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रविवार, 31 मार्च 2024

🔆🙏 परिच्छेद ~ 89, [(7 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत :-89 ] 🙏माँ सरस्वती स्तुति : वीणा वाद्य-विनोदिनी 🙏 🔆प्रवृत्ति (कर्म योग) से होकर भी निवृत्ति (ज्ञान या भक्ति ?)में स्थित रहना श्रेष्ठ है🔆🔆🙏 परमहंस, बाउल और साईं- हवा (कुण्डलिनी) की खबर जानते हैं ! 🔆🙏Kartabhaja of Ghosh Para*नौकरी की निन्दा* माँ, यहीं से मन को मोड़ दो ! महिमाचरण ~*प्रवृत्ति से निवृत्ति ही बेहतर * ( महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीदा का जन्म इन्हीं के घर, 100 न ० काशीपुर रोड में हुआ था। "बाउल लोग मूर्तिपूजा नहीं करते – जीता-जागता आदमी चाहते हैं । वे लोग सिद्धावस्था को सहज अवस्था कहते हैं । सहज अवस्था के दो लक्षण - (1) " कृष्ण की गन्ध भी न रहेगी " (2) "पद्म पर भौंरा बैठेगा, परन्तु मधुपान न करेगा-जितेन्द्रियता "इसीलिए 'कर्ताभजा' ~ अर्थात् गुरु नेता (C-IN-C) को ईश्वर समझते और इसी भाव से उनकी पूजा करते हैं ।""*बाउल-साधना , the task of "refining the syrup" का अन्त कब होता है* 'भोजन-मंत्र ' ~ स्वयं खाते हो या किसी को खिलाते हो *कामारपुकुर की ' बाउल साधिका-'सरी' के घर ढेरों तुलसी के पौधे लगे थे और दादा के घर के तालाब में दो लाख तुलसी के पौधे उनके प्रमातामही ने लगवाये थे ?*असंख्य मत हैं और असंख्य पथ हैं।* अच्छा, मैं किस मार्ग का हूँ ?* ज्वार-भाटा क्यों होते हैं ? * एक बात देखो, समुद्र के पास ही नदियों में ज्वार-भाटा होते हैं । परन्तु समुद्र से बहुत दूर होने पर उसी नदी में ज्वार-भाटा नहीं होता, बल्कि एक ही ओर बहाव रहता है । इसका क्या अर्थ?* ~किसी किसी को ईश्वरकोटि को महाभाव, प्रेम, यह सब होता है*"मन ! आदरणीया श्यामा माँ को यत्नपूर्वक हृदय में रखना । तू देख और मैं देखूँ, कोई दूसरा उन्हें न देखने पाये ।”*महानिर्वाण तन्त्र (Mahanirvana Tantra ) *जो बिल्कुल निःस्वार्थी है उसका सारा भार ईश्वर लेते हैं - 'अनन्याश्चिन्तयन्तो'*


परिच्छेद ~ 89 

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

 🔆प्रवृत्ति (कर्म योग) से होकर भी निवृत्ति (ज्ञान या भक्ति ?) में स्थित रहना श्रेष्ठ है🔆

(१)

[श्रीरामकृष्ण की आत्मकथा (autobiography) -घोष पाड़ा और कर्ताभजा सम्प्रदाय]  

[শ্রীমুখ-কথিত চরিতামৃত — ঘোষপাড়া ও কর্তাভজাদের মত ]

(7 सितंबर, 1884)

* दक्षिणेश्वर में राम, बाबूराम आदि भक्तों के संग में *

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में, अपने उसी कमरे में छोटी खाट पर भक्तों के साथ बैठे हैं । दिन के ग्यारह बजे होंगे, अभी उन्होंने भोजन नहीं किया ।

कल शनिवार को श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ श्रीयुत अधर सेन के यहाँ गये थे नाम-संकीर्तन के महोत्सव द्वारा भक्तों का जीवन सफल कर आये थे आज यहाँ श्यामदास का कीर्तन होगा । श्रीरामकृष्ण को कीर्तनानन्द में देखने के लिए बहुत से भक्तों का समागम हो रहा है ।

🔆पहले बाबूराम, मास्टर, श्रीरामपुर के ब्राह्मण, मनोमोहन, भवनाथ, किशोरीलाल आये,फिर चुनीलाल, हरिपद, दोनों मुखर्जी भ्राता, राम, सुरेन्द्र, तारक, अधर और निरंजन आये । 

🔆लाटू, हरीश और हाजरा तो आजकल दक्षिणेश्वर में ही रहते हैं । श्रीयुत रामलाल काली की पूजा करते हैं और श्रीरामकृष्ण की भी देख रेख रखते हैं । श्रीयुत राम चक्रवर्ती पर विष्णुमन्दिर की पूजा का भार है । लाटू और हरीश, दोनों श्रीरामकृष्ण की सेवा करते हैं । 🔆

आज रविवार है, 7 सितम्बर, 1884 ।

मास्टर के आकर प्रणाम करने पर श्रीरामकृष्ण ने पूछा, नरेन्द्र नहीं आया ? 

उस दिन नरेन्द्र नहीं आ सके । श्रीरामपुर के ब्राह्मण, रामप्रसाद के गाने की किताब लेते आये हैं और उसी पुस्तक से गाने पढ़-पढ़कर श्रीरामकृष्ण को सुना रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - हाँ पढ़ो ।

ब्राह्मण एक गीत पढ़कर सुनाने लगे । उसमें लिखा था - माँ वस्त्र धारण करो ।

श्रीरामकृष्ण – यह सब रहने दो, विकट गीत । ऐसा कोई गीत पढ़ो जिसमें भक्ति हो ।

ब्राह्मण - कौन कहे कि काली कैसी है, षड्दर्शनों को भी जिसके दर्शन नहीं होते ।

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

🔆🙏ठाकुर के प्रति 'सदय' थे बाबूराम 🔆🙏

[ঠাকুরের ‘দরদী’ — পরমহংস, বাউল ও সাঁই ]

श्रीरामकृष्ण - ( मास्टर से) - कल अधर सेन के यहाँ भावावस्था में एक ही तरह बैठे रहने के कारण पैरों में दर्द होने लगा था । इसीलिए बाबूराम को ले जाया करता हूँ । सह्रदय है । यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाने लगे – 

"मनेर कथा कोइबो कि सेइ कोईते माना।

दरदी नोइले प्राण बाँचे ना।।

मनेर मानुष होय जे -जना, नयने तार जाय जो चेना,  

से दू-एक जना; से जे रसे भासे प्रेमे डोबे ,

कच्छे रसेर बेचा-केना। (भाबेर मानुष) 

मनेर मानुष मिलबे कोथा, बगले तार छेंड़ा काँथा; 

ओ से कोय ना गो कथा; भाबेर मानुष ऊजान पथे, करे आनागोना।  

(मनेर मानुष , ऊजान पथे करे आनागोना )  

"ऐ सखि री, मैं अपना हृदय किसके पास खोलूँ - मुझे बोलना मना जो है । बिना किसी ऐसे को पाये जो मेरी व्यथा समझ सके, मैं तो मरी जा रही हूँ । केवल उसकी आँखों में आँखें डालकर मुझे अपने हृदय के प्रेमी का मिलन प्राप्त हो जायगा - परन्तु ऐसा तो कोई विरला ही होता है जो आनन्दसागर में निरन्तर बहता रहे ।  

মনের কথা কইবো কি সই কইতে মানা। দরদী নইলে প্রাণ বাঁচে না ৷৷

মনের মানুষ হয় যে-জনা, নয়নে তার যায় গো চেনা,

সে দু-এক জনা; সে যে রসে ভাসে প্রেমে ডোবে,

কচ্ছে রসের বেচাকেনা। (ভাবের মানুষ)

মনের মানুষ মিলবে কোথা, বগলে তার ছেঁড়া কাঁথা;

ও সে কয় না গো কথা; ভাবের মানুষ উজান পথে, করে আনাগোনা।

       (মনের মানুষ, উজান পথে করে আনাগোনা)।

[How shall I open my heart, O friend? It is forbidden me to speak.I am about to die, for lack of a kindred soul . To understand my misery.  Simply by looking in his eyes,I find the beloved of my heart;But rare is such a soul, who swims in ecstatic bliss .On the high tide of heavenly love.]

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

🔆🙏 परमहंस, बाउल और साईं- हवा (कुण्डलिनी) की खबर जानते हैं ! 🔆🙏

श्रीरामकृष्ण - "ये सब बाउलों (एक सम्प्रदाय) के गीत हैं ।

"शाक्त मत में सिद्ध को कौल कहते हैं, वेदान्त के मत से परमहंस कहते हैं । बाउल-वैष्णवों के मत में साई कहते हैं - साई अन्तिम सीमा है ।

["According to the Sakti cult the Siddha is called a Koul, and according to the Vedanta, a Paramahamsa. The Bauls call him a saiThey say, 'No one is greater than a sai.'

“শাক্তমতের সিদ্ধকে বলে কৌল। বেদান্তমতে বলে পরমহংস। বাউল বৈষ্ণবদের মতে বলে সাঁই। ‘সাঁইয়ের পর আর নাই!’

"बाउल जब सिद्ध हो जाता है तब साई होता है । तब सब अभेद हो जाता है। आधी माला गौ के हाड़ों की और आधी तुलसी की पहनता है । 'हिन्दुओं का नीर और मुसलमानों का पीर' बन जाता है । 

The sai is a man of supreme perfection. He doesn't see any differentiation in the world. He wears a necklace, one half made of cow bones and the other of the sacred tulsi-plant.]

“বাউল সিদ্ধ হলে সাঁই হয়। তখন সব অভেদ। অর্ধেক মালা গোহাড়, অর্ধেক মালা তুলসীর। ‘হিন্দুর নীর — মুসলমানের পীর’।”

"बाउल लोगों में जो साई होते हैं, वे लोग परम् सत्य (Ultimate Truth) को अलख (अबोध-गम्य -'Incomprehensible One') कहते हैं। वैदिक मत से उसी अलख को (इन्द्रियातीत सत्य या transcendental truth को) ब्रह्म  कहते हैं। जीवों के सम्बन्ध में बाउल कहते हैं, "वे अलख से आते हैं और अलख में जाते हैं । अर्थात् जीवात्मा (the individual soul) अव्यक्त # से आता है और अव्यक्त (Unmanifest) में ही लीन हो जाता है

[>>>#Unmanifest- गीता 2.28 में भगवान कहते हैं - "अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।"(2.28जो छिपा हुआ हो, अज्ञात, अनिर्वचनीय,विष्णु, माँ जगदम्बा =अगोचर शब्द आमतौर से 'प्रकृति' के लिए इस्ते-माल किया जाता है और ब्रह्म के तरफ इशारा करने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है।

[ He (Sai) calls the Ultimate Truth 'Alekh', the 'Incomprehensible One'. The Vedas call It 'Brahman'. About the jivas the Bauls say, 'They come from Alekh and they go unto Alekh.' That is to say, the individual soul has come from the Unmanifest and goes back to the Unmanifest

“সাঁইয়েরা বলে — আলেখ! আলেখ! বেদমতে বলে ব্রহ্ম; ওরা বলে আলেখ। জীবদের বলে — ‘আলেখে আসে আলেখে যায়’; অর্থাৎ জীবাত্মা অব্যক্ত থেকে এসে তাইতে লয় হয়!

🙏🙏🙏(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ]🙏🙏🙏 

🙏निराकार श्री 'सच्चिदानन्द' का दर्शन🙏   

श्रीरामकृष्ण - "बाउल तुमसे पूछेंगे,'हवा' की खबर जानते हो ? हवा से तात्पर्य है वह महावायु  जो किसी व्यक्ति की कुण्डलिनी जागृत होने पर -उस व्यक्ति को अपनी इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना आदि सूक्ष्म तंत्रिकाओं में महसूस होती है।  

 The Bauls will ask you, 'Do you know about the wind?' The 'wind' means the great current that one feels in the subtle nerves, Ida, Pingala, and Sushumna, when the Kundalini is awakened

“তারা বলে, হাওয়ার খবর জান?“অর্থাৎ কুলকুণ্ডলিনী জাগরণ হলে ইড়া, পিঙ্গলা, সুষুম্না — এদের ভিতর দিয়ে যে মহাবায়ু উঠে, তাহার খবর!

बाउल आगे पूछते हैं, "किस पैठ में हो ? - छः पैठ - यानि छहों चक्र हैं । उनके अनुसार, योग (समाधि) के छह मानसिक केंद्रों के अनुरूप छह 'भूमियाँ ' हैं।

They will ask you further, 'In which station are you dwelling?' According to them, there are 'stations', corresponding to the six psychic centers of Yoga.] 

“জিজ্ঞাসা করে, কোন্‌ পইঠেতে আছ? — ছটা পইঠে — ষট্‌চক্র

"अगर कोई कहे कि पांचवें में है, तो समझना चाहिए कि विशुद्ध चक्र तक मन की पहुँच है। (मास्टर से) “तब निराकार के दर्शन होते हैं, जैसा गीत में है ।" यह कहते हुए श्रीरामकृष्ण ने कुछ स्वर करके गाया - 

"तद-ऊर्ध्वते आछे माँ' गो नाम कण्ठस्थल,

धूम्रवर्णेर पद्म आछे होय षोड्शदल। 

सेई पद्म मध्ये आछे अम्बुजे आकाश ,

से आकाश रुद्ध होले सकलि आकाश।" 

 इसके ऊपर (अनाहत चक्र के ऊपर) कण्ठस्थित विशुद्धचक्र में धूम्रवर्ण षोडश-दल कमल है । इस कमल के मध्यभाग में एक सूक्ष्म आकाश छुपा हुआ है,  उस आकाश को पार करते ही (transcend करते ही ) सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आकाश में  विलीन होते हुए देख कर मनुष्य आश्चर्यचकित हो जाता है!"  

If they say that a man dwells in 'the fifth station', it means that his mind has climbed to the fifth center, known as the Visuddha chakra.(To M.) At that time he sees the Formless." Saying this the Master sang:

 "Above this is a smoke-coloured sixteen-petalled lotus in the Vishuddha Chakra situated in the throat. If the sky in the middle of this lotus gets transcended, one sees at length the universe in Space dissolve, only the sky remains everywhere.

“যদি বলে পঞ্চমে আছে, তার মানে যে, বিশুদ্ধ চক্রে মন উঠেছে। (মাস্টারের প্রতি) — “তখন নিরাকার দর্শন। যেমন গানে আছে।” এই বলিয়া ঠাকুর একটু সুর করিয়া বলিতেছেন —

“তদূর্ধ্বেতে আছে মাগো নাম কণ্ঠস্থল,

ধূম্রবর্ণের পদ্ম আছে হয়ে ষোড়শদল।

সেই পদ্ম মধ্যে আছে অম্বুজে আকাশ,

সে আকাশ রুদ্ধ হলে সকলি আকাশ।”

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

[पृष्ठभूमि -बाउल एवं कर्ताभजा मत के लोगों का आगमन]

[পূর্বকথা — বাউল ও ঘোষপাড়ার কর্তাভজাদের আগমন ]

🔆🙏*बाउल -साधना का अन्त कब होता है*🔆🙏   

श्री रामकृष्ण - "एक बाउल आया था । मैंने उससे पूछा, 'क्या तुम्हारा रस का काम हो गया ? - कड़ाही उतर  गयी ?' रस को जितना ही जलाओगे, उतना ही Refine (साफ) होगा । पहले रहता है ईख का रस - फिर होती है राब - फिर उसे जलाओ - तो होती है चीनी - और फिर मिश्री । धीरे धीरे और भी साफ हो रहा है ।

"Once a Baul came here. I asked him, 'Have you finished the task of "refining the syrup"? Have you taken the pot off the stove?' The more you boil the juice of sugar-cane, the more it is refined. In the first stage of boiling it is simply the juice of the sugar-cane. Next it is molasses, then sugar, then sugar candy, and so on. As it goes on boiling, the substances you get are more and more refined.

{“একজন বাউল এসেছিল। তা আমি বললাম, ‘তোমার রসের কাজ সব হয়ে গেছে? — খোলা নেমেছে?’ যত রস জ্বাল দেবে, তত রেফাইন (refine) হবে। প্রথম, আকের রস — তারপর গুড় — তারপর দোলো — তারপর চিনি — তারপর মিছরি, ওলা এই সব। ক্রমে ক্রমে আরও রেফাইন হচ্ছে।} 

 [ मन-वचन -कर्म से यम-नियम और मनःसंयोग (आसन,प्रत्याहार , धारणा  का अभ्यास) जितना गहरा  होता जायेगा मन उतना ही पवित्र और शुद्ध होता जायेगा।

The deeper the practice of Yama-Niyam and Man-Syoga through mind-word-action, the more pure and pure the mind will become.]

"गन्ने से गुड़ बनाने वाला का किसान चूल्हे से कड़ाही कब उतारता है ? अर्थात्, साधक के साधना की समाप्ति कब होती है ? किसी साधक की साधना का अन्त तब होता है , जब वह अपनी पाँचो इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लेता है ! जैसे जोंक पर नमक छोड़ने से वे आप ही छूटकर गिर जाती हैं वैसे ही इन्द्रियाँ भी शिथिल हो जायेंगी । उस अवस्था में कोई सिद्ध पुरुष (साईं) स्त्री के साथ रहता है, लेकिन उसके मन में उसके प्रति कोई वासना नहीं होती।  

"When does a man take the pot off the stove? That is, when does a man come to the end of his sadhana? He comes to the end when he has acquired complete mastery over his sense organs. His sense-organs become loosened and powerless, as the leech is loosened from the body when you put lime in its mouth. In that state, a man may live with a woman, but he does not feel any lust for her.

{খোলা নামবে কখন? অর্থাৎ সাধন শেষ হবে কবে? — যখন ইন্দ্রিয় জয় হবে — যেমন জোঁকের উপর চুন দিলে জোঁক আপনি খুলে পড়ে যাবে — ইন্দ্রিয় তেমনি শিথিল হয়ে যাবে। রমনীর সঙ্গে থাকে না করে রমণ।}

"उनमें बहुत से लोग राधातन्त्र के मत से चलते हैं । पाँचों तत्त्व लेकर साधना करते हैं - पृथ्वीतत्त्व, जलतत्त्व, अग्नितत्त्व, वायुतत्त्व, आकाशतत्त्व, मल, मूत्र, रज, वीर्य, ये सब तत्त्व ही हैं । ये साधनाएँ बड़ी घृणित हैं; जैसे पाखाने के भीतर से घर में प्रवेश करना ।

"Many of the Bauls follow a 'dirty' method of spiritual discipline. It is like entering a house through the back door by which the scavengers come.

{“ওরা অনেকে রাধাতন্ত্রের মতে চলে। পঞ্চতত্ত্ব নিয়ে সাধন করে পৃথিবীতত্ত্ব, জলতত্ত্ব, অগ্নিতত্ত্ব, বায়ুতত্ত্ব, আকাশতত্ত্ব, — মল, মূত্র, রজ, বীজ — এই সব তত্ত্ব! এ-সব সাধন বড় নোংরা সাধন; যেমন পায়খানার ভিতর দিয়ে বাড়ির মধ্যে ঢোকা!}

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

🙏*'भोजन-मंत्र ' ~ स्वयं खाते हो या किसी को खिलाते हो *🙏  

“एक दिन मैं दालान में भोजन कर रहा था । घोषपाड़ा के मत का एक आदमी आया । आकर कहने लगा - 'तुम स्वयं खाते हो या किसी को खिलाते हो ?' इसका यह अर्थ है जो सिद्ध होता है, वह अन्तर में ईश्वर देखता है ।

"One day I was taking my meal when a Baul devotee arrived. He asked me, 'Are you yourself eating, or are you feeding someone else?' The meaning of his words was that the siddha sees God dwelling within a man. 

{“একদিন আমি দালানে খাচ্ছি। একজন ঘোষপাড়ার মতের লোক এলো। এসে বলছে, ‘তুমি খাচ্ছ, না কারুকে খাওয়াচ্ছ?’ অর্থাৎ যে সিদ্ধ হয় সে দেখে যে, অন্তরে ভগবান আছেন! 

"जो लोग इस मत से सिद्ध होते हैं, वे दूसरे मत के लोगों को 'जीव' कहते हैं । विजातीय मनुष्यों के सामने बातचीत नहीं करते । कहते हैं, यहाँ 'जीव' हैं !

The siddhas among the Bauls will not talk to persons of another sect; they call them 'strangers'.

যারা এ মতে সিদ্ধ হয়, তারা অন্য মতের লোকদের বলে ‘জীব’। বিজাতীয় লোক থাকলে কথা কবে না। বলে, এখানে ‘জীব’ আছে।} 

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

🔆🙏 'कामारपुकुर पुण्य क्षेत्र में ' बाउल साधिका-'सरी' के घर हृदय के संग🔆🙏

कृष्ण की गन्ध भी न रहेगी- पद्म पर भौंरा बैठेगा, परन्तु मधुपान न करेगा-जितेन्द्रियता ]

"उस देश में मैंने इस मत को माननेवाली (बाउल मत को मानने वाली)  एक स्त्री देखी है । उसका नाम सरी (सरस्वती) पाथर है। इस मत के लोग आपस में एक दूसरे के यहाँ तो भोजन करते हैं, परन्तु दूसरे मत वालों के यहाँ नहीं खाते । मल्लिक घरानेवालों ने सरी पाथर के यहाँ तो भोजन किया, परन्तु हृदय के यहाँ नहीं खाया । कहते हैं, ये सब 'जीव' हैं ! (सब हँसते हैं ।)

“ও-দেশে এই মতের লোক একজন দেখেছি। সরী (সরস্বতী) পাথর — মেয়েমানুষ। এ মতের লোকে পরস্পরের বাড়িতে খায়, কিন্তু অন্য মতের লোকের বাড়ি খাবে না। মল্লিকরা সরী পাথরের বাড়িতে গিয়ে খেলে তবু হৃদের বাড়িতে খেলে না। বলে ওরা ‘জীব’। (হাস্য)

"मैं एक दिन उसके यहाँ हृदय के साथ घूमने गया था । तुलसी के पौधे खूब लगाये हैं । उसने चना-चिउड़ा दिया, मैंने थोड़ा सा खाया, हृदय तो बहुत सा खा गया - फिर बीमार भी पड़ा

[“আমি একদিন তার বাড়িতে হৃদের সঙ্গে বেড়াতে গিছলাম। বেশ তুলসী বন করেছে। কড়াই মুড়ি দিলে, দুটি খেলুম। হৃদে অনেক খেয়ে ফেললে, — তারপর অসুখ!] 

"वे (बाउल मत वाले ) लोग सिद्धावस्था को सहज अवस्था कहते हैं । एक दर्जे के आदमी हैं । वे 'सहज 'सहज' चिल्लाते फिरते हैं । वे सहज अवस्था के दो लक्षण बतलाते हैं । एक यह कि देह में कृष्ण की गन्ध भी न रहेगीर दूसरा यह कि पद्म पर भौंरा बैठेगा, परन्तु मधुपान न करेगा कृष्ण की गन्ध भी न रह जायगी, इसका अर्थ यह है कि ईश्वर के भाव सब अन्तर में ही रहेंगे, बाहर कोई लक्षण प्रकट न होगा - नाम का जप भी न करेगा । दूसरे का अर्थ है, कामिनी और कांचन की आसक्ति का त्याग – जितेन्द्रियता ।  

{"The Bauls designate the state of perfection as the 'sahaja', the 'natural' state. There are two signs of this state. First, a perfect man will not 'smell of Krishna'. Second, he is like the bee that sits on the lotus but does not sip the honeyThe first means that he keeps all his spiritual feelings within himself. He doesn't show outwardly any sign of spirituality. He doesn't even utter the name of Hari. The second means that he is not attached to woman. He has completely mastered his senses.

“ওরা সিদ্ধাবস্থাকে বলে সহজ অবস্থা। একথাকের লোক আছে, তারা ‘সহজ’ ‘সহজ’ করে চ্যাঁচায়। সহজাবস্থার দুটি লক্ষণ বলে। প্রথম — কৃষ্ণগন্ধ গায়ে থাকবে না। দ্বিতীয় — পদ্মের উপর অলি বসবে, কিন্তু মধু পান করবে না। ‘কৃষ্ণগন্ধ’ নাই, — এর মানে ঈশ্বরের ভাব সমস্ত অন্তরে, — বাহিরে কোন চিহ্ন নাই, — হরিনাম পর্যন্ত মুখে নাই। আর একটির মানে, কামিনীতে আসক্তি নাই — জিতেন্দ্রিয়। 

"वे लोग ठाकुर-पूजन, मूर्तिपूजन, यह सब पसन्द नहीं करते – जीता-जागता आदमी चाहते हैं । इसीलिए उनके दर्जे के आदमियों को कर्ताभजा कहते हैं । 'कर्ताभजा' ~ अर्थात् जो लोग कर्ता को – गुरु को ईश्वर समझते और इसी भाव से उनकी पूजा करते हैं ।"

"The Bauls do not like the worship of an image. They want a living man. That is why one of their sects is called the Kartabhaja. They worship the karta, that is to say, the guru, as God. "- in the sense of God.] 

“ওরা ঠাকুরপূজা, প্রতিমাপূজা — এ-সব লাইক করে না, জীবন্ত মানুষ চায়। তাই তো ওদের একথাকের লোককে বলে কর্তাভজা, অর্থাৎ যারা কর্তাকে — গুরুকে (নেতা,'C-IN-C' নবনীদা কে?)— ঈশ্বরবোধে ভজনা করে — পূজা করে।”

(7 सितंबर,1884)]

(२)

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

*श्रीरामकृष्ण और सर्वधर्मसमन्वय*

[Why all scriptures — all Religions — are true]

श्रीरामकृष्ण - देखा, कितने तरह के मत हैं । जितने मत उतने पथ । असंख्य मत हैं और असंख्य पथ हैं।

{"You see how many opinions there are about God. Each opinion is a path. There are innumerable opinions and innumerable paths leading to God."

শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখছো কত রকম মত! মত, পথ। অনন্ত মত অনন্ত পথ!} 

भवनाथ- अब उपाय क्या है ?

 ["Then what should we do?"ভবনাথ — এখন উপায়!

श्रीरामकृष्ण - एक को बलपूर्वक पकड़ना पड़ता है । छत पर जाने की चाह है, तो जीने से भी चढ़ सकते हो; बाँस की सीढ़ी लगाकर भी चढ़ सकते हो; रस्सी की सीढ़ी लगाकर, सिर्फ रस्सी पकड़कर या केवल एक बाँस के सहारे, किसी भी तरह से छत पर पहुँच सकते हो, परन्तु एक पैर इसमें और दूसरा उसमें रखने से नहीं होता । एक को दृढ़ भाव से पकड़े रहना चाहिए ।   [चार योग में मनःसंयोग कॉमन है - इसीको दृढ़ भाव से  पकड़ना अच्छा है !] ईश्वरलाभ करने की इच्छा हो तो एक ही रास्ते पर चलना चाहिए ।

{ "You must stick to one path with all your strength. A man can reach the roof of a house by stone stairs or a ladder or a rope-ladder or a rope or even by a bamboo pole. But he cannot reach the roof if he sets foot now on one and now on another. He should firmly follow one path. Likewise, in order to realize God a man must follow one path with all his strength.

শ্রীরামকৃষ্ণ — একটা জোর করে ধরতে হয়। ছাদে গেলে পাকা সিঁড়িতে উঠা যায়, একখানা মইয়ে উঠা যায়, দড়ির সিঁড়িতে উঠা যায়; একগাছা দড়ি দিয়ে, একগাছা বাঁশ দিয়ে উঠা যায়। কিন্তু এতে খানিকটা পা, ওতে খানিকটা পা দিলে হয় না। একটা দৃঢ় করে ধরতে হয়। ঈশ্বরলাভ করতে হলে, একটা পথ জোর করে ধরে যেতে হয়।

ईश्वर एक ही है किन्तु उनके विषय में असंख्य मत (innumerable opinions ) हैं ,  और ईश्वर तक पहुँचने के असंख्य पथ (innumerable paths) हैं ! ईश्वरलाभ करने की इच्छा हो तो एक ही रास्ते पर चलना चाहिए । चारो योगों में मनःसंयोग (Mental Concentration) कॉमन है - इसी को दृढ़ भाव से पकड़ना अच्छा है !] } 

"और दूसरे मतों को भी एक एक मार्ग समझना । यह भाव न हो कि मेरा ही मार्ग ठीक है, और सब झूठ हैं; द्वेष न हो ।

{"But you must regard other views as so many paths leading to God. You should not feel that your path is the only right path and that other paths are wrong. You mustn't bear malice toward others.

“আর সব মতকে এক-একটি পথ বলে জানবে। আমার ঠিক পথ, আর সকলের মিথ্যা — এরূপ বোধ না হয়। বিদ্বেষভাব না হয়।”} 

[“আমি কোন্‌ পথের?” কেশব, শশধর ও বিজয়ের মত ]

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

🙏"मैं किस मार्ग का साधक हूँ?" केशव, शशधर और विजय में से किसके सम्प्रदाय का ?🙏

"अच्छा, मैं किस मार्ग का हूँ ? केशव सेन कहता था, आप हमारे मत के हैं - निराकार में आ रहे हैं । शशधर कहता है, ये हमारे हैं; विजय भी कहता है, ये हमारे मत के हैं ।"

[ "Well, to what path do I belong? Keshab Sen, used to say to me: 'You belong to our path. You are gradually accepting the ideal of the formless God.' Shashadhar says that I belong to his path. Vijay, too, says that I belong to his — Vijay's — path."

“আচ্ছা, আমি কোন্‌ পথের? কেশব সেন বলত, আপনি আমাদেরই মতের, — নিরাকারে আসছেন। শশধর বলে, ইনি আমাদের। বিজয়ও (গোস্বামী) বলে, ইনি আমাদের মতের লোক।”] 

श्रीरामकृष्ण सभी मार्गों से साधना करके ईश्वर के निकट पहुँचे थे; इसलिए सब लोग उन्हें अपने ही मत का आदर्श मानते थे ।

{ঠাকুর কি বলিতেছেন যে, আমি সব পথ দিয়াই ভগবানের নিকট পৌঁছিয়াছি — তাই সব পথের খবর জানি? আর সকল ধর্মের লোক আমার কাছে এসে শান্তি পাবে?

 मेरा अनुवाद - ठाकुर क्या यह कहना चाह रहे हैं कि मैं सभी मार्गों की साधना करके ईश्वर के निकट पहुँचा हूँ , इसीलिए मुझे  प्रत्येक मार्ग की जानकारी है ? और सभी धर्मों के लोग मेरे पास आकर शांति प्राप्त करेंगे ?} 

श्रीरामकृष्ण मास्टर आदि दो-एक भक्तों के साथ पंचवटी की ओर जा रहे हैं - हाथ मुँह धोयेंगे । दिन के बारह बजे का समय है । अब ज्वार आनेवाली है । देखने के लिए श्रीरामकृष्ण पंचवटी के रास्ते पर प्रतीक्षा कर रहे हैं ।

{Sri Ramakrishna walked toward the Panchavati with M. and a few other devotees. It was midday and time for the flood-tide in the Ganges.They waited in the Panchavati to see the bore of the tide.

ঠাকুর পঞ্চবটীর দিকে মাস্টার প্রভৃতি দু-একটি ভক্তের সঙ্গে যাইতেছেন — মুখ ধুইবেন। বেলা বারটা, এইবার বান আসিবে। তাই শুনিয়া ঠাকুর পঞ্চবটীর পথে একটু অপেক্ষা করিতেছেন।} 

[ভাব মহাভাবের গূঢ় তত্ত্ব — গঙ্গার জোয়ার-ভাটা দর্শন ]

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

🔆🙏भाव -महाभाव का रहस्यमय सिद्धांत - गंगा के ज्वार-भाटा का दर्शन 🔆🙏

भक्तों से कह रहे हैं - “ज्वार और भाटा कितने आश्चर्य के विषय हैं ।

"परन्तु एक बात देखो, समुद्र के पास ही नदियों में ज्वार-भाटा होते हैं । परन्तु समुद्र से बहुत दूर होने पर उसी नदी में ज्वार-भाटा नहीं होता, बल्कि एक ही ओर बहाव रहता है । इसका क्या अर्थ? -इस भाव का अपने आध्यात्मिक जीवन पर आरोप करो । जो लोग ईश्वर के बहुत पास पहुँच जाते हैं, उन्हीं में भक्ति और भाव होता है । और, किसी किसी को ईश्वरकोटि को महाभाव, प्रेम, यह सब होता है ।

{"The ebb-tide and flood-tide are indeed amazing. But notice one thing. Near the sea you see ebb-tide and flood-tide in a river, but far away from the sea the river flows in one direction only. What does this mean? Try to apply its significance to your spiritual life. Those who live very near God feel within them the currents of bhakti, bhava, and the like. In the case of a few — the Isvarakotis, for instance — one sees even mahabhava and prema.

ভক্তদের বলিতেছেন — “জোয়ার-ভাটা কি আশ্চর্য! “কিন্তু একটি দেখো, — সমুদ্রের কাছে নদীর ভিতর জোয়ার-ভাটা খেলে। সমুদ্র থেকে অনেক দূর হলে একটানা হয়ে যায়। এর মানে কি? — ওই ভাবটা আরোপ কর। যারা ঈশ্বরের খুব কাছে, তাদের ভিতরই ভক্তি, ভাব — এই সব হয়; আবার দু-একজনের (ঈশ্বরকোটির) মহাভাব, প্রেম — এ-সব হয়।

(मास्टर से) “अच्छा, ज्वार-भाटा क्यों होते हैं ?" 

मास्टर - अंग्रेजी ज्योतिष - शास्त्र (astronomy) में लिखा है, सूर्य और चन्द्र के आकर्षण से ऐसा होता है ।

यह कहकर मास्टर मिट्टी में रेखाएँ खींचकर सूर्य और चन्द्र की गति बतलाने लगे । थोड़ी देर तक देखकर श्रीरामकृष्ण ने कहा - बस रहने दो, मेरा माथा घूमने लगा ।

{"According to Western astronomy, they are due to the attraction of the sun and the moon. In order to explain it, M. drew figures on the earth and began to show the Master the movement of the earth, the sun, and the moon. The Master looked at the figures for a minute and said: "Stop, please! It gives me a headache."

মাস্টার — ইংরেজী জ্যোতিষ শাস্ত্রে বলে যে, সূর্য ও চন্দ্রের আকর্ষণে ওইরূপ হয়। এই বলিয়া মাস্টার মাটিতে অঙ্ক পাতিয়া পৃথিবী, চন্দ্র ও সূর্যের গতি দেখাইতেছেন। ঠাকুর একটু দেখিয়াই বলিতেছেন, “থাক, ওতে আমার মাথা ঝনঝন করে!”} 

बात हो ही रही थी कि ज्वार आने की आवाज होने लगी । देखते ही देखते जलोच्छ्वास का घोर शब्द होने लगा । ठाकुरमन्दिर की तटभूमि में टकराता हुआ बड़े वेग से पानी उत्तर की ओर चला गया । श्रीरामकृष्ण एक नजर से देख रहे हैं । दूर की नाव देखकर बालक की तरह कहने लगे, 'देखो देखो - अब उस नाव की क्या हालत होती है !

श्रीरामकृष्ण मास्टर से बातचीत करते हुए पंचवटी के बिलकुल नीचे पहुँच गये । उनके हाथ में एक छाता था, उसे पंचवटी के चबूतरे पर रख दिया । नारायण को वे साक्षात् नारायण देखते हैं इसीलिए बहुत प्यार करते हैं । नारायण स्कूल में पढ़ता है । इस समय श्रीरामकृष्ण उसी की बातचीत कर रहे हैं।

[মাস্টারের শিক্ষা, টাকার সদ্ব্যবহার — নারাণের জন্য চিন্তা ]

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

[मास्टर की शिक्षा, धन का सदुपयोग - नारायण की सरलता]

श्रीरामकृष्ण - नारायण को देखा है तुमने ? कैसा स्वभाव है ! क्या लड़के, बच्चे, बूढ़े सब से मिलता है । विशेष शक्ति के बिना यह बात नहीं होती । और सब लोग उसे प्यार करते हैं । अच्छा, क्या वह यथार्थ ही सरल है ।

मास्टर - जी हाँ, जान तो ऐसा ही पड़ता है ।

श्रीरामकृष्ण - सुना, तुम्हारे यहाँ जाता है ।

मास्टर - जी हाँ, दो एक बार आया था ।

श्रीरामकृष्ण - क्या एक रुपया तुम उसे दोगे या काली से कहूँ ?

मास्टर - अच्छा तो है, मैं ही दे दूंगा ।

श्रीरामकृष्ण - बड़ा अच्छा है । जो ईश्वर के अनुरागी हैं उन्हें देना अच्छा है । इससे धन का सदुपयोग होता है । सब रुपये संसार को सौंपने से क्या होगा ?

{ "That's fine. It is good to help those who yearn for God. Thus one makes good use of one's money. What will you gain by spending everything on your family?

"শ্রীরামকৃষ্ণ — বেশ তো — ঈশ্বরে যাদের অনুরাগ আছে, তাদের দেওয়া ভাল। টাকার সদ্ব্যবহার হয়। সব সংসারে দিলে কি হবে?} 

किशोरीलाल के लड़के-बच्चे हो गये हैं । वेतन कम पाता है इससे पूरा नहीं पड़ता । श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं - "नारायण कहता था, किशोरीलाल के लिए एक नौकरी ठीक कर दूंगा । नारायण को यह बात याद दिलाना ।"

मास्टर पंचवटी में खड़े हुए हैं । श्रीरामकृष्ण कुछ देर बाद झाऊतल्ले से लौटे । मास्टर से कह रहे हैं - जरा बाहर एक चटाई बिछाने के लिए कहो, मैं थोड़ी देर बाद जाता हूँ, लेटूँगा ।

श्रीरामकृष्ण कमरे में पहुँचकर कह रहे हैं - तुममें से किसी को छाता ले आने की बात याद नहीं रही । (सब हँसते हैं ।) जल्दबाज आदमी पास की चीज भी नहीं देखते । एक आदमी एक दूसरे के यहाँ कोयले में आग सुलगाने के लिए गया था, और इधर उसके हाथ में लालटेन जल रही थी ।

"एक आदमी अंगौछा खोज रहा था, अन्त में वह उसी के कन्धे पर पड़ा हुआ मिला !"

{When the Master returned to his room, he could not find his umbrella and exclaimed: "You have all forgotten the umbrella! The busybody doesn't see a thing even when it is very near him. A man went to a friend's house to light the charcoal for his smoke, though all the time he had a lighted lantern in his hand. Another man looked everywhere for his towel. Finally he discovered that it had been on his shoulder all the time.

ঠাকুর ঘরে পৌঁছিয়া বলিতেছেন, “তোমাদের কারুরই ছাতাটা আনতে মনে নাই। (সকলের হাস্য) ব্যস্তবাগীশ লোক নিজের কাছের জিনিসও দেখতে পায় না! একজন আর-একটি লোকের বাড়িতে টিকে ধরাতে গিছল, কিন্তু হাতে লণ্ঠন জ্বলছে!“একজন গামছা খুঁজে খুঁজে তারপর দেখে, কাঁধেতেই রয়েছে!”} 

[ঠাকুরের মধ্যাহ্ন-সেবা ও বাবুরামাদি সাঙ্গোপাঙ্গ ]

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

[ठाकुर की मध्याह्न सेवा और बाबूराम आदि के संग में ]

श्रीरामकृष्ण के लिए काली का अन्न-भोग लाया गया । श्रीरामकृष्ण प्रसाद पायेंगे । दिन के एक बजे का समय होगा । वे भोजन करके जरा विश्राम करेंगे । भक्तगण कमरे में बैठे ही रहे । समझाने पर वे बाहर जाकर बैठे । हरीश, निरंजन और हरिपद पाकशाला में प्रसाद पायेंगे । श्रीरामकृष्ण हरीश से कह रहे हैं, अपने लिए थोड़ा सा अमरस लेते जाना ।

श्रीरामकृष्ण विश्राम करने लगे । बाबूराम से कहा, "बाबूराम, जरा मेरे पास आ ।” बाबूराम पान लगा रहे थे, कहा, "मैं पान लगा रहा हूँ ।"

श्रीरामकृष्ण - रख उधर, फिर पान लगाना ।

श्रीरामकृष्ण विश्राम कर रहे हैं । इधर पंचवटी में और बकुल के पेड़ के नीचे कुछ भक्त बैठे हुए हैं - दोनों मुखर्जी भाई, चुनीलाल, हरिपद, भवनाथ और तारक । तारक वृन्दावन से अभी अभी लौटे हैं । भक्तगण उनसे वृन्दावन की बातें सुन रहे हैं । तारक नित्यगोपाल के साथ अब तक वृन्दावन में थे ।

(7 सितंबर,1884)]

(३) 

*कीर्तनानन्द में*

श्रीरामकृष्ण जरा विश्राम कर रहे हैं । श्यामदास माथुर अपने आदमियों को लेकर कीर्तन गा रहे हैं 
'सुखमय सायर (सागर) मरुभूमि भइल,
जलद निहारइ चातकि मरि गइल ।'
श्रीराधा का यह विरह-वर्णन हो रहा है । सुनकर श्रीरामकृष्ण को भावावेश हो रहा है । वे छोटी खाट पर बैठे हुए हैं । बाबूराम, निरंजन, राम, मनोमोहन, मास्टर, सुरेन्द्र, भवनाथ आदि भक्त जमीन पर बैठे हैं । गाना जम नहीं रहा है ।
कोन्नगर के नवाई चैतन्य से श्रीरामकृष्ण कीर्तन करने के लिए कह रहे हैं । नवाई मनोमोहन के चाचा हैं। पेन्शन लेकर कोन्नगर में श्रीगंगाजी के तट पर भजन-साधन करते हैं । श्रीरामकृष्ण का प्रायः दर्शन करने आते हैं । नवाई उच्च कण्ठ से संकीर्तन कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण आसन छोड़कर नृत्य करने लगे। साथ ही नवाई और भक्तगण उन्हें घेरकर नृत्य करने लगे । कीर्तन खूब जम गया । महिमाचरण भी श्रीरामकृष्ण के साथ नृत्य कर रहे हैं ।
.
कीर्तन हो जाने पर श्रीरामकृष्ण अपने आसन पर बैठे । हरिनाम के बाद अब आनन्दमयी का नाम ले रहे हैं । श्रीरामकृष्ण भावपूर्ण हैं । नाम लेते हुए ऊर्ध्वदृष्टि हो रहे हैं । गाना -

 "माँ, आनन्दमयी होकर मुझे निरानन्द न करना ।
गो आनंदमयी होये आमाय निरानंद कोरो ना,
गो आनंदमयी होये आमाय निरानंद कोरो ना। 

ओ दुटी चरण बिना आमार मन, अन्य किछु आर जाने ना,
तपन तनय आमाय मंद कय, कि दोष ता तो जानी ना। 

भवानी बोलिये, भबे जाबो चले, मने छिलो एई वासना,
अकूलपाथारे डूबाबे आमारे, स्वपने ओ ता जानि ना। 

अहर्निशि श्रीदूर्गानामे भासि, तोबु दुखराशि गेलो ना,
एबार जोदि मोरे, ओ हरसुंदरी, (तोर) दूर्गानाम केहु आर लोबे ना।
 
गाना - भाविले भावेर उदय होय - 
ভাবিলে ভাবের উদয় হয়!
যেমন ভাব, তেমনি লাভ, মূল সে প্রত্যয়।
যে-জন কালীর ভক্ত জীবন্মুক্ত নিত্যানন্দময় ৷৷
কালীপদ সুদাহ্রদে চিত্ত যদি রয়।
পূজা হোম জপ বলি কিছুই কিছু নয় ৷৷
गाना - “उसका चिन्तन करने पर भाव का उदय होता है । जैसा भाव होता है, फल भी वैसा ही मिलता है । इसकी जड़ विश्वास है । जो काली का भक्त है, उसे तो जीवन्मुक्त कहना चाहिए । वह सदा ही आनन्द में रहता है । अगर उनके चरणरूपी सुधा-सरोवर में चित्त लगा रहा तो समझना चाहिए, उसके लिए पूजा, जप, होम, बलि, ये सब कुछ भी नहीं है ।"
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श्रीरामकृष्ण ने तीन-चार गाने और गाये -  
গান - তোদের খ্যাপার হাট বাজার মা (তারা)।
কব গুণের কথা কার মা তোদের ৷৷
গজ বিনে গো আরোহণে ফিরিস কদাচার।
মণি-মুক্তা ফেলে পরিস গলে নরশির হার ৷৷
শ্মশানে-মশানে ফিরিস কার বা ধারিস ধার।
রামপ্রসাদকে ভবঘোরে করতে হবে পার ৷৷

गाना - तोदेर खेपार (क्षेपार) हाट-बाजार मा (तारा)।   
कब गुणेर कथा कार मा तोदेर।। 
गज बिने गो आरोहणे फिरिश कदाचार। 
मणि- मुक्ता फेले पोरिस गले नरशिर हार॥ 
श्मशाने- मशाने फिरिश कार बा धारिश धार। 
एबार रामप्रसादके भवघोरे करते हबे पार ॥
গান - গয়া গঙ্গা প্রভাসাদি কাশী কাঞ্চী কেবা চায়।
কালী কালী বলে আমার অজপা যদি ফুরায় ৷৷

गाना - गया गंगा प्रभासादि काशी कांची केबा चाय। 
काली काली काली बोले अजपा जोदि फूराय।। 

त्रिसंध्या जे बोले काली, पूजा संध्या से की चाय। 
संध्या तार संध्याने फेरे, कोभू संधी नाई पाय।।

जप यज्ञ पूजा होम आर किछु ना मने लोय। 
मदनेर याग यज्ञ, ब्रह्ममयीर रांगा पाय।।

कालीनामेर एतो गुण, केबा जानते पारे ताय। 
देवादिदेव महादेव, जार पंचमुखे गुण गाय।।

গান - আপনাতে আপনি থেকো মন, যেও নাকো কারু ঘরে।
যা চাবি তাই বসে পাবি, খোঁজ নিজ অন্তঃপুরে ৷৷

गाना - आपनाते आपनि थेको मन जेओ नाको कारू घरे। 
जा चाबि ता बोशे पाबि, खोंज निज अंत:पूरे ॥

परम धन ओई परश मणि, जा चाबि ता दिते पारे। 
कतो मणि पडे आछे चिन्तामणिर नाच दुआरे॥

तीर्थ-गमन दु:ख भ्रमण मन उचाटन करो ना रे। 
(तुमि) आनन्द-त्रिवेणीर स्नाने शीतल होओ ना मूलाधारे।।

की देख कमलाकांत मिछे बाजी ए संसारे॥
(तुमि) बाजीकरे चिनले नारे, (शे जे) तोमाय घटे विराज करे॥

গান - মজলো আমার মনভ্রমরা শ্যামাপদ নীলকমলে।

गाना - मजलो आमार मन भ्रमरा कालिपद नीलकमले। 
(श्यामापद नीलकमले, कालीपद नीलकमले)

(जतो) विषयमधू तूच्छ होलो कामादि कुसूम सकले l
चरण कालो भ्रमर कालो, कालोय कालो मिशे गेलो।।

पंचतत्व प्रधान मत्त, रंग देखे भंग दिले। 
कमलाकांतेर मने आशा पूर्ण एतो दिने।। 
ताय सुख दुःख समान होलो आनंद-सागर उथले। 

গান - যতনে হৃদয়ে রেখো আদরিণি শ্যামা মাকে।
মন তুই দেখ, আর আমি দেখি, আর যেন কেউ নাহি দেখে ৷৷

गाना -जतने हृदये रेखो आदरिणी श्यामा मा के। 
मन तुई देख आर आमि देखि, आर जेनो केउ नाहि देखे।। 

कामादिरे दिये फाँकी, आय मन विरले देखि। 
रसनारे संगे राखि, से जेनो मा बोले डाके।
(माझे माझे से जेनो मा मा बोले डाके)

कुरुचि कुमंत्री जतो, निकट होते दिओ नाको। 
ज्ञाननयनके प्रहरी रेखो, शे जेनो सावधाने थाके।। 
खुब जेनो सावधाने थाके।   

" Cherish my precious Mother Syama
Tenderly within, O mind;
May you and I alone behold Her,
Letting no one else intrude. . . .

अन्त में जो पद उन्होंने गाया, उसका भाव यह है - "मन ! आदरणीया श्यामा माँ को यत्नपूर्वक हृदय में रखना । तू देख और मैं देखूँ, कोई दूसरा उन्हें न देखने पाये ।”
यह गाना गाते हुए श्रीरामकृष्ण जैसे खड़े हो गये । माता के प्रेम में पागल हो गये । 'आदरणीया श्यामा माँ को हृदय में रखना’ यह इतना अंश बार बार भक्तों को गाकर सुना रहे हैं ।

{As the Master sang this last song he stood up. He was almost intoxicated with divine love. Again and again he said to the devotees, "Cherish my precious Mother Syama tenderly within."
ঠাকুর এই গানটি গাইতে গাইতে দণ্ডায়মান হইলেন। মার প্রেমে উন্মত্তপ্রায়! ‘আদরিণী শ্যামা মাকে হৃদয়ে রেখো।’ — এ-কথাটি যেন ভক্তদের বারবার বলিতেছেন।} 

शराब पीकर मतवाले हुए की तरह सब को गाकर सुना रहे हैं -

" মা কি আমার কালো রে।
কালোরূপ দিগম্বরী, হৃদিপদ্ম করে আলো রে!

श्यामा मा कि आमार कालो रे। 
कालो रूप दिगम्बरी , हृदिपद्म करे आलो रे।।   
लोके बोले काली कालो, आमार मन तो बोले ना कालो रे ॥

कखोनो श्वेत कोखोनो पीत कखोनो नील लोहित रे। 
(आमि) आगे नाहि जानि केमोन जननी, भाबिये जनम गेलो रे॥

कखोनो पूरुष कखोनो प्रकृति कखोनो शून्यरूपा रे। 
(मायेर) ए भाब भाबिये कमलाकांत सहजे पागल होलो रे॥

Is Kali, my Mother, really black?
The Naked One, of blackest hue,
Lights the Lotus of the Heart. . . .

 श्रीरामकृष्ण गाते हुए बहुत झूम रहे हैं । यह देख निरंजन उन्हें पकड़ने के लिए बढ़े । श्रीरामकृष्ण ने मधुर स्वरों में कहा – ‘मत छू ।’ श्रीरामकृष्ण को नाचते हुए देखकर भक्तगण उठकर खड़े हो गये । श्रीरामकृष्ण मास्टर का हाथ पकड़कर कहते हैं – ‘नाच ।’

{The Master reeled as he sang. Niranjan came forward to hold him. The Master said to him softly, "Don't touch me, you rascal!" Seeing the Master dance, the devotees stood up. He caught hold of M.'s hand and said: "Don't be foolish! Dance!"
ঠাকুর গাইতে গাইতে বড় টলিতেছেন দেখিয়া নিরঞ্জন তাঁহাকে ধারণ করিতে গেলেন। ঠাকুর মৃদুস্বরে “য়্যাই! শালা ছুঁসনে” বলিয়া বারণ করিতেছেন। ঠাকুর নাচিতেছেন দেখিয়া ভক্তেরা দাঁড়াইলেন। ঠাকুর মাস্টারের হস্ত ধারণ করিয়া বলিতেছেন, “য়্যাই শালা নাচ।”} 

(7 सितंबर,1884)
[বেদান্তবাদী মহিমার প্রভুসঙ্গে সংকীর্তনে নৃত্য ও ঠাকুরের আনন্দ ]

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

🔆🙏वेदान्तवादी महिमा का भगवान के साथ संकीर्तन और ठाकुर का आनन्द🔆🙏  
श्रीरामकृष्ण अपने आसन पर बैठे हुए हैं । भाव की पूर्ण मात्रा है – बिलकुल मतवाले हैं ।
भाव का कुछ उपशम होने पर कह रहे हैं - ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ  काली ! भक्तों में से कितने ही खड़े हैं। महिमाचरण खड़े हुए श्रीरामकृष्ण को पंखा झुल रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (महिमाचरण से) - आप लोग बैठिये ।
"आप वेद से जरा कुछ सुनाइये ।"
{“আপনি বেদ থেকে একটু কিছু শুনাও।}
महिमाचरण सुना रहे हैं - जय यज्वमान आदि: 
फिर वे महानिर्वाण तन्त्र (Mahanirvana Tantra ) की स्तुति का पाठ करने लगे –
"ॐ नमस्ते सते ते जगत्कारणाय नमस्ते चिते सर्वलोकाश्रयाय ॥
नमोऽद्वैततत्वाय मुक्तिप्रदाय, नमो ब्रह्मणे व्यापिने शाश्वताय ॥
[हे सत्य सनातन जगत् के कारणरूप जगदीश्वर ! तथा सभी लोकों के एकमात्र आश्रय चेतनस्वरूप परमात्मन् ! आपके लिए बार बार मेरा नमस्कार है एवं मुक्ति प्रदान करने वाले अद्वैततत्त्व, नित्य, व्यापक, ब्रह्म आपके लिये मैं नमस्ते करता हूँ।]
त्वमेकं शरण्यं त्वमेकं वरेण्यम् त्वमेकं जगत्पालकं स्वप्रकाशम् ॥
त्वमेकं जगत्कर्तुपातृप्रहर्तृ त्वमेकं परं निश्चलं निर्विकल्पम् ॥
भावार्थ – हे प्रभो ! आप ही हमारे एकमात्र आश्रय हैं, आप ही एकमात्र प्राप्त करने योग्य हैं।आप ही एकमात्र जगत् के पालक हैं।आप स्वयं प्रकाशमान् हैं।आप ही जगत् के उत्पन्नकर्त्ता, पालनकर्त्ता और नाशकर्त्ता हैं।आप महान् हैं, स्थिर हैं और निर्विकार हैं।
भयानां भयं भीषणं भीषणानाम् गतिः प्राणिनां पावनं पावनानाम् ॥
महोच्चैः पदानां नियन्तृ त्वमेकम् परेषां परं रक्षणं रक्षणानाम् ॥
भावार्थ – हे प्रभो ! आप भयों को भय देने वाले हैं।आप ही भीषण से भी भीषण हैं।आप ही सभी प्राणियों की गति हैं।पवित्रों के पवित्रकर्त्ता आप हैं।आप महाराजाओं के महाराज हैं, परे से भी परे हैं और रक्षा करने वालों के भी रक्षक हैं।
वयं त्वां स्मरामो वयं त्वां भजामो वयं त्वां जगत्साक्षिरूपं नमामः ॥
सदेकं निधानं निरालम्बमीशम् भवाम्भोधिपोतं शरण्यं व्रजामः ॥
भावार्थ – हे प्रभो ! हम आपका स्मरण करते हैं, आपकी ही भक्ति करते हैं।जगत् के साक्षी रूप आपको हम नमस्कार करते हैं।हे सर्वाधार प्रभो ! आप किसी की सहायता के बिना स्वयं स्थित हैं।आप इस संसार समुद्र से पार लगाने वाली नाव हैं।हम आपकी शरण में आते हैं।
[Om. I bow to Thee, the Everlasting Cause of the world; I bow to Thee, Pure Consciousness, the Soul that sustains the whole universe. I bow to Thee, who art One without duality, who dost bestow liberation; I bow to Thee, Brahman, the all-pervading  Attributeless Reality. Thou alone art the Refuge, the only Object of adoration; Thou art the only Cause of the universe, the Soul of everything that is; Thou alone art the world's Creator, Thou its Preserver and Destroyer; Thou art the immutable Supreme Lord, the Absolute; Thou art unchanging Consciousness. Dread of the dreadful! Terror of the terrible! Refuge of all beings! Purity of purifiers! Thou alone dost rule over those in the high places, Supreme over the supreme, the Protector of protectors. Almighty Lord, who art made manifest as the Form of all, yet art Thyself unmanifest and indestructible; Thou who art imperceptible to the senses, yet art the very Truth; Incomprehensible, imperishable, all-pervading, hidden, and without form; O Lord! O Light of the Universe! Protect us from harm. On that One alone we meditate; that One is the sole object of our worship; To That alone, the non-dual Witness of the Universe, we bow. In that One who alone exists and who is our sole eternal Support, we seek refuge, The self-dependent Lord, the Vessel of Safety in the ocean of existence.] 
श्रीरामकृष्ण ने हाथ जोड़कर स्तुति सुनी । पाठ हो जाने पर हाथ जोड़कर उन्होंने प्रणाम किया । भक्तों ने भी प्रणाम किया । कलकत्ते से अधर आये । श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - आज खूब आनन्द रहा । महिम चक्रवर्ती भी इधर झुक रहा है । कीर्तन में खूब आनन्द रहा - क्यों ?
मास्टर - जी हाँ ।
महिमाचरण ज्ञानचर्चा करते हैं । महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीदा का जन्म इन्हीं के घर, 100 न ० काशीपुर रोड में हुआ था। ) आज उन्होंने कीर्तन किया है, और नाचे भी हैं । श्रीरामकृष्ण इस बात पर आनन्द प्रकट कर रहे हैं । शाम हो रही है । भक्तों में से बहुतेरे श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर बिदा हुए ।

 (7 सितंबर,1884)

(४)

[প্রবৃত্তি না নিবৃত্তি — অধরের কর্ম]

[Indulgence or cessation - Work of the Adhar ]

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

🔆🙏*प्रवृत्ति (कर्म योग) या निवृत्ति ? अधर का कर्म *🔆🙏

शाम हो गयी है । दक्षिणवाले लम्बे बरामदे में और पश्चिम के गोल बरामदे में बत्ती जला दी गयी । कुछ देर बाद चन्द्रोदय हुआ । मन्दिर का आँगन, बगीचे के रास्ते, गंगातट, पंचवटी, पेड़ों का ऊपरी हिस्सा, सब कुछ चाँदनी में हँस रहे थे । श्रीरामकृष्ण अपने आसन पर बैठे हुए भावावेश में माता का स्मरण कर रहे हैं । 

अधर आकर बैठे । कमरे में मास्टर और निरंजन भी हैं । श्रीरामकृष्ण अधर के साथ बातचीत कर रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण-- अजी, तुम अब आये ! कितना कीर्तन और नृत्य हो गया । श्यामदास का कीर्तन था - राम के उस्ताद का । परन्तु मुझे बहुत अच्छा न लगा । उठने की इच्छा भी नहीं हुई । उस आदमी की बात फिर पीछे से मालूम हुई । गोपीदास के साथवाले ने कहा, मेरे सिर पर जितने बाल हैं, उतनी उसकी रखेलियाँ है ! (सब हँसते हैं ।) क्या तुम्हारा काम हुआ ?

अधर डिप्टी हैं । तीन सौ तनख्वाह पाते हैं । उन्होंने कलकत्ता म्यूनिसिपल्टी के वाइस चेअरमैन के लिए अर्जी दी थी । वहाँ हजार रुपये महीने की तनख्वाह है । इसके लिए अधर कलकत्ते के बहुत बड़े-बड़े आदमियों से मिले थे ।
[Adhar held the post of deputy magistrate, a government post that carried with it great prestige. He earned three hundred rupees a month. He had applied for the office of vice-chairman of the Calcutta Municipality. The salary attached to this office was one thousand rupees. In order to secure it, Adhar had interviewed many influential people in Calcutta.] 

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

🔆🙏प्रवृत्ति (कर्म योग) से निवृत्ति ही अच्छी है 🔆🙏

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर और निरंजन से) - हाजरा ने कहा था, अधर का काम हो जायगा, तुम जरा माँ से कहो । अधर ने भी कहा था । मैंने माँ से कहा था, 'माँ, यह तुम्हारे यहाँ आया-जाया करता है, अगर उसे जगह मिलनी हो तो दे दो - परन्तु इसके साथ ही माँ से मैंने यह भी कहा था कि माँ, इसकी बुद्धि कितनी हीन है ? ज्ञान और भक्ति की प्रार्थना न करके तुम्हारे पास यह सब चाहता है ।
{MASTER (to M. and Niranjan): "Hazra said to me, 'Please pray to the Divine Mother for Adhar, that he may secure the job.' Adhar made the same request to me. I said to the Mother: 'O Mother, Adhar has been visiting You. May he get the job if it pleases You.' But at the same time I said to Her: 'How small-minded he is! He is praying to You for things like that and not for Knowledge and Devotion.'
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টার ও নিরঞ্জনের প্রতি) — হাজরা বলেছিল — অধরের কর্ম হবে, তুমি একটু মাকে বল। অধরও বলেছিল। আমি মাকে একটু বলেছিলাম — ‘মা, এ তোমার কাছে আনাগোনা কচ্ছে, যদি হয় তো হোক না।’ কিন্তু সেই সঙ্গে মাকে বলেছিলাম — ‘মা, কি হীনবুদ্ধি! জ্ঞান, ভক্তি না চেয়ে তোমার কাছে এই সব চাচ্ছে!’

(अधर से) "क्यों नीच प्रकृति के आदमियों के यहाँ इतना चक्कर मारते फिरे ? इतना देखा और समझा, सातों काण्ड रामायण पढ़कर सीता किसकी भार्या थी, इतना भी नहीं समझे ?"
{(অধরের প্রতি) — “কেন হীনবুদ্ধি লোকগুনোর কাছে অত আনাগোনা করলে? এত দেখলে শুনলে! — সাতকাণ্ড রামায়ণ, সীতা কার ভার্যে! অমুক মল্লিক হীনবুদ্ধি। আমার মাহেশে যাবার কথায় চলতি নৌকা বন্দোবস্ত করেছিল, — আর বাড়িতে গেলেই হৃদুকে বলত — হৃদু, গাড়ি রেখেছ?”} 

अधर - संसार में रहने पर इन सब के बिना किये काम भी नहीं चलता । आपने तो मना भी नहीं किया था ।
{ "A man cannot but do these things if he wants to lead a house-holder's life. You haven't forbidden us to, have you?
"অধর — সংসার করতে গেলে এ-সব না করলে চলে না। আপনি তো বারণ করেন নাই?}
 
[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 
                                
🔆🙏  "माँ, यहीं से मन को मोड़ दो !🔆🙏  

[श्रीरामकृष्ण की अनूठी प्रार्थना ~ "मा, ओइखानेई मोड़ फिरिये दाओ !

'Sudhamukhi cooking - no more, no more' --सन्तोष — Contentment]
  
[Nivritti and Pravritti mean, respectively~  

'inwardness of the mind and its inclination to outer enjoyment.']

श्रीरामकृष्ण - निवृत्ति ही अच्छी है, प्रवृत्ति अच्छी नहीं । इस अवस्था के बाद मुझे तनख्वाह के बिल पर दस्तखत करने के लिए कहा था ! मैंने कहा, 'यह मुझसे न होगा । मैं तो कुछ चाहता नहीं । तुम्हारी इच्छा हो तो किसी दूसरे को दे दो ।

एकमात्र ईश्वर का दास हूँ - और किसका दास बनूँ ?

“मुझे खाने की देर होती थी, इसलिए मल्लिक ने भोजन पकाने के लिए एक ब्राह्मण नौकर रख दिया था। एक महीने में एक रुपया दिया था । तब मुझे लज्जा हुई, उसके बुलाने से ही दौड़ना पड़ता था ! - खुद जाऊँ वह बात दूसरी है ।
. "Nivritti alone is good, and not pravritti. Once, when I was in a God-intoxicated state, I was asked to go to the manager of the Kali temple to sign the receipt for my salary.3 They all do it here. But I said to the manager: 'I cannot do that. I am not asking for any salary. You may give it to someone else if you want.' I am the servant of God alone. Whom else shall I serve? Mallick noticed the late hours of my meals and arranged for a cook. He gave me one rupee for a month's expenses. That embarrassed me. I had to run to him whenever he sent for me. It would have been quite a different thing if I had gone to him of my own accord.
শ্রীরামকৃষ্ণ — নিবৃত্তিই ভাল — প্রবৃত্তি ভাল নয়। এই অবস্থার পর আমার মাইনে সই করাতে ডেকেছিল — যেমন সবাই খাজাঞ্চীর কাছে সই করে। আমি বললাম — তা আমি পারব না। আমি তো চাচ্ছি না। তোমাদের ইচ্ছা হয় আর কারুকে দাও।“এক ঈশ্বরের দাস। আবার কার দাস হব?“ — মল্লিক, আমার খেতে বেলা হয় বলে, রাঁধবার বামুন ঠিক করে দিছল। একমাস একটাকা দিছল। তখন লজ্জা হল। ডেকে পাঠালেই ছুটতে হত। — আপনি যাই, সে এক। “হীনবুদ্ধি লোকের উপাসনা। সংসারে এই সব — আরও কত কি?”} 
"सांसारिक जीवन व्यतीत करने में मनुष्य को न जाने कितने नीच आदमियों को खुश करना पड़ता है, और उसके अतिरिक्त और भी न जाने क्या क्या करना पड़ता है ।
"ऊँची अवस्था प्राप्त होने के पश्चात् तरह तरह के दृश्य मुझे दीख पड़ने लगे । तब माँ से कहा, ‘माँ यहीं से मन को मोड़ दो जिससे मुझे धनी लोगों की खुशामद न करनी पड़े ।
{"In leading the worldly life one has to humour mean-minded people and do many such things. After the attainment of my exalted state, I noticed how things were around me and said to the Divine Mother, 'O Mother, please change the direction of my mind right now, so that I may not have to flatter rich people.'
“এই অবস্থা যাই হলো, রকম-সকম দেখে অমনি মাকে বললাম — মা, ওইখানেই মোড় ফিরিয়ে দাও! — সুধামুখীর রান্না — আর না, আর না — খেয়ে পায় কান্না!” ('सुधामुखीर रान्ना~आर ना , आर ना ~  खेये पाए कान्ना' ~ সকলের হাস্য)

[বাল্য — কামারপুকুরে ঈশ্বর ঘোষাল ডিপুটি দর্শন কথা ]

[बाल्यकाल - कामारपुकुर में ईश्वर घोषाल डिप्टी मजिस्ट्रेट का रुतबा ]  

[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

"जिसका काम कर रहे हो, उसी का करो । लोग सौ पचास रुपये के लिए जी देते हैं, तुम तो तीन सौ महीना पाते हो । उस देश में मैंने डिप्टी देखा था, ईश्वर घोषाल को । सिर पर टोपी - गुस्सा नाक पर; मैंने लड़कपन में उसे देखा था; डिप्टी कुछ कम थोड़े ही होता है !
"जिसका काम कर रहे हो, उसी का करते रहो । एक ही आदमी की नौकरी से जी ऊब जाता है, फिर पाँच आदमियों की नौकरी ?

{(To Adhar) "Be satisfied with the job you have. People hanker after a post paying fifty or a hundred rupees, and you are earning three hundred rupees! You are a deputy magistrate. I saw a deputy magistrate at Kamarpukur. His name was Ishwar Ghoshal. He had a turban on his head. Men's very bones trembled before him. I remember having seen him during my boyhood. Is a deputy magistrate a person to be trifled with? "Serve him whom you are already serving. The mind becomes soiled by serving but one master. And to serve five masters!

“যার কর্ম কচ্ছ, তারই করো। লোকে পঞ্চাশ টাকা একশ টাকা মাইনের জন্য লালায়িত! তুমি তিনশ টাকা পাচ্ছ। ও-দেশে ডিপুটি আমি দেখেছিলাম। ঈশ্বর ঘোষাল। মাথায় তাজ — সব হাড়ে কাঁপে! ছেলেবেলায় দেখেছিলাম। ডিপুটি কি কম গা! যার কর্ম কচ্ছ, তারই করো। একজনের চাকরি কল্লেই মন খারাপ হয়ে যায়, আবার পাঁচজনের।”

"एक स्त्री किसी मुसलमान को देखकर मुग्ध हो गयी थी, उसने उसे मिलने के लिए बुलाया । मुसलमान आदमी अच्छा था, प्रकृति का साधु था । उसने कहा- 'मैं पेशाब करूँगा, अपनी हण्डी ले आऊँ ।' उस स्त्री ने कहा – ‘हण्डी तुम्हें यहीं मिल जायगी, मैं दूंगी तुम्हें हण्डी ।’ उसने कहा - 'ना, सो बात नहीं होगी! जिस हण्डी के पास मैंने एक दफे शर्म खोई, इस्तेमाल तो मैं उसी का करूंगा - नयी हण्डी के पास दोबारा बेईमान न हो सकूँगा ।’ यह कहकर वह चला गया । औरत की भी अक्ल दुरुस्त हो गयी; हण्डी का मतलब वह समझ गयी ।"

{"Once a woman became attached to a Mussalman and invited him to her room. But he was a righteous person; he said to her that he wanted to use the toilet and must go home to get his water-jar for water. The woman offered him her own, but he said: 'No, that will not do. I shall use the jar to which I have already exposed myself. I cannot expose myself before a new one.' With these words he went away. That brought the woman to her senses. She understood that a new water-jar, in her case, signified a paramour."

“একজন স্ত্রীলোক একজন মুছলমানের উপর আসক্ত হয়ে, তার সঙ্গে আলাপ করবার জন্য ডেকেছিল। মুছলমানটি সাধুলোক ছিল, সে বললে — আমি প্রস্রাব করব, আমার বদনা আনতে যাই। স্ত্রীলোকটি বললে — তা এইখানেই হবে, আমি বদনা দিব এখন। সে বললে — তা হবে না। আমি যে বদনার কাছে একবার লজ্জা ত্যাগ করেছি, সেই বদনাই ব্যবহার করব, — আবার নূতন বদনার কাছে নির্লজ্জ হব না। এই বলে সে চলে গেল। মাগীটারও আক্কেল হল। সে বদনার মানে বুঝলে উপপতি।”} 

[চাকরির নিন্দা, শম্ভু ও মথুরের আদর — নরেন্দ্র হেডমাস্টার ]

[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ]

[ हंसेश्वरी देवी का भक्त] 

🔆🙏पिता की मृत्यु के बाद नरेन्द्र कोई काम करेगा या नहीं 🔆🙏 

पिता का वियोग हो जाने पर नरेन्द्र को बड़ी तकलीफ हो रही है । माता और भाइयों के भोजन-वस्त्र के लिए वे नौकरी की तलाश कर रहे हैं । विद्यासागर के बहूबाजार वाले स्कूल में कुछ दिनों तक उन्होंने प्रधान शिक्षक (headmaster) का काम किया था ।
अधर - अच्छा, नरेन्द्र कोई काम करेगा या नहीं ?
श्रीरामकृष्ण - हाँ, वह करेगा । माँ और भाई जो हैं ।
अधर - अच्छा, नरेन्द्र की जरूरत पचास रुपये से भी पूरी हो सकती है और सौ रुपये से भी उसका काम चल सकता है । अब अगर उसे सौ रुपये मिलें तो वह काम करेगा या नहीं ?
श्रीरामकृष्ण - विषयी लोग ही धन का आदर करते हैं । वे सोचते हैं, ऐसी चीज और दूसरी न होगी शम्भू ने कहा - 'यह सारी सम्पत्ति ईश्वर के श्रीचरणों में सौंप जाऊँ, मेरी बड़ी इच्छा है ।' वे (ईश्वर) विषय थोड़े ही चाहते हैं ? वे तो ज्ञान, भक्ति, विवेक, वैराग्य यह सब चाहते हैं । 
"जब श्री राधाकान्त-मन्दिर से गहने चोरी चले गये, तब सेजो बाबू ने कहा - 'क्यों महाराज ! तुम अपने गहने न बचा सके ! हंसेश्वरी देवी # को देखो, किस तरह अपने गहने बचा लिये थे !’

MASTER: "Worldly people think highly of their wealth. They feel that there is nothing like it. Sambhu said, 'It is my desire to leave all my property at the Lotus Feet of God.' But does God care for money? He wants from His devotees knowledge, devotion, discrimination, and renunciation." After the theft of the jewelry from the temple of Radhakanta, Mathur Babu said: 'O God, You could not protect Your own jewelry! What a shame!' How Hanseswari saved!”

{শ্রীরামকৃষ্ণ — বিষয়ীরা ধনের আদর করে, মনে করে, এমন জিনিস আর হবে না।শম্ভু বললে — ‘এই সমস্ত বিষয় তাঁর পাদপদ্মে দিয়ে যাব, এইটি ইচ্ছা’ তিনি কি বিষয় চান? তিনি চান ভক্তি, বিবেক, বৈরাগ্য।“গয়না চুরির সময় সেজোবাবু বললে — ‘ও ঠাকুর! তুমি গয়না রক্ষা করতে পারলে না? হংসেশ্বরী কেমন রক্ষা করেছিল!”

[ माँ हंसेश्वरी देवी #  हंगशेश्वरी - "हँ" शब्द का उच्चारण सांस छोड़ते समय किया जाता है जबकि "सः" शब्द का उच्चारण सांस अंदर लेते समय किया जाता है। "हँ (होंग)" शब्द "शिव" को दर्शाता है और "सः" शब्द "मां शक्ति" को दर्शाता है।  पश्चिम बंगाल में हुगली जिले के 
बंडेल- त्रिवेणी अंचल के प्राचीन बाँसबेरिया नामक  शहर में स्थित मां हंसेश्वरी मंदिर एक शानदार सौंदर्य पूर्ण मन्दिर है। प्रसिद्ध माता हंसेश्वरी मंदिर में शिव एवं माता हंसेश्वरी की प्रतिमा संयुक्त रूप से विराजमान हैं। गंगा नदी के किनारे स्थित इस मंदिर में शक्ति स्वरूपा माता हंसेश्वरी काली के रूप में पूजी जाती हैं। 
एक किंवदंती के अनुसार राजा नृसिंह देव राय ने वर्ष 1792 से 1798 के दौरान वाराणसी में रहते हुए मानव प्रणाली में "कुंडलिनी" और "छह चक्रीय केंद्रों (छह चक्रों)" को गहराई से सीखा। ब्रिटेन जाने की अपनी योजना रद्द करके उन्होंने बंसबेरिया में "कुंडलिनी और योग अवधारणाओं" पर आधारित एक मंदिर बनाने का प्रयास किया।  जो  हंसेश्वरी देवी (माता काली का एक रूप) को समर्पित है।  19 वीं सदी में निर्मित यह मंदिर 21 मीटर ऊंचा है और इसमें 13 मीनारें हैं। प्रत्येक मीनार का शिखर कमल के फूल के आकार का है। तांत्रिक सिद्धांतों के अनुसार निर्मित, यह पांच मंजिला मंदिर मानव शरीर की संरचना का अनुसरण करता है - इरा, पिंगला, बजरक्ष, सुषुम्ना और चित्रिणी।]

[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

🔆संन्यासी के लिए कठोर नियम - मथुर के  जागीर (estate-भूसम्पत्ति ) लिखने का प्रसंग🔆

"सेजो बाबू ने मेरे नाम एक ताल्लुका लिख देने के लिए कहा था । मैंने काली-मन्दिर से उनकी बात सुनी। सेजो बाबू और हृदय एक साथ सलाह कर रहे थे । मैंने सेजो बाबू से जाकर कहा, 'देखो, ऐसा विचार मत करो । इसमें मेरा बड़ा नुकसान है ।'
{“একখানা তালুক আমার নামে লিখে দেবে (সেজোবাবু) বলেছিল। আমি কালীঘর থেকে শুনলাম। সেজোবাবু আর হৃদে একসঙ্গে পরামর্শ কচ্ছিল। আমি এসে সেজোবাবুকে বললাম, — দেখো, অমন বুদ্ধি করো না! — এতে আমার ভারী হানি হবে!”
 Once he wanted to give me an estate and consulted Hriday about it. I overheard the whole thing from the Kali temple and said to him: 'Please don't harbour any such thought. It will injure me greatly.'}
अधर - जैसी बात आप कह रहे हैं, सृष्टि के आरम्भ से अब तक ज्यादा से ज्यादा छः ही सात ऐसे हुए होंगे ।
श्रीरामकृष्ण - क्यों, त्यागी हैं क्यों नहीं ? ऐश्वर्य का त्याग करने से ही लोग उन्हें समझ जाते हैं । फिर ऐसे भी त्यागी पुरुष हैं, जिन्हें लोग नहीं जानते । क्या उत्तर भारत में ऐसे पवित्र पुरुष नहीं हैं ?
अधर - कलकत्ते में एक को जानता हूँ, वे देवेन्द्र ठाकुर हैं ।
श्रीरामकृष्ण - कहते क्या हो ! - उसने जैसा भोग किया वैसा बहुत कम आदमियों को नसीब हुआ होगा। जब सेजो बाबू के साथ मैं उसके वहाँ गया, तब देखा छोटे छोटे उसके कितने ही लड़के थे - डाक्टर आया हुआ था, नुस्खा लिख रहा था । जिसके आठ लड़के और ऊपर से लड़कियों है, वह ईश्वर की चिन्ता न करे तो और कौन करेगा ? इतने ऐश्वर्य का भोग करके भी अगर वह ईश्वर की चिन्ता न करता तो लोग कितना धिक्कारते !
निरंजन - द्वारकानाथ ठाकुर का सब कर्ज उन्होंने चुका दिया था ।
श्रीरामकृष्ण - चल, रख ये सब बातें । अब जला मत । शक्ति के रहते भी जो बाप का किया हुआ कर्ज नहीं चुकाता, वह भी कोई आदमी है ?
"हाँ, बात यह है कि संसारी लोग बिलकुल डूबे रहते हैं, उनकी तुलना में वह बहुत अच्छा था - उन्हें शिक्षा मिलेगी ।
>>"यथार्थ त्यागी भक्त और संसारी भक्त में बड़ा अन्तर है । यथार्थ संन्यासी - सच्चा त्यागी भक्त - मधुमक्खी की तरह है । मधुमक्खी फूल को छोड़ और किसी चीज पर नहीं बैठती । मधु को छोड़ और किसी चीज का ग्रहण नहीं करती । संसारी भक्त दूसरी मक्खियों के समान होते हैं जो बर्फियों पर भी बैठती हैं और सड़े घावों पर भी । अभी देखो तो वे ईश्वरी भावों में मग्न हैं, थोड़ी देर में देखो तो कामिनी और कांचन को लेकर मतवाले हो जाते हैं ।
{“ঠিক ঠিক ত্যাগীভক্ত আর সংসারীভক্ত অনেক তফাত। ঠিক ঠিক সন্ন্যাসী — ঠিক ঠিক ত্যাগীভক্ত — মৌমাছির মতো। মৌমাছি ফুল বই আর কিছুতে বসবে না। মধুপান বই আর কিছু পান করবে না। সংসারীভক্ত অন্য মাছির মতো, সন্দেশেও বসছে, আবার পচা ঘায়েও বসছে। বেশ ঈশ্বরের ভাবেতে রয়েছে, আবার কামিনী-কাঞ্চন লয়ে মত্ত হয়।
"There is an ocean of difference between a real all-renouncing devotee of God and a householder devotee. A real sannyasi, a real devotee who has renounced the world, is like a bee. The bee will not light on anything but a flower. It will not drink anything but honey. But a devotee leading the worldly life is like a fly. The fly sits on a festering sore as well as on a sweet-meat. One moment he enjoys a spiritual mood, and the next moment he is beside himself with the pleasure of 'woman and gold'.} 
"सच्चा त्यागी भक्त चातक के समान होता है । चातक स्वाति नक्षत्र के जल को छोड़ और पानी नहीं पीता, सात समुद्र और तेरह नदियाँ भले ही भरी रहें । वह दूसरा पानी हरगिज नहीं पी सकता । सच्चा भक्त कामिनी और कांचन को छू भी नहीं सकता, पास भी नहीं रख सकता, क्योंकि कहीं आसक्ति न आ जाय ।"
{“ঠিক ঠিক ত্যাগীভক্ত চাতকের মতো। চাতক স্বাতী নক্ষত্রের মেঘের জল বই আর কিছু খাবে না! সাত সমুদ্র নদী ভরপুর! সে অন্য জল খাবে না! কামিনী-কাঞ্চন স্পর্শ করবে না! কামিনী-কাঞ্চন কাছে রাখবে না, পাছে আসক্তি হয়।”
"A devotee who has really and truly renounced all for God is like the chatak bird. It will drink only the rain-water that falls when the star Svati is in the ascendant. It will rather die of thirst than touch any other water, though all around there may lie seven oceans and rivers full to the brim with water. An all-renouncing devotee will not touch 'woman and gold'. He will not keep 'woman and gold' near him lest he should feel attached."} 

(५) 

[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ]
 
🔆🙏चैतन्यदेव, श्रीरामकृष्ण और लोकमान्यता🔆🙏
अधर - चैतन्य ने भी भोग किया था ।
श्रीरामकृष्ण – (चौंककर) – क्या भोग किया था ?
अधर - उतने बड़े पण्डित थे, कितना मान था !
श्रीरामकृष्ण - दूसरों की दृष्टि में वह मान था, उनकी दृष्टि में कुछ भी नहीं था ।
"मुझे तुम जैसा डिप्टी माने अथवा यह छोटा निरंजन, मेरे लिए दोनों एक हैं, सच कहता हूँ । एक धनी आदमी मेरे वश में रहे ऐसा भाव मेरे मन में नहीं पैदा होता । मनोमोहन ने कहा , 'सुरेन्द्र कहता था, (नाबालिग) राखाल इनके (श्रीरामकृष्ण के) पास रहता है, इसका (अदालत में ) दावा हो सकता है' मैंने कहा, कौन है रे सुरेन्द्र ? जिसकी दरी और तकिया यहाँ है, और जो दस रुपया महीना देता है, उसकी इतनी हिम्मत कि वह ऐसी बातें कहे ?"
{“তুমি আমায় মানো আর নিরঞ্জন মানে, আমার পক্ষে এক — সত্য করে বলছি। একজন টাকাওয়ালা লোক হাতে থাকবে, এ মনে হয় না। মনোমোহন বললে, ‘সুরেন্দ্র বলেছে, রাখাল এঁর কাছে থাকে — নালিশ চলে।’ আমি বললাম, ‘কে রে সুরেন্দ্র? তার সতরঞ্চ আর বালিশ এখানে আছে। আর সে টাকা দেয়’?
MASTER: "It was honour in the sight of others, but nothing to him. Whether you — a deputy magistrate — or this youngster Niranjan honours me, it is all the same to me. And I tell you this truthfully: the idea of controlling a wealthy man never enters my mind. Surendra once said, rather condescendingly (एहसान जताते हुए)  , that Rakhal's father could sue me for letting Rakhal (Rakhal then was a minor.) stay with me. When I heard this from Manomohan, I said: 'Who is this Surendra? How does he dare make a remark like that? He keeps a carpet and pillow here and gives me some money. Is that his excuse for daring to make such an impudent remark?'"
अधर - क्या दस रुपये प्रति महिना देते हैं ?
श्रीरामकृष्ण - दस रुपये में दो महीने का खर्च चलता है । कुछ भक्त यहाँ रहते हैं, वह भक्तों की सेवा के लिए खर्च देता है । यह उसी के लिए पुण्य है, इसमें मेरा क्या है ? मैं राखाल और नरेन्द्र आदि को प्यार करता हूँ तो क्या किसी अपने लाभ के लिए ?
{শ্রীরামকৃষ্ণ — দশ টাকায় দু মাস হয়। ভক্তেরা এখানে থাকে — সে ভক্তসেবার জন্য দেয়। সে তার পুণ্য, আমার কি? আমি যে রাখাল, নরেন্দ্র এদের ভালবাসি, সে কি কোন নিজের লাভের জন্য?
MASTER: "That covers two months' expenses. The devotees stay here and he gives the money for their service. It is he who earns the merit. What is that to me? Is it for my personal gain that I love Narendra, Rakhal, and the others?"} 
मास्टर - यह प्यार माँ के प्यार की तरह है ।
श्रीरामकृष्ण - माँ फिर भी इस आशा से बहुत कुछ करती है कि नौकरी करके खिलायेगा । मैं जो इन्हें प्यार करता हूँ, इसका कारण यह है कि मैं इन्हें साक्षात् नारायण देखता हूँ - यह बात की बात नहीं है ।
MASTER: "But even behind the mother's love lies her hope that the children will support her later on. But I love these youngsters because I see in them Narayana Himself. These are not mere words.
{শ্রীরামকৃষ্ণ — মা তবু চাকরি করে খাওয়াবে বলে অনেকটা করে। আমি এদের যে ভালবাসি, সাক্ষাৎ নারায়ণ দেখি! — কথায় নয়।

[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

🔆🙏'अनन्याश्चिन्तयन्तो'-जो बिल्कुल निःस्वार्थ है उसका सारा भार ईश्वर लेते हैं 🔆🙏

श्रीरामकृष्ण (अधर से) --- “सुनो, दिया जलाने पर कीड़ों की कमी नहीं रहती । उन्हें पा लेने पर फिर वे सब बन्दोबस्त कर देते हैं, कोई कमी नहीं रह जाती । वे जब हृदय में आ जाते हैं, तब सेवा करनेवाले बहुत इकट्ठे हो जाते हैं ।
(To Adhar) "Listen. There is no scarcity of moths when the lamp is lighted. When God is realized, He Himself provides everything for His devotees. He sees that they do not lack anything. When God is enshrined in the heart, many people come forward to offer their services.} 
{শ্রীরামকৃষ্ণ (অধরের প্রতি) — শোনো! আলো জ্বাললে বাদুলে পোকার অভাব হয় না! তাঁকে লাভ কল্লে তিনি সব জোগাড় করে দেন — কোন অভাব রাখেন না। তিনি হৃদয়মধ্যে এলে সেবা করবার লোক অনেক এসে জোটে। 
"एक कम उम्र का संन्यासी किसी गृहस्थ के यहाँ भिक्षा के लिए गया । वह जन्म से ही संन्यासी था । संसार की बातें कुछ न जानता था । गृहस्थ की एक युवती लड़की ने आकर भिक्षा दी । संन्यासी ने कहा, 'माँ, इसकी छाती पर कितने बड़े-बड़े फोड़े हुए हैं ?' उस लड़की की माँ ने कहा, 'नहीं महाराज, इसके पेट से बच्चा होगा, बच्चे को दूध पिलाने के लिए ईश्वर ने इसे स्तन दिये हैं - उन्हीं स्तनों का दूध बच्चा पीयेगा ।' तब संन्यासी ने कहा, "फिर सोच किस बात की है ? मैं अब क्यों भिक्षा माँगू ? जिन्होंने मेरी सृष्टि की है, वे ही मुझे खाने को भी देंगे ।'
Once a young sannyasi went to a householder to beg his food. He had lived as a monk from his very birth; he knew nothing of worldly matters. A young daughter of the householder came out to give him alms. He turned to her mother and said, Mother, has this girl abscesses on her chest?' The mother said: 'No, my child. God has given her breasts to nurse her child when she becomes a mother. Thereupon the sannyasi said: "Then why should I worry about myself? Why should I beg my food? He who has created me will certainly feed me.} 
{“একটি ছোকরা সন্ন্যাসী গৃহস্থবাড়ি ভিক্ষা করতে গিছিল। সে আজন্ম সন্ন্যাসী। সংসারের বিষয় কিছু জানে না। গৃহস্থের একটি যুবতী মেয়ে এসে ভিক্ষা দিলে। সন্ন্যাসী বললে, মা এর বুকে কি ফোঁড়া হয়েছে? মেয়েটির মা বললে, না বাবা! ওর পেটে ছেলে হবে বলে ঈশ্বর স্তন করে দিয়েছেন — ওই স্তনের দুধ ছেলে খাবে। সন্ন্যাসী তখন বললে, তবে আর ভাবনা কি? আমি আর কেন ভিক্ষা করব? যিনি আমায় সৃষ্টি করেছেন তিনি আমায় খেতে দেবেন।
"सुनो, जिस यार के लिए सब कुछ छोड़कर स्त्री चली आयी है, उससे मौका आने पर वह अवश्य कह सकती है कि तेरी छाती पर चढ़कर भोजन-वस्त्र लूँगी ।
"Listen If a woman renounces everything for her paramour, she can say to him, if need be, You wretch! I shall sit on your chest and devour you.' 
{“শোনো! যে উপপতির জন্য সব ত্যাগ করে এল, সে বলবে না; শ্যালা, তোর বুকে বসব আর খাব।”
[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

[तोतापुरी की कहनी - राजा की साधुसेवा - काशी के दुर्गामन्दिर के निकट 
नानकपन्थी मठ के महन्त के साथ 1868 ई ० में ठाकुर का साक्षात्कार ] 
তোতাপুরীর গল্প — রাজার সাধুসেবা — ৺কাশীর দুর্গাবাড়ির নিকট নানকপন্থীর মঠে
ঠাকুরের মোহন্তদর্শন ১৮৬৮ খ্রীঃ ]

"न्यांगटा कहता था कि एक राजा ने सोने की थाली और सोने के गिलास में साधुओं को भोजन कराया था । काशी में मैंने देखा, बड़े-बड़े महन्तों का बड़ा मान है - कितने ही पश्चिम के अमीर हाथ जोड़े हुए उनके सामने खड़े थे और कह रहे थे - कुछ आज्ञा हो ।
“परन्तु जो सच्चा साधु है - यथार्थ त्यागी है, वह न तो सोने की चाली चाहता है और न मान । परन्तु यह भी है कि ईश्वर उनके लिए किसी बात की कमी नहीं रखते । उन्हें पाने के लिए प्रयत्न करते हुए जिसे जिस चीज की जरूरत होती है, वे पूरी कर देते हैं ।
Nangta told me of a certain king who gave a feast to the sadhus, using plates and tumblers of gold. I noticed in the monasteries at Benares with what great respect the abbots were treated. Many wealthy up-country people stood before them with folded hands, ready to obey their commands. But a true sadhu, a man who has really renounced everything, seeks neither a gold plate nor honour. God sees that he lacks nothing. God gives the devotee everything that is needed for realizing Him.} 
{“ন্যাংটা বললে, কোন রাজা সোনার থালা, সোনার গেলাস দিয়ে সাধুদের খাওয়ালে। কাশীতে মঠে দেখলাম, মোহন্তর কত মান — বড় বড় খোট্টারা হাত জোড় করে দাঁড়িয়ে আছে, আর বলছে, কি আজ্ঞা!“ঠিক ঠিক সাধু — ঠিক ঠিক ত্যাগী সোনার থালও চায় না, মানও চায় না। তবে ঈশ্বর তাদের কোন অভাব রাখেন না! তাঁকে পেতে গেলে যা যা দরকার, সব জোগাড় করে দেন। (সকলে নিঃশব্দ)
"आप हाकिम हैं - क्या कहूँ - जो कुछ अच्छा समझो, वही करो । मैं तो मूर्ख हूँ ।”
\(To Adhar) "You are an executive officer. What shall I say to you? Do whatever you think best. I am an illiterate person."}
{“আপনি হাকিম — কি বলবো! — যা ভালো বোঝ তাই করো। আমি মূর্খ।
अधर - (हँसते हुए, भक्तों से) - क्या ये मेरी परीक्षा ले रहे हैं ?
Adhar (smiling, to the devotees): "Now he is examining me."}
{অধর (সহাস্যে, ভক্তদিগকে) — উনি আমাকে এগজামিন কচ্ছেন। 
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - निवृत्ति  ही अच्छी है । (वैराग्य, अनासक्ति या  विकाररहित स्थिति dispassion, Detachment or non-attachment, ही अच्छी है ।) देखो न, मैंने दस्तखत नहीं किये । ईश्वर ही वस्तु है और सब अवस्तु ।
MASTER (smiling). "Dispassion alone is good. Do you see, I didn't sign the receipt tor my salary? God alone is real and all else is illusory."}
{শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — নিবৃত্তিই ভাল। দেখ না আমি সই কল্লাম না। ঈশ্বরই বস্তু আর সব অবস্তু!
हाजरा भक्तों के पास जमीन पर आकर बैठे । हाजरा कभी कभी 'सोऽहम-सोऽहम्' किया करते हैं। वे लाटू आदि भक्तों से कहते है - 'उनकी पूजा करके क्या होता है ? उन्हीं की वस्तु उन्हें दी जाती है ।’ एक दिन उन्होंने नरेन्द्र से भी यही बात कही थी ।
{Hazra entered the room and sat with the devotees on the floor. Hazra repeated now and then, "Soham! Soham!, I am He! I am He!" To Latu and other devotees he often said: "What does one gain by worshipping God with offerings? That is merely giving Him things that are His already." He had said this once to Narendra.
হাজরা আসিয়া ভক্তদের কাছে মেঝেতে বসিলেন। হাজরা কখন কখন সোঽহং সোঽহম্‌ করেন! লাটু প্রভৃতি ভক্তদের বলেন, তাঁকে পূজা করে কি হয়! — তাঁরই জিনিস তাঁকে দেওয়া। একদিন নরেন্দ্রকেও তিনি ওই কথা বলিয়াছিলেন। ঠাকুর হাজরাকে বলিতেছেন।}
 श्रीरामकृष्ण हाजरा से कह रहे हैं –“लाटू से मैंने कहा था, कौन किसकी भक्ति करता है ।”
हाजरा - भक्त आप ही अपने को पुकारता है ।
The Master spoke to him. MASTER: "I explained to Latu who the object of the devotee's worship is." 
HAZRA: "The devotee really prays to his own Self."
শ্রীরামকৃষ্ণ (হাজরার প্রতি) — লাটুকে বলেছিলাম, কে কারে ভক্তি করে।
হাজরা — ভক্ত আপনি আপনাকেই ডাকে।
श्रीरामकृष्ण - यह तो बड़ी ऊँची बात है । महाराज बलि से वृन्धावलि ने कहा था, तुम ब्रह्मण्य देव को क्या धन दोगे ?"तुम जो कुछ कहते हो, उसी के लिए साधन-भजन तथा उनके नाम और गुणों का कीर्तन है ।
{MASTER: "What you say is a very lofty thought. The aim of spiritual discipline, of chanting Gods name and glories, is to realize just that. 
শ্রীরামকৃষ্ণ — এ তো খুব উঁচু কথা। বলি রাজাকে বৃন্ধাবলী বলেছিলেন, তুমি ব্রহ্মণ্যদেবকে কি ধন দেবে? “তুমি যা বলছ, ওইটুকুর জন্যই সাধন-ভজন — তাঁর নামগুণগান।
"अपने भीतर अगर दर्शन हो जायँ तब तो सब हो गया । उसके देखने के लिए ही साधना की जाती है । और उसी साधना के लिए शरीर है । जब तक सोने की मूर्ति नहीं ढल जाती तब तक मिट्टी के साँचे की जरूरत रहती है । सोने की मूर्ति के बन जाने पर मिट्टी का साँचा फेंक दिया जाता है । ईश्वर के दर्शन हो जाने पर शरीर का त्याग किया जा सकता है ।
A man attains everything when he discovers his true Self in himself. The object of sadhana is to realize that. That also is the purpose of assuming a human body. One needs the clay mould as long as the gold image has not been cast; but when the image is made, the mould is thrown away. The body may be given up after the realization of God.} 
“আপনার ভিতর আপনাকে দেখতে পেলে তো সব হয়ে গেল! ওইটি দেখতে পাবার জন্যই সাধনা। আর ওই সাধনার জন্যই শরীর। যতক্ষণ না স্বর্ণপ্রতিমা ঢালাই হয়, ততক্ষণ মাটির ছাঁচের দরকার হয়। হয়ে গেলে মাটির ছাঁচটা ফেলে দেওয়া যায়। ঈশ্বরদর্শন হলে শরীরত্যাগ করা যায়।
“वे केवल अन्तर में ही नहीं है, बाहर भी हैं । काली मन्दिर में माँ ने मुझे दिखाया, सब कुछ चिन्मय है । माँ स्वयं सब कुछ बनी हैं - प्रतिमा, मैं, पूजा की चीजें, पत्थर - सब चिन्मय हैं ।
"इसका साक्षात्कार करने के लिए ही साधन-भजन, नाम-गुण-कीर्तन आदि सब हैं ।
"God is not only inside us; He is both inside and outside. The Divine Mother showed me in the Kali temple that everything is Chinmaya, the Embodiment of Spirit; that it is She who has become all this — the image, myself, the utensils of worship, the door-sill, the marble floor. Everything is indeed Chinmaya.
“তিনি শুধু অন্তরে নয়। অন্তরে বাহিরে! কালীঘরে মা আমাকে দেখালেন সবই চিন্ময়! — মা-ই সব হয়েছেন! — প্রতিমা, আমি, কোশা, চুমকি, চৌকাট, মার্বেল পাথর, — সব চিন্ময়!
 इसके लिए ही उनकी भक्ति करना है । वे लोग (लाटू आदि) अभी साधारण भावों को लेकर हैं - अभी उतनी ऊँची अवस्था नहीं हुई । वे लोग भक्ति लेकर हैं । और उनसे 'सोऽहम्' आदि बातें मत कहना ।"
{"The aim of prayer, of spiritual discipline, of chanting the name and glories of God, is to realize just that. For that alone a devotee loves God. These youngsters (Referring to Latu and the others.) are on a lower level; they haven't reached a high spiritual state. They are following the path of bhakti. Please don't tell them such things as 'I am He'. 
“এইটি সাক্ষাৎকার করবার জন্যই তাঁকে ডাকা — সাধন-ভজন — তাঁর নামগুন-কীর্তন। এইটির জন্যই তাঁকে ভক্তি করা। ওরা (লাটু প্রভৃতি) এমনি আছে — এখনও অত উচ্চ অবস্থা হয় নাই। ওরা ভক্তি নিয়ে আছে। আর ওদের (সোঽহম্‌ ইত্যাদি) কিছু বলো না।”
"जैसे माँ पक्षी अपने बच्चों के बारे में सोचती है, श्री रामकृष्ण अपने भक्तों की रक्षा के लिए सतर्क थे।
"Like the mother bird brooding over her chicks, Sri Ramakrishna was alert to protect his devotees.} 
পাখি যেমন শাবকদের পক্ষাচ্ছাদন করিয়া রক্ষা করে, দয়াময় গুরুদেব ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ সেই রূপে ভক্তদের রক্ষা করিতেছেন!
अधर और निरंजन जलपान करने के लिए बरामदे में गये । मास्टर श्रीरामकृष्ण के पास जमीन पर बैठे हुए हैं ।
Adhar and Niranjan went out on the porch to take refreshments. Presently they returned to the room.
অধর ও নিরঞ্জন জলযোগ করিতে বারান্দায় গেলেন। জল খাইয়া ঘরে ফিরিলেন। মাস্টার ঠাকুরের কাছে মেঝেতে বসিয়া আছেন।
[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 
[चार पास (four university degrees ) ब्राह्म लड़के की कहानी
 - "उसके साथ फिर से बहस करना"]
अधर - (सहास्य) - हम लोगों की इतनी बातें हो गयीं, ये (मास्टर) तो कुछ भी न बोले ।
ADHAR (smiling): "We talked about so many things. (Pointing to M.) But he didn't utter a word."
অধর (সহাস্যে) — আমাদের এত কথা হল, ইনি (মাস্টার) একটিও কথা কন নাই।
श्रीरामकृष्ण - केशव के दल का एक लड़का - वह चार परीक्षाएँ पास कर चुका था - सब को मेरे साथ तर्क करते हुए देखकर बस मुस्कराता था और कहता था, इनसे भी तर्क ! मैंने केशव सेन के यहाँ एक बार और उसे देखा था, परन्तु तब उसका वह चेहरा न रह गया था ।
MASTER: "In Keshab's organization there was a young man with four university degrees. He laughed when he saw people arguing with me. He said: 'To argue with him! How silly!' I saw him again, later on, at one of Keshab's meetings. But then he did not have the same bright complexion."
শ্রীরামকৃষ্ণ — কেশবের দলের একটি চারটে পাস করা ছোকরা (বরদা?), সব্বাই আমার সঙ্গে তর্ক করছে, দেখে — কেবল হাসে। আর বলে, এঁর সঙ্গে আবার তর্ক! কেশব সেনের ওখানে আর-একবার তাকে দেখলাম — কিন্তু তেমন চেহারা নাই।
विष्णुमन्दिर के पुजारी राम चक्रवर्ती श्रीरामकृष्ण के कमरे में आये । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - "देखो राम ! तुमने क्या दयाल से मिश्री की बात कही है ? नहीं-नहीं, इसके कहने की जरूरत नहीं है । बड़ी बड़ी बातें हो गयी हैं ।"
রাম চক্রবর্তী, বিষ্ণুঘরের পূজারী, ঠাকুরের ঘরে আসিলেন। ঠাকুর বলিতেছেন — “দেখো রাম! তুমি কি দয়ালকে বলেছ মিছরির কথা? না, না, ও আর বলে কাজ নাই। অনেক কথা হয়ে গেছে।
[ठाकुर के रात का भोजन - "मैं सब लोगों की चीजें नहीं खा सकता"]
रात में श्रीरामकृष्ण काली के प्रसाद की दो-एक पूड़ियों तथा सूजी की खीर खाते हैं । श्रीरामकृष्ण जमीन पर, आसन पर प्रसाद पाने के लिए बैठे । पास ही मास्टर बैठे हुए हैं, लाटू भी कमरे में हैं । भक्तगण सन्देश तथा कुछ मिठाइयाँ ले आये थे  एक सन्देश लेते ही श्रीरामकृष्ण ने कहा, यह किसका सन्देश है? इतना कहकर खीरवाले कटोरे से निकालकर उन्होंने वह नीचे डाल दिया । (मास्टर और लाटू से) - "यह मैं सब जानता हूँ । आनन्द चैटर्जी का लड़का ले आया है जो घोषपाड़ा-वाली औरत के पास जाता है ।"
Sri Ramakrishna sat on the floor for his supper. It was a light meal of a little farina pudding and one or two luchis that had been offered in the Kali temple. M. and Latu were in the room. The devotees had brought various sweets for the Master. He touched a sandesh and asked Latu, "Who is the rascal that brought this?" He took it out of the cup and left it on the ground. He said to Latu and M.: "I know all about him. He is immoral."
রাত্রে ঠাকুরের আহার একখানি-দুখানি মা-কালীর প্রসাদী লুচি ও একটু সুজির পায়েস। ঠাকুর মেঝেতে আসনে সেবা করিতে বসিয়াছেন। কাছে মাস্টার বসিয়া আছেন, লাটুও ঘরে আছেন। ভক্তেরা সন্দেশাদি মিষ্টান্ন আনিয়াছিলেন। সন্দেশ একটি স্পর্শ করিয়া ঠাকুর লাটুকে বলিতেছেন — ‘এ কোন্‌ শালার সন্দেশ?’ — বলিয়াই সুজির পায়েসের বাটি হইতে নিচে ফেলিয়া দিলেন। (মাস্টার ও লাটুর প্রতি) ‘ও আমি সব জানি। ওই আনন্দ চাটুজ্যেদের ছোকরা এনেছে — যে ঘোষপাড়ার মাগীর কাছে যায়।
 लाटू ने एक दूसरी बर्फी देने के लिए पूछा ।
LATU: "Shall I give you this sweet?"
লাটু — এ গজা দিব?
श्रीरामकृष्ण - किशोरी लाया है ।
MASTER: "Kishori brought it."
শ্রীরামকৃষ্ণ — কিশোরী এনেছে।
लाटू - क्या इसे दूँ ?
LATU: "Will it suit you?"}
লাটু — এ আপনার চলবে?
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) – हाँ ।
MASTER (smiling): "Yes."
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — হাঁ।
मास्टर अंग्रेजी पढ़े हुए हैं । श्रीरामकृष्ण उनसे कहने लगे –"सब लोगों की चीजें नहीं खा सकता । क्या यह सब तुम मानते हो ?"
{M. had received an English education. Sri Ramakrishna said to him: "It is not possible for me to eat things offered by anyone and everyone. Do you believe this?"}
মাস্টার ইংরেজী পড়া লোক। — ঠাকুর তাঁহাকে বলিতেছেন — “সকলের জিনিস খেতে পারি না! তুমি এ-সব মানো?”
मास्टर - देखता हूँ, सब धीरे धीरे मानना पड़ेगा ।
M: "Gradually I shall have to believe all these things."
মাস্টার — আজ্ঞা, ক্রমে সব মানতে হবে।
MASTER: "Yes, that is so."
श्रीरामकृष्ण पश्चिमवाले गोल बरामदे में हाथ धोने के लिए गये । मास्टर हाथ पर पानी छोड़ रहे हैं ।
शरत्काल है । चाँद निकला हुआ है । आकाश निर्मल है । भागीरथी का हृदय स्वच्छ दर्पण के समान झलक रहा है; भाटे का समय है, भागीरथी दक्षिण की ओर बह रही हैंमुँह धोते हुए श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं - 'तो नारायण को रुपया दोगे न ?' मास्टर - 'जी हाँ, जैसी आज्ञा, जरूर दूंगा ।
After finishing the meal Sri Ramakrishna washed his mouth. He said to M., "Then will you give the rupee to Naran?" "Yes," said M., "certainly I will."
ঠাকুর পশ্চিমদিকের গোল বারান্দাটিতে হাত ধুইতে গেলেন। মাস্টার হাতে জল ঢালিয়া দিতেছেন।শরৎকাল। চন্দ্র উদয় হওয়াতে নির্মল আকাশ ও ভাগীরথীবক্ষ ঝকমক করিতেছে। ভাটা পড়িয়াছে — ভাগীরথী দক্ষিণবাহিনী। মুখ ধুইতে ধুইতে মাস্টারকে বলিতেছেন, তবে নারাণকে টাকাটি দেবে?
মাস্টার — যে আজ্ঞা, দেব বইকি?
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 >>>विचारोत्तेजक परिच्छेद ~ 89 : यह विचारोत्तेजक और अत्यन्त गूढ़ अध्याय यहाँ समाप्त होता है, किन्तु अपनी शिक्षा के लिए इसमें छुपे ठाकुर के उपयोगी संदेशों को खोज करता हूँ -   
 भक्ति योग, कर्म योग , ज्ञान योग और राज योग को समझने के लिए पहले ठाकुर देव को अवतार वरिष्ठ के रूप में स्वीकार करना ही होगा ! 
केवल अवतार वरिष्ठ ठाकुरदेव ही हमारी आराधना का एक मात्र लक्ष्य क्यों हैं ? गीता के सातवें और आठवें अध्याय में श्रीकृष्ण ने भक्ति  योग को सर्वश्रेष्ठ मार्ग बताते हुए कहा था कि यही योग साधना की सबसे सरल पद्धति भी है। नौवें अध्याय में उन्होंने अपनी परम महिमा का व्याख्यान किया है ,जिससे विस्मय, श्रद्धा और भक्ति उत्पन्न होती है। वे अर्जुन को यह बोध कराते हैं कि यद्यपि वे अर्जुन के सम्मुख साकार रूप में (उनके सम्बन्धी रूप में ?) खड़े हैं, किन्तु उन्हें 'साधारण मनुष्य' (नश्वर-जीव) समझने की मूर्खता  नहीं करनी चाहिए
वे कारण स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि वे ही समस्त प्राकृतिक शक्तियों के अध्यक्ष हैं और सृष्टि सृजन के आरम्भ में अनगिनत जीवों के जीवन रूपों को उत्पन्न करते हैं।  और प्रलय के समय वापस उन्हें अपने में विलीन कर लेते हैं तथा सृष्टि के अगले चक्र में उन्हें पुनः प्रकट करते हैं। 
जिस प्रकार से शक्तिशाली वायु सभी स्थानों पर प्रवाहित होती है और सदैव आकाश में स्थित रहती है। उसी प्रकार से सभी जीव भगवान में निवास करते हैं फिर भी वे अपनी योगमाया शक्ति द्वारा तटस्थ पर्यवेक्षक बने रहकर इन सभी गतिविधियों से विलग और विरक्त रहते हैं। 

केवल भगवान [अर्थात =विष्णु के अवतार वरिष्ठ ठाकुरदेव] ही आराधना का एक मात्र लक्ष्य हैं। इसे स्पष्ट करते हुए भगवान श्रीकृष्ण बहुदेव वादी हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा के मिथ्या भ्रम का समाधान करते हैं। भगवान सभी प्राणियों के लक्ष्य, सहायक, शरणदाता और सच्चे मित्र हैं। जिन मनुष्यों की रुचि वैदिक कर्मकाण्डों का पालन करने में होती है, वे उन देवताओं का स्वर्गलोक प्राप्त करते हैं।  किन्तु जब उनके पुण्य कर्म क्षीण हो जाते हैं तब उन्हें लौटकर पुनः पृथ्वीलोक में आना पड़ता है लेकिन जो परम प्रभु की भक्ति में तल्लीन रहते है वे उनके परम धाम (वैकुण्ठ या रामकृष्णलोक-गुरुदेव -नवनीदा के साथ रहने) में जाते हैं। 
इसलिए भगवान श्रीकृष्ण उनके प्रति की जाने वाली विशुद्ध भक्ति को सर्वोत्तम बताते हुए उसकी प्रशंसा करते हैं। ऐसी भक्ति में लीन होकर जो कुछ हमारे पास है वह सब भगवान को समर्पित करते हुए हमें भगवान की इच्छा के साथ पूर्ण रूप से एकनिष्ठ होकर जीवनयापन करना चाहिए। ऐसी शुद्ध भक्ति पाकर हम कर्म के बंधनों से मुक्त रहेंगे और भगवान से गूढ़ संबंध स्थापित करने के लक्ष्य को पा सकेंगे। 
आगे श्रीकृष्ण दृढ़तापूर्वक कहते हैं कि वे न तो किसी का पक्ष लेते हैं और न ही किसी की उपेक्षा करते हैं। वह सभी प्राणियों के प्रति निष्पक्ष रहते हैं। यहाँ तक कि अधम पापी भी यदि उनकी शरण में आते हैं तब भी वे प्रसन्नता से उनको अपनाते हैं और उन्हें शीघ्र सद्गुणी बनाकर पवित्र कर देते हैं। वे वचन देते हैं कि उनके भक्त का कभी पतन नहीं हो सकता। 
अपने भक्तों के हृदय में आसीन होकर वे उनके अभावों की पूर्ति करते हैं और जो पहले से उनके स्वामित्व में होता है उसकी रक्षा करते हैं। इसलिए हमें सदैव उनका ही चिन्तन और आराधना करनी चाहिए तथा मन और शरीर को पूर्णतया उनके प्रति समर्पित कर उन्हें अपना परम लक्ष्य बनाना चाहिए।

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।

(गीता अध्याय 9 :राज विद्या योग : 9.22)

अनन्याः (without others) चिन्तयन्तः ( thinking)  मां (Me) ये (who) जनाः (men) पर्युपासते (worship)।  तेषां (of them) नित्याभियुक्तानां (of the ever-united) योगक्षेमं वहामि अहम् (carry 'I' ॥ २२ ॥

अनन्य भाव से मेरा चिन्तन- (अवतार वरिष्ठ ठाकुरदेव का चिंतन )  करते हुए जो भक्तजन मेरी ही (ठाकुर -माँ -स्वामीजी की ही) उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम (अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा) मैं वहन करता हूँ।।

यह श्लोक उस रहस्य को अनावृत करता है, जिसे जानकर आध्यात्मिक और भौतिक क्षेत्र में भी निश्चित रूप से महान सफलता प्राप्त की जा सकती है।  जो लोग यह जानकर कि एकमात्र आत्मा ही सम्पूर्ण विश्व का अधिष्ठान और पारमार्थिक सत्य है अनन्यभाव से मेरा अर्थात् आत्मस्वरूप (सच्चिदानन्द ठाकुरदेव) का ध्यान करते हैं, श्रीकृष्ण वचन देते हैं कि उन नित्ययुक्त भक्तजनों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।
योग का अर्थ है अधिक से अधिक आध्यात्मिक शक्ति और क्षेम का अर्थ है अध्यात्म का चरम लक्ष्य परमानन्द की प्राप्ति जो यज्ञ का फल है। इन योग और क्षेम को भगवान् ही पूर्ण करते हैं।अब यदि इसे व्यावहारिक जगत् के विभिन्न कार्य क्षेत्रों में दिनरात परिश्रम करने वाले लोगों के लिए सफलता का भेद बताने वाला मानें, तब भी यही श्लोक उस रहस्य को बताता हैं जिसके द्वारा संसारी लोग अपने जीवन में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकते हैं। 
हाथ में लिए हुए किसी भी कार्य में यदि मनुष्य एक ही लक्ष्य (Be and Make) को ध्यान में रखकर अपनी संकल्प शक्ति का उपयोग कर एक ही संकल्प - " मैं एक चरित्रवान मनुष्य बनूँगा !" को बनाये रख सकता है तो उसकी सफलता निश्चित समझनी चाहिए। परन्तु दुर्भाग्य है कि सामान्य जन एक ही संकल्प को बनाये नहीं रख पाते हैं। इसलिए उनका लक्ष्य सदैव परिवर्तित होता रहता है और उनसे दूर और दूर होता जाता है। हमारे युग की सबसे बड़ी त्रासदी (दुख की बात) यह प्रतीत होती है कि हम इस एक अत्यन्त स्पष्ट एवं सुबोध तथ्य की उपेक्षा करते हैं कि अच्छे विचारों से, अच्छे कर्म, अच्छे कर्मों से अच्छी आदतें , अच्छी आदतों से अच्छी प्रवृत्ति और अच्छी प्रवृत्ति से ही अच्छे चरित्र का निर्माण होता है। 

 🕊🏹Happiness acquired through Work🕊🏹

कर्म का प्रभाव चरित्र पर पड़ता है

[KARMA IN ITS EFFECT ON CHARACTER] 

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " Karma in its effect on character is the most tremendous power that man has to deal with.  Man is, as it were, a centre, and is attracting all the powers of the universe towards himself, and in this centre is fusing them all and again sending them off in a big current.... Good and bad, misery and happiness, all are running towards him and clinging round him; and out of them he fashions the mighty stream of tendency called character and throws it outwards. As he has the power of drawing in anything, so has he the power of throwing it out."  

जितनी भी शक्तियाँ मनुष्य के चरित्र को प्रभावित करती हैं, उन सबमें 'कर्म की शक्ति' (विवेक-प्रयोग शक्ति) सबसे अधिक प्रबल होती है; जिसे मनुष्य को स्वयं सम्भालना (manage करना) पड़ता है। मनुष्य, मानो एक प्रकार के केंद्र जैसा है, जो ब्रह्माण्ड की समस्त शक्तियों को अपनी ओर खींचता है, तथा इस केन्द्र में उन सबों को संयुक्त कर एक बड़ी तरंग (निःस्वार्थ प्रेम-तरंग) के रूप में बाहर भेजता है। शुभ-अशुभ, सुख-दुःख, मान-अपमान सब उसकी ओर दौड़े जा रहे हैं, और उससे लिपटे जा रहे हैं। और वह श्रेय-प्रेय विवेक द्वारा -अच्छे विचार- अच्छे कर्म -अच्छी आदत द्वारा सद्प्रवृत्ति की उस प्रबल धारा का निर्माण करता है, जिसे चरित्र कहते हैं, और उसी चरित्र को बाहर प्रेषित करता है। जिस प्रकार किसी चीज को [प्रेम या घृणा, स्वार्थपरता या निःस्वार्थपरता  को ब्लैक होल जैसा ?] अपनी ओर खींच लेने की शक्ति मनुष्य में है, उसी प्रकार उसे बाहर भेजने की शक्ति भी मनुष्य में है।"   

 "संसार के सारे क्रियाकलाप,  मनुष्य की इच्छा शक्ति का प्रकाश मात्र है। इस युग में विज्ञान के जो विभिन्न चमत्कार दिख पड़ रहे हैं, जिन वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण मनुष्य का जीवन उन्नत और सुखी हुआ है, चिकित्सा के क्षेत्र में जिन औषधियों के आविष्कारों से मनुष्य रोग-मुक्त हुआ है, उन सबके पीछे किसी एक या एकाधिक व्यक्ति की दृढ़ इच्छाशक्ति अवश्य रही है। जिस व्यक्ति ने अपने मन में यह दृढ़ संकल्प कर लिया था कि किसी खास रोग को दूर करने का उपाय वह अवश्य खोज निकालेगा। अनेक प्रकार के यंत्र, युद्धपोत आदि सभी मनुष्य की इच्छा शक्ति के विकास मात्र हैं। " and this will is caused by character, and character is manufactured by Karma.मनुष्य की यह इच्छाशक्ति चरित्र से उत्पन्न होती है और वह चरित्र कर्मों से गठित होता है। अतएव कर्म (श्रेय-प्रेय विवेक-प्रयोग के बाद) जैसा होगा, इच्छा- शक्ति का विकास भी वैसा ही होगा। संसार में प्रबल इच्छा शक्ति संपन्न जितने महापुरुष हुए हैं, वे सभी उत्कृष्ट कर्मी थे। उनकी इच्छाशक्ति ऐसी थी कि वे संसार को भी उलट-पुलट कर सकते थे। यह शक्ति उन्हें युग-युगांतर तक निरंतर कर्म करते रहने से प्राप्त हुई थी।

बुद्ध एवं ईसा मसीह में जैसी प्रबल इच्छाशक्ति थी, वह एक जन्म में प्राप्त नहीं की जा सकती और उसे हम आनुवंशिक शक्तिसंचार भी नहीं कह सकते, क्योंकि हमें ज्ञात है कि उनके पिता कौन थे। हम नहीं कह सकते कि उनके पिता के मुंह से मनुष्य जाति की भलाई के लिए शायद कभी एक शब्द भी निकला हो। जोसेफ (ईसा मसीह के पिता) के समान तो असंख्य बढ़ई आज भी हैं, बुद्ध के पिता के सदृश लाखों छोटे-छोटे राजा हो चुके हैं। अत: यदि वह बात केवल आनुवंशिक शक्तिसंचार के कारण हुई हो, तो इसका स्पष्टीकरण कैसे कर सकते हैं कि इस छोटे से राजा को, जिसकी आज्ञा का पालन शायद उसके स्वयं के नौकर भी नहीं करते थे। ऐसा एक सुंदर पुत्र-रत्न लाभ हुआ, जिसकी उपासना लगभग आधा संसार करता है?

इसी प्रकार जोसेफ नामक बढ़ई (काष्ठशिल्पी) तथा संसार में लाखों लोगों द्वारा ईश्वर के समान पूजे जाने वाले उसके पुत्र ईसा मसीह के बीच जो अंतर है, उसका स्पष्टीकरण क्या हो सकता है ? आनुवंशिक शक्तिसंचार के सिद्धांत द्वारा तो इसका स्पष्टीकरण नहीं हो सकता। बुद्ध और ईसा इस विश्व में जिस महाशक्ति का संचार कर गए, वह आई कहां से? उसका उद्भव कहां से हुआ? इतनी दृढ़ इच्छाशक्ति का संचय कैसे हुआ ? अवश्य युग-युगांतरों से वह उस स्थान में ही रही होगी और क्रमश: प्रबलतर होते-होते अंत में वही दृढ़ इच्छाशक्ति बुद्ध तथा ईसा मसीह के रूप में समाज में प्रकट हो गई और आज तक चली आ रही है। यह सब कर्म द्वारा ही नियमित होता है। यह सनातन नियम है कि जब तक कोई मनुष्य किसी वस्तु का उपार्जन न करे, तब तक वह उसे प्राप्त नहीं हो सकती।

संभव है, कभी-कभी हम इस बात को न मानें, परंतु आगे चलकर हमें इसका दृढ़ विश्वास हो जाता है। एक मनुष्य चाहे समस्त जीवन भर धनी होने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक करता रहे, हजारों मनुष्यों को धोखा दे, परंतु अंत में वह देखता है कि वह संपत्तिशाली होने का अधिकारी नहीं था। तब जीवन उसके लिए दुखमय और दूभर हो उठता है। हम अपने भौतिक सुखों के लिए भिन्न-भिन्न चीजों को भले ही इकट्ठा करते जाएं, परंतु वास्तव में जिसका उपार्जन हम अपने कर्मों द्वारा करते हैं, वही हमारा होता है। स्वामी जी कहते हैं - "With regard to Karma-Yoga, the Gita says that it is doing work with cleverness and as a science; by knowing how to work, one can obtain the greatest results." 

        गीता का कथन है - " योग: कर्मसु कौशलम्" -(2.50) ‘कर्मयोग का अर्थ है- कुशलता से अर्थात वैज्ञानिक प्रणाली से कर्म करना।’ समस्त कर्मों का उद्देश्य है मन के भीतर पहले से ही स्थित अनन्त शक्ति को प्रकट कर देना- आत्मा को जाग्रत कर देना। प्रत्येक मनुष्य के भीतर पूर्ण शक्ति और पूर्ण ज्ञान विद्यमान है। भिन्न-भिन्न कर्म इन महान शक्तियों को जाग्रत करने तथा बाहर प्रकट कर देने में साधन मात्र बनते हैं। "Man works with various motives. There cannot be work without motive." अपनी-अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य नाना प्रकार के कार्य करता है। कुछ लोग नाम-यश चाहते हैं, तो कुछ पैसा चाहते हैं। कुछ लोग अधिकार प्राप्त करना चाहते हैं, तो कुछ अपने बाद अपना नाम छोड़ जाने के लिए यत्न करते रहते हैं। कुछ लोग प्रायश्चित करने के लिए कर्म करते हैं। अपने जीवन में अनेक प्रकार के दुष्ट कर्म कर चुकने के बाद - प्रायश्चित के रूप में एक मन्दिर बनवा देते हैं या स्वर्ग प्राप्ति के लिए- पुरोहितों को धन देते हैं। 

कुछ ऐसे नर -रत्न (salt of the earth) होते हैं जो केवल कर्म के लिए ही कर्म करते हैं। वे नाम- यश अथवा स्वर्ग की भी परवाह नहीं करते। वे केवल इसलिए कर्म करते हैं कि उनके कर्म से दूसरों की भलाई होती है। कुछ लोग उच्चतर उद्देश्य लेकर गरीबों के प्रति भलाई , तथा मानव-जाति की सहायता के लिए अग्रसर होते हैं , क्योंकि वे शुभ में विश्वास करते हैं और उससे प्रेम करते हैं, वैसे लोग मानव जाति की (ज्ञान -चक्षु खोलने में?) सहायता करते हैं। नाम तथा यश के लिए किया गया कार्य [भीष्म परमार DAV स्कूल और K.RAI शिशु मन्दिर] बहुत शीघ्र फलित नहीं होता है। ये चीजें तब प्राप्त होती हैं जब हम जिंदगी की आखरी घड़ियाँ गिन रहे होते हैं।          >>>यदि कोई मनुष्य नि:स्वार्थ भाव से काम करे, तो क्या उसे कोई फलप्राप्ति नहीं होती? असल में तभी तो उसे सर्वोच्च फल (जीवनमुक्ति-आत्मसाक्षात्कार) की प्राप्ति  होती है। और सच पूछा जाए, तो नि:स्वार्थता अधिक फलदायी होती है, पर इसका अभ्यास करने का धैर्य बहुत थोड़े से लोगों में होता है ! [ Love, truth, and unselfishness are not merely moral figures of speech, but they form our highest ideal, because in them lies such a manifestation of power..... It is hard to do it, but in the heart of our hearts we know its value, and the good it brings.जो जन्मजात पैगम्बर, अवतार वरिष्ठ या नेता होते हैं ?]

" प्रेम, सत्य तथा नि:स्वार्थता  नैतिकतासम्बन्धी सिर्फ आलंकारिक वर्णन मात्र नहीं हैं, बल्कि अंतर्निहित शक्ति (पूर्णता -दिव्यता) की महान अभिव्यक्ति होने के कारण वे हमारे सर्वोच्च आदर्श हैं। यदि मनुष्य पांच मिनट भी बिना भविष्य का चिंतन किये , नि:स्वार्थ भाव से काम कर सके, तो वह एक 'महापुरुष' [ जीवनमुक्त शिक्षक, नेता या पैगम्बर]  बन सकने की क्षमता है। यद्यपि इसे कार्यरूप में परिणत करना कठिन है , फिरभी अपने ह्रदय के अन्तस्तल [ठाकुर, माँ, स्वामीजी -नवनीदा को देखकर] हम इसका महत्व समझते हैं - और जानते हैं कि इससे क्या मंगल होता है। यह आत्मसंयम (self-restraint, आत्मनिग्रहशक्ति की अत्यन्त महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है। इसके लिए प्रबल संयम की जरूरत पड़ती है। सभी बर्हिमुखी कर्मों की अपेक्षा इस आत्मसंयम में बहुत अधिक शक्ति खर्च हो जाती है। हमारी सभी इन्द्रियाँ - कर्म करने साधन, बहिर्मुखी हैं  इसीलिए मन की सारी बहिर्मुखी गति  किसी स्वार्थपूर्ण उद्देश्य [इन्द्रिय भोग की दिशा में ]की ओर दौड़ती रहने से छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाती है।  

  >>'Be and Make वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' के प्रशिक्षण द्वारा : यदि मन और इन्द्रियों की इस बहिर्मुखी गति के संयमित करना सीख लिया, तो इससे शक्ति की वृद्धि हो सकती है। इस आत्मसंयम से [(self-restraint- 24 X 7 यम, नियम का पालन करने से)] एक महान इच्छाशक्ति का प्रादुर्भाव हो सकता है। इससे एक ऐसे चरित्र का निर्माण हो सकता है, जो अपने ज्ञान से बुद्ध या ईसा (नवनीदा जैसा) संपूर्ण जगत को  रोशन कर सकता है। मूर्खों को इस रहस्य का पता नहीं रहता , परन्तु फिर भी वे मनुष्य -जाति पर शासन करने के इच्छुक रहते हैं।....जिस प्रकार कुछ पशु अपने से दो-चार कदम आगे कुछ नहीं देख सकते, इसी प्रकार हममें से ज्यादातर लोग दो-चार वर्ष के आगे भविष्य नहीं सकते। भविष्य की कल्पना के बारे में अधिकांश लोग नितांत अदूरदर्शी होते हैं। हम सभी में दूरदर्शिता के लिए धैर्य नहीं रहता और इसीलिए हम अनैतिक और नकारात्मक कर्म करने लगते हैं। यह हमारी कमजोरी है। शक्तिहीनता है। 

     समाज-सेवा के अत्यंत निम्नतम या सामान्य कर्मों को भी हमें कभी तिरस्कार या घृणा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। जो मनुष्य किसी श्रेष्ठ आदर्श को नहीं जानता (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा और SV जैसे किसी श्रेष्ठ आदर्श को नहीं जानता) उसे स्वार्थदृष्टि से ही, नाम-यश (या गुरुगिरि करने) के लिए ही - काम (रिलीफ वर्क या अन्नदान-वस्त्रदान आदि) करने दो। प्रत्येक मनुष्य को उच्चतर स्तर की समाज-सेवा की ओर बढ़ने तथा उन्हें समझने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। 'हमें कर्म करने का अधिकार है, कर्मफल में हमारा कोई अधिकार नहीं।" (गीता-2.47)   यदि तुम किसी मनुष्य की सहायता सचमुच करना चाहते हो, तो इस बात की कभी चिंता न करो कि उस व्यक्ति का व्यवहार तुम्हारे प्रति कैसा होना चाहिए। यदि तुम कोई श्रेष्ठ और उत्तम कार्य करना चाहते हो, तो यह कभी मत सोचो कि उसका फल क्या होगा? कर्मयोगी को सदैव कर्म करते रहना चाहिए। आदर्श पुरुष तो वे हैं, जो परम शांति व निस्तब्धता के बीच भी तीव्र कर्म करते रहने तथा प्रबल कर्मशीलता के बीच भी मरुस्थल जैसी शान्ति एवं निस्तब्धता  का अनुभव करते हैं। ऐसे व्यक्ति आत्मसंयम (24 X 7 यम -नियम और दोबार मनःसंयोग) का रहस्य जान कर अपने ऊपर विजय प्राप्त कर चुके होते हैं

परन्तु हमें आरम्भ से ही आरम्भ करना पड़ेगा , जो कार्य हमारे सामने आये , उसे अपने हाथ में लें और क्रमशः अपने को प्रतिदिन निःस्वार्थ बनाने का यत्न करें। हमें कर्म करते रहना चाहिए तथा यह पता लगाना चाहिए कि उस कार्य के पीछे हमारी प्रेरक शक्ति क्या है ? ऐसा होने पर हम देखेंगे कि आरम्भिक वर्षों में प्रायः हमारे सभी कार्यों के पीछे का हेतु या प्रेरक शक्ति (motives) स्वार्थपूर्ण रहता है। किन्तु अध्यवसाय के साथ कर्म में लगे रहने से यह स्वार्थपरायणता क्रमशः नष्ट हो जाएगी। और अन्त में वह समय आ जायेगा - जब हम वास्तव में स्वार्थरहित होकर -  होकर कार्य करने योग्य हो सकेंगे। [ घोर स्वार्थपरता या पशुता से मनुष्य बने और मनुष्य देवत्व अर्थात पूर्णतः निःस्वार्थ बनने का प्रयत्न करते रहें।] हम सभी यह आशा कर सकते हैं कि जीवन-पथ में संघर्ष करते करते किसी न किसी दिन वह समय अवश्य आएगा , जब हम पूर्ण रूप से निःस्वार्थ (100 % निःस्वार्थ) बन जायेंगे ; और ज्योंही हम उस अवस्था को प्राप्त कर लेंगे , हमारी समस्त शक्तियाँ केन्द्रीभूत हो जाएँगी तथा हमारा आभ्यन्तरिक ज्ञान (दिव्यत्व-ब्रह्मत्व) प्रकट हो जायेगा।   

 कोई भी व्यक्ति यदि पूर्ण रूप से नि:स्वार्थ होकर कर्म करेे, तो वह एक महापुरुष बन सकता है-अर्थात मानवजाति का मार्गदर्शक नेता- जीवनमुक्त शिक्षक, पैगम्बर बन सकता है !

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>>>*साभार ~ *卐~卐 *श्री दादूवाणी दर्शन* 卐~卐* 卐*Shri Daduvani Darshan*卐परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी/बुधवार, 13 मार्च 2024@Bijay Krishna Pandey*

शास्त्र कहते हैं .... कि अठारह दिनों के महाभारत युद्ध में उस समय की पुरुष जनसंख्या का 80% सफाया हो गया था। युद्ध के अंत में, संजय कुरुक्षेत्र के उस स्थान पर गए जहां सबसे महानतम युद्ध हुआ था। उसने इधर-उधर देखा और सोचने लगा कि क्या वास्तव में यहीं युद्ध हुआ था...? यदि युद्ध हुआ था तो जहां वो खड़ा है ... उसके नीचे की जमीन रक्त से सराबोर होनी चाहिए.., क्या वो आज उसी जगह पर खड़ा है ... जहां महान पांडव और कृष्ण खड़े थे ..? 

तभी एक वृद्ध व्यक्ति ने नरम और शांत स्वर में कहा "आप उस बारे में सच्चाई कभी नहीं जान पाएंगे !" संजय ने धूल के बड़े से गुबार के बीच में से दिखाई देने वाले भगवा वस्त्र पहने एक वृद्ध व्यक्ति को देखने के लिए उस ओर सिर को घुमाया। "मुझे पता है कि आप कुरुक्षेत्र युद्ध के बारे में पता लगाने के लिए यहां आये हैं, लेकिन आप उस महाभारत युद्ध के बारे में तब तक नहीं जान सकते .. जब तक आप ये नहीं जानते हैं कि असली युद्ध है क्या ।" बूढ़े आदमी ने रहस्यमय ढंग से कहा। 

"तुम महाभारत का क्या अर्थ है - जानते हो ?" महाभारत एक महाकाव्य है, एक गाथा है, एक वास्तविकता भी है,लेकिन निश्चित रूप से एक दर्शन भी है। वृद्ध व्यक्ति संजय को और अधिक सवालों के चक्कर में फसा कर मुस्कुरा रहा था। 

"क्या आप मुझे बता सकते हैं कि इस ग्रन्थ में दर्शन क्या है ?" संजय ने निवेदन किया। ज़रूर, बूढ़े आदमी ने कहना शुरू किया। पांडव कुछ और नहीं, बल्कि आपकी पाँच इंद्रियाँ हैं !दृष्टि, गंध, स्वाद, स्पर्श और श्रवण ..., और क्या आप जानते हैं .. कि कौरव क्या हैं ? उसने अपनी आँखें संकीर्ण करते हुए पूछा।

कौरव ऐसे सौ तरह के विकार हैं ... जो आपकी इंद्रियों पर प्रतिदिन हमला करते हैं। लेकिन आप उनसे लड़ सकते हैं और जीत भी सकते हैं। ...पर क्या आप जानते हैं कैसे ? संजय ने फिर से ना में सर हिला दिया। "जब कृष्ण आपके रथ की सवारी करते हैं !" 

यह कह वह वृद्ध व्यक्ति बड़े प्यार से मुस्कुराया और संजय अंतर्दृष्टि खुलने पर जो नवीन रत्न प्राप्त हुआ उस पर विचार करने लगा। .. कृष्ण (गुरु विवेकानन्द के गुरु अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण) आपकी आंतरिक आवाज, आपकी आत्मा, आपका मार्गदर्शक प्रकाश है और यदि आप अपने जीवन को उसके हाथों में सौंप देते हैं ... तो आपको चिंता करने की कोई आवश्कता नहीं है । संजय लगभग चेतन अवस्था में पहुंच गया था, लेकिन जल्दी से एक और सवाल लेकर आया। 

"फिर" कौरवों के लिए द्रोणाचार्य और भीष्म क्यों लड़ रहे हैं, अगर विकार रूपी कौरव अधर्मी एवम् दुष्ट प्रकृति के हैं ?" वृद्ध आदमी ने दुःखी भाव के साथ सिर हिलाया और कहा। "जैसे-जैसे आप बड़े होते हैं, अपने बड़ों के प्रति (अपने तथाकथित शुभचिन्तकों के प्रति) आपकी धारणा बदलती जाती है। जिन बुजुर्गों के बारे में आपने सोचा था ... कि आपके बढ़ते वर्षों में वे संपूर्ण थे.... अब आपको लगता है वे सभी परिपूर्ण नहीं हैं। उनमें दोष हैं 

और एक दिन आपको यह तय करना होगा कि उनका व्यवहार आपके लिए अच्छा या बुरा है। तब आपको यह भी एहसास हो सकता है कि आपको अपनी भलाई के लिए उनका विरोध करना या लड़ना भी पड़ सकता है। यह बड़े होने का (बुद्ध और ईसा जैसा महापुरुष बनने का) सबसे कठिन हिस्सा है .. और यही वजह है कि गीता महत्वपूर्ण है

संजय धरती पर बैठ गया, इसलिए नहीं कि वह थका हुआ था बल्कि इसलिए कि वह जो समझ ले कर यहां आया था वो एक एक करके धराशाई हो रही थी। लेकिन फिर भी उसने लगभग फुसफुसाते हुए एक और प्रश्न पूछा -"इस कर्ण के बारे में आपका क्या कहना है ? "आह!" वृद्ध ने कहा। "आपने अंत के लिए सबसे अच्छा प्रश्न बचा के रखा हुआ है।

कर्ण आपकी इंद्रियों का भाई है,वह इच्छा है, वह आप का ही एक हिस्सा है। ....लेकिन वो अपने प्रति अन्याय महसूस करता है,और आपके विरोधी विकारों के साथ खड़ा दिखता है। और हर समय विकारों के विचारों के साथ खड़े रहने के कोई ना कोई कारण और बहाना बनाता रहता है। क्या आपकी इच्छा, आपको, विकारों के वशीभूत हो कर उनमें बह जाने या अपनाने के लिए प्रेरित नहीं करती रहती है ?" संजय ने स्वीकारोक्ति में सिर हिलाया और भूमि की तरफ सिर करके सारे विचार श्रंखलाओं को क्रमबद्ध कर मस्तिष्क में बैठने का प्रयास करने लगा।

 और जब उसने अपने सिर को ऊपर उठाया वो वृद्ध व्यक्ति कहीं धूल के गुबारों के मध्य विलीन हो चुका था। लेकिन जाने से पहले वो जीवन का वो दिशा एवम् दर्शन दे गया था जिसे आत्मसात करने के अतिरिक्त अब कोई अन्य मार्ग नहीं बचा था।

#साभार #Rakesh_Saxena

>>>महाभारत का कर्ण कौन है ? : महाभारत के कर्ण को समझने के लिए पहले यह समझना होगा कि महाभारत के पाण्डव कौन हैं ? पाण्डव और कुछ नहीं हमारी पाँच इन्द्रियाँ हैं। पाँच इन्द्रियों के पाँच विषय हैं - रूप (दृष्टि या sight), रस (स्वाद या taste), गन्ध (smell), शब्द (श्रवण या hearing) और स्पर्श (touch) |  कर्ण कौन है ? (Who is Karna of Mahabharata?*Karna is the brother of your senses,* *He is the desire,* *He is a part of you...* *But he feels injustice towards himself* *And seems to be standing with your opposing vices* * And all the time he keeps making some reason or the other to stand with the thoughts of vices.**Doesn't your desire keep motivating you to get carried away by the vices or adopt them?*) 

*कर्ण आपकी इंद्रियों का भाई है,* *वह इच्छा है,* *वह आप का ही एक हिस्सा है....*कर्ण हमारे मन में छुपे हमारी पाँच इन्द्रिय विषयों- दृष्टि, श्रवण, स्पर्श, स्वाद और गन्ध  को भोगने की इच्छा का नाम है। अर्थात कर्ण हमारी इन्द्रियों का छठा भाई (मन) या इच्छा का नाम है - यह मन हमारा ही हिस्सा है (आत्मा का यंत्र है। ) लेकिन कर्ण (अर्थात अपनी बड़ाई सुनने की इच्छा मन को चंचल बनाये रखती है) इसलिए कर्ण हमेशा अपने प्रति अन्याय महसूस करता है। और हमारे विरोधी विकारों के साथ (रिपुओं के साथ) खड़ा दिखता है। और हर समय विकारों के विचारों के साथ खड़े रहने के कोई ना कोई कारण और बहाना बनाता रहता है। *क्या आपकी इच्छा, आपको, विकारों के वशीभूत हो कर* *उनमें बह जाने या अपनाने के लिए प्रेरित नहीं करती रहती है ?"

और कौरव क्या हैं ? कौरव ऐसे सौ तरह के विकार हैं ... जो हमारी इंद्रियों को भोग के लिए उकसाते रहते हैं, उन पर निरंतर हमला करते रहते हैं। **लेकिन हम उनसे लड़ सकते हैं और जीत भी सकते हैं...* "जब कृष्ण हमारे शरीर रूपी रथ के सारथि बनते हैं !"

 कृष्ण (अर्थात गुरु विवेकानन्द के गुरु अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण परमहंस) ही हमारी आंतरिक आवाज, हमारी आत्मा, हमारे मार्गदर्शक नेता हैं। और यदि  अपने जीवन को हम उनके हाथों में सौंप देते हैं ... तो मुझे (स्वामी जी के दास को) चिंता करने की कोई आवश्कता नहीं है । क्योंकि विवेकानन्द ही स्कन्द है और स्वयं माँ सारदा देवी स्कन्दमाता हैं ! 

>> महामण्डल के C-IN-C नवनीदा को संकल्प-शक्ति बढ़ाने वाले (Autosuggestion -स्व परामर्श सूत्र द्वारा ही) से ही चमत्कारी कर्मबल प्राप्त होता था । अतएव महामण्डल के Be and Make आन्दोलन की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य एकाग्र चित्त से निश्चित किये हुए अपने जीवन के लक्ष्य के विषय में सतत स्फूर्ति उत्साह और सार्मथ्य के साथ चिन्तन करे। वर्तमान पीढ़ी के अनेक नवयुवक, जो महामण्डल द्वारा आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण-शिविर में प्रतिवर्ष भाग लेते रहते हैं , वे भाग्यवान लड़के यद्यपि एक लक्ष्य को निरन्तर बनाये रखने में सक्षम हैं। परन्तु कार्यक्षेत्र में प्रवेश करके सफलता के लिए सर्व सम्भव प्रयत्न करने के लिए जिस तत्परता की आवश्यकता होती है उसका उनमें अभाव रहता है। 

लेकिन अपने चुने हुए कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए सम्पूर्ण प्रयत्न की आवश्यकता है- जिसमें कोई भी सम्भव प्रयत्न नहीं छोड़ा गया हो। दादा द्वारा प्रशंषित पुस्तक  "Law of Success - Napoleon hill" के अनुसार महामण्डल के युवा प्रशिक्षण शिविर में - Miracle that obeys you " ~ चमत्कार जो आपकी आज्ञा का पालन करेगा " सूत्र अब तक सफलता के रहस्य की दो कुञ्जियाँ बताई गयीं है।  जिनके अभाव में कोई भी कार्य यशस्वी नहीं हो सकता और वे हैं -(क) Autosuggestion' अर्थात 'स्व परामर्श सूत्र द्वारा ' संकल्प ग्रहण का सातत्य। 
  और (ख) एक निश्चित लक्ष्य के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करना। तीसरी मुख्य कुञ्जी है (ग) नित्ययुक्तता अर्थात् आत्मसंयम । जीवन में दर्शनीय व गौरवमय सफलता पाने के लिए आत्मसंयम आवश्यक है। जब जीवन में किसी महत्त्वाकांक्षा को लेकर मनुष्य अपने मार्ग पर अग्रसर होता है तब उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उसके लक्ष्य से भिन्न अनेक आकर्षक और प्रलोभित करने वाली योजनाएं (तीन ऐषणाएँ) उसके समक्ष प्रस्तुत की जाती हैं, जिनके चिन्तन में वह अपनी शक्ति का अपव्यय करके थक जाता है। और इस प्रकार अपने चुने हुए कार्य को भी सफलतापूर्वक करने में असमर्थ हो जाता है। उन्नति में बाधक ऐसे विघ्न से सुरक्षित रहने के लिए आत्मसंयम- (मनःसंयोग -विवेकदर्शन का अभ्यास सहित 3H विकास के 5 अभ्यास) अत्या-वश्यक है। 
>>श्री शंकराचार्य योगक्षेम के अर्थ इस प्रकार बताते हैं - अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करना योग और प्राप्त वस्तु का रक्षण करना क्षेम कहलाता है। प्रस्तुत विवेचन के सन्दर्भ में ये अर्थ भी उपयुक्त हैं और प्रयोज्य हैं। जीवन में जिन किसी भी रूप में विरोध और स्पर्धा संघर्ष और दुख आते हैं वे प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्थान-स्थान पर और समय-समय पर भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। मनुष्य के इस संघर्ष को मुख्यत दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। 
 (क) अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति के लिए संघर्ष और (ख) प्राप्त वस्तु के रक्षण के लिए प्रयत्न।  इन दोनों से उत्पन्न तनाव जीवन की शान्ति और आनन्द को छिन्नभिन्न कर देता है। जो व्यक्ति इन दो चिन्ताओं से मुक्त है वह सबसे भाग्यवान व्यक्ति है ! क्योंकि वह कृत-कृत्य है। इन दोनों के अभाव में उस पुरुष के जीवन में दुख की गन्धमात्र नहीं होती और वह अक्षय सुख को प्राप्त हो जाता है। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण वचन देते हैं कि जो कोई व्यक्ति उपर्युक्त सफलता की तीन कुञ्जियों को समझकर उद्यमता से उनका पालन करेगा उसे योग और क्षेम की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है।  क्योंकि उसको पूर्ण करने का उत्तरदायित्व स्वयं भगवान् स्वेच्छापूर्वक निभाते हैं- नहीं वहन करके ला देते हैं
 यहाँ भगवान् शब्द से तात्पर्य इस जगत् और उसमें होने वाली घटनाओं के पीछे जो शाश्वत नियम कार्य कर रहा है उससे समझना चाहिए। सिंचाई कार्य के लिए जब जल को उच्च से निम्न धरातल की ओर प्रवाहित किया जाता है, तो इच्छित क्षेत्र में उसके प्रवाह के लिए हमें केवल उसकी दिशा ही सही करनी होती है। तत्पश्चात् प्रकृतिक नियम के अनुसार वह जल स्वत ही उच्च से निम्न धरातल की ओर प्रवाहित होगा।  

जात्यन्तरपरिणामः प्रकृत्यापूरात् ॥

 (अध्याय 4: कैवल्य पाद - 4.2)

[जाति- जाति,अन्तर- मनुष्य से भिन्न जाति में परिवर्तन,परिणाम- फल, प्रकृति- उपादान कारण (प्रकृति की),आपूरात्- आपूरण होने से शरीर एवं इन्द्रियों का भिन्न जाति में परिवर्तन [घोर स्वार्थी पशु मानव से मनुष्य में, और मनुष्य से देवत्व में उन्नति] प्रकृति (उपादान कारण) के आपूरण से संभव होता है ।  अब यह मनुष्य  का कर्तव्य है कि वह अपने सुप्त सामर्थ्य को उद्घाटित करे  और अपनी पूर्णता (देवत्व)  को प्राप्त करे।

निमित्तमप्रयोजकं प्रकृतीनांवरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत् ॥

(अध्याय 4: कैवल्य पाद - 4.3)

निमित्तम्- धर्मादि योग साधन (3H विकास के 5 अभ्यास जात्यन्तर परिणाम में),अप्रयोजकम्- प्रेरक या संचालक नहीं है,प्रकृतीनाम्- उपादान कारणों के आपूरण में, तत:- उनसे अर्थात धर्मादि योग साधन तो केवल, क्षेत्रिकवत्- किसान के कार्य के समान। वरणभेद:- बाधाओं को दूर करते हैं !  
 Just as the father and mother attend to the bodily needs of their children, so also the Lord attends to the needs of His devotees. They direct their whole mind with full faith in the Lord. They make the Lord alone the sole object of their thought. For them, nothing is dearer in this world than the Lord. They live for the Lord alone. They think of Him only with singleness of purpose and one-pointed devotion. They behold nothing but the Lord. They love Him in all creatures-हाथी नारायण है, तो महावत भी नारयण है !  . When they lead such a life -[जो दुष्टों को काटता नहीं है, किन्तु फुँफकारता जरूर है।], the Lord takes the burden of securing gain (Yoga) and safety (Kshema) to Himself.
धर्म, क्रिया योग  आदि जो निमित्त साधन होते हैं वे (विवेकदर्शन अभ्यास सहित 3H विकास के 5 अभ्यास) उपादान कारण-प्रकृति के प्रेरक या संचालक नहीं होते हैं, अपितु किसान के समान अवरोध को दूर करते हैं । प्रकृति अपने स्वभाव से ही जात्यन्तर रूपी परिणाम में परिवर्तित होती है। इसी प्रकार जो कोई पुरुष अपने कार्यक्षेत्र में यहाँ वर्णित शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर पालन करने योग्य नियमों  के अनुसार कार्य करेगा (विवेकदर्शन का अभ्यास सहित 3H विकास 5 अभ्यास का पालन करेगा ?) सफलता ऐसी परिस्थितियों के सजग शासक के चरणों को चूमेगी।
गीता अध्याय-1 > अर्जुन विषाद योग : युद्ध के परिणाम पर शोक प्रकट करना। Lamenting the Consequences of War. 
गीता अध्याय -2 > सांख्य योग : विश्लेषणात्मक ज्ञान का योग। (Yoga of Analytical Knowledge)
गीता अध्याय-3 > कर्मयोग: कर्म का विज्ञान (science of karma)
गीता अध्याय- 4 >  ज्ञान कर्म संन्यास योग (Yoga of knowledge and discipline of action) वही शाश्वत ज्ञान है जिसका उपदेश उन्होंने आरम्भ में सर्वप्रथम सूर्यदेव को दिया था और फिर परम्परागत पद्धति से यह ज्ञान निरन्तर राजर्षियों तक पहँचा। अब वे अर्जुन, जो उनका प्रिय मित्र और परमभक्त है, के सम्मुख इस दिव्य ज्ञान को प्रकट कर रहे हैं। 
गीता अध्याय -5 > कर्म संन्यास योग/वैराग्य का योग (yoga of renunciation)
गीता अध्याय- 6 > ध्यानयोग (yoga of meditation)
गीता अध्याय- 7 > ज्ञान विज्ञान योग (दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग-(Yoga achieved by the realization of divine knowledge)
गीता अध्याय -8 > अक्षर ब्रह्म योग>अविनाशी भगवान का योग (Yoga of the Immortal Lord)
गीता अध्याय -9 > राज विद्या योग (Yoga by Raj Vidya)
गीता अध्याय- 10 > विभूति योग (Yoga attained by praising the infinite glories of God )
गीता अध्याय -11 > विश्वरूप दर्शन योग(भगवान के विराट रूप के दर्शन का योग :Yoga of darshan of God's huge form)
गीता अध्याय- 12 : भक्तियोग (भक्ति का विज्ञान-science of devotion)

भगवद्गीता (13 वां अध्याय) क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ विभाग योग : 13.8 से 13.12 तक में 'अहं ' को दास अहं बनाने की शिक्षा- चरित्र के 20 गुण  है। 

अमानित्वम् अदम्भित्वम् अहिंसा क्षान्तिः आर्जवम्। 
 आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यम् आत्मविनिग्रहः ॥ 13.8 ।।

>> दादा कहते थे -24 X 7 आत्मसंयम या यम-नियम का पालन, तथा प्रतिदिन 2 बार मनःसंयोग का अभ्यास  करने से इच्छाशक्ति को बढ़ाया जा सकता है- और निःस्वार्थ कर्म करने के विज्ञान को समझा जा सकता है।   
 
अमानित्व-(अपनेमें श्रेष्ठताके भाव-) का न होना, दम्भित्व-(दिखावटीपन) का न होना, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि, स्थिरता और मन का वश में होना।
 अमानित्व- स्वयं को पूजनीय व्यक्ति समझना, लोग मुझे माला पहनाये ? मान कहलाता है। उसका अभाव अमानित्व है। अदम्भित्व- अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन न करने का स्वभाव। अहिंसा -शरीर मन और वाणी से किसी को पीड़ा न पहुँचाना। क्षान्ति- किसी के अपराध किये जाने पर भी उसके प्रति मन में विकार का न होना क्षान्ति अर्थात् सहन शक्ति है। आर्जव हृदय का सरल भाव- अकुटिलता। आचार्योपासना गुरु की केवल शारीरिक सेवा ही नहीं वरन् उनके हृदय की पवित्रता और बुद्धि के तत्त्वनिश्चय के साथ तादात्म्य करने का प्रयत्न ही वास्तविक आचार्योपासना है। शौचम्- शरीर, वस्त्र, बाह्य वातावरण, पढ़ने का टेबल, कुर्सी, सो कर उठने पर बिस्तर-चादर समेटना, भोजन की थाली, तथा मन की भावनाओं, विचारों, उद्देश्यों, तथा अन्य वृत्तियों की शुद्धि भी इस शब्द से अभिप्रेत है। 
स्थैर्यम्-[Autosuggestion: "The Miracle That  Obeys You" (चमत्कार जो आप की आज्ञा का पालन करेगा।) अपने चरित्रवान मनुष्य बन जाने के लक्ष्य पर स्थिर रहने के लिए-
 जीवन के सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दृढ़ निश्चय और एकनिष्ठ प्रयत्न पर अटल रहने का -स्वपरामर्श- स्वत: सुझाव।
आत्मसंयम जगत् के साथ व्यवहार करते समय इन्द्रियों तथा मन पर संयम होना-विवेक-दर्शन का अभ्यास
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम् अनहङ्कारः एव च। 
 जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥ 13.9।।

 इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम् > इन्द्रियों के विषयों के प्रति वैराग्य' -  इसका अर्थ जगत् (बिजनेस जगत या होटल तारा टॉवर) से पलायन करना नहीं है। विषयों के साथ रहते हुए भी मन से उनका चिन्तन न करना तथा उनमें आसक्त न होना, अर्थात  "रामकाज किये बिना मोहे कहाँ विश्राम ?" वाला भाव रखना - यह वैराग्य का अर्थ है। जो व्यक्ति विषयों से दूर भागकर कहीं जंगलों में बैठकर उनका चिन्तन करता रहता है, वह तो अपनी वासनाओं का केवल दमन कर रहा होता है।  ऐसे पुरुष को भगवान् ने मिथ्याचारी कहा है। 

अनहङ्कारः देहबुद्धि से मैं प्रभु का दास हूँ और माँ तारा श्री सारदा देवी का बेटा वाला अहंकार रखने  के अलावा अन्य किसी भी धन-मान,पद-प्रतिष्ठाआदि में मिथ्या अहंकार का अभाव, इन्द्रिय-विषयों के प्रति वैराग्य, जन्म,जरा,  मृत्यु, तथा बुढ़ापा जन्य -व्याधियों में दुःख रूपी दोषों को बार -बार देखना। 
>>>अनहङ्कारः > अर्थात दासो अहं वाला भाव रखना ! विवेकानन्द के काज Be and Make' किये बिना मोहि कहाँ बिश्राम : अहंकार का अभाव - व्यष्टिगत जीवभाव का उदय केवल तभी होता है,  जब हम शरीरादि उपाधियों के साथ तथा उनके अनुभवों के साथ तादात्म्य करते हैं। अपने शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थित होने के लिए आवश्यक पूर्व गुण यह है कि हम इस मिथ्या तादात्म्य को विचार के द्वारा नष्ट कर दें। 
 >>>दुखदोषानुदर्शनम्> वर्तमान दशा से असन्तुष्टि ही हमें नवीन, श्रेष्ठतर और सुखद स्थिति को प्राप्त करने के लिए प्रेरित कर सकती है। यह प्रक्रिया भूमि जोतने के पूर्व घास-पात या खर-पतवार को दूर करने के तुल्य ही है। 
जब तक किसी राष्ट्र या समाज के लोगों में इस बात की जागरूकता नहीं आती है कि उनकी वर्तमान दशा अत्यन्त घृणित और दुखपूर्ण है, तब तक वे अपने दुखों को भूलकर अपने आप को ही उस दशा में जीने के अनुकूल बना लेते हैं। यही कारण है कि प्रत्येक सच्चा नेता, पैगम्बर समाज सेवक, जीवनमुक्त शिक्षक, 'CINC नवनीदा' लोगों को उनकी पतित और दरिद्रता की दशा का बोध कराता है। जब लोगों में इस बात की जागरूकता आ जाती है, तब वे उत्साह के साथ, श्रेष्ठतर आनन्द और समृद्ध जीवन जीने का प्रयत्न करने को तत्पर हो जाते हैं।
यही पद्धति राजनितिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में भी प्रयोज्य है। जब तक साधक को अपने आन्तरिक व्यक्तित्व के बन्धनों का पूर्णतया भान नहीं होता है, तब तक वह स्वनिर्मित दुख के गर्त में पड़ा रहता है।  और उससे बाहर आने के लिए कदापि प्रयत्न नहीं करता है।
मानव शरीर और मन में अपने आप को परिस्थिति के अनुकूल बना लेने की अद्भुत् क्षमता है। वे अत्यन्त घृणित अवस्था को भी स्वीकार कर लेते हैं यहाँ तक कि उसी में सुख भी अनुभव करने लगते हैं। इसलिए यहाँ साधक को अपनी वर्तमान दशा के दोषों को विचारपूर्वक देखने का उपदेश दिया गया है। 
एक बार जब कोई व्यक्ति (????) अपनी बद्धावस्था को पूर्णतया समझ लेगा, तब उसमें आवश्यक आध्यात्मिक जिज्ञासा, बौद्धिक सार्मथ्य, मानसिक उत्साह और शारीरिक साहस आदि समस्त गुण आ जायेंगे। जिनके द्वारा वह आध्यात्मिक पूर्णता की उपलब्धि सरलता से कर सकेगा। जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि में दोष का दर्शन प्रत्येक शरीर को ये विकार प्राप्त होते हैं। इनमें से प्रत्येक विकार नये-नये दुखों का स्रोत है। इन समस्त विकारों से प्राप्त होने वाले दुखों के प्रति जागरूकता आ जाने पर वह पुरुष उनसे मुक्ति पाने के लिए अधीर हो जाता है।  दुख के विरुद्ध विद्रोह का यह भाव ही वह प्रेरक तत्त्व है, जो साधकों को पूर्णत्व के शिखर तक शीघ्रता से पहुँचने के लिए प्रेरित करता है। आगे कहते हैं-
असक्तिः अनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु। 
नित्यं च समचित्तत्वम् इष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥ 13.10  ॥
अनभिष्वङ्ग (तादात्म्य का अभाव) आसक्ति से रहित होना- पुत्र,  स्त्री, घर आदि में एकात्मता (घनिष्ठ सम्बन्ध) न होना और अनुकूलता-प्रतिकूलता की प्राप्ति में चित्त का नित्य सम रहना।
>>आसक्ति : अर्जित की हुयी वस्तुओं से होने वाली सामान्य प्रीति को सक्ति अर्थात् संग कहते हैं। उसका अभाव असक्ति कहलाता है। हमें जो दुःख होता है वह विषयों के कारण नहीं हमारे उसके साथ के मानसिक संग के कारण होता है। 
जैसै अग्नि स्वयं किसी को नहीं जला सकती, जब तक कि कोई उसे स्पर्श न करे। पुत्र, भार्या और गृहादिक में अनभिष्वंग अति स्नेह को अभिष्वंग कहते हैं। अत उसका अभाव ही अनभिष्वंग कहलाता है। जब किसी वस्तु या व्यक्ति (BH) के प्रति सामान्य प्रीति बढ़कर आसक्ति का रूप ले लेती है तब उसे 'अभिष्वंग' कहते हैं। इस आसक्ति का लक्षण है यह है कि मनुष्य को अपनी प्रिय वस्तु या व्यक्ति के साथ इतना तादात्म्य हो जाता है कि उनके सुखदुख उसे अपने ही अनुभव होते हैं। इसका स्पष्ट उदाहरण है पुत्र के प्रति माता (तारा ?) की आसक्ति का। इस प्रकार की आसक्ति के कारण व्यक्ति के मन में सदा विक्षेप बना रहता है और वह कार्य करने में भी अकुशल हो जाता है
हमें अपने आन्तरिक व्यक्तित्व के चारों ओर विवेक की ऐसी दीवार खड़ी करनी चाहिये कि ये सभी विक्षेप हमसे दूर रहें। और मन का सन्तुलन (Poise -नारद जी की ब्रह्म सत्य 'जगत मिथ्या की अवधारणा )   सदा बना रहे जिसके बिना किसी प्रकार की प्रगति या समृद्धि कदापि संभव नहीं होती। इस सर्वोच्च अवस्था को  प्रिय और अप्रिय परिस्थितियों में चित्त की समता को सतत अभ्यास करते रहने से प्राप्त किया जा सकता है। 
यदि मनुष्य अपनी मूढ़ प्रीति और आसक्ति के बन्धनों से मुक्त हो जाये, तो उसे अपने में ही अतिरिक्त शक्ति का अक्षय भण्डार प्राप्त होता है।  जिसका उसे सही दिशा में सदुपयोग करना चाहिये- अन्यथा वही शक्ति (सिद्धि) आत्मघातक सिद्ध हो सकती है। वह सही दिशा क्या है इसे अगले श्लोक में बताते हैं-
मयि च अनन्ययोगेन भक्तिः अव्यभिचारिणी।
 विविक्तदेशसेवित्वम् अरतिः जनसंसदि ॥13.11॥
मेरे में अनन्ययोग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति का होना, एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव होना और  (असंस्कृत-तसेड़ी,नसेड़ी जनों) के समुदाय में अरुचि- में प्रीति का न होना।
>>अनन्ययोग से मुझ में अव्यभिचारिणी भक्ति अनन्यता का अर्थ है मन का ध्येय विषय में एकाग्र हो जाना। इसके लिये विजातीय वृत्तियों का सर्वथा त्याग करके ध्येयविषयक वृत्ति को ही बनाये रखने का अभ्यास आवश्यक होता है।
 ध्यान या भक्ति में इस स्थिरता के नष्ट होने के लिए दो कारण हो सकते हैं या तो साधक के मन की अस्थिरता या फिर ध्येय का ही निश्चित नहीं होना जब तक ये दोनों ही स्थिर नहीं होते, भक्ति या ध्यान सफल नहीं हो सकता।
 यदि हमारी भक्ति एक मूर्ति से अन्य मूर्ति में परिवर्तित होती रहती है तो एकाग्रता कैसे सम्भव हो सकती है ? इसलिये यहाँ कहा गया है कि योग में प्रगति और विकास के लिए अनन्य योग से परमात्मा की भक्ति आवश्यक है। यहाँ लक्ष्य की स्थिरता के विषय में कहा गया है।अविभाजित ध्यान तथा मन में उत्साह के होने पर पर भक्ति में एकाग्रता आना सरल कार्य हो जाता है। अन्यथा मन ही विद्रोह करके स्वकल्पित मिथ्या आकर्षणों में भटकता रह सकता है।
ध्यानाभ्यास के समय मन के अत्यन्त निम्न और घृणित कोटि के विषयों में विचरण करने के विषय में जिस प्रतीकात्मक वाक्य का प्रयोग भगवान् ने किया है, उससे ही ज्ञात होता है कि वे मन के इस विचरण की कितनी कठोरता से निन्दा करना चाहते हैं। वे कहते हैं कि साधक की परम्परा में अव्यभिचारी भक्ति होनी चाहिये। 
व्याभिचार का अर्थ है किसी तुच्छ लाभ के लिये अपनी क्षमताओं एवं सुन्दरता का विक्रय करना। ईश्वर में समाहित चित्त ही ध्यान में एकनिष्ठ हो सकता है। यहाँ अव्यभिचारी शब्द से साधक को यह चेतावनी दी जाती है कि उसका ध्यान अनेक देवीदेवताओं अथवा विचारों में न भटके; वरन् चुने हुये ध्येय के साथ एकनिष्ठ रहे।इस प्रकार का सुगठित जीवन तथा ध्यान की स्थिरता तब सम्भव होती है, जब साधक उनके अनुकूल वातावरण में रहता है। 
इस बात को इन दो गुणों से दर्शाया गया है (क) एकान्तवास का सेवन तथा (ख) जनसमुदाय में अरुचि। मनुष्य का मन जितना अधिक शुद्ध एवं भोगों से विरत होता जाता है उसकी ज्ञान की जिज्ञासा उतनी ही अधिक बढ़ती जाती है। स्वाभाविक ही है कि फिर वह ज्ञान की पिपासा को शान्त करने के लिए लोगों के समुदाय से दूर जहाँ ज्ञान उपलब्ध हो वहाँ चला जाता है। यह बात कवि, लेखक, वैज्ञानिक आदि लोगों के विषय में भी सत्य है। इन सबको फिर एक ही लक्ष्य दिखाई देता है और इन्हें लौकिक बातों में कोई रुचि नहीं रह जाती।यहाँ जिस समुदाय में अरुचि रखने को कहा गया है वह असंस्कृत, असभ्य, भोगों में आसक्त जनों के समुदाय के सम्बन्ध में कहा गया है न कि सन्त पुरुषों के संग से। सत्संग तो ज्ञान का साधक होता है बाधक नहीं। एकान्तवास तथा जनसमुदाय से अरुचि का कोई व्यक्ति यह विपरीत अर्थ न समझे कि यहाँ जगत् से पलायन या समाज से द्वेष करने को कहा,गया है

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्। 
 एतत् ज्ञानम् इति प्रोक्तम् अज्ञानं यत् अतः अन्यथा ॥ 13.12॥
 
अध्यात्मज्ञान में नित्यत्व अर्थात् स्थिरता तथा तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा को सब जगह देखना - यह सब तो ज्ञान कहा गया है, और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है।।
 ज्ञान को दर्शाने वाले इस प्रकरण के इस अन्तिम श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण दो और गुणों को बताते हैं- अध्यात्म ज्ञान में स्थिरता तथा तत्त्वज्ञानार्थ का दर्शन। आत्मज्ञान में स्थिरता आत्मज्ञान जीवन में अनुभव करके जीने का विषय है केवल बुद्धि से सीखने का नहीं। 
यदि आत्मा ही एक मात्र सर्वव्यापी पारमार्थिक सत्य है तब साधक को अपने व्यक्तित्व के सभी स्तरों पर आत्मदृष्टि से रहने का प्रयत्न करना चाहिये। स्वयं को आत्मा जानकर उसी बोध में स्थित होकर साधक को अपने जीवन के समस्त व्यवहार करने चाहिये। इसके लिये सतत अभ्यास की आवश्यकता होती है।
>>आत्मसाक्षात्कार के लिए अनुकूल चरित्र के 20 (24?) गुण :
1.अमानित्वम्- humility -आत्मश्लाघाराहित्यम्
2.अदम्भित्वम् -unpretentiousness- दम्भाभावः,
3.अहिंसा-noninjury-अपीडनम्, \
4.क्षान्तिः-forgiveness-सहनम्-श,स,ष!, 
5.आर्जवम्- uprightness-अवक्रत्वम्, 
6.आचार्योपासनम्-service of the teacher-गुरुसेवा।, 
7.शौचम्- purity- शुद्धिः,
8.स्थैर्यम्-steadiness-सन्तुलन, 
9.आत्मविनिग्रहः self-control-आत्मसंयम .
10. इन्द्रियार्थेषु  वैराग्यम् -dispassion in sense objects,
11. अनहङ्कारः- absence of egoism, 
12.जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्-perception of evil in birth, old age, sickness and pain.
13. आसक्ति रहितं -nonattachment. 
14.अनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु = अनभिनिवेशः तनयभार्यानिवासादिषु  in son, wife, home and the rest -nonidentification of the Self, 
15.  समचित्तत्वम् -even mindedness,  
16. भक्तिः अव्यभिचारिणी-  unswerving devotion,
17. विविक्तदेश सेवित्वम् resort to solitary places,
18. अरतिः  जनसंसदि - distaste,  in the society of men.  
19. अध्यात्मज्ञाननित्यत्वम् : -constancy in Self-knowledge,
20 . तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्- perception of the end of true knowledge,  

 संभवत अर्जुन के क्रियाशील स्वभाव से बाध्य होकर या फिर भगवान् श्रीकृष्ण के समाज सुधारक होने से जो कुछ भी हो भगवद्गीता हमें जिस रूप में उपलब्ध है वह आत्मोपलब्धि के विषय का अत्यन्त व्यावहारिक शास्त्रग्रन्थ है। 
जब कभी भी गीताचार्य अपने शिष्य को किसी मानसिक या बौद्धिक गुणविशेष को विकसित करने का उपदेश देते हैं तब तत्काल ही वे उसके सम्पादन का व्यावहारिक अभ्यसनीय उपाय भी बताते हैं। 
यदि कोई साधक पूर्व के तीन श्लोकों में वणिर्त गुणों का स्वयं में विकास करता है तो वह निश्चित ही अपने आन्तरिक और बाह्य जीवन व्यवहार में बहुत अधिक शक्ति का संचय कर सकता है। यह श्लोक बताता है कि किस प्रकार इस अतिरिक्त शक्ति का वह सही दिशा में सदुपयोग करे  जिससे कि आत्मविकास में उसका लाभ मिल सके।
गीता अध्याय 13 के अनुसार विवेक-दर्शन का अभ्यास ही तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् अमानित्वादि गुणों का विकास जिसके निमित्त करने को कहा गया है वह है तत्त्वज्ञान और उस तत्त्वज्ञान के अर्थ का जो लक्ष्य है  उसका दर्शन करना। 
 संसार बन्धनों की उपरामता अर्थात् मोक्ष ही वह लक्ष्य है। लक्ष्य का सतत स्मरण करते रहने से साधनाभ्यास में प्रवृत्ति और उत्साह बना रहता है जो लक्ष्यप्राप्ति में साहाय्यकारी सिद्ध होता है। इस प्रकरण में इन चरित्र के बीस (24) गुणों को ही ज्ञान कहा गया है? 
क्योंकि ये समस्त गुण आत्मसाक्षात्कार के लिए अनुकूल हैं। उपर्युक्त ज्ञान के द्वारा जानने योग्य ज्ञेय वस्तु क्या है इसके उत्तर में कहते हैं -जैसे श्रीहनुमान श्रीसीताराम की भक्ति-कृपा प्राप्ति कराने वाले गुरुदेव हैं, हनुमतलाल जी भक्ति के परमाचार्य हैं। वैसे ही स्वामी विवेकानन्द जी श्री रामकृष्ण परमहंस और माँ श्री श्रीसारदा देवी कोई भक्ति -कृपा प्राप्ति कराने वाले मेरे गुरुदेव हैं ! स्वामी विवेकानन्द जी अवतार-वरिष्ठ की भक्ति के परमाचार्य हैं ! जैसे हनुमान जी का प्राकट्य ही राम काज के लिए हुआ था – “राम काज लगि तव अवतारा” वैसे ही सोडियम-जीवनदान 26 जनवरी 2024 के बाद - “विवेकानन्द के काज लगि हम्मर अवतारा” “ठाकुर के जन्मतिथि से राम -राज लावे को आतुर, जैसे काज  करिबे को आतुर“ “रामचन्द्र के काज संवारे“ वाला "राम काज कीन्हे बिनु मोहि कहाँ बिश्राम" वाला भाव। " सतयुग या रामराज लावे बिनु मोहे कहाँ विश्राम !"

श्रीमद्भगवत गीता  में कुल अठारह अध्याय हैं। इनका तीन खण्डों में संपादन किया गया है। प्रथम खण्ड के छः अध्यायों में कर्मयोग का वर्णन किया गया है। दूसरे खण्ड में भक्ति की महिमा और भक्ति को पोषित करने का वर्णन हुआ है। यह भगवान के ऐश्वर्यों की ओर भी ध्यान आकर्षित करता है। तीसरे खण्ड के छः अध्यायों में तत्त्वज्ञान पर व्याख्या की गयी है। यह तीसरे खण्ड के अध्यायों का प्रथम अध्याय है। यह दो शब्दों क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (शरीर का ज्ञाता) से परिचित कराता है। 
हम शरीर को क्षेत्र के रूप में और शरीर में निवास करने वाली आत्मा को शरीर के ज्ञाता के रूप में स्वीकार कर सकते हैं लेकिन यह एक सरलीकरण है क्योंकि क्षेत्र का अर्थ वास्तव में अधिक व्यापक हैं। इसमें मन, बुद्धि, अहंकार और माया (प्राकृत) शक्ति के अन्य सभी घटक भी सम्मिलित हैं जिनसे हमारा व्यक्तित्त्व निर्मित होता है। व्यापक ज्ञान के आधार पर देह के क्षेत्र में आत्मा को छोड़कर जो कि 'शरीर की ज्ञाता' है, हमारे व्यक्तित्व के सभी पहलू सम्मिलित हैं। जिस प्रकार किसान खेत में बीज बो कर खेती करता है। इसी प्रकार से हम अपने शरीर को शुभ-अशुभ विचारों और कर्मों से पोषित करते हैं और परिणाम स्वरूप अपना भाग्य बनाते हैं। 
स्वामी विवेकानन्द कहते थे -"हम जो सोचते हैं वही हमारे सामने परिणाम के रूप में आता है, इसलिए हम जैसे सोचते हैं वैसे बन जाते हैं। "इसलिए हमें शुभ एवं उचित विचारों और कर्मों से अपने शरीर-मन (2H)  को उच्च विचारों के आहार द्वारा पोषित करने की विधि सीखनी चाहिए। किन्तु इसके लिए  शरीर-मन (2H)  और शरीर के ज्ञाता (3rd'H' ह्रदय या आत्मा) के बीच के भेद को जानना आवश्यक है। 
गीता के 13 वें  अध्याय में श्रीकृष्ण इस अन्तर (नश्वर शरीर और मन) तथा अविनाशी आत्मा (Heart) के बीच जो अंतर है , उसके विस्तृत विश्लेषण की ओर ले जाते हैं। वे प्राकृत शक्ति के उन तत्त्वों की गणना करते हैं जिनसे शरीर के क्षेत्र की रचना होती है। वे शरीर में होने वाले उन परिवर्तनों जो भावनाओं, मत, दृष्टिकोण के रूप में उदय होते हैं का वर्णन करते हैं। वे उन गुणों और विशेषताओं का भी उल्लेख करते हैं जो मन को शुद्ध और उसे ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करते हैं। 
ऐसे ज्ञान से आत्मा के ज्ञान की अनुभूति करने में सहायता मिलती है जो शरीर और मन  की ज्ञाता है। किन्तु वह भगवान (पुरुषोत्तम ठाकुर देव) जो सभी प्राणियों के शरीर का ज्ञाता है; उस अवतार वरिष्ठ का अद्भुत वर्णन इस अध्याय में किया गया है।  भगवान विरोधी गुणों के अधिष्ठाता हैं अर्थात वे एक ही समय में विरोधाभासी गुणों को प्रकट करते हैं। इस प्रकार से वे सृष्टि में सर्वत्र व्यापक हैं और सभी के हृदयों में निवास करते हैं। इसलिए वे सभी जीवों की परम आत्मा हैं।
  आत्मा, परमात्मा और भौतिक शक्ति का वर्णन करने के पश्चात श्रीकृष्ण आगे यह व्याख्या करते हैं कि जीवों द्वारा किए जाने वाले कर्मों के लिए इनमें से कौन उत्तरदायी है? और पूरे संसार में इनके कारण और परिणाम के लिए कौन अत्यधिक उत्तरदायी है? वे जिन्हें इनके भेद का बोध हो जाता है और जो भली भांति कर्म के कारण को जान लेते हैं वही वास्तव में देखते हैं और केवल वही दिव्य ज्ञान में स्थित हो जाते हैं। 
>>>वे सभी जीवों में (हाथी नारायण और महावत नारायण में दोनों में)  परमात्मा को देखते हैं और इसलिए वे मानसिक रूप से किसी को अपने से नीचा नहीं समझते।  वे एक ही प्राकृतिक शक्ति में स्थित विविध प्रकार के जीवन रूपों को देख सकते हैं और जब वे सभी अस्तित्त्वों में सामान्य आध्यात्मिक आधार को देखते हैं तब उन्हें ब्रह्म की अनुभूति होती है। [अर्थात किसी को काटते नहीं किन्तु आत्मरक्षा के लिए फुंफकारते अवश्य हैं। तथा बाघ-नारायण से सावधान रहते हैं। कभी फंस जाएँ तो 'ठाकुर- माँ-स्वामीजी' और गुरुदेव रक्षा करने वाले साक्षात् ब्रह्म ही हैं की अनुभूति होती है। ] 
गीता अध्याय -14 > गुण त्रय विभाग योग-(Yoga through three qualities of natural power)
गीता अध्याय-15 > पुरुषोत्तम योग_सर्वोच्च दिव्य स्वरूप योग(supreme divine form yoga)
गीता अध्याय- 16 > देवासुर संपद विभाग योग-दैवीय और आसुरी प्रकृति में भेद द्वारा योग का ज्ञान (Yoga by distinguishing between divine and demonic nature)
गीता अध्याय -17 > श्रद्धा त्रय विभाग योग>श्रद्धा के तीन विभागों को समझते हुए योग का अनुसरण करना(Pursuing Yoga Understanding the Three Divisions of Shraddha)
गीता अध्याय -18 > मोक्ष संन्यास योग>संन्यास में पूर्णता और शरणागति के माध्यम से योग (Yoga through perfection and surrender in renunciation)

>>># अव्यक्त क्या है : 

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।

(गीता -2.28)

हे भारत (अर्जुन)  ! सभी प्राणी जन्म से पहले अव्यक्त (अप्रकट) थे और मरने के बाद पुनः अव्यक्त में लीन हो जायँगे,  केवल बीच में ही व्यक्त होते हैं और प्रकट रूप से दीखते हैं। अतः उसमें चिन्ता या शोक की क्या बात है ?
2.28 Beings are unmanifested in their beginning, manifested in their middle state, O Arjuna, and unmanifested again in their end. What is there to grieve about? 
जीवात्माओं को (Individual Soul) को यदि हम कार्य-कारण  के संघात रूप में ही माने तो उनके उद्देश्य से भी शोक करना उचित नहीं है।  क्योंकि अव्यक्त यानी न दीखना,  उपलब्ध न होना ही जिनकी आदि है,  ऐसे ये कार्य-कारण के संघात रूप पुत्र- मित्र आदि समस्त भूत अव्यक्तादि हैं।  अर्थात् जन्म से पहले ये सब अदृश्य थे। उत्पन्न होकर मरण से पहले पहल बीच में व्यक्त हैं दृश्य हैं। और पुनः अव्यक्त हो जाना ही निधन है, अर्थात अदृश्य होना ही जिनका निधन यानी मरण है, उनको अव्यक्तनिधन कहते हैं।  अभिप्राय यह कि मरने के बाद भी ये सब अदृश्य हो ही जाते हैं।
ऐसे ही कहा भी है कि यह भूत-संघात अदर्शन से आया और पुनः अदृश्य हो गया।  अतएव कोई सगे -सम्बन्धी , मित्र-शत्रु न तो तेरे  है और न तू उसका है  ! फिर व्यर्थ ही शोक किस लिये ? अतएव  बिना हुए ही दीखने और नष्ट होने वाले भ्रान्ति रूप भूतों के विषय में चिन्ता ही क्या है रोना-पीटना भी किस लिये है ?

व्याख्या : इस भौतिक जगत् में कार्य-कारण का नियम अबाधरूप से कार्य करते हुए अनुभव में आता है। कार्य की उत्पत्ति कारण से होती है। सामान्यत कार्य व्यक्त रूप में दिखाई देता है और कारण अव्यक्त रहता है। अतः सृष्टि का अर्थ है वस्तुओं का अव्यक्त अवस्था से व्यक्त अवस्था में आ जाना। यही क्रम निरन्तर नियमपूर्वक चलता रहता है।
इस प्रकार आज का व्यक्त > (मित्र-शत्रु, भाई-बहन, पुत्र -पौत्र अन्य सगे सम्बन्धी) इसके पूर्व कल अव्यक्त था वर्तमान में वह व्यक्त रूप में उपलब्ध है, परन्तु भविष्य में फिर अव्यक्त अवस्था में विलीन हो जायेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि वर्तमान स्थिति अज्ञात से आयी और पुन अज्ञात में लीन हो जायेगी। 
ऐसा समझ लेने पर फिर दुःख का कोई कारण नहीं रह जाता।  क्योंकि एक चक्र (जन्म-मृत्यु या संसार-चक्र) के आरे निरन्तर घूमते हुए नीचे भी आते हैं तो केवल बाद में ऊपर उठने (पुनर्जन्म) के लिए ही। उदाहरणार्थ स्वप्न के राजपाठ (जनक जैसे मैं राजा बना था -भिखारी हो गया ? वो सत्य था या ये सत्य है ?) पत्नी और शिशु पहले अव्यक्त थे और जागने पर फिर लुप्त हो जाते हैं ; तो एक ब्रह्मचारी को उस पत्नी और शिशु के लिए शोक करने का क्या कारण है जिसके साथ उसका विवाह कभी हुआ ही नहीं था ? और जिस शिशु का कभी जन्म ही नहीं हुआ था
यदि जैसा कि भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा इस जगत् की उत्पत्ति और लय का चक्र निरन्तर एक पारमार्थिक नित्य अविकारी सत्य के रूप में ही चल रहा है ; तो क्या कारण है कि उस सत्य को बारम्बार बताने पर भी हम समझ क्यों नहीं पाते ?  
श्रीशंकराचार्य के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण भी यह विचार प्रस्तुत करते हैं कि इस सत्य को न समझने के लिए अर्जुन को दोष देना उचित नहीं है। श्री शंकराचार्य कहते हैं : आत्मसाक्षातकार से अविद्या का नाश माँ सारदा (ठाकुर-माँ -स्वामीजी) की कृपा के बिना असम्भव है !  इस आत्मा का साक्षात् अनुभव करके उसे यथार्थ में जानना कठिन है। तुम्हें ही मैं दोष क्यों दूँ जबकि इसका कारण अज्ञान सबके लिए समान है।] 
  >>>कोई पूछ सकता है कि आत्मानुभव में इतनी कठिनाई क्यों है ? भगवान् कहते हैं-

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।।2.29।।

 कोई इस शरीरीको आश्चर्यकी तरह देखता है और वैसे ही अन्य कोई इसका आश्चर्यकी तरह वर्णन करता है तथा अन्य कोई इसको आश्चर्यकी तरह सुनता है; और इसको सुनकर भी कोई नहीं जानता। अर्थात यह शरीरी दुर्विज्ञेय है। 
>>>आचार्य शंकर की व्याख्या : जिसका प्रकरण चल रहा है यह आत्मतत्त्व दुर्विज्ञेय है। सर्वसाधारण को भ्रान्ति करा देने वाले विषय में केवल एक तुझे ही क्या उलाहना दूँ यह आत्मा दुर्विज्ञेय कैसे है सो कहते हैं। पहले जो नहीं देखा गया हो अकस्माद् दृष्टिगोचर हुआ हो ऐसे अद्भुत पदार्थ का नाम आश्चर्य है।  उसके सदृश का नाम आश्चर्यवत् है इस 'आत्मा ' को (ब्रह्म या अपने यथार्थ स्वरुप को) कोई ( महापुरुष ) ही आश्चर्यमय वस्तु की भाँति देखता है। वैसे ही दूसरा ( कोई एक C-IN-C नवनीदा ) इसको आश्चर्यवत् कहता है अन्य ( कोई मेरे जैसा मूर्ख भाग्यवान ?) इसको आश्चर्यवत् सुनता है; एवं कोई इस आत्मा को सुनकर देख कर और कह कर भी नहीं जानता oh !।अथवा जो इस आत्मा को देखता है वह आश्चर्य के तुल्य है जो कहता है और जो सुनता है वह भी ( आश्चर्यके तुल्य है )। अभिप्राय यह कि अनेक सहस्रों में से कोई एक ही ऐसा होता है। इसलिये आत्मा बड़ा दुर्बोध है।
>>> स्वामी चिन्मयानन्द की व्याख्या :
       परमार्थ तत्त्व का वर्णन (इन्द्रियातीत सत्य-परम् सत्य ,ईश्वर या आत्मा?) करते हुए कहा जाता है, कि 'वह ' [आत्मा]  अनन्त, सर्वज्ञ और आनन्दस्वरूप है; किन्तु अपने ही विषय में  हमारा अनुभव तो यह है- 'कि हम परिच्छिन्न (ससीम-circumscribed) अज्ञानी और दुखी हैं। ' इस प्रकार जो हमारा वास्तविक आत्मस्वरूप (अविनाशी)  है, उससे सर्वथा भिन्न हमारा प्रत्यक्ष अनुभव (नश्वर)  है। पारमार्थिक स्वरूप और प्रत्यक्ष अनुभव इन दोनों का अन्तर शीत और उष्ण, प्रकाश और अंधकार के अन्तर के समान प्रतीत हो रहा है। 
           >>>क्या कारण है कि हम अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का साक्षात् अनुभव नहीं कर पाते हैं ? 
अज्ञान की अवस्था में ( सद्गुरु की कृपा प्राप्त किये बिना या स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर "Be and Make  C-IN-C ' परम्परा में 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण प्राप्त किये बिना ही ) जब हम सत्य को जानना चाहते हैं तब हमारी यह धारणा होती है कि वह सत्य एक ऐसा लक्ष्य है जो कहीं दूर स्थान में स्थित है; जिसकी प्राप्ति किसी काल विशेष में ही होगी।  परन्तु यदि हम भगवान के उपदेश पर विश्वास करें , तो यह ज्ञात होगा कि हम उस सत्य से कभी भी दूर नहीं हैं क्योंकि वह तो हमारा स्वरूप ही है। 
       "एक र्मत्य जीव' अमरत्व से उतना ही दूर है जितना कि 'स्वप्नद्रष्टा' जाग्रत-पुरुष से। जो मनुष्य अपने आत्म-स्वरूप के वैभव के प्रति जागरूक है वही ईश्वर है ; और स्वस्वरूप के वैभव से विस्मृत ईश्वर ही मोहित जीव है
       प्रथम तो इस जीव को शरीर (Hand)  मन और बुद्धि (Head) के परे स्थित आत्मा (Heart) के अस्तित्व के विचार को ही समझना (आत्मश्रद्धा-आत्मविश्वास रखना) कठिन होता है।  और जब वह आत्मविकास की साधना का अभ्यास [यानि 3H विकास का प्रशिक्षण] करके अपने आनन्दस्वरूप को पहचानता है; तब वह उस इन्द्रियातीत अनन्त आनन्दस्वरूप का अनुभव कर आश्चर्यचकित रह जाता है।
     (आत्मसाक्षात्कार या विवेक-स्रोत उद्घाटित होने के पश्चात्' समाधि के समय)  आश्चर्य की भावना जब (साधक के) मन में उठती है तब उसमें यह सार्मथ्य होती है कि क्षण भर के लिए आश्चर्यचकित व्यक्ति को और कुछ सूझता ही नहीं और वह उस क्षण उस भावना के साथ तदाकार हो जाता है। 
प्रयोग के तौर पर आप किसी व्यक्ति को अचानक आश्चर्यचकित कर दें और फिर उसके मुख के भावों को देखें।  मुँह खुला हुआ कुछ न देखती हुई बाहर निकली हुई आँखें ; प्रत्येक शिरा तनाव से खिंची हुई वह व्यक्ति पुतले के समान, क्षण भर के लिए अपने ही स्थान पर किंकर्त्तव्य विमूढ़ खड़ा रह जाता है।
ठीक इसी प्रकार आत्मानुभव का भी वह आनन्द है, जब आत्मा ही आत्मा के साथ आत्मा में ही रमण कर रही होती है।  और इसीलिए महान ऋषियों ने इस अनुभव को आश्चर्य शब्द से सूचित किया जब अहंकार जीव समाप्त होकर शुद्ध अनन्तस्वरूप मात्र रह जाता है।
अज्ञानी पुरुष समझता है कि मैं शरीर (Hand) और मन (Head) का योग हूँ, जिसमें आत्मा (Heart)  का वास है, परन्तु ज्ञानी पुरुष जानता है कि मैं आत्मा हूँ जिसने शरीर धारण किया है । 
जो साधक सम्यक् प्रकार से इस उपदेश का श्रवण करते हैं उनको आगे उसी पर मनन करने को उत्साहित किया जाता है।  और तत्पश्चात् जब तक यथार्थ में आत्मसाक्षात्कार नहीं हो जाता, तब तक उसके लिए ध्यान करने का उपदेश किया गया है। इस श्लोक से अज्ञानी पुरुष को भी श्रवण मनन और निदिध्यासन के द्वारा इस विरले प्रकार के श्रेष्ठ ज्ञान को प्राप्त करने की प्रेरणा मिल सकती है। 
🔆🙏आत्मतत्त्व को विषय के रूप में नहीं जाना जा सकता। इसीलिए यहाँ कहा गया है कि इसको सुनकर कोई भी व्यक्ति इसे नहीं जानता। अगले श्लोक में इस प्रकरण का उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं-
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।

तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।।

(गीता 2.30)

हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! सब के देह में यह देही सदा  ही अवध्य (अविनाशी) है। इसलिये समस्त  प्राणियों के लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।
 This, the Indweller in the body of everyone, is ever indestructible, O Arjuna; therefore, thou should not grieve for any creature.
यह जीवात्मा सर्वव्यापी होनेके कारण सबके स्थावर, जंगम आदि शरीरों में स्थित है तो भी अवयवरहित और नित्य होने के कारण सदा सब अवस्थाओं में अवश्य ही बना रहता है। जिससे कि सम्पूर्ण प्राणियों के शरीरों का नाश किये जाने पर भी इस आत्मा का नाश नहीं किया जा सकता , इसलिये भीष्मादि सब प्राणियों के उद्देश्य से तुझे शोक करना उचित नहीं है।

 सबके शरीर में स्थित सूक्ष्म आत्मतत्त्व अवध्य है अर्थात् इसका वध नहीं किया जा सकता। केवल देह का ही नाश होता है। इसलिए अर्जुन को उपदेश किया जाता है कि इस महा समर में युद्ध करने और शत्रु संहार करने में किसी भी प्राणी के लिए शोक करना सर्वथा अनुचित है। युद्ध में वह शत्रुओं का सामना करे। यह उपदेश देने के पूर्व भगवान् श्रीकृष्ण ने अत्यन्त युक्ति-युक्त शैली में आत्मा की अनश्वरता और शरीरों के नश्वर स्वभाव को सिद्ध किया है।
🔆🙏 $ श्रीशंकराचार्य सही कहते हैं कि 11वें श्लोक से प्रारम्भ किये गये प्रकरण का यहाँ उपसंहार किया गया है।  जब हम अर्जुन के विषाद को ठीक से समझने का प्रयत्न करते हैं तब यह पहचानना कठिन नहीं होगा कि यद्यपि उसका तात्कालिक कारण युद्ध की चुनौती है परन्तु वास्तव में मानसिक संताप के यह लक्षण किसी अन्य गम्भीर कारण से हैं। 

जैसा कि एक श्रेष्ठ चिकित्सक रोग के लक्षणों का ही उपचार न करके उस रोग के मूल कारण को दूर करने का प्रयत्न करता है उसी प्रकार यहाँ भी भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के शोक मोह के मूल कारण (आत्मअज्ञान) को ही दूर करने का प्रयत्न करते हैं।
>>>ईश्वर की मायाशक्ति > शुद्ध आत्मस्वरूप के अज्ञान के कारण (आवरण और विक्षेप के कारण) अहंकार उत्पन्न होता है। यह अज्ञान न केवल दिव्य स्वरूप को आच्छादित करता है वरन् उसके उस सत्य पर भ्रान्ति भी उत्पन्न कर देता है। 
अर्जुन की यह अहंकार बुद्धि या जीव बुद्धि कि वह शरीर मन और बुद्धि की उपाधियों से परिच्छिन्न या सीमित है वास्तव में मोह का कारण है। जिससे स्वजनों के साथ स्नेहासक्ति होने से उनके प्रति मन में यह विषाद और करुणा का भाव उत्पन्न हो रहा है। वह अपने को असमर्थ और असहाय अनुभव करता है।
 मोहग्रस्त व्यक्ति को आसक्ति का मूल्य दुख और शोक के रूप में चुकाना पड़ता है। इन शरीरादि उपाधियों के साथ मिथ्या तादात्म्य के कारण हमें दुख प्राप्त होते रहते हैं। हमें अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का ज्ञान होने से उनका अन्त हो जाता है।
नित्य चैतन्यस्वरूप आत्मा स्थूल शरीर के साथ मिथ्या तादात्म्य के कारण अनेक वस्तुओं और व्यक्तियों के सम्बन्ध में अपने को बन्धन में अनुभव करती है। वही आत्मतत्त्व मन के साथ अनेक भावनाओं का अनुभव करता है मानो वह भावना जगत् उसी का है। फिर यही चैतन्य बुद्धि-उपाधि से युक्त होकर आशा और इच्छा करता है महत्वाकांक्षा और आदर्श रखता है जिनके कारण उसे दुखी भी होना पड़ता है। इच्छा, महत्वाकांक्षा आदि बुद्धि के ही धर्म हैं।इस प्रकार इन्द्रिय मन और बुद्धि से युक्त शुद्ध आत्मा जीवभाव को प्राप्त करके बाह्य विषयों भावनाओं और विचारों का दास और शिकार बन जाती है। जीवन के असंख्य दुख और क्षणिक सुख इस जीवभाव के कारण ही हैं। अर्जुन इसी जीवभाव के कारण पीड़ा का अनुभव कर रहा था।
 श्रीकृष्ण जानते थे कि शोकरूप भ्रांति या विक्षेप का मूल कारण आत्मस्वरूप का अज्ञान आवरण है और इसलिये अर्जुन के विषाद को जड़ से हटाने के लिये वे उसको उपनिषदों में प्रतिपादित आत्मज्ञान का उपदेश करते हैं।
मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक विधि के द्वारा मन को पुन शिक्षित करने का ज्ञान भारत ने हजारों वर्ष पूर्व विश्व को दिया था। यहाँ श्रीकृष्ण का गीतोपदेश के द्वारा यही प्रयत्न है। आत्मज्ञान की पारम्परिक उपदेश विधि के अनुसार जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण सीधे ही आत्मतत्त्व का उपदेश करते हैं
भीष्म और द्रोण के अन्तकरण शुद्ध होने के कारण उनमें चैतन्य प्रकाश स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था। वे दोनों ही महापुरुष अतुलनीय थे। इस युद्ध में मृत्यु हो जाने पर उनको अधोगति प्राप्त होगी यह विचार केवल एक अपरिपक्व बुद्धि वाला ही कर सकता है। इस श्लोक के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन का ध्यान जीव के उच्च स्वरूप की ओर आकर्षित करते हैं।
>>>हमारे व्यक्तित्व के अनेक पक्ष हैं (भूमिकायें हैं) और उनमें से प्रत्येक के साथ तादात्म्य कर उसी दृष्टिकोण से हम जीवन का अवलोकन करते हैं। शरीर के द्वारा हम बाह्य अथवा भौतिक जगत् को देखते हैं जो मन के द्वारा अनुभव किये भावनात्मक जगत् से भिन्न होता है और उसी प्रकार बुद्धि के साथ विचारात्मक जगत् का अनुभव हमें होता है। भौतिक दृष्टि से जिसे मैं केवल एक स्त्री समझता हूँ उसी को मन के द्वारा अपनी माँ के रूप में देखता हूँ। 
यदि बुद्धि से केवल वैज्ञानिक परीक्षण करें तो उसका शरीर जीव द्रव्य  और केन्द्रक (nucleus) वाली अनेक कोशिकाओं (cells) आदि से बना हुआ एक पिण्ड विशेष ही है। यहाँ भगवान् अर्जुन को यही शिक्षा देते हैं कि वह अपनी अज्ञान की दृष्टि का त्याग करके गुरुजन स्वजन युद्धभूमि इत्यादि को आध्यात्मिक दृष्टि से देखने और समझने का प्रयत्न करे।
इस महान् पारमार्थिक सत्य का उपदेश यहाँ इतने अनपेक्षित ढंग से अचानक किया गया है कि अर्जुन की बुद्धि को एक आघात सा लगा। 

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।।

(गीता -2.11)

श्री भगवान् ने कहा -- (अशोच्यान्) जिनके लिये शोक करना उचित नहीं है, उनके लिये तुम शोक करते हो ; और ज्ञानियों के से वचनों को कहते हो, परन्तु ज्ञानी पुरुष मृत (गतासून्) और जीवित (अगतासून्) दोनों के लिये शोक नहीं करते हैं।।
The Blessed Lord said Thou hast grieved for those that should not be grieved for, yet thou speakest words of wisdom. The wise grieve neither for the living nor for the dead.
इस प्रकार धर्म के विषय में जिसका चित्त मोहित हो रहा है और जो महान् शोक-सागर में डूब रहा है ऐसे अर्जुन का बिना आत्मज्ञान के उद्धार होना असम्भव समझ कर उस शोकसमुद्र से अर्जुन का उद्धार करने की इच्छावाले भगवान् वासुदेव आत्मज्ञान की प्रस्तावना करते हुए बोले- 
   "जो शोक करने योग्य नहीं होते उन्हें अशोच्य कहते हैं, भीष्म , द्रोण आदि सदाचारी और परमार्थ रूप से नित्य होने के कारण अशोच्य हैं। उन न शोक करने योग्य भीष्मादि के निमित्त तू शोक करता है;  कि वे मेरे हाथों मारे जायँगे ? मैं उनसे रहित होकर राज्य और सुखादि का क्या करूँगा ? तथा तू प्रज्ञावानों के अर्थात् बुद्धिमानों के वचन भी बोलता है ? अभिप्राय यह है कि इस तरह तू उन्मत की भाँति मूर्खता और बुद्धिमत्ता इन दोनों परस्पर विरुद्ध भावों को अपने में दिखलाता है।
क्योंकि जिनके प्राण चले गये हैं जो मर गये हैं. उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये जो जीते हैं उनके लिये- भी पण्डित आत्मज्ञानी शोक नहीं करते। पाण्डित्य को सम्पादन करके इस श्रुति-वाक्यानुसार आत्मविषयक बुद्धि का नाम पण्डा है और वह बुद्धि जिनमें हो वे पण्डित हैं।परंतु परमार्थदृष्टि से नित्य और अशोचनीय भीष्म आदि श्रेष्ठ पुरुषों के लिये तू शोक करता है अतः तू मूढ़  है। यह अभिप्राय है।
आगे के श्लोक पढ़ने पर हम समझेंगे कि भगवान् ने जो यह आघात अर्जुन की बुद्धि में पहुँचाया उसका कितना लाभकारी प्रभाव अर्जुन के मन पर पड़ा। इनके लिये शोक करना उचित क्यों नहीं है क्योंकि वे नित्य हैं। कैसे भगवान् कहते हैं 
>>>##गीता अध्याय चौदह: गुणत्रय विभाग योग :
सत्व गुण शांत स्वभाव, सद्गुण और शुद्धता को चित्रित करता है ; तथा रजो गुण अन्तहीन कामनाओं और सांसारिक आकर्षणों के लिए अतृप्त महत्वाकांक्षाओं (जगत से पाने की लालसा और आसक्ति) को बढ़ाता है।  एवं तमो गुण भ्रम, आलस्य, नशे और निद्रा का कारण है। 
जब तक आत्मा जागृत नहीं होती तब तक उसे प्राकृतिक शक्ति की प्रबल शक्तियों से निपटना सीखना चाहिए। मुक्ति इन तीन गुणों से परे है। 
पिछले अध्याय में आत्मा और भौतिक शरीर के बीच के अन्तर को विस्तार से समझाया गया था। इस अध्याय में भौतिक शक्ति की प्रकृति का वर्णन किया गया है जो शरीर और उसके तत्त्वों का स्रोत है।  और इस प्रकार से यह मन और पदार्थ दोनों की उत्पत्ति का कारण है। 
श्रीकृष्ण बताते हैं कि प्राकृतिक शक्ति सत्व, रजस, और तमस तीन गुणों से निर्मित है। शरीर, मन और बुद्धि जो प्राकृत शक्ति से बने हैं उनमें भी तीनों गुण विद्यमान होते हैं और हम जीवों में गुणों का मिश्रण हमारे व्यक्तित्व के स्वरूप का निर्धारण करता है। 

>>>[मैं अभी चूल्हे से अपनी कड़ाही उतारने योग्य-साईं बना या नहीं ? इसको समझने के लिए  चरित्र के गुण पुस्तक में 'poise ' अविचलता' में नारद  की कथा याद रखनी चाहिए। और माँ से अनुमति लिए बिना -इस अवस्था को जाँचने का दुस्साहस कभी नहीं करना चाहिए, क्योंकि नारद जी विद्या माया (माँ सारदा ) की कृपा/से अनुमति प्राप्त किये बिना ही पानी लेने चले गए थे और आधा घंटा में चारो युग बीत गया ? और स्वामीजी जाने से पहले माँ से अनुमति लेकर गए थे, माँ ने चाकू की मूठ और नुकीली धार पकड़ाने की भावना को परखकर उन्हें अमेरिका जाने की अनुमति दी थी। स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका जाने का निश्चय किया ताकि वहां जाकर वह लोगों को अपने गुरु का संदेश, धर्म का संदेश और शांति का संदेश दे सकें। इसके लिए उन्होंने मां शारदा देवी से अमेरिका जाने की आज्ञा मांगी। उनकी बात सुनकर मां शारदा देवी ने उन्हें गौर से देखा और गंभीर स्वर में कहा, ‘सोच कर बताती हूं।’ विवेकानंद को लगा, शायद अमेरिका जाने की अनुमति न मिले, नहीं तो आशीर्वाद देने के लिए क्या कभी किसी को सोचना भी पड़ता है! उस समय मां शारदा सब्जी बना रही थीं। उन्होंने विवेकानंद से कहा, ‘वहां पड़ा हुआ चाकू ले आओ।’

स्वामी विवेकानंद ने सामने पड़ा चाकू उठाया और मां शारदा देवी के हाथों में रख दिया। इस पर मां शारदा देवी का चेहरा खिल उठा। उन्होंने तत्काल खुशी-खुशी स्वामी विवेकानंद को अमेरिका जाने की अनुमति दे दी। अब विस्मित होने की बारी स्वामी विवेकानंद की थी। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्यों मां शारदा ने कहा सोचकर बताती हूं और फिर क्या सोचकर तत्काल इजाजत दे दी। उन्होंने पूछा, ‘मेरे चाकू देने और आपके आशीर्वाद देने में क्या संबंध है?’

मां शारदा देवी ने उनकी शंका का समाधान करते हुए कहा, ‘मैंने गौर किया कि तुमने चाकू का धार वाला हिस्सा खुद पकड़ा और मेरी ओर हत्थे वाला हिस्सा बढ़ाया। अपने लिए खतरा उठाते हुए भी तुमने मेरी सुरक्षा की चिंता की। अपने इस आचरण से तुमने साबित कर दिया कि तुम कठिनाइयां स्वयं झेलते हो और दूसरों के भले की चिंता करते हो। इससे पता चलता है कि तुम सभी का कल्याण कर सकते हो। मनुष्य की मनुष्यता यही है कि वह अपने से ज्यादा दूसरों की भलाई की चिंता करे। यह आत्म निर्मित बंधन ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है।’ स्वामी विवेकानंद मां शारदा के सामने नतमस्तक हुए और आशीर्वाद लेकर अमेरिका गए। ये बातें रामकृष्ण मिशन इंस्टिट्यूट ऑफ़ कल्चर , कोलकाता के सचिव स्वामी सुपर्णानन्द जी महाराज ने 'भारत सेवाश्रम संघ ' सोनारी ऑडोटोरियम , जमशेदपुर  में कहीं।

 🙏परिच्छेद ~ 46, [(21 जुलाई 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-46] 🙏

 🔆🙏निराकार सच्चिदानंद का दर्शन - षट्चक्र भेद - नादभेद और समाधि🔆🙏

[###1883, 21st July/Kirtanananda at Sriyukta Adhar Sen's Bati : (14.4.1992 -बनारस के निकट ऊँच पुल पर ,..... महाविस्फोट -Big Bang  -  'चिदानन्द रूपः शिवोहं -शिवोहं'..... जपते -जपते नादभेद - महाविस्फोट! बनारस कबीर चौराहोता है और समाधि लगती है ! क्या आश्चर्य 2007 के बाद आज 14 .2.2024 को भी सरस्वती पूजा ही हैआज 14 फरवरी 2024 को ज्ञानदायिनी माँ सरस्वती वीणा वाद्य-विनोदिनी मूलाधार में स्थित महाकमल के फूल पर बैठकर  वीणा बजाती हुई मूर्ति में पूजित होंगी ! 

>>>पंचम भूमि (विशुद्धि चक्र) में पहुँचने पर निराकार सच्चिदानन्द का दर्शन होता है !!!]

[নিরাকার সচ্চিদানন্দ দর্শন — ষট্‌চক্রভেদ — নাদভেদ #ও সমাধি ]

[नादभेद # -Big Bang  - महाविस्फोट और समाधि !] 

श्रीरामकृष्ण अधर के मकान पर आए हैं । बैठकखाने में रामलाल, मास्टर, अधर तथा कुछ और भक्त आपके पास बैठे हुए हैं । मुहल्ले के दो-चार लोग श्रीरामकृष्ण को देखने आए हैं । राखाल के पिता कलकत्ते में रहते हैं – राखाल वहीँ हैं ।

श्रीरामकृष्ण (अधर के प्रति)- क्यों, राखाल को खबर नहीं दी ?

अधर- जी, उन्हें खबर दी है ।

राखाल के लिए श्रीरामकृष्ण को व्यग्र देखकर अधर ने राखाल को लिवा लाने के लिए एक आदमी के साथ अपनी गाड़ी भिजवा दी ।

अधर श्रीरामकृष्ण के पास आ बैठे । आप के दर्शन के लिए अधर आज व्याकुल हो रहे थे । आज आपके यहाँ आने के बारे में पहले से कुछ निश्चित नहीं था । ईश्वर की इच्छा से ही आप आ पहुँचे हैं । 

अधर- बहुत दिन हुए आप नहीं आए थे । मैंने आज आपको पुकारा था, - यहाँ तक कि आँखों से आँसू भी गिरे थे ।

श्रीरामकृष्ण (प्रसन्न होकर हँसते हुए)- क्या कहते हो !

শ্রীরামকৃষ্ণ (প্রসন্ন হইয়া, সহাস্যে) — বল কি গো!

शाम हुई । बैठकखाने में बत्ती जलायी गयी । श्रीरामकृष्ण ने हाथ जोड़कर जगज्जननी को प्रणाम कर मन ही मन शायद मूलमन्त्र का जाप किया । अब मधुर स्वर से नाम-उच्चारण कर रहे हैं – ‘गोविन्द ! गोविन्द ! सच्चिदानन्द ! हरि बोल ! हरि बोल !’ आप इतना मधुर नाम-उच्चारण कर रहे हैं कि मानो मधु बरस रहा है ! भक्तगण निर्वाक् होकर उस नामसुधा का पान कर रहे हैं । 

 श्री रामलाल ज्ञानदयिनी माँ सरस्वती का (काकीमुख या माँ भवतारिणी) भजन गा रहे हैं - 

"भुवन भुलाइली माँ, हर मोहिनी। 

मूलाधारे महोत्पले,वीणा वाद्य-विनोदिनी।।   

(भावार्थ)- “हे माँ हरमोहिनी, तूने संसार को भुलावे में डाल रखा है । मूलाधार महाकमल में तू वीणावादन करती हुई चित्तविनोदन करती है । 

(Meaning)- “O Mother Harmohini, you have put the world into oblivion. In the Muladhar Mahakamal, you entertain the mind by playing the veena.

शरीर- शारीर यन्त्रे सुषुम्ना आदि त्रय तन्त्रे ,

गुणभेद महामन्त्रे गुणत्रय विभागिनी।। 

महामन्त्र का अवलम्बन कर तू शरीररूपी यन्त्र के सुषुम्नादि तीन तारों में तीन गुणों के अनुसार तीन ग्रामों में संचरण करती है ।

आधारे भैरवाकार, षडदले श्रीराग आर,

 मणिपूरेते मल्हार,  बसंते हृदप्रकाशिनी;

विशुद्ध हिन्दोल सूरे,  कर्नाटक आज्ञापूरे,

तान-लय -मान-सूरे तीन ग्राम-संचारिणी ॥

 मूलाधारचक्र में तू भैरव राग में अवस्थित है; स्वाधिष्ठानचक्र के षड्दल कमल में तू श्री राग तथा मणिपूरचक्र में मल्हार राग है । तू वसन्त राग के रूप में हृदयस्थ अनाहतचक्र में प्रकाशित होती है। तू विशुद्धचक्र में हिण्डोल तथा आज्ञाचक्र में कर्णाटक राग है । तान-मान-लय-सुर के सहित तू मन्द्र-मध्य-तार इन तीन सप्तकों का भेदन करती है । 

महामाया मोहपाशे , बद्ध करे अनायासे ,

 तत्व लये तत्वाकाशे स्थिर आछे सौदामिनी।

श्रीनन्दकुमार कय, तत्व ना निश्चय होय , 

तव तत्व गुणत्रय , काकीमुख # -आच्छादिनी।" 

हे महामाया, तूने मोहपाश के द्वारा सब को अनायास बाँध लिया है । तत्त्वाकाश में तू मानो स्थिर सौदामिनी की तरह विराजमान है । ‘नन्दकुमार’ कहता है कि तेरे तत्त्व का निश्चय नहीं किया जा सकता। तीन गुणों के द्वारा तूने जीव की दृष्टि को [काकीमुख को #] आच्छादित कर रखा है ।”

শ্রীযুক্ত রামলাল এইবার গান গাইতেছেন:

ভুবন ভুলাইলি মা, হরমোহিনী। মূলাধারে মহোৎপলে, বীণাবাদ্য-বিনোদিনী।

শরীর শারীর যন্ত্রে সুষুম্নাদি ত্রয় তন্ত্রে,গুণভেদ মহামন্ত্রে গুণত্রয়বিভাগিনী ॥

আধারে ভৈরবাকার ষড়দলে শ্রীরাগ আর,মণিপুরেতে মহ্লার, বসন্তে হৃৎপ্রকাশিনী,

বিশুদ্ধ হিল্লোল সুরে, কর্ণাটক আজ্ঞাপুরে,তান লয় মান সুরে, তিন গ্রাম-সঞ্চারিণী।

মহামায়া মোহপাশে, বদ্ধ কর অনায়াসে,তত্ত্ব লয়ে তত্ত্বাকাশে স্থির আছে সৌদামিনী।

শ্রীনন্দকুমারে কয়, তত্ত্ব না নিশ্চয় হয়,তব তত্ত্ব গুণত্রয়, কাকীমুখ-আচ্ছাদিনী।

রামালাল আবার গাইলেন:

भवदारा भयहरा नाम शुनेछि तोमार,

ताईते एबार दिएछि भार तारो तारो ना तारो माँ।  

(भावार्थ)- “हे भवानी, मैंने तुम्हारा भयहर नाम सुना है, इसीलिए तो अब मैंने तुम पर अपना भार सौंप दिया है । अब तुम मुझे तारो या न तारो ! 

तुमि माँ ब्रह्माण्ड-धारी  ब्रह्माण्ड व्यापिके ,

के जाने तोमारे तुमि काली कि राधिके ?

घटे घटे तुमि घटे आछो गो जननी ,

माँ, तुम ब्रह्माण्ड-जननी हो, ब्रह्माण्ड-व्यापिनी हो । तुम 'काली' हो या 'राधिका' –? यह कौन जाने! हे जननी, तुम घट घट में विराजमान हो ।

मूलाधारे कमले थाको माँ कूल-कुण्डलिनी। 

तद-ऊर्ध्वते आछे माँ' गो नामे स्वाधिष्ठान,चतुर्दल पद्मे तथाय आछे अधिष्ठान।  

चतुर्दले थाक तुमि कूल-कुण्डलिनी,षड्दल वज्रासने वस माँ आपनि। 

तद-ऊर्ध्वते  नाभिस्थान माँ मणिपुर कय,नीलवर्णैर दशदल पद्म जे तथाय। 

सुषुम्नार पथ दिये एस गो जननी ,

कमले कमले थाक कमले कामिनी।   

मूलाधार-चक्र के चतुर्दल कमल में तुम कुल-कुण्डलिनी के रूप में विद्यमान हो । तुम्हीं सुषुम्ना मार्ग से ऊपर उठती हुई स्वाधिष्ठान-चक्र के षड्दल तथा मणिपुर-चक्र के दशदल कमल में पहुँचती हो। हे कमलकामिनी, तुम ऊर्ध्वोर्ध्व कमलों में निवास करती हो ।

तद-ऊर्ध्वते आछे माँ 'गो सुधा सरोवर,

रक्तवर्णेर द्वादशदल पद्म मनोहर , 

पादपद्मे दिये यदि ए पद्म प्रकाश।

 (माँ), हृदे आछे विभावरी तिमिर विनाश। 

हृदयस्थित अनाहतचक्र के द्वादश-दल कमल को अपने पादपद्म के द्वारा प्रस्फुटित कर तुम हृदय के अज्ञानतिमिर का विनाश करती हो ।

तद-ऊर्ध्वते आछे माँ' गो नाम कण्ठस्थल,

धूम्रवर्णेर पद्म आछे होय षोड्शदल। 

सेई पद्म मध्ये आछे अम्बुजे आकाश ,

से आकाश रुद्ध होले सकलि आकाश। 

 इसके ऊपर कण्ठस्थित विशुद्धचक्र में धूम्रवर्ण षोडश-दल कमल है । इस कमल के मध्यभाग में जो आकाश है, वह यदि अवरुद्ध हो जाय तो सर्वत्र आकाश ही रह जाता है ।

तद-उर्ध्वे ललाटे स्थान माँ आछे द्विदल पद्म

सदाय आछजे मन होइये आबद्ध।  

मन जे माने ना आमार मन भाल नय , 

द्विदले बसिया रंग देखजे सदाय।  

इसके ऊपर ललाट में अवस्थित आज्ञाचक्र के द्विदल कमल में पहुँचकर मन आबद्ध हो जाता है – वह वहीँ रहकर मजा देखना चाहता है, और ऊपर नहीं उठना चाहता । 

द-उर्ध्वे मस्तके स्थान माँ अति मनोहर, 

सहस्रदल पद्म आछे ताहार भीतर।  

तथाय परम शिव आछेन आपनि, 

सेई शिवेर काछे बस शिवे माँ आपनि। 

इससे ऊपर मस्तक में सहस्त्रारचक्र है । वहाँ अत्यन्त मनोहर सहस्त्रदल कमल है, जिसमें परमशिव स्वयं विराजमान हैं । हे शिवानी, तुम वही शिव के निकट जा विराजो ! 

तुमि आद्याशक्ति माँ जितेन्द्रिय नारी,

 योगीन्द्र मुनीन्द्र भाबे नगेन्द्र कुमारी।

हर शक्ति, हरो शक्ति सूदनेर एबार,

जेन ना आसिते हय माँ भव पारावार।   

हे माँ, तुम आद्याशक्ति हो । योगी तथा मुनिगण तुम्हारा नगेन्द्रनन्दिनी उमा के रूप में ध्यान करते है । तुम शिव की शक्ति हो । तुम मेरी वासनाओं का हरण करो ताकि मुझे फिर इस भवसागर में पतित न होना पड़े । 

तुमि आद्याशक्ति माँ' गो तुमि पंचतत्व, 

के जाने तोमारे तुमि तुमिई तत्त्वातीत।  

ओ माँ भक्त जन्ये चराचरे तुमि से साकार। 

पँचे पञ्च लय हले तुमि निराकार।    

  माँ, तुम्हें पंचतत्त्व हो, फिर तुम तत्त्वों के अतीत हो । तुम्हें कौन जान सकता है ! हे माँ, संसार में भक्तों के हेतु तुम साकार बनी हो, परन्तु पंचेन्द्रियाँ पंचतत्त्व में विलिन हो जाने पर तुम्हारे निराकार स्वरूप का ही अनुभव होता है ।”

रामलाल जिस समय गा रहे थे- 

तद-ऊर्ध्वते आछे माँ' गो नाम कण्ठस्थल,

धूम्रवर्णेर पद्म आछे होय षोड्शदल। 

सेई पद्म मध्ये आछे अम्बुजे आकाश ,

से आकाश रुद्ध होले सकलि आकाश। 

-अर्थात ‘इसके ऊपर कण्ठस्थित विशुद्धचक्र में धूम्रवर्ण षोडशदल कमल है । इस कमल के मध्यभाग में जो आकाश है- माता सरस्वती ज्ञानदायिनी माँ श्री सारदा देवी की कृपा से उस आकाश का अतिक्रमण करते हुए मन उससे भी परे उठ जाये;तो सर्वत्र आकाश ही रह जाता है !’ (Transcending which, one sees at length the universe in Space dissolve.)

 उस समय श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा-“ यह सुनो, इसी का नाम है 'निराकार सच्चिदानन्द' दर्शन। विशुद्धचक्र का भेदन होने पर ‘सर्वत्र आकाश ही रह जाता है ।”

the Master said to M: "Listen. This is known as the vision of Satchida-nanda, the Formless Brahman. The Kundalini, rising above the Visuddha chakra, enables one to see everything as akasa."

मास्टर- जी हाँ ।

श्रीरामकृष्ण- इस मायामय जीव-जगत् (देश-काल-निमित्त) के पार हो जाने पर तब कहीं नित्य स्वरूप में पहुँचा जा सकता है। नाद-भेद  होने पर ही समाधि लगती है । ओंकार-साधना करते करते नाद-भेद होता है और समाधि लगती है 

"One attains the Absolute by going beyond the universe and its created beings conjured up by maya. By passing beyond the Nada one goes into samadhi. By repeating 'Om' one goes beyond the Nada and attains samadhi." 

শ্রীযুক্ত রামলাল যখন গাহিতেছেন:

“তদূর্ধ্বেতে আছে মাগো নাম কণ্ঠস্থল,ধূম্রবর্ণের পদ্ম আছে হয়ে ষোড়শদল।

সেই পদ্ম মধ্যে আছে অম্বুজে আকাশ, সে আকাশ রুদ্ধ হলে সকলি আকাশ।”

তখন ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ মাস্টারকে বলিতেছেন —

“এই শুন, এরই নাম নিরাকার সচ্চিদানন্দ-দর্শন। বিশুদ্ধচক্র ভেদ হলে সকলি আকাশ।”

মাস্টার — আজ্ঞে হাঁ।

শ্রীরামকৃষ্ণ — এই মায়া-জীব-জগৎ পার হয়ে গেলে তবে নিত্যতে পৌঁছানো যায়। নাদ ভেদ হলে তবে সমাধি হয়। ওঁকার সাধন করতে করতে নাদ ভেদ হয়, আর সমাধি হয়।

[১৮৮৩, ২১শে জুলাই/শ্রীযুক্ত অধর সেনের বাটীতে কীর্তনানন্দে]  

ভবদারা ভয়হরা নাম শুনেছি তোমার,তাইতে এবার দিয়েছি ভার তারো তারো না তারো মা।

তুমি মা ব্রহ্মাণ্ডধারী ব্রহ্মাণ্ড ব্যাপিকে,কে জানে তোমারে তুমি কালী কি রাধিকে,

ঘটে ঘটে তুমি ঘটে আছ গো জননী,মূলাধার কমলে থাক মা কুলকুণ্ডলিনী।

তদূর্ধ্বেতে আছে মাগো নামে স্বাধিষ্ঠান,চতুর্দল পদ্মে তথায় আছ অধিষ্ঠান,

চর্তুদলে থাক তুমি কুলকুণ্ডলিনী,ষড়দল বজ্রাসনে বস মা আপনি।

তদূর্ধ্বেতে নাভিস্থান মা মণিপুর কয়,নীলবর্ণের দশদল পদ্ম যে তথায়,

সুষুম্নার পথ দিয়ে এস গো জননী,কমলে কমলে থাক কমলে কামিনী।

তদূর্ধ্বেতে আছে মাগো সুধা সরোবর,রক্তবর্ণের দ্বাদশদল পদ্ম মনোহর,

পাদপদ্মে দিয়ে যদি এ পদ্ম প্রকাশ।(মা), হৃদে আছে বিভাবরী তিমির বিনাশ।

তদূর্ধ্বেতে আছে মাগো নাম কণ্ঠস্থল,ধূম্রবর্ণের পদ্ম আছে হয়ে ষোড়শদল

সেই পদ্ম মধ্যে আছে অম্বুজে আকাশ,সে আকাশ রুদ্ধ হলে সকলি আকাশ।

তদূর্ধ্বে ললাটে স্থান মা আছে দ্বিদল পদ্ম,সদায় আছয়ে মন হইয়ে আবদ্ধ।

মন যে মানে না আমার মন ভাল নয়, দ্বিদলে বসিয়া রঙ্গ দেখয়ে সদায়।

তদূর্ধ্বে মস্তকে স্থান মা অতি মনোহর,সহস্রদল পদ্ম আছে তাহার ভিতর।

তথায় পরম শিব আছেন আপনি,সেই শিবের কাছে বস শিবে মা আপনি।

তুমি আদ্যাশক্তি মা জিতেন্দ্রিয় নারী,যোগীন্দ্র মুনীন্দ্র ভাবে নগেন্দ্র কুমারী।

হর শক্তি হর শক্তি সুদনের এবার,যেন না আসিতে হয় মা ভব পারাবার।

তুমি আদ্যাশক্তি মাগো তুমি পঞ্চতত্ত্ব,কে জানে তোমারে তুমি তুমিই তত্ত্বাতীত।

ওমা ভক্ত জন্য চরাচরে তুমি সে সাকার,পঞ্চে পঞ্চ লয় হলে তুমি নিরাকার।

>>>काकीमुख #  the opening of the larynx (कण्ठनाली)  and hence of kuṇḍalinī : >स्वरयंत्र का खुलना और इसलिए कुंडलिनी का जागरण । 

नाड़ी (योग) : अगर आप रीढ़ की शारीरिक बनावट के बारे में जानते हैं, तो आप जानते होंगे कि रीढ़ के दोनों ओर दो छिद्र होते हैं, जो वाहक नली की तरह होते हैं, जिनसे होकर सभी धमनियां गुजरती हैं। ये इड़ा और पिंगला, यानी बायीं और दाहिनी नाड़ियां हैं। योग के सन्दर्भ में नाड़ी वह मार्ग है जिससे होकर शरीर की ऊर्जा प्रवाहित होती है। 

योग के सन्दर्भ में ‘नाड़ी’ का मतलब धमनी या नस नहीं है। नाड़ियां शरीर में उस मार्ग या माध्यम की तरह होती हैं जिनसे प्राण का संचार होता है। इन 72,000 नाड़ियों का कोई भौतिक रूप नहीं होता। यानी अगर आप शरीर को काट कर इन्हें देखने की कोशिश करें तो आप उन्हें नहीं खोज सकते। लेकिन जैसे-जैसे आप अधिक सजग होते हैं, आप देख सकते हैं कि ऊर्जा की गति अनियमित नहीं है, वह तय रास्तों से गुजर रही है। प्राण या ऊर्जा 72,000 अलग-अलग रास्तों से होकर गुजरती है। 

योग में यह माना जाता है कि नाडियाँ शरीर में स्थित नाड़ीचक्रों को जोड़तीं है। सुषुम्ना नाड़ियों में इंगला, पिगला और सुषुम्ना तीन प्रधान हैं. इनमें भी सुषुम्ना सबसे मुख्य है। सुषुम्ना नाड़ी जिससे श्वास, प्राणायाम और ध्यान विधियों से ही प्रवाहित होती है। सुषुम्ना नाड़ी से श्वास प्रवाहित होने की अवस्था को ही 'योग' कहा जाता है। योग के सन्दर्भ में नाड़ी वह रास्ता है जिसके द्वारा शरीर की ऊर्जा का परिवहन होता है।

सुषुम्ना नाड़ी मूलाधार (Basal plexus) से आरंभ होकर यह सिर के सर्वोच्च स्थान पर अवस्थित सहस्रार तक आती है। सभी चक्र सुषुम्ना में ही विद्यमान हैं

>>इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना का रहस्य क्या है ? 

अस्तित्व में सभी कुछ जोड़ों में मौजूद है - स्त्री-पुरुष, दिन-रात, तर्क-भावना आदि। इस दोहरेपन को द्वैत भी कहा जाता है। हमारे अंदर इस द्वैत का अनुभव हमारी रीढ़ में बायीं और दायीं तरफ मौजूद इड़ा पिंगला नाड़ियों से पैदा होता है। आइये जानते हैं इन नाड़ियों के बारे में।

अगर आप रीढ़ की शारीरिक बनावट के बारे में जानते हैं, तो आप जानते होंगे कि रीढ़ के दोनों ओर दो छिद्र होते हैं, जो वाहक नली की तरह होते हैं, जिनसे होकर सभी धमनियां गुजरती हैं। ये इड़ा और पिंगला, यानी बायीं और दाहिनी नाड़ियां हैं।

>>तर्क बुद्धि (logical mind) और अंतःप्रज्ञा (intuition :सहज-ज्ञान, अन्तर्ज्ञान या आत्मबोध!) 

इड़ा और पिंगला जीवन की बुनियादी द्वैतता की प्रतीक हैं। इस द्वैत को हम परंपरागत रूप से शिव और शक्ति का नाम देते हैं। या आप इसे बस पुरुषोचित और स्त्रियोचित कह सकते हैं, या यह आपके दो पहलू – लॉजिक या तर्क-बुद्धि और इंट्यूशन या सहज-ज्ञान हो सकते हैं।

 जीवन की रचना भी इसी के आधार पर होती है। इन दोनों गुणों [ लॉजिक और इंट्यूशन] के बिना, जीवन ऐसा नहीं होता, जैसा वह अभी है। सृजन से पहले की अवस्था में सब कुछ मौलिक रूप में (अव्यक्त अवस्था में) होता है। उस अवस्था में द्वैत नहीं होता। लेकिन जैसे ही सृजन होता है, उसमें (व्यक्त अवस्था में) द्वैतता आ जाती है।

पुरुषोचित और स्त्रियोचित का मतलब लिंग भेद से - या फिर शारीरिक रूप से पुरुष या स्त्री होने से - नहीं है, बल्कि प्रकृति में मौजूद कुछ खास गुणों से है। प्रकृति के कुछ गुणों को पुरुषोचित माना गया है और कुछ अन्य गुणों को स्त्रियोचित। आप भले ही पुरुष हों, लेकिन यदि आपकी इड़ा नाड़ी अधिक सक्रिय है, तो आपके अंदर स्त्री-प्रकृति यानि स्त्रियोचित गुण हावी हो सकते हैं। आप भले ही स्त्री हों, मगर यदि आपकी पिंगला अधिक सक्रिय है, तो आपमें पुरुष-प्रकृति यानि पुरुषोचित गुण हावी हो सकते हैं।

>>>अगर आप इड़ा और पिंगला के बीच संतुलन बना पाते हैं तो दुनिया में आप प्रभावशाली हो सकते हैं। इससे आप जीवन के सभी पहलुओं को अच्छी तरह संभाल सकते हैं। अधिकांश लोग इड़ा और पिंगला में जीते और मरते हैं और मध्य स्थान सुषुम्ना निष्क्रिय बना रहता है। परन्तु सुषुम्ना मानव शरीर-विज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। जब ऊर्जा सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है, असल में तभी से यौ'गिक जीवन शुरू होता है।

>>सुषुम्ना नाड़ी को कैसे जागृत करें ? -सुषुम्ना में ज्ञान, भक्ति,विवेक और वैराग्य का गुण स्वाभाविक रूप से रहता है।  मूल रूप से सुषुम्ना गुणहीन होती है, उसकी अपनी कोई विशेषता नहीं होती। वह एक तरह की शून्‍यता या खाली स्थान है। अगर शून्‍यता है तो उससे आप अपनी मर्जी से कोई भी चीज बना सकते हैं। सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश होते ही, आपमें भक्ति,विवेक वैराग्‍य और ज्ञान स्वतः आ जाता है। ‘राग’ का अर्थ होता है, रंग। ‘वैराग्य’ का अर्थ है, रंगहीन यानी आप पारदर्शी हो गए हैं

जब तक आप  इड़ा या पिंगला के प्रभाव में हैं तो आप बाहरी स्थितियों को देखकर प्रतिक्रिया करते हैं। लेकिन एक बार सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश हो जाए, तो आप एक नए किस्म का संतुलन पा लेते हैं।

अभी आप चाहे काफी संतुलित हों, लेकिन अगर किसी वजह से बाहरी स्थिति अशांतिपूर्ण हो जाए, तो उसकी प्रतिक्रिया में आप भी अशांत हो जाएंगे; क्योंकि इड़ा और पिंगला का स्वभाव ही ऐसा होता है। अगर आप इड़ा या पिंगला के प्रभाव में हैं तो आप बाहरी स्थितियों को देखकर प्रतिक्रिया करते हैं। 

लेकिन एक बार सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश हो जाए, तो आप एक नए किस्म का संतुलन पा लेते हैं, एक अंदरूनी संतुलन, जिसमें बाहर चाहे जो भी हो, आपके अंदर एक खास जगह होती है, जो किसी भी तरह की हलचल में कभी अशांत नहीं होती, जिस पर बाहरी स्थितियों का असर नहीं पड़ता। आप चेतनता की चोटी पर सिर्फ तभी पहुंच सकते हैं, जब आप अपने अंदर यह स्थिर अवस्था बना लें।

>>अगर आप प्रिज्म की तरह पारदर्शी हो गए, तो आपके पीछे लाल रंग का उड़हुल का फूल रखने  पर आप भी लाल हो जाएंगे। अगर आपके पीछे नीला रंग होगा, तो आप नीले हो जाएंगे। आप निष्पक्ष हो जाते हैं। आप जहां भी रहें, आप वहीं का एक हिस्सा बन जाते हैं लेकिन कोई चीज आपसे चिपकती नहीं। आप जीवन के सभी आयामों को खोजने का साहस सिर्फ तभी करते हैं, जब आप आप वैराग की स्थिति में होते हैं

 (जब शरीर की समस्त ऊर्जा काकी-मुखी सुषुम्ना नाड़ी का मुह फोडकर्‌ ब्रह्म-रन्ध्रे प्रवेश करती है- असल में तभी से जीवन शुरू होता है ?) 

(गुह्य काली सहस्रनाम स्तोत्रम् : ३८॥ में) माँ भगवती काली को काकीमुखी # कहा गया है। 

काकीमुखी साकला च स्थावरा जङ्गमेश्वरी । 

ईड़ा च पिङ्गला चैव सुषुम्णा ध्यानगोचरा ॥ 

ईड़ा ऋणात्मक ऊर्जा का वहन  करती है। शिव स्वरोदय, ईड़ा द्वारा उत्पादित ऊर्जा को चन्द्रमा के सदृश्य मानता है अतः इसे चन्द्रनाड़ी भी कहा जाता है। इसकी प्रकृति शीतल, विश्रामदायक और चित्त को अंतर्मुखी करनेवाली मानी जाती है। इसका उद्गम मूलाधार चक्र माना जाता है - जो मेरुदण्ड के सबसे नीचे स्थित है

पिंगला धनात्मक ऊर्जा का संचार करती है। इसको सूर्यनाड़ी भी कहा जाता है। यह शरीर में जोश, श्रमशक्ति का वहन करती है और चेतना को बहिर्मुखी बनाती है।

पिंगला का उद्गम मूलाधार के दाहिने भाग से होता है जबकि ईड़ा का बाएँ भाग से।] 

साभार -https://isha.sadhguru.org/hi/wisdom/article/ida-pingala-sushumna-nadi-in-hindi]

🔆🙏चरम विकास का द्वार है आज्ञाचक्र ( तृतीय नेत्र )🔆🙏

 >>>षट्चक्र: शरीर के मेरुदंड के भीतर, ब्रह्मनाड़ी में अनेक चक्रों की कल्पना की गयी है लेकिन मुख्य रूप से छह चक्र होते हैं।  इन छह चक्रों के नाम- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा चक्र हैं।  तथा इनके स्थान क्रमशः योनि, लिंग, नाभि, ह्रदय, कंठ और भ्रूमध्य है।  इन छह चक्रों के अलावा एक सातवां चक्र होता है जिसे सहस्रार चक्र कहते हैं यह चक्र मष्तिष्क में पीछे की तरफ़, सबसे ऊपर होता हैं।  यहीं पर परात्पर पुरुष (परम् पूज्य गुरुदेव), सहस्त्रों पंखुड़ियों वाले कमल पर बैठे हैं।  
आदि गुरु शंकराचार्य के सौन्दर्यलहरी के अनुसार कुण्डलिनी शक्ति का जागरण, ब्रह्मरंध्र (सुषुम्ना नाड़ी) में स्थित छह चक्रों का भेदन करके किया जा सकता है। प्रारंभ के पाँच चक्र (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध) ही हमारी शरीर को प्रभावित, करते हैं। उनके अधिपति क्रमशः पृथ्वी (Matter) , अग्नि (Energy), जल  (Force) , वायु (Quark), और आकाश (Space) हैं। ये पंचमहाभूत माने गए हैं जिनसे सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ बना है।  लेकिन इनसे बने पदार्थ जड़ (यानि निर्जीव) होते हैं, सजीव बनने के लिए इनको आत्मा चाहिए। आत्मा को वैदिक साहित्य मे पुरुष कहा जाता है। सांख्य शास्त्र में प्रकृति इन्ही पंचभूतों से बनी मानी गई है। योगशास्त्र के अनुसार  अन्नमय शरीर भी इन्हीं से बना है। लेकिन आज्ञाचक्र महतत्त्व ##से संचालित और मन यानि संस्कारों को प्रभावित करने वाला है। 
षट्चक्रों में आज्ञा चक्र का स्थान सर्वोपरि है। इसका आज्ञा चक्र नाम क्रिया-मूलक है। आज्ञा का अर्थ ‘आदेश’ होता है। इसे गुरु का प्रतीक-प्रतिनिधि माना गया है। बृहस्पति देवताओं के गुरु है, अस्तु, साधना ग्रन्थों में इसे गुरुचक्र के नाम से अभिहित किया गया है।  आदेश हमेशा स्वामी या नियन्ता की ओर से आता है। इस दृष्टि से यह सम्पूर्ण चक्र-संस्थान का नियंत्रण-कर्ता हुआ। 
physiologist (शरीर-क्रिया विज्ञानी) लोग आज्ञाचक्र की संगति चाक्षुष तंत्र (optical system), पिट्यूटरी एवं पीनियल ग्रन्थियों के साथ बिठाते है। यह ग्रन्थियाँ भ्रूमध्य (eyebrows) की सीध में मस्तिष्क में है। इनसे स्रवित होने वाले हारमोन स्राव समस्त शरीर के अति महत्वपूर्ण मर्मस्थलों को प्रभावित करते है, अन्यान्य ग्रन्थियों के स्रावों पर भी नियंत्रण करते है।  इनकी विकसित एवं अविकसित स्थिति का पूरे व्यक्तित्व पर भला-बुरा प्रभाव पड़ता है।
आज्ञाचक्र का क्षेत्रम् मस्तक में उस स्थान पर है, जहाँ लोग तिलक, चन्दन या कुमकुम लगाते तथा स्त्रियाँ जहाँ बिन्दी अथवा सिन्दूर का टीका प्रयोग करती है। वास्तव में इस परम्परा के पीछे भी आज्ञाचक्र को उत्तेजित-जाग्रत करने का ही प्रयोजन निहित है। सिन्दूर पारे का उत्पाद है। उसे जब बिन्दी के रूप में माथे पर लगाया जाता है, तो भ्रूमध्य स्थित नाड़ी में उत्तेजना होने लगती है।
 सामान्यतया इन रहस्यमयी ग्रन्थियों और उनके उत्पादनों को अति महत्त्वपूर्ण मानते हुए भी मानवी नियंत्रण के बाहर समझा जाता है। ऐसा कोई उपाय अभी हाथ नहीं लगा है कि इन ग्रन्थियों की स्थिति को सँभाला-सुधारा जा सके। यदि वैसा उपाय हाथ लगा होता, तो सचमुच ही मनुष्य को अपने हाथों, अपना व्यक्तित्व, भाग्य और भविष्य बनाने की कुँजी हाथ लग जाती।
तत्त्ववेत्ताओं के अनुसार आज्ञाचक्र का मन से गहरा संबंध है। हमें अंतः दर्शन, स्वप्न या आध्यात्मिक अनुभूतियों के दौरान जो कुछ भी दिखलाई पड़ता है, उसका आधार यही है। मानसिक सजगता के लिए भी यहीं जिम्मेदार है। उठते, बैठते कार्य करते समय यदि व्यक्ति सजग नहीं है। तो इसका तात्पर्य यह है कि उसका आज्ञाचक्र निष्क्रिय दशा में है। उसकी क्रियाशीलता के साथ-साथ आदमी की तत्परता और जागरूकता बढ़ने लगती है।
इसीलिए आज्ञाचक्र का (मन का) एक नाम ज्ञान या आत्मा का दिव्य चक्षु भी है। गोचर ज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण आधार स्थूल नेत्र हैं इनसे भौतिक जगत की आकृति, प्रकृति और स्वरूप का दिग्दर्शन किया जा सकता है, किंतु जो सूक्ष्मजगत या अन्तः प्रकृति है, उसको जान पाना इनकी सामर्थ्य से परे है। इस गहराई में उतर पाने की क्षमता सिर्फ दिव्य चक्षु (एकाग्र मन ) में है। चूँकि इसके माध्यम से व्यक्ति चेतना के सूक्ष्म तथा अतीन्द्रिय आयाम में पहुँचता है, इसलिए इसको (एकाग्र मन को)  अलौकिक या अतीन्द्रिय नेत्र भी कहा जाता है।
ज्ञान के भौतिक तरीके में इन्द्रियों द्वारा जो कुछ संदेश ग्रहण किया जाता है, उसे सीधे मस्तिष्क में सम्प्रेषित कर दिया जाता है। वहाँ उसका अध्ययन, वर्गीकरण और विश्लेषण होता है, तब हूँ यह विदित हो पाता है कि जो कुछ देखा जा सुना गया वह क्या था।  लौकिक ज्ञान के लिए सामान्यता भौतिक इन्द्रियों की सहायता देनी पड़ती है, लेकिन असाधारण दशा में इनके बिना भी जानकारी प्राप्त होना संभव है। ऐसा दिव्य चक्षु के जागरण से होता है।
 दूसरा तरीका अतीन्द्रिय है। इसे एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है। आकाश मेघमालाओं से घिरा हुआ हो और बीच-बीच में बिजली कौंध रही हो, तो कोई भी व्यक्ति आसानी से यह अनुमान लगा सकता है कि वर्षा होने वाली है। यह इन्द्रिय ज्ञान हुआ। इसके विपरीत यदि बिलकुल आसमान साफ हो फिर भी कोई यह कहे कि बरसात अवश्य होगी और तीन घंटे बाद होगी, तो इसका एक ही अर्थ है कि उसकी अन्तःप्रज्ञा विकसित है। और आज्ञाचक्र उद्बुद्ध स्थिति में है।

साधना-विज्ञान के आचार्यों का मत है कि आज्ञाचक्र का जो स्थान है, वहाँ इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना नामक तीन प्रमुख नाड़ियाँ मिलती है तथा एक प्रवाह के रूप में चेतना के सर्वोच्च केन्द्र सहस्रार तक पहुँचती है। यह मिलन त्रिवेणी संगम की तरह है। संगम की महिमा का बखान करते हुए शास्त्रों में कहा गया है। कि जो इसमें अवगाहन करते है, उनका कायाकल्प हो जाता है, वे बाहर से भले ही ज्यों-के-त्यों दीखें, उनका अन्तर्गत पूरी तरह परिवर्तित होता है।

 आज्ञाचक्र में जब ध्यान को एकाग्र किया जाता है, तो तीन बड़ी शक्तियों के मिलन के फल- स्वरूप व्यक्तिगत चेतना का रूपान्तरण विश्वचेतना में हो जाता है। यह सच है कि अन्य चक्रों के उद्दीपन और जागरण से भी उच्चस्तरीय अनुभूतियाँ होती है, किन्तु विश्वचेतना में व्यष्टिचेतना का विलय-विसर्जन नहीं होता। तब हमेशा अनुभूतियों के साथ-साथ साधक को 'अपने आपे का भान' (काचा आमी) बना रहता है। यह प्रगति-मार्ग में बहुत बड़ा अवरोध है। जब तक इसे गला नहीं लिया जाता, तब तक इड़ा,पिंगला, सुषुम्ना का पारस्परिक मिलन संभव नहीं। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि जब इनका संगम होता है, तो अहंभाव का लोप हो जाता है, वैयक्तिक चेतना व्यापक और विस्तृत बनती तथा वह विश्वव्यापी चेतना के साथ तदाकार हो जाती है। 

ऐसी स्थिति में साधक का अस्तित्व-बोध पूर्णतया समाप्त हो जाता है।  इसका यह अर्थ नहीं कि व्यक्ति संज्ञाशून्य हो जाता है। केवल इतना होता है कि जो चेतना पहले एक सीमित दायरे में सीमाबद्ध थी, वह उस परिधि को तोड़ देती और द्वैत दशा से अद्वैत भाव में अवस्थान करने लगती है। [यानि व्यष्टि अहं का रूपांतरण माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं'  में हो जाता है !] यही है व्यक्तिगत चेतना का विलुप्त होना। आज्ञाचक्र के जागरण के बिना यह शक्य नहीं

>>>आज्ञाचक्र का प्रतीक दो पंखुड़ियों वाला कमल > 'द्वीदल कमल' है। साधना ग्रन्थों में इसके पीला, हल्का भूरा तथा स्लेटी कई रंग बताये गए है। इसके बीजमंत्र ‘हं’ और ‘क्षं’ है, जो क्रमशः बायीं एवं दायीं पंखुड़ियों पर अंकित है। ये चमकीले श्वेत रंग के होते है। इनमें से एक चन्द्रमा अथवा इड़ा नाड़ी का एवं दूसरा सूर्य या पिंगला नाड़ी का प्रतीक है।
कमल के भीतर एक वृत होता है, जो शून्य का प्रतीक है। वृत्त के अन्दर एक त्रिकोण है, जो शक्ति की सृजनात्मकता तथा प्रकटीकरण का प्रतिनिधित्व करता है। त्रिकोण के एक सिरे पर एक काला शिवलिंगम् है। यह साधक के सूक्ष्मशरीर को निरूपित करता है। लिंगम् का रंग साधक के विकास और पवित्रता भेद के हिसाब से भिन्न-भिन्न हो सकता है।
  विकास की प्रारंभिक अवस्था में लिंगम् धूम्रवर्णी होता है। यह बार-बार ध्यान में आता और जाता रहता है। गहरे ध्यान में जब मन की चंचलता एकदम शान्त हो जाती है, तो लिंगम् का रंग काला दिखाई देता है। इस पर ध्यान एकाग्र करने से प्रकाशमान ज्योतिर्लिंगम् प्रकट होता है।  शिवलिंगम् के ऊपर बीजमंत्र ‘ॐ’ है। शिव आज्ञाचक्र के देवता है। इसकी अधिष्ठात्री देवी ‘हाकिनी’ है। इसके छह मुख हैं, जो चन्द्रमाओं की तरह शीतल-स्निग्ध प्रतीत होते है। 
🙏 >>साक्षी भाव से काम करने का  लाभ क्या है ? (What is the benefit of working with a witness attitude?) तन्त्रशास्त्र में आज्ञाचक्र को ‘शिव ग्रन्थि’ कहा गया है। यह एक ऐसा केन्द्र है, जिसके विकास के बाद व्यक्ति मन और शरीर स्तर पर घटने वाली घटनाओं एवं साँसारिक प्रसंगों के द्रष्टा भाव से, या साक्षी भाव से देखता रहता है।  और जिन घटनाक्रमों से सर्वसाधारण लोग विचलित हो उठते है, वैसे प्रसंगों में भी वह तटस्थ बना रहता है। 
इस स्थिति में चित की चंचलता समाप्त हो जाती है, बुद्धि में पवित्रता और शुचिता का उदय होता है, आसक्ति का अवशेष तक नहीं रहता, संकल्पशक्ति अप्रत्याशित रूप से बढ़ जाती है तथा सत्संकल्प पूरे होने लगते है ! व्यक्ति में अतीन्द्रिय अनुभूतियों और सिद्धियों का चमत्कार प्रकट होने लगता है, उसके शाप-वरदान फलित होने लगते है। वाणी में ओज, मुखमण्डल पर तेज और आँखों में चमक विराजने लगती है।  
इनके अतिरिक्त अन्य अनेक प्रकार की विशेषताएँ भी साधक में प्रकट और प्रत्यक्ष होती दिखाई पड़ती है। विशेष रूप से ठाकुर-माँ स्वामीजी के भक्तों को सभी प्रकार की सिद्धिओं को काकविष्ठा तुल्य समझने की पात्रता, यानि चरमवैराग्य - अर्थात ईश्वर/गुरु के चरण धूलि तक झुकने की पात्रता  प्राप्त हो जाती है ! 
इस अवस्था तक पहुँचे हुए सन्त श्री  हरी ॐ शरण जी गाते हैं - ये गर्व भरा मस्तक मेरा प्रभु चरण धूल तक झुकने दे, अहंकार विकार भरे मन को, निज नज़्म-नाम की माला जपने दे, ये गर्व भरा मस्तक मेरा..मैं मन के मैल को धो ना सका,ये जीवन तेरा हो ना सका, हाँ..हो ना सका, मैं प्रेमी हूँ, इतना ना झुका, गिर भी जो पड़ूँ तो उठने दे,ये गर्व भरा मस्तक मेरा...... मैं ज्ञान की बातों में खोया और कर्महीन पढ़कर सोया, जब आँख खुली तो मन रोया, जग-सोये मुझको जगने दे, ये गर्व भरा मस्तक मेरा...... जैसा हूँ मैं खोटा या खरा,निर्दोष शरण में आ तो गया,हाँ..आ तो गया, इक बार ये कह दे खाली जा, या प्रीत की रीत झलकने दे,ये गर्व भरा मस्तक मेरा...... स्वर - श्री हरी ॐ शरण !
स्वामी विवेकानन्द ने कहा है - " सबसे पहले तो साक्षी ही आनंद ले सकता है। कुश्ती मैच हो, या शतरंज  का खेल हो  तो मजे कौन लेता है ? भाग लेने वाले या देखने वाले - बाहरी लोग?  जीवन में जितना अधिक आप किसी चीज़ के साक्षी होते हैं, उतना ही आप उसका आनंद लेते हैं। और यह आनंद है; और इसलिए अनंत आनंद केवल तुम्हारा हो सकता है, जब तुम इस ब्रह्मांड के साक्षी हो; तब ही तुम मुक्त पुरुष हो। 
अकेले ही जो साक्षी है, वही बिना किसी नश्वर वस्तु- कामिनी , कांचन और नाम -यश  को पाने की अभिलाषा किये , यहाँ तक कि नश्वर स्वर्गसुख प्राप्त करने की कामना किये बिना, या बिना किसी से प्रशंसा पाने की इच्छा भी किये बिना भी परहित को अपना हित समझकर कार्य करता है, इसलिए जो केवल साक्षी भाव से कार्य करने में सक्षम वही जीवन का आनंद लेता है, और कोई नहीं।" ~ स्वामी विवेकानंद (सीडब्ल्यू / वी 3 / कोलंबो से अल्मोड़ा / वेदांता तक व्याख्यान)
  प्रत्येक चक्र की पृथक् -पृथक् तन्मात्रा, ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ होती है। आज्ञाचक्र के लिए मन ही इन तीनों भूमिकाओं को निबाहता है। यहाँ मन को सूक्ष्म आधारों से ज्ञान और संकेत प्राप्त होते है। यह आधार वह इन्द्रियों नहीं होती, जो अन्य चक्रों के लिए सूचनाओं के स्रोत है। आज्ञाचक्र के जागरण के समय का अनुभव बताते हुए तत्त्वदर्शी आत्मवेत्ता कहते है कि यह लगभग वैसा ही होता है, जैसा चरस, गाँजा, भाँग या एल.एस.डी. जैसे रसायनों के सेवन से प्राप्त होता है। 
आज्ञाचक्र की यह सूक्ष्म संरचना और आकृति मनगढ़न्त अनुभव की गई सच्चाई है। पूर्ण जाग्रत स्थिति में जब भ्रूमध्य पर ध्यान एकाग्र किया जाता है, तो वहाँ दीपशिखा की भाँति एक ज्योति दिखाई पड़ती है। गहरे ध्यान में उतरने पर दो पंखुड़ियों वाले कमल दल की वास्तविक 
आकृति उभरने लगती है। इस चक्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि अलग-अलग चक्रों पर ध्यान करने जो पृथक्-पृथक् अनुभूतियाँ होती है, वह सब इस एक ही चक्र पर ध्यान के अभ्यास द्वारा अनुभव की जा सकती है।
आज्ञाचक्र के जागरण के बाद शेष चक्रों के उन्नयन के लिए दो प्रकार के क्रम अपनाये जाते है। एक में आज्ञाचक्र -क्रम के उपरान्त विशुद्धि, अनाहत, मणिपूरित -इस क्रम में बढ़ते हुए मूलाधार तक पहुँचना पड़ता है। जबकि दूसरे में आज्ञाचक्र के बाद मूलाधार से शुरुआत कर ऊपर की ओर बढ़ते हुए स्वाधिष्ठान, मणिपूरित, अनाहत होकर विशुद्धि तक पहुँचते है। रुचि और सुविधा के अनुसार इन दोनों में से किसी भी क्रम को अपनाया जा सकता है, पर दोनों ही क्रमों में आज्ञाचक्र का प्रथम जागरण अनिवार्य है, अन्यथा दूसरे चक्रों के विकास से उत्पन्न हुई शक्ति को सँभाल पाना कठिन होगा।
चेतनात्मक विकास में आज्ञाचक्र को सहस्रार से पूर्व का महत्वपूर्ण पड़ाव माना गया हैं। उसकी महत्ता और उपयोगिता इसलिए भी बढ़ जाती है कि उसे चरम विकास का द्वार कहते है। योगविद्या के अनुभवियों ने आज्ञाचक्र को हिमालय कहा है, तो सहस्रार को सुमेरु की संज्ञा दी है।  हिमालय गए बिना सुमेरु तक पहुँचने की कल्पना करना निरर्थक ही नहीं, निरुद्देश्य भी है। ऐसे में चक्रसंस्थान के अंतर्गत आज्ञाचक्र को सर्वाधिक महत्वपूर्ण शक्ति-केन्द्र की उपमा देना अनुचित नहीं, उचित ही है
यह आज्ञाचक्र आत्मविकास के मार्ग में प्रकट होने वाली आत्मिक विभूतियों पर तिजोरी के ताले की तरह है। साधक सिद्धियों के प्रति जब तक मोह भंग नहीं होता, तब तक यह ग्रन्थि प्रगति के आगे के पथ को अवरुद्ध बनाये रहती है।  इसलिए आज्ञाचक्र से शून्यचक्र (सहस्रार) तक की विकास-यात्रा काफी कठिन होती है। जो साधक सिद्धियों के भ्रम-जंजाल में उलझ जाते है, उनके लिए चेतना के सर्वोच्च शिखर तक पहुँच पाना संभव नहीं होता।  इसीलिए साधनाकाल के आरंभिक दिनों से ही योगाभ्यासियों को सिद्धियों के आकर्षणों के प्रति तीव्र वैराग्य, अनासक्ति और निर्लिप्तता का परिचय देते हुए कठोर आत्मसंयम का अभ्यास करना पड़ता है।
🙏 >>अष्टांग योग के प्रथम दो अंग यम और नियम का पालन करना 24X 7 अनिवार्य क्यों हैं : आज्ञाचक्र जगाने के यों तो त्राटक शाम्भवी, मुद्रा अनुलोम-विलोम प्राणायाम आदि कितने ही तरीके है; पर  पवित्र जीवन और शुद्ध आचरण के बिना यह सब साधना-उपचार समयक्षेप करने वाले कवायद भर बनकर रह जाते है आत्मगौरव के ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिए स्वयं को अनश्वर -अविनाशी आत्मा के समकक्ष साबित करना पड़ता है। इससे कम में (पशु अवस्था में या घोर स्वार्थी बने रहते हुए ) आत्मिक विभूतियाँ न तो किसी को मिली है, न मिलने वाली है

साभार लेखक : पंडित श्री राम शर्मा आचार्य /https://www.facebook.com/thespiritualnewsroom/
[>>>The Great Grand Matter-महत्तत्त्व ## : 
दार्शनिक क्षेत्र में प्रकृति का पहला विकार या कार्यसांख्य दर्शन के अनुसार , ब्रह्मांड की निर्माण प्रक्रिया तब शुरू होती है जब पुरुष प्रकृति के साथ जुड़ता है ।  सृष्टि का पहला सिद्धांत है - अव्यक्त या प्रकृति और इसमें तीन गुण  शामिल हैं। - सत्व , रजस , और तमस - जो पुरुष द्वारा सक्रिय होने तक निष्क्रिय रहते हैं । इसके प्रथम विकसित परिणाम को  महत् कहते हैं।  यही अहंकार - "मैं-पन" है और महत् से निर्मित है।  अहंकार आगे चलकर मनस (मन), पांच ज्ञानेंद्रिय (पांच इंद्रिय क्षमताएं), पांच कर्मेंद्रियां , पांच तन्मात्रा (सूक्ष्म तत्व) और पांच भूत (स्थूल तत्व) को जन्म देता है । 
महतत्व का वर्णन पुराणों में सृष्टि निर्माण खण्ड में विस्तार से बतलाया गया है। प्रकृति की प्रथम सृष्टि का नाम” महत्” है और इसी से अन्य तत्व बने हैं। महत् तत्व की महिमा वायु पुराण में विस्तार से दी गई है।
मनो महान्मति:ब्रह्मा पूर्बुद्धि: ख्यातिरीश्वर:।
प्रज्ञा चिति: स्मृति:संवित् विपुलं चोच्यते बुधै:।।

 (वायु पु।४/२५)

प्रकृति के प्रथम परिणाम महत् के ही नाम है:मन,महान, ब्रह्मा,पुर बुद्धि,ख्याति, ईश्वर प्रज्ञा चिति, स्मृति,संवित और विपुल।
 इसी  'महत्-तत्व ' (महत्तत्व या पदार्थों का मौलिक कण ) पर वर्तमान में खगौल विज्ञान एवं भौतिकी विज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत अनेकों वैज्ञानिक एवं शोधार्थी मूलभूत तत्वों की खोज में दिन-रात शोधरत है। 
(Physicists and engineers at CERN use the world's largest and most complex scientific instruments to study the basic constituents of matter – fundamental particles. ) 
हिग्स बोसोन को कभी-कभी "गॉड पार्टिकल" भी कहा जाता है। बोसान, आदि एलिमेंट्री पार्टिकल्स पर निरंतर शोध हो रहे हैं और होते रहेंगे जब तक आधुनिक विज्ञान एवं वैज्ञानिक सृष्टि के सृजन से प्रलय तक की ब्रह्माणडीय वैतरणी पार नहीं कर लेते।

🔆🙏महत्तत्त्व के नाम और परमात्मतत्त्व को जानने की महिमा🔆🙏

 >>>महत्तत्व : प्रकृति का पहला कार्य या विकार, बुद्धितत्व -जीवात्मा ! महातेजस्वी भगवान् अपनी शक्ति से महत्तत्व की सृष्टि करके फिर अहंकार और उसके अभिमानी देवता प्रजापति को उत्पन्न करते हैं । यह सम्पूर्ण जगत व्यक्त कहलाता है। प्रतिदिन इसका क्षरण (क्षय) होता है, इसलिए इसको क्षर कहते हैं । क्षरतत्वों में सबसे पहले महत्तत्व की सृष्टि हुई है । प्रकृतिवादी विद्वान्, मूल प्रकृति को अव्यक्त कहते हैं। उससे दूसरा तत्व प्रकट हुआ जो 'महत्तत्व' कहलाता है। महत्तत्व से अहंकार नामक तीसरे तत्व की उत्पत्ति सुनी गयी है । सांख्य-दर्शन के ज्ञाता विद्वान् अहंकार से सूक्ष्म भूतों का - पञ्च तन्मात्राओं का प्रादुर्भाव बतलाते हैं । इन आठों को प्रकृति कहते हैं; इनसे सोलह तत्वों की उत्पत्ति होती है, जो विकृति कहलाते हैं ।विकार - पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ, ग्यारहवां मन और पांच स्थूलभूत ये प्रकृति और विकृति मिलकर चौबीस तत्व होते हैं। 
(https://panini-sanskrit.blogspot.com/2019/04/blog-post_16.html)

दार्शनिक क्षेत्र में प्रकृति का पहला विकार या परिणाम है महत्तत्त्व । सांख्यकार ने कहा है कि पहले-पहल जब तक जगत सुषुप्तावस्था से उठा, या जागा था, तब सबसे पहले इसी महत्तत्त्व का आविर्भाव हुआ था। महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 40 में महत्तत्त्व के नाम और परमात्मतत्त्व को जानने की महिमा का वर्णन हुआ है। 
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ब्रह्मा जी बोले- महर्षिगण! सबसे पहले अव्यक्त प्रकृति से महान आत्मस्वरूप महाबुद्धितत्त्व उत्पन्न हुआ। यही सब गुणों का आदि तत्त्व और प्रथम सर्ग कहा जाता है। महान आत्मा (ब्रह्म), मति, विष्णु, शम्भु, वीर्यवान, बुद्धि, प्रज्ञा, उपलब्धि, ख्याति, धृति, स्मृति- इन पर्यायवाची नामों से महान आत्मा की पहचान होती है। उसके तत्त्व को जानने वाला विद्वान ब्रह्मविद (ब्राह्मण) कभी मोह में नहीं पड़ता। परमात्मा सब ओर हाथ-पैर वाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुख वाला तथा सब ओर कान वाला है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है। सबके हृदय में विराजमान परम पुरुष परमात्मा का प्रभाव बहुत बड़ा है। अणिमा, लघिमा और प्राप्ति आदि सिद्धियाँ उसी के स्वरूप हैं। वह सबका शासन करने वाला, ज्योतिर्मय और अविनाशी है।
>>परमात्मतत्त्व को जानने की महिमा :संसार में जो कोई भी मनुष्य बुद्धिमान, सद्भाव परायण, ध्यानी, नित्य योगी, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, ज्ञानवान, लोभहीन, क्रोध को जीतने वाले, प्रसन्नचित, धीर तथा ममता और अहंकार से रहित हैं, वे सब मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त होते हैं। जो सर्वश्रेष्ठ परमात्मा की महिमा  को जानता है, उसे पुण्यदायक उत्तम गति मिलती है। 
पृथ्वी, वायु,आकाश, जल और पाँचवाँ तेज- ये पाँचों महाभूत अहंकार से उत्पन्न होते हैं। उन पाँचों महाभूतों तथा उनके कार्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि से सम्पूर्ण प्राणी युक्त हैं।

 धैर्यशाली महर्षियो! जब पंच-महाभूतों के विनाश (मृत्यु) के समय प्रलयकाल उपस्थित होता है, उस समय समस्त प्राणिों को महान भय का सामना करना पड़ता है। किंतु सम्पूर्ण लोगों में जो आत्मज्ञानी धीर पुरुष (ब्रह्मविद) है, वह उस समय भी मोहित नहीं होता है। आदिसर्ग में सर्वसमर्थ स्वयम्भू विष्णु ही स्वयं अपनी इच्छा से प्रकट होते हैं। जो इस प्रकार बुद्धिरूपी गुहा में स्थित, विश्वरूप, पुराणपुरुष, हिरण्मय देव और ज्ञानियों की परम गतिरूप परम प्रभु को (भगवान श्री रामकृष्ण देव  को) जानता है, वह बुद्धिमान बुद्धि की सीमा के पार पहुँच जाता है।"
 -साभार/कृष्ण/महत्तत्त्व_के_नाम_और_परमात्मतत्त्व_को_जानने_की_महिमा/ https://hi.krishnakosh.org/ 

साभार https://vaidicvigyaankendra.wordpress.com/2018/02/21/

🔆🙏कुण्डलिनी शक्ति में षट्चक्र क्या है  🔆🙏  

कुण्डलिनी की  व्याख्या  सर्वत्र एक ऐसी शक्ति की रूप में की गयी है जिसकी तुलना अन्य किसी से नहीं की जा सकती।  यह सर्वशक्तिमान की अधिष्ठात्री शक्ति है।  मानव जीवन के लिए दुर्लभतम वरदान है यह जिसको साध लेने से जन्म-जन्मान्तर के भव-बंधन टूट जाते हैं। 

>>>नाड़ी चक्र: लेकिन कुण्डलिनी तंत्र को समझने से पहले नाड़ी चक्र के विज्ञान को समझना अनिवार्य है।  मानव-शरीर में नाड़ियों की संख्या बहत्तर हज़ार बतायी गयी है।   ये नाड़ियाँ पेड़ के पत्तों की अतिसूक्ष्म शिराओं की भांति शरीर में रहती हैं।  ये सभी नाड़ियाँ, मनुष्य शरीर में, लिंग से ऊपर और नाभि के नीचे के स्थान, जिसे मूलाधार कहते हैं से निकल कर पूरे शरीर में व्याप्त हैं।  ये सभी नाड़ियाँ, चक्र के समान शरीर में स्थित होकर शरीर तथा शरीर में स्थित पाँचों प्रकार की वायु (प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान ) का आधार बनी हुई हैं।  
इन बहत्तर हज़ार नाड़ियों में भी प्रथम तीन नाड़ियाँ इड़ा, पिन्गला और सुषुम्ना विशेष महत्व की हैं जो प्राणवायु के मार्ग में स्थित हैं।  शरीर के मेरुदंड के वाम भाग में या बाएं नासारंध्र (नाक) में इड़ा और दायीं तरफ (दाहिनी नाक में) पिन्गला नाड़ी है। मेरुदंड के बीचोबीच सुषुम्ना नाड़ी है।  इन तीनों ही नाड़ियों में प्राणवायु बहती है।  इसके अतिरिक्त बायीं आँख में गांधारी, दाहिनी आँख में हस्तिजिव्हा, दायें कान में पूषा, बाएं कान में यशस्विनी, मुख में अलम्बुषा, लिंग में कुहू, और गुदा में शन्खिनी स्थित है। 
शरीर के दस द्वारों पर ये दस नाड़ियाँ स्थित हैं।  इनमे इड़ा नाड़ी में चन्द्र, पिन्गला नाड़ी में सूर्य तथा सुषुम्ना में अग्नि देवता स्थित हैं।  जो लोग इड़ा (चन्द्र), और पिंगला (सूर्य) नाड़ी से प्राणवायु का अभ्यास, स्वरोदय शास्त्र के अनुसार, निरंतर करते हैं उनकी दृष्टि त्रैकालिक होने लगती है यानी उन्हें भविष्य का भान होने लगता है।  इन नाड़ियों के स्वर से शुभ-अशुभ, किसी कार्य के सिद्ध होने या बेकार जाने का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।  स्वरोदय-शास्त्र में इनकी विस्तार से चर्चा है। 
शुभ कर्म में चन्द्र या इड़ा नाड़ी का चलना तथा रौद्र कर्म में सूर्य या पिन्गला नाड़ी का चलना अच्छा माना जाता है। इड़ा नाड़ी चलने का अर्थ है बायीं नाक से श्वाँस का चलना और पिंगला नाड़ी चलने का अर्थ है दाहिनी नाक से श्वाँस का चलना।  किस समय कौन सी नाड़ी चल रही है इसका अनुभव आप अपनी नासिका छिद्रों के पास अपनी अँगुलियों को ले जाकर कर सकते हैं।  इन नाड़ियों के चलने का क्रम इस प्रकार से है- शुक्ल पक्ष में पहले तीन दिन तक चन्द्र नाड़ी चलती है। इसके बाद तीन दिन तक सूर्य नाड़ी चलती है। फिर उसके बाद उसी क्रम में तीन दिन तक चन्द्र नाड़ी और उसके बाद तीन दिन सूर्य नाड़ी चलती है।  इसी क्रम से शुक्लपक्ष में नाड़ी सञ्चालन होता है। 
 इसी प्रकार से कृष्णपक्ष में पहले तीन दिन दाहिनी नाड़ी यानी सूर्य-स्वर का उदय होता है उसके बाद चन्द्र नाड़ी का।  इसी प्रकार से प्रत्येक दिन इन नाड़ियों का क्रमबद्ध उदय एवं अस्त होता है। इन समस्त नाड़ियों का सञ्चालन करने वाली शक्ति ही कुण्डलिनी शक्ति है। 

>>>कुण्डलिनी शक्ति: कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार चक्र के नीचे, सर्प की भांति, साढ़े तीन कुंडली मार कर सोई हुई है।  कहते हैं कि यह सोई हुई कुण्डलिनी शक्ति जब पहली बार जागती है तो शरीर में भूकंप सा अहसास होता है।  यद्यपि प्रत्येक साधक के अपने स्वतंत्र निजी अनुभव हो सकते हैं लेकिन शरीर उस समय विचित्र पीड़ा के दौर से गुजरता है- एक ऐसा अनुभव जैसा पहले कभी ना हुआ हो। इसीलिए योगाचार्यों # ने कहा है कि बिना सुयोग्य गुरु की देखरेख में कुण्डलिनी जगाने का प्रयास नहीं करना चाहिए, दिमाग भी बिगड़ सकता है !
निरंतर साधना एवं अभ्यास से जब कुण्डलिनी जागती है तो वह ऊपर की तरफ उठती है।  उस समय सुषुम्ना नाड़ी, प्राणवायु के लिए राजपथ बन जाती है।   जैसे एक राजा, राजमार्ग से, अपने पूरे ऐश्वर्य के साथ निकलता है, वैसे ही प्राणवायु, सुषुम्ना नाड़ी में सुखपूर्वक बहती है। उस समय चित्त यानि मन निरालम्ब हो जाता है और योगी को किसी भी प्रकार का भय नहीं रह जाता।  तंत्र शास्त्रों में सुषुम्ना नाड़ी की बहुत महिमा बखान की गयी है।   इसे शून्य पदवी, ब्रह्मरन्ध्र, महापथ, श्मशान, शाम्भवी, मध्यमार्ग आदि नाम दिए गए हैं। कुण्डलिनी के जागरण में महामुद्रा का विशेष विधान है। इस महामुद्रा को आदिनाथ आदि महासिद्धों ने प्रकट किया था।  इस महामुद्रा से पञ्च महाक्लेष –अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, और अभिनिवेश रुपी शोक-मोह आदि नष्ट हो जाते हैं। जागने के बाद, जब कुण्डलिनी शक्ति ऊपर की तरफ उठती है तो सारे चक्र खिल जाते हैं, ब्रह्म ग्रंथि, विष्णु ग्रंथि, और रूद्र ग्रंथि खुल जाती हैं तथा शरीर में स्थित षट्चक्र पूर्ण विकसित होते हुए खुल जाते हैं। 
>>> षट्चक्र: साभार @*🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४०५)*
शरीर के मेरुदंड के भीतर, ब्रह्मनाड़ी में अनेक चक्रों की कल्पना की गयी है लेकिन मुख्य रूप से छह चक्र होते हैं।  इन छह चक्रों के नाम- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा चक्र हैं।  तथा इनके स्थान क्रमशः योनि, लिंग, नाभि, ह्रदय, कंठ और भ्रूमध्य है।  इन छह चक्रों के अलावा एक सातवां चक्र होता है जिसे सहस्रार चक्र कहते हैं यह चक्र मष्तिष्क में पीछे की तरफ़, सबसे ऊपर होता हैं।  यहीं पर परात्पर पुरुष (परम् पूज्य गुरुदेव), सहस्त्रों पंखुड़ियों वाले कमल पर बैठे हैं। 
 ४०६. आत्म -परमात्म रास । एकताल*

घट घट गोपी घट घट कान्ह, घट घट राम अमर अस्थान ॥टेक॥*

गंगा जमना अंतर-वेद, सरस्वती नीर बहै प्रस्वेद ॥१॥*

कुंज केलि तहं परम विसाल,सब संगी मिल खेलैं रास ॥२॥*

तहँ बिन बैना बाजैं तूर, विकसै कँवल चंद अरु सूर ॥३॥*

पूरण ब्रह्म परम प्रकाश,तहँ निज देखै दादू दास ॥४॥*

इति राग भैरू समाप्त ॥

प्रत्येक के शरीर में जो मन की वृत्तियाँ है यह ही गोपियां कहलाती हैं और जो साक्षीचैतन्य ब्रह्म हैं वह ही श्रीकृष्ण का स्वरूप हैं । अष्टदलकमल ही वृन्दावन हैं । जहां परब्रह्म स्वरूप श्रीकृष्ण विराजते हैं और पिंगला रूपा नाड़ी गंगा , इड़ा नाड़ी रूपा यमुना नदी बहती हैं । इड़ा- पिंगला के बीच जो षट्चक्र हैं वह ही अन्तर्वेदरुपी देश हैं
जैसे सरस्वती नदी पृथ्वी के अन्दर बहती हैं वैसे ही सुषुम्नारूप सरस्वती का इड़ा -पिंगला का रूप गंगा -यमुना के साथ सम्बन्ध होकर अन्दर ही अंदर सरस्वती का नीर बह रहा हैं । वृत्तियों का चेतन ब्रह्म के साथ सम्बन्ध होने से वृत्तियों की तदाकारता से परमानन्द की जो प्राप्ति है वह ही आन्तर कुंजकेलि हैं । जब मन बुद्धि इन्द्रियाँ ये सब भगवदाकार बन जाती हैं तब ही आन्तर रास होता हैं ।
भगवान् (अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव) परम आनन्दस्वरूप हैं, जब ये मन मन में स्वयं ही आते हैं तब मन परमानन्दस्वरूप रसभाव को प्राप्त होता हैं । इस आन्तररास में वाणी के बिना ही ब्रह्मावृत्तियों से ही उस ब्रह्म का गान होता हैं । विनाश ही हाथों के अनाहतनाद का बाजा बजता रहता हैं । हृदय आनन्द से भर जाता हैं । जब इड़ा नाड़ी रूपचन्द्र पिंगला नाड़ी रूप सूर्य सुषुम्ना अग्नि में दोनों लों हो जाते हैं । उस समय परम प्रकाशमय ब्रह्म को भक्त लोग निजात्मरूप से देखते हैं
गीता में कहा है कि बाहर के विषयों में आसक्ति रहित अन्तःकरण वाला साधक आत्मा में स्थित जो ध्यान जनित सात्विक आनन्द हैं, उसको प्राप्त होता हैं।  तदन्तर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म परमात्मा के ध्यानरूप योग में अभिन्नता से स्थित पुरुष के अक्षय आनन्द का अनुभव करता हैं। इसीको ही साधक का ब्रह्म संस्पर्श कहा जाता है । अर्थात् श्रवण, मनन और निदिध्यासन द्वारा जब साधक अन्नमय आदि  पंच-कोशों से मुक्त होकर स्वरूपस्थ होता है, उसी समय यह उस को ब्रह्म के साथ अभिन्नता का अनुभव होता हैं ।
भक्तों का यह सर्वस्वभूत भगवदाश्लेष वस्तुतः परम दुर्लभ हैं । [ भगवत्-विप्रयोग-जन्य तीव्रताप से दग्ध तनु ही भगवदाश्लेष का अधिकारी है; जिसके स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण तीनों ही शरीर दग्ध हो गये हैं, वही दग्धतनु है। विभिन्न लीलाओं द्वारा भगवान् स्वरूपात्मक रस को भक्तजनों के अन्तःकरण में सन्निविष्ट करते हैं; भक्त-हृदय में स्वरूपात्मक रस का सन्निवेश ही सम्पूर्ण लीलाओं का उद्देश्य है।] यह तो ब्रह्मा सनकादिकों को भी प्राप्त नहीं हो सकता । परन्तु समय देखकर हे हनुमान् मैंने तुमको दिया हैं । इसी को ब्रह्मस्पर्श कहते हैं । 
इति श्रीमदात्माराम भैरवराग हिन्दीभाषानुवाद समाप्त ॥२४॥
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी ।
जिसका साहिब तुरक न हिन्दू, पखाँ दहूँ थैं न्यारा ।
बषनां बंदा चौड़ै धरिये, जलै गड़ै संसारा ॥
जिनका साहिब = इष्ट न हिन्दू और न मुसलमान बल्कि दोनों से न्यारा = विलक्षण एक परमात्मा मात्र है, उनका विदेह मोक्ष हो जाने के उपरान्त उनके शरीर को खुले स्थान पर ही रखा जाता है । शरीर को जलाने अथवा गाड़ने की प्रथा तो संसारियों के लिये होती है ॥१॥ 
“दादू मरणा तहाँ भला, जहाँ पसु पंछी खाइ ॥”
कहा भयौ जे गाड़ी रावल, कहा भयौ जे जाली ।
दोऊ ठाहर दावा दीसै, ताथैं चौडै राली ॥२॥
रावल = साधु-संतों के लिये दोनों ही स्थितियाँ एक समान हैं । उनका विचार होता है, चाहे मरणधर्मा – नश्वर शरीर को गाड़ दिया जाए, चाहे जला दीया जाए, कोई फर्क नहीं पड़ता । किन्तु कबीरजी के शरीर को लेकर भारी विवाद हिन्दू और मुसलमानों में हो गया था । कहीं ऐसा ही विवाद श्रीदादूजी की देह के सम्बन्ध में न हो जाए, दादूजी महाराज ने पवनदाग की बात अपने जीते जी ही स्थिर कर दी थी क्योंकि उनके भी दोनों ही संप्रदायों को मानने वाले शिष्य थे ।अतः बषनांजी कहते हैं, दादूजी के ब्रह्मलीन हो जाने पर ऐसा लगता था कि दोनों समुदाय के शिष्य अपना-अपना दावा करेंगे, इसलिये उनके शरीर को न जलाया गया और न गाड़ा गया । उसे चौड़े में पवन दाग हेतु डाल दिया गया ।
जैसा दादूजी ने कहा है –
“दादू तहाँ चल जाइये, जहाँ न अपना कोय ।
माटी खाय जनावरा, सहज महोछा होइ ॥
जे गड़ै ते तुरक कहावै, जे जालै ये हिन्दू ।
दादू निरपख साहिब सुमिरै, समझै नहिं सो भौंदू ॥३॥
जो मुर्दों को गाड़ते हैं वे तुरक = मुसलमान कहलाते हैं । इसके विपरीत जो जलाते हैं वे हिन्दू कहे जाते हैं । किन्तु दादूजी महाराज जो हिन्दू और मुसलमान नामक दोनों कृत्रिम पक्षों से निरपेक्ष परब्रह्म-परमात्मा को सुमरते हैं के इस रहस्य को नहीं समझते हैं, वे मूर्ख हैं ॥३॥
>>>*४०७. पराभक्ति । त्रिताल*
राम तूँ मोरा हौं तोरा, पाइन परत निहोरा ॥टेक॥*
एकै संगैं वासा, तुम ठाकुर हम दासा ॥१॥*
तन मन तुम कौं देबा, तेज पुंज हम लेबा ॥२॥*
रस माँही रस होइबा, ज्योति स्वरूपी जोइबा ॥३॥*
ब्रह्म जीव का मेला, दादू नूर अकेला ॥४॥*
हे राम ! आप मेरे हैं, और मैं आपका हूँ, मैं आपके चरणकमलों में पड़कर प्रार्थना करता हूँ कि मैं तो आपका दास हूँ आप मेरे स्वामी अतः आपका और मेरा एक जगह ही निवास होना चाहिये । मैं अपने शरीर मन बुद्धि को आपके समर्पण करके आपके तेजपुंजमय रूप को प्राप्त कर लूं ।
जैसे रस में रस के मिल जाने पर दोनों एकरस हो जाते हैं । उसी प्रकार मैं भी अपनी आत्मा को आपके स्वरूप में लीन करके निरन्तर ज्योतिस्वरूप आपको ही देखा करूं । अर्थात् आप और मैं एक हो जावें ऐसी कृपा कीजिये ।
जंबुक क्या खाइ अग्नि क्या जालै, माटी गड़ै सु कौंण ।
दादू मिले दयाल कौं, ज्यूं पाणी मै लूँण ॥४॥
बषनांजी ने उन लोगों से प्रतिप्रश्न किया है जिन्होंने दादूजी की देह के पवनदाग (दाह) के सम्बन्ध में प्रश्न किये थे । 
बषनांजी पूछते हैं, बताइये ! जंबुकों (श्मसान में सियार) के द्वारा खाया जाता है, वह क्या है ? इसी प्रकार अग्नि में जिसको जलाया जाता है, वह क्या है ? बताइये । मिट्टी में जिसको गाड़ा जाता है, वह क्या होता है ? वस्तुतः खाने, जलने और गड़ने वाला शरीर होता है, आत्मा नहीं।
दादूजी आत्मस्वरूप थे और अपने समष्टि आत्मस्वरूप में ठीक वैसे ही मिल गये जैसे पानी में नमक मिलता है ॥४॥
 दाग (दाह) चार प्रकार के माने गये हैं (१) अग्निदाग (२) जलदाग (३) भूमिदाग (४) पवनदाग ।
गृहस्थलोग देशाचारानुसार अग्निदाग अथवा जलदाग करते हैं । मुसलमान भूमिदाग करते हैं । संन्यासी जलदाग करते हैं । प्रारम्भिक दिनों में दादूपंथ में पवनदाग का प्रचलन था किन्तु वर्तमान में अग्निदाग ही बहुलता से होता है ।
वराहोपनिषद् में कहा है कि – चेतन स्वरूप, सर्वव्यापक, नित्य, परिपूर्ण, सुखमय, द्वैतरहित, साक्षात् ब्रह्म ही सब कुछ हैं और दूसरा कुछ भी नहीं हैं । ब्रह्मज्ञानियों की यही स्थिति रहा करती हैं। वर्णाश्रम से रहित सबके साक्षी आत्मा को ब्रह्मस्वरूप से जान कर यह जीव ब्रह्म हो जाता हैं ।
दूध मिल्यौ ज्यूँ नीर मैं, जल मिश्री इक रूप ।
सेवग स्वामी नाँव द्वै, बषनां एक सरूप ॥५॥१
जिस प्रकार दूध और जल मिल कर एक हो जाते हैं, मिश्री और जल मिलकर एक हो जाते हैं, ऐसे ही सेवक और स्वामी, भक्त और भगवान, ज्ञानी और परब्रह्म-परमात्मा कहने के लिये दो हैं किन्तु स्वरूपतः वे दो नहीं, एक ही होते हैं ॥५॥ 
“ब्रह्म विद्ब्रह्मैव भवति ॥” “तस्मिन् तज्जना भेदाभावात् ॥”
श्रीदादू बचन प्रमाण ॥
दादू जब दिल मिली दयाल सूँ, तब अंतर कुछ नाहिं ।
ज्यूँ पाला पाणी कूँ मिल्या, त्यूँ हरिजन हरि माहिं ॥४/३०४॥
दादूजी महाराज कहते हैं, जब आत्मा निजस्वरूपभूत परमात्मा में मिल जाती है तब उन दोनों में कोई भी किसी भी प्रकार का अंतर नहीं रहता । जैसे पाला (ओसकण) पानी में मिलकर पानी रूप हो जाता है, ऐसे ही हरि और हरिजन एक ही हैं ॥४/३०४॥
 इति निरपख कौ अंग संपूर्ण ॥
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा लिखित सत्य हरिश्चन्द्र नाटक के चौथे अंक में भी कहा गया है - अहा! शरीर भी कैसी निस्सार वस्तु है! शव! तुम धन्य हो कि इन सियार आदि पशुओं के इतने काम आते हो; अतएव कहा है---

"मरनो भलो विदेश को, जहाँ न अपुनो कोय।

माटी खॉय जनावरॉ, महा महोच्छव होय॥"

>>प्रथम 5 चक्र के अधिपति पंचमहाभूत :  आदि गुरु शंकराचार्य के सौन्दर्यलहरी के अनुसार कुण्डलिनी शक्ति का जागरण, ब्रह्मरंध्र (सुषुम्ना नाड़ी) में स्थित छह चक्रों का भेदन करके किया जा सकता है। प्रारंभ के पाँच चक्र (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध) ही हमारी शरीर को प्रभावित, करते हैं।   उनके अधिपति क्रमशः पृथ्वी (Matter) , अग्नि (Energy), जल  (Force) , वायु (Quark), और आकाश (Space) हैं।   ये पंचमहाभूत माने गए हैं जिनसे सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ बना है। लेकिन इनसे बने पदार्थ जड़ (यानि निर्जीव) होते हैं, सजीव बनने के लिए इनको आत्मा चाहिए। आत्मा को वैदिक साहित्य में पुरुष कहा जाता है। सांख्य शास्त्र में प्रकृति इन्ही पंचभूतों से बनी मानी गई है। योगशास्त्र के अनुसार  अन्नमय शरीर भी इन्हीं से बना है। यहाँ तत्व के नाम का अर्थ उनके भौतिक रूप से नहीं है - यानि जल का अर्थ पानी से जुड़ी हर प्रकृति या अग्नि का अर्थ आग से जुड़ी हर प्रकृति नहीं है। योगी आपके छोड़े हुए सांस (प्रश्वास) की लंबाई के देख कर तत्व की प्रधानता पता लगाने की बात कहते हैं।

>>लेकिन आज्ञाचक्र महतत्त्व (The Great Grand Matter) से संचालित और मन यानि संस्कारों को प्रभावित करने वाला है। सुयोग्य गुरु (या नेता, पैगम्बर C-IN-Cनवनीदा) सर्वप्रथम मनःसंयोग के प्रशिक्षण और साधना  के माध्यम  से (3H विकास के 5 अभ्यास की साधना के माध्यम  से और जगतजननी माँ जगदम्बा की कृपा से) से शिष्य के इन छह चक्रों का भेदन करता है।  इसकी शुरुआत मूलाधार चक्र से होती है।  प्रत्येक चक्र के भेदन पर शिष्य को विस्मित और चकित कर देने वाली सिद्धियाँ ? प्राप्त होती जाती हैं।  
>>मूलाधार चक्र: सौन्दर्यलहरी में आदि शंकराचार्य कहते हैं कि मूलाधार चक्र में स्थित कुण्डलिनी शक्ति को सावित्री भी कहते हैं।  इसकी आराधना करने वाला यानि इस चक्र का भेदन करने वाला साधक ऐश्वर्यवान बनता है क्योंकि इस अखिल विश्व-ब्रह्माण्ड का वैभव इसी शक्ति-युग्म के हाँथ सन्निहित है।  
>>स्वाधिष्ठान चक्र: मूलाधार चक्र के ऊपर स्वाधिष्ठान चक्र आता है।  स्वाधिष्ठान चक्र में रूद्र ही अग्नि बनकर निवास करते हैं। इस चक्र का भेदन करने से साधक पञ्च-विद्याओं में निष्णात हो जाता है। वो अपने स्थूल और सूक्ष्म शरीर में व्याप्त समस्त दैहिक और दैविक दोषों को नष्ट करने में सक्षम हो जाता है।  
>>मणिपूरक चक्र: स्वाधिष्ठान चक्र के ऊपर मणिपूरक चक्र आता है। मणिपूरक चक्र की साधना करते हुए इस चक्र का भेदन करने वाला साधक उस दिव्य शक्ति के साथ अपना सम्बन्ध बना लेता है जो उसकी मनस्विता, तेजस्विता और समर्थता की दिव्य ज्योति को विश्व आकाश में बिजली कीतरह चमकाती है अर्थात प्रकाशित करती है।  सबसे बड़ी बात इस चक्र का भेदन करने पर साधक काम- बीज का रहस्य जान लेता है और काम-बीज का रहस्य जान लेने से उसके लिए सांसारिक सुखों की कमी नहीं रहती। 
>>अनाहत चक्र: मणिपूरक चक्र के बाद अनाहत चक्र आता है।  अनाहत चक्र को भेदने से साधक में नीर-क्षीर विवेक कर सकने की क्षमता का विकास हो जाता है।  अर्थात अनुचित का त्याग और उचित को ग्रहण कर सकने की स्वाभाविक प्रवृत्ति का विकास हो जाता है।  इस प्रकार से वह हंस जैसा धवल और ब्राह्मी शक्ति का वाहन बन सकने की पात्रता प्राप्त करता हुआ अठारह विद्याओं में निपुण एवं निष्णात बन जाता है।  दरअसल सूक्ष्मदृष्टि से देखें तो पात्रता के आभाव से ही मनुष्य को आभावग्रस्त और असफल रहना पड़ना है। 
>>विशुद्ध चक्र: विशुद्ध चक्र के बारे में शंकराचार्य कहते हैं कि विशुद्ध चक्र में स्वच्छ स्फटिक जैसे शिव के साथ उनकी कार्य शक्ति के रूप में निवास करने वाली तुम महाशक्ति को नमस्कार है।  यह संसार तुम्हारी ही ज्योति से, अज्ञानरूपी अंधकार से छुटकारा पा कर आनंदित होता है।  इस चक्र का भेदन करने वाले साधक के ह्रदय में निरंतर आनंद और उल्लास की अनुभूति होती रहती है मानो उसने परम आनंद की प्राप्ति कर ली हो।  ऐसे व्यक्ति का केवल सामीप्य आपको प्राप्त हो जाय तो हमेशा उसी के सानिध्य की इच्छा बनी रहेगी।  
>>आज्ञा चक्र: ब्रह्मरंध्र में स्थित पंचों चक्रों का भेदन करता हुआ साधक जब छठें चक्र यानी आज्ञा चक्र का भेदन करता है तो उसकी दिव्य दृष्टि जागृत हो जाती है। शंकर जी की तरह कामदेव को जला देने में समर्थ अग्नि रूप तीसरा नेत्र भृकुटी स्थान में स्थित आज्ञा चक्र ही तो है।  दिव्य ज्ञान की समस्त भूमिकाएं इसी केंद्र से उपजती हैं। अधोस्थान में जननेंद्रिय मूल में पड़ी हुई इस महाशक्ति को उबार कर जो इस आज्ञाचक्र के शीर्ष स्थान तक पहुंचा देता है, वह साधक धन्य हो जाता है। 
>>सहस्रार चक्र: इन सब चक्रों के ऊपर, मनुष्य शरीर के कपाल के उर्ध्व भाग में स्थित सहस्रार चक्र के बारे में शंकराचार्य जी कहते हैं कि “विद्युतधारा की तरह इन छह चक्रों से होती हुई, ऊपर सहस्रार कमल में तुम जा विराजती हो। सूर्य, चन्द्र और अग्नि (इड़ा, पिंगला, और सुषुम्ना) तुम्हारी कला पर आश्रित हैं। मायातीत जो परात्पर महापुरुष हैं, तुम्हारी ही आनंदलहरी में स्नान करते हैं। ” 
इन छह चक्रों के भेदन के दौरान प्राणवायु, ब्रह्मरंध्र अर्थात सुषुम्ना नाड़ी में ही गति करता है।   इन
छहों चक्रों के भेदन के पश्चात गुरु अपने साधक शिष्य से वो साधना करवाता जो उस महासर्पिणी,
परमशक्ति कुण्डलिनी को जागृत करती है।  
षट्चक्र भेदन एक तरह से कुण्डलिनी शक्ति के महापथ का निर्माण है।   एक बार जब कुण्डलिनी शक्ति जागती है तो ब्रह्मरंध्र में, षट्चक्रों से होती हुई, विदुत गति से सीधा सहस्रार में जा मिलती है।  ऐसा होना उस मनुष्य के जीवन के साथ-साथ इस ब्रह्माण्ड की भी दुर्लभतम घटनाओं में एक होता है क्योंकि यह पराशक्ति का उस परात्पर पुरुष से मिलन है जो एक मनुष्य शरीर द्वारा संभव होता है। 
ऐसा होते ही उस मनुष्य का कपाल एक तेज़ और गंभीर आवाज के साथ फटता है, उसका ब्रह्मांडीय शरीर अपनी पूर्ण विकसित अवस्था को प्राप्त करता हुआ उस सत-चित-आनंद को प्राप्त होता है।  जिसे साकार ब्रह्म के उपासक सायुज्य मोक्ष और निराकार ब्रह्म के उपासक कैवल्य मोक्ष के रूप में जानते हैं | हे जगत्जननी मातृस्वरूपा तुम्हे बारम्बार प्रणाम है |

>>>नाद-भेद : सप्त स्वर ज्ञान 

साभार /स्वच्छभाषाभियानम्/https://www.facebook.com/groups/130075194356928/posts/497064130991364/

[साभार  https://saptswargyan.in/naad-ahat-anahat/]

साभार https://www.uou.ac.in/lecturenotes/humanities/MPAM%20101%20BLOCK%203%20UNIT%203.pdf]

>>ध्वनि – विज्ञान में नाद किसे कहते हैं ?

नाद की परिभाषा और प्रकार : 

नाद नकारं प्राणमामानं दकारमनलं विदुः । 

जातःप्राणाग्निसयोगात्तेन नादोऽभिधीयते ॥ 

(-संगीत रत्नाकर: १।३७६ )

 – ‘ नकार ‘ प्राण – वाचक ( वायु – वाचक ) तथा ‘ दकार ‘ अग्नि – वाचक है , अत : जो वायु और अग्नि के योग ( सम्बन्ध ) से उत्पन्न होता है , उसी को ‘ नाद ‘ कहते है । अर्थात् ‘नाद’ के नकार को प्राण-तत्त्व और दकार को अग्नि-तत्त्व जाना जाता है।  इसी प्राण और अग्नि के संयोग से नाद नामक परम चेतना का आविर्भाव होता है।  

संगीत में प्रयुक्त होने वाली ध्वनि, उपयोग में आने वाली ध्वनि को नाद कहते हैं । नाद दो प्रकार के जाने जाते हैं – ‘ आहत ‘ तथा अनाहत ‘ । 

आहतो नाहतश्चेति द्विधा नादो निगद्यते ।

 सोऽय प्रकाशते पिडे तस्तापिडोऽभिधीयते ॥ 

-संगीत रत्नाकर ( १।२।३ )

अर्थात् — ” नाद के दो प्रकार जाने जाते हैं – ‘ आहत ‘ तथा अनाहत ‘ । ये दोनों पिण्ड ( देह ) में प्रकट होते हैं , इसलिए पिण्ड का वर्णन किया जाता है । आहत नाद ही संगीत के लिए उपयोगी है। 

>> अनाहत नाद किसे कहते हैं ?

अनाहत नाद की परिभाषा – ” अनाहत नाद जो नाद केवल अनुभव से जाना जाता है और जिसके उत्पन्न होने का कोई खास कारण न हो , यानी जो बिना संघर्ष के स्वयंभू रूप से उत्पन्न होता है , उसे ‘ अनाहत नाद ‘ कहते हैं। 

चैतन्यं सर्वभूतानां विवृतं जगदात्मना।

नादब्रह्म तदानन्दमद्वितीयमुपास्महे॥

 (सङ्गीतरत्नाकरः १.३.१)

अर्थात् नाद एक प्रकार की ध्वनि है जो सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। नाद सब प्राणियों में स्थित है, इसलिए इसे ब्रह्मनाद कहते हैं। 

सभी प्राणियों में जो चैतन्य, स्वफूर्त्त जगत् में व्याप्त है उस अनुपम-अद्वितीय आनन्दरूप नादब्रह्म की हम उपासना करते हैं।  

इसी अनाहत नाद की उपासना हमारे प्राचीन ऋषि – मुनि करते थे। यह नाद मुक्ति – दायक तो है किन्तु रक्ति-दायक नहीं। इसलिए यह संगीतोपयोगी भी नहीं है , अर्थात् संगीत से अनाहत नाद का कोई सम्बन्ध नहीं है। 

आहात नाद की परिभाषा :  वह नाद (ध्वनि)  जो दो वस्तुओं के संघर्ष या रगड़ से पैदा होती है, और कर्णप्रिय होती है उसे ‘ आहत नाद ‘ कहते हैं ।  इस नाद का संगीत से विशेष सम्बन्ध है ।इसी नाद के द्वारा सूर , मीरा इत्यादि ने प्रभु – सान्निध्य प्राप्त किया था और फिर अनाहत की उपासना से मुक्ति प्राप्त की थी। 

>>>शोर और संगीत के बीच क्या अंतर है ? शोर और संगीत के बीच क्या अंतर है ? कर्णप्रिय मधुर ध्वनि से ही संगीत का निर्माण हो सकता है, इसे ही हम संगीत कह सकते है। एक समस्या यह है कि कुछ ध्वनियाँ न शोर न तो संगीत के स्वर क्षेत्र में आते हैं और न मात्र शोर ही कहे जा सकते हैं।जैसे बाल्टी को डंडे से पीटना या रुई का धुनना आदि । लेकिन संगीत की जानकारी रखने वाला इनसे जलतरंग या वीणा के स्वरों का निर्माण कर सकता है। जैसे सड़क पर खिलौना / सारंगी बेचने वाला उस पर मधुर ध्वनि निकालता है । लेकिन जब कोई नौसिखिया उसे खरीद कर बजाता है तो वैसी ध्वनि नहीं निकलती और एक कर्कश ध्वनि सुनाई पड़ती है जो कानों को अप्रिय लगती है। इस स्थति में हम इसे शोर कहेंगे।

  'भारत का कलात्मक वैभव' - [स्वच्छभाषाभियानम् : यदि न संस्कृता वाणी यदि न संस्कृतं मनः।यदि न संस्कृता दृष्टिः संस्कृताध्ययनेन किम्॥( संस्कृताध्यापनेन किम्)न दैन्यम् न पलायनम् ।

संगीत-विद्या के प्रथम उपदेशक [आचार्य] भगवान् शिव है। जीवन, ऊर्जा का महासागर है। कला [विद्या] जीवन को ‘सत्‍यम् शिवम् सुन्‍दरम्’  से समन्वित करती है। जब अन्तश्‍चेतना जागृत होती है तो ऊर्जा जीवन को कला के रूप में उभारती है। कला (विद्या) जीवन को ‘सत्‍यम् शिवम् सुन्‍दर’ से समन्वित करती है। इसके द्वारा ही बुद्धि में आत्‍मा का सत्‍य स्‍वरुप झलकता है। इसलिए राजर्षि और महाकवि भर्तृहरि कहते हैं –

कला-वि‍हीनः,साक्षात्पशुः पुच्‍छविषाणहीनः ॥ 

तृणं न खादन्नपि जीवमानः, तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥ 

... [नीतिशतकम्]

अर्थात् साहित्य, संगीत और कला से विहीन मनुष्य साक्षात् पूँछ और सींग रहित पशु के समान है। और ये तो पशुओं का सौभाग्य है कि वो उनकी तरह घास नहीं खाता।

>>>कं सुखं लाति ददाति इति कला।  अपने भावों या विचारों को रेखा, रंग, ध्‍वनि या शब्‍द द्वारा इस प्रकार अभिव्‍यक्ति करना कि उसे देखने, सुनने या पढ़ने में भी वही भाव उत्‍पन्‍न हो जाए, वह कला है। हृदय की गइराईयों से निकली अनुभूति जब कला का रूप लेती है, कलाकार का अन्‍तर्मन मानो मूर्त हो उठता है।   चाहे लेखनी उसका माध्‍यम हो या रंगों से भीगी तूलिका या सुरों की पुकार या वाद्यों की झंकार। कला ही आत्मिक शान्ति का माध्‍यम है।

 यह ‍कठिन तपस्‍या है, साधना है। इसी के माध्‍यम से कलाकार सुनहरी और इन्‍द्रधनुषी आत्‍मा से स्‍वप्निल विचारों को साकार करता है। जब यह कला संगीत के रूप में उभरती है तो कलाकार गायन और वादन से स्‍वयं को ही नहीं श्रोताओं को भी अभिभूत कर देता है। मनुष्‍य आत्‍मविस्‍मृत हो उठता है। दीपक राग से दीपक जल उठता है और मल्‍हार राग से मेघ बरसना- यह कला की साधना का ही चरमोत्‍कर्ष है। संगीत की साधना;  सुरों की साधना है। मिलन है आत्‍मा से परमात्‍मा का;  अभिव्‍यक्ति है अनुभूति की। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में चेतना के उस समीकरण की व्याख्या है, जिसका चरम सत्, चित् और आनन्द [सच्चिदानन्द] है। 

>>लंकाकाण्ड की फलश्रुति : लंकाकाण्ड सुनने का परिणाम :Result of listening Lanka incident :-  विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयते -  विवेकानन्द- दर्शन के अभ्यास से विवेकस्रोत का उद्घाटन होने पर सर्वत्र 'ख' ही रह जाता है ! ठाकुर बचपन में अपने एक मित्र किशोरी से कहते थे - 'तुम ख हो !'  सन्त तुलसीदास ने श्रीरामचरित मानस में लंकाकाण्ड का फलश्रुति देते हुए कहा है—

"समर विजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान। 

'बिजय- बिबेक-बिभूति' नित तिन्हहि देहिं भगवान॥121 क॥"

-भावार्थ--जो सुजान लोग श्री रघुवीर की समर विजय संबंधी लीला को सुनते हैं, उनको भगवान नित्य विजय, विवेक और विभूति (ऐश्वर्य) देते हैं॥ 

साभार: विवेक-जीवन ब्लॉग dated -16 सितंबर 2019/"सार्थ गुर्वाष्टकम्" - अर्थ के साथ गुरु अष्टकम !/श्रीरामकृष्ण-विवेकानंद वेदांत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा का वैशिष्ट्य/] 

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[ माँ हंसेश्वरी देवी #  हंगशेश्वरी - "हँ" शब्द का उच्चारण सांस छोड़ते समय किया जाता है जबकि "सः" शब्द का उच्चारण सांस अंदर लेते समय किया जाता है। "हँ (होंग)" शब्द "शिव" को दर्शाता है और "सः" शब्द "मां शक्ति" को दर्शाता है।  पश्चिम बंगाल में हुगली जिले के 
बंडेल- त्रिवेणी अंचल के प्राचीन बाँसबेरिया नामक  शहर में स्थित मां हंसेश्वरी मंदिर एक शानदार सौंदर्य पूर्ण मन्दिर है। प्रसिद्ध माता हंसेश्वरी मंदिर में शिव एवं माता हंसेश्वरी की प्रतिमा संयुक्त रूप से विराजमान हैं। गंगा नदी के किनारे स्थित इस मंदिर में शक्ति स्वरूपा माता हंसेश्वरी काली के रूप में पूजी जाती हैं। ]

खास बात यह है कि यहां देवी की मूर्ति नीम की लकड़ी से बनाई गई हैं तथा इसका रंग भी नीला हैं। यूं तो रोजाना यहां मां काली व शिव की पूजा श्रद्धा के साथ की जाती हैं, लेकिन काली पूजा के दिन हर साल इस मंदिर में देवी की पूजा का विशेष आयोजन किया जाता है। काली पूजा के दिन सुबह से देर रात तक इस मंदिर में भक्तों की भीड़ लगी रहती हैं। भक्तों का कहना है कि माता हंसेश्वरी करुणामय हैं। इनके दर्शन मात्र से भक्तों के कष्ट का निवारण हो जाता है। माता हंसेश्वरी के प्रति लोगों में गहरी आस्था है।

 बंसबेरिया हमारी पवित्र नदी गंगा के किनारे और त्रिबेनी और बैंडेल के बीच में स्थित है। जमींदार राजा नृसिंह देव राय  को मुगल बादशाह औरंगजेब ने लगभग 400 बीघे जमीन वाला यह गांव और इसकी जमींदारी उपहार में दी थी और उन्हें राजा की प्रतिष्ठित उपाधि भी दी थी। इस समय से उनके कई रिश्तेदार बाँसबेरिया में बस गये।
बताया गया है कि बांसबेरिया के राजा नर्सिंग देव राय जब बनारस में थे, उस समय एक दिन देवी उनके सपने में आई थी। देवी ने राजा से अपनी एक मंदिर बनाकर उसमें उनकी पूजा करने की बात कहीं थी। देवी की आज्ञा का पालन करते हुए राजा नर्सिंग देव राय ने उत्तरप्रदेश के मिर्जापुर स्थित चुनार से कीमती पत्थर एवं वहां के कारीगर को लाकर सन् 1801 में मंदिर का निर्माण शुरू करवाया था। लेकिन बीच में ही राजा नर्सिंग देव राय की निधन हो के बाद उनकी पत्नी शंकरी देवी से सन् 1814 में मंदिर निर्माण का कार्य पूरा करवाया। हंसेश्वरी मंदिर में मां काली पंचम मुखी आसन पर [पंचमुण्डी आसन पर ?] बिराजमान हैं। प्राचीन वस्तुकलाओं पर आधारित बनाए गए इस पांच मंजिला मंदिर में कुल 13 मीनारे हैं। जो कमल के फूल की तरह बनाए गए है।
कोलकाता से लगभग 70 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हंसेश्वरी मंदिर परिसर में भगवान विष्णु का भी एक प्राचीन मंदिर है। विष्णु को यहां भगवान बासुदेव के नाम से पूजा जाता है। इस प्राचीन मंदिर का रखरखाव भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) के अधीन है।
मंदिर के पुरोहित बसंत कुमार चट्टोपाध्याय ने बताया कि काली पूजा के दिन हर साल माता हंसेश्वरी की विशेष पूजा- अर्चना का आयोजन किया जाता हैं। सुबह से ही देवी की आराधना में लोग लगे रहते हैं। रात 12 बजे देवी की विशेष पूजा शुरू होती है, जो देर रात तक चलती है। चट्टोपाध्याय ने कहा कि मंदिर में देवी के दर्शन के लिए दूर-दूर से लोग यहां आते हैं। 12 महीने मंदिर में भक्तों का समागम रहता है। उन्होंने साथ ही बताया कि भक्तों की सुरक्षा के लिए मंदिर प्रांगण में नौ सीसीटीवी कैमरे भी लगाए गए हैं। 
एक किंवदंती के अनुसार राजा नृसिंह देव राय ने वर्ष 1792 से 1798 के दौरान वाराणसी में रहते हुए मानव प्रणाली में "कुंडलिनी" और "छह चक्रीय केंद्रों (छह चक्रों)" को गहराई से सीखा। ब्रिटेन जाने की अपनी योजना रद्द करके उन्होंने बंसबेरिया में "कुंडलिनी और योग अवधारणाओं" पर आधारित एक मंदिर बनाने का प्रयास किया।  जो  हंसेश्वरी देवी (माता काली का एक रूप) को समर्पित है।  19 वीं सदी में निर्मित यह मंदिर 21 मीटर ऊंचा है और इसमें 13 मीनारें (रत्न)  हैं। प्रत्येक मीनार का शिखर कमल के फूल के आकार का है। तांत्रिक सिद्धांतों के अनुसार निर्मित, यह पांच मंजिला मंदिर मानव शरीर की संरचना का अनुसरण करता है - इरा, पिंगला, बजरक्ष, सुषुम्ना और चित्रिणी।]
उस समय बनारस (वाराणसी, यूपी) के पास स्थित चुनार नामक पहाड़ी क्षेत्र से संगमरमर मंगाने में एक लाख रुपये या उससे अधिक खर्च होते थे। मंदिर को बनाने के लिए कुशल कारीगरों को भी यहीं से लाया गया था। दुर्भाग्य से राजा वर्ष 1802 में मंदिर के निर्माण के बीच में ही अपने स्वर्गीय निवास के लिए चले गए। उनकी रानी शंकरी ने पहल की और मंदिर वर्ष 1814 में बनकर तैयार हुआ। में 13 रत्न हैं और विशिष्ट तांत्रिक प्रणाली पर बनाया गया है। माँ  हंसेश्वरी देवी # पश्चिम बंगाल में मां हंसेश्वरी मंदिर एक शानदार सौंदर्य पूर्ण मन्दिर है, जो  हंसेश्वरी देवी (माता काली का एक रूप) को समर्पित है।  19 वीं सदी में निर्मित इस मंदिर में 13 रत्न या मीनारे हैं, इमारत की आंतरिक संरचना मानव शरीर रचना से मिलती जुलती है। जिनमें से प्रत्येक को खिलते हुए कमल की कली के रूप में और विशिष्ट तांत्रिक प्रणाली पर बनाया गया है।  मंदिर में शिव और शक्ति दोनों के देवता हैं और इसलिए इसका नाम "हंसेश्वरी" है। हजार पंखुड़ियों वाले नीले कमल के शीर्ष पर, आठ पंखुड़ियों वाला रक्त-लाल कमल स्थित है। सफेद "शिव" की छवि छह त्रिकोणीय संगमरमर पर पड़ी हुई पाई जाती है। "महादेव" की नाभि से एक कमल का तना निकला है जिसमें बारह पंखुड़ियों वाला रक्त-लाल कमल है। इस पर चार भुजाओं वाली "माँ शक्ति" अपने दाहिने पैर पर बायाँ पैर अपनी दाहिनी जाँघ पर टिकाकर खड़ी हैं। ऊपरी बाएँ हाथ में राक्षसों पर अंकुश लगाने की उसकी शक्ति का प्रतिनिधित्व करने वाली तलवार है, निचले बाएँ हाथ में एक राक्षस का कटा हुआ सिर है; ऊपरी दाहिनी हथेली को "भय-मुद्रा (अभय मुद्रा)" में चित्रित किया गया है ताकि उसे दुनिया की बुराइयों से "रक्षक" के रूप में चित्रित किया जा सके, जबकि निचला दाहिना हाथ इस तरह से चित्रित किया गया है जैसे कि वह उसे आशीर्वाद दे रहा हो सभी ("बर-मुद्रा")। यह मूर्ति नीले रंग की है और "नीम" के पेड़ से प्राप्त लकड़ी से बनी है। केंद्रीय मीनार के नीचे वाले कमरे में एक सफेद संगमरमर का "शिव लिंग" है।

इसकी शुरुआत राजा नृसिंहदेब रॉय ने की थी और बाद में उनकी पत्नी रानी शंकरी ने इसे पूरा किया।इस मन्दिर के मुख्य देवता चार भुजाओं वाली देवी हंसेश्वरी की नीली नीम की लकड़ी की मूर्ति है, जो देवी काली का स्वरूप है। 
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