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गुरुवार, 3 मार्च 2022

🔆🙏 $$$$$$$ 🔆🙏 परिच्छेद~ 99 [ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 🔆🙏अभ्यास योग 🔆🙏 शरीर (Hand) ,मन (Head) और हृदय (Heart-अक्षरब्रह्म) विकास शिक्षा🔆🙏

 परिच्छेद-99  

(१)

 [ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

*सींती ब्राह्मसमाज के शरदोत्सव (autumn festival)में*

ब्राह्मभक्त सींती के ब्राह्मसमाज में सम्मिलित हुए । आज काली-पूजा का दूसरा दिन है । कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा, 19 अक्टूबर,1884। अब शरद् का महोत्सव हो रहा है । श्रीयुत वेणीमाधव पाल की मनोहर उद्यान-वाटिका में ब्राह्मसमाज का अधिवेशन हुआ ।

प्रातःकाल की उपासना आदि हो गयी है । श्रीरामकृष्ण दिन के चार बजे आये । उनकी गाड़ी बगीचे के भीतर खड़ी हुई । साथ ही दल के दल भक्तगण चारों ओर से उन्हें घेरने लगे । उधर कमरे के अन्दर समाज की वेदी बनायी गयी । सामने दालान है । उसी दालान में श्रीरामकृष्ण बैठे। चारों ओर से भक्तों ने उन्हें घेर लिया ।

विजय, त्रैलौक्य तथा और भी बहुत से ब्राह्मभक्त उपस्थित है । उनमें ब्राह्मसमाजी एक सब-जज (Sub Judge) भी हैं ।

[ON THIS DAY Sri Ramakrishna again visited the Sinthi Brahmo Samaj. It was the occasion of the autumn festival of the Samaj, which was being celebrated at Benimadhav Pal's garden house. The hall was decorated with flowers and greens, flags and festoons, of various colours. Outside, the blue autumn sky with its fleecy clouds was reflected in the water of the lake.

Sri Ramakrishna arrived at half past four in the afternoon. Entering the hall, he bowed down before the altar. The Brahmo devotees, among whom could be noticed Vijay and Trailokya, sat around him. A sub-judge, who was a member of the Brahmo Samaj, was with them.

[আবার ব্রাহ্মভক্তেরা মিলিত হইলেন। কালীপূজার পর দিন, কার্তিক মাসের শুক্লা প্রতিপদ তিথি, ১৯শে অক্টোবর, ১৮৮৪ (৪ঠা কার্তিক রবিবার)। এবার শরতের মহোৎসব। শ্রীযুক্ত বেণীমাধব পালের মনোহর উদ্যানবাটীতে আবার ব্রাহ্মসমাজের অধিবেশন হইল। প্রাতঃকালের উপাসনাদি হইয়া গিয়াছে। শ্রীশ্রীপরমহংসদেব বেলা সাড়ে চারিটায় আসিয়া পৌঁছিলেন। তাঁহার গাড়ি বাগানের মধ্যে দাঁড়াইল। অমনি দলে দলে ভক্ত মণ্ডলাকারে তাঁহাকে ঘেরিতে লাগিলেন। প্রথম প্রকোষ্ঠ মধ্যে সমাজের বেদী রচনা হইয়াছে। সম্মুখে দালান। সেই দালানে ঠাকুর উপবেশন করিলেন। অমনি ভক্তগণ চারিধারে তাঁহাকে বেষ্টন করিয়া বসিলেন। বিজয়, ত্রৈলোক্য ও অনেকগুলি ব্রাহ্মভাক্ত উপস্থিত। তন্মধ্যে ব্রাহ্মসমাজভুক্ত একজন সদরওয়ালাও (সাব-জজ) আছেন।] 

महोत्सव के कारण समाज-गृह की शोभा अपूर्व हो रही है । अनेक रंगों की ध्वजा-पताकाएँ उड़ रही हैं । कहीं कहीं ऊँची इमारतों या झरोखों पर फूल-पत्तियों की झालरें लगी हुई हैं ।

सामने के स्वच्छ-सलिल सरोवर में शरद् के नील नभमण्डप का प्रतिबिम्ब सुहावना रूप धारण कर रहा है । बगीचे की लाल लाल सड़कों की दोनों ओर भाँति भाँति के फूलों से लदे हुए पेड़ सौन्दर्य को बढ़ा रहे हैं ।

[সমাজগৃহ মহোৎসব উপলক্ষে বিচিত্র শোভা ধারণ করিয়াছে। কোথাও নানা বর্ণের পতাকা; মধ্যে মধ্যে হর্ম্যোপরি বা বাতায়নপথে ময়নরঞ্জন, সুন্দর পাদপ-বিভ্রমকারী বৃক্ষপল্লব। সম্মুখে পূর্বপরিচিত সেই সরোবরের স্বচ্ছসলিল মধ্যে শরতের সুনীল নভোমণ্ডল প্রতিভাসিত হইতেছে। উদ্যানস্থিত রাঙ্গা রাঙ্গা পথগুলির দুই পার্শ্বে সেই পূর্বপরিচিত ফল পুষ্পের বৃক্ষশ্রেণী।

আজ ঠাকুরের শ্রীমুখ-নিঃসৃত সেই বেদধ্বনি ভক্তেরা আবার শুনিতে পাইবেন — যে ধ্বনি আর্যঋষিদের মুখ হইতে বেদাকারে এককালে বহির্গত হইয়াছিল — যে ধ্বনি আর-একবার নবরূপধারী পরমসন্ন্যাসী, ব্রহ্মগতপ্রাণ, জীবের দুঃখে কাতর, ভক্তবৎসল, ভক্তাবতার হরিপ্রেমবিহ্বল, ঈশার মুখে তাঁহার দ্বাদশ শিষ্য সেই নিরক্ষর মৎসজীবিগণ শুনিয়াছিলেন, যে ধ্বনি পুণ্যক্ষেত্রে ভগবান শ্রীকৃষ্ণের মুখ হইতে শ্রীমদ্ভগব্দগীতাকারে এককালে বহির্গত হইয়াছিল — সারথিবিশেশধারী মানবাকার সচ্চিদানন্দগুরু প্রমুখাৎ যে মেঘগম্ভীরধ্বনিমধ্যে বিনয়নম্র ব্যাকুল “গুড়াকেশ কৌন্তেয়” এই কথামৃত পান করিয়াছিলেন যথা -

তস্মাৎ সর্বেষু কালেষু মামনুস্মর যুধ্য চ ।

ময্যর্পিতমনোবুদ্ধির্মামেবৈষ্যস্যসংশয়ঃ ॥৭॥

অভ্যাসযোগযুক্তেন চেতসা নান্যগামিনা ।

পরমং পুরুষং দিব্যং যাতি পার্থানুচিন্তয়ন্ ॥৮॥

কবিং পুরাণমনুশাসিতারম্

অণোরনিয়াংসমনুস্মরেদ্ যঃ ।

সর্বস্য ধাতারমচিন্ত্যরূপম্

আদিত্যবর্ণং তমসঃ পরস্তাৎ ॥৯॥

প্রয়াণকালে মনসাচলেন

ভক্ত্যা যুক্তো যোগবলেন চৈব ।

ভ্রুবোর্মধ্যে প্রাণমাবেশ্য সম্যক্

স তং পরং পুরুষমুপৈতি দিব্যম্ ॥১০॥

যদক্ষরং বেদবিদো বদন্তি

বিশন্তি যদ্ যতয়ো বীতরাগাঃ ।

যদিচ্ছন্তো ব্রহ্মচর্যং চরন্তি

তত্তে পদং সংগ্রহেণ প্রবক্ষ্যে ॥১১॥

{শ্রীমদ্ভভগবদগীতা-আট অধ্যায়-অক্ষরব্রহ্মযোগ} 

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏 गीता के आठवें अध्याय का 'अक्षरब्रह्म योग ' 🔆🙏 

[इस प्रकरण में सगुण-निराकार परमात्मा की उपासना का वर्णन है।] 

आज श्रीरामकृष्ण के श्रीमुख से निकली हुई वही वेदवाणी, वही वेदध्वनि भक्तों को फिर सुनने को मिलेगी - वही ध्वनि जो एक समय आर्य महर्षियों के श्रीमुख से निकली थी; वही ध्वनि जो नररूप-धारी, परम-संन्यासी, ब्रह्मगत-प्राण, जीवों के दुःख से कातर, भक्तवत्सल, भक्तावतार, भगवत्-प्रेमविह्वल ईसा के श्रीमुख से उनके द्वादश निरक्षर शिष्यों - उन मत्स्य-जीवियों - ने सुनी थी।  

आज श्रीरामकृष्ण के श्रीमुख से निकली हुई वही वेदवाणी, वही वेदध्वनि  भक्तों को फिर सुनने को मिलेगी ....  जो पुण्यक्षेत्र कुरुक्षेत्र में सारथि-वेषधारी मानवाकार सच्चिदानन्द-गुरु भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमुख से श्रीमद्भगवद्गीता के (जो उन्होंने गीता के आठवें अध्याय-के 7 से 11 वें श्लोक में कही थीं।) रूप में एक समय निकली थी; एवं मेघगम्भीर ध्वनि में विनयनम्र व्याकुल 'गुड़ाकेश' कौन्तेय ने श्रवणों के द्वारा इस कथामृत का पान किया था

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।। (गीता -8.7)

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।। (गीता- 8.8)

“कवि पुराणमनुशासितारम्

अणोरणीयांसमनुस्मरेत् द्यः ।

सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-

मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ॥

 (गीता -8.9)  

प्रयाणकाले मनसाऽचलेन

भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।

ध्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्

स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥ 

(गीता -8. 10)  

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति

विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति

तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥” 

(गीता -8.11)    

 यहाँ एक ऐसी साधना बतायी गयी है जो भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से लागू होती है। बहुत ही कम अवसरों पर व्यक्ति का मन पूर्णतया उसी स्थान पर होता है जहाँ वह काम कर रहा होता है। सामान्यतः मन का एक बड़ा भाग मृत्यु -भय के भयंकर जंगलों में या ईर्ष्या की गुफाओं में या फिर असफलता की काल्पनिक सम्भावनाओं के रेगिस्तान में सदैव भटकता रहता है। 

सनातन धर्म (हिन्दु धर्म) में धर्म और जीवन परस्पर विलग नहीं हैं। एक दूसरे से विलग होने से दोनों ही नष्ट हो जायेंगे। जीवन में आने वाली परीक्षा का घड़ियों में भी एक सच्चे साधक को चाहिए कि वह अपने मन के निरन्तर शुद्ध आत्मस्वरूप तथा विश्व के अधिष्ठान ब्रह्म (अवतार वरिष्ठ) में एकत्व भाव से स्थिर रखना सीखे। न तो यह कठिन है और न ही अनभ्यसनीय। 

रंगमंच पर राजा की भूमिका करते हुये एक अभिनेता को कभी यह विस्मृत नहीं होता कि घर में उसकी एक पत्नी और पुत्र भी है। यदि अपनी यह पहचान भूलकर रंगमंच के बाहर भी वह राजा के समान व्यवहार करने लगे तो तत्काल ही उसे समाज के हित में किसी पागलखाने में भर्ती करा दिया जायेगा। परन्तु वह अपने वास्तविक व्यक्तित्व को जानता है इसलिए वह कुशल अभिनेता होता है। [उसी प्रकार "3-H विकास के 5 नियमित अभ्यास " के द्वारा आत्मभाव (Heart) में स्थित पुरुष के मन (Head) में सबके प्रति करुणा और प्रेम तथा शारीरिक कर्मों  (Hand) में निःस्वार्थ भाव होता है।] गृहस्थी का कामकाज करते हुए स्वधर्म-पालन के साथ -साथ ईश्वर (अवतार वरिष्ठ) का स्मरण करते रहना गीता का उपदेश है।

श्री रामकृष्ण ने कहा है - " एक हाथ से ईश्वर के चरण-कमल पकड़े रहो और दूसरे हाथ से गृहस्थी का काम करते रहो। काम-काज समाप्त होने पर दोनों हाथों से भगवान का चरण-कमल पकड़ोगे। " अर्थात भगवान को लेकर ही गृहस्थी में रहना होगा , उन्हें छोड़कर नहीं। जितने दिनों तक सांसारिक दायित्व है उतने दिनों तक मन का एक अंश ईश्वर (आत्मा ) में और दूसरा अंश संसार के कामों में लगाना होगा। गृहस्थी के दायित्व से पूर्णतया मुक्त होने पर दोनों हाथों से भगवान के चरणों को पकड़े रहने का मौका मिलेगा। अर्थात उस समय समूचे मन को उन्हीं की चिंता में लगाना होगा। तभी यह संसार आनन्द -कानन में परिणत होगा। गीता का उपदेश यह है कि भगवान का स्मरण ,मनन और स्वधर्मपालन साथ -साथ चलाते रहना होगा। भगवान् यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि जो पुरुष केवल धर्म प्रतिपादित फल के लिए युद्ध का जीवन जीते हुए भी मेरा स्मरण करता है उसका मन और बुद्धि मुझमें ही समाहित हो जाती है।  

[अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्था अनुचिन्तयन् ॥----हे पृथानन्दन ! अभ्यास-योग से युक्त और अन्य का चिन्तन न करने वाले चित्त से परम दिव्य पुरुष (अवतार वरिष्ठ-श्रीरामकृष्ण) का चिन्तन करता हुआ (शरीर छोड़ने वाला मनुष्य) उसी को प्राप्त हो जाता है।  यहाँ प्रयुक्त अनुचिन्तयन् शब्द साभिप्राय है। ध्येय-विषयक सजातीय वृत्ति प्रवाह को चिन्तन या ध्यान कहते हैं। अनु उपसर्ग का अर्थ है निरन्तर। अत यहाँ दिव्य पुरुष (अवतार वरिष्ठ) का निरन्तर चिन्तन करने का उपदेश दिया गया है। भगवान श्री कृष्ण ने इस श्लोक में यह स्पष्ट किया है कि मनुष्य का अन्त समय बहुत विकट होता है ; और धीर गंभीर व्यक्ति के लिए भी वैसे समय में मन को स्थिर करना दुर्लभ होता है।  जैसे सभी अन्य कार्य अभ्यास से सिद्ध होते हैं, वैसे ईश्वर के प्रति स्थिर भक्ति भी अभ्यास -योग से सिद्ध होती है।

 जो व्यक्ति इस परिवर्तनशील जगत् में  स्वयं को  यहाँ का स्थायी निवासी न समझकर एक अस्थायी पर्यटक के रूप में मनुष्य बनो और बनाओ पद्धति [स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण पद्धति (Be and Make पद्धति~ '3H' विकास के 5 अभ्यास की पद्धति)] के अनुसार जीवन यापन करता है; और नित्यनिरन्तर आत्मचिन्तन (विवेक-दर्शन) का अभ्यास करता है; उसका चित्त निश्चय ही परम् पुरुष (अवतार-वरिष्ठ) के ध्यान में एकाग्र हो जाता है।

यहाँ परम पुरुष को  प्राप्त होने का तात्पर्य मृत्यु के पश्चात् ही नहीं समझना चाहिए। यहाँ मृत्यु से तात्पर्य व्यष्टि अहं (अहंकार) के नाश से है; जिसका उपाय है मनःसंयोग का अभ्यास (प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास)। इस श्लोक का प्रयोजन यह दर्शाना है कि परिच्छिन्न अहंकार के लुप्त होने (अर्थात व्यष्टि अहं का माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपांतरित हो जाने के बाद)  पर कोई भी साधक 'भ्रम मुक्त पुरुष' (de-hypnotized व्यक्ति) के रूप में इसी जीवन में सदा स्व-स्वरूप में स्थित रहकर जी सकता है।  

कविम्  पुराणम् अनुशासितारम् अणोः अणीयांसम्  अनुस्मरेत्  यः सर्वस्य धातारम् अचिन्त्यरूपम्  आदित्यवर्णम् तमसः परस्तात्। 

--'कविम्'--  आत्मा (Heart) एक, अनन्त और सर्वव्यापी होने के कारण वही सारे शरीरों (Hand) तथा वृत्तियों (Head) को सचेतनता प्रदान  करती है। जैसे पृथ्वी पर स्थित सभी वस्तुओं का प्रकाशक होने से सूर्य को सर्व-साक्षी कहा जाता है, वैसे ही इस आत्मा (Heart) को कवि अर्थात् सर्वज्ञ कहा जाता है, क्योंकि इसके बिना कोई भी ज्ञान संभव नहीं है। 

 'पुराणम्'-सृष्टि के आदि मध्य और अन्त में समान रूप से विद्यमान होने के कारण आत्मा को ही 'पुराण' कहा गया है। यह शब्द दर्शाता है कि यही एक अविकारी सर्वव्यापी आत्मा (Heart)  काल की कल्पना का भी अधिष्ठान है।

 'अनुशासितारम्'-(सब का शासक) इस विशेषण के द्वारा हम यह न समझें कि 'आत्मा ' (Heart) कोई सुल्तान है जो क्रूरता से इस संसार पर शासन कर रहा है। यहाँ शासक से अभिप्राय इतना ही है कि चैतन्य तत्त्व की उपस्थिति के बिना हमारा शरीर (Hand) और मन (Head) की उपाधियाँ कार्य नहीं कर सकतीं। जैसे मिट्टी के बिना घट, स्वर्ण के बिना आभूषण और समुद्र के बिना तरंगे नहीं हो सकती और इसीलिए मिट्टी स्वर्ण और समुद्र अपने-अपने कार्यों (विकारों) के अनुशासिता कहे जा सकते हैं। इसी अर्थ में यहाँ आत्मा को अनुशासिता समझना चाहिए। जैसे कार्य करते हैं हाथों (Hand) से या हम देखते तो हैं नेत्रों से , लेकिन हाथों और नेत्रों के (body) ऊपर मन (Head) शासन करता है।  मन के ऊपर बुद्धि और बुद्धि के ऊपर 'अहम्' शासन करता है तथा 'अहम्' के ऊपर भी जो शासन करता है, जो सब का आश्रय, प्रकाशक और प्रेरक है, वह आत्मा (Heart) ही 'अनुशासिता' है।

'अणोरणीयांसम्'-- अणु से भी सूक्ष्मतर किसी तत्त्व का परिमाण में वह अत्यन्त सूक्ष्म अविभाज्य कण जिसमें उस तत्त्व की विशेषताएं विद्यमान होती हैं परमाणु कहलाता है। जल बर्फ से सूक्ष्मतर है और वाष्प जल से अधिक सूक्ष्म है। वस्तुओं की व्यापकता ही उनकी सूक्ष्मता का तुलनात्मक अध्ययन करने का मापदण्ड है। आत्मा (Heart) अणु से भी सूक्ष्मतर है। जितनी ही सूक्ष्मतर वस्तु होगी उसकी व्यापकता उतनी ही अधिक होगी। 'ब्रह्म-विद्या' में आत्मा को सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर अर्थात् सूक्ष्मतम कहा है जिसका अभिप्राय है आत्मा सर्व-व्यापक है परन्तु उसे कोई व्याप्त नहीं कर सकता। वे परमात्मा (ईश्वर -ठाकुरदेव) सूक्ष्म से भी अत्यन्त सूक्ष्म हैं अर्थात् सूक्ष्मता की अन्तिम सीमा हैं। 

'सर्वस्य धातारम्' -- अर्थात आत्मा (Heart) सबका अर्थात शरीर (Hand) और मन (Head) का धारण पोषण करने वाला है। इसका अर्थ है कि (3rd 'H') ही मनुष्य के अन्य दो अवयव (Hand) और (Head) का आधार है। जैसे सिनेमा हॉल में जो स्थिर अपरिवर्तशील श्वेत पर्दा  होता है, उसे चलचित्र का धाता कहा जा सकता है। क्योंकि उसके बिना निरन्तर परिवर्तित हो रही चित्रों की धारा हमें एक सम्पूर्ण कहानी का बोध नहीं करा सकती। चित्र की पूर्णता एवं सुन्दरता के लिए वह पटल धाता अर्थात् पोषक है। इसी प्रकार यदि चैतन्य तत्त्व हमारे आन्तरिक और बाह्य जगत् को निरन्तर प्रकाशित न करता होता तो हमें एक अखण्ड जीवन का अनुभव ही नहीं हो सकता था। परमात्मा अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों को धारण करने वाले हैं, उनका पोषण करने वाले हैं। उन सभी को परमात्मा से ही सत्ता-स्फूर्ति मिलती है। अतः वे परमात्मा सब का धारण-पोषण करने वाले कहे जाते हैं।

'अचिन्त्यरूपम्'--अनन्त-असीम -शाश्वत आत्मा (Heart) को ससीम-नश्वर इन्द्रियों (Hand) मन और बुद्धि (Head) के द्वारा नहीं जाना जा सकता। भगवान कहते हैं कि आत्मा अचिन्त्य रूप है उसका चिन्तन नहीं किया जा सकता। यद्यपि यह सत्य है कि आत्मा (Heart) का स्वयं से भिन्न किसी विषय के रूप में चिन्तन अथवा ज्ञान संभव नहीं है; परन्तु मन-बुद्धि आदि उपाधियों के परे जाने से अर्थात् उनसे तादात्म्य न  होने पर आत्मा (Heart) का स्वयं के स्वरूप में साक्षात् अनुभव होता है न कि स्वयं से भिन्न किसी विषय के रूप में। स्वप्नद्रष्टा ने जिस स्वाप्निक अस्त्र से स्वप्न में अपने शत्रु की हत्या की थी, वह अस्त्र उसे जाग्रत अवस्था में आने पर उपलब्ध नहीं होता। यहाँ तक कि उसके रक्त रंजित हाथ भी स्वतः ही बिना पानी या साबुन के स्वच्छ हो जाते हैं।  जब तक मनुष्य अनात्म उपाधियों को अपना श्वरूप समझकर स्व-कल्पित राग-द्वेष युक्त बाह्य जगत् में रहता है;  तब तक उसके लिए यह आत्मतत्त्व अचिन्त्य और अज्ञेय रहता है। परन्तु जिस क्षण आत्मज्ञान के फलस्वरूप वह उपाधियों से परे चला जाता है उस क्षण वह अपने शुद्ध पारमार्थिक स्वरूप के प्रति जागरूक हो जाता है। लेकिन साधक के रूप में साधना की प्रारम्भिक अवस्था में हमारा तादात्म्य शरीरादि उपाधियों के साथ दृढ़ होता है। उसी प्रकार ज्ञान प्राप्त करने के साधन भी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि (2H) ही होते हैं; जिसके द्वारा हम आत्मतत्त्व (3rd-H)   को भी समझने का प्रयत्न करते हैं।  क्योंकि इन्हीं के द्वारा ही हम अपने अन्य अनुभवों को भी प्राप्त करते हैं। अत स्वाभाविक है कि गुरु के इस उपदेश से कि - "अचिन्त्य का चिन्तन करो" या 'अप्रमेय को जानो ' - शिष्य भ्रमित हो जाता है।  आत्मा (Heart) को 'अचिन्त्य' अथवा 'अप्रमेय' केवल यह दर्शाने के लिए कहा जाता है कि हमारे पास उपलब्ध प्रमाणों के द्वारा किसी विषय के रूप में आत्मा (Heart) का ज्ञान नहीं हो सकता। उन परमात्मा (माँ काली -अवतार वरिष्ठ) का स्वरूप अचिन्त्य है अर्थात् वे मन-बुद्धि आदि के चिन्तन का विषय नहीं हैं। 'अनुस्मरेत्' कहने का तात्पर्य है कि प्राणि-मात्र उन परमात्मा की जानकारी में हैं; उनकी जानकारी के बाहर कुछ है ही नहीं; अर्थात् उन परमात्मा (ठाकुर-माँ -स्वामीजी ) को सबका स्मरण है, अब उस स्मरण के बाद मनुष्य उन परमात्मा (अवतार वरिष्ठ) को याद कर ले। जो सर्वज्ञ, पुराण, शासन करने वाला, सूक्ष्म-से-सूक्ष्म, सब का धारण-पोषण करने वाला, अज्ञान से अत्यन्त परे, सूर्य की तरह प्रकाश स्वरूप -- ऐसे अचिन्त्य स्वरूप का चिन्तन करता है। वह उसी  परम पुरुष को प्राप्त होता है। यहाँ शङ्का होती है कि जो अचिन्त्य है, उसका स्मरण कैसे करें? इसका समाधान है कि 'वह परमात्मतत्त्व (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) चिन्तनमें नहीं आता'--ऐसी दृढ़ धारणा ही अचिन्त्य परमात्मा का चिन्तन है

 'आदित्यवर्णम्'--वेदान्त के इस मूलभूत सिद्धांत को ग्रहण कर लेने पर यहाँ दिये गये सूर्य के अनुपम दृष्टान्त की सुन्दरता समझना सरल हो जाता है। सूर्य को देखने के लिए किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि सूर्य स्वयं ही प्रकाशस्वरूप है प्रकाश का स्रोत है। वह सब वस्तुओं का प्रकाशक होने से उसका प्रकाश स्वयंसिद्ध है। भौतिक जगत् में जैसे यह सत्य है वैसे ही आध्यात्मिक क्षेत्र में स्वयं चैतन्य स्वरूप आत्मा (Heart) को जानने के लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। 

स्वप्न पुरुष कभी जाग्रत पुरुष को नहीं जान सकता क्योंकि जाग्रत अवस्था में आने पर स्वप्नद्रष्टा लुप्त होकर स्वयं जाग्रत् पुरुष बन जाता है। स्वप्न से जागने का अर्थ है जाग्रत् पुरुष को जानना और जानने का अर्थ है स्वयं वह बन जाना। ठीक इसी प्रकार आत्म-साक्षात्कार के क्षण जीव (व्यष्टि अहं-या देहाध्यास) नष्ट हो जाता है। वह यह पहचान लेता है कि वास्तव में सदा सब काल में वह चैतन्यस्वरूप आत्मा ही था जीव नहीं। उन परमात्मा (अक्षरब्रह्म-Heart)  का वर्ण सूर्य के समान है अर्थात् वे सूर्य के समान  मन-बुद्धि-अहं आदि को प्रकाशित करने वाले हैं। उन्हीं के प्रकाश से  -मन,बुद्धि,चित्त और अहंकार आदि जड़ होकर भी चेतन जैसे प्रतीत होते हैं। आदित्यवर्ण इस शब्द में इतना अधिक अर्थ निगूढ़ है। 

 पूर्व के श्लोकों में (गीता 8 .8 में ) यह भी संकेत किया गया था कि वर्तमान जीवन में ही अहंकार का नाश और जीवन -मुक्ति (भेंड़त्व के भ्रम से मुक्त जो जाना- या dehypnotized हो जाना) संभव है। अविद्याजनित विपरीत धारणाओं तथा तज्जनित काम-क्रोध -लोभ -मद -मोह-मात्सर्य आदि षड्रिपुओं का समूल नाश तभी संभव हो सकता है, जब साधक प्रत्याहार और धारणा  के अभ्यास (विवेकदर्शन या मनःसंयोग का अभ्यास) द्वारा देहादि जड़ उपाधियों के साथ अपने मिथ्या तादात्म्य का सर्वथा परित्याग कर दे। जैसे किसी डॉक्टर के परामर्श के अनुसार मैं 'Oxygenation' (the process of treating a patient with oxygen ) नामक प्रक्रिया पर ध्यान नहीं कर सकता क्योंकि यह एक शब्द मात्र है;  वेदान्त को जीवन में जीने की कला सिखाने वाले इस ग्रन्थ में इस कला का और अधिक स्पष्टीकरण देना आवश्यक है। इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण आत्मा को 'तमसः परस्तात्'- (अन्धकार से परे)  अन्धकार से परे अर्थात् अविद्या से परे बताते हैं। आत्मा (Heart)  सदा ही चैतन्य रूप से ज्ञान और अज्ञान दोनों ही वृत्तियों को समान रूप से प्रकाशित करता है अतः  वह अविद्या के परे है। यही अविद्या माया भी कहलाती है। जो साधक पुरुष इस कवि, पुराण, अनुशासिता, सूक्ष्मतम, सर्वाधार, अचिन्त्यरूप स्वयं प्रकाश-स्वरूप अविद्या के परे 'आत्मतत्त्व ' (अवतार वरिष्ठ) का ध्यान करता है वह उस परम पुरुष को प्राप्त होता है। परमात्मा (Heart) अविद्या से अत्यन्त परे हैं, अज्ञान से सर्वथा रहित हैं। उनमें लेशमात्र भी अज्ञान नहीं है, प्रत्युत वे अज्ञान के भी प्रकाशक हैं।'

[प्रयाणकाले  मनसा  अचलेन भक्त्या युक्तः योगबलेन  च एव  भ्रुवोः मध्ये प्राणम्  आवेश्य  सम्यक् सः  तम् परम्  पुरुषम् उपैति  दिव्यम्।

वह (साधक-भक्तियुक्त मनुष्य) अन्त -समय में (14 . 4 . 1992-'ऊँच' बनारस पुलिया पर ऐक्सिडेन्ट के समय ) योगबल से प्राण को भ्रकुटि के मध्य सम्यक् प्रकार स्थापन करके निश्चल मन से भक्ति युक्त होकर उस परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।।

प्रयाणकाले मनसाचलेन/ स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्--यहाँ भक्ति नाम प्रियता का है; क्योंकि उस अविनाशी आत्म -तत्त्व  (Heart-में विराजमान अवतार वरिष्ठ के प्रति आकर्षण या भक्ति ) में प्रियता  होने से ही मन अचल होता है। वह भक्ति अर्थात् प्रियता स्वयं (Heart -आत्मा) से होती है, शरीर (Hand) और मन (Head) आदि से नहीं। अन्तकाल में कवि, पुराण, अनुशासिता आदि विशेषणों से (पीछे के श्लोक में) कहे हुए सगुण-निराकार परमात्मा में भक्तियुक्त मनुष्य का मन स्थिर हो जाना अर्थात् सगुण-निराकार-स्वरूप में आदर पूर्वक दृढ़ हो जाना ही मन का अचल होना है।  मनःसंयोग के अभ्यास द्वारा चित्तवृत्तियों को रोकने का जो अधिकार प्राप्त किया है, उसका नाम 'योगबल' है। उस योगबल के द्वारा दोनों भ्रुवों के मध्यभाग में स्थित जो द्विदल चक्र है, उसमें स्थित सुषुम्णा नाड़ी में प्राणों का,अच्छी तरह से प्रवेश करके वह (शऱीर छोड़कर दसवें द्वार से होकर) दिव्य परम पुरुष को प्राप्त हो जाता है।

इस प्रकरण में सगुण-निराकार परमात्मा की उपासना का वर्णन है। इस उपासना में अभ्यास की आवश्यकता है। मन को उस परमात्मा में लगाने का नाम (प्रत्याहार और धारणा का) अभ्यास है। यह अभ्यास अणिमा, महिमा आदि सिद्धि प्राप्त करनेके लिये नहीं है, प्रत्युत केवल परमात्म-तत्त्व को प्राप्त करने के लिये है। 'विवेकदर्शन का अभ्यास' (मनःसंयोग) करते हुए मन पर ऐसा अधिकार प्राप्त हो जाता है कि मनुष्य अपने मन को जब चाहे और जहाँ लगाना चाहे वहीं लगा सकता है ! जो व्यक्ति अपने मन पर ऐसा अधिकार प्राप्त कर लेता है, वही अन्तकाल में प्राणों को सुषुम्णा नाड़ी में प्रविष्ट कर सकता है। कारण कि जब अभ्यास-काल में भी मन को संसार से हटाकर परमात्मा में लगाने में साधक को कठिनता का, असमर्थता का अनुभव होता है तब अन्तकाल-जैसे कठिन समय में मन को लगाना साधारण आदमी का काम नहीं है। जिसके पास पहले से योग-बल है, वही अन्त-समय में मन को परमात्मा में लगा सकता है और प्राणों का सुषुम्णा नाड़ीमें प्रवेश करा सकता है। साधक पहले यह निश्चय कर ले कि अज्ञान से अत्यन्त परे, सबसे अतीत जो परमात्म-तत्त्व है, वह सब का प्रकाशक, सब का आधार और सब को सत्ता-स्फूर्ति देने वाला निर्विकार तत्त्व है। उस परमात्म -तत्त्व (अवतार-वरिष्ठ) में पहले से ही मन का आकर्षण होना चाहिये, प्रियता होनी चाहिये, तभी अंत समय में भी मन स्वाभाविक रूप से उनमें लगा रहेगा। 'तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्' पदों का तात्पर्य है कि जिस परमात्म -तत्त्व का पीछे के (नवें) श्लोक में वर्णन हुआ है, उसी दिव्य परम सगुण-निराकार परमात्मा (अवतार वरिष्ठ) को वह प्राप्त हो जाता है। आठवें श्लोक में जो बात कही गयी थी, उसी को नवें और दसवें श्लोक में विस्तार से कह कर इन तीन श्लोकों के प्रकरण का उपसंहार किया गया है। ] 

[यत् अक्षरं वेदविदः वदन्ति विशन्ति यत् यतयः वीतरागाः यत् इच्छन्तः ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत् ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥ ११ ॥] 

 वेद के जानने वाले विद्वान (ब्रह्मविद या ब्रह्मवेत्ता) जिसे अक्षर कहते हैं; राग-रहित यत्नशील पुरुष जिसमें प्रवेश करते हैं; जिसकी इच्छा से (साधक गण) ब्रह्मचर्य का पालन (holy living-मन,वचन और शरीर से पवित्र रहने का आचरण ) करते हैं - उस पद (लक्ष्य) को मैं तुम्हें संक्षेप में कहूँगा। 

भगवान् श्रीकृष्ण विशेष बल देकर कहते हैं कि जो वीतराग यति हैं वे ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए इसी अक्षर ब्रह्म में प्रवेश करते हैं। यह वैराग्य अरचनात्मक संन्यास नहीं वरन् विवेक- जनित वैराग्य है जो  समस्त प्रगति और विकास का अग्रदूत है।  इन्द्रिय-विषयों में लालच का त्याग संन्यास बुद्धि की स्वाभाविक परिपक्वता का फल है,  मन की प्रवृत्तियों का दमन नहीं। इसलिए वीतरागाः शब्द से उन साधकों को समझना चाहिए जो विषयों की तुच्छता एवं जीवन के परम लक्ष्य की श्रेष्ठता समझकर विषयासक्ति से सर्वथा मुक्त हो गये हैं। यह श्लोक यह इंगित करता है कि वैराग्य और अभ्यास के द्वारा किस प्रकार इस मार्ग पर सुखपूर्वक अग्रसर हुआ जा सकता है। भारत के आध्यात्मिक ज्ञान के अन्तर्गत निःसन्देह  वैराग्य की आवश्यकता पर बल दिया गया है; परन्तु उसका अर्थ उदास और विषादपूर्ण आत्मत्याग अथवा स्वयं को दण्डित करना नहीं है। उपनिषदों के ऋषियों ने सदा सम्यक् विवेक- जनित वैराग्य का ही उपदेश दिया है। 

यह श्लोक एक प्रसिद्ध और स्वामीजी का प्रिय उपनिषद् - 'कठोपनिषद्' के मन्त्र (1.2.15)- का स्मरण कराता है।  " सर्वे वेदाः यत् पदम् आमनन्ति सर्वाणि तपांसि च यत् वदन्ति यत् इच्छन्तः ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत् पदं ते सङ्ग्रहेण ब्रवीमि ॐ इति एतत् '' The seat and goal that all the Vedas glorify and which all austerities declare, for the desire of which men practise holy living, of That will I tell thee in brief compass. OM is that goal, O Nachiketas. जिस (परम) पद का सभी वेद महिमागान करते हैं तथा सभी तपस्याएं जिसके विषय में बताती हैं, जिसकी इच्छा करते हुए मनुष्य ब्रह्मचर्य (holy living) का आचरण करते हैं, 'उसे' मैं तुम्हें संक्षेप से बताता हूँ। हे नचिकेता! वह परम पद है 'ॐ'।

मनःसंयोग (प्रत्याहार -धारणा) के अभ्यास  में पूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिए मन की योग्यता अत्यावश्यक होती है। इस योग्यता के सम्पादन के लिए प्रायः सभी उपनिषदों में प्रणवोपासना (ओंकारोपासना) का अनेक स्थानों पर उपदेश दिया गया है। 1967 में  महामण्डल  के आविर्भाव होने के बाद से इस 'ओंकार -उपासना ' का स्थान श्रद्धाभक्ति-पूर्वक किये जाने वाले ईश्वर के साकार रूप या अवतार-वरिष्ठ (श्रीरामकृष्ण) के ध्यान पूजा आदि ने ले लिया है।

 [फिर से सम्पादित करो - http://vivek-anjan.blogspot.com/2018/07/6.html/मंगलवार, 17 जुलाई 2018/महामण्डल आन्दोलन से 'अद्वैत आश्रम', मायावती, हिमालय, का सम्बन्ध क्या है ?]

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[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏 अच्युत की चर्चा में सर्व तीर्थों का समागम🔆🙏

श्रीरामकृष्ण ने आसन ग्रहण कर समाज की सुरचित वेदी की ओर दृष्टिपात करते ही सिर झुकाकर प्रणाम किया । वेदी पर से ईश्वरी चर्चा होती है, इसलिए श्रीरामकृष्ण उसे साक्षात् पुण्यक्षेत्र देख रहे हैं । जहाँ अच्युत ^* का प्रसंग होता है, वहाँ सर्व तीर्थों का समागम हुआ ऐसा समझते हैं । अदालत की इमारत को देखते ही मुकदमे की याद आती है, जज पर ध्यान जाता है, उसी तरह इस ईश्वरी चर्चा के स्थान को देखकर श्रीरामकृष्ण को ईश्वर का उद्दीपन हो गया है ।

[अच्युत^* अटल, जिसका नाश न हो, जिसने भूल या त्रुटि न की हो, विष्णु और उनके समस्त अवतारों का नाम ]  

श्रीयुत त्रैलोक्य गा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण ने कहा, "क्यों जी, तुम्हारा वह गाना बड़ा सुन्दर है - 'माँ, मुझे पागल कर दे ।' वही गाना जरा गाओ ।" त्रैलोक्य गा रहे हैं –

- आमाय दे माँ पागल करे (ब्रह्ममयी)।  

(भावार्थ) "माँ, मुझे पागल कर दे । अब ज्ञान और विचार की कोई जरूरत नहीं है । तेरे प्रेम की सुरा के पीते ही ऐसा कर दे कि मैं बिलकुल मतवाला हो जाऊँ । भक्त के चित्त को हरण करनेवाली माँ, मुझे प्रेम के सागर में डुबा दे । तेरे इस पागलों की जमघट में कोई तो हँसता है, कोई रोता है और कोई आनन्द से नाचता है ।

प्रेम के आवेश में कितने ही ईसा, मूसा और चैतन्य अचेतन पड़े हुए हैं, इन्हीं में मिलकर माँ, मैं कब धन्य होऊँगा ? स्वर्ग में भी पागलों का जमघट है, जैसे वहाँ गुरु है वैसे ही चेले भी, और इस प्रेम की क्रीड़ा को समझ ही कौन सकता है ? तू भी तो प्रेम से पागल हो रही है, पागल ही नहीं, पागलों से बढ़कर । माँ, कंगाल प्रेमदास को भी तू प्रेम का धनी कर दे ।”

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ আসন গ্রহণ করিয়া সমাজের সুন্দররচিত বেদীর প্রতি দৃষ্টিপাত করিয়াই অমনি নতশির হইয়া প্রণাম করিলেন। বেদী হইতে শ্রীভগবানের কথা হয় — তাই তিনি দেখিতেছেন যে, বেদীক্ষেত্র পুণ্যক্ষেত্র। দেখিতেছেন এখানে অচ্যুতের কথা হয়, তাই সর্বতীর্থের সমাগম হইয়াছে। আদালতগৃহ দেখিলে যেমন মোকদ্দমা মনে পড়ে ও জজ মনে পড়ে, সেইরূপ এই হরিকথার স্থান দেখিয়া তাঁহার ভগবানের উদ্দীপন হইয়াছে। শ্রীযুক্ত ত্রৈলোক্য গান গাহিতেছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ কহিলেন, হ্যাঁগা, ওই গানটি তোমার বেশ “দে মা পাগল করে”, ওইটি গাও না। তিনি গাহিতেছেন:আমায় দে মা পাগল করে (ব্রহ্মময়ী)।

[Trailokya was entertaining the devotees with his melodious music. MASTER (to Trailokya): "That song of yours, 'O Mother, make me mad with Thy love', I enjoy very much. Won't you sing it?"

Trailokya sang: O Mother, make me mad with Thy love !What need have I of knowledge or reason? Make me drunk with Thy love's Wine; O Thou who stealest Thy bhaktas' hearts, Drown me deep in the Sea of Thy love! Here in this world, this madhouse of Thine, Some laugh, some weep, some dance for joy: Jesus, Buddha, Moses, Gauranga, All are drunk with the Wine of Thy love. O Mother, when shall I be blessed By joining their blissful company?

 [ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏श्रीरामकृष्ण की समाधि और महाभारत के बाद श्रीकृष्ण की अन्तिम समाधि  🔆🙏 

गाना सुनते ही श्रीरामकृष्ण का भाव परिवर्तित हो गया - बिलकुल समाधि-लीन हो गये । कर्मेन्द्रिय, ज्ञानेन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार सब मानो मिट गये हैं । चित्रस्थ मूर्ति की तरह देह दृष्टिगोचर हो रही है । एक दिन भगवान श्रीकृष्ण की यह अवस्था देखकर युधिष्ठिर आदि पाण्डव रोये थे । ^*

आर्यकुलगौरव भीष्मदेव शर-शय्या पर पड़े हुए अपना अन्तिम समय जान ईश्वर के ध्यान में मग्न थे। उस समय कुरुक्षेत्र की लड़ाई समाप्त हो हुई थी । अतएव वे रोने के ही दिन थे । श्रीकृष्ण की उस समाधि-अवस्था को न समझकर पाण्डव रोये थे, सोचा था, उन्होंने देह छोड़ दी ।

[গান শুনিতে শুনিতে শ্রীরামকৃষ্ণের ভাবান্তর হইল। একেবারে সমাধিস্থ — ‘উপেক্ষিয়া মহত্তত্ত্ব, ত্যজি চতুর্বিংশ তত্ত্ব, সর্বতত্ত্বাতীত তত্ত্ব দেখি আপনি আপনে।’ কর্মেন্দ্রিয়, জ্ঞানেন্দ্রিয়, মন, বুদ্ধি অহংকার সমস্তই যেন পুঁছিয়া গিয়াছে। দেহমাত্র চিত্রপুত্তলিকার ন্যায় বিদ্যমান। একদিন ভগবান পাণ্ডবনাথের এইরূপ অবস্থা দেখিয়া যুধিষ্ঠির প্রমুখ শ্রীকৃষ্ণগতান্তরাত্মা পাণ্ডবগণ কাঁদিয়াছিলেন। তখন আর্যকুলগৌরব ভীষ্মদেব শরশয্যায় শায়িত থাকিয়া অন্তিমকালে ভগবানের ধ্যাননিরত ছিলেন। তখন কুরুক্ষেত্রের যুদ্ধ সবে সমাপ্ত হইয়াছে। সহজেই কাঁদিবার দিন। শ্রীকৃষ্ণের এই সমাধিপ্রাপ্ত অবস্থা বুঝিতে না পারিয়া পাণ্ডবেরা কাঁদিয়াছিলেন; ভাবিয়াছিলেন, তিনি বুঝি দেহত্যাগ করিলেন

[युधिष्ठिर आदि पाण्डव रोये थे । ^* महाभारत के युद्ध में सौ पुत्रों के शोक से दुखी गांधारी ने क्रोध में आकर श्रीकृष्ण को श्राप दिया था।  गांधारी का मानना था कि यदि श्रीकृष्ण चाहते तो ये युद्ध टाला जा सकता था। उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा “अगर युद्ध का परिणाम पता था तो तुम इसे टाल भी सकते थे, क्यों इतने लोगों की हत्या होने दी? मैंने आपसे कई बार अनुरोध किया कि इस विनाश को होने से रोक लो लेकिन आपने एक नहीं सुनी।  अपनी माता देवकी से पुछो कि पुत्र के खोने का गम क्या होता है”? गांधारी की बाते सुनकर भगवान श्रीकृष्ण मुसकुरा रहे थे।  श्रीकृष्ण का यह रूप देख गांधारी हैरान थी तथा उनका गुस्सा और बढ़ गया।  उन्होंने कहा “अगर मैंने भगवान विष्णु की सच्चे मन से पुजा की है तथा निस्वार्थ भाव से अपने पति की सेवा की है, तो जैसा मेरा कुल समाप्त हो गया, ऐसे ही तुम्हारा वंश तुम्हारे ही सामने समाप्त होगा, और तुम देखते रह जाओगे।  द्वारका नगरी तुम्हारे सामने समुद्र में डूब जाएगी और यादव वंश का पूरा नाश हो जाएगा” भगवान श्रीकृष्ण को शाप देने के बाद माता गांधारी की आंखे बंद हो गई और क्रोध की अग्नि भी शांत हो गई।  वह भगवान श्रीकृष्ण के कदमों में जा गिरी।  श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए गांधारी को उठाया और कहा “माता , मुझे आपसे इसी आशीर्वाद की प्रतीक्षा थी, मैं आपके शाप को ग्रहण करता हूं। ” हस्तिनापुर में युधिष्ठिर का राज्याभिषेक होने के बाद भगवान श्रीकृष्ण द्वारका आकर रहने लगे।  लेकिन गांधारी के श्राप के कारण वहां अपशकुन होने लगे। फिर इसके बाद द्वारका का क्या हुआ आइए जानते हैं।

द्वारका में मदिरा का सेवन करना प्रतिबंधित था लेकिन महाभारत युद्ध के 36 साल बाद द्वारका के लोग इसका सेवन करने लगे।  लोग संघर्षपूर्ण जीवन जीने की बजाए धीरे-धीरे विलासितापूर्ण जीवन का आनंद लेने लगे।  गांधारी और ऋषियों के शाप का असर यादवों पर इस कदर हुआ कि उन्होंने भोग-विलास के आगे अपने अच्छे आचरण, नैतिकता, अनुशासन तथा विनम्रता को त्याग दिया। 

 विश्‍वामित्र, असित, ऋषि दुर्वासा, कश्‍यप, वशिष्‍ठ और नारद आदि बड़े-बड़े ऋषि विभिन्न जगहों की यात्रा करने के बाद भगवान श्रीकृष्ण और उनके बड़े भाई बलराम से मिलने के लिए द्वारका पहुंचे।  वहां श्रीकृष्ण के भक्त इन ऋषि मुनियों का आदर सत्कार करना तो दूर उन्हें अपमानित करने लगे। एक बार श्रीकृष्ण और जाम्‍बवती नंदन साम्‍ब को स्‍त्री वेश में सजाकर इन ऋषि मुनियों के पास ले जाया गया और उनसे पूछा गया- “ऋषियों, यह कजरारे नैनों वाली बभ्रु की पत्‍नी है और गर्भवती है।  यह कुछ पूछना चाहती है लेकिन सकुचाती है।  इसका प्रसव समय निकट है, आप सर्वज्ञ हैं. बताइए, यह कन्‍या जनेगी या पुत्र ?

 ऋषियों से मजाक करने पर दुर्वासा जी को  क्रोध आ गया और वे बोले, “श्रीकृष्‍ण का पुत्र साम्‍ब वृष्णि और अर्धकवंशी पुरुषों का नाश करने के लिए लोहे का एक विशाल मूसल उत्‍पन्‍न करेगा।  केवल बलराम और श्रीकृष्‍ण पर उसका वश नहीं चलेगा।  बलरामजी स्‍वयं ही अपने शरीर का परित्‍याग करके समुद्र में प्रवेश कर जाएंगे और श्रीकृष्‍ण जब भूमि पर शयन कर रहे होंगे, उस दौरान जीरू नामक व्याध उन्‍हें अपने बाणों से बींध देगा। ”

.... बलराम के देह त्यागने के बाद श्रीकृष्ण उदास होकर वन में विचरण करने लगे।   घूमते-घूमते वे एक स्थान पर बैठ गए और गांधारी द्वारा दिए गए श्राप के बारे में विचार करने लगे।   इसके बाद  गांधारी के श्राप को सत्य साबित करने के लिए ; श्रीकृष्ण ने देह त्यागने की इच्छा से  अपनी इंद्रियों को संयमित किया (मन को एकाग्र किया) और 'महायोग यानि समाधि' की अवस्था में खाली भूमि पर आंख बंद कर लेट गए। जिस समय श्रीकृष्ण समाधि में लीन थे उसी समय जीरू नाम का एक शिकारी हिरणों का शिकार करता वहां आ गया।  उसे कुछ चीज चमकती हुई दिखाई दी।  उसने इस हिरण की आंख समझी और तीर चला दिया।  तीर चलाने के बाद जब वह अपना शिकार पकड़ने के लिए आगे बढ़ा तो समाधि में लीन श्रीकृष्ण को देख कर उसे बहुत दुख हुआ और क्षमा याचना करने लगा। शिकारी को दुखी देख श्रीकृष्ण ने समझाया और देह का त्याग कर अपने परमधाम की तरफ चल पड़े। जहां पर इंद्र, अश्विनीकुमार, रुद्र, आदित्य, वसु, मुनि आदि सभी ने भगवान श्रीकृष्ण का भव्य स्वागत किया। 

उधर श्रीकृष्ण के सारथी दारुक ने अर्जुन को द्वारका की पूरी घटना बताई।  जिसे सुनकर अर्जुन को बहुत ही कष्ठ हुआ।  अर्जुन द्वारका पहुंचे तो और भी दुखी हुए। श्रीकृष्ण की रानियां उन्हें देखकर रोने लगी।  उन्हें रोता देखकर अर्जुन भी रोने लगे और श्रीकृष्ण को याद करने लगे।  इसके बाद अर्जुन वसुदेवजी से मिले।  वे भी रोने लगे। तब वसुदेवजी ने अर्जुन को श्रीकृष्ण का संदेश सुनाया और बताया कि द्वारका बहुत जल्द समुद्र में डूबने वाली है अत: तुम सभी नगरवासियों को अपने साथ ले जाओ।  सातवे दिन अर्जुन श्रीकृष्ण के परिजनों तथा सभी नगरवासियों को साथ लेकर इंद्रप्रस्थ की तरफ चल दिए।  उन सभी के जाते ही ,गांधारी के श्राप के कारण महाभारत के 36 वर्ष बाद ही  द्वारका नगरी समुद्र में डूब गई। इस तरह गांधारी तथा ऋषियों के शाप से समस्त यदुवंश का नाश हो गया और कृष्ण के देहांत के बाद द्वापर का अंत और कलियुग का आरंभ हुआ। ]

(२)

हरिकथा-प्रसंग : ब्राह्मसमाज में निराकारवाद

[(19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]  

🔆माँ, मुझे कारणानन्द (दिव्य मद्यपान का नशानहीं चाहिए, मै सिद्धि पीऊँगा ! 🔆

[“I will drink / eat Siddhi” - Gita and Ashtasiddhi - 

What is the meaning of God-realization ? ]

[“আমি সিদ্ধি খাব” — গীতা ও অষ্টসিদ্ধি — ঈশ্বরলাভ কি? ] 

कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण की कुछ प्राकृत अवस्था हो गयी । उसी अवस्था में आप भक्तों को उपदेश देने लगे । उस समय भी ईश्वरी भाव का आप पर ऐसा आवेश था कि उनकी बातचीत से जान पड़ता था, कोई मतवाला बोल रहा है । धीरे धीरे भाव घटता जा रहा है ।

श्रीरामकृष्ण - (भावस्थ) - माँ, मुझे कारणानन्द (दिव्य मद्यपान का नशानहीं चाहिए, मै सिद्धि पीऊँगा ! 

[শ্রীরামকৃষ্ণ (ভাবস্থ) — মা, কারণানন্দ চাই না। সিদ্ধি খাব।

His mind was still charged with the divine experience. His words were spoken as if in a state of intoxication. Gradually he became again fully conscious of the world. 

MASTER: "O Mother! I don't want the bliss of divine inebriation . I shall drink siddhi.

[কিয়ৎক্ষণ বিলম্বে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ কিঞ্চিৎ প্রকৃতিস্থ হইয়া ভাবাবস্থায় ব্রাহ্মভক্তদের উপদেশ দিতেছেন। এই ঈশ্বরীয় ভাব খুব ঘণীভূত; যেন বক্তা মাতাল হইয়া কি বলিতেছেন। ভাব ক্রমে ক্রমে কমিয়া আসিতেছে, অবশেষে পূর্বের ঠিক সহজাবস্থা।

As he listened to the song, the Master's mind underwent a transformation, and presently he went into deep samadhi. Coming down a little to the plane of the sense world, he gave instruction to the devotees. 

(भक्तों के प्रति) "सिद्धि अर्थात् वस्तु (ईश्वर) की प्राप्ति । वह अष्टसिद्धियों (अणिमा लघिमा आदि) की सिद्धि नहीं, उसके लिए तो श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है - 'भाई, अगर कहीं किसी के पास अष्ट-सिद्धियों में से एक भी सिद्धि है, तो समझना कि वह मनुष्य मुझे नहीं पा सकता, क्योंकि सिद्धि के रहने पर अहंकार भी रहेगा और अहंकार के लेशमात्र रहते कोई ईश्वर को पा नहीं सकता

[“সিদ্ধি কিনা বস্তুলাভ। ‘অষ্টসিদ্ধি’র সিদ্ধি নয়। সে (অণিমা লঘিমাদি) সিদ্ধির কথা কৃষ্ণ অর্জুনকে বলেছিলেন, ‘ভাই, দেখ যদি দেখ যে, অষ্টসিদ্ধির একটি সিদ্ধি কারও আছে, তাহলে জেনো যে, সে ব্যক্তি আমাকে পাবে না। কেননা, সিদ্ধি থাকলেই অহংকার থাকবে, আর অহংকারের লেশ থাকলে ভগবানকে পাওয়া যায় না।

(To the devotees) "By 'siddhi' I mean the attainment of the spiritual goal and not one of the eight occult powers. About the occult powers, Sri Krishna said to Arjuna, 'Friend, if you find anyone who has acquired even one of the eight powers, then know for certain he will not realize Me.' For powers surely beget pride, and God cannot be realized if there is the slightest trace of pride.

"एक प्रकार के मत के अनुसार चार प्रकार के भक्त होते हैं - प्रवर्तक, साधक, सिद्ध, सिद्ध का सिद्ध । जिसने ईश्वर की आराधना में अभी अभी मन लगाया है (He who has just begun religious life is a pravartaka.), वह प्रवर्तकों में हैं; प्रवर्तक तिलक लगाते हैं, माला पहनते हैं, बाहर बड़ा आचार रखते हैं ।

   साधक और आगे बढ़ा हुआ है, उसका दिखलावा बहुत कुछ घट गया है । उसे ईश्वर की प्राप्ति के लिए व्याकुलता होती है । वह आन्तरिक भाव से ईश्वर को पुकारता है, उनका नाम लेता है और भीतर से सरल भाव से प्रार्थना करता है ।

   सिद्ध वह है, 'जिसने ईश्वर को देखा है, और जिसमें यह पूर्ण-विश्वास है कि ईश्वर हैं तथा वे ही सब कुछ कर हैं' - (जिसे निश्चयात्मिका बुद्धि हो गयी है कि जगत्जननी की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता ! absolute conviction that God exists and is the sole Doer; he who has seen God.)

   'सिद्धों का सिद्ध’ वह- 'जिसने न केवल ईश्वर (जगत्जननी-अवतारवरिष्ठ) को देखा है, बल्कि उसके साथ पिता के भाव से , वात्सल्य भाव से, मित्र -भाव से (friend philosopher and 'guide' ~ 'विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर परम्परा में प्रशिक्षित CINC नवनीदा' -समझकर), या मधुरभाव से ( Beloved-माशूक या महबूब ,मनभावन प्रेयसी या प्रियतम समझकर) उनके साथ आलाप (सेवा ?) भी किया है। 

[“আর-এক আছে প্রবর্তক, সাধক, সিদ্ধ, সিদ্ধের সিদ্ধ। যে ব্যক্তি সবে ঈশ্বরের আরাধনায় প্রবৃত্ত হয়েছে, সে প্রবর্তকের থাক। প্রবর্তক ফোঁটা কাটে, তিলক মালা পরে, বাহিরে খুব আচার করে। সাধক আরও এগিয়ে গেছে; তার লোক-দেখানো ভাব কমে যায়। সাধক ঈশ্বরকে পাবার জন্য ব্যকুল হয়, আন্তরিক তাঁকে ডাকে, তাঁর নাম করে, তাঁকে সরল অন্তঃকরণে প্রার্থনা করে। সিদ্ধ কে? যার নিশ্চয়াত্মিকা বুদ্ধি হয়েছে যে ঈশ্বর আছেন, আর তিনিই সব করছেন; যিনি ঈশ্বরকে দর্শন করেছেন। ‘সিদ্ধের সিদ্ধ’ কে? যিনি তাঁর সঙ্গে আলাপ করেছেন! শুধু দর্শন নয়, কেউ পিতৃভাবে, কেউ বাৎসল্যভাবে, কেউ সখ্যভাবে, কেউ মধুরভাবে — তাঁর সঙ্গে আলাপ করেছেন।"

According to a certain school of thought there are four classes of devotees: the pravartaka, the sadhaka, the siddha, and the siddha of the siddha. He who has just begun religious life is a pravartaka. Such a man puts his denominational marks on his body and forehead, wears a rosary around his neck, and scrupulously follows other outer conventions. The sadhaka has advanced farther. His desire for outer show has become less. He longs for the realization of God and prays to Him sincerely, He repeats the name of God and calls on Him with a guileless heart. Now, whom should we call the siddha? He who has the absolute conviction that God exists and is the sole Doer; he who has seen God. And who is the siddha of the siddha? He who has not merely seen God, but has intimately talked with Him as Father, Son, Friend or Beloved.

 [ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆 ज्ञानी और विज्ञानी 🔆   

"लकड़ी में आग अवश्य है, यह विश्वास रखना एक बात है, पर लकड़ी से आग निकालकर रोटी पकाना, खाना, शान्ति और तृप्ति पाना, एक दूसरी बात है ।

[“কাঠে আগুন নিশ্চিত আছে, এই বিশ্বাস; আর কাঠ থেকে আগুন বার করে ভাত রেঁধে, খেয়ে শান্তি আর তৃপ্তি লাভ করা; দুটি ভিন্ন জিনিস।"

It is one thing to believe beyond a doubt that fire exists in wood, but it is quite another to get the fire from the wood, cook rice with its help, appease one's hunger, and so be satisfied. These are two entirely different things.]

"ईश्वरी अवस्थाओं की इति नहीं की जा सकती । एक से एक बढ़कर अवस्थाएँ हैं ।

[“ঈশ্বরীয় অবস্থার ইতি করা যায় না। তারে বাড়া তারে বাড়া আছে।”

"No one can put a limit to spiritual experience. If you refer to one experience, there is another beyond that, and still another, and so on.

 [ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏सगुण ईश्वर (Dynamic) और निराकार सच्चिदानन्द (Static) दोनों अभिन्न हैं 🔆🙏 

(भावस्थ) “ये ब्रह्मज्ञानी हैं, निराकारवादी हैं, यह अच्छा है ।

[(ভাবস্থ) — “এরা ব্রহ্মজ্ঞানী, নিরাকারবাদী। তা বেশ।

(In an ecstatic mood, referring to the Brahmos) "They are Brahmajnanis. They believe in the formless Deity. That is good.

(ब्राह्मभक्तों से) "एक में दृढ़ रहो, या तो साकार में या निराकार में । तभी ईश्वर प्राप्त (आत्मसाक्षात्कार) होता है, अन्यथा नहीं । दृढ़ होने पर साकारवादी भी ईश्वर को पायेंगे और निराकारवादी भी । मिश्री की डली सीधी तरह से खाओ या टेढ़ी करके, मीठी जरूर लगेगी । (सब हँसते हैं ।)

[(ব্রাহ্মভক্তদের প্রতি) — “একটাতে দৃঢ় হও, হয় সাকারে নয় নিরাকারে। তবে ঈশ্বরলাভ হয়, নচেৎ হয় না। দৃঢ় হলে সাকারবাদীও ঈশ্বরলাভ করবে, নিরাকারবাদীও করবে। মিছরির রুটি সিধে করে খাও, আর আড় করে খাও, মিষ্ট লাগবে। (সকলের হাস্য)

(To the Brahmo devotees) "Be firm in one ideal — either in God with form or in the formless God. Then alone will you realize God; otherwise not. With firm and unwavering belief the followers of God with form will realize Him, as will those who speak of Him as formless. You may eat a cake with icing either straight or sidewise; it will taste sweet either way. (All laugh)

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏भोगासक्त लोगों में ईश्वर को पाने की व्याकुलता नहीं होती 🔆🙏

"परन्तु दृढ़ होना होगा, व्याकुल होकर उन्हें पुकारना होगा । विषयी मनुष्यों के ईश्वर बस उसी तरह हैं, जैसे घर में चाची और दीदी को लड़ते हुए देखकर उनसे 'भगवान कसम’ सुनकर खेलते समय बच्चे भी कहते हैं 'भगवान कसम', और जैसे कोई शौकीन बाबू पान चबाते हुए, हात में छड़ी लेकर बगीचेमें टहलते हुए एक फूल तोड़कर मित्र से कहते हैं - 'ईश्वर ने कैसा ब्यूटिफुल (सुन्दर) फूल बनाया है !’ विषयी मनुष्यों का यह भाव क्षणिक है, जैसे तपे हुए लोहे पर पानी के छींटे ।^*

[तपे हुए लोहे पर पानी के छींटे ।^* पंचेन्द्रियों द्वारा ग्राह्य विषयों आसक्त या सम्मोहित व्यक्ति इन्द्रियातीत सत्य को प्राप्त नहीं कर सकता ! इसीलिए विसम्मोहित नहीं हो सकता। ]   

[“কিন্তু দৃঢ় হতে হবে; ব্যাকুল হয়ে তাঁকে ডাকতে হবে। বিষয়ীর ঈশ্বর কিরূপ জানো? যেমন খুড়ী-জেঠীর কোঁদল শুনে ছেলেরা খেলা করবার সময় পরস্পর বলে, ‘আমার ঈশ্বরের দিব্য।’ আর যেমন কোন ফিটবাবু, পান চিবুতে চিবুতে হাতে স্টিক ধরে বাগানে বেড়াতে বেড়াতে একটি ফুল তুলে বন্ধুকে বলে, — ঈশ্বর কি বিউটিফুল ফুল করেছেন। কিন্তু এই বিষয়ীর ভাব ক্ষণিক, যেন তপ্ত লোহার উপর জলের ছিটে।

"But you must have firm conviction, you must pray to Him whole-heartedly. Do you know what the God of worldly people is like? It is like children's saying to one another while at play, 'I swear by God.' They have learnt the word from the quarrels of their aunts or grandmothers. Or it is like God to a dandy. The dandy, all spick and span, his lips red from chewing betel-leaf, walks in the garden, cane in hand, and, plucking a flower, exclaims to his friend, 'Ah! What a beautiful flower God has made!' But this feeling of a worldly person is momentary. It lasts as long as a drop of water on a red-hot frying-pan.

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏इन्द्रियातीत सत्य को देखने की व्याकुलता ही ईश्वर तक पहुँचा देगी🔆🙏

(ব্যাকুলতা ও ঈশ্বরলাভ — দৃঢ় হও ) 

“एक पर दृढ़ता होनी चाहिए । डूबो - बिना डुबकी लगाये समुद्र के भीतर के रत्न नहीं मिलते । पानी के ऊपर केवल उतराते रहने से रत्न नहीं मिलता ।"

[“একটার উপর দৃঢ় হতে হবে। ডুব দাও। না দিলে সমুদ্রের ভিতর রত্ন পাওয়া যায় না। জলের উপর কেবল বাসলে পাওয়া যায় না।”

"You must be firm in one ideal. Dive deep. Otherwise you cannot get the gems at the bottom of the ocean. You cannot pick up the gems if you only float on the surface."

यह कहकर श्रीरामकृष्ण जिस गाने से केशव आदि भक्तों का मन मोह लेते थे, वही गाना - उसी मधुर कण्ठ से - गाने लगे : 

डूब डूब डूब रूपसागरे आमार मन। 

तलातल पाताल खूजले पाबि रे प्रेम-रत्न धन।।  

गाने का भाव यह है –

"ऐ मेरे मन ! तू रूप के समुद्र में डूब जा ^*, तलातल और पाताल तक तू अगर उसकी खोज करता रहेगा, तो वह प्रेमरत्न तुझे अवश्य ही प्राप्त होगा ।"(भगवान या  निःस्वार्थपरता के नाम-रूप वाले समुद्र में गोता लगा , गहराई से खोज करेगा तो तुझे अवतार वरिष्ठ अवश्य मिल जायेंगे !) सब के हृदय में एक अत्यन्त पवित्र स्वर्गीय आनन्द की धारा बहने लगी।

["ऐ मेरे मन ! तू रूप के समुद्र में डूब जा ^* शरीर के समान आत्मा का जन्म नहीं होता क्योंकि वह तो सर्वदा ही विद्यमान है। तरंगों (नाम-रूप) की उत्पत्ति होती है और उनका नाश होता है परन्तु उनके साथ न तो समुद्र की उत्पत्ति होती है और न ही नाश। जिसका आदि है उसी का अन्त भी होता है। उत्ताल तरंगे ही मृत्यु की अन्तिम श्वांस लेती हैं। सर्वदा विद्यमान आत्मा के जन्म और नाश का प्रश्न ही नहीं उठता। 

                            अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम् ।

आद्यत्रयं  ब्रह्मरूपं   जगद्रूपमं  ततो  द्वयम् ॥

                                                (दृग-दृश्य विवेक या वाक्यसुधा-२०) 

[अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम च इति अंशपञ्चकम्, आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं, जगत रूपं ततः द्वयम्।]

 प्रत्येक सत्ता के पाँच विशिष्ट गुण (characteristics) होते हैं ; ‘अस्ति (existence), भाति (cognizability-संज्ञेयता, उपलब्ध किया हुआ), प्रिय (attractiveness), रूप (form)  तथा नाम (name) ‒ इन पाँचों में प्रथम तीन ब्रह्म के रूप हैं और अन्तिम दो जगत्‌ के ।’

{Every entity has five characteristics, viz., existence, cognizability, attractiveness, form and name Of these, the first three belong to Brahman and the next two to the world. (20)}

 ‒ इस श्लोक में आया ‘अस्ति' पद परमात्मा के स्वतःसिद्ध (अविकारी) स्वरूप का वाचक है-'अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे।। (गीता -2.20) यह शरीरी (इन्द्रियातीत आत्मा) न कभी जन्मता है और न मरता है, तथा यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला नहीं है। यह जन्मरहित, नित्य-निरन्तर रहने वाला, शाश्वत और पुराण (अनादि) है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता। अतः यहाँ कहा है कि आत्मा अज और नित्य है।  और‒ " जायतेऽस्ति विपरिणमते वर्धतेऽपक्षीयते विनश्यति।" (निरुक्त १ । १ । २)  ‘शरीर में छः विकार होते हैं- उत्पन्न होना, सत्ता वाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना, और नष्ट होना। यहाँ आया हुआ ‘अस्ति’ पद संसार के विकारी स्वरूप का वाचक है । तात्पर्य यह है कि इस विकाररूप इन्द्रियगोचर सत्य ‘अस्ति’ (शरीर 'Hand'  और मन 'Head') में निरन्तर परिवर्तन हो रहा है; यह एक क्षण भी एक रूप नहीं रहता।  लेकिन शरीरी [3rd 'H' (Heart) इन्द्रियातीत सत्य या आत्मा] इन छहों विकारों से रहित है।

[এই বলিয়া ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ, যে-গানে কেশবাদি ভক্তদের মন মুগ্ধ করিতেন, সেই গান — সেই মধুর কণ্ঠে — গাইতেছেন; সকলের বোধ হইতেছে, যেন স্বর্গধামে বা বৈকুণ্ঠে বসিয়া আছেন:

ডুব্‌ ডুব্‌ ডুব্‌ রূপসাগরে আমার মন।

তলাতল পাতাল খুঁজলে পাবি রে প্রেম রত্নধন ৷৷

With these words the Master sang in the sweet voice that had bewitched the hearts of devotees like Keshab: Dive deep, O mind, dive deep in the Ocean of God's Beauty (with name and form) ; If you descend to the uttermost depths, There you will find the gem of Love. . . .The devotees felt as if they were in paradise itself.

(३)

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏 ब्रह्मसमाज में 'ईश्वर' को छोड़कर उनके ऐश्वर्य का इतना वर्णन क्यों ?🔆🙏

श्रीरामकृष्ण - डुबकी लगाओ । ईश्वर को प्यार करना सीखो । उनके प्रेम में मग्न हो जाओ । देखो, तुम्हारी उपासना सुन रहा हूँ । परन्तु तुम ब्राह्मसमाजवाले ईश्वर के ऐश्वर्य का इतना वर्णन क्यों करते हो ? ‘हे ईश्वर ! तुमने आकाश की सृष्टि की है, बड़े बड़े समुद्र बनाये हैं, चंद्रलोक, सूर्यलोक, नक्षत्रलोक, यह सब तुम्हारी ही रचना है’, इन सब बातों से हमें क्या काम ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ডুব দাও। ঈশ্বরকে ভালবাসতে শেখ। তাঁর প্রেমে মগ্ন হও। দেখ, তোমাদের উপাসনা শুনেছি। কিন্তু তোমাদের ব্রাহ্মসমাজে ঈশ্বরের ঐশ্বর্য অত বর্ণনা কর কেন? “হে ঈশ্বর, তুমি আকাশ করিয়াছ; বড় বড় সমুদ্র করিয়াছ, চন্দ্রলোক, সূর্যলোক, নক্ষত্রলোক, সব করিয়াছ” — এ-সব কথায় আমাদের অত কাজ কি?

MASTER (to the Brahmos): "Dive deep. Learn to love God. Plunge into divine love. You see, I have heard how you pray. Why do you Brahmos dwell so much on the glories of God? Is there such great need of your saying over and over again, 'O God, You have created the sky, the great oceans, the lunar world, the solar world, and the stellar world'?

"सब आदमी बाबू के बगीचे को देखकर आश्चर्य कर रहे हैं - कैसे सुन्दर पेड़ उसमें लगे हैं, फूल, झील, बैठकखाना, उसके अन्दर तस्वीरों की सजावट, ये सब ऐसे सुन्दर हैं कि इन्हें देखकर लोग दंग रह जाते हैं, परन्तु बगीचे के मालिक की खोज करनेवाले कितने होते हैं ?

मालिक की खोज तो दो ही एक करते हैं । ईश्वर को व्याकुल होकर खोजने पर उनके दर्शन होते हैं, उनसे आलाप भी होता है, बातचीत होती है, जैसे मैं तुमसे बातचीत कर रहा हूँ । सत्य कहता हूँ, उनके (जगत्जननी के) दर्शन होते हैं ।

"यह बात मैं कहता भी किससे हूँ, और विश्वास भी कौन करता है ?

[“সব লোক বাবুর বাগান দেখে অবাক্‌ — কেমন গাছ, কেমন ফুল, কেমন ঝিল। কেমন বৈঠকখানা, কেমন তার ভিতর ছবি — এই সব দেখেই অবাক্‌। কিন্তু কই, বাগানের মালিক যে বাবু তাঁকে খোঁজে ক’জন? বাবুকে খোঁজে দু-একজনা। ঈশ্বরকে ব্যাকুল হয়ে খুঁজলে তাঁকে দর্শন হয়, তাঁর সঙ্গে আলাপ হয়, কথা হয়; যেমন, আমি তোমাদের সঙ্গে কথা কচ্ছি। সত্য বলছি দর্শন হয়!

“এ-কথা কারেই বা বলছি — কে বা বিশ্বাস করে।”

"Everybody is wonder-struck at the mere sight of a rich man's garden house. People become speechless at the sight of the trees, the flowers, the ponds, the drawing-room, the pictures. But alas, how few are they who seek the owner of all these! Only one or two inquire after him. He who seeks God with a longing heart can see Him, talk to Him as I am talking to you. Believe my words when I say that God can be seen. But ah! To whom am I saying these words? Who will believe me?

 [ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏जगत्जननी की कृपा के बिना आत्मसाक्षात्कार नहीं होता 🔆🙏 

[The Law of Revelation, श्रुति-प्रकाश का सिद्धान्त~  শাস্ত্র না প্রত্যক্ষ ]

“क्या कभी शास्त्रों के भीतर कोई ईश्वर को पा सकता है ? शास्त्र पढ़कर अधिक से अधिक 'अस्ति' का बोध होता है । परन्तु स्वयं जब तक नहीं डूबते हो ^*, तब तक ईश्वर के दर्शन नहीं हो सकते । डुबकी लगाने पर जब वे (कृपा करके) खुद समझा देते हैं, तब सन्देह दूर हो जाता है।

चाहे हजार पुस्तकें पढ़ो, हजार श्लोकों की आवृत्ति करो, व्याकुल होकर उनमें डुबकी लगाये बिना, उन्हें पकड़ न सकोगे । कोरे पाण्डित्य से आदमियों को ही मुग्ध कर सकोगे, उन्हें नहीं ।

[परन्तु स्वयं जब तक नहीं डूबते हो ^*श्रुति-वाक्य पर विश्वास करके, जब तक मृत्यु का सामना नहीं करते हो -'चिदानन्द रूपः शिवोहम शिवोहम' यदि 'मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ !' -- तो देखता हूँ आज मरता कौन है ? मृत्यु किसकी होती है ? मृत्यु मिथ्या अहं की होती है - वहाँ अहं रहता ही नहीं है , आत्मा ही परमात्मा के साथ एकत्व का अनुभव करती है।  तुम वहां नहीं होते -यही है डुबकी लगाना ! जो माँ की कृपा से होता है। ]   

[“শাস্ত্রের ভিতর কি ঈশ্বরকে পাওয়া যায়? শাস্ত্র পড়ে হদ্দ অস্তিমাত্র বোধ হয়। কিন্তু নিজে ডুব না দিলে ঈশ্বর দেখা দেন না। ডুব দেবার পর তিনি নিজে জানিয়ে দিলে তবে সন্দেহ দূর হয়। বই হাজার পড়, মুখে হাজার শ্লোক বল, ব্যাকুল হয়ে তাঁতে ডুব না দিলে তাঁকে ধরতে পারবে না। শুধু পাণ্ডিত্যে মানুষকে ভোলাতে পারবে, কিন্তু তাঁকে পারবে না।"

Can one find God in the sacred books? By reading the scriptures one may feel at the most that God exists. But God does not reveal Himself to a man unless he himself dives deep. Only after such a plunge, after the revelation of God through His grace, is one's doubt destroyed. You may read scriptures by the thousands and recite thousands of texts; but unless you plunge into God with yearning of heart, you will not comprehend Him. By mere scholarship you may fool man, but not God.

"शास्त्रों और पुस्तकों से क्या होगा ? उनकी कृपा के हुए बिना कहीं कुछ न होगा । जिससे उनकी कृपा हो, इसलिए व्याकुल होकर उद्योग करो । उनकी कृपा होने पर उनके दर्शन भी होंगे । तब वे तुम्हारे साथ बातचीत भी करेंगे ।"

[“শাস্ত্র, বই শুধু এ-সব তাতে কি হবে? তাঁর কৃপা না হলে কিছু হবে না; যাতে তাঁর কৃপা হয়, ব্যাকুল হয়ে তার চেষ্টা করো; কৃপা হলে তাঁর দর্শন হবে। তিনি তোমাদের সঙ্গে কথা কইবেন।”

"Scriptures and books — what can one achieve with these alone? Nothing can be realized without His grace. Strive with a longing heart for His grace. Through His grace you will see Him and He will talk to you."

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏क्या ईश्वर की कृपा किसी पर अधिक किसी पर कम होती है ?🔆🙏

सब-जज - महाराज, उनकी कृपा क्या किसी पर अधिक और किसी पर कम भी है ? इस तरह तो ईश्वर पर वैषम्यदोष आ जाता है ।  

সদরওয়ালা মহাশয়, তাঁর কৃপা কি একজনের উপর বেশি আর-একজনের উপর কম? তাহলে যে ঈশ্বরের বৈষম্যদোষ হয়।

SUB-JUDGE: "Sir, does God show more grace to one than to another? If so, He can be accused of the fault of partiality."

श्रीरामकृष्ण - यह क्या ! घोड़े में भी 'घ' है और घोंसले में भी 'घ' है, इसलिए क्या दोनों बराबर हैं? तुम जैसा कह रहे हो, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने भी वैसा ही कहा था । कहा था, 'महाराज, क्या उन्होंने किसी को अधिक शक्ति दी है और किसी को कम ?" मैंने कहा, 'विभू के रूप से तो वे सब के भीतर हैं - मेरे भीतर जिस तरह हैं एक चींटी के भीतर भी उसी तरह हैं; परन्तु शक्ति की विशेषता है ।

अगर सब आदमी बराबर होते तो ईश्वरचन्द्र विद्यासागर यह नाम सुनकर हम लोग तुम्हें देखने क्यों आते ? क्या तुम्हारे दो सींग निकले हैं ? सो बात नहीं । तुम दयालु हो, पण्डित हो, ये सब गुण तुममें दूसरों से अधिक है । इसीलिए तुम्हारा इतना नाम है ।' देखो न, ऐसे आदमी भी हैं जो अकेले सौ आदमियों को हरा दें और ऐसे भी हैं कि एक ही के भय से भाग खड़े हों

“अगर शक्ति की विशेषता न होती तो लोग केशव (C-IN-C,नवनीदा) को इतना मानते कैसे ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সে কি! ঘোড়াটাও টা আর সরাটাও টা! তুমি যা বলছ ঈশ্বর বিদ্যাসাগর ওই কথা বলেছিল। বলেছিল, মহাশয়, তিনি কি কারুকে বেশি শক্তি দিয়েছেন, কারুকে কম শক্তি দিয়েছেন? আমি বললাম, বিভুরূপে তিনি সকলের ভিতর আছেন — আমার ভিতরে যেমনি পিঁপড়েটির ভিতরেও তেমনি। কিন্তু শক্তিবিশেষ আছে। যদি সকলেই সমান হবে, তবে ঈশ্বর বিদ্যাসাগর নাম শুনে তোমায় আমরা কেন দেখতে এসেছি। তোমার কি দুটো শিং বেরিয়েছে! তা নয়, তুমি দয়ালু, তুমি পণ্ডিত — এই সব গুণ তোমার অপরের চেয়ে বেশি আছে, তাই তোমার এত নাম। দেখ না এমন লোক আছে যে, একলা একশো লোককে হারাতে পারে; আবার এমন আছে, একজনের ভয় পালায়।

“যদি শক্তিবিশেষ না হয় লোকে কেশবকে এত মানতো কেন?

MASTER: "What are you saying? Do you mean to say that the moon and a glow-worm are the same, though both give light? Iswar Vidyasagar asked me the same question. He said, 'Is it a fact, sir, that God gives more power to one and less to another?' 'God', I said, 'exists in every being as the All-pervading Spirit. He is in the ant as well as in me. But there are different manifestations of His Power in different beings. If all are the same, then why have we come here to see you, attracted by your renown? Have you grown a pair of horns? Oh, no! It is not that. You have compassion; you have scholarship; there is a greater degree of these virtues in you than in others. That is the reason you are so well known.' Don't you see that there are men who, single-handed, can defeat a hundred persons? Again, one man takes to his heels in fear of another; you see such a person, too. If there are not different manifestations of power in different beings, then why did people respect Keshab Sen so much?

🔆🙏बिना विश्वास के किसी की बात मान लेना पाखण्ड है -पाखण्डी न बनो🔆🙏 

[The difference is not in kind, but in degree.]

“गीता में है, जिसे बहुत से आदमी जानते और मानते हैं, चाहे विद्या के लिए हो या गाने-बजाने के लिए, लेक्चर देने के लिए या अन्य गुणों के लिए, निश्चयपूर्वक समझो, उसमें ईश्वर की विशेष शक्ति है ।"

[গীতায় আছে, যাকে অনেকে গণে-মানে — তা বিদ্যার জন্যই হউক, বা গান-বাজনার জন্যই হউক, বা লেকচার দেবার জন্যই হউক, বা আর কিছুর জন্যই হউক — নিশ্চিত জেনো যে, তাতে ঈশ্বরের বিশেষ শক্তি আছে।”

"It is said in the Gita that if a man is respected and honoured by many, whether it be for his scholarship or his music or his oratory or anything else, then you may know for certain that he is endowed with a special divine power."

ब्राह्म भक्त - (सब-जज से) - ये जो कुछ कहते हैं, आप मान लीजिये ।

[ব্রাহ্মভক্ত (সদরওয়ালার প্রতি) — যা বলছেন মেনে নেন না!

A BRAHMO (to the sub-judge): "Why don't you accept what he says?"

श्रीरामकृष्ण - (ब्राह्म भक्त से) - तुम कैसे आदमी हो ? बात पर विश्वास न करके सिर्फ मान लेना! कपट-आचरण ! देखता हूँ, तुम ढोंग करनेवाले (counterfeit-नकली, खोटा सिक्का ) हो ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (ব্রাহ্মভক্তের প্রতি) —তুমি কিরকম লোক! কথায় বিশ্বাস না করে শুধু মেনে লওয়া! কপটতা! তুমি ঢঙ কাচ দেখছি!

MASTER (sharply, to the Brahmo): "What sort of man are you? To accept words without conviction! Why, that is hypocrisy! I see you are only a counterfeit."

ब्राह्म भक्त लज्जित हो गये ।

ব্রাহ্মভক্তটি অতিশয় লজ্জিত হইলেন।

The Brahmo was much embarrassed.

🔆🙏(४)🔆🙏

Be unattached (भ्रममुक्त या विसम्मोहित बनो) and stay in the family ]

 [ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏राजा जनक जैसा राजर्षि (अनासक्त गृहस्थ) बनना है~ तो पहले निर्जन वास🔆🙏  

सब-जज - महाराज, क्या संसार का त्याग करना होगा ?

[সদরওয়ালা — মহাশয়, সংসার কি ত্যাগ করতে হবে?

SUB-JUDGE: "Sir, must we renounce the world?"

श्रीरामकृष्ण - नहीं, तुम्हें त्याग क्यों करना होगा ? संसार में रहकर ही हो सकता है । परन्तु पहले कुछ दिन निर्जन में रहना पड़ता है । निर्जन में रहकर ईश्वर की साधना करनी पड़ती हैं । घर के पास एक अड्डा बनाना पड़ता है, जहाँ से बस रोटी खाने के समय घर आकर रोटी खा जा सको ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — না, তোমাদের ত্যাগ কেন করতে হবে? সংসারে থেকেই হতে পারে। তবে আগে দিন কতক নির্জনে থাকতে হয়। নির্জনে থেকে ঈশ্বরের সাধনা করতে হয়। বাড়ির কাছে এমনি একটি আড্ডা করতে হয়, যেখান থেকে বাড়িতে এসে অমনি করে একবার ভাত খেয়ে যেতে পার।

MASTER: "No. Why should you? A man can realize God even in the world. But at the beginning he must spend a few days in solitude. He must practise spiritual discipline in a solitary place. He should take a room near his house, so that he may come home only for his meals.

"केशव सेन, प्रतापचन्द्र इन सब लोगों ने कहा था, 'महाराज, हमारा मत राजा जनक के मत की तरह है ।' मैंने कहा, 'कहने ही से कोई जनक राजा नहीं हो जाता । पहले जनक राजा ने सिर नीचे और पैर ऊपर ^*  करके निर्जन में कितनी तपस्या की थी । तुम लोग भी कुछ करो, तब राजा जनक होगे !'

[सिर नीचे और पैर ऊपर करके -(हेंटमूण्ड होये)  ^* योग की तपस्या (श्रेय-प्रेय विवेक से जुड़ा आत्ममूल्यांकन करना सीखने में कठिनाई) का वर्णन करने के लिए एक अभिव्यक्ति, जो हठ-योगियों द्वारा किया जाने वाले अभ्यास (गोविन्दा के भाई कीर्ति कुमार खन्ना द्वारा गाय पालकर किया गया)  -'शीर्षासन' जितना कठिन है।

[ কেশব সেন, প্রতাপ, এরা সব বলেছিল, মহাশয়, আমাদের জনক রাজার মত। আমি বললুম, জনক রাজা অমনি মুখে বললেই হওয়া যায় না। জনক রাজা হেঁটমুণ্ড হয়ে আগে নির্জনে বসে কত তপস্যা করেছিল! তোমরা কিছু কর, তবে তো ‘জনক রাজা’ হবে।

 Keshab, Pratap, and others said to me, 'Sir, we follow the ideal of King Janaka.' 'Mere words don't make a King Janaka', I replied. 'How many austerities King Janaka first had to perform in solitude — standing on his head,^* and so on! Do something first; then you may become a King Janaka.' 

[^*One of the exercises sometimes practised by hathayogis  ; also an expression to describe the austerities of yoga in general.]

 [ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏धाराप्रवाह (fluently) अंग्रेजी लिखना हो तो पहले अभ्यास करो🔆🙏 

अमुक मनुष्य धाराप्रवाह अंग्रेजी लिख सकता है तो क्या एक ही दिन में उसने अंग्रेजी लिखना सीखा था ? वह गरीब का लड़का है, पहले किसी के यहाँ रहकर भोजन पकाता था और खुद भी खाता था, बड़ी मेहनत से उसने अंग्रेजी सीखी थी, इसीलिए अब बहुत जल्दी अंग्रेजी लिख सकता है ।

[ অমুক খুব তর তর করে ইংরাজী লিখতে পারে, তা কি একেবারে লিখতে পেরেছিল? সে গরিবের ছেলে, আগে একজনের বাড়িতে থেকে তাদের রেঁধে দিত, আর দুটি দুটি খেত, অনেক কষ্টে লেখাপড়া শিখেছিল, তাই এখন তর তর করে লিখতে পারে।

You see a man writing English fluently; but could he do that at the very start? Perhaps he was the son of poor parents; he was cook in a family and earned his meals by his service. Perhaps he had to struggle hard to go on with his studies. It is after all these efforts that he can now write such fluent English.

 [ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏केशव को शिक्षा -पुरुष के लिए स्त्री जैसे इमली का अँचार 🔆🙏

"मैने केशव सेन से और भी कहा था, 'निर्जन में बिना गये कठिन रोग अच्छा कैसे होगा ?' रोग है विकार । और जिस घर में विकारी रोगी है, उसी घर में अचार, इमली और पानी का घड़ा है । तो अब रोग कैसे अच्छा हो सकता है ? अचार, इमली का नाम लेते ही देखो मेरी जीभ में पानी भर आया । (सब हँसते हैं ।) इनके सामने रहते हुए कभी रोग अच्छा हो सकता है ? सब लोग जानते तो हो । पुरुष के लिए स्त्री इमली का अँचार है, और भोग-वासना पानी का घड़ा । विषय-तृष्णा का अन्त नहीं और ये विषय रोगी के घर मैं हैं ! "इससे क्या विकार-रोग अच्छा हो सकता है ?

[“কেশব সেনকে আরও বলেছিলুম, নির্জনে না গেলে, শক্ত রোগ সারবে কেমন করে? রোগটি হচ্ছে বিকার। আবার যে-ঘরে বিকারী রোগী, সেই ঘরেই আচার, তেঁতুল আর জলের জালা! তা রোগ সারবে কেমন করে? আচার, তেঁতুল — এই দেখো, বলতে বলতে আমার মুখে জল এসেছে। (সকলের হাস্য) সম্মুখে থাকলে কি হয়, সকলেই তো জানো? মেয়েমানুষ পুরুষের পক্ষে এই আচার তেঁতুল। ভোগবাসনা — জলের জালা; বিষয়-তৃষ্ণার শেষ নাই, আর এই বিষয় রোগীর ঘরে! এতি কি বিকাররোগ সারে? 

"I said to Keshab Sen further, 'How can the worldly man be cured of his serious disease unless he goes into solitude?' A worldly man is suffering from delirious fever, as it were. Suppose there are pickled tamarind and jars of water in the room of such a patient. Now, how can you expect him to get rid of the disease? 

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏 प्रथम अवस्था में प्रतिवर्ष छः दिनों का निर्जन(=गुरुगृह) वास आवश्यक 🔆🙏 

कुछ दिन के लिए अपना घर छोड़कर दूसरी जगह रहना चाहिए, जहाँ न अचार हो, न इमली और न पानी का घड़ा । नीरोग होकर फिर उस घर में जाने से कोई भय न रह जायेगा । उन्हें प्राप्त करके संसार में आकर रहने से फिर कामिनी-कांचन की दाल नहीं गलती । तब जनक की तरह निर्लिप्त होकर रह सकोगे; परन्तु पहली अवस्था में सावधान होना चाहिए, निरे निर्जन में रहकर साधना करनी चाहिए ।

[দিন কতক ঠাইনাড়া হয়ে থাকতে হয়, যেখানে আচার-তেঁতুল নাই, জলের জালা নাই। তারপর নীরোগ হয়ে আবার সেই ঘরে এলে আর ভয় নাই।তাঁকে লাভ করে সংসারে এসে থাকলে, আর কামিনী-কাঞ্চনে কিছু করতে পারে না। তখন জনকের মতো নির্লিপ্ত হতে পারবে। কিন্তু প্রথমাবস্থায় সাবধান হওয়া চাই। খুব নির্জনে থেকে সাধন করা চাই। 

Just see, the very mention of pickled tamarind is making my mouth water! (All laugh.) You can very well imagine what will happen if the tamarind is actually put in front of me. To a man, a woman is the pickled tamarind, and his desire for enjoyment, the jars of water. There is neither end nor limit to this desire for worldly enjoyment. And the things are in the patient's very room. Can you expect the patient to get rid of the delirious fever in this fashion? He must be removed for a few days to another place where there are neither pickled tamarind nor water-jars. Then he will be cured. After that if he returns to his old room he will have nothing to fear. 'Woman and gold' cannot do any harm to the man who lives in the world after attaining God. Only then can he lead a detached life in the world as King Janaka did. But he must be careful at the beginning. He must practise spiritual discipline in strict solitude. 

पीपल का पेड़ जब छोटा रहता है, तब उसे चारों ओर से घेर रखते हैं कि कहीं बकरी चर न जाय; परन्तु जब वह बढ़कर मोटा हो जाता है, तब उसे घेर रखने की आवश्यकता नहीं रहती । फिर हाथी बाँध देने पर भी पेड़ का कुछ नहीं बिगड़ता । अगर निर्जन में साधना करके, ईश्वर के पादपद्मों में भक्ति करके बल बढ़ाकर (महामण्डल के छः दिवसीय वार्षिक शिविर में 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण प्राप्त करके) घर जाकर संसार करो, तो कामिनी-कांचन फिर तुम्हारा कुछ न कर सकेंगे ।

[অশ্বত্থগাছ যখন চারা থাকে, তখন চারিদিকে বেড়া দেয়, পাছে ছাগল-গরুতে নষ্ট করে। কিন্তু গুঁড়ি মোটা হলে আর বেড়ার দরকার থাকে না। হাতি বেঁধে দিলেও গাছের কিছু করতে পারে না। যদি নির্জনে সাধন করে ঈশ্বরের পাদপদ্মে ভক্তিলাভ করে বল বাড়িয়ে, বাড়ি গিয়ে সংসার কর, তাহলে কামিনী-কাঞ্চনে তোমার কিছু করতে পারবে না।

The peepal-tree, when young, is fenced around to protect it from cattle. But there is no need for the fence when the trunk grows thick and strong. Then no harm will be done to the tree even if an elephant is tied to it. 'Woman and gold' will not be able to harm you in the least, if you go home and lead a householder's life after increasing your spiritual strength and developing love for the Lotus Feet of God through the practice of spiritual discipline (3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण) in solitude.

[(19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆मन को निर्लिप्त अवस्था (de-hypnotized भ्रममुक्त अवस्था ) में रखने का उपाय🔆

[ मन रूपी दूध से ज्ञान और भक्ति रूपी मक्खन निकालो]    

"निर्जन में दही जमाकर मक्खन निकाला जाता है । ज्ञान और भक्तिरूपी मक्खन अगर एक बार मनरूपी दूध से निकाल सको, तो संसाररूपी पानी में डाल देने से वह [प्रशिक्षित और भ्रममुक्त मन ] निर्लिप्त होकर पानी पर तैरता रहेगा; परन्तु मन को कच्ची अवस्था में - दूधवाली अवस्था में ही - अगर संसाररूपी पानी में छोड़ दोगे, तो दूध और पानी एक हो जायेंगे, तब फिर मन निर्लिप्त होकर उससे अलग न रह सकेगा ।

[“নির্জনে দই পেতে মাখন তুলতে হয়। জ্ঞানভক্তিরূপ মাখন যদি একবার মনরূপ দুধ থেকে তোলা হয়, তাহলে সংসাররূপ জলের উপর রাখলে নির্লিপ্ত হয়ে ভাসবে। কিন্তু মনকে কাঁচা অবস্থায় — দুধের অবস্থায়, যদি সংসাররূপ জলের উপর রাখ, তাহলে দুধে জলে মিশে যাবে। তখন আর মন নির্লিপ্ত হয়ে ভাসতে পারবে না।

"A man sets milk in a quiet place to curdle, and then he extracts butter from the curd. After once extracting the butter of Devotion and Knowledge from the milk of the mind, if you keep that 'transformed mind' in the water of the world, it [=dehypnotized mind] will float in the world unattached. But if the mind in its 'unripe' state — that is to say, when it is just like liquid milk — is kept in the water of the world, then the milk and water will get mixed. In that case it will be impossible for the mind to float unattached in the world.

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏अविद्या माया और विद्यामाया , दोनों को पार करने के बाद छुट्टी   🔆🙏  

“ईश्वर प्राप्ति के लिए संसार में रहकर एक हाथ से ईश्वर के पादपद्म पकड़े रहना चाहिए और दूसरे हाथ से संसार का काम करना चाहिए । जब काम से छुट्टी मिले, तब दोनों हाथों से ईश्वर के पादपद्म पकड़ लो, तब निर्जन में वास करके एकमात्र उन्हीं की चिन्ता और सेवा करते रहो ।"

[“ঈশ্বরলাভের জন্য সংসারে থেকে, একহাতে ঈশ্বরের পাদপদ্ম ধরে থাকবে আর একহাতে কাজ করবে। যখন কাজ থেকে অবসর হবে, তখন দুই হাতেই ঈশ্বরের পাদপদ্ম ধরে থাকবে, তখন নির্জনে বাস করবে, কেবল তাঁর চিন্তা আর সেবা করবে।”

"Live in the world but, in order to realize God, hold fast to His Lotus Feet with one hand and with the other do your duties. When you get a respite from your duties, cling to God's Lotus Feet with both hands — live in solitude and meditate on Him and serve Him ceaselessly."

 [ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏गृहस्थ जीवन में रहकर भी ईश्वर-लाभ सम्भव है 🔆🙏

सब-जज - (आनन्दित होकर) - महाराज, यह तो बड़ी सुन्दर बात है । एकान्त में साधना तो अवश्य ही करनी चाहिए । यही हम लोग भूल जाते हैं । सोचते हैं, एकदम राजा जनक हो गये । (श्रीरामकृष्ण और दूसरे हँसते हैं ।) संसार का त्याग करने की जरूरत नहीं, घर पर रहकर भी लोग ईश्वर को पा सकते हैं - यह सुनकर मुझे शान्ति और आनन्द हुआ ।

[সদরওয়ালা (আনন্দিত হইয়া) — মহাশয়, এ অতি সুন্দর কথা! নির্জনে সাধন চাই বইকি! ওইটি আমরা ভুলে যাই। মনে করি একেবারে জনক রাজা হয়ে পড়েছি! (শ্রীরামকৃষ্ণ ও সকলের হাস্য) সংসারত্যাগের যে প্রয়োজন নাই, বাড়িতে থেকেও ঈশ্বরকে পাওয়া যায়, এ-কথা শুনেও আমার শান্তি ও আনন্দ হল।

SUB-JUDGE (joyously): "Sir, these are very beautiful words indeed. Of course one must practise spiritual discipline in solitude. But we forget all about it. We think we have become King Janaka outright! (The Master and the devotees laugh.) I feel very happy and peaceful even to hear that there is no need to give up the world and that God can be realized from home as well."

श्रीरामकृष्ण - तुम्हें त्याग क्यों करना होगा ? जब लड़ाई करनी है, तो किले में रहकर ही लड़ाई करो । लड़ाई इन्द्रियों से है, भूख-प्यास इन सब के साथ लड़ाई करनी होगी । यह लड़ाई संसार में रहकर ही करना अच्छा है । तिस पर कलिकाल में प्राण अन्नगत हैं, बाहर कभी खाना न मिला, तो उस समय ईश्वर-फीश्वर सब भूल जायेंगे ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ত্যাগ তোমাদের কেন করতে হবে? যেকালে যুদ্ধ করতেই হবে, কেল্লা থেকেই যুদ্ধ ভাল। ‘ইন্দ্রিয়ের সঙ্গে যুদ্ধ, খিদে-তৃষ্ণা এ-সবের সঙ্গে যুদ্ধ করতে হবে। এ-যুদ্ধ সংসার থেকেই ভাল। আবার কলিতে অন্নগত প্রাণ, হয়তো খেতেই পেলে না। তখন ঈশ্বর-টীশ্বর সব ঘুরে যাবে’। 

MASTER: "Why should you give up the world? Since you must fight, it is wise for you to fight from a fort. You must fight against your sense-organs, against your hunger and thirst. Therefore you will be wise to face the battle from the world. Further, in the Kaliyuga the life of a man depends on his food. If one day you have nothing to eat, then you will forget all about God.

किसी ने अपनी बीबी से कहा - 'मैं संसार छोड़कर जाता हूँ ।' उसकी बीबी कुछ समझदार थी । उसने कहा - क्यों तुम चक्कर लगाते फिरोगे ? अगर पेट भरने के लिए दस घरों में चक्कर न लगाना पड़े तब तो कोई बात नहीं, जाओ, लेकिन अगर चक्कर लगाना पड़े तो अच्छा यही है कि इसी घर में रहो ।'

[একজন তার মাগকে বলেছিল, ‘আমি সংসারত্যাগ করে চললুম।’ মাগটি একটু জ্ঞানী ছিল। সে বললে, ‘কেন তুমি ঘুরে ঘুরে বেড়াবে? যদি পেটের জন্য দশ ঘরে যেতে না হয় তবে যাও। তা যদি হয়, তাহলে এই একঘরই ভাল।’

 A man once said to his wife, 'I am going to leave the world.' She was a sensible woman. She said: 'Why should you wander about? If you don't have to knock at ten doors for your stomach's sake, go. But if that is the case, then better live in this one place.'

“तुम लोग त्याग क्यों करोगे ? घर में रहने से तो बल्कि सुविधाएँ हैं । भोजन की चिन्ता नहीं करनी होती । सहवास भी पत्नी के साथ, इसमें दोष नहीं है । शरीर के लिए जब जिस वस्तु की जरूरत होगी वह पास ही तुम्हें मिल जायेगी । रोग होने पर सेवा करनेवाले आदमी भी पास ही मिलेंगे ।

[“তোমারা ত্যাগ কেন করবে? বাড়িতে বরং সুবিধা। আহারের জন্য ভাবতে হবে না। সহবাস স্বদারার সঙ্গে, তাতে দোষ নাই। শরীরের যখন যেটি দরকার কাছেই পাবে। রোগ হলে সেবা করবার লোক কাছে পাবে।

"Again I say, why should you give up the world? You will find it more convenient at home. You won't have to worry about food. You may even live with your wife. It isn't harmful. You will find near at hand all that the body needs at different times. When you are ill, you will have someone near you to nurse you.

"जनक, व्यास, वशिष्ठ ने ज्ञानलाभ कर संसार धर्म का पालन किया था । ये दो तलवारें चलाते थे । एक ज्ञान की और दूसरी कर्म की ।”

[“জনক, ব্যাস, বশিষ্ঠ জ্ঞানলাভের করে সংসারে ছিলেন। এঁরা দুখানা তরবার ঘুরাতেন। একখানা জ্ঞানের, একখানা কর্মের।”

"Sages like Janaka, Vyasa, and Vasishtha lived in the world after attaining Knowledge. They fenced with two swords, the one of Knowledge and the other of action."

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏 ज्ञान-भक्ति रूपी मक्खन निकालने के बाद ह्रदय में भगवान का दर्शन होता है🔆🙏   

सब-जज - महाराज, ज्ञान हुआ यह हम कैसे समझें ?

[সদরওয়ালা — মহাশয়! জ্ঞান হয়েছে তা কেমন করে জানব?

SUB-JUDGE: "How can we know that we have Knowledge?"

श्रीरामकृष्ण - ज्ञान के होने पर फिर वे दूर नहीं रहते, न दूर दीख पड़ते हैं, और फिर उन्हें ‘वे’ नहीं कह सकते, फिर 'ये' कहा जाता है । हृदय में उनके दर्शन होते हैं । वे सब के भीतर हैं, जो खोजता है, वही पाता है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — জ্ঞান হলে তাঁকে (ঈশ্বরকে) আর দূরে দেখায় না। তিনি আর তিনি বোধ হয় না। তখন ইনি! হৃদয়মধ্যে তাঁকে দেখা যায়। তিনি সকলেরই ভিতর আছেন, যে খুঁজে সেই পায়।

MASTER: "When one has Knowledge one does not see God any more at a distance. One does not think of Him any more as 'He'. He becomes 'This'. Then He is seen in one's own heart. God dwells in every man. He who seeks God realizes Him."

[ব্রাহ্মসমাজ — কেশব ও নির্লিপ্ত সংসার — সংসারত্যাগ]

 [ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏ब्राह्मसमाज, ईसाई धर्म तथा पापवाद: नाम -माहात्म्य पर विश्वास🔆🙏  

सब-जज - महाराज, मैं पापी हूँ । कैसे कहूँ - वे मेरे भीतर हैं ?

[সদরওয়ালা — মহাশয়! আমি পাপী, কেমন করে বলি যে, তিনি আমার ভিতর আছেন?

SUB-JUDGE: "Sir, I am a sinner. How can I say that God dwells in me?"

श्रीरामकृष्ण - जान पड़ता है तुम लोगों में यही पाप पाप लगा रहता है - यह क्रिस्तानी मत है, नहीं? मुझे किसी ने एक पुस्तक - बाइबिल (Bible) – दी । उसका मैंने कुछ भाग सुना । उसमें बस वही एक बात थी - पाप-पाप ! मैंने जब उनका नाम लिया - राम या कृष्ण कहा, तो मुझे फिर पाप कैसे लग सकता है - ऐसा विश्वास चाहिए । नाम माहात्म्य पर विश्वास होना चाहिए ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ওই তোমাদের পাপ আর পাপ! এ-সব বুঝি খ্রীষ্টানী মত? আমায় একজন একখানি বই দিলে (বাইবেল) দিলে। একটু পড়া শুনলাম; তা তাতে কেবল ওই এককথা — পাপ আর পাপ! আমি তাঁর নাম করেছি; ঈশ্বর, কি রাম, কি হরি বলেছি — আমার আবার পাপ! এমন বিশ্বাস থাকা চাই। নাম-মাহাত্ম্যে বিশ্বাস থাকা চাই।

MASTER: "That's the one trouble with you Brahmos. With you it is always sin and sin! That's the Christian view, isn't it? Once a man gave me a Bible. A part of it was read to me, and it was full of that one thing — sin and sin! One must have such faith that one can say: 'I have uttered the name of God; I have repeated the name of Rama or Hari. How can I be a sinner?' One must have faith in the glory of God's name."

सब-जज - महाराज, यह विश्वास कैसे हो ?

[সদরওয়ালা — মহাশয়! কেমন করে ওই বিশ্বাস হয়?

SUB-JUDGE: "Sir, how can one have such faith?"

श्रीरामकृष्ण - उन पर अनुराग लाओ । तुम्हीं लोगों के गाने में है - 'हे प्रभु, बिना अनुराग के क्या तुम्हें कोई जान सकता है, चाहे कितने ही याग और यज्ञ क्यों न करे ?' जिससे इस प्रकार का अनुराग हो, इस तरह ईश्वर पर प्यार हो, उसके लिए उनके पास निर्जन में व्याकुल होकर प्रार्थना करो और रोओ । स्त्री के बीमार होने पर, व्यापार में घाटा होने पर या नौकरी के लिए लोग आँसुओं की धारा बहा देते हैं, परन्तु बताओ तो, ईश्वर के लिए कौन रोता है ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁতে অনুরাগ কর। তোমাদেরই গানে আছে, ‘প্রভু! বিনে অনুরাগ করে যজ্ঞযাগ, তোমার কি যায় জানা।’ যাতে এরূপ অনুরাগ, এরূপ ঈশ্বরে ভালবাসা হয়, তার জন্য তাঁর কাছে গোপনে ব্যাকুল হয়ে প্রার্থনা করো, আর কাঁদো। মাগের ব্যামো হলে, কি টাকা লোকসান হলে, কি কর্মের জন্য, লোকে একঘটি কাঁদে, ঈশ্বরের জন্য কে কাঁদছে বল দেখি?

MASTER: "Have passionate love for God. One of your Brahmo songs says:O Lord, is it ever possible to know Thee without love, However much one may perform worship and sacrifice?Pray to God in secret and with yearning, that you may have that passionate attachment and devotion to Him. Shed tears for Him. A man sheds a jugful of tears because his wife is sick or because he is losing money or because he is worrying about getting a job. But tell me, who ever weeps for God?"

(५)

*आम-मुखत्यारी दे दो  गृहस्थ को अपना कर्तव्य कब तक निभाना पड़ता है ?*

[আমমোক্তারী দাও — গৃহস্থের কর্তব্য কতদিন?]

त्रैलोक्य - महाराज, इनको समय कहाँ है ? अंग्रेज का काम करना पड़ता है ।

[ত্রৈলোক্য — মহাশয়, এঁদের সময় কই; ইংরেজের কর্ম করতে হয়। 

TRAILOKYA: "Sir, where is people's leisure? They must serve their English masters." [जैसे किसी को सरकारी टेण्डर भर कर इंडस्ट्री चलानी पड़ती है , स्कूल का बिजनेस करना पड़ता है ? या नौकरी करनी पड़ती है ?

 [(19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏'न दैन्यं न पलायनम ~न ढूँढ़ो , न टालो ~ आम-मुखत्यारी दे दो'🔆🙏

 [Neither seek nor avoid ~Give power of attorney to God!]   

तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् ।

 मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥ ३३ ॥

 (गीता -11.33)

[तस्मात् त्वम् उत्तिष्ठ यशो लभस्व/ जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्/ मया एव एते निहताः पूर्वम् एव/ निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥ ३३ ॥

इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो। (हे बायें हाथ से भी बाण चलाने में निपुण - अर्जुन तुम दोनों हाथोंसे बाण चलाओ अर्थात् युद्धमें अपनी पूरी शक्ति लगाओ, पर,बनना है निमित्त मात्र। निमित्तमात्र बनने का तात्पर्य अपने बल, बुद्धि, पराक्रम आदि को सम्पूर्ण रूप से  लगाना है,  परन्तु मैंने मार दिया, मैंने विजय प्राप्त कर ली -- यह अभिमान नहीं करना है।  क्योंकि ये सब मेरे द्वारा पहले से ही मारे हुए हैं। इसलिये तुम्हें केवल निमित्तमात्र बनना है, कोई नया काम नहीं करना है। हे सव्यसाचिन् मेरे द्वारा ये मारे ही हुए हैं ; तुम केवल निमित्त बनो। ]

श्रीरामकृष्ण (सब जज के प्रति) - अच्छा, उन्हें आम-मुखत्यारी दे दो । अच्छे आदमी पर अगर कोई भार देता है, तो क्या वह आदमी कभी उसका अहित करता है ? उन्हें हृदय से सब भार देकर तुम निश्चिन्त होकर बैठे रहो । उन्होंने जो काम करने के लिए दिया है, तुम वही करते जाओ।

"बिल्ली के बच्चे में कपटयुक्त बुद्धि नहीं है । वह मीऊँ मीऊँ करके माँ को पुकारना भर जानता है। माँ अगर खँडहर में रखती है, तो देखो वहीं पड़ा रहता है । बस 'मीऊँ' करके पुकारता भर है। माँ जब उसे गृहस्थ के बिस्तरे पर रखती है, तब भी उसका वही भाव है । 'मीऊँ' कहकर माँ को पुकारता है ।"

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সদরওয়ালার প্রতি) — আচ্ছা তাঁকে আমমোক্তারী দাও। ভাল লোকের উপর যদি কেউ ভার দেয়, সে লোক কি আর মন্দ করে? তাঁর উপর আন্তরিক সব ভার দিয়ে তুমি নিশ্চিন্ত হয়ে বসে থাক। তিনি যা কাজ করতে দিয়েছেন, তাই করো।

“বিড়ালছানা পাটোয়ারী বুদ্ধি নাই। মা মা করে। মা যদি হেঁসেলে রাখে সেইখানেই পড়ে আছে। কেবল মিউ মিউ করে ডাকে। মা যখন গৃহস্থের বিছানায় রাখে, তখনও সেই ভাব। মা মা করে।”

MASTER: "Well, then give God the power of attorney. If a man entrusts his affairs to a good person, will the latter do him any harm? With all the sincerity of your heart resign yourself to God and drive all your worries out of your mind. Do whatever duties He has assigned to you. The kitten does not have a calculating mind. It only cries, 'Mew, mew!' It lies in the kitchen contentedly if the mother cat leaves it there, and only calls the mother, crying, 'Mew, mew!' It has the same feeling of contentment when the mother cat puts it on the soft bed of the master of the house. It only cries for its mother."

सब-जज - हम लोग गृहस्थ हैं, कब तक यह सब काम करना होगा ?

সদরওয়ালা — আমরা গৃহস্থ, কতদিন এ-এব কর্তব্য করতে হবে?

SUB-JUDGE: "Sir, we are householders. How long should we perform our worldly duties?"

श्रीरामकृष्ण - तुम्हारा कर्तव्य अवश्य है । वह है बच्चों को आदमी बनाना, स्वी का भरणपोषण करना, अपने न रहने पर स्त्री के रोटीकपड़े के लिए कुछ रख जाना । यह अगर न करोगे तो तुम निर्दय कहलाओगे । शुकदेव आदि ने भी दया रखी थी । जिसको दया नहीं, वह मनुष्य ही नहीं हैं।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমাদের কর্তব্য আছে বইকি? ছেলেদের মানুষ করা, স্ত্রীকে ভরণপোষণ করতে, তোমার অবর্তমানে স্ত্রীর ভরণপোষণের যোগাড় করে রাখতে হবে। তা যদি না কর, তুমি নির্দয়। শুকদেবাদি দয়া রেখেছিলেন। দয়া যার নাই সে মানুষই নয়।

MASTER: "Surely you have duties to perform. You must bring up your children, support your wife, and provide for her in ease of your death. If you don't, then I shall call you unkind. Sages like Sukadeva had compassion. He who has no compassion is no man."

सब-जज - सन्तान का पालन-पोषण कब तक के लिए है ?

[সদরওয়ালা — সন্তান প্রতিপালন কতদিন?

SUB-JUDGE: "How long should one support one's children?"

श्रीरामकृष्ण - उनके बालिग होने तक के लिए । पक्षी के बड़े होने पर जब वह खुद अपना भार ले सकता है, तब उसकी माँ उस पर चोंच चलाती है, उसे पास नहीं आने देती । (सब हँसते हैं ।)

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সাবালক হওয়া পর্যন্ত। পাখি বড় হলে যখন সে আপনার ভার নিতে পারে, তখন তাকে ধাড়ী ঠোকরায়, কাছে আসতে দেয় না। (সকলের হাস্য)

MASTER: "As long as they have not reached their majority. When the chick becomes a full-grown bird and can look after itself, then the mother bird pecks it and doesn't allow it to come near her." (All laugh.)

सब-जज - स्त्री के प्रति क्या कर्तव्य है ?

[SUB-JUDGE: "What is a householder's duty to his wife?"

সদরওয়ালা — স্ত্রীর প্রতি কি কর্তব্য?

श्रीरामकृष्ण - जब तक तुम बचे हुए हो, तब तक धर्मोपदेश देते रहो, रोटी कपड़ा देते जाओ । यदि वह सती होगी, तो तुम्हारी मृत्यु के बाद जिससे उसके खाने-पहनने की कोई न कोई व्यवस्था हो जाय, ऐसा बन्दोबन्त तुम्हें कर देना होगा ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি বেঁচে থাকতে থাকতে ধর্মোপদেশ দেবে, ভরণপোষণ করবে। যদি সতী হয়, তোমার অবর্তমানে তার খাবার যোগাড় করে রাখতে হবে।

MASTER: "You should give her spiritual advice and support her during your lifetime and provide for her livelihood after your death, if she is a chaste wife.

 [ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

"Ah! Priceless words!

আহা! আহা! কি কথা! 

🔆🙏जो ईश्वर के प्रेम में मतवाले जाते हैं - उनका भार ईश्वर स्वयं ढोते हैं !🔆🙏 

[अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।। गीता 9.22।। अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का (ईश्वर के प्रेम पागल भक्तों कायोग-क्षेम मैं वहन करता हूँ। 

[ उपासना शब्द का अर्थ है पूजा। पूजा के द्वारा हम देवता का आह्वान करते हैं देवता माने किसी भी क्षेत्र में फल प्रदायक सार्मथ्य। पर्युपासते - यहाँ उपासते क्रियापद को 'परि'  उपसर्ग लगाया गया है जिसका आशय है सम्पूर्ण प्रयत्न। गीता का संदेश- *न दैन्यं न पलायनम्* Neither Seek nor avoid ' अर्थात कोई दीनता नहीं चाहिए , सामने आये कर्म को '3H' पूरी शक्ति लगाकर पूर्ण करने प्रयास करो , फल की चिन्ता छोड़ दो - क्योंकि भगवान ने शपथ-पत्र (affidavit-ऐफिडेविटमें वचन दिया है 

श्री शंकराचार्य योगक्षेम के अर्थ इस प्रकार बताते हैं- अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करना 'योग' और प्राप्त वस्तु का रक्षण करना 'क्षेम ' कहलाता है। जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने में, जिन किसी भी रूप में विरोध और स्पर्धा, संघर्ष और दुख आते हैं,  वे प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्थान-स्थान पर और समय-समय पर भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं।  मनुष्य के इस संघर्ष को मुख्यत दो भागों में विभाजित किया जा सकता है? (क) अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति के लिए संघर्ष और (ख) प्राप्त वस्तु के रक्षण के लिए प्रयत्न।  इन दोनों से उत्पन्न तनाव जीवन की शान्ति और आनन्द को छिन्न-भिन्न कर देता है। जो व्यक्ति इन दो चिन्ताओं से मुक्त है, वह सबसे भाग्यवान व्यक्ति है ! क्योंकि वह कृतकृत्य है!  इन दोनों के अभाव में उस पुरुष के जीवन में दुःख की गन्धमात्र नहीं होती और वह अक्षय सुख को प्राप्त हो जाता है। 

 श्रेयांसि बहुविघ्नानि : गृहस्थ -जीवन में दर्शनीय व गौरवमय सफलता (संयुक्त परिवार) पाने के लिए आत्मसंयम आवश्यक है। जब जीवन में किसी महत्त्वाकांक्षा को लेकर मनुष्य अपने मार्ग पर अग्रसर होता है, तब उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उसके लक्ष्य से भिन्न अनेक आकर्षक और प्रलोभित करने वाली योजनाएं उसके समक्ष प्रस्तुत की जाती हैं, जिनके चिन्तन में वह अपनी शक्ति का अपव्यय करके थक जाता है, और इस प्रकार अपने चुने हुए कार्य -Be and Make ' को भी सफलता पूर्वक करने में असमर्थ हो जाता है। उन्नत मनुष्य बनने और बनाने में बाधक ऐसे विघ्नों से सुरक्षित रहने के लिए आत्मसंयम अत्यावश्यक है।

श्रीकृष्ण यहाँ शपथ -पत्र (affidavit) में वचन देते हैं कि जो लोग यह जानकर कि एकमात्र आत्मा ही सम्पूर्ण विश्व का अधिष्ठान और पारमार्थिक सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) है; अनन्यभाव से 'मेरा' अर्थात् आत्मस्वरूप अवतार-वरिष्ठ (श्रीराकृष्ण) का ध्यान करते हैं, उन नित्ययुक्त भक्तजनों का योग-क्षेम (अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा) मैं वहन करता हूँ। यहाँ भगवान् (अवतार वरिष्ठ या माँ जगदम्बा) शब्द से तात्पर्य इस जगत् और उसमें होने वाली घटनाओं के पीछे जो शाश्वत नियम कार्य कर रहा है,  उससे समझना चाहिए। सिंचाई कार्य के लिए जब जल को उच्च से निम्न धरातल की ओर प्रवाहित किया जाता है तो इच्छित क्षेत्र में उसके प्रवाह के लिए हमें केवल उसकी दिशा ही सही करनी होती है। तत्पश्चात् प्रकृतिक नियम के अनुसार वह जल स्वतः ही उच्च से निम्न धरातल की ओर प्रवाहित होगा। इसी प्रकार जो कोई पुरुष अपने भौतिक या आध्यात्मिक किसी भी  कार्यक्षेत्र में यहाँ वर्णित शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर पालन करने योग्य नियमों के अनुसार कार्य करेगा सफलता ऐसी परिस्थितियों के सजग शासक के चरणों को चूमेगी। यह श्लोक उस रहस्य को अनावृत करता है,जिसे जानकर (अभ्युदय और निःश्रेयस) भौतिक और आध्यात्मिक दोनों क्षेत्र में निश्चित रूप से महान सफलता प्राप्त की जा सकती है।]

"परन्तु ज्ञानोन्माद के होने पर फिर कोई कर्तव्य नहीं रह जाता । तब कल के लिए तुम अगर न सोचोगे तो ईश्वर सोचेंगे । ज्ञानोन्माद होने पर तुम्हारे परिवार के लिए भी वे ही सोचेंगे । जब कोई जमींदार नाबालिग लड़कों को छोड़कर मर जाता है तब सरकार रियासत का काम सँभालती है । ये सब कानूनी बातें हैं, तुम तो जानते ही हो ।”

[“তবে জ্ঞানোন্মাদ হলে আর কর্তব্য থাকে না। তখন কালকার জন্য তুমি না ভাবলে ঈশ্বর ভাবেন। জ্ঞানোন্মআদ হলে তোমার পরিবারদের জন্য তিনি ভাববেন। যখন জমিদার নাবালক ছেলে রেখে মরে যায়, তখন অছি সেই নাবালকের ভার লয়। এ-সব আইনের ব্যাপার তুমি তো সব জান।”

"But if you are intoxicated with the Knowledge of God, then you have no more duties to perform. Then God Himself will think about your morrow if you yourself cannot do so. God Himself will think about your family if you are intoxicated with Him. If a landlord dies leaving behind a minor son, then a guardian appointed by the court takes charge of the son. These are all points of law; you know them."

सब-जज - जी हाँ।

সদরওয়ালা — আজ্ঞা হাঁ।

SUB-JUDGE: "Yes, sir."

विजय गोस्वामी – अहा ! अहा ! कैसी बात है । जिनका मन एकमात्र उन्हीं पर लगा रहता है, जो उनके प्रेम में पागल हो जाते हैं, उनका भार ईश्वर स्वयं ढोते हैं । नाबालिगों को बिना खोजे आप ही पालक मिल जाते हैं । अहा, यह अवस्था कब होगी ? जिनकी होती है, वे कितने भाग्यवान हैं !

[বিজয় গোস্বামী — আহা! আহা! কি কথা! যিনি অনন্যমন হয়ে তাঁর চিন্তা করেন, যিনি তাঁর প্রেমে পাগল, তাঁর ভার ভগবান নিজে বহন করেন! নাবালকের অমনি ‘অছি’ এসে জোটে। আহা! কবে সেই অবস্থা হবে। যাদের হয় তারা কি ভাগ্যবান!

VIJAY: "Ah! Priceless words! God Himself carries on His shoulders all the responsibilities of a person who thinks of Him with single-minded devotion and is mad with divine love. A minor gets his guardian without seeking him. Alas, when shall I have that state of mind? How lucky they are who feel that way!"

त्रैलोक्य - महाराज, संसार में क्या यथार्थ ज्ञान होता है ? - ईश्वर मिलते हैं ?

[ত্রৈলোক্য — মহাশয়, সংসারে যথার্থ কি জ্ঞান হয়? ঈশ্বরলাভ হয়?

TRAILOKYA: "Is it ever possible, sir, to have true knowledge of God while living in the world? Can one realize God here?"

श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए) – क्यों - तुम तो मौज में हो (गुड़ और चीनी दोनों का मजा ले रहे हो)। (सब हँसते हैं ।) ईश्वर पर मन रखकर संसार में हो न ? अवश्य ही काम हो जायेगा ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (হাসিতে হাসিতে) — কেন গো, তুমি তো সারে-মাতে আছো। (সকলের হাস্য) ঈশ্বরে মন রেখে সংসারে আছো তো। কেন সংসারে হবে না? অবশ্য হবে।

MASTER (with a smile): "Why do you worry? You are enjoying both treacle and refined sugar. (All laugh.) You are living in the world with your mind in God. Isn't that true? Why shouldn't a man realize God in the world? Certainly he can."

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏गृहस्थ ज्ञानी के लक्षण ~ ईश्वर-प्राप्ति की पहचान -जीवनमुक्त के लक्षण 🔆🙏

[সংসারে জ্ঞানীর লক্ষণ — ঈশ্ব্বরলাভের লক্ষণ — জীবন্মুক্ত ]

त्रैलोक्य - संसार में ज्ञानलाभ होता है, इसके लक्षण क्या है ?

[ত্রৈলোক্য — সংসারে জ্ঞানলাভ হয়েছে তার লক্ষণ কি?

TRAILOKYA: "What are the signs of a householder's having attained Knowledge?"

श्रीरामकृष्ण - ईश्वर का नाम लेते हुए, उसकी आँखों से धारा वह चलेगी, शरीर में पुलक होगा । उनका मधुर नाम सुनकर शरीर रोमांचित होने लगेगा और आँखों से धारा वह चलेगी ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — হরিনামে ধারা আর পুলক। তাঁর মধুর নাম শুনেই শরীর রোমাঞ্চ হবে আর চক্ষু দিয়ে ধারা বেয়ে পড়বে।

MASTER : "His tears will flow, and the hair on his body will stand on end. No sooner does he hear the sweet name of God than the hair on his body stands on end from sheer delight, and tears roll down his cheeks.

"जब तक इन्द्रिय-विषयों की आसक्ति रहती है, 'कामिनी कांचन' पर प्यार रहता है, तब तक देहबुद्धि दूर नहीं होती । विषय की आसक्ति जितनी घटती जाती है, उतना ही मन आत्मज्ञान की ओर बढ़ता जाता है और देहबुद्धि (देहाध्यास -भेंड़त्व का भ्रम) भी घटती जाती है । विषय की आसक्ति के समूल नष्ट हो जाने पर ही आत्मज्ञान होता है, तब 'आत्मा' अलग जान पड़ता है और 'देह' अलग

[“যতক্ষণ বিষয়াসক্তি থাকে, কামিনী-কাঞ্চনে ভালবাসা থাকে, ততক্ষণ দেহবুদ্ধি যায় না। বিষয়াসক্তি যত কমে ততই আত্মজ্ঞানের দিকে চলে যেতে পারা যায়, আর দেহবুদ্ধি কমে। বিষয়াসক্তি একেবারে চলে গেলে আত্মজ্ঞান হয়, তখন আত্মা আলাদা আর দেহ আলাদা বোধ হয়। 

A man cannot get rid of body-consciousness as long as he is attached to worldly things and loves 'woman and gold'. As he becomes less and less attached to worldly things, he approaches nearer and nearer to the Knowledge of Self. He also becomes less and less conscious of his body. He attains Self-Knowledge when his worldly attachment totally disappears. Then he realizes that body and soul are two separate things

नारियल का पानी सूखे बिना गोले को नारियल से काटकर अलग करना बड़ा मुश्किल है । पानी सूख जाता है तो नारियल का गोला खड़खड़ता रहता है । वह खोल से छूट जाता है । इसे पका हुआ नारियल कहते हैं ।

[নারিকেলের জল না শুকুলে দা দিয়ে কেটে শাঁস আলাদা, মালা আলাদা করা কঠিন হয়। জল যদি শুকিয়ে যায়, তাহলে নড় নড় করে, শাঁস আলাদা হয়ে যায়। একে বলে খড়ো নারিকেল।"

It is very difficult to separate with a knife the kernel of a coconut from the shell before the milk inside has dried up. When the milk dries up, the kernel rattles inside the shell. At that time it loosens itself from the shell. Then the fruit is called a dry coconut.

 [ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏काली के भक्त जीवनमुक्त नित्यानंदमय हो जाते हैं🔆🙏

‘কালীর ভক্ত জীবন্মুক্ত নিত্যানন্দময়।’

[सिंहवाहिनी माता का 'सिंह-शावक' (शेरनी माँ तारा का पुत्र) भेंड़त्व के भ्रम से मुक्त, De-hypnotized) होकर 'विवेकानन्दमय' हो जाता है!]    

"ईश्वर की प्राप्ति होने का यही लक्षण है कि वह आदमी पके हुए नारियल की तरह हो जाता है - तब उसकी देहात्मिकाबुद्धि चली जाती है । देह के सुख और दुःख से उसे सुख या दुःख का अनुभव नहीं होता । वह आदमी देह-सुख नहीं जानता, वह जीवन्मुक्त होकर विचरण करता है ।

"माँ काली का भक्त जीवनमुक्त होकर अनन्त आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है !"

[“ঈশ্বরলাভ হলে লক্ষণ এই যে, সে ব্যক্তি খড়ো-নারিকেলের মতো হয়ে যায় — দেহাত্মবুদ্ধি চলে যায়। দেহের সুখ-দুঃখে তার সুখ-দুঃখ বোধ হয় না। সে ব্যক্তি দেহের সুখ চায় না। জীবন্মুক্ত হয়ে বেড়ায়। 

‘কালীর ভক্ত জীবন্মুক্ত নিত্যানন্দময়।’

The sign of a man's having realized God is that he has become like a dry coconut. He has become utterly free from the consciousness that he is the body. He does not feel happy or unhappy with the happiness or unhappiness of the body. He does not seek the comforts of the body. He roams about in the world as a jivanmukta, one liberated in life. 

[The devotee of Kali (सिंह-शावक) is a jivanmukta, full of Eternal Bliss.]

"जब देखना कि ईश्वर का नाम लेते ही आँसू बहते हैं और पुलक होता है, तब समझना, कामिनी-कांचन की आसक्ति चली गयी है, ईश्वर मिल गये हैं । दियासलाई अगर सूखी हो, तो घिसने से ही जल उठती है । और अगर दियासलाई भीगी हो (अर्थात कामिनी -कांचन में आसक्ति बनी हुई हो), तो चाहे पचासों सलाई घिस डालो कहीं कुछ न होगा, सलाइयों की बरबादी करना ही है ।

विषय रस में रहने पर कामिनी और कांचन में मन भीगा हुआ होने पर, ईश्वर की उद्दीपना नहीं होती । चाहे हजार उद्योग करो, परन्तु सब व्यर्थ होगा । विषय रस के सूखने पर उसी क्षण उद्दीपन होगा ।”

.[“যখন দেখবে ঈশ্বরের নাম করতেই অশ্রু আর পুলক হয়, তখন জানবে, কামিনী-কাঞ্চনে আসক্তি চলে গেছে, ঈশ্বরলাভ হয়েছে। দেশলাই যদি শুকনো হয়, একটা ঘষলেই দপ করে জ্বলে উঠে। আর যদি ভিজে হয়, পঞ্চাশটা ঘষলেও কিছু হয় না। কেবল কাঠিগুলো ফেলা যায়। বিষয়রসে রোসে থাকলে, কামিনী-কাঞ্চন-রসে মন ভিজে থাকলে, ঈশ্বরের উদ্দীপনা হয় না। হাজার চেষ্টা কর, কেবল পণ্ডশ্রম। বিষয়রস শুকুলে তৎক্ষণাৎ উদ্দীপন হয়।”

"When you find that the very mention of God's name brings tears to your eyes and makes your hair stand on end, then you will know that you have freed yourself from attachment to 'woman and gold' and attained God. If the matches are dry, you get a spark by striking only one of them. But if they are damp, you don't get a spark even if you strike fifty. You only waste matches. Similarly, if your mind is soaked in the pleasure of worldly things, in 'woman and gold', then God-Consciousness will not be kindled in you. You may try a thousand times, but all your efforts will be futile. But no sooner does attachment to worldly pleasure dry up than the spark of God flashes forth."

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏सिक्खों को उपदेश -विषयरस सुखाने की जिद करो - काली तुम्हारी अपनी माँ है🔆🙏

[উপায় ব্যাকুলতা — তিনি যে আপনার মা ]

त्रैलोक्य - विषय रस को सुखाने का अब कौनसा उपाय है ?

[ত্রৈলোক্য — বিষয়রস শুকোবার এখন উপায় কি?

TRAILOKYA: "What is the way to dry up the craving for worldly pleasure?"

श्रीरामकृष्ण - माता से व्याकुल होकर कहो । उनके दर्शन होने पर विषय-रस आप ही सूख जायेगा । कामिनी-कांचन की आसक्ति सब दूर हो जायेगी । काली ~> 'अपनी माँ हैं' ऐसा बोध हो जाने पर इसी समय मुक्ति हो जायेगी । वे कुछ धर्म की माँ थोड़े ही हैं, अपनी माँ हैं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — মার কাছে ব্যাকুল হয়ে ডাকো। তাঁর দর্শন হলে বিষয়রস শুকিয়ে যাবে; কামিনী-কাঞ্চনে আসক্তি সব দূরে চলে যাবে। আপনার মা বোধ থাকলে এক্ষণেই হয়। তিনি তো ধর্ম-মা নন। আপনারই মা। 

MASTER: "Pray to the Divine Mother with a longing heart. Her vision dries up all craving for the world and completely destroys all attachment to 'woman and gold'. It happens instantly if you think of Her as your own mother. She is by no means a godmother. She is your own mother. 

व्याकुल होकर माता से कहो - हठ करो । बच्चा पतंग खरीदने के लिए माता का आँचल पकड़कर पैसे माँगता है । माँ कभी उस समय दूसरी स्त्रियों से बातचीत करती रहती है । पहले किसी तरह पैसे देना ही नहीं चाहती । कहती है - 'नहीं, वे मना कर गये हैं । आयेंगे तो कह दूंगी, पतंग लेकर एक उत्पात खड़ा करना चाहता है क्या ?"

[ব্যাকুল হয়ে মার কাছে আব্দার কর। ছেলে ঘুড়ি কিনবার জন্য মার আঁচল ধরে পয়সা চায় — মা হয়তো আর মেয়েদের সঙ্গে গল্প পরছে। প্রথমে মা কোনমতে দিতে চায় না। বলে, ‘না, তিনি বারণ করে গেছেন, তিনি এলে বলে দিব, এক্ষণই ঘুড়ি নিয়ে একটা কাণ্ড করবি।’ 

With a yearning heart persist in your demands on Her. The child holds to the skirt of its mother and begs a penny of her to buy a kite. Perhaps the mother is gossiping with her friends. At first she refuses to give the penny and says to the child: 'No, you can't have it. Your daddy has asked me not to give you money. When he comes home I'll ask him about it. You will get into trouble it you play with a kite now.'

पर जब लड़का रोने लगता है, किसी तरह नहीं छोड़ता, तब माँ दूसरी स्त्रियों से कहती है, तुम जरा बैठो, इस लड़के को बहलाकर मैं अभी आयी । यह कहकर चाभी ले, झटपट सन्दूक खोलती है और एक पैसा बच्चे के आगे फेंक देती है । इसी तरह तुम भी माता से हठ करो । वे अवश्य ही दर्शन देंगी । मैंने सिक्खों से यही बात कही थी । वे लोग दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर में गये थेकालीमन्दिर के सामने बैठकर बातचीत हुई थी । 

[যখন ছেলে কাঁদতে শুরু করে, কোন মতে ছাড়ে না, মা অন্য মেয়েদের বলে, ‘রোস মা, এ-ছেলেটাকে একবার শান্ত করে আসি।’ এই কথা বলে, চাবিটা নিয়ে কড়াৎ কড়াৎ করে বাক্স খুলে একটা পয়সা ফেলে দেয়। তোমারও মার কাছে আব্দার করো, তিনি অবশ্য দেখা দিবেন। আমি শিখদের ওই কথা বলেছিলাম। তারা দক্ষিণেশ্বর-কালীবাড়িতে এসেছিল; মা-কালীর মন্দিরের সম্মুখে বসে কথা হয়েছিল। 

 The child begins to cry and will not give up his demand. Then the mother says to her friends: 'Excuse me a moment. Let me pacify this child.' Immediately she unlocks the cash-box with a click and throws the child a penny. You too must force your demand on the Divine Mother. She will come to you without fail. I once said the same thing to some Sikhs when they visited the temple at Dakshineswar. We were conversing in front of the Kali temple.

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏'परम आत्मीय ईश्वर' ~ किस सीमा तक अपने हैं ?🔆🙏 

उन लोगों ने कहा था, ईश्वर दयामय हैं । मैंने पूछा, क्यों दयामय है ? उन लोगों ने कहा, क्यों महाराज, वे सदा ही हमारी देख-रेख करते हैं, हमें धर्म और अर्थ सब दे रहे हैं, खाने को देते हैं । मैंने कहा, अगर किसी के लड़के-बच्चे हों, तो उनकी खबर, उनके खाने-पीने का भार उनका बाप न लेगा, तो क्या गाँववाले आकर लेंगे ?

[তারা বলেছিল, ‘ঈশ্বর দয়াময়’। জিজ্ঞাসা করলুম, ‘কিসে দয়াময়?’ তারা বললে, কেন মহারাজ! তিনি সর্বদা আমাদের দেখছেন, আমাদের ধর্ম অর্থ সব দিচ্ছেন, আহার যোগাচ্ছেন। আমি বললুম, যদি কারো ছেলেপুলে হয়, তাদের খবর তাদের খাওয়ার ভার, বাপ নেবে, না, তো কি বামুনপাড়ার লোকে এসে নেবে?

They said, 'God is compassionate.' 'Why compassionate?' I asked. They said, 'Why, revered sir, He constantly looks after us, gives us righteousness and wealth, and provides us with our food.' 'Suppose', I said, 'a man has children. Who will look after them and provide them with food — their own father, or a man from another village?'"

सब-जज - महाराज, तो क्या वे दयामय नहीं है ?

[সদরওয়ালা — মহাশয়! তিনি কি তবে দয়াময় নন?

SUB-JUDGE: "Is not God, then, compassionate, sir?"

श्रीरामकृष्ण - है क्यों नहीं ? वह एक बात उस तरह की कहनी ही थी । वे तो अपने परम आत्मीय हैं । उन पर हमारा जोर है । अपने आदमी से तो ऐसी बात भी कही जा सकती है - 'देगा कि नहीं? - - साला कहीं का !’

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তা কেন গো? ও একটা বললুম; তিনি যে বড় আপনার লোক! তাঁর উপর আমাদের জোর চলে! আপনার লোককে এমন কথা পর্যন্ত বলা যায়, “দিবি না রে শালা।”

MASTER: "Why should you think that? I just made a remark. What I mean to say is that God is our very own. We can exert force on Him. With one's own people one can even go so far as to say, 'You rascal! Won't you give it to me?'

(६)

*अहंकार और सब-जज*

[অহংকার ও সদরওয়ালা] 

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏'अहंकार ही आवरण है' जिसके कारण सब-जज भी ईश्वर को नहीं देख पाते🔆🙏

[विचार करो - अहंकार 'ज्ञान' के कारण होता है या 'अज्ञान' के कारण ?]

“আমি মলে ঘুচিবে জঞ্জাল।”

'All troubles come to an end when the ego dies.'

श्रीरामकृष्ण - (सब-जज से) - अच्छा, अभिमान और अहंकार ज्ञान से होते हैं या अज्ञान से ? - अहंकार तमोगुण है, अज्ञान से पैदा होता है । इस अहंकार की आड़ (आवरण) है, इसीलिए लोग ईश्वर को नहीं देख पाते । 'मैं' मरा कि बला टली । अहंकार करना वृथा है । यह शरीर, यह ऐश्वर्य, कुछ भी न रह जायेगा ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সদরওয়ালার প্রতি) — আচ্ছা, অভিমান, অহংকার জ্ঞানে হয় — না, অজ্ঞানে হয়? অহংকার তমোগুণ, অজ্ঞান থেকে উৎপন্ন হয়। এই অহংকার আড়াল আছে বলে তাই ঈশ্বরকে দেখা যায় না। “আমি মলে ঘুচিবে জঞ্জাল।” অহংকার করা বৃথা। এ-শরীর, এ-ঐশ্বর্য কিছুই থাকবে না। 

(To the sub-judge) "Let me ask you one thing. Are vanity and egotism the result of knowledge or of ignorance? Egotism is of the nature of tamas; it is begotten by ignorance. On account of the barrier of ego one does not see God. 'All troubles come to an end when the ego dies.' It is futile to be egotistic. Neither body nor wealth will last.

[(19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🔆🙏दुर्गा -पूजा के बाद मूर्ति-विसर्जन की मरीचिका🔆🙏  

कोई मतवाला (शराबी) दुर्गा की मूर्ति देख रहा था । प्रतिमा की सजावट देखकर उसने कहा, 'चाहे जितना बनोठनो, एक दिन लोग तुम्हें घसीटकर गंगा में डाल देंगे ।^(^पूजा के बाद मूर्ति विसर्जन की भ्रान्ति या मरीचिका ~  सब हँसते हैं।) इसीलिए सब से कह रहा हूँ, जज हो जाओ, चाहे जो हो जाओ, सब दो दिन के लिए है । इसीलिए अभिमान और अहंकार का त्याग करना चाहिए ।

[একটা মাতাল দুর্গা প্রতিমা দেখছিল। প্রতিমার সাজগোজ দেখে বলছে, “মা, যতই সাজো-গোজো, দিন দুই-তিন পরে তোমায় টেনে গঙ্গায় ফেলে দিবে।” (সকলের হাস্য) তাই সকলকে বলছি, জজই হও আর যেই হও সব দুদিনের জন্য। তাই অভিমান, অহংকার ত্যাগ করতে হয়।

Once a drunkard was looking at the image of Durga. At the sight of Her decorations, he said, 'Well, Mother! However You may fix Yourself up, after two or three days they will drag You out and throw You into the Ganges.^ ' (^An illusion to the immersion of the image after worship. All laugh.)"So I say to you all, you may be a judge or anybody else, but it is all for two days only. Therefore you should give up vanity and pride.

*ब्रह्म समाज और साम्यभाव - मनुष्य का स्वभाव भिन्न-भिन्न क्यों हैं*

[ব্রাহ্মসমাজ ও সাম্য — লোক ভিন্ন প্রকৃতি ]

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏सत्त्व, रज और तम देह के उपादान हैं -गुण नहीं हैं, तभी मनुष्यों में विविधता है🔆🙏    

"सत्त्व, रज और तम, इन तीनों गुणों (से बने देह) का स्वभाव अलग अलग है । तमोगुणवालों के लक्षण हैं, अहंकार, निद्रा, अधिक भोजन, काम, क्रोध, आदि आदि । रजोगुणी अधिक काम समेटते हैं; कपड़े साफ सुथरे, घर झकाझक, बैठकखाने में Queen (रानी) की तस्वीर; जब ईश्वर की चिन्ता करता है, तब रेशमी धोती पहनता है, गले में रुद्राक्ष की माला है, उसमें कहीं कहीं सोने के दाने पड़े रहते हैं, अगर कोई उसका 'ठाकुरमन्दिर' देखने के लिए जाता है, तो साथ जाकर दिखाता और कहता है, 'इधर आइये, अभी और देखने को है । सफेद पत्थर – संगमर्मर - की जमीन है, सोलह द्वारों का सभामण्डप है ।'और आदमियों को दिखलाकर दान देता है । [समाजसेवा क्लब के साथ मिलकर गरीब बच्चों को खिलाने या कंबल बाँटने के पहले पत्रकार को बुलवाकर फोटो खिंचवाता है और फेसबुक में अपना प्रचार करता है।] 

[“সত্ত্ব, রজঃ ও তমোগুণের ভিন্ন স্বভাব। তমোগুণীদের লক্ষণ, অহংকার, নিদ্রা, বেশি ভোজন, কাম, ক্রোধ — এই সব রজোগুণিরা বেশি কাজ জড়ায়; কাপড়; পোশাক ফিট-ফাট, বাড়ি পরিষ্কার-পরিচ্ছন্ন, বৈঠকখানায় কুইনের ছবি, যখন ঈশ্বরচিন্তা করে তখন চেলী-গরদ পরেম গলায় রুদ্রাক্ষের মালা, তার মাঝে মাঝে একটি একটি সোনার রুদ্রাক্ষ; যদি কেউ ঠাকুরবাড়ি দেখতে আসে তবে সঙ্গে করে দেখায় আর বলে, এদিকে আসুন আরও আছে, শ্বেত পাথরের, মার্বেল পাথরের মেঝে আছে, ষোল-ফোকর নাটমন্দির আছে। 

"The characteristics of sattva, rajas, and tamas are very different. Egotism, sleep, gluttony, lust, anger, and the like, are the traits of people with tamas. Men with rajas entangle themselves in many activities. Such a man has clothes all spick and span. His house is immaculately clean. A portrait of the Queen (Queen Victoria.) hangs on a wall in his drawing-room. When he worships God he wears a silk cloth. He has a string of rudraksha beads around his neck, and in between the beads he puts a few gold ones. When someone comes to visit the worship hall in his house, he himself acts as guide. After showing the hall, he says to the visitor: 'Please come this way, sir. There are other things too — the floor of white marble and the natmandir with its exquisite carvings.' When he gives in charity he makes a show of it. 

 सतोगुणी मनुष्य बहुत ही शिष्ट और शान्त होता है; उसके कपड़े वही जो मिल गये, रोजगार बस पेट भरने के लिए; कभी किसी की खुशामद करके धन नहीं लेता; घर की मरम्मत नहीं हुई है, मान और प्रतिष्ठा के लिए एड़ी और चोटी का पसीना एक नहीं करता। ईश्वर-चिन्तन, दानध्यान सब गुप्त भाव से करता है - लोगों को खबर नहीं होती, मसहरी के भीतर ध्यान करता है, लोग सोचते हैं - रात को बाबू की आँख नहीं लगी, इसीलिए देर तक सो रहे हैं । सतोगुण अन्त की सीढ़ी है, उसके आगे ही छत है । सतोगुण के आने पर ईश्वरप्राप्ति में फिर देर नहीं होती - जरासा और बढ़ने से ही ईश्वर मिलते हैं ।

[সত্ত্বগুণী লোক অতি শিষ্ট-শান্ত, কাপড় যা তা; রোজগার পেট চলা পর্যন্ত, কখনও লোকের তোষামোদ করে ধন লয় না, বাড়িতে মেরামত নাই, ছেলেদের পোশাকের জন্য ভাবে না; মান-সম্ভ্রমের জন্য ব্যস্ত হয় না, ঈশ্বরচিন্তা, দানধ্যান সমস্ত গোপনে — লোকে টের পায় না; মশারির ভিতর ধ্যান করে, লোকে ভাবে বাবুর রাতে ঘুম হয় নাই তাই বেলা পর্যন্ত ঘুমাচ্ছেন। সত্ত্বগুণ সিঁড়ির শেষ ধাপ, তারপরেই ছাদ। সত্ত্বগুণ এলেই ঈশ্বরলাভের আর দেরি হয় না — আর একটু গেলেই তাঁকে পাবে।

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏 Qualities and Characteristics of Leader 🔆🙏

`मानव प्रकृति की बहुत सारी विविधताएँ (Varieties-किस्में ) हैं '   

[মানব প্রকৃতির বিভিন্নতা।]

[Varieties of Human Nature.]

(सब-जज की  तरफ मुख करके) तुमने कहा था, सब आदमी बराबर हैं, देखो, अलग अलग प्रकृति के कितने मनुष्य हैं ।

"और भी कितने ही दर्जे हैं - नित्यजीव (eternally free) , मुक्तजीव (who have attained liberation) , मुमुक्षुजीव (struggling for liberation) बद्धजीव (entangled in the world) अनेक तरह के आदमी हैं। नारद, शुकदेव नित्य जीव हैं; जैसे Steam boat (कलवाला जहाज-अविद्या माया और विद्या माया दोनों के पार जाता है)। खुद भी पार जाता है और बड़े बड़े जीवों को - हाथियों को भी ले जाता है । नित्य जीव नायबों (District Collector) की तरह हैं, एक स्थान का शासन कर दूसरे का शासन करने के लिए जाते हैं।

 (क्योंकि जीवात्मा-मात्र शुद्धसत्व -स्वरुप तो है , लेकिन उस पर रज और तम का आवरण पड़ा हुआ है।)   

 (সদরওয়ালার প্রতি) — তুমি বলেছিলে সব লোক সমান। এই দেখ, কত ভিন্ন প্রকৃতি।

 (To the sub-judge) Didn't you say that all men were equal? Now you see that there are so many varieties of human nature.

["There are still other classes and kinds of people. For instance, there are those who are eternally free, those who have attained liberation, those struggling for liberation, and those entangled in the world. So many varieties of men! Sages like Narada and Sukadeva are eternally free. They are like a steamship, which not only crosses the ocean but can carry big animals, even an elephant. Further, the soul that is eternally free is like the superintendent of an estate. After bringing one part of the estate under control, he goes to another. 

“আরও কত রকম থাক থাক আছে; — নিত্যজীব, মুক্তজীব, মুমুক্ষজীব, বদ্ধজীব, — নানারকম মানুষ। নারদ, শুকদেব নিত্যজীব, যেমন স্টীম বোট্‌ (কলের জাহাজ) পারে আপনিও যেতে পারে আবার বড় জীবজন্তু হাতি পর্যন্ত পারে নিয়ে যায়। নিত্যজীবেরা নায়েবের স্বরূপ; একটা তালুক শাসন করে আর-একটা তালুক শাসন করতে যায়। 

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

 🙏नित्यमुक्तजीव ~विवेकानन्द, मुक्तजीव ~ नवनीदा, एवं मुमुक्षुजीव  ~ कैप्टन सेवियर 🔆

मुमुक्षु जीव संसार के जाल से मुक्त होने के लिए व्याकुल होकर जान तक की बाजी लगाकर परिश्रम करते हैं । इनमें से एक ही दो जाल से निकल सकते हैं, वे मुक्त जीव (CINC- मुमुक्षु नवनीदा) हैं । नित्यजीव (गुरु विवेकानन्द) एक चालाक मछली की तरह हैं, वे कभी जाल में नहीं पड़ते 

[আবার মুমুক্ষ জীব আছে, যারা সংসার জাল থেকে মুক্ত হোয়ার জন্য ব্যকুল হয়ে প্রাণপণে চেষ্টা করছে। এদের মধ্যে দুই-একজন জাল থেকে পালাতে পারে, তারা মুক্ত জীব। নিত্যজীবেরা এক-একটা সিয়ানা মাছের মতো; কখনও জালে পড়ে না।

Those struggling for liberation strive heart and soul to free themselves from the net of the world. One or two of them may get out of the net. They are called the liberated. The souls that are eternally free are like clever fish; they are never caught in the net. 

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏बद्ध जीवों के लक्षण--मरने के समय भी भगवान का नाम नहीं लेते 🔆🙏

` सन्निपात (delirium-चित्तभ्रम, भेंड़त्व या ) मनोक्षेप की अवस्था~ 
[ओह ! ब्रह्म को भी पंचभूतों के चक्कर में फंस कर रोना पड़ता है !] 

 “जो बद्ध जीव (The entangled souls, संसार में फँसा हुआ जीव- पंचभूतेर फाँदे) हैं, संसारी जीव हैं, उन्हें होश नहीं रहता । वे जाल में तो पड़े हुए हैं, परन्तु यह ज्ञान नहीं है कि हम जाल में फंसे हैं । सामने भगवत्प्रसंग देखकर ये लोग वहाँ से उठकर चले जाते है, कहते हैं - 'मरने के समय रामनाम लिया जायेगा, अभी इतनी जल्दी क्या है ?' फिर मृत्युशय्या पर पड़े हुए अपनी स्त्री या लड़के से कहते हैं, 'दीपक में कई बत्तियाँ क्यों लगायी गयी हैं ? - एक बत्ती लगाओ, मुफ्त में तेल जला जा रहा है ।' और अपनी बीबी और बच्चों की याद कर-करके रोते हैं, कहते हैं, 'हाय ! मैं मरूंगा तो इनके लिए क्या होगा?’ बद्ध जीव जिससे इतनी तकलीफ पाता है, वही काम फिर करता है, जैसे कँटीली डालियाँ चबाते हुए ऊँट के मुँह से धर-धर खून बहने लगता है, परन्तु वह कटीली डालियों को खाना फिर भी नहीं छोड़ता ।

["But the souls that are entangled, involved in worldliness, never come to their senses. They lie in the net but are not even conscious that they are entangled. If you speak of God before them, they at once leave the place. They say: 'Why God now? We shall think of Him in the hour of death.' But when they lie on their death-beds, they say to their wives or children; 'Why have you put so many wicks in the lamp? Use only one wick. Otherwise too much oil will be burnt.' While dying they think of their wives and children, and weep, 'Alas! What will happen to them after my death?''The entangled souls repeat those very actions that make them suffer so much. They are like the camel, which eats thorny bushes till the blood streams from its mouth, but still will not give them up.

[বদ্ধজীব মৃত্যুকালে ঈশ্বরের নাম করে না ] “কিন্তু বদ্ধজীবসংসারী জীব — তাদের হুঁশ নাই। তারা জালে পড়েই আছে, অথচ জালে বদ্ধ হয়েছি, এরূপ জ্ঞানও নাই। এরা হরিকথা সম্মুখে হলে সেখান থেকে চলে যায়, — বলে হরিনাম মরবার সময় হবে; এখন কেন? আবার মৃত্যুশয্যায় শুয়ে, পরিবার কিম্বা ছেলেদের বলে, ‘প্রদীপে অত সলতে কেন, একটা সলতে দাও; তা না হলে তেল পুড়ে যাবে’; আর পরিবার ও ছেলেদের মনে করে কাঁদে আর বলে, ‘হায়! আমি ম’লে এদের কি হবে।’ আর বদ্ধজীব যাতে এত দুঃখ ভোগ করে, তাই আবার করে; যেমন উটের কাঁটা ঘাস খেতে খেতে মুখ দিয়ে দরদর করে রক্ত পড়ে, তবু কাঁটা ঘাস ছাড়ে না। ]

इधर लड़का मर गया है, शोक से विह्वल हो रहा है, फिर भी हर साल बच्चों की पैदाइश में घाटा नहीं होता, लड़की के विवाह में सिर के बाल भी बिक गये; परन्तु हर साल लड़के और लड़कियों की हाजिरी में कमी नहीं होती; कहता है, 'क्या करूँ, भाग्य में ऐसा ही था ।’ {अल्ला के फजल से 14 साल में 18 बच्चे हो गए ? दो बार तो जुड़वाँ हुए ! या अल्ला के फजल से 7 भाई-बहन हैं , 12 तक पढ़ने  पढाई छोड़ दी , कहीं नौकरी के लिए अप्लाई नहीं किया -पर रोजगार कहाँ है ? का नारा लगाते हैं। } अगर तीर्थ करने के लिए जाता है, तो स्वयं कभी ईश्वर की चिन्ता नहीं करता, न समय मिलता है - समय तो बीबी की पोटली ढोते ढोते पार हो जाता है, ठाकुरमन्दिर में जाकर बच्चे को चरणामृत पिलाने और देवता के सामने लोटपोट कराने में ही व्यस्त रहता है । बद्ध जीव अपने और अपने परिवार के पेट पालने के लिए ही दासत्व करता है, और झूठ, वंचना एवं खुशामद करके धनोपार्जन करता है । जो लोग ईश्वर की चिन्ता करते हैं, ईश्वर के ध्यान में मग्न रहते हैं, उन्हें बद्ध जीव पागल कहते हैं; और इस तरह उन्हें चुटकियों में उड़ाया करते हैं ।

[Such a man may have lost his son and be stricken with grief, but still he will have children year after year. He may ruin himself by his daughter's marriage, but still he will go on having daughters every year. And he says: 'What can I do? It's just my luck!' When he goes to a holy place he doesn't have any time to think of God. He almost kills himself carrying bundles for his wife. Entering the temple, he is very eager to give his child the holy water to drink or make him roll on the floor; but he has no time for his own devotions. These bound creatures slave for their masters to earn food for themselves and their families; and they earn money by lying, cheating, flattery. They laugh at those who think of God and meditate on Him, and call them lunatics.

এদিকে ছেলে মারা গেছে, শোকে কাতর, তবু আবার বছর বছর ছেলে হবে; মেয়ের বিয়েতে সর্বস্বান্ত হল, আবার বছর বছর মেয়ে হবে; বলে, কি করব অদৃষ্টে ছিল। যদি তীর্থ করতে যায়, নিজে ঈশ্বরচিন্তা করবার অবসর পায় না। — কেবল পরিবারদের পুঁটুলি বইতে বইতে প্রাণ যায়, ঠাকুরদের মন্দিরে গিয়ে ছেলেকে চরণামৃত খাওয়াতে, গড়াগড়ি দেওয়াতেই ব্যস্ত। বদ্ধজীব নিজের আর পরিবারদের পেটের জন্য দাসত্ব করে — আর মিথ্যাকথা, প্রবঞ্চনা, তোষামোদ করে ধন উপায় করে। যারা ঈশ্বরচিন্তা করে, ঈশ্বরের ধ্যানে মগ্ন হয়, বদ্ধজীব তাদের পাগল বলে উড়িয়ে দেয়। 

 (सब-जज की  तरफ मुख करके) 'देखो, आदमी कितनी तरह के हैं । तुमने सब को बराबर बतलाया था । देखो, कितनी भिन्न-भिन्न प्रकृतियाँ हैं । किसी में शक्ति अधिक है, किसी में कम ।

["So you see how many different kinds of men there are. You said that all men were equal. But how many varieties of men there are! Some have more power and some less.

(সদরওয়ালার প্রতি) মানুষ কত রকম দেখ; তুমি সব এক বলছিলে। কত ভিন্ন প্রকৃতি। কারু বশি শক্তি, কারু কম।”] 

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏अभ्यास योग 🔆🙏

(विवेकदर्शन का अभ्यास-स्वामी विवेकानन्द की छवि पर प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास) 

संसार में फँसा हुआ जीव (पंचभूतों के फंदे फंसकर रोता हुआ ब्रह्म) मृत्यु के समय संसार की ही बातें कहता है । बाहर माला जपने, गंगा नहाने और तीर्थ जाने से क्या होता है ? संसार की आसक्ति के रहने पर, मृत्यु के समय वह दीख पड़ती है । न जाने कितनी वाहियात बातें बकता रहता है । कभी-कभी चित्त-विभ्रम (delirium, hallucinations,Hypnotized) या मनोक्षेप की अवस्था में (स्वयं को `भेंड़ ' समझनेवाला `सिंहशावक' )  ‘हलदी, पंचफोरन, तेजपत्ता ' कहकर चिल्ला उठता है

["The entangled creatures (`ओह ! पंचभूतों के चक्कर में फंस कर ब्रह्म को भी रोना पड़ता है !')  , attached to worldliness, talk only of worldly things in the hour of death. What will it avail such men if they outwardly repeat the name of God, take a bath in the Ganges, or visit sacred places? If they cherish within themselves attachment to the world, it must show up at the hour of death. While dying they rave nonsense. Perhaps they cry out in a delirium, 'Turmeric powder! Seasoning! Bay-leaf!'

“সংসারাক্ত বদ্ধজীব মৃত্যুকালে সংসারের কথাই বলে। বাহিরে মালা জপলে, গঙ্গাস্নান করলে, তীর্থে গেলে — কি হবে? সংসার আসক্তি ভিতরে থাকলে মৃত্যুকালে সেটি দেখা যায়। কত আবোল-তাবোল বলে; হয়তো বিকারের খেয়ালে ‘হলুদ, পাঁচফোড়ন, তেজপাতা’ বলে চেঁচিয়ে উঠল। 

तोता जब भलाचंगा रहता है तब `राम राम' (या राधाकृष्ण) कहता है, जब बिल्ली पकड़ती है तो अपनी बोली में 'टें-टें' करता है । गीता में लिखा है, मृत्यु के समय जो कुछ सोचोगे, दूसरे जन्म में वही होंगे । राजा भरत ने 'हरिण-हरिण' कहकर देह छोड़ी थी, दूसरे जन्म में वे हरिण ही हुए थे । ईश्वर की चिन्ता करके देह का त्याग करने पर ईश्वर की प्राप्ति होती है । फिर इस संसार में नहीं आना पड़ता ।"

[ The singing parrot, when at ease, repeats the holy names of Radha and Krishna, but when it is seized by a cat it utters its own natural sound; it squawks, 'Kaa! Kaa!' It is said in the Gita that whatever one thinks in the hour of death, one becomes in the after-life. King Bharata gave up his body exclaiming, 'Deer! Deer!' and was born as a deer in his next life. But if a man dies thinking of God, then he attains God, and he does not have to come back to the life of this world."

[শুকপাখি সহজ বেলা রাধাকৃষ্ণ বলে, বিল্লি ধরলে নিজের বুলি বেরোয়, ক্যাঁ ক্যাঁ করে। গীতায় আছে মৃত্যুকালে যা মনে করবে, পরলোকে তাই হবে। ভরত রাজা ‘হরিণ’, ‘হরিণ’ করে দেহত্যাগ করেছিল, তাই হরিণ-জন্ম হল। ঈশ্বরচিন্তা করে দেহত্যাগ করলে ঈশ্বরলাভ হয়, আর এ-সংসারে আসতে হয় না।”

ब्राह्मभक्त – महाराज ! किसी ने दूसरे समय में ईश्वर की चिन्ता की है, परन्तु मृत्यु के समय नहीं कर सका, तो क्या फिर उसे इस दुःखमय संसार में आना होगा ? पहले तो उसने ईश्वर की चिन्ता की थी ।

[A BRAHMO DEVOTEE: "Sir, suppose a man has thought of God at other times during his life, but at the time of his death forgets Him. Would he, on that account, come back to this world of sorrow and suffering (हैमलेट का संसार ?) Why should it be so? He certainly thought of God some time during his life."

ব্রাহ্মভক্ত — মহাশয়, অন্য সময় ঈশ্বরচিন্তা করেছে, কিন্তু মৃত্যু সময় করে নাই বলে কি আবার এই সুখ-দুঃখময় সংসারে আসতে হবে? কেন, আগে তো ঈশ্বরচিন্তা করেছিল?] 

श्रीरामकृष्ण - जीव ईश्वर की चिन्ता तो करता है, परन्तु ईश्वर पर उसका विश्वास नहीं है, इसलिए फिर भूलकर संसार में फँस जाता है । जैसे हाथी को बार बार नहलाने पर भी, वह फिर देह पर धूल फेंक लेता है, उसी तरह मन भी मतवाला है; परन्तु हाथी को नहलाकर ही अगर उसके स्थान में बाँध रखो तो फिर वह अपने ऊपर धूल नहीं डाल सकेगा ।

[MASTER: "A man thinks of God, no doubt, but he has no faith in Him. Again and again he forgets God and becomes attached to the world. It is like giving the elephant a bath; afterwards he covers his body with mud and dirt again. 'The mind is a mad elephant.' But if you can make the elephant go into the stable immediately after bathing him, then he stays clean. Just so, if a man thinks of God in the hour of death, then his mind becomes pure and it gets no more opportunity to become attached to 'woman and gold'.

শ্রীরামকৃষ্ণ — জীব ঈশ্বরচিন্তা করে, কিন্তু ঈশ্বরে বিশ্বাস নাই, আবার, ভুলে যায়; সংসারে আসক্ত হয়। যেমন এই হাতিকে স্নান করিয়ে দিলে, আবার ধুলা-কাদা মাখে। মনমত্তকরী! তবে হাতিকে নাইয়েই যদি আস্তাবলে সাঁধ করিয়া দিতে পার, তাহলে আর ধুলা-কাদা মাখতে পারে না। যদি জীব মৃত্যুকালে ঈশ্বরচিন্তা করে, তাহলে শুদ্ধমন হয়, সে মন কামিনী-কাঞ্চনে আবার আসক্ত হবার অবসর পায় না।] 

अगर मृत्यु के समय जीव ईश्वर की चिन्ता करता है तो उसका मन शुद्ध हो जाता है, वह मन फिर कामिनी-कांचन में फँसने का अवसर नहीं पाता ।
 
[ Just so, if a man thinks of God in the hour of death, then his mind becomes pure and it gets no more opportunity to become attached to 'woman and gold'.
যদি জীব মৃত্যুকালে ঈশ্বরচিন্তা করে, তাহলে শুদ্ধমন হয়, সে মন কামিনী-কাঞ্চনে আবার আসক্ত হবার অবসর পায় না।]

"ईश्वर पर विश्वास नहीं है, इसीलिए इतने कर्मों का भोग करना पड़ता है । लोग कहते हैं, जब तुम गंगा नहाने जाते हो तब तुम्हारे शरीर के पाप किनारे के पेड पर बैठ जाते हैं, तुम गंगा नहाकर निकले नहीं कि वे पाप फिर तुम्हारे सिर पर सवार हो जाते हैं । (सब हँसते हैं ।) देहत्याग के समय जिससे ईश्वर की चिन्ता हो, उसी के लिए पहले से उपाय किया जाता है । उपाय है – अभ्यासयोग । ईश्वर-चिन्तन का अभ्यास  करने पर अन्तिम दिन भी उनकी याद आयेगी ।"

["Man has no faith in God. That is the reason he suffers so much. They say that when you plunge into the holy waters of the Ganges your sins perch on a tree on the bank. No sooner do you come out of the water after the bath than the sins jump back on your shoulders. (All laugh.) A man must prepare the way beforehand, so that he may think of God in the hour of death. The way lies through constant practice. If a man practises meditation on God, he will remember God even on the last day of his life."

“ঈশ্বরে বিশ্বাস নাই, তাই এত কর্মভোগ। লোকে বলে যে, গঙ্গা-স্নানের সময় তোমার পাপগুলো তোমায় ছেড়ে গঙ্গার তীরের গাছের উপর বসে থাকে। যাই তুমি গঙ্গাস্নান করে তীরে উঠছো অমনি পাপগুলো তোমার ঘাড়ে আবার চেপে বসে। (সকলের হাস্য) দেহত্যাগের সময় যাতে ঈশ্বরচিন্তা হয়, তাই তার আগে থাকতে উপায় করতে হয়। উপায় — অভ্যাসযোগ। ঈশ্বরচিন্তা অভ্যাস করলে শেষের দিনেও তাঁকে মনে পড়বে।”] 

ब्राह्मभक्त - बड़ी अच्छी बातें हुई, बड़ी सुन्दर बातें हैं ।

[BRAHMO DEVOTEE: "You have spoken very beautifully, sir. Beautiful words, indeed."

ব্রাহ্মভক্ত — বেশ কথা হল। অতি সুন্দর কথা।] 

श्रीरामकृष्ण - कैसी बेसिर-पैर की बातें मैं बक गया । परन्तु मेरा भाव क्या है, जानते हो ? मैं यन्त्र हूँ, वे यन्त्री हैं, मैं गृह हूँ, वे गृही हैं, मैं गाड़ी हूँ, वे इंजीनियर हैं, मैं रथ हूँ, वे रथी हैं, जैसा चलाते हैं, वैसा ही चलता हूँ, जैसा कराते हैं, वैसा ही करता हूँ ।

[MASTER: "Oh, this is just idle talk. But do you know my inner feeling? I am the machine and God is the Operator. I am the house and He is the Indweller. I am the engine and He is the Engineer. I am the chariot and He is the Charioteer. I move as He moves me; I do as He makes me do."

শ্রীরামকৃষ্ণ — কি এলোমেলো বকলুম! তবে আমার ভাব কি জান? আমি যন্ত্র তিনি যন্ত্রী; আমি ঘর তিনি ঘরণী; আমি গাড়ি তিনি Engineer; আমি রথ তিনি রথী; যেমন চালান তেমনি চলি; যেমন করান তেমনি করি

(७)

 [(19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

 *श्रीरामकृष्ण का प्रेमोन्मत्त नृत्य *

त्रैलोक्य फिर गा रहे हैं । साथ में खोल करताल बज रहे हैं । श्रीरामकृष्ण प्रेमोन्मत्त होकर नृत्य करते करते कितनी ही बार समाधिमग्न हो रहे हैं । समाधिमग्न अवस्था में खड़े हैं । देह नि:स्पन्द है। नेत्र स्थिर, मुख हँसता हुआ, किसी प्रिय भक्त के कन्धे पर हाथ रखे हुए हैं; भाव के अन्त में फिर वही प्रेमोन्मत्त नृत्य । बाह्य दशा को प्राप्त होकर गाने के पद स्वयं भी गाते हैं-

हे ब्रह्ममयी माता, तुम ह्रदय में नाचो !    

हे माता, तुम भक्त-वृन्द को घेरे में लेकर ऐसा नृत्य करो,

कि, तुम्हारे साथ-साथ तुम्हारे भक्त भी नृत्य करने लगें। 

(फिर से दुहराता हूँ) मेरे ह्रदय -कमल पर एक बार नृत्य करो माता ,

हे ब्रह्ममयी माता,  तुम अपने उसी भुवनमोहिनी रूप नृत्य करो !   

 यह अपूर्व दृश्य है ! मातृगतप्राण, प्रेमोन्मत्त बालक का स्वर्गीय नृत्य

[Presently Trailokya began to sing to the accompaniment of drums and cymbals. Sri Ramakrishna danced, intoxicated with divine love. Many times he went into samadhi. He stood still, his eyes fixed, his face beaming, with one hand on the shoulder of a beloved disciple. Coming down a little from the state of ecstasy, he danced again like a mad elephant. Regaining consciousness of the outer world, he improvised lines to the music: `O Mother, dance about Thy devotees! Dance Thyself and make them dance as well. O Mother, dance in the lotus of my heart; Dance, O Thou the ever blessed Brahman! Dance in all Thy world-bewitching beauty.' 

ত্রৈলোক্য আবার গান গাহিতেছেন। সঙ্গে খোল-করতাল বাজিতেছে। শ্রীরামকৃষ্ণ প্রেমে উন্মত্ত হইয়া নৃত্য করিতেছেন। নৃত্য করিতে করিতে কতবার সমাধিস্থ হইতেছেন। সমাধিস্থ অবস্থায় দাঁড়াইয়া আছেন, স্পন্দহীন দেহ, স্থিরনেত্র, সহাস্যবদন; কোন প্রিয় ভক্তের স্কন্ধদেশে হাত দিয়ে আছেন। আবার ভাবান্তে মত্ত মাতঙ্গের ন্যায় নৃত্য। বাহ্যদশা প্রাপ্ত হইয়া গানের আখর দিতেছেন:“নাচ মা, ভক্তবৃন্দ বেড়ে বেড়ে;আপনি নেচে নাচাও গো মা;(আবার বলি) হৃদিপদ্মে একবার নাচ মা; নাচ গো ব্রহ্মময়ী সেই ভুবনমোহনরূপে।” 

ब्राह्मभक्त उन्हें घेरकर नृत्य कर रहे हैं । जैसे लोह को चुम्बक ने खींच लिया हो । सब के सब उन्मत्तवत् होकर ब्रह्म के गुणानुवाद गा रहे हैं । कभी कभी ब्रह्म के उस मधुर नाम का - माँ नाम का – उच्चारण कर रहे हैं - कोई कोई बालक की तरह 'माँ-माँ' करते हुए रो रहे हैं ।

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏एक अवर्णनीय दृश्य।🔆🙏

[An indescribable scene.] 

[ Steam boat 'कलवाला जहाज' को (नेता या जीवनमुक्त शिक्षक C-IN-C नवनीदा को) -अविद्या माया (illusion of ignorance) और विद्या माया - (illusion of knowledge) दोनों के पार जाना पड़ता है! ] 

कीर्तन समाप्त हो जाने पर सब ने आसन ग्रहण किया । अभी तक समाज की सन्ध्यावाली उपासना नहीं हुई है । इस कीर्तनानन्द में सब नियम न जाने कहाँ बह गये । श्रीयुत विजयकृष्ण गोस्वामी रात को वेदी पर बैठेंगे, ऐसा बन्दोबस्त किया गया है । इस समय रात के आठ बजे होंगे ।

[An indescribable scene. The exquisite and celestial dance of a child completely filled with ecstatic love of God and identified heart and soul with the Divine Mother! The Brahmo devotees danced around the Master again and again, attracted like iron to a magnet. In ecstatic voices they chanted the name of Brahman. Again, they chanted the name of the Divine Mother. Many of them wept like children, crying, "Mother! Mother!"

সে অপূর্ব দৃশ্য! মাতৃগতপ্রাণ, প্রেমে মাতোয়ারা সেই স্বর্গীয় বালকের নৃত্য! ব্রাহ্মভক্তেরা তাঁহাকে বেষ্টন করিয়া নৃত্য করিতেছেন — যেন লোহাকে চুম্বুকে ধরিয়াছে! সকলে উন্মত্ত হইয়া ব্রহ্মনাম করিতেছেন; আবার ব্রহ্মের সেই মধুর নাম, — মা নাম করিতেছেন। অনেকে বালকের মতো “মা, মা” বলিতে বলিতে কাঁদিতেছেন।

सब ने आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण भी बैठे हुए हैं । सामने विजय है । विजय की सास और दूसरी स्त्रियाँ श्रीरामकृष्ण के दर्शन करना चाहती हैं और उनसे बातचीत भी करेंगी । यह संवाद पाकर श्रीरामकृष्ण कमरे के भीतर जाकर उनसे मिले ।

[When the music was over, the devotees and the Master sat down. Although it was about eight o'clock, the evening worship of the Brahmo Samaj had not yet begun. In the joy of this divine music they had forgotten all about their formal worship. Vijay, who was to conduct the evening service, sat facing the Master. His mother-in-law and the other Brahmo ladies wanted to see Sri Ramakrishna; so the Master went to meet them in another room.

কীর্তনান্তে সকলে আসন গ্রহণ করিয়াছেন। শ্রীরামকৃষ্ণও আসীন। সম্মুখে বিজয়। বিজয়ের শাশুড়ী ঠাকুরানী ও অন্যানা মেয়েভক্তেরা তাঁহাকে দর্শন করিবেন ও তাঁহার সঙ্গে কথা বলিবেন বলিয়া সংবাদ পাঠাইলে, তিনি একটি ঘরের ভিতর গিয়া তাহাদের সঙ্গে দেখা করিলেন।]

कुछ देर बाद वहाँ से आकर वे विजय से कह रहे हैं, "देखो, तुम्हारी सास बड़ी भक्तिमती है । उसने कहा, 'संसार की बात अब न कहिये, एक तरंग जाती है और दूसरी आती है ।' मैंने कहा 'इससे तुम्हारा क्या बिगड़ सकता है ? तुम्हें ज्ञान तो है ।’ तुम्हारी सास ने इस पर कहा, 'मुझे कहाँ का ज्ञान है ! अब भी मैं विद्या माया और अविद्या माया के पार नहीं जा सकी । सिर्फ अविद्या माया के पार जाने से तो कुछ होता नहीं, `विद्या माया को भी पार करना है'-- ज्ञान तो तभी होगा आप ही तो यह बात कहते हैं ।"

 [ Steam boat 'कलवाला जहाज' (नेता जीवनमुक्त शिक्षक C-IN-C नवनीदा) को -अविद्या माया (illusion of ignorance) और विद्या माया - (illusion of knowledge) दोनों के पार जाना पड़ता है !)

[After a time the Master came back and said to Vijay: "What devotion to God your mother-in-law has! About the worldly life she said to me: 'Oh, you needn't tell me about the world. No sooner does one wave disappear than another rises up.' 'But', I said, 'what is that to you? You have knowledge.' She replied: 'Where is my knowledge? I haven't yet been able to go beyond vidyamaya and avidyamaya. It won't help me much to go beyond just the illusion of ignorance; I shall have to transcend the illusion of knowledge as well. Only then shall I have true knowledge of God. I am quoting your own words.'

কিয়ৎ পরে ফিরিয়া আসিয়া বিজয়কে বলিতেছেন, “দেখ, তোমার শাশুড়ীর কি ভক্তি! বলে, সংসারের কথা আর বলবেন না। এক ঢেউ যাচ্ছে, আর-এক ঢেউ আসছে! আমি বললুম, ওগো, তোমার আর তাতে কি! তোমার তো জ্ঞান হয়েছে। তোমার শাশুড়ী তাতে বললেন, আমার আবার কি জ্ঞান হয়েছে। এখনও বিদ্যা-মায়া আর অবিদ্যা-মায়ার পার হই নাই, শুধু অবিদ্যার পার হলে তো হবে না, বিদ্যার পার হতে হবে, তবে তো জ্ঞান হবে; আপনিই তো ও-কথা বলেন।”] 

यह बात हो रही थी कि समारोह के मेजबान (host) श्रीयुत वेणीपाल आ गये ।

[While they were talking, Beni Pal, their host, entered the room.

এ-কথা হইতেছে এমন সময় শ্রীযুক্ত বেণী পাল আসিয়া উপস্থিত হইলেন।] 

वेणीपाल - महाराज, तो अब उठिये, बड़ी देर हो गयी, चलकर उपासना का श्रीगणेश कीजिये ।

[BENI (to Vijay): "Sir, please get up. It is already late. Please begin the worship."

বেণী পাল (বিজয়ের প্রতি) — মহাশয়, তবে গাত্রোত্থান করুন, অনেক দেরি হয়ে গেছে উপাসনা আরম্ভ করুন।

विजय – महाराज ! अब और उपासना की क्या जरूरत है ? आप लोगों के यहाँ पहले खीर-मलाई खिलाने की व्यवस्था है और पीछे से मटर की दाल तथा और और चीजें ।

[VIJAY: "What further need is there of worship? I find that according to your arrangement the rice pudding is served first, and then the soup and other dishes."

বিজয় — মহাশয়, আর উপাসনা কি দরকার। আপনাদের এখানে আগে পায়েসের ব্যবস্থা, তারপর কড়ার ডাল ও অন্যান্য ব্যবস্থা।

श्रीरामकृष्ण - (हँसकर) - जो जैसा भक्त है, वह वैसी ही भेंट चढ़ाता है । सतोगुणी भक्त खीर चढ़ाता है, रजोगुणी पचास तरह की चीजें पकाकर भोग लगाता है । तमोगुणी भक्त भेड़ और बकरे की बलि देता है ।

[MASTER (with a smile): "The devotees provide offerings according to their temperaments. The sattvic devotee offers the Deity simple rice pudding, and the rajasic devotee, fifty different dishes. The tamasic devotee slaughters goats, and other animals."

শ্রীরামকৃষ্ণ (হাসিয়া) — যে যেমন ভক্ত সে সেইরূপ আয়োজন করে। সত্ত্বগুণীভক্ত পায়স দেয়, রজোগুণীভক্ত পঞ্চাশ ব্যঞ্জন দিয়ে ভোগ দেয়, তমোগুণীভক্ত ছাগ ও অন্যান্য বলি দেয়।] 

विजय उपासना करने के लिए वेदी पर (उपदेशक/नेता के व्यासपीठ पर) -बैठें या नहीं ???, यह सोच रहे हैं ।

[Vijay began to hesitate about going to the platform to conduct the worship.

বিজয় উপাসনা করিতে বেদীতে বসিবেন কিনা ভাবিতেছেন।

(८)

 [ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत 

[ব্রাহ্মসমাজে লেকচার — আচার্যের কার্য — ঈশ্বরই গুরু ]

🔆🙏 विजय के प्रति उपदेश 🔆🙏

[ब्राह्मसमाज में लेक्चर और गुरु परम्परा में प्रशिक्षित आचार्य का कार्य - ईश्वर ही गुरु हैं ।]

विजय - आप कृपा कीजिये, तभी मैं वेदी पर से कुछ कह सकूँगा ।

[Vijay (to the Master) : "I shall conduct the worship from the platform only if you give me your blessing."

বিজয় — আপনি অনুগ্রহ করুন, তবে আমি বেদী থেকে বলব।] 

श्रीरामकृष्ण - अभिमान के जाने से ही हुआ । खोखला दम्भ- `Vain feeling- मैं लेक्चर दे रहा हूँ, तुम सुनो,' इस घमण्ड के न रहने से ही हुआ । अहंकार ज्ञान से होता है या अज्ञान से ? जो निरहंकार है, ज्ञान उसे ही होता है। नीची जमीन में ही वर्षा का पानी ठहरता है, ऊँची जमीन से बह जाता है ।

[MASTER: "It will be all right if you don't feel any egotism, if you don't have the vain feeling: 'I am giving a lecture. Listen to me.' What begets egotism? Knowledge or ignorance? It is only the humble man who attains Knowledge. In a low place rain-water collects. It runs down from a mound.

শ্রীরামকৃষ্ণ — অভিমান গেলেই হল। ‘আমি লেকচার দিচ্ছি, তোমরা শুন’ — এ-অভিমান না থাকলেই হল। অহংকার জ্ঞানে হয়, না, অজ্ঞানে হয়? যে নিরহংকার তারই জ্ঞান হয়। নিচু জায়গায় বৃষ্টির জল দাঁড়ায়, উঁচু জায়গা থেকে গড়িয়ে যায়।]

"जब तक अहंकार रहता है, तब तक ज्ञान नहीं होता और न मुक्ति ही होती है । इस संसार में बार बार आना पड़ता है । बछड़ा 'हम्बा हम्बा'(हम-हम) करता है इसलिए उसे इतना कष्ट भोगना पड़ता है । कसाई काटते हैं ।

चमड़े से जूते बनाते हैं, और जंगी ढोल मढ़े जाते हैं, वह ढोल भी न जाने कितना पीटा जाता है, तकलीफ की हद हो जाती है । अन्त में आँतों से ताँत बनायी जाती है । उस ताँत से जब धुनिये का धनुहा बनता है और उसके हाथ में धुनकते समय जब ताँत 'तूँ-तूँ' करती है तब कहीं निस्तार होता है, तब वह 'हम्बा-हम्बा' (हम-हम) नहीं बोलती, 'तूँ-तूँ' करती है; अर्थात् 'हे ईश्वर, तुम कर्ता हो, मैं अकर्ता; तुम यन्त्री हो, मैं यन्त्र; तुम्हीं सब कुछ हो ।'

["A man achieves neither Knowledge nor liberation as long as he has egotism. He comes back again and again to the world. The calf bellows, 'Hamba! Hamba!', that is, 'I! I!' That is why it suffers such agony. The butcher slaughters it and the shoe-maker makes shoes from its hide. Besides, its hide is used for the drum, which is beaten mercilessly. Still no end to its misery! At long last a carding-machine is made from its entrails. While carding the cotton the machine makes the sound 'Tuhu! Tuhu!', that is, Thou! Thou!' Then the poor calf is released from all suffering. It no longer says, 'Hamba! Hamba!' but repeats, 'Tuhu! Tuhu!' The calf says, as it were, O God, Thou art the Doer and I am nothing. Thou art the Operator and I am the machine. Thou art everything.'

“যতক্ষণ অহংকার থাকে, ততক্ষণ জ্ঞান হয় না; আবার মুক্তিও হয় না। এই সংসারে ফিরে ফিরে আসতে হয়। বাছুর হাম্বা হাম্বা (আমি আমি) করে, তাই অত যন্ত্রণা। কসায়ে কাটে, চামড়ায় জুতো হয়। আবার ঢোল-ঢাকের চামড়া হয়; সে ঢাক কত পেটে, কষ্টের শেষ নাই। শেষে নাড়ী থেকে তাঁত হয়, সেই তাঁতে যখন ধুনুরীর যন্ত্র তৈয়ার হয়, আর ধুনুরীর তাঁতে তুঁহু তুঁহু (তুমি তুমি) বলতে থাকে, তখন নিস্তার হয়। তখন আর হাম্বা হাম্বা (আমি আমি) বলছে না; বলছে তুঁহু তুঁহু (তুমি তুমি) অর্থাৎ হে ঈশ্বর, তুমি কর্তা, আমি অকর্তা; তুমি যন্ত্রী, আমি যন্ত্র; তুমিই সব

 [(19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🔆🙏`गुरुगिरि ' करना स्वयं के लिए हानिकारक (injurious) है 🔆🙏    

[ सच्चिदानंद ही भवसागर के एकमात्र गुरु ,केवट, 'नेता' हैं। -भवसागर के जहाज का मांझी (oarsman) होने का ढोंग करना, स्वयं के लिए बहुत हानिकारक (injurious) है। ]   

(সচ্চিদানন্দই একমাত্র ভবসাগরের কাণ্ডারী।)

[He alone is the Ferryman to take one across the ocean of he world.]

"गुरु, बाबा, और मालिक - इन तीन बातों से मेरी देह में काँटे चुभते हैं । मैं उनका बच्चा हूँ, सदा ही बालक हूँ, मैं क्यों 'बाबा' होने लगा ? ईश्वर ही मालिक हैं, वे यन्त्री हैं; मैं यन्त्र हूँ । 

[भावों आत्मसातीकरण करने के लिए मनन - गुरु (गुरुगिरि करनेवाला) ,बाबा (बाबागिरी करने वाला) और ' कर्ता '(Doer, मालिक) -- इन तीन बातों से मेरी देह में काँटे चुभते हैं। मैं तो बस 'माँ सारदा का बेटा हूँ', मैं सदा -सदा से माँ की आँखों का तारा हूँ, मैं भला 'बाबा जी' क्यों होने लगा ? ईश्वर ही कर्ता हैं , मैं तो बस अकर्ता (Actor- भूमिका निभाने वाला अभिनेता), आत्मा को प्रकाशित करने वाला यंत्र (Machine-कल)।) हूँ; और वे इंजन-ड्राइवर ! मैं उनका कल (मशीन)। ]                      

.“গুরু, বাবা ও কর্তা — এই তিন কথায় আমার গায়ে কাঁটা বেঁধে। আমি তাঁর ছেলে, চিরকাল বালক, আমি আবার ‘বাবা’ কি? ঈশ্বর কর্তা আমি অকর্তা; তিনি যন্ত্রী, আমি যন্ত্র।

"Three words — 'master', 'teacher', and 'father' — prick me like thorns. I am we son of God, His eternal child. How can I be a 'father'? God alone is the Master and I am His instrument. 

"और कोई मुझे गुरु कहता है, तो मैं कहता हूँ 'चल साला, गुरु क्या है रे ?' एक सच्चिदानन्द को छोड़ और गुरु कोई नहीं है, उनके बिना कोई उपाय नहीं है । एकमात्र वे ही भव-सागर के पार ले जानेवाले (जहाज का मांझी, oarsman, केवट, मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) हैं (विजय से) आचार्यगिरी बहुत मुश्किल बात है । उससे अपनी हानि होती है ।

[“যদি কেউ আমায় গুরু বলে, আমি বলি, ‘দূর শালা’। গুরু কিরে? এক সচ্চিদানন্দ বই আর গুরু নাই। তিনি বিনা কোন উপায় নাই। তিনিই একমাত্র ভবসাগরের কাণ্ডারী। (বিজয়ের প্রতি) — “আচার্যগিরি করা বড় কঠিন। ওতে নিজের হানি হয়।

"If somebody addresses me as guru, I say to him: 'Go away, you fool! How can I be a teacher?' There is no teacher except Satchidananda. There is no refuge except Him. He alone is the Ferryman to take one across the ocean of he world.(To Vijay) It is very difficult to act as an acharya. It harms the acharya himself. 

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

 🔆🙏'मैं' (देहाभिमानी-अमुकजी ) लेक्चर दे रहा हूँ,' ऐसा विचार न लाना🔆🙏

[Never cherish the attitude,'I am preaching. ‘আমি বলছি’ এ-জ্ঞান করো না। 

दस आदमियों को आप ही आप आज्ञा मानते हुए देखकर, गुरुगिरि करनेवाला मूर्ख पैर के ऊपर पैर रखकर कहता है ~ `मैं लेक्चर देता हूँ, तुम सुनो ।' ऐसा भाव बड़ा बुरा है । उसके लिए बस वही हद है । वही जरासा मान; अधिक से अधिक लोग कहेंगे - 'अहा, विजय बाबू बहुत अच्छा बोले, वे बड़े ज्ञानी आदमी हैं ।' 'मैं' (देहाभिमानी) लेक्चर दे रहा हूँ,' ऐसा विचार न लाना । मैं माँ से कहता हूँ - `माँ, तुम यन्त्री हो, मैं यन्त्र हूँ; जैसा कराती हो, वैसा ही करता हूँ, जैसा कहलाती हो, वैसा ही कहता हूँ । ”

[অমনি দশজন মানছে দেখে, পায়ের উপর পা দিয়ে বলে, ‘আমি বলছি আর তোমরা শুন’। এই ভাবটা বড় খারাপ। তার ওই পর্যন্ত! ওই একটু মান; লোকে হদ্দ বলবে, ‘আহা বিজয়বাবু বেশ বললেন, লোকটা খুব জ্ঞানী’‘আমি বলছি’ এ-জ্ঞান করো না। আমি মাকে বলি, ‘মা তুমি যন্ত্রী, আমি যন্ত্র; যেমন করাও তেমনি করি; যেমন বলাও তেমনি বলি।”

[Finding a number of men doing him reverence, he sits erect, crossing his legs, and says proudly: 'I am preaching. Hear ye all!' This is a very bad attitude. He gets a little prestige and it ends there. People will say at most: 'Ah! Vijay Babu has spoken very well. He knows a great deal.' 

Never cherish the attitude, "I am preaching.' I always say to the Divine Mother: 'O Mother! Thou art the Operator and I am the machine. I do as Thou makest me do, I speak as Thou makest me speak.'

विजय - (विनयपूर्वक) - आप कहें तो मैं वेदी पर (व्यासपीठ पर) बैठ सकता हूँ ।

[বিজয় (বিনীতভাবে) — আপনি বলুন, তবে আমি গিয়ে বসব।

VIJAY (humbly): "Please give me your permission. Only then will I sit on the platform."] 

 [ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏चन्दामामा सभी के मामा हैं-डाइरेक्ट 'माँ ' से आज्ञा लेकर बोलने जाओ🔆🙏 

[He belongs to all, even as 'Uncle Moon' ] 

श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए) - मैं क्या कहूँ ? तुम्हीं उनको बोलो , ईश्वर से प्रार्थना करो । जैसे चन्दामामा ^ सभी के मामा हैं वैसे वे भी सभी के हैं । अगर आन्तरिकता होगी तो भय की बात नहीं है ।

[^भारत की लोक-कथाओं में चंद्रमा को अक्सर बच्चों को उनके मामा के रूप में इंगित किया जाता है।^In the folk-lore of India the moon is often pointed out to the children as their maternal uncle.] 

[শ্রীরামকৃষ্ণ (হাসিতে হাসিতে) — আমি কি বলব; চাঁদা মামা সকলের মামা। তুমিই তাঁকে বল। যদি আন্তরিক হয়, কোন ভয় নাই।

MASTER (with a smile): "What shall I say? Pray to God yourself. He belongs to all, even as 'Uncle Moon'3 is the uncle of all children. You have nothing to fear if you are sincere."

विजय के फिर विनय करने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा, `जाओ, जैसे पद्धति है, वैसा ही करो । उन पर आन्तरिक भक्ति के रहने ही से काम हो जायेगा ।' वेदी पर बैठकर विजय ब्राह्मसमाज की पद्धति के अनुसार उपासना करने लगे । प्रार्थना के समय विजय 'माँ-माँ’ कहकर पुकार रहे हैं । सुनकर सब लोग द्रवीभूत हो गये

[বিজয় আবার অনুনয় করাতে শ্রীরামকৃষ্ণ বলিলেন, “যাও, যেমন পদ্ধতি আছে তেমনি করগে; আন্তরিক তাঁর উপর ভক্তি থাকলেই হল।”বিজয় বেদীতে আসীন হইয়া ব্রাহ্মসমাজের পদ্ধতি অনুসারে উপাসনা করিতেছেন। বিজয় প্রার্থনার সময় মা মা করিয়া ডাকিতেছেন। সকলেরই মন দ্রবীভূত হইল।

On being further requested by Vijay, the Master said': "Yes, go. Follow the rules. Everything is all right if one has sincere love for God." Vijay sat on the platform and conducted the worship according to the rules of the Brahmo Samaj. At the time for prayer he repeatedly called on the Mother, touching the hearts of all.

उपासना के पश्चात् भक्तों की सेवा के लिए भोजन का आयोजन हो रहा है । दरियाँ, गलीचे, सब उठा लिये गये । वहाँ पत्तलें पड़ने लगीं । प्रबन्ध हो जाने पर भक्तों ने भोजन करने के लिए आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण का भी आसन लगाया गया । वे भी बैठे और वेणीपाल की परोसी हुई पूड़ियाँ, कचौड़ियाँ, पापड़ और अनेक प्रकार की मिठाइयाँ, दही-खीर आदि ईश्वर को भोग लगाकर आनन्दपूर्वक भोजन करने लगे ।

[উপাসনান্তে ভক্তদের সেবার জন্য ভোজনের আয়োজন হইতেছে। সতরঞ্চি, গালিচা সমস্ত উঠাইয়া পাতা হইতে লাগিল, ভক্তেরা সকলেই বসিলেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের আসন হইল। তিনি বসিয়া শ্রীযুক্ত বেণী পাল প্রদত্ত উপাদেয় লুচি, কচুরি, পাঁপর, নানবিধ মিষ্টান্ন, দধি, ক্ষীর ইত্যাদি সমস্ত ভগবানকে নিবেদন করিয়া আনন্দে প্রসাদ লইলেন

 After the worship their host entertained the Master and the devotees with a sumptuous feast.] 

(९)

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏पूर्ण ज्ञान -काली ही ब्रह्म, के बाद अभेद । ईश्वर का मातृभाव । आद्याशक्ति🔆🙏

भोजन के बाद पान खाते हुए सब लोग घर लौट रहे हैं । श्रीरामकृष्ण लौटने के पहले विजय से एकान्त में बैठकर बातचीत कर रहे हैं । वहाँ मास्टर भी हैं ।

[আহারান্তে সকলে পান খাইতে বাড়ি প্রত্যাগমনের উদ্যোগ করিতেছেন। যাইবার পূর্বে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ বিজয়ের সহিত একান্তে বসিয়া কথা কহিতেছেন। সেখানে মাস্টার আছেন।

Soon they were ready to return home. Sri Ramakrishna became engaged in conversation with Vijay, no one else but M. being present.]

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏ब्रह्मसमाज में भगवान का मातृभाव -'Motherhood of God'🔆🙏

[द्वे वाव ब्रह्मणों रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च (बृहदारण्यकोपनिषद २. ३.१.)]

श्रीरामकृष्ण - तुमने उनसे 'माँ माँ' कहकर प्रार्थना की थी । यह बहुत अच्छा है । कहावत है, माँ की चाह बाप से अधिक होती है । माँ पर अपना बस है, बाप पर नहीं । त्रैलोक्य की माँ की जमींदारी से गाड़ियों में रुपया लदकर आता था । हाथ में लाठियाँ लिये कितने ही लाल पगड़ीवाले सिपाही साथ रहते थे । त्रैलोक्य रास्ते में आदमियों को लिये हुए खड़ा रहता था, जबरन सब रुपया ले लेता था । माँ के धन पर अपना पूरा जोर है । लोग कहते हैं कि, कोई माँ अपने बेटे पर अदालत में मुकदमा भी नहीं कर सकती।"

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি তাঁকে মা মা বলে প্রার্থনা করছিলে। এ-খুব ভাল। কথায় বলে, মায়ের টান বাপের চেয়ে বেশিমায়ের উপর জোর চলে, বাপের উপর চলে না। ত্রৈলোক্যের মায়ের জমিদারী থেকে গাড়ি গাড়ি ধন আসছিল, সঙ্গে কত লাল পাগড়িওয়ালা লাঠি হাতে দ্বারবান। ত্রৈলোক্য রাস্তায় লোকজন নিয়ে দাঁড়িয়েছিল, জোর করে সব ধন কেড়ে নিলে। মায়ের ধনের উপর খুব জোর চলে। বলে নাকি ছেলের নামে তেমন নালিশ চলে না।

MASTER: "You prayed to God, addressing Him as Mother. That is very good. People say that the mother's attachment to the child is stronger than the father's. A son can force his demand on his mother but not on his father. Once cartloads of money were coming from the estate of Trailokya's mother. They were guarded by many red-turbaned stalwarts armed with big sticks. Trailokya, who had been waiting on the road with his men, pounced upon the money and took it away by force. A son has a very strong claim on his mother's wealth. People say that a mother cannot very well sue her son in a court of law."

विजय - ब्रह्म अगर माँ हैं, तो वे साकार हैं या निराकार ?

[ব্রহ্ম যদি মা, তাহলে তিনি সাকার না নিরাকার?

VIJAY: "If Brahman is our Mother, then has It any form or is It formless?"

श्रीरामकृष्ण - जो ब्रह्म है, वही काली भी हैं । जब निष्क्रिय हैं, तब उन्हें ब्रह्म कहते हैं । जब सृष्टि, स्थिति, प्रलय, यह सब काम करते हैं, तब उन्हें शक्ति कहते हैं। स्थिर (निश्चल-Still) जल से ब्रह्म की उपमा हो सकती है । वही पानी जब हिलता-डुलता है (The same water, moving in waves),तब वह शक्ति की - काली की उपमा है। 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — যিনি ব্রহ্ম, তিনি কালী (মা আদ্যাশক্তি)। যখন নিষ্ক্রিয়, তাঁকে ব্রহ্ম বলে কই। যখন সৃষ্টি, স্থিতি, প্রলয় — এই সব কাজ করেন, তাঁকে শক্তি বলে কই। স্থির জল ব্রহ্মের উপমা। জল হেলচে দুলচে, শক্তি বা কালীর উপমা। 

MASTER: "That which is Brahman is also Kali, the Mother, the Primal Energy. When inactive It is called Brahman. Again, when creating, preserving, and destroying, It is called Sakti. Still water is an illustration of Brahman. The same water, moving in waves, may be compared to Sakti, Kali.

काली ! कौन ? - वे वह हैं, जो महाकाल (ब्रह्म, Maha-Kala, the Absolute, इन्द्रियातीत सत्य) के साथ रमण करती हैं । काली साकार भी हैं और निराकार भी । तुम लोग अगर निराकार पर विश्वास करते हो, तो काली का उसी रूप में ध्यान करो । एक को मजबूती से पकड़कर उनकी चिन्ता करने से वे ही समझा देती हैं कि वे कैसी हैं ।

[ কালী! কিনা — যিনি মহাকালের (ব্রহ্মের) সহিত রমণ করেন।  কালী “সাকার আকার নিরাকারা।” তোমাদের যদি নিরাকার বলে বিশ্বাস, কালীকে সেইরূপ চিন্তা করবে। একটা দৃঢ় করে তাঁর চিন্তা করলে তিনিই জানিয়ে দেবেন, তিনি কেমন।

What is the meaning of Kali? She who communes with Maha-Kala, the Absolute, is Kali. She is formless and, again. She has forms. If you believe in the form-less aspect, then meditate on Kali as that. If you meditate on any aspect of Her with firm conviction, She will let you know Her true nature. 

श्यामपुकुर पहुँचने पर तेलीपाड़ा भी जान लोगे । तब तुम समझ जाओगे कि  - न केवल 'ईश्वर' का अस्तित्व हैं- (अस्तिमात्रम्), बल्कि वे तुम्हारे पास आकर तुमसे बोलेंगे, बातचीत करेंगे - जैसे मैं तुमसे बोल रहा हूँ । विश्वास करो, और तुम्हें सब कुछ मिल  जायगा ।

[শ্যামপুকুরে পৌঁছিলে তেলীপাড়াও জানতে পারবে। জানতে পারবে যে তিনি শুধু আছেন (অস্তিমাত্রম্‌) তা নয়। তিনি তোমার কাছে এসে কথা কবেন — আমি যেমন তোমার সঙ্গে কথা কচ্ছি। বিশ্বাস করো সব হয়ে যাবে।

Then you will realize that not merely does God exist, but He will come near you and talk to you as I am talking to you. Have faith and you will achieve everything.

एक बात और है, तुम्हें अगर निराकार पर विश्वास हो, तो उसी विश्वास को दृढ़ करो । परन्तु कट्टर (dogmatic-आतंकवादी) मत बनो । उनके सम्बन्ध में जोर देकर ऐसा न कहना कि वे यह हो सकते हैं और यह नहीं । कहो- 'मेरा विश्वास है, वे निराकार हैं, वे और क्या क्या हो सकते हैं, यह तो वे ही जानें । मैं नहीं जानता, न मेरी समझ में यह बात आती है ।’ 

[আর-একটি কথা — তোমার নিরাকার বলে যদি বিশ্বাস, তাই বিশ্বাস দৃঢ় করে করো। কিন্তু মতুয়ার বুদ্ধি (Dogmatism) করো না। তাঁর সম্বন্ধে এমন কথা জোর করে বলো না যে তিনি এই হতে পারেন, আর এই হতে পারেন না। বলো আমার বিশ্বাস তিনি নিরাকার, আর কত কি হতে পারেন তিনি জানেন। আমি জানি না। বুঝতে পারি না। 

 Remember this, too. If you believe that God is formless, then stick to that belief with firm conviction. But don't be dogmatic: never say emphatically about God that He can be only this and not that.You may say: 'I believe that God is formless. But He can be many things more. He alone knows what else He can be. I do not know; I do not understand.' 

आदमी की छटाक भर बुद्धि से क्या ईश्वर की बात समझी जा सकती है ? सेर भर के लोटे में क्या चार सेर दूध समाता है ? वे अगर कृपा करके कभी दर्शन दें और समझायें तो समझ में आता है, नहीं तो नहीं ।

[মানুষের একছটাক বুদ্ধিতে ঈশ্বরের স্বরূপ কি বুঝা যায়? একসের ঘটিতে কি চারসের দুধ ধরে? তিনি যদি কৃপা করে কখনও দর্শন দেন, আর বুঝিয়ে দেন, তবে বুঝা যায়; নচেৎ নয়।

How can man with his one ounce of intelligence know the real nature of God? Can you put four seers of milk in a one-seer jar? If God, through His grace, ever reveals Himself to His devotee and makes him understand, then he will know; but not otherwise.

"जो ब्रह्म है, वही शक्ति है, वही माँ हैं । रामप्रसाद कहते हैं, मैं जिस सत्य की तलाश कर रहा हूँ वे ब्रह्म है, उन्हें ही मैं माँ कहकर पुकारता हूँ । इसी बात को रामप्रसाद ने एक जगह और दुहराया है, काली को ब्रह्म जानकर मैंने धर्म और अधर्म दोनों का त्याग कर दिया है ।

[‘যিনি ব্রহ্ম, তিনিই শক্তি, তিনিই মা।’“প্রসাদ বলে মাতৃভাবে আমি তত্ত্ব করি যাঁরে। সেটা চাতরে কি ভাঙবো হাঁড়ি, বোঝনা রে মন ঠারে ঠোরে“আমি তত্ত্ব করি যাঁরে। অর্থাৎ আমি সেই ব্রহ্মের তত্ত্ব করছি। তাঁরেই মা মা বলে ডাকছি। আবার রামপ্রসাদ ওই কথাই বলছে, —আমি কালীব্রহ্ম জেনে মর্ম, ধর্মাধর্ম সব ছেড়েছি।

"That which is Brahman is Sakti, and That, again, is the Mother. He it is, says Ramprasad, that I approach as Mother; But must I give away the secret, here in the market-place? From the hints I have given, O mind, guess what that Being is! Ramprasad implies that he has known the truth of Brahman. He addresses Brahman as Mother."In another song Ramprasad expresses the same idea thus:Knowing the secret that Kali is one with the highest Brahman,I have discarded, once for all, both dharma and adharma.

"अधर्म है असत् कर्म (unrighteous actions) । धर्म है वैधी कर्म (धर्म द्वारा निर्धारित पवित्र कार्य, pious actions) जैसे - इतना दान करना होगा इतने ब्राह्मणों को खिलाना है, यह सब धर्म है ।”

[“অধর্ম কিনা অসৎ কর্ম। ধর্ম কিনা বৈধী কর্ম — এত দান করতে হবে, এত ব্রাহ্মণ ভোজন করাতে হবে, এই সব ধর্ম।”

Adharma means unrighteous actions, actions forbidden by religion. Dharma means the pious actions prescribed by religion, as, for instance, charity to the poor, feeding the brahmins, and so on."

विजय - धर्म और अधर्म का त्याग करने पर बाकी क्या रहता है ?

[বিজয় — ধর্মাধর্ম ত্যাগ করলে কি বাকি থাকে?

VIJAY : "What remains if one renounces both dharma and adharma?"

श्रीरामकृष्ण - शुद्धा भक्ति । मैंने माँ से कहा था, 'माँ यह लो अपना धर्म, यह लो अपना अधर्म, मुझे शुद्धा भक्ति दो । यह लो अपना पुण्य और यह लो अपना पाप, मुझे शुद्धा भक्ति दो । यह लो अपना ज्ञान और यह लो अपना अज्ञान, मुझे शुद्धा भक्ति दो ।' देखो, ज्ञान भी मैंने नहीं चाहा । मैंने लोकसम्मान भी नहीं चाहा । धर्माधर्म का त्याग करने पर शुद्धा भक्ति - अमला, निष्काम, अहेतुकी भक्ति - बाकी रहती है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — শুদ্ধাভক্তি। আমি মাকে বলেছিলাম, মা! এই লও তোমার ধর্ম, এই লও তোমার অধর্ম, আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও; এই লও তোমার পাপ, আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও; এই লও তোমার জ্ঞান, এই লও তোমার অজ্ঞান, আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও! দেখ, জ্ঞান পর্যন্ত আমি চাই নাই। আমি লোকমান্যও চাই নাই। ধর্মাধর্ম ছাড়লে শুদ্ধাভক্তি — অমলা, নিষ্কাম, অহেতুকী ভক্তি — বাকি থাকে।

MASTER: "Pure love of God. I prayed to the Divine Mother: 'O Mother, here, take Thy dharma; here, take Thy adharma; and give me pure love for Thee. Here, take Thy virtue; here, take Thy vice; and give me pure love for Thee. Here, take Thy knowledge; here, take Thy ignorance; and give me pure love for Thee.' You see, I didn't ask even for knowledge or public recognition. When one renounces both dharma and adharma, there remains only pure love of God — love that is stainless, motiveless, and that one feels only for the sake of love."

[(19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏ब्रह्म समाज और वेदांत में प्रतिपादित ब्रह्म - आद्यशक्ति🔆🙏

ब्राह्म भक्त - उनमें और उनकी शक्ति में क्या भेद है ?

[ব্রাহ্মভক্ত — তিনি আর তাঁর শক্তি কি তফাত?

A BRAHMO DEVOTEE: "Is God different from His Sakti?"

श्रीरामकृष्ण - पूर्ण ज्ञान के बाद दोनों अभेद हैं । जैसे मणि की ज्योति और मणि अभेद हैं, मणि की ज्योति की चिन्ता करने से ही मणि की चिन्ता की जाती है । दूध और दूध की धवलता जैसे अभेद है, एक को सोचिये तो दूसरे को भी सोचना पड़ता है; परन्तु यह अभेद-ज्ञान पूर्ण ज्ञान के बिना हुए नहीं होता ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — পূর্ণজ্ঞানের পর অভেদ। যেমন মণির জ্যোতিঃ আর মণি, অভেদ। মণির জ্যোতিঃ ভাবলেই মণি ভাবতে হয়। দুধ আর দুধের ধবলত্ব যেমন অভেদ। একটাকে ভাবলেই আর-একটাকে ভাবতে হয়। কিন্তু এ অভেদ জ্ঞান — পূর্ণজ্ঞান না হলে হয় না।

MASTER: "After attaining Perfect Knowledge one realizes that they are not different. They are the same, like the gem and its brilliance. Thinking of the gem, one cannot but think of its brilliance. Again, they are like milk and its whiteness. Thinking of the one, you must also think of the other. But you cannot realize this non-duality before the attainment of Perfect Knowledge. 

 पूर्ण ज्ञान से समाधि होती है । तब मनुष्य चौबीस तत्वों को पार कर जाता है इसलिए अहंतत्त्व नहीं रह जाता । समाधि में कैसा अनुभव होता है, यह कहा नहीं जा सकता । उतरकर कुछ आभास मिलता है, वही कहा जा सकता है । समाधि छूटने के बाद जब मैं ‘ॐ ॐ’ कहता हूँ, तब समझो कि मैं कम से कम सौ हाथ नीचे उतर आया हूँ । ब्रह्म वेद और विधियों से परे हैं, वे वाणी में नहीं आते । वहाँ ‘मैं तुम’ नहीं हैं ।

পূর্ণজ্ঞানে সমাধি হয়, চতুর্বিংশতি তত্ত্ব ছেড়ে চলে যায় — তাই অহংতত্ত্ব থাকে না। সমাধিতে কি বোধ হয় মুখে বলা যায় না। নেমে একটু আভাসের মতো বলা যায়। যখন সমাধি ভঙ্গের পর ‘ওঁ ওঁ’ বলি, তখন আমি একশো হাত নেমে এসেছি। ব্রহ্ম বেদবিধির পার, মুখে বলা যায় না। সেখানে ‘আমি’ ‘তুমি’ নাই।

Attaining Perfect Knowledge, one goes into samadhi, beyond the twenty-four cosmic principles. Therefore the principle of 'I' does not exist in that stage. A man cannot describe in words what he feels in samadhi. Coming down, he can give just a hint about it. I come down a hundred cubits, as it were, when I say 'Om'ॐ ॐ  after samadhi. Brahman is beyond the injunctions of the Vedas and cannot be described. There neither 'I' nor 'you' exists.

"जब तक 'मैं' और 'तुम' ये भाव हैं, तब 'मैं प्रार्थना कर रहा हूँ या ध्यान कर रहा हूँ’ यह भी ज्ञान है और 'तुम(ईश्वर) प्रार्थना सुनते हो यह भी ज्ञान है; और उस समय ईश्वर के व्यक्तित्व का भी बोध है । तुम प्रभु हो, मैं दास, तुम पूर्ण हो, मैं अंश; तुम माँ हो, मैं पुत्र, यह बोध भी रहेगा । यह भेद-बोध है - मैं एक अलग हूँ और तुम अलग ।

[“যতক্ষণ ‘আমি’ ‘তুমি’ আছে, যতক্ষণ ‘আমি প্রার্থনা কি ধ্যান করছি’ এ-জ্ঞান আছে, ততক্ষণ ‘তুমি’ (ঈশ্বর) প্রার্থনা শুনছো, এ-জ্ঞানও আছে; ঈশ্বরকে ব্যক্তি বলে বোধ আছে। তুমি প্রভু, আমি দাস; তুমি পূর্ণ, আমি অংশ; তুমি মা, আমি ছেলে — এ-বোধ থাকবে। এই ভেদবোধ; আমি একটি, তুমি একটি।

"As long as a man is conscious of 'I' and 'you', and as long as he feels that it is he who prays or meditates, so long will he feel that God is listening to his prayer and that God is a Person. Then he must say: 'O God, Thou art the Master and I am Thy servant. Thou art the whole and I am a part of Thee. Thou art the Mother and I am Thy child.' At that time there exists a feeling of difference: 'I am one and Thou art another.' 

यह बोध वे ही कराते हैं; इसीलिए 'M-F',  'स्त्री' और 'पुरुष', 'उजाले' और 'अँधेरे' का ज्ञान है । जब तक यह भेद-बोध है, तब तक शक्ति (अर्थात Personal God) को मानना पड़ेगा । उन्होंने हमारे भीतर, 'मैं' रख दिया है । चाहे हजार विचार करो, परन्तु 'मैं' नहीं दूर होता । जब तक 'मैं' है तब तक ईश्वर साकार रूप में ही मिलते हैं ।

 এ ভেদবোধ তিনিই করাচ্ছেন। তাই পুরুষ-মেয়ে, আলো-অন্ধকার — এই সব বোধ হচ্ছে। যতক্ষণ এই ভেদবোধ, ততক্ষণ শক্তি (Personal God) মানতে হবে। তিনিই আমাদের ভিতর ‘আমি’ রেখে দিয়েছেন। হাজার বিচার কর, ‘আমি’ আর যায় না। আর তিনি ব্যক্তি হয়ে দেখা দেন।

It is God Himself who makes us feel this difference; and on account of this difference one sees man and woman, light and darkness, and so on. As long as one is aware of this difference, one must accept Sakti, the Personal God. It is God who has put 'I-consciousness' in us. You may reason a thousand times; still this 'I' does not disappear. As long as 'I-consciousness' exists, God reveals Himself to us as a Person.

“इसलिए जब तक 'मैं' है, भेद-बुद्धि है, तब तक ब्रह्म निर्गुण है, यह कहने का अधिकार नहीं; तब तक सगुण ब्रह्म ही मानना होगा । इसी सगुण ब्रह्म को वेदों, पुराणों और तन्त्रों में काली या आद्याशक्ति कहा गया है ।”

 [“তাই যতক্ষণ ‘আমি’ আছে — ভেদবুদ্ধি আছে — ততক্ষণ ব্রহ্ম নির্গুণ বলবার জো নাই। ততক্ষণ সগুণ ব্রহ্ম মানতে হবে। এই সগুণ ব্রহ্মকে বেদ, পুরাণ, তন্ত্রে কালী বা আদ্যাশক্তি বলে গেছে।”

"Therefore, as long as a man is conscious of 'I' and of differentiation, he cannot speak of the attributeless Brahman and must accept Brahman with attributes. This Brahman with attributes has been declared in the Vedas, the Puranas, and the Tantra, to be Kali, the Primal Energy."

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nabni da : Formless versus Personal Form of God : 

निराकार के विपरीत ईश्वर का व्यक्तिगत रूप ~   [हरि ॐ तत्सत्\जपा कर ------4/ हरि ॐ तत्सत् ------4/ महा मंत्र है ये तू इसको जपा कर/ महा मंत्र है /ये तू इसको जपा कर\ हरि ॐ में इतनी शक्ति भरी है, चरण के छुए से अहिल्या तरी है, पुकारा था दिल से यही नाम उसने।।ॐ तत्सत् ------4/

"हरि ॐ" शब्द में ब्रह्म के दोनों स्वरूपों की स्मृति है;"द्वे वाव ब्रह्मणों रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च" (बृहदारण्यकोपनिषद २. ३.१.) :"हरि" सगुन रूप विष्णु हैं तो "ॐ" निराकार ब्रह्म हैं। एक ही परमसत्ता है जो सर्वशक्तिमान परमात्मा या ब्रह्म कहाता है, तो कभी (जब सृष्टि रचता है) तब उसी को आद्यशक्ति, माँ जगदम्बा या माँ काली कहा जाता है !  उसी ने यह नाम रूपात्मक अनेकरूपा  सृष्टि रची है। जब परमात्मा या ब्रह्म अनन्त रूपाकारों में इस संसार की रचना कर सकता है तब क्या अपनी स्वयं की  रूपाकृति नहीं गढ़ सकता ?और यदि हम कहें कि वह ऐसा नहीं कर सकता फिर हमें यह भी मानना पड़ेगा कि वह बाकी सब काम कर सकता है लेकिन अपनी रूपाकृति नहीं रच सकता।  यानी तब उसकी एक शक्ति कम हो जाएगी, और  वह सर्वशक्तिमान नहीं रह जाएगा। लेकिन यदि हम ऐसा मानते ही हैं कि- वह सर्वशक्तिमान तो है फिर यह भी मान लेना पड़ेगा वह स्वयं भी किसी रूप प्रगट हो सकता है।  

 `हरि अनन्त हरि कथा अनंता ,कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता , सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा ,गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ' `अगुन अरूप अलख अज जोई ,भगत प्रेम बस सगुण सो होई।'~ सगुन और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है। जो निर्गुण, अरूप (निराकार ),अलख (अव्यक्त ), और अजन्मा है ,वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है।लेकिन साथ ही साथ परमात्मा निराकार (अरूप ) है। ब्रह्म है। वह सब जगह मौजूद है सारी सृष्टि में व्यापक है। उसके इस सर्वव्यापकत्व को बनाए रखने के लिए उसका निर्गुन या निराकार होना भी ज़रूरी है। 

परमात्मा परम परिपूर्ण दोषरहित है। इसीलिए वह साकार (सगुण ) और निराकार (निर्गुण ) दोनों रूपों में प्रकट होते हैं । भगवान गीता  (4 . 6) में कहते हैं-- 

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।

प्रकृति स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥गीता 4 . 6॥

[अन्वय ---अजः अपि सन् अव्ययात्मा भूतानाम् ईश्वरः अपि सन् / प्रकृतिं स्वाम् अधिष्ठष्ठाय सम्भवामि आत्म - मायया ॥ ६ ॥ अजः-अजन्मा; अपि-तथापिः सन्-होते हुए; अव्यय-आत्मा-अविनाशी प्रकृति का; भूतानाम्-सभी जीवों का; ईश्वरः-भगवान; अपि-यद्यपि; सन्–होने पर; प्रकृतिम्-दिव्य प्रकृति; स्वाम्-अपने; अधिष्ठाय-स्थित; सम्भवामि-मैं अवतार लेता हूँ; आत्म-मायया-अपनी योगमाया शक्ति से

 4.6: यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप हूँ और भूतमात्र का ईश्वर हूँ (तथापि),  मैं इस संसार में अपनी दिव्य शक्ति योगमाया द्वारा प्रकट होता हूँ, या जन्म लेता हूँ

 स्वस्वरूप में अज और अविनाशी तथा प्राणिमात्र के ईश्वर होते हुये भी भगवान् अपनी माया को पूर्णत अपने वश में रखकर स्वेच्छा से जन्म लेते हैं।  जीव के समान पूर्व कर्मों के अवश्यंभावी फलों को भोगने के लिये नहीं। उन्हें न स्वस्वरूप का विस्मरण है और न माया का बन्धन है।

परमेश्वर अपनी निर्बाध स्वतन्त्रता और पूर्ण स्वेच्छा से एक विशिष्ट देह को धारण करके जगत् में उस काल की मोहित पीढ़ी (fascinated generation) या गुलामी की मानसिकता से सम्मोहित पीढ़ी (generation hypnotized by -colonial mindset / slavery mentality ) का मार्गदर्शन करने आते हैं। अज्ञानी के समान देहादि के बन्धन में रहना उनके लिये वास्तविकता न होकर एक नाटक की भूमिका के समान है।  र्मत्य जीव अविद्यामाया (illusion of ignorance ) और विद्यामाया (illusion of knowledge ) दोनों का शिकार बनता है जबकि ईश्वर स्वमाया के स्वामी बने रहते हैं। अज्ञानी मनुष्य अपनी उपाधियों के कार्यों के विषय में कुछ नहीं जानता और इसलिये उनकी दास बना रहता है। ईश्वर के लिये जगत् कोई समस्या नहीं क्योंकि वे प्रकृति को सर्वथा अपने वश में रखते हैं।

 'भगवान दो रूपों में प्रकट होते हैं- निराकार 'ब्रह्म' के रूप में और साकार 'भगवान' के रूप में। ये दोनों भगवान के परम व्यक्तित्त्व के आयाम हैं। वास्तव में जीवात्मा में भी ये दोनों आयाम होते हैं। यह निराकार है और इसलिए जब यह मृत्यु के समय शरीर को त्याग देती है तब यह दिखाई नहीं देती। फिर भी यह दूसरा शरीर धारण करती है और केवल एक बार ही नहीं बल्कि अनन्त बार क्योंकि वह एक जन्म से दूसरे जन्म में शरीर बदलती रहती है। जब 'अणु ' आत्मा शरीर धारण करने के योग्य हो सकती है तब फिर 'विभु ' या  सर्वशक्तिशाली भगवान साकार रूप धारण क्यों नहीं कर सकते? या भगवान यह कहते हैं-"मेरे पास साकार रूप में प्रकट होने की शक्ति नहीं है और इसलिए मैं केवल एक निराकार ज्योति हूँ।" सर्वज्ञता और पूर्णता के दिव्य गुणों से परिपूर्ण होने के लिए भगवान का साकार और निराकार दोनों रूपों में होना आवश्यक है। इसीलिए वेद परमात्मा के दोनों स्वरूपों की पुष्टि करते हैं।  भगवान और जीवात्मा में यह भेद इसलिए है कि हमारा शरीर प्राकृत अर्थात माया शक्ति से निर्मित है। भगवान का साकार रूप उनकी दिव्य शक्ति योगमाया द्वारा निर्मित होता है इसलिए यह दिव्य है और भौतिक विकारों से परे है।

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[(19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

 🔆🙏आद्याशक्ति (Primal Energy) के दर्शन और ब्रह्मज्ञान🔆🙏

विजय - आद्याशक्ति के दर्शन और ब्रह्मज्ञान (निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान -the Knowledge of the attributeless Brahman) ये कैसे हों ? 

বিজয় — এই আদ্যাশক্তি দর্শন আর ওই ব্রহ্মজ্ঞান, কি উপায়ে হতে পারে?

VIJAY: "How, sir, can one have the vision of the Primal Energy and attain Brahmajnana, the Knowledge of the attributeless Brahman?"

भक्तिमार्ग 

श्रीरामकृष्ण - प्रभु के दर्शन के लिए विकल होकर उनसे प्रार्थना करो और रोओ । इससे चित्त शुद्ध हो जायेगा और निर्मल जल में सूर्य का बिम्ब दिखायी देगा । भक्त के 'मैं'- रूपी आईने में उस सगुण ब्रह्म - आद्याशक्ति (माँ सारदा) के दर्शन होंगे।  लेकिन इसके लिए चित्तवृत्ति रूपी आईने को खूब साफ  रखना चाहिए। 

“चित्तवृत्ति रूपी आईने के मैला होने पर सच्चा बिम्ब न पड़ेगा” 

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[  इतना शुद्ध अर्थात निर्भीक, माँ तारा के बेटे जैसा निर्भीक मन होना चाहिए ? यदि आत्मा ही ब्रह्म है , तो आज मैं ' -देखता= हूँ कि मरता कौन है ? 

$$$$$$$$$$$$$/ परिच्छेद ~ 53, [(22 सितम्बर, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]*Vedanta stories* *वेदान्त बोधक कहानियाँ **बालक का विश्वास- 'बालक ने ईश्वर को पत्र भेजा' *अशौच (सूतक) में कर्मत्याग* मृताशौच तथा जन्मशौच, (सूतक अवस्था) ^*^(मैत्रेयी उपनिषद --२.१३,१४) * चाण्डाल का स्पर्श और शंकराचार्य ।*]

swami vivekananda :स्वामी जी की कविता : 'काली माता' :उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस ने मृत्यु से पूर्व कहा था, ‘नरेन, माँ काली तेरा पग-पग पर साक्षात मार्गदर्शन करती रहेंगी।’ जीवन के अंतिम दिनों में स्वामीजी जिधर भी जाते,उन्हें माँ काली की उपस्थिति का बोध होता। सितंबर, 1899 में स्वामी विवेकानंदजी कश्मीर में अमरनाथजी के दर्शन के बाद श्रीनगर के क्षीरभवानी मंदिर में पहुँचे। वहाँ उन्होंने माँ काली का स्मरण कर समाधि लगा ली। एक सप्ताह तक उन्होंने नवरात्रि पर्व पर एकांत साधना की। वे प्रतिदिन एक बालिका में साक्षात् माँ काली के दर्शनकर उसकी पूजा किया करते थे। उन्होंने काली द मदर' `काली माता' शीर्षक कविता भी लिखी ~ 

" KALI THE MOTHER "  

The stars are blotted out , The clouds are covering clouds, It is darkness vibrant, sonant . In the roaring, whirling wind , Are  the souls of a million lunatics, Just loose from the prison-house , Wrenching trees by the roots , Sweeping all from the path.

[छिप गये तारे गगन के,बादलों पर चढ़े बादल,काँपकर गहरा अंधेरा,गरजते तूफान में, शत। लक्ष पागल प्राण छूटे,जल्द कारागार से–द्रुम, जड़ समेत उखाड़कर, हर बला पथ की साफ़ करके।]

The sea has joined the fray, And swirls up mountain-waves,To reach the pitchy sky. The flash of lurid light, Reveals on every side, A thousand, thousand shades, Of Death begrimed and black Scattering plagues (Covid-19) and sorrows, Dancing mad with joy, Come, Mother, come!

शोर से आ मिला सागर,शिखर लहरों के पलटते, उठ रहे हैं कृष्ण नभ का स्पर्श करने के लिए द्रुत,किरण जैसे अमंगल की, हर तरफ से खोलती है, मृत्यु-छायाएँ सहस्रों, देहवाली घनी काली ।आधिव्याधि ~ [ आधि + व्याधि = मानसिक व शारीरिक दु:ख, प्लेग -कोरोना महामारी ] बिखेग्ती, ऐ नाचती पागल हुलसकर, आ, जननि, आ जननि, आ, आ!

For Terror is Thy name, Death is in Thy breath, And every shaking step, Destroys a world for e'er. Thou "Time", the All-Destroyer! Come, O Mother, come!

नाम है आतंक तेरा,मृत्यु-तेरे श्वास में है,चरण उठकर सर्वदा को, विश्व एक मिटा रहा है,समय तू है, सर्वनाशिनि,आ, जननि, आ, जननि, आ, आ!

`Who dares misery- love, And hug the form of Death,

Dance in Destruction's dance, To him the Mother comes !

साहसी, जो चाहता है ~ दुःख; मिल जाना मरण से !

नाश की गति नाचता है, माँ उसीके पास आयी ।

-- Swami Vivekananda

जिसका निरालाजी ने हिंदी में यूँ अनुवाद किया --

`काली माँ' 

छिप गये तारे गगन के,बादलों पर चढ़े बादल,काँपकर गहरा अंधेरा,गरजते तूफान में, शत। लक्ष पागल प्राण छूटे,जल्द कारागार से–द्रुम, जड़ समेत उखाड़कर, हर बला पथ की साफ़ करके।

शोर से आ मिला सागर,शिखर लहरों के पलटते, उठ रहे हैं कृष्ण नभ का स्पर्श करने के लिए द्रुत,किरण जैसे अमंगल की, हर तरफ से खोलती है, मृत्यु-छायाएँ सहस्रों, देहवाली घनी काली ।आधिव्याधि ~ [ आधि + व्याधि = मानसिक व शारीरिक दु:ख, प्लेग -कोरोना महामारी ] बिखेग्ती, ऐ नाचती पागल हुलसकर, आ, जननि, आ जननि, आ, आ!

नाम है आतंक तेरा,मृत्यु-तेरे श्वास में है,चरण उठकर सर्वदा को, विश्व एक मिटा रहा है,समय तू है, सर्वनाशिनि,आ, जननि, आ, जननि, आ, आ!

साहसी, जो चाहता है ~ दुःख, मिल जाना मरण से !

नाश की गति नाचता है, माँ उसीके पास आयी ।

---स्वामी विवेकानन्द 

 एक दिन स्वामी विवेकानन्द ने  श्रद्धालुजनों के बीच प्रवचन में `माँ काली के स्वरूप' पर प्रकाश डालते हुए कहा था -  ‘काली सृष्टि और विनाश, जीवन-मृत्यु, भले और बुरे, सुख और दुःख से युक्त संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करती हैं।दूर से उनका वर्ण काला दिख पड़ता है, परंतु अंतरंग द्रष्टा के लिए वह वर्णहीन हैं। यह ब्रह्म से अभेद हैं तथा ये उन्हीं की क्रियाशक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं। स्वामीजी ने कहा, ‘अत्याचारियों-दुर्जनों का संहार करते समय गले में मुंडमाल पहने, शस्त्र धारण किए, जिह्वा से टपकते रुधिर को देखकर अनायास आभास होता है कि ये आतंक की प्रतिमूर्ति हैं, जबकि ये सच्चे सरल हृदय भक्तों के लिए सौम्य और कृपामयी हैं। अपने भक्तों को अमरत्व का वर देने के लिए सदैव तत्पर रहने वाली देवी हैं।’ उन्होंने कहा, ‘वस्तुतः ब्रह्म और काली, ईश्वर और उनकी क्रियाशक्ति-अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति के समान एक और अभेद हैं। 

[‘Kali represents the whole universe consisting of creation and destruction, life and death, good and bad, happiness and sorrow. Her complexion appears black from a distance, but She is colorless to the intimate watcher. It is indistinguishable from Brahman and it represents His Kriya Shakti. Swamiji said, ‘While killing the tyrants and the wicked, wearing a swaddle around the neck, wearing weapons, seeing the blood dripping from the tongue, one suddenly realizes that She is  the embodiment of terror, while these sincere simple hearts are gentle and merciful to the devotees. .She is a goddess who is always ready to give the boon of immortality to her devotees.

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ব্যাকুল হৃদয়ে তাঁকে প্রার্থনা করো। আর কাঁদো! এইরূপে চিত্তশক্তি হয়ে যাবে। নির্মল জলে সূর্যের প্রতিবিম্ব দেখতে পাবে। ভক্তের আমিরূপ আরশিতে সেই সগুণ ব্রহ্ম আদ্যাশক্তি দর্শন করবে। কিন্তু আরশি খুব পোঁছা চাই। ময়লা থাকলে ঠিক প্রতিবিম্ব পড়বে না। 

MASTER: "Pray to Him with a yearning heart, and weep. That will purify your heart. You see the reflection of the sun in clear water. In the mirror of his 'I-consciousness' the devotee sees the form of the Primal Energy, Brahman with attributes. But the mirror must be wiped clean. One does not see the right reflection if there is any dirt on the mirror.

‘मैं’ रूपी पानी में सूर्य को तब तक इसलिए देखते हैं कि सूर्य के देखने का और कोई उपाय नहीं है, और प्रतिबिम्ब-सूर्य को छोड़ यथार्थ-सूर्य के देखने का जब तक कोई दूसरा उपाय नहीं मिलता, तब तक वह प्रतिबिम्ब-सूर्य ही सोलहों आने सत्य है । जब तक 'मैं' सत्य है, तब तक प्रतिबिम्ब-सूर्य भी सोलहों आने सत्य हैवही प्रतिबिम्ब-सूर्य आद्याशक्ति है ।

[“যতক্ষণ ‘আমি’ জলে সূর্যকে দেখতে হয়, সূর্য্যকে দেখবার আর কোনরূপ উপায় হয় না। আর যতক্ষণ প্রতিবিম্ব সূর্যকে দেখবার উপায় নাই, ততক্ষণ প্রতিবিম্ব সূর্যই ষোল আনা সত্য — যতক্ষণ আমি সত্য ততক্ষণ প্রতিবিম্ব সূর্যও সত্য — ষোল আনা সত্য। সেই প্রতিবিম্ব সূর্যই আদ্যাশক্তি।

"As long as a man must see the Sun in the water of his 'I-consciousness' and has no other means of seeing It, as long as he has no means of seeing the real Sun except through Its reflection, so long is the reflected sun alone one hundred per cent real to him. As long as the 'I' is real, so long is the reflected sun real — one hundred per cent real. That reflected sun is nothing but the Primal Energy.

"यदि ब्रह्मज्ञान चाहते हो, तो उसी प्रतिबिम्ब-सूर्य को पकड़कर सत्य-सूर्य की ओर जाओ । उस सगुण ब्रह्म से, जो प्रार्थनाएँ सुनते हैं, कहो; वे ही ब्रह्मज्ञान देंगे, क्योंकि जो सगुण ब्रह्म हैं, वे ही निर्गुण ब्रह्म भी हैं।  जो शक्ति हैं, वे ही ब्रह्म भी हैं।  पूर्ण ज्ञान के बाद दोनों अभेद हो जाते हैं ।

[उस सगुण ब्रह्म (माँ काली) से कहो, वही ब्रह्मज्ञान देंगे, क्योंकि जो सगुण ब्रह्म है, वही निर्गुण ब्रह्म भी है। जो शक्ति है, वही ब्रह्म भी है। पूर्ण ज्ञान के बाद दोनों के बीच कोई भेद नहीं रह जाता।]

[“ব্রহ্মজ্ঞান যদি চাও — সেই প্রতিবিম্বকে ধরে সত্য সূর্যের দিকে যাও। সেই সগুণ ব্রহ্ম, যিনি প্রার্থনা শুনেন তাঁরেই বলো, তিনিই সেই ব্রহ্মজ্ঞান দিবেন। কেননা, ইনিই সগুণ ব্রহ্ম, তিনিই নির্গুণ ব্রহ্ম, যিনিই শক্তি, তিনিই ব্রহ্ম। পূর্ণজ্ঞানের পর অভেদ

"But if you seek Brahmajnana, the Knowledge of the attributeless Brahman, then proceed to the real Sun through Its reflection. Pray to Brahman with attributes, who listens to your prayers, and He Himself will give you lull Knowledge of Brahman; for that which is Brahman with attributes is verily Brahman without attributes, that which is Brahman is verily Sakti. One realizes this non-duality after the attainment of Perfect Knowledge.

                         [(19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

ज्ञानमार्ग 

🔆🙏जो शक्ति (Dynamic) हैं, वे ही ब्रह्म (Static) भी हैं।🔆🙏 

"माँ ब्रह्मज्ञान भी देती हैं, परन्तु शुद्ध भक्त कभी ब्रह्मज्ञान नहीं चाहता "एक और मार्ग है, ज्ञानयोग, परन्तु यह बड़ा कठिन है । ब्राह्मसमाजवाले तुम लोग ज्ञानी नहीं हो, भक्त हो । जो लोग ज्ञानी हैं उन्हें विश्वास है कि ब्रह्म सत्य है और संसार मिथ्या स्वप्नवत् । मैं-तुम, सभी स्वप्नवत।   

[जो लोग ज्ञानी हैं, उन्हें विश्वास है कि ब्रह्म सत्य है और संसार मिथ्या, यानी स्वप्न के समान।

[“মা ব্রহ্মজ্ঞানও দেন। কিন্তু শুদ্ধভক্ত প্রায় ব্রহ্মজ্ঞান চায় না। “আর-এক পথ — জ্ঞানযোগ, বড় কঠিন পথ। ব্রাহ্মসমাজের তোমরা জ্ঞানী নও, ভক্ত! যারা জ্ঞানী, তাদের বিশ্বাস যে ব্রহ্ম সত্য, জগৎ মিথ্যা, স্বপ্নবৎ। আমি, তুমি, সব স্বপ্নবৎ!”

"The Divine Mother gives Her devotee Brahmajnana too. But a true lover of God generally does not seek the Knowledge of Brahman."There is another path, the path of knowledge, which is very difficult. You members of the Brahmo Samaj are not jnanis. You are bhaktas. The jnani believes that Brahman alone is real and the world illusory as a dream. To him, 'I' and 'you' are illusory as a dream.

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏ब्रह्म समाज में विद्वेष (envy, ईर्ष्या)🔆🙏   

"वे अन्तर्यामी (Inner Controller) हैं । उनसे सरल और शुद्ध मन से प्रार्थना करो । वे सब समझा देंगे । अहंकार छोड़कर उनकी शरण में जाओ सब पा जाओगे ।"

[“তিনি অন্তর্যামী! তাঁকে সরল মনে, শুদ্ধমনে প্রার্থনা কর। তিনি সব বুঝিয়ে দিবেন। অহংকার ত্যাগ করে তাঁর শরণাগত হও; সব পাবে।

"God is our Inner Controller. Pray to Him with a pure and guileless heart. He will explain everything to you. Give up egotism and take refuge in Him. You will realize everything."

यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाने लगे - 

आपनाते आपनि थेको मन, जेयो नाको कारो घरे।  

जा चाबी ताई बोसे पाबि , खोंजो निज अंतपुरे।। 

परम धन एई पारसमणि , जा चाबी ताई दिते पारे। 

कोतो मणि पोड़े आछे, चिन्तामणि नाच दुआरे।।  

-अर्थात " 'मन ! अपने ही आप में रहो । किसी दूसरे के घर न जाओ। जो कुछ चाहोगे वह बैठे हुए ही पाओगे, अपने अन्तःपुर में जरा खोजो तो सही । वह पारस पत्थर परम धन है, जो कुछ चाहोगे वह तुम्हें दे सकता है । चिन्तामणि की नाट्यशाला के द्वार पर कितने ही मणि पड़े हुए हैं ।'

[“আপনাতে আপনি থেকো মন যেও নাকো কারু ঘরে।যা চাবি তাই ব’সে পাবি খোঁজ নিজ অন্তপুরে।পরম ধন এই পরশমণি, যা চাবি তাই দিতে পারেকত মণি পড়ে আছে, চিন্তামণির নাচ দুয়ারে।।

The Master sang:Dwell, O mind, within yourself;Enter no other's home.If you but seek there, you will find All you are searching for.God, the true Philosopher's Stone,Who answers every prayer,Lies hidden deep within your heart,The richest gem of all.How many pearls and precious stones Are scattered all about .The outer court that lies before The chamber of your heart!

“जब बाहर के लोगों से मिलना तब सभी को प्यार करना; मिलकर एक हो जाना - फिर द्वेषभाव जरा भी न रखना । 'यह आदमी साकार मानता है, निराकार नहीं, या वह आदमी निराकार मानता है, साकार नहीं मानता, वह हिन्दू है, वह मुसलमान है, वह क्रिस्तान है, यह कह कहकर घृणा से नाक न सिकोड़ना; क्योंकि उन्होंने जिसे जिस तरह समझाया हैं, उसमें वैसी ही बुद्धि है । समझना कि सब की प्रकृति भिन्न भिन्न हैं ।

यह जानकर तुमसे जहाँ तक हो सके, दूसरों से मिलने की ही चेष्टा करना और उन्हें प्यार करना । फिर अपने घर में शान्ति और आनन्द का भोग करो । 'हृदयरूपी घर में ज्ञान का दीपक जलाकर ब्रह्ममयी का मुख देखो ।' अपने ही घर में अपना स्वरूप देख सकोगे । चरवाहे जब गौओं को चराने के लिए ले जाते हैं, तब चरागाह में सब गौएँ एक में मिल जाती हैं । जब शाम के समय अपने घर में जाती हैं तब फिर सब अलग अलग हो जाती हैं । इसीलिए मैं कहता हूँ, अपने घर में– ‘अपने आप’ में ही रहो ।"

[परस्पर के प्रति - प्रेम और परोपकार का भाव हमें सदा आनंद देता है: जब बाहर के लोगों से मिलना, तब सभी को प्यार करना और द्वेष भाव जरा भी न रखना। यह तुम्हारे चित्तवृत्ति को स्वच्छ बना देगा। यह आदमी साकार मानता है, निराकार नहीं, या वह आदमी निराकार मानता है, साकार नहीं ; या फिर जाति, धर्म, क्षेत्रीयता वगैरह कह-कहकर घृणा से अपने आपको न भरनाइस तरह मन को शुद्ध कर अपने घर में शांति और आनंद के साथ जीवन व्यतीत करो। क्योंकि उन्होंने जिसे जिस तरह समझाया हैं, जिस तरह का रोल करने को दिया है , उसमें वैसी ही बुद्धि है ।  हृदय रूपी घर में ज्ञान का दीपक जलाकर, अर्थात विचारों को बदल कर , दृष्टि को ज्ञानमयी बनाकर, जगत को होशपूर्वक देखना सीखो  -और हमेशा प्रसन्न रहो

[“যখন বাহিরে লোকের সঙ্গে মিশবে, তখন সকলেকে ভালবাসবে, মিশে যেন এক হয়ে যাবে — বিদ্বেষভাব আর রাখবে না। ‘ও-ব্যক্তি সাকার মানে, নিরাকার মানে না; ও নিরাকার মানে, সাকার মানে না; ও হিন্দু, ও মুসলমান, ও খ্রীষ্টান’ — এই বলে নাক সিটকে ঘৃণা করো না! তিনি যাকে যেমন বুঝিয়েছেন। সকলের ভিন্ন ভিন্ন প্রকৃতি জানবে, জেনে তাদের সঙ্গে মিশবে, — যত দূর পার। আর ভালবাসবে। তারপর নিজের ঘরে গিয়ে শান্তি আনন্দভোগ করবে। ‘জ্ঞানদীপ জ্বেলে ঘরে ব্রহ্মময়ীর মুখ দেখো না।’ নিজের ঘরে স্ব-স্বরূপকে দেখতে পাবে“রাখাল যখন গরু চরাতে যায়, গরু সব মাঠে গিয়ে এক হয়ে যায়। এক পালের গরু। যখন সন্ধ্যার সময় নিজের ঘরে যায়, আবার পৃথক হয়ে যায়। নিজের ঘরে ‘আপনাতে আপনি থাকে’।”

[He continued: "When you mix with people outside your Samaj, love them all. When in their company be one of them. Don't harbour malice toward them. Don't turn up your nose in hatred and say: 'Oh, this man believes in God with form and not in the formless God. That man believes in the formless God and not in God with form. This man is a Christian. This man is a Hindu. And this man is a Mussalman.' It is God alone who makes people see things in different ways. Know that people have different natures. Realize this and mix with them as much as you can. And love all. But enter your own inner chamber to enjoy peace and bliss.

Lighting the lamp of Knowledge in the chamber of your heart, Behold the face of the Mother, Brahman's Embodiment.You can see your true Self only within your own chamber. The cowherds take the cows to graze in the pasture. There the cattle mix. They all form one herd. But on returning to their sheds in the evening they are separated. Then each stays by itself in its own stall. Therefore I say, dwell by yourself in your own chamber."

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏संन्यासी संचय नहीं करते - लेकिन गृहस्थ संचित धन का सदुपयोग करेंगे 🔆🙏

[সন্ন্যাসে সঞ্চয় করিতে নাই — শ্রীযুক্ত বেণী পালের অর্থের সদ্ব্যবহার ]

रात के दस बज जाने पर श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर चलने के लिए गाड़ी पर चढ़े । साथ में दो-एक सेवक भक्त भी हैं । घोर अंधेरा है, गाड़ी पेड़ के नीचे खड़ी हुई है । वेणीपाल रामलाल के लिए पूड़ियाँ और मिठाई गाड़ी पर रख देने के लिए ले आये ।

[রাত্রি দশটার পর শ্রীরামকৃষ্ণ দক্ষিণেশ্বরের কালীবাড়িতে ফিরিবার জন্য গাড়িতে উঠিলেন। সঙ্গে দুই-একজন সেবক ভক্ত। গভীর অন্ধকার, গাছতলায় গাড়ি দাঁড়িয়ে। বেণী পাল রামলালের জন্য লুচি মিষ্টান্নাদি গাড়িতে তুলিয়া দিতে আসিলেন।

It was ten o'clock in the evening. The Master got into a carriage to return to Dakshineswar. One or two attending devotees got in with him. The carriage stood under a tree, in deep darkness. Beni Pal wanted to send some sweets and other food with Sri Ramakrishna for Ramlal, the Master's nephew.

वेणीपाल - महाराज, रामलाल आ नहीं सके, उनके लिए इन लोगों के हाथ कुछ पूड़ी-मिठाई भेजना चाहता हूँ, अगर आप आज्ञा दें ।

[বেণী পাল — মহাশয়! রামলাল আসতে পারেন নাই, তার জন্য কিছু খাবার এঁদের হাতে দিতে ইচ্ছা করি। আপনি অনুমতি করুন।

BENI PAL: "Sir, Ramlal was not here this evening. With your permission I should like to send some sweets for him by your attendants."

श्रीरामकृष्ण - (घबराकर) - ओ बाबू वेणीपाल ! तुम मेरे साथ यह सब न भेजो । इससे मुझे दोष लगता है । मुझे अपने साथ किसी चीज का संचय करके रखना न चाहिए । तुम कुछ और न सोचना ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (ব্যস্ত হইয়া) — ও বাবু বেণী পাল! তুমি আমার সঙ্গে ও-সব দিও না! ওতে আমার দোষ হয়। আমার সঙ্গে কোন জিনিস সঞ্চয় করে নিয়ে যেতে নাই। তুমি কিছু মনে করবে না।

MASTER (with great anxiety): "Oh, Beni Pal! Oh, sir! Please don't send these things with me. That will do me harm. It is never possible for me to lay up anything. I hope you won't mind."

वेणीपाल - जो आज्ञा, आप आशीर्वाद दीजिये ।

[বেণী পাল — যে আজ্ঞা, আপনি আশীর্বাদ করুন।

BENI PAL: "As you please, sir. Please give me your blessing."

[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🙏'अर्थ' मनुष्य का प्रभु नहीं-दास है, वैसे ही जो 'मन' के प्रभु नहीं वे पशु के समान 🙏    

श्रीरामकृष्ण - आज खूब आनन्द हुआ । देखो, जिसका दास अर्थ हो, आदमी वही है जो लोग अर्थ का व्यवहार नहीं जानते, वे मनुष्य होकर भी मनुष्य नहीं हैं । आकृति तो उनकी मनुष्य जैसी है परन्तु व्यवहार पशु जैसा । तुम धन्य हो, कि तुमने अपने धन का सदुपयोग करके, इतने भक्तों को आनन्दित कर दिया ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আজ খুব আনন্দ হল। দেখ, অর্থ যার দাস, সেই মানুষ। যারা অর্থের ব্যবহার জানে না, তারা মানুষ হয়ে মানুষ নয়। আকৃতি মানুষের কিন্তু পশুর ব্যবহার! ধন্য তুমি! এতগুলি ভক্তকে আনন্দ দিলে।

MASTER: "Oh, we have been very happy today! You see, he alone is a true man who has made money his servant. But those who do not know the use of money are not men even though they have human forms. They may have human bodies, but they behave like animals. You are blessed indeed. You have made so many devotees happy today."

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`Where the mind is without fear,  and the head is held high '

Where the mind is without fear and the head is held high .Where knowledge is free. Where the world has not been broken up into fragments .By narrow domestic walls. Where words come out from the depth of truth. Where tireless striving stretches its arms towards perfection.Where the clear stream of reason has not lost its way. Into the dreary desert sand of dead habit. Where the mind is led forward by thee. Into ever-widening thought and action .Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake ! --Rabindranath Tagore-

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