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शनिवार, 15 मई 2021

$$$$$$$परिच्छेद ~ 37,[(5 जून, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] *Wholehearted Faith**ज्ञानपथ और नास्तिकता* सच्चिदानन्दरूपी सागर में आत्मारूपी मछली खेल रही है ।“ईश्वर ही कर्ता हैं, उन्हीं की इच्छा से सब कुछ हो रहा है ।” *साधु और अवतार में अन्तर* * केवल ईश्वरकोटि ही समाधि से लौट सकता है~ मकरध्वज* बेलघरिया में मोती शील की झील*

 [(5 जून, 1883)परिच्छेद ~ 37, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

[*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ* ]

परिच्छेद~ ३७ 

*श्रीरामकृष्ण का प्रथम प्रेमोन्माद* 

(१) 

*पूर्वकथा- देवेन्द्र ठाकुर, दीन मुखर्जी और कुँवरसिंह* 

आज अमावस्या, मंगलवार का दिन है, 5 जून 1883  ई. । श्रीरामकृष्ण कालीमन्दिर में हैं । भक्त-समागम रविवार को विशेष होता है; आज अधिक लोग नहीं है । राखाल श्रीरामकृष्ण के पास रहते हैं । हाजरा भी है, श्रीरामकृष्ण के कमरे के सामने वाले बरामदे में अपना असन लगाया है । मास्टर पिछले रविवार से यहाँ हैं । 

कल सोमवार रात को कालीमन्दिर में कृष्णलीला पर नाटक हुआ था । श्रीरामकृष्ण ने कुछ देर तक देखा था । वैसे यह नाटक रविवार को होनेवाला था, पर उस दिन न हो पाया इसलिए कल सोमवार को हुआ । 

दोपहर को भोजन के बाद श्रीरामकृष्ण अपने प्रेमोन्माद की अवस्था (God-intoxicated state) का वर्णन कर रहे हैं । 

[ মধ্যাহ্নে খাওয়া-দাওয়ার পর ঠাকুর নিজের প্রেমোন্মাদ অবস্থা আবার বর্ণনা করিতেছেন।

It was afternoon. Sri Ramakrishna was telling the devotees about his experiences during his God-intoxicated state.

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - कैसी हालत बीत चुकी है । यहाँ भोजन न करता था, वराहनगर या दक्षिणेश्वर या आरियादह में किसी ब्राह्मण के घर चला जाता, और जाता भी देर में था । जाकर बैठ जाता था, पर बोलता कुछ नहीं । घर के लोग पूछते तो केवल कहता, ‘मैं यहाँ खाऊँगा ।’ और कोई बात नहीं करता । आलमबाजार में राम चटर्जी के यहाँ जाता । कभी दक्षिणेश्वर में सावर्ण चौधरी के मकान पर जाता । उनके यहाँ खाया तो करता था, पर अच्छा नहीं लगता था; उसमें कैसी गन्ध आती थी ।  

“एक दिन हठ कर बैठा, देवेन्द्रनाथ ठाकुर के घर जाऊँगा । मथुरबाबू से कहा, ‘देवेन्द्र ईश्वर का नाम लेते हैं, उनको देखना चाहता हूँ, मुझे ले चलोगे ?’ मथुरबाबू को अपनी मान-मर्यादा का बड़ा अभिमान था, वे अपनी गरज से किसी के मकान पर क्यों जाने लगे ? आगापीछा करने लगे । बाद में बोले, ‘अच्छा, देवेन्द्र और हम एक साथ पढ़ चुके हैं, चलिए, आपको ले चलेंगे ।’  

“एक दिन सुना कि दीन मुखर्जी नाम का एक भला आदमी बागबाजार के पुल के पास रहता है । भक्त है । मथुरबाबू को पकड़ा, दीन मुखर्जी के यहाँ जाऊँगा । मथुरबाबू क्या करते, गाड़ी पर मुझे ले गए । छोटा सा मकान और इधर एक बड़ी भारी गाड़ी पर एक बड़ा आदमी आया है; वह भी शरमा गया और हम भी ।  

फिर उसके लड़के का जनेऊ होनेवाला था । कहाँ बैठाए ! हम लोग बाजू के कमरे में जाने लगे तो वह बोल उठा, ‘वहाँ न जाइए, उस कमरें में औरतें हैं ।’ बड़ा असमंजस था । मथुरबाबू लौटते समय बोले, ‘बाबा, तुम्हारी बात अब कभी न मानूँगा ।’ मैं हँसने लगा । “कैसी अनोखी अवस्था थी ! कुँवरसिंह ने साधुओ को भोजन कराना चाहा, मुझे भी न्योता दिया । जाकर देखा बहुत से साधु आए हैं । 

मेरे बैठने पर साधुओ में से कोई कोई मेरा परिचय पूछने लगे- ‘आप गिरी हैं या पुरी ?’ पर ज्योंही उन्होंने पूछा त्योंही मैं अलग जाकर बैठा । सोचा कि इतनी खबर काहे की ? बाद को ज्योंही पत्तल बिछाकर भोजन के लिए बैठाया, किसी के कुछ कहने के पहले ही मैंने खाना शुरू कर दिया । साधुओं में से किसी किसी को कहते सुना, ‘अरे यह क्या !’ 

(२) 

“ईश्वर ही कर्ता हैं, उन्हीं की इच्छा से सब कुछ हो रहा है ।” 

 (स्वप्न की अवस्था जैसी सत्य है, जाग्रत् अवस्था भी वैसी ही सत्य है ।) 

पाँच बजे हैं । श्रीरामकृष्ण अपने कमरे के बरामदे की सीढ़ी पर बैठे हैं । राखाल, हाजरा और मास्टर पास बैठे हैं । हाजरा का भाव (भक्त का नहीं वेदान्तीयों जैसा)  है- ‘सोऽहं - I am He. मैं ही ब्रह्म हूँ ।’ 

[বেলা পাঁচটা হইয়াছে। ঠাকুর বারান্দার কোলে যে সিঁড়ি, তাহার উপর বসিয়া আছেন। রাখাল, হাজরা ও মাস্টার কাছে বসিয়া আছেন। হাজরার ভাব ‘সোঽহম্‌’

।It was about five o'clock in the afternoon. Sri Ramakrishna was sitting on the steps of his verandah. Hazra, Rakhal, and M. were near him. Hazra had the attitude of a Vedantist: "I am He.]

श्रीरामकृष्ण (हाजरा से)- हाँ, यह सोचने से सब गड़बड़ मिट जाती है, - वे ही आस्तिक हैं, वे ही नास्तिक; वे ही बुरे; वे ही नित्यवस्तु हैं, वे ही अनित्य जगत्; जाग्रति और निद्रा उन्हीं की अवस्थाएँ हैं; फिर वे ही सारी अवस्थाओं से परे (तुरीय ?) भी हैं । 

[अर्थात  किसी सच्चे जिज्ञासु (सत्यार्थी-सिंहशावक ) का भ्रम  (confusion : Hypnotized -अवस्था या भेंड़ होने का भ्रम यह सोचने से मिट जाता है कि ‘सोऽहं - मैं ही ब्रह्म हूँ !’ क्योंकि स्वयं ईश्वर (माँ भवतारिणी काली) ही नास्तिक (atheist- अनीश्वरवादी) बनी हैं , और वे ही आस्तिक (believer) बनी हैं। वे ही अच्छा और बुरा इंसान बनी हैं , वे ही नित्यवस्तु (शाश्वत -eternal, real,आत्मा या सच्चिदानन्द) हैं , और वे ही अनित्य जगत (नश्वर - mortal, unreal : मरणाधीन ,परिवर्तन शील होने के कारण मिथ्या देह -मन) बनी हैं !  जाग्रत,स्वप्न और सुषुप्ति ये सभी उन्हीं की अवस्थायें हैं; फिर वे ही सारी अवस्थाओं से परे -तुरीय (चतुर्थ अवस्था) भी हैं ! अतः ज्ञानियों (पैगम्बरों) को जाग्रत अवस्था भी , स्वप्न अवस्था से अधिक सत्य प्रतीत नहीं होती।  (To the jnanis the waking state is no more real than the dream state.)  ]     

শ্রীরামকৃষ্ণ (হাজরার প্রতি) — হাঁ, সব গোল মেটে; তিনিই আস্তিক, তিনিই নাস্তিক; তিনিই ভাল, তিনিই মন্দ; তিনিই সৎ, তিনিই অসৎ; জাগা, ঘুম এ-সব অবস্থা তাঁরই; আবার তিনি এ-সব অবস্থার পার।

"Yes, all one's confusion comes to an end if one only realizes that it is God who manifests Himself as the atheist and the believer, the good and the bad, the real and the unreal; that it is He who is present in waking and in sleep; and that He is beyond all these.] 

“एक किसान को बुढ़ापे में एक लड़का हुआ था । लड़के को वह बहुत यत्न से पालता था । धीरे धीरे लड़का बड़ा हुआ । एक दिन जब किसान खेत में काम कर रहा था, किसी ने आकर उसे खबर दी कि तुम्हारा लड़का बहुत बीमार है – अब-तब हो रहा है । उसने घर में आकर देखा, लड़का मर गया है । स्त्री खूब रो रही है; पर किसान की आँखों में आँसू तक नहीं । 

उसकी स्त्री अपनी पड़ोसिनों के पास इसलिए और भी शोक करने लगी कि ऐसा लड़का चला गया, पर इनकी आँखों में आँसू का नाम नहीं ! बड़ी देर बाद किसान ने अपनी स्त्री को पुकारकर कहा, ‘मैं क्यों नहीं रोता, जानती हो ? मैंने कल स्वप्न में देखा कि राजा हो गया हूँ और सात लड़कों का बाप बना हूँ । 

स्वप्न में ही देखा कि वे लड़के रूप और गुण में अच्छे हैं । क्रमशः वे बड़े हुए और विद्या तथा धर्म उपार्जन करने लगे । इतने में ही नींद खुल गयी । अब सोच रहा हूँ कि तुम्हारे इस एक लड़के के लिए रोऊँ या अपने उन सात लड़कों के लिए ?’ ज्ञानियों (पैगम्बरों) के मत से स्वप्न की अवस्था जैसी सत्य है, जाग्रत् अवस्था भी वैसी ही सत्य है । 

[“একজন চাষার বেশি বয়সে একটি ছেলে হয়েছিল। ছেলেটিকে খুব যত্ন করে। ছেলেটি ক্রমে বড় হল। একদিন চাষা ক্ষেতে কাজ করছে, এমন সময় একজন এসে খবর দিলে যে, ছেলেটির ভারী অসুখ। ছেলে যায় যায়। বাড়িতে এসে দেখে, ছেলে মারা গেছে। পরিবার খুব কাঁদছে, কিন্তু চাষার চক্ষে একটুও জল নাই। পরিবার প্রতিবেশীদের কাছে তাই আরও দুঃখ করতে লাগল যে, এমন ছেলেটি গেল এঁর চক্ষে একটু জল পর্যন্ত নাই। অনেকক্ষণ পরে চাষা পরিবারকে সম্বোধন করে বললে, ‘কেন কাঁদছি না জানো? আমি কাল স্বপন দেখেছিলুম যে, রাজা হয়েছি, আর সাত ছেলের বাপ হয়েছি। স্বপনে দেখলুম যে, ছেলেগুলি রূপে গুণে সুন্দর। ক্রমে বড় হল বিদ্যা ধর্ম উপার্জন কল্লে। এমন সময় আমার ঘুম ভেঙে গেল; এখন ভাবছি যে, তোমার ওই এক ছেলের জন্য কাঁদব, কি আমার সাত ছেলের জন্য কাঁদব।’ জ্ঞানীদের মতে স্বপন অবস্থাও যেমন সত্য, জাগা অবস্থাও তেমনি সত্য।

"There was a farmer to whom an only son was born when he was rather advanced in age. As the child grew up, his parents became very fond of him. One day the farmer was out working in the fields, when a neighbour told him that his son was dangerously ill — indeed, at the point of death. Returning home he found the boy dead. His wife wept bitterly, but his own eyes remained dry. Sadly the wife said to her neighbours, 'Such a son has passed away, and he hasn't even one tear to shed!' After a long while the farmer said to his wife: 'Do you know why I am not crying? Last night I dreamt I had become a king, and the father of seven princes. These princes were beautiful as well as virtuous. They grew in stature and acquired wisdom and knowledge in the various arts. Suddenly I woke up. Now I have been wondering whether I should weep for those seven children or this one boy.' To the jnanis the waking state is no more real than the dream state.]

श्रीरामकृष्ण - “ईश्वर ही कर्ता हैं, उन्हीं की इच्छा से सब कुछ हो रहा है ।” 

"God alone is the Doer. Everything happens by His will."

हाजरा- पर यह समझना बड़ा कठिन है भू- कैलास के साधु को कितना कष्ट दिया गया, जो एक तरह से उनकी मृत्यु का कारण हुआ । वे समाधि की हालत में मिले थे । होश में लाने के लिए लोगों ने उन्हें कभी जमीन में गाड़ा, कभी जल में डुबोया और कभी उनका शरीर दाग दिया । इस तरह उन्हें चैतन्य कराया । इन यन्त्रणाओं के कारण उनका शरीर छूट गया । लोगों ने उन्हें कष्ट भी दिया और ईश्वर की इच्छा से उनकी मृत्यु भी हुई । 

[HAZRA: "But it is very difficult to understand that. Take the case of the sadhu of Bhukailas. How people tortured him and; in a way, killed him! They had found him in samadhi. First they buried him, then they put him under-water, and then they branded him with a hot iron. Thus they brought him back to consciousness of the world. But in the end the sadhu died as a result of these tortures. He undoubtedly suffered at the hands of men, though, as you say, he died by the will of God."

* उद्देश्य (ईश्वरलाभ) पूरा होने के बाद~ शरीर रहे या जाये,कोई फर्क नहीं पड़ता *

श्रीरामकृष्ण-जिसका जैसा कर्म है, उसका फल वह पाएगा । किन्तु ईश्वर की इच्छा से उन साधु का शरीर-त्याग हुआ । वैद्य बोतल के अन्दर मकरध्वज ^*  तैयार करते हैं । उसके चारों ओर मिट्टी लीपकर वे उसे आग में रख देते हैं । बोतल के अन्दर का सोना आग की गर्मी से और कई चीजों के साथ मिलकर मकरध्वज बन जाता है । तब वैद्य बोतल को उठाकर उसे धीरे धीरे तोड़ता है और उससे मकरध्वज निकालकर रख लेता है । उस समय बोतल रहे चाहे नष्ट हो जाए, उससे क्या? उसी तरह लोग सोचते हैं कि साधु मार डाले गए, पर शायद उनकी चीज (inner stuff ) बन चुकी होगी । भगवान् का लाभ होने के बाद शरीर रहे भी तो क्या, और जाय तो भी क्या ? 

[मकरध्वज ^*  पारा और सल्फर (गंधक) से बनी एक आयुर्वेदिक दवा, जिसके निर्माण में सोना उत्प्रेरक का काम करता है।^An Indian medicine made of mercury and sulphur, in the preparation of which gold acts as a catalytic agent.] 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — যার যা কর্ম, তার ফল সে পাবে। কিন্তু ঈশ্বরের ইচ্ছায় সে সাধুর দেহত্যাগ হল। কবিরাজেরা বোতলের ভিতর মকরধ্বজ তৈয়ার করে। চারিদিকে মাটি দিয়ে আগুনে ফেলে রাখে। বোতলের ভিতর যে-সোনা আছে, সেই সোনা আগুনের তাতে আরও অন্য জিনিসের সঙ্গে মিশে মকরধ্বজ হয়। তখন কবিরাজ বোতলটি লয়ে আস্তে আস্তে ভেঙে, ভিতরের মকরধ্বজ রেখে দেয়। তখন বোতল থাকলেই বা কি, আর গেলেই বা কি? তেমনি লোকে ভাবে সাধুকে মেরে ফেললে, কিন্তু হয়তো তার জিনিস তৈয়ার হয়ে গিছল। ভগবানলাভের পর শরীর থাকলেই বা কি আর গেলেই বা কি?

MASTER: "Man must reap the fruit of his own karma. But as far as the death of that holy man is concerned, it was brought about by the will of God. The kavirajs prepare makaradhvaja ^*  in a bottle. The bottle is covered with clay and heated in the fire. The gold inside the bottle melts and combines with the other ingredients, and the medicine is made. Then the physicians break the bottle carefully and take out the medicine. When the medicine is made, what difference does it make whether the bottle is preserved or broken? So people think that the holy man was killed. But perhaps his inner stuff had been made. After the realization of God, what difference does it make whether the body lives or dies?

“भू-कैलास के वे साधु समाधिस्थ थे । समाधि अनेक प्रकार की होती है । हृषीकेश के साधु के कथन से मेरी अवस्था मिल गयी थी । कभी शरीर में चींटी की तरह वायु चलती हुई जान पड़ती है; कभी बड़े वेग के साथ, जैसे बन्दर एक डाल से दूसरी डाल पर कूदते हैं; कभी मछली की तरह गति होती है । जिसको हो वही जान सकता है । जगत् का ख्याल जाता रहता है । मन के कुछ उतरने पर मैं कहता हूँ, ‘माँ, मुझे अच्छा कर दो, मैं बातें करना चाहता हूँ ।’   

*साधु (पुरोहित) और अवतार (पैगम्बर-वरिष्ठ ) में अन्तर* 

“ईश्वरकोटि जैसे अवतार (नेता -पैगम्बर) आदि, न होने पर कोई समाधि से नहीं लौट सकता । जीवकोटि के कोई कोई साधना के बल से समाधिस्थ होते तो हैं; पर वे फिर नहीं लौटते । जब ईश्वर स्वयं होकर आते हैं, अवतार रूप में आते हैं और जीवों की मुक्ति की चाभी उनके हाथ में रहती हैं, तब वे समाधि के बाद लौटते हैं- लोगों के कल्याण के लिए ।”  

[“ঈশ্বরকোটি (অবতারাদি) না হলে সমাধির পর ফেরে না। জীব কেউ কেউ সাধনার জোরে সমাধিস্থ হয়, কিন্তু আর ফেরে না। তিনি যখন নিজে মানুষ হয়ে আসেন, অবতার হন, জীবের মুক্তির চাবি তাঁর হাতে থাকে, তখন সমাধির পর ফেরেন। লোকের মঙ্গলের জন্য।”

"None but the Isvarakotis can return to the plane of relative consciousness after attaining samadhi. Some ordinary men attain samadhi through spiritual discipline; but they do not come back. But when God Himself is born as a man, as an Incarnation, holding in His hand the key to others' liberation, then for the welfare of humanity the Incarnation returns from samadhi to consciousness of the world."

मास्टर (मन ही मन)- क्या श्रीरामकृष्ण के हाथ में जीवों की मुक्ति की चाभी है ? 

[M. (to himself): "Does the Master hold in his hand the key to man's liberation?

हाजरा- ईश्वर को सन्तुष्ट करने से सब कुछ हुआ । अवतार हों या न हों । 

[হাজরা — ঈশ্বরকে তুষ্ট করতে পারলেই হল। অবতার থাকুন আর না থাকুন।

HAZRA: "The one thing needful is to please God. What does it matter whether an Incarnation of God exists or not?"]

श्रीरामकृष्ण (हँसकर) - हाँ, हाँ । विष्णुपुर में रजिस्टरी का बड़ा दफ्तर है, वहाँ रजिस्टरी हो जाने पर फिर ‘गोघाट’ में कोई बखेड़ा नहीं होता ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (হাসিয়া) — হাঁ, হাঁ। বিষ্ণুপুরে রেজিস্টারির বড় অফিস, সেখানে রেজেস্টারি করতে পাল্লে, আর গোঘাটে গোল থাকে না।

*श्रीरामकृष्ण -मणि (श्री 'म' संवादगुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा * 

*सच्चिदानन्दरूपी सागर में आत्मारूपी 'मछली' (नामक कुम्भ) खेल रही है * 

शाम हुई । मन्दिर में आरती हो रही है । बारह शिवमन्दिरों तथा श्रीराधाकान्त के और माता भवतारिणी के मन्दिर में शंख घण्टा आदि मंगल-वाद्य बज रहे हैं । आरती समाप्त होने के कुछ समय बाद श्रीरामकृष्ण अपने कमरे से दक्षिण के बरामदे में आ बैठे । चारों ओर घना अन्धकार है, केवल मन्दिर में स्थान स्थान पर दीपक जल रहे हैं । गंगाजी के वक्ष पर आकाश की काली छाया पड़ी है ।

आज अमावस्या है । श्रीरामकृष्ण सहज ही भावमय हैं, आज भाव और भी गम्भीर हो रहा है । बीच बीच में प्रणव उच्चारण कर रहे हैं और देवी का नाम ले रहे हैं । गर्मी का मौसम है, कमरे के भीतर गर्मी बहुत है । इसलिए बरामदे में आए हैं । किसी भक्त ने एक कीमती चटाई दी है । वही बरामदे में बिछायी गयी है । श्रीरामकृष्ण को सर्वदा माँ का ध्यान लगा रहता है । लेटे हुए आप मणि से धीरे धीरे बातें कर रहे हैं 

श्रीरामकृष्ण- देखो, ईश्वर के दर्शन होते हैं । अमुक (?) को दर्शन मिले हैं, परन्तु किसी से कहना मत । तुम्हें ईश्वर का रूप पसन्द है या निराकार-चिन्ता ? 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখ, ঈশ্বরকে দর্শন করা যায়! অমুকের দর্শন হয়েছে, কিন্তু কারুকে বলো না। আচ্ছা, তোমার রূপ না নিরাকার ভাল লাগে?

 "Yes, God can be seen. X— has had a vision of God. But don't tell anyone about it. Tell me, which do you like better, God with form, or the formless Reality?"

मणि- इस समय तो निराकार-चिन्ता कुछ अच्छी लगती है, पर यह भी कुछ कुछ समझ में आया है कि वे ही साकार हो इन अनेक रूपों में विराजते हैं । 

[ আজ্ঞা, এখন একটু নিরাকার ভাল লাগে। তবে একটু একটু বুঝছি যে, তিনিই এ-সব সাকার হয়েছেন।

M: "Sir, nowadays I like to think of God without form. But I am also beginning to understand that it is God alone who manifests Himself through different forms."

श्रीरामकृष्ण- देखो, मुझे गाड़ी पर बेलघरिया में मोती शील की झील को ले चलोगे ? वहाँ मूढ़ी फेंक दो, मछलियाँ आकर उसे खाने लगेगी । अहा ! मछलियों को खेलती देखकर क्या आनन्द होता है, तुम्हें उद्दीपना होगी कि मानो सच्चिदानन्दरूपी सागर में आत्मारूपी मछली ^* खेल रही है । उसी तरह लम्बे-चौड़े मैदान में खड़े होने से ईश्वरीय भाव आ जाता है, जैसे किसी हण्डी में रखी हुई मछली तालाब में पहुँच गयी हो । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখ, আমায় বেলঘরে মতি শীলের ঝিলে গাড়ি করে নিয়ে যাবে? সেখানে মুড়ি ফেলে দাও, মাছ সব এসে মুড়ি খাবে। আহা! মাছগুলি ক্রীড়া করে বেড়াচ্ছে, দেখলে খুব আনন্দ হয়। তোমার উদ্দীপন হবে, যেন সচ্চিদানন্দ-সাগরে আত্মারূপ মীন ক্রীড়া করছে! তেমনি খুব বড় মাঠে দাঁড়ালে ঈশ্বরীয় ভাব হয়। যেন হাঁড়ির মাছ পুকুরে এসেছে।

MASTER: "Will you take me in a carriage some day to Mati Seal's garden house at Belgharia? When you throw puffed rice into the lake there, the fish come to the surface and eat it. Ah! I feel so happy to see them sport in the water. That will awaken your spiritual consciousness too. You will feel as if the fish of the human soul were playing in the Ocean of Satchidananda. In the same manner, I go into an ecstatic mood when I stand in a big meadow. I feel like a fish released from a bowl into a lake.

[आत्मारूपी मछली ^* सन्त कबीर ने कहा था -  जल में कुम्भ कुम्भ  में जल है बाहर भीतर पानी । फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी ॥ जब सागर में पानी भरने जाएँ , तो घड़ा (कुम्भ) जल में रहता है, और  भरने पर जल घड़े के अन्दर आ जाता है।   इस तरह देखें तो – बाहर और भीतर पानी ही रहता है – पानी की ही सत्ता है। मगर फिर भी उस घट (कुम्भ) के अन्दर का जल बाहर के जल से अलग ही रहता है।  इस पृथकता का कारण उस घट का रूप तथा आकार  होते हैं, लेकिन जैसे ही वह घड़ा (मछली के नाम-रूप में अहंभाव) टूटता है  तो उसका जल , जल में ही मिल जाता है – अलगाव नहीं रहता – ज्ञानी जन इस तथ्य को कह गए हैं ! 

ठीक उसी प्रकार यह विश्व ( ब्रह्माण्ड ) सच्चिदानन्दरूपी (existence-consciousness-bliss)  सागर के समान है, चहुँ ओर चेतनता (pure Consciousness) रूपी जल ही जल है, तथा हम सभी जीव भी विभिन्न नाम-रूप धारी छोटे - छोटे मिट्टी के घड़ों समान हैं , जो पानी से भरे हैं , चेतना - युक्त हैं।  तथा हमारे शरीर रूपी कुम्भ ( यहाँ -'मछली' नामक कुम्भ ) को विश्व रूपी सागर से अलग करने वाले कारण हमारे नाम-रूप (आकार - प्रकार) ही हैं।  इस मछली -शरीर रूपी जड़ -पदार्थ या घड़े के फूटते ही अन्दर - बाहर का अंतर मिट जाएगा, पानी पानी में मिल जाएगा।  जड़ता के मिटते ही चेतनता चारों ओर निर्बाध व्याप्त हो होगी, सारी विभिन्नताओं को पीछे छोड़ आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाएगी I आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैं – आत्मा परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में विराजमान है।  अंतत: परमात्मा की ही सत्ता है –  जब देह विलीन होती है – वह परमात्मा का ही अंश हो जाती है – उसी में समा जाती है।  एकाकार हो जाती है। ] 

“उनके दर्शन के लिए साधना चाहिए । मुझे कठोर साधनाएँ करनी पड़ी । बिल्ववृक्ष के नीचे तरह तरह की साधनाएँ कर चुका । वृक्ष के नीचे पड़ा रहता था - यह कहते हुए कि माँ, दर्शन दो । रोते रोते आँसूओं की झड़ी लग जाती थी । 

मणि- जब आप ही इतनी साधनाएँ कर चुके तब दूसरे लोग क्या एक ही क्षण में सब कर लेंगे ? मकान के चारों ओर उँगली फेर देने ही से क्या दीवाल बन जाएगी ?  

[মণি — আপনি কত সাধন করেছেন, আর লোকের কি একক্ষণে হয়ে যাবে? বাড়ির চারিদেকে আঙুল ঘুরিয়ে দিলেই কি দেয়াল হয়?

"You practised so many austerities, but people expect to realize God in a moment! Can a man build a wall simply by moving his finger around his home?"

*The Lila is real too~ पैगम्बर वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण की लीला भी सत्य है 

श्रीरामकृष्ण (सहास्य)- अमृत कहता है, एक आदमी (पैगम्बर ,नेता शिक्षक) के आग जलाने पर दस आदमी उसके ताप से लाभ उठाते हैं । एक बात और है - नित्य को पहुँचकर लीला में रहना अच्छा है । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — অমৃত বলে, একজন আগুন করলে দশজন পোয়ায়! আর-একটি কথা, নিত্যে পৌঁছে লীলায় থাকা ভাল।

MASTER (with a smile): "Amrita says that one man lights a fire and ten bask in its heat. I want to tell you something else. It is good to remain on the plane of the Lila after reaching the Nitya."

मणि- आपने तो कहा है कि लीला विलास के लिए है । 

[মণি — আপনি বলেছেন, লীলা বিলাসের জন্য।

M: "You once said that one comes down to the plane of the Lila in order to enjoy the divine play."

श्रीरामकृष्ण- नहीं, लीला भी सत्य है । और देखो, जब यहाँ आओगे तब अपने साथ थोड़ा कुछ लेते आना । खुद नहीं कहना चाहिए, इससे अभिमान होता है । अधर सेन से भी कहता हूँ, एक पैसे का कुछ लेकर आना । भवनाथ से कहता हूँ कि एक पैसे का पान लाना । भवनाथ की भक्ति कैसी है, देखी है तुमने? भवनाथ और नरेन्द्र मानो स्त्री और पुरुष हैं । भवनाथ नरेन्द्र का अनुगत हैं । नरेन्द्र को गाड़ी पर ले आना । कुछ खाने की चीज लाना । इससे बहुत भला होता है । 

[^हिंदू धर्मग्रंथ सद्गृहस्थ को किसी नेता / पैगम्बर या गुरु के यहाँ उपयुक्त उपहारों के साथ जाने की आज्ञा देते हैं।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — না। লীলাও সত্য। আর দেখ, যখন আসবে, তখন হাতে করে একটু কিছু আনবে। নিজে বলতে নাই, অভিমান হয়। অধর সেনকেও বলি, এক পয়সার কিছু নিয়ে এস। ভবনাথকে বলি, এক পয়সার পান আনিস। ভবনাথের কেমন ভক্তি দেখেছ? নরেন্দ্র, ভবনাথ — যেমন নরনারী। ভবনাথ নরেন্দ্রের অনুগত। নরেন্দ্রকে গাড়ি করে এনো। কিছু খাবার আনবে। এতে খুব ভাল হয়

MASTER: "No, not exactly that. The Lila is real too. "Let me tell you something. Whenever you come here, bring a trifle with you.^ *[^The Hindu scriptures command the householder to visit a holy man with suitable presents.) Perhaps I shouldn't say it; it may look like egotism. I also told Adhar Sen that he should bring a pennyworth of something with him. I asked Bhavanath to bring a pennyworth of betel-leaf. Have you noticed Bhavanath's devotion? Narendra and he seem like man and woman. He is devoted to Narendra. Bring Narendra here with you in a carriage, and also bring some sweets with you. It will do you good.

*भक्त नास्तिकता आने पर भी ईश्वर चिन्तन नहीं त्यागता । 

“ज्ञान और भक्ति – दोनों ही मार्ग हैं । भक्तिमार्ग में आचार कुछ अधिक पालन करना पड़ता है । ज्ञानमार्ग में यदि कोई अनाचार भी करे तो वह मिट जाता है । खूब आग जलाकर एक केले का पेड़ भी झोंक दो, वह भी भस्म हो जाता है । 

[“জ্ঞান ও ভক্তি দুই-ই পথ। ভক্তিপথে একটু আচার বেশি করতে হয়। জ্ঞানপথে যদি অনাচার কেউ করে, সে নষ্ট হয়ে যায়। বেশি আগুন জ্বাললে কলাগাছটাও ভিতরে ফেলে দিলে পুড়ে যায়।

"Knowledge and love — both are paths leading to God. Those who follow the path of love have to observe a little more outer purity. But the violation of this by a man following the path of knowledge cannot injure him. It is destroyed in the fire of knowledge. Even a banana tree is burnt up when it is thrown into a roaring fire.

“ज्ञानी का मार्ग विचारमार्ग है । विचार करते करते कभी कभी नास्तिकपन भी आ सकता है । पर भगवान् को जानने के लिए भक्त की यदि हार्दिक इच्छा हो, तो नास्तिकता आने पर भी वह ईश्वर चिन्तन नहीं त्यागता । 

[জ্ঞানীর পথ বিচারপথ। বিচার করতে করতে নাস্তিকভাব হয়তো কখন কখন এসে পড়ে। ভক্তের আন্তরিক তাঁকে জানবার ইচ্ছা থাকলে, নাস্তিকভাব এলেও সে ঈশ্বরচিন্তা ছেড়ে দেয় না। 

"The jnanis follow the path of discrimination. Sometimes it happens that, discriminating between the Real and the unreal, a man loses his faith in the existence of God. But a devotee who sincerely yearns for God does not give up his meditation even though he is invaded by atheistic ideas. 

" जिसके बाप-दादे किसानी करते आ रहे हैं, अतिवृष्टि और अनावृष्टि के कारण किसी साल फसल न होने पर भी वह खेती करता ही रहता है ।” 

[ যার বাপ পিতামহ চাষাগিরি করে এসেছে, হাজাশুখা বৎসরে ফসল না হলেও সে চাষ করে!”

A man whose father and grandfather have been farmers continues his farming even though he doesn't get any crop in a year of drought."

श्रीरामकृष्ण लेटे लेटे बातें कर रहे हैं । बीच में मणि से बोले, “मेरा पैर थोड़ा दर्द कर रहा है, जरा हाथ फेर दो ।” 

इस प्रकार अहेतुक कृपासिन्धु गुरुदेव (ने कृपा कर के शिष्य को व्यक्तिगत सेवा करने की अनुमति प्रदान की , और)  कमलचरणों की सेवा करते हुए, मणि उनके श्रीमुख से वे अपूर्व तत्त्व सुन रहे हैं । 

[ঠাকুর তাকিয়ার উপর মস্তক রাখিয়া শুইয়া শুইয়া কথা কহিতেছেন। মাঝে মণিকে বলিতেছেন, “আমার পাটা একটু কামড়াচ্চে, একটু হাত বুলিয়ে দাও তো গা।”

Lying on the mat and resting his head on a pillow, Sri Ramakrishna continued the conversation. He said to M; "My legs are aching, Please stroke them gently." Thus, out of his infinite compassion, the Master allowed his disciple to render him personal service.

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$$परिच्छेद ~ 36, [(4 जून, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]* *Grass-eating tiger*श्री रामकृष्ण की नरेंद्र के साथ पहली मुलाकात, माता-पिता मेरे या शरीर के हैं ? * कात्यायनी-पूजा* {मनःसंयोग के विषय में 3 गीत} (मनःसंयोग -प्रत्याहार , धारणा साकार या निराकार ?) ‘निर्गुण है सो पिता हमारा, और सगुण महतारी ।माँ से हाजरा की नालिश, श्री ठाकुरदेव और मनुष्य में ईश्वरदर्शन * किसी विशेष व्यक्ति को देखकर भक्ति भावना उद्दीप्त होने का कारण *श्रीरामकृष्ण और सतीत्व धर्म* "जीवनमुक्त " गृहस्थ आश्रम में भी रह सकता है !* पूरे ह्रदय से आस्तिक बनें - Be a whole hearted believer !* *वास्तविक घटनाओं के साथ सपनों का संयोग*संयोगवश नहीं ' ईश्वर ही कर्ता हैं' इस विश्वास से सबकुछ होता है !* मनुष्य में ईश्वरदर्शन । नरेन्द्र से प्रथम भेंट *अहेतुक कृपासिन्धु’ श्रीरामकृष्ण का सिंह -शावकों को अभयदान* ~गुरु- कृपा से मुक्ति और स्वरूप दर्शन,ज्ञानलाभ होने पर मनुष्य संसार में भी (अर्थात गृहस्थ-जीवन में भी) 'जीवन्मुक्त' होकर रह सकता है ।” * पूर्वकथा-सुन्दरीपूजा-और कुमारीपूजा, रामलीला-दर्शन *श्रीरामकृष्ण का प्रेमोन्माद और रुपदर्शन*

 [(4 जून, 1883) परिच्छेद ~ 36,[ श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

[*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद) * साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ ]

परिच्छेद ~ ३६ 

*दक्षिणेश्वर मन्दिर में माँ कात्यायनी पूजा और फलहारिणी काली पूजा 

(१) 

 श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर में अपने कमरे में बैठे हैं । भक्तगण उनके दर्शन के लिए आ रहे हैं । आज ज्येष्ठ मास की कृष्णा चतुर्दशी, सावित्री-चतुर्दशी व्रत का दिन है । सोमवार, 4 जून, 1883  ई.। आज रात को अमावस्या तिथि में फलहारिणी कालीपूजा होगी । 

मास्टर कल रविवार से आए हैं । कल रात को कात्यायनी-पूजा * हुई थी । श्रीरामकृष्ण प्रेमाविष्ट हो नाट्य -मन्दिर में माता के सामने खड़े हो गाते हुए कह रहे थे-

माँ , तुमि-ई व्रजेर कात्यायनी ,

तुमि स्वर्ग , तुमि मर्त माँ , तुमि से पाताल। 

तोमा हते हरि ब्रह्मा , द्वादश गोपाल। 

एबार कोनोरुपे आमाय करिते होबे पार।  

  माँ , तुमिई व्रजेर कात्यायनी  

“हे माँ कात्यायनी, तुम्हीं व्रज की कात्यायनी हो । तुम्हीं स्वर्ग हो, तुम्हीं मर्त्य हो, तुम्हीं पाताल भी हो । तुम्हीं से हरि, ब्रह्मा और द्वादश गोपाल पैदा हुए हैं । दश-महाविद्याएँ और दशावतार भी तुम्हीं से उत्पन्न हुए हैं । अब की बार तुम्हें किसी प्रकार मुझे पार करना होगा ।” 

{मान्यता है कि माँ कात्यायनी अपने भक्तों पर कृपा बरसाती हैं और हर हाल में उनकी मनोकामनाएं पूरी करती हैं। कहते हैं कि मां कात्यायनी की पूजा करने से विवाह में आने वाली अड़चने दूर हो जाती हैं और सुयोग्य वर की प्राप्ति का आशीर्वाद प्राप्त होता है।  कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण को पति के रूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियों ने भी माता रानी के इसी स्वरूप की उपासना की थी। }

श्रीरामकृष्ण गा रहे थे और माँ से बातें कर रहे थे । प्रेम से बिलकुल मतवाले हो गए थे । मन्दिर से वे अपने कमरे में आकर तखत पर बैठे । 

रात के दूसरे पहर तक माँ का नामकीर्तन होता रहा ।  

सोमवार को सबेरे के समय बलराम और कुछ दूसरे भक्त आए । फलहारिणी कालीपूजा के उपलक्ष्य में त्रैलोक्यबाबू ^ आदि भी सपरिवार आए हैं । सबेरे नौ बजे का समय है । श्रीरामकृष्णदेव प्रसन्नमुख, गंगा की ओर के गोल बरामदे में बैठे हैं । पास ही मास्टर बैठे हैं । राखाल लेटे हैं आनन्द में श्रीरामकृष्ण ने राखाल का मस्तक अपने गोद में उठा लिया है । आज कुछ दिनों से आप राखाल को साक्षात् गोपाल के रूप में देखते हैं ।  

[^ मथुरबाबू के पुत्र और रानी रासमनी के प्रपौत्र । वे 1871 ई ० में मन्दिर के स्वत्वधारी बन गए थे।The son of Mathur and grandson of Rani Rasmani. He had become proprietor of the temple in 1871.] 

 त्रैलोक्य सामने से माँ काली के दर्शन को जा रहे हैं । साथ में नौकर उनके सिर पर छाता लगाये जा रहे है । श्रीरामकृष्ण राखाल से बोले- ‘उठ रे, उठ’ ।

श्रीरामकृष्ण बैठे हैं । त्रैलोक्य ने आकर प्रणाम किया । 

श्रीरामकृष्ण (त्रैलोक्य से)- कल ‘यात्रा’ नहीं हुई ? 

त्रैलोक्य- जी नहीं, अब की बार ‘यात्रा’ की वैसी सुविधा नहीं हुई । 

श्रीरामकृष्ण- तो इस बार जो हुआ सो हुआ । देखना, जिससे फिर ऐसा न होने पाए । The traditions should be observed. "जैसा नियम है वैसा ही हमेशा होना अच्छा है । 

त्रैलोक्य यथोचित उत्तर देकर चले गए । कुछ देर बाद विष्णुमन्दिर के पुरोहित राम चटर्जी आए । 

श्रीरामकृष्ण- राम, मैंने त्रैलोक्य से कहा, इस साल ‘यात्रा’ नहीं हुई, देखना जिससे आगे ऐसा न हो । तो क्या यह कहना ठीक हुआ ? 

राम- महाराज, उससे क्या हुआ ! अच्छा ही तो कहा । जैसा नियम है उसी प्रकार हमेशा होना चाहिए । श्रीरामकृष्ण (बलराम से)- अजी, आज तुम यहीं भोजन करो । 

भोजन के कुछ पहले श्रीरामकृष्णदेव अपनी अवस्था के सम्बन्ध में भक्तों को बहुत बातें बताने लगे । राखाल, बलराम, मास्टर, रामलाल तथा और दो-एक भक्त बैठे थे ।

*माँ से हाजरा की नालिश, श्री ठाकुरदेव और मनुष्य में ईश्वरदर्शन * 

श्रीरामकृष्ण- हाजरा मुझे उपदेश देता है कि तुम इन लड़कों के लिए इतनी चिन्ता क्यों करते हो ! गाड़ी में बैठकर बलराम के मकान पर जा रहा था, उसी समय मन में बड़ी चिन्ता हुई । कहने लगा, ‘माँ, हाजरा कहता है, नरेन्द्र आदि बालकों के लिए मैं इतनी चिन्ता क्यों करता हूँ; वह कहता है, ईश्वर की चिन्ता त्यागकर इन लड़कों की चिन्ता आप क्यों करते हो ?’ 

     मेरे यह कहते कहते अचानक माँ ने दिखलाया कि वे ही मनुष्य रूप में लीला करती हैं । शुद्ध आधार में उनका प्रकाश स्पष्ट होता है । इस दर्शन के बाद जब समाधि कुछ टूटी तो हाजरा के ऊपर बड़ा क्रोध हुआ । कहा, साले मेरा मन ख़राब कर दिया था । फिर सोचा, उस बेचारे का अपराध ही क्या है; वह यह कैसे जान सकता है ? 

{শ্রীরামকৃষ্ণ — হাজরা আবার শিক্ষা দেয়, তুমি কেন ছোকরাদের জন্য অত ভাব? গাড়ি করে বলরামের বাড়ি যাচ্ছি, এমন সময় পথে মহা ভাবনা হল। বললুম “মা, হাজরা বলে, নরেন্দ্র আর সব ছোকরাদের জন্য আমি অত ভাবি কেন; সে বলে, ঈশ্বরচিন্তা ছেড়ে এ-সব ছোকরাদের জন্য চিন্তা করছ কেন?” এই কথা বলতে বলতে একেবারে দেখালে যে, তিনিই মানুষ হয়েছেন। শুদ্ধ আধারে স্পষ্ট প্রকাশ হন। সেইরূপ দর্শন করে যখন সমাধি একটু ভাঙল, হাজরার উপর রাগ করতে লাগলুম। বললুম, শালা আমার মন খারাপ করে দিছল। আবার ভাবলুম, সে বেচারীরই বা দোষ কি, সে জানবে কেমন করে?

 "Now and then Hazra comes forward to teach me. He says to me, 'Why do you think so much about the youngsters?' One day, as I was going to Balaram's house in a carriage, I felt greatly troubled about it. I said to the Divine Mother: 'Mother, Hazra admonishes me for worrying about Narendra and the other young boys. He asks me why I forget God and think about these youngsters.' No sooner did this thought arise in my mind than the Divine Mother revealed to me in a flash that it is She Herself who has become man. But She manifests Herself most clearly through a pure soul. At this vision I went into samadhi. Afterwards I felt angry with Hazra. I said to myself, 'That rascal made me miserable.' Then I thought: 'But why should I blame the poor man? How is he to know?'

 [(4 जून, 1883) परिच्छेद ~ 36, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

*श्री रामकृष्ण की नरेंद्र के साथ पहली मुलाकात, माता-पिता मेरे या शरीर के हैं ? *  

“मैं इन लोगों को साक्षात् नारायण जानता हूँ । नरेन्द्र के साथ पहले भेंट हुई । देखा, देह बुद्धि नहीं है । (नरेन्द्र अपने को शुद्ध आत्मा ही समझते थे-उनमें देहात्मबोध नहीं था। इसीलिए... )   जरा छाती को स्पर्श करते ही उसका बाह्य-ज्ञान लोप हो गया । होश आने पर कहने लगा, ‘आपने यह क्या किया ! मेरे तो माता-पिता हैं ।’ (माता-पिता मेरे या शरीर के हैं ?) 

      यदु मल्लिक के मकान में भी ऐसा ही हुआ था । क्रमशः उसे देखने के लिए व्याकुलता बढ़ने लगी, प्राण छटपटाने लगे । तब भोलानाथ* से कहा, ‘क्यों जी, मेरा मन ऐसा क्यों होता है? नरेन्द्र नाम का एक कायस्थ लड़का है, उसके लिए ऐसा क्यों होता है?’ (*भोलानाथ मुखर्जी ठाकुरवाड़ी के मुन्शी थे, बाद में खजांची हुए थे)

 भोलानाथ बोले, ‘इस सम्बन्ध में महाभारत में लिखा है कि समाधिवान् पुरुष का मन जब नीचे उतरता है, तब सतोगुणी लोगों के साथ विलास करता है । सतोगुणी मनुष्य देखने से उसका मन शान्त होता है।’

– यह बात सुनकर मेरे चित्त को शान्ति मिली । बीच बीच में नरेन्द्र को देखने के लिए मैं बैठा बैठा रोया करता था ।” 

{“আমি এদের জানি, সাক্ষাৎ নারায়ণ। নরেন্দ্রের সঙ্গে প্রথম দেখা হল। দেখলুম, দেহবুদ্ধি নাই। একটু বুকে হাত দিতেই বাহ্যশূন্য হয়ে গেল। হুঁশ হয়ে বলে উঠল, ‘ওগো, তুমি আমার কি করলে? আমার যে মা-বাপ আছে!’ যদু মল্লিকের বাড়িতেও ঠিক ওইরকম হয়েছিল। ক্রমে তাকে দেখবার জন্য ব্যাকুলতা বাড়তে লাগল, প্রাণ আটু-পাটু করতে লাগল। তখন ভোলানাথকে১ বললুম, হ্যাঁগা, আমার মন এমন হচ্ছে কেন? নরেন্দ্র বলে একটি কায়েতের ছেলে, তার জন্য এমন হচ্ছে কেন? ভোলানাথ বললে, ‘এর মানে ভারতে আছে। সমাধিস্থ লোকের মন যখন নিচে আসে, সত্ত্বগুণী লোকের সঙ্গে বিলাস করে। সত্ত্বগুণী লোক দেখলে তবে তার মন ঠাণ্ডা হয়।’ এই কথা শুনে তবে আমার মনের শান্তি হল। মাঝে মাঝে নরেন্দ্রকে দেখব বলে বসে বসে কাঁদতুম।”

"I know these youngsters to be Narayana Himself. At my first meeting with Narendra I found him completely indifferent to his body. When I touched his chest with my hand, he lost consciousness of the outer world. Regaining consciousness, Narendra said: 'Oh, what have you done to me? I have my father and mother at home!' The same thing happened at Jadu Mallick's house. As the days passed I longed more and more to see him. My heart yearned for him. One day at that time I said to Bholanath: (A clerk at the Dakshineswar temple garden.) 'Can you tell me why I should feel this way? There is a boy called Narendra, of the kayastha caste. Why should I feel so restless tor him?' 

Bholanath said: 'You will find the explanation in the Mahabharata. On coming down to the plane of ordinary consciousness, a man established in samadhi enjoys himself in the company of sattvic people. He feels peace of mind at the sight of such men.' When I heard this my mind was set at ease. Now and then I would sit alone and weep for the sight of Narendra.

(२)

*श्रीरामकृष्ण का प्रेमोन्माद और रुपदर्शन* 

श्रीरामकृष्ण- ओह, कैसी अवस्था बीत गयी गयी है ! पहले जब ऐसी अवस्था हुई थी तो रातदिन कैसे बीत जाते थे, कह नहीं सकता । सब कहने लगे थे, पागल हो गया; इसीलिए इन लोगों ने शादी कर दी। उन्माद अवस्था थी । पहले स्त्री के बारे चिन्ता हुई, बाद में सोचा कि वह भी इसी प्रकार रहेगी, खाएगी, पिएगी । 

      ससुराल गया, वहाँ भी खूब संकीर्तन हुआ । नफ़र, दिगम्बर बनर्जी के पिता आदि सब लोग आये । खूब संकीर्तन होता था । कभी कभी सोचता था, क्या होगा । फिर कहता था, माँ, गाँव के जमींदार यदि मानें तो समझूँगा यह अवस्था सत्य है । और सचमुच वे भी आप ही आने लगे और बातचीत करने लगे ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ — উঃ, কি অবস্থাই গেছে! প্রথম যখন এই অবস্থা হল দিনরাত কোথা দিয়ে যেত, বলতে পারিনা। সকলে বললে, পাগল হল। তাই তো এরা বিবাহ দিলে। উন্মাদ অবস্থা; — প্রথম চিন্তা হল, পরিবারও এইরূপ থাকবে, খাবে-দাবে। শ্বশুরবাড়ি গেলুম, সেখানে খুব সংকীর্তন। নফর, দিগম্বর বাঁড়ুজ্যের বাপ এরা এল! খুব সংকীর্তন। এক-একবার ভাবতুম, কি হবে। আবার বলতুম, মা, দেশের জমিদার (D.C.) যদি আদর করে, তাহলে বুঝব সত্য। তারাও সেধে এসে কথা কইত।

"Oh, what a state of mind I passed through! When I first had that experience, I could not perceive the coming and going of day or night. People said I was insane. What else could they say? They made me marry. I was then in a state of God-intoxication. At first I felt worried about my wife. Then I thought she too would eat and drink and live like me.

"I visited my father-in-law's house. They arranged a kirtan. It was a great religious festival, and there was much singing of God's holy name.  Now and then I would wonder about my future. I would say to the Divine Mother, 'Mother, I shall take my spiritual experiences to be real if the landlords of the country show me respect.' They too came of their own accord and talked with me.}

*सुन्दरीपूजा-और कुमारीपूजा, रामलीला-दर्शन*  

“कैसी अवस्था बीत गयी है ! किंचित् ही कारण से एकदम भगवान् की उद्दीपना होती थी । मैंने सुन्दरी-पूजा की । चौदह वर्ष की लड़की थी । देखा साक्षात् माँ जगदम्बा ! रूपये देकर मैंने प्रणाम किया

“रामलीला देखने के लिए गया तो सीता, राम, लक्ष्मण, हनुमान, विभीषण, सभी को साक्षात् प्रत्यक्ष देखा। तब जो जो बने थे उनकी पूजा करने लगा ।

{“কি অবস্থাই গেছে। একটু সামান্যতেই একেবারে উদ্দীপন হয়ে যেত। সুন্দরীপূজা কল্লুম! চৌদ্দ বছরের মেয়ে। দেখলুম, সাক্ষাৎ মা। টাকা দিয়ে প্রণাম কল্লুম।“রামলীলা দেখতে গেলুম। একেবারে দেখলুম, সাক্ষাৎ সীতা, রাম, লক্ষ্মণ, হনুমান, বিভীষণ। তখন যারা সেজেছিল, তাদের সব পূজা করতে লাগলুম।

"Oh, what an ecstatic state it was! Even the slightest suggestion would awaken my spiritual consciousness. I worshipped the 'Beautiful' in a girl fourteen years old. I saw that she was the personification of the Divine Mother. At the end of the worship I bowed before her and offered a rupee at her feet. One day I witnessed a Ramlila performance. I saw the performers to be the actual Sita, Rama, Lakshmana, Hanuman, and Bibhishana. Then I worshipped the actors and actresses who played those parts.

“कुमारी कन्याओं को बुलाकर उनकी पूजा करता-देखता साक्षात् माँ जगदम्बा । “एक दिन बकुलवृक्ष के तले देखा, नीला वस्त्र पहने हुए स्त्री खड़ी है । वह वेश्या थी, पर मेरे मन में एकदम सीता की उद्दीपना ही गयी । उस स्त्री को बिलकुल भूल गया और देखा साक्षात् सीतादेवी लंका से उद्धार पाकर राम के पास जा रही हैं । बहुत देर तक बाह्य-संज्ञाहीन हो समाधि-अवस्था में रहा ।

“और एक दिन कलकत्ते में किले के मैदान में घूमने के लिए गया था । उस दिन ‘बलून’ (गुब्बारा) उड़नेवाला था । बहुतसे लोगों की भीड़ थी । अचानक एक अंग्रेज बालक की ओर दृष्टि गयी, वह पेड़ के सहारे त्रिभंग होकर खड़ा था । देखते ही श्रीकृष्ण की उद्दीपना हो समाधि हो गयी ।

“शिऊड़ गाँव में चरवाहे को भोजन कराया । सब के हाथ में मैंने जलपान की सामग्री दी । देखा, साक्षात् व्रज के ग्वालबाल ! उनसे जलपान लेकर मैं भी खाने लगा ।

“प्रायः होश न रहता था । मथुरबाबू ने मुझे ले जाकर जानबाजार के मकान में कुछ दिन रखा । मैं देखने लगा, साक्षात् माँ की दासी हो गया हूँ । घर की औरतें , मुझसे बिलकुल शरमाती नहीं थीं, जैसे छोटे छोटे बच्चों को देख कोई भी स्त्री लज्जा नहीं करती । रात को बाबू की कन्या को जमाई के पास पहुँचाने जाता। 

“अब भी थोड़ी ही में उद्दीपना हो जाती है । राखाल जप करते समय ओठ हिलाता था । मैं उसे देखकर स्थिर नहीं रह जाता था, एकदम ईश्वर की उद्दीपना होती और विह्वल हो जाता ।”

श्रीरामकृष्ण अपने प्रकृति-भाव की और भी कथाएँ कहने लगे । बोले, “मैंने एक कीर्तनिया को स्त्री-कीर्तनिया के ढंग दिखलाए थे । उसने कहा, ‘आप बिलकुल ठीक कहते हैं । आपने यह सब कैसे सीखा?’ यह कहकर आप स्त्री-कीर्तनिया के ढंग का अनुकरण कर दिखलाने लगे । कोई भी अपनी हँसी न रोक सका । 

[ঠাকুর প্রকৃতিভাবের কথা আরও বলিতে লাগিলেন। আর বললেন, “আমি একজন কীর্তনীয়াকে মেয়ে-কীর্তনীর ঢঙ সব দেখিয়েছিলুম। সে বললে ‘আপনার এ-সব ঠিক ঠিক। আপনি এ-সব জানলেন কেমন করে’।”এই বলিয়া ঠাকুর ভক্তদের মেয়ে-কীর্তনীয়ার ঢঙ দেখাইতেছেন। কেহই হাস্য সংবরণ করিতে পারিলেন না।

Sri Ramakrishna went on describing the different experiences he had had while worshipping the Divine Mother as Her handmaid. He said: "Once I imitated a professional woman singer for a man singer. He said my acting was quite correct and asked me where I had learnt it." The Master repeated his imitation for the devotees, and they burst into laughter.

(३) 

*किसी विशेष व्यक्ति को देखकर भक्ति भावना उद्दीप्त होने का कारण *

भोजन के बाद श्रीरामकृष्ण थोड़ा विश्राम कर रहे हैं । गाढ़ी नींद नहीं, तन्द्रा-सी है । श्री मणिलाल मल्लिक ने आकर प्रणाम किया और आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण अब भी लेटे हैं । मणिलाल बीच बीच में बातें करते हैं । श्रीरामकृष्ण अर्धनिद्रित-अर्धजागृत अवस्था में हैं, वे किसी किसी बात का उत्तर दे देते हैं । 

मणिलाल- शिवनाथ नित्यगोपाल की प्रशंसा करते हैं । कहते हैं, उनकी अच्छी अवस्था है । 

श्रीरामकृष्ण अभी पूरी तरह से नहीं जागे । वे पूछते हैं, “हाजरा को वे लोग क्या कहते हैं?” 

श्रीरामकृष्ण उठ बैठे । मणिलाल से भवनाथ की भक्ति के बारे में कह रहे हैं । 

श्रीरामकृष्ण- अहा, उसका भाव कैसा सुन्दर है । गाना गाते आँखें आँसूओं से भर जाती है । हरीश को देखते ही उसे भाव हो गया । कहता है, ये लोग अच्छे हैं । हरीश घर छोड़ यहाँ कभी कभी रहता है न, इसीलिए । 

मास्टर से प्रश्न कर रहे हैं, “अच्छा, भक्ति का कारण क्या है? भवनाथ आदि बालकों की उद्दीपना क्यों होती है?” मास्टर चुप हैं । 

{"Well, what is the cause of bhakti? Why should the spiritual feeling of young boys like Bhavanath be awakened?" M. remained silent.

श्रीरामकृष्ण- बात यह है कि बाहर से देखने में सभी मनुष्य एक ही तरह के होते हैं । पर किसी किसी में खोए का पूर भरा होता है । पकवान के भीतर उरद का पूर भी हो सकता है और खोए का भी, पर देखने में दोनों एक-से हैं । भगवान् को जानने की इच्छा, उन पर प्रेम और भक्ति, इसी का नाम खोए का पूर है । 

*अहेतुक कृपासिन्धु’ श्रीरामकृष्ण का सिंह -शावकों को अभयदान* 

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - " कोई-कोई सोचता है कि मुझे ज्ञानभक्ति न होगी, मैं शायद बद्धजीव हूँ । लेकिन श्रीगुरु की कृपा होने पर कोई भय नहीं है । 

     बकरियों के एक झुण्ड में बाघिन कूद पड़ी थी । कूदते समय बाघिन को बच्चा पैदा हो गया । बाघिन तो मर गयी, पर वह बच्चा बकरियों के साथ पलने लगे । बकरियाँ घास खातीं तो वह भी घास खाता । बकरियाँ ‘में में’ करतीं तो वह भी करता । धीरे धीरे वह बच्चा बड़ा हो गया । 

एक दिन इन बकरियों के झुण्ड पर एक दूसरा बाघ झपटा । वह उस घास खानेवाले बाघ को देखकर आश्चर्य में पड़ गया । दौड़कर उसने उसे पकड़ा तो वह ‘में में’ कर चिल्लाने लगा । उसे घसीटकर वह जल के पास ले गया और बोला, ‘देख, जल में तू अपना मुँह देख । देख, मेरे ही समान तू भी है; और ले यह थोड़ासा माँस है, इसे खा ले ।’ यह कहकर वह उसे बलपूर्वक खिलाने लगा । पर वह किसी तरह खाने को राजी न हुआ, ‘में में’ चिल्लाता ही रहा ।

 अन्त में रक्त का स्वाद पाकर वह खाने लगा । तब उस नये बाघ ने कहा, ‘अब तूने समझा कि जो मैं हूँ वही तू भी है । अब आ, मेरे साथ जंगल * को चल ।’ 

{শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — কেউ কেউ মনে করে, আমার বুঝি জ্ঞানভক্তি হবে না, আমি বুঝি বদ্ধজীব। গুরুর কৃপা হলে কিছুই ভয় নাই। একটা ছাগলের পালে বাঘ পড়েছিল। লাফ দিতে গিয়ে, বাঘের প্রসব হয়ে ছানা হয়ে গেল। বাঘটা মরে গেল, ছানাটি ছাগলের সঙ্গে মানুষ হতে লাগল। তারাও ঘাস খায়, বাঘের ছানাও ঘাস খায়। তারাও “ভ্যা ভ্যা” করে, সেও “ভ্যা ভ্যা” করে। ক্রমে ছানাটা খুব বড় হল। একদিন ওই ছাগলের পালে আর-একটা বাঘ এসে পড়ল। সে ঘাসখেকো বাঘটাকে দেখে অবাক্‌! তখন দৌড়ে এসে তাকে ধরলে। সেটাও “ভ্যা ভ্যা” করতে লাগলে। তাকে টেনে হিঁচড়ে জলের কাছে নিয়ে গেল। বললে, “দেখ, জলের ভিতর তোর মুখ দেখ — ঠিক আমার মতো দেখ। আর এই নে খানিকটা মাংস — এইটে খা।” এই বলে তাকে জোর করে খাওয়াতে লাগল। সে কোন মতে খাবে না — “ভ্যা ভ্যা” করছিল। রক্তের আস্বাদ পেয়ে খেতে আরম্ভ করলে। নূতন বাঘটা বললে, “এখন বুঝিছিস, আমিও যা তুইও তা; এখন আয় আমার সঙ্গে বনে চলে আয়।”

MASTER (to M.):अभयदान "Some think: 'Oh, I am a bound soul. I shall never acquire knowledge and devotion.' But if one receives the guru's grace, one has nothing to fear. Once a tigress attacked a flock of goats. As she sprang on her prey, she gave birth to a cub and died. The cub grew up in the company of the goats. The goats ate grass and the cub followed their example. They bleated; the cub bleated too. Gradually it grew to be a big tiger. One day another tiger attacked the same flock. It was amazed to see the grass-eating tiger. Running after it, the wild tiger at last seized it, whereupon the grass-eating tiger began to bleat. The wild tiger dragged it to the water and said: 'Look at your face in the water. It is just like mine. Here is a little meat. Eat it.' Saying this, it thrust some meat into its mouth. But the grass-eating tiger would not swallow it and began to bleat again. Gradually, however, it got the taste for blood and came to relish the meat. Then the wild tiger said: 'Now you see there is no difference between you and me. Come along and follow me into the forest.'

[*अर्थात अब प्रवृत्ति से निवृत्ति में अवस्थित हो जा !] 

“इसीलिए गुरु की कृपा होने पर फिर कोई भय नहीं । वे बतला देंगे, तुम कौन हो, तुम्हारा स्वरूप क्या है । 

" So there can be no fear if the guru's grace descends on one. He will let you know who you are and what your real nature is.

“थोड़ा साधन करने पर गुरु /(नेता नवनीदा C-IN-C) सब बातें साफ साफ समझा देते हैं । तब मनुष्य स्वयं समझ सकता है, क्या सत् है, क्या असत् । ईश्वर ही सत्य और यह संसार अनित्य (यानि मिथ्या)  है। 

{“একটু সাধন করলেই গুরু বুঝিয়ে দেন, এই এই। তখন সে নিজেই বুঝতে পারবে, কোন্‌টা সৎ, কোন্‌টা অসৎ। ঈশ্বরই সত্য, এ-সংসার অনিত্য।”

"If the devotee practises spiritual discipline a little, the guru explains everything to him. Then the disciple understands for himself what is real and what is unreal. God alone is real, and the world is illusory.

*कपट साधना भी बुरी नहीं- "जीवनमुक्त नेता " गृहस्थ आश्रम में भी रह सकता है !*

“एक धीवर किसी दूसरे के बाग वाले तालाब में रात के समय चुराकर मछलियाँ पकड़ रहा था । मालिक को इसकी टोह लग गयी और दूसरे लोगों की सहायता से उसने उसे घेर लिया । मशाल जलाकर वे चोर को खोजने लगे । इधर वह धीवर शरीर पर कुछ भस्म लगाए, एक पेड़ के नीचे साधु बनकर बैठ गया । उन लोगों ने बहुत ढूँढ़-तलाश की, पर केवल भभूत रमाए एक ध्यानमग्न साधु के सिवाय और किसी को न पाया । 

दूसरे दिन गाँव भर में खबर फैल गयी कि अमुक के बाग में एक बड़े महात्मा आए हैं । फिर क्या था, सब लोग फल, फूल, मिठाई आदि लेकर साधु के दर्शन को आए । बहुत से रुपये-पैसे भी साधु के सामने पड़ने लगे । धीवर ने विचारा, आश्चर्य की बात है कि मैं सच्चा साधु नहीं हूँ, फिर भी मेरे ऊपर लोगों की इतनी भक्ति है ! इसलिए यदि मैं हृदय से साधु हो जाऊँ तो अवश्य ही भगवान् मुझे मिलेंगे, इसमें सन्देह नहीं । 

“कपट साधना से ही उसे इतना ज्ञान हुआ, सत्य साधना होने पर तो कोई बात ही नहीं । क्या सत्य है, क्या असत्य-साधना करने से तुम समझ सकोगे । ईश्वर ही सत्य हैं और सारा संसार अनित्य ।”

*गृहस्थ नेता को भी जीवनमुक्त होने का आश्वासन (reassure) *

एक भक्त मन ही मन सोच रहे हैं, क्या संसार अनित्य है? धीवर तो संसार त्यागकर चला गया । फिर जो संसार में हैं उनका क्या होगा? उन लोगों को भी (जो गृहस्थ हैं उनको भी) क्या त्याग करना होगा?

{One of the devotees said to himself: "Is the world unreal, then? The fisherman, to be sure, renounced worldly life. What, then, will happen to those who live in the world? Must they too renounce it?"

श्रीरामकृष्ण तो अन्तर्यामी और अहेतुक कृपासिन्धु हैं, तत्काल कहते हैं : “यदि किसी आफिस के कर्मचारी को जेल जाना पड़े तो वह जेल में सजा काटेगा सही, पर जब जेल से मुक्त हो जाएगा, तब क्या वह रास्ते में नाचता फिरेगा? " वह फिर किसी आफिस की नौकरी ढूँढ़ लेगा, वही पुराना काम करता रहेगा । इसी तरह गुरु/नेता की कृपा से ज्ञानलाभ होने पर मनुष्य संसार में भी (अर्थात गृहस्थ-जीवन में भी) 'जीवन्मुक्त' होकर रह सकता है ।”

{ Suppose an office clerk, has been sent to jail. He undoubtedly leads a prisoner's life there. But when he is released from jail, does he cut capers in the street? Not at all. He gets a job as a clerk again and goes on working as before. Even after attaining Knowledge through the guru's grace, one can very well live in the world as a " jivanmukta." Thus did Sri Ramakrishna reassure those who were living as householders.

 यह कहकर श्रीरामकृष्ण ने सांसारिक मनुष्यों को अभय ( आश्वासन ) प्रदान किया ।

(४)

* प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास करने के लिये सगुण -निर्गुण आदर्श का चयन  *

(Through faith alone one attains everything, Be a whole hearted believer !)

मणिलाल (श्रीरामकृष्ण से) - उपासना के समय उनका ध्यान किस जगह करेंगे ? 

श्रीरामकृष्ण- हृदय तो खूब प्रसिद्ध स्थान है । वही उनका ध्यान करना । मणिलाल निराकारवादी ब्राह्म हैं। श्रीरामकृष्ण उन्हें लक्ष्य कर कहते हैं, “कबीर कहते थे-

‘निर्गुण है सो पिता हमारा, और सगुण महतारी ।

काको निन्दौ काको बन्दौ दोनों पलड़ा भारी ॥’

हलधारी दिन में साकार भाव में और रात को निराकार भाव में रहता था । बात यह है कि चाहे जिस भाव का आश्रय करो, विश्वास पक्का होना चाहिए । चाहे साकार में विश्वास करो चाहे निराकार में, परन्तु वह ठीक ठीक (पूरे ह्रदय से -whole-hearted)  होना चाहिए ।

{ "Kabir used to say: 'God with form is my Mother, the formless God my Father. Whom should I blame? Whom should I adore? The two sides of the scales are even.' During the day-time Haladhari used to meditate on God with form, and at night on the formless God.  Whichever attitude you adopt, you will certainly realize God if you have firm faith. You may believe in God with form or in God without form, but your faith must be sincere and whole-hearted. 

*संयोगवश कुछ नहीं होता, माँ की इच्छा से ही सब कुछ होता है ! *

“शम्भु मल्लिक बागबाजार से पैदल अपने बाग में आया करते थे । किसी ने कहा था, ‘इतनी दूर है, गाड़ी से क्यों नहीं आते ? रास्ते में कोई विपत्ति हो सकती है ।’ उस समय शम्भु ने नाराज होकर कहा था, ‘क्या मैं भगवान् का नाम लेकर निकला हूँ, फिर मुझे विपत्ति ?’

{Sambhu Mallick used to come on foot from Baghbazar to his garden house at Dakshineswar. One day a friend said to him: 'It is risky to walk such a long distance. Why don't you come in a carriage?' At that Sambhu's face turned red and he exclaimed: 'I set out repeating the name of God! What danger can befall me?' 

“विश्वास से ही सब कुछ होता है । मैं कहता था यदि अमुक से भेंट हो जाय या यदि अमुक खजांची मेरे साथ बात करे तो समझूँ कि मेरी यह अवस्था सत्य है परन्तु जो मन में आता, वही हो जाता था ।”

( Through faith alone one attains everything. (B. Sc. final exam 1970)I used to say, 'I shall take all this (His spiritual experiences.) to be true if  I meet a certain person or if a certain officer of the temple garden talks to me.' What I would think of would invariably come to pass."

मास्टर ने अंग्रेजी का न्यायशास्त्र (logic)  पढ़ा था । उसमें 'भ्रान्ति ' वाले अध्याय  (Chapter on Fallacies) में लिखा है कि सबेरे के स्वप्न का सत्य होना लोगों के कुसंस्कार की ही उपज है । इसलिए उन्होंने पूछा, “अच्छा, कभी ऐसा भी हुआ है कि कोई घटना नहीं हुई ?”

{মাস্টার ইংরেজী ন্যায়শাস্ত্র পড়িয়াছিলেন। সকাল বেলার স্বপন মিলিয়া যায় (coincidence of dreams with actual events) এটি কুসংস্কার হইতে উৎপন্ন, এ-কথা পড়িয়াছিলেন (Chapter on Fallacies) তাই তিনি জিজ্ঞাসা করিতেছেন —

M. had studied English logic. In the chapters on fallacies he had read that only superstitious people believed in the coincidence of morning dreams with actual events. Therefore he asked the Master, "Was there never any exception?"

श्रीरामकृष्ण- “ नहीं, उस समय सब हो जाता था । ईश्वर का नाम लेकर जो विश्वास करता था, वही हो जाता था । (मणिलाल से) पर इसमें एक बात है । सरल और उदार हुए बिना यह विश्वास नहीं होता । जिसके शरीर की हड्डियाँ दिखायी देती हैं, जिसकी आँखें छोटी और घुसी हुई हैं (hollow-eyed), जो ऐंचाताना (भेंगा)  है, उसे सहज में विश्वास नहीं होता । इसी प्रकार और भी कई लक्षण हैं । 

"दक्षिणे कोलागाछ उत्तरे पूईं, एकला कालो बिड़ाल कि कोरबे मूई "

[শ্রীরামকৃষ্ণ — না, সে-সময় সব মিলত। সে-সময় তাঁর নাম করে যা বিশ্বাস করতুম, তাই মিলে যেত! (মণিলালকে) তবে কি জানো, সরল উদার না হলে এ বিশ্বাস হয় না।

“হাড়পেকে, কোটরচোখ, ট্যারা — এরকম অনেক লক্ষণ আছে, তাদের বিশ্বাস সহজে হয় না। ‘দক্ষিণে কলাগাছ উত্তরে পুঁই, একলা কালো বিড়াল কি করব মুই’।” (সকলের হাস্য)।

MASTER: "No. At that time everything happened that way. I would repeat the name of God and believe that a certain thing would happen, and it would invariably come to pass. (To Manilal) But you must remember, unless one is guileless and broad-minded, one cannot have such faith. Bony people, the hollow-eyed, the cross-eyed — people with physical traits like those cannot easily acquire faith. What can a man do if there are evil omens on all sides?"

*श्रीरामकृष्ण और सतीत्व धर्म* 

शाम हो गयी । दासी कमरे में धूनी दे गयी । मणिलाल आदि के चले जाने के बाद दो एक भक्त अभी बैठे हैं । कमरा शान्त और धूने से सुवासित है । श्रीरामकृष्ण अपने छोटे तखत पर बैठे जगन्माता का चिन्तन कर रहे हैं । मास्टर और राखाल जमीन पर बैठे हैं ।  

थोड़ी देर बाद मथुरबाबू के घर की दासी भगवती ने आकर दूर से श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया । आपने उसे बैठने के लिए कहा । भगवती बाबू की बहुत पुरानी दासी है । बहुत साल से बाबू के यहाँ रह रही है। श्रीरामकृष्ण उसे बहुत दिनों से जानते हैं । पहले पहल उसका स्वभाव अच्छा न था; पर श्रीरामकृष्ण दया के सागर, पतितपावन हैं, इसीलिए उससे पुरानी बातें कर रहे हैं । [In her younger days she had lived a rather immoral life; but the Master's compassion was great. ]  

श्रीरामकृष्ण- अब तो तेरी उम्र बहुत हुई है । जो रुपये कमाए हैं उनसे साधु-वैष्णवों को खिलाती है या नहीं ? 

भगवती (मुस्कराकर)- यह भला कैसे कहूँ ? 

श्रीरामकृष्ण- काशी, वृन्दावन यह सब तो हो आयी ? 

भगवती (थोड़ा सकुचाती हुई)- कैसे बतलाऊँ ? एक घाट बनवा दिया है उसमें पत्थर पर मेरा नाम लिखा है ।  

श्रीरामकृष्ण- ऐसी बात ! 

भगवती- हाँ, नाम लिखा है, ‘श्रीमती भगवती दासी ।’ 

श्रीरामकृष्ण (मुस्कराकर) - बहुत अच्छा । 

भगवती ने साहस पाकर श्रीरामकृष्ण के चरण छूकर प्रणाम किया 

 बिच्छू के काटने से जैसे कोई चौंक उठता है और अस्थिर हो खड़ा हो जाता है, वैसे ही श्रीरामकृष्ण अधीर हो, ‘गोविन्द’ ‘गोविन्द’ उच्चारण करते खड़े हो गए । कमरे के कोने में गंगाजल का एक मटका था-और अब भी है-हाँफते हाँफते, मानो घबराए हुए, उसी के पास गए और पैर के जिस स्थान को दासी ने छुआ था, उसे गंगाजल से धोने लगे । 

दो-एक भक्त जो कमरे में थे , स्तब्ध और चकित हो एकटक यह दृश्य देख रहे हैं । दासी जीवन्मृत की तरह बैठी है । दयासिन्धु पतितपावन श्रीरामकृष्ण ने दासी से करुणा से सने हुए स्वर में कहा, “तुम लोग ऐसे ही प्रणाम करना ।” 

{मनःसंयोग के विषय में 3 गीत}

यह कहकर फिर आसन पर बैठकर दासी को बहलाने की चेष्टा करते रहे । उन्होंने कहा, “कुछ गाते हैं, सुन ।” यह कहकर उसे {मनःसंयोग के विषय में 3 गीत} सुनाने लगे । - 

(१)

मजलो आमार मन- भ्रमरा कालिपद नीलकमले। 

(श्यामापद नीलकमले, कालीपद नीलकमले), 

(जतो) विषयमधू तूच्छ होलो कामादि कुसूम सकले,

चरण कालो भ्रमर कालो, कालोय कालो मिशे गेलो। 

(भावार्थ)- “मेरा मनमधुप श्यामापद-नीलकमल में मस्त हो गया । कामादि पुष्पों में जितने विषय-मधु थे सब तुच्छ हो गए ।.......” 

(२)

श्यामापद आकाशेते मन घुड़िखान उड़ते छिलो। 

कलूसेर कूबातास पेये गोप्ता खेये पोड़े गेलो। 

(भावार्थ)- “श्यामा माँ के चरणरूपी आकाश में मन की पतंग उड़ रही थी । कलुष की कुवायु से वह चक्कर खाकर गिर पड़ी ।......” 

(३)

आपनाते आपनि थेको मन जेओ नाको कारू घरे। 

जा चाबि ता बोशे पाबि, खोंज निज अन्तःपूरे ॥


परम धन ओई परशमणि, जा चाबि ताई दिते पारे। 

कतो मणि पड़े आछे चिन्तामणिर नाच दुआरे॥


तीर्थ-गमन दु:ख भ्रमण मन उचाटन करो ना रे। 

(तुमि) आनन्द-त्रिवेणीर स्नाने शीतल होओ ना मूलाधारे।।


की देख कमलाकांत मिछे बाजी ए संसारे॥

(तुमि) बाजीकरे चिनले नारे, (शे जे) तोमाय घटे विराज करे॥

(भावार्थ)- “मन ! अपने आप में रहो । किसी दूसरे के घर न जाओ । जो कुछ चाहोगे वह बैठे हुए ही पाओगे, अपने अन्तःपुर में जरा खोजो तो सही ! ......”

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