*परिच्छेद~ १२३*
गृहस्थाश्रम तथा सन्यासाश्रम
(१)
*श्रीरामकृष्ण तथा गृहस्थाश्रम *
आज आश्विन की शुक्ला चतुर्दशी है । सप्तमी, अष्टमी और नवमी ये तीन दिन श्रीजगन्माता की पूजा और उत्सव में कटे हैं । दशमी को विजया थी । उस समय पारम्परिक मिलने-जुलने का जो शुभ संयोग था, वह भी हो चुका । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ कलकत्ते के श्यामपुकुर नामक स्थान में रहते हैं । शरीर में कठिन व्याधि है । गले में कैन्सर हो गया है । जब वे बलराम के घर पर थे तब कविराज गंगाप्रसाद देखने के लिए आये थे । श्रीरामकृष्ण ने उनसे पूछा था - 'यह रोग साध्य है या असाध्य?’ इसका कोई उत्तर कविराज ने नहीं दिया । चुप हो रहे थे । अंग्रेजी चिकित्सा के डाक्टरों ने भी रोग के असाध्य होने का इशारा किया था । इस समय डाक्टर सरकार चिकित्सा कर रहे हैं ।
आज बृहस्पतिवार है, २२ अक्टूबर १८८५ । श्यामपुकुर के एक दुमँजले मकान में श्रीरामकृष्ण का पलंग बिछाया गया है, उसी पर श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं । डाक्टर सरकार, श्रीयुत ईशानचन्द्र मुखोपाध्याय और भक्तगण सामने तथा चारों ओर बैठे हुए हैं । ईशान बड़े दानी हैं, पेन्शन लेकर भी दान किया करते हैं, ऋण करके दान करते हैं और सदा ईश्वर की चिन्ता में रहते हैं ।
पीड़ा का हाल सुनकर वे देखने के लिए आये हुए हैं । डाक्टर सरकार चिकित्सा के लिए आते हैं तो छः सात घण्टे तक रहते हैं । श्रीरामकृष्ण पर उनकी बड़ी श्रद्धा है और भक्तों को तो वे अपने आत्मीयों की तरह मानते हैं ।
शाम के सात बजे का समय है । बाहर चाँदनी छिटकी हुई है । पूर्णांग निशानाथ चारों ओर सुधावृष्टि कर रहे हैं । भीतर दीपक का प्रकाश है । कमरे में बहुत से आदमी बैठे हुए हैं । बहुतसे लोग श्रीरामकृष्णदेव के दर्शन करने के लिए आये हैं । सब के सब एकदृष्टि से उनकी ओर देख रहे हैं । उनकी बातें सुनने के लिए लोगों की इच्छा प्रबल हो रही है । उनके कार्य देखने के लिए लोग उत्सुक हो रहे हैं । ईशान को देखकर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं –
“जो संसारी व्यक्ति ईश्वर के पादपद्यों में भक्ति करके संसार का काम करता है, वह धन्य है, वह वीर है । जैसे किसी के सिर पर दो मन का बोझा रखा हुआ हो, और एक बरात जा रही हो । इधर तो सिर पर इतना बड़ा बोझा है, फिर भी वह खड़े होकर बरात को देखता है । इस प्रकार संसार में रहना बिना अधिक शक्ति के नहीं होता ।
जैसे पाँकाल मछली, रहती तो कीच के भीतर है, परन्तु देह में कीच छू नहीं जाता । 'पनडुब्बी' पानी में डुबकियाँ लगाया करती है, परन्तु एक ही बार परों को झाड़ने से फिर पानी नहीं रह जाता।
“परन्तु संसार में यदि निर्लिप्त भाव से रहना है तो कुछ साधना चाहिए । कुछ दिन निर्जन में रहना जरूरी है, एक वर्ष के लिए हो या छः महीने के लिए, अथवा तीन महीने के लिए या महीने ही भर के लिए उसी एकान्त में ईश्वर की चिन्ता करनी चाहिए। और मन ही मन कहना चाहिए - 'इस संसार में मेरा कोई नहीं है, जिन्हें मैं अपना कहता हूँ, वे दो दिन के लिए हैं, भगवान ही मेरे अपने हैं, वे ही मेरे सर्वस्व हैं । हाय ! किस तरह मैं उन्हें पाऊँ ?’
“भक्तिलाभ के पश्चात् संसार में (गृहस्थ जीवन में) रहा जा सकता है । जैसे हाथ में तेल लगाकर कटहल काटने से फिर उसका दूध हाथ में नहीं चिपकता । संसार पानी की तरह है और मनुष्य का मन जैसे दूध पानी में अगर दूध रखना चाहते हो तो दूध और पानी एक हो जायेगा; इसीलिए निर्जन स्थान में दही जमाना चाहिए । दही जमाकर मक्खन निकालना चाहिए । मक्खन निकालकर अगर पानी में रखो तो फिर वह पानी में नहीं मिलता, निर्लिप्त होकर तैरता रहता है ।
"ब्रह्मसमाजवालों ने मुझसे कहा था, 'महाराज, हमारा वह मत है जो राजर्षि जनक का था । हम लोग उनकी तरह निर्लिप्त रहकर संसार करेंगे ।’ मैंने कहा, 'निर्लिप्त भाव से संसार करना बड़ा कठिन है । मुँह से कहने से ही राजा जनक नहीं हो सकते । राजर्षि जनक ने सिर नीचे और पैर ऊपर करके वर्षों तपस्या की थी । तुम्हें सिर नीचे और पैर ऊपर नहीं करना होगा । परन्तु साधना करनी चाहिए, निर्जन में वास करना चाहिए । निर्जन में ज्ञान और भक्ति प्राप्त करके फिर संसार कर सकते हो । दही एकान्त में जमाया जाता है । हिलाने-डुलाने से दही नहीं जमता ।’
“जनक निर्लिप्त थे, इसलिए उनका एक नाम विदेह भी था - अर्थात् देह में बुद्धि नहीं रहती थी, - संसार में रहकर भी जीवन्मुक्त होकर घूमते थे । परन्तु देह-बुद्धि का नाश होना बहुत दूर की बात है । बड़ी साधना चाहिए ।
“जनक बड़े वीर थे । वे दो तलवारें चलाते थे । एक ज्ञान की दूसरी कर्म की ।
[ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]
🔱🙏श्रीरामकृष्ण तथा संन्यास आश्रम 🔱🙏
“अगर पूछो, 'गृहस्थाश्रम के ज्ञानी और संन्यासाश्रम के ज्ञानी में कोई अन्तर है या नहीं’, तो उसका उत्तर यह है कि दोनों वास्तव में एक ही हैं - यह भी ज्ञानी है और वह भी ज्ञानी है; परंतु इतना ही है कि संसार में गृहस्थ ज्ञानी के लिए एक भय रह जाता है । कामिनी और कांचन के भीतर रहने से ही कुछ न कुछ भय है । तुम चाहे जितने ही बुद्धिमान होओ, पर काजल की कोठरी में रहने से देह में स्याही का थोड़ासा दाग लग ही जायगा ।
“मक्खन निकालकर अगर नयी हण्डी में रखो तो मक्खन के नष्ट होने की सम्भावना नहीं रहती । अगर मट्ठे की हण्डी में रखो तो सन्देह होता है । (सब हँसे)
“धान के लावे जब भूने जाते हैं तब दो-चार भाड़ के बाहर चिकटकर गिर पड़ते हैं । वे चमेली के फूल की तरह शुभ्र होते हैं, देह में कही एक भी दाग नहीं रहता । जो लावे कड़ाही में रहते हैं, वे भी अच्छे होते हैं, परन्तु उन बाहरवालों के समान नहीं होते, देह में कुछ दाग होते हैं ।
संसार-त्यागी संन्यासी अगर ज्ञानलाभ करता है तो ठीक इसी चमेली के फूल की तरह बेदाग होता है; और ज्ञान के पश्चात् संसाररूपी कड़ाही में रहने पर देह में ऊपर से कुछ लाल दाग लग सकता है । (सब हँसते हैं)
“जनक राजा की सभा में एक भैरवी आयी हुई थी । स्त्री देखकर जनक राजा ने सिर झुका लिया । यह देखकर भैरवी ने कहा, ‘जनक ! स्त्री को देखकर अब भी तुम डरते हो !’ पूर्ण ज्ञान होने पर पाँच साल के बच्चे का स्वभाव हो जाता है, तब स्त्री और पुरुष में भेद- बुद्धि नहीं रह जाती ।
“कुछ भी हो, संसार में रहनेवाले ज्ञानी की देह पर दाग चाहे लग जाय, परन्तु उससे उसकी कोई हानि नहीं होती । चाँद में कलंक तो है, परन्तु उससे किरणों के निकलने में कोई रुकावट नहीं होती ।
“कोई कोई लोग ज्ञानलाभ के पश्चात् लोक-शिक्षा के लिए कर्म करते हैं, जैसे जनक और नारद आदि । लोक-शिक्षा के लिए शक्ति के रहने की जरूरत है । ऋषिगण अपने-ही-अपने ज्ञानोपार्जन में व्यस्त रहते थे । नारदादि आचार्य दूसरों के हित के लिए विचरण किया करते थे । वे वीर पुरुष थे ।
🙏“सड़ी हुई लकड़ी जब बह जाती है, तो उस पर कोई चिड़िया के बैठने से ही वह डूब जाती है, परन्तु मोटी लकड़ी का लट्ठा जब बहता है, तब गौ, आदमी, यहाँ तक कि हाथी भी उसके ऊपर चढ़कर पार हो सकता है । “स्टीम बोट खुद भी पार होता है और कितने ही आदमियों को भी पार कर देता है । “नारदादि आचार्य काठ के लट्ठे की तरह हैं, स्टीम बोट की तरह ।🙏
“कोई खाकर अँगौछे से मुँह पोंछकर बैठा रहता है कि कहीं किसी को खबर न लग जाय । (सब हंसते है) और कोई कोई अगर एक आम पाते है तो जरा जरासा सब को देते है और आप भी खाते हैं । 🙏“नारदादि आचार्य सब के कल्याण के लिए ज्ञानलाभ के बाद भी भक्ति लेकर रहे थे।”🙏
(२)
[ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]
*भक्तियोग तथा ज्ञानयोग*
डाक्टर - " ज्ञान होने पर मनुष्य अवाक् हो जाता है, आँखें मुँद जाती है और आँसू बह चलते हैं। तब भक्ति की आवश्यकता होती है ।"
श्रीरामकृष्ण - भक्ति स्त्री है । इसीलिए अन्त: पुर तक उसकी पैठ है । ज्ञान बहिर्द्वार तक ही जा सकता है । (सब हँसते हैं)
डाक्टर - परन्तु अन्त:पुर में हरएक स्त्री को घुसने नहीं दिया जाता, वेश्यायाएँ वहाँ नहीं जाने पाती। ज्ञान चाहिए ।
श्रीरामकृष्ण - यथार्थ मार्ग जो नहीं जानता, परन्तु ईश्वर पर जिसकी भक्ति है - उन्हें जानने को जिसे इच्छा है, वह भक्ति के बल पर ही ईश्वर को प्राप्त कर सकता है । एक आदमी बड़ा भक्त था, वह जगन्नाथजी के दर्शन करने के लिए घर से निकला । पुरी का कोई रास्ता वह जानता नहीं था, - दक्षिण की ओर न जाकर वह पश्चिम की ओर चला गया । रास्ता भूल गया था सही, परन्तु व्याकुल होकर आदमियों से वह पूछा करता था । लोगों ने कह दिया, ‘यह मार्ग नहीं है, उस मार्ग से जाओ ।’ अन्त में वह भक्त पुरी पहुँच ही गया और वहाँ उसने जगन्नाथजी के दर्शन भी किये । देखो, न जानने पर भी कोई न कोई मार्ग बतला ही देता है ।
डाक्टर - वह भूल तो गया था ।
श्रीरामकृष्ण – हाँ, ऐसा हो जाता है जरूर, परन्तु अन्त में वह पाता भी है ।
एक ने पूछा - ईश्वर साकार भी हैं या निराकार ?
श्रीरामकृष्ण - वे साकार भी हैं और निराकार भी । एक संन्यासी जगन्नाथजी के दर्शन करने गया था । जगन्नाथजी के दर्शन करके उसे सन्देह हुआ कि ईश्वर साकार हैं या निराकार । हाथ में उसके दण्ड था, उसी दण्ड को वह जगन्नाथजी की देह में छुआने लगा, यह देखने के लिए कि दण्ड छू जाता है या नहीं । एक बार दण्ड के एक सिरे से छुआया तो दण्ड नहीं लगा, फिर दूसरे सिरे से छुआया तो वह उनकी देह से लग गया । तब संन्यासी ने समझा कि ईश्वर साकार भी हैं और निराकार भी । 🙏
“परन्तु इसको धारणा करना बड़ा कठिन है । जो निराकार हैं, वे फिर साकार कैसे हो सकते हैं ? यह सन्देह मन में उठता है । और यदि वे साकार हों भी, तो ये अनेक रूप क्यों हैं ?”
डाक्टर - उन्होंने नाना रूपों (M/F) की सृष्टि की है, इसलिए वे साकार हैं । उन्होंने मन की सष्टि की है, इसलिए वे निराकार हैं । वे सब कुछ हो सकते है ।
श्रीरामकृष्ण - ईश्वर को प्राप्त किये बिना ये सब बातें समझ में नहीं आतीं । साधक को वे अनेक भावों में और अनेक रूपों में दर्शन देते हैं । एक के पास गमला भर रंग था । बहुतेरे उसके पास कपड़े रँगाने के लिए आया करते थे । वह आदमी पूछा करता था, 'तुम किस रंग से रँगाना चाहते हो ?' किसी ने कहा, 'लाल रंग से ।' बस, वह आदमी गमले में कपड़ा छोड़ देता था और निकालकर कहता था, 'यह लो, तुम्हारा कपड़ा लाल रंग से रँग गया ।
कोई दूसरा कहता था, 'मेरा कपड़ा पीले रंग से रँग दो । रंगरेज उसी समय उसका कपड़ा भी उसी गमले में डुबाकर कहता था, 'यह लो, तुम्हारा पीले रंग से रँग गया ।' अगर कोई आसमानी रंग से रँगाना चाहता था, तो वह रंगरेज फिर उसी गमले में डुबाकर कहता, 'यह लो, तुम्हारा आसमानी रंग से रँग गया ।'इसी तरह, जो जिस रँग से कपड़ा रँगाना चाहता था, उसका कपड़ा उसी रंग से और उसी गमले में डालकर वह रँग देता था ।
एक आदमी यह आश्चर्यजनक कार्य देख रहा था । रंगरेज ने उससे पूछा, ‘क्यों जी, तुम्हारा कपड़ा किस रंग से रँगना होगा ?’ तब उस देखनेवाले ने कहा, 'भाई, तुमने जो रंग इस गमले में डाल रखा है, 'वही' वाला रंग मुझे दो ।' (सब हँसते हैं)
“एक आदमी जंगल गया था । उसने देखा, पेड़ पर एक बहुत सुन्दर जीव बैठा है । उसने एक आदमी से आकर कहा, 'भाई, अमुक पेड़ पर मैंने एक लाल रंग का जीव देखा है ।' उस आदमी ने कहा, 'मैंने भी देखा है । पर वह लाल क्यों होने लगा ? वह तो हरा है ।” तीसरे ने कहा, ‘नहीं जी, वह हरा नहीं, पीला है ।’ अन्त में लड़ाई ठन गयी । तब उन लोगों ने पेड़ के नीचे जाकर देखा, वहाँ एक आदमी बैठा हुआ था । पूछने पर उसने कहा, 'मैं इसी पेड़ के नीचे रहता हूँ । उस जीव को मैं खूब पहचानता हूँ । तुम लोगों ने जो कुछ कहा सब ठीक है । वह कभी तो लाल होता है, कभी आसमानी, और भी न जाने क्या क्या होता है । फिर कभी देखता हूँ, उसमें कोई रंग नहीं ।’
“जो आदमी सदा ही ईश्वर-चिन्तन करता है, वही समझ सकता है कि उनका स्वरूप क्या है । वही मनुष्य जानता है कि ईश्वर अनेक रूपों से दर्शन देते हैं । वे सगुण भी हैं और निर्गुण भी । जो आदमी पेड़ के नीचे रहता है, वही जानता है कि उस बहुरूपिये के अनेक रंग हैं और कभी कोई रंग नहीं रहता । दूसरे आदमी तर्क-वितर्क करके केवल कष्ट ही उठाते हैं ।
“वे साकार हैं और निराकार भी । यह किस प्रकार है, जानते हो ? जैसे सच्चिदानन्द एक समुद्र हों, जिसका कहीं ओर छोर नहीं । भक्ति की हिम-शक्ति से उस समुद्र का पानी जगह जगह जमकर बर्फ बन गया हो, - मानो पानी बर्फ के आकार में बँधा हुआ हो; अर्थात् भक्त के पास वे कभी कभी साकार रूप में दर्शन देते हैं । ज्ञान-सूर्य के उगने पर वह बर्फ गलकर फिर (निराकार सच्चिदानन्द) पानी हो जाता है !”
डाक्टर - सूर्य के उगने पर बर्फ गलकर पानी हो जाता है; और आप जानते हैं - बाद में सूर्य की उष्णता से पानी निराकार बाष्प बन जाता है ?
श्रीरामकृष्ण - अर्थात् 'ब्रह्म सत्य है और संसार मिथ्या' इस विचार के बाद समाधि के होने पर रूप आदि कुछ नहीं रह जाते । तब फिर ईश्वर के सम्बन्ध में किसी को यह नहीं मालूम होता कि वे व्यक्ति हैं अथवा अन्य कुछ । वे क्या हैं, यह मुख से नहीं कहा जा सकता ।
कहे भी कौन ? जो कहेंगे, वे ही नहीं रह गये ! वे अपने 'मैं' को फिर खोजकर भी नहीं पाते ! उनके लिए ब्रह्म निर्गुण है । तब केवल बोध रूप में ब्रह्म का बोध होता है । मन और बुद्धि के द्वारा कोई उसे पकड़ नहीं सकता ।
“इसीलिए कहते हैं, भक्ति चन्द्र है और ज्ञान सूर्य । मैंने सुना है, बिलकुल उत्तर में और दक्षिण में समुद्र हैं । वहाँ इतनी ठण्डक है कि पानी पर बर्फ की चट्टानें बन जाती हैं । जहाज नहीं चलते । वहाँ जाकर अटक जाते हैं ।”
डाक्टर - भक्ति के मार्ग में आदमी अटक जाते हैं ।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, ऐसा होता तो है, परन्तु इससे हानि नहीं होती । उस सच्चिदानन्द-सागर का पानी ही बर्फ के आकार में जमा हुआ है । यदि और भी विचार करना चाहो, यदि 'ब्रह्म सत्य है और संसार मिथ्या' यह विचार करना चाहो तो इसमें भी कोई हानि नहीं है । ज्ञानसूर्य से वह बर्फ गल जायेगा, और वह गलकर भी उसी सच्चिदानन्द-सागर में रहेगा ।
"ज्ञान- विचार के बाद समाधि के होने पर 'मैं' 'मेरा' यह कुछ नहीं रह जाता । 🔱🙏परन्तु समाधि (योग) का होना बहुत मुश्किल है । 'मैं' किसी तरह जाना नहीं चाहता । और जाना नहीं चाहता, इसीलिए फिर-फिरकर इस संसार में उसे आना पड़ता है ।🔱🙏
"गौ 'हम्बा' (हम-हम) करती है, इसलिए उसे इतना दुःख मिलता है । बैल को दिन भर हल जोतना पड़ता है - गरमी हो या वर्षा । और फिर उसे कसाई काटते हैं । इतने पर भी बचाव नहीं होता, चमार चमड़े से जूते बनाते हैं । अन्त में आँत की ताँत बनती है । धुनिया के हाथ में जब वह ‘तूँ’ ‘तूँ’ करती है, तब कहीं उसका निस्तार होता है ।
“जब जीव कहता है, "नाहं नाहं नाहं, हे ईश्वर, मैं कुछ भी नहीं हूँ, तुम्हीं कर्ता हो; मैं दास हूँ, तुम प्रभु हो', तब उसका निस्तार होता है, तभी उसकी मुक्ति होती है ।”
डाक्टर - परन्तु धुनिये के हाथ में पड़े तब तो ! (सब हँसते हैं)
श्रीरामकृष्ण - जब 'मैं' जाने का है ही नहीं, तो पड़ा रहे दास 'मैं' बना हुआ ! (सब हँसते हैं)
“समाधि के बाद भी किसी किसी का 'मैं' रह जाता है - 'दास मैं', 'भक्त का मैं’ । शंकराचार्य ने लोकशिक्षा के लिए ‘विद्या का मैं’ रख छोड़ा था । 'दास मैं, विद्या का मैं, भक्त का मैं' यह पक्का 'मैं' है ।
"कच्चा ‘मैं’ क्या है, जानते हो ? मैं कर्ता हूँ, मैं इतने बड़े आदमी का लड़का हूँ, विद्वान् हूँ, धनवान हूँ, मुझे ऐसी बात कही जाय ! - ये सब कच्चे 'मैं' के भाव है । अगर कोई घर में चोरी करे और उसे अगर कोई पकड़ ले, तो पहले सब चीजें उससे छुड़ा लेता है, फिर मार-पीटकर उसे सीधा कर देता है, फिर पुलिस को सौंप देता है । कहता है, ‘हँ:, नहीं जानता किसके घर में चोरी की !
“ईश्वर-प्राप्ति होने पर पाँच वर्ष के बच्चे जैसा स्वभाव हो जाता है । 'बालक का मैं' और 'पक्का मैं'। बालक किसी गुण के वश नहीं है । वह तीनों गुणों से परे है । सत्त्व, रज और तम में से किसी गुण के वश नहीं । देखो, बच्चा तमोगुण के वश में नहीं है । अभी तो उसने लड़ाई की और देखते ही देखते फिर गले से लिपट गया । कितना प्रेम और कितना खेल ! वह रजोगुण के भी वश में नहीं है। अभी उसने घरौंदा बनाया, कितनी मेहनत की, पर कुछ देर में सब पड़ा रह गया ! वह माता के पास दौड़ चला । कभी देखो तो एक सुन्दर धोती पहने हुए घूम रहा है, पर कुछ देर बाद देखो तो वह कपड़ा खुलकर गिर गया है । कभी देखो, वह कपड़े की बात ही बिलकुल भूल गया है या उसे बगल में ही दबाये घूम रहा है । (हास्य)
“अगर बच्चे से कहो, 'यह बड़ी अच्छी धोती है, यह किसकी धोती है ?' तो वह कहेगा, 'यह मेरी धोती है - मेरे बाबूजी ले आये हैं ।' अगर कहो, 'वाह, बच्चू, तू बड़ा अच्छा है, बच्चू, मुझे यह धोती दे दे' तो वह कहेगा - 'नहीं, मेरी धोती है, मेरे बाबूजी की दी हुई है । उँहूँ, मैं न दूँगा ।' फिर उसे एक खिलौने पर या एक बाजे पर फुसला लो - वह पाँच रुपये की धोती तुम्हें देकर चला जायगा ।
पाँच वर्ष का बच्चा सत्वगुण के भी वश में नहीं है, पड़ोस के बच्चों से कितना प्यार है, बिना देखे रहा नहीं जाता, परन्तु माँ- बाप के साथ अगर किसी दूसरी जगह चला गया तो वहाँ नये साथी मिल जाते हैं, उन्हीं पर सब प्यार हो जाता है, पुराने साथियों को एक प्रकार से एकदम भूल जाता है ।बच्चे को फिर जाति आदि का अभिमान भी नहीं होता । माता ने कह दिया है कि वह तेरा दादा है, बस उसे पूरा विश्वास हो गया कि यह मेरा दादा है । चाहे एक ब्राह्मण का लड़का हो और दूसरा कुम्हार का, दोनों एक ही पत्तल पर खा सकते हैं । बच्चे में शुचिता और अशुचिता का भी विचार नहीं है, न लोक-लज्जा ही है ।
“और ‘वृद्ध का मैं’ भी है । (डाक्टर हँसते हैं) वृद्ध के बहुत से पाश हैं, - जाति, अभिमान लज्जा, घृणा, भय, विषय-बुद्धि, पटवारी-बुद्धि, कपटाचरण । अगर किसी से वह नाराज हो जाता है तो सहज ही उसका रंज नहीं मिटता । सम्भव है, जीवन भर के लिए वह कसकता रहे । तिसपर पाण्डित्य का अहंकार और धन का अहंकार भी है । 'वृद्ध का मैं' कच्चा 'मैं' है ।
(डाक्टर से) “चार-पाँच आदमी ऐसे हैं जिन्हें ज्ञान नहीं होता । जिसे विद्या का अहंकार है, जिसे धन का अहंकार है, पाण्डित्य का अहंकार है, उसे ज्ञान नहीं होता । इस तरह के आदमियों से अगर कहा जाय, 'वहाँ एक बहुत अच्छे महात्मा आये हैं, दर्शन करने चलोगे ?’ - तो कितने ही बहाने करके कहता है, ‘न: मैं न जाऊँगा ।’ और मन ही मन कहता है, 'मैं इतना बड़ा आदमी हूँ, मैं क्यों जाऊँ ?'
[ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]
🔱🙏सत्त्वगुण से ईश्वर-लाभ। इन्द्रियसंयम के उपाय।*🔱🙏
"तमोगुण का स्वभाव अहंकार है। अहंकार, अज्ञान , यह सब तमोगुण से होता है।
"पुराणों में है, रावण में रजोगुण था, कुम्भकर्ण में तमोगुण और विभीषण में सतोगुण । इसीलिए विभीषण श्रीरामचन्द्रजी को पा सके थे । तमोगुण का एक और लक्षण है क्रोध । क्रोध में उचित और अनुचित का ज्ञान (विवेक) नहीं रहता । हनुमान ने लंका जला दी, परन्तु यह ज्ञान नहीं था कि इससे सीताजी की कुटी भी जल जायेगी ।
"तमोगुण का एक लक्षण और है, काम । पथुरियाघाटा के गिरीन्द्र घोष ने कहा था, 'काम, क्रोध आदि रिपु जब कि नहीं हटने के, तो इनका मोड़ फेर दो ।' ईश्वर की कामना करो । सच्चिदानन्द के साथ रमण करो । क्रोध अगर न जाता हो तो भक्ति का तम धारण करो । 'क्या ! मैंने 'उनका' नाम लिया और मेरा उद्धार न होगा ? मुझे फिर पाप कैसा ? बन्धन कैसा ?' ईश्वर की प्राप्ति के लिए लोभ करो । ईश्वर के रूप पर मुग्ध हो जाओ । अगर अहंकार करना है तो इस तरह का अहंकार करो, ‘मैं ईश्वर का दास हूँ, मैं ईश्वर का पुत्र हूँ ।’ इस तरह छहों रिपुओं का मोड़ फेर दिया जाता है ।
'डाक्टर - इन्द्रियों का संयम करना बड़ा कठिन है । घोड़े की आँख के दोनों बगल आड़ लगायी जाती है, किसी किसी घोड़े की आँखें बिलकुल बन्द कर दी जाती हैं ।
श्रीरामकृष्ण – अगर एक बार भी उनकी कृपा हो जाय, एक बार भी अगर ईश्वर के दर्शन मिल जायँ, आत्मा का साक्षात्कार हो जाय, तो फिर कोई भय नहीं रह जाता । छहों रिपु फिर कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते ।
"नारद और प्रह्लाद जैसे नित्यसिद्ध महापुरुषों को उस तरह दोनों ओर से आँखों में आड़ लगाने की आवश्यकता नहीं थी । जो लड़का स्वयं ही बाप का हाथ पकड़कर खेत की मेड़ पर से चल रहा है, वह, सम्भव है, असावधानी के कारण पिता का हाथ छोड़कर गड्ढे में गिर पड़े, परन्तु पिता जिस लड़के का हाथ पकड़ता है, वह कभी गढ्ढे में नहीं गिरता ।"
डाक्टर - परन्तु बच्चे का हाथ बाप पकड़े यह अच्छा नहीं मालूम होता ।
श्रीरामकृष्ण - बात ऐसी नहीं । महापुरुषों का स्वभाव बालकों जैसा होता है । ईश्वर के पास वे सदा ही बालक हैं, उनमें अहंकार नहीं है । उनकी सब शक्ति ईश्वर की शक्ति है, पिता की शक्ति है, अपनी स्वयं की शक्ति कुछ भी नहीं । यही उनका दृढ़ विश्वास है ।
डाक्टर - घोड़े के दोनों ओर आँखों में आड़ लगाये बिना क्या घोड़ा कभी बढ़ना चाहता है ? रिपुओं को वशीभूत किये बिना क्या ईश्वर कभी मिल सकते हैं ?
श्रीरामकृष्ण - तुम जो कुछ कहते हो, उसे विचार-मार्ग कहते हैं – ज्ञानयोग । उस रास्ते से भी ईश्वर मिलते हैं । ज्ञानी कहते हैं, पहले चित्त की शुद्धि आवश्यक है । साधना चाहिए तब ज्ञान होता है ।
“भक्तिमार्ग से भी वे मिलते हैं । यदि ईश्वर के पादपद्मों में एक बार भक्ति हो, यदि उनका नाम लेने में जी लगे तो फिर प्रयत्न करके इन्द्रियों का संयम नहीं करना पड़ता । रिपु (कर्मेन्द्रियाँ) आप ही आप वशीभूत हो जाते हैं ।
“यदि किसी को पुत्र का शोक हो, तो क्या उस दिन वह किसी से लड़ाई कर सकता है ? - या न्योते में खाने के लिए जा सकता है ? वह क्या लोगों के सामने अहंकार कर सकता है या सुख-सम्भोग कर सकता है ?
“कीड़े अगर एक बार उजाला देख लें तो क्या फिर वे कभी अँधेरे में रह सकते हैं ?”
डाक्टर (सहास्य) - चाहे जल जायँ, फिर भी उजाला नहीं छोड़ेंगे !
श्रीरामकृष्ण - नहीं जी, भक्त कीड़े की तरह जलकर नहीं मरते । भक्त जिस उजाले को देखकर उसके पीछे दौड़ते हैं, वह मणि का उजाला है । मणि का उजाला बहुत उज्ज्वल तो है, परन्तु स्निग्ध और शीतल है । इस उजाले से देह नहीं जलती । इससे शान्ति और आनन्द होता है ।
🙏“नेति-नेति विचार-मार्ग से - ज्ञानयोग के मार्ग से भी वे मिलते हैं; परन्तु यह पथ बड़ा कठिन है । मैं न शरीर हूँ, न मन, न बुद्धि, मन में न रोग है, न शोक, न अशान्ति; मैं सच्चिदानन्दस्वरूप हूँ, मैं सुख और दुःख से परे हूँ, मैं इन्द्रियों के वश में नहीं हूँ - इस तरह की बातें मुख से कहना बहुत सरल है, परन्तु कार्य में इन्हें परिणत करना या इनकी धारणा करना बहुत कठिन है ।🙏काँटे से हाथ छिदा जा रहा है, धर धर खून गिर रहा है, परन्तु फिर भी यह कहे जा रहा है कि 'कहाँ हाथ में काँटा चुभा ? मैं तो बहुत अच्छी तरह हूँ ।’ ये सब बातें शोभा नहीं देती । पहले उस काँटे (कच्चा मैं) को ज्ञानाग्नि में जलाना होगा, नहीं ?
“बहुतेरे यह सोचते हैं कि बिना पुस्तकें पढ़े ज्ञान नहीं होता, विद्या नहीं होती; परन्तु पढ़ने की अपेक्षा सुनना अधिक अच्छा है और सुनने की अपेक्षा देखना अच्छा है । वाराणसी के सम्बन्ध में पढ़ने या सुनने तथा दर्शन करने में बड़ा अन्तर है ।
“जो लोग खुद शतरंज खेलते हैं, वे खुद चाल उतनी नहीं समझते, परन्तु जो लोग खेलते नहीं और तटस्थ रहकर चाल बतला देते हैं, उनकी चाल खेलनेवालों की चाल से बहुत अंशों में ठीक होती है। संसारी लोग सोचते हैं, हम बड़े बुद्धिमान हैं, परन्तु वे विषयासक्त हैं, वे खुद खेल रहे हैं । अपनी चाल स्वयं नहीं समझ सकते; परन्तु संसार-त्यागी साधु-महात्मा विषयों से अनासक्त हैं, वे संसारियों से बुद्धिमान हैं । खुद नहीं खेलते, इसीलिए चाल अच्छी बतला सकते हैं ।”
डाक्टर (भक्तों से) - पुस्तक पढ़ने से इनको (श्रीरामकृष्ण को) इतना ज्ञान न होता । फैरडे (एक वैज्ञानिक) खुद प्रकृति का दर्शन किया करता था, इसीलिए वह इस तरह के वैज्ञानिक सत्यों का आविष्कार कर सका । किताबी ज्ञान के होने पर इतना न हो सकता था । गणित के नियम मस्तिष्क को उलझन में डाल देते हैं, मौलिक आविष्कार के रास्ते में वे विघ्न ला खड़ा कर देते हैं ।
श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - जब पंचवटी में जमीन पर लोटता हुआ मैं माँ को - पुकारा करता था तब मैंने माँ से कहा था, 'माँ, मुझे वह सब दिखा दो जो कर्मियों ने कर्म के द्वारा पाया है, योगियों ने योग के द्वारा और ज्ञानियों के ज्ञान के द्वारा ।' और भी बहुतसी बातें हैं, उनके सम्बन्ध में अब क्या कहूँ ?
"अहा ! कैसी अवस्था बीत गयी है ! नींद बिलकुल चली गयी थी !" यह कहकर श्रीरामकृष्णदेव गाने लगे - 'नींद टूट गयी है, अब मैं कैसे सो सकता हूँ ? योग और याग में जाग रहा हूँ...।'
"मैंने तो पुस्तक एक भी नहीं पढ़ी ! परन्तु देखो, माता का नाम लेता हूँ, इसलिए सब लोग मुझे मानते हैं । शम्भु मल्लिक ने मुझसे कहा था, 'न ढाल है, न तलवार, और शान्तिराम सिंह बने है !' " (सब हँसते हैं)
श्रीयुत गिरीश घोष के बुद्धदेव-चरित के अभिनय की चर्चा होने लगी । उन्होंने डाक्टर को निमन्त्रण देकर वह अभिनय दिखलाया था । डाक्टर को अभिनय देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई थी ।
डाक्टर (गिरीश से) - तुम बड़े बुरे आदमी हो, अब मुझे रोज थिएटर देखने के लिए जाना होगा !
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - क्या कहता है ? मैं नहीं समझा ।
मास्टर - थिएटर उन्हें बहुत अच्छा लगा है ।
(३)
[ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]
अवतार तथा जीव
श्रीरामकृष्ण - (ईशान के प्रति) - तुम कुछ कहो; यह (डॉक्टर) अवतार नहीं मान रहा है ।
ईशान - जी, अब क्या विचार करूँ ? तर्क-वितर्क अब नहीं सुहाता ।
श्रीरामकृष्ण (विरक्ति से) – क्यों ? यथार्थ बात भी नहीं कहोगे ?
ईशान (डाक्टर से) - अहंकार के कारण हम लोगों में विश्वास कम है । काकभुषुण्डि ने श्रीरामचन्द्रजी को पहले अवतार नहीं माना था । अन्त में जब चन्द्रलोक, देवलोक और कैलाश में उसने भ्रमण करके देखा कि राम के हाथ से उसका किसी प्रकार निस्तार ही नहीं हो रहा है, तब खुद वह राम की शरण में आया । राम उसे पकड़कर निगल गये । भुषुण्डि ने तब देखा कि वह अपने पेड़ ही पर बैठा हुआ है ! उसका अहंकार जब चूर्ण हो गया तब उसने समझा कि राम देखने में तो मनुष्य की तरह हैं, परन्तु ब्रह्माण्ड उनके उदर में समाया हुआ है । उन्हीं के पेट में आकाश, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, समुद्र, पर्वत जीव-जन्तु, पेड़-पौधे आदि हैं ।
श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - इतना समझना ही मुश्किल है कि वे ही स्वराट् हैं और वे ही विराट् हैं । जिनकी नित्यता है, उन्हीं की लीला भी है । ‘वे आदमी नहीं हो सकते’ यह बात क्या हम अपनी क्षुद्र बुद्धि द्वारा कह सकते हैं ? हमारी क्षुद्र बुद्धि में क्या इन सब की धारणा हो सकती है ? एक सेर भर के लोटे में क्या चार सेर दूध समा सकता है ?
“इसीलिए जिन साधु और महात्माओं ने ईश्वर को प्राप्त कर लिया है उनकी बात पर विश्वास करना चाहिए । साधु-महात्मा ईश्वर की ही चिन्ता लेकर रहते हैं, जैसे वकील मुकदमे की चिन्ता लेकर । क्या काकभुषुण्डि की बात पर तुम्हें विश्वास होता है ?”
डाक्टर - जितना अच्छा है, उतने पर मैंने विश्वास कर लिया । पकड़ में आ जाने से ही हुआ, फिर कोई शिकायत नहीं रहती; परन्तु राम को कैसे हम अवतार मानें ? पहले बालि का वध देखो । छिपकर चोर की तरह तीर चलाकर उसे मारा । यह तो मनुष्य का काम है, ईश्वर का कैसे कहा जाय ?
गिरीश घोष - महाशय, यह काम ईश्वर ही कर सकते हैं ।
डाक्टर - फिर देखो, सीता का परित्याग।
गिरीश घोष - महाशय, यह काम भी ईश्वर ही कर सकते है, आदमी नहीं ।
ईशान (डाक्टर से) - आप अवतार क्यों नहीं मानते ? अभी तो आपने कहा, जिन्होंने नाना रूपों की सृष्टि की है वे साकार हैं, जिन्होंने मन की सृष्टि की है वे निराकार हैं । अभी अभी तो आपने कहा, ईश्वर के लिए सब कुछ सम्भव है ।
श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - ईश्वर अवतार ले सकते हैं, यह बात इनके Science (विज्ञान) में नहीं जो है, फिर भला कैसे विश्वास हो ? (सब हँसते हैं)
MASTER (laughing): "It is not mentioned in his 'science' that God can take human form; so how can he believe it? (All laugh.)
শ্রীরামকৃষ্ণ (হাসিতে হাসিতে) — ঈশ্বর অবতার হতে পারেন, এ-কথা যে ওঁর সায়েন্স-এ (ইংরাজী বিজ্ঞানশাস্ত্রে) নাই! তবে কেমন করে বিশ্বাস হয়? (সকলের হাস্য)
"एक कहानी सुनो । किसी ने आकर कहा, ‘अरे, उस टोले में मैं देखकर आ रहा हूँ - अमुक का घर धँसकर बैठ गया है ।’ जिससे उसने यह बात कही, वह अंग्रेजी पढ़ा हुआ था । उसने कहा, 'ठहरो, जरा अखबार देख लूँ ।' अखबार उलटकर उसने देखा, वहाँ कहीं कुछ न था । तब उसने कहा, 'चलो जी, तुम्हारी बात का हमें विश्वास नहीं । कहाँ, घर के धँसकर बैठ जाने की बात अखबार में तो नहीं लिखी है ? यह सब झूठ खबर है !' (सब हँसे)
गिरीश (डाक्टर से) - आपको कृष्ण को तो अवतार मानना ही होगा । आपको मैं उन्हें आदमी नहीं मानने दूँगा । कहिये, Demon or God (शैतान है या ईश्वर) ?
श्रीरामकृष्ण - सरल हुए बिना जल्दी किसी को ईश्वर पर विश्वास नहीं होता, विषय -बुद्धि से ईश्वर बहुत दूर हैं । विषय-बुद्धि के रहते अनेक प्रकार के संशय आकर उपस्थित हो जाते हैं । और अनेक तरह के अहंकार आ जाते हैं, पाण्डित्य का अहंकार, धन का अहंकार, आदि आदि । परन्तु ये (डाक्टर) सरल हैं ।
गिरीश (डाक्टर से) - महाशय, आप क्या कहते हैं ? टेढ़ों को क्या कभी ज्ञान हो सकता है ?
डाक्टर - राम कहो, ऐसा भी कभी हो सकता है ?
श्रीरामकृष्ण - केशव सेन कितना सरल था । एक दिन वहाँ (दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर) गया था । अतिथिशाला देखकर दिन के चार बजे उसने पूछा, 'क्यों जी, अतिथि और कंगालों को कब भोजन दिया जायगा ?' विश्वास जितना बढ़ेगा, ज्ञान भी उतना ही बढ़ता जायगा । जो गौ चुन-चुनकर घास चरती है उसकी दूध की धार खूब नहीं फूटती, और जो गौ लता-पता, घास-फूस, चोकर-भूसा आदि सब कुछ पेट में भर लेती है, उसकी धार नहीं टूटती – घर्र-घर्र खूब दूध देती है ! (सब हँसते है)
"बालक की तरह जब तक विश्वास नहीं होता, तब तक ईश्वर नहीं मिलते । माता ने कह दिया है - वह तेरा दादा है, बस बालक को सोलहों आने विश्वास हो गया कि वह मेरा दादा है । माता ने कह दिया – उस कमरे में 'हौआ' रहता है, बालक सोलहों आने विश्वास करता है कि सचमुच उस कमरे में 'हौआ' रहता है । इस तरह बालक-जैसा विश्वास देखकर ही ईश्वर को दया उत्पन्न होती है। संसार-बुद्धि से वे नहीं मिलते ।"
डाक्टर (भक्तों से) - जो कुछ सामने आया वही खाकर गौ का दूध बनना अच्छी बात नहीं । मेरे एक गौ थी, उसके आगे इसी तरह सब कुछ डाल दिया जाता था । अन्त में मैं सख्त बीमार हो गया । तब सोचा कि इसका कारण क्या है । बड़ी ढूँढ़-तलाश के बाद पता चला कि गौ कितनी ही ऐसी-वैसी चीजें खा गयी थी । तब बड़ी आफत हुई, मुझे लखनऊ जाना पड़ा । अन्त तक बारह हजार रुपयों पर पानी फिर गया ! (सब लोग बड़े जोर से हँसे)
डॉक्टर सरकार - "किससे क्या हो जाता है, कुछ कहा नहीं जाता । पाकापाड़ा के बाबुओं के यहाँ सात साल की एक लड़की बीमार पड़ी । उसे कुकर खाँसी (Whooping Cough) आती थी । में देखने के लिए गया । बीमारी के कारण का पता मुझे किसी तरह नहीं मिल रहा था । अन्त में पता चला, वह गधी भीग गयी थी जिसका दूध वह लड़की पीती थी ।" (सब हँसते हैं)
श्रीरामकृष्ण - कहते क्या हो ? इमली के पेड़ के नीचे से मेरी गाड़ी निकल गयी थी, इससे मेरा हाजमा बिगड़ गया था ! (सब हँसे)
डाक्टर (हँसते हँसते) - जहाज के कप्तान को बड़े जोर से सिर दर्द हो रहा था । तब डाक्टरों ने सलाह करके जहाज को दवा (ब्लिस्टर) लगा दी । (सब हँसते हैं)
[ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]
*साधु संग तथा त्याग*
श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - साधु संग की सदैव आवश्यकता है । रोग लगा ही हुआ है । साधुओं के उपदेश के अनुसार काम करना चाहिए । केवल सुनने से क्या होगा ? दवा का सेवन करना होगा और भोजन का भी परहेज रखना होगा । उस समय पथ्य आवश्यक है ।
डाक्टर - पथ्य से ही बीमारी अच्छी होती है ।
श्रीरामकृष्ण - वैद्य तीन तरह के होते हैं, उत्तम, मध्यम और अधम । जो वैद्य नाड़ी देखकर, 'दवा खाते रहना' कहकर चला जाता है, वह अधम वैद्य है, - रोगी ने दवा का सेवन किया या नहीं, इसकी खबर वह नहीं रखता । और जो वैद्य रोगी को दवा खाने के लिए बहुत तरह से समझाता है, मीठी बातों द्वारा कहता है – ‘अजी, दवा नहीं खाओगे तो भला अच्छे कैसे होगे ? भलेमानस, मैं खुद दवा पीसकर देता हूँ, लो खाओ’ वह मध्यम वैद्य है । जो वैद्य रोगी को किसी तरह दवा न खाते देखकर छाती पर घुटना रखकर जबरदस्ती दवा खिलाता है, वह उत्तम वैद्य है ।
डाक्टर - दवा ऐसी भी होती है जिससे छाती पर घुटना रखने की जरूरत नहीं होती, जैसे होमियोपैथिक ।
श्रीरामकृष्ण - उत्तम वैद्य अगर छाती पर घुटना रख भी दे तो कोई भय की बात नहीं ।
"वैद्य की तरह आचार्य भी तीन प्रकार के हैं । जो धर्मोपदेश देकर शिष्यों की फिर कोई खबर नहीं लेते, वे अधम आचार्य हैं । जो शिष्य के कल्याण के लिए बार बार उसे समझाते हैं, जिससे वह उपदेशों की धारणा कर सके, बहुत कुछ निवेदन और प्रार्थना करते हैं, प्यार दिखलाते हैं, वे मध्यम आचार्य हैं । और शिष्यों को किसी तरह अपनी बात न मानते हुए देखकर कोई कोई आचार्य जबरदस्ती उनसे काम लेते हैं, वे उत्तम श्रेणी के आचार्य हैं ।
(डाक्टर से) "संन्यासी के लिए आवश्यक है कामिनी और कांचन का त्याग करना । संन्यासी को स्त्रियों का चित्र भी न देखना चाहिए । स्त्री कैसी है, जानते हो ? - जैसा इमली का अचार । उसकी याद ही से लार टपक पड़ती है । उसे सामने नहीं लाना पड़ता ।
"परन्तु यह आप लोगों के लिए नहीं - यह संन्यासियों के लिए है । आप लोग जहाँ तक हो सके, स्त्री के साथ अनासक्त होकर रहिये - कभी कभी निर्जन में ईश्वर का ध्यान किया कीजिये । यहाँ वे (स्त्रियाँ) न रहें । ईश्वर पर विश्वास और भक्ति होने पर, बहुत कुछ अनासक्त होकर रह सकोगे । दो-एक बच्चे हो जाने पर स्त्री और पुरुष में भाई-बहन जैसा व्यवहार रहना चाहिए, और ईश्वर से प्रार्थना करते रहना चाहिए जिससे इन्द्रिय-सुख की ओर मन न जाय- लड़के-बच्चे और न हों ।"
गिरीश (सहास्य, डाक्टर से) - आप तीन-चार घण्टे से यहाँ हैं रोगियों की चिकित्सा के लिए न जाइयेगा ?
डाक्टर - कहाँ रही डाक्टरी और कहाँ रहे रोगी ! ऐसे परमहंस से पाला पड़ा है कि मेरा तो सर्वस्व ही स्वाहा हुआ ! (सब हँसे)
श्रीरामकृष्ण - देखो, कर्मनाशा नाम की एक नदी है । उस नदी में डुबकी लगाना एक महाविपत्ति है । इससे कर्मों का नाश हो जाता है । फिर वह मनुष्य कोई काम नहीं कर सकता । (डाक्टर आदि सब हँसते हैं)
डाक्टर (मास्टर, गिरीश तथा दूसरे भक्तों से) - मित्रो, तुम मुझे अपने में से ही एक समझो - यह बात मैं डाक्टर की हैसियत से नहीं कह रहा है; परन्तु यदि तुम मुझे अपना समझो तो मैं तुम्हारा ही हूँ ।
श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - एक है अहेतुकी भक्ति । यह अगर हो तो बहुत अच्छा है । यह अहेतुकी भक्ति प्रह्लाद में थी । उस तरह का भक्त कहता है, 'हे ईश्वर, मैं धन-मान, देह-सुख, यह कुछ नहीं चाहता । ऐसा करो कि तुम्हारे पादपद्यों में मेरी शुद्धा भक्ति हो ।'
डाक्टर – हाँ, कालीतले में लोगों को प्रणाम करते हुए मैंने देखा है; उनके भीतर कामना ही कामना रहती है - कहीं मेरी नौकरी लगा दो, कहीं मेरा रोग अच्छा कर दो, यही सब ।
(श्रीरामकृष्ण से) "आपको जो बीमारी है, इससे लोगों से बातचीत करना बन्द कर देना होगा । हाँ, जब मैं जाऊँ, तब मेरे साथ बातचीत अवश्य कीजिये !" (सब हँसते हैं)
श्रीरामकृष्ण - यह बीमारी अच्छी कर दो; उनका नाम-गुण-कीर्तन नहीं कर पाता हूँ ।
डाक्टर - ध्यान करने ही से उद्देश्य पूरा होता है ।
श्रीरामकृष्ण - यह कैसी बात ? मैं एक ही ढर्रे पर क्यों चलूँ ? मैं कभी पूजा करता हूँ, कभी जप, कभी ध्यान, कभी उनका नाम लिया करता हूँ और कभी उनके गुण गा-गाकर नाचता हूँ ।
डाक्टर - मैं भी एक ढर्रे का आदमी नहीं हूँ ।
श्रीरामकृष्ण - तुम्हारा लड़का, अमृत, अवतार नहीं मानता । परन्तु इसमें कोई दोष नहीं । ईश्वर को निराकार मानकर अगर उनमें विश्वास रहे तो भी वे मिलते हैं । और साकार मानकर अगर उनमें विश्वास हो तो भी वे मिलते हैं । उनमें विश्वास का रहना और उनकी शरण में जाना ये दोनों बातें आवश्यक हैं । आदमी तो अज्ञानी है, उससे भूल हो जाती है ।
एक सेर भर के लोटे में क्या कभी चार सेर दूध समा सकता है ? परन्तु चाहे जिस मार्ग में रहो, व्याकुल होकर उन्हें पुकारना चाहिए । वे अन्तर्यामी हैं - अन्तर की पुकार वे सुनेंगे ही । व्याकुल होकर चाहे साकारवादी के मार्ग से जाओ, चाहे निराकारवादी के मार्ग से, उन्हें ही पाओगे ।
"मिश्री की रोटी चाहे सीधी तरह से खाओ या टेढ़ी करके, मीठी जरूर लगेगी । तुम्हारा लड़का अमृत बड़ा अच्छा है ।"
डाक्टर - वह आपका ही चेला है ।
श्रीरामकृष्ण (हँसकर) - कोई साला मेरा चेला-वेला नहीं है । मैं खुद सब का चेला हूँ । सब ईश्वर के बच्चे हैं, ईश्वर के दास हैं - मैं भी ईश्वर का बच्चा हूँ, ईश्वर का दास हूँ । "चन्दा मामा सब का मामा है ।" (सब हँसते हैं)
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