"उठो भारत, तुम अपनी आध्यात्मिकता के द्वारा जगत पर विजय प्राप्त करो !"
।। एक ।।
'भारत' 'संस्कृति' और 'विरासत' ये तीनो शब्द हम भारतियों को बड़े कर्णप्रिय - हृदय पर अमिट छाप छोड़ने वाले बहुत गम्भीर, मधुर और गौरवशाली शब्द प्रतीत होते हैं। हमलोगों के विष्णु पुराण में ' भारत ' शब्द की व्याख्या, संक्षेप में किन्तु बड़े ही सुन्दर शब्दों में इस प्रकार की गयी है- ।। एक ।।
उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्तति:॥
यहां एक भू-भाग, एक देश की बात हो रही है।यह वह भूमि है, जिसकी पूजा हमारे सन्त महात्माओं ने मातृभूमि, धर्मभूमि, कर्मभूमि एवं पुण्यभूमि के रूप में की है, और यही वास्तव में देवभूमि और मोक्षभूमि है। फिर बात हो रही है उस देश में रहने वाले लोगों की। विष्णु पुराण कहता है कि वह भू-भाग जिसके उत्तर में हिमालय है और जिसके दक्षिण मे समुद्र है; उसके मध्य में स्थित पूण्य भूमि का नाम भारत है तथा उस देश की संतानें भारती के नाम से जानी जाती हैं। वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्तति:॥
यहाँ विरासत के आगे एक विशेषण लगाया गया है- 'सांस्कृतिक ' ! हाल के दिनों में हमलोग इन शब्दों के साथ विशेष रूप से परिचित हो रहे हैं।किन्तु इन शब्दों के विषय में शायद हम सभी लोगों की धारणा बहुत स्पष्ट नहीं है। इसीलिये ' संस्कृति ' शब्द का प्रयोग हमलोग जहाँ-तहाँ कर देते हैं। आज हम नाच, गाना, चलचित्र तथा नाटकों को ही संस्कृति मानने लगे हैं। इस प्रकार के 'सांस्कृतिक कार्यक्रम' अपने देश में विभिन्न अवसरों पर सभी जगह चलते हुए देखते हैं।
'सांस्कृतिक' शब्द एक विशेषण है जो 'संस्कृति' शब्द से बना है। किन्तु किसी भी संस्कृत शब्दकोश में 'संस्कृति ' शब्द कहीं ढूंढने से भी नहीं मिलता है। यहाँ तक कि ' शब्दकल्पद्रूम ' में भी यह शब्द नहीं है।(सन् १८८६-९४ के बीच बंगाल के राधाकान्त देब ने "शब्द-कल्पद्रुम:" नाम से संस्कृत का शब्दकोश बनाया जो पाँच खण्डों में थी।) तो क्या, हमारे देश में संस्कृति थी ही नहीं ? यदि नहीं थी, तो विरासत शब्द कहाँ से आया ?
इसके लिये अक्सर उत्तराधिकार या धरोहर जैसे शब्द का प्रयोग भी किया जाता है। किन्तु हमलोग इस बात पर विचार नहीं करते कि- 'संस्कृति' का वास्तविक अर्थ क्या है? ' इतिहास ' शब्द का संधिविच्छेद करने से देखते हैं- " इति ह आस "; जिसका अर्थ हुआ - इस प्रकार से था। जो उस रूप में था, और अभी हमारे सामने आ गया है, उसी को हमलोग विरासत कहते हैं। अंग्रेजी में इसीको कहते हैं- मैंने इसको Inherit किया है, या Heritage के रूप में,उत्तराधिकार के रूप में अपने पूर्वजों से प्राप्त किया है।
संस्कृत शब्दकोश में 'संस्कृति' शब्द नहीं रहने से भी हमारे देश के एक अति मूल्यवान शास्त्र में संस्कृति शब्द है, जिसका नाम है- ऐतरेय ब्राह्मण। हम जानते हैं कि वैदिक साहित्य के कई भागों में विभक्त था- जिसके तीन प्रमुख अंग थे - संहिता, ब्राह्मण, और उपनिषद या वेदान्त। ब्राह्मण ग्रन्थों से साधारणत: तात्पर्य यह है, जो ग्रन्थ वैदिक मंत्रों की व्याख्या करे, उनके अभिप्राय को स्पष्ट करे यानी कि विधि व अनुष्ठान को प्रस्तुत करे।
किन्तु आज हमलोग ऐसा समझते हैं कि ' वेद ' केवल किसी विशेष देश के विशिष्ट धर्म के लोगों की साहित्यिक विरासत हैं। किन्तु हम इस बात को नहीं जानते कि रूस की राजधानी मास्को में विगत २५ वर्षों से (यह निबन्ध १९८६ में लिखा गया था ) लगातार वहाँ के तरुणों और बालकों के लिए ' राम-लीला ' का मंचन होता आ रहा है। जिस विद्वान् ने रुसी भाषा में रामायण को 'राम-लीला ' के रूप में नाटक लिखा है, और वहां के लोगों को इसका परिचय करवा रहे हैं, उन्होंने हाल में ही आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में साक्षात्कार देते हुए कहा था- " रामायण और महाभारत जैसे ग्रन्थ केवल भारत की साहित्यिक संपदा नहीं है, बल्कि सम्पूर्ण विश्व की धरोहर है, और सम्पूर्ण मानव जाति इसका लाभ उठा सकती है। " फिर किसी प्रश्न का उत्तर देते हुए कहे थे, " यदि हम अपने देश के बालकों और तरुणों को रामायण और महाभारत की शिक्षा नहीं देंगे, तो वे लोग मनुष्य कैसे बनेंगे ? सत्य के प्रति उनमें प्रेम कैसे आएगा, वे गम्भीर चिन्तन करना कैसे सीखेंगे, सभ्य कैसे बन सकेंगे और सभी मनुष्यों से प्रेम करना कैसे सीखेंगे ?
[देश केवल उस भू-खण्ड की सीमा रेखा के अंतर्गत आने वाली भूमि को ही नहीं कहते है, देश बनता है वहाँ रहने वाले मनुष्यों से। राष्ट्र का तात्पर्य उस देश की सन्तानों से है, जो उस भूखण्ड पर जन्म लेने के कारण उस देश को अपनी माता समझते हैं। विष्णु पुराण कहता है कि भारत की संतानों को " भारती " के नाम से जाना जाता है। तथा इस देश के मनुष्यों से बने समाज को 'भारतीय-समाज' कहा जाता है।
किसी देश में रहने वाले लोगों की विशेषता को उस समाज की संस्कृति कहते हैं। इस भूखण्ड में रहने वाले लोगों की विशेषता यह है, कि यहाँ के निवासीयों की दृष्टि इतनी उदार होती है कि 'भारतीय' लोग सम्पूर्ण पृथ्वी को ही अपनी माता के समान समझते हैं। अथर्ववेद में मनुष्यों को धारण करने वाली सम्पूर्ण पृथ्वी को ही माता कहा गया है- ''माता पृथिवी, पुत्रोऽहं पृथिव्या:''। महाकवि कालिदास ने कहा है :-
अत्युत्तारस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज:।
पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य स्थित: पृथिव्या इव मानदण्ड:॥
कुछ लोग, बौध्दिक तर्क देकर कहते हैं कि यह देश एक अचेतन, फैला हुआ जड़ भूखण्ड मात्र है; उसको हमें अपनी माता समझकर उसकी वन्दना क्यों करनी चाहिये ? मनुष्य शरीर भी भौतिक या जड़ ही तो है। अपनी माता का शरीर भी उतना ही भौतिक है, जितना किसी अन्य स्त्री का, तब क्यों किसी व्यक्ति ने अपनी माँ को अन्य स्त्रियों से भिन्न समझना चाहिए ? उसके लिए भक्ति क्यों होनी चाहिए?] पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य स्थित: पृथिव्या इव मानदण्ड:॥
किन्तु, यह रामायण, महाभारत या विभिन्न देशों के जितने भी कल्याणकारी वचनों के विविध-संग्रह हैं, उन सब का आधार भारत का सबसे प्राचीन और पुरातन वैदिक साहित्य ही है। किन्तु वेद केवल भारत की संपदा ही नहीं है, उपरोक्त घटना इसी तथ्य को प्रमाणित करती है। वेद संसार के सभी मनुष्यों की सनातन संपदा है। इसके भीतर संसार के सभी मनुष्यों के कल्याण का सन्देश समाहित है, तथा यह वेद ही समस्त साहित्य की जनक और समस्त ज्ञान का आधार है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " ये वेद ही हमारे एकमात्र प्रमाण हैं,और इन पर सबका अधिकार है "5/345
यह सन्देश स्वयं वेदों में ही दिया गया है। यजुर्वेद२६.२ में अद्भुत सुंदर ढंग से कहा गया है-
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय॥
...हे मनुष्यों! इस वेद में जो उपदेश दिए गये हैं, वे कल्याण वचन है, इसमें समस्त मनुष्यों का कल्याण निहित है। इन कल्याण वचनों को सब के पास ले जाओ, मुक्त-हस्त से उनको वितरण कर दो। जैसे मैं, सबका कल्याण करने वाली ऋग्वेद आदि रूप वाणी का सब जनों के लिए उपदेश कर रहा हूँ, वैसे ही तुम भी आगे आगे सब लोगों के लिए इस वाणी के उपदेश का क्रम चलाते रहो। ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय॥
फिर किन किन मनुष्यों को इसे देना है, उसका भी उल्लेख कर देते हैं-जैसे मैं इस परमात्मा की वाणी का उपदेश ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए कर रहा हूँ, शूद्रों और वैश्यों के लिए जैसे मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ। और जिन्हें तुम अपना आत्मीय समझते हो , उन सबके लिए इसका उपदेश कर रहा हूँ और जिसे ‘अरण’ अर्थात पराया या विदेशी समझते हो, उसके लिए भी मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ। इसीलिये इसे ब्राह्मण को दो, क्षत्रिय को दो, वैश्य को दो, शूद्रों तक भी वेदों के उपदेश को ले जाओ। इसीलिये जो पण्डित (पुरोहित) यह कहते हैं कि वेद के उपर शुद्र का अधिकार नहीं है, ? तब सोचना पड़ता है कि वैसा कहने वाले ब्राह्मणों की बुद्धि 'वेदोज्ज्व्ल- बुद्धि ' है या नहीं ?
(कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों का अंग्रेजी में अनुवाद करते समय हर संभव प्रयास किया था की किसी भी प्रकार से वेदों को इतना भ्रामक सिद्ध कर दे की हिन्दू समाज का वेदों से विश्वास ही उठ जाये और ईसाई मत के प्रचार प्रसार में अध्यात्मिक रूप से कोई कठिनाई नहीं आये। इसी शाजिस की तहद वेदों को जातिवाद का पोषक घोषित कर दिया गया, ताकि बड़ी संख्या में हिन्दू समाज के अभिन्न अंग जिन्हें दलित समझा जाता हैं को आसानी से ईसाई मत में शामिल कर सके।
प्राचीन काल में हम ऐसा मानते थे कि 'जन्मना जायते शूद्रः' -अर्थात जन्म से हर कोई गुण रहित होता है, अर्थात शुद्र होता है।और शिक्षा प्राप्ति के पश्चात गुण,कर्म और स्वाभाव के आधार पर वर्ण का निश्चय होता था.ऐसा समाज में हर व्यक्ति अपनी अपनी क्षमता के अनुसार समाज के उत्थान में अपना अपना योगदान कर सके इसलिए किया गया था. मध्य काल में यह व्यस्था जाती व्यस्था में परिवर्तित हो गयी.
एक ब्राह्मण का बालक दुराचारी, कामी, व्यसनी, मांसाहारी और अनपढ़ होते हुए भी ब्राह्मण कहलाने लगा जबकि एक शुद्र का बालक चरित्रवान,शाकाहारी,उच्च शिक्षित होते हुए भी शुद्र कहलाने लगा. इस जातिवाद से देश की बड़ी हानी हुई और हो रही हैं.
पुरुष सूक्त जातिवाद का नहीं अपितु वर्ण व्यस्था के आधारभूत मंत्र हैं जिसमे “ब्राह्मणोस्य मुखमासीत” ऋग्वेद १०.९० में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र को शरीर के मुख, भुजा, मध्य भाग और पैरों से उपमा दी गयी हैं।
जब कोई व्यक्ति समाज में ज्ञान के सन्देश को प्रचार प्रसार करने में योगदान दे तो वो ब्राह्मण अर्थात समाज का शीश हैं, यदि कोई व्यक्ति समाज की रक्षा अथवा नेतृत्व करे तो वो क्षत्रिय अर्थात समाज की भुजाये हैं, यदि कोई व्यक्ति देश को व्यापार, धन आदि से समृद्ध करे तो वो वैश्य अर्थात समाज की जंघा हैं और यदि कोई व्यक्ति गुणों से रहित हैं अर्थात शुद्र हैं तो वो इन तीनों वर्णों को अपने अपने कार्य करने में सहायता करे अर्थात इन तीनों की नींव बने,मजबूत आधार बने. इस उपमा से यह सिद्ध होता हैं की जिस प्रकार शरीर के यह चारों अंग मिलकर एक शरीर बनाते हैं, उसी प्रकार ब्राह्मण आदि चारों वर्ण मिलकर एक समाज बनाते हैं. जिस प्रकार शरीर के ये चारों अंग एक दुसरे के सुख-दुःख कप अपना सुख-दुःख अनुभव करते हैं, उसी प्रकार समाज के ब्राह्मण आदि चारों वर्णों के लोगों को एक दुसरे के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझना चाहिए। यदि पैर में कांटा लग जाये तो मुख से दर्द की ध्वनि निकलती हैं और हाथ सहायता के लिए पहुँचते हैं उसी प्रकार समाज में जब शुद्र को कोई कठिनाई पहुँचती हैं तो ब्राह्मण भी और क्षत्रिय भी उसकी सहायता के लिए आगे आये। सब वर्णों में परस्पर पूर्ण सहानुभूति, सहयोग और प्रेम प्रीति का बर्ताव होना चाहिए. इस सूक्त में शूद्रों के प्रति कहीं भी भेद भाव की बात नहीं कहीं गयी हैं।"]
क्योंकि वेदोज्ज्वल बुद्धि को 'पन्ता ' कहा जाता है। यह पन्ता जिसमें रहती है, उसको पण्डित कहा जाता है। वेदों पर शास्त्रार्थ करने से जिन लोगों की बुद्धि ' उज्ज्वल ' हो जाती है, उनको ही 'पण्डित' कहा जाता है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " ब्राह्मणों से भी मैं कहना चाहता हूँ कि तुम्हारा जन्मगत तथा वंशगत अभिमान मिथ्या है,उसे छोड़ दो। और सभी के लिये ज्ञान का द्वार खोल दो और पददलित जनता को उनका उचित एवं प्रकृत अधिकार दे दो।"5/348
वेदों के कल्याण वचनों को केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र तक ले जाने की बात कहकर ही समाप्त नहीं होता है, वहाँ यह भी कहा गया है कि - इस वेद की वाणी को देश के लोगों को सुनाओ और विदेश के लोगों को भी सुनाओ।
स्वामीजी कहते हैं, "हमारे देश में जो कुछ है, वह वेदान्त धर्म ही है। उक्त प्रकार से हम लोग वेदान्त धर्म का गूढ़ रहस्य पाश्चात्य जगत में प्रचार करके उन महा शक्तिशाली राष्ट्रों की श्रद्धा और सहानुभूति प्राप्त करेंगे और आध्यात्मिक विषय में सर्वदा उनके गुरुस्थानीय बने रहेंगे। दूसरी ओर अन्यान्य ऐहिक विषयों में वे हमारे गुरु बने रहेंगे। जिस दिन भारतवासी धर्म शिक्षा के लिये पाश्चात्यों के कदमों पर चलेंगे उसी दिन इस अधःपतित राष्ट्र की राष्ट्रीयता सदा के लिये नष्ट हो जाएगी।...मेरा विश्वास है कि वेदान्त-धर्म की चर्चा और वेदान्त का सर्वत्र प्रचार होने से हमारा तथा उनका -दोनों का ही विशेष लाभ होगा। इसके सामने राजनितिक चर्चा मेरी समझ से निम्न स्तर का उपाय है। अपने इस विश्वास को कार्य में परिणत करने के लिये मैं अपने प्राण तक दे दूंगा। 6/9
।। दो ।।
वेदों में कहा गया है- " कृण्वन्तो विश्वमार्यम्। " विश्व के सभी मनुष्यों को आर्य बनाओ ! आर्य बन जाने को ही सूसंस्कृत बनना कहते हैं। सूसंस्कृत हो जाने का अर्थ है, उन्नत होना,परिष्कृत (Refined) होना,चेहरे की कांति और तेजस्विता Effulgence से युक्त होना, आभा-मण्डल की दमक प्राप्त करना, विकसित हो उठाना, प्रकाशित होना,अन्तर्निहित दिव्यता का प्रकटित हो उठाना।
हमलोग जब किसी व्यक्ति को सुसंस्कृत कहते हैं, तो उससे हमलोगों का यही तात्पर्य होता है। वर्तमान समय में हमलोग किसी को सुसंस्कृत व्यक्ति कहने के लिये 'सभ्य' शब्द का प्रयोग भी करते हैं। किन्तु संस्कृत में सुसंस्कृत का अर्थ होता है, पण्डित या विद्वान्। इसलिये किसी व्यक्ति को सुसंस्कृत cultured कहने के लिये हम लोग जो सभ्य कह देते हैं,वह ठीक नहीं है।
किन्तु आजकल इसी रूप में इसका प्रयोग होने लगा है। हमलोग जिस सांस्कृतिक धरोहर या Heritage की बात कर रहे हैं, उस संस्कृति को हम कहाँ से प्राप्त कर सकते हैं ? सूक्ष्मता पूर्वक विचार नहीं करने से हमलोग अक्सर सभ्यता के साथ संस्कृति को भी मिला देते हैं। हिन्दी में 'सभ्यता' भी एक मूक या अवर्णित (unspoken) शब्द है। सभ्यता कहने से हमलोग जो समझाना चाहते हैं, उसको अंग्रेजी में civilized, सभ्य,शिष्ट या शिक्षित के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। हमलोग सभ्यता के लिये हिन्दी में Civilization का प्रयोग करते हैं।
हमलोगों के देश में जो व्यवहार प्रचलित है, उसके पीछे की धारणा को अभिव्यक्त करने के लिये कुछ विशेष विशेष शब्द बनाये गये थे। किन्तु पाश्चात्य ज्ञान के आलोक ने जब हमारे देश को मोहित कर लिया,तो हमलोगों के देश के चिन्तन का स्वरूप भी धीरे धीरे इतना परिवर्तित हो गया कि उन्हीं की विचारों के सांचे में हम अपने दृष्टिकोण को रखकर परिक्षण करने को सदा बेचैन रहने लगे। और इसी परिपेक्ष्य में Civilization शब्द का हिंदी अनुवाद हुआ-सभ्यता, एवं cultured व्यक्ति को सुसंस्कृत कहने के बदले हिन्दी में सभ्य शब्द का व्यव्हार भी होने लगा है।
तो क्या या हमें यह मान लेना चाहिये कि अंग्रेजों के आने से पहले हमारे देश की अपनी कोई सभ्यता और संस्कृति थी ही नहीं ? अवश्य थी, किन्तु संस्कृति के विषय में हमलोगों की धारणा, तत्संबंधी पाशचात्य धारणा से बिल्कुल स्वतंत्र थी, जो पाश्चात्य अवधारणा से बिलकुल मेल नहीं खाती थी। किन्तु आज हमलोगों ने अपनी सभ्यता और संस्कृति की अवधारणा को पाश्चात्य के रंग में रंग कर सब कुछ को एकाकार बना लिये है।
आज के दिन सभ्यता या Civilization कहने जो समझ में आता है, उसमें अधिक जोर भौतिक पदार्थों का बड़े पैमाने पर उत्पादन, और भोग्य सामग्रियों में सौन्दर्य तथा कलात्मकता को देखने की प्रवृत्ति पर दिया जाता है। स्वामीजी कहते हैं- "यूनानी पूर्णतया इसी लोक में जीता है। वह स्वप्न देखना नहीं चाहता।उसका काव्य भी व्यावहारिक है। यूनानी सौन्दर्य से प्रेम करता है,परन्तु वह सौन्दर्य बाह्य प्रकृति का-पर्वतों,शुभ्र हिमराशी तथा पुष्पों का है। रूप तथा आकार का है; मानवीय मुख और प्रायः उसके अंगों का है।आज के यूरोप की वाणी यूनान की वाणी की एक प्रतिध्वनि मात्र है।"7/219
पाश्चात्य देशों में शरीर को सुख पहुँचाने वाले सामग्रियों के उत्पादन और संग्रह को,या भोग सामग्रियों के विविध आविष्कारों को ही सभ्यता (Civilization) का मुख्य अंग माना जाता है। और उसी भ्रम में पडकर हमलोग भी अक्सर अंगेजी में जिसको culture कहते हैं, उसी को सभ्य या सुसंस्कृत कहकर उल्लेख करने लगते हैं। किन्तु वैसा करना बिल्कुल उचित नहीं है।
।। तीन।।
'Civilization' और 'Culture' - या सभ्यता और संस्कृति दो बिल्कुल अलग अलग वस्तु है। प्राचीन युग का मनुष्य जो शायद उस समय वस्त्र का उपयोग करना भी नहीं जानता था, घर बनाकर रहना नहीं जानता था,अग्नि का उपयोग करना नहीं जानता था,जंगलो-गुफाओं में रहता था। फिर शायद धीरे धीरे उसने जानवरों के खाल का उपयोग करना सीखा होगा, कन्द-मूल खाकर पेट भरते होंगे, या हो सकता है मछली मारने या जंगली पशुओं का शिकार करना सीखा होगा, पत्थर और धीरे धीरे अनेक धातुओं का उपयोग करना सीख लिया होगा, और इस प्रकार क्रमशः सभ्यता विकसित हुई होगी।आम तौर से भारतीय लोग सभ्यता कहने का अर्थ बस इतना ही समझते हैं।
फिर उसी मनुष्य ने धीरे धीरे जब अपने शरीर को सुन्दर वस्त्रों से ढकना सीख लिया, छोटे-बड़े अनेक प्रकार के भवन-निर्माण करना सीख लिया, जब उनके कंठस्वर ने भाषा का रूप ग्रहण कर लिया और जब मनुष्य अपने मन के भावों को सुंदर भाषा में अभिव्यक्त करने लगा, जब लड़ना-झगड़ना छोड़ कर मनुष्य परस्पर के बीच सुंदर रूप से विचारों का आदान प्रदान करना सीख गया होगा, तब हमलोगों ने कहा कि अब मनुष्य सभ्य हो गया है।
इसके साथ ही साथ उसने प्रकृति के विभिन्न उपादानों में विभिन्न प्रकार से परिवर्तन लाकर, उन नवीन आविष्कारों का उपयोग करके अपने जीवन की अपूर्ण इच्छाओं पूर्ण करने में समर्थ हो गया। जब उसके आद्योगिक उत्पादन और क्रयशक्ति में वृद्धि होने लगी तो इसी को हमने सभ्यता की प्रगति कहा। किन्तु इन समस्त प्रगतियों का सम्बन्ध शरीर को सुख और आराम पहुँचाना है। यह उन्नति लौकिक तो है ही, साथ ही यह केवल वस्तु उन्मुख या शरीर-केन्द्रिक विकास भी है। विभिन्न आविष्कारों द्वारा शरीर को सुख पहुँचाने, अनेक प्रकार के भय से शरीर और जीवन की रक्षा करने, तथा विविध भोग सामग्रियों का उत्पादन और संग्रह इत्यादि के आधार पर दिखने वाले विकास को ही हमलोग सभ्यता या 'Civilization' समझते हैं।
इस प्रकार मनुष्य जब अपने भोग के लिये सभी प्रकार के लौकिक भोग-सुख पहुँचाने वाले उत्पादों का संग्रह करके अपने को सुखी समझने लगा, तो उसे कुछ आवकाश के क्षण भी प्राप्त हुए, वह फुर्सत के क्षणों में बैठकर-सोचने लगा क्या मैं अब हर प्रकार से सुखी नहीं हो गया हूँ ?
[स्वामीजी कहते हैं, " आज,जब कि भौतिवाद अपनी शक्ति और कीर्ति के शिखर पर है, और मनुष्य जड़ वस्तुओं पर अधिकाधिक अवलम्बित रहने से अपनी दैवी प्रकृति को भूल कर केवल धनोपार्जन का यंत्र मात्र बनता जा रहा है,समायोजन की बड़ी आवश्यकता है। पाश्चात्य देश समझते हैं,कि उन्नति एवं सभ्यता का अर्थ भौतिक शक्ति प्राप्त करना ही है। वहीँ प्राच्य यह सोचता है कि किसी मनुष्य के पास यदि संसार की सारी सम्पत्ति है,परन्तु अध्यात्मिक शक्ति नहीं, तो वह सब किस काम का ? ये दोनों ही भाव महत्वपूर्ण तथा गौरवशाली हैं। वर्तमान सामंजस्य इन दोनों आदर्शों का समन्वय तथा मिश्रण स्वरूप होगा। पाश्चात्य के निकट इन्द्रियग्राह्य जगत जितना सत्य है, उतना ही प्राच्य के लिये अध्यात्मिक जगत है।"6/226]
अब उसने अपने अंतर्जगत में, अपने मन की ओर भी देखना शुरू किया। जब उसने अपने मन के भीतर झाँका तो समझ में आया कि बाहर से देखने में वह जितना भी सुसभ्य क्यों न लगता हो, उसके मन पर तो सभ्यता की कोई छाप पड़ी ही नहीं है? उसे यह महसूस हुआ, कि अरे अपने मन को तो मैंने परिष्कृत किया ही नहीं है ? मेरा मन तो अभी तक शुद्ध और पवित्र नहीं हुआ है।
तब वह अपनी रचनाओं में,अपने शिल्प-निर्माण में सम्पूर्ण कलात्मकता और सौन्दर्य डालने की चेष्टा करके हर प्रकार से मन को आलोकित करने का प्रयत्न करने लगा।मन पर शुभ-संस्कार डालना, उसको परिष्कृत करना, उसको एकाग्र,उन्नत और आलोकित करना ही संस्कृति का प्रधान कार्य-क्षेत्र है। इस प्रकार हम समझ सकते है कि 'Civilization' या सभ्यता किसी भी देश का बाह्य कलेवर होता है और 'Culture' या संस्कृति उस देश की अन्तरात्मा होती है। क्योंकि सभ्यता बाहरी और संस्कृति आंतरिक वस्तु है। हमारे देश में प्राचीन काल से ही संस्कृति और सभ्यता को लेकर ऐसी धारणा थी।
अभी हाल ही में पाश्चात्य जगत के एक प्रसिद्द मनोविश्लेषणवादी ने इस भारतीय संस्कृति के सार सन्देश को बड़ी सुंदर भाषा में विश्व के लोगों की दृष्टि को खींचने की चेष्टा की है। वे कहते हैं- " संस्कृति या Culture तो प्रकृति द्वारा सृष्ट जगत से बाहर की वस्तु है; क्योंकि प्रकृति मनुष्य को अपने बन्धनों में बांधकर ही रखना चाहती है।" उनकी यह उक्ति बिलकुल स्वामीजी के विचारों की प्रतिध्वनी लगती है।
(स्वामीजी ने भी ठीक ऐसी ही बात कही थी," मशीनों ने मनुष्य जाति को कभी सुखी नहीं बनाया और न बना सकेंगी।सुख मशीनों में नहीं,यह सदा मन में ही है। केवल वही मनुष्य सुखी हो सकता है,जो अपने मन का स्वामी है-दूसरा नहीं।यदि तुमने विश्व के प्रत्येक परमाणु को वश में कर भी लिया तो क्या हुआ ? इससे तो तुम सुखी नहीं हो सकते। तुम सुखी तभी हो सकते हो, जब तुम स्वयं को जित लो,अपने मन को जीत लो! यह सत्य है कि मनुष्य का जन्म प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिये ही हुआ है।
परन्तु प्रकृति शब्द से पाश्चात्य जाति केवल भौतिक अथवा बाह्य प्रकृति ही समझती है। पहाडों,समुद्रों,नदियों एवं विभिन्न प्रकार की अनन्त शक्तियों द्वारा समन्वित यह बाह्य अत्यंत महान है, परन्तु फिर भी मनुष्य की अन्तः प्रकृति इससे भी महत्तर है।जिस तरह पाश्चात्य जाति ने बहिर्जगत की गवेषणा में श्रेष्ठत्व लाभ किया है, उसी तरह प्राच्य जाति ने अंतर्जगत की गवेषणा में।")7/236
" लोग कहते हैं, मनुष्य को प्रकृति का अनुसरण करना चाहिये, प्रकृति के विरुद्ध चलना ठीक नहीं है, आदि आदि किन्तु मैं इसका अर्थ नहीं समझता। क्योंकि मनुष्य को केवल तभी तक मनुष्य कहा जा सकता है, जबतक वह प्रकृति के उपर वश करने की चेष्टा करता है।"
जिन पाश्चात्य मनोविश्लेषणवादी कार्ल गुस्ताफ जुंग के विचारों ने योरोप में धूम मचा दी थी; वे भी ठीक यही बात कह रहे हैं, ' जब कोई व्यक्ति इस प्रकृति की सीमा के परे जितना उपर उठता है, जितना परिष्कृत होता है, हमलोग उसको उतना ही सुसंस्कृत या Cultured मनुष्य कह सकते हैं।' जिसके अभ्यास के द्वारा हमलोगों के मन के भीतर ग्रहण क्षमता और संवेदनशीलता में वृद्धि होती हो,हमारा मन निर्मल और परिष्कृत हो सकता हो, उस को ही संस्कृति का मूल उपादान समझना चाहिये ।
प्राचीन नन्दनतत्व उपदेश ? में कहा गया है,' मन मानो एक दर्पण है जिसमें यह सुन्दर विविधताओं से भरा जगत प्रतिबिंबित होता है। तथा साहित्य, कला इत्यादि के अभ्यास द्वारा हमलोगों का यह ' मनो-मुकुर' इतना परिशुद्ध हो जाता है कि उसमें थोड़ी भी चपलता, थोड़ा भी रूप-रंग का भेद तत्काल उसके द्वारा पकड़ लिया जाता है। मन को एकाग्र करने का अभ्यास करने से मन सूक्ष्म वस्तुओं की अनुभूति करने में समर्थ हो जाता है। और ऐसा उन्नत या अधिक परिष्कृत, संवेदनशील, अनभूति-सम्पन्न मन को ही सुसंस्कृत मन कहा जाता है।
(वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इन्द्रियों को जीत लेना मोक्ष का कारण है,अन्य किसी क्रम तथा उपाय से संसारसमुद्र नहीं तरा जाता । जगत् का अत्यन्त अभाव चिन्तना और स्वरूप आत्मा का अभ्यास करना यही परम औषध है । जैसे समुद्र में तरंग, आकाश में दूसरा चन्द्रमा, और मरुस्थल में मृगतृष्णा का जल फुरता है, तैसे ही चित्त में जगत् फुरता है । जैसे सूर्य में किरणें, तेज में प्रकाश और अग्नि में उष्णता है तैसे ही मन में जगत् है । जैसे बरफ में शीतलता, आकाश में शून्यता और पवन में स्पन्दता है तैसे ही मन में जगत् । सम्पूर्ण जगत् मनरूप है, मन जगत्रूप है और परस्पर एकरूप हैं, दोनों में से एक नष्ट हो तब दोनों नष्ट हो जाते हैं । जब जगत् नष्ट हो तब मन भी नष्ट हो जाता है । ‘‘हम ऐसा जीवन जिये जो ईश्वर को प्रसन्न करने वाला और ग्रहण योग्य हो रोमियों 8:5-8 में लिखा है ‘‘क्योंकि शारीरिक व्यक्ति(जो लोग स्वयं को केवल एक शरीर 'M /F' समझते हैं) शरीर की बातों पर मन लगाते हैं। शरीर पर मन लगाना तो मृत्यु है परन्तु आत्मा पर मन लगाना जीवन और शांति है। क्योंकि शारीरिक मन हमेशा शारीरिक भोगों के पीछे दौड़ता रहता है, इन्द्रिय विषयों में लगा रहता है,तो परमेश्वर से शत्रुता करता है वह न तो परमेश्वर की व्यवस्था के आधीन है और न ही हो सकता है,इसीलिये जो शारीरिक हैं वे परमेश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकते।’’
[5 Those who live according to the flesh have their minds set on what the flesh desires; but those who live in accordance with the Spirit have their minds set on what the Spirit desires. 6 The mind governed by the flesh is death, but the mind governed by the Spirit is life and peace. 7 The mind governed by the flesh is hostile to God; it does not submit to God’s law, nor can it do so. 8 Those who are in the realm of the flesh cannot please God.]
।। चार ।।
प्राचीन शास्त्रों पर जो चर्चा हो रही थी, उसी में से एक ऐतरेय ब्राह्मण में नैतिक मूल्यों और उदात्त आचार-व्यवहार के सिद्धान्तों पर विशेष बल दिया गया है। ऐतरेय ब्राह्मण में शिल्प-कला के बारे में भी बहुत सुन्दर ढंग से कहा गया है-
आत्मसंस्कृतिर्वाव शिल्पानि छन्दोमयं या ऐतेर्यजमान आत्मानं संस्कुरुते ।'
- शिल्पी जो कुछ भी रचना करते हैं, वे उसको ईश्वर की बनाई सृष्टि का अनुकरण के अनुसार करते हैं। कहते हैं यह सुन्दर मनोरम जगत ईश्वर के द्वारा रचित एक कविता मात्र है।
मनुष्य को शिल्प-कला के अभ्यास की आवश्यकता क्या है ? क्योंकि सामाजिक दृष्टि से मनुष्य के जीवन में केवल बाह्य संघर्ष नहीं, आभ्यन्तर संघर्ष भी चलता रहता है । और किसी भी शिल्प-कला का अभ्यास करने से व्यक्ति सृष्टि के नाम-रूप के ऊपरी आवरण को हटाकर, उसके अंतस्तल में पहुँचने की योग्यता प्राप्त कर लेता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दुर्गुण मनुष्य को लक्ष्य-भ्रष्ट करके अधोगति की ओर खींच लेते हैं। साहित्य, संस्कृति, कला, विज्ञान, वाणिज्य आदि हर विधा में देश की प्रगति जरूरी है । देश का बाह्य कलेवर होता है सभ्यता और अन्तरात्मा है संस्कृति । कला, साहित्य एवं संगीत का आदर सामाजिक जीवन को ऊँचे स्तर पर पहुँचाता है । केवल बाह्य शरीर की स्वच्छता नहीं, आत्मा की भी परिष्कृति और निर्मलता चाहिये।
जॉन मिल्टन [John Milton (1608–1674)] अपनी एक कविता 'Morning Hymn By' में कहते हैं- "दीज आर दाई ग्लोरियस वर्क्स, दाइसेल्फ हाउ वंडरस देन !" (These are Thy glorious works,Thyself how wondrous then !) हे ईश्वर ! तुम्हारी यह सृष्टि, सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड कितना सुन्दर है ! इसके सौन्दर्य को देखकर मैं बिल्कुल मुग्ध हूँ, और तुम जो इसके शिल्पी हो, मैं कल्पना भी नहीं कर सकता कि तुम कितने सुन्दर होगे !
यह बिलकुल अपने देश की उक्ति लगती है। अग्नि-पुराण में कहा गया है कि एकमात्र शिल्पि ईश्वर हैं-
अपारे काव्यसंसारे कविरेकः प्रजापतिः।
यथास्मै रोचते विश्वं तथा वै परिवर्तते॥
कविता रूपी असीम जगत एकमात्र कवि प्रजापति ब्रह्मा हैं, वे ही प्राणि-जगत् में मधुरादि षड़् रसों के स्रष्टा हैं। वे जब और जिस रूप में चाहें अपनी रुचि के अनुसार लेखनी-चालना करके वे विश्व में परिवर्त्तन ला सकते हैं। परन्तु काव्य-जगत् में शृंगारादि नव रसों के स्रष्टा कवि होते हैं। ऐसी प्रतिभा कवि के पास भी होती है। इसीलिये कवि की तुलना प्रजापति ब्रह्मा से की जाती है। कवि काव्य के माध्यम से नये लोक का निर्माण करता है। कहा गया है कि कवि भावना और कल्पना-लोक का जादूगर है। कवि भावनाओं-कल्पनाओं के जगत का चितेरा है। उसकी कल्पना गगन में उन्मुक्त विचरा करती है। भावुकता, कल्पनशीलता और संवेदनशीलता मनुष्य को कवि बनाती है। काव्य-जगत् का सर्जक है क्रान्तदर्शी कवि- ‘कवयः क्रान्तिदर्शिनः’।
ऋग्वेद में सूर्य का वर्णन स्वर्ण-रथारोही के रूप में हुआ है--'हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन।'अर्थात- " स्वर्ण-रथ पर आ रहा 'रवि '; भुवन सारे देखता !"
यह बात ऐतरेय ब्राह्मण में भी कहा गया है, कि शिल्पी जो कुछ भी रचना करते हैं, वे उसको ईश्वर की बनाई सृष्टि का अनुकरण के अनुसार करते हैं। कहते हैं यह सुन्दर मनोरम जगत ईश्वर के द्वारा रचित एक कविता मात्र है। इस जगत में तुम जिस रूप को भी देख रहे हो, वह उसी ईश्वर के द्वारा रची हुई एक कविता है ! और हमलोगों के द्वारा बनाई गयी कोई भी वास्तु-शिल्प या रचना ईश्वर की रचना की अनुकृति मात्र है। उन्होंने जो कुछ बनाया है, उसी का अनुकरण करके हमने कितने ही वाद्य-यंत्रों की रचना की, कला-काव्य रचते हैं, एवं इसी प्रकार शिल्प-कला का अभ्यास करने से हमलोगों का मन परिष्कृत, विनीत, शिष्ट, बन कर संस्कारवान या सुसंस्कृत हो उठता है।
[ शुन:शेप से सम्बद्ध आख्यान के प्रसंग में कर्मनिष्ठ जीवन और पुरुषार्थ-साधना का महत्त्व बड़े ही काव्यात्मक ढंग से बतलाया गया है। कहा गया है कि बिना थके हुए श्री नहीं मिलती; जो आगे बढ़ता रहता है, उसके पैर पुष्पयुक्त होते हैं, उसकी आत्मा फल को उगाती और काटती है। चलते रहने के श्रम से उसकी समस्त पापराशि नष्ट हो जाती है।
कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् ।
चरैवेति चरैवेति॥
बैठे-ठाले व्यक्ति का भाग भी बैठ जाता है, सोते हुए का सो जाता है और चलते हुए का चलता रहता है। कलि
युग का अर्थ है मनुष्य की सुप्तावस्था, जब वह जंभाई लेता है तब द्वापर की
स्थिति में होता है, खड़े होने पर त्रेता और कर्मरत होने पर सत युग की
अवस्था में आ जाता है।आगे बढ़ते रहने से ही मनुष्य अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त करता है। सूर्य के श्रम को देखो, जो चलते हुए कभी आलस्य नहीं करता।उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् ।
चरैवेति चरैवेति॥
एते सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थान् परित्यज ये
सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये ।
तेऽमी मानवराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये
ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ॥
शब्दार्थ - एते = these सत्पुरुष = good man पर = foreign / other अर्थ = benefit
घटक = कॉम्पोनेन्ट स्वार्थ = one's own पुरपोसेस परि + त्यज् = to sacrifice ये = those who सामान्य = common उद्यम = effort भृत् = one who carries विरोध = oppositionअविरोध = no ओप्पोसिशन अमी = ?? मानव = man राक्षस = demonहित = wellbeing नि + हन् = to destroyनिरर्थकं = needlessly के = who ज्ञा (जानते, जानाति) to know
भावार्थ These, who are engaged in benefitting others after sacrificing their
own purposes are the great men. Those who benefit others without opposing
their needs are the common men. Those who destroy others' well being for
doing good to themselves are demons in human form. However those who
destroy other peoples' well being without any cause whatsoever, we do not
know who they are !]
।। पाँच।।
किन्तु आज हमारी यह संस्कृति ऐसे संक्रमण काल से गुजर रही है, जहाँ हमारे सामने अंधकार की एक लम्बी छाया सी खड़ी दिखाई देती है। हमलोग देश-विदेश के समस्त समाचार को निश्चित रूप से जानते हैं। हाल के दिनों में हमलोगों के देश में प्रचलित प्रत्येक चिन्तन और व्यवहार को, पाश्चात्य विचार-धारा की नकल के अनुरूप बनाने को आधुनिक होना या प्रगतिशील होना समझा जाने लगा है। एक नये प्रकार की चिन्तन शैली या दृष्टिकोण के अनुसार नीति-निर्धारण की बात चल रही है। हमलोगों की लोकसभा में भी इस पर चर्चा हुई कि हमलोगों को अपनी संस्कृति को एक नये रूप में ढालने की जरूरत है। उस बहस के समय कई हास्यास्पद बातें भी आ गयी थी।
तथाकथित विद्वान् लोग यह बात चारो ओर कहते फिर रहे हैं कि अब हमें भी नई संस्कृति का निर्माण करना चाहिये, नये मूल्य बोध का निर्माण करना चाहिये। किन्तु जब मनुष्य केवल ईश्वर द्वारा रचित सृष्टि का ही अनुकरण करके ही अपने जीवन और शिल्प-कलाओं को सुरुचिपूर्ण बना सकता है। तो विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या मूल्यबोध और मनुष्य-जीवन के मानदंड को भी नये सीरे से निर्धारित किया जा सकता है ? क्या नई संस्कृति का निर्माण भी किया जा सकता है ?
[ईश्वर की सृष्टि का ही अनुकरण करते हुए मनुष्य ने अपनी रचना शुरू की। नटराज की मूर्ति को इस बार जब देखें तो जरा गौर करें, उनके ऊपर वाले दाहिने हाथ में डमरू है। महाकाल के डमरू के ताल पर ही कला थिरकती है। डमरू सृष्टि के उद्भव का प्रतीक है। कहते हैं, सृष्टि का उद्भव विष्फोट से, शब्द से हुआ। नटराज ने एक बार नाच के अंत में चैदह बार डमरू बजाया। इसी से चौदह शिव-सूत्रों का जन्म हुआ। यही वस्तुतः उनके शब्द रूप का पूर्ण विस्तार है। इन चैदह सूत्रों के आधार पर ही पाणिनी ने व्याकरण की रचना की।]
प्रत्येक मनुष्य के भीतर जो सूक्ष्म मन है, उस मन के उपर यदि किसी सूक्ष्म कलम से एक अत्यंत सुन्दर चित्र की रचना कर सकें, तभी हम अपने को संस्कृति के अधिकारी कह सकते हैं। किन्तु संस्कृति के उपर अपने देश में और विदेशों में जितनी चर्चाएँ हो रही हैं, उसमें देख सकते हैं कि जिसको आज हमलोग संस्कृति कह रहे हैं, वह तो बिलकुल सार रहित बाहरी खोल मात्र है, या 'A Shell without a Content' है ! इसीलिये आज हमें अपने सामने इतना घना अँधेरा दिख रहा है। आज के युवाओं के समक्ष न तो कोई ऐसा आदर्श है, और न कोई ऐसी संस्कृति जो पुरे देश को एकता के सूत्र में पिरो सके।
।। छः।।
भारतवर्ष की उन्नति के विषय पर बोलते हुए स्वामी विवेकानन्द ने बार बार इस बात को दुहराया है कि भारत की दुर्दशा को दूर करने का एक मात्र उपाय है-शिक्षा ! और यदि वह शिक्षा केवल विद्वत समाज या धनवानों तक ही सीमित रहे तो, सम्पूर्ण देश की उन्नति कभी संभव नहीं है। देश की अधिकांश सामान्य प्रजा को जब तक समान रूप से शिक्षा प्राप्त करने का अवसर उपलब्ध नहीं कराया जायेगा, तब तक देश के उन्नत राष्ट्र बन जाने की कोई सम्भावना नहीं है।
किन्तु स्वामीजी ने इस बात से भी सतर्क रहने को कहा था कि यदि उनको शिक्षा के साथ साथ 'संस्कृति ' देने की व्यवस्था न की गयी तो शिक्षा कई क्षेत्रों में मानव को दानव में भी रूपांतरित कर सकती है। यदि पढ़े-लिखे लोगों में संस्कार नहीं हो, यदि संस्कृति नहीं हो, वे यदि डिग्री पाने के साथ ही साथ परिष्कृत बुद्धि के अधिकारी नहीं हों, यदि वे अपने चंचल मन को शान्त रखने की तकनीक नहीं जानते हों, यदि बुद्धि ज्ञान की ज्योति से उद्भाषित नहीं हो, तो वैसी तथाकथित शिक्षा हमलोगों में दुर्बुद्धि को उत्पन्न कर देगी,और मानव, दानव में परिणत हो जायेगा।
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते थे,' साधारण जनता को शिक्षा के साथ संस्कृति भी दो।' क्योंकि देश की विरासत को, या समाज को विदेशी प्रभाव से बचने में केवल संस्कृति ही रक्षा कर सकती है। उनकी चेतावनी पर क्या हमलोग अब भी ध्यान नहीं देंगे ? हमलोग अपने देश में जिस आधुनिक संस्कृति का निर्माण करना चाहते हैं, उसे भी जीवन के अन्य क्षेत्रों के समान पाश्चात्य संस्कृति के अन्धानुकरण के द्वारा ही करना चाहते हैं। किन्तु आमतौर से पाश्चात्य जगत का समग्र चिन्तन केवल मनुष्य के देह को सुख-भोग पहुँचाने, या समृद्धि की चकाचौंध में डूबो देने पर केन्द्रित रहती है। यदि हमलोग केवल पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण करते रहें तो हमलोग अपनी सांस्कृतिक विरासत को खो देंगे।
[स्वामीजी कहते हैं, " श्रीरामकृष्ण का जीवन-चरित्र वर्णन करने के पूर्व मैं यह बतलाने का यत्न करूँगा कि भारत का रहस्य क्या है, तथा 'भारत ' कहने से हम क्या समझते हैं ? ऐसे व्यक्ति, जिनकी आँखे नश्वर वस्तुओं की उपरी तड़क-भड़क से चौंधिया गयी हैं, जिनका सारा जीवन खाने-पीने तथा चैन करने के निमित्त ही समर्पित हो चूका है,जिनकी सम्पत्ति का आदर्श केवल भूखण्ड और सुवर्ण ही है, जिनके सुख का आदर्श केवल इन्द्रियजन्य सुख ही है, जिनका ईश्वर केवल धन ही है, जिनके जीवन का ध्येय ऐश एवं आराम करना तथा मर जाना ही है, जिनकी बुद्धि दूरदर्शी नहीं है,जो इन्द्रियभोग्य विषयों के बीच में हमेशा पड़े रहते हैं, तथा जो इनसे उच्चतर बातें सोच ही नहीं सकते हैं,वे पाश्चत्य मनोवृत्ति वाले लोग यदि आज छोटे छोटे ग्रामों में जाएँ तो उन्हें वहां क्या दिखाई देगा ? -प्रत्येक स्थान पर निर्धनता,जघन्यता, अन्धविश्वास,अज्ञान एवं विभत्सता। इसका कारण क्या है ? कारण यह है कि उनकी समझ में सभ्यता का अर्थ है, बाहरी वेश-भूषा,शिक्षण तथा सामाजिक शिष्टाचार।
किन्तु यह राष्ट्र लुट जाने पर तथा 'जंगली-हिन्दू ' कहे जाने पर भी संतुष्ट है। इसके बदले वह मानव प्रकृति के गुह्य रहस्य को संसार के सम्मुख स्पष्ट रूप से प्रकट करना चाहती है जो मनुष्य के असली स्वरुप को छिपाये है।वह जानती है कि यह सब स्वप्न है-इस जड़ शरीर-मन के पीछे मनुष्य का यथार्थ ब्रह्मस्वरूप विद्यमान है, जिसे 'न आग जला सकती है, और न जल ही गीला कर सकता है, जिसे न तो कोई 'पाप' पतित कर सकता है, न 'काम' कलंकित कर सकता है।' जिसे वायु नहीं सुखा सकती, और न जिसे काल अपने गाल में ही डाल सकता है।
इसीमें उनका शूरत्व है कि वे मृत्यु का स्वागत एक भाई के समान करते हैं, क्योंकि उनका यह दृढ़ विश्वास है कि मृत्यु वास्तव में उनके लिये नहीं है। इस विश्वास या ज्ञान में ही वह शक्ति है,जिसने इन्हें सैकड़ो वर्षों के विदेशी आक्रमण तथा अत्याचारों में भी अटल रखा है। वह राष्ट्र आज भी है, जहाँ उस राष्ट्र के घोर विपत्ति के दिनों में भी आत्मज्ञानी महा पुरुषों का अवतार लेना कभी बंद नहीं हुआ।"] 7/237-8
हमलोग आजकल अपनी वेश-भूषा में, बातचीत के लहजे में, आचार-व्यवहार में पारिवारिक सम्बन्धों को निभाने में, बहुत बेशर्मी के साथ पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण करने लगे हैं। (चरण-स्पर्श को घुटना-छूने जे तरीके में बदल देना, माँ -पिताजी को 'मम्मी-पापा' कहना, उनके लिये 'ओल्ड एज होम' आदि बनवाना चाचा,फूफा,मौसा -चाची, बुआ,मौसी के लिये 'अंकल-आंटी' कहना, आदि ) हमलोग शुद्ध हिन्दी तो नहीं बोल पाते किन्तु अंग्रेजी बोलने और अंग्रेजी ढंग से 'Birth Day' गीत गाने सीखने के स्कूल खोलते हैं। हमारे पास शब्दों की गरीबी इतनी है कि हमलोग थोड़ी देर के लिए भी भारत के किसी भी भाषा में भाषण नहीं कर सकते हैं, चेष्टा करने से भी विदेशी भाषा के शब्द बीच में आ ही जाते हैं। किन्तु इस प्रकार हम किसी नई ' भारतीय-संस्कृति ' का निर्माण नहीं कर सकते। यदि हमलोग शिक्षा प्रचार के साथ साथ संस्कृति प्राप्त करने की अनिवार्यता को थोडा भी समझते हैं, तो हमें यह समझना पड़ेगा कि हमलोग किस बुनियाद के उपर अपनी संस्कृति का निर्माण कर सकते हैं ? इसका गहराई से चिन्तन करने पर हम देखेंगे कि इसके लिये पाश्चात्य जगत की ओर न देखकर हमें अपने गौरवशाली अतीत की ओर ही निहारना पड़ेगा।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, "अपनी दृष्टि को प्राचीन भारत के महिमामय अतीत पर केन्द्रित करके देखो, तुमको कितनी गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत प्राप्त है, तुम कितने गौरवशाली अतीत के अधिकारी हो, तुम्हारे पूर्वजों ने कितना बड़े ज्ञान का भण्डार तुम्हारे लिये रख छोड़ा है ! पहले उसको समझने की चेष्टा करो !"
।। सात।।
वेदों के काव्यात्मक छन्दों के उपर चर्चा हो रही थी, किन्तु उन्हीं वेदों में हमलोगों की संस्कृति, समस्त सांसारिक और लौकिक उन्नति या हम लोगों के सर्वंगीण विकास की परिपूर्ण सम्भावना के बीज नीहित हैं। पाश्चात्य देशों में आज जो कुछ चल रहा है, क्या हमलोग उसी अनुकरण करते रहेंगे ? या बाह्य जगत के भीतर जो वस्तु (अस्तित्व) है, जिसकी शक्ति वाह्य जगत में क्रीड़ा कर रही है,उसका अनुसन्धान करके उसको जान लेंगे, उसको वशीभूत करेंगे ? या उसकी सहायता से भोग्य वस्तुओं का निर्माण करके इस शरीर और इसके भीतर स्थित मन को नियंत्रण में नहीं लाकर, प्रकृति की गुलामी और इन्द्रियों की गुलामी करते रहेंगे, और मन की गुलामी में जीवन को व्यर्थ करेंगे ? यदि ऐसा ही करते रहेंगे, तो हमें जो इतना देव-दुर्लभ मनुष्य शरीर मिला है, उस 'मनुष्य' की ही उपेक्षा नहीं करेंगे ?
इस सम्बन्ध में स्वामीजी एक छोटी सी कहानी कहते थे, यह कहानी हमारे देश के शास्त्रों में दी गयी है, भागवत में इसको बड़े सुन्दर ढंग से कहा गया है। किन्तु उस समय वे पाश्चात्य देश में भाषण दे रहे थे, इसीलिये उनके देश के पुराणों का उल्लेख भी किये थे। ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म के पुराणों में भी इस कहानी का वर्णन किया गया है। भागवत में यह कहानी है किन्तु दुसरे ढंग से कही गयी है।
जब ईश्वर ने सम्पूर्ण जगत की रचना कर ली तो उसे देखकर उन्हें संतोष नहीं हुआ, सबसे अन्त में जब उन्होंने मनुष्य को बनाया, ईश्वर अपनी इस अद्भुत रचना को देखकर मुग्ध रह गये ! कोई कवि या शायर भी जब एक सुन्दर कविता लिखता है, तो उसे बार बार पढ़ता है, दुसरे लोगों को सुना कर दाद लेना चाहता है। कोई कलाकार जब बहुत सुंदर चित्र या मूर्ति गढ़ता है, तो उसे इतना देखने इतना मुग्ध हो जाते हैं कि उनको समय का भी होश नहीं रहता, वे खाना-पीना भूल जाते हैं, नीन्द भूल जाते हैं। शायद वह सबसे पहला कवि, सबसे प्राचीन शिल्पी- प्रजापति भी अपनी इस अद्भुत रचना 'मनुष्य' - को देखकर मोहित होगये थे,उनहोंने समस्त देवदूतों को बुलवाया। तुमलोग आकर देखो,मेरी यह नई रचना कितनी अनिन्द्य है, इसमें कहीं से एक भी कमी या दोष नहीं है। केवल देखो ही नहीं इसका अभिवादन भी करो ! सभी देवदूतों ने ईश्वर के आदेश का पालन करते हुए इस मनुष्य को प्रणाम किया। उसके सामने अपने सिर को झुकाया। केवल एक ने अपना सिर नहीं झुकाया, और मनुष्य को प्रणाम करने से इंकार कर दिया। वहां के पुराण में उसका नाम 'इबलिस' था। स्वमी विवेकानन्द ने कहानी में कहा कि मनुष्य को प्रणाम नहीं करने के कारण ही इस्लामी पुराण और ईसाई पुराण दोनों में इबलिस को शयतान कहा गया है। जगत में एक मात्र शयतान वही व्यक्ति है, जो मनुष्य के सामने अपने सिर को नहीं झुकाता है।
यदि हम अपने को सुसंस्कृत कहते हों, अपने को संस्कारवान मनुष्य समझते हों, तो यह समझ लेना होगा कि हमारे सुसंस्कृत होने का परिचय केवल यही होगा, कि क्या हम मनुष्य मात्र से प्रेम करते हैं ? क्या हम मनुष्य मात्र का अभिवादन कर सकते हैं ? क्या हम मनुष्य के सामने अपने सिर को झुका सकते हैं? यही मनुष्य जब दुखी या अवसादग्रस्त हो जाता है, जब रोग-शोक के कारण उसकी आँखों से अश्रु झरने लगते हैं, तब क्या हमलोग उसके साथ खड़े हो सकते हैं ? उस समय क्या उसके प्रति सहानुभूतिशील हो सकते हो ? तभी हम अपने को सुसंस्कृत कह सकते हैं। पाश्चात्य संस्कृति का जो दंभ और गर्व है, वह इस समझ के समक्ष कहाँ खड़ी हो सकती है ? उनके किस आचरण का अनुकरण हम करने जा रहे हैं ? किस नई संस्कृति की परिकल्पना हमारे मन में है ? आजकल हमारे देश में एक नये प्रकार का दम्भ दिखाई दे रहा है-अब हम लोग यह दावा करने लगे हैं कि सबकुछ नया बना देंगे।
नवनिर्माण करना अच्छी बात है, किन्तु पुरानी बुनियाद पर निर्माण नहीं करने से, कोई नई वस्तु खड़ी नहीं रह सकती है। ... कुछ नया कर दिखाने का जिस प्रकार उन्मादी विचार सिर उठाने लगा है,उसे देखकर बंगाल के देशभक्त कवी द्विजेन्द्रलाल राय (१८६३-१९१३ ) की एक प्रसिद्द व्यंग्यात्मक कविता है- 'नोतून किछु करो, एकटा नोतुन किछू करो ' का स्मरण हो आता है।
हिन्दुधर्म प्रचार करते अमेरिकाय छोटो;
नोतुन किछु करो, एकटा नोतुन किछु करो,
आर किछु न पारो, स्त्रीदेर धरे मारो; किंवा तादेर माथाय तुलो।
হিন্দুধর্ম্ম প্রচার কর্ত্তে আমেরিকায় ছোটো ;
নতুন কিছু করো, . একটা নতুন কিছু করো। .
আর কিছু না পারো, . স্ত্রীদের ধ'রে মারো ; নতুন কিছু করো, . একটা নতুন কিছু করো। .
কিম্বা তাদের মাথায় তুলে .
[In one of his satirical songs he wrote,…’ which means that you will have to do something new. In the last line he wrote, If you can’t find anything new to perform, do anything.His famous and lovely song 'Dhano Dhanyo Pushpo Bhora...' during the freedom movement can be easily compared to 'Saare Jahan Se Achchha]
।। आठ।।
यदि हमलोग अपनी संस्कृति का पुनर्निर्माण करना चाहते हों, तो हमें अपने मन को सुसंस्कृत बनाना होगा। इसीलिये विख्यात मनोविश्लेषण-वादी कार्ल गुस्ताफ जुंग को भी कहना पड़ा था कि संस्कृति बाह्य जगत की वस्तु नहीं है। लेकिन हमलोग किसी नाच को, गाने को,वास्तु-शिल्प या चित्र आदि को देखकर संस्कृति कह देते हैं। किन्तु इन सबको संस्कृति नहीं कहा जाता है। फ़िल्मी नाच-गानों को हम भला सांस्कृतिक कार्क्रम कैसे कह सकते हैं ?
जिसका मन सुसंस्कृत हो चूका है, वह संस्कृत मन यदि कुछ रचना करता है, तो उसके संस्कृति की छाप उस रचना में अनजाने ही पड़ जाती है। किसी कवि,चित्रकार या शिल्पकार की रचना को देखकर हमलोग जो मोहित हो जाते हैं, उसका कारण है उसके रचयिता या स्रष्टा के मन का संस्कार। रचनाकार का मन जितना सुसंस्कृत हुआ है, उसकी रचना में उसके संस्कृति की छाप उतनी दिखाई देती है।
इसीलिये हमलोग किसी मूर्तिकला, किसी स्थापत्यकला, किसी चित्र, संगीत, कविता, किसी गद्य साहित्य, या किसी व्यक्ति के सम्भाष्ण को सुन कर मोहित हो जाते हैं। किन्तु वास्तव में वे सब मोहित करने वाली वस्तुएं नहीं हैं, उसका कारण अन्यत्र है, वह उस रचना के रचयिता का मन ही उसका कारण है। संस्कारों की छाप मनुष्य के मन पर पडती है। यदि वह संस्कार हमलोगों के मन पर पड़े तभी हमलोगों की शिक्षा प्रभावी हो सकेगी।
आजकल हमलोग कहते हैं, कि शिक्षा का बहुत विस्तार हो रहा है, प्रतिदिन नये नये स्कूल कॉलेज खुल रहे हैं। भारत के जनसाधारण के कल्याण पर केन्द्रीय सरकार जितना खर्च करती है उसका मात्र 6 प्रतिशत ही शिक्षा पर खर्च करके समझती है, इतने से ही देश में शिक्षा का बाढ़ आ जायेगा। अभी जब इस राशी को लेकर हो हल्ला मचने लगा,तो शायद यह छः के बदले दस हो जायेगा, या बारह -पन्द्रह प्रतिशत हो जायेगा। किन्तु इस शिक्षा के उपर हमलोग चाहे जितना भी खर्च क्यों न करें, यह रोजी-रोटी कमाने वाली (अर्थकरी विद्या ) शिक्षा मनुष्य के मन को संस्कृत नहीं कर सकती है। सुसंस्कृत बनने के लिये हमलोगों को अपने मन को परिष्कृत करना पड़ेगा।
मन को परिष्कृत करने के लिये हमारे वेद, ऐतरेय ब्राह्मण , उपनिषद, रामायण, महाभारत, गीता आदि प्राचीन शास्त्रों में जो सुन्दर कल्पना है, उस सौन्दर्य के साथ परिचय नहीं होने से हम अपने जीवन को कभी सुन्दर रूप में गठित नहीं कर सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने श्रीरामकृष्ण से इसी संस्कृति की शिक्षा को प्राप्त किया था। श्रीरामकृष्ण ने मनुष्य को क्या आशीर्वाद दिया था ? वे कहते थे-" तुमलोगों को चैतन्य हो !" अर्थात मनुष्य को यथार्थ ज्ञान हो, उनकी चेतना जाग्रत हो जाये, जिससे उनका मन सुसंस्कृत हो जाये, ताकि वे कल्याण के पथ पर अग्रसर हो सकें, -यही आशीर्वाद उन्होंने दिया था।
।। नौ ।।
हमारे दो जगत हैं - भीतरी जगत एवं बाहृय जगत। इसीलिये हमलोगों का मन भी दोनों दिशाओं में जा सकता है। पतंजली योगसूत्र के भाष्य में व्यासदेव ने बहुत सुन्दर ढंग से कहा है- " चित्तनदी नामोभयतो वाहिनी वहति कल्याणय वहति पापय च ।"
महर्षि वेदव्यास ने वेदों की संहिता की थी, उनहोंने उपनिषदों के सार को संकलित करके ब्रह्मसूत्र की रचना की थी, महाभारत के इतिहास की रचना की थी, 18 पुराणों की रचना की थी, किन्तु उन्होंने किसी एकमात्र शास्त्र पर भाष्य लिखा था, तो वह है -पतंजली का योगसूत्र। पतंजली योग सूत्र में योग को इस प्रकार परिभाषित किया गया है- "योगः चित्तवृत्तिनिरोधः।"
यही है मन को सुसंस्कृत करने का उपाय। सुसंस्कृत बनने के लिये मन को अन्तर्जगत से जोड़ने का तरीका या 'योग' सीखना आवश्यक है। जो चित्त, जो मन हमेशा चंचल, विक्षुब्ध बना रहता है, यह चाहिए, वह चाहिये, यह लूँगा-वह लूँगा के लालच में पड़ा रहता है, उस मन को कभी सुसंस्कृत नहीं बनाया जा सकता है।
चंचल मन को यदि थोड़ा शान्त किया जा सकेगा, तभी उसमें प्रकृति का समस्त सौन्दर्य प्रतिबिंबित हो सकेगा। अपने अन्तर्जगत से जुड़ा हुआ चित्त,या " योगसमाहित चित्त ही संस्कृति का आधार है।" उपरोक्त सूत्र के भाष्य में व्यासदेव कहते हैं, चित्त-नदी के प्रवाह के मानो दो भाग हैं, उसकी एक धारा कल्याण की दिशा में प्रवाहित होती है, दूसरी धारा पाप की दिशा में प्रवाहित होती है। कौन सी धारा कल्याण की दिशा में प्रवाहित होती है ? किस प्रवाह को हम कल्याणकारी कहेंगे ?
या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा ।
- व्यासदेव कहते हैं, जो हमें 'कैवल्य-प्राप्ति' (विभिन्नता में एकत्व की अनुभूति करने) की दिशा में ले जाएगी, और जो धारा ' विवेक-विषय-निम्ना ' होगी। जिस मन की चिन्तन धारा, या चित्त का प्रवाह विवेक की तली के उपर से बहेगी वही कल्याणवहा धारा है। किन्तु अभी हमारा चित्त नाम-रूपात्मक बाह्य-जगत को देखकर अनेकों आकांक्षाओं के तीव्र प्रलोभनों से बहुत चंचल हो उठता है, हम लोगों को रातदिन दौड़ाता रहता है, कभी चैन से बैठने नहीं देता, वैसा चित्त कभी सुसंस्कृत नहीं बन सकता। क्योंकि कामना वासना से निरंतर तरंगायित रहने वाले चित्त या मानस-पटल पर अन्तर्निहित दिव्यता की छाप पड़ ही नहीं पाती है। किन्तु मन तो गतिशील रहेगा ही, क्योंकि उसका धर्म भी जल की तरह प्रवाहमान रहना है। क्योंकि चित्त का धर्म ही वैसा है, चित्त चीज ही वैसी है, उसका स्वरुप ही पारे के जैसा है। तब, उस मन के प्रवाह को कल्याणवहा कैसे किया जाये ? यदि उसके प्रवाह की धारा की तली या फर्श विवेक की बनी हुई हो, तो उस चिन्तन प्रवाह को हम कैवल्य के पथ में अपने स्वरुप को जानने के दिशा में ले जा सकते हैं।
संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा। यदि हम उसका विपरीत करें, अर्थात अविवेक के उपर से यदि चिन्तन धारा को बहने दिया जाये तो वह धारा कैवल्य की और न जाकर संसार की ओर बहने लगेगी, जो हमारे बंधन का कारण होगा, उसी ओर ले जाएगी। चित्त की इसी धारा का नाम है- पापवहा धारा । तो फिर हमें क्या करना होगा ? तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते --पतंजली सूत्र के भाष्य में व्यासदेव कहते हैं, हमलोग आसक्ति के त्याग का मनोभाव बनाकर, या वैराज्ञ का फाटक लगाकर पापवहा चिन्तन प्रवाह को रुद्ध कर देना होगा, और विवेकदर्शन का अभ्यास या विवेक-प्रयोग द्वारा कल्याणवहा स्रोत को उद्घाटित करना होगा। जिस प्रकार डैम का फाटक गिरा कर, नदी की धारा को रोक दिया जाता है, उसी प्रकार पाप की चिन्तन धारा को भी वैराज्ञ के मनोभावरूपी फाटक से बन्द कर दो।
विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत्र उद्धाट्यत
और जो स्वतः कल्याण की दिशा में बहने वाली चिन्तन धारा है, उसको विवेक के अभ्यास द्वारा खोल दो, चित्त की चिन्तन धारा को विवेक की तली से ही प्रवाहित होने दो। जिस व्यक्ति का चित्त इस प्रकार कल्याण मुखी हो जाता है, उसी मनुष्य को सुसंस्कृत मनुष्य कहा जा सकता है।
।। दस ।।
हमलोग विचार करने से यह समझ सकते हैं, कि भोग में सुख नहीं है, त्याग में ही सच्चा सुख है। भोगों के द्वारा हमलोग कभी संस्कृति नहीं प्राप्त कर सकते, केवल त्याग के द्वारा ही संस्कृति प्राप्त होती है। —भर्तृहरेः वैराग्यशतकम् में कहा गया है-
भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयम्
माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम्।
शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं
सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्॥३१॥
माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम्।
शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं
सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्॥३१॥
संसार के समस्त वस्तुओं में भय भरा है, जिसको भी मैं अपना कह रहा हूँ, वह चला जायेगा, रहेगा नहीं, या आगे चलकर संकट में डाल देगा। इसीलिये यदि केवल वैराग्य या आसक्ति त्याग के भाव को हमलोग पकड़े रहें, तभी हमलोग वास्तव में निर्भय हो सकते हैं। और हमारी वास्तविक सत्ता प्रकट हो सकती है।
हमारे शास्त्रों ने हमेशा से हमें यही शिक्षा दी है। ऋग्वेद में में भी ययाति की कहानी दी गयी है। राजा ययाति की कहानी विभिन्न पुराणों में है, भागवत में है,महाभारत में भी है। बहुत प्राचीन काल में ययाति नामक एक राजा इस देश में रहा करते थे। उसकी कहानी हम सभी लोग जानते हैं। जिस पाश्चात्य भोगवादी, जड़वादी विचार धारा के पीछे हमलोग दौड़ रहे हैं, दौड़ की इस प्रतिस्पर्धा ने आज बहुत विकराल रूप धारण कर चूका है। किन्तु फिर भी हमलोग बिना सोचे समझे दौड़े चले जा रहे हैं, प्राचीन युग में राजा ययाति भी उसी मार्ग में जाना चाहते थे।
सारा जीवन भोग करने के बाद भी, उनको तृप्ति नहीं मिली थी, वे और भी भोग करना चाहते थे। किन्तु किसी दुष्कर्म के दण्ड स्वरूप वे बुढ़ापा से ग्रस्त हो गये थे, तब अपने पुत्र से उन्होंने जवानी की भिक्षा मांग ली। अपना बुढ़ापा अपने छोटे पुत्र को देकर उसे राज्य सिंहासन पर बैठा दिये और स्वयं अपने पुत्र की जवानी लेकर हजार वर्षों तक इस जगत का भोग किये थे। किन्तु हजार वर्षों का भोग भी उसको तृप्त नहीं कर सका, तब वे अन्त में समझ सके -'आत्मानं नाभिजानामि मोहितस्तव मायया '- तुम्हारी माया से मैं इतना मोहित हो गया कि अपने स्वरुप को भी नहीं जान सका ?
मनुष्य स्वयं बुड्ढा हो जाता है, किंतु उसकी भोगलिप्सा जवान बनी रहती है । जगत में जितनी भी खाद्य-द्रव्य, सोना-चाँदी आदि भोग की वस्तुएं हैं, वह सब मिलकर भी किसी एक व्यक्ति के लिये पर्याप्त नहीं लगती है। केवल त्याग से ही शान्ति प्राप्त हो सकती है। भोगों में लिप्त रहने से हम कभी परम आनन्द, संस्कृति या कल्याण की ओर अग्रसर नहीं हो सकते हैं, इसीलिये हमें त्याग को ही ग्रहण करना पड़ेगा।
श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव- वेद-ब्राह्मण, उपनिषद, वेदान्त, शंकर भाष्य, व्यास-सूत्र, रामायण-महाभारत,या अठारह-पुराण आदि शास्त्रों का उल्लेख नहीं किया करते थे। किन्तु इन सब का जो सार है-गीता,उसके तत्व को अपने शिष्यों से बहुत कम शब्दों में व्यक्त करते हुए कहते हैं, " यदि कोई व्यक्ति दस बार गीता-गीता शब्द का उच्चारण करेगा तो क्या सुनाई देगा ? 'गीता' को कई बार दुहराने से मुख से 'तागी तागी' निकलता है; अर्थात त्यागी बनो ! यही गीता की मूल शिक्षा है !"
कहते थे - 'गीता-गीता-गीता अर्थात 'तागी- तागी-तागी ! " शायद मूर्ख ब्राह्मण थे न ? इसीलिये किसी बुद्धिमान व्यक्ति ने पकड़ लिया, त्याग का 'य' कहाँ गया? किन्तु उस समय वहाँ एक संस्कृत के पंडित भी थे, उन्होंने व्याकरण की पुस्तक खोल कर दिखला दिया कि त्यागी का जो अर्थ निकलता है, तागी कहने का भी वही अर्थ होता है। अर्थात त्याग ही हमलोगों के जीवन के विकास का, हमारे जीवन की स्थिति की, हमारे जीवन के अमृत की, हमारा अनंतत्व जिस पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, उसे प्राप्त करने में समर्थ बनाता है। हमारा शरीर इत्यादि सबकुछ नष्ट होने वाला है, सामयिक और क्षणभंगुर है, इस समस्या का समाधान भी त्याग से ही सत्य के साथ साक्षात्कार हो सकता है। यही हमारी बुद्धि, हमारी मनीषा को प्रकाशित करती है। भागवत में कहा गया है, जो व्यक्ति असत्य में से सत्य का, इस मरणशील जगत में से भी अमृत को खोज सकता है, वही सच्चा मनीषी है, वही बुद्धिमान है।
।। ग्यारह ।।
हमलोग अपने देश के प्राचीन शास्त्रों से यदि अपनी संस्कृति के मूल आधार- 'त्याग' की शिक्षा नहीं ग्रहण कर सके, तो हमलोग भारत की सांस्कृतिक विरासत से बहुत दूर चले जायेंगे। तथा हमलोग यदि संस्कृतिहीन हो जाएँ, असंस्कृत होकर अनेकों वस्तुओं को संग्रह कर लें, तो केवल वह सारा संग्रह ही नष्ट नहीं होगा, हमारी मृत्यु के साथ ही साथ धीरे धीरे हमारा जितना गौरव है, वह सब भी लुप्त हो जायेगा।
[स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में जब कि पाश्चात्यों का प्रभाव भारत पर पड़ने लगा और जब विजयी पाश्चात्य अपने हाथों में तलवार लेकर यहाँ के ऋषि पुत्रों को यह प्रमाणित करने आये कि वे केवल जंगली है, साँप नचाने वालों का देश है, उनका धर्म केवल काल्पनिक है, क्योंकि किसी ने इसकी स्थापना नहीं की है। तब तो विश्वविद्यालय के तरुण छात्रों में संदेह होने लगा कि -क्या उन्हें अपने पुराने ग्रंथों को फाड़ डालना चाहिए, प्राचीन तत्व ज्ञान को डालना चाहिए, अपने धर्मगुरुओं को मारकर भगा देना चाहिए तथा क्या अपने मन्दिरों को ढा देना चाहिय ? क्या हमारी प्राचीन धर्म-पद्धति केवल कुसंस्कार एवं निर्जीव-प्रतिमा पूजन तक ही सीमित है ?
यहाँ के बुद्धिजीवीयों के लिये, कुसंस्कार को एक ओर हटाने तथा सत्य का अनुसन्धान करने की अपेक्षा बस यही एक महावाक्य सत्य की कसौटी हो गया-"इस सम्बन्ध में पाश्चात्य की क्या राय है ? धर्मगुरुओं को भगा देना चाहिये, वेदों को जल देना चाहिये,क्योंकि पाश्चात्यों ने ऐसा ही कहा है।इस प्रकार के खलबली के भावों से भारत में एक ऐसी लहर उठी, जिसे हम तथाकथित 'सुधार-आन्दोलन' के नाम से जानते हैं।
यह सुधार आन्दोलन भारत में उस समय प्रारंभ हुआ, जब ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानो भौतिकवाद की तरंग, जिसने भारत पर आक्रमण किया था, इस देश के प्राचीन आर्य ऋषियों की संस्कृति एवं शिक्षा को बहा देगी। परन्तु यह राष्ट्र इसके पहले भी क्रांति की ऐसी हजारों तरंगों की चोट सह चूका था; और यह तरंग तो अतीत के उस तरंग की अपेक्षा हलकी ही थी, जब तलवारें चमकी थीं, और 'अल्लाहो अकबर ' के नारे से भारत का आकाश गूँज उठा था।
परन्तु धीरे धीरे ये लहरें शांत हो गयीं और राष्ट्रिय आदर्श पूर्ववत बने रहे। भारतीय राष्ट्र कभी नष्ट नहीं हो सकता। यह अमर है, और उस समय तक टिका रहेगा, जब तक इसका धर्म-भाव अक्षुण बना रहेगा। जब तक हम लोग अपनी वंश-परम्परा को किसी अरण्यनिवासी वल्कलधारी,जंगल के फल-मूल खाने वाले तथा ईश्वर का साक्षात् करने वाले किसी ऋषि से स्थापित करने की चेष्टा करते रहेंगे। जब तक अपनी इस पवित्र संस्कृति के उपर हमारी इतनी गहरी श्रद्धा रहेगी, तब तक भारत का विनाश नहीं है। ऐसे संकट के समय में जब भारतवर्ष में बहुत से नये सुधारों की चेष्टा हो रही थी, उन्हीं दिनों, 18 फरवरी,सन 1836 को .........."]
हमें इस संकट से उबरने के लिये श्रीरामकृष्ण देव एक अद्भुत शिल्पी होकर आये थे। वे बचपन से ही बहुत सुन्दर मूर्तियाँ गढ़ते थे, उन्होंने दक्षिणेश्वर में बैठकर मूर्तियाँ गढ़ी थी, चित्र बनाये थे, कितना अद्भुत संगीत सुनाते थे।
उन्होंने अपने जीवन से दिखलाया था, कि कोई व्यक्ति शिल्पकार कैसे बन सकता है? किस प्रकार एक जीवंत मूर्ति को गढा जा सकता है। सबसे महान मूर्तिकार वही है, जो अपने जीवन को सुंदर रूप में गढ़ सकता हो। और अद्भुत सुन्दर फूल जिस प्रकार अपने सुगंध से सभी लोगों को आनन्द पहुँचाकर झड़ जाता है, उसी प्रकार अपने जीवन को सबों के लिए कैसे न्योछावर किया जा सकता है, उसकी शिक्षा उन्होंने अपने जीवन से दी थी।
(संस्कृति यानी उस समाज के जीवनमूल्य, संस्कृति यानी उस समाज के अच्छे और बुरे नापने के मापदण्ड। हमारे पूर्वजों ने कहा है ''हमारा समाज ही हमारा ईश्वर है। ''जनता जनार्दन'' है। जनता में जनार्दन देखने की यह अतिश्रेष्ठ दृष्टि ही हमारी भारतीय संस्कृति का हृदय है। ईश्वर की सेवा यानी समाज की सेवा।ठाकुर कहते थे, " शिव ज्ञान जीव सेवा " ईश्वर की पूजा यानी जनता जनार्दन की पूजा। इस भाव को यदि हमने हृदयंगम किया तो फिर मनुष्य अपने अधिकारों की बात नहीं करेगा। अपने कर्तव्यों का ध्यान रखेगा।'अनेकता में एकता' का हमारा वैशिष्टय हमारे सामाजिक जीवन के भौतिक एवं आधयात्मिक सभी क्षेत्रों में व्यक्त हुआ है।)
आज के युग में हमारी संस्कृति का यथार्थ क्या है, इसे समझने के लिये श्रीरामकृष्ण का जीवन, माँ सारदा का जीवन, स्वामीजी के जीवन के उपर विवेचना, विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है। तथा स्वयं को संस्कृतिवान, संस्कारी मनुष्य के रूप में गढ़ लेने की आवश्यकता है। ऐसा नहीं करके बाहरी रूप को चाहे जितना भी चमका कर अपने को सुसभ्य कह कर गर्व क्यों न करें, हमारे भीतर का असंस्कृत मन प्रकाशित होकर हमलोगों को पशु के रूप में परिणत कर देगा। इस दुर्भाग्य से हमलोग बच जाएँ। इसीलिये भारत की यथार्थ सांस्कृतिक विरासत से परिचित होने और दूसरों को परिचित कराने की योग्यता अर्जित करना अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि किसी सच्चे संस्कृतिवान व्यक्ति के द्वारा ही मनुष्यता का यथार्थ कल्याण हो सकता है। और असंस्कृत मनुष्य ही अकल्याण का कारण होता है।
स्वामी विवेकानन्द ने अपने पाश्चात्य भ्रमण के दौरान यह समझ लिया था कि -"धीरे धीरे पश्चात्यवासी यह अनुभव कर रहे हैं कि उन्हें राष्ट्र के रूप में बने रहने के लिये आध्यात्मिकता की आवश्यकता है। वे इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, चाव से इसकी बाट जोह रहे हैं। किन्तु इसकी पूर्ति कहाँ से होगी ? वे आदमी (नवयुग के अग्रदूत- महामण्डल के नेता) कहाँ हैं, जो भारतीय महर्षियों का उपदेश जगत के सब देशों में पहुँचाने के लिये तैयार हों ? कहाँ हैं वे लोग,जो इसलिये सब कुछ छोड़ने को तैयार हों कि ये कल्याणकार उपदेश संसार के कोने कोने तक फ़ैल जायें ? सत्य के प्रचार हेतु ऐसे ही वीरहृदय लोगों की आवश्यकता है।वेदांत के महासत्यों को फ़ैलाने के लीये ऐसे वीर कर्मियों को बाहर जाना चाहिये।" 5/171
"उठो भारत, तुम अपनी आध्यात्मिकता के द्वारा जगत पर विजय प्राप्त करो ! जैसा कि इसी देश में पहले पहल प्रचार किया गया था-घृणा घृणा को नहीं जीत सकती,प्रेम ही घृणा पर विजय प्राप्त करेगा। भौतिकवाद तथा उससे उत्पन्न क्लेश भौतिकवाद से कभी दूर नहीं हो सकते। जब एक सेना दूसरी सेना पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा करती है, तो वह मानवजाति को पशु बना देती है और इस प्रकार वह पशुओं की संख्या बढ़ा देती है।आध्यात्मिकता पाश्चात्य देशों पर अवश्य ही विजय प्राप्त करेगी।"5/170
"साथ ही हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि अध्यात्मिक विचारों की विश्व-विजय से मेरा मतलब अपने जीवनदायी सनातन सिद्धांतों के प्रचार से है, न कि उन सैकड़ों अंधविश्वासों से, जिन्हें हम सदियों से अपने सीने से लगाते आये हैं। इनको तो इस भारत-भूमि से भी उखाड़ कर दूर फेंक देना चाहिये, ताकि वे सदा के लिये नष्ट हो जाएँ।"5/171
[भारतवर्ष को एक महनीय महान् देश के रूप में सुप्रतिष्ठित करने के लिये विश्व-नीड़ में मानवता का सौरभ वितरण करना हमारे जीवन का ध्येय बने । युवाओं को महामण्डल की पुस्तिका " नेतृत्व का अर्थ एवं गुण ' का प्रशिक्षण देकर,नवयुग के अग्रदूत, नव जीवन के गायक और नये विप्लव के नेताओं का निर्माण करने से ही स्वामीजी के सपनों को साकार किया जा सकता है। और भारतीय संस्कृति में रचे-बसे ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’- की भावना को साकार किया जा सकता है । महामण्डल द्वारा दिए जाने वाले नेतृत्व-प्रशिक्षण शिविर में प्रशिक्षण प्राप्त करके विश्वबन्धुता, मैत्री, प्रेम और शान्ति की पावन धारा से अपने हृदय को रसाप्लुत करने में समर्थ युवाओं (युवा-पैगम्बरों ) का दल ही भारत और सम्पूर्ण विश्व को एवं आनन्दमय बना सकते हैं। पैगम्बर बनने के लिये मन, वचन और कर्म का त्रिवेणी-संगम आवश्यक है । यही धर्म है, और महाभारत ग्रन्थ का सार-मर्म है - 'यतो धर्मस्ततो जयः' , जहाँ धर्म है, वहाँ है विजय । केवल वाक्य-वीर न होकर धर्म-वीर एवं कर्म-वीर के रूप में अपने को प्रतिपादन करने से मनुष्य-जन्म की सार्थकता बनी रहेगी ।
वर्त्तमान के कम्प्युटर-युग में सारा विश्व एक परिवार-सा बन गया है। इन्टरनेट के माध्यम से भी स्वामीजी के विचारों को भारत के युवाओं तक पहुँचाने के उद्देश्य से ही-बंगला में लिखे महामंडल आन्दोलन के मूल ग्रन्थ 'स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना' का हिन्दी अनुवाद झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा ब्लॉग के रूप में प्रस्तु किया जा रहा है। ]