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शनिवार, 24 नवंबर 2012

' अप्रियस्य तू पथस्य 'सुबह-शाम स्वपरामर्श क्यों करें ? [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [39] (जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री),

चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया -२ 
मनःसंयोग का अभ्यास करने के साथ ही साथ हमलोग निरन्तर अपना चरित्र गठन करने का प्रयत्न करते रहेंगे। प्रतिदिन हमलोग अपने मन को चरित्र के गुणों के विषय में सुनाते रहेंगे। हमलोगों की 'आत्म मूल्यांकन तालिका ' में चरित्र के २४ गुणों के नाम लिखे हुए हैं। कम से कम उन सभी गुणों के नाम को दिन में एक बार जरुर पढेंगे, तथा रात में सोने से पहले अपना आत्मविश्वास बढ़ाने के लिये अपने मन को कहेंगे- हमलोग बलवान हैं, दुर्बल नहीं है। 
अपना चरित्र गठित करने के लिये हमने दृढ़ संकल्प लिया है, क्योंकि चरित्र गठित नहीं करने से जिस प्रकार हमारा अपना जीवन विफल हो जायेगा, उसी तरह हमलोग जनकल्याण करने योग्य भी नहीं बन पाएंगे। (क्योकि बिना (निःस्वार्थपर बने या ) अपना चरित्र गढ़े ही कोई व्यक्ति यदि राजनीती या समाज-सेवा के किसी भी क्षेत्र में कार्य करने लगे तो वह भी अवश्य भ्रष्टाचारी बन जायेगा।) इसीलिये हम स्वयं से निरन्तर कहते रहेंगे, " मेरा शरीर स्वस्थ,शक्तिशाली और मन प्रबल इच्छाशक्ति सम्पन्न है। मैं इसी शरीर और इसी मन द्वारा, इसी जीवन में अपना सुन्दर चरित्र गठित कर लूँगा। मैं जानता हूँ कि मेरे भीतर अनन्त शक्ति विद्यमान है,वह मुझे अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में मेरी सहायता करे।" यह बात हमलोग अपने आप को दिन भर में कम से कम दो बार अवश्य सुनायेंगे। 
प्रातःकाल नीन्द से जगने के बाद हमलोगों का मन स्वभावतः ही शान्त रहता है, उस समय उसमें अन्य कोई विचार नहीं रहता है। इसीलिये उस अवसर पर हमें अपने मन के कोटर में (गहरी परतों या चित्त में) पवित्र विचारों को प्रविष्ट कराना होगा। उसी प्रकार रात में सोने से ठीक पहले भी करना होगा। इस अभ्यास के बारे में जिस प्रकार हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने कहा है, उसी प्रकार आधुनिक मनोविज्ञान का भी यह एक परीक्षित सत्य है।
नीन्द से उठने के बाद हमलोगों का मन अत्यन्त सौम्य (कोमल) रहता है। उस समय उसमें किसी विचार की छाप आसानी से पड़ती है। वह समय, मन में किसी पवित्र विचार को प्रविष्ट कराने का सबसे उपयुक्त समय होता है। नीन्द से उठने के बाद यदि कुछ पवित्र भावों के विषय में मन को सुनाया जाय, तो मन उसको आसानी से ग्रहण कर लेता है, और यदि वे विचार मन की गहराईयों तक खुद जाएँ तो फिर आसानी से भूलती नहीं। उसी प्रकार सोने से ठीक पहले हमलोग अपने मन को कहेंगे, " मैं चरित्रवान मनुष्य बनूंगा। क्योंकि चरित्रवान बन जाने में ही मेरा सबसे अधिक मंगल है, और केवल तभी दूसरों का मंगल करने में भी मैं समर्थ हो सकूँगा।" स्वयं अपने मन को यह सब कहना कोई खेल नहीं है, किन्तु इसको यदि एक खेल के जैसा बना लिया जाय, तो सचमुच यह खेल बहुत लाभदायक होगा। यदि हमलोग अपने जीवन को सत्य नहीं समझें, और जगत हमारे लिये एक खेल के जैसा प्रतीत होता हो, तो इसे सत्य समझ कर खेलना ही उचित होगा। 
हो सकता है कि हमें अपने ही मन को यह सब सुनाने में थोड़ा संकोच लगे। क्योंकि इतना उमर तो बीत गया, अब अचानक यह कहने लगूँ कि मैं चरित्रवान बनूंगा, मैं मनुष्य बनूंगा; और कहूँगा, मेरे भीतर जो अनन्त शक्ति है, वह जाग उठे, मैं निश्चय ही सफल होऊंगा, क्योंकि मुझमें प्रबल आत्मविश्वास है ? हो सकता है, यह सब कहने में संकोच लगे। किन्तु यदि हमलोग यह सब कह सकें, तो ये विचार मन में इस प्रकार छप जायेंगे, कि फिर कभी वहाँ से बाहर ही नहीं निकलेंगे। उसके बाद हम अपने जीवन के विभिन्न सामान्य कार्य करेंगे, उस समय मन में यही सब विचार उठने लगेंगे,क्योंकि ये विचार मन की गहराई तक भर चुके हैं। 
इसीलिये अब यदि कोई अपवित्र विचार मन में प्रविष्ट करना भी चाहेगा, तो ये विचार उस समय उससे युद्ध करने पर उतारू हो जायेंगे, और गन्दे विचारों को मन में घुसने से रोक देंगे। यही है चरित्र-गठन का उपाय। यह बिल्कुल सच है कि कोई भी मनुष्य अपना सुंदर चरित्र गढ़ सकता है। किन्तु आज तक तो यह किसी ने नहीं बताया कि कैसे सुन्दर चरित्र गढ़ा कैसे जाता है ? सभी लोग यही कहते हैं कि अच्छा बनना होगा, अभी तक हमलोग केवल यही सुनते आये हैं कि अच्छा बनना होगा। आत्मविश्वासी, ईमानदार,साहसी, सत्यवादी बनना होगा, यह सब तो लोग कहते ही थे, किन्तु जैसा स्वामी विज्ञानानन्दजी ने विद्यासागर के शब्दों को उद्धृत करते हुए कहा था- ' सदा सत्य बोलो ', यह तो लिखा हुआ है, पर क्या तुम सत्य बोलते हो ? उसी प्रकार सभी कहते हैं, यह करना होगा, वह करना होगा, उसे करना होगा, किन्तु करूँगा किस प्रकार ? यह बात तो कोई बताता नहीं है। चरित्र-निर्माण करना होगा, देश का उद्धार करना होगा, किन्तु उसकी व्यावहारिक पद्धति क्या है, यह कौन बतायेगा ? 
[महामण्डल के कर्मियों को बहुत निष्ठां के साथ महामण्डल के वार्षिक शिविर में लीडरशिप ट्रेनिंग लेना होगा, मानवजाति के किसी सच्चे मार्गदर्श नेता के रूप में कई आवश्यक बातें अपने भावी नेताओं से कहनी होगी! किन्तु अपनी विद्वता प्रदर्शन करने की जरुरत नहीं अपने जीवन को सुंदर रूप में गठित करना होगा।]  
उपदेश देने के समय स्वयं सही पद्धति ज्ञात नहीं हो, तो हमलोग इधर-उधर की बातें करते रहेंगे। किन्तु वैसा करने से महामण्डल का कार्य नहीं हो सकता है। हमें तो सही ढंग से कार्य करना होगा, कठोर परिश्रम करना होगा। महाभारत में महात्मा विदुर धृत्रराष्ट्रसे कहते हैं -    

सुलभा: पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिन:।
अप्रियस्य तू पथस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभ:।।

“ हे राजन, प्रिय बोलनेवाले व्यक्ति आपको सुलभतासे प्राप्त हो जाएँगे; परंतु ऐसा वक्ता जो ऐसा सत्य बोलता हो जो कटु हो और सामनेवालेके हितमें हो वह बोलनेवाला और उसकी बातको सुननेवाला दुर्लभ ही मिलता है” |
[“O, king! Men who forever speak pleasing words are easy to be obtained. But one who speaks of (पथस्य या हितकारी वचन) useful but unpleasing words as also the one who listens to them, are rare to be obtained”]
महात्मा बिदुरजी कह रहे हैं, हमेशा अच्छी अच्छी बातें कहने वाले मनुष्य जगत में बहुत से पाये जाते हैं, किन्तु क्या किसी व्यक्ति को अप्रिय सुनना अच्छा लग सकता है ? स्वामी विवेकानन्द बार बार कहते हैं - " मन का संयम करो,अपने हृदय को उखाड़ कर रक्त बहाते हुए भी साधारण मनुष्यों का कल्याण करो" - ये सब कैसी बातें हैं ? किन्तु सुनने में अच्छी न लगने पर भी ये बातें पथ्य जैसी हित करने वाली हैं, इसमें हमलोगों का सच्चा हित छुपा हुआ है। इस तरह की बातों को कहने वाले लोग तो बहुत कम होते ही हैं, सुनने वाले लोग भी कम होते हैं। 
हमलोगों को आवश्यक बातें कहनी होंगी, और उसी तरह से कार्य भी करने होंगे। बहुत से बड़े बड़े कोटेशन को रट लेने की जरूरत नहीं है। हमें अपने मन में पवित्र विचारों का आरोपण करना होगा, तथा जीवन में निरन्तर विवेक-प्रयोग की सहायता से मन,वाणी और कर्म द्वारा  जो अच्छा हो वही करना होगा।
क्या अच्छा है, क्या बुरा है -इसे कैसे समझेंगे ? जिस में अपना कोई स्वार्थ नहीं हो, वही अच्छा है, जिससे मेरा मनुष्यत्व बढ़े, उसी को अच्छा समझना चाहिये। जिस कार्य द्वारा अन्य मनुष्यों का, जीवों का हित होता हो, उसी कार्य को अच्छा समझना होगा। अच्छे-बुरे विचारों की यही पहचान है। उसी तरह के पवित्र विचार मन में रखने होंगे। बुरे विचार यदि उठने लगें, अर्थात जिस विचार के मन में उठने से हम अपने को कमजोर महसूस करें, या ऐसा लगे कि वैसा विचार करने से मेरे चरित्र-गठन में कोई सहायता नहीं मिलेगी, जिस विचार से दूसरे मनुष्यों का अकल्याण होता हो, जिस विचार का परिणाम मुझे स्वार्थी बना देता हो, उस प्रकार के विचारों को मैं आने नहीं दूंगा। 
सभी कर्मों, सभी बातों जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में यदि हमलोग इसी प्रकार करते रहें, तथा हमलोगों के आचरण में अच्छे गुणों में वृद्धि हो जाये -ऐसी चेष्टा करें, यदि हमेशा सत्य बोलें, यदि कभी झूठी बातें कहने का प्रलोभन मन में जगे, तो मनः संयम के अभ्यास से जिस प्रबल इच्छाशक्ति को हमने अर्जित किया है, उसी शक्ति की सहायता से झूठ कहने से बच जाएँ, इसी प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में -भय के क्षेत्र में भी इसी शान्त (सचेत) मन से किसी भय को भी यदि जीत सकें, तथा एक बार उस भय को जीत लेने के बाद, जिस साहस, आनन्द, शान्ति को प्राप्त करूँगा, वह मुझे इससे भी बड़े बड़े भय को जीतने में सहायता करेगा। इसी प्रकार विवेक-प्रयोग की सहायता से आत्म मूल्यांकन तालिका में उल्लिखित प्रत्येक गुण को बढ़ाने में सक्षम हो जाऊँगा। यह कार्य करूँगा कैसे ? मनः संयम को सीख कर।
[रामायण के युद्धकाण्ड का सोलहवाँ सर्ग भी द्रष्टव्य है। जहाँ रावण ने प्रकारान्तर से विभीषण को कृतघ्न बताया। जिस में विभीषण को अनार्य कहा गया है। न्यायवादी विभीषण को स्वभावत: क्रोध आया और हाथ में गदा लिए हुए चार राक्षसों के साथ लङ्का का परित्याग करते हुए रावण को पितृसम कहा और यह भी बताया कि तुम्हारा परुष वाक्य मैं क्षमा नहीं कर सकता। अन्तत: विभीषण ने जो नीतिवाक्य कहा, वह आज तक लोकोक्तियों में प्रचलित है -
सुलभा: पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिन:।
अप्रियस्य च पथस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभ:।।
 – रामायण / युद्ध / 16.21]

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शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

' उपयोगी बातें '(मेरे भीतर जो आग जल रही है, वही तुम्हारे भीतर जल उठे) स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [38] (जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री),

" प्रभु हमेशा मेरे साथ हैं !"- इस बात को स्वामीजी ने किस भाव में कहा है, इसे समझना बहुत कठिन है। किन्तु यदि उस मार्ग को थोड़ा भी समझ सकें, तो हमारा हृदय अनन्त बल, साहस, आशा, और उद्यम से परिपूर्ण हो जायेगा। यह अनुभव करने की चीज है, इसे बोल कर नहीं समझाया जा सकता है।
११,जनवरी १८९५ के पत्र में स्वामीजी कहते हैं, " सिद्धान्त और पुस्तकों की बातें बहुत बहुत हो चुकीं। 'जीवन' ही उच्चतम वस्तु है और साधारण मनुष्यों के हृदय को पिघलाने का यही एक मार्ग है। क्योंकि इसमें व्यक्तिगत आकर्षण होता है। ...मुझे चुपचाप शान्ति से काम करना अच्छा लगता है और प्रभु हमेशा मेरे साथ है। यदि तुम मेरा अनुसरण करना चाहते हो, तो सम्पूर्ण निष्कपट होओ, पूर्ण रूप से स्वार्थ त्याग करो, और सबसे बड़ी बात है कि पूर्ण रूप से पवित्र बनो। मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है। इस अल्पायु में परस्पर प्रशंसा का समय नहीं है। युद्ध समाप्त हो जाने के बाद किसने क्या किया, हम इसकी तुलना और एक दूसरे की यथेष्ट प्रशंसा कर लेंगे। लेकिन अभी बातें न करो; काम करो, काम करो, काम करो ! ..आग में कूद पड़ो और लोगों को परमात्मा की ओर ले जाओ। मेरे भीतर जो आग जल रही है, वही तुम्हारे भीतर जल उठे, तुम अत्यन्त निष्कपट बनो, संसार के रणक्षेत्र में तुम्हें वीरगति प्राप्त हो-यही मेरी निरन्तर प्रार्थना है।" (3/370)
 स्वामीजी कह रहे हैं कि प्रभु हर समय स्वामीजी के साथ हैं। हमलोग प्रभु कहने का अर्थ समझते हैं-ठाकुर (श्रीरामकृष्ण)! पुनः कहते हैं," अगर चाहो तो मेरा अनुसरण करो।" उनकी यह उक्ति मानो इस अंग्रेजी कहावत का स्मरण करा देती है- " If you love me, love my dog first. " (If you love someone, you should accept everything and everyone that the person loves.) यदि तुम मुझसे प्रेम करना चाहते हो, तो पहले उससे प्रेम करो, जिसे मैं पसन्द करता हूँ, या जिससे मैं प्रेम करता हूँ। यदि कोई मुझसे प्रेम करना चाहता हो, तो उसे पहले मेरे कुत्ते को प्रेम करना होगा। यहाँ पर स्वामीजी का कथन प्रभु ईसा मसीह के जीवन की इस घटना (निम्नोक्त) का भी स्मरण करा देती है।
 ["So when they had eaten breakfast Jesus said to Simon Peter, 'Simon, son of Jonah, do you love Me more than these?'  And he said to Him, 'Yes Lord, You know that I love You.'  And He said to him, 'Feed My lambs.'  And He said to him again a second time 'Si, do you love Me?'  and Peter was grieved because He said this to him a thmon, son of Jonah, do you love Me?'  And he said to Him 'Yes Lord, You know that I love You.'  And He said to him 'Tend My sheep.'  And He said to him a third time 'Simon, son of Jonahird time, 'Do you love Me?'  And he said to Him 'Lord, You know all things, You know that I love You.'  And Jesus said to him, 'Feed My sheep.'  John 21:15-17] 
यदि हमलोग इस जीवन में ' ठाकुर देव ' के दास के दास के दास का दासत्व भी प्राप्त कर सकें, तो हमारा जीवन धन्य हो जायेगा। प्रार्थना की जाती है- " तद् दासदासदासानां दासत्वं देहि मे प्रभो !" अर्थात हे प्रभु, तुम अपने दास के दास के दास का दासत्व करने की शक्ति मुझे दो ! स्वामीजी बिल्कुल इसी बात को यहाँ कह रहे हैं। वे स्वयं को मानो ठाकुर के पालतू (अधीन रहने वाला) कुत्ता जैसा समझ रहे हैं। इसीलिये यदि ठाकुर से प्रेम करना चाहते हो, तो मुझे प्रेम करो। क्योंकि,प्रभु सभी समय मेरे साथ हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है, कि वे यहाँ अपने को बड़ा सिद्ध करना चाह रहे हैं। 
बल्कि वे कह रहे हैं, मैं उनके दास के दास के दास के दास का दासत्व की मांग करने वाला भिखारी हूँ, मेरे साथ प्रभु सभी समय हैं। इसीलिये, "यदि चाहते हो, तो मेरा अनुसरण करो।" 'यदि चाहते हो'- का तात्पर्य है, यदि तुम भी प्रभु के कार्य को आगे ले जाना चाहते हो, तो मेरे पास आओ, अर्थात मेरा अनुसरण करो। 
और यदि हमलोग स्वामीजी का अनुसरण करना चाहते हों, तो हमें क्या करना होगा? तीन चीजों का पालन करना होगा। उनके पास बिल्कुल एकनिष्ठता की पराकाष्ठा को लेकर आना पड़ेगा। यदि मुझको पकड़ना चाहते हो, अर्थात मेरे साथ जो प्रभु सभी समय हैं- उनको पकड़ना चाहते हो; उनको पकड़ने से तात्पर्य है, उनके भाव को पकड़ना चाहते हो। अर्थात प्रभु के भाव को ग्रहण करना चाहते हो, तो प्रभु का भाव ग्रहण करने के लिये, निष्ठा की पराकाष्ठा रहनी चाहिये। अर्थात उनके प्रति भक्ति में टुकड़ी भर भी खोट नहीं रहनी चाहिए। 
 उनके प्रति विशुद्ध भक्ति को लेकर आना पड़ेगा। दृढ़ निष्ठा,और पूर्ण निःस्वार्थता अनिवार्य है -टुकड़ी भर भी स्वार्थपरता रहने से कोई मेरा अनुसरण नहीं कर सकता है-अर्थात उनके पास नहीं पहुँच सकता है। यह सब भी मानो छोटी बातें हैं। इन सबसे परे, या इनके उपर पवित्र होना होगा। अपवित्रता का लेशमात्र रहने से कुछ भी नहीं प्राप्त होगा। " मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है।" या वर्षित हो रहा है, या वर्षित हो। " इस छोटे से जीवन में परस्पर परस्पर को शब्बासी देने या शिकायत करने के लिये हमलोगों के पास समय नहीं है।" इसका अर्थ यह हुआ कि - 'मैं-पन' के भाव को लेकर बैठे रहने का थोड़ा भी समय नहीं होगा। आत्मतुष्टि के लिये कोई समय नहीं होगा। युद्ध समाप्त हो जाने के बाद हमलोग जी भरकर, यथा संभव एक दूसरे की प्रशंसा कर सकते हैं, वाहवाही का आदान-प्रदान कर सकते हैं। अभी बातें बनाना बन्द करो। केवल काम,काम, काम। वाहवाही की बात या अन्य समस्त अप्रसांगिक बातें बन्द करनी होंगी। बकवास सुनने का समय नहीं है। जो इस कार्य को सिद्ध नहीं करता है, या नहीं कर सकता है, वह कार्य का जिक्र भी नहीं करे। जिस बात को तुम स्वयं नहीं समझ सकते, उस बात को दूसरों को समझाने का प्रयत्न नहीं करो। इस प्रकार की बातों को बन्द करने के लिये कहे हैं। एक कच्चे कार्य का मूल्य भी बीस मन बातों के समान है। उसी प्रकार, केवल कार्य होने से वह लड़खड़ाता कर गिर पड़ेगा। कार्य के भीतर ज्ञान-भक्ति रहेगी, पूरे मनोयोग के साथ कार्य करना होगा।
 अर्थात चारो योग का समन्वय करके कार्य करने की बात स्वामीजी बार बार कहते हैं-उसी प्रकार से कर्म करने की आवश्यकता भी है। 
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गुरुवार, 22 नवंबर 2012

'बहुत्व देखना ही पाप है ! ' स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [37] [earth is zero potential (0 V)](जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री),

" अपने मिथ्या अहंकार को भी '0 V' (zero potentiality तक ले जाओ! "
 [नहीं तो गतिज (kinetic-पुनर्जन्म)  होने की प्रवणता बनी रहती है।] 
स्वामी विवेकानन्द की इस उक्ति- " समस्त जगत का सबसे बड़ा महापाप है- बहुत्व के अस्तित्व सच समझना,  अथवा अपने-पराये का भेद देखना। सभी को अपने ही जैसा देखो और सभी से प्रेम करो, भिन्नत्व के समस्त विचार लुप्त हो जाएँ।"  का तात्पर्य हमें अनासक्ति के भीतर ही ढूँढना पड़ेगा। हमलोग समस्त कार्यों को अनासक्त होकर करेंगे। सभी कर्मों को भगवान को अर्पित करेंगे। किस प्रकार, किस बुद्धि से अर्पित करते हैं ? हमें इस प्रकार विवेक-विचार करना होगा कि वे ही समस्त घटनाओं के निदेशक (director) हैं। वे अन्तर्यामी हैं, वे हमारे ही भीतर अवस्थित रहकर हमलोगों को चला रहे हैं। 
स्रष्टा का अर्थ यह नहीं है कि उन्होंने ही सब कुछ का निर्माण किया है, या उन्होंने इस जगत की रचना की है। जो लोग ऐसा सोचते हैं, उनमे ऐसे विचार द्वैत बुद्धि से उत्पन्न होते हैं। हमलोग की मान्यता है कि परब्रह्म परमेश्वर ही इस जड़-चेतनात्मक सम्पूर्ण जगत के निमित्त और उपादान कारण हैं। वे ही efficient cause  हुए हैं, फिर 'material cause' भी वे ही बने हैं, - निमित्त कारण या efficient cause का तात्पर्य है जिस कारण के रहने से कोई कार्य सिद्ध होता है, तथा material cause या उपादान कारण का अर्थ है जिस उपादान से कोई वस्तु निर्मित होती है। अर्थात जिस प्रकार वे विश्वब्रह्माण्ड, जगत के स्रष्टा हैं, उसी प्रकार उन्होंने स्वयं के द्वारा ही उसे गढ़ा भी है।
" यथोर्णाभिः सृजते गृहणते च ...
                             तथा अक्षरात् सम्भवति इह विश्वम् ।। (मुण्डकोपनिषद1/7) " 
 जिस प्रकार मकड़ी अपने पेट में स्थित जाले को बाहर निकाल कर फैलाती है और फिर उस जाले को निगल जाती है, उसी प्रकार वह परब्रह्म परमेश्वर अपने अन्दर सूक्ष्मरूप से लीन हुए जड़-चेतनरूप जगत को सृष्टि के आरम्भ में नाना प्रकार से उत्पन्न करके फैलाते हैं, और प्रलयकाल में पुनः उसे अपनेमें लीन कर लेते हैं। (गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
                    कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यह्म्।।  (गीता 9/7 )
-हे अर्जुन, कल्पक्षये यानि प्रलय के समय समस्त भूत मेरी सत्व,रज,तम गुणात्मिका प्रकृति (कारणता)  में विलीन हो जाते हैं। पुनः कल्प के आरम्भ में - मैं योगमाया की सहायता से स्थूल-सूक्ष्म आदि रूप से समस्त भूतों की  सृष्टि करता हूँ।)
समस्त सृष्टि उन्हीं की रचना है, उन्हीं का विस्तार है, या उन्हीं की अभिव्यक्ति है; फिर वे ही उसका संकुचन (संघार) कर लेते हैं। वे ही जगत बने हैं, फिर उनके ही भीतर सब कुछ लय हो रहा है।अर्थात वे एक और आद्वितीय हैं, एक ही अनेक के रूप में दिख रहा है। इसीलिये समस्त कार्य उन्हीं के कार्य हैं; यदि कोई कर्तव्य है, तो वह भी उन्हीं का है।
[यह जो एक का अनेक नाम-रूपों में दिखना है-क्या सचमुच एक वस्तु दूसरी वस्तु बन गयी है? जैसे दूध का दही बन जाता है ? दूध उपादान कारण है, जोरन निमित्त कारण तो दही (जगत) क्या है ? आचार्य शंकर कहते हैं, जगत ब्रह्म का परिणाम नहीं है विवर्त हैरज्जू में सर्प दिख रहा है। ब्रह्म ही जगत बने हैं, किन्तु हम जब जगत (सर्प) देखते हैं, तब ब्रह्म (रज्जू) नहीं दीखता। ब्रह्म और जगत का युगपत दर्शन करना हो - तो शिव ज्ञान से जीव सेवा करना होगा। ]
जगत में जैसे ही ' कॉज़ैलिटी' (Causality) कारण-कार्य सम्बन्ध (योगमाया-जोरन) को जोड़ दिया गया, उसी समय यह सृष्टि अस्तित्व में आ गयी ! किन्तु वे (ब्रह्म) किसी causality-के भीतर नहीं हैं, [अर्थात ब्रह्म कारणता के परे हैं] किन्तु यह सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड इन्हीं तीनों - Space (देश), time (काल) और causality निमित्त (कारण-कार्य सिद्धान्त) की सीमा के भीतर है, इसके बाहर कुछ भी नहीं है। इन्हीं तीनों के भीतर वह relative world (सम्बंधयुक्त जगत या सापेक्षिक जगत) है, जिसे सब कुछ के साथ तुलना (मिलान comparison) कर के समझना पड़ता है।  जिस प्रकार सादा का अर्थ काला नहीं है, लाल नहीं है - उसी प्रकार 'नानात्व' जैसा कुछ नहीं है। पुनः जिस प्रकार प्रकाश के कई विविध रंगों (सात रंग) का योगफल है सादा। जैसे सोझा (straight) का अर्थ यह हुआ कि वह वक्र (बंका curved) नहीं है। ठीक उसी प्रकार एक के साथ और एक (दूसरा) लिप्त (फँसा involve) है, या एक के उपर और एक (दूसरे) का अस्तित्व निर्भर करता है। किन्तु वह परब्रह्म परमेश्वर, सत्य या भगवान, उनको हम चाहे जिस नाम से भी क्यों न पुकारें, वे सदैव इस causality -के बाहर रहते हैं। जैसा की स्वामी विवेकानन्द ने एक कविता में गाया है - ''देशरहित कालरहित नेति नेति विराम जहाँ ! ' (एक ऐसी सत्ता जिसका नाम, रूप वर्ण कुछ भी नहीं है, जो देश-काल निमित्त से परे है, जिस अवस्था में 'नेति नेति ' का विचार (विवेक-प्रयोग) समाप्त हो जाता है, এক সত্তা, যাঁহার নাম রূপ বর্ণ কিছুই নাই, যিনি দেশকালের অতীত, যেখানে 'নেতি নেতি' বিচার শেষ হইয়াছে।)
सृष्टि 
एक रूप, अरूप-नाम-बरन, अतीत-आगामी-कालहीन,
देशहीन, सर्वहीन, 'नेति नेति' विराम जहाँ।
वहीं से होकर बहे कारण-धारा,
धार की वासना वेश उजाला,
गरज गरज उठता है उसका वारि,
'अहमहमिति' सर्वमिति सर्वक्षण।।

उसी अपार इच्छा-सागर माँझे 
अयुत अनन्त तरंगराजे 
कितने रूप, कितनी शक्ति,
कितनी गति-स्थिति किसने की गणना।।

कोटि चन्द्र, कोटि तपन 
पाते उसी सागर में जन्म,
महाघोर रोर गगन में छाया 
किया दश दिक् ज्योति-गगन।।

उसीमें बसे कई जड़-जीव-प्राणी,
सुख-दुःख, जरा, जनम-मरण,
वही सूर्य जिसकी किरण, जो है सूर्य वही किरण।।
[একরূপ, অ-রূপ-নাম-বরণ, অতীত-আগামি-কাল-হীন,
দেশহীন, সর্বহীন, 'নেতি নেতি' বিরাম যথায় !!১
সেথা হ'তে বহে কারণ-ধারা
ধরিয়ে বাসনা বেশ উজালা,
গরজি গরজি উঠে তার বারি,
'অহমহমিতি' সর্বক্ষণ ।।
इसीलिये जो व्यक्ति इस सृष्टि रहस्य को जान लेगा वह इस जगत में 'मुक्त-पुरुष' बन कर कार्य करेगा- अर्थात अब वह जो कुछ भी कार्य करेगा उस कार्य को स्वाधीन (unattached) या अनासक्त होकर कार्य करेगा। मुक्त पुरुष वह है, जिसे इसी जीवन में ईश्वर और जगत के साथ एकात्मबोध हो चुका है; उसके लिये अब वैयक्तिक-अस्तित्व (क्षुद्र मैं) जैसा कुछ नहीं रह जाता है। उसको सारे नाम-रूप उसी एक परब्रह्म परमेश्वर के ही विविध नाम-रूप अनुभव होंगे,अब उसमें 'मेरा ' कहने लायक कुछ नहीं बचेगा। इसीलिये अब वह जगत के समस्त कर्मों को अनासक्त होकर करने में समर्थ बन जायेगा। सबकुछ 'तूँ और तेरा ' है, सभी कर्म ' तेरे' कर्म हैं- ऐसी बुद्धि से कार्य कर सकेगा। इस प्रकार अनासक्त होकर कर्म करने से समस्त कर्म स्वतः उनमें समर्पित हो जायेंगे। क्योंकि ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु का तो अस्तित्व है ही नहीं !
पृथ्वी की potentiality (अन्तः शक्ति या विभव) शून्य या 'zero' है,[Why the earth,In electrical point; is zero potential (0 V)? ] इसीलिये वज्र (Thunderbolt) की समस्त विद्युत् को पृथ्वी अपने भीतर सोख लेती है। किसी वस्तु में potentiality (स्थितिज उर्जा या विभव) यदि अधिक होगी तो वह हर समय कम विभव की तरफ जाने की चेष्टा करेगी। किन्तु पृथ्वी शून्य विभव-विशिष्ट है, इसीलिये यहाँ से कहीं और जाने का प्रश्न ही नहीं उठता है। इसके विभव में घटना-बढ़ना नहीं होता। उसी प्रकार भगवान (माँ काली ) समस्त कर्म, शक्ति, वस्तु, समय (काल) को भी अपने भीतर खींच (निगल) सकते हैं। इसलिये समस्त कर्मों को उसी बुद्धि से करना होगा। क्योंकि भगवान को देने योग्य हमलोगों के पास कुछ भी नहीं है। भगवान क्या इतने गरीब हैं, कि कर्म करके उनको देंगे ? ' To give unto God '- (भगवान को समर्पित करो ) ऐसा कहना केवल कहने भर के लिये है। वे सभी कुछ के ग्राही (स्वीकारकर्ता) हैं ! इसीलिये समस्त कर्म उन्हीं में चले जाते हैं। 
जैसे किसी टंकी में पम्प लगाकर जल भर दिया जाय, और समस्त नलों को बन्द रखा जाय तो ऐसा प्रतीत होता है, मानो जल अब नीचे नहीं उतरेगा। किन्तु यदि कहीं का एक भी नल थोड़ा ढीला रह गया तो पानी अपने आप गिरने लगता है। इसीलिए जबतक वह 'गतिजमें'  या कार्य में परिणत नहीं होता, या जबतक शक्ति (ऊर्जा) समाप्त नहीं होती, उसके नीचे उतरने, चलने या प्रवाहित होने की सम्भावना या रुझान (प्रवृत्ति) बनी रहेगी। जैसे जल को यदि सबसे निचले स्थान में संचित कर लिया जाय तो उसके फिर और नीचे गिरने की सम्भावना नहीं रहती है। उसी तरह जब तक वह (हमारा अहं) zero potentiality तक नहीं पहुँच जाता, तब तक उसके भीतर kinetic या गतिज होने की प्रवणता बनी रहती है।
 [ Potential Energy-किसी वस्तु में उसकी अवस्था या स्थिति के कारण कार्य करने की क्षमता को स्थितिज ऊर्जा कहते हैं। जैसे- बाँध बना कर इकट्ठा किए गए पानी की ऊर्जा, घड़ी की चाभी में संचित ऊर्जा, तनी हुई स्प्रिंग या कमानी की ऊर्जा। Kinetic Energy- किसी वस्तु में कार्य करने से गति के कारण जो ऊर्जा आ जाती है, उसे उस वस्तु की गतिज ऊर्जा कहते हैं।]
मनुष्य भी हर समय उसी ओर जाने की चेष्टा कर रहा है। वह जाने-अनजाने एक ऐसे स्थान पर जाने की चेष्टा कर रहा है, जहाँ से उसको पुनः प्रवाहित नहीं होना पड़े। इसी को मुक्ति कहते हैं। वहाँ पहुँच जाने के बाद और चलना नहीं पड़ेगा, फिर से जन्म लेना नहीं पड़ेगा। समस्त व्यक्ति या वस्तु हर समय उसी अवस्था में पहुँचने का प्रयत्न कर रहे हैं, जहाँ से उसको पुनः प्रवाहित नहीं होना पड़ेगा, जहाँ उसके लिये फिर से कर्म करने की सम्भावना नहीं रहती, जहाँ वह बिल्कुल निष्कर्म हो जाता है।  
आधुनिक विज्ञान की दृष्टि में matter (वस्तु) एवं energy (शक्ति) में कोई अंतर नहीं है। पदार्थ का रूपांतरण उर्जा में हो सकता है, उसी तरह उर्जा energy को भी matter या पदार्थ में रूपान्तरित किया जा सकता है। वस्तु की अवस्था में रहने से 'सृष्टि' कहते हैं, उसी समय नानात्व या अनेकता दृष्टिगोचर होती है; और शक्ति (उर्जा) की अवस्था में रहने को 'लय' कहते हैं, उस अवस्था में बहुत्व या नानात्व नहीं रह जाता, सबकुछ एकाकार हो जाता है। समस्त व्यक्ति या वस्तु जब चलते चलते उस परम सत्ता या भगवत वस्तु के साथ एकीभूत हो जाता है, उसी समय मुक्ति या लय होता है।
उपरी तौर से जो विभिन्न प्रकार के मनोरम रूप और दृश्य दिखाई पड़ते हैं, हमलोग उन्हीं को लेकर मदहोश  रहते हैं। किन्तु वास्तव में वे अलग अलग (M/F नाना) नाम-रूप नहीं हैं, सब एक का ही बहुरूप है, तथा सभी क्रमशः लय की ओर भागे चले जा रहे हैं। कालान्तर में कोई भी रूप मन को मदहोश बना देने वाला नहीं रहेगा, नानात्व नहीं रहेगा, सब एक हो जायेगा। इसीलिये जो वस्तु अनेक नहीं बना है, जिसमें नानात्व नहीं है, उसको उस प्रकार से देखना पापकर्म (Sin) या अपराध है। और अपराध करने से क्या होता है ? मुक्ति नहीं मिलती, सजा मिलती है, दण्ड भोगना पड़ता है। कैसी सजा मिलती है? उसे बार बार मृत्यु से मृत्यु में जाना पड़ता है। यदि हमलोग इस मृत्युदण्ड से बचना चाहते हों, सजा से मुक्ति पाना चाहते हों, तो उसका उपाय है - एक को देखना ! [ कठोपनिषद: २ /१ /१०-११ में कहा गया है, 
 यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह।
मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति।। 
मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन।
                  मृत्योः स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति।। 
जो परब्रह्म यहाँ है, वही वहाँ (दूसरे के शरीर में भी) है, एक ही परमात्मा अखिल ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं। जो यहाँ नाना रूप देखते हैं, वे बारम्बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं। जो उन एक ही परब्रह्म को विभिन्न नाम-रूपों में प्रकाशित देखकर मोहवश उनमें नानात्व की कल्पना करता है, उसे पुनः पुनः मृत्यु के अधीन होना पड़ता है।]
सभी मनुष्यों के नाम-रूप अलग अलग हैं, तो रहें ! किन्तु हमें प्रत्येक मनुष्य को -'अनेक' को अपनी आत्मा के रूप में देखना होगा। अलग अलग रूप में (अपना-पराया) नहीं देखना होगा। सभी को आत्मा के रूप में देखना होगा। ऐसा करने से क्या होगा ? सभी को प्रेम किया जा सकेगा। हमलोग तो स्वयं को ही प्यार करते हैं। इसीलिए, सभी को अपनी ही आत्मा के रूप में नहीं देखेंगे, तो किसी से ठीक ठीक प्यार भी नहीं कर पाएंगे। और ठीक ठीक प्यार नहीं कर सकेंगे, तो अनेक को आत्मवस्तु के रूप में देखना भी संभव नहीं होगा। इसलिये खण्डित-प्रेम अर्थात अपने-पराये में बाँट कर प्रेम करने की आदत का त्याग करना होगा। जब तक खण्डित-प्रेम बना रहेगा, तब तक यह मानना होगा कि हम अनेक को एक के रूप में नहीं देख पा रहे हैं। जब तक हमारा प्रेम सार्वभौमिक नहीं हो जाता है, तब तक हम सभी को अपनी आत्मा के रूप में नहीं देख सकेंगे। अतः आध्यात्मिकता के पथ पर हमलोग कितनी दूरी तक आगे बढ़ सके हैं, उसकी कसौटी या test है - सार्वभौमिक (Universal) प्रेम। इसीलिये खण्डित प्रेम को त्याग देना होगा। आज सार्वभौमिक प्रेम की ही सर्वाधिक जरूरत है।
इसीलिये, सत्य, पवित्रता आदि गुण उसी अद्या-शक्ति के static या स्थैतिक पक्ष (aspect) हैं;और जब यही गतिशील या dynamic बन जाते है, तभी प्रेम या love होता है। जिस समय यह अवस्था होगी, अर्थात जब हम सत्य और पवित्रता में स्थित हो जायेंगे, उसी समय भेद-ज्ञान चला जायेगा। इसके फल स्वरूप नानात्व या अनेकता नहीं रहेगी - नहीं, सो नहीं होगा।  नानात्व या अनेकता तो वैसे ही बनी रहेगी- किन्तु हमारी दृष्टि बदल जाएगी। -अर्थात सीमायें टूट जायेंगी (अपने-पराय का भेद चला जायेगा) सबों के प्रति प्रेम या अनन्त प्रेम से हृदय भर उठेगा ! 
[व्युत्थान के बाद विभिन्न नाम-रूपों वाला जगत पुनः सत्य जैसा भासने लगेगा, किन्तु उसके विष के दाँत टूट जायेंगे, क्योंकि हमारी दृष्टि बदल जाएगी-अर्थात उसमें सार्वभौमिक प्रेम या अनन्त प्रेम छलकने लगेगा। इसीलिये मृत्यु के दहलीज पर खड़े होकर, घोरतर विपद में, रणक्षेत्र में, समुद्रतल में उच्चतम पर्वत शिखर में, गम्भीरतर अरण्य में, चाहे जिस परिस्थिति और परिवेश में क्यों न पड़ जाओ, सर्वदा अपने से कहते रहो, ' मैं वह हूँ, मैं वह हूँ ', दिन-रात बोलते रहो, ' मैं वह हूँ।' ...ये शब्द तुम्हारे मन के कूड़ा-करकट को भस्म कर देंगे, उससे ही तुम्हारे भीतर पहले से ही जो महाशक्ति अवस्थित है, वह प्रकाशित हो जाएगी, उससे ही तुम्हारे हृदय में जो अनन्त शक्ति सुप्त भाव में विद्द्यमान है, वह जग जायेगी। ' (6/296-97)
                          अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ।।कठोपनिषद/2/3/12 ।।
'तत् अस्ति '= वह अवश्य है; इति ब्रुवतः  =इस प्रकार जो अन्तार्न्हित आत्मा की  घोषणा डंके की चोट पर करता है, अन्यत्र कथं उपलभ्यते = उसके अतिरिक्त दूसरे को (जो हमेशा म्याऊं म्याऊं करता रहता हो); -वह कैसे प्राप्त हो सकता है?
]
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*" इस तुच्छ पृथक अहंता को नष्ट होना चाहिये। तभी हम देखेंगे कि हम सत्य में हैं; वह सत्य ही ईश्वर है, वही हमारा सच्चा स्वरूप है-वह सर्वदा हमारे साथ रहता है, वह हममें रहता है। उसीमें सर्वदा वास करो, उसीमें स्थित रहो। वही एकमात्र आनन्दपूर्ण अवस्था है। केवल आत्मसंस्थ-जीवन ही जीवन है-और आओ हम सब उस आत्मोपलब्धि के निमित्त प्रयास करें। " (2/177)
*  रेलगाड़ी में चढ़कर यात्रा करते समय जैसे पृथ्वी गतिशील प्रतीत होती है, यह भी ठीक उसी प्रकार है। एक स्वप्न के पश्चात् और एक स्वप्न आ रहा है-उनमें परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है। ..किन्तु स्वप्न की अवस्था में हमें वह कभी असम्बद्ध अथवा असंगत नहीं लगता-...जब हम इस जगतरूपी स्वप्न-दर्शन से जाग उठ कर, इस स्वप्न की सत्य के साथ तुलना करके देखेंगे, तब वह असम्बद्ध और निरर्थक प्रतीत होगा। ..जब तुम उस अपरिणामी सत्ता को बाहर से देखते हो, तब उसे तुम ईश्वर कहते हो, और भीतर से देखने पर उसे तुम निज की आत्मा अथवा स्वरूप कहते हो। ..तुमसे - यथार्थतः जो तुम हो-उससे श्रेष्ठतर ईश्वर नहीं है- सब ईश्वर या देवता ही तुम्हारी तुलना में क्षुद्रतर हैं; मनुष्य ही निज के प्रतिबिम्ब के अनुसार ईश्वर की सृष्टि करता है। '(6/294-95)

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 'हमें विश्वास है कि सभी जीव ब्रह्म हैं। प्रत्येक आत्मा मानो अज्ञान के बादल से ढके हुये सूर्य के समान है और एक मनुष्य से दूसरे का अन्तर केवल यही है कि कहीं सूर्य के उपर बादलों का घना आवरण है, और कहीं कुछ पतला। ...हर एक मनुष्य को चाहिये कि वह दूसरे मनुष्य को इसी तरह, अर्थात भगवत-दृष्टि से देखे और उसके साथ उसी प्रकार से बर्ताव करे, उससे घृणा न करे, उसे कलंकित न करे, और न उसकी निन्दा ही करे। किसी भी तरह से उसे हानि पहुँचाने की चेष्टा भी न करे। यह केवल संन्यासी का ही नहीं, वरन सभी नर-नारियों का कर्तव्य है। 
...धर्म का अर्थ है, उस ब्रह्मत्व की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है। और शिक्षा का अर्थ है, उस पूर्णता की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है। अतः दोनों स्थलों पर शिक्षक का कार्य केवल रास्ते से सब रुकावट हटा देना ही है। (2/327-28) "
* हमने देखा- समग्र जगत में केवल एक ही सत्ता विद्द्यमान है,' यह कहना ठीक नहीं है कि मनुष्य के भीतर एक आत्मा है, यद्दपि समझाने के लिये पहले हमें इस प्रकार मान लेना पड़ता है। वास्तव में केवल एक सत्ता विद्द्यमान है एवं वह सत्ता आत्मा है-और जब वह अविनाशी सत्ता इन्द्रियों और 'इन्द्रिय-प्रतिबिम्ब नियम' के माध्यम से दिखाई देता है, तब उसे ही देह कहते हैं; जब वह विचार के द्वारा अनुभूत होती है, तब उसे ही मन कहते है।
अतएव ऐसा नहीं है कि देह,मन और आत्मा-इन तीन अलग अलग वस्तुओं की समष्टि-एक स्थान में विद्द्यमान है- किन्तु '3H ' इस प्रकार की व्याख्या करके समझाना सुविधाजनक था- किन्तु सब वही आत्मा है तथा वह एक सत ही विभिन्न दृष्टियों के अनुसार कभी देह, कभी मन अथवा कभी आत्मा के रूप में अभिहित हुआ करता है। 
सत तो केवल मात्र एक है, अज्ञानी लोग उसे ही जगत कहा करते हैं। ..जब पूर्ण ज्ञान का उदय होता है तो सारा भ्रम उड़ जाता है और तब मनुष्य देखता है कि यह सब आत्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। 'मैं वही एक सत्ता हूँ ' - यही अन्तिम निष्कर्ष है। 
वह एक सत्ता माया के प्रभाव से बहु रूप में दिखाई पड़ रही है, जिस प्रकार अज्ञान वश रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है। ...हम सब जन्म से ही अद्वैत-वादी हैं, इस बात से भागने का उपाय नहीं है। जब हम रस्सी को देखते हैं, तब साँप बिलकुल नहीं देखते- जब तुमको भ्रम का दर्शन हो रहा होता है, उस समय तुम सत्य को नहीं देख सकते। 
जब तुम अपने को देहरूप में देखते हो, तब तुम देह मात्र हो, और कुछ नहीं हो, तथा जगत के अधिकांश मनुष्यों को ही इसी प्रकार की उपलब्धी होती है। वे आत्मा, मन आदि बातें मुँह से कह सकते हैं, किन्तु देखते हैं, यह स्थूल भौतिक आकृति ही-स्पर्श,दर्शन, आस्वाद इत्यादि। (6/291-92)'
' दूसरे की देह कौन देखता है ? जो अपने को देह समझता है। जिस क्षण तुम देहभाव-रहित होगे, उसी क्षण फिर तुम जगत नहीं देख पाओगे। वह चिर काल के लिये अन्तर्हित हो जायेगा। भला-बुरा कौन देखता है ? वही जिसके निज के भीतर भला-बुरा बना हुआ रहता है। ज्ञानी केवल बौद्धिक विचार स्वीकृति के बल से इस जड़-बन्धन से 'चिज्जड़-ग्रन्थि ' से अपने को विच्छिन्न करते हैं। यही नेति-नेति मार्ग है। '(6/299)
*" एक दिन ऐसा आयेगा, जब राष्ट्र नामक कोई वस्तु नहीं रह जायगी -राष्ट्र राष्ट्र का भेद दूर हो जायेगा। वास्तव में, हम सबके बीच भ्रातृ-सम्बन्ध स्वाभाविक ही है, पर हम सब इस समय पृथक हो गये हैं। ऐसा समय अवश्य आएगा, जब ये सब भेद-भाव लुप्त हो जायेंगे, प्रत्येक व्यक्ति वैज्ञानिक तथ्यों के ही समान अध्यात्मिक तथ्यों में भी तीव्र रूप से व्यवहार-कुशल हो जायेगा। और तब वह एकत्व, वह समन्वय समस्त जगत में व्याप्त हो जायेगा। तब सारी मानवता जीवन्मुक्त हो जाएगी। अपनी इर्ष्या,घृणा, मेल और विरोध में से होते हुए हम उसी एक लक्ष्य की ओर संघर्ष कर रहे हैं। " (2/146) ]
' अब प्रश्न यह कि -'यह स्वप्न किस प्रकार भंग हो कि हम क्षुद्र क्षुद्र नर-नारी इत्यादि हैं ? यह जो स्वप्न है-इससे किस प्रकार हम जागेंगे ? मन और इन्द्रियों की यह गुलामी हटेगी कैसे ? -सत्य को पहले (गुरु-मुख से ) सुनना होगा,  फिर उसपर मनन करना होगा, उसके पश्चात् उसका निदिध्यासन अर्थात ध्यान करना होगा। अर्थात उसके (गुरु-मन्त्र के) तात्पर्य को निरन्तर दृढ़ करते रहना होगा। हमेशा सोचो-' हम ब्रह्म हैं - I am He '   अन्य  सब विचारों को दुर्बलता जनक मानकर, दूर कर देना होगा। जिस किसी विचार से तुमको अपने नर-नारी होने का ज्ञान होता है, उसे दूर कर दो। हमारे अतिरिक्त जब और कुछ भी नहीं है, तब हमें भय दिखायेगा कौन ?
 " अच्छे और बुरे के पीछे एक ऐसी वस्तु है, जो वास्तव में तुम्हारी अपनी है, जो वास्तव में तुम्हीं हो, जो सब प्रकार के शुभ और सब प्रकार के अशुभ के अतीत है- और वही वस्तु शुभ और अशुभ के रूप से प्रकाशित हो रही है। पहले इसे जान लो, तभी तुम पूर्ण आशावादी हो सकते हो, इससे पूर्व नहीं। ऐसा होने पर ही तुम सब पर विजय प्राप्त कर सकोगे। ...तब तुम्हारी सारी दृष्टि एकदम परिवर्तित हो जाएगी, और तुम खड़े होकर कह सकोगे, 'मंगल कितना सुन्दर है, और अमंगल कितना अद्भुत है !' अतः वास्तविक शक्ति एक है, केवल माया में पड़ कर अनेक हो गयी है। अनेक के पीछे मत दौड़ो बस, उसी एक की ओर अग्रसर होओ। " (2/139-40)  
 " जिन लोगों ने राजयोग सम्बन्धी मेरे व्याख्यान पिछली गर्मियों में सुने हैं, उनसे मैं कहता हूँ कि वह योग (राजयोग) ज्ञानयोग से कुछ भिन्न प्रकार का है। जिस योग पर हम अब विचार कर रहे हैं, वह मुख्यतः इन्द्रियों के उपर पूर्ण नियन्त्रण हो जाने के बाद की स्थिति है। 
यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम्।।
 कठ /2-3/10 
-जब मन सहित पाँचो ज्ञानेन्द्रियाँ आत्मा के वश में रहने लगती है, जब बुद्धि भी सुगन्ध-दुर्गन्ध या शुभ-अशुभ का निर्णय करने की और चेष्टा नहीं कर सकती, तभी योगी चरम गति (ज्ञानयोग) को प्रप्त होता है। ]  

सोमवार, 19 नवंबर 2012

'वस्तु ही प्राप्त करने योग्य (attainable) है !' (जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री )@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [36] ,


 वस्तु (ब्रह्म-श्रीरामकृष्ण) ही प्राप्त करने योग्य हैं !  
(अनात्मवाद या भौतिकवाद तो अल्पबुद्धि  लोगों का दर्शन है) 
[Materialism is a philosophy of unintelligent]   
आज विभिन्न स्थानों पर विभिन्न प्रकार की बातें सुनने को मिलती हैं। कहीं पर लोग पूछते हैं, आज स्वामी विवेकानन्द क्या आवश्यकता है ? कोई पूछता है, आज दुनिया में अवतार कौन है,कहाँ है ? आज का धर्म क्या है? कोई व्यक्ति तो श्रीरामकृष्ण के ही शब्दों को उद्धृत करते हुये पूछते हैं- ' क्या मुगल साम्राज्य के जमाने का सिक्का  इस शासन-काल में चल सकता है ? क्या हमारे जीवन में धर्म की कोई आवश्यकता है? धर्म के बिना  केवल  भौतिकवाद (physical science) की सहायता से ही हमलोग जब अपनी समस्त समस्याओं का निदान कर सकते हैं; तो एक मनगढ़न्त वस्तु के ऊपर फिर से चर्चा करने की क्या जरूरत है? 
आदिम युग में जब मनुष्य अल्पबुद्धि (imbecile) था, वह प्रकृति के आँधी-तूफान और गुस्से को देखकर सर्वदा भयभीत हो जाया करता था। और तब इसी भय के कारण धर्म की उत्पत्ति हुई थी। युग बदला, और विज्ञान की प्रगति के साथ साथ, हमलोग अपना उद्धार स्वयं करना सीख चुके हैं। पहले तो हमलोग बाघ और घड़ियाल को भी देखकर डर जाते थे, उनको मार डालने की कोशिश करते थे। इस समय सरकारी धन से बाघ-घड़ियाल संवर्धन परियोजना चला रहे हैं। हमलोग चाहते हैं कि बाघ और घड़ियाल की संख्या में वृद्धि हो। कोई कोई चाहते हैं कि साँप की संख्या में वृद्धि हो। पहले ये हिंसक पशु हमलोगों के शत्रु थे, किन्तु अभी विज्ञान ने इतनी प्रगति कर ली है कि अब हम इनकी संख्या में वृद्धि होते देखना चाहते हैं। 
इन्हीं प्रकार के बेतुके प्रश्नों से हमलोगों का चित्त इतना अधिक विचलित हो गया है कि, हमलोग,इसी बहस में सारा समय गँवा देते हैं -कि श्रीरामकृष्ण, माँ सारदा, स्वामी विवेकानन्द की आवश्यकता आज के विश्व को है या नहीं ? और इसी कारण, हम उनसे प्यार नहीं कर पाते हैं, उनके नजदीक नहीं जा पाते हैं, अपने जीवन का विकास नहीं कर पाते हैं, उनकी सहायता से हम अपने जीवन को पवित्र नहीं बना पाते हैं। तथा अपना कल्याण करके दूसरों का कल्याण करने में स्वयं को पूरी तरह से न्योछावर नहीं कर पाते हैं। इस महान बली के लिये अपने जीवन को गठित  नहीं कर पाते हैं। और यही सबसे बड़े दुःख की बात है।
हमलोग विज्ञान का अध्यन करते हैं, " Materialism " या  भौतिकवाद के उपर चर्चा करते हैं,  चिन्तन करते हैं। किन्तु पाश्चात्य जगत के एक नॉबेल पुरष्कार प्राप्त वैज्ञानिक रॉबर्ट एंड्रयूज मिल्लिकन (R. A. Millikan)कहते हैं -" मटीरीअलिज़म इज अ फिलॉसफी ऑफ़ अनइंटेलिजेंट "अर्थात -भौतिकवाद, (चार्वाक मत, अनात्मवाद अथवा देह-सर्वस्ववाद) एक ऐसा दर्शन है, जो केवल अल्पबुद्धि लोगों के लिए ही उपयुक्त हो सकता है। वे बहुत शिष्ट भाषा का प्रयोग करते हुए कहते हैं, कि जड़वाद या 'अनात्मवाद'-केवल अज्ञानी लोगों का ही दर्शन है।  इस विषय पर चिंतन करने से यही समझ में आता है कि, जो व्यक्ति सब कुछ को जड़ पदार्थ समझता है, आम भाषा में जिसको 'ठोस वस्तु' (Solid objects,इन्द्रिय गोचर या Tangible ठोस पदार्थ कहते हैं, जो छूने से जान पड़े,स्पर्श योग्य मूर्त पदार्थ) कहा जाता है, इसी जड़ वस्तु पर विचार करते करते उसके दिमाग में भी 'जड़ता' (गोबर) भर जाती है, वह स्वयं जड़ पदार्थ में परिणत जाता है।एक शब्द में यदि अनात्मवादियों की व्याख्या करनी हो, तो कहना पड़ेगा कि जड़-वस्तुओं का चिंतन करते करते उनका दिमाग इतना 'impervious' (इम्पर्वीअसअविवेकी या अभेद्य गैंडा का चमड़ा जैसा) अप्रवेशनीय हो जाता है, वहाँ कोई भी प्रवेश-द्वार खुला नहीं रहने के कारण उसमें कोई नया या सूक्ष्म विचार घुस ही नहीं पाता है। जब किसी मनुष्य की ऐसी अवस्था हो गयी हो, तब उसको देखने से लगता है, इसके व्यक्तित्व का विकास होना अब संभव नहीं है।
अब इन प्रश्नों में उलझना छोड़ कर कुछ और आगे की बात सोचनी होगी। केवल श्रीरामकृष्ण, माँ सारदा या स्वामी विवेकानन्द आज भी हैं या नहीं ? यदि हैं तो, उनको रहने दिया जा सकता है कि नहीं ? ... इस 
बहस में न उलझते हुए, हमलोगों के मन में उनको ग्रहण का विचार उठाना चाहिये। वर्तमान समय में जहाँ हम अपनी आँखों के सामने असामनता, दारिद्र्य, दुःख, दुर्दशा आदि देखते हैं तो हमलोग इसके समाधान के उपायों पर चर्चा करते हैं। और अक्सर हमलोग इन समस्याओं का हल ढूँढने के लिये राजनीति का सहारा लेना चाहते हैं। किन्तु राजनीति के माध्यम से इन समस्याओं का सच्चा समाधान हम कभी नहीं ढूँढ़ सकते।
क्योंकि राजनीति में सबसे बड़ी कमी यह है कि वहाँ मनुष्य का अन्वेषण (खोज) करने की कोई व्यवस्था नहीं है। (जम्हूरियत वह तर्जे हुकूमत है, जिसमें बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते ! -अकबर इलाहाबादी) मनुष्य को अधिक सुख कैसे मिलेगा -इसके अन्वेषण की चेष्टा होती है, उसमें धन-सम्पति के खोज की व्यवस्था है, शक्ति और समाज को समृद्ध करने का अन्वेषण होता रहता है, किन्तु जिस मनुष्य के सुख, धन, ऐश्वर्य प्राप्ति के लिये वे सभी वस्तुएँ हैं, उसी मनुष्य का विश्लेष्ण करने की कोई व्यवस्था नहीं है। 
राजनीतिक विचारधारा में मनुष्य के बारे में जो थोड़ा -बहुत विश्लेष्ण हुआ भी है वह केवल उन्हीं तथाकथित समाज-सेवकों के चिन्तन पर आधारित है,जो भौतिकवाद की सहायता से मनुष्य के देह को सुख कैसे पहुंचेगा, केवल इसी विषय पर अपनी बुद्धि लगाते हैं। हमारे देश का "योजना आयोग " जड़वादी दृष्टिकोण रखने वाले, Materialism के दर्शन में विश्वास रखने वाले लोगों के मनुष्य सम्बन्धी विश्लेष्ण को आधार बना कर  मनुष्य के कल्याण की योजनायें बनाता है। ये मूर्ख भौतिकतावादी लोग मनुष्य को केवल एक क्षूद्र जीव समझते (और मात्र 26/= रुपये कमाकर एक दिन का भोजन मिल सकेगा, ऐसी BPL -योजना बनाते) हैं।
(भारत के विश्वविद्यालयों में दर्शनशास्त्र पढ़ाने वाले अधिकांश प्राध्यापक भौतीकतावादी या चार्वाक मत के अनुयायी हैं) वे छात्रों को केवल यही बताते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक जीव है, जिसके कुछ इन्द्रियाँ हैं, अर्थात मनुष्य केवल body-mind complex, शरीर-मन का एक संयोजन (combination) मात्र है। 
राजनीति शास्त्र में मनुष्य को केवल एक ऐसे प्राणी के रूप में देखा जाता है, जिसकी कुछ इन्द्रियाँ होती है। इस प्रकार मनुष्य की महिमा को छोटा कर दिया जाता हैं, उसकी अवमानना की जाती है। सेक्सपियर ने अपने एक नाटक में कहा है -" अक्सर हमलोग आचार-अनुष्ठान को इतना बड़ा बना देते हैं, कि देवता ही उपेक्षित हो जाते हैं। " हमलोग मनुष्य के लिये ही विचार करते हैं, उनका  दुःख-दैन्य किस प्रकार दूर हो सकता है, उसी के उपर सोचने में हमलोग इतने अधिक डूब चुके हैं, कि जिस मनुष्य के कल्याण की चिन्ता कर रहे हैं, उस मनुष्य को - उस मनुष्य की यथार्थ सत्ता को भूल गये हैं।
आज जो वैश्विक समस्या का रूप ले चुकी है, विशेष रूप से भारत के लिए जो एक संकट की स्थिति बन चुकी है, जिसे दूर करना सबसे आवश्यक है, वह है यहाँ के मनुष्यों की अपहृत सत्ता को पुनः प्रतिष्ठित करना। ऐसा प्रतीत होता है, मानो किसी अपराध के फलस्वरूप भगवान की मूर्ति में जिस प्राण को प्रतिष्ठित किया गया था, वह प्राण ही विलुप्त हो चूका है, और कहीं संगमरमर की मूर्ति पड़ी है, तो कहीं लकड़ी की बेजान मूर्ति लुढ़क रही  है। जो मानव शरीर दिख रहा है, वह तो केवल लकड़ी, मिट्टी या संगमरमर का पत्थल है, उसमें देवता कहाँ हैं ? हमलोगों के भीतर जो ब्रह्म निश्चित रूप से विद्यमान हैं, उनको ही हमलोग अस्वीकार कर रहे हैं। तथा अपने को केवल एक हाड़-माँस का पिंजरा समझते हैं, जिसके भीतर कुछ इन्द्रियाँ अद्भुत करामात कर रही हैं, और हमलोग उसके कारनामों को नजर भर भर कर देख रहे हैं, और उसके उसकावे में बहते जा रहे हैं। इन्द्रिय विषयों में ही सुख ढूँढ़ रहे हैं, यही मनुष्य -समाज का सबसे बड़ा संकट है।
यह संकट बेबुनियाद नहीं है। इसीलिये बार बार यह समझाना पड़ता है, चर्चा करनी पडती है कि स्वामी विवेकानन्द, माँ सारदा और श्रीरामकृष्ण आज भी अत्यन्त आवश्यक हैं। जगत में इस प्रकार का संकट पहले भी कई बार उपस्थित होता रहा है, और जब जब ऐसा संकट आता है, उसको कहते हैं, धर्म की ग्लानी होना या नीचे गिर जाना, एवं अधर्म का अभ्युत्थान हो जाना, अधर्म का उपर उठ जाना। यह धर्म का नीचे गिरना और अधर्म का अभ्युत्थान होने का अर्थ यह नहीं है कि मन्दिर टूट-फूट गये हैं, और अमीर लोगों से काला धन लेकर कुछ नये मन्दिर बना देने मात्र से ही धर्म का अभ्युत्थान हो जायेगा।  ऐसा सोचना बिल्कुल गलत होगा। धर्म अपने स्थान से च्युत कब होता है ? जब हमलोग मनुष्य की अन्तर्निहित सत्ता या उसके ब्रह्मत्व की अवमानना करते हैं, उसको अस्वीकार करते हैं, और वह मानो संकोच, दुःख, लज्जा से अवनत हो जाती है, मनुष्य की दृष्टि अपनी ही अंतर्निहित सत्ता को देख ही नहीं पाती है। और तब हमलोग मात्र एक जीव या केवल एक पशु हो जाते हैं।हमलोगों की बाहरी आकृति या ढाँचा तो मनुष्य का ही है, आवरण मनुष्य का है, किन्तु पशु के जैसा स्वभाव लेकर समाज में विचरण करते हैं।
इसी प्रकार की घटना का सूत्रपात आधुनिक युग में भी हुआ था, जब पाश्चात्य विज्ञान, पाश्चात्य दर्शन, पाश्चात्य साहित्य आदि (रावण) ने हमलोगों के देश की मनीषा या बुद्धि (रूपी सीता ) का हरण कर लिया था। जिस समय हमारे देशवासी पाश्चात्य विद्या में धीरे धीरे शिक्षित होते जा रहे थे, जब वे पाश्चात्य संस्कृति की बाढ़ में डूबने-उतराने लगे थे, तथा हमारी प्राचीन संस्कृति जिसमें मनुष्य को उसकी यथार्थ सत्ता को जानने की पद्धति बताई गयी थी, उसकी उपेक्षा करने लगे थे और अपनी प्राचीन विचारधारा की हर बात को अन्धविश्वास कहकर उसका मजाक उड़ाने में लगे हुए थे, उसी समय भगवान श्रीरामकृष्ण आविर्भूत हुए।
बार बार 1853 ई0 की बात याद हो आती है, जब महान विचारक कार्ल मार्क्स किसी व्यक्ति को पत्र में लिखते हैं, " भारतवर्ष की वर्तमान अवस्था को देख कर मुझे बहुत दुःख का अनुभव हो रहा है, भारतवर्ष ने अपने अतीत को तो भुला दिया है, किन्तु उसके बदले किसी नई विचारधारा को अंगीकार भी नहीं किया है। वर्तमान में उसकी निराशाजनक अवस्था को देखते हुए, उसके भविष्य के विषय में कुछ भी सोच नहीं पा रहा हूँ। "
 किन्तु ठीक उसी वर्ष, अर्थात 1853 ई0 में ही श्रीरामकृष्ण देव ने कोलकाता में पदार्पण किया था। उन्होंने वहाँ  कोई मैजिक नहीं दिखलाया बल्कि, तत्कालीन शिक्षित समुदाय के समक्ष-जो ज्ञान प्राचीन काल में साधारण जनता की आँखों से अदृश्य जंगल की गोपनीयता में आविष्कृत हुआ था, उसी 'निर्विकल्प -समाधि ' को ही अपने नवीनतम विज्ञान के रूप में सीधे तौर पर प्रस्तुत कर दिया था। और जगत के समक्ष पहली बार, आधुनिक समय की शिक्षा के उपर इतराने वाले कोलकाता में,  'Trance-Science' या "भाव समाधी (तन्मयावस्था) " का विज्ञान प्रकट हो गया।  एक ऐसे वैज्ञानिक धर्म का जन्म हुआ, जो कहता है- ' विश्वास नहीं, साक्षात्कार कर के देखो।' " सत्य-ज्ञान (अपने सच्चे स्वरूप ज्ञान ) प्राप्त कर लेना ही धर्म है।"
कठोपनिषद में कहा गया है कि प्रकृति ने जिस प्रकार हमलोगों की रचना की है, उसके अनुसार स्वभावतः हमारी समस्त इन्द्रियाँ बहिर्मुखी (बाहर जाने वाली) हो गयी हैं। इसी बहिर्मुखिनता के कारण हमलोग विभिन्न प्रकार के विषयों के संसर्ग में आते हैं; इस संसर्ग-छूटने से वेदना होती है, वेदना से अनुभूति (दिल को चोट पहुँचता है ), अनुभूति से  क्रमशः तृष्णा आती है, और उसके बाद उन्हीं विषयों में हमलोग घोर आसक्त हो जाते हैं। इन्हीं सब कारणों से हमलोगों को विभिन्न प्रकार के दुःख, कमजोरी, बीमारी, मृत्यु आदि घेर लेते हैं। इस जन्म-मृत्यु के चक्र से हमलोग बाहर नहीं निकल पा रहे हैं।
इन्द्रिय जन्य वेदना के अतिरिक्त और किसी प्रकार के सत्य-ज्ञान को नहीं पा रहे हैं। बहुत तरह का सत्य-ज्ञान (True -Knowledge) हो सकता है, उन सबों में सबसे अपेक्षित (आवश्यक) सत्य-ज्ञान है- मनुष्य के सम्बन्ध में सत्य-ज्ञान। इसी मनुष्य के सम्बन्ध में सत्य-ज्ञान नहीं रहने से हमलोग खोखला (भाव शून्य, मूढ़) बन जाते हैं, हमलोगों को अन्तःसार शून्य (आन्तरिक दिव्य-उर्जा से रहित) हो जाना पड़ता है। श्रीरामकृष्ण-सारदा देवी-स्वामी  विवेकानन्द ने आधुनिक समाज के सामने मनुष्य की इसी विडम्बना को उद्घाटित किया है। 
उन्होंने मानव-जाति को यही उपदेश दिया कि तुमलोग अपने सभी क्षेत्रों में विकास करने के लिये, पहले आत्मविश्वासी बनो। तुम लोग अपनी अन्तर्निहित दिव्यता के प्रति अपनी खोयी हुई श्रद्धा को वापस ले आओ। स्वामी विवेकानन्द ने भारत के सर्वांगीन विकास के लिये, अपने देशवासियों के अपहृत आत्मश्रद्धा को वापस लौटा देने का आह्वान किया है। उनको शिक्षित करो। यदि ब्राह्मण के लड़के के लिये एक शिक्षक की आवश्यकता हो, तो चांडाल के लडकों को शिक्षित करने के लिये दस शिक्षकों (आत्मश्रद्धा वापस लौटाने में समर्थ क्रांति-दूतों ) का निर्माण करो। आजकल जिनको अनुसूचित जाति और जनजाति कहा जाता है, उनके लिये अधिक शिक्षा की आवश्यकता है। सच्ची शिक्षा के माध्यम से ही उनकी गरीबी दूर की जा सकती है। इसी शिक्षा को प्राप्त करके अंतर में सोये हुए ब्रह्म जाग उठते हैं। जब कोई मनुष्य सच्चा आत्मविश्वासी बन जाता है, तब उसको समस्त वस्तुएँ प्राप्त हो जाती हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता (6/5) में कहा है-   
उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌ ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ 
 मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये और अपना अध पतन नहीं करना चाहिये क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा (मनुष्य स्वयं) ही आत्मा का (अपना) शत्रु है।।
गीता (2/31 -38) में ही एक जगह श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं, " तुम युद्ध करो। तुम यदि युद्ध करके अपने कर्तव्य का पालन करो, यदि गृहस्थ होकर पारिवारिक कर्तव्यों का पालन करो, सामाजिक होकर समाज के कर्तव्यों का पालन करो, तभी तुम्हारे स्वधर्म का पालन करना होगा। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मृत्यु भी हो तो वही श्रेयस्कर है। " 
हमलोग यदि श्रीरामकृष्ण को श्रद्धा के साथ, बहुत प्रेम के साथ, बहुत नजदीक से देखने की चेष्टा करें तो देखते हैं कि माँ को प्राप्त करने के लिये उनके जीवन में कितनी वेदना थी। कह रहे हैं, " माँ, तूने रामप्रसाद को दर्शन दिया है, मुझे नहीं दोगी ? " प्रतिदिन सूर्यास्त हो जाने के बाद कह रहे हैं, " और एक दिन बीत गया, आज भी तूने दर्शन नहीं दिया ? " माँ को पाने की क्या असाधारण व्याकुलता है, कितनी वेदना है ! और अंत में जब वे हाथ में कटार लेकर अपना जीवन ही समाप्त कर देने पर उतारू हो जाते हैं, ठीक उसी समय आद्याशक्ति उनको दर्शन देती हैं। किन्तु उसके बाद भी वे दर्द भरे गले से युवाओं को पुकार रहे हैं, " अरे, तुमलोग कहाँ हो ? माँ ने तो कहा था, तुम लोग आओगे। " 
यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि वे युवाओं को पुकार रहे हैं ! वृद्ध लोगों के लिये जितना देने को था, उससे अधिक ही वे दे चुके थे। किन्तु वही श्रीरामकृष्ण- माँ सारदा को कहते हैं, " तुम रहो, बहुत से काम करने हैं ! " अपने परिवार की तंगी (अभावग्रस्तता) को दूर करने की प्रार्थना करने गये तो माँ से माँग बैठते हैं- " माँ मुझे विवेक दो, वैराज्ञ दो, ज्ञान दो, भक्ति दो !" यह सब क्यों माँगे ? ' आत्मनो मोक्षार्थं जगतहिताय च ' - आत्मा की मुक्ति और जगत का कल्याण करने के लिये। उसके बाद माँ सारदा देवी ठाकुर के भक्त युवाओं का पालन-पोषण करने में अपने मन को निवेशित कर देती हैं। उनकी प्रार्थना और आशीर्वाद से ही  इन युवाओं के लिये - ' रामकृष्ण मठ और मिशन ' नामक एक संगठन खड़ा हो जाता है। इस संगठन के माध्यम से ही श्रीरामकृष्ण-जीवन-गोमुखी वितरण धारा से आज भारत भूमि को सिंचित और पल्लवित करते हुए, सम्पूर्ण विश्व क्रमशः उस धारा में स्नान करके पुलकित हो उठी है। इस मठ-मिशन के आविर्भूत होने के कारण ही हमलोग आज उनके जीवन और उपदेश पर चर्चा तथा समाज में उनके प्रयोग के प्रश्न को लेकर विचार-विमर्श कर पा रहे हैं। 
कुछ लोग पूछते हैं, रामकृष्ण मिशन ने क्या किया है ? हमलोगों का मानना है कि, 'रामकृष्ण मठ और मिशन' जैसे सम्पूर्ण मानवता को समर्पित महान संगठन द्वारा की गयी सेवा-कार्यों को सूचीबद्ध किया ही नहीं जा सकता ! इस तरह की सूची तो कई छोटे-बड़े कई संगठन देते ही रहते हैं । किन्तु इस संगठन द्वारा की गयी सेवा-कार्यों की सूची तो बहुत लम्बी हो जाएगी। इसी विषय पर स्वामी अखण्डानन्द के साथ खेत्री के महाराज के वार्तालाप का स्मरण कीजिये। एक धनाड्य महाराज के साथ इस तरह के बर्ताव की सूची और कहीं नहीं मिलेगी। [ राजस्थान में प्राचीन समय मे ऐसा रिवाज था कि छोटी जाती की लड़कियों को राजा अपनी दासी बनाकर रखते थे...इन्हे गोली और लड़कों को गोला कहा जाता था...गोलियों के रहन सहन का पूरा खर्च राजा ही उठाते थे लेकिन उनकी संतान,जो की राजा की ही संतान हुआ करती थी,को राजा का नाम या रुतबा नहीं मिलता था...उन्हे अपने कथित पिता के साथ रहना पड़ता था...जो कि आमतौर पर गोली के सेवक की तरह रखा जाता था, उनके लिये स्कूल की स्थापना किये थे]  किन्तु यह भी एक प्रकार की बाह्य समाज-सेवा ही है।
जयदेव रचित गीत गोविन्द में माँ जगदम्बा के दस अवतारों की महिमा का बखान करते हुए कहा गया है -प्रलयपयोधिजले धृतवानसि वेदम् । विहितवहित्रचरित्रमखेदम्॥ केशवाधृतमीनशरीर जयजगदीशहरे॥" 
-हे जगदीश्वर! हे हरे! जिस प्रलय काल में सात समुद्रों के जल ने सम्पूर्ण पृथ्वी को बाढ़ में डुबो दिया था, हे केशव ! उस समय आपने मानवजाति के कल्याण के लिए मछली (और वाराह) जैसे तुच्छ शरीर में अवतार लेकर अथक परिश्रम द्वारा चारो वेदों को सुरक्षित बनाये रखा है। क्योंकि ये वेद ही उस नौका (जलयान)  के समान हैं जो जीवात्मा को दूसरे तट तक (परमात्मा तक) ले जाने में समर्थ है। [विहित = make do [improvising]; वहित्र = (like a) ship; चरितम= legendary; वेदं = Veda s] इस प्रकार हे हरि ! आप ही मानवजाति के मार्गदर्शक नेता हैं, आपकी जय हो ! अर्थात  जैसे नौका (जलयान) बिना किसी खेद के सहर्ष सलिल-स्थित किसी वस्तु का उद्धार करती है, वैसे ही आपने बिना किसी परिश्रम के निर्मल चरित्र के समान प्रलय जलधि में मत्स्य रूप में अवतीर्ण होकर चार वेदों को धारणकर उनका उद्धार किया है। हे मत्स्यावतारधारी श्रीभगवान! आपकी जय हो।
[साभार krishnakosh.org]
ठीक जयदेव के शब्दों में हमलोग भी कह सकते हैं, जिस समय पाश्चात्य जगत के 'यूट्यूब', 'फेसबुक'  आदि द्वारा निकृष्ट विचारों के बाढ़ में हमलोगों का देश लगभग डूबने को था, मानव कल्याण के लिये उस समय मनुष्य की अपहृत सत्ता का पुनरुद्धार करने हेतु, यह संगठन भी (मछली जैसे) नगण्य शरीर को धारण करके  इस युग के लिये एक नये वेद को अपने सिर पर उठाये हुए किसी जलपोत के समान एक महादेश से दूसरे महादेशों तक पहुँचा देने के महान कार्य में लगी हुई है। इस संगठन के कारण ही आज हमलोग समाज-कल्याण के लिये नये विचार देख रहे हैं। हमलोग स्वयं इस प्रकार के सेवा कार्य में उतर पा रहे हैं, जहाँ मानव का कल्याण करते समय उसकी सत्ता को तिरस्करणीय नहीं समझा जाता है।
रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में भौतिक जगत, जड़-जगत की सत्यता को कभी अस्वीकार नहीं किया जाता है, किन्तु अनजाने में (Energy =Matter, ब्रह्म और शक्ति, पुरुष और प्रकृति अभेद हैं, निर्गुण में सगुण होने, या जल में बरफ बनने की शक्ति विद्यमान है -नहीं जानने के कारण ) कुछ लोग इस भावधारा पर इस प्रकार का दोषारोपण किया करते हैं। स्वयं श्रीरामकृष्ण देव ने ही स्वामीजी के घर के लिये थोड़ा मोटा चावल-कपड़ा की व्यवस्था, और देवघर के संथालों के लिये अन्न-वस्त्र और सिर में तेल देने की व्यवस्था की थी। उन्होंने ने ही कहा था- " खाली पेट धर्म नहीं होता।" एक व्यक्ति अपना घर-द्वार छोड़ कर दक्षिणेश्वर में ही पड़ा रहता था और साधक-पुजारी होने का ढोंग कर रहा था, किन्तु वास्तव में वह आध्यात्मिक व्यक्ति नहीं था। उसकी भर्त्सना करते हुए श्रीरामकृष्ण बोले , " तुम्हारे पत्नी-पुत्र को क्या तुम्हारे पड़ोसी खाना खिलाएंगे ? उन्होंने ही कहा था, " बेल के खोपड़े और बीजों को हटा कर बेल का पूरा वजन नहीं पाया जा सकता।" ध्यान केवल इतना रखना है कि खोपड़े-बीज में ही सारा आकर्षण हो जाने से कहीं गूदा से ही वंचित न होना पड़े। सम्पूर्ण शक्ति को औपचारिक अनुष्ठान में ही खपा देने पर, मूल देवता पहुँच के बाहर ही छूट जाते हैं। केवल बाहरी वस्तुओं (भौतिक पदार्थों के रंग-रूप) में ही नजरों को गड़ाये रखने से भीतर की वस्तु पर कभी नजर जा ही नहीं सकती है।
इसीलिये जब हमलोग ' वस्तु वस्तु ' ( शरीर का रंग-रूप और भौतिक वस्तुओं में असक्त रहते है) करते हुए मनुष्य के भीतरी गूदे की उपेक्षा करते हैं, तो असली वस्तु ( यथार्थ स्वरूप या अस्तित्व ) को खो देते हैं, और इस प्रकार निःस्व (आत्म-रहित) होकर निर्धनता, अज्ञानता और विभिन्न समस्याओं से उत्पीड़ित हो जाते हैं, उस समय इन समस्याओं का सही हल निकलना हो, तो मनुष्य के भीतरी वस्तु के पुनर्बोधन तथा उद्घाटित करने की आवश्यकता होती है।
 उस आन्तरिक सत्ता में ही हमलोगों की सारी शक्ति, ज्ञान और पवित्रता अन्तर्निहित रहती है। आन्तरिक वस्तु के इन्हीं तीन संसाधनों को कार्य में नियोजित किया जाये, तो हमलोग स्वयं अपने समस्त दुखों को दूर कर सकते हैं, समस्त समस्यायों का समाधान कर सकते हैं। जगत और मनुष्य का यथार्थबोध एवं उसके दुःख के बोझ को उठाने के सामर्थ्य प्राप्त करने के लिये श्रीरामकृष्ण-सारदा देवी-स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा का श्रवण-चिन्तन और कर्म में रूपायन करना आवश्यक है।
यह विचारधारा मनुष्य को जीवन से उदासीन होने को नहीं कहती है, बल्कि जीवन में जीत हासिल करने की अदम्य उर्जा प्रदान करती है। यह विचारधारा किसी भी भौतिक वस्तु की उपेक्षा करने की बात नहीं कहती; बल्कि यह यथार्थवाद के जंजीर में न बंध कर मनुष्य को उसके यथार्थ स्वरूप की खोज करने, तथा उसी के बल पर मनुष्य के जीवन को पूर्णतर बना लेने के लिये प्रेरित करती है। इसीलिए, हमलोग वस्तु (पदार्थ) को अस्वीकार नहीं करते, बल्कि हमलोगों के लिये तो 'वस्तु' ही लभ्य है ! 
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[ In philosophy, the theory of materialism holds that the only thing that exists is matter or energy; that all things are composed of material and all phenomena (including consciousness) are the result of material interactions. In other words, matter is the only substance, and reality is identical with the actually occurring states of energy and matter.  

materialist regards nothing as real and substantial which has not tangibility. He reduces everything to the terms of physical matter, which is for him the only reality. If he uses the words, energy, power, force, motion, principle, law, mind, life or thought, which represent intangible things, it is to regard them merely as attributes, conditions or products of matter. For him the things represented are neither real or substantial. They exist, as it were, only in the imagination. Because they are not tangible they are not real. 

It holds, for example, that the "wave-theory" of sound is a fallacy in science. Hall experimentally established the fact that; - "Sound consists of corpuscular emissions and is therefore a substantial entity, as much so as air or odor." He argues; - "If sound can be proved to be a substance there cannot be the shadow of a scientific objection raised against the substantial or entitative nature of life and the mental powers."
"If mind is the result of the motion of the molecules of the brain, of what does that result consist? If the motion of the molecules is the all of mind, then the mind is nothing, a nonentity, since motion itself is a nonentity" (Hal)
From nothing, nothing comes. Every effect proceeds from a cause. Effects follow causes in unbroken succession.  No substantial effect can be produced upon any subject without an absolute substance of some kind connecting the cause with the effect.
Gravity, or that which produces gravitation, is a substance, since it acts upon physical objects at a distance and causes substantial physical effects. Magnetism is a substance, since it passes through imporous bodies, seizes upon and moves iron.Sound is a substance, since it is "conveyed through space by air waves." It must be something substantial or it could not be conveyed.
Light, heat and (or) electricity are (is) substantial. (They may be identical.) It is absurd to call them "modes of motion" or "vibratory phenomena." But physical science (materialism) does not tell us who or what moves the ether and determines the rate of vibration. That remains for substantialism, which teaches that Life is a substance, having the qualities of a real, entitative being. By its agency alone organized, living, conscious, thinking, willing entities are created, maintained and reproduced. Hence, Life is intelligent, else it could not manifest these qualities.
 Mind is a substance, since it acts to think or produce thoughts and things. Mind, therefore, has intelligence. Thought - the action of mind - may be called "a mode of motion of mind, acting upon the molecules of the brain." In the last analysis life and mind are one and identical, since they have identical qualities and attributes, and Mind (Syn: life, spirit) is the primary cause of motion. Life is energy and all energy is living energy.R. A. Millikan says that a purely materialistic philosophy is the height of unintelligence. ]   
[Velocity of  Light ज्यादा है Velocity of Sound से, तो पहले धरती पर कौन आया ? यदि धरती Big Bang के बाद या Sound के बाद आई तो अस्तित्व वह है, जो सदा से है। ईश्वर या सत्य है ' अस्ति-भाति-प्रिय (Existence- Knowledge- Bliss) ' और 'नाम-रूप (Name -Form )'  उस सत्य की अभिव्यक्ति है। बीज या सत्य है 'Sound' ( ॐ ) और उसका प्रकाश 'Light' है बृक्ष या नाम-रूप मिथ्या जगत ! सत्य के उपर ही जगत आरोपित है। विकासवाद के सिद्धान्त के अनुसार बीज में पूरा वृक्ष समाहित है, उसी प्रकार जगत में ईश्वर समाहित हैं। ईश्वर ही जगत बन गये हैं। इसीलिये मुझसे भिन्न कोई नहीं है। सबसे प्रेम करना चाहिए, जगत में कोई कोई पराया नहीं है ! किसी का दोष नहीं देखना चाहिए। मनुष्य का व्यक्तित्व उसके चरित्र में समाहित है। यहाँ चरित्र है बीज और व्यक्तित्व है वृक्ष ! किसी व्यक्ति के light या नाम-रूप को देखकर उसे नहीं जाना जा सकता है, कुछ दिनों तक उसके साथ रहने के बाद ही, उसके  Sound या व्यवहार को देखने से उसका यथार्थ चरित्र प्रकट हो जाता है। यदि (पशु-मानव देव-मानव में उन्नत या विकसित हो चूका है, उसका चरित्र गठित हो चूका है, " I am He " को पहचान कर यदि वह जीव मनुष्य बन चूका है, अर्थात देवताओं से भी उपर उठ चूका है, तो वह पुर्णतः निःस्वार्थी बन चूका होगा, किन्तु उसकी पहचान उपर उपर से देख कर नहीं हो सकती, कुछ दिनों तक उसके साथ रहकर उसे परखना होता है। पश्य लक्ष्मण बकः परमं धार्मिकः ......... ?

 Thursday 15/11/12 The Master Said: "Bondage is of the mind, and freedom is also of the mind. A man is free if he constantly thinks: 'I am a free soul. How can I be bound, whether I live in the world or in the forest? I am a child of God, the King of Kings. Who can bind me?" om tat sat]

[While in Khetri, Rajasthan during 1894, he went about from door to door, all alone to bring awareness in the people about the utility of education, and it was because of his efforts that the number of students in the Khetri Rajy English School rose from 80 to 257. Swami Akhandananda started a school for the children of the   slaves (called 'Gola') of the kings of Khetri. This sort of services rendered was a pioneering one ever-attempted in history. Under his inspiration the Maharaja of Khetri Ajit Singh arranged for the education of the Golas and also set up a permanent Education Department to open schools in the villages. Akhandananda also arranged for the publication of a newspaper on agriculture in order to educate the farmers of that area. He also contacted renowned landlords in the numerous village of Khetri, inspiring them to take some concrete steps towards removing the miseries of their poor labourers. At the instance of the Swami the Sanskrit school in Khetri was converted to Vedic school and he raised subscriptions to purchase books for the poor students. He fed the Bhils, an aboriginal tribe, in Uadaipur. ]