परिच्छेद ~ 89
[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ]
🔆प्रवृत्ति (कर्म योग) से होकर भी निवृत्ति (ज्ञान या भक्ति ?) में स्थित रहना श्रेष्ठ है🔆
(१)
[श्रीरामकृष्ण की आत्मकथा (autobiography) -घोष पाड़ा और कर्ताभजा सम्प्रदाय]
[শ্রীমুখ-কথিত চরিতামৃত — ঘোষপাড়া ও কর্তাভজাদের মত ]
(7 सितंबर, 1884)
* दक्षिणेश्वर में राम, बाबूराम आदि भक्तों के संग में *
श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में, अपने उसी कमरे में छोटी खाट पर भक्तों के साथ बैठे हैं । दिन के ग्यारह बजे होंगे, अभी उन्होंने भोजन नहीं किया ।
कल शनिवार को श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ श्रीयुत अधर सेन के यहाँ गये थे । नाम-संकीर्तन के महोत्सव द्वारा भक्तों का जीवन सफल कर आये थे । आज यहाँ श्यामदास का कीर्तन होगा । श्रीरामकृष्ण को कीर्तनानन्द में देखने के लिए बहुत से भक्तों का समागम हो रहा है ।
🔆पहले बाबूराम, मास्टर, श्रीरामपुर के ब्राह्मण, मनोमोहन, भवनाथ, किशोरीलाल आये,फिर चुनीलाल, हरिपद, दोनों मुखर्जी भ्राता, राम, सुरेन्द्र, तारक, अधर और निरंजन आये ।
🔆लाटू, हरीश और हाजरा तो आजकल दक्षिणेश्वर में ही रहते हैं । श्रीयुत रामलाल काली की पूजा करते हैं और श्रीरामकृष्ण की भी देख रेख रखते हैं । श्रीयुत राम चक्रवर्ती पर विष्णुमन्दिर की पूजा का भार है । लाटू और हरीश, दोनों श्रीरामकृष्ण की सेवा करते हैं । 🔆
आज रविवार है, 7 सितम्बर, 1884 ।
मास्टर के आकर प्रणाम करने पर श्रीरामकृष्ण ने पूछा, नरेन्द्र नहीं आया ?
उस दिन नरेन्द्र नहीं आ सके । श्रीरामपुर के ब्राह्मण, रामप्रसाद के गाने की किताब लेते आये हैं और उसी पुस्तक से गाने पढ़-पढ़कर श्रीरामकृष्ण को सुना रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - हाँ पढ़ो ।
ब्राह्मण एक गीत पढ़कर सुनाने लगे । उसमें लिखा था - माँ वस्त्र धारण करो ।
श्रीरामकृष्ण – यह सब रहने दो, विकट गीत । ऐसा कोई गीत पढ़ो जिसमें भक्ति हो ।
ब्राह्मण - कौन कहे कि काली कैसी है, षड्दर्शनों को भी जिसके दर्शन नहीं होते ।
[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ]
🔆🙏ठाकुर के प्रति 'सदय' थे बाबूराम 🔆🙏
[ঠাকুরের ‘দরদী’ — পরমহংস, বাউল ও সাঁই ]
श्रीरामकृष्ण - ( मास्टर से) - कल अधर सेन के यहाँ भावावस्था में एक ही तरह बैठे रहने के कारण पैरों में दर्द होने लगा था । इसीलिए बाबूराम को ले जाया करता हूँ । सह्रदय है । यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाने लगे –
"मनेर कथा कोइबो कि सेइ कोईते माना।
दरदी नोइले प्राण बाँचे ना।।
मनेर मानुष होय जे -जना, नयने तार जाय जो चेना,
से दू-एक जना; से जे रसे भासे प्रेमे डोबे ,
कच्छे रसेर बेचा-केना। (भाबेर मानुष)
मनेर मानुष मिलबे कोथा, बगले तार छेंड़ा काँथा;
ओ से कोय ना गो कथा; भाबेर मानुष ऊजान पथे, करे आनागोना।
(मनेर मानुष , ऊजान पथे करे आनागोना )
"ऐ सखि री, मैं अपना हृदय किसके पास खोलूँ - मुझे बोलना मना जो है । बिना किसी ऐसे को पाये जो मेरी व्यथा समझ सके, मैं तो मरी जा रही हूँ । केवल उसकी आँखों में आँखें डालकर मुझे अपने हृदय के प्रेमी का मिलन प्राप्त हो जायगा - परन्तु ऐसा तो कोई विरला ही होता है जो आनन्दसागर में निरन्तर बहता रहे ।
মনের কথা কইবো কি সই কইতে মানা। দরদী নইলে প্রাণ বাঁচে না ৷৷
মনের মানুষ হয় যে-জনা, নয়নে তার যায় গো চেনা,
সে দু-এক জনা; সে যে রসে ভাসে প্রেমে ডোবে,
কচ্ছে রসের বেচাকেনা। (ভাবের মানুষ)
মনের মানুষ মিলবে কোথা, বগলে তার ছেঁড়া কাঁথা;
ও সে কয় না গো কথা; ভাবের মানুষ উজান পথে, করে আনাগোনা।
(মনের মানুষ, উজান পথে করে আনাগোনা)।
[How shall I open my heart, O friend? It is forbidden me to speak.I am about to die, for lack of a kindred soul . To understand my misery. Simply by looking in his eyes,I find the beloved of my heart;But rare is such a soul, who swims in ecstatic bliss .On the high tide of heavenly love.]
[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ]
🔆🙏 परमहंस, बाउल और साईं- हवा (कुण्डलिनी) की खबर जानते हैं ! 🔆🙏
श्रीरामकृष्ण - "ये सब बाउलों (एक सम्प्रदाय) के गीत हैं ।
"शाक्त मत में सिद्ध को कौल कहते हैं, वेदान्त के मत से परमहंस कहते हैं । बाउल-वैष्णवों के मत में साई कहते हैं - साई अन्तिम सीमा है ।
["According to the Sakti cult the Siddha is called a Koul, and according to the Vedanta, a Paramahamsa. The Bauls call him a sai. They say, 'No one is greater than a sai.']
“শাক্তমতের সিদ্ধকে বলে কৌল। বেদান্তমতে বলে পরমহংস। বাউল বৈষ্ণবদের মতে বলে সাঁই। ‘সাঁইয়ের পর আর নাই!’
"बाउल जब सिद्ध हो जाता है तब साई होता है । तब सब अभेद हो जाता है। आधी माला गौ के हाड़ों की और आधी तुलसी की पहनता है । 'हिन्दुओं का नीर और मुसलमानों का पीर' बन जाता है ।
[ The sai is a man of supreme perfection. He doesn't see any differentiation in the world. He wears a necklace, one half made of cow bones and the other of the sacred tulsi-plant.]
“বাউল সিদ্ধ হলে সাঁই হয়। তখন সব অভেদ। অর্ধেক মালা গোহাড়, অর্ধেক মালা তুলসীর। ‘হিন্দুর নীর — মুসলমানের পীর’।”
"बाउल लोगों में जो साई होते हैं, वे लोग परम् सत्य (Ultimate Truth) को अलख (अबोध-गम्य -'Incomprehensible One') कहते हैं। वैदिक मत से उसी अलख को (इन्द्रियातीत सत्य या transcendental truth को) ब्रह्म कहते हैं। जीवों के सम्बन्ध में बाउल कहते हैं, "वे अलख से आते हैं और अलख में जाते हैं । अर्थात् जीवात्मा (the individual soul) अव्यक्त # से आता है और अव्यक्त (Unmanifest) में ही लीन हो जाता है ।
[>>>#Unmanifest- गीता 2.28 में भगवान कहते हैं - "अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।"(2.28) जो छिपा हुआ हो, अज्ञात, अनिर्वचनीय,विष्णु, माँ जगदम्बा =अगोचर शब्द आमतौर से 'प्रकृति' के लिए इस्ते-माल किया जाता है और ब्रह्म के तरफ इशारा करने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है।]
[ He (Sai) calls the Ultimate Truth 'Alekh', the 'Incomprehensible One'. The Vedas call It 'Brahman'. About the jivas the Bauls say, 'They come from Alekh and they go unto Alekh.' That is to say, the individual soul has come from the Unmanifest and goes back to the Unmanifest.
“সাঁইয়েরা বলে — আলেখ! আলেখ! বেদমতে বলে ব্রহ্ম; ওরা বলে আলেখ। জীবদের বলে — ‘আলেখে আসে আলেখে যায়’; অর্থাৎ জীবাত্মা অব্যক্ত থেকে এসে তাইতে লয় হয়!
🙏🙏🙏[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ]🙏🙏🙏
🙏निराकार श्री 'सच्चिदानन्द' का दर्शन🙏
श्रीरामकृष्ण - "बाउल तुमसे पूछेंगे,'हवा' की खबर जानते हो ? हवा से तात्पर्य है वह महावायु जो किसी व्यक्ति की कुण्डलिनी जागृत होने पर -उस व्यक्ति को अपनी इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना आदि सूक्ष्म तंत्रिकाओं में महसूस होती है।
The Bauls will ask you, 'Do you know about the wind?' The 'wind' means the great current that one feels in the subtle nerves, Ida, Pingala, and Sushumna, when the Kundalini is awakened.
“তারা বলে, হাওয়ার খবর জান?“অর্থাৎ কুলকুণ্ডলিনী জাগরণ হলে ইড়া, পিঙ্গলা, সুষুম্না — এদের ভিতর দিয়ে যে মহাবায়ু উঠে, তাহার খবর!
बाउल आगे पूछते हैं, "किस पैठ में हो ? - छः पैठ - यानि छहों चक्र हैं । उनके अनुसार, योग (समाधि) के छह मानसिक केंद्रों के अनुरूप छह 'भूमियाँ ' हैं।
They will ask you further, 'In which station are you dwelling?' According to them, there are 'stations', corresponding to the six psychic centers of Yoga.]
“জিজ্ঞাসা করে, কোন্ পইঠেতে আছ? — ছটা পইঠে — ষট্চক্র।
"अगर कोई कहे कि पांचवें में है, तो समझना चाहिए कि विशुद्ध चक्र तक मन की पहुँच है। (मास्टर से) “तब निराकार के दर्शन होते हैं, जैसा गीत में है ।" यह कहते हुए श्रीरामकृष्ण ने कुछ स्वर करके गाया -
"तद-ऊर्ध्वते आछे माँ' गो नाम कण्ठस्थल,
धूम्रवर्णेर पद्म आछे होय षोड्शदल।
सेई पद्म मध्ये आछे अम्बुजे आकाश ,
से आकाश रुद्ध होले सकलि आकाश।"
इसके ऊपर (अनाहत चक्र के ऊपर) कण्ठस्थित विशुद्धचक्र में धूम्रवर्ण षोडश-दल कमल है । इस कमल के मध्यभाग में एक सूक्ष्म आकाश छुपा हुआ है, उस आकाश को पार करते ही (transcend करते ही ) सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आकाश में विलीन होते हुए देख कर मनुष्य आश्चर्यचकित हो जाता है!"
If they say that a man dwells in 'the fifth station', it means that his mind has climbed to the fifth center, known as the Visuddha chakra.(To M.) At that time he sees the Formless." Saying this the Master sang:
"Above this is a smoke-coloured sixteen-petalled lotus in the Vishuddha Chakra situated in the throat. If the sky in the middle of this lotus gets transcended, one sees at length the universe in Space dissolve, only the sky remains everywhere.
“যদি বলে পঞ্চমে আছে, তার মানে যে, বিশুদ্ধ চক্রে মন উঠেছে। (মাস্টারের প্রতি) — “তখন নিরাকার দর্শন। যেমন গানে আছে।” এই বলিয়া ঠাকুর একটু সুর করিয়া বলিতেছেন —
“তদূর্ধ্বেতে আছে মাগো নাম কণ্ঠস্থল,
ধূম্রবর্ণের পদ্ম আছে হয়ে ষোড়শদল।
সেই পদ্ম মধ্যে আছে অম্বুজে আকাশ,
সে আকাশ রুদ্ধ হলে সকলি আকাশ।”
[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ]
[पृष्ठभूमि -बाउल एवं कर्ताभजा मत के लोगों का आगमन]
[পূর্বকথা — বাউল ও ঘোষপাড়ার কর্তাভজাদের আগমন ]
🔆🙏*बाउल -साधना का अन्त कब होता है*🔆🙏
श्री रामकृष्ण - "एक बाउल आया था । मैंने उससे पूछा, 'क्या तुम्हारा रस का काम हो गया ? - कड़ाही उतर गयी ?' रस को जितना ही जलाओगे, उतना ही Refine (साफ) होगा । पहले रहता है ईख का रस - फिर होती है राब - फिर उसे जलाओ - तो होती है चीनी - और फिर मिश्री । धीरे धीरे और भी साफ हो रहा है ।
"Once a Baul came here. I asked him, 'Have you finished the task of "refining the syrup"? Have you taken the pot off the stove?' The more you boil the juice of sugar-cane, the more it is refined. In the first stage of boiling it is simply the juice of the sugar-cane. Next it is molasses, then sugar, then sugar candy, and so on. As it goes on boiling, the substances you get are more and more refined.
{“একজন বাউল এসেছিল। তা আমি বললাম, ‘তোমার রসের কাজ সব হয়ে গেছে? — খোলা নেমেছে?’ যত রস জ্বাল দেবে, তত রেফাইন (refine) হবে। প্রথম, আকের রস — তারপর গুড় — তারপর দোলো — তারপর চিনি — তারপর মিছরি, ওলা এই সব। ক্রমে ক্রমে আরও রেফাইন হচ্ছে।}
[ मन-वचन -कर्म से यम-नियम और मनःसंयोग (आसन,प्रत्याहार , धारणा का अभ्यास) जितना गहरा होता जायेगा मन उतना ही पवित्र और शुद्ध होता जायेगा।
The deeper the practice of Yama-Niyam and Man-Syoga through mind-word-action, the more pure and pure the mind will become.]
"गन्ने से गुड़ बनाने वाला का किसान चूल्हे से कड़ाही कब उतारता है ? अर्थात्, साधक के साधना की समाप्ति कब होती है ? किसी साधक की साधना का अन्त तब होता है , जब वह अपनी पाँचो इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लेता है ! जैसे जोंक पर नमक छोड़ने से वे आप ही छूटकर गिर जाती हैं वैसे ही इन्द्रियाँ भी शिथिल हो जायेंगी । उस अवस्था में कोई सिद्ध पुरुष (साईं) स्त्री के साथ रहता है, लेकिन उसके मन में उसके प्रति कोई वासना नहीं होती।
"When does a man take the pot off the stove? That is, when does a man come to the end of his sadhana? He comes to the end when he has acquired complete mastery over his sense organs. His sense-organs become loosened and powerless, as the leech is loosened from the body when you put lime in its mouth. In that state, a man may live with a woman, but he does not feel any lust for her.
{“খোলা নামবে কখন? অর্থাৎ সাধন শেষ হবে কবে? — যখন ইন্দ্রিয় জয় হবে — যেমন জোঁকের উপর চুন দিলে জোঁক আপনি খুলে পড়ে যাবে — ইন্দ্রিয় তেমনি শিথিল হয়ে যাবে। রমনীর সঙ্গে থাকে না করে রমণ।}
"उनमें बहुत से लोग राधातन्त्र के मत से चलते हैं । पाँचों तत्त्व लेकर साधना करते हैं - पृथ्वीतत्त्व, जलतत्त्व, अग्नितत्त्व, वायुतत्त्व, आकाशतत्त्व, मल, मूत्र, रज, वीर्य, ये सब तत्त्व ही हैं । ये साधनाएँ बड़ी घृणित हैं; जैसे पाखाने के भीतर से घर में प्रवेश करना ।
"Many of the Bauls follow a 'dirty' method of spiritual discipline. It is like entering a house through the back door by which the scavengers come.
{“ওরা অনেকে রাধাতন্ত্রের মতে চলে। পঞ্চতত্ত্ব নিয়ে সাধন করে পৃথিবীতত্ত্ব, জলতত্ত্ব, অগ্নিতত্ত্ব, বায়ুতত্ত্ব, আকাশতত্ত্ব, — মল, মূত্র, রজ, বীজ — এই সব তত্ত্ব! এ-সব সাধন বড় নোংরা সাধন; যেমন পায়খানার ভিতর দিয়ে বাড়ির মধ্যে ঢোকা!}
[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ]
🙏*'भोजन-मंत्र ' ~ स्वयं खाते हो या किसी को खिलाते हो *🙏
“एक दिन मैं दालान में भोजन कर रहा था । घोषपाड़ा के मत का एक आदमी आया । आकर कहने लगा - 'तुम स्वयं खाते हो या किसी को खिलाते हो ?' इसका यह अर्थ है जो सिद्ध होता है, वह अन्तर में ईश्वर देखता है ।
"One day I was taking my meal when a Baul devotee arrived. He asked me, 'Are you yourself eating, or are you feeding someone else?' The meaning of his words was that the siddha sees God dwelling within a man.
{“একদিন আমি দালানে খাচ্ছি। একজন ঘোষপাড়ার মতের লোক এলো। এসে বলছে, ‘তুমি খাচ্ছ, না কারুকে খাওয়াচ্ছ?’ অর্থাৎ যে সিদ্ধ হয় সে দেখে যে, অন্তরে ভগবান আছেন!
"जो लोग इस मत से सिद्ध होते हैं, वे दूसरे मत के लोगों को 'जीव' कहते हैं । विजातीय मनुष्यों के सामने बातचीत नहीं करते । कहते हैं, यहाँ 'जीव' हैं !
The siddhas among the Bauls will not talk to persons of another sect; they call them 'strangers'.
যারা এ মতে সিদ্ধ হয়, তারা অন্য মতের লোকদের বলে ‘জীব’। বিজাতীয় লোক থাকলে কথা কবে না। বলে, এখানে ‘জীব’ আছে।}
[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ]
🔆🙏 'कामारपुकुर पुण्य क्षेत्र में ' बाउल साधिका-'सरी' के घर हृदय के संग🔆🙏
[ कृष्ण की गन्ध भी न रहेगी- पद्म पर भौंरा बैठेगा, परन्तु मधुपान न करेगा-जितेन्द्रियता ]
"उस देश में मैंने इस मत को माननेवाली (बाउल मत को मानने वाली) एक स्त्री देखी है । उसका नाम सरी (सरस्वती) पाथर है। इस मत के लोग आपस में एक दूसरे के यहाँ तो भोजन करते हैं, परन्तु दूसरे मत वालों के यहाँ नहीं खाते । मल्लिक घरानेवालों ने सरी पाथर के यहाँ तो भोजन किया, परन्तु हृदय के यहाँ नहीं खाया । कहते हैं, ये सब 'जीव' हैं ! (सब हँसते हैं ।)
“ও-দেশে এই মতের লোক একজন দেখেছি। সরী (সরস্বতী) পাথর — মেয়েমানুষ। এ মতের লোকে পরস্পরের বাড়িতে খায়, কিন্তু অন্য মতের লোকের বাড়ি খাবে না। মল্লিকরা সরী পাথরের বাড়িতে গিয়ে খেলে তবু হৃদের বাড়িতে খেলে না। বলে ওরা ‘জীব’। (হাস্য)
"मैं एक दिन उसके यहाँ हृदय के साथ घूमने गया था । तुलसी के पौधे खूब लगाये हैं । उसने चना-चिउड़ा दिया, मैंने थोड़ा सा खाया, हृदय तो बहुत सा खा गया - फिर बीमार भी पड़ा ।
[“আমি একদিন তার বাড়িতে হৃদের সঙ্গে বেড়াতে গিছলাম। বেশ তুলসী বন করেছে। কড়াই মুড়ি দিলে, দুটি খেলুম। হৃদে অনেক খেয়ে ফেললে, — তারপর অসুখ!]
"वे (बाउल मत वाले ) लोग सिद्धावस्था को सहज अवस्था कहते हैं । एक दर्जे के आदमी हैं । वे 'सहज 'सहज' चिल्लाते फिरते हैं । वे सहज अवस्था के दो लक्षण बतलाते हैं । एक यह कि देह में कृष्ण की गन्ध भी न रहेगी और दूसरा यह कि पद्म पर भौंरा बैठेगा, परन्तु मधुपान न करेगा । कृष्ण की गन्ध भी न रह जायगी, इसका अर्थ यह है कि ईश्वर के भाव सब अन्तर में ही रहेंगे, बाहर कोई लक्षण प्रकट न होगा - नाम का जप भी न करेगा । दूसरे का अर्थ है, कामिनी और कांचन की आसक्ति का त्याग – जितेन्द्रियता ।
{"The Bauls designate the state of perfection as the 'sahaja', the 'natural' state. There are two signs of this state. First, a perfect man will not 'smell of Krishna'. Second, he is like the bee that sits on the lotus but does not sip the honey. The first means that he keeps all his spiritual feelings within himself. He doesn't show outwardly any sign of spirituality. He doesn't even utter the name of Hari. The second means that he is not attached to woman. He has completely mastered his senses.
“ওরা সিদ্ধাবস্থাকে বলে সহজ অবস্থা। একথাকের লোক আছে, তারা ‘সহজ’ ‘সহজ’ করে চ্যাঁচায়। সহজাবস্থার দুটি লক্ষণ বলে। প্রথম — কৃষ্ণগন্ধ গায়ে থাকবে না। দ্বিতীয় — পদ্মের উপর অলি বসবে, কিন্তু মধু পান করবে না। ‘কৃষ্ণগন্ধ’ নাই, — এর মানে ঈশ্বরের ভাব সমস্ত অন্তরে, — বাহিরে কোন চিহ্ন নাই, — হরিনাম পর্যন্ত মুখে নাই। আর একটির মানে, কামিনীতে আসক্তি নাই — জিতেন্দ্রিয়।
"वे लोग ठाकुर-पूजन, मूर्तिपूजन, यह सब पसन्द नहीं करते – जीता-जागता आदमी चाहते हैं । इसीलिए उनके दर्जे के आदमियों को कर्ताभजा कहते हैं । 'कर्ताभजा' ~ अर्थात् जो लोग कर्ता को – गुरु को ईश्वर समझते और इसी भाव से उनकी पूजा करते हैं ।"
"The Bauls do not like the worship of an image. They want a living man. That is why one of their sects is called the Kartabhaja. They worship the karta, that is to say, the guru, as God. "- in the sense of God.]
“ওরা ঠাকুরপূজা, প্রতিমাপূজা — এ-সব লাইক করে না, জীবন্ত মানুষ চায়। তাই তো ওদের একথাকের লোককে বলে কর্তাভজা, অর্থাৎ যারা কর্তাকে — গুরুকে (নেতা,'C-IN-C' নবনীদা কে?)— ঈশ্বরবোধে ভজনা করে — পূজা করে।”
(7 सितंबर,1884)]
(२)
[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ]
*श्रीरामकृष्ण और सर्वधर्मसमन्वय*
[Why all scriptures — all Religions — are true]
श्रीरामकृष्ण - देखा, कितने तरह के मत हैं । जितने मत उतने पथ । असंख्य मत हैं और असंख्य पथ हैं।
{"You see how many opinions there are about God. Each opinion is a path. There are innumerable opinions and innumerable paths leading to God."
শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখছো কত রকম মত! মত, পথ। অনন্ত মত অনন্ত পথ!}
भवनाथ- अब उपाय क्या है ?
["Then what should we do?"ভবনাথ — এখন উপায়!]
श्रीरामकृष्ण - एक को बलपूर्वक पकड़ना पड़ता है । छत पर जाने की चाह है, तो जीने से भी चढ़ सकते हो; बाँस की सीढ़ी लगाकर भी चढ़ सकते हो; रस्सी की सीढ़ी लगाकर, सिर्फ रस्सी पकड़कर या केवल एक बाँस के सहारे, किसी भी तरह से छत पर पहुँच सकते हो, परन्तु एक पैर इसमें और दूसरा उसमें रखने से नहीं होता । एक को दृढ़ भाव से पकड़े रहना चाहिए । [चार योग में मनःसंयोग कॉमन है - इसीको दृढ़ भाव से पकड़ना अच्छा है !] ईश्वरलाभ करने की इच्छा हो तो एक ही रास्ते पर चलना चाहिए ।
{ "You must stick to one path with all your strength. A man can reach the roof of a house by stone stairs or a ladder or a rope-ladder or a rope or even by a bamboo pole. But he cannot reach the roof if he sets foot now on one and now on another. He should firmly follow one path. Likewise, in order to realize God a man must follow one path with all his strength.
শ্রীরামকৃষ্ণ — একটা জোর করে ধরতে হয়। ছাদে গেলে পাকা সিঁড়িতে উঠা যায়, একখানা মইয়ে উঠা যায়, দড়ির সিঁড়িতে উঠা যায়; একগাছা দড়ি দিয়ে, একগাছা বাঁশ দিয়ে উঠা যায়। কিন্তু এতে খানিকটা পা, ওতে খানিকটা পা দিলে হয় না। একটা দৃঢ় করে ধরতে হয়। ঈশ্বরলাভ করতে হলে, একটা পথ জোর করে ধরে যেতে হয়।
ईश्वर एक ही है किन्तु उनके विषय में असंख्य मत (innumerable opinions ) हैं , और ईश्वर तक पहुँचने के असंख्य पथ (innumerable paths) हैं ! ईश्वरलाभ करने की इच्छा हो तो एक ही रास्ते पर चलना चाहिए । चारो योगों में मनःसंयोग (Mental Concentration) कॉमन है - इसी को दृढ़ भाव से पकड़ना अच्छा है !] }
"और दूसरे मतों को भी एक एक मार्ग समझना । यह भाव न हो कि मेरा ही मार्ग ठीक है, और सब झूठ हैं; द्वेष न हो ।
{"But you must regard other views as so many paths leading to God. You should not feel that your path is the only right path and that other paths are wrong. You mustn't bear malice toward others.
“আর সব মতকে এক-একটি পথ বলে জানবে। আমার ঠিক পথ, আর সকলের মিথ্যা — এরূপ বোধ না হয়। বিদ্বেষভাব না হয়।”}
[“আমি কোন্ পথের?” কেশব, শশধর ও বিজয়ের মত ]
[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ]
🙏"मैं किस मार्ग का साधक हूँ?" केशव, शशधर और विजय में से किसके सम्प्रदाय का ?🙏
"अच्छा, मैं किस मार्ग का हूँ ? केशव सेन कहता था, आप हमारे मत के हैं - निराकार में आ रहे हैं । शशधर कहता है, ये हमारे हैं; विजय भी कहता है, ये हमारे मत के हैं ।"
[ "Well, to what path do I belong? Keshab Sen, used to say to me: 'You belong to our path. You are gradually accepting the ideal of the formless God.' Shashadhar says that I belong to his path. Vijay, too, says that I belong to his — Vijay's — path."
“আচ্ছা, আমি কোন্ পথের? কেশব সেন বলত, আপনি আমাদেরই মতের, — নিরাকারে আসছেন। শশধর বলে, ইনি আমাদের। বিজয়ও (গোস্বামী) বলে, ইনি আমাদের মতের লোক।”]
श्रीरामकृष्ण सभी मार्गों से साधना करके ईश्वर के निकट पहुँचे थे; इसलिए सब लोग उन्हें अपने ही मत का आदर्श मानते थे ।
{ঠাকুর কি বলিতেছেন যে, আমি সব পথ দিয়াই ভগবানের নিকট পৌঁছিয়াছি — তাই সব পথের খবর জানি? আর সকল ধর্মের লোক আমার কাছে এসে শান্তি পাবে?
मेरा अनुवाद - ठाकुर क्या यह कहना चाह रहे हैं कि मैं सभी मार्गों की साधना करके ईश्वर के निकट पहुँचा हूँ , इसीलिए मुझे प्रत्येक मार्ग की जानकारी है ? और सभी धर्मों के लोग मेरे पास आकर शांति प्राप्त करेंगे ?}
श्रीरामकृष्ण मास्टर आदि दो-एक भक्तों के साथ पंचवटी की ओर जा रहे हैं - हाथ मुँह धोयेंगे । दिन के बारह बजे का समय है । अब ज्वार आनेवाली है । देखने के लिए श्रीरामकृष्ण पंचवटी के रास्ते पर प्रतीक्षा कर रहे हैं ।
{Sri Ramakrishna walked toward the Panchavati with M. and a few other devotees. It was midday and time for the flood-tide in the Ganges.They waited in the Panchavati to see the bore of the tide.
ঠাকুর পঞ্চবটীর দিকে মাস্টার প্রভৃতি দু-একটি ভক্তের সঙ্গে যাইতেছেন — মুখ ধুইবেন। বেলা বারটা, এইবার বান আসিবে। তাই শুনিয়া ঠাকুর পঞ্চবটীর পথে একটু অপেক্ষা করিতেছেন।}
[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ]
भक्तों से कह रहे हैं - “ज्वार और भाटा कितने आश्चर्य के विषय हैं ।
"परन्तु एक बात देखो, समुद्र के पास ही नदियों में ज्वार-भाटा होते हैं । परन्तु समुद्र से बहुत दूर होने पर उसी नदी में ज्वार-भाटा नहीं होता, बल्कि एक ही ओर बहाव रहता है । इसका क्या अर्थ? -इस भाव का अपने आध्यात्मिक जीवन पर आरोप करो । जो लोग ईश्वर के बहुत पास पहुँच जाते हैं, उन्हीं में भक्ति और भाव होता है । और, किसी किसी को ईश्वरकोटि को महाभाव, प्रेम, यह सब होता है ।
{"The ebb-tide and flood-tide are indeed amazing. But notice one thing. Near the sea you see ebb-tide and flood-tide in a river, but far away from the sea the river flows in one direction only. What does this mean? Try to apply its significance to your spiritual life. Those who live very near God feel within them the currents of bhakti, bhava, and the like. In the case of a few — the Isvarakotis, for instance — one sees even mahabhava and prema.
ভক্তদের বলিতেছেন — “জোয়ার-ভাটা কি আশ্চর্য! “কিন্তু একটি দেখো, — সমুদ্রের কাছে নদীর ভিতর জোয়ার-ভাটা খেলে। সমুদ্র থেকে অনেক দূর হলে একটানা হয়ে যায়। এর মানে কি? — ওই ভাবটা আরোপ কর। যারা ঈশ্বরের খুব কাছে, তাদের ভিতরই ভক্তি, ভাব — এই সব হয়; আবার দু-একজনের (ঈশ্বরকোটির) মহাভাব, প্রেম — এ-সব হয়।}
(मास्टर से) “अच्छा, ज्वार-भाटा क्यों होते हैं ?"
मास्टर - अंग्रेजी ज्योतिष - शास्त्र (astronomy) में लिखा है, सूर्य और चन्द्र के आकर्षण से ऐसा होता है ।
यह कहकर मास्टर मिट्टी में रेखाएँ खींचकर सूर्य और चन्द्र की गति बतलाने लगे । थोड़ी देर तक देखकर श्रीरामकृष्ण ने कहा - बस रहने दो, मेरा माथा घूमने लगा ।
{"According to Western astronomy, they are due to the attraction of the sun and the moon. In order to explain it, M. drew figures on the earth and began to show the Master the movement of the earth, the sun, and the moon. The Master looked at the figures for a minute and said: "Stop, please! It gives me a headache."
মাস্টার — ইংরেজী জ্যোতিষ শাস্ত্রে বলে যে, সূর্য ও চন্দ্রের আকর্ষণে ওইরূপ হয়। এই বলিয়া মাস্টার মাটিতে অঙ্ক পাতিয়া পৃথিবী, চন্দ্র ও সূর্যের গতি দেখাইতেছেন। ঠাকুর একটু দেখিয়াই বলিতেছেন, “থাক, ওতে আমার মাথা ঝনঝন করে!”}
बात हो ही रही थी कि ज्वार आने की आवाज होने लगी । देखते ही देखते जलोच्छ्वास का घोर शब्द होने लगा । ठाकुरमन्दिर की तटभूमि में टकराता हुआ बड़े वेग से पानी उत्तर की ओर चला गया । श्रीरामकृष्ण एक नजर से देख रहे हैं । दूर की नाव देखकर बालक की तरह कहने लगे, 'देखो देखो - अब उस नाव की क्या हालत होती है !
श्रीरामकृष्ण मास्टर से बातचीत करते हुए पंचवटी के बिलकुल नीचे पहुँच गये । उनके हाथ में एक छाता था, उसे पंचवटी के चबूतरे पर रख दिया । नारायण को वे साक्षात् नारायण देखते हैं इसीलिए बहुत प्यार करते हैं । नारायण स्कूल में पढ़ता है । इस समय श्रीरामकृष्ण उसी की बातचीत कर रहे हैं।
[মাস্টারের শিক্ষা, টাকার সদ্ব্যবহার — নারাণের জন্য চিন্তা ]
[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ]
[मास्टर की शिक्षा, धन का सदुपयोग - नारायण की सरलता]
श्रीरामकृष्ण - नारायण को देखा है तुमने ? कैसा स्वभाव है ! क्या लड़के, बच्चे, बूढ़े सब से मिलता है । विशेष शक्ति के बिना यह बात नहीं होती । और सब लोग उसे प्यार करते हैं । अच्छा, क्या वह यथार्थ ही सरल है ।
मास्टर - जी हाँ, जान तो ऐसा ही पड़ता है ।
श्रीरामकृष्ण - सुना, तुम्हारे यहाँ जाता है ।
मास्टर - जी हाँ, दो एक बार आया था ।
श्रीरामकृष्ण - क्या एक रुपया तुम उसे दोगे या काली से कहूँ ?
मास्टर - अच्छा तो है, मैं ही दे दूंगा ।
श्रीरामकृष्ण - बड़ा अच्छा है । जो ईश्वर के अनुरागी हैं उन्हें देना अच्छा है । इससे धन का सदुपयोग होता है । सब रुपये संसार को सौंपने से क्या होगा ?
{ "That's fine. It is good to help those who yearn for God. Thus one makes good use of one's money. What will you gain by spending everything on your family?
"শ্রীরামকৃষ্ণ — বেশ তো — ঈশ্বরে যাদের অনুরাগ আছে, তাদের দেওয়া ভাল। টাকার সদ্ব্যবহার হয়। সব সংসারে দিলে কি হবে?}
किशोरीलाल के लड़के-बच्चे हो गये हैं । वेतन कम पाता है इससे पूरा नहीं पड़ता । श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं - "नारायण कहता था, किशोरीलाल के लिए एक नौकरी ठीक कर दूंगा । नारायण को यह बात याद दिलाना ।"
मास्टर पंचवटी में खड़े हुए हैं । श्रीरामकृष्ण कुछ देर बाद झाऊतल्ले से लौटे । मास्टर से कह रहे हैं - जरा बाहर एक चटाई बिछाने के लिए कहो, मैं थोड़ी देर बाद जाता हूँ, लेटूँगा ।
श्रीरामकृष्ण कमरे में पहुँचकर कह रहे हैं - तुममें से किसी को छाता ले आने की बात याद नहीं रही । (सब हँसते हैं ।) जल्दबाज आदमी पास की चीज भी नहीं देखते । एक आदमी एक दूसरे के यहाँ कोयले में आग सुलगाने के लिए गया था, और इधर उसके हाथ में लालटेन जल रही थी ।
"एक आदमी अंगौछा खोज रहा था, अन्त में वह उसी के कन्धे पर पड़ा हुआ मिला !"
{When the Master returned to his room, he could not find his umbrella and exclaimed: "You have all forgotten the umbrella! The busybody doesn't see a thing even when it is very near him. A man went to a friend's house to light the charcoal for his smoke, though all the time he had a lighted lantern in his hand. Another man looked everywhere for his towel. Finally he discovered that it had been on his shoulder all the time.
ঠাকুর ঘরে পৌঁছিয়া বলিতেছেন, “তোমাদের কারুরই ছাতাটা আনতে মনে নাই। (সকলের হাস্য) ব্যস্তবাগীশ লোক নিজের কাছের জিনিসও দেখতে পায় না! একজন আর-একটি লোকের বাড়িতে টিকে ধরাতে গিছল, কিন্তু হাতে লণ্ঠন জ্বলছে!“একজন গামছা খুঁজে খুঁজে তারপর দেখে, কাঁধেতেই রয়েছে!”}
[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ]
श्रीरामकृष्ण के लिए काली का अन्न-भोग लाया गया । श्रीरामकृष्ण प्रसाद पायेंगे । दिन के एक बजे का समय होगा । वे भोजन करके जरा विश्राम करेंगे । भक्तगण कमरे में बैठे ही रहे । समझाने पर वे बाहर जाकर बैठे । हरीश, निरंजन और हरिपद पाकशाला में प्रसाद पायेंगे । श्रीरामकृष्ण हरीश से कह रहे हैं, अपने लिए थोड़ा सा अमरस लेते जाना ।
श्रीरामकृष्ण विश्राम करने लगे । बाबूराम से कहा, "बाबूराम, जरा मेरे पास आ ।” बाबूराम पान लगा रहे थे, कहा, "मैं पान लगा रहा हूँ ।"
श्रीरामकृष्ण - रख उधर, फिर पान लगाना ।
श्रीरामकृष्ण विश्राम कर रहे हैं । इधर पंचवटी में और बकुल के पेड़ के नीचे कुछ भक्त बैठे हुए हैं - दोनों मुखर्जी भाई, चुनीलाल, हरिपद, भवनाथ और तारक । तारक वृन्दावन से अभी अभी लौटे हैं । भक्तगण उनसे वृन्दावन की बातें सुन रहे हैं । तारक नित्यगोपाल के साथ अब तक वृन्दावन में थे ।
[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ]
[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ]
[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ]
🕊🏹Happiness acquired through Work🕊🏹
कर्म का प्रभाव चरित्र पर पड़ता है
[KARMA IN ITS EFFECT ON CHARACTER]
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " Karma in its effect on character is the most tremendous power that man has to deal with. Man is, as it were, a centre, and is attracting all the powers of the universe towards himself, and in this centre is fusing them all and again sending them off in a big current.... Good and bad, misery and happiness, all are running towards him and clinging round him; and out of them he fashions the mighty stream of tendency called character and throws it outwards. As he has the power of drawing in anything, so has he the power of throwing it out."
जितनी भी शक्तियाँ मनुष्य के चरित्र को प्रभावित करती हैं, उन सबमें 'कर्म की शक्ति' (विवेक-प्रयोग शक्ति) सबसे अधिक प्रबल होती है; जिसे मनुष्य को स्वयं सम्भालना (manage करना) पड़ता है। मनुष्य, मानो एक प्रकार के केंद्र जैसा है, जो ब्रह्माण्ड की समस्त शक्तियों को अपनी ओर खींचता है, तथा इस केन्द्र में उन सबों को संयुक्त कर एक बड़ी तरंग (निःस्वार्थ प्रेम-तरंग) के रूप में बाहर भेजता है। शुभ-अशुभ, सुख-दुःख, मान-अपमान सब उसकी ओर दौड़े जा रहे हैं, और उससे लिपटे जा रहे हैं। और वह श्रेय-प्रेय विवेक द्वारा -अच्छे विचार- अच्छे कर्म -अच्छी आदत द्वारा सद्प्रवृत्ति की उस प्रबल धारा का निर्माण करता है, जिसे चरित्र कहते हैं, और उसी चरित्र को बाहर प्रेषित करता है। जिस प्रकार किसी चीज को [प्रेम या घृणा, स्वार्थपरता या निःस्वार्थपरता को ब्लैक होल जैसा ?] अपनी ओर खींच लेने की शक्ति मनुष्य में है, उसी प्रकार उसे बाहर भेजने की शक्ति भी मनुष्य में है।"
"संसार के सारे क्रियाकलाप, मनुष्य की इच्छा शक्ति का प्रकाश मात्र है। इस युग में विज्ञान के जो विभिन्न चमत्कार दिख पड़ रहे हैं, जिन वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण मनुष्य का जीवन उन्नत और सुखी हुआ है, चिकित्सा के क्षेत्र में जिन औषधियों के आविष्कारों से मनुष्य रोग-मुक्त हुआ है, उन सबके पीछे किसी एक या एकाधिक व्यक्ति की दृढ़ इच्छाशक्ति अवश्य रही है। जिस व्यक्ति ने अपने मन में यह दृढ़ संकल्प कर लिया था कि किसी खास रोग को दूर करने का उपाय वह अवश्य खोज निकालेगा। अनेक प्रकार के यंत्र, युद्धपोत आदि सभी मनुष्य की इच्छा शक्ति के विकास मात्र हैं। " and this will is caused by character, and character is manufactured by Karma." मनुष्य की यह इच्छाशक्ति चरित्र से उत्पन्न होती है और वह चरित्र कर्मों से गठित होता है। अतएव कर्म (श्रेय-प्रेय विवेक-प्रयोग के बाद) जैसा होगा, इच्छा- शक्ति का विकास भी वैसा ही होगा। संसार में प्रबल इच्छा शक्ति संपन्न जितने महापुरुष हुए हैं, वे सभी उत्कृष्ट कर्मी थे। उनकी इच्छाशक्ति ऐसी थी कि वे संसार को भी उलट-पुलट कर सकते थे। यह शक्ति उन्हें युग-युगांतर तक निरंतर कर्म करते रहने से प्राप्त हुई थी।
बुद्ध एवं ईसा मसीह में जैसी प्रबल इच्छाशक्ति थी, वह एक जन्म में प्राप्त नहीं की जा सकती और उसे हम आनुवंशिक शक्तिसंचार भी नहीं कह सकते, क्योंकि हमें ज्ञात है कि उनके पिता कौन थे। हम नहीं कह सकते कि उनके पिता के मुंह से मनुष्य जाति की भलाई के लिए शायद कभी एक शब्द भी निकला हो। जोसेफ (ईसा मसीह के पिता) के समान तो असंख्य बढ़ई आज भी हैं, बुद्ध के पिता के सदृश लाखों छोटे-छोटे राजा हो चुके हैं। अत: यदि वह बात केवल आनुवंशिक शक्तिसंचार के कारण हुई हो, तो इसका स्पष्टीकरण कैसे कर सकते हैं कि इस छोटे से राजा को, जिसकी आज्ञा का पालन शायद उसके स्वयं के नौकर भी नहीं करते थे। ऐसा एक सुंदर पुत्र-रत्न लाभ हुआ, जिसकी उपासना लगभग आधा संसार करता है?
इसी प्रकार जोसेफ नामक बढ़ई (काष्ठशिल्पी) तथा संसार में लाखों लोगों द्वारा ईश्वर के समान पूजे जाने वाले उसके पुत्र ईसा मसीह के बीच जो अंतर है, उसका स्पष्टीकरण क्या हो सकता है ? आनुवंशिक शक्तिसंचार के सिद्धांत द्वारा तो इसका स्पष्टीकरण नहीं हो सकता। बुद्ध और ईसा इस विश्व में जिस महाशक्ति का संचार कर गए, वह आई कहां से? उसका उद्भव कहां से हुआ? इतनी दृढ़ इच्छाशक्ति का संचय कैसे हुआ ? अवश्य युग-युगांतरों से वह उस स्थान में ही रही होगी और क्रमश: प्रबलतर होते-होते अंत में वही दृढ़ इच्छाशक्ति बुद्ध तथा ईसा मसीह के रूप में समाज में प्रकट हो गई और आज तक चली आ रही है। यह सब कर्म द्वारा ही नियमित होता है। यह सनातन नियम है कि जब तक कोई मनुष्य किसी वस्तु का उपार्जन न करे, तब तक वह उसे प्राप्त नहीं हो सकती।
संभव है, कभी-कभी हम इस बात को न मानें, परंतु आगे चलकर हमें इसका दृढ़ विश्वास हो जाता है। एक मनुष्य चाहे समस्त जीवन भर धनी होने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक करता रहे, हजारों मनुष्यों को धोखा दे, परंतु अंत में वह देखता है कि वह संपत्तिशाली होने का अधिकारी नहीं था। तब जीवन उसके लिए दुखमय और दूभर हो उठता है। हम अपने भौतिक सुखों के लिए भिन्न-भिन्न चीजों को भले ही इकट्ठा करते जाएं, परंतु वास्तव में जिसका उपार्जन हम अपने कर्मों द्वारा करते हैं, वही हमारा होता है। स्वामी जी कहते हैं - "With regard to Karma-Yoga, the Gita says that it is doing work with cleverness and as a science; by knowing how to work, one can obtain the greatest results."
गीता का कथन है - " योग: कर्मसु कौशलम्" -(2.50) ‘कर्मयोग का अर्थ है- कुशलता से अर्थात वैज्ञानिक प्रणाली से कर्म करना।’ समस्त कर्मों का उद्देश्य है मन के भीतर पहले से ही स्थित अनन्त शक्ति को प्रकट कर देना- आत्मा को जाग्रत कर देना। प्रत्येक मनुष्य के भीतर पूर्ण शक्ति और पूर्ण ज्ञान विद्यमान है। भिन्न-भिन्न कर्म इन महान शक्तियों को जाग्रत करने तथा बाहर प्रकट कर देने में साधन मात्र बनते हैं। "Man works with various motives. There cannot be work without motive." अपनी-अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य नाना प्रकार के कार्य करता है। कुछ लोग नाम-यश चाहते हैं, तो कुछ पैसा चाहते हैं। कुछ लोग अधिकार प्राप्त करना चाहते हैं, तो कुछ अपने बाद अपना नाम छोड़ जाने के लिए यत्न करते रहते हैं। कुछ लोग प्रायश्चित करने के लिए कर्म करते हैं। अपने जीवन में अनेक प्रकार के दुष्ट कर्म कर चुकने के बाद - प्रायश्चित के रूप में एक मन्दिर बनवा देते हैं या स्वर्ग प्राप्ति के लिए- पुरोहितों को धन देते हैं।
कुछ ऐसे नर -रत्न (salt of the earth) होते हैं जो केवल कर्म के लिए ही कर्म करते हैं। वे नाम- यश अथवा स्वर्ग की भी परवाह नहीं करते। वे केवल इसलिए कर्म करते हैं कि उनके कर्म से दूसरों की भलाई होती है। कुछ लोग उच्चतर उद्देश्य लेकर गरीबों के प्रति भलाई , तथा मानव-जाति की सहायता के लिए अग्रसर होते हैं , क्योंकि वे शुभ में विश्वास करते हैं और उससे प्रेम करते हैं, वैसे लोग मानव जाति की (ज्ञान -चक्षु खोलने में?) सहायता करते हैं। नाम तथा यश के लिए किया गया कार्य [भीष्म परमार DAV स्कूल और K.RAI शिशु मन्दिर] बहुत शीघ्र फलित नहीं होता है। ये चीजें तब प्राप्त होती हैं जब हम जिंदगी की आखरी घड़ियाँ गिन रहे होते हैं। >>>यदि कोई मनुष्य नि:स्वार्थ भाव से काम करे, तो क्या उसे कोई फलप्राप्ति नहीं होती? असल में तभी तो उसे सर्वोच्च फल (जीवनमुक्ति-आत्मसाक्षात्कार) की प्राप्ति होती है। और सच पूछा जाए, तो नि:स्वार्थता अधिक फलदायी होती है, पर इसका अभ्यास करने का धैर्य बहुत थोड़े से लोगों में होता है ! [ Love, truth, and unselfishness are not merely moral figures of speech, but they form our highest ideal, because in them lies such a manifestation of power..... It is hard to do it, but in the heart of our hearts we know its value, and the good it brings.जो जन्मजात पैगम्बर, अवतार वरिष्ठ या नेता होते हैं ?]
" प्रेम, सत्य तथा नि:स्वार्थता नैतिकतासम्बन्धी सिर्फ आलंकारिक वर्णन मात्र नहीं हैं, बल्कि अंतर्निहित शक्ति (पूर्णता -दिव्यता) की महान अभिव्यक्ति होने के कारण वे हमारे सर्वोच्च आदर्श हैं। यदि मनुष्य पांच मिनट भी बिना भविष्य का चिंतन किये , नि:स्वार्थ भाव से काम कर सके, तो वह एक 'महापुरुष' [ जीवनमुक्त शिक्षक, नेता या पैगम्बर] बन सकने की क्षमता है। यद्यपि इसे कार्यरूप में परिणत करना कठिन है , फिरभी अपने ह्रदय के अन्तस्तल [ठाकुर, माँ, स्वामीजी -नवनीदा को देखकर] हम इसका महत्व समझते हैं - और जानते हैं कि इससे क्या मंगल होता है। यह आत्मसंयम (self-restraint, आत्मनिग्रह) शक्ति की अत्यन्त महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है। इसके लिए प्रबल संयम की जरूरत पड़ती है। सभी बर्हिमुखी कर्मों की अपेक्षा इस आत्मसंयम में बहुत अधिक शक्ति खर्च हो जाती है। हमारी सभी इन्द्रियाँ - कर्म करने साधन, बहिर्मुखी हैं इसीलिए मन की सारी बहिर्मुखी गति किसी स्वार्थपूर्ण उद्देश्य [इन्द्रिय भोग की दिशा में ]की ओर दौड़ती रहने से छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाती है।
>>'Be and Make वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' के प्रशिक्षण द्वारा : यदि मन और इन्द्रियों की इस बहिर्मुखी गति के संयमित करना सीख लिया, तो इससे शक्ति की वृद्धि हो सकती है। इस आत्मसंयम से [(self-restraint- 24 X 7 यम, नियम का पालन करने से)] एक महान इच्छाशक्ति का प्रादुर्भाव हो सकता है। इससे एक ऐसे चरित्र का निर्माण हो सकता है, जो अपने ज्ञान से बुद्ध या ईसा (नवनीदा जैसा) संपूर्ण जगत को रोशन कर सकता है। मूर्खों को इस रहस्य का पता नहीं रहता , परन्तु फिर भी वे मनुष्य -जाति पर शासन करने के इच्छुक रहते हैं।....जिस प्रकार कुछ पशु अपने से दो-चार कदम आगे कुछ नहीं देख सकते, इसी प्रकार हममें से ज्यादातर लोग दो-चार वर्ष के आगे भविष्य नहीं सकते। भविष्य की कल्पना के बारे में अधिकांश लोग नितांत अदूरदर्शी होते हैं। हम सभी में दूरदर्शिता के लिए धैर्य नहीं रहता और इसीलिए हम अनैतिक और नकारात्मक कर्म करने लगते हैं। यह हमारी कमजोरी है। शक्तिहीनता है।
समाज-सेवा के अत्यंत निम्नतम या सामान्य कर्मों को भी हमें कभी तिरस्कार या घृणा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। जो मनुष्य किसी श्रेष्ठ आदर्श को नहीं जानता (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा और SV जैसे किसी श्रेष्ठ आदर्श को नहीं जानता) उसे स्वार्थदृष्टि से ही, नाम-यश (या गुरुगिरि करने) के लिए ही - काम (रिलीफ वर्क या अन्नदान-वस्त्रदान आदि) करने दो। प्रत्येक मनुष्य को उच्चतर स्तर की समाज-सेवा की ओर बढ़ने तथा उन्हें समझने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। 'हमें कर्म करने का अधिकार है, कर्मफल में हमारा कोई अधिकार नहीं।" (गीता-2.47) यदि तुम किसी मनुष्य की सहायता सचमुच करना चाहते हो, तो इस बात की कभी चिंता न करो कि उस व्यक्ति का व्यवहार तुम्हारे प्रति कैसा होना चाहिए। यदि तुम कोई श्रेष्ठ और उत्तम कार्य करना चाहते हो, तो यह कभी मत सोचो कि उसका फल क्या होगा? कर्मयोगी को सदैव कर्म करते रहना चाहिए। आदर्श पुरुष तो वे हैं, जो परम शांति व निस्तब्धता के बीच भी तीव्र कर्म करते रहने तथा प्रबल कर्मशीलता के बीच भी मरुस्थल जैसी शान्ति एवं निस्तब्धता का अनुभव करते हैं। ऐसे व्यक्ति आत्मसंयम (24 X 7 यम -नियम और दोबार मनःसंयोग) का रहस्य जान कर अपने ऊपर विजय प्राप्त कर चुके होते हैं।
परन्तु हमें आरम्भ से ही आरम्भ करना पड़ेगा , जो कार्य हमारे सामने आये , उसे अपने हाथ में लें और क्रमशः अपने को प्रतिदिन निःस्वार्थ बनाने का यत्न करें। हमें कर्म करते रहना चाहिए तथा यह पता लगाना चाहिए कि उस कार्य के पीछे हमारी प्रेरक शक्ति क्या है ? ऐसा होने पर हम देखेंगे कि आरम्भिक वर्षों में प्रायः हमारे सभी कार्यों के पीछे का हेतु या प्रेरक शक्ति (motives) स्वार्थपूर्ण रहता है। किन्तु अध्यवसाय के साथ कर्म में लगे रहने से यह स्वार्थपरायणता क्रमशः नष्ट हो जाएगी। और अन्त में वह समय आ जायेगा - जब हम वास्तव में स्वार्थरहित होकर - होकर कार्य करने योग्य हो सकेंगे। [ घोर स्वार्थपरता या पशुता से मनुष्य बने और मनुष्य देवत्व अर्थात पूर्णतः निःस्वार्थ बनने का प्रयत्न करते रहें।] हम सभी यह आशा कर सकते हैं कि जीवन-पथ में संघर्ष करते करते किसी न किसी दिन वह समय अवश्य आएगा , जब हम पूर्ण रूप से निःस्वार्थ (100 % निःस्वार्थ) बन जायेंगे ; और ज्योंही हम उस अवस्था को प्राप्त कर लेंगे , हमारी समस्त शक्तियाँ केन्द्रीभूत हो जाएँगी तथा हमारा आभ्यन्तरिक ज्ञान (दिव्यत्व-ब्रह्मत्व) प्रकट हो जायेगा।
कोई भी व्यक्ति यदि पूर्ण रूप से नि:स्वार्थ होकर कर्म करेे, तो वह एक महापुरुष बन सकता है-अर्थात मानवजाति का मार्गदर्शक नेता- जीवनमुक्त शिक्षक, पैगम्बर बन सकता है !
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>>>*साभार ~ *卐~卐 *श्री दादूवाणी दर्शन* 卐~卐* 卐*Shri Daduvani Darshan*卐परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी/बुधवार, 13 मार्च 2024@Bijay Krishna Pandey*
शास्त्र कहते हैं .... कि अठारह दिनों के महाभारत युद्ध में उस समय की पुरुष जनसंख्या का 80% सफाया हो गया था। युद्ध के अंत में, संजय कुरुक्षेत्र के उस स्थान पर गए जहां सबसे महानतम युद्ध हुआ था। उसने इधर-उधर देखा और सोचने लगा कि क्या वास्तव में यहीं युद्ध हुआ था...? यदि युद्ध हुआ था तो जहां वो खड़ा है ... उसके नीचे की जमीन रक्त से सराबोर होनी चाहिए.., क्या वो आज उसी जगह पर खड़ा है ... जहां महान पांडव और कृष्ण खड़े थे ..?
तभी एक वृद्ध व्यक्ति ने नरम और शांत स्वर में कहा "आप उस बारे में सच्चाई कभी नहीं जान पाएंगे !" संजय ने धूल के बड़े से गुबार के बीच में से दिखाई देने वाले भगवा वस्त्र पहने एक वृद्ध व्यक्ति को देखने के लिए उस ओर सिर को घुमाया। "मुझे पता है कि आप कुरुक्षेत्र युद्ध के बारे में पता लगाने के लिए यहां आये हैं, लेकिन आप उस महाभारत युद्ध के बारे में तब तक नहीं जान सकते .. जब तक आप ये नहीं जानते हैं कि असली युद्ध है क्या ।" बूढ़े आदमी ने रहस्यमय ढंग से कहा।
"तुम महाभारत का क्या अर्थ है - जानते हो ?" महाभारत एक महाकाव्य है, एक गाथा है, एक वास्तविकता भी है,लेकिन निश्चित रूप से एक दर्शन भी है। वृद्ध व्यक्ति संजय को और अधिक सवालों के चक्कर में फसा कर मुस्कुरा रहा था।
"क्या आप मुझे बता सकते हैं कि इस ग्रन्थ में दर्शन क्या है ?" संजय ने निवेदन किया। ज़रूर, बूढ़े आदमी ने कहना शुरू किया। पांडव कुछ और नहीं, बल्कि आपकी पाँच इंद्रियाँ हैं !दृष्टि, गंध, स्वाद, स्पर्श और श्रवण ..., और क्या आप जानते हैं .. कि कौरव क्या हैं ? उसने अपनी आँखें संकीर्ण करते हुए पूछा।
कौरव ऐसे सौ तरह के विकार हैं ... जो आपकी इंद्रियों पर प्रतिदिन हमला करते हैं। लेकिन आप उनसे लड़ सकते हैं और जीत भी सकते हैं। ...पर क्या आप जानते हैं कैसे ? संजय ने फिर से ना में सर हिला दिया। "जब कृष्ण आपके रथ की सवारी करते हैं !"
यह कह वह वृद्ध व्यक्ति बड़े प्यार से मुस्कुराया और संजय अंतर्दृष्टि खुलने पर जो नवीन रत्न प्राप्त हुआ उस पर विचार करने लगा। .. कृष्ण (गुरु विवेकानन्द के गुरु अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण) आपकी आंतरिक आवाज, आपकी आत्मा, आपका मार्गदर्शक प्रकाश है और यदि आप अपने जीवन को उसके हाथों में सौंप देते हैं ... तो आपको चिंता करने की कोई आवश्कता नहीं है । संजय लगभग चेतन अवस्था में पहुंच गया था, लेकिन जल्दी से एक और सवाल लेकर आया।
"फिर" कौरवों के लिए द्रोणाचार्य और भीष्म क्यों लड़ रहे हैं, अगर विकार रूपी कौरव अधर्मी एवम् दुष्ट प्रकृति के हैं ?" वृद्ध आदमी ने दुःखी भाव के साथ सिर हिलाया और कहा। "जैसे-जैसे आप बड़े होते हैं, अपने बड़ों के प्रति (अपने तथाकथित शुभचिन्तकों के प्रति) आपकी धारणा बदलती जाती है। जिन बुजुर्गों के बारे में आपने सोचा था ... कि आपके बढ़ते वर्षों में वे संपूर्ण थे.... अब आपको लगता है वे सभी परिपूर्ण नहीं हैं। उनमें दोष हैं।
और एक दिन आपको यह तय करना होगा कि उनका व्यवहार आपके लिए अच्छा या बुरा है। तब आपको यह भी एहसास हो सकता है कि आपको अपनी भलाई के लिए उनका विरोध करना या लड़ना भी पड़ सकता है। यह बड़े होने का (बुद्ध और ईसा जैसा महापुरुष बनने का) सबसे कठिन हिस्सा है .. और यही वजह है कि गीता महत्वपूर्ण है।
संजय धरती पर बैठ गया, इसलिए नहीं कि वह थका हुआ था बल्कि इसलिए कि वह जो समझ ले कर यहां आया था वो एक एक करके धराशाई हो रही थी। लेकिन फिर भी उसने लगभग फुसफुसाते हुए एक और प्रश्न पूछा -"इस कर्ण के बारे में आपका क्या कहना है ? "आह!" वृद्ध ने कहा। "आपने अंत के लिए सबसे अच्छा प्रश्न बचा के रखा हुआ है।
कर्ण आपकी इंद्रियों का भाई है,वह इच्छा है, वह आप का ही एक हिस्सा है। ....लेकिन वो अपने प्रति अन्याय महसूस करता है,और आपके विरोधी विकारों के साथ खड़ा दिखता है। और हर समय विकारों के विचारों के साथ खड़े रहने के कोई ना कोई कारण और बहाना बनाता रहता है। क्या आपकी इच्छा, आपको, विकारों के वशीभूत हो कर उनमें बह जाने या अपनाने के लिए प्रेरित नहीं करती रहती है ?" संजय ने स्वीकारोक्ति में सिर हिलाया और भूमि की तरफ सिर करके सारे विचार श्रंखलाओं को क्रमबद्ध कर मस्तिष्क में बैठने का प्रयास करने लगा।
और जब उसने अपने सिर को ऊपर उठाया वो वृद्ध व्यक्ति कहीं धूल के गुबारों के मध्य विलीन हो चुका था। लेकिन जाने से पहले वो जीवन का वो दिशा एवम् दर्शन दे गया था जिसे आत्मसात करने के अतिरिक्त अब कोई अन्य मार्ग नहीं बचा था।
#साभार #Rakesh_Saxena
>>>महाभारत का कर्ण कौन है ? : महाभारत के कर्ण को समझने के लिए पहले यह समझना होगा कि महाभारत के पाण्डव कौन हैं ? पाण्डव और कुछ नहीं हमारी पाँच इन्द्रियाँ हैं। पाँच इन्द्रियों के पाँच विषय हैं - रूप (दृष्टि या sight), रस (स्वाद या taste), गन्ध (smell), शब्द (श्रवण या hearing) और स्पर्श (touch) | कर्ण कौन है ? (Who is Karna of Mahabharata?*Karna is the brother of your senses,* *He is the desire,* *He is a part of you...* *But he feels injustice towards himself* *And seems to be standing with your opposing vices* * And all the time he keeps making some reason or the other to stand with the thoughts of vices.**Doesn't your desire keep motivating you to get carried away by the vices or adopt them?*)
*कर्ण आपकी इंद्रियों का भाई है,* *वह इच्छा है,* *वह आप का ही एक हिस्सा है....*कर्ण हमारे मन में छुपे हमारी पाँच इन्द्रिय विषयों- दृष्टि, श्रवण, स्पर्श, स्वाद और गन्ध को भोगने की इच्छा का नाम है। अर्थात कर्ण हमारी इन्द्रियों का छठा भाई (मन) या इच्छा का नाम है - यह मन हमारा ही हिस्सा है (आत्मा का यंत्र है। ) लेकिन कर्ण (अर्थात अपनी बड़ाई सुनने की इच्छा मन को चंचल बनाये रखती है) इसलिए कर्ण हमेशा अपने प्रति अन्याय महसूस करता है। और हमारे विरोधी विकारों के साथ (रिपुओं के साथ) खड़ा दिखता है। और हर समय विकारों के विचारों के साथ खड़े रहने के कोई ना कोई कारण और बहाना बनाता रहता है। *क्या आपकी इच्छा, आपको, विकारों के वशीभूत हो कर* *उनमें बह जाने या अपनाने के लिए प्रेरित नहीं करती रहती है ?"*
और कौरव क्या हैं ? कौरव ऐसे सौ तरह के विकार हैं ... जो हमारी इंद्रियों को भोग के लिए उकसाते रहते हैं, उन पर निरंतर हमला करते रहते हैं। **लेकिन हम उनसे लड़ सकते हैं और जीत भी सकते हैं...* "जब कृष्ण हमारे शरीर रूपी रथ के सारथि बनते हैं !"
कृष्ण (अर्थात गुरु विवेकानन्द के गुरु अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण परमहंस) ही हमारी आंतरिक आवाज, हमारी आत्मा, हमारे मार्गदर्शक नेता हैं। और यदि अपने जीवन को हम उनके हाथों में सौंप देते हैं ... तो मुझे (स्वामी जी के दास को) चिंता करने की कोई आवश्कता नहीं है । क्योंकि विवेकानन्द ही स्कन्द है और स्वयं माँ सारदा देवी स्कन्दमाता हैं !
>>>[मैं अभी चूल्हे से अपनी कड़ाही उतारने योग्य-साईं बना या नहीं ? इसको समझने के लिए चरित्र के गुण पुस्तक में 'poise ' अविचलता' में नारद की कथा याद रखनी चाहिए। और माँ से अनुमति लिए बिना -इस अवस्था को जाँचने का दुस्साहस कभी नहीं करना चाहिए, क्योंकि नारद जी विद्या माया (माँ सारदा ) की कृपा/से अनुमति प्राप्त किये बिना ही पानी लेने चले गए थे और आधा घंटा में चारो युग बीत गया ? और स्वामीजी जाने से पहले माँ से अनुमति लेकर गए थे, माँ ने चाकू की मूठ और नुकीली धार पकड़ाने की भावना को परखकर उन्हें अमेरिका जाने की अनुमति दी थी। स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका जाने का निश्चय किया ताकि वहां जाकर वह लोगों को अपने गुरु का संदेश, धर्म का संदेश और शांति का संदेश दे सकें। इसके लिए उन्होंने मां शारदा देवी से अमेरिका जाने की आज्ञा मांगी। उनकी बात सुनकर मां शारदा देवी ने उन्हें गौर से देखा और गंभीर स्वर में कहा, ‘सोच कर बताती हूं।’ विवेकानंद को लगा, शायद अमेरिका जाने की अनुमति न मिले, नहीं तो आशीर्वाद देने के लिए क्या कभी किसी को सोचना भी पड़ता है! उस समय मां शारदा सब्जी बना रही थीं। उन्होंने विवेकानंद से कहा, ‘वहां पड़ा हुआ चाकू ले आओ।’
स्वामी विवेकानंद ने सामने पड़ा चाकू उठाया और मां शारदा देवी के हाथों में रख दिया। इस पर मां शारदा देवी का चेहरा खिल उठा। उन्होंने तत्काल खुशी-खुशी स्वामी विवेकानंद को अमेरिका जाने की अनुमति दे दी। अब विस्मित होने की बारी स्वामी विवेकानंद की थी। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्यों मां शारदा ने कहा सोचकर बताती हूं और फिर क्या सोचकर तत्काल इजाजत दे दी। उन्होंने पूछा, ‘मेरे चाकू देने और आपके आशीर्वाद देने में क्या संबंध है?’
मां शारदा देवी ने उनकी शंका का समाधान करते हुए कहा, ‘मैंने गौर किया कि तुमने चाकू का धार वाला हिस्सा खुद पकड़ा और मेरी ओर हत्थे वाला हिस्सा बढ़ाया। अपने लिए खतरा उठाते हुए भी तुमने मेरी सुरक्षा की चिंता की। अपने इस आचरण से तुमने साबित कर दिया कि तुम कठिनाइयां स्वयं झेलते हो और दूसरों के भले की चिंता करते हो। इससे पता चलता है कि तुम सभी का कल्याण कर सकते हो। मनुष्य की मनुष्यता यही है कि वह अपने से ज्यादा दूसरों की भलाई की चिंता करे। यह आत्म निर्मित बंधन ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है।’ स्वामी विवेकानंद मां शारदा के सामने नतमस्तक हुए और आशीर्वाद लेकर अमेरिका गए। ये बातें रामकृष्ण मिशन इंस्टिट्यूट ऑफ़ कल्चर , कोलकाता के सचिव स्वामी सुपर्णानन्द जी महाराज ने 'भारत सेवाश्रम संघ ' सोनारी ऑडोटोरियम , जमशेदपुर में कहीं।
🙏परिच्छेद ~ 46, [(21 जुलाई 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-46] 🙏
🔆🙏निराकार सच्चिदानंद का दर्शन - षट्चक्र भेद - नादभेद और समाधि🔆🙏
[###1883, 21st July/Kirtanananda at Sriyukta Adhar Sen's Bati : (14.4.1992 -बनारस के निकट ऊँच पुल पर ,..... महाविस्फोट -Big Bang - 'चिदानन्द रूपः शिवोहं -शिवोहं'..... जपते -जपते नादभेद - महाविस्फोट! बनारस कबीर चौराहोता है और समाधि लगती है ! क्या आश्चर्य 2007 के बाद आज 14 .2.2024 को भी सरस्वती पूजा ही है! आज 14 फरवरी 2024 को ज्ञानदायिनी माँ सरस्वती वीणा वाद्य-विनोदिनी मूलाधार में स्थित महाकमल के फूल पर बैठकर वीणा बजाती हुई मूर्ति में पूजित होंगी !
>>>पंचम भूमि (विशुद्धि चक्र) में पहुँचने पर निराकार सच्चिदानन्द का दर्शन होता है !!!]
[নিরাকার সচ্চিদানন্দ দর্শন — ষট্চক্রভেদ — নাদভেদ #ও সমাধি ]
[नादभेद # -Big Bang - महाविस्फोट और समाधि !]
श्रीरामकृष्ण अधर के मकान पर आए हैं । बैठकखाने में रामलाल, मास्टर, अधर तथा कुछ और भक्त आपके पास बैठे हुए हैं । मुहल्ले के दो-चार लोग श्रीरामकृष्ण को देखने आए हैं । राखाल के पिता कलकत्ते में रहते हैं – राखाल वहीँ हैं ।
श्रीरामकृष्ण (अधर के प्रति)- क्यों, राखाल को खबर नहीं दी ?
अधर- जी, उन्हें खबर दी है ।
राखाल के लिए श्रीरामकृष्ण को व्यग्र देखकर अधर ने राखाल को लिवा लाने के लिए एक आदमी के साथ अपनी गाड़ी भिजवा दी ।
अधर श्रीरामकृष्ण के पास आ बैठे । आप के दर्शन के लिए अधर आज व्याकुल हो रहे थे । आज आपके यहाँ आने के बारे में पहले से कुछ निश्चित नहीं था । ईश्वर की इच्छा से ही आप आ पहुँचे हैं ।
अधर- बहुत दिन हुए आप नहीं आए थे । मैंने आज आपको पुकारा था, - यहाँ तक कि आँखों से आँसू भी गिरे थे ।
श्रीरामकृष्ण (प्रसन्न होकर हँसते हुए)- क्या कहते हो !
শ্রীরামকৃষ্ণ (প্রসন্ন হইয়া, সহাস্যে) — বল কি গো!
शाम हुई । बैठकखाने में बत्ती जलायी गयी । श्रीरामकृष्ण ने हाथ जोड़कर जगज्जननी को प्रणाम कर मन ही मन शायद मूलमन्त्र का जाप किया । अब मधुर स्वर से नाम-उच्चारण कर रहे हैं – ‘गोविन्द ! गोविन्द ! सच्चिदानन्द ! हरि बोल ! हरि बोल !’ आप इतना मधुर नाम-उच्चारण कर रहे हैं कि मानो मधु बरस रहा है ! भक्तगण निर्वाक् होकर उस नामसुधा का पान कर रहे हैं ।
श्री रामलाल ज्ञानदयिनी माँ सरस्वती का (काकीमुख या माँ भवतारिणी) भजन गा रहे हैं -
"भुवन भुलाइली माँ, हर मोहिनी।
मूलाधारे महोत्पले,वीणा वाद्य-विनोदिनी।।
(भावार्थ)- “हे माँ हरमोहिनी, तूने संसार को भुलावे में डाल रखा है । मूलाधार महाकमल में तू वीणावादन करती हुई चित्तविनोदन करती है ।
(Meaning)- “O Mother Harmohini, you have put the world into oblivion. In the Muladhar Mahakamal, you entertain the mind by playing the veena.
शरीर- शारीर यन्त्रे सुषुम्ना आदि त्रय तन्त्रे ,
गुणभेद महामन्त्रे गुणत्रय विभागिनी।।
महामन्त्र का अवलम्बन कर तू शरीररूपी यन्त्र के सुषुम्नादि तीन तारों में तीन गुणों के अनुसार तीन ग्रामों में संचरण करती है ।
आधारे भैरवाकार, षडदले श्रीराग आर,
मणिपूरेते मल्हार, बसंते हृदप्रकाशिनी;
विशुद्ध हिन्दोल सूरे, कर्नाटक आज्ञापूरे,
तान-लय -मान-सूरे तीन ग्राम-संचारिणी ॥
मूलाधारचक्र में तू भैरव राग में अवस्थित है; स्वाधिष्ठानचक्र के षड्दल कमल में तू श्री राग तथा मणिपूरचक्र में मल्हार राग है । तू वसन्त राग के रूप में हृदयस्थ अनाहतचक्र में प्रकाशित होती है। तू विशुद्धचक्र में हिण्डोल तथा आज्ञाचक्र में कर्णाटक राग है । तान-मान-लय-सुर के सहित तू मन्द्र-मध्य-तार इन तीन सप्तकों का भेदन करती है ।
महामाया मोहपाशे , बद्ध करे अनायासे ,
तत्व लये तत्वाकाशे स्थिर आछे सौदामिनी।
श्रीनन्दकुमार कय, तत्व ना निश्चय होय ,
तव तत्व गुणत्रय , काकीमुख # -आच्छादिनी।"
हे महामाया, तूने मोहपाश के द्वारा सब को अनायास बाँध लिया है । तत्त्वाकाश में तू मानो स्थिर सौदामिनी की तरह विराजमान है । ‘नन्दकुमार’ कहता है कि तेरे तत्त्व का निश्चय नहीं किया जा सकता। तीन गुणों के द्वारा तूने जीव की दृष्टि को [काकीमुख को #] आच्छादित कर रखा है ।”
শ্রীযুক্ত রামলাল এইবার গান গাইতেছেন:
ভুবন ভুলাইলি মা, হরমোহিনী। মূলাধারে মহোৎপলে, বীণাবাদ্য-বিনোদিনী।
শরীর শারীর যন্ত্রে সুষুম্নাদি ত্রয় তন্ত্রে,গুণভেদ মহামন্ত্রে গুণত্রয়বিভাগিনী ॥
আধারে ভৈরবাকার ষড়দলে শ্রীরাগ আর,মণিপুরেতে মহ্লার, বসন্তে হৃৎপ্রকাশিনী,
বিশুদ্ধ হিল্লোল সুরে, কর্ণাটক আজ্ঞাপুরে,তান লয় মান সুরে, তিন গ্রাম-সঞ্চারিণী।
মহামায়া মোহপাশে, বদ্ধ কর অনায়াসে,তত্ত্ব লয়ে তত্ত্বাকাশে স্থির আছে সৌদামিনী।
শ্রীনন্দকুমারে কয়, তত্ত্ব না নিশ্চয় হয়,তব তত্ত্ব গুণত্রয়, কাকীমুখ-আচ্ছাদিনী।
রামালাল আবার গাইলেন:
भवदारा भयहरा नाम शुनेछि तोमार,
ताईते एबार दिएछि भार तारो तारो ना तारो माँ।
(भावार्थ)- “हे भवानी, मैंने तुम्हारा भयहर नाम सुना है, इसीलिए तो अब मैंने तुम पर अपना भार सौंप दिया है । अब तुम मुझे तारो या न तारो !
तुमि माँ ब्रह्माण्ड-धारी ब्रह्माण्ड व्यापिके ,
के जाने तोमारे तुमि काली कि राधिके ?
घटे घटे तुमि घटे आछो गो जननी ,
माँ, तुम ब्रह्माण्ड-जननी हो, ब्रह्माण्ड-व्यापिनी हो । तुम 'काली' हो या 'राधिका' –? यह कौन जाने! हे जननी, तुम घट घट में विराजमान हो ।
मूलाधारे कमले थाको माँ कूल-कुण्डलिनी।
तद-ऊर्ध्वते आछे माँ' गो नामे स्वाधिष्ठान,चतुर्दल पद्मे तथाय आछे अधिष्ठान।
चतुर्दले थाक तुमि कूल-कुण्डलिनी,षड्दल वज्रासने वस माँ आपनि।
तद-ऊर्ध्वते नाभिस्थान माँ मणिपुर कय,नीलवर्णैर दशदल पद्म जे तथाय।
सुषुम्नार पथ दिये एस गो जननी ,
कमले कमले थाक कमले कामिनी।
मूलाधार-चक्र के चतुर्दल कमल में तुम कुल-कुण्डलिनी के रूप में विद्यमान हो । तुम्हीं सुषुम्ना मार्ग से ऊपर उठती हुई स्वाधिष्ठान-चक्र के षड्दल तथा मणिपुर-चक्र के दशदल कमल में पहुँचती हो। हे कमलकामिनी, तुम ऊर्ध्वोर्ध्व कमलों में निवास करती हो ।
तद-ऊर्ध्वते आछे माँ 'गो सुधा सरोवर,
रक्तवर्णेर द्वादशदल पद्म मनोहर ,
पादपद्मे दिये यदि ए पद्म प्रकाश।
(माँ), हृदे आछे विभावरी तिमिर विनाश।
हृदयस्थित अनाहतचक्र के द्वादश-दल कमल को अपने पादपद्म के द्वारा प्रस्फुटित कर तुम हृदय के अज्ञानतिमिर का विनाश करती हो ।
तद-ऊर्ध्वते आछे माँ' गो नाम कण्ठस्थल,
धूम्रवर्णेर पद्म आछे होय षोड्शदल।
सेई पद्म मध्ये आछे अम्बुजे आकाश ,
से आकाश रुद्ध होले सकलि आकाश।
इसके ऊपर कण्ठस्थित विशुद्धचक्र में धूम्रवर्ण षोडश-दल कमल है । इस कमल के मध्यभाग में जो आकाश है, वह यदि अवरुद्ध हो जाय तो सर्वत्र आकाश ही रह जाता है ।
तद-उर्ध्वे ललाटे स्थान माँ आछे द्विदल पद्म,
सदाय आछजे मन होइये आबद्ध।
मन जे माने ना आमार मन भाल नय ,
द्विदले बसिया रंग देखजे सदाय।
इसके ऊपर ललाट में अवस्थित आज्ञाचक्र के द्विदल कमल में पहुँचकर मन आबद्ध हो जाता है – वह वहीँ रहकर मजा देखना चाहता है, और ऊपर नहीं उठना चाहता ।
तद-उर्ध्वे मस्तके स्थान माँ अति मनोहर,
सहस्रदल पद्म आछे ताहार भीतर।
तथाय परम शिव आछेन आपनि,
सेई शिवेर काछे बस शिवे माँ आपनि।
इससे ऊपर मस्तक में सहस्त्रारचक्र है । वहाँ अत्यन्त मनोहर सहस्त्रदल कमल है, जिसमें परमशिव स्वयं विराजमान हैं । हे शिवानी, तुम वही शिव के निकट जा विराजो !
तुमि आद्याशक्ति माँ जितेन्द्रिय नारी,
योगीन्द्र मुनीन्द्र भाबे नगेन्द्र कुमारी।
हर शक्ति, हरो शक्ति सूदनेर एबार,
जेन ना आसिते हय माँ भव पारावार।
हे माँ, तुम आद्याशक्ति हो । योगी तथा मुनिगण तुम्हारा नगेन्द्रनन्दिनी उमा के रूप में ध्यान करते है । तुम शिव की शक्ति हो । तुम मेरी वासनाओं का हरण करो ताकि मुझे फिर इस भवसागर में पतित न होना पड़े ।
तुमि आद्याशक्ति माँ' गो तुमि पंचतत्व,
के जाने तोमारे तुमि तुमिई तत्त्वातीत।
ओ माँ भक्त जन्ये चराचरे तुमि से साकार।
पँचे पञ्च लय हले तुमि निराकार।
माँ, तुम्हें पंचतत्त्व हो, फिर तुम तत्त्वों के अतीत हो । तुम्हें कौन जान सकता है ! हे माँ, संसार में भक्तों के हेतु तुम साकार बनी हो, परन्तु पंचेन्द्रियाँ पंचतत्त्व में विलिन हो जाने पर तुम्हारे निराकार स्वरूप का ही अनुभव होता है ।”
रामलाल जिस समय गा रहे थे-
तद-ऊर्ध्वते आछे माँ' गो नाम कण्ठस्थल,
धूम्रवर्णेर पद्म आछे होय षोड्शदल।
सेई पद्म मध्ये आछे अम्बुजे आकाश ,
से आकाश रुद्ध होले सकलि आकाश।
-अर्थात ‘इसके ऊपर कण्ठस्थित विशुद्धचक्र में धूम्रवर्ण षोडशदल कमल है । इस कमल के मध्यभाग में जो आकाश है- माता सरस्वती ज्ञानदायिनी माँ श्री सारदा देवी की कृपा से उस आकाश का अतिक्रमण करते हुए मन उससे भी परे उठ जाये;तो सर्वत्र आकाश ही रह जाता है !’ (Transcending which, one sees at length the universe in Space dissolve.)
– उस समय श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा-“ यह सुनो, इसी का नाम है 'निराकार सच्चिदानन्द' दर्शन। विशुद्धचक्र का भेदन होने पर ‘सर्वत्र आकाश ही रह जाता है ।”
the Master said to M: "Listen. This is known as the vision of Satchida-nanda, the Formless Brahman. The Kundalini, rising above the Visuddha chakra, enables one to see everything as akasa."
मास्टर- जी हाँ ।
श्रीरामकृष्ण- इस मायामय जीव-जगत् (देश-काल-निमित्त) के पार हो जाने पर तब कहीं नित्य स्वरूप में पहुँचा जा सकता है। नाद-भेद होने पर ही समाधि लगती है । ओंकार-साधना करते करते नाद-भेद होता है और समाधि लगती है ।
"One attains the Absolute by going beyond the universe and its created beings conjured up by maya. By passing beyond the Nada one goes into samadhi. By repeating 'Om' one goes beyond the Nada and attains samadhi."
শ্রীযুক্ত রামলাল যখন গাহিতেছেন:
“তদূর্ধ্বেতে আছে মাগো নাম কণ্ঠস্থল,ধূম্রবর্ণের পদ্ম আছে হয়ে ষোড়শদল।
সেই পদ্ম মধ্যে আছে অম্বুজে আকাশ, সে আকাশ রুদ্ধ হলে সকলি আকাশ।”
তখন ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ মাস্টারকে বলিতেছেন —
“এই শুন, এরই নাম নিরাকার সচ্চিদানন্দ-দর্শন। বিশুদ্ধচক্র ভেদ হলে সকলি আকাশ।”
মাস্টার — আজ্ঞে হাঁ।
শ্রীরামকৃষ্ণ — এই মায়া-জীব-জগৎ পার হয়ে গেলে তবে নিত্যতে পৌঁছানো যায়। নাদ ভেদ হলে তবে সমাধি হয়। ওঁকার সাধন করতে করতে নাদ ভেদ হয়, আর সমাধি হয়।
[১৮৮৩, ২১শে জুলাই/শ্রীযুক্ত অধর সেনের বাটীতে কীর্তনানন্দে]
ভবদারা ভয়হরা নাম শুনেছি তোমার,তাইতে এবার দিয়েছি ভার তারো তারো না তারো মা।
তুমি মা ব্রহ্মাণ্ডধারী ব্রহ্মাণ্ড ব্যাপিকে,কে জানে তোমারে তুমি কালী কি রাধিকে,
ঘটে ঘটে তুমি ঘটে আছ গো জননী,মূলাধার কমলে থাক মা কুলকুণ্ডলিনী।
তদূর্ধ্বেতে আছে মাগো নামে স্বাধিষ্ঠান,চতুর্দল পদ্মে তথায় আছ অধিষ্ঠান,
চর্তুদলে থাক তুমি কুলকুণ্ডলিনী,ষড়দল বজ্রাসনে বস মা আপনি।
তদূর্ধ্বেতে নাভিস্থান মা মণিপুর কয়,নীলবর্ণের দশদল পদ্ম যে তথায়,
সুষুম্নার পথ দিয়ে এস গো জননী,কমলে কমলে থাক কমলে কামিনী।
তদূর্ধ্বেতে আছে মাগো সুধা সরোবর,রক্তবর্ণের দ্বাদশদল পদ্ম মনোহর,
পাদপদ্মে দিয়ে যদি এ পদ্ম প্রকাশ।(মা), হৃদে আছে বিভাবরী তিমির বিনাশ।
তদূর্ধ্বেতে আছে মাগো নাম কণ্ঠস্থল,ধূম্রবর্ণের পদ্ম আছে হয়ে ষোড়শদল।
সেই পদ্ম মধ্যে আছে অম্বুজে আকাশ,সে আকাশ রুদ্ধ হলে সকলি আকাশ।
তদূর্ধ্বে ললাটে স্থান মা আছে দ্বিদল পদ্ম,সদায় আছয়ে মন হইয়ে আবদ্ধ।
মন যে মানে না আমার মন ভাল নয়, দ্বিদলে বসিয়া রঙ্গ দেখয়ে সদায়।
তদূর্ধ্বে মস্তকে স্থান মা অতি মনোহর,সহস্রদল পদ্ম আছে তাহার ভিতর।
তথায় পরম শিব আছেন আপনি,সেই শিবের কাছে বস শিবে মা আপনি।
তুমি আদ্যাশক্তি মা জিতেন্দ্রিয় নারী,যোগীন্দ্র মুনীন্দ্র ভাবে নগেন্দ্র কুমারী।
হর শক্তি হর শক্তি সুদনের এবার,যেন না আসিতে হয় মা ভব পারাবার।
তুমি আদ্যাশক্তি মাগো তুমি পঞ্চতত্ত্ব,কে জানে তোমারে তুমি তুমিই তত্ত্বাতীত।
ওমা ভক্ত জন্য চরাচরে তুমি সে সাকার,পঞ্চে পঞ্চ লয় হলে তুমি নিরাকার।
>>>काकीमुख # the opening of the larynx (कण्ठनाली) and hence of kuṇḍalinī : >स्वरयंत्र का खुलना और इसलिए कुंडलिनी का जागरण ।
नाड़ी (योग) : अगर आप रीढ़ की शारीरिक बनावट के बारे में जानते हैं, तो आप जानते होंगे कि रीढ़ के दोनों ओर दो छिद्र होते हैं, जो वाहक नली की तरह होते हैं, जिनसे होकर सभी धमनियां गुजरती हैं। ये इड़ा और पिंगला, यानी बायीं और दाहिनी नाड़ियां हैं। योग के सन्दर्भ में नाड़ी वह मार्ग है जिससे होकर शरीर की ऊर्जा प्रवाहित होती है।
योग के सन्दर्भ में ‘नाड़ी’ का मतलब धमनी या नस नहीं है। नाड़ियां शरीर में उस मार्ग या माध्यम की तरह होती हैं जिनसे प्राण का संचार होता है। इन 72,000 नाड़ियों का कोई भौतिक रूप नहीं होता। यानी अगर आप शरीर को काट कर इन्हें देखने की कोशिश करें तो आप उन्हें नहीं खोज सकते। लेकिन जैसे-जैसे आप अधिक सजग होते हैं, आप देख सकते हैं कि ऊर्जा की गति अनियमित नहीं है, वह तय रास्तों से गुजर रही है। प्राण या ऊर्जा 72,000 अलग-अलग रास्तों से होकर गुजरती है।
योग में यह माना जाता है कि नाडियाँ शरीर में स्थित नाड़ीचक्रों को जोड़तीं है। सुषुम्ना नाड़ियों में इंगला, पिगला और सुषुम्ना तीन प्रधान हैं. इनमें भी सुषुम्ना सबसे मुख्य है। सुषुम्ना नाड़ी जिससे श्वास, प्राणायाम और ध्यान विधियों से ही प्रवाहित होती है। सुषुम्ना नाड़ी से श्वास प्रवाहित होने की अवस्था को ही 'योग' कहा जाता है। योग के सन्दर्भ में नाड़ी वह रास्ता है जिसके द्वारा शरीर की ऊर्जा का परिवहन होता है।
सुषुम्ना नाड़ी मूलाधार (Basal plexus) से आरंभ होकर यह सिर के सर्वोच्च स्थान पर अवस्थित सहस्रार तक आती है। सभी चक्र सुषुम्ना में ही विद्यमान हैं।
>>इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना का रहस्य क्या है ?
अस्तित्व में सभी कुछ जोड़ों में मौजूद है - स्त्री-पुरुष, दिन-रात, तर्क-भावना आदि। इस दोहरेपन को द्वैत भी कहा जाता है। हमारे अंदर इस द्वैत का अनुभव हमारी रीढ़ में बायीं और दायीं तरफ मौजूद इड़ा पिंगला नाड़ियों से पैदा होता है। आइये जानते हैं इन नाड़ियों के बारे में।
अगर आप रीढ़ की शारीरिक बनावट के बारे में जानते हैं, तो आप जानते होंगे कि रीढ़ के दोनों ओर दो छिद्र होते हैं, जो वाहक नली की तरह होते हैं, जिनसे होकर सभी धमनियां गुजरती हैं। ये इड़ा और पिंगला, यानी बायीं और दाहिनी नाड़ियां हैं।
>>तर्क बुद्धि (logical mind) और अंतःप्रज्ञा (intuition :सहज-ज्ञान, अन्तर्ज्ञान या आत्मबोध!)
इड़ा और पिंगला जीवन की बुनियादी द्वैतता की प्रतीक हैं। इस द्वैत को हम परंपरागत रूप से शिव और शक्ति का नाम देते हैं। या आप इसे बस पुरुषोचित और स्त्रियोचित कह सकते हैं, या यह आपके दो पहलू – लॉजिक या तर्क-बुद्धि और इंट्यूशन या सहज-ज्ञान हो सकते हैं।
जीवन की रचना भी इसी के आधार पर होती है। इन दोनों गुणों [ लॉजिक और इंट्यूशन] के बिना, जीवन ऐसा नहीं होता, जैसा वह अभी है। सृजन से पहले की अवस्था में सब कुछ मौलिक रूप में (अव्यक्त अवस्था में) होता है। उस अवस्था में द्वैत नहीं होता। लेकिन जैसे ही सृजन होता है, उसमें (व्यक्त अवस्था में) द्वैतता आ जाती है।
पुरुषोचित और स्त्रियोचित का मतलब लिंग भेद से - या फिर शारीरिक रूप से पुरुष या स्त्री होने से - नहीं है, बल्कि प्रकृति में मौजूद कुछ खास गुणों से है। प्रकृति के कुछ गुणों को पुरुषोचित माना गया है और कुछ अन्य गुणों को स्त्रियोचित। आप भले ही पुरुष हों, लेकिन यदि आपकी इड़ा नाड़ी अधिक सक्रिय है, तो आपके अंदर स्त्री-प्रकृति यानि स्त्रियोचित गुण हावी हो सकते हैं। आप भले ही स्त्री हों, मगर यदि आपकी पिंगला अधिक सक्रिय है, तो आपमें पुरुष-प्रकृति यानि पुरुषोचित गुण हावी हो सकते हैं।
>>>अगर आप इड़ा और पिंगला के बीच संतुलन बना पाते हैं तो दुनिया में आप प्रभावशाली हो सकते हैं। इससे आप जीवन के सभी पहलुओं को अच्छी तरह संभाल सकते हैं। अधिकांश लोग इड़ा और पिंगला में जीते और मरते हैं और मध्य स्थान सुषुम्ना निष्क्रिय बना रहता है। परन्तु सुषुम्ना मानव शरीर-विज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। जब ऊर्जा सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है, असल में तभी से यौ'गिक जीवन शुरू होता है।
>>सुषुम्ना नाड़ी को कैसे जागृत करें ? -सुषुम्ना में ज्ञान, भक्ति,विवेक और वैराग्य का गुण स्वाभाविक रूप से रहता है। मूल रूप से सुषुम्ना गुणहीन होती है, उसकी अपनी कोई विशेषता नहीं होती। वह एक तरह की शून्यता या खाली स्थान है। अगर शून्यता है तो उससे आप अपनी मर्जी से कोई भी चीज बना सकते हैं। सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश होते ही, आपमें भक्ति,विवेक वैराग्य और ज्ञान स्वतः आ जाता है। ‘राग’ का अर्थ होता है, रंग। ‘वैराग्य’ का अर्थ है, रंगहीन यानी आप पारदर्शी हो गए हैं।
जब तक आप इड़ा या पिंगला के प्रभाव में हैं तो आप बाहरी स्थितियों को देखकर प्रतिक्रिया करते हैं। लेकिन एक बार सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश हो जाए, तो आप एक नए किस्म का संतुलन पा लेते हैं।
अभी आप चाहे काफी संतुलित हों, लेकिन अगर किसी वजह से बाहरी स्थिति अशांतिपूर्ण हो जाए, तो उसकी प्रतिक्रिया में आप भी अशांत हो जाएंगे; क्योंकि इड़ा और पिंगला का स्वभाव ही ऐसा होता है। अगर आप इड़ा या पिंगला के प्रभाव में हैं तो आप बाहरी स्थितियों को देखकर प्रतिक्रिया करते हैं।
लेकिन एक बार सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश हो जाए, तो आप एक नए किस्म का संतुलन पा लेते हैं, एक अंदरूनी संतुलन, जिसमें बाहर चाहे जो भी हो, आपके अंदर एक खास जगह होती है, जो किसी भी तरह की हलचल में कभी अशांत नहीं होती, जिस पर बाहरी स्थितियों का असर नहीं पड़ता। आप चेतनता की चोटी पर सिर्फ तभी पहुंच सकते हैं, जब आप अपने अंदर यह स्थिर अवस्था बना लें।
>>अगर आप प्रिज्म की तरह पारदर्शी हो गए, तो आपके पीछे लाल रंग का उड़हुल का फूल रखने पर आप भी लाल हो जाएंगे। अगर आपके पीछे नीला रंग होगा, तो आप नीले हो जाएंगे। आप निष्पक्ष हो जाते हैं। आप जहां भी रहें, आप वहीं का एक हिस्सा बन जाते हैं लेकिन कोई चीज आपसे चिपकती नहीं। आप जीवन के सभी आयामों को खोजने का साहस सिर्फ तभी करते हैं, जब आप आप वैराग की स्थिति में होते हैं।
(जब शरीर की समस्त ऊर्जा काकी-मुखी सुषुम्ना नाड़ी का मुह फोडकर् ब्रह्म-रन्ध्रे प्रवेश करती है- असल में तभी से जीवन शुरू होता है ?)
(गुह्य काली सहस्रनाम स्तोत्रम् : ३८॥ में) माँ भगवती काली को काकीमुखी # कहा गया है।
काकीमुखी साकला च स्थावरा जङ्गमेश्वरी ।
ईड़ा च पिङ्गला चैव सुषुम्णा ध्यानगोचरा ॥
ईड़ा ऋणात्मक ऊर्जा का वहन करती है। शिव स्वरोदय, ईड़ा द्वारा उत्पादित ऊर्जा को चन्द्रमा के सदृश्य मानता है अतः इसे चन्द्रनाड़ी भी कहा जाता है। इसकी प्रकृति शीतल, विश्रामदायक और चित्त को अंतर्मुखी करनेवाली मानी जाती है। इसका उद्गम मूलाधार चक्र माना जाता है - जो मेरुदण्ड के सबसे नीचे स्थित है।
पिंगला धनात्मक ऊर्जा का संचार करती है। इसको सूर्यनाड़ी भी कहा जाता है। यह शरीर में जोश, श्रमशक्ति का वहन करती है और चेतना को बहिर्मुखी बनाती है।
पिंगला का उद्गम मूलाधार के दाहिने भाग से होता है जबकि ईड़ा का बाएँ भाग से।]
साभार -https://isha.sadhguru.org/hi/wisdom/article/ida-pingala-sushumna-nadi-in-hindi]
🔆🙏चरम विकास का द्वार है आज्ञाचक्र ( तृतीय नेत्र )🔆🙏
"मरनो भलो विदेश को, जहाँ न अपुनो कोय।
माटी खॉय जनावरॉ, महा महोच्छव होय॥"
>>>नाद-भेद : सप्त स्वर ज्ञान
साभार /स्वच्छभाषाभियानम्/https://www.facebook.com/groups/130075194356928/posts/497064130991364/
[साभार https://saptswargyan.in/naad-ahat-anahat/]
साभार https://www.uou.ac.in/lecturenotes/humanities/MPAM%20101%20BLOCK%203%20UNIT%203.pdf]
>>ध्वनि – विज्ञान में नाद किसे कहते हैं ?
नाद की परिभाषा और प्रकार :
नाद नकारं प्राणमामानं दकारमनलं विदुः ।
जातःप्राणाग्निसयोगात्तेन नादोऽभिधीयते ॥
(-संगीत रत्नाकर: १।३७६ )
– ‘ नकार ‘ प्राण – वाचक ( वायु – वाचक ) तथा ‘ दकार ‘ अग्नि – वाचक है , अत : जो वायु और अग्नि के योग ( सम्बन्ध ) से उत्पन्न होता है , उसी को ‘ नाद ‘ कहते है । अर्थात् ‘नाद’ के नकार को प्राण-तत्त्व और दकार को अग्नि-तत्त्व जाना जाता है। इसी प्राण और अग्नि के संयोग से नाद नामक परम चेतना का आविर्भाव होता है।
संगीत में प्रयुक्त होने वाली ध्वनि, उपयोग में आने वाली ध्वनि को नाद कहते हैं । नाद दो प्रकार के जाने जाते हैं – ‘ आहत ‘ तथा अनाहत ‘ ।
आहतो नाहतश्चेति द्विधा नादो निगद्यते ।
सोऽय प्रकाशते पिडे तस्तापिडोऽभिधीयते ॥
-संगीत रत्नाकर ( १।२।३ )
अर्थात् — ” नाद के दो प्रकार जाने जाते हैं – ‘ आहत ‘ तथा अनाहत ‘ । ये दोनों पिण्ड ( देह ) में प्रकट होते हैं , इसलिए पिण्ड का वर्णन किया जाता है । आहत नाद ही संगीत के लिए उपयोगी है।
>> अनाहत नाद किसे कहते हैं ?
अनाहत नाद की परिभाषा – ” अनाहत नाद जो नाद केवल अनुभव से जाना जाता है और जिसके उत्पन्न होने का कोई खास कारण न हो , यानी जो बिना संघर्ष के स्वयंभू रूप से उत्पन्न होता है , उसे ‘ अनाहत नाद ‘ कहते हैं।
चैतन्यं सर्वभूतानां विवृतं जगदात्मना।
नादब्रह्म तदानन्दमद्वितीयमुपास्महे॥
(सङ्गीतरत्नाकरः १.३.१)
अर्थात् नाद एक प्रकार की ध्वनि है जो सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। नाद सब प्राणियों में स्थित है, इसलिए इसे ब्रह्मनाद कहते हैं।
सभी प्राणियों में जो चैतन्य, स्वफूर्त्त जगत् में व्याप्त है उस अनुपम-अद्वितीय आनन्दरूप नादब्रह्म की हम उपासना करते हैं।
इसी अनाहत नाद की उपासना हमारे प्राचीन ऋषि – मुनि करते थे। यह नाद मुक्ति – दायक तो है किन्तु रक्ति-दायक नहीं। इसलिए यह संगीतोपयोगी भी नहीं है , अर्थात् संगीत से अनाहत नाद का कोई सम्बन्ध नहीं है।
आहात नाद की परिभाषा : वह नाद (ध्वनि) जो दो वस्तुओं के संघर्ष या रगड़ से पैदा होती है, और कर्णप्रिय होती है उसे ‘ आहत नाद ‘ कहते हैं । इस नाद का संगीत से विशेष सम्बन्ध है ।इसी नाद के द्वारा सूर , मीरा इत्यादि ने प्रभु – सान्निध्य प्राप्त किया था और फिर अनाहत की उपासना से मुक्ति प्राप्त की थी।
>>>शोर और संगीत के बीच क्या अंतर है ? शोर और संगीत के बीच क्या अंतर है ? कर्णप्रिय मधुर ध्वनि से ही संगीत का निर्माण हो सकता है, इसे ही हम संगीत कह सकते है। एक समस्या यह है कि कुछ ध्वनियाँ न शोर न तो संगीत के स्वर क्षेत्र में आते हैं और न मात्र शोर ही कहे जा सकते हैं।जैसे बाल्टी को डंडे से पीटना या रुई का धुनना आदि । लेकिन संगीत की जानकारी रखने वाला इनसे जलतरंग या वीणा के स्वरों का निर्माण कर सकता है। जैसे सड़क पर खिलौना / सारंगी बेचने वाला उस पर मधुर ध्वनि निकालता है । लेकिन जब कोई नौसिखिया उसे खरीद कर बजाता है तो वैसी ध्वनि नहीं निकलती और एक कर्कश ध्वनि सुनाई पड़ती है जो कानों को अप्रिय लगती है। इस स्थति में हम इसे शोर कहेंगे।
'भारत का कलात्मक वैभव' - [स्वच्छभाषाभियानम् : यदि न संस्कृता वाणी यदि न संस्कृतं मनः।यदि न संस्कृता दृष्टिः संस्कृताध्ययनेन किम्॥( संस्कृताध्यापनेन किम्)न दैन्यम् न पलायनम् ।
संगीत-विद्या के प्रथम उपदेशक [आचार्य] भगवान् शिव है। जीवन, ऊर्जा का महासागर है। कला [विद्या] जीवन को ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ से समन्वित करती है। जब अन्तश्चेतना जागृत होती है तो ऊर्जा जीवन को कला के रूप में उभारती है। कला (विद्या) जीवन को ‘सत्यम् शिवम् सुन्दर’ से समन्वित करती है। इसके द्वारा ही बुद्धि में आत्मा का सत्य स्वरुप झलकता है। इसलिए राजर्षि और महाकवि भर्तृहरि कहते हैं –
कला-विहीनः,साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ॥
तृणं न खादन्नपि जीवमानः, तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥
... [नीतिशतकम्]
अर्थात् साहित्य, संगीत और कला से विहीन मनुष्य साक्षात् पूँछ और सींग रहित पशु के समान है। और ये तो पशुओं का सौभाग्य है कि वो उनकी तरह घास नहीं खाता।
>>>कं सुखं लाति ददाति इति कला। अपने भावों या विचारों को रेखा, रंग, ध्वनि या शब्द द्वारा इस प्रकार अभिव्यक्ति करना कि उसे देखने, सुनने या पढ़ने में भी वही भाव उत्पन्न हो जाए, वह कला है। हृदय की गइराईयों से निकली अनुभूति जब कला का रूप लेती है, कलाकार का अन्तर्मन मानो मूर्त हो उठता है। चाहे लेखनी उसका माध्यम हो या रंगों से भीगी तूलिका या सुरों की पुकार या वाद्यों की झंकार। कला ही आत्मिक शान्ति का माध्यम है।
यह कठिन तपस्या है, साधना है। इसी के माध्यम से कलाकार सुनहरी और इन्द्रधनुषी आत्मा से स्वप्निल विचारों को साकार करता है। जब यह कला संगीत के रूप में उभरती है तो कलाकार गायन और वादन से स्वयं को ही नहीं श्रोताओं को भी अभिभूत कर देता है। मनुष्य आत्मविस्मृत हो उठता है। दीपक राग से दीपक जल उठता है और मल्हार राग से मेघ बरसना- यह कला की साधना का ही चरमोत्कर्ष है। संगीत की साधना; सुरों की साधना है। मिलन है आत्मा से परमात्मा का; अभिव्यक्ति है अनुभूति की। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में चेतना के उस समीकरण की व्याख्या है, जिसका चरम सत्, चित् और आनन्द [सच्चिदानन्द] है।
"समर विजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान।
'बिजय- बिबेक-बिभूति' नित तिन्हहि देहिं भगवान॥121 क॥"
-भावार्थ--जो सुजान लोग श्री रघुवीर की समर विजय संबंधी लीला को सुनते हैं, उनको भगवान नित्य विजय, विवेक और विभूति (ऐश्वर्य) देते हैं॥
साभार: विवेक-जीवन ब्लॉग dated -16 सितंबर 2019/"सार्थ गुर्वाष्टकम्" - अर्थ के साथ गुरु अष्टकम !/श्रीरामकृष्ण-विवेकानंद वेदांत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा का वैशिष्ट्य/]
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