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बुधवार, 14 नवंबर 2012

'चरित्र निर्माण का प्रक्रिया '[The way to build character] स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [35](जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री ),

[१.चरित्र-निर्माण का संकल्प ग्रहण]  चरित्र-निर्माण कैसे किया जाता है; चरित्र है क्या चीज? अथवा चरित्र गठन करने की आवश्यकता ही क्यों है- इन विषयों पर चर्चा करनी हो, या यदि चरित्र-निर्माण की पद्धति को क्रियान्वित करनी हो, तो ये सभी कार्य हमें मन की सहायता से ही करने होंगे। अन्य कोई उपाय नहीं है। कोई दवा खा कर, या किसी अनुष्ठानिक प्रक्रिया (नाक दबाकर साँस लेने-छोड़ने) के द्वारा, चरित्र-निर्माण करना असम्भव है। हालाँकि बहुत से लोग ऐसा दावा भी करते हैं, किन्तु वह ठीक नहीं प्रतीत होता है। चरित्र-निर्माण करने में 'मन' की सहयता लेनी ही पड़ेगी; क्योंकि मन की सहयता के बिना हम किसी भी कार्य को कुशलता पूर्वक सम्पन्न नहीं कर सकते। यजुर्वेद के शिव संकल्प सूत्र (३४/३) में ईश्वर से प्रार्थना की गयी है -
'यस्मान्न ऋते किंचन कर्म न क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।'   
[ (यस्मात् ऋते) जिसके बिना (किंचन) कुछ (कर्म) काम (न) नहीं (क्रियते) किया जाता हैं (तन्मे मनः) वह मेरा मन (शिवसंकल्पमस्तु) शिव संकल्पों वाला हो।] जिसके बिना किंचित् कर्म नहीं होता,मेरे उस मन में सदा शिव-संकल्प ही रहे (यही कामना रहे कि मैं एक चरित्रवान मनुष्य बन जाऊँ !
[२. व्यक्ति और समाज] हमलोग यह जानते हैं कि व्यक्तियों से मिलकर ही समाज बनता है। अतः,इस विषय में किसी को कोई सन्देह नहीं होना चाहिये कि, यदि सुन्दर समाज का निर्माण करना चाहते हों, तो जिन व्यक्तियों का वह समाज बना है,उन व्यक्तियों के जीवन को ही सुन्दर रूप में गठित करना पड़ेगा। ऐसा प्रतीत होता है कि, इस बात से कोई असहमत नहीं होंगे। क्योंकि व्यक्तियों के समूह को ही समाज कहते हैं। इसलिये जब तक व्यक्ति-मनुष्य अच्छा नहीं बन जाता तब तक समाज भी अच्छा नहीं बन सकता है।
घुन या नोना-लगे ईंट से यदि किसी घर का निर्माण किया जाय तो थोड़े ही दिनों के बाद, भले ही उसके उपर कितना भी अच्छा प्लास्टर क्यों न किया गया हो, उस घर के ऊपर खारेपन की पपड़ी उभर आएगी। उसी प्रकार यदि समाज भी घुन लगे,असुन्दर व्यक्तियों से निर्मित हो, तो समाज भी बदसूरत (ugly) ही दिखाई देगा यहाँ सुन्दर मनुष्य कहने का तात्पर्य क्या है ? यहाँ सुन्दर से तात्पर्य है चरित्रवान, केवल देखने में सुन्दर नहीं। जो सही मायने में अच्छे फल (Truly good fruit) दे सकता है,उसी को सुन्दर वृक्ष कहते हैं। केवल देखने में सुन्दर, या गंध में सुन्दर, सुनने में सुन्दर, या स्पर्श करने में सुन्दर होने से ही नहीं होगा; सुन्दर उसी को कहते हैं, जो सुन्दर फल देता हो- ' फलेन परिचीयते।' फल ही वास्तविक परिचय है। यदि हमलोग ऐसा सुन्दर समाज चाहते हैं, जो सचमुच सुन्दर फल दे सके, अर्थात मनुष्यों का मंगल करे; तो वैसा सुन्दर समाज गढ़ने  के लिये, उसी प्रकार के सुन्दर मनुष्यों को गढ़ना होगा - जिस मनुष्य के कार्य से समाज को सुन्दर फल प्राप्त हो सकता हो।

[३. विचार और कर्म (Thought and Action)] इसके बाद विचार और कर्म के महत्व को ठीक से समझने का प्रयास करना होगा। किसी भी कार्य को करने के लिए हमें तीन तरह से प्रयास करना होता है । मन ,वचन और कर्म से । मनसा , वाचा , कर्मणा के भाव को यूनीडिरेक्श्नल या एकमुखी रखने से ही विचार
कर्म को पूर्णता की ओर ले जाता है। बोलने या करने से पहले मन में विचार (Thought ) उठता है, फिर अपनी इच्छा या कल्पना को साकार करने के लिये वह कोई कर्म (Action) करता है। बिना कर्म किये कुछ भी प्राप्त नहीं होता, किन्तु कर्म करने की प्रेरणा हमें विचारों से प्राप्त होती है, इसीलिये सर्वप्रथम विचारों को ही स्वच्छ या पवित्र बना लेना होगा। 

अतः कुछ भी बोलने या करने के पहले हमारा प्राथमिक कार्य है - 'विवेक-प्रयोग'! पहले विवेक की छलनी से विचारों को छान (Sieve) कर स्वच्छ और अर्थपूर्ण बना लेना होगा, ताकि अपने अच्छे विचारों से हमलोग सुन्दर कार्यों में प्रवृत्त हो सकें। सुन्दर मनुष्य कौन होता है ? जिस व्यक्ति का चरित्र सुंदर होता है। क्योंकि हमलोग जो कुछ भी कार्य करते हैं, वह अपने चरित्र के वशिभूत होकर ही करते हैं !  
[४. कार्य-कारण(cause & effect)] हमलोग अक्सर कहा करते हैं-स्वामीजी ने इस विषय के उपर बहुत सुन्दर कहा है, या अमुक विषय पर उनके विचार बड़े सुन्दर हैं। इसका तात्पर्य और कुछ नहीं, केवल यही है कि स्वामीजी की बातें सुन्दर फल देती हैं। स्वामीजी की शिक्षाओं का अनुसरण करते हुए कार्य करने से, उस कार्य का फल सुन्दर ही होता है। फल के सुन्दर होने का तात्पर्य है, कर्म और फल में एक सीधा सम्बन्ध दीखता है। अर्थात कार्य-कारण की एक श्रृंखला दिखाई देती है। कार्य-कारण की श्रृंखला के अनुसार, एक फल के द्वारा उसी प्रकार का दूसरा फल प्राप्त होता है-जैसे किसी फल के बीज से फिर एक बृक्ष उत्पन्न होता है। उसी बृक्ष पर पुनः नये फल लगते हैं। उसके बीज से फिर एक बृक्ष उत्पन्न होता है। इसीलिये फल का भी पुनः फल होता है। क्रमशः यही प्रक्रिया चलती रहती है। यदि पहला फल अच्छा हुआ तो वही फल बार बार अच्छे फल देता रहता है। (यही है गुरु-शिष्य परम्परा या रामकृष्ण-विवेकानन्द परम्परा में लीडरशिप ट्रेनिंग !] 
यहाँ कारण (गुरु का पवित्र) चरित्र है, तो कार्य या फल (शिष्य ) एक सुन्दर मनुष्य है। तो फिर मनुष्य के चरित्र को सुन्दर रूप से गढ़ने के लिये क्या करना आवश्यक है ? सर्वप्रथम तो यह जानना आवश्यक है कि चरित्र कहते किसे हैं ? उसके बाद यह जानना होगा कि उस चरित्र को अर्जित करने की पद्धति क्या है ? हमलोगों की प्रवृत्तियों (रुझानों या Propensity) की समष्टि या योगफल को ही चरित्र कहते हैं। इस प्रसंग में स्वमीजी की एक वाणी उल्लेखनीय है, " तुम यदि अच्छे हो, तो इसमें तुम्हारी कोई बहादुरी नहीं है, और यदि तुम बुरे हो, तो इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है।" 
स्वामीजी के ऐसा कहने का तात्पर्य क्या है ? कोई व्यक्ति बहुत अच्छे कार्य करता हो- वह यदि बहुत सेवा-परायण हो, बहुत निःस्वार्थी हो, बहुत त्यागी हो; तो स्वामीजी उसको ही लक्ष्य करते हुए कहते हैं, कि इसमें उसकी कुछ बहादुरी नहीं है। उसका चरित्र ही ऐसा बन गया है, कि अब वह अपने स्वार्थ का अन्वेषण ही नहीं कर पाता है। अर्थात वह सद्कर्म इसीलिये करता है, कि उसका चरित्र अच्छा बन गया है। इसमें कुछ बहादुरी उसकी भी अवश्य है, किन्तु वह बहादुरी यही है कि उसने एक अच्छा चरित्र अर्जित कर लिया है, तथा उस चरित्र को गढ़ने के लिये उसने बहुत परिश्रम किया है, तथा परिश्रम करने के पहले उसने इसी विषय पर बहुत सोच-विचार भी किया है। इसी बात के लिये उसकी बहादुरी है, अभी के अच्छे कार्यों के लिये नहीं। अभी जो कुछ भी अच्छे कार्य वह कर रहा है, उसके लिये उसका चरित्र ही उसको प्रेरित करता रहता है।इससे यही सिद्ध होता है कि हमलोग जो कोई भी कार्य करते हैं,वह अपने (अच्छे या बुरे चरित्र?) से वशीभूत होकर ही करते हैं। 
[५. किशोरावस्था से ही चरित्र-निर्माण में लगना क्यों आवश्यक है ? ] एक अच्छे चरित्र का गठन करने के लिये हमलोगों को आजीवन प्रयत्न करते रहना होगा, तथा आजीवन इसी विचार को अपने मन में धारण किये रहना होगा। यदि इस समय मैं केवल सद्कर्म ही करता हूँ, निःस्वार्थी हूँ, कभी झूठ नहीं बोल पाता हूँ, तो ऐसा कैसे हो रहा है ? मैं एक अच्छे चरित्र का अधिकारी हूँ, और मेरा अच्छा चरित्र ही मुझे केवल अच्छे कार्यों को करते रहने के लिये अनुप्रेरित करता रहता है।
किन्तु ऐसे चरित्र को गढने के लिये मैंने इस बात पर काफी सोच-विचार किया है, अपने मन में केवल अच्छे विचारों को ही धारण किये रहने का दृढ संकल्प लिया है। फिर बहुत लम्बे समय तक विवेक-प्रयोग करने के बाद ही कोई कार्य करने के लिये निरन्तर कठोर संघर्ष किया है। उसकी फल आज बैठे बैठे खा रहा हूँ, जैसे बैंक में जमा फिक्स्ड डिपोजिट का इंटरेस्ट हर महीने मिलता रहता है। किन्तु किसी समय निश्चय ही मुझको बहुत सोचविचार कर एक अच्छे व्यापारिक-प्रतिष्ठान को स्थापित करना पड़ा था, और कड़ी मिहनत से संचालित कर उसके मुनाफे से बैंक में एक अच्छा डिपोजिट जमा करवा दिया था, अब उसी का सूद आराम से बैठ कर खा रहा हूँ। उसी प्रकार बहुत सोच-विचार कर, बहुत परिश्रम से एक सुन्दर चरित्र अर्जित करके मैंने रखा था, इसीलिये आज मैं अच्छे कार्य कर पा रहा हूँ, सेवा-परायण बन गया हूँ, मुख से कोई झूठी बात निकलती ही नहीं है। दूसरे मनुष्यों के दुःख को देखकर मेरे हृदय में पीड़ा होती है, मेरा हृदय द्रवित हो जाता है।
पुनः स्वामीजी ने सावधान करते हुए कहा था, ' यदि तुम बुरे कार्य करते हो, तो उसका दोष अपने बुरे चरित्र के मत्थे मढ़ कर अपनी जिम्मेवारी से बचने की चेष्टा मत करना।' क्योंकि इतना तो हम सभी लोग समझ सकते हैं कि - चूँकि हमारा चरित्र ही हमें अच्छा या बुरा कर्म करने के लिए अनुप्रेरित करता है, ऐसा कहते हुए बुरे कर्म करने के बाद उसका समस्त दोष चरित्र के मत्थे मढ़ देने की चेष्टा करना स्वयं को ही धोखा देने के सिवा और कुछ नहीं है।
हमें आत्मनिरीक्षण करना होगा, मैं आखिर बुरा कर्म करने के लिये उतारू क्यों हो जाता हूँ ? इसका कारण यही है कि किसी कारण से (बहुत लम्बे समय तक बुरी संगती, या गलत परिवेश में रहने से) मेरी उम्र अधिक हो गयी है, किन्तु अभी तक मेरा अपना चरित्र अच्छा नहीं बना सका है। और अब उसी बुरे चरित्र का दास बन कर, उसके वशीभूत होकर मैं कोई बुरा कार्य कर देता हूँ। यदि मेरी अवस्था सचमुच ऐसी हो गयी है, तो अब मुझे क्या करना चाहिये ?
यह अवस्था थोड़ी कठिन है, क्योंकि मेरी उम्र अब अधिक हो गयी है, और अपना काफी समय मैंने नष्ट कर दिया है। उसी बुरे चरित्र के वशीभूत होकर, उसका दास होकर कार्य करते रहने के फलस्वरूप मेरे भीतर बुरे कार्यों को करने की प्रवृत्ति दृढ़ हो गयी है। मेरे अवचेतन मन पर उसकी लकीर गहरी हो गयी है। उस गहरी लकीर को मिटा कर फिर से अच्छे चरित्र का गठन करना अधिक मुश्किल काम है। वस्तुतः बुरे विचारों के दृढ़ हो जाने के बाद, या मन की गहरी परतों तक बैठ जाने के बाद, उनको मिटाया नहीं जा सकता। बल्कि जब मन में अच्छे विचारों की लकीर अधिक गहरी हो जाती है, तो उसके नीचे बुरे विचारों की लकीरें केवल दब भर जाते हैं। इसलिये बुरी आदतों के परिपक्कव हो जाने के पहले, या कम उम्र में ही यदि अच्छा चरित्र निर्मित कर लिया जाय, तो इस खतरे से बचा जा सकता है। अतः युवकों को अन्य समस्त कार्यों को छोड़ कर, सर्व प्रथम अच्छा चरित्र निर्मित करने की अनिवार्यता को समझने के लिये प्रयास करना चाहिये। फिर उन्हें प्रकृति तथा इन्द्रियों की अनेकों  प्रलोभनों पर विजय प्राप्त करने का दृढ़ संकल्प लेकर, अथक परिश्रम करते हुए एक सुन्दर चरित्र अर्जित करके उसे बहुमूल्य धरोहर के रूप में संचित कर लेना होगा।
[६. निरंतर विवेक-प्रयोग करने की आदत को अपनी रुझान या टेन्डन्सी में परिणत करो।] अब हमलोग चरित्र क्या है, इस बात को और अधिक गहराई से समझने की चेष्टा करेंगे। हमने इस रहस्य को जान लिया है कि चरित्र हमलोगों की प्रवृत्तियों (चित्त-वृत्तियों या रुझानों) की समष्टि या योगफल है। प्रवृत्तियों (या रुझानों  propensity) की समष्टि या योगफल की कार्यकारी शक्ति से भी हमलोग परिचित हैं। प्रवृत्तियाँ कितनी शक्तिशाली होती हैं, इस बात को भी हम जानते हैं। किसी विशेष परिस्थिति में सोच-विचार किये बिना, या विवेक-प्रयोग किये बिना ही, हमलोग जिसके वशीभूत होकर कोई कार्य कर डालते हैं, उसको ही प्रवणता या प्रवृत्ति कहते हैं। 
अर्थात किसी अवस्था विशेष के आ जाने पर, विशेष कुछ सोच-विचार किया बिना ही, स्वतःप्रवृत्त होकर या स्वेच्छापूर्वक (voluntarily) हम जो कुछ कर डालते हैं, वैसा कर बैठने के झोंक को ही प्रवृत्ति या 'tendency' कहते हैं। उदहारण के लिये मान लो मैं कहीं खड़ा हूँ, और अचानक सामने कोई व्यक्ति गिर पड़ता है। उस समय मैं कागज-कलम लेकर यह लिखने नहीं बैठ जाता कि, इस समय मेरा क्या कर्तव्य होना चाहिए, बल्कि उसके गिरने के साथ ही साथ उसको झपट कर उठा लेता हूँ। चूँकि मेरे अन्दर अच्छे कार्यों को करने की प्रवृत्ति  है, इसीलिये मैं ने उस प्रकार का आचरण किया। अब यह स्पष्ट हो गया कि बिना विवेक-विचार किये, स्वेच्छापूर्वक हमलोग जो कुछ भी कर बैठते हैं, उस झोंक को ही 'propensity' या प्रवृत्ति कहते हैं; तथा ऐसी प्रवृत्तियों के योगफल या समष्टि को चरित्र कहा जाता है।
इस प्रकार हमने यह समझ लिया कि प्रवृत्तियों के योगफल को ही चरित्र कहा जाता है।प्रवृत्ति क्या है, किसे कहते हैं -यह भी समझ में आ गया। 
अब हमें यह जानना होगा कि प्रवृत्ति या ' tendency' निर्मित कैसे होती है ? किसी वाद्य-यंत्र जैसे वीणा या सितार आदि को बजाने का लगातार अभ्यास करते रहने से जैसे हम उसमे प्रवीणता (Proficiency) या महारत प्राप्त कर लेते हैं, उसी प्रकार एक ही कार्य को बार बार दुहराते रहने का अभ्यास करने से, हमलोगों में उसी कार्य को करने की प्रवृत्ति या झोंक उत्पन्न हो जाती है। किसी भी कार्य को बार बार करते रहने से हमें उसकी आदत पड़ जाती है। 
किन्तु जब पहले-पहल हम कोई कार्य करते हैं, तो उस समय सोच-विचार करने के बाद ही हम उस कार्य को करते हैं। तब हम अपने सामने उपस्थित कई विकल्पों में से किसी एक विकल्प को चुन लेते हैं, हम विचार करते हैं- यह करूँगा, या वह करूँगा या कोई तीसरा ही विकल्प चुनना अच्छा होगा ? किसी भी कार्य को करने के जब कई विकल्प रहते हैं, और उसमें से किसी एक विकल्प का चयन जब हमें करना होता है, तो काफी सोच-विचार करने के बाद ही हमलोग उस एक विकल्प को चुन लेते हैं। किसी कार्य को काफी सोच-विचार करने के बाद या  विवेक-विचार करके, जब बार बार दुहराने लगते हैं तो वह कार्य हमारी आदत में परिणत हो जाता है। जब कोई  आदत परिपक्व हो जाती है, तो वही हमारी प्रवृत्ति या  'tendency' बन जाती है।  
तब हम विवेक विचार करके कोई निर्णय लिये बिना, मानो बाध्य होकर या उसी प्रवृत्ति के वशीभूत होकर उस प्रकार का कार्य करते हैं। इसी प्रकार के विभिन्न प्रवृत्तियों का योगफल हमलोगों के चरित्र का निर्माण करता है, तथा उस चरित्र के फल को हमें अनिवार्य रूप से भोगना भी पड़ता है। या तो सुख भोगते हैं, या दुःख भोगना पड़ता है, बल्कि हमारे चरित्र के अनुसार ही हमारा भविष्य भी निर्धारित हो जाता है। इसीलिये अब आगे से प्रत्येक कार्य को करते समय हमें सतर्क रहते हुए उस कार्य को करना होगा; क्योंकि जो कार्य कर रहा हूँ, उसकी ही आदत पड़ जाएगी। तथा परिपक्व हो जाने के बाद वैसी प्रवृत्तियों के योगफल से मेरा चरित्र गठित हो जायेगा। तथा उसी चरित्र के अनुसार आचरण करने को मैं बाध्य हो जाऊंगा। उसी अवस्था की बात स्वामीजी कहते हैं, ' तुम जो अच्छे कार्य करते हो, उसमें बहादुरी तुम्हारे उस समय किये गये कार्य के लिये नहीं, बल्कि तुम्हारे अच्छे चरित्र के लिये मिलनी चाहिए। ' उसी प्रकार यदि तुम बुरे कार्य भी करते हो, तो दोष तुम्हारे चरित्र का है, तुम्हारा चरित्र ही तुमसे बुरे कर्मों को करवा रहा है। यदि तुम अच्छे कर्म करते हो, तो तुम्हारा चरित्र ही तुमसे अच्छे कर्म करवा रहा है। अतः इस विषय में बहुत सतर्क होकर किसी कार्य को करो कि उसके द्वारा तुम किस प्रकार के चरित्र के अधिकारी होने जा रहे हो?
उस विषय में सावधान रहने का अर्थ क्या हुआ ? किसी भी कार्य को करते समय विवेक-प्रयोग करो। जो अच्छा हो वही करो, जो अच्छा नहीं हो, उसे मत करो। इसीलिये चरित्र निर्माण के लिये आजीवन प्रयत्न करते रहना पड़ता है। निरन्तर विवेक को जाग्रत रखना आवश्यक होता है। यदि विवेक-प्रयोग का बार बार अभ्यास करते करते निरंतर विवेक में ही जाग्रत रहना हमारी टेन्डन्सी बन जाये, तो हमलोग अपने मन को सदैव शिव-संकल्प (पवित्र विचार) परिपूर्ण रखने में समर्थ मनुष्य (MAN with capital M) बन सकते हैं। और चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया का कठिन भाग भी यहीं तक है।
[७.चरित्र-निर्माण का नियम] मनसा-वाचा कर्मणा किसी भी कार्य करने-सोचने,बोलने या करने के पहले यदि हम विवेक-प्रयोग करने के बाद ही प्रत्येक कार्य करने में महारत, (प्रवीणता Proficiency) प्राप्त कर लेते हैं, तो उसके बाद वाली चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया अत्यन्त सरल है। किसी Algebra जितना, quadratic equation जितना, या किसी higher mathematics जितना, या अन्य किसी कठिन
formula के जितना नहीं, बल्कि साधारण जोड़-घटाव जितना ही सहज है- चरित्र-निर्माण !  ऐसा करोगे तो यह होगा, वैसा करोगे तो वैसा होगा। जिस प्रकार २ में २ जोड़ने से ४  होता है, ४  में २  जोड़ने ६ होता है, और ६ में २  जोड़ देने से ८  हो जाता है, उसी प्रकार चरित्र भी अत्यन्त सहज वस्तु है। किन्तु निरन्तर इस जोड़-घटाव के के चिन्ह पर दृष्टि गड़ाय रखना, और उन्हें देते रहने की क्षमता को बनाय रखना ही कठिन हो जाता है। एक बार किया, दो बार किया; दो-चार अच्छे कार्य करके लोगों की वाहवाही प्राप्त कर लिया। कैम्प में आकर दूसरों के साथ सुन्दर व्यवहार कर लिया, क्योंकि कैम्प में आचरण ठीक नहीं रखने से सर्टिफिकेट नहीं मिलेगा, लेकिन यहाँ लौट कर घर जाने के बाद विवेक-प्रयोग करने के लिए सावधान रहने का अभ्यास करना एकदम छोड़ दूंगा। यदि ऐसा सोचोगे या करोगे तो चरित्र-गठन करना कभी संभव नहीं होगा।
चरित्र-गठन करने में यही तो कठिनाई है। चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया का Formula या सूत्र तो बिलकुल सहज है, किन्तु विवेक-प्रयोग के लिये निरन्तर सजगता बनाये रखना आवश्यक है, इसकेलिये अथक प्रयास करना होता है; नहीं तो हर कदम पर पाँव फिसल जाने की सम्भावना बनी रहती है।  बहुत बार विवेक का ठीक ठीक प्रयोग किया, और अपने आचरण को ठीक रखा, किन्तु दो बार नहीं हो सका, आलस्य आ गया और एक बुरी आदत पड़ गयी।
 इसी प्रकार यदि बुरी आदतें पड़ती ही रहें, तो उसके नीचे अच्छी आदतें दब जाएँगी। उसी प्रकार यदि बहुत सी अच्छी आदतें एकत्रित हो गयीं, तो उसके निचे बुरी आदतें दब जाएँगी। तथा चरित्र-निर्माण का नियम (सिद्धान्त) ( जो न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त के अनुसार सभी देशों के सभी मनुष्यों के लिये सत्य है) भी यही है, बुरी आदतों की स्मृतियों को जड़ सहित नहीं उखाड़ सकते, उसको अच्छी आदतों के नीचे ही दबा कर  रखना पड़ता है। तथा अच्छी आदतों से दबाते दबाते ऐसा हो जाता है, कि वे फिर कभी अपना सिर उठा नहीं पातीं। जैसे किसी टेप-रेकार्डर के कैसेट में यदि एक बार रेकार्डिंग हो गया, और उसके उपर बाद में कुछ और रेकार्डिंग किया जाय तो पहले वाला रेकार्डिंग तुम नहीं सुन सकते। उसी प्रकार यदि बुरी आदतें या प्रवृत्तियों की लकीरें चित्त में पहले से पड़ी हुई भी रहें, किन्तु उसके उपर यदि अच्छी आदतों की चौड़ी-गहरी लकीरें डाल दी जाय तो, वे बुरी आदतें पुनः अपना सिर नहीं उठा सकती हैं। 
अभी हमलोगों के लिये यह जानना अनिवार्य हो जाता है कि -किस किस प्रकार के आदतों के योगफल से हम अपना चरित्र निर्मित करेंगे ? चरित्र विचार के अनुसार, कार्य या action से गठित होता है,आदत से ही निर्मित होता है। [किसी भी कार्य को करने के पहले उसे कर डालने की तीव्र इच्छा या  झोंक पहले तो मन में ही उठता है। उससे ही प्रेरित होकर हम कोई कार्य करते हैं, और बार बार उसकी को दुहराते रहने से वैसा ही चरित्र बन जाता है।] हम किस किस अच्छे कार्य को करने की आदत डालें ? केवल अच्छी आदत डालो, कह देने से तो नहीं होगा; कौन सा विचार अच्छा है, कौन सा विचार बुरा है - इसे मैं कैसे समझ सकता हूँ ?
अच्छा व्यवहार उसी को कहते हैं, जो हमें स्वार्थहीन बनने में सहायता करे; जो हमें सार्वजनिक कल्याण के लिये प्रेरित करे। जिन कार्यों को करने से हमारे शरीर और मन की शक्ति बढ़ जाती हो, उन्हीं को अच्छा समझना चाहिये। किन्तु यह समझ लेना ही तो कठिन है, क्योंकि उतनी बुद्धि मेरे पास नहीं भी हो सकती है, उतनी समझ मेरे पास नहीं भी हो सकती है ? इसीलिये सद्गुणों की एक तालिका बना लेना अच्छा है। कौन-कौन से गुण सचमुच में अच्छे हैं, जिसकी आदत मुझे बनानी है ? जिन लोगों को इसके बारे में पता होता है उनसे पूछ कर उन गुणों का एक चार्ट या तालिका बनायी जा सकती है। फिर उन गुणों को अपनी आदत में ढाल लेने से, उन्हें परिपक्व बनाने से -उन्हीं प्रवृत्तियों का योगफल मेरे अच्छे चरित्र में परिणत हो जायेगा। अतः चरित्र के गुणों की तालिका में लिखे गुणों के बारे में ठीक से समझ कर उसी प्रकार के कार्यों को बार बार दुहरा कर अपनी आदत और प्रवृत्ति में शामिल कर लूँगा।
[८.चरित्र के गुण: किन सदगुणों की प्रवृत्ति या टेन्डन्सी बनाई जाय ?] जिन अच्छे गुणों को आत्मसात करने से मेरा चरित्र निश्चित रूप से अच्छा बन जायेगा, उनके नाम हैं- [१.] आत्मश्रद्धा, [२] आत्मविश्वास  [३] सत्यनिष्ठा [४] पारदर्शी सोच [५] साहस (निर्भीकता) [६] दृढ़ संकल्प [७] निःस्वार्थपरता [८] निष्ठा  [९] अध्यवसाय [१०] उद्यम (बिना किसी के कहे प्रयत्न करने में उत्साह ) [११] प्रति-उत्पन्न मतित्व [१२] सहनशीलता (तितिक्षा) [१३] शालीनता (भद्र व्यवहार) [१४] सहानुभूती (हमदर्दी) [१५] बिश्वसनीयता [१६] आत्मसंयम (त्याग)[१७] आत्मनिर्भरता [१८] धैर्य [१९] सेवापरायणता [२०] मानसिक संतुलन [२१] ईमानदारी  [२२] अनुशासन [२३] स्वच्छता [२४] साधारण बुद्धि इन गुणों की एक तालिका बना कर इनका (कम से कम पाँच लाल-रंग के गुणों का) अभ्यास करने से इन समस्त गुणों को आत्मसात किया जा सकता है।
९.संकल्प ग्रहण:'अब लौं नसानी अब न नसैहौं !:  इस प्रकार से पुनः पुनः अभ्यास करके चारित्रिक गुणों या सुंदर -सुंदर भावों को आत्मसातीकरण करने की प्रणाली या प्रवृत्ति में ढाल लेने की प्रक्रिया- खयाली पुलाव पकाने जैसी बात बिल्कुल नहीं है। यह तो बिल्कुल एक प्रयोगात्मक फॉर्मूला (Practical Formula) है, जिसे हमलोग अपने दैनंदिन जीवन में उतार कर दिखला सकते हैं। 
जो कोई भी व्यक्ति इसका परिक्षण करेगा, वह स्वयं यह देख पायेगा कि मात्र छः महीनों में ही उसका चरित्र पहले से कितना अच्छा बन चूका है ! जो भी व्यक्ति चरित्रवान मनुष्य बन जाने के लिये इच्छुक(desirous) है, वह यदि दृढ़तापूर्वक संकल्प ग्रहण करके, इन गुणों को आत्मसात करने का प्रयत्न करेगा, वह जरुर सफल होगा ! जिस प्रकार प्रयोग-शाला में सही प्रयोग करने से सभी को एक ही समान परिणाम प्राप्त होता है, उसी प्रकार इस प्रैक्टिकल फॉर्मूला के निष्फल होने की कोई सम्भावना ही नहीं है। किन्तु अपने चरित्रवान मनुष्य बन जाने के संकल्प पर मैं अटल कैसे रह पाउँगा ? चरित्र-गठन के अपने संकल्प पर अटल रहने के लिये भी एक अन्य वैज्ञानिक फॉर्मूला या सूत्र है। 
ऑटो-सजेशन: चमत्कार जो आप कर सकते हैं !"
" मैं दृढ़ता के साथ यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं एक चरित्रवान मनुष्य बनूँगा, क्योंकि केवल इसी प्रकार मैं जगत का सर्वाधिक कल्याण करने, और अपनी मातृभूमि भारतवर्ष को सुन्दर रूप से गढ़ने में सहायता कर सकता हूँ। तथा अपना भी सर्वाधिक कल्याण, मैं केवल चरित्रवान मनुष्य बन जाने के बाद ही कर सकता हूँ। क्योंकि चरित्र-बल के बिना व्यवहारिक जगत में या जीवन के अन्य किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करना संभव ही नहीं है।" 
" मैं जानता हूँ कि मैं स्वयं को एक चरित्रवान मनुष्य के साँचे में ढाल सकता हूँ। इसी लिये इस उद्देश्य को सिद्ध करने के मार्ग में आने वाले किसी भी बाधा या विघ्न के प्रति कभी ढिलाई नहीं आन दूंगा; तथा धैर्य और अध्यवसाय के साथ बिना आलस्य किये इस उद्देश्य के सिद्ध हो जाने तक निरन्तर प्रयत्न करता रहूँगा; लक्ष्य प्राप्त किये बिना मैं विश्राम नहीं लूँगा ! मैं अवश्य सफल होऊंगा, क्योंकि मैं अपने सामर्थ्य में पूर्ण विश्वास रखता हूँ ! "  
उपरोक्त कथन को पत्येक व्यक्ति एक कागज पर लिखिये तथा उसके नीचे अपना हस्ताक्षर करके आज की तारीख डाल दीजिये। अपने आप से की गयी  इस वचनबद्धता को प्रतिदिन कई बार पढिये, विशेष रूप से रात में सोने से पहले तथा सुबह नीन्द से उठने के तुरन्त बाद बहुत ध्यान पूर्वक पढिये, तथा आपने जो प्रतिज्ञा की है उसको साकार करने के कार्य में जुट जाइये।
आप देखेंगे कि केवल छः महीनों में ही आपका चरित्र पहले से अच्छा बन गया है, और आपका आत्मविश्वास बहुत बढ़ चूका है। इस प्रक्रिया की सफलता के सम्बन्ध में कोई सन्देह ही नहीं है, आप इसका परिक्षण करके स्वयं देख सकते हैं। इस प्रक्रिया को अपनाने से सुन्दर चरित्र बनता ही है-यह कोई चमत्कार नहीं है। यह एक ऐसा प्राकृतिक नियम है, जो आपकी आज्ञा का पालन करने को बाध्य है। चरित्र-गठन के कार्य को हमें स्वयं करना है, इसके लिये हमलोगों को दृढ़ संकल्प लेना होगा, तथा इस संकल्प पर अटल रहने के लिये अध्यवसाय के साथ प्रयत्न करते रहना होगा।
अतः चरित्रवान मनुष्य बनने के लिए पहला कार्य है- संकल्प को गहरा (inveterate) बना लेना!  क्योंकि तभी तो हमलोग इस कार्य में आगे बढ़ पायेंगे। सबसे पहले पूँजी (Capital) रहना चाहिये, तभी तो उसे अपने व्यापार में निवेशित करूँगा। उसी प्रकार चरित्र-निर्माण के लिये उद्यम करना हो, तो उसकी पूँजी क्या होगी ?- यही  चरित्रवान मनुष्य बनने का दृढ़ संकल्प तथा चरित्र-निर्माण पद्धति को कार्यान्वित करने का सामर्थ्य! केवल एक ही कार्य (संकल्प गहरा करने) पर रुक जाने से काम नहीं चलेगा, चरित्र-गठन में सफलता प्राप्त होने तक, निरन्तर प्रयास जारी रखना होगा, तभी तो मेरा सुन्दर चरित्र-गठित हो पायेगा। 

१०. मन की भूमि (चित्त) में सद्विचारों के बीज बोने हैं : 
 यहाँ सारी चर्चा मन के विषय में ही हो रही है। क्योंकि इच्छा, विचार या दृढ़ संकल्प आदि मन के साथ जुड़े हुए विषय हैं। और मन हमलोगों का दास है, हमलोग मन के दास नहीं हैं; उसे हमारी आज्ञा का पालन अवश्य करना चाहिये। किन्तु मन का स्वाभाव ऐसा है, कि वह अपने मालिक को ही, हमलोगों को ही, अपना दास बनाने का प्रयत्न करता है। अब हमलोगों को इसका उल्टा करना होगा, मन को अपना दास बना लेना होगा। किन्तु यह कैसे करूँगा ?
पहले ही हमलोग यह जान चुके हैं कि चरित्र गठन करने में मन की सहायता लेनी ही पड़ेगी। इसके लिये मन को अपने वश में रखने या अपने नियंत्रण (control) में रखने की बात भी कही गयी है। मन को संयमित करना होगा, उसको एकाग्र करने का अभ्यास करना होगा। एकाग्रता का नियमित अभ्यास करने से असंशय (assuredness, स्वावलम्बन का भाव) आयेगा, आत्मविश्वास आयेगा, तथा प्रतिमुहूर्त इसी कार्य में लगे रहने की क्षमता भी प्राप्त होगी।(वैराग्य का फाटक लगाकर,चित्तनदी के प्रवाह की दिशा को निरन्तर अंतर्मुखी बनाये रखने की शक्ति प्राप्त कर सकेंगे।) यह कोई धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। 
वर्तमान युग में इस विज्ञान को Psychology या मनोविज्ञान कहते हैं। किन्तु हमारे देश में यह बहुत प्राचीन समय से विद्यमान था। इस विषय का  सबसे प्रमाणिक ग्रन्थ है, ऋषि पतंजली रचित अष्टांग-योग, या योग-सूत्र। मन को इन्द्रिय विषयों में जाने से रोक कर उसे वश में लाकर, उसे अपने लिये उपयोगी कैसे बनाया जाता है, उसकी पद्धति को इस ग्रन्थ में सूत्र-बद्ध किया गया है। इसी मनोवैज्ञानिक (Psychological ) अथवा वैज्ञानिक पद्धति (Scientific Method ) के द्वारा हमलोग अपना चरित्र गढ़ने के लिये एक महती इच्छाशक्ति (Will -Power ) का निर्माण करेंगे, इससे अपने निश्चय (Resolution या संकल्प) पर अटल रहने की शक्ति प्राप्त होगी, और निरन्तर प्रयासरत रहने का सामर्थ्य भी प्राप्त होगा। 
हमलोग चरित्र के अच्छे अच्छे गुणों (आत्मश्रद्धा, निर्भीकता, निःस्वार्थता,त्याग और सेवा आदि) के विषय में जानकारी प्राप्त करेंगे तथा मन की सहायता से उन गुणों को अर्जित करने अर्थात अभिव्यक्त करने की कोशिश (उद्यम ) करते जायेंगे। एकदम साधारण सी बात है, बिल्कुल प्रैक्टिकल प्रोसेस है; कोई भी व्यक्ति घर बैठे इसका प्रयोग करके देख सकता है। इसके लिये जंगल जाने या गुफा में बैठने की कोई जरुरत नहीं है। (चरित्र कोई जंगल-बियाबान में बैठकर पकाने वाली वस्तु नहीं है, समाज परिवार में रहते हुए ही इसका निर्माण करना पड़ता है।) इसका परिणाम होगा एक सुन्दर चरित्र ! मन की भूमि (चित्त) में सद्विचारों के बीज बोने से, केवल सद्कर्म ही करूँगा जिसका परिणामी पैदावार (भरपूर फसल) होगा-मेरा सुन्दर चरित्र! बीज के अनुसार फल मिलेगा ही मिलेगा, प्राकृतिक नियम है, होने को बाध्य है। जो कोई भी व्यक्ति चरित्र-निर्माण के इस वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करेगा, उसका चरित्र अवश्य सुंदर होगा, अच्छा हुए बिना रह नहीं सकता।  
जैसे ही कोई विचार बुल बुले के रूप में चित्त-भूमि से उपर उठने की कोशिश करेगा, या कोई भी शब्द जुबान पर लाने से पहले, हरेक गतिविधि या किसी भी कार्य को करने के पहले, संकल्प और पूरे आत्मविश्वास के साथ विवेक-प्रयोग करके यह देखने कि कोशिश करूँगा कि मेरे उस विचार,शब्द, या कार्य से मेरा और दूसरों का कल्याण होगा या नहीं ? उससे मेरे हृदय में सिंह जैसा बल प्राप्त होगा या नहीं?  इस बात को भली-भाँति समझ लेने के बाद ही उस प्रकार से कुछ सोचूंगा, या कोई शब्द कहूँगा या कोई कार्य करूँगा। यदि मैं निरन्तर मन-वचन-कर्म में विवेक-प्रयोग करने में समर्थ बन सकूँ, तो मेरा चरित्र अच्छा हुए बिना रह ही नहीं सकता। और इसी प्रकार 'विवेक-प्रयोग' की चेष्टा सभी युवा भाई करते रहें, तो देश का कल्याण हुए बिना रह नहीं सकता। 
(कोई किसी को ' विवेक-प्रयोग ' सिखा नहीं सकता, स्वयं को सिखाना चाहिये, विवेक-प्रयोग के बाद ही कुछ सोचने-बोलने-करने की ) सरल वैज्ञानिक-पद्धति सामने रख दी गयी है, अब यह पूरी तरह से मुझपर निर्भर करता है कि मैं इसे प्रयोग में लाता हूँ या नहीं ? इस तथ्य को हमें कभी भूलना नहीं चाहिए कि यदि हम इसे प्रयोग में नहीं अपनायें, तो अन्य किसी भी उपाय से समाज का कोई भला होना असम्भव है। इस पद्धति को प्रयोग में लाने से हममें से प्रत्येक का जीवन भी सुन्दर, सम्पूर्ण, सार्थक और कल्याणकारी होगा। यदि विवेक-प्रयोग को अभ्यास में नहीं उतारा गया, तो मनुष्य-जीवन विफल हो जायेगा, और समाज भी दुःख में डूबा रहेगा। यदि मैं अपने सभी सगे-सम्बन्धियों को, समाज और देश को प्यार करता हूँ, यदि स्वयं से भी सच्चा प्रेम करता हूँ, तो मैं आज और अभी से ही, अपना सुन्दर चरित्र गढ़ने के लिये बिना आलस्य किये परिश्रम करता रहूँगा, तथा मनुष्य जीवन के स्वाद को चख कर स्वयं धन्य होऊंगा, तथा दूसरों के जीवन के दुःख को अपने सुन्दर चरित्र के द्वारा हटाने के कार्य में न्योछावर कर सकूँगा। 
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 [व्यक्ति ही समाज की आधारशिला रखता है । व्यक्ति जैसा होता है समाज भी वैसा ही होता है। व्यक्ति की विचारधारा ही समाज की दिशा तय करती है । एक समय था । परिवार में एक व्यक्ति कमाता था और सारे उनपर निर्भर होते थे, सुखशान्ति थी । आज परिवार का हर व्यक्ति कमाता है, फिर भी वैसी सुखशान्ति थोड़ा भी है क्या? ज्यादा से ज्यादा धन कमाने के चक्कर में व्यक्ति नैतिकता से काफी दूर होता जा रहा है। पहले व्यक्तित्व का निर्धारण गुणों के आधार पर होता था मगर आज धन के आधार पर होने लगा है। अतः यदि परिवार और समाज को फिर अच्छा बनाना हो, समाज या परिवार की बुनियाद व्यक्ति के चरित्र-निर्माण द्वारा व्यक्ति का सुंदर जीवन-गठन करना होगा।  व्यक्ति का जीवन अच्छा होने से परिवार का जीवन सुंदर होगा। सुंदर-चरित्र सम्पन्न व्यक्तियों का समाज ही महान होगा। जब हमारा समाज महान बन जायेगा, वहाँ -हत्या,नारी अपमान, भ्र्ष्टाचार जैसे अपराध नहीं होंगे और हमारा देश महान बन जायेगा। तब हमारी भारत-माता पुनः विश्वगुरु के सिंहासन पर विराजमान हो जायेंगी । समाज को बुरे लोग खराब नहीं कर रहे हैं बल्कि अच्छे लोगों की निष्क्रियता खराब कर रही है। जितने भी देश-भक्त युवा हैं, उन सबों को इस 'मनुष्य बनो और मनुष्य बनाओ' आन्दोलन 'BE AND MAKE' से बिना देर किये जुड़ जाना चाहिये ! 
मनुष्य जैसी इच्छा और जैसा संकल्प करने लगता है, वैसा ही आचरण करता है और जैसा आचरण करता है फिर वैसा ही बन जाता है। जिन बातों का बार-बार विचार करता है, धीरे-धीरे वैसी ही इच्छा हो जाती है, फिर उसी के अनुसार वार्ता, आचरण, कर्म करता है और कर्मानुसारिणी गति होती है। स्पष्ट है कि अच्छे आचरण एवं चरित्र के लिए अच्छे विचारों को लाना चाहिए। बुरे कर्मों को त्यागने से पहले बुरे विचारों को त्यागना चाहिए। जो बुरे विचारों का त्याग नहीं करता वह बुरे कर्मों से छुटकारा नहीं पा सकता, फिर बुरे कर्मों की आदत पड़ जाती है। आदत जब बहुत पक्का हो जाता है, वह हमारी प्रवृत्ति बन जाती है। और प्रवृत्तियों के समूह को ही चरित्र कहते हैं। और कर्म का आधार विचार है। अतः पहले अपने विचारों को शुद्ध कर के सद्प्रवृत्तियों का निर्माण करना होगा और वशीभूत मन के द्वारा असद प्रवृत्तियों को निकाल बाहर करना होगा।] 



बुधवार, 7 नवंबर 2012

महाप्राण (सुप्रीम पावर-जगदम्बा ) की स्पर्श-प्राप्ति ! स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [34] (जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री),

ब्रह्मचर्य पालन के द्वारा - 'जीवेम  शरदः शतम्' !  
राजयोग के मतानुसार सारे पदार्थ आकाश में और सारी ऊर्जा प्राण में समाहित है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक ही आकाश है, तथा एक ही प्राण है। प्राण सर्वत्र समाहित है, सार्वभौमिक है। आकाश के उपर प्राण की लीला (क्रिया) होने से यह चराचर विश्व-ब्रह्माण्ड अभिव्यक्त हो गया है। उसी प्राण-शक्ति को जाग्रत करने की पद्धति ही राजयोग की गुह्य प्रक्रिया है। और प्राणायाम का अभ्यास करने से वह शक्ति जाग्रत हो जाती है। व्यक्ति को इसी विश्व-व्यापिनी शक्ति या प्राण-उर्जा के साथ जोड़ देना ही प्राणायाम का उद्देश्य है। किन्तु नाक दबाने से ही कोई शक्ति प्राप्त नहीं होती। यह केवल प्राण-वायु के संयम (रेचक-पूरक-कुम्भक) के अभ्यास के द्वारा भीतर की शक्ति को बढ़ाने की एक यांत्रिक प्रक्रिया है। वह अनन्त शक्ति जो सर्वगत या वुश्व-व्यापिनी है, वही शक्ति इस छोटे से मनुष्य शरीर के भीतर स्वाभाविक प्राण के रूप में अवस्थित है। प्राणायाम की प्रक्रिया उसी प्राण-शक्ति को नश्वर शरीर के भीतर पकड़ने की चेष्टा मात्र है। शरीर के प्रत्येक कोष में वही प्राण अवस्थित है। योगी दीर्घ अभ्यास के द्वारा इस प्राण को इतने करीब से जानते हैं, कि शरीर में कहीं भी (किसी भी कोष में)  इस प्राण के आभाव से रोग हो जाने पर वे स्वतः रोग-मुक्त हो जाते हैं तथा लम्बी आयु का भोग करते हैं।
लम्बी आयु या दीर्घ जीवन प्राप्त करने का उद्देश्य ही उस महाप्राण का (महत्-तत्व का) स्पर्श प्राप्त करना है। दीर्घ-जीवन अर्थात लम्बी आयु प्राप्त करने का इसके अतिरिक्त कोई दूसरा उद्देश्य नहीं हो सकता। वेद-उपनिषदों में प्रार्थना की गयी है कि स्वस्थ और सबल शरीर लेकर हमलोग उस शास्वत-जीवन का स्पर्श पाने के लिये हमलोग सौ वर्षों तक जीवित रह सकें। इस जगत के क्षणिक सुखों (कामुकता और कमाई) को भोगने के लिये दीर्घ-जीवन पाने की प्रार्थना नहीं की जाती है। किसी प्रिय नेता के जन्म-दिवस पर प्रार्थना की जाती है- "जीवेम शरदः शतम् -(अथर्ववेद/१९/६७/२) अर्थात आप राष्ट्र की सेवा करने के लिए सौ शरद ऋतु तक जीयें यानि हम सौ वर्ष तक जीयें,और आपके सभी प्रयासों में ईश्वर आपको अच्छा स्वास्थ्य और  सफलता प्रदान करें !] 
निम्नतम जीवों से लेकर देवत्व जैसी उच्च अवस्था तक सभी अवस्थायें उसी प्राण की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। इसी जन्म में उस प्राण-शक्ति को पूर्णतया अभिव्यक्त करने में सफल होना ही जीवन का उद्देश्य है। यदि हमलोग महा-जीवन या ब्रह्माण्ड-व्यापिनी शक्ति (महत्-तत्व) के साथ युक्त होने की चेष्टा न कर केवल शरीर तथा मन के भौतिक सुखों में (लस्ट ऐंड लूकर) ही व्यस्त रहें, तो फिर हमलोग अपने शरीर और मन को स्वस्थ तथा निरोग रखने की चाहे कितनी भी चेष्टा करे वे सारे प्रयास व्यर्थ ही सिद्ध होंगे। इसीलिये हमें अपने दैनंदिन जीवन से जुड़े समस्त विचारों, वाणी और कर्मों को एक-मुखी बनाना आवश्यक होगा। इसी विश्व-जीवन को पकड़ने, समझने, विकसित करने में, जितना समय लगता है, उस समय को कम करने के कौशल को सिखाना ही-राजयोग का विवेच्य विषय है। साधारणतः यह प्रयास असम्भव प्रतीत होता है, किन्तु प्राण-शक्ति की अभिव्यक्ति होने से वह अत्यन्त सहज (१०० वर्ष के भीतर ही संभव हो  जाती है।
उसी महाशक्ति को अभिव्यक्त करने, या महाजीवन से जुड़ जाने के उद्देश्य (माँ की गोदी में लौट जाने के उद्देश्य से) ओर केवल ब्रह्म को जानने के मार्ग में मन-वचन-कर्म से अग्रसर होते रहने को ही-- ब्रह्मचर्य कहते हैं। शारीरिक, मानसिक, वाचिक शक्ति को व्यर्थ में बर्बाद होने से रोक कर, सम्पूर्ण शक्ति को एक ही उद्देश्य में नियोजित रखने से इस कार्य में सिद्धि प्राप्त होती है। अपने जीवन में हमलोग महाशक्ति (अनन्त ऊर्जा - जिससे सारी शक्तियाँ निकली हैं) के साथ खेल कर रहे हैं। किन्तु अनावश्यक रूप से शक्ति का अपव्यय करते रहना शक्ति का दुरूपयोग करना है। शक्ति का दुरूपयोग करने को ब्रह्मचर्य-पालन कैसे कह सकते हैं ? 
[ब्रह्मचर्य पालन की दिशा में अग्रसर होने के लिए] सबसे पहले हमलोग नियमित व्यायाम और पौष्टिक आहार के द्वारा अपने शरीर को स्वस्थ और सबल रखने की चेष्टा करेंगे। इसके साथ-साथ हमलोग अपने शरीर और मन की सभी प्रकार की शक्तियों का असंयमित या अतिरंजित खर्च भी नहीं होने देंगे। शक्ति का सदुपयोग करने के लिये विवेक-प्रयोग करना अनिवार्य होता है, इसीलिये हमलोग मन को अपने वश में या नियंत्रण में रखने का नियमित अभ्यास करेंगे! अर्थात अपने मन-वचन-कर्म को यूनिडायरेक्शनल रखने का निरन्तर प्रयत्न करते रहेंगे। इसके लिये अपने मन को - निरन्तर विचारों, शब्दों और शरीर के प्रत्येक गतिविधियों के भीतर एकाग्र और एकमुखी बनाये रखने का अभ्यास करना होगा। यदि हमलोग दिन-रात अपने मन को नियंत्रण में रखने की चेष्टा नहीं करके, केवल सुबह-शाम कुछ ही मिनटों तक एकाग्र रखने प्रयत्न करके चुप बैठजायेंगे, तो उतने से कुछ नहीं होगा।
अंग्रेजी कहावत है - थॉट इज पॉवर ! किन्तु अपवित्र विचारों की शक्ति भी, पवित्र विचारों के समान ही प्रचण्ड होती है। इसीलिये हर समय, रातदिन- पवित्रता का विचार, आन्तरिक आनन्द या 'विवेकज -आनन्द' का चिन्तन करते रहना होगा। मैं पवित्रता स्वरूप हूँ, मैं आनन्द स्वरुप हूँ, इसी बात के उपर विचार करते रहना होगा। इसके लिये किसी पवित्र वस्तु को, जैसे पवित्रता  की प्रतिमूर्ति है, स्वामी विवेकानन्द का चिन्तन करना अधिक सुविधा जनक है। स्वामीजी का शरीर पवित्रता का एक मूर्तमान विग्रह है, ऐसा मान कर उनकी मूर्ति के उपर हमलोग अपने मन को एकाग्र कर सकते हैं। 
[पतंजलि योगसूत्र (१.१२) अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥१२॥ को अधिक स्पष्ट करते हुए व्यास-भाष्य  में कहा गया है - "तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते।  इति उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः = इस प्रकार (इति) चित्तवृत्तिनिरोधः (चित्त की स्वाभाविक चंचलता और बहिर्मुखी प्रवृत्ति, अर्थात विषयों में दौड़ने वाली प्रॉपेनसिटी का दमन या संशोधन, वैराग्य या लालच का  त्याग और विवेक-दर्शन (डिस्क्रिमनेशन) अर्थात (बुद्धि-पुरुष विवेक या शास्वत-नश्वर को पहचानने की क्षमता) दोनों के अभ्यास पर निर्भर है। ] 
इस प्रकार मन को एकाग्र रख सकने पर, उसको एकमुखी बना लेने पर हमारे शरीर और मन की शक्ति का दुरूपयोग अवश्य रुक जायेगा। तब महाशक्ति का या महाप्राण का स्पर्श प्राप्त करना हमलोगों के लिये भी कोई असंभव कार्य नहीं रह जायेगा। 
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[अथर्ववेद की १९ वें खंड के ६७ वें सूक्त में एक ऋषि प्रार्थना करते हैं - हमें पूर्ण स्वास्थ्य के साथ सौ वर्ष का जीवन मिले, और यदि हो सके तो सक्षम एवं सक्रिय इंद्रियों के साथ जीवन उसके आगे भी चलता रहे । अवश्य ही सौ वर्षों की आयु सबको नहीं मिलती होगी । इसीलिए सौ वर्ष की आयु को एक मानक के रूप में देखते हुए उसे चार बराबर आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास) में भी वैदिक चिंतकों ने बांटा होगा। पश्येम शरदः शतम् !!१!! इसका अर्थ है हम सौ शरदों को देखें अर्थात सौ वर्षों तक हमारी नेत्र इन्द्रिय स्वस्थ रहे I जीवेम  शरदः शतम् ।।२।। हम सौ शरद ऋतु तक जीयें यानि हम सौ वर्ष तक जीयें I बुध्येम शरदः शतम् ।।३।। सौ वर्ष तक हमारी बुद्धि सक्षम बनी रहे अर्थात मानसिक तौर पर सौ वर्षों तक स्वस्थ रहे I रोहेम शरदः शतम् ।।४।। सौ वर्षों तक हमारी वृद्धि होती रहे अर्थात हम सौ वर्षों तक उन्नति को प्राप्त करते रहे I पूषेम शरदः शतम् ।।५।। सौ वर्षों तक हम पुष्टि प्राप्त करते रहें, हमें अच्छा भोजन मिलता रहे।]
 [ स्वामी विवेकानन्द ने कहा है- ब्रह्माण्ड के सभी पदार्थ उस एक प्रारम्भिक पदार्थ के परिणाम हैं, जिसे आकाश कहते हैं. इसी तरह, सभी बल, चाहे वह गुरुत्वाकषर्ण हों, आकषर्ण-विकषर्ण हों या जीवन हो; वे सब एक ही प्राथमिक बल के परिणाम हैं, जिसे हम प्राण कहते हैं। आकाश-प्राण की यह जोड़ी बड़ी रम्य है।  प्राण ऊर्जा ही गतिशील होकर आकाश में सृष्टि रचती है। पहले सृष्टि का आदि तत्व आकाश निष्क्रिय है।  प्राण में स्पंदन हुआ, गतिशील हुआ, उसकी ऊर्जा के कारण ही सूक्ष्म से स्थूल का विकास हुआ।  पृथ्वी आदि अस्तित्व में आए।  सृष्टि के चरम विकास के बाद प्रलय होता है। तब सब कुछ सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होकर अपने मूल आकाश और प्राण में समाहित हो जाते हैं।  सारे पदार्थ आकाश में और सारी ऊर्जा प्राण में।]       

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

'शक्ति पूजा और लोकाचार' स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [33] (धर्म और समाज),

 'क्या दुर्गा पूजा एक त्यौहार मात्र है?'
स्वामी विवेकानन्द द्वारा अमृतत्व (अमरत्व) के विषय पर अमेरिका में दिये गए एक सन्देश को हमलोग थोडा ध्यान पूर्वक सुनें, और मन ही मन इसके उपर चिन्तन करते हुए इसे समझने चेष्टा करें- वे कहते हैं, " तुम, मैं अथवा ये समस्त आत्मायें क्या हैं ? तुम और हम उसी विराट विश्वव्यापी चैतन्य या प्राण या मन के अंश-विशेष हैं, जो हम में क्रमसंकुचित या अव्यक्त अवस्था में हैं। और हम घूमकर, क्रम-विकास की प्रक्रिया के अनुसार उस विश्व-व्यापी चैतन्य में पुनः वापस लौट जायेंगे। लोग उसी विश्व-व्यापी चैतन्य को प्रभु, भगवान, ईसा, बुद्ध या ब्रह्म कहते हैं- भौतिकतावादी उसीकी शक्ति (उर्जा) के रूप में उपलब्धि करते हैं। तथा अज्ञेय वादी लोग उसी की उस अनन्त अनिवर्चनीय सर्वातीत पदार्थ के रूप में धारणा करते हैं, और हम सभी लोग उसी के अंश हैं। "२/१२६ 
हमलोग भौतिक जगत के भोगों में- 'कामुकता और कमाई' में जितना अधिक मदहोश (हिप्नोटाइज्ड)रहेंगे
उस विश्व-व्यापिनी शक्ति से उतना ही अधिक विलग होते जायेंगे । और शक्ति से जितना अधिक विच्छिन्न होंगे, उतने ही अधिक दुर्बल होते जायेंगे। दुर्बल होने के कारण ही हमलोगों की ऐसा दुःख-दारिद्र्य भोगना पड़ रहा है। सुख या आनंद इन्द्रिय-विषयों के भोग करने से प्राप्त नहीं होता, वास्तव में शक्ति ही परमानन्द प्रदान करती हैं। (नशा शराब में होता -तो नाचती बोतल ! ) दुर्बल होने के कारण ही हमलोग परमानन्द प्राप्त करने के अपने जन्मसिद्ध अधिकार से वंचित हो जाते हैं।
हमलोगों के राष्ट्रीय जीवन के विकास को, भारत के जन-साधारण के निजी जीवन में शक्ति के नाश ने ही, हजारों वर्षों तक रुद्ध किये रखा है। इसीलिये स्वामीजी बार बार कहते हैं, हमलोगों के लिए इस समय शक्ति पूजा की घोर आवश्यकता है। इस शक्ति पूजा का तात्पर्य कोई पौराणिक या या तांत्रिक आचार-अनुष्ठान नहीं है, या इसके साथ 'हिन्दूओं के योग ' वाली बात भी नहीं है। [संयुक्त राष्ट्र संघ ने भारत के आग्रह पर २१ जून को अन्तर्राष्ट्रीय योग-दिवश घोषित कर दिया है। किन्तु योग का अर्थ केवल शरीर का रोग दूर करने वाले विभिन्न आसन ही नहीं है।] योग का वास्तविक अर्थ है, उसी विश्व व्यापिनी शक्ति के साथ योग -'एकत्व की अनुभूति' को बढ़ाने की चेष्टा करना। आज वैसी शक्ति पूजा का आयोजन कहाँ हो रहा है ?
स्वामी विवेकानन्द किस प्रकार की शक्ति पूजा का आयोजन करना चाहते थे ?  यह उन्हीं के मुख से भारती की संपादिका को २४ अप्रैल १८७९७ को लिखित पत्र से सुना जाये, " इसी जीवात्मा में अनन्त शक्ति अव्यक्त भाव से अन्तर्निहित है, चींटी से लेकर ऊँचे से ऊँचे सिद्ध पुरुष तक सभी में वह आत्मा विराजमान है, और अन्तर जो कुछ है वह केवल प्रकाश (अभिव्यक्ति) के तारतम्य में है। कैवल्यपाद में है -'वरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत "- किसान जैसे खेतों की मेंड़ तोड़ देता है और एक खेत का पानी दूसरे खेत में चला जाता है , वैसे ही आत्मा भी आवरण टूटते ही प्रकट हो जाती है । उपयुक्त अवसर और उपयुक्त देश-काल मिलते ही उस शक्ति का विकास हो जाता है। परन्तु चाहे विकास हो, चाहे न हो, वह शक्ति प्रत्येक जीव में -ब्रह्मा से लेकर घास तक में - विद्यमान हैं ! इस शक्ति को, सर्वत्र  घर घर जाकर जगाना होगा । " वैसी  शक्ति पूजा कहाँ हो रही है ?
यहाँ क्या हो रहा है ? पुराने ढांचे (frame) के उपर कादो-माटी का नया लेप चढ़ाया जा रहा है। कहा जा रहा है - "दुर्गापूजा का धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है (?), यह तो एक त्यौहार है- आइये हमलोग इसको अपने मन-मर्जी के अनुसार फ़िल्मी भक्ति-गीत आदि के साथ डी.जे. के धुन पर नाचते-गाते मना लेते हैं।" इन दिनों इसी प्रकार की मानसिकता के साथ शक्ति की पूजा करने का आह्वान अधिक सुनाई देती है। किन्तु जिस प्रकार पुराने पोथी-पत्री को निचोड़ने से कोई नई वस्तु प्राप्त करना कठिन होता है,  वैसे ही अपने मनमर्जी के अनुसार दुर्गोत्सव मनाने की इस नई प्रवृत्ति से कोई शक्ति प्राप्त होने वाली नहीं है। यदि हम सचमुच मनुष्य का कल्याण करना चाहते हों, तो इस युग में हमलोगों को नये शास्त्र का अनुसरण करना ही होगा। नये रूप में शक्ति पूजा का आयोजन करना होगा, यह आयोजन किस प्रकार करना होगा ? इसका जो निर्देश विवेकानन्द ने दिया है, उसे हम उनकी रचना 'चिन्तनीय बातें' के अलोक में प्राप्त कर सकते हैं।
" सनातन हिन्दुधर्म का गगनचुम्बी मन्दिर है - उस मन्दिर के अन्दर जाने के मार्ग भी कितने हैं ! और वहाँ है  क्या नहीं ? वेदान्त के निर्गुण ब्रह्म से लेकर ब्रह्मा, विष्णु, शिव, शक्ति, सूर्य, चूहे पर सवार गणेशजी, छोटे देव-देवियाँ- जैसे षष्ठी, माकाल (सोने की ईंटें ? ) इत्यादि तथा और भी न जाने क्या क्या वहाँ मौजूद हैं। फिर वेद, वेदान्त, दर्शन, पुराण, तंत्र, में बहुत सी सामग्री है, जिसकी एक एक बात से भव-बंधन टूट जाता है। 
और लोगों की भीड़ का तो कहना ही क्या, तेंतीस करोड़ लोग उस ओर  दौड़े रहे हैं। मुझे भी उत्सुकता हुई, मैं भी दौड़ने लगा।  किन्तु यह क्या? मैं तो जाकर देखता हूँ एक अद्भुत काण्ड !! 
कोई भी मन्दिर के अन्दर नहीं जा रहा है, प्रवेश-द्वार के सामने ही एक पचास सिर वाली, सौ हाथ वाली दो सौ पेट वाली और पाँच सौ पैर वाली मूर्ति खड़ी है।  उसी के पैरों के नीचे सब लोट-पोट हो रहे हैं। एक व्यक्ति से कारण पूछने पर उत्तर मिला, " भीतर जो सब देवता हैं, उनको दूर से ही लोट-पोट लेने से ही या दो फूल फेंक देने से ही उनकी यथेष्ट पूजा हो जाती है। असली पूजा तो इनकी होनी चाहिये जो दरवाजे पर विद्यमान हैं; और जो वेद, वेदान्त, दर्शन, पुराण, और शास्त्र सब देख रहे हों, उन्हें कभी कभी सुन ले, तो भी कोई हानी नहीं, किन्तु इनका हुक्म तो मानना ही पड़ेगा। " 
तब मैंने फिर पूछा, ' इन देवताजी का भला नाम क्या है ? ' उत्तर मिला, ' इनका नाम है -लोकाचार ' और मुझे लखनऊ के ठाकुर साहब की बात याद आ गयी, " शाबाश ! भई लोकाचार !! ....शबाश ! बाबा येजिद, देवता तो तू ही है ! सरउ  का अस मार मारेउ कि ई सब अबहिन तलक रोवत है !!" १०/१४६ 
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" बीज का ही वृक्ष होता है,बालू के कण का नहीं। पिता ही पुत्र होता है, मिट्टी का ढेला नहीं। अब प्रश्न है कि यह क्रमविकास किसका होता है ? बीज क्या था ? वह बीज ही उस वृक्ष के रूप में था । इसीको क्रमसंकोच कहते हैं। जब तुम अनेक को देखते हो, तब तक तुम अज्ञानता (हिप्नोटाइज्ड स्टेट ऑफ़ माइंड) में हो। ' इस अनेकतापूर्ण जगत में जो उस एक को , इस परिवर्तनशील जगत में जो उस अपरिवर्तनशील को अपनी  आत्मा की आत्मा के रूप में देखता है, अपना स्वरूप समझता है , वही मुक्त है , वही आनंदमय है, उसीने लक्ष्य की प्राप्ति की है। अतएव यह जानलो कि तुम्हीं जगत के ईश्वर हो -तत्त्वमसि ! 
यदि सैकड़ों सूर्य पृथ्वी पर गिर  पड़ें , सैकड़ों चन्द्र चूर चूर हो जाएँ, एक के बाद एक ब्रह्माण्ड विनष्ट होते चले जाएँ , तो भी तुम्हारे लिए क्या ? पर्वत की भांति अटल रहो ; तुम अविनाशी हो । कहो "शिवोSहं ,शिवोSहं-मैं पूर्ण  
सच्चिदानन्द हूँ । " पिंजड़े को तोड़ डालने वाले सिंह की भाँति तुम अपने बन्धन (कामुकता और कमाई में आसक्ति ) को तोड़कर सदा के लिए मुक्त हो जाओ ! " २/१३१ 

" ईश्वर माँ है। हमलोग धन, सम्पत्ति और इन सभी चीजों की खोज में डूबे हुए हैं; किन्तु एक समय ऐसा आएगा, जब हम जाग उठेंगे; और जब यह प्रकृति हमें और खिलौने देने का प्रयत्न करेगी तब हम कहेंगे, ' नहीं, मैंने बहुत पाया, अब मैं ईश्वर के पास जाऊंगा।' (10/42)
" भाई, शक्ति के बिना जगत का उद्धार नहीं हो सकता। क्या कारण है कि संसार के सब देशों में हमारा देश ही सबसे अधम है, शक्तिहीन है, पिछड़ा हुआ है ? इसका कारण यही है है कि वहाँ शक्ति की अवमानना होती है। ...जीती जागती दुर्गा को छोड़ कर मिटटी की दुर्गा पूजने चले हो ? भाई, जीती जागती की पूजा कर दिखाऊंगा, तब मेरा नाम लेना 2/360  
ভালো থাকা ভালোবাশা, ভালো মনে কিছু আশা , বেদোনার দুরে থাকা, সখস্মৃতি ফিরে দেখা, বোধন থেকে বরণ -ডালা , বিজয়া মানে এগিয়ে চলা ! সুভো বিজয়া!]
["One must propitiate the Divine Mother, the Primal Energy, in order to obtain God's grace. God Himself is MahAmAyA, who deludes the world with Her illusion
 and conjures up the magic of creation, preservation and destruction." Sriramakrishna]
 




मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

प्रकृति का प्रतिशोध ( 'क्षमा और अविरोध' ) स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [32] (धर्म और समाज),

  'बदला लेने की प्रवृत्ति का नष्ट होना मनुष्य बनना है'  
[शक्तिशाली (हृदयवान का) क्षमा और अविरोध देवत्व है !]
मनुष्य और पशु दोनों में, प्रतिशोध लेने की एक पाशविक-प्रवृत्ति लगभग एक जैसी ही विद्यमान रहती है। हिन्दी में प्रचलित कहावत है-'जैसे को तैसा '। अंग्रेजी में कहावत है-'दाँत के बदले जबड़ा '। (एक प्रचलित गर्वोक्ति है-"To revenge is mean not mentioned in my policy.") आज कल सुना जा रहा है- " खून के बदले खून।" किन्तु, यह बदला लेने की प्रवृत्ति क्या सचमुच मनुष्यों में भी रहने योग्य है? मनुष्य तो उसे कहते हैं, जो विवेक-पूर्ण निर्णय लेने के बाद कार्य करता हो। यदि हमलोग विवेक-प्रयोग करने के बाद ही कोई कार्य करें, तो क्या करना श्रेय होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है। मनुष्य यदि हृदयवान हो, तो वह प्रेम की असीम शक्ति से सम्पूर्ण जगत को अपना बना सकता है। यदि सम्पूर्ण मानवता मेरी हो जाय-सभी मनुष्य मेरे अपने हैं; ऐसा बोध जाग्रत हो जाय तो, तो किसी को बदले की भावना से पहुँचायी गयी क्षति या चोट स्वयं अपने ऊपर लगने जैसी कष्टदायक प्रतीत होगी। जिस मनुष्य ने ऐसी हृदयवत्ता अर्जित कर ली हो,तो भले ही वह स्वयं को चोट सह ले, किन्तु किसी भी परिस्थिति में दूसरे किसी को चोट या क्षति पहुँचाने की बात नहीं सोंच सकता। इसको ही अप्रतिकार या अविरोध कहते हैं। यह अत्यंत उच्च अवस्था है ! जो मनुष्य सचमुच महान और शक्तिशाली होते हैं, वे सर्वदा अविरोध या अप्रतिकार की स्थिति में रहते हैं।
रानी रासमणि जिन्होंने 'दक्षिणेश्वर काली मन्दिर' को स्थापित किया था, वे श्रीरामकृष्ण को गुरु से भी बढ़ कर श्रद्धा करती थीं। उनके दामाद मथुरबाबु जो मन्दिर के संचालक थे, वे माँ भवतारिणी के पुजारी-श्रीरामकृष्ण  को बाबा कहकर बुलाते थे, और उनकी बड़ी सेवा करते थे। यह देखकर मन्दिर के ही एक दूसरे पुजारी हलधारी (उनके चाचा के लड़के)  ईर्ष्या से जल-भुन गये और उनसे डाह करने लगे। एक दिन श्री रामकृष्ण को अकेले में देखकर उनसे पूछा, 'तुमने किस जादू-जन्तर या ताबीज के बल पर उन्होंने मथुरबाबू कोअपने वश में कर लिया है? जब श्रीरामकृष्ण ने कहा कि उन्होंने तो वैसा कुछ भी नहीं किया है!  यह सुनकर हलधारी क्रोध से इतने आवेशित हो गये कि, अपना आपा (होश) खो बैठे और ठाकुर (श्रीरामकृष्ण परमहंस देव ) पर पैरों से प्रहार कर दिए। श्रीरामकृष्ण गिर पड़े, किन्तु किसी प्रकार उठे और वहाँ से चुपचाप चले गये। इसके बहुत दिनों बाद जब मथुरबाबु ने इस घटना के बारे में सुना, तो कहे, " बाबा, आपने उसी समय मुझसे क्यों नहीं कहा ? हलधारी का सिर ही उड़ा देता !" ठाकुर बोले, " इसीलिये तो नहीं कहा, आहा बेचारे से कैसी गलती हो गयी।" इसको कहते हैं अप्रतिकार (अविरोध)! 
इसी प्रकार की एक अन्य घटना का उदहारण मिलता है, " किसी साधू ने एक बिच्छू को जल में गिर कर तड़फफड़ाते हुए देखा। उनहोंने तुरन्त उसको अपनी हथेली में उठा लिया। उठते ही बिच्छू ने उनको डंक मार दिया और पुनः जल में गिर पड़ा। उन्होंने फिर से उसको उठाया, बिच्छू ने फिर से डंक मारा। बिच्छू के डंक की तीव्र जलन भी उनके मन में क्रोध या बदले की भावना उत्पन्न नहीं कर सकी। वे उसको उठाकर जल से बाहर निकाल ही दिये, प्रेम और क्षमा की ही विजय हुई।
पर जो व्यक्ति जिंगोइस्ट टाइप  (jingoist-अंधराष्ट्र्भक्त,  ) इससे क्या हुआ, 'मैं भी आखिर मनुष्य ही हूँ; यदि कोई व्यक्ति मेरे साथ (मेरे देश के साथ ?) ऐसा-वैसा ही व्यवहार करता रहे (वन्देमातरम न बोले या पाकिस्तानी झण्डा लहराये), तो क्या मुझे उसको यूँ ही छोड़ देना चाहिये?" मन में ऐसा प्रश्न उठाना ही, अपने भीतर की पशुता को समर्थन देने जैसा है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था,  "ठाकुर (नवनी दा ) के भीतर, केवल 'पशु' ही क्यों, 'मनुष्य' भी पूरी तरह से मर चुका था, वहाँ सिर्फ 'देवता' ही जाग्रत थे ! " हमलोगों को भी (धर्म को सीखकर)  पहले इस पशु के स्तर से उपर उठाना होगा, फिर मनुष्य के स्तर का भी अतिक्रमण करते हुए देवत्व के स्तर में उन्नत होना होगा! क्योंकि स्वामी विवेकानन्द ने इसीको धर्म कहा है। वे कहते हैं -" धर्म वह वस्तु है, जिससे पशु मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है। "इसीलिये यदि हर समय पूर्ण विवेकज ज्ञान का प्रयोग करना संभव न भी हो पाता हो, तब भी मनुष्य को देवत्व में उन्नत करने वाले इस 'अविरोध' के गुण को, यथा-संभव धीरे धीरे बढ़ाने की चेष्टा करनी होगी। थोड़ी भी क्षति पहुँचने या चोट लगने से (या मच्छड़-बिच्छु काटते ही), बदला लेने की प्रवृत्ति को क्रमशः जीतना ही पड़ेगा। यदि ऐसा संभव नहीं हो सका तो मनुष्य शरीर में जन्म लेना (बुद्धत्व प्राप्ति?) व्यर्थ  हो जायेगा।   
केवल इतना ही नहीं, इसका एक वैज्ञानिक आधार भी है।
प्रसिद्द वैज्ञानिक न्यूटन द्वारा आविष्कृत एक अकाट्य वैज्ञानिक नियम है, जिसे 'Law of Motion' या गति का नियम' के नाम से जाना जाता है। न्यूटन के गति के तीसरे नियम के अनुसार-  ‘प्रत्येक क्रिया के समान एवं विपरीत प्रतिक्रिया होती है; तथा यह प्रतिक्रिया परिमाण में कार्य के ठीक बराबर और विपरीत मुखी होती है।'
 [उदाहरणार्थ बन्दूक से जब गोली छोड़ी जाती है, तो हमें पीछे की ओर झटका लगता है। या घोड़ा गाड़ी को खींचते समय अपनी पिछली टाँगों से पृथ्वी को पीछे की ओर ठेलता है, जिससे प्रतिक्रिया स्वरूप पृथ्वी घोड़े को आगे की ओर धक्का देती है, और गाड़ी आगे बढ़ती जाती है। जब एक वस्तु किसी दुसरे वस्तु पर बल का प्रयोग करता है, तत्क्षण ही वह दूसरा वस्तु पहले वस्तु पर वापस बल लगाता है। प्रयोग किए गए दोनों बल परिमाण में बराबर होते है,पर दिशा में विपरीत। इन नियम के सम्बन्ध में दो महत्त्वपूर्ण बातें ध्यान देने योग्य हैं—हम यह नहीं जान सकते हैं कि अमुक बल क्रिया है तथा अमुक बल प्रतिक्रिया है। हम केवल यही जान सकते हैं कि एक बल क्रिया है तथा दूसरी प्रतिक्रिया। क्रिया तथा प्रतिक्रिया सदैव अलग–अलग पिण्डों पर लगती है, एक ही पर नहीं।]
इसीलिये हमलोग जो भी कार्य क्यों न करें, ठीक वही हमलोगों की तरफ वापस लौट कर आ जाता है। प्रेम करते हैं, तो बदले में प्रेम मिलता है। घृणा करते हैं, तो बदले में घृणा ही वापस मिलती है। मेरे प्रति किसी ने गलत किया है, इसीलिये मैं उसका बदला लूँगा। लेकिन बदले में जो कार्य होगा उसके भी बराबर और बिपरीत प्रतिक्रिया मेरे प्रति अवश्य होगी। यही है-' कुदरत का कानून ' या प्राकृतिक नियम ! इस को प्रकृति का प्रतिशोध भी कहते हैं। किसी ने मेरे प्रति कोई अन्यायपूर्ण (अनैतिक या wrongful) कार्य किया है, तो उसके प्रतिशोध का क्या होगा ? उसका दायित्व (प्रकृति के कानून को अपने हाथ में लेने की) मुझे लेने की आवश्यकता ही नहीं है, प्रकृति स्वयं उसका ठीक बदला लेगी। क्योंकि यदि मैंने बदला ले लिया, तो बदले का बदला मुझे भी पाना ही होगा। आधुनिक मनोविज्ञान भी इसे स्वीकार करता है। उनकी भाषा में इसको
'The Law of Retaliation ' या '' प्रतिशोध का नियम' कहते हैं। माता सुनीति द्वारा बालक ध्रुव को दिया गया यह परामर्श आधुनिक मनोविज्ञान का सिद्धान्त  'लॉ ऑफ़ रेटलीएशन ' की स्पष्ट व्याख्या है: 
श्रीमद्भागवत में बालक-ध्रुव की कहानी है। हमलोग इस कहानी को जानते हैं। सौतेली माता सूरुचि के गलत परामर्श से रानी सुनीति का पुत्र ध्रुव कुमार पिता की गोदी में नहीं बैठ सका। इससे ध्रुव के आत्मसम्मान को गहरी ठेस पहुँचती है, उसे बहुत दुःख हुआ, और क्रोध-अभिमान से उसको आँखें लाल हो जाती हैं. और  माँ के पास जाकर शिकायत किये-- तो माँ सुनीति ध्रुव को समझाते हुए कहती है -    
  मामङ्गलं तात परेषु मंस्था 
           भुङ्क्ते जनो यत्परदुःखदस्तत् ॥ ०४.०८.०१७ 
बेटे, किसी भी परिस्थिति में दूसरे के अमंगल का विचार भी मन में नहीं लाना चाहिए, दूसरे को अपना अपराधी नहीं समझना चाहिए। मनुष्य दूसरे को जैसा दुःख देता है, उसे बदले में ठीक वैसा ही दुःख प्राप्त होता है।अमेरकी संस्कृत विद्वान एडवर्ड वॉशबर्न हॉपकिंस [E.W. Hopkins-(१८५७-१९३२)] की एक प्रसिद्द पुस्तक है 'Origin and Evolution of Religions' इस पुस्तक में एंथ्रोपोलॉजी (Anthropology या मानवशास्त्र) की दृष्टि में - ट्राइबल लोगों के धर्म से लेकर श्रेष्ठ धर्म तक, प्रत्येक धर्म की उत्पत्ति और विकास का पूर्ण विवरण दिया गया है। इस पुस्तक में श्रीरामकृष्ण के जीवन और सन्देश का उल्लेख भी प्रसंगवश किया गया है। समस्त धर्मों के सार को खोजते खोजते निबन्ध के अन्त में लेखक कहते हैं -जिस नैतिक नियम को आजकल 'एथिक आफ रेसिप्रोसिटी' (पारस्परिकता का  नियम ) या 'गोल्डेन रूल' या  कहते हैं उसी बात कोभारत के महाभारतकार श्री वेद व्यास जी ने ‘धर्म सर्वस्व’ या धर्म का सार बताया है! और समस्त धर्मों के आविष्कृत सार को बहुत संक्षेप में इस प्रकार लिखा  है-  " जैसा व्यवहार प्राप्त होने से तुमको स्वयं दुःख होता है, वैसा व्यवहार किसी दूसरे के साथ मत करना। " महाभारत का मूल श्लोक इस प्रकार है- 
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।। 
अर्थात् “धर्म का सार जो है उसको सुनो और सुनकर उसके ऊपर चलो। वह सार यह है- जो 'व्यवहार तुमको अपने लिये प्रतिकूल जान पड़े वैसा दूसरे के लिये न करो।'
विवेक-प्रयोग द्वारा प्रतिशोध के दुर्गुण का त्याग करने से क्षमा रूपी सद्गुण का अर्जन साधक को क्रमशः सत्य और प्रेम के निकट लाने लगता है। ' बदला लेना ' एक पाशविक प्रवृत्ति तो है ही; किन्तु 'प्रकृति प्रतिशोध लेती है' के नियम की ओर टकटकी लगाकर देखते रहना भी महानता का लक्षण नहीं है। सभी परिस्थिति में सभी का कल्याण सोचना ही उचित है। और दूसरों के कल्याण में अपना तन-मन-प्राण न्योछावर कर देना ही मनुष्य-जीवन की चरम सार्थकता है। 
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सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

🙏 " जीवात्मा और धर्म " स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [31] (धर्म और समाज),

जीवात्मा और धर्म 

      हम जब किसी नए विषय या वस्तु को समझने की कोशिश करते हैं तब हम  उसी प्रकार के किसी पूर्व-परिचित विषय या वस्तु के साथ तुलना करके समझने की चेष्टा करते हैं।  हमलोग पहले अपनी इन्द्रियों के माध्यम से ही किसी बाह्य वस्तु या विषय को समझने की चेष्टा  करते हैं। इन्द्रियज-ज्ञान की सहायता से हमलोग भौतिक जगत के ' रूप-रस-शब्द-गंध-स्पर्श' आदि पाँच विषयों की अनुभूति करते हैं।  किन्तु जो वस्तु बाह्य जगत में नहीं है - उस वस्तु या विषय की धारणा करने में हमलोगों को थोड़ी कठिनाई होती है। तब हमलोग बाह्यजगत की ही वस्तु से तुलना कर उसे समझने की कोशिश  करते हैं। मूर्ति की कल्पना यहीं से उत्पन्न हुई है। क्योंकि हमलोग किसी निर्गुण-निराकार वस्तु की कल्पना नहीं कर सकते हैं, इसीलिये समस्त गुणों (शुभ और अशुभ) से युक्त किसी वस्तु की कल्पना करके, उसके भीतर देश-काल-पात्र आदि विभिन्न गुणों को आरोपित करने के बाद हमलोग उसे समझने की चेष्टा करते हैं। ऐसा नहीं होने पर  किसी गुणातीतभाव की  धारणा कर पाना हमलोगों के लिये लगभग असम्भव ही  है। चाणक्य-नीति में बहुत सुन्दर ढंग से कहा गया है -

अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदिदैवतम्
 
प्रतिमा स्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र समदर्शिनः ॥
 
वैदिक ब्राह्मणों के आराध्य-देव हैं अग्नि । पूजा होने के बाद अंत में जो होम किया जाता है, वह प्राचीन काल के अग्नि पूजा का ही साक्ष्य है। होमाग्नि को प्रज्ज्वलित करके, जिस देवता का आह्वान करना चाहते हों, उसके नाम का मन्त्र पढ़ कर आहूति दिया जाता है।  जो लोग मुनि अर्थात मननशील-विज्ञ व्यक्ति हैं, उनके देवता बाहर नहीं हैं।  उनके देवता उनके हृदय में ही विद्यमान हैं। लेकिन, अल्प-बुद्धि वाले अपने  देवता को  मूर्त -प्रतीकों के रूप में कल्पना कर उसकी प्रतिमा को पूजते हैं।  क्योंकि, जो देवता  कल्पनातीत हैं, जो वाक्य और मन के अगोचर हैं, जिनके विस्तार, आकर, सीमा या गुणों  को बोलकर नहीं समझाया जा सकता, उनको समझने में सुविधा के लिये किसी रूप की कल्पना कर ली जाती है। किन्तु जो समदर्शी हैं उनके देवता केवल उनके हृदय में ही नहीं रहते, वे चराचर विश्व में जितने भी जीव-जन्तु, जड़, वृक्ष, लता, नदी, पर्वत, समुद्र आदि हैं, सर्वत्र अपने ईष्टदेव को ही विद्यमान देखते हैं।
    हमलोग सामान्य-बुद्धि वाले  मनुष्य हैं इसीलिये किसी  प्रतीक  की कल्पना किये बिना आगे नहीं बढ़ सकते, या पूर्णत्वप्राप्ति की दिशा में अग्रसर नहीं हो सकते,  इसीलिये कहा गया है-  "उपासकानां कार्यार्थं ब्रह्मणो रुपकल्पना। " प्रश्न उठता है कि वह कौन है जो इन विविध रूपों की कल्पना करता है? क्या  मनुष्य अपनी कल्पना से इन रूपों की कल्पना करता है ? या स्वयं ब्रह्म ही उपासक की धारणा में अपने को प्रकट करने के लिये ससीम रूप धारण कर लेते  हैं ?  तंत्र-शास्त्रों में कहा गया है- " मनुष्य भी कल्पना नहीं करता और ब्रह्म भी कल्पना नहीं करते। बल्कि 'शक्ति' ही कल्पना करती है। वह  जिस प्रकार अविद्या-माया का रूप धारण करके जीव के बंधन का कारण होती हैं, उसी प्रकार जीवात्माओं को मुक्ति प्रदान करने के लिये विद्या-माया बनकर विभिन्न रूपों को धारण करतीं हैं।" इसीलिये कहा गया है- ' साधकानां हितार्थाय अरुपा रूप धारिणी।' - अर्थात साधकों के मंगल के लिये रुपातीता ने रूप धारण कर लिया, और निराकार से साकार हो गयीं हैं।
'ईश्वर जीव और जगत' के स्वरुप को स्पष्ट रूप से समझाने के लिये स्वामी विवेकानन्द ने भी प्रतिक की सहायता ली थी।  उन्होंने  किसी दक्ष  कवि की तरह  कल्पना  द्वारा  एक वस्तु-प्रतीक ( अर्चावतार) की सहायता से अपनी अनुभूति को व्यक्त करते हुए- श्रीमती ओली बुल को (20 जनवरी, 1895 लिखित) पत्र में कहा था , "प्रत्येक जीवात्मा एक तारा के समान है। ये तारे आकर में बहुत बड़े होते हैं , पर दीखते बहुत छोटे हैं। उसी प्रकार आत्मा भी अनन्त -असीम है। पर जीव-शरीर की छुद्र सिमा में रहकर स्वयं को प्रकट करता है इसीलिए हम इसे भी छोटा (अणु जैसा) ही समझ लेते हैं।  लेकिन यह जीवात्मा छुद्र या अणु जैसा छोटा नहीं है , और एक दूसरे से भिन्न भी नहीं है। सभी जीवात्मायें एक वृहत एकता के सूत्र में बंधी हैं , किन्तु यह बात आसानी से समझ में नहीं आती। " 
      इस नीले आकाश का कोई ओर-छोर है। हम इसके आदि-अन्त की  कल्पना भी नहीं कर पाते।  टिमटिमाते तारों को देख कर लगता है ये सभी आकाश  में टंगे हुए हैं। आत्मा की तुलना भी इस आकाश से की जा सकती है। समस्त प्राणियों के शरीर उसी आत्मा की घनीभूत अभिव्यक्तियाँ हैं। जीव और जगत के रूप में अपने को अभिव्यक्त कर देने के बाद आत्मा समाप्त नहीं हो जाता है। इन सब में परिव्याप्त होने के बाद आत्मा भी आत्मा की  अभिव्यक्ति अनन्त शून्य तक सुविस्तृत है। पुरुषसूक्त में कहा गया है -'पादोऽस्य विश्वाभूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।।' -(ऋ. १०. ९०. ३ )  - अर्थात यह सम्पूर्ण विश्व -ब्रह्माण्ड ब्रह्म या परमात्मा के केवल एक  एक चौथाई अंश में ही स्थित है। जबकि उसका अधिकांश भाग दृश्यमान जगत के परे अनन्त लोक तक परिव्याप्त है। इन्द्रियग्राह्य जगत को परिपूर्ण करते हुए उसका भी अतिक्रमण करके उसके बाहर ही इस सत्ता का अधिकांश भाग अवस्थित है। गीता (१०.४२) में भी कहा गया है- 
 
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन। 
 विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।। 

-जगत के किन किन स्थानों में उनका विशेष प्रकाश है, उसका वर्णन करने के बाद भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन कहते हैं; अथवा हे अर्जुन बहुत जानने से तुम्हारा क्या प्रयोजन है मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपने एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ। 





ब्रह्म का विशिष्ट-वैभव बतलाते हुए कह रहे हैं- 'इस पुरुष/(प्रकृति या शक्ति?) की इतनी महिमा है कि यह सम्पूर्ण चराचर विश्व, यह सारा ब्रह्माण्ड (मन जहाँ तक जा सकता है) परमेश्वर (ब्रह्म या परमात्मा/परमेश्वरी-माँ जगदम्बा) के केवल एक चौथाई अंश में ही स्थित है। और उसका अधिकांश भाग (शेष तीन-चौथाई भाग) इस मन (या दृष्टिगोचर जगत) के परे अनन्त लोक तक परिव्याप्त है। आत्मा हमलोगों के इन्द्रियग्राह्य जगत को (अपने मन को ) परिपूर्ण करते हुए उसका भी अतिक्रमण करके उसके बाहर ही इस सत्ता का अधिकांश भाग (तीनचौथाई भाग) अवस्थित है। अर्थात् वह ईश्वर/  इस समस्त ब्रह्माण्ड में समाया हुआ अनन्त है, यह समस्त जगत् परमात्मा के एक भाग में है अन्य तीन भाग तो परमात्मा के अपने स्वरूप में प्रकाशित हैं अर्थात् परमात्मा अनन्त है और सर्वत्र विद्यमान है उसको हम किसी एक ही स्थान पर, या किसी एक ही 'नाम-रूप' में अवस्थित नहीं कह सकते।”
[अस्य = इन सर्वनियन्ता भगवान् का, विश्वाभूतानि = अनन्तानन्त जीव तथा अनन्त लोक, पादः = सम्पूर्ण ऐश्वर्य का चतुर्थ भाग है । और, अस्य = इन भगवान श्रीरामकृष्ण का, त्रिपादः = तीनो पाद अर्थात् तीनो भाग हैं- अहंकार आदि से युक्त 'बद्ध जीव और मुमुक्षु' , दूसरा पाद नित्यमुक्त = जो कभी संसार में फँसे ही नहीं-नारद आदि, और तीसरे हैं मुक्त जीव = डीहिप्नोटाइज्ड, भ्रम से मुक्त, जो भवबन्धन से छूटकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं वे अमृतं =अविनाशी हैं।] 

-ये तीनो पाद कहां हैं? इसका उत्तर देते हैं --दिवि।  दिव् शब्द का अर्थ है परमाकाश,स्वर्ग, भगवद्धाम! गीता ११/१२ में कहा गया है -'दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।' भगवान के विराट्-रूप [चिन्मय भगवद्धाम ='विस्फोटी परमानन्द' कपाल क्षेत्र से उमड़कर हर्षोन्माद एवं गहनानन्द की बाढ़ की उपमा; या माँ जगदम्बा के विराट रूप=सर्वव्यापी मातृहृदय का 'अहं'-बोध] की जो प्रभा -- प्रकाश है; उसकी उपमा कहते हैं - अगर आकाशमें एक साथ हजारों सूर्य उदित हो जायँ, तो भी उन सबका प्रकाश मिलकर उस महात्मा (विराट्-रूप परमात्मा या विराट सर्वव्यापी 'अहं'-बोध रूपिणी माँ जगदम्बा) विश्वरूप के प्रकाश के समान शायद ही हो। अथवा सम्भव है कि न भी हो अर्थात् उससे भी विश्वरूप का प्रकाश ही अधिक हो सकता है।
गीता (१०.४२) में भी कहा गया है-  अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।  विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।
-जगत का किन किन स्थानों में उनका विशेष प्रकाश है, उसका वर्णन करने के बाद भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन कहते हैं; अथवा हे अर्जुन बहुत जानने से तुम्हारा क्या प्रयोजन है मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपने एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ। 
      वे सभी स्थानों में व्याप्त हैं, किन्तु जीवात्मा में उनका विशेष प्रकाश है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " मैं जीवन भर ईश्वर को ढूँढ़ता रहा, किन्तु अन्त में मैंने मनुष्य के भीतर ही ईश्वर को देखा है।"  
     अन्यान्य जड़ वस्तुओं की तुलना में जीव शरीर में ही ब्रह्मचैतन्य का प्रकाश सर्वाधिक है। जो लोग सम-दर्शी होते हैं  वे सर्वत्र उनका अनुभव करते हैं।  हमलोग तो सर्वदर्शी नहीं हैं इसीलिये जीवों के भीतर, विशेषतः  मनुष्य के भीतर ही उनको स्पष्ट रूप से देख पाते हैं। सीमाहीन आकाश में परिव्याप्त ब्रह्मवस्तु हमारी  धारणा से परे है। किन्तु जिस आकृति में घनीभूत होकर ब्रह्म ने स्थूल रूप धारण किया है, वहाँ हमलोग उनके अस्तित्व का अनुभव कर सकते है।
       स्वामीजी एक जगह कहते हैं, " यदि प्रत्येक मनुष्य के भीतर अवतार होने की सम्भावना नहीं हो, तो फिर कहना होगा कि अवतार कभी हुए ही नहीं थे। " अर्थात  प्रत्येक मनुष्य के भीतर अवतार  होने की सम्भावना विद्यमान है। किसी अवतार पुरुष के जीवन और सन्देश की विवेचना, उनके जीवन का अध्यन और जीवन लीला पर चिंतन करने से प्रत्येक व्यक्ति अपने संकीर्ण जीवनवृत्त का अतिक्रमण कर महत जीवनबोध अर्जित करने में सफल हो पाता है। 
           महर्षि पतंजली कहते हैं, " ईश्वरप्रणिधानम् - पवित्र-जीवन में उपनीत महापुरुषों के जीवन और सन्देश का चिन्तन करने वाला मनुष्य, पहले की अपेक्षा अधिक उन्नत-अवश्य हो जाता है।  शंकराचार्य कहते हैं, ' त्रय-दुर्लभं ' -' मनुष्यत्वं, मुमुक्षुत्वं और महापुरुष संश्रय'- इन तीन चीजों को एक साथ प्राप्त करना दुर्लभ है। कितने जन्मों तक साधना करने (विभिन्न योनियों -८४ लाख में भटकने के बाद) के बाद मनुष्य का जन्म प्राप्त होता है।  मनुष्य जन्म प्राप्त करके भी नाम-यश, भोग-वासना  में बन्ध जाने से मुक्ति की इच्छा ही  नहीं होती। फिर  मुक्त होने की इच्छा होने पर भी महापुरुष (पहुँचे हुए संत-गुरु ) का आश्रय प्राप्त करना बहुत दुर्लभ है। यह तीनों  दुर्लभ संसाधन एक साथ प्राप्त होने पर ही मुक्ति की सम्भावना है।  नहीं तो मुक्ति की सम्भावना बहुत कम है। 
      चौपाया जीवों का सिर सदैव नीचे की ओर रहता है। वही जब क्रमिक विकास में दो पैरों पर खड़े होना, और हाथों का उपयोग करना सीख लेता है , तब वह अपने सिर को ऊपर उठाकर आकाश की ओर देख सकता है, तब उसकी दृष्टि की परिधि बढ़ जाती है।  फिर वह जितना ही उन्नत होता जाता है , उसकी क्षितिज रेखा उतनी ही बढ़ती जाती है। इस प्रकार वह क्रमशः अनन्त की कल्पना करना सीखता है। आगे बढ़ने या उन्नत मनुष्य बनने के लिए और भी प्रयत्न करना पड़ता है , यही इसका अन्त नहीं है।  
       स्वामीजी श्रीमती ओली बुल को लिखित पत्र (20 जनवरी, 1895) में कहते हैं , " प्रत्येक जीवात्मा एक तारा है , और ये सभी तारे उसी ईश्वर रूपी अनन्त निर्मल नील आकाश में विन्यस्त हैं। वही ईश्वर प्रत्येक जीवात्मा का मूलस्वरूप है , वही प्रत्येक का यथार्थ स्वरुप और वही प्रत्येक और सबका यथार्थ व्यक्तित्व है। इन जीवात्मा- रूप तारों में से कुछ के , जो हमारी दृष्टि-सीमा से परे चले गए हैं , उनका अनुसन्धान करने से ही धर्म का आरम्भ हुआ, और यह अनुसन्धान तब समाप्त हुआ, जब हमने पाया कि उन सबकी अवस्थिति परमात्मा में ही है और हम भी उसीमें हैं।" (३/३७६) 
[ " Each soul is a star, and all stars are set in that infinite azure, that eternal sky, the Lord. There is the root, the reality, the real individuality of each and all. Religion began with the search after some of these stars that had passed beyond our horizon, and ended in finding them all in God, and ourselves in the same place."]
-अर्थात जीवात्मा के जीवन में धर्म शुरू होता है इसी प्रकार कुछ वैसे वृहत आकर के तारों का अनुसन्धान करने से जो दिगंश वलय (azimuth ring)  के निवासी हैं, जिनके जीवन-परिक्रमा का पथ और भी  विशाल होता है। जो महापुरुष (नेता) अन्य लोगों को भी उनके संकीर्ण क्षितिज से परे ले जा सकते हैं, उनके जीवन-लीला के अध्यन और अनुसन्धान से ही व्यक्ति के जीवन में धर्म का आरम्भ होता है। किसी साधक में धर्म-जीवन का आरम्भ उसके भौतिक संसार के आकर्षण की ओर पीठ फेर देने से होती है , वापस लक्ष्य (काशी ) की तरफ यात्रा शुरू करने से कलकत्ता स्वतः पीछे छूट जाता है। क्रमश ऊपर उठते जाने से ही उस अनन्त नीले आकाश में  पहुँचा जा सकता है, जहाँ आत्मा और ब्रह्म में कोई पृथक अस्तित्व नहीं रहता। सबकुछ ब्रह्म में ही लीन हो जाता है, और वहीं जीवात्मा के धर्म का भी अन्त हो जाता है।   
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'ईश्वर जीव और जगत' के स्वरुप को स्पष्ट रूप से समझाने के लिये (कृष्ण-बुद्ध- ईसा और मोहम्मद तो पुरुष थे किन्तु, ईश्वर -गॉड-अल्ला-पुरुष है या स्त्री ?... को स्पष्ट रूप से समझाने के लिये।)  स्वामी विवेकानन्द (जो पहले माँ काली को नहीं मानते थे ?) ने किसी कमाल के कवि जैसी कल्पना के द्वारा  एक वस्तु-प्रतीक (object module, या अर्चावतार) की सहायता से व्याख्यायित किया है। अपनी अनुभूति को व्यक्त करते हुए- श्रीमती ओली बुल को लिखित पत्र  (२० जनवरी, १८९५) में कहते हैं, "प्रत्येक आत्मा एक एक स्टार है (सितारे की तरह है)। और ये सभी सितारे ईश्वररूपी उस अनन्त नीले आकाश में विन्यस्त हैं (अजियोर/azure/नीलाकाश/अनन्त तक विस्तृत मातृहृदय- में पहुँचे हुए हैं)। और वही ईश्वर (मातृहृदय ईश्वर) प्रत्येक जीवात्मा का मूलस्वरूप, यथार्थ स्वरुप है, और वही समस्त सितारों (भक्तों, वीरों,हीरोज) का स्वाभाविक व्यक्तित्व है। इन जीवात्मा-रूप सितारों में से कुछ अविस्मरणीय सितारों का जब हम पुनरानुसन्धान करना प्रारम्भ करते हैं,(कुछ अविस्मरणीय मातृहृदय जैसे-नवनीदा, स्वामी विवेकानन्द, श्रीमाँ सारदा-सरस्वती, भगवान श्रीरामकृष्णदेव, मोहम्मद, चैतन्य, नानक, बुद्ध, ईसा,राम,कृष्ण, जैसे सितारों का पुनरानुसन्धान करना प्रारम्भ करते हैं।) जो हमारी दृष्टि से परे चले गए हैं, तभी हमारे जीवन में धर्म का प्रारम्भ होता है, और यह अनुसन्धान तब समाप्त हो जाता है, जब हम पाते हैं कि उन सब (विभिन्न व्यक्तित्वों) की अवस्थिति ईश्वर (मातृहृदय में रूपांतरण) में ही है, और हमलोग भी उसी ईश्वर (माँ जगदम्बा) में अवस्थित हैं।"  ( Each soul is a Star, and all stars are set in that infinite azure, that eternal sky, the Lord. There is the root, the reality, the real individuality of each and all. Religion began with the search after some of these stars that had passed beyond our horizon, and ended in finding them all in God, and ourselves in the same place.) अब सारा रहस्य यह है कि आपके पिता ने जो जीर्ण वस्त्र पहना था, उसका त्याग उन्होंने कर दिया, और अभी वे वहीँ अवस्थित हैं, जहाँ वे अनन्त काल से थे। इस लोक या किसी अन्य लोक (सप्त लोक चौदह भुवन) में क्या वे फिर ऐसा कोई एक वस्त्र पहनेंगे ? मैं सच्चे दिल से प्रार्थना करता हूँ कि ऐसा न हो, जब तक कि वे ऐसा पूरे ज्ञान (होशोहवास) के साथ न करें। मैं प्रार्थना करता हुआ कि अपने पूर्व कर्म की अदृश्य शक्ति से परिचालित होकर कोई भी अपनी इच्छा के विरुद्ध कहीं भी न ले जाया जाय।  मैं प्रार्थना करता हूँ कि सभी मुक्त (डीहिप्नोटाइज्ड-सिंह) हो जायें, अर्थात वे यह जान लें कि वे तो मुक्त ही हैं !  (अर्थात केवल इतना जान लें कि अब वे हिप्नोटाइज्ड-भेंड़ नहीं हैं! ) और यदि वे पुनः कोई स्वप्न देखना भी चाहें, तो वे सब आनन्द और शान्ति के स्वप्न हों। "]   
 (विवेकानंद जो पहले माँ काली को नहीं मानते थे ?) ने किसी कमाल के कवि जैसी कल्पना के द्वारा  एक वस्तु-प्रतीक (object module, या अर्चावतार) की सहायता से व्याख्यायित किया है।
[अर्चावतार अर्चा का अर्थ प्रतिमा अथवा मूर्ति होता है। निराकार-निर्विकार-शुद्ध-बुद्ध-परमानंदस्वरूप परब्रह्म (क्योंकि वे पूर्ण स्वतन्त्र हैं। जिन्हें मायाधीश, मायापति आदि नामों से जाना जाता है।) भक्तों की हितकामना से मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह आदि अवतारों के अतिरिक्त राम, कृष्ण,बुद्ध, ईसा,आदि विविध रूपों में अवतार ग्रहण करते हैं। यह अवतार मूर्ति रूप में प्रतिष्ठित होने के कारण अर्चावतार शब्द से अभिहित होता है।] 

[ (Object-symbol/ महाकाली -महालक्ष्मी -महासरस्वती आदि)इस दृष्टि से शूद्र भी गुरु से ज्ञान प्राप्त करके चरित्रवान मनुष्य बनकर ब्राह्मण में रूपांतरित हो सकते हैं। जातिप्रथा जन्मगत ही नहीं है, इसका उद्देश्य प्रत्येक मनुष्य को चरित्रवान मनुष्य में अर्थात ब्राह्मण में रूपांतरित करना है।   (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का जन्म दो बार होता है—एक बार माता के गर्भ से और दूसरी बार गुरु द्वारा ज्ञान दिए जाने पर। इसलिए इन्हें द्विजाति कहा जाता है। इनका आराध्य देव अग्नि है।) 

(जैसे अशुभ की अध्यक्षता कौन शक्ति करती है ? इस विचार पर चिंतन करने से माँ काली, कृष्ण या किसी अवतार की मूर्ति की कल्पना जन्म लेती है।)

 ' प्रत्येक जीवात्मा में अवतार बन जाने की सम्भावना है !'माँ जगदम्बा ने अपना स्वरूप बतलाते हुये स्वयं कहा है- “एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का – ममापरा”।  ‘मैं ही परब्रह्म, परम-ज्योति, प्रणव-रूपिणी तथा युगल रूप धारिणी हूं। मैं ही सब कुछ हूं। मुझ से अलग किसी का वजूद ही नहीं है। मेरे गुण तर्क से परे हैं। मैं नित्य स्वरूपा एवं कार्य कारण रूपिणी हूं।’ अतः मनुष्यमात्र को यदि अपना आत्मकल्याण करना हो अर्थात् मोक्ष प्राप्त करना हो तो अवश्य ही माँ भगवती की आराधना करें। माँ ममता की मूरत है। इतना तो निश्चित है जो भगवती के शरण में जाता है, उसे माँ अवश्य अपनाती है। यह बात भी स्मरण रहे कि शक्तिमान् की शक्ति अभिन्नरूप से रहती है, सम्पूर्ण पदार्थों में – जैसे –अग्नि में दाहिका शक्ति होती है, विद्वानों के अन्दर विद्याशक्ति, धनवानों में धनशक्ति, ब्रह्मचारियों में ब्रह्मचर्यशक्ति इत्यादि। शक्ति एक होकर भी अनेकरूप में व्यक्त होती है। जीवमात्र में अविद्या शक्ति बनकर रहने वाली माँ जगज्जनी भगवती पराम्बा, विश्वजन-मोहिनी (मनुष्य को हिप्नोटाइज्ड करने वाली शक्ति ?) कहलाती है।]
           



      

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

' विजया-दुर्गोत्स्व ' ( शारदीय नवरात्र) स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [30] (धर्म और समाज)

' विजया का सच्चा अर्थ है- आत्मविजय!'  
' विजया-दशमी' के अवसर पर हम सभी लोग सर्वांगीन कल्याण तथा मंगलमय जीवन के लिये माँ दुर्गा से प्रार्थना करते हैं, और एक-दूसरे को अपनी शुभकामनायें तथा प्रेम देते हैं। किन्तु दुर्गोत्स्व-विजया केवल परम्परा से चले आ रहे रीति-रिवाज के पालन करने का दिन ही नहीं है। 'विजया' है मंगलमय-जीवन जीने की शक्ति प्राप्त करने के लिये माँ से प्रार्थना करने और संकल्प लेने का दिन। हमारी पौराणिक कथाओं में जो नित्य-नूतन (Perpetual) मार्गदर्शन छुपा है, उसको प्राप्त करने का एक सुअवसर है नौरात्रा !
श्रीरामचन्द्र ने माँ दुर्गा का ' समयपूर्व-आह्वान ' (अकाल बोधन) करके रावण को मार कर, माता सीता को छुड़ा लिया था। उसी विजय-दिवस का स्मरण करना ही विजया-दशमी ! जिसे हमलोग दस दिनों तक दुर्गोत्स्व के रूप में मनाते हैं। पूर्वी भारत में, विशेष रूप से बंगाल में, हिन्दू लोग माँ दुर्गा को बिल्कुल अपने अपने घर की बिटिया जैसी मानते हैं, और दसमी को उनके पती के घर लौट जाने के दुःख को विजया का आनन्द अतिक्रमण कर लेता है। क्योंकि विजया के दिन रावण का वध और सीता की रक्षा भीतर हमें माँ दुर्गा को विदाई देने की वेदना से अधिक आनन्द ही प्राप्त होता है। ऐसा कैसे हुआ? यह एक विचारणीय प्रश्न है।
सत्य का पालन (रघुकुल रीति सदा चली आई प्राण जाये पर वचन न जाई!) करने के लिये जब रामचन्द्र ब्रह्मस्वरूपिणी सीता को लेकर वनवासमें गये थे, तो वह पंचवटी का वन था। हम में से प्रत्येक व्यक्ति ब्रह्मस्वरूप है। विवेक- विद्या के रहते हुए भी जब हमलोग- 'पंचवटी' अर्थात ' पंच-भूतों ' के  पंजे में फंस जाते हैं। तब  माया के द्वारा ठग लिये जाते हैं, माया-मृग (सोने का हिरण- पांच इन्द्रियविषय) हमलोगों मे लालच उत्पन्न कर देता है। और जब हम सीता (विवेक-शक्ति रूपी विद्या) को खो कर दुःख से अभिभूत हो जाते हैं। तब बहुत प्रयास करके माँ-दशभुजा (विवेक-प्रयोग रूपी विद्या) की  पूजा करके  रावण-निधन (हृदय के अंधकार अर्थात मिथ्या-अहं) को मार कर सीता को मुक्त कराकर वापस पाना पड़ता है।  
दस-इन्द्रियों का मूर्तमान रूप ही हमलोगों का दसानन रावण है। पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ -आँख,कान, नाक, जीभ और त्वचा; तथा पाँच कर्म इन्द्रियाँ हैं- मुंह, हाथ-पैर, गुदा और प्रजनन इन्द्रिय। ये सभी अत्यन्त बलवान हैं, इनका प्रबल होना ही रावण का भय दिखाना है और विद्या-हरण का कारण है। देवी-पक्ष की षष्ठी तिथि तक मन को अपने वश लाने के बाद देवी पूजा करने का अर्थ है, मन में छुपे षड-रिपुओं का दमन करने के बाद ही देवी की पूजा में प्रवृत होना। दशानन (दस-इन्द्रियों) का दमन करने के लिए ही दशभुजा देवी का आह्वान करना पड़ता है। देवी के हाथों में जो दस अस्त्र हैं, उन्हीं के सहारे दश इन्द्रियों का दमन करना पड़ता है।
शत्रु का दमन करने के लिये कई  बार शत्रु के घर के लोगों को अपनी ओर मिला लेने से उसको हराना आसान हो जाता है। रामचन्द्र ने रावण के घर के आदमी-विभीषण को अपने पक्ष में मिला लिया था। इन्द्रियों का दमन करने के लिए भी इन्द्रिय के घर के आदमी की जरुरत होती है। दश इन्द्रियों के घर में एक आदमी ऐसा है, जिसका चरित्र शेष दश इन्द्रियों के जैसा नहीं है, उस एकादश इन्द्रिय का नाम है-मन। इसी वशीभूत मन की सहायता से दस इन्द्रियों का दमन करना पड़ता है। यह मन अत्यन्त शक्तिशाली है। यह दशभुजा के दश अस्त्रों को दशानन के दमन या अपने  इन्द्रियों के दमन के लिये प्राप्त कर सकता है। महापराक्रमी सिंह उसी शक्तिशाली मन का प्रतिक है। इसीलिये सिंह को दशभुजा माता का वाहन कहा गया है। अर्थात हमलोग मन की सहयता से दश इन्द्रियों का दमन करने के संग्राम में कूद सकते हैं। किन्तु उससे पहले मन में छुपे षडरिपु- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि को - इनके छहों तिथियों तक काट देना
अत्यंत आवश्यक है
इसीलिये विजया का सच्चा अर्थ है- आत्मविजय। मन की सहायता से आत्म-ग्लानी में फंसे आत्मा का उद्धार, खोई हुई विवेक-प्रयोग की शक्ति रूपी विद्या को वापस प्राप्त करके अपने ब्रह्मत्व में प्रतिष्ठित रहना ही -आत्मा का उद्धार या आत्मविजय है। दुर्गोत्सव या विजया उसी आनन्द की अभिव्यक्ति है। इस आत्म-प्रतिष्ठा में सिद्धि प्राप्त करने के आनन्द का अनुभव करना ही मुख्य बात है, (सिद्धि) भाँग खाकर नशे में चूर हो जाना नहीं।
भारत के युवा वृन्द यदि चन्दे में मोटी रकम इकठ्ठा  कर यदि सार्वजानिक पूजा की चकाचौन्ध को को बढ़ा देने में ही अपनी उर्जा को बर्बाद नहीं करें, तथा आत्म-प्राप्ति के आनन्द में डूब सकें, आत्मग्लानी को विसर्जित करके यदि समाज को कलंक मुक्त बना सकें, तभी उनको पूजा करना शोभा देगा। भारत के समस्त युवा-संगठन यदि इसी सच्ची विजया के मार्ग पर चल सकें, विजया की इस शुभ घड़ी में  युवाओं के अंतर में विराजित महासिंह से हमलोगों (अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल)  की यही प्रार्थना है।
[अतः इस शारदीय नवरात्र में श्रीमद् देवी भागवत महापुराण के आधार पर परम तत्व स्वरूपा भगवती के स्वरूप (बारे में) पर कुछ चर्चा करके अपनी वाणी पवित्र करें।]
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