🔱🔆🙏स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना🔆🙏🔱
खण्ड- 4
शिक्षा : समस्त समस्याओं की रामबाण औषधि !
भूमिका
" जहाँ प्रेम है , वहीं विस्तार है और जहाँ स्वार्थ है , वहीं संकोच। सब प्रकार का विस्तार ही जीवन है और सब प्रकार की संकीर्णता मृत्यु है। अतः प्रेम ही जीवन का एकमात्र विधान/सिद्धांत है। जो प्रेम करता है , वही जीवित है ; जो स्वार्थी है, वह मृतक है। अतः प्रेम प्रेम के निमित्त , क्योंकि यह जीवन का वैसा ही एकमात्र विधान है, जैसा जीने के लिए श्वास लेना। निष्काम प्रेम, निष्काम कर्म इत्यादि का यही रहस्य है। " (--४/३१०)
[ये पत्र मूल बंगला में 1895 में राखाल महाराज को लिखित है- उससे किसी ने ऐसा अनुवाद किया ? कोई बंगाली इसको मिलाकर देखे तो और अच्छा अनुवाद हो सकता था ! ("प्रेम विस्तार है, स्वार्थ संकुचन है। विस्तार जीवन है, संकुचन मृत्यु है। इसलिए प्रेम जीवन का सिद्धांत है। वह जो प्रेम करता है जीता है, वह जो स्वार्थी है मर रहा है। इसलिए प्रेम के लिए प्रेम करो, क्योंकि जीने का यही एक मात्र सिद्धांत है, वैसे ही जैसे कि तुम जीने के लिए सांस लेते हो!") ]
श्री रामकृष्ण कहा करते थे, " जब तक मैं जीवित हूँ, तब तक मैं सीखता हूँ। ” वह व्यक्ति या वह समाज जिसके पास सीखने को कुछ नहीं है वह पहले से ही मौत के जबड़े में है।
जब लोग तुम्हे गाली दें तो तुम उन्हें आशीर्वाद दो। सोचो, तुम्हारे झूठे दंभ (मिथ्या अहंकार) को बाहर निकालकर वो तुम्हारी कितनी मदद कर रहे हैं।
हम जो बोते हैं वो काटते हैं। हम स्वयं अपने भाग्य के विधाता हैं। हवा बह रही है, वो जहाज जिनके पाल खुले हैं, इससे टकराते हैं, और अपनी दिशा में आगे बढ़ते हैं, पर जिनके पाल बंधे हैं हवा को नहीं पकड़ पाते। क्या यह हवा की गलती है ?…..हम खुद अपना भाग्य बनाते हैं |
-स्वामी विवेकानन्द
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SVHS -4.1
शिक्षा के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के विचार
स्वामीजी की शिक्षा-नीति
[ॐ श्री गुरुवे नमः 'विद्या गुरुमुखी'- शीक्षावल्ली में बड़ी 'ई ' क्यों ?]
स्वामीजी ने कहा था, ' सच्ची शिक्षा के द्वारा ये सभी दुःख दूर किये जा सकते हैं।'
स्वामी विवेकानन्द के मन की पीड़ा तो और भी गहरी थी। श्रीरामकृष्ण के मन में जो पीड़ा थी, श्री सारदा देवी के मन में जो व्यथा थी, वही व्यथा स्वामीजी के हृदय में संचारित हुई थी। युवावस्था में ही उनके पिता का देहान्त हो गया था, उसके बाद परिवार की स्थिति इतनी दयनीय हो गयी थी कि माँ-बहन-भाइयों को ठीक से भोजन भी नहीं मिल पाता था। नौकरी के लिये प्रयास करते हैं तो कहीं नौकरी नहीं मिलती। इन सब दुःखों को भोगने के बाद आगे के जीवन में जो दुःख मिला वह भी कम नहीं था।
श्रीरामकृष्णदेव के देहान्त हो जाने के बाद का दुःख और परिव्राजक जीवन शुरू होने के पहले जो दुःख-कष्ट भोगना पड़ा वह भी कम मर्मान्तक नहीं था। बड़ानगर/बराहनगर ? में दूसरों के दिये पैसे से भाड़े पर ' भूतों वाला मकान ' लेकर रहना पड़ा, जहाँ हर रोज साग-भात खाने को भी नहीं मिल पाता था। किसी दिन नमक-भात मिल गया, किसी दिन भात के साथ साग भी नहीं मिला, किसी दिन नमक भी नहीं मिला, किसी दिन भात भी नहीं मिल पाता था। लंगोटी के उपर लपटने वाला धोती सबों के लिये एक ही होता था, प्रत्येक गुरुभाई के लिये अलग- अलग धोती की व्यवस्था नहीं थी । ऐसा भी हुआ था कि सर्वत्यागी ठाकुर की जो सन्तान किसी काम से बाहर जायेंगे, उस धोती को सिर्फ वे ही बांध कर निकलेंगे। स्वामीजी के पास कोई मिलने आता, तो कोई गुरु भाई स्वामीजी के शरीर पर चादर डाल देते हैं। जब भोजन का घोर आभाव हो जाता, तब स्वामीजी कहते- " आज भोजन पकाने-खाने का कोई झंझट नहीं है, कुछ मिला नहीं है, आज पूरा अवकाश है। इसीलिये आज बहुत साधन-भजन होगा, खूब जप-ध्यान होगा, खूब शास्त्र-पाठ होगा, खूब भजन होगा। " क्या हमलोग ऐसे कष्ट की कल्पना भी कर सकते हैं ?
माँ सारदा देवी के जीवन में कितना कष्ट था ! फ़टी हुई साड़ी में गिट्टठा बांध कर पहनी हैं। क्योंकि जाते समय श्रीरामकृष्ण ने सारदा देवी को कह रखा था, " तुम, कामारपुकुर में रहना, शाक बो देना, साग-भात खाना और हरिनाम करना।" -- " देखो, किसी के सामने एक पैसे के लिये भी हाथ मत फैलाना, अर्थात किसी से कुछ मांगना नहीं। " साग बुन देना और खा लेना।" इतने सारे कष्टों को उनलोगों ने किसके लिये भोगा था ?..हम मनुष्यों के लिये ! मनुष्य यहाँ कितना दुःख भोग रहा है (गन्दी नाली के कीड़े जैसा किलबिल कर रहा है। ), उस दुःख को कौन दूर करेगा? इसीलिये सारदा देवी कहती थी, " क्या रामकृष्णदेव यहाँ रसगुल्ला खाने के लिये आये थे ? हमलोग तो सभी मनुष्यों के पाप, ताप, दुःख-कष्ट को उठाने के लिये आये हैं; श्री रामकृष्ण भी इसी लिये आये हैं, मैं भी इसीलिये आई हूँ।"
स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु श्रीरामकृष्ण के पास जाकर अपने व्यक्तिगत जीवन का, मानव जीवन का चरम लक्ष्य और उसे प्राप्त करने का उपाय सीख लिया था। फिर कठोर साधना करके उस परम-वस्तु या 'ब्रह्म ज्ञान' को भी प्राप्त कर लिया था। उस अनिवर्चनीय आनन्द के हिलोरे में एक बार डूबकी लगा लेने के बाद, उनके मन से विश्व-कल्याण की चिन्ता स्वाभाविक रूप से ओझल हो गयी थी। वे श्रीरामकृष्ण देव के पास जा कर बोले,` ठाकुर कुछ ऐसा कर दीजिए कि मैं निरंतर उसी समाधि के आनन्द में डूबा रह सकूँ।' किन्तु इस बात को सुनकर, अपने सबसे प्रिय शिष्य की भर्त्सना करते हुए श्रीरामकृष्णदेव कहते हैं, " अरे तूँ .... यह बात कहता है ? छि: ! छिः ! ऐसी बात तूँ ने सोच भी कैसे लिया ? जबकि जगत में इतना दुःख है, इतना कष्ट है ! तुम स्वयं ब्रह्माननद में डूबे रहोगे ? उनको देखेगा नहीं ?
तुम उनको देखना, उनको मुक्त करना, उनकी सहायता करना, उनके बंधनों को खोल देने का प्रयत्न करना। विवेकानन्द ने कहा, " महाशय, यह सब मुझसे नहीं होगा। " रामकृष्ण बोले -" मुझसे नहीं होगा माने ? तेरी हड्डी करेगी।" और उसी समय विवेकानन्द ने अपने गुरु से सम्पूर्ण मानव-जाति के प्रति उस संवेदना को, उस दुःख को उत्तराधिकार के रूप में ग्रहण कर लिया था। ऐसा कोई दूसरा उदाहरण मानवता के इतिहास में ढूँढने से भी नहीं मिलता है!
उस घटना के बाद, सभी मनुष्यों का दुःख , केवल लौकिक दुःख ही नहीं - जनसाधारण की गरीबी, पारिवारिक वैमनस्य, या केवल भूख, अभाव, अशिक्षा आदि सामान्य दुःखों ने ही नहीं , बल्कि वह दुःख जिसकी कोई सीमा नहीं है, जो दुःख मनुष्य के भवबन्धन में बंधे रहने के कारण है, और मनुष्य जिस मुक्ति की आकांक्षा से आर्त क्रंदन कर रहे हैं- उनकी उसी पीड़ा ने स्वामी जी के हृदय में अपना घर बना लिया था। इसीलिए 'शिक्षा पर स्वामीजी के विचार' का तात्पर्य उस विद्या से है जो मनुष्य को (चपरास प्राप्त नेता-लोकशिक्षक को) उस भव- बंधन को काट देने का अधिकार प्रदान करता है। स्कूल के पाठ्यक्रम (curriculum) में कौन कौन विषय होंगे, उन्हें किस प्रकार (10+2 या 10+3 करके ) पढ़ाना होगा ?---इस तरह की कोई शिक्षा नीति देने के लिए विवेकानन्द नहीं आये थे। विवेकानन्द से हमें वैसी शिक्षा लेने की जरूरत नहीं है।
शिक्षा के विषय पर इस प्रकार के विचार देने के लिए बहुत से लोग हैं। यद्यपि, वैसी शिक्षा भी विवेकानन्द ने दिए हैं, बिल्कुल न दी हो वैसा नहीं है। किन्तु ' विवेकानन्द की शिक्षा-नीति ' का तात्पर्य उस शिक्षा से है, उस विद्या से है - जिस विद्या को प्राप्त करके मनुष्य सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो जाता है! " सा विद्या या विमुक्तये !" - वही विद्या सच्ची विद्या है जिससे मुक्ति प्राप्त हो जाती है। उस प्रकार की मुक्ति-प्रदान करने वाली विद्या या शिक्षा-व्यवस्था हमलोगों के देश में बहुत प्राचीन युग से ही चलती आ रही है। तैत्तरीय उपनिषद में उस शिक्षा के विषय में कहा गया है। उसके एक अध्याय का नाम ही " शीक्षा-वल्ली " है। वेद के छह अंगों में एक का नाम- 'शिक्षा ' है। यह शिक्षा उच्चारण शिक्षा या 'वर्ण शिक्षा ' के नाम से प्रचलित है।
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि तैत्तरीय उपनिषद के शीक्षावल्ली में ' श ' के साथ ई--कार अर्थात दीर्घ 'ई' की मात्रा लगी हुई है। प्रश्न उठता है कि क्या वेद में 'ई' की मात्रा क्या वैसे ही लगा दी गयी है ?
अतएव ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ 'शिक्षा' के किसी गूढ़तर अर्थ को इंगित किया जा रहा है। और " विवेकानन्द का शिक्षा पर विचार " उसी 'शिक्षातत्व' को लेकर है। वेद, उपनिषद में लगता है, 'श ' में 'ई'-कार लगा कर उसी महान शीक्षा की बात कही गयी है। हालाँकि वहाँ पर उपरी तौर से देखने पर यह प्रतीत होता है कि यहाँ भी स्वर या वर्ण के उच्चारण-शिक्षा ही शिक्षा दी जा रही है, किन्तु वास्तव में यहाँ संकेत किसी अन्य शिक्षा की तरफ किया गया है।
क्योंकि संस्कृत में "शी" को एक अलग शब्द माना गया है, और इसका एक विशेष अर्थ भी है। "शी" का अर्थ होता है- 'प्रशान्ति (tranquility)' और ईक्षा का अर्थ होता है देखना, प्राप्त करना, और जान लेना। इस प्रकार शी + ईक्षा = शीक्षा का अर्थ हुआ -उस आनन्दमय तत्व (परम प्रशान्ति) को देख लेना- `To Behold That Tranquility' (आत्म-साक्षात्कार )। उस अनन्त शान्ति के आनन्द को देखने, प्राप्त करने या जानने में समर्थ बना देने वाली विद्या को ही "शीक्षा " कहते हैं। और स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा पर विचार उसी अवस्था तक ले जाते है।
उन्होंने शुरू में कहा है, कि पहले मनुष्यों को वर्ण परिचय सिखाओ, पढना-लिखना सिखाओ। शिक्षा यदि छात्रों के पास न आ सके, शिक्षकों के पास, विद्या के पास नहीं आ सके- तो शिक्षक को ही छात्रों के पास, तुम्हारे देश के गरीब इत्यादि लोगों के पास जाना पड़ेगा।आज हमलोग Adult Education Programme आदि कितना कुछ कर रहे हैं। किसी समय स्वामीजी ने कहा था, " वे लोग तो हमारे स्कूलों तक पहुँच नहीं सकेंगे। नये नये स्कूल खोलते जाने से क्या होगा? तुमलोगों को ही उनके खेत-खलिहानों में कल-कारखानों में, घर-घर में , द्वार-द्वार तक , गाँव-गाँव में जाना होगा। दिन के समय उनको पढने का समय नहीं मिलेगा। क्योंकि उनके लड़के-लडकियों को घर-गृहस्थी के हजार काम करने पड़ेंगे, गौओं को चराने जायेंगे, खेती के कई कार्य करने होंगे। ऐसी परिस्थिति में क्या उन्हें अपने बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल भेजने का उपाय है ? संध्या के समय सब को एक स्थान पर एकत्र करो- उनको शुरू से ही गढ़ने की चेष्टा करो। अक्षर की पहचान कराने से भी शुरू करोगे तो उनमें से कई लोग नहीं बता सकेंगे। इसीलिये उनको कहानियाँ सुनाओ, इतिहास, भूगोल, विज्ञान, आदि विषयों का ज्ञान दो। इसके साथ ही साथ उन लोगों के भीतर धर्मभाव भी प्रविष्ट करा दो। अद्भुत शिक्षा -" फिर इसी प्रकार की शिक्षा देते देते सबों को उसी परम-शिक्षा ('शी'क्षा) की ओर अग्रसर करा दो।" शिक्षा पर स्वामी विवेकानन्द के विचार (स्वामी जी की शिक्षा-नीति) में/से सम्पूर्ण जगत को परिवर्तित कर देने का बीज, सन्निहित है। वे कहते हैं, कि शिक्षा एक ऐसा मन्त्र है, जिसके बल से ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका समाधान नहीं हो सकता। वैसी शिक्षा क्या पुस्तकों से प्राप्त हो सकती है ? यह शिक्षा पुस्तकीय ज्ञान तो निश्चय ही नहीं है, डिग्री पाने वाली शिक्षा से भी इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिये ऐसी शिक्षा स्कूल-कॉलेज (बड़ौदा यूनिवर्सिटी?) खोल कर नहीं दी जा सकती।
विवेकानन्द कहते हैं, क्या कुछ तथ्यों को रट कर सिर में घुसा लेना ही शिक्षा है? नहीं, यदि वैसी बात होती तब तो लाईब्रेरी ही महान विद्वान् हो जाते। शब्दकोश ही ऋषि बन जाते। क्योंकि उसमें तो ज्ञान की सारी बातें लिखी हुई हैं ही । किन्तु, यदि किसी व्यक्ति के दिमाग में जानने योग्य सभी बातें ठूँस दी जाएँ, तो क्या उससे ही वह शिक्षित हो गया? कदापि नहीं। स्वामी जी उपहास की भाषा में व्यंग करते हुए कहते हैं, " शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह ठूँस दी जायें, जो आपस में लड़ने लगे और तुम्हारा दिमाग उन्हें जीवन भर हजम न कर सके। जिस शिक्षा से हम हम अपना जीवन-गठन कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र-निर्माण कर सकें और उच्च विचारों को ठीक वैसे ही चरित्रगत कर सकें, जैसे खाना पच कर रक्त मज्जा से एकीकृत हो जाता है। कुछ पवित्र, सुंदर और महान भावों को भी यदि हम उसी प्रकार आत्मसात कर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है।"
>>>उच्च विचारों को चरित्रगत कर लेने का अर्थ क्या हुआ ? वे पवित्र भाव मेरे चरित्र में, मेरे आचरण में , मेरे व्यवहार में , मेरी वाणी में , मेरे विचारो में ,मेरे कार्यों के द्वारा अभिव्यक्त होने लगेंगे।
श्री रामकृष्णदेव ने तो अपने जीवन से ही यह दिखला दिया था कि इस प्रकार की शिक्षा कैसे प्राप्त की जाती है। श्री रामकृष्णदेव, श्री सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा की कौन-सी प्रणाली सिखलाई है ? उनकी शिक्षा-नीति इस प्रकार तथा कथित B.A., M.A., Ph.D. की डिग्री प्राप्त करके नाम के आगे 'डाक्टर' लगाने वाली शिक्षा-पद्धति नहीं थी। हमलोगों को जैसी शिक्षा मिल रही है, उसका फल तो हम देख ही रहे हैं। अतिशिक्षित होने के बाद भी उन व्यक्तियों का जैसा आचरण हमलोग देख रहे हैं, उनके बारे में इसी दुःख को व्यक्त करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने एक अनोखी बात कही थी- "So long as millions die in hunger and ignorance, I hold every man a traitor who having been educated at their expense pays not the least heed to them." - अर्थात " जब तक करोड़ों मनुष्य भूखे और अशिक्षित रहेंगे, तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को विश्वासघातक समझूंगा, जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है, किन्तु अब उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता।"
इस देश के जनसाधारण के पैसों से शिक्षित होकर कुछ लोग डॉक्टर-इंजीनियर बन रहे हैं। कुछ वर्ष पहले मैंने आकलन करके देखा था कि सरकार को इसके लिए प्रति व्यक्ति 1.50 लाख रुपये खर्च करने पड़ते हैं । सरकारी खजाने से खर्च करने का अर्थ होता है , जनसाधारण की कमाई से खर्च। भारत की सामान्य जनता दिन-रात खून- पसीना बहाकर जो श्रम करती है, उसी से भारत वर्ष का राष्ट्रीय आय का कोष बनता है। उसी राष्ट्रीय आय को सरकार शिक्षा के उपर खर्च करके किसी व्यक्ति को डाक्टर या इंजिनियर बनने का अवसर देती है। आज के समय में उस खर्च का आकलन किया जाय तो शायद 1.50 लाख से कई गुना अधिक खर्च करना पड़ेगा। किन्तु, डाक्टर, इंजीनियर बन जाने के बाद वे पैसा कैसे कमाते हैं ? देखते ही देखते कुछ ही वर्षों के भीतर बड़े बड़े आलीशान बंगले बन जाते हैं। एक-दो महंगी गाड़ियाँ भी कहीं न कहीं से उपहार में आ ही जाती हैं। यही हाल अन्य पेशों से जुड़े दूसरे लोगों का भी है। स्वामीजी कहते थे, " I hold every man a traitor who having been educated at their expense..." जो मनुष्य जनसधारण के मिहनत की कमाई पर शिक्षा प्राप्त करके उनके हित की कोई चिंता नहीं करता, उनकी सेवा नहीं करता, जिनके लिये उसके हृदय में थोड़ी भी पीड़ा नहीं होती उनको मैं देशद्रोही कहता हूँ। " हमलोगों के देश में ऐसी ही शिक्षा तो दी जा रही है। किन्तु, विवेकानन्द की शिक्षा ऐसी नहीं है।
विवेकानन्द कहते हैं, शिक्षा मनुष्य को सही ढंग से विवेक-प्रयोग करने और उसकी इच्छाशक्ति की तीव्रता और प्रवाह को संयम में रखने की क्षमता प्रदान करेगी। विचार, इच्छाशक्ति या संकल्पशक्ति को कार्यकारी करने की शक्ति जहाँ से मनुष्य को प्राप्त होगी , उसे ही शिक्षा कहेंगे। ऐसी शिक्षा हमें कहाँ प्राप्त होती है ? हमें ऐसी शिक्षा नहीं दी जा रही है। विवेकानन्द कहते हैं, ' शिक्षा मनुष्य को स्वावलंबी बना देगी, उसे अपने पैरों पर खड़े होना सिखाएगी । शिक्षा मनुष्य को सुंदर चरित्र से विभूषित करेगी। जो शिक्षा मनुष्य को चरित्रवान नहीं बना सके, क्या उसे शिक्षा कहेंगे ? शिक्षा मनुष्य को परमार्थ सिखलायेगी दूसरों के कल्याण के लिये सोचना सिखाएगी। जिस शिक्षा से यह सब नहीं मिले, क्या उसे शिक्षा कहेंगे ? हमलोगों के देश में क्या हो रहा है ? जो जितना अधिक शिक्षित है, वह उतना ही अधिक स्वार्थी है। तथाकथित शिक्षा के द्वारा आमतौर से तो यही हो रहा है । निश्चित रूप से इसमें कुछ अपवाद भी अवश्य हैं। लेकिन साधारण तौर पर उन्हीं को बहुत शिक्षित माना जाता है, जो बड़े चालाक हैं; जो यह जानते हैं कि दूसरों को धोखा देकर, दूसरों का हक मार कर, किस प्रकार अपना भोग सुख सम्पत्ति बढ़ाया जाता है।
शिक्षा तो चल ही रही है, लेकिन स्वामी विवेकानन्द ने वैसी कोई पद्धति नहीं दी थी। विवेकानन्द के अनुसार यथार्थ शिक्षा तो मनुष्य को स्वार्थशून्य (100 % selfless) बना देगी, पूर्णतया निर्भीक बना देगी, सबों का हितैषी और सेवापरायण बनाएगी। शिक्षा उसकी बुद्धि को तीक्ष्ण बना देगी। वैसी तीव्र/ बुद्धि जिसमें परम सत्य को जान लेने की क्षमता होगी। सच्ची शिक्षा बुद्धि को धीरे -धीरे इतनी कुशाग्र बना देगी कि वह जिस कार्य में अपनी बुद्धि लगा देगा, या जिस कार्य को करेगा उसे अत्यन्त सुन्दर ढंग से सम्पादित कर सकेगा। इसको कहते हैं शिक्षा। हमलोग ऐसी शिक्षा कहाँ पा रहे हैं ? स्वामी विवेकानन्द उसी शिक्षा को भारत भर में प्रचलित करा देना चाहते थे।
[>>>वेदान्त डिण्डिम वाली शिक्षा और संस्कृति]
वे यह भी कहते थे कि " देखो भाई, केवल शिक्षा देने से ही नहीं होगा; शिक्षा के साथ ही साथ संस्कृति भी देनी होगी।" क्योंकि संस्कृति नहीं देने से मनुष्य बाहरी आक्रमण से समाज की रक्षा नहीं कर सकता। जब बाहरी भाव आकर मनुष्य की बुद्धि पर छा जाते हैं, वे मनुष्य को अभिभूत करने की चेष्टा करते हैं। धर्मान्तरित करने की चेष्टा करते हैं, उस समय उस समाज की जो प्राचीन सांस्कृतिक विचार धारा प्रवाहित होती आ रही है वह संस्कृति ही उसकी रक्षा करने में सहायता कर सकती है। हमें अपनी राष्ट्रिय संस्कृति को एक बार फिर से जाग्रत करना होगा, उससे प्रेरणा ग्रहण करनी होगी। क्योंकि हमलोग अपनी देव-संस्कृति को लगभग भूल ही चुके हैं। यह संस्कृति केवल सच्ची शिक्षा के द्वारा ही प्राप्त हो सकती है। .... हमें एक बार फिर से हमारी उसी वेदों के 'महावाक्यों ' में आधारित भारतीय वैदिक संस्कृति उद्बुद्ध करना होगा, जाग्रत करना होगा। क्योंकि हमलोगों ने अपनी प्राचीन संस्कृति को (गुरु-परम्परा में वेदान्त डिण्डिम वाली शिक्षा और संस्कृति को) लगभग भुला ही दिया है। यह संस्कृति यथार्थ शिक्षा के भीतर से अभिव्यक्त होती है।.... शिक्षा के द्वारा जिस अन्तर्निहित ब्रह्मत्व का बोध 'मुझे ' हुआ, "मैं ब्रह्म को जान गया", 'मुझे ब्रह्मज्ञान' हो गया ये सारी (तात्विक) बातें जब आत्सात होकर रक्त-मज्जा से अन्तर्भूत हो जाती हैं, तभी वे संस्कृति में रूपांतरित हो पाती हैं।
मनुष्य अपने को सुसंस्कृत बनाने के लिये स्वयं को परिशोधित करता रहता है, मन को पवित्र बनाता रहता है। जिस प्रकार देव-मूर्ति गढ़ने के लिये पहले एक साँचा, साँचा में डालकर आकार लाना पड़ता है। उसके बाद धीरे धीरे पूर्ण रूप देने के लिये सूक्ष्म कार्यों के द्वारा उसको सुरुचिपूर्ण ढंग से सुषमामण्डित कर लिया जाता है। उसी तरह शिक्षा भी मनुष्य के जीवन को पहले एक साँचे में डाल कर उसको एक सुन्दर आकार में ढाल देती है। तत्पश्चात सूक्ष्म कला-कौशल के द्वारा उसको एक वास्तविक सुसंस्कृत मनुष्य (real cultured man) में रूपान्तरित कर देती है। जब कोई व्यक्ति इस प्रकार नैसर्गिक रूप से एक सुसंस्कृत मनुष्य में परिणत हो जाता/जाती है, तब उसके जीवन का सौन्दर्य और सुगन्ध चारो ओर अन्य मनुष्यों को भी प्रभावित करने लगते हैं। और उन्नत मनुष्य बनने के लिये उनको भी अनुप्रेरित करने लगता है।
आजकल हमलोग अपने खराब परिवेश की दुहाई निरंतर देते रहते हैं, हम कहते हैं आज हमलोगों का परिवेश अत्यन्त खराब हो गया है, ऐसे बुरे परिवेश में शिष्ट मनुष्य बनना, या भद्र मनुष्य बनना एकदम सम्भव नहीं है। किन्तु हम यह भूल जाते हैं कि इस परिवेश की रचना भी तो हमलोगों ही कर रहे हैं ! हमारा जीवन, हमारी शिक्षा, हमारी संस्कृति हमारे चारो ओर एक विशेष प्रकार के आभामण्डल (aura) का निर्माण कर देती है। यदि हमलोग अच्छे बनेंगे, तभी हमारा परिवेश भी अच्छा बन सकता है। हमारा भौतिकवादी सोच ही हम लोगों को ऐतिहासिक खेल-तमाशा में परिणत कर देती है। किन्तु सच तो यह है कि मनुष्य ही इतिहास की रचना करता है। (दुनिया का इतिहास ऐसे छः व्यक्तियों का इतिहास है -जिनमें आत्मविश्वास कूटकूट कर भरा था। आत्मविश्वासी -मनुष्य के अलावा अन्य कोई) इतिहास नामक कोई दैत्य, या दानव कहीं नहीं है। 'इतिहास' जैसे किसी काल्पनिक भूत या अन्य वस्तु का अस्तित्व नहीं है, जो हमलोगों को
ठोक-पीट कर अपने मनचाहे रूप में ढाल सकता हो। बल्कि विवेकानन्द कहते हैं, "मनुष्य ही स्वयं अपने भाग्य का और सामूहिक रूप से इतिहास का निर्माता है। " और यही बिल्कुल तर्क संगत बात है। इस धारणा को वैज्ञानिक बता कर कि 'इतिहास हम मनुष्यों का निर्माण करता है ', चाहे कोई कितना ही प्रमाणित करने की चेष्टा करे, यह बिलकुल ही तर्कहीन बात है और जो बात अतर्कपूर्ण है वह अवैज्ञानिक तो है ही ।
वास्तव में हमलोगों को इस बात की धारणा नहीं है कि- 'हमारा जीवन भी सिर्फ एक शक्ति का (प्राण और आकाश का ?) खेल मात्र है; लेकिन शक्ति के इस खेल में हमेशा एक तालछन्द है, अनुशासन है, नियम है। इस जीवन का भी एक विज्ञान है। उस विज्ञान को जान लेने के बाद अपने जीवन को रूपान्तरित किया जा सकता है। अपनी पसन्द के अनुसार अपने भाग्य का निर्माण किया जा सकता है, अपने संकल्प या कल्पना के अनुसार इतिहास का निर्माण किया जा सकता है। लेकिन हमलोग इस विज्ञान को सीखने के विषय में उदासीन हैं, इसीलिये जीवन में दुःख आने पर टूट जाते हैं और अपनी असफलता के लिये दूसरों को उत्तरदायी ठहराने लगते हैं। जिसको उत्तरदायी ठहराते हैं, उसके उपर हम आक्रोश से फट पड़ते हैं । उनसे घृणा करने लगते हैं, उनसे दुश्मनी ठान लेते हैं, प्रतिशोध की आग में जलते रहते हैं। यह सब कुछ यथार्थ शिक्षा के अभाव से ही होता है। [ वेदान्त डिण्डिम - 'अनेकता में एकता ' अर्थात ब्रह्म ही जगत बन गए हैं ' को नहीं जाने से सर्वेभवन्तु सुखिनः और वसुधैव कुटुंबकम की प्राथना को गुरुगृहवास प्रशिक्षण द्वारा दिनचर्या का अंग नहीं बनाने से ही वैसा होता है !)
यथार्थ शिक्षा व्यक्ति को इस जगत के सम्बन्ध में एक सही दृष्टिकोण प्रदान करेगा । मनुष्य जीवन कितना दुर्लभ और बहुमूल्य है, उसकी समझ आ जाएगी। मनुष्य जीवन के उद्देश्य के विषय में जागृत कर देगी। जीवन कैसे सार्थक हो सकता है, यह समझ प्राप्त होगी। मनुष्य यदि इन बातों को समझ ले, तो वह निश्चय ही अपने जीवन को इस प्रकार से विकसित करेगा, या जीवन का गठन करेगा, कि उसका वह अनुपम असाधारण जीवन दूसरों को भी प्रभावित कर सकेगा। यदि हम अपने जीवन को सही ढंग से नहीं गढ़ सके या जीवन के आदर्श के सम्बन्ध में धारणा नहीं बना सकें, तो हम अपनी भावी पीढ़ी की भी कोई सहायता भी नहीं कर सकते। इसी प्रकार क्रमशः समाज का पतन शुरू हो जायेगा । वर्तमान में समाज की जो अवस्था दिखाई दे रही है, उस ओर नजर उठाकर देखने से इस विषय के उपर और अधिक कहने की जरुरत नहीं रहेगी।
इतिहास या परिवेश के उपर दोषारोपण करने में ही व्यस्त नहीं रहकर हमें इस बात को समझ लेना चाहिये कि इस सामाजिक अधोगति का कारण ' जीवन-विज्ञान के ज्ञान का अभाव' (Lack of knowledge of life sciences) ही है।' इस बात को जितनी जल्दी हम समझ लेंगे उससे अपना और देश का भला होगा। यथार्थ शिक्षा इसी ' जीवन-विज्ञान की शिक्षा' को कहते हैं। स्वामीजी मनुष्यों को वही 'जीवन- विज्ञान' सिखाना चाहते थे। इसीलिये ' शिक्षा पर स्वामीजी के विचार' के अनुसार पाठ्य-विषय क्या हो, शिक्षा पद्धति कैसी हो ? प्लस टू हो या प्लस थ्री हो ? या इसी तरह के तुच्छ विचारों को लेकर जुगाली करते रहना ठीक नहीं है।
स्वामीजी ने कहा है, " प्रयत्न करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। " प्रयत्न का अर्थ है - चेष्टा, कोशिश, परिश्रम। अविराम उद्यम। किस लिये ? "मनुष्य" कहलाने योग्य मनुष्य बन जाने के लिए जीवन का लक्ष्य क्या है ? सभी के जीवन में अपने सच्चे जीवन को प्राप्त करना। सभी के कल्याण में अपने जीवन को सम्पूर्ण रूप से न्योछावर कर देना। यथार्थ शिक्षा मनुष्य को सबों के हित के लिये विचार करना सिखाती है। वैसे 'तथाकथित शिक्षित' लोग जो केवल अपने स्वार्थ की ही चिंता करते हैं, वास्तव में अशिक्षित ही रह जाते हैं। क्योंकि- " Selfishness is narrow-mindedness- स्वार्थपरता ही संकीर्णता है और विवेकानन्द ने कहा था " संकीर्णता मृत्यु है और विस्तार ही जीवन है !" [अर्थात स्वामी विवेकानन्द के "जीवन-विज्ञान" ( life sciences) के अनुसार Unselfishness Tending Towards Zero ही मृत्यु है, और निःस्वार्थपरता का 100 % विस्तृत होना जीवन है !] जब कोई (विस्तारवादी) व्यक्ति या कोई राष्ट्र पाशविक बल से बलवान हो जाता है, तब वह दूसरों के अधिकार-क्षेत्र को ग्रसित कर अपने साम्राज्य को सम्प्रसारित करता है। किन्तु जो व्यक्ति या राष्ट्र यथार्थ शिक्षा में शिक्षित होता है, उसके ह्रदय का सम्प्रसारण होता है, प्रेम का विस्तार होता है। वह प्रेम के द्वारा अपने हृदय को विस्तृत करके यथार्थ जीवन (शाश्वत जीवन) का अधिकारी बन जाता है।
श्रीमद भागवत में 'स्वार्थपर लोगों ' के विषय में श्रीप्रह्लादजी के पुत्र दैत्यराज विरोचन के जीवन से जुड़ी एक बहुत सुन्दर कहानी है-
ननु स्वार्थपरो लोको न वेद परस्पङ्कटम् ।
यदि वेद न याचेत नेति नाह यदीश्वरः ॥
यदि वेद न याचेत नेति नाह यदीश्वरः ॥
( श्रीमद्भा० ६ । १० । ६ )
-अर्थात जो मनुष्य दूसरों के सामने आये संकट को अपना दुःख-कष्ट नहीं समझता, वह अनिवार्यतः स्वार्थी होता है। और जो समझ लेता है, वह अपने लिये दूसरों से कुछ भी नहीं चाहता। किन्तु कोई यदि संकट में पड़कर उससे कुछ भी माँगता है तो वह कभी 'न' नहीं कहता।
देवता लोग जब संकट में पड़कर ब्रह्मास्त्र का निर्माण करने के लिए महर्षि दधीचि की हड्डी माँगने गए, तब पहले दधीचि ने यह कहकर, कि देवताओं के संकट से उन्हें बेचैन होने की क्या जरूरत है; देवताओं के मुख से, 'यथार्थ धर्म अर्थात कर्तव्य क्या है' -यह सुनने की अभिलाषा से छल किये थे। उस समय देवता लोग से यह सब उपदेश बुलवाकर दधीचि चेहरे पर मुस्कान के साथ अपने प्राण त्याग कर उन्हें अपनी हड्डीयों का दान कर दिये थे। यह है जीवन को सार्थक कर लेने की पराकाष्ठा!
हमलोग स्वामीजी के जीवन में भी मानव कल्याण के लिये इस महान त्याग के आदर्श को देख सकते हैं। सच्ची शिक्षा मनुष्य को स्वार्थ त्याग करने के लिये उत्साहित करती है। परस्पर के लिये सहानुभति और दूसरों के कल्याण के लिये त्याग की भावना ही समाज को धारण किये रह सकती है। त्याग की इस भावना का आभाव हो जाने से, फिर चाहे उस देश में गणतंत्र हो, या समाजवाद और साम्यवाद या कोई भी 'वाद ' हो- किसी देश या समाज को स्वस्थ या समृद्ध नहीं बना सकता । जो राष्ट्र इस शिक्षा (त्याग और सेवा) को नहीं प्राप्त कर सका हो, तो उसकी अधोगति अनिवार्य है। स्वामीजी की शिक्षा पर विचार व्यक्तिगत, सामाजिक और मानव-कल्याण के सच्चे उपाय का मार्ग दर्शक है। ====================
[विरोचन # भगवान विष्णु के परम भक्त प्रह्लाद के पुत्र थे। धर्मात्मा विरोचन के दैत्याधिपति होने पर दैत्यों, दानवों तथा असुरों का बल बहुत बढ़ गया था। इन्द्र को कोई रास्ता ही नहीं दीखता था कि कैसे वे दैत्यों की बढ़ती हुई शक्ति को दबाकर रखें। देवगुरु बृहस्पति की सलाह से एक दिन वे वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण करके विरोचन के यहाँ गये। इन्द्र ने विरोचन के दान और उनकी उदारता की बहुत ही प्रशंसा की। विरोचन ने नम्रतापूर्वक वृद्ध ब्राह्मण से कहा कि आपको जो कुछ मांगना हो, उसे आप संकोच छोड़कर मांग लें। इन्द्र ने बात को अनेक प्रकार से पक्की कराकर तब कहा- "दैत्यराज! मुझे आपकी आयु चाहिये।" बात यह थी कि यदि विरोचन को किसी प्रकार मार भी दिया जाता तो शुक्राचार्य उन्हें अपनी संजीवनी विद्या से फिर जीवित कर सकते थे। विरोचन को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे कहने लगे- "मैं धन्य हूँ। मेरा जन्म लेना सफल हो गया। आज मेरा जीवन एक विप्र ने स्वीकार किया, इससे बड़ा सौभाग्य मेरे लिये और क्या हो सकता है।" अपने हाथ में खड्ग लेकर स्वयं उन्होंने अपना मस्तक काटकर वृद्ध ब्राह्मण बने हुए इन्द्र को दे दिया। इन्द्र उस मस्तक को लेकर भय के कारण शीघ्रता से स्वर्ग चले आये और यह अपूर्व दान करके विरोचन तो भगवान के नित्य धाम में ही पहुँच गये। भगवान ने उन्हें अपने निज जनों में ले लिया। (Read more at: https://hi.krishnakosh.org]
उसी प्रकार भागवत में महर्षि दधिची के त्याग की एक कहानी भी प्रसिद्द है।
" শিক্ষায় যা লাভ করলুম, জানলুম, জ্ঞান হল, সেগুলো যখন মজ্জাগত হয়, তখন তা সংস্কৃতিতে রূপান্তরিত হয়। " शिक्षा के द्वारा जिस अंतर्निहित ब्रह्मत्व का बोध 'मुझे' हुआ, 'मैं' जान गया, मुझे 'ज्ञान' हो गया वे सारी बातें जब आत्म-सात होकर रक्त-मज्जा से अन्तर्भूत (Intrinsic) हो जातीं हैं, तभी वह संस्कृति में रूपान्तरित हो पाती है। अर्थात "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" का बोध मुझे नहीं आत्मा को हुआ था- जब इसकी भी सम्यक धारणा आत्मा को (प्रवृति और निवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों को) हो जाती है तभी वेदान्त - "अनेकता में एकता " (Unity in diversity) या चार महावाक्य पर आधारित भारतीय संस्कृति में रूपांतरित हो जाती है। क्या आपको ब्रह्मत्व का बोध हुआ है ? नवनीदा बोले - मैं ऐसे 7 आदमियों को जानता हूँ, जिन्होंने ईश्वर को देखा है।]
>>>वर्ण शिक्षा
वर्णानां स्त्रीपुंनपुंसकसंज्ञा
ककारं च गकारं च चकारं च जकारकम्
टकारं च डकारं च तकारं च दकारकम् १
पकारं च बकारं च षकारं च क्षकारकम्
एते द्वादशवर्णा स्युः पुंल्लिगाश्चेति कीर्तिताः २
खकारं च घकारं च छकारं च झकारकम्
ठकारं च ढकारं च थकारं च धकारकम् ३
फकारं च भकारं च शकारं च सकारकम्
एते वै भानुबीजानि जायाश्चेति प्रकीर्तिताः ४
शेषं नपुंसकं ज्ञेयं त्रयो भेदा इति स्मृताः
शिवाग्निभूतरुद्राश्च त्रयोदश तिथिस्तथा ५
एते वै स्वरवर्णा स्युः पुंल्लिङ्गाश्चेति कीर्तिताः
पक्षो वेदरसा भानुर्मनुशैवाधिकारकाः ६
एतानि स्वरवर्णानि स्त्रीलिङ्गानीति कीर्त्यते
प्रकृतिः सप्तवर्णानि विकृतिस्तु नवार्णकम् ७
प्रकृतिर्ह्रस्वमित्युक्तं विकृतिर्दीर्घमुच्यते
प्रथमाश्च तृतीयाश्च षकारश्च क्षकारकम् ८
एते द्वादशवर्णा स्युः पुंल्लिङ्गाश्चेति कीर्तिताः
द्वितीयाश्च चतुर्थाश्च शसकारौ तथैव च ९
एते द्वादशवर्णा स्युस्त्रील्लिङ्गाश्चेति प्रकीर्तिताः
वर्णानां सत्वरजस्तमो गुणाः
अन्तस्थाश्चोत्तमाश्चैव ऋ लृ वर्णौ तथैव च १०
हकारश्च ळकारश्च क्लीबाश्चेति प्रकीर्तिताः
पक्षो गृहार्थसंख्या च त्रयोदशमनुस्तथा ११
एते वै सात्विकगुणाः श्वेतवर्णं तथैव च
शिवाब्धिसप्तावसुदिक्च रुद्राः तिथिश्चैव कलास्तथा १२
एते वै राजसगुणा रक्तवर्णं तथैव च
बाणो रसस्तृतीया च श्यामवर्णं तमो गुणः १३
हल्
द्वितीया च चतुर्थश्च तवर्गप्रथमोत्तमौ
पवर्गप्रथमश्चैव वेदाष्टादश एव च १४
एते वै सात्विकगुणा श्वेतवर्णं तथैव च
खकारं च घकारं च ठकारं च थकारकम् १५
तकारं च नकारं च पकारं च फकारकम्
वकारं च हकारश्च क्षकारं चेति सात्विकः १६
कवर्गप्रथमश्चैव टवर्गश्च तथैव च
तृतीयाश्च तपवर्गचतुर्थाश्च चटवर्गोत्तमौ तथा १७
ऊष्माणश्चैव रेफश्च लळकारौ रजोगुणाः
कवर्गप्रथमश्चैव टवर्गश्च तथैव च १८
तृतीयाश्च भकारश्च धकारं च ञकारकम्
णकारं चोष्मणश्चैव रेफश्चैव लळौ तथा १९
एते रजोगुणाः प्रोक्ता रक्तवर्णं तथैव च
चकारश्च द्वितीया च ङकारं च मकारकम् २०
ढकारं च दकारं च यकारं च झकारकम्
तामसः कृष्णवर्णं च उत्तमश्च मिश्रकम् २१
चकारश्च द्वितीया च आद्यन्तौ वर्गपञ्चमौ
चटवर्गचतुर्थौ च तवर्गश्च तृतीयकम् २२
यकारसामसगुणश्यामवर्णस्तथैव च २३
अकारं सर्वदैवत्यं रक्तवर्णं रजस्मृतम्
आकारस्यात्पराशक्ति श्वेतं सात्विकमुच्यते २४
इकारं विष्णुदैवत्यं श्यामं तामसमुच्यते
मायाशक्तिरितीकारं पीतं राजसमुच्यते २५
उकारं वास्तुदैवत्यं कृष्णं तामसमीरितम्
ऊकारं भूमिदैवत्यं श्यामळं तामसं भवेत् २६
ऋकारं ब्रह्मणो ज्ञेयं पीतं राजसमुच्यते
शिखण्डिरूपं ॠकारं राजसं पीतवर्णकम् २७
अश्विनौ तु लृ लॄ प्रोक्तौ
एकारं वीरभद्रं स्यात् रजः पीतं तु सिद्धिदम् २८
ऐकारं वाग्भवं विन्द्या
ओकारमीश्वरं विंद्याज्ज्योतिः सत्वं फलप्रदम् २९
औकारमादिशक्ति स्याच्छुक्लं सर्वत्र सिद्धिदम्
अंकारं तु महेशं स्याद्रक्तवर्णं तु राजसम् ३०
अः कारं कालरुद्रं च रक्तं राजसमुच्यते
प्राजापत्यं ककारं स्यात्पीतं वृष्टिप्रदं रजः ३१
खकारं जाह्नवीबीजं क्षीराभं पापनाशनम्
गणापत्यं गकारं स्याद्रक्ताभं विघ्ननाशनम् ३२
घकारं भैरवं ज्ञेयं मुक्ताभं शत्रुनाशनम्
ङकारं कालबीजं स्यात्कालं तार्क्ष्यं समुच्यते ३३
चकारं चण्डरुद्रं स्यात् अञ्जनाभं तु तामसम्
छकारं भद्रकाळी स्यात्तामसं परिकीर्तितम् ३४
जकारं जम्भहा ज्ञेयं रक्ताभं च जयावहम्
झकारमर्धनारीशं श्यामरक्तं तु मिश्रकम् ३५
ञकारं सर्पदैवत्यं पीतं राजसरूपकम्
भृङ्गीशं स्याट्टकारं तु रक्तं राजसमेव च ३६
ठकारं चन्द्रबीजं स्याच्छ्वेतं सात्विकमुच्यते
डकारं चैकनेत्रं स्यात्पीतं राजसमुच्यते ३७
ढकारं यमबीजं स्यान्नीलं मृत्युविनाशनम्
णकारं नन्दिबीजं स्याद्रक्ताभं चार्थसिद्धिदम् ३८
तकारं वास्तुदैवत्यं श्वेतं
थकारं ब्रह्मणो ज्ञेयं
दुर्गाबीजं दकारं स्याच्छ्यामं सर्वार्थसिद्धिदम् ३९
धकारं धनदं प्रोक्तं पीताभं चार्थसिद्धिदम्
नकारं चैव सावित्री स्फाटिकं पापनाशनम् ४०
पकारं चैव पर्जन्यं शुक्लाभं वृष्टिसिद्धिदम्
फकारं पाशुपत्यं च सत्वः पापविनाशनम् ४१
बकारं तु त्रिमूर्ति स्यात्पीतं सर्वार्थसिद्धिदम्
भकारं भार्गवं विन्द्याद्रक्तं भाग्यप्रदं भवेत् ४२
मकारं मदनं विन्द्याच्छ्यामं कामफलप्रदम्
यकारं वायुदैवत्यं कृष्णमुच्चाटनं भवेत् ४३
रकारं वह्निदैवत्यं रक्ताभं राजसं भवेत्
लकारं पृथिवीबीजं पीतं स्यात् लम्भनं भवेत् ४४
वकारं वारुणं बीजं शुक्लाभं योगनाशनम्
लक्ष्मीबीजं शकारं स्यात् हेमाभं राजसं भवेत् ४५
षकारं द्वादशात्मं स्यात् रक्ताभं तु जयप्रदम्
सकारं शक्तिबीजं स्याद्रक्तं स्थितिकरं भवेत् ४६
हकारं शिवबीजं स्याच्छुद्धस्फटिकसन्निभम्
अणिमाद्यष्टसिद्धं च भुक्तिं मुक्तिं प्रयच्छति ४७
ळकारं चात्मबीजं स्यात् रक्ताभं सर्वसिद्धिदम् ४८
इति वर्णशिक्षा समाप्ता-
[छात्रों को स्वर-व्यंजन का ठीक से उच्चारण करना सिखाओ, जैसे एक स्वर वाली ध्वनि को वर्ण कहते हैं, चाहे वह स्वर ह्रस्व हो या दीर्घ। वर्ण को ही अक्षर कहते हैं इत्यादि बातें कही गयी हैं। वर्णः स्वरः मात्रा बलम् " -या शुद्ध मंत्रोच्चार करना सिखाओ।
"यदि गरीब लड़का शिक्षा के मन्दिर (विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर) तक न आ सका, तो शिक्षा को उसके पास जाना चाहिए।" केवल धन से गरीब ही नहीं, जो विचारों से भी गरीब लोग हैं' -शिक्षक को उनके पास भी जाना पड़ेगा। ... मैं कहता हूँ -मुक्त करो ; जहाँ तक हो सके लोगों के बन्धन खोल दो।... जब तुम अपने सुख की कामना को समाज के कल्याण के लिए त्याग सकोगे तब तुम भगवान बुद्ध बन जाओगे, तब तुम मुक्त हो जाओगे !" ये 'शीक्षा हिंट' यदि BsDs,रानेदा -प्रदा-जीतेदा, Amit-Anupdtt, रेवसमी, AA-Sdip, pintu- brhmde, shsh, Rcm, rjm, app, arunb, यदि समझ सकें तो वे स्वयं देहाध्यास (भेंड़त्व) के आत्मसम्मोहन से मुक्त हो कर दूसरों को मुक्त होने सहायता कर सकते हैं , इस प्रकार वे भी Be and Make आंदोलन के नेता बन सकते हैं।]