदत जब प्रगाढ़ हो जाती है, पक्की हो जाती है तो वह एक अन्य वस्तु में बदल जाती है, जिसे propensity - प्रवृत्ति (य़ा झोंक) कहते हैं.
वही आदतें मनुष्य के स्वाभाविक झुकाव में परिणत हो जातीं हैं. अब मनुष्य को कार्य करने के पहले विवेक-प्रयोग करने की आवश्यकता नहीं रह जाती, अर्थात सद्प्रवृत्तियों के झोंक य़ा स्वाभाविक-झुकाव के अनुसार उसके द्वारा केवल सत-कर्म ही होते हैं- उसे यह उचित है यह अनुचित है इस प्रकार का विवेक-विचार करना आवश्यक नही रह जाता; उसमे सत-कर्म करने की एक स्वाभाविक प्रवणता आ जाती है. इस प्रवणता को ही propensity कहते हैं.
पहले मन में इच्छा उठती है, मन में केवल ' सत-इच्छा ' को उठने देने का अभ्यास करने से, उसी इच्छा के अनुसार ' सतकर्म ' करने का अभ्यास (habit )हो जाता है, habit प्रगाढ़ हो जाने से propensity और जब अनेकों प्रकार की propensity को एक साथ मिला दिया जाय, तो उसी से मनुष्य का सद्-चरित्र निर्मित हो जाता है. अतः महामण्डल के प्रशिक्षण शिविर का उद्देश्य- इसी लक्ष्य को प्राप्त करना होगा.
मनुष्य
का शरीर जिस प्रकार स्वस्थ, सबल, कर्मठ, निरोग रह सके इसके लिये व्यायाम
आदि करना. विभिन्न विषयों के बारेमे अध्यन करना, चिन्तन-मनन करना एवं
स्वाभाविक रूप से सर्वाधिक प्रयोजनीय अध्यन होगा- स्वामीजी के द्वारा
लिखे एवं कहे उपदेशों को पढना. स्वामीजी के उपदेशों को पढने का अर्थ
स्वामीजीने जो कहा है उसको केवल पढ़ लेना ही नहीं है, उसपर मनन करना है. मनन
करते रहने से स्वामीजी के विचार, उनकी वाणी - बिल्कुल हमारे ह्रदय के भीतर
बैठ जायेंगे. साथ ही साथ स्वामीजी का जीवन के ऊपर भी चिन्तन मनन करते रहना
चाहिये.
उसके बाद यदि कुछ लोग थोड़ा और भी आगे जाना चाहते हों तो उन्हें ' माँ सारदा ' का जीवन, उनकी वाणी, ठाकुर का जीवन और ' श्रीरामकृष्ण वचनामृत ' आदि का भी अध्यन करना चाहिये. यहाँ तक कि स्वामीजी ने अपने जीवन में जो कुछ भी किया है, जो कुछ भी कहा है- यदि उन सबका गहराई से विश्लेषण किया जाय तो, यह स्पष्ट हो जायेगा कि स्वामीजी ने सारी शिक्षा, समस्त ज्ञान ठाकुर से ही (सीखा) प्राप्त किया था.
उसके बाद यदि कुछ लोग थोड़ा और भी आगे जाना चाहते हों तो उन्हें ' माँ सारदा ' का जीवन, उनकी वाणी, ठाकुर का जीवन और ' श्रीरामकृष्ण वचनामृत ' आदि का भी अध्यन करना चाहिये. यहाँ तक कि स्वामीजी ने अपने जीवन में जो कुछ भी किया है, जो कुछ भी कहा है- यदि उन सबका गहराई से विश्लेषण किया जाय तो, यह स्पष्ट हो जायेगा कि स्वामीजी ने सारी शिक्षा, समस्त ज्ञान ठाकुर से ही (सीखा) प्राप्त किया था.
तत्पश्चात स्वामीजी ने
उन्हीं कि शिक्षाओं को, उस समय के मनुष्यों के लिये बोधगम्य भाषा में
अभिव्यक्त किया था. मनुष्य कैसे बना जाता है ? इस सम्बन्ध में अभी हमारी
धारणा स्पष्ट न रहने के कारण, हो सकता है कि हममें से कुछ लोगों को ठाकुर
के उपदेश और स्वामीजी के उपदेश में थोड़ी सी विभिन्नता दृष्टिगोचर हो, हमें
ऐसा प्रतीत हो सकता है कि ठाकुर ने तो ऐसा कहा था, स्वामीजी इस प्रकार
क्यों बोले ? ऐसा हमारी समझ के भ्रम के कारण लगता है, किन्तु वास्तव में
स्वामीजी और ठाकुर की शिक्षाओं में कहीं भी भिन्नता नहीं है.
चाहे वेदान्त- तत्व (नव वेदान्त ) के विषय में हों य़ा अन्य किसी भी प्रकार के जीवन के- विषय में हो, गृहस्थ-जीवन, सामाजिक-जीवन, आर्थिक-जीवन, मनुष्य के य़ा ईश्वर के विषय में हो, ठाकुर ने जो कहा है, स्वामीजी ने ठीक वही कहा है, हमलोग ही कई बार उसे ठीक से समझ नहीं पाते हैं.
चाहे वेदान्त- तत्व (नव वेदान्त ) के विषय में हों य़ा अन्य किसी भी प्रकार के जीवन के- विषय में हो, गृहस्थ-जीवन, सामाजिक-जीवन, आर्थिक-जीवन, मनुष्य के य़ा ईश्वर के विषय में हो, ठाकुर ने जो कहा है, स्वामीजी ने ठीक वही कहा है, हमलोग ही कई बार उसे ठीक से समझ नहीं पाते हैं.
किन्तु स्वामीजी ने जो भी कुछ कहा है, वह सब उन्होंने ठाकुर से ही सीखा था. ठाकुर ने अपने निकट आये हुए युवाओं के जीवन को सुन्दर ढंग से गठित कर, उनको एक चरित्रवान मनुष्य के रूप में गढ़ देने के लिये क्या क्या नहीं किया है ! |
श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने युवाओं का आह्वान करते हुए कहा था- " अरे तुम लोग कौन कहाँ हो, शिघ्रातीशीघ्र मेरे पास चले आओ ! " और कुछ युवक उनके पास आये थे. उन युवकों को इस प्रकार तैयार कर दिये कि, वे लोग, सम्पूर्ण जगत में एक नवीन विचार-धारा का संचार करने में समर्थ हो गये थे. उन मुट्ठी भर युवकों ने ' श्रीरामकृष्ण भावान्दोलन ' को सम्पूर्ण पृथ्वी पर फैला दिया था, एवं उसके फलस्वरूप एक " संघ " स्थापित हो गया था. यह कितनी अभूतपूर्व ऐतिहासिक घटना थी. ऐसा दृष्टान्त किसी अन्य पुराण में है, हमें नहीं मालूम, किसी दूसरे देश के इतिहास में है, पता नहीं |
दुनिया के कई देशों में विभिन प्रकार की घटनाएँ घटीं हैं, नये नये धर्मों की उत्पत्ति हुई है. किन्तु श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने किसी नये धर्म का प्रवर्तन नही किया है. पर जो कार्य उनके द्वारा हुआ है, वह कार्य उनके पहले कभी किसी के द्वारा नहीं किया गया है. कई महापुरुषों ने, इस पृथ्वी पर- एक के बाद दूसरा कई धर्म चलाये हैं, एवं एक धर्म के साथ दूसरे धर्म के साथ संघर्ष, होते रहे हैं. धर्म के नाम पर मनुष्यों का कितना रक्त बहाया गया है! पहले जितने सारे धर्मयुद्ध हुए थे, उसमे अनगिनत लोग मारे गये थे. इस धर्म के लोग उस धर्म के लोगों की हत्या करते थे, उस धर्म के लोग इस धर्म के लोगों की हत्या करते थे. आज भी थोड़ा बहुत वैसा ही संघर्ष, लड़ाई-झगड़ा आदि दिखायी देता है.
जिस शिक्षा के आभाव में आज समस्त विश्व के मनुष्य जिस दुःख-कष्ट में पड़े हुए हैं, सम्पूर्ण पृथ्वी पर मनुष्य जाती जिस दुर्गति को भोग रही है- उस दुरावस्था में परिवर्तन लाने के लिये क्या करना होगा ? सर्वप्रथम तो
" ' मनुष्य ' -( के 3H ) की ओर दृष्टि डालनी होगी ! "
हमलोग बाहर की ओर, प्रकृति की ओर (चन्द्रमा और मंगल) देख रहे हैं, धन-दौलत की ओर देख रहे हैं, भोगों की आकांक्षा की ओर देख रहे हैं, किन्तु इन समस्त कार्यों के मूल में पहले जिस मनुष्यत्व को अर्जित करना जरुरी होता है, उसकी कोई चेष्टा हमलोगों ने नहीं की है. अपने चरित्र को सही ढंग से गठित नहीं किया है. चरित्र कितनी अनुपम वस्तु है, उसका कितना महत्व है, इसे हम ठीक से नहीं समझते; योगी कवि भर्तृहरि कहते हैं-
" वरं तुंगात श्रृंगात गुरुशिखरिणः क्वापि विषमे
पतित्वायं कायः कठिनदृषदन्तर्विदलितः |
वरं न्यस्तो हस्तः फणिपतिमुखे तीक्ष्णदंशने
वरं वह्नौ पातास्तदपि न कृतः शीलविलयः || "
- भले ही ऊँचे पर्वत-शिखर से कूद पड़ने के कारण तुम्हारा अंग भंग क्यों न हो जाय, काले नाग के मुख में हाँथों को डाल देने पर सर्प के दंश से तुम्हारे प्राण क्यों न छूट जाएँ, अग्नि में गिर पड़ने से तुम्हारा शरीर भी जल कर खाक क्यों न होता हो, लेकिन - " न कृतः शीलविलयः !! " अपने चरित्र को कभी नष्ट न होने देना|
कैसी अदभूत शिक्षा थी- भर्तृहरि की ! कैसा आह्वान था ! यदि तुम्हारे किसी कृत्य से, तुम्हारे चरित्र के गिरने की सम्भावना हो; तब तुम्हारे लिये यही अच्छा होगा कि तुम किसी ऊँचे पहाड़ से कूद कर अपनी अपनी हड्डियाँ तुडवा लो, य़ा किसी विषधर सर्प के मुख में हाथ डाल दो और उसके काटने से प्राण निकल जाएँ, य़ा फिर अग्नि में कूद कर अपने शरीर को जल कर राख हो जाने दो, किन्तु किसी भी परिस्थिति में अपने चरित्र को नष्ट नहीं होने दो !
- ये सब वाणियाँ हजारो वर्ष पूर्व भारत में गुंजायमान हुई थीं| इन प्राचीन सद्ग्रंथों में दिये गये उपदेशों को अपने जीवन में उतार लेने से भारत के युवाओं का चरित्र इतना ठोस होगा कि कोई भी प्रलोभन (कामिनी-कान्चन) उसको नष्ट नहीं कर पायेगा! पर वैसा चरित्र अभी किसी भी व्यक्ति में (नेता, आईएस, शिक्षक, किसान, व्यापारी...आदि में)कहाँ दिखायी देता है? इस तरह के चरित्र का निर्माण करने की चेष्टा भी हमलोग कहाँ कर रहे हैं?
- ये सब वाणियाँ हजारो वर्ष पूर्व भारत में गुंजायमान हुई थीं| इन प्राचीन सद्ग्रंथों में दिये गये उपदेशों को अपने जीवन में उतार लेने से भारत के युवाओं का चरित्र इतना ठोस होगा कि कोई भी प्रलोभन (कामिनी-कान्चन) उसको नष्ट नहीं कर पायेगा! पर वैसा चरित्र अभी किसी भी व्यक्ति में (नेता, आईएस, शिक्षक, किसान, व्यापारी...आदि में)कहाँ दिखायी देता है? इस तरह के चरित्र का निर्माण करने की चेष्टा भी हमलोग कहाँ कर रहे हैं?
शंकराचार्य ने भी इसी बात को समझाते हुए कहा था-( " त्रये दुर्लभं " ), उसमे वे भी चरित्र के महत्व को ही समझा रहे हैं !हमने दुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त किया है, मनुष्य के दुर्लभ (विवेक-सम्पन्न) मन को प्राप्त किया है, किन्तु इनकी सहायता से हमलोग जो कर सकते थे, उसे हमने अभी तक नहीं किया है. हमलोग बाकी सबकुछ (२०१० में Common Wealth Games ) कर रहे हैं,किन्तु जिसके होने से सबकुछ होता है,
' चरित्र-निर्माण ' वही पीछे छूट गया है !
स्वामी विवेकानन्द ने उन्हीं प्राचीन ग्रंथों (महाभारत, उपनिषद आदि) से- " चरित्र निर्माणकारी एवं मनुष्यत्व उन्मेषक " भावों को ढूंढ़ ढूंढ़ कर अपने जीवन में उतार लिया था|
{ महाभारत आदि प्राचीन ग्रंथों में चरित्र-निर्माण की वैज्ञानिक पद्धति बताई गयी है, इस बात को स्वामीजी भी पहले नहीं जानते थे, पहले पहल इस तथ्य को उन्होंने अपने गुरुदेव " श्रीरामकृष्ण परमहंस देव " से ही सुना था. जिस प्रकार महावाक्यों (चार महावाक्य) का अर्थ केवल पढ़ लेने य़ा रट लेने से ही स्पष्ट नहीं होता, बल्कि उसके ऊपर अनुध्यान अर्थात दीर्घ काल तक चिन्तन-मनन करने य़ा मनः संयोग करने से ही उसका अर्थ स्पष्ट होता है.
किसी विषय पर दीर्घ काल तक चिन्तन मनन करके उसका अर्थ समझने की पद्धति को " मनःसंयोग " कहते हैं. यह पद्धति भी आधुनिक युवाओं (स्वामीजी के समकालीन अंग्रेजी शिक्षा में पले-बढ़े युवओं को ) सबसे पहले श्रीरामकृष्ण परमहंस देव से ही प्राप्त हुई थी.
ठाकुर ने प्राचीन ग्रंथों की बहुमूल्य शिक्षा को अत्यन्त सरल भाषा में और बिल्कुल संक्षिप्त करके (आधुनिक युग के महावाक्य में परिणत करके ) अपने निकट आये हुए युवकों को सिखाया था.
( जैसे - " जितने मत उतने पथ " य़ा " " दया नहीं सेवा - शिवज्ञान से जीव सेवा " आदि ठाकुर द्वारा रचित" नये महावाक्य " हैं !}
उनके उपदेशों में जितने भी पुराने पुराने भाव समाहित थे उन सबको, उन्हीं प्राचीन सद्ग्रंथों से खोज-खोज कर स्वामीजी ने, तथा ठाकुर के निकट आये अन्य युवाओं ने भी अपने जीवन में उतार लिया था. किन्तु यह भी सत्य है कि, समस्त सदगुणों को अपने जीवन में धारण करने की शिक्षा (मनः संयोग आदि)उन्होंने श्रीरामकृष्ण परमहंस देव से ही प्राप्त कि थी.