[(17 जून, 1883) परिच्छेद ~ 41, श्रीरामकृष्ण वचनामृत: ]
[*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ* ]
परिच्छेद ४१
*दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ*
(१)
*तान्त्रिक भक्त तथा गृहस्थ जीवन: अनासक्त को भी भय है*
श्रीरामकृष्ण भोजन के बाद दक्षिणेश्वर मन्दिर के अपने कमरे में थोड़ा विश्राम कर रहे हैं । अधर तथा मास्टर के आकर प्रणाम किया । एक तान्त्रिक भक्त भी आए हैं । राखाल, हाजरा, रामलाल आदि आजकल श्रीरामकृष्ण के पास रहते हैं । आज रविवार है, १७ जून १८८३ ई. ।
श्रीरामकृष्ण (भक्तों के प्रति)- गृहस्थाश्रम में होगा क्यों नहीं ? परन्तु बहुत कठिन है । जनक आदि ज्ञान प्राप्त करने के बाद गृहस्थाश्रम में आए थे । परन्तु फिर भी भय है ! अनासक्त गृहस्थ (detached householder ) को भी भय है ! भैरवी को देखकर जनक ने मुँह नीचा कर लिया । स्त्री के दर्शन से संकोच हुआ था ।
भैरवी ने कहा, ‘जनक ! मैं देखती हूँ कि तुम्हें अभी ज्ञान नहीं हुआ । तुममें अभी भी 'स्त्रीपुरुष-बुद्धि' (Male-female distinction) # विद्यमान है।’
“कितना ही सयाना क्यों न हो, काजल की कोठरी में रहने पर शरीर पर कुछ न कुछ काला दाग लगेगा ही ।
{শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — সংসারে হবে না কেন? তবে বড় কঠিন। জনকাদি জ্ঞানলাভ করে সংসারে এসেছিলেন। তবুও ভয়! নিষ্কাম সংসারীরও ভয়। ভৈরবীকে দেখে জনক মুখ হেঁট করেছিল; স্ত্রীদর্শনে সঙ্কোচ হয়েছে! ভৈরবী বললে, জনক! তোমার দেখছি এখনও জ্ঞান হয় নাই; তোমার স্ত্রী-পুরুষ বোধ রয়েছে। কাজলের ঘরে যতই সেয়ানা হও না কেন, একটু না একটু কালো দাগ গায়ে লাগবে।
"Why shouldn't one be able to attain spirituality, living the life of a householder? But it is extremely difficult. Sages like Janaka entered the world after attaining Knowledge. But still the world is a place of terror. Even a detached householder has to be careful. Once Janaka bent down his head at the sight of a bhairavi. He shrank from seeing a woman. The bhairavi said to him: 'Janaka, I see you have not yet attained Knowledge. You still differentiate between man and woman.'}
“मैंने देखा, गृहस्थ जिस समय शुद्धवस्त्र पहनकर पूजा करते हैं उस समय उनका अच्छा भाव रहता है। यहाँ तक कि जलपान करने तक वही भाव रहता है । उसके बाद अपनी वही मूर्ति; फिर से रज, तम।
[“দেখেছি, সংসারীভক্ত যখন পূজা করছে গরদ পরে তখন বেশ ভাবটি। এমন কি জলযোগ পর্যন্ত এক ভাব। তারপর নিজ মূর্তি; আবার রজঃ তমঃ।
"If you move about in a room filled with soot, you will soil your body, however slightly, no matter how clever you may be. I have seen householder devotees filled with spiritual emotion while performing their daily worship wearing their silk clothes. They maintain that attitude even until they take their refreshments after the worship. But afterwards they become their old selves again. They display their rajasic and tamasic natures.
“सत्त्वगुण से भक्ति होती है । किन्तु भक्ति का सत्त्व, भक्ति का रज, भक्ति का तम है । भक्ति का सत्त्व विशुद्ध है; इसकी प्राप्ति होने पर, ईश्वर को छोड़ और किसी में भी मन नहीं लगता । देह की रक्षा हो एके, केवल इतना ही शरीर की ओर ध्यान रहता है ।
[“সত্ত্বগুণে ভক্তি হয়। কিন্তু ভক্তির সত্ত্ব, ভক্তির রজঃ, ভক্তির তমঃ আছে। ভক্তির সত্ত্ব, বিশুদ্ধ সত্ত্ব — এ-হলে ঈশ্বর ছাড়া আর কিছুতেই মন থাকে না; কেবল দেহটা যাতে রক্ষা হয় ওইটুকু শরীরের উপর মন থাকে।”
"Sattva begets bhakti. Even bhakti has three aspects: sattva, rajas, and tamas. The sattva of bhakti is pure sattva. When a devotee acquires it he doesn't direct his mind to anything but God. He pays only as much attention to his body as is absolutely necessary for its protection.]
*परमहंस त्रिगुणातित होते हैं*
“परमहंस तीनों गुणों से अतीत होते हैं ।* उनमें तीन गुण हैं और फिर नहीं भी हैं । ठीक बालक जैसा, किसी गुण के अधीन नहीं है । इसलिए परमहंस छोटे छोटे बच्चों को अपने पास आने देते हैं, जिससे उनके स्वभाव को अपना सकें ।
[“পরমহংস তিনগুণের অতীত।১ তার ভিতর তিনগুণ আছে আবার নাই। ঠিক বালক, কোন গুণের বশ নয়। তাই ছোট ছোট ছেলেদের পরমহংসরা কাছে আসতে দেয়, তাদের স্বভাব আরোপ করবে বলে।
"But a paramahamsa is beyond the three gunas. Though they exist in him, yet they are practically non-existent. Like a child, he is not under the control of any of the gunas. That is why paramahamsas allow small children to come near them — in order to assume their nature.]
“परमहंस संचय नहीं कर सकते । यह अवस्था गृहस्थों के लिए नहीं है । उन्हें अपने घरवालों के लिए संचय करना पड़ता है ।”
[“পরমহংস সঞ্চয় করতে পারে না। এটা সংসারীদের পক্ষে নয়, তাদের পরিবারদের জন্য সঞ্চয় করতে হয়।”
"Paramahamsas may not lay things up; but this rule does not apply to householders. They must provide tor their families."]
तान्त्रिक भक्त- क्या परमहंस को पाप-पुण्य का बोध रहता है ?
[ তান্ত্রিকভক্ত — পরমহংসের কি পাপ-পুণ্য বোধ থাকে?
TANTRIK DEVOTEE: "Is a paramahamsa aware of virtue and vice?"
श्रीरामकृष्ण- केशव सेन ने यह बात पूछी थी । मैंने कहा, ‘और अधिक कहने पर तुम्हारा दल-बल नहीं रहेगा ।’ केशव ने कहा, ‘तो फिर रहने दीजिए, महाराज ।’
[শ্রীরামকৃষ্ণ — কেশব সেন ওই কথা জিজ্ঞাসা করেছিল। আমি বললাম, আরও বললে তোমার দল টল থাকবে না। কেশব বললে, তবে থাক মহাশয়।
"Keshab Sen also asked that question. I said to him, 'If I explain that to you, then you won't be able to keep your society together.' 'In that case we had better stop here', said Keshab.
“पाप-पुण्य क्या है, जानते हो? परमहंस- अवस्था में अनुभव होता है कि वे ही सुबुद्धि देते हैं, वे ही कुबुद्धि देते हैं । फल क्या मीठे, कडुए नहीं होते? किसी पेड़ में मीठा फल, किसी में कडुआ या खट्टा फल । उन्होंने मीठे आम का वृक्ष भी बनाया है और फिर खट्टे फल का वृक्ष भी !”
[“পাপ-পুণ্য কি জানো? পরমহংস অবস্থায় দেখে, তিনিই সুমতি দেন, তিনিই কুমতি দেন। তিতো মিঠে ফল কি নেই? কোন গাছে মিষ্ট ফল, কোন গাছে তিতো বা টক ফল। তিনি মিষ্ট আমগাছও করেছেন, আবার টক আমড়াগাছও করেছেন।”
"Do you know the significance of virtue and vice? A paramahamsa sees that it is God who gives us evil tendencies as well as good tendencies. Haven't you noticed that there are both sweet and bitter fruits? Some trees give sweet fruit, and some bitter or sour. God has made the mango-tree, which yields sweet fruit, and also the hog plum, which yields sour fruit."
तान्त्रिक भक्त- जी हाँ, पहाड़ पर गुलाब की खेती दिखायी देती है । जहाँ तक दृष्टि जाती है केवल गुलाब ही गुलाब का खेत ।
[তান্ত্রিকভক্ত — আজ্ঞা হাঁ, পাহাড়ের উপর দেখা যায় গোলাপের ক্ষেত। যতদূর চক্ষু যায় কেবল গোলাপের ক্ষেত।
TANTRIK: "Yes, sir. That is true. On the hill-top one sees extensive rose gardens, reaching as far as the eye can see."
श्रीरामकृष्ण- परमहंस देखता है, यह सब उनकी माया का ऐश्वर्य है, सत्-असत्, भला-बुरा, पाप-पुण्य यह सब समझना बहुत दूर की बात है । उस अवस्था में दल-बल नहीं रहता ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — পরমহংস দেখে, এ-সব তাঁর মায়ার ঐশ্বর্য। সৎ-অসৎ, ভাল-মন্দ, পাপ-পুণ্য। সব বড় দূরের কথা। সে অবস্থায় দল টল থাকে না।
"The paramahamsa realizes that all these — good and bad, virtue and vice, real and unreal — are only the glories of God's maya. But these are very deep thoughts. One realizing this cannot keep an organization together or anything like that."]
*कर्मफल । पाप-पुण्य*
*माँ के भक्त पर कर्म का नियम (Law of Karma) लागु नहीं होता *
[O Arjuna, Proudly Proclaim, that My devotee never perishes. ~ कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।। (गीता 9.31) हे अर्जुन, तुम गर्व से घोषणा करो कि - 'मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता !' ]
तान्त्रिक भक्त- तो फिर कर्मफल है ?
TANTRIK: "But the law of karma exists, doesn't it?"
श्रीरामकृष्ण- वह भी है । अच्छा कर्म करने पर सुफल और बुरा कर्म करने पर कुफल मिलता है । मिर्च खाने पर तीखा तो लगेगा ही ! यह सब उनकी लीला है, खेल है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — তাও আছে। ভাল কর্ম করলে সুফল, মন্দ কর্ম করলে কুফল; লঙ্কা খেলে ঝাল লাগবে না? এ-সব তাঁর লীলা-খেলা।
"That also is true. Good produces good, and bad produces bad. Don't you get the hot taste if you eat chillies? But these are all God's lila, His play."
तान्त्रिक भक्त- हमारे लिए क्या उपाय है ? कर्म का फल तो है न ?
[তান্ত্রিকভক্ত — আমাদের উপায় কি? কর্মের ফল তো আছে?
"Then what is the way for us? We shall have to reap the result of our past karma, shall we not?"
श्रीरामकृष्ण- होने दो, परन्तु उनके भक्तों की बात अलग है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — থাকলেই বা। তাঁর ভক্তের আলাদা কথা।
"That may be so. But it is different with the devotees of God. Listen to a song:
यह कहकर आप गाने लगे- ...
मन रे कृषिकाज जानो ना।
एमोन मानव जमिन रोईलो पतित,आबाद कोरले फलतो सोना।
कालीनामेर दाओ रे बेड़ा, फसले तछरुप होबे ना।
शे जे मुक्त-केशीर शक्त बेड़ा, तार काछेते यम घेंसे ना।।
गुरु रोपण कोरेचेन बीज , भक्तिबारी ताय सेंचो ना।
एका जदि पारिस ना मन, रामप्रसादके संगे ने ना।।
মন রে কৃষিকাজ জানো না,
এমন মানব জমিন রইলো পতিত, আবাদ করলে ফলত সোনা/
মানব জমিন রইলো পতিত
আবাদ করলে ফলত সোনা
মন রে কৃষিকাজ জানো না
কালী নামে দাও রে বেড়া, ফসলে তছরূপ হবে না/
সে যে মুক্তকেশীর শক্ত বেড়া, তার কাছেতে যম ঘেঁষে না/
মুক্তকেশীর শক্ত বেড়া
তার কাছেতে যম ঘেঁষে না
মন রে কৃষিকাজ জানো না
মন রে কৃষিকাজ জানো না
অদ্য কিংবা শতাব্দান্তে, বাজাপ্ত হবে জানো না /
অদ্য কিংবা শতাব্দান্তে
বাজাপ্ত হবে জানো না,
আপন একতারে মন রে
চুটিয়ে ফসল কেটে নে না
মন রে কৃষিকাজ জানো না
মন রে কৃষিকাজ জানো না
গুরুদত্ত বীজ রোপণ করে
ভক্তি বারি সেঁচে দে না
একা যদি না পারিস
মন রে...
একা যদি না পারিস মন
রামপ্রসাদকে সঙ্গে নে না
(भावार्थ)- “रे मन ! तुम खेती का काम नहीं जानते हो ! ऐसी मनुष्यदेहरूपी जमीन पड़ी ही रह गयी ! यदि तुम खेती करते तो इसमें सोना फल सकता था । पहले तुम कालीनाम का घेरा लगा लो, फसल नष्ट न होगी । वह तो मुक्तकेशी का पक्का घेरा है, उसके पास यम भी नहीं आता । गुरु का दिया हुआ बीज बोकर भक्ति का जल सींच देना । हे मन, यदि तुम अकेले न कर सको, तो रामप्रसाद को साथ ले लेना।”
[O mind, you do not know how to farm! Fallow lies the field of your life.If you had only worked it well,How rich a harvest you might reap!Hedge it about with Kali's name,If you would keep your harvest safe; This is the stoutest hedge of all,For Death himself cannot come near it. Sooner or later will dawn the day When you must forfeit your precious field; Gather, O mind, what fruit you may.Sow for your seed the holy name, Of God that your guru has given to you,Faithfully watering it with love;And if you should find the task too hard,Call upon Ramprasad for help.]
फिर गा रहे हैं- .....
शमन आसार पथ घुचेछे, आमार मनेर संध घुचे गेछे,
ओरे आमार घरेर नवद्वारे, चारि शिब चौकि रयेछे ।
एक खुंटिते घर रयेछे, तिन रज्जुते बांधा आछे,
सहस्रदलकमले श्रीनाथ ,अभय दिये बोसे आछे ।। १ ।।
द्वारे आछे शक्ति बांधा, चौकिदारि भार लयेछे ।
से शक्तिर जोरे चेतन करे, ताईते प्राण निर्भये आछे ।। २ ।।
मूलाधारे स्वाधिष्ठाने, कंठमूले भुरु माझे ।
ए चारि स्थाने चारि शिव, नवद्वारे चौकि आछे ।। ३ ।।
'रामप्रसाद' बोले एइ घरे,चंद्रसूर्येर उदय आछे।
ओरे तमोनाशकरी तारा, हृद्-मंदिरे विराजिछे ।। ४।।
শমন আসবার পথ ঘুচেছে, আমার মনের সন্দ ঘুচে গেছে।
ওরে আমার ঘরের নবদ্বারে চারি শিব চৌকি রয়েছে ৷৷
এক খুঁটিতে ঘর রয়েছে, তিন রজ্জুতে বাঁধা আছে।
সহস্রদল কমলে শ্রীনাথ অভয় দিয়ে বসে আছে ৷৷
(भावार्थ)- ‘यम के आने का रास्ता बन्द हो गया । मेरे मन का सन्देह मिट गया । मेरे घर के नौ दरवाजों ^ (^शरीर अपने नौ छिद्रों के साथ, जैसे आंख, कान, नाक, मुंह, आदि द्वारों ) पर चार शिव पहरेदार हैं। एक ही स्तम्भ ( ब्रह्म) पर घर है, जो तीन रस्सियों (सत, तम और रज आदि तीन गुण) से बँधा हुआ है । सहस्त्रदल-कमल पर श्रीनाथ अभय देते हुए बैठे हैं ।’
[I have securely blocked the way by which the King of Death will come; Henceforward all my doubts and fears are set at naught for ever. Siva Himself is standing guard at the nine doorways of my house, Which has one Pillar for support, and three ropes to secure it. The Lord has made His dwelling-place the thousand-petalled lotus flower, Within the head, and comforts me with never-ceasing care.]
“काशी में ब्राह्मण मरे या वैश्या – सभी शिव होंगे ।”
“जब हरिनाम से, कालीनाम से, रामनाम से, आँखों में आँसू भर आते हैं, तब सन्ध्या-कवच आदि की कुछ भी आवश्यकता नहीं रह जाती । कर्म का त्याग हो जाता है । कर्म का फल स्पर्श नहीं करता ।”
{“কাশীতে ব্রাহ্মণই মরুক আর বেশ্যাই মরুক শিব হবে।“যখন হরিনামে, কালীনামে, রামনামে, চক্ষে জল আসে তখনই সন্ধ্যা-কবচাদির কিছুই প্রয়োজন নাই। কর্মত্যাগ হয়ে যায়। কর্মের ফল তার কাছে যায় না।”
The Master continued: "Anyone who dies in Benares, whether a brahmin or a prostitute, will become Siva. When a man sheds tears at the name of Hari, Kali, or Rama, then he has no further need of the sandhya and other rites. All actions drop away of themselves. The fruit of action does not touch him."
श्रीरामकृष्ण फिर गाना गा रहे हैं-...
भाविले भावेर उदय होय।
जेमोन भाब , तेमनी लाभ ,मूल से प्रत्यय।
कालीपद सुधाह्रदे चित्त यदि रय (यदि चित्त डूबे रय)।
तोबे पूजा -होम यागयज्ञ किछु नय।।
ভাবিলে ভাবের উদয় হয়।
যেমন ভাব, তেমনি লাভ, মূল সে প্রত্যয়।
কালীপদ সুধাহ্রদে চিত্ত যদি রয় (যদি চিত্ত ডুবে রয়)।
তবে পূজা-হোম যাগযজ্ঞ কিছু নয়।
(भावार्थ)- “माँ भवतारिणी के रूप का चिन्तन करने पर उनके चरणों में प्रेम भाव का उदय होता है । जैसा भाव, वैसी ही प्राप्ति होती है- विश्वास ही मूल बात है । यदि चित्त काली के चरणरूपी अमृत-सरोवर में डूबा रहता है, तो फिर पूजा-होम, यज्ञ का कुछ भी महत्त्व नहीं है ।”
[As is a man's (object of) meditation, so is his feeling of love; As is a man's feeling of love, so is his gain; And faith is the root of all. If in the Nectar Lake of Mother Kali's feet, My mind remains immersed, Of little use are worship, oblations, or sacrifice.
श्रीरामकृष्ण फिर गा रहे हैं-
त्रिसंध्या जे बोले काली , पूजा संध्या से की चाय।
गया-गंगा-प्रभासादि काशी कांची केवा चाय |
ত্রিসন্ধ্যা যে বলে কালী, পূজা সন্ধ্যা সে কি চায় ৷
সন্ধ্যা তার সন্ধ্যানে ফিরে, কভু সন্ধি নাহি পায় ৷৷
গয়া গঙ্গা প্রভাসাদি কাশী কাঞ্চী কেবা চায় ৷
কালী কালী কালী বলে আমার অজপা যদি ফুরায় ৷৷
(भावार्थ)- “जो त्रिसन्ध्या में काली का नाम लेता है, क्या वह पूजा-संध्यादि चाहता है ? सन्ध्या स्वयं उसकी खोज में फिरती रहती है, पर उससे मिल नहीं पाती ! यदि ‘काली काली’ कहते हुए मेरे प्राण निकल जाए, तो फिर गया, गंगा, प्रभास, काशी, कांची आदि की कौन परवाह करता है !’
“ईश्वर में मग्न हो जाने पर फिर असद्बुद्धि, पापबुद्धि नहीं रह जाती ।”
[“তাঁতে মগ্ন হলে আর অসদ্বুদ্ধি, পাপবুদ্ধি থাকে না।”
"When a man merges himself in God, he can no longer retain wicked or sinful tendencies."
तांत्रिक भक्त- आपने कहा है ‘विद्या का ‘मैं’ रहता है ।
[তান্ত্রিকভক্ত — আপনি যা বলেছেন “বিদ্যার আমি” থাকে।
"You have said rightly that he keeps only the 'Knowledge ego'."
श्रीरामकृष्ण- ‘विद्या का मैं’, ‘भक्त मैं’, ‘दास मैं’, ‘भला मैं’ रहता है । ‘बदमाश मैं’ चला जाता है । (हँसी)
[শ্রীরামকৃষ্ণ — বিদ্যার আমি, ভক্তের আমি। দাস আমি, ভাল আমি থাকে। বজ্জাত আমি চলে যায়। (হাস্য)
MASTER: "Yes, he keeps only the 'Knowledge ego', the 'devotee ego', the 'servant ego', and the 'good ego'. His 'wicked ego' disappears."
*आत्मा का साक्षात्कार होने पर सब सन्देह मिट जाते हैं।*
तान्त्रिक भक्त- जी महाराज, हमारे अनेक सन्देह मिट गए ।
[তান্ত্রিকভক্ত — আজ্ঞা, আমাদের অনেক সংশয় চলে গেল।
"Today you have destroyed many of our doubts."
श्रीरामकृष्ण- आत्मा का साक्षात्कार होने पर सब सन्देह मिट जाते हैं ।*
[শ্রীরামকৃষ্ণ — আত্মার সাক্ষাৎকার হলে সব সন্দেহ ভঞ্জন হয়।
"All doubts disappear when one realizes the Self.
[*भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ -मुण्डक उपनिषद् २/२/८) हृदय की सारी ग्रथियाँ खुल जाती हैं, समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, तथा मनुष्य के कर्मों का क्षय हो जाता है, जब उस 'परतत्त्व' का दर्शन हो जाता है, जो एक साथ ही अपरा सत्ता एवं 'परम सत्ता' है।]
*भक्ति का तम लाओ !*
“भक्ति का तम लाओ । कहो - जब मैंने राम का नाम लिया, काली का नाम लिया, तब यह कैसे सम्भव है कि मेरा बन्धन रहे, मेरा कर्मफल रहे ?”
[“ভক্তির তমঃ আন। বল, কি! রাম বলেছি, কালী বলেছি, আমার আবার বন্ধন; আমার আবার কর্মফল।”
"Assume the tamasic aspect of bhakti. Say with force: 'What? I have uttered the names of Rama and Kali. How can I be in bondage any more? How can I be affected by the law of karma?'"
श्रीरामकृष्ण फिर गाना गा रहे हैं- ...
आमि दूर्गा दूर्गा दूर्गा बोली मा जदि मरी।
आखेरे दिने ना तारो केमने जाना जाबी गो शंकरी।।
नाशि गो ब्राह्मण, हत्या करी भृणु, सुरापान आदि बिनाशी नारी।
ए सब पातक न भाबी तिलेक,ब्रह्म पद निते पारि।।
(भावार्थ)- “माँ, यदि मैं ‘दुर्गा दुर्गा’ कहता हुआ मरूँ, तो हे शंकरी, देखूँगा कि अन्त में इस दीन का तुम कैसे उद्धार नहीं करतीं ! माँ ! गो-ब्राह्मण की, भ्रूण की तथा नारी की हत्या, सुरापान आदि पापों की रत्तीभर परवाह न कर मैं ब्रह्मपद प्राप्त कर सकता हूँ ।”
[If only I can pass away repeating Durga's name, How canst Thou then, O Blessed One, Withhold from me deliverance, Wretched though I may be? I may have stolen a drink of wine, or killed a child unborn, Or slain a woman or a cow, Or even caused a brahmin's death; But, though it all be true, Nothing of this can make me feel the least uneasiness; For through the power of Thy sweet name My wretched soul may still aspire Even to Brahmanhood.
*विश्वास : ‘ওহি রাম ঘট্ ঘট্মে লেটা! ~ ओहि राम घोट घोट में लेटा " *
श्रीरामकृष्ण फिर कहते हैं- “विश्वास, विश्वास, विश्वास ! गुरु ने कह दिया है, ‘राम ही सब कुछ बनकर विराजमान हैं । ‘ওহি রাম ঘট্ ঘট্মে লেটা!’ ओही राम घट-घट में लेटा ।’ कुत्ता रोटी खाता जा रहा है। भक्त कहता है, ‘राम ! ठहरो, ठहरो, रोटी में घी लगा दूँ ।’ गुरुवाक्य में ऐसा विश्वास !
[শ্রীরামকৃষ্ণ আবার বলিতেছেন — বিশ্বাস! বিশ্বাস! বিশ্বাস! গুরু বলে দিয়েছেন, রামই সব হয়ে রয়েছেন; ‘ওহি রাম ঘট্ ঘট্মে লেটা!’ কুকুর রুটি খেয়ে যাচ্ছে। ভক্ত বলছে, ‘রাম! দাঁড়াও, দাঁড়াও রুটিতে ঘি মেখে দিই’ এমনি গুরুবাক্যে বিশ্বাস।
"Faith! Faith! Faith! Once a guru said to his pupil, 'Rama alone has become everything.' When a dog began to eat the pupil's bread, he said to it: 'O Rama, wait a little. I shall butter Your bread.' Such was his faith in the words of his guru.]
“भुक्कड़ो (Worthless people) को विश्वास नहीं होता । सदा ही सन्देह ! आत्मा का साक्षात्कार हुए बिना सब सन्देह दूर नहीं होते ।
[“হাবাতেগুলোর বিশ্বাস হয় না! সর্বদাই সংশয়! আত্মার সাক্ষাৎকার না হলে সব সংশয় যায় না।২
"Worthless people do not have any faith. They always doubt. But doubts do not disappear completely till one realizes the Self.
*तान्त्रिक क्रिया (पञ्चमकार साधना ?) आजकल सफल क्यों नहीं होती ?*
“शुद्ध भक्ति, जिसमें कोई कामना न हो, ऐसी भक्ति द्वारा उन्हें शीघ्र प्राप्त किया जा सकता है ।
“अणिमा आदि सिद्धियाँ – ये सब कामनाएँ हैं । कृष्ण ने अर्जुन से कहा है, ‘भाई, अणिमा आदि सिद्धियों में से एक के भी रहते ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती । शक्ति को थोड़ा बढ़ा भर सकती हैं वे ।”
[“শুদ্ধাভক্তি — কোন কামনা থাকবে না, সেই ভক্তি দ্বারা তাঁকে শীঘ্র পাওয়া যায়।“অণিমাদি সিদ্ধি — এ-সব কামনা। কৃষ্ণ অর্জুনকে বলেছিলেন, ভাই, অণিমাদি সিদ্ধাই, একটিও থাকলে ঈশ্বরলাভ হয় না; একটু শক্তি বাড়তে পারে।”
"In genuine love of God there is no desire. Only through such love does one speedily realize God. Attainment of supernatural powers and so on — these are desires. Krishna once said to Arjuna: 'Friend, you cannot realize God if you acquire even one of the eight supernatural powers. They will only 'add a little to your power.'"
तान्त्रिक भक्त- महाराज, तान्त्रिक क्रिया (पञ्चमकार साधना ?) आजकल सफल क्यों नहीं होती ?
[“তান্ত্রিকভক্ত — আজ্ঞে, তান্ত্রিক ক্রিয়া আজকাল কেন ফলে না?
"Sir, why don't the rituals of Tantra bear fruit nowadays?"
श्रीरामकृष्ण- सर्वांगीण नहीं होती और भक्तिपूर्वक भी नहीं की जाती, इसीलिए सफल नहीं होती ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — সর্বাঙ্গীণ হয় না, আর ভক্তিপূর্বক হয় না — তাই ফলে না।
"It is because people cannot practise them with absolute correctness and devotion."
अब श्रीरामकृष्ण उपदेश समाप्त कर रहे हैं । कह रहे हैं-
“भक्ति ही सार है । सच्चे भक्त को कोई भय, कोई चिन्ता नहीं। माँ सब कुछ जानती है । बिल्ली चूहा पकड़ती है एक प्रकार से, परन्तु अपने बच्चे को पकड़ती है दूसरे प्रकार से ।’
[এইবার ঠাকুর কথা সাঙ্গ করিতেছেন। বলিতেছেন, ভক্তিই সার; ঠিক ভক্তের কোন ভয় ভাবনা নাই। মা সব জানে। বিড়াল ইঁদুরকে ধরে একরকম করে, কিন্তু নিজের ছানাকে আর-একরকম করে ধরে।
In conclusion the Master said; "Love of God is the one essential thing. A true lover of God has nothing to fear, nothing to worry about. He is aware that the Divine Mother knows everything. The cat handles the mouse one way, but its own kitten a very different way."
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हे अर्जुन, गर्व से घोषणा करो कि मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।।9.31।।
।।9.31।। मेरा भक्त शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। हे अर्जुन, तुम गर्व से घोषणा करो कि - 'मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता !'
[9.31 Soon he becomes righteous and attains to eternal peace; O Arjuna, Proudly Proclaim thou for certain that My devotee never perishes.
वेदान्त में निर्दिष्ट 'पूर्णत्व' (ब्रह्मस्वरूप -दिव्यता) हमसे उतना ही दूर है, जितना हमारी जाग्रत अवस्था हमारे स्वप्न से। यहाँ मन को केवल एकाग्र करने की ही आवश्यकता है। यदि कैमरे को ठीक से केन्द्रीभूत (फोकस) नहीं किया जाता, तो सामने के सुन्दर दृश्य का केवल धुँधला चित्र ही प्राप्त होता है। और यदि उस कैमरे को सम्यक् प्रकार से फोकस किया जाय, तो उसी से हमें सम्पूर्ण दृश्य का उसके विस्तार एवं भव्य सौन्दर्य के साथ चित्र प्राप्त होता है।
यह बताने के पश्चात् कि अतिशय दुराचारी पुरुष भी (स्वामी विवेकानन्द की) भक्ति और (चरित्रवान मनुष्य बनने के ) सम्यक् निश्चय के द्वारा शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। इस श्लोक की दूसरी पंक्ति भगवान् श्रीकृष्ण के अतुलनीय धर्म-प्रचारक (या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता के ) व्यक्तित्व को उजागर करती है।
{* मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते । स गुणान् समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ - गीता, १४/२६ अन्वय - मां च यः अव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते सः गुणान् समतीत्य एतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ) जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मेरी सेवा अर्थात् उपासना करता है, वह इन तीनों गुणों के अतीत होकर ब्रह्म बनने और बनाने (Be and Make) के लिये योग्य हो जाता है।।हमारा सम्पूर्ण स्वभाव हमारे विचारों से पोषित होता है। यथा विचार तथा मन ! यह नियम है। इसलिये एकाग्र चित्त से आत्मा के अनन्तस्वरूप का चिन्तन करने से परिच्छिन्न नश्वर अहंकार की समाप्ति और स्वस्वरूप में स्थिति हो जाती है। जिस स्थिति में आज हम अपने को पाते हैं, उसमें हमारा यह सार्मथ्य नहीं है कि हम अपने मन को दीर्घकाल तक ध्यानाभ्यास (विवेकदर्शन या मनःसंयोग) में स्थिर कर सकें। साधकों की इस अक्षमता को जानते हुये भगवान् एक उपाय बताते हैं; जिसके द्वारा हम दीर्घकाल तक ईश्वर का स्मरण (विवेकदर्शन का अभ्यास ) बनाये रख सकते हैं। और वह उपाय है सेवा -' Be and Make ' आंदोलन का नेतृत्व करना ।हम लोग यह जानते हैं कि 'ब्रह्मार्पणं' - या ईश्वरार्पण की भावना से किए गए निष्काम सेवा कर्म ईश्वर की पूजा (यज्ञ) बन जाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि केवल मूर्तिपूजा, या भजन ही पर्याप्त नहीं है। स्वामी विवेकानन्द अपने अनुयायियों से यह अपेक्षा रखते थे कि, वे अपने धर्म को केवल पूजा के कमरे या मन्दिरों में ही सीमित न रखेंगे ! उन्हें चाहिये कि वे अपने दैनिक जीवन के प्रत्येक कार्य- क्षेत्र में, खेत-खलिहान खेल के मैदान, और लोगों के साथ व्यवहार में भी धर्म का अनुसरण करें।अखण्ड ईश्वर स्मरण तथा सेवा -साधना , या 'शिवज्ञान से सम्पादित जीव सेवा ' मन के विक्षेपों को दूर करके उसे ध्यान की सूक्ष्मतर साधना के योग्य बना देती है। तमस और रजस की मात्रा घटती जाती है और उसी अनुपात में सत्त्वगुण प्रवृद्ध होता जाता है। ऐसा सत्त्वगुण प्रधान साधक ध्यान की साधना के योग्य बन जाता है। ऐसे साधक से आत्मानुभूति दूर नहीं रहती। उत्तम अधिकारी ब्रह्मस्वरूप का अनुभव कर स्वयं ब्रह्म बन जाता है। जैसे स्वप्नद्रष्टा जागने पर स्वयं ही जाग्रत पुरुष बनता है।}
*स्त्री-पुरुष विवेक : एक राम घट-घट में लेटा*
( Male-female distinction )
वैदिक काल में परिवार के सभी कार्यों और भूमिकाओं में पत्नी को पति के समान अधिकार प्राप्त थे। नारियां शिक्षा ग्रहण करने के अलावा पति के साथ यज्ञ का सम्पादन भी करतीं थीं।
सती शतरूपा स्वायम्भुव मनु की पत्नी थीं। वे चारों वेदों की प्रकाण्ड विदुषी थी। जल प्रलय के बाद मनु और शतरूपा से ही दोबारा सृष्टि का आरम्भ हुआ। ये योगशास्त्र की भी प्रकाड विद्वान और साधक थीं।
विदुषी अरून्धती ब्रहर्षि वसिष्ठ जी की धर्मपत्नी थीं। ये भी वेदों की प्रकाण्ड विद्वान थी। अपने ज्ञान के बल पर ही ये एकमात्र ऐसी विदुषी हैं, जिन्होंने सप्तर्षि मंडल में ऋषि पत्नी के रूप में गौरवशाली स्थान पाया। महर्षि मेधातिथि के यज्ञ में ये बचपन से ही भाग लेती थीं और यज्ञ के बाद वेदों की बातों पर तर्क-वितर्क किया करती थी।
ब्रह्मवादिनी गार्गी के पिता का नाम वचक्नु था, जिसके कारण इन्हें वाचक्नवी भी कहते हैं। गर्ग गोत्र में उत्पन्न होने के कारण इन्हें गार्गी कहा जाता है। ये वेद शास्त्रों की महान विद्वान थी। इन्होंने शास्त्रार्थ में अपने युग में महान विद्वान महिर्ष याज्ञवल्क्य तक को हरा दिया था।
विदुषी मैत्रेयी महर्षि याज्ञवल्क्य की पत्नी थीं। इन्होंने पति के श्रीचरणों में बैठकर वेदों का गहन अध्ययन किया। पति परमेश्वर की उपाधि इन्हीं के कारण जग में प्रसिद्ध हुई, क्योंकि इन्होंने पति से ज्ञान प्राप्त किया था और फिर उस ज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए कन्या गुरुकुल स्थापित किए।
विदुषी विद्योत्तमा से परास्त होकर पण्डितों ने एक मूर्ख को मौनी गुरु बताकर संकेत से शास्त्रार्थ की चुनौती दी थी। पण्डितों ने दो अंगुली और मुक्का आदि के अलग अर्थ बताकर विद्योत्तमा को परास्त घोषित करके मूर्ख से विवाह करने को विवश कर दिया। विद्योत्तमा ने पति से उष्ट्र को उसट सुनकर उसे रात में ही घर से भगाकर दरवाजा बंद कर दिया।
कुछ वर्ष बाद एक घनघोर रात्रि में पति ने पुकारा-‘‘अनावृतकपाटं द्वारं देहि।’’ विद्योत्तमा ने द्वार खोलकर कहा, ‘‘अस्ति कश्चित वाक् विशेषः।’’ पत्नी के उपरोक्त तीन शब्दों पर अस्ति से कुमार सम्भव महाकाव्य, कश्चित् से मेघदूत खण्डकाव्य और वाक्विशेषः से रघुवंश महाकाव्य की रचना पति महोदय ने कर डाली। इन तीनों कालजयी ग्रंथ के रचनाकार थे वही अतीत के मूर्ख, विश्व के सर्वश्रेष्ठ संस्कृत साहित्यकार अमर महाकवि कालिदास।
मानव के मादा स्वरूप को 'स्त्री ' कहते हैं, जो स्त्रीलिंग है। महिला शब्द मुख्यत: वयस्क स्त्रियों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। किन्तु कई संदर्भो में यह शब्द संपूर्ण स्त्री वर्ग को दर्शाने के लिए भी प्रयोग मे लाया जाता है, जैसे 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः । ' यह बात हमारे वेदों और पुराणों में कही गयी है कि जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों की पूजा नही होती है, उनका सम्मान नही होता है वहाँ किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं। क्योंकि केवल स्त्रियाँ ही रजोनिवृत्ति तक यौवन से देव-संतानों को जन्म देने में सक्षम होती हैं।
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