मेरे बारे में

रविवार, 13 जनवरी 2013

🔱🔆🙏" शिक्षा के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के विचार " [SVHS-4.1 ( खण्ड - 4 : शिक्षा : समस्त समस्याओं की रामबाण औषधि ! ] [ॐ श्री गुरुवे नमः 'विद्या गुरुमुखी'- शीक्षावल्ली में बड़ी 'ई ' क्यों ?]

 🔱🔆🙏स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना🔆🙏🔱

खण्ड- 4 

शिक्षा : समस्त समस्याओं की रामबाण औषधि ! 

भूमिका  


" जहाँ प्रेम है , वहीं विस्तार है और जहाँ स्वार्थ है , वहीं संकोच। सब प्रकार का विस्तार ही जीवन है और सब प्रकार की संकीर्णता मृत्यु है। अतः प्रेम ही जीवन का एकमात्र विधान/सिद्धांत है। जो प्रेम करता है , वही जीवित है ; जो स्वार्थी है, वह मृतक है। अतः प्रेम प्रेम के निमित्त , क्योंकि यह जीवन का वैसा ही एकमात्र विधान है, जैसा जीने के लिए श्वास लेना। निष्काम प्रेम, निष्काम कर्म इत्यादि का यही रहस्य है। " (--४/३१०)    

[ये पत्र मूल बंगला में 1895 में राखाल महाराज को लिखित है- उससे किसी ने ऐसा अनुवाद किया ? कोई बंगाली इसको मिलाकर देखे तो और अच्छा अनुवाद हो सकता था ! ("प्रेम विस्तार है, स्वार्थ संकुचन है। विस्तार जीवन है, संकुचन मृत्यु है। इसलिए प्रेम जीवन का सिद्धांत है। वह जो प्रेम करता है जीता है, वह जो स्वार्थी है मर रहा है। इसलिए प्रेम के लिए प्रेम करो, क्योंकि जीने का यही एक मात्र सिद्धांत है, वैसे ही जैसे कि तुम जीने के लिए सांस लेते हो!")   ] 

श्री रामकृष्ण कहा करते थे, " जब तक मैं जीवित हूँ, तब तक मैं सीखता हूँ। ” वह व्यक्ति या वह समाज जिसके पास सीखने को कुछ नहीं है वह पहले से ही मौत के जबड़े में है। 

जब लोग तुम्हे गाली दें तो तुम उन्हें आशीर्वाद दो।  सोचो, तुम्हारे झूठे दंभ (मिथ्या अहंकार) को बाहर निकालकर वो तुम्हारी कितनी मदद कर रहे हैं। 

हम जो बोते हैं वो काटते हैं।  हम स्वयं अपने भाग्य के विधाता हैं।  हवा बह रही है, वो जहाज जिनके पाल खुले हैं, इससे टकराते हैं, और अपनी दिशा में आगे बढ़ते हैं, पर जिनके पाल बंधे हैं हवा को नहीं पकड़ पाते।  क्या यह हवा की गलती है ?…..हम खुद अपना भाग्य बनाते हैं |

-स्वामी विवेकानन्द  
===============

SVHS -4.1
 
शिक्षा के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के विचार 

स्वामीजी की शिक्षा-नीति 

[ॐ श्री गुरुवे नमः 'विद्या गुरुमुखी'- शीक्षावल्ली में बड़ी 'ई ' क्यों  ?]

    शिक्षा का आभाव ही हमलोगों के समस्त दुःखों का कारण है। यह दुःख केवल लौकिक विपन्नता ही नहीं है। हमें उपार्जन करने का पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाता है। जितनी आमदनी होती है, उतने में परिवार का ठीक से भरण पोषण नहीं हो पाता है। यदि जीवन धारण करने योग्य भोजन मिल भी जाता है, तो रहने के लिये घर नहीं होता है । गंभीर बीमार होने पर आवश्यक उपचार कराने का कोई प्रावधान नहीं होता है । सामान्य की सुविधा तो दूर की बात है, उसका बहुत छोटा सा भाग भी नहीं मिल पाता है । अधिकांश नागरिक उस शिक्षा से वंचित है। लेकिन,
स्वामीजी ने कहा था, ' सच्ची शिक्षा के द्वारा ये सभी दुःख दूर किये जा सकते हैं।'
          स्वामी विवेकानन्द के मन की पीड़ा तो और भी गहरी थी। श्रीरामकृष्ण के मन में जो पीड़ा थी, श्री  सारदा देवी के मन में जो व्यथा थी, वही व्यथा स्वामीजी के हृदय में संचारित हुई थी। युवावस्था में ही उनके पिता का देहान्त हो गया था, उसके बाद परिवार की स्थिति इतनी दयनीय हो गयी थी कि माँ-बहन-भाइयों को ठीक से भोजन भी नहीं मिल पाता था। नौकरी के लिये प्रयास करते हैं तो  कहीं नौकरी नहीं मिलती। इन सब दुःखों को भोगने के बाद आगे के जीवन में जो दुःख मिला वह भी कम नहीं था। 
      श्रीरामकृष्णदेव के देहान्त हो जाने के बाद का दुःख और परिव्राजक जीवन शुरू होने के पहले जो दुःख-कष्ट भोगना पड़ा वह भी कम मर्मान्तक नहीं था। बड़ानगर/बराहनगर ?  में दूसरों के दिये पैसे से भाड़े पर ' भूतों वाला मकान ' लेकर रहना पड़ा, जहाँ हर रोज साग-भात खाने को भी नहीं मिल पाता था। किसी दिन नमक-भात मिल गया, किसी दिन भात के साथ साग भी नहीं मिला, किसी दिन नमक भी नहीं मिला, किसी दिन भात भी नहीं मिल पाता था। लंगोटी के उपर लपटने वाला धोती सबों के लिये एक ही होता था, प्रत्येक गुरुभाई के लिये अलग- अलग धोती की व्यवस्था नहीं थी । ऐसा भी हुआ था कि सर्वत्यागी ठाकुर की जो सन्तान किसी काम से बाहर जायेंगे, उस धोती को सिर्फ वे ही बांध कर निकलेंगे। स्वामीजी के पास कोई मिलने आता, तो कोई गुरु भाई स्वामीजी के शरीर पर चादर डाल देते हैं। जब भोजन का घोर आभाव हो जाता, तब स्वामीजी कहते- " आज भोजन पकाने-खाने का कोई झंझट नहीं है, कुछ मिला नहीं है, आज पूरा अवकाश है।  इसीलिये आज बहुत साधन-भजन होगा, खूब जप-ध्यान होगा, खूब शास्त्र-पाठ होगा, खूब भजन होगा। " क्या हमलोग ऐसे कष्ट की कल्पना भी कर सकते हैं ?
          माँ सारदा देवी के जीवन में कितना कष्ट था ! फ़टी हुई साड़ी में गिट्टठा बांध कर पहनी हैं। क्योंकि जाते समय श्रीरामकृष्ण ने सारदा देवी को कह रखा था, " तुम, कामारपुकुर में रहना, शाक बो देना, साग-भात खाना और हरिनाम करना।" -- " देखो, किसी के सामने एक पैसे के लिये भी हाथ मत फैलाना, अर्थात किसी से कुछ मांगना नहीं। " साग बुन देना और खा लेना।" इतने सारे कष्टों को उनलोगों ने किसके लिये भोगा था ?..हम मनुष्यों के लिये ! मनुष्य यहाँ कितना दुःख भोग रहा है (गन्दी नाली के कीड़े जैसा किलबिल कर रहा है। ), उस दुःख को कौन दूर करेगा? इसीलिये सारदा देवी कहती थी, " क्या रामकृष्णदेव यहाँ रसगुल्ला खाने के लिये आये थे ? हमलोग तो सभी मनुष्यों के पाप, ताप, दुःख-कष्ट को उठाने के लिये आये हैं; श्री रामकृष्ण  भी इसी लिये आये हैं, मैं भी इसीलिये आई हूँ।"
      स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु श्रीरामकृष्ण के पास जाकर अपने व्यक्तिगत जीवन का, मानव जीवन का चरम लक्ष्य और उसे प्राप्त करने का उपाय सीख लिया था। फिर कठोर साधना करके उस परम-वस्तु या 'ब्रह्म ज्ञान' को भी प्राप्त कर लिया था। उस अनिवर्चनीय आनन्द के  हिलोरे  में एक बार डूबकी लगा लेने के बाद, उनके मन से विश्व-कल्याण की चिन्ता स्वाभाविक रूप से ओझल हो गयी थी। वे श्रीरामकृष्ण देव के पास जा कर बोले,` ठाकुर कुछ ऐसा कर दीजिए कि मैं निरंतर उसी समाधि के आनन्द में डूबा रह सकूँ।'  किन्तु इस बात को सुनकर, अपने सबसे प्रिय शिष्य की भर्त्सना करते हुए श्रीरामकृष्णदेव कहते हैं, " अरे तूँ  .... यह बात कहता है ? छि: ! छिः ! ऐसी बात तूँ ने सोच भी कैसे लिया ? जबकि जगत में इतना दुःख है, इतना कष्ट है ! तुम स्वयं ब्रह्माननद में डूबे रहोगे ? उनको देखेगा नहीं ?
       तुम उनको देखना, उनको मुक्त करना, उनकी सहायता करना, उनके बंधनों को खोल देने का प्रयत्न करना। विवेकानन्द ने कहा, " महाशय, यह सब मुझसे नहीं होगा। " रामकृष्ण बोले -" मुझसे नहीं होगा माने ? तेरी हड्डी करेगी।" और उसी समय विवेकानन्द ने अपने गुरु से सम्पूर्ण मानव-जाति के प्रति उस संवेदना को, उस दुःख को उत्तराधिकार के रूप में ग्रहण कर लिया था। ऐसा कोई दूसरा उदाहरण मानवता के इतिहास में ढूँढने से भी नहीं मिलता है!
     उस घटना के बाद, सभी मनुष्यों का दुःख , केवल लौकिक दुःख ही नहीं  - जनसाधारण की गरीबी, पारिवारिक वैमनस्य, या केवल भूख, अभाव, अशिक्षा आदि सामान्य दुःखों ने ही नहीं ,  बल्कि वह दुःख जिसकी कोई सीमा नहीं है, जो दुःख मनुष्य के भवबन्धन में बंधे रहने के कारण है, और मनुष्य जिस मुक्ति की आकांक्षा से आर्त  क्रंदन कर रहे हैं-  उनकी उसी पीड़ा ने स्वामी जी के हृदय में अपना घर बना लिया था। इसीलिए 'शिक्षा पर स्वामीजी के विचार' का तात्पर्य उस विद्या से है जो मनुष्य को (चपरास प्राप्त नेता-लोकशिक्षक को) उस भव- बंधन को काट देने  का अधिकार  प्रदान करता है। स्कूल के पाठ्यक्रम (curriculum) में कौन कौन विषय होंगे, उन्हें किस प्रकार (10+2 या 10+3 करके ) पढ़ाना होगा ?---इस तरह की कोई शिक्षा नीति देने के लिए विवेकानन्द नहीं आये थे। विवेकानन्द से हमें वैसी शिक्षा लेने की जरूरत नहीं है।   
           शिक्षा के विषय पर इस प्रकार के विचार देने के लिए बहुत से लोग हैं। यद्यपि, वैसी शिक्षा भी विवेकानन्द ने दिए हैं, बिल्कुल न दी हो वैसा नहीं है। किन्तु ' विवेकानन्द की शिक्षा-नीति ' का तात्पर्य उस शिक्षा से है, उस विद्या से है - जिस विद्या को प्राप्त करके मनुष्य सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो जाता है! " सा विद्या या विमुक्तये !" - वही विद्या सच्ची विद्या है जिससे मुक्ति प्राप्त हो जाती है। उस प्रकार की मुक्ति-प्रदान करने वाली विद्या या शिक्षा-व्यवस्था हमलोगों के देश में बहुत प्राचीन युग से ही चलती आ रही है। तैत्तरीय उपनिषद में उस शिक्षा के विषय में कहा गया है। उसके एक अध्याय का नाम ही " शीक्षा-वल्ली " है।  वेद के छह अंगों में एक का नाम- 'शिक्षा ' है। यह शिक्षा उच्चारण शिक्षा या 'वर्ण शिक्षा ' के नाम से प्रचलित है। 
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि तैत्तरीय उपनिषद के शीक्षावल्ली में ' श ' के साथ ई--कार अर्थात दीर्घ 'ई' की मात्रा लगी हुई है। प्रश्न उठता है कि क्या वेद में 'ई' की मात्रा क्या वैसे ही लगा दी गयी है ? 
     अतएव ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ 'शिक्षा' के किसी गूढ़तर अर्थ को इंगित किया जा रहा है। और " विवेकानन्द का शिक्षा पर विचार " उसी 'शिक्षातत्व' को लेकर है। वेद, उपनिषद में लगता है, 'श ' में 'ई'-कार लगा कर उसी महान शीक्षा की बात कही गयी है। हालाँकि वहाँ पर उपरी तौर से देखने पर यह प्रतीत होता है कि यहाँ भी स्वर या वर्ण के उच्चारण-शिक्षा ही शिक्षा दी जा रही है, किन्तु वास्तव में यहाँ संकेत किसी अन्य शिक्षा की तरफ किया गया है।
       क्योंकि संस्कृत में "शी" को एक अलग शब्द माना गया है, और इसका एक विशेष अर्थ भी है। "शी" का अर्थ होता है- 'प्रशान्ति (tranquility)' और ईक्षा का अर्थ होता है देखना, प्राप्त करना, और जान लेना। इस प्रकार शी + ईक्षा = शीक्षा का अर्थ हुआ -उस आनन्दमय तत्व (परम प्रशान्ति) को देख लेना- `To Behold That Tranquility' (आत्म-साक्षात्कार )। उस अनन्त शान्ति के आनन्द को देखने, प्राप्त करने या जानने में समर्थ बना देने वाली विद्या को ही "शीक्षा " कहते हैं। और स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा पर विचार उसी अवस्था तक ले जाते है। 
           उन्होंने शुरू में कहा है, कि पहले मनुष्यों को वर्ण परिचय सिखाओ, पढना-लिखना सिखाओ।  शिक्षा यदि छात्रों के पास न आ सके, शिक्षकों के पास, विद्या के पास नहीं आ सके- तो शिक्षक को ही छात्रों के पास, तुम्हारे देश के गरीब इत्यादि लोगों के पास जाना पड़ेगा।आज हमलोग Adult Education Programme आदि कितना कुछ कर रहे हैं। किसी समय स्वामीजी ने कहा था, " वे लोग तो हमारे स्कूलों तक पहुँच नहीं सकेंगे। नये नये स्कूल खोलते जाने से क्या होगा?  तुमलोगों को ही उनके खेत-खलिहानों में कल-कारखानों में, घर-घर में , द्वार-द्वार तक , गाँव-गाँव में जाना होगा। दिन के समय उनको पढने का समय नहीं मिलेगा। क्योंकि उनके लड़के-लडकियों को घर-गृहस्थी के हजार काम करने पड़ेंगे, गौओं को चराने जायेंगे, खेती के कई कार्य करने होंगे। ऐसी परिस्थिति में क्या उन्हें अपने बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल भेजने का उपाय है ? संध्या के समय सब को एक स्थान पर एकत्र करो- उनको शुरू से ही गढ़ने की चेष्टा करो। अक्षर की पहचान कराने से भी शुरू करोगे तो उनमें से कई लोग नहीं बता सकेंगे। इसीलिये उनको कहानियाँ सुनाओ, इतिहास, भूगोल, विज्ञान, आदि विषयों का ज्ञान दो। इसके साथ ही साथ उन लोगों के भीतर धर्मभाव भी प्रविष्ट करा दो। अद्भुत शिक्षा -" फिर इसी प्रकार की शिक्षा देते देते सबों को उसी परम-शिक्षा ('शी'क्षा) की ओर अग्रसर करा दो।" शिक्षा पर स्वामी  विवेकानन्द के विचार (स्वामी जी की शिक्षा-नीति) में/से सम्पूर्ण जगत को परिवर्तित कर देने का बीज, सन्निहित है। वे कहते हैं, कि शिक्षा एक ऐसा मन्त्र है, जिसके बल से ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका समाधान नहीं हो सकता। वैसी शिक्षा क्या पुस्तकों से प्राप्त हो सकती है ? यह शिक्षा पुस्तकीय ज्ञान तो निश्चय ही नहीं है, डिग्री पाने वाली शिक्षा से भी इसका कोई सम्बन्ध नहीं है।  इसलिये ऐसी शिक्षा स्कूल-कॉलेज (बड़ौदा यूनिवर्सिटी?) खोल कर नहीं दी जा सकती
     विवेकानन्द कहते हैं, क्या कुछ तथ्यों को रट कर सिर में घुसा लेना ही शिक्षा है? नहीं,    यदि वैसी बात होती तब तो लाईब्रेरी ही महान विद्वान् हो जाते। शब्दकोश ही ऋषि बन जाते। क्योंकि उसमें तो ज्ञान की सारी बातें लिखी हुई हैं ही । किन्तु, यदि किसी व्यक्ति के दिमाग में जानने योग्य सभी बातें ठूँस दी जाएँ, तो क्या उससे ही वह शिक्षित हो गया? कदापि नहीं। स्वामी जी उपहास की भाषा में व्यंग करते हुए कहते हैं, " शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह ठूँस दी जायें, जो आपस में लड़ने लगे और तुम्हारा दिमाग उन्हें जीवन भर हजम न कर सके। जिस शिक्षा से हम हम अपना जीवन-गठन कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र-निर्माण कर सकें और उच्च विचारों  को ठीक वैसे ही चरित्रगत कर सकें, जैसे खाना पच कर रक्त मज्जा से एकीकृत हो जाता है। कुछ पवित्र, सुंदर और महान भावों को भी यदि हम उसी प्रकार आत्मसात  कर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है।"
         >>>उच्च विचारों  को चरित्रगत कर लेने का अर्थ क्या हुआ ? वे पवित्र भाव मेरे चरित्र में, मेरे आचरण में , मेरे व्यवहार में , मेरी वाणी में , मेरे विचारो में ,मेरे कार्यों के द्वारा अभिव्यक्त होने लगेंगे। 
श्री रामकृष्णदेव ने तो अपने जीवन से ही यह दिखला दिया था कि इस प्रकार की शिक्षा कैसे प्राप्त की जाती है। श्री रामकृष्णदेव, श्री सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा की कौन-सी प्रणाली सिखलाई है ?  उनकी शिक्षा-नीति इस प्रकार तथा कथित B.A., M.A., Ph.D. की डिग्री प्राप्त करके नाम के आगे 'डाक्टर' लगाने वाली शिक्षा-पद्धति नहीं थी। हमलोगों को जैसी शिक्षा मिल रही है, उसका फल तो हम देख ही रहे हैं। अतिशिक्षित होने के बाद भी उन व्यक्तियों का जैसा आचरण हमलोग देख रहे हैं, उनके बारे में  इसी दुःख को व्यक्त करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने एक अनोखी बात कही थी"So long as millions die in hunger and ignorance, I hold every man a traitor who having been educated at their expense pays not the least heed to them." - अर्थात " जब तक करोड़ों मनुष्य भूखे और अशिक्षित रहेंगे, तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को विश्वासघातक समझूंगा, जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है, किन्तु अब उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता।" 
      इस देश के जनसाधारण के पैसों से शिक्षित होकर कुछ लोग डॉक्टर-इंजीनियर बन रहे हैं। कुछ  वर्ष पहले मैंने आकलन करके देखा था कि सरकार को इसके लिए प्रति व्यक्ति 1.50 लाख रुपये खर्च करने पड़ते हैं । सरकारी खजाने से खर्च करने का अर्थ होता है , जनसाधारण की कमाई से खर्च।  भारत की सामान्य जनता दिन-रात खून- पसीना बहाकर जो श्रम करती है, उसी से भारत वर्ष का राष्ट्रीय आय का कोष बनता है। उसी राष्ट्रीय आय को सरकार शिक्षा के उपर खर्च करके किसी व्यक्ति को डाक्टर या इंजिनियर बनने का अवसर देती है। आज के समय में उस खर्च का आकलन किया जाय तो शायद 1.50 लाख से कई गुना अधिक खर्च करना पड़ेगा। किन्तु, डाक्टर, इंजीनियर बन जाने के बाद वे पैसा कैसे कमाते हैं ? देखते ही देखते कुछ ही वर्षों के भीतर बड़े बड़े आलीशान बंगले बन जाते हैं। एक-दो महंगी गाड़ियाँ भी कहीं न कहीं से उपहार में आ ही जाती हैं। यही हाल अन्य पेशों से जुड़े दूसरे लोगों का भी है। स्वामीजी कहते थे, " I hold every man a traitor who having been educated at their expense..." जो मनुष्य जनसधारण के मिहनत की कमाई पर शिक्षा प्राप्त करके उनके हित की कोई चिंता नहीं करता, उनकी सेवा नहीं करता, जिनके लिये उसके हृदय में थोड़ी भी पीड़ा नहीं होती उनको मैं देशद्रोही कहता हूँ। " हमलोगों के देश में ऐसी ही शिक्षा तो दी जा रही है। किन्तु, विवेकानन्द की शिक्षा ऐसी नहीं है। 
       विवेकानन्द कहते हैं, शिक्षा मनुष्य को सही ढंग से विवेक-प्रयोग करने और उसकी इच्छाशक्ति की तीव्रता और प्रवाह को संयम में रखने की क्षमता प्रदान करेगी। विचार, इच्छाशक्ति या संकल्पशक्ति को कार्यकारी करने की शक्ति जहाँ से मनुष्य को प्राप्त होगी , उसे ही शिक्षा कहेंगे।  ऐसी शिक्षा हमें कहाँ प्राप्त होती है ? हमें ऐसी शिक्षा नहीं दी जा रही है। विवेकानन्द  कहते हैं, ' शिक्षा मनुष्य को स्वावलंबी बना देगी, उसे अपने पैरों पर खड़े होना सिखाएगी । शिक्षा मनुष्य को सुंदर चरित्र से विभूषित करेगी। जो शिक्षा मनुष्य को चरित्रवान नहीं बना सके, क्या उसे शिक्षा कहेंगे ? शिक्षा मनुष्य को परमार्थ सिखलायेगी दूसरों के कल्याण के लिये सोचना सिखाएगी। जिस शिक्षा से यह सब नहीं मिले, क्या उसे शिक्षा कहेंगे ? हमलोगों के देश में क्या हो रहा है ? जो जितना अधिक शिक्षित  है, वह उतना ही अधिक स्वार्थी है। तथाकथित शिक्षा के द्वारा आमतौर से तो यही हो रहा है । निश्चित रूप से इसमें कुछ अपवाद भी अवश्य हैं। लेकिन साधारण तौर पर उन्हीं को बहुत शिक्षित माना जाता है, जो बड़े चालाक हैं; जो यह जानते हैं कि दूसरों को धोखा देकर, दूसरों का हक मार कर,  किस प्रकार अपना भोग सुख सम्पत्ति बढ़ाया जाता है 
      शिक्षा तो चल ही रही है, लेकिन स्वामी विवेकानन्द ने वैसी कोई पद्धति नहीं दी थी। विवेकानन्द के अनुसार यथार्थ शिक्षा तो मनुष्य को स्वार्थशून्य (100 % selfless) बना देगी, पूर्णतया निर्भीक बना देगी, सबों का हितैषी और सेवापरायण बनाएगी। शिक्षा उसकी बुद्धि को तीक्ष्ण बना देगी। वैसी तीव्र/ बुद्धि जिसमें परम सत्य को जान लेने की क्षमता होगी। सच्ची शिक्षा बुद्धि को धीरे -धीरे इतनी कुशाग्र बना देगी कि वह जिस कार्य में अपनी बुद्धि लगा देगा, या जिस  कार्य को करेगा उसे अत्यन्त सुन्दर ढंग से सम्पादित कर सकेगा। इसको कहते हैं शिक्षा। हमलोग ऐसी शिक्षा कहाँ पा रहे हैं ? स्वामी विवेकानन्द उसी शिक्षा को भारत भर में प्रचलित करा देना चाहते थे।
[>>>वेदान्त डिण्डिम वाली शिक्षा और संस्कृति]  
     वे यह भी कहते थे कि " देखो भाई, केवल शिक्षा देने से ही नहीं होगा; शिक्षा के साथ ही साथ संस्कृति भी देनी होगी।" क्योंकि संस्कृति नहीं देने से मनुष्य बाहरी आक्रमण से समाज की रक्षा नहीं कर सकता। जब बाहरी भाव आकर मनुष्य की बुद्धि पर छा जाते हैं, वे मनुष्य को अभिभूत करने की चेष्टा करते हैं।  धर्मान्तरित करने की चेष्टा करते हैं, उस समय उस समाज की जो प्राचीन सांस्कृतिक विचार धारा प्रवाहित होती आ रही है वह संस्कृति ही उसकी रक्षा करने में सहायता कर सकती है। हमें अपनी राष्ट्रिय संस्कृति को एक बार फिर से जाग्रत करना होगा, उससे प्रेरणा ग्रहण करनी होगी। क्योंकि हमलोग अपनी देव-संस्कृति को लगभग भूल ही चुके हैं। यह संस्कृति केवल सच्ची शिक्षा के द्वारा ही प्राप्त हो सकती है। .... हमें  एक बार फिर से हमारी उसी वेदों के 'महावाक्यों ' में आधारित भारतीय वैदिक संस्कृति  उद्बुद्ध करना होगा, जाग्रत करना होगा। क्योंकि हमलोगों ने अपनी प्राचीन संस्कृति को (गुरु-परम्परा में वेदान्त डिण्डिम वाली शिक्षा और संस्कृति को) लगभग भुला ही दिया है। यह संस्कृति यथार्थ शिक्षा के भीतर से अभिव्यक्त होती है।.... शिक्षा के द्वारा जिस अन्तर्निहित ब्रह्मत्व का बोध 'मुझे ' हुआ, "मैं ब्रह्म को जान गया", 'मुझे ब्रह्मज्ञान'  हो गया ये सारी (तात्विक) बातें जब आत्सात होकर रक्त-मज्जा से अन्तर्भूत हो जाती हैं, तभी वे संस्कृति में रूपांतरित हो पाती हैं।            
        मनुष्य अपने को सुसंस्कृत बनाने के लिये स्वयं को परिशोधित करता  रहता है, मन को पवित्र बनाता रहता है। जिस प्रकार देव-मूर्ति गढ़ने के लिये पहले एक साँचा, साँचा में डालकर आकार लाना पड़ता है। उसके बाद धीरे धीरे पूर्ण रूप देने के लिये सूक्ष्म कार्यों के द्वारा उसको सुरुचिपूर्ण ढंग से सुषमामण्डित कर लिया जाता है। उसी तरह शिक्षा भी मनुष्य के जीवन को पहले एक साँचे में डाल कर उसको एक सुन्दर आकार में ढाल देती है। तत्पश्चात सूक्ष्म कला-कौशल के द्वारा उसको एक वास्तविक सुसंस्कृत मनुष्य (real cultured man) में रूपान्तरित कर देती है। जब कोई व्यक्ति इस प्रकार नैसर्गिक रूप से एक सुसंस्कृत मनुष्य में परिणत हो जाता/जाती है, तब उसके जीवन का सौन्दर्य और सुगन्ध चारो ओर अन्य मनुष्यों को भी प्रभावित करने लगते हैं। और उन्नत मनुष्य बनने के लिये उनको भी  अनुप्रेरित करने लगता है।
        आजकल हमलोग अपने खराब परिवेश की दुहाई  निरंतर देते रहते हैं, हम कहते हैं आज हमलोगों का परिवेश अत्यन्त खराब हो गया है, ऐसे बुरे परिवेश में शिष्ट मनुष्य बनना, या भद्र मनुष्य बनना एकदम सम्भव नहीं है। किन्तु हम यह भूल जाते हैं कि इस परिवेश की रचना भी तो हमलोगों ही कर रहे हैं ! हमारा जीवन, हमारी शिक्षा, हमारी संस्कृति हमारे चारो ओर एक विशेष प्रकार के आभामण्डल (aura) का निर्माण कर देती है। यदि हमलोग अच्छे बनेंगे, तभी हमारा परिवेश भी अच्छा बन सकता है। हमारा भौतिकवादी सोच ही हम लोगों को ऐतिहासिक खेल-तमाशा में परिणत कर देती है।  किन्तु सच तो यह है कि मनुष्य ही इतिहास की रचना करता है। (दुनिया का इतिहास ऐसे छः व्यक्तियों का इतिहास है -जिनमें आत्मविश्वास कूटकूट कर भरा था। आत्मविश्वासी -मनुष्य के अलावा अन्य कोई)  इतिहास नामक कोई  दैत्य, या दानव कहीं नहीं है। 'इतिहास' जैसे किसी काल्पनिक भूत या अन्य वस्तु का अस्तित्व नहीं है, जो हमलोगों को
 ठोक-पीट कर अपने मनचाहे रूप में ढाल सकता हो। बल्कि विवेकानन्द कहते हैं, "मनुष्य ही स्वयं अपने भाग्य का और सामूहिक रूप से इतिहास का निर्माता है। " और यही बिल्कुल तर्क संगत बात है। इस धारणा को वैज्ञानिक बता कर कि 'इतिहास हम मनुष्यों का निर्माण करता है ', चाहे कोई कितना ही प्रमाणित करने की चेष्टा करे, यह बिलकुल ही तर्कहीन बात है और जो बात अतर्कपूर्ण है वह अवैज्ञानिक तो है ही । 
       वास्तव में हमलोगों को इस बात की धारणा नहीं है कि-  'हमारा जीवन भी सिर्फ एक शक्ति का (प्राण और आकाश का ?) खेल मात्र है; लेकिन शक्ति के इस खेल में हमेशा एक तालछन्द है, अनुशासन है, नियम है। इस जीवन का भी एक विज्ञान है। उस विज्ञान को जान लेने के बाद अपने जीवन को रूपान्तरित किया जा सकता है। अपनी पसन्द के अनुसार अपने भाग्य का निर्माण किया जा सकता है, अपने संकल्प या कल्पना के अनुसार इतिहास का निर्माण किया जा सकता है। लेकिन हमलोग इस विज्ञान को सीखने के विषय में उदासीन हैं, इसीलिये जीवन में दुःख आने पर टूट जाते हैं और अपनी असफलता के लिये दूसरों को उत्तरदायी ठहराने लगते हैं। जिसको  उत्तरदायी ठहराते हैं, उसके उपर हम आक्रोश से फट पड़ते हैं । उनसे घृणा करने लगते हैं, उनसे दुश्मनी ठान लेते हैं, प्रतिशोध की आग में जलते रहते हैं। यह सब कुछ यथार्थ शिक्षा के अभाव  से ही होता है। [ वेदान्त डिण्डिम - 'अनेकता में एकता ' अर्थात ब्रह्म ही जगत बन गए हैं ' को नहीं जाने से सर्वेभवन्तु सुखिनः और वसुधैव कुटुंबकम की प्राथना को गुरुगृहवास प्रशिक्षण द्वारा दिनचर्या का अंग नहीं बनाने से ही वैसा होता है !) 
        यथार्थ शिक्षा व्यक्ति को इस जगत के सम्बन्ध में एक सही दृष्टिकोण  प्रदान करेगा । मनुष्य जीवन कितना दुर्लभ और बहुमूल्य है, उसकी समझ आ जाएगी। मनुष्य जीवन के उद्देश्य के विषय में जागृत कर देगी। जीवन कैसे सार्थक हो सकता है, यह समझ प्राप्त होगी। मनुष्य यदि इन बातों को समझ ले, तो वह निश्चय ही अपने जीवन को इस प्रकार से विकसित करेगा, या जीवन का गठन करेगा, कि उसका वह अनुपम असाधारण जीवन दूसरों को भी प्रभावित कर सकेगा। यदि हम अपने जीवन को सही ढंग से नहीं गढ़ सके या जीवन के आदर्श के सम्बन्ध में धारणा नहीं बना सकें, तो हम अपनी भावी पीढ़ी की भी  कोई सहायता भी नहीं कर सकते। इसी प्रकार क्रमशः समाज का पतन शुरू हो जायेगा । वर्तमान में समाज की जो अवस्था  दिखाई दे रही है, उस ओर नजर उठाकर देखने से इस विषय के उपर और अधिक कहने की जरुरत नहीं रहेगी। 
        इतिहास या परिवेश के उपर दोषारोपण करने में ही व्यस्त नहीं रहकर हमें इस बात को समझ लेना चाहिये कि इस सामाजिक अधोगति का कारण ' जीवन-विज्ञान के ज्ञान का अभाव' (Lack of knowledge of life sciences) ही है।' इस बात को जितनी जल्दी हम  समझ लेंगे उससे अपना और देश का भला होगा। यथार्थ शिक्षा इसी ' जीवन-विज्ञान की शिक्षा' को कहते हैं। स्वामीजी मनुष्यों को वही 'जीवन- विज्ञान' सिखाना चाहते थे। इसीलिये ' शिक्षा पर स्वामीजी के विचार' के अनुसार पाठ्य-विषय क्या हो, शिक्षा पद्धति कैसी हो ? प्लस टू हो या प्लस थ्री हो ? या इसी तरह के तुच्छ विचारों को लेकर जुगाली करते रहना ठीक नहीं है।   
  
       स्वामीजी ने कहा है, " प्रयत्न करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। " प्रयत्न का अर्थ है - चेष्टा, कोशिश, परिश्रम। अविराम उद्यम।  किस लिये ? "मनुष्य" कहलाने योग्य मनुष्य बन जाने के लिए जीवन का लक्ष्य क्या है ? सभी के जीवन में अपने सच्चे जीवन को प्राप्त करना। सभी के कल्याण में अपने जीवन को सम्पूर्ण रूप से न्योछावर कर देना। यथार्थ शिक्षा मनुष्य को सबों के हित के लिये विचार करना सिखाती है। वैसे 'तथाकथित शिक्षित' लोग जो केवल अपने स्वार्थ की ही चिंता करते हैं, वास्तव में अशिक्षित ही रह जाते हैं। क्योंकि- " Selfishness is narrow-mindedness- स्वार्थपरता ही संकीर्णता है और विवेकानन्द ने कहा था संकीर्णता मृत्यु है और विस्तार  ही जीवन है !"  [अर्थात स्वामी विवेकानन्द के "जीवन-विज्ञान" ( life sciences) के अनुसार  Unselfishness Tending Towards Zero ही मृत्यु है, और निःस्वार्थपरता का 100 % विस्तृत होना जीवन है !] जब कोई (विस्तारवादी) व्यक्ति या कोई राष्ट्र पाशविक बल से बलवान हो जाता है, तब वह दूसरों के अधिकार-क्षेत्र  को ग्रसित कर अपने साम्राज्य को सम्प्रसारित  करता है।  किन्तु जो व्यक्ति या राष्ट्र यथार्थ शिक्षा में शिक्षित होता है, उसके ह्रदय का सम्प्रसारण होता है, प्रेम का विस्तार होता है। वह प्रेम के द्वारा अपने हृदय को विस्तृत करके यथार्थ जीवन (शाश्वत  जीवन) का अधिकारी बन जाता है। 
       श्रीमद भागवत में 'स्वार्थपर लोगों ' के विषय में श्रीप्रह्लादजी के पुत्र दैत्यराज विरोचन के जीवन से जुड़ी एक बहुत सुन्दर कहानी है-  

ननु स्वार्थपरो लोको न वेद परस्पङ्कटम् ।
यदि वेद न याचेत नेति नाह यदीश्वरः ॥
( श्रीमद्भा० ६ । १० । ६ )

 -अर्थात जो मनुष्य दूसरों के सामने आये संकट को अपना दुःख-कष्ट नहीं समझता, वह अनिवार्यतः स्वार्थी होता है। और जो समझ लेता है, वह अपने लिये दूसरों से कुछ भी नहीं चाहता। किन्तु कोई यदि संकट में पड़कर उससे कुछ भी माँगता है तो वह कभी 'न' नहीं कहता। 

 देवता लोग जब संकट में पड़कर ब्रह्मास्त्र का निर्माण करने के लिए महर्षि दधीचि की हड्डी माँगने गए, तब पहले दधीचि ने यह कहकर, कि देवताओं के संकट से उन्हें बेचैन होने की क्या जरूरत है;  देवताओं के मुख से, 'यथार्थ धर्म अर्थात कर्तव्य क्या है' -यह सुनने की अभिलाषा से छल किये थे। उस समय देवता लोग से यह सब उपदेश बुलवाकर दधीचि चेहरे पर मुस्कान के साथ अपने प्राण त्याग कर उन्हें अपनी हड्डीयों का  दान कर दिये थे। यह है जीवन को सार्थक कर लेने की पराकाष्ठा!  
    हमलोग स्वामीजी के जीवन में भी मानव कल्याण के लिये इस महान त्याग के आदर्श को देख सकते हैं। सच्ची शिक्षा मनुष्य को स्वार्थ त्याग करने के लिये उत्साहित करती है। परस्पर के लिये सहानुभति और दूसरों के कल्याण के लिये त्याग की भावना ही समाज को धारण किये रह सकती है। त्याग की इस भावना का आभाव हो जाने से, फिर चाहे उस देश में गणतंत्र हो, या समाजवाद और साम्यवाद या कोई भी 'वाद ' हो- किसी देश या समाज को स्वस्थ या समृद्ध नहीं बना सकता । जो राष्ट्र इस शिक्षा (त्याग और सेवा)  को नहीं प्राप्त कर सका हो, तो उसकी अधोगति अनिवार्य है। स्वामीजी की शिक्षा पर विचार  व्यक्तिगत, सामाजिक और मानव-कल्याण के सच्चे उपाय का मार्ग दर्शक है। 
   
====================
[विरोचन # भगवान विष्णु के परम भक्त प्रह्लाद के पुत्र थे। धर्मात्मा विरोचन के दैत्‍याधिपति होने पर दैत्‍यों, दानवों तथा असुरों का बल बहुत बढ़ गया था। इन्‍द्र को कोई रास्‍ता ही नहीं दीखता था कि कैसे वे दैत्‍यों की बढ़ती हुई शक्ति को दबाकर रखें। देवगुरु बृहस्‍पति की सलाह से एक दिन वे वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण करके विरोचन के यहाँ गये।  इन्द्र ने विरोचन के दान और उनकी उदारता की बहुत ही प्रशंसा की। विरोचन ने नम्रतापूर्वक वृद्ध ब्राह्मण से कहा कि आपको जो कुछ मांगना हो, उसे आप संकोच छोड़कर मांग लें। इन्‍द्र ने बात को अनेक प्रकार से पक्‍की कराकर तब कहा- "दैत्‍यराज! मुझे आपकी आयु चाहिये।" बात यह थी कि यदि विरोचन को किसी प्रकार मार भी दिया जाता तो शुक्राचार्य उन्‍हें अपनी संजीवनी विद्या से फिर जीवित कर सकते थे। विरोचन को बड़ी प्रसन्‍नता हुई। वे कहने लगे- "मैं धन्य हूँ। मेरा जन्‍म लेना सफल हो गया। आज मेरा जीवन एक विप्र ने स्‍वीकार किया, इससे बड़ा सौभाग्‍य मेरे लिये और क्‍या हो सकता है।" अपने हाथ में खड्ग लेकर स्‍वयं उन्‍होंने अपना मस्‍तक काटकर वृद्ध ब्राह्मण बने हुए इन्द्र को दे दिया। इन्‍द्र उस मस्‍तक को लेकर भय के कारण शीघ्रता से स्‍वर्ग चले आये और यह अपूर्व दान करके विरोचन तो भगवान के नित्‍य धाम में ही पहुँच गये। भगवान ने उन्‍हें अपने निज जनों में ले लिया। (Read more at: https://hi.krishnakosh.org] 
    उसी प्रकार भागवत में महर्षि दधिची के त्याग की एक कहानी भी प्रसिद्द है।
" শিক্ষায় যা লাভ করলুম, জানলুম, জ্ঞান হল, সেগুলো যখন মজ্জাগত হয়, তখন তা সংস্কৃতিতে রূপান্তরিত হয়। "  शिक्षा के द्वारा जिस अंतर्निहित ब्रह्मत्व का बोध 'मुझे' हुआ, 'मैं' जान गया, मुझे 'ज्ञान' हो गया वे सारी बातें जब आत्म-सात होकर  रक्त-मज्जा से अन्तर्भूत (Intrinsic) हो जातीं हैं, तभी वह संस्कृति में रूपान्तरित हो पाती है। अर्थात "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" का बोध मुझे नहीं आत्मा को हुआ था- जब इसकी भी सम्यक धारणा आत्मा को (प्रवृति और निवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों को) हो जाती है तभी वेदान्त - "अनेकता में एकता " (Unity in diversity) या चार महावाक्य पर आधारित भारतीय संस्कृति में रूपांतरित हो जाती है।  क्या आपको ब्रह्मत्व का बोध हुआ है ? नवनीदा बोले - मैं ऐसे 7 आदमियों को जानता हूँ, जिन्होंने ईश्वर को देखा है।]  
>>>वर्ण शिक्षा

वर्णानां स्त्रीपुंनपुंसकसंज्ञा
ककारं च गकारं च चकारं च जकारकम्
टकारं च डकारं च तकारं च दकारकम् १

पकारं च बकारं च षकारं च क्षकारकम्
एते द्वादशवर्णा स्युः पुंल्लिगाश्चेति कीर्तिताः २

खकारं च घकारं च छकारं च झकारकम्
ठकारं च ढकारं च थकारं च धकारकम् ३

फकारं च भकारं च शकारं च सकारकम्
एते वै भानुबीजानि जायाश्चेति प्रकीर्तिताः ४

शेषं नपुंसकं ज्ञेयं त्रयो भेदा इति स्मृताः
शिवाग्निभूतरुद्राश्च त्रयोदश तिथिस्तथा ५

एते वै स्वरवर्णा स्युः पुंल्लिङ्गाश्चेति कीर्तिताः
पक्षो वेदरसा भानुर्मनुशैवाधिकारकाः ६

एतानि स्वरवर्णानि स्त्रीलिङ्गानीति कीर्त्यते
प्रकृतिः सप्तवर्णानि विकृतिस्तु नवार्णकम् ७

प्रकृतिर्ह्रस्वमित्युक्तं विकृतिर्दीर्घमुच्यते
प्रथमाश्च तृतीयाश्च षकारश्च क्षकारकम् ८

एते द्वादशवर्णा स्युः पुंल्लिङ्गाश्चेति कीर्तिताः
द्वितीयाश्च चतुर्थाश्च शसकारौ तथैव च ९

एते द्वादशवर्णा स्युस्त्रील्लिङ्गाश्चेति प्रकीर्तिताः
वर्णानां सत्वरजस्तमो गुणाः
अन्तस्थाश्चोत्तमाश्चैव ऋ लृ वर्णौ तथैव च १०

हकारश्च ळकारश्च क्लीबाश्चेति प्रकीर्तिताः
पक्षो गृहार्थसंख्या च त्रयोदशमनुस्तथा ११

एते वै सात्विकगुणाः श्वेतवर्णं तथैव च
शिवाब्धिसप्तावसुदिक्च रुद्राः तिथिश्चैव कलास्तथा १२

एते वै राजसगुणा रक्तवर्णं तथैव च
बाणो रसस्तृतीया च श्यामवर्णं तमो गुणः १३

हल्
द्वितीया च चतुर्थश्च तवर्गप्रथमोत्तमौ
पवर्गप्रथमश्चैव वेदाष्टादश एव च १४

एते वै सात्विकगुणा श्वेतवर्णं तथैव च
खकारं च घकारं च ठकारं च थकारकम् १५

तकारं च नकारं च पकारं च फकारकम्
वकारं च हकारश्च क्षकारं चेति सात्विकः १६

कवर्गप्रथमश्चैव टवर्गश्च तथैव च
तृतीयाश्च तपवर्गचतुर्थाश्च चटवर्गोत्तमौ तथा १७

ऊष्माणश्चैव रेफश्च लळकारौ रजोगुणाः
कवर्गप्रथमश्चैव टवर्गश्च तथैव च १८

तृतीयाश्च भकारश्च धकारं च ञकारकम्
णकारं चोष्मणश्चैव रेफश्चैव लळौ तथा १९

एते रजोगुणाः प्रोक्ता रक्तवर्णं तथैव च
चकारश्च द्वितीया च ङकारं च मकारकम् २०

ढकारं च दकारं च यकारं च झकारकम्
तामसः कृष्णवर्णं च उत्तमश्च मिश्रकम् २१

चकारश्च द्वितीया च आद्यन्तौ वर्गपञ्चमौ
चटवर्गचतुर्थौ च तवर्गश्च तृतीयकम् २२

यकारसामसगुणश्यामवर्णस्तथैव च २३
अकारं सर्वदैवत्यं रक्तवर्णं रजस्मृतम्

आकारस्यात्पराशक्ति श्वेतं सात्विकमुच्यते २४
इकारं विष्णुदैवत्यं श्यामं तामसमुच्यते

मायाशक्तिरितीकारं पीतं राजसमुच्यते २५
उकारं वास्तुदैवत्यं कृष्णं तामसमीरितम्

ऊकारं भूमिदैवत्यं श्यामळं तामसं भवेत् २६
ऋकारं ब्रह्मणो ज्ञेयं पीतं राजसमुच्यते

शिखण्डिरूपं ॠकारं राजसं पीतवर्णकम् २७
अश्विनौ तु लृ लॄ प्रोक्तौ

एकारं वीरभद्रं स्यात् रजः पीतं तु सिद्धिदम् २८
ऐकारं वाग्भवं विन्द्या

ओकारमीश्वरं विंद्याज्ज्योतिः सत्वं फलप्रदम् २९
औकारमादिशक्ति स्याच्छुक्लं सर्वत्र सिद्धिदम्

अंकारं तु महेशं स्याद्रक्तवर्णं तु राजसम् ३०
अः कारं कालरुद्रं च रक्तं राजसमुच्यते

प्राजापत्यं ककारं स्यात्पीतं वृष्टिप्रदं रजः ३१
खकारं जाह्नवीबीजं क्षीराभं पापनाशनम्

गणापत्यं गकारं स्याद्रक्ताभं विघ्ननाशनम् ३२
घकारं भैरवं ज्ञेयं मुक्ताभं शत्रुनाशनम्
ङकारं कालबीजं स्यात्कालं तार्क्ष्यं समुच्यते ३३
चकारं चण्डरुद्रं स्यात् अञ्जनाभं तु तामसम्
छकारं भद्रकाळी स्यात्तामसं परिकीर्तितम् ३४
जकारं जम्भहा ज्ञेयं रक्ताभं च जयावहम्
झकारमर्धनारीशं श्यामरक्तं तु मिश्रकम् ३५
ञकारं सर्पदैवत्यं पीतं राजसरूपकम्
भृङ्गीशं स्याट्टकारं तु रक्तं राजसमेव च ३६
ठकारं चन्द्रबीजं स्याच्छ्वेतं सात्विकमुच्यते
डकारं चैकनेत्रं स्यात्पीतं राजसमुच्यते ३७
ढकारं यमबीजं स्यान्नीलं मृत्युविनाशनम्
णकारं नन्दिबीजं स्याद्रक्ताभं चार्थसिद्धिदम् ३८
तकारं वास्तुदैवत्यं श्वेतं
थकारं ब्रह्मणो ज्ञेयं
दुर्गाबीजं दकारं स्याच्छ्यामं सर्वार्थसिद्धिदम् ३९
धकारं धनदं प्रोक्तं पीताभं चार्थसिद्धिदम्
नकारं चैव सावित्री स्फाटिकं पापनाशनम् ४०
पकारं चैव पर्जन्यं शुक्लाभं वृष्टिसिद्धिदम्
फकारं पाशुपत्यं च सत्वः पापविनाशनम् ४१
बकारं तु त्रिमूर्ति स्यात्पीतं सर्वार्थसिद्धिदम्
भकारं भार्गवं विन्द्याद्रक्तं भाग्यप्रदं भवेत् ४२
मकारं मदनं विन्द्याच्छ्यामं कामफलप्रदम्
यकारं वायुदैवत्यं कृष्णमुच्चाटनं भवेत् ४३
रकारं वह्निदैवत्यं रक्ताभं राजसं भवेत्
लकारं पृथिवीबीजं पीतं स्यात् लम्भनं भवेत् ४४
वकारं वारुणं बीजं शुक्लाभं योगनाशनम्
लक्ष्मीबीजं शकारं स्यात् हेमाभं राजसं भवेत् ४५
षकारं द्वादशात्मं स्यात् रक्ताभं तु जयप्रदम्
सकारं शक्तिबीजं स्याद्रक्तं स्थितिकरं भवेत् ४६
हकारं शिवबीजं स्याच्छुद्धस्फटिकसन्निभम्
अणिमाद्यष्टसिद्धं च भुक्तिं मुक्तिं प्रयच्छति ४७
ळकारं चात्मबीजं स्यात् रक्ताभं सर्वसिद्धिदम् ४८
                         इति वर्णशिक्षा समाप्ता
[छात्रों को स्वर-व्यंजन का ठीक से उच्चारण करना सिखाओ, जैसे एक स्वर वाली ध्वनि को वर्ण कहते हैं, चाहे वह स्वर ह्रस्व हो या दीर्घ। वर्ण को ही अक्षर कहते हैं इत्यादि बातें कही गयी हैं। वर्णः स्वरः मात्रा बलम् " -या शुद्ध मंत्रोच्चार करना सिखाओ। 
 "यदि गरीब लड़का शिक्षा के मन्दिर (विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर) तक न आ सका, तो शिक्षा को उसके पास जाना चाहिए।" केवल धन से गरीब ही नहीं, जो विचारों से भी गरीब लोग हैं' -शिक्षक को उनके पास भी जाना पड़ेगा। ...  मैं कहता हूँ -मुक्त करो ; जहाँ तक हो सके लोगों के बन्धन खोल दो।... जब तुम अपने सुख की कामना को समाज के कल्याण के लिए त्याग सकोगे तब तुम भगवान बुद्ध बन जाओगे, तब तुम मुक्त हो जाओगे !" ये 'शीक्षा हिंट' यदि BsDs,रानेदा -प्रदा-जीतेदा, Amit-Anupdtt, रेवसमी, AA-Sdip, pintu- brhmde, shsh, Rcm, rjm, app, arunb, यदि समझ सकें तो वे स्वयं देहाध्यास (भेंड़त्व) के आत्मसम्मोहन से मुक्त हो कर दूसरों को मुक्त होने सहायता कर सकते हैं , इस प्रकार वे भी Be and Make आंदोलन के नेता बन सकते हैं।]










मंगलवार, 8 जनवरी 2013

राष्ट्रिय एकता एवं स्वामी विवेकानन्द ('अन्तर्निहित एकात्मता की अनुभूति' - ही 'धर्म' ) [$$@$$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [60] (9.समाज और सेवा),

हाल के वर्षों में 'राष्ट्रिय एकता' पर बहुत जोर दिया जाने लगा है। इसके पूर्व 'राष्ट्र-चेतना ' या 'राष्ट्रनिर्माण'
जैसे शब्दों का प्रयोग भी किया जाता था। राष्ट्रिय एकता की भावना को स्थापित करने का मुख्य उद्देश्य, भारत की सधारण जनता के बहुआयामी विविधताओं में एकत्व की खोज करना है।  इसी प्रयत्न को इस समय ' national unity ' या ' nation building ' के बदले  ' national integration ' या ' राष्ट्रीय एकता ' के नाम से अभिहित किया जाता है ।
संभवतः यह परिवर्तन किसी विशिष्ट उद्देश्य को ध्यान में रखकर किया गया है। कदाचित पूर्व में प्रयुक्त 

' विविधता में एकता ' जैसे आदर्श वाक्य का प्रभाव उतनी सघनता (compactness) के साथ परिलक्षित नहीं हो रहा था। और हाल के दिनों में ' राष्ट्रिय एकता ' को कमजोर करने वाली अपकेन्द्री विघटनकारी शक्तियों (centrifugal force) के सक्रीय होने के फलस्वरूप अलगाववादी शक्तियाँ समाज पर हावी होने लगीं थीं। यह अलगाववाद देशवासियों के भीतर फूट (division) पैदा करता है, इस आपसी फूट को रोकने के लिये जो चेष्टा की जाती है, उसे ' integrating force ' या एकीकरण की शक्ति कहा जाता है। इसीलिये वर्तमान परिवेश में यह विषय- ' National Integration ' और अधिक महत्वपूर्ण हो उठा है।
पहले यह समझने की चेष्टा करें, कि भारतवर्ष में 'राष्ट्र ' शब्द का प्रयोग की अर्थ में किया जाता है ? प्राचीन भारतवर्ष में पूरा राज्य अनेक छोटे-छोटे प्रांतों में विभक्त होता था , प्रत्येक प्रांत का राज्यपाल एक सैनिक होता था , जिसे महाक्षत्रप कहते थे। यहाँ अब भी भाषा या जाति-प्रजाति के आधार पर गठित छोटे छोटे कई सम्प्रदाय बड़ी आसानी से स्वयं को प्रान्त (nation-state) के रूप स्थापित कर सकते हैं। किन्तु भारतवर्ष की भौगिलिक परिसीमा में कभी केवल ही प्रजाति (race) का निवास-स्थान नहीं रहा है। इस देश में बहुत प्राचीन समय से ही विविध जाति एवं प्रजातियों के समुदाय आपस में मिलजुल कर एक साथ रहते चले आये हैं। जैसे आर्यों की निवास भूमि भारत थी, फिर आर्यों का समुदाय भी कई जातियां में विभक्त था। इसके अतिरिक्त अनेक जातियों और प्रजातियों के लोग सीमा पार से भारत में आते रहे हैं।
 किन्तु, फिर भी उत्तर में हिमालय की बुलंद चोटियाँ,एवं तीन ओर समुद्र से घिरे इस विशाल उपमहाद्वीप (जम्बुद्विपे भारत खण्डे) में देश-विदेशों के साथ समुचित संचार व्यवस्था न होते हुए भी या या बाहय जगत से अपर्याप्त सम्पर्क होने के बावजूद, - विविध भाषाओँ, वेशभूषा, रीती-रिवाज, एवं  अनेकों प्रकार की मुखाकृति और शारीरिक गठन होने के बावजूद, इसी भूखण्ड पर समस्त मानव-जाती के बीच एकत्व की भावना प्रतिष्ठित हुई थी।
इतनी विविधताओं के बीच ऐसा कौन सा रसायन था जिसने भारतीय जनता को एकता-सूत्र में बांधे रखा था?  विभिन्न रंग-रूप और सुगंध के पुषों द्वारा निर्मित किसी माला के जैसा भारत की आम जनता रूपी पुष्पों को गूंथने वाला वह सूत्र क्या था ? वह रसायन,उसका  वह सूत्र ' धर्म 'था। इस ' धर्म ' के बाह्य स्वरूपों में कई प्रकार की विविधताएँ रहीं, किन्तु उसके अंतस्तल में महान एकात्मता का निष्पाप स्वर माधुर्य निरंतर ध्वनित होता रहता था। 'अन्तर्निहित एकात्मता की अनुभूति' - ही वह 'धर्म' था जिसने सम्पूर्ण भारतवर्ष को सहस्त्रों वर्षों से एकता के सूत्र में बांधे रखा था। अन्य कोई भी शक्ति ऐसा करने में सक्षम नहीं थी। क्योंकि उस समय इस विशाल देश में सामाजिक, राजनैतिक या राष्ट्रियता आदि विचारों के आधार पर देश में एकत्व स्थापित करने का अवसर कभी नहीं मिला था। अन्य सभी दृष्टि से सम्पूर्ण देश अनेक प्रकार से विभाजित था।
लेकिन जैसे जैसे इस देश में विदेशी धर्म आते गये, और अपने प्रचार और प्रभाव फैलाने में लग गये, तब इस देश के प्राचीन धर्म के प्रभाव से जो ' राष्ट्रीय एकता ' निर्मित हुई थी, वह शिथिल होती चली गयी। मानवीय एकात्मता का वह सूत्र ही ढीला पड़ने लगा। सामूहिक शक्ति एवं  सामूहिक एकता के ह्रास होने से कमजोर देश को विदेशियों ने गुलाम बना लिया। खोयी हुई शक्ति एवं एकता को पुनः प्राप्त करने के उद्देश्य से अनेक सुझाव दिए गये, कई तरह के प्रयत्न किये जाने लगे। राष्ट्रिय शक्ति एवं एकता में इस ह्रास का सारा दोष प्रचलित धर्म पर ही आरोपित कर दिया गया और नये धार्मिक आन्दोलन प्रारंभ हुए। धर्म के अतिरिक्त अन्य विरोधी साधनों को भी प्रयुक्त करने का प्रयास हुआ।
 किन्तु जीवंत प्राचीन धर्म-वृक्ष के नवजात तना-टहनी-मंजरी की उपेक्षा कर इधर उधर से से इकट्ठे किये गये फुटकर मृतप्राय धार्मिक विचारों के संग्रह रूपी सूखे डंठल को स्थापित करने की चेष्टा भी राष्ट्रिय एकता को पुनर्प्रतिष्ठित करने में अक्षम सिद्ध हुई । उसी प्रकार जब मनुष्य को धार्मिकता विहीन केवल एक सामजिक-आर्थिक जीवमात्र समझ लेने वाली बुद्धियुक्त राजनैतिक तरीके (हथकंडे) आजमाए गये तो, वे भी राष्ट्र के एकीकरण एवं राष्ट्रीय एकता के आदर्श को प्राप्त करने में असमर्थ ही रहे। अब हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि ' राष्ट्रिय एकता ' जैसे महत्वपूर्ण विषय के उपर स्वामी विवेकानन्द ने क्या प्रकाश डाला है ?
 राष्ट्र,समाज या सभ्यता के विषय में स्वामी विवेकानन्द का मूल सूत्र है - " याद रखना होगा कि मानव-

सभ्यता का मूल धर्म पर टिका हुआ है। यह यदि अक्षुण बना रहता है, तभी समाज-शरीर के समस्त अंग-प्रत्यंग स्वस्थ और सुन्दर दिखेंगे। " हम यह देख चुके है कि भारतीय राष्ट्रिय एकता मूल आधार धर्म ही था। क्योंकि वह एकता राजनैतिक, सामाजिक अथवा राज्य के प्रयासों का परिणाम नहीं  थी। भारतवर्ष में राष्ट्रिय एकता का प्राकट्य मुगल काल में हुआ था। ब्रिटिश शासन में राजनैतिक अथवा प्रशासकीय एकीकरण विकसित होकर भलीभांति स्थापित हो गयी थी। किन्तु भारतीय लोगों का ' धर्म ' जो समग्र मानव जाति में अन्तर्निहित एकात्मता के वास्तविक आधार पर टिका हुआ था, धर्म का वह मुख्य भाव जो भारतीय राष्ट्रिय एकता का मुख्य आधार था वह शनै: शनै: क्षय होता चला गया।
 स्वामीजी कहते हैं, " इस बात का हमारे पास क्या प्रमाण है कि यह अथवा कोई दूसरी सभ्यता, जब तक कि वह धर्म पर, मनुष्य के भीतर की नैतिकता या चरित्र पर आधारित न हो, स्थायी होगी ? कोई भी राष्ट्रीय व्यवस्था यदि मनुष्य की ईमानदारी के उपर, उसके धर्म के उपर प्रतिष्ठित न रहे तो वह अधिक दिनों तक टिकाऊ नहीं हो सकती है। "
 इसीलिये स्वामी विवेकानन्द का स्पष्ट निर्णय था- " भविष्य के भारत निर्माण का पहला कार्य, वह पहला सोपान जिसे युगों के महाचल पर खोद कर बनाना होगा, भारत की यह धार्मिक एकता  (सभी धर्मों में एकत्व-बोध की जाग्रति)  ही है। उसी मौलिक एकत्व की प्राप्ति को लक्ष्य बनाकर अपने और राष्ट्र के कल्याण के लिये सभी प्रकार के आपसी मतभेदों और महत्वहीन कलह को वर्जन करने का समय आ गया है।अपनी बिखरी हुई आध्यात्मिक शक्तियों को एकत्र करना ही भारत में राष्ट्रिय एकता स्थापित करने का एकमात्र उपाय है। "
( इस देश में पर्याप्त पन्थ या संप्रदाय हुए हैं। आज भी ये पन्थ पर्याप्त संख्या में हैं और भविष्य में भी पर्याप्त संख्या में रहेंगे। ..अतः सम्प्रदायों का होना तो स्वाभाविक ही है, परन्तु जिसका होना आवश्यक नहीं है, वह है इन सम्प्रदायों के बीच के झगड़े-झमेले। संप्रदाय अवश्य रहें पर साम्प्रदायिकता दूर हो जाये। " 5/262 यह शिक्षा हम सबको मिलनी चाहिये कि हम हिन्दू अथवा दुसरे सम्प्रदाय के लोग भिन्न भिन्न मतों के होते हुए भी आपस में कुछ सामान्य भाव भी रखते हैं, और अब वह समय आ गया है कि अपने हित के लिये हम इन तुच्छ भेदों और विवादों को त्याग दें। 5/181)
अन्यान्य जातियों के साथ भारतीय जाती के पार्थक्य की तुलना करते हुए स्वामीजी ने कहा था-  " किसी भी दूसरे देश की अपेक्षा भारत की समस्याएं अधिक जटिल और गुरुतर हैं। जाति, धर्म, भाषा, शासन-

प्रणाली - ये ही एक साथ मिलकर एक राष्ट्र की सृष्टि करते हैं। यदि एक एक जाति को लेकर हमारे राष्ट्र की तुलना की जाय तो हम देखेंगे कि जिन उपादानों से संसार के दूसरे राष्ट्र गठित हुए हैं, वे संख्या में यहाँ के उपादनों से कम हैं। यहाँ आर्य हैं, द्रविड़ हैं, तातार हैं, तुर्क हैं, मुगल हैं, यूरोपीय हैं, -मानो संसार की सभी जातियां इस भूमि में अपना खून मिला रही हैं। भाषा का यहाँ एक विचित्र ढंग का जमावड़ा है, आचार-व्यवहारों के सम्बन्ध में दो भारतीय जातियों में जितना अंतर है, उतना पूर्वी और यूरोपीय जातियों में नहीं है। " (5/180)
  इसी लिये यहाँ राष्ट्रिय एकता स्थापित करना एक दुष्कर कार्य है। इसीलिये यहाँ एकीकरण की प्रणालीयाँ दोषरहित होनी चाहिये। लेकिन परानुकरण-प्रेमी इस देश ने बिना विवेक-विचार किये अन्यान्य राष्ट्रों के दृष्टान्त का अनुकरण करना आरम्भ कर दिया है, जिसके परिणाम स्वरूप देश विखराव के पथ पर अग्रसर हो रहा है। स्वामीजी ने स्पष्ट रूप से कहा है, " हमारे पास एकमात्र सम्मिलन भूमि है, हमारी  पवित्र परम्परा  (heritage), हमारा धर्म। एकमात्र सामान्य आधार वही है, और उसी बुनियाद पर हमलोगों को राष्ट्रिय जीवन गठित करना होगा। यूरोप में राजनैतिक विचार ही राष्ट्रीय एकता का कारण है। किन्तु एशिया में राष्ट्रिय ऐक्य का आधार धर्म ही है। " (5/180)
इस मूल विषय के उपर स्वामीजी के ये विचार अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं गहन विचारोत्तेजक हैं," सुधार  करने में हमें चीज के भीतर, उसकी जड़ तक पहुंचना होता है। इसीको मैं आमूल सुधार कहता हूँ। आग जड़ में लगाओ और उसे क्रमशः उपर उठने दो एवं अखण्ड भारतीय राष्ट्र संगठित करो। " (5/11)
अतीत में विविधताओं के बावजूद भारत की एकता सुदृढ़ थी। किन्तु राजनैतिक एकता की कमी अवश्य थी। मुगलकाल और अंग्रेजों के शासन काल में दुर्दैव एवं प्राकृतिक विपदाओं के बीच भी भारतियों ने अधिकतम सीमा तक राजनैतिक और प्रशासकीय एकता प्राप्त की थी। कालान्तर में विशाल भारतवर्ष धीरे धीरे बंटवारे के कारण सिकुड़ता गया, अंग्रेजी शासन के अंतर्गत भी जितना राष्ट्र शेष रह गया था, वह भी स्वतंत्रता के तुरन्त बाद दो भागों में विभाजित हो गया। इसका कारण था आपसी द्वेष, इर्ष्य, हिंसा, झगड़े-फसाद आदि। ततपश्चात यह भी तीन टुकड़ों में विभाजित हो गया। देश को बाँटने वाली शक्तियाँ आज भी सक्रीय हैं। वर्तमान में जिस भूखंड को भारत के नाम से जाना जाता है,वहां के निवासियों में भी हिंसा और संघर्ष कोई अन्त दिखाई नहीं देता।
राजनीती को धर्म से अधिक महत्व देने के कारण ही ' राष्ट्रीय एकता ' की स्थापना नहीं हो सकी है, यह तथ्य अब असंदिग्ध रूप से स्पष्ट है। प्रजातंत्र के नाम पर धर्म-निरपेक्षता की निकृष्टतम परिणति राजनितिक विवाद, दलगत एवं व्यक्तिगत स्वार्थ के रूप में दिखाई देती है। इसके परिणाम स्वरुप हमारे देश के सामान्य नागरिकों की यातनाओं एवं कष्टों में कमी के बजाय वृद्धि ही हुई है। इसीलिये एक ओर जहाँ देश-व्यापी हिंसा, शोषण, बलात्कार, अर्थ लोलुपता, भ्रष्टाचार, नाम,यश और पद की लोलुपता और धर्म निरपेक्ष शिक्षा के नाम पर अनैतिकता इत्यादि समस्त गंदगियों को जला ही डालना होगा, तो  दूसरी ओर धर्म के नाम पर (आशा राम बापू जैसे ढोंगी बाबाओं के के द्वारा फैलाये जाने वाले ) अन्धविश्वास, कुरीतियों,स्त्रियों के प्रति रुढ़िवादी मानसिकता, सामाजिक अत्याचार, घृणा एवं ऊँच-नीच के समस्त भेद-भाव को पूर्ण रूप से समाप्त करना होगा। इसीलिये समस्त समस्याओं की जड़ को खोज कर, उस " जड़ में आग रखना " आवशयक होगा। केवल तब ही वास्तविक 'राष्ट्रिय एकता' संभव हो सकेगी।स्वामीजी कहते हैं, "यदि भारत को महान बनाना है, उसका भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो इसके लिये आवश्यकता है संगठन की, शक्ति संग्रह की और बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। ऋगवेद संहिता की एक विलक्षण ऋचा मुझे याद आती है, जिसमें कहा गया है-
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते॥(6.64.1)
-' तुम सब लोग एक मन हो जाओ ' क्योंकि एक मन हो जाना ही समाज-गठन का रहस्य है। और यदि तुम आर्य और द्रविड़, ब्राह्मण और अब्राह्मण जैसे तुच्छ विषयों को लेकर तू तू मैं मैं करोगे, झगड़े और पारस्परिक विरोध भाव को बढाओगे -तो समझ लो कि तुम उस शक्ति-संग्रह से दूर हटते जाओगे, जिसके द्वारा भारत का भविष्य बनने जा रहा है। अब वह समय आ गया है कि अपने हित के लिये, अपनी जाति के हित के लिये हम इन तुच्छ भेदों और विवादों को त्याग दें। अपनी बिखरी हुई आध्यात्मिक शक्तियों को एकत्र करना ही भारत में राष्ट्रीय एकता स्थापित करने का एकमात्र उपाय है। इस बात को याद रखो कि भारत का भविष्य सम्पूर्णतया इसी पर निर्भर करता है। बस, इच्छा-शक्ति का संचय और उनका समन्वय कर उन्हें एकमुखी करना-यही सारा रहस्य है। " (5/192)
किन्तु एक मन होना, अभिन्न हृदय होना और इच्छशक्ति का संचय करना जैसे कार्य राजनीती या लोकसभा में बिल पास करवाने से संभव नहीं है। " लोगों को संसद के कानून से पुण्यात्मा नहीं बनाया जा सकता। और इसीलिये धर्म -राजनीती की अपेक्षा अधिक गहरे महत्व की वस्तु है, वह जड़ तक पहुँचता है और आचरण के मूल से सम्बन्ध रखता है। "
किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस देश में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर केवल यही (लोकपाल बिल पास करो आदि ) करने का प्रयास कर रहे हैं। और यही कारण है कि " राष्ट्रिय एकता " केवल वाद-विवाद का विषय बन कर रह गया है।  केवल सच्चे धर्म मार्ग पर चलने से ही (-चरित्र निर्माण करने और मनुष्य बनने के 'Be and Make ' के मार्ग पर चलने से ही ) मानव मात्र में अन्तर्निहित एकात्मता का विकास हो सकता है,और यही एकमात्र पथ है। भारत के नव-निर्माण का विचार राजा राममोहन राय के समय से प्रारंभ हुई थी। किन्तु इस आन्दोलन के अगुवा लोगों की दृष्टि समाज के उच्च वर्ग तक ही केन्द्रित थी। जबकि सबसे पहले स्वामीजी ने इस सत्य को उद्घाटित किया कि " कुछ उच्च शिक्षित और दौलतमन्द व्यक्तियों से राष्ट्र नहीं बनता, बल्कि राष्ट्र तो देश सामान्य जनता के द्वारा गठित होता है " स्वामीजी अत्यन्त खेद व्यक्त करते हुए कहते हैं, "  जाती डूब रही है। देश की सामान्य जनता का अभिशाप हमलोगों के सिर पर है। भंगियों और चाण्डालों को उनकी वर्तमान हीन दशा में किसने पहुँचाया? हमारे आचरण में हृदयहीनता हो और साथ ही हम आश्चर्यजनक अद्वैतवाद के उपदेश भी दें- क्या यह कटे पर नमक छिड़कने जैसा नहीं है? तुम्हारे पास संसार का महानतम धर्म है और तुम जनसमुदाय को सारहीन और निरर्थक बातों पर पलते हो। तुम्हारे पास ज्ञान-अमृत की धारा प्रवाहित हो रही है, किन्तु तुम उन्हें गन्दी नाली का पानी पिलाते हो। देश में खाद्स्य सामग्रियों का भंडार रहने के उपरांत भी हम कई लोगो को भूख से मरने दे रहे हैं। मुख से अद्वैत की बातें करते हैं, दूसरों को सिखाते हैं कि सभी मनुष्य एक ही ब्रह्म की अभिव्यक्ति हैं, दूसरी ओर हम उनसे घृणा भी करते हैं।  "
 हमारे सुधारकों को यह नहीं दिखाई देता है कि बीमारी कहाँ है। वे नहीं जानते की राष्ट्र का भविष्य  जनसाधारण की दशा पर निर्भर करता है। याद रखना होगा की गरीब की झोपड़ियों में ही हमारा राष्ट्री जीवन स्पंदित होता है, किन्तु झोपड़ियों में रहने वाली यह जाती अपने व्यक्तित्व और मनुष्यत्व को भूल गयी है। " इसीलिये स्वामीजी कहते हैं- उन झोपड़ियों में बसने वाले वास्तविक देश के व्यक्तित्व  और पुरुषार्थ को फिर से विकसित करना होगा। " मेरा आदर्श है राष्ट्रिय सांस्कृतिक वैशिष्ट को अक्षुण रखते हुए भारतीय समाज को राष्ट्रीय स्तर पर पुष्ट और उन्नत करना। इसलिए जो व्यक्ति जहाँ खड़ा है, उसे उसके वर्तमान स्तर से एक सोपान उपर  उठाकर चरम पुरुषार्थ को प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर कर दो।"
 सर्वप्रथम, हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब शास्त्रों में जो अपूर्व सत्य छिपे हुए हैं, उन्हें इन सब ग्रन्थों के पन्नों से बाहर निकालकर, मठों की चहारदीवरियाँ भेदकर, वनों को शून्यता से दूर लाकर, कुछ सम्प्रदाय-विशेषों के हाथों से छीन कर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा। स्वयं को इस सम्मोहन से मुक्त करो। तुम अपने को और प्रत्येक व्यक्ति को उसके सच्चे स्वरूप की शिक्षा दो और घोरतम मोह-निद्रा में पड़ी हुई इस जीवात्मा को इस नींद से जगा दो।"
 " वे जो लोग किसान हैं, वे कोरी, जुलाहे जो भारत के नगण्य मनुष्य हैं, विजाती-विजित स्वजाति-निन्दित निन्दित छोटी छोटी जातियाँ हैं, वे ही लगातार चुपचाप काम करती जा रही है और अपने परिश्रम का फल भी नहीं पा रही हैं। यदि ये निम्न श्रेणियों के लोग अपना अपना काम बन्द कर दें, तो तुम लोगों को अन्न-वस्त्र मिलना कठिन हो जाये! यदि मेहतर लोग एक दिन के लिये काम करना बन्द कर देते हैं, तो कैसी 'हाय तोबा ' मच जाती है ? यदि वे तीन दिन काम बन्द कर दें तो संक्रामक रोगों से शहर बर्बाद हो जाये। इन्हें ही तुमलोग नीच समझ रहे हो और अपने को शिक्षित मान कर अभिमान कर रहे हो ? हम उनकी उन्नति के लिये क्या कर रहे हैं? उनके मुख में एक कौर अन्न देने के लिये क्या कर रहे हैं ? हम उन्हें छूते भी नहीं, और 'दुर ' 'दूर' कहकर भगा देते हैं। हमारे इस देश में, इस वेदान्त की जन्मभूमि में सैंकड़ो वर्षों से हमारे जनसाधारण को सम्मोहित करके इस हीन अवस्था में डाल दिया गया है। वे लगातार डूबते जा रहे हैं। ऐसा देश कहाँ है, जहाँ मनुष्यों को जानवरों के साथ एक ही जगह पर सोना पड़ता हो ?
 जिनके रुधिर-स्राव से मनुष्य जाति की यह जो कुछ उन्नति हुई है, उनके गुणगान कौन करता है ? लोकनायक, धर्मवीर, रणवीर, कवि-गुरु, आदि तो सबकी नजरों के सामने हैं, सबके पूज्य हैं; परन्तु जहाँ कोई नहीं देखता, जहाँ कोई एकबार 'वाह' 'वाह' भी नहीं करता, जहाँ सब लोग घृणा करते हैं, वहां वास करती है, अपार सहिष्णुता, अनन्य प्रीति और निर्भीक कार्यकारिता; हमारे गरीब, घर-द्वार पर दिन-रात मुँह बन्द करके कर्म करते जा रहे हैं, उसमें क्या वीरत्व नहीं है ? बड़ा काम आने पर बहुतेरे वीर हो जाते हैं, दस हजार आदमियों की वाहवाही के सामने कापुरुष भी सहज ही में प्राण दे देता है, घोर स्वार्थी भी निष्काम हो जाता है, परन्तु अत्यन्त छोटे से कार्य में भी सबके अज्ञात भाव से जो वैसी ही निःस्वार्थता , कर्तव्य परायणता दिखाते हैं, वे ही धन्य हैं- वे तुम लोग हो- भारत के हमेशा के पददलित श्रमजीवियों ! - मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। " 

जब तक करोड़ों भूखे ओर अशिक्षित रहेंगे तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को विश्वासघातक समझूंगा,जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है, परन्तु जो उनपर तनिक भी  ध्यान नहीं देता ! उसी को मैं महात्मा कहता हूँ, जिसका हृदय गरीबों के लिये रोता है, अन्यथा वह तो दुरात्मा है।
जनसाधारण का खोया हुआ व्यक्तित्व एवं पुरुषार्थ केवल धर्म के द्वारा ही वापस लौटाया जासकता है।
 स्वामीजी का कथन हैं - "धर्म का अर्थ है चरित्र !" उनके अनुसार धर्म का अर्थ अच्छा होना और अच्छा करने से है।यदि देश के सामान्य नागरिक चरित्रवान नहीं हैं, यदि उसमें स्वयं अच्छा बनने और दूसरों की भलाई करने की क्षमता नहीं अर्जित की है। तो राष्ट्रियता की भावना उत्पन्न नहीं हो सकती। केवल  मानवमात्र में अन्तर्निहित एकात्मता की अनुभूति करने वाले धर्म से अनुप्राणित व्यक्ति ही यह कह सकता ही यह कह सकता है और अनुभव कर सकता है ["मैं एक भारतीय हूँ, भारत में निवास करने वाला हर व्यक्ति मेरा भाई है, प्रत्येक भारतवासी मेरा प्राण है, भारत की मिटटी मेरे लिये सर्वोच्च धर्म है और भारत का कल्याण मेरा कल्याण है। '] "मैं भारतवासी हूँ, और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है। भारत वासी मेरे प्राण हैं। भारत की मिटटी मेरा स्वर्ग है। भारत के कल्याण में मेरा कल्याण है। " इसी एकात्मता की अनुभूति के आधार पर, इसी भावना के आधार पर भारतवर्ष की बहुआयामी जनता वास्तव में एकता के सूत्र में आबद्ध हो सकते है। देश के जनसाधारण का समग्र व्यक्तित्व ही एकीभूत होकर एक राष्ट्रीय- व्यक्तित्व या राष्ट्र-सत्ता का रूप धारण कर लेता है।
इटली के क्रान्तिदर्शी और देशभक्त, इटली के दिल की धड़कन, इतालवी स्वतंत्रता / एकीकरण के लिए कार्यकर्ता मैज्जिनी (Mazzini 1805-72) के समान ही स्वामीजी भी इस प्रकार के एक राष्ट्रीय -व्यक्तित्व (Personality ) में विश्वास करते थे, और यह मानते थे कि-   " Nationality is the personality of peoples " -अर्थात देश के सामान्य नागरिकों का एकीकृत व्यक्तित्व ही राष्ट्रीयता है।"
किन्तु स्वामीजी के अनुसार भारतवर्ष का वह ' राष्ट्रिय -व्यक्तित्व ' एक आध्यात्मिक सत्ता थी, और वह मातृ-सत्तात्मक भी थी। इसीलिए उनके इन शब्दों से कैसा उद्दात माधुर्य झंकृत होता है- " हे भारत ! मत भूलना कि तुम्हारी सामाजिक व्यवस्था अनन्त वैश्विक मातृत्व -महामाया -का प्रतिबिम्ब मात्र है। मत भूलना कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया की छाया मात्र है।"

उनका यह सन्देश और अधिक स्पष्ट हो उठता है, जब वे कहते है- " आगामी 50 वर्षों तक हमारी गरीयसी भारत माता ही, हमारी एकमात्र आराध्य देवी हों, दुसरे व्यर्थ के देवताओं को बुल जाने से भी कोई हनी नहीं है। दुसरे सभी देवी देवता अभी सो रहे हैं। तुम्हारा देश nation एकमात्र यही देवता जाग्रत है। सर्वत्र उसके हाथ हैं, सर्वत्र उसके कान हैं, वे सभी जगह व्याप्त हैं। " उनकी दृष्टि में अपने राष्ट्र का  कितना विस्मयकारी, आकर्षक और जीवन्त स्वरुप था!
 केवल वही व्यक्ति जिसका आत्मविकास सच्चे धर्म या आध्यात्मिकता के प्रभाव से हुआ हो, वही  सम्पूर्ण राष्ट्र को एक जीवंत एकीकृत सत्ता या व्यक्तित्व के रूप में देख सकता है। ऐसी दृष्टि प्राप्त हो जाने के बाद ही, देश की जो साधारण जनता के भिन्नत्व को नहीं देखते, जो अपने अस्तित्त्व को बनाये रखने में व्यस्त है, जो केवल अपने स्वार्थ-पूर्ति में मत्त है, और प्रतिस्पर्धाओं में व्यस्त है, उनको अलग अलग सत्ता के रूप में न देखकर समग्र राष्ट्र को - एक अखंड सत्ता, जिसके हजारों सिर हैं, हजारों नेत्र हैं, और हजारों हाथ है, ' सहस्र शीर्ष, सहस्र आक्षा, सहस्र पैर सहस्र पानी, पुरुष-सूक्त ' के जैसा समस्त भूमि को व्याप्त करके स्थित हैं, के रूप में देखा जा सकता है। जिस राष्ट्र में सच्चे धर्म के प्रभाव से ऐसे अन्तर्दृष्टि -संपन्न लोगों की संख्या में वृद्धि होती रहती है, वहीँ पर वास्तविक राष्ट्रिय एकता संभव है- अन्यत्र या अन्य किसी उपाय से कभी संभव नहीं है।
इस संदर्भ में स्वामीजी के विचारों का वैशिष्ट्य यह है कि जिस प्रकार राष्ट्रिय क्षेत्र में उसका प्रयोग सम्भव है,उसी प्रकार आवश्यक होने पर इनमें विश्व-शांति लाने की क्षमता भी है। किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय संघ या इस विचारधारा के अस्तित्व में आने से बहुत पहले  स्वामीजी ने कहा था- " अन्तर्राष्ट्रीय संगठन, अन्तर्राष्ट्रीय संघ, तथा अन्तर्रष्ट्रीय विधान - यही इस युग की प्रधान आवश्यकता है। " और स्वामीजी के राष्ट्रीय एकता के विचार और कुछ नहीं उसी वैश्विक-एकात्मता स्थापित करने की ओर उठने वाला पहला कदम है, या पहला सोपान है।
अब प्रश्न  यह है कि वह कौन सा धर्म होगा, जो समस्त जन साधारण को इस प्रकार एकत्व के सूत्र में बांध सकता है, या सभी धर्मों में समन्वय को स्थापित कर सकता है ? एक ऐसे देश में जहाँ भिन्न भिन्न धर्म, भिन्न भिन्न संप्रदाय एक साथ रह रहे हों, उस देश में किसी एक ही धर्म के उपर जोर देकर, सभी धर्म-मत के अनुयायियों में समन्वय स्थापित करना कभी संभव नहीं होगा। इसीलिये स्वामीजी कहते हैं, " भले ही इस सर्वजन-समन्वयकारी सिद्धान्त को हमलोग वेदान्तवाद कहें या अन्य किसी वाद से संबोधित करें, सत्य तो यह है की अद्वैतवाद ही किसी भी धर्म या विचारधारा का अंतिम समाधान है। एवं केवल अद्वैत की भूमि से ही मनुष्य समस्त धर्म और संप्रदाय को प्रेम पूर्ण नजरों से देख सकता है। मेरा विश्वास है की वेदांत ही भावी शिक्षित मनुष्यों का धर्म होगा। इसका श्रेय हिन्दूओं को मिल सकता है कि वे अन्य समुदायों से पूर्व इस स्थिति को प्राप्त करें। "इस देश में पुरुष और स्त्रियों के बीच इतना अंतर क्यों समझा जाता है, यह समझना कठिन है। वेदान्त में तो कहा है कि एक ही चैतन्य सत्ता सर्वभूतों में विद्यमान है। तुम लोग स्त्रियों की केवल निन्दा ही करते रहते हो। उनकी उन्नति के लिये तुमने क्या किया है, बोलो तो ? स्मृति आदि लिखकर, नियम-नीति में आबद्ध करके इस देश के पुरुषों ने स्त्रियों को एकदम ' बच्चा पैदा करने की मशीन' बना डाला है। महामाया की साक्षात् मुर्तिरूप इन स्त्रियों का उत्थान हुए बिना क्या तुम लोगों की उन्नति संभव है ? "
 स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " हम मनुष्य जाति को उस स्थान पर पहुँचाना चाहते हैं, जहाँ न वेद है, न बाइबिल हा, न कुरान है; परन्तु वेद, बाइबिल और कुरान के समन्वय (अविरोध) से ही ऐसा हो सकता है। मनुष्यजाति को यह शिक्षा देनी चाहिये कि सब धर्म उस धर्म के , उस एकमेवाद्वितीय के भिन्न भिन्न रूप है ,इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति उन धर्मों में से अपना मनोनुकूल मार्ग चुन सकता है। "
 इस समन्वय का अर्थ यह नहीं कि इधर उधर छिटके विभिन्न धार्मिक विचारों का निर्जीव संकलन होगा, जिसकी व्यर्थता पर चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं। और न ही इस सर्वधर्म समन्वय के पीछे किसी धर्मावलम्बियों का किसी दूसरे धर्म में धर्मांतरण करने की कोई मंशा है। क्योंकि स्वामीजी अन्यत्र कई बार स्पष्ट रूप से घोषणा कर चुके हैं कि " एकीकरण के उद्देश्य की पूर्ति के लिये किसी हिन्दू का इस्लाम में धर्मान्तरण करना, किसी ईसाई या बौद्ध का हिन्दु में धर्मनान्तरण करना न केवल अनावश्यक है, बल्कि इस प्रकार का धर्मान्तरण व्यक्ति-विशेष के लिये हानिकारक तो है ही,  सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए भी ऐसा करना हानिकारक होगा। "
 परन्तु मनुष्य को यह कैसे सिखाया जाय कि " विभिन्न धर्म उस ' मानव-मात्र में अन्तर्निहित एकात्मता ' की अनुभूति करने वाले धर्म की ही विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं ? स्वामीजी इसी बात पर प्रकाश डालते हुए अन्यत्र कहते हैं, " मैं तुमको विश्वास दिलाता हूँ कि विश्व के किसी भी देश में सार्वभौम धर्म एवं विभिन्न संप्रदायों में भ्रातृभाव के उठापित और पर्यालोपित होने के बहुत पहले ही इस नगर के (कोलकता) के पास एक ऐसे महापुरुष थे, जिनका सम्पूर्ण जीवन एक आदर्श धर्म महासभा का स्वरूप था। ये थे श्रीरामकृष्णदेव। इसीलिए धर्मांतरण करने में अपनी शक्ति का क्षय और दूसरों का अनिष्ट किये बिना, एकात्मता के धर्म का प्रचार करने का सबसे सरल उपाय है- श्रीरामकृष्ण का जीवन-वृतान्त प्रत्येक के सम्मुख रख देना। क्योंकि " श्रीरामकृष्ण का जीवन उनके द्वारा प्रदत्त उपदेशों का एक जीता जगता नमूना है। " उनके जीवन को देखकर लोग यह स्वयं समझ जायेंगे कि धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर चलने वाले समस्त संघर्ष अवश्य समाप्त हो जाने चाहिए।
यद्दपि स्वामीजी ने अद्वैतवाद को या वेदान्त को भविष्य का धर्म कह कर पुकारा है, किन्तु  उसको कार्य में रूपांतरित करने के आभाव का पहलु भी,स्वामीजी की दृष्टि से बचा नहीं था।  इसी भाव को व्यक्त करते हुए वे कहते हैं-" परन्तु साथ ही व्यावहारिक वेदान्त  जो समस्त  मानव जाती को अपनी आत्मा का स्वरुप समझता है, एवं उसी के अनुकूल सभी मनुष्य के साथ व्यव्हार करता है- उस कर्म में परिणत वेदान्त का विकास हिन्दुओं में सार्वजनिक रूप से होना अभी भी शेष है। "
" इसके विपरीत मेरा अनुभव यह है कि यदि किसी धर्म के अनुयायि व्यावहारिक जगत के दैनिक कार्यों के क्षेत्र में , इस ' साम्य भाव ' को बहुत हद तक अपना सके हैं तो, वे इस्लाम और केवल इस्लाम के अनुयायी हैं। यद्दपि ऐसे आचरण के पीछे जिस ' एक्तामता या साम्य भाव ' के सिद्धान्त का जो गूढ़ अर्थ है,-इस्लाम के अनुयायी उससे अनभिज्ञ हैं, पर हिन्दु उसे साधारणतः स्पष्ट रूप से समझते हैं। क्योंकि   इसकी भित्ति स्वरूप जो सकल तत्व गीता आदि में विद्यमान है, उस सम्बन्ध में हिन्दुओं की धरना स्पष्ट है  एवं इस्लाम को मानने वाले उस सत्य से परिचित नहीं हैं। "
" इसलिए हमें दृढ विश्वास है कि वेदान्त के सिद्धान्त कितने ही उदार और विलक्षण क्यों न हो, व्यावहारिक इस्लाम की सहायता के बिना, मनुष्य जाति की बहुसंख्यक जन साधारण के लिये वे मूल्यहीन हैं।"
 स्वामी विवेकनन्द अपने विचारों, कार्यों और सत्यपरायणता को भी ऐसी ही निर्भयता के साथ व्यक्त कर सकते थे। 1898 में मोहम्मद सरफराज हुसैन को लिखे अपने पत्र में उनके साथ राष्ट्रीय एकता एवं विकास के उपाय पर चर्चा करते हुए स्वामीजी कहते हैं, " हमारी मातृभूमि के लिए इन दोनों विशाल मतों का सामंजस्य - हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म रूपी दो विशाल मतों का समन्वय - वेदान्तिक मस्तिष्क और इश्लामी शरीर -यही एक मात्र आशा है। " " मैं अपने मनस चक्षु से भावी भारत की पूर्ण अवस्था को देख सकता हूँ, वर्तमान विवाद और संघर्ष को समाप्त कराकर भविष्य के अजेय भारत भारत वेदान्तिक मस्तिष्क और इस्लामी शरीर लेकर महिमामय और अपराजेय शक्ति से जग उठा है!"
वेदान्तिक मस्तिष्क और इस्लामी शरीर पर किसी विशिष्ट हिन्दू या मुसलमान या किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह का एकाधिकार नहीं होगा। इसका तात्पर्य है कि बहुसंख्यक लोगों का संगठित मस्तिष्क जो इस विशाल का्य राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करेगा, वह वेदांत के विचारों से ओतप्रोत होगा, और उस बिराट पुरुष का देह अर्थात राष्ट्र का सामाजिक जीवन का दैनिक व्यावहार इस्लाम की सामाजिक समानता लाने में जो व्यावहारिक क्षमता है, उसे वेदांत अद्वैत परक सिद्धांतों के आधार पर इस विशालकाय राष्ट्र की राजनैतिक संरचना में उसके राष्ट्रीय, सामाजिक एवं व्यष्टि के जीवन में कार्यरूप में परिणत करना होगा।  तब और केवल तभी राष्ट्रीय एकता संभव हो सकेगी- अन्य कोई मार्ग नहीं है! राष्ट्रिय एकता के विषय में स्वामीजी के यह विचार और सिद्धाम्त यही थे जिसे आज भी प्रयोग करने से भारत का कल्याण शिघ्त्रता से हो सकता है।

=======
  [जैसे शक-हूण, हूण मध्य एशिया की एक खानाबदोश जाति थी। यह जाति अपने समय की सबसे बर्बर जातियों में गिनी जाती थी। अनेक घुम्मकड़ और लड़ाकू क़बीलों का अस्तित्व था, जैसे 'नोमेड', 'वाइकिंग', 'नोर्मन', 'गोथ', 'कज़्ज़ाक़', 'शक' और 'हूण' आदि। रोमन साम्राज्य को तहस-नहस करने में हूणों का भी बहुत बड़ा हाथ था।
उत्तर-पश्चिम भारत में हूणों द्वारा तबाही और लूट के अनेक उल्लेख मिलते हैं। गुप्त काल में हूणों ने पंजाब तथा मालवा पर अधिकार कर लिया था। तक्षशिला को भी क्षति पहुँचायी। भारत में आक्रमण हूणों के नेता तोरमाण और उसके पुत्र मिहिरकुल के नेतृत्व में हुआ। मथुरा, उत्तर प्रदेश में हूणों ने मन्दिरों, बुद्ध और जैन स्तूपो को क्षति पहुँचायी और लूटमार की।
500 ई. के लगभग हूणों का नेता तोरमाण मालवा का स्वतंत्र शासक बन गया। उसके पुत्र ने पंजाब में सियालकोट को अपनी राजधानी बनाकर चारों ओर बड़ा आतंक फैलाया। अंत में मालवा के राजा यशोवर्मन और बालादित्य ने मिलकर 528 ई. में उसे पराजित कर दिया। लेकिन इस पराजय के बाद भी हूण वापस मध्य एशिया नहीं गए। वे भारत में ही बस गए और उन्होंने हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया।
ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में उत्तर-पश्चिम भारत में यूनानी राज्य का अंत हो गया तथा उसके स्थान पर शक नामक एक अन्य विदेशी जाति ने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया।  शक शासक महाराजा एवं राजाधिराज जैसी गौरवपूर्ण उपाधियां धारण करते थे। बाद में शकों को कुषाण भी कहा जाने लगा। कुजूल कैडफाइसिस , जिसे कैडफाइसिस प्रथम कहा जाता है , पहले बड़ा शक शासक था। उसके बाद उसका पुत्र विम कैडफाइसिस (कैडफाइसिस द्वितीय) राजगद्दी पर बैठा। उसने कुषाण राज्य को पंजाब और गंगा-यमुना के दोआबे तक बढ़ा लिया। उसने सोने तथा तांबे के सिक्के चलाए। तथा इन सिक्कों में स्वयं का एक महान राजा एवं शिवभक्त के रूप में उल्लेख किया। उसके कुछ सिक्कों पर नंदी बैल के साथ त्रिशूलधारी शिव का चित्र अंकित है। इसी वंश का तीसरा महान शासक कनिष्क था।कनिष्क का राज्यारोहण 78 ईस्वी में हुआ। अपने राज्यारोहण के अवसर पर कनिष्क ने ' शक संवत ' चलाया। कनिष्क के राज्यारोहण के समय कुषाण साम्राज्य में अफगानिस्तान , सिंध का भाग , बैक्ट्रिया एवं पार्थिया के प्रदेश शामिल थे। अपने चरमोत्कर्ष के समय कनिष्क का साम्राज्य पश्चिमोत्तर में खोतान से पूर्व में बनारस तक एवं उत्तर में कश्मीर से दक्षिण में सौराष्ट्र एवं मालवा तक फैला था। कनिष्क के इस विशाल साम्राज्य की राजधानी पुरुष पुर यानी आधुनिक पेशावर थी।]
        

रविवार, 6 जनवरी 2013

' समाज सेवा का उद्देश्य एवं उपाय '(प्रोग्रेस,मैन्स डिस्टिंक्टिव मार्क अलोन) [ $$@$$स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [59])(9.समाज और सेवा),

मनुष्य के जीवन में उठने वाले कई प्रश्न और संदेह उसे निरंतर सताते रहते हैं। ' To be or not to be'  that is the question’ अर्थात 'क्या करूं, क्या न करूं'- या इन दोनों में अच्छा क्या होगा ? ' यही तो वह सवाल या द्विधा है जो दीमक की भांति हैमलेट को पल-प्रतिपल कुरेदती रहती है। किन्तु 'क्या करूं, क्या न करूं' यह प्रश्न केवल रंगमंच के पात्र हैमलेट के मन की ही दुविधा नहीं है, बल्कि विश्व रंगमंच पर आविर्भूत अधिकांश लोगों की होठों पर यही प्रश्न रहता है।
जो लोग सामाज-सेवा मूलक कार्यों में अपनी भूमिका निभाते हैं, ऐसे व्यक्ति भी समय समय पर रुक कर सोचने लगते हैं, कि जीवन की चरम परिपूर्णता को प्राप्त किये बिना ही सामाज-सेवा के कार्यों में  संबद्द होकर मैंने ठीक किया है या नहीं ? वे लोग बड़े कठिन कठिन प्रश्नों को सामने रखते है। एक से एक सूक्ष्म उदाहरणों को प्रस्तुत करते हैं। किन्तु परिपूर्णता प्राप्त करने के बहाने वास्तव में वे भीतर ही भीतर समाज-सेवा के कार्य से अपने को मुक्त करना चाहते हैं। तथा, उनकी यह इच्छा कितनी न्याय संगत है, उसे प्रमाणित करने के लिये बड़े बड़े महापुरुषों की शिक्षाओं को अप्रासंगिक तौर से उद्धृत भी करते हैं।
वे लोग सोचते हैं, केवल इसी प्रकार, अर्थात पूर्णता प्राप्त करने के बाद ही मानव समाज का कल्याण करने के कार्य में वे अपने योग्य भूमिका निभा सकते हैं। इन सब बातों को जब वे कहना शुरू करते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है मानो उनके द्वारा उठाये जाने वाले तर्क कितने आंतरिक हैं। लगता है मानो समाज-सेवा के कार्य से उनके मुक्त होने के प्रस्ताव का एकबार केवल समर्थन कर देने (महामण्डल-कार्य या सचिवपद से रिजाइन करने की अर्जी को स्वीकार करने से) से ही, वे तो बस ' सर्वकर्मणि परित्यज्य ' अपने पोथी-पतरे के साथ- सिनेमा, टी. वी., जीविकोपार्जन, सन्तान पालन, परिवार प्रतिपालन आदि सब कुछ छोड़ कर, अभी तुरंत ही साधना करने के लिये सीधे घने जंगल की ओर प्रस्थान कर जायेंगे। तथा, वहाँ पहुंचकर अन्तर्जगत की पूर्णता उपलब्ध करने के लिए ध्यान की गंभीरता में निमग्न हो जायेंगे। और घने जंगल में पीपल वृक्ष के नीचे ध्यान करने के फलस्वरूप घटित होगा - मानवजाति के एक नए मार्गदर्शक नेता अर्थात  'मुक्तिदूत' का आविर्भाव ! किन्तु दूसरे ही पल वह फिर सोचता है कि यदि पीपल वृक्ष के नीचे घंटों ध्यान लगाने के बाद भी यदि उसे ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई और वो बुद्ध नहीं बन सका तो क्या होगा? संभवत: हैमलेट की इसी मन:स्थिति से संप्रेरित होकर शायर ने लिखा होगा-
                                        ''अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएंगे
                                           मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएंगे।"


किन्तु, क्या सचमुच वे वैसा ही करेंगे ? वे ऐसा मानते हैं कि उनके पूर्णता प्राप्ति के पथ की एकमात्र बाधा बस समाज सेवा का कार्य ही है। जबकि वास्तव में समाज सेवा के कार्य से पीछा छुड़ा कर,वे सेष सबकुछ करते हुए उसीके अन्तराल में परिपूर्णता भी प्राप्त कर लेना चाहते हैं; और मानव की सेवा या समाज की सेवा उसके बाद ही करने की बात सोचते हैं। किन्तु क्या यह कभी संभव है? ऐसे व्यक्ति कितने हैं, जो सबकुछ छोड़-छाड़ कर पूर्णता-प्राप्ति की साधना में ही एकाग्र होकर ध्यानमग्न हो सकते हैं ?
 यदि कोई सचमुच ही ऐसा करने में समर्थ हों, तो वे अवश्य करें। उनकी अनुपस्थिति में समाज-सेवा का कार्य बिल्कुल ठप्प ही हो जायेगा, ऐसी बात नहीं है। किन्तु, वे लोग थोडा शान्त मन से विचर करके देखें कि कहीं वे इस ' व्यर्थ के कार्य ' से छुटकारा पाने के लिये ही ये सब बहाने तो नहीं बना रहे हैं ? जो सेवा-कार्य वास्तव में मनुष्य को उसकी पूर्णता प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होते हैं, उसी को ' व्यर्थ का काम ' समझकर उसकी उपेक्षा कर देना तो मूर्खता है। वे भी यही मुखता करने जा रहे हैं या नहीं, थोडा इस पर भी विचार करके अवश्य देख लें, तब कोई निर्णय लें।
फिर ऐसे 'बुद्धिमान' लोग भी बहुत से हैं, जो ' बिना पैसा ' के या मुफ्त में कोई कार्य करने को राजी नहीं होते। फिर कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो यदि संभव हो सके तो कोई भी कार्य न करें, वे सिर्फ आलसी जीवन जीने में विश्वास करते हैं। किन्तु शायद वे यह नहीं जानते कि, बिना कोई कार्य किये यूँ ही बैठे रहना  भी बहुत कठिन है। हम गीता में कथित केवल दार्शनिक तथ्य के आधार पर यह बात कह एहे हों, वैसा नहीं है, आधुनिक विज्ञान भी यही कहता है। जापान के वैज्ञानिकों ने मानव-जीवन में आराम के क्षणों की गणना करते समय उसकी निद्रा को भी एक कार्य के रूप गिना है।
जीवित रहने के लिये, अर्थात जब तक हम जीवित हैं, तब तक कर्मों का त्याग नहीं कर सकते। चाहे जैसा भी लक्ष्य या आदर्श हम अपने समक्ष क्यों न रखते हों, उसे प्राप्त करने के लिये कर्म तो करना ही पड़ता है। यहाँ तक कि ईश्वर को प्राप्त करने के लिये भी कुछ न कुछ करना पड़ता है, अतः कर्म तो चाहिये ही।
 कोई भी व्यक्ति बिना कार्य किये एक क्षण भी आलसी होकर बैठा नहीं रह सकता - यदि यह बात समझ में आ चुकी हो, तो हमें अब यह भी निर्णय लेना होगा कि हमारे लिये कैसा कार्य करना उचित होगा ? थोड़ी गंभीरतापूर्वक विचार करने से दो बातें अत्यन्त महत्वपूर्ण जान पड़ती है। पहली बात तो यह कि - मैं क्या प्राप्त करना चाहता हूँ, मेरा लक्ष्य क्या है, मैं क्या बनना चाहता हूँ ? यही वह वस्तु है, जो मुझे सामने से अपनी ओर खींच रही है। तथा दूसरी महत्वपूर्ण वस्तु है मेरा चरित्र, जो मुझे पीछे से धक्का  रही है। यही खिंचाव और धक्का - यह आकर्षण एवं उत्प्रेरण ही हमारे जीवन पथ की परिक्रमा को या लक्ष्य की दिशा में आगे बढने की जीवन-गति को नियन्त्रित करते हैं। यदि इन दोनों में से कोई एक भी मेरे पास न रहे, तो मैं बिल्कुल आलसी बन जाऊंगा। तथा किसी के जीवन में यदि इन दोनों (आदर्श और चरित्र ) का ही आभाव रहे, तो उसके जीवन की गति बिल्कुल निस्पन्द (motionless) हो जाती है। एक और महत्वपूर्ण बात- ये दोनों रहें, किन्तु विपरीत गुण-धर्म वाले हों, तो सामने का (आदर्श का ) आकर्षण और पीछे का धक्का (चरित्र) परस्पर विरोधी दिशा में कियाशील होंगे, जिसका परिणाम होगा- असफलता या दुर्भाग्य।
इसीलिये हमलोगों के पास - एक निश्चित जीवन लक्ष्य या 'आदर्श और चरित्र ' दोनों रहने चाहिये, तथा दोनों के बीच सामंजस्य बनाये रखने में हमें सदैव तत्पर भी रहना चाहिये। किसी मनुष्य का जीवन जिन कारणों से असफल हो जाता है, उसके कारणों की खोज करने पर अनेक क्षेत्रों में यही देखा जायेगा कि हमलोगों में से कई व्यक्तियों के जीवन का कोई निश्चित लक्ष्य या आदर्श होता ही नहीं है। ओय किसी के पास कोई लक्ष्य हो भी तो उसे प्राप्त करने के लिये जितना चरित्र-बल होना चाहिये, वह बिल्कुल नहीं है। आज के अधिकांश तरुणों की यही दशा है। इसीलिये उनका जीवन हताशापूर्ण हो गया है। अंग्रेजी के कवि रोबर्ट ब्राउनिंग ने एक बहुत सच्ची बात कही थी, " The aim, if reached or not, makes great the life." - अर्थात किसी व्यक्ति के जीवन का कोई निश्चित लक्ष्य है, तो भले वह उसे प्राप्त कर सके या नहीं, किन्तु वह लक्ष्य उसके जीवन को महान अवश्य बना देता है। " रोबर्ट ब्राउनिंग ( Robert Browning) की कविता है - 
Finds progress, man's distinctive mark alone, 
Not God's, and not the beast's; 
God is, they are, Man partly is,
 and wholly hopes to be.

आज  हमारे देश में चरित्र का जैसा घोर आभाव देखा जा रहा है, वैसा आभाव अन्य किसी वस्तु का नहीं है। हमारे जीवन में न तो किसी आदर्श के प्रति आकर्षण है, न ही चरित्र की उत्प्रेरणा है, जिसके फलस्वरूप हमलोग केवल तृण-भक्षी पशुओं की श्रेणी में उतर आये हैं। इसीलिये आज का यक्ष प्रश्न है- क्या करने से हमलोग एक आदर्श एवं प्रखर चरित्र के अधिकारी बन सकते हैं ? या इन दोनों - 'जीवन-लक्ष्य तथा चरित्र-बल ' के गति को एक ही दिशा में रखने में जो व्यावहारिक कठिनाई हो रही है उसका समाधान क्या है ? ऐसा प्रतीत होता है मानो यहाँ हम इंजीयरिंग के किसी शाखा विशेष के उपर चर्चा कर रहे हों ! हाँ, सचमुच यह एक विशेष प्रकार की इन्जियानिरिंग ही तो है। जिसे आध्यात्मिक इन्जियानिरिंग कहते हैं, यह उसी की एक शाखा है। लक्ष्य एवं चरित्र की गति को एक दिशा में अग्रसर रखने के दो उपाय हैं। यदि संभव हो तो अपने चरित्र के अनुसार किसी आदर्श का चयन कर लिया जाय, या फिर किसी योग्य आदर्श को अपनी इच्छा के अनुसार चयन करके अपने चरित्र को ही इस प्रकार गठित किया जाय जो हमें उस आदर्श के निकट पहुंचा सके।
आम तौर से जिनके पास कोई जीवन-लक्ष्य पहले से ही निर्धारित रहता है, वे अपने चरित्र के अनुरूप ही अपने जीवन लक्ष्य का चयन भी कर लेते हैं। उदाहरण के लिये जिस व्यक्ति का चरित्र उसको सभी प्रकार के संभाव्य शारीरिक सुखों को भोगने की दिशा में धक्का दे रहा हो, तो वह प्रचुर मात्र में 'अर्थ-संचय' करने को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना सकता है। उस अवस्था में ' लक्ष्य एवं चरित्र ' एक ही दिशा में सामंजस्य बनाकर कार्य करते हैं। तथा वह व्यक्ति यदि असाधारण उद्यमशील भी हो, तो वह अपने निर्दिष्ट आदर्श के अनुरूप उसी जीवन में सफलता भी प्राप्त कर सकता है। उसी प्रकार यदि किसी युवा की सुन्दर शारीरिक संरचना हो, सुन्दर चाल-ढाल हो, एवं उसके बोलने की शैली और आवाज आदि बहुत आकर्षक हो, और वह यदि फिल्म-स्टार बनना चाहे तो वह अपने अग्रवर्ती लक्ष्य तथा स्वाभाविक प्रेरणा को एकमुखी दिशा में गतिशील रखने की इंजिनयरिंग का व्यवहार करके सफलता प्राप्त कर सकता है।
किन्तु, दूसरा रास्ता अधिक कठोर तथा दृढ़तम पौरुष की मांग करता है। जो लोग इस मार्ग को चुनते हैं, वे लोग जन्मजात प्रेरणा या सहज प्रवृति के द्वारा अनुप्रेरित होकर अपने जीवन के लक्ष्य को निर्धारित नहीं करना चाहते। बल्कि वे तो समाज की वास्तविक अवस्था तथा मनुष्य जीवन के उद्देश्य के उपर समग्र रूप से विचार-विमर्श करने के बाद , अपने हृदय की गहराई में दुर्लभ मानव-जीवन की एक महिमा का अनुभव करते हैं; एवं उसी के आधार पर अपने जीवन लक्ष्य को निर्धारित कर लेते हैं। जो ऐसे मेधावी तरुण होते हैं, वे किसी विवेकी मनुष्य के योग्य, वैसे किसी महान लक्ष्य को अपने सामने स्थापित करते हैं। क्योंकि अपने चरित्र को सुधारने के लिये जिस साहस की आवश्यकता होती है, वैसा साहस इनमे भरा होता है। लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये जैसा चरित्र किसी व्यक्ति में होना चाहिये, ठीक वैसा ही चरित्र वे गठित कर लेते हैं। वे अपने ' चरित्र का मोड़ ' घुमा देते हैं; अर्थात अपने चरित्र में आमूल परिवर्तन या यू टर्न ले आते हैं, ताकि दूर-देश में (देश-काल-निमित्त के परे) स्थापित उनके अतिप्रिय आदर्श की दिशा में वे किसी निडर अन्वेषक के समान आगे बढ़ते रहें। इसी का नाम है-पौरुष। ये निर्भीक युवा भूतपूर्व जीवन के प्रलोभनों के फन्दों को काट कर सभी प्रकार के लोभ-लालच को जीत लेते हैं, तथा आन्तरिक और वाह्य प्रकृति के दासत्व से अपने को मुक्त कर लेते हैं। ये लोग बाह्य और आंतरिक परिवेश के दबाव को विदीर्ण करके बाहर निकल आते हैं, तथा अपने जीवन और परिस्थितियों के स्वामी बन जाते हैं।
अपनी ज्ञान चक्षुओं को खुला रखकर, समाज की वास्तविकता पर चिन्तन-मनन करने से हमारे विचार-जगत में एक हलचल मच जाती है। और उसके फलस्वरूप हमलोग यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेते हैं कि हमारा जीवन लक्ष्य क्या है, तथा उसे किस विशिष्ट प्रकार का होना उचित है ? उसके बाद हमलोग केवल उसी प्रकार के कार्य करना चाहेंगे, जो हमें अपने हृदय द्वारा प्रायोजित उस लक्ष्य को प्राप्त करने में सहयता करेगा। इसीका नाम -चरित्र-गठन, चारित्रिक-सुधार, या लक्ष्य-प्राप्ति की दिशा में किये जाने वाले कर्मों (सेवा-कार्यों) के माध्यम से चरित्र के मोड़ को घुमा देना या अपने चरित्र में आमूल परिवर्तन ले आना भी है। इसीलिये कर्मों को नियन्त्रित करके हम अपने चरित्र को पुर्णतः स्पष्ट रूप में प्रस्फुटित कर सकते हैं। और ऐसा सुगठित चरित्र ही व्यक्ति को उसके जीवन-लक्ष्य को प्राप्त करने के दिशा में अग्रसर कराता रहता है। यदि हमारे जीवन का लक्ष्य मानव-समाज में अन्तर्निहित एकात्मता की उपलब्धी करनी हो, तो हमलोग स्वयं को समाज से अलग बिल्कुल नहीं रख सकते। इतना ही नहीं, जिन सेवा-कार्यों के द्वारा हमारे भीतर सम्पूर्ण मानव-समाज के प्रीति सहानुभूति जाग्रत करने में सहायता मिलती हो, उन्ही कार्यों को हमें बार बार करते रहना होगा।
भूखे-नंगे, अशिक्षित, शोषित लोगों के समूह अनेकों प्रकार के दुःख एवं आभाव में अपना जीवन बिता रहे हैं,उनको देखने मात्र से हमलोगों का हृदय संवेदना से भर उठता है। हमारे जो भाई इनकी सेवा में अपने को नियोजित कर देते हैं, वास्तव में वे ही चरित्र-गठन की साधना में लगे हुए हैं। उनका चरित्र धीरे धीरे गठित होकर उन्हें सभी मनुष्यों में एकात्मता का अनुभव करने के वांछित (desired) आदर्श या लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायता करता है। इस दृष्टिकोण के साथ समाज-सेवा के मूल उद्देश्य के उपर विचार करने से हम पाएंगे कि ' लक्ष्य-अन्वेषक समाज-सेवा ' वास्तव में एक सच्ची आध्यात्मिक साधना ही तो है। दुनिदारी निभाने के लिये की जाने वाली समाज-सेवा की अपेक्षा (महामण्डल के युवा-प्रशिक्षण शिविर के विभिन्न विभागों- विशेष रूप से " किचेन- डिस्ट्रीब्युसन दल और सफाई व्यवस्था दल " का सदस्य बनकर मानव-समाज की एकात्मता की अनुभूति प्रदान करने वाला प्रशिक्षण के दौरान किया जाने वाले) यह सेवा-कार्य कितना अलग प्रकार का है !
किन्तु जो लोग सामान्य रूप से समाज-सेवी क्लबों के माध्यम से सेवा करते हैं, अधिकांश क्षेत्र में उनके सेवा का उद्देश्य इस सेवा से पृथक होता है। किसी महान आदर्श को अपने जीवन में कार्यान्वित करने के लिये जिस प्रकार के चरित्र की आवश्यकता होती है, वैसा चरित्र गढ़ना या उसका अभ्यास करना उनकी समाज-सेवा का उद्देश्य नहीं होता। जबकी दूसरी ओर आध्यात्मिकता के आधार पर की जाने वाली समाज सेवा का उद्देश्य ही अपना चरित्र गठन करना होता है। समस्त आध्यात्मिक साधनाओं का अन्तिम परिणाम होता है -सम्पूर्ण विश्व के साथ एकात्मता का अनुभव, या एकत्व-बोध ! ( " I am one with all " - अनुभव ) " सम्पूर्ण मानव जाति एक है " - इस सत्य की अनुभूति करने के लिये, एकात्मता की अनुभूति के आदर्श को जीवन में कार्यान्वित करने के लिये जिस चरित्र-बल की आवश्यकता होती है, उस चरित्रबल को संचित कर लेना, वैसा चरित्र गठित कर लेना ही (महामण्डल प्रशिक्षण शिविर में की जाने वाली) इस " अध्यात्मिक समाजसेवा " का उद्देश्य है।
इस प्रकार (16 दिसम्बर 2012 को दिल्ली पुलिस के अमानवीय व्यवहार में सुधार लाना चाहते हों, तो )  जीवन में एक सुयोग्य मॉडल (आदर्श) का चयन करने तथा उसके अनुरूप चरित्र गठन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये, हमलोगों को भी प्रकट रूप से दूसरों को लाभ के लिये की जाने वाली निःस्वार्थ समाजसेवा के कार्यों में आत्मनियोग करना ही पड़ेगा। किन्तु इसके साथ ही साथ यह भी स्मरण रखना होगा कि ये सभी सेवा-कार्य बिल्कुल ही निःस्वार्थ नहीं होंगे। प्रशिक्षण शिविर में विभिन्न विभागों में दी जाने वाली सेवाओं के माध्यम से जो कार्यकर्ता जितने परिमाण में अपना चरित्र गठित कर लेता है, उसी परिमाण में उसको स्वार्थ-सम्बद्ध कहा जा सकता है। किन्तु इस विषय में सतर्क रहना ही इस ' आध्यात्मिक समाज-सेवा ' का कौशल है कि इन कार्यों को करते समय कहीं व्यक्तिगत नाम-यश की आकांक्षा, पद-लोलुपता या अन्य कोई सांसारिक स्वार्थ या अहंकार -तुष्टि या वैसी ही क्षुद्र स्वार्थपर कोई विचार सिर न उठा सके।
इस प्रकार के कौशल के साथ सम्पन्न होने वाले समाजसेवा मूलक कार्यों के द्वारा जो चरित्र विकसित होता है, वही इन कार्यों का अध्यात्मिक लाभ है। इसी रहस्य को ठीक से नहीं समझ पाने के कारण, ऐसा प्रतीत होता है कि हम कहीं समाजसेवा के चक्कर में जीवन की अध्यात्मिक दिशा दूर हट कर, किसी व्यर्थ के काम में तो लिप्त नहीं हो गये हैं ? जबकि वास्तविकता ठीक इसके विपरीत है। कुशल सामाजिक कार्यकर्ता समाज-सेवा को ' आध्यात्मिक समाजसेवा ' में रूपांतरित करके, वस्तुतः यथोचित मात्रा में आध्यात्मिक-दृष्टि (हर जीव में शिव को दखने की शक्ति ) प्राप्त करने का अभ्यास ही कर रहा होता है। जबकि इसके विपरीत मानसिकता (देने वाले का स्थान ऊँचा सोचना ) के साथ सेवाकार्य करने से चरित्र में सद्गुण के बजाये दुर्गुण आने की सम्भावना बढ़ जाती है। वास्तव में कार्यकर्ता के अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण या अनुभूति के उपर ही सबकुछ निर्भर करता है। सेवा-कार्यों के प्रति निष्ठां ही उसके कर्मफल का नियामक होता है।
सेवा-कार्यों को पूर्ण निष्ठा के साथ करने का परिणाम यह दिख पड़ता है कि उसी कार्य के भीतर फिर से एक विशेष प्रकार की गति सक्रीय हो जाती है। सामाजिक-कल्याण के लिये कोई साधारण सा कार्य करने पर भी,उसके अनिवार्य परिणाम-स्वरूप हमलोगों का जो आध्यात्मिक विकास होता है, वह भले ही कितना भी साधारण सा क्यों न प्रतीत होता हो, उसके ही फलस्वरूप हमलोगों के हृदय में -'सिंह का सा बल उत्पन्न हो जाता है ' और हमलोग पहले की अपेक्षा थोड़ी और अधिक शक्ति,प्रेरणा और इच्छा अर्जित करते हैं। इस अतिरिक्त उर्जा को यदि हमलोग पुनः समाजसेवामूलक कार्यों में नियोजित कर दें, तो वह शक्ति एक स्थायी सामाजिक और नैतिक प्रज्ञा (समझ) की उपलब्धी के रूप में ब्याज-समेत हमलोगों के ही भीतर लौट आती है। इसके फलस्वरूप हमलोग आध्यात्मिक प्रेरणा के उच्चतर स्तर में उठ जाते हैं। यही प्रेरणा, ' भद्र-विनम्र मानवता ' का प्रवाह बन कर पुनः समाज-कल्याण की दिशा में प्रवाहित होने लगती है।
अथवा यूँ भी कह सकते हैं कि दैवी करुणा, सेवा एवं विश्व के साथ एकात्मता की अनुभूति के रूप में वह शक्ति आध्यात्मिकता का उत्तुंग ज्वार बनकर पुनः हमारे भीतर लौट आती है। और यही प्रेम-प्रवाह अनन्त काल तक चलता रहता है। 'समाजसेवा और विश्व के साथ एकात्मता की अनुभूति ' क्रमशः कार्य-कारण रूप से एक दुसरे को विकास के उच्चतर स्तर पर उठाता रहता है। इसी प्रकार 'सेवाव्रती' के आध्यात्मिक जीवन में विकास होता रहता है, तथा जितना समय बीतता जाता है, उसी अनुपात में वह कर्मउद्दीपना से भरपूर हो उठता है। प्रचलित अन्धविश्वास - " आध्यात्मिकता कर्मयोगी के हाथ-पैर को अपंग बना देती है " के विपरीत उस ' सेवाव्रती ' का घोर पराक्रमी जीवन एक दृष्टान्त के रूप में विकसित हो उठता है।
'समाजसेवा और विश्व के साथ एकात्मता की अनुभूति ' के लक्ष्य तक पहुँचने की प्रतिस्पर्धा में मानो प्रतिद्वंद्विता की भंगिमा में गतिशील दो समानान्तर सरल रेखाओं की तरह एक-दूसरे से होड़ लगाती हुई, एक-दुसरे को पीछे छोड़ कर एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहते हों। जिसके फलस्वरूप अधिक हो या कम दोनों एक साथी बढती रहती है, तथा एक की अग्रगति दूसरे के वृद्धि का कारण बन जाती है। कर्म के इस कौशल को समझ लेने के बाद कोई यह नहीं कह सकता कि समाजसेवा आध्यात्मिक विकास के प्रतिकूल है।
किन्तु, कर्म के इस गुप्त रहस्य को हमारी बुद्धि समझ क्यों नहीं पाती है ? इसका कारण क्या है ? कारण यह है कि समाजसेवा करते समय हमलोग यह सोचने लगते हैं कि सामाजिक कार्यों के माध्यम से मैं दूसरों को कुछ दे रहा हूँ, अर्थात दूसरा कोई व्यक्ति प्राप्त कर रहा है, वह लाभ उठाने वाला है, मैं देने वाला हूँ, मैं दाता हूँ। इस धारणा ने ही हमलोगों की सेवा-परायणता की भावना को अपहृत कर लिया है। जैसे ही यह अहंबोध तथा नाम-यश पाने की दुर्दान्त वासना जाग उठती है, हमारी आध्यात्मिकता भी वहीं दम तोड़ देती है। और समाजसेवा करने में खतरा भी यही है। समाजसेवा करते समय हो सकता है, हमलोग थोड़ा-बहुत शारीरिक श्रमदान करते हैं, या दूसरों से चन्दा मांगकर उसी धन से कुछ सस्ते मूल्य की वस्तुएं खरीद कर दान करते हैं। और उसके बदले में, न्याय-नैतिकता की अनुभूति, विकसित चरित्र-गठन के बहुमूल्य उपादान तथा सम्पूर्ण मानवता के साथ एक अखण्ड एकात्मता की अनुभूति प्राप्त करते हैं। तथा इन सब वस्तुओं को ही आध्यात्मिक जीवन का घटक कहा जाता है। इसीलिये यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक कार्यों में हमलोग जितना देते हैं, उससे कई गुना अधिक लाभ हमें ही प्राप्त होता है, एवं गुणवत्ता की दृष्टि से देखने पर भी हम जो स्वयं प्राप्त करते हैं, उसका मूल्य बहुत अधिक है। इस प्रकार वास्तविक लाभ तो हमलोग ही उठाते हैं, और वैसे सस्ते मूल्य की सामग्रियों को ग्रहण करके वे ही लोग हमारा उपकार करते हैं, वे लोग ही सच्चे हितकारी हैं।
इसके बाद एक दूसरी उलझन भी है, जो  व्यर्थ तर्क-कुतर्क करते रहने की आदत के कारण  समाज-सेवकों के मन में प्रविष्ट हो जाती है। वे इस बात पर बहस करने लगते हैं कि आध्यात्मिक विकास होने के पहले ही समाज-सेवा के कार्य में जुट जाना क्या उनके लिये उचित है ? 'लोक-सेवकों'  को भी लोकगुरु या लोकशिक्षक की भूमिका में को स्थापित करने के जिद से ऐसा भ्रम दिखाई देने लगता है। चूँकि वह सचमुच में अकृत्रिम विनय का अधिकारी होता है, इसीलिये जो सद्गुरु मनुष्य की हृदय-गुहा में संचित अज्ञान के अंधकार को समाप्त करने में समर्थ हैं, उनके साथ स्वयं को एक ही आसन पर बिठा कर देखने के विचार से ही वह काँप उठता है। वह स्वयं बहुत अच्छी तरह से जानता है कि उसका आध्यात्मिक जीवन अभी पूर्णता को प्राप्त नहीं हुआ है, फिर भी भ्रम में पड़ कर सोचने लगता है कि पूर्णता प्राप्त किये बिना उसको समाज-सेवा करने का कोई अधिकार नहीं है।
समाज-सेवा के क्षेत्र में शिक्षक और छात्र की भूमिका को वह इस प्रकार मिला देने से भ्रम में पड़ जाता है, क्योंकि वह इस बात पर गहराई से कभी चिन्तन नहीं करता, वह इस रहस्य को नहीं समझता है कि - कोई समाजसेवक समाज को जितना देता है, अंततोगत्वा उसको उससे बहुत अधिक प्राप्त हो जाता है। हाँ, यह बात और है कि पूर्णता प्राप्त आध्यात्मिक जीवन गठित होने के पहले ही यदि वह आध्यात्मिकता के भाव-विलास का प्रदर्शन करने लग जाये तो उसके वैसे आचरण की निन्दा ही करनी होगी। किन्तु वास्तव में जो कुछ समाजसेवा वह कर रहा है, उसको अनुसन्धान कहा जा सकता है, वह कर्मक्षेत्र में उतर कर छूरे की धार जैसी तीक्ष्ण पथ पर चलते हुए अन्तर्निहित पूर्णता की खोज में अग्रसर हो रहा है।
समाज सेवा का एक दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष और भी है। वह यह है कि व्यावहारिक जगत की परिधि के बाहर, अन्यत्र जिन महान आदर्शों की शिक्षा हमलोग प्राप्त करते हैं, समाज सेवा का कार्य उस शिक्षा को वास्तविकता की कसौटी पर परखने का अवसर प्राप्त करा देता है। सेवा करते समय दिन-दरिद्र मनुष्यों के दुःख-कष्टों को अनुभव करने से, अपने प्राणों में उनकी वेदना को अनुभव करने का आह्वान हमारे कानों में ध्वनित होने लगता है। सचमुच, यदि जीवन भर केवल इसी बात को रटते रहें कि- दिन-दुःखियों के प्रति हमलोगों में सहानुभूति रहनी चाहिये, किन्तु किसी दीन -दुःखी की सेवा करने के लिये कभी पहुंचे ही नहीं, तो उस सहानुभूति का सच्चा अर्थ क्या है, इस रहस्य को हमलोग कभी हृदयंगम ही नहीं कर पाएंगे। इसका रहस्य तभी समझ में आता है, जब वास्तव में वह (सब के साथ एकात्मता की ) अनुभूति जाग्रत हो उठती है।
यदि पूरे जीवन हम इसी बात को दुहराते रहें कि निःस्वार्थ निष्काम कर्म हमारे हृदय और मन को विकसित करता है, किन्तु उस तत्व को कार्य में प्रयोग करके नहीं देखें, या कभी जांच नहीं करें, तो निष्काम कर्म क्यों करना चाहिये, इसका मर्म हमारे लिये कभी बोधगम्य नहीं होगा। सामाजिक कार्य करते समय जब इन आदर्शों की सत्यता को परख कर देखते हैं, केवल तभी यह समझ में आता है कि आदर्श को जीवन में उतारना कितना कठिन है !
श्रीरामकृष्ण इस बात को बहुत बलपूर्वक कहते थे कि " करके देखे बिना शास्त्रों के मर्म को ठीक से नहीं समझा जा सकता है।" वे यह भी कहते थे- " यदि ऐसा सोचोगे कि समुद्र की लहरें पहले बिलकुल शान्त हो जाये, तभी डुबकी लगाऊंगा, तो ध्यान रखना कि वैसा अवसर तुमको कभी प्राप्त नहीं होगा। "
यदि हमलोग भी यह तय कर लें, कि जीवन में पूर्णता प्राप्त कर लेने के बाद, या मन की समस्त चंचलता शांत हो जाने के बाद ही सेवा कार्य में उतरूंगा, तो पूर्णता की प्राप्ति तो कभी होगी ही नहीं, दूसरों के लिये कार्य करने अवसर भी हाथ से निकल जायेगा। क्योंकि पहले ही इस बात को स्पष्ट किया जा चूका है कि चरित्र-गठन के लिये एवं आदर्श को जीवन में उतारने के लिये ही कर्म करने की आवश्यकता होती है।
जो लोग कर्म के इस रहस्य को जानते हैं, वे आध्यात्मिकता की दुहाई देकर कभी कर्म का त्याग नहीं करते।तथा कर्म के भीतर ही जो आध्यात्मिकता अनुस्यूत है, उसका परिचय खोज कर जिन्होंने प्राप्त नहीं किया है, उनकी दशा, उसी बोझ ढोने वाले गर्दभ के समान होती है, जो चन्दन की लकड़ी के बोझ को ढोते समय उसके बोझ को तो समझता है, किन्तु उसके मूल्य का उसको कुछ पता नहीं होता। भगवान श्रीकृष्ण भी गीता में कहते हैं-
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥
भावार्थ :   इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ अर्थात्‌ बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं॥2/49॥ 
-कर्म के गुप्त रहस्य को समझे बिना कर्म करने से वह कर्म निम्न श्रेणी का या अधम कर्म हो जाता है। इसीलिये भगवान सेवाव्रती को कर्म के साथ बुद्धियोग करने का परामर्श देते हैं। क्योंकि बुद्धि के साथ किया गया कर्म ही अन्तर्निहित सुप्त गोपनीय शक्ति को विकसित करने का श्रेष्ठ उपाय है। दूसरे भी कई उपाय हैं, किन्तु तुलनात्मक रूप से यही सहजतर उपाय है। तथा उन तरुणों के लिये तो यही मार्ग विशेष रूप से उपयोगी है, जिन्हें हर प्रकार के दुःख-कष्ट से पीड़ित समाज के बीच ही रहना पड़ता है। इस प्रकार के आध्यात्मिक समाजसेवा का कार्य करने से ही समाज के दुखों में कुछ कमी हो सकती है, एवं उनके हृदय का विस्तार भी हो सकता है। तथा इस प्रकार के अध्यात्मिक समाजसेवा में दक्ष युवाओं की संख्या बढ़ने से समाज में विराट परिवर्तन होना निश्चित है।
दि हमारे तरुण मित्र सचमुच समाज में परिवर्तन लाने के इच्छुक हों, तो देह-मन-प्राण लगते हुए इस मनुष्य निर्माणकारी ' आध्यात्मिक समाजसेवा ' के कार्य में कूद पड़ीये, क्योंकि केवल इसी उपाय से चरित्र गठित हो सकता है, और देश की समस्त समस्यायों को दूर किया जा सकता है। कर्मफल का अनुसन्धान करने तथा उसका छिद्रान्वेष्ण करने के बाद का नैराश्य तरुणों को बिल्कुल सोभा नहीं देता है। स्वामी विवेकानन्द को जिन्होंने बिल्कुल नजदीक से देखा और समझा था, वही भगिनी निवेदिता विवेकानन्द साहित्य की भूमिका में लिखती हैं- " केवल उपासना के विविध प्रकार ही नहीं, वरन सामान्य रूप से होने वाले सभी कर्म, जीवन संग्राम की समस्त प्रणालियाँ, सर्जन की समस्त धारायें भी, सत्य साक्षात्कार के ही मार्ग हैं। " 
जो लोग कर्म के गुप्त रहस्य को नहीं जानते तथा आध्यात्मिक दृष्टि से सेवा कार्य किये बिना ही नैष्कर्म्य की स्थिति में पहुँच जाने का स्वप्न देखते हैं, उन्हीं की ओर संकेत करके ऋषि अष्टावक्र एक चेतावनी प्रद श्लोक में कहते हैं- " मूढ़मती के लोगों के लिये अर्थात जिनकी बुद्धि मोहनिद्रा में सोयी हुई है, जो स्वयं को केवल शरीर समझते हैं, के लिये निवृत्ति भी प्रवृत्ति बन जाती है, तथा धीमान या बुद्दिमानों के लिये कर्म ही निवृत्ति का फल प्रदान करता है। " 
उद्यमी तरुणों के जीवन में स्वतः प्राप्त होने वाले कर्म ही वह आसानी से पार करा देने वाली नौका है, जो अज्ञान के मोड़ से बाहर निकाल कर लक्ष्य रूपी घाट तक पहुंचा देती है। सम्पूर्ण विश्व की शांति तथा मानवजाति के प्रगति के लिये जो चारित्रिक शक्ति अपरिहार्य है, उस शक्ति को संग्रहित करने के लिये कौशल के साथ किया जाने वाला कर्म ( या आध्यात्मिक समाजसेवा ) ही सर्वोत्तम उपाय है।
  

शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

"समाज सेवा में प्राप्तकर्ता कौन ?"(दान करना भी सेवा या पूजा है ) $$@$$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [58] (9.समाज और सेवा),

परार्थ कर्म को निवृत्ति कहते हैं
स्वामीजी ने कहा है, संसार में हमेशा दाता का आसन ग्रहण करो। आज जो लोग समाज-सेवा के कार्य से जुड़े हुए हैं, उनको पहले यह समझना होगा कि वास्तव में सहायता को प्राप्त करने वाले 'recipient' या प्राप्तकर्ता वास्तव में कौन है ?  किन्तु वास्तविक परिक्षण करने से यह ज्ञात होगा कि जो लोग सहायता प्राप्त कर रहे हैं, वे वास्तविक प्राप्तकर्ता नहीं हैं, वे सहायता करने वाले हैं। वास्तव में वे ही दाता हैं। और जो लोग दे रहे हैं, वे ही यथार्थ प्राप्तकर्ता हैं, वे सहायता करने वाले नहीं हैं। उस सेवा से जो वास्तविक लाभ मिलता है, उसका अधिकांश भाग वे लोग ही प्राप्त करते हैं, जो लोग दे रहे हैं। हमलोग यदि मनुष्यों की सहायता कर पा रहे हैं, तो हमलोगों के लिये यह एक विशेष अवसर है। क्योंकि केवल इसी प्रकार हमलोग विकसित (पशु-मानव से मनुष्य में उन्नत) हो सकते हैं।
किन्तु किसी की सहायता करने या कुछ देने से हम कैसे विकसित होते हैं ? तथा दूसरों की सहायता करना हमारे लिये अवसर कैसे बन सकता है ? इसके अतिरिक्त हमलोग विकसित होंगे, इसका तात्पर्य क्या है ? मनुष्यों के प्रति हमारी सहानुभूति जितनी अधिक बढ़ेगी, अर्थात हमलोगों के भीतर एकात्मबोध जितना अधिक बढ़ेगा, हमलोग उतने ही अधिक विकसित होंगे, हमारे हृदय के प्रसारता की परिधि उतनी ही विस्तृत होती जाएगी। एकात्म होने का अर्थ क्या है ? अलग होने का अर्थ क्या है ? हमलोगों ने अपने चारों ओर एक घेरा डाल रखा है, और यह घेरा जितना अधिक टूटता जायेगा, हमलोग एक-दूसरे के साथ उतना अधिक घुल-मिल जायेंगे। हमलोग निरन्तर यह सुनते-कहते आ रहे हैं, कि समाज-सेवा करना आवश्यक है। किन्तु  सच्ची सेवा की मानसिकता लेकर ही समाज-सेवा करना आवश्यक है। वैसा नहीं होने से, यह समाज-सेवा कितनी हानिकारक हो सकती है, इस बात को भी समझ लेना आवश्यक है।
कोई दवा आमतौर से लाभ पहुंचती है, यदि उसका उपयोग सही ढंग से किया जाय, किन्तु गलत डोज लेने का परिणाम कितना अधिक जानलेवा हो सकता है, इसको भी हमने बहुत देखा है। उसी प्रकार समाज-सेवा में जिसकी सेवा की जा रही है, हमलोग केवल उनकी ओर ही देखते हैं। किन्तु सेवा का उद्देश्य या भाव ठीक नहीं रहे, तो उससे हमारी कितनी अधिक हानी हो सकती है, उसकी ओर हम देख नहीं पाते हैं। इसीलिये बहुत सतर्क होकर समाज-सेवा करने की आवश्यकता है। नाम,यश, लोक-प्रसिद्धि, स्वयं को दाता समझने का दम्भ-यह सोचना कि मैं तो (ज्ञानी-गुनी या धनी-मानी व्यक्ति हूँ इसीलिये) दाता हूँ, और वे लोग लेने वाले हैं, वे लोग उपकृत हो रहे हैं, और हम उनपर उपकार कर रहे हैं। इस प्रकार के विचार आ सकते हैं, नहीं बल्कि आ ही जाते हैं। इस विषय में बहुत अधिक सावधान रहना आवश्यक है। स्वामीजी कहते हैं, संन्यासियों में भी नाम-यश पाने की इच्छा आ जाती है। इसीलिये समाज-सेवा के कार्य में कूदने के पहले भले-बुरे का विचार करके ही कूदना अच्छा होता है। केवल समाज-सेवा के क्षेत्र में ही नहीं, समस्त विषयों में इसी प्रकार अच्छे-बुरे का निर्णय लेकर ही कार्य में उतरना चाहिये।
जिन कार्यों को अच्छा समझ कर कार्य में उतर रहा हूँ,वे हानिकारक भी हो सकते हैं। किसी दार्शनिक ने कहा है, जो मूढ़चेता हैं (- अर्थात जिनकी चेतना सोयी रहती है या जो शरीर को ही ' मैं ' समझते हैं ), उनके लिये प्रवृत्ति तो प्रवृत्ति है ही, निवृत्ति भी प्रवृत्ति जैसी हो जाती है। किन्तु जो व्यक्ति धीमान हैं, (जिनकी बुद्धि जाग्रत है, विवेक-सम्पन्न है, जो देहाध्यास के भ्रम से उठ चुके हैं ) उनके लिये तो प्रवृत्ति भी निवृत्ति में रूपान्तरित हो जाती है।
[शिक्षा बढ़ रही है पर मूढ़ता जहाँ की तहाँ हैं नशेबाजी, माँसाहार, व्यभिचार, जुआ, चोरी जैसे दुर्व्यसन घट नहीं बढ़ रहे हैं । शिक्षा बढ़ रही है पर मूढ़ता जहाँ की तहाँ हैं । पढ़े-लिखे लोग भी दहेज के लिए जिद करें तो समझना चाहिए शिक्षा के नाम पर उन्हें कागज चरना ही सिखाया गया है। धर्म जैसी चरित्र निर्मात्री शक्ति आज केवल कुछ धर्म के ठीकेदारों (व्यवसाइयों) के लिए भोले-भले  लोगों को फँसाने का जाल-जंजाल भर रह गई है । इन परिस्थितियों को मूक दर्शक की तरह देखते नहीं रहा जा सकता, इनके विरुद्ध जूझना ही एकमात्र उपाय है । अर्जुन की तरह हमें इस धर्म-युद्ध के लिए गाण्डीव उठाना ही पड़ेगा।-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य]
धीमान व्यक्ति को देखने से ऐसा प्रतीत हो सकता है कि वे भी शरीर के साथ घनिष्ट रूप से सम्बद्ध हैं, बड़े कर्मठ हैं, घर-बाहर हर प्रकार के कार्य करते रहते है, किन्तु वास्तविकता यह है कि वे किसी कार्य, व्यक्ति या वस्तु में वे थोड़े भी आसक्त नहीं होते। ऐसा बन जाना ही निवृत्ति है। केवल दृष्टिकोण को परिवर्तित करने का प्रश्न है। हमलोगों के दैनन्दिन जीवन में कितने ही कार्य फैले हुए हैं, हम किस कार्य को किस दृष्टिकोण से ग्रहण करेंगे, कर्म करने के उसी मनोभाव के उपर यह निर्भर करेगा कि हमें उस कर्म का कैसा फल प्राप्त होगा। मन ही सब कुछ है-यही हमको कर्मों के बन्धन में डाल देता है, फिर यही हमको बन्धन से मुक्त भी कर देता है। जगत में जितने भी प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं, वे सभी अच्छे कर्म में रूपान्तरित किये जा सकते हैं, यदि उस प्रकार के मन (मनोभाव) को लेकर कर्म किया जाय। जो विवेकी मनुष्य होते हैं, उनके लिये कोई भी कार्य बुरा नहीं हो सकता। विवेक-सम्पन्न व्यक्ति या धीमान मनुष्य को कोई भी कार्य प्रवृत्ति के फन्दे में नहीं जकड़ सकता है,क्योंकि वे कभी किसी कर्म में आसक्त नहीं होते, वे जीवन के हर क्षेत्र में अनासक्त होकर कर्म करने में समर्थ बन जाते  है। 
एक स्थान पर स्वामीजी बहुत सुन्दर ढंग से कहते हैं, कि प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों में कोई अन्तर नहीं है, दोनों कर्म ही है। निवृत्ति का अर्थ यह नहीं होता कि निवृत्ति-मार्गी व्यक्ति को कर्म से दूर रहना चाहिए। जिस प्रकार प्रवृत्ति एक प्रकार का कर्म है, उसी प्रकार निवृत्ति भी कर्म ही है। दोनों में केवल दृष्टिकोण का अन्तर है। जिस कर्म को केवल निजी-स्वार्थ सिद्ध करने के उद्देश्य से किया जाता है उसे प्रवृत्ति कहते हैं, और जिस कर्म को दूसरों को सुख पहुँचाने के लिये किया जाता है या परार्थ कर्म को निवृत्ति कहते हैं। कोई व्यक्ति यदि अपने स्वार्थ का सम्पूर्ण रूप से त्याग करके कर्म करने में समर्थ हो, तो किसी व्यक्ति को जो फल निवृत्ति से प्राप्त होता है, वही फल उस व्यक्ति को भी प्राप्त होता है। इन बातों को समझ-बूझ कर कर्म करने से ही दाता की भूमिका (अभिनय) ग्रहण करना सौभाग्य-जनक हो सकता है।
 इसीलिये दाता का उत्तरदायित्व ग्रहण करने अवसर प्राप्त होना एक विशेष सौभाग्य मान कर ग्रहण करूँगा। कोई समाज-सेवा का कार्य इसलिये नहीं करूँगा कि संगमरमर की शिला-पट्टी पर मेरा नाम खुद जायेगा। जो लोग इस प्रकार नाम-यश पाने की इच्छा से कर्म करते हैं, वे भी कह सकते हैं कि दाता का आसन ग्रहण करना मेरा विशेष सौभाग्य है। इसीलिये स्वामीजी एक स्थान पर कहते हैं, " मेरे संदेशों को सुनने के बाद उसमें निहित संकेतों को ठीक ठीक समझने की चेष्टा करो, तथा उसी शुद्ध भावना के साथ, उसी के आलोक में स्वयं को कर्म में समर्पित कर दो। " 
हमलोगों को भी इसी प्रकार कर्म करने की चेष्टा करनी चाहिये। ताकि विद्या-दान करने या किसी भी प्रकार की समाज-सेवा का कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हो तो हमलोग भी अपने को विकसित कर सकें।इस विकास को ही आत्मिक विकास या आन्तरिक विकास कहते है। इसके फलस्वरूप मेरी पहले की संकुचित परिधि का विस्तार होने लगता है।दूसरों को दुःख में पड़ा देखने से, उसकी पीड़ा का अनुभव मुझे अपने हृदय में होने लगता है। इसीको आत्मिक विकास या अध्यात्मिक उन्नति कहते हैं। श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द के जीवन में इस विशेषता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। गीता 6/32 में बहुत सुन्दर ढंग से कहा गया है- 
    आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
      सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥
-अर्थात कोई व्यक्ति यदि अभी दुःख भोग रहा है, तो जो व्यक्ति मन ही मन उस व्यक्ति के साथ अपने को इस प्रकार तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं या जोड़ लेते हैं, कि वह जिस दुःख को भोग रहा है, उसका दुःख उन्हें  बिल्कुल अपना दुःख प्रतीत होने लगता है। उसी प्रकार जब कोई व्यक्ति सुख पा रहा हो, तो उसका सुख देखकर भी उन्हें ऐसा प्रतीत होता है,मानो वे स्वयं ही सुखी हैं। सभी स्थानों के सभी मनुष्यों के सुख या दुःख को जो मनुष्य बिल्कुल अपने ही सुख-दुःख के जैसा देखने में सक्षम है, वही परम योगी है।
[ विश्व के साथ एकात्मता का अनुभव होना दुर्लभ अवस्था है। दूसरे के पैर में कांटा गड़ गया हो तो योगी अपने अन्तर में उसका क्लेश अनुभव करते हैं। यही विश्व-प्रेम अर्थात अपने अन्तर्निहित दिव्यता या ब्रह्मत्व का सभी मनुष्यों में दर्शन करना ब्रह्मज्ञान है- 'अहं ब्रह्मास्मि ' व्यावहारिक जीवन में ऐसी अनुभूति ही योगी या सच्चे नेता को विश्व-प्रेमिक या विश्व-भ्रातृत्व में उन्नत कर देती है। उस योगी के ब्रह्म रूपी अहं की सीमा उस समय विश्वमय हो जाती है; संसार के समस्त दुखों का स्पंदन वह योगी अपने हृदय में अनुभव करते है। तथा उनके समस्त दुखों की निवृत्ति के लिये अपने जीवन को न्योछावर कर देते है। ' काशी के मार्ग में जाते हुए वैद्यनाथ धाम में दुर्भिक्ष-पीड़ित सैकड़ों नर-नारियों के कंकाल के समान चेहरे और प्रायः नंगे शरीर को देखकर वे रो पड़े थे।' ' दक्षिणेश्वर के कालीबाड़ी के बाग की नयी दूब के उपर एक व्यक्ति पैदल चला जा रहा था ....' 'कालीबाड़ी के गंगा-किनारे दो माझी झगड़ा कर रहे थे, उनमें जो बलवान था उसने दुर्बल माझी की पीठ पर जोर से थप्पड़ मारा  .....' ]   
'दान ' करना बहुत आसन काम नहीं है। क्योंकि उसमें विपरीत मानसिकता उत्पन्न होने का खतरा छुपा रहता है। इसीलिये श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द के लिये दान करने का अर्थ ' सेवा ' या ' पूजा ' बन जाता है।यदि इस भाव से अन्नदान या ज्ञानदान का अवसर प्राप्त हो तो उसे सौभाग्य कहा जा सकता है। गरीब लोग इसीलिये दुःख भोग रहे हैं, ताकि हमलोगों का उपकार हो सके। हो सकता है मैं इस रहस्य को नहीं जनता हूँ कि हमलोगों की सहायता करने के लिये ही वे दुःख भोग रहे हैं, किन्तु हम उन्हें या उनके दुःख को इसी दृष्टिकोण से देख तो सकते ही हैं। क्योंकि उनके दुःख का भोग किये बिना उनके दुःख को दूर करने की चेष्टा करने का कोई अवसर हमें प्राप्त नहीं हो सकेगा। तथा मनुष्यों के दुःख को दूर करने के लिये हमलोग यदि आगे नहीं बढ़ सके, तो हमलोग भी अपने अन्तर्निहित दिव्यता को उद्घाटित नहीं कर पाएंगे। हम अपने हृदय का अनुसन्धान नहीं कर सकेंगे।
 जो दान देगा, वह घुटने के बल बैठ कर अर्ध्य देगा, और जो लेने वाला है, उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करेगा कि -आपने मेरे दान को ग्रहण करके मुझे धन्य कर दिया है। क्योंकि आपको देने से हम कृतार्थ हो जाते हैं। जो लेने वाला है, वह खड़ा होकर अनुमति देगा और सेवा को ग्रहण करेगा। स्वामीजी कहते है- प्रत्येक मनुष्य के भीतर ईश्वर हैं, भगवान श्रीरामकृष्ण विराजमान हैं, इस सत्य का अनुभव करो और उसको दो। यह अभ्यास बहुत कठिन है। किन्तु प्रयत्न करने से मनुष्य-मात्र में ईश्वर को देखना संभव हो सकता है। फिर दान करते समय विवेक-विचार करके ही देना चाहिये। कोई जैसे ही माँगने आये तो तत्क्षण उसे नहीं देना चाहिये। पहले यह निर्णय कर लेना चाहिये कि वह उपयुक्त पात्र है या नहीं ? किन्तु जब यह तय कर लूँगा कि इनको देना है, तो यही देखूंगा कि इसके भीतर ईश्वर हैं, तथा वे ही इस प्रकार का रूप धर कर मेरे सामने आये हैं, और मैं उनको दे रहा हूँ। इस प्रकार नम्रता के साथ, श्रद्धा के साथ मन ही मन कहूँगा -' तुम इसे ग्रहण करके मुझे धन्य कर दो।' 
इस प्रकार के मनोभाव को रखकर दे सकने से,जिसको दिया जा रहा है, उसका हृदय अन्य तरह का हो जायेगा, जिसकी अभिव्यक्ति चेहरे के भावों में आने को बाध्य है। इसी प्रकार यदि सभी मिलजुल कर कर सकें, तो बहुत लोगों को लाभ होगा। इसीलिये कहा जाता है कि सामान्य बुद्धि से समाज-सेवा करने से बहुत लाभ नहीं होता है। वास्तव में सेवा एक आध्यात्मिक साधना है। स्वामीजी की इस शिक्षा को सदा याद रखना हमारा कर्तव्य है।