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शुक्रवार, 16 दिसंबर 2022

$🔱🙏परिच्छेद ~112, [( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]🔱 ‘ईश्वर ही सत्य हैं और सब अनित्य’, इस बोध के रहने पर कामिनी और कांचन का फिर कोई भय नहीं रह जाता🙏मैंने मन से पूछा, 'मन तू क्या चाहता है ? मन ने कहा, 'ईश्वर के पादपद्मों को छोड़ मैं और कुछ नहीं चाहता ।🙏गुरुआई और वेश्यापन दोनों एक हैं।🙏विवेकरूपी छन्नों का उपयोग करो । 🔱🙏साधना के बल पर जीव-कोटि ईश्वरानुभव कर सकता है, परन्तु समाधि के बाद वह इस जगत् में फिर नहीं लौटता ।'मैं' मरा कि जंजाल दूर हुआ । जब तक 'मैं' है, तभी तक भेद-बुद्धि रहती है ।

 परिच्छेद ११२.

*(कृष्णमयी के पिता) श्री बलराम बसु के मकान पर श्रीरामकृष्ण*

[(12 अप्रैल,1885)श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]

(१)

🔱स्वयं की साधना का वर्णन🔱

श्रीरामकृष्ण कलकत्ते में भक्तों के साथ बलराम के बैठकखाने में बैठे हुए हैं । गिरीश, मास्टर और बलराम हैं, धीरे-धीरे छोटे नरेन्द्र, पल्टू, द्विज, पूर्ण, महेन्द्र मुखर्जी आदि कितने ही भक्त आये। ब्राह्मसमाज के त्रैलोक्य सान्याल और जयगोपाल सेन भी आये हैं । स्त्री-भक्तों में भी बहुत सी स्त्रियाँ आयी हुई हैं । वे चिक की आड़ में बैठी हुई श्रीरामकृष्ण के दर्शन कर रही हैं ।

मोहिनीमोहन की स्त्री भी आयी हुई हैं - लड़के के गुजर जाने पर इनकी पागल जैसी अवस्था हो गयी है । वे तथा उनकी तरह शोकसन्तप्त और भी कितनी ही स्त्रियाँ आयी हुई हैं, उन्हें विश्वास है कि श्रीरामकृष्ण के पास अवश्य ही शान्ति मिलेगी । रविवार, १२ अप्रैल १८८५ । दिन के तीन बजे होंगे ।

मास्टर ने आकर देखा, श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बैठे हुए अपनी साधना और अनेकविध आध्यात्मिक अवस्था की बातें कह रहे हैं । मास्टर ने आकर श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया और उनकी आज्ञा पा उनके पास बैठ गये ।

श्रीरामकृष्ण (भक्तों से) - उस समय - साधना के समय ध्यान करता हुआ मैं देखता था, एक आदमी हाथ में त्रिशूल लिये हुए मेरे पास बैठा रहता था । मुझे डराता था, अगर मैं ईश्वर के चरणकमलों में मन न लगाऊँ तो वह वही त्रिशूल भोंक देगा । मन न लगाने पर छाती में त्रिशूल के बींधे जाने का डर था ।

"कभी माँ ऐसी अवस्था कर देती थी कि नित्य से उतरकर मन लीला में आ जाता था और कभी लीला से नित्य पर चढ़ जाता था ।

"जब मन लीला में उतर आता था, तब कभी-कभी दिनरात मैं सीताराम की चिन्ता किया करता था। और सदा मुझे सीताराम के रूप भी दीख पड़ते थे, - रामलाला* को लिये सदा मैं घूमता था, कभी उसे नहलाता था, कभी खिलाता था । (*किसी वैष्णव साधु द्वारा दी गयी -अष्टधातुओं से बनी हुई राम की एक छोटीसी बाल मूर्ति ।) मैं कभी कभी राधाकृष्ण के भाव में रहता था । उन रूपों के सदा दर्शन भी होते थे । कभी फिर गौरांग के भाव में रहता था । यह दो भावों का मेल था - पुरुष और प्रकृति के भावों का । इस अवस्था में सदा ही गौरांग के दर्शन होते थे । फिर यह अवस्था बदल गयी । तब लीला को छोड़कर मन नित्य में चढ़ गया

सहजन के सामान्य पत्ते और तुलसी (पवित्र) के दल, सब एक जान पड़ने लगे । फिर ईश्वरी रूप देखना अच्छा नहीं लगामैंने कहा, 'तुमसे तो विच्छेद हो जाता है ।’ तब मैंने उनसे अपना मन निकाल लिया । कमरे में देवी-देवताओं की जितनी तस्बीरें थीं, सब हटा दीं । केवल उस अखण्ड सच्चिदानन्द - उस आदिपुरुष  की चिन्ता करने लगा। स्वयं दासीभाव से रहने लगा - पुरुष की दासी ! 

"मैंने सब तरह की साधनाएँ की हैं । साधना तीन तरह की हैं - सात्त्विक, राजसिक और तामसिक। सात्त्विक साधना में उन्हें व्याकुल होकर पुकारा जाता है । अथवा केवल उनका नाम मात्र लिया जाता है । कोई दूसरी फलाकांक्षा नहीं रहती । राजसिक साधना में अनेक तरह की क्रियाएँ करनी पड़ती हैं, - इतने बार पुरश्चरण *करना होगा, इतने तीर्थ करने होंगे, पंचतप करना होगा, षोडशोपचारों से पूजा करनी होगी, यह सब। तामसिक साधना तमोगुण का आश्रय लेकर की जाती है । जय काली ! क्या तू दर्शन न देगी? - यह देख, गले में छूरी मार लूँगा, अगर तू दर्शन न देगी । इस साधना में शुद्धाचार नहीं है, जैसे तन्त्रोक्त साधना । 

"उस अवस्था में - साधनावस्था में - बड़े विचित्र-विचित्र दर्शन होते थे । आत्मा का रमण  मैंने प्रत्यक्ष किया । मेरी ही तरह का एक आदमी मेरी देह में समा गया, और षट्पद्मों के हरएक पद्म में वह रमण करने लगा । छहों पद्म मूँदे हुए थे, उसके रमण के साथ ही हरएक पद्म खुलकर ऊर्ध्वमुख हो जाने लगा । इस तरह मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रार सब पद्म खिल गये और मैंने प्रत्यक्ष देखा, उनके मुख जो नीचे थे, ऊपर हो गये

"साधना के समय ध्यान करता हुआ मैं अपने पर दीपशिखा के भाव का आरोप करता था, - जब हवा नहीं रहती है तब वह बिलकुल नहीं हिलती, - इसी भाव का आरोप करता था ।

"ध्यान के गम्भीर होने पर बाहरी ज्ञान का नाश हो जाता है । एक व्याध पक्षी मारने के लिए निशाना साध रहा था । उसके पास ही से वर-बराती, गाड़ी-घोड़े, बाजे-कहार बड़ी देर तक जाते रहे, परन्तु उसे कुछ भी होश न था । वह नहीं समझ सका कि पास से बरात कब निकल गयी ।

"एक आदमी अकेला एक तालाब के किनारे मछली मारने के लिए बैठा था । बड़ी देर के बाद बंसी का 'शोला' हिला, कभीकभी वह पानी में कुछ डूब भी जाता था तब उसने बंसी को झपाटे के साथ खींचने की कोशिश की । इसी समय किसी राहगीर ने आकर उससे पूछा, ‘महाशय, अमुक बनर्जी का घर कहाँ है, क्या आप बतला सकेंगे ?' उत्तर कुछ भी न मिला । यह आदमी उस समय बंसी खींचने की ताक में था। पथिक ने बार बार उच्च स्वर से कहा, ‘महाशय, अमुक बनर्जी का घर क्या आप बतला सकेंगे ?" उधर उस आदमी को होश था ही नहीं, उसका हाथ काँप रहा था, बस शोले पर उसकी निगाह थी । तब पथिक नाराज हो वहाँ से चला गया । वह जब बड़ी दूर चला गया, तब इधर शोला बिलकुल डूब गया और उस आदमी ने झट बंसी खींचकर मछली को जमीन पर ला गिराया । तब अँगौछे से मुँह पोंछकर पथिक को ऊँची आवाज लगाकर उसने बुलाया – ‘एजी, सुनो - सुनो ।' पथिक लौटना नहीं चाहता था, कई बार के पुकारने पर वह आया । आते ही उसने कहा, 'क्यों महाशय, अब क्यों आप बुलाते हैं ?' तब उसने पूछा, 'तुम मुझसे क्या कह रहे थे ?' पथिक ने कहा, 'उस समय इतनी बार पूछा और अब पूछते हो क्या कहा था ?' उसने कहा, 'उस समय शोला डूब रहा था, इसलिए मैंने कुछ सुना ही नहीं ।'

"ध्यान में इस तरह की एकाग्रता होती है, उस समय और कुछ भी नहीं दीख पड़ता, न कुछ सुन पड़ता है । कोई छू भी ले तो समझ में नहीं आता । देह पर से साँप चला जाता है और कुछ पता नहीं चल पाता । जो ध्यान करता है, न वह समझ सकता है और न साँप

“ध्यान के गहरे होने पर इन्द्रियों के कुल काम बन्द हो जाते हैं । मन बहिर्मुख नहीं रहता, जैसे घर का बाहरी दरवाजा बन्द हो जाय । इन्द्रियों के विषय पाँच हैं - रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द - ये बाहर पड़े रहते हैं ।  

"ध्यान के समय पहले-पहल इन्द्रियों के सब विषय सामने आते हैं, ध्यान के गम्भीर होने पर वे फिर नहीं आते - सब बाहर पड़े रहते हैं । ध्यान करते समय, मुझे कितने ही प्रकार के दर्शन होते थे । मैंने प्रत्यक्ष देखा, सामने रुपये की ढेरी थी, शाल थी, एक थाली में सन्देश थे और दो औरतें थीं, उनकी नाक में नथ थी । तब मैंने मन से पूछा, 'मन तू क्या चाहता है ? क्या तू कुछ भोग करना चाहता है ?' मन ने कहा, 'नहीं, मैं कुछ भी नहीं चाहता, ईश्वर के पादपद्मों को छोड़ मैं और कुछ नहीं चाहता ।' स्त्रियों का भीतर-बाहर, सब मुझे दीख पड़ने लगा, - जैसे शीशे की आलमारियों की कुल चीजें बाहर से दीख पड़ती हैं । उनके भीतर मैंने देखा - मल, मूत्र, विष्ठा, कफ, लार, आतें, यही सब ।”

गिरीश कभी-कभी कहते थे, 'श्रीरामकृष्ण का नाम लेकर बीमारी अच्छी किया करूँगा ।'

श्रीरामकृष्ण (गिरीश आदि भक्तों से) - जो हीन बुद्धि के हैं, वे ही सिद्धियाँ चाहते हैं, - बीमारी अच्छी करना, मुकद्दमा जिताना, पानी के ऊपर से पैदल चले जाना, यह सब; जो शुद्ध भक्त हैं, वे ईश्वर के पादपद्मों को छोड़कर और कुछ नहीं चाहते । हृदय ने एक दिन कहा, 'मामा, माँ से कुछ तान्त्रिक शक्ति की प्रार्थना करो - कुछ सिद्धि माँगो ।' मेरा बालक का स्वभाव, - कालीमन्दिर में जप करते समय माँ से मैंने कहा, 'माँ, हृदय कुछ शक्ति और सिद्धि माँगने के लिए कहता है ।’

उसी समय माँ ने दिखलाया, - एक बूढ़ी वेश्या, उम्र चालीस की होगी, सामने से आकर मेरी ओर पीछा करके पाखाना फिरने लगी । माँ ने दिखलाया, विभूति इसी बूढ़ी वेश्या की विष्ठा है । तब मैं हृदय के पास जाकर उसे डाँटने लगा । कहा, 'तूने क्यों मुझे ऐसी बात सिखलायी ? तेरे लिए ही तो मुझे ऐसा हुआ ।'

"जिनमें कुछ विभूतियाँ रहती हैं उन्हें ही प्रतिष्ठा, सम्मान, यह सब मिलता है । बहुतों की इच्छा होती है, मैं गुरुआई करूँ, पाँच आदमी मुझे मानें, शिष्य सेवा करें, लोग कहेंगे, - भाई इनदिनों गुरुचरण के भाई का समय आजकल निहायत अच्छा है, कितने ही लोग जाते हैं, चेले-चपाटे भी बहुत से हो गये हैं, घर में चीजों का ढेर लग रहा है, कितनी चीजें लोग ला-लाकर दे रहे हैं, वह चाहे तो उसमें ऐसी शक्ति है कि कितने ही आदमियों को खिला दे ।

"गुरुआई और वेश्यापन दोनों एक हैं; - खाक रुपया-पैसा, लोकसम्मान, शरीर की सेवा, इन सब के लिए अपने को बेचना ! जिस शरीर, मन और आत्मा के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति होती है, उसी शरीर, मन और आत्मा को जरा सी वस्तु के लिए इस तरह कर रखना अच्छा नहीं । एक ने कहा था, साबी का यह बड़ा अच्छा समय चल रहा है - इस समय उसकी पाँचों ऊँगलियाँ घी में हैं । एक कमरा उसने किराये से लिया है, - गोबर, कण्डे, चारपाई, ये सब अब उसके हैं; चार बासन भी हो गये है; बिस्तरा, चटाई, तकिया, सब कुछ है । कितने ही आदमी उसके वश में हैं, - आते-जाते रहते हैं । अर्थात् साबी अब वेश्या हो गयी है, इसीलिए उसके सुख की इति नहीं होती । पहले वह किसी भले आदमी के यहाँ दासी थी; अब वेश्या हो गयी है ! जरा सी वस्तु के लिए अपना सर्वनाश कर डाला ।

“साधना के समय ध्यान करते करते मैं और भी बहुत कुछ देखता था । बेल के पेड़ के नीचे ध्यान कर रहा था, पाप-पुरुष आकर कितने ही तरह के लोभ दिखाने लगा । लड़ाकू गोरे का रूप धारण करके आया था ! रुपया, मान, रमण-सुख, नाना प्रकार की शक्तियाँ, बहुत कुछ उसने देना चाहा। मैं माँ को पुकारने लगा । बड़ी गुप्त बात है । माँ ने दर्शन दिये, तब मैंने कहा, 'माँ, इसे काट डालो ।' माता का वह रूप, भुवनमोहन रूप याद आ रहा है । वह कृष्णमयी*(बलराम बसु की बालिका कन्या) का रूप लेकर मेरे पास आयी थीं । - परन्तु उसकी दृष्टि के नर्तन के साथ ही मानो संसार हिल रहा है!" श्रीरामकृष्ण चुप हो रहे । कुछ देर बाद फिर कह रहे हैं - “और भी बहुत कुछ है, न जाने कौन मुँह दबा लेता है, कहने नहीं देता !

"सहजन के पत्ते और तुलसी दल एक जान पड़ते थे । भेद-बुद्धि उसने दूर कर दी थी । बट के नीचे मैं ध्यान कर रहा था, उसने दिखलाया, एक दाढ़ीवाला मुसलमान* तश्तरी में भात लेकर सामने आया । तश्तरी से म्लेच्छों को खिलाकर मुझे भी कुछ दे गया । माँ ने दिखलाया – एक के सिवा दो नहीं हैं । सच्चिदानन्द ही अनेक रूपों से विचर रहे हैं । जीव, जगत्, सब वे ही हुए हैं । अन्न भी वे ही हुए हैं । *(मुहम्मद पैगम्बर)

(गिरीश, मास्टर आदि से) “मेरा बालक-स्वभाव है । हृदय ने कहा, 'मामा, माँ से कुछ शक्ति के लिए कहो, - बस मैं भी माँ से कहने के लिए चल दिया। ऐसी अवस्था में उसने रखा था कि जो व्यक्ति पास रहेगा, मुझे उसकी बात माननी पड़ती थी । छोटा बच्चा जैसे कोई पास न रहने से सब कुछ अन्धकार ही देखता है, मुझे भी वैसा ही होता था । हृदय जब पास न रहता था, तब जान पड़ता था कि अब जान निकलने ही को है । यह देखो, वही भाव आ रहा है । बातें कहते ही कहते मन उद्दीप्त हो रहा है ।”

यह कहते ही कहते श्रीरामकृष्ण को भावावेश होने लगा । देश और काल का ज्ञान मिटा जा रहा है। बड़ी मुश्किल से भाव-संवरण की चेष्टा कर रहे हैं । भावावेश में कह रहे हैं - “अब भी तुम लोगों को देख रहा हूँ, - परन्तु यह भासित होता है कि मानो सदा ही तुम लोग इस तरह बैठे हुए हो, - कब आये हो, कहाँ से आये, यह कुछ याद नहीं ।

श्रीरामकृष्ण कुछ देर स्थिर रहे । कुछ प्रकृतिस्थ होकर कह रहे है, "पानी पीऊँगा ।” समाधि-भंग के पश्चात् मन को उतारने के लिए यह बात प्रायः कहा करते हैं । गिरीश अभी नये आये हैं, वे नहीं जानते, इसलिए पानी ले आने के लिए चले । श्रीरामकृष्ण मना कर रहे हैं, कहा, "नहीं जी, अभी पानी न पी सकूँगा ।" 

श्रीरामकृष्ण और भक्तगण कुछ देर तक चुप हैं । अब श्रीरामकृष्ण मास्टर से बोले - “क्यों जी, क्या मैंने अपराध किया जो ये सब गुप्त बातें कह दीं ?

मास्टर क्या कहते ? वे चुप हैं । तब श्रीरामकृष्ण स्वयं बोले - "नहीं, अपराध क्यों होगा ? मैंने तुममें श्रद्धा उत्पन्न होने के लिए कहा है ।" कुछ देर बाद जैसे बड़ी प्रार्थना के साथ कह रहे हैं - "उनके (पूर्ण आदि के) साथ क्या भेंट करा दोगे ?"

मास्टर (संकुचित होकर) - जी, इसी समय खबर भेजता हूँ ।

श्रीरामकृष्ण (आग्रह से) - वहीं छोर मिल रहा है । 

क्या इसका यह अर्थ है कि पूर्ण श्रीरामकृष्ण का सब से पीछे का भक्त है – अन्तिम छोर हैं, उसके बाद फिर कोई नहीं ?

[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]

(२)

🙏🔱🙏श्रीरामकृष्ण का महाभाव🙏🔱🙏

गिरीश और मास्टर आदि के पास श्रीरामकृष्ण अपने महाभाव की अवस्था का वर्णन कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (भक्तों से) - "उस" अवस्था के बाद आनन्द भी जितना है उसके पहले कष्ट भी उतना ही है । महाभाव ईश्वर का भाव है । वह इस शरीर और मन को डाँवाडोल कर देता है । जैसे एक बड़ा हाथी कुटिया में समा गया हो । कुटिया डाँवाडोल हो जाती है - कभी वह नष्ट भी हो जाती है

"ईश्वर के लिए जो विरहाग्नि होती है, वह बहुत साधारण नहीं होती । इस अवस्था के होने पर रूप और सनातन जिस पेड़ के नीचे बैठे रहते थे, कहते हैं, उस पेड़ की पत्तियाँ भी झुलस जाया करती थीं । इस अवस्था में मैं तीन दिन तक अचेत पड़ा रहा था । हिलडुल भी नहीं सकता था, एक ही जगह पर पड़ा रहता था ।जब होश आया तब ब्राह्मणी* मुझे पकड़कर नहलाने के लिए ले गयी;  परन्तु हाथ से देह छूने की हिम्मत न थी - देह मोटी चादर से ढँकी रहती थी, उसी चादर पर से मुझे पकड़कर ब्राह्मणी ले गयी थी । देह में जो मिट्टी लगी हुई थी, वह जल गयी थी।  

[ ब्राह्मणी* श्रीरामकृष्ण की तन्त्रसाधना की आचार्या भैरवी ब्राह्मणी] 

"जब वह अवस्था आती थी तब मेरुमज्जा के भीतर से जैसे कोई हल चला देता था । ‘अब जी गया, अब जी गया' यही रट लगी रहती थी । परन्तु उसके बाद फिर बड़ा आनन्द होता था ।"

 भक्त-मण्डली आश्चर्यचकित होकर ये बातें सुन रही हैं ।

श्रीरामकृष्ण (गिरीश से) - तुम्हारे लिए इतने की जरूरत नहीं । मेरा भाव केवल उदाहरण के लिए है । तुम लोग अनेक बातें लेकर रहते हो, मैं सिर्फ एक को ही लेकर । मुझे ईश्वर को छोड़ और कुछ अच्छा लगता नहीं । उनकी इच्छा । (सहास्य) एक डाल वाला पेड़ भी है और पाँच डालियों का पेड़ भी है। (सब हँसते हैं ।)

"मेरी अवस्था उदाहरण के लिए है । तुम लोग संसार-धर्म का पालन करो, अनासक्त होकर । कीच लग जायेगी, परन्तु उसे 'पाँकाल' मछली की तरह झाड़ डाला करो । कलंक के सागर में तैरो, फिर भी देह में कलंक न छू जायेगा ।"

गिरीश - आपका भी तो विवाह हो गया है । (हास्य)

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - संस्कार के लिए विवाह करना पड़ता है । परन्तु मैं सांसारिक जीवन कैसे व्यतीत कर सकता था ? ईश्वरदर्शन के लिए मेरी व्याकुलता इतनी तीव्र थी कि जब जब मेरे गले में जनेऊ डाल दिया जाता था, वह आप ही गिर जाता था । - मैं सँभाल नहीं सकता था एक मत में है - शुकदेव का विवाह संस्कार के लिए हुआ था । एक कन्या भी शायद हुई थी । (सब हँसते हैं।)

"कामिनी और कांचन ही संसार है - ईश्वर को भुला देता है ।"

गिरीश - कामिनी और कांचन छोड़े, तब न ?

श्रीरामकृष्ण - उनसे व्याकुल होकर प्रार्थना करो, विवेक के लिए प्रार्थना करो । ईश्वर ही सत्य हैं और सब अनित्य - इसी को विवेक कहते हैं । छन्ने से पानी छान लेना चाहिए, इस तरह उसका मैल एक तरफ पड़ा रहता है, अच्छा जल एक तरफ आ जाता है । विवेकरूपी छन्नों का उपयोग करो । तुम लोग उन्हें जानकर संसार करना । यही विद्या का संसार कहलाता है

"देखो न, स्त्रियों में कितनी मोहिनी शक्ति है - तिस पर अविद्या-रूपिणी स्त्रियाँ पुरुषों को मानो एक बेवकूफ जड़पदार्थ बना देती है । जब देखता हूँ, स्त्री-पुरुष एक साथ बैठे हुए हैं तब सोचता हूँ, अहा ! ये बिलकुल ही गये ! (मास्टर की ओर देखकर) हारू इतना अच्छा लड़का है, परन्तु वह प्रेतनी के हाथों पड़ा है ! लाख कहो - 'अरे मेरे हारू, तुम कहाँ गये ! हारू तुम कहाँ गये !' कहाँ है हारू ! लोगों ने देखा चलकर, हारू बट के नीचे चुपचाप बैठा हुआ है; न वह रूप है, न वह तेज, न वह आनन्द ! बट की प्रेतनी हारू पर सवार है !

"बीबी अगर कहे, 'जरा चले तो जाओ’, बस आप उठकर खड़े हो गये; अगर कहा, 'बैठो', तो कहने भर की देर होती है, आप बैठ गये !

"एक उम्मीदवार बड़े बाबू के पास जाते-जाते हैरान हो गया । काम किसी तरह न मिला । बाबू आफिस के बड़े बाबू थे । वे कहते थे, 'अभी जगह खाली नहीं है, मिलते रहना ।’ इस तरह बहुत समय कट गया । उम्मीदवार हताश हो गया ।

वह अपने एक मित्र से अपना दुःख रो रहा था । मित्र ने कहा, 'तू भी अक्ल का दुश्मन ही है ! - अरे उसके पास क्यों दौड़-धूप कर रहा है ? गुलाबजान के पास जा, उससे सिफारिश करा, तो काम हो जायेगा ।’ उम्मीदवार बोला, 'ऐसी बात है ! तो मैं अभी जाता हूँ ।’ गुलाबजान बड़े बाबू की रखेली है ।

उम्मीदवार उससे मिला, कहा, 'माँ, तुम्हारे बिना किये न होगा - मैं बड़ी विपत्ति में पड़ गया हूँ । ब्राह्मण का बच्चा हूँ, कहाँ मारा मारा फिरूँ ? माँ, बहुत दिनों से कामकाज कुछ नहीं मिला, लड़केबच्चे भूखों मर रहे हैं, तुम्हारे एक बार के कहने ही से मेरा मनोरथ सिद्ध हो जायगा ।' गुलाबजान ने उस ब्राह्मण से पूछा, 'बेटा, किससे कहना होगा ?'

उम्मीदवार ने कहा, 'बड़े बाबू से जरा आप कह दें तो मुझे जरूर काम मिल जाया ।’ गुलाबजान ने कहा, 'मैं आज ही बड़े बाबू से कहकर सब ठीक करा दूँगी ।' दूसरे दिन सुबह को उम्मीदवार के पास एक आदमी जाकर हाजिर हुआ । उसने कहा, 'आप आज ही से बड़े बाबू के आफिस जाया कीजिये ।' बड़े बाबू ने साहब से कहा, 'ये बड़े ही योग्य हैं, इन्हें काम पर मैंने रख लिया है, आफिस का काम ये बड़ी तत्परता के साथ कर सकेंगे ।’

"इसी कामिनी और कांचन पर सब लोग लट्टू हैं । परन्तु मुझे यह बिलकुल नहीं सुहाता । सच कहता हूँ, राम दुहाई, ईश्वर को छोड़ मैं और कुछ नहीं जानता ।"

 [( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]

(३)

🔱🙏सत्य बोलना कलियुग की तपस्या है🔱🙏

एक भक्त - महाराज, सुना है कि एक नया सम्प्रदाय 'नव हुल्लोल' शुरू हुआ है । ललित चटर्जी उसका एक सदस्य है ।

श्रीरामकृष्ण - इस संसार में भिन्न मत हैं, ये सब उसी एक ईश्वर तक पहुँचने के अलग अलग रास्ते हैं, पर आश्चर्य यह है कि हरएक मनुष्य यही सोचता है कि केवल उसी का मत (रास्ता) ठीक है; सिर्फ उसी की घड़ी ठीक समय बताती है ।

गिरीश (मास्टर से) - तुम जानते हो, इसके बारे में पोप ^*का क्या कहना हैं ?  ‘It is with our Judgement’ आदि। 

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - इसका क्या अर्थ है ?

मास्टर - हरएक व्यक्ति सोचता है कि उसी की घड़ी ठीक समय बताती है, परन्तु यथार्थ बात यह है कि भिन्न-भिन्न घड़ियाँ एक ही समय नहीं बतलातीं ।

श्रीरामकृष्ण - परन्तु घड़ियाँ चाहे जितनी गलत क्यों न हों, सूरज कभी गलती नहीं करता है । मनुष्य को अपनी घड़ी सूरज से मिला लेनी चाहिए ।

एक भक्त - महाराज, अमुक व्यक्ति झूठ बोलता है।  

श्रीरामकृष्ण - सत्य बोलना कलियुग की तपस्या है, इस युग  में अन्य साधनाओं का अभ्यास करना कठिन है, परन्तु सत्य पर दृढ़ रहने से मनुष्य ईश्वर को प्राप्त कर लेता है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने ईश्वर प्राप्ति के तीन उपाय बतलाते हुए कहा भी है कि- सत्य वचन, ईश्वर आधीनता , पर स्त्री को मातृरूप से देखना ये महान गुण हैं ; अगर इनसे हरि न मिले तो तुलसी को झूठा समझो। 

"केशव सेन ने अपने पिता का कर्जा अपने ऊपर ले लिया । वैसे कुछ लिखापढ़ी भी नहीं थी कोई और होता तो साफ इन्कार कर जाता । मैं जोड़ासाँको में देवेन्द्र के समाज में गया और वहाँ देखा कि केशव मंच पर बैठा ध्यान कर रहा है । उस समय वह तरुण अवस्था का था । उसे देखकर मैंने मथुरबाबू से कहा, 'यहाँ और जितने लोग ध्यानधारणा कर रहे हैं उन सब में इसी तरुण युवक का 'शोला' पानी के नीचे बैठ गया है । मछली मानो कटिया में मुँह लगाने लगी है ।'

"एक आदमी था - उसका नाम मैं नहीं बताऊँगा । वह दस हजार रुपयों के लिए अदालत में झूठ बोल गया । मुकदमा जीतने के लिए उसने काली माँ के पास मुझसे एक भेंट चढ़वाई । मुझसे बोला, 'बाबा, कृपा करके यह भेंट माँ को चढ़ा दीजियेगा ।' बालक के समान विश्वास करके मैंने वह भेंट चढ़ा दी ।"

भक्त - तो सचमुच वह बड़ा अच्छा आदमी रहा होगा !

श्रीरामकृष्ण - नहीं, बात ऐसी थी, उसकी मुझमें इतनी श्रद्धा थी कि वह जानता था, यदि मैं माता के पास भेंट चढ़ाऊँगा तो माँ उसकी प्रार्थना अवश्य स्वीकार कर लेंगी ।

ललितबाबू का संकेत करते हुए श्रीरामकृष्ण ने कहा, "क्यों अहंकार पर विजय प्राप्त कर लेना सरल बात है ? ऐसे लोग बहुत कम हैं, जो अहंकार से रहित हों । हाँ ! बलराम ऐसा है । (एक भक्त की ओर इशारा करके) और देखो, यह दूसरा है । इसके स्थान पर कोई और होता तो घमण्ड के मारे फूल जाता । बाल में कंघी करके माँग निकालता तथा अनेक प्रकार के तमोगुण उसमें प्रकट हो जाते । अपनी विद्वता पर उसे घमण्ड हो जाता । उस मोटे ब्राह्मण में (प्राणकृष्ण की ओर संकेत करके) अब भी अहंभाव का कुछ लेश है । (मास्टर से) महिम चक्रवर्ती ने बहुत से ग्रन्थ पढ़े हैं न ?"

मास्टर - हाँ महाराज, उन्होंने बहुत कुछ पढ़ा है। 

श्रीरामकृष्ण (मुस्कराकर) - मेरी इच्छा है कि उसकी और गिरीश की भेंट हो जाती । तब हम लोग उनके वाद-विवाद का थोड़ा मजा देखते ।

गिरीश (मुस्कुराते हुए) - क्या वह ऐसा नहीं कहता कि साधना के द्वारा सभी लोग भगवान् श्रीकृष्ण के सदृश हो सकते हैं ?

श्रीरामकृष्ण – नहीं, बिलकुल वैसी बात नहीं, मगर हाँ, कुछ कुछ वैसी ही ।

भक्त - महाराज, क्या सब श्रीकृष्ण के सदृश हो सकते हैं ?

श्रीरामकृष्ण - ईश्वर का अवतार अथवा जिसमें अवतार के कुछ चिह्न होते हैं उसे ईश्वर-कोटि कहते हैं । साधारण मनुष्य को जीव या जीव-कोटि कहते हैं । साधना के बल पर जीव-कोटि ईश्वरानुभव कर सकता है, परन्तु समाधि के बाद वह इस जगत् में फिर नहीं लौटता ।

"ईश्वर-कोटि मानो एक राजा के लड़के के सदृश होता है । उसके पास मानो सात-मंजिला महल के प्रत्येक कमरे की चाबी रहती है, वह सातों मंजिलों पर चढ़ सकता है और इच्छानुसार नीचे उतर भी सकता है । जीव-कोटि एक मामूली कर्मचारी के समान होता है । वह उस महल के कुछ ही कमरों में प्रवेश कर सकता है; उतना ही उसका क्षेत्र है ।

“जनक ज्ञानी थे । उन्होंने ज्ञान की उपलब्धि साधना द्वारा की । परन्तु शुकदेव परमहंस तो जन्मजात रूप से पूर्ण थे - ज्ञान की मूर्ति ही थे ।"

गिरीश - ओह, ऐसी बात है महाराज ?

श्रीरामकृष्ण - शुकदेव ने साधना के द्वारा ज्ञान प्राप्त नहीं किया । शुकदेव के समान नारद को भी ब्रह्मज्ञान था, परन्तु वे लोगों के शिक्षणार्थ अपने में भक्ति को भी बनाये रखें । प्रह्लाद की कभी कभी यह धारणा होती थी, 'मैं ही ईश्वर हूँ - सोऽहम् ।' कभी अपने को ईश्वर का दास समझते थे और कभी उसका बालक । हनुमान की भी यही दशा थी ।

"ऐसी उच्च अवस्था प्राप्त करने का विचार सब लोग चाहे भले ही करें परन्तु उसे सब प्राप्त नहीं कर सकते । कुछ बाँस पोले होते हैं और कुछ अधिक ठोस ।”

 [( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]

(४)

🔱🙏कामिनी-कांचन तथा तीव्र वैराग्य🔱🙏

एक भक्त - आपके ये सब भाव तो उदाहरण के लिए हैं; तो हम लोगों को क्या करना होगा ?

श्रीरामकृष्ण – ईश्वर-प्राप्ति के लिए तीव्र वैराग्य चाहिए । ईश्वर के मार्ग का जिसे विरोधी समझो, उसे उसी समय छोड़ दो । पीछे छोड़ देंगे, यह सोचकर उसे रखना उचित नहीं । कामिनी और कांचन ईश्वर के मार्ग के विरोधी हैं, उनसे मन को हटा लेना चाहिए ।

“धीमे तिताले पर चलते रहने से न बनेगा । एक आदमी गमछा कन्धे पर रखे नहाने जा रहा था । उसकी स्त्री बोली, 'तुम किसी काम के नहीं हो, उम्र बढ़ रही है, अब भी यह सब न छोड़ सके । मुझे छोड़कर तुम एक दिन भी नहीं रह सकते, परन्तु अमुक को देखो, वह कितना त्यागी है ।'

"पति - 'क्यों उसने क्या किया ?’

"स्त्री - 'उसकी सोलह स्त्रियाँ हैं, वह एक एक करके सब को छोड़ रहा है । तुम कभी त्याग न कर सकोगे ।'

"पति - 'एक-एक करके त्याग ! अरी पगली, वह त्याग हरगिज न कर सकेगा । जो त्याग करता है वह क्या कभी जरा-जरा-सा त्याग करता है ?"

"स्त्री (हँसकर) - 'फिर भी वह तुमसे अच्छा है ।’

“पति - 'अरी, तू नहीं समझी । वह क्या त्याग करेगा ? त्याग मैं करूँगा; यह देख मैं चला ।'

"तीव्र वैराग्य यह है । ज्योंही विवेक आया कि उसी समय उसने त्याग किया । गमछा कन्धे पर डाले हुए ही वह चला गया । संसार का काम ठीक कर जाने के लिए भी नहीं आया । घर की ओर एक बार मुड़कर उसने देखा भी नहीं ।

"जो त्याग करेगा, उसमें मन का बल खूब होना चाहिए । डाका मारने का भाव, डाका डालने के पहले डाकू जिस तरह किया करते हैं - मारो, लूटो, काटो । 

"तुम लोग और क्या करोगे ? उनकी भक्ति तथा कुछ प्रेम प्राप्त कर दिन पार करते रहना ।

कृष्ण के चले जाने पर यशोदा पागल की भाँति श्रीमती के पास गयीं । उन्हें दुःखित देखकर श्रीमती ने आद्याशक्ति के रूप से उन्हें दर्शन दिया । कहा, ‘माँ मुझसे वर की प्रार्थना करो ।' यशोदा ने कहा, 'अब और क्या वर लूँ ! यह कहो कि मन, वाणी और कर्म से श्रीकृष्ण की सेवा कर सकूँ । इन आँखों से उसके भक्तों के दर्शन हों, जहाँ जहाँ उसने लीला की है, ये पैर वहाँ वहाँ जा सकें, ये हाथ उसकी और उसके भक्तों की सेवा करें, सब इन्द्रियाँ उसी के काम में लगी रहें ।’ ”

यह कहते कहते श्रीरामकृष्ण को भावावेश हो रहा है । एकाएक आप ही आप कह रहे हैं - "संहारमूर्ति काली ! या नित्यकाली !"

बड़े कष्ट से श्रीरामकृष्ण ने भाव का वेग रोका । उन्होंने कुछ पानी पिया । यशोदा की बात फिर कहने जा रहे हैं कि महेन्द्र मुखर्जी आ पहुँचे । ये तथा उनके छोटे भाई प्रिय मुखर्जी अभी थोड़े दिनों से श्रीरामकृष्ण के पास आने-जाने लगे हैं । महेन्द्र की आटे की चक्की है तथा अन्य व्यवसाय भी हैं । इनके भाई इंजीनियर का काम करते थे ।

इनका काम कर्मचारी सँभालते हैं, इन्हें यथेष्ट अवकाश है महेन्द्र की उम्र छत्तीस-सैंतीस की होगी और इनके भाई की उम्र चौतीस-पैंतीस की । ये केदेटी मौजे में रहते हैं । कलकत्ते के बागबाजार में भी इनका एक मकान है । वहीं सब लोग रहते हैं । इनके साथ एक नवयुवक आया-जाया करते हैं, भक्त है, नाम हरि है ।

हरि का विवाह तो हो चुका है, परन्तु श्रीरामकृष्ण पर ये बड़ी भक्ति रखते हैं । महेन्द्र बहुत दिनों से दक्षिणेश्वर नहीं गये । हरि भी नहीं गये, - आज आये हैं । महेन्द्र ने भूमिष्ठ होकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया । हरि ने भी प्रणाम किया ।

श्रीरामकृष्ण - क्यों जी, इतने दिनों तक दक्षिणेश्वर क्यों नहीं आये ?

महेन्द्र - जी, मैं केदेटी गया था, कलकत्ते में नहीं था ।

श्रीरामकृष्ण - क्यों जी, न तो तुम्हारे लड़के-बच्चे हैं, न किसी की नौकरी करते हो, फिर भी तुम्हें अवकाश नहीं रहता ! अजब है !

भक्त सब चुप हैं । महेन्द्र का चेहरा उतर गया ।

श्रीरामकृष्ण (महेन्द्र से) - तुमसे मैं इसलिए कहता हूँ कि तुम सरल और उदार हो - ईश्वर पर तुम्हारी भक्ति है ।

महेन्द्र - जी, आप तो मेरे भले के लिए ही कह रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - और यहाँ आकर कुछ पूजा भी नहीं चढ़ानी पड़ती । यदु की माँ ने इस पर कहा था, 'दूसरे साधु बस लाओ-लाओ किया करते हैं । बाबा, तुममें यह बात नहीं है ।’ विषयी आदमियों का जी ही निकल आता है अगर उन्हें गाँठ का पैसा खर्च करना पड़े ।

“एक जगह नाटक हो रहा था । एक आदमी को बैठकर सुनने की बड़ी इच्छा थी । उसने झाँककर देखा, तो उसे मालूम हुआ कि यदि कोई बैठकर देखना चाहता है, तो उससे टिकट के दाम लिये जाते हैं, फिर क्या था - वहाँ से चलता बना ।

एक दूसरी जगह नाटक हो रहा था, वह वहाँ गया । पूछने पर मालूम हुआ, वहाँ टिकट नहीं लगता । वहाँ बड़ी भीड़ थी । वह दोनों हाथों से भीड़ हटाकर बीच महफिल में पहुँचा । वहाँ अच्छी तरह जमकर मूँछों पर ताव दे-देकर सुनने लगा ! (सब हँसते हैं)

"और तुम्हारे तो लड़के-बच्चे भी नहीं हैं कि कहें, मन दूसरी ओर चला जायेगा । एक डिप्टी है, आठ सौ तनख्वाह पाता है । केशव सेन के यहाँ नाटक देखने गया था । मैं भी गया था । मेरे साथ राखाल तथा और भी कई आदमी गये थे । मैं जहाँ नाटक देखने के लिए बैठा था, वहीं मेरी बगल में वे लोग भी बैठे हुए थे ।

उस समय राखाल उठकर जरा कहीं बाहर गया । डिप्टी साहब वहीं आकर डट गये और राखाल की जगह पर उसने अपने छोटे बच्चे को बैठा दिया । मैंने कहा, 'यहाँ मत बैठाइये ।' मेरी ऐसी अवस्था थी कि जो कोई जैसा कहता था, मुझे वैसा करना पड़ता था । इसीलिए मैंने राखाल को वहाँ बैठाया था । जब तक नाटक हुआ, डिप्टी बराबर अपने बच्चे से बातचीत करता रहा । उसने एक बार भी नाटक नहीं देखा, और मैंने सुना है वह बीबी का गुलाम है, उसके इशारे पर उठता-बैठता है; और एक नकबैठे बन्दर की शक्ल के बच्चे के लिए उसने नाटक नहीं देखा

(महेन्द्र से) तुम ध्यान-धारणा करते हो न ?"

महेन्द्र - जी, कुछ करता हूँ ।

श्रीरामकृष्ण - कभी कभी आया करो ।

महेन्द्र - (सहास्य) - जी, कहाँ कैसी गिरह पड़ी हुई है, आप जानते ही हैं । जरा देखियेगा ।

श्रीरामकृष्ण - (हँसकर) - पहले आया तो करो । - तब तो दाब-दूबकर देखूँगा, कहाँ गिरह है - कहाँ क्या है । तुम आते क्यों नहीं ?

महेन्द्र - महाराज, आजकाल काम से फुरसत नहीं मिलती । तिस पर कभी कभी केदेटी के मकान का इन्तजाम करना पड़ता है ।

श्रीरामकृष्ण - (महेन्द्र से, भक्तों की ओर इशारे से बतलाकर) - "क्या इनके घर-द्वार नहीं हैं ? या कामकाज नहीं है ? ये किस तरह आया करते हैं ?

(हरि से) “तू क्यों नहीं आता ? तेरी बीबी आयी है न ?"

हरि - जी, नहीं ।

श्रीरामकृष्ण - फिर मुझे तू भूल कैसे गया ?

हरि - जी, मैं बीमार हो गया था ।

श्रीरामकृष्ण – (भक्तों से) - हाँ, दुबला तो हो गया है । इसे भक्ति तो कम है नहीं, भक्ति की दौड़ का हाल फिर क्या पूछना ! - उत्पाती भक्ति है । (हँस रहे हैं ।)

श्रीरामकृष्ण एक भक्त की स्त्री को 'हाबी की माँ' कहकर पुकारते थे । 'हाबी की माँ’ के भाई आये हुए हैं, कालेज में पढ़ते हैं, उम्र कोई बीस साल की होगी । वे क्रिकेट खेलने के लिए जायेंगे, इसलिए उठे, उनके साथ उनके छोटे भाई भी उठे, ये भी श्रीरामकृष्ण के भक्त हैं । कुछ देर बाद द्विज के लौट आने पर श्रीरामकृष्ण ने पूछा - "तू नहीं गया ?"

किसी भक्त ने कहा, 'ये गाना सुनेंगे इसीलिए चले आये हैं ।' आज ब्राह्म भक्त श्री त्रैलोक्य का गाना होगा । पल्टू भी आ गये । श्रीरामकृष्ण कहते हैं - 'कौन – अरे ! पल्टू ?'

एक और नवयुवक भक्त आये । इनका नाम पूर्ण है । श्रीरामकृष्ण के कई बार बुलवाने से तो ये आये हैं । घरवाले इन्हें आने ही नहीं देते थे । मास्टर जिस स्कूल में पढ़ाते हैं, ये वहीं पाँचवी कक्षा में पढ़ते हैं । इन्होंने श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण उन्हें अपने पास बैठाकर धीरे धीरे बातचीत कर रहे हैं । मास्टर पास बैठे हुए हैं । दूसरे भक्त दूसरे ही विचार में डूबे हैं । गिरीश एक ओर बैठे हुए केशव-चरित पढ़ रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - (पूर्ण से) - यहाँ आया करो ।

गिरीश - (मास्टर से) - यह कौन है ?

मास्टर - (विरक्ति से) - लड़का है और कौन है ?

गिरीश - लड़का है यह तो देख ही रहा हूँ ।

मास्टर डरे कि कहीं चार आदमी जान गये और लड़के के घर तक खबर फैली तो उसके लिए यह अच्छा न होगा, और इससे मास्टर पर भी दोषारोपण होता है । इसीलिए बच्चे के साथ श्रीरामकृष्ण धीरे धीरे बातचीत कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - जो कुछ मैंने बतलाया था, सब करते जाना ।

बच्चा - जी हाँ । 

श्रीरामकृष्ण - स्वप्न में कुछ देखते हो ? – अग्नि-शिखा, जलती हुई मशाल, सुहागिन स्त्री, स्मशान? यह सब देखना बहुत अच्छा है ।

बच्चा - आपको देखा है, आप बैठे हुए कुछ कह रहे थे ।

श्रीरामकृष्ण – क्या ? – उपदेश ? - अच्छा क्या सुना, एक कहो तो जरा ।

बच्चा - याद नहीं है ।

श्रीरामकृष्ण - नहीं याद है तो नहीं सही, यह बहुत अच्छा है । तुम्हारी उन्नति होगी । मुझ पर आकर्षण है न ?

कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - 'क्या वहाँ नहीं जाओगे ?' (अर्थात् दक्षिणेश्वर में) । बच्चा कह रहा है, 'मैं यह नहीं कह सकता ।'

श्रीरामकृष्ण - क्यों ? वहाँ तुम्हारा कोई आत्मीय है न ?

बच्चा - जी हाँ, परन्तु वहाँ जाने की सुविधा नहीं है ।

गिरीश केशव-चरित पढ़ रहे हैं । ब्राह्म समाज के श्रीयुत त्रैलोक्य ने यह पुस्तक लिखी है इसमें लिखा है, पहले श्रीरामकृष्णदेव संसार से विरक्त थे, परन्तु केशव से मिलने के बाद उन्होंने अपना मत बदल दिया है । अब श्रीरामकृष्णदेव कहते हैं कि संसार में भी धर्म होता है । इसे पढ़कर किसी किसी भक्त ने श्रीरामकृष्ण से यह बात कही है । भक्तों की इच्छा है कि त्रैलोक्य के साथ इस विषय पर बातचीत हो । श्रीरामकृष्ण को पुस्तक पढ़कर यह बात सुनायी गयी थी ।

श्रीरामकृष्ण देव गिरीश के हाथ में (केशव -चरित) पुस्तक देखकर गिरीश, मास्टर, राम तथा दूसरे भक्तों से कह रहे हैं - "वे लोग वही लेकर हैं, इसीलिए संसार-संसार रट रहे हैं । कामिनी और कांचन के भीतर हैं न ! उन्हें पा लेने पर ऐसी बात नहीं निकलती । ईश्वर का आनन्द मिल जाता है, तब संसार तो काकविष्ठावत् जान पड़ता है

मैं पहले सब से किनाराकशी कर गया था । - विषयी लोगों का साथ तो छोड़ा, बीच में भक्तों का संग भी छोड़ दिया था । देखा, सब पटापट कूच कर जाते हैं ( मर जाते हैं ?) और यह सुनकर मेरा कलेजा दुःख से तड़प उठता था - इस समय कुछ कुछ तो आदमियों में रहता भी हूँ ।"

  [( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]

(५)

🔱🙏 संकीर्तन' के आनन्द में 🔱🙏

गिरीश घर चले गये । फिर आयेंगे । श्रीयुत जयगोपाल सेन के साथ त्रैलोक्य आ गये । उन्होंने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण उनसे कुशलप्रश्न कर रहे हैं । छोटे नरेन्द्र ने आकर भूमिष्ठ हो प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण ने कहा, 'क्यों रे, तू शनिवार को तो फिर नहीं आया ?' अब त्रैलोक्य का गाना होगा ।

श्रीरामकृष्ण – अहा ! उस दिन तुमने आनन्दमयी माता का गाना गाया, कितना सुन्दर गाना था ! - और सब आदमियों के गाने अलोने लगते हैं । उस दिन नरेन्द्र का गाना भी अच्छा नहीं लगा । जरा वही गाना गाओ ! त्रैलोक्य गा रहे हैं - 'जय शचीनन्दन !'

श्रीरामकृष्ण मुँह धोने के लिए जा रहे हैं । स्त्रियाँ चिक के पास व्याकुल भाव से बैठी हुई थीं । उनके पास श्रीरामकृष्ण दर्शन देने के लिए जायेंगे । त्रैलोक्य का गाना हो रहा है ।

  [( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]

🔱🙏 माँ आनन्दमयी का गाना के आनन्द में विभोर श्री रामकृष्ण 🔱🙏

[Sri Ramakrishna In joy of Blissful Mother's  song] 

श्रीरामकृष्ण कमरे में लौटकर त्रैलोक्य से कह रहे हैं – ‘जरा माँ आनन्दमयी का गाना गाओ तो ।' त्रैलोक्य गा रहे हैं –     

“माता, मनुष्य-सन्तानों पर तुम्हारी कितनी प्रीति है ! जब इसकी याद आती है, तब आँखों से प्रेम की धारा बह चलती है । मैं जन्म से ही तुम्हारे श्रीचरणों में अपराधी हूँ, फिर भी तुम मेरे मुख की ओर प्रेमपूर्ण नेत्रों से देखकर मधुर स्वर से पुकार रही हो । जब यह बात याद आती है, तब दोनों नेत्रों से प्रेम की धारा बह चलती है । तुम्हारे प्रेम का भार अब मुझसे ढोया नहीं जाता । जी विकल होकर रो उठता है, तुम्हारे स्नेह को देखकर हृदय विदीर्ण हो जाता है । माँ, तुम्हारे श्रीचरणों में मैं शरणागत हूँ ।”  

गाना सुनते ही छोटे नरेन्द्र गम्भीर ध्यान में मग्न हो रहे हैं, - शरीर काष्ठवत् जान पड़ता है । श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं, 'देखो देखो, कितना गम्भीर ध्यान है । बाहरी संसार का ज्ञान बिलकुल नहीं है ।'

गाना समाप्त हो गया । श्रीरामकृष्ण ने त्रैलोक्य से 'दे माँ पागल करे' गाने के लिए कहा । राम ने कहा, 'कुछ हरिनाम होना चाहिए ।' त्रैलोक्य गा रहे हैं, 'मन एकबार हरि कहो। '

मास्टर धीरे धीरे कह रहे हैं - " ‘निताई-गौर तुम दोनों भाई भाई’ यह गाना सुनने की श्रीरामकृष्ण की भी इच्छा है ।" त्रैलोक्य के साथ भक्तगण भी मिलकर गा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण भी साथ गाने लगे । यह गाना समाप्त होने पर दूसरा गाना शुरू किया गया । -“हरिनाम लेते हुए जिनकी आँखों से आँसू बह चलते हैं, वे दोनों भाई आये हैं । जो मार सहकर भी प्रेमदान देने के लिए तैयार रहते हैं, वे दोनों भाई आये हैं ।”

 इसके बाद श्रीरामकृष्ण ने स्वयं गाना गाया - “श्रीगौरांग के प्रेम-प्रवाह से नदिया में उथल-पुथल मची हुई है ।"

श्रीरामकृष्ण ने फिर गाया - “ हरिनाम लेता हुआ यह कौन जा रहा है ? ऐ माधाई, तू जरा देख तो आ ।"

गाना हो जाने पर छोटे नरेन्द्र बिदा हुए ।

श्रीरामकृष्ण - तू अपने माँ-बाप पर खूब भक्ति किया कर । परन्तु वे अगर ईश्वर के मार्ग में रोड़े अटकावें, तो उनकी बातें न मानना । खूब दृढ़ता रखना - वह बाप नहीं साला है, अगर ईश्वर के मार्ग में विघ्न खड़ा करता है ।

छोटे नरेन्द्र - न जाने क्यों, मुझे भय नहीं होता ।

गिरीश घर से लौट आये । श्रीरामकृष्ण त्रैलोक्य से परिचय करा रहे हैं । कह रहे हैं - 'तुम लोग कुछ वार्तालाप करो ।' दोनों में कुछ बातचीत हो जाने पर, त्रैलोक्य से कह रहे हैं, "जरा वही गाना एक बार और - 'जय शचीनन्दन’ ।"

त्रैलोक्य गाने लगे ।  

(भावार्थ) “हे शचीनन्दन, गुणाकर गौरांग, तुम पारस-पत्थर हो । भाव-रस के सागर हो । तुम्हारी मूर्ति कितनी सुन्दर है ! और कनक की आभामयी मनोहर आँखें ! मृणाल-निन्दित, आजानु-लम्बित, प्रेम-प्रसारित तुम्हारे कर-युगल भी कितने सुकुमार हैं । प्रेम-रस से भरा, छलकता हुआ रुचिर वदन-कमल, सुन्दर केश, चारु गण्डस्थल भी कितने सुंदर हैं !

तुम्हारे ईश्वरप्रेम की विकल आस्था से सर्वांग कितना आकर्षक हो रहा है ! तुम महाभाव-मण्डित हो, हरि-रस-रंजित हो रहे हो, आनन्द से तुम्हारा सर्वांग पुलकित हो रहा है । प्रमत्त मातंग की तरह, ऐ हेमकान्ति, तुम्हारे अंग आवेश-विभोर हो रहे हैं - अनुराग से भरे हुए हैं । तुम हरिगुण-गायक हो, अलोक-सामान्य हो, भक्तिसिन्धु के श्रीचैतन्य हो ।      

अहा ! 'भाई' कहकर चाण्डाल को भी तुम प्रेमपूर्वक हृदय से लगा लेते हो, दोनों बाहुओं को उठाकर हरि-नाम-कीर्तन करते हुए तुम्हारी आँखों से अविरल आँसुओं की धारा बह चलती है । 'मेरे जीवन-धन वे कहाँ हैं’, कहकर जब तुम रोदन करते हो, उस समय महा स्वेद होता है - कम्पन होता है, हुंकार के साथ गर्जना होती है ।  

पुलकित और रोमांचित होकर तुम्हारा सुन्दर शरीर धूलि-लुण्ठित हो जाता है । ऐ हरिलीलारस-निकेतन ! ऐ भक्ति-रस प्रस्रवण ! दीन-जन-बान्धव ऐ बंग-गौरव ! प्रेम-शशिधर ऐ श्री चैतन्य ! तुम धन्य हो - तुम धन्य हो !"

 'मेरे जीवन-धन वे कहाँ हैं, कहकर तुम रोदन करते हो,' यह सुनकर श्रीरामकृष्ण भावावेश में आकर खड़े हो गये, - बिलकुल बाह्य ज्ञान जाता रहा !

जब कुछ प्राकृत दशा हुई तब वे त्रैलोक्य से विनयपूर्वक कहने लगे - “एक बार वह गाना भी 'क्या देखा मैंने केशव भारती के कुटीर में !’ " त्रैलोक्य ने वह गाना भी गाया ।

गाना समाप्त हो गया । सन्ध्या हो आयी । श्रीरामकृष्ण अब भी भक्तों के साथ बैठे हुए हैं। श्रीरामकृष्ण (राम से) - बाजा नहीं है । अगर अच्छा बाजा रहा तो गाना खूब जमता है । (हँसकर) बलराम का बन्दोबस्त क्या है, जानते हो ? ब्राह्मण की गौ ! जो खाय तो कम, पर दूध दे सेरों ! (सब हँसते हैं) बलराम का भाव है- अपने गीत गाओ और अपने ढोल बजाओ ! (सब हँसते हैं)

[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]

(६)

🙏श्रीरामकृष्ण तथा विद्या का संसार 🙏

सन्ध्या हो गयी है । बलराम के बैठकखाने और बरामदे में चिराग जल गये । श्रीरामकृष्ण जगन्माता को प्रणाम करके उँगलियों पर बीजमन्त्र का जप कर मधुर स्वर से नाम ले रहे हैं । भक्तगण चारों ओर बैठे हैं । वे मधुर नाम सुन रहे हैं । गिरीश, मास्टर, बलराम, त्रैलोक्य तथा अन्य दूसरे बहुत से भक्त अब भी बैठे हैं । 'केशव चरित' ग्रन्थ में संसार के लिए श्रीरामकृष्ण के मतपरिवर्तन की जो बात लिखी है, त्रैलोक्य के सामने वह प्रसंग उठाने के लिए भक्तों ने निश्चय किया । गिरीश ने श्रीगणेश किया ।

वे (गिरीश) त्रैलोक्य से कह रहे हैं - "आपने जो यह लिखा है कि केशव के संपर्क में आने के बाद, संसार के सम्बन्ध में इनका (श्रीरामकृष्ण का) मत बदल गया है, वास्तव में बात वैसी नहीं, इनका मत परिवर्तित नहीं हुआ है ।"

श्रीरामकृष्ण - (त्रैलोक्य और दूसरे भक्तों से) - 'इधर का आनंन्द' मिलने पर फिर संसार नहीं सुहाता ।  ईश्वर का आनन्द मिल गया तो फिर संसार अलोना जान पड़ता है । शाल के मिलने पर फिर बनात  अच्छी नहीं लगती ।

त्रैलोक्य - जो लोग सांसारिक जीवन जीना चाहते हैं, मैंने उनकी बात लिखी है। जो लोग त्यागी हैं , मैं उनकी बात नहीं कहता ।

श्रीरामकृष्ण - ये सब तुम लोगों की कैसी बातें हैं ? जो लोग 'संसार में धर्म’ -'संसार में धर्म' की रट लगाते हैं, वे लोग एक बार अगर ईश्वर का आनन्द पा जायँ, तो उन्हें कुछ भी नहीं सुहाता । कामों के लिए जो दृढ़ता होती है, वह भी घट जाती है।  क्रमशः आनन्द जितना बढ़ता जाता है, उतना ही वे काम करने से थक जाते हैं, - केवल उस आनन्द की ही खोज में रहते हैं । कहाँ ईश्वरानन्द और कहाँ विषयानन्द और रमणानन्द ! एक बार ईश्वर के आनन्द का स्वाद पा जाने पर फिर मनुष्य उसी आनन्द की खोज के लिए तुल जाता है, संसार रहे चाहे जाय। 

"प्यास के मारे चातक की छाती फटी जाती है, सातों सागर, सारी नदियाँ तथा कुल तालाब पानी से भरे रहते हैं, फिर भी वह उनका जल नहीं पीता । स्वाति की बूँदों के लिए चोंच फैलाये रहता है। स्वाति की बूँदों को छोड़ उसके लिए और सब पानी धूल है ।

"कहते हैं, दोनों ओर बचाकर चलेंगे । दुअन्नी भर शराब पीकर आदमी दोनों तरफ की रक्षा चाहे कर ले, परन्तु कसकर शराब पी ले तो कैसे रक्षा हो सकेगी ?

“ईश्वर का आनन्द पा जाने पर  फिर और अच्छा नहीं लगता । तब कामिनी और कांचन की बात हृदय में चोट कर जाती है। (श्रीरामकृष्ण कीर्तन के स्वर में गुनगुनाते हुए कह रहे हैं-‘दूसरे आदमियों की और और बातें तो अब अच्छी ही नहीं लगतीं ।’ जब मनुष्य ईश्वर के लिए पागल हो जाता है तब रुपया -पैसा कुछ अच्छा नहीं लगता। 

त्रैलोक्य - संसार में रहना है तो धन का भी तो संचय चाहिए । दान-ध्यान आदि संसार में लगे ही रहते हैं ।

श्रीरामकृष्ण – क्या ! धन का संचय करके फिर ईश्वर ! और दान-ध्यान-दया भी कितनी ! अपनी लड़की के विवाह में तो हजारों रुपयो का खर्च - और पड़ोसी भूखों मरता है, उसे मुट्ठी भर अन्न देते कलेजा चिर जाता है ! संसारी मनुष्य दान भी बड़े हिसाब से करते हैं । लोग खाने को नहीं पाते - तो क्या हुआ, साले मरें या बचें, - मैं और मेरे घरवाले बस अच्छे रहे, बस हो गया ! सब जीवों पर दया, उनका जबानी जमा-खर्च है ।

त्रैलोक्य - संसार में अच्छे आदमी भी तो हैं, - प्रच्छन्न भक्त पुण्डरीक विद्यानिधि ^*  चैतन्यदेव के शिष्य थे । ये संसार में ही तो थे ।

श्रीरामकृष्ण - उसके गले तक शराब आ गयी थी । अगर थोड़ोसी और पी ली होती तो फिर संसार में नहीं रह सकता था ।

त्रैलोक्य चुप हो गये । मास्टर गिरीश से अकेले में कह रहे हैं – ‘तो इन्होंने जो कुछ लिखा है, वह ठीक नहीं है ।'

गिरीश (त्रैलोक्य से) - तो आपने  जो कुछ लिखा है, इस सम्बन्ध में  वह ठीक नहीं है । क्यों ?

त्रैलोक्य - नहीं क्यों ? क्या ये यह  नहीं मानते कि संसार में धर्म होता है ?

 श्रीरामकृष्ण - "होता है, परन्तु ज्ञानलाभ से पश्चात् संसार में रहना चाहिए, - ईश्वर को प्राप्त करके तब रहना चाहिए । " तब 'कलंक'  के समुद्र में तैरते रहने पर भी कोई कलंक उसके देह में नहीं छू जाता।  फिर वह कीच के भीतर रहनेवाली मछली की तरह रह सकता है । ईश्वरलाभ के बाद जो संसार है, वह विद्या का संसार है । उसमें कामिनी और कांचन का स्थान नहीं है । है केवल भक्ति, भक्त और भगवान । मेरे भी स्त्री है, - घर में लोटा-थाली भी है, - घुरु और लुच्छू को भोजन भी दे दिया जाता है, और फिर जब 'हाबी की माँ’ और ये लोग आते हैं, तब इन लोगों के लिए भी सोचता हूँ ।

[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]

(७)

🔱🙏श्रीरामकृष्ण तथा अवतार-तत्त्व🔱🙏

एक भक्त - (त्रैलोक्य से) - आपकी पुस्तक में मैंने देखा, आप ईश्वर के अवतार को नहीं मानते । यह चैतन्यदेव के प्रसंग में पाया ।

त्रैलोक्य - उन्होंने स्वयं प्रतिवाद किया है । पुरी में जब अद्वैत और उनके दूसरे भक्त उन्हें ही भगवान कहकर गाने लगे, तब गाना सुनकर चैतन्यदेव ने अपने घर के दरवाजे बन्द कर लिये थे । ईश्वर के ऐश्वर्य की इति नहीं है । ये जैसा कहते हैं, भक्त भगवान का बैठकखाना है, और बात भी यही जँचती है । बैठकखाना खूब सजाया हुआ है, तो क्या उसके अतिरिक्त उनके और कोई ऐश्वर्य नहीं है ?

गिरीश - ये कहते हैं, प्रेम ही ईश्वर का सारांश है । जिस आदमी के भीतर से प्रेम का आविर्भाव होता है, हमें उसी की जरूरत है । ये कहते हैं, गौ का दूध उसके स्तनों से आता है । अतएव हमे स्तनों की जरूरत है । गौ के दूसरे अंगों की आवश्यकता नहीं, - उसके पैरों या सींगों की जरूरत नहीं ।

त्रैलोक्य - उनका प्रेम-दुग्ध अनन्त मार्गों से होकर निकलता है । - उनमें अनन्त शक्ति है ।

गरीश - उस प्रेम के सामने और दूसरी कौनसी शक्ति ठहर सकती है ?

त्रैलोक्य – परन्तु फिर भी यदि उस सर्वशक्तिशाली ईश्वर की इच्छा हो तो सब कुछ हो सकता है । सब कुछ उनके हाथ में है ।

गिरीश - और सब शक्तियाँ तो उनकी हैं, - परन्तु अविद्याशक्ति ?

त्रैलोक्य - अविद्या भी कोई वस्तु है ! वह तो अभावमात्र है । जैसे अँधेरे में उजाले का अभाव । इसमें कोई शक नहीं कि हम प्रेम को बहुत बड़ा मानते हैं । पर साथ ही वह ईश्वर के लिए केवल एक बूँद के समान है, यद्यपि हमारे लिए समुद्रतुल्य । पर यदि तुम यह कहो कि ईश्वर के सम्बन्ध में प्रेम अन्तिम शब्द है, तब तो तुम ईश्वर को सीमित कर देते हो ।

श्रीरामकृष्ण - (त्रैलोक्य तथा दूसरे भक्तों से) - हाँ, हाँ, यह ठीक है; परन्तु थोड़ीसी शराब के पीने पर जब हमें काफी नशा हो जाता है, तो शराबवाले की दूकान में कितनी शराब है, इसके जानने की हमें क्या जरूरत ? अनन्त शक्ति की खबर से हमें क्या काम ?

गिरीश (त्रैलोक्य से) - आप अवतार मानते हैं ?

त्रैलोक्य - भक्त में ही भगवान अवतीर्ण होते हैं, अनन्त शक्ति का आविर्भाव नहीं होता, - न हो सकता है । ऐसा किसी भी मनुष्य में नहीं हो सकता ।

गिरीश - यदि अपने बच्चों को 'ब्रह्मगोपाल' कहकर पूजा की जा सकती है, तो क्या महापुरुष को ईश्वर कहकर पूजा नहीं की जा सकती ?

श्रीरामकृष्ण (त्रैलोक्य से) - अनन्त को लेकर क्यों माथापच्ची कर रहे हो ? तुम्हें छूने के लिए क्या तुम्हारे कुल शरीर को छूना होगा ? अगर गंगास्नान करना है तो क्या हरिद्वार से गंगासागर तक गंगा को छू जाना चाहिए ? 'मैं' मरा कि जंजाल दूर हुआ । जब तक 'मैं' है, तभी तक भेद-बुद्धि रहती है । 'मैं' के जाने पर क्या रहता है यह कोई नहीं कह सकता, - मुँह से यह बात नहीं कही जा सकती। जो कुछ है, बस वही है । तब, कुछ प्रकाश यहाँ हुआ है और बचा-खुचा वहाँ, - यह कुछ मुँह से नहीं कहा जाता । सच्चिदानन्द सागर है । उसके भीतर 'मैं' घट है । जब तक घट है तब तक पानी के दो भाग हो रहे हैं । एक भाग घट के भीतर है, एक बाहर । घट फूट जाने पर एक ही पानी है ! यह भी नहीं कहा जा सकता - कहे कौन ?

विचार हो जाने पर श्रीरामकृष्ण त्रैलोक्य के साथ मधुर शब्दों में वार्तालाप कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - तुम तो आनन्द में हो ?

त्रैलोक्य – कहाँ ? यहाँ से उठा नहीं कि फिर ज्यों का त्यों । इस समय अच्छी ईश्वर की उद्दीपना हो रही है ।

श्रीरामकृष्ण - जूते पहने रहो तो काँटों के बन में कोई भय नहीं रहता । ‘ईश्वर ही सत्य हैं और सब अनित्य’, इस बोध के रहने पर कामिनी और कांचन का फिर कोई भय नहीं रह जाता ।

त्रैलोक्य  को जलपान कराने के लिए बलराम उन्हें दूसरे कमरे में ले गये । श्रीरामकृष्ण त्रैलोक्य और उनके मत के लोगों की मानसिक अवस्था की बातें भक्तों से कह रहे हैं । रात के नौ बजे होंगे ।

श्रीरामकृष्ण - (गिरीश, मणि और दूसरे भक्तों से) - ये कैसे हैं, जानते हो ? कुएं के एक मेंढक ने यह नहीं देखा कि पृथ्वी कितनी बड़ी है; वह बस कुआँ पहचानता है । इसीलिए वह यह विश्वास करता ही नहीं कि पृथ्वी भी कोई चीज है । ईश्वर के आनन्द का पता नहीं मिला, इसीलिए संसार-संसार रट रहा है। 

(गिरीश से) "उनके साथ क्यों बकते हो ? वे दोनों में हैं। ईश्वर के आनन्द का स्वाद जब तक नहीं मिलता, तब तक उसकी बातें समझ में नहीं आतीं । पाँच साल के लड़के को क्या कोई रमणसुख समझा सकता है ? विषयी लोग जो ईश्वर-ईश्वर रटते हैं, वह सुनी हुई बात है । जैसे घर की बड़ी दीदी और चाची को आपस में लड़ाई करते हुए देखकर बच्चे उनसे सीखते हैं - 'मेरे लिए भगवान हैं' -'तुझे भगवान की कसम है ।'

"खैर, उनका दोष कुछ नहीं है । क्या सब लोग कभी उस अखण्ड सच्चिदानन्द को प्राप्त कर सकते हैं ? श्रीरामचन्द्र को सिर्फ बारह ऋषियों ने समझा था, सब उन्हें नहीं समझ सके । अवतार को कोई साधारण मनुष्य सोचते हैं - कोई साधु समझते हैं, - दो ही चार आदमी उन्हें  अवतार जान सकते हैं ।

“जिसके पास जितनी पूँजी है, उतना ही दाम वह एक चीज के लिए खर्च करता है । एक बाबू ने अपने नौकर से कहा, 'यह हीरा तू बाजार में ले जा, लौटकर मुझे बतलाना कि कौन कितनी कीमत देता है । पहले बैंगनवाले के पास जाना ।' नौकर पहले बैंगनवाले के पास गया । बैंगनवाले ने उसे उलट-पुलटकर देखा और कहा, 'भाई, मैं इस हीरे के बदले नौ सेर बैंगन मैं दे सकता हूँ ।' नौकर ने कहा, 'भाई जरा बढ़ो, भला दस सेर तो दो ।' उसने कहा, 'मैं बाजार-दर से ज्यादा कह चुका । इतने में पट जाय तो दे दो ।'तब नौकर ने हँसते हुए हीरा लौटाकर बाबू से कहा, 'बैंगनवाला नौ सेर से एक भी बैंगन अधिक नहीं देना चाहता । उसने कहा, मैं बाजार-दर से ज्यादा कह चुका ।’

"बाबू ने हँसकर कहा, ‘अच्छा अब की बार कपड़ेवाले के पास ले जा । बैंगनवाला तो बैगनों में पड़ा रहता है, वह और कहाँ तक समझेगा ।'कपड़ेवाले की पूँजी कुछ अधिक है, देखें जरा - वह क्या कहता है ।'

 नौकर कपड़ेवाले के पास गया और कहा, 'क्यों जी, यह चीज लोगे ? क्या दोगे ?' कपड़ेवाले ने कहा, 'हाँ, चीज तो अच्छी है, इससे स्त्रियों का कोई जेवर बन जायेगा । भाई, मैं नौ सौ रुपया दे सकता हूँ ।' नौकर ने कहा, 'भाई, कुछ और बढ़ो, तो छोड़ भी दें । अच्छा, हजार तो पूरा कर दो ।' कपड़ेवाले ने कहा, 'अब कुछ न कहो, मैने बाजार-दर से ज्यादा कह दिया है । नौ सौ रुपये से अधिक एक भी रुपया मैं न दूँगा ।' नौकर लौटकर मालिक के पास हँसते हुए पहुँचा और कहा, 'कपड़ेवाला कहता है - नौ सौ से एक कौड़ी भी ज्यादा न दूँगा । उसने यह भी कहा कि मैंने बाजार-दर से कीमत ज्यादा कह दी ।' तब उसके मालिक ने हँसते हुए कहा, 'अब जौहरी के पास जाओ, देखें, वह क्या कहता है ।' नौकर जौहरी के पास गया । जौहरी ने जरा देखकर ही एकदम कहा - 'एक लाख दूँगा ।

"संसार में इन लोगों का धर्म-धर्म चिल्लाना उसी तरह है, जैसे किसी मकान के सब दरवाजे तो बन्द हों और छत के छेद से जरासी रोशनी आ रही हो । सिर पर छत के रहने पर क्या कोई सूर्य को देख सकता है ? जरा सा उजाला आया भी तो क्या हुआ ? कामिनी-कांचन छत है । छत को गिराये बिना उस दशा में सूर्य को देखना मुश्किल है । संसारी आदमी मानो घरों में कैद हैं ।

"अवतार आदि ईश्वर-कोटि हैं । वे खुली जगहों में घूम रहे हैं । वे कभी संसार में नहीं बँधते, - पकड़ में नहीं आते । उनका 'मैं' संसारियों का-सा भद्दा ‘मैं’ नहीं है । संसारियों का अहंकार - संसारियों का 'मैं' उसी तरह है, जैसे चारों ओर से चार दीवार और ऊपर छत हो । बाहर की कोई वस्तु नजर नहीं आती । अवतार-पुरुषों का 'मैं' बारीक ‘मैं’ है। इस 'मैं' के भीतर से सदा ही ईश्वर दिखलायी देते हैं ।

जैसे एक आदमी चारदीवार के एक किनारे पर खड़ा हुआ है, और दीवार के दोनों ओर खुला हुआ खूब लम्बा-चौड़ा मैदान पड़ा हुआ है, उस चारदीवार में एक जगह एक छेद है, जिससे दोनों ओर स्पष्ट दीख पड़ता है । छेद अगर कुछ बड़ा हुआ तो इधर-उधर आना-जाना भी हो सकता है। अवतार-पुरुषों का और ईश्वरकोटि के भक्तों का अहंकार या 'मैं' वही छेदवाली चारदीवार है। चारदीवार के इधर रहने पर भी वही अनन्त घास का मैदान दिखलायी देता है - इसका अर्थ यह है कि शरीर धारण करने पर भी वे सदा योग में रहते हैं । फिर अगर इच्छा हुई तो बड़े छेद के उधर जाकर समाधिमग्न भी हो जाते हैं और छेद बड़ा रहा तो आना-जाना जारी भी रख सकते हैं । समाधिमग्न होने पर भी उतरकर आ सकते हैं

भक्तमण्डली विस्मय और बड़ी लगन के साथ चुपचाप अवतारतत्त्व सुन रही है ।

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**[अंग्रेजी कवि और निबंधकार अलेक्जेंडर पोप (1688 से 1744)] ने एक दोहे में लिखा है- "Our judgments, like our watches, none go just alike, yet each believes his own."]

 "जिस प्रकार हरएक मनुष्य यह समझता है कि उसी की घड़ी ठीक चलती है वैसे ही उसकी धारणा अपने धर्ममार्ग के बारे में भी होती है यद्यपि सब के मार्ग अलग अलग होते हैं, तथापि प्रत्येक मतावलम्बी यही समझता है कि, केवल उसका मार्ग (विश्वास) ही सही है। " 

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मंगलवार, 25 अक्टूबर 2022

$🔱 🙏परिच्छेद ~111, [( 6 अप्रैल 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-111 ]🔱🙏 काम का नाश हो जाना क्या कुछ साधारण बात है !🙏श्रीरामकृष्ण के भक्त जब तक 'मनुष्य' नहीं बन जाते वे उनके लिए व्याकुल रहते हैं !🙏🔱यथार्थ त्यागी साधु अगर उपदेश देता है तो लोगों पर उसका असर अधिक पड़ता है - साधुसंग,सत्संग🔱 कामिनी और कांचन ये दोनों अगर मन से दूर हो गये फिर बाकी ही क्या रहा ? तब तो बस ब्रह्मानन्द ही है 🙏 मन से कामिनी और कांचन के गये बिना 'अवतार' (पैगम्बर) को पहचानना मुश्किल है । 🔱"एक ऐसे भाव का फकीर आया है जो हिन्दुओं का देवता और मुसलमानों का पीर है।"🙏किशोरावस्था का वैराग्य एक आश्चर्य है 🔱 🔱 जो पैर जमाये खड़ा है, उसे अगर मार सको तो तुम्हारी महिमा है🔱🔱 🙏श्री गौरांग-कीर्तन 🔱 🙏🙏अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ [ISKCON-इस्कॉन🔱<<“उपाधि-नाश ">>🔱 🙏 साण्डिल्य भक्तिसूत्र : आत्मज्ञान हो जाने से मुक्ति नहीं-[सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् असक्तं सर्वभृत् च एव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥ 🔱 🙏🔱 🙏🔱 🙏 🔱🙏'सरल -ईश्वर' को सरल हुए बिना पहचाना नहीं जा सकता 🔱🙏[सहज मानुष ना होले 'सहज' के ना जाय चेना।

 परिच्छेद -111.

*कलकत्ते में श्रीरामकृष्ण*

 [(  6 अप्रैल 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-111 ] 

(१)

 🙏 बलराम के घर में भक्तों के साथ 🙏

दिन के तीन बज चुके हैं । चैत का महीना, धूप कड़ाके की पड़ रही है । श्रीरामकृष्ण दो-एक भक्तों के साथ बलराम के बैठकखाने में बैठे हुए मास्टर से वार्तालाप कर रहे हैं । आज 6 अप्रैल 1885,सोमवार है । श्रीरामकृष्ण कलकते में भक्तों के यहाँ आये हुए हैं । वहाँ वे अपने सांगोपांगों को देखेंगे और नीमू गोस्वामी की गली में देवेन्द्र के यहाँ जायेंगे ।

श्रीरामकृष्ण ईश्वर के प्रेम में दिनरात मतवाले रहते हैं । सदा ही भावावेश या समाधि होती रहती है। बाहरी संसार में मन बिलकुल नहीं है । केवल अन्तरंग भक्त जब तक स्वयं को पहचान न सकें, तब तक उनके लिए श्रीरामकृष्ण को व्याकुल ही समझिये, - जैसे माता-पिता अक्षम बालक के लिए व्याकुल रहते हैं और उसे मनुष्य (आदमी ?) बनाने के लिए सदैव ही चिन्तित रहा करते हैं, या जैसे चिड़िया अपने बच्चों का पालनपोषण करने के लिए व्याकुल रहती है ।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - मैंने कह दिया था कि तीन बजे आऊँगा, इसीलिए आना पड़ा । परन्तु धूप बड़ी तेज है ।

मास्टर - जी हाँ, आपको तो बड़ा कष्ट हुआ होगा ।

भक्तगण श्रीरामकृष्ण को पंखा झल रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - छोटे नरेन्द्र और बाबूराम के लिए मैं आया । पूर्ण को तुम क्यों नहीं लेते आये ?

मास्टर - सभा में वह नहीं आना चाहता । उसे भय होता है, आप पाँच आदमियों के बीच तारीफ करते हैं, कहीं उसके घरवालों को न मालूम हो जाय ।

श्रीरामकृष्ण - हाँ, यह तो ठीक है; अगर मैं कह भी डालता तो अब न कहूँगा । अच्छा, पूर्ण को तुम धर्म की शिक्षा दे रहे हो, यह बड़ा अच्छा है ।

मास्टर - विद्यासागर की पुस्तक में भी तो यही बात है कि ईश्वर को हृदय और मन से प्यार करो इसकी शिक्षा (ज्ञान-भक्ति की शिक्षा) देने से लड़कों के अभिभावक अगर नाराज हों तो किया क्या जाय ?

श्रीरामकृष्ण - इनकी पुस्तकों में बातें तो बहुत हैं, परन्तु जिन लोगों ने पुस्तकें लिखी हैं, वे खुद धारणा नहीं कर सके । साधु-संग करने पर धारणा होती है । यथार्थ त्यागी साधु अगर उपदेश देता है तो लोगों पर उसका असर अधिक पड़ता है । केवल पण्डितों की लिखी पुस्तकें पढ़कर या उनके उपदेश सुनकर उतनी धारणा नहीं होती । जिसके पास ही गुड़ के घड़े रखे हों, वह अगर रोगी को उपदेश दे कि गुड़ न खाना तो रोगी उसकी बात उतनी नहीं मानता । अच्छा, पूर्ण की अवस्था कैसी देख रहे हो ? क्या उसे भावावेश होता है ?

मास्टर - भाव की अवस्था बाहर से तो मुझे विशेष नहीं दीख पड़ती । एक दिन आपकी वह बात मैंने उससे कही थी ।

श्रीरामकृष्ण - कौनसी बात ?

मास्टर - आपने कहा था - छोटा आधार भावावेश को सम्हाल नहीं सकता, आधार अगर बड़ा हुआ तो उसके भीतर तो भाव खूब होता है, परन्तु बाहर उसके लक्षण प्रकट नहीं होने पाते । जैसा आपने कहा था, - बड़े तालाब में हाथी के उतर जाने पर कुछ भी समझ में नहीं आता, परन्तु वह अगर किसी गड़ही में उतर जाय तो उथल-पुथल मचा देता है, पानी की हिलोरें तट पर पछाड़ खा-खाकर गिरने लगती हैं ।

श्रीरामकृष्ण - बाहर उसका भावावेश नहीं दिखेगा, उसका स्वभाव कुछ दूसरा ही है, और और लक्षण तो सब अच्छे हैं न ?

मास्टर - आँखें खूब उज्ज्वल तथा विशाल हैं ।

श्रीरामकृष्ण - केवल आँखों के उज्ज्वल होने ही से नहीं हो जाता । ईश्वरभाववाली आँखें और होती हैं । अच्छा क्या तुमने उससे पूछा था - उसके बाद* उसे कैसा लगा ? (*श्रीरामकृष्ण से साक्षात् होने के बाद)

मास्टर - जी हाँ, बातें हुई थीं । वह चार-पाँच दिन से कह रहा है, ईश्वर की चिन्ता करने पर, उनका नाम लेने पर, आँखों में आँसू आ जाते हैं, रोमांच हो जाता है ।

श्रीरामकृष्ण - तो फिर और क्या चाहिए ?

श्रीरामकृष्ण और मास्टर चुप हैं । कुछ देर बाद मास्टर बोले - “वह खड़ा है -श्रीरामकृष्ण - कौन ?

मास्टर – पूर्ण । जान पड़ता है, अपने घर के दरवाजे के पास खड़ा है, हममें से कोई जाय तो वह दौड़कर हम लोगों को प्रणाम कर ले । श्रीरामकृष्ण – आहा ! –

श्रीरामकृष्ण तकिये के सहारे विश्राम कर रहे हैं । मास्टर के साथ एक बारह साल का लड़का आया हुआ है । मास्टर के स्कूल में पढ़ता है, नाम है क्षीरोद । मास्टर कहते हैं, "यह बड़ा अच्छा लड़का है, ईश्वर के नाम से इसे बड़ा आनन्द होता है ।" श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - आँखें तो हिरण जैसी हैं ।

लड़के ने श्रीरामकृष्ण के पैरों पर हाथ रखकर भूमिष्ठ हो प्रणाम किया और बड़े भक्ति-भाव से श्रीरामकृष्ण की पद-सेवा करने लगा । श्रीरामकृष्ण भक्तों के सम्बन्ध में वार्तालाप करने लगे ।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - राखाल घर में है । उसका भी शरीर अच्छा नहीं है, उसके फोड़ा हुआ है । मैंने सुना है, उसे एक लड़का होगा

पल्टू और विनोद सामने बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण (पल्टू से, सहास्य) - तूने अपने बाप से क्या कहा ? (मास्टर से) सुना, इसने यहाँ आने की बात पर अपने बाप को भी जवाब दे दिया। (पल्टू से) क्यों रे, क्या कहा ?

पल्टू – मैंने कहा, हाँ, मैं उनके पास जाया करता हूँ, तो यह कौनसा बुरा काम है ? (श्रीरामकृष्ण और मास्टर हँसे ।) अगर जरूरत होगी तो और भी इसी तरह की सुनाऊँगा ।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य, मास्टर से) - नहीं, क्यों जी, इतनी भी कहीं बढ़ा-चढ़ी होती है ?

मास्टर - जी नहीं, इतनी बढ़ा-चढ़ी अच्छी नहीं । (श्रीरामकृष्ण हँसते हैं)

श्रीरामकृष्ण (विनोद से) - तू कैसा है ? वहाँ, दक्षिणेश्वर, तू नहीं गया ?

विनोद - जी, जा रहा था, फिर डर के मारे नहीं गया । शरीर भी कुछ अस्वस्थ है ।

श्रीरामकृष्ण - वहाँ चल तो सही, वहाँ की हवा अच्छी है, चंगा हो जायेगा ।

छोटे नरेन्द्र आये । श्रीरामकृष्ण मुँह धोने के लिए जा रहे थे । छोटे नरेन्द्र अँगौछा लेकर श्रीरामकृष्ण को पानी देने के लिए गये । साथ में मास्टर भी हैं । छोटे नरेन्द्र पश्चिमवाले बरामदे के उत्तर कोने में श्रीरामकृष्ण के हाथपैर धो रहे हैं, पास ही मास्टर भी खड़े हैं ।

श्रीरामकृष्ण - बड़ी कड़ी धूप है । 

मास्टर - जी हाँ ।

श्रीरामकृष्ण - तुम किस तरह वहाँ रहते हो ! ऊपरवाले कमरे में गरमी नहीं होती ?मास्टर - जी हाँ, बड़ी गरमी होती है ।

श्रीरामकृष्ण - एक तो तुम्हारी स्त्री को मस्तिष्क की बीमारी है - उसे ठण्डे में रखा करो । मास्टर - जी हाँ, उसे नीचे के कमरे में सोने के लिए कह दिया है । 

श्रीरामकृष्ण बैठकखाने में फिर आकर बैठे । मास्टर से पूछ रहे हैं – “तुम इस रविवार को क्यों नहीं गये ?"

मास्टर – जी, घर में भी तो कोई नहीं है । तिस पर (स्त्री को) मस्तिष्क की बीमारी है । देखनेवाला कोई नहीं था ।

श्रीरामकृष्ण गाड़ी पर नीमू गोस्वामी की गली से होकर देवेन्द्र के यहाँ जा रहे हैं । साथ में छोटे नरेन्द्र, मास्टर और भी दो एक भक्त है । श्रीरामकृष्ण पूर्ण की बात कर रहे हैं । पूर्ण के लिए वे व्याकुल हैं ।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - बहुत बड़ा आधार है । नहीं तो अपने लिए जप कैसे करा लेता ! उसे तो ये सब बातें मालूम हैं ही नहीं ।

मास्टर और भक्तगण आश्चर्यभाव से सुन रहे हैं, श्रीरामकृष्ण ने पूर्ण के लिए बीजमन्त्र का जप किया ।

श्रीरामकृष्ण - आज उसे ले आते, लाये क्यों नहीं ?

छोटे नरेन्द्र को हँसते हुए देखकर श्रीरामकृष्ण भी हँस रहे हैं और भक्तगण भी हँस रहे हैं । श्रीरामकृष्ण आनन्दपूर्वक छोटे नरेन्द्र की ओर संकेत करके मास्टर से कह रहे हैं - देखो देखो, किस तरह हँस रहा है, जैसे कुछ भी नहीं जानता । परन्तु उसके मन के भीतर जमीन, जोरू, रुपया कुछ नहीं है । तीनों में से एक भी उसके मन में नहीं है । मन से कामिनी और कांचन के बिलकुल गये बिना कभी ईश्वरलाभ नहीं होता ।

श्रीरामकृष्ण देवेन्द्र के यहाँ जा रहे हैं । दक्षिणेश्वर में देवेन्द्र से एक दिन आप कह रहे थे, 'इच्छा होती है एक दिन तुम्हारे यहाँ जाऊँ ।' देवेन्द्र ने कहा था, 'मैं आपसे यह कहने के लिए आया था, इसी रविवार को जाना होगा ।' श्रीरामकृष्ण ने कहा, 'परन्तु तुम्हारी आमदनी कम है, अधिक आदमियों को न्योता न देना; और गाड़ी का किराया भी बहुत अधिक है ।' देवेन्द्र ने कहा था, 'आमदनी कम है तो क्या हुआ ? ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् (ऋण करके भी घी पीना चाहिए) ।’ श्रीरामकृष्ण यह सुनकर हँसने लगे । हँसी रुकती ही न थी ।

कुछ देर बाद घर पहुँचकर श्रीरामकृष्ण ने कहा - “देवेन्द्र, मेरे लिए भोजन बहुत थोड़ा बनवाना - मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है ।

[(  6 अप्रैल 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-111 ] 

(२)

*देवेन्द्र के घर में भक्तों के साथ*

श्रीरामकृष्ण देवेन्द्र के बैठकखाने में भक्तमण्डली में बैठे हुए हैं । बैठकखाना एकमँजले पर है । सन्ध्या हो गयी । कमरे में दिया जल रहा है । छोटे नरेन्द्र, राम, मास्टर, गिरीश, देवेन्द्र, अक्षय, उपेन्द्र इत्यादि बहुत से भक्त पास बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण एक बालक-भक्त को देखकर आनन्द में मग्न हो रहे हैं । उसी के सम्बन्ध में भक्तों से कह रहे हैं

"इसमें जमीन, रुपया, स्त्री तीनों में से एक भी नहीं है जिससे यह इस संसार में बँध जाय । इन तीनों में से एक पर भी मन को रखने से परमात्मा पर मन नहीं जाता, मन का योग नहीं होता । इसने कुछ देखा भी था ! (भक्त से) क्यों रे, बता तो, क्या देखा था तूने ?"

भक्त (हँसकर) - मैनें देखा, विष्ठा के कुछ ढेर पड़े हुए हैं । कोई कोई उसके ऊपर बैठे हुए हैं, कोई उससे कुछ दूर पर ।

श्रीरामकृष्ण - इसने देखा, संसारी मनुष्यों की यही दशा है, जो ईश्वर को भूले हुए हैं; इसीलिए इसके मन से सब छूटा जा रहा है । कामिनी और कांचन से मन अगर हट जाय तो फिर चिन्ता ही क्या है ?

"उः ! कितने आश्चर्य की बात है ! मेरा तो यह भाव बहुत कुछ जप और ध्यान करने पर दूर हुआ था । एकदम इतनी जल्दी इसका यह भाव दूर कैसे हो गया ! काम का नाश हो जाना क्या कुछ साधारण बात है ! छः महीने के बाद मेरी छाती में कुछ ऐसा होने लगा था कि पेड़ के नीचे पड़ा हुआ मैं रो-रोकर माँ से कहने लगा था - 'माँ, अगर कुछ बुरा हुआ तो मैं गले में छुरी मार लूँगा ।'

(भक्तों से) - "कामिनी और कांचन ये दोनों अगर मन से दूर हो गये फिर बाकी ही क्या रहा ? तब तो बस ब्रह्मानन्द ही है ।"

शशी (बाद में स्वामी रामकृष्णानन्द) उस समय पहले ही पहल श्रीरामकृष्ण के पास आने-जाने लगे थे । वे उस समय विद्यासागर कालेज में बी. ए. के प्रथम वर्ष में थे । श्रीरामकृष्ण अब उनकी बात कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (भक्तों से) - वह जो लड़का आया करता है, कुछ दिन के लिए, देखता हूँ, रुपये की ओर उसका मन कभी कभी चला जाया करेगा; परन्तु कुछ लोगों का मन, देखता हूँ, उधर बिलकुल नहीं जायेगा । कुछ लड़के विवाह करेंगे ही नहीं । 

भक्तगण चुपचाप सुन रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (भक्तों से) - मन से कामिनी और कांचन के गये बिना 'अवतार' को पहचानना मुश्किल है । किसी बैंगन-भंटा बेचने वाले से हीरे का मोल पूछा गया था । उसने कहा; ‘मैं इसके बदले में नौ सेर बैंगन-भंटा दे सकूँगा । इससे अधिक एक भी नहीं ।' (सब हँसते हैं, छोटे नरेन्द्र जोर से हँसते हैं ।)

श्रीरामकृष्ण ने देखा, छोटे नरेन्द्र बात का मर्म बहुत जल्द समझ गये ।

श्रीरामकृष्ण - इसकी बुद्धि कितनी सूक्ष्म है ! नागा इसी तरह बहुत जल्द समझ जाता था - गीता, भागवत में जहाँ जो कुछ है, वह समझ लेता था ।

“बचपन से ही कामिनी और कांचन का त्याग, यह बड़े आश्चर्य की बात है । परन्तु ऐसा बहुत कम आदमियों में होता है । नहीं तो पत्थर का मारा आम, जैसे न ठाकुरजी की सेवा में आता है, न कोई मनुष्य ही खाने की हिम्मत करता है ।

“पहले निर्विचार पाप करके फिर बुढ़ापे में ईश्वर का नाम लेना, यह बुराई की अपेक्षा अच्छा है ।

"अमुक मल्लिक की माँ बहुत बड़े घर की लड़की है । वेश्याओं की बात पर उसने पूछा, “उनका क्या किसी तरह उद्धार न होगा ?' स्वयं पहले उसने बहुत तरह के काम किये थे - इसीलिए उसने पूछा । मैंने कहा, 'हाँ, होगा अगर आन्तरिक प्रेरणा से व्याकुल होकर वे रोवें और कहें, ऐसा काम अब मैं न करूँगी । केवल हरिनाम करने से क्या ? हृदय से व्याकुल होकर रोना चाहिए ।' ”

(३)

*कीर्तनानन्द में श्रीरामकृष्ण*

अब ढोल-करताल लेकर कीर्तनिया संकीर्तन कर रहा है –

(भावार्थ) "मैंने यह क्या देखा ! केशव भारती की कुटी में, एक अपूर्व ज्योति - श्रीगौरांग की मूर्ति मैंने देखी ! उनके दोनों नेत्रों से शत शत धाराओं में प्रेम बह रहा है ।...

” श्रीरामकृष्ण को गाना सुनते सुनते भावावेश हो रहा है । अब कीर्तनिया श्रीकृष्ण के विरह की मारी गोपियों का वर्णन कर रहा है । व्रज की गोपियाँ माधवी कुंजों में श्रीकृष्ण को खोज रही है--

"री माधवी ! मेरे माधव को मुझे लौटा दे ! मेरे माधव को मुझे देकर, बिना दामों ही तू मुझे खरीद ले । जल जिस तरह मछलियों का जीवन है, उसी तरह माधव भी मेरे जीवन हैं । ....”

श्रीरामकृष्ण बीच में जोड़ रहे हैं - “मथुरा कितनी दूर है - जहाँ मेरा प्राणवल्लभ है ?"

श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हैं, देह निश्चल हो रही है । बड़ी देर से स्थिर हैं ।

कुछ देर बाद उनकी प्राकृत अवस्था हुई । परन्तु भावावेश अब भी है । इसी अवस्था में भक्तों की बात कह रहे हैं । बीच-बीच में माता से बातचीत भी कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (भावस्थ) - माँ, उसे अपनी ओर खींच लो, मैं अब अधिक उसकी चिन्ता नहीं कर सकता । (मास्टर से) मेरा मन तुम्हारे सम्बन्धी * की ओर कुछ खिंचा हुआ है ।

(गिरीश के प्रति) – “तुम गाली-गलौज बहुत करते हो, खैर, यह सब निकल जाना ही अच्छा है । किसी किसी को रक्तदोष का रोग भी होता है । उसका दूषित रक्त जितना ही बाहर निकल जाय, उतना ही अच्छा है । 

“उपाधि-नाश " के समय में ही शब्द होता है । काठ जलते समय चटाचट शब्द होता है । सब जल जाने पर फिर शब्द नहीं होता । – “तुम दिन पर दिन शुद्ध होओगे । दिन-दिन तुम्हारी खूब उन्नति होगी । लोगों को देखकर आश्चर्य होगा । मैं अधिक न आ सकूँगा, पर इससे क्या, तुम्हारी ऐसे ही बन जायेगी ।"

श्रीरामकृष्ण का भाव और भी गहरा होने लगा । फिर माता के साथ बातचीत कर रहे हैं, "माँ, जो खुद अच्छा है, उसे अच्छा करना कौनसी बड़ी बात है ? माँ, मरे को मारकर क्या होगा ? जो पैर जमाये खड़ा है, उसे अगर मार सको तो तुम्हारी महिमा है ।”

श्रीरामकृष्ण कुछ स्थिर होकर कुछ उँचे स्वर में कह रहे हैं, "मैं दक्षिणेश्वर से आ रहा हूँ, माँ, मैं अब जाता हूँ ।" मानो एक छोटा लड़का दूर से माता की आवाज सुनकर जवाब दे रहा है । श्रीरामकृष्ण की देह फिर निःस्पन्द हो गयी, समाधिमग्न होकर बैठे हुए हैं । भक्तगण अनिमेष लोचनों से चुपचाप देख रहे हैं ।

 श्रीरामकृष्ण भावावेश में फिर कह रहे हैं - "मैं अब पूड़ी न खाऊँगा ।”

  पड़ोस के दो-एक  गोस्वामी आये थे, वे चले गये ।

[( 6 अप्रैल 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-111 ]

(४)

*भक्तों के संग में*

श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ आनन्दपूर्वक वार्तालाप कर रहे हैं । चैत का महीना, गरमी जोरों की पड़ रही है । देवेन्द्र कुल्फीबरफ बनवाकर श्रीरामकृष्ण और भक्तों को दे रहे हैं । भक्तों को कुल्फी खाकर प्रसन्नता हो रही है । मणि धीरे धीरे कह रहे हैं - 'Encore ! Encore !’ (अर्थात् कुल्फी एक बार और-एकबार और !) । सब लोग हँस रहे हैं । कुल्फी देखकर श्रीरामकृष्ण को बिलकुल बच्चे की तरह आनन्द हो रहा है ।

श्रीरामकृष्ण - कीर्तन तो बड़ा अच्छा हुआ । गोपियों की दशा का वर्णन अच्छा किया, - 'री माधवी! मेरे माधव को दे ।' यह गोपियों के प्रेमोन्माद की अवस्था है । कितना आश्चर्य है ! कृष्ण के लिए सब पागल हो रही थीं ।

एक भक्त एक दूसरे की ओर इशारा करके कह रहे हैं, “इनका सखीभाव है – गोपीभाव ।” राम ने कहा, “इनके भीतर दोनों भाव हैं । मधुरभाव भी है और ज्ञान का कठोर भाव भी है ।"

श्रीरामकृष्ण - क्यों जी ?

श्रीरामकृष्ण अब सुरेन्द्र की बातचीत करने लगे ।

राम - मैंने खबर भेजी थी, परन्तु नहीं आया, न जाने क्यों ?

श्रीरामकृष्ण - काम से लौटने पर थक जाता है ।

एक भक्त - रामबाबू आपकी बात लिख रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - क्या लिखा है ?

भक्त - 'परमहंस की भक्ति' विषय पर उन्होंने लिखा है ।

श्रीरामकृष्ण - तो फिर क्या, राम की खूब प्रसिद्धि होगी ।

गिरीश (सहास्य) - इसलिए कि वह आपका चेला है ?

श्रीरामकृष्ण - `मेरे चेला-वेला कोई नहीं, मैं तो राम का दासानुदास हूँ ।'

पड़ोस के कोई कोई आये थे, परन्तु उन्हें देखकर श्रीरामकृष्ण को प्रसन्नता नहीं हुए । 

श्रीरामकृष्ण ने एक बार कहा, "यह कैसा मुहल्ला है ? यहाँ देखता हूँ, कोई नहीं है ।

देवेन्द्र अब श्रीरामकृष्ण को कमरे के अन्दर लिये जा रहे हैं । वहाँ श्रीरामकृष्ण के जलपान का बन्दोबस्त किया गया है । श्रीरामकृष्ण भीतर गये । 

श्रीरामकृष्ण प्रसन्नतापूर्वक घर के भीतर से वापस आये और बैठकखाने में फिर बैठे । भक्तगण पास बैठे हुए हैं । उपेन्द्र और अक्षय श्रीरामकृष्ण की दोनों ओर बैठे हुए उनकी चरणसेवा कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण देवेन्द्र के यहाँ की औरतों की बातें कह रहे हैं –

"औरतें बड़ी अच्छी (सरल) हैं, देहात की हैं न ? बड़ी भक्ति है ।"

[उपेन्द्र*[Upen — Upendranath Mukhopadhyay (1868 - 1919)] -उपेंद्रनाथ 'साप्ताहिक वसुमती' और 'दैनिक वसुमती' के संस्थापक थे। 'वसुमती साहित्य मंदिर' की स्थापना के बाद कोलकाता के प्रसिद्ध प्रकाशक बने थे। अक्षय * अक्षय कुमार सेन [Akshay Kumar Sen (1858 - 1923)] — ^बाद में इन्होंने बंगाली भाषा में कविता के छन्दों में "श्रीश्री रामकृष्ण पूँथी" नामक श्री रामकृष्ण की जीवनी की रचना की थी।] 

फिर वे अपने आप में मस्त होकर गाने लगे ।  वे भला किस भाव से गा रहे हैं ? क्या अपनी अवस्था का स्मरण होकर उन्हें उल्लास हो रहा है ? क्या इसीलिए वे ये गाना गा रहे हैं ? 

(भावार्थ) - "आदमी जब तक सहज (सीधा) नहीं हो जाता तब तक सहज को वह प्राप्त भी नहीं कर सकता ।"

(भावार्थ) - “ दरवेश ! तू खड़ा रह , मैं तेरे स्वरुप को जरा देख लूँ। " 

(भावार्थ) - " एक ऐसे भाव का फकीर आया है जो हिन्दुओं का देवता और मुसलमानों का पीर है।"

गिरीश प्रणाम करके बिदा हो गये । श्रीरामकृष्ण ने भी गिरीश को नमस्कार किया ।देवेन्द्र आदि भक्तों ने श्रीरामकृष्ण को गाड़ी पर चढ़ा दिया ।

 देवेन्द्र ने बैठकखाने के दक्षिण ओर आँगन में आकर देखा, उनके मुहल्ले का एक आदमी उस समय भी तख्त पर पड़ा सो रहा था । उन्होंने उसे जगाया । आँखें मलते हुए उठकर उसने पूछा - "क्या श्रीरामकृष्णदेव आये ?" सब लोग ठहाका मारकर हँसने लगे । यह आदमी श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए उनसे पहले आया था । गरमी लगने के कारण, आँगन में तख्त पर चटाई बिछाकर आराम से सो गया था

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर जा रहे हैं । गाड़ी पर मास्टर से आनन्दपूर्वक कह रहे हैं, "मैंने खूब कुल्फी खायी । तुम जब दक्षिणेश्वर आना तो चार-पाँच कुल्फियाँ लेते आना ।” श्रीरामकृष्ण मास्टर से फिर कह रहे हैं, "इस समय इन्हीं कुछ बालकों की ओर मन खिंचता है, - छोटे नरेन्द्र, पूर्ण और तुम्हारे सम्बन्धी की ओर ।"

मास्टर - द्विज की ओर ?

श्रीरामकृष्ण - नहीं, द्विज तो है ही, उससे बड़ा जो है उसकी ओर ।

मास्टर - अच्छा ।

श्रीरामकृष्ण आनन्द से गाड़ी पर जा रहे हैं ।

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🔱 🙏श्री गौरांग-कीर्तन🔱 🙏 

चैतन्य महाप्रभु [1486-1534] की संक्षिप्त जीवनी : श्रीगौरांग या चैतन्य महाप्रभु का जन्म 18 फरवरी 1486 ईस्वी में आधुनिक पश्चिम बंगाल के नादिया नामक स्थान पर हुआ था।  बंगाल में उनके जन्म स्थान को अव मायापुर के नाम से जाना जाता है। चैतन्य प्रभु के माता का नाम सचि देवी और पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र था।  चैतन्य चरितामृत के अनुसार उनका जन्म सिंह लग्न में फाल्गुन मास के पूर्णिमा के दिन हुआ था। भगवान श्री कृष्ण को राधा जी ने एक बार कहा था। आप एक बार राधा बनकर देखो तब हमारी विरह वेदना तुम्हें समझ आएगी।तब भगवान श्री कृष्ण ने राधा को बचन दिया था की ठीक हैं, कलयुग में हम जन्म लेंगे। उस बक्त शरीर तो कृष्ण का होगा लेकिन मन राधा की होगी। 

मात्र 16 वर्ष की उम्र में Sri Chaitanya Mahaprabhu का विवाह वल्लभाचार्य की कन्या लक्ष्मीप्रिया के साथ सम्पन हुआ। कहते हैं की उनकी पत्नी लक्ष्मीप्रिया की सर्पदंश से मृत्यु हो गई।अपनी माता के आग्रह पर उनका दूसरा विवाह सनातन मिश्र की कन्या विष्णुप्रिया के साथ हुआ। 

       चैतन्य महाप्रभु (Chaitanya Mahaprabhu) के बचपन का नाम 'निमाई' था। अपने पिता के मृत्यु के बाद उनके पिंड दान के लिए बिहार के गया जी आये। उन्होंने बिहार के गया में ईश्वरपुरी को अपना प्रथम गुरु बनाया तथा उनसे दीक्षा प्राप्त की।  गुरु ईश्वरपुरी से प्रेरणा स्वरूप ही उनके अंदर श्री कृष्ण के प्रति भक्ति भावना प्रकट हुई। निमाई पण्डित को मन्त्र-दीक्षा देकर श्रीईश्वरपुरी किधर और कहाँ चले गये, इसका अन्त तक किसी को पता नहीं चला। उन्होंने सोचा होगा, जगत-पूज्य प्रेमावतार लोक-शिक्षा के निमित्त गुरु मानकर हमें प्रणाम करेंगे, यह हमारे लिये अहसनीय होगा, इसलिये अब इस संसार में प्रकट रूप से नहीं रहना चाहिये। इसीलिये वे उसी समय अन्तर्धान हो गये।  चौबीस वर्ष की अवस्था में चैतन्य महाप्रभु ने गृहस्थाश्रम का त्याग करके  केशव भारती से सन्यास की दीक्षा ग्रहण की। सन 1510 में संत प्रवर श्री पाद केशव भारती से संन्यास की दीक्षा लेने के बाद निमाई का नाम कृष्ण चैतन्य देव हो गया। बाद में ये चैतन्य महाप्रभु के नाम से प्रख्यात हुए।

      चैतन्य महाप्रभु वैष्णव संप्रदाय से जुड़े थे। लेकिन उनके दृष्टि में सभी धर्म बराबर हैं वे सभी धर्मों का आदर करते थे। उन्होंने ऊंच-नीच और जाती पाती का भेद भाव कीये बिना एकता और सद्भावना पर जोर दिया।  चैतन्य महाप्रभु के सिद्धान्त हैं -" हरि-नाम में रुचि, जीव मात्र पर दया एवं वैष्णवों की सेवा।"  श्री महाप्रभु चैतन्य के जीवन का मात्र लक्ष्य लोगों में श्री कृष्ण भक्ति और संकीर्तन का प्रसार-प्रचार करना था।  उन्होंने हरिनाम संकीर्तन के द्वारा कृष्ण की भक्ति के प्रचार के लिए अद्वैताचार्य, नित्यानंद प्रभु, रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी को लगाया। जिन्होंने समस्त भारत के सुदूर गाँव तक इसका प्रचार किया। तत्पश्चात चैतन्य महाप्रभु ओडिसा चले गये। जहॉं कहते हैं की लगातार 12 वर्षों तक उन्होंने भगवान जगन्नाथ की भक्ति और आराधना की। चैतन्य प्रभु का अंतिम समय वृंदावन में बीता। चैतन्य प्रभु सन 1515 ईस्वी में वृंदावन आए और यहॉं कुछ वर्षों तक कृष्ण भक्ति में बिताया। कहते हैं की 14 जून 1534 ईस्वी में जगन्नाथपुरी में रथ यात्रा के दिन उन्होंने अपने शरीर को त्याग दिया। 

🙏अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ [ISKCON-इस्कॉन🙏 (International Society for Krishna Consciousness.] को "हरे कृष्ण आन्दोलन" (Hare Krishna Movement) के नाम से भी जाना जाता है। 1966 में न्यू यॉर्क सिटी में कृष्ण भक्ति में लीन इस अंतरराष्ट्रीय सोसायटी की स्थापना भक्तिवेदान्त स्वामी श्री ल प्रभुपाद ने किया था।  उन्होंने चैतन्य महाप्रभु के  कृष्ण के प्रति भक्ति धारा और वैष्णव मत का सुदूर पश्चिमी देशों तक प्रसार किया।  इस्कॉन के अनुयायी विश्व में श्रीमद्भगवत गीता एवं हिन्दू धर्म एवं संस्कृति का प्रचार-प्रसार करते हैं। भारत से बाहर विदेशों में हजारों महिलाओं को साड़ी पहने चंदन की बिंदी लगाए व पुरुषों को धोती कुर्ता और गले में तुलसी की माला पहने देखा जा सकता है। लाखों विदेशियों ने Nonveg तो क्या चाय, कॉफी, प्याज, लहसुन जैसे तामसी पदार्थों का सेवन छोड़कर शाकाहार शुरू कर दिया है। वे लगातार ‘हरे राम-हरे कृष्ण’ का कीर्तन भी करते रहते हैं। गुरू- भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी ने प्रभुपाद महाराज से कहा तुम युवा हो, तेजस्वी हो, कृष्ण भक्ति का विदेश में प्रचार-प्रसार करो। आदेश का पालन करने के लिए उन्होंने 59  वर्ष की आयु में संन्यास ले लिया और गुरु आज्ञा पूर्ण करने का प्रयास करने लगे। अपने साधारण नियम और सभी जाति-धर्म के प्रति समभाव के चलते इस मंदिर के अनुयायीयों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। हर वह व्यक्ति जो कृष्ण में लीन होना चाहता है, उनका यह मंदिर स्वागत करता है। इस समय देश-विदेश में इस्कॉन समूह के अनेक मंदिर और विद्यालय है। उनके जन्म स्थल बंगाल के मायापुर में एक विशाल और भव्य मंदिर का निर्माण किया गया है। 

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