*परिच्छेद~ ६८*
(१)
[(23 दिसंबर, 1883)परिच्छेद ~ 68, श्रीरामकृष्ण वचनामृत-68 ]
🔆🙏गुरु (C-IN-C) रुपी श्रीरामकृष्ण के सानिध्य में - मणि के गुरुगृहवास का 10 वां दिन🔆🙏
श्रीरामकृष्ण अपने कमरे के दक्षिण-पूर्ववाले बरामदे में राखाल, लाटू, मणि, हरीश आदि भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । दिन के नौ बजे का समय होगा । रविवार, 23 दिसम्बर 1883। अगहन की कृष्णा नवमी है।
[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ তাঁহার ঘরের দক্ষিণ-পূর্বের বারান্দায় রাখাল, লাটু, মণি, হরিশ প্রভৃতি ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। বেলা নয়টা হবে। রবিবার, অগ্রহায়ণ কৃষ্ণা নবমী, ২৩শে ডিসেম্বর, ১৮৮৩।
मणि को 'गुरुगृह-वास' (निर्जनवास) करते हुए आज दस दिन पूरे हो जाएंगे । श्री मनोमोहन कोन्नगर से आज सुबह आए हैं । श्रीरामकृष्ण के दर्शन और कुछ विश्राम करके आप कलकत्ता जाएंगे । हाजरा भी श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हैं । नीलकण्ठ के गाँव के एक वैष्णव आज श्रीरामकृष्ण को गाना सुना रहे हैं ।
[মণির গুরুগৃহে বাসের আজ দশম দিবস। 10 days youth training camp -with C-IN-C]শ্রীযুত মনোমোহন কোন্নগর হইতে সকাল বেলা আসিয়াছেন। ঠাকুরকে দর্শন করিয়া ও কিয়ৎক্ষণ বিশ্রাম করিয়া আবার কলিকাতায় যাইবেন। হাজরাও ঠাকুরের কাছে বসিয়া আছেন। নীলকণ্ঠের দেশের একজন বৈষ্ণব ঠাকুরকে গান শুনাইতেছেন।
वैष्णव ने पहले नीलकण्ठ का गाना गाया –
`श्रीगौरंगसुंदर नव -नटवर तपतकांचन काय।
करे स्वरुप विभिन्न , लुकाइये चिन्ह , अवतीर्ण नदियाय।
(भावार्थ) – “श्रीगौरांग की सुन्दर देह तप्त-कांचन के समान है । वे नव-नटवर ही हो रहे हैं । परन्तु वे इस बार दूसरे ही स्वरूप से, अपने पहले के चिन्हों को छिपाकर नदिया में अवतीर्ण हुए हैं । कलिकाल का घोर अन्धकार दूर करने के लिए तथा उन्नत और उज्जवल प्रेमरस प्रकट करने के लिए तुम इस बार श्रीकृष्णावतार की नीली देह को महाभाव-स्वरूपिणी श्रीराधा की तप्त-कांचन जैसी उज्जवल देह से ढककर आए हो ।
বৈষ্ণব প্রথমে নীলকণ্ঠের গান গাইলেন:
শ্রীগৌরাঙ্গসুন্দর নব-নটবর তপতকাঞ্চন কায়।
করে স্বরূপ বিভিন্ন, লুকাইয়ে চিহ্ন, অবতীর্ণ নদীয়ায়।
At nine o'clock in the morning Sri Ramakrishna was seated on the southwest porch of his room, with Rakhal, Latu, M., Harish, and. some other devotees. M. had now been nine days with the Master at Dakshineswar. Earlier in the morning Manomohan had arrived from Konnagar on his way to Calcutta. Hazra, too, was present.
नवीन संन्यासी सुतीर्थ अन्वेषी , कभू नीलाचल कभू जान काशी ;
अयाचक देन प्रेम राशि राशि , नाहि जातिभेद ताय।
নবীন সন্ন্যাসী, সুতীর্থ অন্বেষী, কভু নীলাচলে কভু যান কাশী;
অযাচক দেন প্রেম রাশি রাশি, নাহি জাতিভেদ তায়;
तुम महाभाव में समारूढ़ हो, सात्त्विकादिक तुममें लीन हो जाते हैं । उस भावास्वाद के लिए तुम जंगलों में रोते फिरते हो । इससे प्रेम की बाढ़ हो आती है । तुम नवीन संन्यासी हो, अच्छे तीर्थों की खोज में रहते ही, कभी तुम नीलाचल और कभी वाराणसी जाते हो, अयाचकओं को भी तुम प्रेम का दान करते हो, तुम्हारे इस कार्य में जातिभेद नहीं है ।”
[(23 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-68 ]
🔆🙏जीव साज समरे, रणवेशे काल प्रवेशे तोर घरे 🔆🙏
Maa Chinmastike
[ जीव तू अमरत्व प्राप्त करने की साधना में जुट जा ; काल तेरे घर में प्रवेश कर रहा है]
(‘জীব সাজ সমরে রণবেশে, কাল প্রবেশে তোর ঘরে।’)
एक दूसरा गाना उन्होंने मानसपूजा के सम्बन्ध में गाया ।
श्रीरामकृष्ण (हाजरा के प्रति) – यह गाना कैसा कैसा लगा ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (হাজরার প্রতি) — এ-গান (মানসপূজা) কি একরকম লাগল।]
हाजरा – यह गाना साधक के लिए नहीं है, - ज्ञानदीपक, ज्ञानप्रतिमा जैसे शब्द !
[হাজরা — এ সাধকের নয়, — জ্ঞান দীপ, জ্ঞান প্রতিমা!
श्रीरामकृष्ण – मुझे तो कैसा कैसा लगा !
“पहले के गाने कैसे ठीक होते थे ! पंचवटी में नागा के पास मैंने एक गाना गाया था –'जीव साज समरे , रणवेशे काल प्रवेशे तोर घरे ।' ‘जीवनसंग्राम (अमरत्व-प्राप्ति) के लिए तू तैयार हो जा, लड़ाई का सामान लेकर काल तेरे घर में प्रवेश कर रहा है।’ एक और गाना – ’दोष कारो नोय गो मा, आमि स्वखात सलिले डूबे मरि श्यामा।‘ऐ श्यामा, दोष किसी का नहीं है, मैं अपने ही हाथों द्वारा खोदे हुए गढ़े के पानी में डूबता हूँ ।’
[“আগেকার সব গান ঠিক ঠিক। পঞ্চবটীতে, ন্যাংটার কাছে আমি গান গেয়েছিলাম, — ‘জীব সাজ সমরে, রণবেশে কাল প্রবেশে তোর ঘরে।’ আর-একটা গান — ‘দোষ কারু নয় গো মা, আমি স্বখাত সলিলে ডুবে মরি শ্যামা।’
A Vaishnava was singing. Referring to one of the songs, Sri Ramakrishna said: "I didn't enjoy that song very much. The songs of the earlier writers seem to me to have more of the right spirit. Once I sang for Nangta at the Panchavati: To arms! To arms, O man! Death storms your house in battle array.' I sang another: 'O Mother, I have no one else to blame: Alas! I sink in the well these very hands have dug.']
“नागा एक वेदान्ती था , इतना ज्ञानी था, परन्तु इनका अर्थ बिना समझे ही रोने लगा था ।
“इन सब गानों में कैसी यथार्थ बात हैं –"भाबो श्रीकान्त नरकान्ताकारी रे नितान्त कृतान्त भायान्त होबी! नरकान्तकारी श्रीकान्त की चिन्ता करो, फिर तुम्हें भयंकर काल का भी भय न रह जाएगा। “पद्मलोचन मेरे मुँह से रामप्रसाद का गाना सुनकर रोने लगा । पर था वह कितना विद्वान् !”
[“ন্যাংটা অত জ্ঞানী, — মানে না বুঝেই কাঁদতে লাগল।“এ-সব গানে কেমন ঠিক ঠিক কথা —“ভাব শ্রীকান্ত নরকান্তকারীরে নিতান্ত কৃতান্ত ভয়ান্ত হবি!“পদ্মলোচন আমার মুখে রামপ্রসাদের গান শুনে কাঁদতে লাগল। দেখ, অত বড় পণ্ডিত!”
"Nangta, the Vedantist, was a man of profound knowledge. The song moved him to tears though he didn't understand its meaning. Padmalochan also wept when I sang the songs of Ramprasad about the Divine Mother. And he was truly a great pundit."
[(23 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-68 ]
🔆🙏 मणि का लीडरशिप ट्रेनिंग> विशिष्ट द्वैतवाद-'एक' ही 'अनेक' बन गया है !🔆🙏
[भारतीय ईश्वर दर्शन (God-vision) ‘सियाराम मय सब जग जानी करहुं प्रनाम जोरि जुग पानी’ :' One has become many > Unity in Diversity ) की विशेषता- 'एक' ही 'अनेक' बन गया है ~ 'अनेकता में एकता।" ब्रह्म ही जीव-जगत सब कुछ बन गए हैं !]
भोजन के बाद श्रीरामकृष्ण कुछ विश्राम कर रहे हैं । जमीन पर मणि बैठे हुए हैं । नौबतखाने में शहनाई का वाद्य सुनते हुए श्रीरामकृष्ण आनन्द कर रहे हैं । फिर मणि को समझाने लगे--- 'ब्रह्म ही जीव-जगत् हुए हैं'। ( that Brahman alone has become the universe and all living beings.)
[আহারের পর ঠাকুর একটু বিশ্রাম করিয়াছেন। মেঝেতে মণি বসিয়া আছেন। নহবতের রোশনচৌকি বাজনা শুনিতে শুনিতে ঠাকুর আনন্দ করিতেছেন। শ্রবণের পর মণিকে বুঝাইতেছেন, ব্রহ্মই জীবজগৎ হয়ে আছেন।
After the midday meal Sri Ramakrishna rested a few minutes in his room. M. was sitting on the door. The Master was delighted to hear the music that was being played in the nahabat. He then explained to M. that Brahman alone has become the universe and all living beings.
श्रीरामकृष्ण – किसी ने कहा, 'अमुक स्थान पर हरिनाम नहीं है' -वहाँ का वातावरण पवित्र नहीं है। उसके कहते ही मैंने देखा, वही सब जीव * हुए हैं । मानो सच्चिदानन्द सागर (Pure Consciousness) के असंख्य बुलबुले – असंख्य जलबिम्ब !
(১* सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।। गीता 6.29।। योगयुक्त अन्त:करण वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी आत्मा को सब भूतों में और भूतमात्र को आत्मा में देखता है।।)
[ শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — কেউ বললে, অমুক স্থানে হরিনাম নাই। বলবামাত্রই দেখলাম, তিনিই সব জীব১* হয়ে আছেন। যেন অসংখ্য জলের ভুড়ভুড়ি — জলের বিম্ব! আবার দেখছি যেন অসংখ্য বড়ি বড়ি!
MASTER: "Referring to a certain place, someone once said to me: 'Nobody sings the name of God there. It has no holy atmosphere.' No sooner did he say this than I perceived that it was God alone who had become all living beings. They appeared as countless bubbles or reflections in the Ocean of Satchidananda.]
[(23 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-68 ]
🙏जीवात्मा स्वप्न में दृश्य रचती है; परमात्मा (जादूगर) अपनी माया (जादू) से सृष्टि रचता है 🙏
[वेदान्त सूत्र - २/१/२८ कहता है `आत्मनि चैवं विचित्राश् च हि ।।' (जैसे जीवात्मा स्वप्न में दृश्य रचती है ;ऐसे ही परमात्मा सृष्टि रचता है । ) अवयव रहित परब्रह्म से इस विचित्र जगत का उत्पन्न होना असंगत नहीं है! इस विषय पर विवाद करने की आवश्यकता नहीं कि किस प्रकार एक ब्रह्मा के स्वरूप के तप से अनेक प्रकार के आकार हो जाते हैं? ]
“उस दिन से बर्दवान आते आते दौड़कर एक बार मैदान की ओर चला गया – यह देखने के लिए कि यहाँ के जीव किस तरह खाते हैं और रहते हैं ! जाकर देखा, मैदान में चींटियाँ रेंग रही हैं ! सभी जगह चैतन्यमय है !”
.[ “ও-দেশ থেকে বর্ধমানে আসতে আসতে দৌড়ে একবার মাঠের পানে গেলাম, — বলি, দেখি, এখানে জীবরা কেমন করে খায়, থাকে! গিয়ে দেখি মাঠে পিঁপড়ে চলেছে! সব স্থানই চৈতন্যময়!”
"Again, I find sometimes that living beings are like so many pills made of Indivisible Consciousness. Once I was on my way to Burdwan from Kamarpukur. At one place I ran to the meadow to see how living beings are sustained. I saw ants crawling there. It appeared to me that every place was filled with Consciousness."]
हाजरा कमरे में आकर जमीन पर बैठ गए ।
श्रीरामकृष्ण – अनेक प्रकार के फूल – तह के तह पँखुड़ियाँ – यह भी देखा ! – छोटा बिम्ब और बड़ा बिम्ब ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — নানা ফুল — পাপড়ি থাক থাক২ তাও দেখেছি! — ছোট বিম্ব, বড় বিম্ব!
MASTER: "Again, I perceive that living beings are like different flowers with various layers of petals. They are also revealed to me as bubbles, some big, some small."
[ 🌼২ब्रह्म सूत्र : `आत्मनि चैवं विचित्राश् च हि ।।' (जैसे स्वप्न में दृश्य रचती है जीवात्मा;ऐसे ही सृष्टि रचता है परमात्मा। वेदान्त सूत्र - २/१/२८) अवयव रहित परब्रह्म से इस विचित्र जगत का उत्पन्न होना असंगत नहीं है, क्योंकि स्वप्न अवस्था में इस अवयव रहित निर्विकार जीवात्मा से नाना प्रकार की विचित्र श्रृष्टि होती देखी जाती है, यह सबके अनुभव की बात है । 28. And because in the individual soul also (as in the case of magicians etc.) diverse (creation exists). Similarly (with Brahman).In the dream state there appears in the individual self, which is one and indivisible, diversity resembling the waking state , and yet the indivisible character of the self is not marred by it. We see also magicians, for instance, producing a multiple creation without any change in themselves. Similarly this diverse creation springs from Brahman through Its inscrutable power of Maya, though Brahman Itself remains unchanged.]
[(23 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-68 ]
🔆🙏 “मैं हुआ हूँ ! मैं आया हूँ !’ "I have become ! I am here!" 🔆🙏
[आमि होयेचि ! आमि ऐसेचि !
আমি হয়েছি! আমি এসেছি! -]
ईश्वरीय रूप-दर्शन की ये सब बातें कहते कहते श्रीरामकृष्ण समाधिस्थ हो रहे हैं । कह रहे हैं, “मैं हुआ हूँ ! मैं आया हूँ !’ यह बात कहकर ही एकदम समाधिस्थ हो गए । सब कुछ स्थिर हो गया ।
[এই সকল ঈশ্বরীয়রূপদর্শন-কথা বলিতে বলিতে ঠাকুর সমাধিস্থ হইতেছেন। বলিতেছেন, আমি হয়েছি! আমি এসেছি!এই কথা বলিয়াই একেবারে সমাধিস্থ হইলেন। সমস্ত স্থির! অনেকক্ষণ সম্ভোগের পর বাহিরের একটু হুঁশ আসিতেছে।
While describing in this way the vision of different divine forms, the Master went into an ecstatic state and said, "I have become! I am here!" Uttering these words he went into samadhi. ]
बड़ी देर तक समाधि के आनन्द में मग्न रह लेने पर कुछ होश आ रहा है । अब बालक की तरह हँस रहे हैं, हँस-हँसकर कमरे में टहल रहे हैं । अद्भुत दर्शन के बाद आँखों से जैसे आनन्द-ज्योति निकलती है, श्रीरामकृष्ण की आँखों का भाव वैसा ही हो गया । सहास्य मुख, शून्य दृष्टि ।
श्रीरामकृष्ण टहलते हुए कह रहे हैं – “बटवृक्ष के नीचे एक परमहंस को देखा था, इसी तरह हँसकर चल रहा था ! – वही स्वरूप मेरा भी हो गया क्या ?”
[অদ্ভুতদর্শনের পর চক্ষু হইতে যেরূপ আনন্দ-জ্যোতিঃ বাহির হয়, সেইরূপ ঠাকুরের চক্ষের ভাব হইল। মুখে হাস্য। শূন্যদৃষ্টি।ঠাকুর পায়চারি করিতে করিতে বলিতেছেন —“বটতলায় পরমহংস দেখলম — এইরকম হেসে চলছিল! — সেই স্বরূপ কি আমার হল!”
While describing in this way the vision of different divine forms, the Master went into an ecstatic state and said, "I have become! I am here!" Uttering these words he went into samadhi. His body was motionless. He remained in that state a long time and then gradually regained partial consciousness of the world. He began to laugh like a boy and pace the room. His eyes radiated bliss as if he had seen a wondrous vision. His gaze was not fixed on any particular object, and his face beamed with joy. Still pacing the room, the Master said: "I saw the paramahamsa who stayed under the banyan tree walking thus with just such a smile. Am I too in that state of mind?"
इस तरह टहलकर श्रीरामकृष्ण अपने छोटे तख्त पर जा बैठे और जगन्माता से बातचीत करने लगे ।
[এইরূপ পাদচারণের পর ঠাকুর ছোট খাটটিতে গিয়া বসিয়াছেন ও জগন্মাতার সহিত কথা কহিতেছেন।
He sat on the small couch and engaged in conversation with the Divine Mother.]
श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं – “ख़ैर, मैं जानना भी नहीं चाहता ! माँ, तुम्हारे पादपद्मों में मेरी शुद्ध भक्ति बनी रहे ।”
[ঠাকুর বলিতেছেন, “যাক আমি জানতেও চাই না! — মা, তোমার পাদপদ্মে যেন শুদ্ধাভক্তি থাকে।”
MASTER: "I don't even care to know. Mother, may I have pure love for Thy Lotus Feet!
(मणि से) – “क्षोभ और वासना के जाने से ही यह अवस्था होती है ।”
[(মণির প্রতি) — ক্ষোভ বাসনা গেলেই এই অবস্থা!
(To M.) "One attains this state immediately after freeing oneself of all grief and desire.
[(23 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-68 ]
🔆🙏 श्रीरामकृष्ण की परमहंस-अवस्था, केवल अद्वैतज्ञान की नहीं, नित्यानन्द की अवस्था है🔆🙏
['अद्वैत – चैतन्य – नित्यानन्द]
फिर माँ से कहने लगे – “माँ, पूजा तो तुमने उठा दी, परन्तु देखो, मेरी सब वासनाएँ चली न जाएँ ! माँ, परमहंस तो बालक है – बालक को माँ चाहिए या नहीं ? इसलिए तुम मेरी माँ हो, मैं तुम्हारा बच्चा । माँ का बच्चा माँ को छोड़कर कैसे रहे ?”
[আবার মাকে বলিতেছেন, “মা! পূজা উঠিয়েছ; — সব বাসনা যেন যায় না! পরমহংস তো বালক — বালকের মা চাই না? তাই তুমি মা, আমি ছেলে। মার ছেলে মাকে ছেড়ে কেমন করে থাকে!”
(To the Divine Mother) "Mother, Thou hast done away with my worship. Please see, Mother, that I don't give up all desire. Mother, the paramahamsa is but a child. Doesn't a child need a mother? Therefore Thou art the Mother and I am the child. How can the child live without the Mother?"
श्रीरामकृष्ण ऐसे स्वर से बातचीत कर रहे हैं कि पत्थर भी पिघल जय । फिर माँ से कह रहे हैं – “केवल अद्वैत ज्ञान ! थू थू ! जब तक ‘मैं’ रखा है, तब तक ‘तुम’ हो । (Thou dost exist as long as Thou dost keep the ego in me.) परमहंस तो बालक है; बालक को माँ चाहिए या नहीं ?”
[ঠাকুর এরূপ স্বরে মার সঙ্গে কথা বলিতেছেন যে, পাষাণ পর্যন্ত বিগলিত হইয়া যায়। আবার মাকে বলিতেছেন, “শুধু অদ্বৈতজ্ঞান! হ্যাক্ থু!! যতক্ষণ ‘আমি’ রেখেছ ততক্ষণ তুমি! পরমহংস তো বালক, বালকের মা চাই না?”
Sri Ramakrishna was talking to the Divine Mother in a voice that would have melted even a stone. Again he addressed Her, saying: "Mere knowledge of Advaita! I spit on it! Thou dost exist as long as Thou dost keep the ego in me. The paramahamsa is but a child. Doesn't a child need a mother?"
मणि आश्चर्यचकित होकर श्रीरामकृष्ण की यह देवदुर्लभ अवस्था देख रहे हैं । वे सोच रहे हैं – ‘श्रीरामकृष्ण अहेतुक दयासिन्धु हैं । मुझ में विश्वास उत्पन्न हो, चैतन्य जागृत हो और जीवों को शिक्षा प्राप्त हो, इसीलिए `गुरु (C-IN-C) रुपी श्रीरामकृष्ण' की यह परमहंस अवस्था है !’
[মণি অবাক্ হইয়া ঠাকুরের এই দেবদুর্লভ অবস্থা দেখিতেছেন। ভাবিতেছেন ঠাকুর অহেতুক কৃপাসিন্ধু। তাঁহারই বিশ্বাসের জন্য — তাঁহারই চৈতন্যের জন্য — আর জীবশিক্ষার জন্য গুরুরূপী ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের এই পরমহংস অবস্থা।
M. sat there speechless and looked at the divine manifestation in the Master. He said to himself: "The Master is an ocean of mercy that knows no motive. He has kept himself in the state of a paramahamsa that he might, as teacher, awaken the spiritual consciousness of myself and other earnest souls."
मणि और भी सोचते हैं – ‘श्रीरामकृष्ण कहते हैं, अद्वैत – चैतन्य – नित्यानन्द । अद्वैतज्ञान होने पर चैतन्य प्राप्त होता है, तभी नित्यानन्द का लाभ होता है । श्रीरामकृष्ण की केवल अद्वैतज्ञान की नहीं – नित्यानन्द की अवस्था है । जगदम्बा के प्रेम में सदा विभोर हैं – मतवाले से !’
[মণি আরও ভাবিতেছেন — “ঠাকুর বলেন, অদ্বৈত — চৈতন্য — নিত্যানন্দ। অদ্বৈতজ্ঞান হলে চৈতন্য হয়, — তবেই নিত্যনন্দ হয়। ঠাকুরের শুধু অদ্বৈতজ্ঞান নয়, — নিত্যানন্দের অবস্থা। জগন্মাতার প্রেমানন্দে সর্বদাই বিভোর, — মাতোয়ারা!”
M. further thought: "The Master says, 'Advaita — Chaitanya — Nityananda'; that is to say, through the knowledge of the Non-dual Brahman one attains Consciousness and enjoys Eternal Bliss. The Master has not only attained the knowledge of non-duality but is in a state of Eternal Bliss. He is always drunk with ecstatic love for the Mother of the Universe."]
[(23 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-68 ]
🔆🙏ईश्वरकोटि-अवतार के अलावा दूसरा कोई निर्विकल्प समाधि से लौट नहीं सकता 🔆🙏
[ঈশ্বরকোটি না হলে নির্বিকল্পসমাধি হতে নেমে আসতে পারে না।]
(No one but an Incarnation can come down
to the phenomenal plane from the state of nirvikalpa samadhi.)
हाजरा श्रीरामकृष्ण की यह अवस्था देख हाथ जोड़कर कहने लगे – “धन्य है ! धन्य है !”
[হাজরা ঠাকুরের এই অবস্থা হঠাৎ দেখিয়া হাতজোড় করিয়া মাঝে মাঝে বলিতে লাগিলেন — “ধন্য! ধন্য!”
With folded hands Hazra looked at the Master and said every now and then: "How blessed you are! How blessed you are!"
श्रीरामकृष्ण हाजरा से कह रहे हैं – “तुम्हें विश्वास कहाँ है ? तुम तो यहाँ उसी तरह हो जैसे जटिला और कुटिला व्रज में थीं, - लीला की पुष्टि के लिए ।”
[শ্রীরামকৃষ্ণ হাজরাকে বলিতেছেন, “তোমার বিশ্বাস কই? তবে তুমি এখানে আছ যেমন জটিলে-কুটিলে — লীলা পোষ্টাই জন্য।”
MASTER (to Hazra): "But you have hardly any faith; you simply live here to add to the play, like Jatila and Kutila."]
तीसरा प्रहर हुआ । मणि अकेले देवालय के निकट निर्जन में टहल रहे हैं और श्रीरामकृष्ण की इस अद्भुत अवस्था के बारे में सोच रहे हैं । सोच रहे हैं – श्रीरामकृष्ण ने ऐसा क्यों कहा कि क्षोभ (grief-विषाद ) और वासना (desire-लालसा) के जाने से ही यह अवस्था (परमहंस अवस्था) होती है ? ये गुरु-रुपी श्रीरामकृष्ण कौन हैं ? क्या भगवान् स्वयं ही हमारे लिए देहधारण कर आए हैं ? श्रीरामकृष्ण तो कहते हैं कि ईश्वरकोटि-अवतार आदि के अलावा दूसरा कोई जड़समाधि, निर्विकल्प समाधि से लौट नहीं आ सकता।’
[বৈকাল হইয়াছে। মণি একাকী দেবালয়ে নির্জনে বেড়াইতেছেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের এই অদ্ভুত অবস্থা ভাবিতেছেন। আর ভাবিতেছেন, ঠাকুর কেন বলিলেন, “ক্ষোভ বাসনা গেলেই এই অবস্থা।” এই গুরুরূপী ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ কে? স্বয়ং ভগবান কি আমাদের জন্য দেহধারণ করে এসেছেন? ঠাকুর বলেন, ঈশ্বরকোটি — অবতারাদি — না হলে জড়সমাধি (নির্বিকল্পসমাধি) হতে নেমে আসতে পারে না।
In the afternoon M. paced the temple garden alone. He was deeply absorbed in the thought of the Master and was pondering the Master's words concerning the attainment of the exalted state of the paramahamsa, after the elimination of grief and desire. M. said to himself: "Who is this Sri Ramakrishna, acting as my teacher? Has God embodied Himself for our welfare? The Master himself says that no one but an Incarnation can come down to the phenomenal plane from the state of nirvikalpa samadhi."
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