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मंगलवार, 23 अक्टूबर 2012

प्रकृति का प्रतिशोध ( 'क्षमा और अविरोध' ) स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [32] (धर्म और समाज),

  'बदला लेने की प्रवृत्ति का नष्ट होना मनुष्य बनना है'  
[शक्तिशाली (हृदयवान का) क्षमा और अविरोध देवत्व है !]
मनुष्य और पशु दोनों में, प्रतिशोध लेने की एक पाशविक-प्रवृत्ति लगभग एक जैसी ही विद्यमान रहती है। हिन्दी में प्रचलित कहावत है-'जैसे को तैसा '। अंग्रेजी में कहावत है-'दाँत के बदले जबड़ा '। (एक प्रचलित गर्वोक्ति है-"To revenge is mean not mentioned in my policy.") आज कल सुना जा रहा है- " खून के बदले खून।" किन्तु, यह बदला लेने की प्रवृत्ति क्या सचमुच मनुष्यों में भी रहने योग्य है? मनुष्य तो उसे कहते हैं, जो विवेक-पूर्ण निर्णय लेने के बाद कार्य करता हो। यदि हमलोग विवेक-प्रयोग करने के बाद ही कोई कार्य करें, तो क्या करना श्रेय होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है। मनुष्य यदि हृदयवान हो, तो वह प्रेम की असीम शक्ति से सम्पूर्ण जगत को अपना बना सकता है। यदि सम्पूर्ण मानवता मेरी हो जाय-सभी मनुष्य मेरे अपने हैं; ऐसा बोध जाग्रत हो जाय तो, तो किसी को बदले की भावना से पहुँचायी गयी क्षति या चोट स्वयं अपने ऊपर लगने जैसी कष्टदायक प्रतीत होगी। जिस मनुष्य ने ऐसी हृदयवत्ता अर्जित कर ली हो,तो भले ही वह स्वयं को चोट सह ले, किन्तु किसी भी परिस्थिति में दूसरे किसी को चोट या क्षति पहुँचाने की बात नहीं सोंच सकता। इसको ही अप्रतिकार या अविरोध कहते हैं। यह अत्यंत उच्च अवस्था है ! जो मनुष्य सचमुच महान और शक्तिशाली होते हैं, वे सर्वदा अविरोध या अप्रतिकार की स्थिति में रहते हैं।
रानी रासमणि जिन्होंने 'दक्षिणेश्वर काली मन्दिर' को स्थापित किया था, वे श्रीरामकृष्ण को गुरु से भी बढ़ कर श्रद्धा करती थीं। उनके दामाद मथुरबाबु जो मन्दिर के संचालक थे, वे माँ भवतारिणी के पुजारी-श्रीरामकृष्ण  को बाबा कहकर बुलाते थे, और उनकी बड़ी सेवा करते थे। यह देखकर मन्दिर के ही एक दूसरे पुजारी हलधारी (उनके चाचा के लड़के)  ईर्ष्या से जल-भुन गये और उनसे डाह करने लगे। एक दिन श्री रामकृष्ण को अकेले में देखकर उनसे पूछा, 'तुमने किस जादू-जन्तर या ताबीज के बल पर उन्होंने मथुरबाबू कोअपने वश में कर लिया है? जब श्रीरामकृष्ण ने कहा कि उन्होंने तो वैसा कुछ भी नहीं किया है!  यह सुनकर हलधारी क्रोध से इतने आवेशित हो गये कि, अपना आपा (होश) खो बैठे और ठाकुर (श्रीरामकृष्ण परमहंस देव ) पर पैरों से प्रहार कर दिए। श्रीरामकृष्ण गिर पड़े, किन्तु किसी प्रकार उठे और वहाँ से चुपचाप चले गये। इसके बहुत दिनों बाद जब मथुरबाबु ने इस घटना के बारे में सुना, तो कहे, " बाबा, आपने उसी समय मुझसे क्यों नहीं कहा ? हलधारी का सिर ही उड़ा देता !" ठाकुर बोले, " इसीलिये तो नहीं कहा, आहा बेचारे से कैसी गलती हो गयी।" इसको कहते हैं अप्रतिकार (अविरोध)! 
इसी प्रकार की एक अन्य घटना का उदहारण मिलता है, " किसी साधू ने एक बिच्छू को जल में गिर कर तड़फफड़ाते हुए देखा। उनहोंने तुरन्त उसको अपनी हथेली में उठा लिया। उठते ही बिच्छू ने उनको डंक मार दिया और पुनः जल में गिर पड़ा। उन्होंने फिर से उसको उठाया, बिच्छू ने फिर से डंक मारा। बिच्छू के डंक की तीव्र जलन भी उनके मन में क्रोध या बदले की भावना उत्पन्न नहीं कर सकी। वे उसको उठाकर जल से बाहर निकाल ही दिये, प्रेम और क्षमा की ही विजय हुई।
पर जो व्यक्ति जिंगोइस्ट टाइप  (jingoist-अंधराष्ट्र्भक्त,  ) इससे क्या हुआ, 'मैं भी आखिर मनुष्य ही हूँ; यदि कोई व्यक्ति मेरे साथ (मेरे देश के साथ ?) ऐसा-वैसा ही व्यवहार करता रहे (वन्देमातरम न बोले या पाकिस्तानी झण्डा लहराये), तो क्या मुझे उसको यूँ ही छोड़ देना चाहिये?" मन में ऐसा प्रश्न उठाना ही, अपने भीतर की पशुता को समर्थन देने जैसा है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था,  "ठाकुर (नवनी दा ) के भीतर, केवल 'पशु' ही क्यों, 'मनुष्य' भी पूरी तरह से मर चुका था, वहाँ सिर्फ 'देवता' ही जाग्रत थे ! " हमलोगों को भी (धर्म को सीखकर)  पहले इस पशु के स्तर से उपर उठाना होगा, फिर मनुष्य के स्तर का भी अतिक्रमण करते हुए देवत्व के स्तर में उन्नत होना होगा! क्योंकि स्वामी विवेकानन्द ने इसीको धर्म कहा है। वे कहते हैं -" धर्म वह वस्तु है, जिससे पशु मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है। "इसीलिये यदि हर समय पूर्ण विवेकज ज्ञान का प्रयोग करना संभव न भी हो पाता हो, तब भी मनुष्य को देवत्व में उन्नत करने वाले इस 'अविरोध' के गुण को, यथा-संभव धीरे धीरे बढ़ाने की चेष्टा करनी होगी। थोड़ी भी क्षति पहुँचने या चोट लगने से (या मच्छड़-बिच्छु काटते ही), बदला लेने की प्रवृत्ति को क्रमशः जीतना ही पड़ेगा। यदि ऐसा संभव नहीं हो सका तो मनुष्य शरीर में जन्म लेना (बुद्धत्व प्राप्ति?) व्यर्थ  हो जायेगा।   
केवल इतना ही नहीं, इसका एक वैज्ञानिक आधार भी है।
प्रसिद्द वैज्ञानिक न्यूटन द्वारा आविष्कृत एक अकाट्य वैज्ञानिक नियम है, जिसे 'Law of Motion' या गति का नियम' के नाम से जाना जाता है। न्यूटन के गति के तीसरे नियम के अनुसार-  ‘प्रत्येक क्रिया के समान एवं विपरीत प्रतिक्रिया होती है; तथा यह प्रतिक्रिया परिमाण में कार्य के ठीक बराबर और विपरीत मुखी होती है।'
 [उदाहरणार्थ बन्दूक से जब गोली छोड़ी जाती है, तो हमें पीछे की ओर झटका लगता है। या घोड़ा गाड़ी को खींचते समय अपनी पिछली टाँगों से पृथ्वी को पीछे की ओर ठेलता है, जिससे प्रतिक्रिया स्वरूप पृथ्वी घोड़े को आगे की ओर धक्का देती है, और गाड़ी आगे बढ़ती जाती है। जब एक वस्तु किसी दुसरे वस्तु पर बल का प्रयोग करता है, तत्क्षण ही वह दूसरा वस्तु पहले वस्तु पर वापस बल लगाता है। प्रयोग किए गए दोनों बल परिमाण में बराबर होते है,पर दिशा में विपरीत। इन नियम के सम्बन्ध में दो महत्त्वपूर्ण बातें ध्यान देने योग्य हैं—हम यह नहीं जान सकते हैं कि अमुक बल क्रिया है तथा अमुक बल प्रतिक्रिया है। हम केवल यही जान सकते हैं कि एक बल क्रिया है तथा दूसरी प्रतिक्रिया। क्रिया तथा प्रतिक्रिया सदैव अलग–अलग पिण्डों पर लगती है, एक ही पर नहीं।]
इसीलिये हमलोग जो भी कार्य क्यों न करें, ठीक वही हमलोगों की तरफ वापस लौट कर आ जाता है। प्रेम करते हैं, तो बदले में प्रेम मिलता है। घृणा करते हैं, तो बदले में घृणा ही वापस मिलती है। मेरे प्रति किसी ने गलत किया है, इसीलिये मैं उसका बदला लूँगा। लेकिन बदले में जो कार्य होगा उसके भी बराबर और बिपरीत प्रतिक्रिया मेरे प्रति अवश्य होगी। यही है-' कुदरत का कानून ' या प्राकृतिक नियम ! इस को प्रकृति का प्रतिशोध भी कहते हैं। किसी ने मेरे प्रति कोई अन्यायपूर्ण (अनैतिक या wrongful) कार्य किया है, तो उसके प्रतिशोध का क्या होगा ? उसका दायित्व (प्रकृति के कानून को अपने हाथ में लेने की) मुझे लेने की आवश्यकता ही नहीं है, प्रकृति स्वयं उसका ठीक बदला लेगी। क्योंकि यदि मैंने बदला ले लिया, तो बदले का बदला मुझे भी पाना ही होगा। आधुनिक मनोविज्ञान भी इसे स्वीकार करता है। उनकी भाषा में इसको
'The Law of Retaliation ' या '' प्रतिशोध का नियम' कहते हैं। माता सुनीति द्वारा बालक ध्रुव को दिया गया यह परामर्श आधुनिक मनोविज्ञान का सिद्धान्त  'लॉ ऑफ़ रेटलीएशन ' की स्पष्ट व्याख्या है: 
श्रीमद्भागवत में बालक-ध्रुव की कहानी है। हमलोग इस कहानी को जानते हैं। सौतेली माता सूरुचि के गलत परामर्श से रानी सुनीति का पुत्र ध्रुव कुमार पिता की गोदी में नहीं बैठ सका। इससे ध्रुव के आत्मसम्मान को गहरी ठेस पहुँचती है, उसे बहुत दुःख हुआ, और क्रोध-अभिमान से उसको आँखें लाल हो जाती हैं. और  माँ के पास जाकर शिकायत किये-- तो माँ सुनीति ध्रुव को समझाते हुए कहती है -    
  मामङ्गलं तात परेषु मंस्था 
           भुङ्क्ते जनो यत्परदुःखदस्तत् ॥ ०४.०८.०१७ 
बेटे, किसी भी परिस्थिति में दूसरे के अमंगल का विचार भी मन में नहीं लाना चाहिए, दूसरे को अपना अपराधी नहीं समझना चाहिए। मनुष्य दूसरे को जैसा दुःख देता है, उसे बदले में ठीक वैसा ही दुःख प्राप्त होता है।अमेरकी संस्कृत विद्वान एडवर्ड वॉशबर्न हॉपकिंस [E.W. Hopkins-(१८५७-१९३२)] की एक प्रसिद्द पुस्तक है 'Origin and Evolution of Religions' इस पुस्तक में एंथ्रोपोलॉजी (Anthropology या मानवशास्त्र) की दृष्टि में - ट्राइबल लोगों के धर्म से लेकर श्रेष्ठ धर्म तक, प्रत्येक धर्म की उत्पत्ति और विकास का पूर्ण विवरण दिया गया है। इस पुस्तक में श्रीरामकृष्ण के जीवन और सन्देश का उल्लेख भी प्रसंगवश किया गया है। समस्त धर्मों के सार को खोजते खोजते निबन्ध के अन्त में लेखक कहते हैं -जिस नैतिक नियम को आजकल 'एथिक आफ रेसिप्रोसिटी' (पारस्परिकता का  नियम ) या 'गोल्डेन रूल' या  कहते हैं उसी बात कोभारत के महाभारतकार श्री वेद व्यास जी ने ‘धर्म सर्वस्व’ या धर्म का सार बताया है! और समस्त धर्मों के आविष्कृत सार को बहुत संक्षेप में इस प्रकार लिखा  है-  " जैसा व्यवहार प्राप्त होने से तुमको स्वयं दुःख होता है, वैसा व्यवहार किसी दूसरे के साथ मत करना। " महाभारत का मूल श्लोक इस प्रकार है- 
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।। 
अर्थात् “धर्म का सार जो है उसको सुनो और सुनकर उसके ऊपर चलो। वह सार यह है- जो 'व्यवहार तुमको अपने लिये प्रतिकूल जान पड़े वैसा दूसरे के लिये न करो।'
विवेक-प्रयोग द्वारा प्रतिशोध के दुर्गुण का त्याग करने से क्षमा रूपी सद्गुण का अर्जन साधक को क्रमशः सत्य और प्रेम के निकट लाने लगता है। ' बदला लेना ' एक पाशविक प्रवृत्ति तो है ही; किन्तु 'प्रकृति प्रतिशोध लेती है' के नियम की ओर टकटकी लगाकर देखते रहना भी महानता का लक्षण नहीं है। सभी परिस्थिति में सभी का कल्याण सोचना ही उचित है। और दूसरों के कल्याण में अपना तन-मन-प्राण न्योछावर कर देना ही मनुष्य-जीवन की चरम सार्थकता है। 
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