परिच्छेद ११२.
*(कृष्णमयी के पिता) श्री बलराम बसु के मकान पर श्रीरामकृष्ण*
(१)
[(12 अप्रैल,1885)श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱स्वयं की साधना में पाप पुरुष को मारने का वर्णन🔱
ঠাকুরের নিজ মুখে কথিত সাধনা বিবরণ
श्रीरामकृष्ण कलकत्ते में भक्तों के साथ बलराम ^* के बैठकखाने में बैठे हुए हैं । गिरीश, मास्टर और बलराम हैं, धीरे-धीरे छोटे नरेन्द्र, पल्टू, द्विज, पूर्ण, महेन्द्र मुखर्जी आदि कितने ही भक्त आये। ब्राह्मसमाज के त्रैलोक्य सान्याल और जयगोपाल सेन भी आये हैं । स्त्री-भक्तों में भी बहुत सी स्त्रियाँ आयी हुई हैं । वे चिक की आड़ में बैठी हुई श्रीरामकृष्ण के दर्शन कर रही हैं ।
मोहिनीमोहन की स्त्री भी आयी हुई हैं - लड़के के गुजर जाने पर इनकी पागल जैसी अवस्था हो गयी है । वे तथा उनकी तरह शोकसन्तप्त और भी कितनी ही स्त्रियाँ आयी हुई हैं, उन्हें विश्वास है कि श्रीरामकृष्ण के पास अवश्य ही शान्ति मिलेगी । रविवार, १२ अप्रैल १८८५ । दिन के तीन बजे होंगे ।
[बलराम ^* [बलराम बसु] (1842 - 1890) - बलराम बसु उम्र में श्री रामकृष्ण (से 6 वर्ष छोटे) थे तथा उनके प्रमुख भक्तों में से एक थे। वे ठाकुरदेव की सत्ययुग की स्थापना लीला में सहायता पहुँचाने के लिए पूर्व निर्धारित रसददारों [अन्तरंग पार्षद-Mastermind group,"गुरु-शिष्य परम्परा में 'Be and Make' जीवन-गठन प्रशिक्षण आंदोलन " की योजना बनाने या सुव्यवस्थित रूप से संचालित करने में समर्थ अति कुशल या धीर मन वाले व्यक्तियों के समूह में से एक व्यक्ति या साम्यभाव में स्थित व्यक्तियों के समूह (भारत-कल्याण कार्यकारिणी समिति) का सदस्य)] कोलकाता के बागबजार में इनका जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम राधामोहन था। बलराम बसु के दादा गुरुप्रसाद के गृह देवता श्री श्रीराधा-श्यामसुंदर विग्रह के नाम पर इस क्षेत्र का नाम श्यामबाजार रखा गया। उस क्षेत्र में कृष्णराम बोस स्ट्रीट अभी भी बलराम के परदादा की गौरवशाली स्मृति का साक्षी है। हुगली जिले के आँटपुर-तड़ा गाँव में इनका पैतृक निवास था। उड़ीसा के बालेश्वर जिले में जमीन्दारी थी, और कोठार मौजा में इनके पितामह द्वारा स्थापित कचहरी थी। बलराम बसु के पिता श्री राधामोहन बसु के तीन पुत्र थे, बलराम अपने पिता के मँझले पुत्र थे, और बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। वैसे इस वैष्णव परिवार का प्रत्येक सदस्य ही धर्मपरायण थे। इनके पितामह (दादाजी) श्री गुरुप्रसाद बसु ने 'वृन्दावन धाम' में भी श्रीश्री राधाश्याम-सुन्दर (श्रीकृष्ण और श्री राधा युगल सरकार) की एक सुन्दर मूर्ति भी स्थापित की थी। वर्तमान में इस स्थान को वृन्दावन में 'कालाबाबू का कुञ्ज' के नाम से जाना जाता है। बलराम ने पहली बार 1882 ई.में दक्षिणेश्वर में श्री रामकृष्णदेव के दर्शन में किए थे। श्री रामकृष्ण ने पहली नजर में ही बलराम को अपने 'mastermind group' के एक सदस्य के रूप में पहचान लिया था। दक्षिणेश्वर से कोलकाता जाने पर श्रीरामकृष्ण सबसे अधिक बलराम घर पर ही ठहरते थे। श्री रामकृष्ण कहा करते थे कि "बलराम का भोजन शुद्ध भोजन" है, उनके यहाँ का भण्डारा खाने से भक्तिभाव में कोई विघ्न नहीं पड़ेगा। उन्होंने भावावस्था में बलराम को श्री चैतन्य महाप्रभु के 'हरे कृष्ण' कीर्तन दल में देखा था।श्री ठाकुरदेव ने बलराम बाबू की स्त्री (धर्मपत्नी) कृष्णभाविनी का उल्लेख श्रीमती (राधरानी) की अष्ट सखियों में प्रमुख (ललिता ?) के रूप में किया था। एक बार जब श्रीमती कृष्णभाविनि बीमार हो गयीं थीं , तब श्रीरामकृष्ण देव ने उनके घर पर जाकर उन्हें देखने के लिए श्रीश्रीमाँ सारदा देवी को दक्षिणेश्वर से कोलकाता भेजा था। बलराम के घर पर हर साल जब रथयात्रा का आयोजन होता था, तो वे ठाकुर देव को अपने घर पर आमंत्रित करते थे। यहाँ आकर ठाकुरदेव स्वयं रथ खींचते थे और रथ के सामने कीर्तन-नृत्य किया करते थे। ठाकुर कहते थे कि बलराम के परिवार के सभी सदस्य एक सुर में बंधे है, उनमें पारिवारिक एकता है। बलराम न केवल अपने पारिवारिक सदस्यों को बल्कि अपने हित-मित्रों को भी ठाकुरदेव के पास लाते थे ताकि वे लोग भी ठाकुर देव की कृपा-प्राप्त कर अपना जीवन धन्य कर सके, और उनके आशीर्वाद से अपना जीवन सुंदर रूप से गठित कर सके। श्री रामकृष्ण की महासमाधि के दिन तक वे ठाकुरदेव के दैनन्दिन खाद्यपदार्थों की व्यवस्था करते रहे थे। ठाकुर देव के शरीर-त्याग देने के बाद भी बलराम का निवास-स्थान ठाकुर के त्यागी सन्तानों का आश्रय-स्थल बना हुआ था। उनके निवास-स्थान को अब "बलराम-मंदिर" के नाम से जाना जाता है।
1 मई, 1897 ई० को श्रीरामकृष्णदेव के गृहस्थ एवं संन्यासी भक्त गण यहीं एक बैठक किये थे। उस बैठक में स्वामीजी ने कहा - " संघ के बिना कोई बृहत कार्य (बड़े पैमाने पर जीवन-गठन का काम) नहीं हो सकता। संघबद्ध होकर जीवन-गठन की शिक्षा या धर्म का प्रचार-प्रसार करने से जनसाधारण अधिक से अधिक संख्या में सहृदय मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त कर सकेंगे। जब वे मत-मतान्तर की संकीर्ण सीमा (जातिधर्म -भाषा की सीमा) के बाहर अपने विचारों को प्रसारित करना सीखेंगे , उस समय सामान्य-निर्वाचन पद्धति के अनुसार संघ की कार्यकारिणी समिति गठित की जा सकेगी। इसलिए इस संघ का नेतृत्व किसी साम्यभाव में स्थित नेता (डिक्टेटर, C-IN-C) के हाथों में रहना आवश्यक है। सभी को उनका आदेश मानकर चलना होगा। इसके बाद समय पर सबकी राय से एकमत होकर काम किया जायेगा। " इस बैठक के बाद यहीं पर रामकृष्ण मिशन की स्थापना हुई थी। इस घर में श्री श्रीमाँ भी आती थीं और रहा करती थीं। पूरी धाम में भी बलराम बाबू का निवास स्थान तथा वृन्दावन में 'काला बाबू का कुञ्ज' ही ठाकुर के त्यागी सन्यासियों और अनासक्त बनने की चेष्टा में लगे गृहस्थों के लिए साधन-भजन करने का उपयुक्त स्थान था। "श्री रामकृष्ण-सतयुग स्थापन लीला" के इतिहास में किसी अन्य भक्त परिवार को इतनी सक्रिय भूमिका निभाते नहीं देखा गया है। बलराम ने मात्र 47 वर्ष की आयु में श्री रामकृष्ण के समर्पित और त्यागी सन्तानों की उपस्थिति में अंतिम सांस ली। 1919 में कृष्णभाविनी देवी को काशी-प्राप्ति हुई। ]
SRI RAMAKRISHNA was sitting with the devotees in Balaram's drawing-room in Calcutta. M. arrived at three o'clock. Girish, Balaram, the younger Naren, Paltu, Dwija, Purna, Mahendra Mukherji, and many other devotees were there. Shortly Trailokya Sannyal, Jaygopal Sen, and other members of the Brahmo Samaj arrived. Many woman devotees were present also, seated behind a screen. Among them was Mohini's wife, who had almost gone insane on account of her son's death. There were a few other afflicted souls like her who used to visit the Master to obtain peace of mind.
ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ কলিকাতায় শ্রীযুক্ত বলরামের বৈঠকখানায় ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। গিরিশ, মাস্টার, বলরাম — ক্রমে ছোট নরেন, পল্টু, দ্বিজ, পূর্ণ, মহেন্দ্র মুখুজ্জে ইত্যাদি — অনেক ভক্ত উপস্থিত আছেন। ক্রমে ব্রাহ্মসমাজের শ্রীযুক্ত ত্রৈলোক্য সান্যাল, জয়গোপাল সেন প্রভৃতি অনেক ভক্ত আসিলেন। মেয়ে ভক্তেরা অনেকেই আসিয়াছেন। তাঁহারা চিকের আড়ালে বসিয়া ঠাকুরের দর্শন করিতেছেন। মোহিনীর পরিবারও আসিয়াছেন — পুত্রশোকে উন্মাদের ন্যায় — তিনি ও তাঁহার ন্যায় সন্তপ্ত অনেকেই আসিয়াছেন, এই বিশ্বাস যে ঠাকুরের কাছে নিশ্চই শান্তিলাভ হইবে।
मास्टर ने आकर देखा, श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बैठे हुए अपनी साधना और अनेकविध आध्यात्मिक अवस्था की बातें कह रहे हैं । मास्टर ने आकर श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया और उनकी आज्ञा पा उनके पास बैठ गये ।
Sri Ramakrishna was describing to the devotees the various incidents of his sadhana and the phases of his spiritual realization.
আজ ১লা বৈশাখ, চৈত্র কৃষ্ণা ত্রয়োদশী, ১২ই এপ্রিল, ১৮৮৫ খ্রীষ্টাব্দ, বেলা ৩টা হইবে।মাস্টার আসিয়া দেখিলেন, ঠাকুর ভক্তের মজলিস করিয়া বসিয়া আছেন ও নিজের সাধনা বিবরণ ও নানাবিধ আধ্যাত্মিক অবস্থা বর্ণনা করিতেছেন। মাস্টার আসিয়া ঠাকুরকে ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিলেন ও তাঁহার কাছে আসিয়া বসিলেন।
🔱 🙏परिच्छेद ~112, [( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]🔱
🔱साक्षात् भगवान शिव की उपस्थिति और निर्देशन में ठाकुर की साधना 🔱
[Thakur's sadhana in the presence and direction of Lord Shiva.]
श्रीरामकृष्ण (भक्तों से) - उस समय - साधना के समय ध्यान करता हुआ मैं देखता था, एक आदमी हाथ में त्रिशूल लिये हुए मेरे पास बैठा रहता था । मुझे डराता था, अगर मैं ईश्वर के चरणकमलों में मन न लगाऊँ तो वह वही त्रिशूल भोंक देगा । मन न लगाने पर छाती में त्रिशूल के बींधे जाने का डर था ।
MASTER: "During my sadhana, when I meditated, I would actually see a person sitting near me with a trident in his hand. He would threaten to strike me with the weapon unless I fixed my mind on the Lotus Feet of God, warning me that it would pierce my breast if my mind strayed from God.
শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — সে সময় (সাধনার সময়ে) ধ্যানে দেখতে পেতাম, সত্য সত্য একজন কাছে শূল হাতে করে বসে আছে। ভয় দেখাচ্ছে — যদি ঈশ্বরের পাদপদ্মে মন না রাখি শূলের বাড়ি আমায় মারবে। ঠিক মন না হলে বুক যাবে।
परिच्छेद ~112, [( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]🔱
🔱🙏नित्य-लीला : पुरुष-प्रकृति : विवेक-प्रयोग 🔱🙏
[Nitya-Lila Yoga — Purusha-Prakriti-Vivekayoga]
[নিত্য-লীলাযোগ — পুরুষ-প্রকৃতি-বিবেকযোগ ]
"कभी माँ ऐसी अवस्था कर देती थी कि नित्य से उतरकर मन लीला में आ जाता था और कभी लीला से नित्य पर चढ़ जाता था ।
"The Divine Mother would put me in such a state that sometimes my mind would come down from the Nitya to the Lila, and sometimes go up from the Lila to the Nitya.
“কখনও মা এমন অবস্থা করে দিতেন যে, নিত্য থেকে মন লীলায় নেমে আসত। আবার কখনও লীলা থেকে নিত্যে মন উঠে যেত।
"जब मन लीला में उतर आता था, तब कभी-कभी दिनरात मैं सीताराम की चिन्ता किया करता था। और सदा मुझे सीताराम के रूप भी दीख पड़ते थे, - रामलाला* को लिये सदा मैं घूमता था, कभी उसे नहलाता था, कभी खिलाता था । (*किसी वैष्णव साधु द्वारा दी गयी -अष्टधातुओं से बनी हुई राम की एक छोटीसी बाल मूर्ति ।)
"Sometimes, when the mind descended to the Lila, I would meditate day and night on Sita and Rama. At those times I would constantly behold the forms of Sita and Rama. Ramlala* was my constant companion. Sometimes I would bathe Him and sometimes feed Him.
“যখন লীলায় মন নেমে আসত কখনও সীতারামকে রাতদিন চিন্তা করতাম। আর সীতারামের রূপ সর্বদা দর্শন হত — রামলালকে (রামের অষ্টধাতু নির্মিত ছোট বিগ্রহ) নিয়ে সর্বদা বেড়াতাম, কখনও খাওয়াতাম।
मैं कभी कभी राधाकृष्ण के भाव में रहता था । उन रूपों के सदा दर्शन भी होते थे । कभी फिर गौरांग के भाव में रहता था । यह दो भावों का मेल था - पुरुष और प्रकृति के भावों का । इस अवस्था में सदा ही गौरांग के दर्शन होते थे । फिर यह अवस्था बदल गयी । तब लीला को छोड़कर मन नित्य में चढ़ गया ।
"Again, I used to be absorbed in the ideal of Radha and Krishna and would constantly see their forms. Or again, I would be absorbed in Gauranga. He is the harmonization of two ideals: the Purusha and the Prakriti. At such times I would always see the form of Gauranga. Then a change came over me. The mind left the plane of the Lila and ascended to the Nitya.
আবার কখনও রাধাকৃষ্ণের ভাবে থাকতাম। ওই রূপ সর্বদা দর্শন হত। আবার কখনও গৌরাঙ্গের ভাবে থাকতাম, দুই ভাবের মিলন — পুরুষ ও প্রকৃতি ভাবের মিলন। এ অবস্থায় সর্বদাই গৌরাঙ্গের রূপ দর্শন হত। আবার অবস্থা বদলে গেল!
सहजन के सामान्य पत्ते और तुलसी (पवित्र) के दल, सब एक जान पड़ने लगे । फिर ईश्वरी रूप देखना अच्छा नहीं लगा । मैंने कहा, 'तुमसे तो विच्छेद हो जाता है ।’ तब मैंने उनसे अपना मन निकाल लिया । कमरे में देवी-देवताओं की जितनी तस्बीरें थीं, सब हटा दीं । केवल उस अखण्ड सच्चिदानन्द - उस आदिपुरुष * की चिन्ता करने लगा। स्वयं दासीभाव से रहने लगा - पुरुष की दासी ! [आदिपुरुष *-12 जनवरी 1985 को ऑप्टिकल शॉप में जितनी तस्वीरें थीं सब निकाल दीं और केवल स्वामी विवेकानन्द (अखण्ड सच्चिदानन्द) की चिन्ता दास भाव से करने लगा ।]
I found no distinction between the sacred tulsi and the ordinary sajina plant. I no longer enjoyed seeing the forms of God; I said to myself, 'They come and go.' I lifted my mind above them. I removed all the pictures of gods and goddesses from my room and began to meditate on the Primal Purusha, the Indivisible Satchidananda, regarding myself as His handmaid.
সজনে তুলসী সব এক বোধ হতে লাগল। ঈশ্বরীয় রূপ আর ভাল লাগল না। বললাম, ‘কিন্তু তোমাদের বিচ্ছেদ আছে।’ তখন তাদের তলায় রাখলাম। ঘরে যত ঈশ্বরীয় পট বা ছবি ছিল সব খুলে ফেললাম। কেবল সেই অখণ্ড সচ্চিদানন্দ সেই আদি পুরুষকে চিন্তা করতে লাগলাম। নিজে দাসীভাবে রইলুম — পুরুষের দাসী।
"मैंने सब तरह की साधनाएँ की हैं । साधना तीन तरह की हैं - सात्त्विक, राजसिक और तामसिक । सात्त्विक साधना में उन्हें व्याकुल होकर पुकारा जाता है । अथवा केवल उनका नाम मात्र लिया जाता है । कोई दूसरी फलाकांक्षा नहीं रहती ।
"I practised all sorts of sadhana. There are three classes of sadhana: sattvic, rajasic, and tamasic. In the sattvic sadhana the devotee calls on the Lord with great longing or simply repeats His name; he doesn't seek any result in return.
“আমি সবরকম সাধন করেছি। সাধনা তিন প্রকার — সাত্ত্বিক, রাজসিক, তামসিক। সাত্ত্বিক সাধনায় তাঁকে ব্যাকুল হয়ে ডাকে বা তাঁর নামটি শুদ্ধ নিয়ে থাকে। আর কোন ফলাকাঙ্খা নাই।
राजसिक साधना में अनेक तरह की क्रियाएँ करनी पड़ती हैं, - इतने बार पुरश्चरण *करना होगा, इतने तीर्थ करने होंगे, पंचतप करना होगा, षोडशोपचारों से पूजा करनी होगी, यह सब।(मंत्र सिद्धि के लिए होने वाली प्रक्रिया पुरश्चरण है। "पुरश्चरण" के पांच अंग होते हैं-१. जप २. हवन ३. तर्पण ४. मार्जन ५. ब्राह्मण भोज। ) तामसिक साधना तमोगुण का आश्रय लेकर की जाती है । जय काली ! क्या तू दर्शन न देगी? - यह देख, गले में छूरी मार लूँगा, अगर तू दर्शन न देगी । इस साधना में शुद्धाचार नहीं है, जैसे तन्त्रोक्त साधना ।
The rajasic sadhana prescribes many rituals: purascharana, pilgrimage, panchatapa, worship with sixteen articles, and so forth. The tamasic sadhana is a worship of God with the help of tamas. The attitude of a tamasic devotee is this: 'Hail, Kali! What? Wilt Thou not reveal Thyself to me? If not, I will cut my throat with a knife!' In this discipline one does not observe conventional purity; it is like some of the disciplines prescribed by the Tantra.
"उस अवस्था में - साधनावस्था में - बड़े विचित्र-विचित्र दर्शन होते थे । आत्मा का रमण मैंने प्रत्यक्ष किया । मेरी ही तरह का एक आदमी (पुण्य पुरुष ?) मेरी देह में समा गया, और षट्पद्मों (छह केंद्र, जिसके माध्यम से कुंडलिनी उठती है।) के हरएक पद्म में वह रमण (commune- धार्मिक संलाप) करने लगा । छहों पद्म मूँदे हुए थे, उसके रमण के साथ ही हरएक पद्म खुलकर ऊर्ध्वमुख हो जाने लगा । इस तरह मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रार सब पद्म खिल गये और मैंने प्रत्यक्ष देखा, उनके मुख जो नीचे थे, ऊपर हो गये ।
["During my sadhana period I had all kinds of amazing visions. I distinctly perceived the communion of Atman. A person exactly resembling me entered my body and began to commune with each one of the six lotuses.2 The petals of these lotuses had been closed; but as each of them experienced the communion, the drooping flower bloomed and turned itself upward. Thus blossomed forth the lotuses at the centres of Muladhara, Svadhisthana, Anahata, Visuddha, Ajna, and Sahasrara. The drooping Bowers turned upward. I perceived all these things directly.
“সে অবস্থায় (সাধনার অবস্থায়) অদ্ভুত সব দর্শন হত, আত্মার রমণ প্রত্যক্ষ দেখলাম। আমার মতো রূপ একজন আমার শরীরের ভিতর প্রবেশ করলে! আর ষট্পদ্মের প্রত্যেক পদ্মের সঙ্গে রমণ করতে লাগল। ষট্পদ্ম মুদিত হয়েছিল — টক টক করে রমণ করে আর একটি পদ্ম প্রস্ফুটিত হয় — আর ঊর্ধ্বমুখ হয়ে যায়! এইরূপে মূলাধার, স্বাধিষ্ঠান, অনাহত, বিশুদ্ধ, আজ্ঞাপদ্ম, সহস্রার সকল পদ্মগুলি ফুটে উঠল। আর নিচে মুখ ছিল ঊর্ধ্বমুখ হল, প্রত্যক্ষ দেখলাম।”
[(12 अप्रैल, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱 🙏मनःसंयोग की साधना में दर्शन क्रिया ' कागज, कलम, मन लिखे तीन जन '🔱 🙏
[ধ্যানযোগ সাধনা — ‘নিবাত নিষ্কম্পমিবপ্রদীপম্’ ]
"साधना के समय ध्यान करता हुआ मैं अपने पर दीपशिखा के भाव का आरोप करता था, - जब हवा नहीं रहती है तब वह बिलकुल नहीं हिलती, - इसी भाव का आरोप करता था ।
[देह (ह्रदय) के बीच निर्वात् निष्कम्प दीपक शिखा की ज्योति पर प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास करने से ध्यान- समाधि होती है। )
"When I meditated during my sadhana, I used to think of the unflickering flame of a lamp set in a windless place.
“সাধনার সময় আমি ধ্যান করতে করতে আরোপ করতাম প্রদীপের শিখা — যখন হাওয়া নাই, একটুও নড়ে না — তার আরোপ করতাম।
"ध्यान के गम्भीर होने पर बाहरी ज्ञान का नाश हो जाता है । एक व्याध पक्षी मारने के लिए निशाना साध रहा था । उसके पास ही से वर-बराती, गाड़ी-घोड़े, बाजे-कहार बड़ी देर तक जाते रहे, परन्तु उसे कुछ भी होश न था । वह नहीं समझ सका कि पास से बरात कब निकल गयी ।
"In deep meditation a man is not at all conscious of the outer world. A hunter was aiming at a bird. A bridal procession passed along beside him, with the groom's relatives and friends, music, carriages, and horses. It took a long time for the procession to pass the hunter, but he was not at all conscious of it. He did not know that the bridegroom had gone by.
“গভীর ধ্যানে বাহ্যজ্ঞানশূন্য হয়। একজন ব্যাধ পাখি মারবার জন্য তাগ করছে। কাছ দিয়ে বর চলে যাচ্ছে, সঙ্গে বরযাত্রীরা, কত রোশনাই, বাজনা, গাড়ি, ঘোড়া — কতক্ষণ ধরে কাছ দিয়ে চলে গেল। ব্যাধের কিন্তু হুঁশ নাই। সে জানতে পারলো না যে কাছ দিয়ে বর চলে গেল।
"एक आदमी अकेला एक तालाब के किनारे मछली मारने के लिए बैठा था । बड़ी देर के बाद बंसी का 'शोला' हिला, कभीकभी वह पानी में कुछ डूब भी जाता था तब उसने बंसी को झपाटे के साथ खींचने की कोशिश की । इसी समय किसी राहगीर ने आकर उससे पूछा, ‘महाशय, अमुक बनर्जी का घर कहाँ है, क्या आप बतला सकेंगे ?' उत्तर कुछ भी न मिला । यह आदमी उस समय बंसी खींचने की ताक में था। पथिक ने बार बार उच्च स्वर से कहा, ‘महाशय, अमुक बनर्जी का घर क्या आप बतला सकेंगे ?" उधर उस आदमी को होश था ही नहीं, उसका हाथ काँप रहा था, बस शोले पर उसकी निगाह थी । तब पथिक नाराज हो वहाँ से चला गया । वह जब बड़ी दूर चला गया, तब इधर शोला बिलकुल डूब गया और उस आदमी ने झट बंसी खींचकर मछली को जमीन पर ला गिराया । तब अँगौछे से मुँह पोंछकर पथिक को ऊँची आवाज लगाकर उसने बुलाया – ‘एजी, सुनो - सुनो ।' पथिक लौटना नहीं चाहता था, कई बार के पुकारने पर वह आया । आते ही उसने कहा, 'क्यों महाशय, अब क्यों आप बुलाते हैं ?' तब उसने पूछा, 'तुम मुझसे क्या कह रहे थे ?' पथिक ने कहा, 'उस समय इतनी बार पूछा और अब पूछते हो क्या कहा था ?' उसने कहा, 'उस समय शोला डूब रहा था, (बाह्य -इन्द्रिय, अन्तर-इन्द्रिय और मन -अर्थात कागज,कलम मन तीनो एक हो रहे थे) इसलिए मैंने कुछ सुना ही 'नहीं ।'
"A man was angling in a lake all by himself. After a long while the float began to move. Now and then its tip touched the water. The angler was holding the rod tight in his hands, ready to pull it up, when a passer-by stopped and said, 'Sir, can you tell me where Mr. Bannerji lives?' There was no reply from the angler, who was just on the point of pulling up the rod. Again and again the stranger said to him in a loud voice, 'Sir, can you tell me where Mr. Bannerji lives?' But the angler was unconscious of everything around him. His hands were trembling, his eyes fixed on the float. The stranger was annoyed and went on. When he had gone quite a way, the angler's float sank under water and with one pull of the rod he landed the fish. He wiped the sweat from his face with his towel and shouted after the stranger. 'Hey!' he said. 'Come here! Listen!' But the man would not turn his face. After much shouting, however, he came back and" said to the angler, 'Why are you shouting at me?' 'What did you ask me about? said the angler. The stranger said,. 'I repeated the question so many times, and now you are asking me to repeat it once more!' The angler replied, 'At that time my float was about to sink; so I didn't hear a word of what you said.'
“একজন একলা একটি পুকুরের ধারে মাছ ধরছে। অনেকক্ষণ পরে ফাতনাটা নড়তে লাগল, মাঝে মাঝে কাত হতে লাগল। সে তখন ছিপ হাতে করে টান মারবার উদ্যোগ করছে। এমন সময় একজন পথিক কাছে এসে জিজ্ঞাসা করছে, মহাশয়, অমুক বাঁড়ুজ্যেদের বাড়ি কোথায় বলতে পারেন? সে ব্যক্তির হুঁশ নাই। তার হাত কাঁপছে, কেবল ফাতনার দিকে দৃষ্টি। তখন পথিক বিরক্ত হয়ে চলে গেল। সে অনেক দূরে চলে গেছে, এমন সময় ফাতনাটা ডুবে গেল, আর ও ব্যক্তি টান মেরে মাছটাকে আড়ায় তুললে। তখন গামছা দিয়ে মুখ পুঁছে, চিৎকার করে পথিককে ডাকছে — ওহে — শোনা — শোনো! পথিক ফিরতে চায় না, অনেক ডাকাডাকির পর ফিরল। এসে বলছে, কেন মহাশয়, আবার ডাকছ কেন? তখন সে বললে, তুমি আমায় কি বলছিলে? পথিক বললে, তখন অতবার করে জিজ্ঞাসা করলুম — আর এখন বলছো কি বললে! সে বললে, তখন যে ফাতনা ডুবছিল, তাই আমি কিছুই শুনতে পাই নাই।
"ध्यान में इस तरह की एकाग्रता (single-mindedness- एकाग्रचित्तता) होती है, उस समय और कुछ भी नहीं दीख पड़ता, न कुछ सुन पड़ता है । कोई छू भी ले तो समझ में नहीं आता ।(स्पर्श आदि अन्य किसी भी इन्द्रिय के प्रति भी मन सचेत नहीं रहता, इसीलिए कोई छू भी ले तो महसूस नहीं होता।) देह पर से साँप चला जाता है और कुछ पता नहीं चल पाता । जो ध्यान करता है, न वह समझ सकता है और न साँप । [ अद्वैत अवस्था में ध्याता और सर्प (ध्येय) दोनों में कोई भी अन्य का (दूसरे का) अनुभव नहीं करेगा।]
"A person can achieve such single-mindedness in meditation that he will see nothing, hear nothing. He will not be conscious even of touch. A snake may crawl over his body, but he will not know it. Neither of them will be aware of the other.
“ধ্যানে এইরূপ একাগ্রতা হয়, অন্য কিছু দেখা যায় না শোনাও যায় না। স্পর্শবোধ পর্যন্ত হয় না। সাপ গায়ের উপর দিয়ে চলে যায়, জানতে পারে না। যে ধ্যান করে সেও বুঝতে পারে না — সাপটাও জানতে পারে না।
“ध्यान के गहरे होने पर इन्द्रियों के (sense-organs) कुल काम बन्द हो जाते हैं । मन बहिर्मुख नहीं रहता, जैसे घर का बाहरी दरवाजा बन्द हो जाय । इन्द्रियों के विषय पाँच हैं - रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द - ये बाहर पड़े रहते हैं । [अली-मृग-मीन -पतंग-गज जरै एक ही आँच, तुलसी वे कैसे जिये जिन्हें जरावे पाँच। ]
"In deep meditation the sense-organs stop functioning; the mind does not look outward. It is like closing the gate of the outer court in a house. There are five objects of the senses: form, taste, smell, touch, and sound. They are all left outside.
“গভীর ধ্যানে ইন্দ্রিয়ের সব কাজ বন্ধ হয়ে যায়। মন বহির্মুখ থাকে না — যেন বার-বাড়িতে কপাট পড়লো। ইন্দ্রিয়ের পাঁচটি বিষয়! রূপ, রস, গন্ধ, স্পর্শ, শব্দ — বাহিরে পড়ে থাকবে।
[(12 अप्रैल, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱 🙏भावावस्था में विवेक-प्रयोग या वस्तु-विचार🔱 🙏
"ध्यान के समय पहले-पहल इन्द्रियों के सब विषय सामने आते हैं, ध्यान के गम्भीर होने पर वे फिर नहीं आते - सब बाहर पड़े रहते हैं । ध्यान करते समय, मुझे कितने ही प्रकार के दर्शन होते थे । मैंने प्रत्यक्ष देखा, सामने रुपये की ढेरी थी, शाल थी, एक थाली में सन्देश थे और दो औरतें थीं, उनकी नाक में नथ थी । तब मैंने मन से पूछा, 'मन तू क्या चाहता है ? क्या तू कुछ भोग करना चाहता है ?' मन ने कहा, 'नहीं, मैं कुछ भी नहीं चाहता, ईश्वर के पादपद्मों को छोड़ मैं और कुछ नहीं चाहता ।' स्त्रियों का भीतर-बाहर, सब मुझे दीख पड़ने लगा, - जैसे शीशे की आलमारियों की कुल चीजें बाहर से दीख पड़ती हैं । उनके भीतर मैंने देखा - मल, मूत्र, विष्ठा, कफ, लार, आतें, यही सब ।”
"At the beginning of meditation the objects of the senses appear before the aspirant. But when the meditation becomes deep, they no longer bother him. They are left outside. How many things I saw during meditation! I vividly perceived before me a heap of rupees, a shawl, a plate of sweets, and two women with rings in their noses. 'What do you want?' I asked my mind. 'Do you want to enjoy any of these things?' 'No,' replied the mind, 'I don't want any of them. I don't want anything but the Lotus Feet of God.' I saw the inside and the outside of the women, as one sees from outside the articles in a glass room. I saw what is in them: entrails, blood, filth, worms, phlegm, and such things."
“ধ্যানের সময় প্রথম প্রথম ইন্দ্রিয়ের বিষয় সকল সামনে আসে — গভীর ধ্যানে সে সকল আর আসে না — বাহিরে পড়ে থাকে। ধ্যান করতে করতে আমার কত কি দর্শন হত। প্রতক্ষ দেখলাম — সামনে টাকার কাঁড়ি, শাল, একথালা সন্দেশ, দুটো মেয়ে, তাদের ফাঁদী নথ। মনকে জিজ্ঞাসা করলাম আবার — মন তুই কি চাস? মন বললে, ‘না, কিছুই চাই না। ঈশ্বরের পাদপদ্ম ছাড়া আর কিছুই চাই না।’ মেয়েদের ভিতর-বার সমস্ত দেখতে পেলাম — যেমন, কাচের ঘরে সমস্ত জিনিস বার থেকে দেখা যায়! তাদের ভিতরে দেখলাম — নাড়ীভুঁড়ি, রক্ত, বিষ্ঠা, কৃমি, কফ, নাল, প্রস্রাব এই সব!”
[(12 अप्रैल, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱साम्यभाव में अवस्थित माँ जगदम्बा का पुत्र -कहेगा माँ सारदा तेरी इच्छा पूर्ण हो🔱
[অষ্টসিদ্ধি ও ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ]
गिरीश कभी-कभी कहते थे, 'श्रीरामकृष्ण का नाम लेकर बीमारी अच्छी किया करूँगा ।'
Girish Chandra Ghosh used to say now and then that he could cure illness by the strength of the Master's name.
শ্রীযুক্ত গিরিশ ঠাকুরের নাম করিয়া ব্যারাম ভাল করিব — এই কথা মাঝে মাঝে বলিতেন।
श्रीरामकृष्ण (गिरीश आदि भक्तों से) - जो हीन बुद्धि के हैं, वे ही सिद्धियाँ (occult powers -तान्त्रिक शक्तियाँ) चाहते हैं, - बीमारी अच्छी करना, मुकद्दमा जिताना, पानी के ऊपर से पैदल चले जाना, यह सब; जो शुद्ध भक्त हैं, वे ईश्वर के पादपद्मों को छोड़कर और कुछ नहीं चाहते ।
MASTER (to Girish and the other devotees): "People of small intellect seek occult powers — powers to cure disease, win a lawsuit, walk on water, and such things. But the genuine devotees of God don't want anything except His Lotus Feet.
শ্রীরামকৃষ্ণ (গিরিশ প্রভৃতি ভক্তদের প্রতি) — যারা হীনবুদ্ধি তারা সিদ্ধাই চায়। ব্যারাম ভাল করা, মোকদ্দমা জিতানো, জলে হেঁটে চলে যাওয়া — এই সব। যারা শুদ্ধভক্ত তারা ঈশ্বরের পাদপদ্ম ছাড়া কিছুই চায় না।
[(12 अप्रैल, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱 🙏सिद्धियाँ (occult powers) बूढ़ी वैश्या की विष्ठा जैसी हैं🔱 🙏
हृदय ने एक दिन कहा, 'मामा, माँ से कुछ तान्त्रिक शक्ति की प्रार्थना करो - कुछ सिद्धि (occult powers) माँगो ।' मेरा बालक का स्वभाव, - कालीमन्दिर में जप करते समय माँ से मैंने कहा, 'माँ, हृदय कुछ शक्ति और सिद्धि माँगने के लिए कहता है ।’
One day Hriday said to me, 'Uncle, please ask the Mother for some powers, some occult powers.' I have the nature of a child. While I was practising japa in the Kali temple, I said to Kali, 'Mother, Hriday asked me to pray to You for some occult powers.'
হৃদে একদিন বললে ‘মামা! মার কাছে কিছু শক্তি চাও, কিছু সিদ্ধাই চাও।’ আমার বালকের স্বভাব — কালীঘরে জপ করবার সময় মাকে বললাম, মা হৃদে বলছে কিছু সিদ্ধাই চাইতে।
उसी समय माँ ने दिखलाया, - एक बूढ़ी वेश्या, उम्र चालीस की होगी, सामने से आकर मेरी ओर पीछा करके पाखाना फिरने लगी । माँ ने दिखलाया, विभूति इसी बूढ़ी वेश्या की विष्ठा है । तब मैं हृदय के पास जाकर उसे डाँटने लगा । कहा, 'तूने क्यों मुझे ऐसी बात सिखलायी ? तेरे लिए ही तो मुझे ऐसा हुआ ।'
The Divine Mother at once showed me a vision. A middle-aged prostitute, about forty' years old, appeared and sat with her back to me. She had large hips and wore a black-bordered sari. Soon she was covered with filth. The Mother showed me that occult powers are as abominable as the filth of that prostitute. Thereupon I went to Hriday and scolded him, saying: 'Why did you teach me such a prayer? It is because of you that I had such an experience.'
অমনি দেখিয়ে দিলে সামনে এসে পেছন ফিরে উবু হয়ে বসলো — একজন বুড়ো বেশ্যা, চল্লিশ বছর বয়স — ধামা পোঁদ — কালাপেড়ে কাপড় পরা — পড় পড় করে হাগছে! মা দেখিয়ে দিলেন যে, সিদ্ধাই এই বুড়ো বেশ্যার বিষ্ঠা! তখন হৃদেকে গিয়ে বকলাম আর বললাম, তুই কেন আমায় এরূপ কথা শিখিয়ে দিলি। তোর জন্যই তো আমার এরূপ হল!
[(12 अप्रैल, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏गुरुगिरि करना और वैश्यावृत्ति दोनों एक हैं🔱🙏
“Gurugiri is like prostitution."
"जिनमें कुछ विभूतियाँ रहती हैं उन्हें ही प्रतिष्ठा, सम्मान, यह सब मिलता है । बहुतों की इच्छा होती है, मैं गुरुआई (गुरुगिरि?) करूँ, पाँच आदमी मुझे मानें, शिष्य सेवा करें, लोग कहेंगे, - भाई इनदिनों गुरुचरण सिंह (गुरुचरणा) का समय आजकल निहायत अच्छा चल रहा है, कितने ही लोग जाते हैं, चेले-चपाटे भी बहुत से हो गये हैं, घर में चीजों का ढेर लग रहा है, कितनी चीजें लोग ला-लाकर दे रहे हैं, वह चाहे तो उसमें ऐसी शक्ति है कि कितने ही आदमियों को खिला दे ।
"People with a little occult power gain such things as name and fame. Many of them want to follow the profession of guru, gain people's recognition, and make disciples and devotees. Men say of such a guru: 'Ah! He is having a wonderful time. How many people visit him! He has many disciples and followers. His house is overflowing with furniture and other things. People give him presents. He has such power that he can feed many people if he so desires.'
“যাদের একটু সিদ্ধাই থাকে তাদের প্রতিষ্ঠা, লোকমান্য এই সব হয়। অনেকের ইচ্ছা হয় গুরুগিরি করি — পাঁচজনে গণে মানে — শিষ্য-সেবক হয়; লোকে বলবে, গুরুচরণের ভাইয়ের আজকাল বেশ সময় — কত লোক আসছে যাচ্ছে — শিষ্য-সেবক অনেক হয়েছে — ঘরে জিনিসপত্র থইথই করছে! — কত জিনিস কত লোক এনে দিচ্ছে — সে যদি মনে করে — তার এমন শক্তি হয়েছে যে, কত লোককে খাওয়াতে পারে।
[(12 अप्रैल, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🙏`न आत्मानम् अवसादयेत् -"साबी" की तरह गुरुगिरि से अपना अधः पतन न करो 🙏
"गुरुआई और वेश्यापन दोनों एक हैं; - खाक रुपया-पैसा, लोकसम्मान, शरीर की सेवा, इन सब के लिए अपने को बेचना ! जिस शरीर, मन और आत्मा के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति होती है, उसी शरीर, मन और आत्मा को जरा सी वस्तु के लिए इस तरह कर रखना अच्छा नहीं । गीता 6.5 एक ने कहा था, साबी (सबिया-सबतिरिया ) का यह बड़ा अच्छा समय चल रहा है - इस समय उसकी पाँचों ऊँगलियाँ घी में हैं । एक कमरा उसने किराये से लिया है, - गोबर, कण्डे, चारपाई, ये सब अब उसके हैं; चार बासन भी हो गये है; बिस्तरा, चटाई, तकिया, सब कुछ है । कितने ही आदमी उसके वश में हैं, - आते-जाते रहते हैं । अर्थात् साबी अब वेश्या हो गयी है, इसीलिए उसके सुख की इति नहीं होती । पहले वह किसी भले आदमी के यहाँ दासी थी; अब वेश्या हो गयी है ! जरा सी वस्तु के लिए अपना सर्वनाश कर डाला ।
“[Gurugiri is like prostitution.] The profession of a teacher is like that of a prostitute. It is the selling of oneself for the trifle of money, honour, and creature comforts. For such insignificant things it is not good to prostitute the body, mind, and soul, the means by which one can attain God. A man once said about a certain woman (Sabi) : 'Ah! She is having a grand time now. She is so well off! She has rented a room and furnished it with a couch, a mat, pillows, and many other things. And how many people she controls! They are always visiting her.' In other words, the woman has now become a prostitute. Therefore her happiness is unbounded. Formerly she was a maidservant in a gentleman's house; now she is a prostitute. She has ruined herself for a mere trifle.
“গুরুগিরি বেশ্যাগিরির মতো। — ছার টাকা-কড়ি, লোকমান্য হওয়া, শরীরের সেবা, এই সবের জন্য আপনাকে বিক্রি করা। যে শরীর মন আত্মার দ্বারা ঈশ্বরকে লাভ করা যায়, সেই শরীর মন আত্মাকে সামান্য জিনিসের জন্য এরূপ করে রাখা ভাল নয়।১ একজন বলেছিল, সাবির এখন খুব সময় — এখন তার বেশ হয়েছে — একখানা ঘরভাড়া নিয়েছে — ঘুঁটে রে, গোবর রে, তক্তপোশ, দুখানা বাসন হয়েছে, বিছানা, মাদুর, তাকিয়া — কতলোক বশীভূত, যাচ্ছে আসছে! অর্থাৎ সাবি এখন বেশ্যা হয়েছে তাই সুখ ধরে না! আগে সে ভদ্রলোকের বাড়ির দাসী ছিল, এখন বেশ্যা হয়েছে! সামান্য জিনিসের জন্য নিজের সর্বনাশ!”
[(12 अप्रैल, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏सत्यार्थी श्री रामकृष्ण और पाप पुरुष का प्रलोभन🔱🙏
“साधना के समय ध्यान करते करते मैं और भी बहुत कुछ देखता था । बेल के पेड़ के नीचे ध्यान कर रहा था, पाप-पुरुष ^ आकर कितने ही तरह के लोभ दिखाने लगा । लड़ाकू गोरे का रूप धारण करके आया था ! रुपया, मान, रमण-सुख, नाना प्रकार की शक्तियाँ, बहुत कुछ उसने देना चाहा। मैं माँ को पुकारने लगा । बड़ी गुप्त बात है । माँ ने दर्शन दिये, तब मैंने कहा, 'माँ, इसे काट डालो ।' माता का वह रूप, भुवनमोहन रूप याद आ रहा है । वह कृष्णमयी* का रूप लेकर मेरे पास आयी थीं । - परन्तु उसकी दृष्टि (कृपा-कटाक्ष) के नर्तन के साथ ही मानो संसार हिल रहा है !" [कृष्णमयी -श्री रामकृष्ण बलराम बसु की छोटी कन्या 'कृष्णमयी' से बहुत स्नेह करते थे। और कृष्णमयी के पैतृक निवास जानेपर उनको बहुत बार ठाकुर द्वारा आशीर्वाद प्राप्त करने का मौका मिला था। ]
[कालिदास : राग-केदार, संध्या के प्रथम प्रहर में गाया जाने वाला राग : जय कालिके विकरालिके जय शत्रुसङ्घविदारिणी।
[पाप-पुरुष ^ 'Sin' -तंत्र में कल्पित पुरुष जिसका सारा शरीर पाप या पापों से ही बना हुआ माना जाता है।]
"How many other visions I saw while meditating during my sadhana! Once I was meditating under the bel-tree when 'Sin' appeared before me and tempted me in various ways. He came to me in the form of an English soldier. He wanted to give me wealth, honour, sex pleasure, various occult powers, and such things. I began to pray to the Divine Mother. Now I am telling you something very secret. The Mother appeared. I said to Her, 'Kill him. Mother!' I still remember that form of the Mother, Her world-bewitching beauty. She came to me taking the form of Krishnamayi.^ But it was as if her glance moved the world."(^The young daughter of Balaram Bose.)
“সাধনার সময় ধ্যান করতে করতে আমি আরও কত কি দেখতাম। বেলতলায় ধ্যান করছি, পাপপুরুষ এসে কতরকম লোভ দেখাতে লাগল। লড়ায়ে গোরার রূপ ধরে এসেছিল। টাকা, মান, রমণ সুখ নানারকম শক্তি, এই সব দিতে চাইলে। আমি মাকে ডাকতে লাগলাম। বড় গুহ্যকথা। মা দেখা দিলেন, তখন আমি বললাম, মা ওকে কেটে ফেলো। মার সেই রূপ — সেই ভুবনমোহন রূপ — মনে পড়ছে। কৃষ্ণময়ীর২ রূপ! — কিন্তু চাউনীতে যেন জগৎটা নড়ছে!” [কৃষ্ণময়ী পিতৃগৃহে বহুবার শ্রীরামকৃষ্ণের শুভাগমন হওয়াতে কৃষ্ণময়ীর ঠাকুরের সংস্পর্শে আসার সৌভাগ্য হয়। ঠাকুর কৃষ্ণময়ীকে বিশেষ স্নেহ করিতেন।
श्रीरामकृष्ण चुप हो रहे । कुछ देर बाद फिर कह रहे हैं - “और भी बहुत कुछ है, न जाने कौन मुँह दबा लेता है, कहने नहीं देता !
Sri Ramakrishna became silent. Resuming his reminiscences, he said: "How many other visions I saw! But I am not permitted to tell them. Someone one is shutting my mouth, as it were.
ঠাকুর চুপ করিলেন। ঠাকুর আবার বলিতেছেন — “আরও কত কি বলতে দেয় না! — মুখ যেন কে আটকে দেয়!
[(12 अप्रैल, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏'एक' श्री रामकृष्ण (सच्चिदानन्द-विवेकानन्द) ही 'अनेक' बन गए हैं 🔱🙏
"सहजन के पत्ते और तुलसी दल एक जान पड़ते थे । भेद-बुद्धि उसने दूर कर दी थी । बट के नीचे मैं ध्यान कर रहा था, उसने दिखलाया, एक दाढ़ीवाला मुसलमान* तश्तरी में भात लेकर सामने आया । तश्तरी से म्लेच्छों को खिलाकर मुझे भी कुछ दे गया । माँ ने दिखलाया – एक के सिवा दो नहीं हैं । सच्चिदानन्द ही अनेक रूपों से विचर रहे हैं । जीव, जगत्, सब वे ही हुए हैं । अन्न भी वे ही हुए हैं । *(मुहम्मद पैगम्बर)
[ I used to find no distinction between the sacred tulsi and the insignificant sajina leaf. The feeling of distinction was entirely destroyed. Once I was meditating under the banyan when I was shown a Mussalman ^ with a long beard. He came to me with rice in an earthen plate. He fed some other Mussalmans with the rice and also gave me a few grains to eat. The Mother showed me that there exists only One, and not two. It is Satchidananda alone that has taken all these various forms; He alone has become the world and its living beings. Again, it is He who has become food.
“সজনে তুলসী এক বোধ হত! ভেদ-বুদ্ধি দূর করে দিলেন। বটতলায় ধ্যান করছি, দেখালে একজন দেড়ে মুসলমান (মোহম্মদ) সানকি করে ভাত নিয়ে সামনে এল। সানকি থেকে ম্লেচ্ছদের খাইয়ে আমাকে দুটি দিয়ে গেল। মা দেখালেন, এক বই দুই নাই। সচ্চিদানন্দই নানারূপ ধরে রয়েছেন। তিনিই জীবজগৎ সমস্তই হয়েছেন। তিনিই অন্ন হয়েছেন।”
[(12 अप्रैल, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🙏भावावेश -सविकल्प समाधि या देश और काल की चेतना खोना।🙏
[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের বালকভাব ও ভাবাবেশ ]
(गिरीश, मास्टर आदि से) “मेरा बालक-स्वभाव है । हृदय ने कहा, 'मामा, माँ से कुछ शक्ति के लिए कहो, - बस मैं भी माँ से कहने के लिए चल दिया । (उस समय) ऐसी अवस्था में उसने (माँ काली ने ?) रखा था कि जो व्यक्ति पास रहेगा, मुझे उसकी बात माननी पड़ती थी । छोटा बच्चा जैसे कोई पास न रहने से सब कुछ अन्धकार ही देखता है, मुझे भी वैसा ही होता था । हृदय जब पास न रहता था, तब जान पड़ता था कि अब जान निकलने ही को है । यह देखो, वही भाव आ रहा है । बातें कहते ही कहते मन (मेरी अन्तरात्मा) उद्दीप्त हो रहा है ।”
(To Girish, M., and the others) "I have the nature of a child. Hriday said to me, 'Uncle, ask the Mother for some occult powers.' At once I went to the temple to ask Her about them. At that time God had put me in such a state that I had to listen to those who lived with me. I felt like a child who sees darkness all around unless someone is with him. I felt as if I should die unless Hriday was near me. You see I am in that state of mind just now. While I am speaking to you my inner spirit is being awakened."
(গিরিশ, মাস্টার প্রভৃতির প্রতি) — “আমার বালক স্বভাব। হৃদে বললে, মামা, মাকে কিছু শক্তির কথা বলো, — অমনি মাকে বলতে চললাম! এমনি অবস্থায় রেখেছে যে, যে ব্যক্তি কাছে থাকবে তার কথা শুনতে হয়। ছোট ছেলের যেমন কাছে লোক না থাকলে অন্ধকার দেখে — আমারও সেইরূপ হত! হৃদে কাছে না থাকলে প্রাণ যায় যায় হত! ওই দেখো ওই ভাবটা আসছে! — কথা কইতে কইতে উদ্দীপন হয়।”
यह कहते ही कहते श्रीरामकृष्ण को भावावेश होने लगा । देश और काल का ज्ञान मिटा जा रहा है। बड़ी मुश्किल से भाव-संवरण की चेष्टा कर रहे हैं । भावावेश में कह रहे हैं - “अब भी तुम लोगों को देख रहा हूँ, - परन्तु यह भासित होता है कि मानो सदा ही तुम लोग इस तरह बैठे हुए हो, - कब आये हो, कहाँ से आये, यह कुछ याद नहीं ।"
As Sri Ramakrishna uttered these words, he was on the point of plunging into samadhi and losing consciousness of time and space. But he was trying with the utmost difficulty to control himself. He said to the devotees in an ecstatic mood: "I still see you. But I feel as if you had been sitting here for ever. I don't recall when you came or where you are."
এই কথা বলিতে বলিতে ঠাকুর ভাবাবিষ্ট হইতেছেন। দেশ কাল বোধ চলিয়া যাইতেছে। অতি কষ্টে ভাব সম্বরণ করিতে চেষ্টা করিতেছেন। ভাবে বলিতেছেন, “এখনও তোমাদের দেখছি, — কিন্তু বোধ হচ্ছে যেন চিরকাল তোমরা বসে আছ, কখন এসেছ, কোথায় এসেছ এ-সব কিছু মনে নাই।”
[(12 अप्रैल, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🙏श्रद्धा उत्पन्न करने के उद्देश्य से माँ काली से पाप पुरुष को मारने के लिए कहें 🙏
श्रीरामकृष्ण कुछ देर स्थिर रहे । कुछ प्रकृतिस्थ होकर कह रहे है, "पानी पीऊँगा ।” समाधि-भंग के पश्चात् मन को उतारने के लिए यह बात प्रायः कहा करते हैं । गिरीश अभी नये आये हैं, वे नहीं जानते, इसलिए पानी ले आने के लिए चले । श्रीरामकृष्ण मना कर रहे हैं, कहा, "नहीं जी, अभी पानी न पी सकूँगा ।" श्रीरामकृष्ण और भक्तगण कुछ देर तक चुप हैं । अब श्रीरामकृष्ण मास्टर से बोले - “क्यों जी, क्या मैंने अपराध किया जो ये सब गुप्त बातें कह दीं ?”
Sri Ramakrishna was silent a few minutes. Then, regaining partial consciousness, he said, "I shall have a drink of water." He often said things like this after samadhi, in order to bring down his mind to the ordinary plane of consciousness. Girish was a new-comer and did not know this; so he started to bring some water. Sri Ramakrishna asked him not to, saying, "No, my dear sir, I cannot drink now." The Master and the devotees were silent awhile. Sri Ramakrishna resumed the conversation. MASTER (to M.): "Well, have I done any wrong in telling these secret experiences?"
ঠাকুর কিয়ৎকাল প্রকৃতিস্থ হইয়া বলিতেছেন, “জল খাব।” সমাধিভঙ্গের পর মন নামাইবার জন্য ঠাকুর এই কথা প্রায় বলিয়া থাকেন। গিরিশ নূতন আসিতেছেন, জানেন না তাই জল আনিতে উদ্যত হইলেন। ঠাকুর বারণ করিতেছেন আর বলিতেছেন, “না বাপু, এখন খেতে পারব না।” ঠাকুর ও ভক্তগণ ক্ষণকাল চুপ করিয়া আছেন। এইবার ঠাকুর কথা কহিতেছেন।শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — হ্যাঁগা, আমার কি অপরাধ হল? এ-সব (গুহ্য) কথা বলা?
श्रीरामकृष्ण (आग्रह से) - वहीं छोर ^ मिल रहा है ।
MASTER (eagerly: "In Purna I have reached the 'post'."
শ্রীরামকৃষ্ণ (সাগ্রহে) — ওইখানে খুঁটে মিলছে।
क्या इसका यह अर्थ है कि पूर्ण श्रीरामकृष्ण का सब से पीछे का भक्त है – अन्तिम छोर हैं, उसके बाद फिर कोई नहीं ?
[ अथवा यह अर्थ है ?-छोर ^ पूर्ण (extremity, climax=अनन्त विस्तार=100 % निःस्वार्थपरता ) मानो मेरी 'स्थिति ' है।]
Was Sri Ramakrishna hinting that Purna was perhaps the last devotee of his inner circle?
(२)
৪৪ ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ বলরাম-মন্দিরে ভক্তসঙ্গে
44 श्री रामकृष्णदेव बलराम-मंदिर में भक्तों के साथ
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🙏🔱🙏श्रीरामकृष्ण का महाभाव🙏🔱🙏
गिरीश और मास्टर आदि के पास श्रीरामकृष्ण अपने महाभाव की अवस्था का वर्णन कर रहे हैं ।
Sri Ramakrishna then described to Girish, M., and the other devotees his own experience of mahabhava.
গিরিশ, মাস্টার প্রভৃতিকে সম্বোধন করিয়া ঠাকুর নিজের মহাভাবের অবস্থা বর্ণনা করিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण (भक्तों से) - "उस" अवस्था के बाद आनन्द भी जितना है उसके पहले कष्ट भी उतना ही है । महाभाव ईश्वर का भाव है । वह इस शरीर और मन को डाँवाडोल कर देता है । जैसे एक बड़ा हाथी कुटिया में समा गया हो । कुटिया डाँवाडोल हो जाती है - कभी वह नष्ट भी हो जाती है।
MASTER (to the devotees): "My joy after that experience was equal to the pain I suffered before it. Mahabhava is a divine ecstasy; it shakes the body and mind to their very foundation. It is like a huge elephant entering a small hut. The house shakes to its foundation. Perhaps it falls to pieces.
শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — সে অবস্থার পরে আনন্দও যেমন, আগে যন্ত্রণাও তেমনি। মহাভাব ঈশ্বরের ভাব — এই দেহ-মনকে তোলপাড় করে দেয়! যেন একটা বড় হাতি কুঁড়ে ঘরে ঢুকেছে। ঘর তোলপাড়! হয়তো ভেঙেচুড়ে যায়!
"ईश्वर के लिए जो विरहाग्नि होती है, वह बहुत साधारण नहीं होती । इस अवस्था के होने पर रूप और सनातन जिस पेड़ के नीचे बैठे रहते थे, कहते हैं, उस पेड़ की पत्तियाँ भी झुलस जाया करती थीं । इस अवस्था में मैं तीन दिन तक अचेत पड़ा रहा था । हिलडुल भी नहीं सकता था, एक ही जगह पर पड़ा रहता था ।
"The burning pain that one feels when one is separated from God is not an ordinary feeling. It is said that the fire of this anguish in Rupa and Sanatana (Two great disciples of Sri Chaitanya.) scorched the leaves of the tree under which they sat. I was unconscious three days in that state. I couldn't move. I lay in one place.
“ঈশ্বরের বিরহ-অগ্নি সামান্য নয়। রূপসনাতন যে গাছের তলায় বসে থাকতেন ওই অবস্থা হলে এইরকম আছে যে, গাছের পাতা ঝলসা-পোড়া হয়ে যেত! আমি এই অবস্থায় তিনদিন অজ্ঞান হয়ে ছিলাম। নড়তে-চড়তে পারতাম না, এক জায়গায় পড়েছিলাম।
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🙏🔱🙏भैरवी ब्राह्मणी की सेवा🙏🔱🙏
जब होश आया तब ब्राह्मणी* मुझे पकड़कर नहलाने के लिए ले गयी; परन्तु हाथ से देह छूने की हिम्मत न थी - देह मोटी चादर से ढँकी रहती थी, उसी चादर पर से मुझे पकड़कर ब्राह्मणी ले गयी थी । देह में जो मिट्टी लगी हुई थी, वह जल गयी थी।
[ ब्राह्मणी* श्रीरामकृष्ण की तन्त्रसाधना की आचार्या भैरवी ब्राह्मणी 💐 जो श्रीरामकृष्णदेव की तांत्रिक गुरु थी और उन्होंने ही श्री रामकृष्ण को तांत्रिक साधना की 64 विद्याओं में निपुण किया था। वो हमेशा अपने साथ हिमालय से लाया , एक शालिग्राम पत्थर रखती थी , जो भगवान विष्णु की मूर्ति थी। वे वैष्णव भक्ति परम्परा का प्रतिनिधित्व करती थीं , तथा वो एक अनुपम गुरु थी ।*
When I regained consciousness, the Brahmani ^ took me out for a bath. But my skin couldn't bear the touch of her hand; so my body had to be covered with a heavy sheet. Only then could she hold me with her hand and lead me to the bathing-place. The earth that had stuck to my body while I was lying on the ground had become baked.
হুঁশ হলে বামনী আমায় ঘরে স্নান করাতে নিয়ে গেল। কিন্তু হাত দিয়ে গা ছোঁবার জো ছিল না। গা মোটা চাদর দিয়ে ঢাকা। বামনী সেই চাদরের উপর হাত দিয়ে আমায় ধরে নিয়ে গিছল। গায়ে যে সব মাটি লেগেছিল, পুড়ে গিছল!
[Brahmani ^^A brahmin woman who was one of Sri Ramakrishna's spiritual teachers. "By Mother's grace" - Experiences of Sri Ramakrishna during Tantra Sadhana:
During the Tantra Sadhana Sri Ramakrishna offered to the Divine Mother his body, mind and life and had several visions and experiences:
1. Sri Ramakrishna saw himself incessantly pervaded by the fire of knowledge, both inwardly and outwardly.
2. Sri Ramakrishna saw the awakening of the Kundalini. He saw a celestial male figure going through the Sushumna canal and opening up the lotuses of the Kundalini by touching them with his tongue.
3. Sri Ramakrishna had the vision of the Brahmayoni giving birth to innumerable worlds every moment.
4. Sri Ramakrishna heard the Anahata Dhvani.
5. Sri Ramakrishna in a vision saw the worthlessness of miraculous powers.
6. Sri Ramakrishna in a vision saw the deluding power of the universal Mother.
7. Sri Ramakrishna saw the beautiful vision of Shodasi which illumined the quarters.]
"जब वह अवस्था आती थी तब मेरुमज्जा के भीतर से जैसे कोई हल चला देता था । ‘अब जी गया, अब जी गया' यही रट लगी रहती थी । परन्तु उसके बाद फिर बड़ा आनन्द होता था ।" भक्त-मण्डली आश्चर्यचकित होकर ये बातें सुन रही हैं ।
"In that state I felt as if a ploughshare were passing through my backbone. I cried out: 'Oh, I am dying! I am dying!' But afterwards I was filled with great joy." The devotees listened breathlessly to these experiences of the Master.
“যখন সেই অবস্থা আসত শিরদাঁড়ার ভিতর দিয়ে যেন ফাল চালিয়ে যেত! ‘প্রাণ যায়, প্রাণ যায়’ এই করতাম। কিন্তু তারপরে খুব আনন্দ!” ভক্তেরা এই মহাভাবের অবস্থা বর্ণনা অবাক্ হইয়া শুনিতেছেন।
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🙏🔱🙏गृहस्थ भक्त को अनासक्त भाव से गृहस्थ धर्म का पालन करना चाहिए 🙏🔱🙏
श्रीरामकृष्ण (गिरीश से) - तुम्हारे लिए इतने की जरूरत नहीं । मेरा भाव केवल उदाहरण के लिए है । तुम लोग अनेक बातें लेकर रहते हो, मैं सिर्फ एक को ही लेकर । मुझे ईश्वर को छोड़ और कुछ अच्छा लगता नहीं । उनकी इच्छा । (सहास्य) एक डाल वाला पेड़ भी है और पाँच डालियों का पेड़ भी है। (सब हँसते हैं ।)
MASTER (to Girish): "But it isn't necessary for you to go so far. My experiences are for others to refer to. You busy yourself with five different things, but I have one ideal only. I do not enjoy anything but God. This is what God has ordained for me. (Smiling) There are different trees in the forest, some shooting up with one trunk and others spreading out with five branches. (All smile.)
শ্রীরামকৃষ্ণ (গিরিশের প্রতি) — এতদূর তোমাদের দরকার নাই। আমার ভাব কেবল নজিরের জন্য। তোমরা পাঁচটা নিয়ে আছ, আমি একটা নিয়ে আছি। আমার ঈশ্বর বই কিছু ভাল লাগে না। তাঁর ইচ্ছে। (সহাস্যে) একডেলে গাছও আছে আবার পাঁচডেলে গাছও আছে। (সহলের হাস্য)
"मेरी अवस्था उदाहरण के लिए है । तुम लोग संसार-धर्म का पालन करो, अनासक्त होकर । कीच लग जायेगी, परन्तु उसे 'पाँकाल' मछली की तरह झाड़ डाला करो । कलंक के सागर में तैरो, फिर भी देह में कलंक न छू जायेगा ।"
"Yes, my experiences are for others to refer to. But you should live in the world in a spirit of detachment. You will no doubt have dirt on your body, but you must shake it off as the mudfish shakes off the mud. You may swim in the black ocean of the world, but your body should not be stained."
“আমার অবস্থা নজিরের জন্য। তোমরা সংসার করো, অনাসক্ত হয়ে। গায়ে কাদা লাগবে কিন্তু ঝেড়ে ফেলবে, পাঁকাল মাছের মতো। কলঙ্কসাগরে সাঁতার দেবে — তবু গায়ে কলঙ্ক লাগবে না।”
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🙏संस्कार के लिए विवाह करना पड़ता है🙏
[Marriage is necessary for the sake of samskara.]
🙏🔱🙏श्रीरामकृष्ण परमहंस और शुकदेव परमहंस का विवाह🙏🔱🙏
गिरीश - आपका भी तो विवाह हो गया है । (हास्य)
GIRISH (smiling): "But you too had to marry." (Laughter.)
গিরিশ (সহাস্যে) — আপনারও তো বিয়ে আছে। (হাস্য)
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - संस्कार के लिए विवाह करना पड़ता है । परन्तु मैं सांसारिक जीवन कैसे व्यतीत कर सकता था ? ईश्वरदर्शन के लिए मेरी व्याकुलता इतनी तीव्र थी कि जब जब मेरे गले में जनेऊ डाल दिया जाता था, वह आप ही गिर जाता था । - मैं सँभाल नहीं सकता था । एक मत में है - शुकदेव का विवाह संस्कार ^ के लिए हुआ था । एक कन्या भी शायद हुई थी । (सब हँसते हैं ।)
MASTER (smiling): "Marriage is necessary for the sake of samskara.^ But how could I lead a worldly life? So uncontrollable was my divine fervour that every time the sacred thread was put around my neck it dropped off. Some believe that Sukadeva also had to marry — for the sake of samskara. They say he even had a daughter. (All laugh.)
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্য) — সংস্কারের জন্য বিয়ে করতে হয়, কিন্তু সংসার আর কেমন করে হবে! গলায় পৈতে পরিয়ে দেয় আবার খুলে খুলে পড়ে যায় — সামলাতে পারি নাই। একমতে আছে, শুকদেবের বিয়ে হয়েছিল — সংস্কারের জন্য। একটি কন্যাও নাকি হয়েছিল। (সকলের হাস্য)
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏विवेक-प्रयोग : विद्या का संसार और अविद्या का संसार🔱🙏
"कामिनी और कांचन ही संसार है - ईश्वर को भुला देता है ।"
["'Woman and gold' alone is the world. It makes one forget God."
“কামিনী-কাঞ্চনই সংসার — ঈশ্বরকে ভুলিয়ে দেয়।”
गिरीश - कामिनी और कांचन छोड़े, तब न ?
GIRISH: "But how can we get rid of 'woman and gold'?"
গিরিশ — কামিনী-কাঞ্চন ছাড়ে কই?
श्रीरामकृष्ण - उनसे व्याकुल होकर प्रार्थना करो, विवेक के लिए प्रार्थना करो । ईश्वर ही सत्य हैं और सब अनित्य - इसी को विवेक कहते हैं । छन्ने से पानी छान लेना चाहिए, इस तरह उसका मैल एक तरफ पड़ा रहता है, अच्छा जल एक तरफ आ जाता है । विवेकरूपी छन्नों का उपयोग करो । तुम लोग उन्हें जानकर संसार करना । यही विद्या का संसार कहलाता है ।
MASTER: "Pray to God with a yearning heart. Pray to Him for discrimination. 'God alone is real and all else illusory' — this is discrimination. One strains water through a fine sieve in order to separate the dirt from it. The clear water goes through the sieve leaving the dirt behind. Apply the sieve of discrimination to the world. Live in the world after knowing God. Then it will be the world of vidya.
শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁকে ব্যাকুল হয়ে প্রার্থনা কর, বিবেকের জন্য প্রার্থনা কর। ঈশ্বরই সত্য আর সব অনিত্য — এরই নাম বিবেক! জল-ছাঁকা দিয়ে জল ছেঁকে নিতে হয়। ময়লাটা একদিকে পড়ে — ভাল জল একদিকে পড়ে, বিবেকরূপ জল-ছাঁকা আরোপ করো। তোমরা তাঁকে জেনে সংসার করো। এরই নাম বিদ্যার সংসার।
"देखो न, स्त्रियों में कितनी मोहिनी शक्ति है - तिस पर अविद्या-रूपिणी स्त्रियाँ पुरुषों को मानो एक बेवकूफ जड़पदार्थ बना देती है । जब देखता हूँ, स्त्री-पुरुष एक साथ बैठे हुए हैं तब सोचता हूँ, अहा ! ये बिलकुल ही गये ! (मास्टर की ओर देखकर) हारू इतना अच्छा लड़का है, परन्तु वह प्रेतनी के हाथों पड़ा है ! लाख कहो - 'अरे मेरे हारू, तुम कहाँ गये ! हारू तुम कहाँ गये !' कहाँ है हारू ! लोगों ने देखा चलकर, हारू बट के नीचे चुपचाप बैठा हुआ है; न वह रूप है, न वह तेज, न वह आनन्द ! बट की प्रेतनी हारू पर सवार है !
"Just see the bewitching power of women! I mean the women who are the embodiment of avidya, the power of delusion. They fool men, as it were. They take away their inner substance. When I see a man and woman sitting together, I say to myself, 'Alas, they are done for!' (Looking at M.) Haru, such a nice boy, is possessed by a witch. People ask: 'Where is Haru? Where is he?' But where do you expect him to be? They all go to the banyan and find him sitting quietly under it. He no longer has his beauty, power, or joy. Ah! He is possessed by the witch that lives in the banyan.
“দেখ না, মেয়ে-মানুষের কি মোহিনী শক্তি, অবিদ্যারূপিণী মেয়েদের। পুরুষগুলোকে যেন বোকা অপদার্থ করে রেখে দেয়। যখনই দেখি স্ত্রী-পুরুষ একসঙ্গে বসে আছে, তখন বলি, আহা! এরা গেছে। (মাস্টারের দিকে তাকাইয়া) — হারু এমন সুন্দর ছেলে, তাকে পেতনীতে পেয়েছে! — ‘ওরে হারু কোথা গেল’, ‘ওরে হারু কোথা গেল’। সব্বাই গিয়ে দেখে হারু বটতলায় চুপ করে বসে আছে। সে রূপ নাই, সে তেজ নাই, সে আনন্দ নাই! বটগাছের পেতনীতে হারুকে পেয়েছে।
"बीबी अगर कहे, 'जरा चले तो जाओ’, बस आप उठकर खड़े हो गये; अगर कहा, 'बैठो', तो कहने भर की देर होती है, आप बैठ गये !
"If a woman says to her husband, 'Go there', he at once stands up, ready to go. If she says, 'Sit down here', immediately he sits down.
“স্ত্রী যদি বলে ‘যাও তো একবার’ — অমনি উঠে দাঁড়ায়, ‘বসো তো’ — আমনি বসে পড়ে।
"एक उम्मीदवार बड़े बाबू के पास जाते-जाते हैरान हो गया । काम किसी तरह न मिला । बाबू आफिस के बड़े बाबू थे । वे कहते थे, 'अभी जगह खाली नहीं है, मिलते रहना ।’ इस तरह बहुत समय कट गया । उम्मीदवार हताश हो गया ।
"A job-seeker got tired of visiting the manager in an office. He couldn't get the job. The manager said to him, 'There is no vacancy now; but come and see me now and then.' This went on for a long time, and the candidate lost all hope.
“একজন উমেদার বড়বাবুর কাছে আনাগোনা করে হায়রান হয়েছে। কর্ম আর হয় না। আফিসের বড়বাবু। তিনি বলেন, এখন খালি নাই, মাঝে মাঝে এসে দেখা করো। এইরূপে কতকাল কেটে গেল — উমেদার হতাশ হয়ে গেল।
वह अपने एक मित्र से अपना दुःख रो रहा था । मित्र ने कहा, 'तू भी अक्ल का दुश्मन ही है ! - अरे उसके पास क्यों दौड़-धूप कर रहा है ? गुलाबजान के पास जा, उससे सिफारिश करा, तो काम हो जायेगा ।’ उम्मीदवार बोला, 'ऐसी बात है ! तो मैं अभी जाता हूँ ।’ गुलाबजान बड़े बाबू की रखेली है ।
One day he told his tale of woe to a friend. The friend said: 'How stupid you are! Why are you wearing away the soles of your feet going to that fellow? You had better go to Golap. You will get the job tomorrow.' 'Is that so?' said the candidate. 'I am going right away.' Golap was the manager's mistress.
সে একজন বন্ধুর কাছে দুঃখ করছে। বন্ধু বললে তোর যেমন বুদ্ধি। — ওটার কাছে আনাগোনা করে পায়ের বাঁধন ছেঁড়া কেন? তুই গোলাপকে ধর, কালই তোর কর্ম হবে। উমেদার বললে, বটে! — আমি এক্ষণি চললুম। গোলাপ বড়বাবুর রাঁড়।
उम्मीदवार उससे मिला, कहा, 'माँ, तुम्हारे बिना किये न होगा - मैं बड़ी विपत्ति में पड़ गया हूँ । ब्राह्मण का बच्चा हूँ, कहाँ मारा मारा फिरूँ ? माँ, बहुत दिनों से कामकाज कुछ नहीं मिला, लड़केबच्चे भूखों मर रहे हैं, तुम्हारे एक बार के कहने ही से मेरा मनोरथ सिद्ध हो जायगा ।' गुलाबजान ने उस ब्राह्मण से पूछा, 'बेटा, किससे कहना होगा ?'
The candidate called on her and said: 'Mother, I am in great distress. You must help me out of it. I am the son of a poor brahmin. Where else shall I go for help? Mother, I have been out of work many days. My children are about to starve to death. I can get a job if you but say the word.' Golap said to him, 'Child, whom should I speak to?'
উমেদার দেখা করে বললে, মা, তুমি এটি না করলে হবে না — আমি মহাবিপদে পড়েছি। ব্রাহ্মণের ছেলে আর কোথায় যাই! মা, অনেকদিন কাজকর্ম নাই, ছেলেপুলে না খেতে পেয়ে মারা যায়। তুমি একটি কথা বলে দিলেই আমার একটি কাজ হয়। গোলাপ ব্রাহ্মণের ছেলেকে বললে, বাছা, কাকে বললে হয়?
उम्मीदवार ने कहा, 'बड़े बाबू से जरा आप कह दें तो मुझे जरूर काम मिल जाया ।’ गुलाबजान ने कहा, 'मैं आज ही बड़े बाबू से कहकर सब ठीक करा दूँगी ।' दूसरे दिन सुबह को उम्मीदवार के पास एक आदमी जाकर हाजिर हुआ । उसने कहा, 'आप आज ही से बड़े बाबू के आफिस जाया कीजिये ।' बड़े बाबू ने साहब से कहा, 'ये बड़े ही योग्य हैं, इन्हें काम पर मैंने रख लिया है, आफिस का काम ये बड़ी तत्परता के साथ कर सकेंगे ।’
She said to herself; 'Ah, the poor brahmin! He has been suffering too much.' The candidate said to her, 'I am sure to get the job if you just put in a word about it to the manager.' Golap said, 'I shall speak to him today and settle the matter.' The very next morning a man called on the candidate and said, 'You are to work in the manager's office, beginning today.' The manager said to his English boss: 'This man is very competent. I have appointed him. He will do credit to the firm.'
আর ভাবতে লাগল, আহা, ব্রাহ্মণের ছেলে বড় কষ্ট পাচ্ছে! উমেদার বললে, বড়বাবুকে একটি কথা বললে আমার নিশ্চয় একটা কর্ম হয়। গোলাপ বললে, আমি আজই বড়বাবুকে বলে ঠিক করে রাখব। তার পরদিন সকালে উমেদারের কাছে একটি লোক গিয়ে উপস্থিত; সে বললে, তুমি আজ থেকেই বড়বাবুর আফিসে বেরুবে। বড়বাবু সাহেবকে বললে, ‘এ ব্যক্তি বড় উপযুক্ত লোক। একে নিযুক্ত করা হয়েছে, এর দ্বারা আফিসের বিশেষ উপকার হবে।’
"इसी कामिनी और कांचन (तीनों ऐषणाओं) पर सब लोग लट्टू हैं । परन्तु मुझे यह बिलकुल नहीं सुहाता । सच कहता हूँ, राम दुहाई, ईश्वर को छोड़ मैं और कुछ नहीं जानता ।"
"All are deluded by 'woman and gold'. But I do not care for it at all. And I swear to you that I do not know anything but God."
“এই কামিনী-কাঞ্চন নিয়ে সকলে ভুলে আছে। আমার কিন্তু ও-সব ভাল লাগে না — মাইরি বলছি, ঈশ্বর বই আর কিছুই জানি না।”
(३)
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏यदि जीवन का 'लक्ष्य' स्थिर है तो 'जितने मत उतने पथ' 🔱🙏
['राजयोग' या 'नव हुल्लोल योग' किसी भी मार्ग से वहाँ पहुँचा जा सकता है।]
'Our judgments, like our watches, none / go just alike,
yet each believes his own"-Pope
एक भक्त - महाराज, सुना है कि एक नया सम्प्रदाय 'नव हुल्लोल' शुरू हुआ है । ललित चटर्जी उसका एक सदस्य है ।
A DEVOTEE: "Sir, a new sect, named 'Nava Hullol', has been started. Lalit Chatterji is one of the members."
একজন ভক্ত — মহাশয়, নব-হুল্লোল বলে এক মত বেরিয়েছে। শ্রীযুক্ত ললিত চাটুজ্যে তার ভিতর আছেন।
श्रीरामकृष्ण - इस संसार में भिन्न मत हैं, ये सब उसी एक ईश्वर तक पहुँचने के अलग अलग रास्ते हैं, पर आश्चर्य यह है कि हरएक मनुष्य यही सोचता है कि केवल उसी का मत (रास्ता) ठीक है; सिर्फ उसी की घड़ी ठीक समय बताती है ।
MASTER: "There are different views. All these views are but so many paths to reach the same goal. But everyone believes that his view alone is right, that his watch alone keeps correct time."
শ্রীরামকৃষ্ণ — নানা মত আছে। মত পথ। কিন্তু সব্বাই মনে করে, আমার মতই ঠিক — আমার ঘড়ি ঠিক চলছে।
गिरीश (मास्टर से) - तुम जानते हो, इसके बारे में पोप ^का क्या कहना हैं ? – ‘It is with our Judgement’ आदि। **[अंग्रेजी कवि और निबंधकार अलेक्जेंडर पोप (1688 से 1744)] ने एक दोहे में लिखा है- "Our judgments, like our watches, none go just alike, yet each believes his own." "जिस प्रकार हरएक मनुष्य यह समझता है कि उसी की घड़ी ठीक चलती है वैसे ही उसकी धारणा अपने धर्ममार्ग के बारे में भी होती है यद्यपि सब के मार्ग अलग अलग होते हैं, तथापि प्रत्येक मतावलम्बी यही समझता है कि, केवल उसका मार्ग (विश्वास) ही सही है। "
[इस दोहे के माध्यम से अंग्रेजी कवि और निबंधकार अलेक्जेंडर पोप ने पूर्ण या सार्वभौमिक सत्य (Universal Truth) का सुन्दर चित्रण किया है। सार्वभौम सत्य का विचार, सापेक्षिक सत्य (relative truth) के विपरीत विचार है। सार्वभौमिक सत्य वो हैं जो सभी भूमियों पर सत्य या एक जैसे हों। यहाँ लेखक समझाता है कि प्रत्येक मनुष्य अपने स्वयं के विश्वास पर टिके रहना पसंद करता है और किसी व्यक्ति, स्थान, वस्तु या स्थिति के बारे में व्यक्तिपरक निर्णय लेता है; यह निर्णय उतना ही विविध है जितना अलग-अलग लोगों द्वारा पहनी जाने वाली घड़ियों द्वारा दिया गया समय। और प्रत्येक मनुष्य सोचता है,केवल उसका निर्णय ही सही है।
Through this couplet, the writer has beautifully depicted a universal truth; the writer here explains that each human being loves to stick to his/her own belief and forms subjective judgement about a person, place, thing, or situation; this judgement is as varied as the time given by watches worn by different people. And each human being thinks, his/her judgement is right.]
GIRISH (to M): "Do you remember what Pope ^ says about it?'- "Tis with our judgments as our watches, none Go just alike, yet each believes his own."
গিরিশ (মাস্টারের প্রতি) — পোপ কি বলেন? It is with our judgements ইত্যাদি১।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - इसका क्या अर्थ है ?
MASTER (to M.): "What does it mean?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — এর মানে কি গা?
मास्टर - हरएक व्यक्ति सोचता है कि उसी की घड़ी ठीक समय बताती है, परन्तु यथार्थ बात यह है कि भिन्न-भिन्न घड़ियाँ एक ही समय नहीं बतलातीं ।
M: "Everyone thinks that his own watch keeps the correct time. But different watches do not give the same time."
মাস্টার — সব্বাই মনে করে, আমার ঘড়ি ঠিক যাচ্ছে, কিন্তু ঘড়িগুলো পরস্পর মেলে না।
श्रीरामकृष्ण - परन्तु घड़ियाँ चाहे जितनी गलत क्यों न हों, सूरज कभी गलती नहीं करता है । मनुष्य को अपनी घड़ी सूरज से मिला लेनी चाहिए ।
MASTER: "But however wrong the watches may be, the sun never makes a mistake. One should check one's watch with the sun."
শ্রীরামকৃষ্ণ — তবে অন্য ঘড়ি যত ভুল হউক না, সূর্য কিন্তু ঠিক যাচ্ছে। সেই সূর্যের সঙ্গে মিলিয়ে নিতে হয়।
[(12 अप्रैल, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏सत्य बोलना कलियुग की तपस्या है🔱🙏
[सत्यवचन, आधीनता, और परस्त्री को अपनी माँ के रूप में देखना सतयुग में वास करना है]
[Truthfulness in speech is the tapasya of the Kaliyuga.]
*সত্যকথা কলির তপস্যা।*
एक भक्त - महाराज, अमुक व्यक्ति झूठ बोलता है। (मतलब लालची है ? स्वार्थी है ?)
A DEVOTEE: "Mr. X— tells lies."
একজন ভক্ত — অমুকবাবু বড় মিথ্যা কথা কয়।
श्रीरामकृष्ण - सत्य बोलना कलियुग की तपस्या है, इस युग (cycle, era) में अन्य साधनाओं का अभ्यास करना कठिन है, परन्तु सत्य पर दृढ़ रहने से मनुष्य ईश्वर को प्राप्त कर लेता है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने ईश्वर प्राप्ति के तीन उपाय बतलाते हुए कहा भी है कि
सत्य वचन, आधीनता , परत्रिय मातु समान |
इतने पे हरी ना मिले , तो तुलसी झूठ जुबान ।।
..पराई स्त्री को माता और पराये धन को धुल के समान समझना चाहिए। जिसमें यह दोनों गुण हैं वह ईश्वर के बहुत करीब है। वे कहते हैं कि इन गुणों के बावजूद भी किसी को परमेश्वर ना मिले तो उसकी वो खुद जमानत देने को तैयार है। दो उपाय :- दो बातन को भूल मत , जो चाहे कल्याण। नारायण इक मौत को , दूजे श्री भगवान।। एक ही उपाय :-सब धर्मं को छोड़कर, एक शरण मम होय। चिंता तजू सब पाप तें , मुक्त करूंगो तोय।।}
MASTER: " Truthfulness in speech is the tapasya of the Kaliyuga. It is difficult to practise other austerities in this cycle. By adhering to truth one attains God. Tulsidas said: 'Truthfulness, obedience to God, and the regarding of others' wives as one's mother, are the greatest virtues. If one does not realize God by practising them, then Tulsi is a liar.'
শ্রীরামকৃষ্ণ — সত্যকথা কলির তপস্যা। কলিতে অন্য তপস্যা কঠিন। সত্যে থাকলে ভগবানকে পাওয়া যায়। তুলসীদাস বলেছে, ‘সত্যকথা, অধীনতা, পরস্ত্রী মাতৃসমান — এইসে হরি না মিলে তুলসী ঝুট জবান্।’
[(12 अप्रैल, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏आधीनता या ईश्वर-शरणागति की महत्ता🔱🙏
🔱🙏श्रद्धा-शरणागति के बिना अहंकार पर विजय प्राप्त नहीं होता🔱🙏
[Is it easy to conquer the ego without surrender?]
“অহংকার কি যায় গা ?দুই-এক জনের দেখতে পাওয়া যায় না।
"केशव सेन ने अपने पिता का कर्जा अपने ऊपर ले लिया । वैसे कुछ लिखापढ़ी भी नहीं थी कोई और होता तो साफ इन्कार कर जाता । मैं जोड़ासाँको में देवेन्द्र के समाज में गया और वहाँ देखा कि केशव मंच पर बैठा ध्यान कर रहा है । उस समय वह तरुण अवस्था का था । उसे देखकर मैंने मथुरबाबू से कहा, 'यहाँ और जितने लोग ध्यानधारणा कर रहे हैं उन सब में इसी तरुण युवक का 'शोला' पानी के नीचे बैठ गया है । मछली मानो कटिया में मुँह लगाने लगी है ।'
"Keshab Sen assumed his father's debts. Others would have repudiated them. I visited Devendra's Samaj at Jorashanko and found Keshab meditating on the dais. He was then a young man. I said to Mathur Babu, 'Of all who are meditating here, this young man's "float" alone has sunk under water. The "fish" is biting at the hook.'
“কেশব সেন বাপের ধার মেনেছিল, অন্য লোক হলে কখনও মানতো না, একে লেখাপড়া নাই। জোড়াসাঁকোর দেবেন্দ্রের সমাজে গিয়ে দেখলাম, কেশব সেন বেদীতে বসে ধ্যান করছে। তখন ছোকরা বয়েস। আমি সেজোবাবুকে বললাম, যতগুলি ধ্যান করছে এই ছোকরার ফতা (ফাত্না) ডুবেছে, — বড়শির কাছে মাছ এসে ঘুরছে।
"एक आदमी था - उसका नाम मैं नहीं बताऊँगा । वह दस हजार रुपयों के लिए अदालत में झूठ बोल गया । मुकदमा जीतने के लिए उसने काली माँ के पास मुझसे एक भेंट चढ़वाई । मुझसे बोला, 'बाबा, कृपा करके यह भेंट माँ को चढ़ा दीजियेगा ।' बालक के समान विश्वास करके मैंने वह भेंट चढ़ा दी ।"
"There was a man — whom I shall not name — who for ten thousand rupees told a lie in court. In order to win the lawsuit he made me give an offering to the Divine Mother. He said to me, 'Father, please give this offering to the Mother.' Trusting him like a child, I gave the offering."
“একজন — তার নাম করবো না — সে দশহাজার টাকার জন্য আদালতে মিথ্যা কথা কয়েছিল। জিতবে বলে আমাকে দিয়ে মা-কালীকে অর্ঘ্য দেওয়ালে। আমি বালকবুদ্ধিতে অর্ঘ্য দিলুম! বলে, বাবা এই অর্ঘটি মাকে দাও তো!”
भक्त - तो सचमुच वह बड़ा अच्छा आदमी रहा होगा !
DEVOTEE: "A nice man indeed!"
ভক্ত — আচ্ছা লোক!
श्रीरामकृष्ण - नहीं, बात ऐसी थी, उसकी मुझमें इतनी श्रद्धा थी कि वह जानता था, यदि मैं माता के पास भेंट चढ़ाऊँगा तो माँ उसकी प्रार्थना अवश्य स्वीकार कर लेंगी ।
MASTER: "But he had such faith in me that he believed the Mother would grant his prayer if I but made the offering."
শ্রীরামকৃষ্ণ — কিন্তু এমনি বিশ্বাস আমি দিলেই মা শুনবেন!
ललितबाबू का संकेत करते हुए श्रीरामकृष्ण ने कहा, "क्यों अहंकार पर विजय प्राप्त कर लेना सरल बात है ? ऐसे लोग बहुत कम हैं, जो अहंकार से रहित हों । हाँ ! बलराम ऐसा है । (एक भक्त की ओर इशारा करके) और देखो, यह दूसरा है । इसके स्थान पर कोई और होता तो घमण्ड के मारे फूल जाता । बाल में कंघी करके माँग निकालता तथा अनेक प्रकार के तमोगुण उसमें प्रकट हो जाते । अपनी विद्वता पर उसे घमण्ड हो जाता । उस मोटे ब्राह्मण में (प्राणकृष्ण की ओर संकेत करके) अब भी अहंभाव का कुछ लेश है । (मास्टर से) महिम चक्रवर्ती ने बहुत से ग्रन्थ पढ़े हैं न ?"
[Referring to Lalit Babu, Sri Ramakrishna said: "Is it an easy matter to get rid of pride? There are very few who are without pride. Balaram is one of them. (Pointing to a devotee) And here is another. Other people in their position would have swelled with pride. They would have parted their hair and showed other traits of tamas. They would have been proud of their learning. The 'fat brahmin' [referring to Prankrishna] still has a little of it. (To M.) Mahima Chakravarty has read many books, hasn't he?"
ললিতবাবুর কথায় ঠাকুর বলিতেছেন —“অহংকার কি যায় গা! দুই-এক জনের দেখতে পাওয়া যায় না। বলরামের অহংকার নাই। আর এঁর নাই! — অন্য লোক হলে কত টেরী, তমো হত — বিদ্যার অহংকার হতো। মোটা বামুনের এখনও একটু একটু আছে! (মাস্টারের প্রতি) মহিম চক্রবর্তী অনেক পড়েছে, না?”
मास्टर - हाँ महाराज, उन्होंने बहुत कुछ पढ़ा है।
M: "Yes, sir, he has read a great deal."
মাস্টার — আজ্ঞা হাঁ, অনেক বই পড়েছেন।
श्रीरामकृष्ण (मुस्कराकर) - मेरी इच्छा है कि उसकी और गिरीश की भेंट हो जाती । तब हम लोग उनके वाद-विवाद का थोड़ा मजा देखते ।
MASTER (smiling): "I wish he and 'Girish' could meet. Then we could enjoy a little discussion."
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — তার সঙ্গে গিরিশ ঘোষের একবার আলাপ হয়। তাহলে একটু বিচার হয়।
[(12 अप्रैल, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏ईश्वरकोटि (भक्त-'ऋषि नारद') और जीवकोटि (ज्ञानी) 🔱🙏
गिरीश (मुस्कुराते हुए) - क्या वे (Mahima Chakravarty) ऐसा नहीं कहते कि साधना के द्वारा सभी लोग भगवान् श्रीकृष्ण के सदृश हो सकते हैं ?
GIRISH (smiling): "Doesn't he (Mahima Chakravarty) say that by means of sadhana all people can be like Sri Krishna?"
গিরিশ (সহাস্যে) — তিনি বুঝি বলেন সাধনা করলে শ্রীকৃষ্ণের মতো সব্বাই হতে পারে?
श्रीरामकृष्ण – नहीं, बिलकुल वैसी बात नहीं, मगर हाँ, कुछ कुछ वैसी ही ।
MASTER: "Not exactly that, but something like it."
শ্রীরামকৃষ্ণ — ঠিক তা নয়, — তবে আভাসটা ওইরকম।
भक्त - महाराज, क्या सब श्रीकृष्ण के सदृश हो सकते हैं ?
DEVOTEE: "Sir, can all be like Sri Krishna?"
ভক্ত — আজ্ঞা, শ্রীকৃষ্ণের মতো সব্বাই কি হতে পারে?
श्रीरामकृष्ण - ईश्वर का अवतार अथवा जिसमें अवतार के कुछ चिह्न होते हैं उसे ईश्वर-कोटि कहते हैं । साधारण मनुष्य को जीव या जीव-कोटि कहते हैं । साधना के बल पर जीव-कोटि ईश्वरानुभव कर सकता है, परन्तु समाधि के बाद वह इस जगत् में फिर नहीं लौटता ।
MASTER: "An Incarnation of God or one born with some of the characteristics of an Incarnation is called an Isvarakoti. An ordinary man is called a jiva or jivakoti. By dint of sadhana a jivakoti can realize God; but after samadhi he cannot come back to the plane of relative consciousness.
শ্রীরামকৃষ্ণ — অবতার বা অবতারের অংশ, এদের বলে ঈশ্বরকোটি আর সাধারণ লোকদের বলে জীব বা জীবকোটি। যারা জীবকোটি তারা সাধনা করে ঈশ্বরলাভ করতে পারে; তারা সমাধিস্থ হয়ে আর ফেরে না।
"ईश्वर-कोटि मानो एक राजा के लड़के (माँ तारा का बेटा ?) के सदृश होता है । उसके पास मानो सात-मंजिला महल के प्रत्येक कमरे की चाबी रहती है, वह सातों मंजिलों पर चढ़ सकता है और इच्छानुसार नीचे उतर भी सकता है । जीव-कोटि एक मामूली कर्मचारी के समान होता है । वह उस महल के कुछ ही कमरों में प्रवेश कर सकता है; उतना ही उसका क्षेत्र है ।
The Isvarakoti is like the king's son. He has the keys to all the rooms of ne seven-storey palace; he can climb to all the seven floors and come down at will. A jivakoti is like a petty officer. He can enter some of the rooms of the palace; that is his limit.
“যারা ঈশ্বরকোটি — তারা যেমন রাজার বেটা; সাততলার চাবি তাদের হাতে। তারা সাততলায় উঠে যায়, আবার ইচ্ছামতো নেমে আসতে পারে। জীবকোটি যেমন ছোট কর্মচারী, সাততলা বাড়ির খানিকটা যেতে পারে ওই পর্যন্ত।”
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
“जनक ज्ञानी थे । उन्होंने ज्ञान की उपलब्धि साधना द्वारा की । परन्तु शुकदेव परमहंस तो जन्मजात रूप से पूर्ण थे - ज्ञान की मूर्ति ही थे ।"
"Janaka was a jnani. He attained Knowledge by means of his sadhana. But Sukadeva was Knowledge itself."
“জনক জ্ঞানী, সাধন করে জ্ঞানলাভ করেছিল; শুকদেব জ্ঞানের মূর্তি।”
गिरीश - ओह, ऐसी बात है महाराज ?
GIRISH: "Ah!"গিরিশ — আহা!
श्रीरामकृष्ण - शुकदेव ने साधना के द्वारा ज्ञान प्राप्त नहीं किया । शुकदेव परमहंस के समान नारद को भी ब्रह्मज्ञान था, परन्तु वे लोगों के शिक्षणार्थ अपने में भक्ति को भी बनाये रखें ।
MASTER: "Sukadeva did not attain Knowledge through sadhana. Like Sukadeva, Narada also had the Knowledge of Brahman. But he retained bhakti in order to teach people.
শ্রীরামকৃষ্ণ — সাধন করে শুকদেবের জ্ঞানলাভ করতে হয় নাই। নারদেরও শুকদেবের মতো ব্রহ্মজ্ঞান ছিল, কিন্তু ভক্তি নিয়ে ছিলেন — লোকশিক্ষার জন্য।
प्रह्लाद की कभी कभी यह धारणा होती थी, 'मैं ही ईश्वर हूँ - सोऽहम् ।' कभी अपने को ईश्वर का दास समझते थे और कभी उसका बालक । हनुमान की भी यही दशा थी ।
Prahlada sometimes assumed the attitude of 'I am He', sometimes that of a servant of God, and sometimes that of His child. Hanuman also was like that.
প্রহ্লাদ কখনও সোঽহম্ ভাবে থাকতেন, কখনও দাসভাবে — সন্তানভাবে। হনুমানেরও ওই অবস্থা।
"ऐसी उच्च अवस्था प्राप्त करने का विचार सब लोग चाहे भले ही करें परन्तु उसे सब प्राप्त नहीं कर सकते । कुछ बाँस पोले होते हैं और कुछ अधिक ठोस ।”
“মনে করলে সকলেরই এই অবস্থা হয় না। কোনও বাঁশের বেশি খোল, কোনও বাঁশের ফুটো ছোট।”
(४)
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏त्यागी लोकशिक्षक का अनिवार्य गुण विवेक-जन्य तीव्र वैराग्य🔱🙏
एक भक्त - आपके ये सब भाव तो उदाहरण के लिए हैं; तो हम लोगों को क्या करना होगा ?
A DEVOTEE: "You say that your spiritual experiences are for others to refer to. Tell us what we should do."
একজন ভক্ত — আপনার এ-সব ভাব নজিরের জন্য, তাহলে আমাদের কি করতে হবে?
श्रीरामकृष्ण – ईश्वर-प्राप्ति के लिए तीव्र वैराग्य चाहिए । ईश्वर के मार्ग का जिसे विरोधी समझो, उसे उसी समय छोड़ दो । पीछे छोड़ देंगे, यह सोचकर उसे रखना उचित नहीं । कामिनी और कांचन ईश्वर के मार्ग के विरोधी हैं, उनसे मन को हटा लेना चाहिए ।
MASTER: "If you want to realize God, then you must cultivate intense dispassion. You must renounce immediately what you feel to be standing in your way. You should not put it off till the future. 'Woman and gold' is the obstruction. The mind must be withdrawn from it.
শ্রীরামকৃষ্ণ — ভগবানলাভ করতে হলে তীব্র বৈরাগ্য দরকার। যা ঈশ্বরের পথে বিরুদ্ধ বলে বোধ হবে তৎক্ষণাৎ ত্যাগ করতে হয়। পরে হবে বলে ফেলে রাখা উচিত নয়। কামিনী-কাঞ্চন ঈশ্বরের পথে বিরোধী; ও-থেকে মন সরিয়ে নিতে হবে।
“धीमे तिताले पर चलते रहने से न बनेगा । एक आदमी गमछा कन्धे पर रखे नहाने जा रहा था । उसकी स्त्री बोली, 'तुम किसी काम के नहीं हो, उम्र बढ़ रही है, अब भी यह सब न छोड़ सके । मुझे छोड़कर तुम एक दिन भी नहीं रह सकते, परन्तु अमुक को देखो, वह कितना त्यागी है ।'
"One must not be slow and lazy. A man was going to bathe; he had his towel on his shoulder. His wife said to him: 'You are worthless. You are getting old and still you cannot give up some of your habits. You cannot live a single day without me. But look at that man! What a renouncer he is!'
“ঢিমে তেতালা হলে হবে না। একজন গামছা কাঁধে স্নান করতে যাচ্ছে। পরিবার বললে, তুমি কোন কাজের নও, বয়স বাড়ছে, এখন এ-সব ত্যাগ করতে পারলে না। আমাকে ছেড়ে তুমি একদিনও থাকতে পার না। কিন্তু অমুক কেমন ত্যাগী!
"पति - 'क्यों उसने क्या किया ?’
"HUSBAND: 'Why? What has he done?'
স্বামী — কেন, সে কি করেছে?
"स्त्री - 'उसकी सोलह स्त्रियाँ हैं, वह एक एक करके सब को छोड़ रहा है । तुम कभी त्याग न कर सकोगे ।'
"WIFE: 'He has sixteen wives and he is renouncing them one by one. You will never be able to renounce.'
পরিবার — তার ষোলজন মাগ, সে এক-একজন করে তাদের ত্যাগ করছে। তুমি কখনও ত্যাগ করতে পারবে না।
"पति - 'एक-एक करके त्याग ! अरी पगली, वह त्याग हरगिज न कर सकेगा । जो त्याग करता है वह क्या कभी जरा-जरा-सा त्याग करता है ?"
"HUSBAND: 'Renouncing his wives one by one! You are crazy. He won't be able to renounce. If a man wants to renounce, does he do it little by little?'
স্বামী — এক-একজন করে ত্যাগ! ওরে খেপী, সে ত্যাগ করতে পারবে না। যে ত্যাগ করে সে কি একটু একটু করে ত্যাগ করে!
"स्त्री (हँसकर) - 'फिर भी वह तुमसे अच्छा है ।’
"WIFE (smiling): 'Still he is better than you.'
পরিবার — (সহাস্যে) — তবু তোমার চেয়ে ভাল।
“पति - 'अरी, तू नहीं समझी । वह क्या त्याग करेगा ? त्याग मैं करूँगा; यह देख मैं चला ।'
"HUSBAND: 'You are silly; you don't understand. He cannot renounce. But I can. See! Here I go!'"
স্বামী — খেপী, তুই বুঝিস না। তার কর্ম নয়, আমিই ত্যাগ করতে পারব, এই দ্যাখ্ আমি চললুম!
"तीव्र वैराग्य यह है । ज्योंही विवेक आया कि उसी समय उसने त्याग किया । गमछा कन्धे पर डाले हुए ही वह चला गया । संसार का काम ठीक कर जाने के लिए भी नहीं आया । घर की ओर एक बार मुड़कर उसने देखा भी नहीं ।
The Master continued: "That is called intense renunciation. No sooner did the man discriminate than he renounced. He went away with the towel on his shoulder. He didn't turn back to settle his worldly affairs. He didn't even look back at his home.
“এর নাম তীব্র বৈরাগ্য। যাই বিবেক এল তৎক্ষণাৎ ত্যাগ করলে। গামছা কাঁধেই চলে গেল। সংসার গোছগাছ করতে এল না। বাড়ির দিকে একবার পেছন ফিরে চাইলেও না।
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🙏 आद्याशक्ति माँ सारदा,संहारमूर्ति काली ! या नित्यकाली !🙏
"जो त्याग करेगा, उसमें मन का बल खूब होना चाहिए । डाका मारने का भाव, डाका डालने के पहले डाकू जिस तरह किया करते हैं - मारो, लूटो, काटो । "तुम लोग और क्या करोगे ? उनकी भक्ति तथा कुछ प्रेम प्राप्त कर दिन पार करते रहना ।
"He who wants to renounce needs great strength of mind. He must have a dare-devil attitude like a dacoit's. Before looting a house, the dacoits shout: 'Kill! Murder! Loot!' "Cultivate devotion and love of God and so pass your days. What else can you do?
“যে ত্যাগ করবে তার খুব মনের বল চাই। ডাকাত পড়ার ভাব। অ্যায়!!! — ডাকাতি করবার আগে যেমন ডাকাতেরা বলে — মারো! লোটো! কাটো!“কি আর তোমরা করবে? তাঁতে ভক্তি, প্রেম লাভ করে দিন কাটানো।
कृष्ण के चले जाने पर यशोदा पागल की भाँति श्रीमती के पास गयीं । उन्हें दुःखित देखकर श्रीमती ने आद्याशक्ति के रूप से उन्हें दर्शन दिया । कहा, ‘माँ मुझसे वर की प्रार्थना करो ।' यशोदा ने कहा, 'अब और क्या वर लूँ ! यह कहो कि मन, वाणी और कर्म से श्रीकृष्ण की सेवा कर सकूँ । इन आँखों से उसके भक्तों के दर्शन हों, जहाँ जहाँ उसने लीला की है, ये पैर वहाँ वहाँ जा सकें, ये हाथ उसकी और उसके भक्तों की सेवा करें, सब इन्द्रियाँ उसी के काम में लगी रहें ।’ ”
When Krishna went away, Yasoda became insane with grief and visited Radha. Radha was moved by her sorrow and appeared before her as Adyasakti. She said, 'My child, ask a boon of Me.' Yasoda replied: 'Mother, what else shall I ask of You? Bless me that I may serve Krishna alone with my body, mind, and speech; that I may behold His devotee? with these eyes; that I may go with these feet to the place where His divine sport is manifested; that I may serve Him and His devotees with these hands; and that I may devote all my sense-organs to His service alone.'"
কৃষ্ণের অদর্শনে যশোদা পাগলের ন্যায় শ্রীমতীর কাছে গেলেন। শ্রীমতী তাঁর শোক দেখে আদ্যাশক্তিরূপে দেখা দিলেন। বললেন, মা, আমার কাছে বর নাও। যশোদা বললেন, মা, আর কি লব? তবে এই বল, যেন কায়মনোবাক্যে কৃষ্ণেরই সেবা করতে পারি। এই চক্ষে তার ভক্তদর্শন, — যেখানে যেখানে তার লীলা, এই পা দিয়ে সেখানে যেতে পারি, — এই হাতে তার সেবা আর তার ভক্তসেবা, — সব ইন্দ্রিয়, যেন তারই কাজ করে।”
यह कहते कहते श्रीरामकृष्ण को भावावेश हो रहा है । एकाएक आप ही आप कह रहे हैं - "संहारमूर्ति काली ! या नित्यकाली !"
As Sri Ramakrishna uttered these words, he was about to go into ecstasy. Suddenly he exclaimed: "Kali, the Embodiment of Destruction! No, Nitya-Kali, my eternal Divine Mother!"
এই কথা বলিতে বলিতে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের আবার ভাবাবেশের উপক্রম হইতেছে। হঠাৎ আপনা-আপনি বলিতেছেন, “সংহারমূর্তি কালী! — না নিত্যকালী!”
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏लक्ष्मी, सरस्वती , काली 🔱🙏
बड़े कष्ट से श्रीरामकृष्ण ने भाव का वेग रोका । उन्होंने कुछ पानी पिया । यशोदा की बात फिर कहने जा रहे हैं कि महेन्द्र मुखर्जी आ पहुँचे । ये तथा उनके छोटे भाई प्रिय मुखर्जी अभी थोड़े दिनों से श्रीरामकृष्ण के पास आने-जाने लगे हैं । महेन्द्र की आटे की चक्की है तथा अन्य व्यवसाय भी हैं । इनके भाई इंजीनियर का काम करते थे ।
With great difficulty he restrained himself. He was starting to say more about Yasoda, when Mahendra Mukherji arrived. Mahendra and his younger brother, Priya, had been visiting the Master for some time. Mahendra owned a flour-mill and other businesses. His brother was an engineer.
ঠাকুর অতি কষ্টে ভাব সম্বরণ করিলেন। এইবার একটু জলপান করিলেন। যশোদার কথা আবার বলিতে যাইতেছেন, শ্রীযুক্ত মহেন্দ্র মুখুজ্জে আসিয়া উপস্থিত। ইনি ও ইঁহার কনিষ্ঠ শ্রীযুক্ত প্রিয় মুখুজ্জে ঠাকুরের কাছে নূতন যাওয়া-আসা করিতেছেন। মহেন্দ্রের ময়দার কল ও অন্যান্য ব্যবসা আছে। তাঁহার ভ্রাতা ইঞ্জিনিয়ারের কাজ করিতেন।
इनका काम कर्मचारी सँभालते हैं, इन्हें यथेष्ट अवकाश है । महेन्द्र की उम्र छत्तीस-सैंतीस की होगी और इनके भाई की उम्र चौतीस-पैंतीस की । ये केदेटी मौजे में रहते हैं । कलकत्ते के बागबाजार में भी इनका एक मकान है । वहीं सब लोग रहते हैं । इनके साथ एक नवयुवक आया-जाया करते हैं, भक्त है, नाम हरि है ।
Both the brothers engaged people to manage their affairs and therefore had considerable leisure. Mahendra was thirty-six or thirty-seven and his brother two years younger. Besides their country home at Kedeti, they had a house at Baghbazar, Calcutta. A young devotee named Hari accompanied them on their visits to Sri Ramakrishna.
ইঁহাদের কাজকর্ম লোকজনে দেখে, নিজেদের খুব অবসর আছে। মহেন্দ্রের বয়স ৩৬।৩৭ হইবে, ভ্রাতার বয়স আন্দাজ ৩৪।৩৫। ইঁহাদের বাটী কেদেটি গ্রামে। কলিকাতা বাগবাজারেও একটি বসতবাটী আছে। তাঁহাদের সঙ্গে একটি ছোকরা ভক্ত আসা-যাওয়া করেন, তাঁহার নাম হরি।
हरि का विवाह तो हो चुका है, परन्तु श्रीरामकृष्ण पर ये बड़ी भक्ति रखते हैं । महेन्द्र बहुत दिनों से दक्षिणेश्वर नहीं गये । हरि भी नहीं गये, - आज आये हैं । महेन्द्र ने भूमिष्ठ होकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया । हरि ने भी प्रणाम किया ।
Hari was married but greatly devoted to the Master. Mahendra and Hari had not visited Dakshineswar for a long time. They saluted Sri Ramakrishna.
তাঁহার বিবাহ হইয়াছে; কিন্তু ঠাকুরের উপর বড় ভক্তি। মহেন্দ্র অনেকদিন দক্ষিণেশ্বরে যান নাই। হরিও যান নাই, আজ আসিয়াছেন। মহেন্দ্র গৌরবর্ণ ও সদা হাস্যমুখ, শরীর দোহারা। মহেন্দ্র ভূমিষ্ঠ হইয়া ঠাকুরকে প্রণাম করিলেন। হরিও প্রণাম করিলেন।
श्रीरामकृष्ण - क्यों जी, इतने दिनों तक दक्षिणेश्वर क्यों नहीं आये ?
MASTER: "Hello! Why haven't you visited Dakshineswar for so long?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন এতদিন দক্ষিণেশ্বরে যাওনি গো?
महेन्द्र - जी, मैं केदेटी गया था, कलकत्ते में नहीं था ।
MAHENDRA: "Sir, I have been away from Calcutta. I was at Kedeti."
মহেন্দ্র — আজ্ঞা, কেদেটিতে গিছলাম, কলকাতায় ছিলাম না।
श्रीरामकृष्ण - क्यों जी, न तो तुम्हारे लड़के-बच्चे हैं, न किसी की नौकरी करते हो, फिर भी तुम्हें अवकाश नहीं रहता ! अजब है !
MASTER: "You have no children. You don't serve anybody. And still you have no leisure! Goodness gracious!'
শ্রীরামকৃষ্ণ — কিগো ছেলেপুলে নাই, — কারু চাকরি করতে হয় না, — তবুও অবসর নাই! ভাল জ্বালা!
भक्त सब चुप हैं । महेन्द्र का चेहरा उतर गया ।
The devotees remained silent. Mahendra was a little embarrassed.
ভক্তেরা সকলে চুপ করিয়া আছেন। মহেন্দ্র একটু অপ্রস্তুত।
श्रीरामकृष्ण (महेन्द्र से) - तुमसे मैं इसलिए कहता हूँ कि तुम सरल और उदार हो - ईश्वर पर तुम्हारी भक्ति है ।
MASTER (to Mahendra): "Why am I saving all this to you? You are sincere and generous. You have love for God."
শ্রীরামকৃষ্ণ (মহেন্দ্রের প্রতি) — তোমায় বলি কেন, — তুমি সরল, উদার — তোমার ঈশ্বরে ভক্তি আছে।
महेन्द्र - जी, आप तो मेरे भले के लिए ही कह रहे हैं ।
MAHENDRA: 'You are saying these words for my good."
মহেন্দ্র — আজ্ঞে, আপনি আমার ভালোর জন্যই বলেছেন।
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏विषयी लोग साधु को धन देना नहीं चाहते - अपनी सन्तान के प्रति मोह🔱🙏
[বিষয়ী ও টাকাওয়ালা সাধু — সন্তানের মায়া ]
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - और यहाँ आकर कुछ पूजा भी नहीं चढ़ानी पड़ती । यदु की माँ ने इस पर कहा था, 'दूसरे साधु बस लाओ-लाओ किया करते हैं । बाबा, तुममें यह बात नहीं है ।’ विषयी आदमियों का जी ही निकल आता है अगर उन्हें गाँठ का पैसा खर्च करना पड़े ।
MASTER (smiling): 'You see, we don't take any collection during the performance at our place. Jadu's mother says to me, 'Other sadhus always ask for money, but you do not.' Worldly people feel annoyed if they have to spend money.
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — আর এখানকার যাত্রায় প্যালা দিতে হয় না। যদুর মা তাই বলে, ‘অন্য সাধু কেবল দাও দাও করে; বাবা, তোমার উটি নাই’। বিষয়ী লোকের টাকা খরচ হলে বিরক্ত হয়।
“एक जगह नाटक हो रहा था । एक आदमी को बैठकर सुनने की बड़ी इच्छा थी । उसने झाँककर देखा, तो उसे मालूम हुआ कि यदि कोई बैठकर देखना चाहता है, तो उससे टिकट के दाम लिये जाते हैं, फिर क्या था - वहाँ से चलता बना ।
"A theatrical performance was being given at a certain place. A man felt a great desire to take a seat and see it. He peeped in and saw that a collection was being taken from the audience. Quietly he slipped away.
“এক জায়গায় যাত্রা হচ্ছিল। একজন লোকের বসে শোনবার ভারী ইচ্ছা। কিন্তু সে উঁকি মেরে দেখলে যে আসরে প্যালা পড়ছে, তখন সেখান থেকে আস্তে আস্তে পালিয়ে গেল।
एक दूसरी जगह नाटक हो रहा था, वह वहाँ गया । पूछने पर मालूम हुआ, वहाँ टिकट नहीं लगता । वहाँ बड़ी भीड़ थी । वह दोनों हाथों से भीड़ हटाकर बीच महफिल में पहुँचा । वहाँ अच्छी तरह जमकर मूँछों पर ताव दे-देकर सुनने लगा ! (सब हँसते हैं)
Another performance was being given at some other place. He went there and, inquiring, found that no collection would he taken. There was a great rush of people. He elbowed his way through the crowd and reached the centre of the hall. There he picked out a nice scat for himself, twirled his moustaches, and sat through the performance. (All laugh.)
আর-এক জায়গায় যাত্রা হচ্ছিল, সেই জায়গায় গেল। সন্ধান করে জানতে পারলে যে এখানে কেউ প্যালা দেবে না। ভারী ভিড় হয়েছে। সে দুই হাতে কুনুই দিয়ে ভিড় ঠেলে ঠেলে আসরে গিয়ে উপস্থিত। আসরে ভাল করে বসে গোঁপে চাড়া দিয়ে শুনতে লাগল। (হাস্য)
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏अपनी सन्तान के प्रति मोह🔱🙏
"और तुम्हारे तो लड़के-बच्चे भी नहीं हैं कि कहें, मन दूसरी ओर चला जायेगा । एक डिप्टी है, आठ सौ तनख्वाह पाता है । केशव सेन के यहाँ नाटक देखने गया था । मैं भी गया था । मेरे साथ राखाल तथा और भी कई आदमी गये थे । मैं जहाँ नाटक देखने के लिए बैठा था, वहीं मेरी बगल में वे लोग भी बैठे हुए थे ।
"You have no children to divert your mind. I know a deputy magistrate who draws a salary of eight hundred rupees a month. He went to Keshab's house to see a performance. I was there too. Rakhal and a few other devotees were with me and sat beside me.
“আর তোমার তো ছেলেপুলে নাই যে মন অন্যমনস্ক হবে। একজন ডেপুটি, আটশো টাকা মাইনে, কেশব সেনের বাড়িতে (নববৃন্দাবন) নাটক দেখতে গিছল। আমিও গিছলাম, আমার সঙ্গে রাখাল আরও কেউ কেউ গিছল। নাটক শুনবার জন্য আমি — যেখানে বসেছি তারা আমার পাশে বসেছে।
उस समय राखाल उठकर जरा कहीं बाहर गया । डिप्टी साहब वहीं आकर डट गये और राखाल की जगह पर उसने अपने छोटे बच्चे को बैठा दिया । मैंने कहा, 'यहाँ मत बैठाइये ।' मेरी ऐसी अवस्था थी कि जो कोई जैसा कहता था, मुझे वैसा करना पड़ता था । इसीलिए मैंने राखाल को वहाँ बैठाया था । जब तक नाटक हुआ, डिप्टी बराबर अपने बच्चे से बातचीत करता रहा । उसने एक बार भी नाटक नहीं देखा, और मैंने सुना है वह बीबी का गुलाम है, उसके इशारे पर उठता-बैठता है; और एक नकबैठे बन्दर की शक्ल के बच्चे के लिए उसने नाटक नहीं देखा ।
After a while Rakhal went out for a few minutes. The deputy magistrate came over and made his young son take Rakhal's seat. I said, 'He can't sit there.' At that time I was in such a state of mind that I had to do whatever the person next to me would ask me to do; so I had seated Rakhal beside me. As long as the performance lasted the deputy did nothing hut gibber with his son. The rascal didn't look at the performance even once. I heard, too, that he is a slave to his wife; he gets up and sits down us she tells him to. And he didn't see the performance for that snub-nosed monkey of a boy. . . .
রাখাল তখন একটু উঠে গিছল। ডেপুটি এসে ওইখানে বসল। আর তার ছোট ছেলেটিকে রাখালের জায়গায় বসালে। আমি বললুম, এখানে বসা হবে না, — আমার এমনি অবস্থা যে, কাছে যে বসবে সে যা বলবে তাই করতে হবে, তাই রাখালকে কাছে বসিয়েছিলাম। যতক্ষণ নাটক হল ডেপুটির কেবল ছেলের সঙ্গে কথা। শালা একবারও কি থিয়েটার দেখলে না! আবার শুনেছি নাকি মাগের দাস — ওঠ বললে ওঠে, বোস বললে বসে, — আবার একটা খাঁদা বানুরে ছেলের জন্য এই ...
(महेन्द्र से) तुम ध्यान-धारणा करते हो न ?"
(To Mahendra) "Do you practise meditation?"
তুমি ধ্যান-ট্যান তো কর?”
महेन्द्र - जी, कुछ करता हूँ ।
MAHENDRA: 'Yes, sir. A little."
মহেন্দ্র — আজ্ঞে, একটু একটু হয়।
श्रीरामकृष्ण - कभी कभी आया करो ।
MASTER: "Come to Dakshineswar now and then."
শ্রীরামকৃষ্ণ — যাবে এক-একবার?
महेन्द्र - (सहास्य) - जी, कहाँ कैसी गिरह पड़ी हुई है, आप जानते ही हैं । जरा देखियेगा ।
MAHENDRA (smiling): "Yes, sir. I will. You know where my knots and twists are. You will straighten them out."
মহেন্দ্র (সহাস্যে) — আজ্ঞে, কোথায় গাঁট-টাঁট আছে আপনি জানেন, — আপনি দেখবেন।
श्रीरामकृष्ण - (हँसकर) - पहले आया तो करो । - तब तो दाब-दूबकर देखूँगा, कहाँ गिरह है - कहाँ क्या है । तुम आते क्यों नहीं ?
MASTER (smiling): "First come to Dakshineswar; then I shall press your limbs to see where your twists are. Why don't you come?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — আগে যেও। — তবে তো টিপে-টুপে দেখব, কোথায় কি গাঁটি আছে! যাও না কেন?
महेन्द्र - महाराज, आजकाल काम से फुरसत नहीं मिलती । तिस पर कभी कभी केदेटी के मकान का इन्तजाम करना पड़ता है ।
MAHENDRA: "Because of the pressure of my duties. Besides, I have to go to my country home now and then."
মহেন্দ্র — কাজকর্মের ভিড়ে আসতে পারি না, — আবার কেদেটির বাড়ি মাঝে মাঝে দেখতে হয়।
श्रीरामकृष्ण - (महेन्द्र से, भक्तों की ओर इशारे से बतलाकर) - "क्या इनके घर-द्वार नहीं हैं ? या कामकाज नहीं है ? ये किस तरह आया करते हैं ?
MASTER (to Mahendra, pointing his finger at the devotees): "Have they no homes or dwelling-places? Have they no duties? How is it that they come?
শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের দিকে অঙ্গুলিনির্দেশ করিয়া, মহেন্দ্রের প্রতি) — এদের কি বাড়ি ঘর-দোর নাই? আর কাজকর্ম নাই? এরা আসে কেমন করে?
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏छह दिवसीय निर्जनवास या शिविर जाने में पारिवारिक बाधा🔱🙏
[পরিবারের বন্ধন ]
(हरि से) “तू क्यों नहीं आता ? तेरी बीबी आयी है न ?"
(To Hari) "Why haven't you come to Dakshineswar? Is your wife living with you?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (হরির প্রতি) — তুই কেন আসিস নাই? তোর পরিবার এসেছে বুঝি?
हरि - जी, नहीं ।
HARI: "No, sir."
হরি — আজ্ঞা, না।
श्रीरामकृष्ण - फिर मुझे तू भूल कैसे गया ?
MASTER: "Then why did you forget me?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — তবে কেন ভুলে গেলি?
हरि - जी, मैं बीमार हो गया था ।
HARI: "I haven't been well, sir."
হরি — আজ্ঞা, অসুখ করেছিল।
श्रीरामकृष्ण – (भक्तों से) - हाँ, दुबला तो हो गया है । इसे भक्ति तो कम है नहीं, भक्ति की दौड़ का हाल फिर क्या पूछना ! - उत्पाती भक्ति है । (हँस रहे हैं ।)
MASTER (to the devotees): "He looks thin. He has no small measure of bhakti. He is overflowing with it, but it is of a rather troublesome nature." (Laughter.)
শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের) — কাহিল হয়ে গেছে, — ওর ভক্তি তো কম নয়, ভক্তির চোট দেখে কে! উৎপেতে ভক্তি। (হাস্য)
श्रीरामकृष्ण एक भक्त की स्त्री को 'हाबी की माँ' कहकर पुकारते थे । 'हाबी की माँ’ के भाई आये हुए हैं, कालेज में पढ़ते हैं, उम्र कोई बीस साल की होगी । वे क्रिकेट खेलने के लिए जायेंगे, इसलिए उठे, उनके साथ उनके छोटे भाई भी उठे, ये भी श्रीरामकृष्ण के भक्त हैं । कुछ देर बाद द्विज के लौट आने पर श्रीरामकृष्ण ने पूछा - "तू नहीं गया ?"
Sri Ramakrishna used to address a certain devotee's wife by the name of "Habi's mother". Her brother, a college student aged about twenty, was there. He stood up, ready to go and play cricket. His younger brother, named Dwija, was also a devotee of the Master. Both brothers left the room. A few minutes later Dwija returned. The Master said, "Why didn't you go?"
ঠাকুর একটি ভক্তের পরিবারকে ‘হাবীর মা’ বলতেন। হাবীর মার ভাই আসিয়াছে, কলেজে পড়ে, বয়স আন্দাজ কুড়ি। তিনি ব্যাট খেলিতে যাইবেন, — গাত্রোত্থান করিলেন। ছোট ভাইও ঠাকুরের ভক্ত, সেই সঙ্গে গমন করিলেন। কিয়ৎ পরে দ্বিজ ফিরিয়া আসিলে ঠাকুর বলিলেন, “তুই গেলিনি?”
किसी भक्त ने कहा, 'ये गाना सुनेंगे इसीलिए चले आये हैं ।' आज ब्राह्म भक्त श्री त्रैलोक्य का गाना होगा । पल्टू भी आ गये । श्रीरामकृष्ण कहते हैं - 'कौन – अरे ! पल्टू ?'
A devotee answered: "He wants to hear the music. Perhaps that is why he has come back." Trailokya, the Brahmo devotee, was to sing for the Master. Paltu arrived. The Master said: "Who is this? Ah! It is Paltu."
একজন ভক্ত বলিলেন, “উনি গান শুনিবেন তাই বুঝি ফিরে এলেন।”আজ ব্রাহ্মভক্ত শ্রীযুক্ত ত্রৈলোক্যের গান হইবে। পল্টু আসিয়া উপস্থিত। ঠাকুর বলিতেছেন, কে রে, — পল্টু যে রে!
एक और नवयुवक भक्त आये । इनका नाम पूर्ण है । श्रीरामकृष्ण के कई बार बुलवाने से तो ये आये हैं । घरवाले इन्हें आने ही नहीं देते थे । मास्टर जिस स्कूल में पढ़ाते हैं, ये वहीं पाँचवी कक्षा में पढ़ते हैं । इन्होंने श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण उन्हें अपने पास बैठाकर धीरे धीरे बातचीत कर रहे हैं । मास्टर पास बैठे हुए हैं । दूसरे भक्त दूसरे ही विचार में डूबे हैं । गिरीश एक ओर बैठे हुए केशव-चरित पढ़ रहे हैं ।
Purna, another young devotee, also arrived. It was with great difficulty that Sri Ramakrishna had managed to have him come. His relatives strongly objected to his visiting the Master. Purna was a student in the fifth grade of the school where M. taught. The boy prostrated himself before Sri Ramakrishna. The Master seated him by his side and was talking to him in a low voice. M. alone was sitting near them. The other devotees were talking about various things. Girish, sitting on the other side of the room, was reading a life of Keshab.
আর একটি ছোকরা ভক্ত (পূর্ণ) আসিয়া উপস্থিত হইলেন। ঠাকুর তাঁহাকে অনেক কষ্টে ডাকাইয়া আনিয়াছেন, বাড়ির লোকেরা কোনও মতে আসিতে দিবেন না। মাস্টার যে বিদ্যালয়ে পড়ান সেই বিদ্যালয়ে পঞ্চম শ্রেণীতে এই ছেলেটি পড়েন। ছেলেটি আসিয়া ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রনাম করিলেন। ঠাকুর নিজের কাছে তাহাকে বসাইয়া আস্তে আস্তে কথা কহিতেছেন — মাস্টার শুধু কাছে বসিয়া আছেন, অন্যান্য ভক্তেরা অন্যমনস্ক হইয়া আছেন। গিরিশ এক পাশে বসিয়া কেশবচরিত পড়িতেছেন।
श्रीरामकृष्ण - (पूर्ण से) - यहाँ आया करो ।
MASTER (to Purna): "Come nearer."
শ্রীরামকৃষ্ণ (ছোকরা ভক্তটির প্রতি) — এখানে এস।
गिरीश - (मास्टर से) - यह कौन है ?
GIRISH (to M.): "Who is this boy?"
গিরিশ (মাস্টারের প্রতি) — কে এ ছেলেটি?
मास्टर - (विरक्ति से) - लड़का है और कौन है ?
M. (sharply): "Don't you see he is a boy?"
মাস্টার (বিরক্ত হইয়া) — ছেলে আর কে?
गिरीश - लड़का है यह तो देख ही रहा हूँ ।
GIRISH (smiling): "I need no ghost to tell me that."
গিরিশ (সহাস্যে) — It needs no ghost to tell me that.
मास्टर डरे कि कहीं चार आदमी जान गये और लड़के के घर तक खबर फैली तो उसके लिए यह अच्छा न होगा, और इससे मास्टर पर भी दोषारोपण होता है । इसीलिए बच्चे के साथ श्रीरामकृष्ण धीरे धीरे बातचीत कर रहे हैं ।
[M. was afraid that others might notice the boy. This would make trouble for him at home and M. would be responsible for it. The Master and the boy were talking in low tones.
মাস্টারের ভয় হইয়াছে পাছে পাঁচজন জানিতে পারিলে ছেলের বাড়িতে গোলযোগ হয় আর তাঁহার নামে দোষ হয়। ছেলেটির সঙ্গে ঠাকুরও সেইজন্য আস্তে আস্তে কথা কহিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण - जो कुछ मैंने बतलाया था, सब करते जाना ।
MASTER: "Do you practise what I asked you to?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — সে সব কর? — যা বলে দিছিলাম?
बच्चा - जी हाँ । PURNA: "Yes, sir."ছেলেটি — আজ্ঞা, হাঁ।
श्रीरामकृष्ण - स्वप्न में कुछ देखते हो ? – अग्नि-शिखा, जलती हुई मशाल, सुहागिन स्त्री, स्मशान? यह सब देखना बहुत अच्छा है ।
MASTER: "Do you dream? Do you dream of a flame? A lighted torch? A married woman? A cremation ground? It is good to dream of these things."
শ্রীরামকৃষ্ণ — স্বপনে কিছু দেখ? — আগুন-শিখা, মশালের আলো? সধবা মেয়ে? — শ্মশান-মশান? এ-সব দেখা বড় ভাল।
बच्चा - आपको देखा है, आप बैठे हुए कुछ कह रहे थे ।
PURNA: "I dreamt of you. You were seated and were telling me something.
ছেলেটি — আপনাকে দেখেছি — বসে আছেন — কি বলছেন।
श्रीरामकृष्ण – क्या ? – उपदेश ? - अच्छा क्या सुना, एक कहो तो जरा ।
MASTER: "What? Some instructions? Tell me some of it."
শ্রীরামকৃষ্ণ — কি — উপদেশ? — কই, একটা বল দেখি।
बच्चा - याद नहीं है ।
PURNA: "I don't remember now."ছেলেটি — মনে নাই।
श्रीरामकृष्ण - नहीं याद है तो नहीं सही, यह बहुत अच्छा है । तुम्हारी उन्नति होगी । मुझ पर आकर्षण है न ?
MASTER: "Never mind. But it is very good. You will make progress. You feel attracted to me, don't you?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — তা হোক, — ও খুব ভাল! — তোমার উন্নতি হবে — আমার উপর তো টান আছে?
कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - 'क्या वहाँ नहीं जाओगे ?' (अर्थात् दक्षिणेश्वर में) । बच्चा कह रहा है, 'मैं यह नहीं कह सकता ।'
A few minutes later Sri Ramakrishna said to the boy, "Won't you come there?" He meant Dakshineswar. "I can't promise", answered the boy.
কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুর বলিতেছেন — “কই সেখানে যাবে না?” — অর্থাৎ দক্ষিণেশ্বরে। ছেলেটি বলিতেছে, “তা বলতে পারি না।”
श्रीरामकृष्ण - क्यों ? वहाँ तुम्हारा कोई आत्मीय है न ?
MASTER: "Why? Doesn't one of your relatives live there?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন, সেখানে তোমার আত্মীয় কে আছে না?
बच्चा - जी हाँ, परन्तु वहाँ जाने की सुविधा नहीं है ।
PURNA: "Yes, sir. But it won't be very convenient for me to go."
ছেলেটি — আজ্ঞা হাঁ, কিন্তু সেখানে যাবার সুবিধা হবে না।
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏भक्त सब पटापट कूच कर जाते हैं, देखने से श्रीरामकृष्ण की अवस्था🔱🙏
[ঠাকুরের অবস্থা — ভক্তসঙ্গ ত্যাগ ]
गिरीश केशव-चरित पढ़ रहे हैं । ब्राह्म समाज के श्रीयुत त्रैलोक्य ने यह पुस्तक लिखी है । इसमें लिखा है, पहले श्रीरामकृष्णदेव संसार से विरक्त थे, परन्तु केशव से मिलने के बाद उन्होंने अपना मत बदल दिया है । अब श्रीरामकृष्णदेव कहते हैं कि संसार में भी धर्म होता है । इसे पढ़कर किसी किसी भक्त ने श्रीरामकृष्ण से यह बात कही है । भक्तों की इच्छा है कि त्रैलोक्य के साथ इस विषय पर बातचीत हो । श्रीरामकृष्ण को पुस्तक पढ़कर यह बात सुनायी गयी थी ।
Girish was reading a life of Keshab written by Trailokya of the Brahmo Samaj. In it Trailokya said that at first Sri Ramakrishna had been very much opposed to the world but that after meeting Keshab he had changed his mind and had come to believe that one could lead a spiritual life in the world as well. Several devotees had told the Master about this. They wanted to discuss it with Trailokya. Those passages in the book had been read to the Master.
গিরিশ কেশবচরিত পড়িতেছেন। ব্রাহ্মসমাজের শ্রীযুক্ত ত্রৈলোক্য শ্রীযুক্ত কেশব সেনের ওই জীবনচরিত লিখিয়াছেন। ওই পুস্তকে লেখা আছে যে পরমহংসদেব আগে সংসারের উপর বড় বিরক্ত ছিলেন, কিন্তু কেশবের সহিত দেখাশুনা হবার পরে তিনি মত বদলাইয়াছেন — এখন পরমহংসদেব বলেন যে, সংসারেও ধর্ম হয়। এই কথা পড়িয়া কোন কোন ভক্তরা ঠাকুরকে বলিয়াছেন। ভক্তদের ইচ্ছা যে, ত্রৈলোক্যের সঙ্গে আজ এই বিষয় লইয়া কথা হয়। ঠাকুরকে বই পড়িয়া ওই সকল কথা শোনান হইয়াছিল।
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏ईश्वर का आनन्द मिल जाने पर तीनों ऐषणायें काकविष्ठावत् घृणास्पद हो जाती हैं !🔱🙏
श्रीरामकृष्ण देव गिरीश के हाथ में (केशव -चरित) पुस्तक देखकर गिरीश, मास्टर, राम तथा दूसरे भक्तों से कह रहे हैं - "वे लोग वही लेकर हैं, इसीलिए संसार-संसार रट रहे हैं । कामिनी और कांचन के भीतर हैं न ! उन्हें पा लेने पर ऐसी बात नहीं निकलती । ईश्वर का आनन्द मिल जाता है, तब संसार तो काकविष्ठावत् जान पड़ता है ।
Noticing the book in Girish's hand, Sri Ramakrishna said to Girish, M., Ram, and the other devotees: "Those people are busy with the world. That is why they set such a high value on worldly life. They are drowned in 'woman and gold'. One doesn't talk that way after realizing God. After enjoying divine bliss, one looks on the world as crow-droppings.
গিরিশের হাতে বই দেখিয়া ঠাকুর গিরিশ, মাস্টার, রাম ও অন্যান্য ভক্তদের বলিতেছেন — “ওরা ওই নিয়ে আছে, তাই ‘সংসার সংসার’ করছে! — কামিনী-কাঞ্চনের ভিতর রয়েছে। তাঁকে লাভ করলে ও কথা বলে না। ঈশ্বরের আনন্দ পেলে সংসার কাকবিষ্ঠা হয়ে যায়, —
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏अपने प्रियजनों को पटापट कूच करते देखकर मैं शुरू में ही सत्यार्थी बन गया🔱🙏
'দেখলুম পট্ পট্ মরে যায়, আর শুনে ছট্ফট্ করি!'
'देखलूम पट पट मरे जाय, आर शुने फटफट कोरी'
मैं पहले सब से किनाराकशी कर गया था । - विषयी लोगों का साथ तो छोड़ा, बीच में भक्तों का संग भी छोड़ दिया था । देखा, सब पटापट कूच कर जाते हैं (जिससे भी प्यार करता हूँ मर जाते हैं ?) और यह सुनकर मेरा कलेजा दुःख से तड़प उठता था - इस समय कुछ कुछ तो आदमियों में रहता भी हूँ ।"
At the very outset I utterly renounced everything. Not only did I renounce the company of worldly people, but now and then the company of devotees as well. I noticed that the devotees were dropping dead one by one, and that made my heart writhe with pain. But now I keep one or two of them with me."
আবার মাঝে ভক্তসঙ্গ-ফঙ্গও ত্যাগ করেছিলাম! দেখলুম পট্ পট্ মরে যায়, আর শুনে ছট্ফট্ করি! এখন তবু একটু লোক নিয়ে থাকি।”
(५)
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏'जय शचीनन्दन संकीर्तन' के आनन्द में 🔱🙏
गिरीश घर चले गये । फिर आयेंगे । श्रीयुत जयगोपाल सेन के साथ त्रैलोक्य आ गये । उन्होंने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण उनसे कुशलप्रश्न कर रहे हैं । छोटे नरेन्द्र ने आकर भूमिष्ठ हो प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण ने कहा, 'क्यों रे, तू शनिवार को तो फिर नहीं आया ?' अब त्रैलोक्य का गाना होगा ।
Girish left for home, saying he would come back.Trailokya arrived with Jaygopal Sen. They bowed before the Master and sat down. He inquired about their health. The younger Naren entered the room and saluted Sri Ramakrishna. The Master said to him, "Why didn't you see me last Saturday?
"গিরিশ বাড়ি চলিয়া গেলেন। আবার আসিবেন। শ্রীযুক্ত জয়গোপাল সেনের সহিত ত্রৈলোক্য আসিয়া উপস্থিত। তাঁহারা ঠাকুরকে প্রনাম করিলেন ও আসন গ্রহণ করিলেন। ঠাকুর তাঁহাদের কুশল প্রশ্ন করিতেছেন। ছোট নরেন আসিয়া ঠাকুরকে ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিলেন। ঠাকুর বলিলেন, — কই তুই শনিবারে এলিনি? এইবার ত্রৈলোক্য গান গাইবেন।
श्रीरामकृष्ण – अहा ! उस दिन तुमने आनन्दमयी माता का गाना गाया, कितना सुन्दर गाना था ! - और सब आदमियों के गाने अलोने लगते हैं । उस दिन नरेन्द्र का गाना भी अच्छा नहीं लगा । जरा वही गाना गाओ ! त्रैलोक्य गा रहे हैं - 'जय शचीनन्दन !'
Trailokya was ready to sing. MASTER: "Ah! You sang that day about the Blissful Mother. How sweetly you sang! Others' songs seem insipid to me. That day I didn't enjoy even Narendra's singing. Why don't you sing those same songs again?" Trailokya sang: Victory to Gora, Sachi's son!
শ্রীরামকৃষ্ণ — আহা, তুমি আনন্দময়ীর গান সেদিন করলে, — কি গান! আর সব লোকের গান আলুনী লাগে! সেদিন নরেন্দ্রের গানও ভাল লাগল না। সেইটে অমনি অমনি হোক না। ত্রৈলোক্য গাইতেছেন — ‘জয় শচীনন্দন’।
श्रीरामकृष्ण मुँह धोने के लिए जा रहे हैं । स्त्रियाँ चिक के पास व्याकुल भाव से बैठी हुई थीं । उनके पास श्रीरामकृष्ण दर्शन देने के लिए जायेंगे । त्रैलोक्य का गाना हो रहा है ।
Sri Ramakrishna left the room for a minute. The women devotees were seated near the screen. They were eager to see Sri Ramakrishna. Trailokya went on with his music.
ঠাকুর মুখ ধুইতে যাইতেছেন। মেয়ে ভক্তেরা চিকের পার্শ্বে ব্যাকুল হইয়া বসিয়া আছেন। তাঁহাদের কাছে গিয়া একবার দর্শন দিবেন। ত্রৈলোক্যের গান চলিতেছে।
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏 माँ आनन्दमयी का गाना के आनन्द में विभोर श्री रामकृष्ण 🔱🙏
[Sri Ramakrishna In joy of Blissful Mother's song]
श्रीरामकृष्ण कमरे में लौटकर त्रैलोक्य से कह रहे हैं – ‘जरा माँ आनन्दमयी का गाना गाओ तो ।' त्रैलोक्य गा रहे हैं –
कोतो भालो बासो गो माँ मानव सन्ताने,
मोने होले प्रेमधारा बहे दूनयने (गो माँ।)
तव पदे अपराधी , आछि आमि जनमवधि,
तोबू चेये मुख पाने प्रेमनयने, डाकिछो मधुर वचने ,
मोने होले प्रेमधारा बहे दू नयने।
तोमार प्रेमेर भार , बहिते पारि ना गो आर।
प्राण उठिछे कांदिया, ह्रदय भेदिया, तव स्नेह दर्शने ,
लोहेनू शरण माँ गो तव श्रीचरणे (गो माँ)।।
“माता, मनुष्य-सन्तानों पर तुम्हारी कितनी प्रीति है ! जब इसकी याद आती है, तब आँखों से प्रेम की धारा बह चलती है । मैं जन्म से ही तुम्हारे श्रीचरणों में अपराधी हूँ, फिर भी तुम मेरे मुख की ओर प्रेमपूर्ण नेत्रों से देखकर मधुर स्वर से पुकार रही हो । जब यह बात याद आती है, तब दोनों नेत्रों से प्रेम की धारा बह चलती है । तुम्हारे प्रेम का भार अब मुझसे ढोया नहीं जाता । जी विकल होकर रो उठता है, तुम्हारे स्नेह को देखकर हृदय विदीर्ण हो जाता है । माँ, तुम्हारे श्रीचरणों में मैं शरणागत हूँ ।”
Sri Ramakrishna entered the room again and said to Trailokya, "Please sing a little about the Blissful Mother." Trailokya sang: O Mother, how deep is Thy love for men! Mindful of it, I weep for joy. . . .
ঠাকুর ঘরের মধ্যে ফিরিয়া আসিয়া ত্রৈলোক্যকে বলিতেছেন, — একটু আনন্দময়ীর গান, — ত্রৈলোক্য গাইতেছেন:
কত ভালবাস গো মা মানব সন্তানে,
মনে হলে প্রেমধারা বহে দুনয়নে (গো মা)।
তব পদে অপরাধী, আছি আমি জন্মাবধি,
তবু চেয়ে মুখপানে প্রেমনয়নে, ডাকিছ মধুর বচনে,
মনে হলে প্রেমধারা বহে দুনয়নে।
তোমার প্রেমের ভার, বহিতে পারি না গো আর,
প্রাণ উঠিছে কাঁদিয়া, হৃদয় ভেদিয়া, তব স্নেহ দরশনে,
লইনু শরণ মা গো তব শ্রীচরণে (গো মা) ॥
गाना सुनते ही छोटे नरेन्द्र गम्भीर ध्यान में मग्न हो रहे हैं, - शरीर काष्ठवत् जान पड़ता है । श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं, 'देखो देखो, कितना गम्भीर ध्यान है । बाहरी संसार का ज्ञान बिलकुल नहीं है ।'
Listening to the song, the younger Naren went into deep meditation. He remained as still as a log. Sri Ramakrishna said to M.: "Look at him. He is totally unaware of the outer world."
গান শুনিতে শুনিতে ছোট নরেন গভীর ধ্যানে নিমগ্ন হইয়াছেন, যেন কাষ্ঠবৎ! ঠাকুর মাস্টারকে বলিতেছেন, “দেখ, দেখ, কি গভীর ধ্যান! একেবারে বাহ্যশূন্য!”
गाना समाप्त हो गया । श्रीरामकृष्ण ने त्रैलोक्य से 'दे माँ पागल करे' गाने के लिए कहा । राम ने कहा, 'कुछ हरिनाम होना चाहिए ।' त्रैलोक्य गा रहे हैं-
मन एकबार हरि बोल, हरिबोल, हरिबोल।
हरि हरि हरि बोले भवसिंधु पारे चल।
The song was over. At Sri Ramakrishna's request, Trailokya sang: 'O Mother, make me mad with Thy love! What need have I of knowledge or reason? . . .Ram asked him to sing about Hari. Trailokya sang: Chant, O mind, the name of Hari,Sing aloud the name of Hari,Praise Lord Hari's name!And praising Hari's name, O mind,Cross the ocean of this world.
রাম বলিতেছেন, কিছু হরিনাম হোক! ত্রৈলোক্য গাইতেছেন:
মন একবার হরি বল হরি বল হরি বল।
হরি হরি হরি বলে, ভবসিন্ধু পারে চল।
मास्टर धीरे धीरे कह रहे हैं - " ‘निताई-गौर तुम दोनों भाई भाई’ यह गाना सुनने की श्रीरामकृष्ण की भी इच्छा है ।" त्रैलोक्य के साथ भक्तगण भी मिलकर गा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण भी साथ गाने लगे । यह गाना समाप्त होने पर दूसरा गाना शुरू किया गया । -“हरिनाम लेते हुए जिनकी आँखों से आँसू बह चलते हैं, वे दोनों भाई आये हैं । जो मार सहकर भी प्रेमदान देने के लिए तैयार रहते हैं, वे दोनों भाई आये हैं ।” इसके बाद श्रीरामकृष्ण ने स्वयं गाना गाया - “श्रीगौरांग के प्रेम-प्रवाह से नदिया में उथल-पुथल मची हुई है ।"
M. said in a low voice to Trailokya, "Please — 'Gaur and Nitai, ye blessed brothers'."Sri Ramakrishna, too, asked him to sing the song. Trailokya and the devotees sang it in chorus, the Master joining them. When it was over, the Master sang: Behold, the two brothers (Gauranga and Nityananda.) have come, who weep while chanting Hari's name, The brothers who, in return for blows, offer to sinners Hari's love, Embracing everyone as brother, even the outcaste shunned by men. Behold, the two brothers have come, who once were Kanai and Balai of Braja. . . .
Sri Ramakrishna sang again: See how all Nadia is shaking Under the waves of Gauranga's love! . . .
মাস্টার আস্তে আস্তে বলিতেছেন, ‘গৌর-নিতাই তোমরা দুভাই।’ ঠাকুরও ওই গানটি গাইতে বলিতেছেন। ত্রৈলোক্য ও ভক্তেরা সকলে মিলিয়া গাইতেছেন:
গৌর নিতাই তোমরা দুভাই পরম দয়াল হে প্রভু!
ঠাকুরও যোগদান করিলেন। সমাপ্ত হইলে আর একটি ধরিলেন:
যাদের হরি বলতে নয়ন ঝরে তারা দুভাই এসেছে রে।
যারা মার খেয়ে প্রেম যাচে তারা তারা দুভাই এসেছে রে।
যারা ব্রজের কানাই বলাই তারা তারা দুভাই এসেছে রে।
যারা আচণ্ডালে কোল দেয় তারা তারা দুভাই এসেছে রে।
ওই গানের সঙ্গে ঠাকুর আর একটা গান গাহিতেছেন:
নদে টলমল টলমল করে গৌরপ্রেমের হিল্লোলে রে।
श्रीरामकृष्ण ने फिर गाया - “ हरिनाम लेता हुआ यह कौन जा रहा है ? ऐ माधाई, तू जरा देख तो आ ।"
Then: Who are they that walk along, chanting Hari's name? O Madhai, go out and see!
ঠাকুর আবার ধরিলেন:
কে হরিবোল হরিবোল বলিয়ে যায়?
যা রে মাধাই জেনে আয়।
বুঝি গৌর যায় আর নিতাই যায় রে।
যাদের সোনার নূপুর রাঙা পায়।
যাদের নেড়া মাথা ছেঁড়া কাঁথা রে।
যেন দেখি পাগলেরই প্রায়।
गाना हो जाने पर छोटे नरेन्द्र बिदा हुए ।
The younger Naren was about to leave.
ছোট নরেন বিদায় লইতেছেন —
श्रीरामकृष्ण - तू अपने माँ-बाप पर खूब भक्ति किया कर । परन्तु वे अगर ईश्वर के मार्ग में रोड़े अटकावें, तो उनकी बातें न मानना । खूब दृढ़ता रखना - वह बाप नहीं साला है, अगर ईश्वर के मार्ग में विघ्न खड़ा करता है ।
MASTER: "Show great devotion to your parents; but don't obey them if they stand in your way to God. You must gird your loins with great determination and say, 'This rogue of a father!'"
শ্রীরামকৃষ্ণ — তুই বাপ-মাকে খুব ভক্তি করবি। — কিন্তু ঈশ্বরের পথে বাধা দিলে মানবিনি। খুব রোখ আনবি — শালার বাপ!
छोटे नरेन्द्र - न जाने क्यों, मुझे भय नहीं होता ।
NAREN: "Truly, I have no fear."
ছোট নরেন — কে জানে, আমার কিছু ভয় হয় না।
गिरीश घर से लौट आये । श्रीरामकृष्ण त्रैलोक्य से परिचय करा रहे हैं । कह रहे हैं - 'तुम लोग कुछ वार्तालाप करो ।' दोनों में कुछ बातचीत हो जाने पर, त्रैलोक्य से कह रहे हैं, "जरा वही गाना एक बार और - 'जय शचीनन्दन’ ।"
Girish arrived. Sri Ramakrishna introduced him to Trailokya. He asked them to talk to each other. A few minutes later the Master said, "That song again, please."
গিরিশ বাড়ি হইতে আবার আসিয়া উপস্থিত। ঠাকুর ত্রৈলোক্যের সহিত আলাপ করিয়া দিতেছেন; আর বলিতেছেন, ‘একটু আলাপ তোমরা কর।’ একটু আলাপের পর ত্রৈলোক্যকে বলিতেছেন, ‘সেই গানটি আর একবার,’ — ত্রৈলোক্য গাইতেছেন:
त्रैलोक्य गाने लगे ।
जय शचीनन्दन, गौर गुणाकर ,प्रेम -परशमणि, भाव-रस-सागर।
किबा सुन्दर मूरति मोहन आँखिर अंजन कनकबरन,
किबा मृणाल निन्दित, आजानु लम्बित, प्रेम प्रसारित, कोमल युगल कर,
किबा रुचिर बदन-कमल, प्रेम रसे टल टल,
चीकूर कुन्तल, चारु गण्डस्थल, हरिप्रेम विह्वल, अपरूप मनोहर
(भावार्थ) “हे शचीनन्दन, गुणाकर गौरांग, तुम पारस-पत्थर हो । भाव-रस के सागर हो । तुम्हारी मूर्ति कितनी सुन्दर है ! और कनक की आभामयी मनोहर आँखें ! मृणाल-निन्दित, आजानु-लम्बित, प्रेम-प्रसारित तुम्हारे कर-युगल भी कितने सुकुमार हैं । प्रेम-रस से भरा, छलकता हुआ रुचिर वदन-कमल, सुन्दर केश, चारु गण्डस्थल भी कितने सुंदर हैं !
महाभाव मण्डित हरि रसे रञ्जित, आनन्दे पुलकित अंग ,
प्रमत्त मातङ्ग, सोनार गौरांग,
आवेशे बिभोर अंग, अनुरागे गरगर।
हरिगुण गायक, प्रेमरस नायक,
साधु-हृदिर-रंजक, आलोकसामान्य, भक्तिसिन्धु श्रीचैतन्य,
तुम्हारे ईश्वरप्रेम की विकल आस्था से सर्वांग कितना आकर्षक हो रहा है ! तुम महाभाव-मण्डित हो, हरि-रस-रंजित हो रहे हो, आनन्द से तुम्हारा सर्वांग पुलकित हो रहा है । प्रमत्त मातंग की तरह, ऐ हेमकान्ति, तुम्हारे अंग आवेश-विभोर हो रहे हैं - अनुराग से भरे हुए हैं । तुम हरिगुण-गायक हो, अलोक-सामान्य हो, भक्तिसिन्धु के श्रीचैतन्य हो ।
आहा ! 'भाई ' बोली चण्डाले, प्रेमभरे लन कोले ,
नाचेन दूबाहू तुले, हरि बोल हरि बोल,
अबिरल झरे जले नयने निरन्तर !
'कोथा हरि प्राणधन'--बोले कोरे रोदन ;
महास्वेद कम्पन, हूँकार गर्जन ,
अहा ! 'भाई' कहकर चाण्डाल को भी तुम प्रेमपूर्वक हृदय से लगा लेते हो, दोनों बाहुओं को उठाकर हरि-नाम-कीर्तन करते हुए तुम्हारी आँखों से अविरल आँसुओं की धारा बह चलती है । 'मेरे जीवन-धन वे कहाँ हैं’, कहकर जब तुम रोदन करते हो, उस समय महा स्वेद होता है - कम्पन होता है, हुंकार के साथ गर्जना होती है ।
पुलके रोमांचित, शरीर कदंवित,
धुलाय बिलुण्ठित सुन्दर कलेवर।
हरि-लीला-रस-निकेतन, भक्तिरस -प्रसरवन;
दीनजन बान्धव, रंगेर गौरव, धन्य धन्य श्रीचैतन्य प्रेम शशधर।
पुलकित और रोमांचित होकर तुम्हारा सुन्दर शरीर धूलि-लुण्ठित हो जाता है । ऐ हरिलीलारस-निकेतन ! ऐ भक्ति-रस प्रस्रवण ! दीन-जन-बान्धव ऐ बंग-गौरव ! प्रेम-शशिधर ऐ श्री चैतन्य ! तुम धन्य हो - तुम धन्य हो !"
ত্রৈলোক্য গাইতেছেন:
[ঝিঁঝিট খাম্বাজ — ঠুংরী ]
জয় শচীনন্দন, গৌর গুণাকার, প্রেম-পরশমণি, ভাব-রস-সাগর।
কিবা সুন্দর মুরতিমোহন আঁখিরঞ্জন কনকবরণ,
কিবা মৃণালনিন্দিত, আজানুলম্বিত, প্রেম প্রসারিত, কোমল যুগল কর
কিবা রুচির বদন-কমল, প্রেমরসে ঢল ঢল,
চিকুর কুন্তল, চারু গণ্ডস্থল, হরিপ্রেমে বিহ্বল, অপরূপ মনোহর।
মহাভাবে মণ্ডিত হরি রসে রঞ্জিত, আনন্দে পুলকিত অঙ্গ,
প্রমত্ত মাতঙ্গ, সোনার গৌরাঙ্গ,
আবেশে বিভোর অঙ্গ, অনুরাগে গরগর।
হরিগুণগায়ক, প্রেমরস নায়ক,
সাধু-হৃদিরঞ্জক, আলোকসামান্য, ভক্তিসিন্ধু শ্রীচৈতন্য,
আহা! ‘ভাই’ বলি চণ্ডালে, প্রেমভরে লন কোলে,
নাচেন দুবাহু তুলে, হরি বোল হরি বলে,
অবিরল ঝরে জলে নয়নে নিরন্তর!
‘কোথা হরি প্রাণধন’ — বলে করে রোদন,
মহাস্বেদ কম্পন, হুঙ্কার গর্জন,
পুলকে রোমাঞ্চিত, শরীর কদম্বিত,
ধুলায় বিলুণ্ঠিত সুন্দর কলেবর।
হরি-লীলা-রস-নিকেতন, ভক্তিরস-প্রস্রবণ;
দীনজনবান্ধব, বঙ্গের গৌরব, ধন্য ধন্য শ্রীচৈতন্য প্রেম শশধর।
'मेरे जीवन-धन वे कहाँ हैं, कहकर तुम रोदन करते हो,' यह सुनकर श्रीरामकृष्ण भावावेश में आकर खड़े हो गये, - बिलकुल बाह्य ज्ञान जाता रहा !
Sri Ramakrishna went into samadhi. He stood up, totally unconscious of the world.
‘গৌর হাসে কাঁদে নাচে গায়’ — এই কথা শুনিয়া ঠাকুর ভাবাবিষ্ট হইয়া দাঁড়াইয়া পড়িলেন, — একেবারে বাহ্যশূন্য!
जब कुछ प्राकृत दशा हुई तब वे त्रैलोक्य से विनयपूर्वक कहने लगे - “एक बार वह गाना भी 'क्या देखा मैंने केशव भारती के कुटीर में !’ " त्रैलोक्य ने वह गाना भी गाया ।
Regaining partial consciousness, he begged Trailokya to sing "Oh, what a vision I have beheld".Trailokya sang: Oh, what a vision I have beheld in Keshab Bharati's7 hut!
কিঞ্চিৎ প্রকৃতিস্থ হইয়া — ত্রৈলোক্যকে অনুনয় বিনয় করিয়া বলিতেছেন, “একবার সেই গানটি! — কি দেখিলাম রে।”ত্রৈলোক্য গাইতেছেন:কি দেখিলাম রে, কেশব ভারতীর কুটিরে,অপরূপ জ্যোতি; গৌরাঙ্গ মূরতি, দুনয়নে প্রেম বহে শত ধারে। গান সমাপ্ত হইল। সন্ধ্যা হয়। ঠাকুর এখনও ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন।
गाना समाप्त हो गया । सन्ध्या हो आयी । श्रीरामकृष्ण अब भी भक्तों के साथ बैठे हुए हैं। श्रीरामकृष्ण (राम से) - बाजा नहीं है । अगर अच्छा बाजा रहा तो गाना खूब जमता है । (हँसकर) बलराम का बन्दोबस्त क्या है, जानते हो ? ब्राह्मण की गौ ! जो खाय तो कम, पर दूध दे सेरों ! (सब हँसते हैं) बलराम का भाव है- अपने गीत गाओ और अपने ढोल बजाओ ! (सब हँसते हैं)
The music was over. It was about dusk. Sri Ramakrishna was surrounded by the devotees.MASTER (to Ram): "There were no instruments to accompany the songs. The singing creates an atmosphere when there is proper accompaniment. (Smiling) Do you know how Balaram manages a festival? He is like a miserly brahmin raising a cow. The cow must eat very little but give milk in torrents. (All laugh.) Sing your own songs and beat your own drums: that's Balaram's idea!" (All laugh.)
শ্রীরামকৃষ্ণ (রামের প্রতি) — বাজনা নাই! ভাল বাজনা থাকলে গান খুব জমে। (সহাস্যে) বলরামের আয়োজন কি জান, — বামুনের গোড্ডি (গরুটি) খাবে কম, দুধ দেবে হুড়হুড় করে! (সকলের হাস্য) বলরামের ভাব, — আপনারা গাও আপনারা বাজাও! (সকলের হাস্য)
(६)
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🙏केशव सेन जैसा गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी लोकशिक्षक बना जा सकता है ?🙏
[क्या गृहस्थ जीवन में रहने वाले युवा भी लोकशिक्षक,
आध्यात्मिक नेता/सुरमा (Spiritual Hero) बन सकते हैं ?]
सन्ध्या हो गयी है । बलराम के बैठकखाने और बरामदे में चिराग जल गये । श्रीरामकृष्ण जगन्माता को प्रणाम करके उँगलियों पर बीजमन्त्र का जप कर मधुर स्वर से नाम ले रहे हैं । भक्तगण चारों ओर बैठे हैं । वे मधुर नाम सुन रहे हैं । गिरीश, मास्टर, बलराम, त्रैलोक्य तथा अन्य दूसरे बहुत से भक्त अब भी बैठे हैं । 'केशव चरित' ग्रन्थ में संसार के लिए श्रीरामकृष्ण के मतपरिवर्तन की जो बात लिखी है, त्रैलोक्य के सामने वह प्रसंग उठाने के लिए भक्तों ने निश्चय किया । गिरीश ने श्रीगणेश किया ।
[As evening came on, lamps were lighted in the drawing-room and on the verandah. Sri Ramakrishna bowed to the Divine Mother and began to chant the name of God. The devotees sat around and listened to his sweet chanting. They wanted to discuss with Trailokya his remarks about the Master's change of opinion on worldly life. Girish started the discussion.
সন্ধ্যা হইল। বলরামের বৈঠকখানায় ও বারান্দায় আলো জ্বালা হইল। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ জগতের মাতাকে প্রণাম করিয়া, করে মূলমন্ত্র জপ করিয়া মধুর নাম করিতেছেন। ভক্তেরা চারিপার্শ্বে বসিয়া আছেন ও সেই মধুর নাম শুনিতেছেন। গিরিশ, মাস্টার, বলরাম, ত্রৈলোক্য ও অন্যান্য অনেক ভক্তরা এখনও আছেন। কেশবচরিত গ্রন্থে ঠাকুরের সংসার সম্বন্ধে মত পরিবর্তনের কথা যাহা লেখা আছে, ত্রৈলোক্যের সামনে সেই কথা উত্থাপন করিবেন, ভক্তেরা ঠিক করিয়াছেন। গিরিশ কথা আরম্ভ করিলেন।
वे (गिरीश) त्रैलोक्य से कह रहे हैं - "आपने जो यह लिखा है कि केशव के संपर्क में आने के बाद, संसार के सम्बन्ध में इनका (श्रीरामकृष्ण का) मत बदल गया है, वास्तव में बात वैसी नहीं, इनका मत परिवर्तित नहीं हुआ है ।"
GIRISH (to Trailokya): "You have written that, after coming in contact with Keshab, Sri Ramakrishna changed his views about worldly life; but it isn't true."
তিনি ত্রৈলোক্যকে বলিতেছেন, “আপনি যা লিখেছেন — যে সংসার সম্বন্ধে এঁর মত পরিবর্তন হয়েছে, তা বস্তুতঃ হয় নাই।”
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏'चातक नेता' का आहार ही प्रभु का नाम-जप-ध्यान ही होता है।🔱🙏
श्रीरामकृष्ण - (त्रैलोक्य और दूसरे भक्तों से) - 'इधर का आनंन्द' ^*मिलने पर फिर संसार नहीं सुहाता । ईश्वर का आनन्द मिल गया [सगुण ईश्वर श्रीरामकृष्णदेव ही 'सनातन साक्षी' होकर ह्रदय में बैठे हैं, उनके दर्शन का आनन्द मिल गया तो फिर] तो फिर संसार के विषयों का भोग बेस्वाद (insipid) जान पड़ता है । ऊनि शाल के मिलने पर फिर बनात (synthetic fabric) अच्छी नहीं लगती ।
[ 'इधर का आनंन्द' ^* एक कोई एक बार भी सगुण ईश्वर श्री रामकृष्ण-विवेकान्द वेदान्त वचनामृत रस चख लेता है तो वह गुरु की खोज में कुम्भ मेला (1986) जा पहुँचता है। तब (1987 में गुरु श्रद्धा की दीक्षा प्रभु श्री रामकृष्ण का बीजमन्त्र मिलने के बाद) वह उन्हीं के जैसे नेता, लोकशिक्षक, पैगम्बर या गुरु विवेकानन्द -भूतेशानन्द, कैप्टन सेवियर -नवनीदा, प्रमोददा के पीछे कटक से अटक गुजरात तक दौड़ता रहता है, उसके लिए यह बात कोई मायने नहीं रखती कि दुनिया मोम की बन गयी है या (अहं) बिल्कुल ही गायब (14अप्रैल, 1992 को ) हो गयी है ?? ]
MASTER (to Trailokya and the other devotees): "If a man enjoys the Bliss of God, he doesn't enjoy the world. Having tasted divine bliss, he finds the world insipid. If a man gets a shawl, he doesn't care for broadcloth."
শ্রীরামকৃষ্ণ (ত্রৈলোক্য ও অন্যান্য ভক্তদের প্রতি) — এ-দিকের আনন্দ পেলে ওটা ভাল লাগে না, ভগবানের আনন্দলাভ করলে সংসার আলুনী বোধ হয়। শাল পেলে আর বনাত ভাল লাগে না!
त्रैलोक्य - जो लोग सांसारिक जीवन जीना चाहते हैं (अर्थात जो तीनों ऐषणाओं को भोगते हुए ही लोकशिक्षक या नेता बनना चाहते हैं), मैंने उनकी बात लिखी है। जो लोग त्यागी हैं (गृहस्थ जीवन त्याग कर संन्यासी बन चुके हैं), मैं उनकी बात नहीं कहता ।
[अर्थात केशव-चरित में मैंने वैसे नेता का जिक्र किया है जो ब्रह्म-समाज के नेता होकर भी सांसारिक जीवन जीना चाहते थे। मेरा मतलब श्रीरामकृष्ण जैसे संन्यासी से नहीं था, जो विवाहित होकर भी अनासक्त जीवन जीने में समर्थ है।]
[TRAILOKYA: "I referred to those who wanted to lead a worldly life. I didn't mean renouncers."
ত্রৈলোক্য — সংসার যারা করবে তাদের কথা আমি বলছি, — যারা ত্যাগী তাদের কথা বলছি না।
श्रीरामकृष्ण - ये सब तुम लोगों की कैसी बातें हैं ? जो लोग 'संसार में धर्म’ -'संसार में धर्म' की रट लगाते हैं, (अर्थात विषयरस में डूबे रहकर भी आध्यात्मिक सूरमा -Spiritual Hero' लोकशिक्षक या नेता होना चाहते हैं) वे लोग एक बार अगर ईश्वर का आनन्द पा जायँ, तो उन्हें कुछ भी नहीं सुहाता । सांसारिक कर्तव्यों के प्रति उनकी आसक्ति कम हो जाती है। क्रमशः आनन्द जितना बढ़ता जाता है, उतना ही वे काम करने से थक जाते हैं, - केवल उस आनन्द की ही खोज में रहते हैं । विषयानन्द और रमणानन्द की तुलना क्या ईश्वरानन्द के साथ की जा सकती है ? जब कोई मनुष्य एक बार भी ईश्वर के आनन्द को चख लेता है, तब फिर वह उसी आनन्द की खोज में दौड़ता रहता है, संसार रहे या गायब हो जाये। MASTER: "What are you talking about? People talk about leading a religious life in the world. But if they once taste the bliss of God they will not enjoy anything else. Their attachment to worldly duties declines. As their spiritual joy becomes deeper, they simply cannot perform their worldly duties. More and more they seek that joy. Can worldly pleasures and sex pleasures be compared to the bliss of God? If a man once tastes that bliss, he runs after it ever afterwards. It matters very little to him then whether the world remains or disappears.
শ্রীরামকৃষ্ণ — ও-সব তোমাদের কি কথা! — যারা ‘সংসারে ধর্ম’ ‘সংসারে ধর্ম’ করছে, তারা একবার যদি ভগবানের আনন্দ পায় তাদের আর কিছু ভাল লাগে না, কাজের সব আঁট কমে যায়, ক্রমে যত আনন্দ বাড়ে কাজ আর করতে পারে না, — কেবল সেই আনন্দ খুঁজে খুঁজে বেড়ায়! ভগবানের আনন্দের কাছে বিষয়ানন্দ আর রমণানন্দ! একবার ভগবানের আনন্দের আস্বাদ পেলে সেই আনন্দের জন্য ছুটোছুটি করে বেড়ায়, তখন সংসার থাকে আর যায়।
"प्यास के मारे चातक की छाती फटी जाती है, सातों सागर, सारी नदियाँ तथा कुल तालाब पानी से भरे रहते हैं, फिर भी वह उनका जल नहीं पीता । स्वाति की बूँदों के लिए चोंच फैलाये रहता है। स्वाति की बूँदों को छोड़ उसके लिए और सब पानी धूल है ।
[ 'चातक नेता' का आहार ही केवल प्रभु का नाम-जप-ध्यान ही होता है। निवृत्तिमार्ग के सप्तर्षि में से एक जन्मजात त्यागी नेता को ठाकुर अपने साथ लाये थे। विवाहित होकर भी साम्यभाव में स्थित और काली-नाम रस पीकर अनासक्त जीवन जीने में समर्थ प्रवृत्तिमार्ग के सप्तर्षि में से प्रथम 'चातक नेता' स्वयं श्रीरामकृष्ण देव थे ???]
"Though the chatak bird is about to die of a parched throat, and around it there are seven oceans, rivers, and lakes overflowing with water, still it will not touch that water. Its throat is cracking with thirst, and still it will not drink that water. It looks up, mouth agape, for the rain to fall when the star Svati is in the ascendant. To the chatak bird all waters are mere dryness beside Svati water.'
“চাতক তৃষ্ণায় ছাতি ফেটে যাচ্ছে, — সাত সমুদ্র যত নদী পুষ্করিণী সব ভরপুর! তবু সে জল খাবে না! ছাতি ফেটে যাচ্ছে তবু খাবে না! স্বাতী নক্ষত্রের বৃষ্টির জলের জন্য হাঁ করে আছে! ‘বিনা স্বাতীকি জল সব ধূর!”
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏लोग कहते हैं कि वे परमेश्वर और संसार दोनों को थामे रहेंगे।🔱🙏
[দুআনা মদ ও দুদিক রাখা ]
"कहते हैं, दोनों ओर बचाकर चलेंगे । दुअन्नी भर शराब पीकर आदमी दोनों तरफ की रक्षा चाहे कर ले, परन्तु कसकर शराब पी ले [अर्थात एक बार भी ब्रह्मानन्द पीकर मदमस्त या प्रमत्त हो जाये ?] तो कैसे रक्षा हो सकेगी ?
"People say they will hold to both God and the world. After drinking an ounce of wine, a man may be pleasantly intoxicated and also conscious of the world; but can he be both when he has drunk a great deal more?
“বলে দুদিক রাখব। দুআনা মদ খেলে মানুষ দুদিক রাখতে চায়, আর খুব মদ খেলে কি আর দুদিক রাখা যায়!
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏 "आन लोकेर आन कोथा, किछु भालो तो लागे ना ....रे !"🔱🙏
“ईश्वर का आनन्द पा जाने पर ^* फिर और अच्छा नहीं लगता । तब कामिनी और कांचन की बात हृदय में चोट कर जाती है। (श्रीरामकृष्ण कीर्तन के स्वर में गुनगुनाते हुए कह रहे हैं-' आन लोकेर आन कोथा, किछु भालो तो लागे ना .... रे' ) – ‘दूसरे आदमियों की और और बातें तो अब अच्छी ही नहीं लगतीं ।’ जब मनुष्य ईश्वर के लिए पागल हो जाता है तब वासना और धन-दौलत (lust and wealth, विषय- भोग, Fat bank balance,नाम-यश) कुछ अच्छा नहीं लगता ।"
[मेरा अनुवाद :- “ईश्वर का आनन्द पा जाने पर ^* : जब मनुष्य अपने ह्रदय में विराजमान सनातन साक्षी (eternal witness) से बातचीत करने के आनन्द में पागल (ecstatic-समाधिमग्न) हो जाता है, तो उसे इन्द्रियों में आसक्त लोगों की बातें सुनना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।
“Having attained the bliss of God ^* : When a man becomes ecstatic with the joy of conversing with the eternal witness seated in his heart, he does not at all like to listen to those who are attached to the senses.
“ভগবানের আনন্দ লাভ করে ^* : যখন একজন মানুষ তার অন্তরে উপবিষ্ট শাশ্বত সাক্ষীর সাথে কথোপকথনের আনন্দে উল্লসিত হয়, তখন সে ইন্দ্রিয়ের সাথে যুক্তদের কথা শুনতে মোটেও পছন্দ করে না।]
"After the bliss of God nothing else tastes good. Then talk about 'woman and gold' stabs the heart, as it were. (Intoning) 'I cannot enjoy the talk of worldly people.' When a man becomes mad for God, he doesn't enjoy money or such things."
“ঈশ্বরের আনন্দ পেলে আর কিছু ভাল লাগে না। তখন কামিনী-কাঞ্চনের কথা যেন বুকে বাজে। (ঠাকুর কীর্তনের সুরে বলিতেছেন) ‘আন্ লোকের আন্ কথা, কিছু ভাল তো লাগে না!’ তখন ঈশ্বরের জন্য পাগল হয়, টাকা-ফাকা কিছুই ভাল লাগে না!”
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏क्या कोई सत्यार्थी धन संचय के बाद सत्य की खोज करेगा ?🔱🙏
[Will any monk search for truth after accumulating wealth?]
त्रैलोक्य - संसार में रहना है तो धन का भी तो संचय चाहिए । दान-ध्यान आदि संसार में लगे ही रहते हैं ।
TRAILOKYA: "But, sir, if a man is to remain in the world, he needs money and he must also save. He has to give in charity and —"
ত্রৈলোক্য — সংসারে থাকতে গেলে টাকাও তো চাই, সঞ্চয়ও চাই। পাঁচটা দান-ধ্যান —
श्रीरामकृष्ण – क्या ! धन का संचय करके फिर ईश्वर ! और दान-ध्यान-दया भी कितनी ! अपनी लड़की के विवाह में तो हजारों रुपयो का खर्च - और पड़ोसी भूखों मरता है, उसे मुट्ठी भर अन्न देते कलेजा चिर जाता है ! संसारी मनुष्य दान भी बड़े हिसाब से करते हैं । लोग खाने को नहीं पाते - तो क्या हुआ, साले मरें या बचें, - मैं और मेरे घरवाले बस अच्छे रहे, बस हो गया ! सब जीवों पर दया, उनका जबानी जमा-खर्च है ।
MASTER: "What? Do you mean that one must first save money and then seek God? And you talk about charity and kindness! A worldly man spends thousands of rupees for his daughter's marriage. Yet, all the while, his neighbours are dying of starvation; and he finds it hard to give them two morsels of rice; he calculates a thousand times before giving them even that much. The people around him have nothing to eat; but what does he care about that? He says to himself: 'What can I do? Let the rascals live or die. All I care about is that the members of my family should live well.' And they talk about doing good to others!"
শ্রীরামকৃষ্ণ — কি, আগে টাকা সঞ্চয় করে তবে ঈশ্বর! আর দান-ধ্যান-দয়া কত! নিজের মেয়ের বিয়েতে হাজার হাজার টাকা খরচ — আর পাশের বাড়িতে খেতে পাচ্ছে না। তাদের দুটি চাল দিতে কষ্ট হয় — অনেক হিসেব করে দিতে হয়। খেতে পাচ্ছে না লোকে, — তা আর কি হবে, ও শালারা মরুক বাঁচুক, — আমি আর আমার বাড়ির সকলে ভাল থাকলেই হল। মুখে বলে সর্বজীবে দয়া!
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏मन हाथ रहे सदा जिनके, तिनके बन ही घर है, घर ही बनु है।🔱🙏
[पुण्डरीक विद्यानिधि ^* पुण्डरीक विद्यानिधि चैतन्य महाप्रभु के शिष्य और एक प्रच्छन्न भक्त थे। उनके आचार-व्यवहार को देखकर कोई नहीं समझ सकता था कि ये भक्त हैं, सब लोग उन्हें विषयी ही समझते थे। जिसने एक क्षण को भी -सनातन साक्षी से बातचीत के आनन्द (Bliss of God) का अनुभव कर लिया, या ह्रदय में विराजमान सुख-स्वरूप प्रेमदेव (श्रीरामकृष्ण) के दर्शन कर लिये फिर उसके लिये सभी संसारी पदार्थ तुच्छ-से दिखायी देने लगेंगे। वे संसारी भोगों से स्वरूपतः भी दूर ही रहते हैं। इसीलिये प्रायः देखा गया है कि परमार्थ के पथिक भगवद्भक्तों तथा ज्ञाननिष्ठ साधकों का जीवन (जो शरीर से आत्मा की पृथकता को मानते नहीं जानते हैं उनका जीवन) सदा त्यागमय ही होता है। संसारी सुखों में तो मनुष्य तभी तक सुखानुभव करता है, जब तक उसे असली सुख का पता नहीं चलता। असल में भक्ति का सम्बन्ध तो हृदय से है, यदि मन विषयवासनाओं में रत नहीं है, तो कैसी भी परिस्थिति में क्यों न रहें, हृदय सदा प्रभु के पादपद्मों का ही चिन्तन करता रहेगा। किंतु कुछ ऐसे भी भक्त देखने में आते हैं कि जिनका जीवन ऊपर से तो संसारी लोगों का-सा प्रतीत होता है, किंतु हृदय में अगाध भक्ति-रस भरा हुआ होता है।
तदश्मसारं हृदयं बतेदं
यद् गृह्यमाणैर्हरिनामधेयैः ।
न विक्रियेताथ यदा विकारो
नेत्रे जलं गात्ररुहेषु हर्षः ॥ २४ ॥
[तद अश्म सारम् हृदयम् बतेदम्, यद गृह्यमाणै: हरिनाम धेयै:। न विक्रियेत अथ यदा विकारो नेत्रे जलम्, गात्ररुहेषु हर्ष:। (श्रीमद्भा. २/३/२४)
शब्दार्थ-- तत्—वह; अश्म-सारम्—फौलाद का बना; हृदयम्—हृदय; बत इदम्—निश्चय ही यह; यत्—जो; गृह्यमाणै:—उच्चारण करने पर भी; हरि-नाम—भगवान् का पवित्र नाम; धेयै:—मन की एकाग्रता से; न—नहीं; विक्रियेत—बदले; अथ—इस तरह; यदा—जब; विकार:—प्रतिक्रिया; नेत्रे—आँखों में; जलम्—अश्रु; गात्र-रुहेषु—छिद्रों पर; हर्ष:—उल्लास का प्रस्फुटन। (श्रीमद्भा. २/३/२४)
अनुवाद--निश्चय ही वह हृदय फौलाद का बना है, जो एकाग्र होकर भगवान् के पवित्र नाम का उच्चारण करने पर भी नहीं बदलता; जब हर्ष होता है, तो आँखों में आँसू नहीं भर आते और शरीर के रोम-रोम खड़े नहीं हो जाते।
उपरोक्त श्लोक में 'विष्णु पूजा ' की स्थिति, यानि ईश्वर के आनन्द को प्राप्त कर लेने के बाद; अर्थात् ह्रदय में विराजमान सगुण-साकार सनातन साक्षी भगवान श्रीरामकृष्ण की शुद्ध भक्ति प्राप्त करने के बाद; 'विष्णु पूजा' की परिपक्क अवस्था का वर्णन किया गया है, जिसमें हृदय परिवर्तन की बात कही गई है। नाम-जप करते रहने से नवदीक्षितों का मन तथा इन्द्रियाँ धीरे-धीरे आध्यात्मिक बनती हैं और मन, उन भगवान् विष्णु (के अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण परमहंस) पर एकाग्र होता है, जो प्रत्येक के हृदय में सर्वत्र और भौतिक ब्रह्माण्ड के प्रत्येक परमाणु में परमात्मा -'सनातन साक्षी' रुप में स्थित हैं।
गुरु-शिष्य परम्परा " स्वामी विवेकानन्द कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा " Be and Make' में आध्यात्मिक दीक्षा का (मनःसंयोग के प्रशिक्षण की ) सम्पूर्ण प्रक्रिया का [यम-नियम-आसन-प्रत्याहार-धारणा का] उद्देश्य ही जीव के हृदय में परिवर्तन लाना है। जिससे वह परमेश्वर के प्रति नित्य अपने आपको अधीन दास के रूप में माने, क्योंकि यही उसकी शाश्वत स्वाभाविक स्थिति है। ऐसी अपेक्षा की जाती है कि नियमित भक्ति-मय सेवा करने से हृदय में परिवर्तन अवश्य दिखना चाहिए। यदि परिवर्तन नहीं आता, तो समझना चाहिए कि हृदय फौलाद का बना है, क्योंकि गुरुप्रदत्त बीजमंत्र सहित भगवान् के पवित्र नाम के उच्चारण किये जाने पर भी यह नहीं पिघलता। हमें सदैव स्मरण रखना चाहिए कि भक्तिमय कार्यों को सम्पन्न करनें में श्रवण तथा कीर्तन (मनन) दो मूलभूत सिद्धान्त हैं और यदि इन्हें ठीक से सम्पन्न किया जाय, तो इससे हर्ष उत्पन्न होगा जो आँखों में आँसू तथा शरीर में रोमांच द्वारा लक्षित होगा। ये स्वाभाविक परिणाम हैं और भाव दशा के प्रारम्भिक लक्षण हैं, जो प्रेम या भगवत्प्रेम की पूर्णावस्था प्राप्त होने के पूर्व प्रकट होते हैं। [साभार -https://bhagavatam.in/2/3/24/]
वह हृदय पत्थर है, जो ह्रदय में विराजमान सगुण साकार 'सनातन साक्षी' श्री रामकृष्ण की कथा सुनकर (उनसे बातचीत करने का आनन्द लेने पर भी ) पिघलता नहीं। जिसकी आँखो में कभी प्रेमाश्रु नहीं आते, जिसे कभी रोमांच नहीं होता, जिसका कण्ठ कभी गद्गद् नहीं होता, वह वह ह्रदय पत्थर से भी कठोर है। सचमुच हमारा तो हृदय ऐसा ही है। कैसे करें, क्या करने से नेत्रों में जल और हृदय में प्रभु -प्रेम की विरह उत्पन्न हो।
प्रत्येक हृदय में विराजमान यदि सगुण -साकार सनातन साक्षी श्रीरामकृष्ण परमहंस से किसी की लगन लग जाय। दिल में ठाकुर देव (स्वरुप विवेकानन्द या नवनीदा) धँस जायें, गुरु-भूतेशानन्द जी या नवनीदा की रूपमाधुरी यदि आँखों में समा जाय, विवेकानन्द के लिये उत्कट अनुराग हो जाय तब सभी का बेड़ा पार हो जाय। एक बार उस प्यारे से लगन लगनी चाहिये फिर भाव, महाभाव, अधिरूढ़भाव तथा सात्त्विक विकार और विरह की दशाएं तो अपने-आप उदित होंगी। पानी की इच्छा (प्यास) होनी चाहिये। ज्यों–ज्यों पानी के बिना (चातक का ?) गला सूखने लगेगा त्यों-त्यों तडफडाहट अपने-आप ही बढ़ने लगेगी। उस तड़फडाहट को लाने के लिये प्रयत्न न करना होगा।
प्रायः देखा गया है कि जिनके ऊपर भगवत्कृपा होती है, जो प्रभु के प्रेम में पागल बन जाते हैं, उनका बाह्य जीवन भी त्यागमय बन जाता है, क्योंकि जिसने उस अद्भुत प्रेमासव का एक बार भी पान कर लिया, उसे फिर त्रिलोकी के जो भी संसारी सुख हैं, सभी बेस्वाद से प्रतीत होने लगते हैं। यही सोचकर महाकवि केशवदास ब्रजभाषा की कविता (रामचंद्रिका / वशिष्ठ कथित मुक्तिमार्ग) में कहते हैं-
कहि केशव योग जगै हिय भीतर, बाहेर भोगन सो तनु है।
मन हाथ रहे सदा जिनके, तिनके बन ही घर है, घर ही बनु है।।
*प्रायः देखा गया है कि त्यागमय जीवन बिताने से साधक के मन में ऐसी धारणा-सी हो जाती है कि बिना स्वरूपतः बाह्य त्यागमय जीवन (संन्यासी-जीवन) बिताये भगवद्भक्ति प्राप्त ही नहीं होती। लेकिन ऐसी धारणा भी भक्तिमार्ग में बहुत बड़ा भारी विघ्न है। त्यागमय जीवन जितना भी बिताया जाय उतना ही श्रेष्ठ है, किंतु यह आग्रह करना कि स्वरूपतः त्याग किये बिना (दस लाख बैंक में जमा करके लड़कियों के फोन भागकर संन्यासी बीबी पंडा बने बिना) कोई भक्त बन ही नहीं सकता, वह भी एक प्रकार का त्यागजन्य अंहकार ही है।]
TRAILOKYA: "But, sir, there are good people in the world as well. Take the case of Pundarika Vidyanidhi, the devotee of Chaitanya. He lived in the world."
ত্রৈলোক্য — সংসারে তো ভাল লোক আছে, — পুণ্ডরীক বিদ্যানিধি, চৈতন্যদেবের ভক্ত। তিনি তো সংসারে ছিলেন।
श्रीरामकृष्ण - उसके गले तक शराब आ गयी थी । अगर थोड़ोसी और पी ली होती तो फिर संसार में नहीं रह सकता था ।
MASTER: "He had drunk wine up to his neck. If he had drunk a little more, he couldn't have led a worldly life."
শ্রীরামকৃষ্ণ — তার গলা পর্যন্ত মদ খাওয়া ছিল, যদি আর একটু খেত তা হলে আর সংসার করতে পারত না।
त्रैलोक्य चुप हो गये । मास्टर गिरीश से अकेले में कह रहे हैं – ‘तो इन्होंने जो कुछ लिखा है, वह ठीक नहीं है ।'
Trailokya remained silent. M. said aside to Girish, "Then what he has written is not true."
ত্রৈলোক্য চুপ করিয়া রইলেন। মাস্টার গিরিশকে জনান্তিকে বলিতেছেন, ‘তাহলে উনি যা লিখেছেন ঠিক নয়।’
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
[श्रीरामकृष्ण तथा विद्या का संसार]
[पहले सगुण सनातन साक्षी श्रीरामकृष्ण से बातचीत करने का आनन्द
प्राप्त करना चाहिए, फिर उनका दास बनकर संसार में रहना चाहिए।]
🙏सगुण सनातन साक्षी श्रीरामकृष्ण का भक्त/नेता कभी कलंकित नहीं होता🙏
गिरीश (त्रैलोक्य से) - तो आपने जो कुछ लिखा है, इस सम्बन्ध में वह ठीक नहीं है । क्यों ?
[आपने केशव-चरित में जो लिखा है कि केशव से मिलने के बाद श्रीरामकृष्ण यह स्वीकार करने लगे थे गृहस्थ जीवन में आसक्त रहते हुए या वासना और धनदौलत में आसक्त रहते हुए भी कोई व्यक्ति मानव जाति का नेता बन सकता है।]
GIRISH (to Trailokya): "Then what you have written is not true."
গিরিশ — তা হলে আপনি যা লিখেছেন ও-কথা ঠিক না?
त्रैलोक्य - नहीं क्यों ? क्या ये यह नहीं मानते कि संसार में धर्म होता है ?
{त्रैलोक्य: "ऐसा क्यों? क्या वह [अर्थात् सगुण सनातन साक्षी, अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण] यह स्वीकार नहीं करते कि संसार में रहते हुए भी कोई व्यक्ति आध्यात्मिक-सूरमा (spiritual hero) बन सकता है?"}
TRAILOKYA: "Why so? Doesn't he [meaning Sri Ramakrishna] admit that a man can lead a spiritual life in the world?"
ত্রৈলোক্য — কেন, সংসারে ধর্ম হয় উনি কি মানেন না?
श्रीरामकृष्ण - "होता है, परन्तु ज्ञानलाभ से पश्चात् संसार में रहना चाहिए, - ईश्वर को प्राप्त करके तब रहना चाहिए । " [--अर्थात हाँ, गृहस्थ भी लोकशिक्षक, नेता या आध्यात्मिक सूरमा बन सकता है। लेकिन ऐसे व्यक्ति को पहले ह्रदय में विराजमान सगुण -साकार सनातन साक्षी श्रीरामकृष्ण से बातचीत करने का आनन्द प्राप्त करना चाहिए, फिर उनका दास बनकर संसार में (गृहस्थ जीवन में) रहना चाहिए।] तब 'बदनामी के समुद्र' में तैरते रहने पर भी कोई कलंक उसके देह से चिपक नहीं सकता। फिर वह कीच के भीतर रहनेवाली मछली की तरह रह सकता है । ईश्वरलाभ के बाद जो संसार है, वह विद्या का संसार है । उसमें कामिनी और कांचन का स्थान नहीं है । है केवल भक्ति, भक्त और भगवान । मेरे भी स्त्री है, - घर में लोटा-थाली भी है, - घुरु और लुच्छू को भोजन भी दे दिया जाता है, और फिर जब 'हाबी की माँ’ और ये लोग आते हैं, तब इन लोगों के लिए भी सोचता हूँ ।
MASTER: "Yes, he can. But such a man should first of all attain Knowledge and then live in the world. First he should realize God. Then 'he can swim in a sea of slander and not be stained.' After realizing God, a man can live in the world like a mudfish. The world he lives in after attaining God is the world of vidya. In it he sees neither woman nor gold. He finds there only devotion, devotee, and God. You see, I too have a wife, and a few pots and pans in my room; I too feed a few vagabonds; I too worry about the devotees — Habi's mother for instance — when they come here."
শ্রীরামকৃষ্ণ — হয়, — কিন্তু জ্ঞানলাভ করে থাকতে হয়, ভগবানকে লাভ করে থাকতে হয়। তখন ‘কলঙ্ক সাগরে ভাসে, তবু কলঙ্ক না লাগে গায়।’ তখন পাঁকাল মাছের মতো থাকতে পারে। ঈশ্বরলাভের পর যে সংসার সে বিদ্যার সংসার। কামিনী-কাঞ্চন তাতে নাই, কেবল ভক্তি, ভক্ত আর ভগবান। আমারও মাগ আছে, — ঘরে ঘটিবাটিও আছে, — হরে প্যালাদের খাইয়ে দিই, আবার যখন হাবীর মা এরা আসে এদের জন্যও ভাবি।
(७)
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏ह्रदय में विराजमान सगुण सनातन साक्षी श्रीरामकृष्ण तथा अवतार-तत्त्व🔱🙏
[The Saguna Eternal Witness, Sri Ramakrishna seated in the heart
and the Avatar-Principle . ]
[সগুণ শাশ্বত সাক্ষী শ্রীরামকৃষ্ণ এবং হৃদয়ে উপবিষ্ট অবতার-নীতি]
एक भक्त - (त्रैलोक्य से) - आपकी पुस्तक में मैंने देखा, आप ईश्वर (सगुण माँ काली) के अवतार को नहीं मानते । यह चैतन्यदेव के प्रसंग में पाया ।
A DEVOTEE (to Trailokya): "I have read in your book that you do not believe in the Incarnation or God. You said so in connection with Chaitanya."
একজন ভক্ত (ত্রৈলোক্যের প্রতি) — আপনার বইয়েতে দেখলাম আপনি অবতার মানেন না। চৈতন্যদেবের কথায় দেখলাম।
त्रैलोक्य - उन्होंने स्वयं प्रतिवाद किया है । पुरी में जब अद्वैत और उनके दूसरे भक्त उन्हें ही भगवान कहकर गाने लगे, तब गाना सुनकर चैतन्यदेव ने अपने घर के दरवाजे बन्द कर लिये थे । ईश्वर के ऐश्वर्य की इति नहीं है । ये जैसा कहते हैं, भक्त भगवान का बैठकखाना है, और बात भी यही जँचती है । बैठकखाना खूब सजाया हुआ है, तो क्या उसके अतिरिक्त उनके और कोई ऐश्वर्य नहीं है ?
TRAILOKYA: "Why, Chaitanya himself protested against the idea of Divine Incarnation. Once, in Puri, Advaita and the other devotees sang a song to the effect that Chaitanya was God. At this Chaitanya shut the door of his room. Infinite are the glories of God. As he [meaning Sri Ramakrishna] says, the devotee is the parlour of God. Suppose a parlour is very well furnished; does that mean that the master of the house has exhausted all his power and splendour in that one parlour?"
ত্রৈললোক্য — তিনি নিজেই প্রতিবাদ করেছেন, — পুরীতে যখন অদ্বৈত ও অন্যান্য ভক্তেরা ‘তিনিই ভগবান’ এই বলে গান করেছিলেন, গান শুনে চৈতন্যদেব ঘরের দরজা বন্ধ করে দিয়েছিলেন। ঈশ্বরের অনন্ত ঐশ্বর্য। ইনি যেমন বলেন ভক্ত ঈশ্বরের বৈঠকখানা। তা বৈঠকখানা খুব সাজান বলে কি আর কিছু ঐশ্বর্য নাই?
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏प्रेमस्वरूप सनातन-साक्षी श्रीरामकृष्ण के भक्त का ह्रदय
ही उनका वार्ता-कक्ष (parlour-बैठक खाना)है🔱🙏
गिरीश - ये कहते हैं, प्रेम ही ईश्वर का सारांश है । जिस आदमी के भीतर से प्रेम का आविर्भाव होता है, हमें उसी की जरूरत है । ये कहते हैं, गौ का दूध उसके स्तनों से आता है । अतएव हमे स्तनों की जरूरत है । गौ के दूसरे अंगों की आवश्यकता नहीं, - उसके पैरों या सींगों की जरूरत नहीं ।
GIRISH: "He [meaning Sri Ramakrishna] says that prema alone is the essence of God; we need the man through whom this ecstatic love of God flows. He says that the milk of the cow Hows through the udder; we need the udder; we do not care for the other parts of the cow — the legs, tail, or horns."
গিরিশ — ইনি বলেন, প্রেমই ঈশ্বরের সারাংশ — যে মানুষ দিয়ে ঈশ্বরের প্রেম আসে তাকেই আমাদের দরকার। ইনি বলেন, গরুর দুধ বাঁট দিয়ে আসে, আমাদের বাঁটের দরকার। গরুর শরীরে অন্য কিছু দরকার নাই; হাত, পা কি শিং।
त्रैलोक्य - उनका प्रेम-दुग्ध अनन्त मार्गों से होकर निकलता है । - उनमें अनन्त शक्ति है ।
TRAILOKYA: "The milk of God's prema flows through an infinite number of channels. God has infinite powers."
ত্রৈলোক্য — তাঁর প্রেমদুগ্ধ অনন্ত প্রণালী দিয়ে পড়ছে! তিনি যে অনন্তশক্তি!
गरीश - उस प्रेम के सामने और दूसरी कौनसी शक्ति ठहर सकती है ?
GIRISH: "But what other power can stand before prema?"
গিরিশ — ওই প্রেমের কাছে আর কোন শক্তি দাঁড়ায়?
त्रैलोक्य – परन्तु फिर भी यदि उस सर्वशक्तिशाली ईश्वर की इच्छा हो तो सब कुछ हो सकता है । सब कुछ उनके हाथ में है ।
TRAILOKYA: "It is possible if He who has the power wants it. Everything is in God's power."
ত্রৈলোক্য — যাঁর শক্তি তিনি মনে করলে হয়! সবই ঈশ্বরের শক্তি।
गिरीश - और सब शक्तियाँ तो उनकी हैं, - परन्तु अविद्याशक्ति ?
GIRISH: "Yes, I admit that. But there is also a thing called the power of avidya."
গিরিশ — আর সব তাঁর শক্তি বটে, — কিন্তু অবিদ্যা শক্তি।
त्रैलोक्य - अविद्या भी कोई वस्तु है ! वह तो अभावमात्र है । जैसे अँधेरे में उजाले का अभाव । इसमें कोई शक नहीं कि हम प्रेम को बहुत बड़ा मानते हैं । पर साथ ही वह ईश्वर के लिए केवल एक बूँद के समान है, यद्यपि हमारे लिए समुद्रतुल्य । पर यदि तुम यह कहो कि ईश्वर के सम्बन्ध में प्रेम अन्तिम शब्द है, तब तो तुम ईश्वर को सीमित कर देते हो ।
TRAILOKYA: "Is avidya a thing? Does there exist a substance called avidya? It is only a negation, as darkness is the negation of light. There is no doubt that we prize prema most: what is a drop to God is an ocean to us. But if you say that prema is the last word about God, then you limit God Himself."
ত্রৈলোক্য — অবিদ্যা কি জিনিস! অবিদ্যা বলে একটা জিনিস আছে না কি? অবিদ্যা একটি অভাব। যেমন অন্ধকার আলোর অভাব। তাঁর প্রেম আমাদের পক্ষে খুব বটে। তাঁর বিন্দুতে আমাদের সিন্ধু! কিন্তু ওইটি যে শেষ, একথা বললে তাঁর সীমা করা হল।
श्रीरामकृष्ण - (त्रैलोक्य तथा दूसरे भक्तों से) - हाँ, हाँ, यह ठीक है; परन्तु थोड़ीसी शराब के पीने पर जब हमें काफी नशा हो जाता है, तो शराबवाले की दूकान में कितनी शराब है, इसके जानने की हमें क्या जरूरत ? अनन्त शक्ति की खबर से हमें क्या काम ?
MASTER (to Trailokya and the other devotees): "Yes, yes, that is true. But an ounce of wine makes me drunk. What need have I to count the gallons of wine in the tavern? What need have we to know about the infinite powers of God?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (ত্রৈলোক্য ও অন্যানা ভক্তদের প্রতি) — হাঁ হাঁ, তা বটে। কিন্তু একটু মদ খেলেই আমাদের নেশা হয়। শুঁড়ির দোকানে কত মদ আছে সে হিসাবে আমাদের কাজ কি! অনন্ত শক্তির খপরে আমাদের কাজ কি?
गिरीश (त्रैलोक्य से) - आप अवतार मानते हैं ?
GIRISH (to Trailokya): "Do you believe in the Incarnation of God?"
গিরিশ (ত্রৈলোক্যের প্রতি) — আপনি অবতার মানেন?
त्रैलोक्य - भक्त में ही भगवान अवतीर्ण होते हैं, अनन्त शक्ति का आविर्भाव नहीं होता, - न हो सकता है । ऐसा किसी भी मनुष्य में नहीं हो सकता ।
TRAILOKYA : "God incarnates Himself through. His devotees alone. There cannot be a manifestation of infinite powers. It simply isn't possible. It is impossible for any man to manifest infinite powers."
ত্রৈলোক্য — ভক্ততেই ভগবান অবতীর্ণ। অনন্ত শক্তির manifestation হয় না, — হতে পারে না! — কোন মানুষেই হতে পারে না।
गिरीश - यदि अपने बच्चों को 'ब्रह्मगोपाल' कहकर पूजा की जा सकती है, तो क्या महापुरुष को ईश्वर कहकर पूजा नहीं की जा सकती ?
GIRISH: "You can serve your children as 'Brahma Gopala'. (A name of God.) Then why isn't it possible to worship a great soul as God?"
গিরিশ — ছেলেদের ‘ব্রহ্মগোপাল’ বলে সেবা করতে পারেন, মহাপুরুষকে ঈশ্বর বলে কি পূজা করতে পারা যায় না?
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏अहं के मिटते ही ह्रदय में विद्यमान अनन्त प्रेम का झरना फूट पड़ेगा 🔱🙏
[As soon as the ego vanishes, the fountain of eternal love
in the heart will burst forth. ]
[অহং বিলুপ্ত হওয়ার সাথে সাথে হৃদয়ে চিরন্তন প্রেমের ফোয়ারা ফুটে উঠবে।]
श्रीरामकृष्ण (त्रैलोक्य से) - अनन्त को लेकर क्यों माथापच्ची कर रहे हो ? तुम्हें छूने के लिए क्या तुम्हारे कुल शरीर को छूना होगा ? अगर गंगास्नान करना है तो क्या हरिद्वार से गंगासागर तक गंगा को छू जाना चाहिए ?
MASTER (to Trailokya): "Why all this bother about infinity? If I want to touch you, must I touch your entire body? If you want to bathe in the Ganges, must you touch the whole river from Hardwar down to the ocean?
শ্রীরামকৃষ্ণ (ত্রৈলোক্যের প্রতি) — অনন্ত ঢুকুতে চাও কেন? তোমাকে ছুঁলে কি তোমার সব শরীরটা ছুঁতে হবে? যদি গঙ্গাস্নান করি তা হলে হরিদ্বার থেকে গঙ্গাসাগর পর্যন্ত কি ছুঁয়ে যেতে হবে?
श्रीरामकृष्ण (त्रैलोक्य से) - 'मैं' मरा कि जंजाल दूर हुआ । जब तक 'मैं' है, तभी तक भेद-बुद्धि रहती है । 'मैं' के जाने पर क्या रहता है यह कोई नहीं कह सकता, - मुँह से यह बात नहीं कही जा सकती ।
"'All troubles come to an end when the ego dies.' As long as a trace of 'I-consciousness' remains, one is conscious of difference. Nobody knows what remains after the 'I' disappears. Nobody can express it in words.
‘আমি গেলে ঘুচিবে জঞ্জাল’। যতক্ষণ ‘আমি’ টুকু থাকে ততক্ষণ ভেদবুদ্ধি। ‘আমি’ গেলে কি রইল তা কেউ জানতে পারে না, — মুখে বলতে পারে না।
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏सच्चिदानन्द प्रेम-जल है, उसके भीतर 'मैं' का घड़ा डूबा हुआ है🔱🙏
[आत्मा-परमात्मा (अर्थात भक्त -भगवान) दो नहीं एक हैं !
भगवान भक्त में और भक्त भगवान में विराजमान है। ]
[जल में कुंभ कुंभ में जल है , बाहर भीतर पानी। फूटा कुंभ जल जल ही समाया , यही तथ्य कथ्यो ज्ञानी। अर्थ: जब पानी भरने जाएं तो घडा जल में रहता है और भरने पर जल घड़े के अन्दर आ जाता है इस तरह देखें तो – बाहर और भीतर पानी ही रहता है – पानी की ही सत्ता है. जब घडा फूट जाए तो उसका जल जल में ही मिल जाता है – अलगाव नहीं रहता – ज्ञानी जन इस तथ्य को कह गए हैं ! आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैं – आत्मा परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में विराजमान है. अंतत: परमात्मा की ही सत्ता है – जब देह विलीन होती है – वह परमात्मा का ही अंश हो जाती है – उसी में समा जाती है, एकाकार हो जाती है। (नरहरि बोधसार, भक्ति॰ ४२) में कहा गया है -
द्वैतं मोहाय बोधात्प्राग्जाते बोधे मनीषया ।
भक्त्यर्थं कल्पितं (स्वीकृतं) द्वैतमद्वैतादपि सुन्दरम् ॥
‘तत्त्व-बोध से पहले का द्वैत तो मोह में डालता है, पर बोध हो जाने पर भक्ति के लिये स्वीकृत द्वैत अद्वैत से भी अधिक सुन्दर होता है ।’ प्रेमाभक्ति तत्त्व-ज्ञान होने के बाद भी हो सकती है और सीधे भी हो सकती है । भक्त का भगवान् में गाढ़ अपनापन (आत्मीयता) होने से तत्त्वज्ञान हुए बिना भी सीधे प्रेमा-भक्ति प्राप्त हो सकती है । प्रेमाभक्ति प्राप्त होनेके बाद भगवत्कृपासे अपने-आप तत्त्वज्ञान हो जाता है‒
मम दरसन फल परम अनूपा ।
जीव पाव निज सहज सरूपा ॥
(मानस, अरण्य॰ ३६ । ५)
गुरु-जनों से (नेता या लोकशिक्षक से) मिलने वाले ज्ञानकी अपेक्षा जगद्गुरु भगवान् श्रीरामकृष्ण परमहंस से मिलने वाला ज्ञान अत्यन्त विलक्षण होता है ! ज्ञानी में तो अखण्ड आनन्द रहता है, पर प्रेमी भक्त में प्रतिक्षण वर्धमान आनन्द रहता है । इसलिये भक्त ज्ञानी की तरह शान्त, एकरस नहीं रहता, प्रत्युत उसमें विभिन्न विलक्षण भावों का उछाल आता रहता है‒
वाग्गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्यचिच्च ।
विलज्ज उदगायति नृत्यते च
मद्धक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ॥
(श्रीमद्भा॰ ११ । १४ । २४)
‘जिसकी वाणी मेरे नाम, गुण और लीलाका वर्णन करते-करते गद्गद हो जाती है, जिसका चित्त मेरे रूप, गुण,प्रभाव और लीलाओं का चिन्तन करते-करते द्रवित हो जाता है, जो बारंबार रोता रहता है, कभी हँसने लग जाता है, कभी लज्जा छोड़कर ऊँचे स्वरसे गाने लगता है। और कभी नाचने लग जाता है, ऐसा मेरा भक्त सारे संसार को पवित्र कर देता है ।’]
श्रीरामकृष्ण (त्रैलोक्य से) -जो कुछ है, बस वही है । तब, कुछ प्रकाश यहाँ हुआ है और बचा-खुचा वहाँ, - यह कुछ मुँह से नहीं कहा जाता । सच्चिदानन्द सागर है । उसके भीतर 'मैं' घट है । जब तक घट है तब तक पानी के दो भाग हो रहे हैं । एक भाग घट के भीतर है, एक बाहर । घट फूट जाने पर एक ही पानी है ! यह भी नहीं कहा जा सकता - कहे कौन ?
That which is remains. After the 'I' disappears one cannot say that a part manifests through this man and the rest through another. Satchidananda is the ocean. The pot of 'I' is immersed in it. As long as the pot exists, the water seems to be divided into two parts: one part inside the pot and the other part outside it. But when the pot is broken there is only one stretch of water. One cannot even say that. Who would say that?"
যা আছে তাই আছে! তখন খানিকটা এঁতে প্রকাশ হয়েছে আর বাদবাকিটা ওখানে প্রকাশ হয়েছে, — এ-সব মুখে বলা যায় না। সচ্চিদানন্দ সাগর! — তার ভিতর ‘আমি’ ঘট। যতক্ষণ ঘট ততক্ষণ যেন দুভাগ জল, — ঘটের ভিতরে একভাগ, বাহিরে এক ভাগ। ঘট ভেঙে গেলে — এক জল — তাও বলবার জো নাই! — কে বলবে?
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏सत्य-असत्य-मिथ्या विवेक : ‘ईश्वर ही सत्य हैं और सब अनित्य (मिथ्या) ’🔱🙏
[God alone is real and all else illusory.]
[‘ঈশ্বর সত্য আর সব অনিত্য’ ]
विचार हो जाने पर श्रीरामकृष्ण त्रैलोक्य के साथ मधुर शब्दों में वार्तालाप कर रहे हैं ।
After the discussion Sri Ramakrishna became engaged in pleasant conversation with Trailokya.
বিচারান্তে ঠাকুর ত্রৈলোক্যের সঙ্গে মিষ্টালাপ করিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण - तुम तो आनन्द में हो ?
MASTER: "You are happy. Isn't that so?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি তো আনন্দে আছ?
त्रैलोक्य – कहाँ ? यहाँ से उठा नहीं कि फिर ज्यों का त्यों । इस समय अच्छी ईश्वर की उद्दीपना हो रही है ।
TRAILOKYA: "But I shall become my old self again as soon as I leave this place. Here I feel very much the awakening of spiritual consciousness."
ত্রৈলোক্য — কই এখান থেকে উঠলেই আবার যেমন তেমনি হয়ে যাবে। এখন বেশ ঈশ্বরের উদ্দীপনা হচ্ছে।
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏नेता (माँ का भक्त) जानता है कि ‘ईश्वर ही सत्य हैं और सब मिथ्या ’ 🔱🙏
[इसलिये वासना और धनदौलत में उसकी आसक्ति समाप्त हो जाती है]
<The leader (devotee of the Mother) knows>
'God alone is Truth and all is impermanent'
That's why his attachment to Lust and Lucre (wealth) ends!
<নেতা (মায়ের ভক্ত) জানেন>
"ঈশ্বর সত্য আর সব অনিত্য "
[অতএব লালসা ও সম্পদের প্রতি তার আসক্তি শেষ হয়]
श्रीरामकृष्ण - जूते (आत्मश्रद्धा) पहने रहो तो काँटों के बन में कोई भय नहीं रहता । ‘ईश्वर ही सत्य हैं और सब अनित्य’, इस बोध के रहने पर कामिनी और कांचन का फिर कोई भय नहीं रह जाता ।
MASTER: "You don't have to be afraid of walking on thorns if you are wearing shoes. You needn't be afraid of 'woman and gold' if you know that God alone is real and all else illusory."
শ্রীরামকৃষ্ণ — জুতো পরে থাকলে, কাঁটা বনে আর তার ভয় নাই। ‘ঈশ্বর সত্য আর সব অনিত্য’ এই বোধ ধাকলে কামিনী-কাঞ্চনে আর ভয় নাই।
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏क्या अवतार (नेता,C-IN-C नवनीदा) को हर कोई पहचान सकता है?🔱🙏
[Can everyone recognize avatars? ]
[অবতারকে কি সকলে চিনিতে পারে? ]
त्रैलोक्य ^* को जलपान कराने के लिए बलराम उन्हें दूसरे कमरे में ले गये । श्रीरामकृष्ण त्रैलोक्य और उनके मत के लोगों (आर्यसमाजी -ब्रह्मसमाजी-मूर्तिपूजा में अविश्वासी लोगों की) मानसिक अवस्था की बातें भक्तों से कह रहे हैं । रात के नौ बजे होंगे ।
[^* ब्रह्मसमाजी त्रैलोक्य नाथ सान्याल (1840 - 1916) - केशव सेन के अनुयायी। गीतकार और गायक।
Balaram took Trailokya ^* to another room and gave him refreshments. Sri Ramakrishna began to tell the devotees about Trailokya and people of his views. It was about nine o'clock in the evening.
[^*Brahmsamaji Trailokya Nath Sanyal (1840 - 1916)- follower of Keshav Sen. Lyricist and singer.]
ত্রৈলোক্যকে মিষ্টমুখ করাইতে বলরাম কক্ষান্তরে লইয়া গেলেন। শ্রীরামকৃষ্ণ ত্রৈলোক্যের ও তাঁহার মতালম্বী লোকদিগের ভক্তদের নিকট বর্ণনা করিতেছেন। রাত নয়টা হইল।
[^* ত্রৈলোক্য নাথ সান্যাল (১৮৪০ - ১৯১৬) — ব্রাহ্মভক্ত, কেশব সেনের অনুগামী। গীতিকার ও সুগায়ক।]
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏जो मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं रखते वे कुएं के एक मेंढक जैसे🔱🙏
[Those who do not believe in idol worship
are like a frog in the well.]
🔱🙏 যারা মূর্তি পূজায় বিশ্বাস করে না তারা কূপের ব্যাঙের মত 🔱🙏
श्रीरामकृष्ण - (गिरीश, मणि और दूसरे भक्तों से) - ये (ब्रह्मसमाजी लोग) कैसे हैं, जानते हो ? कुएं के एक मेंढक ने यह नहीं देखा कि पृथ्वी कितनी बड़ी है; वह बस कुआँ पहचानता है । इसीलिए वह यह विश्वास करता ही नहीं कि पृथ्वी भी कोई चीज है । ईश्वर के आनन्द का पता नहीं मिला, इसीलिए संसार-संसार रट रहा है। (अर्थात वासना और धनदौलत के लालच में आजीवन फंसे रहकर कष्ट भोगता रहता है।)।
MASTER (to Girish, M., and the other devotees): "Do you know what these people are like? They are like a frog living in a well, who has never seen the outside world. He knows only his well; so he will not believe that there is such a thing as the world. Likewise, people talk so much about the world (Lust and Lucre) because they have not known the joy of God.
শ্রীরামকৃষ্ণ (গিরিশ, মণি ও অন্যান্য ভক্তদের প্রতি) — এর আকি জানো! একটা পাতকুয়ার ব্যাঙ কখনও পৃথিবী দেখে নাই; পাতকুয়াটি জানে; তাই বিশ্বাস করবে না যে, একটা পৃথিবী আছে। ভগবানের আনন্দের সন্ধান পায় নাই, তাই ‘সংসার, সংসার’ করছে।
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏सब कहते कागद की लेखी, नेता कहता आँखन से देखी 🔱🙏
(तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखिन की देखी)
(गिरीश से) "उनके साथ क्यों बकते हो ? वे दोनों में (ईश्वर और कामिनी-कांचन दोनों में) हैं। ईश्वर के आनन्द का स्वाद जब तक नहीं मिलता, तब तक उसकी बातें समझ में नहीं आतीं । पाँच साल के लड़के को क्या कोई रमणसुख समझा सकता है ? विषयी लोग जो ईश्वर-ईश्वर रटते हैं, वह सुनी हुई बात है । जैसे घर की बड़ी दीदी और चाची को आपस में लड़ाई करते हुए देखकर बच्चे उनसे सीखते हैं - 'मेरे लिए भगवान हैं' -'तुझे भगवान की कसम है ।'
[(To Girish) "Why do you argue with them so much? They busy themselves with both — the world and God. One cannot understand the joy of God unless one has tasted it. Can anybody explain sex pleasure to a five-year-old boy? Worldly people talk about God only from hearsay. Children, hearing their old aunts quarrelling among themselves, learn to say, 'There is my God', 'I swear by God.'
(গিরিশের প্রতি) — “ওদের সঙ্গে বকচো কেন? দুইই নিয়ে অছে। ভগবানের আনন্দের আস্বাদ না পেলে, সে আনন্দের কথা বুঝতে পারে না। পাঁচবছরের বালককে কি রমণসুখ বোঝানো যায়? বিষয়ীরা যে ঈশ্বর ঈশ্বর করে, সে শোনা কথা। যেমন খুড়ী জেঠিরা কোঁদল করে, তাদের কাছ থেকে বালকেরা শুনে শেখে আর বলে, ‘আমার ঈশ্বর আছেন’, ‘তোর ঈশ্বরের দিব্য।’
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏दो ही चार जन C-IN-C नवनीदा को नेता समझने योग्य हैं!🔱🙏
"खैर, उनका दोष कुछ नहीं है । क्या सब लोग कभी उस `Indivisible Satchidananda' -अखण्ड सच्चिदानन्द को प्राप्त कर सकते हैं ? श्रीरामचन्द्र को सिर्फ बारह ऋषियों ने समझा था, सब उन्हें नहीं समझ सके । अवतार को कोई साधारण मनुष्य सोचते हैं - कोई साधु समझते हैं, - दो ही चार आदमी उन्हें (C-IN-C नवनीदा को) अवतार जान सकते हैं ।
"But that doesn't matter. I don't blame such people. Can all comprehend the Indivisible Satchidananda? Only twelve rishis could recognize Ramachandra. All cannot recognize an Incarnation of God. Some take him for an ordinary man, some for a holy person, and only a few recognize him as an Incarnation.
“তা হোক। ওদের দোষ নাই। সকলে কি সেই অখণ্ড সচ্চিদানন্দকে ধরতে পারে? রামচন্দ্রকে বারজন ঋষি কেবল জানতে পেরেছিল। সকলে ধরতে পারে না। কেউ সাধারণ মানুষ ভাবে; — কেউ সাধু ভাবে; দু-চারজন অবতার বলে ধরতে পারে।
“जिसके पास जितनी पूँजी है, उतना ही दाम वह एक चीज के लिए खर्च करता है । एक बाबू ने अपने नौकर से कहा, 'यह हीरा तू बाजार में ले जा, लौटकर मुझे बतलाना कि कौन कितनी कीमत देता है । पहले बैंगनवाले के पास जाना ।' नौकर पहले बैंगनवाले के पास गया । बैंगनवाले ने उसे उलट-पुलटकर देखा और कहा, 'भाई, मैं इस हीरे के बदले नौ सेर बैंगन मैं दे सकता हूँ ।' नौकर ने कहा, 'भाई जरा बढ़ो, भला दस सेर तो दो ।' उसने कहा, 'मैं बाजार-दर से ज्यादा कह चुका । इतने में पट जाय तो दे दो ।'तब नौकर ने हँसते हुए हीरा लौटाकर बाबू से कहा, 'बैंगनवाला नौ सेर से एक भी बैंगन अधिक नहीं देना चाहता । उसने कहा, मैं बाजार-दर से ज्यादा कह चुका ।’
"One offers a price for an article according to one's capital. A rich man said to his servant: 'Take this diamond to the market and let me know how different people price it. Take it, first of all, to the egg-plant seller.' The servant took the diamond to the egg-plant seller. He examined it, turning it over in the palm of his hand, and said, 'Brother, I can give nine seers of egg-plants for it.' 'Friend,' said the servant, 'a little more — say, ten seers.' The egg-plant seller replied: 'No, I have already quoted above the market price. You may give it to me if that price suits you. The servant laughed. He went back to his master and said: 'Sir, he would give me only nine seers of egg-plants and not one more. He said he had offered more than the market price.'
“যার যেমন পুঁজি — জিনিসের সেইরকম দর দেয়। একজন বাবু তার চাকরকে বললে, তুই এই হীরেটি বাজারে নিয়ে যা। আমায় বলবি, কে কি-রকম দর দেয়। আগে বেগুনওয়ালার কাছে নিয়ে যা। চাকরটি প্রথমে বেগুনওয়ালার কাছে গেল। সে নেড়ে চেড়ে দেখে বললে — ভাই, নয় সের বেগুন আমি দিতে পারি! চাকরটি বললে, ভাই আর একটু ওঠ, না হয় দশ শের দাও। সে বললে, আমি বাজার দরের চেয়ে বেশি বলে ফেলেছি; এতে তোমায় পোষায় তো দিয়ে যাও। চাকর তখন হাসতে হাসতে হীরেটি ফিরিয়ে নিয়ে বাবুর কাছে বললে, মহাশয়, বেগুনওয়ালা নয় সের বেগুনের বেশি একটিও দেবে না। সে বললে, আমি বাজার দরের চেয়ে বেশি বলে ফেলেছি।
"बाबू ने हँसकर कहा, ‘अच्छा अब की बार कपड़ेवाले के पास ले जा । बैंगनवाला तो बैगनों में पड़ा रहता है, वह और कहाँ तक समझेगा ।'कपड़ेवाले की पूँजी कुछ अधिक है, देखें जरा - वह क्या कहता है ।'
The master smiled and said: 'Now take it to the cloth-dealer. The other man deals only in egg-plants. What does he know about a diamond? The cloth-dealer has a little more capital. Let us see how much he offers for it.'
বাবু হেসে বললে, আচ্ছা এবার কাপড়ওয়ালার কাছে নিয়ে যা। ও বেগুন নিয়ে থাকে, ও আর কতদূর বুঝবে! কাপড়ওয়ালার পুঁজি একটু বেশি, — দেখি ও কি বলে।
नौकर कपड़ेवाले के पास गया और कहा, 'क्यों जी, यह चीज लोगे ? क्या दोगे ?' कपड़ेवाले ने कहा, 'हाँ, चीज तो अच्छी है, इससे स्त्रियों का कोई जेवर बन जायेगा । भाई, मैं नौ सौ रुपया दे सकता हूँ ।' नौकर ने कहा, 'भाई, कुछ और बढ़ो, तो छोड़ भी दें । अच्छा, हजार तो पूरा कर दो ।' कपड़ेवाले ने कहा, 'अब कुछ न कहो, मैने बाजार-दर से ज्यादा कह दिया है । नौ सौ रुपये से अधिक एक भी रुपया मैं न दूँगा ।'
The servant went to the cloth-dealer and said: 'Will you buy this? How much will you pay for it?' The merchant said: 'Yes, it is a good thing. I can make a nice ornament out of it. I will give you nine hundred rupees tor it.' 'Brother, said the servant, 'offer a little more and I will sell it to you. Give me at least a thousand rupees.' The cloth-dealer said: 'Friend, don't press me for more. I have offered more than the market price. I cannot give a rupee more. Suit yourself.'
চাকরটি কাপড়ওয়ালার কাছে বললে, ওহে এটি নেবে? কত দর দিতে পার? কাপড়ওয়ালা বললে, হাঁ জিনিসটা ভাল, এতে বেশ গয়না হতে পারে; — তা ভাই আমি নয়শো টাকা দিতে পারি। চাকরটি বললে, ভাই আর-একটু ওঠ, তাহলে ছেড়ে দিয়ে যাই; না হয় হাজার টাকাই দাও। কাপড়ওয়ালা বললে, ভাই, আর কিছু বলো না; আমি বাজার দরের চেয়ে বেশি বলে ফেলেছি; নয়শো টাকার বেশি একটি টাকাও আমি দিতে পারব না।
नौकर लौटकर मालिक के पास हँसते हुए पहुँचा और कहा, 'कपड़ेवाला कहता है - नौ सौ से एक कौड़ी भी ज्यादा न दूँगा । उसने यह भी कहा कि मैंने बाजार-दर से कीमत ज्यादा कह दी ।' तब उसके मालिक ने हँसते हुए कहा, 'अब जौहरी के पास जाओ, देखें, वह क्या कहता है ।' नौकर जौहरी के पास गया । जौहरी ने जरा देखकर ही एकदम कहा - 'एक लाख दूँगा ।
Laughing the servant returned to his master and said: 'He won't give a rupee more than nine hundred. He too said he had quoted above the market price.' The master said with a laugh: 'Now take it to a jeweller. Let us see what he has to say.' The servant went to a jeweller. The jeweller glanced at the diamond and said at once, 'I will give you one hundred thousand rupees for it.'
চাকর ফিরিয়ে নিয়ে মনিবের কাছে হাসতে হাসতে ফিরে গেল আর বললে যে, কাপড়ওয়ালা বলেছে যে নশো টাকার বেশি একটি টাকাও সে দিতে পারবে না! আরও সে বলেছে, আমি বাজার দরের চেয়ে বেশি বলে ফেলেছি। তখন তার মনিব হাসতে হাসতে বললে, এইবার জহুরীর কাছে যাও — সে কি বলে দেখা যাক। চাকরটি জহুরীর কাছে এল। জহুরী একটু দেখেই একবারে বললে, একলাখ টাকা দেব।”
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏जो गृहस्थ कामिनी-कांचन में आसक्त हैं वे मानो 'cocoon' में कैद हैं🔱🙏
"संसार में इन लोगों का धर्म-धर्म चिल्लाना उसी तरह है, जैसे किसी मकान के सब दरवाजे तो बन्द हों और छत के छेद से जरासी रोशनी आ रही हो । सिर पर छत के रहने पर क्या कोई सूर्य को देख सकता है ? जरा सा उजाला आया भी तो क्या हुआ ? कामिनी-कांचन (cocoon -रूपी) छत है । छत को गिराये बिना उस दशा में सूर्य को देखना मुश्किल है । संसारी आदमी मानो घरों में कैद हैं ।
"They talk of practising religion in the world. Suppose a man is shut up in a room. All the doors and windows are closed. Only a little light comes. through a hole in the ceiling. Can he see the sun with that roof over his head? And what will he do with only one ray of light? 'Woman and gold' is the roof. Can he see the sun unless he removes the roof? Worldly people are shut up in a room, as it were.
“সংসারে ধর্ম ধর্ম এরা করছে। যেমন একজন ঘরে আছে, — সব বন্ধ, — ছাদের ফুটো দিয়ে একটু আলো আসছে। মাতার উপর ছাদ থাকলে কি সূর্যকে দেখা যায়? একটু আলো এলে কি হবে? কামিনী-কাঞ্চন ছাদ! ছাদ তুলে না ফেললে কি সূর্যকে দেখা যায়! সংসারী লোক যেন ঘরের ভিতর বন্দী হয়ে আছে!
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏ईश्वरकोटि और जीवकोटि 🔱🙏
[ईश्वरकोटि का 'मैं', पारदर्शी- मैं है; भीतर से सामने देखने पर
वही प्रेममय ईश्वर विभिन्न रूपों में दिखाई देते हैं !]
<The 'I' of Ishvarakoti is the transparent-I >
they view from inside:
The same loving God appears in different forms!
[ঈশ্বরকোটি ও জীবকোটি ]
"अवतार आदि ईश्वर-कोटि हैं । वे खुली जगहों में घूम रहे हैं । वे कभी संसार में नहीं बँधते, - पकड़ में नहीं आते । उनका 'मैं' संसारियों का-सा घना ‘मैं’ 'thick ego' नहीं है । संसारियों का अहंकार - संसारियों का 'मैं' उसी तरह है, जैसे चारों ओर से चार दीवार और ऊपर ढलाई का छत हो । बाहर की कोई वस्तु नजर नहीं आती । अवतार-पुरुषों का 'मैं' बारीक (पारदर्शी) ‘मैं’ है। इस (पारदर्शी) 'मैं' के भीतर से सदा ही ईश्वर दिखलायी देते हैं ।
[ तीनों ऐषणाओं में आसक्त या Lust and Lucre में आसक्त गृहस्थ लोगों का-काचा आमि, मिथ्या 'अहं', 'मैं-मेरा' पन ही 'cocoon -रूपी' मोटा छत है। लेकिन, अवतार या ईश्वरकोटि के भक्त अपने पारदर्शी-'मैं' से सदा देखते हैं कि-हर रूप में वही प्रेममय हैं ! कोई भोगी नारायण है, कोई त्यागी नारायण। कोई बाघ नारायण है, कोई भेंड़ नारायण। कोई हाथी नारायण है, कोई महावत नारायण है! कोई शिष्य नारायण है, कोई गुरु नारायण !!]
'The Incarnations of God belong to the class of the Isvarakotis. They roam about in the open spaces. They are never imprisoned in the world, never entangled by it. Their ego is not the 'thick ego' of worldly people. The ego, the 'I-consciousness', of worldly people is like four walls and a roof: the man inside them cannot see anything outside. The ego of the Incarnations and other Isvarakotis is a 'thin ego': through it they have an uninterrupted vision of God.
“অবতারাদি ঈশ্বরকোটি। তারা ফাঁকা জায়গায় বেড়াচ্চে। তারা কখনও সংসারে বদ্ধ হয় না, — বন্দী হয় না। তাদের ‘আমি’ মোটা ‘আমি’ নয় — সংসারী লোকদের মতো। সংসারী লোকদের অহংকার, সংসারী লোকদের ‘আমি’ — যেন চতুর্দিকে পাঁচিল, মাথার উপর ছাদ; — বাহিরে কোন জিনিস দেখা যায় না। অবতারাদির ‘আমি’ পাতলা ‘আমি’। এ ‘আমি’র ভিতর দিয়ে ঈশ্বরকে সর্বদা দেখা যায়।
जैसे एक आदमी चारदीवार के एक किनारे पर खड़ा हुआ है, और दीवार के दोनों ओर खुला हुआ खूब लम्बा-चौड़ा मैदान पड़ा हुआ है, उस चारदीवार में एक जगह एक छेद है, जिससे दोनों ओर स्पष्ट दीख पड़ता है । छेद अगर कुछ बड़ा हुआ तो इधर-उधर आना-जाना भी हो सकता है। अवतार-पुरुषों का और ईश्वरकोटि के भक्तों का अहंकार या 'मैं' वही छेदवाली चारदीवार है। [और हमलोग बड़ा किसको बोलते हैं ? जिसका ह्रदय स्वामी विवेकानन्द जैसा विशाल है ! ]
चारदीवार के इधर रहने पर भी वही अनन्त घास का मैदान दिखलायी देता है - इसका अर्थ यह है कि शरीर धारण करने पर भी वे सदा योग में रहते हैं । फिर अगर इच्छा हुई तो बड़े छेद के उधर जाकर समाधिमग्न भी हो जाते हैं और छेद बड़ा रहा तो आना-जाना जारी भी रख सकते हैं । समाधिमग्न होने पर भी उतरकर आ सकते हैं ।
Take the case of a man who stands by a wall on both sides of which there are meadows stretching to infinity. If there is a hole in the wall, through it he can see everything on the other side. If the hole is a big one, he can even pass through it. The ego of the Incarnations and other Isvarakotis is like the wall with a hole.
Though they remain on this side of the wall, still they can see the endless meadow (अनन्त घास का मैदान) on the other side. That is to say, though they have a human body, they are always united with God. Again, if they will, they can pass through the big hole to the other side and remain in samadhi. And if the hole is big enough, they can go through it and come back again. That is to say, though established in samadhi, they can again descend to the worldly plane."
যেমন একজন লোক পাঁচিলের একপাশে দাঁড়িয়ে আছে, — পাঁচিলের দুদিকেই অনন্ত মাঠ। সেই পাঁচিলের গায়ে যদি ফোকর থাকে পাঁচিলের ওধারে সব দেখা যায়। বড় ফোকর জলে আনাগোনাও হয়। অবতারাদির ‘আমি’ ওই ফোকরওয়ালা পাঁচিল। পাঁচিলের এধারে থাকলেও অনন্ত মাঠ দেখা যায়; — এর মানে, দেহধারণ করলেও তারা সর্বদা যোগেতেই থাকে! আবার ইচ্ছে হলে বড় ফোকরের ওধারে গিয়ে সমাধিস্থ হয়। আবার বড় ফোকর হলে আনাগোনা করতে পারে; সমাধিস্থ হলেও আবার নেমে আসতে পারে।”
भक्तमण्डली विस्मय और बड़ी लगन के साथ चुपचाप अवतारतत्त्व सुन रही है ।
The devotees listened breathlessly to these words about the mystery of Divine Incarnation.
ভক্তেরা অবাক্ হইয়া অবতারতত্ত্ব শুনিতে লাগিলেন।
🙏गुरु भक्त शुकदेव परमहंस और सद्गुरु श्री राधा रानी🙏
....शुकदेव जी पूर्व जन्म में राधा जी के निकुंज के शुक (तोता) थे। निकुंज में गोपिओं के साथ प्रभु क्रीडा करते थे और शुकदेव जी सारा दिन राधा-राधा कहते थे। यह देख एक दिन राधा जी ने हाथ उठाकर तोते को अपनी ओर बुलाया। तोता आकर राधा जी के चरणों कि वंदना करता है। वह उसे उठाकर अपने हाथ में ले लेती हैं और तोता फिर श्री राधे राधे बोलने लगा। तब राधा जी ने कहा, “अब तू राधा राधा नहीं, कृष्ण कृष्ण बोल। ” शुकदेव जी ऐसा ही करने लगे। इन्हें देखकर दूसरे तोता भी कृष्ण-कृष्ण बोलने लगे। राधा की सखी सहेलियों पर भी कृष्ण नाम का असर होने लगा। पूरा नगर कृष्णमय हो गया, कोई राधा का नाम नहीं लेता था।
इस तरह से एक बार राधा जी कृष्ण से मिलती है और राधा जी ने उनसे कहा कि 'यह तोता कितना मधुर बोलता है', और उसे प्रभु के हाथ में दे दिया। इस प्रकार राधा जी ने शुकदेव परमहंस का ब्रह्म के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध कराया। इसलिए उस मनुष्य-जन्म में भी शुकदेव जी कि सद्गुरु श्री राधा जी ही हैं; और इसीलिए सद्गुरु होने के कारण भागवत में राधा जी का नाम नहीं लिया अर्थात अपने गुरु का नाम नहीं लिया। जिस प्रकार यदि पत्नी अपने पति का नाम ले, तो उसकी आयु घटती है। उसी प्रकार सद्गुरु को मन में स्मरण कर ‘सद्गुरु कि जय” कहना चाहिए, मर्यादा भंग नहीं करनी चाहिए।
ऐसा शास्त्रों में वर्णन आता है। एक दिन कृष्ण उदास भाव से राधा से मिलने जा रहे थे। राधा कृष्ण की प्रतीक्षा कर रही थी। तभी नारद जी बीच आ गए। कृष्ण के उदास चेहरे को देखकर नारद जी ने पूछा कि प्रभु आप उदास क्यों है। कृष्ण कहने लगे कि राधा ने सभी को कृष्ण नाम रटना सिखा दिया है। कोई राधा नहीं कहता, जबकि मुझे राधा नाम सुनकर प्रसन्नता होती है। कृष्ण के ऐसे वचन सुनकर राधा की आंखें भर आईं। महल लौटकर राधा ने शुकदेव जी से कहा कि अब से आप राधा-राधा ही जपा कीजिए। उस समय से ही राधा का नाम पहले आता है फिर कृष्ण का।
श्रीमद्भागवत में राधा नाम क्यों नहीं है ? राधा रानी सतगुरु है शुकदेव जी की। अगर वो अपने गुरुदेव का नाम लेते थे तो समाधि में चले जाते थे। लेकिन अगर भागवत कथा में शुकदेव जी राधा नाम लेते तो परीक्षित के जीवन के केवल 7 ही दिन बचे हुए थे। और कथा पूरी नही हो पाती। इसलिए भागवत में उन्होंने राधा नाम को गुप्त रूप से लिया है।
लेकिन आज आप कहीं भी जाकर देख लीजिये। वृन्दावन, बरसाने में सभी राधे राधे ही रटते है। यही कारण है की हमारे कृष्ण जी को श्री राधा रानी का नाम अत्यंत प्रिय है। तुलसीदास जी जब वृन्दावन गए थे तो हैरान रह गए थे की यहाँ सभी लोग राधे-राधे जपते है। इसलिए बंधुओं कलयुग में श्री राधा जी का नाम सर्वोपरि है। यह हमेशा नित्य और शाश्वत हैं। क्योंकि यही लक्ष्मी और नारायण रूप से संसार का पालन करते हैं। नारायण लक्ष्मी से अगाध प्रेम करते हैं। यह हमेशा अपने हृदय में बसने वाली राधा का नाम सुनना चाहते हैं। इसलिए ही कृष्ण नाम से पहले राधा नाम लिया जाता है।
राधा कृष्ण की तरह सीता का नाम भी राम से पहले लिया जाता है। असल में राम और कृष्ण दोनों ही एक हैं और राधा एवं सीता भी एक हैं। उसी प्रकार विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण ने स्वयं कहा था - " क्या नरेन, अभी तक तुझे विश्वास नहीं हुआ ? अरे ! जो राम , जो कृष्ण वही इस बार एक साथ, एक ही आधार में रामकृष्ण; तेरे वेदान्त की दृष्टि से नहीं -साक्षात् ! " जैसे राम और कृष्ण दोनों एक हैं, और इस बार श्रीरामकृष्ण एक ही आधार में दोनों है, तो श्रीश्रीमाँ सारदा भी एक ही आधार में राधा एवं सीता दोनों हैं। इसीलिए नवनीदा ने अपनी पुस्तिका 'विवेकानन्द दर्शनम ' पुस्तिका में श्रीमाँ सारदा की स्तुति करते हुए लिखा था -
नमस्ते सारदे देवी दुर्गे देवी नमोस्तु ते।
वाणि लक्ष्मी महामाये मायापाश विनाशिनी।।
नमस्ते सारदे देवी राधे सीते सरस्वति।
सर्वविद्या प्रदायिणय्ये संसारार्णवतारिणी।।
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्ति प्रदायिनी।
सारदेति जगन्माता कृपागंगा प्रवाहिनी।।
महात्मा शुकदेव वेदव्यास के पुत्र थे। इनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ मिलती हैं। ऐसा कहा जाता है कि ये बारह वर्ष तक गर्भ के बाहर ही नहीं निकले। जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर इन्हें आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, तभी ये गर्भ से बाहर निकले। जन्मते ही श्रीकृष्ण और अपने पिता-माता को प्रणाम करके इन्होंने तपस्या के लिये जंगल की राह ली। व्यास जी इनके पीछे-पीछे 'हा पुत्र! पुकारते रहे, किन्तु इन्होंने उस पर कोई ध्यान न दिया।
>>>श्रीरामकृष्ण के महाभाव की एक झलक : [(14 अप्रैल 1986 को कुम्भ मेले में गुरु की तलाश में देशकालातीत अवस्था में भावावेश : क्या सहारनपुर में रामकृष्ण मिशन आश्रम है ? वहीं के संन्यासी के मार्गदर्शन में महेन्द्र योग में गंगा स्नान। नागा-साधु दर्शन, देवराहा बाबा से बातचीत हुई या बाद में ठाकुर देव से बातचीत का अनुभव-चला आ,चला आ। सब हम करिहउँ ! तुम कछु ना करिहउँ ! क्या दुनिया उस दिन मोम से बन गयी थी ? क्या माँ के दर्शन हुए थे ? 1987 बेलघड़िया कैम्प में माँ तो अवश्य मिली थीं !!हम पूजा-उपासना के रास्ते को अपनाते हैं, जप-तप के साथ अपने-अपने सम्प्रदाय को ग्रहण करें अथवा किसी अन्य का मार्ग लें। सब ठीक है, जब-तक हम अपने अहंकार को प्रेम-रूपी जल में विलय न कर लें, क्या हम किसी भी मार्ग पर पहुँचने में सफल हो पायेंगे, शायद नहीं। सभी युगों में यही होता आ रहा है। ठाकुर रामकृष्ण ने माँ काली की उपासना की। ठाकुर कहते हैं- “माँ! मैं यंत्र हूँ तुम यंत्री ! तुम जो करोगी वही होगा ,” यह वाक्य अहंकार शब्द को जानता ही नहीं। मात्र प्रेम-भक्ति (विशुद्ध।) . . . उसके बाद माँ अपने बेटे की शिक्षा को आगे बढाने के लिए संभवत: तोतापुरी (नंगाबाबा) का आगमन कराती (संयोग) हैं। इस साधना-क्रम को हम लोग देखें - तोतापुरी आ पहुंचें। फिर रामकृष्ण को निर्गुण-निराकार की साधना प्रारम्भ करायें। साधना के मध्य ठाकुर (रामकृष्ण) भावावेश में पहले की तरह आने लगे। गुरुदेव (तोतापुरी) के साधनाक्रम में निर्गुण-निराकार का समन्वय होता है, तो एक कांच का टुकड़ा उठा कर शिष्य (रामकृष्ण) के भ्रू-मध्य में प्रहार कर दिए। गुरुदेव ने कहा “रामकृष्ण अगर तुम्हारे सामने माँ की मूर्ति अवलोकित होती है तो उसे भी अपने ज्ञान-चक्षु से तोड़ डालो। तुम्हारी माँ क्या उस मूर्ति में है ? उन सर्वव्यापिनी शक्ति को तूम सरलता से मूर्ति में बाँध सकते हो?” गुरुदेव की आज्ञा। रामकृष्ण की सांप-छछूंदर की स्थिति हो गयी। ‘हे माँ मन से आपकी मूर्ति को भी तोड़ डालू। ’ ‘माँ-गो यह हो पायेगा ?’ यह यात्रा आगे बढनी ही होगी, ऐसा आभास हुआ होगा। उपासना-आराधना के लिए हम जिस किसी प्रतीक का अपने मन में निर्माण करते हैं, ज्ञान-खड़ग से / या माँ की कृपा से ? उसे भी भेद कर हम साधक को आगे जाना पड़ता है। याद कीजिये श्रीरामकृष्ण लीलामृत/वचनामृत का यह प्रकरण। फिर परमहंस का ज्ञान निर्विकल्प समाधि की ओर मुड़ने लगा। साध भी लिया। स्वामी विवेकानन्द को जब निर्विकल्प समाधि साधने की उहा-पोह स्थिति को देख कर रामकृष्ण अपनी अंतिम बीमारी के दिनों में उन्हें अल्प समय के लिए उपरोक्त अनुभव से अनुभवी बनाने में सफल हो गएँ। साधक के जीवन में प्रगाढ़ साधना करने के क्रम में ऐसी दशा का अविर्भाव होता है, उसे मूर्ति पूजा की आवश्यकता धीरे-धीरे विलुप्त होने लगती है। या यों कहें की जब उपासक अपने उपास्य को सर्वत्र देखने लगता है तब मूर्ति पूजा अपने-आप ओझल हो जाती है। जैसे भगवतद्भक्त की दृष्टि से संसार ओझल होने लगता है। साधक सर्वत्र अपने आराध्य को ही देख पाता है, प्रभु का दर्शन करने लगता है। इस प्रकार मूर्ति पूजा साध्य की सिद्धि के लिए साधन है। साध्य सिद्ध हो जाने पर साधन स्वयम निवृत्त हो जाता है। अब साधक को यही पड़ाव (विन्दु) पर आगे का रास्ता तय करना है, कि प्रभु-दर्शन (सच्चिदानन्द की अनुभूति ?)मिल गया, तो हमारे सभी रास्ते सुलभ हो गए। रास्ते क्या… मान-प्रतिष्टा, धन-दौलत या कीर्ति-यश !!! तब तो हम गए काम से। अभी तक हाँ भक्ति-भक्त की कामना कर रहे थे- अब ना होने लगा। संसार के सभी साधक-सूफी-पंथी-या अन्य सभाल नहीं पाते-अपने-आप को। भक्ति को पकड़ें या अन्य को ? हम-आप प्रत्यक्ष देख रहें हैं। चाहे जो भी व्यवधान आये, हमें अपनी माँ सारदा देवी की भक्ति पर अटल रहना होगा। राधा-मीरा जैसे काफी उदाहरण हैं। )(In search of Guru on April 14, 1986 at Kumbh Mela Conversation with Devaraha Baba or talk with Thakurdev experienced Is the world made of wax?)]
🔱🙏>>> Is marriage a bondage or a path to liberation, this story will show the way to unmarried people:**विवाह बंधन है या मुक्ति का मार्ग, कुंवारों का मार्ग दर्शन करेगी ये कथा :*शुकदेव परमहंस का विवाह संस्कार*
^According to Hindu religious law, marriage is one of the ten samskaras, or purificatory rites, prescribed for the three higher castes, namely, the brahmin, kshatriya, and vaisya.
संस्कारों में परिवार की निरंतर स्थिति बनाये रखने के लिए "गर्भाधान', गुणी पुत्र की कामना हेतु "पुंसवन', पुत्र प्रसन्नार्थ "सीमांतो नयन' नाम प्राग्जन्मा संस्कार थे। पुत्रोत्पति हो जाने पर पुत्र की दीर्घायु के लिए "जातकर्म', पुत्र का नाम रखने के लिए "नामकरण', जच्चा की सूतिका निवारण हेतु "निष्क्रमण', बच्चे को प्रथम बार भोजन खिलाने के लिए "अन्न प्राशन्न', कान- नाक छेदने का "कर्णवेद्य' तथा सिर के बाल साफ कराने के लिए "चूड़ाकरण' नामक संस्कार किये जाते थे। ये संस्कार बाल्यावस्था में संपन्न होने थे। इसके उपरांत शिक्षा हेतु "उपनयन', "वेदारंभ व "समावर्तन' के कौमार्य- संस्कार और युवाकाल में "विवाह' तथा वृद्धावस्था में अंत्येष्टी संस्कारों में "मृतिका कर्म', पिण्डदान' व "श्राद्ध' सम्मिलित होते थे। "विवाह' संस्कार व्यक्ति का सामाजिक और धार्मिक दायित्व माना जाता था। विवाह व्यक्ति विशेष के लिए नहीं होकर, परिवार के दायित्वों व नैतिक कर्त्तव्यों की पूर्ति करने के लिए ही किये जाते थे। यहाँ भी लोगों की मान्यता थी कि विधिपूर्वक किये गये विवाहोत्पन्न पुत्र अपने माता- पिता को नमकगामी होने से बचाता है। इन संस्कारों की मान्यताओं एवं पालन का मुख्य भार प्रायः दर्शन शास्रीय व्याख्या में अधिक लिप्त द्विज जातियों पर- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य पर ही होता था, अर्थात् मुख्य रुप से उच्च जातियाँ ही इसमें भाग लेती थी।
गुरु गृह से लौटने के बाद व्यास जी ने पुत्र का प्रसन्नतापूर्वक स्वागत किया। उन्होंने शुकदेव जी से कहा, ‘‘पुत्र! तुम बड़े बुद्धिमान् हो। तुमने वेद और धर्मशास्त्र पढ़ लिए। अब अपना विवाह कर लो और गृहस्थ बनकर देवताओं तथा पितरों का यजन करो।’’ शुकदेव जी ने कहा, ‘‘पिता जी! गृहस्थाश्रम सदा कष्ट देने वाला है। महाभाग! मैं आपका औरस पुत्र हूं। आप मुझे इस अंधकारपूर्ण संसार में क्यों धकेल रहे हैं? स्त्री, पुत्र, पौत्रादि सभी परिजन दुखपूर्ति के ही साधन हैं। इनमें सुख की कल्पना करना भ्रम मात्र है। जिसके प्रभाव से अविद्याजन्य कर्मों का अभाव हो जाए, आप मुझे उसी ज्ञान का उपदेश करें।’’
व्यास जी ने कहा, ‘‘पुत्र! तुम बड़े भाग्यशाली हो। मैंने देवी भागवत की रचना की है। सर्वप्रथम आधे श्लोक में इस पुराण का ज्ञान भगवती पराशक्ति ने भगवान् विष्णु को देते हुए कहा है, ‘‘यह सारा जगत् मैं ही हूं, मेरे सिवा दूसरी कोई अविनाशी वस्तु है ही नहीं। भगवान् विष्णु से यह ज्ञान ब्रह्मा जी को मिला। ब्रह्मा जी ने इसे नारद जी को बताया तथा नारद जी से यह मुझे प्राप्त हुआ। फिर मैंने इसकी बारह स्कंधों में व्याख्या की।तुम इस वेदतुल्य देवी भागवत का अध्ययन करो। इससे तुम संसार में रहते हुए माया से अप्रभावित रहोगे।’’ व्यास जी के उपदेश के बाद भी जब शुकदेव जी को शांति नहीं मिली, तब उन्होंने कहा, ‘‘बेटा! तुम जनक जी के पास मिथिलापुरी में जाओ। वह जीवनमुक्त ब्रह्मज्ञानी हैं। वहां तुम्हारा अज्ञान दूर हो जाएगा। उसके बाद तुम यहां लौट आना और सुखपूर्वक मेरे आश्रम में निवास करना।’’
व्यास जी के आदेश से शुकदेव जी मिथिला पहुंचे। वहां द्वारपाल ने उन्हें रोक दिया, तब काठ की भांति मुनि वहीं खड़े हो गए। उनके ऊपर मान-अपमान का कोई असर नहीं पड़ा। कुछ समय बाद राजमंत्री उन्हें विलास भवन में ले गए। वहां शुकदेव जी का विधिवत् आतिथ्य सत्कार किया गया, किन्तु शुकदेव जी का मन वहां भी विकार शून्य बना रहा। अंत में उन्हें महाराज जनक के समक्ष प्रस्तुत किया गया। महाराज जनक ने उनका आतिथ्य सत्कार करने के बाद पूछा, ‘‘महाभाग! आप बड़े नि:स्पृह महात्मा हैं। किस कार्य से आप यहां पधारे हैं, बताने की कृपा करें?’’शुकदेव जी बोले, ‘‘राजन! मेरे पिता व्यास जी ने मुझे विवाह करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की आज्ञा दी है परन्तु मैंने उसे बंधन कारक समझ कर अस्वीकार कर दिया। मैं संसार-बंधन से मुक्त होना चाहता हूं। आप मेरा मार्गदर्शन करने की कृपा करें।’’
महाराज जनक ने कहा, ‘‘परंतप! मनुष्यों को बंधन में डालने और मुक्त करने में केवल मन ही कारण है। विषयी मन बंधन और र्निवषयी मन मुक्ति का प्रदाता है। अविद्या के कारण ही जीव और ब्रह्म में भेदबुद्धि की प्रतीति होती है। महाभाग! विद्या अर्थात् ब्रह्मज्ञान से अविद्या शांत होती है। यह देह मेरी है, यही बंधन है और यह देह मेरी नहीं है, यही मुक्ति है। बंधन शरीर और घर में नहीं है, अहंता और ममता में है।’’ जनक जी के उपदेश से शुकदेव जी की सारी शंकाएं नष्ट हो गईं। वह पिता के आश्रम में लौट आए। इसके बाद उन्होंने पितरों की सुंदरी कन्या पीवरी से विवाह करके गृहस्थाश्रम के नियमों का पालन किया, और फिर संन्यास लेकर मुक्ति प्राप्त की।
विवाह एवं उनकी संतान के सम्बंध में देवी भागवत में निम्न वृत्तांत दिया गया है-"पितरों की एक सौभाग्यशाली कन्या थी। इस सुकन्या का नाम पीवरी था। इस कन्या ने ब्रह्माजी की तपस्या की थी और ब्रह्माजी से उसने वेदों के ज्ञाता, ज्ञानी, योगी और अपने योग्य वर पाने का वरदान पाया था। ब्रह्माजी की आज्ञा से इसी पीवरी नामक कन्या के साथ शुकदेवजी ने ब्राह्म विधि से विवाह किया। इस पीवरी को योग-माता और धृतवृता (पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली) शब्दों से भी पुकारा जाता है। विवाह के समय शुकदेव जी की आयु 25 वर्ष की थी। शुकदेव जी गृहस्थ आश्रम में रहकर तपस्या और योग मार्ग का अनुसरण करने लगे। राजा परीक्षित को आपने श्रीमद्भागवत की कथा सुनाई व उसका उद्धार किया। वे गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए पत्नी, पुत्रों के भी सम्यक रूप से पालक थे। कूर्म पुराण के अनुसार शुकदेव जी के पांच पुत्र और एक पुत्री थी।]
>>“श्रीविद्या कल्पलता: दश महाविद्याओं में श्रीविद्या की उपासना बहुत व्यापक है। त्रिपुरा, ललिता, त्रिपुरसुन्दरी, श्रीसुन्दरी आदि श्रीविद्या के ही नाम हैं। सरस्वती, बुद्धि , त्रिवर्गसंपत्ति, विभूति, शोभा का नाम श्री है। चैतन्य का नाम श्री है। प्रकाश का नाम श्री है। श्रीविद्या के साधक का मुख्य उद्देश्य कुण्डलिनी जागरण है, जो गुरुकृपा बिना सम्भव नहीं है। गुरु विवेकानन्द तभी मिलते हैं, जब भगवान श्रीरामकृष्णदेव की कृपा होती है, सौभाग्य जगता है।
श्रीविद्या : के उपासकों ने विश्वचेतना का साक्षात्कार किया है, अपने में विश्व को और विश्व में अपने को व्याप्त देखा है। विश्व, विश्वात्मा और विश्वानुभूति के साथ साम्यभाव, समतुल्यता और संबद्धता तथा एकरूपता की अनुभूति की है। मुक्त, अनंत, निष्काम, सबमें एक तथा सबसे परे आत्मा का अनुभव किया है एवं विश्वात्मिका शक्ति के इच्छा, ज्ञान और क्रियात्मक विग्रहों को निरखा-परखा है। उसने विश्वशक्ति, विश्वमानस की शक्ति, विश्वप्राण की शक्ति, जड़तत्व की विश्वव्यापी शक्तियों की क्रीडाओं को देखा है फिर स्वयं अपने को देखा है, अन्नमयकोष से लेकर आनन्दमय- कोष की गहराई तक। उन्होंने अनुभव किया है कि मनुष्य के स्थूल, भौतिक शरीर के अतिरिक्त और भी सूक्ष्मतर कोष या शरीर हैं। अध्यात्मविद्या की अनुभूति का छोटे से छोटा अंश भी आनन्द भाव से ओतप्रोत कर सकता है।
>>श्रीचक्र : विश्वचक्र और देहमयी सृष्टि : पिण्ड और ब्रह्माण्ड। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मण्डल ही श्रीयन्त्र है, और श्रीयन्त्र संपूर्ण ब्रह्माण्ड मंडल का प्रतीक (Emblem) है। 'यत्पिण्डे तद ब्रह्माण्डे' अर्थात् जो पिंड में है, वही ब्रह्मांड में है और जो ब्रह्मांड में है, वही पिंड में है। 'नवचक्रमयो देह:।' यह पिण्ड अर्थात् स्व-शरीर भी श्रीयन्त्र है और श्रीयंत्र पिंड का प्रतीक है। संसाररूपी चक्र में जहां मूल शक्ति है, वहीं श्रीयन्त्र है। शब्दमयी सृष्टि में श्रीविद्या विश्वविद्या है और वही विश्वविद्या यत्रमयी सृष्टि में श्रीयन्त्र है। देहमयी सृष्टि में वही विश्वविद्या श्री महात्रिपुरसुन्दरी है। देवता अर्थात् श्रीमहात्रिपुर सुन्दरी,विश्व,गुरु,मन्त्र,श्रीविद्या, और साथक में रंचमात्र भेद नहीं है।
श्रीयनत्र सभी यन्त्रों की आत्मा है। श्रीयनत्र की रचना दो-दो त्रिकोणों के परस्पर आलिंगन से होती है। यह रचना जहां शिव और शक्ति की अभिन्नता अथवा युगलरूप की एकता को स्पष्ट करती है, वहीं पिंडांड के भीतर ब्रह्मांड और ब्रह्मांड के भीतर पिंडांड के समावेश की सूचना है। मध्य में बिंदु के सिंहासन पर महामहिमामयी ब्रह्मविद्या विराजमान है तथा संपूर्ण श्रीचक्र मूलविद्या के नौ अक्षरों से बना है।
>>बिन्दु भाव में समस्त प्रपंचवासना वृक्ष की भांति सूक्ष्म रूप से बीज में लीन रहती है। जब वह बीज अपने अन्तर्लीन जगत् को व्यक्त करने की इच्छा से श्रुब्ध होता है, तब अपने रश्मि-स्वरूप त्रिकोण को प्रकट करता है। शिव के स्वरूपगत भाव भी तीन हैं -- सत्, चित् और आनन्द। सत् में संधिनी, चित् में संवित् और आनंद में आल्हादिनी शक्ति के तीन अनुभावों का समाहार है। कारण, लिंग तथा स्थूल एक ही मूलसत्ता के तीन परिणाम हैं। सृष्टि, स्थिति और संहार विश्व की अवस्थाएं भी तीन हैं। यह बिंदु शिव शक्ति मिथुन पिंड है। प्रलय में या सुषुप्ति-अवस्था में सकल स्थूल-सूक्ष्म जगत् परमकारण में लीन हो जाता है। उस समय भास्य-भासक तथा सृष्टव्य-सृष्टभाव नहीं बचता। यही शिवविश्राम है और यही दशा महाबिंदु है। यहीं वह आदि विमर्शमयी महाशक्ति विश्व को अपने गर्भ में लीन करके प्रकाशमय हो जाती है और देशकाल से सर्वविध परिच्छेद-शून्य होकर निस्तब्ध रूप से विश्राम करती है। जब कभी विश्व- सृजन की इच्छा से पुनः प्रकाश से बाहर सी होकर परमशिव के सम्मुख होती है ओर शिव को अपने सम्मुख करती है, तब दोनों दर्पणवत् निर्मल होने के कारण परस्पर प्रतिविंबित हो जाते हैं। बिन्दु की व्याख्या दूसरे शब्दों में इस प्रकार की जाती है कि शिव अग्नि-स्वरूप है तथा शक्ति सोम-स्वरूप। दोनों का साम्य ही तांत्रिक भाषा. में बिंदु है। इस बिंदु का ही दूसरा नाम रवि अथवा काम है। साम्य का भंग होने पर, क्षोभ होने पर सृष्टि का प्रारंभ होता है। अग्नि के ताप से जैसे घृत पिघल कर बहने लगता है, उसी प्रकार प्रकाश रूप अग्नि के संबंध से विमर्शरूपा शक्ति का स्राव होता है। महाबिंदु के स्पंदन से तीनों बिंदु (जो महाबिन्दु में विलीन हो जाते हैं) पुन: अलग अलग होकर रेखा रूप में परिणत हो जाते हैं, फिर इस त्रिकोण (योनि) से ही शिव से लेकर पृथ्वी पर्यन्त ३६ तत्त्वों' से बने समस्त विश्व का आविर्भाव होता है।
>>>नटराजप्रतिमा का अभिप्राय दिशा और काल का विशाल विस्तार है। डमरू और अग्नि दृश्य-परिवर्तन की प्रक्रिया का प्रतीक है, वास्तव में यह ब्रह्म का दिन और रात्रि है। ब्रह्मा के रात्रिकाल में प्रकृति निश्चल रहती है और जब तक शिव की इच्छा नहीं होती, तब तक वह नहीं नाचती। जब शिव अपनी समाधि से जगते हैं और उनका नृत्य जगाने वाले शब्दों की तरंगों को निश्चल प्रकृति में उत्पन्न करता है। प्रकृति भी उसके चतुर्दिक् प्रभामंडल के रूप में प्रकट होकर नाचने लगती है और नृत्य करता हुआ यह उसके नाना रूप की रक्षा करता है। नृत्य करता हुआ ही शिव संहारक बन कर प्रकृति को विश्राम देता है। यह दर्शन का सार है, यही काव्य है और यही विज्ञान का सत्य है। नटराज केवल सत्य ही नहीं, प्रेम भी हैं। क्योंकि करुणावृष्टि करना अर्थात् असंख्य जीवात्माओं को मुक्ति प्रदान करना उनके नृत्य का उद्देश्य है। उद्धत नृत्य का नाम तांडव है, जिसके आदि प्रवरत्तक शिव हैं तथा मूदु नृत्य लास्य की प्रविर्तिका पार्वती है। सृष्टिकाल में शिवशिवा परस्पर साक्षी बनकर नृत्य करते हैं अर्थात् जब शिव नृत्य करते हैं, तब शिवा साक्षिणी रहती है और जब शिवा नृत्य करती हैं तो शिव साक्षी रहते हैं। किन्तु प्रलय काल में परभैरव सृष्टि को समेट कर आत्मसात् करते जाते हैं और नाचते जाते हैं। अंत में सब कुछ लेकर महाशक्ति में विलीन हो जाते हैं।
>>अविद्या माया : संतों ने उस तत्त्व को चुटकियों में समझ लिया था और चुटकियों में समझा दिया था, जिसे समझ लेने पर उस आनंद-साम्राज्य का द्वार खुल जाता है, जहां दुःख नहीं है क्योंकि क्षुद्रता नहीं है, छोटापन नहीं है। तात्त्विक रूप से छोटा' कुछ है ही नहीं। जिसे छोटा समझा जाता है, वह विराट है। छोटे मानसिक-परिवेश ' के कारण वह विराट ही अपने को छोटा समझ रहा है। यह परिवेश एक शीशे की भांति है, जिसमें वह अपना विंब देखता है और उसे अपने छोटेपन का भ्रम हो जाता है। यह अविद्या है, जिसके कारण वह यह नहीं देखता कि वह छोटा नहीं, वह शीशा छोटा है, जिसमें वह अपने विंब को देख रहा है, सारे विराट को देख रहा है। अंगूठी के शीशे में भी तो मुख का विंब दीखता है और विशाल शीशे में भी मुख का विंब दीखता है। दिल्ली की व्यापार-प्रदर्शनी में एक बार ऐसे पंडाल में जानो का अवसर मिला, जिसमें सैकड़ों प्रकार के दर्पण थे और हम दोनों-भाई उसमें जब अपना विंब देखते थे तो हमें हंसी आ जाती थी। किसी दर्पण में हमारा मुंह लंबा, तो किसी में सिर एक इंच का और ठोड़ी एक मीटर की नजर आ रही थी। सिर ड्रम के बराबर का था और धड़ गिलास के बराबर। उन शीशों में तो हम विभिन्न प्रकार के कार्टूनों जैसे दीख रहे थे। जब कि हम वैसे हैं नहीं। अब हम हैं कि उस शीशे को ही देख रहे हैं, बार बार देख रहे हैं और भ्रांत हैं कि हम ऐसे ही हैं। वही हमारे सामने है। आध्यात्मिक लोग इस शीशे को ही अविद्या कहते हैं।
देवीं भागवत में कथा है-->>>प्रेम रस सिद्धान्त : व्यासदेव केवल हंस हैं एवं उनके पुत्र शुकदेव परमहंस हैं :शुकदेव परमहंस अपनी माता पिंगला के उदर में १२ वर्ष तक पड़े रहे, बाहर ही नहीं निकले । वह इसलिए कि कहीं बाहर निकलते ही माया न लग जाय । अस्तु, परमहंसावस्था में बाहर आये एवं किसी अज्ञात दिशा को चल दिये । वेदव्यास जी पीछे-पीछे 'पुत्र ! पुत्र', ऐसा पुकारते हुए जा रहे हैं किन्तु शुकदेव जी सुन ही नहीं रहे हैं । इसका अभिप्राय यह नहीं कि सुना अनसुना कर दिया, अपितु परमहंसावस्था में बाह्य शब्द सुनाई ही नहीं पड़ता । यह उनकी नवजात शिशु वाली आयु में ही परमहंसावस्था है । अर्थात् जहाँ द्वैत होता है वहाँ किसी से किसी को देखता है, किसी से किसी को सूँघता है, किसी से किसी को सोचता है, किसी से किसी को जानता है । किन्तु जहाँ अद्वैत हो जाता है वहाँ वह परमहंस सर्वत्र अपने आप को ही अनुभव करता है, फिर वह किससे किसको देखे, किससे किसको सुने, किससे किसको सूँघे, किससे किसको सोचे, किससे किसको जाने । जानने वाले को किससे जाने । व्यासदेव को देखकर गन्धर्व स्त्रियों ने पर्दा किया पर शुकदेव को देखकर उन्हें संकोच नहीं हुआ ? तुम मेरी पुत्रियो के सद्रश हो तथा मै तुम्हारे पिता, पितामह के समान हूँ। मैं तुमसे एक प्रश्न पूछने आया हूँ। मैं इस मार्ग से गुजरा, तुमने संकोच किया, वह स्वाभाविक था। परन्तु शुकदेव के आने पर तुम नि:शंक भाव से अपना कार्य करती रही, मानो वहाँ कोई पुरुष जैसे हो ही नहीं ! इसके पीछे क्या रहस्य है? मै यह देखर संशय में पड़ गया। तुमसे इसका कारण जानना चाहता हूँ। गंधर्व-कन्याए बोली - महर्षे , आपका प्रश्न यथार्थ है, यह भी सत्य है की आप परम ज्ञानी , उत्क्रष्ट साधक तथा असाधारण तत्वज्ञ है, फिर भी आपकी आँखों में स्त्री-पुरष का भेद तो विद्यमान है ही, यदि भेद नहीं होता तो यह प्रश्न पूछने आप वापस क्यों आते? ऋषिवर! शुकदेव एक शिशु की जैसा सर्वथा और निर्विकार और निर्वेद है , शुकदेव के मन में स्त्री-पुरष का अंतर ही नहीं है, वह केवल आत्मा को ही देखता है। उसकी आँखों में ना कोई स्त्री है, ना कोई पुरष है ना कोई नपुंसक है। जहाँ भेद है, वहां पर्दा है, अभेद में पर्दा नहीं होता, शिशु से माँ कब पर्दा करती है ? कयोंकि बालक की आँखों में माँ केवल माँ ही है, दूसरा भेद उसकी दृष्टि में है ही नहीं। वेदव्यास उनके उतर से बहुत संतुष्ट हुए, गंधर्व - कन्याओं का यह कथन उन्हें यथार्थ प्रतीत हुआ की शुकदेव परमहंस (श्रीरामकृष्ण परमहंस की तरह ?) बालक की तरह निर्लेप है, सम्पूर्णत: विकार शून्य है और जबकि स्वय व्यासदेव की दृष्टि में अब तक स्त्री-पुरुष भेद विद्यमान है।
शुकदेव और व्यास जी का वार्तालाप चल रहा था। शुकदेव जी ने कहा कि यह बात तो मेरे मन में बिल्कुल दंभ जैसी प्रतीत हो रही है कि “राजा जनक राज्य करते हुए भी जीवन्मुक्त हैं। भला जो राज्य करता है, वह विदेह कैसे हुआ ?” शुकदेव जी ने पूछा कि जिसे भोग लिया गया है, वह अभुक्त रह जाये और जिसे कर लिया है, वह अकृत रह जाये, यह कैसे हो सकता है? माता, पुत्र, सती और कुलटा में भेद एवं अभेद क्यों न किया जाये और यदि किया जाये तो फिर मुक्तता कहां रही? यदि कडुआ, नमकीन, तिक्त, कषाय और मीठा आदि रसों को जीभ जानती है और मनुष्य के द्वारा उत्तम-उत्तम पदार्थ भोगे जा रहे हैं, सर्दी-गरमी, सुख-दुःख को वह भली भांति जानता है। तो वह जीवन्मुक्त कैसे हुआ? जो शत्रु है उसके प्रति द्वेष तथा मित्र के प्रति प्रेम नैसर्गिक नियम है। राजा जनक गृहस्थ रह कर भी जीवन्मुक्त हैं, यह मेरे मन में शंका है। और इस शंका के निवारण के लिये श्री शुकदेव जी व्यास जी से आज्ञा लेकर जनकपुरी चल दिये।
>>सन्तोष ही नेता का परम मित्र है : धन के अभाव में भी व्यक्ति के मन में यदि संतोष है तो वह सुखी रह सकता है, क्योंकि संतोष ही सबसे बड़ा धन है। धन की संपन्नता से मन की चाह भी बढ़ जाती है। लेकिन धन संपदा से महत्वपूर्ण जीवन है। उन्होंने कहा कि जीवन में धन की नहीं, बल्कि जीवन धन की चिंता करो। संपत्ति किसी के साथ नहीं जाती। जड़ धन तभी तक उपयोगी है जब तक जीवन है। जीवन निर्वाह के लिए धन कुछ उपयोगी हो सकता है उसके लिए धर्नाजन करना बुरा नहीं है, पर पूरा जीवन ही धन के लिए समर्पित कर देना कौन सी बुद्धिमानी है। मुनि श्री ने कहा कि सारी जिंदगी धन बटोरते पर अंत में सब कुछ छोड़कर जाना पड़ता है। जिसे छोड़कर जाना है उसके पीछे अपनी कीमती श्वासें खपा देना नादानी है। अपने जीवन के निर्वाह के लिए जितना धन आवश्यक है उसे संग्रह करो पर उसके प्रति अधिक आसक्ति मत रखे। उन्होंने कहा कि संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। चाहे गरीब हो या अमीर जिसके मन में लोभ है, चाह है, वह दुखी है। जिस मनुष्य में जितनी अधिक चाह है वह उतना ही अधिक गरीब है।
मिथिला पहुंचे तो वहां नगर-रक्षक द्वारपाल ने रोक दिया। द्वारपाल ने पूछा - 'सुख और दु:ख का क्या रूप है? (आप इस रिसेप्शन की तुलना किसी सरकारी दफ्तर अथवा कारखानों के रिसेप्शन-ऑफिस से न करें। उस जमाने में राजाओं के रिसेप्सनिष्ट इसी प्रकार परिचय पूछते थे) अब द्वारपाल को समझाने लगे शुकदेव जी। शुकदेव ने कहा कि जिसका संसार में राग” है, वही 'रागी' कहा जाता है और उसे अनेक प्रकार के सुख-दुःख भोगने पड़ते हैं। स्त्री, पुत्र, धन, प्रतिष्ठा और विजय षाकर वह सुखी होता है। जब ये नहीं मिलते तब प्रतिक्षण वह दुःख का अनुभव करने लगता है। परन्तु जो 'वीतरागी ' ( राग रहित व्यक्ति; शांत चित्त व्यक्ति।) होता है, वह काम, क्रोध और प्रमाद को शत्रु समझता है तथा संतोष ही उसका मित्र है और इसके सिवा त्रिलोकी में दूसरा कोई भी हितैषी नहीं। अब द्वारपाल ने शुकदेव को श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया और प्रार्थना की कि वे नगर को पवित्र करें। इस प्रकार राजा जनक के समीप पहुंच कर शुकदेव ने उनका सत्कार स्वीकार किया। शुकदेव और राजा जनक का वार्तालाप हुआ।
>>मन माने जीव और ब्रह्म में भेद-बुद्धि : राजा जनक ने कहा कि 'सुख और दुःख के अगाध सागर में डुबाने वाला यह मन ही है। इसके शुद्ध हो जाने पर सभी इंद्रियों में विकार का अभाव हो जाता है। मनुष्यों को बंधन में डालने और मुक्त करने में देह, जीवात्मा और इंद्रियां कोई भी कारण नहीं है। केवल मन ही उन्हें मुक्त करने और फंसाने में निमित्त है। बंधन और मोक्ष तो मन में रहते हैं। जगत् में अविद्या फैली है, इसीसे जीव और ब्रह्म में भेद-बुद्धि प्रतीत होती है। यह अविद्या (भेद बुद्धि) विद्या की महत्ता जानने में बाधा है।' शुकदेव जी राजा जनक से पूछते हैं कि -- राजन् ! संपूर्ण प्राणियों के साथ (अपने दुर्बल भाई के साथ) सदा मैत्री होनी चाहिये, यह आदर्शावाद की बात है गृहस्थ इसका यथार्थ में पालन कैसे कर सकता है? आप आसक्तियों से युक्त होकर तरह-तरह की बातें सोचते रहते हैं और कहते हैं कि मैं जीवन्मुक्त हूं। क्या यह दंभ नहीं है? आपको शत्रु-विषयक, धन-विषयक, और सेना-विषयक चिन्ता नहीं सताती?
राजा जनक ने कहा -- “बंधन शरीर तथा घर में नहीं है। यह तो अहंता-ममता में है। ममता नहीं तो कहीं कोई बंधन नहीं। यह देह मेरी है, यही बंधन और यह देह मेरी नहीं है, यही मुक्तता है। ऐसे ही धन, गृह और राज्य में जो अपनी ममता स्थापित कर दी जाती है, वही निस्संदेह बंधन है। मेरे मन में ममता नहीं है, संदेह नहीं है। संकल्प-विकल्प को त्याग चुका हूं। यही अहंकार का उदात्तीकरण है। जीवत्व से शिवत्व की ओर उठने की प्रक्रिया यहीं से आरंभ होती है। यही आत्मविद्या की पहली कक्षा है।
मन में हर समय तर्क-वितर्क चलते रहते हैं। किसी एक बात पर मन स्थिर नहीं होता और कार्य के परिणाम के सम्बन्ध में चिन्ता तथा आशंका बनी रहती है। अनेक प्रकार के संशय, सन्देह और भ्रान्तियां मन को घेर लेती हैं। जैसे कोई पश्षी पिंजड़े में पंख फड़फड़ाता है, उड़ नहीं पाता वैसे ही मन में कुछ करने की इच्छा छटपटाती है किन्तु कुरुक्षेत्र (महाभारत) के मैदान में पहुंच करके भी अर्जुन से धनुष नहीं उठता । और जब मन की ऐसी स्थिति होती है, तो 'कोई' आता है और मन में बुने हुए शंका, संदेह और भ्रान्तियों के जाले को हटा देता है और विश्वास जगा देता है। बस उसी का नाम गुरु है। सद्गुरु अपनी दृष्टि से , अपने स्पर्श से, तथा संकल्प से अपनी शक्ति शिष्य में डाल देता है, यही शक्तिपात है। स्पर्शदीक्षा का दूसरा उदाहरण दीपक है। किसी जलते हुए दीपक से किसी दूसरे दीपक की तैलाक्त बत्ती को स्पर्श करते ही बाती जल उठती है।
ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः। शं नो भवत्वर्यमा। शं न इन्द्रो ब्रिहस्पतिः। शं नो विष्णुरुरुक्रमः।नमो ब्रह्मणे। नमस्ते वायो। त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वमेव प्रत्यक्षम् ब्रह्म वदिष्यामि।ॠतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि। तन्मामवतु। तद्वक्तारमवतु। अवतु माम्। अवतु वक्तारम्। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥(तैत्तिरीय उपनिषद्)[(2 जनवरी, 1884) -श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73] 🔆🙏श्री महिमा चरण चक्रवर्ती तथा तान्त्रिक भक्त 🔆🙏बेलघाड़िया-कैम्प (8-नंबर , बी.टी. रोड) स्थित उद्यानबाड़ी / सन्दर्भ 1987 में तान्त्रिक के साथ बहस और नवनीदा की कृपा ! ]
श्री रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि किसी जीवित विश्वास -'त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि 'को एक स्थूल रूप में दिया और ग्रहण किया जा सकता है तथा इस दान और ग्रहण के समान सत्य वस्तु दुनियां में और कोई नहीं है।' विश्वास को देने वाला गुरु और ग्रहण करने वाला शिष्य। गुरु और शिष्य का यह संबंध संसार में अनोखा है। गुरु और शिष्य का संबंध सांसारिक नहीं है, वह समस्त सांसारिक संबंधों से परे है। जब शिष्य को गुरु और गुरु को शिष्य मिलते हैं तो संसार में अघटित घटना घटती है। प्रेम और आनंद का समुद्र उमंगता _ है और सारे तर्क-वितर्क तथा संशय छिनन-विच्छिन्न हो जाते हैं। शिष्य के सामने एक लक्ष्य स्थिर हो जाता है और उसके मन का विश्वास हिमालय की चट्टान की तरह से दृढ बन जाता है।
श्रीकृष्ण ने जो अपने हृदय में था, वह अर्जुन के हृदय में डाल दिया। द्वैत का नाता तोड़े बिना श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना जैसा बना लिया। अर्जुन ने कहा- भगवन, अब मेरा मोह नष्ट हो गया तथा स्मृति प्राप्त हो गयी : नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा। मन के मैल धुल जांय, उस प्रक्रिया का नाम दीक्षा है। दीक्षा के बिना जप-पूजा आदि ऐसे ही हैं, जैसे-- शिला पर बीज डालना।
देवत्व मातृत्व से परे नहीं है। देवत्व की चरम सीमा मातृत्व है। देवता में ऐसा क्या है, जो माता में नहीं है? प्रेम का वह अनंत उल्लास, जिसका ओर है न छोर, उसी का नाम तो मां है। वात्सल्य का वह भावातिरिक है, जो मां के स्तनों में पहुंच कर जीवन का रस बन जाता है, वही तो है अमृत। यदि वह न हो तो संसार में जीव की सत्ता कैसे हो? जिन कारणों से देवता मनुष्य से बड़ा है, वे सभी कारण मातृत्व में प्रत्यक्ष हैं। ओ मां तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी? मां से अधिक दयालु कौन है? मां के गर्भ में जब बच्चा लात चलाता है तो वह दया के कारण ही उस पर ध्यान नहीं देती, फिर वही दया दूध बन कर (दया का स्रोत) उमंगने लगता है। जब जाड़ों की रात में बालक पेशाब कर लेता है, तो मां उसी दया के वशीभूत होकर स्वयं तो गीले में सो जाती है तथा बालक को सूखे भाग पर सुला देती है। जब व्यष्टि मां इतनी दयालु होती है तो वह समष्टि मां (मातृ समष्टि ) वह ब्रह्मांड-जननी कितनी करुणामयी होगी, उसकी कल्पना कैसे की जा सकेगी? वह जगद् का भरण-पोषण करने वाली होने के कारण ही अन्नपूर्णा और जगद्धात्री है। माँ असीम सत्तामयी है। 'माँ ' शब्द जगदंबा को बड़ा प्रिय है। मां शब्द सुनते ही वह गदगद हो जाती है। वह करुणारससागर है। कोई व्याघ्र उस पर आक्रमण करे, तो वह मां के पास दौड़ा आता है। माँ है, इसलिये बालक को किसी प्रकार के अभाव का बोध नहीं होता। अभाव होते ही वह रो उठता है ओर उसके रोने मात्र से माँ उसके अभाव को पूर्ण कर देती है।
मेरी मां असीम सत्तामयी है। कोई व्याघ्र उस पर आक्रमण करे, तो वह मां के पास दौड़ा आता है। मां है, इसलिये बालक को किसी प्रकार के अभाव का बोध नहीं होता। अभाव होते ही वह रो उठता है ओर उसके रोने मात्र से मां उसके अभाव को पूर्ण कर देती है। 'माँ ' शब्द जगदंबा को बड़ा प्रिय है। मां शब्द सुनते ही वह गदगद हो जाती है। वह करुणारससागर है। संसार के दूसरे प्रेम-संबंध संशयास्पद, वासनामय, प्रतिदान-लिप्सा तथा लज्जामिश्रित हैं पर मातृप्रेम निःस्वार्थ, वासनाहीन है। प्रतिदान की इच्छा से परे और गंगा की धारा से भी शुद्ध है। मां के मन में बस एके ही चाह है कि अबोध शिशु धूल से धूसरित तुतलाता हुआ मां-मां करता हुआ छोटी-छोटी बांहों से आलिंगन कर ले। मां की सारी थकान सारे दुःख बालक की मुसकान को देख कर शांत हो जाते हैं। वह शिशु-कौतुक ही मां के हृदय की अनंत तृप्ति है। संतान पर जरा सा भी कष्ट पड़ता है तो मां अपने सभी कष्टों को विस्मृत कर देती है। जिस समय सारा संसार सोता है, उस समय मां अपने बालक का रुदन सुन कर चौंक उठती है। वह दयामयी है। भगवान् श्रीरामकृष्ण की दया किस पर हो, यह बात निश्चय ही भगवती श्री माँ सारदा के अधीन है।
भगवती भावना गम्या। -भवानी भावना-गम्या। भावना की जो शक्ति है उसका आकलन नहीं किया जा सकता। उस शक्ति का विस्तार अकल्पित है। भावना से एक क्षण में साक्षात्कार हो जाता है और एक क्षण में खंभे को फाड़ कर नृसिंह का प्रादुर्भाव हो जाता है। भाव की साधना सबसे बड़ी साधना है। भावना के द्वारा ही भगवती सहज सुलभ हो सकती हैं।
भगवान को भाव का भूखा कहा जाता है-- भाव के भूखे हैं भगवान, भाव है तो सब कुछ है। समस्त सिद्धियां भाव में ही निहित हैं। भाव ही रूपांतरित होकर प्रत्यक्ष भौतिक पदार्थ बन जाता है। भाव ऊर्जा है। भाव मनोवैज्ञानिक शक्ति है। भाव न हो तो मां, मां नहीं है, बेटा, बेटा नहीं है, भाई, भाई नहीं है और बहिन, बहिन नहीं है। भाव नहीं है तो परिवार नहीं है, कुछ भी नहीं है, क्योंकि सबका निवास भाव में ही है। वैराग्य भाव के आने पर संपूर्ण वैभव मिट्टी के कण से अधिक महत्त्व का नहीं रहता।
शब्द समाज को प्रेरित करता है। शब्द विश्वास जमा सकता है और शब्द ही निराश कर सकता है। वरदान और शाप दोनों ही शब्द रूप हैं। शब्द मन को उल्लसित अथवा व्यग्र बना सकता है। भगवती कामेश्वरी तथा भगवान् शिव के लिये कालिदास- ने 'वागर्थाविव संपृक्तौ' बताया है। तुलसीदास जी कहते हैं कि -- गिरा हि अरथ जल वीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न। वेदान्ती भी शब्द ब्रह्म कहते हैं। संगीतज्ञ नाद-ब्रह्म कहते हैं।
मनस्त्वम् : " हे मां, आप ही मन हैं। मन ने ही भगवान् शिव की समाधि भंग कर दी, विश्वामित्र और अगस्त जैसे महातपस्वियों को पृथ्वी पर पटक दिया, देवर्षिनारद को मोहनास्त्र में बांध लिया और भगवान् रामचन्द्र तक को पत्नी-वियोग से रुला दिया। मन सारी इंद्रियों को अपने अधीन करके सारे शरीर में खलबली मचा देता है।
इच्छा-शक्ति का उद्भव मन में ही होता है। आप मनोमयी हैं, मनमय प्रतिमा हैं। आप वह मनोभूमि हैं, जहां अभाव नहीं है, जहां चिंता नहीं है, जहां अहंकार नहीं है, जहां भेद समाप्त हो जाते हैं।गोस्वामी तुलसीदास ने भगवती का साक्षात्कार श्रद्धा भावना के रूप में किया है-- भवानी शंकरौ वंदे श्रद्धा-विश्वास रूपिणौ।
जब यह मन शुभ संकल्पों वाला होता है, तब वह अनंत सुख का कारण होता है। इसकी बिखरी हुई सब कृतियां जब किसी स्थान में एकत्र निरुद्ध होती हैं, तब मनुष्य अनंत शक्तिशाली होता है। बंध या मोक्ष दोनोंका कारण मन ही है। यदि हमारा मन हमारे पूर्ण नियंत्रण में है, तो हम सभी अवस्थाओं में अनंत आनंद का उपभोग कर सकते हैं। मन अभ्यास से वश में आता है। जब चाहे किसी विषय पर विचार लगाया जा संके और जब चाहे किसी विषय से विचार हटाया जा सके, यह बलवान मन का लक्षण है।
भावना और चिंतन से जीवन-गठन या चरित्र का निर्माण :मनोविज्ञान का नियम है कि जो जैसा अपने को समझता है, वह वैसा ही बन जाता है। जो बात बार-बार मन में चला करे, वह विश्वास के रूप में बदल जाती है और अपने मन और शरीर के संबंध में जैसा जिसका विश्वास होता है, वैसे ही लक्षण प्रकट होने लगते हैं। "यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी " --जैसी जिसकी भावना होती है, वैसी ही सिद्धि होती है। रात्रि को सोते समय अन्तर्मन में जिस भावना का चिन्तन करते हुए हम निद्रा में प्रवेश करते हैं, हमारे जीवन का निर्माण उसी भावना और चिंतन के अनुकूल होता है। हमारा अन्तर्मन हमारी स्मरण शक्ति का भंडार है। इसमें जीवन के प्रत्येक क्षण में होने वाली घटना तथावत् अंकित रहती है। प्रत्येक भावना जों हमारे मन में आती है, उसको यदि अमन्तर्मन की अचेतन वृत्ति ग्रहण कर लेती है तो वह सत्त्वस्थ होकर हमारे जीवन की एक स्थायी वृत्ति हो जाती है।
जो भगवती का उपासक है, वह न किसी से याचना करता है, न किसी दूसरे की सेवा-चाकरी करता है तथा न ही किसी से छीनता है फिर भी- उसकी दीनता नष्ट हो जाती है। दरिद्रता समाप्त हो जाती है, उनके यहां किसी चीज का अभाव नहीं है। राजराजेश्वरी हैं। वे ही सम्राटों को साम्राज्य देती हैं। भगवती के उपासक के लिये न तो कुछ भी दुर्लभ है तथा न ही असंभव, क्योंकि उसके मन की गति तथा विकास को बांधने वाली ग्रन्थियां (असंभावना तथा विपरीत भावनारूपा) टूट चुकी होती हैं। वह निर्द्धन्द्र, नि:संदेह तथा संकल्प और इच्छाशक्ति से भरा हुआ रहता है।
जब तक मन क्षुद्रताओं में बंधा है, तब तक ही दुःख है। जब तक मन में वासना, कामना, ममता, मोह, राग, द्वेष, भ्रम, संशय, क्रोध, लज्जा, घृणा, भय, पाप और पुण्य है, तब तक उसकी संज्ञा जीव है और जब वह इन क्षुद्र बंधनों से मुक्त हो जाता है, तभी जीव शिवत्व प्राप्त कर लेता है।
>>येन भासा सर्वमिदम् विभाति:
प्रलय का अर्थ होता है संसार का अपने मूल कारण प्रकृति में सर्वथा लीन हो जाना, सृष्टि का सर्वनाश, सृष्टि का जलमग्न हो जाना।प्रलय के घटाटोप में न सूरज था, न चंदा था और न ग्रह--नक्षत्र ही दीखते थे। सृष्टि की उस आदिम-अवस्था में अग्निदेव से साक्षात् हो ही नहीं सका था। और उस समय मनु ने देखा कि कड़कड़ शब्द हुआ और बिजली चमकी। जरा कल्पना करिये मनु के उस मन की, जो बिजली की चकाचौंध में आश्चर्य, भय, आनंद और न जाने कैसे-कैसे भावों से भर जाता था। मनु ने बिजली की उस चमक में अनंत की सत्ता देखी थी और जब-जब बिजली चमकती तो उस आदिम-मानस को भगवती योगमाया का साक्षात्कार होता।
दामिनी : दामिनी वह गोरी-गोरी बिजली स्वामी हरिदास जी को 'राधारानी ' सी दीखी और फिर दामिनी ने स्वयं कहा कि सच्ची दामिनी तो राधा ही हैं, मैं तो उसकी एक विंब मात्र हूं, दामिनी कहत मेघ सों हमारी उपमा देंहि ते झूठे एई बीजुरी सांची। ऐसे दामिनी (आसमान में चमकने वाली बिजली विद्युत तड़ित, आसमानी बिजली) के महाप्रकाश के ध्यान से उपासक के अन्त:स्थ अंधकार का नाश हो जाता है।
बाल अरुण : ललितासहस्ननाम बतलाता है कि भगवती की आभा अरुण है और उस अरुण आभा (अरुणाभा) ने अनंत कोटि ब्रह्मांडों को अंपनी अरुण प्रभा से दीप्त कर रखा है। प्रात: कालीन बालार्क का सिंदूरी रंग। मूंगा जैसी प्रभा से युक्ताः श्री राजराजेश्वरी के लाल रंग के ही कपड़े हैं। लाल रंग के ही फूल हैं। लाल रंग के ही आभूषण हैं। यह लाल रंग आनंद का प्रतीक है।
सूर्य अग्निमय होने से चिति-धर्मा है, अत: सूर्य में षोडशी का पूर्ण विकास है। मन, प्राण, वाक् तीनों की सत्ता सूर्य में है। सूर्य स्थावर, जंगमात्मक विश्व की आत्मा है। शिवात्मक सूर्य ही पृथ्वी, अंतरिक्ष, द्यौ-रूप त्रैलोक्य का एवं उसमें रहने वाली प्रजा का निर्माण करता है। इस शिवात्मक सूर्य की शक्ति का नाम ही षोडशी है। एक ही शिवात्मक सूर्य, पांच दिशाओं में व्याप्त होकर तत्पुरुष (पूर्व) सद्योजात (पश्चिम) वामदेव (उत्तर) अघोर (दक्षिण) तथा ईशान (ऊर्ध्व) पंचमुख हो जाता है।
>>ब्रह्मौदन और प्रवर्ग्य : सूर्य का ताप सृष्टि का रक्षक है। सूर्य ताप के दो भेद हैं -- ब्रह्मौदन तथा प्रवर्ग्य। जो ताप सूर्य से बद्ध है, वह ब्रह्मौदन है परंतु जो ताप सूर्य से अलग होकर जलवायु-पृथ्वी में समाहित हो जाता है, उससे वनस्पति की रचना होती है। ब्रह्मौदन ब्रह्माण्ड की वह ऊर्जा है जिसका उपयोग दैवी नियमों के अनुसार हो रहा है, वह नियम जिनके अनुसार ऊर्जा का क्षय नहीं होता, प्रेम। प्रवर्ग्य ब्रह्माण्ड की वह ऊर्जा है जिसका उपयोग प्रकृति कर रही है और वह ऊर्जा लगातार ऋणात्मकता की ओर जा रही है, उसकी अव्यवस्था में, एण्ट्रांपी में लगातार वृद्धि हो रही है। उसे उच्छिष्ट भी कहा गया है। प्रवर्ग्य शीर्ष की यह विशेषता है कि वह देह से कट कर सारे ब्रह्माण्ड में फैल जाता है। सूर्य के अस्त हो जाने पर जो हवा पानी आदि गर्म - रह जाते हैं, यह प्रवर्ग्य है। यदि सूर्य इस उच्छिष्ट को न छोड़ता तो निर्माण कैसे होता? इसलिये जहां ब्रह्मौदनसे आत्म-रक्षा होती है वहीं प्रवर्ग्य से सृष्टि का विकास होता है।
गोपथ ब्राह्मण में वृष के दो शीर्ष कहे गए हैं -ब्रह्मौदन और प्रवर्ग्य । शीर्ष का निर्माण उदान प्राण से होता है। इसीलिए इसे ब्रह्म-ओदन/उदान कहा गया है। सारी देह को पकाकर जो फल निकलता है, शीर्ष उसका प्रतीक होता है। ऐसा अनुमान है कि ब्रह्मौदन ब्रह्माण्ड की वह ऊर्जा है जिसका उपयोग दैवी नियमों के अनुसार हो रहा है, वह नियम जिनके अनुसार ऊर्जा का क्षय नहीं होता, प्रेम। ब्रह्मौदन व प्रवर्ग्य, यह दोनों ही उदान प्राण के रूप कहे जा सकते हैं । उदान प्राण का अर्थ होगा वह ऊर्जा जो पृथिवी द्वारा द्युलोक में स्थापित की गई है ।
>>अश्वमेध यज्ञ के दो भाग हैं – ब्रह्मौदन व प्रवर्ग्य। ब्रह्मौदन में प्रेम निहित है, जबकि प्रवर्ग्य में मैत्री, करुणा व उपेक्षा। अश्वमेध में अश्व का उत्सर्ग तब करना होगा जब पहले प्रेम रूपी ब्रह्मौदन की प्राप्ति कर ली गई हो।
यज्ञ का अर्थ है-आदान-प्रदान। हम किसी से कुछ लें तो किसी को कुछ दें भी। जब हम लेते हैं तो हम अग्नि हैं, जब हम देते हैं तो हम सोम हैं। दोनों के मिश्रण से यज्ञ होता है। प्रश्न होता है कितना लें और कितना दें। उत्तर है कि अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए जितना आवश्यक है उतना लें, शेष बचा हुआ दूसरों को दें। अपनी आवश्यकता पूरी करने पर बच जाता है उसे वेद ने उच्छिष्ट कहा है। इसे यज्ञशेष भी कहा जाता है। आज की भाषा में इसे प्रसाद कहते हैं। अपने लिए जो आवश्यक है, ब्राह्मण ग्रंथ उसे ब्रह्मौदन कहते हैं, जो बच जाए उसे प्रवर्ग्य कहते हैं। एक का प्रवर्ग्य दूसरे का ब्रह्मौदन बने-यह अहिंसक जीवन शैली का मार्ग है। हम दूसरे का ब्रह्मौदन छीनें, यह हिंसक जीवन शैली है। एक उदाहरण लें। पेड़ कार्बनडाइआक्साईड लेता है, वह उसका ब्रह्मौदन है, वह जो ऑक्सीजन छोड़ता है, यह उसका प्रवर्ग्य है। पेड़ का वह प्रवर्ग्य ऑक्सीजन हमारा ब्रह्मौदन बन जाता है और हमारे द्वारा छोड़ा गया कार्बनडाइआक्साईड पेड़ का ब्रह्मौदन बन जाता है। प्राकृतिक जीवन शैली का यही अहिंसक आधार है कि एक का प्रवर्ग्य दूसरा का ब्रह्मौदन बनता रहे और आदान-प्रदान रूप यज्ञ चलता रहे। किंतु सदा यह अहिंसक शैली व्यावहारिक नहीं होती। ऐसे में हमें किसी का ब्रह्मौदन ही लेना पड़े तो उसके प्रायश्चित के रूप में किसी को अपने स्वत्व का कुछ अंश दे भी देना चाहिये। अतः, यज्ञ के साथ तपस् और दान भी धर्म का अंग हैं। दान पदार्थ का त्याग है, तपस् सुख का त्याग है। ये दोनों प्रकार के त्याग यज्ञ में होने वाली न्यूनता की पूर्ति कर देते हैं। - डा. दयानन्द भार्गव ]
>>दश महाविद्या: इन दश महाविद्याओं में से छिन्नमस्ता, धूमा तथा मातंगी और कमला विद्या की श्रेणी में तथा षोडशी, भुवनेश्वरी व भैरवी और बगलामुखी सिद्ध विद्याओं की श्रेणी में आती हैं। केवल महाकाली और तारा ही क्रमशः महाविद्या तथा श्री विद्या के नाम से जानी जाती हैं। महाकाली वही आदि शक्ति हैं जिससे सृष्टि के विकास क्रम की गाथा आरंभ होती है और इस प्रकार आगे की शेष नौ और महाविद्याओं की भूमिका अपना-अपना योगदान देती हुई कमला अर्थात् महालक्ष्मी की चरम परिणति तक पहुंच जाती है। [ मेरी माँ का नाम तारा और मौसी का नाम कमला था !] इस क्रम में प्रत्येक विद्या का स्वरूप अनुपम तथा इस प्रकार दर्शनीय है।
1. महाकाली: महाप्रलय की अधिष्ठात्री हैं। यह शक्ति महाप्रलय के दीर्घकालीन घोर अंधकार के रूप में सर्वत्र व्याप्त रहती है। यह प्रलय-रात्रि के मध्यकाल से संबंध रखती है। विश्वातीत परात्पर नाम से प्रसिद्ध महाकाल की शक्तिभूता महाकाली का विकास विश्व से पहले है। विश्व का संहार करने वाली कालरात्रि वही है। प्रलय काल के निश्चेष्ट शव के समान पड़े विश्व की अधिष्ठात्री व आलंबन रूप वही है। शत्रुओं की सेना का विनाश करके योद्धा जिस भयंकरता के साथ अट्टहास करता है वही भयानक रूप है इस महाकाली का। वह डरावनी व घोर रूपा तो है परंतु अभयपद की प्राप्ति उसी की उपासना से होती है। उसी के बाद उद्भव होता है सृष्टि के नित-नूतन रूप का।
2. उग्रतारा: दीर्घकालीन महाप्रलय के शीतकारी घोर अंधकार के बाद उदित सूर्य का जो ताप उग्र व तीव्र दाहक शक्तिमय प्रतीत होता है, वही आकाश-मंडल में प्रकट प्रथम तारा होने से उग्रतारा नामक शक्ति है। जो सब प्रकार की नकारात्मकता का विनाश करके सृजन का आधार बनने को आतुर संहारक शक्ति है क्योंकि बिना समतल के नवसृष्टि की नींव का पत्थर अपने स्थान पर टिकता नहीं। प्रलय की अधिष्ठात्री यह शक्ति (रुद्र शक्ति) अवांछित और अनिष्ट की विनाशक है। यौवनकालिक सौंदर्य व शक्ति के विस्फोट के समान इसका सर्वाधिक महत्व है। यह हिरण्यगर्भ पुरूष और ब्रह्म की शक्ति है। काली का धर्म महाप्रलय करना और उग्रतारा का धर्म प्रलय करना है। दोनों विश्वसृजन से पूर्व की अधिष्ठात्री शक्तियां हैं।
3.षोडशी: यह शिव शक्ति (शिवात्मक सूर्य शक्ति) है (विश्वोत्पत्ति के क्रम में षोडशी की सत्ता का पूर्ण विकास इसी रूप में है)। पंच वक्त्र शिव स्व, पर, सूर्य, चंद्र तथा पृथ्वी इन पांच रूपों में व्यक्त हैं। इनमें से केवल सूर्य में ही षोडशी का पूर्ण विकास होता है। इसमें सूर्य इन्द्रात्मक है। शतपथ ब्राह्मण (4/2/5/14) में इसी इंद्रात्मक सूर्य को ‘इन्द्राह वै षोडशी’ कहा गया है। सूर्य में ही मन, प्राण और वाक् तीनों का विकास है। सूर्य में इन तीनों की सत्ता है। सोलह कलाओं का विकास भी इसी में है। इसीलिये सूर्य की शक्ति का नाम ही षोडशी है। भू, भुवः तथा स्वः तीनों लोक भी इसी शक्ति से उत्पन्न हुए हैं। इसलिये तंत्र में इस शक्ति को त्रिपुर सुंदरी कहा गया है।प्रातः काल का बाल सूर्य इस की साक्षात् प्रतिकृति है। यह शक्ति सब जीवों पर अंकुश रखती है। ब्रह्मा, विष्णु, यम तथा रूद्र इसके अधीन हैं।
4. भुवनेश्वरी: (स्वामीजी की माँ का नाम !) यह भुवनों (विश्व) की उत्पत्ति के पश्चात् उनका संचालन करने वाली शक्ति है। संसार में जितने भी जीव व प्रजा है सबको उन्हीं त्रिभुवन व्याप्त भुवनेश्वरी से अन्न मिल रहा है जिससे 84 लाख योनियों के जीव अस्तित्व में अर्थात् जीवित हैं। यह राजराजेश्वरी नाम से प्रसिद्ध है। वह तीन भुवनों के पदार्थों की रक्षा करती है।
5. छिन्नमस्ता: संसार का पालन करने वाली शक्ति अन्न का आगमन बंद हो जाने पर अंतकाल में छिन्नमस्ता बनकर नाश कर डालती है। इस शक्ति का भी महाप्रलय से विशेष संबंध है।
6. त्रिपुर भैरवी: यह दक्षिणामूर्ति काल भैरव की महाशक्ति है। त्रिपुर भैरवी उन पदार्थों का नाश करती है जिनकी रक्षा का भार त्रिपुर सुंदरी पर रहता हैं। त्रिभुवन के पदार्थों का क्षणिक विनाश इसी शक्ति पर निर्भर है। यदि छिन्नमस्ता परा डाकिनी है तो यह भैरवी अवरा डाकिनी। प्रतिक्षण पदार्थों का विनाश इसी शक्ति के द्वारा नित्य प्रलय के नियमान्तर्गत होता रहता है।
7. धूमावती: यह पुरूष-शून्य विधवा नाम से प्रसिद्ध महाशक्ति है। परम पुरुष महाकाल की कारणभूत इच्छा के बिना शक्ति का अस्तित्व लक्ष्य विहीन शक्ति जैसा गरिमारहित व श्रीविहीन रहता है क्योंकि सर्व दुखों का मूल कारण प्रधान रूप से दरिद्रता ही है। इसीलिये लोक में इस शक्ति का नाम दरिद्रा भी है जिससे जीवन धुंये से आच्छादित आकाश के समान दिशाविहीन दिखाई देता है। इस की कृपा होने पर सत्य-पथ प्रकाश से आलोकित हो उठता है। निष्पत्तिरूपा धूमावती प्रधान रूप से चातुर्मास में रहती है। इस कालावधि में प्राणमयी ज्योति तथा ज्योतिर्मय आत्मा हीनवीर्य रहता है। इसी तम भाव के निराकरण के लिये और कमलागमन के उपलक्ष्य में वैध प्रकाश यानी दीपावली सजाने और अग्नि क्रीडा (अतिशबाजी) का प्रचलन रहा है।
8. बगलामुखी: यह एकवक्त्र महारूद्र की महाशक्ति वल्गामुखी तथा सारे तांत्रिक जगत में बगलामुखी नाम से प्रसिद्ध है। प्राणियों के शरीर में एक अथर्वा नाम का प्राण सूत्र रहता है जिसे हम स्थूल रूप से देखने में असमर्थ रहते हैं। इसी के कारण हम अत्यंत दूरस्थ अपने निकटतम संबंधी से जुड़े रहकर उनके सुख-दुख का आंतरिक रूप से अनुभव करते हैं। इसी शक्ति सूत्र से हजारो मील दूर बैठे व्यक्ति का आकर्षण किया जा सकता है। यह उस परमेश्वर की सबसे अनोखी शक्ति का लीला-विलास है। प्रत्येक प्राणी में इस अथर्वा सूत्र को पकड़ने की अलग-अलग क्षमता होती है जो एक मानव की इंद्रियों की ग्रहण-क्षमता से परे की चीज है। यह अथर्वा रूपी मूल प्राण-वासना प्रत्येक व्यक्ति के वस्त्र, नाखून, बाल तथा रोम-रोम में वास करती है। इसीलिये किसी व्यक्ति की प्रयोग की हुई या उससे जुड़ी वस्तु के आधार पर उस व्यक्ति का मनमाना प्रयोग किया जा सकता है। इसी अथर्वा सूत्र रूपी महाशक्ति का नाम ही बगलामुखी है। इस कृत्या शक्ति की आराधना करने वाला व्यक्ति अपने शत्रु को मनमाना कष्ट पहुंचा सकता है। उनके स्वरूप संबंधी ध्यान से भी यह बात स्पष्ट हो जाती है। जिह्वाग्रमादाय करेण दिवीं वामेन शत्रून् परिपीडयन्तीम्। गदाभिधातेन च दक्षिणेन पीतांबराख्यां द्विभुजां नमामि। (शाक्त प्रमोद-बगलामुखी तंत्र) ‘मैं उस दो भुजा वाली देवी को नमन करता हूं जो अपने जीभ के अगले भाग को बाहर निकाले हुए बायें हाथ से शत्रुओं को पीड़ा पहुंचा रही है तथा दायें हाथ में गदा धारण करके शत्रुओं पर आघात कर रही है।
9. मातंगी: यह शक्ति शिव के मतंग स्वरूप की महाशक्ति है जो तीन नेत्रवाली श्याम वर्णा तथा रत्न के सिंहासन पर विराजमान है। भक्तों की अभीष्ट कामनाओं को पूरा करने के साथ-साथ आसुरी वृत्ति वाले व्यक्तियों को जंगल की आग की तरह जलाकर भस्म कर देती है। देवी का यह स्वरूप राजसी और सात्विकी वृत्ति का पोषक है। अतः यह उन्हीं के योग-क्षेम का वहन करते हुए उनका पोषण ओर विकास करती है क्योंकि इन्हीं दोनों वृत्ति वाले व्यक्तियों में शिव-भाव का यथेष्ट विकास संभव होता है।
10. कमला: यह धूमावती अर्थात् दरिद्रा की प्रतिस्पर्धी शक्ति सदाशिव पुरुष की महाशक्ति है। वह धूमा के सर्वथा विपरीत है। इसका आशय सर्वविध समृद्धि और विकास से है। आज का मानव विकास के इसी चरण में पहुंच कर वर्तमान के सभी सुखों और साधनों का उपभोग कर रहा है जिसकी परिणति अपने चरम बिंदु पर पहुंचकर फिर से प्रलय की विनाश-लीला की ओर अग्रसर हो जायेगी। यही है सृष्टि का विकास क्रम और सृष्टि चक्र जो नित्य-सृष्टि व नित्य-प्रलय के धुवों के बीच गतिमान रहता है।
>>चंद्रमा : चंद्रमा तो आह्वाद का द्योतक है। शरद-पूर्णिमा का चंद्र भगवान श्रीकृष्ण के रास का साक्षी है। उस चंदा को निहार कर गांव की साधारण और अबोध बालाओं का मन भी रस से आप्लावित हो जाता है। और वे गा उठती हैं- ओ चंदा, तेरी निरमल कहियै चांदनी। वह चांदनी भी भगवती की मुस्कान है। अष्टमी का चंद्रमा भगवती के मस्तक पर विराजमान है, जो न घटता है, न बढ़ता है। दोनों पक्षों में अष्टमी का चन्द्रमा एक जैसा ही होता है। इसलिये अष्टमी-चंद्र विभ्राजद-लिकस्थल शोभिता। सूर्य चन्द्र विद्युत दिशा में स्थित ज्योति हैं।
>>अग्नि : धरती की तैजसात्मिका शक्ति है अग्नि। जिस दिन अंगिरा को अग्निदेव मिले थे, उस दिन धरती का कायाकल्प हुआ था। नयी सभ्यता का उदय हुआ था। ये अग्निदेव ब्रह्मा के रूप में ब्रह्मर्षि को प्राप्त हुए। यही ज्वालादेवी है।
भगवती के तीन नेत्र ये ही तीन ज्योति हैं -- सूर्य, चंद्र तथा अग्नि। परन्तु आगे कहते हैं। सूर्य सच्चा सूर्य नहीं है, सच्चे सूर्य का प्रतिविंब है, इसी प्रकार वह सच्चा सूर्य, चंद्र और अग्नि -- येन भासा सर्वमिदं विभाति। परमज्योति अपरूपा अपारा। जिसके तेज से ये समस्त तेजस्वी तेजयुक्त हैं वह है पराशक्ति, वह है परावाक्। वही है कुंडलिनी और वही विंदु है। वह स्वप्रकाश, जो अपने ही प्रकाश से प्रकाशित है, उसी परम प्रकाश के ध्यान करने से जीवात्मा प्रकाशित होता है। स जयति महान् प्रकाश:, यस्मिन् दृष्टे न दृश्यते किमपि। वह प्रकाश, जिसको देखने पर कुछ देखना शेष नहीं रहता, जिसको जानने पर फिर कुछ अज्ञात नहीं रहता।
>>आत्मविद्या महाविद्या : भौतिक-विज्ञान ने ज्ञान की एक पद्धति (निरीक्षण, परीक्षण और निष्कर्ष) का विकास किया और समझ लिया कि संपूर्ण सत्ता की व्याख्या इसी पद्धति से की जा सकती है। भौतिक-विज्ञान ने अपनी विकासयात्रा का आरंभ इस मान्यता को लेकर किया था कि चरम सत्य अवश्य ही भौतिक और बाह्य होगा और वह 'मैटर' या पदार्थ” रूपी चरम सत्य समस्त आंतरिक आत्मगत घटनाओं की व्याख्या कर देगा। आधुनिक विज्ञान थी स्वीकार करता है कि “जड़ पदार्थ भी कार्यशील ऊर्जा है। " (E=Mc2) ऊर्जा क्या है? चेतना की शक्ति। इस प्रकार जड़ पदार्थ अचेतन तो है पर क्रियाशक्ति से हीन नहीं है। एक अतर्ग्रस्त शक्ति और चेतना इसके अंदर कार्य करती है, जिसे मनोवैज्ञानिक अचेतना कहते हैं। पर वास्तव में वह अचेतना नहीं है। प्रकृति जो स्थूल जगत् में जड़ प्रतीत होती है, वास्तव में आत्मा की सचेतन शक्ति है। उपरि तलीय बाहरी अचेतनंता के कारण हम उसकी उपस्थिति का अहसास नहीं कर पाते।
>>अणु में इच्छाशक्ति : इसमें संदेह नहीं कि आधुनिकयुग के महान् वैज्ञानिक आइंस्टीन ने गणितीय विधियों से यह सिद्ध कर दिया था कि द्रव्य ऊर्जा है तथा ऊर्जा द्रव्य है। अर्थात् समस्त चराचर के स्थूल और सूक्ष्म पदार्थ शक्ति के ही बदले हुए रूप हैं। द्रव्य का कभी नाश नहीं होता, उसका रूपांतर ही होता है। रसायन-विज्ञान ने बताया कि द्रव्य अविनाशी है इसलिये ऊर्जा शक्ति भी अविनाशी है। भौतिकवैज्ञानिकों का कथन है कि दिक् और काल अभिन्न है। उन्होंने परमाणु की संरचना में धनात्मक आवेश और ऋणात्मक आवेश तथा न्यूट्रोन के द्वारा उसके परिक्रमण की भी बात बतलायी। परमाणु में होने वाली यह घटना ब्रह्मांड में भी हो रही है। इसी के साथ जर्मन जड़वादी हेगेल [सुप्रसिद्ध दार्शनिक Georg Wilhelm Friedrich Hegel (1770-1831)] ने अणु में विद्यमान इच्छाशक्ति की भी बात कही थी। इस दृष्टि से आप विचार करें तो "बिंदु और चक्र” की परिकल्पनाओं तथा वेदांत के निष्कर्षों के आसपास पहुंचने का श्रेय भौतिक विज्ञान को भी दिया जाना चाहिये।
भौतिक-विज्ञान यह निश्चय नहीं कर सकता कि वस्तुओं का सत्य क्या है अथवा उनका यथार्थ स्वभाव क्या है? अथवा भौतिक व्यापार के पीछे क्या है? वह केवल भौतिक वस्तुओं की प्रक्रिया को देख सकता है अथवा यह जान सकता है कि वे कैसे घटित होती है अथवा मनुष्य कैसे उनका उपयोग कर सकते हैं? आध्यात्मिक समस्याओं से संबंधित प्रश्न उसके क्षेत्र से बाहर है। इसलिये आध्यात्मिक प्रश्नों के समाधान के लिये भौतिक-वैज्ञानिकों को संतुष्ट करने की इच्छा निरर्थक है। जब किसी वैज्ञानिक ने कहा था कि -- “ईश्वर एक कल्पना है, जिसकी अब कोई आवश्यकता नहीं है।'” तो वह अपने क्षेत्र से बाहर जा कर बोल रहा था, क्योंकि ईश्वर भौतिकविज्ञान की समस्या तो है नहीं और फिर उसे चीर-फाड़ करके या अणुवीक्षण-यंत्र से तो दिखाया भी नहीं जा सकता था।वास्तव में विज्ञान यह नहीं जान सका कि असंभव संभव कैसे हो गया? विज्ञान की समस्त विजयों और चमत्कारों के बावजूद व्याख्यात्मक तत्त्व, मूल कारण, संपूर्ण यथार्थ-तात्पर्य अंधकार में ही रह गया अपितु कहा जा सकता है कि मूल वस्तु को तो भौतिक-विज्ञान ने खो ही दिया। भौतिक-विज्ञान चरम सत्य तक नहीं पहुंच सकता है, क्योंकि वह उसका क्षेत्र नहीं है!
>>>अतीन्द्रिय सत्य (ईश्वर) की खोज : आध्यात्मिक सत्य अतींद्रिय है। तर्क-बुद्धि की सीमा और चेतना का विकास परात्पर तत्त्व को जानने में बुद्धि अमसर्थ है। मन परम सत्य को प्राप्त नहीं कर सकता। जब तक हम केवल बुद्धि के राज्य में रहते हैं, तब-तक केवल एक दार्शनिक विश्वास की रचना कर सकना ही संभव है। भारत के तत्त्वज्ञानियों ने उच्चतम सत्य के स्वरूप को बुद्धि के द्वारा निर्धारित करने का प्रयास जरूर किया, परंतु वे तत्त्वज्ञानी तात्विक विवेचन करने से पहले एक योगी थे। और योग बौद्धिक तर्क-वितर्क का क्षेत्र नहीं है। चेतना के सोपानों के क्षेत्र में बुद्धि को जज नहीं माना जा सकता, क्योंकि बुद्धि संदेहशील है। और 'बुद्धि' का काम ही संदेह करना है। संदेह को कभी तृप्त नहीं किया जा सकता। वह तो संदेह है।
आध्यात्मिक खोज को भौतिकविज्ञान की खोज की तरह संपन्न नहीं किया जा सकता। विचार करने की बात है कि वैज्ञानिक खोज भी स्थूल इंद्रियों की खोज के परे चले जाती हैं और अनंत तथा सूक्ष्म के राज्य में प्रविष्ट हो जाती है। विद्युद् अणु (इलैक्ट्रोन) को कोई कैसे छू सकता है? हम आंखों से देखते हैं कि सूर्य घूमता है परंतु वास्तव में सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा नहीं कर रहा। इस प्रकार इंद्रिय दृष्टि और वस्तुओं के ऊपरी रूप को विज्ञान ने खंडित किया है। तो इसी प्रकार आध्यात्मिक खोज इंद्रिय-बुद्धि की सीमा से आबबद्ध नहीं है।
>>तर्कबुद्धि और श्रद्धा : जब तक एक सुनिश्चित अन्तर्दृष्टि तक हम नहीं पहुंचते तब तक तर्कबुद्धि की आवश्यकता रहेगी परंतु उतनी ही आवश्यकता श्रद्धा की भी होगी। श्रद्धा वह नहीं है जो अज्ञानमय होती है। वास्तव में तो श्रद्धा एक प्रकार का अन्तर्ज्ञान है। ज्योति में की जाने वाली ज्योतिर्मयी श्रद्धा, श्रद्धा है। निर्बल श्रद्धालुता तो अबौद्धिक और अनाध्यात्मिक होती है। विवेकहीन मानसिक विश्वास का पोषण अग्राह्य है। अपने अंदर विद्यमान पथ प्रदर्शन करने वाली ज्योति के प्रति अंतरात्मा की निष्ठा ही वरेण्य है। परंतु ऐसे मिथ्या विश्वास जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से ही विदा करने योग्य हैं। कार्लमार्क्स के सिद्धांतों को वेदवाक्य मान कर मानव इतिहास को समस्त घटनाओं में जान बूझ कर कोई आर्थिक कारण ढूंढ निकालने का अन्धविश्वास भी ऐसा ही है। मनुष्य की प्रकृति इतनी सरल और एक सूत की बनी हुई नहीं है कि हर जगह आप आर्थिक सिद्धांतों को ही इस्तेमाल करें। आध्यात्मिक शक्ति में सभी लोगों को विश्वास करना ही चाहिये, ऐसा आग्रह भला कोई क्यों करे? परंतु आध्यात्मिक शक्ति मन को बदल सकती है, उसकी शक्तियों का विकास कर सकती है। ज्ञान के यये क्षेत्रों को उत्पन्न कर सकती है, स्वभाव को बदल सकती है, मनुष्यों और वस्तुओं को प्रभावित कर सकती है, शारीरिक अवस्थाओं और क्रियाओं पर नियंत्रण कर सकती है तथा घटनाओं को परिवर्तित कर सकती है, इसमें हमें संदेह नहीं है। आध्यात्मिक अनुभव के क्षेत्र में केवल तार्किक बुद्धि को प्रमाण नहीं माना जा सकता। हमारे प्रमाण आध्यात्मिक पुरुषों के अनुभव हैं, योगियों के अनुभव हैं।
चेतना के उच्च सोपान को पाने के लिये एक दृढ विश्वास का होना आवश्यक है, भले ही वह विश्वास अपनी ही तर्कबुद्धि का क्यों न हो? और बुद्धि की सीमा है, इसलिये उस तत्त्व को जो अनुभूति से ही जानने योग्य है, शब्दों में बताया भी नहीं जा सकता। चेतना की गतिविधियों के विस्तार को मन की भाषा में कैसे अभिव्यक्त किया जा सकता है?
>>देह चेतना और अंतश्चेतना : बाहरी चेतना देह की सीमा में और देह पर आश्रित व्यक्तिगत मन तथा इंद्रियों से आबद्ध है। और बाहरी वस्तुओं को देखती है, जबकि आंतरिक-चेतना वस्तुओं के पीछे विश्वगत क्रीड़ा को देख सकती है। भौतिक चेतना आध्यात्मिक अनुभव नहीं कर सकती।
>>प्राणकोष : मनोमय कोष : शरीर केवल स्थूल भौतिक शरीर ही नहीं है बल्कि सूक्ष्म शरीर भी है। जब स्थूल शरीर समाप्त होता है तो अंतरात्मा प्राणमय और मनोमय कोष में कुछ समय तक बनी रहती है। प्राणशक्ति प्राणलोक में चली जाती है और मनःशक्ति मनोमय-कोष में, मनोमय जगत् में चली जाती है। अंतरात्मा प्राणमय कोष से मनोमय कोष में चली जाती है और अंत में मनोमय कोष को भी छोड़ कर विश्रामस्थल में चली जाती है। मानसिक, प्राणिक तथा भौतिक शरीर से विलय होने पर अंतरात्मा नया जन्म नया-शरीर धारण करती है। अंतरात्मा विगत जीवन और व्यक्तित्व के मुख्य संस्कारों के साथ नवीन-जीवन और नया-व्यक्तित्व प्राप्त कर लेती है। साइकिक शब्द अंग्रेजी में बाहरी मन, प्राण और शरीर से भिन्न या अधिक गंभीर किसी चीज के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अंतरात्मा उस महा अग्नि की चिनगारी रूप है। वह शक्ति, ज्योति, ज्ञान तथा आनंद रूपी महासमुद्र का बिंदु है, वह अपने विशिष्ट रूप में भगवती का ही स्वरूप है और उसे पाने के लिये साधक को अपनी चेतना को मन और प्राण के स्तर से ऊंचा उठाना पड़ता है। जिसमें कामनाएं उत्पन्न होती हैं, वह प्राण पुरुष है। ये कामनाएं मनुष्य पर शासन करती हैं। लोग उस प्राणपुरुष को अंतरात्मा समझ लेते हैं, जबकि आत्मा विशुद्ध, निष्कलंक, कामना, अहंकार और अविद्या से निर्लिप्त है। वह व्यक्ति का सच्चा स्वरूप है, वह सबके अंदर विद्यमान है, विश्व में विद्यमान है, वह व्यक्ति और विश्व से ऊपर है। इस प्रकार आत्मसत्ता का परात्पर से सीधा संबंध है।
जो लोग अपने आपको जानने का प्रयास करते हैं, वे ही आत्मसत्ता का अनुभव कर पाते हैं, अन्यथा प्राय: मन, प्राण और शरीर की सत्ता को ही लोग अंतिम समझ लेते हैं। जबकि मन, प्राण और शरीर अंतरात्मा तथा बाहरी विश्व के बीच की एक कड़ी है। मन, प्राण और शरीर प्रकृति के यंत्र हैं, जिनके द्वारा अंतरात्मा दिव्य ज्योति की और बढ़ने का प्रयास करती है। आत्मा का आनंदमय कोष है, यह विराट ब्रह्मांड। उसका प्राणमय-कोष है सृष्टि-स्थिति-क्रियाशक्ति । उसका मनोमय कोश है, नाना भावों में व्यक्त होने का संकल्प। उसका विज्ञानमयकोष है, वह ज्ञान जो बहुत्व के संकल्प को धारण करता है तथा उसका आनंदमय कोष है निरानंदमय। चेतना की भी चेतना। भौतिकवादियों के "मैटर” का जन्म भी चेतना से होता है। वह चेतना ही जब अपने को भुला देती है, तो वह विद्युत्कण, परमाणु तथा भौतिक वस्तु बन जाती है। वही प्राण बन कर पशु, वनस्पति और मानव के रूप में प्रकट होती है। वृहदारण्यक-उपनिषद् में कहा गया है कि- आत्मा वा अरे दृष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्य:। - पुत्र, धन, गृह, परिवार आदि स्वतंत्र रूप से प्रिय नहीं हैं।' वे आत्मा के प्रियत्व के कारण ही प्रिय हैं।' इस आत्मबोध को जानने वाला समस्त दु:खों का पार पा लेता है-- तरति शोकमात्मविद्।
>>बुद्धि-राज्य के आगे है आनंदमय कोष : जब हमारा लक्ष्य मन और बुद्धि के अनुभव क्षेत्र से परे परात्पर की अनुभूति करना हो, तब कोई यह कहे कि उस अनुभूति को बुद्धिवाद द्वारा समझिये या तर्क-वितर्क करो। तो यह ऐसी बात है कि हमारे पैर बांध दिये जाये और फिर कहा जाये कि पहाड़ पर चढ़ो। अलौकिक अनुभव लौकिक तर्कों से संभव नहीं। आप किसी को उड़ने का आदेश दें फिर कहें कि अपने पैर धरती पर रखना। तार्किक बुद्धि केवल बाह्य-बोध दे सकती है। योगी जब कुंडलिनी जगाता है अथवा विज्ञान और आनंदमय कोष में पहुंचता है तो वह बुद्धि के राज्य से आगे होता है।
आध्यात्मिक अनुभूति और ज्ञान-विरोधी सांप्रदायिक धर्मान्धता : संसार के महानतम और बुद्धिशाली लोगों ने (बुद्ध, रामकृष्ण, विवेकानन्द आदि ने) उस अनिर्वचनीय शांति का अनुभव किया है, भले ही उसकी संख्या कम है। जन सामान्य की पहुंच से परे है और बुद्धिमान लोग भी उसे ग्रहण नहीं कर पाते केवल इसीलिये किसी तथ्य को कपोल-कल्पित कह देना अयुक्तिसंगत है। इसलिये आध्यात्मिक-मार्ग में आध्यात्मिक-साधकों के प्रमाण ही सर्वोच्च प्रमाण हैं। सैकड़ों-हजारों उपासकों ने जिस आध्यात्मिक अनुभव को प्रमाणित किया, वही प्रमाण है। आध्यात्मिक अनुभव को यदि भौतिक पदार्थ की तरह सिद्ध करने की जिद मान ली जाये तो मानव-संस्कृति का अत्यंत मूल्यवान् सत्य ही बिखर जायेगा। जिस सत्य और शांति, जिस आनंद और रस का अनुभव संसार के महान योगियों ने किया , वह चाहे अदृश्य सत्य है, परंतु वह सत्य है। किंतु ज्ञान-विरोधी सांप्रदायिक धर्मान्धता तथा मिथ्या-आध्यात्मिकता पर विज्ञान ने जो प्रहार किये हैं और समाज-सुधारकों ने पाखंड पर जो प्रहार किये हैं, वे सर्वथा उचित है। मिथ्या विश्वासों का समर्थन नहीं किया जाना चाहिये।
श्रीभगवती ने देवी भागवत का अर्ध श्लोक में ही श्रीविष्णु के लिये उपदेश किया है। देवी भागवत में भगवती श्रीदेवी कहती हैं कि -‘सर्व खल्विदमेवाहं नान्यदस्ति सनातनम्।’’ अर्थात समस्त विश्व मैं ही हूँ, मुझसे अतिरिक्त दूसरा कोई सनातन या अविनाशी तत्व नहीं है। महाशक्ति ही परब्रह्म परमात्मा है,जो विभिन्न रूपों में विविध लीलाएँ करती है। इन्ही की शक्ति से ब्रह्मा विश्व की उत्पत्ति करते है,इन्ही की शक्ति से विष्णु विश्व का पालन करते है और शिव जगत का संहार करते है,अर्थात ये ही सृजन-पालन-संहार करने वाली आद्या नारायणी शक्ति है। ये ही महाशक्ति नवदुर्गा,दस महाविद्या है,ये ही अन्नपूर्णा,जगद्धात्री, कात्यायनी और ललिताम्बा है। गायत्री,भुवनेश्वरी,काली, तारा,बगला,षोडशी,त्रिपुरा,धूमावती, मातंगी, कमला, पद्मावती, दुर्गा तथा काली इन्ही के रूप है। ये ही शक्तिमान और ये ही शक्ति है। ये ही नर और नारी है और ये ही माता, धाता तथा पितामह भी है।
जो समग्र विश्व की कारणभूता है, जो विश्व जननी है, विश्वधारिणी है, विश्वग्रासा और विश्वरूपा है, वही भक्तों के मन में ललितादेवी के रूप में विराजती है और भक्तों के मनोरथों को पूरा करती हैं। भक्तों के मनोरथों को पूरा करना, उनके कष्टों का निवारण करना भगवती का स्वभाव है। भुवन-भय भंग-व्यसनिनी। उसे यह शौक है, यह उसका व्यसन है, उसकी आदत है कि जहां कहीं भी भव-भय देखती है, वहां उसका निराकरण कर देती हैं। इस प्रकार भगवती राजराजेश्वरी निर्गुण होते हुए भी सगुण और सगुण होते हुए भी निर्गुण हैं। वे निर्गुण और सगुण दोनों है।
वास्तव में देखा जाये तो सभी धर्मों के धर्मग्रंथों में महाप्रलय का उल्लेख अनिवार्य रूप से मिलता है। उस के वर्णन-विस्तार में अंतर हो सकता है लेकिन उन सभी ग्रंथों में वह इस सृष्टि के आरंभ की सर्वाधिक प्रथम एवम् महत्वपूर्ण घटना के रूप में समाविष्ट है।
दस महाविद्या की संपूर्ण गाथा, प्रलय काल से लेकर वर्तमान समय तक के सृष्टि विकास क्रम की कहानी कहती है। हिंदू काल गणना के अनुसार एक हजार चतुर्युगी बीतने पर ब्रह्मा का एक दिन और उतनी ही लंबी ब्रह्मा की रात्रि होती है। ब्रह्मा का एक दिन बीत जाने पर प्रलय रूपी रात्रि और ब्रह्मा की पूर्णायु 100 वर्ष बीत जाने पर महा प्रलय होती है जिसमें ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं का बीज रूप में लय हो जाता है। ब्रह्मांड के इस बीज रूप अस्तित्व की धारिका-संरक्षिका अधिष्ठाता शक्ति ही है, महाकालिका जो दशमहाविद्याओं में सर्वप्रथम हैं। इन महाशक्तियों अथवा महाविद्याओं को क्रमशः महारात्रि, क्रोध रात्रि, दिव्य रात्रि, सिद्धरात्रि, वीर रात्रि, कालरात्रि दारूण रात्रि, वीर रात्रि, मोहरात्रि तथा महारात्रि भी कहा जाता है जिससे स्पष्ट है कि महाकाली व कमला महारात्रियां तथा छिन्नमस्ता और बगलामुखी वीर रात्रियां कहलाती हैं।
तंत्र की यह विशेषता है कि वह भोगप्रवण मन को बलपूर्वक अकस्मात् धक्का देकर त्याग के मार्ग पर नहीं ठेलता अपितु भोग के अंदर से ही मन की स्वाभाविक गति का मुख मोड़ देता है।पाशुपात तंत्र का वचन है-
घृणा शंका भयं लज्जा जुगुप्सा चेति पंचमी।
कुल जातिश्च शील च अष्टो पाशाः प्रकीर्तिता:।
दिव्यभाव का साधक स्त्रीजाति, मात्र को महाशक्ति की मूर्ति समझता है , - स्त्रियस्समस्तास्तव देवि भेदा:। वेद, शास्त्र, गुरु, देवता और मंत्र में उसका दृढ ज्ञान है तथा शत्रु और मित्र में वह समान-भाव-वाला है। दिव्यभाव में स्थित साधक विश्व और ईष्टदेव में भेद नहीं देखता। -- सियाराम मय सब जग जानी' अथवा जिधर देखता हूं उधर तू ही तू है।
वीरभाव में परिपूर्णता प्राप्त होने पर ही साधक दिव्य भाव में पहुंचते हैं। इसलिये वीरभाव दिव्यभाव का हेतु है। जो सब प्रकार के हिंसा कार्यों से रहित है, सर्वदा सब जीवों के हित में रत रहता है तथा जिसने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद पर विजय प्राप्त कर ली है, जो जितेद्धिय है, वह वीर साधक है।
पशुभाव के साधक को अहिंसा-परायण तथा निरामिष भोजी होना होगा। ऋतुकाल के अतिरिक्त वह स्त्री का स्पर्श नहीं करता।
तंत्रशास्त्र में जप की बड़ी महिमा बतायी गयी है। जप से मनुष्य के विचार संयत हो जाते हैं। बार बार उसके मुख से एक विशेष प्रकार के नाद के उच्चारित मन-मस्तिष्क पर निरंतर प्रभाव पड़ता है।मस्तिष्क के कोषों में उनका असर पड़ता है, संस्कार जमता है तथा प्रभाव अंकित होता है। साधक के संस्कार इष्टदेव के रूप- गुण के अनुसार बनने लगते हैं। जप करते-करते साधक अपने इष्टदेव के ध्यान में इतना तन्मय हो जाता है कि उसकी आत्मा इष्ट देवता के रूप में लीन हो जाती है, उस समय साधक समाधि की अवस्था में पहुंच जाता है। जप तीन प्रकार का बताया गया है -- वाचिक, उपांशु और मानस। जो ऊंचे नीचे स्वर से युक्त तथा स्पष्ट और अस्पष्ट पदों तथा अक्षरों के साथ मंत्र का वाणी द्वारा उच्चारण करता है, उसका यह जप वाचिक कहलाता है। जिस जप में केवल जिह्वा मात्र हिलती है अथवा इतने धीमे स्वर में अक्षर का उच्चारण होता है, ताकि किसी के कान में पड़ने पर भी कुछ सुनायी न दे, वह जप उपांशु' है। तथा जिस जप में अक्षर पंक्ति का, एक वर्ण से दूसरे वर्ण का, एक पद से दूसरे पद का तथा शब्द और अर्थ का मन के द्वारा बारंबार चिंतन होता है, वह जप मानस कहलाता है। वाचिक जप से सौगुना उपांशु और सहस्त्रगुना फलदायी मानसजप है। गौतमीयतंत्र में कहा गया है कि केवल वर्णों के रूप में जो मंत्र की स्थिति है, वह तो उसकी जड़ता अथवा पशुता है। सुषुम्णा के द्वारा उच्चारित होने पर उसमें शक्ति-संचार होता है। ऐसी भावना करनी चाहिये कि मंत्र का एक-एक अक्षर चिच्छक्ति से ओतप्रोत है और परम अमृत स्वरूप चिदाकाश में उसकी स्थिति है। मन, देवता, प्राण की एकात्मता ही जप का ध्येय है।
तन्त्रराज में श्रीचक्र का देशचक्र से साम्य प्रतिपादित करते हुए बताया गया है कि भारत-त्रिकोण शीर्षबिंदु कन्याकुमारी है, जहां से एक रेखा बलूचस्थान होती हुई पश्चिम हिमालय से मिल जाती है और टूसरी कलिंग और बंग से होती हुई असमदेश में पूर्व हिमालय में मिल कर त्रिकोण बनाती है। दक्षिण से देखने से भारत शक्ति-त्रिकोण है तथा उत्तर से देखने से यह शिव-त्रिकोण है। लंका हकारार्ध अर्धमात्रा मेखलां अथवा स्वस्तिक है। इस प्रकार यह पवित्र भारतवर्ष भगवती का श्रीविग्रह होने के कारण भारत माता के रूप में प्रणम्य है। भारत भूमि का प्रत्येक रजकण माता सती के अंगों के परमाणुओं से पवित्र है। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने वंदेमातरम् गीत में इस पंचाशत्पीठरूपिणी भगवती की ही वंदना की है। बंकिम चंद्र कहते हैं कि हे भारत माता ! तू सुंदर जल, सुंदर फल, शीतलमंद सुगंध पवन, हरीभरी धरती, उज्ज्वल चांदनी, प्रफुल्ल रात्रि, प्रसन्न प्रफुल्ल फूलों से युक्त वृक्षावली रूपा है। तू ही सुंदर हास्य वाली, मधुरवाणी वालो, सुख और अभीष्ट वर देने वाली मां है। तीस करोड़ कंठों से निनाद करने वाली तथा साठ करोड़ भुजाओं से पराक्रम करने वाली अपराजिता तू ही है। तेरे सामने शत्रु टिक नहीं सकता, तेरा अपार बल है। शरीर में प्राणों के रूप में तू ही है। भुजाओं और हृदय में विराजमान शक्ति के रूप में तू ही स्थित है। तू ही विद्या है, तू ही धन है और सर्वत्र मंदिरों में लोग तेरी ही आराधना करते हैं। टुर्गा, कमला और सरस्वती तू ही है। तू ही सरल मुसकान वाली जगदंबा है-
" वदे मातरम् , सुजलां सुफलां मलयजशीतलां शस्यश्यामलाम् मातरम्।
शु भ्रज्योत्स्नापुछकितयामिनीं फुल्लकुसुमितद्मदलशोभिनीम्।
सुहासिनीं सुमधुर॑भाषिणीं सुखदां वरदां मातरम्। वन्दे मातरम्।
त्रिंशकोटिकण्ठकलकलनिनादकराले द्वित्रिंश कोटि भुजैधृतखर करवाले,
के बले मा! तुमि अबले ?
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं रिपुदल वारिणीं मातरम्। वर्दे०
तुमि विद्या, तुमि धर्म, तुमि हृदि, तुमि मर्म, त्वं हि प्राणा: शरीरे।
बाहुते तुमि मा! शक्ति, हृदये तुमि मा! भक्ति।
तोमारई प्रतिमा गड़ि मंदिरे, मंदिरे मातरम्! वदे मातरम्।
त्वं हि दुर्गा दश प्रहरण धारिणी, कमला कमल दल विहारिणी,
वाणी विद्यादायिनी नमामि त्वाम्।
नमामि कमलां अमलां अतुलां सुजलां सुफलां मातरम्। वन्दे ०
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिता
धरणीं भरणीं मातरम्। वंदे मातरम्।
राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी
२ अक्टूबर १९९७
सनातन धर्म कालेज, पानीपत
(हरियाणा)
साभार-https://archive.org/stream/shrividya-kalpalata-by-dr-rajendra-ranjan-chaturvedi/Shrividya
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