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बुधवार, 2 जून 2021

🔱🙏 ॐ परिच्छेद- 81, [ (25 मई ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-81] 🔆Lofty Thoughts 🔆Gopal or herd of cows श्री केशब सेन के द्वारा लोक-शिक्षा देना क्यों सम्भव नहीं हुआ ?केशव सेन नेता होकर भी कामिनी-कांचन के भीतर थे/आजीवन इधर (परिवार) -उधर (ईश्वर) दोनों की रक्षा के लिए बढ़े, इसीलिए विशेष कुछ न कर सके । चैतन्यदेव ने लोक-शिक्षा के लिए ही संसार का त्याग किया था /स्त्री मायारूपिणी है ।Woman is the embodiment of maya. I“सभी को देखता हूँ, स्त्रियों के वशीभूत हैं । स्त्री का सुख जिसने छोड़ा, उसने संसार का सुख छोड़ा । यह कामिनी कांचन ही आवरण है ।[पृष्ठभूमि - कलकत्ता फ़ोर्ट दर्शन - महिलाएँ और "ढलान वाला रोड"]कामिनी-कांचन से संयुक्त कोई संन्यासी /नेता कैसा है ? जैसे नवयौवना किशोरी के लिए उसके देह की एक खास बदबू।

परिच्छेद ~८१

(१) 

[ (25 मई ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-81]

  🔱🙏जन्मोत्सव दिन । "निवृत्ति अस्तु महाफला" मार्गदर्शक नेता श्रीरामकृष्ण 

पंचवटी में 

 केदार, विजय, भवनाथ आदि भक्तों के संग  🔱🙏

['निवृत्ति अस्तु महाफला' मार्गदर्शक महामण्डल नेता  'C-IN-C' नवनीदा का (प्रथम जन्मोत्सव दिन 15 अगस्त 1931 है)। 92 वां जन्म दिन 15 अगस्त  2023 को विजय, केदार, भवनाथ आदि भक्तों (Would be Leader) के संग कैम्प में  मनाओ ! ] 

श्रीरामकृष्ण पंचवटी के नीचे पुराने वटवृक्ष के चबूतरे पर विजय, केदार, सुरेन्द्र, भवनाथ, राखाल आदि बहुत से भक्तों (Would be Leaders) के साथ दक्षिण की ओर मुँह किये बैठे हैं । कुछ भक्त चबूतरे पर बैठे हैं । अधिकांश चबूतरे के नीचे, चारों ओर खड़े हुए हैं । दिन के एक बजे का समय होगा । रविवार 25 मई 1884 ई.। श्रीरामकृष्ण का जन्म-दिन फाल्गुन शुक्ला द्वितीया है । परन्तु उनका हाथ अभी अच्छा नहीं हुआ, इसलिय अब तक जन्मोत्सव नहीं मनाया गया था। अब हाथ बहुत कुछ अच्छा है । इसलिए भक्तगण आनन्द मानना चाहते हैं । आज सहचरी ^* का गाना होगा । आज के कार्यक्रम में कीर्तन की प्रसिद्ध गायिका सहचरी, भक्तों के समक्ष भक्ति-गीत प्रस्तुत करेंगी।  

Sunday, May 25, 1884: Sri Ramakrishna was sitting on the cement platform that encircled the trunk of the old banyan-tree in the Panchavati. Vijay, Surendra, Bhavanath, Rakhal, and other devotees were present, a few of them sitting with the Master on the platform, the rest on the ground below. The devotees had thought of celebrating the Master's birthday, which had had to be put off because of his illness. Since Sri Ramakrishna now felt much better, the devotees wanted to have the celebration that day. A woman musician, a famous singer of kirtan, was going to entertain them with devotional songs.

मास्टर श्रीरामकृष्ण को कमरे में न देख पंचवटी की ओर चले आये । देखा, सब के मुख पर प्रसन्नता झलक रही है । उन्होंने यह नहीं देखा कि श्रीरामकृष्ण भी पेड़ के नीचे चबूतरे पर बैठे हैं । मास्टर खड़े थे – श्रीरामकृष्ण के बिलकुल सामने । उन्होंने व्यग्रतापूर्वक पूछा, वे कहाँ हैं ? उनकी यह बात सुनकर सब के सब बड़े जोर से हँस पड़े । एकाएक सामने श्रीरामकृष्ण को देखकर वे लज्जित हो गये, उन्हें साष्टांग प्रणाम किया । देखा श्रीरामकृष्ण के बाई और केदार (चटर्जी)^*१  और विजय (गोस्वामी)^*२  चबूतरे पर बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण दक्षिण की और मुँह किये बैठे हैं ।

[মাস্টার ঠাকুরের ঘরে ঠাকুরকে দেখিতে না পাইয়া পঞ্চবটীতে আসিয়া দেখেন যে, ভক্তেরা সহাস্যবদন — আনন্দে অবস্থান করিতেছেন। ঠাকুর বৃক্ষমূলে চাতালের উপর যে বসিয়া আছেন, তিনি দেখেন নাই অথচ ঠাকুরের ঠিক সম্মুখে আসিয়া দাঁড়াইয়াছেন। তিনি ব্যস্ত হইয়া জিজ্ঞাসা করিতেছেন — তিনি কিথায়? এই কথা শুনিয়া সকলে উচ্চ হাস্য করিলেন। হঠাৎ সম্মুখে ঠাকুরকে দর্শন করিয়া, মাস্টার অপ্রস্তুত হইয়া তাঁহাকে ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিলেন। দেখিলেন, ঠাকুরের বামদিকে কেদার (চাটুজ্যে) এবং বিজয় (গোস্বামী) চাতালের উপর বসিয়া আছেন। ঠাকুর দক্ষিণাস্য।

It was one o'clock in the afternoon. M. had been looking for Sri Ramakrishna in the Master's room. When he did not find him there, he went to the Panchavati and eagerly asked the devotees, "Where is he?" He was standing right in front of the Master but in his excitement did not notice him. The devotees laughed loudly. A moment later M. saw Sri Ramakrishna and felt very much embarrassed. He prostrated himself before the Master, who sat there facing the south and smiling happily. Kedar and Vijay were sitting at his left. These two devotees had had a misunderstanding recently when Kedar had cut off his connexion with the Brahmo Samaj.

[केदार (चटर्जी)^*१  (केदारनाथ चट्टोपाध्याय) - केदारनाथ ठाकुर के एक गृहस्थ शिष्य थे और उनके विशेष प्रिय थे हालीशहर निवासी केदारनाथ का पुश्तैनी मकान ढाका में था। वे  ढाका के एक सरकारी कार्यालय में एकाउंटेंट के पद पर काम करते थे। पहलीबार 1880 ई. में उन्होंने  ठाकुर का दर्शन प्राप्त किया था। अपने प्रारंभिक जीवन में, केदारनाथ ब्रह्म समाज, कर्ताभजा सम्प्रदाय , नवरसिक सम्प्रदाय आदि विभिन्न सम्प्रदायों के सदस्य बने थे , लेकिन अन्त में दक्षिणेश्वर आकर श्रीरामकृष्ण का आश्रय प्राप्त किया था। ढाका में रहते समय, वे श्री श्री विजयकृष्ण गोस्वामी के साथ श्री रामकृष्ण के जीवन और उपदेश पर चर्चा किया करते थे। जैसे ही वे अपनी कर्मभूमि ढाका में अपने कार्यस्थल से कलकत्ता आते थे, वे दक्षिणेश्वर में ठाकुरदेव का सानिध्य प्राप्त करते थे। नरेन्द्रनाथ को   कई विषयों में केदारनाथ के साथ शास्त्रार्थ करने में लगाकर ठाकुरदेव उसका आनन्द लेते थे।  

কেদার (কেদারনাথ চট্টোপাধ্যায়) — ঠাকুরের বিশেষ কৃপাপ্রাপ্ত গৃহীশিষ্য। হালিশহর বাসী কেদারনাথের আদি নিবাস ঢাকায়। তিনি ঢাকাতে সরকারী অফিসে অ্যাকাউটেন্টের কাজ করিতেন। ১৮৮০ খ্রীষ্টাব্দে ঠাকুরের দর্শন লাভ করেন। কেদারনাথ প্রথমজীবনে ব্রাহ্মসমাজ, কর্তাভজা, নবসরিক প্রভৃতি বিভিন্ন সম্প্রদায়ে যোগদান করেন এবং অবশেষে দক্ষিণেশ্বরে শ্রীরামকৃষ্ণের শরণাগত হন। ঢাকায় থাকাকালে শ্রীশ্রীবিজয়কৃষ্ণ গোস্বামীর সহিত শ্রীরামকৃষ্ণ বিষয়ে তঁহার আলোচনা হইত। কর্মস্থল ঢাকা হইতে কলিকাতায় আসিলেই তিনি দক্ষিণেশ্বরে ঠাকুরের নিকট যাইতেন। ঠাকুর নরেন্দ্রনাথের সহিত কেদারনাথের নানাবিষয়ে তর্ক বাধাইয়া বেশ আনন্দ উপভোগ করিতেন।

[विजय (गोस्वामी)^*२  [विजयकृष्ण गोस्वामी : (1841 - 1899)]  - उनका जन्म शान्तिपुर  के प्रसिद्ध अद्वैत वंश में हुआ था । उनके पिता का नाम आनन्द चन्द्र गोस्वामी था । ईश्वर के प्रति उनकी भक्ति बचपन से ही झलकती है। वेदान्त का अध्ययन करने के लिए उन्हें संस्कृत कॉलेज में प्रवेश लिया था । अपने विद्यार्थी जीवन में वे ब्रह्मसमाज के प्रति आकृष्ट होकर महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर के द्वारा ब्राह्मधर्म में दीक्षित हो गए थे। बाद में वे केशव चन्द्र के संपर्क में आये और आगे चलकर ब्रह्मसमाज के आचार्य बने। लेकिन वे केशवचंद्र सेन के किसी -किसी आचरण के समर्थक नहीं थे। यद्यपि वे निराकार ईश्वर के उपासक थे, लेकिन उन्होंने गया में एक योगी से दीक्षा ग्रहण की थी , और यौगिक साधन प्रक्रिया आदि का अभ्यास भी करते थे। केशवचन्द्र सेन से मतभेद के कारण 1886 -87 ईस्वी में उन्होंने ब्रह्मसमाज से त्यागपत्र दे दिया था , और सनातन हिन्दुधर्म में वापस लौट आये थे। ढाका में उनके द्वारा स्थापित एक आश्रम आज भी मौजूद है। बाद में उन्होंने कई लोगों को सनातन धर्म के वैष्णव-सम्प्रदाय  में दीक्षित भी किया था ।  कई अन्य ब्राह्म नेताओं (आचार्यों)  की तरह, वे भी श्री रामकृष्ण के प्रति आकर्षित हो गए थे , तथा  कई बार दक्षिणेश्वर में उनका सानिध्य प्राप्त किया था।  श्री रामकृष्ण के प्रति उनकी भक्ति और श्रद्धा बहुत गहरी थी। विजयकृष्ण  कहा करते थे की उन्होंने अपने जीवन में केवल श्रीरामकृष्णदेव  में ही ईश्वरीयभाव की अभिव्यक्ति शत-प्रतिशत देखी थी। श्रीरामकृष्णदेव की अहेतुकी स्नेह (निःस्वार्थ प्रेम)  को देखकर उनके धार्मिक जीवन में आमूलचूल परिवर्तन हो गया था । अपने जीवन के अंतिम दिनों में वे पुरीधाम चले आये थे , तथा साधन-भजन में रहते हुए एक शिष्य-मण्डली गठित की थी। 1899 ई. में पुरीधाम में ही उन्होंने अपने शरीर को त्याग दिया था। 

বিজয় [বিজয়কৃষ্ণ গোস্বামী] (১৮৪১ - ১৮৯৯) — শান্তিপুরের বিখ্যাত অদ্বৈত বংশে জন্ম। পিতা আনন্দচন্দ্র গোস্বামী। বাল্যবয়স হইতেই ঈশ্বর অনুরাগ লক্ষিত হয়। বেদান্ত অধ্যয়নের জন্য সংস্কৃত কলেজে ভর্তি হন। ছাত্রাবস্থায় ব্রাহ্মধর্মে আকৃষ্ট হইয়া মহর্ষি দেবেন্দ্রনাথ ঠাকুরের নিকট ব্রাহ্মধর্মে দীক্ষিত হন। পরে কেশবচন্দ্র সেনের সংস্পর্শে আসেন এবং পরবর্তীকালে ব্রাহ্মসমাজের আচার্য হইয়াছিলেন। কেশবচন্দ্র সেনের কোন কোন আচরণ তিনি সমর্থন করেন নাই। যদিও তিনি নিরাকার ঈশ্বরের প্রতি অনুরাগী ছিলেন তথাপি গয়াতে এক যোগীর নিকট দীক্ষাগ্রহণ এবং যৌগিক সাধন প্রক্রিয়াদি অভ্যাস করিতে থাকেন। মতপার্থক্যের জন্য ১৮৮৬-৮৭ খ্রীষ্টাব্দে ব্রাহ্মসংঘ ত্যাগ করেন এবং সনাতন হিন্দুধর্মে প্রত্যাবর্তন করেন। ঢাকাতে তাঁহার প্রতিষ্ঠিত একটি আশ্রম আজও বিদ্যমান। পরবর্তী কালে তিনি বহু ব্যক্তিকে বৈষ্ণবমন্ত্রে দীক্ষিত করেন। অন্যান্য ব্রাহ্ম নেতাদের ন্যায় শ্রীরামকৃষ্ণের ভাবে আকৃষ্ট হইয়া তিনি বহুবার দক্ষিণেশ্বরে যাতায়াত করিয়াছেন। শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি তাঁহার গভীর শ্রদ্ধা ভক্তির পরিচয় পাওয়া যায়। বিজয়কৃষ্ণের মতে শ্রীরামকৃষ্ণের মধ্যেই তিনি ষোলআনা ভগবদভাবের প্রকাশ দেখিয়াছিলেন। শ্রীরামকৃষ্ণদেবের অহেতুকী ভালবাসার প্রভাবে তাঁহার ধর্মজীবনে আমূল পরিবর্তন আসে। শেষজীবনে তিনি পুরীধামে সাধন-ভজনে নিযুক্ত থাকিয়া এক শিষ্যমণ্ডলী গঠন করেন। ১৮৯৯ খ্রীষ্টাব্দে এখানেই দেহত্যাগ করেন।]

श्रीरामकृष्ण – (सहास्य, मास्टर से) – देखो, हमने दोनों को – केदार और विजय को कैसा मिला दिया है!

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে, মাস্টারের প্রতি) — দেখ, কেমন দুজনকে (কেদার ও বিজয়কে) মিলিয়ে দিয়েছি!

MASTER (to M., with a smile): "You see how I have united them?"

श्रीवृन्दावन से श्रीरामकृष्ण माधवी-लता ले आये थे । उसे पंचवटी में 1868 ई. में लगाया था । अब वह लता खूब बड़ी हो गयी है । छोटे-छोटे लड़के उस पर बैठकर झूल रहे हैं, नाच रहे हैं, श्रीरामकृष्ण आनन्दपूर्वक देखते हुए कह रहे हैं – ‘बंदर के बच्चों का सा भाव है, गिर जाने पर भी नहीं छोड़ते !’

सुरेन्द्र चबूतरे के नीचे खड़े हैं । श्रीरामकृष्ण स्नेहपूर्वक कह रहे हैं – तुम ऊपर चले आओ, इस तरह पैर भी मजे में झुला सकोगे ।

[শ্রীবৃন্দাবন হইতে মাধবীলতা আনিয়া ঠাকুর পঞ্চবটীতে ১৮৬৮ খ্রীষ্টাব্দে রোপণ করিয়াছিলেন। আজ মাধবী বেশ বড় হইয়াছে। ছোট ছোট ছেলেরা উঠিয়া দুলিতেছে, নাচিতেছে — ঠাকুর আনন্দে দেখিতেছেন ও বলিতেছেন — “বাঁদুরে ছানার ভাব। পড়লে ছাড়ে না।” সুরেন্দ্র চাতালের নিচে দাঁড়াইয়া আছেন। ঠাকুর সস্নেহে বলিতেছেন, “তুমি উপরে এসো না। এমনটা (পা মেলা) বেশ হবে।”

The Master had brought a madhavi creeper from Vrindavan in the year 1868 and had planted it in the Panchavati. The creeper had grown big and strong. Some children were jumping and swinging from it. The Master observed them and laughed. He said: "They are like young monkeys. They will not give up swinging even though they sometimes fall to the ground." Noticing that Surendra was standing before him, the Master said to him affectionately: "Come up and sit with us on the platform. Then you can dangle your feet comfortably." 

 [ (25 मई ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆  हमारा विलायत ईश्वर के पास हैGod is our England ! 🔆  

[আমাদের বিলাত ঈশ্বরের কাছে”  ] 

सुरेन्द्र ऊपर चले गये । भवनाथ ^* कोट पहने हुए बैठे हैं, यह देखकर सुरेन्द्र ने कहा, ‘क्यों जी, आप विलायत जा रहे हैं क्या ?’

[সুরেন্দ্র উপরে গিয়া বসিলেন। ভবনাথ জামা পরিয়া বসিয়াছেন দেখিয়া সুরেন্দ্র বলিতেছেন, “কিহে বিলাতে যাবে নাকি?”

Surendra went up and took his seat. Bhavanath had his coat on. Surendra said to him, "Are you going to England?"

[भवनाथ ^* [भवनाथ चट्टोपाध्याय (1863 - 1896) ] - ठाकुर के एक गृहस्थ भक्त भवनाथ चट्टोपाध्याय का जन्म वर्तमान समय में बरहानगर में अतुलकृष्ण बनर्जी लेन में हुआ था। उनके पिता का नाम रामदास और माता का नाम इच्छामयी देवी। माता-पिता की इकलौती संतान भवनाथ अपनी युवावस्था से ही विभिन्न जनकल्याणकारी गतिविधियों में लगे रहते थे। ब्रह्मसमाज के कार्यक्रमों में भाग लेने के कारण ये नरेन्द्रनाथ के मित्र बन गए थे , शिक्षक का कार्य करने के अलावा 1881 ई. में श्री श्री ठाकुरदेव  का सानिध्य प्राप्त करना उनके जीवन की अविस्मरणीय घटना थी। नरेन्द्रनाथ के साथ उनकी घनिष्टता को देखकर ठाकुर उन्हें 'हरिहरात्मा' कहकर बुलाते थे। इसके अलावा ठाकुर नरेन को कभी-कभी 'पुरुष' और भवनाथ को 'प्रकृति' कहते थे। ठाकुरदेव  दोनों को ही 'नित्यसिद्ध' और 'अरूप के घर' की श्रेणी का इंगित किया करते थे। ठाकुर के द्वारा शरीर त्याग दिए जाने के बाद, वराहनगर में मठ स्थापित करने के लिए मुंशियों का 'भूतेर बाड़ी ' (भुतहा मकान) 10 रुपये प्रति माह पर  किराए पर लिया था । वे एक अच्छे गायक भी थे , तथा ठाकुरदेव को कई बार गाने भी सुनाये थे। 'नीति- कुसम' और  'आदर्शनारी' उनकी लिखी दो पुस्तकें हैं। उनके अनुरोध पर, बरहानगर के 'स्टूडियो फोटोग्राफर 'अविनाश दा ' दक्षिणेश्वर आए थे और विष्णु मंदिर के बरामदे में समाधिस्थ अवस्था में  श्री श्री ठाकुर की घर-घर में पूजित होने वाले छवि का फोटो अपने कैमरे से खींचा था। उन्होंने ठाकुरदेव  को भक्त -ध्रुव की एक तस्वीर भेंट में दी थी , जो अभी दक्षिणेश्वर कालीमंदिर के प्रांगण में स्थित  ठाकुरदेव  के कमरे  की शोभा बढ़ा रही है। बरहानगर मठ की स्थापना के दौरान उन्होंने आर्थिक रूप से यद्यपि कोई मदद नहीं की थी , लेकिन अन्य प्रकार से उन्होंने अपने गुरुभाइयों की बहुत मदद की थी । ठाकुर का देहत्याग करने के बाद, उन्होंने बी. ए पास किया था । बाद में उन्होंने एक स्कूल इंस्पेक्टर के रूप में नौकरी की और ट्रांसफर होकर कलकत्ता से बाहर चले गए, जिसके परिणामस्वरूप  बरहानगर मठ के साथ उनका सम्पर्क कमजोर हो गया।  1886 ई. तक वे भवानीपुर में बिहारी डॉक्टर रोड स्थित एक  मकान में रहते थे। इसी समय उनकी इकलौती पुत्री प्रतिभा का जन्म हुआ था । कालाजार के कारण उन्होंने रामकृष्ण दास लेन में एक किराए के घर में  1896 में शरीर त्याग दिया था 

ভবনাথ [ভবনাথ চট্টোপাধ্যায়] (১৮৬৩ - ১৮৯৬) — ঠাকুরের গৃহীভক্ত ভবনাথ চট্টোপাধ্যায়ের বরাহনগরে বর্তমান অতুলকৃষ্ণ ব্যানার্জী লেনে জন্ম। পিতা রামদাস ও মাতা ইচ্ছাময়ী দেবী। পিতামাতার একমাত্র সন্তান ভবনাথ যৌবনের প্রারম্ভ হইতেই নানা জনহিতকর কার্যে নিযুক্ত থাকিতেন। ব্রাহ্মসমাজে যাতায়াত নরেন্দ্রনাথের সহিত বন্ধুত্ব, শিক্ষকতা করা এবং সর্বোপরি ১৮৮১ খ্রীষ্টাব্দ নাগাদ শ্রীশ্রীঠাকুরের সান্নিধ্যলাভ তাঁহার জীবনের স্মরণীয় ঘটনা। নরেন্দ্রনাথের সহিত তাঁহার অন্তরিকতা দেখিয়া ঠাকুর তাঁহাদিগকে ‘হরিহরাত্মা’ বলিতেন। ইহা ব্যতীত ঠাকুর কখনও নরেনকে ‘পুরুষ’ ও ভবনাথকে ‘প্রকৃতি’ বলিতেন। তিনি উভয়কেই ‘নিত্যসিদ্ধ’ ও ‘অরূপের ঘর’ বলিয়া নির্দিষ্ট করিয়াছিলেন। ঠাকুরের দেহরক্ষার পর বরাহনগরে মঠের জন্য মুন্সীদের ভূতুড়ে বাড়ি মাসিক ১০ টাকা ভাড়ায় ভবনাথ যোগাড় করিয়া দেন। তিনি সুগায়ক ছিলেন, বহুবার ঠাকুরকে গান শুনাইয়াছিলেন। ‘নীতিকুসুম’ ও ‘আদর্শনারী’ তাঁহার রচিত দুইখানি গ্রন্থ। তাঁহারই আহ্বানে বরাহনগরের অবিনাশ দাঁ দক্ষিণেশ্বরে আসিয়া তাঁহার ক্যামেরায় ৺বিষ্ণু মন্দিরের দালানে সমাধিস্থ অবস্থায় শ্রীশ্রীঠাকুরের বহুল প্রচারিত ছবি তোলেন। তিনি ঠাকুরকে ধ্রুবর একটি ফটো উপহার দিয়াছিলেন যেটি বর্তমানে দক্ষিণেশ্বর কালীমন্দিরে ঠাকুরের ঘরের শোভাবর্ধন করিতেছে। বরাহনগরমঠ প্রতিষ্ঠার সময় আর্থিক সাহায্য না করিলেও অন্য দিক দিয়া তিনি অনেক সাহায্য করিয়াছিলেন। ঠাকুরের তিরোধানের পর তিনি বি. এ. পাশ করেন। পরে বিদ্যালয় পরিদর্শনের চাকুরী লইয়া কলিকতার বাহিরে চলিয়া যান, ফলে বরাহনগর মঠের সহিত তাঁহার সম্পর্ক ক্ষীণ হইতে থাকে। তিনি ১৮৮৬ খ্রীষ্টাব্দে ভবানীপুরে বিহারী ডাক্তার রোডে বসবাস করিতে থাকেন। এই সময়ে তাঁহার একমাত্র কন্যা প্রতিভার জন্ম হয়। ১৮৯৬ খ্রীষ্টাব্দে কালাজ্বরে আক্রান্ত হইয়া তিনি রামকৃষ্ণ দাস লেনের ভাড়াবাড়িতে দেহত্যাগ করেন।]

श्रीरामकृष्ण हँसते हुए कहते हैं- हमारा विलायत ईश्वर के पास है ।

श्रीरामकृष्ण भक्तों से अनेक विषयों पर बातचीत कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण – मैं कभी कभी धोती-कपड़ा फेंककर आनन्दमय होकर घूमता था । शम्भू ने एक दिन कहा, ‘क्यों जी, तुम इसीलिए कपड़े फेंककर घूमतें हो ! – बड़ा आराम मिलता है ! – मैंने एक दिन ऐसा करके देखा था ।’

[ঠাকুর হাসিতেছেন ও বলিতেছেন, “আমাদের বিলাত ঈশ্বরের কাছে।” ঠাকুর ভক্তদের সহিত নানা বিষয়ে কথা কহিতেছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি মাঝে মাঝে কাপড় ফেলে, আনন্দময় হয়ে বেড়াতাম। শম্ভু একদিন বলছে, ‘ওহে তুমি তাই ন্যাংটো হয়ে বেড়াও! — বেশ আরাম! — আমি একদিন দেখলাম।’

MASTER (smiling): "God is our England. Now and then I used to leave off my clothes and joyfully roam about naked. Once Sambhu said to me: 'It is very comfortable to walk about naked. That is why you do it. Once I did it myself.'"

सुरेन्द्र – आफिस से लौटकर कपड़े उतारता हुआ कहता हूँ, माँ, तुमने कितने बन्धनों से जकड़ रखा है।

[সুরেন্দ্র — আফিস থেকে এসে জামা চাপকান খোলবার সময় বলি — মা তুমি কত বাঁধাই বেঁধেছ।

SURENDRA: "On returning from the office, as I put away my coat and trousers, I say to the Divine Mother, 'O Mother, how tightly You have bound me to the world!'"

   [ (25 मई ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆ऊँचे विचार ~ lofty thoughts ~ अष्टपाश और तीन गुण  🔆

[সুরেন্দ্র আফিস — সংসার, অষ্টপাশ ও তিনগুণ ]

श्रीरामकृष्ण – अष्टपाशों से बाँध रखा है । लज्जा, घृणा, भय, जाति-अभिमान, संकोच, छिपाने की इच्छा आदि सब ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — অষ্টপাশ দিয়ে বন্ধন। লজ্জা, ঘৃণা, ভয়, জাতি, অভিমান, সঙ্কোচ, গোপনের ইচ্ছা — এই সব।

MASTER: "There are eight fetters with which man is bound: shame, hatred, fear, pride of caste, hesitation, the desire to conceal, and so forth."

श्रीरामकृष्ण गाने लगे । 

আমি ওই খেদে খেদ করি শ্যামা। গান - 

[Sri Ramakrishna sang: Mother, this is the grief that sorely grieves my heart, That even with Thee for Mother, and though I am wide awake, There should be robbery in my house. . . .

শ্যামা মা উড়াচ্ছে ঘুড়ি (ভব সংসার বাজার মাঝে)

ঘুড়ি আশাবায়ু ভরে উড়ে, বাঁধা তাহে মায়া দড়ি।

पहले गाने का भाव है – ‘माँ, मुझे यही खेद है कि तुम्हारे जैसी माता के रहते भी मेरे जागते हुए घर में चोरी हो ।’ दूसरे गाने का अर्थ है – ‘माँ, तुम इस संसार में खूब पतंग उड़ा रही हो । आशा की वायु पर पतंग उड़ रही है, उसमें माया की डोर लगी हुई है ।’

श्रीरामकृष्ण – माया की डोर स्त्री-पुत्र हैं । विषय से वह डोर मांजी गयी है, इसीलिए उसमें इतनी तेजी आ गयी है । विषय अर्थात् कामिनी-कांचन ।

[MASTER: "'Maya's string' means wife and children.

श्रीरामकृष्ण फिर गाने लगे - ... भवे आसा खेलते पाशा , बड़ आशा करेछिलाम .... 

 गीत का भाव – “संसार में पासा खेलने के लिए आना है । यहाँ आकर मैंने बड़ी-बड़ी आशाएँ की थीं । आशा की आशा भग्न दशा ही है । पहले मेरे हक में पंजा आया । पौबारह ! अठारह, सोलह, जिस तरह फिर फिरकर आया करते हैं, उसी तरह मैं भी युग और युगान्तरों में आता गया । कच्चे बारह के पड़ने पर, माँ, पंजे और छक्के में मुझे बंध जाना पड़ा । छः दो आठ, छः चार दस, माँ, ये कोई मेरे वंश में नहीं हैं । इस खेल में मुझे कोई यश न मिला । अब तो बाजी भी खतम होनी चाहती है ।”

[গান - ভবে আসা খেলতে পাশা, বড় আশা করেছিলাম।আশার আশা ভাঙা দশা, প্রথমে পঞ্জুড়ি পেলাম।প’বার আঠার ষোল, যুগে যুগে এলাম ভাল,(শেষে) কচে বারো পেয়ে মাগো, পঞ্জা ছক্কায় বদ্ধ হলাম।ছ-দুই-আট, ছ-চার-দশ, কেউ নয় মা আমার বশ;খেলাতে না পেলাম যশ, এবার বাজী ভোর হইল।

श्रीरामकृष्ण - पंजा अर्थात् पञ्चभूत । पंजे और छक्के में बँध जाना, अर्थात् पञ्चभूतों और षड्रिपुओं के वश में आना छः तीनों नौ को अंगूठा दिखाना, अर्थात् छः रिपुओं के बस में न आना और तीनों गुणों में पार हो जाना ।

[“পঞ্জুড়ি অর্থাৎ পঞ্চভূত। পঞ্জা ছক্কায় বন্দী হওয়া অর্থাৎ পঞ্চভূত ও ছয় রিপুর বশ হওয়া। ‘ছ তিন নয়ে ফাঁকি দিব।’ ছয়কে ফাঁকি দেওয়া অর্থাৎ ছয় রিপুর বশ না হওয়া। ‘তিনকে ফাঁকি দেওয়া’ অর্থাৎ তিন গুণের অতীত হওয়া।

“सत्त्व, रज और तम, इन तीनों गुणों ने आदमी को अपने वश में कर रखा हैं । तीनों भाई-भाई हैं । सत्त्व के रहने पर वह रज को बुला सकता है और रज के रहने पर वह तम को बुला सकता है । तीनों गुण चोर हैं । तमोगुण विनाश करता है, रजोगुण बद्ध करता है, सतोगुन बन्धन तो जरुर खोलता है, परन्तु वह ईश्वर के पास तक नहीं ले जा सकता ।”

[“সত্ত্ব, রজঃ, তমঃ — এই তিন গুণেতেই মানুষকে বশ করেছে। তিন ভাই; সত্ত্ব থাকলে রজঃকে ডাকতে পারে, রজঃ থাকলে তমঃকে ডাকতে পারে। তিন গুণই চোর। তমোগুণে বিনাশ করে, রজোগুণে বদ্ধ করে, সত্ত্ব গুণে বন্ধন খোলে বটে; কিন্তু ঈশ্বরের কাছ পর্যন্ত যেতে পারে না।”

"The three gunas — sattva, rajas, and tamas — have men under their control. They are like three brothers. As long as sattva exists, it calls on rajas for help; and rajas can get help from tamas. The three gunas are so many robbers. Tamas kills and rajas hinds. Sattva no doubt releases man from his bondage, but it cannot take him to God."

विजय – (सहास्य) – सत् भी चोर है न ?

[বিজয় (সহাস্যে) — সত্ত্বও চোর কি না।

VIJAY (smiling): "It is because sattva, too, is a robber."

श्रीरामकृष्ण – (सहास्य) – वह ईश्वर के पास नहीं ले जा सकता, परन्तु रास्ता दिखा देता है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — ঈশ্বরের কাছে নিয়ে যেতে পারে না, কিন্তু পথ দেখিয়ে দেয়।

MASTER (smiling): "True. Sattva cannot take man to God, but it shows him the way."

भवनाथ – वाह ! कैसी सुन्दर बात है !

[ভবনাথ — বাঃ! কি চমৎকার কথা!

BHAVANATH: "These are wonderful words indeed."

श्रीरामकृष्ण – हाँ, यह बड़ी ऊँची बात है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ এ খুব উঁচু কথা।

MASTER: "Yes, this is a lofty thought."

 भक्तगण से सब बातें सुनकर आनन्द मना रहे हैं ।

[ভক্তেরা এই সকল কথা শুনিয়া আনন্দ করিতেছেন।

Listening to these words of the Master, the devotees felt very happy.

(२)

     [ (25 मई ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆कामिनी और कांचन ही माया की आवरण शक्ति है🔆

[যে মাগ সুখ ত্যাগ করেছে, সে তো জগৎ সুখ ত্যাগ করেছে!]

[जिसने स्त्री का सुख छोड़ा उसने संसार का सुख छोड़ा],

श्रीरामकृष्ण - बन्धन का कारण कामिनी कांचन है । कामिनी कांचन ही संसार है । कामिनी कांचन ही हमें ईश्वर को देखने नहीं देता । यह कहकर श्रीरामकृष्ण ने अंगौछे से मुख छिपा लिया । फिर कहा, "क्या अब तुम लोग मुझे देख रहे हो ? यही आवरण है । यह कामिनी कांचन का आवरण दूर हुआ नहीं कि चिदानन्द मिले । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — বন্ধনের কারণ কামিনী-কাঞ্চন। কামিনী-কাঞ্চনই সংসার। কামিনী-কাঞ্চনই ঈশ্বরকে দেখতে দেয় না।এই বলিয়া ঠাকুর নিজের গামছা লইয়া সম্মুখ আবরণ করিলেন। আর বলিতেছেন,  আর আমায় তোমরা দেখতে পাচ্চ? — এই আবরণ! এই কামিনী-কাঞ্চন আবরণ গেলেই চিদানন্দলাভ।

MASTER: "'Woman and gold' is the cause of bondage. 'Woman and gold' alone constitutes samsara, the world. It is 'woman and gold' that keeps one from seeing God. (Holding the towel in front or his face) Do you see my face any more? Of course not. The towel hides it. No sooner is the covering of 'woman and gold' removed than one attains Chidananda, Consciousness and Bliss.

“देखो न, 'जे माग सूख त्याग कोरेछे , से तो जगत सुख त्याग कोरेछे ! ' ~ जिसने स्त्री का सुख छोड़ा उसने संसार का सुख छोड़ा, ईश्वर उसके बहुत निकट हैं ।"

[“দেখো না — যে মাগ সুখ ত্যাগ করেছে, সে তো জগৎ সুখ ত্যাগ করেছে! ইশ্বর তার অতি নিকট।”

"Let me tell you something. He who has renounced the pleasure of a wife has verily renounced the pleasure of the world. God is very near to such a person."

कोई भक्त बैठे, कोई खड़े ये सब बातें सुन रहे हैं ।

[কেহ বসিয়া কেহ দাঁড়াইয়া নিশশব্দে এই কথা শুনিতেছেন।

The devotees listened to these words in silence.

      [ (25 मई ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

 🔆तुम्हारी तो 'नत्थूलाल जैसी' बड़ी-बड़ी मूँछें है , फिरभी तुम माया -मुक्त न हो सके ?  🔆

 (তোমাদের তো এত বড় বড় গোঁফ, তবু তোমরা ওইতেই রয়েছ! বল!) 

श्रीरामकृष्ण - (केदार, विजय आदि से)- स्त्री का सुख जिसने छोड़ा, उसने संसार का सुख छोड़ा । यह कामिनी कांचन ही आवरण है । तुम्हारे इतनी बड़ी बड़ी मूछे हैं, तो भी तुम लोग उसी में हो ! कहो, मन ही मन विचार करके देखो । 

{শ্রীরামকৃষ্ণ (কেদার, বিজয় প্রভৃতির প্রতি) — “মাগ সুখ যে ত্যাগ করেছে, সে জগৎ সুখ ত্যাগ করেছে। — এই কামিনী-কাঞ্চনই আবরণ। তোমাদের তো এত বড় বড় গোঁফ, তবু তোমরা ওইতেই রয়েছ! বল! মনে মনে বিবেচনা করে দেখ!— 

MASTER (to Kedar, Vijay, and the other devotees): "He who has renounced the pleasure of a wife has verily renounced the pleasure of the world. It is 'woman and gold' that hides God. You people have such imposing moustaches, and yet you too are involved in 'woman and gold'. Tell me it isn't true. Search your heart and answer me."}

विजय - जी हाँ, यह सच है ।

[বিজয় — আজ্ঞা, তা সত্য বটে।

VIJAY: "Yes, it is true."

केदार चुप हैं । श्रीरामकृष्ण फिर कहने लगे- “सभी को देखता हूँ, स्त्रियों के वशीभूत हैं । मैं कप्तान के घर गया था । वहाँ से होकर राम के घर जाना था । इसलिए कप्तान से कहा- 'गाड़ी का किराया दे दो।' कप्तान ने अपनी स्त्री से किराया देने को कहा । वह स्त्री भी वैसी ही थी - ‘क्या हुआ' 'क्या हुआ' करने लगी ! अन्त में कप्तान ने कहा, 'खैर वे ही लोग (राम आदि) दे देंगे ।' तुम देख सकते हो कि ,-'गीता-भागवत-वेदान्त सब स्त्री के सामने झुकते हैं (धरे के धरे रह जाते हैं !) । (सब हँसते हैं ।)

[কেদার অবাক্‌ হইয়া চুপ করিয়া আছেন। ঠাকুর বলিতেছেন,“সকলকেই দেখি, মেয়েমানুষের বশ। কাপ্তেনের বাড়ি গিছলাম; — তার বাড়ি হয়ে রামের বাড়ি যাব। তাই কাপ্তেনকে বললাম, ‘গাড়িভাড়া দাও’। কাপ্তেন তার মাগ্‌কে বললে! সে মাগও তেমনি — ‘ক্যা হুয়া’ ‘ক্যা হুয়া’ করতে লাগল। শেষে কাপ্তেন বললে যে, ওরাই (রামেরা) দেবে। গীতা, ভাগবত, বেদান্ত সব ওর ভিতরে! (সকলের হাস্য)

Kedar remained silent. MASTER: "I see that all are under the control of woman. One day I went to Captain's house. From there I was to go to Ram's house. So I said to Captain, 'Please give me my carriage hire.' He asked his wife about it. She too held back and said: 'What's the matter? What's the matter?' At last Captain said, 'Ram will take care of it.' You see, the Gita, the Bhagavata, and the Vedanta all bow before a woman! (All laugh.)

        [ (25 मई ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆तुम इतने बड़े 'वैरागी ' कैसे बन गए कि तुम्हारी कमाई के दो रूपये भी पॉकेट में नहीं ?🔆 

[‘গোলাপীকে ধর, তবে কর্ম হবে।’ গোলাপী বড়বাবুর রাঁড়।”] 

“रुपया-पैसा और सर्वस्व बीबी के हाथ में ! और फिर कहा जाता है मैं दो रुपये भी अपने पास नहीं रख सकता - न जाने मेरा स्वभाव कैसा है ।

{“টাকা-কড়ি সর্বস্ব সব মাগের হাতে! আবার বলা হয়, ‘আমি দুটো টাকাও আমার কাছে রাখতে পারি না — কেমন আমার স্বভাব!’

"A man leaves his money, his property, and everything in the hands of his wife. But he says with affected simplicity, 'I have such a nature that I cannot keep even two rupees with me.']

सरकारी दफ्तर के बड़े बाबू के हाथ में बहुत से काम है, (जिसको चाहे वे टेंडर पास करवा सकते हैं, नौकरी लगवा सकते हैं। ) परन्तु वे किसी को देते नहीं । एक ने कहा गुलाब-जान के पास जाकर सिफारिश कराओ तो काम हो जायगा । गुलाब जान बड़े बाबू की रखैल है ।

{“বড়বাবুর হাতে অনেক কর্ম, কিন্তু করে দিচ্চে না। একজন বললে, ‘গোলাপীকে ধর, তবে কর্ম হবে।’ গোলাপী বড়বাবুর রাঁড়।”

"A man went to an office in search of a job. There were many vacancies, but the manager did not grant his request. A friend said to the applicant, 'Appeal to Golapi, and you will get the job.' Golapi was the manager's mistress.

           [ (25 मई ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆 महिलाओं के प्रति असावधानी मानो कलकत्ता फ़ोर्ट का "ढलान वाला रोड"  🔆

[পূর্বকথা — ফোর্টদর্শন — স্ত্রীলোক ও “কলমবাড়া রাস্তা” ]

"पुरुषों में यह समझ नहीं रह गयी कि देखें कि वे स्त्रियों के कारण कितना उतर गये हैं ।

"किले में जब गाड़ी पर सवार होकर पहुंचा, तब मुझे लगा कि जैसे मैं साधारण रास्ते से ही होकर आया हूँ । लेकिन वहाँ पहुँचने पर देखा, कि मैं तो चार मंजिल नीचे चला गया था । रास्ता ढालू था ।

{“পুরুষগুলো বুঝতে পারে না, কত নেমে গেছে।“কেল্লায় যখন গাড়ি করে গিয়ে পৌঁছিলাম তখন বোধ হল যেন সাধারণ রাস্তা দিয়ে এলাম। তারপরে দেখি যে চারতলা নিচে এসেছি! কলমবাড়া (Sloping) রাস্তা! 

"Men do not realize how far they are dragged down by women. Once I went to the Fort in a carriage, feeling all the while that I was going along a level road. At last I found that I had gone four storeys down. It was a sloping road.}

" जब किसी को भूत पकड़ लेता है, वह नहीं समझ सकता है कि उसे भूत लगा है । यह सोचता है, मैं बिलकुल ठीक हूँ ।"

{যাকে ভূতে পায়, সে জানতে পারে না যে আমায় ভূতে পেয়েছে। সে ভাবে আমি বেশ আছি।”

"A man possessed by a ghost does not know he is under the ghost's control. He thinks he is quite normal."} 

विजय - (सहास्य) - कोई ओझा (exorcist) मिल गया तो वह (Bh) उतार देता है । 

[বিজয় (সহাস্যে) — রোজা মিলে গেলে রোজা ঝাড়িয়ে দেন।

VIJAY (smiling): "But he can be cured by an exorcist if he finds one."

श्रीरामकृष्ण ने इसका विशेष उत्तर नहीं दिया, केवल कहा, "वह ईश्वर की इच्छा है।" वे फिर स्त्रियों के सम्बन्ध में कहने लगे ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ ও-কথার বেশি উত্তর দিলেন না। কেবল বলিলেন —“সে ঈশ্বরের ইচ্ছা।”তিনি আবার স্ত্রীলোক সম্বন্ধে কথা কহিতেছেন।

In answer to Vijay Sri Ramakrishna only said, "That depends on the will of God." Then he went on with his talk about women.] 

             [ (25 मई ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆काम-प्रवृत्ति (Lust) के नशे में 'Hypnotized' सिंह-शावक अपने को भेंड़ समझता है   🔆

श्रीरामकृष्ण - जिससे पूछता हूँ, वही कहता है, जी हाँ, मेरी स्त्री अच्छी है । किसी की स्त्री खराब नहीं निकली । (सब हँसते हैं ।)

"जो लोग कामिनी कांचन लेकर रहते हैं, वे नशे में कुछ समझ नहीं पाते । जो लोग शतरंज खेलते हैं, वे बहुत समय तक नहीं समझते कि कौनसी चाल ठीक होगी; परन्तु जो लोग अलग से देखते हैं वे बहुत कुछ समझते हैं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — যাকে জিজ্ঞাসা করি, সেই বলে আজ্ঞে হাঁ, আমার স্ত্রীটি ভাল। একজনেরও স্ত্রী মন্দ নয়। (সকলের হাস্য)“যারা কামিনী-কাঞ্চন নিয়ে থাকে, তারা নেশায় কিছু বুঝতে পারে না। যারা দাবাবোড়ে খেলে, তারা অনেক সময় জানে না, কি ঠিক চাল। কিন্তু যারা অন্তর থেকে দেখে, তারা অনেকটা বুঝতে পারে।

MASTER: "Everyone I talk to says, 'Yes, sir, my wife is good.' Nobody says that his wife is bad. (All laugh.) Those who constantly live with 'woman and gold' are so infatuated with it that they don't see things properly. Chess-players oftentimes cannot see the right move for their pieces on the board. But those who watch the game from a distance can understand the moves more accurately.

"स्त्री मायारूपिणी है । नारद राम की स्तुति करते हुए कहने लगे - हे राम, जितने पुरुष हैं, सब तुम्हारे ही अंश से हुए हैं और जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब माया रूपिणी सीता के अंश से हुई हैं । मैं और कोई वरदान नहीं चाहता । यही करो जिससे तुम्हारे पादपद्मों में शुद्धा भक्ति हो । फिर तुम्हारे जगत -मोहिनी माया में मुग्ध न होऊँ ।

{“স্ত্রী মায়ারূপিণী। নারদ রামকে স্তব করতে লাগলেন — ‘হে রাম। তোমার অংশে যত পুরুষ; তোমার মায়ারূপিণী সীতার অংশে যত স্ত্রী। আর কোন বর চাই না — এই করো, যেন তোমার পাদপদ্মে শুদ্ধাভক্তি হয়, আর যেন তোমার জগৎমোহিনী মায়ায় মুগ্ধ না হই’!”

"Woman is the embodiment of maya. In the course of his hymn to Rama, Narada said: 'O Rama, all men are parts of Thee. All women are parts of Sita, the personification of Thy maya. Please deign to grant that I may have pure love for Thy Lotus Feet and that I may not be deluded by Thy world-bewitching maya. I do not want any other favour than that.'"

  [ (25 मई ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆 सत् (Real)-असत् (unreal) विवेक के लिए एक-दो दिन गुरुगृहवास आवश्यक 🔆   

सुरेन्द्र के छोटे भाई गिरीन्द्र और उनके भतीजे नगेन्द्र आदि आये हुए हैं । नगेन्द्र वकालत के लिए तैयारी कर रहे हैं ।

[সুরেন্দ্রের কনিষ্ঠ ভ্রাতা গিরীন্দ্র ও তাঁহার নগেন্দ্র প্রভৃতি ভ্রাতুষ্পুত্রেরা আসিয়াছেন। গিরীন্দ্র আফিসের কর্মে নিযুক্ত হইয়াছেন। নগেন্দ্র ওকালতির জন্য প্রস্তুত হইতেছেন।

Surendra's younger brother and his nephews were present. The brother worked in an office and one of the nephews was studying law.

श्रीरामकृष्ण - (गिरीन्द्र आदि से)- तुम लोगों से कहता हूँ, तुम लोग वैवाहिक जीवन में (conjugal life) आसक्त  न हो जाना। देखो, राखाल को ज्ञान और अज्ञान का बोध हो गया है - सत् असत् का विवेक  पैदा हो गया है - अब मैं उससे कहता हूँ तू घर जा, कभी कभी यहाँ आना, दो एक रोज रह जाया करना।

{শ্রীরামকৃষ্ণ (গিরীন্দ্র প্রভৃতির প্রতি) — তোমাদের বলি — তোমরা সংসারে আসক্ত হইও না। দেখো, রাখালের জ্ঞান অজ্ঞান বোধ হয়েছে, — সৎ অসৎ বিচার হয়েছে! এখন তাকে বলি, ‘বাড়িতে যা; কখন এখানে এলি, দুই দিন থাকলি।’

"My advice to you is not to become attached to the world. You see, Rakhal now understands what is knowledge and what is ignorance. He can discriminate between the Real and the unreal. So I say to him: 'Go home. You may come here once in a while and spend a day or two with me.'}

    [ (25 मई ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆संयुक्त परिवार में रहने से आध्यात्मिक साधना में सुविधा होती है 🔆 

"और तुम सब परिवार परस्पर मिलजुल कर रहोगे, तभी तुम्हारा कल्याण होगा, और आनन्दपूर्वक रहोगे। गीतिनाट्य (Opera) वाले सभी कलाकार अगर एक स्वर से गाते हैं तो नाटक अच्छा होता है, और जो लोग सुनते हैं, उन्हें भी आनन्द मिलता है ।

[“আর তোমরা পরস্পর প্রণয় করে থাকবে — তবেই মঙ্গল হবে। আর আনন্দে থাকবে। যাত্রাওয়ালারা যদি একসুরে গায়, তবেই যাত্রাটি ভাল হয়, আর যারা শুনে তাদেরও আহ্লাদ হয়।"

Have a friendly relationship with one another. That will be for your good and make you all happy. In a theatre the performance goes well only if the musicians sing with one voice. And that also gladdens the hearts of the audience.

"ईश्वर पर अधिक मन (75 %) रखकर और संसार में थोड़ा मन (25 %) लगाकर संसार का काम करना ।

"साधुओं/नेता का बारह आने मन ईश्वर पर रहता है, चार आने दूसरे कामों में लगाते हैं । साधु आध्यात्मिक साधनों पर अधिक ध्यान रखते हैं । जैसे सांप अपनी पूंछ को लेकर बहुत संवेदनशील होता है , पूँछ पर पैर रखते फुंफकार उठता है। "

{“ঈশ্বরে বেশি মন রেখে খানিকটা মন দিয়ে সংসারে কাজ করবে।" “সাধুর মন ঈশ্বরে বার আনা, — আর কাজে চার আনা। সাধুর ঈশ্বরের কথাতেই বেশি হুঁশ। সাপের ন্যাজ মাড়ালে আর রক্ষা নাই! ন্যাজে যেন তার বেশি লাগে।”

Do your worldly duties with a part of your mind and direct most of it to God. A sadhu should think of God with three quarters of his mind and with one quarter should do his other duties. He should be very alert about spiritual things. The snake is very sensitive in its tail. Its whole body reacts when it is hurt there. Similarly, the whole life of a sadhu is affected when his spirituality is touched."

      [ (25 मई ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆पंचवटी में सहचारी का कीर्तन - अचानक वर्षा और तूफान (rain-storm) 🔆

[পঞ্চবটীতে সহচরীর কীর্তন — হঠাৎ মেঘ ও ঝড় ]

श्रीरामकृष्ण झाउताल्ले की और जाते समय सींती के गोपाल ^* से छाते के बारे में कह गये हैं । गोपाल ने मास्टर से कहा, 'वे कह गये हैं, अपना छाता कमरे में रख देना ।' पंचवटी में कीर्तन का आयोजन होने लगा । श्रीरामकृष्ण आकर बैठे । सहचरी गा रही है । भक्तरण चारों ओर बैठे हैं, कोई कोई खड़े भी हैं।

कल शनिवार अमावस्या थी । जेठ का महीना है । आज ही से मेघ दिखलायी देने लगे । एकाएक आँधी भी चल पड़ी । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ अपने कमरे में चले आये । निश्चय हुआ कि कीर्तन उसी कमरे में होगा ।

[ঠাকুর ঝাউতলায় যাইবার সময় সিঁথির গোপালকে ছাতির কথা বলিয়া গেলেন। গোপাল মাস্টারকে বলিতেছেন, “উনি বলে গেলেন, ছাতি ঘরে রেখে আসতে।” পঞ্চবটীতলায় কীর্তনের আয়োজন হইল। ঠাকুর আসিয়া বসিয়াছেন। সহচরী গান গাইতেচেন। ভক্তেরা চতুর্দিকে কেহ বসিয়া কেহ দাঁড়াইয়া আছেন। গতকল্য শনিবার অমাবস্যা গিয়াছে। জ্যৈষ্ঠ মাস। আজ মধ্যে মধ্যে মেঘ করিতেছিল। হঠাৎ ঝড় উপস্থিত হইল। ঠাকুর ভক্তসঙ্গে নিজের ঘরে ফিরিয়া আসিলেন। কীর্তন ঘরেই হবে স্থির হইল।

Sri Ramakrishna was going to the pine-grove and asked Gopal of Sinthi to take his umbrella to his room. Arrangements had been made in the Panchavati for the kirtan. When the Master had returned and taken his seat again among the devotees, the musician began her song. Suddenly there came a rain-storm. The Master went back to his room with the devotees, the musician accompanying them to continue her songs there.

 [ (25 मई ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆 'कानू कोथाय ? --'कान्हा कहाँ है ? किशोर विवेक-वाहिनी कैसा है ? ' 🔆 

 श्रीरामकृष्ण (सींती के गोपाल से)- क्यों जी छाता ले आये हो ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সিঁথির গোপালের প্রতি) — হ্যাঁগা ছাতিটা এনেছ?

MASTER (to Gopal): "Have you brought the umbrella?"

गोपाल- जी नहीं, गाना सुनते ही सुनते भूल गया । छाता पंचवटी में पड़ा हुआ है, गोपाल जल्दी से लेने के लिए चले गये ।

[গোপাল — আজ্ঞা, না। গান শুনতে শুনতে ভুলে গেছি! ছাতিটি পঞ্চবটীতে পড়িয়া আছে; গোপাল তাড়াতাড়ি আনিতে গেলেন।

GOPAL: "No, sir. I forgot all about it while listening to the music."The umbrella had been left in the Panchavati and Gopal hurried to fetch it.

श्रीरामकृष्ण - मैं इतना लापरवाह तो हूँ, फिर भी इस दरजे को अभी नहीं पहुँचा । "राखाल ने एक जगह निमन्त्रण की बात पर तेरह तारीख को कह दिया ग्यारह तारीख"और गोपाल ^ आखिर गौओ के पाल (समूह) ही तो हैं ! (सब हँसते हैं ।)

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি যে এতো এলোমেলো, তবু অত দূর নয়!“রাখাল এক জায়গায় নিমন্ত্রণের কথায় ১৩ই-কে বলে ১১ই!“আর গোপাল — গোরুর পাল! (সকলের হাস্য)

MASTER: "I am generally careless, but not to that extent. Rakhal also is very careless. Referring to the date of an invitation, he says 'the eleventh' instead of 'the thirteenth'. And Gopal — he belongs in a heard of cows!"6

“वही, जो एक सुनारों की कहानी है - एक कहता है 'केशव', दूसरा कहता है 'गोपाल', तीसरा कहता है 'हरि', चौथा कहता है 'हर उसमें, उस गोपाल का अर्थ है, गौओं का पाल (समूह) । (सब हँसते हैं ।) 

[“সেই যে স্যাকরাদের গল্পে আছে — একজন বলছে, ‘কেশব’, একজন বলছে, ‘গোপাল’, একজন বলছে, ‘হরি’, একজন বলছে, ‘হর’। সে ‘গোপালের’ মানে গোরুর পাল!” (সকলের হাস্য)

सुरेन्द्र गोपाल को लक्ष्य करके हँसते हुए कह रहे हैं- 'कानू कोथाय ? --'कान्हा कहाँ है ?' ॐ 

[সুরেন্দ্র গোপালের উদ্দেশ্য করিয়া আনন্দে বলিতেছেন — ‘কানু কোথায়?’

[^There is a pun on the word "Gopal", which means also "herd of cows". "गोपाल" एक द्विभाषी शब्द (pun -श्लेशालंकार) है, जिसका एक अर्थ कान्हा या 'किशोर श्री कृष्ण' और दूसरा  "गायों का झुंड" भी होता है।^किशोर विवेक-वाहिनी = कान्हा विवेक-वाहिनी "] 

[सिंथि के गोपाल ^* [गोपाल चंद्र घोष - स्वामी अद्वैतानन्द (1826 - 1909)] - 24 परगना जिले के जगदल के राजपुर गांव में जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम गोवर्धन घोष था। उम्र में वे श्री रामकृष्ण से बड़े थे।ठाकुरदेव उन्हें बूढ़े गोपाल या 'मुरुब्बी' के उपनाम से पुकारा करते थे । श्रीराकृष्ण के भक्त लोग उनको गोपाल दा कहते थे। संन्यास के बाद रामकृष्ण मठ मिशन में उनको  स्वामी अद्वैतानन्द के नाम से जाना जाता है। स्वामी अद्वैतानन्द श्री रामकृष्ण के त्यागी सन्तानों (शिष्यों) में से  एक हैं। गोपालचन्द्र घोष नार्थ कोलकाता के सिंथी निवासी और ब्रह्मसमाज के सदस्य , बेनीमाधव पाल के 'चाइना बाजार ' स्थित एक दुकान में नौकरी करते थे। इसी सम्पर्क से वे सिंथी में रहा करते थे। जब बेनीमाधव पाल के सिंथी वाले मकान में ब्रह्मसमाज का वार्षिक समारोह में श्रीरामकृष्ण गए थे , तब वहीं उन्होंने रामकृष्ण का प्रथम दर्शन किया था। उस समय वे अपनी पत्नी के वियोग में बहुत दुःखी रहा करते थे। ऐसी मानसिक दशा में जब गोपाल  रामकृष्ण के सानिध्य में पहुँचे तब वे उनके प्रेम से बंध गए। उनके श्रीमुख से निसृत ईश्वरीय वचनों और वैराग्य से अनुप्रेरित होकर गोपाल को यह अनुभव हुआ कि जगत के प्रति आसक्ति केवल एक मृगतृष्णा  है तथा केवल वैराग्य ही शोकसन्तप्त जीवन की महाऔषधि है। इस प्रकार गोपाल ने पूर्णरूपेण श्रीरामकृष्ण का आश्रय ग्रहण किया। श्री रामकृष्ण के चरणों में आत्मसमर्पण करने के बाद, उनका उच्च आध्यात्मिक जीवन गठित होने लगा। उन्हें श्री रामकृष्ण की अथक सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। श्रीश्री माँ सारदा देवी भी गोपाल दा के साथ निःसंकोच होकर बातचीत कर सकती थीं। बीमारी के समय के अनुकूल श्री रामकृष्ण के लिए विशेष प्रकार का पथ्य किस प्रकार बनेगा , उसकी विधि डॉक्टर से सीख कर , वे उस विधि को यथासमय श्रीश्री माँ को भी सिखला दिया करते थे। यद्यपि उन्होंने अपना जीवन श्री रामकृष्ण की सेवा में समर्पित कर दिया था, तथापि उनका वैराग्यपूर्ण मन तपस्या के लिए व्याकुल होता था। काशीपुर उद्यानबाड़ी में रहते समय वे एक बार तीर्थयात्रा के लिए गए थे। तब कोलकाता होकर गंगासागर जाने के लिये जो साधु वहाँ पहुंचे थे, उनको गेरुआ वस्त्र , रुद्राक्ष की माला और चन्दन उपहार में देना चाहा।  तब ठाकुरदेव उनको आदेश दिया कि वे उपहार उन्हींके त्यागी शिष्यों में वितरित किये जायें। ठाकुरदेव के निर्देशानुसार गोपाल दादा ने बारह गेरुआ वस्त्र , उतनी ही संख्या में रुद्राक्ष की माला ठाकुर देव को सौंप दिया। तब श्री रामकृष्ण ने अपने हाथों से उन्हें अपने ग्यारह शिष्यों -  नरेन्द्र, राखाल, योगीन्द्र, बाबूराम, निरंजन, तारक, शरत, शशि, गोपाल, काली और लाटू को दान कर दिया।  तथा एक और गेरुआ वस्त्र गिरीश को देने के लिए रख  छोड़ा गया। जिसे बाद में गिरीश चंद्र ने भी ग्रहण कर लिया। यह श्री रामकृष्ण संघ और गोपाल चंद्र के जीवन की एक चिरस्मरणीय घटना है। 16 दिसंबर, 1909 को उनका निधन हो गया।

সিঁথির গোপাল [গোপাল চন্দ্র ঘোষ — স্বামী অদ্বৈতানন্দ] (১৮২৮ - ১৯০৯) — চব্বিশ পরগণা জেলার জগদ্দলের রাজপুর গ্রামে জন্ম। পিতা গোবর্ধন ঘোষ। শ্রীরামকৃষ্ণের অপেক্ষাও তিনি বয়সে বড় ছিলেন। ঠাকুর তাঁহাকে বুড়ো গোপাল অথবা মুরুব্বি আখ্যা দিয়াছিলেন। ভক্তমহলে তাঁহার নাম গোপালদা। সন্ন্যাসের পরে স্বামী অদ্বৈতানন্দ নামে শ্রীরামকৃষ্ণ সঙ্ঘে পরিচিত। শ্রীরামকৃষ্ণের ত্যাগী সন্তানদের মধ্যে স্বামী অদ্বৈতানন্দ অন্যতম। উত্তর কলিকাতার সিঁথি নিবাসী ব্রাহ্মভক্ত ও ব্যবসায়ী বেণীমাধব পালের কলকাতার চীনাবাজারে একটি দোকানে গোপালচন্দ্র চাকুরী করিতেন। সেই সূত্রেই সিঁথিতে বাস করিতেন। বেণীমাধবের সিঁথির বাড়িতেই ব্রাহ্ম সমাজের উৎসবে গোপালচন্দ্র ঠাকুরকে প্রথম দর্শন করেন। স্ত্রী বিয়োগের ব্যথায় তখন তিনি কাতর হইয়াছিলেন। এই অবস্থায় শ্রীরামকৃষ্ণের কাছে আসিয়া তাঁহার ভালবাসায় গোপাল বাঁধা পড়েন। অবিরত ভাগবতী কথা ও বৈরাগ্যের অনুপ্রেরণা পাইয়া গোপাল বুঝিলেন যে, সংসার মায়ামরীচিকা এবং একমাত্র বৈরাগ্যই শোকসন্তপ্ত জীবনের মহৌষধ। এইভাবে গোপাল সম্পূর্ণরূপে শ্রীরামকৃষ্ণের শরণাগত হন। শ্রীরামকৃষ্ণের চরণে আত্মসমর্পণের পরে তাঁহার উচ্চ আধ্যাত্মিক জীবন গঠিত হইতে থাকে। অক্লান্তভাবে শ্রীরামকৃষ্ণের সেবা করিয়া তিনি ধন্য হন। শ্রীশ্রীমা সারদা দেবীও গোপালদার কাছে নিঃসন্দেহে কথাবার্তা বলিতেন। তিনি ডাক্তারের নিকট শ্রীরামকৃষ্ণের জন্য বিশেষ পথ্য প্রস্তুতের প্রণালী শিখিয়া যথা সময়ে উহা শ্রীশ্রীমাকে শিখাইয়া দিতেন। শ্রীরামকৃষ্ণের সেবাতে নিজ জীবন চরিতার্থ করিলেও তাঁহার বৈরাগ্যপূর্ণ মন তপস্যার জন্য ব্যাকুল হইত। কাশীপুরে থাকাকালে একবার তীর্থদর্শনে গিয়াছিলেন। অতঃপর কলিকাতায় সমবেত গঙ্গাসাগর-যাত্রী সাধুদের গেরুয়া বস্ত্র, রুদ্রাক্ষের মালা ও চন্দন দিতে চাহিলে ঠাকুর নির্দেশ দিলেন উহা তাঁহার ত্যাগী ভক্তদের মধ্যে বিতরণ করিতে হইবে। ঠাকুরের নির্দেশে দ্বাদশখানি গেরুয়া বস্ত্র ও সমসংখ্যক রুদ্রাক্ষের মালা তিনি ঠাকুরকে অর্পণ করিলে শ্রীরামকৃষ্ণ নিজে উহা নরেন্দ্র, রাখাল, যোগীন্দ্র, বাবুরাম, নিরঞ্জন, তারক, শরৎ, শশী, গোপাল, কালী ও লাটুকে দান করেন। আরেকখানি গেরুয়া বস্ত্র গিরিশের জন্য রাখিয়া দিয়াছিলেন। পরে গিরিশচন্দ্র তাহা গ্রহণ করেন। শ্রীরামকৃষ্ণ সঙ্ঘে এবং গোপালচন্দ্রের জীবনে ইহা স্মরণীয় ঘটনা। ১৯০৯ খ্রীষ্টাব্দের ১৮শে ডিসেম্বর তিনি স্বধামে গমন করেন।]

(३)

   [ (25 मई ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆सहचरी का गीत-'नारी' को वासना की नजर से देखना नेतृत्व धर्म के विरुद्ध है !🔆  

[বিজয়াদি ভক্তসঙ্গে সংকীর্তনানন্দে — সহচরীর গৌরাঙ্গসন্ন্যাস গান]

कीर्तन करनेवाली (सहचरी) गौरांग के संन्यास का कीर्तन गा रही है - 

"नारी हेरबे ना !"  से जे नेतार धर्म ! 

जीबेर दुःख घुचाईते -नारी हेरिबे ना ! 

ना होले वृथा गौर अवतार ! 

और बार बार इस पंक्ति --"नारी हेरबे ना !"  को दुहराती है - श्री चैतन्य स्त्रियों को मातृ-दृष्टि से देखेंगे  ...... नारी को वासना की नजर से नहीं देखना ,ऐसा करना संन्यास (नेता)  धर्म के विरुद्ध है ! जो नेता मनुष्यों का दुःख दूर करने को आतुर हैं -(तो) नारी को वासना की नजर से नहीं देखना ,(अन्यथा) "भगवान का श्री चैतन्य के रूप में अवतरित होना व्यर्थ होगा।"   

[কীর্তনী গৌরসন্ন্যাস গাইতেছেন ও মাঝে মাঝে আখর দিতেছেন —(নারী হেরবে না!) (সে যে সন্ন্যাসীর ধর্ম!)(জীবের দুঃখ ঘুচাইতে,) (নারী হেরিবে না!)(নইলে বৃথা গৌর অবতার!)

The musician sang a song about the monastic life of Chaitanya. Now and then she improvised lines: "He will not look upon a woman; for that is against the sannyasi's duty." "Eager to take away men's sorrows, he will not look upon a woman." "For the Lord's birth as Sri Chaitanya otherwise would be in vain."] 

 श्रीरामकृष्ण गौरांग-संन्यास का कीर्तन सुनते सुनते खड़े होकर समाधिमग्न हो गये । उसी समय भक्तों ने उनके गले में फूलों की माला डाल दी। भवनाथ और राखाल श्रीरामकृष्ण को पकड़े हुए हैं कि कहीं गिर न जायँ । श्रीरामकृष्ण उत्तर की ओर मुँह किये हुए हैं । विजय, केदार, राम, मास्टर, मनमोहन, लाटू आदि भक्तगण मण्डलाकार उन्हें घेरकर खड़े हैं ।

[ঠাকুর গৌরাঙ্গের সন্ন্যাস কথা শুনিতে শুনিতে দণ্ডায়মান হইয়া সমাধিস্থ হইলেন। অমনি ভক্তেরা গলায় পুষ্পমালা পরাইয়া দিলেন। ভবনাথ, রাখাল, ঠাকুরকে ধারণ করিয়া আছেন — পাছে পড়িয়া যান। ঠাকুর উত্তরাস্য, বিজয়, কেদার, রাম, মাস্টার, মনোমোহন। লাটু প্রভৃতি ভক্তেরা মণ্ডলাকার করিয়া তাঁহাকে ঘেরিয়া দাঁড়াইয়া আছেন। সাক্ষাৎ গৌরাঙ্গ কি আসিয়া ভক্তসঙ্গে হরিণাম-মহোৎসব করিতেছেন!

The Master stood up, as he heard about Chaitanya's renunciation, and went into samadhi. The devotees put garlands of flowers around his neck. Bhavanath and Rakhal supported his body lest he should fall on the ground. Vijay, Kedar, Ram, M., Latu, and the other devotees stood around him in a circle, recalling one of the scenes of Chaitanya's kirtan.

 [ (25 मई ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔱🙏नेता (गुरु C-IN-C नवनीदा) का प्रणाम-मंत्र🔱🙏

  🔆 अँधा प्रेम (Blind love!) देखता है - अखण्ड सच्चिदानन्द ही जीव-जगत् बने हैं  🔆 

[কৃষ্ণ ,সচ্চিদাননদ! — কই তোমার রূপ আজকাল দেখি না!]

धीरे धीरे समाधि छूट रही है । श्रीरामकृष्ण सच्चिदानन्द श्रीकृष्ण से बातचीत कर रहे हैं । 'कृष्ण' इस नाम का एक एक बार उच्चारण कर रहे हैं । कभी कभी साफ उच्चारण भी नहीं होता । कह रहे हैं - "कृष्ण ! कृष्ण ! सच्चिदानन्द ! - कहाँ हो, आजकल तुम्हारा रूप देखने को नहीं मिलता ! अब तुम्हें भीतर भी देख रहा हूँ और बाहर भी । जीव, जगत्, चौबीस तत्त्व सब तुम्हीं हो । मन, बुद्धि सब तुम्हीं हो। गुरु (CINC नवनीदा)  के प्रणाम-मंत्र  में है –

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

तुम्हीं अखण्ड हो, चराचर को व्यापर किये हुए भी तुम्हीं हो । तुम्हीं आधार हो, तुम्हीं आधेय हो । प्राण-कृष्ण ! मन-कृष्ण ! बुद्धि-कृष्ण ! आत्मा-कृष्ण ! प्राण हे गोविन्द ! मेरे जीवन हो !"

[অল্পে অল্পে সমাধি ভঙ্গ হইতেছে। ঠকুর সচিদানন্দ কৃষ্ণের সহিত কথা কহিতেছেন। ‘কৃষ্ণ’ এই কথা এক-একবার উচ্চারণ করিতেছেন, আবার এক-একবার পারিতেছেন না। বলিতেছেন — কৃষ্ণ! কৃষ্ণ! কৃষ্ণ! কৃষ্ণ, সচ্চিদাননদ! — কই তোমার রূপ আজকাল দেখি না! এখন তোমায় অন্তরে বাহিরে দেখছি — জীব, জগৎ, চতুর্বিংশতি তত্ত্ব — সবই তুমি! মন বুদ্ধি সবই তুমি! গুরুর প্রণামে আছে —অখণ্ডমণ্ডলাকারং ব্যাপ্তং যেন চরাচরম্‌।তৎপদং দর্শিতং যেন তস্মৈ শ্রীগুরবে নমঃ।“তুমিই অখণ্ড, তুমিই আবার চরাচর ব্যাপ্ত করে রয়েছ! তুমিই আধার। তুমিই আধেয়! প্রাণকৃষ্ণ! মনকৃষ্ণ! বুদ্ধিকৃষ্ণ! আত্মাকৃষ্ণ! প্রাণ হে গোবিন্দ মম জীবন!”

The Master gradually came down to the sense plane. He was talking to Krishna, now and then uttering the word "Krishna". He could not say it very distinctly because of the intensity of his spiritual emotion. He said: "Krishna! Krishna! Krishna! Krishna Satchidananda! Nowadays I do not see Your form. Now I see You both inside me and outside. I see that it is You who have become the universe, all living beings, the twenty-four cosmic principles, and everything else. You alone have become mind, intelligence, everything. It is said in the "Hymn of Salutation to the Guru': 'I bow down to the Guru by whose grace I have realized Him who pervades the indivisible universe of the animate and the inanimate.'"You alone are the Indivisible. Again, it is You who pervade the universe of the animate and the inanimate. You are verily the manifold universe; again, You alone are its basis. O Krishna! You are my life. O Krishna! You are my mind. O Krishna! You are my intelligence. O Krishna! You are my soul. O Govinda! You are my life-breath. You are my life itself."

विजय को भी आवेश हो गया है । श्रीरामकृष्ण कहते हैं, क्यों बाबू ? क्या तुम भी बेहोश हो गये हो ?

[বিজয়ও আবিষ্ট হইয়াছেন। ঠাকুর বলিতেছেন, “বাবু, তুমিও কি বেহুঁশ হয়েছ?”

Vijay was also in an ecstatic mood. The Master asked him, "My dear sir, have you too become unconscious?" 

विजय - (विनीत भाव से) - जी नहीं ।

[বিজয় (বিনীতভাবে) — আজ্ঞা, না।

"No, sir", said Vijay humbly.

कीर्तन करनेवाली ने गाया – "अँधा प्रेम " “আঁধল প্রেম!” -Blind love!-  और जैसे ही एक पंक्ति को दूसरी बार  दुहराया -ওহে প্রাণবঁধু হে! O Beloved of my soul! हे मेरी आत्मा के प्रियतम ! काश अपने ह्रदय  की गुहा में तुम्हें दिन रात रख पाती ! “সদাই হিয়ার মাঝে রাখিতাম, ওহে প্রাণবঁধু হে!”  श्रीरामकृष्ण फिर समाधिमग्न हो गये । - टूटा हाथ भवनाथ के कन्धे पर है ।

[কীর্তনী আবার গাইতেছেন — “আঁধল প্রেম!” কীর্তনী যাই আখর দিলেন — “সদাই হিয়ার মাঝে রাখিতাম, ওহে প্রাণবঁধু হে!” ঠাকুর আবার সমাধিস্থ! — ভবনাথের কাঁধে ভাঙা হাতটি রহিয়াছে!

The music went on. The musician was singing about the blinding love of God. As she improvised the lines:O Beloved of my soul! Within the chamber of my heart, I would have kept You day and night!the Master again went into samadhi. His injured arm rested on Bhavanath's shoulder.

श्रीरामकृष्ण का मन जब कुछ बहिर्मुख हुआ, तब गानेवाली ने गाया -

“जे तोमार जोन्ने सब त्याग कोरेचे तार कि एतो दुःख ? " 

যে তোমার জন্য সব ত্যাগ করেছে তার কি এত দুঃখ?”

तुम्हारे लिए जिसने सर्वस्व का त्याग दिया है, वह इतना कष्ट क्यों सहे?

[কিঞ্চিৎ বাহ্য হইলে, কীর্তনী আবার আখর দিতেছেন — “যে তোমার জন্য সব ত্যাগ করেছে তার কি এত দুঃখ?”

Sri Ramakrishna partly regained outer consciousness. The musician improvised: Why should one who, for Thy sake, has given up everything Endure so much of suffering?

श्रीरामकृष्ण ने गानेवाली को प्रणाम किया । बैठकर गाना सुन रहे हैं । - कभी कभी भावाविष्ट हो रहे हैं। गानेवाली ने गाना बन्द कर दिया । श्रीरामकृष्ण बातचीत करने लगे ।

[ঠাকুর কীর্তনীকে নমস্কার করিলেন। বসিয়া গান শুনিতেছেন — মাঝে মাঝে ভাবাবিষ্ট। কীর্তনী চুপ করিলেন। ঠাকুর কথা কহিতেছেন।

The Master bowed to the musician and sat down to listen to the music. Now and then he became abstracted. When the musician stopped singing, Sri Ramakrishna began to talk to the devotees.

   [ (25 मई ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆'अँधा प्रेम ' होने पर क्या होता है ? शरीर और जगत खो जाता है !! 🔆

[প্রেমে দেহ ও জগৎ ভুল — ঠাকুরের ভক্তসঙ্গে নৃত্য ও সমাধি ]

श्रीरामकृष्ण - (विजय आदि भक्तों के प्रति) - प्रेम किसे कहते हैं ? ईश्वर पर जिसका 'अँधा प्रेम 'होता है - जैसे चैतन्यदेव का - वह संसार को तो भूल जायगा ही, किन्तु इतनी प्रिय वस्तु यह जो देह है, वह उसे भी भूल जायगा ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ (বিজয় প্রভৃতি ভক্তের প্রতি) — প্রেম কাকে বলে। ঈশ্বরে যার প্রেম হয় — যেমন চৈতন্যদেবের — তার জগৎ তো ভুল হয়ে যাবে, আবার দেহ যে এত প্রিয়, এ পর্যন্ত ভুল হয়ে যাবে!

MASTER (to Vijay and the others): "What is prema? He who feels it, this intense and ecstatic love of God, not only forgets the world but forgets even the body, which is so dear to all. Chaitanya experienced it."}

'अँधा प्रेम' के होने पर क्या होता है ?  इसका हाल श्रीरामकृष्ण स्वयं एक गीत गाकर बतला रहे हैं :- 

(आमार) से दिन कबे बा हबे, हरि बोलिते धारा बोये पोड़बे ? 

 से दिन कबे बा हबे, संसार वासना जाबे।

 से दिन कबे बा हबे, (आमार) अंगे पुलक हबे ?

कबे हरिर तेमन दया  हबे ?

 गीत का भाव है :-"मेरे ये दिन कब आयेंगे जब हरि हरि कहते हुए मेरी आँखों से धारा बह चलेगी - शरीर पुलकायमान हो उठेगा - संसार की वासना मिट जायेगी - दुर्दिन दूर होंगे और सुदिन आयेंगे । ईश्वर की ऐसी दया कब होगी ?”

[প্রেম হলে কি হয়, ঠাকুর গান গাইয়া বুঝাইতেছেন। হরি বলিতে ধারা বেয়ে পড়বে। (সে দিন কবে বা হবে)(অঙ্গে পুলক হবে) (সংসার বাসনা যাবে)(দুর্দিন ঘুচে সুদিন হবে) (কবে হরির দয়া হবে)

"The Master explained this to the devotees by singing a song describing the ecstatic state of prema:Oh, when will dawn the blessed day,When tears of joy will flow from my eyes, As I repeat Lord Hari's name? . . .

श्रीरामकृष्ण खड़े होकर नृत्य कर रहे हैं । भक्तगण उनके साथ नाच रहे हैं । श्रीरामकृष्ण ने मास्टर की बाँह पकड़ कर उन्हें 'नेतृत्व महा मण्डल ' के भीतर खींच लिया ।

नृत्य करते हुए श्रीरामकृष्ण फिर समाधि में डूब गये । चित्रवत् खड़े रह गये केदार समाधि भंग करने के लिए अब कह रहे हैं –

“हृदय-कमल मध्ये निर्विशेषं निरीहं,

हरि-हर-विधि-वेध्यं योगिभिर्ध्यानगम्यम् ।

जनन-मरण-भीति-भ्रंशि सच्चित्स्वरूपं,

सकल-भुवन-बीजं ब्रह्म-चैतन्यमीड़े ॥”

हम अपने हृदय- कमल पर विराजमान उस ब्रह्म-चैतन्य की पूजा करते हैं ! जो अविनाशी  हैं , वे हरि (विष्णु) , हर (शिव) और ब्रह्मा के भी आराध्य हैं।  वे योगियों द्वारा  ध्यान की गहराई में प्राप्त किए जाते हैं। वे (शाश्वत-चैतन्य, अखण्ड सच्चिदानन्द, अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव ही जन्म और मृत्यु के भय का नाश करने वाले , ज्ञान और सत्य का सार, तथा संसार के आदि बीज हैं !

[We worship the Brahman-Consciousness in the Lotus of the Heart, The Undifferentiated, who is adored by Hari, Hara, and Brahma; Who is attained by yogis in the depths of their meditation; The Scatterer of the fear of birth and death, The Essence of Knowledge and Truth, the Primal Seed of the world.]

[ঠাকুর দাঁড়াইয়াছেন ও নৃত্য করিতেছেন। ভক্তেরা সঙ্গে সঙ্গে নাচিতেছেন। ঠাকুর মাস্টারের বাহু আকর্ষণ করিয়া মণ্ডলের ভিতর তাঁহাকে লইয়াছেন।নৃত্য করিতে করিতে আবার সমাধিস্থ! চিত্রার্পিতের ন্যায় দাঁড়াইয়া। কেদার সমাধী ভঙ্গ করিবার জন্য স্তব করিতেছেন —

The Master began to dance, and the devotees joined him. He caught M. by the arm and dragged him into the circle. Thus dancing, Sri Ramakrishna again went into samadhi. Standing transfixed, he looked like a picture on canvas. Kedar repeated the following hymn to bring his mind down from the plane of samadhi:

[We worship the Brahman-Consciousness in the Lotus of the Heart, The Undifrerentiated, who is adored by Hari, Hara, and Brahma; Who  is attained by yogis in the depths of their meditation; The Scatterer of the fear of birth and death, Eternal Consciousness, Unbroken Sachchidananda, Incarnation Senior Sri Ramakrishna Dev is ) The Essence of Knowledge and Truth, the Primal Seed of the world.]

क्रमशः श्रीरामकृष्ण की समाधि छूटी । उन्होंने आसन ग्रहण किया और नाम ले रहे हैं – 

"ॐ सच्चिदानन्द! गोविन्द ! गोविन्द ! गोविन्द ! योगमाया ! - भागवत भक्त भगवान !"

[ক্রমে সমাধি ভঙ্গ হইল। ঠাকুর আসন গ্রহণ করিলেন ও নাম করিতেছেন — ওঁ সচ্চিদানন্দ! গোবিন্দ! গোবিন্দ! গোবিন্দ! যোগমায়া! — ভাগবত-ভক্ত-ভগবান!

Sri Ramakrishna gradually came back to the plane of normal consciousness. He took his seat and chanted the names of God: "Om Satchidananda! Govinda! Govinda! Govinda! Yogamaya! Bhagavata — Bhakta — Bhagavan!"

कीर्तन और नृत्य की जगह की धूल श्रीरामकृष्ण ले रहे हैं ।

[কীর্তন ও নৃত্যস্থলের ধূলি ঠাকুর লইতেছেন।

The Master took dust from the place where the kirtan had been sung and touched it to his forehead.

(४)

    [ (25 मई ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-81]

[Leader and Leadership Training] 

 🔱🙏🔆नेता और लोकशिक्षा ! नेता (संन्यासी) का कठिन व्रत । 🔱🙏🔆

 'A (Leader) sannyasi must not look at a woman.'

श्रीरामकृष्ण गंगा के किनारेवाले गोल बरामदे में बैठे हुए हैं । पास ही विजय, भवनाथ, मास्टर, केदार आदि भक्तगण हैं । श्रीरामकृष्ण एक एक बार कह रहे हैं, हा कृष्ण चैतन्य !

[ঠাকুর গঙ্গার ধারের গোল বারান্দায় আসিয়াছেন। কাছে বিজয়, ভবনাথ, মাস্টার, কেদার প্রভৃতি ভক্তগণ। ঠাকুর এক-একবার বলিতেছেন — “হা কৃষ্ণচৈতন্য!”

A little later Sri Ramakrishna was sitting on the semicircular porch facing the Ganges, the devotees sitting by his side. Now and then the Master would exclaim, "Ah, Krishnachaitanya!" (One of the names of Gauranga)

श्रीरामकृष्ण - (विजय आदि भक्तों से) - घर में खूब राम नाम किया गया है, कोई कहता था, इसीसे खूब रंग जमा !

[শ্রীরামকৃষ্ণ (বিজয় প্রভৃতি ভক্তদের প্রতি) — ঘরে নাকি অনেক হরিনাম হয়েছে — তাই খুব জমে গেল!

MASTER (to Vijay and the others): "There has been much chanting of the Lord's name in the room. That is why the atmosphere has become so intense."

भवनाथ - तिस पर नेतृत्व (संन्यास) की महिमा का गायन  !

[ভবনাথ — তাতে আবার সন্ন্যাসের কথা!

BHAVANATH: "Words of renunciation, too."

श्रीरामकृष्ण – अहा ! क्या भाव है !

यह कहकर श्रीरामकृष्ण ने गौरांग पर एक गाना गाया -

प्रेमधन बिलाये गोराराय, प्रेम कलशे- 

कलशे ढाले तोबू ना फूराय। 

चांद निताई डाके आय! आय! 

चांद गौर डाके आय! आय ! 

(ओई) शांतीपूर ^*डुबू डुबू नदे भेशे जाय! 

गौर प्रेमेर हिल्लोलेते नदे ...

(भावार्थ ) गोरा प्रेम का अमृत वितरण कर रहे हैं ; एक अमृत-कलश खाली होते ही , दूसरे अमृत-कलश को उड़ेलने लगते हैं , फिर भी उसका अन्त नहीं होता। सबसे प्यारे निताई अमृतपान करने के लिए सभी भक्तों को पुकार रहे हैं। प्रियतम गोरा ने उन्हें आने का निमंत्रण दिया है। शान्तिपुर उस प्रेम में लगभग डूब चुका है , और नदिया में तो प्रेम का ज्वार आ गया है ! 

[शांतीपूर ^* और नादिया चैतन्य महाप्रभु से सम्बन्धित लीला- स्थान हैं।^Shantipur and Nadia are places associated with Chaitanya.

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ‘আহা! কি ভাব!’এই বলিয়া গান ধরিলেন:---প্রেমধন বিলায় গোরারায়।প্রেমকলসে কলসে ঢালে তবু না ফুরায়!চাঁদ নিতাই ডাকে আয়! আয়! চাঁদ, গৌর ডাকে আয়!(ওই) শান্তিপুর ডুবু ডুবু নদে ভেসে যায়।

The Master said, "Ah, how thrilling!" Then he sang about Gauranga and Nityananda:

[Gora bestows the Nectar of prema; Jar after jar he pours it out, And still there is no end! Sweetest Nitai is summoning all; Beloved Gora bids them come; Shantipur is almost drowned, And Nadia ^  is flooded with prema!

[ (25 मई ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-81]

🔱🙏माँ बिन्ध्यवासिनी (बन्दी मईया) की बलि पर  काला  बकरा ही क्यों चढ़ाया जाता है ?🔱🙏

🔱🙏 Why only black goat is offered to 

          Maa Bindhyavasini (Bandi Maiya) ?🔱🙏

[नेता को अपने जीवन में कामिनी कांचन में आसक्ति का  त्याग करके दिखाना अनिवार्य है !]  

गीत के समाप्त होने पर आपने 'विजय' आदि भक्तों से कहा “कीर्तन में बहुत ही अच्छा कहा है ! -

"नारी हेरबे ना !"  से जे नेतार धर्म ! 

जीबेर दुःख घुचाईते -नारी हेरिबे ना ! 

ना होले वृथा गौर अवतार ! 

संन्यासी (नेता/आचार्य ) को नारी की ओर नजर भी उठाकर न देखना चाहिए, नेता (लोकशिक्षक या संन्यासी) का धर्म यही है।” कितने ऊँचे विचार है ! 

[(বিজয় প্রভৃতির প্রতি) — “বেশ বলেছে কীর্তনে, —“সন্ন্যাসী নারী হেরবে না। এই সন্ন্যাসীর ধর্ম। কি ভাব!”

MASTER (to Vijay and the others): "The musician sang rightly: 'A (Leader) sannyasi must not look at a woman.' This is the sannyasi's dharma. What a lofty ideal!"

विजय - जी हाँ ।

[বিজয় — আজ্ঞা, হাঁ।

VIJAY: "Yes indeed, sir."

श्रीरामकृष्ण - नेता (आचार्य-C-IN-C नवनीदा) संन्यासी  को देखकर लोग शिक्षा लेंगे न, इसीलिए इतना कठोर नियम है । संन्यासी को स्त्रियों का चित्र भी न देखना चाहिए । उसके लिए ऐसा कठोर नियम है । काला बकरा माता की बलि पर चढ़ाया जाता है, परन्तु जरा भी कहीं घाव हुआ तो फिर उसकी बलि नहीं दी जाती । स्त्रियों का संग तो करना ही नहीं चाहिए । इतना ही नहीं वरन् उनसे बातचीत करना भी संन्यासी के लिए निषिद्ध है ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ — সন্ন্যাসীকে দেখে তবে সবাই শিখবে — তাই অত কঠিন নিয়ম। — নারীর চিত্রপট পর্যন্ত সন্ন্যাসী দেখবে না! এমনি কঠিন নিয়ম!“কালো পাঁঠা মার সেবার জন্য বলি দিতে হয় — কিন্তু একটু ঘা থাকলে হয় না। রমণীসঙ্গ তো করবে না — মেয়েদের সঙ্গে আলাপ পর্যন্ত করবে না।”

MASTER: "Others learn from the sannyasi's example. That is why such strict rules are prescribed for him. A sannyasi must not look even at the portrait of a woman. What a strict rule! The slaughtering of a black goat is prescribed for the worship of the Divine Mother; but a goat with even a slight wound cannot be offered. A sannyasi must not only not have intercourse with woman; he must not even talk to her."} 

विजय - छोटे हरिदास ने एक भक्त स्त्री के साथ बातचीत की थी, चैतन्यदेव ने हरिदास का त्याग कर दिया था ।

[বিজয় — ছোট হরিদাস ভক্তমেয়ের সঙ্গে আলাপ করেছিল। চৈতন্যদেব হরিদাসকে ত্যাগ করলেন।

VIJAY: "Young Haridas talked with a pious woman. For that reason Chaitanya banished him from his presence."

       [ (25 मई ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆मारवाड़ी द्वारा धन देने और मथुर के जमीन लिखने का प्रस्ताव   🔆

[ শ্রীরামকৃষ্ণের নামে মারোয়াড়ীর টাকা ও মথুরের জমি লিখিয়া দিবার প্রস্তাব ]

🔱🙏थियेटर में जिसको राजा का रोल मिलता है उसको राजा का आचरण करना पड़ता है 🔱🙏

श्रीरामकृष्ण कामिनी-कांचन से संयुक्त कोई नेता जैसे नवयौवना किशोरी के लिए उसके देह की एक खास बदबू। वह बदबू रही तो उसका (संन्यासी, C-IN-C कैसा दीखता है  ?) सब सौन्दर्य ही व्यर्थ  है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সন্ন্যাসীর পক্ষে কামিনী আর কাঞ্চন — যেমন সুন্দরীর পক্ষে তার গায়ের বোট্‌কা গন্ধ! ও-গন্ধ থাকলে বৃথা সৌন্দর্য।

MASTER: "A sannyasi associated with 'woman and gold' is like a beautiful damsel with a bad odour. The odour makes her beauty useless.

"मारवाड़ी ने मेरे नाम से रुपये लिख देना चाहा - मथुर ने जमीन लिख देना चाहा, परन्तु मैं यह कुछ न ले सका ।

[“মারোয়াড়ী আমার নামে টাকা লিখে দিতে চাইলে; — মথুর জমি লিখে দিতে চাইলে; — তা লতে পারলাম না।"

Once a Marwari devotee wanted to give me some money. Mathur wanted to deed me some land. But I couldn't accept either.

" नेता (संन्यासी CINC नवनीदा ) के लिए बड़े कठिन नियम है । जब साधु-संन्यासी का भेष किया, तब उसे ठीक ठीक साधुओं और संन्यासियों का काम करना चाहिए । थिएटर में देखा नहीं ? जो राजा बनता है, वह राजा की ही तरह रहता है, जो मन्त्री बनता है, वह ठीक उसी के आचरण करता है ।

[“সন্ন্যাসীর ভারী কঠিন নিয়ম। যখন সাধু-সন্ন্যাসী সেজেছে, তখন ঠিক সাধু-সন্ন্যাসীর মতো কাজ করতে হবে। থিয়েটারে দেখ নাই! — যে রাজা সাজে সে রাজাই সাজে, যে মন্ত্রী সাজে সে মন্ত্রীই সাজে।"

The rules for the life of a sannyasi are very strict indeed. If a man takes the garb of a sannyasi, he must act exactly like one. Haven't you noticed in the theatre that the man who takes the part of the king acts like a king, and the man who takes the part of a minister acts like a minister?

"किसी बहुरुपिये ने त्यागी साधु का स्वाँग दिखाया, बिलकुल साधु बन गया । दर्शकों ने उसे एक तोड़ा रुपया देना चाहा । वह 'उँह' कहकर चला गया । तोड़ा छुआ तक नहीं । परन्तु थोड़ी देर बाद, देह और हाथ-पैर धोकर अपने कपड़े पहनकर वह आया । कहा, "क्या दे रहे थे अब दीजिये । जब साधु बना था तब रुपये नहीं छू सका, अब चार आने भी मिल जायँ तो न छोड़ें ।"

[“একজন বহুরূপী ত্যাগী সাধু সেজেছিল। বাবুরা তাকে একতোড়া টাকা দিতে গেল। সে ‘উঁহু’ করে চলে গেল, — টাকা ছুঁলেও না। কিন্তু খানিক পরে গা-হাত-পা ধুয়ে নিজের কাপড় পরে এল। বললে, ‘কি দিচ্ছিলে এখন দাও।’ যখন সাধু সেজেছিল, তখন টাকা ছুঁতে পারে নাই। এখন চার আনা দিলেও হয়।"

"परन्तु मनुष्य परमहंस की अवस्था  में बालक हो जाता है । पाँच वर्ष के बालक को स्त्री-पुरुष का ज्ञान नहीं होता । फिर भी लोक-शिक्षण के लिए परमहंस को भी (C-IN-C नवनीदा की भूमिका) सावधान रहना पड़ता है ।"

[“কিন্তু পরমহংস অবস্থায় বালক হয়ে যায়। পাঁচ বছরের বালকের স্ত্রী-পুরুষ জ্ঞান নাই। তবু লোকশিক্ষার জন্য সাবধান হতে হয়।”

"But on attaining the state of the paramahamsa one becomes like a child. A child five years old doesn't know the difference between a man and a woman. But even a paramahamsa must be careful, so as not to set a bad example to others."

    [ (25 मई ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

   🔆श्री केशब सेन के द्वारा लोक-शिक्षा देना क्यों सम्भव नहीं हुआ ? 🔆

[শ্রীযুক্ত কেশব সেনের দ্বারা লোকশিক্ষা হল না কেন ]

श्रीयुत केशव सेन कामिनी-कांचन के भीतर थे, इसीलिए लोक-शिक्षण में बाधा पड़ी थी । श्रीरामकृष्ण यही बात कह रहे हैं । 

श्रीरामकृष्ण – ये - (केशव) - समझे ?

[শ্রীযুক্ত কেশব সেন কামিনী-কাঞ্চনের ভিতর ছিলেন। — তাই লোকশিক্ষার ব্যাঘাত হইল। ঠাকুর এই কথা বলিতেছেন।শ্রীরামকৃষ্ণ — ইনি (কেশব) — বুঝেচো?

Referring to Keshab's association with "woman and gold", which had hindered his work as a spiritual teacher, Sri Ramakrishna said to Vijay, "He — do you understand?"

विजय - जी हाँ ।
[বিজয় — আজ্ঞা, হাঁ 

VIJAY: "Yes, sir."

श्रीरामकृष्ण – आजीवन इधर (गृहस्थी) -उधर (ईश्वर)  दोनों की रक्षा के लिए बढ़े, इसीलिए विशेष कुछ न कर सके ।

শ্রীরামকৃষ্ণ — এদিক-ইদিক দুই রাখতে গিয়ে তেমন কিছু পারলেন না।

"He couldn't achieve very much because he wanted to satisfy both God and the world."] 

[श्री चैतन्यदेव ने घर क्यों छोड़ा]

[শ্রীচৈতন্যদেব কেন সংসারত্যাগ করিলেন ]

[नवनीदा ने अपना खड़दह वाला  घर क्यों छोड़ा ?]

विजय - चैतन्यदेव *ने नित्यानन्द से कहा, 'नित्यानन्द, अगर मैं संसार (वैवाहिक सम्बन्ध) का त्याग न करूंगा, तो लोगों का कल्याण न होगा । मुझे देखकर सब लोग संसार में रहना ही पसन्द करेंगे । कामिनी-कांचन का त्याग करके श्रीभगवान के पादपद्मों में सम्पूर्ण मन समर्पित कर देने की चेष्टा फिर कोई न करेगा ।'

[বিজয় — চৈতন্যদেব নিত্যানন্দকে বললেন, “নিতাই, আমি যদি সংসারত্যাগ না করি, তাহলে লোকের ভাল হবে না। সকলেই আমার দেখাদেখি সংসার করতে চাইবে। — কামিনী-কাঞ্চন ত্যাগ করে হরিপাদপদ্মে সমস্ত মন দিতে কেহ চেষ্টা করবে না!”

VIJAY: "Chaitanya said to Nityananda:- 'Nitai, I shall not be able to do the people any good unless I renounce the world. All will imitate me and want to lead the life of a householder. No one will try to direct his whole mind to the Lotus Feet of God, renouncing "woman and gold".']

श्रीरामकृष्ण - चैतन्यदेव * ने लोक-शिक्षा के लिए ही संसार का त्याग किया था ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — চৈতন্যদেব লোকশিক্ষার জন্য সংসারত্যাগ করলেন।

MASTER: "Yes. Chaitanyadeva renounced the world to set an example to mankind.

"साधु-संन्यासी को  अपने कल्याण के लिए भी कामिनी कांचन का त्याग करना चाहिए । और निर्लिप्त होने पर भी लोक-शिक्षा के लिए उसे अपने पास कामिनी-कांचन न रखना चाहिए । संन्यासी –जगद्गुरु (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता-जीवनमुक्त शिक्षक)! उसे देखकर लोगों में चेतना आती है ।

[“সাধু-সন্ন্যাসী নিজের মঙ্গলের জন্য কামিনী-কাঞ্চন ত্যাগ করবে। আবার নির্লিপ্ত হলেও, লোকশিক্ষার জন্য কাছে কামিনী-কাঞ্চন রাখবে না। ন্যাসী — সন্ন্যাসী — জগদ্‌গুরু! তাকে দেখে তবে তো লোকের চৈতন্য হবে!”

"The sannyasi must renounce 'woman and gold' for his own welfare. Even if he is unattached, and consequently not in danger, still, in order to set an example to others, he must not keep 'woman and gold' near him. The sannyasi, the man of renunciation, is a world teacher. It is his example that awakens the spiritual consciousness of men."

सन्ध्या होने को है । भक्तगण क्रमशः प्रणाम करके विदा हो रहे हैं । विजय केदार से कह रहे हैं - आज सुबह मैंने आपको देखा था(ध्यान में), देह में हाथ लगाना चाहा, पर फिर कहीं कोई नहीं ।

[সন্ধ্যা আগতপ্রায়। ভক্তেরা ক্রমে ক্রমে প্রণাম করিয়া বিদায় গ্রহণ করিতেছেন। বিজয় কেদারকে বলিতেছেন, “আজ সকালে (ধ্যানের সময়) আপনাকে দেখেছিলাম; — গায়ে হাত দিতে যাই — কেউ নাই।”

It was nearly dusk. The devotees saluted the Master and took their leave.

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*चैतन्यदेव ( 1486 -1534 ) इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र व मां का नाम शची देवी था। निमाई बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। साथ ही, अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे। इनके द्वारा की गई लीलाओं को देखकर हर कोई हतप्रभ हो जाता था। बहुत कम आयु में ही निमाई न्याय व व्याकरण में पारंगत हो गए थे। इन्होंने कुछ समय तक नादिया में स्कूल स्थापित करके अध्यापन कार्य भी किया। निमाई बाल्यावस्था से ही भगवद्चिंतन में लीन रहकर राम व कृष्ण का स्तुति गान करने लगे थे। १५-१६ वर्ष की अवस्था में इनका विवाह लक्ष्मीप्रिया के साथ हुआ।  सर्प दंश से पत्नी की मृत्यु हो गई। वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के साथ हुआ। 

जब ये किशोरावस्था में थे, तभी इनके पिता का निधन हो गया। सन 1509 में जब ये अपने पिता का श्राद्ध करने गया गए, तब वहां इनकी भेंट ईश्वरपुरी नामक संत से हुई। उन्होंने निमाई से कृष्ण-कृष्ण रटने को कहा। तभी से इनका सारा जीवन बदल गया और ये हर समय भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहने लगे। संन्यासी सम्प्रदाय के श्रीमत् केशव भारती से विधिवत् संन्यास-दीक्षा ली थी तथा इसके पूर्व दशनामी सम्प्रदाय के ही संन्यासी श्रीमत् ईश्वर पुरी से मंत्रदीक्षा प्राप्त की थी ।  से दीक्षा लेने के बाद मात्र 24 साल की उम्र में ही निमाई ने संन्यास ले लिया और चैतन्य देव हो गये।

 भगवान श्रीकृष्ण के प्रति इनकी अनन्य निष्ठा व विश्वास के कारण इनके असंख्य अनुयायी हो गए। सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभु व अद्वैताचार्य महाराज इनके शिष्य बने। इन दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की। इन्होंने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर हरि नाम संकीर्तन करना प्रारंभ किया।

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रुद्राष्टकम्:

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं,विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं।

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं,चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं॥१॥ 

ईशान [स्वामी], ईश्वर, मोक्षस्वरुप, सर्वोपरि, सर्वव्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरुप श्रीशिव को नमस्कार है, आत्मस्वरुप में स्थित, गुणातीत, भेदरहित, इच्छारहित, चेतनरूपी आकाश के समान और आकाश में रहने वाले आपका मैं भजन करता हूँ॥1॥

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं,गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशं।

करालं महाकाल कालं कृपालं,गुणागार संसारपारं नतोऽहं॥२॥

निराकार, ओंकार के मूल, तुरीय [जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से परे], वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलाशपति, विकराल, महाकाल के भी काल, दयालु, गुणों के धाम, संसार से परे आपको सविनय नमस्कार है॥2॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गम्भीरं,मनोभूत कोटि प्रभा श्रीशरीरं।

स्फुरंमौलि कल्लोलिनी चारू गंगा,लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा॥३॥

हिमालय के समान गौरवर्ण, गंभीर, करोङों कामदेव के समान प्रकाशवान और सुन्दर शरीर वाले, जिनके सिर पर कलकल रूपी मधुर स्वर करने वाली सुन्दर गंगाजी शोभायमान हैं, जिनके मस्तक पर बालचन्द्र और गले में सर्प सुशोभित हैं॥3॥ 

चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं,प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं।

मृगाधीश चर्माम्बरं मुंडमालं,प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥४॥ 

चलायमान कुंडल धारण करने वाले, सुन्दर और विशाल त्रिनेत्र वाले, प्रसन्न मुख, नीले गले वाले, दयालु, सिंहचर्म को वस्त्र जैसे धारण करने वाले, मुंडमाला पहनने वाले, सबके प्रिय और सबके स्वामी श्रीशंकर जी को मैं भजता हूँ॥4॥ 

प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं,अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं।

त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं,भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं॥५॥ 

प्रचंड[रौद्र रूप वाले], श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखंड, अजन्मे, करोङों सूर्य के समान प्रकाशवान, तीनों प्रकार के दुखों [दैहिक, दैविक, भौतिक] का नाश करने वाले, हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले, श्री पार्वती जी के पति और प्रेम से प्राप्त होने वाले श्री शिव को मैं भजता हूँ॥5॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी,सदा सज्जनानंददाता पुरारि।

चिदानन्द संदोह मोहापहारी,प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारि॥६॥ 

कलाओं से परे, कल्याण स्वरुप, कल्प का प्रलय करने वाले, सत्पुरुषों को सदा हर्षित करने वाले, त्रिपुर के शत्रु, संघनित [ठोस] चेतन और आनंद स्वरुप, मोह को दूर करने वाले, [मन को मथने वाले] कामदेव के शत्रु, हे प्रभु, प्रसन्न होइए, प्रसन्न होइए॥6॥ 

न यावद् उमानाथ पादारविन्दं,भजंतीह लोके परे वा नराणां।

न तावत्सुखं शांति संतापनाशं,प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥७॥ 

जब तक श्री उमापति शिव के चरण कमलों को लोग नहीं भजते, तब तक उन्हें न इस संसार में और न परलोक में सुख- शांति प्राप्त होती है और न उनकी परेशानियों का नाश होता है। अतः सबके ह्रदय में निवास करने वाले हे प्रभु! प्रसन्न होइए॥7॥ 

न जानामि योगं जपं नैव पूजां,नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यं।

जरा जन्म दुखौघ तातप्यमानं,प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो॥८॥

मैं न योग जानता हूँ, न ही जप और पूजा, हे शम्भु! मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमन करता हूँ। हे मेरे प्रभु!, हे मेरे ईश्वर!, हे शम्भु! वृद्धावस्था, जन्म [और मृत्यु] आदि दुखों से घिरे मुझ दुःखी की रक्षा कीजिये। 

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श्रीरामकृष्णध्यानम्: 

Sri Ramakrishna Dhyanam

हृदयकमलमध्ये राजितं निर्विकल्पं सदसदखिलभेदादतीतमेकस्वरूपम् ।

प्रकृतिविकृतिशून्यं नित्यमानन्दमूर्तिं विमलपरमहंसं रामकृष्णं भजामः ॥१॥

Notes: हृदय-कमल-मध्ये in the lotus of the heart राजितम् resplendent निर्विकल्पम् free from changes, unwavering सत्-असत्-अखिल-भेदात् अतीतम् beyond all differences of the existence and non-existence एक-स्वरूपम् the unitary being प्रकृति-विकृति-शून्यम् void of the modifications of Prakriti नित्यम् always आनन्द-मूर्तिम् embodiment of bliss विमल-परम-हंसम् the great swan who is stainless रामकृष्णम् Ramakrishna भजामः (we) worship.

We worship the stainless Great Swan Sri Ramakrishna resplendent in the lotus of heart, who is free from changes, who is the Unitary Being beyond all differences between the existence and non-existence, who is void of the modifications of nature and is always the embodiment of bliss.

निरुपममतिसूक्षमं निष्प्रपञ्चं निरीहं गगनसदृशमीशं सर्वभूताधिवासम् ।

त्रिगुणरहितसच्चिद्ब्रह्मरूपं वरेण्यं विमलपरमहंसं रामकृष्णं भजामः ॥२॥

Notes: निरुपमम् without comparison अति-सूक्षमम् very subtle निष्प्रपञ्चम् devoid of diversity निरीहम् desire-less गगन-सदृशम् similar to the sky ईशम् ruler, master, lord सर्व-भूत-अधिवासम् the abode of all creatures त्रिगुण-रहित-सच्चित्-ब्रह्म-रूपम् devoid of the three gunas, the image of Existence and Knowledge absolute वरेण्यम् to be wished for, desirable विमल-परम-हंसम् the great swan who is stainless रामकृष्णम् Ramakrishna भजामः (we) worship.

We worship the stainless Great Swan, Sri Ramakrishna, who is beyond compare, very subtle, devoid of diversity, desire-less, vast as the sky, the master of the world, the abode of all creatures, devoid of the three gunas and the image of Existence-Knowledge-Absolute and the one to be desired for.

वितरितुमवतीर्णं ज्ञानभक्तिप्रशान्तीः प्रणयगलितचित्तं जीवदुःखासहिष्णुम् ।

धृतसहजसमाधिं चिन्मयं कोमलाङ्गं विमलपरमहंसं रामकृष्णं भजामः ॥३॥

Notes: वितरितुम् to distribute अवतीर्णम् who has taken an incarnation ज्ञान-भक्ति-प्रशान्तीः knowledge, devotion and tranquility प्रणय-गलित-चित्तम् whose mind has as if melted with love जीव-दुःख-असहिष्णुम् unable to bear the pain of the creatures धृत-सहज-समाधिम् who has gone into Samadhi, his natural disposition चिन्मयम् filled with consciousness कोमलाङ्गम् one with tender limbs विमल-परम-हंसम् the great swan who is stainless रामकृष्णम् Ramakrishna भजामः (we) worship.

We worship the stainless Great Swan, Sri Ramakrishna who has incarnated to distribute knowledge, devotion and tranquility, whose mind has as if melted with love, who is unable to bear the pain of the creatures, whose is in the state of samadhi, his natural disposition, who is filled with consciousness and who has tender limbs.

[साभार /https://nangia.in/shrii-raamakRRiShNa-dhyaanam.html

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