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गुरुवार, 20 मई 2021

$$$$$$$ परिच्छेद ~ 49, [(19 अगस्त, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]*All Good, All Beauty, and All Truth* Divine Presence in the image*Compassion and Attachment*Influence of tendencies inherited from past births *ज्ञानयोग और भक्तियोग का समन्वय* *ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं*ज्ञानी और भक्त में अन्तर* भक्त के लिए उसके इष्टदेव ही – सर्वशक्तिमान् षडैश्वर्यपूर्ण भगवान् हैं *काबुल के भक्त याकूब खां का सुख-दुःख**प्रारब्ध कर्म भोग कर ही क्षय होता है* (One must reap the result of the prarabdha karma.) 'Kavi Kankan's Chandi ' *सुख-दुःख देह के धर्म हैं । *भक्त के चेहरे पर हर परिस्थिति में ज्ञान-भक्ति का तेज चमकता है* " सत्यं शिव सुन्दर रूप भाति हृदि मन्दिरे,)*नारद,शुकदेव आदि नेता दूसरों के दुःख से कातर होकर उपदेश देते हैं *चिदानन्द तो है ही, - केवल आवरण और विक्षेप है*veiling and projecting power of maya*नदी जितनी ही समुद्र के समीप होती है उतना ही उसमें ज्वार-भाटा होता है *भक्त की गंगा एक गति से नहीं बहती * (ठाकुर के सभी पार्षद नित्यसिद्ध और ईश्वरकोटि के हैं) He "Narendra " is independent even of me.

 

 [(19 अगस्त, 1883)परिच्छेद ~ 49, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

[*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)**साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*]

परिच्छेद ~४९ 

दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ 

(१)

*संन्यासी (वेदान्तवादियों) का मत और गृहस्थ जीवन में  माया अथवा दया ?*

आज रविवार का दिन है । श्रावण कृष्णा प्रतिपदा, १९ अगस्त १८८३ ई. । अभी कुछ ही देर पहले देवी का भोग लगा और आरती हुई । अब मन्दिर बन्द हो गया है । श्रीरामकृष्ण देवी का प्रसाद पाने के बाद कुछ आराम कर रहे हैं । विश्राम के बाद – अभी दोपहर का समय ही है – वे अपने कमरे में तख्त पर बैठे हुए हैं । इसी समय मास्टर ने आकर उन्हें प्रणाम किया । थोड़ी देर बाद उनके साथ वेदान्त-सम्बन्धी चर्चा होने लगी ।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से)- देखो, ‘अष्टावक्र-संहिता’ में आत्मज्ञान की बातें हैं । आत्मज्ञानी कहते हैं, ‘सोऽहम् अर्थात् मैं ही वह परमात्मा हूँ । यह वेदान्तवादी संन्यासियों का मत है । गृहस्थ व्यक्तियों के लिए यह मत ठीक नहीं है । सब कुछ किया जा रहा है, फिर भी ‘मैं ही वह निष्क्रिय परमात्मा हूँ’ यह कैसे हो सकता है ? वेदान्तवादी कहते हैं कि आत्मा निर्लिप्त है । सुख-दुःख, पाप-पुण्य –ये सब आत्मा का कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते; परन्तु देहाभिमानी व्यक्तियों को कष्ट दे सकते हैं । धुआँ दीवार को मैला करता है, पर आकाश का कुछ नहीं कर सकता । कृष्णकिशोर ज्ञानियों की तरह कहा करता था कि मैं ‘ख’ अर्थात् आकाशवत् हूँ । वह परम भक्त था; उसके मुँह से यह बात भले ही शोभा दे, पर सब के मुँह में यह शोभा नहीं देती ।

“पर ‘मैं मुक्त हूँ’ यह अभिमान बड़ा अच्छा है । ‘मैं मुक्त हूँ’ कहते रहने से कहनेवाला मुक्त हो जाता है। और ‘मैं बद्ध हूँ’ कहते रहने से कहनेवाला बद्ध ही रह जाता है । जो केवल यह कहता है कि ‘मैं पापी हूँ’ वही सचमुच गिरता है । कहते यही रहना चाहिए – ‘मैंने उनका नाम लिया है, अब मेरे पाप कहाँ ? मेरा बन्धन कैसा ?’

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — দেখ, অষ্টাবক্রসংহিতায় আত্মজ্ঞানের কথা আছে। আত্মজ্ঞানীরা বলে, ‘সোঽহম্‌’ অর্থাৎ “আমিই সেই পরমাত্মা।” এ-সব বেদান্তবাদী সন্ন্যাসীর মত, সংসারীর পক্ষে এ-মত ঠিক নয়। সবই করা যাচ্ছে, অথচ “আমিই সেই নিষ্ক্রিয় পরমাত্মা” — এ কিরূপে হতে পারে? বেদান্তবাদীরা বলে, আত্মা নির্লিপ্ত। সুখ-দুঃখ, পাপ-পুণ্য — এ-সব আত্মার কোনও অপকার করতে পারে না; তবে দেহাভিমানী লোকদের কষ্ট দিতে পারে। ধোঁয়া দেওয়াল ময়লা করে, আকাশের কিছু করতে পারে না। কৃষ্ণকিশোর জ্ঞানীদের মতো বলত, আমি ‘খ’ — অর্থাৎ আকাশবৎ। তা সে পরমভক্ত; তার মুখে ওকথা বরং সাজে, কিন্তু সকলের মুখে নয়।

“কিন্তু ‘আমি মুক্ত’ এ-অভিমান খুব ভাল। ‘আমি মুক্ত’ এ-কথা বলতে বলতে সে মুক্ত হয়ে যায়। আবার ‘আমি বদ্ধ’ ‘আমি বদ্ধ’ এ-কথা বলতে বলতে সে ব্যক্তি বদ্ধই হয়ে যায়। যে কেবল বলে ‘আমি পাপী’ ‘আমি পাপী’ সেই সালাই পড়ে যায়! বরং বলতে হয়, আমি তাঁর নাম করেছি, আমার পাপ কি, বন্ধন কি!”

MASTER (to M.): "Self-Knowledge is discussed in the Ashtavakra Samhita. The non-dualists say, 'Soham', that is, 'I am the Supreme Self.' This is the view of the sannyasis of the Vedantic school. But this is not the right attitude for householders, who are conscious of doing everything themselves. That being so, how can they declare, 'I am That, the actionless Supreme Self? According to the non-dualists the Self is unattached. Good and bad, virtue and vice, and the other pairs of opposites, cannot in any way injure the Self, though they undoubtedly afflict those who have identified themselves with their bodies. Smoke soils the wall, certainly, but it cannot in any way affect akasa, space. Following the Vedantists of this class, Krishnakishore used to say, 'I am Kha', meaning akasa. Being a great devotee, he could say that with some justification; but it is not becoming for others to do so.

"But to feel that one is a free soul is very good. By constantly repeating, 'I am free, I am free', a man verily becomes free. On the other hand, by constantly repeating, 'I am bound, I am bound', he certainly becomes bound to worldliness. The fool who says only, 'I am a sinner, I am a sinner', verily drowns himself in worldliness. One should rather say: 'I have chanted the name of God. How can I be a sinner? How can I be bound?'

“देखो, मेरा चित्त बड़ा अप्रसन्न हो रहा है । हृदय* ने चिट्ठी लिखी है कि वह बहुत बीमार है । यह क्या है – माया या दया? ” 

(*हृदय श्रीरामकृष्ण के भानजे थे और 1881 ई. तक कालीमन्दिर में रहकर लगभग २३ वर्ष तक इनकी सेवा की थी । उनका जन्मस्थान हुगली जिले के अन्तर्गत सिहोड़ ग्राम में था । श्रीरामकृष्ण का जन्मस्थान कामारपुकुर, यहाँ से दो कोस दूर है । ६२ वर्ष की अवस्था में हृदय का देहावसान हुआ ।) 

[(মাস্টারের প্রতি) — দেখ, আমার মনটা বড় খারাপ হয়েছে। হৃদে১ চিঠি লিখেছে, তার বড় অসুখ। একি মায়া, না দয়া?

(To M.) "You see, I am very much depressed today. Hriday has written me that he is very ill. Why should I feel dejected about it? Is it because of maya or daya?"

मास्टर भी क्या कहें – मौन रह गये । 

[M. could not find suitable words for a reply, and remained silent.

श्रीरामकृष्ण- माया किसे कहते हैं, पता है ? माता-पिता, भाई-बहन, स्त्री-पुत्र, भानजे-भानजी, भतीजे-भतीजी आदि आत्मीयजनों के प्रति प्रेम – यही माया है । और प्राणिमात्र से प्रेम का नाम दया है । मुझे यह क्या हुई – माया या दया ! हृदय ने मेरे लिए बहुत-कुछ किया था – बड़ी सेवा की थी – अपने हाथों मेरा मैला तक साफ किया था; पर अन्त में उसने उतना ही कष्ट भी दिया था । वह इतना अधिक कष्ट देता था, कि एक बार मैं बाँध पर जाकर गंगा में डूबकर देहत्याग करने तक को तैयार हो गया था । पर फिर भी उसने मेरा बहुत-कुछ किया था । इस समय यदि उसे कुछ रुपये मिल जाते, तो मेरा चित्त स्थिर हो जाता । पर मैं किस बाबू से कहूँ ! कौन कहता फिरे ! 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — মায়া কাকে বলে জানো? বাপ-মা, ভাই-ভগ্নী, স্ত্রী-পুত্র, ভাগিনা-ভাগিনী, ভাইপো-ভাইঝি — এই সব আত্মীয়ের প্রতি ভালবাসা। দয়া মানে — সর্বভূতে ভালবাসা। আমার এটা কি হল, মায়া না দয়া? হৃদে কিন্তু আমার অনেক করেছিল — অনেক সেবা করেছিল — হাতে করে গু পরিষ্কার করত। তেমনি শেষে শাস্তিও দিয়েছিল। এত শাস্তি যে, পোস্তার উপর গিয়ে গঙ্গায় ঝাঁপ দিয়ে দেহত্যাগ করতে গিছিলাম। কিন্তু আমার অনেক করেছিল — এখন সে কিছু (টাকা) পেলে মনটা স্থির হয়। কিন্তু কোন্‌ বাবুকে আবার বলতে যাব! কে বলে বেড়ায়?

"Do you know what maya is? It is attachment to relatives — parents, brother and sister, wife and children, nephew and niece. Daya means love for all created beings. Now what is this, my feeling about Hriday? Is it maya or daya? But Hriday did so much for me: he served me whole-heartedly and nursed me when I was ill. But later he tormented me also. The torment became so unbearable that once I was about to commit suicide by jumping into the Ganges from the top of the embankment. But he did much to serve me. Now my mind will be at rest if he gets some money. But whom shall I ask for it? Who likes to speak about such things to our rich visitors?"

(२)

*संस्कार, प्रारब्ध आदि बातें माननी ही पड़ती हैं ।*

लगभग दो या तीन बजे होंगे । इसी समय भक्तवीर अधर सेन तथा बलराम आ पहुँचे और भूमिष्ठ हो प्रणाम कर बैठ गए । उन्होंने पूछा, “आपकी तबियत कैसी है?”

श्रीरामकृष्ण ने कहा,“हाँ, शरीर तो अच्छा ही है, पर मेरे मन में थोड़ी व्यथा हो रही है ।” इस अवसर पर हृदय की तकलीफ के सम्बन्ध में कोई बात ही नहीं उठायी ।

[আপনি কেমন আছেন? ঠাকুর বলিলেন, “হাঁ, শরীর ভাল আছে, তবে আমার মনে একটু কষ্ট হয়ে আছে।”হৃদয়ের পীড়া সম্বন্ধে কোন কথারই উত্থাপন করিলেন না।

 The Master said, "Yes, I am well physically, but a little troubled in mind." He did not refer to Hriday and his troubles.

बड़ा बाजार (कलकत्ते) के मल्लिक-घराने की सिंहवाहिनी देवी की चर्चा छिड़ी । 

[The conversation turned to the Goddess Simhavahini.

श्रीरामकृष्ण- मैं भी सिंहवाहिनी के दर्शन करने गया था । चासा धोबीपाड़ा के एक मल्लिक के यहाँ देवी विराजमान थीं । मकान टूटा-फूटा था, क्योंकि मालिक गरीब हो गये थे । कहीं कबूतर की विष्ठा पड़ी थी, कहीं काई जम गयी थी, और कहीं छत से सुरखी और रेत ही झर-झरकर गिर रही थी । दूसरे मल्लिक घरानेवालों के मकान में जो श्री देखी वह श्री इसमें नहीं थी ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সিংহবাহিনী আমি দেখতে গিছিলুম। চাষাধোপাপাড়ার একজন মল্লিকদের বাড়িতে ঠাকুরকে দেখলুম। পোড়ো বাড়ি, তারা গরিব হয়ে গেছে। এখানে পায়রার গু, ওখানে শেওলা, এখানে ঝুরঝুর করে বালি-সুরকি পড়ছে। অন্য মল্লিকদের বাড়ির যেমন দেখেছি, এ-বাড়ির সে শ্রী নাই। (মাস্টারের প্রতি) — আচ্ছা, এর মানে কি বল দেখি। 

MASTER: "Yes, I visited the Goddess. She is worshipped by one of the branches of the Mallick family of Calcutta. This branch of the family is now in straitened circumstances, and the house they live in is dilapidated. The walls and floor are spotted with moss and pigeon-droppings, and the cement and plaster are crumbling. But other branches of the Mallick family are well off. This branch has no signs of prosperity. 

(मास्टर से)- “अच्छा, इसका क्या अर्थ है, बतलाओ तो सही ।” 

[(মাস্টারের প্রতি) — আচ্ছা, এর মানে কি বল দেখি।

(To M.) Well, what does that signify?"

मास्टर चुप्पी साधे बैठे रहे ।

श्रीरामकृष्ण- बात यह है कि जिसके कर्म का जैसा भोग है, उसे वैसा ही भोगना पड़ता है । संस्कार, प्रारब्ध आदि बातें माननी ही पड़ती हैं ।

“उस टूटे-फूटे मकान में भी मैंने देखा कि सिंहवाहिनी का चेहरा जगमगा रहा है ! मूर्ति में देवी का आविर्भाव मानना ही पड़ता है ।

[“কি জানো। যার যা কর্মের ভোগ আছে, তা তার করতে হয়। সংস্কার, প্রারব্ধ এ-সব মানতে হয়। “আর পোড়ো বাড়িতে দেখলুম যে, সেখানেও সিংহ-বাহিনীর মুখের ভাব জ্বলজ্বল করছে। আবির্ভাব মানতে হয়।

["The thing is that everyone must reap the result of his past karma. One must admit the influence of tendencies inherited from past births and the result of the prarabdha karma. Nevertheless, in that dilapidated house I saw the face of the Goddess radiating a divine light. One must believe in the Divine Presence in the image.

 *मूर्ति में देवी का आविर्भाव मानना ही पड़ता है > विष्णुपुर में मृण्मयी का दर्शन*

“मैं एक बार विष्णुपुर गया था । वहाँ राजासाहब के अच्छे अच्छे मन्दिर आदि हैं । वहाँ मृण्मयी नाम की भगवती की एक मूर्ति है । मन्दिर के पास ही कृष्णबाँध, लालबाँध नाम के बड़े बड़े तालाब हैं । तालाब में मुझे उबटन के मसाले की गन्ध मिली ! भला ऐसा क्यों हुआ ? मुझे तो मालुम भी नहीं था कि स्त्रियाँ जब मृण्मयी देवी के दर्शन के लिए जाती हैं तो उन्हें वे वह मसाला चढ़ाती हैं ! तालाब के पास मेरी भाव-समाधि हो गयी । उस समय तक विग्रह नहीं देखा था – भावावेश में मुझे वहीँ पर मृण्मयी देवी के दर्शन हुए – कटि तक ।

*काबुल के ईश्वर-भक्त अमीर याकूब खां का प्रारब्ध *

इसी बीच में दूसरे भक्त आ जुटे और काबुल के विद्रोह  तथा लड़ाई की बातें होने लगी । किसी एक ने कहा कि याकूब खाँ (कबूल के अमीर) राजसिंहासन से उतार दिये गये हैं । श्रीरामकृष्णदेव को सम्बोधन करके उन्होंने कहा कि याकूब खाँ भी ईश्वर का एक बड़ा भक्त है ।

[Talibani Revolution and civil war in Kabul (repeated in August 2021). A devotee said that Yakub Khan, the Amir of Afghanistan, had been deposed. He told the Master that the Amir was a great devotee of God.]

*प्रारब्ध कर्म भोग कर ही क्षय होता है* 

(One must reap the result of the prarabdha karma.)

श्रीरामकृष्ण- बात यह है कि सुख-दुःख देह के धर्म हैं । कविकंकण-चण्डी ^ में लिखा है कि कालूवीर को कैद की सजा हुई थी और उसकी छाती पर पत्थर रखा गया था । कालूवीर भगवती का वरपुत्र था फिर भी उसे यह दुःख भोगना पड़ा । देहधारण करने से ही सुख-दुःख का भोग करना पड़ता है ।

 [कविकंकण-चण्डी ^*16 वीं शती के कवि-कंकण मुकुंददास चक्रवर्ती ने चंडीकाव्य बनाया ' Kavi Kankan's Chandi ' (चण्डी मंगल) जो आज भी लोकप्रिय है। इसमें तत्कालीन बँगला जीवन की अच्छी झलक देख पड़ती है।)

“श्रीमन्त भी तो बड़ा भक्त था । उसकी माँ खुल्लना को भगवती कितना अधिक चाहती थीं । पर देखो, उस श्रीमन्त पर कितनी विपत्ति पड़ी ! यहाँ तक कि वह शमशान में काट डालने के लिए ले जाया गया।”

“एक लकड़हारा परम भक्त था । उसे भगवती के साक्षात् दर्शन हुए, उन्होंने उसे खूब चाहा और उस पर अत्यन्त कृपा की, परन्तु इतने पर भी उसका लकड़हारे का काम नहीं छूटा ! उसे पहले की तरह लकड़ी काटकर ही रोटी कमानी पड़ी । 

कारागार में देवकी को चतुर्भुज शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी भगवान् के दर्शन हुए, पर तो भी उनका कारावास नहीं छूटा।”

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কি জানো, সুখ-দুঃখ দেহধারণের ধর্ম। কবিকঙ্কণ চন্ডীতে আছে যে, কালুবীর জেলে গিছিল; তার বুকে পাষাণ দিয়ে রেখেছিল। — কিন্তু কালুবীর ভগবতীর বরপুত্র। দেহধারণ করলেই সুখ-দুঃখ ভোগ আছে।“শ্রীমন্ত বড় ভক্ত। আর তার মা খুল্লনাকে ভগবতী কত ভালবাসতেন। সেই শ্রীমন্তের কত বিপদ। মশানে কাটতে নিয়ে গিছিল।

“একজন কাঠুরে পরম ভক্ত, ভগবতীর দর্শন পেলে; তিনি কত ভালবাসলেন, কত কৃপা করলেন। কিন্তু তার কাঠুরের কাজ আর ঘুচল না! সেই কাঠ কেটে আবার খেতে হবে। কারাগারে চর্তুভুজ শঙ্খচক্রগদাপদ্মধারী ভগবান দেবকীর দর্শন হল। কিন্তু কারাগার ঘুচল না।”

"But you must remember that pleasure and pain are the characteristics of the embodied state. In Kavi Kankan's Chandi it is written that Kaluvir was sent to prison and a heavy stone placed on his chest. Yet Kalu was born as a result of a boon from the Divine Mother of the Universe. Thus pleasure and pain are inevitable when the soul accepts a body. Again, take the case of Srimanta, who was a great devotee. Though his mother, Khullana, was very much devoted to the Divine Mother, there was no end to his troubles. He was almost beheaded. There is also the instance of the wood-cutter who was a great lover of the Divine Mother. She appeared before him and showed him much grace and love; but he had to continue his profession of wood-cutting and earn his livelihood by that arduous work. Again, while Devaki, Krishna's mother, was in prison, she had a vision of God Himself endowed with four hands, holding mace, discus, conch-shell, and lotus. But with all that she couldn't get out of prison."]

मास्टर- केवल कारावास ही क्यों ? शरीर ही तो सारे अनर्थ का मूल है । उसी को छूट जाना चाहिए था।

[মাস্টার — শুধু কারাগার ঘোচা কেন? দেহই তো যত জঞ্জালের গোড়া। দেহটা ঘুচে যাওয়া উচিত ছিল।

M: "Why speak only of getting out of prison? This body is the source of all our troubles. Devaki should have been freed from the body."

श्रीरामकृष्ण- बात यह है कि प्रारब्ध कर्मों का भोग होता है । जब तक वह हैं, तब तक देहधारण करना ही पड़ेगा । एक काने आदमी ने गंगास्नान किया । उसके सारे पाप तो छूट गए, पर कानापन दूर नहीं हुआ ! (सभी हँसे ।) उसे अपना पूर्वजन्म का फल भोगना था, वही वह भोगता रहा ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কি জানো, প্রারব্ধ কর্মের ভোগ। যে কদিন ভোগ আছে, দেহ ধারণ করতে হয়। একজন কানা গঙ্গাস্নান করলে। পাপ সব ঘুচে গেল। কিন্তু কানাচোখ আর ঘুচল না। (সকলের হাস্য) পূর্বজন্মের কর্ম ছিল তাই ভোগ।

"The truth is that one must reap the result of the prarabdha karma. The body remains as long as the results of past actions do not completely wear away. Once a blind man bathed in the Ganges and as a result was freed from his sins. But his blindness remained all the same. (All laugh.) It was because of his evil deeds in his past birth that he had to undergo that affliction."

मास्टर - जो बाण एक बार छोड़ा जा चुका उस पर फिर किसी तरह का वश नहीं रहता। 

[মণি — যে বাণটা ছোড়া গেল, তার উপর কোনও আয়ত্ত থাকে না।

M: "Yes, sir. The arrow that has already left the bow is beyond our control."

 * पाण्डवों के चेहरे पर ज्ञान-भक्ति का तेज हर परिस्थिति में चमकता था *  

(the opulence of knowledge and devotion shines on the face of the devotee.)

श्रीरामकृष्ण- देह का सुख-दुःख चाहे जो कुछ हो, पर भक्त को ज्ञान-भक्ति का ऐश्वर्य रहता है । वह ऐश्वर्य कभी नष्ट नहीं होता । देखो, पाण्डवों पर कितनी विपत्ति पड़ी, पर इतने पर भी उनका चैतन्य एक बार भी नष्ट नहीं हुआ । उनकी तरह ज्ञानी, उनकी तरह भक्त कहाँ मिल सकते हैं ?

[ শ্রীরামকৃষ্ণ — দেহের সুখ-দুঃখ যাই হোক, ভক্তের জ্ঞান, ভক্তির ঐশ্বর্য থাকে, সে ঐশ্বর্য কখনও যাবার নয়। দেখ না, পাণ্ডবের অত বিপদ! কিন্তু এ-বিপদে তারা চৈতন্য একবারও হারায় নাই। তাদের মতো জ্ঞানী, তাদের মতো ভক্ত কোথায়?

"However much a bhakta may experience physical joy and sorrow, he always has knowledge and the treasure of divine love. This treasure never leaves him. Take the Pandava brothers for instance. Though they suffered so many calamities, they did not lose their God-Consciousness even once. Where can you find men like them, endowed with so much knowledge and devotion?"

(३)

नरेन्द्र और कर्नल विश्वनाथ उपाध्याय (कप्तान) का आगमन]

[ मैं कौन होता हूँ कृपा करने वाला? सच्चिदानंद ही गुरु हैं, वे हम सब पर कृपा करते हैं।  नेता (नमक का पुतला) आनन्दमयी के रूपसागर में डूब जाने के बाद दूसरों के दुःख से कातर होकर नीचे उतर आते हैं। भगवान विष्णु के सहस्त्रनाम मे एक नाम है नेता। तो जो मानवजाति का मार्गदर्शक नेता होता है, नारदजी,  शुकदेव, या नवनी दा जैसे नेता, वे आनन्दमयी के रूप सागर मे डूब जाने के बाद , समाधि मे डूब जाने के बाद, चाहरदीवारी के उसपार नहीं कूदते  दूसरों के दुःख से कातर होकर,मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा देने के लिए नीचे उतर आते हैं। पर उनमे गुरुगिरी' का' अहं' नहीं होता।] 

ठीक इसी समय नरेन्द्र और विश्वनाथ उपाध्याय आये । विश्वनाथ नेपाल राजा के वकील थे – राज-प्रतिनिधि थे। श्रीरामकृष्ण इन्हें कप्तान कहा करते थे । नरेन्द्र की आयु लगभग इक्कीस वर्ष की है – इस समय वे बी. ए. में पढ़ते हैं । बीच बीच में, विशेषतः रविवार को दर्शन के लिए आ जाते हैं ।

जब वे प्रणाम करके बैठ गए तो श्रीरामकृष्णदेव ने नरेन्द्र से गाना गाने के लिए कहा । कमरे के पश्चिम ओर एक तम्बूरा लटका हुआ था । यन्त्रों का सुर मिलाया जाने लगा । सब लोग एकाग्र होकर गवैये की ओर देखने लगे कि कब गाना आरम्भ होता है ।

[তাঁহারা প্রণাম করিয়া উপবিষ্ট হইলে, পরমহংসদেব নরেন্দ্রকে গান গাহিতে অনুরোধ করিলেন। ঘরের পশ্চিম ধারে তানপুরাটি ঝুলানো ছিল। সকলে একদৃষ্টে গায়কের দিকে চাহিয়া রহিলেন। বাঁয়া ও তবলার সুর বাঁধা হইতে লাগিল — কখন গান হয়।

Just then Narendra and Colonel Viswanath Upadhyaya entered the room. Narendra was then twenty-two years old and studying in college. They saluted the Master and sat down. The Master requested Narendra to sing. The tanpura hung on the west wall of the room. The devotees fixed their eyes on Narendra as he began to tune the drums.

श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र से) - देख, यह अब वैसा नहीं बजता ।

कप्तान- यह पूर्ण होकर बैठा है, इसी से इसमें शब्द नहीं होता ! (सब हँसे ।) पूर्णकुम्भ है !

{কাপ্তেন — পূর্ণ হয়ে বসে আছে, তাই শব্দ নাই। (সকলের হাস্য) পূর্ণকুম্ভ।

 "They are now full. Therefore they are quiet, like a vessel filled with water. Or they are like a holy man, who remains silent when his heart is full of God-Consciousness."

श्रीरामकृष्ण (कप्तान से) - पर नारदादि (Leader) कैसे बोले ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — (কাপ্তেনের প্রতি) — কিন্তু নারদাদি? "But what about sages like Narada?"

अर्थात नारद-शुकदेव रूपी पूर्ण -कुम्भ (मछली जो सच्चिदानन्द सागर में ही खेलती है) ,उन्होंने ध्रुव-प्रह्लाद , बाल्मीकि आदि को उपदेश कैसे दिया ?

कप्तान- उन्होंने दूसरों के दुःख से कातर होकर उपदेश दिए थे ।

{কাপ্তেন — তাঁরা পরের দুঃখে কথা কয়েছিলেন। 

"They talked because they were moved by the sufferings of others."

श्रीरामकृष्ण- हाँ, नारद, शुकदेव आदि समाधि के बाद नीचे उतर आए थे । दया के कारण, दूसरों के हित की दृष्टि से उन्होंने उपदेश दिए थे ।

{ শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, নারদ, শুকদেব — এঁরা সমাধির পর নেমে এসেছিলেন, — দয়ার জন্য, পরের হিতের জন্য, তাঁরা কথা কয়েছিলেন।

"You are right. After attaining samadhi, Narada, Sukadeva, and others came down a few steps, as it were, to the plane of normal consciousness and broke their silence out of compassion for the sufferings of others and to help them."

नरेन्द्र ने गाना शुरू किया - (He who is all Good, all Beauty, and all Truth,)

(शे दिन कबे होबे)।

" सत्यं शिव सुन्दर रूप भाति हृदि मन्दिरे।

 निरखि निरखि अनुदिन मोरा डुबिबो रूपसागरे । 

(शे दिन कोबे होबे) (दीन- जनेर भाग्य नाथ)

ज्ञान- अनन्तरुपे पोशिबे नाथ मम हृदे,

अवाक् होईये अधीर मन शरण लोईबे श्रीपदे। 

आनंद अमृतरुपे उदिबे हृदय -आकाशे,

चंद्र उदिले चकोर जेमोन क्रिड़ये मन हरषे ,

आमरा-ओ नाथ, तेमनि कोरे मातिबो तव प्रकाशे।।

            शान्तं शिव अद्वितिय राज राज चरणे,

बिकाईबो ओहे प्राणसखा, आफल कोरिबो जीवने।

एमोन अधिकार, कोथा पाबो तार, स्वर्गभोग जीवने (सशरीरे)।। 

शुद्धं पापविद्धं रुप हेरिया नाथ तोमार,

आलोक देखिले आँधार जेमोन जाय, पलाइये सत्वर,

तेमनि नाथ तोमार प्रकाश, पलाइबे पाप-आँधार। 

ओहे  ध्रुवतारा-सम हृदे ज्वलन्त विश्वास हे,

ज्वालि दिये दीनबन्धु  पुराओ मनेर आश,

आमि निशीदिन प्रेमानन्दे मगन होईये हे। 

आपनारे भूले जाबो तोमारे पाईये हे।।

(शे दिन कोबे होबे)

 সত্যং শিব সুন্দর রূপ ভাতি হৃদিমন্দিরে।

        (সেদিন কবে বা হবে)।

নিরখি নিরখি অনুদিন মোরা ডুবিব রূপসাগরে ৷৷

জ্ঞান-অনন্তরূপে পশিবে নাথ মম হৃদে,

অবাক্‌ হইয়ে অধীর মন শরণ লইবে শ্রীপদে।

আনন্দ অমৃতরূপে উদিবে হৃদয়-আকাশে,

চন্দ্র উদিলে চকোর যেমন ক্রীড়য়ে মন হরষে,

আমরাও নাথ তেমনি করে মাতিব তব প্রকাশে ৷৷

শান্তং শিব অদ্বিতীয় রাজ-রাজ চরণে,

বিকাইব ওহে প্রাণসখা আফল করিব জীবনে।

এমন অধিকার, কোথা পাব তার, স্বর্গভোগ জীবনে (সশরীরে) ৷৷

শুদ্ধমপাপবিদ্ধং রূপ হেরিয়া নাথ তোমার,

আলোক দেখিলে আঁধার যেমন যায় পলাইয়ে সত্বর,

তেমনি নাথ তোমার প্রকাশ পলাইবে পাপ-আঁধার।

ওহে ধ্রুবতারাসম হৃদে জ্বলন্ত বিশ্বাস হে,

জ্বালি দিয়ে দিনবন্ধু পুরাও মনের আশ,

আমি নিশিদিন প্রেমানন্দ মগন হইয়ে হে।

আপনারে ভুলে যাব তোমারে পাইয়ে হে ৷৷

          (সেদিন কবে হবে) ৷৷

गाने का आशय इस प्रकार था – “सत्य-शिव-सुन्दर का रूप हृदय-मन्दिर में चमक रहा है । उसे देख-देखकर हम उस रूप के समुद्र में डूब जायेंगे । वह धन्य दिन कब उदित होगा ? हे नाथ, जब अनन्त ज्ञान के रूप में तुम हमारे हृदय में प्रवेश करोगे, तब हमारे अस्थिर मन निर्वाक् होकर तुम्हारे चरणों में शरण लेगा आनन्द और अमृतत्व के रूप में जब (सच्चिदानन्द) हमारे हृदयाकाश में उदित होंगे, तब चन्द्रोदय (सच्चिदानन्द सागर) में जैसे चकोर (कुम्भ -मछली)  उमंग से खेलता फिरता है, वैसे हम भी, नाथ, तुम्हारे प्रकाशित होने पर आनन्द मनाएँगे । इत्यादि ।

{Oh, when will dawn for me that day of blessedness, When He who is all Good, all Beauty, and all Truth, Will light the inmost shrine of my heart? When shall I sink at last, ever beholding Him, Into that Ocean of Delight? . . .

‘आनन्द और अमृतत्व के रूप में’ ये शब्द सुनते ही श्रीरामकृष्ण गम्भीर समाधि में मग्न हो गए । आप हाथ बाँधे पूर्व की ओर मुँह किए बैठे हैं । देह सरल और निश्चल है । आनन्दमयी के रूपसमुद्र (the Ocean of God's Beauty ~ Existence-consciousness-Bliss) में आप डूब गए हैं । बाह्यज्ञान बिलकुल नहीं है । साँस अत्यन्त मन्द चल रही है । नेत्र पलकहीन हैं । आप चित्रवत् बैठे हैं । मानो इस राज्य को छोड़ कहीं और चले गये हैं । 

[“আনন্দ অমৃতরূপে” এই কথা বলিতে না বলিতে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ গভীর সমাধিতে নিমগ্ন হইলেন! আসীন হইয়া করজোড়ে বসিয়া আছেন। পূর্বাস্য। দেহ উন্নত। আনন্দময়ীর রূপসাগরে (the Ocean of God's Beauty.) নিমগ্ন হইয়াছেন! লোকবাহ্য একেবারেই নাই। শ্বাস বহিছে কি না বহিছে! স্পন্দনহীন! নিমেষশূন্য। চিত্রার্পিতের ন্যায় বসিয়া আছেন। যেন এ-রাজ্য ছাড়িয়া কোথায় গিয়াছেন।

No sooner had the Master heard a few words of the song than he went into deep samadhi. He sat with folded hands, facing the east. His body was erect and his mind completely bereft of worldly consciousness. His breath had almost stopped. With unwinking eyes he sat motionless as a picture on a canvas. His mind had dived deep into the Ocean of God's Beauty.]

(४)

*सच्चिदानन्द-लाभ का उपाय । ज्ञानी और भक्त में अन्तर* 

समाधि टूटी । इसी बीच में नरेन्द्र उन्हें समाधिस्थ देखकर कमरे से बाहर पूर्ववाले बरामदे में चले गए हैं। वहाँ हाजरा महाशय एक कम्बल के आसन पर हरिनाम की माला हाथ में लिए बैठे हैं । नरेन्द्र उनसे बातें कर रहे हैं । इधर कमरा दर्शकों से भरा है । समाधि-भंग के बाद श्रीरामकृष्ण ने भक्तों की ओर दृष्टि डाली तो देखा कि नरेन्द्र वहाँ नहीं हैं । तानपूरा सूना पड़ा है । सब भक्त उनकी ओर उत्सुक होकर देख रहे हैं ।

[সমাধি ভঙ্গ হইল। ইতিপূর্বে নরেন্দ্র শ্রীরামকৃষ্ণের সমাধি দৃষ্টে কক্ষ ত্যাগ করিয়া পূর্বদিকের বারান্দায় চলিয়া গিয়াছেন। সেখানে হাজরা মহাশয় কম্বলাসনে হরিনামের মালা হাতে করিয়া বসিয়া আছেন। তাঁহার সঙ্গে নরেন্দ্র আলাপ করিতেছেন। এদিকে ঘরে একঘর লোক। শ্রীরামকৃষ্ণ সমাধিভঙ্গের পর ভক্তদের মধ্যে দৃষ্টিপাত করিলেন। দেখেন যে, নরেন্দ্র নাই। শূন্য তানপুরা পড়িয়া রহিয়াছে। আর ভক্তগণ সকলে তাঁর দিকে ঔৎসুক্যের সহিত চাহিয়া রহিয়াছেন।

Narendra left the room and went to the east verandah, where Hazra was seated on a blanket, with a rosary in his hand. They fell to talking. Other devotees arrived. The Master came down from samadhi and looked around. He could not find Narendra. The tanpura was lying on the floor. He noticed that the earnest eyes of the devotees were riveted on him.

श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र की ओर इशारा)  - आग लगा गया है, अब चाहे वह इस कमरे में रहे या कमरे के बाहर कहीं और ! ! 

(कप्तान आदि से) “चिदानन्द का आरोप करो तो तुम्हें भी आनन्द मिलेगा । चिदानन्द तो है ही, - केवल आवरण और विक्षेप है ।* इन्द्रिय विषयों पर आसक्ति जितनी घटेगी, उतनी ही ईश्वर पर रुचि बढ़ेगी ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আগুন জ্বেলে গেছে, এখন থাকল আর গেল! (কাপ্তেন প্রভৃতির প্রতি) — চিদানন্দ আরোপ কর, তোমাদেরও আনন্দ হবে। চিদানন্দ আছেই; — কেবল আবরণ ও বিক্ষেপ; বিষয়াসক্তি যত কমবে, ইশ্বরের প্রতি মতি তত বাড়বে।

(referring to Narendra): "He has lighted the fire. Now it doesn't matter whether he stays in the room or goes out.(To Captain and the other devotees)"Attribute to yourselves the bliss of God-Consciousness; then you too will experience ineffable joy. The bliss of God-Consciousness always exists in you. It is only hidden by the veiling and projecting power of maya.1 The less you are attached to the world, the more you love God."

(*अर्थात् माया से तुम्हारा स्वरूप (आत्मा) ढक गया है और उसकी (रज्जु की ) जगह दूसरी चीज (सर्प) का आभास हो रहा है। माया की आवरण शक्ति सत्य को छुपा देती है; तथा माया की विक्षेप शक्ति ब्रह्माण्ड के विविध  नामों -रूपों का निर्माण करती है। )

{^The veiling power of maya hides the Reality; the projecting power of maya creates the names and forms of the manifold universe.

कप्तान- कलकत्ते के घर की ओर जितना ही बढ़ोगे, वाराणसी से उतनी ही दूर होते जाओगे ।

[কাপ্তেন — কলিকাতার বাড়ির দিকে যত আসবে, কাশী থেকে তত তফাত হবে। কাশীর দিকে যত যাবে, বাড়ি থেকে তত তফাত হবে।

CAPTAIN: "The farther you proceed toward your home in Calcutta, the farther you leave Benares behind. Again, the farther you proceed toward Benares, the farther behind you leave your home."

श्रीरामकृष्ण- श्रीमती (राधिका) कृष्ण की ओर जितना बढ़ती थीं उतनी ही कृष्ण की देहगन्ध उन्हें मिलती जाती थी । मनुष्य जितना ही ईश्वर के पास जाता है उतनी ही उसकी उन पर भाव-भक्ति होती जाती है। नदी जितनी ही समुद्र के समीप होती है उतना ही उसमें ज्वार-भाटा होता है ।

শ্রীরামকৃষ্ণ — শ্রীমতী যত কৃষ্ণের দিকে এগুচ্ছেন, ততই কৃষ্ণের দেহগন্ধ পাচ্ছিলেন। ইশ্বরের নিকট যত যাওয়া যায়, ততই তাতে ভাবভক্তি হয়। সাগরের নিকট নদী যতই যায়, ততই জোয়ার-ভাটা দেখা যায়।

"As Radha advanced toward Krishna, she could smell more and more of the sweet fragrance of His body. The nearer you approach to God, the more you feel His love. As the river approaches the ocean it increasingly feels the flow of the tides.

ज्ञानी के भीतर मानो गंगा एक-सी बहती रहती है । उसके लिए सभी स्वप्नवत् है । वह सदा स्व-स्वरूप में स्थित रहता है । पर भक्त की गंगा एक गति से नहीं बहती । भक्त कभी हँसता, कभी रोता है; कभी नाचता और कभी गाता है । भक्त ईश्वर के साथ विलास करना चाहता है – वह कभी तैरता है, कभी डूबता है और कभी फिर ऊपर आता है – जैसे बर्फ का टुकड़ा पानी में कभी ऊपर और कभी नीचे आता-जाता रहता है ! (हँसी)

[“জ্ঞানীর ভিতর একটানা গঙ্গা বহিতে থাকে। তার পক্ষে সব স্বপ্নবৎ। সে সর্বদা স্ব-স্বরূপে থাকে। ভক্তের ভিতর একটানা নয়, জোয়ার-ভাটা হয়। হাসে-কাঁদে, নাচে গায়। ভক্ত তাঁর সঙ্গে বিলাস করতে ভালবাসে — কখন সাঁতার দেয়, কখন ডুবে, কখন উঠে — যেমন জলের ভিতর বরফ ‘টাপুর-টুপুর’ ‘টাপুর-টুপুর’ করে।” (হাস্য)

"The jnani experiences God-Consciousness within himself; it is like the upper Ganges, flowing in only one direction. To him the whole universe is illusory, like a dream; he is always established in the Reality of Self. But with the lover of God the case is different. His feeling does not flow in only one direction. He feels both the ebb-tide and the flood-tide of divine emotion. He laughs and weeps and dances and sings in the ecstasy of God. The lover of God likes to sport with Him. In the Ocean of God-Consciousness he sometimes swims, sometimes goes down, and sometimes rises to the surface — like pieces of ice in the water. (Laughter.)

*ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं*

[সে তো তুমিই গো তারা!’O my Divine Mother, Thou art all these!' ‘तारा, वह तो तुम्हीं हो ।]

“ज्ञानी ब्रह्म को जानना चाहता है । भक्त के लिए उसके इष्टदेव ही – सर्वशक्तिमान् षडैश्वर्यपूर्ण भगवान् हैं । परन्तु वास्तव में ब्रह्म  (श्री ठाकुदेव )और शक्ति (माँ काली )अभिन्न हैं । जो सच्चिदानन्दमय हैं वे ही सच्चिदानन्दमयी हैं । जैसे मणि और उसकी ज्योति । मणि की ज्योति कहने से ही मणि का बोध होता है और मणि कहने से ही उसकी ज्योति का । बिना मणि को सोचे उसकी ज्योति की धारणा नहीं हो सकती, वैसे ही बिना मणि की ज्योति को सोचे मणि को भी सोचा नहीं जा सकता ।

{“জ্ঞানী ব্রহ্মকে জানতে চায়। ভক্তের ভগবান, — ষড়ৈশ্বর্যপূর্ণ সর্বশক্তিমান ভগবান। কিন্তু বস্তুতঃ ব্রহ্ম আর শক্তি অভেদ — যিনি সচ্চিদানন্দ, তিনিই সচ্চিদানন্দময়ী। যেমন মণির জ্যোতিঃ ও মণি; মণির জ্যোতিঃ বললেই মণি বুঝায়, মণি বললেই জ্যোতিঃ বুঝায়। মণি না ভাবলে মণির জ্যোতিঃ ভাবতে পারা যায় না — মণির জ্যোতিঃ না ভাবলে মণি ভাবতে পারা যায় না।

"The jnani seeks to realize Brahman. But the ideal of the bhakta is the Personal God — a God endowed with omnipotence and with the six treasures. Yet Brahman and Sakti are, in fact, not different. That which is the Blissful Mother is, again, Existence-Knowledge-Bliss Absolute. They are like the gem and its lustre. When one speaks of the lustre of the gem, one thinks of the gem; and again, when one speaks of the gem, one refers to its lustre. One cannot conceive of the lustre of the gem without thinking of the gem, and one cannot conceive of the gem without thinking of its lustre.

“एक ही सच्चिदानन्द का शक्ति का भेद से उपाधिभेद होता है । इसलिए उनके विविध रूप होते हैं । ‘तारा, वह तो तुम्हीं हो ।’ जहाँ कहीं कार्य (सृष्टि, स्थिति, प्रलय) हैं वहीँ शक्ति है । परन्तु जल स्थिर रहने पर भी जल है और हिलोरें, बुलबुले आदि उठने पर भी जल ही है । सच्चिदानन्द से आद्याशक्ति हैं – जो सृष्टि, स्थिति, प्रलय करती हैं जैसे कप्तान जब कोई काम नहीं करते तब भी वही हैं, जब पूजा करते हैं तब भी वही हैं, और जब वे लाटसाहब के पास जाते हैं तब भी वही हैं, केवल उपाधि का भेद है।”

[“এক সচ্চিদানন্দ শক্তিভেদে উপাধি ভেদ — তাই নানারূপ — ‘সে তো তুমিই গো তারা!’ যেখানে কার্য (সৃষ্টি, স্থিতি, প্রলয়) সেইখানেই শক্তি। কিন্তু জল স্থির থাকলেও জল, তরঙ্গ, ভুড়ভুড়ি হলেও জল। সেই সচ্চিদানন্দই আদ্যাশক্তি — যিনি সৃষ্টি-স্থিতি-প্রলয় করেন। যেমন কাপ্তেন যখন কোন কাজ করেন না তখনও যিনি, আর কাপ্তেন পূজা করছেন, তখনও তিনি; আর কাপ্তেন লাট সাহেবের কাছে যাচ্ছেন, তখনও তিনি; কেবল উপাধি বিশেষ।”

"Existence-Knowledge-Bliss Absolute is one, and one only. But It is associated with different limiting adjuncts on account of the different degrees of Its manifestation. That is why one finds various forms of God. The devotee sings, "O my Divine Mother, Thou art all these!' Wherever you see actions, like creation, preservation, and dissolution, there is the manifestation of Sakti. Water is water whether it is calm or full of waves and bubbles. The Absolute alone is the Primordial Energy, which creates, preserves, and destroys. Thus it is the same 'Captain', whether he remains inactive or performs his worship or pays a visit to the Governor General. Only we designate him by different names at different times."

कप्तान- जी हाँ ।

श्रीरामकृष्ण- मैंने यही बात केशव सेन से कही थी ।

कप्तान-केशव सेन भ्रष्टाचार, स्वेच्छाचार हैं; वे बाबू हैं, साधु नहीं । 

[কাপ্তেন — কেশব সেন ভ্রষ্টাচার, স্বেচ্ছাচার, তিনি বাবু, সাধু নন

"Keshab is not an orthodox Hindu. He adopts manners and customs according to his own whim. He is a well-to-do gentleman and not a holy man." ]

श्रीरामकृष्ण (भक्तों से)- कप्तान मुझे केशव सेन के यहाँ जाने को मना करता है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — (ভক্তদের প্রতি) — কাপ্তেন আমায় বারণ করে, কেশব সেনের ওখানে যেতে।

कप्तान- महाराज, आप तो जाएँगे ही, भला उस पर मैं क्या करूँ ?

[কাপ্তেন — মহাশয়, আপনি যাবেন, তা আর কি করব।

CAPTAIN: "But, sir, you act as you will. What can I do?"

श्रीरामकृष्ण (नाराज होकर)- तुम लाटसाहब (Governor General's house)^ *  के पास रुपये के लिए जा सकते हो, और मैं केशव सेन के पास नहीं जा सकता ? वह तो ईश्वरचिन्तन करता है, हरि का नाम लेता है । इधर तुम्हीं तो कहते हो, ‘ईश्वर ही अपनी माया से जीव और जगत् हुए हैं ।’ (तो क्या केशव में भी ईश्वर ही नहीं हैं ?)

[लाटसाहब ^ * ^According to orthodox Hindu custom, an Englishman is a mlechchha, one outside the pale of Hindu society. The touch of a mlechchha pollutes a Hindu. रूढ़िवादी हिंदू प्रथा के अनुसार, अंग्रेज को म्लेच्छ (अशुद्ध) माना जाता है, कौन चाहेगा कि अशुद्ध शरीर-मन-वचन वालों से सम्पर्क करके अपने पुण्यों का क्षय करे ?  म्लेच्छ को हिंदू समाज के दायरे से बाहर माना जाता है। म्लेच्छ का स्पर्श हिन्दू को दूषित करता है। म्लेच्छ समुदायों में जल एवं मिट्टी द्वारा शौच-क्रिया की परम्परा नहीं है । उनके  शरीर में चौबीसों घण्टे मल-मूत्र लगा रहता था , इसीलिये कट्टर पंथी हिन्दू  उन्हें म्लेच्छ कहते थे।  "मन्दिर"  शब्द की उत्पत्ति  "मन"  से सम्बद्ध है । जो शरीर भी शुद्ध नहीं रख सकते वे मन कैसे शुद्ध करेंगे ?  हिन्दुओं के धर्मशास्त्र में शरीर ही नहीं , मन की शुद्धि पर भी अत्यधिक बल है । हमें झूठ-मूठ पढ़ाया जाता है कि यूरोप में कागज़ से मल पोंछते थे । कागज़ की खोज तो कुछ ही सौ वर्ष पहले चीन में हुई, यूरोप में जब कागज पँहुचा भी तो बहुत मँहगा था । सस्ता कागज़ तो आधुनिक युग में जनसुलभ हुआ है । अतः यूरोप में मलत्याग करते ही टहल जाने की परिपाटी थी, घास से भी नहीं पोंछते थे , क्योंकि बर्फीले देशों में घास भी सुलभ नहीं होता ।]

শ্রীরামকৃষ্ণ (বিরক্তভাবে) — তুমি লাট সাহেবের কাছে যেতে পার টাকার জন্য, আর আমি কেশব সেনের কাছে যেতে পারি না? সে ঈশ্বরচিন্তা করে, হরিনাম করে। তবে না তুমি বল ‘ঈশ্বর-মায়া-জীব-জগৎ’ — যিনি ঈশ্বর, তিনিই এই সব জীবজগৎ হয়েছেন।

MASTER (sharply): "Why shouldn't I go to see Keshab? You feel at ease when you go to the Governor General's house, and for money at that. Keshab thinks of God and chants His name. Isn't it you who are always saying that God Himself has become the universe and all its living beings? Doesn't God dwell in Keshab also?"

(५)

*नरेन्द्र के साथ ~ ज्ञानयोग और भक्तियोग का समन्वय*

यह कहकर श्रीरामकृष्ण एकाएक कमरे से उत्तर-पूर्ववाले बरामदे में चले गये । कप्तान और अन्य भक्त कमरे में ही बैठे उनकी प्रतीक्षा करने लगे । मास्टर भी उनके साथ बरामदे में आये । बरमदे में नरेन्द्र हाजरा से बातें कर रहे थे । श्रीरामकृष्ण जानते थे कि हाजरा को शुष्क ज्ञान-विचार बड़ा प्यारा है; वे कहा करते हैं, ‘जगत् स्वप्नवत् है, पूजा और चढ़ावा आदि सब मन का भ्रम है, केवल अपने यथार्थ रूप की चिन्ता करना ही हमारा लक्ष्य है, और मैं ही वह परमात्मा हूँ – सोऽहम् ।’ [किन्तु मन ही मन  वित्तैषणा और लोकैषणा का पोषण करते हैं। ]

[এই বলিয়া ঠাকুর হঠাৎ ঘর হইতে উত্তর-পূর্বের বারান্দায় চলিয়া গেলেন। কাপ্তেন ও অন্যান্য ভক্তেরা ঘরেই বসিয়া তাঁর প্রত্যাগমন প্রতীক্ষা করিতেছেন। মাস্টার তাঁহার সঙ্গে ওই বারান্দায় আসিলেন। উত্তর-পূর্বের বারান্দায় নরেন্দ্র হাজরার সহিত কথোপকথন করিতেছিলেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ জানেন, হাজরা বড় শুষ্ক জ্ঞানবিচার করেন বলেন, “জগৎ স্বপ্নবৎ — পূজা নৈবেদ্য এ-সব মনের ভুল — কেবল স্ব-স্বরূপকে চিন্তা করাই উদ্দেশ্য, আর ‘আমিই সেই’।

With these words the Master left the room abruptly and went to the north-east verandah. Captain and the other devotees remained, waiting for his return. M. accompanied the Master to the verandah, where Narendra was talking with Hazra. Sri Ramakrishna knew that Hazra always indulged in dry philosophical discussions. Hazra would say: "The world is unreal, like a dream. Worship, food offerings to the Deity, and so forth, are only hallucinations of the mind. The aim of spiritual life is to meditate on one's own real Self." Then he would repeat, "I am He." But, with all that, he had a soft corner in his heart for money, material things, and people's attention.

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - तुम लोगों की क्या बातचीत हो रही है ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — কি গো! তোমাদের কি সব কথা হচ্ছে?

Sri Ramakrishna smiled and said to Hazra and Narendra, "Hello! What are you talking about?"

नरेन्द्र (हँसते हुए)- कितनी लम्बी लम्बी बातें हो रही हैं ।

[নরেন্দ্র (সহাস্যে) — কত কি কথা হচ্ছে — ‘লম্বা’ ‘লম্বা’ কথা। 

"Oh, we are discussing a great many things. They are rather too deep for others."

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए)- किन्तु शुद्ध ज्ञान और शुद्धा भक्ति एक ही है । शुद्ध ज्ञान जहाँ ले जाता है वहीँ शुद्धा भक्ति भी ले जाती है । भक्ति का मार्ग बड़ा सरल है । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — কিন্তু শুদ্ধাজ্ঞান আর শুদ্ধাভক্তি এক। শুদ্ধাজ্ঞান যেখানে শুদ্ধাভক্তিও সেইখানে নিয়ে যায়। ভক্তিপথ বেশ সহজ পথ। 

"But Pure Knowledge and Pure Love are one and the same thing. Both lead the aspirants to the same goal. The path of love is much the easier."

नरेन्द्र ‘ज्ञानविचार का और प्रयोजन नहीं माँ, अब मुझे पागल बना दो !’ (मास्टर से) देखिये, हैमिल्टन की एक किताब में मैंने पढ़ा ‘A learned ignorance is the end of Philosophy and beginning of Religion.’

[নরেন্দ্র — “আর কাজ নাই জ্ঞানবিচারে, দে মা পাগল করে।” (মাস্টারের প্রতি) দেখুন, হ্যামিলটন্‌এ পড়লুম — লিখছেন, “A learned ignorance is the end of Philosophy and the beginning of Religion.”

Narendra quoted a song: "O Mother, make me mad with Thy love! What need have I of knowledge or reason? "Narendra said to M. that he had been reading a book by Hamilton, who wrote: "A learned ignorance is the end of philosophy and the beginning of religion."

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से)- इसका अर्थ क्या है ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — এর মানে কি গা?

MASTER (to M.): "What does that mean?"

नरेन्द्र- दर्शनशास्त्रों का पठन समाप्त होने पर मनुष्य पण्डित-मूर्ख बन बैठता है; और ‘धर्म धर्म’ करने लगता है । तब धर्म का आरम्भ होता है ।

[নরেন্দ্র — ফিলসফি (দর্শনশাস্ত্র) পড়া শেষ হলে মানুষটা পণ্ডিতমূর্খ হয়ে দাঁড়ায়, তখন ধর্ম ধর্ম করে। তখন ধর্মের আরম্ভ হয়।"A learned ignorance is the end of philosophy and the beginning of religion."- - अर्थात दर्शनशास्त्र की पोथियाँ पढ़कर व्यक्ति विद्वान् होकर भी मूर्ख ही रहता है । अतः वह धर्म की ओर उन्मुख होता है ।- हैमिल्टन] 

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए)- थैंक यू, थैंक यू (धन्यवाद, धन्यवाद) । (सब लोग हँसे ।)

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — Thank you! Thank you! (হাস্য)

(६)

*नरेन्द्र, भवनाथ ^ * ,राखाल आदि नित्यसिद्ध ; ईश्वरकोटि -जन्मजात नेता श्रेणी का युवा है !*

थोड़ी देर में सन्ध्या होते देखकर अधिकांश लोग अपने अपने घर लौटे । नरेन्द्र ने भी बिदा ली ।

दिन ढलने लगा । सन्ध्या होने ही वाली है । देवस्थान में चारों ओर बत्तियाँ जलाने का प्रबन्ध होने लगा । कालीमन्दिर और विष्णुमन्दिर के पुजारी गंगाजी में अर्धनिमग्न होकर अंतर्बाह्य शुद्धि कर रहे हैं – शीघ्र की आरती करनी होगी तथा देवताओं को रात्रिकालीन नैवेद्य चढ़ाना होगा ।

दक्षिणेश्वर ग्राम के निवासी युवकगण बगीचे में टहलने आए हुए हैं – किसी के हाथ में छड़ी है, तो कोई मित्रों के साथ घूम रहा है । वे लोग गंगा के किनारे पुश्ते पर टहल रहे हैं तथा पुष्पों की सुगन्ध से भरे निर्मल सन्ध्या-समीरण का आनन्द लेते हुए श्रावण की गंगा के तरंगमय प्रवाह को देख रहे हैं । उनमें से जो कुछ चिन्तनशील हैं वे पंचवटी की निर्जन भूमि में अकेले टहल रहे हैं । भगवान् श्रीरामकृष्ण भी पश्चिमवाले बरामदे से थोड़ी देर के लिए गंगादर्शन करने लगे । 

सन्ध्या हुई । नौकर बत्तियाँ जला गया । दासी ने श्रीरामकृष्ण के कमरे में दीप जलाकर धूनी दी । बढ़ शिवमन्दिरों में आरती होते ही विष्णु तथा काली के मन्दिर में आरती होने लगी । घण्टा, घड़ियाल आदि का मधुर गम्भीर नाद उठने लगा – मन्दिर के निकट ही बहती हुई गंगा का कलकलनिनाद तो गूँज ही रहा था ।

श्रावण की कृष्णा प्रतिपदा है । थोड़ी ही देर में चाँद निकला । प्रांगण तथा उद्यान के वृक्ष धीरे धीरे चन्द्रकिरण से आप्लावित हो गए । ज्योत्स्ना के स्पर्श से भागीरथी का जल मानो प्रफुल्लित होकर बह रहा है ।

सन्ध्या होते ही श्रीरामकृष्ण जगन्माता को प्रणाम करके तालियाँ बजाते हुए हरिध्वनि करने लगे । कमरे में बहुत से देव-देवियों की तस्वीरें थी – जैसे ध्रुव और प्रहलाद की, राजा'राम' की, कालीमाता की, राधाकृष्ण की – आपने सभी देवताओं को उनके नाम ले लेकर प्रणाम किया । फिर कहने लगे, ‘ब्रह्म-आत्मा, भगवान्भागवत-भक्त-भगवान्, /ब्रह्म-शक्ति, शक्ति-ब्रह्म; वेद-पुराण-तन्त्र; गीता-गायत्री; मैं शरणागत हूँ, शरणागत हूँ; नाहं नाहं(मैं नहीं, मैं नहीं), तू ही; तू ही; मैं यन्त्र हूँ, तुम यंत्री हो; इत्यादि ।

[The Master returned to his room. After bowing to the Divine Mother, he clapped his hands and chanted the sweet names of God. A number of holy pictures hung on the walls of the room. Among others, there were pictures of Dhruva, Prahlada, Kali, Radha-Krishna, and the coronation of Rama. The Master bowed low before the pictures and repeated the holy names. Then he repeated the holy words, "Brahma — Atma — Bhagavan; Bhagavata — Bhakta — Bhagavan; Brahma — Sakti, Sakti — Brahma; Veda, Purana, Tantra, Gita, Gayatri." Then he said: "I have taken refuge at Thy feet, O Divine Mother; not I, but Thou. I am the machine and Thou art the Operator", and so on.

नामोच्चारण के बाद श्रीरामकृष्ण हाथ जोड़कर जगन्माता का चिन्तन करने लगे । सन्ध्या समय दो-चार भक्त बगीचे में गंगा के किनारे टहल रहे थे । आरती के बाद वे एक-एक एक करके श्रीरामकृष्ण के कमरे में इकट्ठे होने लगे । श्रीरामकृष्ण तख्त पर बैठे हैं । मास्टर, अधर, किशोरी आदि नीचे, उनके सामने बैठे हैं । 

श्रीरामकृष्ण (भक्तों से)- नरेन्द्र, भवनाथ, राखाल ये सब नित्यसिद्ध ( eternally free) और ईश्वरकोटि (विष्णुसहस्रनाम में भगवान विष्णु का एक नाम नेता (Leader ) है, उसी श्रेणी)  के हैं । उनकी शिक्षा  केवल उनके (3H नेतृत्व गुणों के ) विकास का एक हिस्सा है। (এদের শিক্ষা কেবল বাড়ার ভাগ।Their education is only a part of growth.) तुम देखते नहीं, नरेन्द्र किसी की ‘केयर’(परवाह) नहीं करते? मेरे साथ वह कप्तान की गाड़ी पर जा रहा था । कप्तान ने उसे अच्छी जगह पर बैठने को कहा, परन्तु उसने उस तरफ देखा तक नहीं । वह मेरा ही मुँह नहीं ताकता ।

फिर जितना जानता है उतना प्रकट नहीं करता – कहीं मैं लोगों से कहता न फिरूँ कि नरेन्द्र इतना विद्वान है । उसके माया-मोह नहीं है – मानो कोई बन्धन ही नहीं है । बड़ा अच्छा आधार है । एक ही आधार में बहुत से गुण रखता है – गाने-बजाने, लिखने-पढ़ने सब में बहुत प्रवीण है । इधर जितेन्द्रिय भी है – कहता है, विवाह नहीं करूँगा ! नरेन्द्र और भवनाथ इन दोनों में बड़ा मेल है – जैसा स्वामी-स्त्री में होता है । नरेन्द्र यहाँ ज्यादा नहीं आता । यह अच्छा है । ज्यादा आने से मैं विव्हल हो जाता हूँ ।  

শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — নরেন্দ্র, ভবনাথ, রাখাল — এরা সব নিত্যসিদ্ধ, ঈশ্বরকোটি। এদের শিক্ষা কেবল বাড়ার ভাগ। দেখ না, নরেন্দ্র কাহাকেও কেয়ার (গ্রাহ্য) করে না। আমার সঙ্গে কাপ্তেনের গাড়িতে যাচ্ছিল — কাপ্তেন ভাল জায়গায় বসতে বললে — তা চেয়েও দেখলে না। আমারই অপেক্ষা রাখে না! আবার যা জানে, তাও বলে না — পাছে আমি লোকের কাছে বলে বেড়াই যে, নরেন্দ্র এত বিদ্বান। মায়ামোহ নাই। — যেন কোন বন্ধন নাই! খুব ভাল আধার। একাধারে অনেক গুণ — গাইতে-বাজাতে, লিখতে-পড়তে! এদিকে জিতেন্দ্রিয়, — বলেছে বিয়ে করবে না। নরেন্দ্র আর ভবনাথ দুজনে ভারী মিল — যেন স্ত্রী-পুরুষ। নরেন্দ্র বেশি আসে না। সে ভাল। বেশি এলে আমি বিহ্বল হই।

While the Master was meditating in this fashion on the Divine Mother, a few devotees, coming in from the garden, gathered in his room. Sri Ramakrishna sat down on the small couch. He said to the devotees: "Narendra, Bhavanath, Rakhal, and devotees like them belong to the group of the nityasiddhas; they are eternally free. Religious practice on their part is superfluous. Look at Narendra. He doesn't care about anyone. One day he was going with me in Captain's carriage. Captain wanted him to take a good seat, but Narendra didn't even look at him. He is independent even of me. He doesn't tell me all he knows, lest I should praise his scholarship before others. He is free from ignorance and delusion. He has no bonds. He is a great soul. He has many good qualities. He is expert in music, both as a singer and player, and is also a versatile scholar. Again, he keeps his passions under control and says that he will never marry. There is a close friendship between Narendra and Bhavanath; they are just like man and woman. Narendra doesn't come here very often. That is good, for I am overwhelmed by his presence."

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Bhavanath ^ * [भवनाथ चट्टोपाध्याय (Bhavanath Chattopadhyay : 1863-1896) ] श्रीठाकुर देव के गृहस्थ भक्त भवनाथ चट्टोपाध्याय का जन्म वर्तमान समय में बरहानगर के अतुलकृष्ण बनर्जी लेन में हुआ था। उन्होंने मात्र 33 वर्ष की आयु में अपने शरीर का त्याग कर दिया था। इनके पिता का नाम रामदास और माँ का नाम इच्छामयी देवी था।  माता-पिता की इकलौती संतान भवनाथ अपनी युवावस्था से ही विभिन्न जन-कल्याणकारी कार्यों में लगे रहते थे। ब्रह्म-समाज के सदस्य होने के नाते नरेन्द्रनाथ के साथ मित्रता हो गयी थी। स्वयं एक शिक्षक थे और सबसे बढ़कर श्रीरामकृष्ण जैसे जगतगुरु का सानिध्य उनको 1881 ई० में 18 वर्ष की आयु में ही प्राप्त हो गया था। नरेन्द्रनाथ के साथ उनकी घनिष्टता और निष्ठा को देखकर ठाकुरदेव उनको 'हरिहरात्मा ' कहकर बुलाते थे। इसके अतिरिक्त ठाकुर नरेन को कभी 'पुरुष' और भवनाथ को 'प्रकृति' कहते थे।

उन्होंने दोनों मित्रों को 'नित्यसिद्ध ' और ' निराकार का घर'  (‘অরূপের ঘর’--ईश्वरकोटि) कहकर अभिलक्षित किया था। वे बहुत अच्छे गायक थे , और कई बार ठाकुर को गाना सुनाये थे। ठाकुर के शरीर त्याग के बाद, बराहनगर मठ के लिए 10 रूपये किराये पर मुंशियों का 'भूतिया मकान ' का इंतजाम किये थे। उन्होंने 'नीति- कुसुम' और 'आदर्श-नारी' नामक दो ग्रंथों की रचना की थी। आज हमलोग विष्णुमन्दिर के दालान में समाधिस्थ अवस्था में बैठे श्रीश्री रामकृष्ण देव के जिस विख्यात छवि पर ध्यान करते हैं , उस फोटो को उनके ही कहने पर बरहानगर के अविनाश दा ने दक्षिणेश्वर पहुँचकर अपने कैमरा से खींचा था ! 

उन्होंने ठाकुरदेव को भक्त बालक ध्रुव की छवि भेंट की थी जो आज दक्षिणेश्वर स्थित ठाकुर देव के कमरे की शोभा बढ़ा रही है। यद्यपि बरहानगर मठ की स्थापना के समय उन्होंने आर्थिक रूप से तो मदद नहीं की थी , लेकिन उन्होंने अन्य तरीकों से बहुत मदद की थी । ठाकुर का शरीर त्याग होने के बाद उन्होंने बी. ए. उत्तीर्ण किया था। और आगे चलकर एक स्कूल इंस्पेक्टर के रूप में नौकरी की, तथा स्थानान्तरित होकर कलकत्ते से बाहर चले गए , जिसके परिणामस्वरूप बरहानगर मठ के साथ उनके संबंध कमजोर होने लगे। श्री भवनाथ चट्टोपाध्याय  1886 ई ० में भवानीपुर के  'बिहारी डॉक्टर रोड ' स्थित मकान में रहते थे। इसी समय उनकी इकलौती पुत्री प्रतिभा का जन्म हुआ था। 1896 ई ० में कालाज्वर से पीड़ित होकर -रामकृष्णदास लेन स्थित एक किराये के घर में उन्होंने देहत्याग किया।  

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Bhavanath Chattopadhyay' (Bhavanath was a very close companion of Swami Vivekananda during the time when Sri Ramakrishna was alive.) : THE SWAMI AND THE PEOPLE HE KNEW- by Swami Chetananda. 

     As both blades of a pair of scissors are needed to cut a piece of cloth, so both self-effort and grace are needed to realize God. The grace of God is always blowing, like wind over the sea. A sailor who unfurls the boat’s sail catches the wind and reaches the destination smoothly. Sri Ramakrishna’s grace began to flow over Bhavanath Chattopadhyay’s life, but Bhavanath suddenly pulled down his sail, putting his spiritual journey in peril. His condition was like that of a man who puts his left leg in one boat and his right in another. Bhavanath ascended to a higher plane of consciousness by the grace of the Master, but mysterious Mahamaya entangled him and brought him back down to the world.

In 1876 Shashipada established the आत्मोन्नति विधायनी सभा Atmonnati Vidhayini Sabha, an association devoted to the self-improvement of its members. Bhavanath was in charge of this association’s library.M first saw Bhavanath and Narendra at Dakshineswar on 6 March 1882.

 On 5 August 1882, the Master visited Ishwar Chandra Vidyasagar, accompanied by M, Bhavanath and Hazra. On different occasions, the Master made remarks about Bhavanath that bear witness to his high spiritual state: Devotees like Rakhal, Narendra and Bhavanath may be called nityasiddha. Their spiritual consciousness has been awake since their very birth. They assume human bodies only to impart spiritual illumination to others.

     On 11 March 1883 Bhavanath attended the Master’s birthday celebration at Dakshineswar. Bhavanath and his friend Kalikrishna sang the following song:  Thrice blessed is this day of joy! May all of us unite, O Lord. 

Bhavanath replied, ‘He (कालीकृष्ण)  is going to the Baranagore Workingmen’s Institute.’   ‘It’s his bad luck,’ said the Master. ‘A stream of bliss will flow here today. He could have enjoyed it. But how unlucky!’

Bhavanath was trying to renounce everything that might be detrimental to his spiritual progress. Narendra said to the Master with a smile, referring to Bhavanath, ‘He has given up fish and betel-leaf.’ Master: ‘Why so? What is the matter with fish and betel-leaf? They aren’t harmful. The renunciation of “woman and gold” is the true renunciation.’ 

While talking about the rules for householders and monks the Master advised devotees to give up hypocrisy and be guileless. Then he remarked: ‘How guileless Bhavanath is! After his marriage ceremony he came to me and asked, “Why do I feel so much love for my wife?” This is due to the world-bewitching maya of the Divine Mother of the Universe. A man feels about his wife that he has no one else in the world so near and dear, that she is his very own in life and death, here and hereafter.’

     But a wife endowed with spiritual wisdom is a real partner in life. She greatly helps her husband to follow the religious path. After the birth of one or two children they live like brother and sister. Both of them are devotees of God - His servant and His handmaid. Their family is a spiritual family. They are always happy with God and His devotees. They know that God alone is their own, from everlasting to everlasting.’ (401-2)

साभार -http://www.vivekananda.net/PPlHeKnew/HouseholderDisciplesofRK/Bhavanath.html
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परिच्छेद ~ 48, [(18 अगस्त, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]*Leaders live in the company of devotee* जीवन का उद्देश्य*ईश्वर का दर्शन * अवतार (नेता) -तत्त्व और गुरुगिरि का अंतर *'

[(18 अगस्त, 1883)परिच्छेद ~ 48,श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

[*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)**साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*]
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परिच्छेद ~ ४८
 
*बलराम के मकान पर*

* झाँप दिले होबेई होबे! झाँप दिले होबेई होबे! * 

(विवेक-दर्शन के अभ्यास में मग्न हो जायें, तो विवेक-श्रोत उद्घाटित होकर रहेगा !  ) 

एक दिन, १८ अगस्त १८८३ ई., शनिवार को तीसरे पहर श्रीरामकृष्ण बलराम के घर आए हैं । आप अवतार (नेता) -तत्त्व समझा रहे हैं ।

[আর-একদিন ১৮ই অগস্ট, ১৮৮৩ (২রা ভাদ্র, শনিবার), বৈকালে বলরামের বাড়ি আসিয়াছেন। ঠাকুর অবতারতত্ত্ব বুঝাইতেছেন।
Sri Ramakrishna was at Balaram Bose's house in Calcutta. He was explaining the mystery of Divine Incarnation to the devotees.]
श्रीरामकृष्ण (भक्तों के प्रति)- अवतार लोकशिक्षा के लिए भक्ति और भक्त लेकर रहते हैं । मानो छत पर चढ़कर सीढ़ी से आते-जाते रहना । जब तक ज्ञान नहीं होता, जब तक सभी वासनाएँ नष्ट नहीं होतीं, तब तक दूसरे लोग छत पर चढ़ने के लिए भक्तिपथ पर रहेंगे । सब वासनाएँ मिट जाने पर ही छत पर पहुँचा जा जाता है । दुकानदार का हिसाब जब तक नहीं मिलता, तब तक वह नहीं सोता । खाते का हिसाब ठीक करके ही सोता है !
{শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — অবতার লোকশিক্ষার জন্য ভক্তি-ভক্ত নিয়ে থাকে। যেমন ছাদে উঠে সিঁড়িতে আনাগোনা করা। অন্য মানুষ ছাদে উঠবার জন্য ভক্তিপথে থাকবে; যতক্ষণ না জ্ঞানলাভ হয়, যতক্ষণ না সব বাসনা যায়। সব বাসনা গেলেই ছাদে উঠা যায়। দোকানদার যতক্ষণ না হিসাব মেটে ততক্ষণ ঘুমায় না। খাতায় হিসাব ঠিক করে তবে ঘুমায়!
MASTER: "In order to bring people spiritual knowledge, an Incarnation of God lives in the world in the company of devotees, cherishing an attitude of love for God. It is like going up and coming down the stairs after having once reached the roof. In order to reach the roof, other people should follow the path of devotion, as long as they have not attained Knowledge and become free of desire. The roof can be reached only when all desires are done away with. The shopkeeper does not go to bed before finishing his accounts. He goes to sleep only when his accounts are finished.

 (मास्टर के प्रति) “मनुष्य यदि डुबकी लगाए  तो अवश्य सफल होगा । डुबकी लगाने पर सफलता निश्चित है ।
[(মাস্টারের প্রতি) — ঝাঁপ দিলে হবেই হবে! ঝাঁপ দিলে হবেই হবে।
(To M.) "A man will certainly succeed if he will take the plunge. Success is sure for such a man. 
“अच्छा, केशव सेन, शिवनाथ, - ये लोग जो उपासना करते हैं, वह तुम्हें कैसी लगती है ?”

[“আচ্ছা, কেশব সেন, শিবনাথ এরা যে উপাসনা করে, তোমার কিরূপ বোধ হয়?”
"Well, what do you think of the worship conducted by Keshab, Shivanath, and the other Brahmo leaders?"
 
मास्टर- जी, जैसा आप कहते हैं, - वे (गुरुगिरि करने वाले नेता ) बगीचे का ही वर्णन करते हैं, परन्तु बगीचे के मालिक के दर्शन करने की बात बहुत कम कहते हैं । प्रायः बगीचे के वर्णन से ही प्रारम्भ और उसी में समाप्ति हो जाती है।
[মাস্টার — আজ্ঞা, আপনি যেমন বলেন, তাঁরা বাগান বর্ণনাই করেন, কিন্তু বাগানের মালিককে দর্শন করার কথা খুব কমই বলেন। প্রায় বাগান বর্ণনায় আরম্ভ আর উহাতেই শেষ।
M: "They are satisfied, as you say, with describing the garden, but they seldom speak of seeing the Master of the garden. Describing the garden is the beginning and end of their worship."

श्रीरामकृष्ण- ठीक । बगीचे के मालिक की खोज करना और उनसे बातचीत करना, यही असल काम है। ईश्वर का दर्शन ही जीवन का उद्देश्य है ।^ * 
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ঠিক! বাগানের মালিককে খোঁজা আর তাঁর সঙ্গে আলাপ করা এইটেই কাজ। ঈশ্বরদর্শনই জীবনের উদ্দেশ্য।১
"You are right. Our only duty is to seek the Master of the garden and speak to Him. The only purpose of life is to realize God."


( जीवन का उद्देश्य ^ *-> आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः । - बृहदारण्यक उपनिषद् २/४/५ )अरे मैत्रेयि, आत्मा अमूर्त होते हुए भी इसे देखा जा सकता है, सुना जा सकता है, मन को एकाग्र करने से यह अनुभव गम्य हो सकती है तथा इसे अनुभव में लाने के लिए 'विवेकदर्शन का अभ्यास' भी किया जा सकता है । ]
बलराम के घर से अब अधर के घर पधारे हैं । सायंकाल के बाद अधर के बैठकघर में नाम-संकीर्तन और नृत्य कर रहे हैं; कीर्तनकार वैष्णवचरण गाना गा रहे हैं । अधर, मास्टर, राखाल आदि उपस्थित हैं।
[বলরামের বাড়ি হইতে এইবার অধরের বাড়ি আসিয়াছেন। সন্ধ্যার পর অধরের বৈঠকখানায় নামসংকীর্তন ও নৃত্য করিতেছেন। বৈষ্ণবচরণ কীর্তনিয়া গান গাইতেছেন। অধর, মাস্টার, রাখাল প্রভৃতি উপস্থিত আছেন।
Sri Ramakrishna then went to Adhar's house. After dusk he sang and danced in Adhar's drawing-room. M., Rakhal, and other devotees were present. After the music he sat down, still in an ecstatic mood. ]

कीर्तन के बाद श्रीरामकृष्ण भाव में विभोर होकर बैठे हैं । 
राखाल (भावी नेता)  से कह रहे हैं, “यहाँ का जल श्रावण मास का जल नहीं है । श्रावण मास का जल काफी तेजी के साथ आता है और फिर निकल जाता है । यहाँ पर पाताल से निकले हुए स्वयम्भू शिव हैं, स्थापित किए हुए शिव नहीं हैं । तू क्रोध में दक्षिणेश्वर से चला आया; मैंने माँ से कहा, ‘माँ, इसके अपराध पर ध्यान न देना ।’
क्या श्रीरामकृष्ण अवतार हैं ? स्वयम्भू शिव हैं ?

[ শ্রীরামকৃষ্ণ কি অবতার? পাতাল ফোঁড়া শিব?


{ “এখানকার শ্রাবণ মাসের জল নয়। শ্রাবণ মাসের জল খুব হুড়হুড় করে আসে আবার বেরিয়ে যায়। এখানে পাতাল ফোঁড়া শিব, বসানো শিব নয়। তুই রাগ করে দক্ষিণেশ্বর থেকে চলে এলি, আমি মাকে বললুম, মা এর অপরাধ নিসনি।
"This religious fervour (Referring to himself) is not like rain in the rainy season, which comes in torrents and goes in torrents. It is like an image of Siva that has not been set up by human hands but is a natural one that has sprung up, as it were, from the bowels of the earth. The other day you left Dakshineswar in a temper. I prayed to the Divine Mother to forgive you."
फिर भावविभोर होकर अधर से कह रहे हैं – “भैया, तुमने जो नाम लिया था, उसी का ध्यान करो ।
ऐसा कहकर अधर की जिव्हा अपनी उँगली से छूकर उस पर न जाने क्या लिख दिया । क्या यही अधर की दीक्षा हुई ? 
{” আবার অধরকে ভাবাবিষ্ট হইয়া বলিতেছেন, “বাপু! তুমি যে নাম করেছিলে তাই ধ্যান করো।”এই বলিয়া অধরের জিহ্বা অঙ্গুলি দ্বারা স্পর্শ করিলেন ও জিহ্বাতে কি লিখিয়া দিলেন। এই কি অধরের দীক্ষা হইল?
The Master was still in an abstracted mood and said to Adhar, "My son, meditate on the Deity whose name you chanted." With these words he touched Adhar's tongue with his finger and wrote something on it. Did the Master thereby impart spirituality to Adhar?

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आत्मा के मूर्त रूप स्वामी विवेकानन्द सम्बन्ध मे पहले सुनना होगा, उसके बाद मनन अर्थात् चिन्ता करनी होगी, उसके बाद लगातार 'विवेकदर्शन का अभ्यास  करना होगा। इच्छा करने पर तो मन सभी जगह जा सकता है, किन्तु इस शरीर को प्रयत्न करके चलना सीखने मे ही कितना समय बीत जाता है। हमारे सभी आदर्शों के सम्बन्ध मे भी यही बात है। आदर्श हमसे बहुत दूर है, और हम उनसे बहुत नीचे पडे हुये है, तथापि हम जानते है कि हमे एक आदर्श मान कर रखना आवश्यक है। इतना ही नही, हमे सर्वोच्च आदर्श रखना ही आवश्यक है। अधिकांश व्यक्ति इस जगत् मे कोई आदर्श लिये बिना ही जीवन के इस अन्धकारमय पथ पर भटकते फिरते है। जिसका एक निश्चित आदर्श है वह यदि एक हजार भूलों मे पड़ सकता है तो जिसका कोई भी आदर्श नहीं है वह दस हज़ार भूल करेगा यह निश्चय है। अतएव  एक युवा -आदर्श (स्वामी विवेकानन्द) को अपना मर्दर्शक नेता के रूप  में सदैव अपने सामने रखना ही अच्छा है।)
"अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।। - अर्थात् अभ्यास और वैराग्य से उन चित्तवृत्तियों का निरोध होता है। हमारे चित्त में तमोगुण की प्रबलता होने पर निद्रा, आलस्य, निरुत्साह, प्रमाद आदि मूढ़ अवस्था के दोष उत्पन्न हो जाते हैं।  रजोगुण की प्रबलता होने पर चित्त विक्षिप्त अर्थात् चञ्चल हो जाता है।  इन दोनों प्रकार की बाधक वृत्तियों के प्रशमन के लिये अभ्यास तथा वैराग्य सर्वोत्तम साधन हैं।  अभ्यास से तमोगुण की निवृत्ति और वैराग्य से रजोगुण की निवृत्ति होती है।  वैराग्य से चित्त का बहिर्मुख प्रवाह रोका जाता है, व अभ्यास से आत्मोन्मुख प्रवाह स्थिर किया जा सकता है। 
आलस्य और दीर्घसूत्रता हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं जिनके आगे हम असहाय हो जाते हैं। महिषासुर कहीं बाहर नहीं , हमारे अंतर में ही  आलस्य और दीर्घसूत्रता के रूप में अभी भी जीवित है, बाकी अन्य सारे शत्रु (राग-द्वेष रूपी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर्य) इसके पीछे पीछे चलते हैं।  यह आलस्य  रूपी महिषासुर ही हमारी मृत्यु है। अभ्यास और वैराग्य की उपेक्षा न करें, अन्यथा यह जीवन यों ही व्यर्थ में बीत जाएगा। हमारे चैतन्य (मन वस्तु- चित्त) में सदा से एक बड़ी भयंकर रस्साकशी चल रही है, और वह इस जीवन के अंत तक चलती रहेगी। 
 एक शक्ति हमें ऊपर परमात्मा की ओर खींच रही है, व दूसरी शक्ति नीचे वासनाओं की ओर।  हम बीच में असहाय हैं।  जो शक्ति नीचे की ओर खींच रही है वह बड़ी आकर्षक और सुहावनी है, पर अंततः दुःखदायी है।  जो शक्ति ऊपर खींच रही है वह लग तो रही है कष्टमय, पर परिणाम में स्थायी आनंददायक है। सूक्ष्म देह में मूलाधार चक्र से स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि व आज्ञा चक्रों से होते हुए सहस्त्रार तक एक अति-अति सूक्ष्म प्राण शक्ति प्रवाहित हो  रही है, उसके प्रति सजग रहें।  सुषुम्ना में नीचे के तीन चक्रों में यदि चेतना रहेगी तो वह अधोगामी होगी और ऊपर के तीन चक्रों में ऊर्ध्वगामी।  अपनी चेतना को सदा प्रयासपूर्वक उत्तरा-सुषुम्ना में यानि आज्ञाचक्र से ऊपर रखें।  
अपने हृदय का सर्वश्रेष्ठ और पूर्ण प्रेम -अपने इष्टदेव या युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द को दें;  निश्चित रूप से कल्याण होगा।  अपने आदर्श - स्वामी विवेकानन्द से प्रेम और उनके प्रेम-रूप (छवि) पर अनवरत, निरंतर प्रत्याहार और धारणा के अभ्यास और विषयों से वैराग्य द्वारा ही हम इन शत्रुओं पर विजय पा सकते हैं|
 गीता में भी भगवान कहते हैं ..."असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं| अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते||६:३५||"
अर्थात् हे महबाहो निसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है परन्तु हे कुन्तीपुत्र उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है। 
व्यासदेव [५००० वर्ष पहले ही मानो व्यासदेव जानते थे कि एक दिन स्वामी विवेकानन्द का एक मार्गदर्शक नेता आएगा !] कहते हैं - मनुष्य के चित्त-नदी का प्रवाह 'उभयतो वाहिनी' है, दोनों दिशाओं में होता रहता है। लेकिन मन में लालच के भाव को थोड़ा कम करते हुए 'विवेक-दर्शन' के अभ्यास द्वारा एक दिशा में (आत्मोन्मुखी या उर्ध्वमुखी) जाने से मन शान्त होता है, शक्तिशाली होता, असाध्य को भी साधने की शक्ति अर्जित करता है और मनुष्य के जीवन को कल्याण के मार्ग पर आरूढ़ करा देता है। जबकि दूसरी दिशा में (संसारोन्मुखी या निम्नोमुखी ) जाने से और अधिक चंचल हो जाता है, दुर्बल हो जाता है और निस्तेज होकर मनुष्य जीवन को नष्ट कर पशु तुल्य बना देता है। जैसे कि खाद्य-पदार्थ भी दो प्रकार के होते हैं- एक प्रकार का आहार लेने से शरीर हृष्ट-पुष्ट होता है और शक्तिशाली बन जाता है। जबकि दुसरे प्रकार का आहार स्वादिष्ट होने पर शरीर को दुर्बल और रोगी बनाता है। 
                     प्रयत्न के द्वारा (विवेक-दर्शन के अभ्यास के द्वारा) हम अपने मन के प्रवाह को कल्याण की दिशा में मोड़ सकते हैं। उसे शाश्वतसुख और नश्वरसुख, या श्रेय-प्रेय में अंतर समझाकर अच्छे रास्ते पर (ऊर्ध्वमुखी रखने) लाने से जीवन सुन्दर हो जाता है। लेकिन मन को मनमानी करने के लिये छोड़ देने से जीवन व्यर्थ हो जाता है। इसलिये 'वासना और धन ' (Lust and Lucre) के लालच या प्रलोभन से सम्मोहित न होकर 'मनः संयोग' का नियमित अभ्यास (विवेक-दर्शन का अभ्यास) करने से मन वश में हो जाता है। कहा भी गया है - 'करत- करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान। रसरी आवत जात से सिल पर परत निसान॥' मनुष्य की सारी क्षमताएँ उसके अभ्यास का ही फल है। 'विवेक-दर्शन' के अभ्यास द्वारा शान्त और नियंत्रित मन के माध्यम से जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने से ही बहुमूल्य मनुष्य-जन्म  को सार्थक बनाया जा सकता है। योगसूत्र  (1.12)  के व्यास भाष्य में इसे "उभयतो वाहिनी नदी" यानि परस्पर विपरीत दिशाओं में प्रवाहित होने वाली अद्भुत नदी कहा गया है :-  " चित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च। या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा। संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा। तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिली क्रियते। विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यत इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः। " 

"कोशिश करने वालों की हार नहीं होती "

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, 
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है, 
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।।

 मन का विश्वास रगों में साहस भरता है, 
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना नहीं अखरता है।
 आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती, 
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है, 
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
 मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में, 
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।।
 
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
 कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
 क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।। 

जब तक न सफल हो, नींद-चैन को त्यागो तुम, 
संघर्षों का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
 कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती, 
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।।
-----सोहन लाल द्विवेदी।]

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ, 
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।- कबीर 

अर्थ : 'कोशिश करने वालों की हार नहीं होती ' जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है।  लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।
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