“एक दर्जे के और लोग हैं, जो *सिद्धों में सिद्ध* कहलाते हैं । बाबूजी के साथ यदि विशेष वार्तालाप हो तो वह एक और ही अवस्था है, यदि ईश्वर के साथ प्रेम-भक्ति द्वारा विशेष परिचय हो जाय तो दूसरी ही अवस्था हो जाती है । जो सिद्ध है उसने ईश्वर को पाया तो है, किन्तु जो सिद्धों में सिद्ध है उसका ईश्वर के साथ विशेष परिचय हो गया है ।”
{“আর-এক থাক আছে, তাকে বলে সিদ্ধের সিদ্ধ। বাবুর সঙ্গে যদি বিশেষ আলাপ হয় তাহলে আর একরকম অবস্থা — যদি ঈশ্বরের সঙ্গে প্রেমভক্তির দ্বারা বিশেষ আলাপ হয়। যে সিদ্ধ সে ঈশ্বরকে পেয়েছে বটে, যিনি সিদ্ধের সিদ্ধ তিনি ঈশ্বরের সঙ্গে বিশেষরূপে আলাপ করেছেন।
"There is another type, known as the siddha of the siddha, the 'supremely perfect'. It is quite a different thing when one talks to the master intimately, when one knows God very intimately through love and devotion. A siddha has undoubtedly attained God, but the 'supremely perfect' has known God very intimately.}
“परन्तु उनको प्राप्त करने की इच्छा हो तो एक न एक भाव का सहारा लेना पड़ता है, जैसे-शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य या मधुर ।”
[“কিন্তু তাঁকে লাভ করতে হলে একটা ভাব আশ্রয় করতে হয়। শান্ত, দাস্য, সখ্য, বাৎসল্য বা মধুর।
"But in order to realize God, one must assume one of these attitudes: santa, dasya, sakhya, vatsalya, or madhur.
“शान्त भाव ऋषियों का था । उनमें भोग की कोई वासना न थी; ईश्वरनिष्ठा थी जैसी पति पर स्त्री की होती है; वह यह समझती है कि मेरे पति कन्दर्प हैं ।”
[“শান্ত — ঋষিদের ছিল। তাদের অন্য কিছু ভোগ করবার বাসনা ছিল না। যেমন স্ত্রীর স্বামীতে নিষ্ঠা, — সে জানে আমার পতি কন্দর্প।
"Santa, the serene attitude. The rishis of olden times had this attitude toward God. They did not desire any worldly enjoyment. It is like the single-minded devotion of a wife to her husband. She knows that her husband is the embodiment of beauty and love, a veritable Madan.
“दास्य-जैसे हनुमान का; रामकाज करते समय सिंहतुल्य । धर्मपत्नी (स्त्री) का भी दास्य भाव होता है, -पति की हृदय खोलकर सेवा करती है । माता में भी यह भाव कुछ कुछ रहता है, - यशोदा में था।”
[“দাস্য — যেমন হনুমানের। রামের কাজ করবার সময় সিংহতুল্য। স্ত্রীরও দাস্যভাব থাকে, — স্বামীকে প্রাণপণে সেবা করে। মার কিছু কিছু থাকে — যশোদারও ছিল।
"Dasya, the attitude of a servant toward his master. Hanuman had this attitude toward Rama. He felt the strength of a lion when he worked for Rama. A wife feels this mood also. She serves her husband with all her heart and soul. A mother also has a little of this attitude, as Yasoda had toward Krishna.
“सख्य-मित्रभाव । आओ, पास बैठो । श्रीदामा आदि गोप श्रीकृष्ण को कभी जूठे फल खिलाते थे, कभी कंधे पर चढ़ते थे ।”
[“সখ্য — বন্ধুর ভাব; এস, এস কাছে এসে বস। শ্রীদামাদি কৃষ্ণকে কখন এঁটো ফল খাওয়াচ্ছে, কখন ঘাড়ে চড়ছে।
"Sakhya, the attitude of friendship. Friends say to one another, 'Come here and sit near me.' Sridama and other friends sometimes fed Krishna with fruit, part of which they had already eaten, and sometimes climbed on His shoulders.
“वात्सल्य-जैसे यशोदा का । स्त्रियों में भी कुछ कुछ होता है, -स्वामी को खिलाते समय मानो जी काढ़कर रख देती है । लड़का जब भरपेट भोजन कर लेता है, तभी माँ को संतोष होता है । यशोदा कृष्ण को खिलाने के लिए मक्खन हाथ में लिए घूमती फिरती थीं ।”
[“বাৎসল্য — যেমন যশোদার। স্ত্রীরও কতকটা থাকে, — স্বামীকে প্রাণ চিরে খাওয়ায়। ছেলেটি পেট ভরে খেলে তবেই মা সন্তুষ্ট। যশোদা কৃষ্ণ খাবে বলে ননী হাতে করে বেড়াতেন।
"Vatsalya, the attitude of a mother toward her child. This was Yasoda's attitude toward Krishna. The wife, too, has a little of this. She feeds her husband with her very life-blood, as it were. The mother feels happy only when the child has eaten to his heart's content. Yasoda would roam about with butter in her hand, in order to feed Krishna.
“मधुर- जैसे श्रीराधिका का । स्त्रियों का भी मधुर भाव है । इस भाव में शान्त, दास्य, सख्य वात्सल्य सब भाव हैं ।”
[“মধুর — যেমন শ্রীমতীর। স্ত্রীরও মধুরভাব। এ-ভাবের ভিতরে সকল ভাবই আছে — শান্ত, দাস্য, সখ্য, বাৎসল্য।”
"Madhur, the attitude of a woman toward her paramour. Radha had this attitude toward Krishna. The wife also feels it for her husband. This attitude includes all the other four."
[( 24 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 9 ]
🔆🙏क्या ईश्वर के दर्शन (माँ, ठाकुर, स्वामीजी के दर्शन) इन्हीं नेत्रों से होते हैं ?🔆🙏
मणि- क्या ईश्वर के दर्शन इन्हीं नेत्रों से होते हैं ?
[মণি — ঈশ্বরকে দর্শন কি এই চক্ষে হয়?
(M: "When one sees God does one see Him with these eyes?")
श्रीरामकृष्ण- चर्मचक्षु से उन्हें कोई नहीं देख सकता । साधना करते करते शरीर प्रेम का हो जाता है । आँखें प्रेम की, कान प्रेम के । उन्हीं आँखों से वे दीख पड़ते हैं, उन्हीं कानों से उनकी वाणी सुन पड़ती है। और प्रेम का लिंग और योनि भी होती है ।
{শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁকে চর্মচক্ষে দেখা যায় না। সাধনা করতে করতে একটি প্রেমের শরীর হয় — তার প্রেমের চক্ষু, প্রেমের কর্ণ। সেই চক্ষে তাঁকে দেখে, — সেই কর্ণে তাঁর বাণী শুনা যায়। আবার প্রেমের লিঙ্গ যোনি হয়।
MASTER: "God cannot be seen with these physical eves. In the course of spiritual discipline one gets a 'love body', endowed with 'love eves', 'love ears', and so on. One sees God with those 'love eyes'. One hears the voice of God with those 'love ears'. One even gets a sexual organ made of love."
यह सुनकर मणि खिलखिलाकर हँस पड़े । श्रीरामकृष्ण जरा भी नाराज न होकर फिर कहने लगे --- इस प्रेम के शरीर में आत्मा के साथ रमण होता है ।
[এই কথা শুনিয়া মণি হো-হো করিয়া হাসিয়া ফেলিলেন। ঠাকুর বিরক্ত না হইয়া আবার বলিতেছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ — এই প্রেমের শরীরে আত্মার সহিত রমণ হয়।
At these words M. burst out laughing. The Master continued, unannoyed, "With this 'love body' the soul communes with God."
मणि फिर गम्भीर हो गए ।
[মণি আবার গম্ভীর হইলেন।
श्रीरामकृष्ण- “ईश्वर को बिना प्यार किये दर्शन नहीं होते ।” जिसे पीलिया हो जाता है, उसे सब कुछ पीला नजर आने लगता है, उसी तरह अवतार को खूब प्यार करने से चारों ओर ईश्वर ही ईश्वर दीखते हैं । तब वह कहता है, ‘मैं ही काली हूँ’ ।”
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ঈশ্বরের প্রতি খুব ভালবাসা না এলে হয় না। খুব ভালবাসা হলে তবেই তো চারিদিক ঈশ্বরময় দেখা যায়। খুব ন্যাবা হলে তবেই চারিদিক হলদে দেখা যায়। “তখন আবার ‘তিনিই আমি’ এইটি বোধ হয়। মাতালের নেশা বেশি হলে বলে, ‘আমিই কালী’।
MASTER: "But this is not possible without intense love of God. One sees nothing but God everywhere when one loves Him with great intensity. It is like a person with jaundice, who sees everything yellow. Then one feels, 'I am verily He.' "A drunkard, deeply intoxicated, says, 'Verily I am Kali!'
“गोपियाँ प्रेमोन्मत्त होकर कहने लगीं- ‘मैं ही कृष्ण हूँ’ ।”
[“গোপীরা প্রেমোন্মত্ত হয়ে বলতে লাগল, ‘আমিই কৃষ্ণ।’
The gopis, intoxicated with love, exclaimed, 'Verily I am Krishna!
[( 24 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 9 ]
🔆🙏क्या ईश्वरदर्शन मस्तिष्क का भ्रम है? 'चैतन्य' का चिन्तन 'नश्वर' का चिंतन नहीं 🔆🙏
“संशयात्मा विनश्यति ”
-गीता 4 . 40
[विवेकहीन और श्रद्धारहित संशयात्मा मनुष्यका पतन हो जाता है। ऐसे संशयात्मा मनुष्यके लिये न यह लोक है न परलोक है और न सुख ही है। जो अज्ञानी है अर्थात् वह पुरुष जिसे बौद्धिक स्तर पर भी आत्मा का ज्ञान नहीं है। इस प्रकार के श्रद्धारहित और संशयी स्वभाव के पुरुष का नाश अवश्यंभावी है। लेकिन संशयात्मा को अर्थात् जिसके चित्त में संशय है (अवतार वरिष्ठ पर संशय है?) उस पुरुष को न तो यह साधारण मनुष्यलोक मिलता है न परलोक मिलता है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि अज्ञानी तथा अश्रद्धालु पुरुष कुछ मात्रा में तो इस लोक का सुख प्राप्त कर सकते हैं परन्तु संशयी स्वभाव के व्य़क्ति के भाग्य में वह भी नहीं लिखा होता। तथाकथित बुद्धिमान (बुद्धिजीवी -आन्दोलन जीवी ) अश्रद्धालु और संशयी स्वभाव के पुरुषों पर इस पंक्ति मे तीक्ष्ण व्यंग्य प्रहार किया गया है।]
“दिनरात उन्हीं की चिन्ता करने से चारों ओर वे ही दीख पड़ते हैं । जैसे थोड़ी देर दीपशिखा की ओर ताकते रहो, तो फिर चारों ओर सब कुछ शिखामय ही दिखायी देता है ।”
[“তাঁকে রাতদিন চিন্তা করলে তাঁকে চারিদিকে দেখা যায়, যেমন — প্রদীপের শিখার দিকে যদি একদৃষ্টে চেয়ে থাক, তবে খানিকক্ষণ পরে চারিদিক শিখাময় দেখা যায়।”
The gopis, intoxicated with love, exclaimed, 'Verily I am Krishna!" One who thinks of God, day and night, beholds Him everywhere. It is like a man's seeing flames on all sides after he has gazed fixedly at one flame for some time."}
मणि (पाश्चात्य शिक्षा ? में पलेबढ़े M) सोचते हैं कि वह शिखा तो 'सत्य शिखा' है नहीं ।
[মণি ভাবিতেছেন যে, সে শিখা তো সত্যকার শিখা নয়।
"But that isn't the real flame", flashed through M.'s mind.}
अन्तर्यामी श्रीरामकृष्ण कहने लगे- “चैतन्य की चिन्ता करने से कोई अचेत नहीं हो जाता ।” शिवनाथ ने कहा था, ‘ईश्वर की बार बार चिन्ता करने से लोग पागल हो जाते हैं ।’ मैंने उससे कहा, ‘चैतन्य की चिन्ता करने से क्या कभी कोई चैतन्यहीन होता है?’
{ঠাকুর অন্তর্যামী, বলিতেছেন, চৈতন্যকে চিন্তা করলে অচৈতন্য হয় না। শিবনাথ বলেছিল, ঈশ্বরকে একশোবার ভাবলে বেহেড হয়ে যায়। আমি তাকে বললাম, চৈতন্যকে চিন্তা করলে কি অচৈতন্য হয়?
Sri Ramakrishna, who could read a man's inmost thought, said: "One doesn't lose consciousness by thinking of Him who is all Spirit, all Consciousness. Shivanath once remarked that too much thinking about God confounds the brain. Thereupon I said to him, 'How can one become unconscious by thinking of Consciousness?'"
मणि- जी, समझा यह तो किसी अनित्य विषय की चिन्ता है नहीं; जो नित्य और चेतन ( eternal Intelligence-शाश्वत चैतन्य स्पंदन) हैं उनमें मन लगाने से मनुष्य अचेतन क्यों होने लगा ?
{মণি — আজ্ঞা, বুঝেছি। এ-তো অনিত্য কোন বিষয় চিন্তা করা নয়? —যিনি নিত্যচৈতন্যস্বরূপ তাঁতে মন লাগিয়ে দিলে মানুষ কেন অচৈতন্য হবে?
M: "Yes, sir, I realize that. It isn't like thinking of an unreal object (खरहे का सींग) . How can a man lose his intelligence if he always fixes his mind on Him whose very nature is eternal Intelligence?"
[( 24 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 9 ]
🔆🙏 महामाया की कृपा के बिना आत्मदर्शन नहीं होता और सन्देह-भंजन नहीं होता 🔆🙏
[Without the grace of Mahamaya (the Great Illusion,
the Divine Mother, the Cosmic Power ) there is no self-realization.]
श्रीरामकृष्ण (प्रसन्न होकर)- यह तुम्हारे पर उनकी कृपा है । बिना उनकी कृपा के सन्देह-भंजन नहीं होता ।
{শ্রীরামকৃষ্ণ (প্রসন্ন হইয়া) — এইটি তাঁর কৃপা — তাঁর কৃপা না হলে সন্দেহ ভঞ্জন হয় না।
MASTER (with pleasure): "It is through God's grace that you understand that. The doubts of the mind will not disappear without His grace. Doubts do not disappear without Self-realization.}
“उनकी कृपा होने पर फिर कोई भय की बात नहीं रह जाती । पुत्र यदि पिता का हाथ पकड़कर चले तो गिर भी सकता है परन्तु यदि पिता पुत्र का हाथ पकड़े तो फिर गिरने का कोई भय नहीं। वे यदि कृपा करके संशय दूर कर दें और दर्शन दें तो फिर कोई दुःख नहीं । परन्तु उन्हें पाने के लिए खूब व्याकुल होकर पुकारना चाहिए-साधना करनी चाहिए-तब उनकी कृपा होती है । पुत्र को दौड़ते देखकर माता को दया आ जाती है । माँ छिपी थी । सामने प्रकट हो जाती है।”
{“তাঁর কৃপা হলে আর ভয় নাই। বাপের হাত ধরে গেলেও বরং ছেলে পড়তে পারে? কিন্তু ছেলের হাত যদি বাপ ধরে, আর ভয় নাই। তিনি কৃপা করে যদি সন্দেহ ভঞ্জন করেন, আর দেখা দেন আর কষ্ট নাই। — তবে তাঁকে পাবার জন্য খুব ব্যাকুল হয়ে ডাকতে ডাকতে — সাধনা করতে করতে তবে কৃপা হয়। ছেলে অনেক দৌড়াদৌড়ি কচ্ছে, দেখে মার দয়া হয়। মা লুকিয়া ছিল, এসে দেখা দেয়।”
"But one need not fear anything if one has received the grace of God. It is rather easy for a child to stumble if he holds his father's hand; but there can be no such fear if the father holds the child's hand. A man does not have to suffer any more if God, in His grace, removes his doubts and reveals Himself to him. But this grace descends upon him only after he has prayed to God with intense yearning of heart and practised spiritual discipline. The mother feels compassion for her child when she sees him running about breathlessly. She has been hiding herself; now she appears before the child."}
मणि सोच रहे हैं, ईश्वर दौड़धूप क्यों कराते हैं?
[মণি ভাবিতেছেন, তিনি দৌড়াদৌড়ি কেন করান।
{"But why should God make us run about?" thought M.}
(अन्तर्यामी) श्रीरामकृष्ण तुरन्त कहने लगे- “उनकी इच्छा कि कुछ देर दौड़धूप हो तो आनन्द मिले। लीला से उन्होंने इस संसार की रचना की है । इसी का नाम महामाया है । अतएव उस शक्तिरूपिणी महामाया की शरण लेनी पड़ती है । माया के पाशों ने बाँध लिया है, फाँस काटने पर ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं ।”
{ — ঠাকুর অমনি বলিতেছেন, “তাঁর ইচ্ছা যে খানি দৌড়াদৌড়ি হয়; তবে আমোদ হয়। তিনি লীলায় এই সংসার রচনা করেছেন। এরি নাম মহামায়া। তাই সেই শক্তিরূপিণী মার শরণাগত হতে হয়। মায়াপাশে বেঁধে ফেলেছে, এই পাশ ছেদন করতে পারলে তবেই ঈশ্বরদর্শন হতে পারে।”
Immediately Sri Ramakrishna said: "It is His will that we should run about a little. Then it is great fun. God has created the world in play, as it were. This is called Mahamaya, the Great Illusion. Therefore one must take refuge in the Divine Mother, the Cosmic Power Itself. It is She who has bound us with the shackles of illusion. The realization of God is possible only when those shackles are severed."
[( 24 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 9 ]
🔆🙏आद्याशक्ति ( the Primal Energy) माँ महामाया तथा शक्तिसाधना 🔆🙏
श्रीरामकृष्ण- कोई ईश्वर (ठाकुरदेव) की कृपा प्राप्त करना चाहे तो उसे पहले आद्याशक्ति-स्वरूपिणी महामाया -"The Divine Mother, the Primal Energy" (माँ सारदा देवी) को प्रसन्न करना चाहिए । वे संसार को मुग्ध करके - अर्थात सम्मोहित (Hypnotized) करके सृष्टि, स्तिथि और प्रलय कर रही हैं । उन्होंने सब को अज्ञानी बना डाला है । वे जब द्वार से हट जाएँगी तभी जीव भीतर जा सकता है । बाहर पड़े रहने से केवल बाहरी वस्तुएँ देखने को मिलती हैं, नित्य सच्चिदानन्द पुरुष (Existence-Consciousness-Bliss, निरपेक्ष परम् पुरुष) नहीं मिलते । इसीलिए पुराणों में हैं-सप्तशती में-मधुकैटभ का वध करते समय ब्रह्मादि देवता महामाया की स्तुति कर रहे हैं१।
{শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁর কৃপা পেতে গেলে আদ্যাশক্তিরূপিণী তাঁকে প্রসন্ন করতে হয়। তিনি মহামায়া। জগৎকে মুগ্ধ করে সৃষ্টি স্থিতি প্রলয় করছেন। তিনি অজ্ঞান করে রেখে দিয়েছেন। সেই মহামায়া দ্বার ছেড়ে দিলে তবে অন্দরে যাওয়া যায়। বাহিরে পড়ে থাকলে বাহিরের জিনিস কেবল দেখা যায় — সেই নিত্য সচ্চিদানন্দ পুরুষকে জানতে পারা যায় না। তাই পুরাণে কথা আছে — চন্ডীতে — মধুকৈটভ১ বধের সময় ব্রহ্মাদি দেবতারা মহামায়ার স্তব করছেন।
The Master continued: "One must propitiate the Divine Mother, the Primal Energy, in order to obtain God's grace. God Himself is Mahamaya, who deludes the world with Her illusion and conjures up the magic of creation, preservation, and destruction. She has spread this veil of ignorance before our eyes. We can go into the inner chamber only when She lets us pass through the door. Living outside, we see only outer objects, but not that Eternal Being, Existence-Knowledge-Bliss Absolute. Therefore it is stated in the Purana that deities like Brahma praised Mahamaya for the destruction of the demons Madhu and Kaitabha.
🔆🙏सप्तशती, मधुकैटभवध, तन्त्रोक्तं रात्रिसूक्तम् 🔆🙏
१.ब्रहमोवाच ।
ॐ विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम्।
निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभुः॥1॥
जो इस विश्व की अधीश्वरी, जगत् को धारण करनेवाली, संसार का पालन और संहार करनेवाली तथा तेजःस्वरूप भगवान् विष्णु की अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं भगवती निद्रादेवी की भगवान् ब्रह्मा स्तुति करने लगे ॥ १॥
[Om, the Goddess of the entire Universe (Vishweshwari), Who Supports all the Worlds (Jagatdhatri), Who is the underlying Cause behind the continuance of Existence (Sthiti) as well as Withdrawing of Creation (Samhara), Who is the Goddess with unparalled Tejas (Power) and is the Yoganidra of Vishnu; (To that Goddess Sri Brahma said) 1
ब्रह्मोवाच त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका।
सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता॥2॥
अर्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः।
त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं देवि जननी परा॥3॥
[ब्रह्माजी ने कहा – देवि! तुम ही स्वाहा, तुम ही स्वधा और तुम ही वषट्कार हो । स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं । तुम ही जीवनदायिनी सुधा हो । नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार – इन तीन मात्राओं के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेषरूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम ही हो । देवि! तुम ही संध्या,सावित्री तथा परम जननी हो ॥ २-३॥]
Brahma said: You are Swaha (Sacrificial oblations to the gods), You are Swadha (Sacrificial oblations to the manes), You are indeed Vasatkara (Exclamation during sacrifice after which the oblation is poured); You are the essence behind these Swaras (Exclamations during sacrificial oblations) (and thus the One to Whom all Sacrificial Oblations go),You are the Nectar (of Bliss) within the Akshara (Om), residing eternally as the essence behind the three Maatras (A-U-M), 2
You eternally abide in the very subtle Bindu of the Omkara, which in particular, cannot be pronounced at all, You indeed are the Sandhya (The approaching calmness of the night and the essence of the Sandhya worship) and You indeed are the Savitri (The power of the Sun during the day and the essence of the Gayatri mantra); You are the Devi Who is the Supreme Mother,3
त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्।
त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा॥4॥
देवि! तुम ही इस विश्व-ब्रह्माण्ड को धारण करती हो। तुम से ही इस जगत् की सृष्टि होती है । तुम ही से इसका पालन होता है और सदा तुम ही कल्प के अन्त में सबको अपना ग्रास बना लेती हो ॥ ४॥
You Bear this Universe, You Create this World (from Your Power), and You Sustain this Creation, O Devi (through Your Power), and finally You merge this Creation within You, always, 4
विसृष्टौ सृष्टिरुपा त्वं स्थितिरूपा च पालने।
तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये॥5॥
जगन्मयी देवि! इस जगत् की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो, पालन काल में स्थितिरूपा हो तथा कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करनेवाली हो ॥ ५॥
[During Creation You are Sristhi-Rupa (of the form of the Creator of this World), during Sustaining You are Sthiti-Rupa (of the form of the Abider within the Creation for Nourishing it), and in like manner, during the End of the World, You assume the form of Samhriti (of the form of Withdrawer of Creation within Yourself); You are thus the Jaganmayi (Who contain the whole World within Herself), 5
महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः।
महामोहा च भवती महादेवी महासुरी॥6॥
तुम ही महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहरूपा, महादेवी और महासुरी हो ॥ ६॥
[You are Mahavidya (The great secret Knowledge beyond the Mind), You are Mahamaya (The Knowledge which enchants the Mind), You are Mahamedha (The great Intelligence beyond the Mind) and You are Mahasmriti (The Universal Memory which Knows everything), You are Mahamoha (The Knowledge which confounds the limited Mind); You are Mahadevi, the worshipful Great Goddess,6
प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी।
कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा॥7॥
तुम ही तीनों गुणों को उत्पन्न करनेवाली सबकी प्रकृति हो । भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम ही हो ॥ ७॥
[Through Your Three Gunas, You have given rise to the entire Prakriti (The Universal Nature), You are Kalaratri (The Great Night behind Prakriti which causes Dissolution), You are Maharatri (The Great Night behind Prakriti which is full of Mystery), You are Moharatri (The Great Night behind Prakriti which causes Delusion), You are (indeed) Very Very Deep, 7
त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा।
लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च॥8॥
तुम ही श्री, तुम ही ईश्वरी, तुम ही ह्री और तुम ही बोधस्वरूपा बुद्धि हो । लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम ही हो ॥ ८॥
[You are Sri (Srim, the Bija Mantra of Sri), You are the Goddess (Who brings Prosperity), You are Hri (Hrim, the Bija Mantra of Prana and Heart Space), You are (the Power which awakens) the Intelligence and Understanding, You are the Feminine Energy manifesting as Modesty, Nourishment, as well as Contentment; You are indeed Peace and the Power of Forbearance, 8
खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा।
शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा॥9॥
तुम खड्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष धारण करनेवाली हो । बाण, भुशुण्डी और परिघ – ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं ॥ ९॥
[Holding the Khadga (Sword, Scymitar) and Trishula (Trident) You manifest Your Dreadful form (making a Terrible Sound); with the other hands holding the Gada (Mace) and Chakra (Discus), and (holding) Shankha (Conch Shell), Caapa (Bow), Bana (Arrow), Bhusundi (a type of weapon) and the weapon Parigha (Club studded with Iron), 9
सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी।
परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी॥10॥
तुम सौम्य और सौम्यतर हो – इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्यधिक सुन्दरी हो । पर और अपर – सबसे परे रहनेवाली परमेश्वरी तुम ही हो ॥ १०॥
[You are Saumya (Cool and Placid like the Moon), a greater manifestation of Saumya, perfect and whole, and surpassing all that is Saumya; You are indeed exceedingly Beautiful, You are beyond both Para (knowledge relating to the divine) and Apara (knowledge relating to the world); You indeed are the Supreme Goddess, 10
यच्च किञ्चित् क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके।
तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वं किं स्तूयसे तदा॥11॥
सर्वस्वरूपे देवि! कहीं भी सत्-असत् रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम ही हो। ऐसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है ? ॥ ११॥
[Whatever thing, however insignificant, present anywhere, whether they are Sat (based on eternal Truth, lasting) or Asat (not based on eternal Truth, transient), O the Atman (Soul) of the whole Universe, are all manifestations of Your Shakti; how then can anyone Praise You? (the praiser also being part of You) 11
यया त्वया जगत्स्रष्टा जगत्पात्यत्ति यो जगत्।
सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः॥12॥
जो इस जगत् की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन भगवान् को भी जब तुम ने निद्रा के अधीन कर दिया है, तब तुम्हारी स्तुति करने में यहां कौन समर्थ हो सकता है ? ॥ १२॥
[By You, (He Who is) the Creator of the World, the Destroyer of the World, He Who is the World Itself (i|e.the Preserver of the World), even Him (i|e.Vishnu), You have overpowered with Sleep; What (further) Praise can therefore be uttered by me now, O Ishwara? 12
विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च।
कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत्॥13॥
मुझको, भगवान् शंकर को तथा भगवान् विष्णु को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है; अतः तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है ? ॥ १३॥
[You are indeed Bearing the Bodies of Vishnu, Myself and Ishana (Shiva), They are all created from Your Power; Hence from what Power of mine can I Praise You? (Since behind everything is Your Power)13
सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता।
मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ॥14॥
प्रबोधं च जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु।
बोधश्च क्रियतामस्य हन्तुमेतौ महासुरौ॥15॥
देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो। ये जो दोनों दुर्धर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इनको मोह में डाल दो और जगदीश्वर भगवान् विष्णु को शीघ्र ही जगा दो । साथ ही इनके भीतर इन दोनों महान् असुरों को मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो ॥ १४-१५॥
[(Even) With all Your Powers thus (mentioned), O Devi, You are praised for Your great Generosity, Therefore, (O Devi), Please delude these invincible Demons, Madhu and Kaitabha 14
O Devi, Please Wake up the Lord of the World (i.e., Vishnu), and guide the Achyuta (another name of Vishnu) quickly, Please make Known to Him (ie., Vishnu) about these great Demons, so that He can Kill them 15
इस प्रकार तन्त्रोक्त रात्रिसूक्त सम्पूर्ण हुआ ॥ जो देवि सब प्राणियों में निद्रारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है ॥
॥ इति तन्त्रोक्तं रात्रिसूक्तम् ॥
संसार का मूल आधार शक्ति ही है । उस आद्याशक्ति के भीतर विद्या और अविद्या दोनों हैं- अविद्या मोहमुग्ध करती है । अविद्या वह है जिससे कामिनी और कांचन उत्पन्न हुए हैं, वह मुग्ध (Hypnotized) करती है; और विद्या वह है जिससे भक्ति, दया, ज्ञान और प्रेम की उत्पत्ति हुई है; वह ईश्वरमार्ग पर ले जाती है ।
[“শক্তিই জগতের মূলাধার। সেই আদ্যাশক্তির ভিতরে বিদ্যা ও অবিদ্যা দুই আছে, — অবিদ্যা — মুগ্ধ করে। অবিদ্যা — যা থেকে কামিনী-কাঞ্চন — মুগ্ধ করে। বিদ্যা — যা থেকে ভক্তি, দয়া, জ্ঞান, প্রেম — ঈশ্বরের পথে লয়ে যায়।
"Sakti alone is the root of the universe. That Primal Energy has two aspects: vidya and avidya. Avidya deludes. Avidya conjures up 'woman and gold', which casts the spell. Vidya begets devotion, kindness, wisdom, and love, which lead one to God.
“उस अविद्या को प्रसन्न करना होगा । इसीलिए शक्ति की पूजापद्धति हुई ।”
(इस पूजा-पद्धति के अनुसार प्रत्येक स्त्री को ही मां जगदम्बा का प्रतिरूप माना जाता है।)
[“সেই অবিদ্যাকে প্রসন্ন করতে হবে। তাই শক্তির পূজা পদ্ধতি।
This avidya must be propitiated, and that is the purpose of the rites of Sakti worship.
( In this worship a woman is regarded as the representation of the Divine Mother.}
“उन्हें प्रसन्न करने के लिए (स्त्रियों का ) नाना भावों से पूजन किया जाता है । जैसे दासीभाव (तन्त्रोक्त पशुभाव), वीरभाव, सन्तानभाव (तंत्रोक्त दिव्यभाव ) । वीरभाव अर्थात् उन्हें रमण (intercourse-पारस्परिक व्यवहार या सहवास) द्वारा प्रसन्न करना ।”
[“তাঁকে প্রসন্ন করবার জন্য নানাভাবে পূজা — দাসীভাব, বীরভাব, সন্তানভাব। বীরভাব — অর্থাৎ রমণ দ্বারা তাঁকে প্রসন্ন করা।
{"The devotee assumes various attitudes toward Sakti in order to propitiate Her: the attitude of a handmaid, a 'hero', or a child. A hero's attitude is to please Her even as a man pleases a woman through intercourse.}
“शक्तिसाधना- सब बड़ी विकट साधनाएँ थीं, दिल्लगी नहीं ।”
[“শক্তিসাধনা — সব ভারী উৎকট সাধনা ছিল, চালাকি নয়।
"The worship of Sakti is extremely difficult. It is no joke.
“मैं माँ के दासीभाव से और सखीभाव से दो वर्ष तक रहा । परन्तु मेरा सन्तानभाव है । स्त्रियों के स्तनों को मातृस्तन समझता हूँ ।”
[“আমি মার দাসীভাবে, সখীভাবে দুই বৎসর ছিলাম। আমার কিন্তু সন্তানভাব, স্ত্রীলোকের স্তন মাতৃস্তন মনে করি।
"I passed two years as the handmaid and companion of the Divine Mother. But my natural attitude has always been that of a child toward its mother. I regard the breasts of any woman as those of my own mother.}
“लडकियाँ (भावी मातायें) शक्ति की एक एक मूर्ति हैं । उत्तर-पश्चिम भारत (राजपुताना)
में विवाह के समय वर के हाथ में छुरी (तलवार) रहती है (जिसकी नोक पर कसैली खोंसा रहता है !) , बंगाल में सरौता-अर्थात् उस शक्तिरूपिणी कन्या की सहायता से वर मायापाश काट सकेगा । यह वीरभाव है । मैंने वीरभाव से पूजा नहीं की । मेरा सन्तानभाव था ।”
[“মেয়েরা এক-একটি শক্তির রূপ। পশ্চিমে বিবাহের সময় বরের হাতে ছুরি থাকে, বাংলা দেশে জাঁতি থাকে; — অর্থাৎ ওই শক্তিরূপা কন্যার সাহায্যে বর মায়াপাশ ছেদন করবে। এটি বীরভাব। আমি বীরভাবে পূজা করি নাই। আমার সন্তানভাব।
{"Women are, all of them, the veritable images of Sakti. In northwest India (राजपुताना) the bride holds a knife (sword ) in her hand at the time of marriage; in Bengal, a nut-cutter. The meaning is that the bridegroom, with the help of the bride, who is the embodiment of the Divine Power, will sever the bondage of illusion. This is the 'heroic' attitude. I never worshipped the Divine Mother that way. My attitude toward Her is that of a child toward its mother.}
“कन्या शक्तिस्वरूपा है । विवाह के समय तुमने नहीं देखा- 'वर' अहमक की तरह पीछे बैठा रहता है; परन्तु 'कन्या' निःशंक रहती है !”
{“কন্যা শক্তিরূপা। বিবাহের সময় দেখ নাই — বর-বোকাটি পিছনে বসে থাকে? কন্যা কিন্তু নিঃশঙ্ক।”
"The bride is the very embodiment of Sakti. Haven't you noticed, at the marriage ceremony, how the groom sits behind like an idiot? But the bride — she is so bold!}
[( 24 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 9 ]
🔆🙏‘Religion and Science’ : ईश्वरदर्शन तथा ऐहिक ज्ञान या अपरा विद्या🔆🙏
[দর্শনের পর ঐশ্বর্য ভুল হয় — নানা জ্ঞান, অপরা-বিদ্যা
— ‘Religion and Science’ —সাত্ত্বিক ও রাজসিক জ্ঞান ]
[विवेक-दर्शन के बाद नाना ज्ञान, अपरा-विद्या के ऐश्वर्य को भ्रम माना जाता है -
- 'धर्म और विज्ञान' - सात्विक और राजसिक ज्ञान]
“ईश्वरलाभ करने पर उनके बाहरी ऐश्वर्य, संसार के ऐश्वर्य को भक्त भूल जाता है । उन्हें देखने से उनके ऐश्वर्य की बात याद नहीं आती । दर्शनानन्द में मग्न हो जाने पर भक्त का हिसाबकिताब नहीं रह जाता । नरेन्द्र को देखने पर तेरा नाम क्या है, तेरा घर कहाँ है यह कुछ पूछने की जरूरत नहीं रहती । पूछने का अवसर ही कहाँ है? हनुमान से किसी ने पूछा, आज कौन सी तिथि है? हनुमान ने कहा, भाई, मैं दिन, तिथि, नक्षत्र-कुछ नहीं जानता, मैं केवल श्रीराम का स्मरण किया करता हूँ ।”
{শ্রীরামকৃষ্ণ — ঈশ্বরলাভ করলে তাঁর বাহিরের ঐশ্বর্য, তাঁর জগতের ঐশ্বর্য ভুল হয়ে যায়; তাঁকে দেখলে তাঁর ঐশ্বর্য মনে থাকে না। ঈশ্বরের আনন্দে মগ্ন হলে ভক্তের আর হিসাব থাকে না। নরেন্দ্রকে দেখলে “তোর নাম কি; তোর বাড়ি কোথা” — এ-সব জিজ্ঞাসা করার দরকার হয় না। জিজ্ঞাসা করবার অবসর কই? হনুমানকে একজন জিজ্ঞাসা করেছিল, আজ কি তিথি? হনুমান বললে, “ভাই, আমি বার তিথি নক্ষত্র — এ-সব কিছুই জানি না, আমি এক ‘রাম’ চিন্তা করি।”
"After attaining God one forgets His external splendour, the glories of His creation. One doesn't think of God's glories after one has seen Him. The devotee, once immersed in God's Bliss, doesn't calculate any more about outer things.
When I see Narendra, I don't need to ask him: 'What's your name? Where do you live?' Where is the time for such questions? Once a man asked Hanuman which day of the fortnight it was. 'Brother,' said Hanuman, 'I don't know anything of the day of the week, or the fortnight, or the position of the stars. I think of Rama alone.'"
[स्वामी विवेकानन्द ने 'हिन्दू धर्म क्या है ?' 'HINDUISM AND SRI RAMAKRISHNA' (Volume 6) में गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा का उल्लेख करते हुए कहा है --
" सत्य के दो भेद हैं, पहला पंचेन्द्रियों के माध्यम से जो हमलोग ग्रहण करते हैं, उसे 'विज्ञान'
कहते हैं। तथा दूसरा, जिस सत्य को हम इन्द्रियातीत योगज शक्ति के द्वारा ग्रहण करते हैं, उसे 'वेद' कहते हैं।
जिन पुरुषों में उस इन्द्रियातीत शक्ति का आविर्भाव होता है (माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध का आविर्भाव होता है) उन्हें ऋषि कहते हैं। और उस शक्ति के द्वारा जिस अलौकिक सत्य की उन्होंने ने उपलब्धि की है, उसे वेद कहते हैं।
इस ऋषित्व तथा वेद-दष्टृत्व को प्राप्त करना ही यथार्थ धर्मानुभूति है। साधक के जीवन में जबतक उसका (वेद-दष्टृत्व का ) उन्मेष नहीं होता, तब तक 'धर्म' केवल 'कहने भर की बात' है; एवं समझना चाहिये कि उसने धर्मराज्य के प्रथम सोपान भी पैर नहीं रखा है।
[अर्थात जो नमक का पुतला समुद्र की गहराई नापने गया था , वह उसी में नहीं घुला क्योंकि सद्गुरु की कृपा से उस समय वह पत्थर का बन गया था ! इसीलिए ईश्वरकोटि के भावी नेता माँ सारदा की कृपा से 'वेद' (धर्म) ग्रहण करके पुनः देह-इन्द्रयों में लौट आते हैं !]
'सार्वजनीन धर्म (Be and Make =सर्वधर्म-समन्वय) का व्याख्याता एकमात्र 'वेद' ही है ! 'वेद'- नामक अनन्त अनादि अलौकिक ज्ञानराशि (चतु श्लोकि भागवत के रूप में ) सदा विद्यमान है ; स्वयं सृष्टिकर्ता (ब्रह्मा = माँ जगदम्बा- 'यस्य प्रेमप्रवाहः आचण्डालाप्रतिहतरयो ') उसकी सहायता से इस जगत के सृष्टि-स्थिति-प्रलय कार्य सम्पन्न कर रहे हैं।
आचण्डालाप्रतिहतरयो यस्य प्रेमप्रवाहः
लोकातीतोऽप्यहह न जहौ लोककल्याणमार्गम् ।
त्रैलोक्येऽप्यप्रतिममहिमा जानकीप्राणबन्धो
भक्त्या ज्ञानं वृतवरवपुः सीतया यो हि रामः ॥ १॥
जिनके प्रेम का प्रवाह आचाण्डाल तक अबाध गति से व्याप्त है, जो लोकातीत होते हुए भी सदा लोकहित में रत हैं। जो श्रीजानकी जी के प्राणवल्ल्भ (प्राण के बंधन-स्वरुप) हैं। जिनकी त्रैलोक्य में कोई उपमा नहीं है। जो भक्ति द्वारा आवृत ज्ञानमय-वपु श्रीराम-अवतार हैं।
स्तब्धीकृत्य प्रलयकलितं वाहवोत्थं महांतम्
हित्वा रात्रिं प्रकृतिसहजामन्धतामिस्रमिश्राम्
गीतं शांतं मधुरमपि यः सिंहनादं जगर्ज
सोऽयं जातः प्रथितपुरुषो रामकृष्णस्त्विदानीम् ॥ २॥
कुरुक्षेत्र के प्रलयकारी हुंकार को स्तब्ध करते हुए स्वाभाविक महामोह-अन्धकार को दूर कर जिनके गीतारूप सुगम्भीर सिंहनाद का उदय हुआ था। वे ही उत्तम पुरुष इस समय 'श्रीरामकृष्ण' नाम से आविर्भूत हुए हैं।
" वेद अर्थात यथार्थ धर्म और ब्राह्मणत्व अर्थात धर्मशिक्षकत्व (Be and Make वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ) की रक्षा के लिये भगवान बारम्बार शरीर धारण करते हैं - यह तथ्य स्मृति आदि में प्रसिद्द है। हम प्रभु के दास हैं, प्रभु के पुत्र हैं, प्रभु की लीला के सहायक हैं, इस विश्वास को अपने हृदय में धारण कर कार्यक्षेत्र में उतर जाओ। "
" श्री माँ सारदा, ठाकुर श्रीरामकृष्णदेव,और स्वामीजी -- तो सर्वदा सभी परिस्थितियों में मेरे (माँ-बाप और बड़े भाई ) ही हैं -फिर चिंता किस बात की ? बाधा-विपत्तियों से मैं डरने ही क्यों लगा? नारदभक्ति-सूत्र में इस अहंकार को साधन के अन्तर्गत माना गया है; कहा गया है कि अत्यन्त सौभाग्य से मानव के अन्दर इसका उदय होता है। मनुष्य आदतों का गुलाम है -प्रवृत्तियों का (चरित्र का ?) दास है। कामिनी-कांचन का सुख तथा भगवद-आनन्द , (काम और राम एक साथ) इन दोनों की प्राप्ति कैसे हो सकती है? उसी की खोज में वह लगा रहता है। महामाया ने मानव को भेंड़ बना रखा है -सिंहशावक चाहे तो अपनी आदत को बदल कर ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बन सकता है, किन्तु माया ने उसे हिप्नोटाइज्ड कर रखा है, वह ठाकुरदेव की शरण में आता ही नहीं!
१. अनीश्वरोपदिष्ट शिक्षक (नेता) [uninspired- ईश्वर की आज्ञा (चपरास) न पाये हुए,ईश्वर चन्द्र विद्यासागर जैसे महापण्डित या विद्वान् शिक्षक] भी मनुष्य-निर्माण की शिक्षा (धारणा-सिद्ध योगी बनने और बनाने का प्रशिक्षण) नहीं दे सकते!
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^ निर्वात दीप शिखा की तरह निष्कम्प लौ -योग के विघ्न : निर्वात-निष्कम्प दीपशिखा की भाँति अपने मन को निश्चल रखने का अभ्यास करने के मार्ग में विघ्न । वाघम्बर पर ध्यान-योग में निश्चलरुप से समासीन, निर्वात स्थान में रखे हुए दीपक के समान निष्कम्प-भाव से बैठे महादेव शिव का दर्शन या विवेक-दर्शन का अभ्यास । योगशास्त्रों में 'निर्वात निष्कंप दीपशिखा' कहते हुए ही ऐसे चित्त का वर्णन किया गया है।
देवदारु -देवताओं का दुलारा पेड़ ! ‘देवता का काठ’ (देव-दारु) नाम कैसे पड़ा? समाधि लगाने के लिए महादेव ने ‘देवदारुद्रुम-वेदिका’ को ही क्यों पसंद किया था? कुछ बात होनी चाहिए। कोई नहीं बता सकता कि महादेव समाधि लगाकर क्या पाना चाहते थे। उन्हें कमी किस बात की थी? कहते हैं, शिव ने जब उल्लासतिरेक में उद्दाम-नर्तन किया था तो उनके शिष्य तंडु मुनि ने उसे याद कर लिया था। उन्होंने जिस नृत्य का प्रवर्तन किया उसे ‘तांडव’ कहा जाता है। ‘तांडव’ अर्थात् ‘तंडु’ मुनि द्वारा प्रवर्तित ‘रस भाव-विवर्जित’ नृत्य! रस भी अर्थ है, भाव भी अर्थ है, परंतु तांडव ऐसा नाच है, जिसमें रस भी नहीं। भाव भी नहीं नाचनेवाले का कोई उद्देश्य नही, मतलब नहीं, ‘अर्थ’ नहीं। केवल जड़ता द्वारा आकर्षण को छिन्न करके एकमात्र चैतन्य की अनुभूति का उल्लास! प्राणों का उल्लासनर्तन, जड़शक्ति के द्वारा आकर्षण, धरती के आकर्षण, गुरुत्वाकर्षण के जड़-वेग को पराभूत करके विपुल-व्योम की ओर एकाग्रीभूत होकर व्योम मंडल में विहार करने का अर्थातीत आनंद!
तांडव की महिमा आनंदोमुखी एकाग्रता में है। समाधि भी एकाग्रता चाहती है। ध्यान-धारणा, और समाधि की एकाग्रता से ही ‘योग’ सिद्ध होता है। बाह्य-प्रकृति द्वारा आकर्षण को छिन्न करने का उल्लास तांडव है। अंतःप्रकृति के असंयत फिंकाव को नियंत्रित करने के उल्लास का नाम ही समाधि है।
देवदारु वृक्ष पहले प्रकार के उल्लास को (बाह्य -प्रकृति को वशीभूत करने का उल्लास ) सूचित करता है; और शिव का निर्वात ‘निष्कम्पइवप्रदीप:’ रूप दूसरे प्रकार के (अन्तःप्रकृति को वशीभूत करने का उल्लास को) , दोनों में एक ही छंद है। शिव ने समझ-बूझकर ही देवदारुद्रुम की वेदिका को पसंद किया होगा।
देवदारु के नीचे समाधिस्थ महादेव! शिवजी ने अंतर और बाहर की तुक मिलाने के लिए ही तो देवदारु को चुना था। तुक वह है जो देवदारु की गगनचुंबी शिखा और समाधिस्थ महादेव की निवात-निष्कंप प्रदीप की ऊर्ध्वगामिनी ज्योति में है! अंतर्यामी भी बहिर्यामी के साथ ताल मिलाते रहें यही उचित है। महादेव ने आँखें मूँद ली थीं, देवदारु ने खोल रखी थीं। महादेव ने भी जब आँखेँ खोल दीं तो तुक बिगड़ गई, छंदोभंग हो गया, त्रैलोक्य को मदविह्वल करने वाला देवता भस्म हो गया। शिव की समाधि टूटी थी, देवदारु का तांडव-रस-भावविवर्जित महानृत्य – नहीं टूटा था। देवता की तुलना में भी निर्विकार रहा – काठ बना हुआ।
मन की सारी भ्रांति को दूर करनेवाले देवदारु तुम्हें देखकर मन श्रद्धा से जो भर जाता है, वह अकारण नहीं है। तुम भूत भगवान हो, तुम वहम-मिटावन हो, तुम भ्रांति नसावन हो। तुम्हें दीर्घकाल से जानता था पर पहचानता नहीं था, अब पहचान भी रहा हूँ। तुम देवता के दुलारे हो महादेव के प्यारे हो, तुम धन्य हो। कवि के हृदय के साथ मिल जाय उसे ‘सहृदय’ कहा जाता है। देवदारु की ऊर्ध्वा शिखा-शोभा मेरे हृदय में एक विशेष उल्लास पैदा करती है।
देवदारु है शानदार वृक्ष। हवा के झोंकों से जब हिलता है तो इसका अभिजात्य झूम उठता है। देवदारु के बारंबार कंपित होते रहने में एक प्रकार की मस्ती अवश्य है। युग-युगांतर की संचित अनुभूति ने ही मानो यही मस्ती प्रदान की है। जमाना बदलता रहा है, अनेक वृक्षों और लताओं ने वातावरण से समझौता किया है, कितने ही मैदान में जा बसे हैं और खासी प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली है, लेकिन देवदारु है कि नीचे नहीं उतरा, समझौते के रास्ते नहीं गया और उसने अपनी खानदानी चाल नहीं छोड़ी। झूमता है तो ऐसा मुस्कुराता हुआ मानो कह रहा हो मैं सब जानता हूँ, सब समझता हूँ। ----साभार देवदारु – आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी /http://desharyana.in/archives/18001/}
"सिर्फ़ मन ही क्यों, इस जगत में सब कुछ चंचल है। सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड ही असाधारण चंचलता की 'खुली खदान' (quarry) है; चंचलता से ही जगत की सृष्टि हुई है। इस असाधारण चंचलता के मध्य रहते हुए भी, मैं 'निर्वातनिष्कम्पमिव प्रदीपम्' - हवा से रहित स्थान में किसी 'निष्कंप प्रदीप' के समान अन्तःकरण का अधिकारी बन सकता हूँ। समस्त चंचलता के मध्य भी मैं (अपने यथार्थ स्वरुप को जान लेने के बाद) बिल्कुल शांत या स्थिर होकर रह सकता हूँ। यही मनुष्य की बहादुरी है ! यही मनुष्य की महिमा है ! इसी सामर्थ्य के कारण मनुष्य को 'मनुष्य' कहा जाता है।
लेकिन जो लोग कहते हैं कि मन की चंचलता या मतवालेपन के साथ 'मैं भी मतवाला बन जाऊंगा', ऐसे उन्मादी लोगों को कुछ समय के लिये तो क्षणिक सुख प्राप्त हो सकता है, किन्तु थोड़े दिनों के बाद उन्हें असहनीय पीड़ा झेलनी पड़ेगी। इसीलिये जो विद्वान् (विवेकी) जन हैं वे जगत के समस्त वस्तुओं की चंचलता या नर्तन देखकर स्वयं ही नहीं नाचने लगते। क्योंकि वे जानते हैं कि इसका परिणाम क्या होगा? वे जानते हैं कि समस्त चंचलता के मध्य शांत और स्थिर कैसे रहा जा सकता है ! और जो लोग यह कर पाते हैं, उनके लिये वैसा कुछ भी शेष नहीं रहता जिसे वे नहीं कर सकते हों! अब यह पूरी तरह से हमारे विवेक पर ही निर्भर करता है कि इन दोनों तरह की संभावनाओं (शाश्वतसुख -नश्वरसुख) में से हम किसका चयन करेंगे ? और भविष्य में हम कैसा मनुष्य बनेंगे; यह हमारे इसी विवेक-प्रयोग क्षमता पर निर्भर करता है।
{मन का स्वाभाव/https://vivek-jivan.blogspot.com/2014/11/blog-post_10.html/
फिर विवेक-सामर्थ्य युक्त और चरित्रवान मनुष्यों की संख्या पर यह निर्भर करता है, कि भविष्य में हमारा परिवार, समाज अथवा राष्ट्र कैसा बनेगा ? (या भारत विश्वगुरु बनेगा या नहीं )? जो भी परमात्मा (परम् सत्य) को खोजने गया है, उसे गुरु मिला है। वह परमात्मा तुम्हारे प्रति सदय हुआ, तुम्हारे भाग्य खुले इसकी खबर है, इसकी सूचना है।अब तुम अकेले नहीं हो। सेतु फैला; दोनों किनारे जुड़े। गुरु से मिलने का अर्थ है, अपनी मौत से मिलना-पुराने शास्त्रों ने कहा है, आचार्यों मृत्यु। आचार्य तो मृत्यु है। संभलकर जाना, सोचकर जाना, सब तरह से निर्णय लेकर जाना, क्योंकि फिर लौट न सकोगे। गुरु में गए तो गए; फिर लौटना नहीं है।
तुम भूल ही गए कि तुम्हारे भीतर कहीं दर्पण भी है। मन और इंद्रियों के भीतर दो संभावनाएं हैंः बाहर जाना और भीतर जाना चूंकि हमने बाहर जाने का ही उपयोग किया है, हमें उनके भीतर जाने का उपयोग पता नहीं है। "पांचो दूतन बसि करैं, मन सूं नहिं हारैं"-और यह जो पांच दूतनें है…। शब्द समझना। प्यारा शब्द उपयोग किया है। पांचो इन्द्रियों को शत्रु नहीं कहा है इंद्रियों को; दूत कहा है। ये संसार का भी काम कर देती हैं। और तुम अगर भीतर मुड़ो, तो परमात्मा का भी काम कर देती हैं। अगर चाहते हो कि परमात्मा तुम में जीत जाय, तो मन (अहंकार) को न जीतने देना। मन का अर्थ है: बाहर ले जाने वाली आकांक्षा। मन यानी बहिगर्मन। और कुछ अर्थ नहीं होता। मन वही, जो तुम्हें बाहर ले जाता है।ऐसी अवस्था में तुम पुकारोगे परमात्मा को, मिलेगा गुरु। अजब फकीरी! सब खोने लगता है और सब पाने लगता है। हारता है और विजय आती है; अजब फकीरी! संसार कटा; अर्थात कामिनी -कांचन में आसक्ति जड़ से चली गयी ; जगह खाली हुई; स्थान बना; उसी स्थान में परमात्मा अवतरित होता है। अहंकार सिंहासन से उतरा, उसी सिंहासन पर तो परमात्मा विराजमान होता है।और ऐसा भी नहीं है कि भीतर से सम्राट होने के लिए बाहर से भिखारी होना जरूरी ही हो। और ऐसा भी नहीं है कि भीतर से भिखारी रहने के लिए बाहर भी भिखारी होना जरूरी हो।संसारी का अर्थ होता है: जिसकी मस्ती दूसरे में है। पत्नी को छोड़ कर भागने का कुछ अर्थ नहीं है। लेकिन अगर तुम्हारा सुख पत्नी में है, तो तुम संसारी हो। बाहर भागता है संसारी। वह कहता हैः कहीं जाएं, जहां चैन मिले। उसका शरण-स्थल बाहर है।
जागने का अर्थं सीधा-साफ है–मेरा सुख मेरे भीतर। मैं अपने सुख के लिए किसी पर निर्भर नहीं हूं। इसलिए जितना धन होगा, उतनी ही चिंता होगी। जितने संबंध होंगे, उतनी बेचैनी होगी। जितना पद होगा, उतनी परेशानी होगी। जहां वास्तविक प्रेम होता है, वहां लोग साथ-साथ होते हैं, लेकिन मुक्त। मन कहता हैः चलो, और धन इकट्ठा कर लें, क्योंकि बड़े निर्धन हैं। जब तुमने भीतर का धन पा लिया, फिर तुम मन की क्या सुनोगे? तुम कहोगे कि पागल हुआ है। निर्धन और मैं?}
अल्मोड़ा से ३५ की.मी. दूर स्थित है जागेश्वर धाम , जैसे जैसे जागेश्वर नगर के समीप पहुँचते हैं, देवदार के वृक्ष चीड़ के वृक्षों का स्थान ले लेते हैं और घाटी का रंग गहरा हरा हो जाता है ।एक संकरी घाटी में ही आपको सम्पूर्ण नगर के दर्शन हो जाते हैं- कुछ १३० मंदिर, एक गाँव, उसका बाज़ार , एक नदी और एक सुन्दर सा जंगल। सब एक चित्र की चौखट में समाये से नजर आते हैं। इन्हें देख हम सोच में पड़ जाते हैं कि यहाँ रहने का अनुभव कैसा होगा! मुख्य मंदिर परिसर एक ऊंची, पत्थर की दीवार से चारों ओर से घिरा हुआ है। यह जागेश्वर धाम कहलाता है। इसकी सीमा के भीतर १२४ छोटे बड़े मंदिर स्थित हैं; जो भगवान् शिव को उनके लिंग रूप में समर्पित हैं। हालांकि प्रत्येक मन्दिर के भिन्न भिन्न नाम हैं। कुछ शिव के विभिन्न रूपों पर आधारित और कुछ समर्पित हैं नवग्रह जैसे ब्रह्मांडीय पिंडों पर। एक मंदिर शक्ति को समर्पित है जिसके भीतर देवी की सुन्दर मूर्ति है। एक मंदिर दक्षिणमुखी हनुमान तो एक मंदिर नवदुर्गा को भी समर्पित है। ताण्डवेश्वर महादेव मन्दिर के प्रवेशद्वार के ऊपर लगी पट्टिका पर नृत्य करते शिव का शिल्प है।जागेश्वर मंदिर परिसर के अधिकाँश मंदिर उत्तर भारतीय नागर शैली में निर्मित हैं जिस में मंदिर संरचना में उसके ऊंचे शिखर को प्रधानता दी जाती है। इसके अलावा बड़े मंदिरों में शिखर के ऊपर लकड़ी की छत भी अलग से लगाई जाती है। यह यहाँ की विशेषता दिखाई पड़ती है। स्थानीय भाषा में इसे बिजौरा कहा जाता है। कहा जाता है कि जागेश्वर मंदिर कैलाश मानसरोवर यात्रा के प्राचीन मार्ग पर पड़ता है। जागेश्वर का जिक्र चीनी यात्री हुआन त्सांग ने भी अपनी यात्रा संस्मरण में किया है। अधिकाँश मंदिरों का निर्माण कत्युरी राजवंश के शासकों ने करवाया था, जिन्होंने यहाँ ७ वीं.ई. से १४ वीं.ई. तक राज किया। तत्पश्चात इन मदिरों की देखभाल की चन्द्रवंशी शासकों ने जिन्होंने १५वी. से १८वी. शताब्दी तक यहाँ शासन किया। मंदिर के शिलालेखों में मल्ला राजाओं का भी उल्लेख है।स्कन्द पुराण के मानस खण्ड में जागेश्वर ज्योतिर्लिंग की व्याख्या की गयी है। इस पुस्तिका के अनुसार ८वां. ज्योतिर्लिंग, नागेश, दरुक वन में स्थित है। यह नाम देवदार वृक्ष पर आधारित है जो इस मंदिर के चारों ओर फैले हुए हैं। इस मंदिर के आसपास से एक छोटी नदी बहती है – जटा गंगा अर्थात् शिव की जटाओं से निकलती गंगा।दंतकथाएं कहतीं हैं अपने श्वसुर दक्ष प्रजापति का वध करने के पश्चात, भगवान् शिव ने अपने शरीर पर पत्नी सती के भस्म से अलंकरण किया व यहाँ ध्यान हेतु समाधिस्थ हुए। भारत में भगवान् शिव के पवित्र १२ ज्योतिर्लिंग हैं। आदि शंकराचार्य द्वारा रचित यह संस्कृत श्लोक गद्य में उन १२ ज्योतिर्लिंगों की व्याख्या करता है-
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम् । उज्जयिन्यां महाकालमोकांरममलेश्वरम् ।
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशंकरम् । सेतुबंधे तु रामेशं नागेशं दारूकावने ।
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्रयंम्बकं गौतमीतटे । हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये ।
ऐतानि ज्योतिर्लिंगानि सायं प्रातः पठेन्नरः ।सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति ।
जागेश्वर स्थित ज्योतिर्लिंग नागेश अर्थात् नागों के राजा के रूप में हैं। निश्चित रूप से शिवलिंग यहाँ नाग से अलंकृत है।जागेश्वर मंदिर परिसर का सबसे प्राचीन व विशालतम मंदिर है महामृत्युंजय महादेव मंदिर। यह परिसर के बीचोंबीच स्थित है। इस महामृत्युंजय महादेव मंदिर का शिवलिंग अति विशाल है और इसकी दीवारों पर महामृत्युंजय मन्त्र बड़े बड़े अक्षरों में लिखा हुआ है। पुरातत्ववेत्ताओं ने दीवारों पर २५ अभिलेखों की खोज की जो ७ वीं. से १० वी. ई. की बतायी जाती है। अभिलेख संस्कृत व ब्राह्मी भाषा में लिखे गए हैं। अन्य भारतीय प्राचीन मंदिरों की तरह यहाँ की पाषाणी दीवारों पर भी शुभमंगल व समृद्धि के संकेत खुदे हुए हैं। जागेश्वर धाम पहुँचाने हेतु निकटतम बड़ा शहर ३५ किलोमीटर दूर स्थित अल्मोड़ा है। हल्दवानी/काठगोदाम से जागेश्वर १२० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। हवाई व रेल सुविधाओं के अभाव में सड़क मार्ग द्वारा ही यहाँ पहुंचा जा सकता है। तथापि मार्ग अत्यंत सुरम्य व प्राकृतिक है। जागेश्वर से १४ किलोमीटर दूर वृद्ध जागेश्वर मंदिर के भी आप दर्शन कर सकतें हैं, इस हेतु आपको थोड़ी पैदल चढ़ाई चढ़नी पड़ेगी।मंदिर के समीप ही कुमांऊ मंडल विकास निगम का विश्रामगृह है जहां से मंदिर का सुन्दर दृश्य दिखाई पड़ता है। अन्य होटल व अथितिग्रह थोड़ी दूरी पर स्थित हैं।}
$$$$$$$$$$$$ ईश्वरकोटि का साधक और वीरभाव -(महामण्डल ब्लॉग ,शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018 " भावमुख में अवस्थित 'अटूट सहज' नेता श्री रामकृष्ण-2" देखो ) हिन्दुधर्म और श्रीरामकृष्ण [ यह आलेख 'HINDUISM AND SHRI RAMAKRISHNA' (Volume 6) पहली बार 'हिन्दुधर्म क्या है ?' शीर्षक के साथ भगवान श्रीरामकृष्णदेव के ५६ वें जन्मदिन के अवसर पर पुस्तिका के रूप में प्रकशित हुआ था]
[विभूतिपाद १८ : - संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम्। - (मनःसंयोग द्वारा) संस्कारों को प्रत्यक्ष कर लेने से पूर्वजन्म का ज्ञान (हो जाता है) ।