[(22,जुलाई 1883) परिच्छेद ~ 47, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)**साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*
परिच्छेद ४७
(१)
*ज्ञानोयोग और निर्वाणमत *
[यदि संसार माया (मिथ्या) है तो गुरु भी उतना ही मायावी है]
22 जुलाई 1883 ई. आज रविवार है (पाठचक्र का दिन)
आषाढ़ की कृष्णा तृतीया तिथि है, 22 जुलाई 1883 ई. । आज रविवार है (पाठचक्र का दिन) [लेकिन श्री ठाकुरदेव के अंतरंग शिष्य मंगलवार या शनिवार के दिन आते थे , जो माँ काली मंदिर जाने का पवित्र दिन है।] भक्त लोग अवसर पाकर श्रीरामकृष्ण के दर्शन के लिए फिर आए हैं । कमरे का वातावरण पवित्रता से भरा था। कमरे की दीवारों पर देवी-देवताओं के चित्र टंगे थे, उनमें से एक डूबते हुए पीटर का उद्धार करते हुए ईसा मसीह का चित्र भी था।
अधर, राखाल और मास्टर कलकत्ते से एक गाड़ी पर दिन के एक-दो बजे दक्षिणेश्वर पहुँचे । श्रीरामकृष्ण भोजन के बाद थोड़ी देर आराम कर चुके हैं । कमरे में मणि मल्लिक आदि भक्त भी बैठे हैं।
श्री मणि मल्लिक पुराने ब्राह्मभक्त हैं । उनकी उम्र साठ-पैंसठ वर्ष की है । कुछ दिन हुए वे काशीजी गए थे । आज श्रीरामकृष्ण से मिलने आए हैं और उनसे काशी-दर्शन का वर्णन कर रहे हैं ।
*यदि 'जगत् मिथ्या' है तो जो शिक्षक यह उपदेश दे रहे हैं वे स्वयं भी मिथ्या हुए।*
[ If the world is illusory, then The teacher is equally illusory.]
मणि मल्लिक- एक और साधु को देखा । वे कहते हैं कि इन्द्रिय-संयम (साधन -चतुष्टय) के बिना कुछ नहीं होगा । सिर्फ ईश्वर की रट लगाने से क्या होगा ?
श्रीरामकृष्ण- इन लोगों का मत यह है कि पहले साधना चाहिए – शम, दम, तितिक्षा चाहिए । ये निर्वाण के लिए चेष्टा कर रहे हैं । ये वेदान्ती हैं, सदैव विचार करते हैं, ‘ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या’ बड़ा कठिन मार्ग है । यदि जगत् मिथ्या हुआ तो , तो वह भी तो मिथ्या हुए, जो जो शिक्षक यह उपदेश दे रहे हैं वे स्वयं मिथ्या हैं, उनकी बातें भी स्वप्नवत् हैं । बड़ी दूर की बात है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — এদের মত কি জানো? আগে সাধন চাই। শম, দম, তিতিক্ষা চাই। এরা নির্বাণের চেষ্টা করছে। এরা বেদান্তবাদী, কেবল বিচার করে “ব্রহ্ম সত্য, জগৎ মিথ্যা” — বড় কঠিন পথ। জগৎ মিথ্যা হলে তুমিও মিথ্যা, যিনি বলছেন তিনিও মিথ্যা, তাঁর কথাও স্বপ্নবৎ। বড় দূরের কথা।
"Do you understand the views of teachers like him? According to them, one must first practise spiritual discipline: self-restraint, self-control, forbearance, and the like. Their aim is to attain Nirvana. They are followers of Vedanta. They constantly discriminate, saying, 'Brahman alone is real, and the world illusory.' But this is an extremely difficult path. If the world is illusory, then you too are illusory. The teacher who gives the instruction is equally illusory. His words, too, are as illusory as a dream.]
लेकिन इस इन्द्रियातीत सत्य (तुरीयं ,परम् सत्य, या ब्रह्म ) की अनुभूति कर पाना सामान्य मनुष्यों (जीवकोटि के मनुष्य) की पहुँच से बाहर है ! “यह कैसा है जानते हो ? जैसे कपूर जलाने पर कुछ भी शेष नहीं रहता, लकड़ी जलाने पर राख तो बाकी रह जाती है । अन्तिम विचार के बाद समाधि होती है। तब ‘मैं’ ‘तुम’ ‘जगत्’ इन सब का कोई पता ही नहीं रहता ।
{“কিরকম জানো? যেমন কর্পূর পোড়ালে কিছুই বাকী থাকে না। কাঠ পোড়ালে তবু ছাই বাকী থাকে। শেষ বিচারের পর সমাধি হয়। তখন ‘আমি’ ‘তুমি’ ‘জগৎ’ — এসবের খবর থাকে না।”
"But this experience is beyond the reach of the ordinary man. Do you know what it is like? If you burn camphor nothing remains. When wood is burnt at least a little ash is left. Finally, after the last analysis, the devotee goes into samadhi. Then he knows nothing whatsoever of 'I', 'you', or the universe.
*ज्ञानी -भक्त पद्मलोचन *
“पद्मलोचन (बर्दवानराज का सभापण्डित) बड़ा ज्ञानी था, परन्तु मैं ‘माँ माँ’ कहकर प्रार्थना करता था, तो मुझे भी खूब मानता था। कलकत्ते में आया था – कामारहाटी के पास एक बाग में रहता था । पण्डित को देखने की मेरी इच्छा हुई । मैंने हृदय को यह जानने के लिए भेजा कि पण्डित को अभिमान है या नहीं । सुना कि अभिमान नहीं है । मुझसे उसकी भेंट हुई । वह तो इतना ज्ञानी और पण्डित था, परन्तु मेरे मुँह से रामप्रसाद के गाने सुनकर रो पड़ा । उससे बातें करके ऐसा सुख मुझे मिला जो कहीं और नहीं मिला। (We talked together a long while; conversation with nobody else gave me such satisfaction.) उसने मुझसे कहा, ‘भक्तों का संग करने की कामना त्याग दो, नहीं तो तरह तरह के लोग हैं, वे तुमको गिरा देंगे’ ।
एक वर वैष्णवचरण के गुरु 'उत्सवानन्द' से उसने पत्र-व्यवहार करके विचार किया था, मुझसे कहा, ‘आप भी जरा सुनिये’ । एक सभा में विचार हुआ था – शिव बड़े हैं या ब्रह्मा ? अन्त में पण्डितों ने पद्मलोचन से पूछा । पद्मलोचन ऐसा सरल था कि उसने कहा, ‘मेरे चौदह पुरखों में से किसी ने न तो शिव को देखा और न ब्रह्मा को ही’ । ‘कामिनी-कांचन का त्याग’ सुनकर एक दिन उसने मुझसे कहा, ‘उन सब का त्याग क्यों कर रहे हो? यह रुपया है, वह मिट्टी है, - यह भेदबुद्धि तो अज्ञान से पैदा होती है’ मैं क्या कह सकता था, बोला, ‘क्या मालुम, पर मुझे रुपया-पैसा आदि रुचता ही नहीं ।
{“পদ্মলোচন ভারী জ্ঞানী ছিলেন, কিন্তু আমি মা, মা, করতুম, তবু আমায় খুব মানত। পদ্মলোচন বর্ধমানের রাজার সভা-পণ্ডিত ছিল। কলকাতায় এসেছিল, এসে কামারহাটির কাছে একটি বাগানে ছিল। আমার পণ্ডিত দেখবার ইচ্ছা হল। হৃদেকে পাঠিয়ে দিলুম জানতে, অভিমান আছে কি না? শুনলাম, পণ্ডিতের অভিমান নাই। আমার সঙ্গে দেখা হল। এত জ্ঞানী আর পণ্ডিত, তবু আমার মুখে রামপ্রসাদের গান শুনে কান্না! কথা কয়ে এমন সুখ কোথাও পাই নাই। আমায় বললে, ‘ভক্তের সঙ্গ করব এ-কামনা ত্যাগ করো, নচেৎ নানারকমের লোক তোমায় পতিত করবে।’ বৈষ্ণবচরণের গুরু উৎসবানন্দের সঙ্গে লিখে বিচার করেছিল, আমায় আবার বললে, আপনি একটু শুনুন। একটা সভায় বিচার হয়েছিল — শিব বড়, না, ব্রহ্মা বড়। শেষে ব্রাহ্মণ পণ্ডিতেরা পদ্মলোচনকে জিজ্ঞাসা করলে। পদ্মলোচন এমনি সরল, সে বললে, ‘আমার চৌদ্দপুরুষ শিবও দেখে নাই, ব্রহ্মাও দেখে নাই।’ কামিনী-কাঞ্চনত্যাগ শুনে আমায় একদিন বললে, ‘ও-সব ত্যাগ করেছ কেন? এটা টাকা, এটা মাটি — এ ভেদবুদ্ধি তো অজ্ঞান থেকে হয়।’ আমি কি বলব — বললাম, কে জানে বাপু, আমার টাকা-কড়ি ও-সব ভাল লাগে না।”
"Padmalochan was a man of deep wisdom. He had great respect for me, though at that time I constantly repeated the name of the Divine Mother. He was the court pundit of the Maharaja of Burdwan. Once he came to Calcutta and went to live in a garden house near Kamarhati. I felt a desire to see him and sent Hriday there to learn if the pundit had any vanity. I was told that he had none. Then I met him. Though a man of great knowledge and scholarship, he began to weep on hearing me sing Ramprasad's devotional songs. We talked together a long while; conversation with nobody else gave me such satisfaction. He said to me, 'Give up the desire tor the company of devotees; otherwise people of all sorts will come to you and make you deviate from your spiritual ideal.' Once he entered into a controversy, by correspondence, with Utshavananda, Vaishnavcharan's guru. He told me an interesting incident. Once a meeting was called to decide which of the two deities, Siva or Brahma, was the greater. Unable to come to any decision, the pundits at last referred the matter to Padmalochan. With characteristic guilelessness he said: 'How do I know? Neither I nor any of my ancestors back to the fourteenth generation have seen Siva or Brahma.' About the renunciation of 'woman and gold', he said to me one day: 'Why have you given up those things? Such distinctions as "This is money and that is clay" are the outcome of ignorance.' What could I say to that? I replied: 'I don't know all these things, my dear sir. But for my part, I cannot relish such things as money and the like.'
*आद्याशक्ति (Primal Energy) किसी भी रूप में दर्शन दे सकती हैं *
“एक पण्डित को बड़ा अभिमान था । वह ईश्वर (माँ काली भवतारिणी) का रूप नहीं मानता था । परन्तु ईश्वर का कार्य कौन समझे? वे आद्याशक्ति के रूप में उसके सामने प्रकट हुए । पण्डित बड़ी देर तक बेहोश रहा । जरा होश सम्हालने पर लगातार ‘का, का, का’(अर्थात्, काली) की रट लगाता रहा ।
[“একজন পণ্ডিতের ভারী অভিমান ছিল। ঈশ্বরের রূপ মানত না। কিন্তু ঈশ্বরের কার্য কে বুঝবে? তিনি আদ্যাশক্তিরূপে দেখা দিলেন। পণ্ডিত অনেকক্ষণ বেহুঁশ হয়ে রইল। একটু হুঁশ হবার পর, কা! কা! কা! (অর্থাৎ কালী) এই শব্দ কেবল করতে লাগল।”
"There was a pundit who was tremendously vain. He did not believe in the forms of God. But who can understand the inscrutable ways of the Divine? God revealed Himself to him as the Primal Power. This vision made the pundit unconscious for a long time. After regaining partial consciousness he uttered only the sound 'Ka! Ka! Ka!' He could not fully pronounce 'Kali'."]
*निष्काम कर्म (Be and Make ) का फल है दया (compassion)*
भक्त- महाराज, आपने विद्यासागर को देखा है ? कैसा देखा ?
श्रीरामकृष्ण- विद्यासागर के पाण्डित्य है, दया है, परन्तु अन्तर्दृष्टि नहीं है । भीतर सोना दबा पड़ा है, यदि इसकी खबर उसे होती तो इतना बाहरी काम जो वह कर रहा है, वह सब घट जाता और अन्त में एकदम त्याग हो जाता । भीतर, हृदय में ईश्वर हैं यह बात जानने पर उन्हीं के ध्यान और चिन्तन में मन लग जाता । किसी किसी को बहुत दिन तक निष्काम कर्म (Be and Make ) करते करते अन्त में वैराग्य होता है और मन उधर मुड़ जाता है – ईश्वर से लग जाता है ।
{শ্রীরামকৃষ্ণ — বিদ্যাসাগরের পাণ্ডিত্য আছে, দয়া আছে, কিন্তু অর্ন্তদৃষ্টি নাই। অন্তরে সোনা চাপা আছে, যদি সেই সোনার সন্ধান পেত, এত বাহিরের কাজ যা কচ্ছে সে-সব কম পড়ে যেত; শেষে একেবারে ত্যাগ হয়ে যেত। অন্তরে হৃদয়মধ্যে ঈশ্বর আছেন — এ-কথা জানতে পারলে তাঁরই ধ্যান চিন্তায় মন যেত। কারু কারু নিষ্কামকর্ম অনেকদিন করতে করতে শেষে বৈরাগ্য হয়, আর ওইদিকে মন যায়; ঈশ্বরে মন লিপ্ত হয়।
MASTER: "Vidyasagar has both scholarship and charity, but he lacks inner vision. Gold lies hidden within him. Had he but found it out, his activities would have been reduced; finally they would have stopped altogether. Had he but known that God resides in his heart, his mind would have been directed to God in thought and meditation. Some persons must perform selfless work (Be and Make ) a long time before they can practise dispassion and direct their minds to the spiritual ideal and at last be absorbed in God.
*दया (compassion) और माया (attachment)*
“जैसा काम ईश्वर विद्यासागर कर रहा है वह बहुत अच्छा है । दया बहुत अच्छी है । दया और माया में बड़ा अन्तर है । दया अच्छी है, माया अच्छी नहीं । माया का अर्थ है आत्मीयों से प्रेम – अपनी स्त्री, पुत्र, भाई, बहन, भतीजा, भानजा, माँ, बाप इन्हीं से प्रेम । दया अर्थात् सब प्राणियों से समान प्रेम ।”
{“ঈশ্বর বিদ্যাসাগর যেরূপ কাজ করছে সে খুব ভাল। দয়া খুব ভাল। দয়া আর মায়া অনেক তফাত। দয়া ভাল, মায়া ভাল নয়। মায়া আত্মীয়ের উপর ভালবাসা — স্ত্রী, পুত্র, ভাই, ভগিনী, ভাইপো, ভাগনে, বাপ, মা এদেরই উপর। দয়া সর্বভূতে সমান ভালবাসা।”
"The activities that Vidyasagar is engaged in are good. Charity is very noble. There is a great deal of difference between daya, compassion, and maya, attachment. Daya is good, but not maya. Maya is love tor one's relatives — one's wife, children, brother, sister, nephew, father, and mother. But daya is the same love for all created beings without any distinction."
(२)
*नेतृत्व का उदगम*
[The Genesis of Leadership]
* गुणत्रयव्यतिरिक्तं सच्चिदानन्द स्वरूपः*
[* सत्त्व >पालन (और मार्गदर्शन), रज>सृष्टि , तम > संहार ~ ब्रह्म त्रिगुणातीत है। रामप्रसाद के व्यष्टि अहं (small 'i' ) का माँ काली के समष्टि अहं (Vast 'I') में रूपान्तरण। *“গুণত্রয়ব্যতিরিক্তং সচ্চিদানন্দস্বরূপঃ” Only the would be leader of mankind -can return to the body from the Nirvikalpa Samadhi; and 'Be and Make Leaders !'*]
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते।।
(गीता 14.20)
[पदच्छेदः -- 'गुणान् एतान् अतीत्य त्रीन् देही देहसमुद्भवान् (शरीरकारणभूतान्) जन्ममृत्युजरादुःखैः (जनन मरण जरा क्लेशाः) विमुक्तः (त्यक्तः) अमृतम् (मोक्षम्- dehypnotized) अश्नुते ॥
- अर्थात विवेकी मनुष्य देहोत्पत्ति के बीजभूत, इन मायोपाधिक तीनों गुणों का जीवितावस्था में ही अतिक्रमण कर, यह देहधारी विद्वान् (ब्रह्मविद) जीता हुआ ही जन्म- जरा - व्याधि -मृत्यु, आदि दुःखों से मुक्त होकर अमृतम् - मोक्षम्- का अनुभव करता है। आत्मानुभूति में दुखों की आत्यन्तिक निवृत्ति और परमानन्द की प्राप्ति होती है। इसलिये यहाँ कहा गया है कि अमृतत्त्व अर्थात् मोक्ष की इस स्थिति (dehypnotized अवस्था) को इसी जगत् में, इसी जीवन में और इसी देह में रहते हुये ही प्राप्त किया जा सकता है। वेदान्त की भाषा में आत्मस्वरूप के अज्ञान को ही कारण शरीर (causal body) कहते हैं जिसका अनुभव हमें अपनी सुषुप्ति की अवस्था में होता है। तुरियावस्था- जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति में आत्मा वैश्वानर, तेजस और प्राज्ञ अवस्था में रहती है। इसकी चौथी अवस्था "तुरीय "कही गयी है। जीवात्मा उसी का अंश है किंतु प्रकृति के आवरण में आकर वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाती है। नाशवान जड़ तत्वों से बने हुए भौतिक शरीर को ही अपना वास्तविक स्वरूप समझने लगती है । इसी के दुख एवं सुख को अपना दुख एवं सुख मानने लगती है। जब निरंतर ध्यान के अभ्यास से उसे अपने वास्तविक स्वरूप का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर हो जाता है तो वह अपने वास्तविक स्वरूप को ही धारण कर लेती है । साधक के हृदय में "आत्मवत् सर्वभूतेषु "की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। उसे संपूर्ण संसार अपना ही स्वरूप दिखाई देने लगता है।न कोई अपना न कोई पराया ,सब कुछ अपना ही स्वरूप दिखाई देने लगता है अर्थात उसकी चेतना ब्रह्मांड व्यापी अस्तित्व को धारण कर लेती है। इस स्थिति में साधना की आवश्यकता ही नहीं रहती । अब कौन किसकी साधना करें? तुझमें मुझमें बस भेद यही मैं नर हूंँ तू नारायण है किंतु यहां पर पहुंचने के बाद योगी की यह स्थिति समाप्त हो जाती है । फिर जो स्थिति उत्पन्न होती है उसमें साधक कह उठता है- तुझमें मुझमें अब भेद नहीं तू नारायण ,मैं भी नारायण हूँ। एक ही में साधना नहीं हो सकती ।इसलिए तुरियावस्था में सभी साधनाएं समाप्त हो जाती हैं क्योंकि इसमें आत्मा को परमात्मा से एकत्त्व का अनुभव हो जाता है ।नदी पार होने पर फिर नाव की आवश्यकता नहीं रहती। उसे भी छोड़ना पड़ता है। इस स्थिति में योगी को जगत अपना ही स्वरूप ज्ञात होने लगता है । वह वासना शून्य हो जाता है ।वासना ही जन्म का कारण बनती है तथा वासना शून्य होना ही वास्तविक मुक्ति है ।
जिस साधक के मन में इस संसार के प्रति कोई वासना नहीं ,कोई आसक्ति नहीं! वह समस्त बंधनों से मुक्त होकर हमेशा हमेशा के लिए इस संसार के आवागमन से मुक्त हो जाता है। इन तीनों गुण से भिन्न यह अज्ञान अन्य कोई वस्तु नहीं है। ये त्रिगुण ही सूक्ष्म शरीर अर्थात् अन्तःकरण की विभिन्न वृत्तियों और भावनाओं के रूप में व्यक्त होते हैं। विचार-रूप में परिणत ये तीन गुण ही शुभ या अशुभ कर्मों के रूप में व्यक्त होने के लिये स्थूल शरीर का रूप ग्रहण करते हैं। पशु की वृत्तियों (आहार -निद्रा -भय -मैथुन) में आसक्त रहने वाले जीव को पशु का देह धारण करना मनुष्य शरीर की अपेक्षा अधिक उपयुक्त होगा। क्योंकि परिपूर्ण सच्चिदानन्द आत्मा में इन सब का कोई अस्तित्व नहीं है। सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा तीनों गुणों से परे है, (अर्थात मन की चारदीवारी या देश-काल -निमित्त से ) परे है ! इस पृथ्वी पर शरीर में रहते हुए ईश्वरीय- पुरुष (ब्रह्मविद मनुष्य) बनने और बनाने का अनुभव ('Be and Make Leaders) का अनुभव वास्तव में विरला है।]
मास्टर- क्या दया भी एक बन्धन है?
M: "Is daya also a bondage?"
श्रीरामकृष्ण- वह तो बहुत दूर की बात ठहरी । दया सतोगुण से होती है । सतोगुण से पालन, रजोगुण से सृष्टि और तमोगुण से संहार होता है, परन्तु ब्रह्म सत्त्व, रज, तम इन तीनों गुणों से परे है – प्रकृति से परे है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — সে অনেক দূরের কথা। দয়া সত্ত্বগুণ থেকে হয়। সত্ত্বগুণে পালন, রজোগুণে সৃষ্টি, তমোগুণে সংহার। কিন্তু ব্রহ্ম সত্ত্বরজস্তমঃ তিনগুণের পার। প্রকৃতির পার।
MASTER: "Yes, it is. But that concept is something far beyond the ordinary man. Daya springs from sattva. Sattva preserves, rajas creates, and tamas destroys. But Brahman is beyond the three gunas. It is beyond Prakriti.
“जहाँ यथार्थ तत्त्व (ब्रह्म-सच्चिदानन्द) है वहाँ तक गुणों की पहुँच नहीं । जैसे चोर-डाकू किसी ठीक जगह पर नहीं जा सकते; वे डरते हैं कि कहीं पकड़े न जायें । सत्त्व, रज, तम ये तीनों गुण डाकू हैं । एक कहानी सुनाता हूँ, सुनो-
[“যেখানে ঠিক ঠিক সেখানে গুণ পৌঁছিতে পারে না। চোর যেমন ঠিক জায়গায় যেতে পারে না, ভয় হয় পাছে ধরা পড়ে। সত্ত্বরজস্তমঃ তিনগুনই চোর। একটা গল্প বলি শুন —
"None of the three gunas can reach Truth; they are like robbers, who cannot come to a public place for fear of being arrested. Sattva, rajas, and tamas are like so many robbers.
“एक आदमी जंगल की राह से जा रहा था कि तीन डाकुओं ने उसे पकड़ा । उन्होंने उसका सब कुछ छीन लिया । एक डाकू ने कहा, ‘अब इसे जीवित रखने से क्या लाभ?’ यह कहकर वह तलवार से उसे काटने आया । तब दूसरे डाकू ने कहा, ‘नहीं जी, काटने से क्या होगा? इसके हाथ-पैर बाँधकर यहीं छोड़ दो’ ।
[ “একটি লোক বনের পথ দিয়ে যাচ্ছিল। এমন সময়ে তাকে তিনজন ডাকাত এসে ধরলে। তারা তার সর্বস্ব কেড়ে নিলে। একজন চোর বললে, আর এ লোকটাকে রেখে কি হবে? এই কথা বলে খাঁড়া দিয়ে কাটতে এল। তখন আর-একজন চোর বললে, না হে কেটে কি হবে? একে হাত-পা বেঁধে এখানে ফেলে যাও।
"Listen to a story. Once a man was going through a forest, when three robbers fell upon him and robbed him of all his possessions. One of the robbers said, "What's the use of keeping this man alive?' So saying, he was about to kill him with his sword, when the second robber interrupted him, saying: 'Oh, no! What is the use of killing him? Tie him hand and foot and leave him here.' The robbers bound his hands and feet and went away.
वैसा करके डाकू उसे वहीं छोड़कर चले गये । थोड़ी देर बाद उनमें से एक लौट आया और बोला, ‘ओह! तुम्हें चोट लगी ? आओ, मैं तुम्हारा बन्धन खोल देता हूँ’ उसे मुक्त कर डाकू ने कहा, ‘आओ मेरे साथ, तुम्हें सड़क पर पहुँचा दूँ’ बड़ी देर में सड़क पर पहुँचकर उसने कहा, ‘इस रास्ते से चले जाओ, वह तुम्हारा मकान दिखता है’ । तब उस आदमी ने डाकू से कहा, ‘भाई, आपने बड़ा उपकार किया; अब आप भी चलिए मेरे मकान तक; आइये’ डाकू ने कहा, ‘नहीं मैं वहाँ नहीं आ सकता; पुलिस को खबर लग जाएगी’ ।
[তখন তাকে হাত-পা বেঁধে ওইখানেরেখে চোরেরা চলে গেল। কিছুক্ষণ পরে তাদের মধ্যে একজন ফিরে এসে বললে, ‘আহা, তোমার কি লেগেছে? এস, আমি তোমার বন্ধন খুলে দিই।’ তার বন্ধন খুলে দিয়ে চোরটি বললে, ‘আমার সঙ্গে সঙ্গে এস, তোমায় সদর রাস্তায় তুলে দিচ্ছি।’ অনেকক্ষণ পরে সদর রাস্তায় এসে বললে, ‘এই রাস্তা ধরে যাও, ওই তোমার বাড়ি দেখা যাচ্ছে।’ তখন লোকটি চোরকে বললে, ‘মশাই, আমার অনেক উপকার করলেন, এখন আপনিও আসুন, আমার বাড়ি পর্যন্ত যাবেন।’ চোর বললে, ‘না, আমার ওখানে যাবার জো নাই, পুলিসে টের পাবে।’
After a while the third robber returned and said to the man: 'Ah, I am sorry. Are you hurt? I will release you from your bonds.' After setting the man free, the thief said; Come with me. I will take you to the public highway.' After a long time they reached the road. Then the robber said: 'Follow this road. Over there is your house.' At this the man said: 'Sir, you have been very good to me. Come with me to my house.' 'Oh, no!' the robber replied. 'I can't go there. The police will know it.'
“यह संसार ही जंगल है । इसमें सत्त्व, रज, तम ये तीन डाकू रहते हैं – ये जीवों का तत्त्वज्ञान छीन लेते हैं। तमोगुण मारना चाहता है; रजोगुण संसार में फँसाता है; पर सतोगुण रज और तम से बचाता है । सत्त्वगुण का आश्रय मिलने पर काम, क्रोध आदि तमोगुण से रक्षा होती है । फिर सतोगुण जीवों का संसारबन्धन तोड़ देता है । पर सतोगुण भी डाकू है – वह तत्त्वज्ञान नहीं दे सकता । हाँ, वह जीव को उस परमधाम में जाने की राह तक पहुँचा देता है और कहता है, ‘वह देखो, तुम्हारा मकान वह दीख रहा है !’ जहाँ ब्रह्मज्ञान है, वहाँ से सतोगुण भी बहुत दूर [परे] है । [मन की चारदीवारी से परे है ?}
[ “সংসারই অরণ্য। এই বনে সত্ত্বরজস্তমঃ তিনগুণ ডাকাত, জীবের তত্ত্বজ্ঞান কেড়ে লয়। তমোগুণ জীবের বিনাশ করতে যায়। রজোগুণ সংসারে বদ্ধ করে। কিন্তু সত্ত্বগুণ, রজস্তমঃ থেকে বাঁচায়। সত্ত্বগুণের আশ্রয় পেলে কাম-ক্রোধ এই সব তমোগুণ থেকে রক্ষা হয়। সত্ত্বগুণও আবার জীবের সংসারবন্ধন মোচন করে। কিন্তু সত্ত্বগুণও চোর, তত্ত্বজ্ঞান দিতে পারে না। কিন্তু সেই পরম ধামে যাবার পথে তুলে দেয়। দিয়ে বলে, ওই দেখ, তোমার বাড়ি ওই দেখা যায়! যেখানে ব্রহ্মজ্ঞান সেখান থেকে সত্ত্বগুণও অনেক দূরে।
"This world itself is the forest. The three robbers prowling here are sattva, rajas, and tamas. It is they that rob a man of the Knowledge of Truth. Tamas wants to destroy him. Rajas binds him to the world. But sattva rescues him from the clutches of rajas and tamas. Under the protection of sattva, man is rescued from anger, passion, and the other evil effects of tamas. Further, sattva loosens the bonds of the world. But sattva also is a robber. It cannot give him the ultimate Knowledge of Truth, though it shows him the road leading to the Supreme Abode of God. Setting him on the path, sattva tells him: 'Look yonder. There is your home.' Even sattva is far away from the Knowledge of Brahman.
“ब्रह्म क्या है, यह मुँह से नहीं बताया जा सकता । जिसे उसका ज्ञान होता है वह फिर खबर नहीं दे सकता । लोग कहते हैं कि कालेपानी में जाने पर जहाज फिर नहीं लौटता ।
[“ব্রহ্ম কি, তা মুখে যায় না। যার হয় সে খবর দিতে পারে না। একটা কথা আছে, কালাপানিতে জাহাজ গেলে আর ফিরে না।
"What Brahman is cannot be described. Even he who knows It cannot talk about It. There is a saying that a boat, once reaching the 'black waters' of the ocean, cannot come back.]
“चार मित्रों ने घूमते-फिरते हुए ऊँची दीवार से घिरी एक जगह देखी । भीतर क्या है यह देखने के लिए सभी बहुत ललचाये । एक दीवार पर चढ़ गया । झाँककर उसने जो देखा तो दंग रह गया, और ‘हा हा हा हा’ करते हुए भीतर कूद पड़ा । फिर कोई खबर नहीं दी । इस तरह जो चढ़ा वही ‘हा हा हा हा’ करते हुए कूद गया ! फिर खबर कौन दे ?
{“চার বন্ধু ভ্রমণ করতে করতে পাঁচিলে ঘেরা একটা জায়গা দেখতে পেলে। খুব উঁচু পাঁচিল। ভিতরে কি আছে দেখবার জন্য সকলে বড় উৎসুক হল। পাঁচিল বেয়ে একজন উঠল। উঁকি মেরে যা দেখলে, তাতে অবাক হয়ে ‘হা হা হা হা’ বলে ভিতরে পড়ে গেল। আর কোন খবর দিল না। যে-ই উঠে সে-ই ‘হা হা হা হা’ করে পড়ে যায়। তখন খবর আর কে দেবে?”
"Once four friends, in the course of a walk, saw a place enclosed by a wall. The wall was very high. They all became eager to know what was inside. One of them climbed to the top of the wall. What he saw on looking inside made him speechless with wonder. He only cried, 'Ah! Ah!' and dropped in. He could not give any information about what he saw. The others, too, climbed the wall, uttered the same cry, 'Ah! Ah!', and jumped in. Now who could tell what was inside?]
“जड़भरत, दत्तात्रेय – ये ब्रह्मदर्शन के बाद फिर खबर नहीं दे सके । ब्रह्मज्ञान के उपरान्त, समाधि होने से फिर ‘अहं’ नहीं रहता । इसीलिए रामप्रसाद ने कहा है, ‘यदि अकेले सम्भव न हो तो मन, रामप्रसाद को साथ ले ।’ मन का लय होना चाहिए, फिर ‘रामप्रसाद’ का अर्थात् अहं-तत्त्व का भी, लय होना चाहिए । तब कहीं वह ब्रह्मज्ञान मिल सकता है ।”
{“জড়ভরত, দত্তাত্রেয় এঁরা ব্রহ্মদর্শন করে আর খবর দিতে পারেন নাই, ব্রহ্মজ্ঞান হয়ে সমাধি হলে আর ‘আমি’ থাকে না। তাই রামপ্রসাদ বলেছে, ‘আপনি যদি না পারিস মন তবে রামপ্রসাদকে সঙ্গে নে না।’ মনের লয় হওয়া চাই, আবার ‘রামপ্রসাদের’ অর্থাৎ অহংতত্ত্বের লয় হওয়া চাই। তবে সেই ব্রহ্মজ্ঞান হয়।”
""Sages like Jadabharata and Dattatreya, after realizing Brahman, could not describe It. A man's 'I' completely disappears when he goes into samadhi after attaining the Knowledge of Brahman. That is why Ramprasad sang, addressing his mind: If you should find the task too hard, Call upon Ramprasad for help." The mind must completely merge itself in Knowledge. But that is not enough. 'Ramprasad', that is, the principle of 'I', must vanish too. Then alone does one get the Knowledge of Brahman." (or the Ramaprasad's small ego (i) must be Transformed into Ma Jagdmba's omnipresent and vast 'I'?}
* लोकशिक्षा देने के लिए माँ काली ने शुकदेव में (नेता) 'ज्ञान का अहंकार' रहने दिया*
[Maa kali kept in Sukadeva the 'ego of Knowledge'.]
एक भक्त- महाराज, क्या शुकदेव को भी परम् ज्ञान नहीं हुआ था ?
[একজন ভক্ত — মহাশয়, শুকদেবের কি জ্ঞান হয় নাই?
"Sir, is it possible then that Sukadeva did not have the ultimate Knowledge (इन्द्रियातीत अविनाशी सत्य का ज्ञान ?) "
श्रीरामकृष्ण- कितने कहते हैं कि शुकदेव ने ब्रह्मसमुद्र को देखा और छुआ भर था, उसमें पैठकर गोता नहीं लगाया । इसीलिए लौटकर उतना उपदेश दे सके । कोई कहता है, ब्रह्मज्ञान के बाद वे लौट आए थे – लोकशिक्षा देने के लिए । परीक्षित् को भागवत सुनाना था और कितनी ही लोकशिक्षा देनी थी – इसीलिए ईश्वर ने उनके सम्पूर्ण अहं-तत्त्व का लय नहीं किया । एकमात्र ‘विद्या का अहं’ रख छोड़ा था ।
{শ্রীরামকৃষ্ণ — কেউ কেউ বলে, শুকদেব ব্রহ্মসমুদ্রের দর্শন-স্পর্শন মাত্র করেছিলেন, নেমে ডুব দেন নাই। তাই ফিরে এসে অত উপদেশ দিয়েছিলেন। কেউ বলে, তিনি ব্রহ্মজ্ঞানের পর ফিরে এসেছিলেন — লোকশিক্ষার জন্যে। পরীক্ষিৎকে ভাগবত বলবেন আরও কত লোকশিক্ষা দিবেন, তাই ইশ্বর তাঁর সব ‘আমি’র লয় করেন নাই। বিদ্যার ‘আমি’ এক রেখে দিয়েছিলেন।
"According to some people, Sukadeva only saw and touched the Ocean of Brahman; he did not dive into It. That is why he could return to the world and impart religious instruction. According to others, he returned to the world of name and form, after attaining the Knowledge of Brahman,. for the purpose of teaching others. He had to recite the Bhagavata to King Parikshit and had to teach people in various ways; therefore God did not destroy his 'I' altogether. God kept in him the 'ego of Knowledge'."]
*केशव को उपदेश ~ ईश्वर कर्ता हैं और तुम उनके निमित्त हो। *
['God is the Doer and you are His instrument.']
[I am a teacher.(Secretary/ गुरु /नेता/CINC) Renounce this "unripe I" and keep the "ripe I" **रामप्रसाद के व्यष्टि अहं (small 'i') को त्याग दो , माँ जगदम्बा का यंत्र हूँ (vast 'I') रखो। ]
एक भक्त- क्या ब्रह्मज्ञान होने के बाद सम्प्रदाय आदि चलाया जा सकता है ?
{একজন ভক্ত — ব্রহ্মজ্ঞান হলে কি দলটল থাকে?
"Can one keep up an organization after attaining the Knowledge of Brahman?}
श्रीरामकृष्ण- केशव सेन से ब्रह्मज्ञान की चर्चा हो रही थी । केशव ने कहा, आगे कहिए । मैंने कहा, और आगे कहने से तुम्हारा सम्प्रदाय आदि नहीं रहेगा । इस पर केशव ने कहा, तो फिर रहने दीजिए । (सब हँसे ।)
तो भी मैंने कहा, ‘मैं’ और ‘मेरा’ यह कहना अज्ञान है । ‘मैं कर्ता हूँ, यह स्त्री, पुत्र, सम्पत्ति, मान, प्रतिष्ठा – यह सब मेरा है’ यह विचार बिना अज्ञान के नहीं होता । तब केशव ने कहा, महाराज, ‘अहं’ को त्याग देने से तो फिर कुछ रहता ही नहीं ।
मैंने कहा, केशव, मैं तुमसे पूरा ‘अहं’ त्यागने को नहीं कहता हूँ, तुम ‘कच्चा अहं’ छोड़ दो । ‘मैं कर्ता हूँ, ‘यह स्त्री और पुत्र मेरा है’, ‘मैं गुरु हूँ’ – इस तरह का अभिमान ‘कच्चा अहं’ है – इसी को छोड़ दो । इसे छोड़कर ‘पक्का अहं’ बनाए रखो । ‘मैं ईश्वर का दास हूँ. उनका भक्त हूँ; मैं अकर्ता हूँ और वे ही कर्ता हैं’ – ऐसा सोचते रहो ।
{শ্রীরামকৃষ্ণ — কেশব সেনের সঙ্গে ব্রহ্মজ্ঞানের কথা হচ্ছিল। কেশব বললে, আরও বলুন। আমি বললুম, আর বললে দলটল থাকে না। তখন কেশব বললে, তবে আর থাক, মশাই। (সকলের হাস্য) তবু কেশবকে বললুম, ‘আমি’ ‘আমার’ এটি অজ্ঞান। ‘আমি কর্তা’ আর আমার এই সব স্ত্রী, পুত্র, বিষয়, মান, সম্ভ্রম — এ-ভাব অজ্ঞান না হলে হয় না। তখন কেশব বললে, মহাশয়, ‘আমি’ ত্যাগ করলে যে আর কিছুই থাকে না। আমি বললুম, কেশব তোমাকে সব ‘আমি’ ত্যাগ করতে বলছি না, তুমি ‘কাঁচা আমি’ ত্যাগ কর। “আমি কর্তা” “আমার স্ত্রী-পুত্র” “আমি গুরু” — এ-সব অভিমান, “কাঁচা আমি”। এইটি ত্যাগ করে “পাকা আমি” হয়ে থাক — “আমি তাঁর দাস, আমি তাঁর ভক্ত, আমি অকর্তা, তিনি কর্তা।”
MASTER: "Once I talked to Keshab Sen about the Knowledge of Brahman. He asked me to explain it further. I said, 'If I proceed further, then you won't be able to preserve your organization and following.' 'Then please stop here!' replied Keshab. (All laugh.) But still I said to Keshab: "I" and "mine" indicate ignorance. Without ignorance one cannot have such a feeling as "I am the doer; these are my wife, children, possessions, name and fame".' Thereupon Keshab said, 'Sir, if one gave up the "I", nothing whatsoever would remain.' I reassured him and said: 'I am not asking you to give up all of the "I". You should give up only the "unripe, I". The "unripe I" makes one feel: "I am the doer. These are my wife and children. I am a teacher." Renounce this "unripe I" and keep the "ripe I", which will make you feel that you are the servant of God, His devotee, and that God is the Doer and you are His instrument.'"
[Global religion ~ Be and Make ! ]
* वैश्विक धर्म ~'मनुष्य बनो और बनाओ !' *
का प्रचार-प्रसार
*जगतजननी का आदेश (चपरास) प्राप्त होने के बाद ही करना उचित *
एक भक्त- क्या ‘पक्का अहं’ कोई 'युवा संगठन' बना सकता है ?
[একজন ভক্ত — “পাকা আমি” কি দল করতে পারে?
"Can the 'ripe I' form an organization?"
श्रीरामकृष्ण- मैंने केशव सेन से कहा, ‘मैं सम्प्रदाय का नेता हूँ, मैंने सम्प्रदाय बनाया है, मैं लोगों को शिक्षा दे रहा हूँ’ – इस तरह का अभिमान ‘कच्चा अहं’ है । किसी मत का प्रचार करना बड़ा कठिन काम है ! वह ईश्वर की आज्ञा बिना नहीं हो सकता । ईश्वर का आदेश होना चाहिए । शुकदेव को भागवत की कथा सुनाने के लिए आदेश मिला था । यदि ईश्वर का साक्षात्कार होने के बाद किसी को आदेश मिले और तब यदि वह प्रचार करे, लोगों को शिक्षा दे; तब उसमें कोई दोष नहीं है। क्योंकि उसका अहं ‘कच्चा अहं’ नहीं, ‘पक्का अहं’ है ।
“मैंने केशव से कहा था, ‘कच्चा अहं’ छोड़ दो । ‘दास अहं’ ‘भक्त का अहं’ – इसमें कोई दोष नहीं ।
শ্রীরামকৃষ্ণ — কেশব সেনকে বললুম, আমি দলপতি দল করেছি, আমি লোকশিক্ষা দিচ্ছি — এ ‘আমি’ “কাঁচা আমি”। মত প্রচার বড় কঠিন। ঈশ্বরের আজ্ঞা ব্যতিরেকে হয় না। তাঁর আদেশ চাই। যেমন শুকদেব ভাগবতকথা বলতে আদেশ পেয়েছিলেন। যদি ঈশ্বরের সাক্ষাৎকার করে কেউ আদেশ পায় — সে যদি প্রচার করে, লোকশিক্ষা দেয় দোষ নাই। তার ‘আমি’ “কাঁচা আমি” নয় — “পাকা আমি”।
"I said to Keshab Sen that the 'I' that says, 'I am a leader, I have formed this party, I am teaching people', is the 'unripe I'. It is very difficult to preach religion. It is not possible to do so without receiving the commandment of God. The permission of God is necessary. Sukadeva had a command from God to recite the Bhagavata. If, after realizing God, a man gets His command and becomes a preacher or teacher, then that preaching or teaching does no harm. His 'I' is not 'unripe'; it is 'ripe'.
तुम सम्प्रदाय की चिन्ता कर रहे हो, पर तुम्हारे सम्प्रदाय से लोग अलग होते जा रहे हैं । केशव ने कहा, महाराज, तीन वर्ष हमारे सम्प्रदाय में रहकर फिर दूसरे सम्प्रदाय में चला गया और जाते समय उलटे गालियाँ दे गया । मैंने कहा, तुम शिष्य के लक्षणों का विचार (Leadership Qualities ) क्यों नहीं करते? क्या चाहे जिसको शिष्य बना लेने से ही काम हो जाता है !
[“তুমি দল দল করছ। তোমার দল থেকে লোক ভেঙে ভেঙে যাচ্ছে। কেশব বললে, মহাশয়, তিন বৎসর এ-দলে থেকে আবার ও-দলে গেল। যাবার সময় আবার গালাগালি দিয়ে গেল। আমি বললাম, তুমি লক্ষণ দেখ না কেন, যাকে তাকে চেলা করলে কি হয়?”
"I asked Keshab to give up this 'unripe I'. The ego that feels, 'I am the servant of God and lover of God' does not injure one. I said to him: 'You have been constantly talking of your organization and your followers. But people also go away from your organization.' Keshab answered: 'It is true, sir. After staying in it several years, people go to another organization. What is worse, on deserting me they abuse me right and left.' 'Why don't you study their nature?' I said. 'Is there any good in making anybody and everybody a disciple?'
[रामकृष्णवाद (Ramakrishnaism) या किसी वैश्विक -धर्म (Global religion ~ पशु से मनुष्य , और मनुष्य से देवता बना देने वाले , मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी 'Be and Make ' धार्मिक आंदोलन ~का धर्म-प्रचारक (missionary-भेजा हुआ धर्मोपदेशक, पैगम्बर या नेता) बनना और बनाना बड़ा कठिन काम है । यदि स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित और C-IN-C नवनीदा से चपरास प्राप्त कोई व्यक्ति धर्म-प्रचार का बीड़ा उठाए – लोगों को शिक्षा दे, तब उसके वचनों से किसी के दिल को कोई ठेस नहीं पहुँचती। और तब उस विद्या में अहं में कोई दोष नहीं है !]
* जब तक देहात्मबोध बना हुआ है, तब तक आद्याशक्ति (अवतार) को मानो! *
“केशव से मैंने और भी कहा था कि तुम आद्याशक्ति को मानो । ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं – जो ब्रह्म हैं वे ही शक्ति हैं । जब तक ‘मैं देह हूँ’ यह बोध रहता है, तब तक द्वैतता (duality) रहती है ,दो अलग प्रतीत होते हैं । कहने के समय दो आ ही जाते हैं । केशव ने बाद में काली (शक्ति) को मान लिया था ।
{“আর কেশবকে বলেছিলাম, আদ্যাশক্তিকে মানো। ব্রহ্ম আর শক্তি অভেদ — যিনিই ব্রহ্ম তিনিই শক্তি। যতক্ষণ দেহবুদ্ধি, ততক্ষণ দুটো বলে বোধ হয়। বলতে গেলেই দুটো। কেশব কালী (শক্তি) মেনেছিল।
"I said to Keshab further: 'You should accept the Divine Mother, the Primal Energy. Brahman is not different from Its Sakti. What is Brahman is also Sakti. As long as a man remains conscious of the body, he is conscious of duality. It is only when a man tries to describe what he sees that he finds duality.('मैं' , 'वह')'' Keshab later on recognized Kali.
* भागवत-भक्त-भगवान्। गुरु-कृष्ण-वैष्णव, एक हैं। *
“एक दिन केशव अपने शिष्यों के साथ आया । मैंने कहा, मैं तुम्हारा लेक्चर सुनूँगा । उसने चाँदनी में बैठकर लेक्चर दिया । फिर घाट पर आकर बहुत-कुछ बातचीत की ।
मैंने कहा, जो भगवान् हैं वे ही दूसरे रूप में भक्त हैं, फिर वे ही एक दूसरे रूप में भागवत हैं । तुम लोग कहो, भागवत-भक्त-भगवान्। केशव ने और साथ ही भक्तों ने भी कहा, भागवत-भक्त-भगवान् । फिर जब मैंने कहा, गुरु-कृष्ण-वैष्णव, तब केशव ने कहा, महाराज, अभी इतनी दूर बढ़ना ठीक नहीं । लोग मुझे कट्टर हिन्दू कहेंगे ।
{“একদিন কেশব শিষ্যদের সঙ্গে এখানে এসেছিল। আমি বললাম, তোমার লেকচার শুনব। চাঁদনিতে বসে লেকচার দিলে। তারপর ঘাটে এসে বসে অনেক কথাবার্তা হল। আমি বললাম, যিনিই ভগবান তিনিই একরূপে ভক্ত। তিনিই একরূপে ভাগবত। তোমরা বল ভাগবত-ভক্ত-ভগবান। কেশব বললে, আর শিষ্যেরাও একসঙ্গে বললে, ভাগবত-ভক্ত-ভগবান। যখন বললাম, ‘বল গুরু-কৃষ্ণ-বৈষ্ণব’, তখন কেশব বললে, মহাশয়, এখন অত দূর নয়, তাহলে লোকে গোঁড়া বলবে।”
"One day when Keshab was here with his disciples, I said to him that I would like to hear him preach. He delivered a lecture in the chandni. Then we all sat by the bathing-ghat and had a long conversation. I said to him; 'It is Bhagavan alone who in one form appears as bhakta, and in another as the Bhagavata. Please repeat "Bhagavata — Bhakta — Bhagavan".' Keshab and his disciples repeated the words. Then I asked him to repeat 'Guru — Krishna — Vaishnava'. Thereupon Keshab said: 'Sir, I should not go so far now. People will say that I have become an orthodox Hindu.'
*माया (गुणत्रय ) का खेल देख श्रीरामकृष्ण की मूर्च्छा*
“त्रिगुणातीत होना बड़ा कठिन है । ईश्वरलाभ किए बिना वह सम्भव नहीं । जीव माया (गुणत्रय) के राज्य में रहता है । यही माया ईश्वर को जानने नहीं देती । इसी माया ने मनुष्य को अज्ञानी बना रखा है ।
हृदय एक बछड़ा लाया था । एक दिन मैंने देखा कि उसे उसने बाग में बाँध दिया है, चारा चुगाने के लिए । मैंने पूछा, ‘हृदय, तू रोज उसे वहाँ क्यों बाँध रखता है?’ हृदय ने कहा, ‘मामा, बछड़े को घर (सिहोड़) भेजूँगा । बड़ा होने पर वह हल में जोता जाएगा ।’
ज्योंही उसने यह कहा, मैं मुर्च्छित हो गिर पड़ा । सोचा, कैसा माया का खेल है ! कहाँ तो कामारपुकुर सिहोड़ और कहाँ कलकत्ता ! यह बछड़ा उतना रास्ता चलकर जाएगा, वहाँ बढ़ता रहेगा, फिर कितने दिन बाद हल खींचेगा ! इसी का नाम संसार है – इसी का माया है ।”
“बड़ी देर बाद मेरी मूर्च्छा (बेहोशी-Fainting) टूटी थी ।”
{“ত্রিগুনাতীত হওয়া বড় কঠিন। ঈশ্বরলাভ না করলে হয় না। জীব মায়ার রাজ্যে বাস করে। এই মায়া ইশ্বরকে জানতে দেয় না। এই মায়া মানুষকে অজ্ঞান করে রেখেছে। হৃদে একটা এঁড়ে বাছুর এনেছিল। একদিন দেখি, সেটিকে বাগানে বেঁধে দিয়েছে ঘাস খাওয়াবার জন্য। আমি জিজ্ঞাসা করলাম, হৃদে, ওটাকে রোজ ওখানে বেধে রাখিস কেন? হৃদে বললে, ‘মামা, এঁড়েটিকে দেশে পাঠিয়ে দিব। বড় হলে লাঙল টানবে।’ যাই এ-কথা বলেছে আমি মূর্ছিত হয়ে পড়ে গেলাম! মনে হয়েছিল কি মায়ার খেলা! কোথায় কামারপুকুর, সিওড় — কোথায় কলকাতা! এই বাছুড়টি যাবে, ওই পথ! সেখানে বড় হবে। তারপর কতদিন পরে লাঙল টানবে — এরই নাম সংসার, — এরই নাম মায়া . “অনেকক্ষণ পরে মূর্ছা ভেঙেছিল।”]
"It is extremely difficult to go beyond the three gunas. One cannot reach that state without having realized God. Man dwells in the realm of maya. Maya does not permit him to see God. It has made him a victim of ignorance.
"Once Hriday brought a bull-calf here. I saw, one day, that he had tied it with a rope in the garden, so that it might graze there. I asked him, 'Hriday, why do you tie the calf there every day?' 'Uncle,' he said, 'I am going to send this calf to our village. When it grows strong I shall yoke it to the plough.' As soon as I heard these words I was stunned to think: 'How inscrutable is the play of the divine maya! Kamarpukur and Sihore (Hriday's birth-place.) are so far away from Calcutta! This poor calf must go all that way. Then it will grow, and at length it will be yoked to the plough. This is indeed the world! This is indeed maya!' I fell down unconscious. Only after a long time did I regain consciousness."
(३)
समाधि में
*अन्तरंग भक्तों (भविनेताओं-LEADERS) में शक्तिसंचार*
[Power transmission among the intimate devotees]
श्रीरामकृष्ण प्रायः रातदिन समाधिस्थ रहते हैं – उनका बाहरी ज्ञान नहीं के बराबर होता है, केवल बीच बीच में भक्तों के साथ ईश्वरीय प्रसंग और संकीर्तन करते हैं । करीब तीन-चार बजे मास्टर ने देखा कि वे अपने छोटे तख्त पर बैठे हैं – भावाविष्ट हैं । थोड़ी देर बाद जगन्माता से बातें करते हैं ।
माता से वार्तालाप करते हुए एक बार उन्होंने कहा, “माँ, उसे (केशव को) एक कला ^*भर शक्ति क्यों दी?” थोड़ी देर बाद फिर कहते हैं, माँ, समझ गया, एक कला ही पर्याप्त होगी । उसी से तेरा काम हो जाएगा – जीवशिक्षण होगा ।”
{ कला ^* अभिव्यक्ति की कुशल शक्ति ही तो कला है -- (मैथिली शरण गुप्त ,साकेत, पंचम सर्ग) दूसरे शब्दों में -: मन के अंतःकरण की सुन्दर प्रस्तुति ही कला है। कला व्यक्ति के मन में बनी स्वार्थ, परिवार, क्षेत्र, धर्म, भाषा और जाति आदि की सीमाएँ मिटाकर विस्तृत और व्यापकता प्रदान करती है। व्यक्ति के मन को उदात्त बनाती है। वह व्यक्ति को “स्व” से निकालकर “वसुधैव कुटुम्बकम्” से जोड़ती है।]
মার সঙ্গে কথা কহিতে কহিতে একবার বলিলেন, “মা, ওকে এক কলা দিলি কেন?” ঠাকুর খানিকক্ষণ নিস্তব্ধ হইয়া রহিলেন। আবার বলিতেছেন, “মা, বুঝেছি, এক কলাতেই যথেষ্ট হবে। এক কলাতেই তোর কাজ হবে, জীবশিক্ষা হবে।”
"I understand it, Mother. That little bit will be enough for him and will serve Thy purpose. That little bit will enable him to teach people."
क्या श्रीरामकृष्ण इसी तरह अपने अन्तरंग भक्तों में शक्तिसंचार कर रहे हैं? क्या यह सब तैयारी इसीलिए हो रही है की आगे चलकर वे जीवों को शिक्षा देंगे ?
[ঠাকুর কি সাঙ্গোপাঙ্গদের ভিতর এইরূপে শক্তিসঞ্চার করিতেছেন? এসব কি আয়োজন হইতেছে যে, পরে তাঁহারা জীবশিক্ষা দিবেন?
Did the Master thus transmit spiritual powers to his disciples? Did he thus come to know that his disciples, after him, would go out into the world as teachers of men? ]
मास्टर के अलावा कमरे में राखाल भी बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण अब भी भावमग्न हैं, (रामकृष्ण मिशन के भावी नेता) राखाल से कहते हैं, “तू नाराज हो गया था? मैंने तुझे क्यों नाराज किया, इसका कारण है; दवा अपना ठीक असर करेगी समझकर । पेट में तिल्ली अधिक बढ़ जाने पर मदार के पत्ते आदि लगाने पड़ते हैं ।”
{মাস্টার ছাড়া ঘরে রাখালও বসিয়া আছেন। ঠাকুর এখনও আবিষ্ট। রাখালকে বলিতেছেন, “তুই রাগ করেছিলি? তোকে রাগালুম কেন, এর মানে আছে। ঔষধ ঠিক পড়বে বলে। পিলে মুখ তুললে পর মনসার পাতা-টাতে দিতে হয়।”
Rakhal was in the room. Sri Ramakrishna was still in a state of partial consciousness when he said to Rakhal: "You were angry with me, weren't you? Do you know why I made you angry? There was a reason. Only then would the medicine work. The surgeon first brings an abscess to a head. Only then does he apply a herb so that it may burst and dry up."
कुछ देर बाद कहते हैं, “हाजरा को देखा, शुष्क काष्ठवत् है । तब यहाँ रहता क्यों है? इसका कारण है, जटिला कुटिला* के रहने से लीला की पुष्टि होती है । (*श्रीराधा की सास और ननद – आयान घोष की माता और बहन ।)
{কিয়ৎক্ষণ পরে বলিতেছেন, “হাজরাকে দেখলাম শুষ্ক কাঠ! তবে এখানে থাকে কেন? তার মানে আছে, জটিলে-কুটিলে থাকলে লীলা পোষ্টাই হয়।”}
After a pause he went on: "Yes, I have found Hazra to be like a piece of dry wood. Then why does he live here? This has a meaning too. The play is enlivened by the presence of trouble-makers like Jatila and Kutila.
*(नेता को) ईश्वर का रूप मानना पड़ता है*
[One has to believe in the form of God.]
जगद्धात्री (= जगत् + धात्री = जगत की रक्षिका) मान्यतानुसार देवी जगद्धात्री काली व दुर्गा का युग्म स्वरूप हैं और मूल जगदंबा हैं।
^In the image of Jagaddhatri, the lion. Her carrier, is seen keeping an elephant under control.
माँ जगद्धात्री की छवि में, उनके वाहक सिंह को एक हाथी को नियंत्रण में रखते हुए देखा जाता है। इनकी विश्वासपूर्वक की गई पूजा से माता की कृपा से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। जगद्धात्री पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी से दशमी तक मनाया जाता है। शास्त्रानुसार महिषासुर का वध करने के बाद जब देवताओं को स्वर्ग मिल गया तो उनमें घमंड आ गया। देवी जगद्धात्री (उपनिषद के अनुसार उमा हैमवती) ने यक्ष के माध्यम से देवताओं के घमंड का नाश किया।]
(मास्टर के प्रति) “ईश्वर का रूप मानना पड़ता है । जगद्धात्री रूप का अर्थ जानते हो ? जिन्होंने जगत को धारण कर रखा है – उनके धारण न करने से, उनके पालन न करने से जगत् नष्टभ्रष्ट हो जाय । मनरूपी हाथी को जो वश में कर सकता है, उसी के हृदय में जगद्धात्री उदित होती हैं ।”
[(মাস্টারের প্রতি) — ঈশ্বরীয় রূপ মানতে হয়। জগদ্ধাত্রীরূপের মানে জানো? যিনি জগৎকে ধারন করে আছেন। তিনি না ধরলে, তিনি না পালন করলে জগৎ পড়ে যায়, নষ্ট হয়ে যায়। মনকরীকে যে বশ করতে পারে, তারই হৃদয়ে জগদ্ধাত্রী উদয় হন।
(To M.) "One must accept the forms of God. Do you know the meaning of the image of Jagaddhatri? She is the Bearer of the Universe. Without Her support and protection the universe would fall from its place and be destroyed. The Divine Mother, Jagaddhatri, reveals Herself in the heart of one who can control the mind, which may be compared to an elephant."
राखाल- मन मतवाला हाथी है ।
[রাখাল — “মন-মত্ত-করী!”
RAKHAL: "The mind is a mad elephant."
श्रीरामकृष्ण- सिंहवाहिनी का सिंह इसीलिए हाथी को दबाये हुए है ।
सन्ध्यासमय मन्दिर में आरती हो रही है । श्रीरामकृष्ण भी अपने कमरे में ईश्वर का नाम ले रहे हैं । कमरे में धूनी दी गयी । श्रीरामकृष्ण हाथ जोड़कर छोटे तख्त पर बैठे हैं – माता का चिन्तन कर रहे हैं । बेलघाड़िया के गोविन्द मुकर्जी और उनके कुछ मित्रों ने आकर प्रणाम किया और जमीन पर बैठे । मास्टर और राखाल भी बैठे हैं बाहर चाँद निकला हुआ है । जगत चुपचाप हँस रहा है । कमरे के भीतर सब लोग चुपचाप बैठे श्रीरामकृष्ण की शान्त मूर्ति देख रहे हैं । आप भावमग्न हैं । कुछ देर बाद बातें की। अब भी भावाविष्ट हैं ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — সিংহবাহিনীর সিংহ তাই হাতিকে জব্দ করে রয়েছে।
সন্ধ্যার পর ঠাকুরবাড়িতে আরতি হইতেছে। সন্ধ্যা সমাগমে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ নিজের ঘরে ঠাকুরদের নাম করিতেছেন। ঘরে ধূনা দেওয়া হইল। ঠাকুর বদ্ধাঞ্জলি হইয়া ছোট তক্তপোশটির উপর বসিয়া আছেন। মার চিন্তা করিতেছেন। বেলঘরের শ্রীযুক্ত গোবিন্দ মুখুজ্জে ও তাহার বন্ধুগণ আসিয়া প্রণাম করিয়া মেঝেতে বসিলেন। মাস্টারও বসিয়া আছেন। রাখালও বসিয়া আছেন।
MASTER: "Therefore the lion, the carrier of the Divine Mother, keeps it under control."
It was dusk. The evening service began in the temples. Sri Ramakrishna was chanting the names of the gods and goddesses. He was seated on the small couch, with folded hands, and became absorbed in contemplation of the Divine Mother. The world outside was flooded with moonlight, and the devotees inside the Master's room sat in silence and looked at his serene face.
*श्यामारूप । उत्तम भक्त । विचारपथ*
* नेतृत्व प्रशिक्षण कक्षा के बाद, मानव जाति के नेता-वरिष्ठ द्वारा प्रश्नोत्तर सत्र*
[Q/A Session by The Leader-Senior (C-IN-C) of the mankind]
*माँ श्यामा काली पुरुष है या प्रकृति?*
[Is Syama male or female? ]
श्रीरामकृष्ण(भावमग्न)- तुम लोगों को कोई शंका हो तो पूछो । मैं समाधान करता हूँ ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (ভাবস্থ) — বল, তোমাদের যা সংশয়। আমি সব বলছি।
गोविन्द तथा अन्यान्य भक्त लोग सोचने लगे ।
बेलधड़िया के गोविन्द- महाराज, श्यामारूप क्यों हुआ ? (माँ काली की मूर्ति का रंग काला क्यों है ?)
GOVINDA: "Revered sir, why does the Divine Mother have a black complexion?"
श्रीरामकृष्ण- वह तो सिर्फ दूर से वैसा दिखता है । पास जाने पर कोई रंग ही नहीं ! तालाब का पानी दूर से काला दिखता है । पास जाकर हाथ से उठाकर देखो, कोई रंग नहीं । आकाश दूर से नीले रंग का दिखता है । पास के आकाश को देखो, कोई रंग नहीं । ईश्वर के जितने ही समीप उतनी ही धारणा होगी कि उनके नाम-रूप नहीं । कुछ दूर हट आने से फिर वही ‘मेरी श्यामा माता’ । जैसे घासफूल का रंग ।
“श्यामा पुरुष है या प्रकृति? किसी भक्त ने पूजा की थी । कोई दर्शन करने आया तो उनसे देवी के गले में जनेऊ देखकर कहा, ‘तुमने माता के गले में जनेऊ ^ पहनाया है !’ भक्त ने कहा, ‘भाई, तुम्हीं ने माता को पहचाना है । मैं अब तक नहीं पहचान सका कि वे पुरुष है या प्रकृति ! इसीलिए जनेऊ पहना दिया था ।’
[^ केवल पुरुष देवताओं की मूर्तियों को जनेऊ धारण करवाया जाता है ! ]
[শ্রীরামকৃষ্ণ — সে দূর বলে। কাছে গেলে কোন রঙই নাই। দীঘির জল দূর থেকে কালো দেখায়, কাছে গিয়ে হাতে করে তোল, কোন রঙ নাই। আকাশ দূর থেকে যেন নীলবর্ণ। কাছের আকাশ দেখ, কোন রঙ নাই। ঈশ্বরের যত কাছে যাবে ততই ধারণা হবে, তাঁর নাম, রূপ নাই। পেছিয়ে একটু দূরে এলে আবার “আমার শ্যামা মা!” যেন ঘাসফুলের রঙ। শ্যামা পুরুষ না প্রকৃতি? একজন ভক্ত পূজা করেছিল। একজন দর্শন করতে এসে দেখে ঠাকুরের গলায় পৈতে! সে বললে, তুমি মার গলায় পৈতে পরিয়েছ! ভক্তটি বললে, “ভাই, তুমিই মাকে চিনেছ। আমি এখনও চিনতে পারি নাই তিনি পুরুষ কি প্রকৃতি। তাই পৈতে পরিয়েছি!”
MASTER: "You see Her as black because you are far away from Her. Go near and you will find Her devoid of all colour. The water of a lake appears black from a distance. Go near and take the water in your hand, and you will see that it has no colour at all. Similarly, the sky looks blue from a distance. But look at the atmosphere near you; it has no colour. The nearer you come to God, the more you will realize that He has neither name nor form. If you move away from the Divine Mother, you will find Her blue, like the grass-flower. Is Syama male or female? A man once saw the image of the Divine Mother wearing a sacred thread.8 He said to the worshipper: 'What? You have put the sacred thread on the Mother's neck!' The worshipper said: 'Brother, I see that you have truly known the Mother. But I have not yet been able to find out whether She is male or female; that is why I have put the sacred thread on Her image.'
“जो श्यामा हैं वे ही ब्रह्म हैं । जिनका रूप है वे ही रूपहीन भी हैं । जो सगुण हैं वे ही निर्गुण हैं । ब्रह्म ही शक्ति है और शक्ति ही ब्रह्म । दोनों में कोई भेद नहीं । एक सच्चिदानन्दमय है और दूसरी सच्चिदानन्दमयी ।”
[“যিনি শ্যামা, তিনিই ব্রহ্ম। যাঁরই রূপ, তিনিই অরূপ। যিনি সগুণ, তিনিই নির্গুণ। ব্রহ্ম শক্তি — শক্তি ব্রহ্ম। অভেদ। সচ্চিদানন্দময় আর সচ্চিদানন্দময়ী।”
"That which is Syama is also Brahman. That which has form, again, is without form. That which has attributes, again, has no attributes. Brahman is Sakti; Sakti is Brahman. They are not two. These are only two aspects, male and female, of the same Reality, Existence-Knowledge-Bliss Absolute."
गोविन्द- योगमाया क्यों कहते हैं ?
গোবিন্দ — যোগমায়া কেন বলে?"What is the meaning of 'yogamaya'?"
श्रीरामकृष्ण- योगमाया अर्थात् पुरुष-प्रकृति का योग । जो कुछ देखते हो वह सब पुरुष-प्रकृति ^ का योग है ।
शिव-काली की मूर्ति में शिव के ऊपर काली खड़ी हैं । शिव शव की भाँति पड़े हैं, काली शिव की ओर देख रही हैं, - यह सब पुरुष-प्रकृति का योग है । पुरुष निष्क्रिय है, इसीलिए शिव शव हो रहे हैं । पुरुष के योग से प्रकृति सब काम करती है – सृष्टि, स्थिति, प्रलय करती है ।
{শ্রীরামকৃষ্ণ — যোগমায়া অর্থাৎ পুরুষ-প্রকৃতির যোগ। যা কিছু দেখছ সবই পুরুষ-প্রকৃতির যোগ। শিবকালীর মূর্তি, শিবের উপর কালী দাঁড়িয়া আছেন। শিব শব হয়ে পড়ে আছেন। কালী শিবের দিকে চেয়ে আছেন। এই সমস্তই পুরুষ-প্রকৃতির যোগ। পুরুষ নিষ্ক্রিয়, তাই শিব শব হয়ে আছেন। পুরুষের যোগে প্রকৃতি সমস্ত কাজ করছেন। সৃষ্টি-স্থিতি-প্রলয় করছেন!
"It signifies the yoga, or union, of Purusha(^The male aspect of Reality; the Soul, or Absolute.) and Prakriti. (^The female aspect of Reality; Primordial Nature, or Power.) Whatever you perceive in the universe is the outcome of this union.
Take the image of Siva and Kali. Kali stands on the bosom of Siva; Siva lies under Her feet like a corpse; Kali looks at Siva. All this denotes the union of Purusha and Prakriti. Purusha is inactive; therefore Siva lies on the ground like a corpse. Prakriti performs all Her activities in conjunction with Purusha. Thus She creates, preserves, and destroys. ]
“राधाकृष्ण की युगलमूर्ति का भी यही अभिप्राय है । इसी योग के लिए वक्रभाव है । और यही योग दिखाने के लिए श्रीकृष्ण की नाक में मुक्ता और श्रीमती की नाक में नीलम है । श्रीमती का रंग गोरा, मुक्ता जैसा उज्जवल है । श्रीकृष्ण का रंग साँवला है, इसीलिए श्रीमती नीलम धारण करती है । फिर श्रीकृष्ण के वस्त्र पीले और श्रीमती के नीले हैं ।
[ “রাধাকৃষ্ণ-যুগলমূর্তিরও মানে ওই। ওই যোগের জন্য বঙ্কিমভাব। সেই যোগ দেখাবার জন্যই শ্রীকৃষ্ণের নাকে মুক্তা, শ্রীমতীর নাকে নীল পাথর। শ্রীমতীর গৌর বরণ মুক্তার ন্যায় উজ্জ্বল। শ্রীকৃষ্ণের শ্যামবর্ণ, তাই শ্রীমতীর নীল পাথর। আবার শ্রীকৃষ্ণ পীতবসন ও শ্রীমতী নীলবসন পরেছেন।
That is also the meaning of the conjoined images of Radha and Krishna. On account of that union, again, the images are slightly inclined toward each other. "To denote this union, Sri Krishna wears a pearl in His nose, Radha a blue stone in hers. Radha has a fair complexion, bright as the pearl. Sri Krishna's is blue. For this reason Radha wears the blue stone. Further, Krishna's apparel is yellow, and Radha's blue.
“उत्तम भक्त कौन है ? जो ब्रह्मज्ञान के बाद देखता है कि ईश्वर ही जीव, जगत और चौबीस तत्त्व हुए हैं। पहले ‘नेति नेति’(यह नहीं, यह नहीं) करके विचार करते हुए छत पर पहुँचना पड़ता है । फिर वही आदमी देखता है कि छत जिन चीजों – ईंट, चूने और सुरखी – से बनी है, सीढ़ी भी उन्हीं से बनी है । तब देखता है कि ब्रह्म ही जीव, जगत और सब कुछ है ।
[“উত্তম ভক্ত কে? যে ব্রহ্মজ্ঞানের পর দেখে, তিনিই জীবজগৎ, চতুর্বিংশতি তত্ত্ব হয়েছেন। প্রথমে ‘নেতি’ ‘নেতি’ বিচার করে ছাদে পৌঁছিতে হয়। তারপর সে দেখে, ছাদও যে জিনিসে তৈয়ারি — ইট, চুন, সুড়কি — সিঁড়িও সেই জিনিসে তৈয়ারি। তখন দেখে, ব্রহ্মই জীবজগৎ সমস্ত হয়েছেন।
"Who is the best devotee of God? It is he who sees, after the realization of Brahman, that God alone has become all living beings, the universe, and the twenty-four cosmic principles. One must discriminate at first, saying "Not this, not this', and reach the roof. After that one realizes that the steps are made of the same materials as the roof, namely, brick, lime, and brick-dust. The devotee realizes that it is Brahman alone that has become all these — the living beings, the universe, and so on.
“केवल शुष्क विचार ! मैं उस पर थूकता हूँ । (आप जमीन पर थूकते हैं ।)
“क्यों विचार कर शुष्क बना रहूँगा ! जब तक ‘मैं’ और ‘तुम’ है, तब तक प्रार्थना है कि ईश्वर के चरणकमलों में शुद्ध भक्ति बनी रहे ।
[“কেন বিচার করে শুষ্ক হয়ে থাকব? যতক্ষণ ‘আমি তুমি’ আছে, ততক্ষণ যেন তাঁর পাদপদ্মে শুদ্ধাভক্তি থাকে।”
"Why should I make myself dry through mere reasoning? May I have unalloyed love for the Lotus Feet of God as long as the consciousness of 'I' and 'you' remains with me!
*शक्ति (माँ काली) का ही अवतार होता है~ ‘अद्वैत-चैतन्य-नित्यानन्द’*
(गोविन्द से)- “कभी कहता हूँ, तुम्हीं ‘मैं’ हो और ‘मैं’ ही ‘तुम’ हूँ । फिर कभी ‘तुम्हीं तुम हो’ – ऐसा हो जाता है ! इस समय अपने अहं को ढूँढ़ नहीं पाता ।
“शक्ति (माँ काली) का ही अवतार होता है । एक मत से राम और कृष्ण चिदानन्द समुद्र की दो लहरें हैं।
“अद्वैतज्ञान के बाद चैतन्य होता है । तब मनुष्य देखता है कि ईश्वर ही सब प्राणियों में चैतन्य रूप से विद्यमान हैं । चैतन्यलाभ के बाद आनन्द होता है – ‘अद्वैत-चैतन्य-नित्यानन्द’ ।*
[(গোবিন্দের প্রতি) — কখনও বলি — তুমিই আমি, আমিই তুমি। আবার কখনও ‘তুমিই তুমি’ হয়ে যায়। তখন ‘আমি’ খুঁজে পাই না।
“শক্তিরই অবতার। এক মতে রাম ও কৃষ্ণ চিদানন্দসাগরের দুটি ঢেউ।
“অদ্বৈতজ্ঞানের পর চৈতন্যলাভ হয়। তখন দেখে, সর্বভূতে চৈতন্যরূপে তিনি আছেন। চৈতন্যলাভের পর আনন্দ। অদ্বৈত, চৈতন্য, নিত্যানন্দ।”
"Chaitanya, Consciousness, is awakened after Advaita-jnana, the Knowledge of the non-dual Brahman. Then one perceives that God alone exists in all beings as Consciousness. After this realization comes Ananda, Bliss. Advaita, Chaitanya, and Nityananda. (^ अद्वैत, शाश्वत चैतन्य (स्पंदन) , और शाश्वत आनंद (स्पंदन) ।
(*पन्द्रहवीं शताब्दी में नदिया में तीन महापुरुष - 'अद्वैत गोस्वामी , चैतन्य महाप्रभु और नित्यानन्द स्वामी ' भी इन्हीं नामों के हुए थे । उनमें श्रीचैतन्य भगवान् के अवतार समझे जाते हैं । शेष दो उनके पार्षद थे ।)
(मास्टर से)- “और तुमसे कहता हूँ – ईश्वर के रूप पर अविश्वास मत करना । यह विश्वास करना कि ईश्वर के रूप हैं, फिर जो रूप तुम्हें पसन्द हो उसी का ध्यान करना ।
[(মাস্টারের প্রতি) — আর তোমায় বলছি, রূপ, ঈশ্বরীয় রূপ অবিশ্বাস করো না। রূপ আছে বিশ্বাস কর! তারপর যে রূপটি ভালবাস সেই রূপ ধ্যান করো।
"Let me ask you not to disbelieve in the forms of God. Have faith in God's forms. Meditate on that form of God which appeals to your mind.
(गोविन्द से)- “बात यह है कि जब तक भोग-वासना बनी रहती है, तब तक ईश्वर को जानने या उनके दर्शन करने के लिए प्राण व्याकुल नहीं होते । बच्चा खेल में मग्न रहता है । मिठाई देकर बहलाओ तो थोड़ीसी खा लेगा । जब उसे न खेल अच्छा लगता है न मिठाई, तब वह कहता है, ‘माँ के पास जाऊँगा।’ फिर वह मिठाई नहीं चाहता । अगर कोई आदमी, जिसे उसने न कभी देखा है और न पहचानता है, आकर कहे, ‘आ, तुझे माँ के पास ले चलूँ’, तो वह उसके साथ चला जाएगा । जो कोई उसे गोद में बिठाकर ले जायगा, वह उसी के साथ जाएगा ।
“संसार के भोग समाप्त हो जाने के बाद ईश्वर के लिए प्राण व्याकुल होते हैं । उस समय केवल एक चिन्ता रहती है कि किस तरह उन्हें पाऊँ । उस समय जो जैसा बताता है, मनुष्य वैसा ही करने लगता है।”
[(গোবিন্দের প্রতি) — কি জানো, যতক্ষণ ভোগবাসনা, ততক্ষণ ঈশ্বরকে জানতে বা দর্শন করতে প্রাণ ব্যাকুল হয় না। ছেলে খেলা নিয়ে ভুলে থাকে। সন্দেশ দিয়ে ভুলোও খানিক সন্দেশ খাবে। যখন খেলাও ভাল লাগে না, সন্দেশও ভাল লাগে না, তখন বলে, ‘মা যাব!’ আর সন্দেশ চায় না। যাকে চেনে না, কোনও কালে দেখে নাই, সে যদি বলে, আয় মার কাছে নিয়ে যাই — তারই সঙ্গে যাবে। যে কোলে করে নিয়ে যায় তারই সঙ্গে যাবে।
"The fact is that one does not feel the longing to know or see God as long as one wants to enjoy worldly objects. The child forgets everything when he plays with his toys. Try to cajole him away from play with a sweetmeat; you will not succeed. He will eat only a bit of it. When he relishes neither the sweetmeat nor his play, then he says, 'I want to go to my mother.' He doesn't care tor the sweetmeat any more. If a man whom he doesn't know and has never seen says to the child, 'Come along; I shall take you to your mother', the child follows him. The child will go with anyone who will carry him to his mother.
"The soul becomes restless for God when one is through with the enjoyment of worldly things. Then a person has only one thought — how to realize God. He listens to whatever anyone says to him about God."
मास्टर(स्वगत)- ओह !! भोगवासना समाप्त हो चुकने के बाद ही ईश्वर के लिए प्राण व्याकुल होते हैं ।
"Alas! The soul becomes restless for God only when one is through with the enjoyment of worldly things."
(४)
*आद्याशक्ति तथा अवतार तत्व ~अवतार मानो गाय के स्तन हैं *
[আদ্যাশক্তি ও অবতারতত্ত্ব]
[Predominant Energy and Incarnation Theory]
एक दूसरे दिन (18 अगस्त, 1883) श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर में अपने कमरे के दक्षिणपूर्ववाले बरामदे की सीढ़ी पर बैठे हैं । साथ में राखाल, मास्टर तथा हाजरा हैं । श्रीरामकृष्ण हँसी हँसी में बचपन की अनेक बातें कह रहे हैं ।
[আর-একদিন ঠাকুর দক্ষিণেশ্বর-মন্দিরে দক্ষিণ-পূর্ব বারান্দায় সিঁড়িতে বসিয়া আছেন। সঙ্গে রাখাল, মাস্টার হাজরা। ঠাকুর রহস্য করিতে করিতে বাল্যকালের অনেক কথা বলিতেছেন।
सायंकाल हुआ । श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हैं । अपने कमरे में छोटे तख्त पर बैठे जगन्माता के साथ वार्तालाप कर रहे हैं । कह रहे हैं,
“माँ, तू इतना झमेला क्यों करती है ? माँ, क्या मैं वहाँ पर जाऊँ ? यदि तू ले जाएगी तो जाऊँगा ।”
[“মা, এত হাঙ্গাম করিস কেন? মা, ওখানে কি যাব? আমায় নিয়ে যাস তো যাব!”]
श्रीरामकृष्ण का किसी भक्त के घर पर जाना तय हुआ था । क्या वे इसीलिए जगन्माता की आज्ञा के लिए इस प्रकार कह रहे हैं ?
जगन्माता के साथ श्रीरामकृष्ण फिर वार्तालाप कर रहे हैं । सम्भव है अब किसी अन्तरंग भक्त के लिए प्रार्थना कर रहे हैं । कह रहे हैं, “माँ, उसे (केशव को) शुद्ध बना दो । अच्छा माँ, उसे एक कला क्यों दी?”
[“মা, একে নিখাদ কর (सोना का गहना बनाने में कुछ खाद मिलाना पड़ता है, केशव में खाद कम करने अनुरोध कर रहे हैं। ) । আচ্ছা মা, ওকে এক কলা দিলি কেন?”
श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुप हैं । फिर कह रहे हैं, “ओफ ! समझा इसी से तेरा काम होगा ।” [“ও! বুঝেছি, এতেই তোর কাজ হবে!]”सोलह कलाओं में से एक कला शक्ति द्वारा तेरा काम अर्थात् लोकशिक्षा होगी – क्या श्रीरामकृष्ण यही कह रहे हैं ?
अब भावविभोर स्थिति में मास्टर आदि से आद्याशक्ति तथा अवतार-तत्त्व के सम्बन्ध कह रहे हैं –
[এইবার ভাবাবিষ্ট অবস্থায় মাস্টার প্রভৃতিকে আদ্যাশক্তি ও অবতারতত্ত্ব বলিতেছেন।
“जो ब्रह्म है, वही शक्ति है । मैं उन्हीं को माँ पुकारता हूँ । जब वे निष्क्रिय रहते हैं तब उन्हें ब्रह्म कहते हैं, और जब वे सृष्टि, स्थिति, संहार कार्य करते हैं, तब उन्हें शक्ति कहते हैं । जिस प्रकार स्थिर जल और हिलता-डुलता जल । शक्ति की लीला से ही अवतार होते हैं । अवतार प्रेम-भक्ति सिखाने आते हैं । अवतार मानो गाय का स्तन है । दूध स्तन से ही मिलता है । मनुष्य रूप में वे अवतीर्ण होते हैं ।”
[“যিনি ব্রহ্ম তিনিই শক্তি। তাঁকেই মা বলে ডাকি। যখন নিষ্ক্রিয় তখন তাঁকে ব্রহ্ম বলি, আবার যখন সৃষ্টি-স্থিতি-সংহার কার্য করেন, তখন তাঁকে শক্তি বলি। যেমন স্থির জল, আর জলে ঢেউ হয়েছে। শক্তিলীলাতেই অবতার। অবতার প্রেমভক্তি শিখাতে আসেন। অবতার যেন গাভীর বাঁট। দুগ্ধ বাঁটের থেকেই পাওয়া যায়!“মানুষে তিনি অবতীর্ণ হন। যেমন ঘুটির ভিতর মাছ এসে জমে।”
कोई कोई भक्त सोच रहे हैं, क्या श्रीरामकृष्ण अवतारी पुरुष हैं, जैसे श्रीकृष्ण, चैतन्यदेव, ईसा ?
[ভক্তেরা কেহ কেহ ভাবিতেছেন, শ্রীরামকৃষ্ণ কি অবতার পুরুষ? যেমন শ্রীকৃষ্ণ, চৈতন্যদেব, Christ?
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गुणातीता की गुणमयी मूर्ति :
गुणमयी गुणातीता आद्या विद्या सनातनी ।
महत्तत्त्वादिसंयुक्ता प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥
हे जननी! आप गुणमयी, गुणों से परे, आप आदि, आप सनातनी और महत्तत्त्वादिसंयुक्त हैं । हे सुंदरी!आप हम पर प्रसन्न हों ।
सर्वकार्यनियन्त्री च सर्वभूतहितैषिणी ।
गुणातीता गुणमयी त्रिगुणा गुणशालिनी ॥ ८९॥
जो देवी गुणातीता, सदा नित्य स्वरूप से विराजने वाली, सर्व व्यापिनी, निर्विकारा और समस्त विश्व की आधाररूपा हैं, उन्हीं भगवती की सात्विकी, राजसी एवं तामसी शक्ति महालक्ष्मी, महा सरस्वती एवं महाकाली कहलाती हैं।
विश्व का एकलौता दिउड़ी नामक मंदिर जहाँ माता अपने सोलह भुजी प्रतिमा के रूप में स्वयं वास करती है! दिउड़ी मंदिर अपनी मनोहर सुन्दरता के लिए जाना जाता है। दिउड़ी मंदिर झारखण्ड अर्थात राँची शहर दक्षिण दिशा से तकरीबन ६० किमों की दूरी पर विभिन्न देवी-देवताओं की लीला भूमि प्राचीन ताम्रध्वज (तमाड़) नामक स्थान के पास दिउड़ी में है। इसके साथ टाटा-राँची हाईवें(नेशनल हाईवें ३३) से जुड़ा हुआ है। मंदिर का समय सुबह ५ बजे से साम के ८:३० बजे सप्ताह के सातों दिन भक्तों के लिए खुला रहता है। ब्राह्मण पुजारियों के साथ-साथ, यहां पर छह जनजातीय पुजारी हैं जो पहाड़िया के रूप में जाने जाते है। जो इस मंदिर में पूजा करते हैं और विभिन्न अनुष्ठानों और प्रार्थनाओं में भाग लेते हैं। इसके बारे कहा जाता है कि यह एकमात्र मंदिर है जहां आदिवासी पुजारियों को देवी की पूजा करने की अनुमति है। यह मंदिर और भी प्रसिद्ध तब हो गई जब इस मंदिर के साथ भारत के क्रिकेट टीम कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी का नाम आया।वहां के पुजारियों ने बताया कि महेन्द्र सिंह धोनी अपनी पत्नी संग इस मंदिर में अक्सर दर्शन करने हेतू आया करते है। अपने हर बड़े मैच के विजय होने की कामना के साथ यहां आते है एवं मैच में विजय हासिल कर के माता का धन्यवाद व्यक्त करने अपने परिवार संग दुबारा भी आते है।
[*Leadership Training to Acharya Keshab Chandra Sen (1838-1884) a great intellectual and a famous Brahma leader of the 19th century Bengal, who founded in 1880 a new 'universal religion' - Naba Bidhan (New Dispensation).
{आचार्य केशव चंद्र सेन (जन्म 1838 - मृत्यु 8 जनवरी, 1884) 19 वीं सदी के बंगाल के एक प्रसिद्ध ब्राह्म नेता थे , जिन्होंने 1880 में (42 वर्ष की आयु में) - 'नव -विधान ' (नई व्यवस्था) नामक एक नए 'विश्व धर्म' की स्थापना की थी ! और मात्र 46 वर्ष की अल्पायु में ही उनका देहान्त हो गया था। केशव चन्द्र सेन ने ही आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती को सलाह दी थी की वे 'सत्यार्थ प्रकाश' की रचना हिन्दी में करें।
श्रीरामकृष्णदेव ने को पहली बार नेतृत्व प्रशिक्षण * लीडरशिप ट्रेनिंग (#निदिध्यासन त्याग का प्रशिक्षण) * दिया था ! वे # निदिध्यासन -वेदान्त सुनने समझने के बाद मिथ्या का त्याग -‘कच्चा अहं’ त्याग दो ^ ‘पक्का अहं’ बनाए रखो ।’*[Renounce this "unripe I" and keep the "ripe I" * भागवत-भक्त-भगवान्= गुरु/नेता- कृष्ण-वैष्णव एक हैं !*
श्रीरामकृष्ण : "मैंने केशव सेन से कहा कि - इस "कच्चा मैं" का त्याग कर दो और "पक्का मैं" रखो, जिससे तुमको यह विश्वास हो जायेगा कि तुम ईश्वर (माँ काली) के दास हो , उनके भक्त हो, और माँ काली ही कर्ता हैं, और तुम उनके हैं यंत्र (साधन) हो ।"
वह 'मैं' जो कहता है, 'मैं एक नेता हूं, मैंने यह संगठन (विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर) बनाया था, मैं लोगों को चरित्र-निर्माण की शिक्षा दे रहा हूं', वह 'कच्चा मैं' है। विश्व-धर्म ('universal religion-'Be and Make') का प्रचार करना बहुत कठिन है। ईश्वर की आज्ञा (चपरास) प्राप्त किए बिना ऐसा करना संभव नहीं है। ईश्वर से आदेश (लिखित चपरास) प्राप्त होना अनिवार्य है। शुकदेव को भागवत का पाठ राजा परीक्षित को सुनाने के लिए भगवान की ओर से आदेश प्राप्त हुए था। यदि ईश्वर की प्राप्ति के बाद मनुष्य उनकी आज्ञा प्राप्त कर नेता या जीवन्मुक्त शिक्षक बन जाता है, तो उस उपदेश या शिक्षा से कोई हानि नहीं होती। उसका 'मैं' 'कच्चा मैं ' नहीं है; यह 'पक्का मैं' है। }
जो 16 कलाओं से युक्त है वही परब्रम्ह है वही सर्वत्र है। वह अंश और कला रूप से सभी प्रकार के चराचर जीव जंतुओं में प्रकाशित हो रहा है। इस जगत में दिखाई देने वाला स्थूल संसार परमात्मा की एक कला है। जीव जंतु कीट पतंग परमात्मा की चार कलाएं अभिव्यक्त करते हैं। पशु-पक्षी ईश्वर की छह कला के सामर्थ्य को प्रकट करते है। मनुष्यों में आमतौर पर ईश्वर की छह से आठ कलाएं अभिव्यक्त होती हैं, इसलिए मनुष्य को ईश्वर की आधी सामर्थ्य का प्रतीक बताया जाता है। जो व्यक्ति ईश्वर की 8 से 10 कलाएं व्यक्त कर पाता है उसे देवता कहते हैं। जो ईश्वर की 12 कलाओं को अभिव्यक्त कर सकता है उसे सिद्ध पुरुष कहते हैं। जो ईश्वर की 12 से 14 कलाएं प्रदर्शित करते हैं उन्हें भगवान या अवतार (नेता -पैगम्बर) कहा जाता है। जिनमें ईश्वर की 16 की 16 कलाएं अभिव्यक्त होती हैं उन्हें पूर्ण ब्रह्म कहा जाता है। इसीलिए श्रीकृष्ण को पूर्ण ब्रह्म की संज्ञा दी गई क्योंकि वह ईश्वर की सोलह कलाओं को अभिव्यक्ति करने में सक्षम थे। हालाकि यहां एक बात ध्यान देने की है कि 16 कलाओं से युक्त अवतार भी हमेशा ब्रह्म में संलग्न नहीं रहते। जब महाभारत का युद्ध खत्म हो गया तब अर्जुन श्रीकृष्ण के पास पहुंचे और फिर से गीता का ज्ञान देने का आग्रह किया। तब श्रीकृष्ण बोले हे अर्जुन वह गूढ़ ज्ञान मैंने उस समय योग में स्थित होकर तुम्हें दिया था। लेकिन अब वह दिव्यज्ञान मैं तुम्हें नहीं दे सकता क्योंकि आज उसका स्मरण मुझे भी नहीं है। श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि अवतारी पुरुष भी अष्ट प्रहर योग में संलग्न नहीं रह सकते। इसी तरह व्यक्ति भी हमेशा ब्रह्म में नहीं रह सकता जब तक शरीर के साथ आत्मा का संबंध है तब तक मनुष्य को जरूरत के मुताबिक सभी कर्म करने पड़ेंगे।
सोलह कला पूर्ण कहा जाता है भगवान श्रीकृष्ण को इसीलिए वे पूर्ण पुरुष भी कहलाए। वे विष्णु के अवतार ,युग पुरुष , गीता- ज्ञान देकर समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक हैं श्री कृष्ण। वे सोलह कलाऐं कौन कौन सी हैं जिनके बल पर श्रीकृष्ण नटखट बालक, विशुद्ध प्रेमी, ज्ञान के आधार और तर्क-योद्धा कहलाए . तो आइए जानते हैं उन सोलह कलाओं के बारे में जिनमें भगवान श्रीकृष्ण निपुण थे।
1. श्री धन संपदा /2. भू अचल संपत्ति / 3. कीर्ति यश प्रसिद्धि /4. इला वाणी की सम्मोहकता :/ 5. लीला आनंद उत्सव / 6. कांति सौंदर्य और आभा / 7. विद्या मेधा बुद्धि / 8. विमला पारदर्शिता / 9. उत्कर्षिणि प्रेरणा और नियोजन / 10. ज्ञान नीर क्षीर विवेक/ 11. क्रिया कर्मण्यता / 12. योग चित्तलय/13. प्रहवि अत्यंतिक विनय/ 14. सत्य यथार्य / 15. ईशानः आधिपत्य /16. अनुग्रह उपकार /
१. प्रथम कला के रूप में श्री -धन संपदा को स्थान दिया गया है। जिस व्यक्ति के पास अपार धन हो और वह आत्मिक रूप से भी धनवान हो। जिसके घर से कोई भी खाली हाथ नहीं जाए वह प्रथम कला से संपन्न माना जाता है। यह कला भगवान श्री कृष्ण में मौजूद है।
२. दूसरी कला- भू- अचल संपत्ति, जिस व्यक्ति के पास पृथ्वी का राज भोगने की क्षमता है। पृथ्वी के एक बड़े भू-भाग पर जिसका अधिकार है और उस क्षेत्र में रहने वाले जिसकी आज्ञाओं का सहर्ष पालन करते हैं वह अचल संपत्ति का मालिक होता है। भगवान श्री कृष्ण ने अपनी योग्यता से द्वारिका पुरी को बसाया। इसलिए यह कला भी इनमें मौजूद है।
३. तीसरी कला- कीर्ति- यश प्रसिद्धि: जिसके मान-सम्मान व यश की कीर्ति से चारों दिशाओं में गूंजती हो। लोग जिसके प्रति स्वत: ही श्रद्घा व विश्वास रखते हों वह तीसरी कला से संपन्न होता है। भगवान श्री कृष्ण में यह कला भी मौजूद है। लोग सहर्ष श्री कृष्ण की जयकार करते हैं।
४. चौथी कला- इला-वाणी की सम्मोहकता :चौथी कला का नाम इला है जिसका अर्थ है मोहक वाणी। भगवान श्री कृष्ण में यह कला भी मौजूद है। पुराणों में भी ये उल्लेख मिलता है कि श्री कृष्ण की वाणी सुनकर क्रोधी व्यक्ति भी अपना सुध-बुध खोकर शांत हो जाता था। मन में भक्ति की भावना भर उठती थी। यशोदा मैया के पास शिकायत करने वाली गोपियां भी कृष्ण की वाणी सुनकर शिकायत भूलकर तारीफ करने लगती थी।
५. पांचवीं कला- लीला- आनंद उत्सव : पांचवीं कला का नाम है लीला। इसका अर्थ है आनंद। भगवान श्री कृष्ण धरती पर लीलाधर के नाम से भी जाने जाते हैं क्योंकि इनकी बाल लीलाओं से लेकर जीवन की घटना रोचक और मोहक है। इनकी लीला कथाओं सुनकर कामी व्यक्ति भी भावुक और विरक्त होने लगता है।
६ छठवीं कला- कांति- सौदर्य और आभा :जिनके रूप को देखकर मन स्वत: ही आकर्षित होकर प्रसन्न हो जाता है। जिसके मुखमंडल को देखकर बार-बार छवि निहारने का मन करता है वह छठी कला से संपन्न माना जाता है। भगवान राम में यह कला मौजूद थी। कृष्ण भी इस कला से संपन्न थे। कृष्ण की इस कला के कारण पूरा ब्रज मंडल कृष्ण को मोहिनी छवि को देखकर हर्षित होता था। गोपियां कृष्ण को देखकर काम पीडि़त हो जाती थीं और पति रूप में पाने की कामना करने लगती थीं।
७. सातवीं कला- विद्या- मेधा बुद्धि: सातवीं कला का नाम विद्या है। भगवान श्री कृष्ण में यह कला भी मौजूद थी। कृष्ण वेद, वेदांग के साथ ही युद्घ और संगीत कला में पारंगत थे। राजनीति एवं कूटनीति भी कृष्ण सिद्घहस्त थे।
८. आठवीं कला - विमला-पारदर्शिता : जिसके मन में किसी प्रकार का छल-कपट नहीं हो वह आठवीं कला युक्त माना जाता है। भगवान श्री कृष्ण सभी के प्रति समान व्यवहार रखते हैं। इनके लिए न तो कोई बड़ा है और न छोटा। महारास के समय भगवान ने अपनी इसी कला का प्रदर्शन किया था। इन्होंने राधा और गोपियों के बीच कोई फर्क नहीं समझा। सभी के साथ सम भाव से नृत्य करते हुए सबको आनंद प्रदान किया था।
९. नौवीं कला- उत्कर्षिणि-प्रेरणा और नियोजन :महाभारत के युद्घ के समय श्री कृष्ण ने नौवी कला का परिचय देते हुए युद्घ से विमुख अर्जुन को युद्घ के लिए प्रेरित किया और अधर्म पर धर्म की विजय पताका लहराई। नौवीं कला के रूप में प्रेरणा को स्थान दिया गया है। जिसमें इतनी शक्ति मौजूद हो कि लोग उसकी बातों से प्रेरणा लेकर लक्ष्य भेदन कर सकें।
१० दसवीं कला- ज्ञान-नीर क्षीर विवेक :भगवान श्री कृष्ण ने जीवन में कई बार विवेक का परिचय देते हुए समाज को नई दिशा प्रदान की जो दसवीं कला का उदाहरण है। गोवर्धन पर्वत की पूजा हो अथवा महाभारत युद्घ टालने के लिए दुर्योधन से पांच गांव मांगना यह कृष्ण के उच्च स्तर के विवेक का परिचय है।
११. ग्यारहवीं कला- क्रिया-कर्मण्यता : ग्यारहवीं कला के रूप में क्रिया को स्थान प्राप्त है। भगवान श्री कृष्ण इस कला से भी संपन्न थे। जिनकी इच्छा मात्र से दुनिया का हर काम हो सकता है वह कृष्ण सामान्य मनुष्य की तरह कर्म करते हैं और लोगों को कर्म की प्रेरणा देते हैं। महाभारत युद्घ में कृष्ण ने भले ही हाथों में हथियार लेकर युद्घ नहीं किया लेकिन अर्जुन के सारथी बनकर युद्घ का संचालन किया।
१२. बारहवीं कला- योग-चित्तलय :जिनका मन केन्द्रित है, जिन्होंने अपने मन को आत्मा में लीन कर लिया है वह बारहवीं कला से संपन्न श्री कृष्ण हैं। इसलिए श्री कृष्ण योगेश्वर भी कहलाते हैं। कृष्ण उच्च कोटि के योगी थे। अपने योग बल से कृष्ण ने ब्रह्मास्त्र के प्रहार से माता के गर्भ में पल रहे परीक्षित की रक्षा की। मृत गुरू पुत्र को पुर्नजीवन प्रदान किया।
१३. तेरहवीं कला- प्रहवि-अत्यंतिक विनय : तेरहवीं कला का नाम प्रहवि है। इसका अर्थ विनय होता है। भगवान कृष्ण संपूर्ण जगत के स्वामी हैं। संपूर्ण सृष्टि का संचलन इनके हाथों में है फिर भी इनमें कर्ता का अहंकार नहीं है। गरीब सुदामा को मित्र बनाकर छाती से लगा लेते हैं। महाभारत युद्घ में विजय का श्रेय पाण्डवों को दे देते हैं। सब विद्याओं के पारंगत होते हुए भी ज्ञान प्राप्ति का श्रेय गुरू को देते हैं। यह कृष्ण की विनयशीलता है।
१४। चौदहवीं कला- सत्य-यर्थाथ : भगवान श्री कृष्ण की चौदहवीं कला का नाम सत्य है। श्री कृष्ण कटु सत्य बोलने से भी परहेज नहीं रखते और धर्म की रक्षा के लिए सत्य को परिभाषित करना भी जानते हैं यह कला सिर्फ कृष्ण में है। शिशुपाल की माता ने कृष्ण से पूछा की शिशुपाल का वध क्या तुम्हारे हाथों होगी। कृष्ण नि:संकोच कह देते हैं यह विधि का विधान है और मुझे ऐसा करना पड़ेगा।
१५। पंद्रहवीं कला- इसना -आधिपत्य : पंद्रहवीं कला का नाम इसना है। इस कला का तात्पर्य है व्यक्ति में उस गुण का मौजूद होना जिससे वह लोगों पर अपना प्रभाव स्थापित कर पाता है। जरूरत पडऩे पर लोगों को अपने प्रभाव का एहसास दिलाता है। कृष्ण ने अपने जीवन में कई बार इस कला का भी प्रयोग किया जिसका एक उदाहरण है मथुरा निवासियों को द्वारिका नगरी में बसने के लिए तैयार करना।
१६. सोलहवीं कला- अनुग्रह-उपकार: बिना प्रत्युकार की भावना से लोगों का उपकार करना यह सोलवीं कला है। भगवान कृष्ण कभी भक्तों से कुछ पाने की उम्मीद नहीं रखते हैं लेकिन जो भी इनके पास इनका बनाकर आ जाता है उसकी हर मनोकामना पूरी करते हैं।
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