श्रद्धा आविवेश की दीक्षा
(श्रद्धा के जाग्रत होने पर इन्द्रियातीत सत्य की प्राप्ति होती है। )
मुझे ऐसा प्रतीत नहीं होता कि बचपन से ही भगवान के साकार रूप पर आस्था रखने य़ा मूर्ति में साक्षात् गोपाल को देखने, गोपाल के मूर्त विग्रह का पूजन करने, भगवान को भोग लगाकर प्रसाद ग्रहण करने, कांसे का घन्टा बजाने, य़ा आरती करने से मुझे कोई क्षति हुई हो! बल्कि ठीक इसके विपरीत मुझे इससे कुछ लाभ ही हुआ है। ऐसा मैं निश्चय पूर्वक कह सकता हूँ।
क्योंकि बचपन से ही पवित्र परिवेश में पालन-पोषण होने,और किशोरावस्था तथा युवावस्था में भी ऐसे ही वातावरण में रहने, घर के सदस्यों तथा परिचितों के त्यागपूर्ण जीवन या कुछ विस्मयजनक घटनाओं आदि को देखने से -जितने भी शुभ और पवित्र संस्कार मन पर पड़ते हैं, वे सब मनुष्य जीवन को सुन्दर रूप से गठित करने में (Life Building में) बहुत ही सहायक होते हैं।
किसी भी चीज को प्रत्यक्ष देख लेने के बाद उस पर विश्वास करना उचित ही है। हम सभी को अपने जीवन में कुछ न कुछ अद्भुत किन्तु सत्य घटनाओं का प्रत्यक्ष अनुभव कभी न कभी अवश्य ही होता है। कौन बता सकता है कि ' कलयुग में गोपाल-काली एक हैं ' कहानी में वह सब कैसे घटित हुआ हुआ होगा?
(JNKHMP -१३ में में जो दो भाइयों की कहानी है, जिसमे माँ काली गोपाल को अपने गोदी में लेकर आम खिला रहीं थी। मूल बंगला पुस्तक " जीबन नदीर बाँके बाँके " के पृष्ठ २२ को देखें)
पितामह ने जो कृष्णनगर के राजबाड़ी की कहानी सुनाई थी, य़ा फिर उस दिन की आखों-देखी घटना को भला कैसे झुठलाया जा सकता है ! माँ ने तो मुझे सांत्वना देने के लिये कह दिया था-" माँ कालीर झूड़ी थेके खेये नेबे गोपाल !"(गोपाल माँ काली की टोकरी से स्वयं ही पूड़ियों को निकाल कर खा लेंगे) और सुबह में घर के सभी लोगों ने वह दृश्य देखा- माँ काली की टोकरी में पूरियाँ नहीं बची हैं, एवं पूरियाँ छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त होकर गोपाल की चौकी तक एक कतार में बिछी थीं।
विश्वास होना य़ा न होना एक बात है, और ऐसा होना संभव है य़ा नहीं वह दूसरी बात है। किन्तु किसी घटना को प्रत्यक्ष देख लेने पर जो विश्वास होता है - वह अलग ही श्रेणी का होता है। क्योंकि स्वयं प्रत्यक्ष कर लेने पर एक भिन्न प्रकार की श्रद्धा जाग्रत होती है ! स्वामीजी कठोपनिषद में नचिकेता के भीतर इसी तरह के " श्रद्धा-आविवेश " का उदाहरण दिया करते थे।
नचिकेता के पिता यज्ञ कर रहे हैं ! बहुत बड़े पैमाने पर यज्ञ कर रहे हैं, किन्तु उसमे जो दान दे रहे हैं, उसमे वे चुन- चुन कर उन गौओं को दे रहे हैं, जो ' दुग्धदोहा निरिन्द्रिया: ' हो चुकी हैं। अर्थात वे गौएँ ' निरिन्द्रिय ' हैं अर्थात जो अब और दूध देने के योग्य नहीं हैं, वे अब संतान भी उत्पन्न नहीं कर सकती। यह देख कर नचिकेता कहता है- " पिताजी आप इस तरह की गौओं को क्यों दान कर रहे हैं? आपको तो श्रेष्ठ वस्तु दान में देनी चाहिए। मैं आपका पुत्र हूँ, क्या मैं श्रेष्ठ वस्तु नहीं हूँ? मुझको आप किसे दान कर रहे हैं? " दो-तीन बार पूछने पर उसके पिताजी ने नाराज होकर कह दिया - " जा, मैं तुझको यम को देता हूँ! " इस कहानी को प्रायः सभी जानते हैं की इसके बाद नचिकेता यम से मिलने चल देते हैं, और सशरीर ही यम के सदन (घर) में पहुँच जाते हैं!
तब यम कहीं बाहर गये हुए थे (शायद आत्मा कलेक्ट करने?), इसलिए नचिकेता तीन दिनों तक उनके लौटने की प्रतीक्षा में बैठे रहते हैं। यम जब लौट आते हैं तो नचिकेता के साथ उनकी मुलाकात होती है। वह उनसे आत्म-तत्व के विषय में प्रश्न करता है। तब यमाचार्य नचिकेता को 'उर्ध्वमूलः अवाक्शाखः' वाला आत्मतत्व --जिसका तीनों कालों में भी नाश नहीं होता, समझा देते हैं! इस प्रकार जब वह अपने यथार्थ स्वरूप को जान जाता है, तब उसका ह्रदय में "श्रद्धाविवेश" #होता है। ["श्रद्धाविवेश"# एई जे एई रकम जखन हलो, तखन से बलछे "श्रद्धाविवेश।" (please see जीबन नदीर बाँके बाँके बंगला पेज 49)]
अर्थात उस बालक के निर्मल अंतःकरण में श्रद्धा जाग्रत हो जाती है! जब तक किसी मनुष्य में श्रद्धा (आध्यात्मिकता-आस्तिक्य बुद्धि) जाग्रत नहीं हो जाती, तब तक वह पशुत्व से मनुष्य में और मनुष्यत्व से देवत्व में उन्नत नहीं हो सकता। यह श्रद्धा जाग्रत कैसे होती है - इस बात को वेदों में भी समझाया गया है कि सर्वप्रथम किसी किसी उद्देश्य के लिए व्रती होना पड़ता है। वेद में कहा गया है -
व्रतेन दीक्षामाप्नोति,
दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्।
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति,
श्रद्ध्या सत्यमाप्यते।।
यजुर्वेद 19|30 ||
[शब्दार्थ - व्रतेन....व्रत क्या है ? अवगुणों को छोड़कर गुणों को धारण करने का नाम व्रत है। पाप से निवृत्त होकर सद्गुणों को धारण करना ही उपवास है। भूखे रहकर शरीर को सुखाने का नाम उपवास नहीं है। व्रत का अर्थ है ऐसे आचार, विचार, व्यवहार तथा शुभ संकल्प जिन्हें अपने जीवन को शुद्ध, पवित्र, उच्च और महान बनाने के लिए स्वीकार किया जाए। हमें चाहिए कि हम दुर्व्यसनों को त्यागकर सदाचारी बनने का व्रत लें। परोपकार का व्रत लें। देश सेवा का व्रत लें। इस प्रकार के सच्चे व्रतों को जीवन में धारण करने से जीवन उन्नत होगा। किसी व्रत में लग जाने से, (जैसे चरित्रवान मनुष्य बनने के उद्देश्य से संकल्प-सूत्र या स्वपरामर्ष सूत्र- "चमत्कार जो आप कर सकते हैं " को छः महीना तक सुबह-शाम लिखने में लग जाने से -धीरे धीरे विश्वास आता है और जब संकल्प दृढ़ हो जाता तब उससे श्रद्धा आती है।) सत्यनियम के पालन से मनुष्य / दीक्षां......दीक्षा को, प्रवेश को/आप्नोति....प्राप्त करता है/ दीक्षया.....दीक्षा से/दक्षिणां..........दक्षिणा को, व्रृद्धि को, बढ़ती को/आप्नोति......प्राप्त करता है/ दक्षिणा.......दक्षिणा से/श्रद्धां.........श्रद्धा को/आप्नोति........प्राप्त करता है / और सदा श्रद्ध्या......श्रद्धा द्वारा/सत्यं.......सत्य को/ आप्यते......प्राप्त किया जाता है। ]
सर्वप्रथम किसी कार्य में लग जाने से धीरे धीरे विश्वास आता है,और उससे श्रद्धा आती है। एवं श्रद्धा के जाग्रत होने पर ही सत्य को प्राप्त किया जाता है। यदि बचपन से ही इस श्रद्धा को जाग्रत करने कि चेष्टा प्रारम्भ न किया जाय, शैशव काल में श्रद्धा नहीं रहे, यौवन में भी श्रद्धा यदि नहीं आ सके, श्रद्धा को यदि युवावस्था में भी जाग्रत नहीं किया जा सके तो किसी मनुष्य को जीवन में सच्ची-श्रद्धा य़ा सत्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। 'उर्ध्वमूलः अवाक्शाखः' सत्य को प्राप्त करने के लिए व्रत, दीक्षा, दक्षिणा और श्रद्धा के चार सोपानों को पार करना होता है।
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" कठोपनिषद् "[ क= ब्रह्म; ठ= निष्ठा; इस प्रकार 'कठ' माने ब्रह्म में निष्ठा उत्पन्न करनेवाला उपनिषद्।" शाश्वत शान्ति का पथ : वि० सा० ख० ३:१६० ]
हम सोचते हैं कि मृत्यु जीवन की दुश्मन है, लेकिन सत्य बिलकुल विपरीत है। मृत्यु के बिना जीवन हो ही नहीं सकता।
ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते।
तस्मिंल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन। एतद्वै तत्।। (कठोपनिषद्-2.3.1)।।
''यह सनातन अश्वत्थ है जिसका मूल ऊपर है, किन्तु इसकी शाखाएँ नीचे हैं। 'वही' तेजोमय है, 'वही' एकमेव 'ब्रह्म' 'वही' 'अमृत' कहलाता है; 'उसी' में समस्त लोक आश्रित हैं, कोई भी 'उसके' परे नहीं जाता।
उसको कोई लांघ नहीं सकता। उसके पार जाने का कोई उपाय नहीं है। उसको ट्रांसेंड नहीं किया जा सकता। परमात्मा का अर्थ ही यही है कि जो अंत है, कि जो आखिरी है--सीमांत--जिसके पार कुछ शेष नहीं रह जाता। अगर उसके पार कुछ शेष रह जाता है, तो वह परमात्मा नहीं है। जहां सब दृश्य खो जाते हैं और केवल द्रष्टामात्र रह जाता है। जहां सब ज्ञेय समाप्त हो जाते हैं और मात्र ज्ञाता शेष रह जाता है। उस केवल-ज्ञान की, उस कैवल्य की खोज अध्यात्म है। सब लोक उसी के आश्रित हैं। कोई भी उसको लांघ नहीं सकता। यही है वह परमात्मा, जिसके विषय में तुमने पूछा था। यही है 'वह' जिसकी तुम्हें अभीप्सा है।
श्री रामकृष्ण कहते थे, तुम सिर्फ हवा का रुख पहचान लो, फिर तुम अपनी नाव का पाल खोल दो। फिर तुम्हें पतवार भी न चलानी पड़ेगी, फिर नाव, उसकी हवाएं ले चलेंगी गंतव्य की ओर।
लेकिन यह सूत्र यम के द्वारा नचिकेता को कहा गया है, इसमें यम कह रहा है कि ऊपर की ओर मूल, नीचे की ओर शाखाएं हैं। जैसा भी हमारा जानना है, जीवन का सत्य उससे ठीक विपरीत है।
ऊपर की ओर मूल वाला और नीचे की ओर शाखा वाला यह प्रत्यक्ष जगत सनातन पीपल का वृक्ष है। इसका मूलभूत तत्व वह परमेश्वर ही है। वही ब्रह्म है और वही अमृत कहलाता है।
जैसे किसी सरोवर के किनारे कोई वृक्ष खड़ा हो तो सरोवर में जो प्रतिबिंब बनता है, वह उलटा होगा। तट पर खड़े हुए वृक्ष की शाखाएं आकाश में ऊपर की ओर फैली होंगी, तट पर खड़े वृक्ष की मूल, जड़ें नीचे जमीन में फैली होंगी। लेकिन प्रतिबिंब उलटा होगा। उसमें जड़ें ऊपर होंगी, शाखाएं नीचे होंगी। सभी प्रतिबिंब उलटे होते हैं। प्रतिबिंब कभी भी सीधा नहीं हो सकता। इस वैज्ञानिक सत्य को ध्यान में रखकर इस सूत्र को समझना बहुत आसान होगा।
परमेश्वर हमें अदृश्य है, पदार्थ हमें दृश्य है। इसलिए अज्ञानी कहता है--जगत सत्य, ब्रह्म मिथ्या। ज्ञानी कहता है--ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या। उलटा हो जाता है। जब कोई व्यक्ति जीवन की इस प्रक्रिया को उलटा करता है, तो पदार्थ अदृश्य होने लगता है और परमात्मा दृश्य होने लगता है। और जिस दिन पदार्थ पूरी तरह अदृश्य हो जाता है, सिर्फ परमात्मा दृश्य रह जाता है, उस दिन जानना कि सत्य की अनुभूति हुई। हमारे सामने सबसे बड़ा भय यह है कि शायद अगले जन्म में हमें मानव शरीर नहीं मिलेगा। वेदों मे वर्णन किया गया है:
इह चेदशकद् बोद्धुं प्राक् शरीरस्य विस्रसः।
ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते।।
(कठोपनिषद्-2.3.4.)।।
यदि शरीर का पतन होने से पहले इस मनुष्य शरीर में ही, ईश्वर भक्ति करके अपना लक्ष्य प्राप्त कर लो, (या उस परम् सत्य को साक्षात कर सको) तब तो ठीक है, नहीं तो फिर 'सर्गेषु' कई जन्मों तक चौरासी लाख योनियों में घूमना पड़ेगा।।4।।
"इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः" (केनोपनिषद्-2.5)
"हे मनुष्यों! मानव जीवन पाने का बहुत कम अवसर मिलता है। यदि तुम इसका उपयोग परम लक्ष्य को प्राप्त करने में नहीं करते तब तुम्हें घोर संकटों का सामना करना पड़ेगा।"
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