परिच्छेद~ ८४
(१)
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-84]
🔱🙏🔆 जीवन का उद्देश्य ईश्वर-भक्ति प्राप्त करना है,
तो फिर नरेन्द्र को नौकरी क्यों तलाश करनी पड़ी ?🔱🙏🔆
आज रथयात्रा है; बुधवार, 25 जून 1884 आषाढ़ की शुक्ला द्वितीया । आज सुबह श्रीरामकृष्ण ईशान के घर निमन्त्रित होकर आये है । ईशान का घर ठनठनिया में है । यहाँ पहुँचकर श्रीरामकृष्ण ने सुना, पण्डित शशधर तर्कचूड़ामणि पास ही कालेज स्ट्रीट में चटर्जियों के यहाँ आये हुए हैं । पण्डितजी को देखने की उनकी बड़ी इच्छा है । पिछले पहर पण्डितजी के यहाँ जाना निश्चित हुआ । दिन के दस बजे का समय होगा ।
IT WAS THE DAY of the Rathayatra, the Car Festival of the Hindus. At Ishan's invitation Sri Ramakrishna went to his house in Calcutta. For some time the Master had had a desire to meet Pundit Shashadhar Tarkachudamani, who had been staying with one of Ishan's neighbours. So it was decided that he would visit the pundit in the afternoon.
[আজ রথযাত্রা। বুধবার, ২৫শে জুন, ১৮৮৪; আষাঢ় শুক্লা দ্বিতীয়া। সকালে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ কলিকাতায় ঈশানের বাড়ি নিমন্ত্রণে আসিয়াছেন। ঠনঠনিয়ায় ঈশানের ভদ্রাসনবাটী। সেখানে আসিয়া ঠাকুর শুনিলেন যে, পণ্ডিত শশধর অনতিদূরে কলেজ স্ট্রীটে, চাটুজ্যেদের বাড়ি রহিয়াছেন। পণ্ডিতকে দেখিবার তাঁহার ভারী ইচ্ছা। বৈকালে পণ্ডিতের বাড়ি যাইবেন, স্থির হইল।
श्रीरामकृष्ण ईशान ^* के नीचेवाले बैठकखाने में भक्तों के साथ बैठे हैं । ईशान के मुलाकाती भाटपाड़ा के दो-एक ब्राह्मण थे जिनमें एक भागवत के पण्डित भी थे । श्रीरामकृष्ण के साथ हाजरा तथा और भी दो एक भक्त आये हैं । श्रीश आदि ईशान के लड़के भी हैं । एक भक्त और आये हैं, ये शक्ति के उपासक (Tantrik worshipper) हैं । मत्थे पर सिन्दूर का बुन्दा लगाये हैं । श्रीरामकृष्ण आनन्द में हैं । सिन्दूर का बुन्दा देखकर हँसते हुए कहा, इन पर तो ट्रेड -मार्क लगा हुआ है !
A few devotees, including Hazra, accompanied the Master to Ishan's house. Ishan had invited one or two brahmin scholars and a devotee who followed the Tantrik method of worship. Shrish and Ishan's other sons were also present. The Master noticed that the Tantrik worshipper had a vermilion mark on his forehead, and smilingly said, "I see he is branded."
{বেলা প্রায় দশটা। শ্রীরামকৃষ্ণ ঈশানের নিচের বৈঠকখানায় ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। ঈশানের পরিচিত ভাটপাড়ার দুই-একটি ব্রাহ্মণ, তাহাদের মধ্যে একজন ভাগবতের পণ্ডিত। ঠাকুরের সঙ্গে হাজরা ও আরও দুই-একটি ভক্ত আসিয়াছেন। শ্রীশ প্রভৃতি ঈশানের ছেলেরাও উপস্থিত। একজন ভক্ত, শক্তির উপাসক, আসিয়াছেন। কপালে সিন্দূরের ফোঁটা। ঠাকুর আনন্দময়, সিন্দূরের টিপ দেখিয়া হাসিতে হাসিতে বলিতেছেন, “উনি তো মার্কামারা।”
कुछ देर बाद नरेन्द्र और मास्टर अपने अपने मकान से आये । दोनों ने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके उनके पास ही आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा था, अमुक दिन मैं ईशान के घर जाऊँगा, तुम वहीं नरेन्द्र को साथ लेकर मिलना ।
After a while M. and Narendra arrived and bowed before Sri Ramakrishna. The Master had previously informed M. that he would be at Ishan's house.
[কিয়ৎক্ষণ পরে নরেন্দ্র ও মাস্টার তাঁহাদের কলিকাতার বাটী হইতে আসিলেন। তাঁহারা ঠাকুরকে প্রণাম করিয়া তাঁহার কাছে উপবিষ্ট হইলেন। ঠাকুর মাস্টারকে বলিয়াছিলেন, “আমি অমুক দিন ঈশানের বাড়ি যাইতেছি, তুমিও যাইবে ও নরেন্দ্রকে সঙ্গে করিয়া আনিবে।”
श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा, उस दिन मैं तुम्हारे यहाँ जा रहा था, तुम कहाँ रहते हो ?
[ঠাকুর মাস্টারকে বলিতেছেন, “সেদিন তোমার বাড়ি যাচ্ছিলাম — আড্ডাটা কোন্ ঠিকানায়?”
मास्टर - जी, अब श्यामपुकुर तेलीपाड़ा में स्कूल के पास रहता हूँ ।
[মাস্টার — আজ্ঞা, এখন শ্যামপুকুর তেলিপাড়ায়, স্কুলের কাছে।
श्रीरामकृष्ण - आज स्कूल नहीं गये ?
শ্রীরামকৃষ্ণ — আজ স্কুলে যাও নাই?
मास्टर - जी, आज रथ की छुट्टी है ।
[মাস্টার — আজ্ঞা, আজ রথের ছুটি।
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔱🙏खाली पेट ईश्वर-भक्ति नहीं होती🔱🙏
नरेन्द्र के पितृवियोग के बाद से घर में बड़ी तकलीफ है । वे ही अपने पिता के सब से बड़े लड़के हैं । उनके छोटे छोटे कई भाई और बहिनें हैं । पिता वकील थे, परन्तु कुछ छोड़कर नहीं जा सके। परिवार के भोजन-वस्त्र के लिए नरेन्द्र नौकरी तलाश रहे हैं । श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र को किसी काम में लगा देने के लिए ईशान आदि भक्तों से कह रखा है । ईशान A. G. ऑफिस बंगाल के अधीक्षक (Superintendent) थे । नरेन्द्र के घर की तकलीफ सुनकर श्रीरामकृष्ण सदा ही चिन्तित रहते हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - मैंने ईशान से तेरे लिए कहा है । ईशान एक दिन वहाँ (दक्षिणेश्वर में) रहा था, तभी मैंने उससे तेरी बात कही थी । बहुतों के साथ उसका परिचय है ।
[নরেন্দ্রের পিতৃবিয়োগের পর বাড়িতে অত্যন্ত কষ্ট। তিনি পিতার জেষ্ঠপুত্র — ছোট ছোট ভাই-ভগ্নী আছে। পিতা উকিল ছিলেন, কিছু রাখিয়া যাইতে পারেন নাই। সংসার প্রতিপালনের জন্য নরেন্দ্র কাজকর্ম চেষ্টা করিতেছেন। ঠাকুর নরেন্দ্রের কর্মের জন্য ঈশান প্রভৃতি ভক্তদের বলিয়া রাখিয়াছেন। ঈশান কম্পট্রোলার জেনার্যালের আফিসে কর্মচারিদিগের একজন অধ্যক্ষ ছিলেন। নরেন্দ্রের বাটীর কষ্ট শুনিয়া সর্বদা চিন্তিত থাকেন।[শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রের প্রতি) — আমি ঈশানকে তোর কথা বলেছি। ঈশান ওখানে (দক্ষিণেশ্বর-কালীমন্দিরে) একদিন ছিল কি না — তাই বলেছিলাম। তার অনেকের সঙ্গে আলাপ আছে।
ईशान ने श्रीरामकृष्ण को निमन्त्रण देकर बुलाया है । इस उपलक्ष्य में अपने कई दूसरे मित्रों को भी न्योता भेजा है । गाना होगा; पखावज, तबला और तानपूरे का इन्तजाम किया जा रहा है । घर से एक आदमी थोड़ा सा मैदा दे गया । (पखावज में लगाने के लिए ।) ग्यारह बजे का समय होगा। ईशान की इच्छा है कि नरेन्द्र गावें ।
[ঈশান ঠাকুরকে নিমন্ত্রণ করিয়া আনিয়াছেন। সেই উপলক্ষে কতকগুলি বন্ধুদেরও নিমন্ত্রণ করিয়াছেন। গান হইবে। পাখোয়াজ, বাঁয়া তবলা ও তানপুরার আয়োজন হইয়াছে। বাড়ির একজন একটি পাত্র করিয়া পাখোয়াজের জন্য ময়দা আনিয়া দিল। বেলা ১১টা হইবে। ঈশানের ইচ্ছা নরেন্দ্র গান করেন।
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔱🙏* अन्नचिन्ता चमत्कारा कातरे कविता कुतः *🔱🙏
श्रीरामकृष्ण - (ईशान से, थोड़ा मजाकिया अंदाज में) - इस समय मैदा ! तब तो अभी भोजन को बड़ी देर होगी ?
শ্রীরামকৃষ্ণ (ঈশানের প্রতি) — এখনও ময়দা! তবে বুঝি (খাবার) অনেক দেরি!
The Master joked about the delay in serving their meal.
ईशान - (सहास्य) - जी नहीं, ऐसी कुछ देर नहीं है ।
[ঈশান (সহাস্যে) — আজ্ঞে না, তত দেরি নাই।
(ठाकुर देव की बात को सुनकर) भक्तों में कोई-कोई हँस रहे हैं, भागवत के पण्डित भी हँसकर एक संस्कृत श्लोक कह रहे हैं । श्लोक की आवृत्ति हो जाने पर पण्डितजी उसकी व्याख्या कर रहे हैं:- " निःसन्देह दर्शन आदि शास्त्रों का अध्यन करना शिक्षाप्रद (edifying) होता है, किन्तु दर्शन शास्त्रों के अध्यन से कविता पाठ सुनना मनोरंजक होता है । जब कवि सम्मेलन आयोजित होता है, तब लोग उसे बड़े आनन्द से सुनते हैं; उस समय वेदान्त, सांख्य, न्याय, पातंजलि, ये सब नीरस (insipid,फीका) जान पड़ते हैं । पुनः कविता पाठ की अपेक्षा संगीत अधिक चित्ताकर्षक होता है। संगीत को सुनकर पत्थल- ह्रदय भी द्रवित हो जाता है । यद्यपि गीतों में इतना आकर्षण होता है, तथापि सुन्दरी स्त्री की तुलना में वह भी कम है । अभी एक सुन्दर स्त्री यहाँ से निकल जाय तो न किसी का मन काव्य में लगेगा, न कोई गीत ही सुनेगा । सब- के- सब उसी स्त्री को देखने लगेंगे । और जब भूख लगती है, तब कविता, गीत, नारी, कुछ भी अच्छा नहीं लगता, कहा भी गया है- "अन्नचिन्ता चमत्कारा कातरे कविता कुतः !"
One of the scholars quoted a Sanskrit verse about the anxiety created in people's minds by the pangs of hunger. Proceeding to explain the verse he said: "The study of philosophy is indeed edifying , but poetry is more fascinating than philosophy. People listening to good poems think of the study of philosophy — Vedanta, Nyaya, Samkhya, and so forth — as dry and insipid. Again, music is more attractive than poetry. Music melts even a heart of stone. But a beautiful woman has an even greater attraction for a man's heart than music. Such a woman, passing by, diverts a man's attention from both poetry and music. But when a man feels the pangs of hunger, everything else — poetry, music, and woman — appears as of no consequence. Thus hunger is the most arresting thing (भूख सबसे सक्रीय पहलु है !)."
[ভক্তেরা কেহ কেহ হাসিতেছেন। ভাগবতের পণ্ডিতও হাসিয়া একটি উদ্ভট শ্লোক বলিতেছেন। শ্লোক আবৃত্তির পর পণ্ডিত ব্যাখ্যা করিতেছেন। “দর্শনাদি শাস্ত্র অপেক্ষা কাব্য মনোহর। যখন কাব্য পাঠ হয় বা লোকে শ্রবণ করে তখন বেদান্ত, সাংখ্য, ন্যায়, পাতঞ্জল — এই সব দর্শন শুষ্ক বোধ হয়। কাব্য অপেক্ষা গীত মনোহর। সঙ্গীতে পাষাণহৃদয় লোকও গলে যায়; কিন্তু যদিও গীতের এত আকর্ষণ, যদি সুন্দরী নারী কাছ দিয়ে চলে যায়, কাব্যও পড়ে থাকে, গীত পর্যন্ত ভাল লাগে না। সব মন ওই নারীর দিকে চলে যায়। আবার যখণ বুভুক্ষা হয়, ক্ষুধা পায়, কাব্য, গীত, নারী কিছুই ভাল লাগে না। অন্নচিন্তা চমৎকারা!”
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - ये रसिक (witty-विनोदी स्वभाव) हैं ।
The Master remarked with a smile, "The pundit is witty."
[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্য) — ইনি রসিক।
[[There is a popular Sanskrit Sloka:-“Anna Chinta Chamatkara Katare Kavita Kutah” i. e. you can’t read, write, think or enjoy poetry when you are hungry or when your stomach is empty. ]
एक समय कवि कालिदास घर से बाहर निकल राजा विक्रमादित्य की राज-सभा में जा रहे थे। इतने में उनकी स्त्री बोल उठी कि- 'आज तो घर में अन्न नहीं हें।' इस बात को सुन कर कालिदास अन्न के बारे में सोचते हुए राजसभा में जा पहुँचे। उस दिन राजा ने जो सब समस्याएं पूर्ण करने को दी थीं उन में से कोई भी वह पूर्ण नहीं कर सके । तब विक्रमादित्य ने विस्मित हो कर कालि दास से इसका कारण पूछा। तब महाकवि कालिदास ने यह उत्तर दिया- अन्नचिन्ता चमत्कारा कातरे कविता कुतः । “ अन्नचिन्ता चमत्कारा है , उस चिन्ता से जो व्यथित हे उसकी कविता-शक्ति का विकास कैसे हो सकता हें ?”एक लोकोक्ति भी है -“भूखे भजन न होय गोपाला, ले तेरी कंठी ले तेरी माला। " भूखे पेट भजन नहीं होता, भूखे पेट भगवान के भजन में ध्यान नहीं लगता। मानो कोई भगवान का भक्त भूख के कारण प्रभु से कह रहा हो कि “प्रभु भोजन दो तभी आपकी भक्ति होगी, नहीं तो आपकी भक्ति छोड़नी पड़ेगी। ” ]
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔱🙏🔆युवाओं के लिए महत्वपूर्ण प्रश्न- जीवन का उद्देश्य क्या है ? ”🔱🙏🔆
[चरित्रवान 'मनुष्य ' बनना या 'कैरियर' में से किसे तुम सबसे जरूरी चीज समझते हो ?
What is your idea about the most essential thing in life?]
জীবনের সবচেয়ে প্রয়োজনীয় জিনিস সম্পর্কে আপনার ধারণা কি?
पखावज बँध गया, नरेन्द्र गा रहे हैं । गाना शुरू होने से कुछ पहले ही श्रीरामकृष्ण ऊपर के बैठकखाने में विश्राम करने के लिए चले गये । साथ मास्टर और श्रीश भी गये । यह बैठकखाना रास्ते के ऊपर है । मास्टर ने श्रीरामकृष्ण से श्रीश मुखोपाध्याय का परिचय कराया । कहा, ये पण्डित हैं और प्रकृति के बड़े शान्त हैं । बचपन से ही ये मेरे साथ पढ़ते थे । अब ये वकालत करते हैं ।
Soon Narendra began to sing. A few moments later the Master went upstairs for a little rest. M. and Shrish accompanied him. M. introduced Shrish to the Master, saying: "He is a scholar and a man of peaceful nature. We were fellow students in our boyhood. Now he is a lawyer."
[পাখোয়াজ বাঁধা হইল। নরেন্দ্র গান গাহিতেছেন। গান একটু আরম্ভ হইতে না হইতে ঠাকুর উপরের বৈঠকখানাঘরে বিশ্রাম করিবার জন্য চলিয়া আসিলেন। সঙ্গে মাস্টার ও শ্রীশ। বৈঠকখানাঘর রাস্তার উপর। ঈশানের শ্বশুর ৺ক্ষেত্রনাথ চাটুজ্যে মহাশয় এই বৈঠকখানা ঘর করিয়াছেন।মাস্টার শ্রীশের পরিচয় দিলেন। বলিলেন, “ইনি পণ্ডিত ও অতিশয় শান্ত প্রকৃতি। শিশুকাল হইতে ইনি আমার সঙ্গে বরাবর পড়িয়াছিলেন। ইনি ওকালতি করেন।”
श्रीरामकृष्ण - इस तरह के आदमी भी वकालत करें ।
MASTER: "It is a pity that such a man should practise law."
[শ্রীরামকৃষ্ণ — এরকম লোকের উকিল হওয়া!
मास्टर - भूलकर उस रास्ते में चले गये हैं ।
[মাস্টার — ভুলে ওঁর ও-পথে যাওয়া হয়েছে।
M: "Yes, sir. It was a mistake on his part."
श्रीरामकृष्ण - मैने गणेश वकील को देखा है । वहाँ (दक्षिणेश्वर में) बाबुओं के साथ कभी-कभी जाता है। पन्ना (वकील) भी जाता है - सुन्दर तो नहीं है, पर गाता अच्छा है । मुझे मानता भी खूब है, बड़ा सरल है। (श्रीश से) आपने किसे सार-वस्तु सोचा ? (अर्थात आप किस वस्तु को जीवन में सबसे जरूरी चीज समझते हैं?)
MASTER: "I know a few lawyers. One of them shows me great respect. He is a straightforward man. (To Shrish) What is your idea about the most essential thing in life?"
[শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি গণেশ উকিলকে দেখেছি। ওখানে (দক্ষিণেশ্বর-কালীবাটীতে) বাবুদের সঙ্গে মাঝে মাঝে যায়। পান্নাও যায় — সুন্দর নয়, তবে গান ভাল। আমায় কিন্তু বড় মানে; সরল।(শ্রীশের প্রতি) — “আপনি কি সার মনে করেছো?”
श्रीश - ईश्वर हैं और वे ही सब कर रहे हैं । परन्तु उनके गुणों के सम्बन्ध में हमारी जो धारणा है, वह ठीक नहीं । आदमी उनके सम्बन्ध में क्या धारणा कर सकता है ? अनन्त खेल हैं उनके !
SHRISH: "God exists and He alone does everything. But the attributes we ascribe to Him are not the right ones. How can a man conceive of Him? His nature is infinite."
[শ্রীশ — ঈশ্বর আছেন আর তিনিই সব করেছেন। তবে তাঁর গুণ (Attributes) আমরা যা ধারণা করি তা ঠিক নয়। মানুষ তাঁর বিষয় কি ধারণা করবে; অনন্ত কাণ্ড!
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆मनुष्य योनि में जन्म ईश्वर से (अवतार वरिष्ठ से ) भक्ति- प्रेम करने के लिए हुआ है।🔆
श्रेयः स्त्रुतिं भक्तिमुदस्य ते विभो,
क्लिश्यन्ति ये केवलबोधलब्धये ।
तेषामसौ क्लेशल एव शिष्यते,
नान्यद् यथा स्थूतुषावघातिनाम् ।।
भागवत 10/14/4
हे विभो ! (हे भगवन -अवतार वरिष्ठ ठाकुर देव ) ! आपकी भक्ति सब प्रकार के कल्याण का मूलस्त्रोत है। जो पुरूष कल्याणप्राप्ति की मार्गरूपा आपकी भक्ति को छोड़कर केवल ज्ञान (परम् सत्य-इन्द्रियातीत सत्य) की प्राप्ति के लिए श्रम उठाते और दुःख भोगते हैं, उनको बस क्लेश-ही-क्लेश हाथ लगता है और कुछ नहीं, जैसे थोथी भूसी कूटने वाले को केवल श्रम ही मिलता है, चावल नहीं।
कहीं बैठ जाओ, जहाँ अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव की कथा हो रही हो। कानों में भगवान का चरित्र आयेगा, कथामृत आयेगा। सानुराग कथामृत का पान करते रहो। मुक्ति माँगनी नहीं पडे़गी, मुक्ति में हिस्सेदार हो जाओगे। दाय तो हठात प्राप्त होता है, किसी से माँगना नहीं पड़ता। दाय में किसी का अहसान नहीं होता। ]
श्रीरामकृष्ण - बगीचे में कितने पेड़ हैं, पेड़ों में कितनी डालियाँ है, इन सब का हिसाब लगाने से तुम्हारा क्या काम ? तुम बगीचे में आम खाने के लिए आये हो, आम खाकर चले जाओ । ईश्वर भक्ति और प्रेम करने के लिए आदमी मनुष्य जन्म पाता है । तुम आम खाकर चले जाओ ।
MASTER: "What need is there of your counting the number of trees and branches in an orchard? You have come to the orchard to eat mangoes. Do that and be happy. The aim of human birth is to love God. Realize that love and be at peace.
[শ্রীরামকৃষ্ণ — বাগানে কত গাছ, গাছে কত ডাল — এ-সব হিসাবে তোমার কাজ কি? তুমি বাগানে আম খেতে এসেছ, আম খেয়ে যাও। তাঁতে ভক্তি প্রেম হবার জন্যই মানুষ জন্ম। তুমি আম খেয়ে চলে যাও।
“तुम शराब पीने के लिए आये, तो शराबवाले की दूकान में कितने मन शराब है, इन सब का हिसाब करने से क्या प्रयोजन ? तुम्हारे लिए तो एक गिलास ही काफी है । अनन्त लीलाओं के जानने से तुम्हें मतलब ? "कोटि कोटि वर्ष तक उनके गुणों का विचार करने पर उनके गुणों का अल्पांश भी न समझ पाओगे ।"
Suppose you have entered a tavern for a drink. Is it necessary for you to know how many gallons of wine there are in the tavern? One glass is enough for you. What need is there of your knowing the infinite qualities of God? You may discriminate for millions of years about God's attributes and still you will not know them."
[“তুমি মদ খেতে এসেছ, শুঁড়ির দোকানে কত মন মদ এ খপরে তোমার কাজ কি! এক গেলাস হলেই তোমার হয়ে যায়।"“তোমার অনন্ত কাণ্ড জানবার কি দরকার।“তাঁর গুণ কোটি বৎসর বিচার করলেও কিছু জানতে পারবে না।”
श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुप रहकर फिर बातचीत करने लगे । भाटपाड़ा के एक ब्राह्मण भी बैठे हैं ।
The Master remained silent a few minutes. A brahmin pundit came into the room.
[ঠাকুর একটু চুপ করিয়া আছেন। আবার কথা কহিতেছেন। ভাটপাড়ার একটি ব্রাহ্মণও বসিয়া আছেন।
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔱🙏'ईशान मुखोपाध्याय का परिवार' विद्या का परिवार (धार्मिक परिवार)🔱🙏
[जिसमें सभी सदस्य भगवान (अवतार वरिष्ठ) के प्रति समर्पित हों ! ]
[A religious family :- in which all the members are devoted to God ]
'श्रद्धा से भक्ति मिले, भक्ति से भगवान; कृष्ण हैं श्रद्धा, कृष्ण हैं भक्ति , कृष्ण हैं विश्वास"
[माँ अविलम्ब मेरे मन का मोड़ घुमा दो : उसे कामिनी -कांचन-कीर्ति से खींचकर ठाकुर के ओर कर दो !]
[Intimacy with God or Wife?
'O Mother, turn my mind at once from the world to God.']
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - सांसारिक जीवन में (worldly lifestyle, कामिनी-कांचन -कीर्ति में आसक्त या आहार, निद्रा, भय, मैथुन में आसक्त सांसारिक जीवन में) कुछ भी नहीं । इनके (ईशान के) परिवार के सभी सदस्य अच्छे है, (ईश्वर भक्त हैं ) यही खैर है, नहीं तो अगर लड़के वेश्यागामी, गंजेड़ी, शराबी और उद्दण्ड होते, तो तकलीफ की हद हो जाती । सब का मन ईश्वर पर - विद्या का संसार (religious family )- ऐसा अक्सर नहीं दीख पड़ता । ऐसे दो ही चार घर देखे । नहीं तो बस झगड़ा, 'तू-तू मैं मैं', हिंसा, और फिर रोग, शोक, दारिद्र । यही देखकर कहा - माँ, इसी समय मोड़ घुमा दो ।
"There is no substance whatsoever in the worldly life. The members of Ishan's family are good; so he has some peace here. Suppose his sons had been lewd, disobedient, and addicted to drink and other vices. Then there would have been no end to his troubles. One very seldom comes across such a religious family, in which all the members are devoted to God. I have seen only two or three such families. Generally one finds quarrels, misunderstanding, jealousy, and friction. Besides, there are disease, grief, and poverty in the world. Seeing this condition, I prayed to the Divine Mother, 'O Mother, turn my mind at once from the world to God.'}
{শ্রীরামকৃষ্ণ — (মাস্টারের প্রতি) — সংসারে কিছুই নাই। এঁর (ঈশানের) সংসার ভাল তাই, — তা না হলে যদি ছেলেরা রাঁড়খোর, গাঁজাখোর, মাতাল, অবাধ্য এই সব হত, কষ্টের একশেষ হত। সকলের ঈশ্বরের দিকে মন — বিদ্যার সংসার, এরূপ প্রায় দেখা যায় না। এরূপ দু-চারটে বাড়ি দেখলাম। কেবল ঝগড়া, কোঁদল, হিংসা, তারপর রোগ, শোক, দারিদ্র্য। দেখে বললাম — মা; এই বেলা মোড় ফিরিয়ে দাও।
[ईशानचंद्र मुखोपाध्याय - श्री रामकृष्णदेव की विशेष कृपा -प्राप्त गृहस्थ भक्त थे । उनके घर का वर्तमान पता 19 नंबर , केशवचंद्र स्ट्रीट में था। वैसे वे 24 परगना जिले के हरिनाभि ग्राम के मूल निवासी थे। ईशान A. G. Bengal- के सुपरिन्टेन्डेन्ट पद पर कार्यरत थे। अपने निजी जीवन में, ईशान चंद्र परम् दयालु, दानी और परोपकारी भक्त के रूप में विख्यात थे। नियमित रूप से दक्षिणेश्वर में श्री रामकृष्ण के सानिध्य में रहने के परिणामस्वरूप, ईशानचंद्र ठाकुर के भक्त बन गए थे । ईशान चंद्र के घर पर ठाकुर देव ने कई बार अपने चरणकमल रखे थे और उनकी सेवायें ग्रहण की थीं। ईशानचंद्र के जीवन का अंतिम समय भाटपारा में साधना-भजन करते हुए व्यतीत हुआ। 1898 ई. में 63 वर्ष की आयु में, भाटपारा में उनका निधन हो गया। उनके पुत्र श्रीशचंद्र और सतीशचंद्र आदि सभी स्वनाम धन्य व्यक्ति थे। श्रीशचन्द्र श्री 'म' के सहपाठी, मित्र और विश्वविद्यालय के मेधावी छात्र थे। सतीश चन्द्र भी उनके सहपाठी और मित्र थे। स्वामी विवेकानन्द जी गाजीपुर स्थित सतीश चन्द्र के घर पर अपने परिव्राजक जीवन में कुछ दिन ठहरे थे।]
ঈশানচন্দ্র মুখোপাধ্যায় — শ্রীরামকৃষ্ণের বিশেষ কৃপাপ্রাপ্ত গৃহী ভক্ত। বর্তমান ১৯ নং কেশবচন্দ্র স্ট্রীটে তাঁহার বাড়ি ছিল। আদি নিবাস ২৪ পরগণা জেলার হরিনাভি গ্রাম। A. G. Bengal-এর সুপারিনটেনডেন্ট ছিলেন। ব্যক্তিগত জীবনে ঈশানচন্দ্র পরম দয়ালু, দানবীর এবং ভক্ত হিসাবে সুপ্রসিদ্ধ। দক্ষিণেশ্বরে শ্রীরামকৃষ্ণের কাছে নিয়মিত যাতায়াতের ফলে ঈশানচন্দ্র ঠাকুরের আশ্রিতরূপে পরিগণিত হন। ঠাকুর পরম ভক্তি-পরায়ণ ঈশানচন্দ্রের বাড়িতে কয়েকবার শুভাগমন করিয়া তাঁহার সেবা গ্রহণ করিয়াছিলেন। ঈশানচন্দ্রের শেষ জীবন ভাটপাড়াতে সাধন-ভজনে অতিবাহিত হয়। ১৮৯৮ খ্রীষ্টাব্দে ৭৩ বৎসর বয়সে তিনি ভাটপাড়াতেই শেষনিঃশ্বাস ত্যাগ করেন। ইঁহার পুত্রগণ শ্রীশচন্দ্র, সতীশচন্দ্র প্রভৃতি সকলেই কৃতী ছিলেন। শ্রীশচন্দ্র শ্রীমর সহপাঠী, বন্ধু ও বিশ্ববিদ্যালয়ের কৃতী ছাত্র ছিলেন। সতীশচন্দ্ সহপাঠী ও বন্ধু ছিলেন। পরিব্রাজক অবস্থায় স্বামীজী গাজিপুরে সতীশচন্দ্রের গৃহে কিছুকাল অবস্থান করিয়াছিলেন।]
" देख न, नरेन्द्र कैसी विपत्ति में पड़ गया, बाप मर गया, घरवाले खाने को नहीं पाते, नौकरी की इतनी चेष्टा कर रहा है, फिर भी कोई प्रबन्ध नहीं होता । अब देखो उसका मन कितना अशान्त है -क्या करें ? मास्टर ! पहले तुम यहाँ इतना आते थे, अब उतना क्यों नहीं आते ? जान पड़ता है, इस समय बीबी से प्रेम ( particularly friendly with your wife.) बढ़ा हुआ है ।
Look at Narendra's troubles. His father is dead and the members of his family are starving. He has been trying his utmost to secure a position, but he has not yet found one. Just see how unsettled his mind is! "You used to come to Dakshineswar very frequently. But why have you become such a rare visitor? Perhaps you have become particularly friendly with your wife. Is it true?
[ দেখ না, নরেন্দ্র কি মুশকিলেই পড়েছে। বাপ মারা গেছে, বাড়িতে খেতে পাচ্ছে না — কাজকর্মের এত চেষ্টা করছে জুটছে না — এখন কি করে বেড়াচ্ছে দেখো।“মাস্টার, তুমি আগে অত যেতে, এখন তত যাও না কেন? বুঝি পরিবারের সঙ্গে বেশি ভাব হয়েছে?
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆🔱🙏संसारी जीवन से अनासक्त होकर
ईश्वर-भक्ति करना बड़ा कठिन है !🔱🙏🔆
"अच्छा, इसमें तुम्हें ही दोष क्यों दूँ ? चारों ओर तो कामिनी-कांचन में आसक्त मनुष्य ही दिख पड़ते हैं । इसीलिए कहता हूँ, माँ, अगर फिर कभी मानव शरीर ग्रहण करना पड़े तो संसारी जीवन में आसक्त न बना देना ।"[worldly lifestyle, सांसारिक जीवन में 'कामिनी-कांचन -कीर्ति में आसक्त' या आहार, निद्रा, भय, मैथुन में आसक्त न बना देना ।]
(To M.) Why should I blame you? The influence of 'woman and gold' is everywhere. Therefore I pray, 'O Divine Mother, please don't make me a worldly man if I am to be born again in a human body.']
[“তা দোষই বা কি, চারিদিকে কামিনী-কাঞ্চন! তাই বলি, মা, যদি কখনও শরীরধারণ হয়, যেন সংসারী করো না।”
भाटपाड़ा के ब्राह्मण - यह आपने कैसे कहा ? गृहस्थ धर्म की तो बड़ी प्रशंसा है ।
[ভাটপাড়ার ব্রাহ্মণ — কি! গৃহস্থধর্মের সুখ্যাতি আছে।
(BRAHMIN SCHOLAR: "Why should you say that, sir? The scriptures extol the life of a householder.")
श्रीरामकृष्ण - हाँ, परन्तु संसारी मनुष्य सद्गृहस्थ ^*बनना (औरत-भक्त से ईश्वर-भक्त बनना) बड़ा कठिन है ।
MASTER: "Yes, that is true. But it is very difficult to lead the true life of a householder.
[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, কিন্তু বড় কঠিন।
श्रीरामकृष्ण दूसरी बात करने लगे ।
[ঠাকুর অন্য কথা পাড়িতেছেন।
[बड़ा कठिन ^*शनिवार, 26 अक्तूबर 2019 का ब्लॉग 'निवृत्तिस्तु महाफला' :श्री शंकराचार्य के पूर्व ही प्रचलित हुए वैदिक धर्म के अनुसार दो मार्ग हैं। इन्हीं दो मार्गों को गीता में संन्यास और कर्मयोग कहा है। श्री शंकराचार्य स्वयं निवृत्ति-मार्गी या संन्यासी थे; किन्तु उन्होंने अपने गीता भाष्य के आरंभ में ही वैदिक धर्म के दो भेद – प्रवृत्ति और निवृत्ति बतलाए हैं।- प्रवृत्ति लक्ष्णो योगः ज्ञानं सन्यास लक्षणम्। अर्थात एक मार्ग यह है कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर सब कर्मों का संन्यास अर्थात त्याग कर दे; और दूसरा यह कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी सब कर्मों को न छोड़े, उनको जन्म भर ऐसी 'युक्ति ' के साथ करता रहे कि उनके पाप–पुण्य की बाधा न होने पाए। मनु महाराज (मनुस्मृतिः५.५६) कहते हैं- विवाह करो, थोड़ा खा पहन लो; किन्तु यह सदा स्मरण रहे कि - निवृत्तिस्तु महाफला। यदि सभी मनुष्यों के उपर एक ही मार्ग को -केवल निवृत्ति मार्ग को अपनाने बाध्यता थोप दी जाये तो वैसा करना ठीक नहीं होगा। इसीलिये श्रुति या शास्त्र प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति तक आने में बाधा नहीं देते। ]
[খুব কঠিন ^* শনিবার, অক্টোবর 26, 2019 এর ব্লগ 'নিবৃত্তিস্তু মহাফলা ' : শ্রী শঙ্করাচার্যের আগে প্রচলিত বৈদিক ধর্ম অনুসারে দুটি পথ রয়েছে। এই দুটি পথকে গীতায় সন্ন্যাস ও কর্মযোগ বলা হয়েছে। শ্রী শঙ্করাচার্য নিজে ছিলেন একজন নিবৃত্তি-মার্গী বা সন্ন্যাসীন; কিন্তু গীতার ভাষ্যের একেবারে শুরুতেই তিনি বৈদিক ধর্মের দুটি প্রভেদ দিয়েছেন – প্রতিক্ষা ও নিবৃত্তি। অর্থাৎ, একটি উপায় হল জ্ঞান অর্জনের জন্য, একজনকে সমস্ত কর্ম ত্যাগ করা উচিত, অর্থাৎ, সন্ন্যাস; আর দ্বিতীয়টি হল জ্ঞান অর্জনের পরও সমস্ত কর্ম ত্যাগ করবেন না, সারা জন্মে এমন 'যুক্তি' সহকারে করতে থাকুন যাতে তাদের পাপ ও পুণ্য বাধাগ্রস্ত না হয়। মনু মহারাজ (মনুস্মৃতি: 5.56) বলেছেন - বিয়ে করুন, খান এবং একটু পরুন; তবে সর্বদা মনে রাখতে হবে যে- নিবৃত্তিস্তু মহাফল। যদি সমস্ত মানুষের উপর একই পথ অবলম্বন করতে বাধ্য করা হয় - কেবল অবসরের পথ, তবে তা করা ঠিক হবে না। তাই শ্রুতি বা শাস্ত্র প্রবৃত্তির মাধ্যমে অবসরে পৌঁছতে কাউকে বাধা দেয় না। ,
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - हम लोगों ने कैसा अन्याय किया, वे लोग गा रहे है, नरेन्द्र गा रहा है, और हम लोग चले आये ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — আমরা কি অন্যায় করলাম? ওরা গাচ্ছে — নরেন্দ্র গাচ্ছে — আর — আমরা সব পালিয়ে এলাম।
(To M.) How wrong of us! They are singing, especially Narendra, and we have left the room."
(२)
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔱🙏🔆आधुनिक समय (कलियुग) में - कर्मयोग नहीं भक्तियोग🔆🔱🙏
दोपहर चार बजे के करीब, श्रीरामकृष्ण गाड़ी पर चढ़े । बड़े ही कोमलांग है, बड़ी सावधानी से देह की रक्षा होती है । इसीलिए रास्ता चलते तकलीफ होती है । गाड़ी न होने पर थोड़ी दूर भी चलते हैं, तो बड़ा कष्ट होता है । गाड़ी पर चढ़कर भावसमाधि में मग्न हो गये । उस समय नन्ही-नन्ही बूँदों की वर्षा हो रही थी । आकाश में बादल छाये हैं, रास्ते में कीचड़ है । भक्तगण गाड़ी के पीछे-पीछे पैदल चल रहे हैं । उन्होंने देखा, रथयात्रा का स्वागत लड़के ताड़ के पत्ते की भेंपू बजाकर कर रहे थे ।
About four o'clock in the afternoon the Master left in a carriage for the house where Pundit Shashadhar was staying. As soon as Sri Ramakrishna got into the carriage he went into samadhi. His physical frame was very tender as a result of the austerities he had undergone during the long years of his spiritual discipline and his constant absorption in God-Consciousness. The Master would suffer from the slightest physical discomfort and even from the vibration of worldly thoughts around him. Once Keshab Chandra Sen had said that Sri Ramakrishna, Christ, and Sri Chaitanya belonged to a delicate species of humanity that should be kept in a glass case and protected from the vulgar contact of the world.
[প্রায় বেলা চারিটার সময় ঠাকুর গাড়িতে উঠিলেন। অতি কোমলাঙ্গ, অতি সন্তর্পণে তাঁহার দেহরক্ষা হয়। তাই পথে যাইতে কষ্ট হয় — প্রায় গাড়ি না হলে অল্প দূরও যাইতে পারেন না। গাড়িতে উঠিয়া ভাবসমাধিতে মগ্ন হলেন! তখন টিপ-টিপ করিয়া বৃষ্টি পড়িতেছে। বর্ষাকাল — আকাশে মেঘ, পথে কাদা। ভক্তেরা গাড়ির পশ্চাৎ পশ্চাৎ পদব্রজে যাইতেছেন। তাঁহারা দেখিলেন, রথযাত্রা উপলক্ষে ছেলেরা তালপাতার ভেঁপু বাজাইতেছে।
गाड़ी मकान के सामने पहुँची । द्वार पर घर के मालिक और उनके आत्मीयों ने आकर स्वागत किया । ऊपर जाने की सीढ़ी के बगल में बैठकखाना है । ऊपर पहुँचकर श्रीरामकृष्ण ने देखा, शशधर तर्कचूड़ामणि उनकी अभ्यर्थना के लिए आ रहे हैं । पण्डितजी को देखकर मालूम हुआ कि वे यौवन पार कर चुके हैं, प्रौढ़ावस्था को प्राप्त हैं । रंग साफ गोरा है - गले में रुद्राक्ष की माला पड़ी है । उन्होंने बड़े विनय-भाव से श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया । फिर साथ ही उन्हें घर ले गये।
It was the rainy season, and a fine drizzle of rain had made the road muddy. The sky was overcast. The devotees followed the carriage on foot. As the carriage stopped in front of the house, the host and his relatives welcomed the Master and took him upstairs to the drawing-room. There the Master met the pundit. Pundit Shashadhar, a man of fair complexion and no longer young, had a string of rudraksha beads around his neck.
[গাড়ি বাটীর সম্মুখে উপনীত হইল। দ্বারদেশে গৃহস্বামী ও তাঁহার আত্মীয়গণ আসিয়া অভ্যর্থনা করিলেন। উপরে যাইবার সিঁড়ি। তৎপরে বৈঠকখানা। উপরে উঠিয়াই শ্রীরামকৃষ্ণ দেখিলেন যে শশধর তাঁহাকে অভ্যর্থনা করিতে আসিতেছেন। পণ্ডিতকে দেখিয়া বোধ হইল যে তিনি যৌবন অতিক্রম করিয়া প্রৌঢ়াবস্থা প্রাপ্ত হইয়াছেন। বর্ণ উজ্জ্বল, গৌর বলিলে বলা যায়। গলায় রুদ্রাক্ষের মালা। তিনি অতি বিনীতভাবে ভক্তিভরে ঠাকুরকে প্রণাম করিলেন। তৎপরে সঙ্গে করিয়া ঘরে লইয়া বসাইলেন। ভক্তগণ পশ্চাৎ পশ্চাৎ যাইয়া আসন গ্রহণ করিলেন।
श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हुए लोग उनकी बातचीत सुनने के लिए बड़े उत्सुक हो रहे हैं । नरेन्द्र, राखाल, राम, मास्टर और दूसरे भी बहुत से भक्त उपस्थित हैं । हाजरा भी श्रीरामकृष्ण के साथ दक्षिणेश्वर-कालीमन्दिर से आये हुए हैं । पण्डितजी ^* के देखते ही देखते श्रीरामकृष्ण को भावावेश होने लगा ।
The pundit saluted the Master with reverence. Narendra, Rakhal, Ram, Hazra, and M., who had come with the Master, seated themselves in the room as near the Master as they could, anxious not to miss one of his words.
[সকলেই উৎসুক যে, তাঁহার নিকটে বসেন ও তাঁহার শ্রীমুখনিঃসৃত কথামৃত পান করেন। নরেন্দ্র, রাখাল, রাম, মাস্টার ও অন্যান্য অনেক ভক্তেরা উপস্থিত আছেন। হাজরাও শ্রীরামকৃষ্ণের সঙ্গে দক্ষিণেশ্বরের কালীবাড়ি হইতে আসিয়াছেন।
[Panditji ^* = Shashadhar Tarkachudamani (1850-1928): He was one of the renowned Sanskrit scholars of his time — a pillar of orthodox Hinduism, which had reasserted itself after the first wave of Christianity and Western culture had passed over Hindu society. His clear exposition of the Hindu scriptures, his ringing sincerity, and his stirring eloquence had brought back a large number of the educated young Hindus of Bengal to the religion of their forefathers.]
[पण्डितजी ^* = शशधर तर्कचूड़ामणि (1850-1928) -उस प्राचीन हिंदू धर्म (सनातन धर्म) के एक मजबूत स्तंभ थे , जिसने ईसाई धर्म और पश्चिमी संस्कृति की पहली लहर हिंदू समाज के ऊपर से गुजरने के बाद खुद को फिर से स्थापित कर लिया था। धर्मान्तरण के बाद ईसाई (और मुसलमान) बन चुके हिन्दुओं की घरवापसी करने में तत्पर प्रसिद्ध संस्कृत विद्वानों में से एक थे। और हिंदू धर्मग्रंथों की उनकी स्पष्ट व्याख्या, उनकी गूंजती हुई आवाज तथा उनकी निष्कपट और उत्साही वाक्पटुता ने बंगाल के शिक्षित युवा हिंदुओं की एक बड़ी संख्या को उनके पूर्वजों के धर्म में वापस ला दिया था, जिसे छोड़कर कुछ युवक ईसाई बनने जा रहे थे।
इनका जन्म फरीदपुर जिले के मुखडोबा गाँव में यजुर्वेदी कश्यप वंश में हुआ था । इनके पिता का नाम हलधर विद्यामणि, तथा माता का नाम सुरेश्वरी देवी था । उन्होंने अपने पिता से विभिन्न धर्म शास्त्रों का अध्ययन किया था। जिसके कारण उनके मन में हिंदू धर्म का प्रचार करने के प्रति रुझान पैदा हो गया था , और इसी सिलसिले में वे बंगाल के विभिन्न जिलों में घूम -घूम कर व्याख्यान दिया करते थे। कासिमबाजार के राजा ने उनको अपना राजपण्डित नियुक्त किया था। जब रामकृष्णदेव को उनके बारे में पता चला तो वे 25 जून 1884 ई. को उनसे मिलने के लिए गाड़ी करके भक्त ईशान मुखर्जी के ठनठनिया वाले मकान पर चले गए थे । ठाकुरदेव के अमृत वचनों और उपदेशों से प्रभावित होकर शशधर पंडित एक सप्ताह के भीतर ही ठाकुर का सत्संग सुनने दक्षिणेश्वर चले आये। बलराम मंदिर में उस वर्ष के उल्टा रथ -यात्रा के दिन ठाकुर की भावमुख अवस्था ने उनके हृदय को छू लिया। उस घटना के बाद में कई बार उन्होंने ठाकुर के सानिध्य लाभ किया था। अपने अंतिम वर्षों में वे 'बहरमपुर जुबली' के अध्यक्ष बने। उन्होंने मुर्शिदाबाद जिले के खागगढ़ में अपना एक पक्का घर बनवाया और वहीं अपना अंतिम जीवन बिताया।]
শশধর তর্কচূড়ামণি (১৮৫০ - ১৯২৮) — ফরিদপুর জেলার মুখডোবা গ্রামে যজুর্বেদী কাশ্যপ বংশে জন্ম। পিতা হলধর বিদ্যামণি, মাতা সুরেশ্বরী দেবী। পিতার নিকট তিনি নানা শাস্ত্র অধ্যয়ন করেন। হিন্দুধর্মপ্রচারে আগ্রহী হইয়া বঙ্গদেশের নানাস্থানে বক্তৃতা করিয়া বেড়ান। কাশিমবাজারের রাজার সভাপণ্ডিত নিযুক্ত হন। ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দের জুন মাসে রামকৃষ্ণদেব তাঁহার বিষয়ে জ্ঞাত হইয়া ভক্ত ঈশান মুখোপাধ্যায়ের ঠনঠনিয়ার বাড়ি হইতে গাড়ি করিয়া তাঁহাকে দেখিতে যান। ঠাকুরের কথা ও উপদেশে মুগ্ধ হইয়া পণ্ডিত এক সপ্তাহের মধ্যেই দক্ষিণেশ্বরে ঠাকুরের নিকটে আসেন। ওই বৎসরের উল্টোরথের দিন বলরাম-মন্দিরে ঠাকুর ভাবাবিষ্ট অবস্থায় তাঁহার হৃদয় স্পর্শ করেন। পরে আরো কয়েকবার তিনি ঠাকুরের সংস্পর্শে আসেন। শেষ বয়সে তিনি বহরমপুর জুবিলীটোলের অধ্যক্ষ হন। মুর্শিদাবাদের খাগড়ায় স্থায়ী বাড়ি নির্মাণ করিয়া শেষ জীবন সেখানে অতিবাহিত করেন।
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆आधुनिक समय में भक्ति (fever mixture)
ही फलदायी है -अनावश्यक बातों को निकाल दो 🔆
[ भक्ति के कर्मकाण्डीय अनुष्ठानों में से ^ अनावश्यक (non-essential) बातों को छाँट दो : संकेत मछली के 'सिर और पूंछ' के लिए है, जो मछली खाने के लिए गैर-जरूरी हैं।]
[ আজকাল ফিবার মিক্শ্চার- তো নেজামুড়া বাদ দিয়ে বলবে।]
🔆Efficacy of bhakti for modern times — Futility of lecturing🔆
कुछ देर बाद उसी अवस्था में हँसते हुए पण्डितजी की ओर देखकर कह रहे हैं - 'बहुत अच्छा, बहुत अच्छा ।' फिर उनसे कहा, 'तुम कैसे लेक्चर देते हो ?"
At the sight of the pundit the Master again went into samadhi. After a while, still remaining in that state, he looked at the pundit and said with a smile, "Very well, very well." Then, addressing the pundit, the Master said, "Tell me how you give lectures."
[ঠাকুর পণ্ডিতকে দেখিতে দেখিতে ভাবাবিষ্ট হইলেন। কিয়ৎক্ষণ পরে সেই অবস্থায় হাসিতে হাসিতে পণ্ডিতের দিকে তাকাইয়া বলিতেছেন, “বেশ! বেশ!” পরে বলিতেছেন, “আচ্ছা, তুমি কিরকম লেকচার দাও?”
शशधर - महाराज, मैं शास्त्रों के उपदेश समझाने की चेष्टा करता हूँ ।
PUNDIT: "Sir, I try to explain the teachings of the Hindu scriptures."
শশিধর — মহাশয়, আমি শাস্ত্রের কথা বুঝাইতে চেষ্টা করি।
श्रीरामकृष्ण - कलिकाल के लिए नारदीय भक्ति है । शास्त्रों में जिन सब कर्मों की बात है, उनके साधन के लिए अब समय कहाँ है ? आजकल के बुखार में दशमूल पाचन की व्यवस्था ठीक नहीं। दशमूल पाचन देने से इधर रोग ऐंठ जाता है । आजकल बस ‘फीवर-मिक्श्चर' ! कर्मकाण्डीय साधना करने के लिए अगर कहते हो, तो केवल सार की बात ^ (मुड़ी और पूँछ बाद करके) कह दिया करो । मैं आदमियों से कहता हूँ, तुम्हें 'आपोधन्यन्या' (सन्ध्या -आसन आदि) इतना यह सब न कहना होगा । गायत्री के जप से ही तुम्हारी बन जायगी । अगर कर्मकाण्ड की बात कहनी ही हो, तो ईशान की तरह के दो-एक कर्मियों से कह सकते हो ।
[ ^ अनावश्यक (non-essential) बातों को छाँट दो : संकेत मछली के सिर और पूंछ के लिए है, जो मछली खाने के लिए गैर-जरूरी हैं।]
MASTER: "For the Kaliyuga the path of devotion described by Narada is best. Where can people find time now to perform their duties according to the scriptural injunctions? Nowadays the decoctions of roots and herbs of the orthodox Hindu physicians cannot be given to a fever patient. By the time that kind of medicine begins its slow process of curing, the patient is done for. Therefore only a drastic medicine like the allopathic 'fever mixture' is effective now. You may ask people to practise scriptural rites and rituals; but, when prescribing the rituals, remove the 'head and tail'^ *.1 I tell people not to bother about the elaborate rituals of the sandhya as enjoined in the scriptures. I say that it will be enough for them to repeat the Gayatri alone. If you must give instruction about scriptural ceremonies, do so only to a very few, like Ishan.
[ remove the 'head and tail'^*The non-essential parts. The allusion is to the head and tail of fish, which are non-essential.]
[শ্রীরামকৃষ্ণ — কলিযুগের পক্ষে নারদীয় ভক্তি। — শাস্ত্রে যে সকল কর্মের কথা আছে, তার সময় কি? আজকালকার জ্বরে দশমূল পাঁচন চলে না। দশমূল পাঁচন দিতে গেলে রোগীর এদিকে হয়ে যায়। আজকাল ফিবার মিক্শ্চার। কর্ম করতে যদি বল, — তো নেজামুড়া বাদ দিয়ে বলবে। আমি লোকদের বলি, তোমাদের ‘আপোধন্যন্যা’ — ও-সব অত বলতে হবে না। তোমাদের গায়ত্রী জপলেই হবে। কর্মের কথা যদি একান্ত বল তবে ঈশানের মতো কর্মী দুই-একজনকে বলতে পার।”
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆विषयी लोग और व्याख्यान : ऑनलाइन स्टडी सर्कल' से लाभ नहीं होता 🔆
[বিষয়ী লোক ও লেকচার = 'Online Study Circle' ]
"लाख लेक्चर दो, परन्तु विषयी मनुष्यों का कुछ कर न सकोगे । पत्थर की दीवार में क्या कभी कीला गाड़ सकते हो ? कीला खुद चाहे टूट जाय - मुड़ जाय, पर पत्थर का कुछ नहीं हो सकता। तलवार की चोट से घड़ियाल का क्या बिगड़ सकता है ? साधु का कमण्डल चारों धाम हो जाता है, पर ज्यों का त्योंकडुआ बना रहता है । तुम्हारे लेक्चर (Online Study Circle) से विषयी आदमियों का विशेष कुछ होता नहीं, यह बात तुम खुद धीरे धीरे समझ जाओगे । बछड़ा एक साथ ही खड़ा नहीं हो जाता । कभी-कभी गिर जाता है और फिर उठने की कोशिश करता है । तब खड़ा होना और चलना भी सीखता है ।
"You may deliver thousands of lectures (Online Study Circle) , but they won't make the slightest impression on worldly people. Can one drive a nail into a stone wall? The point of the nail will sooner break than make a dent in the stone. What will you gain by striking the tough skin of the crocodile with a sword? The sadhu's water-bowl, made from the shell of a bitter gourd, may visit the four principal holy places of India with its owner, but it will still remain as bitter as ever. Your lectures are not helping worldly people very much; and you will realize this by and by. The calf cannot stand on its legs all at once. Now it drops to the ground and now it stands up. So it learns to stand firmly on its legs and walk.]
{“হাজার লেকচার দাও বিষয়ী লোকদের কিছু করতে পারবে না। পাথরের দেওয়ালে কি পেরেক মারা যায়? পেরেকের মাথা ভেঙে যাবে তো দেওয়ালের কিছু হবে না। তরোয়ালের চোট মারলে কুমীরের কি হবে? সাধুর কমণ্ডুল (তুম্বা) চারধাম করে আসে কিন্তু যেমন তেঁতো তেমনি তেঁতো। তোমার লেকচারে বিষয়ী লোকদের বড় কিছু হচ্ছে না। তবে তুমি ক্রমে ক্রমে জানতে পারবে। বাছুর একবারে দাঁড়াতে পারে না। মাঝে মাঝে পড়ে যায়, আবার দাঁড়ায়; তবেতো দাঁড়াতে ও চলতে শিখে।”
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆आँधी के पहले झोंका में आम (भक्त) -इमली (विषयी) विवेक सम्भव नहीं 🔆
[নবানুরাগ ও বিচার ~ New passion and conscience]
“कौन भक्त है और कौन विषयी, यह बात तुम समझते नहीं, यह तुम्हारा दोष भी नहीं है । आंधी का पहला झोंका जब पेड़ों को हिलाता है, उस समय एक पेड़ को दूसरे से अलग करना असंभव है। पहले-पहल जब आँधी आती है, तब कोई यह नहीं पहचान पाता, कि कौन आम का पेड़ है और कौन इमली का ?
"You cannot distinguish a lover of God from a worldly person. It isn't your fault, of course. When the first onrush of the gale shakes the trees, it is impossible to distinguish one tree from another — the mango from the tamarind, for instance.}
{“কে ভক্ত, কে বিষয়ী চিনতে পার না। তা সে তোমার দোষ নয়। প্রথম ঝড় উঠলে কোন্টা তেঁতুলগাছ, কোন্টা আমগাছ বুঝা যায় না।
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆आत्मसाक्षात्कार के बाद कर्मत्याग - योग और समाधि🔆
[ ঈশ্বরলাভ হলে কর্মত্যাগ — যোগ ও সমাধি ]
"ईश्वर-भक्ति लाभ जब तक नहीं होता, तब तक कोई कर्मों को बिलकुल छोड़ नहीं सकता । सन्ध्या-वन्दनादि कर्म कितने दिनों के लिए हैं ? - जब तक ईश्वर के नाम पर अश्रु और पुलक न हो। 'हे राम' ऐसा एक बार कहते ही अगर आँखों में आँसू आ जायँ, देह पुलकित होने लगे, तो निश्चय समझना कि उसके कर्मों का अन्त हो गया । फिर उसे सन्ध्यादि कर्म न करने पड़ेंगे ।
Without having realized God one cannot give up rituals altogether. How long should one practise the sandhya and other forms of ritualistic worship? As long as one does not shed tears of joy at the name of God and feel a thrill in one's body. You will know that your ritualistic worship has come to an end when your eyes become filled with tears as you repeat 'Om Rama'. Then you do not have to continue your sandhya or other rituals.
[“ঈশ্বরলাভ না হলে কেউ একবারে কর্মত্যাগ করতে পারে না। সন্ধ্যাদি কর্ম কতদিন? যতদিন না ইশ্বরের নামে অশ্রু আর পুলক হয়। একবার ‘ওঁ রাম’ বলতে যদি চোখে জল আসে, নিশ্চয় জেনো তোমার কর্ম শেষ হয়েছে। আর সন্ধ্যাদি কর্ম করতে হবে না।"
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔱🙏🔆भक्ति फल हैं, कर्म फूल, कर्म तो आदिकाण्ड है !🔱🙏🔆
"फल के होने पर ही फूल गिर जाता है; भक्ति फल हैं, कर्म फूल । गृहस्थ की बहू के लड़का होनेवाला हुआ, तो वह अधिक काम नहीं कर सकती । उसकी सास दिनोंदिन उसका काम घटाती जाती है । दसवें महीने के आने पर फिर उसे बिलकुल काम नहीं छूने देती । लड़का होने पर फिर वह उसी को लेकर रहती है, दूसरे काम नहीं करने पड़ते । सन्ध्या गायत्री में लीन हो जाती है, गायत्री प्रणव में, प्रणव समाधि में । जैसे घण्टे का शब्द - टं-ट-अ-म् । योगी नाद-भेद करके परब्रह्म में लीन होते हैं । समाधि में सन्ध्यादि कर्मों का लय हो जाता है । इसी तरह ज्ञानियों के कर्म छूट जाते हैं ।”
"When the fruit appears the blossom drops off. Love of God is the fruit, and rituals are the blossom. When the daughter-in-law of the house becomes pregnant, she cannot do much work. Her mother-in-law gradually lessens her duties in the house. When her time arrives she does practically nothing. And after the child is born her only work is to play with it. She doesn't do any household duties at all. The sandhya merges in the Gayatri, the Gayatri in Om, and Om in samadhi. It is like the sound of a bell: t — a — m. The yogi, by following in the trail of the sound Om, gradually merges himself in the Supreme Brahman. His sandhya and other ritualistic duties disappear in samadhi. Thus the duties of the jnani come to an end."
[“ফল হলেই ফুল পড়ে যায়। ভক্তি — ফল; কর্ম — ফুল। গৃহস্থের বউ পেটে ছেলে হলে বেশি কর্ম করতে পারে না। শাশুড়ী দিন দিন তার কর্ম কমিয়ে দেয়। দশমাস পড়লে শাশুড়ী প্রায় কর্ম করতে দেয় না। ছেলে হলে সে ওইটিকে নিয়ে কেবল নাড়াচাড়া করে, আর কর্ম করতে হয় না। সন্ধ্যা গায়ত্রীতে লয় হয়। গায়ত্রী প্রণবে লয় হয়। প্রণব সমাধিতে লয় হয়। যেমন ঘন্টার শব্দ — টং — ট — অ-ম্। যোগী নাদ ভেদ করে পরব্রহ্মে লয় হন। সমাধি মধ্যে সন্ধ্যাদি কর্মের লয় হয়। এইরকমে জ্ঞানীদের কর্মত্যাগ হয়।”
(३)
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆वैराग्य के बिना , केवल पाण्डित्य व्यर्थ है । साधना तथा विवेक-वैराग्य🔆
समाधि की बात कहते ही कहते श्रीरामकृष्ण का भाव बदलने लगा । उनके चाँद जैसे चेहरे से स्वर्गीय ज्योति निकलने लगी । देखते देखते बाह्य-ज्ञान जाता रहा, शब्दरहित हो गये, आँखें स्थिर हो गयीं । वे इस समय परमात्मा के दर्शन कर रहे हैं । बड़ी देर बाद प्राकृत अवस्था आयी । बालक की तरह कह रहे हैं, मैं पानी पीऊँगा । समाधि के बाद जब पानी पीना चाहते थे, तब भक्तों को मालूम हो जाता था कि अब ये क्रमशः बाह्य भूमि पर आ रह हैं ।
As the Master talked of samadhi, he himself went into that state. His face radiated a heavenly light. Bereft of outer consciousness, he could not utter another word. His gaze was indrawn and transfixed in communion with the Self. After a long time the Master began to recognize the world around him and said, like a child, "I shall have a drink of water." Whenever after samadhi the Master asked for a drink of water, his devotees knew that he was gradually becoming conscious of the outer world.
[সমাধির কথা বলিতে বলিতে ঠাকুরের ভাবান্তর হইল। তাঁহার চন্দ্রমুখ হইতে স্বর্গীয় জ্যোতিঃ বহির্গত হইতেছে। আর বাহ্যজ্ঞান নাই। মুখে একটি কথা নাই। নেত্র স্থির! নিশ্চয়ই জগতের নাথকে দর্শন করিতেছেন! অনেকক্ষণ পরে প্রকৃতিস্থ হইয়া বালকের ন্যায় বলিতেছেন, “আমি জল খাব।” সমাধির পর যখন জল খাইতে চাহিতেন তখন ভক্তেরা জানিতে পারিতেন যে, এবার ইনি ক্রমশঃ বাহ্যজ্ঞান লাভ করিবেন।
श्रीरामकृष्ण भावावेश में कहने लगे, 'माँ, उस दिन ईश्वरचन्द्र विद्यासागर (बन्दोपाध्याय) को तूने दिखलाया । इसके बाद मैने फिर कहा था, माँ, मैं एक दूसरे पण्डित को देखूँगा, इसीलिए मुझे यहाँ (पण्डित शशधर तर्क-चूड़ामणि के पास) लायी ।'
Still lingering in the state of ecstasy, he said to the Divine Mother: "O Mother, the other day You showed me Pundit Iswar Chandra Vidyasagar. Then I told You that I should like to see another pundit, and so You have brought me here."
[ঠাকুর ভাবে বলিতে লাগিলেন, “মা! সেদিন ঈশ্বর বিদ্যাসাগরকে দেখালি!” তারপর আমি আবার বলেছিলাম, “মা! আমি আর-একজন পণ্ডিতকে দেখব, তাই তুই আমায় এখানে এনেছিস।”
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆यद्यपि -
श्रद्धा और विवेक-वैराग्य के बिना लोकशिक्षक/नेता नहीं बना जा सकता,
तथापि-
मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, जगतगुरु श्री रामकृष्ण ,
भावी नेता को सिर झुकाकर नमस्कार करते थे। 🔆
फिर शशधर की ओर देखकर कहने लगे - "भैया, कुछ और बल बढ़ाओ, कुछ दिन और साधन-भजन करो । पेड़ पर अभी चढ़े नहीं और अभी से फल की आकांक्षा ! परन्तु लोगों के भले के लिए तुम यह सब कर रहे हो ।" इतना कहकर श्रीरामकृष्ण शशधर को सिर झुकाकर नमस्कार कर रहे हैं । फिर कहने लगे –"जब पहले-पहल मैंने तुम्हारी बात सुनी, तो लोगों से पूछा, सिर्फ पण्डित है या कुछ विवेक-वैराग्य भी है?
Looking at the pundit, he said: "My child, add a little more to your strength. Practise spiritual discipline a few days more. You have hardly set your foot on the tree, yet you expect to lay hold of a big cluster of fruit. But, of course, you are doing all this for the welfare of others." With these words he bowed his head before the pundit."When I first heard about you, I inquired whether you were merely erudite or whether you had discrimination and renunciation.
[পরে শশধরের দিকে তাকাইয়া বলিলেন, “বাবা! আর একটু বল বাড়াও, আর কিছুদিন সাধন-ভজন কর। গাছে না উঠতেই এককাঁদি; তবে তুমি লোকের ভালর জন্য এ-সব করছ।”এই বলিয়া ঠাকুর শশধরকে মাথা নোয়াইয়া নমস্কার করিতেছেন।{ আরও বলিতেছেন, “যখন প্রথমে তোমার কথা শুনলুম, জিজ্ঞাসা করলুম যে, এই পণ্ডিত কি শুধু পণ্ডিত, না, বিবেক-বৈরাগ্য আছে?”
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆 श्रीमाँ सारदा (गुरु, C-IN-C, नवनीदा) से चपरास प्राप्त किये बिना
कोई आचार्य (नेता) नहीं बन सकता🔆
[আদেশ না পেলে আচার্য হওয়া যায় না ]
"जिस पण्डित के विवेक नहीं, वह पण्डित ही नहीं ।
[(जो पंडित/ नेता सत्य, असत्य और मिथ्या में विवेक -प्रयोग करके वैराग्य धारण करना नहीं जानता, वह पंडित /नेता ही नहीं है।)
A pundit who doesn't know how to discriminate between the Real and the unreal is no pundit at all.}
“যে পণ্ডিতের বিবেক নাই, সে পণ্ডিতই নয়।
"अगर आदेश मिला हो तो लोक-शिक्षा में दोष नहीं । आदेश पाने पर अगर कोई लोक-शिक्षा देता है, तो फिर उसे कोई पराजित नहीं कर सकता ।
“माता सरस्वती के पास से अगर एक भी किरण आ जाय तो ऐसी शक्ति हो जाती है कि बड़े-बड़े पण्डित भी सिर झुका लेते हैं ।
There is no harm in teaching others if the preacher has a commission from the Lord. Nobody can confound a preacher who teaches people after having received the command of God. Getting a ray of light from the goddess of learning, a man becomes so powerful that before him big scholars seem mere earthworms.
{“যদি আদেশ হয়ে থাাকে, তাহলে লোকশিক্ষায় দোষ নাই। আদেশ পেয়ে যদি কেউ লোকশিক্ষা দেয়, তাকে কেউ হারাতে পারে না।"“বাগ্বাদিনীর কাছ থেকে যদি একটি কিরণ আসে, তাহলে এমন শক্তি হয় যে, বড় বড় পণ্ডিতগুলো কেঁচোর মতো হয়ে যায়।
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆नेता को स्थायी विशेष आमंत्रित (online,
Whatsapp Group) बनाना नहीं पड़ता🔆
"दिया जलाने पर, झुण्ड के झुण्ड कीड़े इकट्ठे हो जाते हैं, उन्हें बुलाना नहीं पड़ता । उसी तरह जिसे आदेश मिला है, उसे आदमियों को बुलाना नहीं पड़ता । अमुक समय में लेक्चर होगा, यह कहकर खबर नहीं भेजनी पड़ती; उसी में आकर्षण होता है और इतना कि आदमी आप खिचकर आ जाते हैं ।
तब राजा, बाबू, सभी स्वयं ही दल बाँध-बाँधकर उसके पास आते हैं और कहते रहते हैं, 'आपको क्या चाहिए ? आम, सन्देश, रुपया, पैसा, दुशाले, यह सब ले आया हूँ, आप क्या लीजियेगा ?" मैं उन आदमियों से कहता हूँ, 'दूर करो, यह कुछ मुझे अच्छा नहीं लगता, मैं कुछ नहीं चाहता ।'
"When the lamp is lighted the moths come in swarms. They don't have to he invited. In the same way, the preacher who has a commission from God need not invite people to hear him. He doesn't have to announce the time of his lectures. He possesses such irresistible attraction that people come to him of their own accord. People of all classes, even kings and aristocrats, gather around him. They say to him: 'Revered sir, what can we offer you? Here are mangoes, sweets, money, shawls, and other things. What will you be pleased to accept?' In that case I say to them: 'Go away. I don't care for these. I don't want anything.'
.{“প্রদীপ জ্বাললে বাদুলে পোকাগুলো ঝাঁকে ঝাঁকে আপনি আসে — ডাকতে হয় না। তেমনি যে আদেশ পেয়েছে, তার লোক ডাকতে হয় না; অমুক সময়ে লেকচার হবে বলে, খবর পাঠাতে হয় না। তার নিজের এমনি টান যে লোক তার কাছে আপনি আসে। তখন রাজা, বাবু, সকলে দলে দলে আসে। আর বলতে থাকে আপনি কি লবেন? আম, সন্দেশ, টাকা-কড়ি, শাল — এই সব এনেছি; আপনি কি লবেন? আমি যে সকল লোককে বলি, ‘দূর কর — আমার ও-সব ভাল লাগে না, আমি কিছু চাই না।’
"चुम्बक-पत्थर क्या लोहे से कहेगा कि मेरे पास आओ ? कहना नहीं होता । लोहा आप ही चुम्बक-पत्थर के आकर्षण से आ जाता है ।"
"Does the magnet say to the iron, 'Come near me?' That is not necessary. Because of the attraction of the magnet, the iron rushes to it.
[“চুম্বক পাথর কি লোহাকে বলে, তুমি আমার কাছে এস? এস বলতে হয় না, — লোহা আপনি চুম্বক পাথরের টানে ছুটে আসে।“
सच है कि इस तरह का आदमी पण्डित नहीं होता; परन्तु इसलिए यह न सोच लेना कि उसके ज्ञान में कुछ कमी है । कहीं किताबें पढ़कर भी ज्ञान होता है ? जिसे आदेश मिला है उसके ज्ञान का अन्त नहीं है । वह ज्ञान ईश्वर के पास से आता है । वह कभी चुकता नहीं । उस देश में धान नापते समय एक आदमी नापता है और दूसरा राशि ठेलता जाता है ।
उसी तरह जो आदेश पाता है, वह जितनी ही लोक-शिक्षा देता रहता है, माँ उसकी ज्ञान की राशि पूरी करती जाती है; उस ज्ञान का अन्त नहीं होता ।
"Such a preacher may not be a scholarly person, but don't conclude from that that he has any lack of wisdom. Does book-learning make one wise? He who has a commission from God never runs short of wisdom. That wisdom comes from God; it is inexhaustible. At Kamarpukur I have seen people measuring grain. It lies in a heap. One man keeps pushing grain from the heap toward another man, who weighs it on a scales. So the man who weighs doesn't run short of grain. It is the same with the preacher who has received a commission from God. As he teaches people, the Divine Mother Herself supplies him with fresh knowledge from behind. That knowledge never comes to an end.
[এরূপ লোক, পণ্ডিত নয় বটে। তা বলে মনে করো না যে তার জ্ঞানের কিছু কম্তি হয়। বই পড়ে কি জ্ঞান হয়? যে আদেশ পেয়েছে তার জ্ঞানের শেষ নাই। সে জ্ঞান ঈশ্বরের কাছ থেকে আসে, — ফুরায় না। “ও-দেশে ধান মাপবার সময় একজন মাপে, আর-একজন রাশ ঠেলে দেয়; তেমনি যে আদেশ পায় সে যত লোকশিক্ষা দিতে থাকে, মা তাহার পেছন থেকে জ্ঞানের রাশ ঠেলে ঠেলে দেন। সে-জ্ঞান আর ফুরায় না।
"माँ (ठाकुर देव) यदि एक बार भी किसी पर कृपा-कटाक्ष कर दें, तो क्या फिर उसे ज्ञान का अभाव रह सकता है ? इसीलिए पूछ रहा हूँ, तुम्हें कोई आदेश (CINC का बिल्ला) मिला है या नहीं ।"
"Can a preacher ever lack knowledge if but once he is favoured with a benign glance from the Divine Mother? Therefore I ask you whether you have received any commission from God."
[“মার যদি একবার কটাক্ষ হয়, তাহলে কি আর জ্ঞানের অভাব থাকে? তাই জিজ্ঞাসা করছি কোন আদেশ পেয়েছ কি না?”
हाजरा – हाँ, आदेश अवश्य मिला होगा । क्यों महाशय ?
HAZRA: "Oh yes, he must have it. (To the pundit) Isn't it true, sir?"
[হাজরা — হাঁ, অবশ্য আদেশ পেয়েছেন। কেমন মহাশয়?
पण्डितजी - नहीं, आदेश तो विशेष कुछ नहीं मिला ।
PUNDIT: "Commission? No, sir, I am afraid I haven't received any such thing."
[পণ্ডিত — না, আদেশ? তা এমন কিছু পাই নাই।
गृहस्वामी - आदेश तो जरूर नहीं मिला, परन्तु उत्तरदायित्व के विचार से लेक्चर देते हैं ।
"He may not have received the commission, but he preaches from a sense of duty."
{গৃহস্বামী — আদেশ পান নাই বটে, কর্তব্যবোধে লেকচার দিচ্ছেন।
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔱🙏जिसने आदेश नहीं पाया वो नेता लेक्चर देगा -
भाई रे ,पहले मैं Bh -दारू पीता था🔱🙏
श्रीरामकृष्ण - जिसने आदेश नहीं पाया, उसके लेक्चर से क्या होगा ?
"एक (ब्राह्म) ने लेक्चर देते हुए कहा था, 'मैं पहले खूब शराब पीता था, ऐसा करता था, वैसा करता था।' यह बात सुनकर लोग आपस में बतलाने लगे – ‘साला कहता क्या है, शराब पीता था !’ इस तरह कहने से उसे विपरीत फल मिला । इसीलिए अच्छा आदमी बिना हुए (वैराग्य -अभ्यास बिना हुए) लेक्चर से कोई उपकार नहीं होता।
"What will a man accomplish by mere lectures without the commission from God? Once a Brahmo preacher said in the course of his sermon, 'Friends, how much I used to drink!' and so on. Hearing this the people began to whisper among themselves: 'What is this fool saying? He used to drink!' Now these words produced a very unfavourable effect. This shows that preaching cannot bring a good result unless it comes from a 'good man'=Man of character!.]
[শ্রীরামকৃষ্ণ — যে আদেশ পায় নাই, তার লেকচার কি হবে?“একজন (ব্রাহ্ম) লেকচার দিতে দিতে বলেছিল, ‘ভাইরে, আমি কত মদ খেতুম, হেন করতাম, তেন করতাম।’ এই কথা শুনে, লোকগুলি বলাবলি করতে লাগল, ‘শালা, বলে কিরে? মদ খেত!’ এই কথা বলাতে উলটো উৎপত্তি হল। তাই ভাল লোক না হলে লেকচারে কোন উপকার হয় না।
"बरीसाल निवासी किसी सरकारी अफसर ने कहा था, 'महाराज, आप प्रचार करना शुरू कर दीजिये, तो मैं भी कमर कसूँ ।' मैंने कहा, 'अजी, एक कहानी सुनो । उस देश में हालदारपुकुर नाम का एक तालाब है । जितने आदमी थे, सब उसके किनारे पर दिशा-फरागत को जाते थे । सुबह को जो लोग तालाब पर जाते वे गाली-गलोज की बौछारों से उनके भूत उतार देते थे । परन्तु गालियों से कुछ फल न होता था । उसके दूसरे ही दिन सुबह फिर वही घटना होती; लोग फिर दिशा-फरागत को आते । कुछ दिनों बाद कम्पनी से एक चपरासी आया । वह तालाब के पास नोटिस चिपका गया । बस वहाँ टट्टी जाना बिलकुल बन्द हो गया !"
A high government official from Barisal once said to me, 'Sir, if you begin the work of preaching, I too shall gird my loins.' I told him the story of people's dirtying the bank of the Haldarpukur and of its being stopped only when a constable, armed with authority from the government, put up a notice prohibiting it.
{“বরিশালে বাড়ি একজন সদরওয়ালা বলেছিল, ‘মহাশয়, আপনি প্রচার করতে আরম্ভ করুন। তাহলে আমিও কোমর বাঁধি।’ আমি বললাম, ওগো একটা গল্প শোন — ও-দেশে হালদার-পুকুর বলে একটি পুকুর আছে। যত লোক তার পাড়ে বাহ্যে করত। সকাল বেলা যারা পুকুরে আসত গালাগালে তাদের ভূত ছাড়িয়ে দিত। কিন্তু গালাগালে কোন কাজ হত না; আবার তার পরদিন সকালে পাড়ে বাহ্যে করেছে, লোকে দেখত। কিছু দিন পরে কোম্পানি থেকে একজন চাপরাসী পুকুরের কাছে একটা হুকুম মেরে দিল। কি আশ্চর্য! একেবারে বাহ্যে করা বন্ধ হয়ে গেল।"
"इसीलिए कहता हूँ, ऐरे-गैरे के लेक्चर से कुछ फल नहीं होता । चपरासी के रहने पर ही लोग बात सुनेंगे । ईश्वर का आदेश न रहा, तो लोक-शिक्षा नहीं होती । जो लोक-शिक्षा देगा, उसमें बड़ी शक्ति चाहिए । कलकत्ते में बहुत से हनुमानपुरी(*एक विख्यात पहलवान) हैं, उनके साथ तुम्हें लड़ना होगा । "ये लोग (श्रीरामकृष्ण के चारों ओर जो सब भक्त बैठे हुए थे) तो अभी पट्ठे हैं ( अर्थात सिंह-शावक होकर भी अपने को भेंड़ समझने वाले हैं) ।
"So I say, a worthless man may talk his head off preaching, and yet he will produce no effect. But people will listen to him if he is armed with a badge of authority (C-IN-C, नवनीदा) from God. One cannot teach others without the commission from God. A teacher of men must have great power. There's many a Hanumanpuri (a noted wrestler of the time) in Calcutta. It is with them that you will have to wrestle. (Pointing to the people assembled there) These are mere sheep!}
{“তাই বলছি, হেঁজি-পেঁজি লোক লেকচার দিলে কিছু কাজ হয় না। চাপরাস থাকলে তবে লোকে মানবে। ঈশ্বরের আদেশ না থাকলে লোকশিক্ষা হয় না। যে লোকশিক্ষা দিবে, তার খুব শক্তি চাই। কলকাতায় অনেক হনুমান পুরী আছে — তাদের সঙ্গে তোমায় লড়তে হবে। এরা তো (যারা চারিদিকে সভায় বসে আছে) পাঠ্ঠা!
"चैतन्यदेव अवतार थे । वे जो कुछ कर गये, कहो भला उसका अब कितना बचा हुआ है ? और जिसने आदेश नहीं पाया, उसके लेक्चर से क्या उपकार होगा ?
"Chaitanyadeva was an Incarnation of God. How little is left of what he accomplished — not to speak of a lecturer who preaches without authority from God! What good will a lecturer do?
[“চৈতন্যদেব অবতার। তিনি যা করে গেলেন তারই কি রয়েছে বল দেখি? আর যে আদেশ পায় নাই, তার লেকচারে কি উপকার হবে?”
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆मानवजाति के मार्गदर्शक नेता से चपरास कैसे प्राप्त किया जाता है🔆
[কিরূপে আদেশ পাওয়া যায় ]
"इसीलिए कहता हूँ, ईश्वर के पादपद्मों में मग्न हो जाओ ।"
("Therefore I say to you, dive deep in God-Consciousness.)
यह कहकर श्रीरामकृष्ण प्रेम से मतवाले होकर गा रहे हैं –
ডুব্ ডুব্ ডুব্ রূপসাগরে আমার মন।
তলাতল পাতাল খুঁজলে পাবি রে প্রেম রত্নধন।
“এ-সাগরে ডুবলে মরে না — এ যে অমৃতের সাগর।”
डूब डूब डूब रूप सागरे आमार मन
तलातल पाताल खुंजले पाबि रे प्रेम रत्न धन ||
खोंज खोंज खोंज खुंजले पाबि हृदय माझे वृंदावन
दिप दिप दिप ज्ञानेर बाति जलबे हृदय अनुक्षण ||
डैंग डैंग डैंग डाँगाय डिंगे चालाय आबार से कोन जन |
‘कुबिर’ बोले शोन शोन शोन, भाब गुरुर श्रीचरण ||
"ऐ मेरे मन, तू 'रूप के सागर' में डूब जा । जब तू तलातल और पाताल खोजेगा, तभी तुझे प्रेम-रत्न-धन प्राप्त होगा ।
“इस समुद्र में डूबने से वह मरता नहीं, यह अमृत का समुद्र है ।
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆नरेन्द्र को भावी नेता बनने और बनाने का प्रशिक्षण -
ईश्वर अमृत के समुद्र हैं !डूब जाओ 🔆
[নরেন্দ্রকে শিক্ষা ("Be and Make -Leadership Training) — ঈশ্বর অমৃতের সাগর ]
"मैंने नरेन्द्र से कहा था, 'ईश्वर रस के समुद्र हैं, तू इस समुद्र में डुबकी लगायेगा या नहीं, बोल ? अच्छा सोच, एक खप्पर में रस है, और तू मक्खी बन गया है । तो तू कहाँ बैठकर रस पीयेगा ? -- बोला' ...
नरेन्द्र ने कहा, 'मैं खप्पर के किनारे बैठकर मुँह बढ़ाकर पीऊँगा, क्योंकि अधिक बढ़ने से डूब जाऊँगा।' तब मैंने कहा, 'भैया, यह सच्चिदानन्दसागर है, इसमें मृत्यु का भय नहीं है । यह सागर अमृत का सागर है । जिन्हें ज्ञान नहीं, वे ही ऐसा कहते हैं कि भक्ति और प्रेम की बढ़ाचढ़ी अच्छी नहीं । परन्तु ईश्वर-प्रेम की क्या कहीं बढ़ाचढ़ी होती है ?'
इसीलिए तुमसे (गुरुगिरि करनेवाले ब्राह्मण पंडितों से) कहता हूँ, सच्चिदानन्द-सागर में मग्न हो जाओ। "ईश्वर-लाभ हो जाने पर फिर क्या चिन्ता है ? तब आदेश भी होगा और लोक-शिक्षा भी होगी ।”
Once I said to Narendra: 'God is the Ocean of Bliss. Tell me if you want to plunge into It. Just imagine there is some syrup in a cup and that you have become a fly. Now tell me where you will sit to sip the syrup.' Narendra answered: 'I will sit on the edge of the cup and stretch out my neck to drink, because I am sure to die if I go far into the cup.' Then I said to him: 'But my child, this is the Ocean of Satchidananda. There is no fear of death in It. This is the Ocean of Immortality. Only ignorant people say that one should not have an excess of devotion and divine love. How foolish! Can there be any excess of divine love?'(To the pundit) "Therefore I say to you, dive into the Ocean of Satchidananda. Nothing will ever worry you if you but realize God. Then you will get His commission to teach people.}
“আমি নরেন্দ্রকে বলেছিলাম — ঈশ্বর রসের সমুদ্র, তুই এ-সমুদ্রে ডুব দিবি কি না বল। আচ্ছা, মনে কর খুলিতে একখুলি রস রয়েছে আর তুই মাছি হয়েছিস। কোথা বসে রস খাবি বল? নরেন্দ্র বললে, ‘আমি খুলির আড়ায় বসে মুখ বাড়িয়ে খাব! কেন না বেশি দূরে গেলে ডুবে যাব।’ তখন আমি বললাম, বাবা, এ সচ্চিদানন্দ-সাগর — এতে মরণের ভয় নাই, এ-সাগর অমৃতের সাগর। যারা অজ্ঞান তারাই বলে যে, ভক্তি প্রেমের বাড়াবাড়ি করতে নাই। ঈশ্বরপ্রেমের কি বাড়াবাড়ি আছে?
(ब्राह्मण पंडित के प्रति) তাই তোমায় বলি, সচ্চিদানন্দ-সাগরে মগ্ন হও। “ঈশ্বরলাভ হলে ভাবনা কি? তখন আদেশও হবে, লোকশিক্ষাও হবে।”
(४)
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆ईश्वर-लाभ के अनन्त मार्ग : अवतार नेता की भक्ति ही युगधर्म है🔆
श्रीरामकृष्ण - देखो, अमृत-समुद्र में जाने के अनन्त मार्ग हैं । किसी तरह इस सागर में पड़े कि बस, हुआ । सोचो, अमृत का एक कुण्ड है । किसी तरह मुँह में उस अमृत के पड़ने से ही अमर होते हो, तो चाहे तुम खुद कूदकर उसमें गिरो या सीढ़ियों से धीरे-धीरे उतरकर कुछ पीयो, या कोई दूसरा धक्का मारकर तुम्हें कुण्ड में डाल दे, फल एक ही है । अमृत का कुछ स्वाद लेने से ही अमर हो जाओगे ।
"There are innumerable pathways leading to the Ocean of Immortality. The essential thing is to reach the Ocean. It doesn't matter which path you follow. Imagine that there is a reservoir containing the Elixir of Immortality. You will be immortal if a few drops of the Elixir somehow get into your mouth. You may get into the reservoir either by jumping into it, or by being pushed into it from behind, or by slowly walking down the steps. The effect is one and the same. You will become immortal by tasting a drop of that Elixir.}
{শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখ, অমৃত-সাগরে যাবার অনন্ত পথ। যে কোন প্রকারে এ-সাগরে পড়তে পারলেই হল। মনে কর অমৃতের একটি কুণ্ড আছে। কোনরকমে এই অমৃত একটু মুখে পড়লেই অমর হবে; — তা তুমি নিজে ঝাঁপ দিয়েই পড়, বা সিঁড়িতে আস্তে আস্তে নেমে একটু খাও, বা কেউ তোমায় ধাক্কা মেরে ফেলেই দিক। একই ফল। একটু অমৃত আস্বাদন করলেই অমর হবে।
"मार्ग अनन्त हैं । ज्ञान, कर्म, भक्ति, चाहे जिस मार्ग से जाओ, आन्तरिक होने पर ईश्वर को अवश्य प्राप्त करोगे । संक्षेप में योग तीन प्रकार के हैं । ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग ।
"Innumerable are the ways that lead to God. There are the paths of jnana, of karma, and of bhakti. If you are sincere, you will attain God in the end, whichever path you follow. Roughly speaking, there are three kinds of yoga: jnanayoga, karmayoga, and bhaktiyoga.
[“অনন্ত পথ — তার মধ্যে জ্ঞান, কর্ম, ভক্তি — যে পথ দিয়া যাও, আন্তরিক হলে ঈশ্বরকে পাবে।“মোটামুটি যোগ তিনপ্রকার; জ্ঞানযোগ, কর্মযোগ, আর ভক্তিযোগ।
🔱🙏🔆ज्ञानयोग क्या है ? 🔱🙏🔆
"ज्ञानयोग में ज्ञानी ब्रह्म (परम् सत्य) को जानना चाहता है । नेति-नेति विचार करता है । ब्रह्म सत्य और संसार मिथ्या है, यह विचार करता है । विचार की समाप्ति जहाँ है, वहाँ समाधि होती है, ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है ।
What is jnanayoga? The jnani seeks to realize Brahman. He discriminates, saying, 'Not this, not this'. He discriminates, saying, 'Brahman is real and the universe illusory.' He discriminates between the Real and the unreal. As he comes to the end of discrimination, he goes into samadhi and attains the Knowledge of Brahman.
[“জ্ঞানযোগ — জ্ঞানী, ব্রহ্মকে জানতে চায়; নেতি নেতি বিচার করে। ব্রহ্ম সত্য, জগৎ মিথ্যা — এই বিচার করে। সদসৎ বিচার করে। বিচারের শেষ যেখানে, সেখানে সমাধি হয়, আর ব্রহ্মজ্ঞানলাভ হয়।"
“कर्मयोग का उद्देश्य है, कर्म करके ईश्वर पर मन लगाये रहना । अनासक्त होकर प्राणायाम, ध्यान-धारणादि कर्मयोग है । संसारी अगर अनासक्त होकर ईश्वर को फल समर्पित कर दे, उन पर भक्ति रखकर संसार का कर्म करे तो वह भी कर्मयोग है । ईश्वर को फल का समर्पण करके पूजा, जप आदि कर्म करना, यह भी कर्मयोग है । ईश्वर-लाभ करना ही कर्मयोग का उद्देश्य है ।
"What is karmayoga? Its aim is to fix one's mind on God by means of work. That is what you are teaching. It consists of breath-control, (Breathing exercises as prescribed in rajayoga.) concentration, meditation, and so on, done in a spirit of detachment. If a house- holder performs his duties in the world in a spirit of detachment, surrendering the results to God and with devotion to God in his heart, he too may be said to practise karmayoga. Further, if a person performs worship, japa, and other forms of devotion, surrendering the results to God, he may be said to practise karmayoga. Attainment of God alone is the aim of karmayoga.
]“কর্মযোগ — কর্ম দ্বারা ঈশ্বরে মন রাখা। তুমি যা শিখাচ্ছ। অনাসক্ত হয়ে প্রাণায়াম, ধ্যানধারণাদি কর্মযোগ। সংসারী লোকেরা যদি অনাসক্ত হয়ে ঈশ্বরে ফল সমর্পণ করে, তাতে ভক্তি রেখে, সংসারের কর্ম করে, সেও কর্মযোগ। ঈশ্বরে ফল সমর্পণ করে পূজা জপাদি করার নামও কর্মযোগ। ঈশ্বরলাভই কর্মযোগের উদ্দেশ্য।
🔆भक्ति योग क्या है ?🔆
"भक्तियोग है ईश्वर के नाम-गुणों का कीर्तन करके उन पर पूरा मन लगाना । कलिकाल के लिए भक्तियोग का मार्ग सीधा है । युगधर्म भी यही है ।
What is bhaktiyoga? It is to keep the mind on God by chanting His name and glories. For the Kaliyuga the path of devotion is easiest. This is indeed the path for this age.
[“ভক্তিযোগ — ঈশ্বরের নামগুণকীর্তন এই সব করে তাঁতে মন রাখা। কলিযুগের পক্ষে ভক্তিযোগ সহজ পথ। ভক্তিযোগই যুগধর্ম।"
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆आत्मसाक्षात्कार हुए बिना कोई अनासक्त नहीं हो सकता🔆
"कर्मयोग बड़ा कठिन है । पहले ही कहा जा चुका है कि समय कहाँ है ? शास्त्रों में जो सब कर्म करने के लिए कहा है, उसका समय कहाँ है ? कलिकाल में इधर आयु कम है । उस पर अनासक्त होकर फल की कामना न करके कर्म करना बड़ा कठिन है । ईश्वर को बिना पाये कोई अनासक्त नहीं हो सकता । तुम नहीं जानते, परन्तु कहीं न कहीं से आसक्ति आ ही जाती है ।
The path of karma is very difficult. First of all, as I have just said, where will one find the time for it nowadays? Where is the time for a man to perform his duties as enjoined in the scriptures? Man's life is short in this age. Further, it is extremely difficult to perform one's duties in a spirit of detachment, without craving the result. One cannot work in such a spirit without first having realized God. Attachment to the result somehow enters the mind, though you may not be aware of it.
[“কর্মযোগ বড় কঠিন — প্রথমতঃ, আগেই বলেছি, সময় কই? শাস্ত্রে যে-সব কর্ম করতে বলেছে, তার সময় কি? কলিতে আয়ু কম। তারপর অনাসক্ত হয়ে, ফল কামনা না করে, কর্ম করা ভারী কঠিন। ঈশ্বরলাভ না করলে অনাসক্ত হওয়া যায় না। তুমি হয়তো জান না, কিন্তু কোথা থেকে আসক্তি এসে পড়ে।"
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆 देहबुद्धि के गये बिना ज्ञान होने का नहीं 🔆
“ज्ञानयोग भी इस युग के लिए बड़ा कठिन है । एक तो जीवों के प्राण अत्रगत हो रहे हैं, तिस पर आयु भी कम है; उधर देहबुद्धि किसी तरह जाती नहीं और देहबुद्धि के गये बिना ज्ञान होने का नहीं । ज्ञानी कहता है, मैं ही वह ब्रह्म हूँ । न मैं शरीर हूँ, न भूख हूँ, न तृष्णा हूँ, न रोग हूँ, न शोक हूँ; जन्म, मृत्यु, सुख, दुःख, इन सब से परे हूँ । यदि रोग, शोक, सुख, दुःख, इन सब का बोध रहा, तो तुम ज्ञानी फिर कैसे हो सकोगे ? इधर हाथ काँटों से छिद रहे हैं, घर घर खून बह रहा है, खूब पीड़ा होती है, फिर भी कहता है, 'कहाँ ? हाथ तो कटा ही नहीं ! मेरा क्या हुआ है ?"
"To follow jnanayoga in this age is also very difficult. First, a man's life depends entirely on food. Second, he has a short span of life. Third, he can by no means get rid of body-consciousness; and the Knowledge of Brahman is impossible without the destruction of body-consciousness. The jnani says: 'I am Brahman; I am not the body. I am beyond hunger and thirst, disease and grief, birth and death, pleasure and pain.' How can you be a jnani if you are conscious of disease, grief, pain, pleasure, and the like? A thorn enters your flesh, blood flows from the wound, and you suffer very badly from the pain; but nevertheless if you are a jnani you must be able to say: 'Why, there is no thorn in my flesh at all. Nothing is the matter with me.'
[“জ্ঞানযোগও — এ-যুগে ভারী কঠিন। জীবের একে অন্নগত প্রাণ; তাতে আয়ু কম। আবার দেহবুদ্ধি কোন মতে যায় না। এদিকে দেহবুদ্ধি না গেলে একেবারে জ্ঞানই হবে না। জ্ঞানী বলে, আমি সেই ব্রহ্ম; আমি শরীর নই, আমি ক্ষুধা, তৃষ্ণা, রোগ, শোক, জন্ম, মৃত্যু, সুখ, দুঃখ — এ-সকলের পার। যদি রোগ, শোক, সুখ দুঃখ — এ-সব বোধ থাকে, তুমি জ্ঞানী কেমন করে হবে? এদিকে কাঁটায় হাত কেটে যাচ্ছে, দরদর করে রক্ত পড়ছে, খুব লাগছে — অথচ বলছে, কই হাত তো কাটে নাই। আমার কি হয়েছে?”
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆भक्तवत्सल (अवतार वरिष्ठ) यदि चाहें तो अपने भक्त को ज्ञान भी दे सकते हैं🔆
[জ্ঞানযোগ বা কর্মযোগ যুগধর্ম নহে ]
[ज्ञानयोग या कर्मयोग ~ वर्तमानसमय का युगधर्म नहीं है]
"इसीलिए इस युग में भक्तियोग है । इससे दूसरे मार्गों की अपेक्षा ईश्वर के पास पहुँचने में सुगमता है । ज्ञानयोग या कर्मयोग अथवा दूसरे मार्गों से भी लोग ईश्वर के पास पहुँच सकते हैं, परन्तु इन सब रास्तों से मंजिल पूरी करना बड़ा कठिन है ।
Therefore bhaktiyoga is prescribed for this age. By following this path one comes to God more easily than by following the others. One can undoubtedly reach God by following the paths of jnana and karma, but they are very difficult paths.
[“তাই এ যুগের পক্ষে ভক্তিযোগ। এতে অন্যান্য পথের চেয়ে সহজে ঈশ্বরের কাছে যাওয়া যায়। জ্ঞানযোগ বা কর্মযোগ আর অন্যান্য পথ দিয়েও ঈশ্বরের কাছে যাওয়া যেতে পারে, কিন্তু এ-সব ভারী কঠিন।"
"इस युग के लिए भक्तियोग है । इसका यह अर्थ नहीं है कि भक्त एक जगह जायगा, ज्ञानी या कर्मी दूसरी जगह । इसका तात्पर्य यह है कि जो ब्रह्मज्ञान चाहते हैं, वे अगर भक्ति के मार्ग से चलें तो भी वही ज्ञान उन्हें होगा । भक्तवत्सल (अवतार वरिष्ठ) अगर चाहेंगे तो वह भी दे सकते हैं ।
"Bhaktiyoga is the religion for this age. But that does not mean that the lover of God will reach one goal and the philosopher and worker another. It means that if a person seeks the Knowledge of Brahman he can attain It by following the path of bhakti, too. God (अवतार वरिष्ठ) , who loves His devotee, can give him the Knowledge of Brahman if He so desires.
[“ভক্তিযোগ যুগধর্ম — তার এ-মানে নয় যে, ভক্ত এক জায়গায় যাবে, জ্ঞানী বা কর্মী আর এক জায়গায় যাবে। এর মানে যিনি ব্রহ্ম জ্ঞান চান, তিনি যদি ভক্তিপথ ধরেও যান, তা হলেও সেই জ্ঞানলাব করবেন। ভক্তবৎসল মনে করলেই ব্রহ্মজ্ঞান দিতে পারেন।”
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆क्या भक्त को भी ब्रह्मज्ञान होता है? भक्त किस प्रकार कर्म और प्रार्थना करता है ?🔆
[ভক্তের কি ব্রহ্মজ্ঞান হয়? ভক্ত কিরূপ কর্ম ও কি প্রার্থনা করে ]
"भक्त ईश्वर का साकार-रूप देखना चाहता है, उनके साथ बातचीत करना चाहता है - वह बहुधा ब्रह्मज्ञान नहीं चाहता । परन्तु ईश्वर इच्छामय हैं । उनकी अगर इच्छा हो तो वे भक्त को सब ऐश्वर्यों का अधिकारी कर सकते हैं । भक्ति भी देते हैं और ज्ञान भी । अगर कोई एक बार कलकत्ता आ जाय, तो किले का मैदान, सोसायटी(Asiatic Society's Museum), सब उसे देखने को मिल जायेगा ।
“पर बात तो यह है कि कलकत्ता किस तरह आया जाय ?
"But the bhakta wants to realize the Personal God endowed with form and talk to Him. He seldom seeks the Knowledge of Brahman. But God, who does everything at His pleasure, can make His devotee the heir to His infinite glories if it pleases Him. He gives His devotee both the Love of God and the Knowledge of Brahman. If one is able somehow to reach Calcutta, one can see the Maidan and the museum and other places too. The thing is how to reach Calcutta.}
{“ভক্ত ঈশ্বরের সাকাররূপ দেখতে চায় ও তাঁর সঙ্গে আলাপ করতে চায়; — প্রায় ব্রহ্মজ্ঞান চায় না। তবে ঈশ্বর ইচ্ছাময়, তাঁর যদি খুশি হয় তিনি ভক্তকে সকল ঐশ্বর্যের অধিকারী করেন। ভক্তিও দেন, জ্ঞানও দেন। কলকাতায় যদি কেউ একবার এসে পড়তে পারে তাহলে গড়ের মাঠ, সুসাইটি (Asiatic Society's Museum) সবই দেখতে পায়। “কথাটা এই, এখন কলকাতায় কেমন করে আসি।
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆भावसमाधि में माँ के रूपों का दर्शन और
निर्विकल्प समाधि में अखण्ड सच्चिदानन्द दर्शन🔆
"संसार की माँ को (अवतार वरिष्ठ को ) पा जाने पर ज्ञान भी पाता है और भक्ति भी । भाव-समाधि के होने पर रूप-दर्शन होता है और निर्विकल्प समाधि के होने पर अखण्ड सच्चिदानन्द दर्शन । तब अहं, नाम और रूप नहीं रह जाते ।
By realizing the Divine Mother of the Universe, you will get Knowledge as well as Devotion. You will get both. In bhava samadhi you will see the form of God, and in nirvikalpa samadhi you will realize Brahman, the Absolute Existence-Knowledge-Bliss. In nirvikalpa samadhi ego, name, and form do not exist.}
{“জগতের মাকে পেলে, ভক্তিও পাবে, জ্ঞানও পাবে। জ্ঞানও পাবে, ভক্তিও পাবে। ভাবসমাধিতে রূপদর্শন, নির্বিকল্পসমাধিতে অখণ্ডসচ্চিদানন্দ-দর্শন হয়, তখন অহং, নাম, রূপ থাকে না।"
"भक्त कहता है, 'माँ, सकाम कर्मों से मुझे बड़ा भय लगता है । उस कर्म में कामना है । उस कर्म के करने से फल भोगना ही पड़ेगा ।
तिस पर अनासक्त कर्म करना बड़ा कठिन है । उधर सकाम कर्म करूँगा, तो तुम्हें भूल जाऊँगा । चलो, ऐसे कर्म से मुझे अत्यन्त घृणा है । जब तक तुम्हें न पाऊँ तब तक कर्म घटते जायँ । जितना रह जायगा, उतने को अनासक्त होकर कर सकूँ । उसके साथ तुम पर मेरी भक्ति भी बढ़ती जाय । और जब तक तुम्हें न पाऊँ तब तक किसी नये कर्म में न फँसू । जब तुम स्वयं कोई आज्ञा दोगी तब काम करूंगा, अन्यथा नहीं ।’
"A lover of God prays to the Divine Mother: 'O Mother, I am very much afraid of selfish actions. Such actions have desires behind them, and if I perform them I shall have to reap their fruit. But it is very difficult to work in a detached spirit. I shall certainly forget Thee, O Mother, if I involve myself in selfish actions. Therefore I have no use for them. "May my actions, O Divine Mother, be fewer every day till I attain Thee. May I perform, without attachment to the results, only what action is absolutely necessary for me. May I have great love for Thee as I go on with my few duties. May I not entangle myself in new work so long as I do not realize Thee. But I shall perform it if I receive Thy command. Otherwise not.'"
{“ভক্ত বলে, মা, সকাম কর্মে আমার বড় ভয় হয়। সে কর্মে কামনা আছে। সে কর্ম করলেই ফল পেতে হবে। আবার অনাসক্ত হয়ে কর্ম করা কঠিন। সকাম কর্ম করতে গেলে, তোমায় ভুলে যাব। তবে এমন কর্মে কাজ নাই। যতদিন না তোমায় লাভ করতে পারি, ততদিন পর্যন্ত যেন কর্ম কমে যায়। যেটুকু কর্ম থাকবে, সেটুকু কর্ম যেন অনাসক্ত হয়ে করতে পারি, আর সঙ্গে সঙ্গে যেন খুব ভক্তি হয়। আর যতদিন না তোমায় লাভ করতে পারি, ততদিন কোন নূতন কর্ম জড়াতে মন না যায়। তবে তুমি যখন আদেশ করবে তখন তোমার কর্ম করব। নচেৎ নয়।”
(५)
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆हाजरा की हृषिकेश तक ऊँची तीर्थयात्रा ,
कामारपुकुर तीर्थ -उद्देश्य श्रीरामकृष्ण भक्ति🔆
पण्डितजी - तीर्थाटन के लिए महाराज कहाँ तक गये हैं ?
[পণ্ডিত — মহাশয়ের তীর্থে কতদূর যাওয়া হয়েছিল?
PUNDIT: "How far did you go in visiting the sacred places?
श्रीरामकृष्ण - हाँ, कई स्थान देखे हैं ! (सहास्य) हाजरा बहुत दूर तक गया है और बहुत ऊँचे चढ़ गया था, हृषीकेश तक हो आया है । (सब का हँसना ।) मैं इतनी दूर नहीं जा सका, इतने ऊँचे नहीं चढ़ा ।
MASTER: "Oh, I visited a few places. (With a smile) But Hazra went farther and also climbed higher. He visited Hrishikesh, but I didn't go so far or so high.
[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, কতক জায়গা দেখেছি। (সহাস্যে) হাজরা অনেক দূর গিছিল; আর খুব উঁচুতে উঠেছিল। হৃষীকেশ গিছিল। (সকলের হাস্য) আমি অত দূর যাই নাই, অত উঁচুতেও উঠি নাই।
"गीध भी बहुत ऊँचे चढ़ जाता है । परन्तु उसकी दृष्टि मरघट पर ही रहती है । (सब हँसते हैं ।) मरघट का क्या अर्थ है जानते हो ? मरघट अर्थात् कामिनी कांचन ।
You must have noticed kites and vultures soaring very high in the sky; but their eyes are always fixed on the charnel-pits. Do you know the meaning of 'charnel-pits'? It is 'woman and gold'.
[“চিল শকুনিও অনেক উচ্চে উঠে, কিন্তু নজর ভাগাড়ে। (সকলের হাস্য) ভাগাড় কি যান? কামিনী ও কাঞ্চন।"
"अगर यहाँ बैठकर भक्तिलाभ कर सको, तो तीर्थ जाने की क्या जरूरत है ? काशी जाकर मैंने देखा, वहाँ भी वही पेड़ है और वही इमली के पत्ते ।
What is the use of making pilgrimages if you can attain love of God remaining where you are? I have been to Benares and noticed the same trees there as here. The same green tamarind-leaves!
[“যদি এখানে বসে ভক্তিলাভ করতে পার, তাহলে তীর্থে যাবার কি দরকার? কাশী গিয়ে দেখলাম, সেই গাছ! সেই তেঁতুলপাতা!"
"तीर्थ जाने पर भी अगर भक्ति न हुई तो तीर्थ जाने से फिर कुछ फल ही नहीं हुआ । और भक्ति ही सार है तथा एकमात्र उसी की आवश्यकता है । चीलें और गीध कैसे होते है, जानते हो ? बहुतसे आदमी ऐसे होते हैं जो लम्बी लम्बी बातें करते हैं । कहते हैं, शास्त्रों में जिन सब कर्मों की बातें लिखी हैं, उनमें से अधिकांश की हमने साधना की है । वे कहते तो यह हैं, पर उनका मन घोर विषय में पड़ा रहता है । रुपया-पैसा, मान-मर्यादा, देह-सुख, इन्हीं सब विषयों के फेर में वे पड़े रहते हैं ।"
"Pilgrimage becomes futile if it does not enable you to attain love of God. Love of God is the one essential and necessary thing. Do you know the meaning of 'kites and vultures'? There are many people who talk big and who say that they have performed most of the duties enjoined in the scriptures. But with all that their minds are engrossed in worldliness and deeply preoccupied with money, riches, name, fame, creature comforts, and such things."
[“তীর্থে গিয়ে যদি ভক্তিলাভ না হল, তাহলে তীর্থ যাওয়ার আর ফল হল না। আর ভক্তিই সার, একমাত্র প্রয়োজন। চিল শকুনি কি যান? অনেক লোক আছে, তারা লম্বা লম্বা কথা কয়। আর বলে যে, শাস্ত্রে যে সকল কর্ম করতে বলেছে, আমারা অনেক করেছি। এদিকে তাদের মন ভারী বিষয়াসক্ত — টাকা-কড়ি, মান-সম্ভ্রম, দেহের সুখ, এই সব নিয়ে ব্যস্ত।”
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆भगवान श्रीरामकृष्ण को पाने की व्याकुलता ठीक समय आने पर होगी🔆
पण्डितजी - जी हाँ, तीर्थ जाना तो जैसे हृदयस्थ नारायण के गले में पड़ी कौस्तुभ मणि ^ * को फेंक कर अन्य हीरे और रत्नों के पीछे दौड़ना है।
[कौस्तुभ मणि ^ *एक मणि है जो भगवान विष्णु के वक्षस्थल पर शोभायमान रहती है। यह मणि समुद्र मंथन के समय प्राप्त चौदह रत्नों में एक है, जिसे स्वयं भगवान विष्णु ने धारण किया था।
PUNDIT: "It is true, sir. Going on a pilgrimage is like seeking diamonds and gems, while discarding the precious stone that is worn by Narayana Himself on His breast."
[পণ্ডিত — আজ্ঞে, হাঁ। মহাশয়, তীর্থে যাওয়া যা, আর কৌস্তুভ মণি ফেলে অন্য হীরা মাণিক খুঁজে বেড়ানও তা।
श्रीरामकृष्ण - और तुम यह समझ लेना कि चाहे लाख शिक्षा दो, पर उपयुक्त समय के आये बिना कोई फल न होगा । बिस्तरे पर सोते समय किसी लड़के ने अपनी माँ से कहा, 'माँ, मुझे टट्टी लगे तो जगा देना ।' उसकी माँ ने कहा, 'बेटा, टट्टी की हाजत तुम्हें खुद ही उठा देगी, इसके लिए तुम कोई चिन्ता न करो ।' (हास्य।) इसी प्रकार भगवान (अवतार वरिष्ठ) के लिए व्याकुलता ठीक समय आने पर ही होती है।
MASTER: "I want you to remember this. You may impart thousands of instructions to people, but they will not bear fruit except in proper time. On going to bed, a child said to his mother, 'Mother, please wake me up when I feel the call of nature.' The mother said: 'Don't worry about it, my child. That call will wake you up itself.' (All laugh.) One feels yearning for God at the proper time.
[শ্রীরামকৃষ্ণ — আর তুমি এইটি জেনো, হাজার শিক্ষা দাও — সময় না হলে ফল হবে না। ছেলে বিছানায় শোবার সময় মাকে বললে, ‘মা, আমার যখন হাগা পাবে, তখন তুমি আমায় উঠিও।’ মা বললে, ‘বাবা, হাগাই তোমাকে উঠাবে, এজন্য তুমি কিছু ভেবো না।’ (হাস্য)
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔱🙏बर्तन देखकर उपदेश, यानि निवृत्ति-प्रवृत्ति का अधिकारी समझकर उपदेश🔱🙏
- क्या भगवान दयालु हैं?]
🔆आचार्यों की तीन श्रेणियाँ🔆
[পাত্রাপাত্র দেখে উপদেশ — ঈশ্বর কি দয়াময়? ]
"वैद्य तीन तरह के होते हैं ।
"जो वैद्य केवल नाड़ी देखकर दवा की व्यवस्था करके चला जाता है, रोगी से सिर्फ इतना ही कह जाता है कि दवा खाते रहना, वह अधम श्रेणी का वैद्य है ।
"उसी तरह कुछ आचार्य केवल उपदेश दे जाते हैं, परन्तु उस उपदेश से अनुयायी को अच्छा फल प्राप्त हुआ या बुरा इसका फिर पता नहीं लेते ।
There are three classes of physicians. The physicians of one class feel the patient's pulse and go away, merely prescribing medicine. As they leave the room they simply ask the patient to take the medicine. They are the poorest class of physicians. Likewise, there are teachers who only give instruction, but do not stop to see whether their teachings have produced a good or bad effect. They do not think at all about the disciple.
[“তিনরকম বৈদ্য আছে।“একরকম — তারা নাড়ী দেখে ঔষধ ব্যবস্থা করে চলে যায়। রোগীকে কেবল বলে যায়, ঔষধ খেয়ো হে। এরা অধম থাকের বৈদ্য।“সেইরূপ কতকগুলি আচার্য উপদেশ দিয়ে যায়, কিন্তু উপদেশ লোকের ভাল হল কি মন্দ হল তা দেখে না। তার জন্য ভাবে না।"
"दूसरी श्रेणी के वैद्य ऐसे होते हैं, जो दवा की व्यवस्था करके रोगी से दवा खाने के लिए कहते हैं । अगर रोगी नहीं खाना चाहता, तो उसे तरह तरह से समझाते हैं । ये मध्यम श्रेणी के वैद्य हुए । इसी तरह मध्यम श्रेणी के आचार्य भी हैं । वे उपदेश देते हैं और तरह तरह से आदमियों को समझाते भी हैं जिससे उपदेश के अनुसार वे चल सकें ।
"There are physicians of another class, who prescribe medicine and ask the patient to take it. If the patient is unwilling to follow their directions, they reason with him. They are the mediocre physicians. Likewise, there are mediocre teachers. They give instruction to the student and, further, try to persuade him in various ways to follow the instruction.
[“কতকগুলি বৈদ্য আছে, তারা ঔষধ ব্যবস্থা করে রোগীকে ঔষধ খেতে বলে। রোগী যদি খেতে না চায়, তাকে অনেক বুঝায়। এরা মধ্যম থাকের বৈদ্য। সেইরূপ মধ্যম থাকের আচার্যও আছে। তাঁরা উপদেশ দেন, আবার অনেক করে লোকদের বুঝান যাতে তারা উপদেশ অনুসারে চলে।
"अन्तिम श्रेणी के और उत्तम वैद्य वे हैं जो अगर मीठी बातों से रोगी नहीं मानता, तो बल का प्रयोग भी करते हैं । जरूरत होती है तो रोगी की छाती पर घुटना रखकर जबरन दवा पिला देते हैं । उसी प्रकार उत्तम श्रेणीवाले आचार्य भी हैं । ईश्वर के मार्ग पर लाने के लिए वे शिष्यों पर बल तक का प्रयोग करते हैं।"
"Lastly, there are the physicians of the highest class. If the patient does not respond to their gentle persuasion, they even exert force upon him. If necessary, they press their knees on the patient's chest and force the medicine down his throat. Likewise, there are teachers of the highest class, who even exert force to direct the mind of the pupil toward God."
[আবার উত্তম থাকের বৈদ্য আছে। মিষ্ট কথাতে রোগী যদি না বুঝে, তারা জোর পর্যন্ত করে। দরকার হয়, রোগীর বুকে হাঁটু দিয়ে রোগীকে ঔষধ গিলিয়ে দেয়। সেইরূপ উত্তম থাকের আচার্য আছে। তাঁরা ঈশ্বরের পথে আনবার জন্য শিষ্যদের উপর জোর পর্যন্ত করেন।”
पण्डितजी - महाराज, अगर उत्तम श्रेणी के आचार्य हों, तो क्यों फिर आपने ऐसा कहा कि समय के आये बिना ज्ञान नहीं होता ?
PUNDIT: "Sir, if there are such superior teachers as you have described, then why should you say that one does not get the Knowledge of God until the right time comes?"
[পণ্ডিত — মহাশয়, যদি উত্তম থাকের আচার্য থাকেন, তবে কেন আপনি সময় না হলে জ্ঞান হয় না, এ-কথা বললেন?
श्रीरामकृष्ण - सच है । परन्तु सोचो कि दवा अगर पेट में न जाय - अगर मुँह से ही निकल जाय, तो बेचारा वैद्य भी क्या कर सकता है ? उत्तम वैद्य भी कुछ नहीं कर सकता ।
MASTER: "You are right. But what will the physician do if the medicine runs out of the patient's mouth and doesn't reach his stomach? In such a case even the best physician can't do anything.
[শ্রীরামকৃষ্ণ — সত্য বটে। কিন্তু মনে কর, ঔষধ যদি পেটে না যায় — যদি মুখ থেকে গড়িয়ে যায়, তাহলে বৈদ্য কি করবে? উত্তম বৈদ্যও কিছু করতে পারে না।
"पात्र देखकर उपदेश दिया जाता है । तुम लोग पात्र देखकर उपदेश नहीं देते । मेरे पास अगर कोई लड़का आता है तो मैं उससे पूछता हूँ तेरे कौन कौन हैं ! सोचो उसके बाप नहीं है, परन्तु बाप का ऋण है, तो वह कैसे ईश्वर की ओर मन लगा सकता है ? सुना ?"
"The teacher should judge the fitness of the student before giving him instruction. But you don't discriminate in your instruction. When a young man comes to me for instruction, first of all I ask him about his relatives at home. Suppose he has lost his father; suppose his father has left some debts for him. How can such a person direct his mind to God? Are you listening to me?"
[“পাত্র দেখে উপদেশ দিতে হয়। তোমরা পাত্র দেখে উপদেশ দাও না। আমার কাছে কেহ ছোকরা এলে আগে জিজ্ঞাসা করি, ‘তোর কে আছে?’ মনে কর, বাপ নাই; হয়তো বাপের ঋণ আছে, সে কেমন করে ঈশ্বরে মন দিবেক? শুনছো বাপু?”
पण्डितजी - जी हाँ, मैं सब सुन रहा हूँ ।
PUNDIT: "Yes, sir. I am paying attention to every word."
[পণ্ডিত — আজ্ঞা হাঁ, আমি সব শুনছি।
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆जो माँ काली की इच्छा से शिक्षित बेरोजगार हैं वे ईश्वर को दयामय कैसे कहें ?🔆
श्रीरामकृष्ण - एक दिन काली-मन्दिर में कुछ सिक्ख सिपाही आये थे । काली माता के मन्दिर के सामने उनसे मेरी मुलाकात हुई । एक ने कहा - 'ईश्वर दयामय हैं ।' मैंने कहा - अच्छा ? सच कहते हो ? कैसे तुम्हें मालूम हुआ ?' उन लोगों ने कहा, - 'क्यों जनाब, ईश्वर हमें खिलाते हैं - हमारी इतनी देखभाल करते हैं ।' मैंने कहा - 'यह कैसे आश्चर्य की बात हैं ? ईश्वर सब के पिता है । अपने पुत्रों की देखभाल पिता नहीं करेगा तो और कौन करेगा ? क्या पड़ोसवाले उनकी खबर लेंगे ?’
MASTER: "One day some Sikh soldiers came to the temple garden at Dakshineswar. I met them in front of the Kali temple. One of them referred to God as very compassionate. 'Indeed!' I said. 'Is that true? But how do you know?' He answered, 'Because, sir, God gives us food and takes every care of us.' I said: 'Why should that surprise you? God is the Father of us all. Who will look after the child if the father doesn't? Do you mean to say that the people of the neighbouring village should look after the child?"
[শ্রীরামকৃষ্ণ — একদিন ঠাকুরবাড়িতে কতকগুলি শিখ সিপাহি এসেছিল। মা-কালীর মন্দিরের সম্মুখে তাদের সঙ্গে দেখা হল। একজন বললে, ‘ঈশ্বর দয়াময়।’ আমি বললাম, ‘বটে? সত্য নাকি? কেমন করে জানলে?’ তারা বললে, ‘কেন মহারাজ, ঈশ্বর আমাদের খাওয়াচ্ছেন, — এত যত্ন করছেন।’ আমি বললাম, ‘সে কি আশ্চর্য? ঈশ্বর যে সকলের বাপ! বাপ ছেলেকে দেখবে না তো কে দেখবে? ও-পাড়ার লোক এসে দেখবে নাকি?’
नरेन्द्र - तो फिर ईश्वर को दयामय न कहें ?
NARENDRA: "Then shouldn't we call God kind?"
[নরেন্দ্র — তবে ঈশ্বরকে দয়াময় বলব না?
श्रीरामकृष्ण - क्या मैं मना करता हूँ ? मेरे कहने का मतलब यह है कि ईश्वर अपने आदमी हैं, कोई दूसरे नहीं । [उनकी विरासत पर हमारा अधिकार है !)
MASTER: "Have I forbidden you to? What I mean is that God is our very own. He is not a stranger to us."
[শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁকে কি দয়াময় বলতে বারণ করছি? আমার বলবার মানে এই যে ঈশ্বর আমাদের আপনার লোক, পর নন।
पण्डितजी - बात अनमोल है ।
PUNDIT: "Priceless words!"
[পণ্ডিত — কথা অমূল্য!
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - तेरा गाना मैं सुन रहा था, पर अच्छा न लगा । इसलिए चला आया । तुम्हारा मन अभी नौकरी की तलाश में लगा है, और इसलिए तुम्हारा गाना नीरस लग रहा था। कहा, अभी उम्मेदवार (शिक्षित बेरोजगार है) , इसीलिए गाना फीका जान पड़ रहा है। नरेन्द्र लज्जित हो गये । मुँह लाल हो गया । वे चुप हो रहे ।
MASTER (to Narendra): "I listened to your singing, but I didn't enjoy it. So I left the room. Your mind is now set on seeking a job, and therefore your song sounded dull." Narendra flushed. He felt ashamed of himself and remained silent.
[শ্রীরামকৃষ্ণ — তোর গান শুনছিলুম — কিন্তু ভাল লাগল না। তাই উঠে গেলুম। বললুম, উমেদারী অবস্থা — গান আলুনী বোধ হল।নরেন্দ্র লজ্জিত হইলেন, মুখ ঈষৎ আরক্তিম হইল। তিনি চুপ করিয়া রহিলেন।
(६)
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆श्री रामकृष्ण की भक्ति शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि का अर्धचंद्र के समान है 🔆
[crescent moon of the second day of the bright fortnight.]
[अलविदा -বিদায়-Goodbye]
श्रीरामकृष्ण ने पीने के लिए पानी माँगा । उनके पास एक ग्लास पानी रखा गया था, परन्तु वह जल वे पी नहीं सके । एक ग्लास जल और लाने के लिए कहा । पीछे से मालूम पड़ा कि किसी घोर इन्द्रियलोलुप मनुष्य ने उस ग्लास को छू लिया था ।
The Master asked for a drink of water. A glass of water had been placed near him, but he could not take it. He asked for some fresh water. Later it was found that a man of immoral character had touched the first glass.
[ঠাকুর জল খাইতে চাহিলেন। তাঁহার কাছে একগ্লাস জল রাখা হইয়াছিল। সে জল খাইতে পারিলেন না, আর-একগ্লাস জল আনিতে বলিলেন। পরে শুনা গেল কোনও ঘোর ইন্দ্রিয়াসক্ত ব্যক্তি ওই জল স্পর্শ করিয়াছিল।
पण्डितजी - (हाजरा से) - आप लोग इनके साथ दिनरात रहते हैं, आप लोग बड़े आनन्द में हैं ।
PUNDIT (to Hazra): "You live in his company day and night. You must be very happy."
[পণ্ডিত (হাজরার প্রতি) — আপনারা ইঁহার সঙ্গে রাতদিন থাকেন — আপনারা মহানন্দে আছেন।
श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए) - आज मेरा बड़ा अच्छा दिन था । मैंने दूज का चाँद देखा ।(सब हँसते हैं ।) दूज का चाँद क्यों कहा, जानते हो ? सीता ने रावण से कहा था, रावण, तू पूर्ण चन्द्र है और मेरे राम दूज के चाँद हैं । रावण ने इसका अर्थ नहीं समझा, उसे बड़ा आनन्द हुआ था । सीता के इस कथन का अर्थ यह है कि रावण की सम्पदा जहाँ तक बढ़ने को थी, बढ़ चुकी थी । अब दिनोंदिन पूर्ण चन्द्र की तरह उसका ह्रास ही होगा । श्रीरामचन्द्र दूज के चाँद हैं, उनकी दिनोंदिन वृद्धि होगी !
MASTER (with a smile): "This is indeed a great occasion for me. Today I have seen the crescent moon of the second day of the bright fortnight. (All laugh.) Do you know why I referred to the moon of the second day? Sita once said to Ravana, 'You are the full moon and Rama is the crescent moon of the second day of the bright fortnight.' Ravana did not understand the meaning of these words. He thought Sita was flattering him and became exceedingly happy. But Sita meant that Ravana had reached the fullest limit of his power and prosperity, and that thenceforth he would wane like the full moon. Rama, on the other hand, was like the moon of the second day. He would wax day by day."}
{শ্রীরামকৃষ্ণ (হাসিতে হাসিতে) — আজ আমার খুব দিন। আমি দ্বিতীয়ার চাঁদ দেখলাম। (সকলের হাস্য) দ্বিতীয়ার চাঁদ কেন বললুম জান? সীতা রাবণকে বলেছিলেন, রাবণ পূর্ণচন্দ্র, আর রামচন্দ্র আমার দ্বিতীয়ার চাঁদ। রাবণ মানে বুঝতে পারে নাই, তাই ভারী খুশি। সীতার বলবার উদ্দেশ্য এই যে, রাবণের সম্পদ যতদূর হবার হয়েছে, এইবার দিন দিন পূর্ণচন্দ্রের ন্যায় হ্রাস পাবে। রামচন্দ্র দ্বিতীয়ার চাঁদ, তাঁর দিন দিন বৃদ্ধি হবে!
श्रीरामकृष्ण उठे । अपने बन्धु और बान्धवों के साथ पण्डितजी ने भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बिदा हुए ।
The Master was about to take his leave. The pundit and his friends bowed low before him.
[ঠাকুর গাত্রোত্থান করিলেন। বন্ধুবান্ধব সঙ্গে পণ্ডিত ভক্তিভাবে প্রণাম করিলেন। ঠাকুর ভক্তসঙ্গে বিদায় গ্রহণ করিলেন।
(७)
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆 गुरुगिरि करने वाला नेता सोचता है कि
वह 'दूसरों को' (M/F को ) प्रबुद्ध कर रहा है।🔆
श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ ईशान के घर लौटे । अभी सन्ध्या नहीं हुई । ईशान के नीचेवाले बैठकखाने में आकर बैठे । कोई कोई भक्त भी उपस्थित हैं । भागवती पण्डित, ईशान तथा उनके लड़के भी हैं ।
It was not yet dusk, and Sri Ramakrishna returned to Ishan's house with the devotees. The Master took his seat in the drawing-room with Ishan and his sons, a pundit, and a few devotees.
[ঠাকুর ভক্তসঙ্গে ঈশানের বাটীতে ফিরিলেন। সন্ধ্যা হয় নাই। ঈশানের নিচের বৈঠকখানায় আসিয়া বসিলেন। ভক্তেরা কেহ কেহ আছেন। ভাগবতের পণ্ডিত, ঈশান, ঈশানের ছেলেরা উপস্থিত আছেন।
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆‘Hey firefly -O glow-worm, हे जोनाकि पोका
(जुगनू) तुमि आबार आलो कि देबे ? 🔆
[হে জোনাকি পোকা, তুমি আবার আলো কি দেবে!]
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) – शशधर से मैंने कहा, पेड़ पर चढ़ने के पहले ही फल की आकांक्षा करने लगे? - कुछ भजन साधन और करो, तब लोक-शिक्षा देना ।
MASTER (smiling, to Ishan): "I said to Pundit Shashadhar: 'You have hardly set your foot on the tree, and yet you aspire to lay hold of a big bunch of fruit. First of all practise some spiritual discipline. Then you may teach others.'}
{শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — শশধরকে বললাম গাছে না উঠতে এককাঁদি — আরও কিছু সাধন-ভজন কর, তারপর লোকশিক্ষা দিও।
ईशान - सभी लोग सोचते हैं, मैं लोकशिक्षा दूँ । जुगनू सोचता है, संसार को प्रकाशित मैं कर रहा हूँ । इस पर किसी ने कहा भी था - 'ऐ जुगनू, क्या तुम भी संसार को प्रकाश दे सकते हो ? तुम तो अँधेरे को और भी प्रकट करते हो !'
ISHAN: "Every preacher thinks that he enlightens others. The glow-worm also may think that it illumines the world. Imagining this to be the glow worm's feeling, someone said to it: 'O glow-worm, how can you bring light to the world? You only reveal the intensity of the darkness.'
[ঈশান — সকলেই মনে করে যে আমি লোকশিক্ষা দিই। জোনাকি পোকা মনে করে আমি জগৎকে আলোকিত করছি। তা একজন বলেছিল, ‘হে জোনাকি পোকা, তুমি আবার আলো কি দেবে! — ওহে তুমি অন্ধকার আরও প্রকাশ করছো!’
श्रीरामकृष्ण - (जरा मुस्कराकर) - परन्तु निरे पण्डित ही नहीं हैं, कुछ विवेक और वैराग्य भी है ।
MASTER (with a smile): "But Shashadhar is not just a scholar. He also has a little discrimination and dispassion."
[শ্রীরামকৃষ্ণ (ঈষৎ হাস্য করিয়া) — কিন্তু শুধু পণ্ডিত নয়, — একটু বিবেক-বৈরাগ্য আছে।
भाटपाड़ा के भागवती पण्डित भी अब तक बैठे हुए हैं । उम्र ७०-७५ होगी । वे टकटकी लगाये रामकृष्ण को देख रहे हैं ।भागवती पण्डित - (श्रीरामकृष्ण से) - आप महात्मा हैं ।
A pundit who was present said to Sri Ramakrishna, "You are indeed a great soul."
[ভাটপাড়ার ভাগবতের পণ্ডিতটিও এখনও বসিয়া আছেন। বয়স ৭০। ৭৫ হইবে। তিনি ঠাকুরকে একদৃষ্টে দেখিতেছিলেন। ভাগবত পণ্ডিত (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — আপনি মহাত্মা।
श्रीरामकृष्ण - यह बात आप नारद, शुकदेव, प्रह्लाद, इन सब के लिए कह सकते हैं । मैं तो आपके पुत्र के समान हूँ ।
MASTER: "You may say that about sages like Narada, Prahlada, or Sukadeva. I am like your son.
[শ্রীরামকৃষ্ণ — সে নারদ, প্রহ্লাদ, শুকদেব — এদের বলতে পারেন; আমি আপনার সন্তানের ন্যায়।
"परन्तु एक दृष्टि से कह सकते हैं । यह लिखा है कि भगवान से भक्त बड़ा है, क्योंकि भक्त भगवान को हृदय में लिये हुए घूमता है । भक्त के लिए भगवान ने कहा है, 'भक्त मुझे छोटा देखता है और अपने को बड़ा ।' यशोदा कृष्ण को बाँधने चली थीं । यशोदा को विश्वास था, मैं अगर कृष्ण की देख-रेख न करूँगी, तो और कौन करेगा ? कभी तो भगवान चुम्बक हैं और भक्त सुई - भगवान भक्त को खींच लेते हैं; और कभी भक्त चुम्बक और भगवान सुई, भक्त का इतना आकर्षण होता है कि उसके प्रेम को देख, मुग्ध होकर भगवान उसके पास खिंचे चले जाते हैं ।"
"Of course, in one sense your words are true. It is said that in one respect the devotee of God is greater than God Himself, because he carries God in his heart. (All rejoice.) It is said in the Vaishnava books: 'A devotee regards himself as a higher, and God as a lower, being.' Yasoda, the mother of Krishna, was about to fetter Krishna, who was God Incarnate, with chains! She believed that no one but herself could take care of Krishna.
[“তবে এক হিসাবে বলতে পারেন। এমনি আছে যে ভগবানের চেয়ে ভক্ত বড় — কেন না ভক্ত ভগবানকে হৃদয়ে বয়ে নিয়ে বেড়ায় (সকলের আনন্দ)। ভক্ত ‘মোরে দেখে হীন, আপনাকে দেখে বড়।’ যশোদা কৃষ্ণকে বাঁধতে গিছিলেন। যশোদার বিশ্বাস, আমি কৃষ্ণকে না দেখলে তাকে কে দেখবে! কখনও ভগবান চুম্বুক, ভক্ত ছুঁচ — ভগবান আকর্ষণ করে ভক্তকে টেনে লন। আবার কখনও ভক্ত চুম্বুক পাথর হন, ভগবান ছুঁচ হন। ভক্তের এত আকর্ষণ যে তার প্রেমে মুগ্ধ হয়ে ভগবান তার কাছে গিয়ে পড়েন।”
श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर लौटनेवाले हैं । नीचे के बैठकखाने के दक्षिण ओर वाले बरामदे में आकर खड़े हुए हैं । ईशान आदि भक्तगण भी खड़े हैं । बातों ही बातों में श्रीरामकृष्ण ईशान को बहुत से उपदेश दे रहे हैं ।
The Master was about to leave for Dakshineswar. Ishan and the other devotees stood around him while he gave Ishan various words of advice.
[ঠাকুর দক্ষিণেশ্বরে প্রত্যাবর্তন করিবেন। নিচের বৈঠকখানায় দক্ষিণদিকের বারান্দায় আসিয়া দাঁড়াইয়াছেন। ঈশান প্রভৃতি ভক্তেরাও দাঁড়াইয়া আছেন। ঈশানকে কথাচ্ছলে অনেক উপদেশ দিতেছেন।
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
ॐ 🔆घर-गृहस्थी में रहते हुए ब्रह्मज्ञान पाने वाले पतिव्रता रमणी और धर्मव्याध 🔆ॐ
श्रीरामकृष्ण - (ईशान से) - घर-गृहस्थी में रहकर जो उन्हें पुकारता है, वह वीर भक्त है । भगवान कहते हैं, जिसने संसार छोड़ दिया है , अर्थात जिसने गृहस्थ जीवन का त्याग कर दिया है , वह तो मुझे पुकारेगा ही, मेरी सेवा करेगा ही, उसकी इसमें बड़ाई क्या है ? वह अगर मुझे न पुकारे तो लोग उसे धिक्कारेंगे, पर जो संसार में रहकर भी मुझे पुकारता है, बीस मन का पत्थर हटाकर मुझे देखता है, वही धन्य है, वही बहादुर है, वही वीर है ।
MASTER: "A devotee who can call on God while living a householder's life is a hero indeed. God thinks: 'He who has renounced the world for My sake will surely pray to Me. He must serve Me. Is there anything very remarkable about it? People will cry shame on him if he fails to do so. But he is blessed indeed who prays to Me in the midst of his worldly duties. He is trying to find Me, overcoming a great obstacle — pushing away, as it were, a huge block of stone weighing a ton. Such a man is a real hero.'}
{শ্রীরামকৃষ্ণ (ঈশানের প্রতি) — সংসারে থেকে যে তাঁকে ডাকে সে বীর ভক্ত। ভগবান বলেন, যে সংসার ছেড়ে দিয়েছে সে তো আমায় ডাকবেই, আমার সেবা করবেই — তার আর বাহাদুরি কি? সে যদি আমায় না ডাকে সকলে ছি ছি করবে। আর যে সংসারে থেকে আমায় ডাকে — বিশ মন পাথর ঠেলে যে আমায় দেখে সেই-ই ধন্য, সেই-ই বাহাদুর, সেই-ই বীরপুরুষ।
[भगवान कहते हैं - " जो गृहस्थ जीवन में रहकर भी मुझे (परम् सत्य या इन्द्रियातीत सत्य को) खोजने की कोशिश कर रहा है, एक बड़ी बाधा पर (Lust and Greed) काबू पा रहा है ( कामिनी -कांचन में आसक्ति पर काबू पा रहा है, मन को एकाग्र करने का अभ्यास कर रहा है , वैराग्य पूर्वक विवेक-दर्शन का अभ्यास कर रहा है ) - वह एक टन वजन वाले पत्थर के एक विशाल खंड को दूर धकेल रहा है- वही धन्य है, वही बहादुर है, वही वीर है । He is trying to find Me, overcoming a great obstacle — pushing away, as it were, a huge block of stone weighing a ton. Such a man is a real hero.'}
भागवती पण्डित - शास्त्रों में तो यही बात है - धर्मव्याध और पतिव्रता की कथा में तपस्वी ने सोचा था, मैंने कौए और बगुले को भस्म कर डाला है मेरा स्थान बड़ा ऊँचा है । वह पतिव्रता के घर गया था । पति पर उसकी इतनी भक्ति थी कि वह दिनरात उसी की सेवा किया करती थी । पति के घर आने पर पैर धोने के लिए उसे पानी देती, यहाँ तक कि अपने बालों से उसके पैर पोंछती थी । तपस्वी अतिथि होकर गये थे । भिक्षा मिलने में देर हो रही थी, इस पर चिल्लाकर कह उठे, तुम्हारा भला न होगा । पतिव्रता ने उसी समय भीतर से कहा, 'यह कौए और बगुले को भस्म करना थोड़े ही है । महाराज, जरा ठहरो, मैं स्वामी की सेवा कर लूँ, तब तुम्हारी भी पूजा करुँगी ।'
[PUNDIT: "You are right, sir. The scripture says the same thing. There is in the Mahabharata the story of the 'pious hunter' and the 'chaste woman'. Once a hermit was disturbed in his meditation by a crow. When he cast an angry glance at the bird, it was reduced to ashes. The hermit said to himself: 'I have destroyed the crow by a mere glance. I must have made great progress in spiritual life.' One day he went to a woman's house to beg his food. She was devoted to her husband and served him day and night; she provided him with water to wash his feet and even dried them with her hair. When the hermit knocked at her door for alms, she was serving her husband and could not open the door at once. The hermit, in a fit of anger, began to curse her. The chaste woman answered from the inner apartments: 'I am not your crow. Wait a few minutes, sir. After finishing my service to my husband I shall give you my attention.' The hermit was very much surprised to find that this simple woman was aware of his having burnt the crow to ashes.
[“ভাগবত পণ্ডিত — শাস্ত্রে তো ওই কথাই আছে। ধর্মব্যাধের কথা আর পতিব্রতার কথা। তপস্বী মনে করেছিল যে আমি কাক আর বককে ভস্ম করেছি, অতএব আমি খুব উঁচু হয়েছি। সে পতিব্রতার বাড়ি গিছিল। তার স্বামীর উপর এত ভক্তি যে দিনরাত স্বামীর সেবা করত। স্বামী বাড়িতে এলে পা ধোবার জল দিত; এমন কি মাথার চুল দিয়ে তার পা পুঁছে দিত। তপস্বী অতিথি, ভিক্ষা পাওয়ার দেরি হচ্ছিল তাই চেঁচিয়ে বলেছিল যে, তোমাদের ভাল হবে না। পতিব্রতা অমনি দূর থেকে বললে, এ তো কাকীবকী ভস্ম করা নয়। একটু দাঁড়াও ঠাকুর, আমি স্বামীর সেবা করে তোমার পূজা করছি।
“धर्मव्याघ के पास कोई ब्रह्मज्ञान के लिए गया था । व्याध पशुओं का मांस बेचता था, परन्तु पिता-माता को ईश्वर समझकर दिनरात उनकी सेवा करता था । जो मनुष्य ब्रह्मज्ञान के लिए उसके पास गया था, वह तो उसे देखकर दंग रह गया - सोचने लगा, यह व्याध मांस बेचता है और संसारी मनुष्य है, यह भला मुझे क्या ब्रह्मज्ञान दे सकता है ? परन्तु वह व्याध पूर्ण ज्ञानी था ।"
He wanted her to give him spiritual instruction. At her bidding he went to the 'pious hunter' at Benares. This hunter sold meat, but he also served his parents day and night as embodiments of God. The hermit said to himself in utter amazement: 'Why, he is a butcher and a worldly man! How can he give me the Knowledge of Brahman?' But the hunter was a knower of Brahman and had acquired divine knowledge through the performance of his worldly duties. The hermit was illumined by the instruction of the pious hunter'."
“ধর্মব্যাধের কাছে ব্রহ্মজ্ঞানের জন্য গিছিল। ব্যাধ পশুর মাংস বিক্রি করত কিন্তু রাতদিন ঈশ্বরজ্ঞানে বাপ-মার সেবা করত। ব্রহ্মজ্ঞানের জন্য তার কাছে যে গিছিল সে দেখে অবাক্ — ভাবতে লাগল এ ব্যাধ মাংস বিক্রি করে, আর সংসারী লোক! এ আবার আমায় কি ব্রহ্মজ্ঞান দিবে। কিন্তু সেই ব্যাধ পূর্ণজ্ঞানী।”
[ (25 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆गृहस्थ जीवन में किस तरह रहना चाहिए ?🔆
श्रीरामकृष्ण अब गाड़ी पर चढ़ेंगे । ईशान तथा अन्य भक्तगण पास ही खड़े हैं, उन्हें गाड़ी पर चढ़ा देने के लिए । श्रीरामकृष्ण फिर बातों में ईशान को उपदेश देने लगे –
The Master was about to take his leave. He was standing at the door of the next house, where Ishan's father-in-law lived. Ishan and the other devotees stood by the Master. They were waiting to bid him good-bye.
[ঠাকুর এইবার গাড়িতে উঠিবেন। পাশের বাড়ির (ঈশানের শ্বশুরবাড়ির) দরজায় দাঁড়াইয়াছেন। ঈশান ও ভক্তেরা কাছে দাঁড়াইয়া আছেন — তাঁহাকে গাড়িতে তুলিয়া দিবেন।
“चींटी की तरह संसार में रहो । इस संसार में नित्य और अनित्य दोनों मिले हुए हैं । बालू के साथ शक्कर मिली हुई है । एक विवेकशील चींटी की तरह बनो , और बालू त्याग कर चीनी ले लो ।
The Master was about to take his leave. He was standing at the door of the next house, where Ishan's father-in-law lived. Ishan and the other devotees stood by the Master. They were waiting to bid him good-bye. Sri Ramakrishna said to Ishan: "Live in the world like an ant. The world contains a mixture of truth and untruth, sugar and sand. Be an ant and take the sugar.
ঠাকুর আবার কথাচ্ছলে ঈশানকে উপদেশ দিতেছেন — “পিঁপড়ের মতো সংসারে থাক, এই সংসারে নিত্য অনিত্য মিশিয়ে রয়েছে। বালিতে চিনিতে মিশানো — পিঁপড়ে হয়ে চিনিটুকু নেবে।
"जल और दूध एक साथ मिले हुए हैं । चिदानन्द-रस (bliss of God-Consciousness) और विषय-रस (pleasure of sense-enjoyment) हंस की तरह दूध का अंश लेकर जल का भाग छोड़ देना ।
Again, the world is a mixture of milk and water, the bliss of God-Consciousness and the pleasure of sense-enjoyment. Be a swan and drink the milk, leaving the water aside.
[“জলে-দুধে একসঙ্গে রয়েছে। চিদানন্দরস আর বিষয়রস। হংসের মতো দুধটুকু নিয়ে জলটি ত্যাগ করবে।"
"पनडुब्बी चिड़िया की तरह रहो - परों में पानी लग जाय तो झाड़कर निकाल देना । इसी प्रकार 'पांकाल' मछली की तरह रहना । वह रहती है कीच में, परन्तु उसकी देह बिलकुल साफ रहती है ।
Live in the world like a waterfowl. The water clings to the bird, but the bird shakes it off. Live in the world like a mudfish. The fish lives in the mud, but its skin is always bright and shiny.
[“আর পানকৌটির মতো। গায়ে জল লাগছে, ঝেড়ে ফেলবে। আর পাঁকাল মাছের মতো। পাঁকে থাকে কিন্তু গা দেখ পরিষ্কার উজ্জ্বল।"
“गोलमाल में 'माल' है, 'गोल' (make-believe, मिथ्या कल्पना ) निकालकर 'माल' (सत्य) ले लेना ।”
"The world is indeed a mixture of truth and make-believe. Discard the make-believe and take the truth."
{“গোলমালে মাল আছে — গোল ছেড়ে মালটি নেবে।”
जगत वास्तव में सत्य और मिथ्या (कल्पना ,make-believe) का मिश्रण है। कल्पना (मिथ्या) में आसक्ति को त्यागो और सत्य को ग्रहण करो ।"श्रीरामकृष्ण गाड़ी पर बैठे । गाड़ी दक्षिणेश्वर की ओर चल दी ।
Sri Ramakrishna got into the carriage and left for Dakshineswar.
[ঠাকুর গাড়িতে উঠিয়া দক্ষিণেশ্বরে যাত্রা করিতেছেন।
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