Thursday, February 20, 2020

श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के पत्र : (9-10)"Being is a continues process"

[9] 
Registered Office:
Bhuban Bhavan
P.O. Balaram Dharma Sopan
Khardah, North 24-Parganas (W.B)
Pin Code 743121
19 April 1989 
Reference No : VYM/89-90/74 

My dear Bijay Kumar ,
                                    I was very glad to receive your long letter dated 11 April and to note the contents. So, you have taken up a big project of translating that volume. Certainly the exercise will benefit you very much. 
                          
                       I have no objection if you send some of the articles translated in Hindi for publication in 'Vivek Shikha'. Only one thing should be ensured . They must acknowledge in the magazine that the article is translated from the book. 
                   
               Yes, you are on the right track in making efforts to mould your own life and certainly it should be a pleasant exercise. All Mahamandal books will help anybody who makes such efforts. For doing anything great , one has to keep his head cool. Calm and equanimity are essential for taking any resolve for doing any permanent constructive work. 
                     
             The printed report form has been received and other detailed reports are awaited. Certainly I will give you guidance whenever you seek. "Being" is a continues process and in few years time you cannot expect to have reached the culmination. It is enough if you are making continues progress. That will give you new enthusiasm and courage to strive harder. 
                   
             It is encouraging news that some energetic young men are joining the study circle. I do not know much about Professor Ganguly .Why is he trying to cause difficulty ? I do not know. Try to find out what has wronged or angered him. If there has been any fault on your part , you may try to make amends in confessing him about your motives.
                 
            Does he want some prominent position in the organisation ? That is one thing which upsets many people who place themselves over the ideal for which they are supposed to work. If such examination and efforts to connect does not yield results , you may give up further attempt and mind your business overlooking any mean attempt , to create troubles. 

                You may try to persuade him to understand things properly while returning volumes he had donated for your library. You may remember Sri Ramkrishna 's exhortations that those who tolerate survive and those who do not are destroyed. 
            
              With love and good wishes for the success of the fine work that you have been trying to do. 
Yours affectionately

Nabaniharan Mukhopadhyay 

Sri Bijay Kumar Singh 
Jhumri Telaiya Vivekananda Yuva Mahamandal 
P.Box. No. 62
Jhumri Telaiya
Hazaribag, Bihar. 

   P.T.O.

My dear Vijay ji,

               One Vivek-Jivan (Oct- 88) issue favouring Sri Rajat Mishra C/o Bhagwati Press , return to the sender with the remark 'not known ' ......... 

with love -

Yours ever in service 

B. Debnath .


19.4.89 
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Registered Office:
Bhuban Bhavan
P.O. Balaram Dharma Sopan
Khardah, North 24-Parganas (W.B)
Pin Code 743121
29 July 1989
प्रिय विजय , 
                    25/7  का तुम्हारा पत्र मुझे मिला, इसके लिए हम आशान्वित ही थे। पत्र आने से पहले ही हमने जाने का टिकट ले लिया है। स्वप्न पंडा के साथ मेरी बात हुई थी। वह जाने के लिए तैयार है। अगर कोई विशेष कारण न हो तो वह भी जाने वाला है। टिकट प्रणव जाना , उत्पल सिन्हा , स्वप्न पंडा और मेरे लिए हुए हैं। लौटने के लिए भी वैसे ही करना।  25 अगस्त को सुबह में रवाना होकर उसी रोज पहुँचना है, क्योंकि 26 को कुछ जरुरी काम है। हमलोग 9 up से जा रहे हैं। 
               
             तुम्हारा कार्य-विवरण मैंने देखा है। ठीक है। प्रस्तावित शिविर जिस स्तर पर करने का सिद्धान्त लिए हो वह ठीक है। इसमें बाहर के [महामण्डल से भिन्न विचारधारा रखने वाले] किसी व्यक्ति को प्रवचन के लिए आमन्त्रित करने की जरूरत नहीं है। इस समय यहाँ कोई वैसे साधु, जो महामण्डल चिन्तन के साथ परिचित हों, और हिन्दी में बोल भी सकते हों उपलब्ध नहीं हैं। और ऐसे किसी वक्ता के साथ सम्पर्क करने का समय भी नहीं है। मुझे 9 अगस्त को बम्बई जाना है।  पुणे, भिलाई, दो शिविर में भाग लेने के बाद सीधा दुर्गापुर जाने के लिए 15 अगस्त को लौटूँगा। 
              
             लाभ जी (श्री केदारनाथ लाभ, छपरा) के इस शिविर में आने से कोई विशेष लाभ होने की सम्भावना नहीं है। पहले किसी राज्य स्तरीय शिविर में जाने से ही महामण्डल प्रशिक्षण -प्रणाली [स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर  'Be and Make ' वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा] का परिचय उन्हें मिल सकेगा।
                 आशा है कि यह शिविर यथोपयुक्त ढंग से सफल होगा और सभी लोगों की सहयोगिता से तुम लोग पूरी तरह से तैयार हो जाओगे। सबों के लिए मेरी शुभकामनायें इस पत्र के साथ पहुँचती हैं। 

                   आशीर्वाद !            
श्रीनवनीहरण मुखोपाध्याय 
PTO 
पुनश्च :
एक से ज्यादा कागज एक लिफाफे में डालने से 60 पैसे से अधिक का डाक टिकट लगता है। 60 पैसे का डाकटिकट सिर्फ 10 ग्राम के लिए ही होता है। तुम्हारी खत बियरिंग होकर आयी थी। 
   
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Wednesday, February 19, 2020

श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के पत्र : (7-8)'Initiation cannot be universal'

[7] 
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Bhuban Bhavan
P.O. Balaram Dharma Sopan
Khardah, North 24-Parganas (W.B)
Pin Code 743121
10 November 1988

स्नेहास्पद विजय,
                         तुम्हारे दो पत्र मुझे मिले। विजया दशमी और दीवाली पर हमारी शुभकामनायें तुम सबको इस पत्र से पहुँचती है। 
                          
               तुमने तो 'विवेकानन्द ज्ञान मंदिर ' के बारे में  विस्तार से और बहुत सुन्दर इतिहास ही लिख दिया। 'विवेकानन्द ज्ञान मंदिर' को महामण्डल की इकाई मानकर " झुमरी तिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल " नाम से कार्य चलाने की अनुमति देने का सिद्धान्त हमने ले लिया। इस विषय में formal letter भेज रहा हूँ। अब तुम नयी Sign Board लगा सकते हो। 
                        
                 Letter pad और Receipt महामण्डल के नाम से छपा सकते हो। पर अभी उसमें monogram लगाने की जरूरत नहीं है। Affiliation मिलने के बाद किया जायेगा। आशा करता हूँ कि जिस सभा में यह नाम बदलने का प्रस्ताव पास किया गया होगा, उसका ठीक ठीक विवरण सदस्यों के हस्ताक्षर के साथ रख लिया होगा।   
                        
                        Annual Camp में भाग लेना सभी सदस्यों के लिए बहुत ही आवश्यक है। नये युवाओं को लाने से भी उन्हें और संस्था को , दोनों के लिए अच्छा होगा। परन्तु जो जो सदस्य संस्था को आरम्भ  करने के समय से इसको चलाने में मदत दिए हैं, उनका शिविर में भाग लेना सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। 

                 मेरा नाम लेकर उनसे कहना कि देश की सच्ची सेवा के लिए इस शिक्षण शिविर में आने के लिए मेरा हार्दिक और विनीत आह्वान है।  क्योंकि इस शिविर में वैसा शिक्षण और विद्या पर चर्चा होती है जिससे देश का सर्वाधिक भला हो सकता है। व्यक्तिगत नाम-यश, प्रतिष्ठा-मान्यता, वाह -वाह आदि इसकी तुलना में बहुत ही छोटी चीजें हैं। 
                       
            तुम्हारे जो मित्र लोग अब दूर चले गए हैं, उनको भी यह कहना और थोड़ा विचार करके देखने के लिये कहना। Jci (club) के साथ साथ 'हिन्दू मिलन मंदिर' कैसे जोड़ा जा सकता है, ये बात मुझे नहीं मालूम। जो लोग हिन्दुओं का भला करना चाहते हैं, उनके लिए पहले अपने चरित्र जो बनाना जरुरी है- धर्म क्या है ? यह भी समझने की जरूरत है। महामण्डल शिविर में आने से इन दोनों बातों को यथार्थ रूप में समझ सकेंगे। 
                       मेरी हिन्दी पढ़कर शायद तुम हँसोगे, लेकिन मेरे भाव को इसमें से जरूर पकड़ सकोगे, ऐसी मेरी आशा है। वहाँ के कैम्प में मेरे द्वारा दिए व्याख्यान को सुनकर तुमलोग शायद हँसते होंगे? जैसा भी हो, तुम सबके ऐक्य और सम्मिलित कर्म-उद्योग लेने से ही स्वामी जी ने जैसा चाहा वैसा काम हो, यही मेरा एकान्तिक प्रार्थना उनके चरणों में करते हुए - 
तुम्हारा 

श्रीनवनीहरण मुखोपाध्याय   
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Registered Office:
Bhuban Bhavan
P.O. Balaram Dharma Sopan
Khardah, North 24-Parganas (W.B)
Pin Code 743121
24 February 1989 
My dear Bijoy,  

                        Glad to receive your letter and to note that you are earnestly striving for self-development and encouraging young men to do the same.
                   
               It is good that from your notes from the camp you are drawing ideas to coach the boys. General ideas of the Mahamandal should be repeated again and again. I mean :~ 'The purpose of human life', 'the necessity of striving for life building', the need to build character while young, etc .

                When young if not understand that they will miss the meaning of life if they do not form character in early age, they will not have the urge to work hard for character -formation .Then : What is character, how it can be formed, Regular practices should be insisted and self-analysis and monitoring of progress in individual cases should be undertaken
                      
                  I shall talk in detail at the OTC. You may bring only such person who understand the Mahamandal. Fresh boys need not come to OTC. Only one or two from those who run the PC or ready to do so may come. 
                   
         'Japa' is not essential for practice of Mental Concentration . Young boys need not be initiated for character building. Initiation may be taken by persons who themselves  feel the need

          If you insist on this the whole work will get slowed down. We have to be very cautious. Methods of the Mahamandal have developed through much careful consideration .Initiation cannot be universal , but everyone has to become good individual, a man worth the name.

                 With blessings - 
Yours affectionately 

Nabaniharan Mukhopadhyay.  
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श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के पत्र : (5-6)Vivekananda Jnana Mandir's 'Executive Committee's responsibilities.

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Registered Office:
Bhuban Bhavan
P.O. Balaram Dharma Sopan
Khardah, North 24-Parganas (W.B)
Pin Code 743121
14 October 1988
Reference No: VYM/88-89/434

My dear Vijay Singh, 
                              I am glad to receive your letter dated 8 October 1988 along with a report on your present activities. I am glad to note that you are earnestly trying to continue and improve your work.  
              
            Your application for permission to work as " Jhumri Telaiya Vivekananda Yuva Mahamandal " will be taken up shortly. In the meantime , you are requested to send a short history of " Vivekananda  Jnana Mandir " mentioning the date of its foundation and the date when you started to have contact with the Mahamandal .
          
                As you know , at first permission is given to work in the name of the Mahamandal and after some time affiliation is accorded. I think , we have already given you copies of the preliminary Rules for the Mahamandal and the Procedure to start units .
               
             Hope, everything is well about you. 

                                          With love and good wishes -

Yours affectionately

Nabaniharan Mukhopadhyay.

Sri Vijay Singh 
Secretary 
Vivekananda Jnana Mandir
P.Box No. 62 
Jhumri Telaiya 
Hazaribag 
Bihar- 825 409. 
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[6]

Registered Office:

Bhuban Bhavan

P.O. Balaram Dharma Sopan

Khardah, North 24-Parganas (W.B)

Pin Code 743121
10 November 1988
Reference No: VYM/88-89/517 

The Secretary 
Vivekananda Jnana Mandir 
P.Box No . 62 
Jhumri Telaiya 
Hazaribag
Bihar - 825 409 
Dear Sir, 
                    We were glad to know from your application no. VGM/1/88/ BKS dated 8 September 1988 that you have decided to change the name of your organization and run it as " Jhumri Telaiya Vivekananda Yuva Mahamandal" as a unit of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal . 

              We are in receipt of your letter dated 25.10.88 as also the one dated 4 November 1988 giving a short history of " Vivekananda Jnana Mandir" as desired in this office letter VYM/88-89/434 dated 14 October 1988.  
             
               In consideration of the fact that you have been working with the aims and objects of the Mahamandal and intended to work as a unit, having already successfully organised a State-level Youth Training Camp a few months back , the Central Organization permits you as a unit of the Mahamandal to be known as " Jhumri Telaiya Vivekananda Yuva Mahamandal ".  
             
                  Formal affiliation as a unit of the Mahamandal will be accorded after being satisfied that the work is being conducted properly as per guidelines of the Mahamandal. Henceforth you have to follow the rules for the units of the Mahamandal (copy enclosed). A copy of Circular No.1 1987-88 also enclosed for your information . 
               
                           You are requested to keep regular contact with the Central Organization and submit reports on your activities every months. You should also form a small Executive Committee , if not already done, responsible for conducting the activities of the unit and forward a list of members of such committee (with office bearers) .  
   
            Please acknowledge receipt 

Yours ever in service

sd/ 
(Nabaniharan Mukhopadhyay )

Secretary
Enclo: Two 
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उपरोक्त पत्र [6] का हिन्दी अनुवाद 
[विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर विद्यालय एवं महाविद्यालय,जानीबिगहा (गया)   
के संचालकों तथा अंतरराज्यीय अनुवीक्षण  समिति के लिए अनिवार्य रूप से पठनीय]  

पंजीकृत कार्यालय:
भुवन भवन
पी.ओ. बलराम धर्म सोपान
खारदाह, उत्तर 24-परगना (W.B)
पिन कोड 743121
10 नवम्बर 1988 
संदर्भ संख्या: VYM / 88-89 / 517

सचिव
विवेकानंद ज्ञान मंदिर
पोस्ट बॉक्स नं० 62
झुमरी तिलैया 
हजारीबाग
बिहार - 925 409 

महाशय,
                  आपके आवेदन पत्र (संख्या:VGM/1/88/ BKS) दिनांक 8 सितम्बर 1988 को पढ़कर प्रसन्नता हुई कि आपने अपने संगठन - 'विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर' का नाम बदलकर 'झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल' करने तथा इसे 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' की इकाई के रूप में संचालित करने का निर्णय लिया है। 

                इस कार्यालय द्वारा प्रेषित पत्र (संख्या : VYM/88-89/434) दिनांक 14 अक्टूबर 1988 के अनुसार माँगे गए ' विवेकानन्द ज्ञान मंदिर ' का संक्षिप्त इतिहास भी हमें आपके द्वारा 25 सितम्बर 1988 एवं 4 नवम्बर को प्रेषित पत्र के माध्यम से प्राप्त हुए हैं।
                   
                 इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कि आप महामण्डल के आदर्श एवं उद्देश्य के अनुसार ही करते आ रहे हैं, तथा आगे भी महामण्डल की एक इकाई के रूप में ही कार्य करने का इरादा रखते हैं, तथा कुछ महीने पहले ही सफलतापूर्वक 'राज्य-स्तरीय युवा प्रशिक्षण शिविर' का आयोजन भी किया है; लिहाजा केंद्रीय संगठन आपको महामण्डल की एक इकाई - 'झुमरी तिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल' के नाम का व्यवहार करने की अनुमति प्रदान करता है। 

               महामंडल के दिशानिर्देशों के अनुसार, झुमरीतिलैया इकाई में भी सारे काम ठीक ढंग से संचालित हो रहे हैं, इससे सन्तुष्ट होने पर झुमरीतिलैया शाखा को महामण्डल की एक इकाई के रूप में औपचारिक संबद्धता भी प्रदान कर दी जाएगी। इसके बाद से आपको महामंडल की इकाइयों के संचालन हेतु निर्धारित नियमों (संलग्न प्रति) का पालन करना अनिवार्य होगा। आपकी जानकारी के लिए परिपत्र संख्या -1 (1987-88) की एक प्रति भी संलग्न है।आपसे अनुरोध है कि केंद्रीय संगठन के साथ नियमित संपर्क रखें और हर महीने अपनी गतिविधियों पर एक रिपोर्ट केन्द्रीय संगठन को अवश्य भेजें। 
               
                यदि पहले से ही गठित नहीं हुई हो, तो अविलम्ब आपको झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल की एक छोटी सी ' कार्यकारिणी समिति ' भी गठित कर लेनी चाहिए। यह समिति झुमरीतिलैया इकाई द्वारा संचालित की जाने वाली समस्त गतिविधियों {~ यथा 'जानीबिगहा विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर विद्यालय, इंटर कॉलेज का संचालन', महामण्डल पुस्तिकाओं का हिन्दी प्रकाशनअंतरराज्यीय अनुवीक्षण  समिति आदि कार्यों } के लिए जिम्मेदार होगी, तथा इस समिति के सदस्यों की एक सूचि (पदाधिकारियों के नाम के साथ) केन्द्रीय संगठन के पास प्रतिवर्ष भेजनी होगी।   

सदैव आपकी सेवा में 
sd/

|| सचिव || 
श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय 
संलग्न : दो 
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श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के पत्र : (1-4) "Follow-up Action"

[महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के पत्र   : মহা মন্ডলের প্রতিষ্ঠাতা সেক্রেটারি শ্রী নবনিহারণ মুখোপাধ্যায়ের চিঠি: Letter from the founding secretary of the Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal- Sri Nabaniharan Mukhopadhyay. ] 

[1]
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Bhban Bhavan 
P.O. Balaram Dhrama Sopan
Khardah, North 24-Parganas (W.B)
Pin Code 743121 
dated -2 March 1988 
 स्नेहभाजन विजय ,
                       श्री कृष्ण सिंह जी [राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त प्रधानाध्यापक, प्राथमिक विद्यालय , झुमरी-तिलैया, बिहार] से सुने होगे कि यहाँ उनके साथ क्या बातचीत हुई। 27 -2 -1988 को लिखा तुम्हारा पत्र मुझे कल ही मिला है। इसके पहले और कोई पत्र नहीं पाया। 
                 पत्र से यह सब जानकर मैं बहुत आशान्वित हूँ कि वहाँ (झुमरीतिलैया में) केवल शिविर ही आयोजित नहीं होगा, बल्कि महामण्डल के भाव से वहाँ निरंतर आदर्श और उद्देश्य का कार्य भी चल सकेगा। 
                 हैदराबाद से लौटकर जो चिट्ठी लिखा था उसको क्यों नहीं भेजा ? प्रमोद {श्री प्रमोद रंजन दास} भी कुछ रोज पहले यहाँ आया था। उससे भी सब बातें हुईं। पहले ही मैंने राँची से तुमको झुमरी तिलैया शिविर करने की अनुमति भेज दी। 
               'विवेकानन्द ज्ञान मंदिर' के विषय में आपलोगों का सिद्धान्त (निर्णय) ठीक है। अब मेरा कोई आदेश देने देने की जरूरत नहीं देखता हूँ। प्रमोद के निर्देश अनुसार आगे बढ़ते जाओ। 
                शिविर के पूर्व ही महामण्डल की सब किताबों का हिन्दी में अनुवाद कर पाना शायद सम्भव नहीं होगा। चार्ट आदि तो हिन्दी में मिल जायेगा। कुछ किताबें श्री कृष्ण जी को दिलवा दिया। अधिक कॉपी शिविर में ले जा सकते हो। दूसरे पुस्तकों का अनुवाद चल रहा है। पीछे सब मिल सकेगा। 
               शिविर में आलोचना का हिन्दी अनुवाद अवश्य करना है। मेरी हिन्दी कैसी है इस पत्र से मालूम हो गया होगा। यदि इस प्रकार की हिन्दी से काम चल सके तो मैं खुद हिन्दी में कहने की कोशिश कर सकता हूँ। 
              मेरा स्नेह और सदेच्छा सबके लिए देते हुए - 
श्रीनवनीहरण मुखोपाध्याय 
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[2] 
Registered Office:
Bhban Bhavan 
P.O. Balaram Dhrama Sopan
Khardah, North 24-Parganas (W.B)
Pin Code 743121 
7 May 1988 
My dear Vijay Singh, 
                              I just received your letter along with some enclosures. I also receive at the same time letters from Pramod and Prof. Badal Ghosh from Ranchi .I am happy to know that you have been working in right earnest to make the camp a grand success. 
                            
                  You could have sent the letters to Beluṛ Maṭh straight by post . Any way I am arranging to send these. I wrote to Pramod a few days back giving the names of persons going from here. Perhaps he did not get it before he wrote to me.

             Besides the Swami (Satyarupananda ji maharaj) and the Mhamandal President Amiya Kumar Mazumdar, ten persons are going including myself. While returning I shall come straight to Calcutta. There is no point to come via Ranchi, because that will perhaps take more time . I want to reach Calcutta on the 31 st morning anyway .    
                 
                Previously I was told the group will leave Jhumri Tilaiya on 30 th. Any way if you think they can leave on 29th , I have no objection. But they have to wind up the office and other things from the camp after it comes to a close . Only two -Sri Birendra Kumar Chakravarti (46) and Sri Ranendra Mukherjee (46) are to reach Calcutta on the morning of 30 th. Book their tickets accordingly.                  
                The rest may stay and leave either on 29th or 30 th as necessary. Why do you want to dispatch the Mahamandal President on 28th ? He is ready to stay up to the end of the camp. He may come with the rest of the party. For the Swami you may book as he desires
            
            Blocks of Thakur, Ma and Swami ji are not available for purchase anywhere , nor do we have them . In this matter it is difficult to help you .You can only get them from Ranchi Ashrama on loan. You may return the blocks after you print .
                                    
            With love and all good wishes 


yours affectionately

Nabaniharan Mukhopadhyay 


[P.S . Please make necessary corrections in the Hindi letter enclosed . --N.M .]


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Dada's blessings for the 
" 1st Bihar State level Youth Training Camp " 


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Bhban Bhavan 
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Khardah, North 24-Parganas (W.B)
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7 May 1988 
श्रीमान विजय सिंह,
सचिव,  
विवेकानन्द ज्ञान मंदिर 
झुमरीतिलैया ,
हजारीबाग, बिहार। 

प्रिय भाई, 
               आज भारत की समुन्नति के लिए स्वामी विवेकानन्द के आदर्श के अलावा और कोई मार्ग नहीं है। लेकिन यह विचार अभी तक समुचित रूप से फैला नहीं है। अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल बीस साल से अधिक समय से स्वामी जी के भावों को,  विशेषरूप से युवकों के पास पहुँचाने के लिये प्रयत्न कर रहा है। 
            फल भी जरूर दिखाई दे रहा है। परन्तु, वर्तमान समाज में भारतीय संस्कृति के विरुद्ध भावों का अत्यधिक प्रचार-प्रसार रहने के कारण, स्वामी जी के विचारों की मूल धारा ** को ठीक ठीक समझने वाले ज्यादा नहीं होते हैं। तथापि, इस विषम समय में स्वामी जी की शिक्षाओं को समझना ही भारत को कल्याण की ओर ले जाने का सबसे सरल पथ है। महामण्डल के युवा शिक्षण शिविरों में इसी के ऊपर ज्यादा से ज्यादा गुरुत्व दिया जाता है। 
                  
                महामण्डल के साथ सम्पर्कित होने के बाद, आपलोग झुमरीतिलैया में जिस महामण्डल की कर्मसूचि के अनुसार काम कर रहे हैं, और बिहार में 'प्रथम राज्य स्तरीय युवा प्रशिक्षण शिविर' को आयोजित  करने का जो उद्योग लिए हैं;  हमें आशा है  कि प्रेमस्वरूप स्वामी विवेकानन्द जी तथा भगवान श्री श्री रामकृष्णदेव और करुणाविग्रह माँ सारदादेवी के अशेष आशीर्वाद से यह सभी प्रचेष्टा जययुक्त होगी। 

श्रीनवनीहरण मुखोपाध्याय 

|| सचिव ||  

 स्वामी जी के विचारों की मूल धारा ** को: " विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर 'Be and Make वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग' परम्परा "  को ठीक ठीक समझने वाले लोग ज्यादा क्यों नहीं होते हैं ? 

Why Such people who understand the basic stream of Swamiji's thoughts - i.e " Vivekananda-Captain Sevier 'Be and Make Vedanta  Leadership Training Tradition", are not found in large numbers? ]     
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Registered Office:
Bhban Bhavan 
P.O. Balaram Dhrama Sopan
Khardah, North 24-Parganas (W.B)
Pin Code 743121 
7 May 1988
My dear Bijoy, 
                           I am sorry , I could not write to you immediately on returning from Jhumri Telaiya with great joy at the success of the first Bihar State-level Youth Training Camp which you dreamed and concretized,  with innumerable willing helping hands whom you could inspire sufficiently. Really I do not know how I should congratulate you and everyone there who worked hard with great sincerity to make it possible. 
                   
                  The previous night Biren and Ranen suffered a lot due to unusual late running of the train. Both of them reached their places at about half past one in the afternoon. Next day of course we had very little difficulty except a little as intimation was not given that we will take the train at Koderma instead of Gaya. As I did not entrain at Gaya , the vacant birth was alloted to somebody else. Of course the TT could persuade the gentleman to vacate it and I could have a good sleep. We reached Howrah at 9.15 and before 11' I reached home. Journey was quite comfortable. 
                     
                 You might remember , I requested you to send a report on the camp within a week. So far I have not received it and would, therefore , urge that it be sent immediately so that the report may be included in the annual number of 'Vivek-Jivan' to be published in July
                     
                  I think, winding up of everything after the camp did not pose any problem and you have in the meantime completed the accounts. As soon as the account for the camp is completed , a copy of the same may be sent. This we do in every case of a camp to compare things so that we can advise people in new areas suitably so that they can prepare a sound budget for a camp of different sizes and durations.
                  
                You should also remember that follow-up action is very important, so that you can draw in new faces from amongst those who attended the camp . Individual approach will certainly yield some good results .They are to be persuaded to continue the practices about which they heard at the camp so that they may really drive the benefit from the teachings of Swami Vivekananda and equip themselves in a better way enabling them to serve the society at large.
               
                Besides care that all took about us at the camp , the loving hospitality extended by your whole family , we shall cherish in our memory. My good wish, regards to your father, love and blessings to children at home. 
             
           All these days I was expecting to hear from you .   

Yours affectionately

Nabaniharan Mukhopadhyay 
Sri Bijoy Kumar Singh 
c/o Tara Plastics
Jhumri Telaiya 
Dt. Hazaribag 
Bihar -825 409. 
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Saturday, February 8, 2020

" स्वामी जी का आदर्श - 'त्याग और सेवा' के माध्यम से शक्ति का उद्घाटन "' { स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना-8 }

' त्याग और सेवा' का युगानुकूल नामकरण है- 'Be and Make !'   
         [अध्याय-१ : स्वामी विवेकानन्द -व्यक्ति और मन ]        
         स्वामी विवेकानन्द का महान व्यक्तित्व-सम्पन्न जीवन तथा उनके संदेश के विशाल भण्डार को देखने से मन में स्वतः यह प्रश्न उठता है, कि आखिर स्वामीजी हमलोगों के समक्ष किस आदर्श को प्रस्तुत किया है ? महापुरुषों के मन, वाणी एवं कर्मों में एकरूपता होती है। अतएव विवेकानन्द के आदर्श  को समझने के लिये हमें उनके 'संदेशों तथा कर्ममय जीवन' -दोनों को समान रूप से विश्लेषण करके समझने की चेष्टा करनी होगी। 
      स्वामी जी की ऋषि दृष्टि ने मनुष्य जीवन के समस्त पक्षों का समग्र रूप से अवलोकन किया था। यथार्थ 'विवेकज ज्ञान ' के द्वारा मानव जीवन की समग्रता का अनुसन्धान करने के फलस्वरूप उनकी दृष्टि के समक्ष मनुष्य जीवन की जो पूर्णता (दिव्यता) अनावृत्त हो उठी थी, सार्वजनिक कल्याण के लिए अपने सन्देशों के माध्यम से उन्होंने उसीका वितरण किया था। उन्होंने अपने जीवन से भी यही दिखाने का प्रयत्न किया है कि एक मनुष्य किस प्रकार ('त्याग और सेवा' के माध्यम से) उस पूर्णत्व की अभिव्यक्ति को सम्भव बना सकता है। इसीलिए उनके दिव्य संदेशों के समान उनका जीवन भी हमलोगों के लिए आदर्श (अनुकरणीय) है। 
              मानव जीवन  के लिये जो एक मात्र सर्वश्रेष्ठ आदर्श होना उचित है, उसकी उपेक्षा, अनादर या उसकी प्रयोगात्मक क्षमता पर शंका किये बिना, तथा किसी बिल्कुल नये आदर्श का उद्घाटन तथा प्रस्तुति-करण के मोह में पड़े बिना- स्वामी जी ने पूरी निर्भयता के साथ और निःसंकोच होकर, उसी सर्वश्रेष्ठ आदर्श का प्रचार किया है। उनका मानना था कि -" सच्चा आदर्श समाज के सामने अपना सिर नहीं झुकायेगा, समाज को ही उस आदर्श के सम्मुख अपना सिर झुकाना होगा । " और उस सच्चे आदर्श को ढूँढ़कर जो समाज जितनी जल्दी वैसा करने लगेगा (अर्थात सिर झुका कर उस श्रेष्ठतम आदर्श का अनुसरण करने लगेगा ), उस समाज का उतना ही कल्याण होगा। स्वामी जी की यह धारणा थी कि - " जिस समाज में श्रेष्ठ आदर्श को कार्यरूप देना (जीवन में रूपायित करना) सम्भव है, वही सर्वश्रेष्ठ समाज है। "  इस श्रेष्ठतम आदर्श को यदि बहुत संक्षेप में तथा उन्हीं के शब्दों में व्यक्त किया जाय तो, वह है - 'হও এবং কর' अर्थात 'बनो और बनाओ ' - तुम स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो - 'Be and Make!' यह 'बनना और बनाना ' आपस में अभिन्न और अविभक्त  (inseparable' जो अलग न हो सके) हैं  ! स्वामी जी कहते हैं - "मेरे आदर्श को सचमुच चन्द शब्दों में ही अभिव्यक्त किया जा सकता है,  वह है- मनुष्य में अन्तर्निहित उसके दिव्य स्वरुप का प्रचार करना तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे कैसे व्यक्त किया जाता है -उसका मार्ग बता देना। "  
              स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त इस जुड़वां आदर्श (The twin ideal) - 'बनो और बनाओ ' पर मनन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वामी जी केवल एक तात्विक आदर्श को उद्घाटित करके ही रुक नहीं जाते, बल्कि उस ज्ञान (विवेकज ज्ञान या इन्द्रियातीत सत्य का ज्ञान) का उपयोग मनुष्य अपने व्यावहारिक जीवन में कैसे कर सकता है, उस प्रश्न के ऊपर भी साथ -साथ विचार करते हैं। क्योंकि, किसी आदर्श को  यदि व्यावहारिक जीवन में अपनाना सम्भव न हो तो उसे 'सच्चा आदर्श ' नहीं कहा जा सकता है।  स्वामीजी ने जिस आदर्श को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है, वह जीवन के किसी क्षेत्र-विशेष का आदर्श नहीं है बल्कि समग्र जीवन का आदर्श है। वैयक्तिक जीवन, सामाजिक-जीवन, राष्ट्रीय जीवन, एवं अन्तर्राष्ट्रीय जीवन के हर क्षेत्र में अर्थात वैयक्तिक और सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में यह आदर्श व्यवहारोपयोगी है। अक्सर लोग (व्यष्टि और समष्टि के) पारस्परिक सम्बन्ध को अनदेखा कर धर्म, राजनीति, आर्थिक नीति, अपक्षपात पूर्ण शेयर वितरण (equity-सामान हिस्सा), आदि  विभिन्न क्षेत्रों के लिये अलग-अलग आदर्श की चर्चा करते हैं। परन्तु, जब जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के आदर्श किसी एक महत्तर मूल आदर्श (मानदण्ड) के अनुरूप नहीं होते तो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अन्तर्विरोध दिखाई देने लगता है। अतएव व्यष्टि मनुष्य जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में समष्टि मानव समाज के साथ वभिन्न रूपों में संयुक्त रहता है, उसका जीवन आदर्शों में समन्वय के अभाव में संकटों से घिर जाता है।
              इसलिए व्यक्ति हो या समाज उसकी निर्विघ्न उन्नति के लिए एक मौलिक आदर्श का रहना आवश्यक हो जाता है। यदि वह मौलिक आदर्श किसी किसी ऐसे सत्य पर प्रतिष्ठित हो, जो जीवन का केन्द्र बिन्दु है तभी वह आदर्श मानव जीवन का सर्वांगीण कल्याण करने में सक्षम होता है। स्वामी जी उसी प्रकार के एक सत्य या तत्व (अविनाशी इन्द्रियातीत सत्य-ब्रह्म)  की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं तथा उसी मौलिक आदर्श को समस्त क्षेत्र-विशेष के आदर्शों का नियंत्रक रूप में ग्रहण करने का निर्देश देते हैं। और वह तत्व है - " अनन्त ज्ञान, और अनन्त शक्ति (प्रेम) " (existence-consciousness-bliss, सच्चिदानन्द) -जो जाति, धर्म, वर्ण, लिंग आदि भेद के दृष्टिगोचर सत्य होने के बावजूद प्रत्येक मनुष्य में अंतर्निहित है ! जब तक हमें स्वयं इस अन्तर्निहित मौलिक पूर्णता या दिव्यता में- 'अनुभूति जन्य विश्वास' नहीं होता, तब तक हम यह नहीं कह सकते कि हमने किसी सच्चे आदर्श का अनुसन्धान कर लिया है। तब तक भले ही हम कितने भी क्षेत्र-विशेष के आदर्शों का अनुसन्धान और अनुसरण करते रहें, किसी विशेष क्षेत्र में अस्थायी रूप से थोड़ी बहुत सफलता मिलने से भी, उसके द्वारा मानव जाति को उसकी पूर्णता या स्व-महिमा (आत्मश्रद्धा) में कभी प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता। 
            अतः हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य यह होना चाहिए- अपनी प्रत्येक अभिव्यक्ति में, प्रत्येक कर्म में , प्रत्येक दृष्टिकोण (approach) में, प्रत्येक प्रतिक्रिया में जीवन के उसी मूल तत्व, अविनाशी या अपरिवर्तन-शील सत्य को प्रक्षेपित करना। इस बात को आसानी से समझ सकते हैं कि यह तत्व 'अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्ति' मनुष्य की शाश्वत सत्ता [इन्द्रियातीत सत्य ] के ऊपर प्रतिष्ठित है तथा यह देश -काल के भेद से परिवर्तित हो जाने वाली वस्तु नहीं है। मनुष्य की मूल सत्ता जैसी पहले थी [अर्थात सतयुग,द्वापर या त्रेता युग में जैसी थी] वैसी ही आज (कलियुग में) भी है। पूर्वी गोलार्ध और पश्चिमी गोलार्ध के मनुष्यों में (नाम-रूप को छोड़ कर) मूलतः कोई अन्तर नहीं है। अतः यह प्रश्न उठाना कि स्वामी जी कथित यह आदर्श आज के युग में उपयोगी है या नहीं बिल्कुल असंगत है। इस प्रकार के आदर्श के साथ संयुक्त विभिन्न क्षेत्रों के छोटे-छोटे आदर्श अनन्त न होने से भी दीर्घकाल तक प्रभावी रह सकते हैं। क्योंकि देश तथा युग की आवश्यकता के अनुरूप साधारण परिवर्तन सापेक्ष आदर्श रहने से भी, हमें यह ध्यान रखना पड़ेगा कि उसका मुख्य लक्ष्य मनुष्य में अन्तर्निहित पूर्णत्व (अनन्त ज्ञान और शक्ति) को अभिव्यक्त करने में सहायता करना ही रहे। ऐसा होने पर ही विभिन्न क्षेत्रों के सभी आदर्शों में यथार्थ सामंजस्य बना रहेगा एवं पारस्परिक परिपूरक के रूप में कार्य करते हुए प्रत्येक क्षेत्र के आदर्श जीवन (शिविर-जीवन) को समग्रता की ओर ले जायेंगे। तथा, स्वविरोध का भाव नहीं रहने से क्षेत-विशेष के आदर्श भी विफल नहीं होंगे।       
[इस प्रकार के केन्द्रीय-सत्य में प्रतिष्ठित एक आदर्श (निःस्वार्थपरता) के साथ, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के छोटे छोटे आदर्श भी संयुक्त हो जाने के बाद, भले ही शाश्वत न हों, किन्तु दीर्घ काल तक अवश्य प्रभावी बने रहेंगे। क्योंकि देश और युग (काल) की आवश्यकता के अनुसार वह परिवर्तन-सापेक्ष सामान्य आदर्श 'निःस्वार्थपरता' ही अपने को विभिन्न नाम-रूपों ( स्वामीजी, या कभी नवनी दा आदि-आदि) में अभिव्यक्त करती रहती है, किन्तु हर युग उस सच्चे नेता का मुख्य लक्ष्य रहेगा- मनुष्य में अन्तर्निहित 'पूर्णत्व '- अनन्त ज्ञान और शक्ति को प्रस्फुटित करने में सहायता करना। ऐसा होने से ही, विभिन्न क्षेत्रों के आदर्शों में सच्ची सहमति बनी रहेगी, तथा परस्पर पूरक के रूप में कार्य करते हुए, प्रत्येक क्षेत्र से जीवन को पूर्णत्व की दिशा में ले जायेंगे, तथा स्व-विरोध  का भाव नहीं रहने के कारण जीवन के किसी भी क्षेत्र-विशेष का आदर्श कभी असफल नहीं होगा। ] 
                 इस मूल आदर्श 'अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्ति (प्रेम-शक्ति)' का सरलतर परिचय करवाने वाला वाक्य है ' स्वयं मनुष्य बनने की चेष्टा करना और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करना।' क्योंकि सृष्टि (समष्टि) और मानव-समाज (व्यष्टि) के आधारीय एकत्व के कारण कोई मनुष्य अकेले ही ऊँचा नहीं उठ सकता।  मनुष्य बनने का अर्थ ही है- अपनी अन्तर्निहित सत्य या सत्ता की शक्ति और ज्ञान का वैसा प्रकटीकरण या अभिव्यक्ति जिससे जीवन में पूर्णता आती हो। 
                इसी 'पूर्णत्व प्राप्ति' के लक्ष्य को दृढ़ता के साथ सामने रखते हुए यदि कोई अपने व्यक्तित्व का गठन करे, चरित्र-निर्माण करे, शिक्षा अर्जित करे तथा साथ-ही -साथ अपने परिवार का भरण-पोषण के लिए आवश्यक भोग सामग्री का संग्रह भी करे , तभी वह क्रमशः अपने यथार्थ आदर्श की ओर अग्रसर हो सकता है। इसीलिये स्वामीजी इसी को मूल आदर्श कहते हैं। इस मार्ग से अग्रसर होने पर मनुष्य का दैनन्दिन लौकिक जीवन (अभ्युदय) भी उपेक्षित नहीं होता है। किन्तु, यदि व्यक्ति का जीवन असंयमित हो, लक्ष्यहीन हो, तो देव-दुर्लभ मनुष्य जीवन की महान हानि हो जाती है, एक महती सम्भावना का अन्त हो जाता है। इसलिये इस जीवन के लक्ष्य को, संयम को, नियम को (यम और नियम) को अपने दैनंदिन जीवन में धारण करने की आवश्यकता है। क्योंकि जो वस्तु (यम और नियम) हमारे जीवन को लक्ष्या-भिमुखी बनाती है, उसे समग्र रूप से धारण करती है, उसे नियंत्रित करती है- उसी का नाम तो धर्म है। इसीलिए स्वामी जी हमें धर्म के विषय में बहुत प्रकार से समझाने की चेष्टा करते हैं। किन्तु, धार्मिक आचार-अनुष्ठान को ही वे धर्म की मूल बात मानने से इन्कार करते हैं। हमलोग भी कहीं कर्मकाण्ड को ही धर्म मूल न समझ लें, इसीलिये स्वामीजी धर्म के बजाय 'ध्यात्मिकता' शब्द का प्रयोग करते हैं। 
          वैसे, आध्यात्मिकता' है क्या ?  हमलोग मनुष्य की आत्मा को, मूल तत्व को, मूल सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) को जब अपने आचरण के द्वारा अभिव्यक्त करने की चेष्टा करते हैं, तब उसी को आध्यात्मिकता कहते हैं। इसलिए स्वामी जी जब समग्र राष्ट्र की बात करते हैं, सम्पूर्ण राष्ट्र को जब जाग्रत करने, उसे उन्नत और सुगठित करने की बात करते हैं, तब वे सबसे पहले देश को इसी आध्यात्मिकता के बाढ़ में प्लावित करने की बात करते हैं। 
          स्वामी जी के मन में मनुष्य-मात्र के लिये सर्वदा एक आदर्श भाव विद्यमान रहता था। इसीलिए अनन्त शक्ति सम्पन्न मनुष्य को दुर्बल, असहाय, निराश एवं दुःख-कष्ट में गिरा देखने पर स्वामी को व्यथा होती थी। मनुष्य-मात्र के प्रति अथाह करुणा एवं सहानुभूति से भरे होने के कारण लोगों की दुर्बल अवस्था को देख कर स्वामी जी की आँखों से आँसू गिरने लगते थे। इन्द्रिय और प्रकृति के दास मनुष्य द्वारा कल्पित किसी काल्पनिक मूर्ति की पूजा में स्वामी विवेकानन्द का विश्वास नहीं था। स्वराज्य-च्यूत, धूल- धूसरित जीवन्त शरीर और मन के आधार सत्ता की पूजा करना ही स्वामी विवेकानन्द की दृष्टि में मानवता है। जो मनुष्य अपनी सत्ता के सम्बन्ध में सोया हुआ है, जो अपनी गरिमा के प्रति सचेत (मान-हूँश) नहीं है, जो  अनन्त सम्भावना की खोज नहीं करता, वह स्वाभाविक रूप से स्वयं को दुर्बल सोचता है, तुच्छ समझता है। और, ऐसा ही भ्रमित (हिप्नोटाइज्ड) मनुष्य असहाय भाव का अतिक्रमण कर पाने में असमर्थ रहने के कारण स्वार्थ को  ही परमार्थ समझने लगता है और दिनों-दिन स्वयं को गहरे अंधकार (मोहनिद्रा) में निमग्न करता जाता है।
        इस स्वार्थ का त्याग कर ही हमलोग परमार्थ आदर्श, पूर्णता एवं अनन्त शक्ति को उद्घाटित करने के पथ पर आगे बढ़ सकते हैं। इसीलिये स्वामीजी के अनुसार - 'निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है।' हम अपनी पूर्णता या वृहत सत्ता (ब्रह्मत्व) की ओर अग्रसर होने के पथ पर स्वार्थ, संकीर्णता, हीन भावनाओं- 'मैं भेंड़ हूँ'  के भ्रम का, जो त्याग कर देते हैं, वही हमलोगों का यथार्थ त्याग है। और इसी मार्ग पर आगे बढ़ने में दूसरों की सहायता करना यथार्थ सेवा है। [सच्ची समाज-सेवा भी यही है।] हमलोग जैसे -जैसे वृहत, पूर्णता, स्वार्थहीनता, अन्तर्निहित सत्ता या हृदय को विस्तृत करते हुए परायों को भी अपना बना लेने की ओर हम जितना ही अग्रसर होते जाते हैं, उतना ही हम निर्भय होते जाते हैं, ज्ञानलोक पाते रहते है एवं शक्तिशाली होते जाते हैं। तथा हमारे समस्त कार्यों में हमारी अंतर्निहित निष्कलंक सुन्दरता , पवित्रता , ज्ञान और शक्ति उतना ही प्रस्फुटित होती जाती है। ऐसे व्यक्ति के लिए (गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षक/नेता के लिए) कुछ भी असम्भव नहीं है, अलभ्य नहीं है। निराशा और विषाद उसके पास भी नहीं फटकते। [ इसलिये स्वामी जी कहते थे - " भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं -'त्याग और सेवा' आप इन दो धाराओं में तीव्रता उत्पन्न कीजिये, शेष सबकुछ अपने आप ठीक हो जायेगा ! ' सिद्धार्थ और बुद्ध ' (द्वा सुपर्णा) की भाँति अविच्छेद्य (Inseparable) हैं। ]  
        स्वामी जी की इच्छा थी कि यह 'त्याग और सेवा ' रूपी सरल किन्तु सबल विचारधारा (वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण पद्धति) -जो हजारों वर्षों से भारत के राष्ट्रीय आदर्श रहे हैं, उन्हें एकबार फिर ऊँच-नीच का भेद किये बिना साधारण जनता के बीच पूरी उदारता और हृदयवत्ता के साथ वितरित की जाय। और " एक नवीन भारत निकल पड़े- निकले हल पकड़कर, किसानों की कुटी भेदकर, मछुआ-माली, मोची- मेहतर की झोपड़ियों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से। निकले झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।" 
                 स्वामीजी ने चाहा था कि ऐसी शिक्षा शुरू की जाय [ तैत्तरीय उपनिषद -शीक्षा वल्ली में आधारित 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण शुरू की जाये] जिससे प्रत्येक मनुष्य अपनी अनन्त सम्भावनाओं को अभिव्यक्त करने में सक्षम हो सके। ऐसी राजनीति शुरू हो जिसमें सभी मनुष्य को अपनी अन्तर्निहित शक्ति को जाग्रत करने का अवसर प्राप्त हो सके। ऐसी सामाजिक नीति प्रचलित हो जाय जिससे ऊँच -नीच , धनी-दरिद्र, विद्वान-मूर्ख के भेद एवं समस्त विशेषाधिकार के दावों का अवसान हो जाये। अर्थिक-नीति में ऐसा परिवर्तन हो जिससे शोषण, ठगी, लूट एवं घोटाला समाप्त हो जाय तथा सभी के लिए दोनों वक्त के भोजन का प्रबंध हो जाये। 
               स्वामीजी कहते हैं, (कुमारी मेरी हेल को १ नवम्बर १८९६ को लिखित एक पत्र में)  " एक ही समुदाय या वर्ग का मनुष्य सदा सुख या दुःख भोगता रहे, उससे तो अच्छा है कि सुख-दुःख बारी बारी से सभी श्रेणी के मनुष्यों में विभक्त किया जाये। इस दुःखमय  संसार में सभी श्रेणी के मनुष्यों को सुख-भोग का अवसर दो, ताकि  इस तथाकथित सुख का अनुभव कर लेने के बाद,वे भी संसार, शासन-विधि और अन्य सब झंझटों को छोड़ कर परमात्मा के पास आ सकें। " और इस कार्य को रूपायित करने के लिये,  ऐसी धर्म-नीति का पालन हो जिससे मनुष्य के मन में जमे सारे कुसंस्कार दूर हो सकें, धार्मिक कट्टरता समाप्त हो जाय, एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ प्रेम बढ़े, भोग में संयम रहे, प्रार्थता में स्वार्थ-बुद्धि हो, त्याग के महत्व का प्रचार हो, सेवा में प्रेम हो तथा हृदय का प्रसार हो। 
             स्वामी जी के आदर्श में निद्रा एवं आलस्य का स्थान नहीं है। " कायर और मूर्ख लोग ही भाग्य की दुहाई देते हैं। वीर तो सिर ऊँचा करके बोलता है- "अपना भाग्य मैं स्वयं गढ़ूँगा। " स्वामीजी का आदर्श -  शक्ति के उद्घाटन का आदर्श है। " शक्ति ही सुख और आनन्द है, शक्ति ही अनन्त और अविनाशी जीवन है।" हमलोगों का आदर्श समुज्ज्वल हो, जीवन विकसित हो, हमारी शक्ति उद्घाटित हो तथा शक्ति आराधना सार्थक हो !
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