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शनिवार, 22 जुलाई 2023

BEST🙏परिच्छेद~123~* गृहस्थाश्रम तथा संन्यासाश्रम* [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123] 🔱संसार में यदि निर्लिप्त भाव से रहना है तो कुछ साधना चाहिए 🙏 ईश्वरलाभ का विज्ञान है राजयोग 🔱निर्जन में ज्ञान और भक्ति प्राप्त करके फिर संसार कर सकते हो । 🙏संसार-त्यागी संन्यासी अगर ज्ञानलाभ करता है तो चमेली के फूल की तरह बेदाग होता है। 🙏संसार में रहनेवाले ज्ञानी की देह पर दाग चाहे लग जाय, परन्तु उससे उसकी कोई हानि नहीं होती । चाँद में कलंक तो है, परन्तु उससे किरणों के निकलने में कोई रुकावट नहीं होती ।🙏ज्ञानलाभ के पश्चात् लोक-शिक्षा के लिए कर्म करते हैं।🙏“नारदादि आचार्य काठ के लट्ठे की तरह हैं, स्टीम बोट की तरह 🙏 “नारदादि आचार्य सब के कल्याण के लिए ज्ञानलाभ के बाद भी भक्ति लेकर रहे थे ।🙏वे साकार भी हैं और निराकार भी । 🙏 ज्ञानसूर्य से वह बर्फ गल जायेगा, और वह गलकर भी उसी सच्चिदानन्द-सागर में रहेगा । 🙏 हे ईश्वर, तुम्हीं कर्ता हो; मैं दास हूँ, तुम प्रभु हो ! 🙏 'दास मैं, विद्या का मैं, भक्त का मैं' यह पक्का 'मैं' है ।‘ 🙏 वृद्ध का मैं’ कच्चा मैं है !लज्जा , घृणा, भय, विषय-बुद्धि, पटवारी-बुद्धि, कपटाचरण ।🙏एक बार भी अगर ईश्वर के दर्शन मिल जायँ, आत्मा का साक्षात्कार हो जाय, तो फिर कोई भय नहीं रह जाता । महापुरुषों की सब शक्ति ईश्वर की शक्ति है, पिता की शक्ति है, अपनी स्वयं की शक्ति कुछ भी नहीं । यही उनका दृढ़ विश्वास है🔱ईश्वर के पादपद्मों में एक बार भक्ति हो, रिपु (कर्मेन्द्रियाँ) आप ही आप वशीभूत हो जाते हैं ।🙏भक्त कीड़े की तरह जलकर नहीं मरते । भक्त जिस उजाले को देखकर उसके पीछे दौड़ते हैं, वह मणि का उजाला है ।🔱महावाक्यों को - मुख से कहना बहुत सरल है, परन्तु इन्हें कार्य में परिणत करना या इनकी धारणा करना बहुत कठिन है ।🙏संसार-त्यागी साधु-महात्मा विषयों से अनासक्त हैं, इसीलिए चाल अच्छी बतला सकते हैं ।”🔱काकभुषुण्डि का अहंकार जब चूर्ण हो गया तब उसने समझा कि राम देखने में तो मनुष्य की तरह हैं, परन्तु ब्रह्माण्ड उनके उदर में समाया हुआ है । 🙏जिनकी नित्यता है, उन्हीं की लीला भी है ।🔱ईश्वर अवतार ले सकते हैं, यह बात इनके Science (विज्ञान) में नहीं जो है, फिर भला कैसे विश्वास हो ?🙏विश्वास जितना बढ़ेगा, ज्ञान भी उतना ही बढ़ता जायगा । 🔱 संन्यासी को स्त्रियों का चित्र भी न देखना चाहिए ।🙏"चन्दा मामा सब का मामा है ।" 🔱

 *परिच्छेद~ १२३*


गृहस्थाश्रम तथा सन्यासाश्रम 

(१)

*श्रीरामकृष्ण तथा गृहस्थाश्रम  *

आज आश्विन की शुक्ला चतुर्दशी है । सप्तमी, अष्टमी और नवमी ये तीन दिन श्रीजगन्माता की पूजा और उत्सव में कटे हैं । दशमी को विजया थी । उस समय पारम्परिक मिलने-जुलने का जो शुभ संयोग था, वह भी हो चुका । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ कलकत्ते के श्यामपुकुर नामक स्थान में रहते हैं । शरीर में कठिन व्याधि है । गले में कैन्सर हो गया है । जब वे बलराम के घर पर थे तब कविराज गंगाप्रसाद देखने के लिए आये थे । श्रीरामकृष्ण ने उनसे पूछा था - 'यह रोग साध्य है या असाध्य?’ इसका कोई उत्तर कविराज ने नहीं दिया । चुप हो रहे थे । अंग्रेजी चिकित्सा के डाक्टरों ने भी रोग के असाध्य होने का इशारा किया था । इस समय डाक्टर सरकार चिकित्सा कर रहे हैं ।

आज बृहस्पतिवार है, २२ अक्टूबर १८८५ । श्यामपुकुर के एक दुमँजले मकान में श्रीरामकृष्ण का पलंग बिछाया गया है, उसी पर श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं । डाक्टर सरकार, श्रीयुत ईशानचन्द्र मुखोपाध्याय और भक्तगण सामने तथा चारों ओर बैठे हुए हैं । ईशान बड़े दानी हैं, पेन्शन लेकर भी दान किया करते हैं, ऋण करके दान करते हैं और सदा ईश्वर की चिन्ता में रहते हैं ।

पीड़ा का हाल सुनकर वे देखने के लिए आये हुए हैं । डाक्टर सरकार चिकित्सा के लिए आते हैं तो छः सात घण्टे तक रहते हैं । श्रीरामकृष्ण पर उनकी बड़ी श्रद्धा है और भक्तों को तो वे अपने आत्मीयों की तरह मानते हैं ।

शाम के सात बजे का समय है । बाहर चाँदनी छिटकी हुई है । पूर्णांग निशानाथ चारों ओर सुधावृष्टि कर रहे हैं । भीतर दीपक का प्रकाश है । कमरे में बहुत से आदमी बैठे हुए हैं । बहुतसे लोग श्रीरामकृष्णदेव के दर्शन करने के लिए आये हैं । सब के सब एकदृष्टि से उनकी ओर देख रहे हैं । उनकी बातें सुनने के लिए लोगों की इच्छा प्रबल हो रही है । उनके कार्य देखने के लिए लोग उत्सुक हो रहे हैं । ईशान को देखकर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं –

“जो संसारी व्यक्ति ईश्वर के पादपद्यों में भक्ति करके संसार का काम करता है, वह धन्य है, वह वीर है । जैसे किसी के सिर पर दो मन का बोझा रखा हुआ हो, और एक बरात जा रही हो । इधर तो सिर पर इतना बड़ा बोझा है, फिर भी वह खड़े होकर बरात को देखता है । इस प्रकार संसार में रहना बिना अधिक शक्ति के नहीं होता ।

 जैसे पाँकाल मछली, रहती तो कीच के भीतर है, परन्तु देह में कीच छू नहीं जाता । 'पनडुब्बी' पानी में डुबकियाँ लगाया करती है, परन्तु एक ही बार परों को झाड़ने से फिर पानी नहीं रह जाता।

“परन्तु संसार में यदि निर्लिप्त भाव से रहना है तो कुछ साधना चाहिए । कुछ दिन निर्जन में रहना जरूरी है, एक वर्ष के लिए हो या छः महीने के लिए, अथवा तीन महीने के लिए या महीने ही भर के लिए  उसी एकान्त में ईश्वर की चिन्ता करनी चाहिए। और मन ही मन कहना चाहिए - 'इस संसार में मेरा कोई नहीं है, जिन्हें मैं अपना कहता हूँ, वे दो दिन के लिए हैं, भगवान ही मेरे अपने हैं, वे ही मेरे सर्वस्व हैं । हाय ! किस तरह मैं उन्हें पाऊँ ?’

भक्तिलाभ  के पश्चात् संसार में (गृहस्थ जीवन में) रहा जा सकता है । जैसे हाथ में तेल लगाकर कटहल काटने से फिर उसका दूध हाथ में नहीं चिपकता । संसार पानी की तरह है और मनुष्य का मन जैसे दूध पानी में अगर दूध रखना चाहते हो तो दूध और पानी एक हो जायेगा; इसीलिए निर्जन स्थान में दही जमाना चाहिए । दही जमाकर मक्खन निकालना चाहिए । मक्खन निकालकर अगर पानी में रखो तो फिर वह पानी में नहीं मिलता, निर्लिप्त होकर तैरता रहता है

"ब्रह्मसमाजवालों ने मुझसे कहा था, 'महाराज, हमारा वह मत है जो राजर्षि जनक का था । हम लोग उनकी तरह निर्लिप्त रहकर संसार करेंगे ।’ मैंने कहा, 'निर्लिप्त भाव से संसार करना बड़ा कठिन है । मुँह से कहने से ही राजा जनक नहीं हो सकते । राजर्षि जनक ने सिर नीचे और पैर ऊपर करके वर्षों तपस्या की थी । तुम्हें सिर नीचे और पैर ऊपर नहीं करना होगा । परन्तु साधना करनी चाहिए, निर्जन में वास करना चाहिए । निर्जन में ज्ञान और भक्ति प्राप्त करके फिर संसार कर सकते हो दही एकान्त में जमाया जाता है । हिलाने-डुलाने से दही नहीं जमता ।’   

“जनक निर्लिप्त थे, इसलिए उनका एक नाम विदेह भी था - अर्थात् देह में बुद्धि नहीं रहती थी, - संसार में रहकर भी जीवन्मुक्त होकर घूमते थे । परन्तु देह-बुद्धि का नाश होना बहुत दूर की बात है । बड़ी साधना चाहिए ।

“जनक बड़े वीर थे । वे दो तलवारें चलाते थे । एक ज्ञान की दूसरी कर्म की ।


 [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏श्रीरामकृष्ण  तथा संन्यास आश्रम 🔱🙏

“अगर पूछो, 'गृहस्थाश्रम के ज्ञानी और संन्यासाश्रम के ज्ञानी में कोई अन्तर है या नहीं’, तो उसका उत्तर यह है कि दोनों वास्तव में एक ही हैं - यह भी ज्ञानी है और वह भी ज्ञानी है; परंतु इतना ही है कि संसार में गृहस्थ ज्ञानी के लिए एक भय रह जाता है । कामिनी और कांचन के भीतर रहने से ही कुछ न कुछ भय है । तुम चाहे जितने ही बुद्धिमान होओ, पर काजल की कोठरी में रहने से देह में स्याही का थोड़ासा दाग लग ही जायगा

“मक्खन निकालकर अगर नयी हण्डी में रखो तो मक्खन के नष्ट होने की सम्भावना नहीं रहती । अगर मट्ठे की हण्डी में रखो तो सन्देह होता है । (सब हँसे)

“धान के लावे जब भूने जाते हैं तब दो-चार भाड़ के बाहर चिकटकर गिर पड़ते हैं । वे चमेली के फूल की तरह शुभ्र होते हैं, देह में कही एक भी दाग नहीं रहता । जो लावे कड़ाही में रहते हैं, वे भी अच्छे होते हैं, परन्तु उन बाहरवालों के समान नहीं होते, देह में कुछ दाग होते हैं ।

संसार-त्यागी संन्यासी अगर ज्ञानलाभ करता है तो ठीक इसी चमेली के फूल की तरह बेदाग होता है; और ज्ञान के पश्चात् संसाररूपी कड़ाही में रहने पर देह में ऊपर से कुछ लाल दाग लग सकता है । (सब हँसते हैं)

“जनक राजा की सभा में एक भैरवी आयी हुई थी । स्त्री देखकर जनक राजा ने सिर झुका लिया । यह देखकर भैरवी ने कहा, ‘जनक ! स्त्री को देखकर अब भी तुम डरते हो !’ पूर्ण ज्ञान होने पर पाँच साल के बच्चे का स्वभाव हो जाता है, तब स्त्री और पुरुष में भेद- बुद्धि नहीं रह जाती 

“कुछ भी हो, संसार में रहनेवाले ज्ञानी की देह पर दाग चाहे लग जाय, परन्तु उससे उसकी कोई हानि नहीं होती । चाँद में कलंक तो है, परन्तु उससे किरणों के निकलने में कोई रुकावट नहीं होती ।

“कोई कोई लोग ज्ञानलाभ के पश्चात् लोक-शिक्षा के लिए कर्म करते हैं, जैसे जनक और नारद आदि । लोक-शिक्षा के लिए शक्ति के रहने की जरूरत है । ऋषिगण अपने-ही-अपने ज्ञानोपार्जन में व्यस्त रहते थे । नारदादि आचार्य दूसरों के हित के लिए विचरण किया करते थे । वे वीर पुरुष थे ।

🙏“सड़ी हुई लकड़ी जब बह जाती है, तो उस पर कोई चिड़िया के बैठने से ही वह डूब जाती है, परन्तु मोटी लकड़ी का लट्ठा जब बहता है, तब गौ, आदमी, यहाँ तक कि हाथी भी उसके ऊपर चढ़कर पार हो सकता है । “स्टीम बोट खुद भी पार होता है और कितने ही आदमियों को भी पार कर देता है । “नारदादि आचार्य काठ के लट्ठे की तरह हैं, स्टीम बोट की तरह ।🙏

“कोई खाकर अँगौछे से मुँह पोंछकर बैठा रहता है कि कहीं किसी को खबर न लग जाय । (सब हंसते है) और कोई कोई अगर एक आम पाते है तो जरा जरासा सब को देते है और आप भी खाते हैं । 🙏“नारदादि आचार्य सब के कल्याण के लिए ज्ञानलाभ के बाद भी भक्ति लेकर रहे थे।”🙏

(२)

  [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

*भक्तियोग तथा ज्ञानयोग*

डाक्टर - " ज्ञान होने पर मनुष्य अवाक् हो जाता है, आँखें मुँद जाती है और आँसू बह चलते हैं। तब भक्ति की आवश्यकता होती है ।" 

श्रीरामकृष्ण - भक्ति स्त्री है । इसीलिए अन्त: पुर तक उसकी पैठ है । ज्ञान बहिर्द्वार तक ही जा सकता है । (सब हँसते हैं)

डाक्टर - परन्तु अन्त:पुर में हरएक स्त्री को घुसने नहीं दिया जाता, वेश्यायाएँ वहाँ नहीं जाने पाती। ज्ञान चाहिए

श्रीरामकृष्ण - यथार्थ मार्ग जो नहीं जानता, परन्तु ईश्वर पर जिसकी भक्ति है - उन्हें जानने को जिसे इच्छा है, वह भक्ति के बल पर ही ईश्वर को प्राप्त कर सकता है । एक आदमी बड़ा भक्त था, वह जगन्नाथजी के दर्शन करने के लिए घर से निकला । पुरी का कोई रास्ता वह जानता नहीं था, - दक्षिण की ओर न जाकर वह पश्चिम की ओर चला गया । रास्ता भूल गया था सही, परन्तु व्याकुल होकर आदमियों से वह पूछा करता था । लोगों ने कह दिया, ‘यह मार्ग नहीं है, उस मार्ग से जाओ ।’ अन्त में वह भक्त पुरी पहुँच ही गया और वहाँ उसने जगन्नाथजी के दर्शन भी किये । देखो, न जानने पर भी कोई न कोई मार्ग बतला ही देता है ।

डाक्टर - वह भूल तो गया था ।

श्रीरामकृष्ण – हाँ, ऐसा हो जाता है जरूर, परन्तु अन्त में वह पाता भी है ।

एक ने पूछा - ईश्वर साकार भी हैं या निराकार ?

श्रीरामकृष्ण - वे साकार भी हैं और निराकार भी । एक संन्यासी जगन्नाथजी के दर्शन करने गया था । जगन्नाथजी के दर्शन करके उसे सन्देह हुआ कि ईश्वर साकार हैं या निराकार । हाथ में उसके दण्ड था, उसी दण्ड को वह जगन्नाथजी की देह में छुआने लगा, यह देखने के लिए कि दण्ड छू जाता है या नहीं । एक बार दण्ड के एक सिरे से छुआया तो दण्ड नहीं लगा, फिर दूसरे सिरे से छुआया तो वह उनकी देह से लग गया । तब संन्यासी ने समझा कि ईश्वर साकार भी हैं और निराकार भी । 🙏 

“परन्तु इसको धारणा करना बड़ा कठिन है । जो निराकार हैं, वे फिर साकार कैसे हो सकते हैं ? यह सन्देह मन में उठता है । और यदि वे साकार हों भी, तो ये अनेक रूप क्यों हैं ?

डाक्टर - उन्होंने नाना रूपों (M/F) की सृष्टि की है, इसलिए वे साकार हैं । उन्होंने मन की सष्टि की है, इसलिए वे निराकार हैं । वे सब कुछ हो सकते है ।

श्रीरामकृष्ण - ईश्वर को प्राप्त किये बिना ये सब बातें समझ में नहीं आतीं । साधक को वे अनेक भावों में और अनेक रूपों में दर्शन देते हैं । एक के पास गमला भर रंग था । बहुतेरे उसके पास कपड़े रँगाने के लिए आया करते थे । वह आदमी पूछा करता था, 'तुम किस रंग से रँगाना चाहते हो ?' किसी ने कहा, 'लाल रंग से ।' बस, वह आदमी गमले में कपड़ा छोड़ देता था और निकालकर कहता था, 'यह लो, तुम्हारा कपड़ा लाल रंग से रँग गया । 

कोई दूसरा कहता था, 'मेरा कपड़ा पीले रंग से रँग दो । रंगरेज उसी समय उसका कपड़ा भी उसी गमले में डुबाकर कहता था, 'यह लो, तुम्हारा पीले रंग से रँग गया ।' अगर कोई आसमानी रंग से रँगाना चाहता था, तो वह रंगरेज फिर उसी गमले में डुबाकर कहता, 'यह लो, तुम्हारा आसमानी रंग से रँग गया ।'इसी तरह, जो जिस रँग से कपड़ा रँगाना चाहता था, उसका कपड़ा उसी रंग से और उसी गमले में डालकर वह रँग देता था । 

एक आदमी यह आश्चर्यजनक कार्य देख रहा था । रंगरेज ने उससे पूछा, ‘क्यों जी, तुम्हारा कपड़ा किस रंग से रँगना होगा ?’ तब उस देखनेवाले ने कहा, 'भाई, तुमने जो रंग इस गमले में डाल रखा है, 'वही' वाला रंग मुझे दो ।' (सब हँसते हैं)  

“एक आदमी जंगल गया था । उसने देखा, पेड़ पर एक बहुत सुन्दर जीव बैठा है । उसने एक आदमी से आकर कहा, 'भाई, अमुक पेड़ पर मैंने एक लाल रंग का जीव देखा है ।' उस आदमी ने कहा, 'मैंने भी देखा है । पर वह लाल क्यों होने लगा ? वह तो हरा है ।” तीसरे ने कहा, ‘नहीं जी, वह हरा नहीं, पीला है ।’ अन्त में लड़ाई ठन गयी । तब उन लोगों ने पेड़ के नीचे जाकर देखा, वहाँ एक आदमी बैठा हुआ था । पूछने पर उसने कहा, 'मैं इसी पेड़ के नीचे रहता हूँ । उस जीव को मैं खूब पहचानता हूँ । तुम लोगों ने जो कुछ कहा सब ठीक है । वह कभी तो लाल होता है, कभी आसमानी, और भी न जाने क्या क्या होता है । फिर कभी देखता हूँ, उसमें कोई रंग नहीं ।’

“जो आदमी सदा ही ईश्वर-चिन्तन करता है, वही समझ सकता है कि उनका स्वरूप क्या है । वही मनुष्य जानता है कि ईश्वर अनेक रूपों से दर्शन देते हैं । वे सगुण भी हैं और निर्गुण भी । जो आदमी पेड़ के नीचे रहता है, वही जानता है कि उस बहुरूपिये के अनेक रंग हैं और कभी कोई रंग नहीं रहता । दूसरे आदमी तर्क-वितर्क करके केवल कष्ट ही उठाते हैं ।

“वे साकार हैं और निराकार भी । यह किस प्रकार है, जानते हो ? जैसे सच्चिदानन्द एक समुद्र हों, जिसका कहीं ओर छोर नहीं । भक्ति की हिम-शक्ति से उस समुद्र का पानी जगह जगह जमकर बर्फ बन गया हो, - मानो पानी बर्फ के आकार में बँधा हुआ हो; अर्थात् भक्त के पास वे कभी कभी साकार रूप में दर्शन देते हैंज्ञान-सूर्य के उगने पर वह बर्फ गलकर फिर (निराकार सच्चिदानन्द) पानी हो जाता है !”

डाक्टर - सूर्य के उगने पर बर्फ गलकर पानी हो जाता है; और आप जानते हैं - बाद में सूर्य की उष्णता से पानी निराकार बाष्प बन जाता है ?

श्रीरामकृष्ण - अर्थात् 'ब्रह्म सत्य है और संसार मिथ्या' इस विचार के बाद समाधि के होने पर रूप आदि कुछ नहीं रह जाते । तब फिर ईश्वर के सम्बन्ध में किसी को यह नहीं मालूम होता कि वे व्यक्ति हैं अथवा अन्य कुछ । वे क्या हैं, यह मुख से नहीं कहा जा सकता ।

कहे भी कौन ? जो कहेंगे, वे ही नहीं रह गये ! वे अपने 'मैं' को फिर खोजकर भी नहीं पाते ! उनके लिए ब्रह्म निर्गुण है । तब केवल बोध रूप में ब्रह्म का बोध होता है । मन और बुद्धि के द्वारा कोई उसे पकड़ नहीं सकता ।

“इसीलिए कहते हैं, भक्ति चन्द्र है और ज्ञान सूर्य । मैंने सुना है, बिलकुल उत्तर में और दक्षिण में समुद्र हैं । वहाँ इतनी ठण्डक है कि पानी पर बर्फ की चट्टानें बन जाती हैं । जहाज नहीं चलते । वहाँ जाकर अटक जाते हैं ।”

डाक्टर - भक्ति के मार्ग में आदमी अटक जाते हैं ।

श्रीरामकृष्ण - हाँ, ऐसा होता तो है, परन्तु इससे हानि नहीं होती । उस सच्चिदानन्द-सागर का पानी ही बर्फ के आकार में जमा हुआ है । यदि और भी विचार करना चाहो, यदि 'ब्रह्म सत्य है और संसार मिथ्या' यह विचार करना चाहो तो इसमें भी कोई हानि नहीं है । ज्ञानसूर्य से वह बर्फ गल जायेगा, और वह गलकर भी उसी सच्चिदानन्द-सागर में रहेगा

"ज्ञान- विचार के बाद समाधि के होने पर 'मैं' 'मेरा' यह कुछ नहीं रह जाता । 🔱🙏परन्तु समाधि (योग) का होना बहुत मुश्किल है । 'मैं' किसी तरह जाना नहीं चाहता । और जाना नहीं चाहता, इसीलिए फिर-फिरकर इस संसार में उसे आना पड़ता है ।🔱🙏

"गौ 'हम्बा' (हम-हम) करती है, इसलिए उसे इतना दुःख मिलता है । बैल को दिन भर हल जोतना पड़ता है - गरमी हो या वर्षा । और फिर उसे कसाई काटते हैं । इतने पर भी बचाव नहीं होता, चमार चमड़े से जूते बनाते हैं । अन्त में आँत की ताँत बनती है । धुनिया के हाथ में जब वह ‘तूँ’ ‘तूँ’ करती है, तब कहीं उसका निस्तार होता है ।

“जब जीव कहता है, "नाहं नाहं नाहं, हे ईश्वर, मैं कुछ भी नहीं हूँ, तुम्हीं कर्ता हो; मैं दास हूँ, तुम प्रभु हो', तब उसका निस्तार होता है, तभी उसकी मुक्ति होती है ।”

डाक्टर - परन्तु धुनिये के हाथ में पड़े तब तो ! (सब हँसते हैं)

श्रीरामकृष्ण - जब 'मैं' जाने का है ही नहीं, तो पड़ा रहे दास 'मैं' बना हुआ ! (सब हँसते हैं) 

“समाधि के बाद भी किसी किसी का 'मैं' रह जाता है - 'दास मैं', 'भक्त का मैं’ । शंकराचार्य ने लोकशिक्षा के लिए ‘विद्या का मैं’ रख छोड़ा था । 'दास मैं, विद्या का मैं, भक्त का मैं' यह पक्का 'मैं' है 

"कच्चा ‘मैं’ क्या है, जानते हो ? मैं कर्ता हूँ, मैं इतने बड़े आदमी का लड़का हूँ, विद्वान् हूँ, धनवान हूँ, मुझे ऐसी बात कही जाय ! - ये सब कच्चे 'मैं' के भाव है । अगर कोई घर में चोरी करे और उसे अगर कोई पकड़ ले, तो पहले सब चीजें उससे छुड़ा लेता है, फिर मार-पीटकर उसे सीधा कर देता है, फिर पुलिस को सौंप देता है कहता है, ‘हँ:, नहीं जानता किसके घर में चोरी की ! 

“ईश्वर-प्राप्ति होने पर पाँच वर्ष के बच्चे जैसा स्वभाव हो जाता है । 'बालक का मैं' और 'पक्का मैं'। बालक किसी गुण के वश नहीं है । वह तीनों गुणों से परे है । सत्त्व, रज और तम में से किसी गुण के वश नहीं । देखो, बच्चा तमोगुण के वश में नहीं है । अभी तो उसने लड़ाई की और देखते ही देखते फिर गले से लिपट गया । कितना प्रेम और कितना खेल ! वह रजोगुण के भी वश में नहीं है। अभी उसने घरौंदा बनाया, कितनी मेहनत की, पर कुछ देर में सब पड़ा रह गया ! वह माता के पास दौड़ चला । कभी देखो तो एक सुन्दर धोती पहने हुए घूम रहा है, पर कुछ देर बाद देखो तो वह कपड़ा खुलकर गिर गया है । कभी देखो, वह कपड़े की बात ही बिलकुल भूल गया है या उसे बगल में ही दबाये घूम रहा है । (हास्य)

“अगर बच्चे से कहो, 'यह बड़ी अच्छी धोती है, यह किसकी धोती है ?' तो वह कहेगा, 'यह मेरी धोती है - मेरे बाबूजी ले आये हैं ।' अगर कहो, 'वाह, बच्चू, तू बड़ा अच्छा है, बच्चू, मुझे यह धोती दे दे' तो वह कहेगा - 'नहीं, मेरी धोती है, मेरे बाबूजी की दी हुई है । उँहूँ, मैं न दूँगा ।' फिर उसे एक खिलौने पर या एक बाजे पर फुसला लो - वह पाँच रुपये की धोती तुम्हें देकर चला जायगा ।

पाँच वर्ष का बच्चा सत्वगुण के भी वश में नहीं है, पड़ोस के बच्चों से कितना प्यार है, बिना देखे रहा नहीं जाता, परन्तु माँ- बाप के साथ अगर किसी दूसरी जगह चला गया तो वहाँ नये साथी मिल जाते हैं, उन्हीं पर सब प्यार हो जाता है, पुराने साथियों को एक प्रकार से एकदम भूल जाता है ।बच्चे को फिर जाति आदि का अभिमान भी नहीं होता । माता ने कह दिया है कि वह तेरा दादा है, बस उसे पूरा विश्वास हो गया कि यह मेरा दादा है । चाहे एक ब्राह्मण का लड़का हो और दूसरा कुम्हार का, दोनों एक ही पत्तल पर खा सकते हैं । बच्चे में शुचिता और अशुचिता का भी विचार नहीं है, न लोक-लज्जा ही है ।

“और ‘वृद्ध का मैं’ भी है । (डाक्टर हँसते हैं) वृद्ध के बहुत से पाश हैं, - जाति, अभिमान लज्जा, घृणा, भय, विषय-बुद्धि, पटवारी-बुद्धि, कपटाचरण । अगर किसी से वह नाराज हो जाता है तो सहज ही उसका रंज नहीं मिटता । सम्भव है, जीवन भर के लिए वह कसकता रहे । तिसपर पाण्डित्य का अहंकार और धन का अहंकार भी है । 'वृद्ध का मैं' कच्चा 'मैं' है

(डाक्टर से) “चार-पाँच आदमी ऐसे हैं जिन्हें ज्ञान नहीं होता । जिसे विद्या का अहंकार है, जिसे धन का अहंकार है, पाण्डित्य का अहंकार है, उसे ज्ञान नहीं होता । इस तरह के आदमियों से अगर कहा जाय, 'वहाँ एक बहुत अच्छे महात्मा आये हैं, दर्शन करने चलोगे ?’ - तो कितने ही बहाने करके कहता है, ‘न: मैं न जाऊँगा ।’ और मन ही मन कहता है, 'मैं इतना बड़ा आदमी हूँ, मैं क्यों जाऊँ ?'

  [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏सत्त्वगुण से ईश्वर-लाभ। इन्द्रियसंयम के उपाय।*🔱🙏

"तमोगुण का स्वभाव अहंकार है। अहंकार, अज्ञान , यह सब तमोगुण से होता है।  

"पुराणों में है, रावण में रजोगुण था, कुम्भकर्ण में तमोगुण और विभीषण में सतोगुण । इसीलिए विभीषण श्रीरामचन्द्रजी को पा सके थे । तमोगुण का एक और लक्षण है क्रोध क्रोध में उचित और अनुचित का ज्ञान (विवेक) नहीं रहता । हनुमान ने लंका जला दी, परन्तु यह ज्ञान नहीं था कि इससे सीताजी की कुटी भी जल जायेगी ।

"तमोगुण का एक लक्षण और है, कामपथुरियाघाटा के गिरीन्द्र घोष ने कहा था, 'काम, क्रोध आदि रिपु जब कि नहीं हटने के, तो इनका मोड़ फेर दो ।' ईश्वर की कामना करो । सच्चिदानन्द के साथ रमण करो । क्रोध अगर न जाता हो तो भक्ति का तम धारण करो  'क्या ! मैंने 'उनका' नाम लिया  और मेरा उद्धार न होगा ? मुझे फिर पाप कैसा ? बन्धन कैसा ?' ईश्वर की प्राप्ति के लिए लोभ करो । ईश्वर के रूप पर मुग्ध हो जाओ । अगर अहंकार करना है तो इस तरह का अहंकार करो, ‘मैं ईश्वर का दास हूँ, मैं ईश्वर का पुत्र हूँ ।’ इस तरह छहों रिपुओं का मोड़ फेर दिया जाता है । 

'डाक्टर - इन्द्रियों का संयम करना बड़ा कठिन है । घोड़े की आँख के दोनों बगल आड़ लगायी जाती है, किसी किसी घोड़े की आँखें बिलकुल बन्द कर दी जाती हैं

श्रीरामकृष्ण – अगर एक बार भी उनकी कृपा हो जाय, एक बार भी अगर ईश्वर के दर्शन मिल जायँ, आत्मा का साक्षात्कार हो जाय, तो फिर कोई भय नहीं रह जाता । छहों रिपु फिर कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते ।

"नारद और प्रह्लाद जैसे नित्यसिद्ध महापुरुषों को उस तरह दोनों ओर से आँखों में आड़ लगाने की आवश्यकता नहीं थी । जो लड़का स्वयं ही बाप का हाथ पकड़कर खेत की मेड़ पर से चल रहा है, वह, सम्भव है, असावधानी के कारण पिता का हाथ छोड़कर गड्ढे में गिर पड़े, परन्तु पिता जिस लड़के का हाथ पकड़ता है, वह कभी गढ्ढे में नहीं गिरता ।"

डाक्टर - परन्तु बच्चे का हाथ बाप पकड़े यह अच्छा नहीं मालूम होता ।

श्रीरामकृष्ण - बात ऐसी नहीं । महापुरुषों का स्वभाव बालकों जैसा होता है । ईश्वर के पास वे सदा ही बालक हैं, उनमें अहंकार नहीं है । उनकी सब शक्ति ईश्वर की शक्ति है, पिता की शक्ति है, अपनी स्वयं की शक्ति कुछ भी नहीं । यही उनका दृढ़ विश्वास है

डाक्टर - घोड़े के दोनों ओर आँखों में आड़ लगाये बिना क्या घोड़ा कभी बढ़ना चाहता है ? रिपुओं को वशीभूत किये बिना क्या ईश्वर कभी मिल सकते हैं ?

श्रीरामकृष्ण - तुम जो कुछ कहते हो, उसे विचार-मार्ग कहते हैं – ज्ञानयोग । उस रास्ते से भी ईश्वर मिलते हैं । ज्ञानी कहते हैं, पहले चित्त की शुद्धि आवश्यक है । साधना चाहिए तब ज्ञान होता है ।

“भक्तिमार्ग से भी वे मिलते हैं । यदि ईश्वर के पादपद्मों में एक बार भक्ति हो, यदि उनका नाम लेने में जी लगे तो फिर प्रयत्न करके इन्द्रियों का संयम नहीं करना पड़ता । रिपु (कर्मेन्द्रियाँ) आप ही आप वशीभूत हो जाते हैं ।

“यदि किसी को पुत्र का शोक हो, तो क्या उस दिन वह किसी से लड़ाई कर सकता है ? - या न्योते में खाने के लिए जा सकता है ? वह क्या लोगों के सामने अहंकार कर सकता है या सुख-सम्भोग कर सकता है ?     

“कीड़े अगर एक बार उजाला देख लें तो क्या फिर वे कभी अँधेरे में रह सकते हैं ?”

डाक्टर (सहास्य) - चाहे जल जायँ, फिर भी उजाला नहीं छोड़ेंगे !

श्रीरामकृष्ण - नहीं जी, भक्त कीड़े की तरह जलकर नहीं मरते । भक्त जिस उजाले को देखकर उसके पीछे दौड़ते हैं, वह मणि का उजाला है । मणि का उजाला बहुत उज्ज्वल तो है, परन्तु स्निग्ध और शीतल है । इस उजाले से देह नहीं जलती । इससे शान्ति और आनन्द होता है

🙏“नेति-नेति विचार-मार्ग से - ज्ञानयोग के मार्ग से भी वे मिलते हैं; परन्तु यह पथ बड़ा कठिन है मैं न शरीर हूँ, न मन, न बुद्धि, मन में न रोग है, न शोक, न अशान्ति; मैं सच्चिदानन्दस्वरूप हूँ, मैं सुख और दुःख से परे हूँ, मैं इन्द्रियों के वश में नहीं हूँ - इस तरह की बातें मुख से कहना बहुत सरल है, परन्तु कार्य में इन्हें परिणत करना या इनकी धारणा करना बहुत कठिन है ।🙏काँटे से हाथ छिदा जा रहा है, धर धर खून गिर रहा है, परन्तु फिर भी यह कहे जा रहा है कि 'कहाँ हाथ में काँटा चुभा ? मैं तो बहुत अच्छी तरह हूँ ।’ ये सब बातें शोभा नहीं देती । पहले उस काँटे (कच्चा मैं) को ज्ञानाग्नि में जलाना होगा, नहीं ?

“बहुतेरे यह सोचते हैं कि बिना पुस्तकें पढ़े ज्ञान नहीं होता, विद्या नहीं होती; परन्तु पढ़ने की अपेक्षा सुनना अधिक अच्छा है और सुनने की अपेक्षा देखना अच्छा है वाराणसी के सम्बन्ध में पढ़ने या सुनने तथा दर्शन करने में बड़ा अन्तर है ।

“जो लोग खुद शतरंज खेलते हैं, वे खुद चाल उतनी नहीं समझते, परन्तु जो लोग खेलते नहीं और तटस्थ रहकर चाल बतला देते हैं, उनकी चाल खेलनेवालों की चाल से बहुत अंशों में ठीक होती है। संसारी लोग सोचते हैं, हम बड़े बुद्धिमान हैं, परन्तु वे विषयासक्त हैं, वे खुद खेल रहे हैं । अपनी चाल स्वयं नहीं समझ सकते; परन्तु संसार-त्यागी साधु-महात्मा विषयों से अनासक्त हैं, वे संसारियों से बुद्धिमान हैं । खुद नहीं खेलते, इसीलिए चाल अच्छी बतला सकते हैं ।”

डाक्टर (भक्तों से) - पुस्तक पढ़ने से इनको (श्रीरामकृष्ण को)  इतना ज्ञान न होता । फैरडे (एक वैज्ञानिक) खुद प्रकृति का दर्शन किया करता था, इसीलिए वह इस तरह के वैज्ञानिक सत्यों का आविष्कार कर सका । किताबी ज्ञान के होने पर इतना न हो सकता था । गणित के नियम मस्तिष्क को उलझन में डाल देते हैं, मौलिक आविष्कार के रास्ते में वे विघ्न ला खड़ा कर देते हैं

श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - जब पंचवटी में जमीन पर लोटता हुआ मैं माँ को - पुकारा करता था तब मैंने माँ से कहा था, 'माँ, मुझे वह सब दिखा दो जो कर्मियों ने कर्म के द्वारा पाया है, योगियों ने योग के द्वारा और ज्ञानियों के ज्ञान के द्वारा ।' और भी बहुतसी बातें हैं, उनके सम्बन्ध में अब क्या कहूँ ?

"अहा ! कैसी अवस्था बीत गयी है ! नींद बिलकुल चली गयी थी !" यह कहकर श्रीरामकृष्णदेव गाने लगे - 'नींद टूट गयी है, अब मैं कैसे सो सकता हूँ ? योग और याग में जाग रहा हूँ...।' 

"मैंने तो पुस्तक एक भी नहीं पढ़ी ! परन्तु देखो, माता का नाम लेता हूँ, इसलिए सब लोग मुझे मानते हैं । शम्भु मल्लिक ने मुझसे कहा था, 'न ढाल है, न तलवार, और शान्तिराम सिंह बने है !' " (सब हँसते हैं)

श्रीयुत गिरीश घोष के बुद्धदेव-चरित  के अभिनय की चर्चा होने लगी । उन्होंने डाक्टर को निमन्त्रण देकर वह अभिनय दिखलाया था । डाक्टर को अभिनय देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई थी ।

डाक्टर (गिरीश से) - तुम बड़े बुरे आदमी हो, अब मुझे रोज थिएटर देखने के लिए जाना होगा !

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - क्या कहता है ? मैं नहीं समझा ।

मास्टर - थिएटर उन्हें बहुत अच्छा लगा है ।

(३)

    [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

अवतार तथा जीव

श्रीरामकृष्ण - (ईशान के प्रति) - तुम कुछ कहो; यह (डॉक्टर) अवतार नहीं मान रहा है । 

ईशान - जी, अब क्या विचार करूँ ? तर्क-वितर्क अब नहीं सुहाता ।

श्रीरामकृष्ण (विरक्ति से) – क्यों ? यथार्थ बात भी नहीं कहोगे ?

ईशान (डाक्टर से) - अहंकार के कारण हम लोगों में विश्वास कम है । काकभुषुण्डि ने श्रीरामचन्द्रजी को पहले अवतार नहीं माना था । अन्त में जब चन्द्रलोक, देवलोक और कैलाश में उसने भ्रमण करके देखा कि राम के हाथ से उसका किसी प्रकार निस्तार ही नहीं हो रहा है, तब खुद वह राम की शरण में आया । राम उसे पकड़कर निगल गये । भुषुण्डि ने तब देखा कि वह अपने पेड़ ही पर बैठा हुआ है ! उसका अहंकार जब चूर्ण हो गया तब उसने समझा कि राम देखने में तो मनुष्य की तरह हैं, परन्तु ब्रह्माण्ड उनके उदर में समाया हुआ है उन्हीं के पेट में आकाश, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, समुद्र, पर्वत जीव-जन्तु, पेड़-पौधे आदि हैं । 

श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - इतना समझना ही मुश्किल है कि वे ही स्वराट् हैं और वे ही विराट् हैं जिनकी नित्यता है, उन्हीं की लीला भी है । ‘वे आदमी नहीं हो सकते’ यह बात क्या हम अपनी क्षुद्र बुद्धि द्वारा कह सकते हैं ? हमारी क्षुद्र बुद्धि में क्या इन सब की धारणा हो सकती है ? एक सेर भर के लोटे में क्या चार सेर दूध समा सकता है ?

 “इसीलिए जिन साधु और महात्माओं ने ईश्वर को प्राप्त कर लिया है उनकी बात पर विश्वास करना चाहिए । साधु-महात्मा ईश्वर की ही चिन्ता लेकर रहते हैं, जैसे वकील मुकदमे की चिन्ता लेकर । क्या काकभुषुण्डि की बात पर तुम्हें विश्वास होता है ?

डाक्टर - जितना अच्छा है, उतने पर मैंने विश्वास कर लिया । पकड़ में आ जाने से ही हुआ, फिर कोई शिकायत नहीं रहती; परन्तु राम को कैसे हम अवतार मानें ? पहले बालि का वध देखो । छिपकर चोर की तरह तीर चलाकर उसे मारा । यह तो मनुष्य का काम है, ईश्वर का कैसे कहा जाय ?

गिरीश घोष - महाशय, यह काम ईश्वर ही कर सकते हैं ।

डाक्टर - फिर देखो, सीता का परित्याग।

गिरीश घोष - महाशय, यह काम भी ईश्वर ही कर सकते है, आदमी नहीं ।

ईशान (डाक्टर से) - आप अवतार क्यों नहीं मानते ? अभी तो आपने कहा, जिन्होंने नाना रूपों की सृष्टि की है वे साकार हैं, जिन्होंने मन की सृष्टि की है वे निराकार हैं । अभी अभी तो आपने कहा, ईश्वर के लिए सब कुछ सम्भव है ।

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - ईश्वर अवतार ले सकते हैं, यह बात इनके Science (विज्ञान) में नहीं जो है, फिर भला कैसे विश्वास हो ? (सब हँसते हैं)

MASTER (laughing): "It is not mentioned in his 'science' that God can take human form; so how can he believe it? (All laugh.)

শ্রীরামকৃষ্ণ (হাসিতে হাসিতে) — ঈশ্বর অবতার হতে পারেন, এ-কথা যে ওঁর সায়েন্স-এ (ইংরাজী বিজ্ঞানশাস্ত্রে) নাই! তবে কেমন করে বিশ্বাস হয়? (সকলের হাস্য)

"एक कहानी सुनो । किसी ने आकर कहा, ‘अरे, उस टोले में मैं देखकर आ रहा हूँ - अमुक का घर धँसकर बैठ गया है ।’ जिससे उसने यह बात कही, वह अंग्रेजी पढ़ा हुआ था । उसने कहा, 'ठहरो, जरा अखबार देख लूँ ।' अखबार उलटकर उसने देखा, वहाँ कहीं कुछ न था । तब उसने कहा, 'चलो जी, तुम्हारी बात का हमें विश्वास नहीं । कहाँ, घर के धँसकर बैठ जाने की बात अखबार में तो नहीं लिखी है ? यह सब झूठ खबर है !' (सब हँसे)

गिरीश (डाक्टर से) - आपको कृष्ण को तो अवतार मानना ही होगा । आपको मैं उन्हें आदमी नहीं मानने दूँगा । कहिये, Demon or God (शैतान है या ईश्वर) ?

श्रीरामकृष्ण - सरल  हुए बिना जल्दी किसी को ईश्वर पर विश्वास नहीं होता, विषय -बुद्धि से ईश्वर बहुत दूर हैं । विषय-बुद्धि के रहते अनेक प्रकार के संशय आकर उपस्थित हो जाते हैं । और अनेक तरह के अहंकार आ जाते हैं, पाण्डित्य का अहंकार, धन का अहंकार, आदि आदि । परन्तु ये (डाक्टर) सरल हैं

गिरीश (डाक्टर से) - महाशय, आप क्या कहते हैं ? टेढ़ों को क्या कभी ज्ञान हो सकता है ?

डाक्टर - राम कहो, ऐसा भी कभी हो सकता है ?

श्रीरामकृष्ण - केशव सेन कितना सरल था । एक दिन वहाँ (दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर) गया था । अतिथिशाला देखकर दिन के चार बजे उसने पूछा, 'क्यों जी, अतिथि और कंगालों को कब भोजन दिया जायगा ?' विश्वास जितना बढ़ेगा, ज्ञान भी उतना ही बढ़ता जायगा । जो गौ चुन-चुनकर घास चरती है उसकी दूध की धार खूब नहीं फूटती, और जो गौ लता-पता, घास-फूस, चोकर-भूसा आदि सब कुछ पेट में भर लेती है, उसकी धार नहीं टूटती – घर्र-घर्र खूब दूध देती है ! (सब हँसते है)

"बालक की तरह जब तक विश्वास नहीं होता, तब तक ईश्वर नहीं मिलते । माता ने कह दिया है - वह तेरा दादा है, बस बालक को सोलहों आने विश्वास हो गया कि वह मेरा दादा है । माता ने कह दिया – उस कमरे में 'हौआ' रहता है, बालक सोलहों आने विश्वास करता है कि सचमुच उस कमरे में 'हौआ' रहता है । इस तरह बालक-जैसा विश्वास देखकर ही ईश्वर को दया उत्पन्न होती है। संसार-बुद्धि से वे नहीं मिलते ।"

डाक्टर (भक्तों से) - जो कुछ सामने आया वही खाकर गौ का दूध बनना अच्छी बात नहीं । मेरे एक गौ थी, उसके आगे इसी तरह सब कुछ डाल दिया जाता था । अन्त में मैं सख्त बीमार हो गया । तब सोचा कि इसका कारण क्या है । बड़ी ढूँढ़-तलाश के बाद पता चला कि गौ कितनी ही ऐसी-वैसी चीजें खा गयी थी । तब बड़ी आफत हुई, मुझे लखनऊ जाना पड़ा । अन्त तक बारह हजार रुपयों पर पानी फिर गया ! (सब लोग बड़े जोर से हँसे)

डॉक्टर सरकार - "किससे क्या हो जाता है, कुछ कहा नहीं जाता । पाकापाड़ा के बाबुओं के यहाँ सात साल की एक लड़की बीमार पड़ी । उसे कुकर खाँसी (Whooping Cough) आती थी । में देखने के लिए गया । बीमारी के कारण का पता मुझे किसी तरह नहीं मिल रहा था । अन्त में पता चला, वह गधी भीग गयी थी जिसका दूध वह लड़की पीती थी ।" (सब हँसते हैं)

श्रीरामकृष्ण - कहते क्या हो ? इमली के पेड़ के नीचे से मेरी गाड़ी निकल गयी थी, इससे मेरा हाजमा बिगड़ गया था ! (सब हँसे)

डाक्टर (हँसते हँसते) - जहाज के कप्तान को बड़े जोर से सिर दर्द हो रहा था । तब डाक्टरों ने सलाह करके जहाज को दवा (ब्लिस्टर) लगा दी । (सब हँसते हैं)

    [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

*साधु संग तथा त्याग*

श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - साधु संग की सदैव आवश्यकता है । रोग लगा ही हुआ है । साधुओं के उपदेश के अनुसार काम करना चाहिए । केवल सुनने से क्या होगा ? दवा का सेवन करना होगा और भोजन का भी परहेज रखना होगा । उस समय पथ्य आवश्यक है ।

डाक्टर - पथ्य से ही बीमारी अच्छी होती है ।

श्रीरामकृष्ण - वैद्य तीन तरह के होते हैं, उत्तम, मध्यम और अधम । जो वैद्य नाड़ी देखकर, 'दवा खाते रहना' कहकर चला जाता है, वह अधम वैद्य है, - रोगी ने दवा का सेवन किया या नहीं, इसकी खबर वह नहीं रखता । और जो वैद्य रोगी को दवा खाने के लिए बहुत तरह से समझाता है, मीठी बातों द्वारा कहता है – ‘अजी, दवा नहीं खाओगे तो भला अच्छे कैसे होगे ? भलेमानस, मैं खुद दवा पीसकर देता हूँ, लो खाओ’ वह मध्यम वैद्य है । जो वैद्य रोगी को किसी तरह दवा न खाते देखकर छाती पर घुटना रखकर जबरदस्ती दवा खिलाता है, वह उत्तम वैद्य है ।

डाक्टर - दवा ऐसी भी होती है जिससे छाती पर घुटना रखने की जरूरत नहीं होती, जैसे होमियोपैथिक

श्रीरामकृष्ण - उत्तम वैद्य अगर छाती पर घुटना रख भी दे तो कोई भय की बात नहीं ।

 "वैद्य की तरह आचार्य भी तीन प्रकार के हैं । जो धर्मोपदेश देकर शिष्यों की फिर कोई खबर नहीं लेते, वे अधम आचार्य हैं । जो शिष्य के कल्याण के लिए बार बार उसे समझाते हैं, जिससे वह उपदेशों की धारणा कर सके, बहुत कुछ निवेदन और प्रार्थना करते हैं, प्यार दिखलाते हैं, वे मध्यम आचार्य हैं । और शिष्यों को किसी तरह अपनी बात न मानते हुए देखकर कोई कोई आचार्य जबरदस्ती उनसे काम लेते हैं, वे उत्तम श्रेणी के आचार्य हैं ।

(डाक्टर से) "संन्यासी के लिए आवश्यक है कामिनी और कांचन का त्याग करना । संन्यासी को स्त्रियों का चित्र भी न देखना चाहिए । स्त्री कैसी है, जानते हो ? - जैसा इमली का अचार उसकी याद ही से लार टपक पड़ती है । उसे सामने नहीं लाना पड़ता ।

"परन्तु यह आप लोगों के लिए नहीं - यह संन्यासियों के लिए है । आप लोग जहाँ तक हो सके, स्त्री के साथ अनासक्त होकर रहिये - कभी कभी निर्जन में ईश्वर का ध्यान किया कीजिये । यहाँ वे (स्त्रियाँ) न रहें । ईश्वर पर विश्वास और भक्ति होने पर, बहुत कुछ अनासक्त होकर रह सकोगे । दो-एक बच्चे हो जाने पर स्त्री और पुरुष में भाई-बहन जैसा व्यवहार रहना चाहिए, और ईश्वर से प्रार्थना करते रहना चाहिए जिससे इन्द्रिय-सुख की ओर मन न जाय- लड़के-बच्चे और न हों ।"

गिरीश (सहास्य, डाक्टर से) - आप तीन-चार घण्टे से यहाँ हैं रोगियों की चिकित्सा के लिए न जाइयेगा ?

डाक्टर - कहाँ रही डाक्टरी और कहाँ रहे रोगी ! ऐसे परमहंस से पाला पड़ा है कि मेरा तो सर्वस्व ही स्वाहा हुआ ! (सब हँसे)

श्रीरामकृष्ण - देखो, कर्मनाशा नाम की एक नदी है । उस नदी में डुबकी लगाना एक महाविपत्ति है । इससे कर्मों का नाश हो जाता है । फिर वह मनुष्य कोई काम नहीं कर सकता । (डाक्टर आदि सब हँसते हैं)

डाक्टर (मास्टर, गिरीश तथा दूसरे भक्तों से) - मित्रो, तुम मुझे अपने में से ही एक समझो - यह बात मैं डाक्टर की हैसियत से नहीं कह रहा है; परन्तु यदि तुम मुझे अपना समझो तो मैं तुम्हारा ही हूँ ।

श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - एक है अहेतुकी भक्ति । यह अगर हो तो बहुत अच्छा है । यह अहेतुकी भक्ति प्रह्लाद में थी । उस तरह का भक्त कहता है, 'हे ईश्वर, मैं धन-मान, देह-सुख, यह कुछ नहीं चाहता । ऐसा करो कि तुम्हारे पादपद्यों में मेरी शुद्धा भक्ति हो ।'

डाक्टर – हाँ, कालीतले में लोगों को प्रणाम करते हुए मैंने देखा है; उनके भीतर कामना ही कामना रहती है - कहीं मेरी नौकरी लगा दो, कहीं मेरा रोग अच्छा कर दो, यही सब ।

(श्रीरामकृष्ण से) "आपको जो बीमारी है, इससे लोगों से बातचीत करना बन्द कर देना होगा । हाँ, जब मैं जाऊँ, तब मेरे साथ बातचीत अवश्य कीजिये !" (सब हँसते हैं)

श्रीरामकृष्ण - यह बीमारी अच्छी कर दो; उनका नाम-गुण-कीर्तन नहीं कर पाता हूँ ।

डाक्टर - ध्यान करने ही से उद्देश्य पूरा होता है ।

श्रीरामकृष्ण - यह कैसी बात ? मैं एक ही ढर्रे पर क्यों चलूँ ? मैं कभी पूजा करता हूँ, कभी जप, कभी ध्यान, कभी उनका नाम लिया करता हूँ और कभी उनके गुण गा-गाकर नाचता हूँ ।

डाक्टर - मैं भी एक ढर्रे का आदमी नहीं हूँ ।

श्रीरामकृष्ण - तुम्हारा लड़का, अमृत, अवतार नहीं मानता । परन्तु इसमें कोई दोष नहीं । ईश्वर को निराकार मानकर अगर उनमें विश्वास रहे तो भी वे मिलते हैं । और साकार मानकर अगर उनमें विश्वास हो तो भी वे मिलते हैं । उनमें विश्वास का रहना और उनकी शरण में जाना ये दोनों बातें आवश्यक हैं । आदमी तो अज्ञानी है, उससे भूल हो जाती है ।

एक सेर भर के लोटे में क्या कभी चार सेर दूध समा सकता है ? परन्तु चाहे जिस मार्ग में रहो, व्याकुल होकर उन्हें पुकारना चाहिए । वे अन्तर्यामी हैं - अन्तर की पुकार वे सुनेंगे ही । व्याकुल होकर चाहे साकारवादी के मार्ग से जाओ, चाहे निराकारवादी के मार्ग से, उन्हें ही पाओगे

"मिश्री की रोटी चाहे सीधी तरह से खाओ या टेढ़ी करके, मीठी जरूर लगेगी । तुम्हारा लड़का अमृत बड़ा अच्छा है ।"

डाक्टर - वह आपका ही चेला है ।

श्रीरामकृष्ण (हँसकर) - कोई साला मेरा चेला-वेला नहीं है । मैं खुद सब का चेला हूँ । सब ईश्वर के बच्चे हैं, ईश्वर के दास हैं - मैं भी ईश्वर का बच्चा हूँ, ईश्वर का दास हूँ । "चन्दा मामा सब का मामा है ।" (सब हँसते हैं)

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रविवार, 16 जुलाई 2023

$🔱🙏परिच्छेद~122- * श्यामपुकुर में श्रीरामकृष्ण* [ ( 18 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122] 🔱 🙏वे (ईश्वर) ही महावतनारायण हैं । 🙏ईश्वर की वाणी [महावाक्य] आदमी के भीतर से होकर बिना आये मनुष्य उसे समझ नहीं सकते । इसीलिए अवतार (या नेता) की आवश्यकता है ।🙏

*परिच्छेद ~ १२२*

(१)

सुरेन्द्र की भक्ति। गीता

आज विजयादशमी है । 18 अक्टूबर,1885। श्रीरामकृष्ण श्यामपुकुर वाले मकान में हैं । शरीर अस्वस्थ रहता है, कलकत्ते में चिकित्सा कराने के लिए आये हैं । भक्तगण निरन्तर रहते और उनकी सेवा किया करते हैं । भक्तों में से अभी तक किसी ने संसार का त्याग नहीं किया । वे लोग अपने घर से आया-जाया करते हैं ।

जाड़े का मौसम है, सबेरे आठ बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण अस्वस्थ हैं, बिस्तर पर बैठे हुए हैं, जैसे पाँच वर्ष का बालक जो माता के सिवा और कुछ नहीं जानता । सुरेन्द्र आये और आसन ग्रहण किया । नवगोपाल, मास्टर तथा और भी कई लोग उपस्थित हैं । सुरेन्द्र के यहाँ दुर्गापूजा हुई थी । श्रीरामकृष्ण नहीं जा सके; भक्तों को प्रतिमा के दर्शन करने के लिए भेजा था । आज विजयादशमी है, इसीलिए सुरेन्द्र का मन कुछ उदास है

सुरेन्द्र - मैं घर से भाग आया ।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - प्रतिमा पानी में डाल दी गयी तो क्या, माँ बस हृदय में विराजती रहें ।

सुरेन्द्र ‘माँ माँ’ करके जगदीश्वरी के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहने लगे । श्रीरामकृष्ण सुरेन्द्र को देखते हुए आँसू बहाने लगे । मास्टर की ओर देखकर गद्गद स्वर से कहने लगे, “अहा ! कैसी भक्ति है ! ईश्वर के लिए कैसा अगाध प्रेम !”

श्रीरामकृष्ण - कल साढ़े सात बजे के लगभग मैने देखा, तुम्हारे दालान में श्रीदेवीप्रतिमा है, चारों ओर ज्योति हो ज्योति है । सब एकाकार हो गया है - यह और वह । दोनों जगह के बीच मानो ज्योति की एक तरंग बह रही है - इस घर से तुम्हारे उस घर तक

सुरेन्द्र - उस समय मैं देवोजीवाले दालान में खड़ा हुआ “माँ माँ” कहकर उन्हें पुकार रहा था । मेरे भाई मुझे छोड़कर ऊपर चले गये थे । मेरे मन में ऐसा जान पड़ा कि माँ कह रही हैं, ‘मैं फिर आऊँगी ।’

दिन के ग्यारह बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण को पथ्य दिया गया । मणि मुँह धुलाने के लिए उनके हाथों पर पानी डाल रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (मणि से) - चने की दाल खाकर राखाल कुछ अस्वस्थ है । आहार सात्विक करना अच्छा है । तुमने गीता में नहीं देखा ? क्या तुम गीता नहीं पढ़ते ?

मणि - जी हाँ, युक्ताहार (भोजन में संयम) की बातें हैं । सात्विक आहार, राजसिक आहार और तामसिक आहार; और सात्त्विक दया, राजसिक दया और तामसिक दया भी हैं । सात्विक अहं आदि सब है ।

श्रीरामकृष्ण - तुम्हारे पास गीता है ?

मणि - जी हाँ, है ।

श्रीरामकृष्ण - उसमें सब शास्त्रों का सार है ।

मणि - जी हाँ, ईश्वर को अनेक प्रकार से देखने की बातें लिखी हैं; आप जैसा कहते हैं, अनेक मार्गों से उनके पास जाना; ज्ञान, भक्ति, कर्म, ध्यान आदि अनेक मार्गों से ।

श्रीरामकृष्ण - कर्मयोग का अर्थ जानते हो ? सब कर्मों का फल ईश्वर को समर्पण कर देना ।

मणि - जी हाँ, मैंने देखा है । गीता में लिखा है, कर्म भी तीन तरह से किये जा सकते हैं ।

श्रीरामकृष्ण - किस किस तरह से ?

मणि – प्रथम, ज्ञान के लिए । दूसरा, लोक-शिक्षा के लिए । तीसरा, स्वभाववश ।

(२)

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏श्रीरामकृष्ण  तथा अवतारवाद🔱🙏

श्रीरामकृष्ण मास्टर से डाक्टर सरकार की बातें कह रहे हैं । पहले दिन मास्टर श्रीरामकृष्ण का हाल लेकर डाक्टर सरकार के पास गये थे ।

श्रीरामकृष्ण - तुम्हारे साथ क्या-क्या बातें हुई ?

मास्टर - डाक्टर के यहाँ बहुत सी पुस्तकें हैं । मैं वहाँ बैठा हुआ एक पुस्तक पढ़ रहा था । उसी से कुछ अंश पढ़कर डाक्टर को सुनाने लगा । सर हम्फ्री डेवी की पुस्तक है । उसमें अवतार की आवश्यकता पर लिखा गया है ।

श्रीरामकृष्ण – हाँ ? तुमने क्या कहा था ?

मास्टर - उसमें एक बात यह है कि ईश्वर की वाणी [महावाक्य] आदमी के भीतर से होकर बिना आये मनुष्य उसे समझ नहीं सकते । इसीलिए अवतार (या नेता) की आवश्यकता है ।

श्रीरामकृष्ण – वाह! ये सब तो बड़ी अच्छी बातें हैं ।

मास्टर - लेखक ने उपमा दी है कि सूर्य की ओर कोई देख नहीं सकता, परन्तु सूर्य की किरणें जिस जगह पर पड़ती है (Reflected Rays) वहाँ लोग देख सकते हैं

श्रीरामकृष्ण - यह तो बड़ी अच्छी बात है, कुछ और है ?

मास्टर - एक दूसरी जगह लिखा था, यथार्थ ज्ञान विश्वास है ।

श्रीरामकृष्ण - ये तो बहुत सुन्दर बातें है । विश्वास हुआ तब तो सब कुछ हो गया ।

मास्टर - लेखक ने स्वप्न में रोमन देव-देवियों को देखा था ।

श्रीरामकृष्ण - क्या इस तरह की पुस्तकें निकल रही हैं ? ऐसी जगह वे ही (ईश्वर) काम कर रहे हैं। और भी कोई बात हुई ?

मास्टर - वे लोग कहते हैं, हम संसार का उपकार करेंगे । तब मैंने आपकी बात कही ।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - कौनसी बात ?

मास्टर - शम्भु मल्लिक-वाली बात । उसने आपसे कहा था, ‘मेरी इच्छा होती है कि रुपये लगाकर कुछ अस्पताल और दवाखाने, स्कूल आदि बनवा दूँ । इससे बहुतों का उपकार होगा ।’ आपने उससे कहा था, ‘अगर ईश्वर सामने आये तो क्या तुम कहोगे, मेरे लिए कुछ अस्पताल, दवाखाने और स्कूल बनवा दो ?’ एक बात मैंने और कही थी । 

श्रीरामकृष्ण - जो कर्म करने के लिए आते हैं उनका दर्जा अलग है । हाँ, कौनसी बात ?

मास्टर – मैंने कहा, ‘यदि आपका उद्देश्य श्रीकाली की मूर्ति का दर्शन करना है तो सड़क के किनारे खड़े होकर गरीबों को भीख बाँटने में ही अपना सब समय लगा देने से क्या लाभ होगा ? पहले आप किसी प्रकार मूर्ति के दर्शन कर लें । फिर जी भर के भीख दें !’

श्रीरामकृष्ण - और भी कोई बात हुई ?

मास्टर - आपके पास जो लोग आते हैं, उनमें बहुतों ने काम को जीत लिया है, यह बात हुई । डाक्टर ने कहा, ‘मेरा भी कामभाव दूर हो गया है, इतना समझ लेना ।’ मैंने कहा, ‘आप तो बड़े आदमी हैं । आपने काम को जीत लिया तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । क्षुद्र प्राणियों में भी, उनके पास रहकर, इन्द्रियों को जीतने की शक्ति आ रही है, यही आश्चर्य है ।’ फिर मैंने वह बात कही जो आपने गिरीश घोष से कही थी ।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - क्या कहा था ?

मास्टर- आपने गिरीश घोष से कहा था, ‘डाक्टर तुमसे ऊँचे नहीं चढ़ सका ।’ वही अवतार वाली बात । 

श्रीरामकृष्ण - अवतार की बात उससे (डाक्टर से) कहना । अवतार वे हैं जो तारते हैं इस तरह दस अवतार हैं, चौबीस अवतार है और असंख्य अवतार भी हैं

मास्टर - गिरीश घोष की वे (डा. सरकार) खूब खबर रखते हैं । यही पूछते रहे कि गिरीश घोष ने क्या बिलकुल शराब पीना छोड़ दिया ? उन पर खूब नजर है ।

श्रीरामकृष्ण - क्या गिरीश घोष से यह बात तुमने कही थी ?

मास्टर - जी हाँ, कही थी, और बिलकुल शराब छोड़नेवाली बात भी ।

श्रीरामकृष्ण - उसने क्या कहा ?

मास्टर - उन्होंने कहा, ‘तुम लोग जब कह रहे हो, तो इस दशा में इसे श्रीरामकृष्ण की बात समझकर मान लेता हूँ - परन्तु मैं स्वयं अब जोर देकर कोई बात न कहूँगा ।’

श्रीरामकृष्ण - (आनन्दपूर्वक) - कालीपद ने कहा है, उसने एकदम शराब पीना छोड़ दिया है ।

(३)

    [(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

* नित्य-लीला-योग*

दिन का पिछला पहर है, डाक्टर आये हुये हैं । अमृत (डाक्टर के लड़के) और हेम भी डाक्टर के साथ आये हैं । नरेन्द्र आदि भक्त भी उपस्थित हैं । श्रीरामकृष्ण एकान्त में अमृत के साथ बातचीत कर रहे हैं । पूछ रहे हैं, ‘क्या तुम्हें ध्यान जमता है?’ और कह रहे हैं, ‘क्या जानते हो, ध्यान की अवस्था कैसी होती है ? मन तैलधारा की तरह हो जाता है । ईश्वर की ही चिन्ता रह जाती है । उसमें कोई दूसरी चिन्ता नहीं आती ।’ अब श्रीरामकृष्ण दूसरों से बातचीत कर रहे हैं ।      

श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - तुम्हारा लड़का अवतार नहीं मानता । यह अच्छी बात है । नहीं मानता तो न सही ।

“तुम्हारा लड़का बड़ा अच्छा है । और होगा भी क्यों नहीं ? बम्बई-आम के पेड़ में कभी खट्टे आम भी लगते हैं ? ईश्वर पर उसका कैसा विश्वास है ! ईश्वर पर जिसका मन है, आदमी तो बस वही है। मनुष्य और मन-होश । जिसमें होश है - चैतन्य है, जो निश्चयपूर्वक जानता है कि ईश्वर सत्य हैं और सब अनित्य, वही वास्तव में मनुष्य है । अवतार नहीं मानता तो इसमें क्या दोष ?

‘ईश्वर हैं, यह सम्पूर्ण जीव-जगत् उनका ऐश्वर्य है, ‘इसे मानने से ही हो गया । - जैसे कोई बड़ा आदमी और उसका बगीचा ।

“बात यह है कि दस अवतार हैं, चौबीस अवतार हैं और फिर असंख्य अवतार भी हैं । जहाँ कहीं उनकी शक्ति का विशेष प्रकाश है, वहीं अवतार हैं । मेरा यही मत है ।

“एक बात और है, जो कुछ देख रहे हो यह सब वे ही हुए हैं । - जैसे बेल के बीज, खोपड़ा, गूदा, तीनों को मिलाकर एक बेल है । जिनकी नित्यता है, उन्हीं की लीला भी है नित्य को छोड़कर केवल लीला समझ में नहीं आती। लीला के रहने के कारण ही, लीला को छोड़-छोड़कर लोग नित्य में जाया करते हैं । 

"जब तक 'अहं बुद्धि' रहती है तब तक लीला के परे मनुष्य नहीं जा सकता । ‘नेति नेति’ करके ध्यान-योग द्वारा नित्य में लोग पहुँच सकते हैं, परन्तु कुछ भी छोड़ा नहीं जा सकता, क्योंकि यह सब वे ही हुए हैं - जैसा मैंने कहा – बेल ।”

डाक्टर - बहुत ठीक है ।

श्रीरामकृष्ण - कचदेव  निर्विकल्प समाधि में थे । जब समाधि छूटी तब एक ने पूछा, ‘आप इस समय क्या देखते हैं ?’ कचदेव ने कहा, ‘मैं देख रहा हूँ, संसार मानो उनसे मिला हुआ है । वे ही पूर्ण हैं । जो कुछ देख रहा हूँ, सब वे ही हुए हैं । इसमें से क्या छोडूँ और क्या पकडूँ, कुछ समझ में नहीं आता ।’

[कच # पौराणिक धर्म ग्रंथों और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार देवताओं के गुरु बृहस्पति के पुत्र थे। इन्होंने दैत्य गुरु शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या प्राप्त की थी।]  

“बात यह है कि नित्य (निराकार-सच्चिदानन्द) और लीला (साकार-श्रीरामकृष्ण) का दर्शन करके दास-भाव में रहना चाहिए । हनुमान ने साकार और निराकार दोनों का साक्षात्कार किया था । इसके बाद, दास-भाव से - भक्त के भाव से रहे थे।”

मणि (स्वगत) - नित्य और लीला, दोनों को लेना होगा । जर्मनी में वेदान्त के प्रवेश के समय से यूरोपीय पण्डितों में भी किसी किसी का मत ऐसा ही है; परन्तु श्रीरामकृष्ण ने तो कहा है कि सम्पूर्ण रूप से त्याग – कामिनी-कांचन का त्याग - हुए बिना नित्य और लीला का साक्षात्कार नहीं होता । सच्चे साधक को ठीक ठीक त्यागी, सम्पूर्ण अनासक्त होना चाहिए । यहीं पर उनमें तथा हेगल जैसे यूरोपीय पण्डितों में भेद है ।

(४)

  [(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

*श्रीरामकृष्ण तथा ज्ञानयोग*

डाक्टर कह रहे है, ‘ईश्वर ने हमारी सृष्टि की है, और हम सब लोगों की आत्माएँ अनन्त उन्नति करेंगी ।’ वे यह मानने के लिए राजी नहीं कि एक आदमी किसी दूसरे आदमी से बड़ा है । इसीलिए वे अवतार नहीं मानते ।

डाक्टर - अनन्त उन्नति । यह अगर न हो तो पाँच-सात वर्ष और बचकर क्या होगा ? इससे तो मैं गले में रस्सी की फाँसी लगाकर मर जाना बेहतर समझता हूँ ! 

“अवतार फिर है क्या ? जो मनुष्य शौच जाता है - पेशाब करता है, उसके पैरों सिर झुकाऊँ ! हाँ, परन्तु यह मानता हूँ कि मनुष्य में ईश्वर की ज्योति प्रतिबिम्बित होती है ।”

गिरीश (हँसकर) - आपने ईश्वरी ज्योति कभी देखी नहीं –

डाक्टर उत्तर देने से पहले कुछ इधर-उधर करने लगे । पास ही एक मित्र बैठे हुए थे - धीरे धीरे उन्होंने कुछ कहा ।

डाक्टर (गिरीश के प्रति) - आपने भी तो प्रतिबिम्ब के सिवा और कुछ नहीं देखा ।

गिरीश - मैं देखता हूँ ! वह ज्योति में देखता हूँ ! श्रीकृष्ण अवतार हैं, यह मैं प्रमाणित कर दूँगा, नहीं तो अपनी जीभ काटकर फेंक दूँगा !

श्रीरामकृष्ण - यह सब जो बातचीत हो रही है, कुछ भी नहीं है । यह सब सन्नीपात-ग्रस्त रोगी की बकवाद है । 

“विकार के रोगी ने कहा था, ‘मैं घड़ा भर पानी पिऊँगा, हण्डी भर भात खाऊँगा ।’ वैद्य ने कहा, ‘अच्छा, खाना तब खाना । अच्छे हो जाने के बाद जो कुछ तू कहेगा, वैसा ही किया जायगा ।’

“जब घी कच्चा रहता है, तभी तक उसमें कलकलाहट होती है । पक जाने पर फिर आवाज नहीं निकलती । जिसका जैसा मन है, वह ईश्वर को उसी तरह देखता है । मैंने देखा है, बड़े आदमी के घर में रानी की तस्बीर आदि - यह सब है और भक्तों के यहाँ देव-देवियों की तस्वीरें हैं ।

“लक्ष्मण ने कहा था, ‘हे राम, वशिष्ठदेव जैसे पुरुष को भी पुत्रों का शोक हो रहा है ।’ राम ने कहा, ‘भाई, जिसमें ज्ञान है उसमें अज्ञान भी है । जिसे उजाले का ज्ञान है, उसे अँधेरे का भी ज्ञान है । इसलिए ज्ञान और अज्ञान से परे हो जाओ ।’ ईश्वर को विशेष रूप से जान लेने पर यह अवस्था प्राप्त हो जाती है । इसे ही विज्ञान कहते हैं

“पैर में काँटा चुभ जाने से, उसे निकालने के लिए एक और काँटा ले आना पड़ता है । निकालने के बाद फिर दोनों काँटे फेंक दिये जाते हैं । ज्ञानरूपी काँटे से अज्ञानरूपी काँटा निकालकर, ज्ञान और अज्ञानरूपी दोनों काँटे फेंक दिये जाते हैं ।

“पूर्ण ज्ञान के कुछ लक्षण हैं । उस समय विचार बन्द हो जाता है । पहले जैसा कहा, कच्चा रहने से ही घी में कलकलाहट रहती है ।”

डाक्टर - पूर्ण ज्ञान रहता कहाँ है ? सब ईश्वर है, तो फिर आप परमहंस का काम क्यों करते हैं ? और ये लोग आकर आपकी सेवा क्यों करते हैं ? आप चुप क्यों नहीं रहते ?

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - पानी स्थिर रहने पर भी पानी है, और तरंग-रूप से हिलने-डुलने पर भी वह पानी ही है ।

“एक बात और । महावत-नारायण की बात भी क्यों न मानी जाय ? गुरु ने शिष्य को समझाया था कि सब नारायण हैं । पागल हाथी आ रहा था, शिष्य गुरु की बात पर विश्वास करके वहाँ से नहीं हटा । यही सोचकर कि हाथी भी नारायण है ! महावत इधर चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा था, ‘सब लोग हट जाओ - रास्ते से सब हट जाओ ।’ पर शिष्य नहीं हटा । हाथी आया और उसे एक ओर फेंककर चला गया । शिष्य को बड़ी चोट लगी, केवल जान ही नहीं निकली । मुँह पर पानी के छींटे लगाने से उसे चेत हुआ । जब उससे पूछा गया कि तुम हटे क्यों नहीं, तब उसने कहा, ‘क्यों, गुरु महाराज ने तो कहा था सब नारायण हैं ।’ गुरु ने कहा, ‘बेटा, अगर ऐसा ही था तो तुमने महावत नारायण की बात क्यों नहीं मानी ? महावत भी तो नारायण हुआ ।’ वे ही शुद्ध मन और शुद्ध बुद्धि होकर भीतर वास करते हैं । मैं यन्त्र हूँ, वे यन्त्री हैं । मैं घर हूँ, वे मालिक। वे (ईश्वर) ही महावतनारायण हैं ।”  

डाक्टर - और एक बात कहूँगा, आप फिर मुझसे ऐसा क्यों कहते हैं- कि रोग अच्छा कर दो ?

श्रीरामकृष्ण - जब तक ‘मैं’ रूपी घट है, तभी तक ऐसा हो रहा है । सोचो, एक महासमुद्र है, ऊपर-नीचे जल से पूर्ण है । उसके भीतर एक घट है । घर के भीतर बाहर पानी है; परन्तु उसे बिना फोड़े यथार्थ में एकाकार नहीं होता । उन्हीं ने इस ‘मैं’ – घट को रख छोड़ा है

डाक्टर - तो यह ‘मैं’ जो आप कह रहे हैं, यह सब क्या है ? इसका भी तो अर्थ कहना होगा । क्या वे (ईश्वर) हमारे साथ कोई मजाक कर रहे हैं ?

गिरीश - (डाक्टर से) - महाशय, आपको कैसे मालूम हुआ कि वह मजाक नहीं है ?

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - इस ‘मैं’ को उन्हीं ने रख छोड़ा है । उनकी क्रीड़ा – उनकी लीला !“एक राजा के चार लड़के थे । सब थे तो राजा के लड़के, परन्तु उन्हीं में कोई मन्त्री, कोई कोतवाल, इसी तरह बन-बनकर खेल रहे थे । राजकुमार (सिंह-शावक, राजा के लड़के) होकर कोतवाल का खेल !

(डाक्टर से) “सुनो, यदि तुम्हें आत्म-साक्षात्कार हो जाय तो यह सब तुम मानने लग जाओगे । उनके दर्शन से सब संशय दूर हो जाते हैं ।

डाक्टर - सब सन्देह कहाँ जाता है ?

श्रीरामकृष्ण- मेरे पास इतना ही सुन जाओ । इससे अधिक कुछ जानना चाहो तो अकेले में उनसे (ईश्वर से) कहना । उनसे पूछना, क्यों उन्होंने ऐसा किया है ।

“लड़का भिक्षुक को मुट्ठी भर चावल ही दे सकता है । अगर रेल के किराये की उसे आवश्यकता होती है, तो यह बात मालिक के कान तक पहुँचायी जाती है ।”

 डाक्टर चुप हैं ।

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, तुम्हें विचार प्यारा है, तो सुनो कुछ विचार करता हूँ । ज्ञानी के मत से अवतार नहीं है । कृष्ण ने अर्जुन से कहा था, ‘तुम मुझे अवतार-अवतार कह रहे हो, आओ, तुम्हें एक दृश्य दिखलाऊँ ।’ अर्जुन साथ-साथ गये । कुछ दूर जाने पर कृष्ण ने पूछा, ‘क्या देखते हो?’ 

अर्जुन ने कहा, ‘एक बहुत बड़ा पेड़ है और उसमें गुच्छे के गुच्छे जामुन लटक रहे हैं ।’ कृष्ण ने कहा, ‘वे जामुन नहीं हैं । जरा और बढ़कर देखो ।’ तब अर्जुन ने देखा, गुच्छों में कृष्ण फले हुए थे। कृष्ण ने कहा, ‘अब देखा ? - मेरी तरह कितने कृष्ण फले हुए हैं !

"कबीरदास ने कृष्ण की बात पर कहा था, ‘वह तो गोपियों की तालियों पर बन्दर-नाच नाचा था !’

"जितना ही बढ़ जाओगे, ईश्वर की उपाधि उतनी ही कम देखोगे । भक्त को पहले दशभुजा के दर्शन हुए । और भी बढ़कर उसने देखा, षड़भुजा देवी मूर्ति । और भी बढ़कर देखा, द्विभुज  गोपाल । जितना ही बढ़ रहा है, उतना ही ऐश्वर्य घट रहा है । और भी बढ़ा तब ज्योति के दर्शन हुए - कोई उपाधि नहीं ।    

“जरा वेदान्त का भी विचार सुनो । किसी राजा को एक आदमी इन्द्रजाल दिखाने के लिए आया था। उसके जरा हट जाने पर राजा ने देखा, एक सवार आ रहा है – घोड़े पर बड़े रोब-दाब से, हाथ में अस्त्र-शस्त्र लिये हुए । सभा भर के आदमी और राजा विचार करने लगे कि इसके भीतर क्या सत्य है । वह घोड़ा? तो सत्य नहीं है, वह साज-बाज ? सत्य नहीं है, वे अस्त्र-शस्त्र ? भी सत्य नहीं हैं । अन्त में सचमुच देखा, सवार ही अकेला खड़ा था और कुछ नहीं । अर्थात् ब्रह्म सत्य है, संसार मिथ्या । विचार करना चाहो तो फिर और कोई चीज नहीं टिकती ।”

डाक्टर - इसमें मेरी ओर से कोई आपत्ति नहीं ।

श्रीरामकृष्ण परन्तु यह भ्रम सहज ही दूर नहीं होता । ज्ञान के बाद भी कुछ कुछ रहता है । स्वप्न में अगर कोई बाघ देखता है तो आँख खुलने के बाद भी छाती धड़कती रहती है ।

“चोर खेत में चोरी करने के लिए गये हुए थे । वहाँ आदमी के आकार का पुतला बनाकर खड़ा कर दिया गया था, डरवाने के लिए । चोर मारे डर के घुस नहीं रहे थे । एक ने पास जाकर देखा तो केवल घास ! - आदमी के शक्ल की बाँधकर खड़ी कर दी गयी थी ।

उसने वहाँ से आकर अपने साथियों से कहा कि डरने की कोई बात नहीं । किन्तु फिर भी वे लोग मारे डर के कदम आगे नहीं बढ़ा रहे थे । कहते थे, ‘छाती धड़कती है ।’ तब जिसने पास जाकर देखा था, उसने उस गड़े हुए आकार को जमीन में सुला दिया और - कहने लगा, ‘यह कुछ नहीं है, यह कुछ नहीं हैं’ – ‘नेति’ ‘नेति’ ।”

डाक्टर - यह तो बड़ी सुन्दर बात है !

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - हाँ, कैसी बात है ?

डाक्टर - बड़ी सुन्दर है ।

श्रीरामकृष्ण - एक बार थैन्क यू (Thank you) भी तो कहो ।

डाक्टर - क्या आप मेरे मन का भाव नहीं समझ रहे हैं ? इतना कष्ट करके आपको यहाँ देखने के लिए आता हूँ !

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - नहीं जी, मूर्ख के कल्याण के लिए भी तो कुछ कहो । विभीषण ने लंका का राजा होना अस्वीकृत कर दिया था, कहा था, ‘राम, मैं तुम्हें जब पा गया तो अब राज्य से क्या काम ?’ राम ने कहा, "विभीषण, तुम मूर्खों के लिए राजा बनो । जो लोग कह रहे हैं, ‘तुमने राम की इतनी सेवा की, परन्तु तुम्हें ऐश्वर्य क्या मिला ?’- उनकी शिक्षा के लिए तुम राजा बनो ।

डाक्टर - यहाँ उस तरह का मूर्ख है कौन ?

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - नहीं जी, यहाँ शंख भी हैं और शम्बुक भी है ! (सब हँसते हैं)

(५)

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

*डाक्टर के प्रति उपदेश

डाक्टर सरकार होमियोपैथी के डॉक्टर थे, उन्होंने श्रीरामकृष्ण के लिए दवा दी, दो प्रकार की छोटी गोलियाँ (globules) , कहने लगे, ‘ये गोलियाँ दी हैं - पुरुष और प्रकृति !’ (सब हँसते हैं)

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - हाँ, पुरुष और प्रकृति एक ही साथ रहते हैं । तुमने कबूतरों को नहीं देखा? नर तथा मादी अलग नहीं रह सकते । जहाँ पुरुष है, वहीं प्रकृति भी है । जहाँ प्रकृति है, वहीं पुरुष भी है ।

आज विजयादशमी है । श्रीरामकृष्ण ने डाक्टर से कुछ मिष्टान्न खाने के लिए कहा । भक्तगण मिष्टान लाकर देने लगे ।

डाक्टर (खाते हुए) - भोजन के लिए थैन्क यू (Thank you) कहता हूँ; आपने जो ऐसा उपेदश दिया, उसके लिए नहीं । वह थैन्क यू मुँह से क्यों निकाला जाय ?

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - उनमें मन रखना । और क्या कहूँ, और थोड़ी थोड़ी देर के लिए ध्यान करना । (छोटे नरेन्द्र को दिखलाकर) देखो, इसका मन ईश्वर में बिलकुल लीन हो जाता है । जो सब बातें तुमसे कही गयी थीं –

डाक्टर - अब इन लोगों से कहिये ।

श्रीरामकृष्ण - जिसे जैसा सह्य है उसके लिए वैसी ही व्यवस्था की जाती है । वे सब बातें  ये सब लोग~ क्या कभी समझ सकते हैं ? तुमसे कही गयी थीं, वह और बात है । लड़के को जो भोजन रुचता है और जो उसे सह्य है वही भोजन उसके लिए माँ पकाती है। (सब हँसते हैं)  

डाक्टर चले गये । विजया के उपलक्ष्य में सब भक्तों ने श्रीरामकृष्ण को साष्टांग प्रणाम करके उनके पैरों की धूल लेकर सिर से लगायी । फिर एक दूसरे को सप्रेम भेंटने लगे । आनन्द की मानो सीमा नहीं रहीं । श्रीरामकृष्ण को इतनी सख्त बीमारी है, परन्तु वे जैसे सब भूल गये हों । प्रेमालिंगन और मिष्टान्न भोजन बड़ी देर तक चल रहा है । श्रीरामकृष्ण के पास छोटे नरेन्द्र, मास्टर तथा दो-चार भक्त और बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण आनन्द से बातचीत कर रहे हैं । डाक्टर के बारे में बातचीत होने लगी ।

श्रीरामकृष्ण - डाक्टर को और अधिक कुछ कहना न होगा । पेड़ का काटना जब समाप्त हो आता है तब जो आदमी काटता है वह जरा हटकर खड़ा हो जाता है । कुछ देर बाद पेड़ आप ही गिर जाता है

(मास्टर से) “डाक्टर बहुत बदल गया है ।”

मास्टर - जी हाँ ! यहाँ आने पर उसकी अक्ल ही मारी जाती है क्या दवा दी जानी चाहिए, इसकी बात ही नहीं उठाते । हम लोग जब याद दिलाते हैं, तब कहते हैं – ‘हाँ-हाँ, दवा देनी है ।’

बैठकखाने में कोई कोई भक्त गा रहे थे । श्रीरामकृष्ण जिस कमरे में हैं, उसी में सब के आने पर श्रीरामकृष्ण कहने लगे - “तुम सब गा रहे थे - ताल ठीक क्यों नहीं रहता था ? कोई एक बेतालसिद्ध था - यह भी वैसी ही बात हुई !” (सब हंसते हैं)

छोटे नरेन्द्र का आत्मीय एक लड़का आया हुआ है । खूब भड़कीली पोशाक पहने और नाक पर चश्मा लगाये । श्रीरामकृष्ण छोटे नरेन्द्र से बातचीत कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - देखो, इसी रास्ते से एक जवान आदमी जा रहा था । उसकी कमीज की आस्तीनों मेंप्लेट’ पड़ी थी । उसके चलने का ढंग भी कैसा था ! रह-रहकर वह चादर हटाकर अपनी कमीज दिखाता था और इधर-उधर देखता था कि कोई उसकी कमीज देखता भी है या नहीं ! परन्तु जब वह चलता था तो साफ मालूम हो जाता था कि उसके पैर टेढ़े हैं ! मोर अपने पंख तो दिखलाता है, पर उसके पैर बड़े गन्दे होते हैं । इसी प्रकार ऊँट भी बड़ा भद्दा होता है, उसके सब अंग कुत्सित होते हैं ।

नरेन्द्र का आत्मीय - परन्तु आचरण अच्छे होते हैं ।

श्रीरामकृष्ण - अच्छा है, परन्तु ऊँट कंटीली घास खाता है - मुख से धर-धर खून गिरता है, फिर भी वही घास खाता जाता है । आँख के सामने लड़का मरा, फिर भी संसारी ‘लड़का-लड़का’ की ही रट लगाये रहता है

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