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रविवार, 2 फ़रवरी 2014

ब्रह्माण्डविज्ञान : नासदीय सूक्त (Cosmology)

हमारे सम्मुख दो प्रकार के जगत् हैं-- सूक्ष्म ब्रह्माण्ड और बृहत ब्रह्माण्ड; जिसे हम अन्तर्जगत (Microcosm) और बाह्य-जगत् (Macrocosm) कहते हैं।  हम अनभूति के द्वारा ही दोनों से सत्य प्राप्त करते हैं। जो सत्य हमें आन्तरिक अनुभव के द्वारा प्राप्त होते हैं, उन्हें मनोविज्ञान (साइकालजी Psychology) या आत्मतत्वज्ञान (Metaphysics) और धर्म कहा जाता है। बाह्य अनुभव से भौतिक विज्ञान (शरीरविज्ञान या फिजियोलॉजी) प्राप्त होते हैं। अतः किसी पूर्ण सत्य का इन दोनों जगतों के अनुभव के साथ अविरोध (harmony) होना चाहिये। सूक्ष्म ब्रह्माण्ड बृहत ब्रह्माण्ड का साक्ष्य (testimony) प्रदान करेगा, बृहत ब्रह्माण्ड सूक्ष्म ब्रह्माण्ड का।
भौतिक सत्य का प्रतिरूप (counterpart) अन्तर्जगत में, और अन्तर्जगत के सत्य का प्रमाण भी बहिर्जगत में मिलना चाहिये। तथापि इन सब सत्यों का अधिकांश सर्वदा परस्पर विरोधी पाया जाता है। विश्व-इतिहास के एक काल में 'अन्तर्वादी' प्रधान हो उठे; और उन्होंने 'बहिर्वादियों' के साथ विवाद आरम्भ किया। वर्त्तमान काल में 'बहिर्वादी' अर्थात भौतिक वैज्ञानिकों ने प्रधानता प्राप्त की है, और उन्होंने मनोवैज्ञानिकों और दार्शनिकों के अनेक सिद्धांतों को उड़ा दिया है। 
जहाँ तक मेरा ज्ञान है, मुझे मनोविज्ञान (या आध्यात्मिक विज्ञान) के सच्चे सार-तत्व के साथ आधुनिक भौतिक विज्ञान के सार-तत्व का पूर्ण सामंजस्य लगता है। एक ही व्यक्ति सब विषयों में महान नहीं हो सकता; इसी प्रकार एक ही जाति, समान रूप से सभी प्रकार के ज्ञान का अनुसन्धान करने में समर्थ नहीं हो सकती। आधुनिक यूरोपीय राष्ट्र बाह्य भौतिक ज्ञान के अनुसन्धान में सुदक्ष हैं, किन्तु वे मनुष्य की अन्तःप्रकृति के अनुसन्धान में उतने पटु नहीं हैं।  दूसरी ओर प्राच्य लोग बाह्य भौतिक जगत के अनुसन्धान में उतने दक्ष नहीं थे, किन्तु अन्तस्तत्व की गवेषणा में उन्होंने विशेष दक्षता का परिचय दिया है।  इसी लिये हम देखते हैं कि प्राच्य भौतिक तथा अन्य विज्ञान पाश्चात्य विज्ञानों से नहीं मिलते, और न पाश्चात्य मनोविज्ञान प्राच्य मनोविज्ञान से। पाश्चत्य वैज्ञानिकों ने प्राच्य भौतिक वैज्ञानिकों को विध्वस्त कर दिया है। फिर भी दोनों ही सत्य की भित्ति पर प्रतिष्ठित होने का दावा करते हैं, और हम जैसा पहले ही कह चुके हैं, किसी भी क्षेत्र के सत्य-ज्ञान में कभी परस्पर विरोध नहीं हो सकता; 'the truths internal are in harmony with the truths external.' आभ्यन्तर सत्य के साथ बाह्य सत्य का सामंजस्य है।
आधुनिक खगोलविदों (astronomers) और भौतिक वैज्ञानिकों (physicists) के अनुसार ब्रह्माण्ड के सृष्टिविषयक सिद्धान्तों को हम सभी जानते हैं, और यह भी जानते हैं कि उन्होंने यूरोप के धर्मशास्त्रों (theology) को कितने बुरी तरह से खोखला कर दिया है। और यह भी जानते हैं कि नये नये वैज्ञानिक आविष्कार किस प्रकार उनके किलों को ध्वस्त करते जा रहे हैं, और हम यह भी जानते हैं कि कट्टर  धर्म-शास्त्रियों (theologians) ने किस प्रकार सदैव वैज्ञानिक अनुसंधानों को बन्द कर देने का यत्न किया है।
यहाँ मैं ब्रह्माण्डविज्ञान और उससे सम्बन्धित तथ्यों के विषय में प्राच्य मनोवैज्ञानिक धारणाओं का सिंहावलोकन करना चाहता हूँ।  तब तुम देखोगे कि आधुनिक विज्ञान की नवीनतम खोजों के साथ उनका कितना आश्चर्यप्रद सम्बन्ध है, और यदि सामंजस्य में कहीं कोई कमी रह भी जाती है, तो यह आधुनिक विज्ञान की कमी है, उनकी नहीं। हम सब अंग्रेजी के शब्द 'नेचर' (Nature) का व्यवहार करते हैं।  प्राच्य सांख्य दार्शनिक उसके लिये दो भिन्न नामों का प्रयोग करते हैं-पहला है, 'प्रकृति' जो अंग्रेजी के 'नेचर' शब्द का प्रायः समानार्थक है, और दूसरा उसकी अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक नाम 'अव्यक्त' (undifferentiated) है। अव्यक्त का अर्थ है, जो अभी प्रकाशित या भेदात्मक नहीं है--उससे ही सब पदार्थ उत्पन्न हुए हैं, उससे अणु-परमाणु, भूत, शक्ति, मन, बुद्धि, सब प्रसूत हुए हैं। 
यह अत्यन्त विस्मयजनक है कि भारतीय दार्शनिकों और तत्वमीमांसकों (philosophers and meta-physicians) ने अनेक युग पहले ही कहा था कि मन जड़ या भौतिक है। हमारे आधुनिक जड़वादियों ने इसके अतिरिक्त और अधिक क्या दिखाने का प्रयत्न किया है कि मन भी देह की तरह प्रकृति से उत्पन्न है ? विचार के सम्बन्ध में भी यही बात है, और और क्रमशः हम देखेंगे कि बुद्धि भी उसी एक अव्यक्त नामक प्रकृति से उत्पन्न हुई है। 
सांख्यों ने इस अव्यक्त को तीन शक्तियों (गुणों) की की 'साम्यावस्था' (equilibrium of three forces) कहकर परिभाषित किया है।  उनमें से एक का नाम सत्व, दूसरी का रजस और तीसरी का तमस है। तमस निम्नतम शक्ति है-आकर्षणस्वरुप; रजस उसकी अपेक्षा किंचित उच्चतर है---विकर्षणस्वरुप; तथा जो सर्वोच्च शक्ति इन दोनों का सन्तुलनस्वरुप है, सत्व है। अतएव जब आकर्षण और विकर्षण की शक्तियाँ सत्व के द्वारा पूर्णतः संयत होती है अथवा पूर्ण साम्यावस्था में रहती है, तब सृष्टि का अस्तित्व नहीं रहता, किन्तु ज्यों ही यह साम्यावस्था नष्ट होती है, त्योंही उनका सन्तुलन भंग हो जाता है और उनमें से एक शक्ति दूसरी शक्तियों की अपेक्षा प्रबलतर हो उठती है, त्यों ही गति का आरम्भ होता है और सृष्टि होने लगती है।  
यह व्यापर चक्राकार (cyclically) काल के कल्पों (periodically) में चला करता है। अर्थात साम्यावस्था भंग होने का एक समय होता है, तब शक्तियों का संघात और पुनस्ंघात होने लगता है और वस्तुयें प्रक्षिप्त होती हैं। साथ ही हर वस्तुओं में उसी मौलिक साम्यावस्था में फिर से लौटने की प्रवृत्ति होती है, और ऐसा समय आता है, जब जो कुछ व्यक्त भावापन्न है, उन सबका सम्पूर्ण विनाश हो जाता है। फिर कुछ समय बाद यह अवस्था नष्ट हो जाती है, सम्पूर्ण वस्तुएँ प्रक्षिप्त होती हैं और धीरे धीरे तरंग के समान फिर तिरोभूत हो जाती हैं।  जगत् की सारी गति को, इस विश्व की प्रत्येक वस्तु को तरंग के सदृश माना जा सकता है, जिसमें क्रमशः एक बार उत्थान, फिर पतन होता रहता है।  इन दार्शनिकों में से कुछ का मत यह है कि समग्र ब्रह्माण्ड ही कुछ दिनों के लिये लयप्राप्त होता है। कुछ का मत है कि कुछ मण्डलों में ही लय का व्यापार घटित होता है। अर्थात, यदि हमारा यह सौर मण्डल लयप्राप्त होकर अव्यक्त अवस्था में चला जाय, तो भी उसी समय अन्य कोटिशः सौर-मण्डलों में उसके ठीक विपरीत व्यापार होगा, और उनमें सृष्टि चलती रहेगी 
मैं इस दूसरे मत के --अर्थात प्रलय एक साथ समस्त ब्रह्माण्ड में घटित नहीं होता, विभिन्न ब्रह्माण्डों में विभिन्न व्यापार चलते रहते हैं -- के ही पक्ष में अधिक हूँ। किन्तु मूल बात एक ही रहती है, अर्थात जो कुछ हम देख रहे हैं, यह समग्र प्रकृति ही, क्रमागत उत्थान-पतन के नियम से अग्रसर हो रही है। इस भंग होने, सन्तुलन पुनः प्राप्त करने, पूर्ण सामंजस्य की अवस्था को प्रलय, एक कल्प का अन्त कहते हैं। विश्व के प्रलय और एवं प्रक्षेप की तुलना भारत के ईश्वरवादियों ने ईश्वर के निःश्वास-प्रश्वास के साथ की है। मानो ईश्वर के प्रश्वास से यह जगत बहिर्गत होता है, और वह उनमें फिर लौट जाता है। 
जब प्रलय होता है, तब जगत की क्या अवस्था होती है ? वह उस समय भी विद्यमान रहता है, तथापि सूक्ष्म रूप में; अथवा जैसा सांख्य दर्शन कहता (नाशः कारण लयः) है, कारणावस्था में रहता है। देश-काल-निमित्त (time-space-causation) से वह मुक्त नहीं होता, किन्तु वे अत्यन्त सूक्ष्म और लघु रूप में रहते हैं। मान लो, विश्व संकुचित होने लगता है, और हम सब एक अणु के बराबर रह जाते हैं। किन्तु तो भी हम इस परिवर्तन का अनुभव नहीं कर पायेंगे, क्योंकि हमसे सम्बद्ध प्रत्येक वस्तु का संकोच भी साथ ही साथ होगा। 
सारी वस्तु विलीन हो जाती है और फिर व्यक्त हो जाती है, ' the cause brings out the effect ' कारण कार्य उत्पन्न करता है, और यही क्रम चलता रहता है। आजकल हम जिसे जड़ कहते हैं, प्राचीन हिन्दू उसी को 'भूत' बाह्य तत्व (external elements अर्थात जो वस्तु चिरकाल से अतीत (भूत) है ) कहते थे। उनके मतानुसार एक तत्व ऐसा है जो शाश्वत है; शेष सभी तत्व इसी एक से उत्पन्न हुए हैं। उस मूल तत्व को तत्वमीमांसाक लोग 'आकाश' कहते हैं। आजकल 'ईथर' शब्द से जो भाव व्यक्त होता है, यह बहुत कुछ उसके सदृश है, यद्दपि पूर्णतः नहीं। इस तत्व के साथ 'प्राण' नाम की प्रारंभिक या आद्य ऊर्जा (primal energy) रहती है। प्राण और आकाश संघटित और पुनःसंघटित होकर शेष तत्वों का निर्माण करते हैं। फिर कल्प के अन्त में सब कुछ प्रलयगत होकर बाह्य मूल तत्व आकाश (matter) और आद्य ऊर्जा (energy) में परिवर्तित हो जाता है। 
 विश्व की प्राचीनतम मानवीय रचना ऋग्वेद के नासदीय सूक्त (ऋग्वेद - १० - १२९) में सृष्टि का वर्णन करते हुए एक अत्यन्त सुन्दर और परम काव्यमय पद मिलता है --" जब सत् भी नहीं था, असत् भी नहीं था, तम के द्वारा तम ढँका हुआ था, तब क्या था ? और इसका उत्तर दिया गया है, " It then existed without vibration". ' तब वह निस्पन्द अवस्था में था।' इस प्राण की सत्ता तब भी थी, किन्तु उसमें कोई गति न थी; 'आनीदवातम्' का अर्थ है, 'अर्थात  जब हवा भी नहीं था, वह ब्रह्म अकेला अपने ही दम पर सांसे ले रहा था, वह अस्तित्ववान था ! ' स्पन्दन का विराम हो जाने पर भी 'वह' था ! तब एक बहुत लम्बे विराम के उपरान्त जब कल्प का आरम्भ होता है, तब आनीदवातम् (unvibrating atom: निस्पन्द परमाणु) स्पन्दन आरम्भ कर देता है। 
और प्राण आकाश को आघात पर आघात प्रदान करता है। परमाणु घनीभूत होते हैं, और उनके संगठन की इस प्रक्रिया में विभिन्न तत्व बन जाते हैं। (अनुवादक का कार्य बहुत दायित्वपूर्ण होता है): हम साधारणतः देखते हैं, लोग इन सब बातों का अत्यन्त अदभुत अंग्रेजी (या हिन्दी ) अनुवाद किया करते हैं। लोग अनुवाद के लिये दार्शनिकों और भाष्यकारों की सहायता नहीं लेते, 'and have not the brains to understand them themselves.'  और उनमें इतनी बुद्धि भी नहीं होती कि वे स्वयं इनके गूढ़ रहस्यों को समझ सकें। कोई मूर्ख संस्कृत के तीन अक्षर पढ़ता है, और उसीसे एक पूरी पुस्तक का अनुवाद कर डालता है ! (They translate the, elements as air, fire, and so on) वे भूत-समूह (तत्व) का वायु, अग्नि आदि के रूप में अनुवाद किया करते हैं। यदि वे भाष्यकारों के भाष्यों पर गम्भीरता से चिन्तन करते, तो वे देख पाते कि उनका मतलब वायु या अन्य किसी से नहीं है।  
{ हिन्दी पाठकों की सुविधा के लिये यहाँ नासदीय सूक्त की यह व्याख्या व् पदार्थ पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ की पुस्तक "त्रैतसिद्धान्तादर्श" - से दी जा रही है। पण्डित जी ने छठे व् सातवें मन्त्र की व्याख्या नहीं दी , केवल पदार्थ ही दिया है | त्रैतसिद्धान्त  पर अधिक जानकारी के लिए जिज्ञासुजन सम्पूर्ण पुस्तक पढ़ें | प्रकाशक:- रामलाल कपूर ट्रस्ट,  ग्राम रेवली , पो . शाहपुरतुर्क , जिला सोनीपत - १३१००१ , हरयाणा}
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्। 
 किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद् गहनं गभीरम्  ।१। 
 ( तदानीम् ) तब प्रलयावस्थामें ( असत् + न + आसीत् ) 'अभाव' (किसी वस्तु का न होना, उस वस्तु का "अभाव" कहा जाता है, जैसे वंध्या का पुत्र तथा "अन्योन्य अभाव" परस्पर अभाव, जैसे घट में पट का न होना तथा पट में घट का न होना।) नहीं था, ( नो + सत् + आसीत् ) 'भाव' भी नहीं था, अर्थात उस अवस्था में व्यक्ताव्यक्त कुछ भी प्रतीत नहीं होता था ( रजः + न + आसीत् ) लोक-लोकान्तर भी न थे। " [(निरुक्त ४-१९) के अनुसार " लोका रजान्स्युच्यन्ते " में लोकों का नाम रज है] ( व्योम + नो ) आकाश भी नहीं था (परः + यत् ) आकाश से भी पर यदि 'कुछ' हो सकता है तो वह भी नहीं था ( कुह ) किस देश में ( कस्य + शर्मन् ) किस के कल्याण के लिये ( किम + आवरीवः ) कौन किस को आवरण करे। इस लिये आवरण  भी नहीं था (किम् ) क्या ( गहनम् ) ( गभीरम् ) गभीर ( अम्भः ) जल ( आसीत् ) था ? नहीं । 
व्याख्या -- ऋषि इस प्रथम ऋचा में व्यक्त संसार के अस्तित्व का निषेध करते हैं। प्रलयावस्था में असत् या सत् कुछ प्रतीत नहीं होता था।  कोई लोक वा यह दृश्यमान आकाश भी प्रतीत नहीं होते थे। अत्यन्त गभीर जलादिक भी नहीं था। जब कुछ नहीं था तो उसका आवरण भी नहीं था। यह स्पष्ट है कि बीज की रक्षा के लिये आवरण हुआ करता है। इसी प्रकार गेहूँ, यव, चने आदि पदार्थों में आवरण होते हैं।  जब आच्छाद्य नहीं था, तब आच्छादक का भी अभाव था ( आ + अवरीवः ) यह 'वृ'धातु से यड्लुगन्त में लड् लकार का रूप है।१।  

 
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत् प्रकेतः ।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किञ्चनास  ।२। 
( न + मृत्युः + आसीत् ) न मृत्यु थी ( न + तर्हि + अमृतम् ) न उस समय अमृत था (न + रात्र्याः + अह्नः ) न रात्रि और दिन का ( प्रकेतः + आसीत् ) कोई चिह्न था । तब उस समय कुछ था, या नहीं ? ब्रह्म भी था , या नहीं ? इस पर कहते हैं कि ( अवातम् ) वायुरहित ( तत् + एकम् ) वह एक ब्रह्म  (स्वधया) प्रकृति के साथ ( आनीत् ) चेतनस्वरूप विद्यमान था। ( तस्मात् + ह् + अन्यत् ) पूर्वोक्त प्रकृति सहित ब्रह्म के अतिरिक्त ( किञ्चन + न ) कुछ भी नहीं था। अतः  ( परः ) सृष्टि के पूर्व कुछ भी नहीं था। यह सिद्ध होता है। 
व्याख्या -- आनीत् --- प्राणनार्थक 'अन' धातु का 'आनीत्' यह रूप है, ( अवातम् ) वायुरहित ।  बिना वायु का वह एक ब्रह्म विद्यमान था। ' जब वायु भी नहीं थी, वह ब्रह्म अकेला अपने ही दम पर सांसे ले रहा था, वह अस्तित्ववान था ! केवल वह 'एक' ही नहीं था , किन्तु 'स्वधा' भी उसके साथ थी ~!! 'स्वधया' यह तृतीय का एकवचन है। सायण 'स्वधा' शब्द का अर्थ 'माया' करते हैं। वास्तव में वेदान्ताभिमत अनिर्वाच्य 'मायावाची स्वधा' शब्द यहाँ नहीं है , किन्तु यह स्वधा 'प्रकृतिवाची शब्द'  है। यदि जगत् के मूल कारण का नाम माया अभिप्रेत हो , तो नाममात्र के लिए विवाद करना व्यर्थ है। तब उस मूल कारण का नाम 'माया' यद्वा 'प्रकृति' यद्वा 'प्रधान', 'अव्यक्त', 'अज्ञान' , 'परमाणु' इत्यादि कुछ भी नाम रख लें।  इस में विवाद व्यर्थ है । किन्तु 'माया' और 'प्रकृति' या 'अव्यक्त' इत्यादि शब्द की अपेक्षा 'स्वधा' शब्द बहुत उपयुक्त है। क्योंकि स्व = निज सत्ता । जो निज सत्ता को धा = धारण किये हुये विद्यमान हो , उसे स्वधा कहते हैं । "स्वं दधातीति स्वधा" ~ जो अपने को धारण करती है , उसे स्वधा कहते हैं । जैसे परमात्मा की सत्ता बनी रहती है , तद्वत् जड़ जगत् के मूल कारण की भी सत्ता सदा बनी रहती है ।  इसलिए उसको स्वधा कहते हैं । 'सह युक्तेsप्रधाने ( अ. २-३-१९ ) इस सूत्रानुसार सह [ सहार्थ के योग में स्वधा ] शब्द का तृतीया के एकवचन में स्वधया रूप है।२। 

तम आसीतीत्तमसा गूढमग्रेsप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्  | 
तुच्छ्येनाम्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम्  |३| 

(अग्रे + तमः + आसीत्) सृष्टि के पूर्व तमोवाच्य जगन्मूल कारण प्रधान था और ( तमसा ) उसी तमोवाच्य प्रधान से ( इदम् + सर्वम् ) यह वर्तमानकालिक दृश्यमान सब कुछ (गूढ़म् ) आच्छादित था, अत एव ( अप्रकेतम् ) वह अप्रज्ञात था । पुनः ( सलिलम् + आः ) दुग्धमिश्रित जल के समान कार्य-कारण में भेदशून्य यह सब था। पुनः ( आभु ) सर्वत्र व्यापक ( यत् ) जो जगन्मूल कारण प्रधान था, वह भी ( तुच्छ्येन ) तुच्छता के साथ अर्थात अव्यक्तावस्था के साथ (अपिहितम् + आसीत् ) आच्छादित था ( तत् ) वही 'प्रधान ' या स्वधा ( एकम् ) एक होकर (तपसः + महिना ) परमात्मा के तप के महिमा से ( अजायत ) व्यक्तावस्था में प्राप्त हुआ। 
व्याख्या -- प्रथम ऋचा में सत् और असत् इन दोनों का विवरण इसलिए किया कि यह दोनों नहीं ज्ञात होते थे। पुनः द्वितीय ऋचा में अमृत इत्यादिकों का अभाव कथन कर उस अवस्था में भी एक परमात्मा की स्वधा के साथ विद्यमानता बतलायी गई अर्थात जगन्मूल कारण जड़ प्रकृति अव्यक्तावस्था में होने से नहीं के बराबर थी , किन्तु उसके साथ सब में चैतन्य देने वाला एक परमात्मा विद्यमान था इत्यादि वर्णन पूर्वोक्त दोनों ऋचाओं में किया गया ।
अब लोगों को यह सन्देह हो कि जड़ जगत का मूल कारण क्या " सर्वथैव शशविषाणदिवत् अविद्यमान"  था जो सर्वथा नहीं होते, जैसे शशविषाण, वन्ध्यापुत्र आदि असत् होते हैं, (वैसे ही क्या माँ काली या स्वधा असत् है ?)। परमात्मा ने स्वयं इस जगत को अपने सामर्थ्य से बना लिया ? इत्यादि आशंकाओं को दूर करने के लिए आगे कहा है कि 'तम आसीत्' इत्यादि जगन्मूल कारण अवश्य था और उसी मूल कारण से वर्तमानकालिक यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् आच्छादित था अर्थात केवल कारण विद्यमान था, कार्य नहीं। वह कारण भी 'तुच्छयेन' अव्यक्तावस्था से ढका हुआ था , तब परमात्मा की कृपा से एक होकर इस वर्तमानकालिक रूप में परिणत हुआ। सत्त्व, रज, तम इनकी साम्यावस्था का नाम प्रकृति है। उस प्रकृति के प्रधान , अव्यक्त , और अदृश्य आदिक अनेक नाम हैं।  यहाँ वेद में उसी को 'तमः' शब्द से कहा है । वेदान्त में इसी का नाम 'अज्ञान' (अविवेक) है क्योंकि वह ज्ञानस्वरूप परमात्मा को भी ढक लेता है। इस विषय का संग्रह मनु जी ने इस प्रकार किया है कि -
   आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्  |  
                 अप्रतर्क्यमनिर्देश्यम् प्रसुप्तमिव सर्वतः  ||  ( मनु - १-५ ) 
यह वर्तमानकालीन जगत् प्रलयावस्था में तमोमय , अप्रज्ञात , अलक्षण , अप्रतर्क्य , अनिर्देश्य और मानो सर्वत्र प्रसुप्त था | उस समय यह जगत न किसी को जानने योग्य (अप्रज्ञात) था, न तर्क में लाने योग्य (अप्रतर्क्य) था और न प्रसिद्ध चिन्हों (लक्षण) युक्त था, और न इन्द्रियों से ही जानने योग्य (अनिर्देश्य) था , और मानो सर्वत्र प्रसुप्त था। किन्तु जब जीवों के कर्म फलोन्मुख होते हैं, तब परमेश्वर की सृष्टि करने की इच्छा होती है | यह ईश्वरीय सिसृक्षा ( सृष्टि करने की इच्छा ) ही तप कहलाती है और उसी तप की महिमा से वह कारण रूप जड़ प्रधान मानो एक रूप होकर परिणत होने लगता है , तब उससे क्रमपूर्वक महदादि सृष्टि होती है।३। 

कामस्तदग्रे समवर्त्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्  | 
सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा  |४| 

( तदग्रे ) उस सृष्टि के पूर्व ( कामः + समवर्त्तत ) ईश्वरीय कामना थी ( यत् ) जो ( मनसः + अधि ) अन्तःकरण का ( प्रथमम् + रेतः ) प्रथम बीजस्वरूप 'काम' ही ( आसीत् ) था। ( कवयः ) बुद्धिमान ऋषि प्रभृति ( मनीषा ) अपनी सात्विक बुद्धि से ( असति ) विनश्वर ( हृदि + प्रतीष्य ) हृदय में विचार (सतः + बन्धुम् ) अविनश्वर सद्वाच्य प्रकृति के बाँधने वाले परमात्मा को ( निरविन्दन् ) पाते हैं। 
जो लोग ईश्वर को कामनारहित कहते हैं , वे वास्तव में तात्पर्य को नहीं समझते क्योंकि 'सोsकामयत' 
(तै . उप . २-६ ) = उसने कामना की , 'तदैक्षत' ( छा . उप . ६-२-१ ) = उसने ईक्षण किया इत्यादि श्रुतिवाक्यों से ब्रह्म में काम का सद्भाव प्रसिद्ध है । यदि काम न होता तो यह सृष्टि भी नहीं होती । इस हेतु जीवों के स्व-स्व कर्मानुसार फल भोगने के लिए सृष्टि करने की ईश्वर की कामना अवश्य थी ।  और यही कामना मानो , जगद्रचना का बीजभूत थी। उस कर्त्ता-धर्त्ता परमात्मा को कविगण अपनी बुद्धि से इसी विनश्वर हृदय में प्राप्त करते हैं | उसके अन्वेषण के लिए बाह्य जगत् में इतस्ततः दौड़ना नहीं पड़ता। सतो बन्धुम् = जड़ जगत् के 'कारण प्रकृति' का नाम है - 'सत्'! उस कारण (ह्रीं) को परमेश्वर अपने वश में रखता है । इस हेतु वह 'सतो बन्धु' कहलाते है । जो अपने साथ बाँध ले, बन्धु नाम बाँधने वाला।४।

तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासीउदुपरि स्विदासिउत्  | 
रेतोधा आसन् महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात् प्रयतिः परस्तात्  |५|
  
( एषाम् ) इन सृष्ट पदार्थों के ( रश्मिः ) सूर्यकिरण के समान विस्तार ( स्वित् ) क्या ( तिरश्चीनः ) तिर्यग्भाव टेढ़ा ( विततः ) फैला हुआ था। ( स्वित् ) अथवा क्या ( अधः + आसीत् ) नीचे था अथवा (उपरि + आसीत् ) ऊपर था , यह कुछ कहा ही नहीं जा सकता। यह सृष्ट जगत् ऊपर अथवा नीचे अथवा सीधा या टेढ़ा है , इसका निश्चय नहीं हो सकता , किन्तु ( रेतोधाः + आसन् ) जीव थे ( महिमानः + आसन् ) और उस ब्रह्म के प्रकृति के और जीवों के महत्त्व थे। (स्वधा + अवस्तात्) प्रकृति नीचे थी और ( प्रयतिः ) ईश्वरीय प्रयत्न ( परस्तात् ) ऊपर था अर्थात उस प्रकृति के ऊपर काम करने वाला था।  
व्याख्या -- यह सृष्टि किस प्रकार स्थापित है और कहाँ तक है , इसका आदि-अन्त कहीं है अथवा नहीं , इत्यादि ज्ञान कठिन है किन्तु रेतोधा = जीवात्मा इत्यादिक हैं , थे और रहेंगे , यह विस्पष्ट प्रतीत होता है। रेतोधा = यह जीवात्मा वाचक शब्द है। जीवात्मा की परम्परा , वंश चलाने के लिए आवश्यक है कि उसमे बीजस्वरूप वीर्य हो। अत एव ' रेतो वीर्यं दधातीति रेतोधा ' अर्थात [जो] वीर्य को धारण करे उसे रेतोधा कहते हैं। अनेक लक्षणों में से जीव का एक लक्षण यह है कि जो अपने समान बीज को छोड़ जाए , उसको जीवात्मा कहते हैं।
 प्रत्येक जीव की यह स्वभाविक प्रवृत्ति है कि वह अपने समान बीज छोड़ को छोड़ जाता है। उद्भिज्ज सृष्टि में इसकी तो बहुत ही अधिकता है किन्तु अण्डज , जरायुज और ऊष्मज जीवों में भी इसकी न्यूनता नहीं। प्रत्येक प्राणी अपने समान कम से कम एकाध अपत्य उत्पादन के लिए सचेष्ट रहता है और प्रायः सन्तान छोड़ भी जाता है। अत एव इस सृष्टि के प्रवाह का उच्छेद नहीं होता । सायण भी रेतोधा शब्द का अर्थ जीवात्मा करते हैं। उनका शब्द इस प्रकार है -- " रेतसो बीजभूतस्य कर्मणो विधातारः कर्त्तारो भोक्तारश्च जीवः" -- सायण रेत शब्द का अर्थ 'बीजभूत कर्म' करते हैं । किन्तु रेत शब्द का अर्थ वीर्य भी प्रसिद्ध है । जैसे योगीगण ऊर्ध्वरेता कहलाते हैं। (स्वधा + अवस्तात्) 'स्वधावस्तात्' = स्वधा नाम प्रकृति का है और वह अचेतन है , अत एव जीव और ईश्वर के नीचे उसे स्वभावतया ही रहना पड़ता है। इस हेतु स्वधा के नीचे रहने का वर्णन यहाँ आया है।  और 'प्रयतिः परस्तात्' = प्रयति नाम प्रयत्न का है | प्रयत्न प्रकृति के ऊपर है अर्थात उसका शासक है,यह प्रत्यक्ष है। 
 को अद्धा वेद क इह प्रवोचत् कुत आ जाता कुत इयं विसृष्टिः  |  
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आ बभूव  |६|
( इयम् + विसृष्टिः ) यह विविध सृष्टियाँ ( कुतः + आजाता ) किस उपादान कारण से अच्छे प्रकार हुईं? ( कुतः ) और किस निमित्त कारण से हुईं ? (कः) कौन विद्वान (अद्धा) परमार्थ रूप से (वेद) इन विविध सृष्टियों को जानते हैं ? (कः) कौन तत्त्ववित् (इह) इस लोक में ( प्रवोचत् ) इनकी व्याख्या हम लोगों को सुनावें ? यदि साधारण पृथिवीस्थ विद्वान इस सृष्टि की व्याख्या न कर सकें तो कदाचित सूर्यादि देव इसके तत्त्व को जानते हों तो उनसे पूछ कर निश्चय किया जाए और इस सन्देह को मिटाने के लिए देवों की भी अज्ञता आगे कहते हैं । ( अस्य ) इस जगत के ( विसर्जनेन ) त्याग से अर्थात उसके (अर्वाक्) पश्चात ( देवाः ) देवगण उत्पन्न हुये अर्थात प्रकृति अथवा परमाणु नित्य हैं और इनके संघात से जब कार्य जगत पृथिव्यादिक बन चुके , तब अन्यान्य देवों की सृष्टि हुई। इस हेतु वे भी इसके तत्त्व को जानने में सर्वथा असमर्थ हैं। (अथ) तब (कः + वेद) कौन जानता है ? ( यतः + आबभूव ) जिस निमित्तोपकारण से ये सृष्टियाँ हुई। 
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद  । ७।
 यतः=जिस निमित्तकारणीभूत परमात्मा से ( इयम् + विसृष्टिः ) ये विविध सृष्टियाँ ( आबभूव ) हुआ करती हैं , वही ( यदि + वा + दधे ) यदि इसको धारण करता है तो वही धारक है। ( यदि + वा + न) यदि वह इसका धारण नहीं करता है तो अन्य कोई इसका अध्यक्ष है ( सः ) वह ( परमे + व्योमन् ) परम उत्कृष्ट निज महिमा में विद्यमान है ( अंग ) हे मनुष्यों !  (वेद) वही जानता है ( यदि + वा + न + वेद) यदि वह नहीं जानता तो दूसरा इसको कोई नहीं जानता | इससे संसार की दुर्विज्ञेयता और दुर्द्धस्त्व इत्यादि सिद्ध किया गया है।
प्राण के बार बार आघात के द्वारा आकाश से वायु अथवा स्पन्दन (Vâyu or vibrations) उत्पन्न होता है। यह वायु स्पन्दित होती है और जब वे स्पन्दन अधिकाधिक तीव्र हो जाते हैं, तो पहले घर्षण एवं बाद में ताप या तेज की उत्पत्ति होती है। तब यह ताप तरल भाव धारण करता है, उसे अप कहते हैं। अन्त में यह तरल पदार्थ आकार प्राप्त करता है। पहले हमें आकाश और गति प्राप्त हुई, उसके पश्चात ताप उत्पन्न होता है, फिर वह तरल हो जाता है, तब घनीभूत होकर जड़ पदार्थ का आकार धारण करता है।  इसके बाद ठीक विलोम क्रम में यह प्रत्यावर्तन करता है। पदार्थ तरलीभूत होता है, और बाद में उत्तापराशि के रूप में परिणत होता है, वह फिर धीरे धीरे गति को पुनः प्राप्त करता है; उस गति का भी विराम हो जायगा और यह कल्प भी विनष्ट होगा।फिर वह प्रत्यावर्तन करेगा और फिर आकाश के रूप में विघटित हो जायगा।
आकाश की सहायता के बिना प्राण (ऊर्जा या शक्ति) स्वयं कार्य नहीं कर सकता।  गति, स्पन्दन या विचार के रूप में हम जो जानते हैं, वे प्राण के ही विकार हैं; और जड़ अथवा भूत पदार्थ के नाम से जो कुछ हम जानते हैं, ' everything that we know in the shape of matter, either as form or as resistance' जो कुछ आकृतिमान अथवा बाधात्मक है, वह इसी आकाश का विकार है।  यह प्राण स्वयं नहीं रह सकता अथवा किसी मध्यवर्ती के बिना कार्य नहीं कर सकता; जब यह केवल शुद्ध प्राण ही है, वह आकाश में ही रहता है; और जब वह प्रकृति की शक्ति में -गुरुत्वाकर्षण या केन्द्रापसारी शक्ति के रूप में --परिवर्तित होता है, अवश्य ही उसके लिये जड़ पदार्थ आवश्यक है।
 तुमने जड़ पदार्थ के बिना शक्ति या शक्ति के बिना जड़ पदार्थ कभी नहीं देखा है।  हम जिन्हें शक्ति और  पदार्थ कहते हैं, वे उन वस्तुओं की स्थूल अभिव्यक्तियाँ हैं, जिनके सूक्ष्म स्वरुप को प्राण या आकाश कहते हैं, अंग्रेजी में तुम 'प्राण' को 'जीवन' या 'जीवन-शक्ति' कह सकते हो, लेकिन तब इसे केवल मनुष्य जीवन तक ही सीमित न करो। 'you must not identify it with Spirit, Atman.'  साथ ही इसे आत्मा के साथ भी एकीकृत न करो।  इस प्रकार यह सृष्टिक्रम चलता है। सृष्टि का न कोई आदि है न अन्त, यह एक चिरन्तन प्रवाह है।   
अब हम इन प्राचीन मनोवैज्ञानिकों के एक अन्य पक्ष का वर्णन करेंगे, जिसके अनुसार समस्त स्थूल पदार्थ सूक्ष्म तत्वों के परिणाम हैं। प्रत्येक स्थूल वस्तु सूक्ष्म उपकरणों से निर्मित हुई है, जिन्हें वे तन्मात्रा अर्थात सूक्ष्म कणिकाएँ (fine particles) कहते हैं। मैं एक फूल सूंघता हूँ। To smell, something must come in contact with my nose; सूँघने की क्रिया में किसी वस्तु का मेरी नासिका से सम्पर्क होना आवश्यक है : फूल तो है, परन्तु उससे निकल कर किसी अन्य वस्तु को अपनी ओर आते तो नहीं देखते। जो सुगन्ध फूल से आता है और जिसका हमारी नासिका से सम्पर्क होता है, उसे तन्मात्रा या उस पुष्प का अणु (Tanmatra, fine molecules of that flower) कहते हैं।  यह बात ताप, प्रकाश और प्रत्येक और प्रत्येक अन्य वस्तु के सम्बन्ध में घटित होती है। (These Tanmatras can again be subdivided into atoms) पुनः इस तन्मात्राओं को परमाणुओं की उपश्रेणी में विभाजित किया जा सकता है। 
 विभिन्न दार्शनिकों के भिन्न भिन्न सिद्धान्त हैं, और हम जानते हैं कि ये केवल सिद्धान्त हैं। हमारे लिये इतना ही जानना पर्याप्त है कि प्रत्येक स्थूल वस्तु अत्यन्त सूक्ष्म उपकरणों से बनी हुई है। हमें पहले स्थूल पदार्थों की प्रतीति होती है, जिनकी हमें बाह्य अनुभूति होती है। इसके बाद सूक्ष्म तत्वों का अनुभव होता है, जिनके साथ नासिका, चक्षु, कर्ण और तव्चा का सम्पर्क होता है। ईथर-तरंगें मेरे नेत्रों को स्पर्श करती हैं, किन्तु मैं उन्हें देख नहीं सकता। तो भी मैं जनता हूँ कि प्रकश को देखने में समर्थ होने पूर्व उनका मेरे नेत्रों के संपर्क में आना आवश्यक है। 
आँखें हैं, पर आँखें देखती नहीं हैं। यदि मस्तिष्क-केन्द्र को हटा लो, तो आँखें तो तब भी रहेंगी और नेत्र-पट के ऊपर बाह्य जगत का चित्र अंकित होगा, तथापि आँखें देख न सकेंगी। अतः नेत्र केवल बाहरी खिड़की हैं, दर्शन-इन्द्रिय नहीं हैं। The organ of vision is the nerve-center in the brain. दर्शन-इन्द्रिय मस्तिष्क में स्थित ऑप्टिक-नर्व या दर्शन-तन्त्रिका हैं। इसी प्रकार नासिका बाहरी यन्त्र है, और उसकी घ्राण-इन्द्रिय मस्तिष्क की घ्राण-तंत्रिका है।यह कहा जा सकता है कि यह विभिन्न केन्द्र ही जिन्हें संस्कृत में इन्द्रिय कहते हैं, प्रत्यक्ष बोध (perception) के वास्तविक स्थान हैं।     
प्रत्यक्ष बोध के लिये तीन वस्तुएँ -बाहरी यंत्र, मस्तिष्क में स्थित उसकी इन्द्रिय;  और मन का उस इन्द्रिय के साथ सम्बद्ध होना आवश्यक है। यह सामान्य अनुभव है कि उस समय जब कि हम अध्यन में तल्लीन रहते हैं, घड़ी कि ध्वनि नहीं सुनते। क्यों ? कान अपनी जगह पर होते हैं, उनके द्वारा ध्वनि मस्तिष्क में अवस्थित श्रवण-इन्द्रिय तक पहुंचायी जाती है, तो भी कान सुन नहीं पाता, क्योंकि मन उस समय श्रवण-इन्द्रियों के साथ नहीं जुड़ा था। (ईश्वरचन्द्र विद्यासागर /का उदाहरण।)
There is a different organ for each different instrument.प्रत्येक संवेदक अवयव के लिये एक भिन्न इन्द्रिय होती है। कारण यह है कि यदि एक से ही सबका काम लिया जाये, तो फल यह होगा कि मन उससे जुड़ेगा, तब सभी इन्द्रियाँ समान रूप से क्रियाशील होंगी। किन्तु जैसा कि हमने घड़ी के उदाहरण में देखा कि बात ऐसी नहीं है। यदि सभी साधनों के लिये एक ही अवयव होता, तो मन एक ही साथ देखने, सुनने, और सूँघने की क्रिया करता और उसके लिये इन सारी क्रियाओं को एक साथ और एक ही समय पर करना सम्भव न होता। अतः प्रत्येक इन्द्रिय के लिये एक भिन्न अवयव का होना आवश्यक है, आधुनिक शरीरविज्ञान (physiology) ने इस बात की पुष्टि की है। निश्चय ही हमारे लिये एक साथ सुनना और देखना सम्भव है, किन्तु ऐसा होने का कारण यह है कि (Double Presence of Mind )न अपने को आंशिक रूप से दो केन्द्रों से सम्बद्ध करता है।
इंद्रियों की रचना किन तत्वों से हुई ? हम देखते हैं कि नेत्र, नासिका तथा कर्ण आदि साधन या यन्त्र स्थूल पदार्थ से निर्मित हैं।  इन्द्रियाँ भी स्थूल पदार्थ से बनी हैं। जिस प्रकार शरीर स्थूल पदार्थों से निर्मित है और वह भिन्न भिन्न स्थूल शक्तियों के रूप में प्राण का निर्माण करता है, उसी प्रकार इन्द्रियाँ आकाश, वायु, तेज आदि सूक्ष्म तत्वों से निर्मित हैं और वे प्राण को प्रत्यक्ष बोध की सूक्ष्मतर शक्तियों का रूप प्रदान करती हैं। इन्द्रियाँ, प्राण की क्रियायें, मन और बुद्धि से मिलकर मनुष्य का सूक्ष्मतर (कारण) शरीर बनता है। इसे लिंग अथवा सूक्ष्म शरीर कहते हैं।The Linga Sharira has a real form because everything material must have a form. लिंग शरीर का भी एक वास्तविक रूप होता है, क्योंकि प्रत्येक भौतिक पदार्थ का रूप होता है। 
मन को मनस, वृत्ति में चित्त अथवा स्पन्दनशील अर्थात अस्थिर कहा जाता है। यदि तुम किसी शान्त सरोवर में पत्थर फेंको, तो प्रथम उसमें तरंगे उठेंगी, फिर प्रतिरोध। एक क्षण जल में स्पंदन होगा, और फिर वह पत्थर के ऊपर प्रतिक्रिया करेगा। So when any impression comes on the Chitta, it first vibrates a little. That is called the Manas. इसी प्रकार जब चित्त पर कोई प्रभाव पड़ता है, तब वह प्रथम किंचित स्पन्दित होता है। इसी को मनस या मन कहते हैं।  मन प्रभावों को भीतर ले जाता है, और उन्हें निर्णायक शक्ति बुद्धि के सम्मुख प्रस्तुत करता है, जो प्रतिक्रिया करती है। बुद्धि के पीछे अहंकार (अहंभाव या egoism), या आत्म-चेतना है, जो कहती है- "मैं हूँ !" अहंकार के पीछे महत अथवा ज्ञान है, जो प्रकृति की सत्ता की सर्वोच्च स्थिति है। Each one is the effect of the succeeding one. चित्त,मन, बुद्धि, अहंकार और महत में से प्रत्येक क्रमानुसार आनेवाली स्थिति का परिणाम है। झील के उदाहरण में उस पर होने वाला प्रत्येक प्रहार बाह्य जगत से होनेवाला प्रहार है, जब कि मन (चित्त सरोवर) के मामले में, प्रहार बाह्य जगत से भी आ सकता है, और अन्तर जगत से भी आ सकता है। महत के परे मनुष्य का स्वरुप, पुरुष अथवा आत्मा है, विशुद्ध और पूर्ण। केवल वही द्रष्टा है, और उसी के लिए यह सारा परिवर्तन है। 
Man (man with capital 'M' ) या 'यथार्थ मनुष्य' इन सारे परिवर्तनों का द्रष्टा है, वह स्वयं अशुद्ध कभी नहीं होता। किन्तु वेदान्ती लोग जिसे अध्यास, प्रतिबिम्ब अथवा आरोप कहते हैं, उसके कारण वह अशुद्ध प्रतीत होता है(देहाध्यास या भवरोग के कारण वह अपने ही प्रतिबिम्बों को नहीं पहचान पाता और भ्रम में पड़कर स्वयं को अपवित्र या मरण-धर्मा शरीर मात्र समझने लगता है!)जैसे श्वेत स्फटिक के समीप जब लाल या नीला फूल लाया जाता है, तो प्रत्यावर्तन के कारण वह उसी रंग का दिखाई देता है, लेकिन स्फटिक उस समय भी उतना ही शुद्ध रहता है। हम इस बात को मानकर चलेंगे कि आत्मायें अनेक हैं, और प्रत्येक आत्मा शुद्ध और पूर्ण है, तथा भिन्न भिन्न प्रकार के स्थूल और सूक्ष्म पदार्थ उनके ऊपर अध्यस्त होते हैं, और उन्हें बहुरंगी बना देते हैं। प्रकृति यह सब क्यों करती है ? 
प्रकृति की यह सब परिवर्त्तन-क्रिया आत्मा के विकास की हेतु है। यह सारी सृष्टि आत्मा के हित के लिये है, जिससे वह मुक्ति लाभ कर सके। यह महान पुस्तक-जिसे हम विश्व कहते हैं, मनुष्य के सम्मुख इस लिए खुली हुई है कि वह उसे पढ़ सके और अन्त में यह जान जाय कि वह (मनुष्य) स्वयं (omniscient and omnipotent being) सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान सत्ता है ! मैं यहाँ पर यह बता दूँ कि हमारे कतिपय सर्वश्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक ईश्वर के सत्ता में उस प्रकार विश्वास नहीं करते हैं, जिस प्रकार तुम लोग विश्वास करते हो। हमारे मनोविज्ञानशास्त्र के जन्मदाता कपिल सगुण ईश्वर (Personal God) को बिल्कुल अनावश्यक मानते थे। उनका विचार है कि प्रकृति स्वतः समस्त सृष्टि रचना करने में समर्थ है। जिसे सृष्टि-रचनावाद का सिद्धान्त (डिजाइन सिद्धान्त Design Theory) कहा जाता है, उसके ऊपर तो उन्होंने प्रत्यक्ष प्रहार किया ' knocked on the head ' और कहा कि इससे बढ़कर मूर्खतापूर्ण सिद्धान्त का प्रतिपादन कभी नहीं हुआ।
 किन्तु वे एक अनूठा (peculiar) प्रकार के ईश्वर को स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि हम सभी मुक्त होने के लिये संघर्ष कर रहे हैं और जब हम मुक्त हो जाते हैं, तब मानो हम प्रकृति में लय हो जाते हैं और फिर दूसरे चक्र के प्रारम्भ में उसके शासक के रूप में पुनः आते हैं। हम सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान व्यक्तियों के रूप में आते हैं। उस अर्थ में हम ईश्वर कहे जा सकते है। तुम, मैं तुच्छातितुच्छ प्राणी विभिन्न चक्रों में ईश्वर हो सकते हैं। उनका कथन है कि ऐसा ईश्वर अस्थायी होता है, किन्तु किसी ऐसे अविनाशी ईश्वर का, जो अनन्त काल तक सर्वशक्तिमान और विश्व का नियन्ता हो, होना सम्भव नहीं है। यदि ऐसा ईश्वर हो, तो यह समस्या उठ खड़ी होगी : अवश्य ही वह या तो बद्ध आत्मा होगा या मुक्त पुरुष। पूर्ण मुक्त ईश्वर सृष्टि नहीं रचेगा --उसे इसकी अवश्यकता न होगी। यदि वह बद्ध होगा, तो भी वह रचना नहीं करेगा, क्योंकि वह कर ही नहीं सकता--वह शक्तिविहीन होगा। दोनों परिस्थितियों में कोई सर्वज्ञ अथवा सर्वशक्तिमान अनन्त ईश्वर नहीं हो सकता। वे कहते हैं कि हमारे धर्मशास्त्रों में जहाँ कहीं भी ईश्वर शब्द का प्रयोग हुआ है, वहाँ उसका आशय उन मनुष्यों से है-जो मुक्त हो चुके हैं। कपिल समस्त आत्माओं की एकता में विश्वास नहीं करते। जहाँ तक उनके विश्लेषण की बात है, वह बड़ा अद्भुत है। वे भारतीय विचारकों के पितामह हैं। बौद्ध धर्म तथा अन्य मतवाद उन्हीं के विचारों के परिणाम हैं। 
उनके (कपिल के) मनोविज्ञान के अनुसार- ' all souls can regain their freedom and their natural rights' सभी आत्माएं अपनी मुक्ति तथा अपने नैसर्गिक अधिकार --सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता-का पुनर्लाभ कर सकती है। परन्तु एक प्रश्न उठता है: यह बंधन (bondage) कहाँ है? कपिल कहते हैं कि यह अनादि (without beginning) है। किन्तु यदि इसका आदि नहीं है, तो इसका अन्त भी नहीं होगा, और हम कभी भी मुक्त न होंगे। वे कहते हैं, कि यद्द्पि बंधन अनादि है, तथापि वह इस प्रकार का नित्य और एकरूप नहीं है, जिस प्रकार आत्मा। दूसरे शब्दों में प्रकृति (बन्धन का कारण) अनादि और अनन्त है, किन्तु उसी भाव में नहीं, जिसमें आत्मा, क्योंकि प्रकृति का कोई व्यक्तित्व नहीं है। वह उस नदी के समान है, जो प्रत्येक क्षण नवीन जलराशि प्राप्त करती है। इस समस्त जलराशि का योग नदी है।  किन्तु नदी एक स्थिर राशि नहीं है।  प्रकृति की प्रत्येक वस्तु निरन्तर परिवर्तित हो रही है, किन्तु आत्मा नहीं बदलती। 'as nature is always changing, it is possible for the soul to come out of its bondage'. अतः चूँकि प्रकृति सदैव परिवर्तित हो रही है, आत्मा का उसके बन्धन से मुक्त होना सम्भव है। 
जिस योजना के अनुसार यह विश्व बना हुआ है, उसीके आधार पर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड निर्मित है। अतः जिस प्रकार हमारा एक मन है, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड का भी एक मन (cosmic mind) है।' As in the individual, so in the universal.' जो बात पिण्ड में है, वही बात ब्रह्माण्ड में भी है। ब्रह्माण्ड का स्थूल शरीर है, और उसके पीछे उसका सूक्ष्म शरीर है, उसके भी पीछे ब्रह्माण्ड का अहंकार (universal egoism or consciousness) और उसके बाद उसका महत्तत्व् (universal intelligence) । यह सब प्रकृति में ही है, प्रकृति की अभिव्यक्ति है, उसके बाहर नहीं। 
हम अपने माता-पिता से अपना स्थूल शरीर तथा चेतना प्राप्त करते हैं। कठोर अनुवांशिकता (Strict heredity) का कहना है, कि हमारा शरीर हमारे माता-पिता के शरीर का अंश है, तथा हमारी चेतना और अहंकार के उपकरण  हमारे माता-पिता के अंश हैं। हम अपने माता-पिता से प्राप्त अंश में ब्रह्माण्ड की चेतना से प्राप्त किये हुए अंश को जोड़ सकते हैं। 'infinite storehouse of intelligence' महत्तत्व (ज्ञान) का एक अनन्त भण्डार है, जिसमें से हम निरन्तर ग्रहण कर रहे हैं। ब्रह्माण्ड में मानसिक शक्ति का अक्षय भंडार है, जिसमें से हम निरन्तर ग्रहण कर हए हैं।  किन्तु माता-पिता से उस बीज का प्राप्त करना अनिवार्य है। (but the seed must come from the parents.) हमारा सिद्धान्त अनुवांशिकता और पुनर्जन्म, दोनों का योग है। आनुवंशिकता के नियम (law of heredity) के अनुसार पुनर्जन्म ग्रहण करनेवाली आत्मा माता-पिता से उन उपकरणों को प्राप्त करती है, जिनसे वह मनुष्य की रचना करती है। 
कुछ यूरोपीय विद्वानों का कथन है कि 'if I do not exist, the world will not exist'. यह संसार इसलिए है, क्योंकि मैं हूँ, और यदि मैं न होऊँ, तो यह संसार भी न हो । कभी कभी इस बात को इस प्रकार कहा जाता है : यदि संसार के सभी लोग मर जायें और मनुष्य शेष न रहे, तथा अनुभूति और बुद्धि से समन्वित कोई जीव न रहे, तो यह समस्त अभिव्यक्ति समाप्त हो जायगी। किन्तु ये यूरोपीय दार्शनिक इस (संसार) के मनोविज्ञान को नहीं जानते, यद्दपि वे इसके सिद्धान्त से परिचित हैं। आधुनिक दर्शनशास्त्र को केवल इसकी झलक भर प्राप्त है। यदि सांख्य के दृष्टिकोण से देखें, तो इसे समझना सरल हो जाता है।  
सांख्य मतानुसार किसी वस्तु की सत्ता तब तक सम्भव नहीं है, जब तक हमारे मन का एक अंश से उसके उपकरणों का निर्माण नहीं होता। I do not know this 'table' as it is. मुझे इस मेज के वास्तविक रूप का ज्ञान नहीं होता। (यह मेज वस्तुतः, क्या है इसे मैं नहीं जानता।) इसकी एक झलक मेरी आँखों पर, उससे होकर इन्द्रिय पर और फिर मन पर पड़ती है और मन प्रतिक्रिया करता है, और जो कुछ प्रतिक्रिया होती है, उसे मैं मेज कहता हूँ। ठीक यही बात झील में पत्थर फेंकने में है। झील पत्थर की ओर एक लहर फेंकती है, और इस लहर को हम जानते हैं। जो कुछ बाह्य है, उसे कोई नहीं जानता। जब हम उसे जानने की चेष्टा करते हैं, तब वह वही वस्तु बन जाता है, (it has to become that material which I furnish.जैसे एक ही स्त्री को कोई माँ,बहन,बुआ,पत्नी कहता है।) जो हम उसे प्रदान करते हैं। मैंने स्वयं अपने मन द्वारा ही अपनी आँखों के लिये उपकरण जुटा लिये हैं। बाहर कुछ वस्तु है, परन्तु वह केवल सुयोग (occasion) है, गुप्त-प्रस्ताव (suggestion) मात्र है। मैं उस संकेत के प्रति अपने मन का प्रक्षेपण करता हूँ और वह मन उसी वस्तु का रूप ले लता है, जो मैं देखता हूँ। (There is something which is outside, which is only, the occasion, the suggestion, and upon that suggestion I project my mind; and it takes the form that I see.) हम सब लोग कैसे एक ही वस्तु को देखते हैं ? क्योंकि हम लोगों के पास ब्रह्माण्डीय मन के सदृश अवयव हैं। जिनके एक जैसे मन हैं, वे वस्तुओं को एक जैसी देखते हैं और जिनके मन एक जैसे नहीं हैं, वे वस्तुओं को एक जैसी नहीं देखते।


शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

' परलोक का अनुसन्धान ' (The Inquiry into the Beyond)

धर्म का लक्ष्य-  प्राणिमात्र में विद्द्यमान एकत्व की खोज ! 
 ("एकत्व : धर्म का लक्ष्य !"स्वामी विवेकानन्द द्वारा १८९६ न्यूयार्क में दिया भाषण ) 
हमारा यह संसार -इन्द्रियों, बुद्धि और युक्ति से ससीम, सान्त (ससीम) दिखने वाला संसार --दोनों ही ओर से अनन्त, ज्ञानातीत या नित्य अज्ञात सत्ता द्वारा परिसीमित है। वह असीम जो ससीम में ही छुपा हुआ है, वह अनन्तता ही हमारी खोज है, इसीमें अनुसन्धान के विषय हैं, इसीमें तथ्य हैं और इसीसे प्राप्त होने वाले प्रकाश को संसार धर्म कहता है। इस तरह धर्म, वस्तुतः अतिचेतन या इन्द्रियातीत अवस्था में उपलब्ध होने वाली वस्तु है, ऐन्द्रिक धरातल की नहीं। 'It is beyond all reasoning and is not on the plane of intellect.'  
यह समस्त तर्क के परे है, बुद्धि के स्तर की नहीं। यह एक अलौकिक दिव्य दर्शन है, एक आकस्मिक-उद्भव (inspiration,अन्तःप्रेरणा) है, यह मानो अज्ञात और अज्ञेय के उदधि में डुबकी लगाना है, जिससे ज्ञानातीत सत्ता ज्ञात से भी अधिक ज्ञात हो जाता है। 'it can never be "known". क्योंकि वह असीम कभी इस ससीम बुद्धि के द्वारा 'जाना' नहीं जा सकता। 
जैसा कि मेरा विश्वास है, यह खोज मानवता के आदि काल से ही जारी है। विश्व के इतिहास में ऐसा समय कभी नहीं हुआ, जब मनुष्य की बुद्धि इस संघर्ष, इस अनन्त की खोज में व्यस्त न रही हो।  हमारे मन का जो नन्हा सा संसार (Little Universe) है, उसमें हम निरन्तर विचारों के बुलबुलों को उठते हुए देखते हैं। ये विचार कहाँ से आते हैं और कहाँ चले जाते हैं ?  हम नहीं कह सकते।  और बृहत् ब्रह्माण्ड और सूक्ष्म ब्रह्माण्ड (The macrocosm and the microcosm) एक ही लोक में हैं, उन्हीं अवस्थाओं को पार करते हैं, वही स्वर स्पंदित करते हैं।      
   अब तुम्हारे समक्ष हम हिन्दुओं के इस सिद्धान्त को रख रहे हैं कि धर्म कहीं बाहर से नहीं आता, बल्कि व्यक्ति के अभ्यन्तर से ही उदित होता है। मेरी यह आस्था है कि धार्मिक विचार मनुष्य की रचना में ही सन्नहित हैं, और यह बात इस सीमा तक सत्य है कि चाहकर भी मनुष्य धर्म का त्याग नहीं कर सकता, जब तक उसका शरीर है, मन है, मस्तिष्क है, जीवन है। जब तक मनुष्य में सोचने की शक्ति रहेगी, तब तक यह संघर्ष चलता ही रहेगा और तब तक किसी न किसी रूप में धर्म रहेगा ही।  इस तरह विश्व में हमें धर्म के विभिन्न रूप दिखाई पड़ते हैं। यह बात कुछ विस्मयकारी अवश्य लग सकती है, पर ऐसा नहीं कहा जा सकता, जैसा कुछ लोग कहते हैं कि यह सब निरर्थक परिकल्पना या व्यर्थ की अटकलें हैं। इस विस्वरता के मध्य एक समस्वरता भी है; इन समस्त बेसुरी ध्वनियों में समसुरता का भी एक स्वर है, और जो सुनना चाहे, वह उसे सुन सकता है। 
वर्तमान युग का सबसे बड़ा प्रश्न है : यदि इस बात को मान भी लिया जाय कि हमारा यह जगत;  जिसे हम जानते हैं-अर्थात ज्ञात है, और इसका जो कुछ हम अभी तक नहीं जान पाये हैं, किन्तु ज्ञेय है, हमारे इस ससीम जगत का आदि और अन्त, शाश्वत (सदा के लिये ) अज्ञात तथा असीम अज्ञेय द्वारा सीमाबद्ध है; तो हमें उस अज्ञात और असीम को जानने का प्रयास भी हमें क्यों करना चाहिये ? क्यों न हम इस ससीम या ज्ञात जगत को ही लेकर सन्तुष्ट रहें ? Why shall we not rest satisfied with eating, drinking, and doing a little good to society? क्यों न हम खाने, पीने और संसार की किंचित भलाई करने में ही संतुष्ट रहें ? ये प्रश्न अक्सर सुनने को मिलते हैं।  विद्वान् प्राध्यापक से लेकर तुतलाते बच्चे तक से यही सुनने को मिलता है कि , " संसार की भलाई करो; यही सारा धर्म है; परलोक में (इसके परे) क्या है, इससे सम्बन्धित प्रश्नों से व्यर्थ अपने को परेशान मत करो। " यह बात इतनी चल पड़ी है कि उसने एक कहावत या सामान्य सत्य (truism) का रूप ले लिया है। 

किन्तु सौभाग्यवश हम अनन्त के बारे में जिज्ञासा किये बिना नहीं रह सकते। यह जो वर्तमान है, व्यक्त है, वह तो अव्यक्त का अंश मात्र है। इन्द्रियों की चेतना के धरातल पर जो अनन्त अध्यात्मिक जगत् प्रक्षेपित हुआ है, यह इन्द्रिय-जगत् उसका नन्हा सा अंश है।  ऐसी स्थिति में उस अनन्त विस्तार को समझे बिना यह नन्हा सा प्रक्षेपित भाग कैसे समझा जा सकता है ? सक्रेटिस के बारे में ऐसा कहा जाता है कि एक बार एथेन्स में भाषण करते समय उससे एक ब्राह्मण की मुलाकात हुई।  वह ब्राह्मण यूनान की सैर कर चूका था।  सक्रेटिस ने उससे कहा कि मनुष्य के अध्यन का सबसे महत्वपूर्ण विषय मनुष्य ही है। इस पर ब्राह्मण ने उत्तर दिया -" तुम ईश्वर (असीम) को जाने बिना मनुष्य (ससीम) को कैसे जान सकते हो ? "  
यह ईश्वर, यह शाश्वत अज्ञेय सत्ता, यह ब्रह्म, यह अनन्त अथवा अनाम--चाहे तुम जिस किसी नाम से उसे पुकारो--ज्ञात और ज्ञेय जगत् के, वर्तमान जीवन का मूलभूत सिद्धान्त, उसकी व्याख्या की कुंजी है।  तुम अपने सामने की किसी भी वस्तु को ले लो, कोई भी अत्यन्त भौतिक वस्तु--(गुलाब का फूल) या भौतिक विज्ञानों में से ही किसी को ले लो, चाहे रसायनशाश्त्र हो अथवा भौतिक शास्त्र, चाहे नक्षत्र-विज्ञानं हो अथवा जिव-विज्ञान --उसको लेकर उसका अध्यन करो। उत्तरोत्तर यह दृश्यमान स्थूल जगत (The gross melts into the fine) सूक्ष्म में फिर सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर तत्वों में रूपान्तरित होता जाता है। और इसी प्रकार आगे बढ़ते बढ़ते तुम एक ऐसे विन्दु पर आ जाओगे, जहाँ से आगे बढ़ने के लिये तुमको भौतिक से अभौतिक धरातल पर आना पड़ेगा। ज्ञान के हर क्षेत्र में स्थूल सूक्ष्म में समाहित हो जाता है और अन्ततः (physics into metaphysics) भौतिक-विज्ञान भी तात्विक या अध्यात्म-विज्ञान का रूप धारण कर लेता है। और इसी प्रकार बाध्य होकर, अन्त में मनुष्य को जगदातीत सत्ता के अध्यन में उतरना ही पड़ता है। (Thus man finds himself driven to a study of the beyond.)
अगर हम इस जगत् के परे के तत्व को न जानें, तो जीवन रेगिस्तान बन जायगा, मानव जीवन निस्सार हो जायगा। यह कहना तो बड़ा अच्छा है कि जो सामने मिल गया है, उसी के भोग में सन्तुष्ट रहो। गाय और कुत्ते तो वैसे सन्तुष्ट हैं ही; सभी जानवर ही उस तरह सन्तुष्ट हैं, और यही उन्हें जानवर बनाये हुए है। यदि मनुष्य भी इन्हीं पशुओं की तरह अनन्त की खोज से मुँह मोड़कर वर्त्तमान जीवन में ही सन्तुष्ट रहने लगे, तो मानव जाति को एक बार फिर पशुत्व के धरातल पर जाना पड़ेगा। 'The Inquiry into the Beyond '  ' परलोक का अनुसन्धान करने लक्ष्य है-प्राणिमात्र में विद्द्यमान एकत्व की खोज ! यह धर्म ही है, 'पूर्णता' (ससीम में छुपा हुआ असीम ) की खोज ही है, जो मनुष्य को पशु से अलग करती है। ठीक ही कहा गया है, कि मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो स्वभावतः ऊपर की ओर देखता है, अन्य सभी प्राणी स्वभावतः नीचे की ओर देखते हैं। ऊपर की ओर देखना, ऊपर उठना तथा पूर्णता की खोज करना--इसे ही मोक्ष (ब्रह्मचर्य -परमात्मा की तरह जीना ) कहते हैं। जितनी जल्दी कोई मनुष्य ऊपर उठने लगता है, उतनी ही जल्दी वह मोक्ष की ओर उन्मुख होता है। मोक्ष या मुक्ति (या ब्रह्मचर्य -परमात्मा की तरह जीना ) इस बात पर निर्भर नहीं करती कि तुम्हारे पास कितने पैसे हैं, तुम कौन सी पोशाक अथवा तुम कैसे मकान में रहते हो?  बल्कि यह इस पर निर्भर करती है कि तुम्हारे मन में कितनी बड़ी आध्यात्मिक निधि है।  यही मानव को उन्नति की ओर ले जाती है, यही भौतिक और बौद्धिक प्रगति का मूलस्रोत है, तथा यही मानव को सदैव आगे बढ़ानेवाला उत्साह, और पृष्ठभूमि में रहने वाली प्रेरक शक्ति है। 
धर्म रोटी में नहीं है, मकान में नहीं है। बार बार लोग प्रश्न करते हैं, धर्म से आखिर कौन सी भलाई होगी? क्या यह गरीबों की दरिद्रता दूर कर सकेगा ? उनके लिये वस्त्रों का प्रबन्ध कर सकेगा ? मानलो कि धर्म यह सब नहीं कर सकता। तो क्या इससे धर्म की असत्यता सिद्ध हो जायेगी ? मानलो, तुम किसी खगोलीय-सिद्धान्त पर चर्चा कर रहे हो, और कोई बच्चा आकर कहने लगे- " क्या यह अदरक पड़ी मीठा बिस्कुट (gingerbread-जिंजरब्रेड ) ला देगा ? " तुम कहोगे, "नहीं, यह नहीं लाने वाला है।" इस पर बच्चा कहेगा, " तब तो यह बेकार है।" प्रत्येक साधारण व्यक्ति का विश्व को देखने का वही वही- ' जिंजरब्रेड ला देने वाला दृष्टिकोण' है और ठीक ऐसी ही बातें संसार के ये नादान बच्चे (आम-आदमी पार्टी)' babies of the world' भी करते हैं।
हमें उच्च स्तर की वस्तुओं को अपने निम्न स्तरीय मापदण्ड से नहीं मापना चाहिये। हर चीज के मापने का अपना अलग पैमाना होता है। इसलिये अनन्त या असीम की परख भी किसी अनन्त-स्तरीय  मानक के द्वारा ही की जानी  चाहिये। धर्म सम्पूर्ण मानव जीवन में परिव्याप्त है, न केवल वर्त्तमान में, अपितु भूत और भविष्य में भी। (इसीको धर्म में सनातन विशेषण लगाकर हम अपने धर्म को सनातन-धर्म या हिन्दू-धर्म कहते हैं) It is, therefore, the eternal relation between the eternal soul and the eternal God.  अतः हमलोग सनातन ब्रह्म से सनातन आत्मा के शाश्वत सम्बन्ध को सनातन ' धर्म' कह सकते हैं। इस सनातन सम्बन्ध का चार दिनों के मानव जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है, केवल इसी को आधार बनाकर धर्म का मूल्यांकन करना क्या न्यायसंगत है? बिल्कुल नहीं, ऐसे सभी तर्कों को ही कुतर्क या नकारात्मक तर्क कहा जाता है।  
अब प्रश्न उठता है कि क्या धर्म सचमुच कुछ कर सकता है ? हाँ, कर सकता है। इससे मानव अनन्त जीवन (eternal life) प्राप्त करता है। (मनुष्य अमर हो जाता है, अर्थात देवता बन जाता है !) मनुष्य वर्त्तमान में जो है, वह इस धर्म की शक्ति से ही हुआ है, और उससे ही मनुष्य नामक प्राणी देवता बन जायेगा। धर्म यही करने में समर्थ है। मानव-समाज से धर्म को हटा दो --क्या शेष बचेगा ? ऐसा होने पर संसार हिंस्र जंतुओं से भरा अरण्य बन जायगा। इन्द्रिय भोगों से मिलने वाला सुख मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है, ज्ञान (प्रकृति-पुरुष विवेक या Wisdom) ही सकल प्राणी का लक्ष्य है। 
हम देखते हैं कि एक पशु जितना आनन्द अपनी इन्द्रियों के माध्यम से पाता है, उससे अधिक आनन्द मनुष्य अपनी बुद्धि के माध्यम से अनुभव करता है।  साथ ही साथ हम यह भी देखते हैं कि मनुष्य अपनी बौद्धिक प्रकृति से भी अधिक आनन्द अपनी आध्यात्मिक प्रकृति में प्राप्त करता है। इसलिये मनुष्य का परम ज्ञान (highest wisdom) आध्यात्मिक ज्ञान ही माना जा सकता है। इस ज्ञान के होते ही परमानन्द की प्राप्ति होती है।  संसार की सारी चीजें मिथ्या हैं, छाया मात्र हैं, वे परम ज्ञान और आनन्द की तृतीय या चतुर्थ स्तर (level) की अभिव्यक्तियाँ हैं।
 एक प्रश्न और : लक्ष्य क्या है ? आजकल हमलोग कहते हैं कि अमुक व्यक्ति दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति कर रहा है।  किन्तु उसके समक्ष कोई ऐसा बिंदु नहीं, जिसे वह अपने पूर्णतम विकास का प्रतीक मान ले। सतत आगे बढ़ते जाओ, पर पहुँचो कहीं नहीं। इसका जो भी अर्थ हो, कितना ही अद्भुत क्यों न हो, किन्तु है एकदम अनर्गल। क्या कोई भी गति सीधी रेखा में होती है ? और यदि सीधी रेखा को अनन्त दूरी तक बढ़ाया जाय, तो वह एक वृत्त बना देती है, और आदि बिंदु पर लौट आती है।  जहाँ से तुमने प्रारम्भ किया था, वहीं लौटकर आना पड़ेगा।  अगर तुमने ईश्वर से प्रारम्भ किया है, तो अन्ततः ईश्वर के ही पास आना पड़ेगा।  तब शेष क्या रह जायेगा? तुम्हारा स्फुट कार्य। अनन्त काल तक तुमको स्फुट कार्य करते रहना पड़ेगा। 
एक दूसरा प्रश्न भी है : क्या प्रगति के पथ में हम नये धार्मिक सत्यों का भी अनुसन्धान कर सकते हैं ?
 हाँ, और नहीं भी।  पहले तो हम धर्म के विषय में इससे अधिक अब नहीं जनसकते। जो ज्ञेय था, वह ज्ञात हो चूका। संसार के सभी धर्म घोषित करते हैं, कि हम सबों में एकता का कोई न कोई सूत्र अवश्य है। अगर हम उस दैवी सत्ता से एक हो चुके हैं, तो इस अर्थ में आगे प्रगति नहीं हो सकती।  ज्ञान का अर्थ है, विविधता में इस एकता की उपलब्धि। मैं तुम लोगों के बीच स्त्री-पुरुष (भेद) देखता हूँ, यह हुई भेद-दृष्टि (अविवेक) । यदि मैं तुम सब लोगों को एक ही वर्ग में रखकर मानव कहूँ --तो यह वैज्ञानिक-दृष्टि या ज्ञान (विवेक) कहा जायगा। 
दृष्टान्त के लिये रसायनशास्त्र को लो।  रसायनशास्त्री सभी ज्ञात पदार्थों को उनके मौलिक तत्वों में विश्लेषित करना और यदि सम्भव हो, तो उस एक तत्व को खोज लेना चाहते हैं, जिससे ये सब उद्भूत हुए हैं, ऐसा समय आ सकता है, जब वे इस एक तत्व को जान लेंगे। उसका पता चल जाने पर वे और आगे नहीं जा सकेंगे, रसायनशास्त्र पूर्ण हो जायेगा। ठीक यही बात, आध्यात्मिक विज्ञान के साथ भी है। यदि हम इस मौलिक एकता को जान लेते हैं (अभेद-दृष्टि प्राप्त कर लेते हैं), तो और आगे प्रगति नहीं हो सकती। (अर्थात हमने जीवन-लक्ष्य कप प्राप्त कर लिया है !) इसके बाद प्रश्न यह है; इस प्रकार का एकात्मबोध या अभेद-दृष्टि प्राप्त करना क्या सम्भव है? 
भारतीय दर्शन (सांख्य दर्शन) और आधुनिक विज्ञान: भारत में अत्यन्त प्राचीन काल से ही धर्म और दर्शन को एक रूप से वैज्ञानिक धरातल पर खड़ा करने के लिये, अध्यात्म-विज्ञान में भी अविष्कार का प्रयत्न चल रहा है।  क्योंकि पाश्चात्य देशों में जिस प्रकार धर्म को दर्शन से अलग मानकर देखा जाता है, हिन्दू उस प्रकार धर्म को दर्शन से अलग नहीं मानते। हम धर्म (religion) और दर्शन (philosophy या आध्यात्मिक-विज्ञान) को एक ही वस्तु के दो भाव मानते है; जिन्हें समानरूप से युक्ति और वैज्ञानिक सत्य ( reason and scientific truth) में आधारित होना चाहिये।  
सांख्य दर्शन केवल भारत का क्यों, समग्र जगत् का सर्वप्राचीन दर्शन है। इसके महान व्याख्याता कपिल सकल हिन्दू अध्यात्म-विज्ञान (मनोविज्ञान) के पितामह हैं, और वे जिस प्राचीन दर्शन-प्रणाली का उपदेश दे गये हैं, वह इस समय भी भारत के वर्त्तमान सर्वमान्य दर्शन-प्रणाली की आधार शीला है।  इन सब दर्शनों के अन्य विषयों में चाहे जितना भी मतभेद क्यों न हो, सबने सांख्य का आध्यात्म-विज्ञान  ही ग्रहण किया है। वेदान्त भी सांख्य के युक्तिसंगत परिणामरूप (logical outcome of the Sankhya) सिद्धान्तों को लेकर ही और अधिक दूर तक (जानने की अन्तिम सीमा -अद्वैत तक) अग्रसर हुआ है !  कपिल के द्वारा उपदिष्ट सांख्य के ब्रह्माण्ड विज्ञान (cosmology) के साथ सहमत होने पर भी आचार्य शंकर का 'अद्वैत -वेदान्त' द्वैतवाद (dualism) में समाप्त होने में परितुष्ट नहीं हुआ। लेकिन प्रत्येक मनुष्य वेदान्त के सहारे उस अन्तिम एकत्व की खोज में, जो विज्ञान और धर्म के समान लक्ष्य है, निरन्तर अग्रसर रह सकता है।