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बुधवार, 13 मई 2020

🔱🙏अल्मोड़ा का आकर्षण 🔱🙏"एक ऐसी घटना उल्लेख , जो श्री रामकृष्ण देव की इच्छा को पूर्ण करने के लिये ही घटित हुई थी। " श्री अश्विनी कुमार दत्त द्वारा 'श्रीरामकृष्ण वचनामृत' के लेखक श्री 'एम' को लिखित- 'एक पत्र। '

          देवभूमि उत्तराखंड दो मण्डलों (कुमाऊं व गढ़वाल) और 13 जिलों में बंटा हुआ है। भारत के नक्शे पर उत्तराखण्ड (उत्तरप्रदेश) की आकृति को देखकर ऐसा प्रतीत होता है , मानो हिमालय के पादपद्मों में हिमालय दुहिता 'उमा' या दुर्गा का वाहन एक विशाल सिंह खड़ा हो। तथा हिमालय के शिखर पर अवस्थित जनपदों (districts) के अन्तर्गत अलमोड़ा जनपद का आकार उसी सिंह के मानो तेजस्वी-नेत्रों के जैसा प्रतीत होता है। इस अल्मोड़ा को एक दृष्टिशक्ति सम्पन्न पुरुषसिंह (नेता) के चरणस्पर्श से पवित्री-कृत (sanctified) होने का सौभाग्य तीन बार प्राप्त हो चुका है। उस पुरुषसिंह का नाम था - स्वामी विवेकानन्द ! हम उस उपाख्यान पर बाद में आयेंगे। आइये पहले हम कुमाऊं के दर्शनीय स्थलों के विषय में जानते हैं।   
       अल्मोड़ा भारत के उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊँ मण्डल में स्थित एक नगर एवम् जनपद है। दिल्ली से अल्मोड़ा तक की दूरी 378 कि.मी. है, जाने के लिये बसें उपलब्ध हैं। इसमें समय लगभग 12 घंटा लग जाता है। आमतौर से पर्यटक लोग लखनऊ होकर जाते हैं। रेल मार्ग से लखनऊ से काठगोदाम की दूरी 388 कि.मी. है, रातभर की रेल यात्रा है। सुबह काठगोदाम से बस, टैक्सी आदि से अल्मोड़ा ( खैरना के रास्ते 87 कि.मी ) पहुंचने में लगभग 3 घंटे लगते हैं।  समुद्रतल से अल्मोड़ा की ऊँचाई 4938 फुट है। यह कुमाऊँ पर शासन करने वाले चन्दवंशीय राजाओं की राजधानी भी रहा है। उत्तराखंड को देव भूमि यानि ईश्वर की धरती के रुप में जाना जाता हैं। देवभूमि उत्तराखंड का प्राकृतिक सुन्दरता में कोई मुकाबला नहीं है। बर्फ से ढ़के पहाड़े, देवदार के घने जंगल, नदियां और झीलें आपका मन मोह लेते हैं ।  धर्म के मामलें में भी उत्तराखंड एक उत्तम प्रदेश हैं क्योकि सनातन धर्म की आस्था के प्रतीक पवित्र चारधाम बद्रीनाथ केदारनाथ गंगोत्री और यमुनोत्री यहीं स्थित हैं। भारत के उत्तराखंड प्रांत में स्थित शहर काठगोदाम को कुमाऊँ का द्वार कहा जाता है। काठगोदाम पूर्वोतर रेलवे का अन्तिम स्टेशन है। यहाँ से बरेली, लखनऊ तथा आगरा के लिए छोटी लाइन की रेल चलती है। कुमाऊँ के सभी अंचलों के लिए यहाँ से बसें जाती हैं।  अल्मोड़ा के समीप कुछ स्थान अपनी प्राकृतिक सुन्दरता के लिये विख्यात हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार है -
          1.रानीखेत देवदार और बलूत के वृक्षों से घिरा रानीखेत (50 कि.मी. ) बहुत ही रमणीक हिल स्टेशन है।  इस स्थान से हिमाच्छादित मध्य हिमालयी श्रेणियाँ स्पष्ट देखी जा सकती हैं। यहां पर दूर−दूर तक फैली घाटियां, घने जंगल तथा फूलों से ढंके रास्ते व ठंडी मस्त हवा पर्यटकों का मन बरबस ही मोह लेती है। समुद्रतल से रानीखेत की ऊंचाई 6000 फुट है। रानीखेत हिमालय के सबसे खूबसूरत भू-भाग में गिना जाता है। ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि कुमाऊं की रानी पद्मिनी को यह पहाड़ी स्थल काफी पसंद था। इसलिए राजा सुधार्देव ने रानी पद्मिनी ने लिए यहां एक महल का निर्माण करवाया और उसका नाम रखा रानीखेत।  रानीखेत को प्रकृति प्रेमियों का स्वर्ग माना जाता है। रानीखेत की खूबसूरती को शब्दों में नहीं उतारा जा सकता इसे यहां आकर ही महसूस किया जा सकता है। अंग्रेजों के समय इसे सैनिक छावनी बनाया गया। सैनिक छावनी होने के कारण इसका रख-रखाव देखते ही बनता है। साफ सुथरी सड़कें, देखने के लिए एक प्यारा सा गोल्फकॉर्स , सेना का म्यूजियम, फलों के बगीचे और प्राचीन मंदिर इसे और भी खास बनाते हैं। यहां का चौबटिया फल उद्यान देखने दूर-दूर से लोग आते हैं। [योगदा सत्संग के प्रणेता लाहिड़ी महाशय की मुलाकात महावतार बाबाजी से रानीखेत में ही हुई थी।]
  
           2. कौसानी : (अल्‍मोड़ा से 53 किलोमीटर उत्तर में समुद्रतल से 5670 की ऊंचाई पर स्थित) का प्राकृतिक सौंदर्य बहुत भव्य दिखाई पड़ता है। यह स्थान हिन्दी के महान कवि सुमित्रानंदन पंत की जन्मभूमि भी है। यहाँ का सूर्योदय और सूर्यास्त तो बस देखते ही बनता है। सूर्योदय के समय हिमालय की हिमाच्छादित चोटियाँ चटक लाल रंग की हो जाती हैं, और सूर्यास्त के समय उनका रंग सुनहरा हो जाता है। महात्मा गांधी ने 1929 में जब इस स्थान की यात्रा की थी तो कौसानी के उस पार हिममंडित पर्वतमालाओं पर पड़ती सूर्य की स्वर्णमयी किरणों को देखकर  इसके प्राकृतिक सौंदर्य से इतने अभिभूत हुए कि अपने दो दिन के प्रवास को भूलकर लगातार चौदह दिन तक यहाँ रुके रहे। अपने प्रवास के दौरान उन्होंने, यहाँ के शांत परिवेश में  गीता पर आधारित अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘गीता -अनासक्ति -योगभाष्य ’ की रचना की। उन्होंने कहा था- 'यहाँ के शांत परिवेश में रहकर मैने यह अनुभव किया है कि स्तुति, उपासना, प्रार्थना केवल वाणी विलास नहीं होती, क्योंकि प्रार्थना के स्वर का मूल कण्ठ नहीं हृदय होता है। मैं बड़े आश्चर्य के साथ ये सोचता हूँ की क्या विश्व में कोई और ऐसा स्थान है जो यहाँ की दृश्यावली और मौसम की बराबरी भी कर सकता है, इसे पछाड़ना तो दूर की बात है।'   गाँधी जी की उसी अमर कृति ‘अनासक्ति योग ’ के नाम पर उनकी विश्राम स्थली को ‘अनासक्ति आश्रम’ का नाम दिया गया है। यहाँ एक छोटा-सा प्रार्थना कक्ष भी है, जहाँ हर दिन सुबह और शाम प्रार्थना सभा आयोजित होती है।

           3. नैनीताल : एक अद्भुत झील को चारों और से घेरे हुए एक छोटा सा पहाड़ी शहर है, सरोवर नगरी (Lake City)  के नाम से मशहूर नैनीताल के सौन्दर्य से भला कौन परिचित नहीं है। अल्मोड़ा से 68 कि.मी. दूरी पर स्थित है, और  समुद्रतल से 6814 फुट ऊंचाई  पर है,  यहाँ  की सौन्दर्य - सुषमा अद्वितीय है। नैनी झील के किनारे और पहाड़ों के ऊपर के वनों की सुन्दरता असाधारण है।  नैनी झील में बोटिंग करने का अपना एक विशेष आकर्षण है, इसका आनंद अवश्य लें । इस झील का पानी बेहद साफ़ है और इसमें तीनों ओर के पहाड़ के शिखरों  और पेड़ों की परछाई साफ दिखती है। रात्रि के समय प्रत्येक घरों की बत्तियां तथा सड़क के किनारे लगे लैम्प पोस्ट की बत्तियां जब सरोवर के तरंगायित जल की सतह पर हिलोरे लेतीं हैं, तब जैसे मानो एक जादुई माया का अहसास कराती हैं। पर्यटक लोग यहाँ से 25 कि.मी. की परिधि में अवस्थित भीमताल , सातताल आदि अन्य झीलों के आलावा  स्नो व्यूपॉइंट- 'नैना पीक' जिसे चाइना पीक भी कहते हैं, नैनीताल की सबसे ऊँची चोटी है, देखने जाते हैं। यह समुद्र तल से 2611 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है, यहाँ तक घोड़े की सवारी करके पहुँचा जा सकता है। नैनी देवी मंदिर का शुमार प्रमुख शक्ति पीठों के रूप में भी होता है। यहां सती के शक्ति रूप की पूजा की जाती है। मंदिर में दो नेत्र हैं जो नैना देवी को दर्शाते हैं।  नैनीताल पहुँचने के बाद आपको टिफ़िन टॉप से सूर्योदय जरुर देखना चाहिए। नैनीताल स्थित पर्वतों की  एक चोटी से दूसरी चोटी पहुँचाने वाली केबल कार की सवारी अवश्य करें। क्यूंकि इसकी सवारी इसे पर्यटकों के बीच खासा लोकप्रिय बनाती है। यहाँ प्राकृतिक दृश्यों का आप जी भर कर लुफ्त उठा सकते हैं। पंगोट और किलवरी बर्ड सेंचुरी अगर आप खूबसूरत पक्षियों को देखने की चाह रखते हैं तो किलवरी बर्ड सेंचुरी आपके लिए स्वर्ग से कम नहीं है। इस बर्ड सेंचुरी में आप करीबन 580 तरह के पक्षियों की प्रजाति को निहार सकते हैं।  नैनीताल घूमने का सबसे अच्छा समय अप्रैल के अंत से जून तथा सितंबर से अक्टूबर तक होता है..अगर आपको बर्फबारी देखनी है तो जनवरी से मार्च तक के महीनों में यहाँ घूमने आ सकते हैं लेकिन ऊनी कोट, बूट्स, हैट्स और ग्लव्स जरुर रखें।
           [ नैनीताल और उत्तराखंड के बाकि पहाड़ी हिस्सों में कभी भी मुगल शासन नहीं रहा, यही वो कारण है जिससे कि मध्ययुग में आई विदेशी विचारधारा कि " केवल हमारा धर्म या हमारी पूजा पद्धति ही सही है और बाकी सारे धर्म  या पूजा पद्धति गलत " इस नफ़रत भरी अरबी विचारधारा का नैनीताल के मूल निवासियों ने कभी सामना ही नहीं किया। इसलिए आजादी के पहले और बाद में भी जब विभिन्न मतों के लोग नैनीताल में बसने के लिए पहुंचे तो स्थानीय निवासियों ने बाहें खोल कर स्वागत किया । आज नैनीताल देश का एक ऐसा शहर है जहा 1  किलोमीटर के परिधि में ही मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और चर्च स्थित हैं।]

         4.पिथौरागढ़: पिथौरागढ़ उत्तराखण्ड राज्य के पूर्व में स्थित सीमान्त जनपद है।  कैलाश मानसरोवर की यात्रा का आरंभ इसी जनपद से होता है। समुद्रतल से इसकी ऊँचाई 5445 फुट है।  यह भारत के उत्तर सीमा पर  तिब्बत (चीन) और नेपाल के बॉर्डर से लगा कुमाऊं मंडल का  अंतिम जिला होने के कारण, राजनीतिक रूप से एक संवेदनशील जिला माना जाता है। अल्मोड़ा से 122 कि.मी. दूरी पर स्थित शहर पिथौरागढ़ प्राचीन मन्दिरों के लिये प्रसिद्द है। कुमायूँ  के प्राचीन चन्द  वंश के उत्कर्ष काल में पिथौरागढ़ में कई मंदिर और  किलों का निर्माण हुआ था, उस युग के बहुत से ध्वंशावशेष दर्शनीय हैं।  पिथौरागढ़ सुन्दर - सुन्दर नदियों और घाटियों का जनपद है।  यह प्राकृतिक रूप से उच्च हिमालयी पहाड़ों, बर्फ से ढकी चोटियों, दर्रों, घाटियों, अल्पाइन घास के मैदानों, जंगलों, झरनों, बारहमासी नदियों, ग्लेशियरों और झरनों से घिरा हुआ है। यहाँ की प्राकृतिक सुन्‍दरता पर्यटकों को अपनी ओर अधिक आकर्षित करती है। यहाँ के पर्वतों की अनोखी अदा सैलानियों को मुग्ध कर देती है। यहाँ की नदियों का कल-कल स्वर प्रकृति प्रेमियों को अलौकिक आनन्द देता है।  सीढ़ीनुमा खेतों की सुन्दरता पर्यटकों का मन मोह लेती है।  पिथौरागढ़ को प्रमुख हिल रिजोर्ट के रूप में जाना जाता है। यह नगर उनी कपडों और केन के हस्त शिल्प के लिये जाना जाता है। यहाँ के जूते, ऊन के वस्त्र और किंरगाल से बनी हुई वस्तुओं की अच्छी मांग है। सैलानी यहाँ से इन वस्तुओं को ख़रीदकर ले जाते हैं। पिथौरागढ़ को लिटिल कश्‍मीर के नाम से भी जाना जाता है।  पिथौरागढ़ से 208 कि.मी. की दूरी पर , उत्तराखण्ड के हिमालय अंचल का सबसे बड़ा ग्लैशियर (Glacier-हिमनदी),  मिलाम है। इस ग्लेशियर का नाम 3 किमी दूर स्थित एक गांव मिलाम के नाम पर रखा गया है।  यहाँ पहुँचने के लिए 54 कि.मी. का अंतिम भाग पहाड़ी मार्ग से पैदल ही जाना पड़ता है।   पिथौरागढ़ पहुँचने के लिए दो मार्ग मुख्य हैं। एक मार्ग टनकपुर से और दूसरा काठगोदाम-हल्द्वानी से है। पिथौरागढ़ का निकटतम रेलवे स्टेशन टनकपुर में स्थित है। टनकपुर रेलवे स्टेशन से पिथौरागढ़ तक कुल दूरी लगभग 138 किलोमीटर है। 

             5. अल्मोड़ा :  ऐसा माना जाता है कि अल्मोड़ा किसी समय में भगवान विष्णु की निवास-भूमि रही थी। स्कंद पुराण में इसका उल्लेख मिलता है। कशाय पहाड़ के ऊपर घोड़े की काठीनुमा 5 कि.मी. लम्बे पर्वतश्रेणी (ridge) में यह शहर अवस्थित है। लगभग 12 कि.मी. क्षेत्र बसे इस शहर की आबादी (1981 में हुई जनगणना के अनुसार) 20,000 से थोड़ी अधिक है। ग्रीष्म ऋतू में यहाँ का तापमान 4.4 डिग्री से लेकर 29.4 डिग्री सेल्सियस तक घटता बढ़ता रहता है। नैनीताल, शिमला, मिसौरी या दार्जिलिंग की तुलना में यहाँ वर्षा कम, औसतन 37 इंच होती है । आद्रता अधिक नहीं है,कहा जा सकता है कि यहाँ की जलवायु समशीतोष्ण (temperate) है। लम्बे समय से ही अल्मोड़ा एक आरोग्यकर स्थान के रूप में प्रसिद्द है। यहाँ  से उत्तर दिशा में नन्दा देवी, त्रिशूल आदि लगभग बीस हिमालय की बर्फीली  चोटियों को आसानी से देखा जा सकता है। इस शहर को 1592 ई ० में चन्द (चन्देल) राजाओं की राजधानी के रूप में स्थापित किया गया था। यहां के बाजार की पतली सड़कों पर घूमें तो लगता है पुराने समय में आ गये हैं। लकड़ी की बनी छोटी-छोटी दुकानें इस शहर को अनोखा रुप देती हैं। यहां लम्बे इलाके में एक बाजार क्षेत्र है, जो पहाड़ी अंचल में बसे प्राचीन युग के एक बाजार के रूप में जाना जाता है। इस बाजार की बाल मिठाई काफी प्रसिद्व है। 
           6. कालीमठ : अल्मोड़ा से 5 किमी दूर स्थित कालीमठ एक खूबसूरत प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर पिकनिक स्थल है। यहाँ से पूरा शहर बहुत सुन्दर दिखलाई पड़ता है। पयर्टक यहाँ से अल्मोड़ा नगर की खूबसूरती और बर्फ से ढकी हिमालय की चोटियों को देखने का आनन्द उठा सकते है।  और थोड़ा आगे बढ़ने पर एक पहाड़ के ऊपर स्थित काशार देवी एवं शिव का मंदिर एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है।  इस मंदिर तक पहुंचने के लिए कालीमठ शहर से पैदल यात्र करनी पड़ती है। यहां से करीब आठ कि.मी. खड़ी चढ़ाई के बाद कालीशिला के दर्शन होते हैं। विश्वास है कि मां दुर्गा शुंभ-निशुंभ और रक्तबीज का संहार करने के लिए कालीशिला में 12 वर्ष की कन्या के रूप में प्रकट हुई थीं। मान्यता है कि इस स्थान पर शुंभ-निशुंभ दैत्यों से परेशान देवी-देवताओं ने मां भगवती की तपस्या की थी। तब मां प्रकट हुई। असुरों के आतंक के बारे में सुनकर मां का शरीर क्रोध से काला पड़ गया और उन्होंने विकराल रूप धारण कर लिया।  कालीमठ मंदिर के समीप मां ने  दोनों दैत्यों रक्त-बीज का वध किया था। उसका रक्त जमीन पर न पड़े, इसलिए महाकाली ने मुंह फैलाकर उसके रक्त को चाटना शुरू किया। इस शिला पर माता ने उसका सिर रखा था। मां को इन्हीं ६४ यंत्रों से शक्ति मिली थी। रक्तबीज शिला नदी किनारे आज भी स्थित है।   मान्यता है कि जब महाकाली शांत नहीं हुईं, तो भगवान शिव मां के चरणों के नीचे लेट गए। जैसे ही महाकाली ने शिव के सीने में पैर रखा वह शांत होकर इसी कुंड में अंतर्ध्यान हो गईं। माना जाता है कि महाकाली इसी कुंड में समाई हुई हैं। कालीमठ में शिव-शक्ति स्थापित हैं।  इसे भारत के सिद्ध पीठों में से एक माना जाता है।  स्कंद पुराण के अंतर्गत केदारखंड के बासठवें अध्याय में मां के इस मंदिर का वर्णन है। यहाँ से 8 कि.मी. की दूरी पर चैताई नामक स्थान पर इस क्षेत्र में विख्यात 'गोलू देवता' का मंदिर है, जिन्हें कुमायूं के एक ऐतिहासिक देवता के रूप में पूजा जाता है।  ये सभी भक्तों की मनोकामना को पूर्ण करते हैं। ये एक राजपुत्र थे, किन्तु अपनी चमत्कारी शक्तियों के कारण देवता में रूपान्तरित हुए हैं। गोलू देवता चम्पावत के चंद वंश के  राजा के पुत्र थे, जिन्हें न्याय का प्रतीक माना जाता है। धार्मिक मान्यता है, कि यहां अर्जी लगाने से न्याय तुरंत मिल जाता है। यहां भक्त अपनी परेशानी को 10 रुपए से लेकर 100 रुपए तक के गैर-न्यायिक स्टांप पेपर पर लिखकर गोलू देवता के मंदिर में रख देत हैं। और जब उनकी अपील पर सुनवाई हो जाती है तो वे फीस के तौर पर यहां आकर घंटियां  तथा घण्टे बांधते हैं। गोलू देवता के प्रति लोगों की आस्था मंदिर में बंधीं ये घंटियां ही बयां करती हैं। मंदिर के हर कोने-कोने में दिखने वाले इन घंटे-घंटियों की संख्या कितनी है, कई टनों में है - ये आज तक मन्दिर के लोग भी नहीं जान पाए। आम लोगों में इसे घंटियों वाला मन्दिर भी पुकारा जाता है, जहां कदम रखते ही घंटियों की कतार शुरू हो जाती हैं। उत्तराखंड में ही गोलू देवता के और भी कई मंदिर स्थित हैं।  
              7. जागेश्वर धाम : अलमोड़ा से करीब 34 किलोमीटर दूर ऊंचे पहाडों, देवदार के घने जंगलों और जटागंगा नदी के किनारे बसा है उत्तराखंड का जागेश्वर शिव धाम। यहां 7वीं शताब्दी से 18 वीं शताब्दी के बीच करीब 125 मंदिर बनाए गए हैं । जागेश्वर को ‘कुमाऊँ का काशी’ भी कहा जाता है।  सबसे विशाल तथा प्राचीनतम ‘महामृत्युंजय शिव मंदिर’ यहां का मुख्य मंदिर है। यहाँ जो शिव हैं, उनका नाम है 'महामृत्युंजय'। इनको 'बूढ़ा शिव ' कहा जाता है, और जागेश्वर महादेव हुए 'बालक शिव'।  खास बात यह है कि यहां भगवान शिव की पूजा बाल या तरुण रूप में भी की जाती है।  जागेश्वर प्राचीन कैलाश मानसरोवर मार्ग पर स्थित है। महापुरुषों के अनुसार यह भी मान जाता है कि भगवान शिव यहां अपने निवास स्थान से नीचे आकर ध्यान करते थे। यह भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। जागेश्वर पहुंचते ही असीम शांति का एहसास होता है। हर वर्ष यहां सावन के महीने में श्रावणी मेला लगता है। देश ही विदेश से भी यहां भक्त आकर भगवान शंकर का रूद्राभिषेक करते हैं। यहां रूद्राभिषेक के अलावा, पार्थिव पूजा, कालसर्प योग की पूजा, महामृत्युंजय जाप जैसे पूजन किए जाते हैं।  जगरेश्वर मंदिरों की दीवारों और स्तंभों पर विभिन्न अवधियों के 25 शिलालेख देखने को मिलते हैं, शिलालेखों भाषा संस्कृत और ब्राह्मी है।  जागेश्वर धाम पहुंचने के लिए दिल्ली से लगभग 10 घंटे और काठगोदाम से 4 घंटे लगते हैं।  जो भी लोग सड़क मार्ग द्वारा जागेश्वर की यात्रा करना चाहते हैं वो आईएसबीटी आनंद विहार, दिल्ली से हल्द्वानी और अल्मोड़ा के लिए बस पकड़ सकते हैं। 
         8. कपकोट : उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊँ मंडल में जिला बागेश्वर की सबसे बड़ी तहसील (विकास खंड) है। कपकोट के उत्तर भाग में विख्यात पिण्डारी हिमनद (Glacier ग्लेशियर) स्थित है , यहीं से पिंडर नदी निकलती है। 5 किमी लम्बे पिण्डारी ग्लेशियर का जीरो पॉइंट समुद्र तल से 3627 मीटर (11657 फीट) की ऊंचाई पर नंदा देवी और नंदा कोट की हिमाच्छादित चोटियों के बीच स्थित है। बस या टैक्सी के द्वारा उत्तर पूर्व में लगभग 80 कि.मी. की दूरी पर अवस्थित कपकोट तहसील तक पहुँचने के बाद 58 कि.मी. पैदल यात्रा करने पर पिंडारी ग्लेशियर तक पहुँचा जा सकता है।  इस ग्लेशियर पर सुबह-सुबह पड़ने वाली सूरज की पहली किरणें पर्यटकों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित हैं।  पिण्डारी नदी का उद्गम इसी ग्लेशियर से होता है;जो बाद में कर्णप्रयाग से होते हुए अलकनंदा नदी में जाकर मिल जाती है। हिमालय के अन्य सभी ग्लेशियरों की तुलना में सबसे आसान पहुंच के कारण पर्वतारोहियों और ट्रेकरों की पहली पसंद है।
                [ग्लेशियर : पृथ्वी की सतह पर विशाल आकार की गतिशील बर्फराशि को हिमानी या हिमनद (अंग्रेज़ी Glacier) कहते है; जो अपने भार के कारण पर्वतीय ढालों का अनुसरण करते हुए नीचे की ओर प्रवाहमान होती है। ध्यातव्य है कि यह हिमराशि सघन होती है और इसकी उत्पत्ति ऐसे इलाकों में होती है जहाँ हिमपात की मात्रा हिम के क्षय से अधिक होती है और प्रतिवर्ष कुछ मात्रा में हिम अधिशेष के रूप में बच जाता है। वर्ष दर वर्ष हिम के एकत्रण से निचली परतों के ऊपर दबाव पड़ता है और वे सघन हिम (Ice) के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं। यही सघन हिमराशि अपने भार के कारण ढालों पर प्रवाहित होती है जिसे हिमनद कहते हैं। प्रायः यह हिमखंड नीचे आकर पिघलता है और पिघलने पर जल देता है। ये हिमानियाँ समेकित रूप से विश्व के मीठे पानी (freshwater) का सबसे बड़ा भण्डार हैं और पृथ्वी की धरातलीय सतह पर पानी के सबसे बड़े भण्डार भी हैं।  हिमानियों का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि ये जलवायु के दीर्घकालिक परिवर्तनों जैसे वर्षण, मेघाच्छादन, तापमान इत्यादी के प्रतिरूपों, से प्रभावित होते हैं और इसीलिए इन्हें जलवायु परिवर्तन और समुद्र तल परिवर्तन का बेहतर सूचक माना जाता है।]  

           9. डियर पार्क :  अल्मोड़ा से लगभग 3 किमी दूर स्थित डियर (Deer) पार्क घुमने फिरने के लिए अच्छी जगह है।  शाम के समय यहाँ बड़ा ही सुहावना लगता है जिसका आनन्द लेने के लिए पयर्टको की भीड़ लगी रहती है। दिल्ली से अल्मोड़ा भ्रमण के दौरान आप इस खास पहाड़ी डियर पार्क की सैर का आनंद उठा सकते हैं। प्रकृति और वन्यजीव प्रेमियों के लिए एक आदर्श विकल्प माना जाता है। इस पार्क में आप हरी-भरी हिमालय वनस्पतियों के अलावा हिरण, तेंदुआ औऱ काला भालू जैसे जानवरों को देख सकते हैं।
              10. बिनसर :  अल्मोड़ा से करीब 30 कि.मी. की दूरी पर अवस्थित बिनसर एक खूबसूरत पहाड़ी पर्यटन स्थल है, इस वन को एक विशेष प्रकार के ओक (oak या बलूत) वृक्ष के संरक्षण के लिए स्थापित किया गया था।   झांडी ढार नामक पहाड़ी पर स्थित यह पर्वतीय स्थल, अपने रोमांचक दृश्यों के लिए प्रसिद्ध है। 'बिनसर' एक गढ़वाली शब्द है, जिसका अर्थ होता है 'नव प्रभात'। यह पूरा क्षेत्र देवदार के जंगलों से घिरा हुआ है, जिसके वन्य जीवन को देखते हुए, अब इसे एक जीव अभयारण्य में तब्दील कर दिया गया है। बिन्सार वन्यजीव अभ्यारण्य की ऊंचाई 2700 फुट से 7500 फुट के बीच होती है,यहां स्थित 'ज़ीरो पॉइन्ट' से हिमालय की बर्फीली चोटियां जैसे केदारनाथ, चौखंबा, नंदा देवी, पंचोली, त्रिशूल, आदि चोटियों को देखा जा सकता है। गजब के प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ साथ चाँदनी में नहाई बर्फ से ढकी हिमालय की चोटियाँ देखकर पर्यटक मन्त्रमुग्ध हो जाते है। इसके उच्चतम बिंदु ‘ज़ीरो पॉइंट’ पर पहुंचकर आसपास की चोटियों का दर्शन करने से मन उच्च विचारों से भर जाता है। अगर पर्यटक एकांत जगह पर प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ छुट्टिया गुजारना चाहते है तो उनके लिए घने जंगलो के बीच बसी अल्मोड़ा क्षेत्र की सबसे ऊँची चोटी सर्वाधिक उपयुक्त स्थान है। देवदार के घने जंगलों से घिरा यहां एक महादेव का मंदिर भी है, जिसे 'बिनसर महादेव' के नाम से जाना जाता है। भगवान भोलेनाथ को समर्पित यह मंदिर हिंदुओं के पवित्र स्थानों में से एक है।   'बिन्सर वन्यजीव अभयारण्य' का सौन्दर्य सभी प्रयटकों के मन को मुग्ध कर देता है। यह क्षेत्र कभी  मध्यकालीन रघुवंशी चंद (चंदेल) राजाओं की ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी, जिन्होंने अंग्रेजों के आगमन तक कुमाऊं में शासन किया।  
           11. कुमाऊँ का रामगढ़ : नैनीताल से केवल 25 कि.मी. की दूरी पर रामगढ़ के फलों का यह अनोखा क्षेत्र बसा हुआ है। समुद्र तल से 4,550 फुट  की ऊंचाई पर  बसे रामगढ़ की आबोहवा फलों की खेती के भी माकूल है। आडू, खुमानी, सेब जैसे फलों के बगीचों की यहां कमी नहीं इसलिए इसे  ‘कुमाऊँ के फलों का कटोरा’ भी कहा जाता है। रामगढ़ नैनीताल से करीब 34 किलोमीटर दूर है। आप यहां साल के किसी भी महीने आ सकते हैं, यहां का मौसम वर्षभर खुशनुमा बना रहता है। गर्मियों के दौरान यहां तापमान अधिकतम 26 डिग्री और न्यूनतम 14 डिग्री तक रहता है।    अपने स्वास्थ्यकर जलवायु के आकर्षण के अतिरिक्त अल्मोड़ा - कर्णप्रयाग , रुद्रप्रयाग , केदारनाथ, बद्रीनाथ , गंगोत्री , यमुनोत्री , कैलाश मानसरोवर आदि तीर्थ स्थानों पर जाने के कई मार्गों में से एक महत्वपूर्ण मार्ग है।  रामगढ़, जहाँ अपने फलों के लिए विख्यात है, वहाँ यह अपने नैसर्गिक सौन्दर्य के लिए भी प्रसिद्ध है। हिमालय का विराट सौन्दर्य यहां से साफ-साफ दिखाई देता है।  निःसंदेह  इस जगह की सुंदरता एक लेखक या कवि के दिमाग को आनंद के साथ रचनात्मक प्रेरणा से भी भर देती है। चूंकि यह शांत स्थल है, इसलिए यहां कवि और लेखकों का आवागमन लगा रहता है।  साहित्यकारों को यह स्थान सदैव अपनी ओर आकर्षित करता रहा है।  विश्वकवि रवीन्द्र नाथ टैगोर  ने भी रामगढ़ को इतना पसंद किया कि वे अपने जीवनकाल में दो बार (1903 , 1931) यहां आए थे। अल्मोड़ा आने पर रामगढ़ की पर्वत चोटी पर जो बंगला है, उसी में  आकर ठहरे थे। उनकी याद में बंगला आज भी 'टैगोर टॉप' के नाम से जाना जाता है।  उन्होंने यहां पर कई सुंदर रचनाएं--यथा 'शिशु ', 'छड़ार छवि', 'सेंजुती' कविता संग्रह की चालीस से अधिक कवितायें  इसी जगह पर लिखी हैं । स्व. महादेवी वर्मा, जो आधुनिक हिन्दी साहित्य की मीरा कहलाती हैं, को तो रामगढ़ इतना भाया कि वे सदैव ग्रीष्म ॠतु में यहीं आकर रहती थीं। उन्होंने अपना एक छोटा सा मकान भी यहाँ बनवा लिया था।  ऐसे ही अनेक ज्ञात और अज्ञात साहित्य - प्रेमी हैं, जिन्हें रामगढ़ प्यारा लगा था और बहुत से ऐसे प्रकृति - प्रेमी हैं जो बिना नाम बताए और बिना अपना परिचय दिए भी इन पहाड़ियों में विचरण करते रहते हैं।             
            12. ज्योलीकोट : अर्थात् यह स्थान काठगोदाम और नैनीताल के बीचोंबीच स्थित है। कुमाऊँ के सुन्दर स्थलों में ज्योलीकोट की गणना की जाती है। यकाठगोदाम से 17 .5  किलोमीटर की दूरी पर ज्योलीकोट स्थित है। यहाँ से नैनीताल की दूरी प्रायः 17 . 5 कि. मी. ही शेष बच जाती है। यह  स्थान समुद्र की सतह से  3657 फुट  की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ का मौसम गुलाबी मौसम कहलाता है।  जो पर्यटक नैनीताल की ठण्डी हवा में नहीं रह पाते, वे ज्योलिकोट में रहकर पर्वतीय जलवायु का आनन्द लेते हैं। ज्योलिकोट की खुबसूरती पर्यटकों को अपनी तरफ आकर्षित करती है। ज्योलिकोट पहाडियों से घिरा हुआ है और यहां पर अनेक छोटे-छोटे मन्दिर और मठ बने हुए हैं। यह सभी जंगलों में थोडी-थोडी दूरी पर स्थित है। यहां पर दिन के समय गर्मी और रात के समय ठंड पडती है। आसमान आमतौर पर साफ और रात तारों भरी होती है।पर्यटक यहां के गांवों के त्योहारों और उत्सवों का आनंद भी ले सकते हैं। छोटी या एक दिन की यात्रा के लिए ज्योलिकोट सबसे आदर्श पर्यटन स्थल माना जाता है।ज्योलिकोट में भारत का सबसे पुराना 18 होल्स का गोल्फ कोर्स है।   ज्योलिकोट में अनेक पहाडियां हैं जो एक-दूसरे से जुडी हुई हैं। इन पहाडियों में अनेक गुप्त रास्ते हैं। यहां के प्रत्येक मंदिर और मठ के साथ बुर्रा साहिब की कहानियां जुडी हुई हैं। इन मंदिरों और मठों के अलावा यहां पर एक छोटा-सा बंगला भी है। कहा जाता है कि किसी समय यहां पर नेपोलियन बोनापार्ट की बेटी रहती थी, जो यहां रहने वाले एक स्थानीय लडके से प्यार करने लगी थी। बंगले के अलावा यहां पर वार्विक साहिब का घर भी है। ज्योलिकोट में मधुमक्खी पालन केन्द्र है। फलों के लिए तो ज्योलिकोट प्रसिद्ध है ही परन्तु विभिन्न प्रकार के पक्षियों के केन्द्र होने का भी इस स्थान को गौरव प्राप्त है।  यहां से कुछ ही दूरी पर कुमाऊं की झील, बिनसर, कौसानी, रानीखेत और कार्बेट नेशनल पार्क स्थित हैं।  
          13. भुवाली : राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 87 से भोवाली पहुंचा जा सकता है।   भुवाली चीड़ और वाँस के वृक्षों के मध्य और पहाड़ों की तलहटी में  5040 फुट की ऊँचाई में बसा हुआ एक छोटा सा नगर है।  भुवाली में ऊँचे-ऊँचे पहाड़ हैं। सीढ़ीनूमा खेत हैं। सर्पीली आकार की सड़कें हैं। चारों ओर हरियाली ही हरियाली है। घने वाँस - बुरांश के पेड़ हैं। चीड़ वृक्षों का यह तो घर ही है। और पर्वतीय अंचल में मिलने वाले फलों की मण्डी है। भोवाली का बाजार भी बहुत प्रसिद्ध है। इस बाजार की बाल मिठाई काफी प्रसिद्व है। शान्त वातावरण और खुली जगह होने के कारण 'भुवाली' कुमाऊँ की एक शानदार नगरी है।भुवाली की जलवायु अत्यन्त स्वास्थ्यवर्द्धक है। भोवाली में तपेदिक रोधी केन्द्र और वायु सेना का स्टेशन भी बनाया गया है। ज्योलिकोट से जैसे ही गेठिया पहुँचते हैं तो चीड़़ के घने वनों के दर्शन हो जाते हैं।  चीड़ के पेड़ों की हवा टी. बी. के रोगियों के लिए लाभदायक बताई जाती है। इसीलिए यह गेठिया में  टी. बी. सेनिटोरियम का अस्पताल, चीड़ के घने वन के मध्य में स्थित किया गया। श्री मति कमला नेहरु का इलाज भी इसी अस्पताल में  हुआ था। भुवाली सेनिटोरियम के फाटक से जैसे ही आगे बढ़ना होता है, वेसे ही मार्ग ढलान की ओर अग्रसर होने लगता है। कुछ देर बाद एक सुन्दर नगरी के दर्शन होते हैं। यह भुवाली है। 'भुवाली' नगर भले ही छोटा हो परन्तु उसका महत्व बहुत अधिक हैं।  भीमताल, नौकुचियाताल, मुक्तेश्वर, रामगढ़ अल्मोड़ा और रानीखेत आदि स्थानों में जाने के लिए भी काठगोदाम से आनेवाले पर्यटकों, सैलानियों एवं पहारोहियों के 'भुवाली' की भूमि के दर्शन करने ही पड़ते हैं - अतः 'भुवाली' का महत्व जहाँ भौगोलिक है वहाँ प्राकृतिक सुषमा भी है। इसीलिए इस शान्त और प्रकृति की सुन्दर नगरी को देखने के लिए सैकड़ों - हजारों प्रकृति - प्रेमी प्रतिवर्ष आते रहते हैं।भुवाली के नजदीक कई ऐसे ऐतिहासिक स्थल हैं, जिनका अपना महत्व है। यहाँ पर कुमाऊँ के प्रसिद्ध गोलू देवता का प्राचीन मन्दिर है, तो यहीं पर घोड़ाखाल नामक एक सैनिक स्कूल भी है। 'शेर का डाण्डा' और 'रेहड़ का डाण्डा' भी भुवानी से ही मिला हुआ है।          
   14 . कैंची धाम : कुछ पर्यटक कैंची धाम  तक भी जाते हैं तो कुछ 'गगार्ंचल' पहाड़ की चोटी तक पहुँचते हैं। 'भुवाली' नगर के बस अड्डे से एक मार्ग चढ़ाई पर नैनीताल, काठगोदाम और हल्द्वानी की ओर जाता है। दूसरा मार्ग ढ़लान पर घाटी की ओर कैंची होकर अल्मोड़ा, रानीखेत और कर्णप्रयाग की ओर बढ़ जाता है।  नैनीताल के कैंची धाम स्थित हनुमान मंदिर, आज किस्मत बनाने वाले नीम करोली बाबा के नाम से विश्व भर में विख्यात है। नीम करोली बाबा को हनुमान का एक रूप भी बताया जाता है।  आज फेसबुक प्रमुख मार्क जुकरबर्ग और हॉलीवुड अभिनेत्री जूलिया रॉबर्ट्स भी नीम करौली बाबा की भक्त हैं।  एप्पल कंपनी के मालिक स्टीव जॉब्स भी बाबा के भक्तों में से एक भक्त थे। देश-विदेश समेत हज़ारों लोग यहाँ अपनी बिगड़ी तक़दीर को बनवाने आते हैं। 27  सितंबर 2015 को जब भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी फेसबुक के मुख्यालय में थे और बातों का दौर चल रहा था तो जुकरबर्ग ने कहा था कि एकबार जब वे इस कन्फ्यूजन में थे कि फेसबुक को बेचा जाए या नहीं ? तब एप्पल के फाउंडर स्टीव जॉब्स ने इन्हें भारत के एक मंदिर में जाने की सलाह दी थी। वहीं से इन्हें कंपनी के लिए नया मिशन मिला। जुकरबर्ग ने बताया था कि वे एक महीना भारत में रहे। इस दौरान उस मंदिर में भी गए थे। वह मंदिर कैंची धाम हनुमान मंदिर ही है जहां एप्पल के फाउंडर स्टीव जॉब्स ने फेसबुक प्रमुख मार्क जुकरबर्ग को जाने के लिए कहा था। मंदिर को आज नीम करोली बाबा का कैंची धाम नाम से भी जाना जाता है।  यह एक ऐसा केन्द्र - बिन्दु है जहाँ से काठगोदाम हल्द्वानी और नैनीताल, अल्मोड़ा - रानीखेत भीमताल - सातताल और रामगढ़ - मुक्तेश्वर आदि स्थानों को अलग - अलग मोटर मार्ग जाते हैं। कुमांऊ यात्रा के दौरान अधिकतर पर्यटक यहीं पर रूकते हैं। भोवाली में पाइन के खूबसूरत जंगल है। यहां पर लंगूरों की संख्या भी काफी है। जो जंगलों से लेकर बाजार तक हर जगह दिख जाते हैं।  यहां से एक और रास्ता सातताल, भीमताल  और नोकचैताल तक जाता है। भोवाली से एक रास्ता खैरना तक जाता है। खैरना से दो रास्ते जाते हैं, इनमें से एक रास्ता रानीखेत तक जाता है और दूसर रास्ते से पर्यटक अल्मोड़ा तक जा सकते है। अगर पर्यटक बर्फ से ढकी चोटियों को देखना चाहते हैं तो वह पंगोट और किलबरी जा सकते हैं। जो नैनीताल की बाहरी सीमा के पास है। पंगोट और किलबरी जाते समय रास्ते में अनेक जगह आती हैं जहां रूककर विश्राम भी किया जा सकता है।  इसके अलावा नैनी झील और सात ताल में नौकायन का आनंद लिया जा सकता है। किलबरी में बर्फ की सुन्दर चोटियों को देखा जा सकता है। पंगोट, नोकचैतल और बिनसर में खूबसूरत पक्षियों को देखा जा सकता है। खैरना से थोडा आगे चलने पर रामगढ और मुक्तेश्वर पहुंचा जा सकता है।
            15. गंगोत्री-यमुनोत्री:  उत्तरखंड गंगा और यमुना समेत देश की प्रमुख नदियों का उद्गम स्थल भी है इतना ही नहीं यूनेस्को की ओर से कहा गया है कि उत्तराखंड, वैली ऑफ फ्लॉवर (फूलों की घाटी) का भी घर है हैं जो पूरें विश्व में और कहीं नहीं हैं। फूलों की घाटी भी बहुत मनमोहक स्थान है, यहां पर तरह-तरह की वनस्पतियां पायी जाती है। फूलों की घाटी में वनस्पतियों के अलावा बहुत सारे जीव-जंतु भी पाये जाते है ,काला हिरन,नीली भेड़,हिम तेंदुआ,लाल लोमड़ी यहां पर मुख्य तौर पर देखे जाते है।
              16. रुद्रप्रयाग :
यह स्थान उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल में है। रुद्रप्रयाग अपने मंदिरों, नदियों और प्राकृतिक छटा के लिए प्रसिद्ध है। यहां पर अक्सर बहुत सरे साधु संतो को तपस्या करते देखा जा सकता है। रुद्रप्रयाग भी पूर्व के केदारखंड का ही एक हिस्सा है। इसी केदारखंड में वेदों की रचना हुई थी। रुद्रप्रयाग शहर अलकनंदा तथा मंदाकिनी नदियों का संगम स्थल है। यहां से अलकनंदा देवप्रयाग में जाकर भागीरथी से मिलती है और पवित्र गंगा नदी का निर्माण करती है। उत्तराखंड का पंच प्रयाग, एक ऐसा स्थल जहां पाँच नदियों का संगम होता है। उत्तराखंड की इस जगह का नजारा वाकई बहुत खुबसूरत है। इस स्थान पर रुद्र प्रयाग,कर्ण प्रयाग,नन्द प्रयाग, विष्णु प्रयाग,देव प्रयाग अलकनंदा से आकर मिलती है।  यहां के प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों में केदारनाथ मंदिर, अगस्त्यमुनि, गुप्‍तकाशी, सोनप्रयाग, खिरसू, गौरीकुंड, दिओरिया ताल, चोपता है। यहां से सबसे नजदीकी एयरपोर्ट जोलीग्रांड देहरादून है, नजदीकी रेलवे स्‍टेशन ऋषिकेश और कई महत्‍वपूर्ण सड़क मार्ग गढ़वाल डिविजन से जुड़े हुए हैं। जहां से रोजाना रूद्रप्रयाग के लिए बसें चलती हैं। पर्यटकों के रहने के लिए यहाँ होटल और रिजोर्ट उपलब्ध है।    
       श्री रामकृष्णदेव की सन्तानों में, अल्मोड़ा  जाने वाले प्रथम व्यक्ति स्वामी अखंडानंद (गंगाधर) ही थे। उन्होंने हिमालय और तिब्बत की यात्रा कई बार की थी। श्री रामकृष्ण का देहत्याग हो जाने के बाद, नरेन्द्र आदि (विवेकानन्द जैसे त्यागी -निवृत्ति मार्ग के अधिकारी युवा) अपने घर को छोड़कर बराहनगर मठ में ही रह रहे थे। लेकिन दुःखी मानवता की सेवा करने की प्रबल इच्छा, त्याग और तपस्या के माध्यम से इसका उपाय खोजने के लिए ~  उन्हें बार बार भारत के विभिन्न क्षेत्रों की यात्रा करने के लिए बाध्य कर रही थी।
               विवेकानन्द भी कुछ समय यहाँ वहाँ घूमकर वराहनगर लौटे और चिन्तन -मनन के लिये हिमालय में एकान्त स्थान की खोज में अखण्डानन्द को साथ लेकर काठगोदाम पहुँचे । एक सौ साल पहले काठगोदाम से अल्मोड़ा जाने के लिए कोई सड़क मार्ग नहीं था , कोई बस या टैक्सी भी नहीं चलती थी।  सारे जागतिक सम्बन्धों तथा बन्धनों को काटकर, भिक्षाटन को ही संबल बनाकर, हृदय में चिंतन -मनन के लिए  एकांत स्थान के खोज की तीव्र आकांक्षा लिए हुए दण्ड-कमण्डलु-धारी ये दोनों परिव्राजक संन्यासी ~   विवेकानन्द और अखण्डानन्द  दुर्गम पहाड़ी रास्तों पर पदयात्रा करते हुए नैनीताल पहुँच गए । 
       अल्मोड़ा जाने के विनिर्दिष्ट मार्ग को छोड़कर विवेकानन्द बीच -बीच में जंगल के भीतर से होकर चलने लगे। यात्रा के तीसरे दिन वे दोनो काकड़ी घाट पहुंचे, … और  एक झरने के किनारे  रात्रि विश्राम के लिए पानी की चक्की के समीप उनलोगों ने एक मनोरम स्थान  ढूंढ़ निकाला। प्रातः स्नान के बाद जब आगे बढ़े तो देखा एक स्थान पर पगडण्डी के निकट से ही कोशी (कौशिकी) नदी बहती हुई चल रही थी। असंख्य छोटे-बड़े आकर के रोड़े-पत्थरों के ऊपर से होकर बहती हुई इस नदी को पैदल ही चलकर पार किया जा सकता था। थोड़ा आगे बढ़ने पर, स्वामी जी की दृष्टि उस  स्थान पर पड़ी , जहाँ दूसरी ओर से सरोता नदी आकर कौशिकी का आलिंगन कर रही थी। दोनों के संगम-स्थली पर एक त्रिभुजाकार भूखण्ड उभर आया था। उसी भूखण्ड के बीच में एक विशाल पीपल का वृक्ष भी खड़ा था। वहाँ का समस्त वातावरण दिव्य आनन्द से भरा हुआ था।  स्वामीजी वहाँ रुककर खड़े हो गये, और स्वामी अखंडानन्दजी से कहा- " भाई, देखते हो यह स्थान तो ध्यान करने के लिये अत्यन्त उपयुक्त है!"
                 उन दोनों ने उसी कोशी नदी में स्नान किया और “ प्रकृति के अनुपम सौंदर्य और विधाता की अनुपम रचना के आगे श्रद्धानत हो वे काकड़ीघाट में स्थित विशाल पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान करने बैठ गये। 
हिमालय के हिमशिखर मौन में डूब गए। एक गहन नीरव निस्स्पंदता वहाँ व्याप्त हो गई। चित्त की कामनाएँ गिरने लगीं, और दुःखी मानवता की सेवा-वृत्ति उभरने लगे। जब अन्तर-बाह्य पवित्रता हो तो भाव समाधि बड़ी सहज होती है। वह अत्यंत पवित्र क्षण था। कुछ ही क्षणों के भीतर स्वामीजी गंभीर ध्यान में लीन हो गये,  उनका पूरा शरीर निस्पंद हो गया था। .... यह बड़ी अद्भुत स्थिति थी।  .....  कितनी देर रही यह अवस्था कौन जाने? 
            हाँ, जब समाधि से सब उठे तो स्वामी विवेकानन्द ने हिमालय के शुभ्र शिखरों को देख कर अपने गुरुभाई  से कहा ...देखो गंगाधर (अखण्डानंद) काकड़ीघाट महाधाम  के इस  ‘बोधि वृक्ष’ सरीखे इस पीपल वृक्ष के नीचे  एक अत्यंत शुभ मुहुर्त बीत गया है; मेरे सबसे गहरे सवालों में से एक का हल आज प्राप्त हो गया है !’ ("आज आमार एक गभीर जिज्ञासार समाधान होये गैलो । One of my deepest questions was resolved today.")
 
                " प्रथमे शब्द-ब्रह्म छिलो।"....
 सृष्टि के आदि में शब्द- ब्रह्म ही था। सृष्टि की उत्पत्ति की प्रक्रिया नाद के साथ हुई। जब प्रथम महास्फोट (बिग बैंग) हुआ, तब आदि-नाद (नादब्रह्म) उत्पन्न हुआ। उस मूल ध्वनि को जिसका प्रतीक ‘ॐ‘ है, नादब्रह्म कहा जाता है। ॐ  महज एक शब्द नहीं है, और ना ही ॐ  का किसी ख़ास नाम वाले धर्म से कोई लेना-देना है। 
      हम भले ही 'ऊँ' की ध्वनि मुख से निकाल लें, लेकिन ॐ को अनाहत नाद कहा गया है। अनाहत का अर्थ होता है जो किसी के टकराने से पैदा ना हुआ हो। जहां टकराहट हो वहां भला ऊँ कहां। भीतर जब बिल्कुल शांति हो, अंदर के हमारे सारे द्वंद मिट जाते हैं, तब एक अनाहत नाद (शाश्वत चैतन्य स्पंदन है ) से हमारा संपर्क (योग) होता है-ॐ  से हम जुड़ पाते हैं। ऊँ का हम मुख से रट लगा सकते हैं, लेकिन असल ॐ तो ध्यान की गहराई में अवतरित होता है।  ऊँ को सत्य के अलावा कुछ कहा भी नहीं जा सकता। हम जो भी कहें उसकी एक सीमा है और ऊँकार असीम है, इसलिए प्राचीन योगियों ने ऊँ को अजपा कहा-यानी जिसका जाप नहीं किया जा सकता। ॐ शब्दातीत है-यानी शब्द से परे है । 
     और जो शब्दातीत, असीम और अनन्त है, उसका वर्णन महर्षि पातंजलि ने  पांतजलि योगसूत्र में ‘तस्य वाचक प्रणव:' उसकी अभिव्यक्ति ॐ के रूप में होती है, ऐसा कहा है।  क्योंकि 'शब्द' के बिना विचार करना असम्भव है, अर्थात 'नाम'  के बिना 'रूप' का ध्यान करना असम्भव है। अतएव,  सम्पूर्ण विश्व- ब्रह्माण्ड इसी 'ॐ',सत्य य  अनाहत नाद है- में समाया हुआ है।  माण्डूक्योपनिषद्‌ (१)  में कहा है- " ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं "... (ओम् इति - एतत् -  अक्षरम् -  इदम् सर्वम् - तस्य उपव्याक्षानम्)  ' ॐ या ओम् ही 'अक्षर-शब्द' है, और जो कुछ दिखाई दे रहा है, यह संम्पूर्ण जगत 'ओम्' की ही उपव्याख्यान है - अर्थात व्याख्या है! भूत, वर्तमान तथा भविष्य अर्थात् जो कुछ था, जो कुछ है तथा जो होने वाला है, वह 'ओम्' है। इसी प्रकार 'काल' (त्रिकाल) की सीमा से परे जो कुछ भी हो सकता है वह भी 'ओम्' ही है। गुरुनानक ने भी गुरुमुखी~ में  “एक ओंकार सतनाम”- यानी सृष्टि के आदि में एक परम् सत्य ही था।

[শ্রী নবনীহরনের প্রতিশ্রুতি: " প্রথমে শব্দব্রহ্ম ছিল। অনুবিশ্ব আর বৃহৎ -বিশ্ব একই পরিকল্পনানুসারে সৃষ্ট। জীবাত্মা যেমন জীবদেহে , বিশ্বাত্মাও তেমন প্রকৃতিতে অবস্থিত। বাক আর অর্থের মতই এরা অচ্ছেদ্য। ব্রহ্মের এই দুই রূপ সনাতন। কাজেই আমরা যে জগৎ দেখি তা শাশ্বত নিরাকার ও শাশ্বত সাকারের সম্মিলন।"
          साकार, निराकार  के विषय में श्रीरामकृष्ण कहा करते थे - " घण्टी बजाते समय हर एक टहोका लगने के साथ 'टन्' 'टन् ' की आवाज अलग अलग और स्पष्ट सुनाई पड़ती है- यह मानो साकार है।  पर बजाना बन्द करते ही आखरी टहोके की आवाज थोड़ी देर तक गूँजती हुई शान्त हो जाती है (शाश्वत चैतन्य या स्पंदन) ~ यह मानो निराकार है। घण्टी की ध्वनि की तरह ईश्वर की भी साकार और निराकार दोनों अवस्थायें हैं। " (अमृतवाणी : साकार और निराकार : २२९)
             एक व्यक्ति ने श्रीरामकृष्ण से पूछा , 'महाराज , साकार बड़ा है या निराकार ?' श्रीरामकृष्ण ने कहा, " निराकार दो प्रकार का है ~ पक्का और कच्चा।  पक्का निराकार अवश्य ही एक उच्च भाव है। साकार के सहारे उस निराकार में पहुँचना पड़ता है। ब्राह्मसमाज वालों का कच्चा निराकार है ~ जैसे आँख मूंदने पर अँधेरा ही दिखाई देता है। " (अमृतवाणी : साकार और निराकार : २२८)       
     " ईश्वर नित्य भी है और लीलामय विश्वपिता भी। अखण्ड सच्चिदानन्द की धारणा नहीं की जा सकती। वह मानो अनन्त , असीम समुद्र की तरह है, उसमें पड़कर मनुष्य मानो किनारा न पाकर डूबने लगता है। परन्तु साकार लीलामय ईश्वर (ठाकुर) को पाकर उसे मानो किनारा मिल जाता है। "(अमृतवाणी : साकार और निराकार : 230)
     " जिस प्रकार पानी जमकर बर्फ बन जाता है। उसी प्रकार अखण्ड सच्चिदानन्द ब्रह्म ही साकार रूप धारण करता है। जैसे बर्फ पानी से ही पैदा होती है, पानी में ही रहती है , और पानी में ही मिल जाती है। वैसे ही ईश्वर (आत्मा) का साकार रूप (देह-मन या नाम-रूप) भी निराकार ब्रह्म (आत्मा) से ही उत्पन्न होता है, उसी में अवस्थित रहता है, तथा उसीमें विलीन हो जाता है। "(अमृतवाणी : साकार और निराकार : २३०)  
         श्रीशंकराचार्य के अनुसार शब्दब्रह्म से तात्पर्य वेदों के कर्मकाण्ड से है जहाँ विभिन्न प्रकार के फल (स्वर्गादि) प्राप्त करने के लिए यज्ञयागादि साधन बताये गये है। गीता ६/४४ श्लोक में ध्यानयोग (मनःसंयोग) की महत्ता को दर्शाते हुए भगवान् कहते हैं ~ 
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
          जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते।।6.44। 
[पदच्छेद : पूर्व-अभ्यासेन तेन एव ह्रियते हि अवशः अपि सः । जिज्ञासुः अपि योगस्य शब्द-ब्रह्म अतिवर्तते॥]
वह योगभ्रष्ट मनुष्य उस पहले जन्म के अभ्यासजन्य संस्कार से ही (यदि उसके भीतर इच्छा न प्रकट हुई हो तब भी) विवश किया जाता हुआ, बलपूर्वक पूर्ण सिद्धि के लिए योग मार्ग में प्रवृत किया जाता है। और यदि कोई व्यक्ति जिसमें केवल योग की जिज्ञासा भी जाग्रत हुई हो , तो वह भी (मनःसंयोग पद्धति का जिज्ञासु भी, अगले जन्म में योग का अनुष्ठान करते हुए) वेद उपनिषदादि में कहे हुए 'शब्दब्रह्म' का अतिक्रमण कर जाता है, अर्थात् ऊँचे-से- ऊँचे ब्रह्मलोक आदि लोकों से भी उसकी अरुचि हो जाती है, और ब्रह्म के शाब्दिक रूप से परे जाकर तत्व को प्राप्त हो जाता है ।  फिर जो योग को जान कर उसमें स्थित हुआ अभ्यास करता है उसका तो कहना ही क्या है। (courtesy : http://bhagavadgita.org.in/)
         " अणुविश्व आर बृहतविश्व एकई परिकल्पना-नुसारे सृष्ट "   ...... अतएव अणुविश्व (पिण्ड) और वृहत-विश्व (ब्रह्माण्ड) दोनों एक ही कार्यप्रणाली (procedure, ideology विचारपद्धति) के अनुसार संचालित हैं। "सच्चिदानन्द कैसे हैं , कोई नहीं बता सकता। इसलिये वे पहले अर्धनारीश्वर बने। जानते हो , उन्होंने ऐसा क्यों किया ? -यह दिखाने के लिये कि वे स्वयं ही प्रकृति-पुरुष दोनों हैं। फिर एक सीढ़ी नीचे उतर कर वे अलग- अलग पुरुष और प्रकृति बने। " (अमृतवाणी : कुछ ईश्वरीय रूप : 231
              'एक भक्त - कालीमाता को योगमाया क्यों कहते हैं ? श्रीरामकृष्ण - " योगमाया अर्थात पुरुष और प्रकृति का योग। तुम जो कुछ भी देख रहे हो, वह सभी पुरुष-प्रकृति का योग है। देखा नहीं , शिव-काली की मूर्ति में शिव के ऊपर काली खड़ी हुई हैं। शिव शव के जैसे पड़े हुए हैं; काली शिव की ओर देख रही है। यह सभी पुरुष -प्रकृति का योग है। पुरुष निष्क्रिय है, इसलिये शिव शव जैसे पड़े हैं। पुरुष के साथ युक्त होकर प्रकृति सृष्टि-स्थिति -प्रलय आदि सभी कार्य कर रही है। राधा-कृष्ण की युगल मूर्ति का भी यही अर्थ है।" (अमृतवाणी : कुछ ईश्वरीय रूप : 231) 
          " जीवात्मा जेमन जीवदेहे , विश्वात्मा ओ तेमन प्रकृतिते अवस्थित " .... जिस प्रकार  जीवात्मा एक चेतन शरीर द्वारा आवृत्त है, उसी प्रकार चेतनामयी प्रकृति या दृश्य जगत के पीछे विश्वात्मा (माँ जगदम्बा) भी अवस्थित हैं। श्रीरामकृष्ण कहा करते थे -" प्रत्येक वस्तु नारायण है। मनुष्य नारायण है, पशु नारायण है, लम्पट भी नारायण है। जो कुछ है, सब नारायण ही है। नारायण विभिन्न रूपों में लीला करते हैं। सब उन्हीं के भिन्न -भिन्न रूप हैं , उन्हीं की महिमा का प्रकाश है। ....  ईश्वर सबके भीतर हैं , परन्तु सब जन ईश्वर के भीतर नहीं हैं, इसीलिये उन्हें इतना दुःख भोगना पड़ता है। " (अमृतवाणी : ईश्वर की सर्वव्यापकता :२३२
          "बाक आर अर्थेर मोतोई एरा अच्छेद्य " ....  शब्द ( ' नाम '-  परा, मध्यमा, पश्यन्ति और वैखरी ) और उसके अर्थ के समान ही  वे दोनो [ब्रह्म और शक्ति ] अविभाज्य (fundamental, मौलिक या तात्विक) हैं। और केवल मानसिक विश्लेषण (मनीषा) के द्वारा ही उन दोनो को या 'संयुक्ताक्षर-ॐ '  ~ (ऊ से चन्द्रबिन्दु) को पृथक किया जा सकता है। हमारे यहां वाणी विज्ञान का बहुत गहराई से विचार किया गया। वाणी कहां से उत्पन्न होती है, इसकी गहराई में जाकर अनुभूति की गई है। इस आधार पर पाणिनी कहते हैं, आत्मा वह मूल आधार है जहां से ध्वनि उत्पन्न होती है। वह इसका पहला रूप है। यह अनुभूति का विषय है। किसी यंत्र के द्वारा सुनाई नहीं देती। ध्वनि के इस रूप को परा कहा गया। ऋग्वेद में एक ऋचा आती है-
चत्वारि वाक्‌ परिमिता पदानि
तानि विदुर्व्राह्मणा ये मनीषिण:
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति
तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥

ऋग्वेद १-१६४-४५
      अर्थात्‌ अर्थात् वाणी के चार पद होते हैं, जिन्हें विद्वान मनीषी (ब्रह्मविद) जानते हैं। वे हैं- परा, पश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी। इनमें से तीन शरीर के अंदर होने से गुप्त हैं परन्तु चौथे को अनुभव कर सकते हैं~ तुरीय वाचा मनुष्य बोलता है। ' चत्वारि वाक् परिमिता पदानि' इसकी विस्तृत व्याख्या करते हुए पाणिनी कहते हैं,वाणी के चार पाद या रूप हैं- १. परा, २. पश्यन्ती, ३. मध्यमा, ४. वैखरी। अर्थात - एक ही नाम चार श्रेणियों से जपा जाता है-बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा ।
          १. परा : इसके आगे वाणी में कोई परिवर्तन नहीं है । परम का दिग्दर्शन कराके उसी में विलीन हो जाती है, इसलिये इसे परा कहते हैं । २. पश्यन्ती: साधना और सूक्ष्म हो जाने पर पश्यन्ती अर्थात नाम देखने की अवस्था आ जाती है । धीरे-धीरे नाम की धुन बन जाती है, डोर लग जाती है । फिर नाम को जपा नहीं जाता, यही नाम श्वास में ढल जाता है । मन को द्रष्टा बनाकर खड़ा कर दे, देखते भर रहें कि साँस आती है कब ? कहती है क्या ?" महापुरुषों का कहना है कि यह साँस नाम के सिवाय और कुछ कहती ही नहीं । साधक नाम का जप नहीं करता, केवल उससे उठनेवाली धुन को सुनता है । साँस को देखता भर है, इसलिये इसे 'पश्यन्ती' कहते हैं। पश्यन्ती में मन को द्रष्टा के रूप में खड़ा करना पड़ता है; किन्तु साधन और उन्नत हो जाने पर सुनना भी नहीं पड़ता । एक बार सुरत लगा भर दें, स्वतः सुनायी देगा । न स्वयं जपें, न मन को सुनने के लिए बाध्य करें और जप चलता रहे, इसी का नाम है अजपा । अजपा का अर्थ है, हम न जपें किन्तु जप हमारा साथ न छोड़े । एक बार सुरत का काँटा लगा भर दें तो जप प्रवाहित हो जाय और अनवरत चलता रहे । इस स्वाभाविक जप का नाम है अजपा और यही है 'परावाणी का जप' । यह प्रकृति से परे तत्त्व परमात्मा में प्रवेश दिलाती है । ३. मध्यमा : अर्थात मध्यम स्वर में जप, जिसे केवल आप ही सुनें, बगल में बैठा हुआ व्यक्ति भी उस उच्चारण को सुन न सके । यह उच्चारण कण्ठ से होता है । ४. वैखरी। बैखरी उसे कहते है जो व्यक्त हो जाये । नाम का इस प्रकार उच्चारण हो कि आप सुनें और बाहर कोई बैठा हो तो उसे भी सुनाई पड़े ।
       श्रीरामकृष्ण कहा करते थे - " ईश्वर का साक्षात्कार दो प्रकार का होता है ~ एक में जीवात्मा तथा परमात्मा का योग होता है। और दूसरे में ईश्वरीय रूपों के दर्शन होते हैं। पहला ज्ञान है और दूसरी भक्ति। "  ( अमृतवाणी : ईश्वरीय रूपदर्शन तथा ध्वनिश्रवण : 240
          ' क्या ईश्वर के दर्शन इन चर्मचक्षुओं से ही होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में श्रीरामकृष्ण ने कहा - " नहीं, उन्हें इन चर्मचक्षुओं से नहीं देखा जा सकता। साधना करते करते साधक के भीतर एक प्रेम की देह उत्पन्न होती है, उसमें प्रेम के नेत्र , प्रेम के कर्ण होते हैं।  उन्हीं प्रेम-नेत्रों से उनके दर्शन होते हैं, उन्हीं प्रेम-कर्णों से उनकी वाणी सुनाई देती है। अनाहत ध्वनि सदा अपने आप उठ रही है।  यह प्रणव ध्वनि है। यह परब्रह्म से आ रही है। योगी इसे सुन पाते हैं। योगी समझ सकते हैं, कि यह ध्वनि एक ओर नाभि में से उठती है, तथा दूसरीओर उस क्षीरोदशायी परब्रह्म से। " (अमृतवाणी : ईश्वरीय रूपदर्शन तथा ध्वनिश्रवण : 241~ एनुअल कैम्प में केजेएन के साथ माँ को शाल देना ?)
          " ब्रह्मेर एई दूई रूप सनातन ।"....      ब्रह्म [मूर्तमान प्रेमस्वरूप श्री रामकृष्णदेव ] के 'शब्दातीत' (देश-काल के परे या निराकार)  और 'शब्दगोचर' (साकार या इन्द्रियगोचर) ये दोनों रूप  सनातन हैं! बृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है- ' द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चामूर्तं च’ नित्य एक होते हुए ही वह नित्य पृथक सत्ता है- इसी से  माया की उपाधि से प्रतीत होने वाले नामरूप विष्णु, शिव, नारायण, राम, कृष्ण, दुर्गा आदि सभी स्वरूप-छलमात्र नहीं हैं, बल्कि अनादि सत्य तथा नित्य हैं। एक होते हुए ही अनादिकाल से ये ही विविध रूपों में अभिव्यक्त हैं-  ‘एकोऽपि सन् बहुधा यो विभाति ।’ इसी एक (प्रकृति) के द्वारा दूसरे (आत्मा) का यह आलिंगन मानो शब्द और अर्थ के सम्बंध की भांति अविच्छेद्य हैं। विश्वात्मा का यह युगल रूप अनादि है। 
            जीवात्मा  जिस प्रकार जीव के शरीर के भीतर ही अवस्थित होकर (व्यष्टि अहं बनकर ) उसे चला रही है, विश्वात्मा ( माँ जगदम्बा के मातृहृदय का सर्वव्यापी विराट 'अहं'- बोध !) भी उसी प्रकार इस सृष्टि के भीतर ही अवस्थित होकर इसको चला रही हैं । श्रीरामकृष्ण कहते थे "आन्तरत-तत्त्व और बाह्य रूप , भीतरी भाव और बाहरी प्रतीक -दोनों का सम्मान करो। सीपी के अन्दर  बहुमूल्य मोती होता है, सीपी का कोई मूल्य नहीं होता; परन्तु मोती के पूरी तरह तैयार होने तक -सीपी बहुत आवश्यक है। मोती मिल जाने के बाद सीपी का महत्व नहीं रहता। जिसे सर्वोच्च सत्य , परमेश्वर की प्राप्ति हो गयी है, उसके लिये बाह्य आचार-नियमों की आवश्यकता नहीं रह जाती। " (अमृतवाणी : साधक जीवन के लिए कुछ सहायक बातें : 85)
      " काजेई आमरा जे जगत देखि ता शाश्वत निराकार ओ शाश्वत साकारेर सम्मिलन। " अतएव,  हमलोग जिस जगत को देख रहे हैं वह शाश्वत निराकार एवं शाश्वत साकार की मिलीजुली अभिव्यक्ति है! अर्थात हम लोग जो कुछ देखते हैं या अनुभव करते हैं,  सभी दृष्टिगोचर वस्तुओं की संरचना 'मूर्त' (साकार) और 'अमूर्त' (निराकार) के सम्मिलन से हुई है।  शिवा (काली-प्रकृति या मन? ) सचमुच यहाँ शिव (आत्मा) का आलिंगन कर रही है। यह कोई कल्पना नही है। (अर्थात भगवान की कोई भी मूर्ति कल्पना से गढ़ी मनगढ़न्त मूर्ति नहीं है। )
              
         जिस  ‘बोधि वृक्ष’ सरीखे पीपल वृक्ष के नीचे स्वामी विवेकानन्द को " पिण्ड (शब्दमय) में ब्रह्माण्ड (शब्दातीत) का ज्ञान" ~  प्राप्त हुआ था, उस स्थान का नाम 'काकड़ीघाट ' है; जो अल्मोड़ा से 23 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यहां से आगे चलते हुए वे दोनों अल्मोड़ा की ओर बढ़े। कहते है , जब वे अल्मोड़ा के बिल्कुल निकट पहुँच गए थे , केवल 3 कि.मी. की दूरी ही तय करनी शेष थी; उनका पैर फफलों से भर गया था ।  खड़ी चढ़ाई चढ़ने व भूख-प्यास से निढ़ाल हो कर स्वामी विवेकानन्द  लगभग अचेत जैसे एक चट्टान पर जाकर सो गए। उनकी अवस्था देखकर, अखण्डानन्द एकदम घबड़ा गए और जल्दी से कुछ भोजन-पानी की खोज करने में व्यस्त हो गए।  
             नजदीक में ही एक कब्रिस्तान के पास बनी एक कुटिया के निकट खड़े एक मुसलमान फकीर को देखकर उसके पास पहुँचे। फ़कीर के पास उस समय एक खीरे के अलावा और कुछ नहीं था। फ़कीर  स्वयं उस खीरे (पहाड़ी ककड़ी) को लेकर दौड़ते हुए स्वामी जी के पास आये। लेकिन उनको देखकर बोले, मैं तो मुलमान हूँ-क्या आप इसे ग्रहण करेंगे। स्वामी जी ने धीमी आवाज में कहा - ' ताते की ? आमरा सबाई की भाई नेई ?- उससे क्या, क्या हम सभी मनुष्य आपस में भाई नहीं हैं ? उस समय उसी खीरे को खाकर ही उनके प्राणों की रक्षा हुई। अमेरिका यात्रा से लौटने के बाद स्वामीजी जब दूसरी बार अल्मोड़ा आये, तब वहाँ उनका सार्वजनिक अभिनन्दन किया गया था। उस सभास्थल पर उपस्थित भारी भीड़ में भी उन्होंने उस मुस्लिम फकीर को पहचान लिया और उस फ़क़ीर (जुल्फिकार अली) को अपने पास बुलाकर कृततज्ञता ज्ञापित करते हुए, सबों के सामने इस घटना का उल्लेख किया और कहा कि इस व्यक्ति ने ही उनकी प्राण रक्षा की थी।         
      1890 ई. के अगस्त के अंतिम  या सितम्बर  महीने  के प्रथम सप्ताह में  स्वामीजी (नरेन्द्र)  गंगाधर (स्वामी अखंडानंद) के साथ जब पहली बार जब अल्मोड़ा पहुँचे तब अल्मोड़ा शहर में उनलोगों की मुलाकात,  स्वामी सारदानन्द और कृपानन्द (वैकुण्ठ नाथ सान्याल) के साथ  हो गयी। वे लोग स्वामी जी से मिलने की इच्छा लिये अल्मोड़ा में पहले से ही उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। अल्मोड़ा पहुँचकर शहर के खजांची मोहल्ला के एक अति सज्जन व्यक्ति, धनवान होने पर भी धन की कालिमा ने ( make money 4 का 8 बनाते रहने की लालसा ने ) जिनका स्पर्श तक नहीं किया था , उन्हीं लाला बद्री शाह ~ का आतिथ्य उन सभी ने ग्रहण किया। "धन जिसके लिये दास की तरह है, वही ठीक ठीक मनुष्य है। जो धन को योग्य रीति से उपयोग करना नहीं जानता वह 'मनुष्य ' कहलाने लायक नहीं है। " AV/26 
          [ सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा के खजांची मोहल्ले का अपना ऐतिहासिक महत्व है। इस मोहल्ले में रहने वाले ठुलघरिया शाह परिवार चंद शासकों के जमाने से ही उनके खजांची (बैंकर्स) रहे थे । अंग्रेजों के शासनकाल में भी लाला  बद्री शाह सहित कई ठुलघरिया परिवारों की काफी प्रतिष्ठा थी। इसी कारण इसका नाम खजांची मोहल्ला रखा गया। यही वह मोहल्ला है जहां स्वामी विवेकानंद हिमालय यात्रा के दौरान दो बार लाला बद्री शाह के मेहमान बनकर रुके। स्वामी विवेकानंद 1890 और 1897 की यात्रा के दौरान दो बार अल्मोड़ा आए थे और दोनों ही बार वे खजांची मोहल्ला में बद्री शाह के घर पर रुके थे । 11 मई 1897 में इसी जगह पर उन्होंने अल्मोड़ावासियों को संबोधित भी किया था। बद्री शाह जी के इस घर में आज भी उनकी बाद की पीढ़ी के लोग रहते हैं। खजांची मोहल्ले के अधिकांश घर 1800 से पहले के बने हैं लेकिन उनका मूल स्वरूप अब भी वही है। अधिकांश घरों में उस दौर के बने दरवाजे और खिड़कियां आज तक सुरक्षित हैं। अधिकांश भवनों में तुन की लकड़ी का प्रयोग किया गया है। दरवाजों और खिड़कियों में नक्काशी उकेरी गई है। ] 
             1889 ई. में जिस समय स्वामी जी अल्मोड़ा जाने की बात सोंच रहे थे, उस समय स्वामी अखण्डानन्द बद्रीनाथ धाम की यात्रा पर थे। उनकी अल्मोड़ा जाने की इच्छा के विषय में अखण्डानन्द ने वहीं से लाला बद्री शाह को स्वामी जी का परिचय देते हुए एक पत्र लिखा था। उस पत्र में स्वामी विवेकानन्द का परिचय देते हुए उन्होंने लिखा था कि - " विवेकानन्द केवल उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति ही नहीं हैं, वरण ईश्वर (परम् सत्य) के लिए सचमुच अपना सर्वस्व त्याग कर एक संन्यासी का कठोर जीवन व्यतीत करते हैं, एवं वे 'परमहंस ' श्रेणी में शुमार किये जाने योग्य एक उच्चकोटि के संन्यासी हैं। " 
                 श्री रामकृष्ण के सानिध्य में रहते समय ही विवेकानन्द (नरेन्द्र) ने निर्विकल्प समाधि का आस्वादन कर लिया था, और अपने गुरुदेव से प्रार्थना की थी कि वे कुछ ऐसी कृपा दें जिससे वे हर समय ब्रह्मानन्द में ही लीन होकर रहने योग्य बन जाएँ। किन्तु श्री रामकृष्ण चाहते थे कि उनका नरेन् लोक कल्याण के लिए केवल उच्च भूमि में ही न रहकर, साधारण जनता बीच उतर आये।  और ठाकुर देव की यही भविष्यवाणी मानो चमत्कार पूर्ण ढंग से घटित हुई थी, और इस विषय में स्वामी जी का अल्मोड़ा अवस्थान इतिहास की अविस्मरणीय घटना बनी रहेगी। 

                 लाला बद्री शाह के आतिथ्य में कोई कमी नहीं थी। किन्तु दुःखी मानवता की सेवा करने के उद्देश्य से  प्रभावकारी आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करने के लिये के लिये स्वामी विवेकानन्द का मन एकान्त वास की कामना से छटपट कर रहा था। वे अकेले ही निकल पड़े। ......कशार देवी पहाड़ की एक गुफा में दिन-रात लगातार कठोर तपस्या चलने लगी। निर्जन एकान्त स्थान में मौन भाव से चिंतन-मनन करते करते उनका मुखमण्डल धीरे धीरे परम् सत्य के दिव्य प्रकाश से उज्ज्वल हो उठा। मानो आज उन्होंने श्री रामकृष्ण की  उक्ति 'ज्ञान के बाद विज्ञान' का सही अर्थ समझा। ....जिनका जन्म ही भावी शिक्षक (would be Leader) बनने और बनाने के लिये हुआ हो, वे यदि आजीवन 'ब्रह्मविद्या' (theology) पर केवल चर्चा ही करते रहें, या आजीवन समाधि के आनन्द में ही डूबे रहना चाहें, तो श्रीरामकृष्ण के अवतरित होने का उद्देश्य ~ 'सतयुग  स्थापना का कार्य' कैसे पूरा होगा ?  
(শুধু ব্রহ্মজ্ঞানে ডুবে থাকা নয়। .... তিনিই সব হয়েছেন'--- জেনে সর্বজীবের কল্যাণই শেষ কথা)
"शुधु ब्रह्मज्ञाने डूबे थाका नय"  " ज्ञान के बाद विज्ञान में बढ़ो !"
          " ज्ञानयोग में ज्ञानी साधक ब्रह्म को जानना चाहता है। वह 'नेति' 'नेति ' विचार करते हुए एक एक करके मिथ्या वस्तुओं का त्याग करता जाता है। जहाँ विचार (आत्मनिरीक्षण) समाप्त हो जाता है, वहाँ समाधि होती है, ब्रह्मज्ञान होता है। " (अमृतवाणी : ज्ञानयोग क्या है ? १८९)
        " विचार दो प्रकार का होता है - अनुलोम और विलोम। एक है विश्लेषणात्मक (analytical) और दूसरा संश्लेषणात्मक (synthetical- एकीकरण) - 'नेति -नेति ' और 'इति-इति'। पहला मानो केले के स्तम्भ के खोलों को निकालते हुए माँझे (kernel, तत्व) तक आ पहुँचना है और दूसरा , माँझे पर एक के बाद एक खोल की परतें चढ़ाते हुए स्तम्भ तक आना। (अमृतवाणी : ज्ञानयोग की प्रणाली : १९१) 
     " ज्ञान अज्ञान दोनों के पार हो जाओ, तभी उन्हें जान पाओगे। नानत्व देखने का नाम ही अज्ञान है। पाण्डित्य का अहंकार भी अज्ञानजन्य है। एक ही ईश्वर सर्वभूतों में विराजमान हैं - इस निश्चयात्मिका बुद्धि का नाम ज्ञान है। उन्हें विशेष रूप से (शिव) जानकर उनकी सेवा करना ही 'विज्ञान' है।" (अमृतवाणी : समाधि तथा ब्रह्मज्ञान : 242)    
           श्रीरामकृष्ण देव कहा करते थे, 'नेति नेति ' करते हुए आत्मा की उपलब्धि करने का नाम ज्ञान है। विज्ञान यानि विशेष रूप से जानना। किसी ने दूध के बारे में सुना भर है, किसी ने दूध देखा है, और किसी ने दूध पीया है। जिसने केवल सुना ही है, वह अज्ञानी है, जिसने देखा है वह ज्ञानी है, जिसने पीया है उसे विज्ञान अर्थात विशेष रूप से ज्ञान हुआ है। ईश्वर का दर्शन प्राप्त होने के पश्चात् उनके साथ परम् आत्मीय की तरह बातचीत करने में सक्षम होना -इसी का नाम विज्ञान है। पहले 'नेति नेति ' विचार करना पड़ता है। ईश्वर पंचभूत नहीं हैं; इन्द्रियाँ नहीं हैं , मन, बुद्धि, अहंकार नहीं हैं ; वे सभी तत्वों से अतीत हैं। 
         छत पर चढ़ने के लिये एक एक कर सब सीढ़ियों का त्याग करते हुए जाना होता है। सीढ़ियाँ छत नहीं हैं। किन्तु छत पर पहुँचने के बाद दिखाई देता है कि जिन ईंट , चूना , सुर्खी आदि वस्तुओं से छत बनी है, उन्हीं से सीढ़ियाँ भी बनी हैं ! जो परब्रह्म है, वही जीव-जगत बना है।  जो आत्मा है वही पंचभूत बना है। तुम कहोगे मिट्टी अगर आत्मा से ही बनी है, तो वह इतनी कड़ी कैसे है ? उनकी इच्छा से सब कुछ हो सकता है। क्या रज-वीर्य से हड्डी और मांस का निर्माण नहीं होता है? 
         " विज्ञानलाभ होने के बाद संसार में भी रहा जा सकता है। उस समय स्पष्ट अनुभव होता है कि ईश्वर ही जीव-जगत बने हैं। वे संसार से अलग नहीं हैं। ज्ञानलाभ करने के पश्चात् जब रामचन्द्र ने कहा कि वे संसार में नहीं रहेंगे। तब दशरथ ने उनको समझाने के लिए वसिष्ठ मुनि को उनके पास भेज दिया। वसिष्ठ ने कहा - 'राम ! यदि संसार ईश्वर से रहित हो, तो तुम उसका त्याग कर सकते हो। ' रामचन्द्र चुप्पी साधे रहे, क्योंकि वे भली-भाँति जानते थे की जगत ईश्वर के सिवा और कुछ नहीं है। " (अमृतवाणी :  समाधि के पश्चात् होने वाला विज्ञान : 245)   
        
        " बेल को हाथ में लेकर विचार किया - खोपड़ा , बीज , गूदा इनमें बेल कौन सा है ? पहले खोपड़े को असार कहकर फेंक दिया, फिर उसी प्रकार बीजों को भी दिया। और केवल गूदे को अलग निकाल कर कहा, यही बेल का सार है, और असल बेल है। फिर बाद में विचार आया - कि जिसका गूदा है, उसी का खोपड़ा और बीज भी है ! खोपड़ा -बीज और गूदा ये तीनों मिलकर ही बेल बना है। इसी प्रकार नित्य ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन के बाद विचार आया -जो नित्य हैं, वे ही लीला में जगत बने हैं। (अमृतवाणी : समाधि के पश्चात् होनेवाला विज्ञान :246]      
  " एक बार श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्रनाथ से पूछा , "तेरे जीवन का ध्येय क्या है ? नरेन्द्रनाथ ने कहा , " सदा समाधि में मग्न रहना। " सुनकर श्रीरामकृष्ण बोले  - "क्या तू इतना क्षुद्रबुद्धि है ! समाधि से भी पार चला जा। समाधि तो तेरे लिये कुछ भी नहीं है। उससे भी ऊँची अवस्था है। किसी दूसरे व्यक्ति से (कालीमहाराज ?) से उन्होंने कहा था ~ "भाव और भक्ति ही सब कुछ नहीं है। "
               और एक समय श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्रनाथ से यही प्रश्न पूछा।  उस समय भी नरेन्द्रनाथ ने एक ही उत्तर दिया। सुनकर श्रीरामकृष्ण बोले - " छी, छी ! तेरा इतना उच्च आधार है और तेरे मुँह से यह बात? मैंने तो सोचा था कि तू एक विशाल वटवृक्ष के समान होगा, तेरी छाया में हजारों लोगों को आश्रय मिलेगा , परन्तु वैसा न होकर तू केवल अपनी ही मुक्ति चाहता है ! यह तो बहुत तुच्छ बात है ! मुझे तो सभी भाव अच्छे लगते हैं। मैं एक ही सब्जी को कभी उबालकर , कभी तल कर, कभी उसकी चटनी बनाकर , तो कभी रसेदार तरकारी बनाकर खाना पसन्द करता हूँ। मैं समाधि में निर्गुण भाव से ईश्वर का अनुभव करता हूँ। फिर उनके विभिन्न रूपों के साथ विभिन्न भावसम्बन्ध स्थापित कर आनन्द का उपभोग करता हूँ। तू भी ऐसा ही करना ! तू एक ही आधार में ज्ञानी और भक्त दोनों बन। " (अमृतवाणी :  समाधि के पश्चात् होने वाला विज्ञान :246 -247)  
     " कभी- कभी आकाश में सूर्यास्त होने से पहले ही चन्द्र का उदय हो जाता है। और उस समय सूर्य और चन्द्र का सम्मिलित प्रकाश दिखाई देता है। इसीतरह चैतन्य महाप्रभु जैसे कुछ अवतारों में , एकाधार में ज्ञानसूर्य और भक्तिचन्द्र दोनों का समान रूप से प्रकाश दिखाई देता है। एक ही आधार में ज्ञान तथा भक्ति दोनों का प्रकाशित होना अत्यन्त दुर्लभ घटना है।" (अमृतवाणी : शिक्षक/अवतार /नेता ईश्वर की ही अभिव्यक्ति हैं : 188 )
          "समाधि होने के बाद प्रायः देह नहीं टिका करती। किसी-किसी की देह लोकशिक्षा के लिये रह जाती है-जैसे नारदादि ऋषि और चैतन्यदेव आदि अवतारों का हुआ। कुआँ खोद चुकने के बाद भी कोई कोई व्यक्ति कुदाल-कड़ाही सम्भाल कर रख लेते हैं, सोचते हैं रहने दो कभी किसी के काम आयेगा। ऐसे महापुरुष लोग (पैगम्बर, जीवनमुक्त शिक्षक , नेता) जीवों के दुःख को देखकर कातर होते हैं। वे इतने स्वार्थी नहीं होते कि सोचे , हमें ज्ञानलाभ हुआ कि सब हो गया। (अमृतवाणी : कर्म तथा नैष्कर्म्य : २२०)  
             "कुछ महापुरुष समाधि की सर्वोच्च अवस्था (सप्तमभूमि) में पहुँचकर भगवद-बोध में विलीन जाने के बाद भी लोककल्याण के लिये उस शब्दातीत अवस्था से पुनः उतर आते हैं। समाधि के बाद भी वे इच्छापूर्वक 'विद्या का अहं ' रख लेते हैं। यह अहं आभास मात्र है, यह पानी पर खींची गई रेखा के समान होता है।  ईश्वरप्राप्ति के पश्चात् यदि किसी का 'दास मैं' या 'भक्त मैं ' बना रहता है, तो भी वह व्यक्ति किसी अनिष्ट नहीं कर सकता। पारस पत्थर को छू लेने से तलवार सोना बन जाती है, तलवार का आकर तो रहता है, पर वह किसी हिंसा नहीं कर सकती। " [अमृतवाणी : सिद्धपुरुष का अहंकार -33  ]       
         " पौधों में साधारणतः पहले फूल (मंजर) आते हैं, बाद में फल ; किन्तु कुछ पौधे ऐसे भी होते हैं, जिनमे पहले फल आते हैं, और उसके बाद फूल होते हैं~ जैसे लौकी और कुम्हड़ा का पौधा। इसी तरह साधारण साधकों को तो साधना करने के बाद ईश्वर लाभ होता है। किन्तु जो नित्यसिद्ध (भावी नेता/शिक्षक/ would be Leaders ) होते हैं, उन्हें पहले ही ईश्वर का लाभ हो जाता है, (मनःसंयोग की) साधना पीछे करते हैं। (अमृतवाणी : भिन्न-भिन्न प्रकार के साधक: 66)      
               श्रीरामकृष्ण एक कहानी कहते थे - " चारदीवारी से घिरी हुई एक जगह थी। उसके भीतर क्या है , इसका बाहर के लोगों को कुछ पता नहीं था। एकदिन चार दोस्तों ने मिलकर सलाह किया कि सीढ़ी के सहारे चारदीवारी पर चढ़कर देखा जाय भीतर क्या है ? पहला आदमी निसेनी के सहारे दीवार पर जैसे ही चढ़ा वैसे ही 'हा -हा ' कर हँसते हुए चारदीवारी के भीतर कूद पड़ा। क्या हुआ समझ न पाकर दूसरा आदमी भी दीवार पर चढ़ा और वह भी उसी प्रकार 'हा-हा' हँसते हुए भीतर कूद पड़ा। तीसरे आदमी का भी वही हाल हुआ। अन्त में चौथा आदमी चारदीवार पर चढ़ा। उसने ? देखा कि भीतर दिव्य उपयोग की वस्तुओं से भरा अद्भुत शोभामय एक उपवन है। उसके मन में उस सुन्दर वस्तुओं का ( दिव्यानन्द का) उपभोग करने की तीव्र कामना उठी, पर उसने उसका दमन किया, और दूसरों भी अपने साथ लेकर उसका आनन्द चखाने की इच्छा से वह नीचे वापस उतर आया। तथा जो भी दिखाई पड़ता उसी को उस जगह के बारे में बताने लगा। ब्रह्मवस्तु भी इसी उपवन की तरह है। जो उसे एकबार देख लेता है, वही आनन्दमग्न होकर उसमें विलीन हो जाता है। परन्तु जो विशेष शक्तिमान महापुरुष होते हैं, वे ब्रह्मदर्शन के पश्चात् वापस आकर लोगों को उसकी खबर [सुसमाचार] बताते हैं, और दूसरों को साथ लेकर उस ब्रह्मानन्द में निमग्न होते हैं। "(अमृतवाणी: धर्मपथ के सहायक : नेता /शिक्षक / अवतार ईश्वर की ही अभिव्यक्ति हैं:186 )
                 " जब लकड़ी का बड़ा भारी कुन्दा पानी पर बहता है, तब उसपर चढ़कर कितने ही लोग आगे निकल जाते हैं, उनके भार से वह डूबता नहीं। परन्तु सड़ियल लकड़ी पर एक कौआ भी बैठे तो वह डूब जाती है। इसी प्रकार जिस समय अवतार-महापुरुष आते हैं [अथवा 'Be and Make' लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा में प्रशिक्षित नेता/शिक्षक निर्मित किये जाते हैं, या समाधि से स्वयं नीचे उतर आते हैं।] उस समय उनका आश्रय ग्रहण कर कितने लोग तर जाते हैं, परन्तु सिद्ध पुरुष काफी श्रम करके किसी तरह स्वयं तरता है। अवतारों के साथ जो आते हैं, वे या तो नित्यसिद्ध होते हैं, या वह उनका अन्तिम जन्म होता है। (अमृतवाणी : धर्मपथ के सहायक : नेता /शिक्षक / अवतार ईश्वर की ही अभिव्यक्ति हैं: 177 -188] 
  ' तिनिई सब होयेछेन'  'वे (ब्रह्म) ही सबकुछ बने हैं' :" मेरी ब्रह्ममयी माँ ही सब कुछ बनी हैं, वे आद्या -शक्ति ही जीव-जगत बनी है। वही अनन्त-शक्ति स्वरूपिणी जगत में दैहिक, मानसिक , नैतिक , आध्यात्मिक आदि विविध शक्तियों के रूप में प्रकाशित हैं। मेरी माँ ' काली भवतारिणी' ही वेदान्त का ब्रह्म (आत्मा) है। वह आत्मा या ब्रह्म का मूर्त (व्यक्त) रूप है। (अमृतवाणी : ईश्वर, माया , शक्ति :२२६)
            " भगवान जब निष्क्रिय अवस्था में होते हैं, सृष्टि-स्थिति-प्रलय आदि कार्य नहीं करते, तब उन्हें मैं आत्मा , ब्रह्म या पुरुष कहता हूँ। और जब क्रियाशील रूप में ~ ' सृष्टि-स्थिति-प्रलय' आदि क्रियाओं का कर्ता के रूप में उनका विचार करता हूँ, तब उन्हें शक्ति (माँ जगदम्बा) , माया या प्रकृति कहता हूँ। "
         " ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं। एक को मानने से दूसरे को भी मानना पड़ता है। जैसे अग्नि और उसकी दाहिका-शक्ति। दाहिका-शक्ति के बिना अग्नि की कल्पना असम्भव है, वैसे अग्नि बिना उसकी दहनशक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती। " (अमृतवाणी : ईश्वर,माया ,शक्ति : २२४)
              " जहाँ कहीं कार्य है - (किसान खेत जोत रहा है, बच्चे खेल रहे हैं, सूर्य उगता है, अँधेरा दूर हो जाता है) सृष्टि ,स्थिति , प्रलय है - वहीं शक्ति (कारण)  है ! परन्तु जल स्थिर होने से भी जल है, और तरंगपूर्ण होने पर भी जल ही है। वह सच्चिदानन्द ब्रह्म ही आद्याशक्ति है, जो सृष्टि , स्थिति , प्रलय किया करती है। जैसे कप्तान (कैप्टन विश्वनाथ उपाध्याय  जो कलकत्ता में नेपाल सरकार के वाणिज्यदूत थे) जब कोई काम नहीं करता तब भी वही है, और जब पूजा करता है, या लाटसाहब से मिलने जाता है तब भी वही - वह एक ही है ; भेद केवल उपाधि में है।" (अमृतवाणी : ईश्वर,माया ,शक्ति : २२६)
श्रीरामकृष्ण कहा करते थे - " मैं सभी को स्वीकार करता हूँ। जाग्रत, स्वप्न , सुषुप्ति और चतुर्थ~ तुरीय सभी अवस्थाओं को ग्रहण करता हूँ। फिर ब्रह्म और माया , जीव , जगत सब कुछ ग्रहण करता हूँ। सब ग्रहण करने पर वजन में कुछ कमी रह जाती है। इसलिये मैं नित्य और लीला दोनों को लेता हूँ।" (अमृतवाणी : ईश्वर मन में विराजमान हैं :227 )
       "समाधि अवस्था में उपलब्ध ब्रह्म मानो दूध है, सगुण-निर्गुण ईश्वर मानो माखन हैं, और चौबीस तत्वों से बना जगत मानो छाछ। जब तक तुम माया के राज्य में हो (देह/जगत में हो) तब तक तुम्हें 'माखन और छाछ ' ~ "ईश्वर और जगत " ~ दोनों को स्वीकार करना होगा।" (अमृतवाणी : ब्रह्म ही द्वैतप्रपंच की सत्ता है : २२३)
            'यदि ईश्वर स्वयं ही सब कुछ बने हैं, तो फिर जगत में इतनी विविधता , 'अहं ' का इतना तारतम्य क्यों है ? ' ~ इस प्रश्न को हल करते हुए श्रीरामकृष्ण ने कहा था, " यह उनका खेल है -उनकी लीला है। एक राजा के चार बेटे हैं।  हैं तो सभी एक ही राजा के बेटे , पर खेल में कोई मंत्री बना है, तो कोई कोतवाल, कोई और कुछ बना है। राजा का बेटा होकर 'कोतवाल-कोतवाल ' खेल रहा है। " (अमृतवाणी : ईश्वर मन में विराजमान हैं :२२८) 
        " ऐसा मत ठीक नहीं कि राम-सीता , कृष्ण -राधा आदि ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं, -केवल रूपक हैं ; या शास्त्र आदि में उनका जो वर्णन है, वह केवल आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ही सत्य हैं - उनका भौतिक अस्तित्व नहीं था। तुम्हारी -हमारी तरह वे भी रक्त-मांस के बने मनुष्य ही थे , परन्तु वे दिव्य-स्वरुप थे। इसीलिये उनके जीवन की रूपात्मक व्याख्या भी सम्भव है। अवतार और ब्रह्म का सम्बन्ध मानो तरंग और समुद्र की तरह है। सभी अवतार मूलतः एक ही हैं। वही एक ईश्वर मानो जल में डुबकी लगाकर एक स्थान पर कृष्ण के रूप में उदित हुआ और दूसरे स्थान पर ईसा के रूप में। " (अमृतवाणी : अवतार क्या है ? : १८२ )
               "ईश्वर अनन्त हैं , परन्तु उनकी इच्छा हो तो वे मनुष्य के रूप में अवतीर्ण हो सकते हैं। अवतार के माध्यम से ही हम ईश्वर की प्रेम-भक्ति का आस्वादन कर सकते हैं।....ईश्वर नित्य हैं; फिर वे लीला भी करते हैं। ईश्वरलीला, देवलीला, जगत-लीला, नरलीला।  नरलीला में वे अवतार बनकर आते हैं। अवतार को 'अचिन्हा गाछ' भी कहा जाता है, उन्हें सब लोग नहीं पहचान सकते। रामचन्द्र को भरद्वाज आदि प्रवृत्तिमार्ग के केवल 7-ऋषियों ने ही अवतार के रूप में पहचाना था। ईश्वर मनुष्य को ज्ञान-भक्ति सिखाने के लिये नररूप धारण कर अवतीर्ण होते हैं। " (अमृतवाणी: अवतार नेता /शिक्षक / ईश्वर की ही अभिव्यक्ति हैं: १८५)
         "जिस प्रकार संगीत में आरोह- अवरोह होते हैं- 'सा रे ग म प ध नि सा ' कहते हुए स्वर को ऊपर तक चढ़ाकर, फिर ' सा नि ध प म ग रे सा ' कहते हुए नीचे उतरा जाता है। उसी प्रकार समाधि में अद्वैतबोध का अनुभव करने के पश्चात् पुनः नीचे उतरकर 'अहं' बोध का अवलम्बन कर रहा जाता है। जैसे केले के स्तम्भ की परतों को छीलते छीलते माँझे तक पहुँचकर उसी को सार समझा। फिर विचार आया कि छिलकों का ही माँझा है , माँझे के ही छिलके हैं ~ दोनों मिलकर ही स्तम्भ बना है। " (अमृतवाणी : समाधि के पश्चात् होनेवाला विज्ञान: 246) 
         " समाधि में ब्रह्म का साक्षात्कार करने के बाद भी साधक 'अहं' के सहारे द्वैतभूमि में उतर आता है। वह उतना 'अहं' ही रख छोड़ता है, जिसके द्वारा वह सगुण ईश्वर की लीला का आस्वादन कर सके -  सा,रे,ग,म,प, ध, नि--नि पर अधिक देर ठहरना कठिन है, इसलिये साकार ईश्वर में भक्ति आवश्यक है। [अमृतवाणी : ईश्वर मन में विराजमान है :226 : माँ काली के किसी भी अवतार में भक्ति रखना आवश्यक है,  मानो ईश्वर मन में ही विराजमान है ! अर्थात अब उसका व्यष्टि अहं भी माँ जगदम्बा के मातृ-हृदय का सर्वव्यापी विराट 'अहं' हो बन चुका है।]     
      " समाधि से साधारण भावभूमि में उतर आने पर साधक के भीतर 'अहं' की एक पतली रेखा मात्र रह जाती है - उसके द्वारा वह दिव्य-दर्शनादि का आस्वादन कर सकता है। इसके द्वारा वह देखता है, कि एकमात्र ब्रह्म ही जीव -जगत के रूप में अभिव्यक्त हुआ है। जड़ या निर्विकल्प समाधि में निराकार -निर्गुण ब्रह्म का और चेतन या सविकल्प समाधि में साकार-सगुण ब्रह्म का साक्षात्कार करने के बाद 'विज्ञानी ' (भक्त) को ईश्वर की इस महिमा का अनुभव होता है। जब तक तुममें स्वयं के व्यक्तित्व का बोध है, तब तक तुम ईश्वर को भी 'व्यक्ति ' (नवनीदा -माँ,गुरु) के सिवा अन्य किसी रूप में विचार-चिंतन नहीं कर सकते। निर्गुण निराकार ब्रह्म ही तुम्हारे निकट (अब) सगुण -साकार ईश्वर के ही रूप में प्रकट होता है। ये विभिन्न ईश्वरीय रूप सत्य हैं, वे तुम्हारी देह, मन या बाह्यजगत से कहीं अनन्तगुना अधिक सत्य हैं। " (अमृतवाणी : ब्रह्म -ईश्वर- नवनीदा मन में विराजमान हैं : २२७) 
             ' नित्य और लीला ' दोनों सत्य है (शिव ही जीव बने हैं)' ~ जेने सर्व-जीवेर कल्याणई शेष कथा: 'ज्ञान के बाद विज्ञान ' को जानने का मतलब है ' नित्य और लीला ' दोनों सत्य है ~ को स्वीकार करना। " ~ " ब्रह्म ही द्वैत-प्रपंच की सत्ता हैं ! जब तक 'अहं' है , तब तक साकार ईश्वर भी सत्य हैं ; जीव-जगत के रूप में उनकी लीला भी सत्य है !"  [चाहे भक्त का 'मैं' या विद्या का 'मैं' ही क्यों न हो?, तब तक साकार ईश्वर भी सत्य हैं ; जीव-जगत के रूप में उनकी लीला भी सत्य है !]
            " जब तुम बाहर के लोगों से मिलो तब सबसे प्रेम करो, हिल-मिलकर एक हो जाओ - द्वेषभाव तनिक भी न रखो। 'वह साकारवादी है, निराकार नहीं मानता, 'अमुक निराकारवादी है, साकार नहीं मानता', 'वह हिन्दू है, वह मुसलमान है , वह ईसाई है, कि जैन है' इस प्रकार किसी के भी प्रति नाक-भौं सिकोड़ते हुए घृणा मत प्रकट करो।  भगवान ने जिसको जैसा समझाया है, उसने उन्हें वैसा ही समझ रखा है। .... यह जानकर कि सभी जन भिन्न-भिन्न स्वभाव के होते ही हैं; सबके साथ जितना सम्भव हो सके मिला-जुला करना। सामने वाले की पूरी बात सुनने के बाद अपनी प्रतिक्रिया इस तरह व्यक्त करो कि वह सदा के लिये तुम्हारा हो जाये।  इस प्रकार बाहर के सभी लोगों से प्रेमपूर्वक मिलने के बाद जब तुम अपने घर (हृदय) में लौटोगे -तब मन में शान्ति और आनन्द का अनुभव करोगे। " (अमृतवाणी : विभिन्न धर्मों के प्रति उचित मनोभाव : 126)
          " संसारी जीव सब कुछ त्यागकर भगवान (अवतार) को क्यों नहीं भज सकता है ? " क्या कोई नट रंगमंच पर उतरते ही अपना मुखौटा हटा देता ? संसारियों को पहले नाटक में अपना काम पूरा कर लेने दो, उसके बाद ठीक समय आने पर वे अपना बनावटी साज उतार देंगे। " (अमृतवाणी : सांसरि-जीव और साधना : 60, प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आने की अधिकारी)
            शब्द ब्रह्म : हमारे द्वारा बोला गया मात्र एक ही शब्द किसी को जीवन दे सकता है और उसके प्राणों का हरण भी कर सकता है। जीवन की दिशा को परिवर्तित कर सकता है तो किसी को गलत मार्ग पर भी ले जा सकता है। क्योंकि शब्द ब्रह्म स्वरूप हैं। शब्द ऐसा मरहम है जो बड़े से बड़े घाव को चुटकियों में ठीक कर सकता है, तो शब्द ऐसी कटार भी है जिसका काटा पानी भी नही माँगता। इसीलिए ध्यान रखें कि किसके सामने क्या बोल रहे हैं और क्या नहीं।  दादा कहते थे -' जो भी कोई तुमसे मिले ; उसे ऐसा प्रतीत हो मानो इस व्यक्ति से मिलकर उसका जीवन धन्य हो गया है!'
केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला
    न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजाः ।

वाण्येका समलंकरोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते
                      क्षीयते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ॥[नीतिशतक-19] 
 अर्थ:---- बाजुबन्द पुरुष को को शोभायमान नहीं करते हैं और ना ही चन्द्रमा के समान उज्जवल हार ,न स्नान,न चन्दन का लेप,न फूल और ना ही सजे हुए केश ही शोभा बढ़ाते हैं। केवल सुसंस्कृत प्रकार से धारण की हुई वाणी ही उसकी भली भांति शोभा बढ़ाती है।  साधारण आभूषण नष्ट हो जाते है परन्तु वाणी रूपी आभूषण निरन्तर जारी रहने वाला आभूषण हैं।     
          "जैसे वकील को देखने से मामले -मुकदमे और कचहरी की बातें ही मन में आती है, वैसे ही साधु या भक्त (नवनीदा)  को देखने से ईश्वर और धर्म -सम्बन्धी बातों का ही स्मरण होता है। साधुसंग (नवनीदा का संग) धर्मसाधना का एक प्रधान अंग है।  जिस प्रकार लुहार बीच-बीच में धौकनी चलाकर भट्ठी की आग को बनाये रखता है, उसी प्रकार साधुसंग द्वारा मन को सचेत बनाये रखना चाहिये।" (अमृतवाणी : साधकजीवन के लिये कुछ सहायक बातें:सत्संग के लाभ -92)[ जैसे नवनीदा को देखने मात्र से मन सतेज (संरक्षित या भ्रममुक्त d-hypnotized,-immune,  protected) बन जाता है; और  " विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा "  में प्रशिक्षित शिक्षक/नेता बनने और बनाने 'Be and Make' का आदर्श " ~  प्रकट हो जाता है !  
    " मनुष्य स्वयं को पहचानने से भगवान को पहचान सकता है। 'मैं ' कौन है ? हाथ, पैर , रक्त ,मांस -इनमें से 'मैं ' कौन है ? इस तरह भलीभाँति विचार करने पर दिखाई देता है कि 'मैं ' नाम की कोई वस्तु है ही नहीं। जिस प्रकार प्याज का छिलका अलग करते जाओ, तो छिलका ही छिलका निकलता जाता है। सार भाग कुछ मिलता ही नहीं। उसी प्रकार विचार करने पर 'मैं 'पन के नाम से कुछ नहीं मिलता। अन्त में जो बचता है वही है आत्मा या चैतन्य। 'मैं ' 'मेरा ' के दूर हो जाने पर भगवान दर्शन देते हैं। " (अमृतवाणी : ज्ञानयोग की प्रणाली: १९०)          
            
सुन्दर उद्यान गृह में ब्रह्मज्ञान .....  श्री रामकृष्ण एक कहानी कहते थे --एक साधु अपने शिष्य को आत्मज्ञान प्राप्त कराना चाहता था। वह उसे एक सुन्दर उद्यान गृह में रखकर चला गया। कुछ दिनों बाद लौटकर उसने शिष्य से पूछा - " बेटा , तुझे किसी बात का अभाव है?  शिष्य के ' हाँ ' कहने पर साधु ने श्यामा  नाम की एक सुन्दर स्त्री को वहाँ रखा और शिष्य को उसके साथ यथेच्छ आहार-विहार करने की अनुमति दी। फिर बहुत दिनों बाद आकर साधु ने शिष्य से वही बात पूछी। इस बार शिष्य ने उत्तर दिया , 'नहीं महाराज, मुझे अब किसी बात की चाह नहीं है। ' तब साधु ने शिष्य और श्यामा  दोनों को पास बुलाया और श्यामा के हाथों की ओर निर्देश करते हुए, शिष्य से पूछा , 'ये क्या है ?' शिष्य बोला -'ये श्यामा के हाथ हैं। ' इसी प्रकार क्रमशः श्यामा की ऑंखें, नाक , कान आदि सभी सुन्दर अंगों का निर्देश करते हुए साधु पूछता गया , 'ये क्या हैं ?' शिष्य भी उपयुक्त उत्तर देता गया। ऐसा करते हुए शिष्य के ध्यान में अचानक यह बात आयी कि , ' मैं तो बार-बार यह कह रहा हूँ कि यह श्यामा का 'अमुक' है, और यह श्यामा का 'तमुक ' है, पर वास्तव में श्यामा क्या है ? ' असमंजस में पड़कर उसने गुरु से पूछा, "परन्तु महाराज , ये ऑंखें , नाक , कान आदि जिसके अंग हैं, वह श्यामा वास्तव में क्या है ? " साधु ने कहा , " यदि तुम जानना चाहते हो कि श्यामा  (Bh) वास्तव में कौन है , तो मेरे साथ आओ, मैं तुम्हें यह ज्ञान करा दूँगा।" इसके बाद साधु ने उसके निकट आत्मज्ञान का रहस्य (तत्वमसि का रहस्य) प्रकट किया।" (अमृतवाणी : बोधकथायें : ब्रह्मज्ञान -333) 
        ....  क्या आप जानते हैं कि वास्तव में आप कौन हैं ? क्या वास्तव में आप शशिभूषण श्रीवास्तवा ही हैं ? .... या आपका नाम 'शशिभूषण श्रीवास्तवा' हैं ?  नाम तो कोर्ट में जाकर बदला भी जा सकता है। क्या नाम बदलने से आप बदल जाते हैं? क्या नाम बदलने से आप अपना अस्तित्व खो देते हैं? बिलकुल नहीं! अभी आपका 'मैं' ज्ञान स्वरूप है, उसके बाद विज्ञान स्वरूप 'मैं' प्रकट होगा ?


           जब तुम अट्टालिका के छत पर चढ़ते हो, तब पहले प्रथम तल्ले को पार करते हो, फिर दूसरे तल्ले को पार करने के बाद जब छत पर चढ़ते हो, तो देखते हो कि ईंट -बालू-सीमेंट-छर्री से छत बना हुआ है, उसीसे सीढियाँ और सम्पूर्ण अट्टालिका भी बनी हुई हैं। नेति नेति करते हुए जब 'तुम' (अहं नहीं आत्मा) नाम-रूप से परे 'transcendent' शब्दातीत ब्रह्म या परमसत्य की अनुभूति करते हो, तब 'यह है!' ['इति' 'इति' ~ नेति से इति ] कह उठते हो। और वहीं तुम्हारी खोज समाप्त हो जाती है।
            श्री रामकृष्णदेव की समस्त शिक्षाओं में  जो एक ही सूत्र 'गोल्डन थ्रेड' के रूप में प्रविष्ट दिखाई देती है, वह है -" नित्य और लीला" दोनों सत्य हैं, दोनों को स्वीकार करो !  मानो आज उन्हें समझ में आया कि- ठाकुर ने क्यों उन्हें  केवल 'निर्विकल्प समाधि ' के आनन्द  में ही डूबे रहने से मना किया था ! (The Eternal and Emanate (उससे जो प्रकट होता है) - The divine Play) किसी समय रामकृष्ण ने भिखारियों को (जीव को) नारायण (शिव) मानकर उनकी जूठन को ग्रहण कर लिया था। इसपर  'हलधारी' ने रामकृष्ण से कहा था -'मैं देखूंगा कि तेरी सन्तानो का विवाह कैसे होगा?'  "क्या मैं भी तेरी तरह जगत को मिथ्या कहूँ , और मेरे बालबच्चे भी होते रहें ?" कोठी के अंदर बैठकर जब श्री रामकृष्ण रो रहे थे तब उन्हें माँ जगदम्बा की अशरीरी वाणी ने तीन बार 'भावमुख अवस्था' में रहने का निर्देश दिया था।  किसी शिक्षक/ नेता  को अपने शेष उम्र तक किस अवस्था में अवस्थित रहते हुए लोकशिक्षण का कार्य करना पड़ता है, उस भाव को समझने के लिए, इस ' भावमुख अवस्था' में रहना ही एकमात्र उपाय है। उन्हें रूप-अरूप के संधिस्थल (चौखट) पर खड़े होकर एक ओर तो 'शब्दातीत'  ब्रह्म 'transcended' को ही अरूपा माँ जगतजननी के रूप में देखना पड़ता है, दूसरी ओर इस 'शब्दमय' जगत को उससे ही निर्गत या उत्पन्न (emanate) सन्तान  के रूप में भी समझना पड़ता है। जगतगुरु श्रीरामकृष्णदेव सभी शिक्षकों को ' ज्ञान के बाद विज्ञान' में जाने की शिक्षा देते थे, यहाँ तक कि (एक अद्भुत घटना-गंगानदी के इस पार से उस पार तक निकल जाने पर भी डूबने लायक पानी नहीं मिलने की घटना~  के माध्यम से) अपने शिक्षक/गुरु तोतापुरीजी को भी उन्होंने यही शिक्षा दी थी, कि केवल निर्गुण निराकार ब्रह्म ही सत्य नहीं हैं, यह जगत जिस माया का खेल है, वह माँ काली भी सत्य है। " Don't take one (शुभ) and dismiss the other (अशुभ) " इसमें से किसी एक ग्रहण करके दूसरे को अस्वीकार मत करो!
             अतः प्रत्येक भावी नेता को फिर वहाँ लौट आना पड़ता है; किन्तु 'तोतापुरी जी'  उसी अवस्था में रुक गए थे।  वहाँ पहुँचने के बाद भी हमलोग (भावी शिक्षक) जब इस जगत को पुनः देखेंगे, तो पाएंगे कि वही एक अनेक बनकर लीला कर रहा है। यह सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड उसी ब्रह्म -की अभिव्यक्ति या प्रकट रूप है।
        " यद्यपि अद्वैतज्ञान ही सर्वोच्च ज्ञान है, तथापि साधक को शुरू में उपास्य-उपासक भाव से साधना करनी चाहिये। श्री रामकृष्ण मेरे उपास्य हैं, और मैं उनका उपासक हूँ ' यह भाव लेकर ही साधना करनी चाहिये। इससे सरलता से ज्ञान लाभ हो जाता है। 'पंचभूतों के फन्दे में पड़कर ब्रह्म को भी रोना पड़ता है।' ....तुम मन को कितना भी क्यों न समझाओ कि तुम्हारे जन्म नहीं, मृत्यु नहीं, पाप नहीं, पुण्य नहीं , शोक नहीं,दुःख नहीं ; तुम जन्मजरारहित , निर्विकार , सच्चिदानन्द-स्वरूप आत्मा हो, परन्तु ज्यों ही रोग होकर देह अस्वस्थ हो जाती है, या मन संसार में कामनी -कांचन के आपात सुख के भुलावे में पड़कर कोई कुकर्म कर बैठता है, त्योंही , मोह, यातना , दुःख आ खड़े होते हैं, और वे तुम्हारे सारे 'विवेक-प्रयोग शक्ति' को भुलाकर तुम्हें बेचैन कर देते हैं। इसलिए, यह जान लो कि ईश्वर की कृपा हुए बिना ( माँ काली के अवतार भगवान श्रीरामकृष्ण की कृपा हुए बिना), माया के द्वार छोड़े बिना  (अहंबोध लुप्त हुए बिना) किसीको आत्मज्ञान नहीं होता, दुःख -कष्टों का अन्त नहीं होता।
           ज्ञान के बाद भक्ति सुना नहीं, दुर्गा-सप्तशती (1/57) में कहा है -

"तया विसृज्यते विश्वं , जगदेतच्चराचरम्।
सैषा प्रसन्ना वरदा , नृणां भवति मुक्तये।।५६

अर्थ -उन महामाया के द्वारा यह सचेत (चेतन)  और अचेतन (जड़) जगत सिरजा ( रचा ) जाता है । ऐसी ( उक्त लक्षणों वाली महा - माया ) वे प्रसन्न होकर मनुष्यों को मुक्ति के लिए वरदायिनी होती है ।  सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये।"[सैषा  = वे ही/प्रसन्ना = प्रसन्न होने पर, वरदा = वरदान, नृणां = मनुष्यों की, भवति = होती हैं,  मुक्तये = मुक्ति] उनके द्वारा ही ब्रम्हांड और ये  चर अचर जगत रचा गया ।और प्रसन्न होने पर वे ही मनुष्यों की मुक्ति का वरदान होती हैं। जब तक जगतजननी महामाया पथ के विघ्नों को हटा न दे तब तक कुछ नहीं हो पाता। ज्योंही महामाया की कृपा होती है, त्यों ही जीव (आत्मा) को ईश्वरदर्शन होते हैं, और वह समस्त दुःखों से छुटकारा पा जाता है। नहीं तो लाख विचार करो , कुछ भी नहीं होता। 
     भगवान भक्त की रक्षा करते हैं। और यदि भक्त चाहे तो भगवान उसे ब्रह्मज्ञान भी देते हैं। साधारणतः भक्त ईश्वर का सगुण -साकार रूप ही देखना चाहता है। परन्तु इच्छामय ईश्वर यदि चाहे तो भक्त को सब ऐश्वर्यों का अधिकारी बना देते हैं, भक्ति भी देते हैं और ज्ञान भी। उसे भावसमाधि में रूपदर्शन भी होते हैं, और निर्विकल्प समाधि में निर्गुण स्वरुप के दर्शन भी। नारदादि आचार्यगण (शिक्षक/नेता) ज्ञानलाभ करने के बाद भक्ति (विज्ञान ) लेकर रहते हैं। " (अमृतवाणी : भक्ति ज्ञान की ओर ले जाती है : २०८-२१३)            
       जब स्वामी विवेकानन्द ने भी  बाद में माँ जगदम्बा के काली रूप को स्वीकार कर लिया तब रामकृष्ण कितने खुश हो गए थे ? उनके खुश होने का कारण यही था कि श्रीरामकृष्णदेव  समस्त शिक्षाओं के भीतर एक ही गोल्डन थ्रेड गुजरता है, और वह है - 'शिवज्ञान से जीव सेवा।' Worship God (शिव) in the form of all living beings ' अर्थात समस्त जीवित प्राणि भी उसी ब्रह्म से निर्गत हुए हैं, अतः 'जीव' के रूप में भी उसी ईश्वर (शिव)  की पूजा करो !
        [ इसी अद्वैत दर्शन के आधार पर उन्होंने  लोगों को बताया कि –  कि  उपनिषद् का आदेश है ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’ शिव बनकर शिव की आराधना करो। प्रश्न है-हम शिव कैसे बनें एवं शिवत्व को कैसे प्राप्त करें? प्रारंभिक अवस्था में मूर्ति पूजा (idol worship या सगुणोपासना) क्यों आवश्यक है ?~
"मकान बाँधते समय चारों ओर मचान बनाना अनिवार्य होता है, परन्तु ढलाई होते ही मचान की जरूरत नहीं रह जाती। इस तरह साधक के लिये प्रथम अवस्था में मूर्तिपूजा की आवश्यकता होती है, बाद में नहीं रह जाती। " (अमृतवाणी : साधकजीवन के लिये कुछ सहायक बातें : मूर्तिपूजा : 88)
          " जीव के मरे बिना शिव नहीं आता। अर्थात जीवत्व के नष्ट हुए बिना शिवत्व प्राप्त नहीं होता। फिर, शिव के शव बने बिना माँ आनन्दमयी उसके वक्षस्थल पर नृत्य नहीं करती। अर्थात इस शिवत्व-अभिमान का भी अतिक्रमण करने के बाद ही सर्वोच्च आनन्द की अवस्था प्राप्त होती है। अहंकार के दूर हो जाने पर (विराट अहं में रूपांतरित हो जाने पर ) जीवत्व का नाश हो जाता है। इस अवस्था में समाधि में ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। जीव (अहं) नहीं ब्रह्म (आत्मा) ही ब्रह्म का साक्षात्कार करता है। " (अमृतवाणी: समाधि-अवस्था का मनोभाव :244 )
            हमारे मन और इन्द्रियों को स्वाभाविक रूप से बहिर्मुखी ही  बनाया गया है, अतः मन का स्वभाव ही चंचल है। इसलिए वह बाह्य जगत की विषयों की ओर दौड़ता रहता है। और जन्मजन्मांतर के विषय-भोग के अभ्यास से अभी किसी  मदिरोन्नमत्त  बन्दर के सामान अतिरिक्त चंचल हो गया  है।  इसीलिए निराकार की उपासना के लिए बैठने पर भी चंचल मन   वह और अधिक चंचल होकर भटकता रहता है। उसे बाँधने के लिए गुरुमुख से प्राप्त ('ॐ कार'  संयुक्त इष्टदेव के 'नाम' के) वशीकरण-मंत्र द्वारा मन को वश में करने की जरूरत होती है। अतः भगवान की मूर्ति या छवि  वशीकरण-मंत्र का स्थान लेकर मन की गति को अंतर्मुखी रखने का  सुलभ साधन ही तो है! जीवन का मूल उद्देश्य है-शिवत्व (ब्रह्मत्व) की प्राप्ति। मनःसंयोग (प्रत्याहार और धारणा) का अभ्यास करने के लिये अपने ईष्टदेव  की  एक छवि या  साकार मूर्ति को हृदय में स्थापित करके मन की आँखों से उनका दर्शन करने की सुविधा अपने भक्तों को प्रदान करने के लिए भगवान बार बार अवतरित होते  हैं।  ”जिस तरह गाय के सारे शरीर में उत्पन्न होने वाला दुग्ध केवल उसके स्तनों के द्वारा ही बाहर निकलता है! इसी तरह परमात्मा की सर्वव्यापक शक्ति का अधिष्ठान मूर्ति/छवि  में होता है इस तरह से साधक यह विचार करता है कि वह उस पत्थर निर्मित मूर्ति की उपासना नहीं कर रहा है वरन् वह उस अनन्त शक्ति की पूजा कर रहा है जो उस मूर्ति में विद्यमान है! बाह्य दृष्टि से दिखाई देता है कि वह प्रतिमा की पूजा कर रहा है परन्तु वास्तव में तो वह उस सर्वव्यापी शक्ति की उपासना कर रहा होता है! 'यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥ शिव संकल्प मंत्र - ३॥  क्योंकि गुरु से प्राप्त कोई भी 'मंत्र' शब्दात्मक ही होता है। किन्तु उसमें अचिन्त्य  शक्ति होती है। ]'देवो भूत्वा यजेत् देवं।' अर्थात अपने इष्टदेव की अर्चना करने के लिए पहले अपने आपको उनके अनुरूप बनाओ, फिर दूसरों को उनके अनुरूप बनने में सहायता करो। स्वामी विवेकानन्द ने लिखा है, " मनुष्य की महानता (ब्रह्मत्व या दिव्यता) उसकी उन सत्प्रवत्तियों को चरितार्थ करने में है, जिनसे दूसरों को प्रकाश मिले। आत्मा की इस अनन्त शक्ति का प्रयोग जड़ वस्तु पर होने से भौतिक उन्नति होती है, विचार पर होने से बुद्धि का विकास होता है, और अपने ही पर होने से मनुष्य ईश्वर बन जाता है। पहले हमें ईश्वर बन लेने दो, तत्पश्चात दूसरों को ईश्वर बनाने में सहायता देंगे। 'Be and Make ' -बनो और बनाओ , यही हमारा मूल-मंत्र रहे। ९ /३७९ / स्वयं 'मनुष्य' बनो और दूसरों को मनुष्य (ब्रह्मविद महापुरुष) बनने में सहायता करो !' यही प्रज्ञान बाद में शिकागो एड्रेस का आधार बना। [This infinite power of the spirit, brought to bear upon matter evolves material development, made to act upon thought evolves intellectuality, and made to act upon itself makes of man a God. First, let us be Gods, and then help others to be Gods. "Be and make" ~ Let this be our motto.-4/331]
  ... भागवत, में भी कहा गया  हे, "  उद्धव ! सब में मुझको ही देखने से बढ़ कर और कोई साधन नहीं है‒यह मैं महादेव  की सौगन्ध खाकर कहता हूँ । .... इस रहस्य को समझने के बाद... सभी प्राणियों का कल्याण (welfare of all being) ही मेरे जीवन का अन्तिम लक्ष्य है ! विवेकानन्द के विषय में श्री रामकृष्ण कहते थे - " वह साक्षात् नारायण है - जीव के उद्धार के लिये उसने देह धारण की है। " वि०चरित -७४/ 'नरेन् शिक्षा देगा '- नरेन्द्र के विषय में श्रीरामकृष्ण की जो इच्छा-बीज रूप में थी वह इस अपरोक्षानुभूति के बाद विवेकानन्द के दृढ़ निश्चय में {"Be and Make" में} अंकुरित हो गया। 
              लेकिन अल्मोड़ा वापस लौटते ही, उन्हें इस 'ब्रह्ममय -जगत' का एक जोरदार झटका लगा। अपनी बहन के फाँसी लगाकर रूपान्तरण प्राप्त करने का हृदयविदारक समाचार प्राप्त हुआ। (The tragic death / Transfiguration-देहान्तर by suicide of Vivekananda's younger sister Yogendrabala )  चारो युवा साधु - स्वामी विवेकानन्द , स्वामी अखण्डानन्द , स्वामी सारदानन्द और कृपानन्द (वैकुण्ठ नाथ सान्याल) एक साथ बद्रीनाथ की यात्रा पर निकल पड़े। किन्तु लगभग दो सौ किलोमीटर पैदल चलने के बाद , एक -एक करके सभी बीमार पड़ने लगे। तब उन्हें चढ़ाई छोड़कर नीचे उतरने के लिये बाध्य होना पड़ा, और इस प्रकार साधु-सन्तों के लिये मनभावन स्थान ऋषिकेश पहुँचे, जहाँ हिमालय के ऊपर से 'हर हर ' करके बहती हुई गंगा नदी भारत के मैदानी इलाकों को स्पर्श करती है। 

           कुछ दिनों के बाद , चारो गुरुभाई मेरठ पहुँचे। किन्तु वह परिव्राजक भारत-पथिक जिसने भारतमाता की सेवा करने के उद्देश्य से ही जन्म ग्रहण किया था,  मेरठ से पुनः निःसंग होकर भारत को जानने के लिये अकेला ही निकल पड़ा। फिर उसके जीवन में कितनी ही घटनायें घटित होती चली गयीं ! सात समुद्र को पार कर अमेरिका पहुँच गए , और वहाँ के आंधी भरी बौद्धिक आकाश में किसी वज्र के समान फूट पड़े। और आत्मगौरव रहित, मलिनमुख भारत माता का चेहरा पुनः अपनी ज्ञान-गरिमा की प्रभा से दमक उठा। 

            चार वर्षों का अविराम विदेश -भ्रमण समाप्त हुआ। विवेकानन्द जहाज में बैठे हिसाब करने लगे, ' क्या दिया और क्या ले चला ?'  उन्होंने तय किया -  " मैं एक ऐसे धर्म (शिक्षा) का प्रचार करना चाहता हूँ, जिससे 'मनुष्य' (ब्रह्मविद मनुष्य) तैयार होता है। " स्वदेशप्रेमी संन्यासी ने इसलिये स्थिर किया - "अब भारत ही केन्द्र है। " एक ओर ब्राह्मण व् दूसरी ओर चाण्डाल - चाण्डाल को धीरे धीरे ब्राह्मणत्व में उन्नत करना ही कार्यप्रणाली होगी। .... मन्दिर व प्रतिमा की सीमा से भगवान को बाहर लाकर ' यत्र जीव तत्र शिव ' के मन्त्र से 'विराट ' की पूजा के लिए अग्रसर होना होगा प्राचीन काल के संन्यासियों की तरह पर्वत की गुफाओं में अथवा मठों में बैठकर केवल आत्मसाक्षात्कार की चेष्टा में लगे रहने से न बनेगा। संसार के कर्मक्षेत्र में खड़े होकर मानवजाति को उच्च कार्यों (मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के प्रचार -प्रसार) में जुट जाने की प्रेरणा देनी होगी। करोड़ों भारतियों की अज्ञता (Ignorance,अविद्या) व हृदय का अन्धकार दूर करना होगा। " वि ० चरित 210 /

  विश्वपूजित (जगतगुरु) विवेकानन्द 15 जनवरी 1897 को भारत लौट आये। और फिर सिंहल से प्रारम्भ हुआ देश भर में 'भारतीय व्याख्यान' (Lectures from Colombo to Almora) पुस्तक में छपे व्याख्यान माला का दौर।  जिसे अनगिनत देशवासियों के द्वारा दिए गए अनगिनत अभिनन्दन पत्र के उत्तर में उन्होंने दिया था। और जो  दुःखी , पददलित , मोहनिद्रा में सोये हुए भारतवासियों को जगाने के लिए उनके प्रेम भरे हृदय से संगीतमय भाषण के रूप में स्वतः फूट पड़े थे !

             कई वर्षों तक अथक परिश्रम करने के कारण उनका स्वास्थ्य बिल्कुल टूट सा गया था, अपने भग्न स्वास्थ्य में सुधार लाने के उद्देश्य से कुछ दिन दार्जलिंग में व्यतीत करने के बाद, चिकित्सकों के परामर्श पर इच्छा न रहते हुए भी वायु -परिवर्तन के लिए स्वामीजी ने अलमोड़ा जाना स्वीकार किया। 
...... इसी बीच 1897 ई. की 1 मई को कोलकाता में ' रामकृष्ण मिशन ' की स्थापना हुई। अन्त में 6 मई को कुछ शिष्य व गुरुभाइयों के साथ वे कोलकाता से अलमोड़ा की ओर रवाना हो गये। किन्तु यात्रा का वास्तविक उद्देश्य हिमालय क्षेत्र में एक ऐसे आश्रम को स्थापित करना था, जहाँ ' कर्मकाण्डी अनुष्ठानों का प्राधान्य नहीं होगा, बल्कि अद्वैत में शांत समाहित भाव एवं ध्यान की गहराई का ही प्राधान्य होगा।'    
        इस बार की अलमोड़ा यात्रा में सब कुछ अलग प्रकार का था। उनकी अगवानी के लिये  अलमोड़ा से चलकर स्वामीजी के भाषणों के अंग्रेज आशुलिपिक (श्रुतिलेखक -amanuensis) मि.गुडविन अन्य शिष्यों ( कैप्टन सेवियर आदि ?) के साथ काठगोदाम स्टेशन पर स्वयं उपस्थित थे। इस बार स्वामीजी घोड़े पर सवार होकर पहाड़ चढ़ेंगे, और गुडविन उनके साथ साथ रहेंगे। स्वामीजी की समुचित अभ्यर्थना के लिये अल्मोड़ा के नागरिक पहले से ही तैयार थे। स्वामीजी के आने का समाचार पाते ही उन्होंने अलमोड़ा के निकट लोदिया नामक स्थान तक बढ़कर स्वामीजी की अगवानी की।
     विराट जुलुस से घिरकर सुसज्जित घोड़े पर चढ़ स्वामीजी नगर में प्रविष्ट हुए। नगर की स्त्रियाँ खिड़कियों से पुष्प व अक्षतों की वर्षा करने लगीं। खजांची मोहल्ले में लाला बद्री शाह के घर के सामने एक विराट सभामण्डप बनाया गया था। लगभग 5000 उत्सुक दर्शकों के आनन्द को बढ़ाते हुए स्वामीजी ने सभामण्डप में प्रवेश किया। तब तक शाम ढल चुकी थी, मण्डप के आसपास के घरों में जो दीपमाला सजायी गयी थी उससे सम्पूर्ण सभामण्डप आलोकित हो रहा था।  उस अवसर पर स्वागत समिति की ओर से सर्वप्रथम पण्डित ज्वालादत्त जोशी ने हिन्दी  में एक संक्षिप्त अभिननदन -पत्र पढ़ा। वहाँ की जनता ने स्वामी जी को जो मानपत्र भेंट किया था, उसमें पाश्चात्य देशों में स्वामी विवेकानन्द के 'आध्यात्मिक विजय ' का उल्लेख करते हुए कहा गया था - 
          " आप धन्य हैं, आपके परम् श्रद्धये गुरुदेव भी धन्य हैं, जिन्होंने आपको योग-मार्ग की शिक्षा दी। यह भारत- भूमि धन्य है , जहाँ इस भयावह कलियुग में भी आर्यवंशियों के आप जैसे (मार्गदर्शक) नेता विद्यमान हैं। " [अर्थात परम् गुरु (प्रथम नेता) श्री रामकृष्ण धन्य हैं जिन्होंने ' वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा ' में प्रशिक्षित आप जैसे नेता को भावी नेता/ जीवनमुक्त शिक्षक (Would be Leaders) बनने और बनाने के योग-मार्ग का चपरास सौंप दिया !] ... यदि सच पूछा जाय तो आपने वह कठिन कार्य कर दिखाया है, जिसका बीड़ा इस देश में श्री शंकराचार्य के समय से फिर किसी ने नहीं उठाया। .... ठीक ही कहा गया है -  
वरमेको गुणी पुत्रो न च मूर्खशतान्यपि ।
      एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च तारागणोऽपि च ॥ 
 
'सी मूर्ख पुत्रों की अपेक्षा एक ही गुणी पुत्र अच्छा है, एक ही चन्द्रमा अन्धकार का विनाश करता है, तारागण नहीं।' ...आपने  मनसा , वाचा , कर्मणा सम्पूर्ण  मानवजाति को आध्यात्मिकता का ज्ञान कराना (ब्रह्मविद मनुष्य बनना और बनाना) ही अपने जीवन का ध्येय मान लिया है और धार्मिक ज्ञान का उपदेश देने के लिये आप सदैव ही प्रस्तुत रहते हैं। 
                 "हमें यह सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि यहाँ हिमालय की गोद में आपका विचार एक आश्रम   स्थापित करने का है। और हमारी ईश्वर से प्रार्थना है कि आपका यह उद्देश्य सफल हो। शंकराचार्य ने भी अपनी आध्यात्मिक दिग्विजय के पश्चात भारत के प्राचीन हिन्दू धर्म के रक्षणार्थ हिमालय में बदरिकाश्रम में एक मठ स्थापित किया था। इसी प्रकार यदि आपकी भी इच्छा पूर्ण हो जाय तो उससे भारतवर्ष का बड़ा हित होगा। इस मठ के स्थापित हो जाने से हम कुमाऊं निवासियों को बड़ा आध्यात्मिक लाभ होगा। और फिर हम इस बात का प्रयत्न करेंगे कि हमारा प्राचीन धर्म-मार्ग 'योग' हमारे बीच में से धीरे-धीरे लुप्त न हो जाये। आदिकाल से ही भारत का यह प्रदेश तपस्या की भूमि रहा है। भारतवर्ष के बड़े-बड़े ऋषियों ने अपना समय इसी स्थान पर तपस्या तथा साधना में बिताया है, परन्तु वह तो अब पुरानी बात हो गयी और हमें पूर्ण विश्वास है कि यहाँ मठ की स्थापना करके आप हमें पुनः उसका अनुभव करा देंगे। यही वह पुण्यभूमि है जो भरतवर्ष भर में पवित्र मानी जाती थी। तथा यही सच्चे धर्म ,कर्म , साधना तथा सत्य-प्राप्ति का क्षेत्र था, यद्यपि आज समय के प्रवाह में वे सब बातें नष्ट होती जा रही हैं। और हमें विश्वास है कि आपके शुभ प्रयत्नों द्वारा यह प्रदेश फिर प्राचीन धार्मिक क्षेत्र में परिणत हो जायेगा।" 5-243/  इसके बाद खजांची मोहल्ला के लाला बद्री शाह धुलघारिया की ओर से पण्डित हरिराम पाण्डे ने एक दूसरा अभिनन्दन -पत्र अंग्रेजी में पढ़ा। 'एक अन्य पंडित जी ने भी इस अवसर पर एक संस्कृत मानपत्र पढ़ा। 

        समय और परिस्थिति को देखते हुए, उस दिन स्वामीजी ने सभी स्वागत भाषणों का उत्तर अंग्रेजी में और बहुत संक्षेप में देते हुए कहा -  ‘हिमालय भारत की जननी श्री पार्वती की जन्म भूमि है। यह हमारे पूर्वजों के स्वप्न का प्रदेश है।  यह वही पवित्र स्थान है,  जहां भारतवर्ष  का प्रत्येक सच्चा धर्मपिपासु व्यक्ति अपने जीवन-काल के अन्तिम दिन व्यतीत करने की इच्छा करता है।  इसी देवभूमि के पर्वतों के शिखरों पर, इसकी गुफाओं के भीतर तथा इसके कल-कल बहने वाले झरनों के किनारे ध्यानस्थ होकर हमारे ऋषि-मुनियों ने कितने ही वैदिक गूढ़ सिद्धान्तों (महावाक्यों) को ढूँढ निकाला है, उनका मनन किया है। ['श्रवण-मनन-निदिध्यासन ' की प्रक्रिया से आविष्कृत किया है।] और आज हम देखते हैं कि उन वैदिक सिद्धान्तों (चार महावाक्यों) का केवल एक अंश ही इतना महान है कि उस पर पाश्चात्य जगत मुग्ध है; तथा विश्व के धुरन्धर विद्वानों एवं मनीषियों ने उसे अतुलनीय (Incredible) कहा है। यह वही देव भूमि है, जहाँ मैं बचपन से ही अपना जीवन व्यतीत करने की बात सोचता रहा हूँ, मैंने कितनी बार इस बात की चेष्टा की है, कि मैं यहाँ रह सकूँ। परन्तु उपयुक्त समय के न आने से, तथा मेरे सामने बहुत से कार्य होने के कारण मुझे इस पवित्र स्थान में रहने का अवसर नहीं मिला। लेकिन मेरी यही इच्छा है कि मैं अपने जीवन के शेष दिन इसी गिरिराज हिमालय की पर्वत श्रृंखला में कहीं पर व्यतीत कर दूँ।  
       .... यहाँ आते समय जैसे जैसे गिरिराज की एक चोटी के बाद दूसरी चोटी मेरी दृष्टि के सामने आती गयी , मेरी समस्त कल्पनाओं और कार्य-योजनाओं के विषय में केवल " बातचीत करने के बजाय अभी तक क्या कार्य हुआ है, तथा भविष्य में क्या कार्य होगा ?"  मेरा मन एकदम उसी शाश्वत भाव 'वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ' की ओर खींच गया जिसकी शिक्षा हमें गिरिराज हिमालय सदैव से देता रहा है। जो इस स्थान के वातावरण में भी प्रतिध्वनित रहा है , तथा जिसका निनाद मैं आज भी यहाँ की कलकलवाहिनी सरिताओं में सुनता हूँ, और वह भाव है - त्याग !  [प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में लौटना ही धर्म है! ....  सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ।। (- वैराग्यशतकम् ३१ ) अर्थ - भोग करने पर रोग का भय, उच्च कुल मे जन्म होने पर बदनामी का भय, अधिक धन होने पर राजा का भय, मौन रहने पर दैन्य का भय, बलशाली होने पर शत्रुओं का भय, रूपवान होने पर वृद्धावस्था का भय, शास्त्र मे पारङ्गत होने पर वाद-विवाद का भय, गुणी होने पर दुर्जनों का भय, अच्छा शरीर होने पर यम का भय रहता है। इस संसार मे सभी वस्तुएँ भय उत्पन्न करने वालीं हैं। केवल वैराग्य से ही लोगों को अभय प्राप्त हो सकता है।    [ भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।।  कालो न यातो वयमेव याताः तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।।७।। (अर्थ - भोगों को हमने नहीं भोगा, बल्कि भोगों ने ही हमें ही भोग लिया । तपस्या हमने नहीं की, बल्कि हम खुद तप गए । काल (समय) कहीं नहीं गया बल्कि हम स्वयं चले गए । इस सभी के बाद भी मेरी कुछ पाने की तृष्णा नहीं गयी (पुरानी नहीं हुई) बल्कि हम स्वयं जीर्ण हो गए ।। )इस प्रकार भृतहरि ने यहाँ संसार की आसारता और वैराग्य के महत्त्व का प्रतिपादन किया है। इस शतक में काव्य-प्रतिभा और दार्शनिकता का अद्भुत समन्वय किया गया है। इसमें सांसारिक आकर्षणों और भोगों के प्रति उदासीनता के उभरते हुये भावों का चित्रण दिखायी देता है। कवि की तो यही कामना है कि किसी पुण्यमय अरण्य में शिव-शिव का उच्चारण करते हुये उसका समय बीतता जाये। ]  

           ' गिरिराज हिमालय वैराग्य और त्याग के सूचक हैं, तथा वह सर्वोच्च शिक्षा , जो हम मानवता को सदैव देते रहेंगे --'त्याग ही है।' जिस प्रकार हमारे पूर्वज अपने जीवन के अन्तकाल में इस हिमालय पर खिंचे हुए चले आते थे, उसी प्रकार भविष्य में पृथ्वी भर की शक्तिशाली आत्मायें इस गिरिराज की ओर आकर्षित होकर चली आयेंगी। यह उस समय होगा जब भिन्न -भिन्न सम्प्रदायों के आपस के झगड़े आगे याद भी नहीं किये जायेंगे, जब धार्मिक रूढ़ियों सम्बंधित वैमनस्य नष्ट हो जायेगा, जब हमारे और तुम्हारे धर्म सम्बन्धी झगड़े बिल्कुल दूर हो जायेंगे तथा जब मनुष्य मात्र यह समझ लेगा कि 'कि केवल एक ही चिरन्तन धर्म है, और वह है - " स्वयं में परमेश्वर की अनुभूति"!  और शेष जो कुछ है वह सब व्यर्थ है। यह जानकर अनेक व्यग्र आत्मायें यहाँ आयेंगी कि ' यह संसार धोखे की टट्टी है' यहाँ सब कुछ मिथ्या है, और यदि कुछ सत्य है, तो वह है 'ईश्वर की भक्ति', केवल ईश्वर की उपासनायें। 

            मित्रो, यह तुम्हारी कृपा है कि अपने मानपत्र तुमने मेरे उस ध्येय का जिक्र किया कि मेरा विचार भविष्य में यहाँ एक आश्रम स्थापित करने का है। मैंने शायद तुमलोगों को यह बात काफी स्पष्ट रूप से समझा दी है कि यहाँ पर आश्रम की स्थापना (हिमालय में ही महामण्डल लीडरशिप ट्रेनिंग केन्द्र की स्थापना) क्यों की जाये ? तथा संसार के अन्य सब स्थानों को छोड़कर,  मैंने इसी स्थान को क्यों चुना है ? जहाँ से इस विश्वधर्म -Be and Make ' की शिक्षा का प्रसार हो सके। [अर्थात जहाँ से ' स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त लीडरशिप ट्रेडिशन  ~ ' Be and Make ' में प्रशिक्षित नेता/ ब्रह्मविद मनुष्य/ बनो और दूसरों को भी ब्रह्मविद (स्वयं में परमेश्वर की अनुभूति सम्पन्न) मनुष्य बनने में सहायता करो ~ की शिक्षा का प्रसार हो सके। ] कारण स्पष्ट है कि इन पर्वत-श्रेणियों के साथ ऋषि-परम्परा में आधारित भारतीय संस्कृति की सर्वोत्तम स्मृतियाँ सम्बद्ध हैं !  यदि भारत के धार्मिक इतिहास से इस हिमालय को पृथक कर दिया जाए तो शेष बहुत कम रह पायेगा। अतएव यहीं पर एक केंद्र होना चाहिए [साधारण गृहस्थों के लिए  मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी संस्था महामण्डल एवं सारदा नारी संगठन का एक केंद्र अवश्य  होना चाहिए।]   - जो कर्म (प्रवृत्ति ) प्रधान न होगा, बल्कि शान्ति (निवृत्ति-प्रधान ) का होगा, ध्यान-धारणा (मनःसंयोग) का प्रशिक्षण देने के लिये होगा। और मुझे आशा है कि एक न एक दिन ऐसा अवश्य होगा।  5-245/

            इस बार अल्मोड़ा में उन्होंने लगभग तीन महीने  बिताए। इसी बीच स्वास्थ्य लाभ के लिये, लाला बद्री शाह का आतिथ्य स्वीकार कर अल्मोड़ा से 32 कि.मी. दूर उनके  'देउलधार' स्थित एक बगीचे वाले मकान में निवास करने करने लगे। हिमालय की 'विवेक-वैराग्य' उत्पन्न करने वाली मनोहारी छटा से उनके कर्मश्रान्त मन में बहुत दिनों बाद अपूर्व शान्ति तो आयी ही; साथ-साथ फलदूध खाने और प्रचुर घुड़सवारी करने से दो सप्ताह में ही उनके स्वास्थ्य में काफी उन्नति हुई। 

                शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन 1893 में सनातन वैदिक धर्म व भारतीय संस्कृति की अमिट छाप- छोड़ने के बाद, नरेन्द्र नाथ 1897 में जब स्वामी विवेकानन्द के नाम से विश्वप्रसिद्ध होकर दूसरी बार अल्मोड़ा आए, उस समय उनकी योजना में सहायता करने के लिये, उनके साथ आत्मीय जुड़ाव रखने वाले कई (निवृत्ति मार्ग के) गुरुभाई और कई विदेशी भक्त (प्रवृत्ति मार्ग के भावी नेता /शिक्षक) लोग भी उनके साथ थे। गुडविन , कैप्टन सेवियर, सिस्टर निवेदिता आदि इन्हीं में से एक थे
      स्वामी शिवानन्द (महापुरुष महाराज) वहाँ से साढ़े तीन कि.मी. दूर 'पाताल देवी मन्दिर**' शैलग्राम, अल्मोड़ा में ध्यान करते हुए अपना समय व्यतीत कर रहे थे। बीच -बीच में स्वामीजी से भी मिलने के लिये जाते रहते थे। स्वामीजी ने उनको वहीं से सिंहल भेज दिया। सिंहल में रामकृष्ण मिशन का एक केंद्र स्थापित करने के कुछ दिनों बाद वे मठ में वापस लौट आये। [पाताल देवी मंदिर माँ दुर्गा के नौ रूपों में से एक रूप को समर्पित है। देवालय के गर्भगृह में शक्तिपीठ विद्यमान हैं। तथा पूर्वाभिमुख मंदिर के समक्ष एक लधु चबूतरे पर बैठे हुए नन्दी की प्रतिमा बनाई गयी है। चन्द वंशीय राजा दीप चन्द के शासनकाल (1748-1777) में एक बहादुर सैनिक सुमेर अधिकारी द्वारा बनाया गया। कालान्तर में यह मंदिर टूट गया।  तदुपरांत गोरखों के शासनकाल में (1790-1815) नए सिरे से बनाया गया। मंदिर के समीप ही माँ आनंदमयी आश्रम है जिसकी स्थानीय जनता के अलावा बंगाली जनमानस में आज भी बड़ी मान्यता है।  एक ज़माने में यहाँ  बंगाल के छात्र आकर विद्याध्ययन भी किया करते थे।  
         इस बीच, मठ को आलमबाजार से नीलांबर मुखर्जी के बेलुड़ स्थित घर में स्थानांतरित हो चुका  था। और बेलुड़ में 'रामकृष्ण मिशन' स्थापित होने के कुछ ही दिनों के भीतर स्वामीजी कलकत्ता छोड़ कर अलमोड़ा चले आये थे। इसी समय बंगाल में दुर्भिक्षपीड़ित व्यक्तियों के दुःख को दूर करने के लिये सेवाकार्य भी प्रारम्भ करके आये थे। इसलिए उन्हें अल्मोड़ा से इन सभी मामलों पर पत्र लिख कर पूरी तरह से निर्देश भी देना पड़ता था। यहाँ पर भी स्वामीजी को विश्राम करने का अवकाश बहुत कम मिल पाता था। क्योंकि दिन के अधिकांश समय उन्हें आये व्यक्तियों के जिज्ञासाओं के समाधान में या धर्म-चर्चा में ही लगे रहना पड़ता था। उनके विदेशी भक्त लोग भी जितना अधिक से अधिक सम्भव हो, उनका सत्संग प्राप्त करना चाहते थे। जो चिट्ठियाँ उनके पास आती थीं, उसमें भी अनेकों प्रश्न तथा मार्गदर्शन की प्रार्थना हुआ करती थी। उनको लगातार लम्बी- लम्बी चिट्ठियाँ लिखनी पड़ती थी।   

        अपने शिष्य शरच्चन्द्र चक्रवर्ती को अलमोड़ा से 3 जुलाई 1897 को लिखित पत्र में कहते हैं - "  चैतन्य महाप्रभु द्वैतवादी थे, इसलिये 'जीव और ईश्वर में भेद'  करने का उनका निर्णय उनकी मान्यताओं के अनुरूप ही था; इसलिए उन्होंने ठीक ही कहा कि ' ईश्वर से प्रेम और जीवों पर दया। ' परन्तु हम अद्वैतवादी हैं। हमारे लिये जीव (व्यष्टि अहं) को ईश्वर (सर्वव्यापी विराट अहं) से पृथक समझना ही हमारे बन्धन का (hypnotized -भेंड़त्व) कारण है। वैराग्यवान मनुष्य आत्मा शब्द का अर्थ व्यक्तिगत 'मैं' (व्यष्टि अहं) न समझकर , उसे माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध या सर्वव्यापी ईश्वर समझता है; जो अन्तःकरण में अंतर्नियामक होकर सब में वास कर रहा है। 
   ... जब जीव को जीव समझकर सेवा की जाती है, तब वह दया है, प्रेम नहीं। परन्तु जब प्रत्येक जीव को अपनी ही 'आत्मा' समझकर सेवा की जाती है , तब वह प्रेम कहलाता है। आत्मा ही एकमात्र प्रेम का पात्र है; इस तथ्य को श्रुति, स्मृति और अपरोक्षानुभूति से जाना जा सकता है। इसलिये  ' हमारा मूल सिद्धान्त 'प्रेम' होना चाहिये, न कि 'दया' । सबों के भीतर आत्मदर्शन। ' (आमादेर दया नहीं नय, प्रेम। सकलेर मध्ये आत्मदर्शन।)   मुझे तो जीवों के प्रति 'दया ' शब्द का प्रयोग विवेक-रहित और व्यर्थ जान पड़ता है। हमारा धर्म करुणा करना नहीं, सेवा करना है ~ अर्थात लात मारते हुए बच्चे के मुख में भी [कोविड-19 रोधी] काढ़ा उड़ेल देना है ! दया की भावना हमारे योग्य नहीं , हममें प्रेम एवं समष्टि में स्वानुभव की भावना होनी चाहिये। " ६/३४० 
[  वयं न दयामहे, अपि तु सेवामहे; नानुकम्पानुभूतिरस्माकम्, अपि तु प्रेमानुभवः स्वानुभवः सर्वस्मिन्। अर्थात अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'अहं- बोध' में रूपांतरित कर लेना चहिये। हमारे लिए (मातृहृदय पुरुष के लिए) 'दयामिश्रित उपेक्षा' शब्द का प्रयोग भी ठीक नहीं, माँ के अनुसार सब को अपना मानकर उनके मंगल की प्रार्थना करते रहना ही उचित है। क्योंकि, " क़ैसर किसको पत्थर मारे कौन पराया है,शीश महल में हर एक चेहरा अपना लगता है!"]   

          स्वामी ब्रह्मानन्द (राखाल) को 9 जुलाई ,1897 के पत्र में लिखते हैं - " हमारी संस्था के उद्देश्य का पहला प्रूफ़ मैंने संशोधित करके आज तुम्हारे पास वापस भेजा है। उसे सावधानी से ठीक करके छपवाना, नहीं तो लोग हँसेंगे।' अल्मोड़ा से ही ये सब चलता है। फिर आगे यह भी लिखते हैं -" प्रभु की पूजा का खर्च घटाकर एक या दो रूपये महीने पर ले आओ, प्रभु की सन्तानें भूख से मर रही हैं।" केवल जल और तुलसी-पत्र से पूजा करो और भोग के निमित्त धन को उस जीवित प्रभु के भोजन में खर्च करो, जो दरिद्रों में वास करता है।  ....   कोलकाता सम्मेलन के खर्च को पूरा करने के बाद जो बचे उसे दुर्भिक्ष -पीड़ितों की सहायता के लिये भेज दो, या जो अगणित दरिद्र कोलकाता की मैली-कुचैली गलियों में रहते हैं, उनकी सहायता में लगा दो। स्मारक -भवन और इस प्रकार के विचार इस समय त्याग दो -चूल्हे में जाने दो। " ६/ ३४६   
             कुमारी मेरी हेल को इसी दिन लिखित पत्र में लिखते हैं - " अमेरिका वाले नये मद से मतवाले हैं। हमारे देश पर समृद्धि की सैकड़ों लहरें आयीं और गुजर गुजर गयीं। हमने वह सबक सीखा है, जिसे बच्चे अभी नहीं समझ सकते। 
 ... काम-कांचन में आसक्ति का त्याग कर दो , ये एकमात्र बंधन हैं। विवाह, और स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध और धन --ये ही एकमात्र वास्तविक शैतान हैं। समस्त सांसारिक प्रेम देह से ही उपजते हैं। काम -कांचन को त्याग दो। इसके जाते ही ऑंखें खुल जाएँगी और आध्यात्मिक सत्य का साक्षात्कार हो जायेगा ; तभी आत्मा अपनी अनंत शक्ति पुनः प्राप्त कर लेगी। " ६/३४५  

                        25 जुलाई , 1997 को मेरी हेलबैस्टर (Marie Halboister) को लिखित पत्र में श्रीरामकृष्ण की शिक्षा का उल्लेख करते हुए कहते हैं -" संसार में कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिनके जीवन में किसी प्रकार का बंधन नहीं होता। किन्तु ऐसा होते हुए भी वे स्वयं ही किसी न किसी वस्तु (तोता, बिल्ली , कुत्ता आदि) से नाता जोड़कर स्वयं को आसक्ति के बन्धन से बाँध लेते हैं, और किसी भी तरह अपनी संसार-तृष्णा को तृप्त करना चाहते हैं । वे मुक्त होना नहीं चाहते। मनुष्य पर माया का ऐसा ही जबरदस्त प्रभाव है।" AV/52 
    " जो लोग सन्तान न होने पर अपना पूरा लाड़-प्यार उड़ेल देने के लिए एक बिल्ली पाल लेते हैं, मेरी अवस्था ठीक वैसी हो गयी है। मेरे भीतर मानो पुरुष की अपेक्षा नारी भाव अधिक है। मैं सदा दूसरे के दुःख को अपने ऊपर ओढ़ता रहता हूँ, .. क्या तुम समझती कि इसमें कोई आध्यात्मिकता है ?
    'देख-भाल करने के लिये किसी व्यक्ति का न होना और इस बात की चिन्ता न करना कि मेरी देखभाल कौन करेगा - मुक्त होने का यही मार्ग है। जो एकाकी है, वह सुखी है। सबका समान मंगल करो, लेकिन किसी से 'प्यार मत करो। ' यह एक बंधन है, और बंधन सदा दुःख की ही सृष्टि करता है। अपने मानस में एकाकी जीवन बिताओ -यही सुख है।" ६/३५८
     [" You are already free, Marie, free already — you are Jivanmukta. I am more of a woman than a man, you are more of a man than woman. I am always dragging other’s pain into me — for nothing, without being able to do any good to anybody — just as women, if they have no children, bestow all their love upon a cat !! ...  He who is alone is happy. Do good to all, like everyone, but do not love anyone. It is a bondage, and bondage brings only misery. Live alone in your mind — that is happiness. To have nobody to care for and never minding who cares for one is the way to be free.] 

        अंग्रेजी और बंगला में पत्र लिखने के आलावा, अल्मोड़ा से कुछ पत्र उन्होंने संस्कृत में भी लिखे थे। स्वामी शुद्धानन्द को पत्र में लिखते हैं - "अहमधुना अल्मोडानगरस्य किञ्चिदुत्तरं कस्यचिद्वणिज उपवनोपदेशे निवसामि। सम्मुखे हिमशिखराणि हिमालयस्य प्रतिफलितदिवाकरकरैः पिण्डीकृतरजतानि इव भन्ति प्रीणयन्ति च। " -- अर्थात आजकल मैं एक व्यापारी के बाग में रह रहा हूँ , जो अल्मोड़े से कुछ दूर उत्तर में है। हिमालय के हिम-शिखर मेरे सामने है , जो सूर्य के प्रकाश में रजत-राशि के समान आभासित होते हैं , और हृदय को आनन्दित करते हैं। "
     लेकिन इस पत्र में एक मूल्यवान वस्तु भी थी। स्वामी शुद्धानन्द ने अपने पत्र में गीता 2/46 -यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके। तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः'  की जो व्याख्या बंगला में लिखी थी, उसके उत्तर में कहते हैं -  'तुम्हारी व्याख्या इस प्रकार है -'जब पृथ्वी जल से आप्लावित हो जाती है, तब पीने के पानी की क्या आवश्यकता ? ' जो मुझे ठीक नहीं मालूम पड़ती। इसकी व्याख्या ऐसे करो - " जब भूमि जल से आप्लावित होती है, तब भी लोग हितकर और पीने योग्य जल की ही खोज करते हैं, दूसरे प्रकार के जल की नहीं। उसी प्रकार ब्रह्मविद मनुष्य भी अपनी संसार-तृष्णा को शान्त करने के लिए, उस वेद रूप शब्द-समुद्र में से - अपने लिए उसी शब्द-प्रवाह (महावाक्यों को ) को खोजेगा जो उसे मुक्ति के पथ  में ले जाने के लिए समर्थ हो।" [सुतरां यद्यपि कूप तालाब आदि छोटे जलाशयों की भाँति कर्म अल्प फल देने वाले हैं तो भी ज्ञाननिष्ठा का अधिकार मिलने से पहले-पहले कर्माधिकारी को कर्म करना ही चाहिये; अर्थात " मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण आन्दोलन ~ Be and Make " से जुड़े रहना चाहिये। ] 

      इधर मुर्शिदाबाद के दुर्भिक्षपीड़ित व्यक्तियों के दुःख को दूर करने,  'जीव को शिव मानकर' उसकी निःस्वार्थ सेवा करने के लिए प्रोत्साहित करते हुए अल्मोड़ा से ही, स्वामी अखण्डानन्द को लिखते हैं - 'कार नाम - किसेर नाम ? के नाम चाय ? दूर कोरो नाम !' अर्थात ' किसका नाम और किसलिये नाम ? नाम के लिये कौन परवाह करता है ? उसे अलग रख दो।' यदि भूखों को भोजन का ग्रास देने में नाम, सम्पत्ति और सबकुछ नष्ट हो जायें तब भी - 'अहो भाग्यम, महाभाग्यम !' ... लोगों को देखने दो कि हमारे प्रभु श्री रामकृष्ण के चरणों के स्पर्श से मनुष्य को देवत्व [शिवत्व या ब्रह्मत्व ] प्राप्त होता है या नहीं ! जीवन-मुक्ति इसीका नाम है, जब अहंकार और स्वार्थ का चिन्ह भी नहीं रहता। " ६/३३५ इस 'निःस्वार्थ -देशसेवा-कार्य' की शुरुआत  बंगाल के मुर्शिदाबाद  जिले के सारगाछी आश्रम में ही हुई थी। [ तथा गुरु गोलवलकर जी के माध्यम से भारत को यह समझाने ~ " धर्मनिरपेक्षता का अर्थ हिन्दू-विरोध नहीं है, इसका वास्तविक अर्थ सर्वधर्म- समन्वय है ".... रूपी 'देशसेवा-कार्य' की शुरुआत भी स्वामी विवेकानन्द के गुरुभाई स्वामी अखण्डानन्द जी के निर्देशन में
 सारगाछी आश्रम से ही हुई थी। ]  

          इधर स्वामी रामकृष्णानन्द (शशि महाराज) को वेदान्त- प्रचार कार्य के लिये मद्रास भेजते हैं, और उनके साथ नियमित सम्पर्क भी रख रहे थे। स्वामी ब्रह्मानन्द जी के नेतृत्व में कोलकाता 'रामकृष्ण मिशन' का कार्य भी भलीभाँति चल रहा था। स्वामी अभेदानन्द जी के नेतृत्व में अमेरिका में और स्वामी सारदानन्द जी के नेतृत्व में इंग्लैण्ड में वेदान्त -प्रचारकार्य भी भलीभाँति चल रहा था। अल्मोड़ा में यह सब समाचार पाकर स्वामीजी बड़े प्रसन्न हुए। वे फिर से नवीन उत्साह से भरकर स्वयं कार्यारम्भ करने के लिये व्यग्र हो उठे। 
                   जब स्वामी जी के अल्मोड़े में ठहरने की अवधि समाप्त हो रही थी, उस समय उनके वहाँ के स्थानीय प्रशंसकों ने उनसे प्रार्थना की कि आप एक भाषण कृपया हिन्दी में दें। स्वामी जी ने उनकी प्रार्थना पर विचार कर उन्हें अपनी स्वीकृति दे दी। स्वामी जी ने 27 जुलाई 1897 को हिन्दी में अपना पहला भाषण अल्मोड़ा जिला स्कूल (अभी राजकीय इण्टर कालेज) में दिया था। इसके पहले भी वे हिन्दी में बातचीत अवश्य कर सकते थे, किन्तु एक गंभीर विषय के ऊपर हिन्दी भाषा में व्याख्यान देने का उनका पहला अवसर था। पहले स्वामी जी ने धीरे धीरे बोलना शुरू किया , किन्तु शीघ्र ही वे धाराप्रवाह ढंग से बोलने लगे, मानो उनके मुख से उपयुक्त शब्द तथा वाक्य निकलते जाते थे। इस भाषण के पहले भारत में केवल संस्कृत में ही आध्यात्मिक भाषण देने की परम्परा थी। उनके व्याख्यान में हिन्दी के अधिकृत प्रयोग से, हिन्दी भाषा को नई गरिमा प्राप्त हुई थी।  एवं श्रोता वर्ग में उपस्थित हिन्दी भाषी विद्वानों ने टिप्पणी की थी कि उनके भाषण को सुनकर यह सिद्ध हो गया कि हिन्दी में भी न केवल भाषण दिये जा सकते हैं,बल्कि  हिन्दी में 'भाषण-कला ' की स्वप्नातीत सम्भावनायें भी हैं। " 5-246 / 

          उस सभा में भाषण का विषय था ' वेदों की शिक्षा: सैद्धान्तिक और व्यावहारिक ' स्वामीजी वेदों के गूढ़ तात्विक सिद्धान्तों को समझाने के प्रयास में जिस समय स्वतःस्फूर्त ढंग से हिन्दी के नये -नये शब्दों की रचना कर रहे थे उस समय दर्शक दीर्घा में उपस्थित लगभग 400 श्रोता मंत्र-मुग्ध होकर सुन रहे थे। उन दिनों हिन्दी भाषी ब्राह्मण विद्वान् भी वैदिक प्रवचन के लिये संस्कृत भाषा को ही उचित समझते थे, हिन्दी भाषा को इसके लिए अनुकूल नहीं समझते थे। उनसे पूर्व भी एक बंगाली विद्वान् पण्डित मधुसूदन सरस्वती ने ही देवनागरी अक्षरों में सन्त तुलसीदास द्वारा लिखे 'रामचरितमानस' प्रति बंगाल की साधारण जनता की श्रद्धा जाग्रत की थी। विगत शताब्दी में कलकत्ता के फोर्ट विलियम कॉलेज में ही पहलीबार हिन्दी भाषा में गद्य रचना के पठन-पाठन की व्यवस्था हुई थी। यदि परिपेक्ष्य/ पृष्ठभूमि को सामने रखकर विचार किया जाय तो, उस दौर में स्वामीजी द्वारा हिन्दी में दिये गए इस भाषण का महत्व बहुत अधिक बढ़ जाता है। 

        स्थानीय अंग्रेज निवासियों ने भी स्वामी जी द्वारा अमेरिका में दिए भाषणों की ख्याति सुन रखी थी, वे भी उनका भाषण सुनने के लिये उत्सुक हुए। तदनुसार 'इंग्लिश क्लब ' (अभी ऑफिसर्स मेस) में 'गुरखा रेजीमेन्ट' के कर्नल पुली (Colonel Pulley) के सभापतित्व में एक सभा बुलाई गयी। स्थानीय अंग्रेज भद्रपुरुष व् महिलायें तथा कुछ उच्च श्रेणीय देशी व्यक्ति सभा में उपस्थित थे। स्वामीजी ने 28 जुलाई, 1897 को इंग्लिश क्लब में  'Vedic Teaching in Theory and Practice'  विषय पर अंग्रेजी में जो भाषण दिया था उसके सम्बन्ध में कु. हेनरीटा मुलर ने लिखा था - 
          " पहले उन्होंने उस आत्मा या परम् सत्य  .... जिससे सबकुछ निकला है, जिसमें स्थित है, और जिसमें लीन हो जाता है ... पर कुछ प्रकाश डाला ( आत्मा जन्माद्य यस्य यतः'), फिर उस परम् सत्य के अन्वेषण की पाश्चात्य प्रणाली से तुलना करते हुए बतलाया कि यह प्रणाली धार्मिक तथा मौलिक सत्य के रहस्यों  का उत्तर -' solution of vital and religious mysteries' बाह्य जगत में ढूँढ़ने की चेष्टा करती है। जबकि सत्य अन्वेषण की प्राच्य प्रणाली (गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा) इन सब प्रश्नों का समाधान बाह्य प्रकृति में न पाकर, उसे अपनी अन्तरात्मा में ही ढूंढ़ निकालने की चेष्टा करती है~ 'turns its inquiry within '
       उन्होंने इस बात का दावा भी बिल्कुल ठीक ठीक किया कि सम्पूर्ण विश्व में  केवल भारत के ऋषियों को  ही इस बात का गौरव है कि, उन्होंने ही सर्वप्रथम 'आत्मनिरीक्षण पद्धति ' (Introspective Method) को आविष्कृत किया। तथा अपने हृदय में ही 'ब्रह्म-अवलोकन प्रणाली' से  'चार महावाक्यों' के  रूप में -  आध्यात्मिकता का जो अमूल्य खजाना ( Priceless Treasures of Spirituality) उसे प्राप्त हुआ, वह ऋषि-परम्परा में आधारित भारतीय संस्कृति की अपनी चीज तथा विशेषता है।  फिर विरासत में प्राप्त आध्यात्मिकता की उसी अमूल्य निधि को  उसने सम्पूर्ण मानवजाति में मुक्त हस्त से वितरित भी किया।    
      .... जब आचार्य विवेकानन्द (महामण्डलाचार्य नवनीदा) यह दर्शाने लगे कि आत्मा ईश्वर से एकरूप हो जाने के लिये कितनी लालायित रहती है, तथा अन्ततोगत्वा किस प्रकार ईश्वर के साथ एकरूप हो जाती है! उस समय मानो वे आध्यात्मिकता के शिखर पर ही पहुँच गए। कुछ समय के लिए सचमुच ऐसा ही भास हुआ मानो ' the teacher, his words, his audience, and the spirit pervading them all were one.' (जीवनमुक्त) शिक्षक/नेता , उनके शब्द , उनके श्रोतागण तथा सभी को अभिभूत करने वाली भावना, सभी उस आत्मवस्तु में एकरूप हो गये हों। ऐसा कुछ भान ही नहीं रह गया कि 'मैं ' या 'तू ' अथवा 'मेरा ' या 'तेरा ' कोई चीज है। मानो उस समय के लिए सारी भिन्नता या अलग-अलग व्यक्तित्व लोप हो जाता है। 'The different units collected there' अलग अलग बैरक से जो छोटी छोटी टोलियां वहाँ एकत्र हुई थीं, कुछ समय के लिये वे अपने अलग अलग अस्तित्व को भूल गयीं तथा उस महान आचार्य के श्री मुख से निकले हुए शब्दों द्वारा प्रचंड आध्यात्मिक तेज में एकरूप हो गयीं, वे सब मानो मंत्रमुग्ध से रह गये।
       [ उसी प्रकार श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय के नेतृत्व में  स्थापित अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल को ही इस बात का गौरव है की उसने उस 'अन्तरा-वलोकन प्रणाली'  (Introspective Method) को छात्रों के लिये सरल भाषा में  "Be and Make - मनःसंयोग पद्धति" के रूप में विकसित किया। तथा उसी 'ब्रह्म',  परम् सत्य,  या इन्द्रियातीत सत्य को देखने के उपाय~ को विगत 53 वर्षों से आयोजित होने वाले  'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' के माध्यम से भारत के गाँव -गाँव तक पहुँचा दिया। ]   
                    जिन लोगों को स्वामीजी (नवनीदा ) के भाषण सुनने का बहुधा अवसर प्राप्त हुआ है, उन्हें इस प्रकार के अन्य कई अवसरों का स्मरण हो जायेगा , जब वे वास्तव में जिज्ञासु तथा ध्यानमग्न श्रोताओं के सम्मुख भाषण देने वाले नेता विवेकानन्द (नवनीदा) नहीं रह जाते थे , श्रोताओं के सब प्रकार के भेद-भाव तथा पृथक व्यक्तित्व का पूर्णतः लोप हो जाता था। नाम और रूप नष्ट हो जाते थे , केवल वह सर्वव्यापी आत्मतत्व रह जाता था , जिसमें श्रोता, वक्ता तथा उच्चारित शब्द बस एकरूप होकर रह जाते थे। " ५/२४७
           कदाचित इस यात्रा के दौरान ही घटित एक अन्य घटना जो छोटी होने से भी अविस्मरणीय है, वह है -उन्नीसवीं सदी के बंगाल के प्रख्यात देशभक्त और शिक्षाविशारद अश्विनी कुमार दत्त का स्वामीजी से मिलने के लिये अल्मोड़ा आना; और स्वामी विवेकानन्द  के बदले श्री रामकृष्ण के 'नरेन्द्र'  से मिलने की इच्छा व्यक्त करना। (asking for Sri Ramakrishna's 'Narendra' and not Swami Vivekananda .): ज्योंही  अश्विनी कुमार अलमोड़ा के बगीचे वाले मकान में पहुँचते हैं, देखते ह कि- ' एक घुड़सवार संन्यासी वापस लौट आये हैं, और एक गोरा 'साहेब' घोड़े को बाँधने के लिये उसके उचित स्थान पर  ले गया है ।' तथा घुड़सवार सवारी (स्वामी विवेकानन्द ) भी तब तक मकान के भीतर प्रविष्ट हो गए हैं । अश्विनी कुमार ने एक युवा संन्यासी से पूछा , ' क्या नरेन दत्त यहीं रहते हैं ?' उस युवा संन्यासी ने उत्तर दिया - " यहाँ कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं रहता जिसे नरेन दत्त कहा जाता हो, कई दिन पहले उनकी मृत्यु हो चुकी है !" अश्विनी कुमार शर्मिन्दा और आहत हो गये। लेकिन तब तक स्वामीजी ने यह सब बातचीत भीतर से ही सुन लिया था। उन्होंने  उस युवा संन्यासी को उन्हें सादर भीतर ले आने का आदेश दिया। और हार्दिक स्वागत करते हुए पिछली बार अधिक बातचीत नहीं हो सकी थी , इसके लिये दुःख प्रकट किया।   .....यह कितने वर्ष (लगभग 12 वर्ष) पहले की बात रही होगी ! श्री रामकृष्ण ने अश्विनी कुमार को नरेन्द्र के साथ जान-पहचान करने के लिये कहा था।  किन्तु उस दिन स्वामीजी की तबियत ठीक नहीं थी, इसीलिये कुछ विशेष चर्चा नहीं हो सकी थी। लेकिन इतने लम्बे समय के बाद उनको देखने से भी, स्वामीजी को उन्हें पहचान लेने में कोई कठिनाई नहीं हुई। 
          विवेकानंद ने हमेशा अपने शैक्षिक लक्ष्य के रूप में "man-making" (मनुष्य -निर्माण) पर जोर दिया है; अतः अश्विनी कुमार को एक शिक्षाविशारद (Educator) समझकर, स्वामीजी ने उनसे कहा था,  " By education I do not mean the present system, but something in the line of positive teaching. Mere book-learning won't do. We want that education by which character is formed, strength of mind is increased, the intellect is expanded, and by which one can stand on one's own feet."
       "  जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सकें, 'मनुष्य' बन सकें, चरित्र गठन कर सकें और जीवन की समस्याओं का स्वयं समाधान करने में समर्थ हों, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है। यदि कोई विद्यार्थी  पाँच ही भावों को पचाकर तदनुसार अपना जीवन और चरित्र गठित कर सका हो, तो उसकी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है , जिसने एक पूरे पुस्तकालय को कण्ठस्थ कर कर रखा है। विद्यार्थियों के चरित्र को वज्र के जैसा 'अप्रतिरोध्य ' रूप में गठित करना होगा। सम्पूर्ण राष्ट्र को इसी शिक्षा के प्रचार-प्रसार करने के लिये जाग्रत करना होगा। यही तो कार्य है। लेकिन कैसे ? निःसन्देह यह एक बहुत बड़ी योजना है। राजनितिक सभा-समितियों में प्रस्ताव पारित करने से देश को स्वतंत्रता प्राप्त नहीं होगी।"
(भारत का भविष्य ५ /१९५)     
             अश्विनी कुमार दत्त इस घटना का उल्लेख 'श्रीरामकृष्ण वचनामृत' के लेखक श्री 'एम' को लिखित एक पत्र में कहते हैं -  मैं जब (May 23, 1885)  से अन्तिम बार मिलने गया था, तब उन्होंने मुझसे पूछा था - क्या तुम नरेन्द्र को जानते हो ? मेरे नहीं कहने पर,
 श्री रामकृष्ण :  " मेरी बहुत इच्छा है कि तुम उससे जान-पहचान कर लो। उसने बी. ए. की परीक्षा पास कर ली है और अविवाहित हैं।"
मैंने कहा - "बहुत अच्छा, श्रीमान ; मैं उनसे मिलूंगा।"
 श्री रामकृष्ण : " आज राम दत्त के घर पर कीर्तन (सत्संग) होगा। तुम वहाँ जाकर उससे मिल सकते हो। आज शाम को तुम वहाँ पहुँच जाना।" 
 अश्विनी -  ठीक है। ' 
श्रीरामकृष्ण : आज शाम को वहाँ जाना जरूर। 
अश्विनी : निःसन्देह जाऊँगा। 
श्रीरामकृष्ण : हाँ , देखना -कहीं भूल न जाना।  
अश्विनी कुमार : " यह आपकी आज्ञा (command) है, क्या मैं आपके आदेश का पालन नहीं करूँगा ? निश्चित रूप से मैं जाऊँगा। "
[फिर उन्होंने हमें अपने कमरे में टँगी हुई तस्वीरों को दिखाया और मुझसे पूछा -क्या बुद्ध की कोई तस्वीर मिल सकती है ?] 
अश्विनी : मिलने की बहुत सम्भावना है। 
श्री रामकृष्ण : " तो, मेरे लिए एक ले आना। "
अश्विनी :  बहुत अच्छा , जब मैं दुबारा आऊँगा तो अवश्य लेता आऊंगा। 
[ किन्तु हाय , मैं कभी दक्षिणेश्वर लौट नहीं सका !] 
      उस दिन शाम को राम बाबू के घर जाकर नरेन्द्र से मिला। एक कमरे में श्रीरामकृष्ण एक गल-तकिया से टिक कर बैठे हुए थे। नरेन्द्र उनके दाहिनी तरफ बैठे थे , और मैं उन दोनों के सामने बैठा था। उन्होंने नरेन्द्र से मेरे साथ बातचीत करने के लिये कहा। लेकिन नरेंद्र ने कहा: "आज मेरे सिर में दर्द है, मुझे बातचीत करने की इच्छा नहीं है। " मैंने उत्तर दिया - ' फिर किसी दूसरे दिन के लिये इस बातचीत को स्थगित रखते हैं। '           
           "और वह शुभ दिन 1897 के मई या जून महीने में अल्मोड़ा [से 20 कि.मी.दूर लाला बद्री शाह के बगीचेवाले मकान ] में प्राप्त हुआ। क्योंकि यह श्रीरामकृष्ण की इच्छा थी, और जो 12 वर्षों के बाद पूर्ण हुई। ओह, वे कुछ दिन मैंने स्वामीजी के साथ कितने आनन्द में बिताये थे ! कभी उनके घर पर मैं चला जाता , तो कभी मेरे घर पर वे आ जाते , और एक दिन तो हमने एक पहाड़ी के चोटी पर भी बिताये , जहाँ हम दोनो के अतिरिक्त और कोई उपस्थित नहीं था। अलमोड़ा के बाद फिर मैं कभी उनसे मिल न सका। यह एक ऐसी घटना थी, जो श्री रामकृष्ण देव की इच्छा को पूर्ण करने के लिये ही घटित हुई थी, और हमलोग एक दूसरे के साथ मिल सके थे !"
(सौजन्य: http://www.vivekananda.net)          
          लगभग ढाई मास का समय अलमोड़ा में व्यतीत करने के बाद, उत्तर भारत के -काश्मीर , पंजाब , राजस्थान आदि कई प्रान्तों के विभिन्न स्थानों में घूम-घूम कर, स्वामीजी ने अद्वैतानुभूति के अत्युच्च शिखर पर खड़े होकर सभी जातियों , सभी सम्प्रदायों के दुर्बल , निर्धन, पददलितों को वज्र-स्वर से पुकारते हुए  उपनिषदों के जागरण -मंत्र ~ ' उत्तिष्ठत-जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ' से  परिचित कराया।  और उन्हें अपने पैरों पर खड़े होकर मुक्त हो जाने (भ्रममुक्त-d-hypnotized हो जाने) का प्रयत्न करने का आदेश दिया । [ अर्थात सम्पूर्ण भारत को 'मनुष्य (ब्रह्मविद)  बनने और बनाने ' का जागरण मंत्र -Be and Make ' के तात्पर्य को समझाया और भेंड़त्व की मोहनिद्रा त्याग कर सिंहत्व में उठखड़े होने के लिए अनुप्रेरित किया।] फिर 1898 के जनवरी मास क मध्य में स्वामीजी अपने गौरवमय उत्तर भारत-भ्रमण को समाप्त कर कलकत्ता लौट आये। बेलुड़ मठ के निर्माण के लिये धन की व्यवस्था कर जमीनें खरीद ली गयीं। उधर हिमालय में आश्रम स्थापना के लिये कैप्टन सेवियर योग्य स्थान की खोज में थे। कुछ ही दिनों बाद कुमारी मूलर के साथ कुमारी मार्गरेट नोबल पाश्चात्य समाज के सभी बंधनों को छिन्न कर कलकत्ता आयीं। चिकित्सक गण की सलाह पर वायुपरिवर्तन के लिए उन्हें 30 मार्च को दार्जलिंग आना पड़ा। 
            दार्जलिंग में उनका स्वास्थ्य धीरे धीरे सुधर रहा था। इतने में ही सहसा समाचार आया कि कलकत्ते में प्लेग की महामारी बहुत व्यापक पैमाने पर फ़ैल गयी है, प्रतिदिन सैकड़ों लोग मर रहे हैं। समाचार सुनते ही 3 मई 1898 को वे कलकत्ता लौट आये। " ফিরেই কলকাতায় প্লেগ নিবারনের কাজে নেমে পড়লেন।" और उसी दिन उन्होंने प्लेग महामारी में आवश्यक सावधानी (सोशल डिस्टेन्सिंग) और प्रतिषेधक व्यवस्था (लॉकडाउन) का पालन करने के लिये जनसाधारण को उपदेश दिया। साथ ही साथ हिन्दी व बंगला भाषा में इसका प्रचार-पत्र या पम्पलेट भी छापने के लिए दे आये और भगिनी निवेदिता तथा अन्य कर्मियों को साथ लेकर उन्होंने सेवा कार्य प्रारम्भ कर दिया। प्लेग महामारी तथा 'सरकारी प्लेग रेग्युलेशन ' दोनों ही कठोर थे। उस भयंकर परिस्थिति में तब्लीग़ियों का दंगा रोकने , तथा लॉकडाउन मानने में जनता को बाध्य करने के लिये ब्रिटिश फ़ौज की नियुक्ति हुई थी। [जैसे  कोविड -19 वैश्विक महामारी के समय हिन्दपीढ़ि राँची में सीआरपीएफ बुलाना पड़ा, और डॉक्टर्स के नुकसान पर सख्त सजा का अध्यादेश लाना पड़ा ?] इस आपत्तिकाल में 'अभय और सेवाभाव' [राष्ट्रीय आदर्श -त्याग और सेवा ] को सम्मुख रखकर श्रीरामकृष्ण की सन्तानें कार्यक्षेत्र में कूद पड़ीं।  ... किसी गुरु भाई ने प्रश्न किया , मुफ्त राशन और औषधि आदि  के लिये तो बहुत धन की आवश्यकता होगी, इतने रूपये कहाँ से आयेंगे ? स्वामीजी ने तत्काल उत्तर दिया - " क्यों ? आवश्यकता हुई तो मठ के लिये नयी खरीदी हुई जमीन बेच डालेंगे।" [यहाँ तक की कहानी सुनने के बाद बेलघाटा सिनेमा का एक गेटकीपर दादा से पूछने आया था -क्या सचमुच मठ की जमीन को बेचना पड़ा था ?] सन्तोष की बात है कि बेलुड़ मठ की जमीन बेचने की आवश्यकता नहीं पड़ी, यथेष्ट आर्थिक सहायता पाकर कलकत्ते में एक बड़ी सी जमीन किराये पर लेकर 'आइसोलेशन वार्ड ' का निर्माण किया गया और जाति -धर्म का विचार छोड़कर समस्त प्लेगमहामारी ग्रस्त (कोविड -19 ग्रस्त) नरनारियों को लाकर सेवाकार्य प्रारम्भ हुआ। अब भारतवासियों ने समझा कि विवेकानन्द केवल मुँह से ही वेदान्त -प्रचार करने के पक्षधर नहीं थे , बल्कि व्यवहार में भी वेदान्तिक थे। 'यत्र जीव तत्र शिव ' मंत्र के ऋषि विवेकानन्द मृत्यु की कुछ परवाह न करते हुए स्वदेशवासियों को शिक्षा देने लगे कि किस प्रकार - 'जीव को ही शिव मानकर ' साक्षात् शिव की पूजा कैसे की जाती है ! विच०२३८ /  
           स्वामीजी की 'मनुष्य-निर्माण' परिकल्पना थी ~ ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’ शिव बनकर शिव की आराधना करो ! प्रश्न है-हम शिव कैसे बनें एवं शिवत्व को कैसे प्राप्त करें ? ... 'यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥ केवल एक ही चिरन्तन धर्म (शिक्षा) है, और वह है -आतमिरिक्षण की पद्धति को सीखना और मनःसंयोग का अभ्यास करते हुए " स्वयं में परमेश्वर की अनुभूति"  कर लेना। स्वामीजी ने कैप्टन सेवियर को अलमोड़ा में रहते हुए,  इसी योजना को कार्यरूप देने के लिये,  हिमालय की पहाड़ी श्रृंखलाओं में एक उपयुक्त स्थल खोजकर, वहां एक आश्रम स्थापित करने की जिम्मेदारी सौंपी थी।  जहाँ भविष्य में ' यह संसार धोखे की टट्टी है' ~ यहाँ सब कुछ मिथ्या है, और यदि कुछ सत्य है, तो वह है 'ईश्वर की भक्ति', केवल ईश्वर की उपासनायें; यह जानकर दुनिया भर से अनेक व्यग्र आत्मायें यहाँ आयेंगी।' इसलिए अलमोड़ा में रहते हुए, कैप्टन सेवियर तथा श्रीमती सेवियर ने स्वामीजी से वहाँ आने का अनुरोध किया था। और खेतड़ी के महाराज अजीत सिंह भी उस समय नैनीताल में थे। उन्होंने भी स्वामीजी को वहाँ आने का निमंत्रण भेजा था ।
            इसलिए उनके आमन्त्रण के अनुसार 'অবস্থার কিছু উন্নতি হলে'  प्लेग का प्रकोप घट जाने तथा लॉकडाउन नियम के शिथिल हो जाने पर, स्वामीजी ने 1898 ई. के मई महीने में अलमोड़ा की ओर तीसरी बार प्रस्थान किया। इस बार उनके साथ -  उनके गुरुभाई स्वामी तुरियानन्द और स्वामी निरंजनानन्द तथा उनके अपने शिष्य स्वामी सदानन्द और स्वामी स्वरूपानन्द (S) और चार पाश्चात्य शिष्यायें - श्रीमती ओलीबुल, श्रीमती मैक्लाउड, भगिनी निवेदिता और कलकत्ता में अमेरिकी महावाणिज्य दूत (American Consulate) की पत्नी श्रीमती पैटर्सन भी थीं।
        नैनीताल पहुँचकर अपने साथियों के साथ स्वामीजी ने कुछ विश्राम किया। स्वामीजी के श्रीचरणों का दर्शन पाकर राजा अजीतसिंह ने अपने को कृतार्थ माना तथा उनकी पाश्चात्य शिष्याओं के साथ परिचित होकर आनंदित हुए। नैनीताल में इस बार मोहम्मद सर्फराज हुसैन नाम के एक सज्जन भी स्वामीजी से मिले थे । वे स्वामीजी की आध्यात्मिकता और व्यक्तित्व को देखकर इतने प्रभावित हुए, कि उन्होंने कहा था, यदि भविष्य में कोई व्यक्ति स्वामीजी को कोई अवतार या ईश्वर का दूत (पैगम्बर) होने का दावा करेगा , तो वे ही पहले व्यक्ति होंगे।

                अलमोड़ा में आकर अपने गुरुभाई और संन्यासी शिष्यों के साथ स्वामीजी कैप्टन सेवियर के आतिथ्य में उनके किराये के बंगले में निवास करने लगे। वह बंगला भी उन्होंने लाला बद्री शाह से ही किराये पर लिया था। इस बंगले के बरामदे में एक दीवाल पर आज भी स्वामीजी की एक पुरानी तस्वीर टँगी हुई है।  निवेदिता एवं अन्य पाश्चात्य शिष्यायें पास ही एक दूसरे मकान रहने लगीं , जो अभी 'ओकले हॉउस ' के नाम से जाना जाता है। स्वामीजी प्रतिदिन बहुत सवरे -सवेरे अपने प्रातःभ्रमण को समाप्त कर 'ओकले हॉउस ' चले आते थे, और सुबह के नाश्ते के साथ विभिन्न विषयों पर घंटों वार्तालाप करते थे। 

               लगातार अपने भक्तों और आगंतुकों के साथ वार्तालाप करने, अनगिनत पत्र लिखने तथा सांसारिक शोर में रहते हुए, स्वामीजी का शरीर और मन कहीं एकान्त में बैठकर ध्यान-जन्य शांति की मांग कर रहा था। इधर निवेदिता को भारतीय भाव में गढ़ते हुए स्वामीजी अक्सर उनकी चिरपोषित रीतिनीति और आदर्शों की कड़ी आलोचना करते थे। इस मतभिन्नता की वजह से जहाँ एक ओर स्वतंत्र्याभिमानी निवेदिता मानसिक कष्ट भोग रहीं थीं , वहीं स्वामीजी के विश्राम की कामना भी कर रही थीं।   
        
            इसी प्रसंग में एक अन्य विशेष घटना अलमोड़ा में घटित हुई। अनपेक्षित ढंग से एक दिन संध्या के समय स्वामीजी 'ओकले हॉउस' पहुँच गए। निवेदिता तथा अन्य शिष्यायें बरामदे में बैठी थीं। आकाश में क्षीण चंद्ररेखा निकली हुई थी। उसकी ओर देखकर स्वामीजी ने निवेदिता से कहा - "आज अमावस्या है, (ईद की पूर्व संध्या पर निकला चन्द्रमा) मुसलमान लोग नवीन चन्द्र का बड़ा आदर करते हैं। " Today is the new moon!" आओ , हम भी आज नवीन चन्द्र के साथ नवीन जीवन का प्रारम्भ करें। मैं पुनः अरण्यों में जा रहा हूँ,जब मैं वापस आऊंगा शांति लेकर आऊंगा। " कहते हुए चरणों में बैठी हुई निवेदिता के मस्तक पर हाथों को रखकर आशीर्वाद दिया। उस दिव्य स्पर्श से निवेदिता के जन्मगत और जातिगत संस्कार एक क्षण में विलीन हो गए। 
         भगिनी निवेदिता ने अपनी डायरी में लिखा है , " बहुत दिन पूर्व श्रीरामकृष्ण ने अपने शिष्यों से कहा था , कि एक दिन आएगा जब नरेन्द्र स्पर्श मात्र से दूसरों में ज्ञान संचारित कर देगा। " और अलमोड़ा के इस सायंकाल में यह भविष्यवाणी सफल हो गयी। निवेदिता के लिये आज वही शुभ दिन था। उस दिन उन्होंने अपने सच्चे गुरुदेव को प्राप्त किया , जो उन्हें ईश्वर के पास ले जाने में समर्थ थे। गहरे ध्यान में पहुँचकर निवेदिता ने (untested test) 'अपरीक्षित स्वाद' - के स्वाद (existence-consciousness-bliss) की अनुभूति ' प्राप्त की !     
         अगली सुबह स्वामीजी सिया देवी पहाड़ी (45 किमी) चले गए।  तीन दिन और तीन रातों के ध्यान के बाद (26 मई को) जब स्वामी जी लौटे, उस समय निवेदिता तथा अन्य शिष्यायें 'थॉमसन हॉउस' (कैप्टन सेवियर के किराये का बंगला) के सामने उपस्थित थीं। स्वामीजी ने उज्ज्वल मुख से कहा, वे आज भी वही नंगे पैर भ्रमण करने वाले संन्यासी हैं,  যে শীত- গ্রীষ্মের দাস নয় , जो  सर्दी  और गर्मी का गुलाम (स्पर्श इन्द्रियों - not a slave of winter and summer)  नहीं है, जिसे पश्चिमी दुनिया कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकती थी ! 

             इस बार, अल्मोड़ा में (लगभग एक महीने) रहने के दौरान, श्रीमती एनी बेसेन्ट ( Mrs. Annie Besant) के साथ स्वामीजी की मुलाकात दो बार हुई । अलमोड़ा की एक दूसरी उल्लेखनीय घटना यह रही कि , स्वामीजी की प्रेरणा से मद्रास से छपने वाली अंग्रेजी पत्रिका ' प्रबुद्ध भारत ' जो  शुरू होने के कुछ दिनों बाद ही उसके सम्पादक के मृत्यु के कारण बन्द हो गयी थी। वह कैप्टन सेवियर के  सहयोग (collaboration) और स्वामी स्वरूपानन्द के सम्पादन में अलमोड़ा से (थॉमसन हॉउस) पुनर्प्रकाशित होने लगी। 
                कैप्टन सेवियर के साथ स्वयं स्वामीजी ने भी अलमोड़ा के आस- पास  अपनी योजना के अनुकूल आश्रम स्थापित करने योग्य स्थल की बहुत खोज की, किन्तु अपेक्षित जगह प्राप्त नहीं हुई। बाद में , जब 1899 ई. में अलमोड़ा से लगभग 90 कि.मी. दूर मायावती में जब 'अद्वैत आश्रम ' की स्थापना हुई तब 'प्रबुद्ध भारत ' पत्रिका का कार्यालय भी अलमोड़ा से मायावती में स्थानान्तरित हो गया।

             जैसा कि हमने पहले भी देखा है , स्वामीजी ने जितनी ही बार हिमालय की एकान्त कन्दराओं (secluded gorge) छिप जाने  की चेष्टा की है, इस दुःख-सन्तप्त धरती ने उनको उतनी ही बार पूरी निर्दयता से अपनी ओर खींच लिया है। इसी प्रकार एकबार, 30 मई को जब आश्रम के लिये अपेक्षित स्थल की खोज में स्वामीजी कैप्टन सेवियर के साथ  कुछ दिनों तक हिमालय के अरण्यों में रहे और 5 जून को वापस लौटे तब उन्हें दो हृदयविदारक समाचार सुनने को मिले। [পাওহারি বাবা গত হয়েছেন।] स्वामीजी की अनुपस्थिति में उनके शिष्यों को समाचार मिला था कि गाजीपुर के विख्यात साधु पवहारी बाबा ने अग्नि में स्वयं को आहुति के रूप में अर्पित किया है। और उनके प्रिय श्रुति-लेखक (dictator) जोशिया गुडविन [Josiah John Goodwin (20 September 1870 – 2 June 1898)], जिनके असाधारण त्याग, भक्ति और कठोर परिश्रम के कारण ही आज हमलोगों को स्वामीजी के अमूल्य उपदेश 10 खण्डों में संग्रहित होकर उपलब्ध हैं- 2 जून को तेज बुखार के आक्रमण से मात्र 27 वर्ष की आयु में ऊटी ( Ooty) में परलोक गमन कर गये हैं। 6 जून को प्रातःकाल 'ओकले हॉउस ' में स्वामीजी को यह समाचार सुनाया गया।  
        समाचार सुनकर स्वामीजी बहुत देर तक स्तब्ध होकर बैठे रहे , फिर कहा - " साधारण जनता के सामने भाषण देने के मेरे दिन समाप्त हो गये। मेरे ऊपर उसके जितने ऋण हैं, वे कभी चुकाये नहीं जा सकते। यदि मेरे किसी विचार से किसी को कुछ लाभ पहुँचा हो, तो उसे यह जान लेना चाहिये कि मेरे हर शब्द को धारण करने की पृष्ठभूमि में, गुडविन (जिसे स्वामीजी 'गुरुदास ' कहते थे) के अथक और निःस्वार्थ प्रयत्न ही जिम्मेदार हैं ! " 
           [अपने प्राणाधिक प्रिय शिष्य जोशिया  जे. गुडविन के असामयिक मृत्यु की खबर मिलने के कुछ घण्टों के बाद स्वामी विवेकानन्द  ने गुडविन की स्मृति में ' उसे शांति में विश्राम मिले ' (Requiescat in Pace)  शीर्षक कविता के साथ निम्नलिखित सन्देश गुडविन की माताजी के पास तथा अख़बारों  में छपने के लिये भेजा था -
             " अलमोड़ा,  जून 1898 : असीम दुःख के साथ मैंने श्री गुडविन के इस जीवन से विदा होने के दुखद समाचार को सुना, यह सब कुछ इतना अचानक हुआ कि अंतिम समय में मेरा उसके समीप पहुँचना भी सम्भव नहीं हो सका। " The debt of gratitude I owe him can never be repaid, and those who think they have been helped by any thought of mine ought to know that almost every word of it was published through the untiring and most unselfish exertions of Mr. Goodwin. " 
                एक ऐसा मित्र जिसकी मित्रता शुद्ध इस्पात जितनी दृढ़ और सच्ची थी, एक ऐसा  शिष्य जिसकी गुरुभक्ति अटल थी, एक ऐसा  कर्मी  जो जानता ही नहीं था कि थकान किस चिड़िया का नाम है... को मैंने गुडविन के रूप में खो दिया हैऔर जिनके  जन्म-ग्रहण उद्देश्य जैसे  'केवल दूसरों के लिये जीना' ही होता है , उन इने-गिने व्यक्तियों में से एक को खोकर यह जगत भी आज  कम समृद्ध रह गया है।   
[अहस्ताक्षरित]
उसे शांति में विश्राम मिले'  
आगे बढ़ो हे आत्मन ! अपने नक्षत्र-जड़ित पथ पर,
हे पूर्ण आनन्दमय ! बढ़ो , जहाँ विचार नित्यमुक्त हैं,
जहाँ देश-काल (माया ) आकर ज्ञानमयी दृष्टि को धूमिल नहीं कर सकती,
और जहाँ केवल चिरंतन शांति और परमानन्द है, वह आशीर्वाद तुम्हारे साथ हो! 
जहाँ तुम्हारी सच्ची सेवा, तुम्हारे त्याग (अभय) को पूर्णता प्रदान करेगी,
 जहाँ उत्कृष्ट प्रेम से परिपूर्ण हृदयों में तुम्हारा निवास होगा,
 मधुर स्मृतियाँ देश और काल की दूरियाँ मिटा देती हैं, 
तुम्हारी गुलाबों जैसी बलिवेदी, तुम्हारे पश्चात् विश्व को अनुप्रेरित करती रहेगी। 
तुम्हारे बन्धन टूट गये, तुम्हारी खोज सच्चिदानन्द (परम् सत्य) तक पहुँच गयी,
अब तुम उस एकत्व (अद्वैत) में लीन हो, जो मरण और जीवन (द्वैत) बनकर आता है,
हे परोपकाररत , हे निःस्वार्थ प्राण - इसलिये अप्रतिरोध्य वीर, आगे बढ़ो !
 और अब भी (अशरीरी होकर) भी तुम दुःख-सन्तप्त जगत की सप्रेम सहायता करो।   

'REQUIESCAT IN PACE' 
Speed forth, O Soul! upon thy star-strewn path;
Speed, blissful one! where thought is ever free,
Where time and space no longer mist the view,
Eternal peace and blessings be with thee!

Thy service true, complete thy sacrifice,
Thy home the heart of love transcendent find;
Remembrance sweet, that kills all space and time,
Like altar roses fill thy place behind!

Thy bonds are broke, thy quest in bliss is found,
And one with That which comes as Death and Life;
Thou helpful one! unselfish e'er on earth,
Ahead! still help with love this world of strife!]

           इस बार की अल्मोड़ा यात्रा में स्वामीजी ने जिन सब विषयों पर भी चर्चा की थी, उनके अधिकांश भागों को भगिनी निवेदिता ने अपनी पुस्तक  'Notes of Some Wanderings with Swami Vivekananda' (स्वामी विवेकानन्द के साथ किये हुए भ्रमण से सम्बन्धित टिप्पणियाँ) तथा 'मेरे गुरुदेव, जैसा मैंने उन्हें देखा' (The Master as I Saw Him) में सुंदर रूप से संकलित और संग्रह करके रख गयीं हैं।
    (क्योंकि स्वामी स्वरूपानन्द से उन्होंने तबतक बंगला लिखना -पढ़ना सीख लिया था।) उस समय आगंतुकों और भक्तों के साथ आध्यात्मिक विषय के आलावा, भारत की राष्ट्रीय चेतना का जागरण, जनसाधारण का समग्र विकास (3H-विकास) तथा स्वतंत्रता-प्राप्ति के स्वप्न उल्लेख भी  वार्तालाप के क्रम में बार-बार सामने आता था; जैसा कि अश्विनी कुमार से शिक्षा-दान प्रणाली तथा अन्य आदर्शों के प्रसंग में हमने पहले भी देखा है। 
               विदेश में रहते हुए भी, स्वामीजी ने हिन्द महासागर की लहरों को इतना ऊंचा उठा दिया था कि ब्रिटिश सरकार के जासूस लोग, भारत में उनकी गतिविधियों पर नजर रखने लगे थे। इस बात का उल्लेख करते हुए भगिनी निवेदिता अलमोड़ा से अपनी सहेली श्रीमती एरिक हैमंड को 22 मई, 1898 को लिखित एक पत्र में कहती हैं -পৌরুষ কোন বাধা মানে না। " One of the monks has had a warning this morning that the police are watching the Swami, thro' spies— आज सुबह में ही स्वामीजी के एक संन्यासी शिष्य ने हमें  चेतावनी देते हुए कहा है कि ब्रिटिश सरकार जासूसों के माध्यम से स्वामीजी पर नजर रख रही है। सामान्य रूप से यह सब होता है,  हमलोग भी सामान्य रूप से यह जानते हैं, किन्तु स्वामीजी  काफी विख्यात हो गए हैं, और अब उनपर नजर रखना थोड़ी चिंता पैदा करता है; किन्तु स्वामीजी यह सब सुनकर हँसते हैं।  " The Government must be mad—or at least will prove so if he is interfered with." ~  यदि सरकार अब स्वामीजी के मामलों में हस्तक्षेप करने जाती है, तो यह पागलपन ही होगा। या इससे कम से कम यह सिद्ध हो जायेगा कि ब्रिटिश सरकार पगला गयी है। क्योंकि सम्पूर्ण देश उसके विरुद्ध उठ खड़ा होगा। और एक प्रगाढ़ स्वाधीनता प्रेमी , देशभक्त अंग्रेज महिला होने के नाते , उनके विरुद्ध तो सबसे पहले मैं ही उठ खड़ी होउंगी ! क्योंकि 'पौरुष' (Manliness-चरम पुरुषार्थ) किसी प्रकार की बाधा को स्वीकार नहीं करता।
       [ " You could not imagine what race-hatred means, living in England Manliness seems a barrier to nothing— 3 white women travelling with the Swami and other "natives"—lay themselves and their friends open to horrid insults—mais nous changerous tout cela—(फ्रेंच -'माइनि सोसो उट ओ सेला'  but we change it all—) "  इंग्लैण्ड में पौरुष किसी प्रकार की बाधा को स्वीकार नहीं करता -in England Manliness seems a barrier to nothing— इसलिये तुम इंग्लैण्ड में रहते हुए यह सोच भी नहीं सकती कि " race-hatred " रंगभेद आधारित जाति-विद्वेष किसे कहते हैं ! - स्वामी विवेकानन्द तथा अन्य " मूल-निवासियों " के साथ हम 3 श्वेत महिलाओं को यात्रा करते समय स्वयं को और अपने मित्रों  को  घोर अपमानित होने  के लिए खुला छोड़ देना पड़ता है ; लेकिन ~ "माई नेस चेंजरस टाउट सेला"- ( लेकिन हमने इस चलन को बदल दिया है -]    
              विवेकानन्द ने 'चरित्र-निर्माण' के लिये हमेशा " मनुष्य-निर्माण " पर बल दिया है, तथा हर मनुष्य को अपना 'जीवन गठन ' करने में समर्थ बना देने को ही ~  अपना "educational goal" या शैक्षणिक लक्ष्य  कहा है। और उनके इस शैक्षणिक कार्यक्रम  में महिलाओं के साथ-साथ निम्न-श्रेणी की जातियां भी अन्तर्विष्ट हैं। " they were often lumped together by the Swami " क्योंकि स्वामीजी ने देखा था कि  देवी सीता के जमाने से (त्रेता युग से) ही समस्त मातृस्वरूपा स्त्रियों को भी निम्न जातियों की तरह समाज में उचित सम्मान नहीं मिलता है, इसलिये अक्सर वे दोनों को एक साथ संयुक्त (lumped together) करके उनकी भी उन्नति करना चाहते थे। इसलिये अक्सर महिलाओं को पिछड़ी जातियों के साथ ही संयुक्त करके ही उनके विकास का प्रशिक्षण कार्यक्रम तैयार करते थे। उनके "Be and Make program of education" मनुष्य बनो और बनाओ शैक्षणिक कार्यक्रम में~  (" विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा"   में प्रशिक्षित शिक्षकों का निर्माण करने के कार्यक्रम में) महिलाओं के साथ-साथ निम्न-श्रेणी की जातियां भी अन्तर्विष्ट थीं।] 
         स्वामी जी समय -समय पर शब्द-छलन करके 'मनुष्य' शब्द (बंगला में 'मानुष') का व्यवहार व्यापक रूप से ' मानव-जाति' या 'मानवता' के लिये भी करते थे; तथापि विशेष रूप से इस शब्द का प्रयोग अक्सर वे  'पुरुष' ~ "male" के लिये ही किया करते थे।  
           " For example, his concept for manliness--standing for both the Bengali manusyatva ("humanity" or "humanness") and purusatva ("masculinity" or "maleness"), often denoted the latter." ~ उदाहरण के लिये, "पौरुष " (manliness) शब्द से बंगला के "मनुष्यत्व" (humanity-भलमनसाहत, या humanness-इन्सानियत) एवं "पुरुषत्व" ("masculinity"-बहादुरता या क्षत्रियत्व, या ब्रह्मवेत्ता पुरुष-जाति (गुरु/नेता) की विशेषता- "maleness" -the  characteristic of the male sex)  दोनों अर्थों का प्रतिनिधित्व हो जाता था।  तथापि " पौरुष " शब्द का अर्थ उनकी अवधारणा में अक्सर बाद वाला ही लक्षित (denoted) होता था। उन्होंने जोर देकर कहा था कि उनकी 'मनुष्यत्व-उन्मेषकारी शिक्षा' में यह " पौरुष " ('manliness') शब्द ~  "बैकबोन" के साथ "व्यक्तित्व" या  ' मेरुदण्ड आधारित (ब्रह्माधारित) व्यक्तित्व' के भाव को स्त्री-पुरुष दोनों के मन में दृढ़ता के साथ (inculcate) कर देगा - बैठा देगा। उन्होंने एक बार भगिनी निवेदिता से कहा था - " जैसे जैसे मेरी आयु बढ़ रही है, वैसे वैसे मुझे ऐसा प्रतीत है कि सब कुछ 'पौरुष ' पर ही निर्भर करता है। यह मेरा सिद्धान्त और विश्वास है (credo या gospel है)। यदि बुराई (debauchery) भी करो तो एक 'पुरुष सिंह ' की भाँति करो ! ( Master As I Saw Him, p. 175.)]  
             श्री सुरेन्द्र नाथ सेन ने अपनी डायरी में सोमवार, 24 जनवरी, 1898 को लिखा है - " राधा -प्रेम की चर्चा सर्वसाधारण के लिये क्यों वर्जित है ? इस प्रश्न के उत्तर में स्वामीजी ने कहा - " इस देश पर उसका क्या परिणाम हुआ यह तो देखो। उस प्रेमभाव का सर्वसाधारण में प्रचार किये जाने से सारा राष्ट्र स्त्रैण ( effeminate) बन गया है। सारा उड़ीसा कायरों का देश बन गया है , और बंगाल - इस राधाप्रेम के पीछे इन 400 वर्षों में अपना पुंसत्व 'has almost lost all sense of manliness!'  ही खो बैठा हैलोगों को बस रोना और आँसू बहाना मात्र आता है , यही उनका जातीय गुण बन गया है। ... जब तक हृदय में वासना के लिये तिलमात्र भी आसक्ति विद्यमान है, तब तक वह प्रेम सम्भव नहीं। meditating on love to God by thinking of oneself as His wife or beloved, one would very likely be thinking most of the time of one's own wife—the result is too obvious to point out.  ... क्योंकि ईश्वर का ध्यान अपनी प्रिया मानकर करते करते, साधारण मनुष्य अधिकांश समय अपनी प्रिया (पत्नी या उपपत्नी) के ध्यान में ही खोया रहेगा और इसका परिणाम क्या होगा यह स्पष्ट है।  Why not try first to get rid of carnal desires? You will say, "How is that possible? I am a householder." पहले अपनी इन्द्रियासक्ति , भोगों की लालसा का ही त्याग क्यों न करो ? तुम कहोगे - ' यह कैसे सम्भव है , मैं तो गृहस्थ हूँ। ' Because one is a householder, does it mean that one should be a personification of incontinence, or that one has to live in marital relations all one's life?  गृहस्थ होने का अर्थ पशु बन जाना तो नहीं है , कि कोई मूर्तिमन्त वासना बन जाये और आजन्म वैवाहिक सुख का उपभोग करता रहे ? और फिर मनुष्य के लिये यह कितना लज्जास्पद है कि वह स्वयं को स्त्री समझने लगे , जिससे कि मधुर भाव का आचरण कर सके ! ८/२८१ 
       बल्कि अल्मोड़ा में जून 1897 को पहुँचे किसी आगंतुक (अश्विनी कुमार ?) को सलाह देते हुए कहा था कि - erotic Radha-Krishna songs वे 'राधा-कृष्ण ' प्रेमगीत के नाम पर जो लोग कामुक गीत गाते हों, उनकी पीठ को चाबुक मार-मार कर लाल कर देना चाहिए।" इसी सुर में उन्होंने भगिनी निवेदिता को चेतावनी देते हुए कहा था कि तुम 'सौंदर्य-विज्ञान मतावलंबी (aesthete) तथा 'effeminate' स्त्रैण-स्वभाव वाले रवीन्द्रनाथ टैगोर के सौन्दर्योपासक 'टैगोर परिवार ' से भी जरा बचके ही रहना;"Remember that that family has poured a lot of erotic venom over Bengal." याद रखना कि इस परिवार ने बंगाल के ऊपर कामुकता के जहर का बहुत ज्यादा बौछार किया है। भगिनी निवेदिता भी अपने गुरु से इतनी प्रभावित थीं कि उन्होंने अपनी सहेली जोसिफ़िन मैक्लाउड को (15 अक्टूबर, 1904) को लिखित पत्र में कहा था - ". . .Mr. Tagore's is not the type of manhood that appeals to me." टैगोर में वैसा 'पौरुष ' ही नहीं है, जो मुझे आदर्श लगता होइनको ही अगस्त 19, 1999 को लिखित एक पत्र में कहा था -  Again Swami is right. Work like this requires persons like you and myself who have no other object or thought in life. The Householder Disciple is always a failure, when he leads. As  follower he does very well.स्वामीजी ही सही थे , जब वे कहते थे कि इस तरह के (महामण्डल) आन्दोलन को चलाने के लिये मेरे और तुम्हारे जैसे (जीवनमुक्त) व्यक्तियों की ही आवश्यकता होती है, जिनके लिये जीवन में, महामण्डल के आदर्श  और उद्देश्य के अलावा कोई अन्य विचार या कार्य उतना महत्वपूर्ण नहीं होता । जबकि वैसा व्यक्ति जो अभीतक जीवनमुक्त नहीं बन सका है, गृहस्थी के कार्य में उलझा हुआ है, जब वैसा शिष्य इस तरह के आंदोलन का नेतृत्व करने लगता है, तो वह हमेशा असफल ही सिद्ध होता है। जबकि एक अनुयायी के रूप में वह बहुत अच्छा कार्य करता है। " 
                [ Vivekananda always emphasized "man-making" as his educational goal for building character and equipping students to the task of what he called "life-building." This program of education included women as well as the lower castes (they were often lumped together by the Swami).However, he equivocated with the word man (manus in Bengali), occasionally using it in a generic sense--"mankind" or "humanity"--but often meaning specifically "male." For example, his concept for manliness--standing for both the Bengali manusyatva ("humanity" or "humanness") and purusatva ("masculinity" or "maleness"), often denoted the latter. He pointed out that this manliness would inculcate "individuality" with "backbone,"  he once told Nivedita: "Yes, the older I grow, the more everything seems to me to lie in manliness. This is my gospel. Do even evil like a man!" ( Master As I Saw Him, p. 175.) " The whole of Orissa has been turned into a land of cowards, and Bengal, running high after the Radha-prema, these past four hundred years, has almost lost all sense of manliness." He in fact advised a visitor at Almora in June 1897 to "use the whip left and right" on those who were indulging in the erotic Radha-Krishna songs (meaning, of course, the Vaishnavas/ His Eastern and Western Disciples, The Life of Swami Vivekananda, 2 vols.).In similar vein, he interpreted the poems of the aesthete Rabindranath Tagore (who would be the recipient of the Nobel Prize for Literature in 1913) as effeminate (स्त्रैण या मउगा) and warned Nivedita about the Tagores: "Remember that that family has poured a lot of erotic venom over Bengal." The Sister was so influenced by her guru that she confided to Josephine MacLeod: ". . .Mr. Tagore's is not the type of manhood that appeals to me." Letters of Nivedita, II, 686: Nivedita's letter (October 15, 1904).Courtesy :Swami Vivekananda's Concept of Woman/Narasingha P. Sil/Western Oregon State College/http/www.lib.uchicago.edu/] 
         अपने भक्तों और यूरोपीय शिष्याओं के साथ श्रीमती बुल के अतिथि के रूप में स्वामीजी 11 जून 1898 को अलमोड़ा से काश्मीर -भ्रमण के लिए रवाना हो गये। क्षीरभवानी , अमरनाथ आदि तीर्थस्थानों का दर्शन करने के बाद किसी अदृश्य शक्ति के प्रभाव से पुनः समतल में रहने वाले जनसाधारण के बीच पहुँच गए। देवभूमि हिमालय के आकर्षण को छोड़ कर, पुनः संसार के कोलाहल में वापस लौटने के लिये बाध्य किये जाने से उनके मन को जो पीड़ा हुई, वह अन्ततोगत्वा उनके गुरुदेव , आचार्य , जीवन के आदर्श , अपने इष्ट देवता , प्राणों के देवता श्रीरामकृष्ण के ऊपर फूट पड़ी। यह सब सुनकर माँ सारदा ने कहा- " बेटे , तुम कर ही क्या सकते हो , तुम्हारी शिखा (चोटी) तो उनके हाथों से बँधी हुई है। 
           क्रियात्मक वेदान्त का प्रचार कार्य:  यह जानकर कि स्वामीजी बेलुड़ मठ में निवास कर रहे हैं , प्रतिदिन कॉलेज के अनेक छात्र व शिक्षित युवक उनके दर्शन के लिये आने लगे। अधिकांश युवकों की शारीरिक दुर्बलता , नैतिक चरित्रहीनता तथा अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव से मस्तिष्क-विकृति को देखकर क्षुब्ध होकर प्रायः कहते थे - " I want to preach a man-making Religion ." मैं एक मनुष्य-निर्माणकारी धर्म का प्रचार करना चाहता हूँ।" दो हजार वीरहृदय (पौरुष सम्पन्न) , विश्वासी , चरित्रवान व बुद्धिमान युवक तथा 30 करोड़ रूपये होने पर मैं भारत को अपने पैरों पर खड़ा कर दे सकता हूँ। " वि०च० /२५७
            'मनुष्य-निर्माणकारी क्रियात्मक वेदान्त ~ Be and Make ' का अद्वैत भाव से अनुसरण (pursuit) करने के लिये स्वामीजी हिमालय क्षेत्र में भी एक आश्रम स्थापित करना चाहते थे। किन्तु बहुत ढूँढ़ने से भी अलमोड़ा के निकट आश्रम -स्थापित करने योग्य कोई उपयुक्त स्थान खोज पाना सम्भव नहीं हुआ था। बाद में कैप्टन सेवियर के जीतोड़ परिश्रम से मायावती में वह अद्वैत -आश्रम स्थापित हुआ। किन्तु, कैप्टन सेवियर ने उस आश्रम को स्थापित करने में सचमुच अपना जीवन ही दाव पर लगा दिया था। 'তাঁর সেখানেই মৃত্যু হয় এবং অনতিদূরস্থ ছোট পাহাড়ি নদীর ধারে তাঁর শরীরের অগ্নি-সংস্কার হয়।' 
    आश्रम स्थापित होने के कुछ ही दिनों बाद उनकी मृत्यु हो गयी, और आश्रम से थोड़ी ही दूर पर बहने वाली एक पहाड़ी नदी के किनारे उनके शरीर का (ब्राह्मण - पद्धति से) अग्नि-संस्कार कर दिया गया। [स्वामीजी अक्सर कहते थे -" साधारण लोग जीवन से प्रेम रखते हैं, तुम्हें मृत्यु से प्रेम रखना होगा। मृत्यु से प्रेम रखने का मतलब है - भारत के कल्याण की कामना से अपने प्राणों को न्योछावर कर देने के लिये सदा तैयार रहना।"
             उस समय (अद्वैत आश्रम स्थापित होने के समय) स्वामीजी दूसरी बार विदेश यात्रा पर निकले हुए थे। इसलिए आश्रम के स्थापित होने पर वे वहाँ नहीं जा सके थे। अमेरिका ,यूरोप, अफ्रीका आदि स्थानों की यात्रा के बाद, बम्बई के बन्दरगाह पर उतरते ही जब उन्होंने कैप्टन सेवियर का समाचार जानना चाहा -(उन्हें पूर्वाभास हो गया था), तब उन्हें पता चला कि कुछ ही दिनों पूर्व उनका देहान्त हो गया है। 

         बेलुड़ मठ पहुँचकर ही स्वामीजी मायावती जाने की तैयारी करने लगे। उन्होंने यथोचित समय पहले  अद्वैत आश्रम, मायावती को अपने आगमन की सूचना नहीं भेजी थी, अतः तय किया कि मायावती से  किसी व्यक्ति के काठगोदाम स्टेशन पर उपस्थित न हो सकने की स्थिति में वे अलमोड़ा होते हुए जायेंगे। इसलिये उन्होंने बद्री शाह को भी तार (telegram) कर दिया। काठगोदाम पहुँचकर उन्होंने देखा कि, उनको मायावती ले जाने के लिये स्वामी विरजानन्द (कालीकृष्ण)  डांडी लेकर उपस्थित हैं। तब तक लाला बद्रीशाह भी स्वामीजी को अलमोड़ा ले आने के लिये लाला गोविन्दलाल शाह को काठगोदाम भेज चुके थे। इस बार स्वामी शिवानन्द और स्वामी सदानन्द भी स्वामीजी के साथ थे। कालीकृष्ण और स्वामी शिवानन्द ने विचार-विमर्श करके यह निर्णय लिया कि अलमोड़ा जाने से उनको वहीं अटक जाना होगा, जबकि शीघ्रातिशीघ्र मायावती पहुँचना आवश्यक है;  अतः (30 दिसम्बर, 1900 को) अलमोड़ा न जाकर सीधा मायावती के लिये रवाना हुए।
               किन्तु यह सोंचकर कि कम से कम मायावती से लौटते समय वे स्वामीजी को अलमोड़ा अवश्य ले जा सकेंगे - गोविन्दलाल ने उनका साथ नहीं छोड़ा। तथापि, वैसा हो न सका। काठगोदाम से मायावती के पथ पर, दूसरे दिन भयंकर ओले तथा बर्फ गिरने के कारण सभी को बहुत कष्ट उठाना पड़ा। तथापि ,स्वामीजी ने अलमोड़ा का आतिथ्य मोरनाला के डाक बंगले में 1 जनवरी, 1901 को गोविन्दलाल के माध्यम से ग्रहण किया था।   
            अलमोड़ा पहाड़ की चोटी के पश्चिमी छोर (Bright end Corner) के निकट, पहाड़ी की ढलान पर स्वामी तुरियानन्द ने 1917 ई. में 'रामकृष्ण कुटीर ' नामक एक आश्रम को स्थापित किया था। ' ब्राइट एंड कॉर्नर' एक विशेष बिंदु है जहाँ से त्रिशूल पर्वत, नंदा देवी, नंदकोट, पंचाचूली इत्यादि जैसे हिमालय की चोटियों  के अविश्वसनीय दृश्यों को देखा जा सकता है। यहाँ पर सूर्यास्त और सूर्योदय सबसे प्रतीक्षित घटनाएं हैं। यहाँ से 'सियादेवी पहाड़' बहुत भव्य दिखाई देता है। वहाँ , पुरुषसिंह (नरसिंह) स्वामी विवेकानन्द ने बहुत लम्बे समय तक तपस्या की थी। उस पहाड़ के शिखर पर  कुछ गाछवृक्ष युगों से इस प्रकार खड़े हैं,जिसे देखने से लगता है, सचमुच वहाँ कोई सिंह खड़ा हो। इस आश्रम सामने से ही ~  ' কোশী নদীটি এঁকে বেঁকে চলে গেছে' कोशी नदी आड़े -तिरछे रास्तों से बहते हुए बहुत दूरी तक चली गयी है। 
         यहाँ से थोड़ा नीचे जाकर समीप में ही, एक पुराना बंगला आज भी खड़ा है। यह मकान - 'चिलकापेटा हॉउस' लाला बद्रीशाह के वंशधरों का ही है। स्वामी तुरियानन्द अमेरिका में अपना प्रचार-कार्य समाप्त करके वापस लौट आने के बाद अलमोड़ा चले आये थे और स्वामी शिवानन्द के साथ इसी मकान रहते हुए कठोर तपस्या में निमग्न रहते हुए समय व्यतीत करते थे। स्वामी विवेकानन्द की बहुत सारी स्मृतियों को सँजोय अलमोड़ा का यह आश्रम आज एक 'तीर्थ स्थल ' बन गया है। देश-विदेश से बहुत सारे संन्यासी, भक्त , पर्यटक ध्यान करने के लिये अप्रैल से जून और सितंबर से नवंबर के दौरान इस जगह की यात्रा करते हैं। यहाँ बैठकर ध्यान करने से उनका मन स्वतः ही अन्तर्मुखी हो जाता है।

             इस आश्रम के निकट में ही 'विवेकानन्द लेबोरेटरी' अवस्थित है। स्वामीजी के प्रथम शिष्य स्वामी सदानन्द के शिष्य और कृषि वैज्ञानिक पद्मश्री प्रो০ बोसी सेन (वशी सेन) -ने स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा से अनुप्रेरित होकर, कृषि प्रधान देश भारत की आम जनता की सेवा के उद्देश्य से " प्लांट फिजियोलॉजी एवं कृषि अनुसंधान केन्द्र "  के रूप में इस प्रयोगशाला को जुलाई 1924 में स्थापित किया था। 1 अक्टूबर 1974 को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा इस संस्थान को अपने अन्तर्गत ले लिया एवं इसका नाम " विवेकानन्द पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान" हो गया। जिसका आदर्श वाक्य है -' प्रगति की ओर अग्रसर रहो! ' 
           दरअसल स्वामी विवेकानन्द जी राष्ट्र-हित को ही राष्ट्र-धर्म समझते थे, इसलिये  " उद्योग-संस्थापन  एवं कृषि अनुसंधान " जैसे कार्यों को भी भारतीय गृहस्थों का धर्म (कर्तव्य ) के दायरे में रखते थे। वे कहते थे हर भारतीय स्त्री पुरुष को धनी होना चाहिए, अपना उद्योग लगाओ, उद्योगी बनो- उनका आह्वान था~ ' प्रगति की ओर अग्रसर रहो! ' (आजादी के 73 साल बाद भी उसे गरीब क्यों रहना चाहिये ?) एक बार वे एक्सप्रेस नामक जहाज में बैठ जापान जा रहे थे। साथ में संयोग से जमशेद जी टाटा भी थे। बातचीत में पता चला वे जापान से माचिस के आयात हेतु जा रहे हैं- स्वामी जी ने कहा- एक पतली सी लकड़ी का बक्सा, बारीक लकड़ियों की तीलियों पर लगा बारूदी मसाला- क्या हम भारत में यह भी नहीं बना सकते? जो भी उद्योग लगाना हो, भारत में ही लगाओ। जमशेद जी टाटा ने उनकी प्रेरणा से भारत में टाटा स्टील का उद्योग लगाया। स्वामीजी के इसी उपदेश से अनुप्रेरित होकर  प्रो० बोसी सेन ने अल्मोड़ा में भारत के प्रथम कृषि अनुसन्धान संस्थान को 'विवेकानन्द लेबोरेटरी' के नाम से स्थापित किया था। कृषि अनुसन्धान के क्षेत्र में यह संस्थान ही प्रथम मार्ग-निर्माता (pioneer) है।   

          अल्मोड़ा की अपनी पहली यात्रा के समय , स्वामीजी जब नंगे-पाँव दुर्गम पथों की यात्रा के श्रम और भूख से निढाल होकर अर्धमूर्छित अवस्था में एक चट्टान पर जाकर सो गए थे, और एक मुसलमान फ़कीर  ने खीरा खिलाकर उनके प्राणों की रक्षा की थी, वह स्थान आश्रम से लगभग 3 कि.मी. की दूरी पर  है। अभी उस स्थान पर 'स्वामी विवेकानन्द मेमोरियल रेस्ट हाउस' नामक एक विश्रामागार का निर्माण किया गया है। इस 'विश्रामागार स्मारक' का उद्घाटन 4 जुलाई 1971 को किया गया था। इस क्षेत्र में  स्वामी विवेकानन्द के स्मारक के रूप से यह एकमात्र स्मारक है। आज इसके सामने से होकर एक चौड़ा और उत्कृष्ट सड़क मार्ग गुजरता है। कड़ी धूप , वर्षा या बर्फबारी होने पर पर्यटक यहाँ आश्रय पा सकते हैं, तथा स्वामीजी के ध्यान में तल्लीन हो सकते हैं। 

        इसके समीप ही वह चट्टान है, और थोड़ी ही दूरी पर स्थित कब्रिस्तान के निकट उस फकीर की जो कुटिया थी, उसे भी यहाँ से देखा जा सकता है। इस विश्रामागार में जो नल लगा हुआ है, वह इस क्षेत्र में पीने के पानी का एकमात्र स्रोत है। यह हॉल (विशाल बैठक) चारों ओर से खुला हुआ है। हिमालय की बर्फ से ढकीं सफेद चोटियाँ दूर से देखी जा सकती हैं। इसके चारो तरफ बड़े बड़े गमलों में कई प्रकार के फूल लगे हुए हैं, चारों ओर लत्तर में लगे फूलों के गुच्छे ऊपर तक खिले हुए हैं। अमेरकी चित्रकार अर्ल क्रिस्टर के द्वारा चित्रित स्वामीजी की एक ऑइलपेंटिंग ऊपर से नीचे की तरफ आती हुई झंझरी (lattice) से लटकी हुई है। हॉल में प्रविष्ट होते ही ध्यानसिद्ध स्वामीजी के उपदेशों का स्मरण होने लगता है। उस चित्र की पृष्ठभूमि में शिवालय हिमालय का मानस सरोवर और कैलाश चित्रित हैं। हॉल के तीन तरफ पर्यटकों के बैठने के लिये सीमेन्ट के बेंच बने हुए हैं। 
            खम्भों में लगे काँच के नीचे स्वामीजी के 10 सन्देश अंग्रेजी, हिन्दी और उर्दू में उत्कीर्ण हैं। इन सन्देशों में सेवा , निःस्वार्थ कर्म , धर्म , मनुष्य जीवन का आदर्श , एकात्मकता , विश्वास , मुक्ति (भ्रममुक्ति या मोक्ष ), चरित्र, परम् सत्य तथा सभी वर्तमान, भूत और भविष्य के समस्त महापुरुषों (भावी अवतारों , जीवनमुक्त शिक्षकों, नेताओं) के चरणों में साष्टांग -प्रणाम निवेदित किया गया है।
[वर्तमान भारत के लिये , भावी भारत का सन्देश:  the message of India that is to be India as she is at present: विश्व को भारत का सन्देश/९/२९७ ]: इन सन्देशों में पहला सन्देश इस प्रकार हैं -
 🔱🙏" मेरे जीवन की निष्ठा तो मेरी इस मातृभूमि के प्रति ही अर्पित है। और यदि मुझे हजार जन्म भी लेना पड़े,  तो मेरे  प्रत्येक जीवन का प्रत्येक  क्षण , मेरे देशवासियो , मेरे मित्रो , तुम्हारी सेवा में अर्पित होगा।
( My life's allegiance is to this my motherland; and if I had a thousand lives, every moment of the whole series would be consecrated to your service, my countrymen, my friends.) 
(এই মাতৃভূমির প্রতিই আমার সারাজীবনের আনুগত্য ; এবং আমাকে যদি সহস্রবার জন্মগ্রহণ করিতে হয় , তবে সেই সহস্র জীবনের প্রতি মুহূর্ত আমার স্বদেশবাসীর , হে আমার বন্ধুবর্গ - তোমাদেরই সেবায় ব্যাতিত হইবে !) 
 🔱🙏 अद्वैत दर्शन (महावाक्यों) की महिमा यही है  कि वह सिद्धान्त का प्रचार करता है, व्यक्ति का नहीं; और बावजूद इसके वह साधारण मनुष्य और अवतार -दोनों प्रकार के व्यक्तियों को अपनी अपनी लीला करने का पूर्ण अवसर प्रदान करता है।  इसीलिये  वेदान्त के सिद्धान्तों [चार महावाक्यों ] का प्रचार न केवल भारत के गाँव -गाँव में होना चाहिये, बल्कि भारत के बाहर भी। प्रत्येक राष्ट्र की मनश्चेतना में हमारे विचारों [एकं सत ..] का प्रवेश होना ही चाहिये , किन्तु लेखों-ग्रन्थों के  द्वारा नहीं, बल्कि व्यक्तियों द्वारा। [ जीवनमुक्त शिक्षकों के उदाहरणस्वरूप गठित जीवन के माध्यम से
(  Here is the glory of the Advaita system preaching a principle, not a person, yet allowing persons, both human and divine, to have their full play.  So, The principles of the Vedanta not only should be preached everywhere in India, but also outside. Our thought must enter into the make-up of the minds of every nation, not through writings, but through persons.  )  
🔱🙏' न प्रजया धनेन : भारत का महान आदर्श - ब्राह्मणत्व ! जन्म से ब्राह्मणत्व !  सम्पत्ति हीन, निःस्वार्थ , नैतिक विधान के अतिरिक्त अन्य किसी शासक या कानून के अधीन नहीं। हाँ,मेरे बन्धुओं, यही गौरवमय भाग्य हमारे देश का है; क्योंकि उपनिषद युगीन सुदूर अतीत में , हमने इस संसार को चुनौती दी थी - ' न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः' ~कुछ लोग कर्म से, प्रजा से और धन से नहीं किन्तु केवल त्याग से अमृत स्वरुप परब्रह्म नारायण को प्राप्त हुए ॥  (महाना० १२/३ )अर्थात न तो वंश विस्तार करने से और न सम्पत्ति द्वारा , वरन केवल 'सादगी और  त्याग' द्वारा ही अमृतत्व की उपलब्धि होती है।
न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः।
परेण नाकं निहितं गुहायां विभ्राजते यद्यतयो विशन्ति ॥
(कैवल्योपनिषद्- ३)
उस (अमृत) की प्राप्ति न कर्म के द्वारा, न सन्तान के द्वारा और न ही धन के द्वारा हो पाती है। (उस) अमृतत्व को सम्यक् रूप से (ब्रह्म को जानने वालों ने) केवल त्याग के द्वारा ही प्राप्त किया है। स्वर्गलोक से भी ऊपर गुहा अर्थात् बुद्धि के गह्वर में प्रतिष्ठित होकर जो ब्रह्मलोक प्रकाश से परिपूर्ण है, ऐसे उस (ब्रह्मलोक) में संयमशील योगीजन ही प्रविष्ट होते हैं ॥

🔱🙏न मेधया न बहुना श्रुतेन ।

नायमात्मा प्रवचनेन  लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्।।
(मुण्डकोपनिषद् ३/२/३, कठोपनिषद् १/२/२३)
भाषण/प्रवचन  करने या सुनने से, बुद्धि से या अधिक शास्त्र -ज्ञान प्राप्त करने से ही परमात्मा को प्राप्त नहीं किया जा सकता । वह परमात्मा जिसे अपनी प्राप्ति का पात्र समझ लेता है, वह उसी के हृदय को अपना आधार मानकर वहीं दर्शन देता है । यह 'आत्मा' प्रवचन द्वारा लभ्य नहीं हैं, न ही मेधा-शक्ति और न शास्त्रों को बहुत अधिक जानने-सुनने से प्राप्य है। केवल वही 'उसे' प्राप्त कर सकता है जिसका 'यह वरण करता है; केवल उसके प्रति ही यह 'आत्मा' अपने स्वरूप का उद्घाटन करता है।
 🔱🙏हमारा समाधान : भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं - त्याग और सेवा ! Our solution is unworldliness — renunciation. " - असंसारिकता - त्याग। पुराणों में कहा है कि कलियुग में केवल अ-ब्राह्मण ही होंगे और यह भविष्यवाणी अधिकाधिक सत्य होती जा रही है। फिरभी कुछ ब्राह्मण शेष रहते हैं , और वह भी केवल भारत में। किन्तु पहले ' क्षत्रियत्व !'  - ब्राह्मण बनने के लिये यह सोपान पहले पार करना होगा। 
🔱🙏किन्तु पहले 'क्षत्रियत्व !'  - ब्राह्मण बनने के लिये यह सोपान पहले पार करना होगा। अतीत में  कुछ ने पार कर लिया होगा, मेरी यह जन्मभूमि अपने - ' पशुमानव को देवमानव में रूपान्तरित करने' के यशोपुरित लक्ष्य की ओर अपने सहज महिमामय पदक्षेप के साथ प्रगति की ओर सदा अग्रसर रही है। [ नवनीदा जो पूर्वजन्म में कैप्टन सेवियर थे वे तब भी ऋषि तुल्य क्षत्रीय, किन्तु ब्राह्मणत्व -प्राप्त कैप्टन सेवियर को भी जन्म से ब्राह्मण बनने के लिये भारत में मुखोपाध्याय ब्राह्मण वंश में जन्म ग्रहण पड़ता है।  पर वर्तमान के कर्मियों को तो अपने जीवन से प्रत्यक्ष दिखाना होगा । ]
[Kshatriyahood — we must pass through that to become a Brahmin. Some may have passed through in the past, but the present must show that. ] 
 महाभारत  में कहा है , 'दानम् एकं कली युगे '  अर्थात कलियुग में दान ही एकमात्र कर्म है। जब तक 'Be and Make' के निष्काम कर्म द्वारा शुद्ध न हो,  तब तक किसी को ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती।  राष्ट्र की पुकार - त्याग , त्यागी पुरुष ! ~ बनो और बनाओ ! ( " Gift is the only Karma in Kali Yuga. None attaining knowledge until purified by Karma. "Renunciation — Renouncers — the national call.)

[ कोविड -19 लॉक-डाउन के दौरान 14 अप्रैल 2020 को इस बंगला पुस्तिका का दूसरी बार अनुवाद किया गया। नवनीदा की इच्छा के अनुसार महामण्डल के इस बंगला पुस्तिका का पहला हिंदी अनुवाद 24 साल पहले 4 मार्च, 1998 को  पूरा हुआ था।]  
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 " अनुलोम और विलोम। 'नेति नेति ' करते हुए समाधि में पहुँचकर तुम्हारा 'अहं' ब्रह्म में विलीन हो जाता है। फिर जब समाधि से उतर कर तुम नीचे आते हो, तब तुम्हें दिखाई देता है कि ब्रह्म ही तुम्हारे 'अहं' के रूप में तथा सारे जगत के रूप में व्यक्त हो रहा है। ...जिसका नित्य स्वरूप है, उसी की लीला भी है। फिर जो नित्य अवस्था में है, वही लीला में भी है। साधक लीला में से होता हुआ, नित्य में पहुँचता है , फिर नित्य में से उतरकर लीला में आता है। तब उसे लीला (जगत-नामरूप) मिथ्या नहीं होती, वह नित्य की ही की अभिव्यक्ति प्रतीत होती है। जिस प्रकार एक ही फल से छिलका , गूदा और बीज आते हैं, उसी प्रकार जीव, जगत जड़ और चेतन सभी पदार्थ एक ही ईश्वर से आते हैं।
                     इस 'आत्मनिरीक्षण' , अंतर्निरिक्षण (introspection) या समुद्रमन्थन का सूत्र देते हुए - सन्त कबीर कहते हैं : "ॐ निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।"अर्थ : जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे 'स्वभाव' (सच्चिदानन्द स्वरूप) को साफ़ करता है। लेकिन क्या आज हम में इतनी सहनशक्ति है की हम अपनी निंदा स्वीकार कर पाएं। अपने आलोचकों को अपने पास रख पाएं ?हम ऐसे लोगों से दूर ही रहना पसंद करते हैं जो हमारी निंदा करते हैं ,क्योंकि हम खुले दिल से अपनी आलोचना स्वीकार नहीं कर पाते। सच्ची प्रसंशा उत्साहवर्धक होती है, जैसे ....  आपका हृदय बहुत विशाल है, आपकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण और विवेक-सम्पन्न है, आपका शरीर अब भी युवा ही लगता है; अर्थात आपका 3H सही रूप में-सकारात्मक दिशा में विकसित हुआ है ! क्योंकि यह प्रसंशा मनुष्य जीवन के उद्देश्य को प्राप्त करने की दिशा में सकारात्मक दृष्टि प्रदान करती है।
             इन्हें सुनकर किन्तु घमण्ड नहीं करना; वहीं निन्दा सुनकर भी विचलित नहीं होना है।  क्योंकि  जिन व्यक्तियों को जीवन का उद्देश्य - " ज्ञान के बाद विज्ञान में आगे बढ़ो " नहीं होता; या जिसकी पूजापद्धति हमलोगों से अलग है, वे हमारी अद्वैत दृष्टि को नहीं समझ सकते। फिर भी हमें उनसे घृणा न कर उनको उचित जीवन -पद्धति का मार्गदर्शन करते रहना चाहिए। लेकिन उनके अनुचित व्यवहार पर चुप भी नहीं रहना चाहिए। अन्याय करने वाले से अन्याय सहने वाला अधिक दोषी है।
           यदि पर्याप्त सामर्थ्य है तो क्रोध किये बिना समाज -विरोधी, और देशद्रोही आतंकवादियों को उचित दंड अवश्य देना चाहिए।  ताकि वे स्वास्थ्यकर्मियों और कोरोना वारियर्स पर हमला करने की बात सोच भी न सकें। किन्तु दंड देते समय ,या  शिक्षा देते समय अद्वैत ज्ञान लुप्त तो नहीं हुआ ?... ॐ ॐ ॐ ... और आज ऐसे आलोचक भी बहुत कम ही होंगे जो वाकई में हमारी [तब्लीगी जमात जैसे मूर्खों की]  कमियों को सही तरीके से [ जैसे माँ डकैत अमजद को सुधारने का प्रयत्न करती थीं, उस तरह  से]  बताएं और उन्हें सुधरवाने का प्रयास करें। ... ॐ ॐ ॐ ..
उटकमंडलम या ऊटी तमिलनाडु राज्य का एक शहर है। कर्नाटक और तमिलनाडु की सीमा पर बसा यह शहर मुख्य रूप से एक पर्वतीय स्थल (हिल स्टेशन) के रूप में जाना जाता है। समाचार मिलने पर उनके मुँह से निकला, ‘‘मेरा दाहिना हाथ चला गया।’’ स्वामी जी उसे प्रेम से ‘मेरा निष्ठावान गुडविन’ (My faithful Goodwin) कहते थे। जो 99 प्रतिशत शुद्धता के साथ 200 शब्द प्रति मिनट लिखता था। 
                 हम लोग जो कुछ देखते हैं या अनुभव करते हैं,  सभी दृष्टिगोचर वस्तुओं की संरचना साकार और निराकार के सम्मिलन से हुई है।  शिवा (शक्ति -काली) शिव (ब्रह्म) का आलिंगन कर रही है। यह कोई कल्पना नही है।  वे दोनो अभिन्न हैं और केवल मानसिक विश्लेषण (मनीषा) के द्वारा ही उन दोनो को या 'संयुक्ताक्षर' को पृथक किया जा सकता है। शब्द ( ' नाम '-  परा, मध्यमा, पश्यन्ति और वैखरी ) और उसके अर्थ के समान ही ब्रह्म के ये दोनों रूप ( निराकार और साकार ) सनातन हैं ! जीवन का मूल उद्देश्य है- शिवत्व (ब्रह्मत्व) की प्राप्ति।  उपनिषद् का आदेश है ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’ शिव बनकर शिव की आराधना करो। प्रश्न है-हम शिव कैसे बनें एवं शिवत्व को कैसे प्राप्त करें ? केवल एक ही चिरन्तन धर्म है, और वह है - " स्वयं में परमेश्वर की अनुभूति"!  के लिए आतमिरिक्षण की पद्धति को सीखना और अभ्यास करते रहना।   और शेष जो कुछ है वह सब व्यर्थ है। यह जानकर अनेक व्यग्र आत्मायें यहाँ आयेंगी कि ' यह संसार धोखे की टट्टी है' यहाँ सब कुछ मिथ्या है, और यदि कुछ सत्य है, तो वह है 'ईश्वर की भक्ति', केवल ईश्वर की उपासनायें। 'यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥   
             पवहारी बाबा कण-कण में भगवान को देखते थे और प्राणीमात्र में भी उन्हें ईश्वर के दर्शन होते थे। एक बार उन्हें एक नाग ने डस लिया तब भी पवहारी बाबा ने उस नाग को मारने के बजाय उसमें ईश्वर का दर्शन कर लिया।  और नाग से कहा कि प्रभु आप आए और आपने मुझे मेरे पापों से मुक्त कर दिया इसके लिए आपका कोटी कोटी धन्यवाद। पवहारी बाबा कण-कण में भगवान को देखते थे और उन्हें प्राणीमात्र में भी ईश्वर के दर्शन होते थे।
           एकबार उन्हें एक नाग ने डस लिया तब भी पवहारी बाबा ने उस नाग को मारने के बजाय उसमें ईश्वर का दर्शन कर लिया और नाग से कहा कि प्रभु आप आए और आपने मुझे मेरे पापों से मुक्त कर दिया इसके लिए आपका कोटी कोटी धन्यवाद। बाबा महीनों कुछ खाते पीते नहीं थे इसीलिए वहां के लोगों ने उनका नाम पवहारी बाबा रख दिया जिसका अर्थ है पवन का आहार करने वाला । बाबा कभी किसी के सामने नहीं आते थे। उसी गुफा में एक दीवार के पीछे रह कर अपने भक्तों से बात करते थे। एक बार जब स्वामी विवेकानंद ने उनसे प्रश्न किया कि वो दुनिया के सामने आकर क्यों नहीं लोगों का कल्याण करते ? तो बाबा का जवाब था कि जरुरी नहीं है कि शरीर के साथ ही कल्याण किया जाए अपनी आत्मा के जरिए भी लाखों लोगों के मनों तक पहुंचा जा सकता है और उनके जीवन को बदला जा सकता है। आज भी पवहारी बाबा की कोई फोटो उपलब्ध नहीं है।
         बाबा किसी से भी कोई सहायता नहीं लेते थे । यहां तक कि लोगों को उनके जीवन के बाद भी उनके अंतिम संस्कार का भार ना उठाना पड़े इसलिए 1898 के एक दिन उन्होंने गुफा के अंदर ही दिव्य अग्नि को प्रकटकर खुद का अग्नि-संस्कार कर अपनी इहलीला समाप्त कर ली थी।
                शिकागो जाने से पहले विवेकानंद हिमालय की यात्रा पर थे तभी वहीं उनकी मुलाकात एक साधु से हुई । स्वामी जी उस साधु से बहुत प्रभावित हुए । उसी साधु ने स्वामी जी को एक कथा सुनाई। यह कथा कुछ ऐसी थी कि एक संत के घर पर रात को एक चोर घुस आया। वो चोर उस संत का कंबल और बर्तन चुरा कर भाग ही रहा था कि अचानक वो संत जाग गए और उन्होंने चोर को पकड़ लिया। लेकिन उस चोर के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उस संत ने कहा कि हे प्रभु आप हमारे घर चोरी करने आए हैं ये मेरे लिए सौभाग्य की बात है,  आप इन वस्तुओं को ले जाकर मुझ पर कृपा कीजिए । वो चोर उस संत के पैरों में गिर पड़ा । स्वामी जी ने पूछा कि वो संत कौन हैं और उस चोर का क्या हुआ ?  
     तब उस साधु ने बताया कि- वो चोर मैं ही था और संत थे पवहारी बाबा । स्वामी जी तुरंत पवहारी बाबा से मिलने के लिए गाजीपुर आए और कई दिनों तक बाबा के सानिध्य में रहे । स्वामी जी ने बाबा से कहा कि वो उन्हें अपना शिष्य बना लें। बाबा ने कहा कि कुछ दिन रुक जाओ । कुछ दिनों में ही स्वामी जी के सपने में श्री रामकृष्ण परमहंस आए और उन्होंने कहा कि स्वामी जी के गुरु ठाकुर देव ही हैं ।
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