*परिच्छेद~ ८२*
(१)
[(15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 82]
🔆 राम के उद्यान-गृह के निकट,श्रीयुत सुरेन्द्र के काकुड़गाछी उद्यान-गृह में महोत्स्व🔆
आज श्रीरामकृष्ण सुरेन्द्र के बगीचे में आये हैं । रविवार, ज्येष्ठ कृष्णा ६, 15 जून 1884 । श्रीरामकृष्ण आज सुबह नौ बजे से भक्तों के साथ आनन्द मना रहे हैं । सुरेन्द्र का बगीचा कलकत्ते के पास काकुड़गाछी गाँव में है । उसके पास ही राम का बगीचा भी है जिसमें करीब छः महीने पहले श्रीरामकृष्ण पधारे थे । आज सुरेन्द्र के बगीचे में महोत्सव है ।
Sunday, June 15, 1884: SRI RAMAKRISHNA arrived in the morning at the garden house of Surendra, one of his beloved householder disciples, in the village of Kankurgachi near Calcutta. Surendra had invited him and a large number of the devotees to a religious festival.
[আজ ঠাকুর সুরেন্দ্রের বাগানে আসিয়াছেন। রবিবার (২রা আষাঢ়), জ্যৈষ্ঠ মাসের কৃষ্ণা ষষ্ঠী তিথি, ১৫ই জুন, ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দ। ঠাকুর সকাল নয়টা হইতে ভক্তসঙ্গে আনন্দ করিতেছেন।সুরেন্দ্রের বাগান কলিকাতার নিকটস্থ কাঁকুড়গাছি নামক পল্লীর অন্তর্গত। নিকটেই রামের বাগান — যে বাগানে ঠাকুর প্রায় ছয় মাস পূর্বে শুভাগমন করিয়াছিলেন। আজ সুরেন্দ্রের বাগানে মহোৎসব।
सुबह से हो संकीर्तन होने लगा है । कीर्तीनिये कृष्ण और गोपियों के सम्बन्ध में कीर्तन गा रहे हैं । गोपियों का प्रेम, कृष्ण के विरह से राधिका की अवस्था – यही सब गाया जा रहा है । श्रीरामकृष्ण को क्षण क्षण में भावावेश हो रहा है । भक्तगण उद्यान के भीतर चारों ओर कतार बाँधे खड़े हैं ।
Occasions like this were a source of great happiness and rejoicing to the Master's devotees. He was then seen at his best. He joined with the others in devotional music and in chanting the names of God, frequently going into ecstasy. He poured out his entire soul in inspired talk, explaining the various phases of God-Consciousness. The impressions of such a festival lingered in the minds of all for many days. The devotees stood in rows inside the big hall of the garden house to hear the music sung by the professional singers. The floor of the room was covered with a carpet over which was spread a white sheet; a few bolsters, pillows, and cushions lay here and there.
সকাল হইতেই সংকীর্তন আরম্ভ হইয়াছে। কীর্তনিয়াগণ মাথুর গাহিতেছে। গোপীদের প্রেম, শ্রীকৃষ্ণ বিরহে শ্রীমতীর শোচনীয় অবস্থা — সমস্ত বর্ণিত হইতেছিল। ঠাকুর মুহুর্মুহু ভাবাবিষ্ট হইতেছেন। ভক্তগণ উদ্যানগৃহমধ্যে চতুর্দিকে কাতার দিয়া দাঁড়াইয়া আছেন।
उद्यानगृह में जो कमरा सब से बड़ा है, उसी में कीर्तन हो रहा है । जमीन पर सफेद चद्दर बिछी हुई है । जगह-जगह पर तकिये भी लगे हैं । इस कमरे के पूर्व और पश्चिम ओर एक एक कमरा और उत्तर और दक्षिण ओर बरामदे हैं । उद्यानगृह के सामने अर्थात् दक्षिण की ओर एक तालाब है, पक्का घाट बँधा हुआ है । गृह और तालाब के बीच से पूर्व-पश्चिम की ओर रास्ता है ।
উদ্যানগৃহমধ্যে প্রধান প্রকোষ্ঠে সংকীর্তন হইতেছে। ঘরের মেঝেতে সাদা চাদর পাতা ও মাঝে মাঝে তাকিয়া রহিয়াছে। এই প্রকোষ্ঠের পূর্বে ও পশ্চিমে একটি করিয়া কামরা এবং উত্তরে ও দক্ষিণে বারান্দা আছে। উদ্যান গৃহের সম্মুখে অর্থাৎ দক্ষিণদিকে একটি বাঁধাঘাটবিশিষ্ট সুন্দর পুষ্করিণী। গৃহ ও পুষ্করিণী ঘাটের মধ্যবর্তী পূর্ব-পশ্চিমে উদ্যান পথ।
रास्ते के दोनों तरफ फूल और क्रोटन आदि के पेड़ लगे हैं । उद्यानगृह के पूर्व तरफ से उत्तर के फाटक तक एक और रास्ता गया है । उसके भी दोनों ओर अनेक प्रकार को फूल-पत्तियों के पेड़ लगे हैं । फाटक के पास और रास्ते के पूर्व ओर एक और तालाब है - उसमें भी पक्का घाट है ।
পথের দুই ধারে পুষ্পবৃক্ষ ও ক্রোটনাদি গাছ। উদ্যানগৃহের পূর্বধার হইতে উত্তরে ফটক পর্যন্ত আর-একটি রাস্তা গিয়াছে। লাল সুরকির রাস্তা। তাহারও দুই পার্শ্বে নানাবিধ পুষ্পবৃক্ষ ও ক্রোটনাদি গাছ। ফটকের নিকট ও রাস্তার ধারে আর-একটি বাঁধাঘাট পুষ্করিণী।
यहाँ गांव के साधारण आदमी नहाया करते हैं और पीने के लिए पानी भी इसीसे ले जाते हैं । उद्यानगृह के पश्चिम की ओर भी रास्ता है, उसके दक्षिण-पश्चिम में रन्धनागार है । आज यहाँ खूब धूम है, यहाँ श्रीरामकृष्ण और भक्तों की सेवा होगी । सुरेश और राम प्रत्येक समय सब तरह की देखभाल कर रहे हैं।
পল্লীবাসী সাধারণ লোকে এখানে স্নানাদি করে এবং পানীয় জল লয়; উদ্যান গৃহের পশ্চিম ধারেও উদ্যান পথ, সেই পথের দক্ষিণ-পশ্চিমে রন্ধনশালা। আজ এখানে খুব ধুমধাম, ঠাকুর ও ভক্তদের সেবা হইবে। সুরেশ ও রাম সর্বদা তত্ত্বাবধান করিতেছেন।
उद्यान-गृह के बरामदे में भी भक्तों का समावेश हुआ है । कोई-कोई अकेले कोई मित्रों के साथ, उपर्युक्त तालाब के किनारे टहल रहे हैं । कोई कोई बंधे घाट पर जाकर थोड़ी देर के लिए विश्राम कर रहे हैं ।
উদ্যানগৃহের বারান্দাতেও ভক্তদের সমাবেশ হইয়াছে। কেহ কেহ একাকী বা বন্ধুসঙ্গে প্রথমোক্ত পুষ্করিণীর ধারে বেড়াইতেছেন। কেহ কেহ বাঁধাঘাটে মাঝে মাঝে আসিয়া বিশ্রাম করিতেছেন।
संकीर्तन हो रहा है । संकीर्तनवाले कमरे में बहुत से भक्त एकत्र हुए हैं । भवनाथ, निरंजन, राखाल, सुरेन्द्र, राम, मास्टर, महिमाचरण और मणि मल्लिक आदि कितने ही भक्त आये हैं । बहुत से ब्राह्मभक्त भी उपस्थित हैं ।
At Surendra's garden house the kirtan had begun early in the morning. The musicians were singing about the love of Krishna and Radha for each other. The Master was frequently in samadhi. The room was crowded with devotees, among them Bhavanath, Niranjan, Rakhal, Surendra, Ram, and M., and many members of the Brahmo Samaj.
সংকীর্তন চলিতেছে। সংকীর্তন গৃহমধ্যে ভক্তের জনতা হইয়াছে। ভবনাথ, নিরঞ্জন, রাখাল, সুরেন্দ্র, রাম, মাস্টার, মহিমাচরণ ও মণি মল্লিক ইত্যাদি অনেকেই উপস্থিত। অনেকগুলি ব্রাহ্মভক্তও উপস্থিত।
[(15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 82]
🔱🙏कृष्ण के जीवन में गोपीप्रेम, मथुरा, वृन्दावन, नन्दगाँव🔱🙏
कृष्णलीला गायी जा रही है । कीर्तनिया पहले गौर-चन्द्रिका गा रहा है । गौरांग ने संन्यास धारण किया है - वे कृष्ण के प्रेम में पागल हो गये हैं । उन्हें न देखकर नवद्वीप की भक्तमण्डली विलाप कर रही है । यही गीत कीर्तनिया गा रहा है- 'गौर एकबार चलो नदीयाय।'
The musicians were singing of the episodes in the life of Sri Krishna especially associated with His divine love for the gopis of Vrindavan. This was a theme which always appealed to the Master and would throw him into ecstatic moods.
[श्रीचैतन्य भक्ति परम्परा के अनुसार, कीर्तनिया ने गौरांग के बारे में एक परिचयात्मक गीत के साथ शुरुआत की थी। अपने इष्टदेव को मनुष्य-मात्र में देखने की इच्छा से गौरांग ने संन्यासी जीवन को गले लगाया है। वे श्रीकृष्ण की एक कृपा - दृष्टि प्राप्त करने की लालसा में सबकुछ त्याग देने को प्रस्तुत हैं। यहाँ तक कि वे नवद्वीप को भी त्याग कर एक परिव्राजक संन्यासी बनकर घर-घर से भिक्षा माँगकर भारत भ्रमण करना चाहते हैं। लेकिन उनके नदिया में रहने वाले भक्त, उनसे बिछुड़ने की पीड़ा को सहन करने में असमर्थ हैं, वे रो रहे हैं और गौरांग से पुनः नदिया लौट चलने के लिए भीख मांगते हैं। इसी प्रसंग को कीर्तनिया गा कर सुना रहे हैं - हे गौर, नदिया में वापस लौट चलो !
In accordance with the custom, the kirtan had begun with an introductory song about Gauranga. Gauranga embraces monastic life. He is being consumed with longing for a vision of Krishna. He leaves Navadvip and goes away as a wandering monk to seek out his Beloved. His devotees, unable to bear the pangs of separation, weep bitterly and beg Gauranga to return. The musician sang: O Gaur, come back to Nadia!
মাথুর গান হইতেছে। কীর্তনিয়া প্রথমে গৌরচন্দ্রিকা গাহিতেছেন। গৌরাঙ্গ সন্ন্যাস করিয়াছেন — কৃষ্ণপ্রেমে পাগল হইয়াছেন। তাঁর অদর্শনে নবদ্বীপের ভক্তেরা কাতর হইয়া কাঁদিতেছেন। তাই কীর্তনিয়া গাহিতেছেন — গৌর একবার চল নদীয়ায়।
उसके बाद श्रीमती की विरह अवस्था का वर्णन करते हुए गा रहे हैं - श्रीरामकृष्ण को भावावेश है। एकाएक खड़े होकर बड़े ही करुणापूर्ण स्वरों में एक पद गाने लगे --"सखी ! होय प्राणबल्लभ के आमार काछे निये आय, नोय आमाके सेखाने रेखे आय। " “सखि ! तू मेरे प्राणवल्लभ को मेरे पास ले आ या मुझे ही वहीँ छोड़ आ ।”
Next the musician sang about the anguish of Radha at her separation from Krishna. When Sri Ramakrishna heard the song he suddenly stood up. Assuming the mood of Radha, he sang in a voice laden with sorrow, improvising the words: "O friend, either bring my beloved Krishna here or take me to Him."
তৎপরে শ্রীমতীর বিরহ অবস্থা বর্ণনা করিয়া আবার গাহিতেছেন। তৎপরে শ্রীমতীর বিরহ অবস্থা বর্ণনা করিয়া আবার গাহিতেছেন। ঠাকুর ভাবাবিষ্ট। হঠাৎ দণ্ডায়মান হইয়া অতি করুণ স্বরে আখর দিতেছেন — “সখি! হয় প্রাণবল্লভকে আমার কাছে নিয়ে আয়, নয় আমাকে সেখানে রেখে আয়।”
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 82 ]
🔱🙏श्रीकृष्ण की बाल लीला🔱🙏
[ भगवान श्री कृष्ण (सच्चिदानन्द Divine Consciousness, ईश्वर के सगुण अवतार), अपनी बाल्यावस्था में वृंदावन में एक चरवाहा (cow herder-यादव, घोष, ग्वाला) की भूमिका में रहते थे।
उन दिनों वे अपनी गायों को जमुना के किनारे हरी घास के मैदान में चराने जाते थे , और बाँसुरी बजाकर अपनी गायों को बुलाया (tend) करते थे।
लेकिन गोपियाँ (milkmaids-ग्वालिनें) उनकी बाँसुरी की ध्वनि सुनकर उसके दिव्य आकर्षण का विरोध नहीं कर पाती थीं, और उनकी बांसुरी की ध्वनि सुनते ही बेसुध हो जाती थीं। वे अपने घरेलू कर्तव्यों को छोड़कर पवित्र जमुना नदी के तट की और चल पड़ती थीं।
गोपाल, गोप, यादव श्रीकृष्ण की बाँसुरी की धुन के प्रति उनके प्रेम ने सांसारिक वस्तुओं (Lust and Lucre वासना और धनदौलत की लालच) से उनकी आसक्ति को नष्ट कर दिया था।
उन्हें न तो अपने घर वालों (पति और सास की) धमकियों की और न गाँव वालों के निंदा की कुछ परवाह थी। उनकी धमकियाँ और निंदा भी उन्हें श्रीकृष्ण का सानिध्य प्राप्त करने के लिए जमुना की ओर (जैसे नवनीदा का सानिध्य पाने के लिए वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर की ओर) दौड़ पड़ने से रोक नहीं सकती थीं।
(जैसे जानिबिघा के लड़कों को उनके घर वाले नवनीदा का सानिध्य पाने के लिए वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर की ओर दौड़ पड़ने से रोक नहीं सकते थे ? धनेश्वर पण्डित तो गीले कपड़ों में बिना कुछ साथ लिए ही कैम्प पहुँच जाता था। }
श्री कृष्ण (नवनीहरन) के लिये गोपियों (उनके भक्तों) के प्रेम में दुनियादारी का (वासना और धन में आसक्ति का) लेश मात्र भी नहीं था।
यह शुद्ध आत्माओं के लिए (आत्मसाक्षात्कार हो चुकी परिवर्तित अहं , पाका आमी के लिए, माखन चोर, मन को चुरा लेने वाले) भगवान श्रीकृष्ण (नेता, गुरु, C-IN-C नवनीदा) का वैसा सहज आकर्षण था, जैसे चुम्बक के प्रति किसी लोहे की कील में रहता है!
श्रीमद भागवत के रचयिता वेदव्यास जी ने श्रीकृष्ण के प्रति इस गोपी-प्रेम की तुलना एक ऐसी स्त्री के सर्वग्रासी प्रेम (all-consuming love) से की है, जो लोक-लाज छोड़कर, दूसरे क्या कहेंगे यह सब भूलकर, अपने प्रेमी से मिलने के लिए घर की दीवाल फाँद कर घर से भाग जाती हैं।
भक्त के ह्रदय में उस सर्वग्रासी प्रेम (all-consuming love) का उदय होने पर, उस चुम्बकीय प्रेम के समक्ष ईश्वर (माँ काली) और मनुष्य (अवतार और भावी नेता, भक्त और भगवान, गुरु और शिष्य) के बीच की सभी दूरियाँ मिट जाती हैं, सभी बाधाएँ हटती जाती हैं।
(ठाकुर से मिलने के लिए स्वामीजी अपने घर से दक्षिणेश्वर तक दौड़ते हुए जाते हैं। धनेश्वर गीले कपड़ों में बिना कुछ खाये-पिए कैम्प पहुँच जाता था। नवनीदा के काम Be and Make आंदोलन के प्रचार-प्रसार में एक बार Bh को खरदह से हावड़ा के लिए भोर 3 बजे घर से निकल जाना पड़ा था ?)
उस प्रेम (Bh प्रेम) के उदय से पहले मनुष्य और ईश्वर के बीच की सभी बाधाएं दूर हो जाती हैं। भक्त अपने आप को पूरी तरह से अपने दिव्य प्रिय के लिए समर्पित कर देता है और अंत में उसके साथ एक हो जाता है।
[Krishna, God Incarnate, lived the years of His boyhood in Vrindavan as a cowherd. He tended His cows on the green meadows along the bank of the Jamuna and played His flute. The milkmaids could not resist the force of His divine attraction. At the sound of His flute they would leave their household duties and go to the bank of the sacred river. Their love for Krishna destroyed their attachment to worldly things. Neither the threats of their relatives nor the criticism of others could make them desist from seeking the company of Krishna. In the love of the gopis for Krishna there was not the slightest trace of worldliness. It was the innate attraction of God for pure souls, as of the magnet for iron. The author of the Bhagavata has compared this love to the all-consuming love of a woman for her beloved. Before the onrush of that love all barriers between man and God are swept away. The devotee surrenders himself completely to his Divine Beloved and in the end becomes one with Him.]
[राधा (सतोगुण) गोपियों में सर्वश्रेष्ठ थीं, और श्री कृष्ण की प्रमुख सहचरी (chief playmate-C-IN-C) थीं। अवतार के साथ मिलन के लिए उन्हें एक अनिर्वचनीय प्रेम (लालसा कामिनी-कांचन के आकर्षण से भी बड़ी लालसा) की अनुभूति होती थी।
कृष्ण से एक पल की जुदाई उसके हृदय और आत्मा को ठेस पहुँचाती थी। कई चांदनी रातों में कृष्ण- राधा और गोपियों के साथ वृंदावन की कुंजों में नृत्य करते थे (रास रचाते थे), और ऐसे अवसरों पर गोपियों को सर्वोच्च धार्मिक परमानंद (निर्विकल्प समाधि) का अनुभव होता था।
ग्यारह वर्ष की किशोरावस्था में श्री कृष्ण को मथुरा के राजा कंस ने बुलावा भेजा। उन्हें वृन्दावन छोड़ना पड़ा, लेकिन उन्होंने गोपियों को वचन दिया कि जब कभी वे अपने ह्रदय में उनका ध्यान करेंगी वे उनका साक्षात् दर्शन कर सकेंगी।]
Radha was the foremost of the gopis, and Krishna's chief playmate. She felt an indescribable longing for union with Him. A moment's separation from Krishna would rend her heart and soul. During many a moonlit night Krishna would dance with Radha and the gopis in the sacred groves of Vrindavan, and on such occasions the gopis would experience the highest religious ecstasy. At the age of eleven Krishna was called to be the king of Mathura. He left the gopis, promising them, however. His divine vision whenever they concentrated on Him in their hearts.]
भारत में हजारों वर्षों से सगुण साकार भगवान श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों के आकर्षण (तड़प) को उदाहरणस्वरूप बनाकर, स्वयं पर राधिका भाव को आरोपित कर; सच्चिदानन्द (निर्गुण निराकार ब्रह्म) की उपासना होती चली आ रही है।
आज भी भारत में कई प्रसिद्द लोक-भजन श्रीकृष्ण के जीवन की मधुर घटनाओं को आधार बनाकर गाये जाते हैं।
मुगल आक्रमण के समय श्री चैतन्य ने अपनी दिव्य दृष्टि से प्रेममय श्रीकृष्ण के प्रति राधा के विरह को अपनी आध्यात्मिक साधना का अंग बनाकर सच्चिदानन्द के सगुण अवतार भक्ति की हिन्दू धार्मिक परम्परा को पुनरुज्जीवित कर दिया था।
अपने भावविभोर कर देने वाले संगीत के माध्यम से चैतन्य ने राधा की भूमिका निभाई थी, और कृष्ण (सच्चिदानन्द-ब्रह्म-अल्ला -God) के साथ जुड़ जाने की तड़प को प्रकट किया था।
अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण (विवेकानन्द) ने भी दीर्घ समय तक स्वयं को राधिका समझते हुए और अपनी इष्टदेवी माँ काली में अपने प्यारे श्रीकृष्ण के रूप में देखकर पूजा की थी।
For centuries and centuries the lovers of God in India have been worshipping the Divine by recreating in themselves the yearning of the gopis for Krishna. Many of the folk-songs of India have as their theme this sweet episode of Krishna's life. Sri Chaitanya revived this phase of Hindu religious life by his spiritual practice and his divine visions. In his ecstatic music Chaitanya assumed the role of Radha and manifested the longing to be united with Krishna. For a long period Sri Ramakrishna also worshipped God as his beloved Krishna, looking on himself as one of the gopis or as God's handmaid.
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 82 ]
🔱🙏श्रीरामकृष्ण और राधिका भाव में समाधि 🔱🙏
श्रीरामकृष्ण को राधिका का भाव हो गया है । ये बातें कहते ही उनकी जबान रुक गयी । देह निःस्पन्द हो गयी और आँखें अर्धनिमीलित रह गयी । उनका बाह्य-ज्ञान बिलकुल जाता रहा । वे समाधिमग्न हो गये ।
Thus singing, he completely lost himself in Radha and could not continue the song. He became speechless, his body motionless, his eyes half closed, his mind totally unconscious of the outer world. He was in deep samadhi.
ঠাকুর ভাবাবিষ্ট। হঠাৎ দণ্ডায়মান হইয়া অতি করুণ স্বরে আখর দিতেছেন — “সখি! হয় প্রাণবল্লভকে আমার কাছে নিয়ে আয়, নয় আমাকে সেখানে রেখে আয়।” ঠাকুরের শ্রীরাধার ভাব হইয়াছে। কথাগুলি বলিতে বলিতেই নির্বাক্ হইলেন; দেহ স্পন্দহীন, অর্ধনিমীলিতনেত্র। সম্পূর্ণ বাহ্যশূন্য; ঠাকুর সমাধিস্থ হইয়াছেন!
बड़ी देर बाद श्रीरामकृष्ण अपनी साधारण दशा में आये । फिर वही करुण-स्वर ! कहते हैं - "सखि ! उसके पास ले जाकर तू मुझे खरीद ले, मैं तेरी दासी हो जाऊँगी । कृष्ण का प्रेम मुझे तू ने ही तो सिखाया था । - प्राणवल्लभ !"
कीर्तनियों का गाना होने लगा । श्रीमती कह रही हैं - 'सखि ! मैं यमुना में पानी भरने न जाऊँगी । कदम्ब के नीचे प्रिय सखा को मैंने देखा था । उसे देखते ही मैं विह्वल हो जाती हूँ ।'
The professional musicians continued their song. They took the part of Radha and sang as if she were talking to her friend: "O friend, I shall not go again to the Jamuna to draw water. Once I beheld my beloved Friend under the kadamba tree. Whenever I pass it I am overwhelmed."
অনেক্ষণ পরে প্রকৃতিস্থ হইলেন। আবার সেই করুণ স্বর। বলিতেছেন, “সখি! তাঁর কাছে লয়ে গিয়ে তুই আমাকে কিনে নে। আমি তোদের দাসী হব! তুই তো কৃষ্ণপ্রেম শিখায়েছিলি! প্রাণবল্লভ!”কীর্তনিয়াদিগের গান চলিতে লাগিল। শ্রীমতী বলিতেছেন, “সখি! যমুনার জল আনতে আমি যাব না। কদম্বতলে প্রিয় সখাকে দেখেছিলাম, সেখানে গেলেই আমি বিহ্বল হই!”
श्रीरामकृष्ण को फिर आवेश हो रहा है । दीर्घ श्वास छोड़कर कातर भाव से कह रहे हैं - 'आहा ! आहा!'
The Master again became abstracted. Heaving a deep sigh he said, "Ah me! Ah me!"
[ঠাকুর আবার ভাবাবিষ্ট হইতেছেন। দীর্ঘনিঃশ্বাস ফেলিয়া কাতর হইয়া বলিতেছেন, ‘আহা’ ‘আহা’!
कीर्तन हो रहा है । श्रीराधा की उक्ति -
शीतल तच्छु अंग हेरि संगसुख लालसे (हे)।
(ना होय तोदेर होबे, आमाय एकबार देखा गो )
भूषनेर भूषण गेचे आर भूषने काज नाई।
आमार सूदीन गिये दुर्दिन होएछे।
दुर्दशार दिन कि देरी होय ना।
(कीर्तन का भाव) –"संग-सुख की लालसा से मैं उनके शीतल अंग का निरीक्षण किया करती हूँ । माना कि वह तुम लोगों का है, परन्तु मुझे उसके दर्शन भी तो एक बार करा दो । बीच-बीच में दुहराते हैं - वह भूषणों का आभूषण जब चला गया, तब ये भूषण किस काम के रहे ? मेरे सुदिन चले गये हैं, ये दुर्दिन आये हैं । दुर्दशा के दिनों के आते कुछ देर भी न लगी ।"
The song went on. Radha says: Even the desire for Krishna's presence, Has cooled and refreshed my feverish body.Now and then the musicians improvised lines to the music, continuing in the attitude of Radha: "O friends, you can wait. Show me Krishna, my Beloved." Again: "Do not bother about my ornaments. I have lost my most precious Ornament." And again: "Alas! I have fallen on evil days. My happy days are over." And finally: "This unhappy time lingers so long!"
[কীর্তন চলিতেছে — শ্রীমতির উক্তি —গান — শীতল তছু অঙ্গ হেরি সঙ্গসুখ লালসে (হে)।মাঝে মাঝে আখর দিতেছেন (না হয় তোদের হবে, আমায় একবার দেখা গো)। (ভূষণের ভূষণ গেছে আর ভূষণে কাজ নাই)। (আমার সুদিন গিয়ে দুর্দিন হয়েছে) (দুর্দশার দিন কি দেরি হয় না)।
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 82 ]
ठाकुर श्रीरामकृष्ण निष्कर्ष देते हैं - (वह कल, क्या आज भी नहीं आया ?) कीर्तनिया निष्कर्ष (तत्काल आखर) दुहरा देता है - "आज को तो इतना समय बीत गया , वह आज भी नहीं आया।"
Sri Ramakrishna improvised a line himself: "Are not better times yet in sight for me?" The musicians then improvised: "Such a long time has passed! Are not better times yet in sight for me?"
ঠাকুর আখর দিতেছেন — (সে কাল কি আজও হয় নাই)। কীর্তনিয়া আখর দিতেছেন — (এতকাল গেল, সে কাল কি আজও হয় নাই)।
मरिबो मरिबो सखी, निश्चय मरिबो,
(आमार) कानू हेन गुणनिधि कारे दिये जाबो।
निष्कर्ष (आखर) :- (मेरा समय आ गया है, अब तो सखी प्राण बचेंगे नहीं। इसीलिये कानु (कन्हैया) जैसे गुणनिधि (सद्गुणों के भण्डार) को किसे सौंपकर जाऊँ ! )
तोमरा जोतोक सखी थेको मोझू संगे ,
अन्तिमकाले कृष्णनाम लिखे दिओ अंगे।
ललिता प्राणेर सखी , मन्त्र दिओ काने ,
मरा देह पोड़े जेनो कृष्णनाम सुने।
ना पोड़ाईयो राधा अंग, ना भासाइयो जले,
मरिले तुलिये रेखो तमालेर डाले।
[निष्कर्ष (आखर) : (कृष्ण विलासेर अंग जले ना डारबि, अनले ना दीबी, बेंधे तमाले राखबि , ताते परश होबे, कालोते परश होबे। कृष्ण कालो तमाल कालो, कालो बड़ भालो बासी , शिशु काल'हते। आमार कानू अनुगत तनू। देखो जेन कानू छाड़ा करो ना गो।
सर्व अंग खेओ रे काक, ना राखियो बाकि,
शुधु कृष्ण दर्शनेर लागि रेखो दूटि आँखि।
केवल से पिया यदि आसे वृन्दावने ,
प्राण पाइबो हाम पिया दर्शने।
>>>>>>>
মরিব মরিব সখি, নিশ্চয় মরিব,
কানু হেন গুণনিধি কারে দিয়ে যাব।
আখর :- (আমার সময় হয়েছে, আর তো প্রাণে বাঁচব না সই।তাই কানু হেন গুণনিধি কারে দিয়ে যাব।)
তোমরা যতেক সখী থেকো মঝু সঙ্গে,
অন্তিমকালে কৃষ্ণনাম লিখে দিও অঙ্গে।
ললিতা প্রাণের সখী, মন্ত্র দিও কানে,
মরা দেহ পোড়ে যেন কৃষ্ণনাম শুনে ।
না পোড়াইও রাধা অঙ্গ, না ভাসাইও জলে,
মরিলে তুলিয়ে রেখ তমালের ডালে।
আখর :- (কৃষ্ণ বিলাসের অঙ্গ জলে না ডারবি, অনলে না দিবি,বেঁধে তমালে রাখবি , তাতে পরশ হবে, কালোতে পরশ হবে,কৃষ্ণ কালো তমাল কালো, কালো বড় ভালবাসি, শিশুকাল হ’তে আমার কানু অনুগত তনু,দেখ যেন কানু ছাড়া করো না গো।)
সর্ব অঙ্গ খেও রে কাক, না রাখিও বাকি,
শুধু কৃষ্ণ দরশনের লাগি রেখ দুটি আঁখি।
কবহু সে পিয়া যদি আসে বৃন্দাবনে,
পরান পাইব হাম পিয়া দরশনে।
"सखि ! मैं डूब मरुँगी, भला कह तो सही, कन्हैया जैसे गुणागार को मैं किसे दे जाऊँ ? परन्तु देख, राधा की देह को जला न देना, पानी में भी उसे प्रवाहित न करना, वह कृष्ण के विलास की देह है, उसे तमाल की ही डाल पर रखना; क्योंकि कृष्ण भी काले हैं और तमाल की डाल भी काली है ! काला रंग वह रंग है, जो मुझे पसंद है। बचपन से ही मैंने इस रंग से प्यार किया है। मेरा शरीर काले कृष्ण का है; मुझे इसे काले रंग से अलग न होने देंना !"
[सूफी-परम्परा का एक गीत है -
कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खाइयो मांस,
दोइ नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस।
इन पंक्तियों का मतलब है - हे काग ( कव्वा ) - तन के हर जगह का मांस खाना - पर आँखों का नहीं - क्योंकि मरने के बाद भी आँखों में पिया ( प्रभु ) मिलन की आस रहेगी ही रहेगी। सूफी मत में -(राधा-कृष्ण) प्रेमिका और प्रेमी से तात्त्पर्य - जीवात्मा और परमात्मा से ही रहता है , सो यहाँ पिया मिलन - हकीकत में प्रभु मिलन है।
The musicians sang Radha's words to a friend: O friend, I am dying! Surely I die. The anguish of being kept apart, From Krishna is more than I can bear. Alas! to whom then shall I leave, My priceless Treasure?
(Krishna) When I am dead, I beg you, do not burn my body; Do not cast it into the river. See that it is not given to the flames; Do not cast it into the water. In this body I played with Krishna. Bind my lifeless form, I beg you, To the black tamala's branches; Tie it to the tamala tree.
Touching tamala it touches black. Krishna is black, and black is tamala; Black is the colour that I love. From earliest childhood I have loved it. To the black Krishna my body belongs; Let it not lie apart from black!
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 82 ]
🔱🙏*श्रीराधा की मूर्छित दशा (समाधि) का वर्णन*🔱🙏
(श्रीमति की 10वीं दशा - वे मूर्छित हो गई है।)
শ্রীমতীর দশম দশা — মূর্ছিতা হইয়া পড়িয়াছেন।
गीत - धनि भेल मूर्छित, हारालो ज्ञान, (नाम कोरिते कोरिते) (हाट कि भांगली राई) (धनि केनो एमन होलो) (एई जे कोथा कोईते छिलो), केहो केहो चन्दन देय धनिर अंगे; केहो केहो रोउतो विषाद तरंगे। (साधेर प्राण जाबे बोले) केहो केहो जल ढाली देय राइयेर बदने (जोदि बाँचे) (जे कृष्ण अनुरागे मरे , से कि जले बाँचे।)
भावार्थ : "श्रीराधा मूर्छित हो गयी, ज्ञान जाता रहा (नाम जपते जपते) , जीवन की संगिनी ने आँखें भी मूँद लीं । (ऐसा कैसे हो गया ? अभी अभी तो बात कर रही थी ?) कोई सखी उनकी देह में चन्दन लगाती है और कोई दुःख के आँसू बहा रही है । कोई उसके मुँह पर जल-सिंचन भी करती है।
গান — ধনি ভেল মূরছিত, হরল গেয়ান, (নাম করিতে করিতে) (হাট কি ভাঙলি রাই) তখনই তো প্রাণসখি মুদলি নয়ান। (ধনি কেন এমন হল) (এই যে কথা কইতেছিল) কেহ কেহ চন্দন দেয় ধনির অঙ্গে; কেহ কেহ রোউত বিষাদতরঙ্গে। (সাধের প্রাণ যাবে বলে) কেহ কেহ জল ঢালি দেয় রাইয়ের বদনে (যদি বাঁচে) (যে কৃষ্ণ অনুরাগে মরে, সে কি জলে বাঁচে)।
"उन्हें मूर्छित देख सखियाँ कृष्ण का नाम ले रही हैं । कृष्ण का नाम सुन उन्हें चेतना हो आयी ! तमाल देखकर वे सोचती हैं कि कहीं कृष्ण तो सामने आकर नहीं खड़े हो गये ।
মূর্ছিতা দেখিয়া সখীরা কৃষ্ণনাম করিতেছেন। শ্যামনামে তাঁহার সংজ্ঞা হইল। তমাল দেখে ভাবছেন বুঝি সম্মুখে কৃষ্ণ এসেছেন।
गीत - श्यामनामे प्राण पेये , धनि इति ऊति चाय , ना देखि से चाँदमुख काँदे उभराय। (बोले , कोईरे श्रीदाम) (तोरा जार नाम सुनाईली कहे) (एकबार एने देखा गो) सम्मुखे तमाल तरु देखिबारे पाय। (तखन) सेई तमाल तरु कोरी निरीक्षण (बोले ओई जे चूड़ा) (आमार कृष्णेर ओई जे चूड़ा देखा जाय।)
গান — শ্যামনামে প্রাণ পেয়ে, ধনি ইতি উতি চায়, না দেখি সে চাঁদমুখ কাঁদে উভরায়। (বলে, কইরে শ্রীদাম) (তোরা যার নাম শুনাইলি কই) (একবার এনে দেখা গো) সম্মুখে তমাল তরু দেখিবারে পায়। (তখন) সেই তমালতরু করি নিরীক্ষণ (বলে ওই যে চূড়া) (আমার কৃষ্ণের ওই যে চূড়া দেখা যায়)।
"सखियों ने सलाह करके मथुरा में कृष्ण के पास एक दूती को भेजा |
সখীরা যুক্তি করিয়া মথুরায় দূতী পাঠাইয়াছেন। তিনি একজন মথুরাবাসিনীর সহিত পরিচয় করিলেন —
গান — এক রমণী সমবয়সিনী, নিজ পরিচয় পুছে। শ্রীমতীর সখী দূতী বলছেন — আমায় ডাকতে হবে না, সে আপনি আসবে। দূতী মথুরাবাসিনীর সঙ্গে যেখানে আছেন সেইখানে যাইতেছেন। তৎপরে ব্যাকুল হয় কেঁদে কেঁদে ডাকছেন —
गीत : एक रमणी समवयसिनी, निज परिचय पूछे। श्रीमतीर सखी दूती बोलछेन - आमाय डाकते होबे ना , से आपनी आसबे। दूती मथुरावासिनिर संगे जेखाने आछेन सेईखाने जाइतेछेन। ततपोरे व्याकुल होय केन्दे केन्दे डाकछेन -
भावार्थ - समवयस्क किसी मथुरानिवासिनी से उसका परिचय हो गया । गोपियों की दूती ने कहा, मुझे बुलाना न होगा, वह आप ही आ जायेंगे । जहाँ पर कृष्ण हैं, वहीं मथुरानिवासिनी के साथ वह दूती जा रही है । वह रास्ते में विकल हो, रोकर कृष्ण को पुकार रही है –
“কোথায় হরি হে, গোপীজনজীবন! প্রাণপল্লভ! রাধাবল্লভ! লজ্জানিবারণ হরি! একবার দেখা দাও। আমি অনেক গরব করে এদের বলেছি, তুমি আপনি দেখা দিবে।”
कोथाय हरि हे , गोपीजन-जीवन ! प्राण-पल्ल्भ ! राधाबल्ल्भ ! लज्जानिवारण हरि ! एकबार देखा दाओ। आमि अनेक गरव कोरे येदेर बोलेचि , तुमि आपनि देखा दिबे।
भावार्थ - 'हे गोपियों के जीवनाधार ! तुम कहाँ हो? - प्राणवल्लभ ! राधावल्लभ ! लज्जानिवारण हरि ! एक बार तो दर्शन दे दो । मैंने बड़ा गर्व करके इन लोगों से कहा है कि तुम आप ही मिलोगे।'
গান — মধুপুর নাগরী, হাঁসী কহত ফিরি, গোকুলে গোপ কোঁয়ারি (হায় গো) (কেমন করে বা যাবি গো) (এমন কাঙালিনী বেশ)। সপ্তম দ্বার পারে রাজা বৈঠত, তাঁহা কাঁহা যাওবি নারি। (কেমন করে বা যাবি) (তোর সাহস দেখে লাজে মরি বল কেমন যাবি)। হা হা নাগর গোপীজনজীবন (কাঁহা নাগর দেখা দিয়ে দাসীর প্রাণ রাখ!) (কোথায় গোপীজনজীবন প্রাণবল্লভ!) (হে মথুরনাথ, দেখা দিয়ে দাসীর মন প্রাণ রাখ হরি, হা হা রাধাবল্লভ!) (কোথায় আছ হে, হৃদয়নাথ হৃদয়বল্লভ লজ্জানিবারণ হরি) (দেখা দিয়ে দাসীর মান রাখ হরি)। হা হা নাগর গোপীজনজীবনধন, দূতী ডাকত উভরায়।
गीत - मधुपुर नागरी, हाँसी कोहते फिरि , गोकुले गोप कोंयारि (हाय गो) (केमन कोरे बा जाबी गो) (एमन काँगालिनी वेश।) सप्तम द्वार पारे राजा बइठत, ताँहा काँहा जाओबी नारि। (केमन कोरे बा जाबी) (तोर साहस देखे लाजे मरी, बोल केमन जाबी।) हा हा नागर गोपीजन-जीवन (काँहा नागर देखा दिये दासीर प्राण राखो !) (कोथाय गोपीजन-जीवन प्राणवल्ल्भ। ) (हे मथुरनाथ, देखा दिये दासीर मन प्राण राखो हरि, हा हा राधावल्ल्भ !) (कोथाय आछो हे, हृदयनाथ ह्रदयवल्ल्भ लज्जानिवारण हरि।) (देखा दिये दासीर मान राखो राखो हरि। ) हा हा नागर गोपीजन-जीवनधन, दूती डाकतो उभराय।
गाना "मधुपुर की नागरी हँसकर कहती है, ‘ऐ गोकुल की गोपकुमारी, सातवें द्वार के उस पार राजा रहते हैं, क्या तू वहाँ तक जायगी? और तू जायगी भी कैसे? तेरी हिम्मत देखकर तो मुझे लाज आती है ।’ उसकी ये बातें सुनकर दूती दुःखित हो कृष्ण को पुकारने लगी- 'हे गोपियों के जीवन ! हे नागर ! हाय, तुम कहाँ हो? दर्शन दे दासी के प्राणों की रक्षा करो ।’"
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 82 ]
🔱🙏ठाकुर का नामकीर्तन 'जय राधे गोविन्द जय राधे गोविन्द'🔱🙏
"हे गोपियों के जीवन ! तुम कहाँ हो ?" इतना सुनते ही श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये । अन्त में कीर्तनिये ऊँचे स्वर से कीर्तन गाने लगे । श्रीरामकृष्ण फिर खड़े हो गये । समाधिमग्न । कुछ होश आने पर अस्पष्ट स्वरों में कह रहे हैं - 'किट्न-किट्न'(कृष्ण कृष्ण), भाव में भरपूर मग्न हैं । पूरा नाम उच्चारण नहीं कर सकते ।
राधा-कृष्ण का मिलन गीत कीर्तनिये गा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण भी गाते हैं - “राधा खड़ी है, अंग झुकाये हुए, श्याम के बाईं ओर मानो तमाल को घेरकर ।"
अब नामकीर्तन होने लगा । खोल-करताल लेकर अब कीर्तनिये एक साथ गाने लगे । भक्तगण पागल से हो गये । श्रीरामकृष्ण नृत्य कर रहे हैं । उन्हें घेरकर भक्तगण भी आनन्द से नाच रहे हैं । सब लोग 'जय राधे गोविन्द जय राधे गोविन्द' कह रहे हैं ।
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 82 ]
🔱🙏सरलता और ईश्वरप्राप्ति - ईश्वर की सेवा और परिवार की सेवा🔱🙏
[সরলতা ও ঈশ্বরলাভ — ঈশ্বরের সেবা আর সংসারের সেবা]
कीर्तन हो जाने पर श्रीरामकृष्ण ने जरा देर के लिए आसन ग्रहण किया । इसी समय निरंजन आये और श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण उन्हें देखकर ही खड़े हो गये । आनन्द से श्रीरामकृष्ण की आँखें उज्ज्वल हो गयीं, कहा, "तू आ गया ! (मास्टर से) देखो, यह लड़का बड़ा सरल है । सरलता पूर्वजन्मार्जित बहुत बड़ी तपस्या का फल है । कपटाचार, पटवारी बुद्धि, इन सब के रहते ईश्वर-प्राप्ति नहीं होती ।
After the music the Master sat with the devotees. Just then Niranjan arrived and prostrated himself before him. At the very sight of this beloved disciple the Master stood up, with beaming eyes and smiling face, and said: "You have come too! (To M.) You see, this boy is absolutely guileless. One cannot be guileless without a great deal of spiritual discipline in previous births. A hypocritical and calculating mind can never attain God.
কীর্তনান্তে ঠাকুর ভক্তসঙ্গে একটু উপবেশন করিয়াছেন। এমন সময়ে নিরঞ্জন আসিয়া ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিলেন। ঠাকুর তাঁহাকে দেখিয়াই দাঁড়াইয়া উঠিলেন। আনন্দে বিস্ফারিত লোচনে সস্মিত মূখে বলিয়া উঠিলেন, “তুই এসেছিস!”(মাস্টারের প্রতি) — “দেখ, এ-ছোকরাটি বড় সরল। সরলতা পূর্বজন্মে অনেক তপস্যা না করলে হয় না। কপটতা, পাটোয়ারী — এ-সব থাকতে ঈশ্বরকে পাওয়া যায় না।
देखा नहीं, ईश्वर उसी वंश में अवतार लेते हैं जहाँ सरलता पायी जाती है । दशरथ कितने सरल थे ! नन्द - श्रीकृष्ण के पिता - कितने सरल थे ! अब भी आदमी कहते हैं, अहा ! कैसा सरल है - मानो नन्द घोष हो ।
"Don't you see that God incarnates Himself only in a family where innocence exists? How guileless Dasaratha was! So was Nanda, Krishna's father. There is a saying: 'Ah, how innocent a man he is! He is just like Nanda.'}
{“দেখছো না, ভগবান যেখানে অবতার হয়েছেন, সেখানেই সরলতা। দশরথ কত সরল। নন্দ — শ্রীকৃষ্ণের বাবা কত সরল। লোকে বলে, আহা কি স্বভাব, ঠিক যেন নন্দ ঘোষ!”
(निरंजन से) "देख, तेरे मुँह पर स्याही आ गयी है, तू आफिस का काम करता है न ? इसीलिए आफिस में हिसाबकिताब करना पड़ता होगा, और भी कितने ही तरह के काम होंगे ! सब समय सोचना पड़ता होगा ।
“संसारी आदमी जिस तरह नौकरी करते हैं, तू भी वैसे ही करता है, परन्तु कुछ भेद है । तूने अपनी माँ के लिए नौकरी की है । माँ गुरु है, ब्रह्ममयों की मूर्ति हैं अगर बीबी और बच्चों के लिए तू नौकरी करता तो मैं कहता 'तुझे धिक्कार है, सौ बार धिक्कार है ।'
(To Niranjan) "I feel as if a dark veil has covered your face. It is because you have accepted a job in an office. One must keep accounts there. Besides, one must attend to many other things, and that always keeps the mind in a state of worry. You are serving in an office like other worldly people; but there is a slight difference, in that you are earning money for the sake of your mother. One must show the highest respect to one's mother, for she is the very embodiment of the Blissful Mother of the Universe. If you had accepted the job for the sake of wife and children, I should have said: "Fie upon you! Shame! A thousand shames!'
শ্রীরামকৃষ্ণ (নিরঞ্জনের প্রতি) — দেখ, তোর মুখে যেন একটা কালো আবরণ পড়েছে। তুই আফিসের কাজ করিস কি না, তাই পড়েছে। আফিসের হিসাবপত্র করতে হয়, — আরও নানারকম কাজ আছে; সর্বদা ভাবতে হয়।“সংসারী লোকেরা যেমন চাকরি করে তুইও চাকরি করছিস। তবে একটু তফাত আছে। তুই মার জন্য চাকরি স্বীকার করেছিস।“মা গুরুজন ব্রহ্মময়ীস্বরূপা। যদি মাগছেলের জন্যে চাকরি করতিস, তাহলে আমি বলতুম, ধিক্! ধিক্! শত ধিক্! একশ ছি!
(मणि मल्लिक से) "देखो, यह लड़का बड़ा सरल है, परन्तु आजकल कुछ झूठ बोलने लगा है । यही इतना दोष है । उस दिन कह गया, आऊँगा, परन्तु फिर नहीं आया । (निरंजन से) इसी पर राखाल कहता था, एँड़ेदाह में आकर तूने क्यों नहीं भेंट की ?”
(To Mani Mallick, pointing to Niranjan) "Look at this boy. He is absolutely guileless. But he has one fault: he is slightly untruthful nowadays. The other day he said that he would visit me again very soon, but he didn't come. (To Niranjan) That is why Rakhal asked you why you didn't come to see me while you were at Ariadaha, so near Dakshineswar."
(মণি মল্লিকের প্রতি) — “দেখ, ছোকরাটি ভারী সরল। তবে আজকাল একটু-আধটু মিথ্যা কথা কয়, এই যা দোষ। সেদিন বলে গেল যে আসবে, কিন্তু আর এল না। (নিরঞ্জনের প্রতি) তাই রাখাল বলেছিল — তুই এঁড়েদয়ে এসেও দেখা করিস নাই কেন?”
निरंजन - मैं एँड़ेदाह में बस दो दिनों के लिए आया था ।
NIRANJAN: "I was there only a couple of days."
নিরঞ্জন — আমি এঁড়েদয়ে সবে দুদিন এসেছিলাম।
श्रीरामकृष्ण - (निरंजन से) - ये हेडमास्टर हैं । तुझसे मिलने गये थे । मैने भेजा था । (मास्टर से) क्या उस दिन बाबूराम को मेरे पास तुमने भेजा था ?
MASTER (to Niranjan, pointing to M.) "He is the headmaster of a school. At my bidding he went to see you. (To M.) Did you send Baburam to me the other day?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (নিরঞ্জনের প্রতি) — ইনি হেডমাস্টার! তোর সঙ্গে দেখা করতে গিছিলেন। আমি পাঠিয়েছিলাম। (মাস্টারের প্রতি) তুমি সেদিন বাবুরামকে আমার কাছে পাঠিয়ে দিয়েছিলে?
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 82 ]
🔱🙏श्रीराधाकृष्ण और गोपी प्रेम 🔱🙏
[শ্রীরাধাকৃষ্ণ ও গোপীপ্রেম]
श्रीरामकृष्ण पश्चिमवाले कमरे में दो-चार भक्तों के साथ बातचीत कर रहे हैं । उसी कमरे में कुछ टेबिल और कुर्सियाँ इकट्ठी की हुई रखी थीं । श्रीरामकृष्ण टेबिल के सहारे खड़े हैं ।
The Master went to an adjoining room and began to talk with some devotees there.
ঠাকুর পশ্চিমের কামরায় দু-চারজন ভক্তের সহিত কথাবার্তা কহিতেছেন। সেই ঘরে টেবিল-চেয়ার কয়েকখানা জড় করা ছিল।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) – अहा ! गोपियों का कैसा अनुराग है ! (अहा ! गोपियों के प्रेम में कितना जूनून था !) तमाल वृक्ष ^*देखकर प्रेम से विह्वल हो गयीं - एकदम प्रेमोन्माद ! श्रीराधा को विरहाग्नि इतनी प्रचण्ड थी कि आँख के आँसू भी उसके ताप में सूख जाते थे । पानी बनने से पहले ही वाष्प होकर उड़ जाते थे । कभी कभी दूसरे को उनके भाव का कुछ पता ही नहीं चलता था । बड़े तालाब में हाथी के धँसने पर भी दूसरों को पता नहीं चलता ।
MASTER (to M.): "Ah! How wonderful was the yearning of the gopis for Krishna! They were seized with divine madness at the very sight of the black tamala tree. Separation from Krishna created such a fire of anguish in Radha's heart that it dried up even the tears in her eyes! Her tears would disappear in steam. There were other times when nobody could notice the depth of her feeling. People do not notice the plunge of an elephant in a big lake."
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — আহা, গোপীদের কি অনুরাগ! তমাল দেখে একেবারে প্রেমোন্মাদ! শ্রীমতীর এরূপ বিরহানল যে চক্ষের জল সে আগুনের ঝাঁযে শুকিয়ে যেত — জল হতে হতে বাষ্প হয়ে উড়ে যেত। কখনও কখনও তাঁর ভাব কেউ টের পেত না। সায়ের দীঘিতে হাতি নামলে কেউ টের পায় না।
[हिन्दी साहित्य में तमाल का वृक्ष -बीस पचीस फुट ऊँचा यह बहुत सुंदर सदाबहार वृक्ष राधा-कृष्ण के अटूट प्रेम का प्रतीक माना जाता है। निधि वन में तमाल के वृक्ष कि छाया में भगवान श्रीकृष्ण राधा रानी मिला करते थे। ये वह वृक्ष है जिसको राधा कृष्ण की अनुपस्थिति में कृष्ण समझकर इससे मिला करती थीं। इस वृक्ष की बनावट कुछ इस प्रकार की है कि इस वृक्ष की हर टहनी एक-दूसरी टहनी के साथ ऊपर जाकर मिल जाती है। इस वृक्ष की टहनियां जैसे-जैसे ऊपर की ओर बढ़ती है तो वे एक दूसरी के साथ लिपट जाती है। वृंदावन में निधिवन वन के अतिरिक्त कुरुक्षेत्र के राधाकृष्ण मिलन मन्दिर में पाया जाता है। यही वृक्ष कुरुक्षेत्र में राधा और कृष्ण की लीलाओं को संजोये हुए है। वर्ष में एक खास तरह के फूल इस वृक्ष पर आते हैं जिनकी सुगंध न केवल मंदिर परिसर बल्कि आसपास के वातावरण को भी सुगंधित कर देती है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अनुप्रास अलंकार का प्रयोग करते हुए लिखा है -
तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये
झुके कूल सों जल परसन हित मनहुँ सुहाये।
तरणि- तनुजा यानी सूर्य की पुत्री और यम की बहन यमुना के तट पर बहुत सारे ऊँचे घने तमाल के वृक्ष छाये हुए हैं;काली कालिंदी को इसी ने अपनी घनी काली छाया से और काला भँवर बना दिया है। वे तमाल के वृक्ष मानो झुक-झुक कर जल का स्पर्श करने की चेष्टा कर रहे हों। या उस जल के दर्पण में अपनी शोभा निहार रहे हों, या यमुना के जल को अत्यन्त पावन जानकर उसे प्रणाम कर रहे हों।
महाकवि रसखान कहते हैं - निर्गुण ब्रह्म के उपासक जिस ब्रह्म (परम् सत्य) को ढूँढ-ढूँढ़कर थक जाते हैं और वह कहीं नहीं मिलता। श्रुति-स्मृति भी जिसका वर्णन करने में नेति नेति कहकर कन्नी काट लेती हैं। लेकिन सगुण उपासक को वही ब्रह्म यमुना तट पर सहज ही मिल जाता है, यहीं वृंदावन में, तमाल तले, माधवी कुंज में मानिनी राधा की मनुहार करते हुए --
ब्रह्म मै ढूँढ्यौ पुरानन गानन वेद-रिचा सुनि चौगुने चायन।
देख्यौ सुन्यौ कबहूँ न कितूँ वह कैसे सरूप औ कैसे सुभायन।
टेरत हेतर हारि पर्यौ रसखानि बतायौ न लोग लुगायन।
देखौ दुरौ वह कुंज-कुटीर मै बैठौ पलोटत राधिका पायन॥
कवि रसखान कहते हैं कि मैंने ब्रह्म को पुराणों के गीतों में ढूँढ़ा, वेद-ऋचाओं को चौगुने चाव से इसीलिए सुना कि शायद उन्हीं से ब्रह्म का पता चल जाए। मेरे सारे प्रयत्न निष्फल हुए। मैंने उसे न तो कहीं सुना और न कहीं देखा। मैं यह भी नहीं जान पाया कि उसका स्वरूप और स्वभाव कैसा है। उसे पुकारते हुए, उसकी खोज करते हुए मैं थक गया और किसी भी पुरुष या स्त्री ने उनका पता नहीं बताया। अंत में वह मुझे कुंज-कुटीर में छिपकर बैठे हुए राधा के पैरों को दबाता हुआ दिखाई दिया। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था, “इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए” उनमें “रसखान” का नाम सर्वोपरि है। ]
ऊँचे -ऊँचे तमाल वृक्षों के बीच से जो पगडण्डी दिखाई देती है उसी से होकर दिन भर के गोचारण से क्लांत गोपाल कृष्ण बस आने ही वाले हैं। राधा-कृष्ण के दिव्य अलौकिक प्रेम का आधार है यह यमुना-तट। यह वंशी-वट, जहाँ शरद ऋतु के पूर्ण चन्द्र की चाँदनी में महारास का आयोजन हुआ था। यह कदम्ब, जिस पर झूला पड़ा था और राधा प्यारी और कृष्ण मुरारी बारी-बारी झूले थे। और यह तमाल, जो उनकी लीला-कथा का प्रथम साक्षी बना था। कृष्ण के अनन्य उपासक चैतन्य महाप्रभु को श्यामल तमाल में घनश्याम की प्रतीति होती है और वे तमाल तले समाधिस्थ हो जाते हैं, कुछ वैसे ही जैसे कोसों दूर से जगन्नाथ मंदिर की ध्वजा देखकर हो गये थे। पुराणों में यमुना को सूर्य की पुत्री बताया गया है और यम को उनका भाई। दीवाली के बाद जो भाई-दूज आती है, उसे यम-द्वितीया भी कहते हैं। मिथिलांचल में भाई को टीका करते समय कहा जाता है - यमुना न्योतेछि यम के, हम न्योतेछि भाई के। लेकिन विडम्बना देखिये हम तमाल को भूल गये हैं।
कवि परिचय – रसखान (जन्म: १५४८ ई) कृष्ण भक्त कवि थे। हिन्दी के कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन रीतिमुक्त कवियों में रसखान का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे विट्ठलनाथ के शिष्य थे एवं वल्लभ संप्रदाय के सदस्य थे। रसखान को ‘रस की खान’ कहा गया है।
🔱🙏ब्यापक ब्रह्म सबै थल पूरन हैं हमहूँ पहिचानती हैं।
पै बिना नंदलाल बिहाल सदा ‘हरिचन्द’ न ज्ञानहिं ठानती हैं।
तुम ऊधौ यहै कहियो उनसों हम और कछू नहिं जानती हैं।
पिय प्यारे तिहारे निहारे बिना अँखियाँ दुखियाँ नहिं मानती हैं।।
गोपियाँ, उद्धव से यह कह रही हैं कि उन्हें भी यह अच्छी तरह से मालूम है कि ब्रह्म सम्पूर्ण विश्व के कण-कण में व्याप्त है, किन्तु उन्हें नन्दलाल (कृष्ण) के बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। कवि हरिश्चन्द्र कह रहे हैं कि वे ज्ञान मार्ग को महत्त्व नहीं देती हैं। (ब्रह्म को पाने के तीन मार्ग हैं-ज्ञान, कर्म एवं भक्ति।) गोपियाँ भक्ति के द्वारा कृष्ण को पाना चाहती हैं, ज्ञान के द्वारा नहीं। इसलिए वे उद्धव से कहती हैं कि वे कृष्ण से यह कह दें कि वे उनकी भक्ति करने के अतिरिक्त उनको पाने के अन्य किसी भी मार्ग को नहीं जानती। कृष्ण को देखे बिना उनकी दुःखी आँखें किसी प्रकार सन्तुष्ट नहीं होंगी एवं उनके मनाने से भी नहीं मानेंगी। अतः वे कृष्ण को उनसे मिलने के लिए भेज दें, उनकी दुखियाँ आँखों को कृष्ण से मिलने की प्रतीक्षा है।
‘ब्यापक ब्रह्म’, ‘नँदलाल बिहाल’, ‘प्यारे तिहारे निहारे व अँखियाँ दुखियाँ’ में क्रमश: ‘ब’, ‘ल’, ‘र’, ‘य’ वर्ण की आवृत्ति होने के कारण अनुप्रास अलंकार है।गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि वे कृष्ण से जाकर कह दें कि उनके पास उन्हें पाने के लिए उनकी भक्ति करने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है और न ही वे किसी अन्य मार्ग को जानती हैं। अत: श्रीकृष्ण उनकी प्रतीक्षा में बैठी उनकी दुखियाँ आँखों (गोपियों) को दर्शन देकर सन्तुष्ट करें।गोपियाँ कृष्ण को ज्ञानमार्गीय भक्ति से नहीं, अपितु उनके सगुण रूप की उपासना एवं उनके साक्षात् दर्शन करके पाना चाहती हैं। गोपियाँ ईश्वर की प्राप्ति हेतु ज्ञान मार्ग की अपेक्षा सगुण भक्ति मार्ग को अधिक महत्त्व देती हैं। इसके पक्ष में वे तर्क देते हुए कहती हैं कि अवश्य ही ईश्वर प्रत्येक कण में विद्यमान है, किन्तु उनके लिए ईश्वर प्राप्ति का । एकमात्र मार्ग सगुण भक्ति मार्ग है। गोपियाँ श्रीकृष्ण से अत्यधिक प्रेम करती हैं और उनकी भक्ति को ही जीवन का आधार मानती हैं। वे कहती हैं कि कृष्ण को देखे बिना उनकी आँखें सन्तुष्ट नहीं होती और वे उनके दर्शनों की प्रतीक्षा के लिए लालायित रहती हैं। गोपियों के ये भाव कृष्ण के प्रति उनकें प्रेम को उजागर करते हैं।
(चुगल- परोक्ष में दूसरे की मिंदा करनेवाला । पीठ पीछे शिकायत करनेवाला । इधर की उधर लगानेवाला । लुतरा ।)
कहा करै रसखानि को, को चुगुल लबार।
जो पै राखनहार हे, माखन-चाखनहार।।4।।
सेष, गनेस, महेस, दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावैं।
जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सुबेद बतावैं।
नारद से सुक ब्यास रहैं पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं।।8।।
इस रचना में रसखान ने कहा कि जिसके इशारे पर संसार चलता, नाचता है, देवता स्तुति गान करते नहीं थकते,नारद जी से लेकर महाकवि व्यास जी तक उनके आलौकिक रूप का वर्णन नहीं कर पाते, आज उस बालक श्रीकृष्ण को अहीर की बालाएं थोड़े से छाछ के लिए नचा रही हैं! यह प्रसंग आज भी सम सामयिक है।
श्रीकृष्ण तो कण कण में व्याप्त हैं।हम में ,आप में ,सब में। सारी प्रजा ही श्री विष्णु ! पर तत्व प्रश्न यह कि फिर राजा कौन? राजा तो श्रीहरि हैं । पर नाच कौन नचा रहा और छाछ का क्या रहस्य?
लाय समाधि रहे ब्रह्मादिक योगी भये पर अंत न पावैं।
साँझ ते भोरहिं भोर ते साँझति सेस सदा नित नाम जपावैं।
ढूँढ़ फिरै तिरलोक में साख सुनारद लै कर बीन बजावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं।।10।।
है छल की अप्रतीत की मूरति मोद बढ़ावै विनोद कलाम में।
हाथ न ऐसे कछू रसखान तू क्यों बहकै विष पीवत काम में।
है कुच कंचन के कलसा न ये आम की गाँठ मठीक की चाम में।
बैनी नहीं मृगनैनिन की ये नसैनी लगी यमराज के धाम में।।25।।
मोहन छबि रसखानि लखि, अब दृग अपने नाहिं।
ऐंचे आवत धनुष से, छूटे सर से जाहिं।।51।।
वह नंद को साँवरो छैल अली अब तौ अति ही इतरान लग्यौ।
नित घाटन बाटन कुंजन मैं मोहिं देखत ही नियरान लग्यौ।
रसखानि बखान कहा करियै तकि सैननि सों मुसकान लग्यौ।
तिरछी बरखी सम मारत है दृग-बान कमान मुकान लग्यौ।।69।।
(साँवरो=सांवरे रंग का, छैल=सुन्दर,बांका, अली=सखि, अति=अधिक,
इतरान=इतराना,मान करना, घाटन=घाट पर, बाटन=रासते में, कुंजन=
वृक्षों के झुंडों में, नियरान=नजदीक,पास आना, बखान=कहना, तकि=
देख कर, सैननि=इशारे, बरखी=बर्छी, सम=की तरह, दृग-बान=आंखों
के तीर, मुकान=कान तक खींच कर)
कान्ह भये बस बाँसुरी के, अब कौन सखी हमको चहिहै।
निसि द्यौस रहे यह आस लगी, यह सौतिन सांसत को सहिहै।
जिन मोहि लियो मनमोहन को, 'रसखानि' सु क्यों न हमैं दहिहै।
मिलि आवो सबै कहुं भाग चलैं, अब तो ब्रज में बाँसुरी रहिहै।।118।।
(भये=हो गए, बस=वश में, चहिहै=चाहेगा,प्यार करेगा, निसि द्यौस=
रात-दिन, सौतिन सांसत=सौत प्रति ईर्ष्या, सहिहै=सहना,बर्दाश्त करना,
मोहि लियो=वश में कर लिया, दहिहै=आग लगाना, मिलि=मिलकर,
कहुं=कहीं और,ब्रज छोड़ कर, बाँसुरी रहिहै=बांसुरी ही रहेगी)]
मास्टर - जी हाँ । गौरांग का भी यही हाल था । वन देखकर उन्होंने उसे वृन्दावन सोचा था और समुद्र देखकर यमुना ।
{M: "Yes, sir, that is true. Chaitanya, too, experienced a similar feeling. He mistook a forest for the sacred grove of Vrindavan, and the dark water of the ocean for the blue Jamuna."}
মাস্টার — আজ্ঞে হাঁ, গৌরাঙ্গেরও ওইরকম হয়েছিল। বন দেখে বৃন্দাবন ভেবেছিলেন, সমুদ্র দেখে যমুনা ভেবেছিলেন —
श्रीरामकृष्ण – अहा ! उस प्रेम का एक बूँद भी अगर किसी को हो - कैसा अनुराग ! कैसा प्यार ! सिर्फ सोलह आने अनुराग नहीं, पाँच चवन्नी और पाँच आने । दिव्य प्रेम (divine love) इसी का नाम है । बात यह है कि उन्हें [मनुष्य मात्र में प्रेममय नवनीदा को देखकर] प्यार करना चाहिए । तो फिर तुम चाहे जिस मार्ग पर रहो, साकार पर ही विश्वास करो या निराकार पर - ईश्वर मनुष्य के रूप में अवतार लेते हैं इस बात पर चाहे विश्वास करो या न करो - उन पर (प्रेममय नवनीदा पर) अनुराग रहने से ही काफी है । तब वे खुद समझा देंगे कि वे कैसे हैं ।
"Ah! If anyone has but a particle of such prema! What yearning! What love! Radha possessed not only one hundred per cent of divine love, but one hundred and twenty-five per cent. This is what it means to be intoxicated with ecstatic love of God. The sum and substance of the whole matter is that a man must love God, must be restless for Him. It doesn't matter whether you believe in God with form or in God without form. You may or may not believe that God incarnates Himself as man. But you will realize Him if you have that yearning. Then He Himself will let you know what He is like. If you must be mad, why should you be mad for the things of the world? It you must be mad, be mad for God alone."
{শ্রীরামকৃষ্ণ — আহা, সেই প্রেমের যদি একবিন্দু কারু হয়! কি অনুরাগ! কি ভালবাসা! শুধু ষোল আনা অনুরাগ নয়, পাঁচ সিকা পাঁচ আনা! এরই নাম প্রেমোন্মাদ। কথাটা এই তাঁকে ভালবাসতে হবে। তাঁর জন্য ব্যাকুল হতে হবে। তা তুমি যে পথেই থাক, সাকারেই বিশ্বাস কর বা নিরাকারেই বিশ্বাস কর, — ভগবান মানুষ হয়ে অবতার হন, এ-কথা বিশ্বাস কর আর না কর; — তাঁতে অনুরাগ থাকলেই হল। তখন তিনি যে কেমন, নিজেই জানিয়ে দেবেন।
"अगर पागल ही होना है, तो संसार की चीज (कामिनी -कांचन, नाम-यश आदि) लेकर क्यों पागल होते हो ? पागल होना है, तो ईश्वर (ठाकुर या प्रेममय नेता नवनीदा) के लिए पागल बनो ।"
{If you must be mad, why should you be mad for the things of the world? It you must be mad, be mad for God alone."}
“যদি পাগল হতে হয়, সংসারের জিনিস লয়ে কেন পাগল হবে? যদি পাগল হতে হয়, তবে ঈশ্বরের জন্য পাগল হও!”
(४)
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 82 ]
*भवनाथ, महिमा आदि भक्तों के साथ हरिकथा-प्रसंग*
🔱🙏'ऊँ, तत् सत् काली ' अर्थात मेरे नेता नवनीदा ही परम् सत्य हैं 🔱🙏
श्रीरामकृष्ण हॉलवाले कमरे में आये । उनके बैठने के आसन के पास एक तकिया लगा दिया गया । श्रीरामकृष्ण ने बैठते समय ‘ॐ तत् सत’ इस मन्त्र का उच्चारण करके तकिये को स्पर्श किया । विषयी लोग इस बगीचे में आया-जाया करते हैं और ये सब तकिये वे अपने काम में लाते हैं, इसीलिए शायद श्रीरामकृष्ण ने उस मन्त्र का उच्चारण कर तकिये को शुद्ध कर लिया । भवनाथ, मास्टर आदि उनके पास बैठे हैं ।
[Presently Sri Ramakrishna returned to the main hall of the house. A big pillow was placed near him for his use. Before touching it he said, "Om Tat Sat."1 Perhaps the pillow had been used by many worldly people, and that was why he purified it in this way.
[^गीता (17.23) में कहा गया है - " तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।" 'ऊँ, तत् सत्' ऐसा यह ब्रह्म का तीन प्रकार का नाम (निर्देश-वाचक) कहा गया है; उसी से आदिकाल में (पुरा) ब्राह्मण आदि समस्त वर्ण, वेद और यज्ञ निर्मित हुए हैं। अहंकार के नाश के लिए साधक को अपनी आध्यात्मिक प्रतिष्ठा का बोध (होश -चैतन्य) होना आवश्यक है। ॐ उस आत्मतत्त्व का प्रतीक है जो अजन्मा, अविनाशी, सर्व उपाधियों के अतीत और शरीरादि उपाधियों का अधिष्ठान है। तत् उस परम सत्य को इंगित करता है, जो सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति , स्थिति और लय का स्थान है। अर्थात् जगत्कारण ब्रह्म तत् शब्द के द्वारा इंगित किया गया है। सत् का अर्थ त्रिकाल अबाधित सत्ता। यह सत्स्वरूप सर्वत्र व्याप्त है। इस प्रकार ॐ तत्सत् इन तीन शब्दों के द्वारा विश्वातीत, विश्व,कारण और विश्व व्यापक परमात्मा का स्मरण करना ही उसके साथ तादात्म्य करना है। ईश्वर स्मरण से हमारे कर्म शुद्ध हो जाते हैं। ॐ तत्सत् द्वारा निर्दिष्ट ब्रह्म से ही समस्त वर्ण, धर्म, वेद और यज्ञ उत्पन्न हुए हैं।
यह ॐ तत्सत् हिंदू धर्म का एक पवित्र मंत्र है जिसका अर्थ है "मेरे इष्टदेव श्री ठाकुर जी ही परम् सत्य हैं !" "^A sacred formula of the Hindu religion, meaning, "The Lord is the only Reality."]
समय बहुत हो गया है, परन्तु भोजन आदि का बन्दोबस्त अभी तक नहीं हुआ । श्रीरामकृष्ण बालक स्वभाव हैं । कहा, 'क्यों जी, अभी तक कुछ देता क्यों नहीं ? नरेन्द्र कहाँ है ?’
It was getting late, but there was no indication that the meal was going to be served. The Master became impatient, like a child, and said: "I don't see any sign of food. What's the matter? Where is Narendra?"
বেলা অনেক হইয়াছে, এখনও খাওয়া-দাওয়ার আয়োজন হয় নাই। ঠাকুর বালক স্বভাব। বলিলেন, “কইগো, এখনও যে দেয় না। নরেন্দ্র কোথায়?”
एक भक्त - (श्रीरामकृष्ण के प्रति, सहास्य) - महाराज, अध्यक्ष रामबाबू हैं, वे ही सब देखभाल करते हैं। (सब हँसते हैं ।)
A DEVOTEE (with a smile): "Sir, Ram Babu is the manager of the feast. He is superintending everything."
একজন ভক্ত (ঠাকুরের প্রতি সহাস্যে) — মহাশয়! রামবাবু অধ্যক্ষ। তিনি সব দেখছেন। (সকলের হাস্য)
श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए) - राम अध्यक्ष है, तब तो हो चुका ।
MASTER (laughing): "Oh, Ram is the manager! Then we know what to expect."
শ্রীরামকৃষ্ণ (হাসিতে হাসিতে) — রাম অধ্যক্ষ! তবেই হয়েছে!
एक भक्त - जी रामबाबू जहाँ अध्यक्ष होते हैं, वहाँ प्रायः यही हाल हुआ करता है । (सब हँसते हैं ।)
A DEVOTEE: "Things like this always happen when he is the supervisor." (All laugh.)
একজন ভক্ত — আজ্ঞা, রামবাবু যেখানে অধ্যক্ষ, সেখানে এইরকমই হয়ে থাকে। (সকলের হাস্য)
श्रीरामकृष्ण - (भक्तों से) - सुरेन्द्र कहाँ है, अहा, सुरेन्द्र का स्वभाव बहुत ही अच्छा हो गया है । बड़ा स्पष्टवक्ता है, बोलते समय किसी से दबता नहीं । और देखो, मुक्तहस्त भी है । कोई उसके पास सहायता के लिए जाता है, तो उसे खाली हाथ नहीं लौटाता । (मास्टर से) तुम भगवानदास के (वैष्णव भक्त) पास गये थे, उनके बारे में क्या राय है ?
MASTER (to the devotees): "Where is Surendra? What a nice disposition he has now! He is very outspoken; he isn't afraid to speak the truth. He is unstinting in his liberality. No one that goes to him for help comes away empty-handed. (To M.) You went to Bhagavan Das.(A great Vaishnava devotee.) What sort of man is he?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — সুরেন্দ্র কোথায়? আহা, সুরেন্দ্রের বেশ স্বভাবটি হয়েছে। বড় স্পষ্ট বক্তা, কারুকে ভয় করে কথা কয় না। আর দেখ খুব মুক্তহস্ত। কেউ তার কাছে সাহায্যের জন্য গেলে শুধুহাতে ফেরে না। (মাস্টরের প্রতি) তুমি ভগবানদাসের কাছে গিয়েছিলে, কিরকম দেখলে?
मास्टर - जी, मैं कालना गया था । भगवानदास बहुत वृद्ध हो गये हैं, रात में भेंट हुई थी । जाजम पर लेटे हुए थे । एक आदमी प्रसाद ले आया और खिलाने लगा । जोर से बोलने पर सुनते हैं । आपका नाम सुनकर कहने लगे, तुम लोगों को अब क्या चिन्ता है ? "उस घर में नाम-ब्रह्म की पूजा होती है ।"
M: "He is very old now. I saw him at Kalna. It was night. He lay on a carpet and a devotee fed him with food that had been offered to God. He can hear only if one speaks loudly into his ear. Hearing me mention your name he said, 'You have nothing to worry about.'"
মাস্টার — আজ্ঞা, কালনায় গিয়েছিলাম। ভগবানদাস খুব বুড়ো হয়েছেন। রাত্রে দেখা হয়েছিল, কাঁথার উপর শুয়েছিলেন। প্রসাদ এনে একজন খাইয়ে দিতে লাগল। চেঁচিয়ে কথা কইলে শুনতে পান। আপনার নাম শুনে বলতে লাগলেন, তোমাদের আর ভাবনা কি?“সেই বাড়িতে নাম-ব্রহ্মের পূজা হয়।”
भवनाथ - (मास्टर से) - आप बहुत दिनों से दक्षिणेश्वर नहीं गये । वे दक्षिणेश्वर में मुझसे आपके सम्बन्ध में पूछताछ किया करते थे और कहा था, मास्टर को अरुचि हो गयी क्या ?
BHAVANATH (to M.): "You haven't been to Dakshineswar for a long time. The Master asked me about you and said one day, 'Has M. lost all taste for this place?'"
ভবনাথ (মাস্টারের প্রতি) — আপনি অনেকদিন দক্ষিণেশ্বরে যান নাই। ইনি আমাকে দক্ষিণেশ্বরে আপনার বিষয় জিজ্ঞাসা করছিলেন, আর বলছিলেন যে, মাস্টারের কি অরুচি হয়ে গেল।
यह कहकर भवनाथ हँसने लगे । श्रीरामकृष्ण दोनों की बातचीत सुन रहे थे, फिर मास्टर की ओर स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखकर बोले, "क्यों जी, बहुत दिन तक तुम वहाँ (दक्षिणेश्वर !) गये क्यों नहीं?” मास्टर इसका कुछ जवाब न दे सके ।
Bhavanath laughed as he said these words. The Master heard their conversation and said to M. in a loving voice: "Yes, that is true. Why haven't you been to Dakshineswar for such a long time?" M. could only stammer some lame excuses.
এই বলিয়া ভবনাথ হাসিতে লাগিলেন। ঠাকুর উভয়ের কথোপকথন সমস্ত শুনিতেছিলেন। মাস্টারের প্রতি সস্নেহে দৃষ্টি করিয়া বলিতেছেন, হ্যাঁ গো, তুমি অনেকদিন যাও নাই কেন বল দেখি? মাস্টার তো তো করিতে লাগিলেন।
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[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔱🙏महामण्डल छोटी नौका, मिशन बड़ा जहाज है🔱🙏
इसी समय महिमाचरण आ पहुंचे । महिमाचरण काशीपुर में रहते हैं । [महिमाचरण चक्रवर्ती, (100 नंबर काशीपुर रोड, C-IN-C नवनीदा का जन्मस्थान] श्रीरामकृष्ण पर इनकी बड़ी भक्ति है और सर्वदा ये दक्षिणेश्वर आया-जाया करते हैं । ब्राह्मण के लड़के हैं, कुछ पैतृक सम्पत्ति भी है । स्वाधीन रहते हैं, किसी की नौकरी नहीं करते । सारे समय शास्त्राध्ययन और ईश्वर चिन्तन किया करते हैं । कुछ पाण्डित्य भी है, अंग्रेजी और संस्कृत के बहुत से ग्रन्थों का अध्ययन किया है ।
Just then Mahimacharan arrived. He lived at Cossipore near Calcutta. Mahimacharan held the Master in great respect and was a frequent visitor at the temple garden. He was a man of independent means, having inherited some ancestral property. He devoted his time to religious thought and to the study of the scriptures. He was a man of some scholarship, having studied many books, both Sanskrit and English.
[মহিমাচরণ চক্রবর্তী — কাশীপুরনিবাসী মহিমাচরণ বেদান্ত চর্চা করিতেন। তিনি শ্রীরামকৃষ্ণকে অত্যন্ত শ্রদ্ধা করিতেন এবং প্রায়ই দক্ষিণেশ্বরে আসিতেন। ধর্মীয় চিন্তায়, শাস্ত্রাদি অধ্যয়নে তিনি সময় কাটাইতেন। সংস্কৃত, ইংরাজীতে বহুগ্রন্থ পড়িয়া তিনি পাণ্ডিত্য অর্জন করিয়াছিলেন। তাঁহার অনেক গুণ ছিল। কিন্তু তিনি যে বিদ্বান বুদ্ধিমান, ধার্মিক উদার এবং বহুগুণের-সমাবেশ তাঁহার মধ্যে আছে — ইহা সকলের চোখের সামনে তুলিয়া ধরিবার জন্য যে ব্যগ্রতা প্রকাশ করিতেন, ইহা তাঁহাকে অনেকের কাছে হাস্যাস্পদ করিয়া তুলিত। নরেন্দ্রনাথ ও গিরিশ তাঁহার সহিত তর্ক করিতেন। একটি অবৈতনিক বিদ্যালয় প্রতিষ্ঠা করিয়া সাধারণের মধ্যে শিক্ষা বিস্তার করিয়াছিলেন। তাঁহার বাড়িতে অন্নপূর্ণা মূর্তি প্রতিষ্ঠিত ছিল। একটি বিরাট গ্রন্থাগারও তাঁহার ছিল। শ্রীশ্রীঠাকুর তাঁহাকে ভক্তিমার্গের কথাপ্রসঙ্গে বহুবার নারদ পঞ্চরাত্রের শ্লোক আবৃত্তি করাইয়াছিলেন।]
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य, महिमाचरण से) - यह क्या ! यहाँ तो जहाज आ गया ! (सब हँसते हैं ।) इन सब स्थानों में तो डोंगे ही आ सकते हैं, यह तो एकदम जहाज आ गया । (सब हँसे।) परन्तु एक बात है। यह आषाढ़ का महीना है । (सब हँसते हैं ।)
MASTER (to Mahima): "What is this? I see a steamship here. (All laugh.) We expect here a small boat at the most, but a real steamship has arrived. But then I know. It's the rainy season!" (Laughter.)
[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে, মহিমার প্রতি) — একি! এখানে জাহাজ এসে উপস্থিত। (সকলের হাস্য) এমন জায়গায় ডিঙি-টিঙি আসতে পারে; এ যে একেবারে জাহাজ! (সকলের হাস্য) তবে একটা কথা আছে — এটা আষাঢ় মাস। (সকলের হাস্য)
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔱🙏घोर विषयासक्त लोगों को घर में बुलाकर भोजन नहीं कराना चाहिये🔱🙏
महिमाचरण के साथ कितनी ही तरह की बातें हो रही हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (महिमा के प्रति) - अच्छा, बताओं, लोगों को खिलाना एक तरह से उन्हीं की सेवा नहीं है? - सब जीवों के भीतर वे अग्नि के रूप से विराजमान हैं । खिलाना अर्थात् उनमें आहुति देना ।
"परन्तु इसलिए बुरे आदमी को न खिलाना चाहिए - ऐसे आदमी जिन्होंने व्यभिचार आदि महापातक किया हो । घोर विषयासक्त आदमी जहाँ बैठकर भोजन करते हैं, वहाँ सात हाथ तक की मिट्टी अपवित्र हो जाती है । "हृदय ने सिऊड़ में एक बार कुछ आदमियों को भोजन कराया था । उनमें अधिकांश मनुष्य बुरे थे । मैंने कहा, 'देख हृदय, उन्हें अगर तू खिलायेगा तो मैं तेरे घर एक क्षण भी न ठहरूँगा ।' (महिमा से) - अच्छा, मैंने सुना है, पहले लोगों को तुम बहुत खिलाते-पिलाते थे । अब शायद खर्च बढ़ गया है !" (सब हँसते हैं )
The Master was conversing with Mahimacharan. He asked him: "Isn't feeding people a kind of service to God? God exists in all beings as fire. To feed people is to offer oblations to that Indwelling Spirit. But then one shouldn't feed the wicked, I mean people who are entangled in gross worldliness or who have committed heinous crimes like adultery. Even the ground where such people sit becomes impure to a depth of seven cubits. Once Hriday fed a number of people at his native place. A good many of them were wicked. I said to Hriday: 'Look here. If you feed such people I shall leave your house at once.' (To Mahima) I hear that you used to feed people; but now you don't give any such feasts. Is it because your expenses have gone up?" (Laughter.)
[মহিমাচরণের সঙ্গে অনেক কথাবার্তা হইতেছে।শ্রীরামকৃষ্ণ (মহিমার প্রতি) — আচ্ছা, লোককে খাওয়ানো একরকম তাঁরই সেবা করা, কি বল? সব জীবের ভিতরে তিনি অগ্নিরূপে রয়েছেন। খাওয়ানো কিনা, তাঁকে আহুতি দেওয়া।“কিন্তু তা বলে অসৎ লোককে খাওয়াতে নাই। এমন লোক, যারা ব্যভিচারাদি মহাপাতক করেছে — ঘোর বিষয়াসক্ত লোক, এরা যেখানে বসে খায়, সে জায়গায় সাত হাত মাটি অপবিত্র হয়।“হৃদে সিওড়ে একবার লোক খাইয়েছিল। তাদের মধ্যে অনেকেই খারাপ লোক। আমি বললুম, ‘দেখ হৃদে, ওদের যদি তুই খাওয়াস, তবে এই তোর বাড়ি থেকে চললুম।’ (মহিমার প্রতি) — আচ্ছা, আমি শুনেছি, তুমি আগে লোকদের খুব খাওয়াতে, এখন বুঝি খরচা বেড়ে গেছে?” (সকলের হাস্য)
अब पत्तल पड़ रहे हैं - दक्षिणवाले बरामदे में । श्रीरामकृष्ण महिमाचरण से कह रहे हैं, “तुम एक बार जाओ, देखो वे सब क्या कर रहे हैं । और तुमसे मैं कह नहीं सकता, परन्तु जी में आ जाय तो परोस भी देना ।" "सामान ले आया जाय, परोसने की बात तो तब है !" - यह कहकर महिमाचरण लम्बे डग से दालान की ओर चले गये, फिर कुछ देर बाद लौटकर आ गये । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ आनन्दपूर्वक भोजन कर रहे हैं ।
The meal was to be served on the south verandah of the house. Leaf-plates were being placed on the floor. The Master said to Mahimacharan: "Please go there and see what they are doing. You may help them a little in serving the food. But I shouldn't ask you." Mahimacharan said: "Let them bring in the food. I shall see." Hemming and hawing, he went toward the kitchen, but presently he came back.
[এইবার পাতা হইতেছে। দক্ষিণের বারান্দায়। ঠাকুর মহিমাচরণকে বলিতেছেন, আপনি একবার যাও, দেখো ওরা সব কি করছে। আর আপনাকে আমি বলতে পারি না, না হয় একটু পরিবেশন করলে? মহিমাচরণ বলিতেছেন, “নিয়ে আসুক না তারপর দেখা যাবে,” এই বলিয়া ‘হুঁ হুঁ করিয়া একটু দালানের দিকে গেলেন, কিন্তু কিয়ৎক্ষণ পরে ফিরিয়া আসিলেন।
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔱🙏केशव चन्द्र सेन के जीवन का उद्देश्य गृहस्थों को धर्म से परिचित कराना था🔱🙏
भोजन के पश्चात् घर में आकर श्रीरामकृष्ण विश्राम करने लगे । भक्तगण भी दक्षिणवाले तालाब में हाथ-मुँह धोकर पान खाते हुए फिर श्रीरामकृष्ण के पास आ गये । सब ने आसन ग्रहण किया ।दो बजे के बाद प्रताप आये । ये एक ब्राह्मभक्त हैं । आकर श्रीरामकृष्ण को नमस्कार किया । श्रीरामकृष्ण ने भी सिर झुकाकर नमस्कार किया । प्रताप के साथ बहुत सी बातें हो रही हैं ।
Sri Ramakrishna and the devotees enjoyed the meal greatly. Afterwards he rested awhile. About two o'clock in the afternoon Pratap Chandra Mazumdar of the Brahmo Samaj arrived. He was a co-worker of Keshab Chandra Sen and had been to Europe and America in connection with the Brahmo missionary work. He greeted Sri Ramakrishna, and the Master, too, bowed before him with his usual modesty. They were soon engaged in conversation.
[ঠাকুর ভক্তসঙ্গে পরমানন্দে আহার করিতে বসিলেন। আহারান্তে ঘরে আসিয়া বিশ্রাম করিতেছেন। ভক্তেরাও দক্ষিণের পুষ্করিণীর বাঁধা ঘাটে আচমন করিয়া পান খাইতে খাইতে আবার ঠাকুরের কাছে আসিয়া জুটিলেন। সকলেই আসন গ্রহণ করিলেন। বেলা দুইটার পর প্রতাপ আসিয়া উপস্থিত। তিনি একজন ব্রাহ্মভক্ত। আসিয়া ঠাকুরকে অভিবাদন করিলেন। ঠাকুরও মস্তক অবনত করিয়া নমস্কার করিলেন। প্রতাপের সহিত অনেক কথাবার্তা হইতেছে।
{प्रताप चंद्र मजूमदार (1840-1905) - कलकत्ता के निवासी थे, उनका जन्म हुगली जिले के बांसबेरिया गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम गिरीश चंद्र मजूमदार था। प्रताप चंद्र ब्रह्मसमाज के प्रसिद्ध प्रचारक थे। ब्रह्मसमाज का प्रचार -प्रसार करने के लिए भारत के विभिन्न राज्यों के अलावा यूरोप, अमेरिका और जापान के विभिन्न स्थानों की यात्रा भी की थी। श्री रामकृष्ण से उनकी पहली मुलाकात 1875 ई.में हुई थी। केशव चंद्र सेन की मृत्यु के बाद, वे 'नवविधान ब्रह्म समाज' के नेतृत्वकर्ता बन गए थे । श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने वे कई बार दक्षिणेश्वर गए थे। उनके द्वारा श्री रामकृष्ण पर लिखित प्रसिद्ध निबंध 'Hindu Saint ' ने लोकप्रियता हासिल की थी। 'Oriental Christ, Paramhamsa Ramakrishna ' (ओरिएंटल क्राइस्ट, परमहंस रामकृष्ण) भी उनकी प्रसिद्द पुस्तक है। 1893 में, प्रताप चंद्र को शिकाग धर्मसभा में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया था , जहाँ उनकी मुलाकात स्वामी विवेकानन्द से हुई थी। कलकत्ता में 65 वर्ष की आयु में उनका शरीर-त्याग हुआ था।
প্রতাপচন্দ্র মজুমদার (১৮৪০ - ১৯০৫) — বাসস্থান কলিকাতা। পিতা গিরীশচন্দ্র মজুমদার। প্রতাপচন্দ্র বিখ্যাত ব্রাহ্মধর্ম প্রচারক। জন্ম হুগলী জেলার বাঁশবেড়িয়া গ্রামে মাতুলালয়ে। ব্রাহ্মধর্ম প্রচারের জন্য ভারত ইউরোপ, আমেরিকা ও জাপানের নানাস্থানে ভ্রমণ করেন। ১৮৭৫ খ্রীষ্টাব্দে শ্রীরামকৃষ্ণের সহিত প্রথম সাক্ষাৎ হয়। কেশবচন্দ্র সেনের দেহত্যাগের পর নববিধান ব্রাহ্মসমাজের নেতা হন। শ্রীরামকৃষ্ণের নিকট তিনি বহুবার গিয়াছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ সম্বন্ধে তাঁহার বিখ্যাত প্রবন্ধ Hindu Saint জনপ্রিয়তা লাভ করে। Oriental Christ, Paramhamsa Ramakrishna প্রভৃতি গ্রন্থ তাঁহার রচনা। ১৮৯৩ সালে প্রতাপচন্দ্র শিকাগো ধর্মসভায় উপস্থিত হইবার জন্য নিমন্ত্রিত হইয়া ভাষণ দিয়াছিলেন এবং সেখানে স্বামী বিবেকানন্দের সাথে সাক্ষাৎ হয়। কলিকাতায় ৬৫ বৎসর বয়সে তাঁহার জীবনদীপ নির্বাপিত হয়।]
प्रताप - मैं दार्जिलिंग गया था ।
PRATAP: "I have been to Darjeeling recently for a change of air."
[প্রতাপ — মহাশয়! আমি পাহাড়ে গিয়েছিলাম। (দার্জিলিং-এ)
श्रीरामकृष्ण - परन्तु तुम्हारा शरीर उतना सुधर नहीं पाया । जान पड़ता है, कोई बीमारी हो गयी है।
MASTER: "But your health hasn't much improved. What are you suffering from?"
[শ্রীরামকৃষ্ণ — কিন্তু তোমার শরীর তো তত ভাল হয় নাই। তোমার কি অসুখ হয়েছে?
प्रताप - जी, केशव को जो बीमारी थी, वही मुझे भी है । उन्हें भी यही बीमारी थी ।
PRATAP: "The same illness that Keshab died of."
[প্রতাপ — আজ্ঞা, তাঁর যে অসুখ ছিল, আমারও সেই অসুখ হয়েছে।
केशव की दूसरी बातें होने लगीं । प्रताप कहने लगे, केशव का वैराग्य उनके बचपन से ही जाहिर हो रहा था । उन्हें खेलते-कूदते हुए लोगों ने बहुत कम देखा है । हिन्दू कॉलेज में पढ़ते थे । उसी समय सत्येन्द्र के साथ उनकी बड़ी मित्रता हो गयी और उसी कारण श्रीयुत देवेन्द्रनाथ ठाकुर से उनकी मुलाकात हुई । केशव में दोनों बातें थीं, योग भी और भक्ति भी । कभी कभी उनमें भक्ति का इतना उद्रेक होता था कि वे मूर्छित हो जाते थे । गृहस्थों में धर्म लाना उनके जीवन का प्रधान उद्देश्य था ।
They began to talk about Keshab. Pratap said: "Even in boyhood he showed non-attachment to worldly things, seldom making merry with other boys. He was a student in the Hindu College. At that time he became friendly with Satyendra and through him made the acquaintance of his father, Devendranath Tagore. Keshab cultivated bhakti and at the same time practised meditation. At times he would be so much overcome with divine love that he would become unconscious. The main purpose of his life was to introduce religion among householders."
[কেশবের ওই অসুখ ছিল। কেশবের অন্যান্য কথা হইতে লাগিল। প্রতাপ বলিতে লাগিলেন, কেশবের বৈরাগ্য বাল্যকাল থেকেই দেখা গিয়েছিল। তাঁকে আহ্লাদ আমোদ করতে প্রায় দেখা যেত না। হিন্দু কলেজে পড়তেন, সেই সময় সত্যেন্দ্রের সঙ্গে তাঁর খুব বন্ধুত্ব হয়। আর ওই সূত্রে শ্রীযুক্ত দেবেন্দ্রনাথ ঠাকুরের সঙ্গে আলাপ হয়। কেশবের দুই-ই ছিল। যোগও ছিল, ভক্তিও ছিল। সময়ে সময়ে তাঁর ভক্তির এত উচ্ছ্বাস হত যে মাঝে মাঝে মূর্ছা হত। গৃহস্থদের ভিতর ধর্ম আনা তাঁর জীবনের প্রধান উদ্দেশ্য ছিল।
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆गुरुगिरि का अहंकार- "मैं नेता/गुरु हूं" रखने वालों की हम्मा -हम्मा बैल जैसी दुर्गति🔆
[লোকমান্য ও অহংকার — “আমি কর্তা” “আমি গুরু” — দর্শনের লক্ষণ ]
महाराष्ट्र देश की एक स्त्री के सम्बन्ध में बातचीत होने लगी ।
The conversation next turned to a certain Marhatta lady.
[একটি মহারাষ্ট্রদেশীয় স্ত্রীলোক সম্বন্ধে কথা হইতেছে।
PRATAP: "Some women of our country have been to England. This Marhatta lady, who is very scholarly, also visited England. Later she embraced Christianity. Have you heard her name, sir?"
प्रताप - हमारे देश की कुछ महिलाएँ भी विलायत गयी हैं । उनमें एक महिला महाराष्ट्र से [Pandita Ramabai (1858 –1922)] भी विलायत गयी थीं। वे खूब पण्डिता हैं; परन्तु ईसाई हो गयी हैं । आपने क्या उनका नाम सुना है ?
[প্রতাপ — এ-দেশের মেয়েরাও কেউ কেউ বিলেতে গেছে। একটি মহারাষ্ট্র দেশের মেয়ে, খুব পণ্ডিত, বিলেতে গিছিল। তিনি কিন্তু খ্রীষ্টান হয়েছেন। মহাশয় কি তাঁর নাম শুনেছেন?
श्रीरामकृष्ण - नहीं, परन्तु तुम्हारे मुख से जैसा सुन रहा हूँ, इससे जान पड़ता है, उसे प्रसिद्धि तथा सम्मान प्राप्ति की इच्छा है । इस तरह का अहंकार अच्छा नहीं । 'मैने किया' यह अज्ञान से होता है । 'हे ईश्वर तुम्हीं ने ऐसा किया', यही ज्ञान है । ईश्वर ही कर्ता हैं, और सब अकर्ता ।
MASTER: "No. But from what you say it seems to me that she has a desire for name and fame. That kind of egotism is not good. The feeling 'I am the doer' is the outcome of ignorance. But the feeling that God does everything is due to knowledge. God alone is the Doer; all others are mere instruments in His hands.
[শ্রীরামকৃষ্ণ — না; তবে তোমার মুখে যা শুনলুম তাতে বোধ হচ্ছে যে, তার লোকমান্য হবার ইচ্ছা। এরূপ অহংকার ভাল নয়। ‘আমি করছি’, এটি অজ্ঞান থেকে হয়; হে ঈশ্বর, তুমি করছ — এইটি জ্ঞান। ঈশ্বরই কর্তা আর সব অকর্তা।
"मैं-मैं करने से कितनी दुर्गति होती है, इसका ज्ञान बछड़े की अवस्था सोचने पर हो जाता है । बछड़ा 'हम्मा हम्मा' (मैं, मैं) किया करता है । उसकी दुर्गति देखो । बड़ा होने पर उसे सुबह से शाम तक हल जोतना पड़ता है - चाहे धूप हो, चाहे वृष्टि । कभी कसाई के हाथ गया कि उसने उसकी बिलकुल ही सफाई कर दी । मांस लोगों के पेट में चला गया और चमड़े के जूते बने ।
आदमी उन पर पैर रखकर चलता है । इतने पर भी दुर्गति की इति नहीं होती । चमड़े से जंगी ढोल मढ़े गये और लकड़ी से लगातार वह पीटा जाने लगा । अन्त में अँतड़ियों को लेकर ताँत बनायी गयी । जब धुनिये के धनुए में वह लगा दी जाती है और वह रुई धुनता है तब वह 'तू-ऊं- तूं-ऊं' कहने लगता है । तब 'हम्मा हम्मा' नहीं कहता । जब 'तूं-ऊं-तूं-ऊं' कहता है, तब कहीं निस्तार पाता है । तब मुक्ति होती है । कर्म-क्षेत्र में फिर नहीं आना पड़ता।
"The misfortune that befalls a man on account of his egotism can be realized if you only think of the condition of the calf. The calf says, 'Hamma! Hamma!', that is, 'I! I!' And just look at its misfortune! At times it is yoked to the plough and made to work in the field from sunup to sundown, rain or shine. Again, it may be slaughtered by the butcher. In that case the flesh is eaten and the skin tanned into hide. From the hide shoes are made. People put on these shoes and walk on the rough ground. Still that is not the end of its misfortunes. Drums are made from its skin and mercilessly beaten with sticks. At last its entrails are made into strings for the bow used in carding cotton. When used by the carder the string gives the sound Tuhu! Tuhu!', Thou! Thou!' — that is, 'It is Thou, O Lord! It is Thou!' It no longer says, 'Hamma! Hamma!', 'I! I!' Only then does the calf's trouble come to an end, and it is liberated. It doesn't return to the world of action.
[“ ‘আমি’ ‘আমি’ করলে কত যে দুর্গতি হয় বাছুরের অবস্থা ভাবলে বুঝতে পারবে। বাছুর ‘হাম্ মা’ ‘হাম্ মা’ (আমি আমি) করে। তার দুর্গতি দেখ। হয়তো সকাল থেকে সন্ধ্যা পর্যন্ত লাঙ্গল টানতে হচ্ছে; রোদ নাই, বৃষ্টি নাই। হয়তো কসাই কেটে ফেললে। মাংসগুলো লোকে খাবে। ছালটা চামড়া হবে। সেই চামড়ায় জুতো এই সব তৈয়ার হবে। লোক তার উপর পা দিয়ে চলে যাবে। তাতেও দুর্গতির শেষ হয় না। চামড়ায় ঢাক তৈয়ার হয়। আর ঢাকের কাঠি দিয়ে অনবরত চামড়ার উপর আঘাত করে। অবশেষে কিনা নাড়ীভুঁড়িগুলো নিয়ে তাঁত তৈয়ার করে; যখন ধুনুরীর তাঁত তৈয়ার হয় তখন ধোনবার সময় ‘তুঁহু তুঁহু’ বলে। আর ‘হাম্ মা, হাম্ মা’ বলে না। তুঁহু তুঁহু বলে, তবেই নিস্তার, তবেই তার মুক্তি। কর্মক্ষেত্রে আর আসতে হয় না।
"जीव भी जब कहता है, 'हे ईश्वर, मैं कर्ता नहीं हूँ, कर्ता तुम हो - मैं यन्त्र मात्र हूँ, यन्त्री तुम हो, तब जीव संसार-यन्त्रणाओं से मुक्ति पाता है । तभी उसकी मुक्ति होती है, फिर इस कर्मक्षेत्र में उसे नहीं आना पड़ता ।"
"Likewise, when the embodied soul says: 'O God, I am not the doer; Thou art the Doer. I am the machine and Thou art its Operator', only then does its suffering of worldly life come to an end; only then does it obtain liberation. It no longer has to be reborn in this world of action."
[“জীবও যখন বলে, ‘হে ঈশ্বর, আমি কর্তা নই, তুমিই কর্তা — আমি যন্ত্র, তুমি যন্ত্রী’, তখনই জীবের সংসার-যন্ত্রণা শেষ হয়। তখনই জীবের মুক্তি হয়, আর এ কর্মক্ষেত্রে আসতে হয় না।”
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆कर्तापन का अहंकार कैसे दूर होता है ? और अहंकार- राहित्य के लक्षण क्या हैं ? 🔆
एक भक्त - जीव का अहंकार कैसे दूर हो ?
A DEVOTEE: "How can a man get rid of his ego?"
[একজন ভক্ত — জীবের অহংকার কেমন করে যায়?
श्रीरामकृष्ण - ईश्वर के दर्शन के बिना अहंकार दूर नहीं होता । यदि किसी का अहंकार मिट गया हो, तो उसे अवश्य ही ईश्वर के दर्शन हुए होंगे ।
MASTER: "You cannot get rid of it until you have realized God. If you find a person free from ego, then know for certain that he has seen God."
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ঈশ্বরকে দর্শন না করলে অহংকার যায় না। যদি কারু অহংকার গিয়ে থাকে, তার অবশ্য ঈশ্বরদর্শন হয়েছে।
भक्त - महाराज, किस तरह समझ में आये कि ईश्वर के दर्शन हो चुके हैं ?
[একজন ভক্ত — মহাশয়! কেমন করে জানা যায় যে, ঈশ্বরদর্শন হয়েছে?
DEVOTEE: "What, sir, are the signs of God-vision?"
श्रीरामकृष्ण - ईश्वर-दर्शन के कुछ लक्षण हैं । श्रीमद्भागवत में कहा है, जिस आदमी को ईश्वर के दर्शन हुए हैं उसके चार लक्षण हैं - बालवत्, पिशाचवत्, जड़वत् तथा उन्मत्तवत् ।
MASTER: "Yes, there are such signs. It is said in the Bhagavata that a man who has seen God behaves sometimes like a child, sometimes like a ghoul, sometimes like an inert thing, and sometimes like a madman.
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ঈশ্বরদর্শনের লক্ষণ আছে। শ্রীমদ্ভাগবতে আছে, যে ব্যক্তি ঈশ্বরদর্শন করেছে, তার চারিটি লক্ষণ হয়, (১) বালকবৎ, (২) পিশাচবৎ, (৩) জড়বৎ, (৪) উন্মাদবৎ।
"जिसे ईश्वर के दर्शन हुए होंगे, उसका स्वभाव बालक की तरह का हो जायेगा । वह त्रिगुणातीत हो जाता है । किसी गुण को गाँठ नहीं बाँधता, शुचि और अशुचि भी उसके पास बराबर हैं । इसीलिए वह पिशाचवत् है, और पागल की तरह कभी हँसता है, कभी रोता है । देखते ही देखते बाबुओं की तरह सजावट कर लेता है और फिर सब कपड़े बगल में दबाकर बिलकुल नंगा होकर घूमता है, इस तरह वह उन्मत्तवत् हो जाता है । और कभी यही है कि जड़ की तरह कहीं चुपचाप बैठा हुआ है, इसलिए जड़वत् ।”
"The man who has seen God becomes like a child. He is beyond the three gunas; he is unattached to any of them. He behaves like a ghoul, for he maintains the same attitude toward things holy and unholy. Again, like a madman, he sometimes laughs and sometimes weeps. Now he dresses himself like a dandy and the next moment he goes entirely naked and roams about with his cloth under his arm. Therefore he seems to be a lunatic. Again, at times he sits motionless like an inert thing."
[“যার ঈশ্বরদর্শন হয়েছে, তার বালকের স্বভাব হয়। সে ত্রিগুণাতীত — কোন গুণের আঁট নাই। আবার শুচি অশুচি তার কাছে দুই সমান — তাই পিশাচবৎ। আবার পাগলের মতো ‘কভু হাসে, কভু কাঁদে’; এই বাবুর মতো সাজে-গোজে, আবার খানিক পরে ন্যাংটা; বগলের নিচে কাপড় রেখে বেড়াচ্ছে — তাই উন্মাদবৎ। আবার কখনও বা জড়ের ন্যায় চুপ করে বসে আছে — জড়বৎ।”
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆ईश्वरदर्शन के बाद का अहंकार अनिष्टकारक नहीं होता 🔆
भक्त - ईश्वर-दर्शन के बाद क्या अहंकार बिलकुल चला जाता है ?
DEVOTEE: "Does the ego disappear altogether after the realization of God?"
[একজন ভক্ত — ঈশ্বরদর্শনের পর কি অহংকার একেবারে যায়?
श्रीरामकृष्ण - कभी कभी वे अहंकार बिलकुल पोंछ डालते हैं, जैसे समाधि की अवस्था में । कभी अहंकार कुछ रख भी देते हैं, परन्तु उस अहंकार में दोष नहीं । जैसे बालक का अहंकार । पाँच वर्ष का बच्चा मैं-मैं करता है, परन्तु किसी का अनिष्ट करना वह नहीं जानता ।
"पारस पत्थर के छू जाने पर लोहा भी सोना हो जाता है । लोहे की तलवार सोने की तलवार हो जाती है। परन्तु तलवार का आकार मात्र रह जाता है, वह किसी का अनिष्ट नहीं कर सकती ।'
MASTER: "Yes, sometimes God totally effaces the ego of His devotee, as in the state of samadhi. But in many cases He keeps a trace of ego. But that doesn't injure anybody. It is like the ego of a child. A five-year-old child no doubt says 'I', but that ego doesn't harm anybody. At the touch of the philosopher's stone, steel is turned into gold; the steel sword becomes a sword of gold. The gold sword has the form of a sword, no doubt, but it cannot injure anybody. One cannot cut anything with a gold sword.
শ্রীরামকৃষ্ণ — কখন কখন তিনি অহংকার একেবারে পুঁছে ফেলেন — যেমন সমাধি অবস্থায়। আবার প্রায় অহংকার একটু রেখে দেন। কিন্তু সে অহংকারে দোষ নাই। যেমন বালকের অহংকার। পাঁচ বছরের বালক ‘আমি’ ‘আমি’ করে কিন্তু কারু অনিষ্ট করতে জানে না। “পরশমণি ছুঁলে লোহা সোনা হয়ে যায়। লোহার তরোয়াল সোনার তরোয়াল হয়ে যায়। তরোয়ালের আকার থাকে, কারু অনিষ্ট করে না। সোনার তরোয়ালে মারা কাটা চলে না।”
(६)
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆पाश्चात्य सभ्यता (रजोगुणी संस्कृति) में 'कांचन' की ही पूजा होती है🔆
[বিলাতে কাঞ্চনের পূজা — জীবনের উদ্দেশ্য কর্ম না ঈশ্বরলাভ?]
श्रीरामकृष्ण - (प्रताप से) - तुम विलायत गये थे, वहाँ क्या क्या देखा ?
(To Pratap) "You have been to England. Tell us what you saw there."
[শ্রীরামকৃষ্ণ (প্রতাপের প্রতি) — তুমি বিলাতে গিয়েছিলে, কি দেখলে, সব বল।
प्रताप - आप जिसे कांचन कहते हैं, विलायत के आदमी उसी की पूजा करते हैं; परन्तु कोई कोई अच्छे, अनासक्त मनुष्य भी हैं । यों तो आदि से अन्त तक (আগাগোড়া) सब रजोगुण की ही महिमा है । अमेरिका में भी मैंने यही देखा ।
PRATAP: "The English people worship what you call 'gold'. Of course, there are also some good people in England, those who live an Unattached life. But generally one finds there a great display of rajas in everything. I saw the same thing in America."
[প্রতাপ — বিলাতের লোকেরা আপনি যাকে কাঞ্চন বলেন, তারই পূজা করে — অবশ্য কেউ কেউ ভাল লোক — অনাসক্ত লোক আছে। কিন্তু সাধারণতঃ আগাগোড়া রজোগুণের কাণ্ড। আমেরিকাতেও তাই দেখে এলুম।
ॐ ,ॐ, ॐ
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆पाश्चात्य सभ्यता में में कर्म पर जोर - किन्तु कर्म तो भक्ति का आदिकाण्ड है🔆
[বিলাত ও কর্মযোগ — কলিযুগে কর্মযোগ না ভক্তিযোগ ]
श्रीरामकृष्ण - (प्रताप से) - विषयकार्यों (worldly things.) में केवल विलायतवालों को ही आसक्ति नहीं है, सभी जगह (भारत में भी) यही हाल है । परन्तु, बात यह है कि कर्मकाण्ड को आदिकाण्ड ( first step in spiritual life.) कहा है । सतोगुण (भक्ति, विवक, वैराग्य, दया -love, discrimination, kindnessआदि सब) के बिना ईश्वर नहीं मिल सकते । रजोगुण में कर्म का आडम्बर होता है, इसीलिए रजोगुण से तमोगुण आ जाता है (rajas degenerates into tamas)। ज्यादा कर्म में फँसने पर ही ईश्वर को मनुष्य भूल जाता है । तब कामिनी- कांचन में भी आसक्ति बढ़ जाती है ।
MASTER (to Pratap): "It is not in England alone that one sees attachment to worldly things. You see it everywhere. But remember that work is only the first step in spiritual life. God cannot be realized without sattva — love, discrimination, kindness, and so on. It is the very nature of rajas to involve a man in many worldly activities. That is why rajas degenerates into tamas. If a man is entangled in too many activities he surely forgets God. He becomes more and more attached to 'woman and gold'.
[শ্রীরামকৃষ্ণ (প্রতাপকে) — বিষয়কর্মে আসক্তি শুধু যে বিলাতে আছে, এমন নয়। সব জায়গায় আছে। তবে কি জান? কর্মকাণ্ড হচ্ছে আদিকাণ্ড। সত্ত্বগুণ (ভক্তি, বিবেক, বৈরাগ্য, দয়া এই সব) না হলে ঈশ্বরকে পাওয়া যায় না। রজোগুণে কাজের আড়ম্বর হয়। তাই রজোগুণ থেকে তমোগুণ এসে পড়ে। বেশি কাজ জড়ালেই ঈশ্বরকে ভুলিয়ে দেয়। আর কামিনী-কাঞ্চনে আসক্তি বাড়ে।
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆बिलकुल अनासक्त होना केवल उसके लिए ही सम्भव है जिसे ईश्वर के दर्शन हो चुके हैं 🔆
"परन्तु कर्मों का बिलकुल त्याग कोई नहीं कर सकता । तुम्हारी प्रकृति खुद तुमसे कर्म करा लेगी, तुम अपनी मर्जी से करो या न करो । इसीलिए कहा है, अनासक्त होकर कर्म करो, अर्थात् कर्म-फल की आकांक्षा न करो; जैसे, पूजा, जप, तप, यह सब कर रहे हो, परन्तु सम्मान (नाम-यश पाने) या पुण्य के लिए नहीं ।
"But it is not possible for you to give up work altogether. Your very nature will lead you to it whether you like it or not. Therefore the scriptures ask you to work in a detached spirit, that is to say, not to crave the work's results. For example, you may perform devotions and worship, and practise austerities, but your aim is not to earn people's recognition or to increase your merit.
[“তবে কর্ম একেবারে ত্যাগ করবার জো নাই। তোমার প্রকৃতিতে তোমায় কর্ম করাবে। তা তুমি ইচ্ছা কর আর নাই কর। তাই বলেছে অনাসক্ত হয়ে কর্ম কর। অনাসক্ত হয়ে কর্ম করা; — কিনা, কর্মের ফল আকাঙ্ক্ষা করবে না। যেমন পূজা জপতপ করছো, কিন্তু লোকমান্য হবার কিম্বা পুণ্য করবার জন্য নয়।
"इस तरह अनासक्त होकर कर्म करने का ही नाम कर्मयोग है । यह बड़ा कठिन है । एक तो कलिकाल है, सहज ही आसक्ति आ जाती है । सोच रहा हूँ, अनासक्त होकर काम कर रहा हूँ, परन्तु न जाने किधर से आसक्ति आ जाती है, समझ में नहीं आता । कभी पूजा और महोत्सव किया या बहुत से कंगालों को खिलाया, सोचा, अनासक्त होकर मैं यह सब कर रहा हूँ, परन्तु फिर भी न जाने किधर से लोक-सम्मान (नाम-यश) की इच्छा (लोकैषणा) आ जाती है, पता नहीं ; बिलकुल अनासक्त होना उसके लिए सम्भव है जिसे ईश्वर के दर्शन हो चुके हैं ।”
"To work in such a spirit of detachment is known as karmayoga. But it is very difficult. We are living in the Kaliyuga, when one easily becomes attached to one's actions. You may think you are working in a detached spirit, but attachment creeps into the mind from nobody knows where. You may worship in the temple or arrange a grand religious festival or feed many poor and starving people. You may think you have done all this without hankering after the results. But unknown to yourself the desire for name and fame has somehow crept into your mind. Complete detachment from the results of action is possible only for one who has seen God."
[“এরূপ অনাসক্ত হয়ে কর্ম করার নাম কর্মযোগ। ভারী কঠিন। একে কলিযুগ, সহজেই আসক্তি এসে যায়। মনে করছি অনাসক্ত হয়ে কাজ করছি কিন্তু কোন্ দিক দিয়ে আসক্তি এসে যায়, জানতে দেয় না। হয়তো পূজা মহোৎসব করলুম, কি অনেক গরিব কাঙালদের সেবা করলুম — মনে করলুম যে, অনাসক্ত হয়ে করছি, কিন্তু কোন্ দিক দিয়ে লোকমান্য হবার ইচ্ছা হয়েছে, জানতে দেয় না। তবে একেবারে অনাসক্ত হওয়া সম্ভব কেবল তাঁর, যাঁর ঈশ্বর দর্শন হয়েছে।”
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆जिस अनुपात में भक्ति बढ़ती है, उसी अनुपात में कर्म घटते हैं-हे ईश्वर मेरे कर्म घटा दो ! 🔆
एक भक्त - जिन्होंने ईश्वर को प्राप्त नहीं किया, उनके लिए क्या उपाय है ? क्या वे विषय-कर्म छोड़ दें?
A DEVOTEE: "Then what is the way for those who have not seen God? Must they give up all the duties of the world?"
[একজন ভক্ত — যাঁরা ঈশ্বরকে লাভ করেন নাই তাঁদের উপায় কি? তাঁরা কি বিষয়কর্ম সব ছেড়ে দেবেন?
MASTER: "The best path for this age is bhaktiyoga, the path of bhakti prescribed by Narada: to sing the name and glories of God and pray to Him with a longing heart, "O God, give me knowledge, give me devotion, and reveal Thyself to me!' The path of karma is extremely difficult. Therefore one should pray: 'O God, make my duties fewer and fewer; and may I, through Thy grace, do the few duties that Thou givest me without any attachment to their results! May I have no desire to be involved in many activities!'
श्रीरामकृष्ण - कलिकाल के लिए भक्तियोग है, नारदीय भक्ति । ईश्वर का नाम-गुणगान और व्याकुल होकर प्रार्थना करना - 'हे ईश्वर, मुझे ज्ञान दो, भक्ति दो, मुझे दर्शन दो ।' कर्मयोग बड़ा कठिन है । इसीलिए प्रार्थना करनी चाहिए, 'हे ईश्वर, मेरे कर्म घटा दो !! और जितने कर्म तुमने रखे हैं, उन्हें तुम्हारी कृपा से अनासक्त होकर कर सकूँ और अधिक कर्म लपेटने की मेरी इच्छा न हो !'
[শ্রীরামকৃষ্ণ — কলিতে ভক্তিযোগ। নারদীয় ভক্তি। ঈশ্বরের নামগুণগান ও ব্যাকুল হয়ে প্রার্থনা করা; ‘হে ঈশ্বর, আমায় জ্ঞান দাও, আমায় দেখা দাও।’ কর্মযোগ বড় কঠিন। তাই প্রার্থনা করতে হয়, ‘হে ঈশ্বর, আমার কর্ম কমিয়ে দাও। আর যেটুকু কর্ম রেখেছো, সেটুকু যেন তোমার কৃপায় অনাসক্ত হয়ে করতে পারি। আর যেন বেশি কর্ম জড়াতে না ইচ্ছা হয়।’
“कर्म कोई छोड़ नहीं सकता । 'मैं सोच रहा हूँ', 'मैं ध्यान कर रहा हूँ' - ये भी कर्म हैं । भक्ति पा लेने पर विषयकर्म आप ही आप घट जाते हैं । तब वे अच्छे नहीं लगते । मिश्री का शरबत मिल जाय, तो फिर सीरा कौन पीता है ?"
"It is not possible to give up work altogether. Even to think or to meditate ^*is a kind of work. As you develop love for God, your worldly activities become fewer and fewer of themselves. And you lose all interest in them. Can one who has tasted a drink made of sugar candy enjoy a drink made of ordinary molasses?"
[“কর্ম ছাড়বার জো নাই। আমি চিন্তা করছি, আমি ধ্যান করছি, এও কর্ম। ভক্তিলাভ করলে বিষয়কর্ম আপনা-আপনি কমে যায়। আর ভাল লাগে না। ওলা মিছরির পানা পেলে চিটেগুড়ের পানা কে খেতে চায়?”
[सार उपदेश ~ abstract sermon]
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆परीक्षित सत्य (tested truth): विवेक-दर्शन (मनःसंयोग) का परिणाम-भक्ति की प्राप्ति 🔆
जैसे-जैसे तुम्हारे ह्रदय में ईश्वर (ठाकुरदेव) के प्रति प्रेम विकसित होता है, तुम्हारी सांसारिक कर्म (कामिनी-कांचन में आसक्ति) अपने आप कम होती जाती हैं।
As you develop love for God, your worldly activities become fewer and fewer of themselves. The proportion in which devotion increases, in the same proportion the actions decrease - O God, reduce my actions.
अनासक्त होकर कर्म करो, अर्थात् कर्म-फल की आकांक्षा न करो; जैसे, पूजा, जप, तप, यह सब कर रहे हो, परन्तु सम्मान (नाम-यश पाने) या पुण्य (स्वर्ग पाने) के लिए नहीं, बल्कि माँ काली की भक्ति प्राप्त करने के लिए । क्योंकि भक्ति पा लेने पर विषयकर्म आप ही आप घट जाते हैं । तब वे अच्छे नहीं लगते । मिश्री का शरबत मिल जाय, तो फिर सीरा कौन पीता है ?"]
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆'Be and Make जीवन का उद्देश्य नहीं , ईश्वरलाभ (भारत-कल्याण) का उपाय है 🔆
एक भक्त - विलायत के आदमी 'कर्म करो - कर्म करो' कहा करते हैं, तो क्या कर्म जीवन का उद्देश्य नहीं है ?
A DEVOTEE: "The English people always exhort us to be active. Isn't action the aim of life then?"
[একজন ভক্ত — বিলেতের লোকেরা কেবল “কর্ম কর” করে। কর্ম তবে জীবনের উদ্দেশ্য নয়?
श्रीरामकृष्ण - जीवन का उद्देश्य है ईश्वर-लाभ । कर्म तो आदिकाण्ड (preliminary step- first step in spiritual life. चित्त-शुद्धि का उपाय है) है, वह जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता । निष्काम कर्म ('Be and Make' भी )एक उपाय हो सकता है, परन्तु वह भी उद्देश्य नहीं हैं ।
MASTER: "The aim of life is the attainment of God. Work is only a preliminary step; it can never be the end. Even unselfish work is only a means; it is not the end.
[শ্রীরামকৃষ্ণ — জীবনের উদ্দেশ্য ঈশ্বরলাভ। কর্ম তো আদিকাণ্ড; জীবনের উদ্দেশ্য হতে পারে না। তবে নিষ্কামকর্ম একটি উপায়, — উদ্দেশ্য নয়।
"शम्भू कहता था, अब ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि जो रुपये हैं, उनका सदव्यय कर सकूँ । अस्पताल, दवाखाना, रास्ताघाट, कुआँ इनके तैयार करने में लग जाय । मैंने कहा, यह सब काम अनासक्त होकर कर सको तो अच्छा है, परन्तु है यह बड़ा कठिन । और चाहे जो हो, कम से कम इतना याद रहे कि तुम्हारे मनुष्य-जीवन का उद्देश्य है ईश्वर-लाभ - अस्पताल और दवाखाना बनाना नहीं ।
[“শম্ভু বললে, এখন এই আশীর্বাদ করুন যে, টাকা আছে, সেগুলি সদ্ব্যয়ে যায়, — হাসপাতাল, ডিস্পেনসারি করা, রাস্তা-ঘাট করা, কুয়ো করা এই সবে। আমি বললাম, এ-সব কর্ম অনাসক্ত হয়ে করতে পারলে ভাল, কিন্তু তা বড় কঠিন। আর যাই হোক এটি যেন মনে থাকে যে, তোমার মানবজন্মের উদ্দেশ্য ঈশ্বরলাভ। হাসপাতাল, ডিস্পেনসারি করা নয়!
"Sambhu Mallick once said to me, 'Please bless me, sir, that I may spend all my money for good purposes, such as building hospitals and dispensaries, making roads, and digging wells.' I said to him: 'It will be good if you can do these things in a spirit of detachment. But that is very difficult. Whatever you may do, you must always remember that the aim of this life of yours is the attainment of God and not the building of hospitals and dispensaries.
[(15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆कर्म तो आदिकाण्ड (preliminary step in spiritual life) है चित्त-शुद्धि का उपाय है🔆
सोचो कि ईश्वर तुम्हारे सामने आये, आकर तुमसे कहा, कोई वर माँगो । तो क्या तुम उनसे कहोगे, मेरे लिए कुछ अस्पताल और दवाखाने बनवा दो या यह कहोगे, 'हे भगवन्, तुम्हारे पादपद्मों में मेरी शुद्धा भक्ति हो - मैं तुम्हें सब समय देख सकूँ ।'
Suppose God appeared before you and said to you, "Accept a boon from Me." Would you then ask Him, "O God, build me some hospitals and dispensaries"? Or would you not rather pray to Him: "O God, may I have pure love at Your Lotus Feet! May I have Your uninterrupted vision!"?
[ মনে কর ঈশ্বর তোমার সামনে এলেন; এসে বললেন, তুমি বর লও। তাহলে তুমি কি বলবে, আমায় কতকগুলো হাসপাতাল, ডিস্পেনসারি করে দাও, না বলবে — হে ভগবান, তোমার পাদপদ্মে যেন শুদ্ধাভক্তি হয়, আর যেন তোমাকে আমি সর্বদা দেখতে পাই।
अस्पताल, दवाखाना ये सब अनित्य वस्तुएँ हैं । एकमात्र ईश्वर वस्तु है, और सब अवस्तु । उन्हें प्राप्त कर लेने पर जान पड़ता है, कर्ता वे ही हैं, हम लोग अकर्ता हैं । तो फिर क्यों उन्हें छोड़कर इतने काम इकट्ठे कर हम अपनी जान दें? उन्हें पा लेने पर उनकी इच्छा से कितने ही अस्पताल और दवाखाने हो जायँगे।
Hospitals, dispensaries, and all such things are unreal. God alone is real and all else unreal. Furthermore, after realizing God one feels that He alone is the Doer and we are but His instruments. Then why should we forget Him and destroy ourselves by being involved in too many activities? After realizing Him, one may, through His grace, become His instrument in building many hospitals and dispensaries.'
[ হাসপাতাল, ডিস্পেনসারি — এ-সব অনিত্য বস্তু। ঈশ্বরই বস্তু আর সব অবস্তু। তাঁকে লাভ হলে আবার বোধ হয়, তিনিই কর্তা আমরা অকর্তা। তবে কেন তাঁকে ছেড়ে নানা কাজ বাড়িয়ে মরি? তাঁকে লাভ হলে তাঁর ইচ্ছায় অনেক হাসপাতাল, ডিস্পেনসারি হতে পারে।
[(15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔱🙏ईश्वरलाभ ही मनुष्य-जीवन का उद्देश्य है-कर्म तो आदिकाण्ड है 🔱🙏
[कहानी :- ब्रह्मचारी ने लकड़हारे (wood-cutter) को आगे बढ़ने के लिए क्यों कहा ?]
"इसीलिए कहता हूँ, कर्म तो आदिकाण्ड है, कर्म जीवन का उद्देश्य नहीं, साधना करके और भी आगे बढ़ जाओ । साधना करते हुए जब और आगे बढ़ जाओगे, तब अन्त में समझोगे, ईश्वर ही एकमात्र वस्तु है, और सब अवस्तु, ईश्वरलाभ ही जीवन का उद्देश्य है ।
"Therefore I say again that work is only the first step. It can never be the goal of life. Devote yourself to spiritual practice and go forward. Through practice you will advance more and more in the path of God. At last you will come to know that God alone is real and all else is illusory, and that the goal of life is the attainment of God.]
[তাই বলছি, কর্ম আদিকাণ্ড। কর্ম জীবনের উদ্দেশ্য নয়। সাধন করে আরও এগিয়ে পড়। সাধন করতে করতে আরও এগিয়ে পড়লে শেষে জানতে পারবে যে ঈশ্বরই বস্তু, আর সব অবস্তু, ঈশ্বরলাভই জীবনের উদ্দেশ্য।
एक लकड़हारा जंगल में लकड़ी काटने गया था । एकाएक किसी ब्रह्मचारी (नेता,जीवनमुक्त शिक्षक) से उसकी भेंट हो गयी । ब्रह्मचारी ने कहा, 'सुनो जी, आगे बढ़ो '। लकड़हारा घर लौटकर सोचने लगा, ब्रह्मचारी ने आगे बढ़ने के लिए क्यों कहा ?
“इसी तरह कुछ दिन बीत गये । एक दिन वह बैठा हुआ था, एकाएक ब्रह्मचारी की बात याद आ गयी । तब उसने मन ही मन कहा, मैं आज और भी आगे बढ़ जाऊँगा । वन में और भी आगे चलकर उसने देखा, चन्दन के हजारों पेड़ थे । तब मारे आनन्द के लोटपोट हो गया । चन्दन की लकड़ी उस दिन घर ले आया । बाजार में बेचकर (वीरप्पन?) खूब धनी हो गया ।
Once upon a time a wood-cutter went into a forest to chop wood. There suddenly he met a brahmachari. The holy man said to him, 'My good man, go forward.' On returning home the wood-cutter asked himself, 'Why did the brahmachari tell me to go forward?' Some time passed. One day he remembered the brahmachari's words. He said to himself, 'Today I shall go deeper into the forest.' Going deep into the forest, he discovered innumerable sandal-wood trees. He was very happy and returned with cart-loads of sandal-wood.(वीरप्पन) He sold them in the market and became very rich.
[“একজন কাঠুরে বনে কাঠ কাটতে গিছিল। হঠাৎ এক ব্রহ্মচারীর সঙ্গে দেখা হল। ব্রহ্মচারী বললেন, ‘ওহে, এগিয়ে পড়ো।’ কাঠুরে বাড়িতে ফিরে এসে ভাবতে লাগল ব্রহ্মচারী এগিয়ে যেতে বললেন কেন?"“এইরকমে কিছুদিন যায়। একদিন সে বসে আছে, এমন সময় এই ব্রহ্মচারীর কথাগুলি মনে পড়ল। তখন সে মনে মনে বললে, আজ আমি আরও এগিয়ে যাব। বনে গিয়ে আরও এগিয়ে দেখে যে, অসংখ্য চন্দনের গাছ। তখন আনন্দে গাড়ি গাড়ি চন্দনের কাঠ নিয়ে এল, আর বাজারে বেচে খুব বড়মানুষ হয়ে গেল।
"कुछ दिनों बाद उसे फिर से ब्रह्मचारी के आगे बढ़ने के उपदेश की याद हो आई। वह जंगल में और भीतर गया तो उसने नदी के किनारे एक चांदी की खदान देखी ! यह बात उसने सपनों में भी नहीं सोची थी। तब वह खदान से चाँदी निकाल-निकाल कर बाजार में बेचने लगा; इससे वह इतना अधिक दौलतमन्द (आण्डिल wealthy) हो गया कि उसे खुद पता नहीं था ,उसके पास सचमुच कितना धन है !!"
"A few days later he again remembered the words of the holy man to go forward. He went deeper into the forest and discovered a silver-mine near a river. This was even beyond his dreams. He dug out silver from the mine and sold it in the market. He got so much money that he didn't even know how much he had.
[“এইরকমে কিছুদিন যায়। আর-একদিন মনে পড়ল ব্রহ্মচারী বলেছেন, ‘এগিয়ে পড়।’ তখন আবার বনে গিয়ে এগিয়ে দেখে নদীর ধারে রূপোর খনি। এ-কথা সে স্বপ্নেও ভাবে নাই। তখন খনি থেকে কেবল রূপো নিয়ে গিয়ে বিক্রি করতে লাগল। এত টাকা হল যে আণ্ডিল হয়ে গেল।
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔱🙏सुनो भाई, और आगे बढ़ जाओ और 'देश-काल-निमित्त' को भी पार कर जाओ!🔱🙏
My good man, go forward and
TRANSCEND even the Time-Space- Causation ! '
['ओ हे , एगिए पोड़ो' ~ওহে, এগিয়ে পড়ো]
"कुछ दिन और बीत गए। एक दिन बैठे -बैठे उसने सोचा कि ब्रह्मचारी जी ने तो मुझे चाँदी की खदान पर ही पहुँच कर रुक जाने की सीख तो नहीं दी थी ? उन्होंने तो मुझे और आगे बढ़ने के लिए कहा था!" इस बार वह नदी के भी उस पार चला गया , वहाँ जाकर देखा तो एक सोने की खान मिली। फिर उसने कहा: 'आह, देखो! इसलिए ब्रह्मचारी जी मुझे आगे बढ़ने के लिए कहा था।'
"A few more days passed. One day he thought: The brahmachari didn't ask me to stop at the silver-mine; he told me to go forward.' This time he went to the other side of the river and found a gold-mine. Then he exclaimed: 'Ah, just see! This is why he asked me to go forward.'
[“আবার কিছুদিন যায়। একদিন বসে ভাবছে ব্রহ্মচারী তো আমাকে রূপোর খনি পর্যন্ত যেতে বলেন নাই — তিনি যে এগিয়ে যেতে বলেছেন। এবার নদীর পারে গিয়ে দেখে, সোনার খনি! তখন সে ভাবলে, ওহো! তাই ব্রহ্মচারী বলেছিলেন, এগিয়ে পড়।
"फिर, कुछ दिनों के बाद, वह और भी गहरे जंगल में गया , और वहाँ उसने देखा की हीरे और अन्य कीमती रत्नों के ढेर पड़े हुए हैं । उसने इन्हें भी एकत्र कर लिया और स्वयं धन के देवता - 'कुबेर ' के समान अमीर बन गया।
["Again, a few days afterwards, he went still deeper into the forest and found heaps of diamonds and other precious gems. He took these also and became as rich as the god of wealth - KUBER ' himself.
[“আবার কিছুদিন পরে এগিয়ে দেখে, হীরে মাণিক রাশিকৃত পড়ে আছে। তখন তার কুবেরের মতো ঐশ্বর্য হল।
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆 कर्म किन्तु जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता।🔆
Work is by no means the goal of life.
কর্ম কিন্তু জীবনের উদ্দেশ্য নয়।
[उठो, जागो ~ उर्ध्वमुखी दिशा में आगे बढ़ो; और लक्ष्य तक पहुंचे बिना रुको मत !
"Arise , Awake - go Onwards ; move in the upward direction; and stop not till the goal is reached ! ]
"इसलिए कहता हूं कि तुम जिस कार्य में भी क्यों न लगे हुए हो , यदि थोड़ा और आगे बढ़ते हो तो और भी उत्कृष्ट वस्तुयें प्राप्त होंगी ! थोड़ा जप करने के फलस्वरूप कुछ आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति हो गयी हो , किन्तु इससे यह निष्कर्ष मत निकाल लेना कि तुमने आध्यात्मिक साधना के चरमोत्कर्ष को प्राप्त कर लिया है। कर्म किन्तु जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता। और आगे बढ़ो , घर-गृहस्थी ,बिजनेस-व्यापार, जप-ध्यान भी निःस्वार्थ -निष्काम होकर करने में सक्षम हो जाओगे ! लेकिन 'निःस्वार्थ कर्म' कर पाना- सबसे कठिन है, इसीलिए ईश्वर के प्रति ह्रदय में भक्ति रखते हुए , व्याकुलता के साथ उनसे प्रार्थना करो, ‘हे ईश्वर , अपने चरण-कमलों में मुझे भक्ति दो और मेरे घर-गृहस्थी के कर्मों को घटा दो; और जो कुछ कर्म मेरे लिए रखना, (ऐसी कृपा करना कि) उसको मैं निःस्वार्थ भाव से करने में सक्षम हो सकूँ !
"Therefore I say that, whatever you may do, you will find better and better things if only you go forward. You may feel a little ecstasy as the result of japa, but don't conclude from this that you have achieved everything in spiritual life. Work is by no means the goal of life. Go forward, and then you will be able to perform unselfish work. But again I say that it is most difficult to perform unselfish work. Therefore with love and longing in your heart pray to God: 'O God, grant me devotion at Thy Lotus Feet and reduce my worldly duties. Please grant me the boon that the few duties I must do may be done in a detached spirit.'
[“তাই বলছি যে, যা কিছু কর না কেন, এগিয়ে গেলে আরও ভাল জিনিস পাবে। একটু জপ করে উদ্দীপন হয়েছে বলে মনে করো না, যা হবার তা হয়ে গেছে। কর্ম কিন্তু জীবনের উদ্দেশ্য নয়। আরও এগোও, কর্ম নিষ্কাম করতে পারবে। তবে, নিষ্কামকর্ম বড় কঠিন, তাই ভক্তি করে ব্যাকুল হয়ে তাঁকে প্রার্থনা কর, ‘হে ঈশ্বর, তোমার পাদপদ্মে ভক্তি দাও, আর কর্ম কমিয়ে দাও; আর যেটুকু রাখবে, সেটুকু কর্ম যেন নিষ্কাম হয়ে করতে পারি’।
“और भी बढ़ने पर ईश्वर की प्राप्ति होगी, उनके दर्शन होंगे । क्रमशः उनके साथ मुलाकात और बातचीत होगी ।”
If you go still farther you will realize God. You will see Him. In time you will converse with Him."
[“আরও এগিয়ে গেলে ঈশ্বরকে লাভ হবে। তাঁকে দর্শন হবে। ক্রমে তাঁর সঙ্গে আলাপ কথাবার্তা হবে।”
[ " Glory unto the Lord - march on, the Lord is our General. Do not look back to see who falls - forward - onward! Thus and thus we shall go on, brethren. One falls, and another takes up the work !" Letter to Alasinga - dated 20 August, 1893.
" साधना करते हुए जब और आगे बढ़ जाओगे, तब अन्त में समझोगे, ईश्वर ही एकमात्र वस्तु है, और सब अवस्तु, ईश्वरलाभ ही जीवन का उद्देश्य है ।
" Through practice you will advance more and more in the path of God. At last you will come to know that God alone is real and all else is illusory, and that the goal of life is the attainment of God. ]
केशव के स्वर्गलाभ के पश्चात् मन्दिर की वेदी (ब्रह्मसमाज के व्यासपीठ पर बैठने का अधिकारी) को लेकर जो विवाद हुआ था, अब उसकी बात होने लगी।
Next the conversation turned to the quarrels among the members of the Brahmo Samaj. They had had a misunderstanding about the right to preach in the temple after Keshab's death.
[কেশবের স্বর্গলাভের পর মন্দিরের বেদী লইয়া যে বিবাদ হয়, এইবার তাহার কথা পড়িল।
श्रीरामकृष्ण - (प्रताप से) - सुना है, तुम्हारे साथ वेदी के सम्बन्ध में कोई झगड़ा हुआ है । जिन लोगों ने झगड़ा किया है, वे तो सब ऐसे ही हैं । - मानो कीड़े-मकोड़े । (सब हँसते हैं ।)
MASTER (to Pratap): "I hear that some members of the Samaj have quarrelled with you about the altar. But they are most insignificant persons — mere nobodies.
[শ্রীরামকৃষ্ণ (প্রতাপের প্রতি) — শুনছি তোমার সঙ্গে বেদী নিয়ে নাকি ঝগড়া হয়েছে। যারা ঝগড়া করেছে, তারা তো সব হরে, প্যালা, পঞ্চা! (সকলের হাস্য)
(भक्तों को) “देखो, प्रताप और अमृत ये सब अच्छी गुणवत्ता के शंख (conch shell) हैं, जोर से बजते हैं। और दूसरे आदमियों को देखो, उनमें कोई आवाज ही नहीं हैं ।' (सब हँसते हैं।)
(To the devotees): "People like Pratap and Amrita are like good conch-shells, which give out a loud sound. And the rest, about whom you hear so much, don't give out any sound at all." (All laugh.)
[(ভক্তদের প্রতি) — “দেখ, প্রতাপ, অমৃত — (गुरुगिरि करने वाले ) এ-সব শাঁখ বাজে। আর যা সব শুন তাদের কোন আওয়াজ নাই।” (সকলের হাস্য)
प्रताप - महाराज, बजने की बात अगर आपने चलायी तो आम की गुठली (आँठी) भी तो बजती है !
PRATAP: "Speaking of sounds, even such a worthless thing as a mango-stone makes a sound!"2
[প্রতাপ — মহাশয়, বাজে যদি বললেন তো আঁবের কশিও বাজে।
[^ आम की वह गुठली जिसमें अंकुर फूटने वाले होते हैं , उस पर फूँक मारने से वह आवाज करती है . The split stone of a mango, about to sprout, makes a sound when one blows through it.
श्रीरामकृष्ण - (प्रताप से) - देखो, तुम्हारे ब्राह्मसमाज का लेक्चर सुनकर आदमी का भाव आसानी से ताड़ लिया जाता है । मुझे एक हरिसभा में ले गये थे । आचार्य थे एक पण्डित, नाम समाध्यायी था । कहा, ईश्वर नीरस हैं, हमें अपने प्रेम और भक्ति से उन्हें सरस कर लेना चाहिए । यह बात सुनकर मैं तो दंग रह गया । तब एक कहानी याद आ गयी ।
एक लड़के ने कहा था, मेरे मामा के गौशाला (cowshed) में बहुत से घोड़े हैं - गोशाले भर । अब सोचो, अगर गोशाला है, तो वहाँ गौओं का रहना ही सम्भव है, घोड़ों का नहीं । जानते हो। इस तरह की असंगत, बेतुकी बातों (incoherent statement) को सुनकर लोग क्या समझते हैं ? यही कि इसके मामा के यहाँ घोड़े-सोड़े कहीं कुछ नहीं हैं ! क्योंकि सचमुच गौशाला होती तो उसमें घोड़े नहीं रखे जा सकते थे, गौशाला में तो गायों का रहना ही सम्भव है।(सब हँसते है ।)
MASTER (to Pratap): "One can very well understand the inner feeling of a teacher of your Brahmo Samaj by hearing his preaching. Once I went to a meeting of a Hari Sabha. The preacher of the day was a pundit named Samadhyayi. And can you imagine what he said? He said in the course of his sermon: 'God is dry. We must make Him sweet and fresh with our love and devotion.' I was stunned to hear these words. Then I was reminded of a story. A boy once said: 'At my uncle's house there are many horses. Oh, yes! His whole cow-shed is full of them.' Now if it was really a cow-shed, then horses could not be kept there. Possibly he had only cows. What did people think on hearing such an incoherent statement? They believed that there were surely no such animals as horses in the shed." (Laughter.)
শ্রীরামকৃষ্ণ (প্রতাপের প্রতি) — দেখো, তোমাদের ব্রাহ্মসমাজের লেকচার শুনলে লোকটার ভাব বেশ বোঝা যায়। এক হরিসভায় আমায় নিয়ে গিছিল। আচার্য হয়েছিলেন একজন পণ্ডিত, তাঁর নাম সামাধ্যায়ী। বলে কি, ঈশ্বর নীরস, আমাদের প্রেমভক্তি দিয়ে তাঁকে সরস করে নিতে হবে। এই কথা শুনে অবাক্! তখন একটা গল্প মনে পড়ল। একটি ছেলে বলেছিল, আমার মামার বাড়িতে অনেক ঘোড়া আছে, একগোয়াল ঘোড়া! এখন গোয়াল যদি হয় তাহলে কখনও ঘোড়া থাকতে পারে না, গরু থাকাই সম্ভব। এরূপ অসম্বদ্ধ কথা শুনলে লোকে কি ভাবে? এই ভাবে যে, ঘোড়া-টোড়া কিছুই নাই (সকলের হাস্য)
एक भक्त - घोड़े तो हैं ही नहीं, गौएँ भी नहीं हैं ! (सब हँसते हैं ।)
A DEVOTEE: "True, sir, there were not only no horses, but possibly there were also no cows!" (Laughter.)
[একজন ভক্ত — ঘোড়া তো নাই-ই। গরুও নাই। (সকলের হাস্য)
श्रीरामकृष्ण - देखो न, जो रस-स्वरूप हैं, उन्हें कहता है 'नीरस'; इससे यही समझ में आता है कि ईश्वर क्या चीज हैं, उसने कभी अनुभव भी नहीं किया ।
MASTER: "Just fancy, to describe God, who is of the very nature of Love and Bliss, as dry! It only proves that the man has never experienced what God is like.
[শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখ দেখিন্, যিনি রসস্বরূপ তাঁকে কিনা বলছে ‘নীরস’। এতে এই বোঝা যায় যে, ঈশ্বর যে কি জিনিস, কখনও অনুভব করে নাই।
(७)
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆 ब्रह्म समाज के अध्यक्ष प्रताप को श्री रामकृष्ण का उपदेश 🔆
श्रीरामकृष्ण - (प्रताप से) - देखो, तुमसे कहता हूँ । तुम पढ़ेलिखे बुद्धिमान और गम्भीर हो । केशव और तुम मानो गौरांग और नित्यानन्द ~ दोनों भाई थे । लेक्चर देना, तर्क झाड़ना, वादविवाद यह सब तो खूब हुआ । क्या तुम्हें ये सब अब भी अच्छे लगते हैं ? अब सब मन समेटकर ईश्वर पर लगाओ । अपने को अब ईश्वर में उत्सर्ग कर दो ।
(To Pratap) "Let me tell you something. You are a learned and intelligent and serious-minded soul. Keshab and you were like the two brothers, Gaur and Nitai. You have had enough of lectures, arguments, quarrels, discussions, and dissensions. Can such things interest you any more? Now gather your whole mind and direct it to God. Plunge deep into God."
[শ্রীরামকৃষ্ণ (প্রতাপের প্রতি) — দেখ, তোমায় বলি, তুমি লেখাপড়া জান, বুদ্ধিমান, গম্ভীরাত্মা। কেশব আর তুমি ছিলে, যেন গৌর-নিতাই দুভাই। লেকচার দেওয়া, তর্ক, ঝগড়া, বাদ-বিসম্বাদ — এসব অনেক তো হল। আর কি এ-সব তোমার ভাল লাগে? এখন সব মনটে কুড়িয়ে ঈশ্বরের দিকে দাও। ঈশ্বরেতে এখন ঝাঁপ দাও।
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆ब्रह्म समाज के अध्यक्ष प्रताप को उपदेश 🔆
🔱🙏अब तुम लेक्चर देना, तर्क झाड़ना, वाद-विवाद छोड़कर ईश्वर में डूब जाओ 🔱🙏
प्रताप – जी हाँ, इसमें क्या सन्देह है; यही करना चाहिए, परन्तु यह सब जो मैं कर रहा हूँ, उनके (केशव के) नाम की रक्षा के लिए ही कर रहा हूँ ।
PRATAP: "Yes, sir, you are right. That is surely my only duty now. But I am doing all these things only to perpetuate Keshab's name."
[প্রতাপ — আজ্ঞা হাঁ, তার সন্দেহ নাই, তাই করা কর্তব্য। তবে এ-সব করা তাঁর নামটা যাতে থাকে।
श्रीरामकृष्ण - (हँसकर) - तुमने कहा तो है कि उनके नाम की रक्षा के लिए सब कुछ कर रहे हो; परन्तु कुछ दिन बाद यह भाव भी न रह जायगा । एक कहानी सुनो ।
किसी आदमी का घर पहाड़ पर था, घर क्या, कुटिया थी । बड़ी मेहनत करके उसने बनाया था । कुछ दिन बाद एक बहुत बड़ा तूफान आया । कुटिया हिलने लगी । तब उसे बचाने के लिए उस आदमी को बड़ी चिन्ता हुई । उसने कहा, हे पवन देव, देखो महाराज, घर न तोड़ियेगा । पवन देव क्यों सुनने लगे? कुटिया चरचराने लगी । तब उस आदमी ने एक उपाय सोच निकाला ।
उसे याद आ गया कि हनुमानजी पवन के लड़के हैं । बस, घबराया हुआ वह कहने लगा - दोहाई है, घर न तोड़ियेगा, दोहाई है, हनुमानजी का घर है । कितनी ही बार उसने कहा, 'हनुमानजी का घर है', 'हनुमानजी का घर है’, पर इससे कोई लाभ न हुआ । तब कहने लगा, 'महाराज, लक्ष्मणजी का घर है - लक्ष्मणजी का ।'
इससे भी कुछ हल न हुआ । तब कहा, 'सुनो, यह श्रीरामचन्द्रजी का घर है, देखो महाराज, इसे अब न तोड़िये । दोहाई है, जय रामजी की ।’ इससे भी कुछ न हुआ । घर चरचराता हुआ टूटने लगा । तब जान बचाने की फिक्र हुई । वह घर से निकल आया । निकलते समय कहा – ‘धत्तेरे घर की !’
MASTER (with a smile): "No doubt you say now that you are doing all this to keep his name alive; but in a few days you won't feel that way. Listen to a story. A man had built a house on a hill. It was only a mud hut, but he had built it with great labour. A few days after, there came a violent storm and the hut began to rock. The man became very anxious to save it and prayed to the god of the winds, 'O god of the winds, please don't wreck the house!' But the god of the winds paid no heed to his prayer. The house was about to crash. Then he thought of a trick. He remembered that Hanuman man was the son of the god of the winds. At once he cried out with great earnestness: 'O revered sir, please don't pull down the house. It belongs to Hanuman. I beseech you to protect it.' But still the house continued to shake violently. Nobody seemed to listen to his prayer. He repeated many times, 'Oh, this house belongs to Hanuman!' But the fury of the wind did not abate. Then he remembered that Hanuman was the devoted servant of Rama, whose younger brother was Lakshmana. Desperately the man prayed, crying aloud, 'Oh, this house belongs to Lakshmana!' But that also failed to help matters. So the man cried out as a last resort: 'This is Rama's house. Don't break it down, O god of the winds! I beseech you most humbly.' But this too proved futile, and the house began to crash down. Whereupon the man, who now had to save his own life, rushed out of it with the curse: 'Let it go! This is the devil's own hut!'
শ্রীরামকৃষ্ণ (হাসিয়া) — তুমি বলছো বটে, তাঁর নাম রাখবার জন্য সব করছো; কিন্তু কিছুদিন পরে এ-ভাবও থাকবে না। একটা গল্প শোন —“একজন লোকের পাহাড়ের উপর একখানা ঘর ছিল। কুঁড়েঘর। অনেক মেহনত করে ঘরখানি করেছিল। কিছুদিন পরে একদিন ভারী ঝড় এল। কুঁড়েঘর টলটল করতে লাগল। তখন ঘর রক্ষার জন্য সে ভারী চিন্তিত হল। বললে, হে পবনদেব, দেখো ঘরটি ভেঙো না বাবা! পবনদেব কিন্তু শুনছেন না। ঘর মড়মড় করতে লাগল; তখন লোকটা একটা ফিকির ঠাওরালে; — তার মনে পড়ল যে, হনুমান পবনের ছেলে। যাই মনে পড়া অমনি ব্যস্ত হয়ে বলে উঠল — বাবা! ঘর ভেঙো না, হনুমানের ঘর, দোহাই তোমার। ঘর তবুও মড়মড় করে। কেবা তার কথা শুনে। অনেকবার 'হনুমানের ঘর' 'হনুমানের ঘর' করার পরে দেখলে যে কিছুই হল না। তখন বলতে লাগল, বাবা 'লক্ষণের ঘর!''লক্ষণের ঘর!' তাতেও হল না। তখন বলে বাবা, 'রামের ঘর!' 'রামের ঘর!' দেখো বাবা ভেঙো না, দোহাই তোমার। তাতেও কিছু হল না, ঘর মড়মড় করে ভাঙতে আরম্ভ হল। তখন প্রাণ বাঁচাতে হবে, লোকটা ঘর থেকে বেরিয়ে আসবার সময় বলছে — যা শালার ঘর!
(प्रताप से) “केशव के नाम की रक्षा तुम्हें न करनी होगी । जो कुछ हुआ है, समझना, उन्हीं की इच्छा से हुआ है । उनकी इच्छा से हुआ और उन्हीं की इच्छा से जा रहा है; तुम क्या कर सकते हो? तुम्हारा इस समय कर्तव्य है कि ईश्वर पर सब मन लगाओ - उनके प्रेम के समुद्र में कूद पड़ो ।"
(To Pratap): "You don't have to perpetuate Keshab's name. Remember that he achieved all his success through the will of God. Through the divine will his work was established, and through the divine will it is disintegrating. What can you do about it? Now it is your bounden duty to give your entire mind to God, to plunge deep into the Ocean of His Love."
[(প্রতাপের প্রতি) — “কেশবের নাম তোমায় রক্ষা করতে হবে না। যা কিছু হয়েছে, জানবে — ঈশ্বরের ইচ্ছায়! তাঁর ইচ্ছাতে হল আবার তাঁর ইচ্ছাতে যাচ্ছে; তুমি কি করবে? তোমার এখন কর্তব্য যে ঈশ্বরেতে সব মন দাও — তাঁর প্রেমের সাগরে ঝাঁপ দাও।
[ 1989 में तारा -निकेतन में ठाकुर आगमन के अवसर पर- वरिष्ठ सदस्यों के लिए 'वेंकट महाराज' (स्वामी आत्मविदानन्द) द्वारा पाठ 🔆
यह कहकर श्रीरामकृष्ण अपने मधुर कण्ठ से गाने लगे –
डूब डूब डूब रूप सागरे आमार मन
तलातल पाताल खुंजले पाबि रे प्रेम रत्न धन ||
खोंज खोंज खोंज खुंजले पाबि हृदय माझे वृंदावन
दिप दिप दिप ज्ञानेर बाति जलबे हृदय अनुक्षण ||
डैंग डैंग डैंग डाँगाय डिंगे चालाय आबार से कोन जन |
‘कुबिर’ बोले शोन शोन शोन, भाब गुरुर श्रीचरण ||
“ऐ मन, तूँ माँ काली के रूप के समुद्र में डूब जा (अर्थात विवेक-दर्शन के अभ्यास में या अवतार वरिष्ठ ठाकुर देव के विभिन्न-नामरूप के समुद्र में डूब जा ), और 'उभयतो-वहिनी चित्त नदी ' के विषयस्रोत की ओर बहने वाली प्रवाह पर " खिलीक्रियते " --वैराग्य का फाटक लगाकर तलातल और पाताल तक में जब खोज करेगा, तब 'वह' प्रेम-रत्नधन (सच्चिदानन्द) तेरे हाथ लगेगा।” हे मन , जाओ और अपने ह्रदय में ही पंचवटी , नहबत , और श्रीरामकृष्ण देव (ठाकुर) के उस कमरे को देखने का प्रयास करो , जहाँ वे अपने प्रिय भक्तों के साथ शाश्वत लीला कर रहे हैं। हे मन , अपने ह्रदय में छाये हजार वर्षों के अंधकार को , 'विवेकज-ज्ञान की ज्योति' से जगमग कर दो , और विवेक-दर्शन की ज्योति को वहाँ निरन्तर प्रज्ज्वलित रखो। वह माँझी (boatman, नाविक) कौन है , जो तुम्हारी नौका को देश-काल -निमित (या स्थूल , सूक्ष्म और कारण शरीर) के परे ले जाते हैं ? कुबीर कहते हैं वह नाविक और कोई नहीं , तुम्हारे अपने गुरु (मार्गदर्शक नेता , C-IN-C नवनीदा) ही हैं , उनके पवित्र चरण-कमलों का ध्यान करो !
[साभार http://vivek-anjan.blogspot.com/2018/04/blog-post.html]
[এই কথা বলিয়া ঠাকুর সেই অতুলনীয় মধুর গান গাহিতে লাগিলেন:
ডুব্ ডুব্ ডুব্ রূপসাগরে আমার মন।
তলাতল পাতাল খুঁজলে পাবি রে প্রেম রত্নধন ৷৷
Dub Dub Dub Rup Sagore Amar Mon
Dub Dub Dub Dub Sagore Amar Mon
Tolatol patal khujle
pabi re prem rotno dhon
Khoj khoj khoj khujle pabi
Hridoy majhe brindabon
Dip Dip Dip gyaner baati
Hride jolbe anukhon
Doob Doob Doob
Roop Sagore Amar Mon
[Saying these words the Master sang in his sweet voice:Dive deep, O mind, dive deep in the Ocean of God's Beauty;If you descend to the uttermost depths,There you will find the gem of Love.Go seek, O mind, go seek Vrindavan in your heart,Where with His loving devoteesSri Krishna sports eternally.Light up, O mind, light up true wisdom's shining lamp,=And let it burn with steady flameUnceasingly within your heart.Who is it that steers your boat across the solid earth?It is your guru, says Kubir;Meditate on his holy feet.
(प्रताप से) "गाना सुना ? लेक्चर और झगड़ा यह सब तो बहुत हो चुका, अब डुबकी लगाओ । और इस समुद्र में डूबने से फिर मरने का भय न रह जायगा, यह तो अमृत का समुद्र है ! यह न सोचना कि इससे आदमी का दिमाग बिगड़ जाता है । मैंने नरेन्द्र से कहा था – यह न सोचना की ज्यादा ईश्वर ईश्वर करने से आदमी पागल हो जाता है ।
The Master continued, addressing Pratap: "Did you listen to the song? You have had enough of lectures and quarrels. Now dive deep into the Ocean of God. There is no fear of death from plunging into this Ocean, for this is the Ocean of Immortality. Don't think that this will make you lose your head. Never for a moment harbour the idea that by thinking too much of God one becomes insane. Once I said to Narendra —"
[(প্রতাপের প্রতি) — “গান শুনলে? লেকচার, ঝগড়া ও-সব তো অনেক হল, এখন ডুব দাও। আর এ-সমুদ্রে ডুব দিলে মরবার ভয় নাই। এ যে অমৃতের সাগর! মনে করো না যে এতে মানুষ বেহেড হয়; মনে করো না যে বেশি ঈশ্বর ঈশ্বর করলে মানুষ পাগল হয়ে যায়। আমি নরেন্দ্রকে বলেছিলাম —”
प्रताप - महाराज, नरेन्द्र कौन ?
[প্রতাপ — মহাশয়, নরেন্দ্র কে?
PRATAP: "Who is Narendra, sir?"
श्रीरामकृष्ण - है एक लड़का । मैंने नरेन्द्र से कहा था, ईश्वर रस का समुद्र है । क्या तेरी इच्छा इस रस के समुद्र में डुबकी लगाने की नहीं होती ? अच्छा, सोच, एक नाँद में रस है और तू मख्खी हो गया है, तो कहाँ बैठकर रस पायेगा ? नरेन्द्र ने कहा, मैं नाँद के किनारे पर बैठकर रस पीऊँगा । मैंने पूछा, क्यों ? किनारे पर क्यों बैठेगा ?
उसने कहा, ज्यादा बढ़ जाऊँगा तो डूब जाऊँगा और जान से भी हाथ धोना होगा । तब मैंने कहा, बेटा, सच्चिदानन्द-समुद्र में वह भय नहीं है । वह तो अमृत का समुद्र है, उसमें डुबकी लगाने से मृत्यु का भय नहीं है । आदमी अमर हो जाता है । ईश्वर के लिए पागल होने से आदमी का सिर बिगड़ नहीं जाता ।
’MASTER : "Oh, never mind. There is a young man of that name. I said to Narendra: 'Look here, my boy. God is the Ocean of Bliss. Don't you want to plunge into this Ocean? Suppose there is a cup of syrup and you are a fly. Where will you sit to sip the syrup?' Narendra said, 'I will sit on the edge of the cup and stick my head out to drink it.' 'Why?' said I. 'Why should you sit on the edge?' He replied, 'If I go far into the syrup, I shall be drowned and lose my life.' Then I said to him: 'But, my child, there is no such fear in the Ocean of Satchidananda. It is the Ocean, of Immortality. By plunging into It a man does not die; he becomes immortal. Man does not lose his consciousness by being mad about God.
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ও আছে একটি ছোকরা। আমি নরেন্দ্রকে বলেছিলুম, দেখ, ঈশ্বর রসের সাগর। তোর ইচ্ছা হয় না কি যে, এই রসের সাগরে ডুব দিই? আচ্ছা মনে কর, এক খুলি রস আছে, তুই মাছি হয়েছিস; তা কোন্খানে বসে রস খাবি? নরেন্দ্র বললে, ‘আমি খুলির কিনারায় বসে মুখ বাড়িয়ে খাব।’ আমি জিজ্ঞাসা কল্লুম, কেন? কিনারায় বসবি কেন?
সে বললে, ‘বেশি দূরে গেলে ডুবে যাব, আর প্রাণ হারাব!’ তখন আমি বললুম, ‘বাবা! সচ্চিদানন্দসাগরে ডুব দিলে মৃত্যু হয় না, মানুষ অমর হয়। ঈশ্বরেতে পাগল হলে মানুষ বেহেড হয় না।
(भक्तों से) “मैं और मेरा, इसे अज्ञान कहते हैं । रासमणि ने कालीमन्दिर की प्रतिष्ठा की है, यही बात लोग कहते हैं । कोई यह नहीं कहता कि ईश्वर ने किया है ।
ब्राह्म समाज अमुक आदमी ने तैयार किया, यही लोग कहेंगे, कोई यह न कहेगा कि ईश्वर की इच्छा से यह हुआ है । मैंने किया, यह अज्ञान है । हे ईश्वर तुम कर्ता हो, मैं अकर्ता, तुम यन्त्री हो, मैं यन्त्र; यह ज्ञान है । हे ईश्वर, मेरा कुछ भी नहीं है - न यह मन्दिर मेरा है, न यह कालीबाड़ी न यह समाज, ये सब तुम्हारी चीजें हैं । यह स्त्री, पुत्र, परिवार, कुछ भी मेरा नहीं । सब तुम्हारी चीज़े हैं; इसी का नाम ज्ञान है।
(To the devotees) "The feeling of 'I' and 'mine' is ignorance. People say that Rani Rasmani built the Kali temple; but nobody says it was the work of God. They say that such and such a person established the Brahmo Samaj; but nobody says it was founded through the will of God. This feeling, 'I am the doer', is ignorance. On the contrary, the idea, 'O God, Thou art the Doer and I am only an instrument; Thou art the Operator and I am the machine', is Knowledge. After attaining Knowledge a man says: 'O God, nothing belongs to me — neither this house of worship nor this Kali temple nor this Brahmo Samaj. These are all Thine. Wife, son, and family do not belong to me. They are all Thine.'
[(ভক্তদের প্রতি) — ‘আমি’ আর ‘আমার’ এইটির নাম অজ্ঞান। রাসমণি কালীবাড়ি করেছেন, এই কথাই লোকে বলে। কেউ বলে না যে, ঈশ্বর করেছেন। ‘ব্রাহ্মসমাজ অমুক লোক করে গেছেন’ — এ-কথা আর কেউ বলে না যে, ঈশ্বরের ইচ্ছায় এটি হয়েছে! আমি করছি এইটির নাম অজ্ঞান। হে ঈশ্বর, তুমি কর্তা আর আমি অকর্তা; তুমি যন্ত্রী, আমি যন্ত্র; এইটির নাম জ্ঞান। হে ঈশ্বর আমার কিছুই নয় — এ মন্দির আমার নয়, এ কালীবাড়ি আমার নয়, এ সমাজ আমার নয়, এ-সব তোমার জিনিস; এ স্ত্রী, পুত্র, পরিবার এ-সব কিছুই আমার নয়, সব তোমার জিনিস; এর নাম জ্ঞান।
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆माया ईश्वर से विमुख करती है और दया (करुणा -compassion) से ईश्वर की प्राप्ति होती है 🔆
"मेरी वस्तु, मेरी वस्तु कहकर, उन सब चीजों को प्यार करना ही माया है । सब को प्यार करने का नाम दया है । मैं केवल ब्राह्म समाज के आदमियों को प्यार करता हूँ या अपने परिवार के मनुष्यों को, यह माया है । केवल देश के आदमियों को प्यार करता हूँ, यह माया है । सब देशों के मनुष्यों को प्यार करना, सब धर्मों के लोगों को प्यार करना, ऐसा प्रेम ईश्वर की भक्ति से आता है , दया से आता है।
"To love these objects, regarding them as one's own, is maya. But to love all things is daya, compassion. To love only the members of the Brahmo Samaj or of one's own family is maya; to love one's own countrymen is maya. But to love the people of all countries, to love the members of all religions, is daya. Such love comes from love of God, from daya.
[“আমার জিনিস, আমার জিনিস, বলে — সেই সকল জিনিসকে ভালবাসার নাম মায়া। সবাইকে ভালবাসার নাম দয়া। শুধু ব্রাহ্মসমাজের লোকগুলিকে ভালবাসি, কি শুধু পরিবারদের ভালবাসি, এর নাম মায়া। শুধু দেশের লোকগুলিকে ভালবাসি এর নাম মায়া; সব দেশের লোককে ভালবাসা, সব ধর্মের লোকদের ভালবাসা, এটি দয়া থেকে হয়, ভক্তি থেকে হয়।
"माया से आदमी बँध जाता है, ईश्वर से विमुख हो जाता है । दया से ईश्वर की प्राप्ति होती है । शुकदेव, नारद, इनमें दया थी ।"
"Maya entangles a man and turns him away from God. But through daya one realizes God. Sages like Sukadeva and Narada always cherished daya in their hearts."
[“মায়াতে মানুষ বদ্ধ হয়ে যায়, ভগবান থেকে বিমুখ হয়। দয়া থেকে ঈশ্বরলাভ হয়। শুকদেব, নারদ এঁরা দয়া রেখেছিলেন।”
(८)
[ (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
🔆 ठाकुर स्थापना के अवसर प्रवचन : वेंकट महाराज (स्वामी आत्मविदानन्द) 🔆
*प्रताप को उपदेश - ब्राह्म समाज और कामिनी-कांचन*
प्रताप – महाराज, जो लोग आपके पास आते हैं, क्या क्रमशः उनकी उन्नति हो रही है ?
PRATAP: "Revered sir, are those who live with you making progress in spiritual life?"
[প্রতাপ — যারা মহাশয়ের কাছে আসেন, তাঁদের ক্রমে ক্রমে উন্নতি হচ্ছে তো?
श्रीरामकृष्ण - मैं कहता हूँ, संसार करने में (गृहस्थ जीवन में) दोष क्या है ? परन्तु संसार में दासी की तरह रहो ।
“दासी अपने मालिक के मकान को कहती है, 'हमारा मकान', परन्तु उसका अपना मकान कहीं किसी गाँव में होता है । मुख से तो वह मालिक के मकान को कहती है 'हमारा घर', परन्तु मन ही मन जानती है कि वह उसका घर नहीं, उसका घर एक दूसरे गाँव में है । और मालिक के लड़के को सेती है और कहती है, मेरा हरि बड़ा बदमाश हो गया, मेरे हरि को मिठाई पसन्द नहीं आती ! 'मेरा हरि' वह मुख ही से कहती है, मन ही मन जानती है, हरि मेरा लड़का नहीं, मालिक का लड़का है ।
MASTER: "I tell people that there is nothing wrong in the life of the world. But they must live in the world as a maidservant lives in her master's house. Referring to her master's house, she says, 'That is our house.' But her real home is perhaps in a far-away village. Pointing out her master's house to others, she says, no doubt, 'This is our house', but in her heart she knows very well that it doesn't belong to her and that her own house is in a faraway village. She brings up her master's son and says, 'My Hari has grown very naughty', or 'My Hari doesn't like sweets.' Though she repeats, 'My Hari' with her lips, yet she knows in her heart that Hari doesn't belong to her, that he is her master's son.
[শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি বলি যে, সংসার করতে দোষ কি? তবে সংসারে দাসীর মতো থাক।“দাসী মনিবের বাড়ির কথায় বলে, ‘আমাদের বাড়ি’। কিন্তু তার নিজের বাড়ি হয়তো কোন পাড়াগাঁয়ে। মনিবের বাড়িকে দেখিয়ে মুখে বলে, ‘আমাদের বাড়ি’। মনে জানে যে ও-বাড়ি আমাদের নয়, আমাদের বাড়ি সেই পাড়াগাঁয়ে। আবার মনিবের ছেলেকে মানুষ করে, আর বলে, ‘হরি আমার বড় দুষ্টু হয়েছে’; ‘আমার হরি মিষ্টি খেতে ভালবাসে না।’ ‘আমার হরি’ মুখে বলে বটে, কিন্তু জানে যে, হরি আমার নয়, মনিবের ছেলে।
"इसीलिए तो, जो लोग आते हैं, उनसे कहता हूँ संसार में रहो, इसमें दोष नहीं; परन्तु मन ईश्वर पर रखो । समझना कि घर-द्वार, संसार-परिवार तुम्हारे नहीं हैं, ये सब ईश्वर के हैं । समझना कि तुम्हारा घर ईश्वर के यहाँ है । मैं उनसे यह भी कहता हूँ कि व्याकुल होकर उनकी भक्ति के लिए उनके पाद-पद्मों में प्रार्थना करो ।"
"Thus I say to those who visit me: 'Why don't you live in the world? There is no harm in that. But always keep your mind on God. Know for certain that house, family, and property are not yours. They are God's. Your real home is in God.' Also I ask them to pray always with a longing heart for love of God's Lotus Feet."
[“তাই যারা আসে, তাদের আমি বলি, সংসার কর না কেন, তাতে দোষ নাই। তবে ঈশ্বরেতে মন রেখে কর, জেনো যে বাড়িঘর পরিবার আমার নয়; এ-সব ঈশ্বরের। আমার ঘর ঈশ্বরের কাছে। আর বলি যে, তাঁর পাদপদ্মে ভক্তির জন্য ব্যাকুল হয়ে সর্বদা প্রার্থনা করবে।”
विलायत की बात फिर होने लगी । एक भक्त ने कहा, महाराज, आजकल विलायत के विद्वान लोग, (the pundits of England) सुना है, ईश्वर का अस्तित्व नहीं मानते ।
[বিলাতের কথা আবার পড়িল। একজন ভক্ত বলিলেন, আজকাল বিলাতের পণ্ডিতেরা নাকি ঈশ্বর আছেন এ-কথা মানেন না।
Again the conversation turned to the English people. A devotee said, "Sir, I understand that nowadays the pundits of England do not believe in the existence of God."
प्रताप - मुँह से चाहे वे कुछ भी कहें, पर यह मुझे विश्वास नहीं होता कि उनमें कोई सच्चा नास्तिक है । इस संसार की घटनाओं के पीछे एक कोई 'महान् शक्ति' है, यह बात बहुतों को माननी पड़ी है ।
PRATAP: "However they may talk, I don't believe that any of them is a real atheist. Many of them have had to admit that there is a great power behind the activities of the universe."
[প্রতাপ — মুখে যে যা বলুন, আন্তরিক তাঁরা যে কেউ নাস্তিক তা আমার বোধ হয় না। এই জগতের ব্যাপারের পেছনে যে একটা মহাশক্তি আছে, এ-কথা অনেককেই মানতে হয়েছে।
श्रीरामकृष्ण - तो बस हो गया । शक्ति तो मानते हैं न ? तो नास्तिक फिर क्यों है ?
MASTER: "Well, that is enough. They believe in Sakti, don't they? Then why should they be atheists?"
[শ্রীরামকৃষ্ণ — তাহলেই হল; শক্তি তো মানছে? নাস্তিক কেন হবে?
प्रताप - इसके अतिरिक्त यूरोप के पण्डित यह बात भी मानते हैं कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड किसी 'नैतिक सरकार ' (Moral Government) की अध्यक्षता में संचालित है, जहाँ -सत्कर्मों का पुरस्कार और पाप का दण्ड प्राप्तहोता है !
(They also believe in the Moral Government of the universe.)
[প্রতাপ — তা ছাড়া ইওরোপের পণ্ডিতেরা moral government (সৎকার্যের পুরস্কার আর পাপের শাস্তি এই জগতে হয়) এ-কথাও মানেন।
PRATAP: "They also believe in the moral government of the universe."
बड़ी देर तक बातचीत होने के बाद प्रताप चलने के लिए उठे ।
[অনেক কথাবার্তার পর প্রতাপ বিদায় লইতে গাত্রোত্থান করিলেন।
Pratap was now about to take leave of the Master.
श्रीरामकृष्ण - (प्रताप से) - तुम्हें और क्या कहूँ ? केवल इतना कहता हूँ कि अब वाद-विवाद के बीच में न रहो ।
"एक बात और । कामिनी-कांचन ही मनुष्य को ईश्वर से विमुख करते हैं, उस ओर नहीं जाने देते । देखो न, अपनी स्त्री की सब लोग बड़ाई करते हैं । (सब हँसते है ।) चाहे वह अच्छी हो या खराब । अगर पूछो, क्यों जी, तुम्हारी स्त्री कैसी है, तो उसी समय जवाब मिलता है, जी बहुत अच्छी है ।"
"What more shall I say to you? My only request is that you do not involve yourself in quarrels and dissensions any more. Another thing. It is 'woman and gold' that keeps men away from God. That is the barrier. Don't you find that everyone has nothing but praise for his own wife? (All laugh.) A wife may be good or bad; but if you ask her husband about her he will always say, 'Oh, she is very good —'"
{আর কি বলব তোমায়? তবে এই বলা যে, আর ঝগড়া-বিবাদের ভিতর থেকো না।“আর-এককথা — কামিনী-কাঞ্চনই ঈশ্বর থেকে মানুষকে বিমুখ করে। সেদিকে যেতে দেয় না। এই দেখ না, সকলেই নিজের পরিবারকে সুখ্যাত করে। (সকলের হাস্য) তা ভালই হোক আর মন্দই হোক, — যদি জিজ্ঞাসা কর, তোমার পরিবারটি কেমন গা, অমনি বলে, ‘আজ্ঞে খুব ভাল’ — ”
प्रताप - तो मैं अब चलता हूँ ।
प्रताप चले गये । श्रीरामकृष्ण की अमृतमयी, कामिनी और कांचन के त्याग की बात समाप्त नहीं हुई । सुरेन्द्र के बगीचे के पेड़ और उनकी पत्तियाँ दक्षिणी हवा के झोंकों में झूम रही थीं तथा मृदुल मर्मर शब्द सुना रही थीं । बातें उसी मर्मर शब्द के साथ मिल गयीं, भक्तों के हृदय में एक बार धक्का लगाकर अनन्त आकाश में विलीन हो गयीं ।
At this point Pratap bade the Master good-bye. He did not wait to hear the end of Sri Ramakrishna's words about the renunciation of "woman and gold". Those burning words touched the hearts of the devotees and were carried away on the wind through the gently rustling leaves in the garden.
[প্রতাপ — তবে আমি আসি।প্রতাপ চলিয়া গেলেন। ঠাকুরের অমৃতময়ী কথা, কামিনী-কাঞ্চনত্যাগের কথা সমাপ্ত হইল না। সুরেন্দ্রের বাগানের বৃক্ষস্থিত পত্রগুলি দক্ষিণাবায়ু সংঘাতে দুলিতেছিল ও মর্মর শব্দ করিতেছিল। কথাগুলি সেই শব্দের সঙ্গে মিশাইয়া গেল। একবার মাত্র ভক্তদের হৃদয়ে আঘাত করিয়া অবশেষে অনন্ত আকাশে লয়প্রাপ্ত হইল।
কিন্তু প্রতাপের হৃদয়ে কি এ-কথা প্রতিধ্বনিত হয় নাই?
कुछ देर बाद श्रीयुत मणिलाल मल्लिक ने श्रीरामकृष्ण से कहा, 'महाराज, अब दक्षिणेश्वर चलिये । आज वहाँ केशव सेन की माँ और उनके घर की स्त्रियाँ आपके दर्शनों के लिए आयेंगी । आपको वहाँ न पाकर सम्भव है, वे दुःखित हो वहाँ से लौट जायँ ।'
A few minutes later Mani Mallick said to Sri Ramakrishna: "Sir, it is time for you to leave for Dakshineswar. Today Keshab's mother and the other ladies of his family are going to the temple garden to visit you. They will be hurt if they do not find you there."
[কিয়ৎক্ষণ পরে শ্রীযুক্ত মণিলাল মল্লিক ঠাকুরকে বলিতেছেন —মহাশয়, এই বেলা দক্ষিণেশ্বরে যাত্রা করুন। আজ সেখানে কেশব সেনের মা ও বাড়ির মেয়েরা আপনাকে দর্শন করতে যাবেন। তাঁরা আপনাকে না দেখতে পেলে হয়তো দুঃখিত হয়ে ফিরে আসবেন।
केशव को शरीर छोड़े कई महीने हो गये हैं । उनकी वृद्धा माता और घर की स्त्रियाँ, श्रीरामकृष्ण को बहुत दिनों से न देखने के कारण, आज दक्षिणेश्वर में उनके दर्शन करने जायेंगी ।
Keshab had passed away only a few months before. His old mother and his other relatives wanted to visit the Master.
[কয় মাস হইল কেশব স্বর্গারোহন করিয়াছেন। তাই তাঁহার বৃদ্ধা মাতাঠাকুরানী, পরিবার ও বাড়ির অন্যান্য মেয়েরা ঠাকুরকে দর্শন করিতে যাইবেন।
श्रीरामकृष्ण - (मणि मल्लिक से) - ठहरो बाबू, एक तो मेरी आँख नहीं लगी, जल्दबाजी इतनी न कर सकूँगा । वे गयी हैं, तो क्या किया जाय ? वहाँ वे लोग बगीचे में टहलेंगी, आनन्द मनायेंगी ।
MASTER (to Mani Mallick): "Don't hurry me, please. I didn't sleep well. I can't rush. They are going to Dakshineswar. What am I to do about it? They will stroll in the garden and enjoy it thoroughly."
{শ্রীরামকৃষ্ণ (মণি মল্লিকের প্রতি) — রোসো বাপু, একে আমার ঘুম-টুম হয় নাই; — তাড়াতাড়ি করতে পারি না। তারা গেছে তা আর কি করব। আর সেখানে তারা বাগানে বেড়াবে, চ্যাড়াবে — বেশ আনন্দ হবে।
कुछ देर विश्राम करके श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर चले । जाते समय सुरेन्द्र की कल्याण-कामना करते हैं । सब कमरों में एक-एक बार जाते हैं और मृदु स्वर से नामोच्चार कर रहे हैं । कुछ अधूरा न रखेंगे, इसीलिए खड़े हुए कह रहे हैं - 'मैंने उस समय पूड़ी नहीं खायी, थोड़ी सी ले आओ ।'
बिलकुल जरा ही लेकर खा रहे हैं और कह रहे हैं - 'इसके बहुत से अर्थ हैं । पूड़ी नहीं खायी, यह याद आयेगा तो फिर आने की इच्छा होगी ।' (सब हँसते हैं ।)
After resting a little the Master was ready to leave for Dakshineswar. He was thinking of Surendra's welfare. He visited the different rooms, softly chanting the holy name of God. Suddenly he stood still and said: "I didn't eat any luchi at meal-time. Bring me a little now." He ate only a crumb and said: "There is much meaning in my asking for the luchi. If I should remember that I hadn't eaten any at Surendra's house, then I should want to come back for it." (All laugh.)
কিয়ৎক্ষণ বিশ্রাম করিয়া ঠাকুর যাত্রা করিতেছেন — দক্ষিণেশ্বরে যাইবেন। খাইবার সময় সুরেন্দ্রের কল্যাণ চিন্তা করিতেছেন। সব ঘরে এক-একবার যাইতেছেন আর মৃদু মৃদু নামোচ্চারণ করিতেছেন। কিছু অসম্পূর্ণ রাখিবেন না, তাই দাঁড়াইয়া দাঁড়াইয়াই বলিতেছেন, “আমি তখন নুচি খাই নাই, একটু নুচি এনে দাও।” কণিকামাত্র লইয়া খাইতেছেন আর বলিতেছেন, “এর অনেক মানে আছে। নুচি খাই নাই মনে হলে আবার আসবার ইচ্ছা হবে।” (সকলের হাস্য)
मणि मल्लिक – (सहास्य) - अच्छा तो था, हम लोग भी आते । (भक्तमण्डली हँस रही है ।)
মণি মল্লিক (সহাস্যে) — বেশ তো আমরাও আসতাম।
MANI MALLICK: "That would have been nice. Then we too should have come with you."
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' न कोई मरता है और न ही कोई मारता है, सभी निमित्त मात्र हैं... सभी प्राणी जन्म से पहले बिना शरीर के थे, मरने के उपरांत वे बिना शरीर वाले हो जाएंगे। यह तो बीच में ही शरीर वाले देखे जाते हैं, फिर इनका शोक क्यों करते हो।' -सांख्ययोग, गीता
भगवान श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़े गोकुल, वृन्दावन , मथुरा, द्वारिका, हस्तिनापुर, का रोचक रहस्य :
भारत की सात प्राचीन और पवित्र नगरियों में से एक है मथुरा। मथुरा का महत्व उसी तरह है जिस तरह की ईसाइयों के लिए बेथलहेम, बौद्धों के लिए लुम्बिनी और मुस्लिमों के लिए मदीना। मथुरा में भगवान कृष्ण का जन्म हुआ था। जन्म से लेकर निर्वाण तक भगवान कृष्ण के जीवन की घटनाओं में भरपूर रोमांच मिलेगा।
किसी ने कृष्ण के मामा कंस को बताया कि वसुदेव और देवकी की संतान ही उसकी मृत्यु का कारण होगी अत: उसने वसुदेव और देवकी दोनों को जेल में बंद कर दिया। कंस उक्त दोनों की संतान के उत्पन्न होते ही मार डालता था।
भविष्यवाणी के अनुसार विष्णु को देवकी के गर्भ से कृष्ण के रूप में जन्म लेना था, तो उन्होंने अपने 8वें अवतार के रूप में 8वें मनु वैवस्वत के मन्वंतर के 28वें द्वापर में भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की रात्रि के 7 मुहूर्त निकल गए और 8वां उपस्थित हुआ तभी आधी रात के समय सबसे शुभ लग्न उपस्थित हुआ। उस लग्न पर केवल शुभ ग्रहों की दृष्टि थी। रोहिणी नक्षत्र तथा अष्टमी तिथि के संयोग से जयंती नामक योग में लगभग 3112 ईसा पूर्व (अर्थात आज से 5126 वर्ष पूर्व) को हुआ हुआ। ज्योतिषियों के अनुसार रात 12 बजे उस वक्त शून्य काल था।
>>>यमुना के पार गोकुल : - जब कृष्ण का जन्म हुआ तो जेल के सभी संतरी माया द्वारा गहरी नींद में सो गए। जेल के दरवाजे स्वत: ही खुल गए। उस वक्त भारी बारिश हो रही थी। यमुना में उफान था। उस बारिश में ही वसुदेव ने नन्हे कृष्ण को एक टोकरी में रखा और उस टोकरी को लेकर वे जेल से बाहर निकल आए।
कुछ दूरी पर ही यमुना नदी थी। उन्हें उस पार जाना था लेकिन कैसे? तभी (योगमाया का) चमत्कार हुआ। यमुना के जल ने भगवान के चरण छुए और फिर उसका जल दो हिस्सों में बंट गया और इस पार से उस पार रास्ता बन गया।
कहते हैं कि वसुदेव कृष्ण को यमुना के उस पार गोकुल में अपने मित्र नंदगोप के यहां ले गए। वहां पर नंद की पत्नी यशोदा को भी एक कन्या उत्पन्न हुई थी। वसुदेव श्रीकृष्ण को यशोदा के पास सुलाकर उस कन्या को ले गए। गोकुल मां यशोदा का मायका था और नंदगांव में उनका ससुराल। श्रीकृष्ण का लालन-पालन यशोदा व नंद ने किया।
गोकुल यमुना के तट पर बसा एक गांव है, जहां सभी नंदों की गायों का निवास स्थान था। नंद मथुरा के आसपास गोकुल और नंदगांव में रहने वाले आभीर गोपों के मुखिया थे। यहीं पर वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी ने बलराम को जन्म दिया था। बलराम देवकी के 7वें गर्भ में थे जिन्हें योगमाया ने आकर्षित करके रोहिणी के गर्भ में डाल दिया था। यह स्थान गोप लोगों का था। मथुरा से गोकुल की दूरी महज 12 किलोमीटर है।
>>>पूतना का वध : - जब कंस को पता चला कि छलपूर्वक वसुदेव और देवकी ने अपने पुत्र को कहीं ओर भेज दिया है तो उसने चारों दिशाओं में अपने अनुचरों को भेज दिया और कह दिया कि अमुक-अमुक समय पर जितने भी बालकों का जन्म हुआ हो उनका वध कर दिया जाए। पहली बार में ही कंस के अनुचरों को पता चल गया कि हो न हो वह बालक यमुना के उस पार ही छोड़ा गया है।
बाल्यकाल में ही श्रीकृष्ण ने अपने मामा के द्वारा भेजे गए अनेक राक्षसों को मार डाला और उसके सभी कुप्रयासों को विफल कर दिया। सबसे पहले उन्होंने पूतना को मारा। पूतना को उन्होंने नंदबाबा के घर से कुछ दूरी पर ही मारा। नंदगांव में कंस का आतंक बढ़ने लगा तो नंदबाबा ने वहां से पलायन कर दिया। पलायन करने के और भी कई कारण रहे होंगे।
वृंदावन आगमन : - नंदगांव में कंस के खतरे के चलते ही नंदबाबा दोनों भाइयों को वहां से दूसरे गांव वृंदावन लेकर चले गए। वृंदावन कृष्ण की लीलाओं का प्रमुख स्थान है। वृंदावन मथुरा से 14 किलोमीटर दूर है।
श्रीमद्भागवत और विष्णु पुराण के अनुसार कंस के अत्याचार से बचने के लिए नंदजी कुटुंबियों और सजातियों के साथ नंदगांव से वृंदावन में आकर बस गए थे। विष्णु पुराण में वृंदावन में कृष्ण की लीलाओं का वर्णन भी है। यहां श्रीकृष्ण ने कालिया का दमन किया था।
कालिया और धनुक का वध : - फिर कुछ बड़ा होकर उन्होंने कदंब वन में बलराम के साथ मिलकर कालिया नाग का वध किया। फिर इसी प्रकार वहीं ताल वन में दैत्य जाति का धनुक नाम का अत्याचारी व्यक्ति रहता था जिसका बलदेव ने वध कर डाला। उक्त दोनों घटनाओं से कृष्ण और बलदेव की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई थी। इसके अलावा यहां पर उन्होंने यमलार्जुन, शकटासुर वध, प्रलंब वध और अरिष्ट वध किया।
मान्यता है कि यहीं पर श्रीकृष्ण और राधा एक घाट पर युगल स्नान करते थे। इससे पहले कृष्ण की राधा से मुलाकात गोकुल के पास संकेत तीर्थ पर हुई थी। वृंदावन में ही श्रीकृष्ण और गोपियां आंख-मिचौनी का खेल खेलते थे। यहीं पर श्रीकृष्ण और उनके सभी सखा और सखियां मिलकर रासलीला अर्थात तीज-त्योहारों पर नृत्य-उत्सव का आयोजन करते थे।
कृष्ण की शरारतों के कारण उन्हें बांकेबिहारी कहा जाता है। यहां बांके बिहारीजी का मंदिर है। यहां पर यमुना घाट के प्रत्येक घाट से भगवान कृष्ण की कथा जुड़ी हुई है।
वृंदावन के पास ही गोवर्धन पर्वत है। यहीं पर कृष्ण ने लोगों को इंद्र के प्रकोप से बचाया था। उस काल में लोग इंद्र से डरकर उसकी पूजा करते थे। कृष्ण ने उनके इस डर को बाहर निकाला और सिर्फ परमेश्वर के प्रति ही प्रार्थना करने की शिक्षा दी। नंद इन्द्र की पूजा का उत्सव मनाया करते थे। श्रीकृष्ण ने इसे बंद करके कार्तिक मास में अन्नकूट का उत्सव आंरभ कराया।
>>>कंस का वध : - वृंदावन में कालिया और धनुक का सामना करने के कारण दोनों भाइयों की ख्याति के चलते कंस समझ गया था कि ज्योतिष भविष्यवाणी अनुसार इतने बलशाली किशोर तो वसुदेव और देवकी के पुत्र ही हो सकते हैं।
तब कंस ने दोनों भाइयों को पहलवानी के लिए निमंत्रण दिया, क्योंकि कंस चाहता था कि इन्हें पहलवानों के हाथों मरवा दिया जाए, लेकिन दोनों भाइयों ने पहलवानों के शिरोमणि चाणूर और मुष्टिक को मारकर कंस को पकड़ लिया और सबके देखते-देखते ही उसको भी मार दिया।
कंस का वध करने के पश्चात कृष्ण और बलदेव ने कंस के पिता उग्रसेन को पुन: राजा बना दिया। उग्रसेन के 9 पुत्र थे, उनमें कंस ज्येष्ठ था। उनके नाम हैं- न्यग्रोध, सुनामा, कंक, शंकु अजभू, राष्ट्रपाल, युद्धमुष्टि और सुमुष्टिद। उनके कंसा, कंसवती, सतन्तू, राष्ट्रपाली और कंका नाम की 5 बहनें थीं। अपनी संतानों सहित उग्रसेनकुकुर-वंश में उत्पन्न हुए कहे जाते हैं और उन्होंने व्रजनाभ के शासन संभालने के पूर्व तक राज किया।
कृष्ण बचपन में ही कई आकस्मिक दुर्घटनाओं का सामना करने तथा किशोरावस्था में कंस के षड्यंत्रों को विफल करने के कारण बहुत लोकप्रिय हो गए थे। कंस के वध के बाद उनका अज्ञातवास भी समाप्त हुआ और उनके सहित राज्य का भय भी। तब उनके पिता और पालक ने दोनों भाइयों की शिक्षा और दीक्षा का इंतजाम किया।
>>>श्री कृष्ण के गुरु का आश्रम : - दोनों भाइयों को अस्त्र, शस्त्र और शास्त्री की शिक्षा के लिए सांदीपनि के आश्रम भेजा गया, जहां पहुंचकर कृष्ण-बलराम ने विधिवत दीक्षा ली और अन्य शास्त्रों के साथ धनुर्विद्या में विशेष दक्षता प्राप्त की। वहीं उनकी सुदामा ब्राह्मण से भेंट हुई, जो उनका गुरु-भाई हुआ।
इस आश्रम में कृष्ण ने अपने जीवन के कुछ वर्ष बिताकर कई सारी घटनाओं से सामना किया और यहां भी उनको प्रसिद्धि मिली। शिक्षा और दीक्षा हासिल करने के बाद कृष्ण और बलराम पुन: मथुरा लौट आए और फिर वे मथुरा के सेना और शासन का कार्य देखने लगे। उग्रसेन जो मथुरा के राजा थे, वे कृष्ण के नाना थे। कंस के मारे जाने के बाद उसका श्वसुर और मगध का सम्राट जरासंध क्रुद्ध हो चला था।
>>>जरासंध का आक्रमण : - जब कंस का वध हो गया तो मगध का सबसे शक्तिशाली सम्राट जरासंध क्रोधित हो उठा, क्योंकि कंस उसका दामाद था। जरासंघ कंस का श्वसुर था। कंस की पत्नी मगध नरेश जरासंघ को बार-बार इस बात के लिए उकसाती थी कि कंस का बदला लेना है। इस कारण जरासंघ ने मथुरा के राज्य को हड़पने के लिए 17 बार आक्रमण किए। हर बार उसके आक्रमण को असफल कर दिया जाता था।
फिर एक दिन कंस ने कालयवन के साथ मिलकर भयंकर आक्रमण की योजना बनाई। कालयवन की सेना ने मथुरा को घेर लिया। उसने मथुरा नरेश के नाम संदेश भेजा और कालयवन को युद्ध के लिए एक दिन का समय दिया। श्रीकृष्ण ने उत्तर में भेजा कि युद्ध केवल कृष्ण और कालयवन में हो, सेना को व्यर्थ क्यूं लड़ाएं? कालयवन ने स्वीकार कर लिया।
>>रणछोड़ श्री कृष्ण और कालयवन का युद्ध हुआ और कृष्ण रणभूमि छोड़कर भागने लगे, तो कालयवन भी उनके पीछे भागा। भागते-भागते कृष्ण एक गुफा में चले गए। कालयवन भी वहीं घुस गया। गुफा में कालयवन ने एक दूसरे मनुष्य को सोते हुए देखा। कालयवन ने उसे कृष्ण समझकर कसकर लात मार दी और वह मनुष्य उठ पड़ा।उसने जैसे ही आंखें खोलीं और इधर-उधर देखने लगा, तब सामने उसे कालयवन दिखाई दिया। कालयवन उसके देखने से तत्काल ही जलकर भस्म हो गया। कालयवन को जो पुरुष गुफा में सोए मिले। वे इक्ष्वाकु वंशी महाराजा मांधाता के पुत्र राजा मुचुकुन्द थे, जो तपस्वी और प्रतापी थे। उनके देखते ही कालयवन भस्म हो गया। मुचुकुन्द को वरदान था कि जो भी उन्हें उठाएगा वह उनके देखते ही भस्म हो जाएगा।
कालयवन एक यवन सम्राट था, जो कि मलेच्छ देश पर शासन करता था, वह भगवान कृष्ण का शत्रु था । कालयवन ने तीन करोड़ यवन सेना के साथ मथुरा को घेर लिया। चढ़ाई के बाद भगवान कृष्ण ने समस्त मथुरावासियों को द्वारका भेज दिया। कालयवन के मारे जाने के बाद हड़कंप मच गया था। अब विदेशी भी श्रीकृष्ण के शत्रु हो चले थे। तब अंतत: कृष्ण ने अपने 18 कुल के सजातियों को मथुरा छोड़ देने पर राजी कर लिया। वे सब मथुरा छोड़कर रैवत पर्वत के समीप कुशस्थली पुरी (द्वारिका) में जाकर बस गए। -(महाभारत मौसल- 14.43-50)
यह इतिहास का सबसे बड़ा माइग्रेशन था। उग्रसेन, अक्रूर, बलराम सहित लाखों की तादाद में कृष्ण के कुल के यादव अपने पूर्व स्थान द्वारका लौट गए। रह गए तो सिर्फ वे जो कृष्ण कुल से नहीं थे। लाखों की संख्या में मथुरा मंडल के लोगों ने उनको रोकने का प्रयास किया जिनमें दूसरे यदुवंशी भी थे।
सभी की आंखों में आंसू थे, लेकिन कृष्ण को तो जाना ही था। सौराष्ट्र में पहले से ही यदुवंशी लोग रहते थे। यह उनके प्राचीन पूर्वजों की भूमि थी। इस निष्क्रमण के उपरांत मथुरा की आबादी बहुत कम रह गई होगी। कृष्ण के जाने के बाद मथुरा पर जरासंध का शासन हो गया।
>>> द्वारिका : - द्वारिका में रहकर कृष्ण ने सुखपूर्वक जीवन बिताया। यहीं रहकर उन्होंने हस्तिनापुर की राजनीति में अपनी गतिविधियां बढ़ाईं और 8 स्त्रियों से विवाह कर एक नए कुल और साम्राज्य की स्थापना की। द्वारिका वैकुंठ के समान थी। कृष्ण की 8 पत्नियां थीं:- रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती, मित्रवन्दा, सत्या, लक्ष्मणा, भद्रा और कालिंदी। इनसे उनका कई पुत्र और पुत्रियों की प्राप्ति हुई।
इसके बाद कृष्ण ने भौमासुर (नरकासुर) द्वारा बंधक बनाई गई लगभग 16 हजार स्त्रियों को मुक्त कराकर उन्हें द्वारिका में शरण दी। नरकासुर प्रागज्योतिषपुर का दैत्यराज था जिसने इंद्र को हराकर उनको उनकी नगरी से बाहर निकाल दिया था। नरकासुर के अत्याचार से देवतागण त्राहि-त्राहि कर रहे थे। वह वरुण का छत्र, अदिति के कुण्डल और देवताओं की मणि छीनकर त्रिलोक विजयी हो गया था।
वह पृथ्वी की हजारों सुन्दर कन्याओं का अपहरण कर उनको बंदी बनाकर उनका शोषण करता था। मुक्त कराई गई ये सभी स्त्रियां कृष्ण की पत्नियां या रखैल नहीं थीं बल्कि उनकी सखियां और शिष्या थीं, जो उनके राज्य में सुखपूर्वक स्वतंत्रतापूर्वक अपना अपना जीवन-यापन अपने तरीके से कर रही थीं।
>>>पांडवों से कृष्ण की मुलाकात : - एक दिन पंचाल के राजा द्रुपद द्वारा द्रौपदी-स्वयंवर का आयोजन किया गया। उस काल में पांडव के वनवास के 2 साल में से अज्ञातवास का एक साल बीत चुका था। कृष्ण भी उस स्वयंवर में गए। वहां उनकी बुआ (कुंती) के लड़के पांडव भी मौजूद थे। यहीं से पांडवों के साथ कृष्ण की घनिष्ठता का आरंभ हुआ।
पांडव अर्जुन ने मत्स्य भेदकर द्रौपदी को प्राप्त कर लिया और इस प्रकार अपनी धनुर्विद्या का कौशल अनेक देश के राजाओं के समक्ष प्रकट कर दिया। अर्जुन की इस कौशलता से श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए। वहीं उन्होंने पांडवों से मित्रता बढ़ाई और वनवास की समाप्ति के बाद वे पांडवों के साथ हस्तिनापुर पहुंचे।
कुरुराज धृतराष्ट्र ने पांडवों को इंद्रप्रस्थ के आस-पास का प्रदेश दे रखा था। पांडवों ने कृष्ण के द्वारका निर्माण संबंधी अनुभव का लाभ उठाया।
उनकी सहायता से उन्होंने भी जंगल के एक भाग को साफ कराकर इंद्रप्रस्थ नगर को अच्छे और सुंदर ढंग से बसाया। इसके बाद कृष्ण द्वारका लौट गए। फिर एक दिन अर्जुन तीर्थाटन के दौरान द्वारिका पहुंच गए। वहां कृष्ण की बहन सुभद्रा को देखकर वे मोहित हो गए। सुभद्रा महाभारत के प्रमुख नायक भगवान श्रीकृष्ण और बलराम की बहन थीं, इनके पिता का नाम वसुदेव और माता का नाम रोहिणी था। कृष्ण ने दोनों का विवाह करा दिया और इस तरह कृष्ण की अर्जुन से प्रगाढ़ मित्रता हो गई।
>>जरासंध का वध : - इंद्रप्रस्थ के निर्माण के बाद युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया और आवश्यक परामर्श के लिए कृष्ण को बुलाया। कृष्ण इंद्रप्रस्थ आए और उन्होंने राजसूय यज्ञ के आयोजन का समर्थन किया।
लेकिन उन्होंने युधिष्ठिर से कहा कि पहले अत्याचारी राजाओं और उनकी सत्ता को नष्ट किया जाए तभी राजसूय यज्ञ का महत्व रहेगा और देश-विदेश में प्रसिद्धि होगी। युधिष्ठिर ने कृष्ण के इस सुझाव को स्वीकार कर लिया, तब कृष्ण ने युधिष्ठिर को सबसे पहले जरासंध पर चढ़ाई करने की सलाह दी।
इसके बाद भीम और अर्जुन के साथ कृष्ण मगध रवाना हुए और कुछ समय बाद मगध की राजधानी गिरिब्रज पहुंच गए। कृष्ण की नीति सफल हुई और उन्होंने भीम द्वारा मल्लयुद्ध में जरासंध का वध करवा डाला। जरासंध की मृत्यु के बाद कृष्ण ने उसके पुत्र सहदेव को मगध का राजा बनाया।
फिर उन्होंने गिरिब्रज के बंदीगृह में बंद सभी राजाओं को मुक्त किया और इस प्रकार कृष्ण ने जरासंध जैसे क्रूर शासक का अंत कर बंदी राजाओं को उनका राज्य पुन: लौटाकर खूब यश पाया। जरासंध के वध के बाद अन्य सभी क्रूर शासक भयभीत हो चले थे। पांडवों ने सभी को झुकने पर विवश कर दिया और इस तरह इंद्रप्रस्थ का राज्य विस्तार हुआ।
इसके बाद युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया। यज्ञ में युधिष्ठिर ने भगवान वेद व्यास, भारद्वाज, सुनत्तु, गौतम, असित, वशिष्ठ, च्यवन, कण्डव, मैत्रेय, कवष, जित, विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिन, क्रतु, पैल, पाराशर, गर्ग, वैशम्पायन, अथर्वा, कश्यप, धौम्य, परशुराम, शुक्राचार्य, आसुरि, वीतहोत्र, मधुद्वंदा, वीरसेन, अकृतब्रण आदि सभी को आमंत्रित किया। इसके अलावा सभी देशों के राजाधिराज को भी बुलाया गया।
इसी यज्ञ में कृष्ण का शत्रु और जरासंध का मित्र शिशुपाल भी आया हुआ था, जो कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी के भाई का मित्र था और जो रुक्मिणी से विवाह करना चाहता था। यह कृष्ण की दूसरी बुआ का पुत्र था इस नाते यह कृष्ण का भाई भी था।
अपनी बुआ को श्रीकृष्ण ने उसके 100 अपराधों को क्षमा करने का वचन दिया था। इसी यज्ञ में कृष्ण का उसने 100वीं बार अपमान किया जिसके चलते भरी यज्ञ सभा में कृष्ण ने उसका वध कर दिया।
>> महाभारत : - द्वारिका में रहकर कृष्ण ने धर्म, राजनीति, नीति आदि के कई पाठ पढ़ाए और धर्म-कर्म का प्रचार किया, लेकिन वे कौरवों और पांडवों के बीच युद्ध को नहीं रोक पाए और अंतत: महाभारत में वे अर्जुन के सारथी बने। उनके जीवन की ये सबसे बड़ी घटना थी। कृष्ण की महाभारत में भी बहुत बड़ी भूमिका थी। कृष्ण की बहन सुभद्रा अर्जुन की पत्नी थीं। श्रीकृष्ण ने ही युद्ध से पहले अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था।
महाभारत युद्ध को पांडवों के पक्ष में करने के लिए कृष्ण को युद्ध के पूर्व कई तरह के छल, बल और नीति का उपयोग करना पड़ा। अंतत: उनकी नीति के चलते ही पांडवों ने युद्ध जीत लिया। इस युद्ध में भारी संख्या में लोग मारे गए। सभी कौरवों की लाश पर विलाप करते हुए गांधारी ने शाप दिया कि- 'हे कृष्ण, तुम्हारे कुल का नाश हो जाए।'
>>>कृष्ण का निर्वाण : - भगवान कृष्ण का जन्म मथुरा में हुआ था। उनका बचपन गोकुल, वृंदावन, नंदगाव, बरसाना आदि जगहों पर बीता। अपने मामा कंस का वध करने के बाद उन्होंने अपने माता-पिता को कंस के कारागार से मुक्त कराया और फिर जनता के अनुरोध पर मथुरा का राजभार संभाला।
कंस के मारे जाने के बाद कंस का ससुर जरासंध कृष्ण का कट्टर शत्रु बन गया। जरासंध के कारण कालयवन मारा गया। उसके बाद कृष्ण ने द्वारिका में अपना निवास स्थान बनाया और वहीं रहकर उन्होंने महाभारत युद्ध में भाग लिया। महाभारत युद्ध के बाद कृष्ण ने 36 वर्ष तक द्वारिका में राज्य किया।
' ततस्ते यादवास्सर्वे रथानारुह्य शीघ्रगान, प्रभासं प्रययुस्सार्ध कृष्णरामादिमिर्द्विज।प्रभास समनुप्राप्ता कुकुरांधक वृष्णय: चक्रुस्तव महापानं वसुदेवेन नोदिता:, पिवतां तत्र चैतेषां संघर्षेण परस्परम्, अतिवादेन्धनोजज्ञे कलहाग्नि: क्षयावह:'।-विष्णु पुराण
धर्म के विरुद्ध आचरण करने के दुष्परिणामस्वरूप अंत में दुर्योधन आदि मारे गए और कौरव वंश का विनाश हो गया। महाभारत युद्ध के पश्चात सांत्वना देने के उद्देश्य से भगवान श्रीकृष्ण गांधारी के पास गए। गांधारी अपने 100 पुत्रों की मृत्यु के शोक में अत्यंत व्याकुल थीं।
भगवान श्रीकृष्ण को देखते ही गांधारी ने क्रोधित होकर उन्हें शाप दिया कि तुम्हारे कारण जिस प्रकार से मेरे 100 पुत्रों का नाश हुआ है, उसी प्रकार तुम्हारे वंश का भी आपस में एक-दूसरे को मारने के कारण नाश हो जाएगा।
भगवान श्रीकृष्ण ने माता गांधारी के उस शाप को पूर्ण करने के लिए अपने कुल के यादवों की मति फेर दी। इसका यह मतलब नहीं कि उन्होंने यदुओं के वंश के नाश का शाप दिया था। सिर्फ कृष्ण वंश को शाप था।
महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। कृष्ण द्वारिका में ही रहते थे। पांडव भी युधिष्ठिर को राज्य सौंपकर जंगल चले गए थे। एक दिन अहंकार के वश में आकर कुछ यदुवंशी बालकों ने दुर्वासा ऋषि का अपमान कर दिया। गांधारी के बाद इस पर दुर्वासा ऋषि ने भी शाप दे दिया कि तुम्हारे वंश का नाश हो जाए।
उनके शाप के प्रभाव से कृष्ण के सभी यदुवंशी भयभीत हो गए। इस भय के चलते ही एक दिन कृष्ण की आज्ञा से वे सभी एक यदु पर्व पर सोमनाथ के पास स्थित प्रभास क्षेत्र में आ गए। पर्व के हर्ष में उन्होंने अति नशीली मदिरा पी ली और मतवाले होकर एक-दूसरे को मारने लगे। इस तरह भगवान श्रीकृष्ण को छोड़कर कुछ ही जीवित बचे रह गए।
एक कथा के अनुसार संयाग से साम्ब के पेट से निकले मूसल को जब भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से रगड़ा गया था तो उसके चूर्ण को इसी तीर्थ के तट पर फेंका गया था जिससे उत्पन्न हुई झाड़ियों को यादवों ने एक-दूसरे को मारना शुरू किया था।
ऋषियों के श्राप से उत्पन्न हुई इन्हीं झाड़ियों ने तीक्ष्ण अस्त्र-शस्त्रों का काम किया ओर सारे प्रमुख यदुवंशियों का यहां विनाश हुआ। महाभारत के मौसल पर्व में इस युद्ध का रोमांचकारी विवरण है। सारे यादव प्रमुख इस गृहयुद्ध में मारे गए।
बचे लोगों ने कृष्ण के कहने के अनुसार द्वारका छोड़ दी और हस्तिनापुर की शरण ली। यादवों और उनके भौज्य गणराज्यों का अंत होते ही कृष्ण की बसाई द्वारका सागर में डूब गई।
भगवान कृष्ण इसी प्रभाव क्षेत्र में अपने कुल का नाश देखकर बहुत व्यथित हुए। वे वहीं रहने लगे। उनसे मिलने कभी-कभार युधिष्ठिर आते थे। एक दिन वे इसी प्रभाव क्षेत्र के वन में एक पीपल के वृक्ष के नीचे योगनिद्रा में लेटे थे, तभी 'जरा' नामक एक बहेलिए ने भूलवश उन्हें हिरण समझकर विषयुक्त बाण चला दिया, जो उनके पैर के तलुवे में जाकर लगा और भगवान श्रीकृष्ण ने इसी को बहाना बनाकर देह त्याग दी।
महाभारत युद्ध के ठीक 36 वर्ष बाद उन्होंने अपनी देह इसी क्षेत्र में त्याग दी थी। महाभारत का युद्ध हुआ था, तब वे लगभग 56 वर्ष के थे। उनका जन्म 3112 ईसा पूर्व हुआ था। इस मान से 3020 ईसा पूर्व उन्होंने 92 वर्ष की उम्र में देह त्याग दी थी।
अंत में कृष्ण के प्रपौत्र वज्र अथवा वज्रनाभ द्वारिका के यदुवंश के अंतिम शासक थे, जो यदुओं की आपसी लड़ाई में जीवित बच गए थे।
द्वारिका के समुद्र में डूबने पर अर्जुन द्वारिका गए और वज्र तथा शेष बची यादव महिलाओं को हस्तिनापुर ले गए। कृष्ण के प्रपौत्र वज्र को हस्तिनापुर में मथुरा का राजा घोषित किया। वज्रनाभ के नाम से ही मथुरा क्षेत्र को ब्रजमंडल कहा जाता है।
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