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मंगलवार, 20 अगस्त 2024

🏹🔱🕊प्रेमीक -पथिक संवाद :1-2 🔱🏹🕊 (रटन्ती-कालीपूजा : निशा-भ्रमण-1) [ पथिक हैं नवनीदा के पितामह 'आचार्य शिरीषचन्द्र मुखोपाध्याय (1873-1966) और प्रेमीक हैं आन्दुल काली कीर्तन समीति के संस्थापक - शाण्डिल्य गोत्रीय महेंद्रनाथ भट्टाचार्य (1844 - 1908) ~ 'प्रेमीक महाराज' ! ]🏹🔱🕊नाद (Sound) -बिन्दु (Light) से जगत की उत्पत्ति का सिद्धान्त : 🏹🔱🕊The theory of Genesis of the world from Naad (Sound)-Bindu (Light)🏹🔱🕊:

 प्रेमीक -पथिक संवाद

(रटन्ती-कालीपूजा : निशा-भ्रमण)

आचार्य शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय #(कामदेवी )

[एक] 

       🏹🔱🕊तंत्र में 'पञ्च मुण्डी  ' -साधना क्या है ?🏹🔱🕊 

[#Note: In this travelogue, the traveler is Acharya Deva Shirishchandra Mukhopadhyay (1873-1966)  the grandfather of Revered Nabanida (Shri Nabaniharan Mukhopadhyaya  founder of Mahamandal movement) and the 'Premik Maharaj ' is Mahendranath Bhattacharya (1844 - 1908), of Shandilya gotra, the founder of Andul Kali Kirtan Samiti.]

#द्रष्टव्य : इस भ्रमण वृतान्त में पथिक हैं पूज्य नवनीदा (महामण्डल आन्दोलन के संस्थापक श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय) के पितामह आचार्य देव शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय (1873-1966)'और 'प्रेमीक -महाराज' हैं आन्दुल काली कीर्तन समीति के संस्थापक - शाण्डिल्य गोत्रीय  महेंद्रनाथ भट्टाचार्य (1844 - 1908)

मैं कई वर्ष पुरानी बात कहने जा रहा हूं। माघ महीने के आखरी दिन की पूर्वरात्रि है। मध्य रात्रि मानों साँय साँय कर रही है , और उसी प्रकार घना अँधेरा भी छाया हुआ है । सर्दी कम होती जा रही है, और पतली त्वचा को स्पर्श करती हुई 'दक्षिण' की ठंढी हवा चल रही है। आन्दुल के सड़कों पर रास्ता भूला पथिक भटक गया है। रटन्ती चतुर्दशी की मध्यरात्रि के धुप्प अन्धकार में आन्दुल के पेंड़-पौधे,  मानों छिप गए हैं। उसी नीरव अँधेरे में पूरा गाँव कुप्प सोया पड़ा है; और आन्दुल की सड़कों पर पथिक चलता जा रहा है । चलते -चलते कब अन्दुल की सरस्वती -नदी का श्मशान घाट और नदी का पानी एकाकार हो गया, कुछ पता नहीं चला। थोड़ा सा मतवालेपन के भाव में है है। कोई रास्ते की पहचान करने में सहायता भी नहीं करेगा। 'मेघेर्मेदूरमईश्वरं.... -(संस्कृत) खुले आसमान में बादलों की घोर घटायें छा रही हैं! रास्ता बिल्कुल सुनसान है , कोई मानव-जात नहीं दीख रहा है। लेकिन उसी यशस्वी पुण्य-रजनी की जीवनीशक्ति द्वारा अनुप्रेरित होकर, पथिक मानो छोटे-छोटे कदमों से चला जा रहा था । 

       बहुत दूर चलने पर किसी घर के एक छेद के माध्यम से, पथिक को प्रकाश की एक लंबी रौशनी आती हुई दिखाई दी। पथिक मानो रटन्ती पूजा की उसी रौशनी को  सूँघते हुए उस दिशा की ओर बढ़ गया। गंतव्य स्थान पर पहुंचने में अधिक देरी नहीं हुई । पथिक ने देखा कि अभी-अभी देवी पूजा समाप्त हुई है। देवीपीठ (यानि शक्तिपीठ) का 'याग दीपक' जल रहा है। पूजक पूजा समाप्त करके सुखासन पर बैठे हुए हैं। प्रेमिक महाराज ने- 'निवातपद्मास्तिमितेन चक्षुषा' मित्रवत नेत्रों से  पथिक की ओर देखकर कुछ देवी का प्रसाद दिए। तब उस 'प्रसाद-प्रसन्न पथिक' ने कहा - " अभी-अभी  मैं माँ सिद्धेश्वरी मंदिर (आन्दुल) में रटन्ती पूजा सुसम्पन्न देखने के बाद यूँही गांव की प्रदक्षिणा करता हुआ घूम रहा था -और  'को जागर्ति' -अर्थात 'कौन जाग रहा है ?' की खोज कर रहा था। आपको देखकर मेरी आशा बढ़ गयी, मुझे भरोसा हो गया कि यह देश , आज भी  साधक-रहित नहीं हुआ है। (बंगाल का यह पुण्य गाँव आन्दुल आज भी श्रद्धावान रहित या काली-उपासक से रहित नहीं हुआ है !) इस पूजा स्थल के यंत्र- उपचार आदि को देख कर , यह समझा जा सकता है कि यहाँ 'वीर-रात्रि #“साहस की रात्रि” निमित्तानुष्ठान भी सिद्ध-विद्या आविर्भाव पद्धति से सुसम्पन्न हुआ है।

 [वीर रात्रि# जब सूर्य मकर राशिस्थ होने पर मंगलवार के दिन चतुर्दशी हो और उसी दिन मकरकुल नक्षत्र (भरणी, रोहिणी,पुष्य, उ.फा.,चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, पू.षा., श्रवण, उ.भा, नक्षत्र) पड़े तो उसे वीर रात्रि कहा जाता है। इसी वीर रात्रि में विष्णु जी की तपस्या के फलस्वरूप महात्रिपुर सुंदरी के तेज से माँ पीतांबरा देवी का आर्विभाव हुआ था।]

क्या आप ही काली -कीर्तन के रचयिता 'प्रेमिक महाराज' हैं? प्रेमीक महाराज- 'निशीथदीपाः सहसा हतत्विषो बभूवुरालेख्यसमर्पिता इव" के समान मुस्कुराने वाली हँसी हँसे। (रघुवंशम्/तृतीयः सर्गः३.१५/उस भाग्यवान बालक रघु का तेज सौरीगृह में इतना फ़ैल गया था कि आधीरात (मध्यरात्रि) के समय में भी घर में रखे दीपों का प्रकाश एकदम क्षीण (मन्द) हो गया। और वे ऐसे जान पड़ने लगे मानो चित्र के बने हों !)  तब प्रेमीक और पथिक के बीच गहरा परिचय हो गया। मानो 'भावस्थिराणि जननांतर सौहृदानि॥' # [#जब कोई प्राणी सुखी होने पर भी किसी रमणीय दृश्य को देखकर या मधुर शब्दों को सुनकर उत्कंठित हो उठता है, तब निश्चय ही उसका चित्त अचेतन रूप से किसी ऐसे पूर्व-संबंध की याद कर रहा होता है जो उसके आभ्यंतर में संस्कार-रूप में स्थिर हो गया है। अभिज्ञान शाकुंतलम्‌5:2फिर तो उसी 'यज्ञ प्रदीप ' के सामने बैठे  प्रायः पूरी रात जागते हुए प्रेमिक -पथिक संवाद चलने लगा।

       उसी प्रेमिक -पथिक संवाद से बाद में मैं जितना समझ सका, सोचा हूँ कि मैं उसे आपको मन-मुताबिक ढालकर बता दूं। 'पारी कि हारी ' --एक बार देखि !'  बताने में सक्षम होता हूँ, या नहीं- एक बार कोशिश करता हूँ। अगर मैं बताने में सक्षम हो सका तो - "हे प्रेमीक ! वह तुम्हारा गुण है! " और यदि न बता सका , तो हे पथिक ! यह दोष तुम्हारा है ! मैं तो सिर्फ अदरक का खुदरा व्यापारी हूँ -अदरक बेचने वाला व्यापारी जहाजों की चिंता क्यों करेगा? 'किमार्द्रक-वणिजो वहित्र-चिन्तयेति?'  ('अद्वैत सिद्धि ' ग्रन्थ के लेखक मधुसूदन सरस्वती ने इस न्याय का प्रयोग पूर्णतया असंबंधित विषयों के लिए किया था 

           सबसे पहले 'दक्षिण का नवद्वीप' कहे जाने वाले आन्दुल के भैरवीचरण विद्यासागर की  कथा से बातचीत का प्रारम्भ हुआ। प्रेमीक महाराज ने कहा - विद्यासागर ने समस्त 'अपरा-विद्या' को पढ़ लेने के बाद 'समयाचार'  तक को विसर्जित करके तंत्र-मार्ग के महाविद्या की साधना में ही अपना बाकी का जीवन उत्सर्ग कर दिया था। पिछले वर्ष की स्थानीय तंत्र-सभा में भैरवी चरण विद्यासागर के पंचमुण्डी आसन पर बैठकर मंत्र-साधना करने का प्रसंग पर आपने मुझे विस्तार से चर्चा करने का जो अवसर दिया था , उसे फिर से यहाँ दोहराना अनावश्यक और कुछ हद तक अप्रासंगिक होगा। तथा मेरे पास पथिक-प्रेमीक की अन्य बातें आपके सम्मुख प्रस्तुत करने का समय नहीं बचेगा। मैं उस रात उस दुर्लभ-शुद्ध-निर्मल - प्रश्न-उत्तर सत्र को सजाकर कहने में संकोच अनुभव कर रहा हूँ। क्योंकि यह सारी रात चलने वाला प्रश्नोत्तरी- सत्र  है! मैं उस रात की उस विरल (दुर्लभ) -निर्मल (पवित्र) - सम्पूर्ण रात्रि तक चलने वाले विशुद्ध प्रश्न-उत्तर सत्र को मैं कभी भूल नहीं सकता। तंत्र-साधना में केवल मुण्डासन के ऊपर ही कितनी चर्चा हुई थी! 

> पथिक ने पूछा - महाराज, तो फिर 'पंच मुंडी' -साधना क्या है ? 

प्रेमिक महाराज ने पथिक के इस प्रश्न का  उत्तर देते हुए कहा, "एक मुण्ड "निष्पद" - बिना पैर वाला सरीसृप यानि सर्प का 1 मुण्ड । दूसरा मुण्ड "चतुष्पद" - यानि चार पैरों वाले सियार का 1 मुण्ड। तीसरा मुण्ड "चतुष्कर" -वह जंतु जिसके चारों पैरों के आगे के भाग हाथ के समान हों, पंजेवाले जानवर जैसे बन्दर का 1 मुण्ड। और दो मुण्ड "द्विपद" का - यानि निम्नस्तर का नर जैसे चण्डाल का 2 मुण्ड।  कुल मिलाकर 5 मुण्ड या 'पंचमुण्डी' कहा जाता है।  

 पथिक : " अच्छा उस पर बैठकर - मुण्डासन में साधना कैसे की जाती है? " 

प्रेमिक : "शास्त्र से कुछ सुन लेने या पढ़ लेने से कोई व्यक्ति साधक तो नहीं हो सकता। दक्षिणेश्वर के परमहंसदेव कहते थे- पञ्चाङ्ग में लिखा है इस बार 20 आना पानी होगा। लेकिन पञ्चाङ्ग को दबाने से एक बून्द पानी भी नहीं मिलेगा। " पुस्तक पढ़ लेना , फिर अभ्यास करना  करके उसे आत्मसात करना, और अन्तर्निहित दिव्यता (पूर्णता या निःस्वार्थपरता) को अभिव्यक्त करने में यही अन्तर है।

🏹🔱🕊 तंत्रसाधना में आगम और निगम के सप्तकोटि ग्रन्थ हैं 🏹🔱🕊 

 प्रश्न - महाशय ! आपके विचार से ऐसी तंत्र साधना की कुल कितनी पुस्तकें होंगी ?

उत्तर : सदाशिव ने देवी को सप्तकोटि महाग्रंथ के बारे में बताया है। 

 चामुंडा मुंडमाला ही योगिनी यामलं तथा,

कामाख्या कुजिका राधा कंकालमालिनी शिवे।।

नित्या निलं महानिलं महानिर्वाणमर्नवं,

फेत्कारिणी फेरु प्रिये मरु मंत्रमहोमधिः।।

डमरं डामरं डीनं श्रौतं काली विलासकं, 

सप्तकोटिः ग्रंथा मम वक्तोद विनिर्गतः।।  

[~ रुद्रयामल तन्त्र (तन्त्र-शास्त्र का अद्भुत विश्वकोश।)] 

देवी पार्वती से सदाशिव जो कहते हैं वह है आगम । आगम और तंत्र दोनों पर्यायवाची पद माने गए हैं।  भगवान शिव ने  शिवा को (पराम्बा) को तंत्रों का उपदेश दिया तथा ये तंत्र श्री नारायण (वासुदेवस्य) को भी मान्य हुए। 

आगतं शिव वक्त्रेभ्यो गतं च गिरिजा श्रुतौ ।

मतञ्च वासुदेवेन आगम संप्रवक्षते ।।

आ -ग -म - यानि 'आ' -माने, आगतं शिव वक्त्रेभ्यो; 'ग' माने, गतं च गिरिजा श्रुतौ। 'म' माने,  'म'तं च श्रीवासुदेवेन आगमं सम्प्रवक्ष्यते।।' अर्थात शिव बोलते हैं, और गौरी सुनती हैं , यही श्रीवासुदेव का मत है। यथा -'नि'-र्गतो गिरिजावक्रातू 'ग'-तश्च गिरिशश्रुतिम्‌ । 'म'-तश्च वासुदेवस्थ निगमः परिकल्प्यते। पुनः आगम और निगम का प्रयोग अनेक स्थानों पर एक ही अर्थ में किया जाता है। सम्पूर्ण आगम शास्त्रों के वक्ता हैं सर्वान्तर्यामी मायातीत भगवान शिव , श्रोत्रि हैं माँ पार्वती, लिपिबद्ध करने वाले हैं सिद्धिदाता गणेश। और प्रचारक हैं गुफाओं में निवास करने वाले सिद्ध महापुरुष। 

पथिक का प्रश्न -लेकिन क्या तंत्र शास्त्र के साथ अन्य सभी धर्ममार्गों और सम्प्रदायों का सामंजस्य-किया जा सकता है? 

उत्तर - हाँ जी, बिल्कुल किया जा सकता है ! वैदिक मन्त्रों को छोड़कर जितने भी मंत्र हैं वे सभी तांत्रिक हैं। गुरु-शिष्य दीक्षा- पद्धति तथा उसमें प्राप्त होने वाला बीजमंत्र, सभी तांत्रिक हैं श्री चैतन्य महाप्रभु को तांत्रिक विष्णु मंत्र में ही दीक्षित किया गया था। जगतगुरु शंकराचार्य श्रीकुल (कुलार्णव तंत्र) के तांत्रिक थे। विष्णुक्रान्ता  के एक अन्य शंकराचार्य काली-कुल के प्रसिद्द सिद्ध तांत्रिक महापुरुष हैं। (विष्णुक्रान्ता समानार्थक:-आस्फोटा, गिरिकर्णी, अपराजिता स्त्री।) जब कभी होम करना होगा, तो उसकी विधि या तो वैदिक होगी या तान्त्रिक होगी। संध्या विधि वैदिक भी है, तांत्रिक भी है।   शाक्त भक्तों की दस महाविद्या, और वैष्णव भक्तों के दशावतारदोनों का आधार एक ही है। 

"कृष्णरूपा कालिका स्याद्रामरूपा (स्यात राम रूपा) च तारिणी ।" 

'काली-कृष्ण दोनों के शरीर नवीन मेघ के समान नीलकान्ति हैं। माँ तारा - शक्ति के साथ राममाँ षोडशी -जामदग्न्य  दोनों के हाथ में कोदण्ड, माता भुवनेश्वरी - वामन;  त्रिभुवनेश्वरी और त्रिविक्रम - दोनों ने देव पृथ्वी की रक्षा की; माँ भैरवी - वराह; माँ छिन्नमस्ता - नृसिंह, माँ धूमा-वती - मीन।

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Quadrumana :

1.सामंजस्य ^*  एक बार आचार्यदेव (श्री शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय) ने सर जॉन वुड्रूफ़ [Sir John Woodroffe : (1865 - 1936)] से तंत्र-शास्त्रों  के बारे में कहा था - "तंत्रशास्त्र में पुस्तकों की संख्या सात करोड़ थीं' ऐसा कहना अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकता है  - लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि तंत्रों की संख्या बहुत अधिक है। " इस पर सर जॉन वुड्रूफ़ ने तुरंत उत्तर दिया -" नहीं, नहीं, जब सदाशिव यह बात कहते हैं, तो इसे अक्षरशः सत्य मान लेना चाहिए! " (No, no , when Sadashiva tells it, it must be accepted as literally true !)  मेरे जैसे कितने पाश्चात्य शिक्षा में शिक्षित श्रोता के मुख से यह बात निकल सकती है ?(शायद इसी को कहते हैं श्रद्धा !) 

[सर जॉन वुड्रॉफ़  ब्रिटेन में जन्में एक भारतविद थे। आर्थर एव्लन (Arthur Avalon) उनका छद्मनाम था। उन्होने भारतीय दर्शन एवं योग पर बहुत महत्वपूर्ण कार्य किया जिससे भारत के प्रति पश्चिमी जगत में रूचि जागी। वुड्रॉफ़ की - 'The Serpent Power' - तांत्रिक और शक्ति योग का रहस्य, कुंडलिनी योग के अभ्यास पाश्चात्य लोगों में प्रसिद्द है। वुडरॉफ की दूसरी चर्चित पुस्तक है 'Garland of Letters' जिसमें उन्होंने लिखा है कि "ब्रह्मांडीय सृष्टि  एक प्रारंभिक नाद (Sound) और कंपन (Light -प्रकाश या बिन्दु) से प्रारम्भ होती है।]

2. फिर श्री कृष्ण की बालगोपाल-मूर्ति और माँ आद्या शक्ति काली की मूर्ति,  दोनों ने अपने-अपने वस्त्र नहीं पहने हैं - दोनों अपनी पूर्णता में निवस्त्र हैं। 🔱

बाल -गोपालजी के हाथ में लड्डू है - माँ जगदम्बा के हाथों में मुण्ड है। ऊर्जा अविनाशिता के नियमा-नुसार ऊर्जा (शक्ति E=Mc2) कभी भी नष्ट नहीं होती है, वरन्‌ एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित होती रहती है। मंत्र उच्चारण से ध्वनि उत्पन्न होती है, उत्पन्न ध्वनि का मंत्र के साथ विशेष प्रभाव होता है। विभिन्न बीज मंत्र इस प्रकार हैं :"ॐ ह्रीं क्लीं र'लये रभेदः" - ॐ- परमपिता परमेश्वर की शक्ति का प्रतीक है। ह्रीं- माया बीज है, श्रीं- लक्ष्मी बीज, क्रीं- काली बीज,ऐं- सरस्वती बीज, क्लीं- कृष्ण बीज...ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे॥”

     पुनः श्रीमहाभागवत -पुराण के मतानुसार स्वयं माँ भद्रकाली ही कृष्ण का रूप धारण करके इस धरा पर अवतीर्ण हुई थीं। उसी प्रकार सी-'तारा' म -  हो गए -सीताराम !  

वगला कूर्म्म' मूर्त्तिः स्यान्मीनो धूमावती भवेत् ॥ 

छिन्नमस्ता नृसिंहः स्याद्वराहश्चैव भैरवी । 

सुन्दरी जामदग्न्यः स्याद्बामनो भुवनेश्वरी ॥

 कमला बौद्ध' रूपा स्यात् मातङ्गी कल्कि' रूपिणी ।

 स्वयं भगवती काली कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ॥

 स्वयञ्च भगवान् कृष्णः कालीरूपो भवेद्व्रजे ।”

[इति मुण्डमालातन्त्रम् ]

माँ वगला ही कूर्म बनी थी, मातंगी कल्कि, कमला बुद्ध बनी थीं , और भगवती काली ही स्वयं ब्रज में भगवान श्री कृष्ण हैं ! फिर, श्री महाभागवत पुराण के अनुसार, माता भद्रकाली भगवान श्रीकृष्ण की कुलदेवी यानी ईष्टदेवी थीं। या माँ भद्रकाली ही कृष्ण के रूप में अवतरित हुई हैं। उसी प्रकार माँ तारा भगवान राम की कुल देवी हैं, माँ सीता का “ता”और भगवान राम का “रा” मिल कर नाम बनता है “तारा"। [देवभूमि उत्तराखंड में अल्मोड़ा के बागेश्वर की कमस्यार घाटी में स्थित माता भद्रकाली का परम पावन दरबार सदियों से अस्था व भक्ति का केन्द्र है।] 

🏹🔱🕊कौल तन्त्र की महापद्धति में आचार सप्तविध हैं🏹🔱🕊 

>तन्त्र मार्ग में सप्त आचार के अन्तर्गत वैष्णवाचार भी है -आचार सप्तविध हैं। यथा- वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धान्ताचार और कौलाचार । एक- एक  आचार ही अपने आप में सम्पूर्ण तन्त्र साधना है - साथ ही इसमें हर तरह की साधनायें अंतर्निहित हैं। देवी के प्रति शिव की उक्ति का स्मरण करें -

" करि-पादे निमज्जन्ति सर्व प्राणि पदा यथा। 

कूलधर्मे निमज्जन्ति सर्व धर्मा स्तथा प्रिये।

 जिस प्रकार वन में हाथी के विशाल पदचिन्हों में गोष्पद आदि सभी प्राणियों के पदचिन्ह छिप जाते हैं, उसी प्रकार कौल तन्त्र की महापद्धति में सभी धर्मपद्धति सम्मिलित है। साधारण आचार की अपेक्षा वेदाचार, वेदाचार से वैष्णवाचार, वेदाचार से शैवाचार, शैवाचार से दक्षिणाचार, दक्षिणाचार से वामाचार, वामचार से सिद्धान्ताचार और सिद्धान्तचार से कौलाचार श्रेष्ठ होत है। कौलाचार ही आचार की अन्तिम सीमा है, इससे श्रेष्ठ आचार नहीं है । साधक को वेदाचार से आरम्भ करके क्रम से उन्नति की उपलब्धि करनी होती है; एक ही बार में कोई कौलाचार में आगमन नहीं कर सकता है । कौलयोगी की विशेषताओं तथा लक्षणों का वर्णन करते हुए उसे महायोगी बताया गया है।

🏹🔱🕊कुलधर्म में सिद्ध किसी कौल महायोगी के लक्षण क्या हैं ?🏹🔱🕊 

प्रश्न - 'कूलधर्म' क्या है ?

उत्तर - कौल ^*(सिद्ध योगी) के लक्षण दिखाई देते हैं - 

"अन्तः शाक्ताः, बहिः शैवाः, सभा मध्ये च वैष्णवाः ; 

नाना रूप धराः कौलाः, विचरन्ति मही तले। "

 - अन्दर से शक्ति के उपासक, बाहर से शिव के पुजारी, लोगों के सामने 'शुद्ध शाकाहारी' वैष्णव जैसे दिखाई देने वाले, काली की पूजा करने वाले लोग धरती पर तरह-तरह के रूप बदल-बदल कर टहलते रहते हैं। अन्दर से शाक्त, बाहर से शैव, सभा मध्य में वैष्णव इसी प्रकार नाना वेशधारी कौल समस्त पृथ्वी में विचरण करता है । तुमने भी वो कहवत सुनी है न ? - 'बाहर से शैव, हृदय में काली, मुख में हरिनाम !' 

पथिक ने पूछा - महाशय क्या ऐसा (कौल) होना बहुत कठिन नहीं है ? 

प्रेमिक महाराज हँसते हुए बोले - " हाँ , शाक्त होना बहुत कठिन है। एक के बाद दूसरा आचार , सभी की साधना - सभी साधनाओं को अपने में समेटे 'हस्तिभुक्तकपिखवत। इसके भी ऊपर , वह भोगों में आसक्त नहीं होता , लेकिन जो शरीर से 'अशक्त' नहीं हो वही शाक्त है। इसलिए शाक्त होना बहुत कठिन है। पथिक ने कहा - तब तो सच्चा 'प्रेमिक' (true 'lover') पुरुष (आत्मा ?) ही हुए !  

🏹🔱🕊काली शब्द का अर्थ क्या है ?🏹🔱🕊 

पथिक ने  पुनः प्रश्न किया - " शाक्त के लिये काली तो ब्रह्ममयी हैं ! फिर 'काली' शब्द से मैं क्या समझूँ ? 

इस प्रश्न के उत्तर - तर-तर उसको उत्तरोत्तर प्रेमिक का प्रेम मानो उनके कण्ठ में आ गया। वे बोले जो मूर्ति अच्छी लगे उसी का ध्यान करना। परन्तु समझना कि सभी एक हैं। जैसा कि कहा जाता है -'कूलार बातास' ठंढी हवा।

      उन्होंने कहा -" अस्माकम देशे आर एक टी अद्भुत कथा शोना जाय जे --- अर्थात अपने देश में एक विचित्र बात सुनने को मिलती है कि "- उर्ध्व नभः संचारी ऊपरी मेघ में सूक्ष्म अंग वाला अंडाकार अंग्रेज़ी अक्षर U के आकार के जैसा द्विमीय वक्र परवलय (parabola-पैराबोला)-जैसा कुछ रहता है। तथा समुद्र में अब  भी कई उड़ने वाली मछलियां रहती हैं जो घोर गर्जना करने वाले बादलों के तूफानी रातों की घूर्णी-झड़ में ....जलधि (समुद्र)-हृदय से पूर्व-जन्म के संस्कार वश सरीसृप के रूप में मेघ-मंडल से निकल कर वंशावली पान करके नीचे आ जाती हैं। हमलोगों के दर्शन-काव्यों में भी कहीं कहीं मेघों की गर्जना (ध्वनि big bang Sound) के समय में बलाकार गर्भ धारण- का वर्णन किया गया है यथा, " गर्भाधानक्षणपरिचयात् आबद्धमालाः बलाकाः नयनसुभगं भवन्तं खे सेविष्यन्ते । गर्भाधानेन स्थिरः परिचयो यासां ताः । मेघगर्जितेन हि ताः सगर्भा भवन्तीति वार्त्ता।" मेघदूतम् (कालिदास)। आँखों को प्रिय लगने वाले हे मेघ ! गर्भाधान के उत्सव (आनन्द) के अभ्यास के लिए आकाश में पंक्तिबद्ध  बगुलियाँ -आपका आश्रय अवश्य लेंगी, आपकी सेवा अवश्य करेंगी। 

 ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते।येन जातानि जीवन्ति।

यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।तद्विजिज्ञासस्व।तद् ब्रह्मेति॥

 "-- ये सब प्राणी निश्चय ही जिससे उत्पन्न होते हैं। जिसके सहारे जीवित रहते हैं तथा अन्त में इस लोक से प्रयाण करते हुये जिसमें प्रवेश करते हैं। उसको जानने की इच्छा करो कि वह ब्रह्म है ।"(तैतरीय उपनिषद 3/1) 

   सारे संसार के लिए अंतिम शरण बनकर,सबको अपने स्वरूप में ही मिला लेने की,जिसकी अद्भुत क्षमता है, वह कौन है? सबका लक्ष्य एक ही है कि सब लोग,उस अत्यंत दिव्य,जहाँ पहुँच के बाद, लौटने की इच्छा नहीं होती,उस आत्मतत्व,उस ब्रह्मतत्व,उस ईशतत्व,अपने उस आराध्य तत्व तक पहुँच जाएँ। मानव के जीवन की यात्रा का वह अंतिम स्थान है जहाँ पहुँचने के बाद, उसके मन में कोई निराशा नहीं होती। "तद्विजिज्ञासत्व"-उस एक की ही जिज्ञासा करो।"तद् ब्रह्म"-वह परमात्मा है।

       सर्वेंश्वर सर्वशक्तिमान् परमेश्वर विश्वप्रपंच को किस रीति से बनाता है? क्या मिट्टी घड़ा बनाने वाला कुम्भकार निर्गुण निराकार होता है? नहीं ! यदि वह ज्ञानवान, इच्छावान, क्रियावान् न हो तो मिट्टी से घड़ा नहीं बन सकता। उसी तरह चन्द्रमण्डल, भूमण्डल, गगन, सागर, पर्वत का निर्माण करने वाला परमात्मा भी अवश्य ज्ञानवान, इच्छावान क्रियावान हैं।  जब मिट्टी का घड़ा बनाने वाला ज्ञानवान, क्रियावान है तो चन्द्रमण्डल, भूमण्डल, गगन, सागर, पर्वत आदि का निर्माण करने वाला परमात्मा भी अवश्य  ज्ञानवान, इच्छावान, क्रियावान सगुण साकार है, ऐसा ही जानना चाहिये। कैसे ? प्रमाण क्या है ?  इसका उत्तर भगवान व्यास ने अपने वेदान्त दर्शन ग्रंथ या ब्रह्मसूत्रम् द्वितीयः अध्यायः प्रथमः पादः में लिखा है- " देवादिवदपि लोके।। (ब्रह्मसूत्र 2.1.25)  

     यदि कहो कि लोक में घड़ा, टेबल या वस्त्र आदि बनाना हो तो उसके लिए एक कार्यकर्ता और साधन या उपादान आवश्यक होता है। जैसे घड़े के लिए कुम्हार , मिट्टी, दण्ड और चाक आवश्यक है या वस्त्र बुनने के लिए सूत-करघा और बुनकर, बसूला, लकड़ी बढ़ई - जरुरी होता है। उपादान या साधन के बिना कोई कार्य होता हुआ नहीं दीखता। किन्तु ब्रह्म को एकमात्र अद्वितीय, निराकार और निष्क्रिय कहा गया है। उसके पास कोई साधन सामग्री है नहीं , इसलिए वह इस विचित्र जगत की सृष्टि नहीं कर सकता। लेकिन  ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि दूध अपनी सहज शक्ति से, किसी बाह्य साधन की मद्त लिए बिना ही दही रूप में परिणत हो जाता है। उसी प्रकार परमात्मा भी अपनी सहज शक्ति से , किसी बाह्य साधन की सहायता लिए बिना ही अपनी स्वाभाविक शक्ति से जगत का रूप धारण कर लेता है। जैसे मकड़ी को जाला बनाने के लिए किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं होती। उसी प्रकार परब्रह्म भी  किसी अन्य साधन का सहारा लिए बिना अपनी अचिन्त्य शक्ति से ही जगत की रचना करता है। श्रुति (=उपनिषद) परमेश्वर के उस अचिन्त्यशक्ति का वर्णन इस प्रकार करते हैं - ‒"परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञान- बलक्रिया च ॥  (श्वेताश्वतर॰ ६ । ८)  उस परमात्मा को किसी साधन की आवश्यकता नहीं है , उसके समान और उससे बढ़कर और कोई देखा नहीं जाता है - परमेश्वर की ज्ञान, बल और क्रिया रूपा स्वाभाविक परा शक्ति (दिव्य-शक्ति) नाना प्रकार की ही सुनी जाती है।’] 

   सूत्र 24 का 25 से सम्बन्ध - "ब्रह्म ही जगत का कारण है !" (Brahman is the cause of the world.)

  उपसंहारदर्शनान् नेति चेन् न क्षीरवद् धि । 

( ब्रसू-२,१.२४ । )

    यदि आप इस बात पर आपत्ति करते हैं कि बिना साधनों के ब्रह्म जगत का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि किसी भी निर्माण के लिए सामग्री एकत्रित करने का कार्य एक कर्ता के द्वारा होता है, तो (हम कहते हैं) नहीं, क्योंकि (वह) दूध के समान (दही में बदल जाने वाला) है। 

       { किसी कार्य को करने में जो फैक्टर मुख्य भूमिका निभाता है, वह कारक (Karak) कहलाता है। जिस शब्द से क्रिया के आधार का बोध हो, उसे अधिकरण कारक कहते हैं। जैसे – पानी में मछली रहती है। इस वाक्य में 'पानी में' अधिकरण है, क्योंकि यह मछली के आधार पानी का बोध करा रहा है। शब्द के जिस रूप से क्रिया के आधार का बोध होता है उसे अधिकरण (tribunal-निर्णायक) कहते हैं। जगत (कार्य) ब्रह्म (कारण) से भिन्न नहीं है।The world (effect) is non-different from Brahman (the cause) के बाद /}यहाँ जिज्ञासा होती है कि दूध -जल या जड़ वस्तुओं में तो इस प्रकार का परिणाम होना सम्भव है, क्योंकि उनमें संकल्प करके विचित्र रचना करने की प्रवृत्ति नहीं देखि जाती। किन्तु ब्रह्म तो विचारपूर्वक संकल्प करके ही जगत की रचना करता है- एकोहम बहुस्यां ! अतः उसके लिए दूध का दृष्टान्त देना ठीक नहीं है। अतः वे इस जगत के निर्माता कैसे हो सकता है ?  [जगत ब्रह्म का परिणाम नहीं विवर्त है - दूध का दही में बदल जाने जैसा परिणाम? नहीं -विवर्त है !] इस पर कहते हैं - 

देवादिवद् अपि लोके । (ब्रसू-२,१.२५ । )- 

      जैसे लोक में देवता और योगी, ऋषि-मुनि आदि भी बिना किसी उपकरण की सहायता के अपनी अद्भुत शक्ति के द्वारा ही बहुत से शरीर आदि की रचना कर लेते हैं, बिना किसी साधन सामग्री के संकल्प मात्र से मनोवांछित विचित्र पदार्थों को प्रकट कर लेते हैं, उसी प्रकार 'अचिन्त्यशक्ति सम्पन्न परमेश्वर' अपने संकल्प मात्र से जड़-चेतन के समुदाय रूप विचित्र जगत की रचना कर दे , या स्वयं उसी रूप में प्रकट हो जाये तो क्या आश्चर्य ?  

(ब्रह्मसूत्र 2.1.25) के शंकर भाष्य  में कहा है- " बिना किसी साधन सामग्री के ब्रह्म के द्वारा संकल्प मात्र से ही जगत की रचना हुई है!" .... कैसे ? " यथा लोके देवाः पितर ऋषय......  तन्तून्सृजति बलाका चान्तरेणैव शुक्रं गर्भं धत्ते ..... एवं चेतनमपि ब्रह्म अनपेक्ष्यैव बाह्यं साधनं स्वत एव जगत्स्रक्ष्यति। ....बलाका च स्तनयित्नुरवश्रवणाद्गर्भं धत्ते......."  

   अथवा जैसे देवता, पितर, ऋषिगण चैतन्य होते हैं।  ये  बिना किसी उपकरण की सहायता से संकल्प मात्र से विविध कार्य करने में समर्थ होते हैं। इन्हें बाह्य साधनों की अपेक्षा नहीं होती। इस तथ्य का प्रतिपादन मन्त्र, अर्थवाद, इतिहास, पुराण आदि करते हैं। लोक में भी ऐन्द्रजालिक का दृष्टान्त भी प्रसिद्ध ही है। मकड़ी अपने आप ही तन्तुओं का सृजन करती है। जिस प्रकार बलाका (बगुली या सारस, मादा बगुला) शुक्र (वीर्य) के बिना ही गर्भ धारण करती है। ऐसे ही चेतन ब्रह्म भी बाह्यसाधनों की अपेक्षा के बिना ही जगत का अभिन्ननिर्मित्तोपादान कारण होने में समर्थ है। आमतौर पर कुम्भकार को घड़ा बनाने के लिए दण्ड, चक्र, चीवर आदि चाहिए। ऐसे ही लकड़ी की मेज बनाने वाले बढ़ई  को वसुला चाहिए, लकड़ी चाहिए, सूत चाहिए। किन्तु ऐसा कहा जाता है कि कल्पवृक्ष में यह चमत्कार है कि उसके नीचे बैठकर कामना करें तो बिना साधन के जो चाहो सो मिल जाय।  चिन्तामणि में यह चमत्कार है कि उससे जो कुछ चाहो सो मिल सकता है, कामधेनु में वह चमत्कार है कि उससे जो चाहो वह मिल जाय।  जो साधन कुम्भाकार को चाहिये, जो साधन बढ़ई को चाहिये, जो साधन स्वर्णकार, या बुनकर को चाहिए, वैसा कोई साधन कामधेनु को नहीं चाहिए। उसी प्रकार  हमारे ऋषि-मुनि तो कल्पतरु, कामधेनु और चिन्तामणि से भी अधिक चमत्कार पूर्ण  होते हैं, उनमें बहुत चमत्कार है, बहुत शक्ति है।  वे बिना वाह्यसाधन के संकल्प मात्र से किसी को भी अभीष्ट वस्तु प्रदान कर सकते हैं। संकल्प किया और काम सिद्ध हुआ। और अनन्त कोई ब्रह्माण्ड नायक भगवान अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण, श्रीश्री माँ सारदा और स्वामी विवेकानन्द  में तो देवताओं से भी अरबों गुना ज्यादा, ऋषियों से भी अरबों गुना ज्यादा अनन्त-अनन्त चमत्कार है।

 [साभार : संस्कृत में शंकर भाष्य https://thevyasa.in/brahmasutram2-/ अंग्रेजी में शंकर भाष्य 1/https://scriptures.redzambala.com/brahma-sutras/brahma-sutras-chapter-2-1.html/]

      मनुष्य से सबसे बड़ी भूल यह होती है कि वह-कार्य को तो देखता है, पर जिसकी शक्ति से कार्य हुआ, उस कारण को देखता ही नहीं ! मिली हुई वस्तु (देह- मन आदि) को तो अपनी मान लेता है, पर जहाँ से वह मिली है उस तरफ उसकी दृष्टि जाती ही नहीं ! वह मिली हुई वस्तु को तो देखता है, पर देने वाले  को देखता ही नहीं ! वास्तव में वस्तु (सफलता -विजय) अपनी नहीं है, प्रत्युत देने वाला अपना है । केनोपनिषद्‌में आता है‒ 

" ब्रह्म ह देवेभ्यो विजिग्ये तस्य ह ब्रह्मणो विजये देवा अमहीयन्त। 

 त ऐक्षन्तास्माकमेवायं विजयोऽस्माकमेवायं महिमेति।।" 

(केन उपनिषद३ । १)

'ब्रह्म' ने देवगणों के लिए विजय प्राप्त की तथा 'ब्रह्म' की उस विजय में देवगण महिमान्वित हुए। उन्हें दिखाई पड़ा कि "यह विजय हमारी है, यह हमारी ही महिमा है ।” 

अर्थात परब्रह्म परमेश्वर ने ही देवताओं के लिये (उनको निमित्त बनाकर) असुरों पर विजय प्राप्त की । परन्तु उस परब्रह्म परमेश्वर की विजय में इन्द्रादि देवताओं ने अपने में महत्त्व का अभिमान कर लिया । वे ऐसा समझने लगे कि यह हमारी ही विजय है और यह हमारी ही महिमा है ।’

 देवताओं के इस अभिमान को नष्ट करने के लिये परब्रह्म परमात्मा उनके सामने 'यक्ष' (तेज) रूप से प्रकट हो गये । उसको देखकर देवता लोग आश्रर्यचकित होकर विचार करने लगे कि यह यक्ष कौन है ? उसका परिचय जानने के लिये देवताओं ने अग्निदेव को उसके पास भेजा । यक्ष के पूछने पर अग्निदेव ने कहा कि मैं जातवेदा के नामसे प्रसिद्ध अग्निदेवता हूँ और मैं चाहूँ तो पृथ्वी में जो कुछ है, उस सबको जलाकर भस्म कर सकता हूँ । तब यक्ष ने उसके सामने एक तिनका रख दिया और कहा कि तुम इस तिनके को जला दो । अग्निदेव अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी उस तिनके को नहीं जला सका और लज्जित होकर देवताओं के पास लौट आया।  एवं बोला कि वह यक्ष कौन है‒यह मैं नहीं जान सका । तब देवताओं ने वायुदेव को यक्ष के पास भेजा । यक्ष के पूछने पर वायुदेव ने कहा कि मैं मातरिश्वा के नाम से प्रसिद्ध वायु देवता हूँ और मैं चाहूँ तो पृथ्वी में जो कुछ है, उस सब को उड़ा सकता हूँ । तब यक्ष ने उसके सामने भी एक तिनका रख दिया और कहा कि तुम इस तिनके को उड़ा दो । वायुदेव अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी उस तिनके को नहीं उड़ा सका और लज्जित होकर लौट आया एवं देवताओं से बोला कि वह यक्ष कौन है‒यह मैं नहीं जान सका ।

       तब देवताओं ने इन्द्र को उस यक्ष का परिचय जानने के लिये भेजा ।  परन्तु इन्द्र के वहाँ पहुँचते ही 'यक्ष' अन्तर्धान हो गया और उस जगह हिमाचल कुमारी 'उमा देवी' प्रकट हो गयीं । इन्द्र के पूछनेपर उमा देवी ने कहा कि परब्रह्म परमात्मा ही तुमलोगों का अभिमान दूर करने के लिये यक्षरूप से प्रकट हुए थे। तात्पर्य है कि परमात्मा ही सम्पूर्ण शक्तियोंके मूल हैं।

साभार http://satcharcha.blogspot.com/2014/02/blog-post_19.html/ ] 

[श्रीशिवमहापुराण में (The manifestation of Uma)  श्री उमा देवी का प्राकट्य : अथवा उमा प्रादुर्भाव वर्णनम् में कहा गया है:

ऋषियोंने कहा - हे सूतजी ! अब कृपा करके उमा के अवतार का वर्णन करें जिससे सरस्वती का प्रादुर्भाव हुआ । सूतजी बोले -ऋषिगण सुनिये, एक बार देवता दैत्यों का भयानक युद्ध हुआ । तब मातेश्वरी के प्रताप से देवता विजयी हुए । लेकिन इस विजय के कारण देवताओं को अपने आप पर ही गर्व हुआ । वे अपनी प्रशंसा करने लगे । तब उन्ही से एक कूप रूप तेज प्रकट हा गया ।  देवताओं ने ज्योंही उस तेज को देखा तो बहुत ही घबडा गये इन्द्र से जाकर बोले - वह क्या है ? तब इन्द्र ने प्रमुख देवों से उसकी परीक्षा लेने के लिये कहा । प्रथम वायु वहां पहुँचा । उस तेज ने वायु से पूछा तू कौन है ! वायु बोला मैं सारे जगत का प्राण हूँ । मेरे द्वारा जगत चल रहा है । सुनते ही तेजने कहा - अच्छा तो अपनी शक्ति से जरा इस तिनके को तो चलाकर दिखादो । तब वायु ने अपनी सारी शक्ति लगादी किन्तु तिनका तिलभर भी न हिल सका । वायु लज्जित होकर इन्द्रके पास पहुंचा । अपनी पराजयका सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया । यह सुनकर इन्द्रने अन्य देवताओं को भी उसकी परीक्षा के लिये भेजा किन्तु वे सभी पराजित हो गये ।

      इन्द्र स्वयं वहाँ पहुंचा । इन्द्र को वहाँ आया जानकर तेज उसी समय अन्तर्धान हो गया । इन्द्र इससे अत्यन्त विस्मित हुआ । तब उस हजार नेत्रों वाले इन्द्र ने विचार किया कि जो इस प्रकार की शक्ति रखता है, मैं उसकी शरण में क्यों न जाऊं? यह सोचकर मन द्वारा इन्द्र शरण को प्राप्त हुआ । वह चैत्र मास के शुक्लपक्ष की नवमी का तथा मध्याह्न का समय था । ठीक उसी समय हेतु के बिना कृपा करने वाली, सबका अभिमान मिटाने वाली देवी प्रकट हो गई । इन्द्रसे बोली, हे सुरराज इन्द्र ! ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि भी मेरे सामने गर्व नहीं कर सकते, तो फिर अन्य देवताओं की तो सामर्थ्य ही क्या है । मैं परब्रह्म प्रणव-स्वरूप देवी हूँ । मेरी कृपा से तुम लोगों न दैत्यों पर विजय पाई है । हे देवतागण ! तुम अपना अभिमान त्याग कर के नम्रता के साथ मेरा भजन करो । इतना सुनकर देवताओं ने प्रणाम तथा स्तुति करके कहा - हे महामाये ! अब तो आप क्षमा करें । आगे इस प्रकार का वरदान दें जिससे हमें फिर अभिमान न हो । सूतजी बोले - तभी से देवताओं ने अभिमान त्यागकर उमादेवी की आराधना प्रारम्भ कर दी ।इति ।

      मेघदूत काव्य पर मल्लिनाथ की टीका में भी कहा गया है -'गर्भं बलाका दधतेऽभ्रयोगान्नाके निबद्धावलयः समन्तात्। " तन्त्रोक्त देवी धूमावती के मत्स्यावतार में 'प्रलय-पयोधिजले'-  'धृत मीनशरीर' ही प्रथम जलचर अवतारी श्रीभगवान हैं। " सृष्टि-तत्त्व का दूसरा सोपान जल-थल उभयचर 'कूर्म' या कछुआ'उर्ध्वे' ..... धरणि- धरण-किण चक्र-गरिष्ठे, या चक्राकार मुकुटधारिणी और 'निम्ने' पाताल -रत्नसिंहासन- स्थिता 'दुर्गम'-नामक दैत्य -संहार कार्य में निरता माँ बगलामुखी मूर्ति। सृष्टि तत्व का तीसरा सोपान - महाबराह और उसके 'दशन शिखरे धरणी तव लग्ना पृथ्वी; ' वैसे ही माँ भैरवी अपने हाथों में पुस्तक और जपमाला लेकर, जप में निरत दिखाई देती हैं। सृष्टि की चौथी अवस्था में 'केशव धृतनरहरिरूप' (मानवाकार सिंह : anthropoid Lion) नरदेह किन्तु सिंह का मस्तक यदि उस मस्तक को काट दिया जाय - तो निम्ने रति यानि नीचे रति- कामासन पर, एक बिल्कुल नए मानव शरीर का जन्म होता है। उस नृसिंह-देव के षोड़श वर्ष के शरीर वाले गले में नाग-यज्ञोपवीत-परिहिता (नाग जनेऊ पहने) देवी माँ छिन्नमस्ता- नवयुवती हैं जो एक विपरीत रति मे आसक्त काम और रति के मैथुन करते हुए जोड़े के ऊपर खड़ी हैं। देव-देवी की सौम्य मूर्तियों  के माध्यम से तन्त्र में निहित सृष्टि -रचना के रहस्य को यहाँ तक केवल इंगित भर किया गया है। 

4. पुराणों के अनुसार कदम्ब वन में मतङ्ग ऋषि ने कठिन साधना की थी, जिसके फलस्वरूप माँ मातंगी के रूप में अविर्भूत हुई थी। मदशील मतङ्ग नामक असुर - का बाल उसकी विनाशिनी मतंगी के हाथ में और ' कल्कि ' के हाथ में है।  'म्लेच्छ-निवह-निधने कलयसि करवालम्। ' इसके भी परे मातंगी देवी -संगीत की माता है। 

5. 'सर्वे पदा हस्तिपदे निमग्ना:'॥ कुलार्णव तन्त्रम्/९३ ॥ इस कहावत के अनुसार जिस तरह हाथी के पैरों में सारे प्राणियों के पैर समा जाते हैं उसी तरह सारे दर्शन भी कुलदर्शन में ही समाहित हो जाते हैं। 

एकत: सकला धर्मा यज्ञ-तीर्थ- व्रतादय:।

एकत: कुलधर्मश्च तत्र कौलोऽधिक: प्रिये।।

   एक ओर तराजू के पलड़े पर सारे धर्म, सारे यज्ञ, तीर्थ और व्रतों को रख दिया जाय, दूसरी ओर दूसरे पलड़े पर कुलधर्म हीं केवल रखा जाय, तो यह निश्चय है कि सन्तुलन का दण्ड कुलधर्म की ओर हीं झुका रह जायेगा।

योगी चेन्नैव भोगी स्याद् भोगी चेन्नैव योगवित्।

भोगयोगात्मकं कौलं तस्मात् सर्वाधिकं प्रिये।।

   योग की साधना मेॆ प्रवृत्त मुमुक्षु साधक भोगी नहीं हो सकता। इसी तरह भोग में लिप्त व्यक्ति योगी नहीं हो सकता। प्रिये! इस कुलधर्म की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह कौलधर्म भोग-योगात्मक धर्म-दर्शन है। यह विशेषता अन्य किसी धर्म में नहीं।

शंकराचार्य यह भी कहते हैं कि शक्ति के पलक बन्द करते ही समस्त ब्रह्माण्ड प्रलय से नष्ट हो जाता है तथा उनके पलक खोलते ही ब्रह्माण्ड पुनः अस्तित्व में आ जाता है-‘‘निमेषोन्मेषाभ्यां प्रलयमुदयं याति जगती। ’

6. कौल मार्ग के अनुसार - लय का भी जो विलय करती है, अर्थात जो पुनः सृष्टि करती हैं , वे ही काली हैं।"

'कुलं कुंडलिनी शक्तिरकुलस्त  महेश्वरः । 

कुला -कुलस्य तवज्ञः कौल इति अभिधीयते। 

-कुल का अर्थ है कुण्डलिनी शक्ति तथा अकुल का अर्थ है शिव।  जो व्यक्ति योग-विद्या के सहारे कुण्डलिनी का उत्थान कर सहस्रार में स्थित ‘शिव’ के साथ संयोग करा देता है, उसे ही ‘कौल’ कहते हैं। पुनश्च - 'न  कुलं कलमित्याहुः कलं ब्रह्म सनातनम। तत कले निरतो यो हि कौल इत्यभिधीयते।' यह सुनकर बज उठा । यथा -“कलयति भक्षयति प्रलयकाले सर्वम् इति काली” -अर्थात जो प्रलयकाल में सम्पूर्ण सृष्टि को अपना ग्रास बना लेती है, वह ‘काली’ है।

'कलयित इति काली - लयं करोति इति। 

काली -लयस्य विलयं करोति इति काली। ' 

-जो प्रलयकाल मे संपूर्ण सृष्टि को अपना ग्रास बना लेती है, और फिर लय को भी जो विलय करती है , अर्थात जो पुनः सृष्टि करती हैं , वे ही काली हैं।" उस रटन्ती चतुर्दशी की महानिशा में पथिक को सब कुछ कालीमय दिखाई पड़ने लगा ।

      प्रेमिक महाराज की व्याख्या चलने लगी: 'कलयति'-अर्थात शुभ-अशुभ की वृद्धि और क्षय करने वाली हैं - उन्हीं का नाम काली है। अथवा जो इन्द्रजाल के जैसा माया (देश-काल) रचती हैं वे ही काली हैं। 'कलयति ' -क्षययति , जो काल को भी खा लेती है, निगल जाती है -वे काली हैं। काली वह है जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को विलीन कर लेती हैं, और पुनः फिर से प्रकट कर देतीं हैं। शिव (मंगल ) -युक्ता होने से उनको भद्रकाली कहा जाता है। 'भद्रं मंगलं सुखं वा कलयति स्वीकरोति भक्तेभ्योदातुम् इति भद्रकाली सुखप्रदा' -जो अपने भक्तों को देने के लिए ही भद्र सुख या मंगल (शिव) स्वीकार करती है, वह भद्रकाली है। जो रोगों से हमारी रक्षा करती हैं - उन्हें माँ रक्षाकाली कहा जाता है। जब माँ काली अपने निर्भीक भक्त साधक को श्मशान घाट पर सिद्धि प्रदान करती हैं, तब उन्हें माँ श्मशानकाली कहते हैं। जो माँ जगदम्बा ब्रह्म आदि की भी जो जननी हैं - उन्हें नित्यकाली कहते हैं। हमारे साहित्य दर्शन में अर्थ को शिवरूप में एवं वाणी को उनकी शक्तिरूप में स्वीकार किया गया है — 'अर्थ:  शम्भुः शिवा वाणी' — इति । 

[वाणी और अर्थ जैसे पृथक् रूप होते हुए भी एक ही हैं उसी प्रकार पार्वती और शिव कथन मात्र से भिन्न-भिन्न होते हुए भी वस्तुतः एक ही हैं। वाणी और अर्थ सदैव एक दूसरे से सम्पृक्त रहते हैं। वाणी और अर्थ के समान शिव और पार्वती भी अभिन्न हैं। अर्थ शम्भु रूप है तो वाणी शिवा 'रूपार्थ शम्भुः शिवा वाणी' । वाक् और अर्थ दोनों ही पार्वती परमेश्वर रूप में नित्य और एक रूप हैं। एक विचित्र चित्रकर्मा जगत् चित्र के निर्माता हैं तो वाक् और अर्थ एक दूसरे के आश्रित होकर काव्यचित्र का निर्माण करते हैं।

कहा गया है: 

ब्रह्मा- विष्णु- शिवादिनाम्-यस्याः सृष्टि निजेच्छया। 

पुनः प्रलीयते यस्यां नित्यः सा प्रकीर्तिता।  

  🏹🔱🕊नाद -बिन्दु से सृष्टि रचना का वैदिक सिद्धान्त🏹🔱🕊 

 उसके बाद तो प्रेमिक महाराज ने जैसे अपनी अनोखी बातों से पथिक के मन को अपने कब्जे में ले लिया था,  मानो पथिक का जैसे 'मन' ही हरण ही कर लिया हो । जैसे उन्होंने कहा- "हमलोग जिस ब्रह्माण्ड में रहते हैं, उसकी रचना करने के बाद बृद्ध ब्रह्मा को एक बार माता का दर्शन करके, उनसे अपनी सृष्टि प्रक्रिया की सारी बताने की इच्छा हुई।  ब्रह्मा की इच्छा को जानकर इच्छामयी माता ने व्योमकेश (शिव का एक नाम) को परमव्योम में एक नाद मंदिर ^ का निर्माण करने के लिए कहा। और उसी क्षण व्योम-व्योम [बम-बम] नाद करते हुए परमव्योम में एक विशाल नाद-मंदिर स्थापित हो गया। वैसा नाद-मंदिर कहाँ है ?”  बोले, “मैंने उस नाद-मन्दिर को अपने मन में बनाया है।” उन्होंने एक-एक ईंट, एक-एक पत्थर करके धीरे-धीरे कई सालों तक अपने मन में वह मंदिर बनाया था।  और ऐसा मंदिर पत्थरों और ईंटों से बने मंदिर से कहीं अधिक असली होता है। ईश्वर (माँ भवानी) और गुरु भावप्रिय होते हैं, उनकी कृपा से सब कुछ संभव है । 'ब्रह्मव्योम्नो  रभेदःअस्ति चैतन्यं ब्रह्मानोअधिकम्' नाद -मन्दिर के भीतर 'बिन्दु-वासिनी' ब्रह्मचैतन्य स्वरूपिणी  ने महाकाली की मूर्ति धारण की।

[ईश्वर (ब्रह्म) चैतन्य, जीव चैतन्य और साक्षी चैतन्य अलग-अलग अस्तित्व नहीं हैं, बल्कि एक मात्र ब्रह्म चैतन्य की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। ईश्वर चैतन्य (cosmic consciousness ब्रह्मांडीय- चेतना), जीव चैतन्य (individual consciousness -व्यक्तिगत चेतना) और साक्षी चैतन्य (witness consciousness साक्षी चेतना) अलग-अलग अस्तित्व (separate entities) नहीं हैं, बल्कि एकमात्र ब्रह्म चैतन्य (absolute consciousness पूर्ण चेतना-शाश्वत स्पंदन?) की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। ] 

🏹🔱🕊आप किस ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा हैं ?🏹🔱🕊 

      नाद मंदिर में एकादश तोरण हैं : तोरण कहते हैं किसी बड़े भवन, दुर्ग या नगर का वह बाहरी बड़ा द्वार जिसका ऊपरी भाग मंडपाकार हो और प्रायः पताकाओं, मालाओं आदि से सजाया जाता हो।  प्रत्येक तोरण -द्वार पर एक-एक रूद्र को प्रहरी नियुक्त किया गया। सृष्टि कर्ता ब्रह्मा ने प्रहरी से कहा कि जाकर माँ को खबर दो कि 'ब्रह्मा' आपका दर्शन करना चाहते हैं। रूद्रगणों ने मंदिर के भीतर जाकर माँ से पूछकर ब्रह्मा जी को बताया कि माँ ने कहा है -जाकर उससे पहले यह पूछो कि वे किस ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा हैं ?

      सृष्टिकर्ता ने अपने ब्रह्मा होने के अहंकार में फूलकर कहा - 'अरे प्रहरी, ब्रह्माण्ड भला और कितने हो सकते हैं ? 'एक सूर्य के ग्रह, उपग्रह, आदि मिलकर एक ब्रह्माण्ड कहलाता है।'  अरे प्रहरी तुमलोग केवल चौकीदार (watchman) हो, माँ ने मेरे प्रश्न के उत्तर में क्या कहा है , वह तुमलोग क्या समझोगे? तुमलोग पहले मुझे महामाया के पास ले चलो, जब उनसे साक्षात्कार होगा तब मैं स्वयं उनके प्रश्न का उत्तर दूँगा। तब सबसे अंतिम तोरण के रूद्र- प्रहरी ने कहा , 'तथास्तु' - और ब्रह्माजी को ब्रह्ममयी के महल के भीतर ले गया।  नाद-मंदिर के भीतर पहुँचकर  ब्रह्मा जी 'ब्रह्माण्ड-भाण्डोदरी' माता महाकाली के उस अद्भुत विराट शरीर का दर्शन करने लगे - यद रोमे कुहरे कोटि ब्रह्माण्ड आदि विलीयते। ‘है’ और ‘नहीं है’—इन शब्दोंसे कही जानेवाली कोई भी वस्तु ऐसी है क्या, जो आपके भीतर न हो ॥  स्तम्भित -शंकित- प्रजापति देखने लगे - महाकाली के अंग-प्रत्यंग के प्रत्येक रोमकूप में एक-एक ब्रह्माण्ड समाया हुआ है !! और प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक एक ब्रह्मा क्षुद्र मधु-मक्खियों की तरह गुन-गुन ध्वनि करते हुए अपने- अपने ब्रह्माण्ड में विचरण कर रहे हैं। इन ब्रह्माओं में से कोई ब्रह्मा दूसरे ब्रह्मा को नहीं जानते। सभी अपने-अपने सृष्टि-कार्य में लगे हुए हैं। 

     तब ब्रह्मा जी यह खोज करने लगे कि माँ महामाया के  विराट शरीर के किस रोमकूप से वे स्वयं नवागन्तुक (newcomer) हुए हैं ? बहुत खोज के बाद अंत में, माँ ब्रह्ममयी की दया/कृपा से ही ब्रह्मा जी ने आत्म-साक्षात्कार प्राप्त किया। तब वे गदगद स्वर से महाशक्ति की स्तुति करने लगे (जिनकी कृपा से वे माया- देश,काल, निमित्त का अतिक्रमण कर आत्मदर्शन करने सक्षम हुए थे) - " माँ ! माँ ! उ माँ ! क्षमा करो, क्षमा करो माँ ! दर्शन दो माँ ,क्षमा करो अपराध शरण मैं आया हूँ ! अपनी सन्तान के अपराधों को जननी -तुम देखना ही नहीं !

उत्क्षेपणं गर्भगतस्य पादयोः किं कल्पते मातुरधोक्षजागसे ।

किमस्तिनास्तिव्यपदेशभूषितं तवास्ति कुक्षेः कियदप्यनन्तः ॥

(श्रीमद्भागवत १० /१४/ ९-१०-११-१२ )

 वृत्तियों की पकड़ में न आनेवाले परमात्मन् (माँ जगदम्बा) ! जब बच्चा माता के पेट में रहता है, तब अज्ञानवश अपने हाथ-पैर पीटता है; परंतु क्या माता उसे अपराध समझती है या उसके लिये वह कोई अपराध होता है ? यद्यपि मैं एक प्रजापति ब्रह्मा हूँ, तो भी मैं माँ तुम्हारे गर्भ से जन्मा एक बच्चा मात्र हूँ - मैं स्वयं शक्तिहीन हूँ! 

“ब्रह्माणी कुरुते सृष्टि न तु ब्रह्मा कदाचन । 

अतएव महेशानि ब्रह्मा प्रेतो न संशयः ।। 

वास्तव में ब्रह्माणी अर्थात सरस्वती जी सृष्टि निर्माण करती हैं। ब्रह्मा जी का कोई सामर्थ्य नहीं की वे सृष्टि कर सकें क्योंकि ब्रह्मा प्रेत है। देवी सरस्वती कोई सामान्य देवी नहीं हैं वह इस संसार की रचयिता भी हैं, ब्रह्मा जी भी अकेले सृष्टि नहीं कर सकते हैं । तब शंखचक्र-गदा-पद्मधारी विष्णु जी आकर बोले - 

वैष्णवी कुरुते रक्षां न तु विष्णुः कदाचन । 

अतत्रव महेशानि विष्णुः प्रेतो न संशयः ।। 

तब सभी प्रहरी रुद्रदेव हाथ जोड़ कर गाने लगे - 

" रुद्राणी कुरुते ग्रासं न तु रुद्रः कदाचन । 

अतत्रव महेशानि रुद्रः प्रेतो न संशयः ।।”  

 माता च पार्वतीदेवी पितादेवो महेश्वरः ।

 बान्धवा: शिवभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम् ॥ 12 ॥

अर्थ-भगवती पार्वती मेरी माता है, भगवान् महेश्वर मेरे पिता हैं। सभी शिवभक्त मेरे बन्धु - बान्धव हैं और तीनों लोक मेरा अपना ही देश है- यह भावना सदा मेरे मन में बनी रहे। 

इस प्रकार श्रीमत् शंकराचार्यविरचित श्री अन्नपूर्णा स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ। यहाँ प्रेमीक और पथिक के बीच चलने वाला षड्ज संवाद भी समाप्त हुआ।

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🏹🔱🕊प्रेमिक महाराज की सुर-सिद्धि का परिचय🏹🔱🕊 

(Introduction to the musical accomplishment of Premik Maharaj) :

      षड़ज के बाद ऋषभ, गांधार आदि सुर-सप्तक की चर्चा होने लगी। यहाँ प्रेमिक महाराज #की सुर-सिद्धि का परिचय भी प्राप्त होता है। 

[#आन्दुल काली कीर्तन समीति के संस्थापक  'प्रेमीक महाराज' [शाण्डिल्य  गोत्रीय  महेंद्रनाथ भट्टाचार्य (1844 - 1908)]  भट्टाचार्य वंश के पूर्वज तंत्रसाधक श्री भैरवी चरण विद्यासागर (श्री श्री शंकरी-सिद्वेश्वरी माता ठकुरानी मंदिर के संस्थापक) थे । प्रेमिक महाराज की प्रथम गुरु इनकी माता जी थीं , कुछ साल बाद, प्रेमीक ने कुलवधूता पूर्णानंद नाथ से तांत्रिक कुलाचार  परम्परा में उन्नत दीक्षा ली। इसमें शास्त्रीय तांत्रिक ग्रंथों का अध्ययन शामिल था। उन्हें दीक्षा नाम कुलवधूता वशिष्ठानन्दनाथ मिला। उन्होंने भावनात्मक शाक्त भक्ति के जुनून को शास्त्रीय तांत्रिक अध्ययन और दीक्षा के साथ जोड़ा।  प्रेमीक महाराज श्री  रामकृष्ण परमहंस के समकालीन थे, और उन्हें रामकृष्ण के प्रमुख शिष्य विवेकानंद द्वारा गाने के लिए आमंत्रित किया गया था। प्रेमी महाराज  स्वामीजी की माता भुवनेश्वरी देवी के गुरुदेव थे। 'दक्षिण का नवद्वीप' नाम से प्रसिद्द आन्दुल में एक पुराना राजा का महल है जिसमें रोमन शैली के बड़े-बड़े खंभे और एक पुराना प्रांगण है। अंदुल में एक समूह है जो सौ- डेढ़ सौ सालों से काली-कीर्तन कर रहा है: आन्दुल  काली-कीर्तन समिति।  यद्यपि नाम कीर्तन है, यह गीत वास्तव में शास्त्रीय संगीत की ध्रुपद शैली में गाया जाता है। अंदुल कालीकीर्तन समिति लगभग 150 वर्षों से पीढ़ि दर पीढ़ी   तक संगीत की इस शैली को बनाए रख रही है। जैसे कीर्तन में खोल बजाया जाता है, वैसे ही कालीकीर्तन में पख्वाजा और तबले का प्रयोग किया जाता है। परंपरा के अनुसार इस संगीत के प्रदर्शन के दौरान गेरुआ वस्त्र पहना जाता है, गले में रुद्राक्ष की माला पहनी जाती है, सिर पर जटाजूट वाला विग धारण किया जाता है। रामकृष्ण मठ और मिशन के साथ-साथ यह कालीकीर्तन देश के अलग-अलग हिस्सों में किया जा रहा है। प्रेमिक महाराज का संबंध आन्दुल राजवंश के राजा विजय केशव राय से भी था। वे उनके सभा कवि थे। संगीत कला मर्मज्ञों में ध्रुपद गायिकी को आज भी श्रद्धा व सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। बेलूर मठ की स्थापना के बाद, आन्दुल  काली कीर्तन समिति अलग-अलग समय पर वहां संगीत की अपनी विशिष्ट शैली-"ध्रुपद गायन शैली" का प्रदर्शन करती रही है। ध्रुपद गायन शैली में गाये जाने वाले  कालीकीर्तन का उल्लेख  केवल प्रेमिक  महाराज के संगीत में किया गया है और आज भी रामकृष्ण मठ और मिशन में इसका आयोजन जारी है।] 

'मातृ-भक्त बालक' चाहे किसी भी मार्ग से 'आत्मा को देह-मन से पृथक अनुभव करने की साधना' क्यों न कर रहा हो; वह उसी मार्ग से चलते हुए 'मातृ-तत्व' की उपलब्धि कर लेता है। शास्त्रीय संगीत आधारित काली-कीर्तन के माध्यम से भी भक्त माँ का स्मरण करते हुए गाता है - सा-माँ ! 

      अर्थात वही माँ (तारा) ! लेकिन माँ को दूर से पुकारना हो तो कहना होगा - 'रे ' -माँ ! माँ का भक्त अपनी माँ को दूर से पुकार रहा है -रे-माँ! बेटे की पुकार सुनकर जैसे ही माँ उसके नजदीक आ जाती हैं, तब आदरपूर्वक माँ को पुकारते हैं -'गो' माँ ! माँ -गा ! उसके ऊपर माँ के चरणकमल पाने की लालच में गाता है - 'माँ-पा, धा-नि' अर्थात श्रीश्रीमाँ के पदकमल का ध्यानी - अर्थात "माँ-पा'ध्यानी" बेटा बनकर जो बेटा बैठ गया , उसे उठाना अब उनकी जिम्मेदारी है। जिस प्रकार नेति-नेति करते हुए मन का विश्लेषण करने वाला साधक, या  मनःसंयोग का अभ्यास करने वाला (ध्यानी) ध्यान गाढ़ा होने पर समाधि में डूब जाता है , उसी प्रकार माँ के भक्त लिए हम सबों का सुपरिचित सुर-सप्तक 'स-रे-गा-मा-प-धा-नी' एक अद्भुत रूप धारण करता है।  प्रेमिक महाराज ने भी उसी प्रकार सप्त सुरों में 'मातृ-अधिष्ठान की उपलब्धि' (माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी 'विराट मैं'-की अनुभूति) की थी और मातृप्रेम की अनुभूति से उन्मत्त (मतवाले) होकर उनके 'काली-कीर्तन' के स्तोत्रों की रचना की थी । 

      प्रेमिक महाराज द्वारा रचित उन काली -कीर्तन को सुनकर बंगाली साहित्य के गुरु ईश्वरचंद्र विद्यासागर आश्चर्य-चकित हो गए थे। और बंगाल के धर्मवीर, अद्भुत वक्ता, भारत के राष्ट्रीय युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द तो आनन्द से उछल ही पड़ते थे। 


 [उस 'मातृ-साधक प्रेमिक महाराज' से पथिक (आचार्य शिरीषचन्द्र मुखोपाध्याय" श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के पितामह) ने पुनः 
प्रश्न किया -  " माँ के युगलचरण महाकाल के ऊपर क्यों स्थापित हुए थे ? महाकाल क्या हैं? 

 उत्तर - " देखो काल (समय) कितनी तेजी से बीत रहा है। पल को क्षण खा रहा है, क्षण को मिनट खा रहा है, मिनट को घंटा खा रहा है , घंटे को दिन खा रहा है, दिन को पक्ष खा रहा है, पक्ष को महीना खा रहा है। महीने को ऋतू खा रहे हैं। ऋतू को संवतसर खा जाता है। संवतसर को युग खा लेता है। युग को कल्प ग्रास करता है। इन्हीं कल्प-ग्रासी जगत के आधार महाकाल को आसन बनकर देवी कालिका खड़ी हैं। अर्थात वे महाकाल से भी परे महाकाली हैं। इस प्रकार
काली -कल्पना (इन्द्रजाल मन) में काल-लुप्त होने के साथ-साथ स्थान भी लुप्त हो जाता है। इसीलिए लाल जिह्वा से काली स्थान-पान कर रही हैं - यानि स्थान को पी रही हैं। 

{चंद्रमा की गति के अनुसार हिन्दू पंचांग के महीने नियमित होते हैं,  और चंद्रमा की गति के अनुसार 29.5 दिन का एक चंद्रमास होता है। हिन्दू सौर-चंद्र-नक्षत्र पंचांग के अनुसार माह के 30 दिन को चन्द्र कला के आधार पर 15-15 दिन के 2 पक्षों में बांटा गया है- शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। शुक्ल पक्ष के अंतिम दिन को पूर्णिमा कहते हैं और कृष्ण पक्ष के अंतिम दिन को अमावस्या। पंचांग के अनुसार पूर्णिमा माह की 15वीं और शुक्ल पक्ष की अंतिम तिथि है।  जिस दिन चन्द्रमा आकाश में पूर्ण रूप से दिखाई देता है। पंचांग के अनुसार अमावस्या माह की 30वीं और कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि है जिस दिन चन्द्रमा आकाश में दिखाई नहीं देता है।}

#🔱🏹जगत को देखने के लिये मन के पास दो उपकरण : स्थान और समय ! (Two instruments of the mind: space and time! ) : स्थान और काल के द्वारा ही बाह्यजगत का ज्ञान होता है। इस जगत में जो कुछ भी है, वह ईश्वर ही हैं ! इन्हीं मनोमय दो उपकरणों - देश और काल के माध्यम से प्रतिबिंबित होकर हमलोगों को जगत रूप में दृष्टिगोचर होते हैं।

यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र भवेद भवः।
 
तत्र तत्र मनो याति तद्विष्णोः परमं पदं। 

 1.# मन (कल्पना) के दो उपकरण हैं -स्थान और काल (Space and time) जिसके माध्यम से बाह्यजगत का ज्ञान होता है। 

देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि ।

यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र परामृतम् ॥ ३१॥

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयः ।

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ ३२ ॥

॥ सरस्वतीरहस्योपनिषत् ॥ 
 
 ‘उस परमात्म-तत्त्व की ओर दृष्टि जाते ही हृदय की ग्रन्थियाँ टूट जाती हैं, सब संशय मिट जाते हैं और सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।’ - अर्थात् देहाभिमान (जड़देह के साथ तादात्म्य या मैं-पन) सर्वथा मिट जाने पर जब परमात्म-तत्त्व का बोध हो जाता है, तब जहाँ-जहाँ मन जाता है, वहाँ-वहाँ परमात्म-तत्त्व का अनुभव होता है अर्थात् उसकी अखण्ड समाधि (सहज समाधि) रहती है।

🏹🔱🕊 आत्मा और परमात्मा एक है -द्वितीयाद् वै भयं भवति🏹🔱🕊 

 विवेक-सम्पन्न दृष्टि हो जाने पर मिथ्या देहाध्यास (M/F स्त्री-पुरुष शरीर में) 'मैं'-पन का मिथ्या अहं चला जाता है, और पूर्ण का साक्षात्कार होते ही यह अनुभव हो जाता है, कि मैं भी पूर्ण हूँ, क्योंकि अखण्ड चैतन्य का खण्ड नहीं हो सकता।
      शरीर को ही मैं समझना तो केवल भ्रम है, जैसे रज्जु में सर्प का भ्रम हो जाता है। भ्रम से ही कोई पराया दीखता है, अपने से भिन्न दीखता है, और इसी भ्रम से भय होता है।  उपनिषदों में कहा है कि - 'द्वितीयाद् वै भयं भवति' (बृहदारण्यक,उ.1/4/2) जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, सब कुछ आत्मीय है। तत् सृष्ट्वा । तदेवानुप्राविशत् ॥ - (तैत्तिरीयोपनिषत् २-६-६) , तद् ब्रह्म इमं प्रपञ्चं सृष्ट्वा अनन्तरं स्वयमेव इमं प्रपञ्चं प्राविशत् । वह परमात्मा इस संसार की रचना करके, सभी जड-चेतन प्राणियों में प्रवेश कर गया। इसका मतलब है कि,इस हमारे पिण्डभूत शरीर में और इसके बाहर भी सब दृश्यमान जगत् परमात्मा में परमात्मा का और परममात्मभाव से विद्यमान है। अतएव हमें अपने से भिन्न किसी को नहीं मानना चाहिए। 
 जब तक हम जगत के अन्य रिश्ते -नातों को अपने से भिन्न देखते रहते हैं, तब तक नाना प्रकार के सांसारिक आशंकाओं और भयों में ही घिरे रहते हैं। अतः अपने को यह मनुष्य शरीर (M/F) के रूप में देखने के पहले - मित्र-शत्रु भाव रखने वाले - अपने या पराये विभिन्न शरीरों (नम-रूपों) का चिन्तन करते हुए, उन सभी के भीतर भी उसी एक सर्वव्यापक परमात्मा (सच्चिदानन्द स्वरुप ब्रह्म) को देखने या अनुभव करने का अभ्यास करना चाहिए। [लेकिन ठाकुर देव के उपदेशों को - हाथी नारायण , महावत नारायण, कामड़ाबी ना फोंस करबी ! द्वारा आत्मरक्षा करते हुए !] और ऐसा अभ्यास करते-करते सभी में " हरिः ॐ  तत् सत् " ही दीखने लग जायेगा। सारी समस्या का निदान हो गया।
      जब सभी में वही है, तब भय कैसा?और क्यों? यदि सब में (हाथी -महावत दोनों में) नारायण को देखते हुए  सभी से भागवत्सम्बन्ध स्वीकार कर लें, या कभी न कभी किसी जन्म में अपने द्वारा किया हुआ कर्मों का फल समझकर स्वीकार करें , और बदले की भावना या घृणा को मन से बिल्कुल निकाल सकें, तो समझो मानव-जीवन सफल है। नहीं तो भेद दृष्टि से कुछ नहीं मिलेगा। [क्या हम ठाकुर-माँ -स्वामीजी का नाम बताने  वाले गुरुदेव या महामण्डल आन्दोलन के प्रतिष्ठाता मार्गदर्शक नेता जीवनमुक्त शिक्षक - आचार्य (C-IN-C नवनीदा) के शरण में आने के बाद भी] पुनः एक बार यह सर्वश्रेष्ठ मानव-शरीर प्राप्त होने की ईश्वरीयकृपा-करुणा को, हम ठुकराने की मूर्खता कर सकते हैं ? सब छोटे बड़े को,पेड़ पौधे तक को भी भगवत् स्वरूप में प्रणाम करो। अस्तित्व में एकत्व को देखना ही सत्य है, भेद देखना -घृणा करना मनुष्य की दुर्बलता है और यही सारी समस्या की जड़ है।
आत्मा और परमात्मा एक ही है - दो के रहने से ही सारी खुराफात होती है,जब तक साधक की दृष्टि में अन्य (जगत) की सत्ता रहती है, तब तक उसके भीतर संशय और भ्रम बना रहता है। "तत्र को मोहः को शोकः एकत्वम् अनुपश्यतः।"  (ईशोपनिषद् -7) सभी में अपना आत्मस्वरूप वह एक ही परमात्मा (सच्चिदानन्द) देख लेने पर कोई अज्ञान नहीं,कोई दुःख नहीं और कोई भय नहीं। इसीलिये परमात्मद्रष्टा ऋषियों ने इस मन्त्र का दर्शन किया था -“द्वितीयाद् वै भयं भवति”! इस देववाणी - ऋषीवाणी Be and Make को ही  वेदवाणी का सार समझो। मनुष्य जीवन सार्थक होगा - धन्य-धन्य होगा। अन्यथा घृणा और ईर्ष्या, अविद्या, अस्मिता,राग- द्वेष, अभिनिवेश ये पंचक्लेश  तो पूर्व शरीरों की कमाई, और इस जन्म में ठाकुर देव की शरणागति को भी गुड़ गोबर बना देगी। "हरिः शरणम् , नवनीदा शरणम्।"

जब सभी एक हो गए तो डर किसका ? इस भ्रम जनित भय को सदा के लिये हटा देना ही मनुष्य जीवन की श्रेष्ठता है। अपने जीवन को सार्थक करने के लिये जो करना है, वह यह है - 

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।

आत्मैव ह्रात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन: ।।

(गीता ६/५)

[आत्मना = अपने द्वारा; आत्मानम् = अपने आप का (संसार समुद्र से); उद्धरेत् = उद्धार करे (और); आत्मानम् = अपने आत्मा को; न अवसादयेत् = अधोगति में न पहुंचावे; हि = क्योंकि (यह ); आत्मा = जीवात्मा आप; एव=ही (तो ); आत्मन: = अपना; बन्धु: = मित्र है (और ); आत्मा = आप; आत्मन: = अपना; रिपु: = शत्रु है।] 
' उद्धरेत आत्मना आत्मानम ' अपना कल्याण अपने आप ही कीजिये। अर्थात स्वयं के द्वारा ही स्वयं को मन की गुलामी मुक्त कर लीजिये। क्योंकि जब हम मन को अपने वश में ले आते हैं, तो वह हमारा मित्र बन जाता है, और वही मन जब तक वशीभूत नहीं हो जाता हमारा सबसे बड़ा शत्रु बना रहता है। 
       'अहं से वयम तक की यात्रा' मेंअपने हृदय को विशाल , उदार , उच्च और महान बनाने में बाधक बना रहता है। किन्तु वशीभूत मन - अहं भाव को प्रसार कर सबको आत्म-दृष्टि से देखने से जो ह्रदय में प्रेम का सागर उमड़ता है, उस प्रेम का अमृत समस्त संसार पर बिना भेद-भाव के सिंचित करने में समर्थ बना देता है।
मैं क्या केवल एक शरीर हूँ ? 3-'H' में मैं कौन हूँ ? या वास्तव में कहें - तो मैं क्या हूँ ?  मेरे भीतर जो अखण्ड अविनाशी सत्ता है, उसका ज्ञान बहुत आसानी से प्राप्त नहीं होता है। किन्तु उसको पता करने का आत्म-विश्वास हममें अवश्य रहना चाहिये। यह आत्मविश्वास केवल श्रद्धावान मनुष्य में ही होता है। श्रद्धा का अर्थ है -आस्तिक्य- बुद्धि। मेरे भीतर अजर-अमर अविनाशी आत्मा है, इसी दृढ़ विश्वास को श्रद्धा कहते है मन ही मेरा मित्र है बन्धु है, और मन ही मेरा शत्रु भी है। क्योंकि अपरिष्कृत मन में ही अपवित्र विचार, असद संकल्प, असद इच्छायें, कामना-वासना, मोह और लालच का भाव हर समय बना रहता है; जिसके कारण हमारा जीवन पशुओं के समान आहार-निद्रा-भय -मैथुन में ही नष्ट हो जाता है। 
मन का स्वभाव : यह मन स्वभावतः बहुत चंचल है, बन्दर के समान, भोगों की आकांक्षा, लालच, कामना-वासना में बाधा होने से जब भोगों की इच्छा पूर्ण नहीं होती, तो क्रोध और ईर्ष्या रूपी बिच्छू के डंक से और अधिक उछलने लगता है।  फिर उसके उपर एक अहंकार रूपी भूत भी सवार हो जाता हैं। ऐसे मदिरा पीकर उन्मत्त बंदर के समान चंचल मन को वश में करना कितना कठिन है ! बोलिये भगवान श्रीकृष्ण ! 
  
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।

            अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गुह्राते ।।६/३५ ।।

[महाबाहो = हे महाबाहो; असंशयम् =नि: सन्देह; मन: =मन;चलम् = चज्ज्ल; दुर्निग्रहम्-कठिनाई से  से वश में होने वाला है; तु =परन्तु; कौन्तेय = हे कुन्तीपुत्र अर्जुन;अभ्यासेन = अभ्यास अर्थात् स्थिति के लिये बारम्बार यन्त्र करने से; गृह्मते =वश में करता है।]

श्री भगवान बोले- हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है॥ ठीक यही उपाय योगसूत्र में महर्षि पतंजली ने
भी बताया है- 'अभ्यासवैराग्या-भ्याम तन्ननिरोधः।' और यही उपाय श्रीमद्भागवत में भी कहा गया है। मन को वशीभूत करने की की वैज्ञानिक पद्धति का को 'अष्टांग' कहा जाता है।  
इसमें 'शम -दम ' बहुत आवश्यक है. ' यम-नियम ' को " शम " कहा जाता है, तथा अपने मन को इन्द्रियों विषय-भोगों में जाने से खींच कर अपने ह्रदय में किसी तत्वदर्शी महापुरुष या स्वामी विवेकानन्द पर दो बार सुबह-शाम मन को एकाग्र करने के अभ्यास को या प्रत्याहार और धारणा के अभ्यास को- " दम " कहा जाता है।  किन्तु मनोनिग्रह का अभ्यास आसन पर बैठकर ही करना चाहिये, बैठने का सरल आसन है-सुखासन या अर्ध- पद्मासन। किन्तु प्रणायाम नहीं करना;
क्योंकि बिना योग्य गुरु के सानिध्य में प्राणायाम करने से दिमाग बिगड़ जाता है, इसीलिये
स्वामीजी ने चेतावनी दिया है।  नाक से साँस लेने छोड़ने को या प्राणायाम करने को योग
नहीं कहा जाता है।  योग और सर्वश्रेष्ठ योगी को परिभाषित करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं -

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।

           सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत: ।।६/३२ ।।

य: = जो योगी; आत्मौपम्येन =अपनी सादृश्यता से;सर्वत्र =संपूर्ण भूतों में; समम् =सम; पश्चति = देखता है; वा =और; सुखम् = सुख; यदि वा =अथवा; दु:खम् =दु:ख को (भी) (सब में सम देखता है); स: = वह; योगी =योगी; परम: = परम श्रेष्ठ; मत: = माना गया है।

हे अर्जुन! जो योगी समस्त भूतों की तुलना स्वयं से करके समस्त जीवों के सुख-दुःख को अपने
ही सुख-दुःख के ऐसा देखने में समर्थ होते हैं, वही सर्व-श्रेष्ठ योगी है-ऐसा मेरा मत है! इसी को योग कहा जाता है, ऐसा भगवान का मत है !

🏹🔱हमें 'योगी' अर्थात 'नैतिक मनुष्य' क्यों बनना चाहिए ?🔱🏹

[Topic of the seminar : सेमिनार का विषय : स्वामी विवेकानन्द की चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा " का पालन करते हुए हमें नैतिक क्यों बनना चाहिए ? वैदिक प्रार्थना है - 

ॐ असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय । 

मृत्योर्मा अमृतं गमय । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

(– बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28) 

ॐ'- हे ईश्वर! हमें (श्रोता और वक्ता दोनों को) असत्य से सत्य की ओर ले चलो। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो।
  
      वेदान्त- में नैतिक होने के दो कारण कहे गए हैं। एक तो है समस्त अस्तित्व का एकत्व- 'Oneness of all existence', Central idea of Vedanta is Oneness.और दूसरा है - हमारा अन्तर्निहित देवत्व (Inherent Divinity)  -प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है !      हमलोग असत्य (many) से सत्य (Oneness)  की ओर हम जा रहे हैं या नहीं ? कोई बात सत्य है या असत्य, इसका परीक्षण कैसे करें? How to test whether something is true or not ?  सत्य को जांचने  के तीन मानदंड (Three criteria to test the Truth) : स्वामी विवेकानन्द ने सत्य को जाँचने की तीन कसौटी दिये हैं।  
      1. पहली कसौटी समाधि में सत्य का अनुभव : " माया के आवरण से बाहर निकलने का एकमात्र मार्ग है  'सत्य का अनुभव करना।' और यह सत्यानुभव (समाधि) किसे कहते हैं ?  सभी उपनिषद, यही समझाते हैं। (व्यावहारिक जीवन में वेदान्त-8/15-27) जिससे एकत्व (Oneness) की प्राप्ति हो, वही सत्य है। प्रेम सत्य है; घृणा असत्य है, क्योंकि वह अनेकत्व को जन्म देती है।" जो विचार Oneness लाता है, एकत्व की ओर ले जाता है, वह सत्य है। जो बांटता है (जो मनुष्य को मनुष्य से पृथक करती है) वह सत्य नहीं है। तो जो एकत्व की और ले जाता है, वो बात सत्य है और जो भेद सृष्टि करता है -वो सत्य नहीं है, यह बात जान लो !"(Everything that makes for oneness is truth. Love is truth and hatred is false, because hatred makes for multiplicity. It is hatred that separates man from man; therefore it is wrong and false.)
      2.सत्य की दूसरी कसौटी है निःस्वार्थपरता  -Unselfishness is true, निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है, जो स्वार्थ-परता है वह सत्य नहीं है। -The second criterion of truth is unselfishness,  
      3. सत्य की तीसरी कसौटी  - जो शक्तिप्रद है, जो तुमको बल प्रदान करता है,वो सत्य है -उसको लो। जो कुछ भी शक्ति-प्रद है, जो तुमको बल प्रदान करता है,वो सत्य है -उसको ग्रहण करो। और जो तुमको दुर्बल बनाता है, उसको विष की तरह दूर से ही त्याग दो।  Whatever gives you Energy,  whatever gives you strength, that is the truth – take it. And whatever weakens you, avoid it like poison.
तो सत्य (ईश्वर) को जानने के तीन कसौटी हैं - पहली कसौटी एकत्व (Oneness- प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म) है। सत्य की दूसरी कसौटी Unselfishness- जो हमे निःस्वार्थ बनाता है -वो सत्य है। तीसरी कसौटी है -शक्ति। Strength जो शक्तिप्रद या बलप्रद है, वो सत्य है। जो हमें दुर्बल बनाता है, वो असत्य है , उसे विष की तरह दूर से ही त्याग दो। 
     " वेदान्त सबसे पहले मनुष्य को अपने आप पर विश्वास करने के लिए कहता है। जिस प्रकार पुराना धर्म कहता था कि जो व्यक्ति अपने से बाहर किसी सगुण ईश्वर पर विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है, इसी प्रकार वेदान्त भी कहता है कि जो व्यक्ति अपने आप पर विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है। " वेदान्त केवल यही घोषणा नहीं करता कि आदर्श को कार्यान्वित किया जा सकता है, अपितु यह भी कहता है कि आदर्श तो हमलोगों को पहले से ही प्राप्त है। और जिसे हम आदर्श कहते हैं वही हमारी प्रकृत सत्ता है -वही हमलोगों का स्वरुप है। एक शब्द में अद्वैत वेदान्त का उपदेश है -'तत्त्वमसि' - तुम्हीं वह ब्रह्म हो ! (8/5,6,7) 
        🔱अद्वैत वेदान्त की Oneness की उपयोगिता क्या है ?- हर धर्म में एक Common Principle है, जिसको Golden rule कहा जाता है। हर धर्म में है -  यही सुनहरा नियम है -"दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसा आप उनसे अपेक्षा रखते हो।" जो हमारे शास्त्रों में कई जगह कहा गया है। "To treat others as you would have them treat you."  - [पैगम्बर मोहम्मद ने बताया -सच्चा मुसलमान कौन है ? जो इस नियम पर चलता है।]  वेदान्त में ये बात कई जगह में है , आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः । जो सब प्राणी को स्वयं की भाँति (आत्मवत्) देखता है वही पंडित है । उपनिषदों में है, गीता में है- जिसको 'परमयोगी' कहा जाता है (स्वामी विवेकानन्द या C-IN-C नवनीदा जैसा योगी)  वह जगत को कैसे देखता है ? गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं -"आत्मौपम्येन सर्वत्र ": [आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।सुखं वा यदि वा दुःखं सः योगी परमो मतः।।6.32।। ]  Oneness की अनुभूति करके , समाधि से लौटा हुआ योगी  सर्वत्र - सब में, हर किसी में अपने आप को देखता है।यह हमें खुली आँखों से ध्यान करना सिखाता है। 
 
🔱🙏जर्मन दार्शनिक इमानुएल कांट (Immanuel Kant, 1724-1804)  भी ठीक यही बात कहते हैं। पश्चिम में समय (काल) और ब्रह्मांड (देश)  की उत्पत्ति के बारे में मौलिक चिंतन जर्मन दार्शनिक इमानुएल कांट  के दर्शन में प्राप्त होता है।  विशेषकर क्या ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई? अथवा यह हमेशा ऐसा ही था? इमानुएल कांट के लिए यही विवेचना का विषय था। उसको लगता कि समय (काल -मृत्यु) के प्रति लोगों के मन में समाया डर अनेक नैतिक समस्याएं खड़ी कर देता है।  मृत्यु से भयभीत मनुष्य दूसरों को भूलकर केवल अपने स्वार्थ की  चिंता करने लगता है।
        कांट को नैतिकता (100 % निःस्वार्थपरता) केवल मानव की अजर, अमर, अविनाशी   आत्मा में ही विद्यमान दिखती है न की किसी अन्य वस्तु विशेष में। उनका मानना था कि - 'केवल आध्यात्मिक जगत ही सत्य है।' इससे परे तथा इसके पश्चात और कुछ नहीं है। देश और काल वे चश्मे हैं जिनको लगाकर ही हम वस्तुओं या घटनाओं को देख सकते हैं। हमारे व्यावहारिक जगत का दिक -काल से संयुक्त होना अनिवार्य है। परंतु परमार्थ तक देश और काल की गति नहीं है।  यदि यह माना जाए कि किसी बिंदू पर ब्रह्मांड की शुरुआत हुई तो फिर कर्ता ने शुरुआत के लिए अनंतकाल तक प्रतीक्षा क्यों की ? इसको Big Bang कहें या कुछ और, पाश्चात्य विज्ञान को वर्तमान अवस्था तक आने में इतना लंबा समय क्यों लगा? कांट इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि-मन के जो दो यंत्र हैं - स्थान और काल उनको दूर के लिए -पहले मन से ही मोक्ष प्राप्त करना होता है। जब दिखाई देने वाली बाहरी दुनिया मानसिक स्थान और समय के अमूर्त रूप में विलीन हो जाती है। तब मन के उपकरण देश और काल का अतिक्रमण करने पर मनोमोक्ष प्राप्त होता हैं।" देश (खाली स्थान अंतरिक्ष) और समय (काल) से परे जो माता नित्य-काली (परम् सत्य) हैं उनकी खोज या साधना करना ही मन से मोक्ष पाने का यानि मनोमोक्ष का मार्ग है

2. # ब्रह्ममयी का एक नाम 'पाराकाशा' भी है : यस्य सा परमा देवी शक्तिराकाश स्थिता करणे (आकाशस्य)  'शब्द गुणं विदुः।(‘शब्द गुण’ से तात्पर्य किसी काव्य में प्रयुक्त होने वाले उन शब्दों से होता है, जो हमें रस का अनुभव कराते हैं। ) मनु का अर्थ : 'मनुते इति मनुः। ' -होता है-जो भगवान् के नाम, रूप, लीला, धाम का मनन करता है उसे मनु कहते हैं। 

यस्य देवे परा भक्तिः यथा देवे तथा गुरौ ।

तस्यैते कथिताः ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः॥

(श्वेताश्वतर उपनिषद् ६.२३)

जिसके हृदय में 'ईश्वर' के प्रति परम प्रेम तथा परमा भक्ति है तथा वैसी ही 'गुरु' के प्रति भी है, ऐसे 'महात्मा' पुरुष को जब ये महान् विषय बताये जाते हैं, वे स्वतः अपने आन्तर अर्थों को उद्घाटित कर, उस 'महात्मा' के लिए वे स्वतः प्रकाशित हो जाते हैं।

पथिक का प्रश्न - 'जखन ब्रह्माण्ड छिलो ना माँ'गो ! मुण्डमाला कोथाय पेली ? ' - अर्थात माँ ! जब ब्रह्माण्ड ही नहीं था, तब तुमको यह मुण्डमाला कहाँ से  मिल गया ?" पथिक फिर गाने की आड़ लेकर सवाल पूछता है। 

 प्रेमिक महाराज का उत्तर- जब ब्रह्माण्ड नहीं था , तब भी आकाश तो था ही। आकाशस्य शब्द-गुणं विदुः' # ब्रह्ममयी का एक और नाम है - 'पराकाशा' -यस्य सा परमा देवी शक्तिराकाश-संस्थिता । ( ३१.३६ कूर्मपुराणम्-उत्तरभागः/एकत्रिंशत्तमोऽध्यायः) 

[सृष्टि से पहले सत नहीं था,असत भी नहीं,अंतरिक्ष भी नहीं,आकाश भी नहीं था। छिपा था क्या कहां,किसने देखा था उस पल तो अगम,अतल जल भी कहां था ? [ऋग्वेद]

ब्रह्मांड उत्पत्ति (Genesis of Universe ) का जो सिद्धांत वेदों में  है विज्ञान आज उसके नजदिक पहुंच गया है। यहां वेदो के सिद्धांत को समझने का प्रयास करते हैं।

    -अरबों साल पहले ब्रह्मांड नहीं था, ईश्र्वर ने एक  ब्रह्म बिंदु की उत्पत्ति की । फिर वह बिंदु मचलने लगा। फिर उसके अंदर भयानक परिवर्तन आने लगे। इस बिंदु के अंदर ही होने लगे विस्फोट। नाद और बिंदु के मिलन से ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई। नाद अर्थात ध्वनि (Sound)  और बिंदु अर्थात प्रकाश (कम्पन -Light)। इसे अनाहत या अनहद (जो किसी आहत या टकराहट से पैदा नहीं) की ध्वनि कहते हैं जो आज भी सतत जारी है इसी ध्वनि को हिंदुओं ने ॐ के रूप में व्यक्त किया है। ब्रह्म प्रकाश स्वयं प्रकाशित है। परमेश्वर का प्रकाश।

* ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा- यह तीन तत्व हैं। ब्रह्म शब्द ब्रह् धातु से बना है, जिसका अर्थ 'बढ़ना' या 'फूट पड़ना' होता है। ब्रह्म वह है, जिसमें से सम्पूर्ण सृष्टि और आत्माओं की उत्पत्ति हुई है, या जिसमें से ये फूट पड़े हैं। विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का कारण ब्रह्म है।- [उपनिषद]

* जिस तरह मकड़ी स्वयं, स्वयं में से जाले को बुनती है, उसी प्रकार ब्रह्म भी स्वयं में से स्वयं ही विश्व का निर्माण करता है। इसीलिए हिंदुओं ने ईश्वर को अर्धनारीश्वर नटराज के रूप में माना है।

*इसे इस तरह भी समझें 'समुद्र से पानी भाप होकर आकाश मे बादल बनता है, फिर बुंद बनकर बरसता है, फिर अमूक अमूक नदी बनके समुद्र की ओर बहती हैं। जिस तरह समुद्र से उत्पन्न सभी नदियाँ अमुक-अमुक हो जाती हैं । किंतु समुद्र में ही मिलकर वे नदियाँ यह नहीं जानतीं कि 'मैं अमुक नदी हूँ' इसी प्रकार सब प्रजा भी सत् (ब्रह्म) से उत्पन्न होकर यह नहीं जानती कि हम सत् से आए हैं। वे यहाँ सिंह, भेड़िया, वराह, कीट, पतंगा वह जो-जो होते हैं वैसा ही फिर हो जाते हैं। यही अणु रूप वाला आत्मा जगत है।-[छांदोग्य]

*-ब्रह्म और ब्रह्मांड और आत्मा- तीनों ही आज भी मौजूद हैं। सर्वप्रथम ब्रह्म था आज भी ब्रह्म है और अनंत काल तक ब्रह्म ही रहेगा। यह ब्रह्म ही ईश्वर है। यह ब्रह्म संपूर्ण विश्व के भीतर परिपूर्ण हैं तथा इस विश्व के बाहर भी है।

*ब्रह्म ने सृष्टि की रचना नहीं की ब्रह्म की उपस्थिति से सृष्टि की रचना हो गई। यह अनंत काल के अंधकार के बाद अरबों वर्ष के क्रमश: विकास (evolution) का परिणाम है।

* अब सृष्टि की उत्पत्ति और विकास कैसे हुआ यह जानते हैं। ब्रह्म की जगह हम समझने के लिए अत्मा को रख देते हैं। आप पांच तत्वों को तो जानते ही हैं- आकाश, वायु, अग्नि, जल और ग्रह (धरती या सूर्य)। सब सोचते हैं कि सबसे पहले ग्रहों की रचना हुई फिर उसमें जल, अग्नि और वायु की, लेकिन यह सच नहीं है।

*ग्रह या कहें की जड़ जगत की रचना सबसे अंतिम रचना है। तब सबसे पहले क्या उत्पन्न हुआ? जैसे आप सबसे पहले हैं फिर आपका शरीर सबसे अंत में। आपके और शरीर के बीच जो है आप उसे जानें। अग्नि, जल, प्राण और मन। प्राण तो वायु है और मन तो आकाश है। शरीर तो जड़ जगत का हिस्सा है। अर्थात धरती का। जो भी दिखाई दे रहा है वह सब जड़ जगत है।

*नीचे गिरने का अर्थ है जड़ हो जाना और ऊपर उठने का अर्थ है ब्रह्माकाश हो जाना। अब इन पांच तत्वों से बड़कर भी कुछ है क्योंकि सृष्टि रचना में उन्हीं का सबसे बड़ा योगदान रहा है।

अवकाश और आकाश के पूर्व अंधकार :आकाश एक अनुमान है। दिखाई देता है लेकिन पकड़ में नहीं आता। धरती के एक सूत ऊपर से, ऊपर जहां तक नजर जाती है उसे आकाश ही माना जाता है। लेकिन ऊपर अंतरिक्ष भी तो है। आकाश अर्थात वायुमंडल का घेरा। खाली स्थान । जब हम खाली स्थान की बात करते हैं तो वहां अणु का एक कण भी नहीं होना चाहिए, तभी तो उसे खाली स्थान कहेंगे। हमारे आकाश-अंतरिक्ष में तो हजारों अणु-परमाणु घुम रहे हैं। खाली स्थान को अवकाश कहते हैं। अवकाश था तभी आकाश-अंतरिक्ष की उत्पित्ति हुई। अर्थात अवकाश से आकाश बना। अवकाश अर्थात अनंत अंधकार

* ब्रह्म (आत्मा) से आकाश अर्थात जो कारण रूप द्रव्य (ब्रह्माणु) सर्वत्र फैल रहा था उसको इकट्ठा करने से आकाश उत्पन्न हुआ ।

* आत्मा से अवकाश, अवकाश से आकाश और आकाश से वायु की उत्पत्ति हुई। वायु आठ तरह की होती है। सूर्य से धरती तक जो सौर्य तूफान आता है वह किसकी शक्ति से यहां तक आता है? संपूर्ण ब्रह्मांड में वायु का साम्राज्य है, लेकिन हमारी धरती की वायु और अंतरिक्ष की वायु में फर्क है।

*वायु को ब्रह्माण्ड का प्राण और आयु कहा जाता है। जैसे- हमारे शरीर में हमारे बाद मन की सत्ता है। फिर प्राण की और फिर जल, अग्नि और शरीर की। शरीर और हमारे बीच वायु का सेतु है

वायु के पश्चात अग्नि :वायु में ही अग्नि और जल तत्व छुपे हुए रूप में रहते हैं। वायु ठंडी होकर जल बन जाती है गर्म होकर अग्नि का रूप धारण कर लेती है। वायु का वायु से घर्षण होने से अग्नि की उत्पत्ति हुई। अग्नि की उत्पत्ति ब्रह्मांड की सबसे बड़ी घटना थी। वायु जब तेज गति से चलती है तो धरती जैसे ग्रहों को उड़ाने की ताकत रखती है।  लेकिन यहां जिस वायु की बात कही जा रही है वह किसी धरती ग्रह की नहीं अंतरिक्ष में वायु के विराट समुद्री गोले की बात कही जा रही है।

* अग्नि से जल की उत्पत्ति : वायु जब बदल गई विराट अग्नि के गोले में तो उसी में जल तत्व की उत्पत्ति हुई। अंतरिक्ष में आज भी ऐसे समुद्र घुम रहे हैं जिनके पास अपनी कोई धरती नहीं है लेकिन जिनके भीतर धरती बनने की प्रक्रिया चल रही है

* जल से धरती की उत्पत्ति हुई : जलता हुआ जल कहीं जमकर बर्फ बना तो कहीं भयानक अग्नि के कारण काला कार्बन होकर धरती बनता गया कहना चाहिए कि ज्वालामुखी बनकर ठंडा होते गया। अब आप देख भी सकते हैं कि धरती आज भी भीतर से जल रही है और हजारों किलोमिटर तक बर्फ भी जमी है। धरती पर 75 प्रतिशत जल ही तो है। कोई कैसे सोच सकता है कि जल भी जलता होगा या वायु भी जलती होगी?

Origin of life* जीवन की उत्पत्ति :अब यहीं से जीवन की उत्पत्ति की शुरुआत की बात कर सकते हैं कि कैसे बने पेड़, पौधे, फिर जलचर जंतु, फिर उभयचर, फिर नभचर तथा अंत में थलचर जीव-जंतु। आत्मा का नीचे गिरना जड़ (पशु =घोर स्वार्थी) हो जाना है और आत्मा का ऊपर उठना ब्रह्म (100 प्रतिशत निःस्वार्थी) हो जाना है। यह नीचे गिरने और ऊपर उठने की प्रक्रिया अनंत काल से जारी और आज भी चल रही है। 

जब आत्मा जड़ बन गई तो उसने फिर से उठने का प्रयास किया और फिर वह मोटे तौर पर जल में पौधों के रूप में अभिव्यक्त हुई। फिर जलचर के रूप में, फिर उभयचर और फिर थलचर के रूप में। थलचर में भी आत्मा ने मानव के रूप में खुद को अच्छे तरीके से अभिव्यक्त किया। यह क्रमश: हुआ। कैसे? आकाश के पश्चात वायु, वायु के पश्चात अग्नि, अग्नि के पश्चात जल, जल के पश्चात पृथ्वी, पृथ्वी से औषधि, औषधियों से अन्न, अन्न से वीर्य, वीर्य से पुरुष अर्थात शरीर उत्पन्न होता है।- [तैत्तिरीय उपनिषद]

*ब्रह्मांड का मूलक्रम- अनंत-महत्-अंधकार-आकाश-वायु-अग्नि-जल-पृथ्वी। अनंत जिसे आत्मा कहते हैं। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार यह प्रकृति के आठ तत्व हैं। यह ब्रह्मांड अंडाकार है। यह ब्रह्मांड जल या बर्फ और उसके बादलों से घिरा हुआ है। इससे जल से भी दस ‍गुना ज्यादा यह अग्नि तत्व से ‍घिरा हुआ है और इससे भी दस गुना ज्यादा यह वायु से घिरा हुआ माना गया है।

वायु से दस गुना ज्यादा यह आकाश से घिरा हुआ है और यह आकाश जहां तक प्रकाशित होता है, वहां से यह दस गुना ज्यादा तामस अंधकार से घिरा हुआ है। और यह तामस अंधकार भी अपने से दस गुना ज्यादा महत् से घिरा हुआ है और महत् उस एक असीमित, अपरिमेय और अनंत से घिरा है।

उस अनंत से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है और उसी से उसका पालन होता है और अंतत: यह ब्रह्मांड उस अनंत में ही लीन हो जाता है। प्रकृति का ब्रह्म में लय (लीन) हो जाना ही प्रलय है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड ही प्रकृति कही गई है। इसे ही शक्ति (माँ काली भवतारिणी) कहते हैं ।

    आकाशं जायते तस्मात् तस्य शब्दगुणं विदुः । इति मनुः। आकाश का गुण-धर्म शब्द है। शब्द के दो प्रकार हैं - ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक। ध्वनि और वर्ण।  वर्ण पचास हैं। जो अक्षय होने से अक्षर हैं।] 

पथिक का प्रश्न #माँ की मुण्डमाला क्या है ?  

प्रेमिक का उत्तर - अक्षर-माला ही माँ की मुण्डमाला है। ‘अ’ से लेकर ‘क्ष’ तक की वर्ण-माला का ही सांकेतिक नाम ‘मातृका’ है । इसका प्रत्येक अक्षर एक एक मंत्र है, जिसे मंत्र-मातृका कहा जाता है। अक्षर ही क्यों, जितनी भी ध्वनियाँ हैं , वे सब माँ के मंत्र हैं। एक राम प्रसादी गीत में कहा गया है -'यत शोनो कर्णपुटे सबइ मायेर मंत्र बोटे।"

 'श्री श्री माँ भवतारिणी'

मन बोली भजो काली इच्छा होय तोर जे आचारे, 
गुरुदत्त महामन्त्र दिवानिशि जप करे। 

शयने प्रणाम ज्ञान, निद्राय करो माँके ध्यान ,
नगर फेरो मने करो, प्रदिक्षण श्यामा माँ रे।  
  
'यत शोनो कर्णपुटे, सोबई मायेर मंत्र बोटे।
काली पञ्चशत वर्णमयी, वर्णे वर्णे नाम धोरे। 

चर्व्य, चूष्य, लेह्य, और पेय #,  जतो रस ऐ संसारे ,
आहार करो मने करो, आहुति दिई श्यामा माँ रे।  

[ # सुश्रुत ने भोजन के चार मुख्य प्रकार गिनाए हैं: चर्व्य, चूष्य, लेह्य, और पेय। पाचन की दृष्टि से चर्व्य सबसे कम सुपाच्य होते हैं-चना-परवल, मूंगफली चर्व्य हैं। और चूष्य पदार्थ सबसे अधिक सुपाच्य बताए गए हैं। गन्ने का रस जो मिठास का प्रमुख स्त्रोत है, शरबत, फलों के रस पेय पदार्थों में हैं। चटनी-सौंठ-कढ़ी लेह्य पदार्थ है। भोजन में ये सभी प्रकार शामिल करना चाहिए जिससे भोजन से पूर्ण संतुष्टि प्राप्त होती है। संतुष्टि से फिर जंक फ़ूड की तरफ आकर्षण नहीं रहेगा और हम कई परेशानियों से बच जायेंगे। सुश्रुत प्राचीन भारत के महान चिकित्साशास्त्री एवं शल्यचिकित्सक थे। वे आयुर्वेद के महान ग्रन्थ सुश्रुतसंहिता के प्रणेता हैं। ]

শ্রীশ্রীমা ভবতারিণী

মন বলি ভজ কালী ইচ্ছা হয় তোর যে আচারে,
গুরুদত্ত মহামন্ত্র দিবানিশি জপ করে ।
শয়নে প্রণাম জ্ঞান, নিদ্রায় কর মাকে ধ্যান, 
নগর ফের মনে কর প্রদক্ষিণ শ্যামা মারে ।
যত শোন কর্ণপুটে, সবই মায়ের মন্ত্র বটে, 
কালী পঞ্চাশৎবর্ণময়ী বর্ণে বর্ণে নাম ধরে।
চর্বচূষ্য লেহ্য পেয়, যত রস এ সংসারে,
আহার কর মনে কর আহুতি দিই শ্যামা মারে ।

       महाकाली की एक सौ आठ मुंडमालाएं होने की भी कथा हैं। सत्य, त्रेता, द्वापर और  कलि- चार युग की संख्या द्वारा निर्देशित 'चतुर्विंशति-तत्व ' [पञ्महाभूत (five great elements), पंचज्ञानॆन्द्रियाणि ( five organs of perception ) पंचकर्मेन्द्रियाणि (five organs of action ) पंच प्राणाः (five pranas ) मनस्, बुद्धि, चित्त, एवं अहंकार (the four thought modifications) की समष्टि द्वारा इस जगत की रचना हुई है। 
 (मुण्डमाला के पचास मुण्ड पचास मातृकावर्णो को धारण करने के कारण शब्द-ब्रह्म स्वरुपा है। उस शब्द गुण से रजोगुण का टपकना अर्थात सृष्टि का उत्पन्न होना ही, रक्तस्राव है।)
सृष्टि के यह चतुर्विंशति तत्व (24 तत्व) चार युगों में 24/24 को बांटकर 96 हो जाता है। प्रत्येक युग में साक्षी पुरुष हैं और क्रियावती प्रकृति हैं - सबों को जोड़ने 8, और चार युगों के व्यावहारिक सृष्टि रचयिता चतुरानन ब्रह्मा और पातंजलि के मतानुसार ईश्वर (माँ जगदम्बा) - सबों का योग 108 हुआ जो मुण्डमालिनी के चारों युग मिश्रित भाव को सूचित करता है। सांख्य दर्शन के आचार्य कहते हैं -
 
" पञ्चविंशतितत्त्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे वसेत् ।
 
जटी मुण्डी शिखी वापि मुच्यते नात्र संशयः ॥"

[ 25 तत्व —जिसमें एक पुरुष, आठ प्रकृति, सोलह विकार अर्थात् 1. कूटस्थ पुरुष, 2 . प्रकृति, 3. महत्तत्त्व, 4. अहङ्कार, 5. तन्मात्राएँ, शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध-ये आठ प्रकृतियाँ तथा 1. आकाश, 2. वायु, 3. अग्नि, 4. जल, 5. पृथ्वी — ये पाँच महाभूत हैं। हाथ, पैर, जिह्वा, लिङ्ग और गुदा—ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं । श्रवण, त्वक्, चक्षु, रसना और प्राण – ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ । मन उभयेन्द्रिय है । कुल मिलाकर सोलह विकार हैं। इस तरह पचीस तत्त्वादि की संख्या की विशेषता है। अतः इसे सांख्यशास्त्र कहते हैं ॥ ४९ ॥]

     तब यहां यह प्रश्न उठा कि क्या देवी का ऐसा रूप केवल एक दार्शनिक रूपक मात्र है ? क्या वास्तव में वह उनका अपना स्वरुप नहीं है ? आह-हा! ब्रह्ममयी का स्वरुप? - ' के जाने काली केमन ? षड्दर्शन जार ना पाय दर्शन!'  अर्थात " कौन जानता है कि काली कैसी हैं ? षडदर्शन भी उनका दर्शन पाने में असमर्थ हैं। " माँ जगदम्बा का स्वरुप इन चर्म चक्षुओं से अगोचर है, गणित के लिए अगणनीय है, विज्ञान के लिए अविज्ञेय है ! तो फिर हम जैसे साधारण लोगों के लिए उनके दर्शन का उपाय क्या है ? कलौ 'काली-कृपा हि केवलम्!

सर्वत्र भा समा भानोः समा वृष्टिः पयोमुचः। 

 समा कृपा भगवतो दृष्टिः सर्वभूतानु कम्पिनी ॥ १०॥ 

(मुक्तालतावदानम्।)

सूर्य की किरणें सर्वत्र समान रूप से पड़ती हैं; वर्षा का मेघ किसी भी क्षेत्र में फैलकर खाली हो जाता है; उसी प्रकार भगवान की दृष्टि भी, जो सभी प्राणियों के प्रति सक्रिय सहानुभूति रखती है, पूर्णतया निष्पक्ष है।
  जगन्माता काली ने सभी जीवों पर कृपा करने के लिए ही मूर्त रूप [ठाकुर देव और माँ श्री सारदा देवी का रूप ] धारण किया है। "साधकानां हितार्थाय ब्रह्मणो रूप कल्पना। " लेकिन इस रूपकल्पना के कर्ता कौन हैं ? क्या साधुओं और पण्डितों ने इस रूप की कल्पना की थी? 
नहीं ! उपासकानां कार्यार्थं ब्रह्मणो रूपकल्पना' -माँ काली के सर्वमान्य विभिन्न रूपों की कल्पना किसने की है ? क्या किसी एक सन्त ने या कुछ विद्वानों ने मिलजुल कर की थी ? नहीं , " ब्रह्मणः (ब्रह्मणो) रूप कल्पना" यहाँ कर्ता को 'षष्ठी' समझना होगा। यानि ब्रह्म ने स्वयं ही अपने रूपों की रचना की है। क्यों की ? 'साधकानां हितार्थाय' - इसमें व्याकरण का थोड़ा भी पाण्डित्य नहीं है। यही इसका वास्तविक अर्थ है। क्योंकि इसी तथ्य को दूसरे ढंग से कहा गया है - ' साधकानां हितार्थाय अरूपा रूप धारिणी।' अरूपा ने स्वयं वैसे रूपों को धारण किया है, किसी एक सन्त ने या कुछ विद्वानों ने मिलजुल कर नहीं किया है। मृत्यु रूपा 'माँ काली' से भय क्यों ? ' का शंका स्यात् मनीषिणां ?' पूर्ण निःस्वार्थ साधक को शंका कैसी ? ' उपासकानां सिद्धार्थं ' - उपासकों और अपने भक्तों को सिद्धि प्रदान करने के लिए ही अरूपा ब्रह्ममयी ने दया-घन माँ सिद्धेश्वरी, माँ अन्नपूर्णा, गोपाल मूर्ति (आन्दुल) का मूर्त रूप स्वीकार किया है। महाकवि रामप्रसाद ने पुनः कटाक्ष करते हुए कहा था - ब्रह्मनिरुपण की वाणी  क्या केवल उनके दाँतों की हँसी में है? प्रेमीक महाराज ने भी एक स्वरचित काली-कीर्तन के एक पद में गाया है, 'वो सारा गोलमाल सांख्य और पातंजल के समन्वय से दूर हो गया है।' ~ " ओ सब सांख्य पतंजले, सेरे गेछे गोलमाले। " 
>>>पथिक - काली रूप में उनके चरणों को छूते हुए जो काले घुंघराले लम्बे  बाल दिखाई देते हैं , आप उसकी व्याख्या कैसे करेंगे?  

प्रेमीक - इसकी व्याख्या क्या मैं कर सकता हूँ ? किसी भक्त से मैंने इस विषय पर एक सुन्दर उद्धरण सुना था।  व्योम-दिगन्त-व्यापिनी मुक्तवेणी , उनके चरणों को क्यों छू रही है ? उत्तर में उस कालीभक्त भक्त ने कहा था  -वे उस घटना की प्रतीक हैं जब तैंतीस करोड़ देवता आकर उनके चरणों में गिरकर उनका वन्दन करने लगे -देववृन्द शिरोरत्न निघृष्ट चारणाम्बुजे ! तब उनके सिर के बालों ने सोचा- हम क्यों पीछे रहें? और वे माँ के चरणों को छूकर खुशी से उछल-उछल कर आनन्द में झूमने लगे।

अनुग्रहाय भूतानां गृहीत दिव्य विग्रहे! 

भक्तस्य मे नित्य पूजा युक्तस्य परमेश्वरि ||

( किङ्किणी स्तोत्रं, ५ |)

माँ के भक्त लोगों को माँ के सगुन-साकार रूप की ऐसी अनुभूति होती है, यहाँ तर्क का कोई स्थान नहीं है।    
 श्रीरामपूर्वतापनीय उपनिषद (१/७) में कहा गया है– चिन्मयस्याद्वितीयस्य निष्कलस्याशरीरिण: ।"ब्रह्म चिन्मय ,अद्वैत,निष्कल और अशरीर है । उपासकों की प्रयोजन-सिद्धि के लिए निर्गुण, निरा- कार ब्रह्म अपनी माया शक्ति से निज भक्तों के लिये अपनी इच्छा के अनुसार नाना रूप धारण करते हैं। क्योंकि वे पूर्ण स्वतन्त्र हैं। जिन्हें मायाधीश, मायापति आदि नामों से जाना जाता है। यह सृष्टि ब्रह्मानन्द की विलास दशा है। उपासना केवल सगुण ब्रह्म की ही हो सकती है। क्योंकि जब तक द्वैत भाव है तभी तक उपासना सम्भव है।- अर्थात साधकों के मंगल के लिये रुपातीता ने रूप धारण कर लिया, और निराकार से साकार हो गयीं हैं। 
  [http://vivek-anjan.blogspot.com/2018/03/blog-post_8.html/ गुरुवार, 8 मार्च 2018]  

प्रश्न - फिर माँ काली के त्रिनयन क्या हैं বাংলা পেজ- 6/बंगला पेज-6 

उत्तर - वह भी काल का नियामक है। रामप्रसाद ? ने अपने गाने में इसे क्या कहा है, सुनो  -सप्तहेति सप्तपेति सप्तविंशपति -नयना।  [सप्तविंशति = सत्ताइस की संख्या या अंक ।सप्तविंशति -नयना  (श्रीः सप्तविंशति रहस्यम्) सप्तविंशति रहस्यम्’ में तीन बटुक भैरवों के नाम तथा मंत्रों का वर्णन मिलता है। इनके नाम है-स्कंद, चित्र तथा विरंचि । ‘रूद्रयामल तंत्र’ में चैसठ भैरवों का वर्णन है, जबकि काली आदि दश महाविद्याओं के पृथक्-पृथक् दस भैरव है।]
पथिक - इसका अर्थ क्या हुआ ? 
  उत्तर -  इसका तात्पर्य अग्नि से समझना होगा, 'सप्तहेति' -अग्नि: परिभाषा - पुराणों में वर्णित अग्निदेव की जिह्वा जो सात मानी गई हैं। वाक्य में प्रयोग - काली ,कराली ,मनोजवा, लोहिता, धूम्रपर्णा, स्फुलिंगिनी और विश्वरूपी ये सात अग्नि-जिह्वाएँ हैं । सात प्रकार की अग्नि काली के एक नयन में जल रही हैं। जातक के शिशु-सदन या दाई -घर में जो अग्नि रक्षा करती है, वही अग्नि उसके अंतिम समय में उसके शरीर का दहन करेगी -[ऐसे प्रथा पहले थी। ] इसका तात्पर्य यह हुआ कि अग्नि जातक मनुष्य के जन्मकुण्डली में उसके जीवन प्रत्याशा (life expectancy) परिमापक है।    
'सप्तपेति' - 'सप्तसप्ति अर्थात  जिसके रथ में सात घोड़े हों' का अपभ्रंश है = 'सूर्य' जो कि माँ की एक और आंख है- जो दिन और रात की नियामक है। 'सप्तविंश तारा पति' = चन्द्र, तिथि प्रमाता। - यह देवी के त्रिनेत्रों में एक नेत्र है। तीन नेत्रों से काली काल के ऊपर शासन करती हैं।  

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प्रेमिक पथिक संवाद-2 

" रटन्ति निशा- भ्रमन " 

आचार्य श्रीशचंद्र मुखोपाध्याय 

(Be and Make -महामण्डल आन्दोलन के संस्थापक श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के पितामह)  

🔱🙏शिव और शक्ति अभिन्न हैं🔱🙏

[आत्मा और परमात्मा अविच्छेद्य हैं ! ]

Shiva and Shakti are inseparable

শিব ও শক্তি অবিচ্ছেদ্য      

      अब शिव-शक्ति तत्व को लेकर तर्क उठता है। अद्वैतवाद-प्रधान शक्ति-तंत्र में शिव-शक्ति को अभिन्न माना गया है। उसके अनुसार जैसे 'शिव की शक्ति कहना' ठीक नहीं हैं वैसे ही शिव एवं शक्ति को अलग-अलग समझना भी ठीक नहीं है -वहाँ द्वन्द्व या दो की सत्ता नहीं है -जो शिव हैं वे ही शक्ति हैं। शक्तिहीन शिव शव हैं - प्रमाण देवी-भागवतपुराणम् में कहा गया है -'शिवोऽपि शवतां याति कुण्डलिन्या विवर्जितः।' आगम-ग्रन्थों में से एक 'योगिनीतंत्र' में तो बताया गया है कि शक्तिरहित शिव का तो नाम-धाम भी अस्तित्व में नहीं रह जाता है--- "शक्ति बिना शिवे सुक्ष्मे नाम-धाम न विद्यते।" 

       रामेश्वर की पवित्र कथा का स्मरण करो। श्री राम ने सेतुबंध में 'रामेश्वर' शिवलिंग की स्थापना की और पूजा करते समय उन्होंने 'राम के ईश्वर ' कहकर जैसे ही शिव की स्तुति करने लगे- "रामस्य ईश्वर: स: रामेश्वर:"- मतलब जो श्री राम के ईश्वर हैं वही रामेश्वर हैं। उसी समय पाषाण मूर्ति को भेद कर शिवजी प्रकट हुए और बोले - 'नहीं, मैं राम का ईश्वर 'रामेश्वर' नहीं हूँ। बल्कि 'राम ही जिसके ईश्वर हैं ' "राम ईश्वरो यस्य सः रामेश्वरः" - यानि श्री राम जिसके ईश्वर हैं वही 'रामेश्वर' हैं। इस अर्थ में मैंने अपना नाम 'रामेश्वर' स्वीकार किया है। 

       फिर तो  शिव और राम में समास को लेकर तर्क चलने लगा। यहाँ राम का षष्ठितत्पुरुष-होगा या शिव का बहुब्रीहि समास कहना ठीक होगा ? आदि व्याकरण के शिव-सूत्र जाल के जालिक स्वयं नटराज का ताण्डव नृत्य था, (शिव-सूत्र को संस्कृत व्याकरण का आधार माना जाता है।) इसलिए श्रीराम शिव के तर्क से बाहर नहीं निकल पा रहे थे। तब इस 'समास-कूट' को हल करने के लिए ब्रह्मलोक से ब्रह्माजी को आना पड़ा। ब्रह्माजी ने आकर कहा"यहाँ षष्ठी तत्पुरुष-समास नहीं चलेगा , और बहुब्रीहि समास भी नहीं चलेगा। यहाँ कर्मधारय समास का प्रयोग करना ही ठीक होगा। - रामेश्वर का सही अर्थ मैं करता हूँ- "रामश्चासौ ईश्वरश्च,रामेश्वरः" जो राम हैं वे ही ईश्वर - महेश्वर, शिव हैं ! यथा शिवस्तथा देवी यथा देवी तथा शिवः । नानयोरंतरं विद्याच्चंद्रचन्द्रिकयोरिव ॥ उसी प्रकार यहाँ भी जो (ब्रह्म) 'शिव' है, वही 'शक्ति' भी हैं ,दोनों में कोई अंतर नहीं -अद्वय है, दोनों अभिन्न हैं जैसे - 'चंद्र-चंद्रिका' ! (#2 "नानयोरंतरं विद्याच्चंद्रच- न्द्रिकयोरिव' जैसे चाँद और चाँदनी अभिन्न हैआद्या सैका परा शक्तिश्चिन्मयी शिवसंश्रया ॥ 

     उदाहरण के लिये चना (छोला) में दो दल (दाल)-आलिंगित हैं, एक-दूसरे को हृदय से लगाये हुए हैं, किन्तु स्पष्तः एक ही चना है।  उसी प्रकार -'शिव और शिवा' प्रधान रूप से 'एक' ही तत्व हैं, किन्तु इसी बात को और स्पष्ट रूप से समझने के दो रूपों में प्रतीत होते हैं। और भी अधिक सूक्ष्म न्याय में कहें तो 'कुण्डलीकृत सर्प-और 'चलता हुआ सर्प' - दोनों अलग हैं ऐसी धारणा नहीं होती - दोनों अवस्थाओं में 'सर्प' तो एक ही रहता है। " फिर प्रेमिक जी ने हँसते हुए कहा - अन्त में साँप निकल ही आया ! देखो, ऐसी साधना की रात्रि में 'न्याय' को लेकर माथापच्ची नहीं करनी चाहिए।  

     पथिक ने कहा - " नहीं, इस बार आनुष्ठानिक कर्मकाण्ड को लेकर कुछ प्रश्न हैं।  काली पूजा में, हम देवी-मूर्ति को दक्षिणमुखी देखते हैं, और उपासक उत्तरमुखी होकर उपासना करते हैं। उत्तर-दक्षिण दिशा में क्या कोई विशेष बात है, जो पूर्व-पश्चिम में नहीं मिलती? " 

उत्तर - 'उपासना ' का अर्थ है निकट आना, सानिध्य। उत्तर-दक्षिण दिशा में उपास्य और उपासक के बीच का अन्तर (gap) अपेक्षाकृत कम तो होगा ही। 

पथिक  - 'होगा ही' ! यह कैसी बात है महाशय। 

प्रेमीक - यही तो असली बात है! अन्य बातों #से क्या काम है?

  [# मानलो कि 20 हाथ लंबा बाँस 'पूरब-पश्चिम' दिशा में लम्बा करके सुलाया हुआ है। बांस को उठाकर उत्तर-दक्षिण दिशा में जमीन पर रखने से वह थोड़ा छोटा हो जायेगा। गज (yardstick) को भी उत्तर-दक्षिण दिशा में लम्बा करें तो वह तुरंत ही नगण्य सा छोटा हो जायेगा , इसीलिए बाँस की वह कमी दिखाई नहीं पड़ती है। इस लेख को पढ़ने वाले विज्ञान के छात्र इसे ठीक से समझ पाएंगे। ] 

पथिक अवाक् हो गए।  उसने देखा - और कोई बात कहने से भी बात नहीं बनेगी, तब बोले ओह! माँ को दक्षिण की ओर मुख करके रखा जाता है, क्या इसीलिए उनका नाम दक्षिणाकाली-है?  

प्रेमीक - नहीं! माँ का नाम दक्षिणाकाली केवल इसी कारण से नहीं है। ध्यान से देखोगे तो पता चलेगा कि साधारण महिला का बायां पैर पहले गिरता है- क्योंकि वे वामा हैं ना ? लेकिन माँ काली की प्रतिमा में देखोगे तो उनका दाहिना पैर बायें पैर से कुछ आगे स्थापित हैं। इसका -तात्पर्य यही कि माँ काली कोई साधारण नारी नहीं हैं। दक्षिणाग्र- चरणा माँ काली, असाधरण नारी नृत्यमाना महानारी -मूर्ति। दक्षिण दिशा के स्वामी स्वयं यम हैं, किन्तु माँ काली का नाम सुनते ही वे भी उनके डर से -भाग जाते हैं। 'निर्वाण तंत्र' के अनुसार- 

दक्षिणस्यां दिशि स्थाने संस्थितश्वत खेः सुतः। 

काली नाम्ना पलायेत भीति युक्तः समन्ततः ।।

 अः सा दक्षिणा काली त्रिषु लोकेषु गीयते ।। 

अर्थात् - "काली साधक के द्वारा उच्चरित 'काली' शब्द का श्रवण मात्र करने से ही सूर्य पुत्र "यम" भयभीत होकर पलायन कर जाते हैं। वे काली साधक को नरकगामी नहीं बना सकते, इसी कारण भगवती को 'दक्षिणा काली' कहते हैं।"

दक्षिण दिक् भयहारिणी होने के कारण ही माँ को दक्षिणाकाली कहते हैं। फिर शिव को या महाकाल को वशीभूत करने या प्रकट करने और लीन करने में दक्षिणा या कुशला हैं , इसीलिए नाम हुआ दक्षिणकाली। #

 निर्गुणः पुरुषः काल्या सृज्यते लुप्यते यतः।

अतः सा दक्षिणाकाली त्रिषु लोकेषु गीयते ।। 

~ निर्वाण तंत्र। 

पुरुष: (महाकाल) जो तीनो गुणों से परे हैं, उन्हें भी काली रचती और नष्ट करती हैं। इस असम्भव कार्य को सिद्ध करने में कुशल होने के कारण ये तीनों लोकों में दक्षिणाकाली के नाम से विख्यात हैं। 

 एक बात और गौर करने की है -दक्षिणकाली की मूर्ति में - उन्होंने जो कमरधनी पहन रखी है, वह सब पुरुष-हाथों की पंक्ति है (नर-कर-श्रृंखला) है, और उसमें भी पुरुष के केवल दाहिने हाथ की ही पंक्ति है। मूर्ति बनवाते समय शिल्पकार को यह बात बता देनी चाहिए, ताकि भूल न हो। 

पथिक - अद्भुत हैं आपके शब्द ! 

प्रेमीक - लेकिन तंत्र को परियों की कहानी (fairy tale) मत समझो। हजारों-हजारों वीर साधकों ने इस दक्षिणकाली-साधना में अपने हृदय के सर्वस्वधन यहाँ तक कि अपने प्राणों को भी अर्पित कर दिया है।   

पथिक - इस बार, आखिरी बार - एक बार और मैं सरल शब्दों में, काली-कृष्ण के अभेद तत्व को सुनना चाहता हूँ। लेकिन वह 'कुण्डलीकृत' सर्प न्याय जैसा न हो !

प्रेमिक महाराज , थोड़ा मुस्कुराकर फिर उसे उपाख्यानों में समझाने लगे। " कलौ काली कलौ कृष्णः कलौ गोपालकालिका। " अर्थात कलिकाल (कलयुग) में काली हैं, कलिकाल में गोपाल हैं, और फिर कलिकाल में गोपाल-काली दोनों अभिन्न भी हैं! देवी पुराण के अनुसार ऐसा माना जाता है कि कृष्ण, विष्णु के नहीं बल्कि माँ काली के अवतार थे।  ब्रह्म और शक्ति अभेद हैं; इसिलये कहा गया है काली के साथ कृष्ण अर्थात (अवतार तत्व) को भी समझो। "

 उन्होंने कहा -" कृष्णनगर के जो राजा थे, उनके राज्य में एक धार्मिक परिवार रहता था जिसमे दो सहोदर भाई रहते थे और दोनों ही बड़े भले थे। वे दोनों भाई ईश्वर के बड़े भक्त थे और अपने-अपने इष्टदेव की पूजा अपने-अपने मन्दिरों में किया करते थे। किन्तु उनमे से बड़ा भाई काली भक्त था , और छोटा भाई कृष्णभक्त। पहले के ज़माने में जिस शैली में घर बनाये जाते थे, प्रवेश द्वार से घुसते ही बीच में आँगन था जिसके ओर जिसके एक ओर एक भाई का पूजा -घर, दूसरी ओर दूसरे भाई का पूजा -घर था। बड़े भाई के पूजा-घर में उनकी उपास्या जगन्माता की मूर्ति प्रतिष्ठित थीं, और छोटे भाई के पूजा-घर में नन्ददुलाल -बालगोपाल प्रतिष्ठित थे। 

उनके आँगन में एक आम का गाँछ उग आया, फिर वह थोड़ा बड़ा हो गया उसमे ढेर सारे मंजर भी लगे| किन्तु उसमे आम का टिकोला एक ही लग पाया ! धीरे वह आम बड़ा होने लगा| प्रतिदिन सुबह-सुबह उठ कर दोनों भाई अलग अलग से देखा करते कि आम कितना बड़ा हुआ है? बड़े भाई सोंच रहे हैं- जैसे ही आम और थोड़ा बड़ा हो जायेगा, थोड़ा सा पकते ही इसे तोड़ कर माँ को दूंगा ! और छोटा भाई सोचता है- यह आम जैसे ही थोड़ा और बड़ा होकर पकना शुरू करेगा मैं इसे तोड़ कर गोपाल को दूंगा !  रोज प्रातः काल उठते ही दोनों कि नजर आम पर ही रहती थी। दिन पर दिन बीत रहे थे किन्तु आम अभी तक कच्चा ही था। उस समय एक ऐसा विशेष कार्य सामने आ गया कि यदि दोनों भाई बिजनेस-टूर पर अगर एक साथ परदेश नहीं गए, तो गाँव-घर का मामला ही बिगड़ जायेगा।

      प्रात:काल ही दोनों अपने-अपने इष्ट-देवी (काली) और इष्ट-देव (कृष्ण) को अपनी-अपनी मनोकामना बताकर परदेश यात्रा पर निकल पड़े। परदेश के व्यापार कार्य में एक पक्ष व्यतीत हो गया। व्यापार काम में सफल होकर दोनों भाईयों ने हाँफते हुए घर में प्रवेश किया। परन्तु अँगने में जाकर देखा तो गाँछ पर वह आम था ही नहीं ! बड़े भाई अपने घर में जाकर अपनी धर्मपत्नी से  कहा कि,  " मेरी बड़ी इच्छा थी कि आंगन में जो अकेला आम ऊगा था उसको माँ काली को अर्पित करूँगा। लेकिन मैं कितना अभागा हूँ , कि वैसा कर न सका ! " गृहणी ने हँसते हुए कहा, " तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हो गयी है। कल शाम के समय मैंने देखा कि आम अच्छी तरह से पक गया है; तब मैंने ब्राह्मण -पड़ोसी के लड़के बुलवाकर आम तुड़वा लिया। पहले पूजा-घर में जाकर देखो तो सही , माँ काली के सम्मुख आम निवेदित किया हुआ है।" पति ने उत्साह से भर कर कहा - वाह !  तुम सचमुच मेरी सहधर्मिणी हो - सतिसाध्वी हो ! तुम मेरे मन की बात भी जान जाती हो ! अपने पूजा-घर में जाकर देखते हैं कि माँ काली के वराभय वाले हाथ में वही आम सुशोभित हो रहा है !

इधर छोटे भाई अपने घर में पहुँचकर अपनी स्त्री के मुँह से सुनते हैं कि पडोसी ब्राह्मण के लड़के से आम को बालक-गोपाल को निवेदित किया जा चुका है। तब पतीने उत्साह से भरकर अपनी स्त्री से कहा, इसीको कहते हैं सहधर्मिणी ! तुम अपने पति के मन की बात को भी जान जाती हो। तब उल्लास से भरकर पूजाघर में जाकर देखा तो , उनके लड्डूगोपाल के हाथ में लड्डू की ही तरह आम भी सुशोभित है ! आनन्द से अधीर होकर अपने बड़ेभाई के कमरे में गए और पूरी घटना विस्तार से बता दिए।

     बड़े भाई आश्चर्य से भरकर बोले - ऐसे कैसे हो सकता है ! मैं तो अभी अभी अपने पूजा-घर से लौटा हूँ। माँ काली के हाथ में वही आम सुशोभित हो रहा था। " छोटा भाई बोला - नहीं भैया ! मैं कुछ ही क्षणों पहले वही आम लड्डूगोपाल के हाथ में देखकर तुमको बताने आया हूँ। तब दोनों भाई अत्यन्त विस्मित होकर एक साथ दुबारा पूजाघर में सत्य-असत्य जानने के लिए प्रवेश किये। दोनों ही ईश्वर भक्त हैं ! और ईश्वर (अवतार) तो भक्तवांछा-कल्पतरु हैं,अपने सभी भक्तों की अलग -अलग रूप में  की गयी मनोकामना को भी पूर्ण कर देते हैं। यहाँ दो ईश्वर-भक्त एक साथ मिलकर आ रहे हैं। धड़कते दिल से सोंच रहे हैं - क्या होगा ?.....  अब क्या होगा ? तब जो नहीं होना था, अनहोनी था , वही घटित होता है ! दोनों भाई एक साथ पूजाघर में जाकर देखते हैं कि-" उलंग (উলঙ্গ : निर्वस्त्र -naked) काली -कोले, उलंग (निर्वस्त्र naked) गोपाल दोले!" कृष्ण-माता कात्यायनी बालगोपाल को गोद में लेकर अपने वर वाले हाथ से उनके  मुख में आम खिला रही हैं। पथिक तब गाने लगे -

एमोन शुनि नाई - शुनबो ना हे !

उलंग (निर्वस्त्र) काली कोले , उलंग (निर्वस्त्र) गोपाल दोले ! 

एमोन देखि नाई - देखबो ना हे !

तुमि कौल -बाउल -एक कोरेछ -

दैछ काली कालार समान साज !

जय जय जय प्रेमिक महाराज !!

के देखेछे कोबे -

मुक्तकेशीर युक्त बेनी बेणीमाधवे ! 

एकबार हृद मलंचे गूंजे धेये प्रेमिक अलि ! बसो आज ! 

 जय जय जय प्रेमिक महाराज !! 

[# यह आश्चर्यजनक घटना नवद्वीप में कृष्णानन्द अगमवागीश के गाँव में घटित हुई थी यह लोकप्रसिद्ध है। बड़ेभाई कृष्णानन्द शाक्त थे और छोटे भाई माधवानन्द वैष्णव थे। दोनों भाई का देवद्वन्द के समय उपाय रूप में 'नवद्वीप महिमा' कहकर वर्णित है। ]

इस बीच रटन्ती-निशा # लगभग समाप्त होने को है। [# टंती का अर्थ है मनाया हुआ या प्रिय। इस दिन माँ के रूप में देवी काली की पूजा की जाती है। यह दिव्य भक्तों के लिए एक विशेष अवसर माना जाता है।  आज के दिन  बंगाल में लोग दक्षिणेश्वर काली मंदिर में काली मां की पूजा करते हैं। रटन्ती चतुर्दशी माघ मास के चंद्रमा के कृष्ण पक्ष (अंधेरे चरण) के 14वें दिन मनाई जाती है। ]

           रटन्ती चतुर्द्दशी की रात्रि समाप्त होने को है। ...."तनुप्रकाशेन विचेयतारका-प्रभातकल्पा शशिनेव शर्वरी ॥ (रघुवंशम्-३.२) (A little before morning.-सुबह से थोड़ा पहले.-कालिदास )- "सतारव्योमकाले तु तत्र स्नानं महाफलम् ।"  रटन्ति -चतुर्दशी-स्नान भी  "सतार-व्योमकाले" करना आवश्यक है। प्रेमिक महाराज आसन छोड़कर उठ खड़े हुए। पथिक अंग्रेजी -पाठ्यक्रम में पढ़े थे, फिरभी मानो 'सद्यः -प्राणस्पर्शनी रटन्ति देवी की शक्ति द्वारा अभिभूत होकर उसी विचेय-तारका रजनी को अपूर्व शक्तिमती -मूर्तिमती देखने लगे। और देखते देखते वाल्ट व्हाइटमैन द्वारा  (1855) में रचित कविता “Song of Myself” को -सम्बोधन पूर्वक- (सस्वर-सुर में) गाने लगे -

Press close , bare -bosom's night ! 

Press close magnetic , nourishing night !

" Night of South winds! night of the large few stars ! 

" Still , nodding night !

" Earth of the limpid grey clouds .

brighter and clearer for my sake ! " 

---Walt Whitman . 

(from Strophe 21, "Song of Myself”)

प्रेमीक महाराज ने पथिक का हाथ पकड़ कर कहा- यह सब क्या कह रहे हो? रटन्ति चतुर्दशी तिथि का ऐसा महात्म्य है कि आज नदी के जल में भी एक प्रकार की स्फुरण शक्ति युक्त हो जाती है। विश्वास नहीं होता है ना ? चलो -चलो स्नान करने के लिए चलो। सुनो, सुनो - इस सरस्वती नदी का जल आज कल्लोल करके, पुकारते हुए क्या कह रहा है - "जो अपने को ब्रह्महत्यारा समझता हो और इस पाप से छुटकारा पाना चाहते हो तो मेरे जल में डुबकी लगाने चले आओ !  जो चाण्डाल हो, या पतित हो और पवित्र होना चाहता हो तो अभी तुरंत चले आओ और हमारे जल में डुबकी लगाओ। आज मैं तुमलोगों को भी पवित्र कर दूँगीं ! भविष्य पुराण में  माघ मास में प्रातःकाल स्नान का विशेष महत्व का उल्लेख करके कहा गया है - 

माघमासे रटन्त्यापः किञ्चिदभ्युदिते रवौ ।

ब्रह्मघ्नमपि चण्डालं कं पतन्तं पुनीमहे।। ”

( अभ्युदितः=यस्मिन् सुप्ते सूर्य्य उदेति सः । ) माघ स्नान की अपूर्व महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि माघ मास में जल का यह कहना है की जो सूर्योदय होते ही मुझमें स्नान करता है, उसके ब्रह्महत्या, सुरापान आदि बड़े से बड़े पाप भी हम तत्काल धोकर उसे सर्वथा शुद्ध एवं पवित्र कर डालते हैं।  मान्यता है कि माघ मास में शीतल जल में डुबकी लगाने-नहाने वाले मनुष्य पापमुक्त होकर स्वर्गलोक जाते हैं – “माघे निमग्ना: सलिले सुशीते विमुक्तपापास्त्रिदिवं प्रयान्ति”

पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में माघ मास के स्नान माहत्म्य का वर्णन करते हुए कहा गया है-व्रतैर्दानैस्तपोभिश्च न तथा प्रीयते हरि:। माघमज्जनमात्रेण यथा प्रीणाति केशव:॥प्रीतये वासुदेवस्य सर्वपापापनुक्तये। माघस्नानं प्रकुर्वीत स्वर्ग लाभाय मानव:॥

    अर्थात व्रत, दान और तपस्या से भी भगवान श्रीहरि को उतनी प्रसन्नता नहीं होती, जितनी कि माघ महीने में स्नान मात्र से होती है। इसलिए स्वर्ग लाभ, सभी पापों से मुक्ति और भगवान वासुदेव की प्रीति प्राप्त करने के लिए प्रत्येक मनुष्य को माघ स्नान अवश्य करना चाहिए।

रटन्ती चतुर्दशी को शरीर को पवित्र करने वाले जलराशि की 'रटना वचनों ' का अवश्य श्रवण करो। इसीमें शिव है -कल्याण है !  

[बिश्ववाणी -पत्रिका 27 वां वर्ष, 9 वीं अंक]  

["सॉन्ग ऑफ मायसेल्फ"  वॉल्ट व्हिटमैन द्वारा रचित एक कविता है। वॉल्ट व्हिटमैन एक अमेरिकी कवि थे। उन्हें एक व्यक्तिवादी कवि के रूप में जाना जाता है। कविता पढ़ने के बाद हमें लगता है कि यह कविता किसी विशेष पंथ या सम्प्रदाय से संबंधित नहीं है। यह मानव स्वभाव का चित्रण है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि सॉन्ग ऑफ मायसेल्फ दुनिया में भाईचारे की भावना को दर्शाता है। सभी मनुष्यों में सब कुछ एक जैसा है। उनका खून एक ही रंग का है। वह विविधता में एकता का संदेश देता है। कवि कहता है कि विभिन्न धर्मों के लोगों को हर धर्म के प्रति सम्मान की भावना रखनी चाहिए। इस दुनिया में सब कुछ अस्थायी है। इसलिए हमें खुशी की तलाश में रहने की कोशिश करनी चाहिए। खुशी की तलाश ही जीवन का उद्देश्य है। इस तरह वह अपने स्वयं के गीत के माध्यम से पूरी मानवता की एकता और भाईचारे का जश्न मनाता है। को श्री अरबिन्द घोष के दर्शन के माध्यम से योग के संश्लेषण में देखा जाता है। अरबिंदो का यह कार्य आध्यात्मिक विकास की एक संपूर्ण प्रणाली का वर्णन करता है।]

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शनिवार, 3 अगस्त 2024

$🔱🕊 🏹 परिच्छेद ~136 श्रीरामकृष्ण तथा कर्मफल 🏹 [ (12 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136] ॐ नमो भगवते सम्बुद्धाय 🏹🔱 Om, I salute the Lord, the awakened. " No One is To Blame "🔱"🏹मैं ही अपना साकार अतीत हूँ ! ("अपने अतीत के अनुरूप मैं एक देहधारी- 'embodied' आत्मा हूँ ! " ) 🔱 जिन्हें पहले काली का पागल पुजारी कहते थे आज उनके पादुका की पूजा होती है🔱 🏹🔱भगवान के नाम का जप करने से बहुत से कर्मपाश कट जाते हैं🏹 🙋देखा जाय तो दूध का धोया कोई नहीं है । 🙋🔱 🏹🔱ईश्वर-कोटि तथा जीव-कोटि का अन्तर 🏹🏹परिवर्तनशील होने के कारण शरीर नश्वर है🏹 🏹जबतक शरीर है माँ जगदम्बा (भारत माता-Mother India) के शरण में रहना पड़ेगा🏹 😇'सब स्वप्नवत् है'-गृहस्थ को ऐसा नहीं कहना चाहिए 😇 🔱🙋पहले कामजयी होना होगा : दृष्टान्त सुनकर ठाकुर देव का रोमांचित होना 🙋🙋जहाँ कोई वासना नहीं है, वहाँ भगवान स्वयं प्रकट होते हैं।🙋 No One is To Blame " " किसी को दोष नहीं दिया जा सकता है " 🙋कारो दोष देखो ना !~ श्री माँ सारदा देवी 🙋 🕊🔱🙏

 🔱🕊 🏹 🙋परिच्छेद १३६~श्रीरामकृष्ण तथा कर्मफल*🔱🕊 🏹 🙋

(१)

 [ (12 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136] 

भक्तों के संग में

श्रीरामकृष्ण काशीपुर के उद्यान-भवन के उसी ऊपरवाले कमरे में बैठे हुए हैं । भीतर शशि और मणि हैं । श्रीरामकृष्ण मणि को इशारे से पंखा झलने के लिए कह रहे हैं । मणि पंखा झलने लगे । शाम के पाँच-छः बजे का समय होगा । सोमवार, शुक्ल अष्टमी, १२ अप्रैल १८८६ उस मुहल्ले में संक्रान्ति का मेला भरा हुआ है । श्रीरामकृष्ण ने एक भक्त को मेले से कुछ चीजें खरीद लाने के लिए भेजा है । भक्त के लौटने पर श्रीरामकृष्ण ने उससे सामान के बारे में पूछा कि वह क्या क्या लाया । 

Monday, April 12, 1886: At about five o'clock in the afternoon Sri Ramakrishna was sitting on the bed in his room in the Cossipore garden house. Sashi and M. were with him. He asked M., by a sign, to fan him. The neighborhood had a fair celebrating the last day of the Bengali year. A devotee, whom Sri Ramakrishna had sent to the fair to buy a few articles, returned. "What have you bought?" the Master asked him.

শ্রীরামকৃষ্ণ কাশীপুরের বাগানে সেই উপরের ঘরে শয্যার উপর বসিয়া আছেন। ঘরে শশী ও মণি। ঠাকুর মণিকে ইশারা করিতেছেন — পাখা করিতে। তিনি পাখা করিতেছেন। বৈকাল বেলা ৫টা-৬টা। সোমবার চড়কসংক্রান্তি, বাসন্তী মহাষ্টমী পূজা। চৈত্র শুক্লাষ্টমী, ৩১শে চৈত্র, ১২ই এপ্রিল, ১৮৮৬। পাড়াতেই চড়ক হইতেছে। ঠাকুর একজন ভক্তকে চড়কের কিছু কিছু জিনিস কিনিতে পাঠাইয়াছিলেন। ভক্তটি ফিরিয়া আসিয়াছেন।শ্রীরামকৃষ্ণ — কি কি আনলি?

भक्त - पाँच पैसे के बताशे, दो पैसे का एक चम्मच और दो पैसे का एक तरकारी काटनेवाला चाकू ।

DEVOTEE: "Candy for five pice, a spoon for two pice, and a vegetable-knife for two pice."

ভক্ত — বাতাসা একপয়সা, বঁটি — দুপয়সা, হাতা — দুপয়সা।

श्रीरामकृष्ण - और कलम बनानेवाला चाकू ?

MASTER: "What about the penknife?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — ছুরি কই?

भक्त - वह दो पैसे में नहीं मिला ।

DEVOTEE: "I couldn't get one for two pice."

ভক্ত — দুপয়সায় দিলে না।

श्रीरामकृष्ण - (जल्दी से)- नहीं, नहीं, जा ले आ ।

MASTER (eagerly): "Go quickly and get one!'

শ্রীরামকৃষ্ণ (ব্যাগ্র হইয়া) — যা যা, ছুরি আন। 

मास्टर नीचे बगीचे में टहल रहे हैं । नरेन्द्र और तारक कलकत्ते से लौटे । वे गिरीश घोष के यहाँ तथा कुछ अन्य जगह भी गये थे ।

M. was pacing the garden. Narendra and Tarak returned from Calcutta. They had visited Girish Ghosh's house and other places.

মাস্টার নিচে বেড়াইতেছেন। নরেন্দ্র ও তারক কলিকাতা হইতে ফিরিলেন। গিরিশ ঘোষের বাড়ি ও অন্যান্য স্থানে গিয়াছিলেন।

तारक - आज तो भोजन बहुत हुआ ।

TARAK: "We have eaten much meat and other heavy stuff today."

তারক — আজ আমরা মাংস-টাংস অনেক খেলুম।

नरेन्द्र - हाँ, हम लोगों का मन बहुत कुछ नीचे आ गया है । आओ, अब हम तपस्या करें ।(मास्टर से) "क्या शरीर और मन की दासता की जाय ? बिलकुल जैसे गुलाम की-सी अवस्था हो रही है, शरीर और मन मानो हमारे नहीं, किसी और के हैं ।"

NARENDRA: "Yes, our minds have come down a great deal. Let us practise tapasya. (To M.) What slavery to body and mind! We are just like coolies — as if this body and mind were not ours but belonged to someone else."

নরেন্দ্র — আজ মন অনেকটা নেমে গেছে। তপস্যা লাগাও।(মাস্টারের প্রতি) — “কি Slavery (দাসত্ব) of body, — of mind! (শরীরের দাসত্ব — মনের দাসত্ব!) ঠিক যেন মুটের অবস্থা! শরীর-মন যেন আমার নয়, আর কারু।”

शाम हो गयी है । ऊपर के कमरे में और अन्य स्थानों में दीये जलाये गये । श्रीरामकृष्ण बिस्तर पर उत्तरास्य बैठे हुए हैं । जगन्माता की चिन्ता कर रहे हैं । कुछ देर बाद फकीर उनके सामने माँ काली अपराध-भंजन स्तव पढ़ने लगे । फकीर बलराम के पुरोहित-वंश के हैं

“प्राग्देहस्थो यदासं तव चरणयुगं नाश्रितो नार्चितोऽहम् ।

तेनाद्येऽकीर्तिवर्गेर्जठरजदहनैर्बाध्यामानो बलिष्ठैः ॥

स्थित्वा जन्मान्तरे नो पुनरिह भविता क्वाश्रयः क्वापि सेवा ।

क्षन्तव्यो मेऽअपराधः प्रकटितरदने कामरूपे कराले ॥" [इत्यादि~ श्रीकालीक्षमाऽपराधस्तोत्रम् ।] 

In the evening lamps were lighted in the house. Sri Ramakrishna sat on his bed, facing the north. He was absorbed in contemplation of the Mother of the Universe. A few minutes later Fakir, who belonged to the priestly family of Balaram, recited the Hymn of Forgiveness addressed to the Divine Mother. 

সন্ধ্যা হইয়াছে; উপরের ঘরে ও অন্যান্য স্থানে আলো জ্বালা হইল। ঠাকুর বিছানায় উত্তরাস্য হইয়া বসিয়া আছেন; জগন্মাতার চিন্তা করিতেছেন। কিয়ৎক্ষণ পরে ফকির ঠাকুরের সম্মুখে অপরাধভঞ্জন স্তব পাঠ করিতেছেন। ফকির বলরামের পুরোহিতবংশীয়।

প্রাগ্‌দেহস্থো যদাসং তব চরণযুগং নাশ্রিতো নার্চিতোঽহং, তেনাদ্যেঽকীর্তিবর্গৈর্জঠরজদহনৈর্বধ্যমানো বলিষ্ঠৈঃ,স্থিত্বা জন্মান্তরে নো পুনরিহ ভবিতা ক্বাশ্রয়ঃ ক্বাপি সেবা,ক্ষন্তব্যে মেঽপরাধঃ প্রকটিতবদনে কামরূপে করালে! ইত্যদি।

कमरे में शशि, मणि तथा दो-एक भक्त और हैं । स्तवपाठ समाप्त हो गया । श्रीरामकृष्ण बड़े भक्ति-भाव से हाथ जोड़कर नमस्कार कर रहे हैं । मणि पंखा झल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण इशारा करके उनसे कह रहे हैं, “एक कूँड़ी (stone cup-कटोरी) ले आना । (यह कहकर कूँड़ी की गढ़न उँगलियों से लकीर खींचकर बता रहे हैं ।) इसमें क्या एक पाव दूध आ जायगा ? पत्थर सफेद हो ।"

M. was fanning Sri Ramakrishna. The Master said to him by signs, "Get a stone cup for me that will hold a quarter of a seer of milk-white stone." He drew the shape of the cup with his finger.

ঘরে শশী, মণি, আরও দু-একটি ভক্ত আছেন। স্তবপাঠ সমাপ্ত হইল। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ অতি ভক্তিভাবে হাতজোড় করিয়া নমস্কার করিতেছেন। মণি পাখা করিতেছেন। ঠাকুর ঈশারা করিয়া তাঁহাকে বলিতেছেন “একটি পাথরবাটি আনবে। (এই বলিয়া পাথরবাটির গঠন অঙ্গুলি দিয়া আঁকিয়া দেখাইলেন।) একপো, অত দুধ ধরবে? সাদা পাথর।”

मणि - जी हाँ ।

श्रीरामकृष्ण : "जब मैं अन्य कटोरी से दूध पीता हूँ तो मुझे मछली की गंध आती है।"

MASTER: "When eating from other cups I get the smell of fish."

শ্রীরামকৃষ্ণ — আর সব বাটিতে ঝোল খেতে আঁষটে লাগে।

(२)

[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

🏹🔱ईश्वर-कोटि तथा जीव-कोटि का अन्तर 🏹🔱

दूसरे दिन मंगलवार है, रामनवमी?, 13 अप्रैल, 1886 (1ला वैशाख) । सुबह का समय है; श्रीरामकृष्ण ऊपरवाले कमरे में छोटे तखत पर बैठे हुए हैं । दिन के आठ-नौ बजे का समय हुआ होगा । मणि रात को यहीं थे । सबेरे गंगा-स्नान करके आये और श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया

राम दत्त भी आज सुबह आ गये हैं, उन्होंने भी श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर आसन ग्रहण किया । राम फूलों की एक माला ले आये हैं, श्रीरामकृष्ण की सेवा में उसका समर्पण कर दिया । अधिकांश भक्त नीचे के कमरे में बैठे हुए हैं, श्रीरामकृष्ण के कमरे में दो ही एक हैं । राम श्रीरामकृष्णदेव से वार्तालाप कर रहे हैं

श्रीरामकृष्ण - (राम से) - किस तरह देख रहे हो ?"

It was about eight o'clock in the morning. M. had spent the night at the garden house. After taking his bath in the Ganges he prostrated himself before Sri Ramakrishna. Ram had just come. He saluted the Master and took a seat. He had brought a garland of flowers, which he offered to the Master. Most of the devotees were downstairs; only one or two were in the Master's room. Sri Ramakrishna was talking to Ram.

MASTER: "How do you find me?"

পরদিন মঙ্গলবার, রামনবমী; ১লা বৈশাখ, ১৩ই এপ্রিল, ১৮৮৬ খ্রীষ্টাব্দ। প্রাতঃকাল, — ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ উপরের ঘরে শয্যায় বসিয়া আছেন। বেলা ৮টা-৯টা হইবে। মণি রাত্রে ছিলেন, প্রাতে গঙ্গা স্নান করিয়া আসিয়া ঠাকুরকে প্রণাম করিতেছেন। রাম (দত্ত) সকালে আসিয়াছেন ও প্রণাম করিয়া উপবেশন করিলেন। রাম ফুলের মালা আনিয়াছেন ও ঠাকুরকে নিবেদন করিলেন। ভক্তেরা অনেকেই নিচে বসিয়া আছেন। দুই-একজন ঠাকুরের ঘরে আছেন। রাম ঠাকুরের সহিত কথা কহিতেছেন

শ্রীরামকৃষ্ণ (রামের প্রতি) — কিরকম দেখছ?

[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

🔱 जिन्हें पहले काली का पागल पुजारी कहते थे आज उनके पादुका की पूजा होती है🔱 

राम - आप में सब कुछ है । अब आपके रोग की चर्चा उठने ही वाली है ।

RAM: "In you one finds everything. Presently there will be a discussion about your illness."

রাম — আপনার সবই আছে। এখনই রোগের সব কথা উঠবে।

श्रीरामकृष्ण जरा मुस्कराये । फिर राम ही से उन्होंने संकेत करके पूछा - "क्या रोग की बात भी उठेगी ?"

The Master smiled and asked Ram by a sign, "Will there really be a discussion about my illness?"

শ্রীরামকৃষ্ণ ঈষৎ হাস্য করিলেন ও সঙ্কেত করিয়া রামকেই জিজ্ঞাসা করিতেছেন — “রোগের কথাও উঠবে?”

श्रीरामकृष्ण के जो जूते हैं, वे अब पैरों में गड़ने लगे हैं । डाक्टर राजेन्द्र दत्त ने पैर की नाप माँगी है - आर्डर देकर वे जूते बनवा देना चाहते हैं । पैर की नाप ली गयी । (इस समय बेलुड़ मठ में इन्हीं पादुकाओं की पूजा हो रही है।) श्रीरामकृष्ण मणि से संकेत से पूछ रहे हैं कि कूँड़ी (सफ़ेद कटोरी ?) कहाँ है ।

Sri Ramakrishna's slippers were not comfortable. Dr. Rajendra Dutta intended to buy a new pair1 and had asked for the measurement of his feet. The measurement was taken

ঠাকুরের চটিজুতা আছে, পায়ে লাগে। ডাক্তার রাজেন্দ্র দত্ত মাপ দিতে বলিয়াছেন, — তিনি ফরমাশ দিয়া আনিবেন। ঠাকুরের পায়ের মাপ লওয়া হইল। এই পাদুকা এখন বেলুড় মঠে পূজা হয়

मणि कलकत्ते से कूँड़ी ले आने के लिए उसी समय उठकर खड़े हो गये । 

Sri Ramakrishna asked M., by a sign, about the stone cup. M. at once stood up. He wanted to go to Calcutta for the cup.

শ্রীরামকৃষ্ণ মণিকে সঙ্কেত করিতেছেন, “কই, পাথরবাটি?” মণি তৎক্ষণাৎ উঠিয়া দাঁড়াইলেন, — কলিকাতায় পাথরবাটি আনিতে যাইবেন।

श्रीरामकृष्ण ने उस समय उन्हें रोका ।

MASTER: "Don't bother about it now."

শ্রীরামকৃষ্ণ বলিতেছেন, “থাক্‌ থাক্‌ এখন।”

मणि - जी नहीं, ये लोग जा रहे हैं, इनके साथ मैं भी चला जाऊँगा ।

M: "Sir, these devotees are going to Calcutta. I will go with them."

মণি — আজ্ঞা না, এঁরা সব যাচ্ছেন, এই সঙ্গেই যাই।

मणि ने जोड़ासाखों की एक दूकान से एक सफेद कूँड़ी (सफ़ेद कटोरी) खरीदी । दोपहर के समय वे काशीपुर लौट आये और श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके कूँड़ी (सफ़ेद कटोरी) उनके सामने रखी ।

M. bought the cup in Calcutta and returned to Cossipore at noon. He saluted the Master and placed the cup near him. 

মণি নূতন বাজারের জোড়াসাঁকোর চৌমাথায় একটি দোকান হইতে একটি সাদা পাথরবাটি কিনিলেন। বেলা দ্বিপ্রহর হইয়াছে, এমন সময়ে কাশীপুরে ফিরিয়া আসিলেন ও ঠাকুরের কাছে আসিয়া প্রণাম করিয়া বাটিটি রাখিলেন।

श्रीरामकृष्ण सफेद कूँड़ी हाथ में लेकर देख रहे हैं । डाक्टर राजेन्द्र दत्त, हाथ में गीता लिए हुए डाक्टर श्रीनाथ, श्रीयुत राखाल हालदार तथा अन्य भी कई सज्जन आये हैं । कमरे में राखाल, शशि आदि कई भक्त हैं । डाक्टरों ने श्रीरामकृष्ण से पीड़ा के सम्बन्ध की कुल बातें सुनीं

Sri Ramakrishna took the cup in his hands and looked at it. Dr. Rajendra Dutta, Dr. Sreenath, Rakhal Haldar, and several others came in. Rakhal, Sashi, and the younger Naren were in the room. The physicians heard the report of the Master's illness. Dr. Sreenath had a copy of the Gita in his hand.

ঠাকুর সাদা বাটিটি হাতে করিয়া দেখিতেছেন। ডাক্তার রাজেন্দ্র দত্ত, গীতাহস্তে শ্রীনাথ ডাক্তার, শ্রীযুক্ত রাখাল হালদার, আরও কয়েজন আসিয়া উপস্থিত হইলেন। ঘরে রাখাল, শশী, ছোট নরেন প্রভৃতি ভক্তেরা আছেন। ডাক্তারেরা ঠাকুরের পীড়া সম্বন্ধে সমস্ত সংবাদ লইলেন।

[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

🏹परिवर्तनशील होने के कारण शरीर नश्वर है🏹  

डाक्टर श्रीनाथ - (मित्रों को ) - सब लोग प्रकृति के अधीन हैं । कर्मफल से किसी का छुटकारा नहीं है । प्रारब्ध है ।

DR. SREENATH (to his friends): "Everything is under the control of Prakriti. Nobody can escape the fruit of past action. This is called prarabdha."

শ্রীনাথ ডাক্তার (বন্ধুদের প্রতি) — সকলেই প্রকৃতির অধীন। কর্মফল কেউ এড়াতে পারে না! প্রারব্ধ!

श्रीरामकृष्ण - क्यों, उनका नाम लेने पर, उनकी चिन्ता करने पर, उनकी शरण में जाने पर, -

MASTER: "Why, if one chants the name of God, meditates on Him, and takes refuge in Him —"

শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন, — তাঁর নাম করলে, তাঁকে চিন্তা করলে, তাঁর শরণাগ্য হলে —

श्रीनाथ - जी, प्रारब्ध कहाँ जायेगा ? - पिछले जन्मों के कर्म ?

DR. SREENATH (to his friends): "But, sir, how can one escape prarabdha, the effect of action performed in previous births?"

শ্রীনাথ — আজ্ঞে, প্রারব্ধ কোথা যাবে? — পূর্ব পূর্ব জন্মের কর্ম।

श्रीरामकृष्ण - कुछ कर्म भोग होता तो है, परन्तु उनके नाम के जप के गुण से बहुत सा कर्मपाश कट जाता है । एक मनुष्य को पिछले जन्म के कर्मों के लिए सात बार अन्धा /काना होना पड़ता, परन्तु उसने गंगास्नान किया । गंगास्नान से मुक्ति होती है । इसलिए उस जन्म के लिए तो वह जैसे का वैसा ही अन्धा बना रहा, परन्तु अगले छः जन्मों के लिए न तो उसे जन्म लेना पड़ा और न अन्धा होना पड़ा।

MASTER: "No doubt a man experiences a little of the effect; but much of it is canceled by the power of God's name. A man was born blind of an eye. This was his punishment for a certain misdeed he had committed in his past birth, and the punishment was to remain with him for six more births. He, however, took a bath in the Ganges, which gives one liberation. This meritorious action could not cure his blindness, but it saved him from his future births."

শ্রীরামকৃষ্ণ — খানিকটা কর্ম ভোগ হয়। কিন্তু তাঁর নামের গুণে অনেক কর্মপাশ কেটে যায়। একজন পূর্বজন্মের কর্মের দরুন সাত জন্ম কানা হত; কিন্তু সে গঙ্গাস্নান করলে। গঙ্গাস্নানে মুক্তি হয়। সে ব্যক্তির চক্ষু যেমন কানা সেইরকমই রইল, কিন্তু আর যে ছজন্ম সেটা হল না।

श्रीनाथ - जी, शास्त्रों में तो है कि कर्मफल से किसी का छुटकारा नहीं हो सकता । डाक्टर श्रीनाथ तर्क करने के लिए तुल गये ।

DR. SREENATH (to his friends): "But, sir, the scriptures say that nobody can escape the fruit of karma."Dr. Sreenath was ready to argue with the Master.

শ্রীনাথ — আজ্ঞে, শাস্ত্রে তো আছে, কর্মফল কারুরই এড়াবার জো নাই। [শ্রীনাথ ডাক্তার তর্ক করিতে উদ্যত।]

[ (12 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136] 

🔱🕊 🏹ईश्वरकोटि से पाप हो ही नहीं सकता🔱🕊 🏹   

श्रीरामकृष्ण - (मणि से) - कहो न जरा, ईश्वर-कोटि और जीव-कोटि में बड़ा अन्तर है । ईश्वर-कोटि कभी पाप नहीं कर सकते - कहो

MASTER (to M.): "Why don't you tell him that there is a great difference between the Isvarakoti and an ordinary man? An Isvarakoti cannot commit sin. Why don't you tell him that?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — বল না, ঈশ্বরকোটির আর জীবকোটির অনেক তফাত। ঈশ্বরকোটির অপরাধ হয় না; বল না।

मणि चुप हैं । वे राखाल से कह रहे हैं - तुम कहो ।

M. remained silent and then said to Rakhal, "You tell him."

মণি চুপ করিয়া আছেন; মণি রাখলাকে বলিতেছেন, “তুমি বল।”

कुछ देर बाद डाक्टर चले गये । श्रीरामकृष्ण श्रीयुत राखाल हालदार के साथ बातचीत कर रहे हैं ।

After a few minutes, the physicians left the room. Sri Ramakrishna was talking to Rakhal Haldar.

কিয়ৎক্ষণ পরে ডাক্তারেরা চলিয়া গেলেন। ঠাকুর শ্রীযুক্ত রাখাল হালদারের সহিত কথা কহিতেছেন।

As long as we are alive, we will have to stay in 

 the shelter of 

Mother Jagadamba (Mother India)!

🏹जबतक शरीर है माँ जगदम्बा (भारत माता-Mother India) के शरण में रहना पड़ेगा🏹  

[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

🔱🕊 🏹'सब स्वप्नवत् है'-गृहस्थ को ऐसा नहीं कहना चाहिए🔱🕊 🏹

हालदार - डाक्टर श्रीनाथ वेदान्तचर्चा किया करता है - योगवाशिष्ठ पढ़ता है ।

HALDAR: "Dr. Sreenath studies Vedanta. He is a student of the Yoga-vasishtha."

হালদার — শ্রীনাথ ডা: বেদান্ত চর্চা করেন — যোগবাশিষ্ঠ পড়েন।

श्रीरामकृष्ण - संसारी होकर 'सब स्वप्नवत् है' यह मत अच्छा नहीं ।

MASTER: "A householder should not hold the view that everything is illusory, like a dream."

শ্রীরামকৃষ্ণ — সংসারী হয়ে, ‘সব স্বপ্নবৎ’ — এ-সব মত ভাল নয়।

एक भक्त - कालिदास नाम का वह जो आदमी है, वह भी वेदान्तचर्चा किया करता है । परन्तु मुकदमेबाजी में घर की लुटिया तक उसने बेच डाली !

Referring to a man named Kalidas, a devotee said, "He too discusses Vedanta, hut he has lost all his money in lawsuits."

একজন ভক্ত — কালিদাস বলে সেই লোকটি — তিনিও বেদান্ত চর্চা করেন; কিন্তু মোকদ্দমা করে সর্বস্বান্ত।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - सब माया भी है और उधर मुकदमेबाजी भी होती है ! (राखाल से) जनाईवाले मुकर्जियों ने पहले बड़ी लम्बी-लम्बी बातें की थी, फिर अन्त में खूब समझ गये । मैं अगर अच्छा रहता तो उनसे कुछ देर और बातचीत करता । क्या 'ज्ञान-ज्ञान' की डींग मारने से ही ज्ञान हो जाता है ? 

MASTER (smiling): "Yes, one proclaims everything to be Maya, and still one goes to court! (To Rakhal) Mukherji of Janai, too, talked big. But at last, he came to his senses. If I were well I should have talked a little more with Dr. Sreenath. Can one obtain jnana just by talking about it?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — সব মায়া — আবার মোকদ্দমা! (রাখালের প্রতি) জনাইয়ের মুখুজ্জে প্রথমে লম্বা লম্বা কথা বলছিল; তারপর শেষকালে বেশ বুঝে গেল! আমি যদি ভাল থাকতুম ওদের সঙ্গে আর খানিকটা কথা কইতাম। জ্ঞান জ্ঞান কি করলেই হয়?

[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

🙋पहले कामजयी होना होगा : दृष्टान्त सुनकर ठाकुर देव का रोमांचित होना 🙋 

हालदार - ज्ञान बहुत देखा है । कुछ भक्ति हो तो जी में जी आये । उस दिन मैं एक बात सोचकर आया था । उसकी आपने मीमांसा कर दी ।

HALDAR: "You are right, sir. I have seen enough of jnana. Now all I need in order to live in the world is a little bhakti. The other day I came to you with a problem on my mind, and you solved it."

হালদার — অনেক জ্ঞান দেখা গেছে। একটু ভক্তি হলে বাঁচি। সেদিন একটা কথা মনে করে এসেছিলাম। তা আপনি মীমাংসা করে দিলেন।

श्रीरामकृष्ण - (आग्रह से) - वह क्या है ?

MASTER (eagerly): "What was it?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (ব্যগ্র হইয়া) — কি কি?

हालदार - जी, यह बच्चा आया तो आपने कहा कि यह जितेन्द्रिय (Complete control over orgasm) है ।

HALDAR: "Sir, when that boy (pointing to the younger Naren) came in, you said he had controlled his passions."

হালদার — আজ্ঞে, এই ছেলেটি এলে বললেন যে — জিতেন্দ্রিয়।

श्रीरामकृष्ण - हाँ, हाँ, उसके (छोटे नरेन्द्र के) भीतर विषयबुद्धि (काम प्रवृत्ति -lust) का लेशमात्र भी नहीं है । वह कहता है, 'मुझे नहीं मालूम कि काम किसे कहते हैं ।'

(मणि से) "हाथ लगाकर देखो, मुझे रोमांच हो रहा है ।" 

MASTER: "Yes, it is true. He is totally unaffected by worldliness. He says he doesn't know what lust is. (To M.) Just feel my body. All the hair is standing on end."

শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ গো, ওর (ছোট নরেনের) ভিতর বিষয়বুদ্ধি আদপে ঢোকে নাই! ও বলে কাম কাকে বলে তা জানি না।(মণির প্রতি) “হাত দিয়ে দেখ আমার রোমাঞ্চ হচ্চে!”

[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

🙋जहाँ कोई वासना नहीं है, वहाँ भगवान स्वयं प्रकट होते हैं।🙋

God is present where there is no desire.

যেখানে কাম নাই সেখানে ঈশ্বর বর্তমান। 

जहाँ काम-प्रवृत्ति (या lust में आसक्ति) बिल्कुल नहीं है-वहीँ भगवान प्रकट होते हैं ! इस शुद्ध अवस्था की याद करके श्रीरामकृष्ण को रोमांच हो रहा है ।

The Master's hair actually stood on end at the thought of a pure mind totally devoid of lust. He always said that God manifests Himself where there is no lust.****

কাম নাই, এই শুদ্ধ অবস্থা মনে করিয়া ঠাকুরের রোমাঞ্চ হইতেছে। যেখানে কাম নাই সেখানে ঈশ্বর বর্তমান। এই কথা মনে করিয়া কি ঠাকুরের ঈশ্বরের উদ্দিপন হইতেছে? * * 

[राखाल हालदार - श्री रामकृष्ण देव की कृपा प्राप्त चिकित्सक। ठाकुर के डॉक्टरों में से एक।बहुबाजार, कलकत्ता के निवासी। राखाल हालदार समय-समय पर काशीपुर में श्रीरामकृष्ण देव  से मिलने जाते थे। ठाकुर उनका मार्गदर्शन करते थे। ]

রাখাল হালদার — শ্রীরামকৃষ্ণের স্নেহধন্য ডাক্তার। নিবাস কলিকাতার বহুবাজারে। ঠাকুরের অন্যতম চিকিৎসক। রাখাল হালদার মাঝে মাঝেই কাশীপুরে ঠাকুরের কাছে যাতায়াত করিতেন। ঠাকুর নানাবিধ উপদেশ দানে তাঁহাকে কৃপা করিয়াছিলেন।]

राखाल हालदार बिदा हो गये । 

Rakhal Haldar took his leave.

রাখাল হালদার বিদায় লইলেন।

[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

 🏹ॐ नमो भगवते सम्बुद्धाय  🏹🔱

Om, I salute the Lord, the awakened.

" No One is To Blame "

 ॐ नमः जागृत प्रभु, तत्त्वमसि !--'वह ब्रह्म तुम्हीं हो। ' 🔱

মদ্‌গুরু শ্রীজগৎ গুরু! 

श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ अब भी बैठे हुए हैं । एक पगली उन्हें देखने के लिए बड़ा उपद्रव मचाया करती है । वह मधुरभाव की उपासना करती है । बगीचे में प्रायः आया करती है । आकर एकाएक श्रीरामकृष्ण के कमरे में घुस आती है, वह ठाकुर देव के प्रति प्रेमिका का भाव रखती है। भक्तगण मारते भी हैं, परन्तु इससे भी वह मौका नहीं चूकती ।

Sri Ramakrishna was seated with the devotees. A crazy woman had been troubling everybody to see the Master. She had assumed toward him the attitude of a lover and often ran into the garden house and burst into the Master's room. She had even been beaten by the devotees; but that did not stop her.

শ্রীরামকৃষ্ণ এখনও ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। পাগলী তাঁহাকে দেখিবার জন্য বড়ই উপদ্রব করে। পাগলীর মধুর ভাব। বাগানে প্রায় আসে ও দৌড়ে দৌড়ে ঠাকুরের ঘরে এসে পড়ে। ভক্তেরা প্রহারও করেন, — কিন্তু তাহাতেও নিবৃত্ত হয় না

शशि - अबकी बार अगर पगली दीख पड़ी तो धक्के मारकर हटा दूँगा ।

SASHI: "If she comes again I shall shove her out of the place!"

শশী — পাগলী এবার এলে ধাক্কা মেরে তাড়াব।

श्रीरामकृष्ण - (करुणापूर्ण स्वर से) - नहीं, नहीं, आयगी तो फिर चली जायगी ।

MASTER (tenderly): "No, no! Let her come and go away."

শ্রীরামকৃষ্ণ (করুণামাখা স্বরে) — না, না। আসবে চলে যাবে।

राखाल - पहले-पहल इनके पास अगर और पाँच आदमी आते थे तो मुझे एक तरह की ईर्ष्या होती थी । उन्होंने कृपा करके अब मुझे समझा दिया है कि वे मेरे भी गुरु हैं और संसार के भी गुरु हैं । वे केवल हमारे लिए थोड़े ही आये हुए हैं ?

RAKHAL: "At the beginning, I too used to feel jealous of others when they visited the Master. But he graciously revealed to me that my guru is also the Guru of the Universe. Has he taken this birth only for a few of us?"

রাখাল — আগে আগে অপর পাঁচজন ওঁর কাছে এলে আমার হিংসে হত। তারপর উনি কৃপা করে আমায় জানিয়ে দিয়েছেন, — মদ্‌গুরু শ্রীজগৎ গুরু! — উনি কি কেবল আমাদের জন্য এসেছেন?

 [ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

" No One is To Blame "

" किसी को दोष नहीं दिया जा सकता है "

🙋कारो दोष देखो ना !~ श्री माँ सारदा देवी 🙋 

" ॐ नमः भगवते सम्बुद्धाय "

'Om Namo Bhagavate Sambuddhay' 

Om, I salute the Lord, the awakened.

ॐ, प्रबुद्धाय भगवन्तं नमामि।

किं वयं सर्वे सिद्धिं प्राप्य तस्य समीपम् आगताः?

Did we all come to him after attaining perfection? 

🏹कोई भी साधक पूर्ण होने के बाद अपने गुरु (आदर्श) के निकट नहीं जाता 🏹 

शशि - माना कि हमारे लिए ही नहीं आये, परन्तु बीमारी के समय आकर उपद्रव मचाना, यह क्या बात है ?

SASHI: "I don't mean that. But why should she trouble him when he is ill? And she is such a nuisance!"

শশী — তা নয় বটে, কিন্তু অসুখের সময় কেন? আর ও-রকম উপদ্রব।

राखाल - उपद्रव तो सभी करते हैं । क्या सभी उनके पास सच्चे भाव से आये हुए हैं ? क्या हम लोगों ने उन्हें कष्ट नहीं दिया ? नरेन्द्र आदि, सब पहले कैसे थे ? - कितना तर्क करते थे ?

RAKHAL: "We all give him trouble. Did we all come to him after attaining perfection? Haven't we caused him suffering? How Narendra and some of the others behaved in the beginning! How they argued with him!"

রাখাল — উপদ্রব সব্বাই করে। সকলেই কি খাঁটি হয়ে ওঁর কাছে এসেছে? ওঁকে আমরা কষ্ট দিই নাই? নরেন্দ্র-টরেন্দ্র আগে কিরকম ছিল, কত তর্ক করত?

 [ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

 🙋देखा जाय तो दूध का धोया कोई नहीं है । 🙋

If you look closely, no one is as innocent as he appears.

यदि त्वं सम्यक् पश्यसि तर्हि क्षीरं प्रक्षालितः कोऽपि नास्ति।

शशि - नरेन्द्र मुख से जो कुछ कहता था, उसे कार्य द्वारा पूरा भी उतार देता था ।

SASHI: 'Whatever Narendra expressed in words he carried out in his actions."

শশী — নরেন্দ্র যা মুখে বলত, কাজেও তা করত।

राखाल - डाक्टर सरकार ने उन्हें न जाने कितनी बातें कही हैं ! - देखा जाय तो दूध का धोया कोई नहीं है ।

 RAKHAL: "How rude Dr. Sarkar has been to him! No one is guiltless if it comes to that."

রাখাল — ডাক্তার সরকার কত কি ওঁকে বলছে! ধরতে গেলে কেহই নির্দোষ নয়।

श्रीरामकृष्ण - (राखाल से सस्नेह) - तू कुछ खायगा ?

MASTER (to Rakhal, tenderly): "Will you eat something?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (রাখালের প্রতি, সস্নেহে) — কিছু খাবি?

राखाल - नहीं, फिर खा लूँगा ।

RAKHAL: "Not now. Later on."

রাখাল — না; — খাবো এখন।

श्रीरामकृष्ण मणि की ओर संकेत कर रहे हैं कि वे आज यहीं प्रसाद पायें ।

Sri Ramakrishna asked M., by a sign, whether he was going to have his meal there.

শ্রীরামকৃষ্ণ মণিকে সঙ্কেত করিতেছেন, তুমি আজ এখানে খাবে?

राखाल - पाइये न, जब वे कह रहे हैं ।

RAKHAL (to M.): "Please take your meal here. He is asking you to."

রাখাল — খান না, উনি বলছেন।

श्रीरामकृष्ण पंचवर्षीय बालक की तरह दिगम्बर होकर भक्तों के बीच में बैठे हुए हैं ठीक इसी समय पगली जीने से ऊपर चढ़कर कमरे के द्वार के पास आकर खड़ी हो गयी

Sri Ramakrishna was seated completely naked. He looked like a five-year-old boy. Just then the crazy woman climbed the stairs and stood near the door.

ঠাকুর পঞ্চম বর্ষীয় বালকের ন্যায় দিগম্বর হইয়া ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন এমন সময়ে পাগলী সিঁড়ি দিয়া উঠিয়া ঘরের দরজার কাছে দাঁড়াইয়াছে।

मणि - (शशि से, धीरे-धीरे) - उसको ठाकुरदेव को नमस्कार करके जाने के लिए कहो, कुछ और कहने की आवश्यकता नहीं है

M. (in a low voice, to Sashi); "Ask her to salute him and go away. Don't make any fuss."

মণি (শশীকে আস্তে আস্তে) — নমস্কার করে যেতে বল, কিছু বলে কাজ নাই। শশী পাগলীকে নামাইয়া দিলেন।

शशि ने पगली [?] को नीचे उतारकर दिया । आज नये वर्ष का पहला दिन है । बहुत सी भक्त स्त्रियाँ आयी हुई हैं । उन्होंने श्रीरामकृष्ण और माताजी को प्रणाम कर आशीर्वाद ग्रहण किया । श्रीयुत बलराम की स्त्री, मणिमोहन की स्त्री, बागबाजार की ब्राह्मणी तथा अन्य बहुत सी स्त्रियाँ आयी हुई हैं ।

Sashi took her downstairs. It was the first day of the Bengali year. Many woman devotees arrived. They saluted Sri Ramakrishna and the Holy Mother. Among them were the wives of Balaram and Manomohan, and the brahmani of Baghbazar. Several of them had brought their children along.

 শশী পাগলীকে নামাইয়া দিলেন। আজ নব বর্ষারম্ভ, মেয়ে ভক্তেরা অনেকে আসিয়াছেন। ঠাকুরকে ও শ্রীশ্রীমাকে প্রণাম করিলেন ও তাঁহাদের আশীর্বাদ লইলেন। শ্রীযুক্ত বলরামের পরিবার, মণিমোহনের পরিবার, বাগবাজারের ব্রাহ্মণী ও অন্যান্য অনেক স্ত্রীলোক ভক্তেরা আসিয়াছেন। কেহ কেহ সন্তানাদি লইয়া আসিয়াছেন।

वे सब की सब श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करने के लिए ऊपरवाले कमरे में गयीं । किसी किसी ने श्रीरामकृष्ण के पादपद्मों में अबीर और पुष्प चढ़ाये । भक्तों की दो लड़कियाँ - नौ-नौ दस-दस साल की - श्रीरामकृष्ण को गाना सुना रही हैं

Some of the women offered flowers at the Master's feet. Two young girls, nine or ten years of age, sang a few songs.

তাঁহারা ঠাকুরকে প্রণাম করিতে উপরের ঘরে আসিলেন। কেহ কেহ ঠাকুরকে পাদপদ্মে পুষ্প ও আবির দিলেন। ভক্তদের দুইটি ৯।১০ বর্ষের মেয়ে ঠাকুরকে গান শুনাইতেছেন:

জুড়াইতে চাই, কোথায় জুড়াই,

        কোথা হতে আসি, কোথা ভেসে যাই।

ফিরে ফিরে আসি, কত কাঁদি হাসি,

        কোথা যাই সদা ভাবি গো তাই ॥

लड़कियों ने दो-तीन गाने सुनाये । 

पहले उन्होंने गाया:

जुड़ाईते चाई, कोथाय जुड़ाई,

कोथा होते आसि, कोथा भेसे जाई।

फिरे फिरे आसि, कोतो काँदी हासी,

कोथा जाई सदा भाबी गो ताई।।

"हम जगत में सुख-शान्ति पाने के लिए छटपटाते हैं, लेकिन अफसोस! वह सुख-चैन कहीं मिलता नहीं है। हम यह नहीं जानते कि हम कहाँ से आते हैं, न ही यह कि हम बहते हुए कहाँ चले जाते हैं। हमें बार-बार मुस्कुराहट और आँसुओं के इस दौर से गुजरना पड़ता है; हम  यह जानने की व्यर्थ लालसा करते हैं कि हमारा मार्ग हमें लक्ष्य तक ले जाता है या नहीं ? तथापि हमें नहीं मालूम कि यह खोखला नाटक हमें खेलना क्यों पड़ता है ?..... 

First they sang: "We moan for rest, alas! but rest can never be found; We know not whence we come, nor where we float away. Time and again we tread this round of smiles and tears; In vain we pine to know whether our pathway leads, And why we play this empty play. . . ."

२. गीत - हरि हरि बोल रे वीणा।

গান   —   হরি হরি বলরে বীণে।

३. गीत -आसछे किशोरी , ओई देखो एलो ; तोर नयन बाँका वंशीधारी। 

वहाँ राधा आती है, और वहाँ अपने कृष्ण को देखती है, उनकी आँखें झुकी हुई हैं और होठों पर बांसुरी है। 

গান  —   ওই আসছে কিশোরী, ওই দেখ এলো;  তোর নয়ন বাঁকা বংশীধারী।

Then: There comes Radha, and there see your Krishna, With arching eyes and the flute at His lips. . . .

4. गीत - दुर्गानाम जपो सदा रसना आमार , दुर्गमे श्रीदुर्गा बीने के कोरे उद्धार ?  

গান   —   দুর্গানাম জপ সদা রসনা আমার,দুর্গমে শ্রীদুর্গা বিনে কে করে উদ্ধার? 

And finally: O tongue, always repeat the name of Mother Durga! Who but your Mother Durga will save you in distress? . . .

श्रीरामकृष्ण ने संकेत द्वारा उन्हें बधाई दी ।-अच्छा है इन्होंने माँ की महिमा का सुन्दर गीत सुनाया है। 

শ্রীরামকৃষ্ণ সঙ্কেত করিয়া বলিতেছেন, “বেশ মা মা বলছে!”

Sri Ramakrishna said by a sign: "That's good! They are singing of the Divine Mother."

ब्राह्मणी का स्वभाव बच्चों जैसा है । श्रीरामकृष्ण हँसकर राखाल की ओर संकेत कर रहे हैं । तात्पर्य यह कि वह उसे भी कुछ गाने के लिए कहे । ब्राह्मणी गा रही हैं -

'हरि खेलबो आज तोमार सने,

एकला पेयेछी तोमाय निधु बने। '   

गीत - अर्थात हे कृष्ण, आज तुम्हारे साथ खेलने को जी चाहता है, आज तुम मधुवन में अकेले मिल गये हो ।....

The brahmani of Baghbazar had the nature of a child. Sri Ramakrishna told Rakhal, by a sign, to ask her to sing. The devotees smiled as the brahmani sang: O Hari, I shall sport with You today; For I have found You alone in the nidhu wood. . . .

ব্রাহ্মণীর ছেলেমান্‌সের স্বভাব। ঠাকুর হাসিয়া রাখালকে ইঙ্গিত করিতেছেন, “ওকে গান গাইতে বল না।” ব্রাহ্মণী গান গাইতেছেন। ভক্তেরা হাসিতেছেন।

‘হরি খেলব আজ তোমার সনে,

        একলা পেয়েছি তোমায় নিধুবনে।’

स्त्रियाँ ऊपरवाले कमरे से नीचे चली आयीं । दिन का पिछला पहर है । श्रीरामकृष्ण के पास मणि तथा दो-एक और भक्त बैठे हुए हैं । नरेन्द्र भी कमरे में आये । श्रीरामकृष्ण ठीक ही कहते हैं कि नरेन्द्र मानो म्यान से तलवार निकालकर घूम रहा है ।

The woman devotees went downstairs. It was afternoon. M. and a few other devotees were seated near the Master. Narendra came in. He looked, as the Master used to say, like an unsheathed sword.

মেয়েরা উপরের ঘর হইতে নিচে চলিয়া গেলেন।বৈকাল বেলা। ঠাকুরের কাছে মণি ও দু-একটি ভক্ত বসিয়া আছেন। নরেন্দ্র ঘরে প্রবেশ করিলেন। শ্রীরামকৃষ্ণ ঠিকই বলেন, নরেন্দ্র যেন খাপখোলা তলোয়ার লইয়া বেড়াইতেছেন।

 [ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

 🏹 🙋संन्यासी के कठिन नियम तथा नरेन्द्र 🏹 🙋

नरेन्द्र श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे । श्रीरामकृष्ण को सुनाकर स्त्रियों के सम्बन्ध में नरेन्द्र बहुत ही विरक्ति-भाव प्रकाशित कर रहे हैं । कहते हैं, 'स्त्रियों के साथ रहकर ईश्वर की प्राप्ति में घोर विघ्न है ।'

Narendra sat down near the Master and within his hearing expressed his utter annoyance with women. He told the devotees what an obstacle women were in the path of God-realization.

নরেন্দ্র আসিয়া ঠাকুরের কাছে বসিলেন। ঠাকুরকে শুনাইয়া নরেন্দ্র মেয়েদের সম্বন্ধে যৎপরোনাস্তি বিরক্তিভাব প্রকাশ করিতেছেন। মেয়েদের সঙ্গ ঈশ্বরলাভের ভয়ানক বিঘ্ন, — বলিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण कुछ कहते नहीं, केवल सुन रहे हैं ।

Sri Ramakrishna made no response. He listened to Narendra.

শ্রীরামকৃষ্ণ কোন কথা কহিতেছেন না, সকলি শুনিতেছেন।

नरेन्द्र फिर कह रहे हैं, 'मैं शान्ति चाहता हूँ, मैं ईश्वर को भी नहीं चाहता ।'

Narendra said again: "I want peace. I do not care even for God."

নরেন্দ্র আবার বলিতেছেন, আমি চাই শান্তি, আমি ইশ্বর পর্যন্ত চাই না। 

श्रीरामकृष्ण एकदृष्टि से नरेन्द्र को देख रहे हैं । मुख में कोई शब्द नहीं है । नरेन्द्र बीच बीच में स्वर के साथ कह रहे हैं, 'सत्यं ज्ञानमनन्तम् ब्रह्म।' (तै० उ० 2।1।1)

Sri Ramakrishna looked at him intently without uttering a word. Now and then Narendra chanted, "Brahman is Truth, Knowledge, the Infinite."

শ্রীরামকৃষ্ণ নরেন্দ্রকে একদৃষ্টে দেখিতেছেন। মুখে কোন কথা নাই। নরেন্দ্র মাঝে মাঝে সুর করিয়া বলিতেছেন — সত্যং জ্ঞানমনন্তম্‌।

रात के आठ बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए हैं । सामने दो-एक भक्त भी बैठे हैं । ऑफिस का काम समाप्त करके सुरेन्द्र श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए आये हैं । हाथ में चार सन्तरे हैं और फूल की दो मालाएँ । सुरेन्द्र एक-एक बार भक्तों की ओर तथा एक-एक बार श्रीरामकृष्ण की ओर देख रहे हैं, और अपने हृदय की सारी बातें कहते जा रहे हैं

It was eight o'clock in the evening. Sri Ramakrishna sat on his bed. A few devotees sat on the floor in front of him. Surendra arrived from his office. He carried in his hands four oranges and two garlands of flowers. Now he looked at the Master and now at the devotees. He unburdened his heart to Sri Ramakrishna.

রাত্রি আটটা। ঠাকুর শয্যাতে বসিয়া আছেন, দু-একটি ভক্তও সম্মুখে বসিয়া। সুরেন্দ্র আফিসের কার্য সারিয়া ঠাকুরকে দেখিতে আসিয়াছেন, হস্তে চারিটি কমলালেবু ও দুইছড়া ফুলের মালা। সুরেন্দ্র ভক্তদের দিকে এক-একবার ও ঠাকুরের দিকে এক-একবার তাকাইতেছেন; আর হৃদয়ের কথা সমস্ত বলিতেছেন।

सुरेन्द्र - (मणि आदि की ओर देखकर) - ऑफिस का कुल काम समाप्त करके आया । मैंने सोचा, दो नावों पर पैर रखकर क्या होगा ? अतएव काम समाप्त करके जाना ही ठीक है । आज एक तो पहला वैशाख है, दूसरे, मंगल का दिन । कालीघाट जाना नहीं हुआ । मैंने सोचा, काली की चिन्ता करके स्वयं ही जो काली बन गये हैं, (और जिसने काली को ठीक से समझ लिया है।') अब चलकर उन्हीं के दर्शन करूँ; इसी से हो जायगा

SURENDRA (looking at M. and the others): "I have come after finishing my office work. I thought, 'What is the good of standing on two boats at the same time?' So I finished my duties first and then came here. Today is the first day of the year; it is also Tuesday, an auspicious day to worship the Divine Mother. But I didn't go to Kalighat. I said to myself, 'It will be enough if I see him who is Kali Herself, and who has rightly understood Kali (घनीभूत भारत माता?) .'

সুরেন্দ্র (মণি প্রভৃতির দিকে তাকাইয়া) — আফিসের কাজ সব সেরে এলাম। ভাবলাম, দুই নৌকায় পা দিয়ে কি হবে, কাজ সেরে আসাই ভাল। আজ ১লা বৈশাখ, আবার মঙ্গলবার; কালীঘাটে যাওয়া হল না। ভাবলাম যিনি কালী — যিনি কালী ঠিক চিনেছেন, তাঁকে দর্শন করলেই হবে

श्रीरामकृष्ण मुस्करा रहे हैं ।

Sri Ramakrishna smiled.

ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ঈষৎ হাস্য করিতেছেন।

सुरेन्द्र - मैंने सुना है, गुरु और साधु के दर्शन करने के लिए कोई जाय तो उसे कुछ फल-फूल लेकर जाना चाहिए । इसीलिए फल-फूल मैं ले आया । (श्रीरामकृष्ण से) आपके लिए यह सब खर्च, - ईश्वर ही मेरा मन जानते हैं । किसी को एक पैसा खर्च करते हुए भी कष्ट होता है, पर कुछ लोग लाखों रुपये बिना किसी हिचकिचाहट के खर्च कर डालते हैं । ईश्वर तो हृदय की भक्ति देखते हैं, तब ग्रहण करते हैं

SURENDRA: "It is said that a man should bring fruit and flowers when visiting his guru or a holy man. So I have brought these. . . . (To the Master) I am spending all this money for you. God alone knows my heart. Some people feel grieved to give away a penny; and there are people who spend a thousand rupees without feeling any hesitation. God sees the inner love of a devotee and accepts his offering."

সুরেন্দ্র — গুরুদর্শনে, সাধুদর্শনে শুনেছি ফুল-ফল নিয়ে আসতে হয়। তাই এগুলি আনলাম। আপনার জন্যে টাকা খরচ, তা ভগবান মন দেখেন। কেউ একটি পয়সা দিতে কাতর, আবার কেউ বা হাজার টাকা খরচ করতে কিছুই বোধ করে না। ভগবান মনের ভক্তি দেখেন তবে গ্রহণ করেন।

श्रीरामकृष्ण सिर हिलाकर संकेत कर रहे हैं कि तुमने ठीक ही कहा । सुरेन्द्र फिर कह रहे हैं – “कल संक्रांन्ति थी, मैं यहाँ तो नहीं आ सका, परन्तु घर में फूलों से आपके चित्र को खूब सुसज्जित किया ।"

Sri Ramakrishna said to Surendra, by a nod, that he was right. SURENDRA: "I couldn't come here yesterday. It was the last day of the year. But I decorated your picture with flowers."

ঠাকুর মাথা নাড়িয়া সঙ্কেত করিয়া বলিতেছেন, “তুমি ঠিক বলছ।” সুরেন্দ্র আবার বলিতেছেন, “কাল আসতে পারি নাই, সংক্রান্তি। আপনার ছবিকে ফুল দিয়ে সাজালুম।”

श्रीरामकृष्ण सुरेन्द्र की भक्ति की बात मणि को संकेत करके सूचित कर रहे हैं ।

Sri Ramakrishna said to M., by a sign, "Ah, what devotion!"

শ্রীরামকৃষ্ণ মণিকে সঙ্কেত করিয়া বলিতেছেন, “আহা কি ভক্তি!”

सुरेन्द्र - आते हुए ये दो मालाएं ले लीं, चार आने की ।

SURENDRA: "As I was coming here I bought these two garlands for four annas."

সুরেন্দ্র — আসছিলাম, এই দুগাছা মালা আনলাম, চার আনা দাম।

अधिकांश भक्त चले गये । श्रीरामकृष्ण मणि से पैरों पर हाथ फेरने और पंखा झलने के लिए कह रहे हैं ।

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