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बुधवार, 2 जून 2021

🔱🙏🔆ॐपरिच्छेद 79, [(5 अप्रैल 1884), श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 79 ] Chaitanya is 'Undivided Consciousness'. * महाराज, यह अनाहत शब्द क्या है ?*जो लोग सन्मार्ग में हैं, वे अपना जूठा किसी को खाने के लिए नहीं देते ।ब्राह्म लोग कहते हैं, परमहंसदेव में Faculty of organisation नहीं है ।आचार्य (C-IN-C) बनने की पूर्वशर्त ~ *कामिनी-कांचन में आसक्ति का त्याग !* श्रीभवतारिणी माता के- भयंकरा मूर्ति हैं और दूसरी ओर भक्तवत्सलता मातृमूर्ति,-एक ही आधार में ये दो भाव क्यों मनुष्य के भीतर जब ईश्वर के दर्शन होंगे, तब पूर्ण ज्ञान होगा ।*क्या गृहस्थ को विज्ञान हो सकता है ? साधना चाहिए*

  [(5 अप्रैल 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -79]

 [परिच्छेद 79 का निहितार्थ >>>(1) Genesis Of true Leadership :सच्चे नेतृत्व की उत्पत्ति : (1) इस विभिन्नतापूर्ण जगत  में 'वेदान्ती साम्यभाव' स्थापित करने वाला नेतृत्व वैसे नेता (लोकशिक्षक, पैगम्बर) ही प्रदान कर सकते हैं, जो सुखी- सम्पन्न होकर भी भ्रममुक्त हों और स्वयं साम्यभाव में स्थित हों। (अर्थात त्यागी संन्यासी हों या तीनों ऐषणाओं में अनासक्त गृहस्थ होकर भी राजर्षि जनक जैसे स्वयं साम्यभाव में स्थित हों ।) इस विषय पर चिन्तन करने से हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि - जो लोग इस समय अभिज्ञता, सहानुभूति, प्रेम और विवेक-प्रयोग क्षमता की दृष्टि से बिल्कुल न्यूनतम स्तर या सामान्य स्तर पर रहने वाले मनुष्यों की अपेक्षा साधारणतः थोड़े उच्चतर स्तर पर खड़े हैं, वैसे लोग ही समाज के उनलोगों को, ऊपर उठा सकते हैं जो  बुद्धि, समझदारी, योग्यता, प्रतिभा, गुणों आदि की दृष्टि से अभी उनकी अपेक्षा थोड़े न्यूनतम सोपान पर खड़े हैं। और और सच्चे नेतृत्व का उदगम स्थान या आरम्भ बिन्दु यही है। ठीक इसी जगह पर नेतृत्व की क्षमता स्वतः ही उभर कर सामने आ जाती है। ]  

(१)

*प्राणकृष्ण, मास्टर, राम, गिरीश, गोपाल आदि के संग में*

  [(5 अप्रैल 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -79]

🔱🙏श्री प्राणकृष्ण मुखोपाध्याय सुखी सम्पन्न गृहस्थ होकर भी वेदान्त में रूचि रखते थे🔱🙏   

शनिवार, 5 अप्रैल 1884 । सुबह के आठ बजे हैं । मास्टर ने दक्षिणेश्वर में पहुँचकर देखा, श्रीरामकृष्ण प्रसन्नचित्त हैं; अपनी छोटी खाट पर बैठे हैं । जमीन पर कई भक्त बैठे थे । उनमें श्रीयुत प्राणकृष्ण मुखोपाध्याय भी थे । प्राणकृष्ण जनाई (उत्तर कोलकाता) के मुखर्जियों के वंश से सम्बन्ध रखते हैं । कलकत्ते में श्यामपुकुर में रहते हैं, मेकेंजी लायल के एक्सचेंज (Exchange) नामक नीलाम-घर के कार्याध्यक्ष हैं  ये गृहस्थ तो हैं परन्तु वेदान्तचर्चा में उनकी बड़ी प्रीति है । (though a householder, derived great pleasure from the study of Vedanta philosophy.)श्रीरामकृष्णदेव की बड़ी भक्ति करते हैं – कभी कभी उनके दर्शन कर जाया करते हैं । अभी अभी एक दिन श्रीरामकृष्णदेव को अपने घर ले जाकर उन्होंने उत्सव मनाया था । ये बाग़बाजार के घाट में रोज प्रातःकाल गंगास्नान करते हैं और वहाँ कोई नाव ठीक हो गयी तो उस पर चढ़कर सीधे दक्षिणेश्वर श्रीरामकृष्ण के दर्शन के लिए चले आते हैं ।

आज भी इसी तरह उन्होंने नाव किराये पर की थी । नाव जब किनारे से आगे बढ़ी तब उसमें लहरों की टक्कर लगने लगी । मास्टर भी उनके साथ थे । उन्होंने कहा, मुझे उतार दीजिये । प्राणकृष्ण और उनके दूसरे मित्र समझाने लगे, परन्तु उन्होंने कहा, नहीं, मुझे उतार दीजिये, मैं पैदल चलकर दक्षिणेश्वर जाऊँगा । लाचार हो उन्हें उतार देना पड़ा । मास्टर ने पहुँचकर देखा, वे लोग कुछ पहले ही पहुँच गये हैं; श्रीरामकृष्ण से वार्तालाप कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण को साष्टांग प्रणाम करके वे भी एक ओर बैठे ।

IT WAS ABOUT EIGHT O'CLOCK in the morning when M. arrived at the temple garden and found Sri Ramakrishna seated on the small couch in his room. A few devotees were sitting on the floor. The Master was talking to them. Prankrishna Mukherji was there. Prankrishna belonged to an aristocratic family and lived in the northern part of Calcutta. He held a high post in an English business firm. He was very much devoted to Sri Ramakrishna and, though a householder, derived great pleasure from the study of Vedanta philosophy. He was a frequent visitor at the temple garden. Once he invited the Master to his house in Calcutta and held a religious festival. Every day, early in the morning, he bathed in the holy water of the Ganges. Whenever it was convenient, he would come to Dakshineswar in a hired country boat.

That morning he had hired a boat and invited M. to accompany him to Dakshineswar. The boat had hardly left shore when the river became choppy. M. had become frightened and begged Prankrishna to put him back on land. In spite of assurances, M. had kept saying: "You must put me ashore. I shall walk to Dakshineswar." And so M. came on foot and found Sri Ramakrishna talking to Prankrishna and the others.

[শনিবার, ২৪শে চৈত্র (১২৯০, শুক্লা দশমী) ইং ৫ই এপ্রিল, ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দ; প্রাতঃকাল বেলা আটটা। মাস্টার দক্ষিণেশ্বরে উপস্থিত হইয়া দেখেন, শ্রীরামকৃষ্ণ সহাস্যবদন, কক্ষমধ্যে ছোট খাটটির উপরে উপবিষ্ট। মেঝেতে কয়েকটি ভক্ত বসিয়া; তন্মধ্যে শ্রীযুক্ত প্রাণকৃষ্ণ মুখোপাধ্যায়। প্রাণকৃষ্ণ জনাইয়ের মুখুজ্জেদের বংশসম্ভূত। কলিকাতায় শ্যামপুকুরে বাড়ি। ম্যাকেঞ্জি লায়ালের এক্‌স্‌চেঞ্জ নামক নিলাম ঘরের কার্যাধ্যক্ষ। তিনি গৃহস্থ, কিন্তু বেদান্তর্চচায় বড় প্রীতি। পরমহংসদেবকে বড় ভক্তি করেন ও মাঝে মাঝে আসিয়া দর্শন করেন। ইতিমধ্যে একদিন নিজের বাড়িতে ঠাকুরকে লইয়া গিয়া মহোৎসব করিয়াছিলেন। তিনি বাগবাজারের ঘাটে প্রত্যহ প্রত্যূষে গঙ্গাস্নান করিতেন ও নৌকা সুবিধা হইলেই একেবারে দক্ষিণেশ্বরে আসিয়া ঠাকুরকে দর্শন করিতেন। আজ এইরূপ নৌকা ভাড়া করিয়াছিলেন। নৌকা কূল হইতে একটু অগ্রসর হইলেই ঢেউ হইতে লাগিল। মাস্টার বলিলেন, আমায় নামাইয়া দিতে হইবে। প্রাণকৃষ্ণ ও তাঁহার বন্ধু অনেক বুঝাইতে লাগিলেন, কিন্তু তিনি কোন মতে শুনিলেন না; বলিলেন, “আমায় নামাইয়া দিতে হইবে, আমি হেঁটে দক্ষিণেশ্বরে যাব।” অগত্যা প্রাণকৃষ্ণ তাঁহাকে নামাইয়া দিলেন।

[(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

[অবতারবাদ Humanity and Divinity of Incarnation ]

🔱नेता, पैगम्बर, जीवनमुक्त पीदा, अवतार भी पंचभूतों के फंदे में फंसकर रो रहे हैं🔱  

(श्री वाराह के शूकर शरीर से तादात्म्य को शिवजी ने त्रिशूल से नष्ट कर दिया।)  

 🔱🙏'पंचभूतेर फाँदे ब्रह्म पड़े कांदे' 🔱🙏

 “পঞ্চভূতের ফাঁদে ব্রহ্ম পড়ে কাঁদে।”

श्रीरामकृष्ण – (प्राणकृष्ण से) – परन्तु मनुष्य में उनका ज्यादा प्रकाश है । अगर कहो, अवतार कैसे सिद्ध होगा, जिनमें भूख प्यास ये सब जीवों के धर्म हैं – सम्भव है कि उनमें रोग-शोक भी हों – तो इसका उत्तर यह है कि 'पंचभूतों के फन्दे में पड़कर ब्रह्म रो रहे हैं '। 

MASTER (to Prankrishna): "But there is a greater manifestation of God in man. You may ask, 'How is it possible for God to be incarnated as a man who suffers from hunger, thirst, and the other traits of an embodied being, and perhaps also from disease and grief?' The reply is, 'Even Brahman weeps, entrapped in the snare of the five elements.'

[শ্রীরামকৃষ্ণ (প্রাণকৃষ্ণের প্রতি) — কিন্তু মানুষে তিনি বেশি প্রকাশ। যদি বল অবতার কেমন করে হবে, যাঁর ক্ষুধা তৃষ্ণা এই সব জীবের ধর্ম অনেক আছে, হয়তো রোগশোকও আছে; তার উত্তর এই যে, “পঞ্চভূতের ফাঁদে ব্রহ্ম পড়ে কাঁদে।”

“देखो न, श्रीरामचन्द्र सीता के वियोग से रोने लगे थे । जब हिरण्याक्ष का वध करने के लिए वराह का अवतार लिया, तब हिरण्याक्ष का वध हो जाने पर भी भगवान अपने धाम को नहीं गये थे । वराह के ही रूप में रहने बच्चे भी हो गये थे ! ये तो अब आना ही नहीं चाहते । तब सब मिलकर शिव के पास गये और सब हाल उन्हें कह सुनाया । शिव ने उनके पास जाकर उन्हें बहुत समझाया, पर सुनता कौन है, वे अपने बच्चों को दूध पिलाने लगे ! (सब हँसे ।) तब शिव ने त्रिशूल से देह नष्ट कर दी । भगवान खिल-खिलाकर कर हँसे और अपने लोक को चले गये ।”

"Don't you know how Rama had to weep, stricken with grief for Sita? Further, it is said that the Lord incarnated Himself as a sow in order to kill the demon Hiranyaksha. Hiranyaksha was eventually killed, but God would not go back to His abode in heaven. He enjoyed His sow's life. He had given birth to several young ones and was rather happy with them. The gods said among themselves: 'What does this mean? The Lord doesn't care to return to heaven!' They all went to Siva and laid the matter before him. Siva came down and urged the Lord to leave the sow body and return to heaven. But the sow only suckled her young ones. (Laughter.) Then Siva destroyed the sow body with his trident, and the Lord came out laughing aloud and went back to His own abode."

[“দেখ না রামচন্দ্র সীতার শোকে কাতর হয়ে কাঁদতে লাগলেন। আবার হিরণ্যাক্ষ বধ করবার জন্য বরাহ অবতার হলেন। হিরণ্যাক্ষ বধ হল, কিন্তু নারায়ণ স্বধামে যেতে চান না। বরাহ হয়ে আছেন। কতকগুলি ছানাপোনা হয়েছে। তাদের নিয়ে একরকম বেশ আনন্দে রয়েছেন। দেবতারা বললেন, এ কি হল, ঠাকুর যে আসতে চান না। তখন সকলে শিবের কাছে গেল ও ব্যাপারটি নিবেদন করলে। শিব গিয়া তাঁকে অনেক জেদাজেদি করলেন, তিনি ছানাপোনাদের মাই দিতে লাগলেন। (সকলের হাস্য) তখন শিব ত্রিশূল এনে শরীরটা ভেঙে দিলেন। ঠাকুর হি-হি করে হেসে তখন স্বধামে চলে গেলেন।”

[(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

 🔆अनाहत शब्द का स्रोत पिण्ड में नाभिकमल से 
     और ब्रह्माण्ड में क्षीर सागर सायी परब्रह्म (नारायण) से 🔆

[The entire universe is just the presence of - Vibration, Sound and Light.संपूर्ण ब्रह्माण्ड सिर्फ -कंपन, ध्वनि और प्रकाश (Vibration, Sound and Light) की उपस्थिति ही है।] 
 
प्राणकृष्ण – (श्रीरामकृष्ण से) - महाराज, यह अनाहत शब्द क्या है ?

PRANKRISHNA (to the Master): "Sir, what is the Anahata sound?"

[প্রাণকৃষ্ণ (ঠাকুরের প্রতি) — মহাশয়! অনাহত শব্দটি কি?

श्रीरामकृष्ण – अनाहत शब्द ^* (spontaneous sound, प्राकृतिक ध्वनि कम्पन ) सदा आप ही आप हो रहा है। वह प्रणव-ओंकार की ध्वनि है, परब्रह्म से आती है, योगी इसे सुनते हैं । विषयी जीवों को यह ध्वनि नहीं सुन पड़ती । योगी जानते हैं कि वह ध्वनि एक ओर (पिण्ड में) तो नाभि-कमल ^* से उठती है और दूसरी ओर  उस 'महाकारण का महासागर (Ocean of the Great Cause) क्षीरसिन्धु-शायी, परब्रह्म से। 

MASTER: "It is a spontaneous sound constantly going on by itself. It is the sound of the Pranava, Om ॐ कार स्पंदन It originates in the Supreme Brahman and is heard by yogis. People immersed in worldliness do not hear it. A yogi alone knows that this sound originates both from his navel and from the Supreme Brahman resting on the Ocean of Milk."]

[শ্রীরামকৃষ্ণ — অনাহত শব্দ সর্বদাই এমনি হচ্ছে। প্রণবের ধ্বনি। পরব্রহ্ম থেকে আসছে, যোগীরা শুনতে পায়। বিষয়াসক্ত জীব শুনতে পায় না। যোগী জানতে পারে যে, সেই ধ্বনি একদিকে নাভি থেকে উঠে ও আর-একদিকে সেই ক্ষীরোদশায়ী পরব্রহ্ম থেকে উঠে।

[ "क्षीर सागर" ^*  हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार, ब्रह्माण्ड के प्रलय  के बाद और अगली सृष्टि से पहले, परब्रह्म (भगवान विष्णु-Supreme Lord,श्री वराह नारायण )  'महा कारण के महासागर' (Ocean of the Great Cause) पर विश्राम करते हैं, जिसे "क्षीर सागर" या  'दूध का सागर" भी कहा जाता है।   (^According to Hindu mythology, after the dissolution of the universe and before the next creation, the Supreme Lord rests on the Ocean of the Great Cause, also called the "Ocean of Milk".)

[अनाहत शब्द ^*: ॐ एक स्वतःप्रवर्तित शाश्वत स्पन्दन, spontaneous sound, प्राकृतिक ध्वनि स्पन्दन है, जो किसी ने बनाई नहीं है। अनाहत अर्थात जो किसी आहत या टकराहट से पैदा नहीं होती बल्कि स्वयंभू है। ओ, उ और म- उक्त तीन अक्षरों वाले शब्द की महिमा अपरम्पार है। ॐ को अनहद नाद भी कहते हैं और इसे प्रणव भी कहा जाता है।  यह नाभि, हृदय और आज्ञा चक्र को जगाता है। ॐ की ध्वनि एक शाश्वत ध्वनि है जिससे ब्रह्मांड का जन्म हुआ है।  यह वह ध्वनि है जो पूरे कण-कण में, पूरे अंतरिक्ष में हो रही है और मनुष्य के भीतर भी यह ध्वनि जारी है। सूर्य सहित ब्रह्मांड के प्रत्येक ग्रह से यह ध्वनि बाहर निकल रही है। संपूर्ण ब्रह्माण्ड और कुछ नहीं सिर्फ -Vibration, Sound and Light ' कंपन, ध्वनि और प्रकाश की उपस्थिति ही है। जहां जितनी ऊर्जा होगी वहां उतनी देर तक जीवन होगा।  धर्मशास्त्रों के अनुसार मूल मंत्र या जप तो मात्र ॐ ही है। ॐ  के आगे या पीछे लिखे जाने वाले शब्द गोण होते हैं। ॐ ही महामंत्र और जप योग्य है।  यह जो हमें सूर्य दिखाई दे रहा है एक दिन इसकी भी ऊर्जा खत्म हो जाने वाली है। धीरे-धीरे सब कुछ विलिन हो जाने वाला है। बस नाद और बिंदु ही बचेगा। दूसरे अर्थों में प्रणव को 'प्र' यानी यानी प्रकृति से बने संसार रूपी सागर को पार कराने वाली 'ण' यानी नाव बताया गया है। इसी तरह ऋषि-मुनियों की दृष्टि से 'प्र' अर्थात प्रकर्षेण, 'ण' अर्थात नयेत् और 'व:' अर्थात युष्मान् मोक्षम् इति वा प्रणव: बताया गया है। जिसका सरल शब्दों में मतलब है हर भक्त को शक्ति देकर जनम-मरण के बंधन से मुक्त करने वाला होने से यह प्रणव: है। सार यही है कि प्रणव मंत्र सांसारिक जीवन में प्रपंच यानी कलह और दु:ख दूर कर जीवन के अहम लक्ष्य यानी मोक्ष तक पहुंचा देता है। यही कारण है ॐ को प्रणव नाम से जाना जाता है। 

 नाभि कमल ^ * योग शास्त्र में नाभि कमल को मणिपुर चक्र कहते हैं।  पैदा होने के बाद जब मां की नाल से जुड़ी बच्चे की गर्भनाल हो डॉक्टर्स द्वारा बांधकर अलग किया जाता है तो बच्चे के पेट पर एक निशान बन जाता है जिसे नाभि बोलते हैं। नाभि का आकार और संरचना सभी में अलग-अलग होती है। शरीर में दिमाग से भी महत्वपूर्ण स्थान है नाभि का। नाभि शरीर का प्रथम दिमाग होता है, जो प्राणवायु से संचालित होता है।  नाभि केंद्र से ही संपूर्ण जीवन संचालित होता है। इसलिए मनुष्य की नाभि को ब्रह्मस्थान भी कहा जाता है। नाभि के मूल में स्थित रक्त वर्ण का यह चक्र शरीर के अंतर्गत मणिपुर नामक तीसरा चक्र है, जो 10 दल कमल पंखुरियों से युक्त है

[(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔆परलोक (the Life after Death) के सम्बन्ध में श्री केशव सेन का प्रश्न🔆

प्राणकृष्ण – महाराज, परलोक कैसा है ?

PRANKRISHNA: "Sir, what is the nature of the life after death?"}

{প্রাণকৃষ্ণ — মহাশয়! পরলোক কিরকম?

MASTER: "Keshab Sen also asked that question. As long as a man remains ignorant, that is to say, as long as he has not realized God, so long will he be born. But after attaining Knowledge he will not have to come back to this earth or to any other plane of existence.}

श्रीरामकृष्ण – केशव सेन ने भी यह बात पूछी थी । जब तक आदमी अज्ञान दशा में रहता है, अर्थात् जब तक ईश्वर-लाभ नहीं होता तब तक जन्म ग्रहण करना पड़ता है । परन्तु ज्ञान हो जाने पर, फिर इस संसार में नहीं आना पड़ता । पृथ्वी में या किसी दूसरे लोक में नहीं जाना पड़ता ।

MASTER: "Keshab Sen also asked that question. As long as a man remains ignorant, that is to say, as long as he has not realized God, so long will he be born. But after attaining Knowledge he will not have to come back to this earth or to any other plane of existence.

{শ্রীরামকৃষ্ণ — কেশব সেনও ওই কথা জিজ্ঞাসা করেছিল। যতক্ষণ মানুষ অজ্ঞান থাকে, অর্থাৎ যথক্ষণ ঈশ্বরলাভ হয় নাই, ততক্ষণ জন্মগ্রহণ করতে হবে। কিন্তু জ্ঞানলাভ হলে আর এ-সংসারে আসতে হয় না। পৃথিবীতে বা অন্য কোন লোকে যেতে হয় না।

“कुम्हार धूप में सूखने के लिए हण्डियाँ रख देता है । देखा नहीं तुमने ? – उनमें कच्ची हण्डियाँ रहती हैं और पकी हुई भी । कभी कभी जानवरों के आने-जाने से कुछ हण्डियाँ फूट जाती हैं । उनमें जो हण्डी पकी हुई होती है उसे कुम्हार फेंक देता है, उससे फिर उसका कोई काम नहीं चलता । और अगर कच्ची हण्डी फूटी तो कुम्हार उसे ले लेता है, भिगोकर गाला बनाकर चाक पर फिर चढ़ा देता है – उससे फिर दूसरी हण्डी तैयार करता है । इसी तरह, जब तक ईश्वर-दर्शन नहीं हुए तब तक कुम्हार के हाथ जाना होगा, अर्थात् इस संसार में घूम-घूमकर आना होगा ।

"The potter puts his pots in the sun to dry. Haven't you noticed that among them there are both baked and unbaked ones? When a cow happens to walk over them, some of the pots get broken to pieces. The broken pots that are already baked, the potter throws away, since they are of no more use to him. But the soft ones, though broken, he gathers up. He makes them into a lump and out of this forms new pots. In the same way, so long as a man has not realized God, he will have to come back to the Potter's hand, that is, he will have to be born again and again.

[“কুমোরেরা হাঁড়ি রৌদ্রে শুকুতে দেয়। দেখ নাই, তার ভিতর পাকা হাঁড়িও আছে, কাঁচা হাঁড়িও আছে? গরু-টরু চলে গেলে হাঁড়ি কতক কতক ভেঙে যায়। পাকা হাঁড়ি ভেঙে গেলে কুমোর সেগুলিকে ফেলে দেয়, তার দ্বারা আর কোন কাজ হয় না। কাঁচা হাঁড়ি ভাঙলে কুমোর তাদের আবার লয়; নিয়ে চাকেতে তাল পাকিয়ে দেয়, নূতন হাঁড়ি তৈয়ার হয়। তাই যতক্ষণ ঈশ্বরদর্শন হয় নাই, ততক্ষণ কুমোরের হাতে যেতে হবে, অর্থাৎ এই সংসারে ফিরে ফিরে আসতে হবে।

“उबाले हुए धानों के गाड़ने से क्या होगा ? फिर उससे पेड़ नहीं होता ! मनुष्य यदि ज्ञानाग्नि में सिद्ध हो जाय, तो फिर वह नयी सृष्टि के काम का नहीं रहता – वह मुक्त हो जाता है ।

"What is the use of sowing a boiled paddy grain? It will never bring forth a shoot. Likewise, if a man is boiled in the fire of Knowledge, he will not be used for new creation. He is liberated.}

{“সিদ্ধ ধান পুঁতলে কি হবে? গাছ আর হয় না। মানুষ জ্ঞানাগ্নিতে সিদ্ধ হলে তার দ্বারা আর নূতন সৃষ্টি হয় না, সে মুক্ত হয়ে যায়।”

[(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔆वेदांत, अहंकार  और 'अवस्थात्रय-साक्षी'-ज्ञान और विज्ञान 🔆

[বেদান্ত ও অহংকার — বেদান্ত ও ‘অবস্থাত্রয়সাক্ষী’ — জ্ঞান ও বিজ্ঞান ]

🔱सच्चिदानन्द समुद्र में अहं लाठी रहने से ही भक्त और भगवान अलग  दिख पड़ते हैं 🔱 

“पुराणों के मत में हैं भक्त और भगवान् – 'मैं' एक अलग और 'तुम' अलग । शरीर एक पात्र है जिससे मन-बुद्धि-अहंकार रूपी पानी है । ब्रह्म सूर्य-स्वरूप हैं । इस पानी में उनका प्रतिबिम्ब गिर रहा है । भक्त ईश्वर का वही रूप देखता है ।
[  श्रीरामकृष्ण सूर्य हैं, मन (चित्त रूपी जल) में उनका  उनका प्रतिबिम्ब दिखता है?]

"According to the Puranas, the bhakta and the Bhagavan are two separate entities. 'I' am one and 'You' are another. The body is a plate, as it were, containing the water of mind, intelligence, and ego. Brahman is like the sun. It is reflected in the water. Therefore the devotee sees the divine form.}

{“পুরাণ মতে ভক্ত একটি, ভগবান একটি; আমি একটি, তুমি একটি; শরীর যেন সরা; এই শরীরমধ্যে মন, বুদ্ধি, অহংকাররূপ জল রয়েছে; ব্রহ্ম সূর্যস্বরূপ। তিনি এই জলে প্রতিবিম্বিত হচ্ছেন। ভক্ত তাই ঈশ্বরীয় রূপ দর্শন করে।

“वेदान्त के मत से ब्रह्म ही वस्तु है और सब माया, स्वप्नवत्, अवस्तु । अहं-रूपी एक लाठी सच्चिदानन्द-समुद्र में पड़ी हुई है । (मास्टर से) तुम इसे सुनता जाना – अहं-लाठी को उठा लेने पर एक सच्चिदानन्द-समुद्र रह जाता है । अहं-लाठी के रहने से दो दीख पड़ते हैं । इधर पानी का एक हिस्सा और उधर एक हिस्सा । ब्रह्मज्ञान होने पर मनुष्य को समाधि हो जाती है । तब यह अहं मिट जाता है ।

"According to the Vedanta, Brahman alone is real and all else is maya, dreamlike and unsubstantial. The ego, like a stick, lies across the Ocean of Satchidananda. (To M.) Listen to what I am saying. When this ego is taken away, there remains only one undivided Ocean of Satchidananda. But as long as the stick of ego remains, there is an appearance of two: here is one part of the water and there another part. Attaining the Knowledge of Brahman one is established in samadhi. Then the ego is effaced.}

[“বেদান্ত (বেদান্তদর্শন) মতে ব্রহ্মই বস্তু, আর সমস্ত মায়া, স্বপ্নবৎ অবস্তু। অহংরূপ একটি লাঠি সচ্চিদানন্দ-সাগরের মাঝখানে পড়ে আছে। (মাস্টারের প্রতি) — তুমি এইটে শুনে যাও — অহং লাঠিটি তুলে নিলে এক সচ্চিদানন্দ-সমুদ্র। অহং লাঠিটি থাকলে দুটো দেখায়, এ একভাগ জল ও একভাগ জল। ব্রহ্মজ্ঞান হলে সমাধিস্থ হয়। তখন এই অহং পুঁছে যায়।

 [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

[Leadership training to M]

🔱🙏‘विद्या का अहं’ और 'भक्ति का अहं' में राग-द्वेष नहीं रहेगा🔱🙏

“परन्तु लोक-शिक्षा के लिए शंकराचार्य ने ‘विद्या का अहं’ ^* रखा था । (प्राणकृष्ण से) परन्तु ज्ञानियों का एक लक्षण और भी है । कोई कोई सोचते है, ‘मैं ज्ञानी हो गया ।’ ज्ञान का लक्षण क्या है ? ज्ञानी किसी की बुराई नहीं कर सकता । वह बालक-सा हो जाता है । लोहे के खड्ग में अगर पारस-पत्थर छुआ दिया जाय तो खड्ग सोने का हो जाता है । सोने से हिंसा का काम नहीं होता । बाहर से भले ही जान पड़ता हो कि इसमें राग-अहंकार (राग-द्वेष) है, परन्तु वास्तव में ज्ञानी (या भक्त) में यह सब कुछ नहीं रहता

"But Sankaracharya retained the 'ego of Knowledge' ^* in order to teach men. (To Prankrishna) But there are signs that distinguish the man of Knowledge. Some people think they have Knowledge. What are the characteristics of Knowledge? A jnani cannot injure anybody. He becomes like a child. If a steel sword touches the philosopher's stone, it is transformed into gold. Gold can never cut. It may seem from the outside that a jnani also has anger or egotism, but in reality he has no such thing.

[^The ego illumined and purified by the Knowledge of God. Following the method of discrimination, the jnani, in samadhi, merges his ego in Brahman. Thereafter he may come down to the relative plane with an appearance of individuality, but even then he is always conscious of his identity with Brahman. This apparent ego is called the "ego of Knowledge". A bhakta, following the path of love, realizes his eternal relationship with God. He too keeps an appearance of individuality on the relative plane. This ego has none of the characteristics of the worldly ego and is called the "ego of Devotion". The two egos here described refer to the same state of realization.]

[“তবে লোকশিক্ষার জন্য শঙ্করাচার্য ‘বিদ্যার আমি’ রেখেছিলেন।(প্রাণকৃষ্ণের প্রতি) — “কিন্তু জ্ঞানীর লক্ষণ আছে। কেউ কেউ মনে করে, আমি জ্ঞানী হয়েছি। জ্ঞানীর লক্ষণ কি? জ্ঞানী কারু অনিষ্ট করতে পারে না। বালকের মতো হয়ে যায়। লোহার খড়্গে যদি পরশমণি ছোঁয়ানো হয়, খড়্গ সোনা হয়ে যায়। সোনায় হিংসার কাজ হয় না। বাহিরে হয়তো দেখায় যে, রাগ আছে, কি অহংকার আছে, কিন্তু বস্তুতঃ জ্ঞানীর ও-সব কিছু থাকে না।

“दूर से जली रस्सी देखिये तो जान पड़ता है कि यह रस्सी ही पड़ी हुई है, परन्तु पास जाकर फूँक मारिये तो सब राख होकर उड़ जाती है । क्रोध का, अहंकार का बस आकार मात्र है, परन्तु वह यथार्थ में क्रोध नहीं – अहंकार नहीं ।

"From a distance a burnt string lying on the ground may look like a real one; but if you come near and blow at it, it disappears altogether. The anger and egotism of a jnani are mere appearances; they are not real.

[“দূর থেকে পোড়া দড়ি দেখলে বোধ হয়, ঠিক একগাছা দড়ি পড়ে আছে। কিন্তু কাছে এসে ফুঁ দিলে সব উড়ে যায়। ক্রোধের আকার, অহংকারের আকার কেবল। কিন্তু সত্যকার ক্রোধ নয়, অহংকার নয়।

“बच्चे में आसक्ति नहीं रहती । अभी अभी उसने घरौंदा बनाया । कोई उसे छू ले तो तिनककर नाचने लगे, रोना शुरू कर दे, परन्तु खुद ही थोड़ी देर में उसे बिगड़ डालता है । अभी अभी देखो तो कपड़े पर रीझा है । कहता है, मेरे बाबूजी ने ले दिया है, मैं नहीं दूँगा; परन्तु एक खिलौना दो; बस भूल जाता है, कपड़े को वहीँ छोड़कर चला जाता है ।

"A child has no attachment. He makes a play house, and if anyone touches it, he will jump about and cry. The next moment he himself will break it. This moment he may be very attached to his cloth. He says: 'My daddy has given it to me. I won't part with it.' But the next moment you can cajole him away from it with a toy. He will go away with you, leaving the cloth behind.

[“বালকের আঁট থাকে না। এই খেলাঘর করলে, কেউ হাত দেয় তো ধেই ধেই করে নেচে কাঁদতে আরম্ভ করবে। আবার নিজেই ভেঙে ফেলবে সব। এই কাপড়ে এত আঁট, বলছে ‘আমার বাবা দিয়েছে, আমি দেব না।’ আবার একটা পুতুল দিলে পরে ভুলে যায়, কাপড়খানা ফেলে দিয়ে চলে যায়।

“ये ही सब ज्ञानी के लक्षण हैं । चाहे घर में बड़ा ऐश्वर्य हो – शीशे, मेज, तस्वीरें, गाड़ी-घोड़े, परन्तु दिल में आ जाय तो सब छोड़-छाड़कर काशी की राह पकड़ ले ।

"These are the characteristics of a jnani. Perhaps he has many luxuries at home — couch, chairs, paintings, and equipage. But any day he may leave all these and go off to Benares.}

{“এইসব জ্ঞানীর লক্ষণ। হয়তো বাড়িতে খুব ঐশ্বর্য; কোচ, কেদারা, ছবি, গাড়ি-ঘোড়া; আবার সব ফেলে কাশী চলে যাবে।

[ 'Ego of Knowledge'and "Ego of Devotion" ‘विद्या का अहं’ और भक्ति का अहं "तस्य दासस्य दासो अहं"^* जब मनःसंयोग या विवेक-प्रयोग (आदि 3H विकास के 5 अभ्यास) की पद्धति का पालन करते हुए, समाधि में पहुँचने पर ज्ञानी अपने व्यष्टि अहं को ब्रह्म (सच्चिदानन्द समुद्र) में विलीन कर लेता है।  समाधि के बाद वह वैयक्तिकता (individuality- पृथकत्व) के आभास के साथ सापेक्षिक स्तर  पर नीचे उतर सकता है, लेकिन फिर भी वह हमेशा ब्रह्म के साथ अपने एकत्व (अपनी पहचान) के प्रति निरंतर सचेत रहता है। इस आभासी अहंकार को "ज्ञान का अहंकार" कहा जाता है। उसी पाकर कोई भक्त (माँ जगदम्बा का बेटा) भी प्रेम के मार्ग पर चलकर, ईश्वर के साथ (अर्थात माँ जगदम्बा के मातृहृदय के 'सर्वव्यापी विराट अहं' के साथ) अपने (व्यष्टि अहं के) शाश्वत संबंध को महसूस कर लेता है। अपने नेता (स्वामी जी -नवनीदा या माँ जगदम्बा के विराट अहं) के साथ अपने व्यष्टि अहं के शाश्वत सम्बन्ध को महसूस करते हुए भी, सापेक्षिक स्तर पर वह अपना आभासी व्यक्तित्व बनाये रखता है। किन्तु "तस्य दासा दासो अहं" वाले इस अहंकार में सांसारिक अहंकार की (तीनों ऐषणाओं के प्रति आसक्ति जैसी) कोई विशेषता नहीं होती और इसे "भक्ति का अहंकार" कहा जाता है। यहाँ वर्णित 'विद्या का मैं' और 'भक्त का मैं' एकात्मबोध के एक ही समान अवस्था का उल्लेख हुआ है।    

 [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔱🙏वेदान्त मत में जाग्रत अवस्था भी असत्य (मिथ्या ?) है।🔱🙏

[अगर जाग्रत में लकड़हारा होना सत्य हो तो स्वप्न में राजा होना भी सत्य है ।]

[The waking state is also unreal in Vedanta.] 

“वेदान्त के मत से जागरण अवस्था भी कुछ नहीं है । किसी लकड़हारे ने स्वप्न में देखा था । कच्ची नींद में ही किसी दूसरे के जगा देने पर उसने झुँझलाकर कहा – ‘तूने क्यों मुझे कच्ची नींद में जगाया ? मैं राजा हो था और सात लड़कों का बाप । मेरे बच्चे लिखते-पढ़ते थे, अस्त्रविद्या सीख रहे थे । मैं सिंहासन पर बैठा राज कर रहा था । क्यों मेरा सब्ज-बाग उजाड़ डाला ? उस आदमी ने कहा – ‘अरे वह तो स्वप्न था, उसमें क्या रखा है ?’ लकड़हारे ने कहा, ‘चल, तू नहीं समझा । मेरा लकड़हारा होना जिस तरह सच है, स्वप्न में राजा होना उसी तरह सच है । लकड़हारा होना यदि सत्य हो तो स्वप्न में राजा होना भी सत्य है ।”

."According to Vedanta the waking state, too, is unreal. Once a wood-cutter lay dreaming, when someone woke him up. Greatly annoyed, he said: 'Why have you disturbed my sleep? I was dreaming that I was a king and the father of seven children. The princes were becoming well versed in letters and military arts. I was secure on my throne and ruled over my subjects. Why have you demolished my world of joy?' 'But that was a mere dream', said the other man. 'Why should that bother you?' Fool!' said the wood-cutter. 'You don't understand. My becoming a king in the dream was just as real as is my being a wood-cutter. If being a wood-cutter is real, then being a king in a dream is real also.']

{“বেদান্তমতে জাগরণ অবস্থাও কিছু নয়। এক কাঠুরে স্বপন দেখেছিল। একজন লোক তার ঘুম ভাঙানোতে সে বিরক্ত হয়ে বলে উঠল, ‘তুই কেন আমার ঘুম ভাঙালি? আমি রাজা হয়েছিলাম, সাত ছেলের বাপ হয়েছিলাম। ছেলেরা সব লেখাপড়া, অস্ত্রবিদ্যা সব শিখছিল। আমি সিংহাসনে বসে রাজত্ব করছিলাম। কেন তুই আমার সুখের সংসার ভেঙে দিলি?’ সে ব্যক্তি বললে, ‘ও তো স্বপন, ওতে আর কি হয়েছে।’ কাঠুরে বললে, ‘দূর! তুই বুঝিস না, আমার কাঠুরে হওয়া যেমন সত্য, স্বপনে রাজা হওয়াও তেমনি সত্য। কাঠুরে হওয়া যদি সত্য হয়, তাহলে স্বপনে রাজা হওয়াও সত্য’।”

 [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔱🙏ह्रदय में विराजमान मूर्तमान (tangible) सनातन साक्षी श्रीरामकृष्ण को 

        देखकर उनसे बातचीत करना जैसे वे परम आत्मीय हों, इसी का नाम विज्ञान है ।🔱🙏 

 The state of the vijnani.

प्राणकृष्ण हमेशा ज्ञान-ज्ञान करते रहते हैं , इसीलिए अब श्रीरामकृष्ण विज्ञानी की बात कह रहे हैं –

Prankrishna always talked about jnana. Was this why the Master described the state of the jnani? Now he proceeded to describe the state of the vijnani.

{প্রাণকৃষ্ণ জ্ঞান জ্ঞান করেন, তাই বুঝি ঠাকুর জ্ঞানীর অবস্থা বলিতেছিলেন। এইবার ঠাকুর বিজ্ঞানীর অবস্থা বলিতেছেন। ইহাতে কি তিনি নিজের অবস্থার ইঙ্গিত করিতেছেন?

“नेति-नेति करके आत्म-साक्षात्कार करने को ज्ञान कहते हैं । नेति-नेति विचार करके मनुष्य समाधि में आत्मदर्शन करता है ।

MASTER: "Jnana is the realization of Self through the process of 'Neti, neti', 'Not this, not this'. One goes into samadhi through this process of elimination and realizes the Atman.

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ‘নেতি’ ‘নেতি’ করে আত্মাকে ধরার নাম জ্ঞান। ‘নেতি’ ‘নেতি’ বিচার করে সমাধিস্থ হলে আত্মাকে ধরা যায়।

 “विज्ञान अर्थात् विशेष रूप से ज्ञान प्राप्त करना । किसी ने दूध का नाम ही नाम सुना है, किसी ने दूध देखा भर है और किसी ने दूध पिया है । जिसने सिर्फ सुना है, वह अज्ञानी है, जिसने देखा है वह ज्ञानी है, और जिसने पिया है, वह विज्ञानी है, विशेष रूप से ज्ञान उसी को हुआ है । ईश्वर को देखकर उनसे वार्तालाप करना, जैसे वे परम आत्मीय हों, इसी का नाम विज्ञान है

But vijnana means Knowledge with a greater fullness. Some have heard of milk, some have seen milk, and some have drunk milk. He who has merely heard of it is 'ignorant'. He who has seen it is a jnani. But he who has drunk it has vijnana, that is to say, a fuller knowledge of it. After having the vision of God one talks to Him as if He were an intimate relative. That is vijnana.

[“বিজ্ঞান — কিনা বিশেষরূপে জানা। কেউ দুধ শুনেছে, কেউ দুধ দেখেছে, কেউ দুধ খেয়েছে। যে কেবল শুনেছে, সে অজ্ঞান। যে দেখেছে সে জ্ঞানী; যে খেয়েছে তারই বিজ্ঞান অর্থাৎ বিশেষরূপে জানা হয়েছে। ঈশ্বরদর্শন করে তাঁর সহিত আলাপ, যেন তিনি পরমাত্মীয়; এরই নাম বিজ্ঞান।"

[(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔱🙏अज्ञान, ज्ञान और विज्ञान- जो आत्मा हैं वे ही पंचभूत भी हुए हैं ।🔱🙏

“पहिले ‘नेति-नेति’ किया जाता है । वे पंचभूत नहीं हैं, मन बुद्धि, अहंकार भी नहीं हैं; वे सब तत्त्वों से परे हैं । छत पर चढ़ना होगा, सब सीढ़ियों को एक एक करके छोड़ जाना होगा । सीढ़ियाँ कभी छत नहीं हैं, परन्तु छत पर पहुँचकर देखा जाता है, जिन चीजों से छत बनी है – ईंट-चूना-सुरखी – उन्हीं चीजों से सीढ़ियाँ भी बनी हैं, पर सीढियाँ कभी छत नहीं हैं । जो परब्रह्म हैं वे ही जीव-जगत् और चौबीसों तत्त्व भी हुए हैं । जो आत्मा हैं वे ही पंचभूत भी हुए हैं । मिट्टी इतनी कड़ी क्यों है अगर वह आत्मा से ही हुई है ? उनकी इच्छा से सब हो सकता है । हाड़ और मांस, शोणित और शुक्र से ही तो होते हैं । समुद्र का फेन ^  कितना कड़ा होता है !

[सुफेन (cuttle bone) ^ मास्टर ने शायद समुद्र के किनारे पाई जाने वाली कटल-हड्डी या सुफेन का उल्लेख किया था। लोकप्रिय धारणा यह है कि यह कठोर फोम है।

"First of all you must discriminate, following the method of 'Neti, neti': 'He is not the five elements, nor the sense-organs, nor the mind, nor the intelligence, nor the ego. He is beyond all these cosmic principles.' You want to climb to the roof; then you must eliminate and leave behind all the steps, one by one. The steps are by no means the roof. But after reaching the roof you find that the steps are made of the same materials — brick, lime, and brick-dust — as the roof. It is the Supreme Brahman that has become the universe and its living beings and the twenty-four cosmic principles. That which is Atman has become the five elements. You may ask why the earth is so hard, if it has come out of Atman? All is possible through the will of God. Don't you see that bone and flesh are made from blood and semen? How hard 'sea-foam'3 becomes!

^The Master perhaps referred to the cuttle-bone found on the seashore. The popular belief is that it is hardened foam.]

[“প্রথমে ‘নেতি’ ‘নেতি’ করতে হয়। তিনি পঞ্চভূত নন; ইন্দ্রিয় নন; মন, বুদ্ধি, অহংকার নন; তিনি সকল তত্ত্বের অতীত। ছাদে উঠতে হবে, সব সিঁড়ি একে একে ত্যাগ করে যেতে হবে। সিঁড়ি কিছু ছাদ নয়। কিন্তু ছাদের উপর পৌঁছে দেখা যায় যে, যে জিনিসে ছাদ তৈয়ারী, ইট, চুন, সুড়কি — সেই জিনিসেই সিঁড়িও তৈয়ারী। যিনি পরব্রহ্ম তিনিই এই জীবজগৎ হয়েছেন, চতুর্বিংশতি তত্ত্ব হয়েছেন। যিনি আত্মা, তিনিই পঞ্চভূত হয়েছেন। মাটি এত শক্ত কেন, যদি আত্মা থেকেই হয়েছে। তাঁর ইচ্ছাতে সব হতে পারে। শোণিত শুক্র থেকে যে হাড় মাংস হচ্ছে! সমুদ্রের ফেণা কত শক্ত হয়!”

 [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

[গৃহস্থের কি বিজ্ঞান হতে পারে — সাধন চাই ]

🔆विज्ञान होने के बाद- गृहस्थ जीवन में भी रहा जा सकता है 🔆

“विज्ञान के होने पर संसार में (गृहस्थ जीवन में) भी रहा जा सकता है । तब अच्छी तरह अनुभव हो जाता है कि जीव और जगत् वे ही हुए हैं, वे संसार से अलग नहीं हैं । 

After attaining vijnana one can live in the world as well. Then one clearly realizes that God Himself has become the universe and all living beings, that He is not outside the world.

[“বিজ্ঞান হলে সংসারে থাকা যায়। তখন বেশ অনুভব হয় যে, তিনিই জীবজগৎ হয়েছেন, তিনি সংসার ছাড়া নন। 

श्रीरामचन्द्र ने ज्ञान-लाभ के पश्चात् जब कहा कि मैं संसार में न रहूँगा, तब दशरथ ने समझाने के लिए वशिष्ठ को उनके पास भेजा । वशिष्ठ ने कहा, ‘राम ! यदि संसार ईश्वर से अलग हो तो तुम इसे छोड़ सकते हो ।’श्रीरामचन्द्र चुप हो रहे । वे अच्छी तरह जानते थे, ईश्वर से अलग कोई चीज नहीं है । उन्हें फिर संसार न छोड़ना पड़ा । 

[রামচন্দ্র যখন জ্ঞানলাভের পর ‘সংসারে থাকব না’ বললেন, দশরথ বশিষ্ঠকে তাঁর কাছে পাঠিয়ে দিলেন, বুঝাবার জন্য। বশিষ্ঠ বললেন, ‘রাম! যদি সংসার ঈশ্বর ছাড়া হয়, তুমি ত্যাগ করতে পারো।’ রামচন্দ্র চুপ করে রইলেন। তিনি বেশ জানেন যে ঈশ্বর ছাড়া কিছুই নাই। তাঁর আর সংসার ত্যাগ করা হল না। 

 [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔱🙏आध्यात्मिक नेत्र प्राप्त होने पर परिवार और संसार में ही ईश्वर-दर्शन होता है🔱🙏 

(प्राणाकृष्ण के प्रति ) सच्चाई यह कि जगत को ब्रह्ममय (सियाराम-मय) देखने के लिए-व्यक्ति के पास पहले 'spiritual eye' या 'आध्यात्मिक नेत्र' होने चाहिए ! मन के पवित्र और शुद्ध होने पर ही वह आध्यात्मिक दृष्टि प्राप्त होती है। देखो न कुमारी पूजा करते समय, मलमूत्र त्याग करके आयी हुई कन्या को मैंने साक्षात् भगवती की मूर्ति समझकर प्रणाम किया। एक बगल में स्त्री है,दूसरी और बच्चा है - दोनों को मनुष्य सहला रहा है , प्यार कर रहा है , किन्तु भाव भिन्न हैं। यह सब मन के ऊपर ही निर्भर है ! शुद्ध मन (कच्चा अहं के पक्का अहं में रूपांतरित हो जाने पर) बन जाने पर जगत को देखने का दृष्टिकोण बदल जाता है। उस मन के प्राप्त होने पर परिवार- संसार में ईश्वर दर्शन होता है; अतएव पहले साधना (मनःसंयोग?) करनी चाहिए।  

(To Prankrishna) "The fact is that one must have the 'spiritual eye'. You will develop that eye as soon as your mind becomes pure. Take for instance the Kumari Puja. I worshipped a virgin. The girl, to be sure, had all her human imperfections; still I regarded her as the Divine Mother Herself. "On one side is the wife and on the other the son. Love is bestowed on both, but in different ways. Therefore it comes to this, that everything depends upon the mind. The pure mind acquires a new attitude. Through that mind one sees God in this world. Therefore one needs spiritual discipline.

[(প্রাণকৃষ্ণের প্রতি) কথাটা এই, দিব্য চক্ষু চাই। মন শুদ্ধ হলেই সেই চক্ষু হয়। দেখ না কুমারীপূজা। হাগা-মোতা মেয়ে, তাকে ঠিক দেখলুম সাক্ষাৎ ভগবতী। একদিকে স্ত্রী, একদিকে ছেলে, দুজনকেই আদর কচ্ছে, কিন্তু ভিন্ন ভাবে। তবেই হলো, মন নিয়ে কথা। শুদ্ধমনেতে এক ভাব হয়। সেই মনটি পেলে সংসারে ঈশ্বরদর্শন হয়; তবেই সাধন চাই।

 [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔱🙏गृहस्थ जीवन में सावधानी पूर्वक साधना करना अनिवार्य है🔱🙏 

" साधना चाहिए। आध्यात्मिक साधन चाहिए (spiritual discipline - 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण लेना चाहिए)  ... यह समझ लेना चाहिए कि स्त्रियों पर मन सहज ही आसक्त हो जाता है । और स्त्रियाँ स्वभाव से ही पुरुषों को प्यार करती हैं । पुरुष स्वभाव से ही स्त्रियों को प्यार करते हैं । --इसलिए थोड़ी असावधानी से भी दोनों गिर जाते  हैं 

"Yes, spiritual discipline is necessary. You should know that a man becomes easily attached to a woman. A woman naturally loves a man, and a man also naturally loves a woman. Therefore both fall speedily from their spiritual ideal.

[ “সাধন চাই। ... এইটি জানা যে, স্ত্রীলোক সম্বন্ধে সহজেই আসক্তি হয়। স্ত্রীলোক স্বভাবতঃই পুরুষকে ভালবাসে। পুরুষ স্বভাবতঃই স্ত্রীলোক ভালবাসে — তাই দুজনেই শিগগির পড়ে যায়।

"लेकिन गृहस्थी बसा लेना भी , बहुत सुविधाजनक है। यदि कभी विशेष जरूरत हो भी गयी , तो अपनी स्त्री के साथ सो गए। (सहास्य ) मास्टर हँस क्यों रहे हो ? 

But it also must be said that there is a great advantage in leading the life of a householder. In case of urgent necessity a man may live with his wife(Smiling) "Well, M., why are you smiling?"

কিন্তু সংসারে তেমনি খুব সুবিধা। বিশেষ দরকার হলে, হলো স্বদারা সহবাস করলে। (সহাস্য) মাস্টার হাসচো কেন?”

मास्टर (मन ही मन सोचते हैं -): "श्री ठाकुरदेव गृहस्थों को अपनी विवाहिता स्त्री के साथ रहने की इतनी छूट क्यों दे रहे हैं ? क्या इसीलिए कि शादीशुदा व्यक्ति सब कुछ त्याग नहीं सकते ? क्या गृहस्थ व्यक्ति के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य (इन्द्रिय-निग्रह, continence) असंभव है?"

M. (to himself): "The Master makes this much allowance for householders since they cannot renounce everything. Is complete and absolute continence impossible for a householder?"

মাস্টার (স্বগত) — সংসারী লোক একেবারে সমস্ত ত্যাগ পেরে উঠবে না বলে ঠাকুর এই পর্যন্ত অনুমতি দিচ্ছেন। ষোল আনা ব্রহ্মচর্য সংসারে থেকে কি একেবারে অসম্ভব?

(हठयोगी का प्रवेश )

पंचवटी में कई दिनों से एक हठयोगी रहते हैं । वे सिर्फ दूध और अफीम खाते हैं और हठयोग करते हैं। रोटी-भात, यह कुछ नहीं खाते । अफीम और दूध के दाम उनके पास नहीं हैं । श्रीरामकृष्ण जब पंचवटी के पास गये थे तब वे हठयोगी से बातचीत करके आये थे । हठयोगी ने राखाल से कहा था, ‘परमहंसजी से कहकर मेरी कोई व्यवस्था करा देना ।’ श्रीरामकृष्ण ने कहला भेजा था कि कलकत्ते के बाबू जब आयेंगे तब उनसे कहा जायगा ।

The hathayogi who had been living in the Panchavati entered the room. He was in the habit of taking milk and opium. He did not eat rice or other food and had no money to buy the milk and opium. The Master had talked with him in the Panchavati. The hathayogi had told Rakhal to ask the Master to make some provision for him, and Sri Ramakrishna had promised ito speak about it to the visitors from Calcutta.

[পঞ্চবটীতে একটি হঠযোগী কয়দিন ধরিয়া আছেন। তিনি কেবল দুধ খান, আফিম খান, আর হঠযোগ করেন, ভাত-টাত খান না। আফিমের ও দুধের পয়সার অভাব। ঠাকুর যখন পঞ্চবটীর কাছে গিয়াছিলেন, হঠযোগীর সহিত আলাপ করিয়া আসিয়াছিলেন। হঠযোগী রাখালকে বলিলেন, “পরমহংসজীকে বলে যেন আমার কিছু ব্যবস্থা করে দেওয়া হয়।” ঠাকুর বলিয়া পাঠাইয়াছিলেন, “কলকাতার বাবুরা এলে বলে দেখব।”

हठयोगी – (श्रीरामकृष्ण से) –  आपने राखाल से मेरे लिए कुछ कहा था ? 

HATHAYOGI (to the Master): "What did you say to Rakhal about me?"

[হঠযোগী (ঠাকুরের প্রতি) — আপ্‌ রাখালসে কেয়া বোলাথা?

श्रीरामकृष्ण – कहा था, बाबुओं से कहूँगा । अगर वे कुछ देंगे तो दे देंगे । परन्तु क्यों – (प्राणकृष्णादि से) तुम शायद इन्हें like (पसन्द) नहीं करते ?

MASTER: "I said that I would ask some rich visitors to help you. But — (to Prankrishna) you, perhaps, do not like these yogis?"

[শ্রীরামকৃষ্ণ — হ্যাঁ বলেছিলাম, দেখব যদি কোন বাবু কিছু দেয়। তা কই (প্রাণকৃষ্ণাদির প্রতি) তোমরা বুঝি এদের like কর না?

प्राणकृष्ण चुपचाप बैठे रहे । (हठयोगी चला जाता है ।) श्रीरामकृष्ण की बातचीत होने लगी ।

Prankrishna remained silent. The hathayogi left the room and the conversation went on.

[প্রাণকৃষ্ণ চুপ করিয়া রহিলেন।ঠাকুরের কথা চলিতে লাগিল।

 [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔱🙏🔆सत्य से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है- 'सत्यमेव जयते नानृतं'🔱🙏🔆

[শ্রীরামকৃষ্ণ ও সত্যকথা ]

श्रीरामकृष्ण – (प्राणकृष्णादि भक्तों से) – और गृहस्थ जीवन में रहने पर सत्यवादिता के प्रति निरन्तर निष्ठा (unflagging devotion) रखनी चाहिए । सत्य से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। मेरी तो इस समय सत्य की दृढ़ता कुछ कम हो गयी है, पहले बहुत थी। ‘नहाऊँगा’ यह कहा नहीं कि गंगा में उतरा, मन्त्रोच्चारण किया, सिर पर पानी भी डाला, परन्तु फिर भी सन्देह होता था कि शायद अच्छी तरह नहाना अभी नहीं हुआ । अमुक स्थान पर शौच के लिए जाऊँगा यह सोचा नहीं कि वहीँ गया । राम के मकान गया, कलकत्ते में । कह दिया कि पूड़ियाँ न खाऊँगा । जब खाने को दिया गया, तब देखा, भूख लगी है; परन्तु कह जो दिया है कि पूड़ियाँ न खाऊँगा तो मजबूरन मिठाई से पेट भरा ।(सब हँसते हैं ।)

MASTER (to Prankrishna and the others): "If a man leads a householder's life he must have unflagging devotion to truth. God can be realized through truth alone. (सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पंथा विततो देवयानः।)Formerly I was very particular about telling the truth, though now my zeal has abated a little. If I said, 'I shall bathe', then I would get into the water of the Ganges, recite the mantra, and sprinkle a little water over my head. But still there would remain some doubt in me as to whether my bath was complete. Once I went to Ram's house in Calcutta. I happened to say, 'I shall not take any luchi.' When I sat down for the meal I felt hungry. But I had said I would not eat the luchi; so I had to fill my stomach with sweets. (All laugh.)

[শ্রীরামকৃষ্ণ (প্রাণকৃষ্ণাদি ভক্তের প্রতি) — আর সংসারে থাকতে গেলে সত্য কথার খুব আঁট চাই। সত্যতেই ভগবানকে লাভ করা যায়। আমার সত্য কথার আঁট এখন তবু একটু কমছে, আগে ভারী আঁট ছিল। যদি বলতুম ‘নাইব’, গঙ্গায় নামা হল, মন্ত্রোচ্চারণ হল, মাথায় একটু জলও দিলুম, তবু সন্দেহ হল, বুঝি পুরো নাওয়া হল না! অমুক জায়গাতে হাগতে যাব, তা সেইখানেই যেতে হবে। রামের বাড়ি গেলুম কলকাতায়। বলে ফেলেছি, লুচি খাব না। যখন খেতে দিলে, তখন আবার খিদে পেয়েছে। কিন্তু লুচি খাব না বলেছি, তখন মেঠাই দিয়ে পেট ভরাই। (সকলের হাস্য)

इस समय तो दृढ़ता कुछ घट गयी है । टट्टी की हाजत्त नहीं है, परन्तु कह डाला है कि टट्टी जाऊँगा, क्या किया जाय ? राम* से पूछा, उसने कहा, नहीं लगी है तो जाकर क्या कीजियेगा ? तब मैंने विचार किया, सभी तो नारायण हैं, राम भी नारायण है, उसकी बात क्यों न मानूँ ? हाथी नारायण है, परन्तु महावत भी तो नारायण है । महावत जिस समय कह रहा है, हाथी के पास मत आओ, उस समय उसकी बात क्यों न मानी जाय ? इस तरह विचार करके अब पहले की अपेक्षा दृढ़ता कुछ घट गयी है । (*राम चॅटर्जी – दक्षिणेश्वर मन्दिर के एक पूजारी ।)

"But my zeal for truthfulness has abated a little now. Once I said I would go to the pine-grove, but then I felt I had no particular urge to go. What was to be done? I asked Ram (Ram Chatterji, the priest in the Radihakanta temple.) about it. He said I didn't have to go. Then I reasoned to myself: 'Well, everyone is Narayana. So Ram, too, is Narayana. Why shouldn't I listen to him? The elephant is Narayana no doubt, but the mahut is Narayana too. Since the mahut asked me not to go near the elephant, then why shouldn't I obey him?' Through reasoning like this my zeal for truthfulness is slightly less strong now than before.

[“এখন তবু একটু আঁট কমেছে। বাহ্যে পায় নি, যাব বলে ফেলেছি, কি হবে? রামকে১ জিজ্ঞাসা কল্লুম। সে বললে, গিয়ে কাজ নাই। তখন বিচার কল্লুম; সব তো নারায়ণ। রামও নারায়ণ। ওর কথাটাই বা না শুনি কেন? হাতি নারায়ণ বটে, কিন্তু মাহুতও নারায়ণ। মাহুত যে কালে বলছে, হাতির কাছে এসো না, সেকালে মাহুতের কথা না শুনি কেন? এই রকম বিচার করে আগেকার চেয়ে একটু আঁট কমেছে।”

 [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔆ईश्वर ही मनुष्य (छल नारायण-लुच्चा नारायण) बनकर घूम रहे हैं-'नर-लीला में विश्वास'🔆

🔆 নরলীলায় বিশ্বাস করো : गुरुगृहवास युवा-प्रशिक्षण शिविर में नर लीला देखो🔆

“अब इस समय देख रहा हूँ, एक और अवस्था आ रही है । बहुत दिन हुए वैष्णव चरण ने कहा था, मनुष्य के भीतर जब ईश्वर के दर्शन होंगे, तब पूर्ण ज्ञान होगा । अब देख रहा हूँ, अनेक रूपों में वही विचरण कर रहे हैं । कभी साधु के रूप में, कभी छल-रूप में, और कभी खल-रूप में । इसीलिए कहता हूँ, साधुरुपी (sadhu) नारायण, छलरुपी (cheat) नारायण, खलरुपी (villain, दुर्जन रूपी)  नारायण, लुच्चारुपी (lecher-भोगी, अय्याश ) नारायण ! [या अभेद-दृष्टि दाता अवतार /गुरु /नेता के रूप में नारायण ?]

"I find a change coming over me. Years ago Vaishnavcharan said to me, 'One attains Perfect Knowledge when one sees God in man.' Now I see that it is God alone who is moving about in various forms: as a holy man, as a cheat, as a villain. Therefore I say, 'Narayana in the guise of the sadhuNarayana in the guise of the cheat (धोखेबाज) , Narayana in the guise of the villain, Narayana in the guise of the lecher (अय्याश.'

{“এখন দেখছি, এখন আবার একটা অবস্থা বদলাচ্ছে। অনেকদিন হল, বৈষ্ণবচরণ বলেছিল, মানুষের ভিতর যখন ঈশ্বরদর্শন হবে, তখন পূর্ণজ্ঞান হবে। এখন দেখছি, তিনিই এক-একরূপে বেড়াচ্ছেন। কখন সাধুরূপে, কখন ছলরূপে — কোথাও বা খলরূপে। তাই বলি, সাধুরূপ নারায়ণ, ছলরূপ নারায়ণ, খলরূপ নারায়ণ, লুচ্চরূপ নারায়ণ।

“अब चिन्ता है, सब को भोजन किस तरह कराया जाय । सब को भोजन कराने की इच्छा होती है। इसलिए एक-एक आदमी को यहाँ रखकर भोजन कराता हूँ ।”

[🔆🔆🔆🔆🔆अब मेरी समस्या यह है कि " Be and Make गुरुगृहवास युवा-प्रशिक्षण शिविर में सबको नारायण देखकर भोजन कराने की व्यवस्था को किस तरह व्यावहारिक बनाया जाए ? इसीलिए 1967 में महामण्डल को अवतरित होना पड़ा। }

"Now my problem is how I can feed all of you. I want to feed everyone. So I keep one at a time with me and feed him." 

{“এখন ভাবনা হয়, সব্বাইকে খাওয়ানো কেমন করে হয়। সব্বাইকে খাওয়াতে ইচ্ছা করে। তাই একজনকে এখানে রেখে খাওয়াই।”

प्राणकृष्ण – (मास्टर को देखकर, सहास्य) – अच्छा आदमी है ! (श्रीरामकृष्ण से) महाराज, नाव से उतरकर ही दम लिया !

 Prankrishna (looking at M. and smiling): "A fine man, indeed! (To the Master) He would not let us go till we put him ashore."

[প্রাণকৃষ্ণ (মাস্টার দৃষ্টে, সহাস্যে) — আচ্ছা লোক! (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) মহাশয়, নৌকা থেকে নেমে তবে ছাড়লেন।

श्रीरामकृष्ण – (हँसते हुए) – क्या हुआ ?

MASTER (smiling): "Why? What happened?"

[শ্রীরামকৃষ্ণ (হাসিতে হাসিতে) — কি হয়েছিল?

प्राणकृष्ण ये नाव पर चढ़े थे; जरा सी लहर की टक्कर लगी और इन्होंने कहा, उतार दो हमको – (मास्टर से) किस तरह फिर आये आप ?

[প্রাণকৃষ্ণ — নৌকায় উঠেছিলেন। একটু ঢেউ দেখে বলেন, নামিয়া দাও — (মাস্টারের প্রতি) কিসে করে এলেন?

PRANKRISHNA: "He was in our boat. Seeing that the river was slightly rough, he insisted on being put ashore. (To M.) How did you come?"

मास्टर – (सहास्य) पैदल चलकर ।

[মাস্টার (সহাস্যে) — হেঁটে।

M. (smiling): "On foot."

श्रीरामकृष्ण हँस पड़े 

[(ঠাকুর হাসিতে লাগিলেন)

Sri Ramakrishna laughed.

 [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔆गृहस्थ एक दम से विषय-कर्म त्याग नहीं सकते अतएव कुछ दिन निर्जन-वास करें🔆

[To witness Nar-lila live in annual camp a few days in solitude.] 

प्राणकृष्ण – (श्रीरामकृष्ण से) – महाराज, अब सोच रहा हूँ, काम छोड़ दूँगा । काम करने लगा, तो फिर और कुछ नहीं होगा । इन्हें (साथ के एक बाबू की ओर इशारा करके) काम सिखा रहा हूँ। मेरे छोड़ देने पर ये काम करेंगे, अब और नहीं होता ।

PRANKRISHNA (to the Master): "Sir, I am thinking now of giving up my work. One who is involved in activity cannot accomplish anything. (Pointing to his companion) I am training him to do my work. After I resign, he will relieve me. Work has become intolerable."

[প্রাণকৃষ্ণ (ঠাকুরের প্রতি) — মহাশয়! এইবার মনে করছি কর্ম ছেড়ে দিব। কর্ম করতে গেলে আর কিছু হয় না। (সঙ্গী বাবুকে দেখাইয়া) এঁকে কাজ শেখাচ্ছি, আমি ছেড়ে দিলে ইনি কাজ করবেন। আর পারা যায় না।

श्रीरामकृष्ण – हाँ, बड़ी झंझट है । इस समय कुछ दिन निर्जन में ईश्वर-चिन्तन करना बहुत अच्छा है । तुम कहते तो हो कि छोड़ोगे । कप्तान ने भी यही बात कही थी । संसारी आदमी कहते तो हैं, पर कर नहीं सकते ।

MASTER: "Yes, work is very troublesome. It is now good for you to meditate on God for a few days in solitude. No doubt you say that you would like to give up your work. Captain said the same thing. Worldly people talk that way; but they don't succeed in carrying out their intention.

[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, বড় ঝঞ্ঝাট। এখন দিন কতক নির্জনে ঈশ্বরচিন্তা করে খুব ভাল। কিন্তু তুমি বলছো বটে ছাড়বে। কাপ্তেনও ওই কথা বলেছিল। সংসারী লোকেরা বলে, কিন্তু পেরে ওঠে না।

 [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔆विवेक-वैराग्य के बिना लेक्चर देने वाले पण्डित गिद्ध की नजर मरघट पर🔆

“कितने ही पण्डित हैं जो ज्ञान की बातें कहा करते हैं । वे मुख ही से कहते हैं, काम कुछ नहीं कर सकते । जैसे गिद्ध उड़ता तो बहुत ऊँचे है, परन्तु उसकी नजर मरघट पर ही रहती है । अर्थात् उसी कामिनी-कांच पर – संसार पर आसक्ति । अगर मैं सुनता हूँ कि किसी पण्डित को विवेक-वैराग्य है तो मुझे सचमुच उनसे श्रद्धापूर्ण भय (reverence) होता है, और नहीं तो वे सब भेड-बकरे-से ही जान पड़ते हैं ।”

"There are many pundits who speak words of wisdom. But they merely talk; they don't live up to them. They are like vultures, which soar very high but keep their gaze fixed on the charnel-pit. What I mean is that these pundits are attached to the world, to 'woman and gold'. If I hear that pundits are practising discrimination and dispassion, then I fear them. Otherwise I look upon them as mere goats and dogs."] 

{“অনেক পণ্ডিত আছে, কত জ্ঞানের কথা বলে। মুখেই বলে, কাজে কিছুই নয়। যেমন শকুনি খুব উঁচুতে উঠে; কিন্তু ভাগাড়ের দিকে নজর; অর্থাৎ সেই কামিনী-কাঞ্চনের উপর — সংসারের উপর আসক্তি। যদি শুনি, পণ্ডিতের বিবেক-বৈরাগ্য আছে, তবে ভয় হয়; তা না হলে কুকুর-ছাগলজ্ঞান হয়।”

प्राणकृष्ण प्रणाम करके बिदा हुए । उन्होंने मास्टर से चलने के लिए पूछा । मास्टर ने कहा; मैं अभी न जाऊँगा, आप चलिये । प्राणकृष्ण ने हँसते हुए कहा, तुम अब और नाव पर कदम रखोगे? (सब हँसते हैं ।)

Prankrishna saluted the Master and took his leave. He said to M., "Will you come with us?"M: "No, sir! Catch me going with you again! Good-bye." Prankrishna laughed and said, "I see you won't come in the boat."

[প্রাণকৃষ্ণ প্রণাম করিয়া বিদায় গ্রহণ করিলেন ও মাস্টারকে বলিলেন, আপনি যাবেন? মাস্টার বলিলেন, না, আপনারা আসুন। প্রাণকৃষ্ণ হাসিতেছেন ও বলিলেন, তুমি আর যাও! (সকলের হাস্য)

 [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔆माँ काली एक ही आधार में भयंकरा और स्नेहमयी माता हैं🔆

मास्टर ने पंचवटी में थोड़ी देर टहलकर, जिस घाट में श्रीरामकृष्ण नहाते थे, उसी में नहाया । इसके बाद श्रीभवतारिणी और राधाकान्त के दर्शन किये । वे सोच रहे हैं, मैंने सुना था ईश्वर निराकार हैं, तो फिर क्यों मैं इस मूर्ति के सामने प्रणाम कर रहा हूँ ? क्या श्रीरामकृष्ण साकार देव- देवियों को मानते हैं इसलिए ? मैं तो ईश्वर के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं समझता; परन्तु जब कि श्रीरामकृष्ण मानते हैं, तो मैं किस खेत की मूली हूँ – मानना ही होगा ।

M. took a little stroll near the Panchavati and bathed in the river. Then he went to the temples of Radhakanta and Kali and prostrated himself before the images. He said to himself: "I have heard that God has no form. Then why do I bow before these images? Is it because Sri Ramakrishna believes in gods and goddesses with form? I don't know anything about God, nor do I understand Him. The Master believes in images; then why shouldn't I too, who am so insignificant a creature, accept them?"

[মাস্টার পঞ্চবটীর কাছে একটু বেড়াইয়া ঠাকুর যে ঘাটে স্নান করিতেন, সেই ঘাটে স্নান করিলেন। তৎপরে  ৺ভবতারিণী ও ৺রাধাকান্ত দর্শন ও প্রণাম করিলেন। ভাবিতেছেন, শুনিয়াছিলাম ঈশ্বর নিরাকার তবে এই প্রতিমার সম্মুখে কেন প্রণাম? ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ সাকার দেবদেবী মানেন, এই জন্য? আমি তো ঈশ্বর সম্বন্ধে কিছু জানি না, বুঝি না। ঠাকুর যেকালে মানেন আমি কোন্‌ ছার, মানিতেই হইবে।

मास्टर श्रीभवतारिणी माता के दर्शन कर रहे हैं । देखा, उनके दोनों बायें हाथों में खड्ग और नरमुण्ड शोभा दे रहे हैं, दोनों दाहिने हाथों में वर और अभय । एक ओर वे भयंकरा मूर्ति हैं और दूसरी ओर भक्तवत्सलता मातृमूर्ति । उनमें दो भावों का एकत्र समावेश हो रहा है । अपने विनम्र (submissive, आज्ञाकारी) भक्तों तथा असहाय (helpless, निराश्रय ) पुत्रों  के निकट, वे दया -मयी और स्नेहमयी माता के स्वरूप में आती हैं; और यह भी सत्य है कि वे भयंकरा और काल-कामिनी ( terrible, the "Consort of Death".महाकाल की पत्नी)  भी हैं । एक ही आधार में ये दो भाव क्यों हैं, इसका हाल तो वे ही जाने।

{वज्रादपि  कठोराणि  मृदूनि  कुसुमादपि। लोकोत्तराणां चेतांसि को हि विज्ञातुमर्हति।। अर्थात  महान व्यक्तियों का स्वभाव अति विशिष्ठ रूप  से  आवश्यकतानुसार देवराज इन्द्र के वज्र के समान कठोर और एकपुष्प के समान  हो जाता है और इसी विशिष्टता के लिये ही  वे समाज में प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध  होते हैं- `कः हि (तानि) विज्ञातुम् अर्हति' यहाँ कौन है जो उन्हें अच्छी तरह से जानने का पात्र है? लोकोत्तर पुरुष का चित्त कठोर भी होता है और मृदु भी होता है, परन्तु उनमें हित का वियोग कभी नहीं होता। उनका मन सदा-सर्वदा से हित से संयुक्त रहता है।Illustrious and noble persons become firm like the ' Vajra' the weapon of God Indra and very gentle like a flower depending upon the prevailing situation.  They are famous because of this special trait in them.= who merits to know them well anyhow ?] 

M. looked at the image of Kali. Me saw that the Divine Mother holds in Her two left hands a man's severed head and a sword. With Her two right hands She offers boons and reassurance to Her devotees. In one aspect She is terrible, and in another She is the ever affectionate Mother of Her devotees. The two ideals are harmonized in Her. She is compassionate and affectionate to Her devotees, to those who are submissive and helpless. It is also true that She is terrible, the "Consort of Death". She alone knows why She assumes two aspects at the same time.

[মাস্টার ৺ভবতারিণীকে দর্শন করিতেছেন। দেখিলেন — বামহস্তদ্বয়ে নরমুণ্ড ও অসি, দক্ষিণহস্তদ্বয়ে বরাভয়। একদিকে ভয়ঙ্করা আর-একদিকে মা ভক্তবৎসলা। দুইটি ভাবের সমাবেশ। ভক্তের কাছে, তাঁর দীনহীন জীবের কাছে, মা দয়াময়ী! স্নেহময়ী! আবার এও সত্য, মা ভয়ঙ্করী কালকামিনী! একাধারে কেন দুই ভাব, মা-ই জানেন।

मास्टर श्रीरामकृष्ण की व्याख्या याद कर रहे हैं । सोच रहे हैं – सुना है, केशव सेन ने भी श्रीरामकृष्ण के पास देवी-प्रतिमा का अस्तित्व स्वीकार कर लिया था । ‘क्या यही मृण्मय आधार में चिन्मयी मूर्ति हैं?’ केशव यही बात कहते थे ।

M. remembered this interpretation of Kali given by the Master. He said to himself, "I have heard that Keshab accepted Kali in Sri Ramakrishna's presence. Is this, as Keshab used to say, the Goddess, all Spirit and Consciousness; manifesting Herself through a clay image?"]

[ঠাকুরের এই ব্যাখ্যা, মাস্টার সমরণ করিতেছেন। আর ভাবিতেছেন, শুনেছি কেশব সেন ঠাকুরের কাছে কালী মানিয়াছেন। এই কি “মৃন্ময় আধারে চিন্ময়ী দেবী” কেশব এই কথা বলিতেন।

 [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔆संयुक्त परिवार में ईश्वर-आराधन (महामण्डल आन्दोलन में भाग लेने) की बहुत सुविधा है !🔆

 [একান্নভুক্ত পরিবার মধ্যে ঈশ্বরচিন্তা করিবার অনেক সুবিধা।] 

[Joint family affords many advantages to one leading a religious life.]

अब वे श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे । वे नहा चुके हैं, यह देखकर श्रीरामकृष्ण ने उन्हें फलमूल प्रसाद खाने के लिए दिया । गोल बरामदे में आकर उन्होंने प्रसाद पाया । पानीवाला लोटा बरामदे में ही रह गया था । वे जल्दी से श्रीरामकृष्ण के पास आकर कमरे में बैठ ही रहे थे कि श्रीरामकृष्णने कहा, तुम लोटा नहीं लाये ? मास्टर का घर कलकत्ते में है । घर में शान्ति न मिलने के कारण उन्होंने श्यामपुकुर में किराये का मकान लिया है । उनका स्कूल भी वहीँ है । उनके अपने मकान में उनके पिता और भाई रहते हैं । श्रीरामकृष्ण की इच्छा है कि वे अपने मकान में आकर रहें; क्योंकि एक ही घर और एक ही थाली के खानेवालों में भजन-पूजन करने की बड़ी सुविधा है । यद्यपि श्रीरामकृष्ण बीच-बीच में ऐसा कहते थे, तथापि दुर्भाग्यवश मास्टर अपने घर वापस नहीं जा सके । आज श्रीरामकृष्ण ने फिर यही बात उठायी ।

M. returned to the Master's room and sat on the floor. Sri Ramakrishna offered him some fruit and sweets to eat. On account of trouble in the family, M. had recently rented a house in another section of Calcutta near his school, his father and brothers continuing to live in the ancestral home. But Sri Ramakrishna wanted him to return to his own home, since a joint family affords many advantages to one leading a religious life. Once or twice the Master had spoken to M. to this effect, but unfortunately he had not yet returned to his family. Sri Ramakrishna referred to the matter again.

[এইবার তিনি ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের কাছে আসিয়া বসিলেন। স্নান করিয়াছেন দেখিয়া ঠাকুর তাঁহাকে ফলমূলাদি প্রসাদ খাইতে দিলেন। তিনি গোল বারান্দায় বসিয়া প্রসাদ পাইলেন। পান করিবার জলের ঘটি বারান্দাতে রহিল। ঠাকুরের কাছে তাড়াতাড়ি আসিয়া ঘরের মধ্যে বসিতে যাইতেছেন, ঠাকুর বলিলেন, “ঘটি আনলে না?” [মাস্টারের বাড়ি কলিকাতায়। তিনি গৃহে অশান্তি হওয়াতে শ্যামপুকুরে বাড়ি ভাড়া করিয়া আছেন। সেই বাড়ির কাছেই কর্মস্থল। তাঁহার ভদ্রাসন বাটীতে তাঁহার পিতা ও ভাইয়েরা থাকিতেন। ঠাকুরের ইচ্ছা যে, তিনি নিজ বাটীতে গিয়া থাকেন, কেননা, একান্নভুক্ত পরিবার মধ্যে ঈশ্বরচিন্তা করিবার অনেক সুবিধা। কিন্তু ঠাকুর মাঝে মাঝে যদিও ওইরূপ বলিতেন, তাঁহার দুর্দৈবক্রমে তিনি বাটীতে ফিরিয়া যান নাই। আজ ঠাকুর সেই বাড়ির কথা আবার তুলিলেন।

मास्टरजी हाँ, लाता हूँ ।

[মাস্টার — আজ্ঞা হাঁ, আনছি।

श्रीरामकृष्ण – वाह !

मास्टर का चेहरा फीका पड़ गया । बरामदे से लोटा लाकर कमरे में रखा ।

[মাস্টার অপ্রস্তুত। বারান্দায় গিয়া ঘটি ঘরের মধ্যে রাখিলেন।

श्रीरामकृष्ण - क्यों, अब तुम घर जाओगे ?

MASTER: "Tell me that you are going to your ancestral home."

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কেমন, এইবার তুমি বাড়ি যাবে?

मास्टर – मेरा तो वहाँ रहने के लिए किसी तरह जी नहीं चाहता ।

[মাস্টার — আমার সেখানে ঢুকতে কোন মতে মন উঠে না।

M: "I can never persuade myself to enter that place."

श्रीरामकृष्ण – क्यों, तुम्हारा बाप मकान गिरवाकर वहाँ नयी ईमारत खड़ी कर रहा है ।

MASTER: "Why? Your father is making over the whole house."

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন? তোমার বাপ বাড়ি ভেঙেচুরে নূতন করছে।

मास्टर – घर में मुझे बड़ी तकलीफ मिली है । वहाँ जाने को मेरा किसी तरह मन नहीं होता ।

M: "I have suffered too much there. I can by no means make up my mind to go there."

[মাস্টার — বাড়িতে আমি অনেক কষ্ট পেয়েছি। আমার যেতে কোন মতে মন হয় না।

श्रीरामकृष्ण – तुम किससे डरते हो ?

MASTER: "Whom do you fear?"

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কাকে তোমার ভয়?

मास्टर – सब से ।

M: "All of them."

[মাস্টার — সব্বাইকে।

श्रीरामकृष्ण – (गम्भीर स्वर में) – क्या वह भय वैसा ही है जैसा तुम्हें नाव पर चढ़ते समय होता है।

MASTER (seriously): "Isn't that like your being afraid to get into the boat?"

[শ্রীরামকৃষ্ণ (গম্ভীরস্বরে) — সে তোমার যেমন নৌকাতে উঠতে ভয়!

देवताओं का भोग लग गया । आरती हो रही है । कालीमन्दिर में आनन्द हो रहा है । आरती का शब्द सुनकर, कंगाल, साधु, फकीर, सब अतिथि-शाला में दौड़े आ रहे हैं । किसी के हाथ में पत्तल है, किसी के हाथ में थाली लोटा । सब ने प्रसाद पाया । आज मास्टर ने भी भवतारिणी का प्रसाद पाया ।

The midday worship and the offering of food in the temples were over. The bells, gongs, and cymbals of the arati were being played, and the temple garden was filled with joyful activity. Beggars, sadhus, and guests hurried to the guest-house for the noonday meal, carrying leaf or metal plates in their hands. M. also took some of the prasad from the Kali temple.

[ঠাকুরদের ভোগ হইয়া গেল। আরতি হইতেছে ও কাঁসর ঘন্টা বাজিতেছে। কালীবাড়ি আনন্দে পরিপূর্ণ। আরতির শব্দ শুনিয়া কাঙাল, সাধু, ফকির সকলে অতিথিশালায় ছুটিয়া আসিতেছেন। কারু হাতে শালপাতা, কারু হাতে বা তৈজসপত্র — থালা, ঘটি। সকলে প্রসাদ পাইলেন। আজ মাস্টারও ভবতারিণীর প্রসাদ পাইলেন।

(३)

 [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔆केशव के  ‘नवविधान (New Dispensation Church)  में सार है’🔆

श्रीरामकृष्ण प्रसाद ग्रहण करके जरा विश्राम कर रहे हैं । इतने में राम, गिरीन्द्र तथा और भी कई भक्त आ पहुँचे । भक्तों ने माथा टेककर प्रणाम किया और आसन ग्रहण किया । श्रीयुत केशवचन्द्र सेन के 'नवविधान ' (New Dispensation Church) की चर्चा चली ।

Sri Ramakrishna had been resting awhile after his meal when several devotees, including Ram and Girindra, arrived. They sat down after saluting the Master. The conversation turned to the New Dispensation Church of Keshab Chandra Sen.]

[ঠাকুর প্রসাদ গ্রহান্তর কিঞ্চিৎ বিশ্রাম করিতেছেন। এমন সময় রাম, গিরীন্দ্র ও আর কয়েকটি ভক্ত আসিয়া উপস্থিত। ভক্তেরা ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিলেন ও তৎপরে আসন গ্রহণ করিলেন। শ্রীযুক্ত কেশবচন্দ্র সেনের নববিধানের কথা পড়িল।

राम – (श्रीरामकृष्ण से) महाराज, मुझे तो ऐसा नहीं जान पड़ता कि नवविधान से कोई उपकार हुआ हो । केशव बाबू अगर सच्चे होते, तो फिर उनके शिष्यों की यह दशा क्यों होती ? मेरे मत से उनके भीतर कुछ भी नहीं है । जैसे खपरे (ठीकरा -potsherd) बजाकर दरवाजे में ताला लगाना । लोग सोचते हैं, इसके खूब रूपये हैं – झनकार हो रही है, परन्तु भीतर बस खपरे ही खपरे हैं ! बाहर के लोग भीतर की खबर क्या जानें!

RAM (to the Master): "Sir, I don't think the Navavidhan has done people any good. If Keshab Babu himself was a genuine man, why are his disciples left in such a plight? I don't think there is anything at all in the New Dispensation. It is like rattling some potsherds in a room and then locking it up. People may take it to be the jingling of coins, but inside there is nothing but potsherds. Outsiders don't know what is inside."

[রাম (ঠাকুরের প্রতি) — মহাশয়, আমার তো নববিধানে কিছু উপকার হয়েছে বলে বোধ হয় না। কেশববাবু যদি খাঁটি হতেন, শিষ্যদের অবস্থা এরূপ কেন? আমার মতে, ওর ভিতেরে কিছুই নাই। যেমন খোলামকুচি নেড়ে, ঘরে তালা দেওয়া। লোক মনে কচ্ছে খুব টাকা ঝমঝম কচ্ছে, কিন্তু ভিতরে কেবল খোলামকুচি। বাহিরের লোক ভিতরের খবর কিছু জানে না।

 [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔆वैराग्य (कामिनी-कांचन में आसक्ति का त्याग) के बिना आचार्य /नेता नहीं बन सकते!🔆  

श्रीरामकृष्ण – कुछ सार जरुर हैं । नहीं तो इतने आदमी केशव को क्यों मानते हैं ? शिवनाथ को लोग क्यों नहीं पहचानते ? ईश्वर की इच्छा के बिना ऐसा कभी होता नहीं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কিছু সার আছে বই কি। তা না হলে এত লোকে কেশবকে মানে কেন? শিবনাথকে কেন লোকে চেনে না? ঈশ্বরের ইচ্ছা না থাকলে এরকম একটা হয় না।

MASTER: "There must be some substance in it. Otherwise, why should so many people respect Keshab? Why isn't Shivanath honoured as much as Keshab? Such a thing cannot happen without the will of God.

“परन्तु संसार का त्याग किये बिना आचार्य का काम नहीं होता । लोग कहते हैं, यह संसारी आदमी है, यह खुद तो कामिनी और कांचन का छिपकर भोग करता है और हमसे कहता है, ‘ईश्वर ही सत्य हैं – संसार स्वप्नवत् अनित्य है ।’  [खुद गुड़ खाता है , हमसे कहता है गुड़ खाना त्याग दो !] सर्वत्यागी हुए बिना उसकी बात सब लोग नहीं मानते । जो लोग संसार में पड़े हैं उन्हीं में कोई कोई मान सकते हैं । केशव के घर-द्वार, कुटुम्ब-परिवार था, अतएव मन भी संसार में था । संसार की रक्षा भी तो करनी होगी ? इसीलिए इतना लेक्चर उसने दिया, परन्तु अपने संसार को बड़ी मजबूती में रख गया है । कैसा दामाद है ! मैं उसके घर के भीतर गया, देखा बड़े बड़े पलंग हैं । सांसारिक काम करने लगे तो धीरे धीरे ये सब आ जाते हैं । भोग की ही भूमि संसार कहलाती है ।”

"But a man cannot act as an acharya without renouncing the world. People won't respect him. They will say: 'Oh, he is a worldly man. He secretly enjoys "woman and gold" himself but tells us that God alone is real and the world unsubstantial, like a dream.' Unless a man renounces everything his teachings cannot be accepted by all. Some worldly people may follow him. Keshab led the life of a householder; hence his mind was directed to the world also. He had to safeguard his family interests. That is why he left his affairs in such good order though he delivered so many religious lectures. What an aristocratic man he married his daughter to! Inside Keshab's inner apartments I saw many big bedsteads. All these things gradually come to one who leads a householder's life. The world is indeed a place for enjoyment."]

[“তবে সংসার ত্যাগ না করলে আচার্যের কাজ হয় না, লোকে মানে না। লোকে বলে, এ সংসারী লোক, এ নিজে কামিনী-কাঞ্চন লুকিয়ে ভোগ করে; আমাদের বলে, ঈশ্বর সত্য, সংসার স্বপ্নবৎ অনিত্য! সর্বত্যাগী না হলে তার কথা সকলে লয় না। ঐহিক যারা কেউ কেউ নিতে পারে। কেশবের সংসার ছিল, কাজে কাজেই সংসারের উপর মনও ছিল। সংসারটিকে তো রক্ষা করতে হবে। তাই অত লেকচার দিয়েছে; কিন্তু সংসারটি বেশ পাকা করে রেখে গেছে। অমন জামাই! বাড়ির ভিতরে গেলুম, বড় বড় খাট। সংসার করতে গেলে ক্রমে সব এসে জোটে। ভোগের জায়গাই সংসার।”

राम वे पलंग और मकान केशव को हिस्से में मिले थे । महाराज, आप कुछ भी कहें, परन्तु विजय बाबू ने कहा है – ‘केशव सेन ने मुझसे कहा था, मैं ईसा और गौरांग का अंश हूँ और तुम अपने को अद्वैत का अंश बतलाया करो ।’ और उसने क्या कहा था – आप जानते हैं ? आपको कहा था – वे भी नवविधान के हैं ! (श्रीरामकृष्ण और सब हँसते हैं ।)

RAM: "Keshab Sen inherited those bedsteads when his ancestral property was divided. And for Keshab to take part in the division of property! Whatever you may say, sir, Vijay Babu told me that Keshab had said to him, "I am a partial manifestation of Christ and Gauranga. I suggest that you declare yourself as Advaita.' (An intimate companion of Gauranga.) Do you know what else he said? He said that you too were a follower of the New Dispensation." (All laugh.)} 

{রাম — ও খাট, বাড়ি বখরার সময় কেশব সেন পেয়েছিলেন; কেশব সেনের বখরা। মহাশয়, যাই বলুন, বিজয়বাবু বলেছেন, কেশব সেন এমন কথা বিজয়বাবুকে বলেছেন যে, আমি খ্রাইষ্ট আর গৌরাঙ্গের অংশ, তুমি বল যে তুমি অদ্বৈত। আবার কি বলে জানেন? আপনিও নববিধানী! (ঠাকুরের ও সকলের হাস্য)

श्रीरामकृष्ण – (हँसते हुए) – परमात्मा जाने, मैं तो यह भी नहीं जानता कि नवविधान का अर्थ क्या है। (सब हँसते हैं ।)

MASTER (laughing): "Who knows? But as for myself, I don't even know what the term 'New Dispensation' means." (Laughter.)

[শ্রীরামকৃষ্ণ (হাসিতে হাসিতে) — কে জানে বাপু, আমি কিন্তু নববিধান মানে জানি না। (সকলের হাস্য)

 [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔆'ज्ञान और भक्ति का समन्वय' नवविधान से भी बहुत पहले 'अध्यात्म रामायण' में है🔆 

[জ্ঞান আর ভক্তির প্রথম সামঞ্জস্য: অধ্যাত্ম (রামায়ণ)]

राम केशव की शिष्यमण्डली कहती है, ज्ञान और भक्ति का समन्वय  सब से पहले केशव बाबू ने किया है ।

[রাম — কেশবের শিষ্যেরা বলে, জ্ঞান আর ভক্তির প্রথম সামঞ্জস্য কেশববাবু করেছেন।

RAM: "Keshab's disciples say that he was the first to harmonize jnana and bhakti."

श्रीरामकृष्ण – (आश्चर्य में आकर) – यह क्या कहते हो  ! तो फिर अध्यात्म-रामायण है क्या ? नारद श्रीरामचन्द्र की स्तुति करते हैं – ‘हे राम ! वेदों में जिस परब्रह्म की कथा है, वह तुम्हीं हो । तुम्ही (ब्रह्म ही) मनुष्य के रूप में हमारे पास हो, तुम्हें (ब्रह्म को) ही हम मनुष्य देख रहे हैं; वस्तुतः तुम मनुष्य नहीं हो – वही परब्रह्म हो ।’ श्रीरामचन्द्र ने कहा, ‘नारद, तुम पर मैं प्रसन्न हुआ हूँ; तुम वर माँगो ।’ नारद ने कहा, ‘ राम, और क्या वर माँगूँ; अपने पादपद्मों में मुझे शुद्धा भक्ति दो । और अपनी भुवनमोहिनी माया में कभी फँसा न देना ।’ इस तरह अध्यात्म-रामायण ^* में केवल ज्ञान और भक्ति की ही बातें हैं ।

MASTER (in surprise): "How is that? What then of the Adhyatma Ramayana? It is written there that, while praying to Rama, Narada said: 'O Rama, Thou art the Supreme Brahman described in the Vedas. Thou dwellest with us as a man; Thou appearest as a man. In reality Thou art not a man; Thou art that Supreme Brahman.' Rama said: 'Narada, I am very much pleased with you. Accept a boon from Me.' Narada replied: 'What boon shall I ask of Thee? Grant me pure love for Thy Lotus Feet, and may I never be deluded by Thy world-bewitching maya!' The Adhyatma Ramayana is full of such statements regarding jnana and bhakti."]

[अध्यात्म-रामायण ^* ज्ञान, भक्ति और कर्म के समन्वय को 'नवविधान' नहीं 'अध्यात्म' कहते हैं। सर्वप्रथम श्री राम की कथा भगवान श्री शंकर ने माता पार्वती जी को सुनाया था। उस कथा को एक कौवे ने भी सुन लिया। उसी कौवे का पुनर्जन्म काकभुशुण्डि के रूप में हुआ। काकभुशुण्डि को पूर्वजन्म में भगवान शंकर के मुख से सुनी वह राम कथा पूरी की पूरी याद थी। उन्होने यह कथा अपने शिष्यों सुनाया। इस प्रकार राम कथा का प्रचार प्रसार हुआ। भगवान श्री शंकर के मुख से निकली श्रीराम की यह पवित्र कथा अध्यात्म रामायण के नाम से विख्यात है।]

[শ্রীরামকৃষ্ণ (অবাক্‌ হইয়া) — সে কি গো! অধ্যাত্ম (রামায়ণ) তবে কি? নারদ রামচন্দ্রকে স্তব করতে লাগলেন, “হে রাম! বেদে যে পরব্রহ্মের কথা আছে, সে তুমিই। তুমিই মানুষরূপে আমাদের কাছে রয়েছো; তুমিই মানুষ বলে বোধ হচ্ছ বস্তুত তুমি মানুষ নই, সেই পরব্রহ্ম।” রামচন্দ্র বললেন, “নারদ! তোমার উপর বড় প্রসন্ন হয়েছি, তুমি বর নাও।” নারদ বললেন, “রাম! আর কি বর চাহিব? তোমার পাদপদ্মে শুদ্ধাভক্তি দাও। আর তোমার ভুবনমোহিনী মায়ার যেন মুগ্ধ করো না।” অধ্যাত্মে কেবল জ্ঞান-ভক্তিরই কথা।

 [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

" गेड़े डोबाय दल होय "  

[গেড়ে ডোবায় দল হয়। ]

🔱🙏सांगठनिक एकता और नेतृत्व की आवश्यकता 🔱🙏

🔆बँधी तलैया (जमे हुए पानी) में ही दल* ("काई" और "सम्प्रदाय") होता है🔆 

केशव के शिष्य अमृत की बात चली ।

The conversation turned to Amrita, a disciple of Keshab.

[কেশবের শিষ্য অমৃতের কথা পড়িল।

राम अमृत बाबू कैसे हो गये हैं ।

RAM: "Amrita Babu seems to be in very bad shape."

[রাম — অমৃতবাবু একরকম হয়ে গেছেন!

श्रीरामकृष्ण – हाँ, उस दिन मैंने बड़ा दुबला देखा ।

MASTER: "Yes, he looked very ill when I saw him the other day."

[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, সেদিন বড় রোগা দেখলুম।

राम महाराज, अब लेक्चर की भी बात सुन लीजिये । जब खोल में पहला धावा मारा गया तब साथ ही कहा गया – ‘केशव की जय ।’ आपने कहा था – बँधी तलैया में ही दल* होता है । इसी पर एक दिन लेक्चर में अमृत बाबू ने कहा, साधु (श्री रामकृष्णदेव के लिए ) ने कहा है सही कि बँधी तलैया में दल होता है, परन्तु भाइयो, दल चाहिए – संगठन चाहिए – सच कहता हूँ – सच कहता हूँ – दल (सम्प्रदाय) चाहिए । (सब हँसते हैं ।)(*यहाँ ‘दल’ शब्द पर श्लेष है । ‘दल’ शब्द के दो अर्थ हैं – काई तथा सम्प्रदाय ।) 

RAM: "Sir, let me tell you about the lectures of the New Dispensation. While the drum is being played, the members cry out, 'Victory unto Keshab!' You say that 'dal' (The word has the double meaning of "hedge" and "sect".) grows only in a stagnant pool. So Amrita said one day in the course of his sermon: 'The holy man (Referring to Sri Ramakrishna.) has no doubt said that 'dal' grows in a stagnant pool. But, brothers, we want 'dal', we want a sect. Really and truly, I tell you that we want a sect.']

[রাম — মহাশয়! লেকচারের কথা শুনুন। যখন খোলের শব্দ হয়, সেই সময় বলে ‘কেশবের জয়।Ddada की जय !’ আপনি বলেন কিনা যে, গেড়ে ডোবায় দল হয়। তাই একদিন লেকচারে অমৃতবাবু বললেন, সাধু বলেছেন বটে, গেড়ে ডোবায় দল বাঁধে; কিন্তু ভাই, দল চাই, দল চাই। সত্য বলছি, সত্য বলছি দল চাই (गुटबाजी चाहिए ?!) (সকলের হাস্য)

श्रीरामकृष्ण – यह क्या है ! राम-राम यह भी लेक्चर है !

MASTER: "What nonsense! Shame on him! What kind of sermon is that?"] 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — এ কি! ছ্যা! ছ্যা! ছ্যা! এ কি লেকচার!

 [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

 🔆पैगम्बर या नेता लोकेषणा (नाम-यश) नहीं चाहता अपने को संघ का सेवक समझता है🔆   

फिर यह बात उठी कि कोई कोई नेता /लोक शिक्षक भी जरा अपनी तारीफ सुनना चाहते हैं (ऐषणा या नाम-यश पाने की इच्छा रखते हैं)।

The conversation drifted to the desire of some people for praise (नाम-यश) .

[কেহ কেহ একটু প্রশংসা ভালবাসেন, এই কথা পড়িল।

श्रीरामकृष्ण – निमाई-संन्यास का नाटक हो रहा था । केशव के यहाँ मुझे ले गये थे । वहाँ सुना, न जाने किसने कहा, ये दोनों केशव और प्रताप गौरांग और नित्यानन्द हैं । प्रसन्न ने तब मुझसे पूछा, तो फिर आप कौन हैं ? देखा, केशव एकटक मेरी ओर देख रहा था, मैं क्या कहता हूँ यह सुनने के लिए । मैंने कहा, मैं तुम्हारे दासों का दास, रेणु की रेणु हूँ । केशव ने हँसकर कहा ये पकड़ में नहीं आना चाहते ।

MASTER: "They took me to Keshab's house to see a performance of the Nimai-sannyas. I heard, that day, someone speaking of Keshab and Pratap as Chaitanya and Nityananda. Prasanna asked me, 'Who are you then?' Keshab looked at me to see what I would say. I said to him, 'I am the servant of your servant, the dust of the dust of your feet.' Keshab said with a smile, 'You can't catch him!'"

[শ্রীরামকৃষ্ণ — নিমাইসন্ন্যাসের যাত্রা হচ্ছিল, কেশবের ওখানে আমায় নিয়ে গিছিল। সেই দিন দেখেছিলাম কেশব আর প্রতাপকে একজন কে বললে, এঁরা দুজনে গৌর নিতাই। প্রসন্ন তখন আমায় জিজ্ঞাসা করলে, তাহলে আপনি কি? দেখলাম কেশব চেয়ে রহিল; আমি কি বলি দেখবার জন্য। আমি বললুম, “আমি তোমাদের দাসানুদাস, রেণুর রেণু।” কেশব হেসে বললে, “ইনি ধরা দেন না।”

राम – केशव कभी कभी आपको जान दि बेपटिस्ट (John the Baptist) बतलाते थे ।

RAM: "Sometimes Keshab used to say you were John the Baptist."

[রাম — কেশব কখনও বলতেন, আপনি জন্‌ দি ব্যাপটিস্ট।

एक भक्त  – और कभी कभी आपको उन्नीसवीं सदी के चैतन्य 'Chaitanya of the nineteenth century'  बतलाते थे ।

A DEVOTEE: "But Keshab also said you were the Chaitanya of the nineteenth century [said in English]."

[একজন ভক্ত — আবার কিন্তু কখন কখন বলতেন Nineteenth Century-র (ঊনবিংশ শতাব্দীর) চৈতন্য আপনি।

श्रीरामकृष्ण – इसके क्या माने ?

MASTER: "What does that mean?"

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ওর মানে কি?

भक्त – अर्थात् अंग्रजी की इस शताब्दी में चैतन्यदेव फिर आये हैं और वे आप हैं ।

DEVOTEE: "That Chaitanya has been incarnated again in the present century of the Christian era, and that you are he."

[ভক্ত — ইংরেজী এই শত্যব্দীতে চৈতন্যদেব আবার এসেছেন; সে আপনি।

श्रीरामकृष्ण – (अन्यमनस्क होकर) – ख़ैर, वह तो जैसे हुआ । अब यह बतलाओ कि हाथ कैसे अच्छा हो । अब बस यही सोचता हूँ कि हाथ कैसे अच्छा हो ।* (उनके टूटे हाथ से मतलब है ।)

MASTER (absent-mindedly): "What of it? Can you tell me now how my arm can be cured? This arm is worrying me so much."

[শ্রীরামকৃষ্ণ (অন্যমনস্ক হয়ে) — তাতো হল। এখন হাতটা১ আরাম কেমন করে হয় বল দেখি? এখন কেবল ভাবছি, কেমন করে হাতটি সারবে!

 [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔆महामण्डल घराना का संगीत शिक्षक दूसरों के विचारों को उधार नहीं लेता 🔆  

त्रैलोक्य के गाने की बात चली । त्रैलोक्य केशव के समाज में भगवत्-गुणानुवाद कीर्तन करते हैं ।

They talked about Trailokya's music. Trailokya sang devotional songs in Keshab's Brahmo Samaj.

[ত্রৈলোক্যের গানের কথা পড়িল। ত্রৈলোক্য কেশবের সমাজে ঈশ্বরের নামগুনকীর্তন করেন।

श्रीरामकृष्ण – अहा ! त्रैलोक्य का क्या ही सुन्दर गाना है !

MASTER: "Ah! How nice his songs are!"

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আহা! ত্রৈলোক্যের কি গান!

राम – क्या सब बिलकुल ठीक होता है ?

RAM: "Do you think they are genuine?"

[রাম — কি, ঠিক ঠিক সব?

श्रीरामकृष्ण – हाँ, बिलकुल ठीक । अगर वैसा न होता तो मन को इतना क्यों खींचता ?

MASTER: "Yes, they are. Otherwise, why should I be so drawn to them?"

[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, ঠিক ঠিক; তা না হলে মনে এত টানে কেন?

राम आप ही के सब भाव लेकर गीतों की रचना की गयी है । केशव सेन उपासना के समय उन्हीं सब भावों का वर्णन करते थे और त्रैलोक्य बाबू उसी तरह के पद जोड़ते थे । देखिये, एक गाना है

" प्रेमेर बाजारे आनन्देर मेला। 

हरिभक्तसङ्गे रसरङ्गे कोरीछेन कत खेला।।

(भावार्थ) – ‘प्रेम के बाजार में आनन्द का मेला लगा हुआ है । भक्तों के संग हरि अपनी मौज में कितने ही खेल खेल रहे हैं ।’”आप भक्तों के साथ आनन्द करते हैं, यह देखकर इस गाने की रचना हुई है ।”

RAM: "He has composed his songs by borrowing your ideas. While conducting the worship Keshab Sen described your feelings and realizations, and Trailokya Babu composed songs accordingly. Take this song, for instance:There is an overflow of Joy in the market-place of Love;See how the Lord sports with His own in the ecstasy of Bliss!He saw you enjoying divine bliss in the company of devotees and wrote songs like this."

[ রাম — সব আপনার ভাব নিয়ে গান বেঁধেছেন। কেশব সেন উপাসনার সময় সেই ভাবগুলি সব বর্ণনা করতেন, আর ত্রৈলোক্যবাবু সেইরূপ গান বাঁধতেন। এই দেখুন না, ওই গানটা —“প্রেমের বাজারে আনন্দের মালা।হরিভক্তসঙ্গে রসরঙ্গে করিছেন কত খেলা ৷৷“আপনি ভক্তসঙ্গে আনন্দ করেন, দেখে নিয়ে ওই সব গান বাঁধা।”

श्रीरामकृष्ण – (हँसते हुए) – तुम अब जलाओ मत । मुझे भला क्यों लपेटते हो ? (सब हँसते हैं ।)

MASTER (with a smile): "Stop! Don't torment me any more. Why should I be involved in all this?" (All laugh.)

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — তুমি আর জ্বালিও না * * আবার আমায় জড়াও কেন? (সকলের হাস্য)

 [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔱🙏ब्राह्म लोग कहते हैं श्रीरामकृष्ण में केशव जैसी सांगठनिक नेतृत्व क्षमता नहीं है🔱🙏 

गिरीन्द्रब्राह्म लोग कहते हैं, परमहंसदेव में Faculty of organisation नहीं है ।

গিরীন্দ্র — ব্রাহ্মরা বলেন, পরমহংসদেবের faculty of organisation নাই।

GIRINDRA: "The Brahmos say that the Paramahamsadeva has no faculty for organization [said in English]."

श्रीरामकृष्ण – इसका क्या मतलब ?

MASTER: "What does that mean?"

[শ্রীরামকৃষ্ণ — এর মানে কি?

मास्टरआप संगठन करना नहीं जानते, आप में बुद्धि कम है, यह कहते हैं ।

M: "That you don't know how to lead a sect; that your intellect is rather dull. They say things like that." (All laugh.)

[মাস্টার — আপনি দল চালাতে জানেন না। আপনার বুদ্ধি কম, এই কথা বলে। (সকলের হাস্য)

  [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔆ब्रह्म-समाजी, वैष्णव-पन्थी और शाक्त को साम्प्रदायिक गुटबन्दी पर उपदेश🔆

[मनुष्य क्या कभी उनकी इति कर सकता है ?

[ব্রাহ্মসমাজ ও বৈষ্ণব ও শাক্তকে সাম্প্রদায়িকতা সম্বন্ধে উপদেশ ]

श्रीरामकृष्ण – (राम से) – अब यह बतलाओ, मेरा हाथ क्यों टूटा ? तुम इसी विषय पर एक लेक्चर दो । (सब हँसते हैं ।)

MASTER (to Ram): "Now tell me why my arm was hurt. Stand up and deliver a lecture on that. (Laughter.)

[শ্রীরামকৃষ্ণ (রামের প্রতি) — এখন বল দেখি, আমার হাত কেন ভাঙল? তুমি এই নিয়ে দাঁড়িয়ে একটা লেকচার দাও। (সকলের হাস্য)

“ब्राह्मसमाजी निराकार-निराकार कहा करते हैं । ख़ैर, कहें । उन्हें अन्दर से पुकारने ही से हुआ । अगर अन्तर की बात हो तो वे तो अन्तर्यामी हैं, वे अवश्य समझा देंगे, उनका स्वरूप क्या है ।

The Brahmos insist that God is formless. Suppose they do. It is enough to call on Him with sincerity of heart. If the devotee is sincere, then God, who is the Inner Guide of all, will certainly reveal to the devotee His true nature.

[“ব্রহ্মজ্ঞানীরা নিরাকার নিরাকার বলছে, তা হলেই বা; আন্তরিক তাঁকে ডাকলেই হল। যদি আন্তরিক হয়, তিনি তো অন্তর্যামী, তিনি অবশ্য জানিয়ে দেবেন, তাঁর স্বরূপ কি।"

“परन्तु यह अच्छा नहीं – यह कहना कि हम लोगों ने जो कुछ समझा है, वही ठीक है, और दूसरे जो कुछ करते हैं, सब गलत । हम लोग निराकार कह रहे हैं, अतएव वे साकार नहीं, निराकार हैं; हम लोग साकार कह रहे हैं, अतएव वे साकार हैं, निराकार नहीं ! मनुष्य क्या कभी उनकी इति कर सकता है ?

But it is not good to say that what we ourselves think of God is the only truth and what others think is false, that because we think of God as formless, therefore He is formless and cannot have any form; that because we think of God as having form, therefore He has form and cannot be formless. Can a man really fathom God's nature?

[“তবে এটা ভাল না — এই বলা যে আমরা যা বুঝেছি তাই ঠিক, আর যে যা বলছে সব ভুল। আমরা নিরাকার বলছি, অতএব তিনি নিরাকার, তিনি সাকার নন। আমরা সাকার বলছি, অতএব তিনি সাকার, তিনি নিরাকার নন। মানুষ কি তাঁর ইতি করতে পারে?"

“इसी तरह वैष्णवों और शाक्तों में भी विरोध है । वैष्णव कहता है ‘हमारे केशव ही एकमात्र उद्धारकर्ता हैं’ और शाक्त कहता है, ‘बस हमारी भगवती एकमात्र उद्धार करनेवाली है ।’

This kind of friction exists between the Vaishnavas and the Saktas; The Vaishnava says, 'My Kesava is the only Saviour', whereas the Sakta insists, 'My Bhagavati is the only Saviour.'

[“এইরকম বৈষ্ণব শাক্তদের ভিতর রেষারেষি। বৈষ্ণব বলে, আমার কেশব, — শাক্ত বলে, আমার ভগবতী, একমাত্র উদ্ধারকর্তা।"

“मैं वैष्णवचरण को सेजो बाबू* के पास ले गया था । वैष्णवचरण वैरागी है, बड़ा पण्डित है, परन्तु कट्टर वैष्णव है । इधर सेजो बाबू भगवती के भक्त हैं । अच्छी बातें हो रही थीं, इसी समय वैष्णवचरण ने कह डाला, ‘मुक्ति देनेवाले तो एक केशव ही हैं ।’ केशव का नाम लेते ही सेजो बाबू का मुँह लाल हो गया और वे बोले, ‘तू साला ।’ (सब हँस पड़े ।) मथुर बाबू शाक्त जो थे ! उनके लिए यह कहना स्वाभाविक ही था । मैंने इधर वैष्णवचरण को खींच लिया ।

Once I took Vaishnavcharan to Mathur Babu. Now, Vaishnavcharan was a very learned Vaishnava and an orthodox devotee of his sect. Mathur, on the other hand, was a devotee of the Divine Mother. They were engaged in a friendly discussion when suddenly Vaishnavcharan said, 'Kesava is the only Saviour.' No sooner did Mathur hear this than his ,face became red with anger and he blurted out, 'You rascal!' (All laugh.) He was a Sakta. Wasn't it natural for him to say that? I gave Vaishnavcharan a nudge.

[“আমি বৈষ্ণবচরণকে সেজোবাবুর কাছে নিয়ে গিছলাম। বৈষ্ণবচরণ বৈরাগী খুব পণ্ডিত কিন্তু গোঁড়া বৈষ্ণব। এদিকে সেজোবাবু ভগবতীর ভক্ত। বেশ কথা হচ্ছিল, বৈষ্ণবচরণ বলে ফেললে, মুক্তি দেবার একমাত্র কর্তা কেশব। বলতেই সেজোবাবুর মুখ লাল হয়ে গেল। বলেছিল, ‘শালা আমার!’ (সকলের হাস্য) শাক্ত কিনা। বলবে না? আমি আবার বৈষ্ণবচরণের গা টিপি।"

  [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔆एक ही अनेक बन गया है - एक राम हजार नाम 🔆

“जितने आदमियों को देखता हूँ, धर्म-धर्म करके एक दूसरे से झगड़ा किया करते हैं । हिन्दू, मुसलमान, ब्राह्मसमाजी, शाक्त, वैष्णव, शैव, सब एक दूसरे से लड़ाई-झगड़ा करते हैं यह बुद्धिमानी नहीं है । जिन्हें कृष्ण कहते हो, वे ही शिव, वे ही आद्याशक्ति हैं, वे ही ईसा हैं और वे ही अल्लाह हैं । एक राम उनके हजार नाम ।

I see people who talk about religion constantly quarrelling with one another. Hindus, Mussalmans, Brahmos, Saktas, Vaishnavas, Saivas, all quarrel with one another. They haven't the intelligence to understand that He who is called Krishna is also Siva and the Primal Sakti, and that it is He, again, who is called Jesus and Allah. There is only one Rama and He has a thousand names.'

[“যত লোক দেখি, ধর্ম ধর্ম করে — এ ওর সঙ্গে ঝগড়া করছে, ও ওর সঙ্গে ঝগড়া করছে। হিন্দু, মুসলমান, ব্রহ্মজ্ঞানী, শাক্ত, বৈষ্ণব, শৈব — সব পরস্পর ঝগড়া। এ বুদ্ধি নাই যে, যাঁকে কৃষ্ণ বলছো, তাঁকেই শিব, তাঁকেই আদ্যাশক্তি বলা হয়; তাঁকেই যীশু, তাঁহাকেই আল্লা বলা হয়। এক রাম তাঁর হাজার নাম।"

“वस्तु एक ही है, केवल उसके नाम अलग अलग हैं । सब लोग एक ही वस्तु की चाह कर रहे हैं । अन्तर इतना ही है की देश अलग है, पात्र अलग और नाम अलग । एक तालाब में बहुत से घाट हैं । हिन्दू एक घाट से पानी ले रहे हैं, घड़े में भरकर कहते हैं, ‘जल’ । मुसलमान एक दूसरे घाट से पानी भर रहे हैं, चमड़े के बैग में – कहते हैं, ‘पानी’ । क्रिस्तान तीसरे घाट से पानी ले रहे हैं – वे कहते हैं ‘वाटर’(Water) ।(सब हँसते हैं ।)

Truth is one; only It is called by different names. All people are seeking the same Truth; the variance is due to climate, temperament, and name. A lake has many ghats. From one ghat the Hindus take water in jars and call it 'jal'. From another ghat the Mussalmans take water in leather bags and call it 'pani'. From a third the Christians take the same thing and call it 'water'. (All laugh.)

[“বস্তু এক, নাম আলাদা। সকলেই এক জিনিসকে চাচ্ছে। তবে আলাদা জায়গা, আলাদা পাত্র, আলাদা নাম। একটা পুকুরে অনেকগুলি ঘাট আছে; হিন্দুরা একঘাট থেকে জল নিচ্ছে, কলসী করে — বলছে ‘জল’। মুসলমানরা আর একঘাটে জল নিচ্ছে, চামড়ার ডোলে করে — তারা বলছে ‘পানী।’ খ্রীষ্টানরা আর-একঘাটে জল নিচ্ছে — তারা বলছে ‘ওয়াটার।’ (সকলের হাস্য)"

  [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔱🙏सब भगवान की ओर जा रहे हैं।🔱🙏

[Everyone is going toward God.] 

“अगर कोई कहें, नहीं यह चीज जल नहीं है, यह पानी है या वाटर नहीं जल है, तो यह हँसी की ही बात होगी । इसीलिए दल, मतान्तर और झगड़े होते हैं । धर्म के नाम पर लठ्लठा लठ्ठा, मार-काट ? यह सब अच्छी नहीं है । सब उन्हींके पथ पर जा रहे हैं । आन्तरिकता होने पर, व्याकुलता आने पर – उन्हें मनुष्य प्राप्त करेगा ही ।

Suppose someone says that the thing is not 'jal' but 'pani', or that it is not 'pani' but 'water', or that it is not 'water' but 'jal', It would indeed be ridiculous. But this very thing is at the root of the friction among sects, their misunderstandings and quarrels. This is why people injure and kill one another, and shed blood, in the name of religion. But this is not good. Everyone is going toward God. They will all realize Him if they have sincerity and longing of heart.

[“যদি কেউ বলে, না এ জিনিসটা জল নয়, পানী; কি পানী নয়, ওয়াটার; কি ওয়াটার নয়, জল; তাহলে হাসির কথা হয়। তাই দলাদলি, মনান্তর, ঝগড়া, ধর্ম নিয়ে লাটালাটি, মারামারি, কাটাকাটি — এ-সব ভাল নয়। সকলেই তাঁর পথে যাচ্ছে, আন্তরিক হলেই ব্যাকুল হলেই তাঁকে লাভ করবে।

(मणि से) तुम यह सुनते जाओ – वेद, पुराण, तन्त्र-शास्त्र उन्हींको चाहते हैं; वे किसी दूसरे को नहीं चाहते । सच्चिदानन्द बस एक ही हैं । जिन्हें वेदों में ‘सच्चिदानन्द ब्रह्म’ कहा है, तन्त्र में उन्हींको ‘सच्चिदानन्द शिव’ कहा है, उन्हींको उधर पुराणों में ‘सच्चिदानन्द कृष्ण’ कहा है ।”

(To M.) "This is for you. All scriptures — the Vedas, the Puranas, the Tantras — seek Him alone and no one else, only that one Satchidananda. That which is called Satchidananda Brahman in the Vedas is called Satchidananda Siva in the Tantra. Again it is He alone who is called Satchidananda Krishna in the Puranas."

[(মণির প্রতি) — “তুমি এইটে শুনে যাও —“বেদ, পুরাণ, তন্ত্র — সব শাস্ত্রে তাঁকেই চায়, আর কারুকে চায় না — সেই এক সচ্চিদানন্দ। যাকে বেদে ‘সচ্চিদানন্দ ব্রহ্ম’ বলেছে, তন্ত্রে তাঁকেই ‘সচ্চিদানন্দ শিবঃ’ বলেছে, তাঁকেই আবার পুরাণে ‘সচ্চিদানন্দ কৃষ্ণঃ’ বলেছে।”

श्रीरामकृष्ण ने सुना, राम घर में कभी कभी स्वयं भोजन पकाते हैं ।

The Master was told that now and then Ram cooked his own food at home.

[শ্রীরামকৃষ্ণ শুনিলেন, রাম বাড়িতে মাঝে মাঝে নিজে রেঁধে খান।

श्रीरामकृष्ण – (मणि से) – क्या तुम भी अपने हाथ से भोजन पकाते हो ?

MASTER (to M.): "Do you too cook your own meals?"

[শ্রীরামকৃষ্ণ — (মণির প্রতি) — তুমিও কি রেঁধে খাও?

मणि – जी नहीं ।

M: "No, sir."

[মণি — আজ্ঞা না।

श्रीरामकृष्ण – कोशिश करके देखो न जरा, थोड़ा सा गो-घृत छोड़ कर भोजन किया करो । शरीर और मन शुद्ध जान पड़ने लगेंगे ।

MASTER: "You may try it. With your meals take a little clarified butter made from cow's milk. That will purify your body and mind."

[শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখো না, একটু গাওয়া ঘি দিয়ে খাবে। বেশ শরীর মন শুদ্ধ বোধ হবে।

  [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔱🙏बाबूजी की बुद्धि मारी गयी है और आपकी बहुत अच्छी है🔱🙏

The father has gone to the dogs and the son is all right!"

राम की घर-गृहस्थी की बहुत सी बातें हो रही हैं । राम के पिता परम वैष्णव हैं । घर में श्रीधर की सेवा होती है । राम के पिता ने अपना दूसरा विवाह किया था उस समय राम की उम्र बहुत कम थी । पिता और विमाता राम के घर में ही थे, परन्तु विमाता के साथ रहकर राम सुखी नहीं रह सके । इस समय विमाता की उम्र बहुत कम थी । विमाता के कारण राम और उनके पिता में कभीकभी अनबन हो जाती थी । आज वे ही सब बातें हो रही हैं ।

A long conversation ensued about Ram's household affairs. Ram's father was a devout Vaishnava and worshipped Krishna daily at home. He had married a second time when Ram was quite young. Both the father and the stepmother lived with Ram at Ram's house. But Ram was never happy with his stepmother, and this sometimes created a misunderstanding between himself and his father. 

राम – बाबूजी की बुद्धि मारी गयी है ।

They were talking about this when Ram said, "My father has gone to the dogs!"

[রামের ঘরকন্নার অনেক কথা হইতেছে। রামের বাবা পরম বৈষ্ণব। বাড়িতে শ্রীধরের সেবা। রামের বাবা দ্বিতীয় পক্ষে বিবাহ করিয়াছিলেন — রামের তখন খুব অল্প বয়স। পিতা ও বিমাতা রামের বাড়িতেই ছিলেন; কিন্তু বিমাতার সঙ্গে ঘর করিয়া রাম সুখী হন নাই। এক্ষণে বিমাতার বয়স চল্লিশ বৎসর। বিমাতার জন্য রাম পিতার উপরও মাঝে মাঝে অভিমান করিতেন। আজ সেই সব কথা হইতেছে। 

রাম — বাবা গোল্লায় গেছেন!

श्रीरामकृष्ण – (भक्तों से) – सुना ? बाबूजी की बुद्धि मारी गयी है और आपकी बहुत अच्छी है ।

MASTER (to the devotees): "Did you hear that? The father has gone to the dogs and the son is all right!"

[শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — শুনলে? বাবা গোল্লায় গেছেন! আর উনি ভাল আছেন।

रामउनके (विमाता के) मकान में आने ही से अशान्ति होती है । एक न एक झंझट पैदा होती है । हमारा परिवार नष्ट होने पर आ गया । इसीलिए मैं कहता हूँ, वे अपने मायके में क्यों नहीं रहतीं ? (सब हँसते है ।)

RAM: "There is no peace when my stepmother comes home. There is always some trouble or other. Our family is about to break up. So I say, let her live with her father."

[রাম — তিনি (বিমাতা) বাড়িতে এলেই অশান্তি! একটা না একটা গণ্ডগোল হবেই। আমাদের সংসার ভেঙে যায়। তাই আমি বলি, তিনি বাপের বাড়ি গিয়ে থাকুন না কেন?

गिरीन्द्र – (राम से) – अपनी स्त्री को उसी तरह मायके में क्यों नहीं रखते ? (सब हँसते हैं ।)

GIRINDRA (to Ram): "Why don't you too keep your wife at her father's home?" (Laughter.)

[গিরীন্দ্র (রামের প্রতি) — তোমার স্ত্রীকেও ওইরকম বাপের বাড়িতে রাখ না! (সকলের হাস্য)

श्रीरामकृष्ण – (सहास्य) – यह क्या कुछ हण्डी और घड़ा है ? हण्डी एक जगह रही और उसका ढक्कन दूसरी जगह ! शिव एक ओर तथा शक्ति दूसरी ओर !

MASTER (smiling): "Are husband and wife like earthen pots or jars, that you may keep the pot in one place and the lid in another? Siva in one place and Sakti in another?"

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — একি হাঁড়ি কলসী গা? হাঁড়ি এক জায়গায় রহিল, সরা এক জায়গায় রহিল? শিব একদিকে, শক্তি একদিকে!

राममहाराज, हम लोग सुख से हैं, वे आयी नहीं कि तोड़फोड़ मचाया । ऐसी दशा में –

RAM: "Sir, we are quite happy. But when she comes the family is broken up. If such is the case —"

[রাম! — মহাশয়! আমরা আনন্দে আছি, উনি এলে সংসার ভাঙবে, এরূপ স্থলে —

श्रीरामकृष्ण – हाँ, अलग एक मकान कर दो, यह एक बात हो सकती है । महीने-महीने सब खर्च देते जाना । पिता कितने बड़े गुरु हैं । राखाल मुझसे पूछता था, क्या मैं बाबूजी की थाली में खा लूँ ? मैंने कहा, अरे, यह क्या ? तुझे हो क्या गया है जो तू अपने बाप की थाली में न खायेगा ?’“परन्तु एक बात है । जो लोग सन्मार्ग में हैं, वे अपना जूठा किसी को खाने के लिए नहीं देते । यहाँ तक कि कुत्ते को भी जूठन नहीं दी जाती ।

MASTER: "Then build them a separate home. That will be a different thing. You will defray their monthly expenses. How worthy of worship one's parents are! Rakhal asked me if he could take the food left on his father's plate. 'What do you mean?' I said. "What have you become that you cannot?' But it is also true that good people won't give anyone, even a dog, the food from their plates."

[শ্রীরামকষ্ণ — হাঁ, তবে আলাদা বাড়ি করে দিতে পার, সে এক। মাসে মাসে সব খরচ দেবে। বাপ-মা কত বড় গুরু! রাখাল আমায় জিজ্ঞাসা করে যে, বাবার পাতে কি খাব? আমি বলি, সে কি রে? তোর কি হয়েছে যে, তোর বাবার পাতে খাবি না?“তবে একটা কথা আছে, যারা সৎ, তারা উচ্ছিষ্ট কাহাকেও দেয় না। এমন কি উচ্ছিষ্ট কুকুরকেও দেওয়া যায় না।”

  [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔆 गुरुदेव (नेता) को साक्षात् अपना ईष्टदेव मानकर पूजा करनी चाहिए🔆

गिरीन्द्र – महाराज, माँ-बाप ने अगर कोई घोर अपराध किया हो, कोई घोर पाप किया हो तो ?

GIRINDRA: "Sir, suppose one's parents are guilty of a terrible crime, a heinous sin?"

[গিরীনদ্র — মহাশয়! বাপ-মা যদি কোন গুরুতর অপরাধ করে থাকেন, কোন ভয়ানক পাপ করে থাকেন?

[गिरिंद्र (गिरिंद्रनाथ मित्र) - सिमुलिया, कलकत्ता के गिरिंद्र मित्र श्री रामकृष्ण के भक्तों में से एक सुरेंद्रनाथ मित्रा के भाई थे । 1881 ई. में उन्होंने दक्षिणेश्वर में पहले-पहल श्री ठाकुरदेव का दर्शन किया था।  श्री रामकृष्ण को देखकर पहली ही नजर में, उन्हें ऐसा अनुभव हुआ मानो वे भी भगवान बुद्ध और चैतन्य महाप्रभु जैसे एक अवतार ही हैं ! वे अपने प्रारंभिक जीवन  में ब्रह्मसमाजी थे  और 'निराकार सत्य खोज' में विश्वास रखते थे। लेकिन जब वे श्री रामकृष्ण देव की शरण  में आए तब  हिंदू धर्म के गूढ़ सिद्धांत (मूर्तिपूजा) से अवगत हुए। गिरिंद्र सुरेंद्रनाथ के साथ कई बार श्री रामकृष्ण के सानिध्य में रहे थे। ]

গিরীন্দ্র (গিরীন্দ্রনাথ মিত্র) — কলিকাতা সিমুলিয়াবাসী গিরীন্দ্র মিত্র শ্রীরামকৃষ্ণের অন্যতম গৃহীভক্ত সুরেন্দ্রনাথ মিত্রের ভ্রাতা। ১৮৮১ সালে ইনি দক্ষিণেশ্বরে প্রথম ঠাকুরকে দর্শন করেন। প্রথম দর্শনেই শ্রী রামকৃষ্ণকে শঙ্কর, বুদ্ধ এবং চৈতন্যদেবের সমকক্ষ হিসাবে অনুভব করেন। তিনি প্রথমে ব্রাহ্মধর্মে এবং নিরাকার সাধনায় বিশ্বাসী ছিলেন। শ্রীরামকৃষ্ণের সংস্পর্শে আসিয়া হিন্দু ধর্মের গূঢ় তত্ত্ব সম্পর্কে অবহিত হন। গিরীন্দ্র সুরেন্দ্রনাথের সহিত বহুবার শ্রীরামকৃষ্ণের সান্নিধ্যে আসেন।] 

श्रीरामकृष्ण - तो वह भी सही । माता यदि व्याभिचारिणी हो तो भी उसका त्याग न करना चाहिए । अमुक बाबुओं की गुरुपत्नी का चरित्र नष्ट हो गया । तब उन्होंने कहा, उनका लड़का गुरु बनाया जाय । मैंने कहा, ‘यह तुम क्या कहते हो ? तुम सूरन (Yam-ओल ) को छोड़कर सूरन की आँख (shoot) लोगे ? नष्ट हो गयी तो क्या हुआ ? तुम उसे ही अपना इष्ट समझो ।’ एक गान में है – ‘मेरे गुरु यद्यपि कलवार की दूकान ( tavern मधुशाला, ) पर जाया करते हैं, तथापि मेरे गुरु नित्यानन्द राय हैं ।’

MASTER: "What if they are? You must not renounce your mother even if she commits adultery. The woman guru of a certain family became corrupt. The members of the family said that they would like to make the son of the guru their spiritual guide. But I said: 'How is that? Will you accept the shoot and give up the yam? Suppose she is corrupt; still you must regard her as your Ishta. "Though my guru visits the tavern, still to me he is the holy Nityananda."'

শ্রীরামকৃষ্ণ — তা হোক। মা দ্বিচারিণী হলেও ত্যাগ করবে না। অমুক বাবুদের গুরুপত্নীর চরিত্র নষ্ট হওয়াতে তারা বললে যে ওঁর ছেলেকে গুরু করা যাক। আমি বললুম, সে কি গো! ওলকে ছেড়ে ওলের মুখী নেবে? নষ্ট হল তো কি? তুমি তাঁকে ইষ্ট বলে জেনো। ‘যদ্যপি আমার গুরু শুঁড়িবাড়ি ( tavern मधुशाला) যায়, তথাপি আমার গুরু নিত্যানন্দ রায়।’

  [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔱🙏🔆नरलीला में सबसे पहले माता-पिता में ईश्वर की लीला का अनुभव करो 🔱🙏🔆

“माँ-बाप क्या कुछ साधारण मनुष्य हैं ?^* बिना उनके प्रसन्न हुए धर्म-कर्म कुछ भी नहीं होता । चैतन्यदेव प्रेम से पागल थे, परन्तु फिर भी संन्यास से पहले कुछ दिन लगातार उन्होंने अपने माता को समझाया था । कहा था – माँ ! मैं कभी कभी आकर तुम्हें देख-दिखा जाया करूँगा ।’

"Are father and mother mere trifles? No spiritual practice will bear fruit unless they are pleased. Chaitanya was intoxicated with the love of God. Still, before taking to the monastic life, for how many days did he try to persuade his mother to give him her permission to become a monk! He said to her: "Mother, don't worry. I shall visit you every now and then.'

[“মা-বাপ কি কমন জিনিস গা? তাঁরা প্রসন্ন না হলে ধর্মটর্ম কিছুই হয় না। চৈতন্যদেব তো প্রেমে উন্মত্ত; তবু সন্ন্যাসের আগে কতদিন ধরে মাকে বোঝান। বললেন, ‘মা! আমি মাঝে মাঝে এসে তোমাকে দেখা দিব।’

[माँ-बाप क्या कुछ साधारण मनुष्य हैं ?^* बाप -माँ के फांकी दिये छेले-माग निये , बाउल वैष्णव -वैष्णवी सेजे बेरोय !  आज की शिक्षा भी बच्चों व बड़े विद्यार्थियों को माता-पिता व आचार्य के यथार्थ गौरव का सम्मान करना नहीं सिखलाती । जब तक सम्पूर्ण जगत में  वैदिक साहित्य, पतंजलि योगसूत्र  में प्रदत्त  संस्कार-विधि (चरित्र-निर्माण की पद्धति) आदि ग्रन्थों का प्रचार व आदर नहीं होगा ; तब तक भारत का कल्याण या उसके माध्यम से  संसार का कल्याण होना दुष्कर है।भारत  के सभी अभिभावकों,  विद्वानों व शिक्षाविदों को अपने पूवाग्रहों से ऊपर उठकर सभी विद्यार्थियों को - अमेरिका , इंग्लैण्ड के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों (Harvard University, Oxford,Stanford University) में विज्ञान में शिक्षित करने के साथ ही साथ महामण्डल के "स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make  वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में  भी दीक्षित-प्रशिक्षित  करने पर विचार करना चाहिये। जिससे विश्व को भविष्य में कर्तव्यपरायण, देशप्रेमी, चरित्रवान्, परोपकारी, निष्पक्ष व सत्य न्यायाचरण करने वाली युवा पीढ़ी प्राप्त हो सके। महाभारत शा. 266/21 में कहा गया है कि - 

 ‘पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः। 

पितरि प्रीतिमापन्ने सर्वाः प्रीयन्ति देवता।।’ 

अर्थात् पिता ही धर्म है, पिता ही स्वर्ग है और पिता ही सबसे श्रेष्ठ तपस्या है। पिता के प्रसन्न हो जाने पर सारे देवता प्रसन्न हो जाते हैं।पद्मपुराण के 47/12-14 श्लोकों में ग्रन्थकार ने कहा है कि 

पितरौ यस्य तृप्यन्ति सेवया च गुणेन च। 

तस्य भागीरथीस्नानमहन्यहनि वर्तते॥ 

सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता। 

मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत्॥ 

मातरं पितरंश्चैव यस्तु कुर्यात् प्रदक्षिणम्। 

प्रदक्षिणीकृता तेन सप्तदीपा वसुन्धरा॥ 

इन श्लोकों का तात्पर्य है कि माता सर्वतीर्थमयी (दुःखों से छुड़ानेवाली तीर्थ) है और पिता सम्पूर्ण देवताओं का स्वरूप है, अतएव प्रयत्नपूर्वक सब प्रकार से माता-पिता का आदर-सत्कार करना चाहिए। जो माता-पिता की प्रदक्षिणा करता है, उसके द्वारा सात द्वीपों से युक्त सम्पूर्ण पृथिवी की परिक्रमा हो जाती है। महाभारत के वनपर्व में यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में यक्ष युधिष्ठिर से प्रश्न करते हैं कि- पृथिवी से भारी क्या है? आकाश से ऊंचा क्या है? वायु से भी तीव्र चलनेवाला क्या है? ' इसके उत्तर में युधिष्ठिर ने यक्ष को बताया कि ‘माता पृथिवी से भारी है। पिता आकाश से भी ऊंचा है। मन वायु से भी अधिक तीव्रगामी है।   महाभारत में पिता को आकाश से भी ऊंचा माना है, अर्थात् पिता के हृदय-आकाश में अपने पुत्र के लिए जो असीम प्यार होता है, वह अवर्णनीय है। माता-पिता को प्रणाम करते समय जिसके हाथ, घुटने और मस्तक पृथिवी पर टिकते हैं, वह अक्षय स्वर्ग को प्राप्त होता है।

   [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔱🙏“ज्ञान के पश्चात उसी पत्नी को तुम साक्षात् भगवती देखोगे !🔱🙏

(मास्टर से तिरस्कार करते हुए) और तुम्हारे लिए कहता हूँ, माँ-बाप ने तुम्हें आदमी बना दिया, अब कई लड़के-बच्चे भी हो गये हैं, इस पर बीबी को साथ लेकर निकल आना ! माता-पिता को धोखा देकर बीबी-बच्चे को लेकर, वैष्णव-वैष्णवी बनकर निकलता है ! तुम्हारे बाप को कोई कमी नहीं है, नहीं तो मैं कहता, धिक्कार है तुमको ! (सब के सब स्तब्ध हैं ।)

(To M., reproachfully) "And let me say this to you. Your father and mother brought you up. You yourself are the father of several children. Yet you have left home with your wife. You have cheated your parents. "You have come away with your wife and children, and you feel you have become a holy man. Your father doesn't need any money from you; otherwise I should have cried, 'Shame on you!'Everybody in the room became grave and remained silent.

[(মাস্টারের প্রতি তিরস্কার করিতে করিতে) “আর তোমায় বলি, বাপ-মা মানুষ করলে, এখন কত ছেলেপুলেও হল, মাগ নিয়ে বেরিয়ে আসা! বাপ-মাকে ফাঁকি দিয়ে ছেলে মাগ নিয়ে, বাউল বৈষ্ণবী সেজে বেরয়। তোমার বাপের অভাব নাই বলে; তা না হলে আমি বলতুম ধিক্‌! (সভাসুদ্ধ সকলেই স্তব্ধ)

“कुछ ऋण हैं । देवऋण, ऋषिऋण; उधर मातृऋण, पितृऋण, स्त्री-ऋण । माता-पिता के ऋण का शोध किये बिना कोई काम नहीं होता । फिर पत्नी का भी ऋण है । हरीश पत्नी का त्याग करके यहाँ आकर रहता है । यदि उसकी स्त्री के भोजन की सुविधा न होती तो मैं कहता, साला बेईमान है । “ज्ञान के पश्चात उसी पत्नी को तुम साक्षात् भगवती देखोगे ! सप्तशती में है, ‘या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता ।’ वे ही माँ हुई हैं । [जो देवी सब प्राणियों में (माँ, पत्नी , भाई , बहन, दोस्त-दुश्मन  सभी में)  माँ दुर्गा, ही 'माता रूप से'  स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है ।

MASTER: "A man has certain debts to pay: his debts to the gods and rishis, and his debts to mother, father, and wife. He cannot achieve anything without paying the debt he owes to his parents. A man is indebted to his wife as well. Harish has renounced his wife and is living here. If he had left her unprovided for, then I should have called him an abominable wretch."After attaining Knowledge you will regard that very wife as the manifestation of the Divine Mother Herself. It is written in the Chandi, 'The Goddess dwells in all beings as the Mother.' It is She who has become your mother.

[“কতকগুলি ঋণ আছে। দেবঋণ, ঋষিঋণ, আবার মাতৃঋণ, পিতৃঋণ, স্ত্রীঋণ। মা-বাপের ঋণ পরিশোধ না করলে কোন কাজই হয় না। “স্ত্রীর কাছেও ঋণ আছে। হরিশ স্ত্রীকে ত্যাগ করে এখানে এসে রয়েছে। যদি তার স্ত্রীর খাবার জোগাড় না থাকত, তাহলে বলতুম ঢ্যামনা শ্যালা! [“জ্ঞানের পর ওই স্ত্রীকে দেখবে সাক্ষাৎ ভগবতী। চন্ডীতে আছে ‘যা দেবী সর্বভূতেষু মাতৃরূপেণ সংস্থিতা!’ তিনিই মা হয়েছেন। 

“जितनी स्त्रियाँ देखते हो, सब वे ही हैं; इसीलिए मैं वृन्दा ^* को कुछ कह नहीं सकता । कोई-कोई लोग श्लोक झाड़ते हैं – लम्बी-लम्बी बातें बघारते हैं, परन्तु उनका व्यवहार कुछ और ही होता है । इस हठयोगी के लिए किसी तरह अफीम और दूध इकट्ठा हो, रामप्रसन्न बस इसी चिन्ता में मारामारा घूमता है । 

"All the women you see are only She, the Divine Mother. That is why I cannot rebuke even Brinde, the maidservant. There are people who spout verses from the scriptures and talk big, but in their conduct they are quite different. Ramprasanna is constantly busy procuring opium and milk for the hathayogi.

[बृन्दा (सेविका) - असली नाम बृन्दा दासी। श्री रामकृष्ण उन्हें 'वृन्दे' कहकर बुलाते थे। उन्होंने आठ लंबे वर्षों तक, (1877  से 1885 ईस्वी तक) श्री रामकृष्ण और श्री श्री सारदा देवी की सेवा की थी ।

বৃন্দে — পরিচারিকা — প্রকৃত নাম বৃন্দা দাসী। শ্রীরামকৃষ্ণ ‘বৃন্দে’ বলিয়া ডাকিতেন। তিনি ১৮৭৭ হইতে ১৮৮৫ খ্রীষ্টাব্দ পর্যন্ত দীর্ঘ আট বৎসর শ্রীরামকৃষ্ণ এবং শ্রীশ্রীসারদাদেবীর সেবা করিয়াছিলেন।] 

[“যত স্ত্রী দেখ, সব তিনিই। আমি তাই বৃন্দেকে১ কিছু বলতে পারি না। কেউ কেউ শোলক ঝাড়ে, লম্বা লম্বা কথা কয়, কিন্তু ব্যবহার আর একরকম। রামপ্রসন্ন২ ওই হঠযোগীর কিসে আফিম আর দুধের যোগাড় হয়, এই করে করে বেড়াচ্ছে। 

   [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔱🙏🔆प्रेमोन्माद की अनुभूति होने पर देहध्यास चला जाता है 🔆🔱🙏

[সকল ঋণ হইতে কে মুক্ত? সন্ন্যাসী ও কর্তব্য ]

और वह यह भी कहता है कि मनु स्मृति में साधु-सेवा का उल्लेख है । इधर बूढ़ी माँ खाने को नहीं पाती, सौदा खरीदने के लिए हाट-बाजार खुद जाया करती है । क्या कहूँ ऐसा क्रोध आता है ! “परन्तु एक बात और है । अगर प्रेमोन्मत्त अवस्था हो तो फिर कौन है बाप, कौन है माँ और कौन है स्त्री ? ईश्वर पर इतना प्यार हो कि पागल हो जाय । 

 He says that Manu enjoins it upon man to serve the sadhu. But his old mother hasn't enugh to eat. She walks to the market to buy her own groceries. It makes me very angry.

আবার বলে, মনুতে সাধুসেবার কথা আছে। এদিকে বুড়ো মা খেতে পায় না, নিজে হাট বাজার করতে যায়। এমনি রাগ হয়।

फिर उसके लिए कुछ भी कर्तव्य नहीं रह जाता । सब ऋणों से वह मुक्त हो जाता है । प्रेमोन्माद कैसा है, जानते हो ? उस अवस्था के आने पर संसार भूल जाता है । अपनी देह जो इतनी प्यारी चीज है, वह भी भूल जाता है । यह अवस्था चैतन्यदेव की हुई थी । समुद्र में कूद पड़े, समुद्र का बोध ही नहीं । मिट्टी में बार-बार पछाड़ खा-खाकर गिरते हैं, न भूख है, न नींद; शरीर का बोध भी नहीं है !”

"But here you have to consider another thing. When a man is intoxicated with ecstatic love of God, then who is his father or mother or wife? His love of God is so intense that he becomes mad with it. Then he has no duty to perform. He is free from all debts. What is this divine intoxication? In this state a man forgets the world. He also forgets his own body, which is so dear to all. Chaitanya had this intoxication. He plunged into the ocean not knowing that it was the ocean. He dashed himself again and again on the ground. He was not aware of hunger, of thirst, or of sleep. He was not at all conscious of any such thing as his body."

[তবে একটি কথা আছে। যদি প্রেমোন্মাদ হয় তাহলে কে বা বাপ, কে বা মা, কে বা স্ত্রী। ঈশ্বরকে এত ভালবাসা যে পাগলের মতো হয়ে গেছে! তার কিছুই কর্তব্য নাই, সব ঋণ থেকে মুক্ত। প্রেমোন্মাদ কিরকম? সে অবস্থা হলে জগৎ ভুল হয়ে যায়! নিজের দেহ যে এত প্রিয় জিনিস, তাও ভুল হয়ে যায়। চৈতন্যদেবের হয়েছিল। সাগরে ঝাঁপ দিয়ে পড়লেন, সাগর বলে বোধ নাই। মাটিতে বারবার আছাড় খেয়ে পড়ছেন — ক্ষুধা নাই, তৃষ্ণা নাই, নিদ্রা নাই; শরীর বলে বোধই নাই।”

    [(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-79]

🔱🙏चैतन्य का अर्थ है 'अविभाजित चेतना' या 

      गौरांग का अर्थ है अहं लाठी के बिना सच्चिदानन्द का समुद्र का एक बुलबुला  🔱🙏

["Chaitanya" means -Undivided Consciousness.]

[श्रीयुक्त बूड़ो गोपाल और तीर्थयात्रा - जब ठाकुरदेव शरीर में  मौजूद हैं, तब तीर्थ क्यों? अधर का निमंत्रण - राम का अहंकार और निर्णायक पंच की भूमिका में श्रीठाकुरदेव।  

শ্রীযুক্ত বুড়ো গোপালের৩ তীর্থযাত্রা — ঠাকুর বিদ্যমান, তীর্থ কেন? অধরের নিমন্ত্রণ — রামের অভিমান — ঠাকুর মধ্যস্থ ]

श्रीरामकृष्ण हठात कह उठे - ‘हा चैतन्य’! (भक्तों के प्रति) “चैतन्य का तात्पर्य है (अखण्ड) शाश्वत- स्पंदन 'Undivided Consciousness'. वैष्णवचरण कहता था, गौरांग इसी अखण्ड चैतन्य सागर के एक छोटे बुलबुला (bubble-बुदबुद)  हैं  श्रीरामकृष्ण (बूढ़े गोपाल के प्रति)-- “तुम्हारी क्या इस समय तीर्थ जाने की इच्छा है ?”

All at once Sri Ramakrishna exclaimed, "Ah, Chaitanya!" and stood up. MASTER (to the devotees) : "Chaitanya means 'Undivided Consciousness'. Vaishnavcharan used to say that Gauranga was like a bubble in the Ocean of Undivided Consciousness.(To the elder Gopal4) "Do you intend to go on a pilgrimage now?" 

[ঠাকুর “হা চৈতন্য!” বলিয়া উঠিলেন। (ভক্তদের প্রতি) চৈতন্য কিনা অখণ্ড চৈতন্য। বৈষ্ণবচরণ বলত, গৌরাঙ্গ এই অখণ্ড চৈতন্যের একটি ফুট। শ্রীরামকৃষ্ণ (বুড়ো গোপালের প্রতি )— তোমার কি এখন ইচ্ছা তীর্থে যাওয়া? ৩ বুড়ো গোপাল — এঁর নিবাস সিঁথি। ঠাকুরের একজন সন্ন্যাসী ভক্ত। ঠাকুর “বুড়ো গোপাল” বলিয়া ডাকিতেন। ]

[बूड़ो गोपाल ^*  स्वामी अद्वैतानन्द ठाकुर देव के एक संन्यासी भक्त सिंथी के रहने वाले थे। ठाकुर उनको 'बूढ़े गोपाल' कहकर पुकारते थे।

बूढ़े गोपाल – जी हाँ, जरा देखभाल आयें ।

GOPAL: "Yes, sir. I should like to wander about a little."

বুড়ো গোপাল — আজ্ঞে হাঁ। একটু ঘুরে-ঘারে আসি।

[(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 79 ] 

🔱🙏🔆बहूदक के बाद कुटीचक की अवस्था होती है 'जैसे उड़ी जहाज को पंछी' 🔱🙏

["बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय- 'चरैवेति, चरैवेति" करने बाद नेतृत्व की अवस्था]    

राम – (बूढ़े गोपाल से) – ये (अर्थात ठाकुरदेव)  कहते हैं, बहूदक के बाद कुटीचक की अवस्था होती है। जो साधु अनेक तीर्थों का भ्रमण करते हैं, उनका नाम है बहूदक, और जो एक जगह डटकर आसन जमा देते हैं उन्हें कुटीचक कहते हैं ।

RAM (to Gopal): "He [meaning the Master] says that one becomes a kutichaka after being a vahudaka. The sadhu that visits many holy places is called a vahudaka. He whose craving for travel has been satiated and who sits down in one place is called a kutichaka.

[রাম (বুড়ো গোপালের প্রতি) — ইনি বলেন, বহুদকের পর কুটীচক। যে সাধু অনেক তীর্থ ভ্রমণ করেন, তাঁর নাম বহুদক। যার ভ্রমণ করার সাধ মিটে গেছে, আর এক জায়গায় স্থির হয়ে আসন করে যিনি বসেন, তাঁকে বলে কুটীচক!

“एक बात और ये कहते हैं । ^* 

मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै। 

जैसे उड़ि जहाज की पंछी, पुनि जहाज पै आवै॥ 

कमल-नैन को छाँड़ि महातम, और देव को ध्यावै। 

परम गंग को छाँड़ि पियासो, दुरमति कूप खनावै॥

 जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो, क्यों करील-फल भावै।

 'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै॥ 

एक पक्षी जहाज के मस्तूल पर बैठा था । जहाज गंगा से होकर काले पानी में (समुद्र में) चला गया । पक्षी को इसका होश न था । जब वह होश में आया, तब किनारे का पता लगाने के लिए उत्तर की ओर उड़ गया । उधर भी किनारा न दीख पड़ा । इसी तरह कुछ-कुछ विश्राम करके पूर्व और पश्चिम में भी गया । जब उसने देखा, कहीं किनारा नहीं है, तब मस्तूल पर आकर चुपचाप बैठ गया ।”

[ यहां भक्त की भगवान् के प्रति (सद्गुरु नेता C-IN-C नवनीदा द्वारा निर्दिष्ट अपने इष्टदेव के प्रति )  अनन्यता की ऊंची अवस्था दिखाई गई है। जीव भी इस संसार सागर में अपनी विषया-सक्ति (कामिनी -कांचन में आसक्ति )  के कारण यहाँ -वहाँ  भटकता है पर जब कहीं किनारा नहीं मिलता तब मस्तूल यानि अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण (पूज्य नवनीदा) के उपदेशों में रम जाता है।  मर्मार्थ - भावार्थ - कमलनयन श्री कृष्ण (नेता /गुरु/C-IN-C  ) के महात्म्य को जाने बिना  जो अन्य का भजन करते है वे तो एसे मूढ है जो पास बहती गंगा  को छोड़ कर कुँआ खोद कर प्यास बुझाने की बात सोचते हैं । जीवात्मा परमात्मा की अंश-स्वरूप है। उसका विश्रान्ति-स्थल परमात्मा ही है , अन्यत्र उसे सच्ची सुख-शान्ति मिलने की नहीं। प्रभु को छोड़कर जो इधर-उधर सुख खोजता है, वह मूढ़ है। कमल-रसास्वादी भ्रमर भला करील का कड़वा फल चखेगा ? कामधेनु छोड़कर बकरी को कौन मूर्ख दुहेगा ?]

"He also tells us a parable. Once a bird sat on the mast of a ship. When the ship sailed through the mouth of the Ganges into the 'black waters' of the ocean, the bird failed to notice the fact. When it finally became aware of the ocean, it left the mast and flew north in search of land. But it found no limit to the water and so returned. After resting awhile it flew south. There too it found no limit to the water. Panting for breath the bird returned to the mast. Again, after resting awhile, it flew east and then west. Finding no limit to the water in any direction, at last it settled down on the mast of the ship."

[“আর একটি কথা ইনি বলেন। একটা পাখি জাহাজের মাস্তুলের উপর বসেছিল। জাহাজ গঙ্গা থেকে কখন কালাপানিতে পড়েছে তার হুঁশ নাই। যখন হুঁশ হল তখন ডাঙা কোন্‌ দিকে জানবার জন্য উত্তরদিকে উড়ে গেল। কোথাও কূল-কিনারা নাই, তখন ফিরে এল। আবার একট বিশ্রাম করে দক্ষিণদিকে গেল। সে দিকেও কূল-কিনারা নাই। তখন হাঁপাতে হাঁপাতে ফিরে এল। আবার একটু জিরিয়ে এইরূপে পূর্বদিকে ও পশ্চিমদিকে গেল। যখন দেখলে কোন দিকেই কূল-কিনারা নাই, তখন মাস্তুলের উপর চুপ করে বসে রইল।”

[(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 79 ]

🔱🙏दास नेता जानता है श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा -स्वामी विवेकानन्द

 दूर नहीं ह्रदय में ही रहते है !🔱🙏   

श्रीरामकृष्ण – (बूढ़े गोपाल और भक्तों से) – जब तक यह बोध है कि ईश्वर वहाँ है – वहाँ है, तब तक अज्ञान है । जब यहाँ है, यह बोध हो जाता है, तब ज्ञान ।

MASTER (to the elder Gopal and the other devotees): "As long as a man feels that God is 'there', he is ignorant. But he attains Knowledge when he feels that God is 'here'.

[শ্রীরামকৃষ্ণ (বুড়োগোপাল ও ভক্তদের প্রতি) — যতক্ষণ বোধ যে ঈশ্বর সেথা সেথা, ততক্ষণ অজ্ঞান। যখন হেথা হেথা, তখনই জ্ঞান।

[(5 अप्रैल 1884),  श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 79 ]

🔱🙏मनुष्य जो चाहता है, वह उसके बहुत निकट है।🔱🙏 

[What a man seeks is very near him.] 

[🔱🙏दास नेता जिस परम् सत्य (ईश्वर-आत्मा-अवतारवरिष्ठ) को खोज रहा था -वह हमारे ह्रदय में ही है ! 🔱🙏

“एक आदमी तम्बकू पीना चाहता था । वह अपने पड़ोसी के घर गया – टिकिया सुलगाने के लिए। घर के सब लोग सो गये थे । बड़ी देर तक दरवाजा खटखटाने पर एक आदमी खोलने के लिए नीचे उतर आया । उस आदमी को देखकर घरवाले ने पूछा, कहो, कैसे आये ? उसने कहा, क्या कहूँ कैसे आया । जानते तो हो कि तम्बाकू पीने का चस्का है, टिकिया सुलगाने आया था । तब घरवाले ने कहा अजी वाह, तुम तो बड़े भले मानस निकले, इतनी मेहनत करके आये और दरवाजा खटखटाया, तुम्हारे हाथ में लालटेन जो है ! (सब हँसते हैं ।)

A man wanted a smoke. He went to a neighbour's house to light his charcoal. It was the dead of night and the household was asleep. After he had knocked a great deal, someone came down to open the door. At sight of the man he asked, 'Hello! What's the matter?' The man replied: 'Can't you guess? You know how fond I am of smoking. I have come here to light my charcoal.' The neighbour said: 'Ha! Ha! You are a fine man indeed! You took the trouble to come and do all this knocking at the door! Why, you have a lighted lantern in your hand!' (All laugh.)

[”একজন তামাক খাবে, তো প্রতিবেশীর বাড়ি টিকে ধরাতে গেছে। রাত অনেক হয়েছে। তারা ঘুমিয়ে পড়েছিল। অনেকক্ষণ ধরে ঠেলাঠেলি করবার পর, একজন দোর খুলতে নেমে এল। লোকটির সঙ্গে দেখা হলে সে জিজ্ঞাসা করলে, কিগো, কি মনে করে? সে বললে, আর কি মনে করে, তামাকের নেশা আছে, জান তো; টিকে ধরাব মনে করে। তখন সেই লোকটি বললে, বাঃ তুমি তো বেশ লোক! এত কষ্ট করে আসা, আর দোর ঠেলাঠেলি। তোমার হাতে যে লণ্ঠ রয়েছে! (সকলের হাস্য)"

“जो कुछ चाहता है, वही उसके पास है, फिर भी आदमी अनेक स्थानों में चक्कर लगाया करता है।”

[क्या ठाकुर देव यह संकेत दे रहे हैं कि, जब वे वहाँ सशरीर उपस्थित ही हैं , तब तीर्थ क्यों?]

"What a man seeks is very near him. Still he wanders about from place to place."

[“যা চায়, তাই কাছে। অথচ লোকে নানাস্থানে ঘুরে।”ঠাকুর কি ইঙ্গিত করিতেছেন, তিনি বিদ্যমান, তীর্থ কেন?] 

राम – महाराज, अब इसका मतलब समझ में आ गया । समझा कि गुरु क्यों कहते हैं कि चारों धाम करके आ जाओ । जब एक बार चक्कर मारकर देखता है कि जो कुछ यहाँ है, वही सब वहाँ भी है, तब फिर वह गुरु (नेता) के पास लौटकर आता है । यह सब केवल गुरु /नेता की बात पर विश्वास होने के लिए है ।

RAM: "Sir, I now realize why a guru asks some of his disciples to visit the four principal holy places of the country. Once having wandered about, the disciple discovers that it is the same here as there. Then he returns to the guru. All this wandering is only to create faith in the guru's words."

[রাম — মহাশয়! এখন এর মানে বুঝেছি, গুরু কেন কোনও কোনও শিষ্যকে বলেন চারধাম করে এসো। যখন একবার ঘুরে দেখে যে, এখানেও যেমন সেখানেও তেমন তখন আবার গুরুর কাছে ফিরে আসে। এ-সব কেবল গুরুবাক্যে বিশ্বাস হবার জন্য।

बात कुछ रुक गयी । श्रीरामकृष्ण राम की तारीफ कर रहे हैं ।

After this conversation had come to an end, Sri Ramakrishna extolled Ram's virtues.

[কথা একটু থামিলে পর ঠাকুর রামের গুণ গাহিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण – (भक्तों से) – अहा ! राम में कितने गुण हैं । कितने भक्तों की सेवा और उनका पालन-पोषण करता है । (राम से) अधर कहता था, तुमने उसकी बड़ी खातिरदारी की – क्यों, ठीक है न ?

MASTER (to the devotees): "How many fine qualities Ram possesses! How many devotees he serves and looks after! (To Ram.) Adhar told me that you showed him great kindness."

[শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — আহা, রামের কত গুণ! কথ ভক্তদের সেবা, আর প্রতিপালন। (রামের প্রতি) অধর বলছিল, তুমি নাকি তার খুব খাতির করেছ! 

अधर शोभाबाजार में रहते हैं । श्रीरामकृष्ण के परमभक्त हैं । उनके यहाँ चण्डी के गीत हुए थे । श्रीरामकृष्ण और भक्तों में से कितने ही वहाँ गये थे । परन्तु अधर राम को न्योता देना भूल गये थे । राम बड़े अभिमानी हैं – उन्होंने लोगों से उसके लिए दुःख प्रकट किया था । इसीलिए अधर राम के घर गये थे । उनसे भूल हुई थी, इसके लिए दुःख प्रकट करने गये थे

Adhar, a beloved householder devotee of the Master, had recently arranged some religious music at his house. The Master and many devotees had been present. But Adhar had forgotten to invite Ram, who was a very proud man and had complained about it to his friends. So Adhar had gone to Ram's house to express his regret for the mistake.

[অধরের শোভাবাজারে বাড়ি। ঠাকুরের পরমভক্ত। তাঁর বাড়িতে চন্ডীর গান হইয়াছিল। ঠাকুর ও ভক্তেরা অনেকেই উপস্থিত ছিলেন। অধরের কিন্তু রামকে নিমন্ত্রণ করিতে ভুল হইয়াছিল। রাম বড় অভিমানী — তিনি লোকের কাছে দুঃখ প্রকাশ করিয়াছিলেন। তাই অধর রামের বাড়িতে গিয়াছিলেন। তাঁর ভুল হইয়াছিল, এজন্য দুঃখ প্রকাশ করিতে গিয়াছিলেন।

राम – वह अधर का दोष नहीं है । न्योता देने का भार राखाल पर था ।

RAM: "It wasn't really Adhar's mistake. I have come to know that Rakhal is to blame. Rakhal was given charge —"

[রাম — সে অধরের দোষ নয়, আমি জানতে পেরেছি, সে রাখালের দোষ। রাখালের উপর ভার ছিল —

श्रीरामकृष्ण – राखाल का दोष लेना ही नहीं चाहिए । गला दबाओ तो अब भी दूध निकल आये ।

MASTER: "You mustn't find fault with Rakhal. He's a mere child. Even now you can bring out his mother's milk by squeezing his throat."

[শ্রীরামকৃষ্ণ — রাখালের দোষ ধরতে নাই; গলা টিপলে দুধ বেরোয়!

राम – महाराज, कहते क्या हैं, चण्डी के गीत हुए - ?

RAM: "Sir, why should you speak that way? It was such an occasion!"

[রাম — মহাশয়! বলেন কি, চন্ডীর গান হল –,

[(5 अप्रैल 1884), श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 79]  

🔱🙏सिंहवाहिनी माँ सारदा (गुरु-नेता) के मन्दिर में पहले प्रणामी देनी पड़ती है🔱🙏

[माँ के मन्दिर में बिना बुलाये ही जाया जाता है। ] 

श्रीरामकृष्ण - अधर यह नहीं जानता था । देखा न, यदु मल्लिक के यहाँ मेरे साथ गया था । मैंने लौटते समय पूछा, तुमने सिंहवाहिनी को प्रणामी दी ? उसने कहा, महाराज, मैं नहीं जानता था कि प्रणामी देनी पड़ती है ।

MASTER: (interrupting): "Adhar simply didn't remember to invite you. He is absent-minded. The other day he went with me to Jadu Mallick's house. As we took our leave, I said to him, 'You haven't offered anything to the Goddess in the chapel.' 'Sir,' he said, 'I didn't know one should.'

[শ্রীরামকৃষ্ণ — অধর তা জানত না। ওই দেখ না, সেদিন যদু মল্লিকের বাড়ি আমার সঙ্গে গিছিল। আমি চলে আসবার সময় জিজ্ঞাসা করলুম, তুমি সিংহবাহিনীর কাছে প্রণামী দিলে না? তা বললে, মহাশয়! আমি জানতাম না যে, প্রণামী দিতে হয়।

“अच्छा, अगर न भी कहा हो, तो राम-नाम में दोष क्या है ? जहाँ राम-नाम होता हो वहाँ बिना बुलाये भी जाया जाता है । न्योते की आवश्यकता नहीं होती ।”

(To Ram) "Suppose he didn't invite you to his house. Why such a fuss about going to a place where the name of the Lord was sung? One may go unasked to participate in religious music. One doesn't have to be invited."

[“তা যদি না বলেই তাকে, হরিনামে দোষ কি? যেখানে হরিনাম, সেখানে না বললেও যাওয়া যায়। নিমন্ত্রণ দরকার নাই।”

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