मेरे बारे में

रविवार, 4 अगस्त 2013

$$$ मनोतीर्थ में स्नान करने से अमृतत्व लाभ होता है। (सरिसा आश्रम कैम्प )

 मन को अपनी मुट्ठी में कर लेना ही पहला पुरुषार्थ है !  
स्वामी विवेकानन्द द्वारा ' शिकागो-विश्वधर्म महासभा ' में दिये गये भाषण के पहले तक अंग्रेज लोग 'अपना ढेंढ़र न देख कर दूसरे की फुल्ली निहारने' वाले किस्से को चरितार्थ करने में जरा भी संकोच नहीं करते थे। वे वेद-उपनिषदों को ' Shepherd song ' ( गड़रिया का गीत-चरवाहा गीत ) कहकर उसकी खिल्ली उड़ाया करते थे।किन्तु अभी कुछ ही वर्ष पहले यूनेस्को (UNESCO) ने अपने घोषणा-पत्र में  वेद-उपनिषदों को 'मानवजाति की महान विरासत' (Great Human Heritage) की संज्ञा दी है। [UNESCO proclaimed the tradition of Vedic chant a Masterpiece of the Oral and Intangible Heritage of Humanity on November 7, 2003. All Dharmic religions i.e. Sanatana Dharma, Jainism, Buddhism and Sikhism build on this.]   
संस्कृत भाषा में लिखे वेद-उपनिषदों के महत्व को पाश्चात्य जगत या यूनेस्को को समझने में इतना समय क्यों लगा ? क्योंकि पाश्चात्य देशों में संस्कृत की शिक्षा देने की कोई व्यवस्था नहीं थी। वैसे तो ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में १८११ में ही संस्कृत चेयर की स्थापना हो तो गई थी, लेकिन उस समय इसके लिए कोई मनचाहा व्यक्ति न मिल पा रहा था। बोडेन चेयर पर प्रतिष्ठित होने वालो सबसे पहला व्यक्ति एच.एच. विलसन (Horace Hayman Wilson: १७८६-१८६०) था। वह भारत में मेडीकल प्रोफेशन के एक सदस्य के रूप में, १८०८ में आया तथा १८३२ तक यहाँ रहा। 
संस्कृत के विद्वान एच.एच. विल्सन, जो भारत से चले गये थे, को भारत के संस्कृत विद्वानों ने अनेक पत्र लिखे। एक भारतीय विद्वान ने लिखा, "इस संस्कृत पाठगृह के सरोवर में तुम्हारे द्वारा जो विद्वान- हंस स्थापित किये गये थे, कालवश तुम्हारे दूर चले जाने पर वे पंखरहित हो गए। उनके विनाश के लिए शिकारी (मैकाले ?) बाण साधे किनारे पर निवास कर रहे हैं। यदि तुम पालक बनकर उनसे उनकी रक्षा करते हो तब तुम्हारा यश चिरस्थायी होगा।" इस पर विल्सन ने अनुष्टप छन्द में जवाब दिया था ,
 "…….  यावत गंगा च कावेरी च तावदहि संस्कृतं। "
 "ब्राह्मा संसार के बनाने वाले हैं। हंस उसकी प्रिय सवारी है। अत: प्रिय होने के कारण से वही उनकी रक्षा करेगा। अमृत बहुत मीठा होता है, संस्कृत उससे भी अधिक मीठी है, क्योंकि देवता इसका सेवन करते हैं। इसलिए यह देवभाषा कहलाती है। इस संस्कृत में ऐसा मिठास है जिसके कारण हम विदेशी लोग इसके सदा दीवाने रहते हैं। जब तक भारतवर्ष है, जब तक विन्ध्य तथा हिमालय है, जब तक गंगा तथा गोदावरी है, तब तक संस्कृत है।" 
किन्तु उस समय, भारत निवास के इस काल में विल्सन ने जो संस्कृत भाषा सीखी थी, वह इस आशा और उद्देश्य से सीखी थी, कि शायद यह भाषा ज्ञान उसे हिन्दू धर्म शास्त्रों को समझने और आवश्यकता होने पर विकृत अर्थ करने और भारतीयों को ईसाईयत में धर्मान्तरित करने में सहायक हो सकेगी। इस संस्कृत ज्ञान के आधार पर ही विलसन को, १८३२ में, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत की बोडेन चेयर का प्रथम अधिष्ठाता बनाया गया।
यहाँ उसने सबसे पहले ईसाई मिशनरियों के लिए 'दी रिलीजन एण्ड फिलोसोफिकल सिस्टम ऑफ दी हिन्दूज' नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तके के लिखने के उद्‌देश्य के विषय में उसने कहा था - " यह लेखमाला उन व्यक्तियों की सहायता के लिए लिखी गई हैं जो कि म्यू द्वारा स्थापित दो सौं पौंड के पुरस्कार के लिए प्रत्याशी हों और जो हिन्दू धर्म ग्रन्थों का सर्वोत्तम प्रकार से खंडन कर सकें। (भारती, पृ. ९)
"These lectures were written to help candidates for a prize of £ 200/= given by John Muir, a well known Haileybury (where candidates were prepared for Indian Civil Services) man and great Sanskrit scholar, for the best refutation of the Hindu Religious Systems." (Bharti, p.9)
 १८६० में प्रो. विलसन के निधन के बाद,बोडेन चेयर का दूसरा अधिष्ठाता मौनियर विलियम्स हुआ। १८१९ में बम्बई में जन्मा मौनियर एक कट्‌टर ईसाई था। यह हिन्दू धर्म को नष्ट करने को और भी अधिक वचनबद्ध था जैसाकि उसने अपनी पुस्तक 'दी स्टडी ऑफ संस्कृत इन रिलेशन टू मिशनरी वर्क इन इंडिया'  (१८६१)
इसमें उसने एक मिशनरी की तरह स्पष्ट कहा था - " जब हिन्दू धर्म (वास्तव में सनातन-धर्म है) के मजबूत किलों की दीवारों को घेरा जाएगा, उन पर सुरंगे बिछाई जाऐंगी और अंत में ईसामसीह के सैनिकों द्वारा उन पर धावा बोला जाएगा तो ईसाईयत की विजय अन्तिम और पूरी तरह होगी (वही पृ. २६२) (When the walls of the mighty fortress of Hinduism are encircled, undermined and finally stormed by the soldiers of the Cross, the victory to Christianity must be signal and complete. p.262)
किन्तु मानव-जाति के जितने भी सच्चे नेता या मार्गदर्शक आते रहे हैं, सबों ने वेदों-उपनिषदों की शिक्षा की सहायता से अपने जीवन को कमल के पुष्प के जैसा प्रस्फुटित करने मार्ग ही दिखलाया है। स्वामीजी के भाषणों से प्रभावित होकर किसी अमेरिकी महिला ने पूछा था - ' स्वामीजी आर यू अ बुडिस्ट ? ' (स्वामीजी क्या आप बौद्ध-धर्म के अनुयायी हैं ? ) स्वामीजी थोड़े विनोदी स्वाभाव के भी थे, उन्होंने तुरंत उत्तर दिया - ' नो, आइ एम नॉट अ बुडिस्ट बट आई एम अ बडीस्ट.' (नहीं, मैं कलियों को पुष्प के रूप में खिल जाने तरीका सिखाता हूँ.)
उसी प्रकार इस शिविर में भी जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने की पद्धति सिखाई जाती है. अभी हमलोग भी कली की अवस्था में हैं, जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने का कार्य हमारे सामने पड़ा हुआ है. आचार्य शंकर ने कहा है - ' यहाँ मूढ़ कौन है ? " उत्तर में स्वयं कहते हैं, " सबसे बड़ा मूर्ख वही है, जो मनुष्यत्व और पौरुष को प्राप्त करके भी अपने जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने का प्रयत्न नहीं करता है। 
सन्त तुलसीदास ने कहा है - मनुष्यों में सुत-वित-दारा-भवन आदि को अपना मान लेने की जो आदत या ममता होती है, वही मोह-निद्रा में सोयी हुई बुद्धि है, विवेक-प्रयोग किये बिना उसकी मती कभी जाग्रत नहीं हो सकती और इसका परिणाम क्या होता है ? शूकर, सियार, स्वान योनियों में जन्म लेना पड़ता है. वैसा जीव अपनी जन्म-दायिनी माता को केवल दुःख देने के लिये ही पैदा हुआ है.
तुलसिदास हरि गुरू-करूना बिनु, बिमल विवेक न होई ।
बिनु विवेक संसार-घोर-निधि पार न पावै कोई ।।
तुलसीदास कहते हैं, भगवान की कृपा के बिना किसी को शुद्ध-विवेक (clear-discrimination) प्राप्त नहीं होता, और इसके (विवेकानन्द के) बिना कोई व्यक्ति ब्रह्मांड नामित गहरे समुद्र (भव-सागर) को पार नहीं कर सकता है.
कीचड़ को कीचड़ से साफ नहीं किया जा सकता, आतंकवाद को आतंक के द्वारा नहीं मिटाया जा सकता, प्रेम की बुनियाद पर ही नये विश्व का निर्माण होना चाहिये। इस कार्य को केवल भारत ही संभव कर सकता है। किन्तु हमारी राजनीति ने भारत के आदर्श को बहुत निचले स्तर तक गिरा दिया है। 
पहले सारे देशवासियों के लिये हमलोगों के ह्रदय में कितना प्रेम था ? इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था-" Forget not -every Indian is my brother ! " किन्तु अब भारतवासियों से ऐसा प्रेम कौन करता है ? अधिकांश लोग अपनी जाति या संप्रदाय के लोगों को ही अपना भाई समझते हैं, भारत माता की सभी सन्तानों को अपना भाई समझकर कौन प्यार करता है ?
आज के भारत में तो केवल धन कमाने के लिये अंधी-दौड़ मची है, धन कमाने के इस गलाकाट प्रतियोगिता से, आतंकवाद और भ्रष्टाचार कैसे मिट सकता है ? कानून बनाकर या पुलिस-बल के द्वारा या राज्यों को छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँट देने से,या केवल सत्ता परिवर्तन से - ' मिड-डे मिल ' खाकर गरीब के बच्चों का मरना, नहीं रुक सकता।
यह कार्य केवल हमारे ' मनुष्य ' (चरित्रवान-अच्छा व्यक्ति ) बन जाने से ही हो सकता है ! आजाद भारत के किसी भी नेता ने स्वामी विवेकानन्द को नहीं पहचाना। स्वामी विवेकानन्द हिन्दू-धर्म का प्रचार करने के लिये अमेरिका नहीं गए थे।  हिन्दू नाम का कोई धर्म नही है ...हिन्दू फ़ारसी का शब्द है । हिन्दू शब्द न तो वेद में है न पुराण में न उपनिषद में न आरण्यक में न रामायण में न ही महाभारत में । जब फ़ारस से आये हुए लोगों को भारतवर्ष में प्रचलित सनातन-धर्म को देखकर बहुत आश्चर्य हुआ तो उन्होंने सिन्धु नद के इस पार रहने वाले सभी सनातन-धर्मावलम्बियों को ' हिन्दू ' नाम दे दिया। यह शब्द ठीक उसी प्रकार से अपमान सूचक है, जैसे कोई व्यक्ति ' पंचानन  ' के प्रति असम्मान व्यक्त करने के लिये उन्हें ' पांचू ' कहकर पुकारता है। 
[ स्वयं दयानन्द सरस्वती कबूल करते हैं कि यह मुगलों द्वारा दी गई गाली है। इसीलिये स्वयं स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी १८७५ ई ० 'आर्य समाज ' की स्थापना की थी, 'हिन्दू महासभा' की नहीं । इस प्रकार हिन्दू शब्द हमें फ़ारसी लोगों से प्राप्त हुआ है। अंग्रेजी शासन-काल में हमारे देश का नाम भारतवर्ष से India कर दिया गया, और हम अंग्रेजी-स्कूलों में पढ़े-लिखे लोग अपनी राष्ट्रीयता को ' भारतीय ' कहने के बजाये 'Indian' कहकर देते हैं। इतिहास पढ़ने वाले छात्र अवश्य इन बातों को जानते होंगे। 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " जिस प्रकार स्वयं को हिन्दू कहकर अपना परिचय देना आजकल हमलोगों में परिचलित है, उसकी अब कोई सार्थकता नहीं बची है." (५/१९) क्योंकि प्राचीन फ़ारसी लोगों ' स ' को ' ह ' कहकर गलत ढंग से उच्चारण करते थे. ' सिन्धु ' शब्द को वे लोग हिन्दू कहते थे, सिन्धु-नद के इस पार रहने वाले सभी लोगों को वे हिन्दू कहते थे. किन्तु वर्तमान समय में सिन्धु-नद के इस पार रहने वाले सभी लोग प्राचीनकाल की तरह एक ही धर्म के अनुयायी नहीं हैं. इसलिये उस शब्द से केवल ' हिन्दू ' मात्र का ही बोध नहीं होता, बल्कि ' मुसलमान-जैन-ईसाई ' तथा विदेशों से भारतवर्ष में आकर बस गए सभी अधिवासियों का होता है. अतः मैं अपने लिये अबसे ' हिन्दू ' शब्द का प्रयोग नहीं करूँगा"
इसीलिये श्रीरामकृष्ण कहते थे, जितने भी ब्रांडेड, labeled या लेबुल से चिपका हुआ धर्म हैं, वे सब जितना शीघ्रातिशीघ्र नष्ट हो जाये मानवजाति के लिये उतना अच्छा होता। ' धर्म ' तो केवल एक ही होता है, दो-चार धर्म नहीं हो सकते। विभिन्न समय और स्थानों में पैगम्बर लोग आते हैं, वे इस एक ही धर्म को अपने आचरण में उतार कर अलग-अलग मार्ग से उसका प्रचार करते हैं. - 
इतः को न्वस्ति मूढ़ात्मा यस्तु स्वार्थे प्रमाद्यति।
दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषम् ।।
 ‘विवेक-चूड़ामणि’5।।
दुर्लभ मनुष्य-देह और उसमें भी पुरुषत्व को पाकर जो स्वार्थ-साधन में प्रमाद करता है, उससे अधिक मूढ और कौन होगा ?
श्रीरामकृष्ण देव इस्लाम-धर्म के अन्तर्गत आने वाले सूफी-संप्रदाय में दीक्षा प्राप्त करके 'अल्ला' मन्त्र जप करते थे. ' अल्लोपनिषद ' संस्कृत में लिखा हुआ है, किन्तु उसमें कुछ अर्थ नहीं मिलता है, प्रत्येक छन्द के बाद केवल अल्लाह अल्लाह लिखा हुआ है। 
जबकि सूफ़ी दरवेश उस सर्वव्याप्त सर्वशक्तिमान प्रेम के गीत गाते हैं जो उनके समूचे अस्तित्व को अन्ततः उनके "मेहबूब" में एकाकार कर देता है। स्वयं से मुक्त हो जाने का यह वांछित लक्ष्य अपने ईगो से मुक्त होने के बाद ही आता है। पंजाब के सूफ़ी कवि हज़रत बाबा बुल्ले शाह कहते हैं कि - 'जहां-जहां तूने मन्दिर-मस्जिद देखे, तू उनमें प्रवेश कर गया, अलबत्ता अपने भीतर कभी नहीं घुसा। आसमानी चीज़ को पकड़ने की फ़िराक़ में तू अपने भीतर बसने वाले को कभी नहीं पकड़ता। ' तेरहवीं सदी में जन्मे जलालुद्दीन रूमी सिर्फ़ कवि नहीं है, वे सूफ़ी हैं, आशिक़ हैं, ज्ञानी हैं और सब से बढ़कर गुरु हैं। 
[शम्सुद्दीन तबरेज़ी के बारे में ठीक-ठीक जानकारी उस तरह से उपलब्ध नहीं है जैसे कि रूमी के बारे में। कुछ लोग मानते हैं कि वो किसी सिलसिले के सूफ़ी नहीं थे, बस एक इधर-उधर घूमने वाले दरवेश या क़लन्दर थे। एक अन्य स्रोत से ये भी हवाला मिलता है कि शम्स के दादा हशीशिन सम्प्रदाय के नेता हसन बिन सब्बाह के नाएब थे। यह बात दिलचस्प इस अर्थ में है कि हशीशिन, इसमायली सम्प्रदाय की एक टूटी हुई शाख़ा थे। और ये इस्मायली ही थे जिन्होने सबसे पहले क़ुरान के ज़ाहिरी अर्थ को नकार कर बातिनी (छिपे हुए) अर्थों पर ज़ोर दिया, और रूमी को ज़ाहिरी दुनिया को नकार कर रूह की अन्तरयात्रा की प्रेरणा देने वाले शम्स तबरेज़ी ही थे।
रूमी और शम्स की मुलाक़ात के बाद ही रूमी को एक असाधारण अनुभव हुआ जिसके लिए उन्होने कहा कि उनके दिमाग़ में एक खिड़की सी खुली और उसमें से धुँआ निकल कर अर्श की ओर चला गया। यह निस्सन्देह एक उच्चतम आध्यात्मिक अनुभव की ओर इशारा है, जिसे तंत्र की भाषा में कह सकते हैं कि उनकी कुण्डलिनी सीधे सहस्रार तक जा पहुँची और समाधि लग गई। जलालुद्दीन रूमी की एक कविता में मनुष्य के जीवन-लक्ष्य या डार्विन के विकासवाद की झलक देखि जा सकती है - 
आदमी की तरक़्क़ी 

बेजान चीज़ों से मर गया, पौधा बन गया; फिर पौधों से मर गया, हैवान बन गया.

हैवानों से मर गया और आदमी हो गया. डरूँ क्यों, कि कब मर कर कम हो गया?

अगली दफ़े आदमियों के बीच से मर जाऊँ; ताकि फ़रिश्तों के बीच पर व पंख उगाऊँ।

और फ़रिश्तों में से भी चाहिये निकल जाना; क्युंके सिवा 'उस' के हर शै को है फ़ना हो जाना।

एक बार फिर फ़रिश्तों से क़ुरबां हो जाऊँगा।
फिर जो सोच में नहीं आता, मैं ' वो ' हो जाऊँगा !!
(अभय तिवारी द्वारा रूमी के काव्यानुवादों की पुस्तक ''कलामे रूमी'' १. मसनवी मानवी, ज़िल्द तीसरी, ३९०१-०५.) 
इसका तात्पर्य यह है कि खनिज, उद्भिज, पौधा, स्थावर-जंगम, पशु आदि योनियों से उन्नत होते हुए अन्त में यह मनुष्य का शरीर प्राप्त हुआ है. किन्तु यही अन्त नहीं है, क्रम-विकास अब भी चलना चाहिये। मनुष्य को धर्म के मार्ग पर चलकर देवता बनना चाहिये। देवता बनने के लिये स्वर्ग -नरक जाने की आवश्यकता नहीं है. देवता जैसा मनुष्य बनकर धरती पर ही रहा जाता है.
यदि हमारे मन में इर्ष्या-द्वेष, असुइया-वृत्ति अधिक हो, तो हमलोग मनुष्य नहीं बन सकते हैं. दूसरों के दुःख में दिखावा करने के लिये सहानुभूति दिखाना आसान काम है, किन्तु दूसरों की उन्नति देखकर ठीक उनके जैसा आनन्द का अनुभव (Empathy या समानुभूति ) करना ही, Emancipation या मोक्ष है ! ह्रदय का ऐसा विकास यदि नहीं हो सका तो ईर्ष्या का बिच्छू बहुत डंक मारेगा और हम नरक-वास करने को बाध्य हो जायेंगे। यदि दूसरों की उन्नति का समाचार सुनने से मन में सच्चा आनन्द होता है, तो हमारा स्वर्ग-वास चल रहा है. शास्त्रों में कहा गया है कि स्वर्ग का सुख भी सच्चा सुख नहीं है, पुण्य के क्षीण हो जाने पर वहाँ से भी नीचे की योनियों में जन्म लेना पड़ता है. अतः इसी जीवन में सच्चे स्वर्ग का आनन्द प्राप्त हो सकता है.यह आनन्द जिस उपाय से प्राप्त होता है, उसका नाम है - 'मनः संयोग '. मन को अपने वश में कैसे लाया जाता है, उसके लिये ' अभ्यास और वैराग्य ' की विधि सीखनी चाहिये।
मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं-शरीर, मन और आत्मा। परन्तु आत्मा का क्या अर्थ है, इस बात को हम अभी नहीं समझ सकते है. इसी बात को सरलता से समझाने के लिये, स्वामीजी तीन प्रमुख अवयव को - शरीर,मन और ह्रदय  (Hand-Head-Heart ) कहते हैं ! किन्तु हमें यह समझने का प्रयास करना चाहिये कि स्वामीजी ने आत्मा को समझाने के लिये ' ह्रदय ' या Heart की संज्ञा क्यों दी है ? शिक्षण का एक प्रसिद्ध सूत्र हैं - "मूर्त से अमूर्त की ओर"। वास्तव में किसी वस्तु पर दृष्टि पड़ते ही हमें उसका सामान्य परिचय मिल जाता है। 
आज हमारे देश में जितना आभाव चरित्र का देखा जा रहा है, उतना आभाव अन्य किसी वस्तु का नहीं है. सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। आज का यक्ष-प्रश्न तो यही है कि क्या करने से हमारे देशवासी उत्तम चरित्र के अधिकारी मनुष्य बन जायेंगे ? वास्तव में हमलोग अभी मनुष्य शरीर-धारी अवश्य हैं, किन्तु यथार्थ मनुष्य नहीं बन सके हैं। क्योंकि हमें अपने ह्रदय को विकसित करके Empathy या हमदर्दी के गुण को बढ़ाने की शिक्षा नहीं दी जाती है। 
हमलोग यह जानते हैं, कि मर्माहत होने पर हमलोगों का हाथ स्वतः ह्रदय के उपर चला जाता है।  ह्रदय का विकास उसे कहते हैं, जब केवल सहानुभूति sympathy दिखाने की जरुरत महसूस नहीं हो, हमारी Empathy हमदर्दी या समानुभूति का स्वतः विकास हो जाता है, तब दूसरों के सुख में भी ठीक उसी के जैसा सुख अनुभव करने की शक्ति ह्रदय में आ जाती है. इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने प्रचण्ड इच्छाशक्ति और दृढ़-संकल्प के बल पर मूर्त शरीर के देहाध्यास या मिथ्या मैं के धरावाहिकत्व को समाप्त कर, अमूर्त ह्रदय का विकास करके यथार्थ मनुष्य बनने और दूसरों को भी यथार्थ मनुष्य बनने में सहायता करने के लिये एक सूत्र दिया है - ' 3H ' निर्माण !
इसी 3H का निर्माण करके स्वयं मनुष्य बनना और दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करना महामण्डल का उद्देश्य है. अपने शरीर को निरोगी, स्वस्थ और कर्मठ बनाये रखना सबसे पहला धर्म है- शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनं। शरीर को हमलोग अपने दिनचर्या में परिवर्तन लाकर, नियमित व्यायाम और पौष्टिक आहार के द्वारा हमलोग निरोग और स्वस्थ रहना सीखते हैं।  यहाँ इसके लिये प्रशिक्षण भी दिया जाता है.
स्वस्थ शरीर के साथ साथ मन को भी स्वस्थ रखा जा सकता है. किन्तु इसके लिये आवश्यक है कि हम मन के गुलाम नहीं बनें बल्कि मन ही हमारा यंत्र बन जाये, एक इन्स्ट्रूमेंट बन जाये जिसका उपयोग हम अपनी आवश्यकता के अनुरूप करने में समर्थ हों. मन को अपनी मुट्ठी में कर लेना ही पहला पुरुषार्थ है, अर्थात धर्म है !
अभी तो हमारे मन की हालत यह है कि यह बिना मेरे चाहे, बिना मुझसे अनुमति लिये ही अभी इसी क्षण किसी ग्रह पर चला जा सकता है। या किसी बुरे स्थान में - किसी बीयरबार में, या डान्सबार में भी जासकता है, फिर यह किसी मन्दिर में भी जा सकता है। ये किसी उन्मत्त वानर या मर्कट की तरह चंचल है, हमेशा इधर-उधर उछल-कूद मचाता रहता है।  
स्वामीजी ने मन की तुलना मदिरा पीये हुए उन्मत्त वानर से की है. मन में विषय-सुखों को भोगने की इच्छा या कामना-वासना ही मदिरा है, ह्रदय का विस्तार नहीं होने से Empathy -हमदर्दी या समानुभूति करने की क्षमता प्राप्त नहीं होती। इसके परिणाम स्वरुप दूसरों की सुख-सम्पन्नता को देखकर ईर्ष्या का बिच्छू डंक मारता रहता है. फिर दूसरों को नीचा दिखा दूँगा -रूपी ' अहंकार का भूत ' भी जब सिर पर सवार हो जाता है, तब इस मन को शान्त रखना असंभव हो जाता है. हमारे शास्त्रों में इस प्रकार के चंचल मन को वशीभूत करने का जो उपाय बताया गया है, वह गीता, भागवत एवं योग-सूत्र तीनों में एक ही है-
अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥

व्यासभाष्यम् 

चित्तनदी नामोभयतो वाहिनी वहति कल्याणय  वहति पापय च । या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा । संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा । तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते, विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत्र उद्धाट्यत इत्युभयाघीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥१२॥ 
- चित्त-नदी या हमारे मन का प्रवाह मानो दो भागो में बंटा रहता है, उसकी एक धारा कल्याण की दिशा में प्रवाहित होती है, दूसरी धारा पाप की दिशा में प्रवाहित होती है। व्यासदेव कहते हैं, जो प्रवाह हमें 'कैवल्य-प्राप्ति' (विभिन्नता में एकत्व की अनुभूति करने) की दिशा में ले जाएगी, वह  धारा ' विवेक-विषय- निम्ना ' होगी, जिस मन की चिन्तन धारा, या चित्त का प्रवाह विवेक की तली के उपर से बहेगी वही कल्याणवहा धारा है। धारा की तली या फर्श विवेक की बनी हुई हो, तो उस चिन्तन प्रवाह को हम कैवल्य के पथ में अपने स्वरुप को जानने के दिशा में ले जा सकते हैं।यदि हम उसका विपरीत करें, अर्थात अविवेक के उपर से यदि चिन्तन  धारा को बहने दिया जाये तो वह धारा कैवल्य की और न जाकर संसार की ओर बहने लगेगी, जो हमारे बंधन का कारण होगा, उसी ओर ले जाएगी। चित्त की इसी धारा का नाम है- पापवहा धारा। इस पापवहा धारा को वैराज्ञ का फाटक लगाकर विषय-स्रोत को ही रुद्ध कर देना होगा, उसके बाद हमलोग यदि अपने मन को विवेकानन्द की छवी पर मन को एकाग्र करने का नियमित अभ्यास करते रहें
'-विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत्र उद्धाट्यत ' 
शायद व्यासदेव यह जानते थे कि आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द आयेंगे जिनका मुखमंडल ऐसा होगा कि जिनके चित्र पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करने से चित्त का सदा तरंगायित रहना रुक जायेगा। यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि ' पतंजली योग सूत्र ' पर भाष्य लिखने के बाद जगद्गुरु शंकराचार्य ने भाष्य नहीं लिखा था, उनके बाद योग-सूत्र पर भाष्य लिखने वाले प्रथम व्यक्ति स्वामी विवेकानन्द ही थे. इसलिये मनः संयोग का अभ्यास हर दिन दो बार प्रातः और संध्या नियमित रूप से करते रहना चाहिये। 
जब हमलोग आसन पर बैठकर मन की बहिर्मुखी दृष्टि को अन्तर्मुखी बना कर अपने मन को देखने का प्रयत्न करते हैं, तो पता चलता है कि हमारा मन सचमुच कितना चंचल है ! कहाँ कहाँ न दौड़ता रहता है. जैसे चंचल बालक को शान्त करने के लिये समझा-बुझाकर या बहला फुसला कर शांत करना पड़ता है, उसी तरह मन को भी समझा-बुझाकर शांत करना पड़ता है. उपनिषदों में मन को बन्दर के साथ तुलना नहीं किया गया है, वहाँ कहा है- 'पौरुषेण प्रयत्नेन लालयेच्चित्तबालकम् ' (७/मुक्तिक उपनिषद्) अर्थात मन को किसी बालक के समान प्रेम के साथ समझ-बुझा कर शांत करो, जोर-जबर्दस्ती करने से मन बिगड़ भी सकता है. 
उसको प्रेम से समझाते हुए कहो, ' मन यहाँ आओ, मेरे सामने बैठो। देखो हर समय इतना भाग-दौड़ करना ठीक नहीं है. तुम्हारी सहायता के बिना कुछ नहीं कर पाउँगा, इसलिये तुम मेरा साथ दो. तुम्हारी सहायता से मैं जगत का कल्याण भी कर सकता हूँ, और उसका विध्वंस भी कर सकता हूँ. अणुबम का विस्फोट करके विश्व में शांति की स्थापना नहीं की जा सकती है, प्रेम के द्वारा ही विश्व को एकता के सूत्र में बांधा जा सकता है. आज हमारे देश की अवस्था इसीलिये ख़राब हो गयी है कि हम सभी लोग घोर स्वार्थी बन गए हैं, आपस में प्रेम, सद्भाव या हमदर्दी नहीं है, मन को वशीभूत कर लेने से यह इस अवस्था में परिवर्तन लाया जा सकता है. घर के अभिवावक लोग सोचते हैं कि केवल पैसा कमा लेने से ही सबकुछ ठीक हो जायेगा, पर यह सही नहीं है, घर-परिवार में सुख-शांति और सौहार्द का वातावरण तभी रह सकेगा जब -हमारा मन हमारे वश में रहेगा। घर में किसी की प्रसंसा से सुखी और असम्मान मिलने से दुःखी होना छोड़ देगा। 
इसीलिये महाभारत में कहा गया है- 'आत्मानं प्रथमं द्वेष रूपेण योजयेत ' सबसे पहले मन रूपी शत्रु को बलपूर्वक जीत लो. आतंकवाद को खत्म करने के लिये इराक-अफगानिस्तान के उपर बम गिराना बन्द करके, पहले अपने मन को शांत करो. अमेरकी राष्ट्रपति बुश और टोनी ब्लेयर कहते थे कि इराक को खत्म करने के लिये उन्हें ईश्वर से आदेश मिला है. जो देश स्वयं दानव हैं, वे दानव-दलन कैसे करेंगे ? आजकल सरकार F.D.I (Foreign direct investment) को लाने के लिये तरह तरह की घोषणाएँ कर रही है, अभी सूचना का अधिकार (R.T.I) भी दिया गया है, यदि सचमुच F.D.I से विदेशों का धन भारत में आ रहा है, तो क्या कोई यह बता सकता है, कि कितना करोड़ डालर यहाँ से बाहर जा रहा है ? मैं इसकी सूचना जानने के लिये R.T.I  की मांग करता हूँ, कौन उत्तर देगा ? राजनितिक दलों पर  R.T.I कानून क्यों लागु नहीं होना चाहिये ? सभी राजनैतिक दल तो अपने अपने स्वार्थ के पीछे दौड़ रहे हैं, कौन इसका उत्तर देगा ? 
यदि हम सभी मनुष्यों का सोया हुआ विवेक जाग्रत हो जाये, तो हमारा जीवन कितना महान हो जायेगा-हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। विवेक के जाग्रत होते ही हमलोग यह देख पायेंगे कि हमारे ह्रदय में जगत-बन्धु स्वामी विवेकानन्द, जगन्माता सारदा और स्वयं प्रेम-स्वरूप ईश्वर अभिव्यक्त होने के लिये ज्वार मार रहे हैं. उसी विश्व-ग्रासी प्रेम को अभिव्यक्त करना मनुष्य-जीवन का उद्देश्य है. हमारा मिथ्या अहं या झूठा मैं-पन ही उस प्रेम के अभिव्यक्त होने में बाधक मेड़ का कार्य कर रहा है, उस अहं रूपी मेड़ को जैसे ही काट दिया जायेगा, सम्पूर्ण विश्व हमारा अपना ही परिवार जैसा दिखाई देने लगेगा। हमलोग केवल भाई-भाई ही नहीं हैं, वास्तव में सम्पूर्ण मानव-जाति एक और अभिन्न है. कोई अलग नहीं है - तूँ और मैं एक हैं. राजनीति की बिसात पर हिन्दू-मुस्लिम विवादों को सुलझाने का ईमानदार प्रयत्न करते हुए सूफ़ी कवि कहते हैं- 
"रामदास किते फते मोहम्मद, ऐहो कदीमी शोर. 
 मिट ग्या दोहां दा झगड़ा, निकल ग्या कोई होर"।
दर्शन शास्त्र या वेदान्त की भाषा में इसी 'One' ness of humanity को अद्वैत कहा जाता है. यही सनातन धर्म है. श्रीमद भागवत ७/११/२ में युधिष्ठिर नारद से पूछते हैं कि सनातन धर्म क्या है ? उत्तर में नारद मुनि कहते हैं- देश के खेतों से लेकर कल-कारखानों आदि में जो कुच्छ भी उत्पादन होता हो, उस 'सकल घरेलू उत्पाद' को सभी नागरिकों में उनकी जरुरत के अनुसार वितरण कर दो, किन्तु वितरण करते समय उनमे ' देवता-बुद्धि ' रखते हुए वितरण करो. 
किन्तु ऐसा ' सैद्धान्तिक साम्यवाद ' अभी तक विश्व के किसी भी देश में क्यों नहीं स्थापित हो सका है ? इसीलिये कि पाश्चात्य-प्रेरित साम्यवाद में तथाकथित धर्म-निरपेक्षता को अपनाते हुए- ' तेषु आत्मदेवता बुद्धिः ' को स्वीकार नहीं किया गया है. सभी में बाँट दो, किन्तु बाँटते समय -सभी देशवासियों को अपना देवता समझ कर बाँटना होगा। इतना ही नहीं अपने भाई-बहनों के बिच भी यदि पारिवारिक-सम्पत्ति का बँटवारा करना हो, तो सम्पत्ति का बँटवारा करते समय जरुरत के मुताबिक ही बाँटना चाहिये। ऐसा सोचना चाहिये कि वे मेरे भाई-बहन ही नहीं हैं, मेरी आत्मा हैं, मेरे इष्टदेव की ही प्रतिमूर्तियाँ हैं ! इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- 
" तुम्हारी पाश्चात्य-शिक्षा पद्धति का एक बड़ा दोष यह है कि तुम केवल बौद्धिक शिक्षा की ही चिंता करते हो, हृदय की ओर ध्यान नहीं देते. इसका फल यह होता है कि मनुष्य दस गुना अधिक स्वार्थी बन जाता है.
अपने तन-मन और वाणी को ‘जगद्धिताय’ अर्पित करो. तुमने पढ़ा है, ‘मातृदेवो भव, पितृदेवो भव’ अपनी माता को ईश्वर समझो, पिता को ईश्वर समझो- परंतु मैं कहता हूं ‘दरिद्र देवो भव, मूर्ख देवो भव’- गरीब, निरक्षर, मूर्ख और दुखी को ईश्वर मानो." 
स्वामीजी भी क्या किसी ऋषि से कम थे ? वे तो निवृत्ति मार्ग के सप्त-ऋषियों में से एक थे, स्वयं श्रीरामकृष्ण देव ने ऐसा कहा है, किन्तु हमारी दृष्टि वहाँ तक पहुँच नहीं पाती है. वे तो पृथ्वी-लोक के परे ब्रह्मलोक में अखण्ड के घर में बैठकर तपस्या कर रहे थे, ठाकुर उनको समाधि से जगाकर अपना काम कराने के लिये पृथ्वी पर लेकर आये थे. इन बातों को मुँह से बोलकर नहीं समझाया जा सकता है, किन्तु योग-सूत्र के व्यास भाष्य में भी कहा गया है कि वहाँ सात ऋषि बैठे हैं ! उत्तर आकाश में जो सप्त-ऋषि ध्रुव-तारे या पोल-स्टार की परिक्रमा करते दिखाई देते हैं, वे सब प्रवृत्ति-मार्ग के ऋषि है. स्वामीजी उनमें से कोई एक नहीं हैं. 
ब्रह्मा जी ने जब इतने सुन्दर सृष्टि की रचना की तो सोचने लगे, इतने सुन्दर जगत को देखने वाला भी तो कोई होना चाहिए। उन्होंने सोचा प्रजा की रचना करने से वे इस सुन्दर सृष्टि को देखकर खुश हो जाएँगी। तब उन्होंने अपनी इच्छा से प्रवृत्ति-मार्ग के सप्त-ऋषियों की रचना की. किन्तु उन्होंने सोचा कि यदि ये लोग भी प्रवृत्ति में फँस कर अपने स्वरुप को ही भूल गए, तो उनको फिर सही मार्ग पर कौन लायेगा ? इसीलिये सभी लोगो को सही मार्ग दिखलाने के लिये उन्होंने निवृत्ति-मार्ग के सप्त ऋषियों की रचना की. इस पूरी कहानी को समझ लेना बहुत कठिन है. भगवान क्या है ? मेरे मन में जो विचार उठ रहा है, वह भी भगवान का ही विचार है. भगवान भी शरीर-धारी चैतन्य ही हैं. ' चैतन्यात सर्वं उत्पन्न्म '! यहाँ कुछ भी जड़ नहीं है, सबकुछ चैतन्य ही है. इस सत्य की धारणा करने के लिये विषय-भोग की इच्छा, कामना-वासना का त्याग करना होगा, पवित्र होने के लिये गंगा-सागर तीर्थ या केदारनाथ धाम नहीं जाना होगा। 
मनुष्य का मन ही सबसे बड़ा तीर्थ है. 'यस्मिन वेदश्च देवश्च '- जहाँ सब पवित्रता मिलकर एक हो गया हो, उस मन के सरोवर में स्नान करने से तुम अमृत हो जाओगे। कर्मयोग में स्वामीजी एक कहानी कहते थे, - किसी गाँव में एक साधू झोपड़ी बनाकर रहते थे. उसी गाँव में एक बहुत भयंकर डकैत भी रहता था. किन्तु साधुसंग करने से उसके मन में पाश्चाताप उत्पन्न हुआ. वह साधू के पास रहकर उनकी सेवा करने की अनुमति मांगता है, कुछ दिनों तक वह रहने के बाद एक रोज साधू से कहता है, ' आप तो सब पर कृपा करते हैं, मुझे भी तीर्थ जाने की अनुमति दीजिये। मैंने सुना है कि तीर्थों में जाने से सारे पाप चले जाते हैं. ' किन्तु मैं यह कैसे समझूंगा कि मेरे सारे पाप चले गये हैं ? 
तब उस साधू ने कहा कि तुम एक गज साफ धुल हुआ श्वेत कपड़ा ले आओ. उसे काले रंग की स्याही में डुबो दो. इस काले कपड़े को सदा अपने साथ रखना, जब तुम किसी तीर्थ से स्नान कर के लौटना तो उस काले कपड़े को देखना कि उसका काला रंग अभी गया है या नहीं ? वह डकैत कई तीर्थों में भटका किन्तु कपड़ा जस-का तस ही रहा. वह बहुत दुखी मन से अपने गाँव की तरफ लौट रहा था. तभी उसे एक जंगल के भीतर से किसी औरत के रोने की आवाज सुनाई देती है. कोई डकैत उस औरत को अकेली पाकर उसका गहना लूट रहा था. यह देखकर उस डकैत को बहुत गुस्सा आ गया. तुरन्त उसने एक फरसे से उस डकैत का सिर उसके धड़ से अलग करते हुए कहा- ' जैसा बावनवां वैसा तिरपनवाँ ' फिर डकैत से उस युवती को बचाकर वह डकैत उसके गाँव तक छोड़ आया. फिर साधू के आश्रम में लौट आया. 
साधू ने पूछा - क्या तुम्हारा पाप चला गया ? उस डकैत ने कहा नहीं महाराज कई तीर्थों में नहा  कर मैंने देख लिया, पर जब खोला  तो वह काला का काला ही था. तब साधू ने पूछा रस्ते में तुमने क्या किसी असहाय स्त्री को बचाया भी था ? डकैत ने जब पूरी रामकहानी सुना दी, तो साधू ने कहा तू एकबार उस कपड़े को निकाल कर देखो। देखता है- तो कपड़ा सफ़ेद हो चूका था ! 
जब उसने कहा कि मैंने तो सिर काटा था, ऐसा कैसे हुआ ? तब साधू बोले, नहीं तुमने उस औरत को बचाने के लिये वैसा किया था, उसमे तुम्हारा अपना कुछ स्वार्थ नहीं था. तुम्हारे ह्रदय में जो निःस्वार्थ प्रेम फूट गया था, उसी प्रेम में तुम्हारे सारे पाप धुल गये हैं.'
ये जो मानस-सरोवर है, हमारा मन है, इस मन को वैसा ही तीर्थ बना लेना चाहिये और उसमें स्नान करके अमृत बन जाना चाहिये। यही स्वामीजी का आह्वान है, सभी युवा उसमें स्नान करके अमृत हो सकते हैं. उस मनोतीर्थ के घाट पर हिन्दू-मुसलमान में कोई अन्तर नहीं रहता, नास्तिक भी अलग नहीं है. सभी धर्म यही कहते हैं, कि मन को पवित्र रखना चाहिये और संसार को प्रेम से भर देना चाहिये। यही धर्म है, इसका लाभ हो जाने पर यहाँ जाते समय कहेंगे-जगत ईश्वर की सुन्दर रचना है ! यह तभी संभव होगा जब हमलोग उस आह्वान का अनुसरण करेंगे जो जगत-बन्धु स्वामी विवेकानन्द ने दिया था -आओ मनुष्य बनें !



बुधवार, 31 जुलाई 2013

$$$ 'ईसा और श्रीरामकृष्ण !' [सरिसा रामकृष्ण आश्रम कैम्प ]

[ २००५ में महामण्डल का 'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर ' पश्चिम बंगाल के सरिसा रामकृष्ण मिशन आश्रम में आयोजित हुआ था। यह  कैम्प में २५ दिसम्बर से प्रारम्भ होता है, किन्तु इस कैम्प में संयोगवश मैं २३ दिसम्बर को ही पहुँच गया था। २४ दिसंबर को 'रामकृष्ण मिशन आश्रम' सरिसा में प्रभु ईसा मसीह का जन्म दिन मनाया जा रहा था। श्री रामकृष्णदेव की संध्या आरती के बाद महामण्डल के सभी भाइयों के साथ मंदिर के प्रांगण में मैं भी उपस्थित था।  पूज्य नवनी-दा ने सरिसा रामकृष्ण आश्रम कैम्प में  'बड़े दिन की पूर्वसंध्या' (Christmas Eve) ' क्रिसमस ईव*' के अवसर पर जो  भाषण दिया वो इस प्रकार था -]
स्वामी विवेकानन्द के जीवन में आज के दिन-२४ दिसम्बर का एक विशेष महत्व है। आज के ही दिन वे अपने गुरुभाई स्वामी प्रेमानन्द (बाबूराम घोष) की माता जी के निमन्त्रण पर अन्य सभी गुरु भाइयों के साथ हावड़ा के निकट स्थित उनके गाँव-आँटपुर पहुँचे थे। रात में मकान के बाहर वाले प्रांगण में विराट धुनी रमा कर नरेन्द्रनाथ अपने गुरुभाइयों (श्रीरामकृष्ण के अन्यतम किशोर-सन्यासी शिष्यों) के साथ धुनी ताप रहे थे. शशी, तारक, शरद्, गंगाधर, काली, निरंजन आदि सब थे वहाँ। गाँव निस्तब्ध है -उपर निर्मल आकाश में ग्रहनक्षत्र झलमला रहे हैं। एक नया आलोक मण्डल मानो उन सबके अन्त:करण में जगमगाने लगा। धूनी की धधकती अग्नि शिखा ने मानो उन नवयुवकों में सर्वस्व त्याग की बलवती भावना ने सबको पूर्णतया जागृत कर दिया। पवित्र धुनी को तापते- हुए नरेन्द्र ध्यान में चले गये, उनको ईसा मसीह के शिष्यों के त्याग और आस्था-निष्ठा का अनुभव हुआ। एक नये आलोक से उनका अन्त:करण जगमगा उठा था।
अचानक नरेन्द्र ने आँखें खोलीं और ईसामसीह के जीवन की अलौकिक घटनाओं पर चर्चा करने लगे. भगवत् चर्चा के मध्य ईसा मसीह के त्यागी शिष्यों की मर्मस्पर्शी गाथा पुन: नरेन्द्रनाथ ने दोहरायी। वे उनके शिष्यों के त्याग और आस्था-निष्ठा का प्रभावी वर्णन करने लगे। उनके शिष्यों ने अपने जीवन में त्याग को स्वीकार करके, जिस निष्ठा के साथ प्रयास करके ईसाई धर्म को सम्पूर्ण विश्व में फैला दिया था, उनके जीवन की घटनाओं के आलोक में ही उत्साह और आवेग से अधीर नरेन्द्रनाथ को मानो अपने और अन्य गुरु भाइयों के भावी जीवन का पथ दीख पड़ने लगा ! 

['क्रिसमस ईव': अन्य समाजों की तुलना में ईसाई लोग बहुत कम त्योहारों को मनाते हैं। ईसाइयों के दो ही मुख्य त्योहार हैं क्रिसमस इव तथा पास्का या ईस्टर। पहला क्रिसमस जो कि यीशु के जन्म-दिन को मनाने का त्योहार है और दूसरा ईस्टर जो यीशु मसीह के पुनरुत्थान की याद में मनाए जाने वाला त्योहार है।क्रिसमस इव का अर्थ होता है क्राइस्ट्स मास। इसमें ‘क्रिस’ का अर्थ ईसा मसीह और ‘मस’ का अर्थ ईसाइयों का प्रार्थनामय समूह या ‘मास’ है। क्रिसमस ईसाई धर्म का सबसे बड़ा त्योहार है। यह पर्व प्रभु यीशु के जन्म उत्सव के रूप में 25 से 31 दिसंबर तक मनाया जाता है, जो 24 दिसंबर की मध्यरात्रि से ही आरंभ हो जाता है। 24 दिसंबर की रात से ही नवयुवकों की टोली जिन्हें कैरल्स कहा जाता है, यीशु मसीह के जन्म से संबंधित गीतों को प्रत्येक मसीही के घर में जाकर गाते हैं। क्रिसमस प्रेम का संदेश देने वाला त्योहार है।  क्रिसमस की पूर्व रात्रि, गि‍‍‍‍रिजाघरों में रात्रिकालीन प्रार्थना सभा की जाती है जो रात के 12 बजे तक चलती है। 25 दिसंबर की सुबह गिरजाघरों में विशेष आराधना होती है, जिसे क्रिसमस सर्विस कहा जाता है। इस आराधना में ईसाई धर्मगुरु यीशु के जीवन से संबंधित प्रवचन कहते हैं। आराधना के बाद सभी लोग एक-दूसरे को क्रिसमस की बधाई देते हैं। क्रिसमस का विशेष व्यंजन 'केक' है, केक बिना क्रिसमस अधूरा होता है। 
ईसाईयों का सबसे बड़ा शिक्षाप्रद-पर्व है पास्का पर्व। पास्का या ईस्टर को नया जीवन पाने के त्योहार के रूप में मनाया जाता है। यह खुद को बदल देने के लिये-एक संकल्प लेने का त्योहार है, खुद के मन में छिपे पापों, कमजोरियों और झुकाओं या प्रोपेन्सिटीज पर विजयी होने का त्योहार है। और नये उत्साह और आशा से परहितमय और सेवामय जीने के लिये खुद को समर्पित करने का त्योहार है, जिससे हम जहाँ भी रहें या जो कोई काम करें, हमारे व्यवहार को देखने से  दुनिया को यही लगना चाहिये कि मानो एक जीवित येसु ही उनके साथ में हैं। "प्रभु येशु जी उठे हैं। अल्लेलूईया अल्लेलूईया अल्लेलूईया दुनिया के लोगो खुशी मनाओ। तुम्हारे प्रभु जी उठे हैं।”


ईसा के पुनरूत्थान (revivification या पुनरुज्जीवन) को समझना ईश्वर की ओर से दिया गया एक अनुपम वरदान है।  जिसके गहरे अनुभव से हमारा जीवन बदल जाता है और हम इस धरा पर रहते हुए ही एक अलौकिक सुख (मोक्ष -भ्रममुक्त अवस्था) का अनुभव करने लगते हैं। खुद को यह याद दिलाना की कि येसु ने मेरे लिये अपना जीवन दिया और इस दुनिया में जीने और इसे मृत्यु के द्वार से, भवसागर से पार होने के एक ऐसा रास्ता दिखाया जिसमें प्रवेश करने से मेरे जीवन का अन्त नहीं होता, बल्कि मूझे एक ऐसा जीवन मिलता है जो सदा सदा के लिये जीवित रहता है।

संसार की सृष्टि के प्रारम्भ से ही ईश्वर न केवल हम मनुष्यों के साथ बल्कि सारी सृष्टि के साथ एक अटूट सम्बन्ध (योग) बनाये रखना चाहता है; एक प्रेम भरा सम्बन्ध बनाये रखना चाहता है। और ज़ाहिर है कि वह सब कुछ का सृष्टिकर्ता है, तो अपनी ही सृष्टि से उसका सम्बन्ध (योग) क्यों नहीं होगा? उसने मनुष्य को पूरी आज़ादी दी है, लेकिन कभी-कभी मनुष्य उस आज़ादी का दुरूपयोग कर, ईश्वर से दूर चला जाता है, और ईश्वर नहीं चाहता कि उसकी सर्वश्रेष्ठ रचना जिसे उसने अपने ही प्रतिरूप में बनाया है, उससे विमुख होकर नष्ट हो जाये। 

हममें पवित्र आत्मा (विवेक-आनन्द) का निवास है और ईश्वर का वही आत्मा हमारा ईश्वरीय जीवन जीने में उचित मार्गदर्शन करता है। लेकिन यदि बार-बार हम उसकी प्रेरणा को अनसुना कर देंगे तो धीरे-धीर हमारी अंतरात्मा पवित्र आत्मा की प्रेरणा के प्रति उदासीन हो जायेगी, और हम पाप के चंगुल में फंसते जायेंगे, और हमें इस बात का तनिक भी आभास नहीं होगा कि हम ईश्वर से कितनी दूर चले गए हैं! ईश्वर और मनुष्यों का यह प्रेम भरा मधुर सम्बन्ध सदा बना रहे इसलिए ईश्वर ने हमें कुछ नियम व आज्ञाएं दी हैं जिनका पालन प्रत्येक मनुष्य को करना चाहिए। 
पहली आज्ञा है- हमारा प्रभु (ब्रह्म, अल्ला-श्रीरामकृष्ण देव) ही एकमात्र प्रभु है, अपने प्रभु ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा, अपने सारे मन और सारी शक्ति से प्यार करो। और दूसरी आज्ञा है- अपने पड़ौसी को अपने समान प्यार करो। यही दो आज्ञाएं हमारे धर्म और आध्यात्मिकता का आधार हैं।  दरसल इन दो आज्ञाओं में तीन महत्वपूर्ण बिंदु छिपे हुए हैं और इन तीनों ही बिंदुओं का संक्षिप्त सार केवल ढाई अक्षर का और वो है – प्रेम। ईश्वर के प्रति प्रेम, अपने पड़ौसी के प्रति प्रेम और अपने स्वयं के प्रति प्रेम। ये तीनों ही बिंदु एक दूसरे से परस्पर जुड़े हुए हैं। 
“यदि कोई यह कहता है कि मैं ईश्वर को प्यार करता हूँ और वह अपने भाई से बैर करता है, तो वह झूठा है। यदि वह अपने भाई को, जिसे वह देखता है, प्यार नहीं करता, तो वह ईश्वर को, जिसे उसने कभी नहीं देखा, प्यार नहीं कर सकता.” संत योहन (४:२०) 
कहा जाता है कि यदि एक मेंढक को उबलते पानी में डालो तो वह थोडा भी तापमान अधिक होने पर मर जाता है, लेकिन यदि उसे समान्य तापमान वाले पानी में डालो और धीरे-धीरे उस पानी को गरम करो तो वह बहुत देर तक उस गरम पानी को सह सकता है। हम जब पानी के अंदर होते हैं तो हमें उसका नुकसानदायक तापमान महसूस नहीं होता, लेकिन अगर कोई बाहर से उसे छुए तो बता सकता है कि हम कितने ठन्डे या गरम पानी में हैं।
 उसी प्रकार जब हम कुसंग में विषयी लोगों के साथ रहते हुए अपने चारों ओर पापमय वातावरण पाते हैं तो हमें अपनी आध्यात्मिक हानि का आभास नहीं होता। लेकिन यदि कोई हमसे बेहतर आध्यात्मिक जीवन जीने वाला व्यक्ति है,(कोई गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा में प्रशिक्षित वेदाध्यापक, लोकशिक्षक या 'मानवजाति का मार्गदर्शक नेता' है) तो वह हमारी कमजोरी हमें बता सकता है। जब हम अपने जीवन की अंधी दौड़ में कुछ पल रुककर सोचें कि क्या मैं बपतिस्मा में मिले उसी नवजीवन को जी रहा हूँ या इस संसार का जीवन जी रहा हूँ? क्या मैं बपतिस्मा द्वारा प्रभु येसु के अनुसरण करने के निमंत्रण को भूल गया हूँ और अपना क्रूस रास्ते में ही छोड़ दिया है? ख्रीस्तीय जीवन चुनौती भरा जीवन है, क्रूस ढोने का जीवन है।
”मैं तुम से कहता हूँ-माँगो और तुम्हें दिया जायेगा; ढूँढ़ो और तुम्हें मिल जायेगा; खटखटाओ और तुम्हारे लिए खोला जायेगा। क्योंकि जो माँगता है, उसे दिया जाता है; जो ढूँढ़ता है, उसे मिल जाता है और जो खटखटाता है, उसके लिए खोला जाता है।" ईसा ने उन्हें एक दृष्टान्त सुनाया, ”क्या अन्धा अन्धे को राह दिखा सकता है? क्या दोनों ही गड्ढे में नहीं गिर पडेंगे? शिष्य गुरू से बड़ा नहीं होता। पूरी-पूरी शिक्षा प्राप्त करने के बाद वह अपने गुरू-जैसा बन सकता है।” 
चालीसा-काल हमें अपने दयालु पिता की ओर वापस मुड़ने का निमंत्रण देता है। ईश्वर हम सबको ऎसी कृपा दे कि हम अपने स्वर्गीय पिता के दयालु प्रेम को पहचान कर अपने पापों से विमुख होकर सारे ह्रदय से उसकी ओर लौटें। संत पौलुस न कहा है कि यदि (हमारे भीतर) मसीहा नहीं जी उठते तो हमारा धर्म प्रचार व्यर्थ है और हमारा विश्वास भी व्यर्थ है। प्रभु का पुनरुत्थान ही हमारे विश्वास का मूल आधार है।  लेकिन इस वैज्ञानिक युग में प्रभु के मृतकों में से जी उठना की घटना को सिद्ध करना ही आज हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है। संत पौलुस हमसे कहते हैं कि बपतिस्मा द्वारा हमें नवजीवन मिला है और हमारा पुराना जीवन मसीह के साथ क्रूस पर चढ़ाया जा चुका है. (देखें रोमियों के नाम पत्र 6:4-14)
जब तुम्हें अपनी ही आँख में पड़े लट्ठे का पता नहीं, तो तुम अपने भाई की आँख का तिनका क्यों देखते हो? जब तुम अपनी ही आँख में गिरे लट्ठे को नहीं देखते हो, तो अपने भाई से कैसे कह सकते हो, ‘भाई! मैं तुम्हारी आँख का तिनका निकाल दूँ?’ ढोंगी! पहले अपनी ही आँख में गिरा लट्ठा निकालो। तभी तुम अपने भाई की आँख का तिनका निकालने के लिए अच्छी तरह देख सकोगे।” 
"कोई अच्छा पेड़ बुरा फल नहीं देता और न कोई बुरा पेड़ अच्छा फल देता है। हर पेड़ (श्रीरामकृष्ण)अपने फल (स्वामी विवेकानन्द) से पहचाना जाता है।"
ईसाई धर्म-गुरु भी निवृत्ति-मार्गी होते हैंसंत पौलुस ने अपने पत्रों में बारंबार चर्च को "ईसा का आध्यात्मिक शरीर" कहा  है।  यह माना जा सकता है कि वास्तविक चर्च अदृश्य ही है। फिर भी उस अदृश्य वास्तविक चर्च की पूर्ण सदस्यता की अनिवार्य शर्त बाहरी संस्कार ही हैं, अत: अदृश्य चर्च से अलग नहीं किया जा सकता है। आजकल प्राय: सभी प्रोटेटैंस्ट भी इस बात को मानते हैं।
मुक्ति के लिये चर्च की पूर्ण सदस्यता अपेक्षित होते हुए भी अनिवार्य नहीं है। ईसाई धर्म के प्रारंभ से ही कुछ लोग आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत (संन्यास) लेते थे, वे बहुधा निर्जन स्थानों में रहकर एकांतवासी होते थे। किंतु धीरे-धीरे उनके पड़ोस में रहने वाले उनके कुछ शिष्य भी उनके निर्देश के अनुसार साधना करने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि एक ही स्थान में रहनेवाले साधकों ने एक ही अधिकारी का शासन स्वीकार कर लिया। इस प्रकार के प्रथम इसाई मठ की स्थापना लगभग 320 ई. में संत पाकोमियस द्वारा मिस्र में हुई थी। इसके अनुकरण पर फिलिस्तीन, सीरिया और एशिया माइनर में बड़ी संख्या में पुरुषों और स्त्रियों के मठों की स्थापना हुई थी और पाँचवीं शताब्दी में सिकंदरिया, आंतिओक, कुंस्तुंतनिया आदि शहरों में भी ऐसे मठ स्थापित हो चुके थे।]  
नाज़रेत के ईसा – क्रूसित येसु से जगत के मसीहा बन गये। हम बाइबल में पाते हैं कि येसु की मृत्यु के बाद शिष्य पूरी तरह से हताश और निराश तो थे ही भय से मारे-मारे फिर रहे थे। उन्हें लगा कि सब कुछ का अन्त हो गया है। किन्तु उनके शिष्यों ने देखा कि येसु मारे जाने के बाद तीसरे ही दिन फिर से जी उठे हैं, और वे येसु की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करने कि लिये निकल पड़े। और इस प्रकार ईसाई धर्म पूरी दुनिया में फैल गया। ईसा का जीवन समाप्त नहीं हुअ पर वे सदा-सदा के लिये जीवित हो गये। ईसा मसीह का जीवनकाल अल्प रहा पर उनके जीवन का प्रभाव युगानुयुग तक बना रहेगा। इसीलिये क्योंकि उन्होंने सत्य के लिये कार्य किया, जगत को  प्रेम का मार्ग दिखाया और दुनिया को सुन्दर और बेहतर बनाने के लिये दुःखों को गले लगाया। उनके शिष्यों के त्याग और आस्था-निष्ठा का प्रभावी वर्णन करने लगे जन्म से लेकर मृत्यु तक का, उस अपूर्व आत्मदान एवं पुरुत्थान की कहानी का जीती-जागतीभाषा में वर्णन करते करते श्रीरामकृष्ण का प्रसंग आया।  
ईसा और श्रीरामकृष्ण ! प्रभु ईसा मसीह ने अपने शिष्यों को अपनी शिक्षाओं को लिपिबद्ध करने का नहीं बल्कि उसे जन-जन तक प्रचारित करने का आदेश दिया था। और ईसा के देह-त्याग के बाद उनके प्रधान शिष्य सन्त पॉल ने किस दृढ़ विश्वास के साथ उनके नव-धर्म का प्रचार किया था। ईश्वरीय संदेश पहुंचाने के मार्ग में हज़रत ईसा को जब यहूदियों के व्यापक विरोध और यातनाओं का सामना करना पड़ा, तो ईसामसीह ने अपने १२ मछुआरे शिष्यों को संबोधित करते हुए पूछा था कि तुम में से कौन है जो मेरी सहायत करने के लिये तैयार है? उनके उन शिष्यों ने जिन्हें उन पर भरोसा था, कहा हम तैयार हैं। ईसा ने कहा था, " यदि तुम मेरा अनुसरण करना चाहते हो- तो तुम्हारे पास जो भी ' मेरा ' कहकर है- मेरा घर, गाड़ी, रुपया, पद आदि का अहंकार है, वह सब गरीबों में बाँट दो, तभी तुम मेरे पीछे आ सकोगे।" प्रभु येसु ने उनका अनुसरण करने वालों के लिए एक शर्त रखी है कि, ' इफ एनी मैन विल फॉलो मी, लेट हिम डिनाइ हिमसेल्फ, टेक अप हिज क्रॉस एण्ड फॉलो मी !' (Christ said, "If any man will follow me, let him deny himself, take up his cross and follow me" (Mark 8:34)  “जो मेरा अनुसरण करना चाहता है, वह अपने मिथ्या अहं को त्याग दे और अपना क्रूस उठाकर मेरे पीछे हो ले.”
इसी प्रकार संत  कबीर ने भी सदियों  से दबे - कुचले  समाज  में  तत्कालीन  शासक वर्ग, धर्म  के ठेकेदारों, मुल्ला व पंडितो -पुरोहितों  पर  गुस्सा -क्षोभ  था, जनमानस  के  गुस्से  का इजहार  करते  हुए शोषित वर्ग  की पंक्ति  मे  खड़ा होकर  आवाज  बुलन्द  कर   लोगों  के आत्म- सम्मान  के  लिए  ललकारा और  कहा था-
कबिरा  खड़ा  बाजार  में , लिये  लुकाठी  हाथ. 
 जो  घर  फूके  आपणा ,चले  हमारे  साथ . 
यूरोपीय देशो में सामन्त वाद के विरोध और ईश् निन्दा के कारण  कोपेरनिकश ,ब्रूनो ,गेलेलियो  आदि  न जाने कितनों को अपने प्राणों की बलि देनी पड़ी।  कितनों को दर -दर की ठोकरे खानी पड़ी।  कितनों  को देश निकाला हुआ।  इसका तात्पर्य यह हुआ कि जो देश की सेवा करना चाहता हो, उसे केवल अपना स्वार्थ पूरा करने में नहीं लगे रहकर, सभी देशवासियों के कल्याण के लिये अपना सब कुछ, अपनी जान तक को न्योछावर कर देने का दृढ़-संकल्प रहना चाहिये।
उन्होंने तथा उनकी वाणी से अनुप्राणित उनके गुरु भाइयों ने मानो फिर एक बार अनुभव किया कि जब भारतवासी आदर्श को विभक्त, खण्डित और आंशिक रूप में देखते हुए एक दूसरे के साथ विवाद में रत थे, जब विषमता और भेद के बीच हम कोई सामंजस्य ढूंढ़ निकालने का प्रयत्न तक नहीं कर रहे थे, जिस समय सारे उच्च आदर्श नष्ट-बुद्धि से विकृत और भ्रष्ट-चरित्र के द्वारा कलंकित होकर कर्महीन तामसिक जड़ता के बीच व्यर्थ और निष्फल हो रहे थे, उस समय -उन उन संकट के दिनों में श्रीरामकृष्ण ने सभी समस्याओं की मीमांसा करते हुए, सभी विभिन्न और विशिष्ट धर्म-मतों की साधनाओं को एक समन्वय के बीच में यथायोग्य स्थान  देकर, देव-मानव बनने के आदर्श के परिपूर्ण रूप को अपने जीवन में प्रकटित किया था. कहा था - ' मानहूश तो मानुष !' जब तक किसी कोई व्यक्ति माया निवृत्ति और ईश्वर-प्राप्ति नहीं कर लेता, वह भूलें  करता ही रहेगा। मनुष्यों को मोह-निद्रा से जाग्रत करना ही होगा।
नरेन्द्रनाथ भारत के भविष्य को ऋषि दृष्टि से देखते हुए गुरुभाइयों से कह रहे थे, " हमलोगों को अपना जीवन  आदर्श मनुष्य या देवमानव के रूप में गठित करके जगत के समक्ष उदाहरण के रूप में रखना होगा, तभी हमलोग बनो और बनाओ के सन्देश को विश्व भर में प्रचारित करने वाले प्रचारक या सन्देश-वाहक बन सकते हैं। हमें पूर्ण त्याग के आदर्श पर चलना होगा तभी आगे चलकर कुछ गृहस्थ युवा भी ईश्वर सन्देशवाहक, अग्रदूत या 'गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा में भावी वेदाध्यापक ' के रूप में प्रशिक्षित किये जा सकते हैं। 
इसलिये युवा काल से ही हमलोगों को इन्द्रियभोगों का पूर्ण त्याग करना होगा,संसार बन्धन से निकल जाने के लिये आजीवन ब्रह्चारी रहने का संकल्प लेना होगा। और हमलोगों को जो वेदान्त ठाकुर से प्राप्त हुआ है, उसे सम्पूर्ण विश्व में प्रचारित करना होगा। "यह प्राचीन पृथ्वी धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, देशप्रेम के नाम पर, नर-रक्त से नहा-नहा कर जिसके लिये प्रतीक्षा करती आ रही है, उस बहु-प्रार्थित, बहु-इप्सित, 'सर्वधर्म- समन्वय' के सन्देश का प्रचार हमलोग करेंगे- ‘‘ठाकुर की यही इच्छा थी।’’ नरेन्द्रनाथ कह रहे थे, ‘‘ और ठाकुर ने इस सर्वधर्म -समन्वय की शिक्षा देने का उत्तरदायित्व मुझे सौंपा था।"  नरेन्द्रनाथ ने कहा, ‘‘गुरु भ्राताओ, अब कर्म-यज्ञ " Be and Make " का प्रारम्भ हो रहा है, आहुति चाहिए।’ और सभी गुरुभाइयों ने समवेत स्वर में कहा - ‘सब पूर्णतया समर्पित हैं।’ 
संस्कृत में एक कहावत है, ‘श्रेयंसी बहु विघ्नानी’, जिसका अर्थ है, अगर कोई वस्तु अत्यधिक बहुमूल्य है तो उसे प्राप्त करने के मार्ग में बहुत से विघ्न या विकर्षण आते है. सदैव सत्य को अवरोध घेरते आए हैं। हमारे सामने भी प्रतिकूल स्थितियाँ आएँगी। ठाकुर के अधिकांश प्रौढ़ अनुयायियों का माथा ठनकेगा। ये प्रश्न खड़े करेंगे। हमारी कोई नहीं सुन रहा होगा। हमें उपेक्षा भी सहनी पड़ सकती है और बदतर से बदतर स्थिति में से भी गुजरना पड़ सकता है। धन हमारे पास है नहीं। साधन भी नहीं के बराबर हैं। किसी को विवश नहीं किया जा रहा है। सब अपने में स्वतन्त्र हैं, जिन्हें बाद में निर्णय लेने का मन हो वे इस यज्ञ के साक्षी बनकर हमारे साथ रह सकते हैं।’’ नरेन्द्रनाथ की भारी संगीतमयी आवाज़ गूँज रही थी-‘‘हम सब तैयार हैं।’’
मानव-कल्याण के व्रत में अपने को सम्पूर्ण रूप से उत्सर्ग कर देने का पवित्र संकल्प लेकर उन्होंने अपने आपको कृतार्थ माना। 
जब नरेन्द्र आदि भक्तगण उस रात्रि में पहले ईसामसीह की जीवनी तथा ईसाई धर्म के प्रथम प्रचारकों के गम्भीर आत्मविश्वास की चर्चा कर रहे थे,उस दिन उन्हें यह ज्ञात न था कि वह ईसामसीह की जन्मरात्रि थी। 
बाद में इस संयोग की बात को जानकर वे बड़े विस्मित हुए थे! आँटपुर से संन्यासीगण तारकेश्वर जाकर शिवजी की आराधना के बाद वराहनगर लौट आये. " ( विवेकानन्द चरित पृष्ठ ८४-८५ )
पाँच इन्द्रियों के माध्यम से जितना कुछ भोगा जा सकता था, उन सब विषयों को भोग लेने पर भी आज के मनुष्य को सन्तोष नहीं हो रहा है, वह अब artificial sens organs बनाने की तैयारी में लगा हुआ है. जबकि बाली के मारे जाने पर उसकी पत्नी तारा को भगवान श्रीराम ने उपदेश दिया था |
 " छिति जल पावक गगन समीरा , पंच रचित अति अधम शरीरा | 
 प्रगट सो तनु तव आगे सोवा , जीव नित्य केही लगी तुम्ह रोवा || 
 ' पृथ्वी , जल ,अग्नि , आकाश और वायु - इन पांच तत्त्वों से यह अधम शरीर बना हुआ है | वह शरीर तो तुम्हारे सामने पड़ा है और जीव नित्य है , फिर तुम किसके लिए रो रही हो ? जो किसी अनिष्ट प्रसंग पर क्षुब्ध होता है , वह भगवान का भक्त नहीं कहा जा सकता | भक्त को तो ऐसा मानना चाहिए कि जो कुछ प्रभु करते हैं हमारे हित के लिए ही करते हैं , हम अज्ञानवश उसे समझ नहीं पाते | क्योंकि कष्ट में हमें भगवान याद आते हैं , इसलिए कभी - कभी कष्ट देकर भगवान हमें चेतावनी देते रहते हैं कि मुझे भूलो मत , नहीं तो बड़ी दुर्दशा होगी ; यह मनुष्य शरीर भोगों के लिए नहीं मिला है , मुझे प्राप्त करने के लिए ही मिला है - इसलिए इसे व्यर्थ कामों में न गंवाओ |
क्रिसमस इव के अवसर पर यहाँ आकर हमें जो करना है, वह पूर्ण मनुष्य बनने का संकल्प लेना है. अभी तक हमलोग आंशिक रूप से मनुष्य बन सके हैं, पशुता (या स्वार्थपरता) को हटाकर पूर्ण मनुष्य बन जाना है.कौन किस धर्म में पैदा हुआ है, किस जाति में पैदा हुआ है, वह कोई बड़ी बात नहीं है। बृहद (ब्रह्म) या बड़ा उसी को कहा जाता है, जिसके जीवन से दूसरों को भी कुछ मिलता है।  स्वामी विवेकानन्द अपनी कविता " सखा के प्रति " में कहते हैं - 


 The paths of Yoga and of sense-enjoyment,
The life of the householder and Sannyâs,

Devotion, worship, and earning riches,
Vows, Tyâga, and austerities severe,
I have seen through them all. What have I known?


योग (निवृत्ति) और (प्रवृत्ति) इन्द्रिय-विषयों का सुख भोगने का पथ,
गृहस्थ और संन्यास का जीवन,
भक्ति, पूजा, और धन-दौलत का अर्जन,
गंभीर प्रतिज्ञा,त्याग, और तपस्या
मैंने उन सभी के राहों पर चलकर देखा है,
और अन्त में मुझे क्या समझ आया ?

  —Have known there's not a jot of happiness,
Life is only a cup of Tantalus;
The nobler is your heart, know for certain,
The more must be your share of misery.

-है यही जाना मैंने कि बिन्दुमात्र भी खुशी वहाँ नहीं,
जीवन केवल टैंटलस का एक कप है;
जिसका जितना अधिक संवेदनशील ह्रदय होगा, 
इसे निश्चय समझना उतना अधिक उसे दुःख भी उठाना होगा।
  Listen, friend, I will speak my heart to thee;
I have found in my life this truth supreme—
Buffeted by waves, in this whirl of life,
There's one ferry that takes across the sea.

 मित्रों, सुनो ! मैं तुमको अपने दिल की बात कहूँगा;
मैंने अपने जीवन में इसको हो सर्वोच्च-सत्य के रूप में पाया है-
 जीवन के इस भँवर में, लहरों के थपेड़ों से बचाकर 
इस मानव-शरीर रूपी नौका से भवसागर से पार जाया जा सकता है.

In Jiva and Brahman, in man and God,
In ghosts, and wraiths, and spirits, and so forth,
In Devas, beasts, birds, insects, and in worms,
This Prema dwells in the heart of them all.


जीव और ब्रह्म में, मनुष्य और ईश्वर में,
भूत और प्रेतात्मा, मुक्त-आत्माओं आदि में,
देवताओं, जानवरों, पंछियों,कीड़े-मकोड़ों में,
- वह सर्वोच्च सत्य प्रेम ही है, 
जो उन सभी के दिल में बसता है.
  Say, who else is the highest God of gods?
Say, who else moves all the universe?
The mother dies for her young, robber robs—
Both are but the impulse of the same Love!

 तुम्हीं सोचो देवताओं में सर्वोच्च भगवान (ठाकुर) और कौन है? 
सोच कर देखो, इस विश्व-ब्रह्मांड को कौन चलाता है?
एक माँ अपने युवा-पुत्र को बचाने के लिये
और डाकू लूट-पाट के लिए मर जाते है -
किन्तु, ये दोनों प्रेम के आवेग का परिणाम ही तो हैं !

Let go your vain reliance on knowledge,
Let go your prayers, offerings, and strength,
For Love selfless is the only resource;—
Lo, the insects teach, embracing the flame!



ज्ञान पर अपने व्यर्थ निर्भरता को छोड़ दो,
अपनी प्रार्थना, पूजा, और ताकत का अभिमान जाने दो,
क्योंकि निःस्वार्थ-प्रेम ही समस्त शक्तियों का श्रोत है !
देखो, दिये की लौ को गले लगाते हुए पतंगे भी यही सीख देते हैं ! 

 Say—comes happiness e'er to a beggar?
What good being object of charity?
Give away, ne'er turn to ask in return,
Should there be the wealth treasured in thy heart.

Ay, born heir to the Infinite thou art,
Within the heart is the ocean of Love,
"Give", "Give away"—whoever asks return,
His ocean dwindles down to a mere drop.

ভিক্ষুকের কবে বলো সুখ? কৃপাপাত্র হয়ে কিবা ফল ?
দাও আর ফিরে চাও, থাকে যদি হৃদয়ে সম্বল।
অনন্তের তুমি অধিকারী প্রেমসিন্ধু হৃদে বিদ্যমান,
'দাও, দাও'-সেবা ফিরে চায়, তার সিন্ধু বিন্দু হয়ে যান।
 
 सोचो- भिक्षुक को क्या कभी सुख मिल सकता है ?
और जीवन भर दया का पात्र बने रहने में अच्छा क्या है?
 तुम बारम्बार सोचो, 
यदि सचमुच तुम्हारे ह्रदय में सचमुच कीमती सम्पत्ति हो, 
तो बिना किसी प्रतिदान की आशा के, तुम केवल देना सीखो,
क्योंकि तुम तो अनन्त के अधिकारी हो, 
ह्रदय में तुम्हारे प्रेम-सिन्धु हिलोरे लेता है.
' तुम दो, और केवल देना सीखो ' जो व्यक्ति  सेवा के बदले कुछ पाने की आशा करता है,
उसके ह्रदय का विस्तार-संकीर्ण हो जाता है, प्रेम का सागर सुखकर बिन्दु हो जाता है!

From highest Brahman to the yonder worm,
And to the very minutest atom,
Everywhere is the same God, the All-Love;
Friend, offer mind, soul, body, at their feet.

These are His manifold forms before thee,
Rejecting them, where seekest thou for God?
Who loves all beings without distinction,
He indeed is worshipping best his God.

 ব্রহ্ম হ'তে কীট-পরমাণু, সর্বভূতে সেই প্রেমময়,
মন প্রাণ শরীর অর্পণ কর সখে, এ সবার পায়।
বহুরূপে সম্মুখে তোমার, ছাড়ি কোথা খুঁজিছ ঈবর?
জীবে প্রেম করে যেই জন, সেই জন সেবিছে ঈশ্বর
 
ब्रह्म और परमाणु-कीट तक, सब भूतों का है आधार
एक प्रेममय, प्रिय, इन सबके चरणों में दो तन-मन वार!
बहु रूपों में खड़े तुम्हारे आगे, और कहाँ हैं ईश? 
व्यर्थ है खोज। 
जीवों को शिव समझ प्रेम करता है जो जन , 
उसी जन ने जीव-सेवा करके पूजा है जगदीश।

हमलोग इस जगत में केवल पाने के लिये नहीं आये हैं, देने के लिये आये हैं।  लेकिन देने के पहले कुछ कमाना भी तो होगा। क्या कमाना है, क्या अर्जित करना है ? जो हमें अर्जित करना है वह है-मनुष्यत्व ! जीवन-गठन ! केवल रुपया-पैसा कमा लेने से नहीं होगा, जीवन को सच्चे मनुष्य के साँचे में गठित करना  होगा। 
कैसे बनायेंगे ? उसका ही तरीका इस शिविर में बताया जायेगा। इसी आशा को लेकर हमलोग आये हैं. मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं, शरीर है हमारा एक मन है; इसके भीतर और एक वस्तु है हृदय या आत्मा जिसका पता हमें आसानी नहीं चलता है, उसको प्राप्त करने की विद्या भी सीखनी चाहिये। 3H को बनाने की विद्या सीखनी चाहिये। भीतर में जो दूसरों के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख के जैसा अनुभूति करने क शक्ति है, उसी को ह्रदय कहते हैं। ह्रदय का विकास का अर्थ वह Heart नहीं है, जिसको हमलोग Blood pumping machine समझते हैं. क्या तुम अपने ह्रदय की गहराइयों से देश के गरीब और निस्सहाय मनुष्यों के दुःख का अनुभव करते हो ? यहाँ तक कि तुम्हारे रातों की नीन्द चली गयी है ? तुम अपने घर और अपने पद-प्रतिष्ठा तक को भूल गए हो ? क्या तुमने दूसरों का दुःख दूर करने का उपाय सीखा है ? देशसेवा करने की योग्यता कैसे अर्जित होती है ? यथार्थ मनुष्य कैसे बना जाता है, यही सीखने के लिये हमलोग यहाँ आये हैं. 
अभी जो हमारा मनुष्य-रूप है वह more than half animal का है. हर रोज थोडा थोड़ा प्रयास करके हमें पूर्ण मनुष्य बनना होगा-इस बात को हमेशा याद रखना चाहिये। ईश्वर का प्रेम मेरे माध्यम से प्रकट होना चाहिए, मनुष्य और ईश्वर में कोई फर्क नहीं है - यह बात मेरे जीवन और व्यवहार से प्रकट होनी चाहिये। मैं जिसको स्पर्श करूँ उसे ऐसा प्रतीत होना चाहिये मानो ईश्वर ही उसका स्पर्श कर रहे हैं।  ऐसे मनुष्य यदि हजारो-लाखों की संख्या में निर्मित हो जाएँ तो भारत कितना महान हो जायेगा !
वैसा महान भारत बनाने के लिये हमें मन को वशीभूत करने में समर्थ मनुष्य बनकर दिखाना होगा। प्रतिदिन हमलोग यदि पाँच मिनट भी स्वामी विवेकानन्द पर मन को एकाग्र करेंगे तो हमें भगवान का प्रसाद मिलेगा। भगवान के प्रसाद का अर्थ है, प्रसन्नता -विवेकानन्द ही भगवान का प्रसाद हैं।  यह विवेक-प्रयोग जब हमारे जीवन में उतर आएगा, तो हमारा जीवन बिल्कुल बदल जायेगा। इसीके लिये हमें अवश्य प्रयत्न करना चाहिये। जय जय रामकृष्ण भूवन-मंगल !
-----------------