[ (20 जून ,1884), श्रीरामकृष्ण वचनामृत-83 ]
*परिच्छेद ~ ८३*
श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में भक्तों के साथ अपने कमरे में बैठे हुए हैं । शाम हो गयी है, श्रीरामकृष्ण जगन्माता का स्मरण कर रहे हैं । कमरे में राखाल, अधर, मास्टर तथा और भी दो-एक भक्त हैं ।
It was dusk. Sri Ramakrishna was sitting in his room, absorbed in contemplation of the Divine Mother. Now and then he was chanting Her name. Rakhal, Adhar, M., and several other devotees were with him.
[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ দক্ষিণেশ্বর-মন্দিরে নিজের ঘরে ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। সন্ধ্যা হইয়াছে, তাই জগন্মাতার নাম ও চিন্তা করিতেছেন। ঘরে রাখাল, অধর, মাস্টার, আরও দু-একজন ভক্ত আছেন।
[ (20 जून ,1884), श्रीरामकृष्ण वचनामृत-83 ]
🔱🙏एक नेता का कर्तव्य है कि वह दूसरों के लिए उदाहरण प्रस्तुत करे🔱🙏
[It is the duty of a leader to set an example for others !]
ठाकुर के युवा शिष्यों में बाबूराम और निरंजन असाधारण क्यों हैं ?
[नेता को लोक-शिक्षण के लिए पढ़ना आवश्यक है।]
आज शुक्रवार है, जेष्ठ की कृष्णा द्वादशी, 20 जून 1884 । पाँच दिन बाद रथयात्रा होगी । कुछ देर बाद ठाकुरबाड़ी में आरती होने लगी । अधर आरती देखने चले गये । तब श्रीरामकृष्ण मणि के साथ बातचीत कर रहे हैं , और (प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आने वाले भावी नेता) मणि को 'Be and Make' लीडरशिप ट्रेनिंग में' प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से अपने भक्तों की (निवृत्ति मार्ग के अधिकारी शिष्यों) की कथायें सुना रहे हैं।
[আজ শুক্রবার (৭ই আষাঢ়), জৈষ্ঠ কৃষ্ণা দ্বাদশী, ২০শে জুন, ১৮৮৪। পাঁচ দিন পরে রথযাত্রা হইবে। কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুরবাড়িতে আরতি আরম্ভ হইল। অধর আরতি দেখিতে গেলেন। ঠাকুর মণির সহিত কথা কহিতেছেন ও আনন্দে মণির শিক্ষার জন্য ভক্তদের গল্প করিতেছেন।
After a while the evening worship began in the temples. Adhar left the room to see the worship. Sri Ramakrishna and M. conversed.
अच्छा, मुझे यह बताओ कि क्या बाबूराम [बाबूराम घोष - स्वामी प्रेमानन्द (1861-1918) ] को आगे भी अपनी पढ़ाई जारी रखने की इच्छा है ? "बाबूराम से मैंने कहा, तू लोक-शिक्षण के लिए ( to set an example to others.) पढ़ । सीता का उद्धार हो जाने पर विभीषण को राज्य करना पसन्द न आया । राम ने कहा, मूर्खों को शिक्षा देने के लिए तुम राज्य करो । [ अर्थात जन साधारण को यह समझाने के लिए कि तुम नेता (राजा) बनो कि यदि कोई गृहस्थ व्यक्ति कामिनी -कांचन में अनासक्त हो जाये (या पूर्णतः निःस्वार्थी हो जाये) तो वह अपने जीवन द्वारा प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में स्थित नेता का उदाहरण प्रस्तुत कर सकता है।] नहीं तो वे कहेंगे, विभीषण ने राम की सेवा की, परन्तु क्या पाया ? - राज्य (के नेता राजा के रूप में) देखकर उन्हें भी सन्तोष होगा।
MASTER: "Tell me, does Baburam intend to continue his studies? I said to him, "Continue your studies to set an example to others.' After Sita had been set free, Bibhishana refused to become king of Ceylon. Rama said to him: 'You should become king to open the eyes of the ignorant. Otherwise they will ask you what you have gained as a result of serving Me . They will be pleased to see you acquire the kingdom.'
[শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা, বাবুরামের কি পড়বার ইচ্ছা আছে?“বাবুরামকে বললাম, তুই লোকশিক্ষার জন্য পড়। সীতার উদ্ধারের পর বিভীষণ রাজ্য করতে রাজী হল না। রাম বললেন, তুমি মূর্খদের শিক্ষার জন্য রাজ্য করো। না হলে তারা বলবে, বিভীষণ রামের সেবা করেছে তার কি লাভ হল? — রাজ্যলাভ দেখলে খুশি হবে।
[ (20 जून ,1884), श्रीरामकृष्ण वचनामृत-83 ]
🔱🙏C-IN-C नवनीदा के P.A. (व्यक्तिगत परिचारक) की प्रकृति।🔱🙏
[The nature of C-IN-C Nabanida's P.A. (Personal Attendant)]
[ P.A. to C-IN-C Nabanida , Subhashish, Kedar Da, Basudev Bagh, Dr Dayanand, Pankaj Mehta.]
"तुमसे कहता हूँ, उस दिन मैंने गौर किया कि, बाबूराम, भवनाथ और हरीश, इन लोगों की प्रकृति स्त्री-स्वभाव (feminine nature) वाली है। "बाबूराम को देखा कि वह देवीमूर्ति है । गले में हार पहनी हुई हैं, सखियाँ साथ हैं । उसने स्वप्न में कुछ पाया है, वह शुद्धसत्त्व है, थोड़े से यत्न से ही उसकी आध्यात्मिक जागृति हो जायेगी ।
I noticed the other day that Baburam, Bhavanath, and Harish have a feminine nature. In a vision I saw Baburam as a goddess with a necklace around her neck and with woman companions about her. He has received something in a dream. His body is pure. Only a very little effort will awaken his spiritual consciousness.
[“তোমায় বলি সেদিন দেখলাম — বাবুরাম, ভবনাথ আর হরিশ এদের প্রকৃতি ভাব।" “বাবুরামকে দেখলাম — দেবীমূর্তি। গলায় হার। সখী সঙ্গে। ও স্বপ্নে কি পেয়েছে, ওর দেহ শুদ্ধ। একটু কিছু করলেই ওর হয়ে যাবে।
"बात यह है कि देह-रक्षा के लिए बड़ी असुविधा हो रही है । वह (बाबूराम) अगर आकर रहे तो अच्छा है । इन लड़कों का स्वभाव एक खास तरह का हो रहा है । नेटो (लाटू) ईश्वरी भाव में ही रहता है - वह तो शीघ्र ही ईश्वर में लीन हो जायेगा । "राखाल का स्वभाव ऐसा हो रहा है कि मुझे ही उसे पानी देना पड़ता है । (मेरी) सेवा वह विशेष नहीं कर सकता ।
"You see, I am having some difficulty about my physical needs. It will be nice if Baburam lives with me. The nature of these attendants of mine is undergoing a change.
Latu is always tense with spiritual emotion. He is about to merge himself in God. Rakhal is getting into such a spiritual mood that he can't do anything even for himself. I have to get water for him. He isn't of much service to me.
[“কি জানো, দেহরক্ষার অসুবিধা হচ্ছে। ও এসে থাকলে ভাল হয়। এদের স্বভাব সব একরকম হয়ে যাচ্ছে। নোটো (লাটু) চড়েই রয়েছে (সর্বদাই ভাবেতে রয়েছে)। ক্রমে লীন হবার জো! “রাখালের এমনি স্বভাব হয়ে দাঁড়াচ্ছে যে, তাকে আমার জল দিতে হয়! (আমার) সেবা করতে বড় পারে না।
"बाबूराम और निरंजन (असाधारण हैं) , इन्हें छोड़कर और लड़के कौन हैं ? भविष्य में अगर कोई आता है, तो मालूम होता है कि उपदेश लेकर चला जायेगा ।
Among the youngsters Baburam and Niranjan are rather exceptional. If other boys come in the future, they will, it seems to me, receive instruction and then go away.
“বাবুরাম আর নিরঞ্জন — এদের ছাড়া কই ছোকরা? — যদি আর কেউ আসে, বোধ হয়, ওই উপদেশ নেবে; চলে যাবে।"
“परन्तु मैं, बाबूराम को उसके परिवार से खींच-खाँचकर लाना भी नहीं चाहता । घर में गुल-गपाड़ा मच सकता है । (सहास्य) मैं जब कहता हूँ, चला क्यों नहीं आता ? तब बार बार कहता है, आप कुछ ऐसा ही कर दीजिये जिससे मैं आ सकूँ । राखाल को देखकर रोता है, कहता है, वह मजे में है ।
"But I don't want Baburam to tear himself away from his family. It may make trouble at home. (Smiling) When I ask him, 'Why don't you come?', he says, 'Why not make me come?'. He looks at Rakhal and weeps. He says, 'Rakhal is very happy here.'
[“তবে টানাটানি করে আসতে বলি না, বাড়িতে হাঙ্গাম হতে পারে। (সহাস্যে) আমি যখন বলি ‘চলে আয় না’ তখন বেশ বলে, — ‘আপনি করে নিন না!’ রাখালকে দেখে কাঁদে। বলে, ও বেশ আছে!
"राखाल ^* अब घर के बच्चे की तरह रहता है । जानता हूँ, अब वह आसक्ति में पड़ नहीं सकता । कहता है, 'वह सब (worldly enjoyments ) अब फीका लगता है ।’ उसकी स्त्री यहाँ आयी थी । उम्र १४ साल की है । यहाँ होकर कोन्नगर गयी थी । उन लोगों ने उससे (राखाल से) कोन्नगर जाने को कहा, पर वह न गया । कहता है - आमोद-प्रमोद (merriment)अब अच्छा नहीं लगता ।
"Rakhal now lives here as one of the family. I know that he will never again be attached to the world. He says that worldly enjoyments have become tasteless to him. His wife came here on her way to Konnagar. She is fourteen. He too was asked to go to Konnagar, but he didn't go. He said, 'I don't like merriment and gaiety.'
{“রাখাল এখন ঘরের ছেলের মতো আছে; জানি, আর ও আসক্ত হবে না। বলে, ‘ও-সব আলুনী লাগে!’ ওর পরিবার এখানে এসেছিল। ১৪ বৎসর বয়স। এখান হয়ে কোন্নগরে গেল। তারা ওকে কোন্নগরে যেতে বললে। ও গেল না। বলে — ‘আমোদ-আহ্লাদ ভাল লাগে না।’
[>>>3'K's-Speed breakers,ऐषणाएँ 'कंचन, काया , कीर्ति : जब कोई पवित्र चेतना (pure consciousness) आत्मतत्व की साधना की ओर अग्रसर होती हैं तो प्रमुख रूप से उसके मार्ग में तीन बाधायें ( ऐषणाएँ -Speed breaker ) आते है -१- कंचन - अर्थात धन का लोभ । २- काया- अर्थात स्त्री या पुरुष (M/F) का आकर्षण जैसे विश्वामित्र के सामने मेनका के रूप में आया था। ३- कीर्ति - अर्थात अपनी त्याग, तपस्या, ज्ञान एवं उससे उत्पन्न मान सम्मान का लोभ या अहंकार। और अक्सर यह अहंकार आत्मसुधार किये बिना दूसरों को सुधारने की यात्रा पर निकल जाता है। 'अहंकार' को गुरु होने की बड़ी आकांक्षा है। इन तीनों ऐषणाओं ('कंचन, काया , कीर्ति ) से अनासक्त होने की साधना (विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर -वेदान्तभक्ति शिक्षक प्रशिक्षण-परम्परा Be and Make में प्रशिक्षित लीडर या नेता का चपरास प्राप्त किये बिना दूसरों को सुधारने की यात्रा पर निकल जाता है।) दादा ने एक बार क्लास में कहा था - मैंने सुना है, एक आश्रम में एक युवक आया। उसने गुरु को कहा कि मुझे शिष्य बना लें, स्वीकार करें। गुरु ने कहा, बड़ा कठिन है। तपश्चर्या करनी होगी। अनुशासन में जीना होगा। उसने पूछा, क्या करना होगा? काम क्या है? तो गुरु ने कहा, पहले तो लकड़ियां काटनी होंगी जंगल से, सर्दी करीब आ रही है। फिर लकड़ियों का काम पूरा हो जाएगा तो, गौशाला की सफाई , फिर चौके में बहुत काम है। वहां लगना होगा। फिर बगीचे को बोना है। खेत में काम लगा है, वहां सब लगना होगा। उसने कहा, अच्छा ठीक है, यह तो मैं समझ गया,यह तो शिष्य का काम है। अब बताइये कि यहाँ गुरु का क्या काम है ? उसने कहा, गुरु का काम है कि बैठा रहे और लोगों को आदेश दे। तो उसने कहा, फिर ऐसा करो, मुझे भी गुरु ही बना लो। गुरु/आदर्श /नेता भक्ति का शुभारम्भ ज्ञान है (यह ज्ञान कि मेरे नेता, गुरु, इष्टदेव ही अवतार वरिष्ठ ही CINC नवनीदा हैं), और गुरुभक्ति (C-IN-C भक्ति) ज्ञान की पराकाष्ठा है , अंतिम सोपान है । और भक्ति का फल वैराग्य है । आचार्यो मृत्युः। गुरु के पास जा कर क्या मिलेगा? मौत मिलेगी। क्योंकि गुरु मृत्यु है। उसके पास अहंकार मरेगा। "अपने को प्रेम करो, स्वार्थी बनो," तो ही तुम आत्मा (100 % निःस्वार्थपरता) को उपलब्ध हो सकोगे। ]
[ (20 जून ,1884), श्रीरामकृष्ण वचनामृत-83 ]
🔱🙏आध्यात्मिक साधना मार्ग की तीन बाधाएं
(Speed breakers) तीन ऐषणाओं '3K' 'कंचन -काया -कीर्ति ' 🔱
🔱 Three speed breakers on the path of
spiritual practice '3K' 'Kanchan-Kaya-Kirti'🔱
श्रीरामकृष्ण (मणि से)- " अच्छा, निरंजन ^* को तुम क्या समझते हो ?”
[>>>नित्यानिरंजन घोष - स्वामी निरंजनानन्द (1862 - 1904)] - निरंजन का जन्म 24 परगना के राजारहाट बिष्णुपुर में हुआ था। श्री रामकृष्ण संघ में उनको स्वामी निरंजनानंद के नाम से जाना जाता है। श्री रामकृष्ण के 16 त्यागी सन्तानों में से - छः जो ईश्वरकोटि की सन्तानें हैं -स्वामी निरंजनानन्द उन छः सौभाग्यवान ईश्वरकोटि में से एक थे। उनका शरीर बलवान और लम्बा था ,चेहरा सुन्दर सुडौल था। उनका स्वभाव निर्भीक और वीरभाव से सम्पन्न था। श्री रामकृष्ण के सानिध्य में आने से पहले वे एक 'प्रेत-तत्व अनुसन्धान ' समूह के साथ जुड़े हुए थे। सन्ध्या होने पर जब सभी भक्त चले गए , तब श्रीरामकृष्ण ने निरंजन का कुशल-मंगल इतने अंतरंग तरीके से पूछा कि, जैसे उनको वे कितने लम्बे समय से जानते हों। उसी समय उन्होंने निरंजन को समझा दिया कि जो मनुष्य हमेशा भूत -भूत करता रहता है , वह भूत ही बन जाता है ,और जो व्यक्ति भगवान-भगवान करता रहता है (या परमसत्य की खोज में लगा रहता है) , वह भगवान ही बन जाता है। और यह सुनने के साथ ही साथ निरंजन ने यह निश्चय कर लिया कि उसके जीवन का लक्ष्य भगवान-भगवान का चिंतन कर स्वयं भगवान बनना ही उचित है (भूत -भूत करके क्या लाभ ?)]
"What do you think of Niranjan?"
“নিরঞ্জনকে তোমার কিরূপ বোধ হয়?”
मास्टर - जी, बड़े अच्छे चेहरे-मोहरे का है ।
M: "He is very handsome."
[মাস্টার — আজ্ঞা, বেশ চেহারা!
श्रीरामकृष्ण - नहीं, सिर्फ चेहरा-मोहरा नहीं । सरल है । सरल होने पर सहज ही ईश्वर को लोग पा जाते हैं । सरल होने पर उपदेश भी शीघ्र सफल हो जाता है । जोती हुई जमीन, कंकड़ का नाम नहीं, बीज पड़ते ही पेड़ उग जाता है । फल भी शीघ्र आ जाते हैं ।
MASTER: "No, I am not asking about his looks. He is guileless. One can easily realize God if one is free from guile. Spiritual instruction produces quick results in a guileless heart. Such a heart is like well cultivated land from which all the stones have been removed. No sooner is the seed sown than it germinates. The fruit also appears quickly.
[শ্রীরামকৃষ্ণ — না, চেহারা শুধু নয়। সরল। সরল হলে ঈশ্বরকে সহজে পাওয়া যায়। সরল হলে উপদেশে শীঘ্র কাজ হয়। পাট করে জমি কাঁকর কিছু নাই, বীজ পড়লেই গাছ হয় আর শীঘ্র ফল হয়।
“निरंजन विवाह न करेगा । तुम क्या कहते हो? कामिनी और कांचन, ये ही बाँधते हैं न ?"
"Niranjan will not marry. It is 'woman and gold' that causes entanglement. Isn't that so?"
[“নিরঞ্জন বিয়ে করবে না। তুমি কি বল, — কামিনী-কাঞ্চনই বদ্ধ করে?”
मास्टर - जी हाँ ।
মাস্টার — আজ্ঞা, হাঁ।
M: "Yes, sir."
श्रीरामकृष्ण – पान-तम्बाकू (लहसुन -प्याज या मीट-मछली ?) के छोड़ने से क्या होगा ? कामिनी और कांचन का त्याग ही त्याग है ।
MASTER: "What will one gain by renouncing betel-leaf and tobacco? The real renunciation is the renunciation of 'woman and gold'.
[শ্রীরামকৃষ্ণ — পান তামাক ছাড়লে কি হবে? কামিনী-কাঞ্চন ত্যাগই ত্যাগ।
श्रीरामकृष्ण (मणि से) - "भाव में मैंने देखा, यद्यपि वह (निरंजन) नौकरी करता है, फिर भी उसे दोष स्पर्श नहीं कर सका। माँ के लिए नौकरी करता है, इसमें दोष नहीं है ।
I came to know in an ecstatic mood that, though Niranjan had accepted a job in an office, he would not be stained by it. He is earning money for his mother. There is no harm in that.
[“ভাবে দেখলাম, যদিও চাকরি করছে, ওকে কোন দোষ স্পর্শ করে নাই। মার জন্য কর্ম করে, — ওতে দোষ নাই।"
[ (20 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-83]
[अभी 'यह' भी करो और 'वह' भी करो ]
[*प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में पहुँचे नेता (भ्रममुक्त, जीवनमुक्त शिक्षक) को अपना स्वाभाविक काम-धंधा (बिजनेस का एकाउंट्स) देखते हुए आध्यात्मिक साधना भी करना चाहिए। *]
श्री रामकृष्ण (मणि से) - “तुम जो काम करते हो, इसमें दोष नहीं है । यह अच्छा काम है । “नौकरी करके जेल गया, बद्ध हुआ, बेड़ियाँ पहनी, फिर मुक्त हुआ । मुक्त होने के बाद क्या वह नाचने-कूदने लगता है? नहीं, वह फिर नौकरी करता है । इसी प्रकार तुम्हारी भी इच्छा स्वयं के लिए कोई धन-संचय करने की नहीं है - ठीक है - तुम्हें तो केवल अपने कुटुम्ब के निर्वाह के लिए ही चिन्ता है - नहीं तो सचमुच वे और कहाँ जायँ ?"
The work you are doing won't injure you either. What you are doing is good. Suppose a clerk is sent to jail; he is shut up there and chained, and at last he is released. Does he cut capers after his release? Of course not. He works again as a clerk. It is not your intention to accumulate money. You only want to support your family. Otherwise, where will they go?"
[“তোমার কর্ম যা করো, — এতে দোষ নাই। এ ভাল কাজ।"“কেরানি জেলে গেল — বদ্ধ হল — বেড়ি পরলে — আবার মুক্ত হল। মুক্ত হওয়ার পর সে কি ধেই ধেই করে নাচবে? সে আবার কেরানিগিরিই করে। তোমার উপায়ের ইচ্ছা নাই। ওদের খাওয়ানো পরানো। তারা তা না হলে কোথায় যাবে?”
मणि - यदि कोई उनकी जिम्मेदारी ले ले तो मैं निश्चिन्त हो जाऊँ ।
M: "I shall be relieved if someone takes charge of them."
[মণি — কেউ নেয় তো ছাড়া যায়।
श्रीरामकृष्ण - ठीक है, परन्तु अभी 'यह' भी करो और 'वह' भी करो - अर्थात् संसार के कर्तव्य भी करो और आध्यात्मिक साधना भी ।
MASTER: "That is true. But now do 'this' as well as 'that'." (That is to say, both worldly duty and spiritual practice.)
{শ্রীরামকৃষ্ণ — তা বইকি! এখন এ-ও করো, ও-ও করো।
[ (20 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-83]
🔱🙏🔆मनुष्य अपनी जन्मजात-प्रवृत्तियों के अनुसार
प्रवृत्ति या निवृत्ति मार्ग पर चलने को बाध्य है 🔆🔱🙏
मणि - सब कुछ त्याग सकना बड़े भाग्य की बात है ।
M: "It is great luck to be able to renounce everything."
[মণি — সব ত্যাগ করতে পারা ভাগ্য!
श्रीरामकृष्ण - ठीक है । परन्तु जैसे जिसके संस्कार । तुम्हारा कुछ कर्म अभी बाकी है । उतना हो जाने पर शान्ति होगी, तब तुम्हें वह छोड़ देगा । अस्पताल में नाम लिखाने पर फिर सहज ही नहीं छोड़ते । बिलकुल अच्छे हो जाने पर छोड़ते हैं ।
MASTER: "That is true. But people act according to their inherent tendencies. You have a few more duties to perform. After these are over you will have peace. Then you will be released. A man cannot easily get out of the hospital once his name is registered there. He is discharged only when he is completely cured.
[শ্রীরামকৃষ্ণ — তা বইকি! তবে যেমন সংস্কার। তোমার একটু কর্ম বাকী আছে। সেটুকু হয়ে গেলেই শান্তি — তখন তোমায় ছেড়ে দেবে। হাসপাতালে নাম লেখালে সহজে ছাড়ে না। সম্পূর্ণ সারলে তবে ছাড়ে।
[ (20 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-83]
[महामण्डल के सदस्यों को दो बातें जाननी हैं -नवनीदा कौन हैं ?
उनके साथ मेरा सम्बन्ध क्या है ?]
🔆दो श्रेणी के भक्त -'मुक्ति' चाहने वाले और 'भक्ति' चाहने वाले !🔆
श्रीरामकृष्ण (मणि से)-- "यहाँ जो भक्त आते हैं, उनके दो दर्जे हैं । जो एक दर्जे के हैं वे कहते हैं, 'हे ईश्वर, हमारा उद्धार करो।' दूसरे दर्जेवाले अन्तरंग भक्त हैं, वे यह बात नहीं कहते । दो बातें जानने से ही उनकी बन जाती है। एक तो यह कि 'मैं' कौन हूँ, दूसरी यह कि 'वे ' (श्रीरामकृष्ण-प्रेममय नवनीदा) कौन हैं - मुझसे उनका क्या सम्बन्ध है । "तुम इस श्रेणी के हो । नहीं तो और कोई क्या इतना कर सकता था !
"The devotees who come here may be divided into two groups. One group says, 'O God, give me liberation.' Another group, belonging to the inner circle, doesn't talk that way. They are satisfied if they can know two things: first, who I am (referring to himself); second, who they are and what their relationship to me is. You belong to this second group; otherwise . . .
{“ভক্ত এখানে যারা আসে — দুই থাক। একথাক বলছে, আমায় উদ্ধার করো! হে ঈশ্বর! আর-একথাক তারা অন্তরঙ্গ, তারা ও-কথা বলে না। তাদের দুটি জিনিস জানলেই হল; প্রথম, আমি (শ্রীরামকৃষ্ণ) কে? তারপর, তারা কে — আমার সঙ্গে সম্বন্ধ কি?“তুমি এই শেষ থাকের। তা না হলে এতো সব করে. . .”
[ (20 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-83]
🔆नरेंद्र, राखाल, निरंजन का 'बेटा छेलेर भाव' और बाबूराम, भवनाथ का प्रकृति भाव🔆
[নরেন্দ্র, রাখাল, নিরঞ্জনের পুরুষভাব; বাবুরাম, ভবনাথের প্রকৃতিভাব ]
"भवनाथ, बाबूराम का प्रकृतिभाव है । हरीश ^* स्त्रियों का कपड़ा पहनकर सोता है । बाबूराम ने भी कहा है, मुझे वही भाव अच्छा लगता है । बस मिल गया । यही भाव भवनाथ का भी है । नरेन्द्र, राखाल, निरंजन, इन लोगों का पुरुष भाव है (आमरा मायेर छेले की मानसिकता है) ।
"Bhavanath, Baburam, and a few others have a feminine nature. Harish sleeps in a woman's cloth. Baburam says that he too likes the womanly attitude. So I am right. Bhavanath also is like that. But Narendra, Rakhal, and Niranjan have a masculine nature.
[“ভবনাথ, বাবুরাম এদের প্রকৃতিভাব। হরিশ মেয়ের কাপড় পরে শোয়। বাবুরাম বলেছে, ওই ভাবটা ভাল লাগে। তবেই মিললো। ভবনাথেরও ওই ভাব। নরেন্দ্র, রাখাল, নিরঞ্জন, এদের ব্যাটাছেলের ভাব।”
[हरीश ^* (हरीश कुंडू) - कलकत्ता के उपनगर (outskirts) में इनका घर था । वे एक व्यायाम शिक्षक के रूप में काम करते थे। कभी-कभी वे दक्षिणेश्वर में ठाकुर के पास आते रहते थे। वे अपने सरल शांत स्वभाव के कारण ठाकुर के प्रिय बन गए थे। बाद में उन्हें डिमेंशिया (dementia-मनोभ्रंश) हो गया था ।
হরিশ (হরিশ কুণ্ডু) — কলিকাতার উপকণ্ঠে গড় পারে বাড়ি। ব্যায়াম শিক্ষকের কার্য করিতেন। মধ্যে মধ্যে দক্ষিণেশ্বরে ঠাকুরের নিকট আসিতেন। সরল শান্ত স্বভাবের জন্য তিনি ঠাকুরের স্নেহভাজন হন। পরবর্তী কালে তাঁহার মস্তিষ্কবিকৃতি ঘটে।]
[ (20 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-83]
🔱🙏🔆 हाथ तोड़ने का राज है -अहंकार निर्मूलन 🔆🔱🙏
[হাত ভাঙার মানে — সিদ্ধাই (Miracles) ও শ্রীরামকৃষ্ণ ]
"अच्छा, हाथ टूटने का क्या अर्थ है? पहले एक बार भावावस्था में दाँत टूट गया था । अबकी बार भावावस्था में हाथ टूट गया ।"
"Please tell me one thing. What is the significance of my having hurt my arm? Once my teeth were broken while I was in a state of ecstasy. It is the arm this time."
[“আচ্ছা হাত ভাঙার মানেটা কি? আগে একবার ভাবাবস্থায় দাঁত ভেঙে গিছল, এবার ভাবাবস্থায় হাত ভাঙল।”
मणि को चुपचाप बैठे देखकर श्रीरामकृष्ण आप ही आप कह रहे हैं –
Seeing M. silent, the Master himself continued the conversation.
মণি চুপ করিয়া আছেন দেখিয়া ঠাকুর নিজেই বলিতেছেন —
"हाथ टूटा सब अहंकार निर्मूल करने के लिए । अब भीतर 'मैं' कहीं खोजने पर भी नहीं मिलता । खोजने को जब जाता हूँ तो देखता हूँ वे हैं । पूर्ण रूप से अहंकार नष्ट हुए बिना उन्हें कोई पा नहीं सकता ।"चातक को देखो, मिट्टी में रहता है, पर कितने ऊँचे पर चढ़ता है ।
"My arm was broken in order to destroy my ego to its very root. Now I cannot find my ego within myself any more. When I search for it I see God alone. One can never attain God without completely getting rid of the ego. You must have noticed that the chatak bird has its nest on the ground but soars up very high.}
{ “হাত ভেঙেছে সব অহংকার নির্মূল করবার জন্য! এখন আর ভিতরে আমি খুঁজে পাচ্ছি না। খুঁজতে গিয়ে দেখি, তিনি রয়েছেন। অহংকার একেবারে না গেলে তাঁকে পাবার জো নাই।“চাতকের দেখ মাটিতে বাসা, কিন্তু কত উপরে উঠে!
[ (20 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-83]
🔱🙏🔆सिद्धाई (Miracles) और श्री रामकृष्ण 🔱🙏🔆
अच्छा, कप्तान कहता है , आप मछली खाते हैं इसलिए आपको अष्टसिद्धियाँ नहीं प्राप्त हुई।
"कभी-कभी देह काँपने लगती है कि कहीं विभूतियाँ न आ जायँ । इस समय अगर विभूतियों का आना हुआ तो यहाँ अस्पताल-दवाखाने खुल जायेंगे । लोग आकर कहेंगे, मेरी बीमारी अच्छी कर दो । क्या विभूतियाँ अच्छी होती हैं ?"
"Captain says I haven't acquired any occult powers because I eat fish. I tremble with fear lest I should acquire those powers. If I should have them, then this place would be turned into a hospital or a dispensary. People would flock here and ask me to cure their illness. Is it good to have occult powers?"}
{“আচ্ছা, কাপ্তেন বলে, মাছ খাও বলে তোমার সিদ্ধাই হয় নাই।“এক-একবার গা কাঁপে পাছে ওই সব শক্তি এসে পড়ে। এখন যদি সিদ্ধাই হয়, এখানে ডাক্তারখানা, হাসপাতাল হয়ে পড়বে। লোক এসে বলবে, ‘আমার অসুখ ভাল করে দাও!’ সিদ্ধাই কি ভাল?”
मास्टर - जी नहीं, आपने तो कहा है, आठ विभूतियों में से एक के भी रहने पर ईश्वर नहीं मिल सकते ।
M: "No, sir. You have said to us that a man cannot realize God if he possesses even one of the eight occult powers."
{মাস্টার — আজ্ঞে, না। আপনি তো বলেছেন, অষ্ট সিদ্ধির মধ্যে একটি থাকলে ভগবানকে পাওয়া যায় না।
श्रीरामकृष्ण - बिलकुल ठीक, जो हीनबुद्धि हैं वे ही विभूतियाँ चाहते हैं । "जो आदमी बड़े आदमी के पास कुछ प्रार्थना कर बैठता है, उसकी फिर खातिरदारी नहीं होती, उसे फिर एक ही गाड़ी पर, बड़े आदमी (RKM ke secretary) के साथ चढ़ने का सौभाग्य नहीं होता; यदि उसे वह चढ़ाता भी है, तो पास बैठने नहीं देता । इसीलिए निष्काम भक्ति, अहेतुकी भक्ति सब से अच्छी होती है ।
MASTER: "Right you are. Only the small-minded seek them. If one asks something of a rich man, one no longer receives any favour from him. The rich man doesn't allow such a person to ride in the same carriage with him. Even if he does, he doesn't allow the man to sit near him. Therefore love without any selfish motive is best.
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ঠিক বলেছ! যারা হীনবুদ্ধি, তারাই সিদ্ধাই চায়।“যে লোক বড় মানুষের কাছে কিছু চেয়ে ফেলে, সে আর খাতির পায় না! সে লোককে এক গাড়িতে চড়তে দেয় না; — আর যদি চড়তে দেয় তো কাছে বসতে দেয় না। তাই নিষ্কাম ভক্তি, অহেতুকি ভক্তি — সর্বাপেক্ষা ভাল।
[ (20 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-83]
🔆साकार निराकार दोनों ही सत्य हैं ~ भक्त का घर (ह्रदय) ठाकुर का अड्डा 🔆
[সাকার-নিরাকার দুই-ই সত্য — ভক্তের বাটী ঠাকুরের আড্ডা ]
"अच्छा, साकार और निराकार दोनों सत्य है - क्यों ? निराकार में मन अधिक देर तक नहीं रहता, इसीलिए भक्त साकार (अवतार वरिष्ठ) को लेकर रहते हैं ।
God with form and the formless God are both equally true. What do you say? One cannot keep one's mind on the formless God a long time. That is why God assumes form for His devotees.
[“আচ্ছা, সাকার-নিরাকার দুই-ই সত্য। কি বল? — নিরাকারে মন অনেকক্ষণ রাখা যায় না — তাই ভক্তের জন্য সাকার।"
"कप्तान ठीक कहता है, चिड़िया ऊपर उड़ती हुई जब थक जाती है, तब फिर डाल पर आकर विश्राम करती है । निराकार के बाद साकार ।
"Captain makes a nice remark in this connexion. He says that when a bird gets tired of soaring very high it perches on a tree and rests. First is the formless God, and then comes God with form.
[“কাপ্তেন বেশ বলে। পাখি উপরে খুব উঠে যখন শ্রান্ত হয়, তখন আবার ডালে এসে বিশ্রাম করে। নিরাকারের পর সাকার।
"तुम्हारे अड्डे में एक बार जाना होगा । भावावस्था में देखा - अधर का घर, सुरेन्द्र का घर, बलराम का घर - ये सब मेरे अड्डे हैं । "वे यहाँ आयें या न आयें, मुझे इसका हर्ष-दुःख नहीं ।"
I shall have to go to your house once. I saw in a vision that the houses of Adhar, Balaram, and Surendra were so many places for our forgathering. But it makes no difference to me whether they come here or not."
[“তোমার আড্ডাটায় একবার যেতে হবে। ভাবে দেখলাম — অধরের বাড়ি, সুরেন্দ্রের বাড়ি — এ-সব আমার আড্ডা।"“কিন্তু ওরা এখানে না এলে আমার ইষ্টাপত্তি নাই।”
मास्टर - जी, ऐसा क्यों होगा ? सुख का बोध होने से ही तो दुःख होता है । आप सुख और दुःख के अतीत हैं ।.
M: "That's right. Why shouldn't it be so? One must feel misery if one feels happiness. But you are beyond both."
[মাস্টার — আজ্ঞা, তা কেন হবে? সুখবোধ হলেই দুঃখ। আপনি সুখ-দুঃখের অতীত।
[ (20 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-83 ]
🔆 भक्तों के संग लीला पर्यन्त जादूगर (चण्डी) का खेल है, माँ काली की कृपा है 🔆
[ভক্তসঙ্গে লীলা পর্যন্ত বাজিকরের খেলা — চন্ডী — দয়া ঈশ্বরের ]
श्रीरामकृष्ण - हाँ, और मैं देख रहा हूँ, बाजीगर और उसका खेल बाजीगर ही नित्य है और उसका खेल अनित्य – स्वप्नवत् ।
"जब चण्डी सुनता था, तब यह बोध हुआ था । शुम्भ और निशुम्भ ^ का जन्म हुआ, थोड़ी ही देर में सुना, उनका विनाश हो गया ।"
[^शुम्भ और निशुम्भ : चंडी में वर्णित दो राक्षस, जिन्हें माँ दुर्गा ने मार डाला था।
^Two demons mentioned in the Chandi, who were killed by the Divine Mother.
MASTER: "Yes. Further, I think of the magician and his magic. The magician alone is real. His magic is illusory, like a dream. I realized this when I heard the Chandi recited. Sumbha and Nisumbha3 were scarcely born when I learnt that they both were dead."
[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, আর আমি দেখছি, বাজিকর আর বাজিকরের খেলা। বাজিকরই সত্য। তাঁর খেলা সব অনিত্য — স্বপ্নের মতো।“যখন চন্ডী শুনতাম, তখন ওইটি বোধ হয়েছিল। এই শুম্ভ নিশুম্ভের জন্ম হল। আবার কিছুক্ষণ পরে শুনলাম বিনাশ হয়ে গেল।”
मास्टर - जी, मैं कालना में गंगाधर के साथ जहाज पर जा रहा था । जहाज के धक्के से एक नाव उलट गयी, उस पर २०-२५ आदमी सवार थे । सब डूब गये । जहाज के पीछे उठनेवाली तरंगों के फेन की तरह सब लोग पानी के साथ मिल गये ।
M: "Yes, sir. Once I was going to Kalna with Gangadhar in a steamer. A country boat struck our ship and sank with twenty or twenty-five passengers. They all disappeared in the water, like foam churned up by the steamer.
[মাস্টার — আজ্ঞা, আমি কালনায় গঙ্গাধরের সঙ্গে জাহাজে করে যাচ্ছিলাম। জাহাজের ধাক্কা লেগে একনৌকা লোক, কুড়ি-পঁচিশজন ডুবে গেল! স্টীমারের তরঙ্গের ফেনার মতো জলে মিশিয়ে গেল!
[ (20 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-83 ]
🔱🙏उन्हें (प्रेममय को) काट डालने पर अपना 'मैं' भी बाजीगर का तमाशा🔱🙏
मास्टर (अर्थात मणि,श्री 'म') - "अच्छा, जो मनुष्य बाजीगरी देखता है, क्या उसमें करुणा (compassion, दया) होती है ? क्या उसे अपने उत्तरदायित्व का बोध रहता है, उत्तरदायित्व का बोध रहने पर ही तो मनुष्य में करुणा (दया) होगी न ?"
M: "May I ask you one thing? Does a man watching magic really feel compassion when he sees suffering in the performance? Does he feel, at that time, any sense of responsibility? One thinks of compassion only when one feels responsibility. Isn't that so?"}
{“আচ্ছা, যে বাজি দেখে, তার কি দয়া থাকে? — তার কি কর্তৃত্ববোধ থাকে? — কর্তৃত্ববোধ থাকলে তবে তো দয়া থাকবে?”
श्रीरामकृष्ण - वह (ज्ञानीभक्त) सब कुछ क्रमशः टटोलते हुए (respectively abutting) और युगपत (simultaneously) एक साथ देखता है - ईश्वर, माया, जीवजगत् । वह देखता है कि विद्या-माया और अविद्या माया, जीव और जगत् - ये हैं भी और नहीं भी हैं । जब तक अपना 'मैं' रहता है, तब तक 'वे' भी रहते हैं । ज्ञानरूपी खड्ग के द्वारा 'उन्हें' (प्रेममय को ?) काट डालने पर फिर कुछ नहीं रह जाता । तब अपना 'मैं' भी बाजीगर का तमाशा हो जाता है।
"A jnani sees everything at once — God, maya, the universe, and living beings. He sees that vidyamaya, avidyamaya, the universe, and all living beings exist and at the same time do not exist. As long as he is conscious of 'I', he is conscious of 'others' too. Nothing whatsoever exists after he cuts through the whole thing with the sword of jnana. Then even his 'I' becomes as unreal as the magic of the magician."}
{সে একেবারে সবটা দেখে, — ঈশ্বর, মায়া, জীব, জগৎ।“সে দেখে যে মায়া (বিদ্যা-মায়া, অবিদ্যা-মায়া), জীব, জগৎ — আছে অথচ নাই। যতক্ষণ নিজের ‘আমি’ আছে ততক্ষণ ওরাও আছে। জ্ঞান অসির দ্বারা কাটলে পর, আর কিছুই নাই। তখন নিজের ‘আমি’ পর্যন্ত বাজিকরের বাজি হয়ে পড়ে!
मणि ^*उन शब्दों पर विचार कर रहे हैं........ । जब श्रीरामकृष्ण ने कहा था - "किस तरह, जानते हो ? जैसे पच्चीस दलवाले फूल को एक ही वार से काटना ।
(A knowledgeable devotee sees both, respectively and simultaneously ?Like cutting "a flower with twenty-five petals" with a single blow; 'I' becomes as unreal as the magic of the magician." .)]
M. was reHecting on these words, when the Master said: "Do you know what it is like? It is as if there were a flower with twenty-five layers of petals, and you cut them all with one stroke.}
{মণি চিন্তা করিতেছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ বলিতেছেন, “কিরকম জানো? — যেমন পঁচিশ থাক পাপড়িওয়ালা ফুল। এক চোপে কাটা!
[>>>मणि ^* अर्थात मास्टर या श्री 'म' जो स्वयं एक 'ज्ञानीभक्त' (knowledgeable devotee, अवतार या समाधि से पुनः शरीर में लौटे हुए ईश्वरकोटि के मनुष्य) थे , उन शब्दों पर विचार कर रहे हैं .... "अच्छा , जो मनुष्य जगत को बाजीगरी (माँ जगदम्बा की लीला) के रूप में देखता है, और जब लीला में पीड़ा का प्रसंग उपस्थित होता है (जैसे सीता हरण, या राज्याभिषेक के बदले बनवास), उस समय क्या उसमें करुणा (compassion) होती है ? क्या उसे अपने उत्तरदायित्व का बोध (सीता को रावण से छुड़ाने का उत्तरदायित्व बोध) रहता है? उत्तरदायित्व का बोध रहने पर ही तो मनुष्य (अवतार) में असीम करुणा होगी न ?" ज्ञानीभक्त मणि सोंच रहे हैं - अवश्य रहती होगी; क्योंकि ठाकुर देव ने कहा है -"जैसे पच्चीस दलवाले फूल को 'ज्ञानरूपी खड्ग के द्वारा' एक ही वार से काट देने पर-अपना 'मैं' भी बाजीगर का तमाशा हो जाता है ।" इसीलिए वह जगत को क्रमशः टटोलते हुए (respectively abutting) और युगपत (simultaneously-ब्रह्ममय) दोनों देखता है ? ]
[ (20 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-83 ]
🔱🙏कर्तृत्व ! राम राम ! विद्या का 'मैं'-'ego of Knowledge'- 'वे' हुए हैं 🔱🙏
"कर्तृत्व ! राम राम ! शुकदेव, शंकराचार्य, इन लोगों ने विद्या का 'मैं' रखा था । दया मनुष्य की नहीं, दया ईश्वर की है । विद्या के 'मैं' के भीतर ही दया है । विद्या का 'मैं' वे ही हुए हैं ।
"The idea of responsibility! Goodness gracious! Men like Sankaracharya and Sukadeva kept the 'ego of Knowledge'. It is not for man to show compassion, but for God. One feels compassion as long as one has the 'ego of Knowledge'. And it is God Himself who has become the 'ego of Knowledge'.
[কর্তৃত্ব! রাম! রাম! — শুকদেব, শঙ্করাচার্য এঁরা 'বিদ্যার আমি' রেখেছিলেন। দয়া মানুষের নয়, দয়া ঈশ্বরের। বিদ্যার আমির ভিতরেই দয়া, বিদ্যার 'আমি' তিনিই হয়েছেন।”
[ (20 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
[अधर की अनुपस्थिति में मणि को प्रदत्त अत्यन्त गुप्त उपदेश : - कालीब्रह्म - थोड़ा भी अहं रहने तक , जगत आद्याशक्ति का क्षेत्र - कल्कि अवतार। অতি গুহ্যকথা — কালীব্রহ্ম — আদ্যাশক্তির এলাকা — কল্কি অবতার ]
🔱🙏जगत आद्याशक्ति का ही इलाका है,अन्तिम साँस तक उन्हीं के अण्डर हो🔱🙏
श्रीरामकृष्ण (मणि से) -"तुम चाहे लाख बार यह अनुभव करो कि यह सब तमाशा (magic) है, पर हो तुम उन्हीं के 'अण्डर' (Under अधीन) । उनसे तुम बच नहीं सकते । तुम स्वाधीन नहीं हो। वे जैसा करायें, वैसा ही करना होगा । वह आद्याशक्ति जब ब्रह्मज्ञान देगी तब ब्रह्मज्ञान होगा - तभी तमाशा देखा जाता है, नहीं तो नहीं।
"You may feel a thousand times that it is all magic; but you are still under the control of the Divine Mother. You cannot escape Her. You are not free. You must do what She makes you do. A man attains Brahmajnana only when it is given to him by the Adyasakti, the Divine Mother. Then alone does he see the whole thing as magic; otherwise not."
{“কিন্তু হাজার বাজি দেখো, তবু তাঁর অণ্ডরে (Under - অধীন)। পালাবার জো নাই। তুমি স্বাধীন নও। তিনি যেমন করান তেমনি করতে হবে। সেই আদ্যাশক্তি ব্রহ্মজ্ঞান দিলে তবে ব্রহ্মজ্ঞান হয় — তবে বাজির খেলা দেখা যায়। নচেৎ নয়।
“जब तक थोड़ासा भी 'मैं' है, तब तक उस आद्याशक्ति का ही इलाका है; उन्हीं के अण्डर हो - उन्हें छोड़कर जाने की गुंजाइश नहीं है ।
As long as the slightest trace of ego remains, one lives within the jurisdiction of the Adyasakti, One is under Her sway. One cannot go beyond Her."
“যতক্ষণ একটু ‘আমি’ থাকে, ততক্ষণ সেই আদ্যাশক্তির এলাকা। তাঁর অণ্ডরে — তাঁকে ছাড়িয়ে যাবার জো নাই।
"आद्याशक्ति की सहायता से ही अवतारलीला होती है । उन्हीं की शक्ति से अवतार, अवतार कहलाते हैं। तभी अवतार कार्य कर सकते हैं । सब माँ की शक्ति है ।
With the help of the Adyasakti, God sports as an Incarnation. God, through His Sakti, incarnates Himself as man. Then alone does it become possible for the Incarnation to carry on His work. Everything is due to the Sakti of the Divine Mother.
“আদ্যাশক্তির সাহায্যে অবতারলীলা। তাঁর শক্তিতে অবতার। অবতার তবে কাজ করেন। সমস্তই মার শক্তি।
"कालीबाड़ी के पहले वाले खजांची से जब कोई कुछ ज्यादा चाहता था, तब वह कहता था, दो तीन दिन बाद आना, मालिक से पूछ लूँ ।
"When anyone asked the former manager of the temple garden a great favour, the manager would say, 'Come after two or three days.' He must ask the proprietor's permission.
[“কালীবাড়ির আগেকার খাজাঞ্চী কেউ কিছু বেশিরকম চাইলে বলত ‘দু-তিনদিন পরে এসো’। মালিককে জিজ্ঞাসা করবে।
"कलि के अन्त में कल्कि-अवतार होगा । वे ब्राह्मण बालक के रूप में जन्म लेंगे । एकाएक उनके एक घोड़ा और तलवार आ जायेगी ...।”
"God will incarnate Himself as Kalki at the end of the Kaliyuga. He will be born as the son of a brahmin. Suddenly and unexpectedly a sword and horse will come to him. . . ."
[“কলির শেষে কল্কি অবতার হবে। ব্রাহ্মণের ছেলে — সে কিছু জানে না — হঠাৎ ঘোড়া আর তরবার আসবে —”
[ (20 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆केशव सेन की माँ और बहन - धाई भुवनमोहिनी 🔆
[ কেশব সেনের মাতা ও ভগিনী — ধাত্রী ভুবনমোহিনী ]
अधर आरती देखकर आये; आसन ग्रहण किया ।
Adhar returned to the Master's room after watching the evening worship in the temples.
অধর আরতি দেখিয়া আসিয়া বসিলেন।
भुवनमोहिनी नाम की धाई कभी कभी श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने के लिए आया करती है । श्रीरामकृष्ण सब की चीजें नहीं ग्रहण कर सकते - विशेषकर डाक्टरों, कविराजों और धाइयों की नहीं ले सकते । घोर कष्ट देखकर भी वे लोग रुपया लेते हैं, इसीलिए श्रीरामकृष्ण उनकी चीजें नहीं ले सकते ।
Bhuvanmohini was a nurse who used to visit Sri Ramakrishna now and then. The Master could not eat the food offerings of everyone, especially of physicians and nurses. It was because they accepted money from the sick in spite of the suffering of these people.
[ ধাত্রী ভুবনমোহিনী মাঝে মাঝে ঠাকুরকে দর্শন করিতে আসেন। ঠাকুর সকলের জিনিস খাইতে পারেন না — বিশেষতঃ ডাক্তার, কবিরাজের, ধাত্রির। অনেক যন্ত্রণা দেখেও তাহারা টাকা লন, এইজন্য খাইতে পারেন না।
श्रीरामकृष्ण - (अधर से) - भुवनमोहिनी आयी थी । पच्चीस बम्बइया आम और सन्देश-रसगुल्ले लायी थी । मुझसे कहा, एक आम आप भी लीजिये । मैंने कहा, नहीं पेट भरा हुआ है और सचमुच, देखो न, जरा सा सन्देश और कचौड़ी खायी, इतने ही से पेट कैसा हो गया ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (অধর প্রভৃতি ভক্তের প্রতি) — ভুবন এসেছিল। পঁচিশটা বোম্বাই আম আর সন্দেশ, রসগোল্লা এনেছিল। আমায় বললে, আপনি একটা আঁব খাবে? আমি বললাম — আমার পেট ভার। আর সত্যই দেখ না, একটু কচুরি সন্দেশ খেয়েই পেট কিরকম হয়ে গেছে।
MASTER (to Adhar and the others): "Bhuvan was here and brought me twenty-five Bombay mangoes and some sweets. She said to me, 'Will you eat a mango?' I said, 'My stomach is heavy today.' And to tell you the truth, I am feeling uncomfortable after eating a few of the sweets."
"केशव सेन की माँ बहिन आदि सब आयी थीं । इसलिए उनका दिल बहलाने के लिए मुझे कुछ नाचना पड़ा था और मैं क्या करूँ, उन्हें कितनी गहरी चोट पहुंची है !"
"Keshab Sen's mother, sisters, and other relatives came here; so I had to dance a little. I had to entertain them. What else could I do? They were so grief-stricken!"
{“কেশব সেনের মা বোন এরা এসেছিল। তাই আবার খানিকটা নাচলাম। কি করি! — ভারী শোক পেয়েছে।”
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[ "राखाल ^*[राखाल चंद्र घोष - स्वामी ब्रह्मानन्द ] ( 1863 - 1922) - राखाल चंद्र का जन्म 21 जनवरी 1863 ई. को बशीरहाट अनुमण्डल के शिकरा-कुलीन गांव में एक बहुत ही संभ्रात परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम आनंद मोहन घोष था। वे एक सुसंगत (consistent) जमींदार थे। जब पांच वर्ष की कम उम्र में ही राखालचन्दर की माता कैलासकामिनी देवी का निधन हो गया, तो वे अपनी सौतेली माँ हेमांगिनी देवी की स्नेहमयी छाया में बड़े होने लगे । आनंदमोहन ने राखाल चंद्र को उचित उम्र में शिक्षा के लिए अपने घर के पास के एक स्कूल में भर्ती करा दिया। उस बालक की सौम्य आकृति और सुन्दर सरल स्वभाव ने स्कूल के विद्यार्थियों तथा शिक्षकों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। राखाल चंद्र में स्कूली शिक्षा ग्रहण करने के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी विशेष रुचि थी। जिस प्रकार कुश्ती में उनकी बराबरी कोई नहीं कर सकता था, वैसे ही खेल में भी उनके बराबर कोई नहीं था। वह बचपन में गांव के बाहरी इलाके में अवस्थित काली मंदिर के पास बोधन-वृक्ष के नीचे में अपने द्वारा निर्मित श्यामा मूर्ति की पूजा में निमग्न रहते थे। फिर उनके घर पर प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले शारदीय दुर्गा पूजा के समय पूजा मण्डप में पुजारी के पीछे बैठकर पूजा देखते-देखते उसीमे तन्मय हो जाते थे। और सन्ध्या के समय बिना पलक झपकाए माँ की आरती का दर्शन करते करते स्वयं को किसी अज्ञात राज्य में खो देते थे। संगीत के प्रति उनका गहरा लगाव था - अपने मित्रों के साथ श्यामासंगीत गाते -गाते इतने तल्लीन हो जाते थे कि देश-काल की चेतना भी लुप्त हो जाती थी। 12 वर्ष की उम्र में अपनी सौतेली माँ के पैतृक निवास में रहते हुए , उसके निकट स्थित एक 'ट्रेनिंग एकेडमी ' में पढ़ाई-लिखाई करने लगे। यहीं पर उनका नरेंद्रनाथ (बाद में स्वामी विवेकानंद) से परिचय हुआ और दोनों के बीच गहरी दोस्ती हो गई। नरेंद्र से ही प्रेरित होकर वे ब्रह्म समाज के सदस्य बने थे , तथा एक शपथ-पत्र पर हस्ताक्षर किये थे कि आगे से वे केवल 'निराकार ब्रह्म ' की ही उपासना करेंगे।
राखलचंद्र के पिता ने अपने पुत्र की धार्मिकता के प्रति झुकाओ को देखते हुए, उन्हें गृहस्थ जीवन में बांधने के उद्देश्य से 1881 ई. में उनका विवाह कोन्नगर निवासी भुवनमोहन मित्रा की पुत्री तथा मनोमोहन मित्रा की बहन 11 वर्षीय विश्वेश्वरि नामक कन्या के साथ सम्पन्न करा दिया। किन्तु ठाकुर के सानिध्य में आने से पहले ही ठाकुरदेव ने अपने भाव-नेत्र से अपने मानसपुत्र का दर्शन कर लिया था। इसीलिए जब मनोमोहन बाबू राखाल को अपने साथ लेकर दक्षिणेश्वर गए तब अपने मानसपुत्र को देखते ही ठाकुरदेव ने उन्हें अपनी सन्तान के रूप में ग्रहण कर लिया था। उन्हीं की कृपा से राखाल अपने पिता की बाधा एवं अपनी स्त्री के प्रति आसक्ति को आसानी से दूर कर धर्म-मार्ग पर चलने में समर्थ हो गए। नरेन्द्रनाथ ने जब ठाकुरदेव के मुख से राखाल के 'राज बुद्धि' (administrative power-प्रशासनिक क्षमता) की प्रशंसा सुनी तब उन्होंने अपने भ्रातृवृन्द को उन्हें 'राजा ' के नाम से सम्बोधित करने के लिए अनुप्रेरित किया। तथा इसी कारण राखाल महाराज अपने बाद के जीवन में 'राजा महाराज ' के नाम से विख्यात हुए। 1881 ई. में उन्होंने वराहनगर मठ में संन्यास ग्रहण किया, तथा स्वामी ब्रह्मानन्द का नाम धारण करने के बाद पश्चिमोत्तर भारत के तीर्थ -स्थानों की यात्रा पर निकल गए। जब 1/5/1897 ई. को श्री रामकृष्ण मिशन की स्थापना हुई, तो वे मिशन की कलकत्ता शाखा के अध्यक्ष बने। कुछ ही समय बाद स्वामीजी ने उन्हें श्रीरामकृष्ण संघ की सारी जिम्मेदारी सौंप दी और उन्हें श्री रामकृष्ण मठ और मिशन का प्रथम अध्यक्ष बना दिया। उन्होंने पूरे भारत में यात्रा की और श्रीरामकृष्ण मिशन की कई नए शाखा केंद्र स्थापित किए। उन्होंने बैंगलोर आश्रम के नवनिर्मित भवन का उद्घाटन किया, तथा मद्रास रामकृष्ण मठ के मिशन छात्रावास और त्रिबेंद्रम आश्रम की आधारशिला रखी। भुवनेश्वर में रामकृष्ण मठ के संस्थापक भी वे ही हैं। बैंगलोर आश्रम में "शुद्ध ब्रह्म परात्पर राम" भजन सुनने के बाद, उन्होंने सप्त्काण्डात्मक नाम-रामयण ^* का संकलन कर उसे ' रामनाम -संकीर्तन 'के रूप में मठ -मिशन के समस्त केंद्रों में प्रचलित कर दिया। तथा इस पुस्तिका को आम जनों के बीच निःशुल्क वितरित किया। श्री रामकृष्ण के मानस पुत्र राखाल (राजा महाराज) सोमवार, 10 अप्रैल, 1922 को रात 9.45 बजे,बलराम मन्दिर में महासमाधि में लीन हो गए।
[রাখাল [রাখালচন্দ্র ঘোষ — স্বামী ব্রহ্মানন্দ] (১৮৬৩ - ১৯২২) — রাখালচন্দ্র ১৮৬৩ খ্রীষ্টাব্দের ২১ জানুয়ারি বসিরহাট মহকুমার অন্তর্গত শিকরা-কুলীন গ্রামে এক অতি সম্ভ্রান্ত বংশে জন্মগ্রহণ করেন। তাঁহার পিতার নাম আনন্দমোহন ঘোষ। তিনি সঙ্গতিপন্ন জমিদার ছিলেন। পাঁচ বৎসর বয়সে রাখালচন্দ্রের মাতা কৈলাসকামিনীর দেহত্যাগ হইলে তিনি বিমাতা হেমাঙ্গিনীর স্নেহময় ক্রোড়ে মানুষ হইতে থাকেন। উপযুক্ত বয়সে বিদ্যাভ্যাসের জন্য বাটীর নিকটে একটি বিদ্যালয়ে স্থাপনপূর্বক আনন্দমোহন উহাতে রাখলচন্দ্রকে ভর্তি করিয়া দিলে তথায় বালকের সৌম্য সুন্দর আকৃতি ও মাধুর্যময় কোমল প্রকৃতির ছাত্র ও শিক্ষককে আকৃষ্ট করে। বিদ্যালয়ের শিক্ষা ভিন্ন অন্য বিষয়েও রাখালের বিশেষ উৎসাহ ছিল। ক্রীড়াদিতে যেমন তাঁহার সমকক্ষ কেহ ছিল না, কুস্তিতেও তেমনি কেহ তাঁহার সমকক্ষ হইতে পারিত না। বাল্যকাললেই গ্রামের উপকণ্ঠে ৺কালীমন্দিরের নিকটে বোধনতলায় স্বনির্মিত শ্যামামূর্তির পূজাদিতে মগ্ন থাকিতেন। আবার তাঁহাদের বাটীতে প্রতিবৎসর শারদীয়া পূজার সময়ে পূজামণ্ডপে পুরোহিতের পশ্চাতে বসিয়া পূজা দেখিতে দেখিতে তন্ময় হইয়া যাইতেন এবং সন্ধ্যাকালে অনিমেষনয়নে মায়ের আরাত্রিক দর্শন করিতে করিতে নিজেকে কোন্ অজ্ঞাত রাজ্যে হারাইয়া ফেলিতেন। সংগীতে তাঁহার অসাধারণ প্রীতি ছিল — সঙ্গীদের লইয়া শ্যামাসঙ্গীত গাহিতে গাহিতে এত তন্ময় হইতেন যে দেশ-কালের জ্ঞান লোপ পাইত। বৈষ্ণব ভিখারির মুখে বৃন্দাবনের মুরলীধর রাখালরাজের গান শুনিয়া অত্মহারা হইতেন। ১২ বৎসর বয়সে কলিকাতায় বিমাতার পিতৃগৃহে থাকিয়া নিকটস্থ “ট্রেনিং একাডেমিতে” পড়াশুনা করিতে থাকেন। এইখানেই নরেন্দ্রনাথের (পরে স্বামী বিবেকানন্দ) সহিত তাঁহার পরিচয় হয় ও উভয়ের মধ্যে গভীর সখ্যের উদয় হয়। নরেন্দ্রের প্রেরণাতেই তিনি ব্রাহ্মসমাজে যাতায়াত করিতেন এবং নিরাকার ব্রহ্মের উপাসনা করিবেন বলিয়া সমাজের অঙ্গীকার পত্রে সাক্ষর দেন।
রাখালচন্দ্রের পিতা পুত্রের ধর্মভাব লক্ষ্য করিয়া তাঁহাকে সংসারে আবদ্ধ করিবার জন্য কোন্নগর নিবাসী ভুবনমোহন মিত্রের কন্যা এবং মনোমোহন মিত্রের ভগিনী একাদশ বর্ষীয়া বিশ্বেশ্বরীর সহিত ১৮৮১ খ্রীষ্টাব্দে বিবাহ দেন। ঠাকুরের নিকট আসিবার পূর্বে ঠাকুর ভাব-নেত্রে তাঁহার মানসপুত্রের দর্শন পান। তাই মনোমোহনবাবু রাখলকে দক্ষিণেশ্বরে লইয়া গেলে ঠাকুর তাঁহার মানসপুত্রকে পাইয়া তাহাকে সন্তানের ন্যায় গ্রহণ করেন। তাঁহারই কৃপায় রাখাল পিতার বাধা এবং স্ত্রীর মায়ামমতা সহজেই কাটাইয়া উঠিয়া ধর্মপথে অগ্রসর হন। নরেন্দ্রনাথ কাশীপুরে ঠাকুরের মুখে রাখালের “রাজবুদ্ধির” প্রশংসা শুনিয়া তাঁহাকে “রাজা” বলিয়া সম্বোধন করিতে সকলকে বলেন। এবং সেইহেতু পরবর্তী কালে তাঁহার রাজামহারাজ নামের প্রচলন। ১৮৮৭ খ্রীষ্টাব্দে তিনি বরাহনগর মঠে সন্ন্যাস গ্রহণ করিয়া স্বামী ব্রহ্মানন্দ নাম ধারণ করেন এবং উত্তর পশ্চিম ভারতের তীর্থাদি ভ্রমণ করেন। ১/৫/১৮৯৭ তারিখে শ্রীরামকৃষ্ণ মিশনের প্রতিষ্ঠা হইলে মিশনের কলিকাতা শাখার সভাপতি হন। কিছুকাল পরেই স্বামীজী তাঁহাকে সঙ্ঘের সমস্ত দায়িত্ব অর্পণ পূর্বক মঠ ও মিশনের সভাপতি পদে অধিষ্ঠিত করেন। তিনি ভারতের প্রায় সর্বত্র গমন করিয়া বহু নূতন শাখা কেন্দ্রের প্রতিষ্ঠা করেন। তিনি বাঙ্গালোর আশ্রমের নবনির্মিত গৃহের দ্বারোদঘাটন, মাদাজ রামকৃষ্ণ মঠের মিশন ছাত্রাবাসের ও ত্রিবান্দ্রাম আশ্রমের ভিত্তি স্থাপন করেন। ভুবনেশ্বরে রামকৃষ্ণ মঠের প্রতিষ্ঠাতাও তিনিই। বাঙ্গালোরে “শুদ্ধ ব্রহ্ম পরাৎপর রাম” সংকীর্তনটি শুনিয়া সপ্তকাণ্ডাত্মক এই নাম-রামায়ণ সংকলন করিয়া মঠের বিভিন্ন কেন্দ্রে প্রচলন করেন ইহা সর্বসাধারণের মধ্যে বিনামূল্যে বিতরিত হইত। ১৯২২ খ্রীষ্টাব্দের ১০ই এপ্রিল সোমবার রাত্রি পৌনে নয়টায় বলরাম-মন্দিরে শ্রীরামকৃষ্ণের মানসপুত্র রাখাল মহাসমাধিতে মগ্ন হন।]
[निरंजन ^* [नित्यानिरंजन घोष - स्वामी निरंजनानन्द ] (1862 - 1904) - निरंजन का जन्म 24 परगना के राजारहाट बिष्णुपुर में हुआ था। श्री रामकृष्ण संघ में उनको स्वामी निरंजनानंद के नाम से जाना जाता है।श्री रामकृष्ण के 16 त्यागी सन्तानों में से - छः जो ईश्वरकोटि की सन्तानें हैं -स्वामी निरंजनानन्द उन छः सौभाग्यवान ईश्वरकोटि में से एक थे। निरंजन ने अपना बचपन अपनी नानी- मां के घर में (ननिहाल में ) रहकर बिताया था । व्यायाम आदि अच्छी आदतों के धनी होने के फलस्वरूप उनका शरीर बलवान और लम्बा था ,चेहरा सुन्दर सुडौल था। उनका स्वभाव निर्भीक और वीरभाव से सम्पन्न था। श्री रामकृष्ण के सानिध्य में आने से पहले वे एक 'प्रेत-तत्व अनुसन्धान ' समूह के साथ जुड़े हुए थे। और उन्हीं 'प्रेततत्व-अनुसन्धान ' समूह के कुछ सदस्य मित्रों के साथ वे पहली बार दक्षिणेश्वर आये थे। उस प्रथम दर्शन के दिन निरंजन ने देखा कि श्री रामकृष्ण को उनके भक्त घेरे हुए हैं , और श्रीरामकृष्ण अपनी चौकी पर विराजमान हैं। सन्ध्या होने पर जब सभी भक्त चले गए , तब श्रीरामकृष्ण ने निरंजन का कुशल-मंगल इतने अंतरंग तरीके से पूछा कि, जैसे उनको वे कितने लम्बे समय से जानते हों। उसी समय उन्होंने निरंजन को समझा दिया कि जो मनुष्य हमेशा भूत -भूत करता रहता है , वह भूत ही बन जाता है ,और जो व्यक्ति भगवान-भगवान करता रहता है (या परमसत्य की खोज में लगा रहता है) , वह भगवान ही बन जाता है। और यह सुनने के साथ ही साथ निरंजन ने यह निश्चय कर लिया कि उसके जीवन का लक्ष्य भगवान-भगवान का चिंतन कर स्वयं भगवान बनना ही उचित है (भूत -भूत करके क्या लाभ ?)। निरंजन की सरलता ने पहले ही दिन से श्री रामकृष्ण के मन को मोह लिया था। ठाकुर निरंजन को उनकी सरलता और वैराग्य के लिए कितना प्यार करते थे, इसके उदाहरण श्री रामकृष्ण वचनामृत में कई स्थानों पर देखे जा सकते हैं। एक दिन बलराम भवन में श्रीरामकृष्ण ने कहा था - " देखो न निरंजन कामिनी-कांचन किसी भी सांसारिक विषय में आसक्त नहीं हैं।" इसके अतिरिक्त भी निरंजन के विषय में कई गुप्त बातें उद्घाटित की थीं। एक दिन दक्षिणेश्वर में, ठाकुर ने निरंजन को अपने आलिंगन में भरकर ईश्वर-प्राप्ति के लिए व्याकुल होने का उपदेश दिया था। इस निःस्वार्थ प्रेमालिंगन से निरंजन भावाभिभूत हो गए थे। श्री रामकृष्ण के प्रति उनकी त्यागी सन्तानों के ह्रदय में कितना गहरा लगाव था , जिसका वर्णन करते हुए निरंजन ने कहा था - " पहले से ही उनके प्रति लगाव अवश्य था , किन्तु अब तो उनको छोड़कर जीवित रहने का कोई उपाय ही नहीं है। " यद्यपि उनके दायित्वों का दृढ़ता पूर्वक निर्वहन तथा वैराग्य के आवेग को देखकर , प्रथमदृष्ट्या कोई उनको कठोर -स्वभाव भी समझ सकते थे , किन्तु उनके चरित्र में कोमलता और करुणा की कोई कमी नहीं थी। एक शब्द में कहें तो आवश्यकता पड़ने पर जहाँ वे 'वज्रादपि कठोराणि ' हो सकते थे , वैसे ही वे समयानुकूल -'मृदूनि कुसुमादपि' भी बनने में समर्थ थे। 1887 ई. के प्रथम भाग में संन्यास ग्रहण करने के बाद उनका नाम स्वामी निरंजनानन्द हो गया। स्वामी निरंजनानंद का स्वाभाविक रुझान तपस्या की ओर अधिक था। लेकिन, जैसे ही किसी गुरु भाई को उन्होंने बीमार देखते , तो बिना देर किये उसकी सेवा में उपस्थित हो जाते थे। उनका अंतिम समय हरिद्वार में बीता था ।
নিরঞ্জন [নিত্যনিরঞ্জন ঘোষ — স্বামী নিরঞ্জনানন্দ] (১৮৬২ - ১৯০৪) — নিরঞ্জনের জন্ম ২৪ পরগণার রাজারহাট বিষ্ণুপুরে। তিনি শ্রীরামকৃষ্ণ সঙ্ঘে স্বামী নিরঞ্জনানন্দ নামে সুপরিচিত। শ্রীরামকৃষ্ণের ১৬ জন ত্যাগী সন্তানের মধ্যে স্বামী নিরঞ্জনানন্দ অন্যতম ও ছয় জন ঈশ্বরকোটির অন্যতম। নিরঞ্জনের বাল্যকাল মাতুলালয়ে কাটে। তাঁহার অতি সুন্দর চেহারা ব্যায়ামাদির ফলে সুদীর্ঘ, সবল ও সুঠাম ছিল। তাঁহার প্রকৃতি ও অনুরূপ নির্ভীক ও বীরভাবাপন্ন ছিল। শ্রীরামকৃষ্ণের কাছে আসিবার পূর্বে তিনি এক প্রেততত্ত্বান্বেষী দলের সহিত যুক্ত ছিলেন। এই প্রেততত্ত্বানুসন্ধিৎসু জনকয়েক বন্ধুর সহিত নিরঞ্জন প্রথম দক্ষিণেশ্বরে আসেন। প্রথম দর্শনে নিরঞ্জন দেখেন শ্রীরামকৃষ্ণ ভক্তপরিবেষ্টিত হইয়া বসিয়া আছেন। সন্ধ্যায় সকলে উঠিয়া গেলে শ্রীরামকৃষ্ণ নিরঞ্জনের এমন অনতরঙ্গভাবে খবর নেন, যেন কতকালের পরিচিত। সেই সময়ই তিনি নিরঞ্জনকে জানাইয়া দেন যে, মানুষ ভূত ভূত করিতে থাকিলে ভূত হইয়া যায়, আর ভগবান ভগবান করিলে মানুষই ভগবান হইয়া যায়। সঙ্গে সঙ্গে নিরঞ্জন স্থির করিলেন যে, ভগবান ভগবান করাই তাঁহার জীবনের লক্ষ্য হওয়া উতিত। প্রথম দিন হইতেই নিরঞ্জনের সরলতা শ্রীরামকৃষ্ণের মন জয় করে। নিরঞ্জনের সরলতা ও বৈরাগ্যের জন্য ঠাকুর তাঁহার প্রতি কতখানি স্নেহপরায়ণ ছিলেন তাহার উদাহরণ কথামৃতের বহু জায়গায় দেখা যায়। বলরামভবনে একদিন বলিয়াছিলেন, “দেখ না নিরঞ্জন কিছুতেই লিপ্ত নয়।” এছাড়া আরও অনেক গুহ্য কথা বলিয়াছিলেন নিরঞ্জন সম্পর্কে। দক্ষিণেশ্বরে একদিন ঠাকুর নিরঞ্জনকে আলিঙ্গন করিয়া আকুলস্বরে ভগবান লাভের জন্য ব্যগ্র হইতে বলিয়াছিলেন। নিরঞ্জন এই ভালবাসায় অভিভূত হন। শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি তাঁর ত্যাগী সন্তানদের এমন প্রাণঢালা ভালবাসা ছিল, যার উদাহরণ নিরঞ্জনের ভাষায়, “আগে ভালবাসা ছিল বটে কিন্তু এখন ছেড়ে থাকতে পারবার যো নাই।” কর্তব্যানুরোধে ও বৈরাগ্যের আবেগে নিরঞ্জনকে আপাতদৃষ্টিতে কঠোর মনে হইলেও তাঁহার চরিত্রে কোমলতার অভাব ছিল না। এককথায় প্রয়োজন বোধে তিনি যেমন বজ্রাদপি কঠোর হইতেন, তেমনি আবার কুসুমাদপি মৃদুও হইতে পারিতেন। ১৮৮৭ খ্রীষ্টাব্দের প্রথম ভাগে সন্ন্যাস গ্রহণের পরে তিনি স্বামী নিরঞ্জনানন্দ নামে অভিহিত হন। স্বামী নিরঞ্জনানন্দের তপস্যার দিকেই বেশি ঝোঁক ছিল। তবে গুরুভাইদের কাহাকেও অসুস্থ দেখিলে তিনি সেখানে ঝাঁপাইয়া পড়িতেন। তাঁহার শেষ সময় হরিদ্বারে অতিবাহিত হয়।]
[बाबूराम ^*[बाबूराम घोष - स्वामी प्रेमानन्द ] (1861-1918) - इनका जन्म हुगली जिले के आँटपुर गांव में इनके नाना के घर में हुआ था। इनके पिता आँटपुर निवासी तारापद घोष थे , तथा माता का नाम मातंगिनी देवी था । बाद के जीवन में श्री रामकृष्ण संघ में बाबूराम को स्वामी प्रेमानन्द के नाम से जाना जाने लगा। श्री रामकृष्ण द्वारा उल्लेखित उनकी छः 'ईश्वरकोटि' सन्तानों में से एक बाबूराम भी थे। कलकत्ता में रहकर अध्ययन करने के दौरान, एकबार वे अपने सहपाठी राखाल चन्द्र घोष (बाद में स्वामी ब्रह्मानन्द) के साथ दक्षिणेश्वर गए और वहाँ श्री रामकृष्ण का प्रथम दर्शन प्राप्त हुआ था; और प्रथम दर्शन के दिन ही , श्री रामकृष्ण ने बाबूराम को अपने सन्तान के रूप में ग्रहण कर लिया था । ठाकुर बाबूराम को कृपालु (Compassionate- करुणामय) कहते थे, कहते थे कि 'बाबूराम की हड्डियाँ तक पवित्र हैं '। श्रीरामकृष्ण के गृहस्थ भक्त बलराम बसु की पत्नी कृष्णभाविनी देवी, बाबूराम की बड़ी बहन थीं। श्री रामकृष्ण ने बाबूराम की भक्तिमति माता मातंगिनी देवी से प्रार्थना की थी कि वे अपने पुत्र को उन्हें धर्मकार्य के लिए समर्पित कर दें । अपने भाग्यशाली पुत्र को बिना उद्विग्न हुए, उन्होंने उसी क्षण ठाकुर देव की चरणों में समर्पित कर दिया। ठाकुरदेव के दक्षिणेश्वर, श्यामपुकुर तथा में रहते समय, बाबूराम ने विभिन्न प्रकार से श्री श्री ठाकुर की सेवा की थी । श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त भावधारा (वेदांत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा Be and Make ) का प्रचार -प्रसार करने के लिए उन्होंने तीन बार पूर्वी बंगाल (अब बांग्ला देश) की यात्रा की थी । उनकी प्रत्येक यात्रा के बाद पूर्वी बंगाल के अनेकों भक्तों में ईश्वरप्राप्ति के लिए महान उत्साह का संचार हुआ था। इसी क्रम में वे एक बार स्वामी ब्रह्मानन्द के साथ पूर्वी बंगाल के देवभोग नामक ग्राम में महान भक्त साधु नाग महाशय के घर पर पहुंचकर भावावेग में वैदिक महावाक्यों की सिंह गर्जना की थी। किन्तु स्वामी प्रेमानन्द जी मठ के संन्यासियों, ब्रह्मचारियों तथा भक्तों के लिए बिल्कुल अपनी माता जैसे थे। (स्वामी प्रेमानन्द जी का व्यष्टि अहं माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं बोध में रूपांतरित हो गया था।) उन दिनों जब बेलुड़ मठ में आगंतुक भक्तो के रहने -ठहरने की उतनी सुविधा नहीं थी , तब भी स्वामी प्रेमानन्द जी विभिन्न स्थानों से आये हुए भक्तों की मधुर सम्भाषण तथा प्रसाद वितरण कर उनकी सेवा किया करते थे। उन्हीं के प्रयास से बेलुड़ मठ में 'प्रस्थानत्रयी' (श्रीमद्भगवद्गीता, ब्रह्मसूत्र तथा उपनिषद-जिनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों मार्गों का तात्त्विक विवेचन है।) के अध्यन -अध्यापन के लिए एक संस्कृत विद्यालय (चतुष्पाठी टोल) की स्थापना हुई थी। श्री श्री माँ सारदा देवी के प्रति स्वामी प्रेमानन्द जी में असीम भक्ति थी।बलराम मंदिर में उनका निधन मंगलवार, 30 जुलाई, 1918 को शाम 4:15 बजे हुआ।
বাবুরাম [বাবুরাম ঘোষ — স্বামী প্রেমানন্দ] (১৮৬১ - ১৯১৮) — হুগলী জেলার আঁটপুর গ্রামে মাতুলালয়ে জন্ম। পিতা আঁটপুর নিবাসী তারাপদ ঘোষ, মাতা মাতঙ্গিনী দেবী। বাবুরাম পরবর্তী জীবনে শ্রীরামকৃষ্ণ সঙ্ঘে স্বামী প্রেমানন্দ নামে পরিচিত। শ্রীরামকৃষ্ণ কথিত ছয়জন ঈশ্বরকোটির মধ্যে তিনি একজন। কলকাতায় পড়াশুনা করিবার সময় সহপাঠী রাখালচন্দ্র ঘোষের (পরবর্তী কালে স্বামী ব্রহ্মানন্দ) সহিত দক্ষিণেশ্বরে গিয়া প্রথম শ্রীরামকৃষ্ণকে দর্শন করেন। শ্রীরামকৃষ্ণ সেইদিনই বাবুরামকে আপনজন বলিয়া গ্রহণ করেন। তিনি বাবুরামকে দরদী, ‘বাবুরামের হাড় পর্যন্ত শুদ্ধ’ — বলিতেন। ভক্তপ্রবর বলরাম বসুর স্ত্রী কৃষ্ণভাবিনী দেবী, বাবুরামের জ্যেষ্ঠা ভগিনী। পরম ভক্তিমতী মাতা মাতঙ্গিনী দেবীর নিকট শ্রীরামকৃষ্ণ তাঁহার এই পুত্রকে তাঁহাকে দেওয়ার জন্য প্রার্থনা করেন। কিছুমাত্র বিচলিত না হইয়া তিনি তৎক্ষণাৎ নিজ সৌভাগ্যজ্ঞানে পুত্রকে ঠাকুরের চরণে সমর্পণ করেন। দক্ষিণেশ্বরে, শ্যামপুকুরে ও কাশীপুরে বাবুরাম নানাভাবে শ্রীশ্রীঠাকুরের সেবা করিয়াছিলেন। শ্রীরামকৃষ্ণের ভাবধারা প্রচারের জন্য তিনি তিনবার পূর্ববঙ্গে গমন করেন। প্রতিবারেই সেখানে বহুভক্তের মধ্যে প্রভূত উদ্দীপনার সঞ্চার হয়। স্বামী ব্রহ্মানন্দের সহিত দেওভোগ গ্রামে নাগমহাশয়ের বাড়িতে গিয়া ভাবাবেগে নাগ প্রাঙ্গণে গড়াগড়ি দেন। স্বামী প্রেমানন্দ ছিলেন মঠের স্বাধু-ব্রহ্মচারী ও ভক্তগণের জননীর মতো। নানাদেশ হইতে আগত সকলকে তিনি বেলুড়মঠের তখনকার নানা অসুবিধার মধ্যেও মিষ্ট আলাপাদি ও প্রসাদ বিতরণের মাধ্যমে সেবা করিতেন। তাঁহার চেষ্টায় বেলুড়মঠে শাস্ত্রাদি অধ্যয়নের জন্য একটি চতুষ্পাঠী (টোল) স্থাপিত হয়। শ্রীশ্রীমায়ের প্রতি স্বামী প্রেমানন্দের অসীম ভক্তি ছিল। ১৯১৮ খ্রীষ্টাব্দের ৩০শে জুলাই, মঙ্গলবার, বিকাল ৪টা ১৫ মিনিটে বলরাম-মন্দিরে তিনি দেহত্যাগ করেন।]
[लाटू (रखतुराम - स्वामी अद्भुतानन्द ) - उनका जन्म बिहार के छपरा जिले के एक गाँव में गड़ेरिया (भेंड़- पालक) के घर में हुआ था। उनका जन्म वर्ष, तिथि या तारीख - सब कुछ अज्ञात है। वे रोजी-रोटी कमाने के लिए कलकत्ता आये थे। वे श्री रामकृष्ण के गृहस्थ भक्त रामचंद्र के घर में काम करते थे। उनके काम से संतुष्ट होकर रामचंद्र उन्हें प्यार से 'लाल्टू' कहकर बुलाते थे। रामचंद्र के साथ दक्षिणेश्वर आकर लाल्टू ने श्री रामकृष्ण का प्रथम दर्शन प्राप्त किया था। ठाकुर देव के स्पर्श से उनके जीवन की गति उर्ध्वमुखी दिशा में प्रवाहित होने लगी थी। लाल्टू का मन सब कुछ भूल कर श्रीरामकृष्ण की ओर आकर्षित होने लगा। रामचंद्र भी लाल्टू को अक्सर किसी न किसी काम से दक्षिणेश्वर भेजते थे। अंत में श्री रामकृष्ण ने रामचंद्र को उन्हें अपनी सेवा में एक सेवक के रूप में सौंप देने का आग्रह किया। श्री रामकृष्ण की प्रेम-भरी वाणी में लाल्टू का नाम बदलकर अब लाटू या नेटो हो गया । ठाकुर की शिक्षाओं के अनुसार, लाटू का आध्यात्मिक जीवन (गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में) धीरे-धीरे गठित होने लगा। ठाकुर के संन्यासी शिष्यों में ठाकुर के सानिध्य में रहकर प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले प्रथम शिष्य लाटू महाराज ही थे। उस समय से लेकर ठाकुर के महासमाधि में जाने के लम्बी अवधि तक ठाकुरदेव के सानिध्य में रहकर उनकी सेवा करने का सौभाग्य लाटू को प्राप्त हुआ था। लाटू के जीवन में श्री श्री माँ सारदा देवी के घरेलू कार्यों में सहायता करने का सुअवसर भी आया था। श्रीरामकृष्ण के देह-त्याग के बाद लाटू ने भी संन्यास ग्रहण किया , तथा श्रीरामकृष्ण संघ में स्वामी अद्भुतानन्द के नाम से परिचित हुए। स्वयं को कठोर जप-ध्यान में नियोजित रखते हुए उन्होंने भारत के कई तीर्थ स्थानों का भ्रमण किया और अपना अंतिम समय काशी में व्यतीत किया। आखिरकार 24 अप्रैल 1920 को काशी में उन्होंने अपने शरीर का त्याग कर दिया।
লাটু (রাখতুরাম — স্বামী অদ্ভুতানন্দ) — বিহারের ছাপরা জেলার কোন এক গ্রামে জনৈক মেষ-পালকের গৃহে তিনি জন্মগ্রহণ করেন। তাঁর জন্ম-সাল, তারিখ বা তিথি — সবকিছু অজ্ঞাত। জীবিকা অর্জনের জন্য তিনি কলিকাতায় আসেন। শ্রীরামকৃষ্ণের গৃহীভক্ত রামচন্দ্রের গৃহে তিনি কাজ করিতেন। তাঁহার কাজে সন্তুষ্ট হইয়া রামচন্দ্র তাঁহাকে সস্নেহে ‘লালটু’ নামে ডাকিতেন। রামচন্দ্রের সঙ্গে আসিয়া লাল্টু প্রথম দক্ষিণেশ্বরে শ্রীরামকৃষ্ণকে দর্শন করেন। ঠাকুর লালটুকে স্পর্শ করিলে তাঁহার জীবনের গতি অন্যদিকে প্রবাহিত হয়। লালটুর মন অন্য সব ভুলিয়া শ্রীরামকৃষ্ণের দিক ধাবিত হইতে লাগিল। রামচন্দ্রও লালটুকে প্রায়ই দক্ষিণেশ্বরে পাঠাইতেন। অবশেষে শ্রীরামকৃষ্ণ রামচন্দ্রের কাছ হইতে তাঁহাকে সেবকরূপে চাহিয়া লন। শ্রীরামকৃষ্ণের স্নেহময় মুখে লাটু বা নেটোতে পরিণত হইয়াছিল। ঠাকুরের শিক্ষা অনুযায়ী ধীরে ধীরে লাটুর আধ্যাত্মিক জীবন গঠিত হইতে থাকে। ঠাকুরের সন্ন্যাসী শিষ্যগণের মধ্যে তিনিই সর্বপ্রথম ঠাকুরের কাছে আসেন। সেইসময় হইতে ঠাকুরের মহাপ্রয়াণের দিন অবধি দীর্ঘকাল ঠাকুরের সেবা ও সঙ্গলাভ করিবার সৌভাগ্য লাটুর হইয়াছিল। শ্রীশ্রীসারদা দেবীর কাজে সহায়তা করিবার সুযোগও লাটুর জীবনে আসে। শ্রীরামকৃষ্ণের দেহত্যাগের পরে লাটু সন্ন্যাস গ্রহণ করেন। স্বামী অদ্ভুতানন্দ নামে তিনি শ্রীরামকৃষ্ণ সঙ্ঘে পরিচিত। নিজেকে কঠোর জপধ্যানে নিয়োজিত রাখিয়া এবং ভারতের বহু তীর্থ পরিভ্রমণ করিয়া তিনি শেষ জীবন কাশীতে অতিবাহিত করেন। অবশেষে ১৯২০ খ্রীষ্টাব্দের ২৪শে এপ্রিল কাশীতে তিনি দেহত্যাগ করেন।
🔆सप्त्काण्डात्मक नाम-रामयण ^*
Nama Ramayanam
नामा रामायणम् रामायणम के सभी सर्गों (cantos-काण्ड) का संक्षेपण है। यह मूल रूप से भगवान राम की स्तुति में एक भजन है, जिसमें भगवान श्री राम के चारित्रिक 24 गुणों को उनके जीवन में घटित विभिन्न घटनाओं का उल्लेख करते हुए दर्शाया गया है। इसकी रचना भगवान राम के श्री वैष्णव भक्त लक्ष्मणाचार्य ने की थी।
Nama Ramayanam is a condensation of all the cantos of Ramayanam. It basically is a hymn in praise of Lord Rama, which in turn illustrates the qualities of Lord Rama by citing various incidents from the Ramayana. It was composed by Lakshmanacharya, a Sri Vaishanavite devotee of Lord Rama.